वो नीली आंखों वाला : वरुण को देखकर क्यों चौंक गई मालिनी- भाग 3

आप… आप हैं …मिस्टर वरुण शर्मा.”

वरुण बोला, “इफ आई एम नोट रौंग, यू आर छुटकी.”

“एंड… आप वो नीली आंखों वाले लड़के…” यह बोलतेबोलते मालिनी की जबान पर ताला सा लग गया… उस की आंखों के नीले समुंदर में, वो फिर से ना खो जाए,

“हां, हां…”

मालिनी उन्हें पुष्पगुच्छ दे कर उन का स्वागत करने के साथसाथ दिल की गहराइयों से मन ही मन धन्यवाद ज्ञापन करती है, जो इतने बरसों में ना कर सकी.

जैसे आज भगवान उस पर मेहरबान हो गए हो और कोई बरसों पुराना काम आज पूरा हो गया हो. आज उस के दिल से उस नीली आंखों वाले लड़के को धन्यवाद ना कर पाने का अपराधबोध समाप्त हो चुका था.

“क्या आप एकदूसरे को जानते हैं…?” शशांक ने पूछा.

“जी… मालिनी जी मेरी जूनियर थीं…”

आज मालिनी का “समय पर किसी का अधिकार नहीं, किंतु समय की दयालुता पर विश्वास” पेड़ की जड़ों की तरह गहरा हो गया था.

“ओह दैट्स ग्रेट…” इतना कह कर मिस्टर शशांक दूसरे कामों में व्यस्त हो गए, जैसे उन्होंने मन ही मन स्वीकार कर लिया था कि अब उन के मेहमान मालिनी के भी हैं, तो वह उन की बढ़िया आवभगत कर लेगी.

मालिनी और वरुण की आंखों में न जाने कितने मूक संवाद तैर रहे थे, जिन में अनेकों प्रश्न, उत्तर की नोक पर भटक रहे थे. जैसे नदी का बांध खोल देने पर सबकुछ प्रवाहित होने लगता है.

दोनों इतने वर्षों बाद भी औपचारिक बातों के अलावा और कुछ नहीं कह पा रहे थे. शायद वह माहौल उन के अंतर्मन में उठते प्रश्नों के जवाब के लिए उपयुक्त ना था, किंतु वर्षों बाद वरुण के मन की तपती बंजर भूमि पर आज मालिनी से मिलन एक बरखा समान बरस रहा था और साथ ही वरुण इस के विपरीत भाव मालिनी के चेहरे पर पढ़ रहा था.

पूरे कार्यक्रम के दौरान वरुण ने अनेकों बार चोर निगाहों से मालिनी को निहारा. उस के दिल का वायलिन जोरजोर से बज रहा था, किंतु उस की भनक सिर्फ शशांक को ही महसूस हो रही थी.

कार्यक्रम के उपरांत सभी ने रात्रिभोज एकसाथ किया और तभी बारिश होने लगी. वरुण की फ्लाइट खराब मौसम के कारण कुछ घंटों के लिए स्थगित कर दी गई.

मिस्टर वरुण शशांक से एयरपोर्ट के लिए विदा लेने लगे, तो शशांक ने उन्हें कुछ देर घर पर ही चल कर आराम करने को कहा.

वरुण तो जैसे अपने प्रश्नों के जवाब हासिल करने को बेताब हुआ जा रहा था और ऐसे में शशांक के घर पर रुकने का न्योता… पर, इस बात से मालिनी कुछ असहज सी होने लगी, जिसे वरुण ने भांप लिया.

खैर, सभी घर पहुंचे और वरुण को मेहमानों के कमरे में शशांक ही पहुंचा कर आया और यह भी कहा कि इसे अपना ही घर समझें. कुछ चीज की आवश्यकता हो तो मुझे या मालिनी को अवश्य बताएं.

“जी, जरूर… आप बेतकल्लुफ हो रहे हैं.”

शशांक अपने कमरे में आते ही मालिनी से कहता है कि आज मैं सब देख रहा था…

“जी, क्या?”

“वही…”

“क्या..?”

“ज्यादा भोली न बनो. मिस्टर वरुण तुम्हें टुकुरटुकुर निहार रहे थे. पर, मैं तो नहीं…”

“क्या इस का अंदाजा तुम्हें नहीं कि वह तुम्हें…”

“छी:.. छी:, कैसी बात करते हैं आप? मेरे जीवन में आप के सिवा कोई दूसरा नहीं.”

“अरे, मैं ने कब कहा ऐसा… मैं तो पहले की बात कर रहा हूं.”

मालिनी गुस्से से तमतमाते हुए…. “नहीं, हमारे बीच पहले भी कभी ऐसी कोई बात नहीं हुई.”

“तो फिर मिस्टर वरुण की आंखों में मैं ने जो देखा, वह क्या…?”

शशांक की इन बातों ने मालिनी के दिल में नश्तर चुभो दिए और वह चुपचाप जा कर सो गई.

वह सुबह उठी, तो मिस्टर वरुण जा चुके थे और शशांक अपने औफिस. तभी हरिया चाय के साथ मालिनी के कमरे में दाखिल होता है.

“बीवीजी… वह साहब जो रात को यहां ठहरे थे, आप के लिए यह चिट्ठी छोड़ गए हैं. बोले, मैं आप को दे दूं…”

मालिनी की आंखों में छाई सुस्ती क्षणभर के लिए जिज्ञासा में परिवर्तित हो गई कि क्या है इस में… ऐसा क्या लिखा है…” मालिनी ने कांपते हाथों से वह चिट्ठी खोली और पढ़ने लगी.

‘प्रिय छुटकी,

‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे मन में अनगिनत सवाल उमड़ रहे होंगे कि मैं तुम्हें कभी कालेज के बाद क्यों नहीं मिला?

‘क्यों तुम से कभी अपने दिल की बात नहीं कही. जबकि मैं ने कई बार महसूस किया कि तुम मुझ से कुछ कहना चाहती थी.

‘किंतु वह शब्द हमेशा तुम्हारे गले में ही अटके रहे. उन्हें कभी जबान का स्पर्श नसीब नहीं हुआ. मैं वह सुनना चाहता था, किंतु मेरी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मैं आशा करता हूं कि मेरे इस पत्र में तुम्हें अपने सभी सवालों के जवाब के साथसाथ मेरे दिल का हाल भी पता लग जाएगा.

‘मालिनी, मैं तुम्हारे काबिल ही नहीं था, इसलिए तुम से बाद में चाह कर भी नहीं मिला, क्योंकि मैं तुम्हें वह सारी खुशियां देने में शारीरिक रूप से पूर्ण नहीं था. मेरे साथ तुम तो क्या कोई भी लड़की खुश नहीं रह सकती.’

पढ़तेपढ़ते मालिनी की आंखों से गिरते आंसू इन अक्षरों को अपने साथ बहाव नहीं दे पा रहे थे. वह फिर पढ़ने लगी.

‘मेरी उस कमी ने मुझे तुम से दूर कर दिया, किंतु तुम आज भी मेरे मनमंदिर में विराजमान हो. तुम्हारे अलावा आज तक उस का स्थान कोई और नहीं पा सका है.

‘बचपन में क्रिकेट खेलते वक्त गेंद इतनी तेजी से मेरे अंग में लगी, जिस ने मेरे पौरूष को जबरदस्त चोट पहुंचाई और मेरे आत्मविश्वास को भी… किंतु मेरा तुम से वादा है कि मैं तुम्हें यों ही बेइंतहा चाहता रहूंगा और एक दिन तुम्हें भी अपने प्यार का एहसास करा कर रहूंगा….

‘तुम्हारा ना हो सका

वरुण.’

मालिनी कुछ पछताते हुए सोचने लगी, “तुम ने मुझ से कहा तो होता… क्या सैक्स ही एक खुशहाल जिंदगी की नींव होता है? क्या एकदूसरे का साथ और असीम प्यार जीवन के सफर को सुहाना नहीं बना सकता?”

आज फिर से वह सवालों के घेरे में खुद को खड़ा महसूस कर रही है.

मालिनी की नजर बगीचे में पड़ी तो देखा…

अनगिनत टेसू के फूल झड़े पड़े थे और संपूर्ण वातावरण केसरिया नजर आ रहा था.

फलक से टूटा इक तारा: सान्या का यह एहसास -भाग 1

‘‘मां तुम समझती क्यों नहीं, आजकल तो सभी मातापिता अपने बच्चों को छूट देते हैं, तुम क्यों नहीं मुंबई जाने देती मुझे?’’ सान्या जिद पर अड़ी थी और उस की मां 2 दिन से उसे समझा रही थी, ‘बेटी, हम मध्यवर्गीय लोग हैं, तुम पढ़ाई में इतनी अच्छी हो कि डाक्टर, इंजीनियर बन सकती हो, क्यों इस फालतू के डांस शो के लिए जिद पर अड़ी हो?’

‘‘नहीं मां, मैं जाऊंगी डांस शो में,’’ पैर पटकते हुए सान्या कमरे की तरफ बढ़ गई और जा कर पलंग पर औंधेमुंह लेट गई. उस की मां दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोली, ‘‘बेटी, तुम बात समझने की कोशिश करो, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं, दरवाजा तो खोलो.’’

सान्या कहां सुनने वाली थी. उसे तो मुंबई जाना था डांस शो के लिए. वह तो मशहूर मौडल बनना चाहती थी. कहां पसंद था उसे यह साधारण लोगों की तरह जीना? वह तो खुले आसमान में उड़ जाना चाहती थी पंछियों की तरह, जहां कोई रोकटोक न हो, जितना चाहो उड़ो. दूरदूर तक खुला आसमान, न तो रीतिरिवाज की बंदिश न ही समाज के बंधन. उस की मां कैसे कह देती, ‘बेटी, तुम जाओ.’ वह बेचारी तो स्वयं संयुक्त परिवार के बंधनों में फंसी थी. यदि वह आज उसे छूट देगी तो यह इस के बाद मौडलिंग में जाने की जिद करेगी. और फिर, वह देवरजेठ समेत अन्य रिश्तेदारों को क्या जवाब देगी? देर तक सान्या की मां इसी उधेड़बुन में उलझी रही और फिर मन ही मन बोली, ‘सान्या के पिताजी घर आएं तो रात को उन से जरूर इस विषय में बात करूंगी.’

रात को खाना खा कर परिवार के सभी सदस्य सोने के लिए अपने कमरे में चले गए और तभी सान्या की मां ने मौका पा कर उस के पिताजी से कहा, ‘‘सुनिए जी, बच्ची का बड़ा मन है डांस शो में जाने के लिए, वैसे हमें उसे रोकना नहीं चाहिए, कितना अच्छा डांस करती है हमारी सान्या. हर वर्ष स्कूल के सालाना कार्यक्रम में भाग लेती है और इनाम भी ले कर आती है हमारी बेटी. हां कह दीजिए न, एक बार मुंबई में डांस शो में जा कर आ जाएगी तो उस का दिल नहीं टूटेगा.’’

सान्या के पिताजी बोले, ‘‘एक बार जाने में तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन वह आगे मौडलिंग के लिए भी तो जिद करेगी, कैसे भेजेंगे उसे?’’

‘‘आप इस डांस शो के लिए तो हां कीजिए, फिर उसे मैं समझा दूंगी,’’ सान्या की मां ने मुसकराते हुए कहा.

अगले दिन जब सान्या की मां व पिताजी ने उसे डांस शो में जाने के लिए हामी भरी तो उसे एक बार को तो विश्वास ही नहीं हुआ. वह कहने लगी, ‘‘मांपिताजी, आप लोग मान गए? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही हूं?’’ मां बोली, ‘‘नहीं बेटी, यह हकीकत है. लेकिन इस के बाद तुम अपनी पढ़ाई में जुट जाओगी, मुझ से वादा करो.’’

‘‘हां मां, पक्का, फिर कभी जिद  नहीं करूंगी,’’ इतना कह सान्या अपनी मां से लिपट गई, ‘‘थैंक्यू मां, थैंक्यू पिताजी, आप दोनों कितने अच्छे हैं.’’ वह खुशी के मारे उछल पड़ी.

अगले ही दिन से डांस शो व मुंबई जाने की तैयारी शुरू हो गई. ऐसा करतेकरते शो का दिन भी आ गया और सान्या अपने मातापिता के साथ मुंबई डांस स्टूडियो में पहुंच गई. उस के मातापिता को दर्शकों में विशिष्ट अतिथि का स्थान मिला था. एकएक

कर सभी कंटैस्टैंट स्टेज पर आए. वे इतने बड़े स्टेज पर अपनी बेटी का डांस शो देखने को उत्सुक थे. स्टेज की साजसजावट, निर्णायक मंडल व दर्शकगण कुल मिला कर सभीकुछ बड़ा ही अच्छा लग रहा था. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि बचपन में 2 चोटियां बना कर घूमने वाली सान्या बड़ी फिल्मी हस्तियों के सामने अपना नृत्य प्रस्तुत करेगी. 3 लोगों का डांस पूरा हुआ और चौथा नंबर सान्या का था.

