सत्य असत्य- भाग 1: क्या था कर्ण का असत्य

कर्ण के एक असत्य ने सब के लिए परेशानी खड़ी कर दी. जहां इसी की वजह से हुई निशा के पिता की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया, वहीं खुद कर्ण पछतावे की आग में सुलगता रहा. पर निशा से क्या उसे कभी माफी मिल सकी?

घर की तामीर चाहे जैसी हो, इस में रोने की कुछ जगह रखना.’ कागज पर लिखी चंद पंक्तियां निशा के हाथ में देख मैं हंस पड़ी, ‘‘घर में रोने की जगह क्यों चाहिए?’’

‘‘तो क्या रोने के लिए घर से बाहर जाना चाहिए?’’ निशा ने हंस कर कहा.

‘‘अरे भई, क्या बिना रोए जीवन नहीं काटा जा सकता?’’

‘‘रोना भी तो जीवन का एक अनिवार्य अंग है. गीता, अगर हंसना चाहती हो तो रोने का अर्थ भी समझो. अगर मीठा पसंद है तो कड़वाहट को भी सदा याद रखो. जीत की खुशी से मन भरा पड़ा है तो यह मत भूलो, हारने वाला भी कम महत्त्व नहीं रखता. वह अगर हारता नहीं तो दूसरा जीतता कैसे?’’

निशा के सांवले चेहरे पर बड़ीबड़ी आंखें मुझे सदा ही भाती रही हैं, और उस से भी ज्यादा प्यारी लगती रही हैं मुझे उस की बातें. हलके रंग के कपड़े उस पर बहुत सजते हैं.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘ये मशहूर शायर निदा फाजली के विचार हैं और मैं इन से पूरी तरह सहमत हूं. गीता, यह सच है, घर में एक ऐसा कोना जरूर होना चाहिए जहां इंसान जी भर कर रो सके.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है, जैसे घर में रसोईघर, सोने का कमरा, अतिथि कक्ष, क्या वैसा ही? मगर इतनी महंगाई में कैसे होगा यह सब? सुना है, राजामहाराजा रानियों के लिए कोपभवन बनवाते थे. क्या तुम भी वैसा ही कोई कक्ष चाहती हो?’’

शायद मेरी बात में छिपा व्यंग्य उसे चुभ गया. उस ने किताबें संभालीं और उठ कर चल दी.

मैं ने उसे रोकना चाहा, मगर वह रुकी नहीं. पलभर को मुझे बुरा लगा, लेकिन जल्द ही नौर्मल हो गई.

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मैं एमए के बाद बीएड कर रही थी. इसी सिलसिले में निशा से मुलाकात हो गई थी. पहली ही बार जब वह मिली, तभी इतनी अच्छी लगी थी कि कहीं गहरे मन में समा सी गई थी. पिता के सिवा उस का और कोईर् न था. पिता ही उस के सब थे. मैं उन से मिली नहीं थी, परंतु उन के बारे मैं इतना कुछ जान लिया था, मानो बहुतकुछ देखापरखा हो.

निशा के पिता विज्ञान के प्राध्यापक थे. लगभग 6 माह पहले ही उन का दिल्ली स्थानांतरण हुआ था.

‘‘आप इस से पहले कहां थीं?’’ एक दिन मैं ने पूछा तो वह बोली, ‘‘जम्मू.’’

‘‘बड़ी सुंदर जगह है न जम्मू. कश्मीर भी तो एक सुंदर जगह है. वहां तो तुम लोग जाती ही रहती होगी?’’

‘‘हां, बहुत सुंदर. कश्मीर तो अकसर जाते रहते हैं.’’

‘‘मगर तुम तो कश्मीरी नहीं लगतीं?’’

‘‘जानती हूं, दक्षिण भारतीय लगती हूं न, सभी हंसते हैं, पता नहीं क्यों. शायद मेरी मां सांवली होंगी. मगर मेरे पिता तो बहुत सुंदर हैं, कश्मीरी हैं न.’’

‘‘तुम्हारे भाईबहन?’’

‘‘कोई नहीं है. मैं और मेरे पिता, बस.’’

मां की कमी उसे खलती हो, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा. वह मस्तभाव से हर बात करती थी.

एक दिन मेरे बड़े भैया ने मुझ से कहा, ‘‘कभी उसे घर लाना न, निशा कैसी है, जरा हम भी तो देखें.’’

‘‘अच्छा, लाऊंगी, मगर तुम इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हो?’’ भाई को तनिक छेड़ा तो पिताजी ने कहा, ‘‘अरे भई, दिलचस्पी लेने की यही तो उम्र है.’’

कहकहों के बीच एक भीनी सी इच्छा ने भी जन्म ले लिया था कि क्यों न मैं उसे अपनी भाभी ही बना लूं. वैसे है तो सांवली, लेकिन हो सकता है, भैया को पसंद आ जाए. हां, मां का पता नहीं, उन का गोरीचिट्टी बहू का सपना है, क्या पता वे इस लोभ से ऊपर न उठ पाएं.

उसी दिन से मैं उसे दूसरी ही नजर से देखने लगी थी. कल्पना में ही उसे भैया की बगल में बिठा कर दोनों की जोड़ी कैसी लगेगी. गुलाबी जोड़े में कैसी सजेगी निशा, कैसी प्यारी लगेगी.

‘गीता, क्या देखती रहती हो?’ अकसर निशा के टोकने पर ही मेरी तंद्रा भंग होती थी.

‘कुछ भी तो नहीं,’ मैं हौले से कह उठती.

एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘हमारे घर चलोगी? तुम्हें सब से मिलाना चाहती हूं. चलो, मेरे साथ.’’

‘‘नहीं गीता, पिताजी को अच्छा नहीं लगता. फिर इस शहर में हम नए हैं न, किसी से इतनी जानपहचान कहां है, जो…’’

‘‘क्या मेरे साथ भी जानपहचान नहीं है?’’

‘‘कभी पिताजी के साथ ही आऊंगी, उन के बिना मैं कहीं नहीं जाती.’’

एक दिन मैं उस के साथ उस के घर चली गई. वे विश्वविद्यालय की ओर से मिले आवास में रहते थे.

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उन लोगों के पास 2 चाबियां थीं. घर पहुंचने पर द्वार उसे खुद ही खोलना पड़ा, क्योंकि उस के पिता अभी नहीं आए थे. पर सुंदर, व्यवस्थित घर में मैं ने उन का चित्र जरूर देख लिया. सचमुच वे बहुत सुंदर थे. किसी भी कोने से वे मुझे उस के पिता नहीं लगे, मगर बालों की सफेदी के कारण विश्वास करना ही पड़ा.

उस ने कहा, ‘‘पिताजी को फोन कर के बुला लूं. आज तुम पहली बार आई हो?’’

‘‘नहीं निशा, क्या यह अच्छा लगेगा कि मेरी वजह से वे काम छोड़ कर चले आएं? मैं फिर कभी अपने पिताजी के साथ आ जाऊंगी. दोनों में दोस्ती हो गई तो तुम्हें हमारे घर आने से नहीं रोकेंगे न.’’

‘घर में रोने को एक कोना उसे क्यों चाहिए? क्या उस के पिता ने किसी वजह से डांट दिया?’ घर आ कर भी मैं देर तक यह सोचती रही.

एक शाम भैया को

घर में प्रवेश करते

देखा तो कह दिया, ‘‘मेरे साथ निशा के घर चलो भैया, आज वह बहुत उदास थी. पता नहीं उसे क्या हो गया है.’’

‘‘तुम गौर से सुन लो, आइंदा उस से कभी मत मिलना. वह अच्छे चरित्र की लड़की नहीं है.’’

‘‘भैया,’’ मैं चीख उठी.

‘‘तुम उस के बहुत गुणगान करती थीं. अपने बाप के बिना वह कहीं जाती नहीं. अरे, दस बार तो मैं उसे एक लड़के के साथ देख चुका हूं.’’

‘‘लेकिन,’’ मैं भाई के कथन पर अवाक रह गई. फिर सोचते हुए पूछा, ‘‘आप ने निशा को कब देखा? जानते भी हो उसे?’’

‘‘जब से घर में उस के गुण गा रही हो, तभी से उसे देख रहा हूं.’’

‘‘कहां?’’

‘‘वहीं कालेज के बाहर. जब वह अपने घर जाती है, तब.’’

‘‘क्यों देखते रहे उसे?’’

‘‘झक मारता रहा, बस. और क्या कहूं,’’ भैया पैर पटक कर भीतर चले गए.

घर में मां और पिताजी नहीं थे, इसीलिए तमतमाई सी पीछे जा पहुंची, ‘‘आप सड़कछाप लड़कों की तरह उस का पीछा करते रहे? क्या आप अच्छे चरित्र के मालिक हैं? वाह भैया, वाह.’’

‘‘तुम ने ही कहा था न कि वह जहां जाती है, अपने पिता के साथ जाती है. यहां तक कि यहां तुम्हारे साथ भी नहीं आई.’’

‘‘हां, मैं ने कहा था, लेकिन यह तो नहीं कहा था कि…लेकिन आप इतने गंभीर क्यों हो रहे हैं? क्या वह किसी के साथ आजा नहीं सकती. भैया, आखिर उसे चरित्रहीन कहने का आप को क्या हक है?’’

‘‘हक क्यों नहीं है. मैं…मैं उसे पसंद करने लगा था. वह मुझे भी उतनी ही अच्छी लगती रही है, जितनी कि तुम्हें. पिछले कई हफ्तों से मैं उस पर नजर रख रहा हूं. वह लड़का उस के घर उस से मिलने भी जाता है. मैं ने कई जगह दोनों को देखा है.’’

पहली बार लगा, मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई. अगर उस का किसी के साथ प्रेम है भी, तो मुझे बताया क्यों नहीं.

मैं ने तनिक गुस्से में कहा, ‘‘भैया, अपने शब्द वापस लो. प्रेम करने और चरित्रहीन होने में जमीनआसमान का अंतर है. वह चरित्रहीन नहीं है.’’

‘‘कैसे नहीं है? तुम ने कहा था न.’’

‘‘मेरी बात छोड़ो. मैं तो यह भी कह रही हूं कि वह अच्छी लड़की है. मात्र मेरी बातों का सहारा मत लो. अपनी जलन को कीचड़ बना कर उस के चरित्र पर मत उछालो.’’

इतना सुनते ही भैया खामोश हो गए.

मैं निशा को ले कर बराबर विचलित रही. 2-3 दिन बीत गए, पर वह कालेज नहीं आई. मैं ने बहुत चाहा कि उस के घर जा कर उस युवक के विषय में पूछूं, पर हिम्मत ही न हुई.

?एक रात फोन की घंटी घनघना उठी.

?फोन निशा का था और वह

अस्पताल से बोल रही थी. उस के पिता को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा था. भैया मेरे साथ उसी समय अस्पताल गए.

निशा के पिता आपातकक्ष में थे. हम उन्हें देखने भीतर नहीं जा सकते थे. मुझे देखते ही वह जोरजोर से रोने लगी. उन के पड़ोसी प्रोफैसर सुदीप चुपचाप पास खड़े थे.

दूसरे दिन सुबह भैया ने कहा था कि मैं निशा को अपने साथ घर ले जाऊं. पर वह हड़बड़ा गई, ‘‘नहीं गीता, मैं पिताजी को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

निशा के मना करने पर भैया ऊंची आवाज में बोले, ‘‘यहां बैठ कर रोनेधोने से क्या वे जल्दी अच्छे हो जाएंगे? जाओ, घर जा कर कुछ खापी लो. मैं यहीं हूं. पिताजी से कह देना, आज छुट्टी ले लें. जाओ, तुम दोनों घर चली जाओ.’’

वह मेरे साथ घर आईर् तो पिताजी ने कहा, ‘‘घबराना नहीं बेटी, यह मत सोचना कि तुम इस शहर में अकेली हो. हम हैं न तुम्हारे…’’

मेरे मन में बारबार प्रश्न उठता रहा कि आखिर इस संकट की घड़ी में निशा का वह मित्र कहां गायब हो गया? क्या वह मात्र सुख का साथी था?

निशा ने नहा कर मेरी गुलाबी साड़ी पहन ली. मेरा मन भर आया कि काश, निशा मेरी भाभी बन पाती.

मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? मुझे भैया की आंखों में बसी पीड़ा याद आने लगी.

बरामदे से मां का बिस्तर साफ दिख रहा था. सर्दी में निशा सिकुड़ी सी सोई थी. भीतर जा कर मैं ने उस के ऊपर लिहाफ ओढ़ा दिया.

