जया कह उठती, ‘‘बताओ तो, तुम्हारी अनदेखी कब की? सूरज, बाकी सब बाद में… मेरे दिल में पहला स्थान तो सिर्फ तुम्हारा है.’’
सूरज उसे बांहों में भींच कह उठता, ‘‘क्या मैं यह जानता नहीं?’’
उदय 4 साल का होने को आया. सूरज अकसर कहने लगा, ‘‘घर में तुम्हारे जैसी गुडि़या आनी चाहिए अब तो.’’
एक दिन घर में घुसते ही सूरज चहका, ‘‘भेलपूरी,’’ फिर सूंघते हुए किचन में चला आया, ‘‘जल्दी से चखा दो.’’
भेलपूरी सूरज की बहुत बड़ी कमजोरी थी. सुबह, दोपहर, शाम, रात भेलपूरी खाने को वह हमेशा तैयार रहता.
सूरज की आतुरता देख जया हंस दी, ‘‘डाक्टर हो, औरों को तो कहते हो बाहर से आए हो, पहले हाथमुंह धो लो फिर कुछ खाना और खुद गंदे हाथ चले आए.’’
सूरज ने जया के सामने जा कर मुंह खोल दिया, ‘‘तुम्हारे हाथ तो साफ हैं. तुम खिला दो.’’
‘‘तुम बच्चों से बढ़ कर हो,’’ हंसती जया ने चम्मच भर भेलपूरी उस के मुंह में डाल दी.
‘‘कमाल की बनी है. मेज पर लगाओ. मैं हाथमुंह धो कर अभी हाजिर हुआ.’’
‘‘एक प्लेट से मेरा क्या होगा. और दो भई,’’ मेज पर आते ही सूरज ने एक प्लेट फटाफट चट कर ली.
तभी फोन की घंटी टनटना उठी. फोन सुन सूरज गंभीर हो गया, ‘‘मुझे अभी जाना होगा. हमारा एक ट्रक दुर्घटनाग्रस्त हो गया. हमारे कुछ अफसर, कुछ जवान घायल हैं.’’
जया भेलपूरी की एक और प्लेट ले आई और सूरज की प्लेट में डालने लगी तो ‘‘जानू, अब तो आ कर ही खाऊंगा. मेरे लिए बचा कर रखना,’’ कह सूरज बाहर जीप में जा बैठा.
ट्रक दुर्घटना जया की जिंदगी की भयंकर दुर्घटना बन गई. फुल स्पीड से जीप भगाता सूरज एक मोड़ के दूसरी तरफ से आते ट्रक को नहीं देख सका. हैड औन भिडंत. जीप के परखचे उड़ गए. जीप में सवार चारों लोगों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया.
जया की पीड़ा शब्दों में बयां नहीं की जा सकती. वह 3 दिन बेहोश रही. घर मेहमानों से भर गया. पर चारों ओर मरघट सा सन्नाटा. घर ही क्यों, पूरी कालोनी स्तब्ध.
जया की ससुराल, मायके से लोग आए. उन्होंने जया से अपने साथ चलने की बात भी कही. लेकिन उस ने कहीं भी जाने से इनकार कर दिया. सासससुर कुछ दिन ठहर चले गए.
जया एकदम गुमसुम हो गई. बुत बन गई. बेटे उदय की बातों तक का जवाब नहीं. वह इस सचाई को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी कि सूरज चला गया है, उसे अकेला छोड़. जीप की आवाज सुनते ही आंखें दरवाजे की ओर उठ जातीं.
इंसान चला जाता है पर पीछे कितने काम छोड़ जाता है. मृत्यु भी अपना हिसाब मांगती है. डैथ सर्टिफिकेट, पैंशन, बीमे का काम, दफ्तर के काम. जया ने सब कुछ ससुर पर छोड़ दिया. दफ्तर वालों ने पूरी मदद की. आननफानन सब फौर्मैलिटीज पूरी हो गईं.
इस वक्त 2 बातें एकसाथ हुईं, जिन्होंने जया को झंझोड़ कर चैतन्य कर दिया. सूरज के बीमे के क्व5 लाख का चैक जया के नाम से आया. जया ने अनमने भाव से दस्तखत कर ससुर को जमा कराने के लिए दे दिया.
एक दिन उस ने धीमी सी फुसफुसाहट सुनी, ‘‘बेटे को पालपोस कर हम ने बड़ा किया, ये 5 लाख बहू के कैसे हुए?’’ सास का स्वर था.
‘‘सरकारी नियम है. शादी के बाद हकदार पत्नी हो जाती है,’’ सास ने कहा.
‘‘बेटे की पत्नी हमारी बहू है. हम जैसा चाहेंगे, उसे वैसा करना होगा. जया हमारे साथ जाएगी. वहां देख लेंगे.’’
