मौडर्न सिंड्रेला: मनाली ने लगाया रिश्तों पर दांव

आज मयंक ने मनाली को खूब शौपिंग करवाई थी. मनाली काफी खुश लग रही थी. उसे खुश देख कर मयंक भी अच्छा महसूस कर रहा था. वैसे वह बड़ा फ्लर्ट था, पर मनाली के लिए वह बिलकुल बदल गया था. मनाली से पहले भी उस की कई गर्लफ्रैंड्स रह चुकी थीं, पर जैसी फीलिंग उस के मन में मनाली के प्रति थी वैसी पहले किसी के लिए नहीं रही.

‘‘चलो, तुम्हें घर ड्रौप कर दूं,’’ मयंक ने कहते ही मनाली के लिए कार का दरवाजा खोल दिया.

‘‘नहीं मयंक, मुझे निमिशा दीदी का कुछ काम करना है इसलिए आप चले जाइए. मैं घर चली जाऊंगी,’’ प्यार से मुसकराते हुए मनाली निकल गई. फिर उस ने फोन कर के कोको स्टूडियो में पता किया कि कोको सर आए हैं कि नहीं. उसे आज हर हाल में फोटोशूट करवाना था. कैब बुक कर के वह कोको स्टूडियो पहुंच गई. तभी उसे याद आया, ‘आज तो ईशा मैम की क्लास है. उन की क्लास मिस करना बड़ी बात थी. वे क्लास बंक करने वाले स्टूडैंट्स को प्रैक्टिकल में बहुत कम नंबर देती थीं. तुरंत कीर्ति को फोन कर रोनी आवाज में दुखड़ा रोया, ‘‘प्लीज मेरी हाजिरी लगवा देना. चाची और निमिशा दीदी ने सुबह से जीना हराम कर रखा है.’’

‘‘ओह, तुम परेशान मत हो,’’ कीर्ति उसे दुखी नहीं देख सकती थी. वह समझती थी कि चाचाचाची मनाली को बहुत तंग करते हैं. तभी कोको सर भी आ गए. मौडलिंग की दुनिया में काफी नाम कमाया था उन्होंने. हां, थोड़े सनकी जरूर थे पर मौलिक, कल्पनाशील लोग ज्यादातर ऐसे होते ही हैं. कोको सर ने मनाली को ध्यान से देखा और उस पर बरस पड़े, ‘‘तुम्हें वजन कम करने की जरूरत है. मैं ने पहले भी तुम्हें बताया था. आज तुम्हारा फोटोशूट नहीं हो सकेगा.’’‘‘बुरा हो इस मयंक का और कालेज के अन्य दोस्तों का. जबतब जबरदस्ती कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं,’’ मनाली आगबबूला हो कर स्टूडियो से बड़बड़ाती हुई निकली. घर पहुंची तो चाची ने चुपचाप खाना परोस दिया. चाची उस से ज्यादा बातचीत नहीं करती थीं पर उस का खयाल अवश्य रखती थीं.

उस ने खाने की प्लेट की तरफ देखा तक नहीं, क्योंकि अब उस पर डाइटिंग का भूत सवार हो चुका था. रात का खाना भी उस ने नहीं खाया तो चाचाचाची को चिंता हुई. वैसे भी वह चाचा की लाड़ली थी. वे उसे अपने तीनों बच्चों की तरह ही प्यार करते थे. मनाली के मातापिता का तलाक हो गया था. उस की मां ने एक एनआरआई डाक्टर के साथ दूसरी शादी कर ली थी और अमेरिका में ही सैटल हो गई थीं. वहीं पिता कैंसर के मरीज थे. मनाली जब 8 वर्ष की थी तभी उन की मृत्यु हो गई थी. कुछ समय बूआ के पास रहने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे चंडीगढ़ चाचाचाची के पास भेजा गया. पढ़ाईलिखाई में मनाली का मन कम ही लगता था जबकि चाचा के तीनों बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे थे. चाची उसे भी पढ़ने को कहतीं पर मनाली पर उस का कम ही असर होता था. इंटर में गिरतेपड़ते पास हुई तो चाचा उस के अंक देख कर चकराए. ‘‘किस कालेज में दाखिला मिलेगा?’’

इस का हल भी मनाली ने सोच लिया था. वह चाचा को आते देख कर किसी न किसी काम में जुट जाती. यह देख कर चाचा चाची पर खूब नाराज होते. उस के कम अंक आने का जिम्मेदार चाचा ने चाची और बड़ी बेटी निमिशा को मान लिया था. खैर, जैसेतैसे चाचा ने मनाली का ऐडमिशन अच्छे कालेज में करा दिया था. कालेज में भी मनाली ने सब को चाची और निमिशा के अत्याचारों के बारे में बता कर सहानुभूति अर्जित कर ली थी. चाचा की छोटी बेटी अनीशा की मनाली के साथ अच्छी बनती थी. अनीशा थोड़ी बेवकूफ थी और अकसर मनाली की बातों में आ जाती थी. दोनों बाहर जातीं और देर होने पर मनाली अनीशा को आगे कर देती. बेचारी को चाचाचाची से डांट खानी पड़ती. चाची मनाली की चालाकियां खूब समझती थीं पर अनीशा मनाली का साथ छोड़ने को तैयार न थी. उस का लैपटौप, फोन, मेकअप का सामान मनाली खूब इस्तेमाल करती थी.

एक दिन अनीशा ने उसे बताया कि वह एक लड़के को पसंद करती है. पापा के दोस्त का बेटा है. उस की पार्टी में ही मुलाकात हुई थी. अनीशा ने मनाली को मयंक से मिलवाया. मयंक बहुत हैंडसम था और अमीर बाप की इकलौती संतान. मनाली ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह कैसे भी मयंक को हासिल कर के रहेगी. ‘‘देखो मयंक, मैं कहना तो नहीं चाहती पर अनीशा को साइकोसिस की बीमारी है.’’ मनाली ने भोली सी सूरत बना कर कहा.

‘‘क्या?’’ मयंक तो हैरान रह गया था.

‘‘प्लीज, तुम यह बात अनीशा और उस की फैमिली से मत कहना. तुम्हें तो पता ही है न उस घर में मेरी क्या हैसियत है.’’

मयंक मनाली की बातों में आ गया. और उस ने अनीशा के प्रति अपना नजरिया बदल लिया. उधर अनीशा को मयंक का व्यवहार कुछ अलग लगने लगा. उस के फोन उठाने भी उस ने बंद कर दिए. अनीशा ने मनाली को इस बारे में बताया तो उस ने आंखें मटकाते हुए समझाया, ‘‘मयंक को मैं ने एक नामी मौडल के साथ देखा है. वह उस की गर्लफ्रैंड है. तुम उसे भूल जाओ.’’ मनाली को तसल्ली हो गई कि अनीशा के भी अंक इस बार कम ही आएंगे. अच्छा हो, दोनों ही डांट खाएं. एक दिन चाचा के बेटे मनीष ने उसे कालेज टाइम में मयंक के साथ घूमते देख लिया. घर आ कर चाचाचाची के सामने मनाली की पोल खुली. ‘‘मैं तो मयंक की खबर लेने गई थी कि उस ने अनीशा का दिल दुखाया,’’ सुबकते हुए मनाली ने कारण बताया. बात बनाना उसे खूब आता था. घर वालों को अनीशा की उदासी का कारण भी पता चला. अनीशा मनाली से नाराज होने के बजाय उस से लिपट गई, ‘‘इस घर में एक तुम ही हो, जिसे मेरी फिक्र है.’’ खैर, कड़ी मेहनत के बाद मनाली ने वजन घटा ही लिया. फोटोशूट भी हो गया और चोरीछिपे एक दो असाइनमैंट भी मिल गए.

एक दिन मयंक से उस ने साफसाफ पूछा, ‘‘मयंक, मैं चाचाचाची के पास रहते हुए तंग आ चुकी हूं. मुंबई में मेरी मौसी रहती हैं. क्या, तुम कुछ समय के लिए मेरी मदद कर सकते हो?’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारे रहने का बंदोबस्त कर देता हूं. तुम बस मुझे बताओ कि तुम्हें कितनी रकम चाहिए,’’ मयंक सोच रहा था कि मनाली मुंबई जा कर मौसी के पास रह कर अपनी पढ़ाई करना चाहती है. उस ने ढेर सारी रकम और एटीएम कार्ड मनाली को दिया और निश्चित तारीख का टिकट भी पकड़ा दिया. चाचाचाची से कालेज ट्रिप का बहाना बना कर मुंबई जाने का रास्ता मनाली ने खोज लिया था. ‘वापसी शायद अब कभी न हो,’ सोच कर मंदमंद मुसकराती मौडर्न सिंड्रेला मुंबई की उड़ान भर चुकी थी. उसे खुद पर और उस से भी ज्यादा लोगों की बेवकूफी पर भरोसा था कि वह जो चाहेगी वह पा ही लेगी.

खुली हवा: मां के लिए प्रेम का प्यार

‘आंखें बंद करो न मां…’’ इतना कह कर प्रेम ने अपने हाथों से अपनी मां की आंखों को ढक लिया.‘‘अरे, क्या कर रहा है? इस उम्र में भी शरारतें सूझती रहती हैं तुझे मेरे साथ,’’ मां ने नाटकीय गुस्से में उसे फटकारा.‘‘कुछ नहीं कर रहा. बस, गेट तक चलो,’’ प्रेम ने कहा.वे दोनों दरवाजे तक पहुंचे, तो प्रेम ने हलके से मां की आंखों को अपने हाथों के ढक्कन से आजाद कर दिया.

मां ने आंखें खोलीं, तो सामने स्कूटी खड़ी थी, एकदम नई और चमचमाती.‘‘अच्छा, तो यह तमाशा था… कब लाया? बताया भी नहीं? वैसे, इस की जरूरत क्या थी? घर में 2 बाइक हैं तो सही. नौकरी क्या मिली, हो गई जनाब की फुजूलखर्ची शुरू,’’ मां हमेशा की तरह सब एक सांस में बोल गईं.‘

‘अरे, ठहरो मेरी डियर ऐक्सप्रैस. यह मैं अपने लिए नहीं लाया,’’ प्रेम बोला.‘‘तो किस के लिए लाया है?’’ मां ने गहरी भेदी नजर से सवाल किया.‘‘आप के लिए…’’ बोलते हुए प्रेम ने मां का चेहरा अपने हाथों में थाम लिया.‘‘मेरे लिए…? मुझे क्या जरूरत थी?’’ मां ने हैरान हो कर पूछा.‘‘जरूरत क्यों नहीं… पापा काम में बिजी रहते हैं और अब मुझे भी नौकरी मिल गई है. घर में ऐसे कितने काम होते हैं, जिन्हें पूरा होने के लिए तुम्हें हमारा रविवार तक इंतजार करना पड़ता है.

अब तुम हम पर डिपैंड नहीं रहोगी,’’ प्रेम ने कहा.‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या प्रेम? यह शहर नहीं, बल्कि गांव है बेटा. लोग हंसेंगे मुझ पर. कहेंगे बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम… ‘‘और फिर मैं कौन सा नौकरी करती हूं, जो यह स्कूटी लिए घूमूं,’’ मां ने अपनी चिंता जाहिर की.‘‘मां, आप को लोगों से क्या लेनादेना. भागदौड़ कर के जो आप इतना थक जाती हो, लोग आते हैं क्या देखभाल करने? ‘‘मेरी प्यारी मां, यही तो उम्र है इन सुविधाओं का हाथ पकड़ने की. जवानी में तो इनसान दौड़दौड़ कर भी काम कर लेता है, लेकिन अब कर सकती हो क्या?’’‘‘लेकिन बेटा, इस उम्र में…’’ मां ने चिंता जाहिर की.मां की बात पूरी होने से पहले ही प्रेम ने अपनी उंगली मां के होंठों पर रख दी और कहा, ‘‘चुप. कोई उम्रवुम्र नहीं. 50 की ही तो हो और बोल ऐसे रही हो जैसे 100 साल की हो,’’ कह कर प्रेम हंस दिया.‘‘तू समझ नहीं रहा.

गांव में लोग हंसेंगे कि इसे इस उम्र में क्या सूझी.’’‘‘कोई कुछ भी समझे, तुम बस वह समझो जो मैं कह रहा हूं,’’ कह कर प्रेम अपनी मां का हाथ पकड़ कर स्कूटी तक ले गया और बोला, ‘‘बैठो…’’मां हिचकिचाईं, तो प्रेम ने प्यार से उन्हें स्कूटी पर जबरदस्ती बैठा दिया और खुद पीछे बैठ गया.‘‘देखो, ऐसे करते हैं स्टार्ट… ध्यान से सीखना,’’ प्रेम बोला.मां भीतर से खुश भी थीं और बेचैन भी.

बेचैनी समाज की बनी रूढि़यों से थी और खुशी जिस बेटे को जन्म से ले कर आज तक सिखाया, वह आज उस का शिक्षक था.स्कूटी स्टार्ट कर के प्रेम अपनी मां को समझाता जा रहा था और मां बड़े ध्यान से सब समझ रही थीं. लोगों की नजरें खुद पर पड़ती देख कर वे हिचकिचा जातीं, लेकिन बेटे का जोश उन्हें और उमंग से भर देता.उल्लास की लहर पर सवार मां खुद को खुली हवा में आजाद महसूस कर रही थीं.

उन्हें याद आया कि बचपन में वे चिडि़या बन कर उड़ जाना चाहती थीं. आज लगा जैसे वह ख्वाब पूरा हो गया है. वे उड़ ही तो रही थीं एक ताजा हवा में चिडि़या की तरह चहकते हुए.

वहम : जब बुधिया को भूत ने जकड़ा

बुधिया और बलुवा पक्के दोस्त थे. बुधिया भूतप्रेत पर यकीन करता था, जबकि बलुवा उन्हें मन का वहम मानता था. एक बार उन की बछिया जंगल में खो गई, जिसे ढूंढ़ने में रात हो गई. इसी बीच बुधिया को किसी भूत ने पकड़ लिया. आगे क्या हुआ?

बुद्धि चंद्र जोशी… गांव के लोग अकसर उसे बुधिया कह कर बुलाते थे. वह ठेठ रूढि़वादी पहाड़ी पंडित परिवार से था. सवेरे स्कूल जाने से पहले आधा बालटी पानी से स्नान, एक घंटा पूजापाठ, फिर आधी फुट लंबी चुटिया में सहेज कर गांठ लगाना, रोली और चंदन से ललाट को सजाना  उस के रोजमर्रा के काम थे.

बेशक कपड़े मैले पहन ले, पर बुधिया ने नहाना कभी नहीं छोड़ा, फिर चाहे गरमी हो या सर्दी. उसे पढ़ाई में मेहनत से ज्यादा भाग्य और जीवन में लौकिक से परलौकिक संसार पर ज्यादा भरोसा था. वह हमेशा भूतप्रेत, आत्मापरमात्मा और तंत्रमंत्र की ही बातें किया करता था और ऐसी ही कथाकहानियों को पढ़ा भी करता था.

बलुवा यानी बाली राम आर्या बुधिया का जिगरी दोस्त था, लेकिन आचारविचार में एकदम उलट. न पूजापाठ, न रोलीचंदन और न ही वह चुटिया रखता था. हर बात पर सवाल करना उस के स्वभाव में शुमार था. जब तक तर्क से संतुष्ट नहीं हो जाता था, तब तक वह किसी बात को नहीं मानता था.

वे दोनों गांव के पास के स्कूल में 11वीं क्लास में पढ़ते थे. बुधिया ने आर्ट्स, तो बलुवा ने साइंस ली थी. वे दोनों साथसाथ स्कूल जाते थे.

