मलिका : रिद्धिमा के पापा क्यों जल्दी शादी करना चाहते थें

यह-कहानी शुरू होती है एक साधारण सी लड़की से, जिसे शायद कुदरत रंगरूप देना भूल गई थी, या फिर यों कहिए कि कुदरत ने उस साधारण लड़की में कुछ असाधारण गुण जड़ दिए थे जो वक्त के साथ उभरते और निखरते रहे. 3 बहनों में दूसरे नंबर की सांवली का नाम शायद उस के मातापिता ने उस के रंग के कारण ही रखा था. एक तो सांवली ऊपर से दांत भी बाहर निकले हुए, एक नजर में कुरूपता की निशानी. बड़ी और छोटी बहनें गजब की खूबसूरत थीं. दोनों बहनों में जैसे एक बदनुमा दाग की तरह दिखने वाली, मातपिता की सहानुभूति, रिश्तेदारों, परिचितों से मिली उपेक्षा ने सांवली में एक अद्भुत स्वरूप को उकेरना शुरू कर दिया था.

वह था स्वयं से प्यार. बचपन से ही अंतर्मुखी सांवली का दिमाग उम्र से ज्यादा तेज था. छोटीमोटी उलझनों को चुटकी में सुलझा देना उस के नैसर्गिक गुणों से शुमार था. जहां एक ओर उस की दोनों बहनें घरघर खेलतीं, सजतींसंवरतीं, वहीं सांवली गणित के सवालों को हल करती दिखती. वक्त के साथ तीनों जवान हो गईं. सांवली पढ़ाई में हमेशा अव्वल रही. बहनों की खूबसूरती और निखर गई, सांवली अपना संसार बुनती रही, जहां उस के अपने सपने थे. अपने दम पर खुद को सिर्फ खुद के लिए साबित करना, उस की प्रतियोगिता किसी और से नहीं, स्वयं से थी. जूडो और बौक्सिंग उस के पसंदीदा खेल थे. स्कूल और कालेज स्तरीय कई प्रतियोगिताओं के मैडल उस ने अपने नाम कर लिए थे. मातापिता को चिंता खाए जा रही थी कि तीनों का विवाह करना है और खासकर सांवली को ले कर चिंतित रहते थे कि कैसे होगा इस का विवाह, कौन इसे पसंद करेगा, ज्यादा दहेज देने की हैसियत नहीं है, क्या होगा? लेकिन सांवली इन सब बातों से बेफिक्र थी, उस की डिक्शनरी में अभी विवाह नाम का कोई शब्द नहीं था.

उस ने तो ठान लिया था कि मरुस्थल में फूल खिलाना है. ‘‘पता नहीं, रिद्धिमा के पापा ने लड़के वालों से बात की होगी या नहीं?’’ सांवली की मां मालती ने अपनी सासुमां गिरिजा देवी से कहा. ‘‘अब तो आता ही होगा, आ कर बताएगा कि क्या बात हुई, फिक्र क्यों करती हो,’’ गिरिजा देवी ने कहा. ‘‘अम्मां, 3 जवान लड़कियां छाती पर बैठी हों तो फिक्र तो होती ही है,’’ मालती बोली. ‘‘अरे रिद्धिमा तो खूबसूरत है, निबट ही जाएगी, फिक्र तो सांवली की रहती है, इस का क्या होगा,’’ गिरिजा देवी माथे पर हाथ रखती हुई बोलीं. ‘‘हमारी फिक्र न करो दादी, हमारा लक्ष्य सिर्फ शादी नहीं है, हम तो वे करेंगे जो कोई दूसरा नहीं करता,’’ सांवली ने तपाक से कहा. ‘‘क्या मतलब, क्या तू लड़की नहीं है,

