अकीदन बूआ

अकीदन बूआ की लाश चौराहे पर रखी थी. पूरा गांव उन के अंतिम दर्शनों के लिए उमड़ पड़ा था. गांव के हर मर्दऔरत की जबान पर आज अकीदन बूआ का नाम था. हर कोई आज उन की अच्छाइयों के चर्चे करते नहीं थक रहा था. हर कोई यही महसूस कर रहा था, जैसे कोई उन का अपना उन से बिछड़ गया हो.

गांव में किसी के यहां अगर कोई कामकाज होता, तो अकीदन बूआ को सब से पहले खबर हो जाती. सभी धर्मजाति के लोग उन्हें अपने परिवार के सदस्य की तरह मानते थे. उन का अपना घर आगजनी की भेंट चढ़ गया था. उस के बाद से गांव का हर घर उन का अपना घर बन गया था. उन की सुबह किसी घर में होती, तो दोपहर किसी दूसरे के यहां और शाम कहीं और.

कभी अकीदन बूआ का अपना भी एक घर हुआ करता था. उन का भी हंसताखेलता, भरापूरा परिवार हुआ करता था. उन का आदमी फौज में था. देश के बंटवारे के समय उन के देवरदेवरानी और सासससुर अपने बच्चों समेत पाकिस्तान चले गए थे.

सासससुर ने उन्हें बहुत सम?ाया कि अकीदन तू भी पाकिस्तान चल. तेरे आदमी को चिट्ठी भेज कर वहीं बुलवा लिया जाएगा, लेकिन उन्होंने उन के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था.

सासससुर, देवरदेवरानी और उन के बच्चों के चले जाने के बाद घर भांयभांय करने लगा. घर में निपट अकेली बची अकीदन को दिन काटना मुश्किल लगने लगा था. काफी दिनों से उन के पति यासीन की भी कोई चिट्ठी न आने से वे परेशान हो उठीं. उन का आदमी जो हर महीने खर्चा भेजता था, वह भी आना बंद हो गया था.

एक दिन पाकिस्तान से एक चिट्ठी आई, जो उस के ससुर ने लिखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था. ‘अकीदन, तेरे आदमी को यहां फौज में जगह मिल गई है. तू अगर आना चाहे तो चिट्ठी में लिख भेज. यासीन तु?ो लेने आ जाएगा.’

लेकिन अकीदन को अपने गांव और यहां की मिट्टी से इतना लगाव हो गया था कि वे किसी भी कीमत पर यहां से जाना नहीं चाहती थीं.

उन्होंने चिट्ठी के जवाब में साफसाफ लिख भेजा, ‘जिस मुल्क की मिट्टी में मैं ने जन्म लिया है, उसी की खाक में मिल कर अपने को धन्य सम?ांगी. मु?ो लेने आने की सोचना भी मत, वरना यहां से तुम्हें निराश ही लौटना पड़ेगा. मैं यहीं ठीक हूं.’

अब अकीदन बूआ को इस बात का पता चल गया था कि उन का आदमी भी पाकिस्तान का हो गया है. ऐसे में उन के सामने रोजीरोटी की समस्या बनी हुई थी, क्योंकि उन के आदमी की कमाई पर ही घर का खर्च चलता था और अब खर्च आना बंद हो गया था, इसलिए भुखमरी से निबटने के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची.

उन्होंने अपने जेवरात बेच कर घर पर ही एक छोटी सी परचून की दुकान खोल ली. ग्राहक बनाने के लिए उन्होंने छोटेछोटे बच्चों को जरीया बनाया. उन की दुकान पर जो भी बच्चा सौदा लेने आता, वे उसे एक टौफी मुफ्त में देतीं. देखते ही देखते हर घर के बच्चे उन की दुकान की ओर खिंचने लगे.

जब अकीदन बूआ की दुकान चलने लगी, तो उन्होंने अपनी दुकान के सामने यह सूचना लिख कर टंगवा दी कि अकीदन बूआ की दुकान पर सौदा खरीदने पर बच्चों को टौफी और बड़ों को माउथ फ्रैशनर उपहार में दिया जाएगा.

यह सूचना धीरेधीरे सारे गांव में फैल गई. इस से गांव की बड़ीबड़ी दुकानें प्रभावित होने लगीं.

अकीदन बूआ चूंकि सभी चीजें वाजिब दाम पर बेचती थीं और मुनाफा दूसरों से कम लेती थीं व जरूरतमंदों को उधार भी दे देती थीं. इसी वजह से ज्यादा मुनाफाखोर दुकानदारों की ओर से गांव वालों का मोह भंग होने लगा. अब अकीदन बूआ की दुकान का नाम सारे गांव की जबान पर था.

अकीदन बूआ की दुकान के आगे एकएक कर अब कई दुकानें बंद होती चली गईं. जिन लोगों की दुकानें बंद हो गई थीं, वे गोलबंद हो कर उन के खिलाफ साजिश रचने की योजना बनाने में जुट गए.

एक दिन जब अकीदन बूआ गांव से बाहर किसी काम से गई हुई थीं, तो साजिश करने वालों ने मौका पा कर अकीदन बूआ के घर को आग लगा दी. इतना ही नहीं, आग बु?ाने के बहाने उन्होंने मिट्टी का तेल छिड़क कर आग को और भड़का दिया.

सारा घर धूधू कर आग में जल उठा. सबकुछ जल कर खाक हो चुका था. सिर छिपाने तक को आसरा नहीं बचा था.

अकीदन बूआ लौट कर जब घर आईं, तो घर की जगह उन्हें राख का ढेर मिला. आदमी का साथ तो पहले ही छूट चुका था, आज घर का साया भी नहीं रह गया था. वे किसी अनाथ बच्चे की तरह फफक पड़ीं.

गांव के लोग भी अकीदन बूआ के दुख में शामिल हो गए. उन्होंने उन्हें हिम्मत बंधाई. गांव वालों में से एक ने कहा, ‘‘अब से गांव के हर घर को तुम अपना घर सम?ा. तुम्हारे लिए गांव के हर घर के दरवाजे खुले हैं.’’

थोड़े ही दिनों में अकीदन बूआ ने अपने अच्छे बरताव, सेवा भाव और गांव वालों के दुखसुख में बराबर शरीक हो कर सब का दिल जीत लिया.

गांव के मुखिया ने एक दिन पंचायत बुला कर अकीदन बूआ को घर बनवा कर देने की बात कही, तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि अब उन्हें घर की जरूरत नहीं है.

अब सारा गांव ही उन का घर था. गांव के बच्चे अपनी अकीदन बूआ के लाड़प्यार से बहुत प्रभावित थे. वे अकसर शाम के समय उन्हें घेर कर बैठ जाते और कहानियां सुनाने की जिद करते. गांव में जब कोई मां शरारत करने पर अपने बच्चे को मारनेपीटने के लिए हाथ उठाती, तो बच्चा कहता, ‘‘मारोगी तो अकीदन बूआ को बता दूंगा.’’

यह सुन कर मां की ममता जाग जाती और वह बच्चे को छाती से चिपका लेती.

आज जब अकीदन बूआ हमेशा के लिए शांत हो गई थीं, तो पूरा गांव हैरान था. बच्चे फटीफटी आंखों से उन्हें देखते हुए कह रहे थे, ‘अकीदन बूआ उठो… अकीदन बूआ उठो…’ पर शायद वे नहीं जानते थे कि अकीदन बूआ अब कभी नहीं उठेंगी.

सबक : गीता ने कौन सा कदम उठाया

‘‘देख लेना, मैं एक दिन घर छोड़ कर चली जाऊंगी, तब तुम लोगों को मेरी कीमत पता लगेगी,’’ बड़बड़ाते हुए गीता अपने घर से काम करने के लिए बाहर निकल गई.

गीता की इस चेतावनी का उस के मातापिता और भाईबहन पर कोई असर नहीं पड़ता था, क्योंकि वे जानते थे कि वह अगर घर छोड़ कर जाएगी, तो जाएगी कहां…? आना तो वापस ही पड़ेगा.

आजकल गीता यह ताना अकसर अपने मातापिता को देने लगी थी. वह ऊब गई थी उन का पेट पालतेपालते. आखिर कब तक वह ऐसी बेरस जिंदगी ढोती रहेगी. उस की अपनी भी तो जिंदगी है, जिस की किसी को चिंता ही नहीं है.

गीता के अलावा उस की 2 बहनें और एक भाई भी था. बाप किसी फैक्टरी में मजदूरी करता था, लेकिन अपनी कमाई का सारा पैसा शराब और जुए में उड़ा देता था.

महज 10 साल की उम्र में ही गीता ने अपनी मां लक्ष्मी के साथ घरों में झाड़ूपोंछा और बरतन साफ करने के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया था. वह बहुत जल्दी खाना बनाना भी सीख गई थी, क्योंकि उस ने देखा था कि इस पेशे में अच्छे पैसे मिलते हैं और उस ने घरों में खाना बनाने का काम शुरू कर दिया. धीरेधीरे गीता ब्यूटीशियन का कोर्स किए बिना ही फेसियल, मेकअप वगैरह सीख कर थोड़ी और आमदनी भी करने लगी.

बचपन से ही गीता बहुत जुझारू थी. लक्ष्मी पढ़ीलिखी नहीं थी, लेकिन वह अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती थी, इसलिए वह भी जीतोड़ मेहनत कर के पैसा कमाती थी, जिस से कि उस के बच्चे पढ़ सकें.

लक्ष्मी स्वभाव से बहुत सरल और अपने काम के प्रति समर्पित थी, इसलिए कालोनी में जिस के घर भी वह काम करती थी, वे उसे बहुत पसंद करते थे और जब भी उसे जरूरत पड़ती, उस की पैसे और सामान दे कर मदद करते थे.

समय बीतता गया. गीता ने प्राइवेट से इम्तिहान दे कर बीए की डिगरी हासिल कर ली. हैदराबाद में रहने से वहां के माहौल के चलते उस की अंगरेजी भी बहुत अच्छी हो गई थी.

लोग गीता की तारीफ करते नहीं थकते थे कि पढ़ाई के साथ वह घर का खर्चा भी चलाने में अपनी मां के काम को कमतर समझ कर उस की मदद करने में कभी कोताही नहीं बरतती थी.

इस के उलट गीता की दोनों बहनों ने रैगुलर रह कर पढ़ाई की, लेकिन कभी अपनी मां के काम में हाथ नहीं बंटाया, क्योंकि पढ़ाई के चलते अहंकारवश उन को उस का काम छोटा लगता था, बल्कि वे तो अपने घर का काम भी नहीं करना चाहती थीं. दिनभर पढ़ना या टैलीविजन देखना ही उन की दिनचर्या थी.

गीता उन को कुछ कहती, तो वे उसे उलटा जवाब दे कर उस का मुंह बंद कर देतीं, लक्ष्मी भी उन का पक्ष लेते हुई कहती कि अभी वे छोटी हैं, उन के खेलनेकूदने के दिन हैं.