उन दोनों में अकसर भूतप्रेत के बारे में बहस होती रहती थी. बलुवा कहता था कि भूतप्रेत नाम की कोई चीज नहीं होती, बस सिर्फ मन का वहम है, पर बुधिया मानने को तैयार नहीं था और कहता, ‘‘तू बड़ा नास्तिक बनता है. जब भूतप्रेत का साया तुझ पर पड़ेगा, तब तेरी अक्ल ठिकाने आएगी.’’

इस पर बलुवा कहता, ‘‘भूतप्रेत की कहानियां पढ़पढ़ कर तू हमेशा उन की ही कल्पना करता है, जिस से तेरे अंदर उन का डर बैठ गया है.’’

तब बुधिया शेखी बघारता, ‘‘एक न एक दिन तुझे भी भूत के दर्शन करा दूंगा, तब तू सच मानेगा,’’ फिर वह गांव के कई लोगों के नाम गिनाता जैसे रमूली, सरला, किशन, महेश जिन्हें भूत लग गया था और जो बाद में तांत्रिक के भूत भागने से ठीक हुए थे.

पहाड़ों में दिसंबर में छमाही के इम्तिहान के बाद स्कूल में छुट्टियां पड़ जाती हैं. छुट्टियों में उन दोनों का काम होता था जंगल में गाय चराना.

वे दोनों अपनीअपनी गाय ले कर दूर जंगल में निकल जाते. दिनभर खेलतेकूदते रहते और शाम को गाय ले कर घर वापस आ जाते. जंगल में बाघतेंदुए का आतंक भी बना रहता था, इसलिए घर आते समय जानवरों की गिनती की जाती थी कि पूरे हैं या नहीं.

एक दिन जब बुधिया जानवरों की गिनती कर रहा था तो एक बछिया नहीं दिखी. चूंकि एक बछिया कम थी, घर कैसे जाया जाए. घर पर डांट जो पड़ेगी.

जाड़ों में दिन छोटे होते हैं, तो अंधेरा जल्दी पसरने लगता है. दोनों ने फैसला लिया कि जल्दी से जल्दी बछिया को ढूंढ़ा जाए, नहीं तो रात हो जाएगी. दोनों बछिया को ढूंढ़ने अलगअलग दिशाओं में निकाल गए, ताकि काम जल्दी हो जाए.

एक पहाड़ी के इस तरफ तो दूसरा पहाड़ी के दूसरी तरफ चला गया.

तय हुआ कि जिसे भी बछिया पहले

मिल जाएगी, वह दूसरे को आवाज दे कर बताएगा.

बछिया ढूंढ़तेढूंढ़ते वे दोनों काफी

दूर निकाल गए. रात भी धीरेधीरे

गहराने लगी. अचानक जोरजोर से चीखने की आवाज आने लगी, ‘‘भूत… भूत… बचाओ बचाओ… इस ने मुझे पकड़ लिया.’’

बलुवा रुक कर आवाज पहचानने की कोशिश करने लगा. यह बुधिया के चीखने की आवाज थी. बलुवा ने सोचा कि बुधिया डरपोक है. ऐसे ही रात में कोई जंगली जानवर की आहट को भूत समझ कर चिल्ला रहा होगा.

बलुआ ने जोर से चिल्ला कर कहा, ‘‘बुधिया, डर मत. तू किसी जंगली जानवर को भूत समझ कर डर गया होगा. भूतप्रेत कुछ नहीं होते. सब तेरे मन का वहम है.’’

बुधिया फिर गला फाड़फाड़ कर चिल्लाने लगा, ‘‘नहीं, यह सचमुच का भूत है. इस के बड़ेबड़े दांत, सींग और नाखून हैं. इस के पैर भी उलटे हैं. यह मुझे खा जाएगा. जल्दी आ कर मुझे बचा ले.’’

बलुवा भी अब थोड़ा सहम सा गया और सोचने लगा, ‘बुधिया इतने विश्वास से कह रहा है कि उसे भूत ने पकड़ लिया है, तो जरूर कोई बात होगी.’

रात की बात थी. बलुवा ने घने अंधेरे जंगल में अकेले जाना ठीक नहीं समझा. लिहाजा, वह वापस गांव की ओर आ गया. जंगल से सटे घरों से 4 लोगों को इकट्ठा कर के उस ओर को चला, जहां से बुधिया की आवाज आ रही थी. सब के हाथों में मशालें थीं.

बुधिया का चीखतेचीखते गला भी बैठ चुका था. अब चीखने की आवाज भी रुंधी हुई दबीदबी सी आ रही थी.

उन पांचों में सब से सयाना पंडित धनीराम था, पर सब से ज्यादा वही डरा हुआ था. उस ने बताया कि इस जंगल में लकड़ी के तस्करों ने एक फौरैस्ट गार्ड की हत्या कर दी थी. जरूर उस भूत ने ही बुधिया को पकड़ा होगा.

यह सुन कर बलुवा ने कहा, ‘‘क्या बात कर रहे हो पंडितजी. अगर वह भूत बन गया तो बाघ ने तो यहां सैकड़ों जानवर मारे होंगे. तब सब को भूत

बन जाना चाहिए. क्यों हम सब को डरा रहे हो…’’

‘‘डरा नहीं रहा हूं बलुवा. चल, अब तू अपनी आंखों से देखेगा भूत की पकड़…’’ धनीराम ने डराने के लहजे

से कहा.

अब वे लोग करीबकरीब बुधिया के नजदीक पहुंच चुके थे. बुधिया का गला चिल्लातेचिल्लाते तकरीबन बैठ चुका था. वह रुंधे गले से धीरेधीरे चीख रहा था, ‘‘बचाओ… बचाओ…भूत से मुझे छुड़ाओ… नहीं तो वह मुझे खा जाएगा.’’

बलुवा दिलासा देते हुए बोला, ‘‘डर  मत बुधिया. मैं गांव से लोगों को ले कर आया हूं. तुझे कुछ नहीं होगा.’’

पहाड़ों में मौसम का कुछ भरोसा नहीं होता. कुछ ही मिनटों में वहां बादल घिर आते हैं और बारिश होने लगती है. ऐसा ही आज भी हुआ. जैसे ही वे लोग बुधिया के पास पहुंचे, तेज बारिश होने लगी. सब की मशालें बुझ गईं.

तेज बारिश और चारों ओर घना अंधेरा. किसी को कुछ नजर नहीं आ रहा था. बस, बुधिया की रुकीरुकी चीखने की आवाज सुनाई पड़ रही थी.

बलुवा आवाज की दिशा में धीरेधीरे आगे बढ़ने लगा और बुधिया से बोला, ‘‘ला, अपना हाथ मुझे दे…’’ बलुवा ने  बुधिया का हाथ पकड़ कर जोर से खींचा, पर बुधिया निकल नहीं पा रहा था. अब तो बलुवा को भी शक होने लगा था कि कहीं बुधिया को सचमुच तो भूत ने नहीं पकड़ लिया है.

बलुवा ने कुछ घबराई हुई आवाज में साथ आए राम सिंह से कहा, ‘‘देखो तो भाई, आप की जेब में माचिस पड़ी होगी. उस से थोड़ा चीड़ के नुकीले पत्ते जला कर उजाला करो. देखें, आखिर बुधिया को किस ने पकड़ा है…’’

अब तक बारिश भी थम चुकी थी. राम सिंह ने आसपास से कुछ पत्ते इकट्ठा कर के जलाए. उजाले में जोकुछ देखा उस से सब की हंसी छूट गई.

बुधिया घबराते हुए बोला, ‘‘इधर मेरी जान जा रही है और तुम लोग हंस रहे हो.’’

जवाब में राम सिंह ने हंसते हुए कहा, ‘‘बुधिया, पीछे मुड़ कर तो देख तुझे भी अपनी बेवकूफी पर हंसी आ जाएगी.’’

बुधिया ने पीछे मुड़ कर देखा तो उस के पाजामा के दाहिने पैर की मोहरी एक खूंटे में फंस हुई थी. वह ज्योंज्यों ज्यादा जोर लगाता, घबराहट में और भी फंसता जाता. वह बहुत डर गया था. उस के डर ने कहानियों और टैलीविजन पर देखे भूत की शक्ल ले ली थी.

बड़ेबड़े दांत, लंबेलंबे नाखून, सींग और उलटे पैर. जंगली जानवरों की अजीबोगरीब आवाजें उस के डर को और भी बढ़ा रही थीं. डर के मारे उस की सोचने की ताकत जीरो हो गई थी. वह एक मामूली खूंटे से भी अपनेआप को नहीं छुड़ा पा रहा था.

बलुवा ने फिर बुधिया को समझाते हुए कहा, ‘‘देख, मैं कहता था न कि भूतप्रेत कुछ नहीं होते. हमारे मन का डर ही भूत को जन्म देता है.’’

पर बुधिया कहां मानने वाला था.

वह फिर भी कह रहा था, ‘‘नहीं यार, कुछ तो था. शायद उजाला देख कर भाग गया होगा.’’

बलुवा बुधिया को उस के घर तक छोड़ आया. घर वाले बछिया नहीं, बल्कि बुधिया कि चिंता कर रहे थे कि वह अब तक घर क्यों नहीं पहुंचा.

घर पहुंच कर बुधिया ने सारी बातें बताईं. बछिया तो अपनेआप बहुत पहले ही घर पहुंच चुकी थी.

जड़ों की छुट्टियां अब खत्म हो चुकी थीं. आज तकरीबन 4 महीने के बाद फिर से वे दोनों गपें मारते हुए

स्कूल जा रहे थे. रास्ते में एक सुनसान पहाड़ी नाले के पास ‘छपछप’ की आवाज सुनाई दी.

बुधिया ने डर के मारे बलुवा का हाथ कस के पकड़ लिया और कांपती आवाज में बोला, ‘‘देख, वह ‘छपछप’ की आवाज करते हुए भूत आ रहा है.’’

बलुवा जोर का ठहाका लगा कर हंसते हुए बोला, ‘‘हां, उस दिन वाले जंगल के भूत का अब इधर ट्रांसफर हो गया है. वह तुझ से मिलने आया है.’’

तभी झाड़ी से एक जंगली मुरगी फड़फड़ाते हुए भागी. बलुवा हंसते हुए बोला, ‘‘देख, तेरा भूत वह जा रहा है. जा, जा कर पकड़ ले.’’

आम रास्ता नहीं : क्या था उस रास्ते का राज

सुरेश शहर की धान मंडी में गेहूं की बोरियां बेच कर लौट रहा था. अभी उसे कई चौराहे व छोटीबड़ी सड़कें पार कर के अपने गांव पहुंचना था.

वह मंडी रोड से सीधा दिल्ली रोड पर आ गया था. यहां से परली तरफ उस के गांव को जाने वाली सड़क थी. इन दोनों के बीच की जगह में एक शानदार सरकारी इमारत थी. इस इमारत के चारों ओर घास से लदा हराभरा मैदान और चारदीवारी थी.

चारदीवारी के छोर पर बड़ा सा लोहे का गेट था, जहां एक चौकीदार खड़ा था. इस गेट से अंदर हो कर दूसरे गेट से बाहर गांव की ओर जाने वाली सड़क पर निकला जा सकता था.

यह आम रास्ता नहीं था, लेकिन छोटा जरूर था. लिहाजा, सुरेश ने डेढ़ मील पैदल न चल कर इमारत से हो कर जाने वाले रास्ते से ही गुजरना ठीक समझा.

सुरेश गेट के पास जा कर थोड़ी देर तक खड़ा देखता रहा. 2 औरतें और 4 आदमी एकएक कर के निकल गए थे. उन में से 3 ने तो चौकीदार के हाथ में कुछ दिया था और 3 को चौकीदार ने सलाम ठोंका था.

सुरेश भी मौका देख कर अंदर घुसने लगा तो चौकीदार की रोबदार और कड़क आवाज गूंजी, ‘‘ऐ रुको.’’

वह ठिठक कर वहीं खड़ा हो गया.

चौकीदार अपने बेंत को जोर से खटखटाता हुआ उस के नजदीक आ कर बोला, ‘‘क्या बात है, बिना इजाजत लिए अंदर कैसे जा रहे हो?’’

‘‘इधर से उधर जाना था,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘इस बिल्डिंग से हो कर? क्या तुम ने बोर्ड नहीं पढ़ा कि बिना इजाजत अंदर जाना मना है,’’ चौकीदार बोला.

‘‘हां, जा तो रहा था, पर बोर्ड नहीं पढ़ा,’’ सुरेश ने जवाब दिया.

‘‘अंदर किस से मिलना है?’’ चौकीदार ने पूछा.

‘‘किसी से भी नहीं,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘किसी से भी नहीं मिलना तो क्या इसे आम रास्ता समझ रखा है?’’ चौकीदार ने कड़क लहजे में पूछा.

‘‘हां,’’ सुरेश बोला.

‘‘क्या उस पार आगरा रोड पर जाना है?’’ चौकीदार ने पूछा.

‘‘हां जी, आप ने बिलकुल ठीक समझा.’’

‘‘पर, कानूनन तुम इधर से नहीं जा सकते, क्योंकि यहां घुसना भी जुर्म?है,’’ चौकीदार ने बताया.

‘‘लेकिन, गैरकानूनन तो जा सकता हूं न?’’ सुरेश ने पूछा.

‘‘ऐ, मेरे सामने गैरकानूनी बात करता है. पता है कि मैं कौन हूं? ऐसी बातें मुझे कतई पसंद नहीं हैं,’’ चौकीदार कानून झाड़ने लगा.

‘‘क्या इस देश में सबकुछ कानून के मुताबिक चलता है? क्या यहां गैरकानूनी कुछ नहीं होता?’’ सुरेश ने पूछा.

‘‘फालतू बकवास कर के क्यों अपना समय बरबाद कर रहे हो?’’ चौकीदार ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘मैं इस बात को बखूबी जानता हूं, पर आप मुझे अभी उस तरफ जाने दीजिए, वरना मेरी आखिरी बस निकल जाएगी,’’ सुरेश ने खुशामद की.

‘‘कहा न, यह आम रास्ता नहीं है.’’

‘‘तो क्या यह खास रास्ता है, खास लोगों के लिए?’’

‘‘हां, तू ऐसा ही समझ ले.’’

‘‘तो फिर आप मुझे भी कुछ देर के लिए खास आदमी मान लीजिए. इस में आप का क्या जाता है?’’

‘‘कैसे मान लूं…’’ चौकीदार कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘तुम्हारा इस शहर में कोई कोठीबंगला है या फिर तुम किसी ऊंचे घराने से वास्ता रखते हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तुम किसी पार्टी के सदस्य हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘किसी क्लब के मैंबर हो, प्रैस क्लब, जिमखाना क्लब, किसी के भी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘किसी भ्रष्टाचार के मामले में तुम्हारा नाम कभी उछला है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘किसी एमपी, एमएलए, सीएम, कैबिनेट मिनिस्टर से कोई पहुंच रखते हो?’’

‘‘मुझे तो इस शहर में कोई नहीं जानता, सिवा धान मंडी के मुनीमों के,’’ सुरेश ने बताया.

‘‘क्या तुम्हें बौडीगार्ड मिले हुए हैं?’’

‘‘मिले होते तो क्या अकेला यहां मक्खी मारने के लिए खड़ा होता?’’

‘‘माफिया से सांठगांठ है?’’

‘‘जी, वह भी नहीं है.’’

‘‘किसी का खून किया है या फिर कभी जेल गए हो?’’

‘‘क्या मैं आप को शक्ल से खूनी लगता हूं?’’

‘‘शक्ल से तो तुम मासूम लगते हो, लेकिन खूनी के चेहरे पर नहीं लिखा होता कि उस ने खून किया है.’’

‘‘आप सही कह रहे हैं, लेकिन मैं ने कोई खून नहीं किया.’’

‘‘क्या तुम्हारे पास काला पैसा है?’’

‘‘काला क्या, जो सफेद भी है वह भी थोड़ा सा है.’’

‘‘तो फिर तुम खास आदमी नहीं हो सकते. मैं तुम्हें खास आदमी मान कर खास आदमियों की इज्जत धूल में नहीं मिलाऊंगा,’’ चौकीदार ने कहा.

