‘‘मारकर आइए या मर कर आइए. मेरे दूध की लाज रखना. टीचरजी, मैं तो एक ही सीख दे कर भेजूं छोरे को,’’ छाती ठोंक कर मेजर जसवंत सिंह राठौड़ की मां सुनंदा देवी उसे बता रही थीं.

राजस्थान के सुदूर इलाके में बसा एक छोटा सा गांव ‘छपरा ढाणी’. अर्पिता की बहाली वहां के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में हुई थी.

कुल जमा 20 बच्चे और वह एकलौती टीचर. ऐसा ठेठ गांव उस ने कभी नहीं देखा था. आगे होने वाली असुविधाओं के बारे में सोच कर एक बार तो उस ने भी इस्तीफा देने की ठान ली थी, पर जल्दी ट्रांसफर का भरोसा पा कर वह मन मसोस कर आ गई थी.

स्कूल क्या था जी, एक टपरा था बस. कच्ची मिट्टी का, खपरैल वाला. एक ही कमरे में 5वीं तक की जमात चलती थी. पहलीदूसरी जमात में

5-5, तीसरीचौथी जमात में कुल 8 और 5वीं जमात में सिर्फ 2 बच्चे थे. आगे की पढ़ाई के लिए पास के ही किसी दूसरे गांव में जाना पड़ता था.

पहला दिन अर्पिता को बहुत नागवार गुजरा. अगले दिन सुबह ही एक बच्चा लोटा भर दूध रख गया. शाम को वह खाना ले कर फिर आया. दौड़ कर वह जाने ही वाला था कि अर्पिता ने उसे पकड़ लिया, ‘‘बच्चे, अपना नाम तो बता कर जाओ.’’

‘‘माधव सिंह.’’

‘‘अच्छा माधव, मुझे अपने गांव की सैर कराओगे?’’

वह पलभर के लिए ठिठका और फिर सिर हिला कर हामी भर दी.

माधव कूदताफांदता आगे बढ़ रहा था. पर, अर्पिता को उस बलुई रेत में चलने का अभ्यास नहीं था. बारबार उस के पैर रेत में धंस जाते थे.

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