जैसे ही स्टेज पर उस का नाम पुकारा गया, सान्या के पिताजी का सीना फूल कर चौड़ा हो गया और अगले ही पल सान्या झूम कर स्टेज पर आ पहुंची. उस की नाचने की अदा सब से अलग थी. सभी दर्शकों और निर्णायक मंडल के सदस्यों की तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा था. सान्या की मां उस के पिताजी के पास सरक कर मुंह पर हाथ रख कर धीरे से फुसफुसाती हुईर् बोली, ‘‘देखना जी, हमारी सान्या ही प्रथम आएगी, इस का फाइनल्स के लिए जरूर सलैक्शन होगा.’’ जवाब में सान्या के पिताजी ने अपना सिर हामी भरते हुए हिला दिया था.

खैर, शो खत्म हुआ. उस के पिताजी शाम को उसे मुंबई घुमाने के लिए ले कर गए. मरीन ड्राइव पर समुद्र की आतीजाती लहरें सड़क पर ठंडी फुहारें फेंक रही थीं. और हैंगिंग गार्डन में बुड्ढी का जूता देख सान्या बहुत खुश हो गई. कई पुरानी फिल्मों को वहां फिल्माया गया है. सान्या तो अपने सपनों की नगरी में आ पहुंची थी. वह तो सदा के लिए यहां बस जाना चाहती थी. किंतु मांपिताजी तो चाहते हैं कि वह आगे पढ़ाई करे और इस चमकदमक की दुनिया से दूर रहे.

खैर, अगले 2 दिनों में छोटा कश्मीर, नैशनल पार्क, एस्सेल वर्ल्ड आदि सभी जगहों पर घूम कर सान्या अपने मातापिता के साथ घर आ गई. लेकिन आने के बाद वह मुंबई और वहां का बड़ा सा स्टेज ही देखती रही. वह तो चाहती ही न थी कि उस रात की कभी सुबह भी हो. कितनी अच्छी होती है न सपनों की दुनिया. जो सोचो वही हकीकत में रूपांतरित होता नजर आता है. काश, उस का यह सपना हकीकत बन जाए. तभी घड़ी का अलार्म बजा और घर्रघर्र की आवाज ने उसे सोने नहीं दिया. उस ने झट से बटन दबा कर अलार्म बंद कर दिया.

थोड़ी देर में मां की आवाज आई, ‘‘बेटी सान्या, उठो न, तुम्हें कालेज जाने में देर हो जाएगी.’’

‘‘जी मां,’’ कहते हुए सान्या ने अलसाई आंखों से सूर्य को देखा. बाथरूम में जा ठंडे पानी के छींटे अपनी आंखों पर मारे और मां के पास रसोई में जा कर अपने लिए चाय ले कर आई. अखबार पढ़ने के साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए सान्या पेज थ्री में फिल्मी हस्तियों के फोटो देख रहे थी. उन्हें देख वह तो रोज ही ख्वाब संजोने लगती कि उसे मुंबई से बुलावा आ रहा है. हर वक्त मुंबईमुंबई, बस मुंबई.

उस की मां उसे समझाती, ‘‘सान्या, हम साधारण लोग हैं, मुंबई में तो बड़बड़े लोग रहते हैं. यह जो फिल्मी दुनिया है न, वास्तविक दुनिया से बहुत अलग है.’’ जवाब में सान्या कहती, ‘‘पर मां, वहां भी तो इंसान ही बसते हैं न. बस, एक बार मैं वहां चली जाऊं, फिर देखना, पैसा, शोहरत सब है वहां. यहां इस छोटे से कसबे में क्या रखा है? आज पढ़ाई पूरी कर भी लूंगी तो कल किसी सरकारी नौकरी वाले डाक्टर, इंजीनियर से तुम मेरा ब्याह कर दोगी और फिर रोज वही चूल्हाचौका. जो जिंदगी तुम ने जी है, वही मुझे जीनी होगी. क्या फायदा मां ऐसी जिंदगी का? मां मैं बड़े शहर में जाना चाहती हूं, मुंबई जाना चाहती हूं, कुछ अलग करना चाहती हूं.’’ मां ने उसे टालते हुए कहा, ‘‘अच्छाअच्छा, अभी तो पहले पढ़ाई पूरी कर ले.’’ लेकिन सान्या का कहां पढ़नेलिखने में मन लगने वाला था. उसे तो फैशन वर्ल्ड अच्छा लगता था, वह तो जागते हुए भी डांस शो और मौडलिंग के सपने देखती थी.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 3

कैद में पड़ी कंवल को रहरह कर केवर की याद सताए जा रही थी. चिंता में डूबी जमीन पर पड़ी कंवल के सामने एकदम से टुन्ना मानो कहीं से प्रकट हो गई. कंवल ने उसे देख कर हैरानी से पूछा, ‘‘तुम यहां कैसे आई?’’ टुन्ना ने हड़बड़ी में कंवल से कहा, ‘‘मैं और सां झी यहां दासदासी बन कर आए हैं.

कल ही मैं ने यहां दासी की नौकरी ली है. केवर सिंह को भी बंदी बनाया गया है. मैं तु झ तक सारे संदेश पहुंचाती रहूंगी, तू बस सब्र रखना. हम तुम दोनों को जल्द ही छुड़ा कर ले जाएंगे.’’ केवर के बंदी बनाए जाने की खबर सुन कंवल को खूब चोट पहुंची.

उसे अब यह महसूस होने लगा कि शायद दोनों की कहानी यहीं इसी कैद में सिमट कर खत्म हो जाएगी कि तभी कुछ सोचविचार कर टुन्ना ने इधरउधर नजरें दौड़ा कर माहौल का मुआयना करते हुए कंवल के कान में एक योजना सुनाते हुए कहा, ‘‘देख कंवल, मैं और सां झी एक बहुत बड़ी योजना के साथ यहां आए हैं, तो सुन…’’ टुन्ना ने सारी योजना कंवल को कह सुनाई. उस रात ही टुन्ना खाना ले कर केवर सिंह की कोठरी में पहुंची. खाने की थाली के नीचे टुन्ना ने एक कटार को ठीक से पकड़ रखा था.

जैसे ही टुन्ना ने थाली को केवर सिंह की ओर सरकाया, साथ में कटार भी सरका दी.  केवर सिंह टुन्ना को वहां देख कर अवाक से रह गया. टुन्ना ने आंखें बड़ी करते हुए केवर को चुप रहने का इशारा किया और बाहर खड़े सिपाही फालूदा खां को एक गिलास भांग पकड़ाते  हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारे लिए है  फालूदा खां.’’ ‘‘मेरे लिए… पर क्यों?’’ ‘‘नहीं चाहिए, तो लाओ वापस ले जाती हूं.’’

‘‘अरे, नहींनहीं अब पी ही लेता हूं,’’ फालूदा खां ने एक सांस में सारी भांग गटकते हुए टुन्ना को धन्यवाद दिया, पर इतना कहते ही वह सिपाही खूनी उलटी करता हुआ वहीं ठंडा पड़ गया.

कोठरी में बैठा हुआ केवर सबकुछ देख रहा था. सिपाही के दम तोड़ते ही वह इस सब का मतलब सम झ चुका था. उन्होंने वह कटार उठाई और किसी तरह से उस कोठरी से निकल गया.

अ गले दिन केवर के कोठरी से भाग जाने की खबर पूरे दरबार में फैल गई. बादशाह ने अब केवर को जिंदा या मुरदा लाने का आदेश दे डाला.  आदेश मिलते ही औसाफ खां नामक दरबारी ने केवर को मारने का जिम्मा उठा लिया. उधर केवर मेवाड़ के एक सरहदी गांव के मुखिया गंगो भील से मदद की संधि करने पहुंचा.  गंगो भील ने उसे भरोसा दिया कि अगर लड़ाई हुई तो उसे 60 गांवों के भीलों का पूरा समर्थन रहेगा.  औसाफ खां केवर की तलाश कर के थक चुका था.

उस ने बड़े भारी मन से महमूद को जा कर अपनी नाकामी की खबर सुनाई.  महमूद ने पूरे गुजरात में केवर की धर पकड़ शुरू करवा दी. बाहर से आने वाली हर पालकी, हर घुड़सवार, व्यापारी, हर किसी की तलाशी ले कर ही उसे सरहद के भीतर आने दिया जाता.  योजना के मुताबिक दूसरी पारी खेलने की बारी कंवल की थी. कंवल ने महमूद से कहा, ‘‘बादशाह, मैं अब केवर का इंतजार करकर के थक चुकी हूं. मैं नामसम झ थी जो आप के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा कर केवर के पीछे पागल थी, पर अब इस बेवकूफ कंवल को सम झ आ चुका है कि उस ने कितनी बड़ी भूल की है.

आप मु झे माफ कर दीजिए और एक बार मु झे अपनी गलती सुधारने का मौका दीजिए.’’ ‘‘तुम ने सही सम झा. अब तक उस केवर की लाश कहीं पड़ी सड़ रही होगी. बस एक सपना अधूरा रह गया हमारा कि हम उस के सामने तुम से निकाह करना चाहते थे,’’ बादशाह महमूद खुद को काफी नरमदिल और महान दिखाने की कोशिश में लगा था, पर अंदर ही अंदर वह भी कंवल जैसी खूबसूरत लड़की  को जल्द से जल्द अपनी बेगम बनाना चाहता था.  कंवल धीरे से बोली, ‘‘लेकिन मेरी कुछ शर्तें हैं.’’ ‘‘कैसी शर्तें?’’ कंवल ने शर्तें बतानी शुरू कीं, ‘‘पहली, हमारी शादी एकादशी वाले दिन ही होगी.

दूसरी, विवाह हिंदू रीतिरिवाज से ही होगा. तीसरी, शादी के दिन जब आप बुलंद गुंबज में पधारें तो खूब आतिशबाजियां हों और आखिरी शर्त यह कि हमारी शादी देखने का हक सब को होना चाहिए. मेरी मां भी पालकी में बैठ कर बुलंद गुंबज में आएं.’’

‘‘हमें तुम्हारी सारी शर्तें मंजूर हैं,’’ महमूद उस दिन काफी खुश था. कंवल को मालूम था कि सां झी और केवर मेवाड़ में उस का अगला संदेशा आने का इंतजार कर रहे होंगे.

अब टुन्ना को महल से निकालने की बारी थी, सो उसी के हाथ यह आखिरी संदेशा भिजवाना रह गया था.  कंवल ने टुन्ना से कहा, ‘‘केवर से कहना कि एकादशी को मारवाड़ के व्यापारी मूंदड़ा की बरात अजमेर से अहमदाबाद आएगी. रास्ते में आप उसी बरात में वेश बदल कर शरीक हो जाना, ताकि बरात के साथसाथ आप भी दरबार में प्रवेश कर सकें.

‘‘यही एक रास्ता है अहमदाबाद में घुसने का, क्योंकि अब भी यहां आप की छानबीन खूब जोरशोर से चल रही है. आगे की योजना अहमदाबाद पहुंचने  के बाद.’’ जाने से पहले टुन्ना ने कंवल को एक बार गले लगा कर कहा, ‘‘अब कुछ ही दिनों की बात है कंवल…’’

एकादशी का दिन भी नजदीक था, उधर टुन्ना के मुंह से यह संदेशा सुन कर केवर और सां झी ने अपने दूसरे दोस्तों के साथ अहमदाबाद में घुसने की तैयारियां शुरू कीं. महमूद भी कंवल से अपनी शादी की तैयारियों में दिल से जुटा हुआ था. वह आखिरी घड़ी आज आ चुकी थी और हथियारों से लैस केवर और उस के साथी तयशुदा समय और योजना के मुताबिक बरात में जा मिले.

उधर महमूद के लिए हाथी सजाया जा चुका था. बरात के आगेपीछे शहनाई वादक थे, नगाड़े बज रहे थे, ढोल की थाप सब के जी में खड़े हो कर नाचने की उमंग भर रही थी. बीच मे हाथी पर सवार महमूद के आगे सिपाहियों के घोड़े और हाथी थे.

उधर कंवल की मां जवाहर पातुर के घर पर अपनी योजना के मुताबिक केवर तैयार बैठा था. पालकी वाले जवाहर पातुर को बुलंद गुंबज में ले जाने को आ चुके थे.  टुन्ना ने पालकी वालों का ध्यान भटकाए रखा और उधर केवर साड़ी पहने पालकी के भीतर जा बैठा.

बुलंद गुंबज पहुंचते ही कंवल पालकी देख खुशी से  झूम उठी. सैनिकों ने पालकी को जमीन पर रखा कि टुन्ना ने उन्हें बाहर भेज दिया. केवर बाहर निकला. साड़ी में होने के चलते उस पर किसी को कोई शक नहीं हुआ.  सैनिक बाहर जा चुके थे. अब अंदर सिर्फ केवर और कंवल ही थे. इतने दिनों बाद एकदूसरे को आमनेसामने देख दोनों के सब्र का बांध टूट गया.

कंवल से रहा न गया और वह दौड़ती हुई केवर से जा मिली. दोनों ने खूब आंसू बहाए. तभी टुन्ना के कानों में पटाकों की आवाज सुनाई पड़ी.  कंवल ने कहा, ‘‘महमूद शाह आ गया है.’’ केवर जा कर पीछे वाली एक मीनार के पीछे छिप गया. कंवल सहजता के भाव लिए अपनी जगह पर पहुंच गई.