‘‘तो क्या खास आदमी ऐसे लोग होते हैं?’’

‘‘हां, बिलकुल ऐसे ही होते हैं.’’

तभी अचानक चौकीदार को खयाल आया कि वह एक बेहद मामूली आदमी के हर सवाल का जवाब दिए जा रहा?है, जैसे बहुत फुरसत में हो. वह खामोश हो गया.

‘‘आप कुछ खास लोगों के बारे में बता रहे थे न,’’ चौकीदार को अचानक चुप हुआ देख कर सुरेश ने कहा.

‘‘हां बता तो रहा था, लेकिन यह जरूरी नहीं कि मैं सारी बातें बताऊं.’’

‘‘अजी, आप तो नाराज हो गए. चलिए, बातें खत्म करते हैं. अब मुझे इधर से निकलने दीजिए.’’

‘‘बिलकुल नहीं. तुम इतनी जिद क्यों कर रहे हो?’’

‘‘मैं जल्दी घर नहीं पहुंचा तो बीवीबच्चे चिंता करेंगे. मुझे कई जरूरी काम भी निबटाने हैं.’’

‘‘इस मुल्क में जितने गैरजरूरी लोग हैं, उन्हें ही जरूरी काम होते हैं.’’

‘‘आप अब हद से आगे बढ़ रहे?हैं,’’ सुरेश गुस्से से बोला.

‘‘मेरी हद क्या है, यह तुम तय करोगे?’’ चौकीदार भी सख्त लहजे में बोला.

कुछ पलों तक सुरेश सख्त नजरों से उसे देखता रहा, फिर चौकीदार बोला, ‘‘तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैं इस समय ड्यूटी पर हूं. यहां की सिक्योरिटी का जिम्मा भी मेरा है. तुम्हें शायद पता नहीं, इस बिल्डिंग में बड़े लोगों की मीटिंग चल रही?है. उन की सिक्योरिटी की जिम्मेदारी भी मेरी ही है.’’

‘‘किस मुद्दे को ले कर मीटिंग चल रही है?’’ सुरेश ने पूछा.

‘‘मीटिंग के लिए किसी मुद्दे की जरूरत नहीं होती’’

‘‘बिना मुद्दों के मीटिंग?’’ सुरेश ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘इस राजधानी में एक करोड़ लोग रहते हैं. मुद्दे भी एक करोड़ ही समझो. यहां मुद्दों की क्या कमी है?’’

‘‘फिर भी, कुछ तो मुद्दा होगा.’’

‘‘हां, फिलहाल चायनाश्ते के साथ मीटिंग इस मुद्दे पर हो रही है कि अगले हफ्ते किस मुद्दे को ले कर मीटिंग की जाए.’’

इसी बीच सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया. उस ने गेट में घुसने की कोशिश की.

उसे घुसता देख कर चौकीदार कड़क लहजे में बोला, ‘‘ऐ रुको, यह आम रास्ता नहीं है.’’

उस आदमी ने जेब में से 10 रुपए का सिक्का निकाला. उसे अपने हथेली में फंसाते हुए चौकीदार के पास अपने हाथ को ले कर बोला, ‘‘कैसे हो दोस्त?’’

चौकीदार मुसकराया. उस ने अपना हाथ बढ़ा कर आदमी के हाथ से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘अच्छा हूं दोस्त, बहुत दिनों बाद मिले हो.’’

इस बीच 10 रुपए का वह सिक्का चौकीदार की हथेली में चला गया था. फिर लोहे का गेट पूरा खुला और खास रास्ता, खास आदमी के लिए खुल गया. इधर 10 रुपए का सिक्का चौकीदार की जेब में पहुंच गया था.

अब सुरेश की समझ में सारी बात आ गई थी. उस ने जेब में हाथ डाल कर 5 रुपए का सिक्का निकाला. सिक्का अपने हाथ में रख कर चौकीदार की ओर बढ़ाने लगा कि तभी चौकीदार बोला, ‘‘अब क्यों शर्मिंदा करते हो यार. अब तुम जाओ. देखो, मैं ने तुम्हारे लिए गेट खोल रखा है. यह आम रास्ता तो नहीं है, फिर भी अब तुम मेरे खास हो.’’

सुरेश ने चौकीदार की तरफ देखा. वह काफी शर्मिंदा सा लग रहा था. पर यही तो उस की ऊपरी कमाई थी, जो खास रास्ते से गुजरने वाले खास लोगों से उसे मिलती थी.

सुरेश उस का शुक्रिया अदा कर के अपने रास्ते की ओर निकल गया.

चालाक लड़की : राजेश की फूटी किस्मत

‘‘कौन सी गाड़ी का टिकट कट रहा है साहब?’’ एक सुरीली आवाज ने राजेश का ध्यान खींचा. बगल में एक खूबसूरत लड़की को देख कर वह जैसे सबकुछ भूल चुका.

‘‘मैं आप से ही पूछ रही हूं साहब… कौन सी गाड़ी आ रही है?’’

‘‘जी… जी, ‘महामाया ऐक्सप्रैस’, डोंगरपुर से नागिरी जाने वाली.’’

‘‘आप कौन सी क्लास का टिकटले रहे हो? मेरा मतलब, मेरे लिए भी एक टिकट कटा दोगे तो आप की बड़ी मेहरबानी होगी. कहां जा रहे हैं आप?’’

‘‘रौधा सिटी.’’

‘‘तब तो और भी अच्छी बात है. मुझे भी रौधा सिटी ही जाना है,’’ कह कर उस लड़की ने अपने बैग से नोटों की गड्डी निकाल कर 100-100 के 2 नोट राजेश के हाथ में थमा दिए.

‘‘माफ करना… मैं कब से टिकट लेने की कोशिश कर रही हूं, पर भीड़ इतनी ज्यादा है…’’ रुपए की गड्डी बैग में रखते हुए वह लड़की बोली.

‘‘कोई बात नहीं. आप आराम से सामने वाली बैंच पर बैठ जाइए.’’

जब ट्रेन आई तो राजेश अपने डब्बे में चादर बिछा कर एक सीट पर बैठ गया. वह जैसे उस लड़की के विचारों में खो गया. काश, वह लड़की उसी के पास आ कर बैठती…

‘‘अरे, आप…’’ थोड़ी ही देर बाद वह लड़की उसी डब्बे में आ कर राजेश से बोली.

‘‘आप को एतराज न हो, तो आप की बिछाई चादर पर…’’

‘‘जी बैठिए. जब हम और आप एक ही शहर जा रहे हैं, तो एतराज कैसा?’’ राजेश बोला.

वह लड़की राजेश की बिछाई चादर पर बैठ गई. थोड़ी देर बाद वह अपने हैंडबैग की चेन खोलने लगी. कभी इस पौकेट की चेन तो कभी दूसरे पौकेट की चेन खोलती और बंद करती. वह बारबार बैग टटोल रही थी. वह बहुत परेशान लग रही थी.

राजेश से रहा न गया, तो पूछ ही लिया, ‘‘क्या हो गया? लगता है कि कुछ…’’

‘‘मेरे रुपए का बंडल…’’ उस लड़की ने बैग टटोलते हुए कहा.

‘‘कितने रुपए थे?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘2,000 रुपए थे,’’ मामूली सी बात समझ कर लड़की ने लापरवाही से कहा.

‘‘लगता है, किसी ने हाथ साफ कर दिया. आप के साथ और कोई नहीं है क्या?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘छोड़ो, शहर तो पहुंच जाऊंगी. कोई नहीं है तो आप तो हो ही? मुझे घर तक छोड़ देना. घर पर आप को टैक्सी का किराया वापस कर दूंगी.’’

‘‘कोई बात नहीं.’’

तेज रफ्तार से ट्रेन चली जा रही थी. वह लड़की राजेश से सट कर बैठ गई. लड़की की छुअन पा कर राजेश को जैसे बिजली का झटका लगा. उस के बदन की खुशबू से वह मदहोश हो रहा था.

‘‘आप रौधा सिटी के कौन से महल्ले में रहती हैं?’’

‘‘पटेल चौक में… और आप?’’ जवाब देने के बाद लड़की ने पूछा, ‘‘किसी सरकारी नौकरी में?’’

‘‘जी, मैं स्वास्थ्य विभाग में ट्यूटर हूं.’’

इसी बीच ट्रेन रुकी. वह लड़की राजेश से टकराई.

राजेश को मानो फिर बिजली का करंट लगा. शायद कोई स्टेशन आया था. राजेश गाड़ी से उतर कर चायबिसकुट और फल ले कर अपनी सीट पर बैठ गया.

‘‘लीजिए, नाश्ता कीजिए. और यह रही आप की चाय की प्याली.’’

‘‘आप नाहक ही तकलीफ कर रहे हैं,’’ लड़की ने कहा.

‘‘किस बात की तकलीफ. मौके पर साथ देना तो हर इनसान का फर्ज है.’’

‘‘मैं यह सबकुछ कब अदा करूंगी? आप जैसे का साथ पा कर कौन खुश नहीं होगा…’’ वह लड़की बोली.

‘‘छोड़ो. आप यों ही मेरी तारीफ कर रही हैं,’’ राजेश ने कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं सच कह रही हूं, पर आप ने अभी तक अपना परिचय तो दिया ही नहीं?’’

‘‘मैं एमपीईबी में इंजीनियर हूं. मेरा नाम राजेश है.’’

‘‘पर, आप ने भी तो अभी तक अपना नाम नहीं बताया?’’ राजेश ने अपना परिचय देने के बाद पूछा.

‘‘आप ने नाम पूछा ही कब?

लो, अब बताए देती हूं. मुझे कुमुदिनी कहते हैं.’’

‘‘नाम के साथ कुदरत ने बनाया भी वैसा ही है. जहां खिलेंगी, वहां सारा माहौल महक जाएगा,’’ राजेश ने कहा.

‘‘आप कुछ ज्यादा ही तारीफ करते हो,’’ राजेश की आंखों में झांकते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘वैसे, मेरे खयाल में कुमुदिनी रात में ही तो ज्यादा महकती है,’’ राजेश ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘आप ने सही कहा. पर अभी खुशबू लेने वाला है ही कहां,’’ कुमुदिनी ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘वह बहुत खुशनसीब होगा, जो ऐसे खूबसूरत फूल को पाएगा.’’

‘‘सभी लोग फूलों की इज्जत थोड़े ही न करते हैं. कुछ लोग उन्हें मसल कर फेंक देते हैं.

‘‘हम जैसे बदनसीबों की किस्मत में कहां? काश…’’

‘‘किस्मत अपने हाथ से बनती है राजेश साहब. जो किस्मत को कोसता है, वह तो हार जाता है,’’ कुमुदिनी बोली.

थोड़ी ही देर बाद गाड़ी रुक गई.

‘‘अपना शहर आ गया. चलो उठो, मैं आप को आप के घर तक पहुंचा दूं,’’ राजेश बोला.

कुमुदिनी अपने पर्स को खोल कर कुछ टटोल रही थी.

‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘अरे यार, घर की चाबी लाना तो मैं भूल ही गई. मेरे मातापिता के पास ही चाबी का गुच्छा रह गया. उफ, जब मुसीबत आती है, तो हर तरफ से आती है,’’ खीजते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘आप के मातापिता कब लौट रहे हैं घर?’’

‘‘परसों शाम तक.’’

‘‘अगर आप को एतराज न हो, तो अपना घर आप के लिए खुला है कुमुदिनीजी.’’

‘‘एतराज तो कोई नहीं, पर आप का तो पहले ही इतना ज्यादा अहसान हो गया है मुझ पर कि…’’

‘‘आप तो मुझे शर्मिंदा कर रही हैं. परसों शाम को मैं आप को आप के घर छोड़ दूंगा.’’ कुमुदिनी ने कोई जवाब नहीं दिया.

राजेश ने कहा, ‘‘लगता है, आप फिर कुछ सोच रही हैं?’’

‘‘कहीं आप के मातापिता या आप की श्रीमतीजी?’’

‘‘मातापिता तो कब के चल बसे. श्रीमतीजी भी अपनी बहन की शादी में मायके गई हैं. उन्हें ही छोड़ कर लौटा हूं, और फिर यह सब रहेंगे भी तो आप को क्या…

‘‘नहींनहीं, मैं अपने लिए नहीं सोच रही, मैं तो आप के लिए ही परेशान हूं.’’

‘‘किसी का मुसीबत में साथ देना कोई गुनाह तो नहीं. चलो, मैं आप को कोई कष्ट नहीं दूंगा, बल्कि मुझे आप की सेवा करने का मौका मिल जाएगा.’’

‘‘ठीक है, पर परसों मेरे साथ घर तक छोड़ने चलना होगा?’’

‘‘वादा रहा.’’

ट्रेन से उतर कर राजेश और कुमुदिनी टैक्सी से घर आए. राजेश के दिल में तो लड्डू फूट रहे थे. वह अपनी कामयाबी पर बहुत खुश था. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इतनी ज्यादा खूबसूरत लड़की उस के सूने घर में चलने के लिए तैयार हो जाएगी.

राजेश का आलीशान बंगला देख कुमुदिनी हैरान रह गई. दरबान ने बंगले का गेट खोला और नमस्ते की. नौकर ने राजेश की अटैची टैक्सी से निकाल कर बंगले में रखी.

‘‘मैडम, यह है अपनी कुटिया. आप के आने से हमारी कुटिया भी पवित्र हो जाएगी,’’ राजेश ने कुमुदिनी से कहा.

‘‘बहुत ही खूबसूरत बंगला बनाया है. कितनी भाग्यशाली हैं इस बंगले की मालकिन?’’

‘‘छोड़ो, इधर बाथरूम है. आप फ्रैश जाओ. मैं आप के लिए कपड़े लाता हूं,’’ कह कर राजेश दूसरे कमरे में जा कर एक बड़ी सी कपड़ों की अटैची ले आया. अटैची खोली तो उस में कपड़े तो कम थे, सोनेचांदी के गहने व नोटों की गड्डियां भरी पड़ी थीं.

‘‘नहींनहीं, यह अटैची मैं भूल से ले आया. कपड़े वाली अटैची इसी तरह की है,’’ और राजेश तुरंत अटैची बंद कर उसे रख कर दूसरी अटैची ले आया.

‘‘यह लो अपनी पसंद के कपड़े… मेरा मतलब, साड़ीब्लाउज या सूट निकाल लो. इस में रखे सभी कपड़े नए हैं.’’

‘‘पसंद तो आप की रहेगी,’’ तिरछी नजरों से कुछ मुसकरा कर कुमुदिनी ने कहा.

‘‘यह नीली ड्रैस बहुत ज्यादा फबेगी आप पर. यह रही मेरी पसंद.’’

वह ड्रैस ले कर कुमुदिनी बाथरूम में चली गई. तब तक राजेश भी अपने बाथरूम में नहा कर ड्राइंगरूम में आ कर कुमुदिनी का इंतजार करने लगा.

कुमुदिनी जब तक वहां आई, तब तक नौकर चायनाश्ता टेबल पर रख कर चला गया.

दोनों ने नाश्ता किया. राजेश ने पूछा, ‘‘खाने में क्या चलेगा?’’

‘‘आप तो मेहमानों की पसंद का खाना खिलाना चाहते हो. मैं ने कहा न आप की पसंद.’’

‘‘मैं तो आलराउंडर हूं. फिर भी?’’

‘‘वह सबकुछ तो ठीक है, पर मैं आप के बारे में कुछ…’’

‘‘क्या? साफसाफ कहो.’’

‘‘आप के नौकरचाकर श्रीमतीजी को जरूरत बता सकते हैं. मेरे चलते आप के घर में पंगा खड़ा हो, मुझे गवारा नहीं.’’

‘‘आप चाहो तो मैं परसों तक नौकरों को छुट्टी पर भेज देता हूं, पर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘कौन सी शर्त?’’

