लम्हे पराकाष्ठा के : रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी?

लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना. इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रूरण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में. उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी…’

पहला पहला प्यार: मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का आभास- भाग 3

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

पहला पहला प्यार: मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का आभास- भाग 2

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

पहला पहला प्यार: मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का आभास-भाग 1

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

सलाहकार: कैसे अपनों ने उठाया शुचिता का फायदा

छात्रछात्राओं का प्रिय शगल हर एक अध्यापक- अध्यापिका को कोई नाम देना होता है और चाहे अध्यापक हों या प्राध्यापक, सब जानबूझ कर इस तथ्य से अनजान बने रहते हैं, शायद इसलिए कि अपने जमाने में उन्होंने भी अपने गुरुजनों को अनेक हास्यास्पद नामों से अलंकृत किया होगा. ऋतिका इस का अपवाद थीं. वह अंगरेजी साहित्य की प्रवक्ता ही नहीं होस्टल की वार्डन भी थीं, लेकिन न तो लड़कियों ने खुद उन्हें कोई नाम दिया और न ही किसी को उन के खिलाफ बोलने देती थीं.

मिलनसार, आधुनिक और संवेदनशील ऋतिका का लड़कियों से कहना था : ‘‘देखो भई, होस्टल के कायदे- कानून मैं ने नहीं बनाए हैं, लेकिन मुझे इस होस्टल में रह कर पीएच.डी. करने की सुविधा इसलिए मिली है कि मैं किसी को उन नियमों का उल्लंघन न करने दूं. मैं नहीं समझती कि आप में से कोई भी लड़की होस्टल के कायदेकानून तोड़ कर मुझे इस सुविधा से वंचित करेगी.’’

इस आत्मीयता भरी चेतावनी के बाद भला कौन लड़की मैडम को परेशान करती? वैसे लड़कियों की किसी भी उचित मांग का ऋतिका विरोध नहीं करती थीं. खाना बेस्वाद होने पर वह स्वयं कह देती थीं, ‘‘काश, मुझ में होस्टल की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों को दावत पर बुला कर यह खाना खिलाने की हिम्मत होती.’’

लड़कियां शिकायत करने के बजाय हंसने लगतीं. ऋतिका मैडम का व्यवहार सभी लड़कियों के साथ सहृदय था. किसी के बीमार होने पर वह रात भर जाग कर उस की देखभाल करती थीं. पढ़ाई में कोई दिक्कत होने पर अपना विषय न होते हुए भी वह यथासंभव सहायता कर देती थीं, लेकिन अगर कभी कोई लड़की व्यक्तिगत समस्या ले कर उन के पास जाती थी तो बजाय समस्या सुनने या कोई हल सुझाने के वह बड़ी बेरुखी से मना कर देती थीं.

लड़कियों को उन की बेरुखी उन के स्वभाव के अनुरूप तो नहीं लगती थी फिर भी किसी ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया. मनोविज्ञान की छात्रा श्रेया ने कुछ दिनों में ही यह अटकल लगा ली कि ऊपर से सामान्य लगने वाली ऋतिका मैम, भीतर से बुरी तरह घायल थीं और जिंदगी को सजा समझ कर जी रही थीं.

मगर उन से पूछने का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि अगर उस का प्रश्न सुन कर ऋतिका मैडम जरा सी भी उदास हो गईं तो सब लड़कियां उन का होस्टल में रहना मुश्किल कर देंगी. एम.ए. की छात्रा होने के कारण श्रेया अन्य लड़कियों से उम्र में बड़ी और ऋतिका मैडम से कुछ ही छोटी थी, सो प्राय: हमउम्र होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गई और दोनों एक ही कमरे में रहने लगीं.

एक दिन एक पत्रिका द्वारा आयोजित निबंध लेखन प्रतियोगिता में भाग ले रही छात्रा रश्मि उन के कमरे में आई. ‘‘मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं हिंदी में निबंध लिखूं या अंगरेजी में?’’

‘‘लिखना तो उसी भाषा में चाहिए जिस में तुम सुंदरता से अपने भाव व्यक्त कर सको,’’ श्रेया बोली.

‘‘दोनों में ही कर सकती हूं.’’

‘‘इस की दोनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ है,’’ ऋतिका मैडम के स्वर में सराहना थी जिसे सुन कर रश्मि का उत्साहित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘इस प्रतियोगिता में मैं प्रथम पुरस्कार जीतना चाहती हूं, सो आप सलाह दें मैडम, कौन सी भाषा में लिखना अधिक प्रभावशाली रहेगा?’’ रश्मि ने ऋतिका से मनुहार की.

‘‘तुम्हारी शिक्षिका होने के नाते बस, इतना ही कह सकती हूं कि तुम अच्छी अंगरेजी लिखती हो और सलाह तो मैं किसी को देती नहीं,’’ ऋतिका मैडम ने इतनी रुखाई से कहा कि रश्मि सहम कर चली गई.

‘‘जब आप को पता है कि उस की अंगरेजी औसत से बेहतर है, तो उसे उसी भाषा में लिखने को कहना था क्योंकि अंगरेजी में जीत की संभावना अधिक है,’’

श्रेया बोली. ‘‘इतनी समझ रश्मि को भी है.’’

‘‘फिर भी बेचारी आश्वस्त होने आप के पास आई थी और आप ने दुत्कार दिया,’’ श्रेया के स्वर में भर्त्सना थी, ‘‘मैडम, आप से सलाह मांगना तो सांड को लाल कपड़ा दिखाना है.’’

ऋतिका ने अपनी हंसी रोकने का असफल प्रयास किया, जिस से प्रभावित हो कर श्रेया पूछे बगैर न रह सकी : ‘‘आखिर आप सलाह देने से इतना चिढ़ती क्यों हैं?’’

‘‘चिढ़ती नहीं श्रेया, डरती हूं,’’ ऋतिका मैडम आह भर कर बोलीं, ‘‘मेरी सलाह से एकसाथ कई जीवन बरबाद हो चुके हैं.’’ ‘‘किसी आतंकवादी गिरोह की आप सदस्या रह चुकी हैं?’’ श्रेया ने उन की ओर कृत्रिम अविश्वास से देखा. ऋतिका ने गहरी सांस ली,

‘‘असामाजिक तत्त्व ही नहीं शुभचिंतक भी जिंदगियां तबाह कर सकते हैं, श्रेया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘बड़ी लंबी कहानी है.’’

‘‘मैडम, आज पढ़ाई यहीं बंद करते हैं. कल रविवार को कहीं घूमने न जा कर पढ़ाई कर लेंगे,’’ कह कर श्रेया उठी और उस ने कमरे का दरवाजा बंद किया, बत्ती बुझा कर बोली, ‘‘अब आप शुरू हो जाओ. कहानी सुनाने से आप का दिल हलका हो जाएगा और मेरी जिज्ञासा शांत.’’

‘‘मेरा दिल तो कभी हलका नहीं होगा मगर चलो, तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देती हूं.

‘‘शुचिता मेरी स्कूल की सहपाठी थी. जब वह 7वीं में पढ़ती थी तो उस के डाक्टर मातापिता उसे दादी के पास छोड़ कर मस्कट चले गए थे. जब भी वह उन्हें याद करती, दादी प्रार्थना करने को कहतीं या उसे दिलासा देने को राह चलते ज्योतिषियों से कहलवा देती थीं कि उस के मातापिता जल्दी आएंगे.

‘‘मस्कट कोई खास दूर तो था नहीं, सो दादी से शुचि की उदासी के बारे में सुन कर अकसर उस के मातापिता में से कोई न कोई बेटी से मिलने आता रहता था. इस तरह शुचि भाग्य और भविष्यवक्ताओं पर विश्वास करने लगी. विदेश से लौटने पर उस के आधुनिक मातापिता ने शुचि को बहुत समझाया मगर उस की अंधविश्वास के प्रति आस्था नहीं डिगी.

‘‘रजत शुचि का पड़ोसी और मेरे पापा के दोस्त का बेटा था, सो एकदूसरे के घर आतेजाते मालूम नहीं कब हमें प्यार हो गया, लेकिन यह हम दोनों को अच्छी तरह मालूम था कि सही समय पर हमारे मातापिता सहर्ष हमारी शादी कर देंगे, मगर अभी से इश्क में पड़ना गवारा नहीं करेंगे.

लेकिन मिले बगैर भी नहीं रहा जाता था, सो मैं पढ़ने के बहाने शुचि के घर जाने लगी. शुचि के मातापिता नर्सिंग होम में व्यस्त रहते थे इसलिए रजत बेखटके वहां आ जाता था. जिंदगी मजे में गुजर रही थी. मैं शुचि से कहा करती थी कि प्यार जिंदगी की अनमोल शै है और उसे भी प्यार करना चाहिए. तब उस का जवाब होता था, ‘करूंगी मगर शादी के बाद.’

‘‘‘उस में वह मजा नहीं आएगा जो छिपछिप कर प्यार करने में आता है.’

‘‘‘न आए, मगर जब मैं अपने मम्मीपापा को यह वचन दे चुकी हूं कि मैं शादी उन की पसंद के डाक्टर लड़के से करूंगी, जो उन का नर्सिंग होम संभाल सके तो फिर मैं किसी और से प्यार कैसे कर सकती हूं?’

‘‘असल में शुचि के मातापिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे लेकिन शुचि की रुचि संगीत साधना में थी, सो दामाद डाक्टर पर समझौता हुआ था. हम सब बी.ए. फाइनल में थे कि रजत का चचेरा भाई जतिन एम.बी.ए. करने वहां आया और रजत के घर पर ही रहने लगा.