गीता के भाई राजू ने इंटर के बाद पढ़ाई छोड़ दी. उस का कभी पढ़ाई में मन लगा ही नहीं, लेकिन सपने उस के काफी बड़े थे. दोस्तों के साथ मोटरसाइकिल पर घूमना और देर रात घर लौट कर अपनी बहनों पर रोब गांठना उस की दिनचर्या में शामिल हो गया था.

लक्ष्मी अपने लाड़ले एकलौते बेटे की हर जिद के सामने हार जाती थी, क्योंकि वह घर छोड़ कर चला जाऊंगा की धमकी दे कर अपनी हर बात मनवाना चाहता था.

एक बार राजू मोटरसाइकिल खरीदने की जिद पर अड़ गया, तो लक्ष्मी ने लोगों से उधार ले कर उस की इच्छा पूरी की. किसी ऊंची पोस्ट पर काम करने वाले आदमी, जिन के यहां दोनों मांबेटी काम करती थीं, से कह कर दूसरे शहर में राजू की नौकरी लगवाई कि अपने दोस्तों से दूर रहेगा, तो उस का काम में मन लगेगा. उस के लिए पैसों की जरूरत पड़ी, तो लक्ष्मी ने अपने कान के सोने के बूंदे गिरवी रख कर उस की भरपाई की.

एक दिन अचानक राजू अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर गायब हो गया. पूरा परिवार उस की इस हरकत से बहुत परेशान हुआ.

कुछ महीने बाद पता चला कि राजू तो एक लड़की से शादी कर के उस के साथ इसी शहर में रह रहा है. वह लड़की किसी ब्यूटीपार्लर में काम करती थी.

लक्ष्मी और गीता को यह जान कर बड़ी हैरानी हुई कि उन लोगों ने उस का भविष्य बनाने के लिए क्याकुछ नहीं किया और उस ने लड़की के चक्कर में अपने कैरियर की भी परवाह नहीं की.

राजू के इसी शहर में रहने के चलते आएदिन उस की खबर इन लोगों को मिलती रहती थी. लक्ष्मी किसी तरह कोशिश कर के उस की नौकरी लगवाती, वह फिर नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाता, जरूरत पड़ने पर वह जबतब लक्ष्मी से पैसे की मांग करता, तो अपने बेटे के प्यार में सबकुछ भूल कर वह उस की मांग पूरी करती.

अब गीता को अपनी मां लक्ष्मी की राजू के प्रति हमदर्दी अखरने लगी. उस का मन बगावत करने लगा कि बचपन से उस ने दोनों बहनों और भाई की जिंदगी बनाने के लिए क्याकुछ नहीं किया, लेकिन लक्ष्मी को उसे छोड़ कर सभी की बहुत चिंता रहती थी. यहां तक कि जब गीता अपने पिता को कुछ कहती, तो लक्ष्मी उसे डांटती कि वे उस के पिता हैं, उस को उन के बारे में ऐसा नहीं बोलना चाहिए.

गीता गुस्से से बोलती, ‘‘कैसे पिता…? क्या बच्चे पैदा करने से ही कोई पिता बन जाता है? जब वे हमें पाल नहीं सकते, तो उन्हें बच्चे पैदा करने का हक ही क्या था…?’’

गीता को अपनी मां लक्ष्मी से बहुत हमदर्दी रहती थी, लेकिन जवान होतेहोते उसे समझ आने लगा था कि वह अपनी हालत के लिए खुद भी जिम्मेदार है.

सुबह की निकली जब गीता रात को 8 बजे घर पहुंचती, तो देखती कि दोनों बहनें टैलीविजन देख रही हैं, मां खाना बना रही हैं, मांजने के लिए बरतनों का ढेर लगा हुआ है, तो उस का मन गुस्से से भर उठता. लेकिन किसी को भी कुछ कहने से फायदा नहीं था और वह मन मसोस कर रह जाती थी.

गीता ने अब बीऐड भी कर लिया था और वह एक स्कूल में नौकरी करने लगी थी, लेकिन उस ने खाली समय में घरों के काम में मां का हाथ बंटाना नहीं छोड़ा था. स्कूल से जो तनख्वाह मिलती थी, वह तो पूरी अपनी मां को दे देती थी, लेकिन घरों से उसे जो आमदनी होती थी, वह अपने पास रख लेती थी.

देखते ही देखते गीता 26 साल की हो गई थी, लेकिन उस की शादी की किसी को चिंता ही नहीं थी. पर उस ने अपने भविष्य के लिए सोचना शुरू कर दिया था और मन ही मन घर छोड़ने का विचार करने लगी. ऐसा कर के वह उन सब को सबक सिखाना चाहती थी.

गीता ने अब बातबात पर कहना शुरू कर दिया था कि वह घर छोड़ कर चली जाएगी, लेकिन वे लोग उस की इस बात को कभी गंभीरता से नहीं लेते थे, क्योंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि वह कभी ऐसा कदम भी उठा सकती है. पर बात यह नहीं थी.

गीता ने मन ही मन स्कूल में बने स्टाफ क्वार्टर में रहने की योजना बनाई और एक दिन वाकई अपने घर छोड़ने की खबर कागज पर लिख कर चुपचाप चली गई.

जैसे ही घर वालों को उस के जाने की खबर मिली, सभी सकते में आ गए. सब से ज्यादा मां लक्ष्मी को झटका लगा, क्योंकि गीता की कमाई के बिना घर चलाना मुश्किल था. मां के हाथपैर फूल गए थे.

एक हफ्ता बीत गया, लेकिन गीता घर नहीं आई. उस को कई बार फोन भी किया, लेकिन गीता ने फोन नहीं उठाया. हार कर लक्ष्मी अपनी बीच वाली बेटी के साथ उस के स्कूल पहुंच गई.

लक्ष्मी के कहने पर गार्ड गीता को बुलाने गया. थोड़ी देर में गीता आ गई. उस को देख कर वे दोनों रोते हुए उस से लिपटने के लिए दौड़ीं, लेकिन गीता ने हाथ से उन्हें रोक लिया.

इस से पहले कि लक्ष्मी कुछ कहती, गीता बोली, ‘‘मुझे पता है, तुम्हें मेरी नहीं, बल्कि मेरे पैसों की जरूरत है. मैं उस घर में तभी कदम रखूंगी, जब वहां मेरे पैसे की नहीं, मेरी कद्र होगी. तुम सभी के मेरे जैसे दो हाथ हैं, इसलिए मेरी तरह तुम सभी मेहनत कर के अपने खर्चे चला सकते हो. तभी तुम्हें पता चलेगा कि पैसा कितनी मेहनत से कमाया जाता है.

‘‘अब मुझ से किसी तरह की उम्मीद मत रखना. अब मैं सिर्फ अपने लिए जीऊंगी. मुझ से कभी दोबारा मिलने की कोशिश भी नहीं करना…’’ और इतना कह कर वह वहां से तुरंत लौट गई.

अपनी बेटी की दोटूक बात सुन कर मां लक्ष्मी हैरान रह गई. वह उस के इस रूप की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. उसे याद आया, जब डाक्टर ने लक्ष्मी के लिए ब्रैस्ट कैंसर का शक जाहिर किया था, तब गीता छिपछिप कर कितना रोती थी. उस के साथ डाक्टरों के चक्कर भी लगाने जाती थी और जब शक बेवजह का निकला, तो खुशी के आंसू उस की आंखों से बह निकले थे और आज वह इतनी कठोर कैसे हो गई? लक्ष्मी वहीं थोड़ी देर के लिए सिर पकड़ कर बैठ गई.

लक्ष्मी ने अपने सभी बच्चों को बचपन से ही हनत करना सिखाया होता और पैसे की अहमियत बताई होती, तो गीता को न अपना घर छोड़ना पड़ता और न लक्ष्मी के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूटता.

अपने पति और बेटे के प्रति अंधे प्यार ने उन्हें निकम्मा और नकारा बना दिया था, जिस के चलते उन्होंने कभी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश ही नहीं की. उन को मुफ्त के पैसे लेने की आदत पड़ गई थी. वे दोनों इस परिवार पर बोझ बन गए थे.

मां लक्ष्मी को गीता के जाने से अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत. लक्ष्मी को अब नए सिरे से घर का खर्च चलाना था, उस ने कुछ घरों से उधार लिया, यह कह कर कि हर महीने उस की पगार से काट लें. पहले ही खर्चा चलाना मुश्किल था, उस पर उधार चुकाना उस के लिए किसी बोझ से कम नहीं था.

पति और बेटे से तो उम्मीद लगाना ही बेकार था, लेकिन बीच वाली बेटी ने किसी दुकान में नौकरी कर ली और छोटी बेटी ने अपनी पढ़ाई के साथसाथ मां के साथ घरों के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया, लेकिन उन को अपने खर्चों में भारी कटौती करनी पड़ी. इस वजह से वे दोनों बहनें चिड़चिड़ी सी रहने लगी थीं.

गीता के स्वभाव और उस को अपने काम के प्रति निष्ठावान देख कर उस के एक सहयोगी ने उस के सामने शादी का प्रस्ताव रखा, तो उस ने हामी भरने में बिलकुल भी देरी नहीं लगाई.

शादी के बाद गीता ने घर और स्कूल की जिम्मेदारी बखूबी निभा कर सब का मन मोह लिया और सुखी जिंदगी जीने लगी.

गीता ने जो कदम उठाया, उस से उस की जिंदगी में तो खुशी आई ही, बाकी सब को भी कम से कम सबक तो मिला कि मुफ्त की कमाई ज्यादा दिनों तक हजम नहीं होती. हो सकता है कि भविष्य में लक्ष्मी का परिवार एकजुट हो जाए, जिस से उन्हें गरीबी के दलदल से बाहर निकलने का रास्ता मिल जाए.

दीवार: भाग 1

आस्ट्रेलिया में 6 सप्ताह बिताने के बाद जया और राहुल जब वापस आए तो घर खोलते ही उन्हें हलकी सी गंध महसूस हुई. यह गंध इतने दिनों तक घर बंद होने के कारण थी.  सफर की थकान के कारण राहुल और जया का मन चाय पीने को कर रहा था, जया बोली, ‘‘जानकी कल शाम पूजा के फ्रिज में दूध रख गई होगी, तुम खिड़कियां व दरवाजे खोलो राहुल, मैं तब तक दूध ले कर आती हूं.’’

‘‘दूध ले कर या चाय का और्डर कर के?’’ राहुल हंसा.

‘‘आस तो नाश्ते की भी है,’’ कह कर जया बाहर निकल गई.  बराबर के फ्लैट में रहने वाले कपिल और पूजा से उन की अच्छी दोस्ती थी.  कुछ देर बाद जया सकपकाई सी वापस आई और बोली, ‘‘कपिल और पूजा ने यह फ्लैट किसी और को बेच दिया है. मैं ने घंटी बजाई तो दरवाजा एक नेपाली लड़के ने खोला और पूजा के बारे में पूछा तो बोला कि वे तो अब यहां नहीं रहतीं, यह फ्लैट हमारे साहब ने खरीद लिया है.’’

जया अभी राहुल को नए पड़ोसी के बारे में बता ही रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. जया ने जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा कि जानकी दूध के पैकेट लिए खड़ी थी.