‘‘खाना आप को बनाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मुझे मंजूर है, पर आप के घर में कोई पंगा न हो.’’

‘‘पहले यह तो बताओ खाने में…’’ राजेश ने पूछा.

‘‘आप जो खिलाओगे, मैं खा लूंगी,’’ आंखों में झांक कर कुमुदिनी ने कहा.

राजेश ने एक नौकर से चिकन और शराब मंगवाई और बाद में सभी नौकरों को छुट्टी पर भेज दिया. तब तक रात के 9 बज चुके थे.

‘‘आप ने तो…’’ शराब से भरे जाम को देखते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘जब मेरी पसंद की बात है तो साथ तो देना ही पड़ेगा,’’ राजेश ने जाम आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘मैं ने आज तक इसे छुआ भी नहीं है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं चलेगी. मैं अगर अपने हाथ से पिला दूं तो…?’’ और राजेश ने जबरदस्ती कुमुदिनी के होंठों से जाम लगा दिया.

‘‘काश, आप के जैसा जीवनसाथी मुझे मिला होता तो मैं कितनी खुदकिस्मत होती,’’ आंखों में आंखें डाल कर कुमुदिनी ने कहा.

‘‘यही तो मैं सोच रहा हूं. काश, आप की तरह घर मालकिन रहती तो सारा घर महक जाता.’’

‘‘अब मेरी बारी है. यह लो, मैं अपने हाथों से आप को पिलाऊंगी,’’ कह कर कुमुदिनी ने दूसरा रखा हुआ जाम राजेश के होंठों से लगा दिया.

शराब पीने के बाद राजेश से रहा न गया और उस ने कुमुदिनी के गुलाबी होंठों को चूम लिया.

‘‘आप तो मेहमान की बहुत ज्यादा खातिरदारी करते हो,’’ मुसकराते हुए कुमुदिनी ने कहा.

‘‘बहुत ही मधुर फूल है कुमुदिनी का. जी चाहता है, भौंरा बन कर सारा रस पी लूं,’’ राजेश ने कुमुदिनी को अपने आगोश में लेते हुए कहा.

‘‘आप ने ही तो यह कहा था कि कुमुदिनी रात में सारे माहौल को महका देती है.’’

‘‘मैं ने सच ही तो कहा था. लो, एक जाम और पीएंगे,’’ गिलास देते हुए राजेश ने कहा.

‘‘कहीं जाम होंठ से टकराते हुए टूट न जाए राजेश साहब.’’

‘‘कैसी बात करती हो कुमुदिनी. यह बंदा कुमुदिनी की मधुर खुशबू में मदहोश हो गया है. यह सब तुम्हारा है कुमुदिनी,’’ जाम टकराते हुए राजेश ने कहा और एक ही सांस में शराब पी गया.

कुमुदिनी ने अपना गिलास राजेश के होंठों से लगाते हुए कहा, ‘‘इस शराब को अपने होंठों से छू कर और भी ज्यादा नशीली बना दो राजेश बाबू, ताकि यह रात आप के ही नशे में मदहोश हो कर बीते.’’

नशे में धुत्त राजेश ने कुमुदिनी को बांहों में भर कर प्यार किया. कुमुदिनी भी अपना सबकुछ उस पर लुटा चुकी थी. राजेश पलंग पर सो गया.

थोड़ी देर में कुमुदिनी उठी और अपने पर्स से एक छोटी सी शीशी निकाल राजेश को सुंघाई. शीशी में क्लोरोफौर्म था. इस के बाद कुमुदिनी ने किसी को फोन किया.

राजेश जब सुबह उठा, उस समय 8 बजे थे. राजेश के बिस्तर पर कुमुदिनी की साड़ी पड़ी थी. साड़ी को देख उसे रात की सारी बातें याद हो आईं. उस ने जोर से पुकारा, ‘‘ऐ कुमुदिनी.’’

बाथरूम से नल के तेजी से चलने की आवाज आ रही थी. राजेश ने दोबारा आवाज लगाई, ‘‘कुमुदिनी, हो गया नहाना. बाहर निकलो.’’

पर, कुमुदिनी की कोई आवाज नहीं आई. तब राजेश ने बाथरूम का दरवाजा धकेला, तो उसे कुमुदिनी नहीं दिखी.

वह घर के अंदर गया. सारा सामान इधरउधर पड़ा था. रुपएपैसे व जेवर वाला सूटकेस, घर की कीमती चीजें गायब थीं. राजेश को समझाते देर नहीं लगी. उस के मुंह से निकला, ‘‘चालाक लड़की…’’

News Kahani: हनी ट्रैप का चक्रव्यूह

दिलशाद गार्डन के एक गंदे से फ्लैट में रहने वाली 26 साल की सीमा अच्छी देह की मालकिन थी. वह दिल्ली में बड़े सपने ले कर आई थी और हाल ही में उस ने कुछ ऐसा काम कर दिया था कि उस के वारेन्यारे होने में ज्यादा समय नहीं बचा था.

सीमा आज सुबह से ही बड़ी चहक रही थी. हरे रंग की चुस्त बनियान और हलके भूरे रंग की शौर्ट से उस की भरपूर जवानी बाहर आने को बेताब थी. उस ने अंगड़ाई लेते हुए पहले एक कप ब्लैक कौफी बनाई और फिर सुबह का अखबार ले कर सोफे पर ‘धम्म’ से बैठ गई. यह सोफे पर उस की पसंदीदा जगह थी, जहां उस के हमेशा बैठे रहने से कुशन पर गड्ढा सा बन गया था.

सीमा ने कौफी की चुसकी लेते हुए अखबार पलटा, तो एक खबर पर उस की निगाहें जम गईं. जब खबर पढ़ी, तो सीमा की सांसें तेज हो गईं. अचानक से उसे पसीना आ गया. हाथपैर ठंडे पड़ गए. सारी खुशी पलभर में काफूर हो गई.

खबर दिल्ली की थी और सीमा का दिल दहलाने के लिए काफी थी. हुआ यों था :

पश्चिमी दिल्ली के राजौरी गार्डन में बने ‘बर्गर किंग’ के आउटलेट में मंगलवार, 18 जून, 2024 की रात हुए एक शूटआउट में ?ाज्जर, हरियाणा के अमन जून की हत्या कर दी गई थी. पुलिस वालों का कहना है कि अमन की हत्या गैंगवार में हुई है.

पुलिस सूत्रों के मुताबिक, अमन जून की अशोक प्रधान गैंग से नजदीकियां थीं. इस मामले में विदेश में बैठे गैंगस्टर हिमांशु भाऊ ने सोशल मीडिया पर राजौरी गार्डन शूटआउट की जिम्मेदारी ली है. भाऊ ने इंस्टाग्राम की एक पोस्ट में दावा किया है कि नवीन बाली (तिहाड़ में बंद) के साथ वह खुद राजौरी गार्डन की हत्या की जिम्मेदारी लेता है.

भाऊ का आरोप है कि अमन जून ने उस के करीबी शक्तिदादा की हत्या के दौरान मुखबिरी की थी. मंगलवार को राजौरी गार्डन में इसी का बदला लिया गया है. भाऊ ने धमकी दी है कि अब शक्ति दादा की हत्या में शामिल दूसरे लोगों का भी नंबर आने वाला है.

सूत्रों का यह भी कहना है कि गैंगस्टर नीरज बवानिया, नवीन बाली और हिमांशु भाऊ एकसाथ मिल कर लौरैंस गैंग के खिलाफ खुद को दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में मजबूत करने में जुटे हैं. वहीं, गैंगस्टर अशोक प्रधान लौरैंस के साथ काम करता है. अशोक प्रधान से अमन जून की नजदीकी थी.

ऐसे में पुलिस को शक है कि नवीन बाली और हिमांशु भाऊ गैंग ने नीरज बवानिया के इशारे पर मंगलवार रात अमन जून की हत्या कर दी. इस की वजह यह है कि अक्तूबर, 2020 में नीरज बवानिया के मौसरे भाई शक्ति दादा की हरियाणा के ?ाज्जर जिले के छाछी गांव में हत्या कर दी गई थी. नीरज बवानिया को शक था कि अमन ने इस में मुखबिरी की थी.

सीमा के होश गुम कर देने वाली खबर तो आगे थी. वजह, सीमा अब तक जिस काम को पैसे कमाने का जरीया समझ रही थी, वह तो एक ऐसा चक्रव्यूह था, जिसे भेदना उस के बस की बात नहीं थी.

खबर में आगे लिखा था कि पुलिस ने मौका ए वारदात से सीसीटीवी कैमरों के फुटेज खंगाले हैं. इस में 2 शूटर और एक लड़की नजर आ रहे हैं. पुलिस सूत्रों का कहना है कि अमन को हनी ट्रैप कर वहां बुलाया गया था. वह लड़की मैट्रो से वारदात वाली जगह पर पहुंची थी.

वारदात के बाद पुलिस को अमन जून के पास से एक डीटीसी बस का टिकट, गमछा और एक मोबाइल चार्जर मिला था, पर मोबाइल और पर्स नहीं मिला था. पुलिस को शक है कि अमन जून के साथ रही वह लड़की पर्स और मोबाइल ले कर फरार हुई है.

गैंगस्टर हिमांशु भाऊ विदेश में बैठा है. उस के खिलाफ इंटरपोल ने रैड कौर्नर नोटिस भी जारी किया हुआ है. एक महीने पहले पश्चिमी दिल्ली इलाके में ही भाऊ ने फ्यूजन कार पर अपने शूटरों के जरीए रंगदारी के लिए गोलियां चलवाई थीं. बाद में स्पैशल सैल ने एक शूटर को मुठभेड़ के दौरान मार गिराया था. दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने हिमांशु भाऊ गैंग पर मकोका के तहत केस भी दर्ज किया है.

पुलिस के मुताबिक, शूटरों ने अमन जून पर तकरीबन 40 गोलियां चलाईं. मौके से पुलिस को 30 कारतूस के खोल बरामद हुए. गैंगस्टर हिमांशु भाऊ ने सोशल मीडिया पर पोस्ट में कहा भी था कि 14 के बदले 40 गोलियां दी हैं.

बताया जा रहा है कि 24 साल की उस लड़की का नाम अनु है, जिसे डौन बनने की चाहत गैंगस्टर हिमांशु भाऊ के करीब ले आई. हिमांशु को अनु पर काफी भरोसा था, इसीलिए उस ने इस टास्क की जिम्मेदारी अनु को दी.

दिल्ली के राजौरी गार्डन के ‘बर्गर किंग’ में हुए हत्याकांड की परतें जैसेजैसे खुलती जा रही हैं, वैसेवैसे इस लेडी डौन और इस की हकीकत सामने आती जा रही है. बताया जा रहा है कि अनु ने अमन जून को अपने हुस्न के जाल में फंसा कर रैस्टोरैंट बुलाया और 40 गोलियां मरवा कर उसे मौत के घाट उतार दिया, फिर बड़े आराम से फरार हो गई.

इतनी खबर पढ़ कर सीमा के तो तोते उड़ गए. उसे आज सम?ा आया कि समीर ने उसे मनोज से क्यों मिलवाया था. अभी एक महीने पहले की तो बात है. सीमा की समीर से नईनई दोस्ती हुई थी. उस ने खुद को प्राइवेट जासूस बताया था और मनोज नाम के एक रईसजादे से मेलजोल बढ़ाने के एवज में एक लाख रुपए देने का वादा किया था. सीमा को 50,000 रुपए मिल भी चुके थे, क्योंकि वह मनोज से एक होटल में मीटिंग कर भी चुकी थी.

यह मीटिंग बड़ी रसभरी थी. दरअसल, मनोज को नईनई लड़कियों के साथ सोने का चसका था. वह समीर और सीमा के ?ांसे में आ गया था. वैसे, समीर ने सीमा को यह कह रखा था कि वह दूसरी मीटिंग में एक छिपे हुए कैमरे से अपने और मनोज की बिस्तरबाजी के फोटो और वीडियो बना कर उसे दे देगी, ताकि वह मनोज की बीवी को उस की असलियत बता कर तलाक दिलवा दे.

उस दिन सोमवार की रात थी, जब सीमा मनोज के साथ होटल में गई थी. कमरे में वे दोनों अकेले थे. मनोज ने शराब पीते हुए उस से कहा था, ‘‘तुम मु?ो पहली ही नजर में पसंद आ गई हो. आज रात को बड़ा मजा आएगा.’’

सीमा मनोज की सब बातें सुन रही थी और गौर से देख रही थी कि किस एंगल से और कहां पर कैमरा फिट किया जाए कि बैड पर होने वाली हर हरकत अच्छी तरह से रिकौर्ड हो जाए.

उस ने मनोज का पैग बनाते हुए पूछा था, ‘‘क्या आप मु?ा से दोबारा भी मिलेंगे?’’

इस पर मनोज ने सीमा को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा था, ‘‘यह तो आज की रात पता चल जाएगा कि हमें दोबारा मिलना है या नहीं.’’

इधर मनोज शराब पी रहा था, उधर सीमा लाल रंग की नाइटी में उस के सामने खड़ी थी. मनोज ने उसे देखा और एकदम उतावला हो गया. उस रात सीमा ने मनोज को भरपूर देह सुख दिया.

इसी बीच मनोज ने सीमा को यह भी बताया कि वह अमीर बाप का एकलौता बेटा है और गलत संगत में पड़ कर कुछ लोगों का दुश्मन बन चुका है. पर तब सीमा को लगा था कि मनोज अपनी शादी की बात छिपा कर उस से दोबारा मिलने का बहाना ढूंढ़ रहा है.

पर आज अखबार की खबर पढ़ कर सीमा को सम?ा आ गया कि समीर ने किसी और इरादे से उसे फंसा कर हनी ट्रैप की तरह इस्तेमाल किया है. वह यह सोच कर घबरा गई कि अगर आज रात को मनोज और उस की मुलाकात के बीच कोई कांड हो गया और गलती से गोली उसे लग गई तो… अगर गोली नहीं भी लगी, पर अगर वह पुलिस के हत्थे चढ़ गई तो? वह सम?ा गई थी कि दाल में कुछ काला है.

सीमा को कुछ सम?ा नहीं आ रहा था. उस ने समीर को फोन किया और दुखी लहजे में बोली, ‘‘समीर, मेरी तबीयत खराब है. मैं आज रात को मनोज के पास नहीं जा पाऊंगी.’’

‘‘अब हम लोग पीछे नहीं हट सकते. मनोज के खिलाफ एक बार सुबूत मिल जाए, फिर हमारा काम बन जाएगा. तुम्हें तुम्हारे 50,000 रुपए के साथसाथ इनाम भी मिलेगा, जिसे तुम जिंदगीभर नहीं भूल पाओगी.’’

यह सुनते ही सीमा के कान खड़े हो गए. उस ने आव देखा न ताव, अपने कपड़े और पैसे एक सूटकेस में भरे और वहां से भाग निकलने की सोची.

पर सुनीता अभी बाहर की गैलरी में ही पहुंची थी कि उस ने 2 लोगों को वहां खड़े पाया. वे तो समीर के आदमी थे. मतलब, उस पर भी नजर रखी जा रही थी.

सीमा दोबारा अपने घर में जा घुसी. उस ने सूटकेस पटका और बिस्तर पर बैठ गई. उसे सम?ा आ गया था कि वह हनी ट्रैप के लिए इस्तेमाल की जा रही है और आज उस की जिंदगी की सब से काली रात होने वाली है, उस की ठंडी हो चुकी ब्लैक कौफी की तरह.

शक्ति के सपने : क्या पूरे हो सके

हरियाणा के पलवल इलाके में पलाबढ़ा शक्ति बेहद चंचल और चालाक था. बचपन से ही वह पढ़ाई में तो नहीं, पर दिमाग से बाकी काम बनाने में बहुत तेज था. मिसाल के तौर पर सामाजिक समारोह में दरीगद्दे कैसे लगाने हैं, कौन सा हलवाई बढि़या है, किस जगह पर थोक में आतिशबाजी वाजिब दाम पर मिलेगी जैसी बहुत सी बातों का वह बचपन से ही जानकार था.