‘‘एक रोज शुचिता पर नजर पड़ते ही जतिन उस पर मोहित हो गया और रजत के पीछे पड़ गया कि वह उस की दोस्ती शुचिता से करवाए. रजत के असलियत बताने का उस पर कोई असर नहीं हुआ. मालूम नहीं जतिन को कैसे पता चल गया कि रजत मुझ से मिलने शुचिता के घर आता है. उस ने रजत को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया कि या तो वह उस की दोस्ती शुचिता के साथ करवाए नहीं तो वह हमारे मातापिता को सब बता देगा.

‘‘इस से बचने की मुझे एक तरकीब समझ में आई कि शुचिता के अंधविश्वास का फायदा उठा कर उस का चक्कर जतिन के साथ चला दिया जाए. रजत के रंगकर्मी दोस्त सुधाकर को मैं ने अपने और शुचिता के बारे में सबकुछ अच्छी तरह समझा दिया. एक रोज जब मैं और शुचिता कालिज से घर लौट रहे थे तो साधु के वेष में सुधाकर हम से टकरा गया और मेरी ओर देख कर बोला कि मैं चोरी से अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं. उस के बाद उस ने मेरे और रजत के बारे में वह सब कहना शुरू कर दिया जो हम दोनों के अलावा शुचिता को ही मालूम था, सो शुचिता का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था.

‘‘शुचिता ने साधु बाबा से अपने घर चलने को कहा. वहां जा कर सुधाकर ने भविष्यवाणी कर दी कि शीघ्र ही शुचिता के जीवन में भी उस के सपनों का राजकुमार प्रवेश करेगा. सुधाकर ने शुचिता को आश्वस्त कर दिया कि वह कितना भी चाहे प्रेमपाश से बच नहीं सकेगी क्योंकि यह तो उस के माथे पर लिखा है. उस ने यह भी बताया कि वह कहां और कैसे अपने प्रेमी से मिलेगी.

‘‘शुचिता के यह पूछने पर कि उस की शादी उस व्यक्ति से होगी या नहीं, सुधाकर सिटपिटा गया, क्योंकि इस बारे में तो हम ने उसे कुछ बताया ही नहीं था, सो टालने के लिए बोला कि फिलहाल उस की क्षमता केवल शुचिता के जीवन में प्यार की बहार देखने तक ही सीमित है. वैसे जब प्यार होगा तो विवाह भी होगा ही. सच्चे प्यार के आगे मांबाप को झुकना ही पड़ता है.

‘‘उस के बाद जैसे सुधाकर ने बताया था उसी तरह जतिन धीरेधीरे उस के जीवन में आ गया. शुचिता का खयाल था कि जब साधु बाबा की कही सभी बातें सही निकली हैं तो मांबाप के मानने वाली बात भी ठीक ही निकलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जतिन ने यहां तक कहा कि उसे उन का एक भी पैसा नहीं चाहिए…वे लोग चाहें तो किसी गरीब बच्चे को गोद ले कर उसे डाक्टर बना कर अपना नर्सिंग होम उसे दे दें. शुचिता ने भी जतिन की बात का अनुमोदन किया. शुचिता के मातापिता को मेरी और अपनी बेटी की गहरी दोस्ती के बारे में मालूम था, सो एक रोज वह दोनों हमारे घर आए.

‘‘‘देखो ऋतिका, शुचि हमारी इकलौती बेटी है. हम ने रातदिन मेहनत कर के जो इतना बढ़िया नर्सिंग होम बनाया है या दौलत कमाई है इसीलिए कि हमारी बेटी हमेशा राजकुमारियों की तरह रहे. जतिन अच्छा लड़का है लेकिन उस की एक बंधीबधाई तनख्वाह रहेगी. वह एक डाक्टर जितना पैसा कभी नहीं कमा पाएगा और फिर हमारे इतनी लगन से बनाए नर्सिंग होम का क्या होगा? अपनी बेटी के रहते हम किसी दूसरे को कैसे गोद ले कर उसे सब सौंप दें? हम ने शुचि के लिए डाक्टर लड़का देखा हुआ है जो हर तरह से उस के उपयुक्त है और उस के साथ वह बहुत खुश रहेगी. तुम भी उसे जानती हो.’

‘‘‘कौन है, अंकल?’

‘‘‘तुम्हारा भाई कुणाल. उस के अमेरिका से एम.एस. कर के लौटते ही दोनों की शादी कर देंगे.’ ‘‘ ‘मैं ठगी सी रह गई. शुचिता मेरी भाभी बन कर हमेशा मेरे पास रहे इस से अच्छा और क्या होगा? जतिन तो आस्ट्रेलिया जाने को कटिबद्ध था.

‘‘‘आप ने यह बात छिपाई क्यों?’ मैं ने पूछा, ‘क्या पता भैया ने वहीं कोई और पसंद कर ली हो.’

‘‘‘उसे वहां इतनी फुरसत ही कहां है? और फिर मैं ने कुणाल और तुम्हारे मम्मीपापा को साफ बता दिया था कि मैं कुणाल को अमेरिका जाने में जो इतनी मदद कर रहा हूं उस की वजह क्या है. उन सब ने तभी रिश्ता मंजूर कर लिया था. तुम्हें बता कर क्या ढिंढोरा पीटना था?’

‘‘अब मैं उन्हें कैसे बताती कि मुझे न बताने से क्या अनर्थ हुआ है. तभी मेरे दिमाग में बिजली सी कौंधी. शुचिता के जिस अंधविश्वास का सहारा ले कर मैं ने उस का और जतिन का चक्कर चलवाया था, एक बार फिर उसी अंधविश्वास का सहारा ले कर उस चक्कर को खत्म भी कर सकती थी लेकिन अब यह इतना आसान नहीं था.

रजत कभी भी मेरी मदद करने को तैयार नहीं होता और अकेली मैं कहां साधु बाबा को खोजती फिरती? मैं ने शुचिता की मम्मी को सलाह दी कि वह शुचि के अंधविश्वास का फायदा क्यों नहीं उठातीं? उन्हें सलाह पसंद आई. कुछ रोज के बाद उन्होंने शुचिता से कहा कि वह उस की और जतिन की शादी करने को तैयार हैं मगर पहले दोनों की जन्मपत्री मिलवानी होगी. अगर कुछ गड़बड़ हुई तो ग्रह शांति की पूजा करा देंगे.

‘‘अंधविश्वासी शुचिता तुरंत मान गई. उस ने जबरदस्ती जतिन से उस की जन्मपत्री मंगवाई. मातापिता ने एक जानेमाने पंडित को शुचिता के सामने ही दोनों कुंडलियां दिखाईं. पंडितजी देखते ही ‘त्राहिमाम् त्राहिमाम्’ करने लगे. ‘‘‘इस कन्या से विवाह करने के कुछ ही समय बाद वर की मृत्यु हो जाएगी. कन्या के ग्रह वर पर भारी पड़ रहे हैं.’

‘‘‘उन्हें हलके यानी शांत करने का कोई उपाय जरूर होगा पंडितजी. वह बताइए न,’ शुचिता की मम्मी ने कहा. ‘‘ ‘ऐसे दुर्लभ उपाय जबानी तो याद होते नहीं, कई पोथियां देखनी होंगी.’

‘‘‘तो देखिए न, पंडितजी, और खर्च की कोई फिक्र मत कीजिए. अपनी बिटिया की खुशी के लिए आप जो पूजा या दान कहेंगे हम करेंगे.’

‘‘‘मगर पूजा से अमंगल टल जाएगा न पंडितजी?’ शुचिता ने पूछा.

‘‘‘शास्त्रों में तो यही लिखा है. नियति में लिखा बदलने का दावा मैं नहीं करता,’ पंडितजी टालने के स्वर में बोले.

‘‘‘ऐसा है बेटी. जैसे डाक्टर अपने इलाज की शतप्रतिशत गारंटी नहीं लेते वैसे ही यह पंडित लोग अपनी पूजा की गारंटी लेने से हिचकते हैं,’ शुचिता के पापा हंसे.

‘‘उस के बाद शुचिता ने कुछ और नहीं पूछा. अगली सुबह उस के कमरे से उस की लाश मिली. शुचिता ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि पंडितजी की बात से साफ जाहिर है कि उस की जिंदगी में जतिन का साथ नहीं लिखा है, वह जतिन से बेहद प्यार करती है.

उस के बगैर जीने की कल्पना नहीं कर सकती और न ही उस का अहित चाहती है, सो आत्महत्या के सिवा उस के पास कोई और विकल्प नहीं है. ‘‘शुचिता की आत्महत्या के लिए उस के मातापिता स्वयं को अपराधी मानते हैं, मगर असली दोषी तो मैं हूं जिस की सलाह पर पहले एक नकली ज्योतिषी ने शुचिता का जतिन से प्रेम करवाया और मेरी सलाह से ही उस प्रेम संबंध को तोड़ने के लिए फिर एक झूठे ज्योतिषी का सहारा लिया गया.

‘‘शुचिता के मातापिता और उस से अथाह प्यार करने वाला जतिन तो जिंदा लाश बन ही चुके हैं. मगर मेरे कुणाल भैया, जो बचपन से शुचिता से मूक प्यार करते थे और जिस के कारण ही वह बजाय इंजीनियर बनने के डाक्टर बने थे, बुरी तरह टूट गए हैं और भारत लौटने से कतरा रहे हैं इसलिए मेरे मातापिता भी बहुत मायूस हैं. यही नहीं मेरे इस तरह क्षुब्ध रहने से रजत भी बेहद दुखी हैं. तुम ही बताओ श्रेया, इतना अनर्थ कर के, इतने लोगों को संत्रास दे कर मैं कैसे खुश रह सकती हूं या सलाहकार बनने की जुर्रत कर सकती हूं?’’