‘‘माफ करना मैडम, आने में थोड़ी देर हो गई, पूजा मैडम का नया फ्लैट…’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ जया ने बात काटी, ‘‘यह बता, पूजा मैडम कहां गईं?’’

‘‘7वें माले पर, मगर क्यों, यह नहीं मालूम,’’ जानकी ने रसोई में जाते हुए कहा.

‘‘चलो, है तो सोसायटी में ही, मिलने पर पूछेंगे कि तीसरे माले से 7वें माले पर क्यों चढ़ गई? चाय तो जानकी पिला देगी मगर नाश्ता तो खुद ही बनाना पड़ेगा,’’ जया ने राहुल से कहा.

‘‘नाश्ते के लिए इडलीसांभर और फल ला दूंगा.’’

राहुल के बाजार जाने के बाद दरवाजा बंद कर के जया मुड़ी ही थी कि फिर घंटी बजी. जया ने दरवाजा खोला. बराबर वाले फ्लैट का वही नेपाली लड़का एक ढकी हुई टे्र लिए खड़ा था.  ‘‘साहब ने नाश्ता भिजवाया है,’’ कह कर उस ने बराबर वाले फ्लैट की ओर इशारा किया जहां एक संभ्रांत प्रौढ़ सज्जन दरवाजे पर ताला लगा रहे थे. ताला लगा कर वे जया की ओर मुड़े और मुसकरा कर बोले, ‘‘मैं आप का नया पड़ोसी आनंद हूं. मुझे पूजा और कपिल से आप के बारे में सब मालूम हो चुका है. आस्टे्रलिया की लंबी यात्रा के बाद आप थकी हुई होंगी इसलिए पूजा की जगह मैं ने आप के लिए नाश्ता बनवा दिया है.’’

‘‘आप ने तकलीफ क्यों की? राहुल गए हैं न नाश्ता लाने…’’

‘‘तो यह आप लंच में खा लेना,’’ आनंद नौकर की ओर मुड़े. ‘‘मुरली, टे्र अंदर टेबल पर रख दो.’’

मुरली ने लपक कर टे्र अंदर टेबल पर रख दी और फिर आनंद का ब्रीफकेस उठा कर लिफ्ट की ओर चला गया.  ‘‘इतना संकोच करने की जरूरत नहीं है, बेटी,’’ आनंद ने प्यारभरे स्वर में कहा, ‘‘अब हम पड़ोसी हैं, एकदूसरे का सुखदुख बांटने वाले.’’

जया भावविह्वल हो गई, ‘‘थैंक यू, अंकल…’’

‘‘साहब, लिफ्ट आ गई,’’ मुरली ने पुकारा.

‘‘शाम को मिलते हैं, टेक केयर,’’ आनंद ने लिफ्ट की ओर जाते हुए कहा.

तभी राहुल आ गया और खुशबू सूंघते हुए बोला, ‘‘मैं गया तो था न नाश्ता लाने फिर तुम ने क्यों बना लिया?’’  ‘‘मैं ने नहीं बनाया, हमारे नए पड़ोस से आया है,’’ जया ने राहुल के मुंह में परांठे का टुकड़ा रखते हुए कहा, ‘‘खा कर देखो, क्या लाजवाब स्वाद है.’’

‘‘सच में मजा आ गया,’’ राहुल बैठते हुए बोला, ‘‘अब तो यही खाएंगे. परांठे तो बढि़या हैं, आनंद साहब कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हें उन का नाम कैसे मालूम?’’ जया ने चौंक कर पूछा.

‘‘नीचे सोसायटी का सेके्रटरी श्रीनिवास मिल गया था. उसी ने बताया कि अमेरिकन बैंक के उच्चाधिकारी आनंद विधुर हैं, बच्चे भी कहीं और हैं. बस एक नौकर है जो उन की गाड़ी भी चलाता है इसलिए अकेलापन काटने के लिए ऐसा फ्लैट चाहते थे जिस की बालकनी से वे मेन रोड की रौनक देख सकें. अपनी बिल्ंिडग में जो फ्लैट बिकाऊ हैं उन से मेन रोड नजर नहीं आती. श्रीनिवास के कहने पर उन्होंने 7वें माले का फ्लैट ले तो लिया पर उस में रहने नहीं आए. बाद में श्रीनिवास को बगैर बताए उन्होंने कपिल से अपना फ्लैट बदल लिया. इस अदलाबदली का कमीशन न मिलने से श्रीनिवास बहुत चिढ़ा हुआ है.’’

जया हंसने लगी, ‘‘कपिल से या आनंद अंकल से?’’

‘‘अरे वाह, तुम ने उन्हें अंकल भी बना लिया?’’

‘‘जब उन्होंने मुझे बेटी कहा तो मुझे भी उन्हें अंकल कहना पड़ा. वैसे भी उन की उम्र के व्यक्ति को तो अंकल ही कहना चाहिए.’’  पेट भर नाश्ता करने के बाद दोनों आराम करने लगे. अगले रोज से काम पर जाना था इसलिए दोनों कुछ देर बाद उठे और घर का सामान लाने बाजार चले गए. लौटते समय लिफ्ट में आनंद मिल गए. अपने फ्लैट का ताला खोलने से पहले राहुल ने कहा, ‘‘अंकल, आज हमारे साथ चाय पीजिए.’’

‘‘जरूर पीऊंगा बेटा, मगर फिर कभी.’’

‘‘वह फिर कभी न जाने कब आए, अंकल,’’ जया बोली, ‘‘कल से काम पर जाने के बाद घर लौटने का कोई सही वक्त नहीं रहेगा.’’  आनंद अपने फ्लैट की चाबी मुरली को पकड़ा कर राहुल और जया के साथ अंदर आ गए. उन के चेहरे से लगा कि वे घर की सजावट से बहुत प्रभावित लग रहे हैं.

‘‘आस्ट्रेलिया का ट्रिप कैसा रहा?’’ आनंद ने बातचीत के दौरान पूछा.

‘‘बहुत बढि़या. मेरे छोटे भाई साहिल ने हमें खूब घुमाया. बहुत मजा आया. वैसे भी आस्टे्रलिया बहुत सुंदर है,’’ राहुल ने कहा.

‘‘वहां जा कर बसने का इरादा तो नहीं है?’’

‘‘अरे नहीं अंकल, रहने के लिए अपना देश ही सब से बढि़या है.’’

‘‘यह बात छोटे भाई को नहीं समझाई?’’

‘‘ऐसी बातें किसी के समझाने से नहीं, अपनेआप ही समझ आती हैं, अंकल.’’

‘‘यह बात तो है. मुझे भी औरों की बात समझ नहीं आई थी और जब आई तो बहुत देर हो चुकी थी,’’ आनंद ने लंबी सांस ले कर कहा.

‘‘कौन सी बात, अंकल?’’ जया ने पूछा.

‘‘यही कि अपना देश विदेशों से अच्छा है,’’ आनंद ने सफाई से बात बदली, ‘‘लंबे औफिस आवर्स हैं आप दोनों के?’’

‘‘मेरे तो फिर भी ठीक हैं लेकिन जया रायजादा गु्रप के चेयरमैन की पर्सनल सेके्रटरी है इसलिए यह अकसर देर से आती है,’’ राहुल ने बताया.

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दीवार: क्या आनंद अंकल सच में जया और राहुल के अपने थे?

खूबसूरत : असलम को कैसे हुआ मुमताज की खूबसूरती का एहसास

असलम ने धड़कते दिल के साथ दुलहन का घूंघट उठाया. घूंघट के उठते ही उस के अरमानों पर पानी फिर गया था.

असलम ने फौरन घूंघट गिरा दिया. अपनी दुलहन को देख कर असलम का दिमाग भन्ना गया था. वह उसे अपने ख्वाबों की शहजादी के बजाय किसी भुतहा फिल्म की हीरोइन लग रही थी.

असलम ने अपने दांत पीस लिए और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया. बड़ी भाभी बरामदे में टहलते हुए अपने रोते हुए मुन्ने को चुप कराने की कोशिश कर रही थीं. असलम उन के पास चला गया.

‘‘मेरे साथ आइए भाभी,’’ असलम भाभी का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हुआ क्या है?’’ भाभी उस के तेवर देख कर हैरान थीं.

‘‘पहले अंदर चलिए,’’ असलम उन का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कमरे में ले गया.

‘‘यह दुलहन पसंद की है आप ने मेरे लिए,’’ असलम ने दुलहन का घूंघट झटके से उठा कर भाभी से पूछा.

‘‘मुझे क्या पता था कि तुम सूरत को अहमियत दोगे, मैं ने तो सीरत परखी थी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘आप से किस ने कह दिया कि सूरत वालों के पास सीरत नहीं होती?’’ असलम ने जलभुन कर भाभी से पूछा. ‘‘अब जैसी भी है, इसी के साथ गुजारा कर लो. इसी में सारे खानदान की भलाई है,’’ बड़ी भाभी नसीहत दे कर चलती बनीं.

‘‘उठो यहां से और दफा हो जाओ,’’ असलम ने गुस्से में मुमताज से कहा.

‘‘मैं कहां जाऊं?’’ मुमताज ने सहम कर पूछा. उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘भाड़ में,’’ असलम ने झल्ला कर कहा.

मुमताज चुपचाप बैड से उतर कर सोफे पर जा कर बैठ गई. असलम ने बैड पर लेट कर चादर ओढ़ ली और सो गया. सुबह असलम की आंख देर से खुली. उस ने घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 9 बज रहे थे. मुमताज सोफे पर गठरी बनी सो रही थी.

असलम बाथरूम में घुस गया और फ्रैश हो कर कमरे से बाहर आ गया.

‘‘सुबहसुबह छैला बन कर कहां चल दिए देवरजी?’’ कमरे से बाहर निकलते ही छोटी भाभी ने टोक दिया.

‘‘दफ्तर जा रहा हूं,’’ असलम ने होंठ सिकोड़ कर कहा.

‘‘मगर, तुम ने तो 15 दिन की छुट्टी ली थी.’’

‘‘अब मुझे छुट्टी की जरूरत महसूस नहीं हो रही.’’

दफ्तर में भी सभी असलम को देख कर हैरान थे. मगर उस के गुस्सैल मिजाज को देखते हुए किसी ने उस से कुछ नहीं पूछा. शाम को असलम थकाहारा दफ्तर से घर आया तो मुमताज सजीधजी हाथ में पानी का गिलास पकड़े उस के सामने खड़ी थी. ‘‘मुझे प्यास नहीं है और तुम मेरे सामने मत आया करो,’’ असलम ने बेहद नफरत से कहा.

‘‘जी,’’ कह कर मुमताज चुपचाप सामने से हट गई.

‘‘और सुनो, तुम ने जो चेहरे पर रंगरोगन किया है, इसे फौरन धो दो. मैं पहले ही तुम से बहुत डरा हुआ हूं. मुझे और डराने की जरूरत नहीं है. हो सके तो अपना नाम भी बदल डालो. यह तुम पर सूट नहीं करता,’’ असलम ने मुमताज की बदसूरती पर ताना कसा.

मुमताज चुपचाप आंसू पीते हुए कमरे से बाहर निकल गई.