शुद्ध खानपान और कर्मठ दिनचर्या ने शक्ति का डीलडौल भी मजबूत बना दिया था. उस की 2 बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी और जैसे ही वह 18 साल का हुआ, परिवार वाले उस का भी ब्याह करने के लिए जोर देने लग गए थे. मगर शक्ति के मन में कुछ और ही था. वह अभी शादी के लिए तैयार नहीं था.

दिल्ली में शक्ति के मामा रहते थे. उन की मदद से शक्ति ने वहां के एक कालेज में अपना दाखिला करा लिया. वह शादी करने के दबाव से छुटकारा पाना चाहता था और बाहर पढ़ने को मिला, तो काफी हद तक कामयाब भी रहा.

शक्ति 3-4 महीने बाद कुछ दिन के लिए घर जाता और फिर पढ़ाई का बहाना कर के अपने होस्टल वापस लौट आता. कालेज की जिंदगी उसे खूब रास आने लगी थी. सब चिंताओं और जिम्मेदारियों से परे और यारदोस्तों से हंसीमजाक के साथ वह नएनए अनुभव ले रहा था. शहर का चकाचौंध भरा माहौल उसे सुकून दे रहा था.

शक्ति के डीलडौल और बोलने के हरियाणवी स्टाइल ने उसे जल्दी ही कालेज का एक जानापहचाना चेहरा बना दिया, मगर ज्यादातर लड़कियां जरूर उस से बचती थीं, क्योंकि अपने देहातीपन से वह गुंडा सा लगता था.

पहला साल इसी मस्तीमजाक में गुजर गया. पास होने लायक नंबर लाने में शक्ति को ज्यादा मेहनत नहीं लगी. 3 सहपाठियों को छोड़ कर बाकी सभी छात्र दूसरे साल में ऐंट्री पाने में कामयाब हो गए थे.

एक महीने की छुट्टी पर जाने से पहले सब छात्रों ने मिल कर एक पार्टी रखी. इस पार्टी में शक्ति ने भी पहली बार बीयर के अलावा रम और वोदका का स्वाद चखा था. उस के बाद खुमारी में जब उस ने खुल कर एक जोश वाला हरियाणवी लोकगीत गाया, तो सुनने वाले मस्त हो गए.

शक्ति के लिए देर तक तालियां बजती रहीं. अब उस से कन्नी काटने वाली लड़कियां भी हाथ मिला कर बधाई दे रही थीं, पर सविता का हाथ मिलाने का अंदाज सब से अलग था. उस की आंखों का गहरापन, गालों की लाली और दोनों हाथों से उस की हथेली को जोर से जकड़ना साफ संकेत दे रहे थे कि वह उस के मोहपाश मे बंध चुकी है.

इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर ले लिया था. महीनेभर की छुट्टियों में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि दोनों के बीच बातचीत न हुई हो. न ही छुट्टी का ऐसा कोई दिन बीता, जिस में शादी को ले कर चर्चा न हुई हो.

कालेज का दूसरा साल शुरू होते ही शक्ति होस्टल पहुंचने वाले छात्रों में सब से पहले था. 2 दिन के बाद सविता भी वहां आ गई. वह शक्ति के लिए अपने हाथों से बना क्रोशिया आसन तोहफे में लाई थी.

शक्ति को बड़ा अजीब सा लगा. वह तो उस के लिए कुछ लाया नहीं था. घर से लाया घी का डब्बा उस ने सविता को पकड़ा दिया. सविता को शक्ति के इस भोलेपन पर बहुत हंसी आई, पर वह उस के भीतर खुद के लिए पनप चुके प्यार को अच्छी तरह महसूस कर पा रही थी. उस का जी चाहा कि वह कस कर उस के होंठों को चूम ले, पर लोकलाज ने ऐसा करने से रोक दिया.

शक्ति को अभी एक और नए अनुभव से रूबरू होना था. उसे कालेज का महासचिव चुनने की तैयारी कर ली गई थी. बाकी पदों के लिए तो चुनाव हुए, पर उस के सामने कोई खड़ा नहीं हुआ. इस अनुभव ने शक्ति को उम्र से ज्यादा बड़ा कर दिया. अब उसे इज्जत भी मिलती और बुराई भी होती.

शक्ति अब राजनीति को गंभीरता से लेने लग गया. बड़े नेताओं से मिलने का मौका वह कभी न चूकता. दिल्ली में होने का फायदा उसे मिलता गया और नैशनल लैवल के नेताओं से उस की मुलाकात बढ़ती गई. वह राजनीति को तेजी से समझाता जा रहा था.

तीसरे साल में शक्ति को सीधे यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार बना दिया गया. जिस दिन उस का चयन हुआ, उसी दिन सविता उस से अकेले मिलने आई.

शक्ति बहुत खुश था, पर सविता उदास थी. वजह जान कर उस के पैरों तले की जमीन सरक गई. सविता उस के बच्चे की मां बनने वाली थी. इस नाजुक मोड़ पर यह खबर किसी एटम बम से कम नहीं थी. विरोधी उम्मीदवार को अगर पता चलता तो गरमागरम अफवाह फैला कर उसे जीतने का आसान मौका मिल सकता था.

शक्ति ने कुछ खास दोस्तों के साथ जा कर मंदिर में सविता से शादी कर ली. शादी के वक्त शक्ति को पता चला कि सविता तो निचली जाति की है. उस ने कभी पूछा नहीं और सविता ने बताया भी नहीं. प्यार तो इनसान का इनसान से हुआ था. जाति को जानना प्यार के लिए बिलकुल जरूरी नहीं था, पर घर वालों को तो इस की सूचना दे कर उन की रजामंदी लेना जरूरी था.

सविता को तो अपने घर वालों को राजी कर लेने का पूरा भरोसा था, पर शक्ति को नहीं. उस ने यह जिम्मेदारी अपने मामा के कंधों पर सौंप दी और खुद चुनाव प्रचार में बिजी हो गया.

यूनिवर्सिटी के 5 कालेजों में एक महीने तक जम कर किए प्रचार का नतीजा भी सुखद आया. 1,000 से भी ज्यादा वोटों से शक्ति जीता था. उस का भाषण और बोलने का चुटीला अंदाज छात्रों को खूब भा रहा था, पर इस खुशी के आलम में शक्ति के घर पर मातम पसर गया था. मामा ने उस के अध्यक्ष बनने और शादी करने की खबर एकसाथ परिवार वालों को दी थी.

शक्ति की मां का तो रोरो कर बुरा हाल हो गया था. उस की बहनों ने मोरचा संभाला और परिवार वालों को समझाया, फिर शक्ति और सविता को घर बुलाया गया. घर पर नाराजगी कम तो हुई थी, पर खत्म नहीं. एक ही दिन में सब से मिल कर वे दोनों दिल्ली लौट आए.

हफ्तेभर बाद वे दोनों सविता के मातापिता के घर भी गए. एक गांव में सविता के पिता अपने 2 बेटों के साथ दरी और छोटे कालीन बनाने का काम करते थे. घर पर ग्राहक सीधे ही कालीन खरीदने आते थे. यह इस बात का सुबूत था कि उन का काम बहुत अच्छा था.

उन का घर छोटा था, पर शक्ति के लिए उन सब का स्नेह बहुत गहरा और एकदम खरा था. दिनभर के लिए रुकने की सोच कर आया शक्ति सब के कहने पर 2 दिन खुशीखुशी वहीं रुका. अब तक शादी के नाम से भागने वाले शक्ति को शादी के बाद यह मेहमाननवाजी मजा दे रही थी.

सविता के साथ लौटते समय शक्ति सोच रहा था कि वह राजनीति करने के काबिल है. अपनी सोच और बातों से लोगों को प्रभावित करने की उस में काबिलीयत भी है और जुनून भी.

शक्ति ने सविता को अपने मन की बात बताई, तो वह भी उस से सहमत थी. वह बोली, ‘‘तुम अपना पूरा ध्यान राजनीति को दो.’’

सविता जागरूक थी. वह शक्ति की बाधा नहीं, बल्कि ताकत बनना चाहती थी. सविता चाहती थी कि शक्ति खुद को और मजबूत कर के एक मुकाम हासिल करने की दिल से कोशिश करे. वह जानती थी कि अपने बच्चे के 2 साल का होने तक वह अपनी एमए की डिगरी पा लेगी. उस के बाद वह घर के लिए जरूरी खर्च उठाने लायक हो जाएगी, तब तक वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेगी.

रात हो चली थी. अपने कमरे में लौटते हुए खिड़की से बाहर दिखाई दे रहे आसमान की ओर उन दोनों ने एकसाथ निहारा. स्याह आसमान में बहुत से तारे टिमटिमा रहे थे, पर एक तारा ऐसा था, जिस की चमक कुछ ज्यादा थी. शायद अगला सूरज बनने का ख्वाब उस तारे के मन में भी मजबूती से पनप रहा था.

दूसरा पत्र: क्या था पत्र में खास?

विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में, दिन का अंतिम पीरियड प्रारंभ होने ही वाला था कि अचानक माहौल में तनाव छा गया. स्पीड पोस्ट से डाकिया सभी 58 छात्रछात्राओं व प्रोफैसरों के नाम एक पत्र ले कर आया था. तनाव की वजह पत्र का मजमून था. कुछ छात्रों ने वह लिफाफा खोल कर अभी पढ़ा ही था कि प्रोफैसर मजूमदार ने धड़धड़ाते हुए कक्षा में प्रवेश किया. उन के हाथ में भी उसी प्रकार का एक लिफाफा था. आते ही उन्होंने घोषणा की, ‘‘प्लीज, डोंट ओपन द ऐनवलप.’’

अफरातफरी में उन्होंने छात्रछात्राओं से वे लिफाफे लगभग छीनने की मुद्रा में लेने शुरू कर दिए, ‘‘प्लीज, रिटर्न मी दिस नौनसैंस.’’ वे अत्यधिक तनाव में नजर आ रहे थे, लेकिन तब तक 8-10 छात्र उस  पत्र को पढ़ चुके थे.

अत्यंत परिष्कृत अंगरेजी में लिखे गए उस पत्र में बेहद घृणात्मक टिप्पणियां छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर की गई थीं और कुछ छात्राओं के विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज प्रसाद, कुलपति डाक्टर माधवविष्णु प्रभाकर और प्रोफैसर मजूमदार से सीधेसीधे जोड़ कर उन के अवैध संबंधों का दावा किया गया था. पत्र लेखक ने अपनी कल्पनाओं के सहारे कुछ सुनीसुनाई अफवाहों के आधार पर सभी के चरित्र पर कीचड़ उछालने की भरपूर कोशिश की थी. हिंदी साहित्य की स्नातकोत्तर कक्षा में इस समय 50 छात्रछात्राओं के साथ कुल 6 प्राध्यापकों सहित विभागाध्यक्ष व कुलपति को सम्मिलित करते हुए 58 पत्र बांटे गए थे. 7 छात्र व 5 छात्राएं आज अनुपस्थित थे जिन के नाम के पत्र उन के साथियों के पास थे.

सभी पत्र ले कर प्रोफैसर मजूमदार कुलपति के कक्ष में चले गए जहां अन्य सभी प्रोफैसर्स पहले से ही उपस्थित थे. इधर छात्रछात्राओं में अटकलबाजी का दौर चल रहा था. प्रोफैसर मजूमदार के जाते ही परिमल ने एक लिफाफा हवा में लहराया, ‘‘कम औन बौयज ऐंड गर्ल्स, आई गौट इट,’’ उस ने अनुपस्थित छात्रों के नाम आए पत्रों में से एक लिफाफा छिपा लिया था. सभी छात्रछात्राएं उस के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए. वह छात्र यूनियन का अध्यक्ष था, अत: भाषण देने वाली शैली में उस ने पत्र पढ़ना शुरू किया, ‘‘विश्वविद्यालय में इन दिनों इश्क की पढ़ाई भी चल रही है…’’ इतना पढ़ कर वह चुप हो गया क्योंकि आगे की भाषा अत्यंत अशोभनीय थी.

एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचता हुआ वह पत्र सभी ने पढ़ा. कुछ छात्राओं के नाम कुलपति, विभागाध्यक्ष और प्राध्यापकों से जोड़े गए थे. तो कुछ छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर भद्दी भाषा में छींटाकशी की गई थी. इन में से कुछ छात्रछात्राएं ऐसे थे जिन के बारे में पहले से ही अफवाहें गरम थीं जबकि कुछ ऐसे जोड़े बनाए गए थे जिन पर सहज विश्वास नहीं होता था, लेकिन पत्र में उन के अवैध संबंधों का सिलसिलेवार ब्यौरा था.

पत्र ऐसी अंगरेजी में लिखा गया था जिसे पूर्णत: समझना हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए मुश्किल था परंतु पत्र का मुख्य मुद्दा सभी समझ चुके थे. कुछ छात्रछात्राएं, जिन के नाम इस पत्र में छींटाकशी में शामिल नहीं थे, वे प्रसन्न हो कर इस के मजे ले रहे थे तो कुछ छात्राएं अपना नाम जोड़े जाने को ले कर बेहद नाराज थीं. जिन छात्रों के साथ उन के नाम अवैध संबंधों को ले कर उछाले गए थे वे भी उत्तेजित थे क्योंकि पत्र के लेखक ने उन की भावी संभावनाओं को खत्म कर दिया था. सभी एकदूसरे को शक की नजरों से देखने लगे थे.

कुछ छात्राएं जिन्होंने पिछले माह हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया था उन का नाम विभागाध्यक्ष अमिजोत प्रसाद के साथ जोड़ा गया था क्योंकि उन के कैबिन

में ही उस कार्यक्रम के संबंध में जरूरी बैठकें होती थीं और वे सीधे तौर पर कार्यक्रम के आयोजन से जुड़े थे. यह कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा था और उन छात्राओं ने साफसाफ उन लोगों पर इस दुष्प्रचार का आरोप लगाया जिन्हें इस कार्यक्रम के आयोजन से दूर रखा गया था.

छात्र राजनीति करने वाले परिमल और नवीन पर ऐसा पत्र लिखने के सीधे आरोप लगाए गए. इस से माहौल में अत्यंत तनाव फैल गया. परिमल और नवीन का तर्क था कि यदि यह पत्र उन्होंने लिखा होता तो उन का नाम इस पत्र में शामिल नहीं होता, जबकि उन छात्राओं का कहना था कि ऐसा एक साजिश के तहत किया गया है ताकि उन पर इस का शक नहीं किया जा सके. एकदूसरे पर छींटाकशी, आरोप और प्रत्यारोप का दौर इस से पहले कि झगड़े का रूप लेता यह तय किया गया कि कुलपति और विभागाध्यक्ष से अपील की जाए कि मामले की जांच पुलिस से करवाई जाए. पुलिस जब अपने हथकंडों का इस्तेमाल करेगी तो सचाई खुद ही सामने आ जाएगी.

कुलपति के कमरे का माहौल पहले ही तनावपूर्ण था. उन का और विभागाध्यक्ष का नाम भी छात्राओं के यौन शोषण में शामिल किया गया था. पत्र लिखने वाले ने दावा किया था कि पत्र की प्रतिलिपि राज्यपाल और यूजीसी के सभी सदस्यों को भेजी गई है. सब से शर्मनाक था कुलपति डाक्टर  माधवविष्णु पर छात्राओं से अवैध संबंधों का आरोप. वे राज्य के ही नहीं, देश के भी एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, सम्मानित साहित्यकार और समाजसेवी थे. उन की उपलब्धियों पर पूरे विश्वविद्यालय को गर्व था.