जया की सांस थम गई. एक झटके में उस की आंख खुल गई. ऐसी मन:स्थिति में उस ने उदय को अपने दोस्त से कहते सुना, ‘‘सब कहते हैं पापा मर गए. कभी नहीं आएंगे. मुझ से तो मेरी मम्मी भी छिन गईं… मुझ से बोलती नहीं, खेलती नहीं, प्यार भी नहीं करतीं. दादीजी कह रही थीं हमें अपने साथ ले जाएंगी. तब तो तू भी मुझ से छिन जाएगा…’’
पाषाण बनी जया फूटफूट कर रो पड़ी. उसे क्या हो गया था? अपने उदय के प्रति इतनी बेपरवाह कैसे हो गई? 4 साल के बच्चे पर क्या गुजर रही होगी? उस के पापा चले गए तो मुझे लगा मेरा दुख सब से बड़ा है. मैं बच्चे को भूल गई. यह तो मुरझा जाएगा.
उसी दिन एक बात और हुई. शाम को मेजर देशपांडे की मां जया से मिलने आईं. वे जया को बेटी समान मानती थीं. वे जया के कमरे में ही आ कर बैठीं. फिर इधरउधर की बातों के बाद बोलीं, ‘‘खबर है कि तुम सासससुर के साथ जा रही हो? मैं तुम्हारीकोई नहीं होती पर तुम से सगी बेटी सा स्नेह हो गया है, इसलिए कहती हूं वहां जा कर तुम और उदय क्या खुश रह सकोगे? सोच कर देखो, तुम्हारी जिंदगी की शक्ल क्या होगी? तुम खुल कर जी पाओगी? बच्चा भी मुरझा जाएगा.
‘‘तुम पढ़ीलिखी समझदार हो. पति चला गया, यह कड़वा सच है. पर क्या तुम में इतनी योग्यता नहीं है कि अपनी व बच्चे की जिंदगी संभाल सको? अभी पैसा तुम्हारा है, कल भी तुम्हारे पास रहेगा, यह भरोसा मत रखना. पैसा है तो कुछ काम भी शुरू कर सकती हो. काम करो, जिंदगी नए सिरे से शुरू करो.’’
जया ने सोचा, ‘दुख जीवन भर का है. उस से हार मान लेना कायरता है. सूरज ने हमेशा अपने फैसले खुद करने का मंत्र मुझे दिया. मुझे उदय की जिंदगी बनानी है. आज के बाद अपने फैसले मैं खुद करूंगी.’
4 साल बीत गए. जया खुश है. उस दिन उस ने हिम्मत से काम लिया. जया का नया आत्मविश्वासी रूप देख सासससुर दोनों हैरान थे. उन की मिन्नत, समझाना, उग्र रूप दिखाना सब बेकार गया. जया ने दोटूक फैसला सुना दिया कि वह यहीं रहेगी. सासससुर खूब भलाबुरा कह वहां से चले गए.
जया ने वहीं आर्मी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. इस से उसे घर भी नहीं छोड़ना पड़ा. जड़ों से उखड़ना न पड़े तो जीना आसान हो जाता है. अपने ही घर में रहते, अपने परिचित दोस्तों के साथ पढ़तेखेलते उदय पुराने चंचल रूप में लौट आया.
मेजर शांतनु देशपांडे ने उसे सूरज की कमी महसूस नहीं होने दी. स्कूल का
होमवर्क, तैरना सिखाना, क्रिकेट के दांवपेच, शांतनु ने सब संभाला. उदय खिलने लगा. उदय को खुश देख जया के होंठों की हंसी भी लौटने लगी.
शाम का समय था. उदय खेलने चला गया था. जया बैठी जिंदगी के उतारचढ़ाव के बारे में सोच रही थी. जिंदगी में कब, कहां, क्या हो जाए, उसे क्या पहले जाना जा सकता है? मैं सूरज के बगैर जी पाऊंगी, सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन जी तो रही हूं. छोटे उदय को मैं ने चलना सिखाया था. अब लगता है उस ने मुझे चलना सिखाया. देशपांडे ने सच कहा था जीवन को नष्ट करने का अधिकार मानव को नहीं है. इसे संभाल कर रखने में ही समझदारी है.
शुरू के दिनों को याद कर के जया आज भी सिहर उठी. वैधव्य का बोझ, कुछ करने का मन ही नहीं होता था. पर काम तो सभी करने थे. घर चलाना, उदय का स्कूल, स्कूल में पेरैंट टीचर मीटिंग, घर की छोटीबड़ी जिम्मेदारियां, कभी उदय बीमार तो कभी कोई और परेशानी. आई और शांतनु का सहारा न होता तो बहुत मुश्किल होती.
शांतनु का नाम याद आते ही मन में सवाल उठा, ‘पता नहीं उन्होंने अब तक शादी क्यों नहीं की? हो सकता है प्रेम में चोट खाई हो. आई से पूछूंगी.’