नहा कर और नाश्ता कर के मैं भी अपने कमरे में जा लेटी. भैया अभी तक घर नहीं लौटे थे. थोड़ी देर बार मेरी पलकें मुंदने लगीं. परंतु शीघ्र ही ऐसा लगा, जैसे कोई मुझे पुकार रहा है, ‘गीता…गीता…उठो न.’’

सहसा मेरी नींद खुल गई. लेकिन मेरी हड़बड़ाहट की सीमा न रही. वास्तव में जो सामने था, वह अविश्वसनीय था. सामने द्वार पर भैया पगलाए से खड़े थे और मेरी पीठ के पीछे निशा छिपने का प्रयास कर रही थी. फिर किसी तरह बोली, ‘‘मेरे पैर पकड़ रहे हैं तुम्हारे भैया. कहते हैं, वे मेरे दोषी हैं. पर मैं ने तो इन्हें पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘गीता, मुझ से घोर ‘पाप’ हो गया. मुझे माफ कर दो, गीता,’’ भैया ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखा.

सहमी सी निशा कभी मुझे और कभी उन्हें देख रही थी. उस ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप ने मेरा क्या बिगाड़ा है जो इस तरह क्षमायाचना…मेरे पिताजी को कुछ हो तो नहीं गया?’’

भैया गरदन नहीं उठा पाए. निशा के पिता का निधन हो चुका था. कैसे कहूं, क्याक्या बीत गया उन 3 दिनों में. मेरे पिता और भाई शव के साथ जम्मू चले गए. वहीं उन के नातेरिश्तेदार थे. पत्थर सी निशा भी साथ गई. एक अध्याय जैसे समाप्त हो गया.

कई दिनों तक घर का माहौल बोझल बना रहा. फिर धीरेधीरे सब सामान्य हो गया. परंतु भैया सामान्य नहीं हो पाए. कई बार मैं सोचती, उन से पूछूं कि उन्होंने खुद को निशा का दोषी क्यों कहा था?

लगभग 15-20 दिन बीत गए थे. एक शाम आंगन में भैया का बदलाबदला स्वर सुनाई दिया, ‘‘अरे निशा, आओ…आओ…’’

हाथ में अटैची पकड़े सामने निशा ही तो खड़ी थी. मां और पिताजी ने प्रश्नसूचक भाव से पहले मेरा मुंह देखा और फिर एकदूसरे का. मैं बढ़ कर उस का स्वागत करती, इस से पहले ही भैया ने उस के हाथ से अटैची ले ली.

‘‘आओ निशा, कैसी हो?’’ मैं ने पूछा तो वह मेरे गले से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी.

मां और पिताजी ने उसे बड़े स्नेह से दुलारा.

थोड़ी देर बाद निशा आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘गीता, मेरे पिताजी को किसी ने मुझ से अलग कर दिया. पता नहीं कौन उन्हें फोन कर के यह कहता रहा कि मैं उन से छिप कर किसी से मिलती हूं. भला किसी को मुझ से क्या दुश्मनी होगी? मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा. मुझे किस अपराध की सजा मिली?’’

रोतेरोते उस की हिचकी बंध गई. सहसा मेरे मन में एक सवाल उठा कि कौन था वह जिस के साथ भैया ने उसे देखा था? किसी तरह मां ने उसे शांत किया. मैं चाय, नाश्ता ले आई. भैया गुमसुम से सामने बैठ रहे.

निशा को बीएड की परीक्षाएं तो देनी ही थीं, उसी संदर्भ में उस ने पूछा, ‘‘क्या मैं कुछ दिन पेइंगगैस्ट के रूप में आप के पास रह सकती हूं? बीएड के बाद नौकरी कर लूंगी, फिर अपने घर चली जाऊंगी.’’

‘‘अरे, यह क्या कह रही हो बेटी, यह भी तुम्हारा ही घर है. पेइंगगैस्ट नहीं, मालकिन बन कर रहो,’’ पिताजी ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

निशा के रहने की व्यवस्था मेरे कमरे में हो गई. हमारा दिनरात का साथ हो गया. वह गृहकार्य में भी दक्ष थी, सो, मां का हाथ भी बंटाती. उस का सांवला रूप मुझे लुभालुभा जाता. परंतु एक जरा सा सत्य मुझे, बस, पीड़ा पर पीड़ा देता रहता.

अपने भाई के लिए भी मैं परेशान रहती. जब से निशा आईर् थी, वे अपने कमरे में ही कैद हो गए थे. चाय, नाश्ता सब खुद ही आ कर भीतर ले जाते. हमारे बीच बैठ कर बातचीत किए जैसे उन्हें सदियां बीत गई थीं. निशा उन की तरफ से तटस्थ थी.

मैं हैरान थी, 4-5 महीने बीतने पर भी निशा ने अपने मित्र का उल्लेख एक बार भी नहीं किया था. मैं सोचती, वह भला कब और किस वक्त उस से मिलती होगी, क्योंकि हमारा तो हर पल का साथ था. कभीकभी भैया एकटक निशा को ही निहारते रहते.

बीएड की परीक्षा हो गईर् और परीक्षाफल आतेआते एक विचित्र घटना घटी. भैया अपने एक परम मित्र से निशा की शादी करवाना चाहते थे. वे बोले, ‘‘निशा, वह कल आएगा, तुम उसे देख लेना. बहुत अच्छा इंसान है. मेरे साथ ही है, बैंक में काम करता है.’’

‘‘लेकिन कर्ण भैया,’’ पहली बार निशा ने मेरे भाई को पुकारा था.

‘‘तुम्हारे पिता के अंतिम शब्द यही थे कि वे तुम्हारी सुखी गृहस्थी नहीं देख पाए. तब यह जिम्मेदारी मैं ने अपने सिर पर ली थी. विजय मेरे साथ कालेज के दिनों से है. वह उतना ही अच्छा है, जितनी अच्छी तुम हो,’’ भैया ने गंभीर स्वर में कहा.

‘‘जी,’’ अवरुद्ध कंठ से वह इतना ही कह पाई.

‘‘तुम अगर उसे पसंद कर…’’ भैया ने आगे कहना चाहा, मगर वह बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘उस की जरूरत नहीं है. आप सब पिताजी जैसे ही माननीय हैं. आप जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे.’’

‘‘लेकिन भैया,’’ मैं ने हौले से कहा, ‘‘निशा की भी अपनी कुछ पसंद होगी. हो सकता है उसे कोई और पसंद हो. आप अपना फैसला इस तरह इस पर क्यों थोप रहे हैं?’’

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‘‘हांहां, बेटे, इस की पसंद भी तो पूछो. शादीब्याह जबरदस्ती का नहीं, प्यार का नाता होता है,’’ मेरे पिताजी बोले.

सहसा निशा रो पड़ी. फिर कुछ क्षणों के बाद बोली, ‘‘मेरी कोई पसंद नहीं है.’’

तभी मेरे मन में विचार आया कि हो सकता है, निशा ने उस पुरुषमित्र को छोड़ दिया हो. सच ही तो है, जो कभी उस का सुखदुख पूछने भी नहीं आया, वह भला कैसा प्रेमी? तब इस अवस्था में वह मेरी भाभी क्यों नहीं बन सकती.

उस रात बड़ी देर तक मुझे नींद नहीं आई. मैं ने निशा की तरफ करवट बदली, तो देखा, वह तकिए में मुंह छिपाए सुबकसुबक कर रो रही थी. पास जा कर उसे हिलाया, उस के हाथपैर काफी ठंडे थे. मैं ने घबरा कर भाई को बुलाया. हम दोनों कितनी देर तक उस के हाथपैर रगड़ते रहे. भैया ने लिहाफ ओढ़ा कर उसे बिठाया तो वह उन की छाती में मुंह छिपा कर बेतहाशा रोने लगी, ‘‘मैं ने अपने पिताजी से कभी कुछ नहीं छिपाया था. मुझे कभी कहीं भी अकेले नहीं जाने देते थे. फिर मुझे अकेली क्यों छोड़ गए? मैं सच कह रही हूं, मैं ने उन से कभी…’’

‘‘मैं जानता हूं निशा, मैं सब जानता हूं,’’ भैया ने अपने कुरते की बांह से उस की आंखें पोंछीं.

थोड़ी देर बाद बोले, ‘‘तुम निर्दोष हो निशा, तुम्हारे पिता तुम से नाराज नहीं थे. वह तो बस, यही कहते रहे कि जहां निशा चाहे, वहीं उसे…’’

‘‘मगर मैं ने चाहा ही क्या था? कुछ भी तो नहीं चाहा था…’’

रातभर भैया हमारे ही कमरे में रहे. मैं हैरान थी कि जिस निशा को वे चरित्रहीन घोषित कर चुके थे, उस पर इतना स्नेह लुटाने का क्या मतलब?

‘‘भैया, निशा के उस मित्र का पता क्यों नहीं करते?’’ मौका पाते ही मैं ने कह दिया.

भैया ने एक  बार मेरी ओर देखा अवश्य, पर बोले कुछ नहीं.,

‘‘जिस इंसान के लिए उस ने अपने पिता को खो दिया, कम से कम उसे निशा से मिलने तो आना चाहिए था न?’’

बैलेंसशीट औफ लाइफ- भाग 1: अनन्या की जिंदगी में कैसे मच गई हलचल

औफिस में अनन्या अपने सहकर्मियों के साथ जल्दीजल्दी लंच कर रही थी. लंच के फौरन बाद उस का एक महत्त्वपूर्ण प्रेजैंटेशन था, जिस के लिए वह काफी उत्साहित थी. इस मीटिंग की तैयारी वह 1 हफ्ते से कर रही थी. उस की अच्छी फ्रैंड सनाया ने टोका, ‘‘खाना तो कम से कम आराम से खा लो, अनन्या. काम तो होता रहेगा.’’

‘‘हां, जानती हूं, पर इस प्रेजैंटेशन के लिए बहुत मेहनत की है, राहुल का स्कूल उस का होमवर्क, उस का खानापीना सुमित ही देख रहा है आजकल.’’ ‘‘सच में, तुम्हें बहुत अच्छा पति मिला है.’’

‘‘हां, उस की सपोर्ट के बिना मैं कुछ कर ही नहीं सकती.’’ लंच कर के अनन्या एक बार फिर अपने काम में डूब गई. पवई की इस अत्याधुनिक बिल्डिंग के अपने औफिस के हर व्यक्ति की प्रशंसा की पात्र थी अनन्या. सब उस के गुणों की, मेहनत की तारीफ करते नहीं थकते थे. आधुनिक, स्मार्ट, सुंदर, मेहनती, प्रतिभाशाली अनन्या

10 साल पहले सुमित से विवाह कर दिल्ली से यहां मुंबई आई थी और पवई में ही अपने फ्लैट में अनन्या, सुमित और उन का बेटे राहुल का छोटा सा परिवार खुशहाल जीवन जी रहा था. अनन्या ने अपने काम से संतुष्ट हो कर घड़ी पर एक नजर डाली. तभी व्हाट्सऐप पर सुमित का मैसेज आया, ‘‘औल दि बैस्ट’, साथ ही किस की इमोजी. अनन्या को अच्छा लगा, मुसकराते हुए जवाब भेजा. अचानक उस के फोन की स्क्रीन पर मेघा का नाम चमका तो उस ने हैरान होते हुए फोन उठा लिया. मेघा उस की कालेज की घनिष्ठ सहेली थी. वह इस समय दिल्ली में थी.

मेघा ने कुछ परेशान सी आवाज में कहना शुरू किया, ‘‘अनन्या, तुम औफिस में हो?’’ ‘‘अरे, क्या हुआ? न हाय, न हैलो, सीधे सवाल तुम ठीक तो हो न?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं अनन्या, पर बड़ी गड़बड़ हो गई.’’

‘‘क्या हुआ? कुछ बताएगी भी.’’ ‘‘मार्केट में राघव की आत्मकथा ‘‘बैलेंसशीट औफ लाइफ’’ आई है न. उस ने तेरा और अपना पूरा किस्सा इस में लिख दिया है.’’

‘‘क्या?’’ तेज झटका लगा अनन्या को.

