गियर वाली साइकिल : विक्रम साहब की दरियादिली

‘टनटनटन…’ साइकिल की घंटी बजती तो दफ्तर के गार्ड विक्रम साहब की साइकिल को खड़ी करने के लिए दौड़ पड़ते. विक्रम साहब की साइकिल की इज्जत और रुतबा किसी मर्सडीज कार से कम न था.

विक्रम साहब ठसके से साइकिल से उतरते. अपने पाजामे में फंसाए गए रबड़ बैंड को निकाल कर उसे दुरुस्त करते, साइकिल पर टंगा झोला कंधे पर टांगते और गार्डों को मुन्नाभाई की तरह जादू की झप्पी देते हुए अपनी सीट की तरफ चल पड़ते.

विक्रम साहब एक अजीब इनसान थे. साहबी ढांचे में तो वे किसी भी एंगल से फिट नहीं बैठते थे या यों कहें कि अफसर लायक एक भी क्वालिटी नहीं थी उन में. न चाल में, न पहनावे में, न बातचीत में, न स्टेटस में. 90 हजार रुपए महीना की तनख्वाह उठाते थे विक्रम साहब, पर अपने ऊपर वे 2 हजार रुपए भी खर्च न करते थे. दाल, चावल, सब्जी, रोटी खाने के अलावा उन्होंने दुनिया में कभी कुछ नहीं खाया था. अपने मुंह से तो यह सब वे बताते ही थे, उन के डीलडौल को देख कर लगता भी यही था कि उन्होंने रूखी रोटी और सूखी सब्जी के अलावा कभी कुछ खाया भी नहीं होगा.

काग जैसा रूप था उन का, पर अपनी बोली को उन्होंने कोयल जैसी मिठास से भर दिया था. औरतों के तो वे बहुत ही प्रिय थे. मर्द होते हुए भी औरतें उन से बेझिझक अपनी निजी बातें शेयर कर सकती थीं. उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अपने किसी मर्द साथी से बात कर रही हैं. लगता था जैसे अपनी किसी प्रिय सखी से बातें कर रही हैं. उन्हें विक्रम साहब के चेहरे पर कभी हवस नहीं दिखती थी.

दफ्तर में 10 मर्दों के साथ 3 औरतें थीं. बाकी 7 के 7 मर्द विक्रम साहब की तरह औरतों में लोकप्रिय बनने के अनेक जतन करते, पर कोई भी कामयाब न हो पाता था.

विक्रम साहब सीट पर आते ही सब से पहले डस्टर ले कर अपनी मेज साफ करने लगते थे, फिर पानी का जग ले कर वाटर कूलर की तरफ ऐसे दौड़ लगाते थे जैसे अपने गांव के कुएं से पानी भरने जा रहे हों.

चपरासी शरमाते हुए उन के पीछे दौड़ता, ‘‘साहब, आप बैठिए. मैं पानी लाता हूं.’’

विक्रम साहब उसे मीठी डांट लगाते, ‘‘नहीं, तुम भी मेरी तरह सरकारी नौकर हो. तुम को मौका नहीं मिला इसलिए तुम चपरासी बन गए. मुझे मौका मिला इसलिए मैं अफसर बन गया. इस का मतलब यह नहीं है कि तुम मुझे पानी पिलाओगे. तुम्हें सरकार ने सरकारी काम के लिए रखा है और पानी या चाय पिलाना सरकारी काम नहीं है.’’

विक्रम साहब के सामने के चारों दांत 50 की उम्र में ही उन का साथ छोड़ गए थे. लेकिन कमाल था कि अब 59 साल की उम्र में भी उन के चश्मा नहीं लगा था.

दिनभर लिखनेपढ़ने का काम था इसलिए पूरा का पूरा स्टाफ चश्मों से लैस था. एक अकेले विक्रम साहब नंगी आंखों से सूई में धागा भी डाल लेते थे.

फुसरत के पलों में जब सारे लोग हंसीमजाक के मूड में होते तो विक्रम साहब से इस का राज पूछते, ‘‘सर, आप के दांत तो कब के स्वर्ग सिधार गए, पर आंखों को आप कौन सा टौनिक पिलाते हैं कि ये अभी भी टनाटन हैं?’’

विक्रम साहब सब को उलाहना देते, ‘‘मैं तुम लोगों की तरह 7 बजे सो कर नहीं उठता हूं और फिर कार या मोटरसाइकिल से भी नहीं चलता हूं. मैं दिमाग को भी बहुत कम चलाता हूं, केवल साइकिल चलाता हूं रोज 40 किलोमीटर…’’

विक्रम साहब के पास सर्टिफिकेटों को अटैस्ट कराने व करैक्टर सर्टिफिकेट बनाने के लिए नौजवानों की भीड़ लगी रहती थी. बहुत से गजटेड अफसरों के पास मुहर थी, पर वे ओरिजनल सर्टिफिकेट न होने पर किसी की फोटोकौपी भी अटैस्ट नहीं करते थे. डर था कि किसी गलत फोटोकौपी पर मुहर व दस्तखत न हो जाएं.

लेकिन विक्रम साहब के पास कोई भी आता, उन की मुहर हमेशा तैयार रहती थी उस को अटैस्ट कर देने के लिए. वे कहते थे, ‘‘मेरी शक्ल अच्छी तरह याद कर लो. जब तुम डाक्टर बन जाओगे तो मैं अपना इलाज तुम्हीं से कराऊंगा.’’

नौजवानों के वापस जाते ही वे सब से कहते, ‘‘ये नौजवान ऐसे ही बेरोजगारी का दंश झोल रहे हैं. फार्म पर फार्म भरे जा रहे हैं. हम इन्हें नौकरी तो नहीं दे सकते हैं, पर कम से कम इन के सर्टिफिकेट को अटैस्ट कर के इन का मनोबल तो बढ़ा ही सकते हैं.’’

सब उन की सोच के आगे खुद को बौना महसूस कर अपनेअपने काम में बिजी होने की ऐक्टिंग करने लगते.

विक्रम साहब में गुण ठसाठस भरे हुए थे. वे कभी किसी पर नहीं हंसते थे, दुनिया के सारे जुमलों को वे खुद में दिखा कर सब का मनोरंजन करते थे.

विक्रम साहब जिंदादिली की मिसाल थे. दफ्तर में हर कोई हाई ब्लडप्रैशर की दवा, कोई शुगर की टिकिया, कोई थायराइड की टेबलेट खाखा कर अपनी जिंदगी को तेजी से मौत के मुंह में जाने से थामने की कोशिश में लगा था, पर विक्रम साहब को इन बीमारियों के बारे में जानकारी तक नहीं थी. उन्हें कभी किसी ने जुकाम भी होते नहीं देखा था.

विक्रम साहब चकरघिन्नी की तरह दिनभर काम के चारों ओर चक्कर काटा करते थे. वे अपने अलावा दूसरों के काम के बोझ तले दबे रहते थे. सारा काम खत्म करने के बाद शाम 5 बजे वे लंच के लिए अपने झोले से रोटियां निकालते थे.

यों तो विक्रम साहब की कभी किसी से खिटपिट नहीं होती थी लेकिन आखिर थे तो वे इनसान ही. बड़े साहब के अडि़यल रवैए ने उन को एक बार इतना खिन्न कर दिया था कि उन्होंने अपनी सीट के एक कोने में हनुमान की मूरत रख ली थी और डंके की चोट पर ऐलान कर दिया था, ‘‘जब एक धर्म वालों को अपने धार्मिक काम पूरे करने के लिए दिन में 2-2 बार काम बंद करने की इजाजत है तो उन को क्यों नहीं? उन के यहां त्रिकाल संध्या का नियम है. वे दफ्तर नहीं छोड़ेंगे त्रिकाल संध्या के लिए, लेकिन दोपहर की संध्या के लिए वे एक घंटा कोई काम नहीं करेंगे.’’

विक्रम साहब के इस सवाल का किसी के पास कोई जवाब नहीं था. दफ्तर में धर्म के नाम पर सरकारी मुलाजिम समय का किस तरह गलत इस्तेमाल करते हैं, इस का गुस्सा सालों से लोगों के अंदर दबा पड़ा था. विक्रम साहब ने उस गुस्से को आवाज दे दी थी.

महीने के तीसों दिन रात के 8 बजे तक दफ्तर खुलता था. रोटेशन से सब की ड्यूटी लगती थी. इस में तीनों औरतों को भी बारीबारी से ड्यूटी करनी पड़ती थी.

रात 8 बजे तक और छुट्टियों में ड्यूटी करने में वे तीनों औरतें खुद को असहज पाती थीं. उन्होंने एक बार हिम्मत कर के डायरैक्टर के सामने अपनी समस्या रखी थी.

डायरैक्टर साहब ने उन्हें टका सा जवाब दिया था, ‘‘जब आप ऐसी छोटीमोटी परेशानी भी नहीं उठा सकतीं तो नौकरी में आती ही क्यों हैं?’’

साथी मर्द भी उन औरतों पर तंज कसते, ‘‘जब आप को तनख्वाह मर्दों के बराबर मिल रही है तो काम आप को मर्दों से कम कैसे मिल सकता है?’’

लेकिन विक्रम साहब के आने के बाद औरतों की यह समस्या खुद ही खत्म हो गई थी. वे पता नहीं किस मिट्टी के बने थे, जो हर रोज रात के 8 बजे तक काम करते और हर छुट्टी के दिन भी दफ्तर आते थे.

6 बजते ही वे तीनों औरतोें को कहते, ‘‘आप जाएं अपने घर. आप की पहली जिम्मेदारी है आप का परिवार. आप के ऊपर दोहरी जिम्मेदारियां हैं. हमारी तरह थोड़े ही आप को घर जा कर बनाबनाया खाना मिलेगा.’’

विक्रम साहब की इस हमदर्दी से सारे दूसरे मर्द कसमसा कर रह जाते थे.

विक्रम साहब न तो जवान थे, न हैंडसम और न ही रसिकमिजाज, इसलिए औरतों के प्रति उन की इस दरियादली पर कोई छींटाकशी करता तो लोगों की नजर में खुद ही झूठा साबित हो जाता.

विक्रम साहब की इस दरियादिली का फायदा धीरेधीरे किसी न किसी बहाने दूसरे मर्द साथी भी उठाने लगे थे.

विक्रम साहब जब सड़क पर साइकिल से चलते तो वे एक साधारण बुजुर्ग से नजर आते थे. कोई साइकिल चलाने वाला भरोसा भी नहीं कर सकता था कि उन के बगल में साइकिल चला रहा यह आदमी कोई बड़ा सरकारी अफसर है.

‘वर्ल्ड कार फ्री डे’ के दिन कुछ नेता व अफसर अपनीअपनी कारें एक दिन के लिए छोड़ कर साइकिल से या पैदल दफ्तर जाने की नौटंकी करते हुए अखबारों में छपने के लिए फोटो खिंचवा रहे थे. विक्रम साहब के पास कुछ लोगों के फोन भी आ रहे थे कि वे सिफारिश कर के किसी बड़े अखबार में उन के फोटो छपवा दें.

विक्रम साहब अपनी साइकिल पर बैठ कर उस दिन दिनभर दौड़भाग में लगे थे, उन लोगों के फोटो छपवाने के लिए, पर उस 59 साल के अफसर की ओर न अपना फोटो छपवाने वालों का ध्यान गया था और न छापने वालों का, जो चाहता तो लग्जरी कार भी खरीद सकता था. पर जिस ने इस धरती को बचाने की चिंता में अपने 35 साल के कैरियर में हर रोज साइकिल चलाई थी, उस ने अपनी जिंदगी के हर दिन को ‘कार फ्री डे’ बना रखा था.

विक्रम साहब के रिटायरमैंट में बहुत कम समय रह गया था. सब उदास थे खासकर औरतें. उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि विक्रम साहब के जाने के बाद उन्हें पहले की तरह 8 बजे तक और छुट्टियों में भी अपनी ड्यूटी करनी पड़ेगी.

वे सब चाहती थीं कि विक्रम साहब किसी भी तरह से कौंट्रैक्ट पर दूसरे लोगों की तरह नौकरी करते रहें.

विक्रम साहब कहां मानने वाले थे. उन्होंने सभी को अपने भविष्य की योजना बता दी थी कि वे रिटायरमैंट के बाद सभी लोगों को साइकिल चलाने के फायदे बताएंगे खासकर नौजवानों को वे साइकिल चलाने के लिए बढ़ावा देंगे.

विक्रम साहब ने एक बुकलैट भी तैयार कर ली थी, जिस में दुनियाभर की उन हस्तियों की तसवीरें थीं, जो रोज साइकिल से अपने काम करने की जगह पर जाती थीं. उस में उन्होंने दुनिया के उन आम लोगों को भी शामिल किया था, जो साइकिल चलाने के चलते पूरी जिंदगी सेहतमंद रहे थे.

विक्रम साहब ने अपनी खांटी तनख्वाह के पैसों में से बहुत सी रकम बुकलैट की सामग्री इकट्ठा करने व उस की हजारों प्रतियां छपवाने में खर्च कर डाली थीं.

उन तीनों औरतों ने भी विक्रम साहब के रिटायरमैंट पर अपनी तरफ से उन्हें गियर वाली साइकिल गिफ्ट करने के लिए रकम जमा करनी शुरू कर दी थी. उन की दिली इच्छा थी कि विक्रम साहब रिटायरमैंट के बाद गियर वाली कार में न सही, गियर वाली साइकिल से तो जरूर चलें.