इस के बाद मुमताज ने खुद को पूरी तरह से घर के कामों में मसरूफ कर लिया. वह यही कोशिश करती कि असलम और उस का सामना कम से कम हो. दोनों भाभियों के मजे हो गए थे. उन्हें मुफ्त की नौकरानी मिल गई थी.

एक दिन मुमताज किचन में बैठी सब्जी काट रही थी तभी असलम ने किचन में दाखिल हो कर कहा, ‘‘ऐ सुनो.’’

‘‘जी,’’ मुमताज उसे किचन में देख कर हैरान थी.

‘‘मैं दूसरी शादी कर रहा हूं. यह तलाकनामा है, इस पर साइन कर दो,’’ असलम ने हाथ में पकड़ा हुआ कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘क्या…?’’ मुमताज ने हैरत से देखा और सब्जी काटने वाली छुरी से अपना हाथ काट लिया. उस के हाथ से खून बहने लगा.

‘‘जाहिल…,’’ असलम ने उसे घूर कर देखा, ‘‘शक्ल तो है ही नहीं, अक्ल भी नहीं है तुम में,’’ और उस ने मुमताज का हाथ पकड़ कर नल के नीचे कर दिया.

मुमताज आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थी. असलम ने एक पल को उस की तरफ देखा. आंखों में उतर आए आंसुओं को रोकने के लिए जल्दीजल्दी पलकें झपकाती हुई वह बड़ी मासूम नजर आ रही थी. असलम उसे गौर से देखने लगा. पहली बार वह उसे अच्छी लगी थी. वह उस का हाथ छोड़ कर अपने कमरे में चला गया. बैड पर लेट कर वह देर तक उसी के बारे में सोचता रहा, ‘आखिर इस लड़की का कुसूर क्या है? सिर्फ इतना कि यह खूबसूरत नहीं है. लेकिन इस का दिल तो खूबसूरत है.’

पहली बार असलम को अपनी गलती का एहसास हुआ था. उस ने तलाकनामा फाड़ कर डस्टबिन में डाल दिया. असलम वापस किचन में चला आया. मुमताज किचन की सफाई कर रही थी.

‘‘छोड़ो यह सब और आओ मेरे साथ,’’ असलम पहली बार मुमताज से बेहद प्यार से बोला.

‘‘जी, बस जरा सा काम है,’’ मुमताज उस के बदले मिजाज को देख कर हैरान थी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें नौकरों की तरह सारा दिन काम करने की,’’ असलम किचन में दाखिल होती छोटी भाभी को देख कर बोला.

असलम मुमताज की बांह पकड़ कर अपने कमरे में ले आया, ‘‘बैठो यहां,’’  उसे बैड पर बैठा कर असलम बोला और खुद उस के कदमों में बैठ गया.

‘‘मुमताज, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मुझे तुम जो चाहे सजा दे सकती हो. मैं खूबसूरत चेहरे का तलबगार था. मगर अब मैं ने जान लिया है कि जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए खूबसूरत चेहरे की नहीं, बल्कि खूबसूरत दिल की जरूरत होती है. प्लीज, मुझे माफ कर दो.’’

‘‘आप मेरे शौहर हैं. माफी मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. सुबह का भूला अगर शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते,’’ मुमताज बोली.

‘‘थैंक्स मुमताज, तुम बहुत अच्छी हो,’’ असलम प्यार से बोला.

‘‘अच्छे तो आप हैं, जो मुझ जैसी बदसूरत लड़की को भी अपना रहे हैं,’’ कह कर मुमताज ने हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और रोने लगी.

‘‘पगली, आज रोने का नहीं हंसने का दिन है. आंसुओं को अब हमेशा के लिए गुडबाय कह दो. अब मैं तुम्हें हमेशा हंसतेमुसकराते देखना चाहता हूं.

‘‘और खबरदार, जो अब कभी खुद को बदसूरत कहा. मेरी नजरों में तुम दुनिया की सब से हसीन लड़की हो,’’ ऐसा कह कर असलम ने मुमताज को अपने सीने से लगा लिया. मुमताज सोचने लगी, ‘अंधेरी रात कितनी भी लंबी क्यों न हो, मगर उस के बाद सुबह जरूर होती है.’

टूटे हुए पंखों की उड़ान

गली में घुसते ही शोरगुल के बीच लड़ाईझगड़े और गालीगलौज की आवाजें अर्चना के कानों में पड़ीं. सड़ांध भरी नालियों के बीच एक संकरी गली से गुजर कर उस का घर आता था, जहां बरसात में मारे बदबू के चलना मुश्किल हो जाता था.

दुपट्टे से नाक ढकते हुए अर्चना ने घर में कदम रखा, तो वहां का नजारा ही दूसरा था. आंगन के बीचोंबीच उस की मां और पड़ोस वाली शीला एकदूसरे पर नाक फुलाए खड़ी थीं. यह रोज की बात थी, जब किसी न किसी बात पर दोनों का टकराव हो जाता था.

मकान मालिक ने किराए के लालच में कई सारे कोठरीनुमा कमरे बनवा रखे थे, मगर सुविधा के नाम पर बस एक छोटा सा गुसलखाना और लैट्रिन थी, जिसे सब किराएदार इस्तेमाल करते थे.

वहां रहने वाले किराएदार आएदिन किसी न किसी बात को ले कर जाहिलों की तरह लड़ते रहते थे. पड़ोसन शीला तो भद्दी गालियां देने और मारपीट करने से भी बाज नहीं आती थी.

गुस्से में हांफती, जबान से जहर उगलती प्रेमा घर में दाखिल हुई. पानी का बरतन बड़ी जोर से वहीं जमीन पर पटक कर उस ने सिगड़ी जला कर उस पर चाय का भगौना रख दिया.

‘‘अम्मां, तुम शीला चाची के मुंह क्यों लगती हो? क्या तुम्हें तमा करके मजा आता है? काम से थकहार कर आओ, तो रोज यही सब देखने को मिलता है. कहीं भी शांति नहीं है,’’ अर्चना गुस्से से बोली.

‘‘हांहां, तमाशा तो बस मैं ही करती हूं न. वह तो जैसे दूध की धुली है. सब जानती हूं… उस की बेटी तो पूरे महल्ले में बदनाम है. मक्कार औरत नल में पानी आते ही कब्जा जमा कर बैठ जाती है. उस पर मुझे भलाबुरा कह रही थी.

‘‘अब तू ही बता, मैं कैसे चुप रहूं?’’ चाय का कप अर्चना के सामने रख कर प्रेमा बोली.

‘‘अच्छा लाडो, यह सब छोड़. यह बता कि तू ने अपनी कंपनी में एवांस पैसों की बात की?’’ यह कहते हुए प्रेमा ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा भी नहीं था अब तक, जो दिनभर की कड़ी मेहनत से कुम्हलाया हुआ था.

‘‘अम्मां, सुपरवाइजर ने एडवांस पैसे देने से मना कर दिया है. मंदी चल रही है कंपनी में,’’ मुंह बिचकाते हुए अर्चना ने कहा, फिर दो पल रुक कर उस ने कुछ सोचा और बोली, ‘‘जब हमारी हैसियत ही नहीं है तो क्या जरूरत है इतना दिखावा करने की. ननकू का मुंडन सीधेसादे तरीके से करा दो. यह जरूरी तो नहीं है कि सभी रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते बांटे जाएं.’’

‘‘यह क्या बोल रही है तू? एक बेटा है हमारा. तुम बहनों का एकलौता भाई. अरी, तुम 3 पैदा हुईं, तब जा कर वह पैदा हुआ… और रिश्तेदार क्या कहेंगे? सब का मान तो रखना ही पड़ेगा न.’’

‘‘रिश्तेदार…’’ अर्चना ने थूक गटका. एक फैक्टरी में काम करने वाला उस का बाप जब टीबी का मरीज हो कर चारपाई पर पड़ गया था, तो किसी ने आगे आ कर एक पैसे तक की मदद नहीं की. भूखे मरने की नौबत आ गई, तो 12वीं का इम्तिहान पास करते ही एक गारमैंट फैक्टरी में अर्चना ने अपने लिए काम ढूंढ़ लिया.

अर्चना के महल्ले की कुछ और भी लड़कियां वहां काम कर के अपने परिवार का सहारा बनी हुई थीं. अर्चना की कमाई का ज्यादातर हिस्सा परिवार का पेट भरने में ही खर्च हो जाता था. घर की बड़ी बेटी होने का भार उस के कंधों को दबाए हुए था. वह तरस जाती थी अच्छा पहननेओढ़ने को. इतने बड़े परिवार का पेट पालने में ही उस की ज्यादातर इच्छाएं दम तोड़ देती थीं.

कोठरी की उमस में अर्चना का दम घुटने लगा, सिगड़ी के धुएं ने आंसू ला दिए. सिगड़ी के पास बैठी उस की मां खांसते हुए रोटियां सेंक रही थी.

‘‘अम्मां, कितनी बार कहा है गैस पर खाना पकाया करो… कितना धुआं है,’’ दुपट्टे से आंखमुंह पोंछती अर्चना ने पंखा तेज कर दिया.

‘‘और सिलैंडर के पैसे कहां से आएंगे? गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. अरी, रुक जा. अभी धुआं कम हो जाएगा, कोयले जरा गीले हैं.’’

अर्चना उठ कर बाहर आ गई. कतार में बनी कोठरियों से लग कर सीढि़यां छत पर जाती थीं. कुछ देर ताजा हवा लेने के लिए वह छत पर टहलने लगी. हवा के झोंकों से तनमन की थकान दूर होने लगी.

टहलते हुए अर्चना की नजर अचानक छत के एक कोने पर चली गई. बीड़ी की महक से उसे उबकाई सी आने लगी. पड़ोस का छोटेलाल गंजी और तहमद घुटनों के ऊपर चढ़ाए अपनी कंचे जैसी गोलगोल आंखों से न जाने कब से उसे घूरे जा रहा था.

छोटेलाल कुछ महीने पहले ही उस मकान में किराएदार बन कर आया था. अर्चना को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था. अर्चना और उस की छोटी बहनों को देखते ही वह यहांवहां अपना बदन खुजाने लगता था.

शुरू में अर्चना को समझ नहीं आया कि वह क्यों हर वक्त खुजाता रहता है, फिर जब वह उस की बदनीयती से वाकिफ हुई, तो उस ने अपनी बहनों को छोटेलाल से जरा बच कर रहने की हिदायत दे दी.

‘‘यहां क्या कर रही है तू इतने अंधेरे में? अम्मां ने मना किया है न इस समय छत पर जाने को. चल, नीचे खाना लग गया है,’’ छोटी बहन ज्योति सीढि़यों पर खड़ी उसे आवाज दे रही थी.

अर्चना फुरती से उतर कर कमरे में आ गई. गरम रोटी खिलाती उस की मां ने एक बार और चिरौरी की, ‘‘देख ले लाडो, एक बार और कोशिश कर के देख ले. अरे, थोड़े हाथपैर जोड़ने पड़ें, तो वह भी कर ले. यह काम हो जाए बस, फिर तुझे तंग न करूंगी.’’