‘‘हां, मैं ने अभी पढ़ी नहीं है पर मेरे पति संजीव को बुक पढ़ कर किसी ने बताया कि किसी अनन्या की कहानी लिख कर तो इस ने शायद उस की लाइफ में तूफान ला दिया होगा. संजीव समझ गए कि शायद यह अनन्या तुम ही हो, आज शायद संजीव यह बुक लाएंगे तो पढ़ूंगी. मेरा तो दिमाग ही घूम गया सुन कर. सुमित जानता है न उस के बारे में?’’

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‘‘हां, जानता तो है कि मैं और राघव एकदूसरे को पसंद करते थे और हमारा विवाह उस के महत्त्वाकांक्षी स्वभाव के चलते हो नहीं पाया और उस ने धनदौलत के लिए किसी बड़े बिजनैसमैन की बेटी से विवाह कर लिया था और आज वह भी देश का जानामाना नाम है.’’ मेघा ने अटकते हुए संकोचपूर्वक कहा, ‘‘अनन्या, सुना है तुम्हारे और उस के बीच होने वाले सैक्स की बात उस ने…’’

अनन्या एक शब्द नहीं बोल पाई, आंखें अचानक आंसुओं से भरती चली गईं. अपमान के घूंट चुपचाप पीते हुए, ‘‘बाद में फोन करती हूं.’’ कह कर फोन रख दिया.

मेघा ने उसी समय मैसेज भेजा, ‘‘प्लीज डौंट बी सैड, फ्री होते ही फोन करना.’’ कुछ पल बाद सनाया ने आ कर उसे झंझोड़ा तो जैसे वह होश में आई, ‘‘क्या हुआ अनन्या? एसी में भी इतना पसीना.. तेरी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हांहां, बस ऐसे ही.’’ ‘‘टैंशन में हो?’’

‘‘नहींनहीं, कुछ नहीं,’’ अनन्या फीकी सी हंसी हंस दी. यों ही कह दिया, ‘‘प्रेजैंटेशन के बारे में सोच रही थी.’’ ‘‘कोई और बात है जानती हूं, तू इतनी कौन्फिडैंट है, प्रेजैंटेशन के बारे में सोच कर माथे पर इतना पसीना नहीं आएगा. नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं. ले, पानी पी और चल.’’

अनन्या ने उस दिन कैसे अपना प्रेजैंटेशन दिया, वही जानती थी. अतीत की परछाईं से उस ने स्वयं को बड़ी मुश्किल से निकाला था. मन अतीत में पीछे ले जाता रहा था और दिमाग वर्तमान पर ध्यान देने के लिए आगे धकेलता रहा था. तभी वह सफल हो पाई थी. उस के सीनियर्स ने उस की तारीफ कर उस का मनोबल बढ़ाया था. ‘‘तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही,’’ कह कर वह घर के लिए जल्दी निकल गई. राहुल स्कूल से डे केयर में चला जाता था. सुमित आजकल उसे लेता हुआ ही घर आता था, वह चुपचाप घर जा कर बैड पर पड़ गई.

राघव उस का पहला प्यार था. कौलेज में वह उस के प्यार में ऐसे मगन हुई कि यही मान लिया कि जीवन भर का साथ है. राघव एक छोटे से कसबे से दिल्ली में किराए का कमरा ले कर पढ़ता था. राघव के बहुत बार आग्रह करने पर वह एक ही बार उस के कमरे पर गई थी. वहीं भावनाओं में बह कर अनन्या ने पूर्ण समर्पण कर दिया था. आगे विवाह से पहले कभी ऐसा न हो, यह सोच कर फिर कभी उस के कमरे पर नहीं गई थी. पर दिल्ली के मशहूर धनी बिजनैसमैन की बेटी गीता से दोस्ती होने पर राघव को गीता के साथ ही भविष्य सुरक्षित लगा तो कई बहानों से दूरियां बनाते हुए राघव अनन्या से दूर होता चला गया.

अनन्या भी राघव में आए परिवर्तन को भलीभांति भांप गई थी. उस ने पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई, कैरियर पर लगा दिया था और अपने प्यार को कई परतों में दिल में दबा कर यह जख्म समय के ऊपर ही भरने के लिए छोड़ दिया था. कुछ समय बाद मातापिता की पसंद सुमित से विवाह कर मुंबई चली आई और सुमित व राहुल को पा बहुत संतुष्ट व सुखी थी पर आजकल जो आत्मकथा लिखने का फैशन बढ़ता जा रहा है, उस की चपेट में कहीं उस का वर्तमान न आ जाए, यह फांस अनन्या के गले में ऐसे चुभ रही थी कि उसे एक पल भी चैन नहीं आ रहा था. जिस प्यार के एहसास की खुशबू को अपने दिल में ही दबा उस की स्मृति से लंबे समय तक सुवासित हुई थी, आज जैसे उस एहसास से दुर्गंध आ रही थी.

अपनी सफलता, प्रसिद्धि के नशे में चूर राघव ने अपनी आत्मकथा में उस का प्रसंग लिख उस के लिए मुश्किल खड़ी कर दी थी. कहीं ससुराल वाले, मायके और राहुल बड़ा हो कर यह सब जान न ले. कितने ही अपने, दोस्त, परिचत, रिश्तेदार उस के चरित्र पर दाग लगाने के लिए खड़े हो जाएंगे. औफिस में जिन लोगों की नजरों में आज अपने लिए इतना स्नेह और सम्मान दिखता है, उस का क्या होगा? राघव ने यह क्यों नहीं सोचा? अपने लालच, फरेब, महत्त्वाकांक्षाओं के बारे में लिख कर अपनी चालबाजियां दुनिया के सामने रखता, एक लड़की जो अब कहीं शांति से अपने परिवार के साथ जी रही है, उस के शांत जीवन में कंकड़ मार कर उथलपुथल मचाने का क्या औचित्य है?

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अनन्या के मन में क्रोध, अपमान की इतनी तेज भड़ास थी कि उस ने मेघा को फोन मिलाया. मेघा ने फोन उठाते ही प्यार से कहा, ‘‘अनन्या, तू बिलकुल परेशान मत होना, पढ़ कर तुझे बताऊंगी क्या लिखा है उस ने.’’

‘‘नहीं, रहने दे मैं कल औफिस जाते हुए खरीद लूंगी, अगर बुक स्टोर में दिख गई तो. पढ़ लूं फिर बताऊंगी उसे, छोड़ूगी नहीं उसे.’’ दोनों ने कुछ देर बातें करने के बाद फोन रख दिया.

Manohar Kahaniya: बीवी और मंगेतर को मारने वाला ‘नाइट्रोजन गैस किलर’- भाग 1

सौजन्य- मनोहर कहानियां

Writer- शाहनवाज

11 अक्तूबर 2021 का दिन था. बठिंडा, पंजाब की रहने वाली छपिंदरपाल कौर उर्फ सोनू (28) पटियाला में अपने होने वाले पति से मिलने के लिए जा रही थी. वह बेहद खुश थी क्योंकि एक लंबे अरसे के इंतजार के बाद उस की शादी नवनिंदर प्रीतपाल सिंह उर्फ सिद्धू (39) से होने वाली थी.

लंबा इंतजार इसलिए क्योंकि छपिंदरपाल और नवनिंदर दोनों की सगाई पिछले साल मार्च 2020 में ही हो गई थी. लेकिन उन की शादी उन दिनों देश में फैले कोविड की वजह से नहीं हो पाई. जब कोविड का असर धीरेधीरे कम होने लगा और देश में अनलौक की प्रक्रिया को चालू किया गया, उस के बाद नवनिंदर अपने निजी कारणों से शादी की डेट लगातार टाल दिया करता था.

इस शादी के लिए छपिंदर ने लंबा इंतजार किया था, जोकि आने वाले 20 अक्तूबर को खत्म होने वाला था.

नवनिंदर पटियाला के अर्बन एस्टेट इलाके में रहता था जोकि पौश इलाकों में माना जाता है. वह अपने मातापिता का एकलौता बेटा था. उस के 80 साल के पिता इंडियन आर्मी के रिटायर्ड कर्नल थे, जिन की आखिरी इच्छा अपने बेटे की खुशहाल जिंदगी देना था.

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दरअसल, नवनिंदर और छपिंदरपाल उर्फ सोनू दोनों ने एक साथ पंजाबराजस्थान के बौर्डर पर स्थित श्रीगंगानगर में श्री गुरुनानक खालसा ला कालेज से एलएलबी यानी कानून में बैचलर की पढ़ाई की थी. उसी दौरान बठिंडा और पटियाला 2 अलगअलग इलाकों के रहने वाले इन दोनों में दोस्ती गहराई और प्यार हो गया. इस के अलावा नवनिंदर ने समाजशास्त्र में पोस्ट ग्रैजुएशन की पढ़ाई भी की थी और वह अमेरिका के एक प्राइवेट इंस्टीट्यूट में पढ़ाई करने वाले बच्चों को औनलाइन पढ़ाता था.

11 अक्तूबर को जब नवनिंदर ने छपिंदर को शादी की शौपिंग और तैयारियां करने के लिए बुलाया तो छपिंदर उर्फ सोनू की खुशी का ठिकाना नहीं था. छपिंदर के घर वालों ने भी इस के लिए टोकाटाकी नहीं की. उन्होंने खुशी से अपनी बेटी को पटियाला उस के होने वाले पति से मिलने की इजाजत दे दी.

11 अक्तूबर की दोपहर को सोनू पटियाला पहुंच कर नवनिंदर से मिली. सब से पहले नवनिंदर सोनू को अपने साथ एक होटल में ले गया. जहां वह फ्रैश हुई और कपड़े बदल कर वे दोनों पटियाला में लगने वाली बड़ी मार्किट में शौपिंग के लिए निकल गए.

11 अक्तूबर से 13 अक्तूबर तक नवनिंदर ने सोनू को अपने साथ खूब घुमायाफिराया. सोनू ने नवनिंदर से जिस किसी चीज की मांग की, नवनिंदर ने उन सभी मांगों की पूर्ति की. वे दोनों कभी महंगे 5 स्टार होटल में खाना खाने जाते, कभी बड़ेबड़े शौपिंग कौंप्लेक्स में घूमते और खरीदारी करते.

इस बीच मौका मिलते ही सोनू अपने घर वालों से और अपने दोस्तों से फोन कर उन से बात किया करती. अपने घर वालों से उस की लगभग हर दिन ही बातचीत होती थी. सोनू से बातें कर उस के घर वालों के दिल को सुकून मिल जाता था.

सोनू के पिता सुखचैन सिंह अपनी बेटी से बहुत प्यार करते थे. घर पर सोनू के नहीं होने से उन्हें घर बेहद सूना लग रहा था. लेकिन 14 अक्तूबर से सोनू ने फोन उठाना बंद कर दिया. उस के घर वाले उस के नंबर पर फोन करते रहे, लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया.

पहले तो सोनू के घर वालों को लगा कि शायद वह कहीं व्यस्त होगी या फिर शौपिंग करने में मशगूल होगी. लेकिन जब सोनू की तरफ से अपने पिता को या घर में किसी को भी कालबैक नहीं की गई तो उन की चिंता बढ़ने लगी. जब उन को महसूस हुआ कि सोनू फोन नहीं उठा रही तो उन्होंने नवनिंदर के नंबर पर फोन किया.

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बेटी की खबर से सुखचैन की बढ़ी चिंता

सोनू के पिता सुखचैन सिंह की काल देख नवनिंदर ने फोन उठाया और बात की. सुखचैन हड़बड़ाते हुए बोले, ‘‘बेटा, ये सोनू फोन क्यों नहीं उठा रही है? हम काफी देर से उसे फोन कर रहे हैं. न तो वह फोन उठा रही है और न ही कालबैक कर रही है. आखिर वह है कहां पर?’’

अगले भाग में पढ़ें- मंगेतर ही निकला कातिल

साथी- भाग 3: क्या रजत और छवि अलग हुए?

‘‘बहुत कोशिश की उसे बदलने की… बहुत समझाया पर वह समझती ही नहीं… थकहार कर मैं भी चुप हो गया.’’

‘‘क्या खूबसूरती ही सबकुछ होती है रजत?’’ रीतिका का स्वर इतना थका था जैसे मीलों की दूरी तय कर के आया हो.

रजत उस के थके स्वर के मतलब को समझ रहा था. वह चुप हो गया. थोड़ी देर दोनों चुप रहे.

फिर एकाएक रीतिका बोली, ‘‘बातों से समझा कर नहीं मानती, तो कुछ कर के समझाओ… जब तक दिल पर चोट नहीं लगेगी, तब तक नहीं समझेगी… जब तक कुछ खो देने का डर नहीं होगा… तब तक कुछ पाने की कोशिश नहीं करेगी.’’