 

देश का किसान क्यों है हलकान

तकरीबन 2 साल पहले मोदी सरकार द्वारा लाए गए 3 कृषि कानूनों को वापस लेने की हुंकार के साथ किसानों ने दिल्ली की घेराबंदी की थी. ‘दिल्ली चलो’ के नारे के साथ दिल्ली के बौर्डर पर किसानों ने डेरा डाला था, क्योंकि दिल्ली के अंदर घुसने के सारे रास्तों पर पुलिस ने सीमेंट दीवारों पर कीलकांटे जड़ कर किसानों और केंद्र सत्ता के बीच मजबूत दीवार खड़ी कर दी थी.

उस आंदोलन के दौरान तकरीबन सालभर तक जाड़ा, गरमी और बरसात झोलते हुए किसान खुले आसमान के नीचे सड़कों पर बैठे रहे थे. तकरीबन 700 किसानों की जानें भी गई थीं. लेकिन किसानों ने तब मोदी सरकार को झका ही लिया था और वे 3 काले कानून वापस करा दिए थे, जिन से किसानों को अपनी ही जमीन पर मजदूर बनाने के सारे इंतजाम मोदी सरकार ने कर दिए थे.

उस समय तो मजबूरन मोदी सरकार को किसानों की मांगों के आगे झकना पड़ा, लेकिन उस आंदोलन से कुछ और नए मुद्दे खड़े हुए, जिन को ले कर किसान एक बार फिर दिल्ली घेरने निकल पड़े.

14 मार्च, 2024 को नई दिल्ली के रामलीला मैदान में देशभर से 400 से ज्यादा किसान संगठनों के लोग महापंचायत के लिए पहुंचे. इतनी बड़ी तादाद में किसानों का रेला देख दिल्ली के कई क्षेत्रों में धारा 144 लागू कर दी गई. हालांकि, किसानों की तरफ से किसी तरह की बेअदबी नहीं हुई और महापंचायत के बाद दोपहर के 3 बजे, रैली खत्म भी हो गई.

मगर, इस महापंचायत में किसानों ने सरकार को यह संदेश जरूर दे दिया कि सरकार के बरताव से वे न सिर्फ आहत हैं, बल्कि आगामी लोकसभा चुनाव में वे भारतीय जनता पार्टी को करारा सबक भी सिखाने के लिए कमर कस चुके हैं.

महापंचायत के दौरान अपनी भड़ास निकालते हुए एसकेएम के नेता डाक्टर दर्शन पाल ने कहा कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसान भाजपा नेताओं को गांवों में नहीं घुसने देंगे, वहीं भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के नेता राकेश टिकैत ने कहा, ‘‘इस महापंचायत से सरकार को यह संदेश मिल गया है कि किसान इकट्ठा हैं और भारत सरकार बातचीत से समाधान करे. यह आंदोलन खत्म नहीं होगा. जिस तरह उन्होंने बिहार को बरबाद किया, वहां मंडियां खत्म कर दीं, पूरे देश को बरबाद करना चाहते हैं.’’

किसान नेताओं ने एमएसपी की गारंटी कानून लाने की मांग की और हरियाणापंजाब के शंभू और खनोरी बौर्डर पर बैठे किसानों पर पुलिस की कार्यवाही की निंदा की.

दरअसल, मोदी सरकार ने अपने करीबी उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए जिस तरह किसानों की अनदेखी की और उन्हें साजिशन गुलाम बनाने की कोशिश की, उस से किसान समुदाय बुरी तरह से बिफर गया है. उद्योगपतियों के अरबोंखरबों रुपए के कर्ज माफ करने वाली सरकार किसानों की छोटीछोटी मांगों को दरकिनार कर रही है.

केंद्र सरकार की तरफ से लगातार लागू की जा रही मजदूर किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ संयुक्त किसान मोरचा लगातार संघर्ष कर रहा है. अन्नदाता के मुद्दे वही पुराने हैं, जिन पर मोदी सरकार ध्यान नहीं दे रही है :

* एमएसपी गारंटी कानून आए.

* स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाए.

* किसानों की कर्जमाफी हो.

* पिछले किसान आंदोलन में दर्ज मामले वापस लिए जाएं.

* पिछले किसान आंदोलन में जान खो चुके किसानों को मुआवजा दिया जाए.

* लखीमपुर खीरी वाले मामले में कुसूरवारों को सजा मिले.

* भूमि अधिग्रहण कानून के किसान विरोधी क्लौज पर दोबारा विचार किया जाए.

किसान चाहते हैं कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को सरकार लागू करे. स्वामीनाथन आयोग ने किसानों को उन की फसल की लागत का डेढ़ गुना कीमत देने की सिफारिश की थी.

आयोग की रिपोर्ट को आए 18 साल गुजर गए, लेकिन एमएसपी पर सिफारिशों को अब तक लागू नहीं किया गया. बिजली कानून 2022 भी वापस करने का दबाव वे सरकार पर बनाए हुए हैं.

इस के अलावा भूमि अधिग्रहण और आवारा पशुओं की प्रमुख समस्या देश के अंदर बनी हुई है, जिस से किसान परेशान हैं. आवारा पशु खड़ी फसल को बरबाद कर देते हैं. इस का कोई समाधान सरकार के पास नहीं है, उलटे सरकार किसानों के हित में काम करने के बजाय उन की जमीनों को बड़े कारोबारियों के हाथों बेचना चाहती है और इसी नीयत से सरकार मजदूर किसान विरोधी नीतियां लगातार लागू कर रही है.

देश का किसान अपनी सभी फसलों के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानूनी भरोसा चाहता है और सभी किसानों के लिए कर्ज की पूरी माफी की मांग कर रहा है. जब उद्योगपतियों के कर्ज माफ हो सकते हैं, तो उस के मुकाबले किसानों की कर्ज राशि तो मामूली सी है.

मनरेगा के तहत किसानों को खेती के लिए रोजाना 700 रुपए निश्चित मजदूरी और साल में 200 दिनों के रोजगार की गारंटी भी चाहिए, जो सरकार के लिए कोई मुश्किल बात नहीं है. मगर सरकार की नीयत गरीबी खत्म करना नहीं, बल्कि गरीब को खत्म करने की है.

News Kahani: स्पैनिश औरत का रेप कांड

भारत के झारखंड राज्य का एक आदिवासी जिला है गोड्डा, जिसे 17 मई, 1983 को पुराने संथाल परगना जिले से बाहर बनाया गया था. इसी गोड्डा जिले का बसंत राय तालाब बहुत ज्यादा मशहूर है. यहां का बिसुआ मेला लोगों की जिंदगी में अलग ही रंग बिखेर देता है.

15 दिनों तक चलने वाले इस बिसुआ मेले की पौराणिक और ऐतिहासिक अहमियत है. मेले के दौरान तालाब में सुबह से ही आदिवासी और गैरआदिवासी लोग नहाना शुरू कर देते हैं.

साफा होड़ आदिवासी समुदाय के लोग तालाब में डुबकी लगाने के बाद सादा कपड़े पहन कर कांसे के बरतन में पूजा शुरू करते हैं. इस के बाद उन्हें मांस और शराब का सेवन छोड़ देना होता है.

इसी बसंत राय तालाब से चंद दूरी पर कुछ और ही नजारा था. रात के 8 बजे थे और तालाब से थोड़ा हट कर एक बड़ा शामियाना लगा हुआ था.

दरअसल, नजदीक के एक गांव के दबंग मुखिया श्याम मुर्मू ने हाल ही में पंचायत का चुनाव जीता था. अपने गुरगों को खुश करने के लिए उस ने वहां शराब, कबाब और शबाब का पूरा इंतजाम किया हुआ था.

श्याम मुर्मू का अपने इलाके में पूरा दबदबा था. वह जंगल से गैरकानूनी कमाई करता था. उस के बड़े नेताओं के साथ अच्छे संबंध थे. जिले के एसपी मनोज सिंह से उस की यारी थी. वह खुद बहुत बड़ा औरतखोर था.

अपनी इसी हवस को पूरा करने के लिए श्याम मुर्मू ने आज वहां आरकैस्ट्रा भी बुलाया था, जिस में 2 जवान लड़कियां कम और तंग कपड़ों में फूहड़ गानों पर कमर मटका रही थीं. उन की मांसल देह, मादक डांस स्टैप और पाउडर व लिपस्टिक से लिपेपुते चेहरे बता रहे थे कि वे इस फील्ड की माहिर खिलाड़ी थीं.

स्टेज के नीचे उस गांव के जवान से ले कर बूढ़े तक ललचाई नजरों से उन दोनों लड़कियों के नाजुक अंगों को देख रहे थे. बहुत से लड़के तो उन्हें छू कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश कर रहे थे.

उन्हीं सब में 5 जवान लड़के भी शामिल थे, जो मुखिया के मुंह लगे थे और शराब के नशे में चूर भी. वे पांचों लड़के 18 से 22 साल की उम्र के थे और सभी ज्यादा पढ़ेलिखे भी नहीं थे. वे लड़कियों को देखने में इतना डूबे हुए थे कि उन के शरीर में तरावट सी आ गई थी.

‘‘भाई, अगर यह चिकने गाल वाली लड़की मुझे मिल जाए, तो मैं इसे छील कर रख दूंगा,’’ ब्रजेश मांझी ने कहा.

‘‘सही कहा तुम ने. मन तो मेरा भी कर रहा है कि आज शराब और कबाब के साथसाथ शबाब भी मिल ही जाए,’’ टोनी संथाल ने अपनी छाती पर हाथ फेरते हुए ब्रजेश मांझी से कहा.

‘‘अरे, दूसरी लड़की कौन सा कम है. इस के उभार तो गजब के हैं,’’ तीसरा लड़का प्रदीप मुर्मू बीयर गटकते हुए बोला.

‘‘लेकिन, इस भीड़ में यह लड़की मानेगी? आज तो जेब भी खाली है, वरना अभी इस के मुंह पर पैसे फेंक कर सौदा कर लेता,’’ ब्रजेश मांझी उस लड़की की तरफ आंख मारते हुए बोला.

उस लड़की ने जीभ निकाल कर गंदा इशारा किया, तो वे सब कनखियों से एकदूसरे को देख कर मुसकरा दिए.

इतने में मुखिया का एक गुरगा उन के पास आया और इशारे से बोला कि साहब बुला रहे हैं.

वे पांचों फौरन वहां से चल दिए. जातेजाते ब्रजेश मांझी ने उस लड़की को फ्लाइंग किस दे दी, तो उस लड़की ने भी उसे दूर से चुम्मा चिपका दिया.

‘‘तुम लोग अभी गांव की ओर निकल जाओ. हवेली में मेरा कमरा तैयार करा दो. आज रात को इन दोनों लड़कियों का मजा जो लूटना है,’’ कुछ पुलिस वालों के साथ शराब पी रहे मुखिया श्याम मुर्मू ने एक लड़के ज्ञानू किस्कू के कान में कहा.

‘‘जी, मुखियाजी,’’ ज्ञानू किस्कू धीरे से बोला.

इस के बाद वे सारे लड़के 2 मोटरसाइकिलों पर बैठ कर गांव की ओर निकल गए. पर उन सब के मन में अभी भी वे दोनों लड़कियां समाई हुई थीं.

थोड़ी दूर चलने पर उन्हें एक मोटरसाइकिल पर कोई जोड़ा नजर आया. ज्यादा रोशनी न होने पर पहले तो उन्होंने उस जोड़े पर ध्यान नहीं दिया, पर जब वे नजदीक से गुजरने लगे तो उन पांचों की आंखें फटी की फटी रह गईं. उस मोटरसाइकिल पर एक विदेशी जोड़ा सवार था. वे दोनों जवान थे और लड़की तो एकदम सैक्सी लग रही थी.

संजय उरांव नाम के लड़के को थोड़ी बहुत इंगलिश आती थी. उस ने तेज आवाज में उस जोड़े से इंगलिश में पूछा, ‘‘कहां से हो?’’

लड़की ने इंगलिश में ही कहा, ‘‘इक्वाडोर से. हम स्पैनिश हैं.’’

इतने में ब्रजेश मांझी ने पता नहीं क्या सोच कर उस लड़की की तरफ फ्लाइंग किस का इशारा कर दिया.

उस लड़की ने भी हंसते हुए उसी अंदाज में जवाब दे दिया. दरअसल, उस जोड़े ने सुन रखा था कि अब भारत एक सेफ कंट्री बन गया है और यहां पर विदेशी मेहमानों के साथ दोस्ताना बरताव किया जाता है.

वैसे, जब यह जोड़ा दुनिया घूमने निकला था, तब लंदन में रहने के दौरान कुछ भारतीय लोगों ने इन्हें कहा भी था कि भारत में थोड़ा संभल कर रहना, पर चूंकि वह कैथोलिक लड़की, जिस का नाम विवियाना था और जो इक्वाडोर में योग सिखाती थी, को उस के भारत में बैठे योगगुरुओं ने कहा था कि तुम भारत आओ, स्वागत है.

यह जोड़ा ऋषिकेश से होता हुआ अब उत्तरपूर्वी राज्यों की तरफ जा रहा था. रास्ते में झारखंड देखने की इच्छा हुई, तो यहां गोड्डा के पास एक सस्ते होटल में रह रहा था और अब इस सुनसान रास्ते से हो कर होटल जा रहा था. इन्हें अगले ही दिन यहां से रवाना होना था.

जब विवियाना ने ब्रजेश मांझ को फ्लाइंग किस दी, तो इन पांचों को लगा कि यह विदेशी गोरी तो लाइन दे रही है. शराब का नशा और हवस तो इन पर पहले से ही हावी थी, तो इन्होंने उन दोनों को रुकने का इशारा कर दिया.