जिन छात्राओं के साथ उन का नाम जोड़ा गया था वे उम्र में उन की अपनी बेटियों जैसी थीं. आरोप इतने गंभीर और चरित्रहनन वाले थे कि उन्हें महज किसी का घटिया मजाक समझ कर ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता था. छात्राएं इतनी उत्तेजित थीं कि यदि पत्र लिखने वाले का पता चल जाता तो संभवत: उस का बचना मुश्किल था.

आरोपप्रत्यारोप का यह दौर कुलपति के कमरे में भी जारी रहा. विरोधी गुट के छात्र नेता परिमल पर प्रत्यक्ष आरोप लगा रहे थे कि वे सीधे तौर पर यदि इस में शामिल नहीं है तो कम से कम यह हुआ उसे के इशारे पर है. सब से ज्यादा गुस्से में संध्या थी. वह छात्र राजनीति में विरोधी गुट के मदन की समर्थक थी और उस का नाम दूसरी बार इस तरह के अवैध संबंधों की सूची में शामिल किया गया था.

दरअसल, एक माह पहले भी एक पत्र कुलपति के कार्यालय में प्राप्त हुआ था, जिस में संध्या का नाम विभागाध्यक्ष अमितोज के साथ जोड़ा गया था. तब कुलपति ने पत्र लिखने वाले का पता न चलने पर इसे एक घटिया आरोप मान कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था. और अब यह दूसरा पत्र था. इस बार पत्र लेखक ने कई और नामों को भी इस में शामिल कर लिया था.

स्पष्ट था कि पहले पत्र में उस ने जो आरोप लगाए थे उन्हें पूरा प्रचार न मिल पाने से वह असंतुष्ट था और इस बार ज्यादा छात्रछात्राओं के नामों को सम्मिलित करने के पीछे उस का उद्देश्य यही था कि मामले को दबाया न जा सके और इसे भरपूर प्रचार मिले.

वह अपने उद्देश्य में इस बार पूरी तरह सफल रहा था क्योंकि हिंदी विभाग से उस पत्र की प्रतिलिपियां अन्य विभागों में भी जल्दी ही पहुंच गईं. शरारती छात्रों ने सूचनापट्ट पर भी उस की एक प्रतिलिपि लगवा दी.

कुलपति महोदय ने बड़ी मुश्किल से दोनों पक्षों को चुप कराया और आश्वासन दिया कि वे दोषी को ढूंढ़ने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. यदि पता चल गया तो उस का मुंह काला कर उसे पूरे शहर में घुमाएंगे. सभी छात्राओं ने तैश में कहा, ‘‘आप पुलिस को या सीबीआई को यह मामला क्यों नहीं सौंप देते, वे खुद पता कर लेंगे.’’

संध्या को डर था कि कहीं यह पत्र भी पहले पत्र की तरह ठंडे बस्ते में ही न डाल दिया जाए. विभागाध्यक्ष व कुलपति इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे. कुलपति महोदय ने ही कहा, ‘‘हम ने इस बात पर भी विचार किया है, लेकिन इस से एक तो यह बात मीडिया में फैल जाएगी और विश्वविद्यालय की बदनामी होगी. दूसरा पुलिस छात्राओं को पूछताछ के बहाने परेशान करेगी और यह बात उन के घर वालों तक भी पहुंच जाएगी जो कि उचित नहीं होगा.’’

‘‘फिर पता कैसे चलेगा कि यह गंदी हरकत की किस ने है?’’ मदन ने तैश में आ कर कहा, ‘‘पहले भी एक पत्र आया था, जिस में 2 छात्राओं का नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ा गया था. तब भी आप ने यही कहा था कि हम पता लगाएंगे, लेकिन आज तक कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘उसे रोका नहीं गया तो अगली बार हो सकता है वह इस से भी आगे बढ़ जाए,’’ सोनाली ने लगभग चीखते हुए कहा. उस का अगले माह विवाह तय था और उस का नाम आनंद से जोड़ते हुए लिखा गया था कि अकसर वह शहर के पिकनिक स्पौटों पर उस के साथ देखी गई है.

डाक्टर अमितोज ने उसे मुश्किल से शांत कराया तो वह फफकफफक कर रो पड़ी, ‘‘आनंद के साथ कभी मैं यूनिवर्सिटी के बाहर भी नहीं गई.’’

‘‘तो इस में रोने की क्या बात है, अब चली जा. अभी तो 1 महीना पड़ा है शादी में,’’ कमल जिस का नाम इस पत्र में शामिल नहीं था, मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘चुप रह, मरवाएगा क्या’’ उस ने एक चपत उस के सिर पर जमा दी,‘‘ अगर झूठा शक भी पड़ गया न तो अभी तेरी हड्डीपसली एक हो जाएगी, बेवकूफ.’’

‘‘गुरु, कितनी बेइज्ज्ती की बात है, मेरा नाम किसी के साथ नहीं जोड़ा गया. कम से कम उस काली कांता के साथ ही जोड़ देते.’’

‘‘अबे, जिस का नाम उस के साथ जुड़ा था उस ने भी उस की खूबसूरती से तंग आ कर तलाक ले लिया.

‘‘शुक्र है, आत्महत्या नहीं की,’’ और फिर ठहाका मार कर दोनों देर तक उस का मजाक उड़ाते रहे.

कांता एक 25 वर्षीय युवा तलाकशुदा छात्रा थी जो उन्हीं के साथ हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. सभी के लिए उस की पहचान सिर्फ काली कांता थी. अपनी शक्लसूरत को ले कर उस में काफी हीनभावना थी. इसलिए वह सब से कटीकटी रहती थी. किसी ने न तो इस मुद्दे पर उस की सलाह ली और न ही वह बाकी लड़कियों की तरह खुद इस में शरीक हुई. अगर होती तो ऐसे ही व्यंग्यबाणों की शिकार बनती रहती.

‘‘इस बार ऐसा नहीं होगा,‘‘ डाक्टर अमितोज ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘पुलिस और सीबीआई की सहायता के बिना भी दोषी का पता लगाया जा सकता है. आप लोग कुछ वक्त दीजिए हमें. बजाय आपस में लड़नेझगड़ने के आप भी अपनी आंखें और कान खुले रखिए. दोषी आप लोगों के बीच में ही है.’’

‘‘हां, जिस तरह से उस ने नाम जोड़े हैं उस से पता चलता है कि वह काफी कुछ जानता है,’’ अभी तक चुपचाप बैठे साहिल  ने कहा तो कुछ उस की तरफ गुस्से में देखने लगे और कुछ बरबस होठों पर आ गई हंसी को रोकने की चेष्टा करने लगे.

‘‘मेरा मतलब था वह हम सभी लोगों से पूरी तरह परिचित है,’’ साहिल ने अपनी सफाई दी. उस का नाम इस सूची में तो शामिल नहीं था परंतु सभी जानते थे कि वह हर किसी लड़की से दोस्ती करने को हमेशा लालायित रहता था.

‘‘कहीं, यही तो नहीं है?’’ कमल फिर मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘अबे, यह ढंग से हिंदी नहीं लिख पाता, ऐसी अंगरेजी कहां से लिखेगा,’’ मदन बोला.

‘‘गुरु, अंगरेजी तो किसी से भी लिखवाई जा सकती है और मुझे तो लगता है इंटरनैट की किसी गौसिप वैबसाइट से चुराई गई है यह भाषा,’’ कमल ने सफाई दी.

‘‘अबे, उसे माउस पकड़ना भी नहीं आता अभी तक और इंटरनैट देखना तो दूर की बात है,’’ मदन ने उसे चुप रहने का इशारा किया, ‘‘पर गुरु…’’  कमल के पास अभी और भी तर्क थे साहिल को दोषी साबित करने के.

‘‘अच्छा आप लोग अपनी कक्षाओं में चलिए,’’ कुलपति महोदय ने आदेश दिया तो सभी बाहर निकल आए.

बाहर आ कर भी तनाव खत्म नहीं हुआ. सभी छात्रों ने कैंटीन में अपनी एक हंगामी मीटिंग की. सभी का मत था कि दोषी हमारे बीच का ही कोई छात्र है, लेकिन है कौन? इस बारे में एकएक कर सभी नामों पर विचार हुआ लेकिन नतीजा कुछ न निकला. अंत में तय हुआ कि कल से सभी कक्षाओं का तब तक बहिष्कार किया जाए जब तक कि दोषी को पकड़ा नहीं जाता. दूसरे विभाग के छात्रछात्राएं भी अब इस खोज में शामिल हो गए थे.

उन में से कुछ को वाकई में छात्राओं से सहानुभूति थी तो कुछ यों ही मजे ले रहे थे, लेकिन इतना स्पष्ट था कि यह मामला अब जल्दी शांत होने वाला नहीं था. सब से पहले यह तय हुआ कि मुख्य डाकघर से पता किया जाए कि वे पत्र किस ने स्पीड पोस्ट कराए हैं. परिमल, कमल व मदन ने यह जिम्मेदारी ली कि वे मुख्य डाकघर जा कर यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि दोषी कौन है.

अगले दिन जब वे मुख्य डाकघर पहुंचे तो पता चला कि इस बाबत पूछने के लिए दो लड़कियां पहले ही आ चुकी हैं.

‘‘वही होगी संध्या,’’ मदन फुसफुसाया.

‘‘अबे, उसी की तो सारी शरारत है, सबकुछ उस की जानकारी में ही हुआ है.’’

‘‘वह कैसे हो सकती है?’’ परिमल  बोला, ‘‘वह जो इतना तैश खा रही थी न… वह सब दिखावा था.’’

‘‘लेकिन गुरु, उस का तो नाम खुद ही सूची में है,’’ मदन बोला.

‘‘यही तो तरीके होते हैं डबल क्रौस करने के,’’ परिमल बोला, ‘‘एक तरफ अपना नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ कर अपनी दबीढकी भावनाएं जाहिर कर दीं, दूसरी तरफ दूसरों को बदनाम भी कर दिया.’’

डाकघर की काउंटर क्लर्क ने जब यह बताया कि उन दोनों लड़कियों में से एक ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था और दूसरी के बाल कटे हुए थे तो तीनों को अति प्रसन्नता हुई, क्योंकि संध्या के न तो बाल कटे हुए थे और न ही वह नजर का चश्मा लगाती थी.

‘‘देखा मैं ने कहा था न कि संध्या नहीं हो सकती, वह क्यों पूछने आएगी. वे जरूर सोनाली और दीपिका होंगी क्योंकि वे दोनों ही इस में सब से ज्यादा इनोसैंट हैं. दीपिका तो बेचारी किताबों के अलावा किसी को देखती तक नहीं और सोनाली की अगले माह ही शादी है.’’

‘‘हां, मुझे अच्छी तरह उन लड़कों के चेहरे याद हैं,’’ काउंटर क्लर्क बोली, ‘‘चूंकि वे सभी लिफाफे महाविद्यालय में एक ही पते पर जाने थे अत: मैं ने ही उन्हें सलाह दी थी कि इन सभी को अलगअलग लिफाफों में पोस्ट करने के बजाय इस का सिर्फ एक लिफाफा बनाने से डाक व्यय कम लगेगा. इस पर उन में से एक लड़का जो थोड़ा सांवले रंग का था, भड़क उठा. कहने लगा, ‘‘आप को पता है ये कितने गोपनीय पत्र हैं, हम पैसे चुका रहे हैं इसलिए आप अपनी सलाह अपने पास रखिए.’’

मुझे उस का बोलने का लहजा बहुत अखरा, मैं उस की मां की उम्र की हूं परंतु वह बहुत ही बदतमीज किस्म का लड़का था, जबकि उस के साथ आया गोरा लड़का जिस ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था बहुत शालीन था. उस ने मुझ से माफी मांगते हुए जल्दी काम करने की प्रार्थना की. गुस्से में वह सांवला लड़का बाहर दरवाजे पर चला गया जहां उन का तीसरा साथी खड़ा था. उस का चेहरा मैं देख नहीं सकी क्योंकि काउंटर की तरफ उस की पीठ थी, लेकिन मैं इतना विश्वास के साथ कह सकती हूं कि वे 3 थे, जिन में से 2 को मैं अब भी पहचान सकती हूं.’’

यह जानकारी एक बहुत बड़ी सफलता थी क्योंकि इस से जांच का दायरा मात्र उन छात्रों तक सीमित हो गया जो नजर का चश्मा लगाते थे और सांवले रंग के थे. परिमल स्वयं नजर का चश्मा लगाता था लेकिन वह नहीं हो सकता था क्योंकि डाकखाने की क्लर्क से उस ने खुद बात की थी. विपक्ष का नेता मदन भी सांवले रंग का था, लेकिन वह भी साथ था. महाविद्यालय

के हिंदी विभाग में 50 छात्रछात्राओं में से 32 छात्र और 18 छात्राएं थीं और मात्र 12 छात्र नजर का चश्मा लगाते थे. परिमल को अगर छोड़ दिया जाए तो मात्र 11 छात्र बचते थे.

जब यह जानकारी हिंदी विभाग  में पहुंची तो नजर का चश्मा लगाने वाले सभी छात्र संदेहास्पद हो गए. आरोपप्रत्यारोप का माहौल फिर गरम हो गया. नजर का चश्मा लगाने वालों की पहचान परेड उस क्लर्क के सामने कराई जाए. संध्या और सभी छात्राएं इस सूची को लिए फिर विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज के कमरे में विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंच गईं, ‘‘सर, अब यह साफ हो चुका है कि इन 11 में से ही कोई है जिस ने यह गंदी हरकत की है. आप इन सभी को निर्देश दें कि वे पहचान परेड में शामिल हों.’’

डाक्टर अमिजोत ने मुश्किल से उन्हें शांत कराया और आश्वासन दिया कि वे इन सभी को ऐसा करने के लिए कहेंगे हालांकि उन्होंने साथसाथ यह मत भी जाहिर कर दिया कि यह सारा काम किसी शातिर दिमाग की उपज है और वे खुद इन पत्रों को डाकखाने जा कर पोस्ट करने की बेवकूफी नहीं कर सकता.

आनंद, जिस का नाम सोनाली से जोड़ा गया था और जो नजर का चश्मा लगाता था, ने इस पहचान परेड में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘मैं कोई अपराधी हूं जो इस तरह पहचान परेड कराऊं.’’

उस के इस इनकार ने फिर माहौल गरमा दिया. संध्या इस बात पर उस से उलझ पड़ी और तूतड़ाक से नौबत हाथापाई तक आ गई. आनंद ने सीधेसीधे संध्या पर आरोप जड़ दिया, ‘‘सारा तेरा किया धरा है. डाक्टर अमितोज के साथ तेरे जो संबंध हैं न, उन्हें कौन नहीं जानता. उसी मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए तू ने औरों को भी बदनाम किया है ताकि वे लोग तुझ पर छींटाकशी न कर सकें. तू सोनाली की हितैषी नहीं है बल्कि उसे भी अपनी श्रेणी में ला कर अपने मुद्दे से सभी का ध्यान हटाना चाहती है.’’

परिमल ने उस समय तो बीचबचाव कर मामला सुलझा दिया, परंतु सरेआम की गई इस टिप्पणी ने संध्या को अंदर तक आहत कर दिया. कुछ छात्रों का मानना था कि आनंद के आरोप में सचाई भी हो सकती है.

‘‘यार, तेरी बात में दम है. सब जानते हैं कि जब से यह पत्र आया है सब से ज्यादा यही फुदक रही है,’’ संध्या के जाते ही परिमल ने आनंद को गले लगा लिया और कहने लगा कि पहला पत्र जिस में केवल संध्या और डाक्टर अमितोज का नाम था वह किसी और ने लिखा था. उस से इस की जो बदनामी हुई उसी से ध्यान बंटाने के लिए इस ने इस पत्र में औरों को घसीटा है ताकि लगे कि हमाम में सभी नंगे हैं. परिमल ने संध्या को बदनाम करने के लिए इस जलते अलाव या की वजह से उस के छात्राओं के काफी वोट जो कट जाते थे.