अर्चना ने कमरे में टैलीविजन देखती ज्योति की तरफ देखा. वह मस्त हो कर टीवी देखने में मगन थी. ज्योति उस से उम्र में कुल 2 साल ही छोटी थी. मगर अपनी जवानी के उठान और लंबे कद से वह अर्चना की बड़ी बहन लगती थी.

9वीं जमात पास ज्योति एक साड़ी के शोरूम में सेल्सगर्ल का काम करती थी. जहां अर्चना की जान को घरभर के खर्च की फिक्र थी, वहीं ज्योति छोटी होने का पूरा फायदा उठाती थी.

‘‘अम्मां, ज्योति भी तो अब कमाती है. तुम उसे कुछ क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरी, अभी तो उस की नौकरी लगी है, कहां से ला कर देगी बेचारी?’’ मां की इस बात पर अर्चना चुप हो गई.

‘‘ठीक है, मैं फिर से एक बार बात करूंगी, मगर कान खोल कर सुन लो अम्मां, यह आखिरी बार होगा, जब तुम्हारे इन फुजूल के रिवाजों के लिए मैं अपनी मेहनत की कमाई खर्च करूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है. अपनी कमाई की धौंस मत जमा. चार पैसे क्या कमाने लगी, इतना रोब दिखा रही है. अरे, कोई एहसान नहीं कर रही है हम पर,’’ गुस्से में प्रेमा का पारा फिर से चढ़ने लगा.

एक कड़वाहट भरी नजर अपनी मां पर डाल कर अर्चना ने सारे जूठे बरतन मांजने के लिए समेटे.

बरतन साफ कर अर्चना ने अपना बिस्तर लगाया और सोने की कोशिश करने लगी, उसे सुबह जल्दी उठना था, एक और जद्दोजेहद भरे दिन के लिए. वह कमर कस के तैयार थी. जब तक हाथपैर चलते रहेंगे, वह भी चलती रहेगी. उसे इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम वह किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाती.

अर्चना के होंठों पर एक संतुष्टि भरी फीकी मुसकान आ गई और उस ने आंखें मूंद लीं.

आशंका: भाग 1

वैसे तो रणबीर ग्रुप ने शहर में कई दर्शनीय इमारतें बनाई थीं, लेकिन उन के द्वारा नवनिर्मित ‘स्वप्नलोक’ वास्तुशिल्प में उन का अद्वितीय योगदान था. उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों की प्रशंसा के उत्तर में ग्रुप के चेयरमैन रणबीर ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘किसी भी प्रोजैक्ट की कामयाबी का श्रेय उस से जुड़े प्रत्येक छोटेबड़े व्यक्ति को मिलना चाहिए, इसीलिए मैं अपने सभी सहकर्मियों का बहुत आभारी हूं, खासतौर से अपने आर्किटैक्ट विभोर का जिन के बगैर मैं आज जहां खड़ा हूं वहां तक कभी नहीं पहुंचता.’’

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समारोह के बाद जब विभोर ने रणबीर को धन्यवाद दिया तो उस ने सरलता से कहा, ‘‘किसी को भी उस के योगदान का समुचित श्रेय न देने को मैं गलत समझता हूं विभोर.’’

‘‘ऐसा है तो फिर मेरी सफलता का श्रेय तो मेरी सासससुर खासकर मेरी सास को मिलना चाहिए सर,’’ विभोर बोला, ‘‘यदि आप का इस सप्ताहांत कोई और कार्यक्रम न हो तो आप सपरिवार हमारे साथ डिनर लीजिए, मैं आप को अपने सासससुर से मिलवाना चाहता हूं.’’

‘‘मैं गरिमा और बच्चों के साथ जरूर आऊंगा विभोर. तुम्हारे सासससुर इसी शहर में रहते हैं?’’

‘‘जी हां, मैं उन के साथ यानी उन के ही घर में रहता हूं सर वरना मेरी इतनी बड़ी कोठी लेने की हैसियत कहां है…’’

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‘‘कमाल है, अभी कुछ रोज पहले तो हम तुम्हारी प्रमोशन की पार्टी में तुम्हारे घर आए थे और उस से पहले भी आ चुके हैं, लेकिन उन से मुलाकात नहीं हुई कभी.’’

‘‘वे लोग मेरी पार्टियों में शरीक नहीं होते सर, न ही मेरी निजी जिंदगी में दखलंदाजी करते हैं. लेकिन मेरे बीवीबच्चों का पूरा खयाल रखते हैं. इसीलिए तो मैं इतनी एकाग्रता से अपना काम कर रहा हूं, क्योंकि न तो मुझे बीमार बच्चे को डाक्टर के पास ले जाना पड़ता है और न ही बीवी के अकेलेपन को दूर करने या गृहस्थी के दूसरे झमेलों के लिए समय निकालने की मजबूरी है. जब भी फुरसत मिलती है बेफिक्री से बीवीबच्चों के साथ मौजमस्ती कर के तरोताजा हो जाता हूं,’’ विभोर बोला.

‘‘ऋतिका इकलौती बेटी है?’’

‘‘नहीं सर, उस के 2 भाई अमेरिका में रहते हैं. पहले तो उन का वापस आने का इरादा था, मगर मेरे यहां आने के बाद दोनों लौटना जरूरी नहीं समझते. मिलने के लिए आते रहते हैं. कोठी इतनी बड़ी है कि किसी के आनेजाने से किसी को कोई दिक्कत नहीं होती.’’

रणबीर को ऋतिका के मातापिता बहुत ही सुलझे हुए, संभ्रांत और सौम्य

लगे. खासकर ऋतिका की मां मृणालिनी. न जाने क्यों उन्हें देख कर रणबीर को ऐसा लगा कि उस ने उन्हें पहले भी कहीं देखा है.

उस के यह कहने पर मृणालिनी ने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘जरूर देखा होगा ‘दीपशिखा’ महिला क्लब के किसी समारोह या फिर अपनी शादी में,’’ मां की मृत्यु में कहना मृणालिनी ने मुनासिब नहीं समझा.

‘‘ठीक कहा आप ने,’’ रणबीर चहका, ‘‘किसी समारोह की तो याद नहीं, लेकिन बहुत सी तसवीरों में आप हैं मां के साथ.’’

‘‘मां की शादी से पहले की तसवीरों में भी देखा होगा, क्योंकि मैं और रुक्की शादी के पहले एक बार एनसीसी कैंप में मिली थीं और वहीं हमारी दोस्ती हुई थी.’’

रणबीर भावुक हो उठा. उस की मां रुक्मिणी को रुक्की उन के बहुत ही करीबी लोग कह सकते थे. रूप और धन के दंभ में अपने को विशिष्ट समझने वाली मां यह हक किसीकिसी को ही देती थीं यानी मृणालिनी उस की मां की अभिन्न सखी थीं.

‘‘विभोर को मालूम है कि मां आप की सहेली थीं?’’ रणबीर ने पूछा.

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‘‘नहीं, क्योंकि उस का हमारे परिवार से जुड़ने से पहले ही रुक्की का देहांत हो गया था. विभोर बहुत मेहनती और लायक लड़का है,’’ मृणालिनी ने दर्प से कहा.

‘‘सही कह रही हैं आप. विभोर के बगैर तो मैं 1 कदम भी नहीं चल सकता. और अब तो मुझे आप का सहारा भी चाहिए मांजी. मां के देहांत के बाद आज आप से मिल कर पहली बार लगा जैसे मैं फिर से सिर्फ रणबीर बन कर जी सकता हूं.’’

‘‘गाहेबगाहे ही क्यों जब जी करे,’’ मृणालिनी ने स्नेह से उस का सिर सहलाते

हुए कहा.

‘‘रणबीर सर से क्या बातें हुईं मां?’’ अगली सुबह विभोर ने पूछा.

‘‘कुछ खास नहीं, बस उस की मां के बारे में,’’ मृणालिनी ने अनमने भाव से कहा.

‘‘पूरी शाम?’’ विभोर ने हैरानी से पूछा.

‘‘रुक्की थी ही ऐसी विभोर, उस के बारे में जितनी भी बातें की जाएं कम हैं, अमीर बाप की बेटी होने के बावजूद उस में रत्ती भर घमंड नहीं था. वह एनसीसी की अच्छी कैडेट थी. उस के बाप ने उसे रिवौल्वर इनाम में दिया था. मेरी निशानेबाजी से प्रभावित हो कर रुक्की ने अपने रिवौल्वर से मुझे प्रैक्टिस करवाई थी. तभी तो मुझे निशानेबाजी की प्रतियोगिता में इनाम मिला था.’’

‘‘लगता है मां अपनी सहेली की याद आने की वजह से विचलित हैं,’’ ऋतिका बोली.

‘‘और अब विचलित होने की बारी मेरी है, क्योंकि हम व्हिस्पर वैली में जो अरेबियन विलाज बना रहे हैं न उस बारे में मुझे आज रणबीर सर से विस्तृत विचारविमर्श करना है और अगर मां की याद में व्यथित होने के कारण उन्होंने मीटिंग टाल दी या दिलचस्पी नहीं ली तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी,’’ विभोर ने कहा.

लेकिन उस का खयाल गलत था. रणबीर ने बड़े उत्साह और दिलचस्पी से विभोर की प्रस्तावना पर विचार किया और सुझाव दिया, ‘‘अपने पास जमीन की कमी नहीं है विभोर. क्यों न तुम 2 को जोड़ कर पहले 1 बड़ा भव्य विला बनाओ. अगर लोगों को पसंद आया तो और वैसे बना देंगे.’’

‘‘लेकिन कीमत बहुत ज्यादा हो जाएगी सर और फिर कोई ग्राहक न मिला तो?’’

‘‘परवाह नहीं,’’ रणबीर ने उत्साह से कहा, ‘‘खुद के काम आ जाएगा. यही सोच कर बनाओ कि यह बेचने के लिए नहीं अपने लिए है. विभोर, तुम दूसरे काम उमेश और दिनेश को देखने दो. तुम इसी प्रोजैक्ट के निर्माण पर ध्यान दो और जल्दी यह काम पूरा करो. मैं सतबीर से कह दूंगा कि तुम्हें पैसे की दिक्कत न हो.’’

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आशंका: क्यों बेटी और दामाद को अपने साथ रखना चाहती थी मृणालिनी?

कायर : श्रेया ने श्रवण को छोड़ राजीव से विवाह क्यों कर लिया

श्रेया के आगे खड़ी महिला जैसे ही अपना बोर्डिंग पास ले कर मुड़ी श्रेया चौंक पड़ी. बोली, ‘‘अरे तन्वी तू…तो तू भी दिल्ली जा रही है… मैं अभी बोर्डिंग पास ले कर आती हूं.’’

उन की बातें सुन कर काउंटर पर खड़ी लड़की मुसकराई, ‘‘आप दोनों को साथ की सीटें दे दी हैं. हैव ए नाइस टाइम.’’ धन्यवाद कह श्रेया इंतजार करती तन्वी के पास आई.

‘‘चल आराम से बैठ कर बातें करते हैं,’’ तन्वी ने कहा.