विवियाना के साथ जो लड़का था, उस का नाम मार्कोस था. उस ने सोचा कि ये चोरउचक्के हैं. वह विवियाना से स्पैनिश में बोला, ‘‘मोटरसाइकिल की सीट के नीचे एक सीक्रेट कंपार्टमैंट में पिस्टल रखी है. निकाल लूं क्या?’’

विवियाना ने स्पैनिश में ही कहा, ‘‘रहने दो. ये सब शराब के नशे में हैं और थोड़ी मस्ती कर रहे हैं. हो सकता है कि इन्हें किसी तरह की मदद की जरूरत हो, तो तुम मोटरसाइकिल रोक दो.’’

विवियाना के कहने पर मार्कोस ने मोटरसाइकिल रोक दी. वे पांचों भी रुक गए.

इतने में संजय उरांव ने इंगलिश में पूछा, ‘‘भरी हुई सिगरेट पीनी है?’’

कार्लोस ने इंगलिश में पूछा, ‘‘आप का मतलब चरस से है?’’

‘‘हां,’’ संजय उरांव ने कहा और 3 सिगरेट जला लीं और उन में से 2 सिगरेट उन्हें पकड़ा दीं.

विवियाना ने झना टौप और देह दिखाता पाजामा पहना हुआ था. कमीज के ऊपर के 2 बटन खुले हुए थे. उस के बड़े उभार और काली ब्रा मानो उन पांचों को न्योता दे रही थी.

इक्वाडोर में इस तरह का खुला माहौल हमेशा ही रहता है. वहां सैक्स और नशे का आलम इतना ज्यादा है कि यह देश बरबादी के कगार पर पहुंच गया है.

मार्कोस और विवियाना चरस भरी सिगरेट पीने लगे. उन्हें अंदाजा नहीं था कि जिस देश को वे योगगुरु और सेफ कंट्री समझ कर आए थे, वहां उन के साथ क्या होने वाला है.

चरस की सिगरेट पीते ही वे दोनों भी नशे में हो गए. मार्कोस इंगलिश में बोला, ‘‘मैं जरा पेशाब कर के आता हूं. आप ऐंजौय करो.’’

‘ऐंजौय’ शब्द सुन कर उन पांचों की जवानी जोर मारने लगी. मार्कोस के थोड़ा दूर जाते ही ब्रजेश मांझी ने अपने हाथों से विवियाना का मुंह बंद दिया और प्रदीप मुर्मू व ज्ञानू किस्कू ने टांगों से पकड़ कर उसे जमीन पर लिटा दिया.

विवियाना समझ गई कि ये लड़के किसी और इरादे से यहां आए हैं. उस ने छूटने की कोशिश की, पर नाकाम रही. बाकी 2 लड़के संजय उरांव और टोनी संथाल मार्कोस को रोकने के लिए घात लगा कर बैठ गए.

मार्कोस जब पेशाब कर के आया तो उस ने देखा कि विवियाना जमीन पर पड़ी है. उस के बदन पर कमीज नहीं है और ब्रा भी न के बराबर ही है. उस का नशा काफूर हो गया.

मार्कोस सवा 6 फुट का हट्टाकट्टा नौजवान था. वह विवियाना की तरफ लपका तो संजय उरांव और टोनी संथाल ने उसे दबोचना चाहा, पर मार्कोस ने फुरती दिखाते हुए खुद को उन से अलग किया और उन दोनों पर ताबड़तोड़ घूंसे बरसा दिए.

इस हमले से संजय उरांव और टोनी संथाल अपना होश खो बैठे, पर इतने में प्रदीप मुर्मू पीछे से वहां आया और उस ने मोटरसाइकिल के पाने से मार्कोस के सिर पर वार कर दिया. मार्कोस वह वार झेल नहीं पाया और गिर कर बेहोश हो गया.

रास्ता साफ देख कर वे तीनों भी विवियाना के पास जा पहुंचे. वह इंगलिश में गिड़गिड़ा रही थी, ‘‘हमें जाने दो. हम तो तुम्हें दोस्त समझ रहे थे, पर तुम ने हमें धोखा दिया.’’

ब्रजेश मांझी के सिर पर तो हवस सवार थी. उस ने विवियाना का पाजामा खींच दिया और उस पर सवार हो गया.

प्रदीप मुर्मू बोला, ‘‘भाई, जल्दी कर. हमें भी मजे लेने हैं. गांव की सड़क पर विदेशी लड़की का स्वाद कहां बारबार चखने को मिलेगा…’’

संजय उरांव ने कहा, ‘‘आज तो हम विवियाना को दुनिया की सैर यहीं करा देंगे.’’

विवियाना समझ गई थी कि अब वह ज्यादा जोर लगाएगी तो ये सब उसे मार डालेंगे. उस ने खुद को ढीला छोड़ दिया. उन पांचों ने बारीबारी से उसे रौंदा और ऐसे ही सड़क पर छोड़ कर भाग गए.

विवियाना और मार्कोस कुछ देर तक वहीं पड़े रहे, फिर थोड़ी जान आने पर विवियाना उठी, धीरेधीरे अपने कपड़े पहने और मार्कोस के पास गई. उस की बेहोशी तो टूट चुकी थी, पर सिर से खून ज्यादा बह गया था.

विवियाना किसी तरह मार्कोस को मोटरसाइकिल पर लाद कर पास के एक सरकारी अस्पताल में ले गई.

इतनी रात को कोई उस अस्पताल में डाक्टर तो था नहीं, पर वहां के मुलाजिम समझ गए थे कि कोई बड़ा कांड हुआ है. उन्होंने डाक्टर और पुलिस दोनों को फोन कर दिया.

पुलिस इंस्पैक्टर हरि उईके ने विवियाना और मार्कोस की हालत देख कर अंदाजा लगा लिया कि यह मामला तो दुमका जैसा ही लग रहा है, जहां 1 मार्च को ऐसा ही कांड हुआ था.

इंस्पैक्टर हरि उईके के हाथपैर फूल गए. उसे ज्यादा इंगलिश भी नहीं आती थी. उस ने तुरंत जिले के एसपी मनोज सिंह को फोन लगा दिया.

एसपी मनोज सिंह भी आननफानन वहां पहुंच गए और डाक्टर से मामला समझ.

डाक्टर ने बताया, ‘‘रेप और मारपीट का मामला है. विदेशी नौजवान ज्यादा घायल है, पर खतरे से बाहर है. लड़की का गैंगरेप हुआ है.’’

एसपी मनोज सिंह ने इंगलिश में उस जोड़े से बात की और उन पांचों लड़कों का हुलिया लिया.

अस्पताल के एक मुलाजिम को शक हुआ कि मुखिया के जश्न में शामिल उस के गुरगों ने यह कांड किया होगा. उस ने एसपी साहब को चुपके से यह बात बता दी.

एसपी मनोज सिंह ने विवियाना से इंगलिश में पूछा, ‘‘आप क्या चाहती हैं? यह मामला ज्यादा उछला तो आप की भी बदनामी होगी. हाल ही में दुमका जिले में भी ऐसा ही कांड हुआ है.’’

‘‘कैसा कांड…?’’ पूछते हुए विवियाना को हैरत हुई.

एसपी मनोज सिंह ने बताया, ‘‘पिछली 1 मार्च की बात है. कई देशों से होता हुआ बंगलादेश के बाद एक विदेशी स्पैनिश जोड़ा मोटरसाइकिल से भारत आया था और उसे यहां से आगे नेपाल जाना था. वे दोनों पतिपत्नी झारखंड के दुमका में पहुंचे थे, जो यहां से सटा हुआ जिला है. वहां वे लोग हंसडीहा थाना इलाके के कुरमाहाट गांव में टैंट लगा कर रुके थे. वहीं यह कांड हुआ था.

‘‘वह औरत 28 साल की थी, जबकि उस का पति कुछ ज्यादा बड़ी उम्र का था. वे दोनों मोटरसाइकिल पर दुनिया घूमने निकले थे. जब वे कुरमाहाट पहुंचे, तो 1 मार्च की रात को कुछ लड़कों, जो तादाद में 7-8 थे, ने उन्हें दबोच लिया था.

‘‘उस औरत ने पुलिस को आपबीती सुनाते हुए बताया था, ‘यहां आ कर हम ने जंगल के पास एक टैंट गाड़ दिया था. शाम के 7 बजे जब हम अपने टैंट में थे, तब बाहर कुछ आवाजें आने लगीं. हम टैंट से बाहर आए, तो देखा कि 2 लोग फोन पर बात कर रहे थे. साढ़े 7 बजे के आसपास 2 मोटरसाइकिल पर कुछ और लोग भी आ गए. फिर उन्होंने बाहर से हमें कहा कि ‘हैलो फ्रैंड्स’.’’

‘‘इस के बाद उस औरत ने आगे बताया था, ‘हम दोनों टैंट से बाहर आए और हैड टौर्च जलाई. हम ने देखा कि अचानक 5 लोग हमारी तरफ आए और 2 लोग हमारे टैंट की तरफ गए. वे सब अपनी लोकल भाषा में बातचीत कर रहे थे और बीचबीच में इंगलिश भी बोल रहे थे.’

‘‘उस औरत ने बताया था, ‘कुछ देर के बाद 3 लड़के मेरे पति से झगड़ने लगे और उन के हाथ बांध दिए. बाकी

4 लड़कों ने मुझे छुरा दिखाया और जबरदस्ती उठा लिया. फिर मुझे जमीन पर पटक दिया और लातघूंसों से खूब मारा. इस के बाद उन सब ने मेरे साथ रेप किया. मुझे महसूस हुआ कि उन सब ने शराब पी रखी थी. यह पूरा कांड शाम के साढ़े 7 बजे और रात के 10 बजे के बीच हुआ.’’’

विवियाना बड़े ध्यान से यह सब सुन रही थी. पास ही बिस्तर पर लेटे मार्कोस ने इंगलिश में कहा, ‘‘हमारे साथ भी तो ऐसा ही हुआ है.’’

एसपी मनोज सिंह ने इंगलिश में कहा, ‘‘लेकिन, आप के साथ कोई लूटपाट नहीं हुई है, जबकि उस औरत ने आगे बताया था, ‘उन लोगों ने हमारा एक स्विस नाइफ (एक तरह का चाकू), कलाई घड़ी, हीरा जड़ी एक प्लेटिनम की अंगूठी, चांदी की अंगूठी, काले रंग के ईयरपौड, काले रंग का पर्स, क्रेडिट कार्ड, चांदी का चम्मच और कांटा छीन लिए थे. 13,000 रुपए नकद और 300 डौलर भी ले लिए थे.’

‘‘उस औरत ने यह भी बताया था कि अब तक उन दोनों ने 20,000 किलोमीटर का सफर तय किया था, पर किसी भी देश में ऐसी कोई वारदात नहीं हुई थी. हालांकि, उस ने भारत के लोगों की तारीफ की, पर यह कांड तो भारत में हुआ न…’’

‘‘क्या उस औरत को भी चोटें आई थीं?’’ विवियाना ने एसपी मनोज सिंह से इंगलिश में पूछा.

‘‘उस औरत ने पुलिस को बताया था, ‘मुझे लग रहा था कि आरोपी उस रात मेरी हत्या कर देंगे, मगर मैं अभी भी जिंदा हूं. घटना के बाद मैं खुद बाइक चला कर इलाज के लिए अस्पताल पहुंची थी,’’’ एसपी मनोज सिंह ने जानकारी दी.

कुछ देर वहां चुप्पी छाई रही, फिर एसपी मनोज सिंह ने आगे कहा, ‘‘आप लोगों को रात को अकेले नहीं घूमना चाहिए था.’’

इतने में अस्पताल के एक मुलाजिम ने अपने मोबाइल फोन पर देखते हुए बताया, ‘‘साहब, ईटीवी भारत की एक खबर और रेप के आंकड़ों पर नजर डालें, तो पता चलता है कि साल 2018 से ले कर 2023 के दिसंबर तक झारखंड के अलगअलग जिलों में दुष्कर्म की 14,162 वारदातें अलगअलग थानों में दर्ज की गई थीं.

‘‘बोकारो में 762, चाईबासा में 497, देवघर में 446, धनबाद में 1021, दुमका में 318, गढ़वा में 897, गिरिडीह में 925, गोड्डा में 669, गुमला में 605, हजारीबाग में 967, जमशेदपुर में 740, जामताड़ा में 198, खूंटी में 237, कोडरमा में 281, लातेहार में 384, लोहरदगा में 416, पाकुड़ में 357, पलामू में 704, रेल धनबाद में

5, रेल जमशेदपुर में 3, रामगढ़ में 318, रांची में 1,484, साहिबगंज में 872, सरायकेला में 295 और सिमडेगा में 323 रेप के मामले दर्ज किए गए.’’

‘‘तो क्या इन रेपिस्टों का कुछ नहीं होगा?’’ विवियाना ने एसपी मनोज सिंह से इंगलिश में सवाल किया.

‘‘होगा क्यों नहीं? हम इन्हें धर दबोचेंगे. दुमका के एसपी पीतांबर सिंह खेरवार ने भी उस मामले में बड़ी गंभीरता और तेजी दिखाई थी. जब वे तीनों आरोपियों के पकड़े जाने के बाद जानकारी दे रहे थे, तब उन्होंने इस मामले के बारे में एकएक बात पर रोशनी डाली थी.

‘‘उन्होंने कहा था, ‘1 और 2 मार्च की आधी रात में पुलिस टीम इलाके से गुजर रही थी, जब उन्हें युगल मिला. शुरुआत में पुलिस को लगा कि यह मारपीट का मामला है. उन्हें अस्पताल ले जाया गया और डाक्टर ने कहा कि महिला के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ है.’

