कैप्टन राघव सर्जिकल स्ट्राइक को ले कर टैलीविजन पर चल रही बहस और श्रेय लेने की होड़ से ऊब कर, अपना लैपटौप खोल कर बैठ गए. महीनेभर की भागादौड़ी से फुरसत पा कर, आज यह शाम का समय मिला है कि वे कुछ अपने मन की करें. उड़ी आतंकवादी घटना के बाद से ही मन विचलित हो गया था. मगर यह पूरा माह अत्यंत व्यस्त था, इसलिए जागते समय तो नहीं, किंतु सोते समय अवश्य उन मित्रों के चेहरे नजरों के सामने तैरने लगते थे जो इस साल आतंकियों से लोहा लेते शहीद हो गए थे. आज वे लैपटौप में उस पिक्चर फोल्डर को खोल कर बैठ गए जो उन्होंने एनडीए में ट्रेनिंग के दौरान फोटोग्राफर से लिया था. उस फोटोग्राफर को भी केवल खास मौकों पर अंदर आ कर फोटो लेने की इजाजत मिलती थी, वरना वहां कैमरा और मोबाइल रखने की किसी भी कैडेट को इजाजत नहीं थी.
12वीं की परीक्षा के बाद जहां उस के सहपाठी इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेज के परिणामों का इंतजार कर रहे थे वहीं वह बेसब्री से एनडीए के परिणाम का इंतजार कर रहा था. हालांकि मां की खुशी के लिए यूपीटीयू के अलावा उस ने और भी अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं भी दी थीं मगर इंतजार एनडीए के परिणाम का ही था. यदि लिखित में पास हो गया तो फिर एसएसबी (साक्षात्कार) के लिए तो वह जीजान लगा देगा.
मां को तो पूरा विश्वास था कि वह इस में पास नहीं हो सकता, इसलिए उन्होंने उस परीक्षा को एक बार में ही पास करने की शर्त रख दी थी. उस दिन नीमा मौसी ने मां से बोला भी था, ‘तुम अपने इकलौते बेटे के सेना में जाने से रोकती क्यों नहीं?’ और मां ने कहा, ‘अरे, परीक्षा दे कर उसे अपना शौक पूरा कर लेने दो. परीक्षा में लाखों बच्चे बैठते हैं, लेकिन सिलैक्शन तो 3-4 सौ का ही हो पाता है. कौन सा इस का हो ही जाएगा. मैं तो यही सोच कर खुश हूं कि इसे ही लक्ष्य मान परीक्षा की तैयारियां तो करता है वरना यह भी सड़क पर अन्य नवयुवकों के संग बाइक ले कर स्टंट करता घूमता.’
मौसी चुप हो गईं. मां व मौसी की ये बातें सुन कर मैं जीजान से तैयारी में जुट गया कि कहीं पहली बार में पास नहीं कर पाया तो फिर मां को बहाना मिल जाएगा सेना में न भेजने का. मां हमेशा फुसलातीं, ‘बेटा, सरकारी इंजीनियरिंग कालेज न मिले तो कोई बात नहीं, तुम यहीं लखनऊ के ही किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में ऐडमिशन ले लेना, घर से ही आनाजाना हो जाएगा.’ मैं कहता, ‘मां, मुझे इंजीनियरिंग करनी ही नहीं, आप समझती क्यों नहीं.’
सोमेश भी तो यही कहता था. यहां आने वाले हर दूसरे कैडेट की यही कहानी है. किस की मां अपने कलेजे के टुकड़े को गोलियों की बौछार के आगे खड़ा कर खुश होगी. सोमेश तो अपने मातापिता की इकलौती औलाद था. उस की मां तो एनडीए में ऐडमिशन के समय साथ ही आई थी. एक हफ्ते पुणे में रुकी रही कि शायद सोमेश का मन बदल जाए तो वे उसे अपने साथ ले कर वापस लौट जाएंगी. भले ही अब जुर्माना भी क्यों न भरना पड़े पर सोमेश न लौटा और उस की मां ही लौट गईं. उस दिन वे कितना रो रही थीं, शायद उन के मन को आभास हो गया था.
मैं और सोमेश एक ही हाउस में थे. शुरू के 3 महीने तो सब से कठिन समय था. कब आधी रात को दौड़ना पड़ जाए, कब तपतपाती गरमी में सड़क पर बदन को रोल करना पड़ जाए, कब दसियों बार रस्सी पर अपडाउन करने का फरमान आ जाए और कब किस समय कौन सा कानून भंग हो जाए, पता ही नहीं चलता था. मगर सजा देने वाले सीनियर के पास पूरा हिसाब रहता और उस सीनियर को सजा देने का हक उस के सीनियर का रहता. हर 6 महीने में एक नया बैच जौइन करता और उसी के साथ अगला बैच सीनियर बन जाता और सब से पुराना बैच, 3 साल पूरे कर पासिंगआउट परेड कर रवाना हो जाता आर्मी गु्रप आइएमए उत्तराखंड के देहरादून में, नेवी ग्रुप अलगअलग अपने जहाज में और एयरफोर्स ग्रुप एयरफोर्स एकेडमी, बेंगलुरु में. बस, यहीं से सभी कैडेट जैंटलमैन में बदल अपनी अलग औफिसर ट्रेनिंग के लिए एकदूसरे से विदा लेते.