लड़की की जात को चूल्हाचौका ही सुहाता है, समझी,’’ दादी ने आंखें तरेर कर कहा. ‘‘हां दादी, मैं तो समझी, पर आप नहीं समझीं,’’ कह सांवली हंस पड़ी. तभी सांवली के पिता बलरामजी के खखारने की आवाज सुनाई दी. ‘‘अरी जा, देख पापा आ गए,’’ मालती ने सांवली से कहा और खुद भी दरवाजे की ओर दौड़ी. मां पानी का गिलास ले आईं, बोलीं, ‘‘बताओ, लड़के वालों से क्या बात हुई आप की?’’ ‘‘हां, परसों आ रहे हैं, समीक्षा को देखने,’’ बदलेव सिंह सोफे पर बैठते हुए बोले. ‘‘कौनकौन आएगा?’’ मां ने प्रश्न किया. ‘‘अब यह तो नहीं पूछा, 3-4 लोग तो होंगे ही,’’ बलदेव सिंह बोले. ‘‘अच्छा, कितने बजे तक आएंगे, यह तो पूछा होगा?’’ मां ने अगला प्रश्न किया. ‘‘दोपहर 1 बजे. रविवार है… सभी के लिए सुविधाजनक है,’’ बलदेव सिंह ने बताया. ‘‘सांवली ओ सांवली,’’ मां ने पुकारा. ‘‘हां, मां क्या बात है कहो,’’ सांवली ने बैठक में आते हुए पूछा. ‘‘सुन, परसों तेरी समीक्षा जीजी को लड़के वाले देखने आ रहे हैं, तो तू अभी तैयारी शुरू कर दे, क्या बनाएगी? उस के लिए क्या कुछ सामान बाजार से लाना है.

एक लिस्ट बना ले, तेरे पापा शाम को ले आएंगे और सुन तू भी जरा बेसन का लेप लगा लेना, रंग थोड़ा खुला दिखेगा,’’ मां ने सांवली को देखते हुए कहा. ‘‘मां… अब इस में मुझे बेसन का लेप लगाने की क्या जरूरत आन पड़ी? वे लोग तो जीजी को देखने आ रहे हैं,’’ सांवली ने कंधे उचकाते हुए कहा. ‘‘अरे, ऐसे ही एक के बाद एक रस्ते खुलते हैं, हो सकता है उन की नजर में तेरे लायक भी कोई रिश्ता हो, चल अब जा, परसों की तैयारियां कर,’’ मां ने कहा. तैयारियां शुरू हो गईं, समीक्षा फेशियल, साडि़यों के चयन आदि में व्यस्त रही और सांवली किचन की तैयारियों में, जो सूखा नाश्ता जैसे मठरी, गुझिया, चिवड़ा आदि उस ने एक दिन पहले ही बना कर तैयार कर लिए थे. रविवार सुबह से समोसे, मूंग का हलवा और बादाम की खीर की खूशबू से सारा घर महक रहा था. समीक्षा साडि़यों पर साडि़यां बदले जा रही थी, छोटी बहन सुनीति उस की मदद कर रही थी. ‘‘समीक्षा, तू कुछ भी पहन ले, सुंदर ही दिखेगी, तुझे तो एक नजर में पसंद कर लेंगे वे, चिंता मत कर, कुछ भी पहन ले,’’ मां ने पूर्ण विश्वास से कहा.

‘‘सांवली ओ सांवली,’’ मां ने सांवली को पुकारा. ‘‘क्या है मां,’’ किचन से निकलते हुए सांवली बोली. ‘‘सुन, तू भी अब मुंह धो ले, और अच्छी तरह पाउडर लगा कर, हलकेपीले रंग का जो सूट है न उसे पहन ले, उस में तेरा रंग खिला हुआ लगता है,’’ मां ने सांवली को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा. ‘‘मां… तुम भी न… आज तो समीक्षा जीजी को तैयार होने दो, क्यों जीजी…’’ सांवली ने समीक्षा से चुटकी ली. ‘‘जा, तू भी तैयार हो जा…’’ समीक्षा ने मुसकराते हुए सांवली से कहा. ‘‘ठीक है जीजी,’’ सांवली हंसते हुए बोली. ‘‘डेढ़ बजे के करीब लड़के वाले तशरीफ ले आए, मातापिता, लड़का और उस की छोटी बहन, कुल 4 लोग आए थे.’’ ‘‘आइए भाई साहब, नमस्ते बहनजी, आओ बेटा आओ…’’ बलदेव सिंह सब का स्वागत करते हुए बोले. ‘‘बहनजी, आप का घर तो खाने की खुशबूओं से महक रहा है, कितने पकवान बनवा लिए आप ने?’’ लड़के की मां ने घर में घुसते ही कहा. ‘‘अरे बहनजी, बच्चियों से जो कुछ बन सका, बस यों ही थोड़ाबहुत…’’ मां ने मुसकान बिखेरते हुए कहा. सभी को बैठक में बैठाया गया,