‘‘फिर एसपी साहब ने आगे कहा था, ‘मैं ने पुलिस टीम के साथ पहले अस्पताल का दौरा किया और फिर उस जगह का दौरा किया, जहां घटना हुई थी. स्पैनिश जोड़े द्वारा पुलिस को दी गई जानकारी के आधार पर हम ने छापामारी की और 3 लोगों को हिरासत में लिया, जिन्होंने इस जघन्य अपराध में अपनी संलिप्तता स्वीकार की.

‘‘उन्होंने अपने सहयोगियों के नामों का भी खुलासा किया. अन्य दोषियों की गिरफ्तारी के लिए एसआईटी गठित कर छापामारी की जा रही है. मैं व्यक्तिगत रूप से मामले की निगरानी कर रहा हूं.’’’

विवियाना और मार्कोस एकदूसरे को देख रहे थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि भारत में इतने ज्यादा रेप कांड क्यों होते हैं और वे दोनों बेवजह यहां फंस गए हैं.

एसपी मनोज सिंह समझ गए थे कि उन दोनों के मन में क्या चल रहा है. उन्होंने विवियाना को थोड़ा दूर ले जा कर इंगलिश में कहा, ‘‘जिन लड़कों ने आप के साथ यह कांड किया है, पुलिस उन्हें छोड़ेगी नहीं. मेरी उस मुखिया से जानपहचान है. मैं उसे धमका कर आप को 10 लाख रुपए दिलवा सकता हूं. हम मामला यहीं रफादफा कर देते हैं. फिर 1-2 दिन बाद आप यहां से चली जाना.’’

विवियाना खामोश रही. एसपी मनोज सिंह ने इस चुप्पी को रजामंदी समझाते हुए मुखिया श्याम मुर्मू को फोन लगाया और बोले, ‘‘मुखियाजी, आप के लड़कों ने कांड कर दिया है. रेप किया है एक विदेशी लड़की का.’’

उधर से मुखिया श्याम मुर्मू ने कहा, ‘ये पांचों मेरे ही पास बैठे हैं. एसपी साहब, मैं ने अभी ही सरपंच का चुनाव जीता है. अगर यह मामला खुल गया, तो पूरे इलाके में मेरी थूथू हो जाएगी.’

‘‘थूथू ही नहीं होगी, बल्कि मैं तुम्हारे पिछले कांड भी खुलवा दूंगा. बड़ा पैसा बनाया है दो नंबर की कमाई से. थोड़ा जेब को ढीला करो. 10 लाख इस लड़की को दो और 5 लाख मुझे. यह बड़ी मुश्किल से मानी है, वरना तुम्हारे घर पर बुलडोजर चलवा दूंगा,’’ एसपी मनोज सिंह ने धमकी दी.

मुखिया श्याम मुर्मू मान गया. एसपी मनोज सिंह अगले दिन विवियाना और मार्कोस को मुखिया के यहां ले गए और उन से पैसे दिलवा दिए. वे अपने 5 लाख रुपए भी लेने नहीं भूले. विवियाना और मार्कोस भी समझ गए थे कि पैसे लेने में ही भलाई है.

और मैंने जीना सीख लिया: हवस के चक्रव्यूह में फंसी कोमल

कोमल रसोईघर में खाना बना रही थी कि तभी मां ने आवाज दी, ‘‘कोमल, पापा को पानी पिला दे. बुखार से उन के होंठ सूख रहे होंगे.’’

कोमल कटोरीचम्मच ले आई और पापा को थोड़ा सा पानी पिला दिया.

पापा के पैर दबाते हुए मां ने कहा, ‘‘जरा अलमारी में देखना कि कितने पैसे रखे हैं. तुम्हारे पापा की दवा खत्म हो गई है.’’

कोमल ने देखा कि अलमारी में तो इतने पैसे भी नहीं थे कि एक वक्त की दवा आ सके. वह परेशान हो गई कि अब क्या करे? किसी से मदद मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं थी, क्योंकि उन्होंने पहले ही बहुत लोगों से कर्ज ले रखा था.

अचानक कोमल को अपने पापा के पुराने दोस्त सूरज अंकल का खयाल आया. किसी जमाने में वे दोनों अच्छे दोस्त थे, पर पता नहीं किसी वजह से उस के पापा ने सूरज अंकल से दोस्ती तोड़ ली थी.

कोमल उसी वक्त सूरज अंकल के घर चल पड़ी.

सूरज घर में अकेले थे. अचानक कोमल को देख कर वे चौंक गए. कुछ समय पहले एक छोटी सी बच्ची दिखने वाली कोमल आज खिलती कली सी खूबसूरत लग रही थी. उस की निखरती जवानी को देख कर सूरज का चेहरा खिल उठा.

जब कोमल ने बताया कि उस के पापा की तबीयत ज्यादा खराब है और वह मदद के लिए आई है, तो उस की मजबूरी में सूरज को अपनी हैवानियत की जीत नजर आ रही थी.

उस ने कोमल से कहा, ‘‘चलो, मैं किसी एटीएम से पैसे निकाल कर तुम्हें दे देता हूं.’’

इस के साथ ही वे दोनों गाड़ी में बैठ कर घर से निकल पड़े. रास्ते में सूरज ने कोमल के साथ छेड़खानी करनी चाही.

कोमल को अपने पिता की उम्र के शख्स से इस तरह के घटिया बरताव की उम्मीद नहीं थी. लिहाजा, वह गुस्से में गाड़ी से उतर गई.

सूरज ने बेहूदगी से गाड़ी मोड़ते हुए कहा, ‘‘अगर किसी भी मदद की जरूरत हो, तो एक रात के लिए मेरे पास आ जाना. तुम जो चाहोगी, मैं दे दूंगा.’’

कोमल ने नफरत से मुंह फेर लिया था. अब वह समझ चुकी थी कि उस के पापा ने यह दोस्ती क्यों तोड़ी थी.

खुद को बेबस महसूस करती कोमल भारी कदमों से घर की ओर चल पड़ी. घर पहुंचते ही उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई, क्योंकि उस के पापा इस दुनिया से जा चुके थे.

मां कोमल को देखते ही बिलख उठीं, ‘‘तू कहां चली गई थी बेटी? देख, तेरे पापा हमें छोड़ कर चले गए.’’

मां रो रही थीं. तीनों छोटे भाईबहन भी रो रहे थे. कुछ पड़ोसी भी आ गए थे. पर कोमल की आंखों में आंसू नहीं थे. वह तो जैसे पत्थर हो गई थी.

वह सोच रही थी कि जब घर में दवा के लिए पैसे नहीं हैं, तो पिता के अंतिम संस्कार के लिए पैसे कहां से आएंगे?

अब कोमल की इज्जत और पिता का अंतिम संस्कार तराजू के दो पलड़ों में तुल रहे थे और पिता के अंतिम संस्कार का पलड़ा भारी रहा. कोमल चल दी सूरज के पास, अपने वजूद का अंतिम संस्कार करने के लिए.

सुबह होने से पहले कोमल पैसे ले कर लौट आई थी. उस के पिता का अंतिम संस्कार अच्छी तरह से हो गया. कुछ दिनों के खाने का भी इंतजाम हो गया था, लेकिन फिर वही चिंता कि छोटे भाईबहनों की पढ़ाई और खानेपीने का खर्च कहां से आएगा?

सूरज ने कोमल को नौकरी दिलाने का भरोसा दिया था. शर्त वही थी एक रात. बूढ़ी मां, भाईबहन की जरूरतों को पूरा करने के लिए कोमल ने अपने सपनों की आहुति दे दी और सूरज के पास चली गई.

सूरज ने कोमल को अपने ही दफ्तर में नौकरी पर रख लिया. अब जब भी सूरज चाहता, कोमल को बुला लेता. न चाहते हुए भी कोमल इस दलदल में फंसती चली गई.

कोमल की मां कुछकुछ समझ रही थीं, पर विरोध नहीं कर पाती थीं, क्योंकि वे जानती थीं कि बिना पैसों के गुजारा करना मुश्किल था.

धीरेधीरे कोमल के दोनों भाइयों ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और कोमल की मदद से ही दोनों ने अपने अलगअलग कारोबार शुरू कर लिए.

कोमल की छोटी बहन की भी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. उस के स्वभाव और खूबसूरती को देखते हुए उसी के कालेज के प्राध्यापक ने शादी का प्रस्ताव भेजा. कोमल को भी यह रिश्ता अच्छा लगा. सो, चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

कोमल बड़ी थी. मां ने उस से शादी करने के लिए कहा, पर वह चुप रही. वह जानती थी कि जिस दलदल में वह फंस चुकी है, अब उस से बाहर नहीं निकल सकती.

सूरज अब कोमल के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताता था, इसलिए उस ने एक फ्लैट ले लिया था. वह अब उस की इज्जत करता था. अकसर उस के लिए तोहफे लाता, कभीकभी बाहर भी घुमाने ले जाता.

कोमल खूबसूरत तो थी ही, अच्छे रहनसहन और महंगे कपड़ों ने उस के रूप को और भी निखार दिया था. वक्त के साथसाथ कोमल ने अपनी अदाओं से लोगों का दिल जीतना भी सीख लिया था.

एक दिन कोमल को मौडलिंग करने का औफर मिला. बस, फिर क्या था. एक के बाद एक नए औफर आने लगे और कोमल मिस काम्या के नाम से मशहूर हो गई.

बहुत से रईस नौजवान लड़के मिस काम्या के दोस्त बन गए थे. वह उन को अपने इशारों पर नचाती थी.

मिस काम्या के कई मौडल दोस्तों को उस को इतनी ऊंचाइयों पर देख कर जलन होती थी.

अब अकसर पार्टियां होती रहतीं और नौजवान लड़के लड़कियां अपनी ख्वाहिशें भी पूरी करते और पैसों की बरसात भी होती रहती.

मिस काम्या किसी भी लड़की को अपने धंधे में लाने का मोटा कमीशन लेती थी. बड़े घरों की बिगड़ी लड़कियों के खर्चे भी ज्यादा होते थे, जो मिस काम्या की वजह से आसानी से पूरे हो जाते थे.

मिस काम्या अब कोमल को पूरी तरह भूल गई थी. घर में भी सब उस को इज्जत की निगाह से देखते.

मिस काम्या खुश थी कि अब उस ने भी जीना सीख लिया था.

गवाही : क्यों हुई नारायण की गिरफ्तारी

चकवाड़ा गांव में कल दोपहर को हुआ दंगा आज सुबह अखबारों की सुर्खियां बन गया. 6 घर जल गए. 3 बच्चों, 4 औरतों व 2 मर्दों की मौत के अलावा कुल 12 लोग घायल हो गए. कुछ लोगों को हलकीफुलकी चोटें आईं.

इत्तिफाक से पुलिस का गश्ती दल वहां पहुंच गया और दंगे पर काबू पा लिया गया. पुलिस ने 30 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.

गिरफ्तार हुए लोगों में नारायण भी एक था. उस ने जिंदगी में पहली बार जेल में रात काटी थी. जेल की उस बैरक में नारायण अकेला एक कोने में सहमा सा लेटा रहा. वह उन भेड़ियों के बीच चुपचाप आंखें बंद किए सोने का बहाना करता रहा. बाकी सभी जेल में मटरगश्ती कर रहे थे.

सुबह होते ही सब के साथ नारायण को भी कचहरी लाया गया. भीड़ से अलग, उदासी की चादर ओढ़े वह एक कोने में बैठ गया.

पुरानी, मटमैली सफेद धोती, आधी फटी बांहों वाली बदरंग सी बंडी, दोनों पैरों में अलगअलग रंग के जूते, बस यही उस की पोशाक थी.

कचहरी के बरामदे में फैली चिलचिलाती धूप सब को परेशान कर रही थी, पर नारायण धूप से ज्यादा अपने मन में छाए डर से परेशान था.

नारायण को इस बात का भी डर था कि अगर आज का सारा दिन कचहरी में ही लग गया तो दिनभर के कामधाम का क्या होगा. शायद आज घर वालों को भूखा ही सोना पड़ेगा.

नारायण को मालूम था कि कचहरी में एक मजिस्ट्रेट होता है, वकील होते हैं और तरहतरह के गवाह होते हैं. जेल से छूटने के लिए जमानत भी देनी पड़ती है.

‘पर आज कौन देगा उस की जमानत? कैसे बताएगा वह अपनी पहचान? कैसे वह अपनेआप को इस कचहरी के चक्कर से बचा पाएगा?’ ये सारे सवाल उस का डर बढ़ाए जा रहे थे.

‘‘नारायण हाजिर हो,’’ कचहरी के गलियारे में एक आवाज गूंजी.

लोगों की भीड़ से नारायण उठा और मजिस्ट्रेट के कमरे की तरफ बढ़ा.

कमरे के दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे टोका, ‘‘हूं, तुम हो नारायण,’’ उस चपरासी की रूखी आवाज में हिकारत भी मिली हुई थी.

‘‘हां हुजूर, मैं ही हूं नारायण.’’

‘‘यहीं खड़े रहो. अभी तुम्हारा नंबर आने वाला है.’’

थोड़ी देर खड़े रहने के बाद चपरासी की दूसरी आवाज पर वह मजिस्ट्रेट के कमरे में घुस गया. उस ने उन मवालियों की तरफ देखा तक नहीं, जो रातभर जेल में उस के साथ बंद थे.