प्रवेश के प्रांरभिक 3 महीने सब से कठिन होते. उस समय में जो कैडेट एनडीए में टिक गया, वह फिर जिंदगीभर अपने कदम पीछे नहीं कर सकता. मां की सहेली का भाईर् यहां से महीनेभर में ही वापस चला गया था. तभी से उन के मन में एक भयंकर तसवीर बन गई थी, उसी कठोर प्रशिक्षण के बारे में सुन कर ही वे मुझे यहां नहीं भेजना चाहती थीं. पर वैसे भी, किस की मां खुशीखुशी भेजती है.
सोमेश ने बताया था कि जब वह पहले सैमेस्टर के बाद घर गया तो मां के सामने शर्ट नहीं उतारता था कि वे कहीं पीठ पर बने निशान न देख लें जो डामर रोड पर रोलिंग करने से बन गए थे, वरना वे फिर से हायतौबा मचा कर मुझे वापस ही न आने देतीं. यही हाल मेरी मां का भी था. हर वक्त यही कहती थीं, ‘कितना चुप रहने लगा है, कुछ बताता क्यों नहीं वहां की बात. पहले तो बहुत बोलता था, अब क्या हुआ?’ क्या बोलता मैं, अगर यहां की कठिन दिनचर्या बताता तो फिर वे मुझे भूल कर भी वापस न आने देतीं.
बहन सुनीति बोली थी, ‘मैं ने सुना, 3 साल में आप को वहां से जेएनयू की डिगरी मिलेगी,’
‘हां, तो,’ मैं ने लापरवाही से कहा.
‘वाह, पुणे में रहते हुए, आप को जेएनयू की डिगरी मिल जाएगी, दिल्ली भी जाना नहीं पड़ेगा,’ सुनीति चहकी थी.
‘हां, हम जेएनयू नहीं, बल्कि जेएनयू हमारे पास आएगा,’ मैं ने उसे चिढ़ाया था.
‘अजी, मजे हैं आप के भाई,’ सुनीति बोली.
‘तू भी आ जा, तुझे भी मिल जाएगी,’ मैं ने कहा.
‘न भाई न, मेरे अंदर इतना स्टैमिना नहीं है कि मैं मीलों दौड़ लगाऊं. वह भी पीठ पर वजन लाद कर. न सोने का ठिकाना, न खाने का. इस के बजाय मैं अपनी डिगरी मौज काटते हुए ले लूंगी. आप की तरह मुझे अपने शरीर को कष्ट नहीं देना. इस से कई गुना मस्त हमारी यूनिवर्सिटी है जहां सालभर नारेबाजी, धरना, प्रदर्शन और फैशन परेड ही चलती रहती है.’
बहन और भाई के रिश्ते में प्यार है, तकरार भी. एक को कुछ कष्ट हो तो दूसरे को बरदाश्त नहीं हो पाता. वह मेरी कठिन ट्रेनिंग से हमेशा विचलित हो जाती. जब मैं ने उस से कहा, ‘अब मैं कमांडो ट्रेनिंग पर भी जाऊंगा,’ तो गुस्सा हो गई. ‘क्या जरूरत है इतनी कठिन ट्रेनिंग पर जाने की, आप शांति से अपनी जौब करते रहो, अब और कहीं जाने की जरूरत नहीं.’
शुरुआत में सोमेश तो फिर भी बहुत स्ट्रौंग था पर मोहित अकसर उदास हो जाता था. उस की स्थिति डावांडोल होने लगी थी. एक दिन कहता, ‘घर जाना है’ तो दूसरे ही दिन, ‘यहीं रहना है,’ का राग अलापता. सोमेश उसे समझाबुझा कर मना ही लेता. फिर तो हम तीनों की बहुत अच्छी जमने लगी थी. मोहित हमारा जूनियर था, मगर मौका पा हमारे रूम में झांक ही जाता, ‘सर, कुछ लाना तो नहीं, मैं कैंटीन जा रहा हूं?’
एक दिन आ कर बोला, ‘सर, आ की राखी आ गई?’
‘नहीं, अभी तो बहुत दिन हैं राखी आने के, आ जाएगी, क्यों परेशान हो?’