 

विदेश: मीता के मन में कौन सा मैल था

बेटी के बड़ी होते ही मातापिता की चिंता उस की पढ़ाई के साथसाथ उस की शादी के लिए भी होने लगती है. मन ही मन तलाश शुरू हो जाती है उपयुक्त वर की. दूसरी ओर बेटी की सोच भी पंख फैलाने लगती है और लड़की स्वयं तय करना शुरू कर देती है कि उस के जीवनसाथी में क्याक्या गुण होने चाहिए.

प्रवेश के परिवार की बड़ी बेटी मीता इस वर्ष एमए फाइनल और छोटी बेटी सारिका कालेज के द्वितीय वर्ष में पढ़ रही थी. मातापिता ने पूरे विश्वास के साथ मीता को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट दे दी थी. वे जानते थे कि सुशील लड़की है और धैर्य से जो भी करेगी, ठीक ही होगा.

रिश्तेदारों की निगाहें भी मीता पर थीं क्योंकि आज के समय में पढ़ीलिखी होने के साथ और भी कई गुण देखे थे उन्होंने उस में. मां के काम में हाथ बंटाना, पिता के साथ जा कर घर का आवश्यक सामान लाना, घर आए मेहमान की खातिरदारी आदि वह सहर्ष करती थी.

उसी शहर में ब्याही छोटी बूआ का तो अकसर घर पर आनाजाना रहता था और हर बार वह भाई को बताना नहीं भूलती कि मीता के लिए वर खोजने में वह भी साथ है. मीता की फाइनल परीक्षा खत्म हुई तो जैसे सब को चैन मिला. मीता स्वयं भी बहुत थक गई थी पढ़ाई की भागदौड़ से.

अरे, दिन न त्योहार आज सुबहसुबह भाई के काम पर जाने से पहले ही बहन आ गई. कमरे में भाई से भाभी धीमी आवाज में कुछ चर्चा कर रही थी. सारिका जल्दी से चाय बना जब कमरे में देने गई तो बातचीत पर थोड़ी देर के लिए विराम लग गया.

पापा समय से औफिस के लिए निकल गए तो चर्चा दोबारा शुरू हुई. वास्तव में बूआ अपने पड़ोस के जानपहचान के एक परिवार के लड़के के लिए मीता के रिश्ते की सोचसलाह करने आई थी. लड़का लंदन में पढ़ने के लिए गया था और वहां अच्छी नौकरी पर था. वह अपने मातापिता से मिलने एक महीने के लिए भारत आया तो उन्होंने उसे शादी करने पर जोर दिया. बूआ को जैसे ही इस बात की खबर लगी, वहां जा लड़के के बारे में सब जानकारी ले तुरंत भाई से मिलने आ पहुंची थी.

अब वह हर बात को बढ़ाचढ़ा कर मीता को बताने बैठी. बूआ यह भी जानती थी कि मीता विदेश में बसने के पक्ष में नहीं है. शाम को भाईभाभी से यह कह कि पहले मीता एक नजर लड़के को देख ले, वह उसे साथ ले गई. समझदार बूआ ने होशियारी से सिर्फ अपनी सहेली और लड़के को अपने घर बुला चायपानी का इंतजाम कर डाला. बातचीत का विषय सिर्फ लंदन और वहां की चर्चा ही रहा.

बूआ की खुशी का ठिकाना न रहा जब अगले दिन सुबह ही सहेली स्वयं आ बूआ से मीता व परिवार की जानकारी लेने बैठीं. और आखिर में बताया कि उन के बेटे निशांत को मीता भा गई है. मीता यह सुन सन्न रह गई.

मीता ने विदेश में बसे लड़कों के बारे में कई चर्चाएं सुनी थीं कि वे वहां गर्लफ्रैंड या पत्नी के होते भारत आ दूसरा विवाह कर ले जाते हैं आदि. बूआ के घर बातचीत के दौरान उसे निशांत सभ्य व शांत लड़का लगा था. उस ने कोई शान मारने जैसी फालतू बात नहीं की थी.

मीता के मातापिता को जैसे मनमांगी मुराद मिल गई. आननफानन दोनों तरफ से रस्मोरिवाज सहित साधारण मगर शानदार विवाह संपन्न हुआ. सब खुश थे. मातापिता को कुछ दहेज देने की आवश्यकता नहीं हुई सिवा बेटीदामाद व गिनेचुने रिश्तेदारों के लिए कुछ तोहफे देने के.

नवदंपती के पास केवल 15 दिन का समय था जिस में विदेश जाने के लिए मीता के लिए औपचारिक पासपोर्ट, वीजा, टिकट आदि का प्रबंध करना था. इसी बीच, 4 दिन के लिए मीता और निशांत शिमला घूम आए.

अब उन की विदाई का समय हुआ तो दोनों परिवार उदास थे. सारिका तो जैसे बहन बगैर अकेली ही पड़ गई थी. सब के गले लगते मीता के आंसू तो जैसे खुशी व भय के गोतों में डूब रहे थे. सबकुछ इतनी जल्दी व अचानक हुआ कि उसे कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला. मां से तो कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था, पता नहीं फिर कब दोबारा बेटी को देखना हो पाएगा. पिता बेटी के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखे दामाद से केवल यह कह पाए कि इस का ध्यान रखना.

लंदन तक की लंबी हवाईयात्रा के दौरान मीता कुछ समय सो ली थी पर जागते ही फिर उसे उदासी ने आ घेरा. निशांत धीरेधीरे अपने काम की व अन्य जानकारी पर बात करता रहा. लंदन पहुंच कर टैक्सी से घर तक जाने में मीता कुछ संयत हो गई थी.

छोटा सा एक बैडरूम का 8वीं मंजिल पर फ्लैट सुंदर लगा. बाहर रात में जगमगाती बत्तियां पूरे वातावरण को और भी सुंदर बना रही थीं. निशांत ने चाय बनाई और पीते हुए बताया कि उसे कल से ही औफिस जाना होगा पर अगले हफ्ते वह छुट्टी लेने की कोशिश करेगा.

सुबह का नाश्ता दोनों साथ खाते थे और निशांत रात के खाने के लिए दफ्तर से आते हुए कुछ ले आता था.

मीता का अगले दिन का लंच उसी में हो जाता था. अगले हफ्ते की छुट्टी का इंतजाम हो गया और निशांत ने उसे लंदन घुमाना शुरू किया. अपना दफ्तर, शौपिंग मौल, बसटैक्सी से आनाजाना आदि की बातें समझाता रहा. काफी पैसे दे दिए और कहा कि वह बाहर आनाजाना शुरू करे. जो चाहे खरीदे और जैसे कपड़े यहां पहने जाते हैं वैसे कुछ कपड़े अपने लिए खरीद ले. मना करने पर भी एक सुंदर सी काले प्रिंट की घुटने तक की लंबी ड्रैस मीता को ले दी. एक फोन भी दिलवा दिया ताकि वह उस से और इंडिया में जिस से चाहे बात कर सके. रसोई के लिए जरूरत की चीजें खरीद लीं. मीता ने घर पर खाना बनाना शुरू किया. दिन बीतने लगे. निशांत ने समझाया कि यहां रहने के औपचारिक पेपर बनने तक इंतजार करे. उस के बाद यदि वह चाहे तो नौकरी की तलाश शुरू कर सकती है.

एक दिन मीता ने सुबह ही मन में सोचा कि आज अकेली बाहर जाएगी और निशांत को शाम को बता कर सरप्राइज देगी. दोपहर को तैयार हो, टैक्सी कर, वह मौल में पहुंची. दुकानों में इधरउधर घूमती चीजें देखती रही. एक लंबी ड्रैस पसंद आ गई. महंगी थी पर खरीद ली. चलतेचलते एक रेस्टोरैंट के सामने से गुजरते उसे भूख का एहसास हुआ पर वह तो अपने लिए पर्स में सैंडविच ले कर आई थी. अभी वह यहां नई है और अब बिना निशांत के अकेले खाने का तुक नहीं बनता, उस ने बस, उस ओर झांका ही था, वह निशांत…एक लड़की के साथ रेस्टोरैंट में, शायद नहीं, पर लड़की को और निशांत का दूर से हंसता चेहरा देख वह सन्न रह गई. दिमाग में एकदम बिजली सी कौंधी, तो सही थी मेरी सोच. गर्लफ्रैंड के साथ मौजमस्ती और घर में बीवी. हताश, वह टैक्सी ले घर लौटी. शाम को निशांत घर आया तो न तो उस ने खरीदी हुई ड्रैस दिखाई और न ही रेस्टोरैंट की चर्चा छेड़ी.

तीसरे दिन औफिस से लौटते वह उस लड़की को घर ले आया और मीता से परिचय कराया, ‘‘ये रमा है. मेरे दूर के रिश्ते में चाचा की बेटी. ये तो अकेली आना नहीं चाह रही थी क्योंकि इस के पति अभी भारत गए हैं और अगले हफ्ते लौट आएंगे. रेस्टोरैंट में जब मैं खाना पैक करवाने गया था तो इसी ने मुझे पहचाना वहां. मैं ने तो इसे जब लखनऊ में देखा था तब ये हाईस्कूल में थी. मीता का दिल धड़का, ‘तो अब घर तक.’ बेमन से मीता ने उसे चायनाश्ता कराया.

दिन में एक बार मीता स्वयं या निशांत दफ्तर से फोन कर लेता था पर आज न मीता ने फोन किया और न निशांत को फुरसत हुई काम से. कितनी अकेली हो गई है वह यहां आ कर, चारदीवारी में कैद. दिल भर आया उस का. तभी उसे कुछ ध्यान आया. स्वयं को संयत कर उस ने मां को फोन लगाया. ‘‘मीता कैसी हो? निशांत कैसा है? कैसा लगा तुम्हें लंदन में जा कर?’’ उस के कुछ बोलने से पहले मां ने पूछना शुरू कर दिया.