जया उठ कर अपने कमरे में चली आई पर उस का सोचना बंद नहीं हुआ. ‘मैं शांतनु पर कितनी निर्भर हो गई हूं, अनायास ही, बिना सोचेसमझे. वे भी आगे बढ़ सब संभाल लेते हैं. पिछले कुछ समय से उन के व्यवहार में हलकी सी मुलायमियत महसूस करने लगी हूं. ऐसा लगता है जैसे कोई मेरे जख्मों पर मरहम लगा रहा है. उदय का तो कोई काम अंकल के बिना पूरा नहीं होता. क्यों कर रहे हैं वे इतना सब?’
शाम को जया बगीचे में पानी दे रही थी. उदय साथसाथ सूखे पत्ते, सूखी घास निकालता जाता. अचानक वह जया की ओर देखने लगा.
‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मेरे सिर पर क्या सींग उग आए हैं?’’
उदय उत्तेजित सा उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मम्मी, मुझे पापा चाहिए.’’
जया स्तब्ध रह गई.
उस के कुछ कहने से पहले ही उदय कह उठा, ‘‘अब मैं शांतनु अंकल को अंकल नहीं पापा कहूंगा,’’ और फिर वह घर के भीतर चला गया.
उस रात जया सो नहीं पाई. उदय के मन में आम बच्चों की तरह पापा की कमी कितनी खटक रही है, क्या वह जानती नहीं. जब सूरज को खोया था उदय छोटा था, तो भी जो छवि उस के नन्हे से दिल पर अंकित थी, वह प्यार करने, हर बात का ध्यान रखने वाले पुरुष की थी. उस की बढ़ती उम्र की हर जरूरत का ध्यान शांतनु रख रहे थे. उन की भी वैसी ही छवि उदय के मन में घर करती जा रही थी.
आई और शांतनु भी यही चाहते हैं.
इशारों में अपनी बात कई बार कह चुके हैं. वही कोई फैसला करने से बचती रही है.
क्या करूं? नई जिंदगी शुरू करना गलत तो नहीं. शांतनु एक अच्छे व सुलझे इंसान हैं.
उदय को बेहद चाहते हैं. आई और शांतनु दोनों मेरा अतीत जानते हैं. शादी के बाद जब यहां आई थी, तब से जानते हैं. अभी दोनों परिवार बिखरे, अधूरेअधूरे से हैं. मिल जाएं तो पूर्ण हो जाएंगे.
वसंतपंचमी के दिन आई ने जया व उदय को खाने पर बुलाया. उदय जल्दी मचा कर शाम को ही जया को ले वहां पहुंच गया. जया ने सोचा, जल्दी पहुंच मैं आई का हाथ बंटा दूंगी.
आई सब काम पहले से ही निबटा चुकी थीं. दोनों महिलाएं बाहर बरामदे में आ बैठीं. सामने लौन में उदय व शांतनु बैडमिंटन खेल रहे थे. खेल खत्म हुआ तो उदय भागता
बरामदे में चला आया और आते ही बोला,
‘‘मैं अंकल को पापा कह सकता हूं? बोलो
न मम्मी, प्लीज?’’
जया शर्म से पानीपानी. उठ कर एकदम घर के भीतर चली आई. पीछेपीछे आई भी आ गईं. जया को अपने कमरे में ला बैठाया.
‘‘बिटिया, जो बात हम मां बेटा न कह सके, उदय ने कह दी. शांतनु तुम्हें बहुत
चाहता है. तुम्हारे सामने सारी जिंदगी पड़ी है. उदय को भी पिता की जरूरत है और मुझे भी तो बहू चाहिए,’’ आई ने जया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मना मत करना.’’
जया के सामने नया संसार बांहें पसारे खड़ा था. उस ने लजा कर सिर झुका लिया.
आई को जवाब मिल गया. उन्होंने अलमारी खोल सुनहरी साड़ी निकाल जया
को ओढ़ा दी और डब्बे में से कंगन निकाल पहना दिए.
जया मोम की गुडि़या सी बैठी थी.
उसी समय उदय अंदर आया. वहां का नजारा देख वह चकित रह गया.
आई ने कहा, ‘‘कौन, उदय है न? जा तो बेटा, अपने पापा को बुला ला.’’
‘‘पापा,’’ खुशी से चिल्लाता उदय बाहर भागा.
जया की आंखें लाज से उठ नहीं रही थीं. आई ने शांतनु से कहा, ‘‘मैं ने अपने
लिए बहू ढूंढ़ ली है. ले, बहू को अंगूठी पहना दे.’’
शांतनु पलक झपकते सब समझ गया. यही तो वह चाह रहा था.
मां से अंगूठी ले उस ने जया की कांपती उंगली में पहना दी.
‘‘पापा, अब आप मेरे पापा हैं. मैं आप को पापा कहूंगा,’’ कहता उदय लपक कर शांतनु के सीने से जा लगा.