हौल में बहुत भीड़ थी. कहींकहीं एक कुरसी खाली थी. उन दोनों को असहाय से एकसाथ 2 खाली कुरसियां ढूंढ़ते देख कर खाली कुरसी के बराबर बैठा एक भद्र पुरुष उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘बैठिए.’’

‘‘हाऊ शिवैलरस,’’ तन्वी बैठते हुए बोली, ‘‘लगता है शिवैलरी अभी लुप्त नहीं हुई है.’’

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‘‘यह तो तुझे ही मालूम होगा श्रेया…तू ही हमेशा शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी,’’ तन्वी हंसी, ‘‘खैर, छोड़ ये सब, यह बता तू यहां कैसे?’’

‘‘क्योंकि मेरा घर यानी आशियाना यहीं है, दिल्ली तो एक शादी में जा रही हूं.’’

‘‘अजब इत्तफाक है. मैं एक शादी में यहां आई थी और अब अपने आशियाने में वापस दिल्ली जा रही हूं.’’

‘‘मगर जीजू तो सिंगापुर में सैटल्ड थे?’’

‘‘हां, सर्विस कौंट्रैक्ट खत्म होने पर वापस दिल्ली आ गए. नौकरी के लिए भले ही कहीं भी चले जाएं, दिल्ली वाले सैटल कहीं और नहीं हो सकते.’’

‘‘वैसे हूं तो मैं भी दिल्ली की, मगर अब भोपाल छेड़ कर कहीं और नहीं रह सकती.’’

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‘‘लेकिन मेरी शादी के समय तो तेरा भी दिल्ली में सैटल होना पक्का ही था,’’ श्रेया ने उसांस भरी.

‘‘हां, था तो पक्का ही, मगर मैं ने ही पूरा नहीं होने दिया और उस का मुझे कोई अफसोस भी नहीं है. अफसोस है तो बस इतना कि मैं ने दिल्ली में सैटल होने का मूर्खतापूर्ण फैसला कैसे कर लिया था.’’

‘‘माना कि कई खामियां हैं दिल्ली में, लेकिन भई इतनी बुरी भी नहीं है हमारी दिल्ली कि वहां रहने की सोचने तक को बेवकूफी माना जाए,’’ तन्वी आहत स्वर में बोली.

‘‘मुझे दिल्ली से कोई शिकायत नहीं है तन्वी,’’ श्रेया खिसिया कर बोली, ‘‘दिल्ली तो मेरी भी उतनी ही है जितनी तेरी. मेरा मायका है. अत: अकसर जाती रहती हूं वहां. अफसोस है तो अपनी उस पसंद पर जिस के साथ दिल्ली में बसने जा रही थी.’’

तन्वी ने चौंक कर उस की ओर देखा. फिर कुछ हिचकते हुए बोली, ‘‘तू कहीं श्रवण की बात तो नहीं कर रही?’’

 

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श्रेया ने उस की ओर उदास नजरों से देखा. फिर पूछा, ‘‘तुझे याद है उस का नाम?’’

‘‘नाम ही नहीं उस से जुड़े सब अफसाने भी जो तू सुनाया करती थी. उन से तो यह पक्का था कि श्रवण वाज ए जैंटलमैन, ए थौरो जैंटलमैन टु बी ऐग्जैक्ट. फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया कि तुझे उस से प्यार करने का अफसोस हो रहा है? वैसे जितना मैं श्रवण को जानती हूं उस से मुझे यकीन है कि श्रवण ने कोई गलत काम नहीं किया होगा जैसे किसी और से प्यार या तेरे से जोरजबरदस्ती?’’

श्रेया ने मुंह बिचकाया, ‘‘अरे नहीं, ऐसा सोचने की तो उस में हिम्मत ही नहीं थी.’’

‘‘तो फिर क्या दहेज की मांग करी थी उस ने?’’

‘‘वहां तक तो बात ही नहीं पहुंची. उस से पहले ही उस का असली चेहरा दिख गया और मैं ने उस से किनारा कर लिया,’’ श्रेया ने फिर गहरी सांस खींची, ‘‘कुछ और उलटीसीधी अटकल लगाने से पहले पूरी बात सुनना चाहेगी?’’

‘‘जरूर, बशर्ते कोई ऐसी व्यक्तिगत बात न हो जिसे बताने में तुझे कोई संकोच हो.’’

‘‘संकोच वाली तो खैर कोई बात ही नहीं है, समझने की बात है जो तू ही समझ सकती है, क्योंकि तूने अभीअभी कहा कि मैं शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी…’’ इसी बीच फ्लाइट के आधा घंटा लेट होने की घोषणा हुई.

‘‘अब टुकड़ों में बात करने के बजाय श्रेया पूरी कहानी ही सुना दे.’’

‘‘मेरा श्रवण की तरफ झुकाव उस के शालीन व्यवहार से प्रभावित हो कर हुआ था. अकसर लाइबेरी में वह ऊंची शैल्फ से मेरी किताबें निकालने और रखने में बगैर कहे मदद करता था. प्यार कब और कैसे हो गया पता ही नहीं चला. चूंकि हम एक ही बिरादरी और स्तर के थे, इसलिए श्रवण का कहना था कि सही समय पर सही तरीके से घर वालों को बताएंगे तो शादी में कोई रुकावट नहीं आएगी. मगर किसी और ने चुगली कर दी तो मुश्किल होगी. हम संभल कर रहेंगे.

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प्यार के जज्बे को दिल में समेटे रखना तो आसान नहीं होता. अत: मैं तुझे सब बताया करती थी. फाइनल परीक्षा के बाद श्रवण के कहने पर मैं ने उस के साथ फर्नीचर डिजाइनिंग का कोर्स जौइन किया था. साउथ इंस्टिट्यूट मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था.

श्रवण पहले मुझे पैदल मेरे घर छोड़ने आता था. फिर वापस जा कर अपनी बाइक ले कर अपने घर जाता था. मुझे छोड़ने घर से गाड़ी आती थी. लेने भी आ सकती थी लेकिन वन वे की वजह से उसे लंबा चक्कर लगाना पड़ता. अत: मैं ने कह दिया  था कि नजदीक रहने वाले सहपाठी के साथ पैदल आ जाती हूं. यह तो बस मुझे ही पता था कि बेचारा सहपाठी मेरी वजह से डबल पैदल चलता था. मगर बाइक पर वह मुझे मेरी बदनामी के डर से नहीं बैठाता था. मैं उस की इन्हीं बातों पर मुग्ध थी.

वैसे और सब भी अनुकूल ही था. हम दोनों ने ही इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स किया. श्रवण के पिता फरनिशिंग का बड़ा शोरूम खोलने वाले थे, जिसे हम दोनों को संभालना था. श्रवण का कहना था कि रिजल्ट निकलने के तुरंत बाद वह अपनी भाभी से मुझे मिलवाएगा और फिर भाभी मेरे घर वालों से मिल कर कैसे क्या करना है तय कर लेंगी.

लेकिन उस से पहले ही मेरी मामी मेरे लिए अपने भानजे राजीव का रिश्ता ले कर आ गईं. राजीव आर्किटैक्ट था और ऐसी लड़की चाहता था, जो उस के व्यवसाय में हाथ बंटा सके. मामी द्वारा दिया गया मेरा विवरण राजीव को बहुत पसंद आया और उस ने मामी से तुरंत रिश्ता करवाने को कहा.

‘‘मामी का कहना था कि नवाबों के शहर भोपाल में श्रेया को अपनी कला के पारखी मिलेंगे और वह खूब तरक्की करेगी. मामी के जाने के बाद मैं ने मां से कहा कि दिल्ली जितने कलापारखी और दिलवाले कहीं और नहीं मिलेंगे. अत: मेरे लिए तो दिल्ली में रहना ही ठीक होगा. मां बोलीं कि वह स्वयं भी मुझे दिल्ली में ही ब्याहना चाहेंगी, लेकिन दिल्ली में राजीव जैसा उपयुक्त वर भी तो मिलना चाहिए. तब मैं ने उन्हें श्रवण के बारे में सब बताया. मां ने कहा कि मैं श्रवण को उन से मिलवा दूं. अगर उन्हें लड़का जंचा तो वे पापा से बात करेंगी.

‘‘दोपहर में पड़ोस में एक फंक्शन था. वहां जाने से पहले मां ने मेरे गले में सोने की चेन पहना दी थी. मुझे भी पहननी अच्छी लगी और इंस्टिट्यूट जाते हुए मैं ने चेन उतारी नहीं. शाम को जब श्रवण रोज की तरह मुझे छोड़ने आ रहा था तो मैं ने उसे सारी बात बताई और अगले दिन अपने घर आने को कहा.

‘‘कल क्यों, अभी क्यों नहीं? अगर तुम्हारी मम्मी कहेंगी तो तुम्हारे पापा से मिलने के लिए भी रुक जाऊंगा,’’ श्रवण ने उतावली से कहा.

‘‘तुम्हारी बाइक तो डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट में खड़ी है.’’

‘‘खड़ी रहने दो, तुम्हारे घर वालों से मिलने के बाद जा कर उठा लूंगा.’’

‘‘तब तक अगर कोई और ले गया तो? अभी जा कर ले आओ न.’’

‘‘ले जाने दो, अभी तो मेरे लिए तुम्हारे मम्मीपापा से मिलना ज्यादा जरूरी है.’’

सुन कर मैं भावविभोर हो गई और मैं ने देखा नहीं कि बिलकुल करीब 2 गुंडे चल रहे थे, जिन्होंने मौका लगते ही मेरे गले से चेन खींच ली. इस छीनाझपटी में मैं चिल्लाई और नीचे गिर गई. लेकिन मेरे साथ चलते श्रवण ने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं करी. मेरा चिल्लाना सुन कर जब लोग इकट्ठे हुए और किसी ने मुझे सहारा दे कर उठाया तब भी वह मूकदर्शक बना देखता रहा और जब लोगों ने पूछा कि क्या मैं अकेली हूं तो मैं ने बड़ी आस से श्रवण की ओर देखा, लेकिन उस के चेहरे पर पहचान का कोई भाव नहीं था.

एक प्रौढ दंपती के कहने पर कि चलो हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा दें, श्रवण तुरंत वहां से चलता बना. अब तू ही बता, एक कायर को शिवैलरस हीरो समझ कर उस की शिवैलरी के कसीदे पढ़ने के लिए मैं भला खुद को कैसे माफ कर सकती हूं? राजीव के साथ मैं बहुत खुश हूं. पूर्णतया संतुष्ट पर जबतब खासकर जब राजीव मेरी दूरदर्शिता और बुद्धिमता की तारीफ करते हैं, तो मुझे बहुत ग्लानि होती है और यह मूर्खता मुझे बुरी तरह कचोटती है.’’

‘‘इस हादसे के बाद श्रवण ने तुझ से संपर्क नहीं किया?’’