‘‘सब ठीक है, मां.’’ कह फौरन पूछा, ‘‘मां, बड़ी बूआ का बेटा सोम यहां लंदन में रहता है. क्या आप के पास उस का फोन या पता है.’’

‘‘नहीं. पर सोम पिछले हफ्ते से कानपुर में है. तेरे बड़े फूफाजी काफी बीमार थे, उन्हें ही देखने आया है. मैं और तेरे पापा भी उन्हें देखने परसों जा रहे हैं. सोम को निशांत का फोन नंबर दे देंगे. वापस लंदन पहुंचने पर वही तुम्हें फोन कर लेगा.’’

‘‘नहीं मां, आप मेरा फोन नंबर देना, जरा लिख लीजिए.’’

मीता, सोम से 2 वर्ष पहले उस की बहन की शादी में कानपुर में मिली थी और उस के लगभग 1 वर्ष बाद बूआ ने मां को फोन पर बताया था कि सोम ने लंदन में ही एक भारतीय लड़की से शादी कर ली है और अभी वह उसे भारत नहीं ला सकता क्योंकि उस के लिए अभी कुछ पेपर आदि बनने बाकी हैं. इस बात को बीते अभी हफ्ताभर ही हुआ था कि शाम को दफ्तर से लौटने पर निशांत ने मीता को बताया कि रमा का पति भारत से लौट आया है और उस ने उन्हें इस इतवार को खाने पर बुलाया है.

मीता ने केवल सिर हिला दिया और क्या कहती. खाना बनाना तो मीता को खूब आता था. निशांत उस के हाथ के बने खाने की हमेशा तारीफ भी करता था. इतवार के लंच की तैयारी दोनों ने मिल कर कर ली पर मीता के मन की फांस निकाले नहीं निकल रही थी. मीता सोच रही थी कि क्या सचाई है, क्या संबंध है रमा और निशांत के बीच, क्या रमा के पति को इस का पता है, क्योंकि निशांत ने मुझ से शादी…?

ध्यान टूटा जब दरवाजे की घंटी 2 बार बज चुकी. आगे बढ़ कर निशांत ने दरवाजा खोला और गर्मजोशी से स्वागत कर रमा के पति से हाथ मिलाया. वह दूर खड़ी सब देख रही थी. तभी उस के पैरों ने उसे आगे धकेला क्योंकि उस ने जो चेहरा देखा वह दंग रह गई. क्या 2 लोग एक शक्ल के हो सकते हैं? उस ने जो आवाज सुनी, ‘आई एम सोम’, वो दो कदम और आगे बढ़ी और चेहरा पहचाना, और फिर भाग कर उस ने उस का हाथ थामा, ‘‘सोम भैया, आप यहां.’’

‘‘क्या मीता, तुम यहां लंदन में, तुम्हारी शादी’’ और इस से आगे सोम बिना बोले निशांत को देख रहा था. उसे समझते देर न लगी, कुछ महीने पहले मां ने उसे फोन पर बताया था कि मीता की शादी पर गए थे जो बहुत जल्दी में तय की गई थी. मीता अब सोम के गले मिल रही थी और रमा अपने कजिन निशांत के, भाईबहन का सुखद मिलाप.

सब मैल धुल गया मीता के मन का, मुसकरा कर निशांत को देखा और लग गई मेहमानों की खातिर में. उसे लगा अब लंदन उस का सुखद घर है जहां उस का भाई और भाभी रहते हैं और उस के पति की बहन भी यानी उस की ननद व ननदोई. ससुराल और मायका दोनों लंदन में. मांपापा सुनेंगे तो हैरान होंगे और खुश भी और बड़ी बूआ तो बहुत खुश होंगी यह जानकर कि सोम की पत्नी से जिस से अभी तक वे मिली नहीं हैं उस से अकस्मात मेरा मिलना हो गया यहां लंदन में. मीता की खुशी का आज कोई ओरछोर नहीं था. सब कितना सुखद प्रतीत हो रहा था.

Holi 2024-बुलडोजर : कैसे पूरे हुए मनोहर के सपने

मनोहर की आंखों में बड़ेबड़े सपने थे, मगर उस की पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी. आटोमोबाइल में आईटीआई पास करने के बाद वह जेसीबी मशीन औपरेटर बन गया था.  दरअसल, मनोहर ने अपने टीचर के एक भाई राम सिंह से जेसीबी मशीन चलाना सीखा था.

वक्त का मारा मनोहर अपने 3 छोटे भाईबहनों और मां की परवरिश की खातिर राम सिंह का सहायक लग गया था. आईटीआई का प्रमाणपत्र उस के पास था. मगर नौकरी कब मिलती, पता नहीं. उन के ठेकेदार ने उस की अच्छी कदकाठी देखी, जेसीबी मशीन चलानेसमझने का हुनर देखा और उसे काम मिलने लगा, जिस से उस के घर की माली हालत सुधरने लगी थी.

भाईबहनों की परवरिश और पढ़ाई से अब मनोहर निश्चिंत था. मां का पार्टटाइम काम छुड़ा कर उस ने चैन की सांस ली थी.

एक दिन अचानक मनोहर को एक दूरदराज के गांव में जाने का मौका मिला. ठेकेदार का आदमी उसे गाड़ी में बिठा कर पहले ही साइट दिखा गया था. सो वह निश्चिंत था. अपनी धीमी मगर मस्त चाल से चलते जेसीबी मशीन को वहां पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई.

खेतों के बीच एक जगह पर ईंट का भट्ठा बनाने की तैयारी चल रही थी. मनोहर को वहां मिट्टी की खुदाई करनी थी. उस के पीछे ही एक इंजीनियर के साथ ठेकेदार आया और उसे गड्ढे का नापजोख समझाने लगा.

मनोहर भी खेत में उतर कर कहे मुताबिक मिट्टी काटने लगा. थोड़ी देर बाद ही वे सब वापस चले गए. अब वहां कोई नहीं था. उस ने सोचा कि क्यों न एकाध घंटे काम और कर लिया जाए, सो वह मिट्टी काटने में रम गया.

अचानक मनोहर का ध्यान उस जगह की तरफ गया, जहां की मिट्टी थोड़ी भुरभुरी थी. थोड़ा और खोदने पर उसे एक बोरा दिखाई दिया. उस बोरे में कुछ चीजें थीं. वह मशीन से उतरा और मिट्टी के ढेर से बोरा बाहर निकाला.

उस बोरे में एक साड़ी, चादर और कुछ जेवरात भी थे, जिन की चमक से उस की आंखें चुंधियां गईं. पुराने डिजाइन की एक भारीभरकम सोने की चेन, सोने की ही 4 चूडि़यां और कान के बुंदे थे. साड़ी में लहू के छींटे लगे थे, जो अब कत्थई हो चुके थे.

मनोहर को कुछ समझ नहीं आया कि इस बोरे से मिली चीजों का क्या करे. फिर भी उस ने उन्हें वहीं वापस गाड़ दिया कि ऐसे खतरे की चीजें अपने पास रखने पर वह भी फंस सकता है.

ठेकेदार ने वहीं एक झोंपड़ी बना कर मनोहर के रहने का इंतजाम किया था, सो उसे कहीं जाना तो था नहीं.

अब मनोहर क्या करे? यह एक बड़ा सवाल था. यहां से शहर और पुलिस चौकी भी काफी दूर थे.

अचानक मनोहर ने देखा कि एक लड़की अकेले जा रही थी. मनोहर ने उस लड़की से बात की, ताकि नजदीक के गांव के बारे में कुछ जान सके.

बातोंबातों में उसे पता चला कि वह बीए की छात्रा थी. हाल ही में उस के इम्तिहान खत्म हुए थे. अभी वह किसी काम से शहर से गांव लौट रही थी.

बहुत कुरदने पर उस लड़की ने बताया कि वह पुलिस स्टेशन गई थी, क्योंकि उस की विधवा मां एक हफ्ते से लापता थी. वह निकट के गांव में उस के साथ अकेली रहती थी.

रिश्तेदारों के साथ उन लोगों का जमीन का कुछ झगड़ा था. पहले तो उन लोगों ने गांव में उन की जमीन दबा कर अपना मकान बढ़ा लिया था और अब वे उन के खेत हथियाना चाहते थे.

उस लड़की को पूरा शक था कि उन लोगों ने ही उस की मां को गायब कर दिया है. पुलिस भी उन से मिली हो सकती है, ऐसा भी शक था.

उस लड़की का नाम सीमा था. अपनी पढ़ाई पूरी कर के वह गांव के ही एक स्कूल में टीचर की नौकरी करने लगी थी.

सीमा की डबडबाई आंखें उस की मजबूरी बयान कर रही थीं. मनोहर को बड़ा गुस्सा आया कि कैसेकैसे लोग हैं यहां, जो अपनों का ही शोषण करते हैं.

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं पहले तुम्हें तुम्हारी मां को ढूंढ़ने में मदद करूंगा…’’ मनोहर बोला, ‘‘मुझे कुछ चीजें मिली हैं. क्या तुम उन्हें पहचान सकती हो?’’

मनोहर उस जगह पर गया और बोरे से सावधानी से उन जेवरात समेत कपड़ों को बाहर निकाल लाया.

उन्हें देखते ही सीमा सुबकने लगी, ‘‘अरे, ये तो मेरी मां के कपड़े हैं. और ये जेवरात तो वे हमेशा पहने रहती थीं. पता नहीं, बदमाशों ने उन के साथ क्या सुलूक किया होगा.’’

‘‘अब जो हुआ सो हुआ. अपने मन को कड़ा करो और आगे की सोचो.’’