अब थोड़ी ही देर में गुंबज के भीतर सिर्फ 4 जने ही थे टुन्ना, कंवल, केवर और बादशाह महमूद.  महमूद अपनी बेगम से मिलने को उतावला उस के कमरे में जाने ही वाला था कि उधर से केवर ने महमूद की गरदन को अपनी बगल में भींचते हुए उस का दम निकलना चाहा.

महमूद का चेहरा अब पीला पड़ने लगा था. उस की आंखें बाहर को निकल आईं कि तभी महमूद अपनी तलवार तक अपना हाथ पहुंचाने में कामयाब हो गया, पर उस की तलवार का वार केवर के सिर के ऊपर से गुजर गया.  क ेवर दांवपेंच में कुशल था, सो निहत्था ही चंद मिनटों की गहमागहमी के बाद महमूद पर काबू पा गया.  महमूद की चीखें सुनने वाला कोई न था.

बाहर आतिशबाजी और कारतूसों के धमाके उस की चीखें दबा रहे थे. अपनी ही तलवार के वार से महमूद के प्राण पखेरू उड़ गए.  टुन्ना ने किसी के अंदर आने से पहले ही कंवल और केवर को पालकी में बैठा दिया और पालकी वालों को बुला कर कहा, ‘‘लो जवाहर पातुर को उन के घर छोड़ दो. आज बादशाह  रानी कंवल के साथ यहीं रुकेंगे तो  उन्हें परेशान न कीजिएगा,’’ कह कर टुन्ना भी फटाफट जवाहर पातुर के घर पहुंच गई. जवाहर पातुर के घर पहुंच कर कंवल और केवर ने उन के चरणों में गिर कर आशीर्वाद मांगा. बाहर सां झी  3 घोड़े लिए तैयार खड़ा था.  सां झी ने टुन्ना और केवर ने कंवल को अपने साथ अपने घोड़े पर बैठाया और पीछेपीछे जवाहर पातुर भी अपनी नई आजाद जिंदगी इज्जत से जीने की चाह लिए घोड़े पर चली जा रही थी.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 2

केवर सिंह के नाम के जयकारे लगाने वाली एक तरफ की प्रजा जैसे शांत सी हो गई हो, वहीं दूसरी तरफ वाली प्रजा की रगों में जैसे अपने साथी हुक्काम को जीतता देख खून बिजली की रफ्तार से दौड़ने लगा.  अब चारों ओर ‘हुक्काम’ का शोर था, पर आखिर में एक विचित्र से दांव के साथ हुक्काम को रेतीली जमीन पर पटकनी देते हुए केवर सिंह ने खेल का सारा नतीजा ही बदल दिया.

केवर के हुक्काम को पटकने की देरी ही थी कि प्रजा अखाड़े में कूद कर केवर सिंह को कंधों पर चढ़ाए मस्ती से ?ामने लगी. नगाड़े बजने लगे और लोग मस्ती से ?ामने लगे.  केवर सिंह की नजर कंवल पर पड़ी ही थी कि वह एक मुसकान के साथ शरमा कर रह गई.  ‘‘अरे कंवल, तुम यहां. आज भी…’’ केवर और कंवल अभी कल ही मिले थे. आज भी उसे यहां देख कर केवर ने कंवल से पूछा. ‘‘हां, मैं ने सुना कि आप रोजरोज ही अपना बलप्रदर्शन कर रहे हैं, तो आज भी देखने चले आई,’’ कंवल ने अल्हड़पने में जवाब दिया. ‘‘अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं,’’ केवर ने ?ोंपते हुए कहा और कंवल को अपने गले लगा लिया.

सारा दिन सैरसपाटे और बाग में घूमने के बाद शाम हो चली थी. कंवल की सहेली टुन्ना ने अब कंवल से वापस चलने को कहा.  कंवल केवर सिंह को छोड़ कर यों जाना तो नहीं चाहती थी, पर उसे भी रात होने से पहले घर पहुंचना था.  क ेवर सिंह ने कंवल और टुन्ना से कहा कि उन्हें अब जल्द ही निकलना चाहिए. सां?ा ने केवर सिंह से कहा, ‘‘केवर, अब अंधेरा होने ही वाला है, इसलिए मु?ो लगता है कि हमें इन के साथ एक सिपाही भी भेजना चाहिए.’’

टुन्ना और कंवल ने इस के लिए इनकार किया, पर केवर ने हामी भरी और दोनों सहेलियों के लिए एक हथियारबंद सिपाही को बुलाया गया और कहा कि तुम्हें इन दोनों लड़कियों के साथ जाना है. इन को महफूज पहुंचाना तुम्हारी जिम्मेदारी है.

वह सिपाही अपने प्यासे घोड़े को तुरंत पानी पिलाने ले गया और जाने  की तैयारी करने लगा. उतने में ही केवर सिंह ने कंवल को अपने बाहुपाश में भरते हुए आखिरी बार उस के माथे को चूमते हुए उसे घोड़े पर बैठाया और  उधर सां?ा और टुन्नी का भी फिलहाल अपने प्यार को विराम देने का समय  आ चुका था. सब चलने को तैयार थे.

आगे दोनों लड़कियां और पीछे हथियारबंद सिपाही. जवाहर पातुर आज कंवल को बादशाह के संग शादी करने के लिए मनाने की सोच कर घर के लिए निकली थी, पर घर पर कंवल को न देखने के बाद उस के कानों में महमूद की वह बात गूंजने लगी, ‘तुम दिनभर यहां रहती हो. तुम्हारी बेटी सुबह से शाम तक कहां जाती है, क्या करती है, इस की तुम्हें क्या खबर…’  पातुर को अब लगने लगा था कि शायद महमूद की बात ठीक थी.  अब कंवल की शादी कर देना ही  ठीक रहेगा.

कंवल और टुन्ना के घोड़े कंवल के दरवाजे पर आ कर रुके. टुन्ना का घर अभी और आगे था, सो वह वहां से चलती बनी.  जवाहर पातुर घर से बाहर निकली तो तैश में थी, पर साथ में सिपाही को देख कर बेटी को उस के सामने डांटना ठीक न सम?ा.  सिपाही जाने की तैयारी करने लगा, तो जवाहर पातुर ने सामने से कहा, ‘‘रात काफी हो चुकी है.

अभी मीलों का सफर तय करना खतरे से खाली नहीं और  तुम्हें भूख भी लगी होगी, तो आज  रात यहीं रुको. कल सवेरे जल्दी  निकल जाना.’’ कंवल ने भी कहा, तो वह सिपाही रुकने को तैयार हो गया. रात को भोजन करने के बाद आरामकक्ष में उस के सोने का इंतजाम कर दिया गया.

रात को मौका देख कर जवाहर पातुर ने बेटी कंवल से आज हुई सारी घटना सुना दी.   मां की बात सुन कर कंवल ने कहा, ‘‘क्या… मैं उस महमूद से शादी कर लूं… उस अधेड़ से. मां, तुम ने देखा नहीं कि वह किस गलत नजर से वह मेरी तरफ देख रहा था.

मैं तो उस के हावभाव से  ही पहचान गई थी कि यह इनसान ठीक नहीं है.  ‘‘और क्या 2 लाख रुपए मैं वह आप से मेरा सौदा करना चाहता है. अरे, उस से कहना कि केवर सिंह के सामने उस का सारा साम्राज्य कम है.’’ ‘‘बेटी, तू सम झ नहीं रही है… तू जवाहर पातुर की बेटी है. तू इतने बड़े सपने न देख. खेलकूद अलग चीज है और जिंदगी अलग.’’ ‘‘उस महमूद से कहना कि जिस ने शेर केवर सिंह को गले लगाया हो वह गीदड़ महमूद को अपना पति नहीं बना सकती,’’

कंवल बोली. कंवल की बेपरवाही पर जवाहर पातुर ने एक जोर का तमाचा उस के गाल पर जड़ दिया. कंवल अपनी मां की कठोरता पर फूटफूट कर रोने लगी.  करुणा के आगे क्रोध कहां ठहर पाता है. अपने प्रेम के लिए तड़पती बेटी का दुख मां से न देखा गया.

उसे याद आया कि कैसे उसे भी उस जालिम महमूद ने अपने प्रेमजाल में फांस कर बड़ेबड़े सपने दिखाए थे, उसे अपने दरबार में जगह दी थी, पर इस सब की कीमत  उस महमूद ने उसे वेश्या बना कर वसूल की थी.  जवाहर पातुर को सम झ आ चुका था कि यही गलती वह इस बार फिर करने जा रही है. उस ने अपनी बेटी कंवल को हिम्मत देते हुए कहा, ‘‘बेटी, तू उसी घराने में शादी करेगी जहां तेरी इच्छा है. तु झे मेरी ओर से पूरी छूट है. तु झे अपनी जिंदगी को अपने मनमुताबिक जीने का पूरा हक है.’’

अगले दिन अपने विवाह प्रस्ताव के ठुकरा दिए जाने की खबर सुन कर बादशाह महमूद शाह की आंखों में मानो खून उतर आया. उस ने कंवल और केवर को कैद करने का हुक्म देते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों में से जो भी केवर को बंदी बना कर मेरे पास लाएगा,

उसे केवर की जागीर का नया मालिक बना दिया जाएगा.’’ क ंवल को तो कैद कर लिया गया पर केवर को कैदी बनाने की हिम्मत हर किसी में न थी. पर बादशाह महमूद को खुश करने के लिए और केवर की जागीर के लालच में जलाल नामक दरबारी ने केवर को कैद करने का वचन दे डाला. जलाल को मालूम था कि हिंदुओं में होली का त्योहार बहुत धूमधाम से बनाया जाता है.

होली के दिन जलाल केवर की जागीर में होली का  झूठा निमंत्रण ले कर केवर के महल पहुंच गया.  केवर सिंह ने भी बादशाह महमूद का निमंत्रण स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘बादशाह से कहना कि हमारी इस बार की होली हम उन्हीं के साथ मनाएंगे.’’ होली में अब कुछ ही दिन बाकी थे.

उधर कंवल को महल में रख बादशाह ने बहुत बड़ी गलती की थी. बादशाह चाहता था कि वह केवर के सामने ही कंवल से शादी करेगा.  होली का दिन आ चुका था. बादशाह के यहां केवर सिंह को लाया गया, पर महल में घुसते ही उस के गले और हाथों में लोहे की भारीभारी बेडि़यां डाल दी गईं. केवर की सम झ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है. बादशाह ने केवर सिंह को कैद में डाल दिया. उधर उस की जागीर पूरी तरह से बादशाह के कब्जे में ली जा चुकी थी.

कंवल और केवर की प्रेम कहानी- भाग 1

जवाहर पातुर ने कई बार कंवल को चेताया… तू इस महल में नहीं आएगी. कोई बात होगी तो तभी बताना, जब मैं घर आ जाया करूं…’’ कंवल का रूपरंग भी अपनी मां से कहीं ज्यादा बढ़ कर था. जवाहर पातुर यह कभी नहीं चाहती थी कि उस की फूल सी बच्ची पर उस नामुराद महमूद शाह की काली छाया पड़े. उन दिनों बादशाह महमूद शाह के राजघराने में वेश्याओं का अच्छाखासा तांता लगा रहता था. बादशाह के हरम में हुस्न की कोई कमी न थी. उन्हीं में से एक रूपवती थी जवाहर पातुर. बादशाह महमूद शाह के साम्राज्य में वेश्या जवाहर पातुर की खूबसूरती का बोलबाला था.

सब ने यही सुना था कि बादशाह के हरम में कई आईं और गईं, पर एक जवाहर पातुर ही है, जिसे हरम में रानी के समान ही सारी सहूलियतें मुहैया थीं.  जवाहर पातुर की बेटी कंवल भी कभीकभी अपनी मां से मिलने महल में आ जाया करती थी, पर पातुर को यह पसंद न था. वैसे अब तक ऐसा नहीं हुआ कि महमूद और कंवल ने एकदूसरे को आमनेसामने देखा हो, पर आज वह महमूद की नजरों से बच न सकी.  महमूद ने इस से पहले ऐसी बला की खूबसूरती न देखी थी.

कंवल अपनी सहेली टुन्ना के साथ अपनी मां के कमरे में बैठ बाटिया के जागीर कुंवर केहर सिंह चौहान के मल्लयुद्ध में बड़ेबड़े पहलवानों को पस्त करने के दांवपेंचों का शब्दचित्र खींच कर अपनी मां को सुना ही रही थी कि उसी वक्त महमूद का मन पातुर के साथ समय बिताने को किया, तो वह दनदनाते हुए उस के कमरे में चला आया. उस दिन यह कंवल और महमूद शाह की पहली मुलाकात थी.