रजत चुप रहा. रीतिका की बात कुछ समझा, कुछ नहीं. तभी उस ने कार एक जगह रोक दी.

‘‘यहां कहां रोक दी कार?’’

‘‘आइसक्रीम खाने के लिए. तुम्हें आइसक्रीम बहुत पसंद है न और वह भी आइसक्रीम पार्लर में खाना.’’

‘‘तुम्हें याद है अभी तक?’’ रीतिका संजीदगी से बोली.

‘‘हां, क्यों नहीं. दोस्तों की आदतें भी कोई भूलता है क्या? चलो उतरो,’’ रजत कार का दरवाजा खोलते हुए बोला.

दोनों उतर कर आइसक्रीम पार्लर में चले गए. उन्हें पता ही नहीं चला कि काफी समय हो गया है. फिर रीतिका को छोड़ कर जब रजत घर पहुंचा तो छवि उस के इंतजार में चिंतित सी बैठी थी. उसे देखते ही बोली, ‘‘बहुत देर कर दी. मोबाइल भी आप घर भूल गए थे.’’

‘‘हां, देर हो गई. दरअसल आइसक्रीम खाने रुक गए थे. रीतिका को आइसक्रीम बहुत पसंद है.’’

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‘‘आइसक्रीम तो हमेशा घर पर रहती है. घर पर ही खिला देते?’’ छवि का स्वर हमेशा से अलग कुछ झुंझलाया हुआ था.

रजत ने चौंक कर छवि के चेहरे पर नजर डाली. उस के स्वभाव के विपरीत हलकी सी ईर्ष्या की छाया नजर आई. बोला, ‘‘उसे आइसक्रीम पार्लर में ही खाना पसंद है… फिर बातचीत में भी देर हो गई…’’ और फिर कपड़े बदलने लगा.

छवि थोड़ी देर खड़ी रही, फिर बिस्तर पर लेट गई. कपड़े बदल कर रजत भी बिस्तर पर लेट गया. नींद उसे भी नहीं आ रही थी. पर उसे आश्चर्य हुआ कि हमेशा लेटते ही घोड़े बेच कर सो जाने वाली छवि आधी रात तक करवटें बदलती रही. रजत को रीतिका की बात याद आ गई कि जब तक दिल पर चोट नहीं लगेगी, कुछ खोने का डर नहीं होगा. तब तक कुछ पाने की भी कोशिश नहीं करेगी.

अब रजत अकसर औफिस से घर आने में कुछ देर करने लगा. कभी उस से कुछ भी न पूछने वाली छवि अब कभीकभी उस से देर से आने का कारण पूछने लगी. वह भी लापरवाही से जवाब दे देता, ‘‘रीतिका को कुछ शौपिंग करनी थी. उस के साथ चला गया था… उस के पति तो यहां पर हैं नहीं अभी,’’ और फिर छवि के चेहरे के भाव देखना नहीं भूलता. वह देखता कि रीतिका का नाम सुन कर छवि का चेहरा स्याह पड़ जाता.

पतिपत्नी के बीच के उस महीन से अदृश्य अधिकारसूत्र को उसने कभी पकड़ा ही नहीं था. अब अकसर ही यही होने लगा. रजत किसी न किसी कारण से देर से घर आता. छुट्टी वाले दिन भी निकल जाता. कभीकभी शाम को भी निकल जाता और खाना खा कर घर पहुंचता. छवि के पूछने पर कह देता कि रीतिका के साथ था.

छवि कसमसा जाती. कुछ कह नहीं पाती. खुद की तुलना रीतिका से करने लगती. कब, कहां, किस मोड़ पर छोड़ दिया उस ने पति का साथ… वह आगे निकल गया और वह वहीं पर खड़ी रह गई.

वापस आ कर रजत मुंह फेर कर सो जाता और वह तकिए में मुंह गड़ाए आंसू बहाती रहती. ऐसा तो कभी नहीं हुआ उस के साथ. उस ने इस नजर से कभी सोचा ही नहीं रजत के लिए.

रजत को खो देने का डर कभी पैदा ही नहीं हुआ, मन में तो आंसू आने का सवाल ही पैदा नहीं होता. घर, बच्चे, सासससुर की सेवा, घर का काम और पति की देखभाल, जीवन यहीं तक सीमित कर लिया था उस ने. पति इस के अलावा भी कुछ चाहता है इस तरफ तो उस का कभी ध्यान ही नहीं गया.

छवि छटपटा जाती. दिल करता झंझोड़ कर पूछे रजत से ‘क्यों कर रहे हो ऐसा… रीतिका क्या लगती है तुम्हारी…’ पर पता नहीं क्यों कारण जैसे उस की समझ में आ रहा था. रीतिका के व्यक्तित्व के सामने वह अपनेआप को बौना महसूस कर रही थी.

एक दिन रविवार को छवि तैयार हो कर घर से निकल गई. रीतिका खाना बनाने की तैयारी कर रही थी. तभी घंटी बज उठी. रीतिका ने दरवाजा खोला तो छवि को खड़ा देख कर चौंक गई. पूछा, ‘‘छवि, तुम यहां? इस समय? रजत कहां है?’’

‘‘वे घर पर नहीं थे… मैं तुम से मिलने आई हूं रीतिका,’’ छवि सहमी हुई सी बोली.

छवि के बोलने के अंदाज पर रीतिका को उस पर दया सी आ गई, ‘‘हांहां, छवि अंदर आओ न.’’ वह उस का हाथ पकड़ कर खींचती हुई अंदर ले आई, ‘‘बैठो.’’

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छवि थोड़ी देर चुप रही. कभी उस का चेहरा देखती, तो कभी नीचे देखने लगती जैसे तोल रही हो कि क्या बोले और कैसे बोले.

‘‘छवि घबराओ मत खुल कर बोलो क्या काम है मुझ से?’’

‘‘वह… आजकल रजत कुछ बदल से गए हैं…’’ बोलतेबोलते वह हकला सी गई, ‘‘जब से तुम आई हो…’’

सुन कर रीतिका जोर से हंस पड़ी.

‘‘अकसर घर से गायब रहने लगे हैं… तुम्हारे पास आ जाते हैं…’’ कहतेकहते उस की आंखों में आंसू आ गए. ‘‘तुम तो शादीशुदा हो रीतिका… मुझ से मेरा पति मत छीनो…’’

रीतिका हंसतेहंसते चुप हो गई. थोड़ी देर चुप रह कर फिर बोली, ‘‘तुम्हारा पति मैं ने नहीं छीना छवि… तुम ने खुद उसे अपने से दूर कर दिया है.’’

‘‘मैं ने कैसे कर दिया है? वे आजकल तुम्हारे साथ रहते हैं… तुम्हारे साथ पिक्चर जाना, तुम्हें शौपिंग कराना, तुम्हारे साथ घूमना… न बच्चों पर ध्यान देते हैं न घर पर…’’

‘‘छवि, सब से पहले तो इस बात का विश्वास करो कि जैसा तुम सोच रही हो वैसा कुछ भी नहीं है हमारे बीच… ऐसा कुछ होता, तो बहुत पहले हो जाता… तब तुम रजत की जिंदगी में न होती… हम दोनों के बीच दोस्ती से अधिक कुछ नहीं… वह कभीकभी मेरी मदद के लिए जरूर आता है पर हमेशा मेरे साथ नहीं होता.’’

‘‘फिर कहां जाते हैं?’’

‘‘अब यह तो रजत ही जाने कि वह कहां जाता है, लेकिन क्यों जाता है, यह मैं समझ सकती हूं…’’

‘‘क्यों जाते हैं?’’ छवि अचंभित सी रीतिका को देखते हुए बोली.

‘‘छवि, शिक्षा का मतलब डिग्री लेना ही नहीं होता, नौकरी करना ही नहीं होता, एक गृहिणी होते हुए भी तुम ने ऐसा कुछ किया जो सिर्फ खुद के लिए किया हो… अब वह जमाना नहीं रहा छवि, जब कहते थे कि पति के दिल पर राज करना है तो पेट से रास्ता बनाओ… मतलब कि अच्छा खाना बनाओ… अब सिर्फ खाना बनाना ही काफी नहीं है…

‘‘अच्छा खाना बनाना आए या न आए पर पति के दिल को समझना जरूर आना चाहिए… अब एक गृहिणी की प्राथमिकताएं भी बहुत बदल गई हैं… क्यों नहीं तुम ने खुद को बदला समय के साथ… कभी रजत की बगल में खड़े हो कर देखा है खुद को…

रजत एक खूबसूरत, उच्चशिक्षित व सफल पुरुष है… और तुम खुद कहां हो… न तुम ने अपनी शिक्षा बढ़ाई, न तुम ने अपने रखरखाव पर ध्यान दिया. न पहनावे पर, न अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाने पर… तुम्हारा उच्चशिक्षित पति तुम्हारे साथ आखिर बात भी करे तो किस टौपिक पर…वह समय अब नहीं रहा छवि जब उच्चशिक्षित पतियों की पत्नियां अनपढ़ भी हुआ करती थीं.’’

रीतिका थोड़ी देर चुप रह कर फिर बोली, ‘‘नौकरी करना ही जरूरी नहीं है… एक शिक्षित, स्मार्ट, सामान्य ज्ञान से भरपूर, अंदरबाहर के काम संभालने वाली गृहिणी भी पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी होने की ताकत रखती है… पर तुम ने किचन से बाहर निकल कर खुद के बारे में कभी कुछ सोचा हो तब तो…

सुलझती जिंदगियां- भाग 2: आखिर क्या हुआ था रागिनी के साथ?

‘‘ऐसा कौन सा दुख है तुझे, जिस के बोझ तले तू पगला गई है? उच्च पदस्थ इंजीनियर पति, प्रतिष्ठित परिवार और क्या चाहिए जिंदगी से तुझे?’’ सीमा बोली.

‘‘चल छोड़, तू नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी ने ताना दिया.

‘‘मैं, मैं नहीं समझूंगी?’’ अचानक ही उत्तेजित हो उठी सीमा, ‘‘तू कितना समझ पाई है मुझे, क्या जानती है मेरे बारे में… आज 10 वर्ष के बाद हम मिले हैं. इन 10 सालों का मेरा लेखाजोखा है क्या तेरे पास? जो इतने आराम से कह रही है? क्या मुझे कोई गम नहीं, कोई घाव नहीं मिला इस जिंदगी में? फिर भी मैं तेरे सामने मजबूती से खड़ी हूं, वर्तमान में जीती हूं, भविष्य के सपने भी बुनती हूं और अतीत से सबक भी सीख चुकी हूं, मगर अतीत में उलझी नहीं रहती. अतीत के कुछ अवांछित पलों को दुस्वप्न समझ कर भूल चुकी हूं. तेरी तरह गांठ बांध कर नहीं बैठी हूं,’’ सीमा तमतमा उठी.

‘‘क्या तू भी किसी की वासना का शिकार बन चुकी है?’’ रागिनी बोल पड़ी.

‘‘तू भी क्या मतलब? क्या तेरे साथ भी यह दुर्घटना हुई है?’’ सीमा चौंक पड़ी.

‘‘हां, वही पल मेरा पीछा नहीं छोड़ते. फिल्म, सीरियल, अखबार में छपी खबर, सब मुझे उन पलों में पहुंचा देते हैं. मुझे रोना आने लगता है, दिल बैठने लगता है. न भूख लगती है न प्यास, मन करता है या तो उस का कत्ल कर दूं या खुद मर जाऊं. बस दवा का ही तो सहारा है, दवा ले कर सोई रहती हूं. कोई आए, कोई जाए मेरी बला से. मेरे साथ मेरी सास रहती हैं. वही मेड के साथ मिल कर घर संभाले रहती हैं और मुझे कोसती रहती हैं कि मेरे हीरे से बेटे को धोखे से ब्याह लिया. एक से एक रिश्ते आए, मगर हम तो तेरी शक्ल से धोखा खा गए. बीमारू लड़की पल्ले पड़ गई. मैं क्या करूं,’’ आंखें छलछला उठीं रागिनी की.