‘‘आगे का क्या सोचना है. मैं अकेली क्या कर सकती हूं. सारा गांव उन से डरता है, फिर पुलिस भी उन्हीं के साथ है…’’ सीमा बोली, ‘‘मगर, पहले मां का कुछ पता तो चले.’’

‘‘अब पता क्या करना है..’’ मनोहर गुस्से से बोला, ‘‘जरूर उन लोगों ने उन्हें मार दिया होगा. मन करता है कि अभी जा कर उन लोगों के घर पर बुलडोजर चला दूं.’’

‘‘आप यहां के लिए अजनबी हैं. आप को उन के पैसे और पहुंच का अंदाजा नहीं है. वे बड़े खतरनाक लोग हैं,’’ सीमा ने बताया.

‘‘कितने भी खतरनाक हों, मैं उन्हें देख लूंगा,’’ मनोहर गुस्से में भर कर बोला, ‘‘तुम मेरा मोबाइल नंबर लिख लो.’’

सीमा ने मनोहर का मोबाइल नंबर लिखा और फिर उसे अपना नंबर भी दे दिया. इस के बाद सीमा अपने रास्ते चली गई.

अब मनोहर दोपहर खेत में जेसीबी मशीन से मिट्टी काटने में लगा था. मगर इस बार मिट्टी काटने में वह काफी सावधानी बरत रहा था. उसे शक के हिसाब से एक जगह की भुरभुरी मिट्टी के बीच एक बड़ी गठरी दिखी.

एक काले कंबल में एक औरत की लाश लपेट कर वहां गाड़ दी गई थी. बड़ी सावधानी के साथ उस ने वह गठरी निकाली. फिर तुरंत सीमा को फोन किया. वह भागती हुई आई और अपनी मां की लाश को देख कर रो पड़ी.

खेत के किनारे पूरा गांव उमड़ पड़ा था. ऐसे समय में जाहिर है कि लोग तरहतरह की बातें बनाते थे, लेकिन सीमा एकदम शांत थी.

‘‘जाने दो बेटी…’’ सीमा का एक बुजुर्ग पड़ोसी उस से कह रहा था, ‘‘अब जाने वाले को कौन रोकता है. हम तुम्हारी पूरी मदद करेंगे.’’

‘‘यही तो मदद की है आप ने कि मेरी मां को मार डाला…’’ वह उन के मुंह पर थूकते हुए चिल्लाई, ‘‘पहले घर छीना और अब हमारी जमीन छीनना चाहते हैं. आप इनसान नहीं हैवान हैं.’’

‘‘हां, हम हैवान हैं और तू इस गांव के सब से रसूखदार आदमी राम प्रसाद पर थूकती है,’’ वह बुजुर्ग गुस्से में उस की चोटी पकड़ कर चिल्लाया, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि तू मुझ पर थूके.’’

वह बुजुर्ग उसे बेतहाशा मार रहा था और चिल्ला रहा था, ‘‘गांव में है किसी की हिम्मत, जो मुझे रोक सके. हां, मैं ने तेरा घर उजाड़ा है और अब तेरी सारी जमीन छीन कर तुझे सड़क की भिखारिन बना दूंगा.’’

सारा गांव तमाशा देख रहा था. अचानक मनोहर को तैश आया और उस ने लपक कर बुजुर्ग को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘‘एक तो दिनदहाड़े गलत काम किया, गरीब बेसहारा को लूटा और उस की हत्या कर दी और अब एक लड़की पर हाथ उठाते हुए शर्म नहीं आती.’’

मनोहर उसे मारते हुए बोला, ‘‘इस गांव में जैसे सभी नामर्द हैं तो क्या हुआ, मैं तेरी सारी हेकड़ी हवा कर दूंगा.’’

अब देखादेखी गांव की भीड़ भी जैसे मनोहर के साथ हो गई.

‘‘अब देखते क्या हो..’’ भीड़ में से एक आवाज आई, ‘‘पुलिस तो आने से रही और हम भी इस के खिलाफ गवाही देंगे कि यह कितना दुष्ट है. मगर, इस ने जो किया है, उस की सजा इसे जरूर मिलनी चाहिए.’’

‘‘मन करता है कि इस के घर पर बुलडोजर चला दूं,’’ वह दांत पीस कर बोला, ‘‘तभी यह सबक सीखेगा.’’

‘‘तो चला दो न. मना कौन करता है?’’ भीड़ में से किसी ने कहा. और देखते ही देखते उस की जेसीबी मशीन राम प्रसाद के घर को मटियामेट कर गई.

समय बीतने के साथ उन दोनों की दोस्ती गाढ़ी हो चुकी थी. सीमा ने उस का घरपरिवार, रहनसहन वगैरह सबकुछ देखसमझ लिया था.

मनोहर को झिझक थी कि एक पढ़ीलिखी लड़की से उस का शादी होना क्या ठीक रहेगा. क्या कहीं यह शादी बेमेल तो नहीं होगी? लोग क्या कहेंगे कि एक कम पढ़ेलिखे लड़के ने एक पढ़ीलिखी लड़की को फंसा लिया?

फिर भी सीमा से मनोहर का मिलनाजुलना चलता रहा. इस बीच एक रुकावट आ गई. सीमा के एक रिश्तेदार शंभु प्रसाद, जो उस के रिश्ते में मामा लगते थे, एक किसान थे और अब उसी के साथ उसी के घर में रहने लगे थे. भले ही उन की माली हालत गिर चुकी थी, मगर पुराने जमींदारों वाली ठसक उन में अभी बाकी थी. उन्हें मनोहर फूटी आंख नहीं सुहाता था.

‘‘यह किस आदमी को चुना है शादी के लिए तुम ने…’’ वे दहाड़े, ‘‘न शक्लसूरत, न ढंग का कामधाम, दिनभर टूटीफूटी सड़कों की मरम्मत करता फिरता है या खंडहरों को गिराता चलता है.’’

‘‘मैं शादी करूंगी तो उसी से,’’ सीमा चीख कर बोली थी, ‘‘जब मेरी मां की हत्या हुई और मेरा घर हथिया लिया गया था, तब आप कहां थे.’’

‘‘आग लगे ऐसी जवानी में,’’ शंभु प्रसाद की पत्नी यानी सीमा की मामी चिल्लाई थीं, ‘‘कोई ढंग का रूपरंग भी तो हो. बेडौल ढोल जैसा बदन है उस का. उस की टेढ़ी नाक देखी है तुम ने. यह लड़की तो मेरी नाक कटाने पर ही तुली है.’’

मनोहर को भी घबराहट होती. नाहक उस के चलते सीमा के घर में बवाल मचता है. लेकिन फिर भी वह उस के सपनों में आती थी.

इन 5 साल में मनोहर को क्या मिला? सिर्फ चंद सूखी रोटी और सब्जी. कभी किसी को खयाल आया कि वह भी कुछ है कि उस के भी कुछ अरमान होंगे. ठीक है कि वह भद्दा है, मगर क्या ऐसे लोग जिंदगी नहीं जीते. इतना कुछ होने के बावजूद उसी के चलते तो उस का परिवार सुखी और संतुष्ट है.

यह सड़क बनाने का काम भी अजीब है. ठेकेदारों का क्या है, बस लोग भर दिए. लगे रहो काम पर. करते रहो खुदाई और भराई का काम.

यह भारीभरकम मशीन चलाना हर किसी के बस की बात थोड़े ही है. चिलचिलाती धूप हो या मूसलाधार बारिश या कड़ाके की ठंड क्यों न हो, इसे चलाना है. पीछे मजदूरों का कारवां चला करता है, जैसे हाथी के साथ पैदल सेना चल रही हो. सभी उसी के समान दुखियारे और बेचारे. जो कहीं काम न पाने के चलते यहां अपने हाड़ जलाने पहुंच जाते हैं.

मनोहर उन का दुख देख कर अपना दुख भूल जाता है. कम से कम उस के सिर पर बुलडोजर की टिन की छत तो है, जिस से वह कड़ी धूप या बारिश से बच जाता है. राह चलते लोग या गाडि़यों पर बैठे सरपट भागते लोगों को क्या समझ आएगा यह सब. उन्हें तो बस हड़बड़ी रहती है काम पर जाने की या घर पहुंचने की.

अचानक एक दिन सड़क हादसे में सीमा के रिश्तेदार शंभु प्रसाद जख्मी हो गए थे. चारों तरफ खून ही खून फैला हुआ था. डाक्टर ने खून चढ़ाने की बात कही थी, मगर खून दे तो कौन.

सीमा की मामी चारों ओर जैसे बिलखती फिरीं. पास में पैसे नहीं थे. आमदनी के नाम पर बस थोड़ी सी जमीन की उपज थी, जिस से परिवार का खर्च बमुश्किल चलता था. तभी तो सीमा को भी टीचर की नौकरी करनी पड़ रही थी. ऐसे मुसीबत के समय में सारे रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने किनारा कर लिया था.

आखिर में इस मुसीबत के समय मनोहर ही सामने आया. हफ्ते भर के अंदर उस ने अपने शरीर के पूरे 5 बोतल खून दे डाले थे. दवाओं के खर्च में भी उस ने पूरी मदद की और उस ने यह सब किसी लालच के चलते नहीं, बल्कि इनसानियत के नाते किया था. हालांकि अब उस का सीमा के घर में आनाजाना उस के मामामामी की अनदेखी के चलते काफी कम हो गया था.

और अब मनोहर ही सीमा के घर में सब से अच्छा दिखने लगा था. अब सब को यही लगता कि सीमा के मामा को उस ने जिंदगी दी है. एक हद तक यह बात सही भी थी.

एक शाम सीमा के मामा उस के घर आए. उस ने उन्हें आदर के साथ बिठाया और आवभगत की. वे उस से बोले, ‘‘आजकल तुम मेरे घर नहीं आते?’’