कमरे में घुसते ही नारायण को एक जोरदार छींक आ गई. सभी उस की तरफ देखने लगे, जैसे उस का छींकना भी जुर्म हो गया हो.

नारायण की नजर जब एक आदमी पर पड़ी तो वह चौंक पड़ा और सोचने लगा, ‘अरे, यह आदमी तो अपने गांव का गुंडा है. यही तो गांव में दंगेफसाद कराता है.’

‘‘हां, तो आप दे रहे हैं इस की जमानत?’’ मजिस्टे्रट ने उस आदमी से पूछा.

सफेद कुरतापाजामा में वह पूरा नेता लग रहा था. मजिस्ट्रेट ने कागज देखा, फिर वकील से पूछा, ‘‘जगन नाम है न इस का? क्या करता है यह? ऐसा कोई कागज दिखाइए, जिस से इस की कोई पहचान हो सके. भई, अब तो सरकार ने सब को मतदाताकार्ड दे दिए हैं. कोई राशनकार्ड हो तो वह दिखा दो.’’

वकील ने कहा, ‘‘हुजूर, ये मगेंद्रजी इस की जमानत देने आए हैं. अपने मंत्रीजी की बहन के बेटे हें. मैं भी इस को पहचानता हूं. इस का दंगे में कोई हाथ नहीं. यह तो बड़े शरीफ इज्जतदार लोगों के बीच उठताबैठता है.’’

नारायण हैरानी से कभी वकील को तो कभी जगन को देख रहा था. वह सोचने लगा, ‘कितना मीठा बोल रहा है वकील. इस का बस चले तो मजिस्ट्रेट को धरती पर लेट कर प्रणाम कर ले.

‘…और यह जगन तो हमेशा नशे में धुत्त रहता है. बड़ीबड़ी गाडि़यां इसे गांव तक छोड़ने आती हैं. लोग इसे गांव के सरपंच और इस इलाके के मंत्री का खास आदमी बताते हैं तभी तो मंत्री का भांजा इस की जमानत देने आया है.

‘कल भी दंगा इसी ने कराया होगा. पर इस की तो ऊंची पहुंच है, यह पक्का मुजरिम तो जमानत पर छूट जाएगा, पर मेरा क्या होगा?’ सोचतेसोचते नारायण ने अपनेआप से सवाल किया.

नारायण के पास न कोई वकील है, न राशनकार्ड, न मतदाताकार्ड यानी उस के पास पहचान का कोई सुबूत नहीं है.

राशनकार्ड बना तो था, जिस से कभीकभार उस की बीवी कैरोसिन लाती थी तो कभी मटमैली सी शक्कर भी मिल जाती थी. थोड़े दिन पहले उस की बीवी ने उसे बताया था कि दुकानदार ने राशनकार्ड रख लिया है.

‘दुकानदार ने, पर क्यों?’ नारायण ने झुंझला कर अपनी बीवी से पूछा था.

वह बोली थी, ‘दुकानदार कह रहा था कि सरकार का हुक्म आया है कि राशन की चीजें उसे मिलेंगी, जो इनकाम टकस (इनकम टैक्स) नहीं देता है.

‘यह बात तेरे मर्द को कागज पर लिख कर देनी पड़ेगी. अपने मर्द से इस कागज पर दस्तखत करवा कर लाना. तब मिलेगा राशनकार्ड. यह परची दी है दुकानदार ने.’

नारायण चौथी जमात तक पढ़ा था, पर ये ‘इनकम टैक्स’ क्या होता है, उस की समझ में नहीं आया था. पड़ोसियों की देखादेखी उस ने भी कागज पर दस्तखत कर दिए थे.

नारायण की बीवी उस परची को ले कर राशन की दुकान पर 5-6 बार चक्कर लगा आई थी, पर राशनकार्ड नहीं मिला था. दुकान खुले तभी तो राशनकार्ड मिले.

किसी खास समय में ही खुलती थी राशन की दुकान. फिर अगर नारायण को राशनकार्ड मिल भी जाता तो क्या होता. कौन उसे जेब में रख कर घूमता है.

नारायण को याद आया कि मतदाताकार्ड भी बना था. पूरे एक दिन का काम खोटा हो गया था. गांव के सरपंच, प्रधान व पंच जैसे लोग आए थे और सब को जीप में बैठा कर ले गए थे.

पंचायतघर के अहाते में फोटो खिंचवाने वालों की लाइन लग गई थी. मतदाताकार्ड पर फोटो तो नारायण का ही था, पर खुद नारायण भी उसे पहचान नहीं पाया. अजीब सी डरावनी शक्ल हो गई थी उस की.

प्रधानी के चुनाव हो गए, तो फिर पंच आए और सब के मतदाताकार्ड छीन कर ले गए. पूछने पर वे बोले, ‘आप लोग क्या करेंगे कार्ड का. कहीं गुम हो जाएगा तो बेवजह पुलिस में एफआईआर दर्ज करानी पड़ेगी. हमें दे दो, संभाल कर रखेंगे. चुनाव आएंगे तो फिर से दे दिए जाएंगे.’

गांव के अनपढ़ लोगों को तो जैसे उल्लू बनाएं, बन जाते हैं बेचारे. कार्ड बटोरने के बाद पंचसरपंच भी कन्नी काटने लगे.

नारायण अपने खयालों में खोया हुआ था कि तभी जगन की मोटी भद्दी सी आवाज आई, ‘‘अच्छा हुजूर, बड़ी मेहरबानी हुई.’’

फिर सब एकएक कर कमरे से बाहर निकल गए थे. कमरे में नारायण, मजिस्टे्रट व चपरासी वगैरह रह गए थे.

‘‘आगे चलो,’’ चपरासी ने नारायण को आगे की ओर धकेला. धक्का इतना जोरदार था कि अगर वह मजबूती से खड़ा न होता तो सीधा मजिस्ट्रेट के सामने जा कर गिरता.

मजिस्ट्रेट ने नारायण को ऊपर से नीचे तक देखा. इस के बाद उस ने नारायण की फाइल देखते हुए पूछा, ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?’’

‘‘जी हुजूर, ना… ना… नारायण.’’

वह ‘हुजूर’ तो आसानी से कह गया, पर ‘नारायण’ शब्द उस की जबान पर ठीक से नहीं आ सका. आवाज हलक में ही अटक गई.

मजिस्ट्रेट ने अपनी नजरें ऊपर उठाईं और नारायण की आंखों में झांका. नारायण ने आंखें झुका लीं. इधर मजिस्ट्रेट ने अपने तजरबे के तराजू में नारायण को तौल लिया था.

मजिस्टे्रट बोला, ‘‘अब क्यों डर रहे हो? दंगा करते समय डर नहीं लगा था क्या? शराब पीना और दंगा करना, बस यही काम जानते हो तुम गंवार लोग.

‘‘अच्छा सचसच बताओ, फावड़े से किस को मारा था तुम ने?’’ मजिस्ट्रेट की आवाज में कड़कपन था.

नारायण से यह झूठ बरदाश्त नहीं हुआ, बल्कि उस की ताकत बन गया. इस बार उस की आवाज में बिलकुल भी घबराहट नहीं थी.

नारायण बोला, ‘‘नहीं हुजूर, मैं कभी शराब नहीं पीता. मैं तो दिनभर दूसरों के खेत में मेहनतमजदूरी करता हूं. अगर नशा करूं तो मेरे बीवीबच्चे भूखे मर जाएं…’’

नारायण में आया यह बदलाव मजिस्ट्रेट को अच्छा नहीं लगा. वह नारायण की बात को बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘अपनी रामकहानी मत सुनाओ मुझे. मेरी बात का जवाब दो.

‘‘मैं ने तुम से पूछा था कि तुम ने फावड़े से किसे मारा था? पुलिस की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि पुलिस ने जब तुम्हें पकड़ा तो तुम्हारे हाथ में फावड़ा था.’’

मजिस्ट्रेट की डांट से नारायण फिर घबरा गया. हाथ जोड़ कर वह मजिस्ट्रेट से बोला, ‘‘हुजूर, फावड़े से तो मैं खेत में निराईगुड़ाई कर के आया था. जब दंगा हो रहा था तब मैं खेत से सीधा घर लौट रहा था. मुझे पता नहीं था कि गांव में दंगा हो रहा है. जब फावड़ा मेरे हाथ में था, तभी पुलिस ने मुझे पकड़ लिया.’’

मजिस्ट्रेट का गुस्सा अभी कम नहीं हुआ था. वह बोला, ‘‘बड़ी अच्छी कहानी बनाई है. अच्छा चलो, पहले अपना पहचानपत्र दो. तुम्हारा न तो कोई वकील है, न जमानत देने वाला और न तुम्हारी पहचान साबित करने वाला कोई गवाह है.

‘‘मुझे तो तुम्हारी बात पर बिलकुल भी यकीन नहीं है. मैं जानता हूं, तुम सब झूठ बोलने में माहिर हो. कोई सुबूत हो तो जल्दी पेश करो, नहीं तो जेल की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘हुजूर, मेरे पास तो कोई पहचानपत्र नहीं है. गरीबी की क्या पहचान, हुजूर. मेरी पहचान का सुबूत तो यह मेरा शरीर और ये 2 हाथ हैं,’’ नारायण ने गिड़गिड़ाते हुए कहा और अपने दोनों हाथ की बंद मुट्ठियां मजिस्ट्रेट के सामने खोल दीं.

उस की दोनों हथेलियां छालों से भरी हुई थीं. उस के हाथों के छाले उस की पहचान के पक्के सुबूत थे, जिन्हें किसी वकील की मदद के बिना सबकुछ कहना आता था.

ऐसी ठोस ‘गवाही’ उस मजिस्ट्रेट ने अपनी जिंदगी में पहली बार देखी थी. यह देख कर मजिस्ट्रेट की आंखें भर आईं.

मजिस्ट्रेट ने अपनेआप को संभाला और फिर हुक्म दिया, ‘‘इसे बाइज्जत बरी किया जाता है.’’

नौकरी की दलाली: चौधरी तेजपाल की चलाकी

पारितोष ने 500-500 रुपए के नोट की 24 गड्डियों को गिन कर अपने बैग में रखते हुए कहा, ‘‘तेजपालजी, अब आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. जल्दी ही आप का बेटा सरकारी नौकरी में होगा, वह भी भारत की राजधानी नई दिल्ली में.’’

‘‘हांजी, अब तो सब आप के हाथ में है पारितोष साहब.’’

पारितोष को अब जटपुर गांव से निकलने की जल्दी थी. 12 लाख रुपए उस के हाथ में इतनी आसानी से आ चुके थे, जिस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

पारितोष कार में बैठते हुए बोला, ‘‘तेजपालजी, बस एक बात का ध्यान रखना कि यह मामला हम दोनों के बीच का है, तो किसी तीसरे को इस की भनक भी नहीं लगनी चाहिए.’’

‘‘अरे साहब, मैं किसी से क्यों कुछ बताने लगा. मैं ने तो आप के आने तक की खबर किसी गांव वाले को नहीं दी. मुझे तो बस अपने बेटे की नौकरी से मतलब है’’

‘‘उस की चिंता मत करो तेजपालजी. नौकरी तो लग गई समझ,’’ कहते हुए पारितोष ने अपनी कार की चाबी घुमाई और वहां से चल पड़ा. कुछ ही देर बाद उस की कार मेन रोड की तरफ दौड़ने लगी थी.

चौधरी तेजपाल कार को तब तक जाते देखते रहे, जब तक कि वह आंखों से ओझल नहीं हो गई.

चौधरी तेजपाल पारितोष को इतनी बड़ी रकम दे कर काफी राहत महसूस कर रहे थे. अब उन का छोटा बेटा अनिल उन को ताना नहीं मार सकता था, ‘पापा, आप ने मेरे लिए किया ही क्या है?’

जब चौधरी तेजपाल का बड़ा बेटा सुनील सेना में मेकैनिक के पद पर भरती हुआ था, तब भी उन्होंने 8 लाख रुपए दलाल को दिए थे.

तब सुनील ने उन से बारबार कहा था, ‘पापा, आप को किसी को एक पैसा देने की जरूरत नहीं है. देखना, मैं अपनी काबिलीयत से हर टैस्ट क्वालिफाई कर जाऊंगा.’

लेकिन बाप का दिल था कि मानता ही नहीं था. चौधरी तेजपाल के कानों में यह बात ठूंसठूंस कर भर दी गई थी कि बिना पैसे दिए कोई काम नहीं होता है, इसलिए वे बेटे की नौकरी लगवाने में कोई भी चूक नहीं करना चाहते थे.

यह सोच कर कि नौकरी न लगने पर कहीं सारी जिंदगी पछताना न पड़े कि काश, पैसे दे दिए होते, इसलिए चौधरी तेजपाल ने किसी की कोई बात नहीं सुनी थी और दलाल के हाथों में चुपचाप 8 लाख रुपए रख दिए थे.

जब सुनील की नौकरी लग गई, तो चौधरी तेजपाल को यह सोच कर बड़ी संतुष्टि मिली कि उन्होंने बाप का फर्ज बखूबी निभाया. उन्हें 8 लाख रुपए का कोई गम नहीं था. वे तो यही सोचते रहे कि उन्हीं 8 लाख रुपए की बदौलत सुनील की नौकरी लगी है.

लेकिन सुनील को यह बात आज तक कचोटती है कि उस के पापा ने उस की काबिलीयत पर यकीन न कर के 8 लाख रुपए की रिश्वत पर यकीन किया.

छोटा बेटा अनिल चौधरी तेजपाल को हमेशा ताने मारता रहता कि बड़े भैया के लिए तो उन्होंने तुरंत दलालों को 8 लाख रुपए दे दिए, लेकिन उस के लिए कुछ नहीं करते.