‘‘तू अकेली नहीं है इस दुख से गुजरने वाली. इस विवाहस्थल में तेरीमेरी जैसी न जाने कितनी और भी होंगी, पर वे दवा के सहारे जिंदा नहीं हैं, बल्कि उसे एक दुर्घटना मान कर आगे बढ़ गई हैं. अच्छा चल, तू ही बता तू रोड पर राइट साइड चल रही है और कोई रौंग साइड से आ कर तुम्हें ठोकर मार कर चला जाता है, तो गलत तो वही हुआ न? ऐसे ही, जिन्होंने दुष्कर्म कर हमारे विश्वास की धज्जियां उड़ाईं, दोषी वे हैं. हम तो निर्दोष हैं, मासूम हैं और पवित्र हैं. अपराधी वे हैं, फिर हम घुटघुट कर क्यों जीएं, यह एहसास तो हमें उन्हें हर पल कराना चाहिए, ताकि वे बाकी की जिंदगी घुटघुट कर जीएं.’’ सीमा ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘क्या तू ने दिलाया यह एहसास उसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘मेरा तो बौयफ्रैंड ही धोखेबाज निकला. आज से 10 साल पहले जब हम पापा के दिल्ली ट्रांसफर के कारण लखनऊ छोड़ कर चले गए थे, तब वहां नया कालेज, नया माहौल पा कर मैं कितना खुश थी. हां तेरी जैसी बचपन की सहेली से बिछुड़ने का दुख तो बहुत था, मगर मैं दिल्ली की चकाचौंध में कहीं खो गई थी. जल्दी ही मैं ने क्लास में अपनी धाक जमा ली…

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‘‘धु्रव मेरा सहपाठी, जो हमेशा प्रथम आता था, दूसरे नंबर पर चला गया. 10वीं कक्षा में मैं ने ही टौप किया तो धु्रव जलभुन कर राख हो गया, मगर बाहरी तौर पर उस ने मुझ से आगे बढ़ कर मित्रता का हाथ मिलाया और मैं ने खुशीखुशी स्वीकार भी कर लिया. 12वीं कक्षा की प्रीबोर्ड परीक्षा में भी मैं ने ही टौप किया तो वह और परेशान हो उठा. मगर उस ने इसे जाहिर नहीं होने दिया.

‘‘इसी खुशी में ट्रीट का प्रस्ताव जब धु्रव ने रखा तो मैं मना न कर सकी. मना भी क्यों करती? 2 सालों से लगातार हम साथ कालेज, कोचिंग और न जाने कितने फ्रैंड्स की बर्थडे पार्टीज अटैंड करते आए थे. फर्क यह था कि हर बार कोई न कोई कौमन फ्रैंड साथ रहता था. मगर इस बार हम दोनों ही थे और धु्रव पर अविश्वास करने का कोई प्रश्न ही नहीं था.

‘‘पहले हम एक रेस्तरां में लंच के लिए गए. फिर वह अपने घर ले गया. घर में किसी को भी न देख जब मैं ने पूछा कि तुम ने तो कहा था मम्मी मुझ से मिलना चाहती हैं. मगर यहां तो कोई भी नहीं है? तो उस ने जवाब दिया कि शायद पड़ोस में गई होंगी. तुम बैठो मैं बुला लाता हूं और फिर मुझे फ्रिज में रखी कोल्डड्रिंक पकड़ा कर बाहर निकल गया.

‘‘मैं सोफे पर बैठ कर ड्रिंक पीतेपीते उस का इंतजार करती रही, मुझे नींद आने लगी तो मैं वहीं सोफे पर लुढ़क गई. जब नींद खुली तो अपने को अस्तव्यस्त पाया. धु्रव नशे में धुत पड़ा बड़बड़ा रहा था कि मुझे हराना चाहती थी. मैं ने आज तुझे हरा दिया. अब मुझे समझ आया कि धु्रव ने मेरे नारीत्व को ललकारा है. मैं ने भी आव देखा न ताव, पास पड़ी हाकी उठा कर उस के कोमल अंग पर दे मारी. वह बिलबिला कर जमीन पर लोटने लगा, मैं ने चीख कर कहा कि अब दिखाना मर्दानगी अपनी और फिर घर लौट आई. बोर्ड की परीक्षा सिर पर थी. ऐसे में अपनी पूरी ताकत तैयारी में झोंक दी. फलतया बोर्ड परीक्षा में भी मैं टौपर बनी.

‘‘धु्रव का परिवार शहर छोड़ कर जा चुका था. उन्हें अपने बेटे की करतूत पता चल गई थी,’’ कह कर सीमा पल भर को रुकी और फिर पास से गुजरते बैरे को बुला कर पानी का गिलास ले कर एक सांस में ही खाली कर गई.

फिर आगे बोली, ‘‘मां को तो बहुत बाद में मैं ने उस दुर्घटना के विषय में बताया था.

वे भी यही बोली थीं कि भूल जा ये सब. इन का कोई मतलब नहीं. कौमार्य, शारीरिक पवित्रता, वर्जिन इन भारी भरकम शब्दों को अपने ऊपर हावी न होने देना… तू अब भी वैसी ही मासूम और निश्चल है जैसी जन्म के समय थी… मां के ये शब्द मेरे लिए अमृत के समान थे. उस के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर देखना छोड़ दिया,’’ सीमा ने अपनी बात समाप्त की.

‘‘मैं तो अपने अतीत से भाग भी नहीं सकती. वह शख्स तो मेरे मायके का पड़ोसी और पिताजी का मित्र है, इसीलिए मेरा तो मायके जाने का ही मन नहीं करता. यहीं दिल्ली में पड़ी रहती हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

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‘‘कौन वे टौफी अंकल? वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? मुझे अच्छी तरह याद है वे सफेद कुरतापाजामा पहने हमेशा बैडमिंटन गेम के बीच में कूद कर गेम्स के रूल्स सिखाने लगते थे और फि र खुश होने पर अपनी जेब से टौफी, चौकलेट निकाल कर ईनाम भी देते थे. हम लोगों ने तो उन का नाम टौफी अंकल रखा था,’’ सीमा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा.

‘‘वह एक मुखौटा था उन का अपनी घिनौनी हरकतें छिपाने का. तुझे याद है वे हमारे गालों पर चिकोटी भी काट लेते थे गलती करने पर और कभीकभी अपने हाथों में हमारे हाथ को दबा कर रैकेट चलाने का अभ्यास भी कराने लगते थे. उन सब हरकतों को कोई दूर से देखता भी होगा तो यही सोचता होगा कि वे बच्चों से कितना प्यार करते हैं. मगर हकीकत तो यह थी कि वे जाल बिछा रहे थे, जिस में से तू तो उड़ कर उन की पहुंच से दूर हो गई पर रह गई मैं.

विश्वासघात- भाग 3: आखिर क्यों वह विशाल से डरती थी?

पुलिस इंस्पेक्टर उन के बयान को सुन कर बोला, ‘‘उस युगल की तलाश तो हमें काफी दिनों से है, कुछ दिन पहले हम ने अखबार में भी निकलवाया था तथा लोगों से सावधान रहने के लिए कहा था पर शायद आप ने इस खबर की ओर ध्यान नहीं दिया…यह युगल कई जगह ऐसी वारदातें कर चुका है…पर किसी का भी बताया हुलिया किसी से मैच नहीं करता. शायद वह विभिन्न जगहों पर, विभिन्न नाम का व्यक्ति बन कर रहता है. क्या आप उस का हुलिया बता सकेंगी…कब से वह आप के साथ रह रहा था?’’

जोजो उन्हें पता था उन्होंने सारी जानकारी दे दी…जिस आफिस में वह काम करता था वहां पता लगाया तो पता चला कि इस नाम का कोई आदमी उन के यहां काम ही नहीं करता…उन की बताई जानकारी के आधार पर बस अड्डे और रेलवे स्टेशन पर भी उन्होंने अपने आदमी भेज दिए. पुलिस ने घर आ कर जांच की पर कहीं कोई सुराग नहीं था…यहां तक कि कहीं उन की उंगलियों के निशान भी नहीं पाए गए.

‘‘लगता है शातिर चोर था,’’ इंस्पेक्टर बोला, ‘‘हम लोग कई बार आप जैसे नागरिकों से निवेदन करते हैं कि नौकर और किराएदार रखते समय पूरी सावधानी बरतें, उस के बारे में पूरी जानकारी रखें, मसलन, वह कहां काम करता है, उस का स्थायी पता, फोटोग्राफ आदि…पर आप लोग तो समझते ही नहीं हैं,’’ इंस्पेक्टर थोड़ा रुका फिर बोला, ‘‘वह आप का किराएदार था, इस का कोई प्रमाण है आप के पास?’’

‘‘किराएदार…इस का तो हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है. आयकर की पेचीदगी से बचने के लिए कोई सेटलमेंट ही नहीं किया था…सच, थोड़ी सी परेशानी से बचने के लिए हम ने स्वयं को अपराधियों के हवाले कर दिया…हां, शुरू में कुछ एडवांस देने के लिए अवश्य कहा था पर जब उन्होंने असमर्थता जताई तो उन की मजबूरी को देख कर मन पिघल गया था. दरअसल, हमें पैसों से अधिक जरूरत सिर्फ अपना सूनापन बांटने या घर की रखवाली के लिए अच्छे व्यक्ति की थी और उन की बातों में कसक टपक रही थी, बच्चों वाला युगल था, सो संदेह की कोई बात ही नजर नहीं आई थी.’’

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‘‘यही तो गलती करते हैं आप लोग…कुछ एग्रीमेंट करवाएंगे…तो उस में सबकुछ दर्ज हो जाएगा. अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं रहता कि वह शरीफ है या बदमाश…वह तो गनीमत है कि आप सहीसलामत हैं वरना ऐसे लोग अपने मकसद में कामयाब होने के लिए किसी का खून भी करना पडे़ तो पीछे नहीं रहते,’’ उन्हें चुप देख कर इंस्पेक्टर बोला.

दूसरे दिन विशाल भी आ गए…सुमिता को रोते देख कर विशाल बोले, ‘‘जब मैं कहता था कि किसी पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए तब तुम मानती नहीं थीं, उन्हीं के सामने अलमारी खोल कर रुपए निकालना, रखना सब तुम ही तो करती थीं.’’

‘‘मुझे ही क्यों दोष दे रहे हो, आप भी तो बैंक से पैसा निकलवाने के लिए चेक उसी को देते थे,’’ झुंझला कर नमिता ने उत्तर दिया था.

उस घटना को कई दिन बीत गए थे पर उन शातिर चोरों का कोई सुराग नहीं मिला…नमिता कभी सोचतीं तो उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं होता कि वह इतने दिनों तक झूठे और मक्कार लोगों के साथ रह रही थीं…वे ठग थे तभी तो पिछले 2 महीने का किराया यह कह कर नहीं दिया था कि आफिस में कुछ समस्या चल रही है अत: वेतन नहीं मिल रहा है. नमिता ने भी यह सोच कर कुछ नहीं कहा कि लोग अच्छे हैं, पैसा कहां जाएगा. वास्तव में उन का स्वभाव देख कर कभी लगा ही नहीं कि इन का इरादा नेक नहीं है.

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इतने सौम्य चेहरों का इतना घिनौना रूप भी हो सकता है, उन्होंने कभी सोचा भी न था. मुंह में राम बगल में छुरी वाला मुहावरा शायद ऐसे लोगों की फितरत देख कर ही किसी ने कहा होगा. आश्चर्य तो इस बात का था कि इतने दिन साथ रहने के बावजूद उन्हें कभी उन पर शक नहीं हुआ.

उन्होंने अखबारों और टेलीविजन में वृद्धों के लुटने और मारे जाने की घटनाएं पढ़ी और सुनी थीं पर उन के साथ भी कभी कुछ ऐसा ही घटित होगा, सोचा भी न था. अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी हद तक गिर चुके ऐसे लोगों के लिए यह मात्र खेल हो पर किसी की भावनाओं

को कुचलते, तोड़तेमरोड़ते, उन की संवेदनशीलता और सदाशयता का फायदा उठा कर, उन जैसों के वजूद को मिटाते लोगों को जरा भी लज्जा नहीं आती… आखिर हम वृद्ध जाएं तो कहां जाएं? क्या किसी के साथ संबंध बनाना या उस की सहायता करना अनुचित है?

किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते ऐसे लोग यह क्यों नहीं सोचते कि एक दिन बुढ़ापा उन को भी आएगा…वैसे भी उन का यह खेल आखिर चलेगा कब तक? क्या झूठ और मक्कारी से एकत्र की गई दौलत के बल पर वह सुकून से जी पाएंगे…क्या संस्कार दे पाएंगे अपने बच्चों को?

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मन में चलता बवंडर नमिता को चैन से रहने नहीं दे रहा था. बारबार एक ही प्रश्न उन के दिल व दिमाग को मथ रहा था…इनसान आखिर भरोसा करे भी तो किस पर..