‘‘बस ऐसे ही,’’ मनोहर संकोच के चलते बोला, ‘‘ज्यादा काम की वजह से…’’

‘‘हां भाई साहब, इसी की वजह से ही हमारा घर संभला है,’’ मनोहर की मां बोलीं, ‘‘अपने भाईबहनों के लालनपालन, पढ़ाईलिखाई की जिम्मेदारी इसी पर है.’’

‘‘मगर, इस की भी तो शादी होनी चाहिए. उम्र काफी हो रही है.’’

‘‘इस लड़के से कौन शादी करेगा? ढंग का कामधाम और रूपरंग भी तो हो.’’

‘‘ढंग का कामधाम कैसे नहीं है इस के पास. अभीअभी तो आप ने कहा था कि पूरे घर की जिम्मेदारी इसी ने संभाली हुई है. फिर लड़के की सूरत नहीं, सीरत देखी जाती है बहनजी,’’ सीमा के मामा बोले, ‘‘मैं इस से अपनी बेटी सीमा की शादी कराना चाहूंगा. उम्मीद है कि आप इनकार नहीं करेंगी.’’

‘‘तो ठीक है अगले लगन में शादी हो जाएगी,’’ मनोहर की मां बोलीं, ‘‘मगर, आप सोच लीजिए कि हम एक साधारण परिवार से हैं. लड़का भी कुछ खास नहीं है.’’

‘‘मैं ने सबकुछ देख और सोच लिया है. इस से बढि़या दामाद मुझे नहीं मिलेगा,’’ वे उठते हुए बोले. अब उन्हें मनोहर काफी खूबसूरत दिख रहा था. वे सोच रहे थे, ‘सचमुच खूबसूरती इनसान में नहीं, नजरिए में होती है.’

Holi 2024: जिंदगी की उजली भोर

सहारा: क्या जबरदस्ती की शादी निभा पाई सुलेखा

“शादी… यानी बरबादी…” सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी थी.

“मां मुझे शादी नहीं करनी है. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी देखभाल करना चाहती हूं,” और फिर सुलेखा ने बड़े प्यार से अपनी मां की ओर देखा.

“नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते,” मां ने स्नेह भरी दृष्टि से अपनी बेटी की ओर देखा.

“मां, मुझे शादी जैसे रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं,.. विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है…

“आप जरा अपनी जिंदगी में देखो… शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है. पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…” कहती हुई वह अचानक रुक सी जाती है और आंसू भरी नेत्रों से अपनी मां की ओर देखती है तो मां दूसरी तरफ मुंह घुमा लेती हैं और अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलती हैं, “अरे छोड़ो इन बातों को. इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते. और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन.

“देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,” और वह अपनी बेटी को गले से लगा कर उस के माथे को चूम लेती है.

मालती अपनी बेटी सुलेखा को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए.

जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था, तब सुलेखा महज 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का ही प्यार दिया था. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं, बल्कि उन की सुखदुख की साथी भी थी.

अपनी टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया था, वह सभी कुछ अपनी बेटी पर ही लुटाया था. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरतों का खयाल रखा था. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, चाहे खुद उन्हें कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब वह अपनी बेटी की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया, ताकि उन की बेटी को कोई कष्ट ना हो.

सुलेखा आजाद खयालों की लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद ही आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिश नहीं लगाई.

सुलेखा ने भी अपनी मां को हमेशा ही एक स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह से यह बात जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें झेलना पड़े झेल लेंगी, परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा का शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती बड़े ही भावुक हो कर कहती हैं, “बेटा तू क्यों नहीं समझती? तुझे ले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी. एक ना एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,” और फिर हंसते हुए वे बोलती हैं, “और, तुम्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छुपा हुआ है. कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक ना एक दिन मैं भी इस दुनिया को अलविदा तो कहने वाली ही हूं… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी…” कहते हुए उन का गला भर्रा जाता है.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर के पद पर तैनात है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी हैं, जो 80 या 85 उम्र की हैं.

मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आता है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में बहुत ही खुशहाल जिंदगी जिएगी. यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं था. वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं होगी. तो उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

विदाई के वक्त सुलेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. धुंधली आंखों से उस ने अपनी मां की तरफ और उस घर की ओर देखा, जिस में उस का बचपन बीता था.

“अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो… ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से झिड़कते हुए कहा और उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया गया…

“परंतु आंखें पल्लू में ढक गईं तो मैं देख कैसे पाऊंगी…” उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए हुए अपनी जेठानी को देखा, जो बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने के लिए अपनी नाक तक घूंघट खींच रखी थी.

“तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट रखा जाता है,” यह आवाज उस की सास की थी.

“आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल ना उठाएं…” सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई थी.

“तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,” योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्ला पड़ता है.

ऐसा बरताव देख सुलेखा तिलमिला सी जाती है और गुस्से से योगेंद्र की ओर देखती है.

“अरे, नई बहू दरवाजे पर ही कब तक खड़ी रहेगी? कोई उसे अंदर क्यों नहीं ले आता?” दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था, उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं. वैसे भी उन के कानों ने उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. यमराज तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गए थे, क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखनी थी.

अपनी लंबी उम्र और घर की उन्नति के लिए कई बार काशी के बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड पूजाअर्चना करवा चुकी हैं, ताकि चित्रगुप्त का लिखा बदलवाया जा सके, उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उन के छोटे पोते की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो, उसी लड़की से छोटे पोते की शादी कराई जाए.

अतः सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा दे दिया गया था और अब उन्हें बेचैनी इस बात से हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए… वरना कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाए.

लेकिन घूंघट के ना होने पर उखड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

“आप मुझ से ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?” सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोलती है.

“तुम्हें तुम्हारे पति से कैसे बात करनी चाहिए, क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया,” घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

“अरे, इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,” सुलेखा की सास ने बेहद ही गुस्से में कहा.

“आप मुझे तमीज मत सिखाइए…” सुलेखा के स्वर भी ऊंचे हो उठे थे.

“पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए… ”

“सुलेखा…” योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ता है.

“चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझे भी आता है,” सुलेखा ने भी ठीक उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा था.

“इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है. पति से जबान लड़ाती है,” सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

“आप लोगों के संस्कार का क्या…? नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है,” सुलेखा ने भी जोर से चिल्लाते हुए कहा.

“तुम सीमा लांघ रही हो…” योगेंद्र चिल्लाता है.

“और आप लोग भी मुझे मेरी हद न सिखाएं….”

“सुलेखा…” और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ जाता है.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठती है. साथ में उस की आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगती है और आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उमड़ पड़ता है.

अचानक उस के पैर डगमगा जाते हैं और नीचे रखे तांबे के कलश से उस के पैर जा टकराते हैं और वह कलश उछाल खाता हुआ सीधा दादी सास के सिर से जा टकराता है और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर ही एक ओर लुढ़क जाती हैं. सभी तरफ कोहराम मच जाता है.

लोग चर्चा करते हुए कहते हैं, “देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के… गुस्से में दादी सास को ही कलश चला कर दे मारी… अरे हाय… हाय, अब तो ऊपर वाला ही रक्षा करे…

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झुका हुआ था और गले से तुलसी की माला नीचे लटकी हुई जमीन को छू रही थी.

यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें मानो क्षणभर के लिए जैसे रुक सी गईं…

“अरे हाय, ये क्या कर दिया तुम ने,” सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई बेतहाशा दादी सास की ओर दौड़ पड़ती है.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा, उस के होठों पर लाल गहरे रंग की लिपिस्टिक लगी हुई थी और साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आखों पर नीले रंग के आईशैडो भी लगा रखे थे और गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहन रखा था. उन का यह बनावसिंगार उन के अति सिंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा जाती है और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस के पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है…

“कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,” योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही थी.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी होता है. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह जाती है. उस की आंखों से छलछल आंसू बहने लगते हैं. वह मन ही मन सोचने लगती है कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है, उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है.

जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया है, जितनी कुंठित विचारधारा इन सबों की है, वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी. उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इन सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे सब से ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी, तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी, अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि, जिस सुंदर चित्र को उस ने संजोया था, वह अब एक झटके में ही टूटताबिखरता नजर आ रहा था.

खैर, उन की पूजापाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि के प्रभाव से भी दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

“अरे, अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,” सास ने बड़े ही गुस्से में आवाज लगाई.

“नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,” सुलेखा ने बड़ी ही दृढ़ता से कहा.

“क्या कहा…? कैसी कुलक्षणी है यह…? अब और कोई कसर रह गई है क्या…?” सास ने गुस्से से गरजते हुए कहा.

“अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो, अंदर चलो…” योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

“नहीं, मै अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकूंगी,” कहते हुए सुलेखा एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपने हाथ को छुड़ा लेती है.

“जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया. जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई, अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,” कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल कर अपनी मां के घर की ओर चल देती है.

सुलेखा मन ही मन सोचती जाती है, ‘जिस रिश्ते में सम्मान नहीं, उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी? जो परंपरा एक औरत को खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे. जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करें और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो, वैसे रिश्ते से तो अकेले की ही जिंदगी बेहतर है.