दोनों ने पहली बार एकदूसरे को आमनेसामने देखा था.  महमूद ने बड़ी गर्मजोशी से कंवल का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘अरे पातुर, तुम ने आज तक बताया क्यों नहीं कि तुम्हारी बेटी इतनी बड़ी हो गई है और इन्हें महल भी इतने दिन बाद ले कर आई हो. कभी हम से तो मिलवाने के लिए ले आती.’’ ‘‘जी हुजूर, पर यह हाथ ही कहां आती है. दिनभर तो अपनी सहेलियों के साथ मटरगश्ती में लगी रहती है,’’ जवाहर पातुर ने चापलूसी वाली हंसी हंसते हुए टुन्ना की ओर देखते हुए कहा.  ‘‘चलिए, कोई बात नहीं. अब आप को यहां आते रहना है. कभी किसी चीज की कमी हो, तो बे?ि?ाक बता देना. और तुम्हें हम से मिलने के लिए किसी की इजाजत लेने की भी जरूरत नहीं है,’’ महमूद ने कंवल की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा.  कंवल हड़बड़ी में अपनी मां और महमूद से विदा ले कर अपनी सहेली टुन्ना के संग वहां से निकल गई. महमूद ने कंवल को थोड़ी देर और रोकना चाहा, पर फिर कुछ सोच कर रुक गया.

उस दिन सारी रात महमूद शाह किसी गहरी सोच में डूबा रहा. वह कभी इस ओर करवट लेता, तो कभी उस ओर. और कभी बारबार एक ?ाटके से उठ कर बैठ जाया करता.  अगले दिन किसी अनमनी सी सोच में उल?ा महमूद फिर जवाहर पातुर के कमरे में गया और थोड़ी देर इधरउधर की बात करने के बाद उसे बाजुओं से पकड़ता हुआ बोला, ‘‘देखो पातुर, मैं तुम्हें कुछ बताने के लिए आया हूं…’’ मानो महमूद के मन में क्या है, उस का अंदाजा वह लगा पा रही हो, पर फिर भी अपने अंदेशे को अपने ही अंदर छिपाते हुए बोली, ‘‘हुजूर, कुछ कहना था तो मु?ो बुला लिया होता.

अब बादशाह  को किसी को कुछ कहने के लिए  उस के पास जाना पड़े, यह तो कोई बात नहीं हुई.’’ ‘‘तुम वह सब छोड़ो पातुर और यह बताओ कि क्या तुम अपनी बेटी कंवल को मेरी रानी बनाना चाहोगी?’’ पातुर मानो यही सुनने के लिए रुकी थी. उसे मालूम था कि कल जिस तरह से महमूद ने उस की बेटी की पीठ को हाथ से सहलाया था, वह उस का दिखावा मात्र था.

वह बोली, ‘‘लेकिन हुजूर, वह अभी काफी छोटी है. उस के लिए अभी भी राजपाठ ऐशोआराम से कहीं ज्यादा बढ़ कर अपनी सहेलियां और दोस्त हैं. उसे अभी इस हरम में न डालिए.

मैं आप को मना नहीं कर रही हूं, बस थोड़ा रुकने को कह रही हूं.’’ जवाहर पातुर को जो अंदेशा था, ठीक वही हुआ. वह कल ही सम?ा चुकी थी कि महमूद की आवारा नजर उस की बेटी पर पड़ चुकी है और कभी भी महमूद की यह मांग हो सकती है कि उसे अब कंवल से निकाह करना है. ‘‘देखो, मां को अपने बच्चे हमेशा छोटे ही लगते हैं, पर किसी और से पूछो तो वह बताएगा कि कंवल अब कितनी बड़ी हो चुकी है. तुम समाज के बारे में सोचो… दिनभर तुम यहां रहती हो, उधर वह पूरे दिन क्या करती है, किस से मिलती है, कौन जानता है. इधर एक रानी की हैसियत से इस महल में रहेगी, तो तुम सोच ही सकती हो कि क्या शान होगी तुम लोगों की.  ‘‘खैर, चलो छोड़ो. अभी फिलहाल उस से कहना कि बादशाह ने उसे 2 लाख रुपए सालाना जागीर देने का फैसला किया है,’’ महमूद घेरने में माहिर था. वह अपना काम निकलवाने के लिए अपनी जबान का इस्तेमाल करना बखूबी जानता था.

2 लाख रुपयों का लालच पातुर की आन को तोड़ने लगा था. उस ने बादशाह से कहा, ‘‘ठीक है हुजूर, मैं बात करूंगी कंवल से.’’ ‘‘मैं जानता हूं पातुर कि तुम मेरी ख्वाहिश पूरी करने में जान लगा दोगी. आज तक तुम ने यही तो किया है,’’ कहते हुए बादशाह पातुर के कमरे से बाहर आ गया.

उधर सूरज को आसमान में चढ़े थोड़ी ही देर हुई थी कि कंवल अपनी सखी टुन्ना के संग घोड़ों पर सवार हो कर गुजरात की छोटी सी जागीर बारिया के मालिक कुंवर केवर सिंह चौहान के बाहुबल का कारनामा देखने उन की जागीर में जा रही थी.

आज केवर सिंह की हुक्काम से कुश्ती की प्रतियोगिता थी. यह जागीर बादशाह महमूद शाह के साम्राज्य के अधीन ही थी.  कंवल को महल पहुंचने में थोड़ी देर हो गई थी. उधर कुश्ती का खेल शुरू हो चुका था. कंवल और उस की सहेली टुन्ना को आता देख कुंवर केवर सिंह के दोस्त सां?ा ने उन्हें दर्शकों की भीड़ में रास्ता बना कर आगे की ओर ला कर अलग जगह पर बैठा दिया, जहां से सिर्फ राजघराने के लोगों को ही कार्यक्रम देखने की इजाजत थी.

केवर सिंह को हुक्काम सिंह पर भारी पड़ते देख कंवल खुशी के मारे सभी के साथ जोर से शोर मचाती, तालियां पीटती. उस की सहेली टुन्ना और सां?ा कंवल की यह बचकानी हरकत को देख उस पर ठहाके लगाते और उस का मजाक बनाते.  खेल के मिजाज से यह साफ जाहिर था कि आज केवर सिंह का दिन ठीक नहीं है.

सूनी मांग का दर्द: सालों बाद चंपा के घर कौन आया था

थोड़ी ही देर में चंपा उस के पास आ कर बोली, ‘‘बाईजी, कोई तरुण आए हैं.’’

‘‘तरुण….’’ वह हतप्रभ रह गई. शरीर में एक सिहरन सी दौड़ गई. उस ने फिर पूछा, ‘‘तरुण कि अरुण…’’

‘‘कुछ ऐसा ही नाम बताया बाईजी.’’

वह ‘उफ’ कर रह गई. लंबी आह भर कर उस ने सोचा, बड़ा अंतर है तरुण व अरुण में. एक वह जो उस के रोमरोम में समाया हुआ है और दूसरा वह जो बिलकुल अनजान है….फिर सोचा, अरुण ही होगा. तरुण नाम का कोई व्यक्ति तो उसे जानता ही नहीं. यह खयाल आते ही उस का रोमरोम पुलकित हो उठा. तुरंत हाथ धो कर वह दौड़ती हुई बाहर पहुंची, देखा तो अरुण नहीं था.

‘‘आप अर्पणा हैं न?’’ आने वाले पुरुष के शब्द उस के कानों में पडे़.

‘‘जी…’’

‘‘मैं अरुण का दोस्त हूं तरुण.’’

मन में तो उस के आया, कह दे कि तुम ने ऐसा नाम क्यों रखा, जिस से अरुण का भ्रम हो लेकिन प्रत्यक्ष में होंठों पर मुसकराहट बिखेरते हुए बोली, ‘‘आइए, अंदर बैठिए…चाय तो लेंगे,’’ और बिना उस के जवाब की प्रतीक्षा किए अंदर चली गई.

चाय की केतली गैस पर रखी तो यादों का उफान फिर उफन गया. कैसा होगा अरुण….उसे याद करता भी है…जरूर करता होगा, तभी तो उस ने अपने दोस्त को भेजा है. कोई खबर तो लाया ही होगा…तभी चाय उफन गई. उस ने जल्दी गैस बंद की और चाय ले कर बैठक में आ गई.

‘‘आप ने व्यर्थ कष्ट किया. मैं तो चाय पी कर आया था.’’

‘‘कष्ट कैसा, आप पहली बार तो मेरे घर आए हैं.’’

तरुण चुपचाप चाय की चुस्कियां भरने लगा. उस की खामोशी अपर्णा को अंदर से बेचैन कर रही थी कि  कुछ बताए भी…कैसा है अरुण? कहां है? कैसे आना हुआ?

यही हाल तरुण का था, बोलने को बहुत कुछ था लेकिन बात कहां से शुरू की जाए, तरुण कुछ सोच नहीं पा रहा था. आखिर अपर्णा ने ही खामेशी तोड़ी, ‘‘अरुण कैसे हैं? ’’

‘‘उस का एक्सीडेंट हो गया है….’’

‘‘क्या?’’ अपर्णा की चीख ही निकल गई.

‘‘अभी 2 हफ्ते पहले वह फैक्टरी से घर जा रहा था कि अचानक उस की कार के सामने एक बच्चा आ गया. बच्चे को बचाने के लिए उस ने जैसे ही कार दाईं ओर मोड़ी कि उधर से आते ट्रक से एक्सीडेंट हो गया.’’

‘‘ज्यादा चोट तो नहीं आई?’’

‘‘बड़ा भयंकर एक्सीडेंट था. उसे देख कर रोंगटे खडे़ हो गए थे. ट्रक से टकरा कर कार नीचे खड्डे में जा गिरी थी. पेट में गहरा घाव है. सिर किसी तरह बच गया पर अभी भी बेहोशी छाई रहती है.’’

‘‘मुझे खबर नहीं दी?’’

‘‘खबर कौन देता? अरुण के डैडी को आप के नाम से चिढ़ है. अरुण पर उन्होंने कितनी बंदिशें नहीं लगाईं, कितनी डांट उसे नहीं पिलाई, फिर भी वह आप को नहीं भुला सका. रातरात भर आप की याद में तड़पता रहा. आप को तो पता ही होगा कि ठाकुर साहब अरुण की शादी टीकमगढ़ के राजघराने में करना चाहते थे. बात भी तय हो गई थी लेकिन अरुण ने साफ मना कर दिया. ठाकुर साहब का पारा चढ़ गया. उन्होंने छड़ी उठा ली और उसे भयंकर ढंग से पीटा लेकिन उस ने ‘उफ’ तक न की.

‘‘यह देख कर भी ठाकुर साहब अपनी जिद पर अटल रहे. लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि बेटे की शादी उस की मरजी से कर दें लेकिन वे सहमत नहीं हुए और एक दिन उन्होंने यहां तक कह दिया कि अरुण ने उन की मरजी के बगैर शादी की तो वे अपने आप को गोली मार लेंगे.

‘‘अरुण इस बात से डर गया. वह आप को खत भी न लिख सका क्योंकि वह जानता था कि डैडी अपने वचन के पक्के हैं. यदि ऐसा हो गया तो वह किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा. दिन ब दिन उस की हालत पतली होती गई. वह आप के गम में आंसू बहाता रहा. उस दिन अस्पताल में अचेतावस्था में उस के होंठों पर जब मैं ने आप का नाम सुना तो मुझे लगा कि आप ही उसे मौत के मुंह से बचा सकती हैं. मेरे दोस्त को बचा लीजिए,’’ इतना कहते ही उस का गला रुंध गया. आंखें छलछला आईं.

इस दुखद वृत्तांत ने अपर्णा का अंतस बेध दिया. वह गहरीगहरी सांसें भरने लगी. मन में धुंधली यादें ताजा हो आईं, अतीत कचोट गया. किन कठिन परिस्थितियों में उसे घर छोड़ना पड़ा, रिश्तेदारों से नाता तोड़ना पड़ा और परिचितों, सहेलियों से मुख मोड़ना पड़ा. कहांकहां नहीं भटकी वह, लेकिन अरुण की याद भुला न सकी. प्रेम का दीपक उस के अंदर सदैव जलता रहा और आज वह उस से अलग होना चाहता है, नहीं वह ऐसा कभी भी नहीं होने देगी. यदि उसे अपने जीवन की कुरबानी भी देनी पडे़ तो वह देगी.

बेशक, उस की शादी अरुण से नहीं हो सकी, लेकिन उस के नाम के साथ उस का नाम जुड़ा तो है. यह सोचते ही उस की आंखें छलछला आईं.

तभी खामोशी को तोड़ता हुआ तरुण बोला, ‘‘अच्छा अपर्णाजी, चलता हूं. आज ही शाम को छतरपुर जाना है, आप तैयार रहिएगा.’’

वह चुप ही रही…‘हां’, ‘न’ उस के मुख से कुछ नहीं निकल सका और तरुण हवा के तेज झोंके सा बाहर निकल गया. अतीत की परछाइयों ने फिर उसे समेट लिया. एकएक लम्हा उसे कुरेदता गया.