लक्ष्य- भाग 1: क्या था सुधा का लक्ष्य

निलेश और सुधा दोनों दिल्ली के एक कालेज में स्नातक के छात्र थे. दोनों में गहरी दोस्ती थी. आज उन की क्लास का अंतिम दिन था. इसलिए निलेश कालेज के पार्क में गुमसुम अपने में खोया हुआ फूलों की क्यारी के पास बैठा था. सुधा उसे ढूंढ़ते हुए उस के करीब आ कर पूछने लगी,  ‘‘निलेश यहां क्यों बैठे हो?’’

उस का जवाब जाने बिना ही वह एक सफेद गुलाब के फूल को छूते हुए कहने लगी, ‘‘इन फूलों में कांटे क्यों होते हैं. देखो न, कितना सुंदर होता है यह फूल, पर छूने से मैं डरती हूं. कहीं कांटे न चुभ जाएं.’’ निलेश से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर कहा, ‘‘आज किस सोच में डूबे हो, निलेश?’’

निलेश ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘सोच रहा हूं कि जब हम किसी से मिलते हैं तो कितना अच्छा लगता है पर बिछड़ते समय बहुत बुरा लगता है. आज कालेज का अंतिम दिन है. कल हम सब अपनेअपने विषय की तैयारी में लग जाएंगे. परीक्षा के बाद कुछ लोग अपने घर लौट जाएंगे तो कुछ और लोग की तलाश में भटकने लगेंगे. तब रह जाएगी जीवन में सिर्फ हमारी यादें इन फूलों की खूशबू की तरह. यह कालेज लाइफ कितनी सुहानी होती है न, सुधा.

‘‘हर रोज एक नई स्फूर्ति के साथ मिलना, क्लास में अनेक विषयों पर बहस करना, घूमनाफिरना और सैर करना. अब सब खत्म हो जाएगा.’’ सुधा की तरफ देखता हुआ निलेश एक सवाल कर बैठा, ‘‘क्या तुम याद करोगी, मुझे?’’

‘‘ओह, तो तुम इसलिए उदास बैठे हो. आज तुम शायराना अंदाज में बोल रहे हो. रही बात याद करने की, तो जरूर करूंगी, पर अभी हम कहां भागे जा रहे हैं?’’ वह हाथ घुमा कर कहने लगी, ‘‘सुना है दुनिया गोल है. यदि कहीं चले भी जाएं तो हम कहीं न कहीं, किसी मोड़ पर मिल जाएंगे. एकदूसरे की याद आई तो मोबाइल से बातें कर लेंगे. इसलिए तुम्हें उदास होने की जरूरत नहीं.’’

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सुधा का अंदाज देख कर निलेश गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दुनिया बहुत बड़ी है, सुधा. क्या पता दुनिया की भीड़ में हम खो जाएं और फिर कभी न मिलें? इसलिए आज तुम से अपने दिल की बातें करना चाहता हूं. क्या पता कल हम मिलें, न मिलें. नाराज मत होना.’’ वह घास पर बैठा उस की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘सुधा, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. क्या तुम भी मुझ से प्यार करती हो?’’

यह सुनते ही सुधा के चेहरे का रंग बदल गया. वह उत्तेजित हो कर बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हो, निलेश? हमारे बीच प्यार कब और कहां से आ गया? हम एक अच्छे दोस्त हैं और दोस्त बन कर ही रहना चाहते हैं. अभी हमें अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए, न कि प्यार के चक्कर में पड़ कर अपना समय बरबाद करना चाहिए. प्यार के लिए मेरे दिल में कोई जगह नहीं.

‘‘सौरी, तुम बुरा मत मानना. सच तो यह है कि मैं शादी ही नहीं करना चाहती. शादी के बाद लड़कियों की जिंदगी बदल जाती है. उन के सपने मोती की तरह बिखर जाते हैं. उन की जिंदगी उन की नहीं रह जाती, दूसरे के अधीन हो जाती है. वे जो करना चाहती हैं, जीवन में नहीं कर पातीं. पारिवारिक उलझनों में उलझ कर रह जाती हैं. मेरे जीवन का लक्ष्य है कुशल शिक्षिका बनना. अभी मुझे बहुत पढ़ना है.’’

‘‘सुधा, पढ़ने के साथसाथ क्या हम प्यार नहीं कर सकते? मैं तो प्यार में सिर्फ तुम से वादा चाहता हूं. भविष्य में तुम्हारे साथ कदम मिला कर चलना चाहता हूं. जब अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे तभी हम घर बसाएंगे. अभी तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं, और रही बात शादी के बाद की, तो तुम जो चाहे करना. मैं कभी तुम्हें किसी भी चीज के लिए टोकूंगा नहीं.’’

‘‘पर मैं कोई वादा करना नहीं चाहती. अभी कोई भी बंधन मुझे स्वीकार नहीं.’’ तब सुधा की यह बात सुन कर उस ने कहा, ‘‘प्यार इंसान की जरूरत होती है. आज भले ही तुम इस बात को न मानो, पर एक दिन तुम्हें यह एहसास जरूर होगा. इन सब खुशियों के अलावा अपने जीवन में एक इंसान की जरूरत होती है. जिसे जीवनसाथी कहते हैं. खैर, मैं तुम्हारी सफलता में बाधक बनना नहीं चाहता. दिल ने जो महसूस किया, वह तुम से कह बैठा. बाकी तुम्हारी मरजी.’’

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वह अनमना सा उठा और घर की तरफ चल पड़ा. उस के पीछेपीछे सुधा भी चल पड़ी. कुछ देर चुपचाप उस के साथसाथ चलती रही. अब दोनों बस स्टौप पर खड़े थे, अपनीअपनी बस का इंतजार करने लगे. तभी सुधा ने खामोशी तोड़ने के उद्देश्य से उस से पूछा, ‘‘तुम्हारे जीवन में भी तो कोई लक्ष्य होगा. स्नातक के बाद क्या करना चाहोगे क्या यों ही लड़की पटा कर शादी करने का इरादा?’’

यह सुन कर निलेश झुंझलाते हुए बोला, ‘‘ऐसी बात नहीं  है, सुधा. मैं तुम्हें पटा नहीं रहा था. अपने प्यार का इजहार कर रहा था. पर जरूरी तो नहीं कि जैसा मैं सोचता हूं वैसा ही तुम सोचो, और प्यार किसी से जबरदस्ती नहीं किया जाता. यह तो एक एहसास है जो कब दिल में पलने लगता है, हमें पता ही नहीं चलता. आज के बाद कभी तुम से प्यार का जिक्र नहीं करूंगा. दूसरी बात, जीवन के लक्ष्य के बारे में अभी मैं ने कुछ सोचा नहीं. वक्त जहां ले जाएगा, चला जाऊंगा.’’

‘‘निलेश, यह तुम्हारी जिंदगी है, कोई और तो नहीं सोच सकता. समय को पक्ष में करना तो अपने हाथ में होता है. अपने लक्ष्य को निर्धारित करना तुम्हारा कर्तव्य है.’’

इस पर निलेश बोला, ‘‘हां, मेरा कर्तव्य जरूर है लेकिन अभी तो स्नातक की परीक्षा सिर पर सवार है. उस के बाद हमारे मातापिता जो कहेंगे वही करूंगा.’’ तभी सुधा की बस आ गई और वह बाय करते हुए बस में चढ़ गई. निलेश भी अपने गंतव्य पर चला गया.

सुधा अब अपने घर आ चुकी थी. जब खाना खा कर वह अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी तो सोचने लगी,

क्या सचमुच निलेश मुझ से प्यार करता है? या यों ही मुझे आजमा रहा था. पर उस ने तो अपने जीवन का निर्णय मातापिता पर छोड़ रखा है. उन्हीं लागों को हमेशा प्रधानता देता है. क्या जीवन में वह मेरा साथ देगा? अच्छा ही हुआ जो उस का प्यार स्वीकार नहीं किया. प्यार तो कभी भी किया जा सकता है, पर जीवन का सुनहला वक्त अपने हाथों से नहीं जाने दूंगी. समय के भरोसे कोई कैसे जी सकता है? जो स्वयं अपना निर्णय नहीं ले सकता वह मेरे साथ कदम से कदम मिला कर कैसे चल सकता है? क्या कुछ पल किसी के साथ गुजार लेने से किसी से प्यार हो जाता है? निलेश न जाने क्यों ऐसी बातें कर रहा था? यह सोचतेसोचते वह सो गई.

अगले दिन वह परीक्षा की तैयारी में लग गई. निलेश से कम ही मुलाकात होती. एकदिन सुबह वह उठी तो रमन, जो निलेश का दोस्त था ने बुरी खबर से उसे अवगत कराया कि निलेश के पापा एक आतंकी मुठभेड़ में मारे गए हैं. आज सुबह 6 बजे की फ्लाइट से वह अपने गांव के लिए रवाना हो गया. उस के पापा की लाश वहीं गांव में आने वाली है. वह बहुत रो रहा था. उस ने कहा कि तुम्हें बता दें.

यह सुन वह बहुत व्याकुल हो उठी. उस को फोन लगाने लगी पर उस का फोन स्विच औफ आ रहा था. वह दुखी हो गई, उसे दुखी देख उस की मां ने सवाल किया कि सुधा क्या बात है, किस का फोन था? तब उस ने रोंआसे हो कर कहा, ‘‘मां, निलेश के पापा की आतंकी मुठभेड़ में मृत्यु हो गई,’’ यह कहते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए और कहने लगी, क्यों आएदिन ये आतंकी देश में उत्पात मचाते रहते हैं? कभी मंदिर में धमाका तो कभी मसजिद में करते हैं तो कहीं सरहद पर गोलीबारी कर बेकुसूरों का सीना छलनी कर देते हैं. क्या उन की मानवता मर चुकी है या उन के पास दिल नहीं होता जो औरतों के सुहाग उजाड़ लेते हैं. आतंक की डगर पर चल कर आखिर उन्हें क्या सुख मिलता है?’’

सुधा के मुख से यह सुन उस की मां उस के करीब जा कर समझाने लगी, ‘‘बेटी, कुछ लोगों का काम ही उत्पाद मचाना होता है. अगर उन के दिल में संवेदना होती तो ऐसा काम करते ही क्यों? पर तुम निलेश के पिता के लिए इतनी दुखी न हो. सैनिक का जीवन तो ऐसा ही होता है बेटी, उन के सिर पर हमेशा कफन बंधा होता है. वे देश के लिए लड़ते हैं, पर उन का परिवार एक दिन अचानक ऐसे ही बिखर जाता है. मरता तो एक इंसान है लेकिन बिखर जाते हैं मानो घर के सभी सदस्य. हम उस शहीद को नमन करते हैं. ऐसे लोग कभी मरते नहीं बल्कि अमर हो जाते हैं.’’

पर सुधा अपने कमरे में आ कर सोचने लगी कि काश, निलेश के लिएवह कुछ कर पाती. आज वह कितना दुखी होगा. एक तरफ मैं ने उस का प्यार ठुकरा दिया, दूसरी तरफ उस के सिर से पिता का साया उठ गया. इस समय मुझे उस के साथ होना चाहिए था. आखिर दोस्त ही दोस्त के काम आता है. कई बार जब मैं निराश होती तो वह मेरा साहस बढ़ाता. आज क्या मैं उस के लिए कुछ नहीं कर सकती? वह बारबार फोन करती पर कोई जवाब नहीं आता तो निराश हो जाती.

2 महीने बाद परीक्षा हौल में उस की आंखें निलेश को ढूंढ़ रही थीं. पर उस का कोई अतापता नहीं था. वह सोचने लगी, क्यों उस के विषय में वह चिंतित रहने लगी है? वह मात्र दोस्त ही तो था, एकदिन जुदा तो होना ही था. फिर उसे ध्यान आया कि कहीं उस की परीक्षा खराब न हो जाए, और वह अपना पेपर पूरा करने लगी.

अपने हुए पराए- भाग 1: आखिर प्रोफेसर राजीव को उस तस्वीर से क्यों लगाव था

लेखक-योगेश दीक्षित

जिंदगी में हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव आज सुबह बहुत ही थके हुए लग रहे थे. मैं उन को लौन में आरामकुरसी पर निढाल बैठे देख सन्न रह गया. उन के बंगले में सन्नाटा था. कहां संगीत की स्वरलहरियां थिरकती रहती थीं, आज ख़ामोशी पसरी थी. मुझे देखते ही वे बोले, ‘‘आओ, बैठो.’’