‘‘कैसे करता क्योंकि अगले दिन से मैं ने डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट जाना ही छोड़ दिया. उस जमाने में मोबाइल तो थे नहीं और घर का नंबर उस ने कभी लिया ही नहीं था. मां के पूछने पर कि मैं अपनी पसंद के लड़के से उन्हें कब मिलवाऊंगी, मैं ने कहा कि मैं तो मजाक कर रही थी. मां ने आश्वस्त हो कर पापा को राजीव से रिश्ता पक्का करने को कह दिया. राजीव के घर वालों को शादी की बहुत जल्दी थी. अत: रिजल्ट आने से पहले ही हमारी शादी भी हो गई. आज तुझ से बात कर के दिल से एक बोझ सा हट गया तन्वी. लगता है अब आगे की जिंदगी इतमीनान से जी सकूंगी वरना सब कुछ होते हुए भी, अपनी मूर्खता की फांस हमेशा कचोटती रहती थी.’’

तभी यात्रियों को सुरक्षा जांच के लिए बुला लिया गया. प्लेन में बैठ कर श्रेया ने कहा, ‘‘मेरा तो पूरा कच्चा चिट्ठा सुन लिया पर अपने बारे में तो तूने कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘दिल्ली से एक अखबार निकलता है दैनिक सुप्रभात…’’

‘‘दैनिक सुप्रभात तो दशकों से हमारे घर में आता है,’’ श्रेया बीच में ही बोली, ‘‘अभी भी दिल्ली जाने पर बड़े शौक से पढ़ती हूं खासकर ‘हस्तियां’ वाला पन्ना.’’

‘‘अच्छा. सुप्रभात मेरे दादा ससुर ने आरंभ किया था. अब मैं अपने पति के साथ उसे चलाती हूं. ‘हस्तियां’ स्तंभ मेरा ही विभाग है.’’

‘‘हस्तियों की तसवीर क्यों नहीं छापते आप लोग?’’

‘‘यह तो पापा को ही मालूम होगा जिन्होंने यह स्तंभ शुरू किया था. यह बता मेरे घर कब आएगी, तुझे हस्तियों के पुराने संकलन भी दे दूंगी.’’

‘‘शादी के बाद अगर फुरसत मिली तो जरूर आऊंगी वरना अगली बार तो पक्का… मेरा भोपाल का पता ले ले. संकलन वहां भेज देना.’’

‘‘मुझे तेरा यहां का घर मालूम है, तेरे जाने से पहले वहीं भिजवा दूंगी.’’

दिल्ली आ कर श्रेया बड़ी बहन के बेटे की शादी में व्यस्त हो गई. जिस शाम को उसे वापस जाना था, उस रोज सुबह उसे तन्वी का भेजा पैकेट मिला. तभी उस का छोटा भाई भी आ गया और बोला, ‘‘हम सभी दिल्ली में हैं, आप ही भोपाल जा बसी हैं. कितना अच्छा होता दीदी अगर पापा आप के लिए भी कोई दिल्ली वाला लड़का ही देखते या आप ने ही कोई पसंद कर लिया होता. आप तो सहशिक्षा में पढ़ी थीं.’’

सुनते ही श्रेया का मुंह कसैला सा हो गया. तन्वी से बात करने के बाद दूर हुआ अवसाद जैसे फिर लौट आया. उस ने ध्यान बंटाने के लिए तन्वी का भेजा लिफाफा खोला ‘हस्तियां’ वाले पहले पृष्ठ पर ही उस की नजर अटक गई, ‘श्रवण कुमार अपने शहर के जानेमाने सफल व्यवसायी और समाजसेवी हैं. जरूरतमंदों की सहायता करना इन का कर्तव्य है. अपनी आयु और जान की परवाह किए बगैर इन्होंने जवान मनचलों से एक युवती की रक्षा की जिस में गंभीर रूप से घायल होने पर अस्पताल में भी रहना पड़ा. लेकिन अहं और अभिमान से यह सर्वथा अछूते हैं.’

हमारे प्रतिनिधि के पूछने पर कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में क्यों डाली, उन की एक आवाज पर मंदिर के पुजारी व अन्य लोग लड़नेमरने को तैयार हो जाते तो उन्होंने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘इतना सोचने का समय ही कहां था और सच बताऊं तो यह करने के बाद मुझे बहुत शांति मिली है. कई दशक पहले एक ऐसा हादसा मेरी मित्र और सहपाठिन के साथ हुआ था. चाहते हुए भी मैं उस की मदद नहीं कर सका था. एक अनजान मूकदर्शक की तरह सब देखता रहा था. मैं नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि वह मेरे साथ थी और उस का नाम मेरे से जुडे़ और बेकार में उस की बदनामी हो.

‘‘मुझे चुपचाप वहां से खिसकते देख कर उस ने जिस तरह से होंठ सिकोड़े थे मैं समझ गया था कि वह कह रही थी कायर. तब मैं खुद की नजरों में ही गिर गया और सोचने लगा कि क्या मैं उसे बदनामी से बचाने के लिए चुप रहा या सच में ही मैं कायर हूं? जाहिर है उस के बाद उस ने मुझ से कभी संपर्क नहीं किया. मैं यह जानता हूं कि वह जीवन में बहुत सुखी और सफल है. सफल और संपन्न तो मैं भी हूं बस अपनी कायरता के बारे में सोच कर ही दुखी रहता था पर आज इस अनजान युवती को बचाने के बाद लग रहा है कि मैं कायर नहीं हूं…’’

श्रेया और नहीं पढ़ सकी. एक अजीब सी संतुष्टि की अनुभूति में वह यह भी भूल गई कि उसे सुकून देने को ही तन्वी ने ‘हस्तियां’ कालम के संकलन भेजे थे और एक मनगढ़ंत कहानी छापना तन्वी के लिए मुश्किल नहीं था.

मैं चुप रहूंगी: क्या थी विजय की असलियत

Rita Kashyap

पिछले दिनों मैं दीदी के बेटे नीरज के मुंडन पर मुंबई गई थी. एक दोपहर दीदी मुझे बाजार ले गईं. वे मेरे लिए मेरी पसंद का तोहफा खरीदना चाहती थीं. कपड़ों के एक बड़े शोरूम से जैसे ही हम दोनों बाहर निकलीं, एक गाड़ी हमारे सामने आ कर रुकी. उस से उतरने वाला युवक कोई और नहीं, विजय ही था. मैं उसे देख कर पल भर को ठिठक गई. वह भी मुझे देख कर एकाएक चौंक गया. इस से पहले कि मैं उस के पास जाती या कुछ पूछती वह तुरंत गाड़ी में बैठा और मेरी आंखों से ओझल हो गया. वह पक्का विजय ही था, लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो वह इन दिनों अमेरिका में है. मुंबई आने से 2 दिन पहले ही तो मैं मीनाक्षी से मिली थी.

उस दिन मीनाक्षी का जन्मदिन था. हम दोनों दिन भर साथ रही थीं. उस ने हमेशा की तरह अपने पति विजय के बारे में ढेर सारी बातें भी की थीं. उस ने ही तो बताया था कि उसी सुबह विजय का अमेरिका से जन्मदिन की मुबारकबाद का फोन आया था. विजय के वापस आने या अचानक मुंबई जाने के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुई थी.

लेकिन विजय जिस तरह से मुझे देख कर चौंका था उस के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उस ने भी मुझे पहचान लिया था. आज भी उस की गाड़ी का नंबर मुझे याद है. मैं उस के बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहती थी. लेकिन उसी शाम मुझे वापस दिल्ली आना था, टिकट जो बुक था. दीदी से इस बारे में कहती तो वे इन झमेलों में पड़ने वाले स्वभाव की नहीं हैं. तुरंत कह देतीं कि तुम अखबार वालों की यही तो खराबी है कि हर जगह खबर की तलाश में रहते हो.

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दिल्ली आ कर मैं अगले ही दिन मीनाक्षी के घर गई. मन में उस घटना को ले कर जो संशय था मैं उसे दूर करना चाहती थी. मीनाक्षी से मिल कर ढेरों बातें हुईं. बातों ही बातों में प्राप्त जानकारी ने मेरे मन में छाए संशय को और गहरा दिया. मीनाक्षी ने बताया कि लगभग 6 महीनों से जब से विजय काम के सिलसिले में अमेरिका गया है उस ने कभी कोई पत्र तो नहीं लिखा हां दूसरे, चौथे दिन फोन पर बातें जरूर होती रहती हैं. विजय का कोई फोन नंबर मीनाक्षी के पास नहीं है, फोन हमेशा विजय ही करता है. विजय वहां रह कर ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के जुगाड़ में है, जिस के मिलते ही वह मीनाक्षी और अपने बेटे विशु को भी वहीं बुला लेगा. अब पता नहीं इस के लिए कितने वर्ष लग जाएंगे.

मैं ने बातों ही बातों में मीनाक्षी को बहुत कुरेदा, लेकिन उसे अपने पति पर, उस के प्यार पर, उस की वफा पर पूरा भरोसा है. उस का मानना है कि वह वहां से दिनरात मेहनत कर के इतना पैसा भेज रहा है कि यदि ग्रीन कार्ड न भी मिले तो यहां वापस आने पर वे अच्छा जीवन बिता सकते हैं. कितन भोली है मीनाक्षी जो कहती है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही पड़ता है.

मीनाक्षी की बातें सुन कर, उस का विश्वास देख कर मैं उसे अभी कुछ बताना नहीं चाह रही थी, लेकिन मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. मैं ने दोबारा मुंबई जाने का विचार बनाया, लेकिन दीदी को क्या कहूंगी? नीरज के मुंडन पर दीदी के कितने आग्रह पर तो मैं वहां गई थी और अब 1 सप्ताह बाद यों ही पहुंच गई. मेरी चाह को राह मिल ही गई. अगले ही सप्ताह मुंबई में होने वाले फिल्मी सितारों के एक बड़े कार्यक्रम को कवर करने का काम अखबार ने मुझे सौंप दिया और मैं मुंबई पहुंच गई.

वहां पहुंचते ही सब से पहले अथौरिटी से कार का नंबर बता कर गाड़ी वाले का नामपता मालूम किया. वह गाड़ी किसी अमृतलाल के नाम पर थी, जो बहुत बड़ी कपड़ा मिल का मालिक है. इस जानकारी से मेरी जांच को झटका अवश्य लगा, लेकिन मैं ने चैन की सांस ली. मुझे यकीन होने लगा कि मैं ने जो आंखों से देखा था वह गलत था. चलो, मीनाक्षी का जीवन बरबाद होने से बच गया. मैं फिल्मी सितारों के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में व्यस्त हो गई.

एक सुबह जैसे ही मेरा औटो लालबत्ती पर रुका, बगल में वही गाड़ी आ कर खड़ी हो गई. गाड़ी के अंदर नजर पड़ी तो देखा गाड़ी विजय ही चला रहा था. लेकिन जब तक मैं कुछ करती हरीबत्ती हो गई और वाहन अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगे. मैं ने तुरंत औटो वाले को उस सफेद गाड़ी का पीछा करने के लिए कहा. लेकिन जब तक आटो वाला कुछ समझता वह गाड़ी काफी आगे निकल गई थी. फिर भी उस अनजान शहर के उन अनजान रास्तों पर मैं उस कार का पीछा कर रही थी. तभी मैं ने देखा वह गाड़ी आगे जा कर एक बिल्डिंग में दाखिल हो गई. कुछ पलों के बाद मैं भी उस बिल्डिंग के गेट पर थी. गार्ड जो अभी उस गाड़ी के अंदर जाने के बाद गेट बंद ही कर रहा था मुझे देख कर पूछने लगा, ‘‘मेमसाहब, किस से मिलना है? क्या काम है?’’