उन्हीं दिनों खतौली के रहने वाले एक रिश्तेदार ने चौधरी तेजपाल को पारितोष से मिलवाया, जो दिल्ली के जल विभाग में अफसर था. उस रिश्तेदार ने उन्हें यह भी बताया था कि पारितोष ने कई लड़कों को जल विभाग के साथसाथ दूसरे विभागों में सैट कराया है.

पारितोष जुगाड़ू आदमी था और उस की पहुंच ऊपर तक थी. उस ने नौकरी की दलाली की कला अपने ही विभाग के एक आला अफसर से सीखी थी. उस अफसर ने पारितोष को बताया था कि नौकरी चाहने वालों से पैसे पकड़ लो, उन्हें इम्तिहान में बैठाओ.

अगर उन लड़कों में से कोई क्वालिफाई कर जाए तो उसे बताओ कि उस का नंबर लाने में हम ने कितनी मेहनत की है. उस का पैसा हजम कर जाओ. जिंदगीभर वह तुम्हारा एहसानमंद भी रहेगा कि तुम ने उस की नौकरी लगवाई.

जिस के पैसे तुम ने पकड़ रखे हैं और अगर उस का नंबर नहीं आया, तो उसे भी बताओ कि हम ने कोशिश तो बहुत की, लेकिन इस बार जुगाड़ नहीं हो पाया, पर अगली बार जरूर हो जाएगा.

अगर वह पैसे वापसी की जिद करे, तो अनापशनाप खर्चे बता कर उस से लाख 2 लाख तो झटक ही लो, बाकी वापस कर दो. पैसा हमेशा नकदी में और अकेले में पकड़ो, जिस से दूसरे को कानोंकान भी खबर न हो.

तब चौधरी तेजपाल ने पारितोष से संबंध गांठने शुरू किए. पारितोष ने पैसे ले कर 6 महीने के अंदर अपने ही विभाग में अनिल की क्लर्क की नौकरी लगवाने का वादा किया था, लेकिन 6 महीने गुजरने के बाद भी पारितोष कोई साफ जवाब नहीं दे रहा था. कभी कोई बहाना, तो कभी कोई बहाना.

तंग आ कर एक दिन तेजपाल अपने बेटे अनिल को ले कर पारितोष के दिल्ली औफिस पहुंच गए. पारितोष तो जैसे उन के आने का ही इंतजार कर रहा था. उन को देखते ही उस ने कहा, ‘‘बधाई हो तेजपालजी, आप के बेटे की नौकरी लग गई है. नौकरी वाली लिस्ट में उस का नाम आ गया है.’’

यह सुनते ही तेजपाल की आंखें खुशी से चमक उठीं. अनिल के चेहरे पर भी मुसकान तैर गई.

तभी पारितोष ने अपनी दराज में से एक प्रिंटेड पेपर निकाला और तेजपालजी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘देखो, इस में दूसरे नंबर पर तुम्हारे बेटे अनिल का नाम है.’’

लिस्ट में नाम देखते ही चौधरी तेजपाल तो जैसे खुशी से पागल हो गए. वे बारबार उस पेपर को माथे से लगाने लगे, फिर खुश हो कर अनिल से कहा, ‘‘ले बेटा, तू भी देख ले लिस्ट में अपना नाम. मेरी जिंदगी का एक और सपना पूरा हो गया.’’

अनिल भी खुश हो कर उस पेपर को बड़े ध्यान से पढ़ने लगा. अपना नाम देख कर उस की खुशी का भी कोई ठिकाना न था. तभी कुछ सोच कर वह औफिस से बाहर आया और चौकीदार के पास जमा अपना मोबाइल फोन उस से ले लिया.

अनिल पढ़ालिखा नए जमाने का लड़का था. उस ने इंटरनैट पर दिल्ली जल विभाग में हुई नई नियुक्तियों के बारे में सर्च करना शुरू किया, लेकिन उसे कहीं भी ऐसी कोई लिस्ट नहीं मिली.

अनिल ने इशारे से अपने पापा को बुलाया और कहा, ‘‘मुझे तो यह लिस्ट फर्जी लगती है. इंटरनैट पर तो कोई भी ऐसी लिस्ट नहीं है. पारितोष सर से कहिए कि इंटरनैट पर लिस्ट दिखाएं.’’

लेकिन इंटरनैट पर तो कोई ऐसी लिस्ट तब मिलती, जब उसे अपलोड किया गया होता. पारितोष समझ गया कि कम पढ़ेलिखे और पुराने जमाने के तेजपाल को तो बेवकूफ बनाया जा सकता है, लेकिन नई पीढ़ी के अनिल को नहीं. वह फिर से बहाना बनाते हुए इधरउधर की बातें करने लगा.

अनिल समझ गया कि पारितोष उन्हें चकमा देने की कोशिश कर रहा है. यह देख कर उस का जवान खून उबाल खा गया. उस ने अकड़ते हुए कहा, ‘‘पारितोष सर, या तो एक हफ्ते में आप मुझे नौकरी का जौइनिंग लैटर दे दीजिए या फिर मेरे पापा के पैसे वापस कर दीजिए.’’

‘‘धमकी दे रहे हो क्या?’’ पारितोष ने आंखें दिखाते हुए कहा.

‘‘मैं तो धमकी नहीं दे रहा, लेकिन अगर आप धमकी ही समझ रहे हैं, तो यही समझ लीजिए,’’ अनिल ने कहा.

‘‘क्या सुबूत है कि तुम्हारे पापा ने मुझे पैसे दिए हैं?’’

‘‘मेरे पापा सीधेसादे हैं. उन्होंने तुम पर यकीन कर के पैसे दिए. अगर उन के पास इस बात का कोई सुबूत नहीं है, तो इस का मतलब यह नहीं कि उन्होंने तुम्हें पैसे नहीं दिए.’’

बात को बढ़ता और बिगड़ता देख चौधरी तेजपाल ने दखल दिया. अपने अनुभव का फायदा उठाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘पारितोषजी, इस समय तो हम जा रहे हैं, लेकिन एक हफ्ते बाद फिर आएंगे. या तो आप जौइनिंग लैटर तैयार रखना या फिर हमारी रकम.’’

यह कह कर चौधरी तेजपाल अनिल को ले कर बाहर आ गए.

अनिल गुस्से में बोला, ‘‘पापा, आप ने बीच में टांग अड़ा दी, नहीं तो आज ही आरपार का मामला कर देता.’’

‘‘बेटा, जोश में होश नहीं खोना चाहिए. गुस्से में तू कुछ कर बैठता तो वह हम पर ही उलटा केस ठोंक देता. धमकाने, मारपीट करने, सरकारी काम में बाधा डालने, झूठे आरोप लगाने और भी न जाने क्याक्या. नौकरी तो मिलनी ही नहीं, 12 लाख की बड़ी रकम भी डूब जाती.

‘‘हमारे पास कोई सुबूत नहीं कि हम ने उसे 12 लाख रुपए दिए. मैं ने तो आंखें मूंद कर पारितोष पर यकीन किया था. वह हम पर मुकदमा अलग से करता और मुकदमेबाजी से तेरा कैरियर भी तबाह कर देता. इन सब बातों से बचने और तुझे बचाने के लिए ही बेटा मैं ने टांग अड़ाई.’’

पापा की बात सुन कर अनिल की आंखें खुली की खुली रह गईं. उस ने तो इतनी दूर तक की बात सोची ही नहीं थी. उसे अपने पापा के अनुभव पर गर्व महसूस हो रहा था. वह यह भी समझ गया कि कम से कम अभी पैसे वापस मांगने का रास्ता तो बचा रह गया है. अगर वह पारितोष से लड़ पड़ता, तो वह रास्ता भी बंद हो गया होता.

अब चौधरी तेजपाल के सामने एक ही सवाल मुंहबाए खड़ा था कि पारितोष से पैसा वापस कैसे लिया जाए? उन के पास उसे पैसा देने का कोई भी सुबूत नहीं था. तभी उन्हें अचानक याद आया कि अकसर गन्ना किसान कैसे अपना पैसा ऐसे दलालों के पास फंसा देते हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के साथ अकसर ऐसा होता ही रहता है.  गन्ने का अच्छा पैसा मिल जाता है और किसान अपने बच्चों की नौकरी लगवाने के चक्कर में इन दलालों की बातों में फंस जाते हैं. किसी को नौकरी मिल जाती है, किसी को नहीं मिलती.

इस मायाजाल को आज तक कोई समझ नहीं पाया और बहुतकुछ जानते हुए भी नौकरी के लालच में किसान फंसते ही फंसते हैं.

घर आ कर तेजपाल ने सारा मामला अपनी पत्नी तारा देवी को बताया. तारा देवी एक तेजतर्रार औरत थीं. उन्होंने कुछ सोच कर कहा, ‘‘अनिल के पापा, इस बार तुम जब पारितोष के पास जाओ, तो मुझे भी साथ ले कर चलना.’’

‘‘लेकिन, तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘जो तुम नहीं कर पाए. यकीन करो, मैं वहां काम नहीं बिगाड़ूंगी, बल्कि बनाऊंगी.’’

अगली बार चौधरी तेजपाल अपनी पत्नी तारा देवी और 2 रिश्तेदारों को ले कर पारितोष के औफिस पहुंचे. चौकीदार ने उन के मोबाइल औफिस के बाहर ही रखवा लिए.

चौधरी तेजपाल ने औफिस में ठीक वैसा ही किया जैसा तारा देवी ने उन से करने के लिए कहा था.

तारा देवी पूरी तैयारी के साथ आई थीं. पीली साड़ी, पीला ब्लाउज और उन से मैच करता हुआ मोबाइल का पीला कपड़े का कवर. सबकुछ एक योजना के तहत.

औफिस में पहुंचते ही चौधरी तेजपाल ने हाथ जोड़ते हुए पारितोष से कहा, ‘‘साहब, पिछली बार के लिए माफी मांगता हूं. चलो नौकरी न सही, साहब, हमारे 12 लाख रुपए ही वापस कर दो.’’

पारितोष ने चौधरी तेजपाल और उस के दोनों रिश्तेदारों की जेबों पर एक नजर डाली कि कहीं वे चौकीदार की नजरों से मोबाइल छिपा कर तो नहीं लाए. लेकिन उन के पास ऐसा कुछ नहीं था. फिर एक सरसरी नजर उस ने तारा देवी पर डाली, लेकिन उन के हाथ तो खाली थे.

तब निश्चिंत हो कर पारितोष ने कहा, ‘‘क्यों तेजपालजी, पिछली बार तो तुम और तुम्हारा लड़का बड़ी अकड़ दिखा रहे थे?’’

‘‘अरे साहब, मिट्टी डालिए पिछली बातों पर. लड़का तो नादान है. उस की बातों को दिल पर मत लीजिए.’’

‘‘लेकिन, अगर मैं फिर से यह कह दूं कि क्या सुबूत है तुम्हारे पास कि मैं ने तुम से 12 लाख रुपए लिए हैं?’’

‘‘अरे साहब, सुबूत तो मेरे पास कोई नहीं है कि तुम ने हमारे गांव आ कर फलां तारीख में फलां समय 12 लाख रुपए लिए थे.’’

‘‘हां, मैं ने उस तारीख को उस समय तुम्हारे गांव आ कर तुम से 12 लाख रुपए लिए थे, लेकिन इसे अदालत में कैसे साबित करोगे? अदालत तो सुबूत और गवाह मांगती है.’’

‘‘अरे साहब, मैं अदालत क्यों जाऊंगा यह साबित करने कि आप ने 500-500 रुपए के नोट की 24 गड्डियां अपने चमड़े के बैग में रखी थीं. मेरी खोपड़ी इतनी खराब नहीं हुई है कि आप से दुश्मनी मोल लूं.’’

‘‘तो अब आए न लाइन पर. ये सब काम हुए, लेकिन इन्हें अदालत में साबित करना टेढ़ी खीर है.’’

‘‘अरे साहब, हम आप के खिलाफ जाएंगे ही क्यों? आप ने यही मान लिया है कि आप ने 12 लाख रुपए लिए थे, यही बड़ी बात है. आप मुकर भी तो सकते थे.’’

‘‘तो फिर जाओ. जब मेरे पास पैसे होंगे, मैं तुम लोगों को बुलवा लूंगा. तकादा बिलकुल मत करना, नहीं तो मैं मुकर भी जाऊंगा. फिर तुम क्या कर लोगे? आज के बाद मेरे औफिस में दिखाई मत देना.’’

तारा देवी का मकसद पूरा हो चुका था. उन्होंने तेजपाल से वहां से चलने को कहा. तेजपालजी को समझ में नहीं आ रहा था कि तारा देवी ने यहां आने की जिद की थी, लेकिन उन्होंने तो एक शब्द भी नहीं बोला.

बाहर आ कर तारा देवी ने चौकीदार को अपने पास बुलाया और उस के आगे अपने मोबाइल को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लो, अपने साहब का 12 लाख रुपए लेने का वीडियो देखो और आडियो सुनो. सब रिकौर्ड कर लिया गया है. अभी का ताजाताजा.’’

वीडियो रिकौर्डिंग को साफसाफ सुना जा सकता था, जिस में पारितोष 12 लाख रुपए लेने की बात स्वीकार कर रहा है.

रिकौर्डिंग सुनाने के बाद तारा देवी ने चौकीदार से कहा, ‘‘जाओ, कह दो अपने साहब से कि हम अदालत नहीं सीधे विजिलैंस औफिस जा रहे हैं और उस के बाद बड़े अफसरों के पास जाएंगे इस सुबूत के साथ.’’