कालिज के दिनों में उस का साथ अरुण से हुआ था. अरुण उस की कक्षा का मेधावी छात्र था. दोनों की सीट पासपास थीं इसलिए उन में अकसर किसी विषय पर बहस हो जाया करती थी. अरुण के तर्क इतने सटीक होते थे कि वह परास्त हो जाती. हार की पीड़ा उस के अंदर छटपटाती रहती. वह पूरी कोशिश कर मंजे तर्क उस के सामने रखती, लेकिन वह उतनी ही कुशलता से उस के तर्क काट देता. तर्कवितर्क का यह सिलसिला प्रेम में परिणीत हो गया. दोनों घंटों बातों में मशगूल रहते और अपने प्रेम के इंद्रधनुषी पुल बनाते. कालिज के कैंपस से ले कर चौकचौराहों तक यह प्रेमजोड़ी चर्चित हो गई.

अपर्णा के पिता हरिशंकर उपाध्याय धार्मिक विचारों के थे, वे अध्यापक थे. उन के एक ही संतान थी अपर्णा और उसे वह उच्च से उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे, लेकिन बेटी के जमाने के साथ बदलते रंगों ने उन्हें तोड़ कर रख दिया.

उन्होंने अपर्णा को समझाते हुए कहा, ‘बेटी अपनी सीमा में रहो, जैसे इस परिवार की लड़कियां रही हैं. तुम्हारा इस तरह ठाकुर के लड़के के साथ घूमना मुझे बिलकुल पसंद नहीं.’

‘पिताजी, मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’ अपर्णा ने जवाब दिया.

‘चुप नादान, तेरा रिश्ता उस से कैसे हो सकता है? वह क्षत्रिय है, हम ब्राह्मण हैं.’

‘लेकिन पिताजी, वह मुझ से शादी करने को तैयार है.’

‘उस के मानने से क्या होगा? जब तक कि उस के परिवार वाले न मानें. वह बहुत बडे़ आदमी हैं बेटी, उन्हें यह रिश्ता कभी मंजूर नहीं होगा.’

‘तब हम कोर्ट में शादी कर लेंगे.’

‘चुप बेशर्म,’ वह गुस्से से आगबबूला हो गए, ‘जा, चली जा मेरी आंखों के सामने से, वरना…. ’

यही हाल अरुण का था. जब उस के डैडी सूर्यभान सिंह को इस बात का पता चला तो वे क्रोध से पागल हो गए. यह उन के लिए बरदाश्त से बाहर था कि उन का लड़का एक मामूली पंडित की लड़की से प्यार करे. उन्होंने पहले अरुण को बहुत समझाया लेकिन जब उन की बात का उस पर कुछ असर नहीं हुआ तो उन्होंने दूसरा गंभीर उपाय सोचा.

वह सीधे हरिशंकर उपाध्याय के पास पहुंचे जो उस समय बरामदे में बैठे स्कूल का कुछ काम कर रहे थे. ठाकुर साहब को देखते ही वह हाथ जोड़ कर खडे़ हो गए.

‘हां, तो पंडित हरिशंकर, यह मैं क्या सुन रहा हूं?’ अपनी जोरदार आवाज में ठाकुर साहब ने कहा.

‘बहुत ख्वाब देखने लगे हो तुम.’

‘जी ठाकुर साहब, मैं समझा नहीं.’

‘अच्छा, तो तुम्हें यह भी बताना पडे़गा. जिस बात को पूरा कसबा जानता है उस से तू कैसे अनजान है. देखो पंडित, अपनी लड़की को समझाओ कि वह मेरे बेटे से मिलना छोड़ दे वरना मैं तुम बापबेटी का वह हाल करूंगा जिस की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो.’

‘ठाकुर साहब, यह क्या कह रहे हैं आप….मैं आज ही उस की खबर लेता हूं. माफ करें….माफ करें.’

ठाकुर साहब के कडे़ प्रतिबंध के बाद भी अरुण अपर्णा से छुटपुट मुलाकात करने में सफल हो जाता जिस की भनक किसी न किसी तरह ठाकुर सूर्यभान को लग ही जाती और वे गुस्से से भिनभिना उठते.

उन्होंने दूसरा उपाय सोचा, क्यों न हरिशंकर का तबादला छतरपुर से कहीं और करा दिया जाए. और यह कार्य वहां के विधायक से कह कर करवा दिया. इधर पंडित हरिशंकर घबरा गए थे. तबादले का जैसे ही उन्हें आदेश मिला फौरन छतरपुर छोड़ दतिया आ गए. अपर्णा को भी पिताजी के साथ आना पड़ा.

वह दिन अपर्णा के जीवन का सब से बोझिल दिन था, जब बिना अरुण से मिले उसे दतिया आना पड़ा. जुदाई के सौसौ तीर उस के दिल में चुभ गए थे. अरुण का घर से निकलना बंद था. वह जातेजाते एक बार मिल लेना चाहती थी. लेकिन उस की हर कोशिश नाकाम हुई. एक यही दुख उसे लगातार पूरी यात्रा सालता रहा.

पिताजी के साथ अपर्णा चली तो आई लेकिन अरुण को भुला न सकी. दतिया आए अब 1 साल हो गया था. उस दौरान अरुण की उसे कोई खबर नहीं मिली. पढ़ाई भी उस की बंद हो गई. पिताजी को उस की शादी करने की जल्दी थी. मास्टर हरिशंकर ने एक अच्छा घर देख कर अपर्णा की सगाई बिना उस से पूछे ही कर दी. यह पता चलते ही उस ने शादी करने से इनकार कर दिया कि वह शादी करेगी तो सिर्फ अरुण से.

यह सुन कर पिताजी उस पर बरस पडे़, ‘‘तेरी ही वजह से मुझे छतरपुर छोड़ कर दतिया आना पड़ा है फिर भी तू अरुण के नाम की माला जप रही है. कितना सताएगी मुझे. भला इसी में है कि तू घर छोड़ कर कहीं निकल जा.’’

‘ऐसा मत कहिए पिताजी, अपर्णा गिड़गिड़ा पड़ी, समझने की कोशिश कीजिए.’

‘मुझे कुछ नहीं समझना. अगर तू यहां से नहीं जाएगी तो मैं ही चला जाता हूं, ले रह तू यहां….’

आखिर दिल के हाथों मजबूर हो कर अपर्णा ने वह घर त्याग दिया और अपनी सहेली नीता के पास भिंड चली आई. नीता की मदद से उसे भिंड में नौकरी मिल गई. खानेपीने का जरिया हो गया. किराए पर मकान ले लिया. इसी बीच उस के पास शादी के कई प्रस्ताव आए लेकिन उस ने सब को ठुकरा दिया.

वह दिन याद आते ही उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘समाज की यह कैसी रूढ़ियां हैं कि आदमी अपना मनपसंद साथी भी नहीं ढूंढ़ सकता? वंश परिवार की परंपराएं उस पर थोप दी जाती हैं. वहां आदमी टूटेगा नहीं तो क्या जुडे़गा?’’

आज अरुण की दुर्घटना की खबर ने उसे बेचैन ही कर दिया. वह नदी के किनारे पड़ी मछली सी फड़फड़ा गई. शाम को जब तरुण आया तो वह जाने को पूरी तरह तैयार बैठी थी, इस समय तक उस ने अपनी मानसिक स्थिति संभाल ली थी.

छतरपुर पहुंचते ही अपर्णा सीधे अस्पताल पहुंची. एक वार्ड में अरुण बेड पर मूर्छित पड़ा था. खून की बोतल लगी थी. हाथपैरों में प्लास्टर बंधा था. दोस्त, परिजन, रिश्तेदार उसे घेर कर खडे़ थे. डाक्टर उपचार में लगा था. उसे समझते देर न लगी कि अभी जरूर कोई गंभीर दौर गुजरा है क्योंकि सभी के चेहरे उदास थे.

ठाकुर सूर्यभान सिंह सिर नीचे झुकाए खडे़ थे. यद्यपि वह एक नजर उस पर डाल चुके थे. आज उसे उन से डर नहीं लगा था. डाक्टर के चेहरे से मायूसी साफ झलक रही थी. सभी की निगाहें उन पर टिक गईं.

‘‘इंजेक्शन दे दिया है. 10 मिनट में होश आ जाना चाहिए,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘लेकिन डाक्टर साहब, कुछ मिनट होश में रहता है फिर बेहोश हो जाता है,’’ ठाकुर साहब व्यग्रता से बोले.

‘‘देखिए, मैं तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूं. आप मरीज को खुश रखने की कोशिश कीजिए….कोई गहरा आघात पहुंचा है, जिस की याद आते ही उसे बेहोशी छा जाती है. वैसे ंिचंता की बात नहीं. इस रोग पर काबू पाया जा सकता है,’’ इतना कह कर डाक्टर नर्स के साथ चले गए.

मौत सा सन्नाटा छा गया. किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था. तभी तरुण अपर्णा की ओर देख कर बोला, ‘‘आप कोशिश कीजिए, शायद होश आए. एक हफ्ते से यह इसी तरह पड़ा है. होश में आने पर भी किसी से एक शब्द नहीं बोलता.’’

यह सुनते ही अपर्णा निडर हो कर अंदर गई और अरुण के पास पहुंच कर बोली, ‘‘अरुण, अब मैं कहीं नहीं जाऊंगी, यहीं रहूंगी तुम्हारे पास.’’

‘‘लेकिन तुम ने तो….कोई दूसरा घर बसा लिया….शादी कर ली?’’

‘‘अरुण क्या कहते हो? किस ने कहा तुम से यह….मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘विश्वास तो था लेकिन….’’

‘‘कैसी बात करते हो? मैं तुम्हें कैसे समझाऊं? तुम्हारे नाम के अलावा कोई दूसरा नाम मेरे होंठों पर कभी नहीं आया. मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखो, सच क्या है तुम्हें पता चल जाएगा,’’ इतना कह कर अपर्णा फूटफूट कर रो पड़ी.

अरुण कुछ क्षण उसे देखता रहा, फिर आह कर उठा. उसे लगा जैसे उस के अंदर हजारों शूल एकसाथ चुभ गए हों.

‘‘अपर्णा….’’ वह गहरी निश्वास भरता हुआ बोला, ‘‘धोखा…विश्वासघात हुआ मेरे साथ…क्या समझ बैठा मैं तुम्हें…सोच भी नहीं सकता, तुम्हारे पिताजी ने यह झूठ मुझ से क्यों बोला?’’

कुछ क्षण अंदर ही अंदर वह सुलगती रही, फिर सोचा इस से तो काम नहीं चलेगा, उसे अगर अरुण को पाना है तो डट कर आगे आना होगा,’’

इस विचार के आते ही वह दृढ़ता से बोली, ‘‘अब मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी अरुण, तुम्हारे पास रहूंगी. देखती हूं कौन मुझे हटाता है.’’

तभी अरुण के सीने में भयंकर दर्द उठा और वह कराह उठा, उस के हाथपैर मछली से फड़फड़ा गए. लोग डाक्टर को बुलाने दौडे़…अरुण हांफता हुआ बोला, ‘‘बहुत देर हो गई अपर्णा, अब मैं नहीं बचूंगा….मुझे माफ…’’ और यहीं उस के शब्द अटक गए. आंखें खुली रह गईं… चेहरा एक तरफ लुढ़क गया. यह देख अपर्णा की चीख ही निकल गई.

उसे जब होश आया तो देखा ठाकुर साहब और 2-3 लोग उस के पास खडे़ थे. अरुण के शरीर को स्ट्रेचर पर रखा जा रहा था. वह तेजी से स्ट्रेचर की तरफ लपक कर बोली, ‘‘इन्हें मत ले जाओ. मैं भी इन के साथ जाऊंगी.’’

ठाकुर साहब अपर्णा को पकड़ते हुए बोले, ‘‘यह क्या कह रही हो अपर्णा? पागल हो गई हो…’’

वह शेरनी सी दहाड़ उठी, ‘‘पागल तो आप हैं, इन्हें पागल बना कर मार दिया, अब मुझे पागल बना रहे हैं. मुझे आप की कृपा की जरूरत नहीं ठाकुर सूर्यभान सिंह. आप ने भले ही मुझे अपने घर की बहू नहीं बनने दिया, लेकिन विधवा बनने से आप मुझे नहीं रोक सकते.’’

वह और जोर से सिसक पड़ी, ‘‘काश, मौत कुछ क्षण ठहर जाती तो वह मांग में सिंदूर तो लगा लेती?’’ आज इस स्थिति में, कुछ पोंछने को भी उस के पास नहीं था. सबकुछ पहले से ही सूनासूना था….

अटूट बंधन : अनजानी लड़की और ट्रेन का खूबसूरत सफर

ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार पर थी. जंगल, पेड़पौधे, पहाड़, नदीनाले सभी पीछे की ओर भागते जा रहे थे. मैं 6 साल बाद अपने गांव जा रहा था. मैं अपने खयालों में खोया बीते दिनों के बारे में सोच रहा था कि जब घर से निकला था, तो कुरतेपाजामे में हाथ में गठरी ले कर दिल्ली के लिए रवाना हुआ था.

मन में एक अजीब सा डर था कि इतने बड़े शहर में मैं कैसे रह पाऊंगा, लेकिन कुछ ही दिनों में मैं भी ‘शहरी बाबू’ बन गया और एक कंपनी में नौकरी भी लग गई.