‘‘यह अभी जो गाड़ी अंदर गई है वह?’’

‘‘वे बड़े साहब के दामाद हैं, मेमसाहब.’’

‘‘वे विजय साहब थे न?’’

‘‘हां, मेमसाहब. आप क्या उन्हें जानती हैं?’’

गार्ड के मुंह से हां सुनते ही मुझे लगा भूचाल आ गया है. मैं अंदर तक हिल गई. विजय, मिल मालिक अमृत लाल का दामाद? लेकिन यह कैसे हो सकता है? बड़ी मुश्किल से हिम्मत बटोर कर मैं ने कहा, ‘‘देखो, मैं जर्नलिस्ट हूं, अखबार के दफ्तर से आई हूं, तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना चाहती हूं. क्या मैं अंदर जा सकती हूं?’’

‘‘मेमसाहब, इस वक्त तो अंदर एक जरूरी मीटिंग हो रही है, उसी के लिए विजय साहब भी आए हैं. अंदर और भी बहुत बड़ेबड़े साहब लोग जमा हैं. आप शाम को उन के घर में उन से मिल लेना.’’

‘‘घर में?’’ मैं सोच में पड़ गई. अब भला घर का पता कहां से मिलेगा?

लगता था गार्ड मेरी दुविधा समझ गया. अत: तुरंत बोला, ‘‘अब तो घर भी पास ही है. इस हाईवे के उस तरफ नई बसी कालोनी में सब से बड़ी और आलीशान कोठी साहब की ही है.’’

मेरे लिए इतनी जानकारी काफी थी. मैं ने तुरंत औटो वाले को हाईवे के उस पार चलने के लिए कहा. विजय और उस का सेठ इस समय मीटिंग में हैं. यह अच्छा अवसर था विजय के बारे में जानकारी हासिल करने का. विजय से बात करने पर हो सकता है वह पहचानने से ही इनकार कर दे.

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गार्ड का कहना ठीक था. उस नई बसी कालोनी में जहां इक्कादुक्का कोठियां ही खड़ी थीं, हलके गुलाबी रंग की टाइलों वाली एक ही कोठी ऐसी थी जिस पर नजर नहीं टिकती थी. कोठी के गेट पर पहुंचते ही नजर नेम प्लेट पर पड़ी. सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘विजय’ हालांकि अब विजय का व्यक्तित्व मेरी नजर में इतना सुनहरा नहीं रह गया था.

औटो वाले को रुकने के लिए कह कर जैसे ही मैं आगे बढ़ी, गेट पर खड़े गार्ड ने पहले तो मुझे सलाम किया, फिर पूछा कि किस से मिलना है और मेरा नामपता क्या है?

‘‘मैं एक अखबार के दफ्तर से आई हूं.

मुझे तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना है,’’ कहते हुए मैं ने अपना पहचानपत्र उस के सामने रख दिया.

‘‘साहब तो इस समय औफिस में हैं.’’

‘‘घर में कोई तो होगा जिस से मैं बात कर सकूं?’’

‘‘मैडम हैं. पर आप रुकिए मैं उन से पूछता हूं,’’ कह उस ने इंटरकौम द्वारा विजय की पत्नी से बात की. फिर उस से मेरी भी बात करवाई. मेरे बताने पर मुझे अंदर जाने की इजाजत मिल गई.

अंदर पहुंचते ही मेरा स्वागत एक 25-26 वर्ष की बहुत ही सुंदर युवती ने किया. दूध जैसा सफेद रंग, लाललाल गाल, ऊंचा कद, तन पर कीमती गहने, कीमती साड़ी. गुलाबी होंठों पर मधुर मुसकान बिखेरते हुए वह बोली, ‘‘नमस्ते, मैं स्मृति हूं. विजय की पत्नी.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई. विजय साहब तो हैं नहीं. मैं आप से ही बातचीत कर के उन के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी जरूर,’’ कहते हुए उस ने मुझे सोफे पर बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही वह भी मेरे पास ही सोफे पर बैठ गई.

इतने में नौकर टे्र में कोल्डड्रिंक ले आया. मुझे वास्तव में इस की जरूरत थी. बिना कुछ कहे मैं ने हाथ बढ़ा कर एक गिलास उठा लिया. फिर जैसेजैसे स्मृति से बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे विजय की कहानी पर पड़ी धूल की परतें साफ होती गईं.

स्मृति विजय को कालेज के समय से जानती है. कालेज में ही दोनों ने शादी करना तय कर लिया था. विजय का तो अपना कोई है नहीं, लेकिन स्मृति के पिता, सेठ अमृतलाल को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन का कहना था कि विजय मात्र उन के पैसों की लालच में स्मृति से प्रेम का नाटक करता है. कितनी पारखी है सेठ की नजर, काश स्मृति ने उन की बात मान ली होती. वे स्मृति की शादी अपने दोस्त के बेटे से करना चाहते थे, जो अमेरिका में रहता था. लेकिन स्मृति तो विजय की दीवानी थी.

वाह विजय वाह, इधर स्मृति, उधर मीनाक्षी. 2-2 आदर्श, पतिव्रता पत्नियों का एकमात्र पति विजय, जिस के अभिनयकौशल की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. स्मृति से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरे समक्ष पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो गया. हुआ यों कि जिन दिनों स्मृति को उस के पिता जबरदस्ती अमेरिका ले गए थे, विजय घबरा कर मुंबई की नौकरी छोड़ दिल्ली आ गया था और दिल्ली में उस ने मीनाक्षी से शादी कर ली. उधर अमेरिका पहुंचते ही सेठ ने स्मृति की सगाई कर दी, लेकिन स्मृति विजय को भुला नहीं पा रही थी. उस ने अपने मंगेतर को सब कुछ साफसाफ बता दिया. पता नहीं उस के मंगेतर की अपने जीवन की कहानी इस से मिलतीजुलती थी या उसे स्मृति की स्पष्टवादिता भा गई थी, उस ने स्मृति से शादी करने से इनकार कर दिया.

स्मृति की शादी की बात तो बनी नहीं थी. अत: वे दोनों यूरोप घूमने निकल गए. उस दौरान स्मृति ने विजय से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि विजय मुंबई छोड़ चुका था. 6 महीनों बाद जब वे मुंबई लौटे तो विजय को बहुत ढूंढ़ा गया, लेकिन सब बेकार रहा. स्मृति विजय के लिए परेशान रहती थी और उस के पिता उस की शादी को ले कर परेशान रहते थे.

एक दिन अचानक विजय से उस की मुलाकात हो गई. स्मृति बिना शादी किए लौट आई है, यह जान कर विजय हैरानपरेशान हो गया. उस की आंखों में स्मृति से शादी कर के करोड़पति बनने का सपना फिर से तैरने लगा.

मेरे पूछने पर स्मृति ने शरमाते हुए बताया कि उन की शादी को मात्र 5 महीने हुए हैं. मन में आया कि इसी पल उसे सब कुछ बता दूं. धोखेबाज विजय की कलई खोल कर रख दूं. स्मृति को बता दूं कि उस के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है. लेकिन मैं ऐसा न कर सकी. उस के मधुर व्यवहार, उस के चेहरे की मुसकान, उस की मांग में भरे सिंदूर ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.

मेरे एक वाक्य से यह बहार, पतझड़ में बदल जाती. अत: मैं अपने को इस के लिए तैयार नहीं कर पाई. यह जानते हुए भी कि यह सब गलत है, धोखा है मेरी जबान मेरा साथ नहीं दे रही थी. एक तरफ पलदोपल की पहचान वाली स्मृति थी तो दूसरी तरफ मेरे बचपन की सहेली मीनाक्षी. मेरे लिए किसी एक का साथ देना कठिन हो गया. मैं तुरंत वहां से चल दी. स्मृति पूछती ही रह गई कि विजय के बारे में यह सब किस अखबार में, किस दिन छपेगा? खबर तो छपने लायक ही हाथ लगी थी, लेकिन इतनी गरम थी कि इस से स्मृति का घरसंसार जल जाता. उस की आंच से मीनाक्षी भी कहां बच पाती. ‘बाद में बताऊंगी’ कह कर मैं तेज कदमों से बाहर आ गई.

मैं दिल्ली लौट आई. मन में तूफान समाया था. बेचैनी जब असहनीय हो गई तो मुझे लगा कि मीनाक्षी को सब कुछ बता देना चाहिए. वह मेरे बचपन की सहेली है, उसे अंधेरे में रखना ठीक नहीं. उस के साथ हो रहे धोखे से उसे बचाना मेरा फर्ज है.

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मैं अनमनी सी मीनाक्षी के घर जा पहुंची. मुझे देखते ही वह हमेशा की भांति खिल उठी. उस की वही बातें फिर शुरू हो गईं. कल ही विजय का फोन आया था. उस के भेजे क्व50 हजार अभी थोड़ी देर पहले ही मिले हैं. विजय अपने अकेलेपन से बहुत परेशान है. हम दोनों को बहुत याद करता है. दोनों की पलपल चिंता करता है वगैरहवगैरह. एक पतिव्रता पत्नी की भांति उस की दुनिया विजय से शुरू हो कर विजय पर ही खत्म हो जाती है.

मेरे दिमाग पर जैसे कोई हथौड़े चला रहा था. विजय की सफल अदाकारी से मन परेशान हो रहा था. लेकिन जबान तालू से चिपक गई. मुझे लगा मेरे मुंह खोलते ही सामने का दृश्य बदल जाएगा. क्या मीनाक्षी, विजय के बिना जी पाएगी? क्या होगा उस के बेटे विशु का?

मैं चुपचाप यहां से भी चली आई ताकि मीनाक्षी का भ्रम बना रहे. उस की मांग में सिंदूर सजा रहे. उस का घरसंसार बसा रहे. लेकिन कब तक?

‘सदा सच का साथ दो’, ‘सदा सच बोलो’, और न जाने कितने ही ऐसे आदर्श वाक्य दिनरात मेरे कानों में गूंजने लगे हैं, लेकिन मैं उन्हें अनसुना कर रही हूं. मैं उन के अर्थ समझना ही नहीं चाहती, क्योंकि कभी मीनाक्षी और कभी स्मृति का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहता है. मैं उन के खिले चेहरों पर मातम की काली छाया नहीं देख पाऊंगी.

पता नहीं मैं सही हूं या गलत? हो सकता है कल दोनों ही मुझे गलत समझें. लेकिन मुझ से नहीं हो पाएगा. मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक विजय का नाटक सफलतापूर्वक चलता रहेगा. परदा उठने के बाद तो आंसू ही आंसू रह जाने हैं, मीनाक्षी की आंखों में, स्मृति की आंखों में, सेठ अमृतलाल की आंखों में और स्वयं मेरी भी आंखों में. फिर भला विजय भी कहां बच पाएगा? डूब जाएगा आंसुओं के उस सागर में.

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