उन की दर्दमिश्रित आवाज से मुझे आभास हुआ कि कुछ घटित हुआ है. मैं पास पड़ी बैंच पर बैठ गया.

‘‘कैसे हो नरेंद्र?’’ आसमान की ओर निहारते उन्होंने पूछा.

‘‘ठीक हूं,” मैं ने दिया. मेरा दिल अभी भी धड़क रहा था. मैं उन की पुत्री करुणा की तबीयत को ले कर परेशान था. 5 दिनों पूर्व वह अस्पताल में भरती हुई थी. फोन पर मेरी बात नहीं हो सकी. जब भी फोन लगाया स्विचऔफ मिला. चिंताओं ने पैने नाखून गड़ा दिए थे.

मुझे खामोश देख प्रोफैसर राजीव रुंधे स्वर से बोले, “दिल्ली से कब आए?”

‘‘कल रात आया.’’

‘‘इंटरव्यू कैसा रहा?’’

‘‘ठीक रहा.’’

कुछ देर खामोशी छाई रही. उन की आंखें अभी भी आसमान के किसी शून्य पर टिकी थीं. चेहरे पर किसी भयानक अनिष्ट की परछाइयां उतरी थीं जो किसी अनहोनी का संकेत दे रही थीं. मैं चिंता से भर उठा. करुणा को कुछ हो तो नहीं गया. लेकिन जब करुणा को चाय लाते देखा तो सारी चिंताएं उड़ गईं. वह पूरी तरह स्वस्थ्य दिख रही थी.

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‘‘पापा चाय लीजिए,’’ करुणा ने चाय की ट्रे गोलमेज पर रखते हुए कहा.

मेरी नजरें अभी भी करुणा के चेहरे पर जमी थीं, लेकिन उस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न देख हैरान रह गया, लगा नाराज है. करुणा चाय दे कर मुड़ी ही थी कि पैर डगमगा गए. मैं ने तुरंत हाथों में संभाल लिया. वह संभलती हुई बोली, ‘‘थैंक्यू.’’ मैं तुरंत अलग हो गया. प्रोफैसर राजीव बोले, “जब चलते नहीं बनता तो हाईहील की सैंडिल क्यों पहनती हो?”

‘‘फैशन है पापा.”

‘‘हूं, सभी मौडर्न हुए जा रहे हैं.’’

मैं समझ गया, उन का इशारा राहुल की बहू अपर्णा पर था. अपर्णा अकसर जींस व टोप पहने ही दिखती है.

मेरे पिताजी और प्रोफैसर राजीव की दोस्ती जगजाहिर थी. एक साथ उन्होंने पढ़ाईलिखाई की, नौकरी की. पड़ोस में मकान बनाया. किसी भी समारोह में गए, साथ गए. यहां तक कि चुनाव भी साथ लड़ा.

मेरे पिताजी कैंसर की बीमारी से पीड़ित थे, जल्दी ही उन की मृत्यु हो गई. मुझे हिदायत दे गए थे कि प्रोफैसर राजीव के घर को अपना घर समझना, पूरी इज्जत देना. तब से मेरा आनाजाना लगा रहता है. प्रोफैसर राजीव मुझे अकसर याद करते रहते हैं और मैं उन के बाहरी काम निबटाता रहता हूं. वे अपने लड़के राहुल से अधिक विश्वस्त मुझे मानते हैं.

प्रोफैसर राजीव का संपन्न परिवार है – पत्नी, एक लड़का, बहू और एक लड़की है. धर्म में उन की आस्था है. भजन, कीर्तन, भागवत जैसे कार्यक्रम वे कराते रहते हैं. करूणा जब एकाएक बीमार हुई और उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा तो सभी चिंतित हो गए. मुझे भी शौक लगा. उसे पीलिया हो गया था. 10 दिन वह आईसीयू में भरती रही. तीनचार दिन मैं देखता रहा.

इसी बीच, मेरा इंटरव्यूकौल आ गया. मुझे दिल्ली जाना पड़ा. आज जब दिल्ली से वापस लौटा तो करुणा की याद ही दिल में बसी थी – वह कैसी है, अस्पताल से आई कि नहीं… सोचता हुआ प्रोफैसर राजीव के घर पहुंचा. प्रोफैसर राजीव बाहर ही मिल गए. उन्हें उदास देख मन में तरहतरह की शंकाएं पल गईं.

प्रोफैसर राजीव की चिंता मुझे अभी भी हो रही थी कि वे कुछ छिपाए हुए हैं. वरना तो ऐसे गमगीन वे कभी नहीं दिखे. करुणा के जाने के बाद मैं ने उन की चिंता का कारण पूछा तो वे टालते हुए उठ गए और अंदर कमरे में चले गए. उन के हावभावों ने मुझे फिर घेर लिया. मैं तुरंत करुणा के कमरे में गया. करुणा सोफे पर बैठी डायरी के पन्ने पलट रही थी, बोली, ‘‘कुछ काम?’’

‘‘क्या बिना काम के नहीं आ सकता?’’

‘‘रोका किस ने, मैं होती कौन हूं?’’

‘‘अच्छा, समझा.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मैं दिल्ली चला गया था, इसलिए…’’

‘‘हां, मैं अस्पताल में थी और हुजूर दिल्ली चले गए.’’

‘‘इंटरव्यू था?’’

‘‘जानती हूं, मैं मर रही थी और आप छूमंतर हो गए, बता कर जा सकते थे.’’

‘‘सौरी, करुणा. प्लीज, मेरा जाना बहुत जरूरी था. पता है, मैं सिलेक्ट हो गया.’’

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‘‘सच, नौकरी लग गई तुम्हारी?’’

‘‘हां, लग जाएगी.’’

यह सुनते ही वह मेरे गले से लग गई. उस की गर्म सांसों से मेरा दिल मधुर एहसास से भर उठा, होंठ उस के कपोलों से जा लगे. वह तुरंत दूर होती बोली, ‘‘यह क्या?’’

‘‘सौरी,’’ मैं ने कान पकड़ते हुए कहा.

एक मधुर मुसकन उस के चेहरे पर पसर गई जिसे मैं मंत्रमुग्ध सा देखता रह गया. तभी प्रोफैसर राजीव की आवाज कानों में पड़ी. मैं तुरंत उन के कमरे में गया.

‘‘क्या है अंकल?’’

‘‘बेटा पानी ले आ, मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही.’’

‘‘क्या हो गया, आप कुछ बताते भी नहीं. अच्छा रुकिए, पहले पानी पीजिए.’’ पानी का गिलास थमाते हुए मैं बोला, ‘‘आप आज इतने उदास क्यों हैं?’’

‘‘बेटा, राहुल नए घर में चला गया.’’

‘‘क्या?’’ मेरे पैरों के नीचे जमीन खिसक गई. शादी तो उस ने अपनी मरजी से कर ली थी, बहू ले आया, न कोई न्योता न कार्ड और अब घर भी अलग कर लिया. प्रोफैसर राजीव की परेशानियों का दर्द अब मुझे समझ आया.

राहुल यह कैसे कर सकता है, मैं सोच उठा?

अंकल 75 वर्ष की उम्र क्रास कर चुके हैं. अम्मा जी रुग्ण हैं. और राहुल घर से अलग हो गया. चिंताओं के बादल मेरे सिर पर उमड़ गए. वृद्धावस्था में पुत्र की कितनी आवश्यकता होती है, इसे कौन नहीं समझता. राहुल को अवश्य अपर्णा ने बहकाया होगा.

प्रोफैसर राजीव ने राहुल के लिए क्या कुछ नहीं किया, स्नातकोत्तर कराया, कालेज में नौकरी लगवाई. दिनरात उस के पीछे दौड़े. और आज उस ने यह सिला दिया अंकल को. उन्हें अपने से ज्यादा करुणा की चिंता थी. वे उस के विवाह के लिए चिंतित थे. उन्हें मेरे और करुणा के संबंधों की कोई जानकारी नहीं थी. करुणा की शादी के लिए उन्होंने कितने ही प्रयास किए थे. अच्छा घरबार चाहते थे. लड़का भी कमाऊ चाहते थे जैसे हर पिता की इच्छा रहती है. लेकिन उन्हें हर कदम पर निराशा ही मिली थी. असफलताओं ने उन्हें कमजोर कर दिया था और आज राहुल के अलग घर बसाने की बात ने उन्हें आहत कर दिया.

करुणा को मैं पसंद करता था, यह बात मैं प्रोफैसर राजीव से नहीं कह सका. मैं डर रहा था कि मेरी इस बात का अंकल कुछ गलत अभिप्राय न निकालें. मैं उन का विश्वासपात्र था. उन के विश्वास को तोड़ना नहीं चाहता था कि इस से उन्हें बहुत दर्द पहुंचेगा. प्रोफैसर राजीव कहीं लड़के को देखने जाते तो मुझे भी साथ ले जाते, मैं मना भी नहीं कर पाता.

करुणा भी इसे जानती थी, लेकिन वह खामोश रही. उसे इस से कोई फर्क नहीं पड़ा. यह बात मुझे संतोष देती कि जितने भी रिश्ते आते करुणा के उपेक्षित उत्तर से उचट जाते, वह ऐसे तर्क रखती कि वर पक्ष निरुत्तर हो जाते और वापस लौट जाते. मन ही मन मेरी मुसकान खिल जाती.

प्रोफैसर राजीव की हालत दिनबदिन बिगड़ती गई. शरीर दुर्बल हो गया. उन का बाहर निकलना भी बंद हो गया. मैं उन की सेवा में लगा रहा.

10 साल- भाग 2: क्यों नानी से सभी परेशान थे

Writer- लीला रूपायन

मेरी नानी से सभी बहुत परेशान थे. मैं तो डर के मारे कभी नानी के पास जाती ही नहीं थी. मुझे देखते ही उन के मुंह से जो स्वर निकलते, वे मैं तो क्या, मेरी मां भी नहीं सुन सकती थीं. कहतीं, ‘बेटी को जरा संभाल कर रख. कमबख्त, न छाती ढकती है न दुपट्टा लेती है. क्या खजूर की तरह बढ़ती जा रही है. बड़ी जवानी चढ़ी है, न शर्म न हया.’ बस, इसी तरह वृद्धों को देखदेख कर मेरे कोमल मन में वृद्धावस्था के प्रति भय समा गया था. वृद्धों को प्यार करो तो चैन नहीं, उन से न बोलो तो भी चैन नहीं. बीमार पड़ने पर उन्हें पूछने जाओ तो सुनने को मिलता, ‘देखने आए हो, अभी जिंदा हूं या मर गया.’ उन्हें किसी भी तरह संतोष नहीं.हमारे पड़ोस वाले बाबाजी का तो और भी बुरा हाल था. वे 12 बजे से पहले कुछ नहीं खाते थे. बेचारी बहू उन के पास जा कर पूछती, ‘बाबा, खाना ले आऊं?’

‘यशवंत खा गया क्या?’ वे पूछते.

‘नहीं, 1 बजे आएंगे,’ बहू उत्तर देती.

‘अरे, तो मैं क्या उस से पहले खा लूं? मैं क्या भुक्खड़ हूं? तुम लोग सोचते हो मैं ने शायद जिंदगी में कभी खाना नहीं खाया. बडे़ आए हैं मुझे खाना खिलाने वाले. मेरे यहां दसियों नौकर पलते थे. तुम मुझे क्या खाना खिलाओगे.’ बहू बेचारी मुंह लटकाए, आंसू पोंछती हुई चली आती. कुछ दिन ठीक निकल जाते. बेटे के साथ बाबा खाना खाते. फिर न जाने क्या होता, चिल्ला उठते, ‘खाना बना कि नहीं?’

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‘बस, ला रहा हूं, बाबा. मैं अभी तो आया हूं,’ बेटा प्यार से कहता. ‘हांहां, अभी आया है. मैं सब समझता हूं. तुम मुझे भूखा मार डालोगे. अरे, मैं ने तुम लोगों के लिए न दिन देखा न रात, सबकुछ तुम्हारे लिए जुटाता रहा. आज तुम्हें मेरी दो रोटियां भारी पड़ रही हैं. मेरे किएकराए को तुम लोगों ने भुला दिया है. बीवियों के गुलाम हो गए हो.’ फिर तो चुनचुन कर उन्हें ऐसी गालियां सुनाते कि सुनने वाले भी कानों में उंगली लगा लेते. बहूबेटे क्या, वे तो अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ते थे. उन के पांव दबातेदबाते बेचारी कभी ऊंघ जाती तो कयामत ही आ जाती. बच्चे कभी घर का सौदा लाने को पैसे देते तो अपने लिए सिगरेट की डब्बियां ही खरीद लाते. न जाने फिर मौका मिले कि नहीं. सिगरेट उन के लिए जहर थी. बच्चे मना करते तो तूफान आ जाता.

यह वृद्धावस्था सचमुच ही बड़ी बुरी है. मालूम नहीं लोगों की उम्र इतनी लंबी क्यों होती है? अगर उम्र लंबी ही होनी हो तो उन में कम से कम सामंजस्य स्थापित करने की तो बुद्धि होनी चाहिए? ‘अगर मेरी भी उम्र लंबी हुई तो क्या मैं भी अपने घरवालों के लिए सनकी हो जाऊंगी? क्या मैं अपनी मिट्टी स्वयं ही पलीद करूंगी?’ हमेशा यही सोचसोच कर मैं अपनी सुंदर जवानी को भी घुन लगा बैठी थी. बारबार यही खयाल आता, ‘जवानी तो थोड़े दिन ही अपना साथ देती है और हम जवानी में सब को खुश रखने की कोशिश भी करते हैं. लेकिन यह कमबख्त वृद्धावस्था आती है तो मरने तक पीछा नहीं छोड़ती. फिर अकेली भी तो नहीं आती, अपने साथ पचीसों बीमारियां ले कर आती है. सब से बड़ी बीमारी तो यही है कि वह आदमी को झक्की बना देती है.’

इसी तरह अपने सामने कितने ही लोगों को वृद्धावस्था में पांव रखते देखा था. सभी तो झक्की नहीं थे, उन में से कुछ संतोषी भी तो थे. पर कितने? बस, गिनेचुने ही. कुछ बच्चों की तरह जिद्दी देखे तो कुछ सठियाए हुए भी.देखदेख कर यही निष्कर्ष निकाला था कि कुछ वृद्ध कैसे भी हों, अपने को तो समय से पहले ही सावधान होना पड़ेगा. बाकी वृद्धों के जीवन से अनुभव ले कर अपनेआप को बदलने में ही भलाई है. कहीं ऐसा न हो कि अपने बेटे ही कह बैठें, ‘वाह  मां, और लोगों के साथ तो व्यवहार में हमेशा ममतामयी बनी रही. हमारे परिवार वाले ही क्या ऐसे बुरे हैं जो मुंह फुलाए रहती हो?’ लीजिए साहब, जिस बात का डर था, वही हो गई, वह तो बिना दस्तक दिए ही आ गई. हम ने शीशे में झांका तो वह हमारे सिर में झांक रही थी. दिल धड़क उठा. हम ने बिना किसी को बताए उसे रंग डाला. मैं ने तो अभी पूरी तरह उस के स्वागत की तैयारी ही नहीं की थी. स्वभाव से तो हम चुस्त थे ही, इसीलिए हमारे पास उस के आने का किसी को पता ही नहीं चला. लेकिन कई रातों तक नींद नहीं आई. दिल रहरह कर कांप उठता था.

अब हम ने सब पर अपनी चुस्ती का रोब जमाने के लिए अपने काम की मात्रा बढ़ा दी. जो काम नौकर करता था, उसे मैं स्वयं करने लगी. डर था न, कोई यह न कह दे, ‘‘क्या वृद्धों की तरह सुस्त होती जा रही हो?’’ज्यादा काम करने से थकावट महसूस होने लगी. सोचा, कहीं ऐसा न हो, अच्छेखासे व्यक्तित्व का ही भुरता बन कर रह जाए. फिर तो व्यक्तित्व का जो थोड़ाबहुत रोब है, वह भी छूमंतर हो जाएगा. क्यों न कोई और तरकीब सोची जाए. कम से कम व्यक् तित्व तो ऐसा होना चाहिए कि किसी के बाप की भी हिम्मत न हो कभी हमें वृद्धा कहने की. अब मैं ने व्यायाम की कई किताबें मंगवा कर पढ़नी शुरू कर दीं. एक किताब में लिखा था, कसरत करने से वृद्धावस्था जल्दी नहीं आती और काम करने की शक्ति बढ़ जाती है. गुस्सा भी अधिक नहीं करना चाहिए. बस, मैं ने कसरत करनी शुरू कर दी. गुस्सा भी पहले से बहुत कम कर दिया.पूरा गुस्सा इसलिए नहीं छोड़ा ताकि सास वाली परंपरा भी न टूटे. हो सकता है कभी इस से काम ही पड़ जाए. ऐसा न हो, छोड़ दिया और कभी जरूरत पड़ी तो बुलाने पर भी न आए. फिर क्या होगा? परंपरा है न, अपनी सास से झिड़की खाओ और ज ब सास बनो तो अपनी बहू को बीस बातें सुना कर अपना बदला पूरा कर लो. फिर मैं ने तो कुछ ज्यादा ही झिड़कियां खाई थीं, क्योंकि हमें दोनों लड़कों को डांटने की आदत नहीं थी. यही खयाल आता था, ‘अपने कौन से 10-20 बच्चे हैं. लेदे कर 2 ही तो लड़के हैं. अब इन पर भी गुस्सा करें तो क्या अच्छा लगेगा? फिर नौकर तो हैं ही. उन पर कसर तो पूरी हो ही जाती है.’

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मेरे बच्चे अपनी दादी से जरा अधिक ही हिलमिल जाते थे. यही हमारी सास को पसंद नहीं था. एक उन का चश्मा छिपा देता तो दूसरा उन की चप्पल. यह सारा दोष मुझ पर ही थोपा जाता, ‘‘बच्चों को जरा भी तमीज नहीं सिखाई कि कैसे बड़ों की इज्जत करनी चाहिए. देखो तो सही, कैसे बाज की तरह झपटते हैं. न दिन को चैन है न रात को नींद. कमबख्त खाना भी हराम कर देते हैं,’’ और जो कुछ वे बच्चों को सुनाती थीं, वह इशारा भी मेरी ओर होता था, ‘‘कैसी फूहड़ है तुम्हारी मां, जो तुम्हें इस तरह ‘खुला छोड़ देती है.’’ मेरी समझ में यह कभी नहीं आया, न ही पूछने की हिम्मत हुई कि ‘खुला छोड़ने से’ आप का क्या मतलब है, क्योंकि इंसान का बच्चा तो पैदाइश से ले कर वृद्धावस्था तक खुला ही रहता है. हां, गायभैंस के बच्चे की अलग बात है.

औरत एक पहेली- भाग 2: विनीता के मृदु स्वभाव का क्या राज था

आते ही वह सब के साथ घुलमिल कर बातें करने लग जातीं. रसोईघर में पटरे पर बैठ कर आग्रह कर के मुझ से दाल- रोटी ले कर खा लेतीं.

मैं संकोच से गड़ जाती. उन्हें फल, मिठाइयां लाने को मना करती, परंतु वह नहीं मानती थीं. संदीप मुझ से कहते, ‘‘विनीताजी जो करती हैं, उन्हें करने दिया करो. मना करने से उन का दिल दुखेगा. उन के अपने बच्चे नहीं हैं इसलिए वह हमारे बच्चों पर अपनी ममता लुटाती रहती हैं.’’

मैं परेशान सी हो उठती. भरेपूरे शरीर की स्वामिनी विनीता के अंदर ऐसी कौन सी कमी है, जिस ने उन्हें मातृत्व से वंचित कर दिया है. मैं उन के प्रति असीम सहानुभूति से भर उठती थी. एक दिन मन का क्षोभ संदीप के सामने प्रकट किया तो उन्होंने बताया, ‘‘विनीताजी के पति अपाहिज हैं. बच्चा पैदा करने में असमर्थ हैं. एक आपरेशन के दौरान डाक्टरों ने गलती से उन की शुक्राणु वाली नस काट दी थी.’’

मैं और अधिक सहानुभूति से भर उठी.

संदीप बताते रहे, ‘‘विनीताजी के पति की प्रथम पत्नी का एक पुत्र उन के साथ रहता है, जिसे उन्होंने मां की ममता दे कर बड़ा किया है. इतनी बड़ी फर्म, दौलत, प्रसिद्धि सबकुछ विनीताजी के अटूट परिश्रम का सुखद परिणाम है.’’

अचानक मेरे मन में खयाल आया, ‘विनीता की गुप्त बातों की जानकारी संदीप को कैसे हो गई? कब और कैसे दोनों के बीच इतनी अधिक घनिष्ठता हो गई कि वे दोनों यौन संबंधों पर भी चर्चा करने लगे.’

मैं ने इस विषय में संदीप से प्रश्न किया तो वह झेंप कर खामोश हो गए.

मेरे अंतर में संदेह का कीड़ा कुलबुला उठा था. मुझे लगने लगा कि विनीता अकारण ही हम लोगों से आत्मीयता नहीं दिखलाती हैं. वह हमारे बच्चों पर खर्च कर के हमारे घर में अपना स्थान बनाना चाहती हैं. कोई ऐसे ही तो किसी को हजारों का कर्जा नहीं दिलवा सकता. इन सब का कारण संदीप के प्रति उन का आकर्षण भी तो हो सकता है.

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संदीप 50 वर्ष के होने पर भी स्वस्थ, सुंदर थे. शरीर सौष्ठव के कारण अपनी आयु से कई वर्ष छोटे दिखते थे. किसी समआयु की महिला का उन की ओर आकर्षित हो जाना आश्चर्य की बात नहीं थी.

मैं सोचने लगी, ‘विनीता जैसी सुंदर महिला एक अपाहिज आदमी के साथ संतुष्ट रह भी कैसे सकती है?’ मुझे अपना घर उजड़ता हुआ लगने लगा था.

अब जब भी विनीता मेरे घर आतीं, मेरा मन उन के प्रति कड़वाहट से भर उठता था. उन की मधुर मुसकराहट के पीछे छलकपट दिखाई देने लगता. ऐसा लगता जैसे विनीता अपनी दौलत के कुछ सिक्के मेरी झोली में डाल कर मुझ से मेरी खुशियां और मेरा पति खरीद रही हैं. मुझे विनीता, उन की लाई गई वस्तुओं और उन की दौलत से नफरत होती चली गई.

मैं ने उन के दफ्तर जाना बंद कर दिया. वह मेरे घर आतीं तो मैं बीमारी या व्यस्तता का बहाना बना कर उन्हें टालने का प्रयास करने लगती थी. मेरे बच्चे और संदीप उन के आते ही उन की आवभगत में जुटने लगते थे. यह सब देख मुझे बेहद बुरा लगने लगता था.

मैं विनीता के जाने के पश्चात बच्चों को डांटने लगती, ‘‘तुम सब लालची प्रवृत्ति के क्यों बनते जा रहे हो? क्यों स्वीकार करते हो इन के लाए उपहार? इन से इतनी अधिक घनिष्ठता किसलिए? कौन हैं यह हमारी? मकान बन जाएगा, फिर हमारा और इन का रिश्ता ही क्या रह जाएगा?’’

बच्चे सहम कर मेरा मुंह देखते रह जाते क्योंकि अभी तक मैं ने उन्हें अतिथियों का सम्मान करना ही सिखाया था. विनीता के प्रति मेरी उपेक्षा को कोई नहीं समझ पाता था. सभी  मेरी मनोदशा से अनभिज्ञ थे. मकान के किसी कार्यवश जब भी संदीप मुझ से विनीता के दफ्तर चलने को कहते, मैं मना कर देती. वह अकेले चले जाते तो मैं मन ही मन कुढ़ती रहती, लेकिन ऊपर से शांत बनी रहती थी.

मैं संदीप को विनीता के यहां जाने से नहीं रोकती थी. सोचती, ‘मर्दों पर प्रतिबंध लगाना क्या आसान काम है? पूरा दिन घर से बाहर बिताते हैं. कोई पत्नी आखिर पति का पीछा कहां तक कर सकती है?’

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मेरे मनोभावों से बेखबर संदीप जबतब विनीता की प्रशंसा करने बैठ जाते. अकसर कहते, ‘‘विनीताजी से मुलाकात नहीं हुई होती तो हमारा मकान इतनी जल्दी नहीं बन पाता.’’

कभी कहते, ‘‘विनीताजी दिनरात परिश्रम कर के हमारा मकान इस प्रकार बनवा रही हैं जैसे वह उन का अपना ही मकान हो.’’

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