चौधरी तेजपाल और उस के दोनों रिश्तेदार बड़े हैरान हो कर तारा देवी को देख रहे थे, तभी तारा देवी ने कहा, ‘‘हमें यहां से तुरंत निकलना होगा.’’

अभी उन की कार 10-15 किलोमीटर ही गई होगी, तभी तेजपाल का फोन घनघना उठा. फोन करने वाला पारितोष था. वह घबराते हुए बोला, ‘तेजपालजी, आप के हाथ जोड़ता हूं आप लोग विजिलैंस औफिस मत जाना. वे मेरी नौकरी खा जाएंगे. मैं आज ही आप का पूरा पैसा वापस करने के लिए तैयार हूं. बस, मुझे इतनी बड़ी रकम जुटाने के लिए 2-3 घंटे का समय दे दीजिए.’

चौधरी तेजपाल ने तारा देवी से पूछा कि क्या जवाब देना है, फिर थोड़ी देर के बाद तेजपाल ने कहा, ‘‘हम तुम्हें 4 घंटे का समय देते हैं. तुम पैसा ले कर गाजियाबाद के आउटर पर मेरठ रोड पर गणेश ढाबे के पास मिलना.’’

‘ठीक है, मैं जल्दी से जल्दी पैसा ले कर वहां पहुंचता हूं.’

‘‘ठीक है, आ जाइए पूरा पैसा ले कर, नहीं तो विजिलैंस…’’

‘‘नहींनहीं, तेजपालजी, ऐसा मत करना. मैं आप के आगे हाथ जोड़ता हूं, तबाह हो जाऊंगा मैं. पैसे ले कर आ रहा हूं,’ पारितोष ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

पारितोष समय से पहले आ गया. चौधरी तेजपाल की कार गणेश ढाबे से कुछ आगे एक पेड़ के नीचे खड़ी थी.

पारितोष ने आते ही कार में से चमड़े का भारी बैग निकाला और चौधरी तेजपाल की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘गिन लीजिए, एक रुपया भी कम नहीं है.’’

चौधरी तेजपाल ने वह बैग कार में बैठे अपने रिश्तेदारों को रुपए गिनने के लिए दे दिया. पैसा पूरा था.

घबराए हुए पारितोष को अभी भी समझ में नहीं आ रहा था कि पूरी चौकसी बरतने के बाद भी आखिर उस की वीडियो कैसे बन गई. जब उस ने यह बात पूछी, तो तारा देवी ने अपने ब्लाउज की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘ऐसे… और अभी भी तुम्हारी वीडियो रिकौर्ड हो रही है. तुम्हारे जैसे जालसाजों के लिए ऐसी जालसाजी करनी पड़ती है. पीली साड़ी, पीला ब्लाउज और मोबाइल का ब्लाउज के कपड़े से मैच करता हुआ कवर, जिस से तुम्हारा चौकीदार और तुम दोनों गच्चा खा गए.

‘‘अब हमारे पास तुम्हारे खिलाफ सारे सुबूत हैं. अगर अब तुम ने भविष्य में ऐसी हरकत किसी के साथ भी की तो ये सारे सुबूत विजिलैंस औफिस, तुम्हारे बड़े अफसरों और अदालत को सौंपे जाएंगे.’’

पारितोष ने उन के सामने कान पकड़ कर और उठकबैठक लगा कर माफी मांगी कि अब भविष्य में वह यह काम किसी के साथ नहीं करेगा. उसे अंदाजा नहीं था कि चुप रहने वाली और सीधीसादी दिखाई देने वाली गांव की एक औरत इतनी शातिर दिमाग भी हो सकती है.

फर्ज की याद : शर्मा जी ने गणेशी के हाथ का पानी क्यों नहीं पिया

जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.

गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं…’’

‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.

‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’

‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.

‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.

‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.

सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’

‘‘क्या जानते हो?’’

‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’

‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’

‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया…’’ समझते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘बाबूजी, जब प्यास लगती है तभी तो पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘नहीं, यही तो आप गलती कर रहे हो. बिना मांगे पानी ले कर हर मेज पर पहुंच जाना चाहिए. यही एक चपरासी का फर्ज होता है…’’ समझते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘यही वजह है कि मैं खुद उठ कर पानी पीता हूं. आप ने आज तक अपनी मरजी से मुझे पानी नहीं पिलाया है.’’

‘‘अरे बाबूजी, आप ही पहले ऐसे आदमी हो वरना सभी बाबू मांग कर पानी पीते हैं. आप ही ऐसे हैं जो मुझे अछूत समझ कर पानी नहीं मंगाते हो,’’ गणेशी ने आरोप लगाते हुए कहा.

सुनील शर्मा सोच में डूब गए. गणेशी उन की बात का उलटा मतलब ले रहा है. वे कुछ और जवाब दें, इस से पहले ही साहब की घंटी बज उठी. गणेशी साहब के केबिन में चला गया.

सुनील शर्मा मन ही मन झुंझला उठे. पास की मेज पर बैठे मुकेश भाटी बोले, ‘‘शर्माजी, देख लिए गणेशी के तेवर. आप की बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा.’’

‘‘हां भाटीजी, असर तो नहीं पड़ा,’’ उन्होंने भी स्वीकार करते हुए कहा.

‘‘इसलिए मैं कहता हूं कि अपने उसूल छोड़ दो वरना यह आप पर छुआछूत बरतने का केस दायर कर देगा…’’ सम?ाते हुए मुकेश भाटी बोले, ‘‘फिर कचहरी के चक्कर काटते रहना क्योंकि कानून भी इस का ही पक्ष लेगा.’’

‘‘देखो भाटीजी, मैं तो उस को अपने फर्ज की याद दिला रहा था.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है शर्माजी. जिस को अपना फर्ज समझना ही नहीं है उसे याद दिलाना फुजूल है. उस से बहस कर के खुद का सिर फोड़ना है. फिर मेरा काम था समझने का समझ दिया. आप अपने उसूलों पर ही रहना चाहते हो तो रहो. कल को कुछ हो जाए, तो फिर मुझे कुछ मत कहना,’’ कह कर मुकेश भाटी अपने काम में लग गए.

सुनील शर्मा के भीतर इन बातों को सुन कर हलचल मच गई. अब पहले वाला जमाना नहीं है. सरकार भी रिजर्वेशन के तहत सब महकमों में इन की भरती करती जा रही है, इसलिए चपरासी से ले कर अफसर तक ये ही मिलेंगे.

जिस परिवार में सुनील शर्मा का जन्म हुआ है, वह ब्राह्मण परिवार है. 1970 के पहले उन का ठेठ देहाती गांव था. छुआछूत का जोर था. किसी अछूत को छूना भी पाप समझ जाता था, इसलिए वे गांव में ही अलग बस्ती में रहते थे.

सुनील शर्मा के पिता गंगा सागर गांव में शादीब्याह कराने और कथा बांचने का काम करते थे. वे यह काम केवल ऊंची जाति वालों के यहां किया करते थे. निचली जाति के लोगों के यहां कर्मकांड के लिए वे मना कर दिया करते थे.

गांव की दलित बस्ती गंगा सागर से बहुत नाराज रहती थी. मगर वे कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि उन की चलती ही नहीं थी.

जब कोई दलित किसी काम से गंगा सागर के पास आता था, तो वे उन्हें बाहर बिठा कर संस्कार करा देते थे. बदले में वे कुछ सिक्के देते थे, जिन्हें वे जमीन पर ही रखवा देते थे. तब यजमान मखौल उड़ा कर कहते थे, ‘पंडितजी, यह कैसा नियम. मेरे हाथ से नहीं लिया, मगर हाथ से अपवित्र सिक्के को आप ने ग्रहण कर लिया तो अपवित्र नहीं हुए.’

बदले में गंगा सागर संस्कृत में शुद्धीकरण के श्लोक पढ़ कर उसे शुद्धी का पाठ पढ़ा देते थे.

उस समय दलितों में कूटकूट कर अपढ़ता भरी थी. विरोध करने के बजाय वे सबकुछ सच मान लेते थे. गांव में कोई गंगा सागर को दलित दिख जाता, तो वे उस से बच कर निकलते थे.

मगर जैसेजैसे दिन बीतते रहे, छुआछूत की यह परंपरा शहरों में खत्म होने के साथसाथ गांवों में भी खत्म होने लगी थी. अब तो न के बराबर रही है. अब भी कुछ पुराने लोग हैं जो छुआछूत को मानते हैं क्योंकि वे उसी जमाने में जी रहे हैं.

सुनील शर्मा को आज नौकरी करते हुए 32 साल हो गए हैं. इन 32 सालों में उन्होंने बहुतकुछ देख लिया है. रिटायरमैंट में 3 साल बचे हैं. गणेशी जैसे कितने ही लोग हैं जो इस दलित अवसर को भुनाना चाहते हैं. इन को सामान्य वर्ग के प्रति हमेशा से नफरत थी, जो विष बीज बन कर वट वृक्ष बन गई है. सरकार ने साल 1989 में इन के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है, तब से ही इन के हौसले बढ़ने लगे हैं.

‘‘अरे शर्माजी, पानी पीयो,’’ इस आवाज से सुनील शर्मा की सारी विचारधारा भंग हो गई.

गणेशी गिलास लिए उन के सामने खड़ा था. उन्होंने गटागट पानी पी कर वापस उसे गिलास थमा दिया.

गणेशी बोला, ‘‘बाबूजी, आप ने मुझे मेरा फर्ज याद दिला दिया.’’

‘‘वह कैसे गणेशीजी?’’ हैरानी से सुनील शर्मा ने पूछा.

‘‘देखिए बाबूजी, अब तक जो मांगता था, उसे ही मैं पानी पिलाता था, मगर आप ने यह कह कर मेरी आंखें खोल दीं कि पानी तो हर मेज पर जा कर पिलाना चाहिए, इसलिए आज से ही मैं ने आप से शुरुआत की है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा काम किया गणेशीजी. चलो, मेरी बात पर आप ने गौर तो किया.’’

‘‘हां बाबूजी, अब मुझे किसी को फर्ज की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ कह कर गणेशी चला गया.

मगर सुनील शर्मा उस में अचानक आए इस बदलाव को देख कर हैरान थे.

धब्बा : गीता डाक्टर के पास क्यों गई

नैक्स्ट,’ महिला डाक्टर की अपने केबिन से आवाज आई, तो गीता अंदर गई.

‘‘बोलिए, क्या तकलीफ है?’’ डाक्टर ने सिर से पैर तक उसे देखते हुए पूछा, जिस के सूख चुके शरीर पर फैले लाल दाने किसी अनहोनी के होने का अंदेशा उस की समस्या सुनने से पहले ही दे रहे थे.

‘‘बताइए, क्या तकलीफ है?’’ डाक्टर ने दोबारा पूछा.

‘‘डाक्टर मैडम, कुछ दिनों से दवा खाने पर भी बुखार और कमजोरी कम नहीं हो रही है और ये लाल दाने निकल आए हैं. घर के नजदीक के एक डाक्टर के पास गई थी, पर वे कहीं बाहर गई हैं, इसलिए आप के पास आई हूं.’’

‘‘उन्होंने कुछ टैस्ट कराए थे?’’

‘‘जी, ये रही उन की रिपोर्ट.’’

पूरी रिपोर्ट ध्यान से पढ़ने के बाद डाक्टर ने गीता से पूछा, ‘‘शादी हुई है?’’

‘‘जी.’’

‘‘पति कहां हैं?’’

‘‘वे भी बीमार चल रहे हैं, इसलिए ससुराल वालों ने मुझे मायके भेज दिया है.’’

‘‘बता सकती हो कि क्या हुआ है उन्हें?’’

उन दोनों की बात कोई सुन तो नहीं रहा है, गीता ने आसपास नजर घुमाते हुए पक्का कर धीमी आवाज में कहा, ‘‘मेरी ससुराल वालों ने मुझे ज्यादा तो नहीं बताया, बस कहा कि उन्हें मर्दाना अंग में कुछ तकलीफ हो गई है, लंबा इलाज चलेगा और किसी से इस बारे में बात करने से भी मना किया है.’’

‘‘अच्छा, पति क्या नशा करते हैं?’’ डाक्टर का सवाल सुन कर गीता कुछ हिचकिचाई.

‘‘जी, कभीकभी करते हैं,’’ उस ने अपनी आंखें चुराते हुए कहा.

‘‘सूई से करते हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘आखिरी बार उन से संबंध कब बने थे?’’ डाक्टर ने पूछा.

गीता कुछ घबराई और उस से रहा न गया, ‘‘इस से मेरे बुखार का क्या लेनादेना?’’

‘‘लेनादेना तो है, इसीलिए पूछ रही हूं.’’

‘‘जी, 2 महीने पहले.’’

‘‘क्या वे निरोध इस्तेमाल करते थे?’’

‘‘जी नहीं.’’

‘‘क्या आप के पति और आप के एकदूसरे के अलावा किसी और के साथ भी सैक्स संबंध रहे हैं?’’

‘‘पिछली डाक्टर ने भी ऐसे ही ऊटपटांग सवाल मुझसे पूछे थे और यहां आप भी चालू हो गईं. मुझे आप में से किसी पर भी भरोसा नहीं है. मैं किसी और अच्छे डाक्टर को दिखाऊंगी,’’ गीता गुस्से से अपनी रिपोर्ट उठा कर वहां से जाने लगी.

‘‘डाक्टर बदलने से आप की समस्या बदल नहीं जाएगी.’’