‘मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के. उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है. सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है. अब मैं उन का सहारा बनूंगी…”

खतरा यहां भी है: महामारी का कहर

‘‘मम्मीमम्मी, आप जा रही हो? पापा को यहां कौन देखेगा?’’ राजू अपनी मम्मी को तैयार होते देख कर बोला, ‘‘पापा अकेले परेशान नहीं हो जाएंगे…’’

‘‘नहीं बेटा, वे बिलकुल परेशान नहीं होंगे,’’ मम्मी पैंट की बैल्ट कसते हुए बोलीं, ‘‘उन्हें पता है कि इस समय हमारी ड्यूटी कितनी जरूरी है. फिर तुम हो, तुम्हारी दीदी सुहानी हैं. तुम लोग उन का ध्यान रखोगे ही. खाना बना ही दिया है. तुम लोग मिलजुल कर खा लेना.

‘‘पापा होम आइसोलेशन में हैं. तुम्हें तो पता ही है कि जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, उन से दूरी बना कर रखना है, इसलिए तुम उन के कमरे में नहीं जाना. अपनी पढ़ाई करना और मन न लगे तो टैलीविजन देख लेना.’’

‘‘मन नहीं करता टैलीविजन देखने का…’’ राजू मुंह बना कर बोला, ‘‘सब चैनल में एक ही बात ‘कोरोनाकोरोना’. ऊब गया हूं यह सब सुनतेदेखते.’’

‘‘इसी से समझ लो कि कैसी परेशानी बढ़ी हुई है…’’ मम्मी राजू को समझाते हुए बोलीं, ‘‘इसलिए तो लोग बाहर नहीं निकल रहे. और तुम लोग भी घर से बाहर नहीं निकलना. घर में जो किताबें और पत्रिकाएं तुम लोगों के लिए लाई हूं, उन्हें पढ़नादेखना.’’

‘‘रचना मैडमजी, चलिए देर हो रही है…’’ ड्राइवर मोहसिन खान ने बाहर से हांक लगाई, ‘‘हम समय से थाने नहीं पहुंचे, तो इंस्पैक्टर साहब नाराज होने लगेंगे. उन की नसीहतें तो आप जानती ही हैं. बेमतलब शुरू हो जाएंगे.’’

‘‘नहीं जी, वे बेमतलब नहीं बोलते हैं…’’ रचना जीप में बैठ कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘जब हम ही समय का खयाल नहीं रखेंगे, तो पब्लिक क्यों खयाल रखेगी, इसलिए वे बोलते हैं. हमें तो समय का, अनुशासन का सब से पहले खयाल रखना होता है.’’

जीप एक झटके के साथ आगे बढ़ी, तो रचना ने बच्चों को दूर से ही हाथ हिला कर ‘बाय’ कहा. पति रमाशंकर अपने कमरे की खिड़की से उन्हें एकटक देखे जा रहे थे.

जीप जैसे ही थाने पहुंची, रचना  उस से तकरीबन कूद कर थाने के अंदर आ गईं.

‘‘आप आ गईं… अच्छा हुआ…’’ इंस्पैक्टर हेमंत रचना को देख कर बोले, ‘‘अभी रमाशंकरजी कैसे हैं?’’

‘‘वे ठीक हैं सर,’’ रचना उन का अभिवादन करते हुए बोलीं, ‘‘होम आइसोलेशन में हैं. उन्हें समझा दिया है कि कमरे से बिलकुल बाहर न निकलें और बच्चों को दूर से ही दिशानिर्देश देते रहें. वैसे, मेरे बच्चे समझदार हैं.’’

‘‘जिन की आप जैसी मां हों, वे बच्चे समझदार होंगे ही मैडम रचनाजी…’’ इंस्पैक्टर हेमंत हंसते हुए बोले, ‘‘क्या कहें, हमारी ड्यूटी ही ऐसी है. सरकार ने ऐन वक्त पर हम पुलिस वालों की छुट्टियां कैंसिल कर दीं, जिस से मजबूरन आप को आने के लिए कहना पड़ा, वरना आप को घर पर होना चाहिए था. औरतें तो घर की ही शान होती हैं.’’

‘‘वह समय कब का गया सर,’’ रचना हंसते हुए बोलीं, ‘‘अब तो औरतें भी घर के बाहर फर्राटा भर रही हैं. तभी तो हम लोगों को भी पुलिस में नौकरी मिलने लगी है.’’

‘‘ठीक कहती हैं आप,’’ इंस्पैक्टर हेमंत जोर से हंसे, फिर बोले, ‘‘देखिए, 10 बजने वाले हैं. आप गश्ती दल के साथ सब्जी बाजार की ओर चली जाइए. वहां की भीड़ को चेतावनी देने के साथ उसे तितरबितर कराइए. मैं दूसरी गाड़ी से बड़े बाजार की ओर निकल रहा हूं.’’

‘‘ठीक है सर,’’ बोलते हुए रचना उठने को हुईं, तो वे फिर बोले, ‘‘लोगों के मास्क पर खास नजर रखिएगा. और हां, आप भी लोगों से सोशल डिस्टैंसिंग बना कर रखिएगा.’’

‘‘जरूर सर…’’ रचना बाहर निकलते हुए बोलीं, ‘‘आप भी अपना खयाल रखिएगा.’’

‘‘किधर धावा मारना है?’’ मोहसिन उठते हुए बोला, ‘‘हम चैन से बैठ भी नहीं पाते कि बाहर निकलना पड़ जाता है.’’

‘‘क्या करें, हमारी नौकरी ही ऐसी है…’’ वे बोलीं, ‘‘हमारे साथ 3 और कांस्टेबल जाएंगे.’’

तभी थाने परिसर में बनी छावनी से 2 कांस्टेबल हाथ में राइफल और डंडा उठाए आते दिखाई दिए.

‘‘क्यों हरिनारायण, ठीक तो हो न?’’ रचना उन से मुखातिब हुईं, ‘‘और रामजी, क्या हाल है तुम्हारा?’’

‘‘अब थाने की चाकरी कर रहे हैं, तो ठीक तो होना ही है,’’ रामजी हंस कर बोला, ‘‘इस लौकडाउन की वजह से बेवजह हमारा काम बढ़ गया, तो भागादौड़ी लगी ही रहती है. चलिए, किधर जाना है?’’

‘‘अरे, तुम 2 ही लोग साथ जाओगे?’’ रचना बोली ही थीं कि इंस्पैक्टर हेमंत बाहर निकल कर बोले, ‘‘अभी इन दोनों के साथ ही जाइए मैडम. आप तो जानती ही हैं कि एरिया कितना बड़ा है हमारा और कांस्टेबल कितने कम हैं. स्टेशन के पास के बाजार में ज्यादा कांस्टेबल भेजने पड़ गए, क्योंकि वह संवेदनशील इलाका ठहरा. आप तो समझ ही रही हैं. वैसे, आप ने अपना रिवाल्वर चैक कर लिया है न?’’

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी सर…’’ वह अपने बगल में लटके रिवाल्वर पर हाथ धर कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘यह वरदी ही काफी है भीड़ को कंट्रोल करने के लिए.’’

अपने गश्ती दल के साथ रचना बाजार की ओर बढ़ रही थीं. उन की गाड़ी देखते ही लोग अलगअलग हो कर दूरी बना लेते थे, मगर उन के आगे बढ़ते ही दोबारा वही हालत बन जाती थी.

रचना तिराहेचौराहे पर कभीकभी गाड़ी रुकवा लेतीं और अपने साथियों के साथ उतर कर सभी से एक दूरी बनाने की हिदायत देती फिरतीं. समयसीमा खत्म होने के साथ ही दुकानें बंद और सड़कें सुनसान होने लगी थीं. अब कुछ ही लोग बाहर नजर आ रहे थे, जिन्हें उन्होंने अनदेखा सा किया. वे सब थक चुके थे शायद.

थाना लौटने के पहले ही रचना का मोबाइल फोन बजने लगा था. उन्होंने फोन रिसीव किया. फोन की दूसरी तरफ से जिले के पुलिस अधीक्षक मोहन वर्मा थे, ‘आप सबइंस्पैक्टर रचना हैं न?’

‘‘जी सर, जय हिंद सर…’’ रचना सतर्क हो कर बोलीं, ‘‘क्या आदेश  है सर?’’

‘अरे, जरा तुम उधर से ही गांधी पार्क वाले चौराहे पर चली जाना,’ मोहन वर्मा रचना को बताने लगे, ‘कुछ पत्रकार बता रहे थे कि उधर लौकडाउन का पालन नहीं हो रहा है. आतेजाते लोगों और गाडि़यों पर नजर रखना और कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखना.

‘जरूरत के हिसाब से थोड़ा सख्त हो जाना. जिन के पास उचित कागजात हों, उन्हें छोड़ कर सभी के साथ सख्ती करना. कितनी और कैसी सख्ती करनी है, यह तुम्हें समझाने की जरूरत तो  है नहीं.’

रचना की गाड़ी अब थाने के बजाय गांधी पार्क की ओर मुड़ चुकी थी. वहां भी सन्नाटा ही पसरा था. मगर कुछ गाडि़यां तेजी से आजा रही थीं.

रचना ने वहां एक साइड में रखे बैरिकेडिंग को सड़क पर ठीक कराया और हर आतीजाती गाडि़यों की खोजखबर लेने लगी थीं.

पुलिस को देखते ही एक बाइक पर सवार 2 नौजवान हड़बड़ा से गए. रचना ने उन्हें रोक कर पूछा, ‘‘कहां चल दिए? पता नहीं है क्या कि लौकडाउन लगा हुआ है?’’

‘‘सदर अस्पताल से आ रहा हूं मैडम…’’ एक नौजवान हकलाते हुए बोला, ‘‘दवा लेने गया था.’’

‘‘जरा डाक्टर का परचा तो दिखाना कि किस चीज की दवा लेने गए थे?’’

‘‘वह घर पर ही छूट गया है मैडम…’’ दूसरा नौजवान घिघियाया, ‘‘हम जल्दी में थे मैडम. हमें माफ कर दीजिए. हमें जाने दीजिए.’’