मेरे सामने की सीट पर एक सुंदर लड़की अपने बूढ़े पिता के साथ बैठी थी. वह देखने में बहुत ही साधारण परिवार की लग रही थी. वह ठीक मेरी बिंदु जैसी लग रही थी. उसे देख कर मैं कुछ पलों के लिए अपने अतीत में खो गया. हम दोनों गांव में एकसाथ पढ़े थे. बचपन की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, हमें पता भी नहीं चला. हम दोनों स्कूल के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर घंटों बातें किया करते थे.

एक दिन बातें करतेकरते उस ने मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया, ‘अच्छा, बताओ, तुम मुझे एकटक क्यों देख रहे हो? तुम अपने मन की बात क्यों नहीं बोलते? तुम मुझे चाहते हो, यह बात क्या मैं नहीं जानती…’

‘तुम जानती हो बिंदु?’

‘मैं जानती न होती, तो तुम्हारे साथ अकेले में क्यों मिलती… क्या तुम इतना भी नहीं जानते?

‘मुझे प्यार भी करते हो और इतनी पराई भी समझाते हो. तुम्हारे प्यार पर मैं अपनी जान भी कुरबान कर सकती हूं,’ इतना कहते हुए उस ने अपने होंठ मेरे होंठों पर रख दिए.

मेरे बदन में एक अजीब सी मदहोशी छाने लगी. मुझे पहली बार किसी लड़की के जिस्म की गरमी महसूस हुई. मेरा दिल बहुत तेजी से धड़कने लगा.

बिंदु अचानक जमीन पर लेट गई. उस के सीने का उतारचढ़ाव मुझे पागल बना रहा था. उस की आंखों में विनती और होंठों पर मुसकराहट थी.

मुझे बिंदु पहले से ज्यादा हसीन लग रही थी. उस के जिस्म की गरमी से मैं अपने दिल पर काबू नहीं रख सका और मैं ने चुंबनों की झड़ी लगा दी.

उस दिन हम लोग जो फिसले, तो फिसलते ही चले गए. उस के बाद जब भी मौका मिलता, हम दोनों के जवान जिस्म एक हो जाते और तन की प्यास बुझ लेते.

अचानक एक दिन हम लोगों को गांव के कुछ लोगों ने रंगे हाथों पकड़ लिया. इस से बहुत बवाल मच गया, क्योंकि मैं ऊंची जाति और बिंदु नीची जाति से ताल्लुक रखती थी.

कुछ बुजुर्ग लोगों के बीचबचाव करने से मामला शांत हुआ और तय किया गया कि पंचायत में फैसला किया जाएगा.

शाम के समय में हम दोनों को पंचायत के सामने पेश किया गया.

सरपंच ने पूछा, ‘क्या तुम दोनों ने जिस्मानी संबंध बना लिए हैं?’

मैं बोला, ‘मैं बिंदु से प्यार करता हूं और उस से शादी करना चाहता हूं.’

उसी समय मेरे पिता एक थप्पड़ मारते हुए मुझ से बोले, ‘एक तो गलती की, ऊपर से गांव वालों के सामने मेरी इज्जत का जनाजा निकाल रहे हो.’

काफी बहस के बाद हम दोनों को सजा सुनाई गई. मुझे 6 साल के लिए गांव से बाहर रहने का हुक्म सुनाया गया और हमारे घर वालों को बिंदु की शादी का आधा खर्चा उठाने का आदेश हुआ…

तभी ट्रेन प्लेटफार्म पर रुकी. मेरी मंजिल आ गई थी. ट्रेन से उतर कर मैं बस पकड़ कर अपने गांव जा पहुंचा.

उस दिन तो घर वालों और पासपड़ोस से मिलनेजुलने में ही समय बीत गया. मैं रातभर करवटें बदलता रहा और बिंदु के बारे में सोचता रहा.

दूसरे दिन मैं ने अपने दोस्त दीपक से बिंदु के बारे में पूछा.

दीपक ने बताया, ‘‘तुम्हारे जाने के एक महीने बाद ही अजीतपुर में उस की शादी हो गई. शादी के कुछ दिन बाद ही उस के पति का एक्सीडैंट हो गया और उस की मौत हो गई.’’

इतना सुनते ही मुझे लगा कि जैसे आसमान टूट पड़ा हो. दीपक आगे बोला, ‘‘उस के ससुराल वालों ने उसे मनहूस कहते हुए घर से निकाल दिया.

‘‘बिंदु अपने मायके आई और अब वह इसी गांव में अपने भाई के साथ रहती है. उस के पिता यह सदमा बरदाश्त न कर सके और चल बसे. उस की भाभी उसे हमेशा ताने देती है और दिनभर घर का काम करवाती है.’’

मैं बोला, ‘‘मैं बिंदु से कैसे मिल सकता हूं?’’

‘‘बिंदु दोपहर में कपड़े धोने नदी पर जाती है… मिलने का वही समय ठीक रहेगा.’’

मैं ठीक समय पर नदी किनारे पहुंच गया. थोड़ी देर में ही बिंदु आती हुई दिखाई दी. मैं उस के सामने खड़ा हो गया.

मुझे देखते ही वह बोली, ‘‘तुम… यहां?’’

‘‘कैसी हो बिंदु?’’

‘‘ठीक हूं.’’

उस की दशा देख कर मैं अपनेआप को रोक न सका. मैं ने जैसे ही उस

का हाथ पकड़ना चाहा, वह बोली, ‘‘मेरा हाथ मत पकड़ो, मैं अब तुम्हारे लायक नहीं रही. अगर कोई देख लेगा, तो फिर बवाल मच जाएगा.’’

मैं बोला, ‘‘अब कोई भी ताकत हम दोनों को जुदा नहीं कर सकती. मैं तुम से शादी करूंगा.’’

‘‘लेकिन समाज ऐसे रिश्तों को नहीं मानता. क्योंकि मैं एक छोटी जाति की हूं और अब विधवा भी हो चुकी हूं. तुम कोई अच्छी सी लड़की देख कर शादी कर लो,’’ इतना कहते हुए वह रो पड़ी और हाथ छुड़ा कर चली गई.

उस दिन के बाद मैं रोज बिंदु से मिलने लगा. आखिर बात कब तक छिपती?

एक दिन उड़ती हुई यह खबर उस के भाई के कानों तक पहुंच गई. उस ने बिंदु के बाहर आनेजाने पर रोक लगा दी.

मैं उस से मिलने के लिए बेचैन हो गया. एक रात मैं चोरों की तरह उस के घर पहुंचा. बिंदु जमीन पर सोई हुई थी, मैं ने उसे धीरे से जगाया.

मुझे देखते ही उस ने मुंह से आवाज निकालनी चाही, लेकिन मैं ने उसे चुप रहने का इशारा किया, फिर धीरे से पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

बिंदु बोली, ‘‘मेरे भैयाभाभी ने घर से निकलने पर भी रोक लगा दी है. मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकती. अगर जीना है तो तुम्हारे साथ, नहीं तो मरूंगी भी तुम्हारे साथ.’’

तब मैं ने फैसला किया कि हम लोग गांव से भाग कर दिल्ली में कोर्ट मैरिज कर लेंगे.

एक रात जब गांव के लोग गहरी नींद में सोए हुए थे, हम लोग अपने घर से निकल कर स्टेशन पहुंचे और दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवार हो गए.

हम दोनों बालिग थे, इसलिए जल्दी ही हम ने शादी कर ली.

मौन: जब दो जवां और अजनबी दिल मिले – भाग 1

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे होें. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.

मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

वो भूली दास्तां : बारिश में मिले दो अजनबी

कभीकभी जिंदगी में कुछ घटनाएं ऐसी भी घटती हैं, जो अपनेआप में अजीब होती हैं. ऐसा ही वाकिआ एक बार मेरे साथ घटा था, जब मैं दिल्ली से हैदराबाद जा रहा था. उस दिन बारिश हो रही थी, जिस की वजह से मुझे एयरपोर्ट पहुंचने में 10 मिनट की देरी हो गई थी और काउंटर बंद हो चुका था.

आज पूरे 2 साल बाद जब मैं दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरा और बारिश को उसी दिन की तरह मदमस्त बरसते देखा, तो अचानक से वह भूला हुआ किस्सा न जाने कैसे मेरे जेहन में ताजा हो गया.

मैं खुद हैरान था, क्योंकि पिछले 2 सालों में शायद ही मैं ने इस किस्से को कभी याद किया होगा.

एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर होने के चलते काम की जिम्मेदारियां इतनी ज्यादा हैं कि कब सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती है, इस का हिसाब रखने की फुरसत नहीं मिलती. यहां तक कि मैं इनसान हूं रोबोट नहीं, यह भी खुद को याद दिलाना पड़ता है.

लेकिन आज हवाईजहाज से उतरते ही उस दिन की एकएक बात आंखों के सामने ऐसे आ गई, जैसे किसी ने मेरी जिंदगी को पीछे कर उस दिन के उसी वक्त पर आ कर रोक दिया हो.

चैकआउट करने के बाद भी मैं एयरपोर्ट से बाहर नहीं निकला या यों कहें कि मैं जा ही नहीं पाया और वहीं उसी जगह पर जा कर बैठ गया, जहां 2 साल पहले बैठा था.

मेरी नजरें भीड़ में उसे ही तलाशने लगीं, यह जानते हुए भी कि यह सिर्फ मेरा पागलपन है. मेन गेट की तरफ देखतेदेखते मैं हर एक बात फिर से याद करने लगा.

टिकट काउंटर बंद होने की वजह से उस दिन मेरे टिकट को 6 घंटे बाद वाली फ्लाइट में ट्रांसफर कर दिया गया था. मेरा उसी दिन हैदराबाद पहुंचना बहुत जरूरी था. कोई और औप्शन मौजूद न होने की वजह से मैं वहीं इंतजार करने लगा.

बारिश इतनी तेज थी कि कहीं बाहर भी नहीं जा सकता था. बोर्डिंग पास था नहीं, तो अंदर जाने की भी इजाजत नहीं थी और बाहर ज्यादा कुछ था नहीं देखने को, तो मैं अपने आईपैड पर किताब पढ़ने लगा.

अभी 5 मिनट ही बीते होंगे कि एक लड़की मेन गेट से भागती हुई आई और सीधा टिकट काउंटर पर आ कर रुकी. उस की सांसें बहुत जोरों से चल रही थीं. उसे देख कर लग रहा था कि वह बहुत दूर से भागती हुई आ रही है, शायद बारिश से बचने के लिए. लेकिन अगर ऐसा ही था तो भी उस की कोशिश कहीं से भी कामयाब होती नजर नहीं आ रही थी. वह सिर से पैर तक भीगी हुई थी.

यों तो देखने में वह बहुत खूबसूरत नहीं थी, लेकिन उस के बाल कमर से 2 इंच नीचे तक पहुंच रहे थे और बड़ीबड़ी आंखें उस के सांवले रंग को संवारते हुए उस की शख्सीयत को आकर्षक बना रही थीं.

तेज बारिश की वजह से उस लड़की की फ्लाइट लेट हो गई थी और वह भी मेरी तरह मायूस हो कर सामने वाली कुरसी पर आ कर बैठ गई. मैं कब किताब छोड़ उसे पढ़ने लगा था, इस का एहसास मुझे तब हुआ, जब मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी.

ठीक उसी वक्त उस ने मेरी तरफ देखा और तब तक मैं भी उसे ही देख रहा था. उस के चेहरे पर कोई भाव नहीं था. मैं सकपका गया और उस पल की नजर से बचते हुए फोन को उठा लिया.

फोन मेरी मंगेतर का था. मैं अभी उसे अपनी फ्लाइट मिस होने की कहानी बता ही रहा था कि मेरी नजर मेरे सामने बैठी उस लड़की पर फिर से पड़ी. वह थोड़ी घबराई हुई सी लग रही थी. वह बारबार अपने मोबाइल फोन पर कुछ चैक करती, तो कभी अपने बैग में.

मैं जल्दीजल्दी फोन पर बात खत्म कर उसे देखने लगा. उस ने भी मेरी ओर देखा और इशारे में खीज कर पूछा कि क्या बात है?

मैं ने अपनी हरकत पर शर्मिंदा होते हुए उसे इशारे में ही जवाब दिया कि कुछ नहीं.

उस के बाद वह उठ कर टहलने लगी. मैं ने फिर से अपनी किताब पढ़ने में ध्यान लगाने की कोशिश की, पर न चाहते हुए भी मेरा मन उस को पढ़ना चाहता था. पता नहीं, उस लड़की के बारे में जानने की इच्छा हो रही थी.

कुछ मिनट ही बीते होंगे कि वह लड़की मेरे पास आई और बोली, ‘सुनिए, क्या आप कुछ देर मेरे बैग का ध्यान रखेंगे? मैं अभी 5 मिनट में चेंज कर के वापस आ जाऊंगी.’

‘जी जरूर. आप जाइए, मैं ध्यान रख लूंगा,’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘थैंक यू. सिर्फ 5 मिनट… इस से ज्यादा टाइम नहीं लूंगी आप का,’ यह कह कर वह बिना मेरे जवाब का इंतजार किए वाशरूम की ओर चली गई.

10-15 मिनट बीतने के बाद भी जब वह नहीं आई, तो मुझे उस की चिंता होने लगी. सोचा जा कर देख आऊं, पर यह सोच कर कि कहीं वह मुझे गलत न समझ ले. मैं रुक गया. वैसे भी मैं जानता ही कितना था उसे. और 10 मिनट बीते. पर वह नहीं आई.

अब मुझे सच में घबराहट होनेल लगी थी कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया. वैसे, वह थोड़ी बेचैन सी लग रही थी. मैं उसे देखने जाने के लिए उठने ही वाला था कि वह मुझे सामने से आती हुई नजर आई.

उसे देख कर मेरी जान में जान आई. वह ब्लैक जींस और ह्वाइट टौप में बहुत अच्छी लग रही थी. उस के खुले बाल, जो शायद उस ने सुखाने के लिए खोले थे, किसी को भी उस की तरफ खींचने के लिए काफी थे.

वह अपना बैग उठाते हुए एक फीकी सी हंसी के साथ मुझ से बोली, ‘सौरी, मुझे कुछ ज्यादा ही टाइम लग गया. थैंक यू सो मच.’

मैं ने उस की तरफ देखा. उस की आंखें लाल लग रही थीं, जैसे रोने के बाद हो जाती हैं. आंखों की उदासी छिपाने के लिए उस ने मेकअप का सहारा लिया था, लेकिन उस की आंखों पर बेतरतीबी से लगा काजल बता रहा था कि उसे लगाते वक्त वह अपने आपे में नहीं थी. शायद उस समय भी वह रो रही हो.

यह सोच कर पता नहीं क्यों मुझे दर्द हुआ. मैं जानने को और ज्यादा बेचैन हो गया कि आखिर बात क्या है.

मैं ने अपनी उलझन को छिपाते हुए उस से सिर्फ इतना कहा, ‘यू आर वैलकम’.

कुछ देर बाद देखा तो वह अपने बैग में कुछ ढूंढ़ रही थी और उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. शायद उसे अपना रूमाल नहीं मिल रहा था.

उस के पास जा कर मैं ने अपना रूमाल उस के सामने कर दिया. उस ने बिना मेरी तरफ देखे मुझ से रूमाल लिया और उस में अपना चेहरा छिपा कर जोरजोर से रोने लगी.

वह कुरसी पर बैठी थी. मैं उस के सामने खड़ा था. उसे रोते देख जैसे ही मैं ने उस के कंधे पर हाथ रखा, वह मुझ से चिपक गई और जोरजोर से रोने लगी. मैं ने भी उसे रोने दिया और वे कुछ पल खामोश अफसानों की तरह गुजर गए.

कुछ देर बाद जब उस के आंसू थमे, तो उस ने खुद को मुझ से अलग कर लिया, लेकिन कुछ बोली नहीं. मैं ने उसे पीने को पानी दिया, जो उस ने बिना किसी झिझक के ले लिया.

फिर मैं ने हिम्मत कर के उस से सवाल किया, ‘अगर आप को बुरा न लगे, तो एक सवाल पूछं?’

उस ने हां में अपना सिर हिला कर अपनी सहमति दी.

‘आप की परेशानी का सबब पूछ सकता हूं? सब ठीक है न?’ मैं ने डरतेडरते पूछा.

‘सब सोचते हैं कि मैं ने गलत किया, पर कोई यह समझाने की कोशिश नहीं करता कि मैं ने वह क्यों किया?’ यह कहतेकहते उस की आंखों में फिर से आंसू आ गए.

‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम से गलती हुई, फिर चाहे उस के पीछे की वजह कोई भी रही हो?’ मैं ने उस की आंखों में आंखें डालते हुए पूछा.

‘मुझे नहीं पता कि क्या सही है और क्या गलत. बस, जो मन में आया वह किया?’ यह कह कर वह मुझ से अपनी नजरें चुराने लगी.

‘अगर खुद जब समझ न आए, तो किसी ऐसे बंदे से बात कर लेनी चाहिए, जो आप को नहीं जानता हो, क्योंकि वह आप को बिना जज किए समझाने की कोशिश करेगा?’ मैं ने भी हलकी मुसकराहट के साथ कहा.

‘तुम भी यही कहोगे कि मैं ने गलत किया?’

‘नहीं, मैं यह समझाने की कोशिश करूंगा कि तुम ने जो किया, वह क्यों किया?’

मेरे ऐसा कहते ही उस की नजरें मेरे चेहरे पर आ कर ठहर गईं. उन में शक तो नहीं था, पर उलझन के बादलजरूर थे कि क्या इस आदमी पर यकीन किया जा सकता है? फिर उस ने अपनी नजरें हटा लीं और कुछ पल सोचने के बाद फिर मुझे देखा.

मैं समझ गया कि मैं ने उस का यकीन जीत लिया है. फिर उस ने अपनी परेशानी की वजह बतानी शुरू की.

दरअसल, वह एक मल्टीनैशनल कंपनी में बड़ी अफसर थी. वहां उस के 2 खास दोस्त थे रवीश और अमित. रवीश से वह प्यार करती थी. तीनों एकसाथ बहुत मजे करते. साथ ही, आउटस्टेशन ट्रिप पर भी जाते. वे दोनों इस का बहुत खयाल रखते थे.

एक दिन उस ने रवीश से अपने प्यार का इजहार कर दिया. उस ने यह कह कर मना कर दिया कि उस ने कभी उसे दोस्त से ज्यादा कुछ नहीं माना.

रवीश ने उसे यह भी बताया कि अमित उस से बहुत प्यार करता है और उसे उस के बारे में एक बार सोच लेना चाहिए.

उसे लगता था कि रवीश अमित की वजह से उस के प्यार को स्वीकार नहीं कर रहा, क्योंकि रवीश और अमित में बहुत गहरी दोस्ती थी. वह अमित से जा कर लड़ पड़ी कि उस की वजह से ही रवीश ने उसे ठुकरा दिया है और साथ में यह भी इलजाम लगाया कि कैसा दोस्त है वह, अपने ही दोस्त की गर्लफ्रैंड पर नजर रखे हुए है.

इस बात पर अमित को गुस्सा आ गया और उस के मुंह से गाली निकल गई. बात इतनी बढ़ गई कि वह किसी और के कहने पर, जो इन तीनों की दोस्ती से जला करता था, उस ने अमित के औफिस में शिकायत कर दी कि उस ने मुझे परेशान किया. इस वजह से अमित की नौकरी भी खतरे में पड़ गई.

इस बात से रवीश बहुत नाराज हुआ और अपनी दोस्ती तोड़ ली. यह बात उस से सही नहीं गई और वह शहर से कुछ दिन दूर चले जाने का मन बना लेती है, जिस की वजह से वह आज यहां है.

यह सब बता कर उस ने मुझ से पूछा, ‘अब बताओ, मैं ने क्या गलत किया?’

‘गलत तो अमित और रवीश भी नहीं थे. वह थे क्या?’ मैं ने उस के सवाल के बदले सवाल किया.

‘लेकिन, रवीश मुझ से प्यार करता था. जिस तरह से वह मेरी केयर करता था और हर रात पार्टी के बाद मुझे महफूज घर पहुंचाता था, उस से तो यही लगता था कि वह भी मेरी तरह प्यार में है.’

‘क्या उस ने कभी तुम से कहा कि वह तुम से प्यार करता है?’

‘नहीं.’

‘क्या उस ने कभी अकेले में तुम से बाहर चलने को कहा?’

‘नहीं. पर उस की हर हरकत से मुझे यही लगता था कि वह मुझे प्यार करता है.’

‘ऐसा तुम्हें लगता था. वह सिर्फ तुम्हें अच्छा दोस्त समझ कर तुम्हारा खयाल रखता था.’

‘मुझे पता था कि तुम भी मुझे ही गलत कहोगे,’ उस ने थोड़ा गुस्से से बोला.

‘नहीं, मैं सिर्फ यही कह रहा हूं कि अकसर हम से भूल हो जाती है यह समझाने में कि जिसे हम प्यार कह रहे हैं, वो असल में दोस्ती है, क्योंकि प्यार और दोस्ती में ज्यादा फर्क नहीं होता.’

‘लेकिन, उस की न की वजह अमित भी तो सकता है न?’

‘हो सकता है, लेकिन तुम ने यह जानने की कोशिश ही कहां की. अच्छा, यह बताओ कि तुम ने अमित की शिकायत क्यों की?’

‘उस ने मुझे गाली दी थी.’

‘क्या सिर्फ यही वजह थी? तुम ने सिर्फ एक गाली की वजह से अपने दोस्त का कैरियर दांव पर लगा दिया?’

‘मुझे नहीं पता था कि बात इतनी बढ़ जाएगी. मैं सिर्फ उस से माफी मंगवाना चाहती थी?

‘बस, इतनी सी ही बात थी?’ मैं ने उस की आंखों में झांक कर पूछा.

‘नहीं, मैं अमित को हर्ट कर के रवीश से बदला लेना चाहती थी, क्योंकि उस की वजह से ही रवीश ने मुझे इनकार किया था.’

‘क्या तुम सचमुच रवीश से प्यार करती हो?’

मेरे इस सवाल से वह चिढ़ गई और गुस्से में खड़ी हो गई.

‘यह कैसा सवाल है? हां, मैं उस से प्यार करती हूं, तभी तो उस के यह कहने पर कि मैं उस के प्यार के तो क्या दोस्ती के भी लायक नहीं. यह सुन कर मुझे बहुत हर्ट हुआ और मैं घर क्या अपना शहर छोड़ कर जा रही हूं.’

‘पर जिस समय तुम ने रवीश से अपना बदला लेने की सोची, प्यार तो तुम्हारा उसी वक्त खत्म हो गया था, प्यार में सिर्फ प्यार किया जाता है, बदले नहीं लिए जाते और वह दोनों तो तुम्हारे सब से अच्छे दोस्त थे?’

मेरी बात सुन कर वह सोचती हुई फिर से कुरसी पर बैठ गई. कुछ देर तक तो हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला. कुछ देर बाद उस ने ही चुप्पी तोड़ी और बोली, ‘मुझ में क्या कमी थी, जो उसे मुझ से प्यार नहीं हुआ?’ और यह कहतेकहते वह मेरे कंधे पर सिर रख कर रोने लगी.

‘हर बार इनकार करने की वजह किसी कमी का होना नहीं होता. हमारे लाख चाहने पर भी हम खुद को किसी से प्यार करने के लिए मना नहीं सकते. अगर ऐसा होता तो रवीश जरूर ऐसा करता,’ मैं ने भी उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘सब मुझे बुरा समझाते हैं,’ उस ने बच्चे की तरह रोते हुए कहा.

‘नहीं, तुम बुरी नहीं हो. बस टाइम थोड़ा खराब है. तुम अपनी शिकायत वापस क्यों नहीं ले लेतीं?’

‘इस से मेरी औफिस में बहुत बदनामी होगी. कोई भी मुझ से बात तक नहीं करेगा?’

‘हो सकता है कि ऐसा करने से तुम अपनी दोस्ती को बचा लो और क्या पता, रवीश तुम से सचमुच प्यार करता हो और वह तुम्हें माफ कर के अपने प्यार का इजहार कर दे,’ मैं ने उस का मूड ठीक करने के लिए हंसते हुए कहा.

यह सुन कर वह हंस पड़ी. बातों ही बातों में वक्त कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. मेरी फ्लाइट जाने में अभी 2 घंटे बाकी थे और उस की में एक घंटा.

मैं ने उस से कहा, ‘बहुत भूख लगी है. मैं कुछ खाने को लाता हूं,’ कह कर मैं वहां से चला गया.

थोड़ी देर बाद मैं जब वापस आया, तो वह वहां नहीं थी. लेकिन मेरी सीट पर मेरे बैग के नीचे एक लैटर था, जो उस ने लिखा था:

‘डियर,

‘आज तुम ने मुझे दूसरी गलती करने से बचा लिया, नहीं तो मैं सबकुछ छोड़ कर चली जाती और फिर कभी कुछ ठीक नहीं हो पाता. अब मुझे पता है कि मुझे क्या करना है. तुम अजनबी नहीं होते, तो शायद मैं कभी तुम्हारी बात नहीं सुनती और मुझे अपनी गलती का कभी एहसास नहीं होता. अजनबी ही रहो, इसलिए अपनी पहचान बताए बिना जा रही हूं. शुक्रिया, सहीगलत का फर्क समझाने के लिए. जिंदगी ने चाहा, तो फिर कभी तुम से मुलाकात होगी.’

मैं खत पढ़ कर मुसकरा दिया. कितना अजीब था यह सब. हम ने घंटों बातें कीं, लेकिन एकदूसरे का नाम तक नहीं पूछा. उस ने भी मुझ अजनबी को अपने दिल का पूरा हाल बता दिया. बात करते हुए ऐसा कुछ लगा ही नहीं कि हम एकदूसरे को नहीं जानते और मैं बर्गर खाते हुए यही सोचने लगा कि वह वापस जा कर करेगी क्या?

फोन की घंटी ने मुझे मेरे अतीत से जगाया. मैं अपना बैग उठा कर एयरपोर्ट से बाहर निकल गया. लेकिन निकलने से पहले मैं ने एक बार फिर चारों तरफ इस उम्मीद से देखा कि शायद वह मुझे नजर आ जाए. मुझे लगा कि शायद जिंदगी चाहती हो मेरी उस से फिर मुलाकात हो. यह सोच कर मैं पागलपन पर खुद ही हंस दिया और अपने रास्ते निकल पड़ा.

अच्छा ही हुआ, जो उस दिन हम ने अपने फोन नंबर ऐक्सचेंज नहीं किए और एकदूसरे का नाम नहीं पूछा. एकदूसरे को जान जाते, तो वह याद आम हो जाती या वह याद ही नहीं रहती.

अकसर ऐसा होता है कि हम जब किसी को अच्छी तरह जानने लगते हैं, तो वो लोग याद आना बंद हो जाते हैं. कुछ रिश्ते अजनबी भी तो रहने चाहिए, बिना कोई नाम के.

कुछ खट्टा कुछ मीठा: वीर के स्वभाव में कैसे बदलाव आया?

फोन की घंटी लगातार बज रही थी. सब्जी के पकने से पहले ही उस ने तुरंत आंच बंद कर दी और मन ही मन सोचा कि इस समय किस का फोन हो सकता है. रिसीवर उठा कर कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो ममा,’’ उधर मिनी थी.

मिनी का इस समय फोन? सोच उस ने पूछा, ‘‘तू अभी तक औफिस नहीं गई?’’

‘‘बस जा रही हूं. सोचा जाने से पहले आप को फोन कर लूं,’’ मिनी का उत्तर था.

‘‘कोई खास बात?’’ उस ने जानना चाहा.

‘‘नहीं, वैसे ही. आप ठीक हैं न?’’ मिनी ने पूछा.

‘‘लो, मुझे क्या हुआ है? भलीचंगी हूं,’’ उस ने हैरान हो कर कहा.

‘‘आप ने फोन देर से उठाया न, इसलिए पूछ रही हूं,’’ मिनी बोली.

‘‘मैं किचन में काम कर रही थी,’’ उस ने कहा.

‘‘और सुनाइए कैसा चल रहा है?’’ मिनी ने बात बढ़ाई.

‘‘सब ठीक है,’’ उस ने उत्तर दिया, पर मन ही मन सोच रही थी कि मिनी को क्या हो गया है. एक तो सुबहसुबह औफिस टाइम पर फोन और उस पर इतने इतमीनान से बात कर रही है. कुछ बात तो जरूर है.

‘‘ममा, पापा का अभी फोन आया था,’’ मिनी बोली.

‘‘पापा का फोन? पर क्यों?’’ सुन कर वह हैरान थी.

‘‘कह रहे थे मैं आप से बात कर लूं. 3-4 दिन से आप का मूड कुछ उखड़ाउखड़ा है,’’ मिनी ने संकोच से कहा.

अच्छा तो यह बात है, उस ने मन ही मन सोचा और फिर बोली, ‘‘कुछ नहीं, बस थोड़ा थक जाती हूं. अच्छा तू अब औफिस जा वरना लेट हो जाएगी.’’

‘‘आप अपना ध्यान रखा करो,’’ कह कर मिनी ने फोन काट दिया.

वह सब समझ गई . पिछले हफ्ते की बात है. वीर टीवी देख रहे थे. उस ने कहा, ‘‘आज दोपहर को आनंदजी के घर चोरी हो गई है.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘आनंदजी की पत्नी बस मार्केट तक ही गई थीं. घंटे भर बाद आ कर देखा तो सारा घर अस्तव्यस्त था. चोर शायद पिछली दीवार फांद कर आए थे. आप सुन रहे हैं न?’’ उस ने टीवी की आवाज कम करते हुए पूछा.

‘‘हांहां सब सुन रहा हूं. आनंदजी के घर चोरी हो गई है. चोर सारा घर अस्तव्यस्त कर गए हैं. वे बाहर की दीवार फांद कर आए थे वगैरहवगैरह. तुम औरतें बात को कितना खींचती हैं… खत्म ही नहीं करतीं,’’ कहते हुए उन्होंने टीवी की आवाज फिर ऊंची कर दी.

सुन कर वह हक्कीबक्की रह गई. दिनदहाड़े कालोनी में चोरी हो जाना क्या छोटीमोटी है? फिर आदमी क्या कम बोलते हैं? वह मन ही मन बड़बड़ा रही थी.

उस दिन से उस के भी तेवर बदल गए. अब वह हर बात का उत्तर हां या न में देती. सिर्फ मतलब की बात करती. एक तरह से अबोला ही चल रहा था. तभी वीर ने मिनी को फोन किया था. उस का मन फिर अशांत हो गया, ‘जब अपना मन होता तो घंटों बात करेंगे और न हो तो जरूरी बात पूछने पर भी खीज उठेंगे. बोलो तो बुरे न बोलो तो बुरे यह कोई बात हुई. पहले बच्चे पास थे तो उन में व्यस्त रहती थी. उन से बात कर के हलकी हो जाती थी, पर अब…अब,’ सोचसोच कर मन भड़क रहा था.

उसे याद आया. इसी तरह ठीक इसी तरह एक दिन रात को लेटते समय उस ने कहा,  ‘‘आज मंजू का फोन आया था, कह रही थी…’’

‘‘अरे भई सोने दो. सुबह उठ कर बात करेंगे,’’ कह कर वीर ने करवट बदल ली.

बहुत बुरा लगा कि अपने घर में ही बात करने के लिए समय तय करना पड़ता है, पर चुपचाप पड़ी रही. सुबह वाक पर मंजू मिल गई. उस ने तपाक से मुबारकबाद दी.

‘‘किस बात की मुबारकबाद दी जा रही है. कोई हमें भी तो बताए,’’ वीर ने पूछा.

‘’पिंकू का मैडिकल में चयन हो गया है. मैं ने फोन किया तो था,’’ मंजू तुरंत बोली.

‘‘पिंकू के दाखिले की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’ घर आ कर उन्होंने पूछा.

‘‘रात आप को बता रही थी पर आप…’’

उस की बात को बीच ही में काट कर वीर बोल उठे,  ‘‘चलो कोई बात नही. शाम को उन के घर जा कर बधाई दे आएंगे,’’ आवाज में मिसरी घुली थी.

शाम को मंजू के घर जाने के लिए तैयार हो रही थी. एकाएक याद आया कुछ दिन पहले शैलेंद्र की शादी की वर्षगांठ थी.

‘‘जल्दी से तैयार हो जाओ, हम हमेशा लेट हो जाते हैं,’’ वीर ने आदेश दिया था.

‘‘मैं तो तैयार हूं.’’

‘‘क्या कहा? तुम यह ड्रैस पहन कर जाओगी…और कोई अच्छी ड्रैस नहीं है तुम्हारे पास? अच्छे कपड़े नहीं हैं तो नए सिलवा लो,’’ वीर की प्रतिक्रिया थी.

उस ने तुरंत उन की पसंद की साड़ी निकाल कर पहन ली.

‘‘हां? अब बनी न बात,’’ आंखों में प्रशंसा के भाव थे.

अपनी तारीफ सुनना कौन नहीं चाहता. इसीलिए  तो भी उस दिन उस ने 2-3 साडि़यां निकाल कर पूछ लिया, ‘‘इन में से कौन सी पहनूं?’’

‘‘कोई भी पहन लो. मुझ से क्यों पूछती हो?’’ वीर ने रूखे स्वर में उत्तर दिया.

कहते हैं मन पर काबू रखना चाहिए, पर वह क्या करे? यादें थीं कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थीं. उस पर मिनी के फोन ने आग में घी का काम किया था. कड़ी से कड़ी जुड़ती जा रही थी. मंजू और वह एक दिन घूमने गईं. रास्ते में मंजू शगुन के लिफाफे खरीदने लगी. उस ने भी एक पैकेट ले लिया. सोचा 1-2 ले जाऊंगी तो वीर बोलेंगे कि जब खरीदने ही लगी थी तो पूरा पैकेट ले लेती.

उस के हाथ में पैकेट देखते ही वीर पूछ बैठे, ‘‘कितने में दिया.’’

‘‘30 में.’’

इतना महंगा? पूरा पैकेट लेने की क्या जरूरत थी? 1-2 ले लेती. कलपरसों हम मेन मार्केट जाने वाले हैं.’’

सुनते ही याद आया. ठीक इसी तरह एक दिन वह लक्स की एक टिक्की ले रही थी.

‘‘बस 1?’’ वीर ने टोका.

‘‘हां, बाकी मेन मार्केट से ले आएंगे,’’ वह बोली.

‘‘तुम क्यों हर वक्त पैसों के बारे में सोचती रहती हो. पूरा पैकेट ले लो. मेन मार्केट पता नहीं कब जाना हो,’’ उन का जवाब था.

वह समझ नही पा रही थी कि वह कहां गलत है और कहां सही या क्या वह हमेशा ही गलत होती है. यादों की सिलसिला बाकायदा चालू था. आज उस पर नैगेटिव विचार हावी होते जा रहे थे. पिछली बार मायके जाने पर भाभी ने पनीर के गरमगरम परांठे बना कर खिलाए थे. वीर तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे. सुनसुन कर वह ईर्ष्या से जली जा रही थी. परांठे वाकई स्वादिष्ठ थे. पर जो भी हो, कोई भी औरत अपने पति के मुुंह से किसी दूसरी औरत की प्रशंसा नहीं सुन सकती. फिर यहां तो मामला ननदभाभी का था. उस ने भी घर आ कर खूब मिर्चमसाला डाल कर खस्ताखस्ता परांठे बना डाले. पर यह क्या पहला टुकड़ा मुंह में डालते ही वीर बोल उठे,  ‘‘अरे भई, कमाल करती हो? इतना स्पाइसी… उस पर लगता है घी भी थोक में लगाया है.’’

सुन कर वह जलभुन गई. दूसरे बनाएं तो क्रिस्पी, वह बनाए तो स्पाइसी…पर कर क्या सकती थी. मन मार कर रह गई. कहते हैं न कि एक चुप सौ सुख.

मन का भटकाव कम ही नहीं हो रहा था. याद आया. उस के 2-4 दिन इधरउधर होने पर जनाब उदास हो जाते थे. बातबात में अपनी तनहाई का एहसास दिलाते, पर पिछली बार मां के बीमार होने पर 15 दिनों के लिए जाना पड़ा. आ कर उस ने रोमांचित होते हुए पूछा, ‘‘रात को बड़ा अकेलापन लगता होगा?’’

‘‘अकेलापन कैसा? टीवी देखतेदेखते कब नींद आ जाती थी, पता ही नहीं चलता था.’’

वाह रे मैन ईगो सोचसोच कर माथा भन्ना उठा सिर भी भारी हो गया. अब चाय की ललक उठ रही थी. फ्रिज में देखा, दूध बहुत कम था. अत: चाय पी कर घड़ी पर निगाह डाली, वीर लंच पर आने में समय था. पर दुकान पर पहुंची ही थी कि फोन बज उठा, ‘‘इतनी दोपहर में कहां चली गई हो? मैं घर के बाहर खड़ा हूं. मेरे पास चाबी भी नहीं है,’’ वीर एक ही सांस में सब बोल गए. आवाज से चिंता झलक रही थी.

‘‘घर में दूध नहीं था. दूध लेने आई हूं.’’

‘‘इतनी भरी दोपहर में? मुझे फोन कर दिया होता, मैं लेता आता.’’

उस के मन में आया कह दे कि फोन करने पर पैसे नहीं कटते क्या? पर नहीं जबान को लगाम लगाई .

‘‘ बोली सोचा सैर भी हो जाएगी.’’

‘‘इतनी गरमी में सैर?’’ बड़े ही कोमल स्वर में उत्तर आया.

आवाज का रूखापन पता नहीं कहां गायब हो गया था. मन के एक कोने से आवाज आई कह दे कि मार्च ही तो चल रहा है. कौन सी आग बरस रही है पर नहीं बिलकुल नहीं दिमाग बोला रबड़ को उतना ही खींचना चाहिए जिस से वह टूटे नहीं.

रहना तो एक ही छत के नीचे है न. वैसे भी अब यह सब सुनने की आदत सी हो गई है. फिर इन छोटीछोटी बातों को तूल देने की क्या जरूरत है? उस ने अपने उबलते हुए मन को समझाया और चुपचाप सुनती रही.

‘‘तुम सुन रही हो न मैं क्या कह रहा हूं?’’

‘‘हां सुन रही हूं.’’

‘‘ठीक है, तुम वहीं ठहरो. मैं गाड़ी ले कर आता हूं. सैर शाम को कर लेंगे,’’ शहद घुली आवाज में उत्तर आया.

‘‘ठीक है,’’ उस ने मुसकरा कर कहा.

‘‘इतनी मिठास. इतने मीठे की तो वह आदी नहीं है. नहीं, ज्यादा मीठा सेहत के लिए अच्छा नहीं होता, यह सोच कर वह स्वयं ही खिलखिला कर हंस पड़ी मन का सारा बोझ उतर चुका था. वह पूरी तरह हलकी हो चुकी थी.

बिमला महाजन

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