डाक्टर की बात सुन कर गीता सदमे से दरवाजा पकड़ कर खड़ी हो गई, शायद उसे अपनी बीमारी का पता पहले से था, बस कबूल नहीं कर पा रही थी. वह दूसरी डाक्टर को इसलिए दिखाने आई थी कि वह उसे एड्स का धब्बा लगने की हामी शायद न भरे.

‘‘आप की रिपोर्ट बता रही है कि आप एचआईवी पौजिटिव हैं और आप के पति एड्स से पीड़ित होंगे’’

‘‘जी, मैं जानती हूं.’’

‘‘फिर, आप ने मुझे इतनी देर गुमराह क्यों किया?’’

‘‘मैडम, इस धब्बे ने मेरे पति को अछूत बना कर रख दिया है. न तो हमारे परिवार में अब कोई आनाजाना करता है और न ही समाज में इज्जत बची है. मैं अपनी हालत भी उन की तरह होते नहीं देख सकती, इसलिए मैं यहां आ कर अकेले रह रही हूं.’’

‘‘हिम्मत रखिए, आप का दर्द मैं अच्छी तरह समझ सकती हूं.’’

‘‘मैडम, इस का कोई तो इलाज होगा?’’ भरी जवानी में अपने प्राण जाते देख गीता खुद को टूटने से रोक न पाई.

‘‘जागरूकता ही एड्स का एकमात्र इलाज है. आप से वह सवाल इसलिए पूछा गया था कि उस तीसरे इनसान को सजग कर टैस्ट करने को कहा जा सके और वह किसी के साथ भी बिना सुरक्षा के संबंध बनाने से रुक जाए, नहीं तो यही बीमारी किसी चौथे को और उस से न जाने कितने लोगों में फैलती चली जाएगी, जिसे ट्रैक करना मुश्किल होता जाएगा.’’

‘‘डाक्टर मैडम, अगर किसी औरत से संबंध होते तो आप को बताने में उतनी हिचक नहीं होती, मगर किस मुंह से कहूं कि उन्हें मर्द पसंद हैं.’’

‘‘जो मर्द समलैंगिंक संबंध बनाते हैं, उन्हें यह खतरा औरों के मुकाबले ज्यादा होता है.’’

‘‘पर, मुझे यह बात समझ नहीं आई कि उन के सूई से नशा करने से, समलैंगिक संबंध बनाने से, निरोध न इस्तेमाल करने से यह बीमारी मुझ तक कैसे पहुंच गई’’

‘‘तुम्हारे सारे सवालों में ही तुम्हारा जवाब छिपा हुआ है.’’

‘‘काश, वक्त रहते थोड़ी सावधानी वे दिखा देते, तो आज इस धब्बे के साथ जीने के लिए न वे मजबूर होते, न मैं. उन के अकेले के शौक ने हम में से कितनों को मौत के मुंह में धकेल दिया है.’’

‘‘तुम घबराओ नहीं, मेरे पास यहां बैठो,’’ डाक्टर ने गीता का हाथ पकड़ते हुए कहा.

‘‘नहीं मैडम, आप मुझे मत छुइए, नहीं तो यह बीमारी आप को भी लग जाएगी.’’

‘‘मैं मानती हूं कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, पर यह किसी को छूने से, उस के साथ खाने से या साथ घूमनेफिरने से नहीं फैलती. पर, एक बात मैं दावे से कह सकती हूं कि यह बीमारी प्यार और अपनेपन से घटती जरूर है.’’

‘‘आज कितने दिनों बाद किसी ने मुझ से इतने अच्छे से बात की होगी,’’ गीता दुखी जरूर थी, पर कुछ मीठे बोल उसे इन हालात से जूझाने का हौसला दे रहे थे.

‘‘कोई भी तकलीफ हो तो मुझे फोन करने से झिझकना मत. इस फोल्डर से तुम्हें इस बीमारी संबंधी सभी जरूरी जानकारी मिल जाएगी और साथ ही उन अनेक संस्थान के पते व फोन नंबर भी मिल जाएंगे, जहां तुम खुद को कभी अकेला नहीं समझागी.

‘‘आप का बहुत शुक्रिया मैडम.’’

एड्स एक लाइलाज बीमारी है,

मात्र जागरूकता है इस की दवा.

ये अपनेपन, सहयोग से घटती है,

और बंट जाती है करने पर दुआ.

एक अच्छा दोस्त : काश सब दिन एक जैसे होते

सतीश लंबा, गोरा और छरहरे बदन का नौजवान था. जब वह सीनियर क्लर्क बन कर टैलीफोन महकमे में पहुंचा, तो राधा उसे देखती ही रह गई. शायद वह उस के सपनों के राजकुमार सरीखा था.

कुछ देर बाद बड़े बाबू ने पूरे स्टाफ को अपने केबिन में बुलाकर सतीश से मिलवाया.

राधा को सतीश से मिलवाते हुए बड़े बाबू ने कहा, ‘‘सतीश, ये हैं हमारी स्टैनो राधा. और राधा ये हैं हमारे औफिस के नए क्लर्क सतीश.’’

राधा ने एक बार फिर सतीश को ऊपर से नीचे तक देखा और मुसकरा दी.

औफिस में सतीश का आना राधा की जिंदगी में भूचाल लाने जैसा था. वह घर जा कर सतीश के सपनों में खो गई. दिन में हुई मुलाकात को भूलना उस के बस में नहीं था.

सतीश और राधा हमउम्र थे. राधा के मन में उधेड़बुन चल रही थी. उसे लग रहा था कि काश, सतीश उस की जिंदगी में 2 साल पहले आया होता.

राधा की शादी 2 साल पहले मोहन के साथ हुई थी. वह एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर था. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, मगर मोहन को कंपनी के काम से अकसर बाहर ही रहना पड़ता था. घर में रहते हुए भी वह राधा पर कम ही ध्यान दे पाता था.

यों तो राधा एक अच्छी बीवी थी, पर मोहन का बारबार शहर से बाहर जाना उसे पसंद नहीं था. मोहन का सपाट रवैया उसे अच्छा नहीं लगता था. वह तो एक ऐसे पति का सपना ले कर आई थी, जो उस के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहे. लेकिन मोहन हमेशा अपने काम में लगा रहता था.

अगले दिन सतीश समय से पहले औफिस पहुंच गया. वह अपनी सीट पर बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी राधा ने अंदर कदम रखा.

सतीश को सामने देख राधा ने उस से पूछा, ‘‘कैसे हैं आप? इस शहर में पहला दिन कैसा रहा?’’

सतीश ने सहज हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं ठीक हूं. पहला दिन तो अच्छा ही रहा. आप कैसी हैं?’’

राधा ने चहकते हुए कहा, ‘‘खुद ही देख लो, एकदम ठीक हूं.’’

इस के बाद राधा लगातार सतीश के करीब आने की कोशिश करने लगी. धीरेधीरे सतीश भी खुलने लगा. दोनों औफिस में हंसतेबतियाते रहते थे.

हालांकि औफिस के दूसरे लोग उन की इस बढ़ती दोस्ती से अंदर ही अंदर जलते थे. वे पीठ पीछे जलीकटी बातें भी करने लगे थे.

राधा के जन्मदिन पर सतीश ने उसे एक बढि़या सा तोहफा दिया और कैंटीन में ले जा कर लंच भी कराया.

राधा एक नई कशिश का एहसास कर रही थी. समय पंख लगा कर उड़ता गया. सतीश और राधा की दोस्ती गहराती चली गई.

राधा शादीशुदा है, सतीश यह बात बखूबी जानता था. वह अपनी सीमाओं को भी जानता था. उसे तो एक अजनबी शहर में कोई अपना मिल गया था, जिस के साथ वह अपने सुखदुख की बातें कर सकता था.

सतीश की मां ने कई अच्छे रिश्तों की बात अपने खत में लिखी थी, मगर वह जल्दी शादी करने के मूड में नहीं था. अभी तो उस की नौकरी लगे केवल 8 महीने ही हुए थे. वह राधा के साथ पक्की दोस्ती निभा रहा था, लेकिन राधा इस दोस्ती का कुछ और ही मतलब लगा रही थी.

राधा को लगने लगा था कि सतीश उस से प्यार करने लगा है. वह पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने मेकअप और कपड़ों पर भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. उस पर सतीश का नशा छाने लगा था. वह मोहन का वजूद भूलती जा रही थी.

सतीश हमेशा राधा की पसंदनापसंद का खयाल रखता था. वह उस की हर बात की तारीफ किए बिना नहीं रहता था. यही तो राधा चाहती थी. उसे अपना सपना सच होता दिखाई दे रहा था.

एक दिन राधा ने सतीश को डिनर पर अपने घर बुलाया. सतीश सही समय पर राधा के घर पहुंच गया.

नीली जींस व सफेद शर्ट में वह बेहद सजीला जवान लग रहा था. उधर राधा भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. उस ने नीले रंग की बनारसी साड़ी बांध रखी थी, जो उस के गोरे व हसीन बदन पर खूब फब रही थी.

सतीश के दरवाजे की घंटी बजाते ही राधा की बांछें खिल उठीं. उस ने मीठी मुसकान बिखेरते हुए दरवाजा खोला और उसे भीतर बुलाया.

ड्राइंगरूम में बैठा सतीश इधरउधर देख रहा था कि तभी राधा चाय ले कर आ गई.

‘‘मैडम, मोहनजी कहां हैं? वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे,’’ सतीश ने पूछा.

राधा खीज कर बोली, ‘‘वे कंपनी के काम से हफ्तेभर के लिए हैदराबाद गए हैं. उन्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं रहती है. मैं अकेली दीवारों से बातें करती रहती हूं. खैर छोड़ो, चाय ठंडी हो रही है.’’

सतीश को लगा कि उस ने राधा की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है. बातोंबातों में चाय कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला.

राधा को लग रहा था कि सतीश ने आ कर कुछ हद तक उस की तनहाई दूर की है. सतीश कितना अच्छा है. बातबात पर हंसतामुसकराता है. उस का कितना खयाल रखता है.

तभी सतीश ने टोकते हुए पूछा, ‘‘राधा, कहां खो गई तुम?’’

‘‘अरे, कहीं नहीं. सोच रही थी कि तुम्हें खाने में क्याक्या पसंद हैं?’’

सतीश ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया, ‘‘बस यही राजमा, पुलाव, रायता, पूरीपरांठे और मूंग का हलवा. बाकी जो आप खिलाएंगी, वही खा लेंगे.’’

‘‘क्या बात है. आज तो मेरी पसंद हम दोनों की पसंद बन गई,’’ राधा ने खुश होते हुए कहा.

राधा सतीश को डाइनिंग टेबल पर ले गई. दोनों आमनेसामने जा बैठे. वहां काफी पकवान रखे थे.

खाते हुए बीचबीच में सतीश कोई चुटकुला सुना देता, तो राधा खुल कर ठहाका लगा देती. माहौल खुशनुमा हो गया था.

‘काश, सब दिन ऐसे ही होते,’ राधा सोच रही थी.

सतीश ने खाने की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘वाह, क्या खाना बनाया है, मैं तो उंगली चाटता रह गया. तुम इसी तरह खिलाती रही तो मैं जरूर मोटा हो जाऊंगा.’’

‘‘शुक्रिया जनाब, और मेरे बारे में आप का क्या खयाल है?’’ कहते हुए राधा ने सतीश पर सवालिया निगाह डाली.

‘‘अरे, आप तो कयामत हैं, कयामत. कहीं मेरी नजर न लग जाए आप को,’’ सतीश ने मुसकरा कर जवाब दिया.

सतीश की बात सुन कर राधा झम उठी. उस की आंखों के डोरे लाल होने लगे थे. वह रोमांटिक अंदाज में अपनी कुरसी से उठी और सतीश के पास जा कर स्टाइल से कहने लगी, ‘‘सतीश, आज मौसम कितना हसीन है. बाहर बूंदों की रिमझिम हो रही है और यहां हमारी बातोें की. चलो, एक कदम और आगे बढ़ाएं. क्यों न प्यारमुहब्बत की बातें करें…’’

इतना कह कर राधा ने अपनी गोरीगोरी बांहें सतीश के गले में डाल दीं. सतीश राधा का इरादा समझ गया. एक बार तो उस के कदम लड़खड़ाए, मगर जल्दी ही उस ने खुद पर काबू पा लिया और राधा को अपने से अलग करता हुआ बोला, ‘‘राधाजी, आप यह क्या कर रही हैं? क्यों अपनी जिंदगी पर दाग लगाने पर तुली हैं? पलभर की मौजमस्ती आप को तबाह कर देगी.

‘‘अपने जज्बातों पर काबू कीजिए. मैं आप का दोस्त हूं, अंधी राहों पर धकेलने वाला हवस का गुलाम नहीं.

‘‘आप अपनी खुशियां मोहनजी में तलाशिए. आप के इस रूप पर उन्हीं का हक है. उन्हें अपनाने की कोशिश कीजिए,’’ इतना कह कर सतीश तेज कदमों से बाहर निकल गया.

राधा ठगी सी उसे देखती रह गई. उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘मैं क्यों इतनी कमजोर हो गई? क्यों सतीश को अपना सबकुछ मान बैठी? क्यों इस कदर उतावली हो गई?

‘अगर सतीश ने मुझे न रोका होता तो आज मैं कहीं की न रहती. बाद में वह मुझे ब्लैकमेल भी कर सकता था. मगर वह ऐसा नहीं है. उस ने मुझे भटकने से रोक लिया. कितना महान है सतीश. मुझे उस की दोस्ती पर नाज है.’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें