
वह और सुमित परेशान हो गए. नीचे जा कर उस ने मनीषा को अपनी परेशानी बताई व सुमित ने ऊपर वाले फ्लैट में जा कर संजना के पति से फिलहाल उस वाले बाथरूम को इस्तेमाल न करने की प्रार्थना की. पर मनीषा, जो पहले से ही नाराज चल रही थी, सुनते ही भड़क गई. ‘‘हमारे यहां तो कोई दिक्कत नहीं…तुम्हारे यहां है, तुम जानो.’’ ‘‘मैं यह नहीं कह रही मनीषा कि तुम्हारे कारण दिक्कत है… समस्या तो कहीं बीच में है… प्लंबर को बुलाने जा रहे हैं सुमित… पर थोड़ी दिक्कत तुम्हें भी होगी… प्लंबर यहां भी आएगा… देखेगा कि आखिर दिक्कत कहां है…’’ ‘‘मुझे तो आज बाहर जाना है… घर पर नहीं हूं.’’ ‘‘उफ, तो ऐसा करो तुम मुझे चाबी दे जाना… मैं खुद यहां पर खड़ी हो कर काम करवा लूंगी.’’ ‘‘अरे ऐसे कैसे चाबी दे दूं… पता नहीं कौन प्लंबर है… हर ऐरेगैरे नत्थु खैरे को घर में घुसा दो,’’ मनीषा बड़बड़ाने लगी. ‘‘देखो मनीषा, प्लंबर को दिखाना तो पड़ेगा… यह परेशानी भुगती तो नहीं जा सकती… ठीक तो करवानी ही पड़ेगी,’’ कह कर राशि ऊपर आ गई. उस दिन मनीषा के पति रोनित ने बात संभाल ली. प्लंबर आया. मनीषा के फ्लैट से ही उसे पाइप की प्रौबलम ठीक करनी पड़ी.
लेकिन मनीषा का राशि से उखड़ा मूड और भी उखड़ गया. शिवानी के नीचे वाले फ्लैट में रहने वाली रजनी भी कुछ कम नहीं थी. शिवानी तो इन तीनों से कई बार उलझ भी पड़ती, फिर ठीक भी हो जाती. पर राशि के बस का नहीं था ये सब कि कभी झगड़ा कर पीठ पीछे बुराइयां करो और फिर साथ बैठ कर कौफी पी लो. छोटीछोटी बातों पर किसी से झगड़ा करना नहीं आता था. एक दिन कूड़े वाला राशि की कूड़े की थैली उठा कर ले गया और रजनी के दरवाजे के सामने रख कर भूल गया.
रजनी ने शोर मचा दिया, ‘‘न जाने किस बदतमीज ने रख दिया यहां कूड़ा… शर्म नहीं आती… अनपढ़गंवार कहीं के…’’ बाहर शोर सुन कर राशि भी बाहर निकल आई. राशि दरवाजे पर रखी अपनी कूड़े की थैली तुरंत पहचान गई. जल्दी से नीचे उतर कर उस ने थैली उठा ली, ‘‘सौरी रजनी… लगता है कूड़ेवाला भूल से छोड़ गया,’’ पर रजनी के चेहरे के भाव व पहले सुने गए शब्द उसे अंदर तक अपमानित कर गए थे. अपार्टमैंट में होने वाले होली, दीवाली, नए साल, क्रिसमस के प्रोग्राम राशि को भी अच्छे लगते, खुशी देते पर ये छोटीछोटी परेशानियां उसे अंदर तक आहत कर देतीं.
सुमित राशि को समझाता, ‘‘मैं तो सोसाइटी के फ्लैट में आना ही नहीं चाहता था पर अब आ गए हैं तो सब के स्वभाव को झेलने की आदत बना लो… शिवानी भी तो यहीं रह रही है… इतना सैंसिटिव होने की जरूरत नहीं है. सब की अपनी फितरत होती है… कोई हमारी तरह का नहीं हो सकता… जो जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार कर लो… और क्या कर सकते हैं…’’ ‘‘पर फिर भी सुमित… आतेजाते ऐसे तनाव भरे चेहरे देख कर अच्छा नहीं लगता… थोड़े दिन ठीक रहती हैं ये तीनों, फिर लड़ पड़ती हैं किसी न किसी बात पर… अब फ्लैट्स इतने जुड़े होते हैं कि किसी से बिना मतलब रखे भी नहीं रहा जा सकता.’’
‘‘जैसे उस से रहा जाता है वैसे ही तुम भी रहो… तुम हर बात की परवाह क्यों करती हो. कुछ न कुछ प्रौबलम तो सब जगह होगी.’’ ऐसे ही छोटेछोटे सुखदुख के बीच जिंदगी बीत रही थी. राशि को भी धीरेधीरे 1 साल रहते होने को आ गया था. सुमित का प्रमोशन हुआ तो उस ने 16 परिवारों से सिर्फ 16 लेडीज को चाय पर बुला लिया. सब आईं सिवा मनीषा, रजनी व संजना के. बाकी सब ने कारण पूछा तो राशि को कारण ठीक से पता हो तो बताए. इतने छोटेछोटे भी कोई कारण होते हैं न्योता ठुकराने के. शिवानी को इन सब बातों से फर्क नहीं पड़ता था.
जब वे तीनों ठीक रहतीं तो वह भी अच्छे से बात कर लेती, जब नहीं रहतीं तो वह भी खुद मुंह पलट कर चली जाती. ‘‘लगता है, रजनी के घर आजकल मेहमान आए हैं. काफी चहलपहल रहती है,’’ एक दिन सुबह चाय पीती हुई राशि सुमित से कह रही थी कि तभी 3-4 बार जल्दीजल्दी घंटी बज उठी. ‘‘इतनी सुबह ऐसी घंटी कौन बजा रहा है,’’ हड़बड़ाहट में दोनों दरवाजे की तरफ बढ़े. रजनी की कामवाली खड़ी थी, ‘‘भाभीजी, जल्दी नीचे चलिए रजनी भाभी के ससुरजी गुजर गए.’’ ‘‘ससुरजी गुजर गए… उन के सासससुर आए हुए थे क्या?’’ ‘‘हां, जल्दी चलिए… रात में उन की तबीयत खराब हुई… भैया अस्पताल ले कर गए थे… सुबह गुजर गए. घर में सिर्फ भाभीजी और उन की सास हैं…भैया अभी अस्पताल में ही हैं.’’ सुमित और राशि हड़बड़ाहट में सीढि़यां उतर गए.
अंदर दोनों सासबहू विलाप कर रही थीं. राशि दोनों को सांत्वना देने लगी. थोड़ी देर में पार्थिव शरीर घर आ गया. फ्लैट रिश्तेदारों व जानपहचान वालों से भरने लगा. राशि ने रजनी के दोनों बच्चों की जिम्मेदारी सहर्ष अपने ऊपर ले ली. वह उन्हें अपने घर ले आई. जितनी मदद कर सकती थी उस ने सारे पूर्वाग्रह भूल कर उन की 13 दिन तक की. 13वीं हो गई. इस मुसीबत के वक्त राशि का सहयोग रजनी के दिल को छू गया. अब वह संजना व मनीषा की परवाह करे बगैर राशि से ठीक से रिश्ता रखने लगी. संजना से राशि का आमनासामना तब भी कम होता था पर मनीषा से अकसर हो जाता था. इसलिए मनीषा का दुर्व्यवहार उसे बहुत अखरता था. संजना का बेटा मयंक और मनीषा की बेटी खुशी एक ही स्कूल में पढ़ते व एक ही रिकशे से स्कूल आतेजाते थे.
उस दिन सुमित की छुट्टी होने के कारण राशि और सुमित मार्केट से लौट रहे थे तो रास्ते में सड़क में भीड़ देख कर वे भी रुक गए. ‘‘क्या हुआ? उन्होंने एक राहगीर से पूछा.’’ ‘‘ऐक्सीडैंट हुआ है… एक रिकशे को कार ने टक्कर मार दी… 2 बच्चे बैठे थे रिकशे में…’’ ‘‘उफ, बच्चे तो ठीक हैं.’’ ‘‘चोटें आई हैं काफी.’’ सुमित उतर कर देखने चला गया. घायल मयंक व खुशी सड़क पर बैठे रो रहे थे. रिकशे वाले व कार चालक के बीच लड़ाई हो रही थी.
किचनमें पत्नीजी के द्वारा जिस तरह से जोरजोर से बरतन पटके जा रहे थे, उस से मुझे अंदाजा हो गया कि घर में काम करने वाली ने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली है, इसलिए नाराजगी बरतनों पर निकल रही है.
नौकरानी का घर पर नहीं आने का दोष भला बरतनों पर क्यों उतारा जाए? मैं सोचता रहा लेकिन उन से कुछ कहा नहीं. रात को बिस्तर में जाने से पहले वे फोन पर अपनी मां से नौकरानी की शिकायतें करती रहीं, ‘‘मम्मी, ये कमला ऐसे ही नागा करती है. इस का वेतन काटो तो बुरा मुंह बना लेती है. मैं तो यहां की नौकरानियों से तंग आ चुकी हूं.’’
उधर सासूजी न जाने क्या कह रही थीं, जिसे सुन कर पत्नीजी हांहूं किए जा रही थीं. फिर वे कह उठीं, ‘‘नहीं मम्मीजी, ऐसा मत कहो,’’ और फिर जोरों से हंस दीं.
आखिर मामला क्या है? सोच कर मेरा दिल जोरों से धड़क उठा.
पत्नीजी ने टैलीफोन रखा और गीत गुनगुनाती हुई आ कर लेट गईं.
‘‘बड़ी खुश हो, क्या नई नौकरानी खोज ली?’’ मैं ने उन से पूछा.
‘‘मेरी खुशी भी नहीं देखी जाती?’’ उन्होंने तमक कर कहा.
‘‘यही समझ लो, फिर भी बताओ तो कि मामला क्या है? क्या सासूजी आ रही हैं?’’
‘‘आप को कैसे पता?’’ पत्नी ने खुशीखुशी कहा.
मुझे तो जैसे बिजली का करंट लग गया. मैं ने सोचा सासूजी आएंगी तो कई महीने रह कर घर का बजट किसी भूकंप की तरह तहसनहस कर के ही जाएंगी.
मैं भी कल से 7-8 दिनों की छुट्टी ले कर कहीं चला जाता हूं, मैं ने मन ही मन विचार किया.
‘‘तुम्हें इतना खुश देख कर समझ गया था कि तुम्हारी मम्मीजी आ रही हैं,’’ मैं ने उन से कहा.
‘‘तुम कितने समझदार हो,’’ पत्नीजी ने मुझ से कहा तो सच जानिए मैं शरमा गया.
‘‘इसीलिए तो तुम ने मुझ से विवाह किया,’’ मैं ने कहा और उन के चेहरे को पढ़ने लगा. वे भी शर्म से लाल हो रही थीं.
मैं ने फिर प्रश्न किया, ‘‘वह घर की नौकरानी कब तक आ रही है?’’
पत्नीजी ने कहा, ‘‘एक बात सुन लीजिए. जब तक किसी के जीवन में चुनौतियां न हों, जीने का मजा ही नहीं आता. और प्रत्येक व्यक्ति के पीछे एक सैकंड लाइन होनी आवश्यक है.’’
मैं ने सुना तो मैं घबरा गया. पत्नीजी आखिर ये कैसी बातें कर रही हैं? मैं ने तो कभी पत्नीजी के पीछे किसी सैकंड लाइन के विषय में सोचा तक नहीं और आज ये क्या कह रही हैं? क्या मैं छुट्टी पर जा रहा हूं तो कोई दूसरा पुरुष मेरे स्थान पर यहां होगा? सोच कर ही मेरी रूह कांप गई. मेरे चेहरे पर आ रहे भावों को देख कर वे ताड़ गईं कि मेरे मन में क्या भाव चल रहा है.
हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैं आप के विषय में नहीं कह रही हूं…’’
‘‘फिर?’’‘‘मैं घर की नौकरानी कमला के बारे में कह रही हूं. उस की नागा, उस के अत्याचार इतने बढ़ चुके हैं कि आप विश्वास नहीं करेंगे कि मुझे उस से डर लगने लगा है. कभी भी नागा कर जाती है, वेतन काटो तो नौकरानियों के यूनियन में जाने की धमकी देती है. काम ठीक से करती नहीं. लेकिन मैं काम से निकाल नहीं सकती, क्योंकि घर में काम बहुत अधिक है…’’
‘‘फिर क्या सोचा…?’’
‘‘प्रत्येक परेशानी का कोई न कोई उपाय तो निकलता ही है.’’
‘‘क्या उपाय है वह?’’
‘‘वह उपाय ले कर ही तो मम्मीजी आ रही हैं,’’ पत्नीजी ने रहस्य को उजागर करते हुए कहा.
‘‘क्या उपाय है कुछ तो बताओ.’’
‘‘यह तो उन्होंने बताया नहीं, लेकिन वे कह रही थीं कि पूरी कालोनी की कामवाली बाइयों को सुधार कर रख दूंगी.’’
चूंकि सासूजी से मेरी कभी पटी नहीं थी, इसलिए मैं ने फिर सोचा कि उन के आने पर 7-8 दिनों की छुट्टी ले कर मैं शहर से बाहर घूम आता हूं. फिर मैं जिस सुबह बाहर गया, उसी रात को सासूजी ने मेरे घर में प्रवेश किया. पूरे 8 दिनों बाद मैं जब घर लौट कर आया तो देखा कि बालकनी में हमारी पत्नी गरमगरम पकौड़े खा रही हैं. सासूजी झूले में लेटी हैं और कमला यानी घर की नौकरानी रसोई में पकौड़े तलतल कर खिला रही है.
हमें आया देख कर पत्नीजी दौड़ कर हम से लिपट गईं और कहने लगीं, ‘‘यहां सब ठीक हो गया.’’
‘‘यानी कमला बाई वाला मामला…?’’
‘‘हां, कमला बाई एकदम ठीक हो गई.’’
‘‘कैसे…?’’
‘‘वह मैं बाद में बताऊंगी.’’
इतनी देर में कमला बाई प्रकट हो गई. हमारा सामान उठाया, कमरे में रखा और घर के बरतन साफ कर के, किचन में पोंछा लगा कर जातेजाते हमारे कमरे में आई और पत्नीजी से कहने लगी, ‘‘जाती हूं मेम साब नमस्ते.’’ यह कह कर वह सासूजी की ओर पलटी और बोली, ‘‘मैं जाती हूं अध्यक्षजी,’’ फिर वह विनम्रता के साथ चली गई.
घमंड में चूर रहने वाली कमला, जो एक भी अतिरिक्त काम नहीं करती थी और हमेशा अतिरिक्त काम का अतिरिक्त रुपया मांगती थी, आखिर ऐसा क्या हो गया कि इतनी बदल गई? मैं सोच रहा था, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था.
रात को भोजन के बाद जब पत्नीजी, मैं और सासूजी बैठ कर गप्पें मारने बैठे तो पत्नीजी ने बताया, ‘‘मैं कमला से बहुत परेशान हो गई थी. इस का असर पूरी गृहस्थी पर पड़ रहा था. मम्मीजी से मैं ने यह बात शेयर की, तो मम्मीजी ने कहा कि मैं आ कर एक दिन में सब परेशानियों को निबटा दूंगी.’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘वही तो बता रही हूं पर आप को एक पल का भी चैन नहीं है. हुआ यह कि मम्मीजी ने मुझे आने पर बताया कि उन का परिचय कमला बाई से यह कह कर करवाया जाए कि जहां ये रहती हैं वहां की नौकरानियों की यूनियन अध्यक्ष हैं. मैं ने वही किया भी. मम्मीजी ने यहां के काम को देखा और कमला बाई के सामने मुझ से कहा कि पूरी कालोनी में कितनी नौकरानियों की जरूरत है? मैं कामवाली बाइयों को काम भी दिलवाती हूं और इस समय 150 से अधिक काम करने वाली महिलाओं का पंजीयन मेरे पास है. वे सब यहां दिल्ली में काम करने के लिए आने को भी तैयार हैं. यहां काम कम, वेतन अधिक है और शहर की सारी सुविधाएं हैं.
‘‘लेकिन मम्मीजी इतनी कामवाली बाइयां रहेंगी कहां?’’ मैं ने पूछा तो वे बोलीं कि तू उस की चिंता मत कर. वैलफेयर डिपार्टमैंट ऐसी महिलाओं के निवास की व्यवस्था कम से कम दामों में कर देता है.
‘‘मम्मीजी पूरी कालोनी में 10 काम करने वाली महिलाओं की जरूरत है, मैं ने मम्मीजी से कहा तो उन्होंने तुरंत मोबाइल निकाल कर कमला बाई के सामने नंबर मिलाया ही था कि कमला ने दौड़ कर मम्मीजी के पांव पकड़ लिए और रोते हुए कहने लगी कि मैडमजी पीठ पर लात मार लो, लेकिन किसी के पेट पर लात मत मारो.
‘‘क्यों क्या हुआ? मम्मीजी बोलीं तो वह बोली कि मैडमजी सारी कामवाली बाइयां बेरोजगार हो जाएंगी.
‘‘लेकिन तुम भी तो परेशान करने में कसर नहीं करती हो, यह कहने पर उस का कहना था कि ऐसा नहीं है मैडमजी, हम जानबूझ कर छुट्टी ले कर केवल अपनी उपयोगिता बताना चाहते हैं कि हम भी इंसान हैं और हमारे नहीं आने से आप के कितने काम डिस्टर्ब हो जाते हैं. इसलिए आप हमें इंसान समझ कर इंसानों को जो बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए उन्हें हमें भी दिया करें.’’
‘‘कह तो यह सच रही है, मेरी ओर मम्मीजी ने देख कर कहा.
‘‘मैं पूरी बुनियादी सुविधाएं देने को तैयार हूं,’’ मैं ने झट से कहा.
‘‘आप को कभी मुझ से शिकायत नहीं मिलेगी. मुझ से ही नहीं कालोनी की काम करने वाली किसी भी महिला से,’’ उस ने मुझे आश्वासन दिया तो मम्मीजी ने मोबाइल बंद कर दिया और उसी दिन से कमला के व्यवहार में 100% परिवर्तन आ गया,’’ पत्नीजी ने पूरी बात का खुलासा करते हुए कहा.
‘‘वाह, क्या समझदारी का सुझाव सासूजी ने दिया. सांप भी मर गया, लाठी भी नहीं टूटी,’’ मैं ने प्रसन्नता से कहा.
‘‘लेकिन आप नौकरानी यूनियन की अध्यक्ष कब बनीं?’’ मैं ने सासूजी से हैरत से पूछा.
‘‘लो कर लो बात. तुम भी कितने भोले हो. अरे वह तो उस को ठीक करने का नाटक था,’’ सासूजी बोलीं.
फिर हम सभी जोर से हंस पड़े. हमें अपनी समझदार सासूमां की तरकीब पर गर्व हो आया.
‘‘ओके… बाय चुनचुन नहीं टुनटुन…’’ रितेश के कहते ही सब जाते हुए खूब हंसे, पर अनन्या का मन छलनी हुआ जा रहा था. उदास मन से वह अपने कमरे में आ कर बैठ गई.
रात को सोने के लिए जब वह बैड पर लेटी तो रजत के करीब जा कर उस के सीने में अपना मुंह छिपाए कुछ देर यों ही चुपचाप लेटी रही.
‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है? दोस्तों के साथ गप्पें मारते हुए ज्यादा ही थक गईं शायद?’’ रजत उस की पीठ पर हाथ रख कर बोला.
अनन्या अपना चेहरा रजत की ओर घुमाते हुए बोली, ‘‘एक बात पूछूं रजत… क्या तुम्हें बुरा नहीं लगता कि मैं इतनी मोटी हो गई हूं. फेस भी बदलाबदला सा लग रहा है…तुम ने तो एक स्लिमट्रिम, गोरी लड़की से शादी की थी…
7-8 महीनों में ही वह क्या से क्या हो गई.’’ ‘‘हा… हा… हा…’’ पहले तो रजत ने एक जोरदार ठहाका लगाया. फिर मुसकरा कर अनन्या की ओर देखते हुए बोला, ‘‘ओह अनन्या, कैसा सवाल है यह? यह सच है कि तुम्हें एक बीमारी हो गई है और उस में वेट कंट्रोल में नहीं रहता…पर यह बताओ कि क्या हम हमेशा वैसे ही दिखते रहेंगे जैसे शादी के वक्त थे? क्या जब बुढ़ापे में मैं गंजा हो जाऊंगा या फिर मेरे दांत टूट जाएंगे तो तुम्हें खराब लगने लगूंगा?’’
‘‘तुम मुझे प्यार तो करते हो न?’’ अनन्या के चेहरे पर निराशा अभी भी झलक रही थी. रजत एक बार फिर खिलखिला पड़ा, ‘‘अनन्या तुम इतनी समझदार हो कि मैं कब तुम से पूरी तरह जुड़ गया मैं ही नहीं समझ पाया. तुम मेरी केयर तो करती ही हो, मुझ से अपने मन की हर बात शेयर करती हो, बिना वजह कभी भी झगड़ा नहीं करतीं… और इतना क्वालिफाइड होने के बाद भी घर का काम करना पड़े तो नाकभौं नहीं सिकोड़ती… तुम सच में अपने नाम की तरह ही सब से बिलकुल अलग, बहुत खास हो.’’
‘‘पर इस से पहले तो आप ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा?’’ रजत की प्रेममयी बातें सुन भावविभोर हो अनन्या बोली.
‘‘मैं हूं ही ऐसा… बोलना कम और सुनना बहुत कुछ चाहता हूं… अनन्या यकीन करो, मुझे बिलकुल तुम सा ही पार्टनर चाहिए था.’’
अनन्या मंत्रमुग्ध हुए जा रही थी.
‘‘एक बात और कहूंगा…अपने शरीर का ध्यान रखना हम सब के लिए जरूरी है… पर बाहरी सुंदरता कभी मन पर हावी नहीं होनी चाहिए… तुम जब भी मेरे इस मन में झांक कर अपनी सूरत देखोगी, तुम्हें अपनी वही सूरत दिखाई देगी जो कल थी. आज भी वही और आने वाले कल भी.’’
‘‘ओह रजत… कुछ नहीं चाहिए मुझे अब… कोई मुझे कुछ भी कहता रहे परवाह नहीं… बस तुम्हारे दिल के आईने में मेरा अक्स यों ही चमकता रहे.’’
अनन्या नम आंखों को मूंद कर रजत से लिपट गई. रजत के प्रेम की लौ में पिघल कर वह स्वयं को बहुत हलका महसूस कर रही थी.
औफिस के काम से सनोबर 2 दिनों के लिए बाहर गई थी. आज उसे रात को आना था पर उस का काम सुबह ही हो गया तो वह दिन में ही फ्लाइट से आ गई. इस समय बेटी स्कूल में होगी, पति औफिस में और बाई तो 5 बजे आएगी. वह अपनी चाबी से दरवाजा खोल कर अंदर आई तो देखा लाईट जल रही है. बैडरूम
से कुछ आवाज आई तो वह दबे पैर बैडरूम तक गई तो देख कर अवाक रह गई. साहिल और बाई एक साथ…
वह वापस ड्राइंगरूम में आ गई. साहिल दौड़ता हुआ आया और बाई दबे पैर खिसक ली.
साहिल सनोबर को सफाई देने लगा, ‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था. मेरी तबीयत खराब थी तो वह सिर दबाने लगी और मैं बहक गया. उस ने भी मना नहीं किया.’’
वह और भी जाने क्याक्या कहता रहा. सनोबर बुत बनी बैठी रही. वह माफी मांगता रहा.
सनोबर धीरे से उठी और अपने और अपनी बच्ची के कुछ कपड़े बैग में डालने लगी. बच्ची आई तो उसे ले कर अपनी अम्मी के पास चली गई. साहिल उसे रोकता रहा, माफी मांगता रहा पर सनोबर को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.
घर आ कर मां से सारी बात बताई और फफक कर रो पड़ी, ‘‘साहिल ने मुझे धोखा दिया. अब मैं उस के साथ नहीं रह सकती.’’
बड़ी बेगम का दिल रो पड़ा. वर्षों पहले जिस आग में उन का घर जला था आज उन की बेटी के घर पर उस की आंच आ गई.
निकाह में शर्तें रखने से भी क्या हुआ? सब मर्द एकजैसे होते हैं, जब जिसे मौका मिल जाए कोई नहीं चूकता.
बड़ी बेगम ने बेटी को संभाला, ‘‘बेटी मैं तुम्हारा दुख समझ सकती हूं. तुम सो जाओ.’’ और उस का सिर अपनी गोद में रख कर सहलाने लगीं.
दूसरे दिन जब सनोबर औफिस गई और बच्ची स्कूल तो साहिल आया. जानता था बड़ी बेगम अकेली होगी. नौकरानी ने बैठाया. बड़ी बेगम को सलाम कर के बैठ गया. धीरे से बोला, ‘‘खालाजान, मुझ से बड़ी गलती हो गई. मैं एक कमजोर पल में बहक गया था. मुझ से गलती हो गई. मैं कसम खाता हूं अब कभी ऐसा नहीं होगा. मुझे माफ कर दीजिए, सनोबर से माफ करवा दीजिए,’’ इतना सब वह एक सांस में ही कह गया था.
बड़ी बेगम चुप रहीं. उन को बहुत दुख था और गुस्सा भी. साहिल की बातों और आंखों में शर्मिंदगी और पछतावा था. वे धीरे से बोलीं, ‘‘मैं कुछ नहीं कर सकती, जैसा सनोबर चाहे.’’
‘‘खालाजान मेरा घर टूट जाएगा, मेरी बेटी मेरे बारे में क्या सोचेगी? मैं सनोबर के बिना जी नहीं सकता.’’
बड़ी बेगम कुछ न कह सकीं.
शाम को जब सनोबर औफिस से आई तो बड़ी बेगम ने बताया कि साहिल आया था और माफी मांग रहा था.
सनोबर ने गुस्सा किया, ‘‘आप ने उसे आने क्यों दिया? हमारा कोई रिश्ता नहीं उस से. मैं तलाक लूंगी.’’
बड़ी बेगम को याद आया जब वकील साहब दूसरी बीवी ले आए थे तो वे भी मायके जाना चाहती थीं पर उन का न तो कोई सहारा था न वे अपने पैरों पर खड़ी थीं. आज सनोबर अपने पैरों पर खडी है. अपने फैसले खुद ले सकती है. फिर सोचने कि लगीं तलाक से इस मासूम बच्ची का क्या होगा? मां या बाप किसी एक से कट जाएगी. अगर दोनों ने दूसरी शादी कर ली तो इस का क्या होगा? वे अंदर ही अंदर डर गईर्ं. अपने बेटे को सनोबर और साहिल के बारे में बताया तो वह दूसरे दिन ही आ गया. दोनों बहनभाई की एक ही राय थी कि तलाक ले लिया जाए. साहिल रोज फोन करता, मैसेज भेजता पर सनोबर जवाब न देती.
साहिल बड़ी बेगम से मिन्नतें करता, ‘‘खालाजान, आप सब ठीक कर सकती हैं. एक बार मुझे माफ कर दीजिए और सनोबर से भी माफ करवा दीजिए. मैं अपनी गलती के लिए बहुत शर्मिंदा हूं.’’
एक दिन सनोबर औफिस से अपने फ्लैट पर कुछ सामान लेने गई तो उस ने देखा घर बिखरा है. किचन में भी कुछ बाहर का खाना पड़ा है. वह समझ गई बाई नहीं आ रही है. घर में हर तरफ लिखा था, ‘आई एम सौरी, वापस आ जाओ सनोबर.’ सनोबर को लगा साहिल 40 साल का नहीं, कोई नवयुवक हो और उसे मना रहा हो.
धीरेधीरे कई कोशिशों के बाद साहिल ने बड़ी बेगम को विश्वास दिला दिया कि यह एक कमजोर पल की भूल थी. उस ने पहले कभी कोई बेवफाई नहीं की. बड़ी बेगम ने सोचा यह तो सच है कि साहिल से भूल हो गई, अपनी गलती पर उसे शर्मिंदगी भी है, माफी भी मांग रहा है. प्रश्न बच्ची का भी है. वह दोनों में से किसी एक से छिन जाएगी. तो क्या इसे एक अवसर देना चाहिए?
बड़ी बेगम ने साहिल को बताया कि सनोबर तलाक लेने की तैयारी कर रही है. यह सुनते ही साहिल दौड़ादौड़ा आया, ‘‘खालाजान, अगर सनोबर ने तलाक की अर्जी डाली तो मैं मर जाऊंगा, मुझे एक मौका दीजिए और बच्चों की तरह रोने लगा.’’
बड़ी बेगम को दया आने लगी बोलीं, ‘‘तुम रो मत मैं आज बात करूंगी.’’
सनोबर बोली, ‘‘औफकोर्स अम्मी.’’
बड़ी बेगम ने भूमिका बांधी, ‘‘जब तुम्हारे अब्बू दूसरी बीवी ले आए थे तो मैं भी उन्हें छोड़ना चाहती थी पर सामने तुम दोनों बच्चे थे.’’
‘‘आप की बात अलग थी मैं खुद को और अपनी बच्ची को संभाल सकती हूं. उस की गलती की सजा उसे मिलना ही चाहिए, सनोबर बोली.’’
‘‘उस की गलती की सजा उस के साथसाथ तुम्हारी बेटी को भी मिलेगी या तो उस का बाप छिनेगा या मां और अगर तुम दोनों ने दूसरी शादी कर ली तो इस का क्या होगा?’’
‘‘अम्मी एक शादी से दिल नहीं भरा जो दूसरी करूंगी? रह गया पिता तो ऐसे पिता के होने से ना होना भला,’’ सनोबर के मन की सारी कड़वाहट होंठों पर आ गई.
‘‘तुमयकीन नहीं करोगी पर कुछ दिनों से मैं तुम्हें बेइंतहा याद कर रहा था,’’ विक्रम बोला.
‘‘अच्छा,’’ मिताली बोली.
‘‘तुम अचानक कैसे आ गईं?’’
‘‘किसी काम से दिल्ली आई थी और इसी तरफ किसी से मिलना भी था. मगर वह काम हुआ नहीं. फिर सोचा इतनी दूर आई हूं तो तुम से ही मिलती चलूं. तुम्हारे औफिस आए जमाने हो चले थे.’’
‘‘औफिस के दरदीवार तुम्हें बहुत मिस करते हैं?’’ विक्रम फिल्मी अंदाज में बोला.
वह बहुत जिंदादिल और प्रोफैशनल होने के साथसाथ बेहद कामयाब इंसान भी था.
‘‘यार प्लीज, तुम अब फिर से यह फ्लर्टिंग न शुरू करो,’’ मिताली हंसती हुई बोली.
‘‘क्या यार, तुम खूबसूरत लड़कियों की यही परेशानी है कि कोई प्यार भी जताए तो तुम्हें फ्लर्टिंग लगती है.’’
‘‘सच कह रहे हो… तुम क्या जानो खूबसूरत होने का दर्द.’’
‘‘उफ, अब तुम अपने ग्रेट फिलौसफर मोड में मत चली जाना,’’ विक्रम दिल पर हाथ रख फिल्मी अंदाज में बोला.
‘‘ओ ड्रामेबाज बस करो… तुम जरा भी नहीं बदले,’’ वह खिलखिलाती हुई बोली.
‘‘मैं तुम सा नहीं जो वक्त के साथ बदल जाऊं.’’
‘‘अरे इतने सालों बाद आई हूं कुछ खानेपीने को तो पूछ नालायक,’’ उस ने बातचीत को हलका ही रहने दिया और विक्रम का ताना इग्नोर कर दिया.
‘‘ओह आई एम सौरी. तुम्हें देख कर सब भूल गया. चाय लोगी न?’’
‘‘तुम्हारा वही पुराना मुंडू है क्या? वह तो बहुत बुरी चाय बनाता है,’’ उस ने हंसते हुए पूछा.
‘‘हां वही है. पर तुम्हारे लिए चाय मैं बना कर लाता हूं.’’
‘‘अरे पागल हो क्या… तुम्हारा स्टाफ क्या सोचेगा. तुम बैठो यहीं.’’
‘‘अरे रुको यार तुम फालतू की दादागीरी मत करो. अभी आया बस 5 मिनट में. औफिस किचन में बना कर छोड़ आऊंगा. सर्व वही करेगा,’’ कह वह बाहर निकल गया.
मिताली भी उठ कर औफिस की खिड़की पर जा खड़ी हुई. कभी इसी
बिल्डिंग में उस का औफिस भी था और वह भी सेम फ्लोर पर. वह और विक्रम 11 बजे की चाय और लंच साथ ही लेते थे. शाम को एक ही वक्त औफिस से निकलते थे. हालांकि अलगअलग कार में अपने घर जाते थे पर पार्किंग में कुछ देर बातें करने के बाद.
पूरी बिल्डिंग से ले कर आसपास के औफिस एरिया तक में सब को यही लगता था कि उन का अफेयर है. पर…
‘‘तुम फिर अपनी फैवरिट जगह खड़ी
हो गई?’’
‘‘बन गई चाय?’’
‘‘और क्या? मैडम आप ने हमारे प्यार की कद्र नहीं की… हम बहुत बढि़या हसबैंड मैटीरियल हैं.’’
‘‘स्वाह,’’ कह मिताली जोर से हंस पड़ी.
‘‘स्वाह… सिरमिट्टी सब करा लो पर अब तो हां कर दो.’’
तभी औफिस बौय चाय रख गया.
‘‘अब किस बात की हां करनी है?’’
‘‘मुझ से शादी की.’’
चाय का कप छूटतेछूटते बचा मिताली के हाथ से. बोली, ‘‘पागल हो क्या?’’
‘‘दीवाना हूं.’’
‘‘मेरा बेटा है 3 साल का… भूल गए हो तो याद दिला दूं.’’
‘‘सब याद है. मुझे कोई प्रौब्लम नहीं. उस के बिना नहीं रहना तुम्हें. साथ ले आओ.’’
‘‘अच्छा, बहुत खूब. क्या औफर है. और तुम्हें यह क्यों लगता है कि मैं इस औफर को ऐक्सैप्ट कर लूंगी?’’
‘‘शादी के बाद आज मिली हो इतने सालों बाद पर साफ दिख रहा है तुम अब भी मुझ से ही प्यार करती हो. तुम्हारी आंखें आज भी पढ़ लेता हूं मैं.’’
‘‘तो?’’
‘‘मतलब तुम मानती हो तुम अब भी मुझ से ही प्यार करती हो.’’
‘‘नहीं. मैं यह मानती हूं कि मैं तुम से भी प्यार करती हूं.’’
‘‘वाह,’’ विक्रम तलख हो उठा.
‘‘प्यार भी 2-4 से एकसाथ किया जा सकता है, यह मुझे मालूम न था.’’
‘‘ये सब क्या है यार… इतने समय बाद आई हूं और तुम यह झगड़ा ले बैठे.’’
विक्रम जैसे नींद से जागा, ‘‘सौरी, मुझे तुम्हें दुखी नहीं करना चाहिए है न? यह राइट तो तुम्हारे पास है.’’
‘‘विक्रम तुम्हें अच्छी तरह पता है मैं आदित्य से प्यार करती हूं. वह बेहद अच्छा और सुलझा हुआ इंसान है. उसे हर्ट करने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती. तुम्हारी इन्हीं बातों की वजह से मैं ने तुम्हारा फोन उठाना बंद कर दिया. और अब लग रहा है आ कर भी गलती की.’’
विक्रम बेहद गंभीर हो गया. सीट से उठ कर खिड़की के पास जा खड़ा हुआ. फिर मुड़ कर पास की अलमारी खोली. अलमारी के अंदर ही अच्छाखासा बार बना रखा था.
मिताली बुरी तरह चौंकी, ‘‘यह क्या है?’’
‘‘क्यों, दिख नहीं रहा? शराब है और क्या.’’
‘‘यह कब से शुरू की?’’
‘‘डेट नोट नहीं की वरना बता देता.’’
‘‘मैं मजाक नहीं कर रही.’’
‘‘मैं भी मजाक नहीं कर रहा.’’
‘‘अच्छा, तो यह नुमाइश मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करने के लिए कर रहे हो कि देखो तुम्हारे गम में मेरी क्या हालत है.’’
‘‘तुम हुईं?’’
‘‘नहीं रत्तीभर भी नहीं,’’ मिताली मुंह फेर कर बोली.
‘‘मुझे पता है तुम स्ट्रौंग हैड लड़की हो… यह तुम्हें मेरे करीब नहीं ला सकता, बल्कि तुम इरिटेट हो कर और दूर जरूर हो सकती हो. वैसे इस से दूर और क्या जाओगी,’’ कह तंज भरी हंसी हंसा.
‘‘मैं ने तो सुना था तुम्हारी सगाई हो गई है. मैं तो मुबारकबाद देने आई थी.’’
‘‘वाह, क्या खूब. तो नमक लगाने आई हो या अपना गिल्ट कम करने?’’
‘‘मैं ने सचमुच आ कर गलती की.’’
‘‘मैं तो पहले ही कह रहा हूं तुम और इरिटेट हो जाओगी.’’
‘‘ठीक है तो फिर चलती हूं?’’
‘‘जैसा तुम्हें ठीक लगे.’’
मिताली उठ खड़ी हुई.
विक्रम बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘सुनो…’’
‘‘कुछ रह गया कहने को अभी?’’
‘‘मुझे ही क्यों छोड़ा?’’
‘‘तुम ज्यादा मजबूत थे.’’
‘‘तो यह मजबूत होने की सजा थी?’’
‘‘पता नहीं, पर आदित्य बहुत इमोशनल है और उसे बचपन से हार्ट प्रौब्लम भी है और यह मैं पहले ही बता चुकी हूं.’’
‘‘तुम्हें ये सब पहले नहीं याद रहा था?’’
‘‘विक्रम क्यों ह्यूमिलिएट कर रहे हो यार… जाने दो न अब.’’
‘‘नहीं मीता… बता कर जाओ आज.’’
‘‘विक्रम मैं इस शहर में पढ़ने आई थी. फिर अच्छी जौब मिल गई तो और रुक गई.’’
‘‘आदित्य और मैं बचपन के साथी थे. उस का प्यार मुझे हमेशा बचपना या मजाक लगा. सोचा नहीं वह सीरियस होगा इतना. फिर तुम्हारे पास थी यहां इस शहर में बिलकुल अकेली तो तुम से बहुत गहरा लगाव हो गया. पर मैं ने शादी जैसा तो कभी न सोचा था न चाहा. न कभी कोई ऐसी बात ही कही थी तुम से. कोई हद कभी पार नहीं की.’’
‘‘अरे कहना क्या होता है?’’ वह लगभग चीख पड़ा, ‘‘सब को यही लगता था हम प्यार में हैं. सब को दिखता था… तुम ने ही जानबूझ कर सब अनदेखा किया और जब उस आदित्य का रिश्ता आया तो मुझे पलभर में भुला दिया. बस एक कार्ड भेज दिया?’’ सालों का लावा फूट पड़ा था.
मिताली चुप खड़ी रही.
‘‘बोलो कुछ?’’ वह फिर चिल्लाया.
‘‘क्या बोलना है अब. मुझे इतना पता है जब आदित्य ने प्रोपोज किया, तो मैं उसे न कर के हर्ट नहीं कर पाई. मेरे और उस के दोनों परिवार भी वहीं थे. पापा को क्या बोलूं कुछ समझ न आया और सब से बड़ी बात आदित्य मुझे ले कर ऐसे आश्वस्त था जैसे मैं बरसों से उसी की हूं. उसे 15 सालों से जानती थी और तुम्हें बस सालभर से. श्योर भी नहीं थी तुम्हें ले कर. तुम्हारे लिए मुझे लगता था तुम खुशमिजाज मजबूत लड़के हो, जल्दी मूव औन कर जाओगे.’’
‘‘मूव औन,’’ विक्रम बहुत ही हैरानी से चीखा, ‘‘मूव औन माई फुट. ब्लडी हैल… साला जिंदगीभर यह सालेगा. इस से तो लड़कियों की तरह दहाड़ें मार कर तुम्हारे आगे रो लिया होता. कम से कम तुम छोड़ के तो न जातीं.’’
‘‘ओ हैलो… कहां खोए हो?’’
विक्रम सोच के समंदर से बाहर आया. मिताली तो कब की जा चुकी थी और वह खुद ही सवालजवाब कर रहा था.
‘‘तुम गई नहीं?’’
‘‘पर्स छूट गया था उसे लेने आई हूं.’’
‘‘बस पर्स?’’
‘‘हां बस पर्स,’’ वह ठहरे लहजे में बोली, ‘‘बाय, अपना खयाल रखना,’’ कह कर बाहर निकल गई.
लिफ्ट बंद होने के साथ ही उस की आंखें छलक उठीं, ‘‘छूट तो बहुत कुछ गया यहां विक्रम. पर सबकुछ समेटने जितनी मेरी मुट्ठी नहीं. कुछ समेटने के लिए कुछ छोड़ना बेहद जरूरी है.’’
‘‘सर, आप मैडम को बहुत प्यार करते थे न?’’ टेबल से चाय के कप उठाते हुए उस के मुंडू ने पूछा. आखिर वही था जो तब से अब तक नहीं बदला था.
‘‘प्यार तो नहीं पता रे, पर साला आज तक यह बरदाश्त न हुआ कि मुझ पर इतनी लड़कियां मरती थीं… फिर यह ऐसे कैसे छोड़ गई मुझे…’’ कह उस ने गहरी सांस ली.
रामचरणबाबू यों तो बड़े सज्जन व्यक्ति थे. शहर के बड़े पोस्ट औफिस में सरकारी मुलाजिम थे और सरकारी कालोनी में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुख से रहते थे. लेकिन उन्हें पकौड़े खाने का बड़ा शौक था. पकौड़े देख कर वे खुद पर कंट्रोल ही नहीं कर पाते थे. रविवार के दिन सुबह नाश्ते में पकौड़े खाना तो जैसे उन के लिए अनिवार्य था. वे शनिवार की रात में ही पत्नी से पूछ लेते थे कि कल किस चीज के पकौड़े बना रही हो? उन की पत्नी कभी प्याज के, कभी आलू के, कभी दाल के, कभी गोभी के, तो कभी पालक के पकौड़े बनाती थीं और अगले दिन उन्हें जो भी बनाना होता था उसे रात ही में बता देती थीं. रामचरण बाबू सपनों में भी पकौड़े खाने का आनंद लेते थे. लेकिन बरसों से हर रविवार एक ही तरह का नाश्ता खाखा कर बच्चे बोर हो गए थे, इसलिए उन्होंने पकौड़े खाने से साफ मना कर दिया था.
उन का कहना था कि मम्मी, आप पापा के लिए बनाओ पकौड़े. हमें तो दूसरा नाश्ता चाहिए. रविवार का दिन जहां पति और बच्चों के लिए आराम व छुट्टी का दिन होता, वहीं मिसेज रामचरण के लिए दोहरी मेहनत का. हालांकि वे अपनी परेशानी कभी जाहिर नहीं होने देती थीं, लेकिन दुख उन्हें इस बात का था कि रामचरण बाबू उन के बनाए पकौड़ों की कभी तारीफ नहीं करते थे. पकौड़े खा कर व डकार ले कर जब वे टेबल से उठने लगते तब पत्नी द्वारा बड़े प्यार से यह पूछने पर कि कैसे बने हैं? उन का जवाब यही होता कि हां ठीक हैं, पर इन से अच्छे तो मैं भी बना सकता हूं.
मिसेज रामचरण यह सुन कर जलभुन जातीं. वे प्लेटें उठाती जातीं और बड़बड़ाती जातीं. पर रामचरण बाबू पर पत्नी की बड़बड़ाहट का कोई असर नहीं होता था. वे टीवी का वौल्यूम और ज्यादा कर देते थे. रामेश्वर रामचरण बाबू के पड़ोसी एवं सहकर्मी थे. कभीकभी किसी रविवार को वे अपनी पत्नी के साथ रामचरण बाबू के यहां पकौड़े खाने पहुंच जाते थे. आज रविवार था. वे अपनी पत्नी के साथ उन के यहां उपस्थित थे. डाइनिंग टेबल पर पकौड़े रखे जा चुके थे.
‘‘भाभीजी, आप लाजवाब पकौड़े बनाती हैं,’’ यह कहते हुए रामेश्वर ने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया.
‘‘हां, भाभी आप के हाथ में बड़ा स्वाद है,’’ उन की पत्नी भी पकौड़ा खातेखाते बोलीं.
‘‘अरे इस में कौन सी बड़ी बात है, इन से अच्छे पकौड़े तो मैं बना सकता हूं,’’ रामचरण बाबू ने वही अपना रटारटाया वाक्य दोहराया.
‘‘तो ठीक है, अगले रविवार आप ही पकौड़े बना कर हम सब को खिलाएंगे,’’ उन की पत्नी तपाक से बोलीं.
‘‘हांहां ठीक है, इस में कौन सी बड़ी बात है,’’ रामचरण बड़ी शान से बोले. ‘‘अगर आप के बनाए पकौड़े मेरे बनाए पकौड़ों से ज्यादा अच्छे हुए तो मैं फिर कभी आप की बात का बुरा नहीं मानूंगी और यदि आप हार गए तो फिर हमेशा मेरे बनाए पकौड़ों की तारीफ करनी पड़ेगी,’’ मिसेज रामचरण सवालिया नजरों से रामचरण बाबू की ओर देख कर बोलीं.
‘‘अरे रामचरणजी, हां बोलो भई इज्जत का सवाल है,’’ रामेश्वर ने उन्हें उकसाया.
‘‘ठीक है ठीक है,’’ रामचरण थोड़ा अचकचा कर बोले. शेखी के चक्कर में वे यों फंस जाएंगे उन्हें इस की उम्मीद नहीं थी. खैर मरता क्या न करता. परिवार और दोस्त के सामने नाक नीची न हो जाए, इसलिए उन्होंने पत्नी की चुनौती स्वीकार कर ली.
‘‘ठीक है भाई साहब, अगले रविवार सुबह 10 बजे आ जाइएगा, इन के हाथ के पकौड़े खाने,’’ उन की पत्नी ने मिस्टर और मिसेज रामेश्वर को न्योता दे डाला. सोमवार से शनिवार तक के दिन औफिस के कामों में निकल गए शनिवार की रात में मिसेज रामचरण ने पति को याद दिलाया, ‘‘कल रविवार है, याद है न?’’
‘‘शनिवार के बाद रविवार ही आता है, इस में याद रखने वाली क्या बात है?’’ रामचरण थोड़ा चिढ़ कर बोले.
‘‘कल आप को पकौड़े बनाने हैं. याद है कि भूल गए?’’
‘‘क्या मुझे…?’’ रामचरण तो वाकई भूल गए थे.
‘‘हां आप को. सुबह थोड़ा जल्दी उठ जाना. पुदीने की चटनी तो मैं ने बना दी है, बाकी मैं आप की कोई मदद नहीं करूंगी.’’ रामचरण बाबू की तो जैसे नींद ही उड़ गई. वे यही सोचते रहे कि मैं ने क्या मुसीबत मोल ली. थोड़ी सी तारीफ अगर मैं भी कर देता तो यह नौबत तो न आती. रविवार की सुबह 8 बजे थे. रामचरण खर्राटे मार कर सो रहे थे.
‘‘अजी उठिए, 8 बज गए हैं. पकौड़े नहीं बनाने हैं क्या? 10 बजे तो आप के दोस्त आ जाएंगे,’’ उन की मिसेज ने उन से जोर से यह कह कर उन्हें जगाया. मन मसोसते हुए वे जाग गए. 9 बजे उन्होंने रसोई में प्रवेश किया.
‘‘सारा सामान टेबल पर रखा है,’’ कह कर उन की पत्नी रसोई से बाहर निकल गईं.
‘‘हांहां ठीक है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं मैं सब कर लूंगा,’’ कहते हुए रामचरण बाबू ने चोर नजरों से पत्नी की ओर देखा कि शायद वे यह कह दें, रहने दो, मैं बना दूंगी. पर अफसोस वे बाहर जा चुकी थीं. ‘जब साथ देने की बारी आई तो चली गईं. वैसे तो कहती हैं 7 जन्मों तक साथ निभाऊंगी,’ रामचरण भुनभुनाते हुए बोले. फिर ‘चल बेटा हो जा शुरू’ मन में कहा और गैस जला कर उस पर कड़ाही चढ़ा दी. उन्होंने कई बार पत्नी को पकौड़े बनाते देखा था. उसे याद करते हुए कड़ाही में थोड़ा तेल डाला और आंच तेज कर दी. पकौड़ी बनाने का सारा सामान टेबल पर मौजूद था. उन्होंने अंदाज से बेसन एक कटोरे में निकाला. उस में ध्यान से नमक, मिर्च, प्याज, आलू, अजवाइन सब डाला फिर पानी मिलाने लगे. पानी जरा ज्यादा पड़ गया तो बेसन का घोल पतला हो गया. उन्होनें फिर थोड़ा बेसन डाला. फिर घोल ले कर वे गैस के पास पहुंचे. आंच तेज होने से तेल बहुत गरमगरम हो गया था. जैसे ही उन्होंने कड़ाही में पकौड़े के लिए बेसन डाला, छन्न से तेल उछल कर उन के हाथ पर आ गिरा.
‘‘आह,’’ वे जोर से चिल्लाए.
‘‘क्या हुआ?’’ उन की पत्नी बाहर से ही चिल्लाईं और बोलीं, ‘‘गैस जरा कम कर देना वरना हाथ जल जाएंगे.’’
‘‘हाथ तो जल गया, ये बात पहले नहीं बता सकती थीं?’’ वे धीरे से बोले. फिर आंच धीमी की और 1-1 कर पकौड़े का घोल कड़ाही में डालने लगे. गरम तेल गिरने से उन की उंगलियां बुरी तरह जल रही थीं. वे सिंक के पास जा कर पानी के नीचे हाथ रख कर खड़े हो गए तो थोड़ा आराम मिला. इतने में ही उन का मोबाइल बजने लगा. देखा तो रामेश्वर का फोन था. उन्होंने फोन उठाया तो रामेश्वर अपने आने की बात कह कर इधरउधर की बातें करने लगे.
‘‘अजी क्या कर रहे हो, बाहर तक पकौड़े जलने की बास आ रही है,’’ उन की मिसेज रसोई में घुसते हुए बोलीं. रामचरण बाबू ने तुरंत फोन बंद कर दिया. वे तो रामेश्वर से बातचीत में इतने मशगूल हो गए थे कि भूल ही गए थे कि वे तो रसोई में पकौड़े बना रहे थे. दौड़ कर उन की मिसेज ने गैस बंद की. रामचरण भी उन की ओर लपके, पर तब तक तो सारे पकौड़े जल कर काले हो चुके थे. पत्नी ने त्योरियां चढ़ा कर उन की ओर देखा तो वे हकलाते हुए बोले, ‘‘अरे वह रामेश्वर का फोन आ गया था.’’
तभी ‘‘मम्मी, रामेश्वर अंकल और आंटी आ गए हैं,’’ बेटी ने रसोई में आ कर बताया.
‘‘अरे रामचरणजी, पकौड़े तैयार हैं न?’’ कहते हुए रामेश्वर सीधे रसोई में आ धमके. वहां जले हुए पकौड़े देख कर सारा माजरा उन की समझ में आ गया. वे जोरजोर से हंसने लगे और बोले, ‘‘अरे भई, भाभीजी की तारीफ कर देते तो यह दिन तो न देखना पड़ता?’’
‘‘जाइए बाहर जा कर बैठिए. मैं अभी दूसरे पकौड़े बना कर लाती हूं. बेटा, पापा की उंगलियों पर क्रीम लगा देना,’’ मिसेज रामचरण ने कहा. उस के आधे घंटे बाद सब लोग उन के हाथ के बने पकौड़े खा रहे थे. साथ में चाय का आनंद भी ले रहे थे.
‘‘क्यों जी, कैसे बने हैं पकौड़े?’’ उन्होंने जब रामचरण बाबू से पूछा तो, ‘‘अरे, तुम्हारे हाथ में तो जादू है. लाजवाब पकौड़े बनाती हो तुम तो,’’ कहते हुए उन्होंने एक बड़ा पकौड़ा मुंह में रख लिया. सभी ठहाका मार कर हंस दिए.
“थक गई हूं मैं घर के काम से, बस वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर का सारा टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं, अब मुझे भी चेंज चाहिए कुछ,”शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं.
एक बार अपनी बोरियत भरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान किया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.
मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं, जिस में वे घर वालों पर नहीं बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें, इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था.
यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी हो गई थी.
उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही एक विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो ‘चाहत’ की विजय हुई.
औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह, जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए.
शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर में जा कर लाइन में लग गईं.
जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को झट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा,”3 टिकट…”
अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया,”₹1200…”
शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में, उस व्यक्ति के होंठों को ₹1200 बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए नहीं देखतीं.
फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, “कितने?”
इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया.
उस ने जोर से कहा,”₹1200…”
शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोर की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई.
पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब ₹1200 उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.
10 मिनट पहले दरवाजा खुला तो हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं.
अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को झेलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के बीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उन्हें वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें… पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी.
लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था. साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिलें तो वे हमेशा आंखों से ही फूटता है.
वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा.
अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.
चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दीं.
शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी कम लंबी न थी.
जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मेन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं.
₹400 के सिर्फ पौपकौर्न, समोसे ₹80 का एक, सैंडविच ₹120 की एक और कोल्डड्रिंक ₹150 की एक.
एक गृहिणी जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो उन्हें 1 टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार ₹400 बता रहे थे.
शोभा के लिए वही बात थी कि कोई सुई की कीमत ₹100 बताए और उसे खरीदने को कहे.
उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे. मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का ख़र्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जोकि मुसीबत के लिए रखे थे वहां तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा.
सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है, लगता है मानों आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी.
थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासियत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.
सिर्फ ₹60 में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी.
बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं.
उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उनशके दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए?
तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा,”मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?”
अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी 1 को चुनने का था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए कहा,”आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसेट देखेंगे.”
शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला?
शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.