जो छात्र पहचान परेड कराने के लिए तैयार थे वे जब डाकखाने पहुंचे तो डाकखाने का स्टाफ इस समूह को देख कर आशंकित हो गया. उन्होंने उस महिलाकर्मी को इस पहचान परेड के लिए मना कर दिया. वह महिलाकर्मी खुद भी बहुत डरीसहमी थी, उसे नहीं पता था कि मुद्दा क्या है. उस ने तो अपनी तरफ से साधारण सी बात समझ कर जानकारी दी थी.

काफी देर तक डाकखाने के कर्मियों और छात्रों में बहस होती रही. उन का तर्क था कि वे इस झगड़े में क्यों पड़ें. वह महिलाकर्मी यदि किसी की पहचान कर लेती है तो वह छात्र उसे नुकसान भी तो पहुंचा सकता है. छात्रों ने जब दबाव बनाया तो उस ने सहकर्मियों की सलाह मान कर सरसरी निगाह छात्रों पर डालते हुए सभी को क्लीन चिट दे दी. स्पष्ट था वह इस झगड़े में नहीं पड़ना चाहती थी. वह सच बोल रही है या झूठ इस का फैसला नहीं किया जा सकता था.

बात जहां से शुरू हुई थी फिर से वहीं पहुंच गई थी. अटकलों का बाजार पुन: गरम हो चुका था. यह मांग फिर उठने लगी थी कि इस मामले में कुलपति हस्तक्षेप करें और मामला पुलिस या सीबीआई को दे दिया जाए. सभी जानते थे कि हर अपराध के पीछे एक मोटिव होता है.

हिंदी विभाग से बाहर का कोई छात्र ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि एक तो इतने सारे छात्रछात्राओं को बदनाम करने के पीछे उस का कोई उद्देश्य नहीं हो सकता था. दूसरे जो जोड़े बनाए गए थे वे बहुत ही गोपनीय जानकारी पर आधारित थे और कइयों के बारे में ऊपरी सतह पर कुछ भी दिखाई नहीं देता था, लेकिन उन में से अधिकांश के तल में कुछ न कुछ सुगबुगाहट चल रही थी.

अब तो अन्य विभागों के छात्रछात्राएं भी इस में रुचि लेने लगे थे, लेकिन यह निश्चित था कि ‘मास्टर माइंड’ इन्हीं 50 छात्रछात्राओं में से कोई एक था. 6 प्रोफैसर्स में से भी कोई हो सकता था परंतु इस की संभावना कम ही थी क्योंकि सभी प्रोफैसर्स अपनीअपनी फेवरेट छात्राओं के साथ अपने गुरुशिष्या के संबंधों पर परम संतुष्ट थे.

अचानक एक तीसरा पत्र डाक्टर अमितोज के नाम साधारण डाक से प्राप्त हुआ. यह पत्र भी अंगरेजी में था और इस में सारे घटनाक्रम पर क्षमा मांगते हुए इस का पटाक्षेप करने की प्रार्थना की गई थी. पत्र कंप्यूटर पर टाइप किया हुआ था और उस में फौंट, स्याही और कागज वही इस्तेमाल हुए थे जो दूसरे पत्र के लिए हुए थे.

डाक्टर अमितोज ने ध्यान से वह पत्र कई बार पढ़ा. अचानक उन के मस्तिष्क में एक विचार तीव्रता से कौंधा. वे तेजी से हिंदी विभाग के कार्यालय में पहुंचे और सभी छात्रछात्राओं के आवेदनपत्र की फाइल लिपिक से कह कर अपने कार्यालय में मंगवा ली. तेजी से उन की निगाहें उन आवेदनपत्रों में पूर्व शैक्षणिक योग्यता के कौलम में कुछ खोज करती दौड़ने लगीं. अचानक उन्हें वह मिल गया जिस की उन्हें तलाश थी. उन्होंने पता देखा तो वह हौस्टल का था.

तीसरा पत्र उन के हाथ में था जब उन्होंने हौस्टल के उस कमरे का दरवाजा खटखटाया. दरवाजा खुलते ही उन की निगाह सामने रखे पीसी पर पड़ी. वे समझ गए कि उन की तलाश पूरी हो चुकी है. वह कमरा युवा तलाकशुदा छात्रा कांता का था जो पूर्व में अंगरेजी साहित्य में स्नातकोत्तर थी, उस की बदसूरती और गहरे काले रंग को ले कर सभी छात्रछात्राएं मजाक उड़ाया करते थे.

उन के सामने अब इस अपराध का मोटिव स्पष्ट था और इस पर किसी तर्क की गुंजाइश नहीं थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस अपराध के लिए वे उस पर नाराज हों या तरस खाएं.

‘‘मैं नहीं पूछूंगा कि दूसरे पत्र को पोस्ट करवाने में जिन तीन लड़कों का तुम ने सहयोग लिया वे कौन थे क्योंकि उन्हें पता भी नहीं होगा कि वे क्या करने जा रहे हैं. लेकिन तुम्हारा गुरु होने के नाते एक सीख तुम्हें जरूर दूंगा. जो कमी तुम्हें अपने में नजर आती है और जिस में तुम्हारा अपना कोई दोष नहीं है उस के लिए स्वयं पर शर्मिंदा हो कर दूसरों से उस का बदला लेना अपनेआप में एक अपराध है, जो तुम ने किया है.

तुम ने इस अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की है. एक शर्त पर मैं तुम्हें क्षमा कर सकता हूं यदि तुम यह वादा करो कि कभी अपने रंगरूप पर शर्मिंदगी महसूस नहीं करोगी. अपनेआप से प्यार करना सीखो, तभी दूसरे भी तुम्हें प्यार करेंगे.’’ उन्होंने वह पत्र फाड़ा और आंसू बहाती कांता के सिर को सहला कर चुपचाप वहां से बाहर निकल आए.

सरोकार : मंझधार में फंसा एक बेटा

जनकदेव जनक  समय ही एक ऐसा साथी है, जो अच्छे और बुरे दिनों में इनसान के साथ रहता है. चाहे अमीर हो या गरीब, राजा हो या रंक, वह सब को अपने आगोश में लिए घूमता है, मगर जिस का भी समय पूरा हो जाता है, उसे यमराज के हवाले कर हमेशा के लिए अलविदा कह देता है. ठीक वैसे ही एक दिन 28 साल के एक नौजवान अमर की मां के साथ हुआ. 55 साल की उस की मां की उम्र मरने की तो नहीं थी, लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि ठीक से वह उस का इलाज करा सके. फिर भी जब तक सांस है, तब तक आस है. अमर ने एक डाक्टर से उस का इलाज कराया. अमर अपनी मां के मरने से बहुत आहत हुआ, इसलिए कि उस की मां का अंतिम संस्कार उस के लिए एक समस्या बनी हुई थी, क्योंकि वह अपनी बिरादरी से छांट दिया गया था. मां की अर्थी को कंधा देने वाला उस के सिवा कोई नहीं था. संयुक्त परिवार होने के बावजूद अमर अपने घर पर अकेला मर्द सदस्य था.

उस के पिता की मौत 5 साल पहले हो चुकी थी, जबकि घर के दूसरे सदस्य उस के चाचा जितेंद्र कोलकाता में रहते थे. घर पर उस के साथ चाची मंजू देवी व उन की 3 बेटियां सोनी, पार्वती व कंचन थीं, जो कि 16, 17 व 18 साल की थीं.  अमर ने अपनी मां के मरने की खबर जब मोबाइल से अपने चाचा को दी, तो उन्होंने कहा, गाडि़यों की हड़ताल के चलते मैं समय से घर नहीं पहुंच सकता, इसलिए तुम भाभी का अंतिम संस्कार जल्द कर देना. मेरे इंतजार में लाश को घर में रखना ठीक नहीं है. चाचा की इस बात से अमर को गहरा सदमा पहुंचा. वह कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा. उस के बाद वह गांव के सूर्यभान पहलवान और अपने पट्टीदारों के घर पहुंचा.

उन की चौखट पर नाक रगड़रगड़ कर अंतिम संस्कार में चलने को कहा, लेकिन सभी ने नकार दिया. आखिर में अमर हताश और निराश हो कर लौट रहा था, तभी उस की मुलाकात एक दोस्त आरती से हुई, जो बीए पास एक दलित लड़की थी, साथ ही भीम सेना की क्षेत्रीय सचिव भी थी. ‘‘क्या बात है अमर, आज तेरा हंसमुख चेहरा बहुत उदास और बुझाबुझा सा लग रहा है? कोई मुसीबत आ पड़ी है क्या?’’ आरती ने पूछा. ‘‘क्या करोगी जान कर? मेरी मुसीबत तेरे वश की बात नहीं है,’’

अमर ने कहा. ‘‘फिर भी कुछ तो बोलो, शायद मैं कोई रास्ता निकाल सकूं,’’ आरती ने गंभीरता के साथ अमर को देखते हुए पूछा. ‘‘मेरी मां इस दुनिया में नहीं रहीं आरती. उन की अर्थी को कंधा देने वाले 4 लोग नहीं मिल रहे हैं. क्या मेरी मां की लाश घर में ही पड़ी रहेगी?’’

भावुक हो कर अमर फूटफूट कर रोने लगा. ‘‘अमर, हौसला रखो… हम तुम्हारे साथ हैं,’’ आरती ने अमर के कंधे पर हाथ रख कर थपथपाते हुए धीरज बंधाया और बोली, ‘‘घबराने की कोई जरूरत नहीं है अमर. मैं ने रास्ता निकाल लिया है. तुम्हारी मां की अर्थी को कंधा देने वाले मिल गए हैं.’’ ‘‘कौन हैं वे लोग…?’’ अमर ने उत्सुकता जताते हुए आरती से पूछा,

जैसे समाज की सब से बड़ी चुनौती का हल निकल गया हो. ‘‘अर्थी को कंधा मैं, तुम, तुम्हारी चचेरी बहन कंचन व पार्वती देंगी. साथ में पश्चिम टोला से हम भगवान भैया, वकील भैया, बुजुर्ग नागा दादा को भी ले लेंगे. सूर्यभान पहलवान से डरना नहीं है. अब उस का जमाना लद गया है. पश्चिम टोला के लोगों ने उस से डरना छोड़ दिया है.’’ ‘‘लेकिन, अर्थी को बेटियां कंधा नहीं देती हैं.

हम रीतिरिवाज और परंपरा के खिलाफ जा रहे हैं.’’ ‘‘अमर, जिंदगी में हमेशा जीतना सीखो, हारना नहीं. देखो, आगेआगे होता क्या है?’’ अर्थी को कंधा दे कर वे लोग गंडकी नदी के किनारे ले गए. वहां जमीन पर अर्थी को रख दिया गया. उस के बाद बुजुर्ग नागा दादा ने कहा, ‘‘अमर की मां को टीबी की बीमारी थी, इसलिए उस की लाश को जलाया नहीं जा सकता. कब्र के लिए 6 फुट लंबा, 4 फुट चौड़ा और तकरीबन 5 फुट गहरा गड्ढा खोदा जाए.’’ ‘‘ठीक है दादा, जमीन की खुदाई का काम जल्दी शुरू किया जाए. सूरज पश्चिम दिशा में डूब गया है. ठंड भी बढ़ने लगी है.

अमर, एक कुदाल मुझे भी दो,’’ आरती ने कहा. ‘‘अरे, चिंता क्यों करती हो आरती बेटी, कुदाल चलाने में माहिर भगवान, वकील, अमर हैं न. तुम कंचन और पार्वती के साथ कब्र की मिट्टी बाहर निकालो. सब की मदद से कब्र जल्दी तैयार हो जाएगी,’’ बुजुर्ग नागा दादा ने समझदारी के साथ सब को अलगअलग काम बांट दिए. नदी के किनारे साफसुथरी जगह देख कर कुदाल से मिट्टी की खुदाई की जाने लगी… साथ में गए लोग खुदाई के काम में लग गए. हालांकि मिट्टी बाहर निकालते समय पार्वती का ध्यान अंधेरे में कहीं भटक जाता. उस ने गांव के लोगों से सुन रखा था कि श्मशान में भूतप्रेत, चुड़ेल हवा में घूमती रहती हैं, जो मौका पाते ही आदमी की देह में घुस जाती हैं और उस आदमी के साथ उस के घरपरिवार को भी तबाह कर देती हैं. पार्वती मारे डर के कभीकभी कांप जाती.

नागा दादा पार्वती की मनोदशा को ताड़ गए. वे उस के पास गए. उसे स्नेह व प्यार से देखा और उस के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘भूतप्रेत कुछ नहीं होता है पार्वती. सब मन का वहम है. कब्र से मिट्टी को बाहर निकालने में मदद करो,’’ नागा दादा की इस बात से पार्वती अपने काम में जुट गई. अमर ने आकाश की ओर देखा. शाम ढल कर रात के आगोश में समा रही थी. आसमान में कई तारे निकल आए थे. नदी किनारे चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था.

जमीन खुदाई वाली जगह से थोड़ी दूरी पर अमर की मां की लाश थी, जो अमर द्वारा सामाजिक कुरीतियां और पाखंडों को त्यागने पर शायद आरती का धन्यवाद कर रही थी. कब्र तैयार होने पर लाश को आहिस्ताआहिस्ता नीचे उतारा गया. उस के बाद मिट्टी डाल कर कब्र को अच्छी तरह से ढक दिया गया. फिर वे सभी वहां से अपनेअपने घर चले गए. अमर ने अपनी मां के मरने पर किसी तरह का कोई कर्मकांड नहीं किया. उस ने न तो पीपल के पेड़ में पानी दिया, न मुंडन संस्कार कराया, न तेरहवीं के दिन श्राद्ध पर किसी ब्राह्मण को भोजन कराया. अमर के नास्तिक होने की बात पूरे इलाके में चर्चा का मुद्दा बन गई थी. एक दिन अमर अपने खेतों की बोरवैल से सिंचाई कर रहा था,

तभी वहां सूर्यभान सिंह पहुंचा और अपने खेतों में बोरवैल का पानी ले जाने लगा तो अमर ने उस का विरोध किया और कहा, ‘‘10,000 रुपए बकाया हो गया है. पहले रुपए चुकता करो, तब पानी ले जाओ. डीजल 110 रुपए प्रति लिटर हो गया है. मोटर पंप कैसे चलेगा? मेरे पास पैसा रहेगा, तभी तो पंप में डीजल डाला जाएगा.’’ अमर ने सरकारी अनुदान से अपने खेत में बोरवैल लगाया था.

बोरवैल का पानी वह 300 रुपए प्रति घंटा के हिसाब से दूसरों को सिंचाई के लिए बेचता था. उस से मिले पैसे से वह बोरवैल की सरकारी किस्त भरता था. वह जब भी सूर्यभान से सिंचाई का पैसा मांगता, वह रुपए देने में आनाकानी करता. तब अमर ने इस की शिकायत सरपंच भानु प्रताप सिंह से की थी, लेकिन सरपंच ने कभी सुनवाई तक नहीं की. ‘‘पानी का बकाया… मेरे पास तेरा कोई बकाया नहीं है. तू मुझ पर धौंस जमाना चाहता है. तू जानता नहीं है कि मैं कौन हूं. तेरी बिरादरी से मैं ने ही तेरा हुक्कापानी बंद कराया. इस के बावजूद तेरी हेकड़ी नहीं गई. ठहर, कल तुम्हारी सारी हेकड़ी भुला दूंगा,’’

उलटे सूर्यभान सिंह ने उस पर रोब जमाते हुए गुस्से  में कहा. सूर्यभान सिंह और अमर दोनों का शोरगुल सुन कर वहां खेतों में सिंचाई कर रहे खेतिहर मजदूर जुट गए और किसी तरह समझाबुझा कर मामला  शांत कराया गया. पैर पटकते हुए सूर्यभान सिंह जाने लगा. जातेजाते उस ने अमर को बुरे नतीजे भुगतने की चेतावनी दी. अमर के गांव में ऊंची जाति वालों की तूती बोलती थी.

लोगों के दिलोदिमाग पर सरपंच भानु प्रताप सिंह और सूर्यभान सिंह का खौफ छाया रहता था. उन के आदेश के बिना कोई भी शख्स अपना निजी काम तक नहीं कर सकता था. अगर बिना इजाजत किसी ने कुछ किया, तो उस की खैर नहीं थी. वहां सूर्यभान सिंह पहुंच कर काम रुकवा देता और मोटी रकम ले कर ही काम करने देता. जो कोई रुपए देने में आनाकानी करता, उसे घसीटते हुए सरपंच के पास ले जाता और झूठे आरोप लगा कर उसे सजा दिला कर ही दम लेता.

वह किसी को नहीं छोड़ता था. 40 साल का सूर्यभान सिंह एक बेऔलाद व अक्खड़ पहलवान था, जो अपनी ताकत का इस्तेमाल लोगों को सताने में किया करता था. वह अपनी दबंगई दिखाने के लिए अकसर सरपंच के इशारों पर नाचता था.  सरपंची का चुनाव हो या ठेकेदारी, किसी प्रतिद्वंद्वी को सबक सिखाना हो या फिर किसी मामले को दबाना, वह परछाईं की तरह सरपंच भानु प्रताप सिंह के साथ रहता था. उस के आतंक के खिलाफ कोई अपनी जबान तक नहीं खोलता था.  अगले दिन अमर के दरवाजे पर सरपंच का कारिंदा पहुंचा और पंचायत में ठीक दिन के 12 बजे आने की सूचना दी.

कारिंदे के जाने के बाद अमर ने आरती को फोन किया और सूर्यभान सिंह के साथ हुई घटना का जिक्र किया. साथ ही, पंचायत में पहुंचने को कहा. ‘‘अपनी मां की मौत पर बिना किसी रीतिरिवाज की चिंता किए तू ने दाह संस्कार किया है. उस की भरपूर सजा मिलेगी. पहले 5 ब्राह्मणों को 1-1 बछिया दान दो और मृत्युभोज में पूरे गांव को खाना खिलाना जरूरी है. इस गांव में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है.’’ सरपंच भानु प्रताप सिंह ने अपना फरमान जारी करते हुए कहा. ‘‘बोलो अमर, पंचायत का फैसला मंजूर है या गांव छोड़ कर दूसरी जगह जाओगे?’’ पंच की हैसियत से सूर्यभान सिंह ने अमर से पूछा.

‘‘यह तो सरासर गलत फैसला है. अमर के साथ नाइंसाफी है. इस के खिलाफ भीम सेना अदालत का दरवाजा खटखटाएगी,’’ पंचायत में मौजूद आरती ने कहा. ‘‘भीम सेना जिंदाबाद…’’ का नारा लगाते हुए आरती के समर्थन में भीम सेना के दर्जनों कार्यकर्ता खड़े हो गए. ‘‘यह कोई राजनीतिक पार्टी की बैठक नहीं, जहां तुम लोग नारेबाजी कर रहे हो. यह पंचायत है, पंचायत. शांति से चले जाओ, वरना…’’ सरपंच भानु प्रताप सिंह ने चेतावनी दी. ‘‘वरना क्या करेंगे सरपंच साहब, दलित, पीडि़त और शोषितों पर गोली चलाएंगे. वह जमाना लद गया, जब आप की गीदड़ भभकी से लोग डर जाते थे. हम आप की मनुवादी विचारधारा के खिलाफ हैं. जरूरत पड़ी तो सड़क से सदन तक आवाज बुलंद करेंगे,’’ आरती ने बिना डरे अपनी बात रखी और अपने समर्थकों को शांत रहने का इशारा किया. ‘‘गीदड़ की मौत आती है, तो वह शहर की ओर भागता है. वह समय अब आ गया है,

’’ सरपंच भानु प्रताप सिंह ने भीम सेना पर ताना कसा. ‘‘मौत की बात करते हैं सरपंच साहब, शर्म नहीं आती है. अमर की मां सुबह मरी थीं और शाम तक कंधा देने वाले लोग नहीं मिले.  ‘‘आप मृत्युभोज व गाय दान देने की बात करते हैं. जिस के घर में अन्न का एक दाना नहीं है, न पैसे हैं, वह अपने पुरखों की जमीन बेच कर क्यों सामंतियों का पेट भरेगा? आप ने तो इनसानियत को शर्मसार किया है. आप को मरने के लिए चुल्लू भर पानी भी नसीब नहीं होगा…’’

‘धांय’ गोली चलने की आवाज गूंजी. अभी आरती बोल ही रही थी कि सूर्यभान सिंह ने पिस्टल का ट्रिगर दबा दिया. भयानक आवाज के साथ गोली आरती के सिर के ऊपर से निकल गई.

पंचायत में भगदड़ मच गई. लोग इधरउधर भागने लगे. भीम सेना के सदस्य सूर्यभान सिंह से भिड़ गए. माहौल बिगड़ता देख सरपंच भानु प्रताप सिंह ने पुलिस को सूचना दे दी. थोड़ी देर बाद ही वहां पुलिस दलबल के साथ पहुंच गई. इसी बीच अमर ने सूर्यभान सिंह के हाथ से उस का पिस्टल छीन लिया था. भीम सेना के सदस्य उस की जम कर पिटाई करने लगे.

जब सूर्यभान सिंह वहां से भागने लगा, तो सब ने मिल कर उसे पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया. थाने में आरती ने घटना की लिखित शिकायत की. थानेदार राजेंद्र प्रसाद ने घटना की जांच कर सूर्यभान सिंह के खिलाफ आर्म्स ऐक्ट का मामला दर्ज कर उसे जेल भेज दिया, वहीं अमर ने सरपंच भानु प्रताप सिंह पर मृत्युभोज के नाम  पर गरीबों को सताने की लिखित शिकायत की. दूसरे दिन आरती व अमर की खबरें सभी अखबारों, चैनलों, पोर्टलों और सोशल मीडिया की सुर्खियों में थीं.

बहादुर लड़की : क्या नक्सलियों को चकमा दे पाई सालबनी

आदिवासियों के जीने का एकमात्र साधन और बेहद खूबसूरत वादियों वाले हरेभरे पहाड़ी जंगलों को स्थानीय और बाहरी नक्सलियों ने छीन कर अपना अड्डा बना लिया था. उन्हें अपने ही गांवघर, जमीन से बेदखल कर दिया था. यहां के जंगलों में अनेक जड़ीबूटियां मिलती हैं. जंगल कीमती पेड़पौधों से भरे हुए हैं.

3 राज्यों से हो कर गुजरने वाला यह पहाड़ी जंगल आगे जा कर एक चौथे राज्य में दाखिल हो जाता था. जंगल के ऊंचेनीचे पठारी रास्तों से वे बेधड़क एक राज्य से दूसरे राज्य में चले जाते थे.

दूसरे राज्यों से भाग कर आए नक्सली चोरीचुपके यहां के पहाड़ी जंगलों में पनाह लेते और अपराध कर के दूसरे राज्यों के जंगल में घुस जाते थे.

कोई उन के खिलाफ मुंह खोलता तो उसे हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देते. यहां वे अपनी सरकारें चलाते थे. गांव वाले उन के डर से सांझ होने से पहले ही घरों में दुबक जाते. उन्हें जिस से बदला लेना होता था, उस के घर के बाहर पोस्टर चिपका देते और मुखबिरी का आरोप लगा कर हत्या कर देते थे.

नक्सलियों के डर से गांव वाले अपना घरद्वार, खेतखलिहान छोड़ कर शहरों में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे.

डुमरिया एक ऐसा ही गांव था, जो चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ था. पहाड़ी जंगल के कच्चे रास्ते को पार कर के ही यहां आया जा सकता था. यहां एक विशाल मैदान था. कभी यहां फुटबाल टूर्नामैंट भी होता था जो अब नक्सलियों के कब्जे में था. एक उच्च माध्यमिक स्कूल भी था जहां ढेर सारे लड़केलड़कियां पढ़ते थे.

पिछले दिनों नक्सलियों ने अपने दस्ते में नए रंगरूटों को भरती करने के लिए जबरदस्ती स्कूल पर हमला कर दिया और अपने मनपसंद स्कूली बच्चों को उठा ले गए. गांव वाले रोनेपीटने के सिवा कुछ न कर सके.

नक्सली उन बच्चों की आंखों पर पट्टी बांध कर ले गए थे. बच्चे उन्हें छोड़ देने के लिए रोतेचिल्लाते रहे, दया की भीख मांगते रहे, लेकिन उन्हें उन मासूमों पर दया नहीं आई. जंगल में ले जा कर उन्हें अलगअलग दस्तों में गुलामों की तरह बांट दिया गया. सभी लड़केलड़कियां अपनेअपने संगीसाथियों से बिछुड़ गए.

अगवा की गई एक छात्रा सालबनी को संजय पाहन नाम के नक्सली ने अपने पास रख लिया. वह रोरो कर उस दरिंदे से छोड़ देने की गुहार करती रही, लेकिन उस का दिल नहीं पसीजा. पहले तो सालबनी को उस ने बहलाफुसला कर मनाने की कोशिश की, लेकिन सालबनी ने अपने घर जाने की रट लगाए रखी तो उस ने उसे खूब मारा. बाद में सालबनी को एक कोने में बिठाए रखा.

सोने से पहले उन के बीच खुसुरफुसुर हो रही थी. वे लोग अगवा किए गए बच्चों की बात कर रहे थे.

एक नक्सली कह रहा था, ‘‘पुलिस हमारे पीछे पड़ गई है.’’

‘‘तो ठीक है, इस बार हम सारा हिसाबकिताब बराबर कर लेते हैं,’’ दूसरा नक्सली कह रहा था.

‘‘पूरे रास्ते में बारूदी सुरंग बिछा दी जाएंगी. उन के साथ जितने भी जवान होंगे, सभी मारे जाएंगे और अपना बदला भी पूरा हो जाएगा.’’

इस गुप्त योजना पर नक्सलियों की सहमति हो गई.

सालबनी आंखें बंद किए ऐसे बैठी थी जैसे उन की बातों पर उस का ध्यान नहीं है लेकिन वह उन की बातों को गौर से सुन रही थी. फिर बैठेबैठे वह न जाने कब सो गई. सुबह जब उस की नींद खुली तो देखा कि संजय पाहन उस के बगल में सो रहा था. वह हड़बड़ा कर उठ गई.

तब तक संजय पाहन की भी नींद खुल गई. उस ने हंसते हुए सालबनी को अपनी बांहों में जकड़ना चाहा. उस के पीले दांत भद्दे लग रहे थे जिन्हें देख कर सालबनी अंदर तक कांप गई.

सुबह संजय पाहन ने सालबनी से जल्दी खाना बनाने को कहा. खाना खाने के बाद वे लोग तैयार हो कर निकल गए. सालबनी भी उन के साथ थी.

उस दिन जंगल में घुसने वाले मुख्य रास्ते पर बारूदी सुरंग बिछा कर वे लोग अपने अड्डे पर लौट आए.

मौत के सौदागरों का खतरनाक खेल देख कर सालबनी की रूह कांप गई. उस ने मन ही मन ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वह इन्हें छोड़ेगी नहीं. वह मौका तलाशने लगी.

खाना बनाने का काम सालबनी का था. रात के समय वह खाना बनाने के साथ ही साथ भागने का जुगाड़ भी बिठा रही थी. खाना खा कर जब सभी सोने की तैयारी करने लगे तो उन के सामने सवाल खड़ा हो गया कि आज रात सालबनी किस के साथ सोएगी. संजय पाहन ने सब से पहले सालबनी का हाथ पकड़ लिया.

‘‘इस लड़की को मैं लाया हूं, इसे मैं ही अपने साथ रखूंगा.’’

‘‘क्या यह तुम्हारी जोरू है, जो रोज रात को तुम्हारे साथ ही सोएगी? आज की रात यह मेरे साथ रहेगी,’’ दूसरा बोला और इतना कह कर वह सालबनी का हाथ पकड़ कर अपने साथ ले जाने लगा.

संजय पाहन ने फुरती से सालबनी का हाथ उस से छुड़ा लिया. इस के बाद सभी नक्सली सालबनी को अपने साथ सुलाने को ले कर आपस में ही एकदूसरे पर पिल पड़े, वे मरनेमारने पर उतारू हो गए.

इसी बीच मौका देख कर सालबनी अंधेरे का फायदा उठा कर भाग निकली. वह पूरी रात तेज रफ्तार से भागती रही. भौर का उजाला फैलने लगा था. दम साधने के लिए वह एक ऊंचे टीले की ओट में छिप कर खड़ी हो गई और आसपास के हालात का जायजा लेने लगी.

सालबनी को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि वह जहां खड़ी है, उस का गांव अब वहां से महज 2-3 किलोमीटर की दूरी पर रह गया है. मारे खुशी के उस की आंखों में आंसू आ गए.

सालबनी डर भी रही थी कि अगर गांव में गई तो कोई फिर से उस की मुखबिरी कर के पकड़वा देगा. वह समझदार और तेजतर्रार थी. पूछतेपाछते सीधे सुंदरपुर थाने पहुंच गई.

जैसे ही सालबनी थाने पहुंची, रातभर भागते रहने के चलते थक कर चूर हो गई और बेहोश हो कर गिर पड़ी.

सुंदरपुर थाने के प्रभारी बहुत ही नेक पुलिस अफसर थे. यहां के नक्सलियों का जायजा लेने के लिए कुछ दिन पहले ही वे यहां ट्रांसफर हुए थे. उन्होंने उस अनजान लड़की को थाने में घुसते देख लिया था. पानी मंगा कर मुंह पर छींटे मारे. वे उसे होश में लाने की कोशिश करने लगे.

सालबनी को जैसे ही होश आया, पहले पानी पिलाया. वह थोड़ा ठीक हुई, फिर एक ही सांस में सारी बात बता दी.

थाना प्रभारी यह सुन कर सकते में आ गए. उन्हें इस बात की गुप्त जानकारी अपने बड़े अफसरों से मिली थी कि डुमरिया स्कूल के अगवा किए गए छात्रछात्राओं का पता लगाने के लिए गांव से सटे पहाड़ी जंगलों में आज रात 10 बजे से पुलिस आपरेशन होने वाला है. लेकिन पुलिस को मारने के लिए नक्सलियों ने बारूदी सुरंग बिछाई है, यह जानकारी नहीं थी.

उन्होंने सालबनी से थोड़ा सख्त लहजे में पूछा, ‘‘सचसच बताओ लड़की, तुम कोई साजिश तो नहीं कर रही, नहीं तो मैं तुम्हें जेल में बंद कर दूंगा?’’

‘‘आप मेरे साथ चलिए, उन लोगों ने कहांकहां पर क्याक्या किया है, वह सब मैं आप को दिखा दूंगी,’’ सालबनी ने कहा.

थाना प्रभारी ने तुरंत ही अपने से बड़े अफसरों को फोन लगाया. मामला गंभीर था. देखते ही देखते पूरी फौज सुंदरपुर थाने में जमा हो गई. बारूदी सुरंग नाकाम करने वाले लोग भी आ गए थे.

सालबनी ने वह जगह दिखा दी, जहां बारूदी सुरंग बिछाई गई थी. सब से पहले उसे डिफ्यूज किया गया.

सालबनी ने नक्सलियों का गुप्त ठिकाना भी दिखा दिया. वहां पर पुलिस ने रेड डाली, पर इस से पहले ही नक्सली वहां से फरार हो गए थे. वहां से अगवा किए गए छात्रछात्राएं तो नहीं मिले, मगर उन के असलहे, तार, हथियार और नक्सली साहित्य की किताबें जरूर बरामद हुईं.

इस तरह सालबनी की बहादुरी और समझदारी से एक बहुत बड़ा हादसा होतेहोते टल गया.

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