‘‘जब तुम गलत नहीं थे, तो हमें देख कर कन्नी कटाने की कोशिश क्यों की?’’ रचना सख्त हो कर बोलीं, ‘‘तुम दोनों के मास्क गले में लटके हुए थे. हमें देख कर तुम ने अभी उन्हें ठीक किया है. अपने साथ दूसरों को भी क्यों खतरे में डालते हो. अच्छा, बाइक के कागज तो होंगे ही न तुम्हारे पास?’’

‘‘सौरी मैडम, हम हड़बड़ी में कागज रख नहीं पाए थे…

‘‘और कितना झूठ बोलोगे?’’

‘‘सच कहता हूं, दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी. कान पकड़ता हूं,’’ उस ने हरिनारायण की ओर मुसकरा कर देखा. वह उस का इशारा समझ गया और उन्हें घुड़कता हुआ बोला, ‘‘एक तो गलती करोगे और झूठ पर झूठ बोलते जाओगे. जैसे कि हम समझते ही नहीं. चलो सड़क किनारे और इसी तरह कान पकड़े सौ बार उठकबैठक करो, ताकि आगे से याद रहे.’’

अब वे दोनों नौजवान सड़क किनारे कान पकड़े उठकबैठक करने लग गए थे.

अचानक रचना ने तेजी से गुजरती कार रुकवाई, तो उस का चालक बोला, ‘‘जरूरी काम से सदर होस्पिटल गए थे मैडम. आप डाक्टर का लिखा परचा देख लें, तो आप को यकीन हो जाएगा. हमें जाने दें.’’

‘‘वह तो हम देखेंगे ही. मगर पीछे की सीट पर जिन सज्जन को आप बिठाए हुए हैं, उन के पास तो मास्क ही नहीं है. आप लोग हौस्पिटल से आ रहे हैं, तो आप को तो खास सावधानी बरतनी चाहिए. वे कोरोना पौजिटिव हैं कि नहीं हैं, यह कैसे पता चलेगा? अगर वे कोरोना पौजिटिव हुए, तो आप भी हो जाएंगे. बाद में हमारे जैसे कई लोग हो जाएंगे. आप पढ़ेलिखे लोग इतनी सी बात को समझते क्यों नहीं हैं?’’

‘‘अरे मैडम, मेरे पास मास्क है न…’’ पीछे बैठे सज्जन ने मास्क निकाल कर उसे मुंह पर लगाया और बोले, ‘‘हमारे मरीज की हालत सीरियस है. हमें जल्दी है, प्लीज जाने दें.’’

‘‘वह तो हम जाने ही देंगे…’’ रचना उन के दिए डाक्टर के परचे को देखते हुए बोलीं, ‘‘मगर, आप को फाइन देना ही होगा, ताकि आप को पता तो चले कि आप ने गलती की है.’’

धूप तीखी हो चली थी और रचना पसीने से तरबतर थीं. उन्होंने देखा कि साथी कांस्टेबल भी गरमी से बेहाल हो थक चुके थे. उन्होंने ड्राइवर मोहसिन को आवाज दी और वापस थाना चलने का संकेत दिया.

थाने आ कर रचना ने अच्छे से हाथमुंह धोया और खुद को सैनेटाइज किया, फिर एक कांस्टेबल को भेज कर गरम पानी मंगवा कर पीने लगीं. इस के बाद वे अपनी टेबल पर रखी फाइलों और कागजात के निबटान में लग गईं.

शाम के 6 बज चुके थे. तब तक इंस्पैक्टर हेमंत आ चुके थे. आते ही वे बोले, ‘‘अरे रचना मैडम, आप क्या  कर रही हैं. अभी तक यहीं हैं, घर  नहीं गईं?’’

‘‘कैसे चली जाती…’’ वे बोलीं, ‘‘आप भी तो नहीं थे.’’

‘‘ठीक है, ठीक  है. अब मैं आ गया हूं, अब आप घर जाइए. घर में आप के पति बीमार हैं. छोटेछोटे बच्चे हैं. आप घर जाइए,’’ इतना कह कर वे मोहसिन को आवाज देने लगे, ‘‘मोहसिन भाई, कहां हैं आप? जरा, मैडम को घर  छोड़ आइए.’’

‘‘मैडम को कहा तो था…’’ मोहसिन बोला, ‘‘मगर, आप तो जानते ही हैं कि वे अपनी ड्यूटी की कितनी पक्की हैं.’’

‘‘ठीक है, अब तो पहुंचा दो यार…’’

साढ़े 6 बजे जब रचना घर पहुंचीं, तो राजू लपक कर बाहर निकल आया था. वह उन से चिपकना ही चाहता था कि वे बोलीं, ‘‘अभी नहीं, अभी दूर ही रहो मुझ से. दीदी को बोलो कि वे सैनेटाइज की बोतल ले कर आएं. सैनेटाइज होने के बाद सीधे बाथरूम जाना है मुझे.’’

पूरे शरीर को सैनेटाइज करने के बाद रचना बाहर ही अपने भारीभरकम जूते खोल कर घर में घुसीं, गीजर औन करने के बाद वे अपनी ड्रैस उतारने लगीं.

अच्छी तरह स्नान करने के बाद हलके कपड़े पहन कर रचना बाहर निकलीं और सीधी रसोईघर में आ गईं. दूध गरम कर कुछ नाश्ते के साथ बच्चों को दिया. फिर गैस पर चाय के लिए पानी चढ़ा कर पति के लिए कुछ खाने का सामान निकालने लगीं.

चाय पीते हुए रचना ने रिमोट ले समाचार चैनल लगाया, जिस में कोरोना संबंधी खबरें आ रही थीं. थोड़ी देर बाद उन्होंने टैलीविजन बंद किया, फिर बच्चों की ओर मुखातिब हुईं.

सुहानी पहले की तरह चुप थी. शायद समय की नजाकत ने उस 12 साल की बच्ची को गंभीर बना दिया था. मगर राजू उन्हें दुनियाजहान की बातें बताने में लगा था और वे चुपचाप सुनती रही थीं.

रचना का सारा शरीर थकान से टूट रहा था और उन्हें अभी भोजन भी बनाना था. जल्दी खाना नहीं बना, तो रात में सोने में देर हो जाएगी.

भोजन बनाने और सब को खिलानेपिलाने में रात के 10 बज गए थे. राजू को समझाबुझा कर बहन के कमरे में ही सुला कर वे बाहर अपने कमरे में आईं और अपने पलंग पर लेट गईं. थकान उन पर हावी हो रही थी. मगर अब अतीत उन के सामने दृश्यमान होने लगा था.

कितना संघर्ष किया है रजनी ने यहां तक आने के लिए, मगर कभी उफ तक नहीं की. देखतेदेखते इतना समय बीत गया. दोनों बच्चे बड़े हो गए, मगर ऐसा खराब समय नहीं देखा कि लोग  अपनों के सामने हो कर भी उन के लिए तरस जाएं.

घर में एक नौकर था, वह इस महामारी में अपने गांव क्या भागा, पीछे पलट कर देखने की जरूरत भी नहीं समझी. कामवाली महरी भी कब का किनारा कर चुकी है. ऐसे में उन्हें ही घरबाहर सब देखना पड़ रहा है.

यह सब अपनी जगह ठीक था, मगर जब रचना के शिक्षक पति बीमार पड़े, तो वे घबरा गई थीं. पहले वे छिटपुट काम कर लेते थे, बच्चों को संभाल भी लेते थे. इधर उन का स्कूल भी बंद था, जिस से वे निश्चिंत भी थीं, मगर एक दिन किसी शादी में क्या गए, वहीं कहीं पति कोरोना संक्रमित हो गए.

शुरू के कुछ दिन तो जांच और भागदौड़ में बीता, मगर बाद में पता चला कि पति कोरोना पौजिटिव हैं, तो मुश्किलें बढ़ गईं. घर पर ही रह कर इलाज शुरू हुआ था. मगर सांस लेने में तकलीफ और औक्सीजन के घटते लैवल को देख कर उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ा. उफ, क्या मुसीबत भरे दिन थे वे. सारे अस्पताल कोरोना मरीजों से भरे पड़े थे. एकएक बिस्तर के लिए मारामारी थी. अगर बिस्तर मिल गया, तो दवाएं नहीं थीं या औक्सीजन सिलैंडर नहीं मिलते थे.

ऐसे में एसपी मोहन वर्मा ने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए उन्हें बिस्तर दिलवाया था और औक्सीजन का इंतजाम कराया था. रचना उन के इस अहसान को हमेशा याद रखेगी.

उन दिनों रचना एक आम घरेलू औरत की तरह रोने लगती थी, तब वे ही उन्हें हिम्मत बंधाते थे. उन्होंने खुद आगे बढ़ कर रचना की छुट्टी मंजूर की और उन्हें हर तरह से मदद की…

अचानक राजू के रोने की आवाज से रचना की तंद्रा टूटी. राजू उन के पलंग के पास आ कर रोता हुआ कह रहा था, ‘‘मुझे डर लग रहा है मम्मी. मैं आप के साथ ही रहूंगा, कहीं नहीं जाऊंगा…’’

रचना ने उसे समझाबुझा कर चुप कराया, फिर वापस उसे अपने कमरे  में पलंग पर लिटा कर थपकियां देदे  कर सुलाया.

इस कोरोना काल में कैसेकैसे लोगों के साथ मिलनाजुलना होता है. क्या पता कि कोरोना वायरस उन के शरीर में ही घुसा बैठा हो. ऐसे में वे अपने परिवार के साथ खुद को कैसे खतरे में डाल सकती हैं… अपने कमरे में जाते हुए सबइंस्पैक्टर रचना यही सोच रही थीं.

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