जो सांवली की कलाकृतियों से बहुत ही करीने से सजासंवरा, छोटा सा कमरा था. सांवली पानी की ट्रे लिए बैठक में दाखिल हुईर्. लड़के की मां उसे कुछ ज्यादा ही ध्यान से देखने लगी. ‘‘बहनजी, यह मझली बेटी सांवली है, समीक्षा, जिसे आप देखने आई हैं, वह अभी अंदर है,’’ मां ने लड़के की मां की नजरों को ताड़ते हुए कहा. ‘‘ओह, अच्छा…’’ लड़के की मां सोफे से पीठ टिकाती हुई बोली. सांवली ने सभी को नमस्ते कर ट्रे में पानी के गिलास रख दिए. ‘‘जा वांवली, जीजी को ले आ,’’ मां ने कहा. ‘‘ये वौल पीस, हैंगिंग और पेंटिंग्स तो बहुत जोरदार हैं, बिटिया ने बनाई हैं क्या?’’ लड़के की मां ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए पूछा. ‘‘हं… हां… हां…’’ मां ने कहा, पर यह बात गोल कर दी कि किस बिटिया ने बनाई है, क्योंकि अभी तो समीक्षा को निबटाना था. तभी सांवली अपनी समीक्षा जीजी के साथ बैठक में दाखिल हुई. लड़के की मां का चेहरा खिल उठा. ‘‘आओ… आओ, बिटिया… वाह… बहुत ही सुंदर, क्यों बेटा है न?’’ लड़के की मां ने अपने बेटे की तरफ देखते हुए कहा. लड़के ने आंखें उठा कर देखा तो उस की नजर सांवली की नजर से टकराई, जो उस का रिएक्शन देखने के लिए उसे ही देख रही थी. लड़के ने झेंप कर नजर झुका ली. ‘‘भई मुझे तो बिटिया बहुत पसंद है, अब फैसला तो श्याम के हाथ में है, मेरे खयाल से हमें इन दोनों को भी एकदूसरे से खुल कर बातचीत करने के लिए अकेला छोड़ देना चाहिए, क्यों जी, सही न,’’ लड़के की मां ने लड़के के पिता से कहा. ‘‘हां बिलकुल ठीक है,’’ लड़के के पिता ने कहा. ‘‘सांवली, जाओ बेटा जीजी और श्याम बाबू को बगीचे की सैर करवा दो,’’ मां ने झट से कहा. ‘‘

जी ठीक है मां, आइए जीजी…’’ सांवली ने समीक्षा और श्याम से चलने को कहा. बगीचे में पहुंच कर सांवली ने कहा, ‘‘जीजी, आप लोग बात कीजिए, तब तक मैं नाश्ते का प्रबंध करती हूं,’’ और वह भीतर चली आई. समीक्षा और श्याम करीब 15 मिनट बातचीत करते रहे, फिर वे भी भीतर बैठक में आ गए. ‘‘वाह भई, ऐसा स्वादिष्ठ नाश्ता कर के मजा आ गया, भई अब तो जी चाहता है सारा जीवन ऐसा ही नाश्ता मिलता रहे,’’ लड़के की मां ने कनखियों से समीक्षा को देखते हुए कहा. समीक्षा मुसकरा रही थी. श्याम और समीक्षा की रजामंदी से विवाह पक्का हो गया. इधर सांवली अपनी परीक्षा की तैयारियों में जुटी थी, उधर समीक्षा का विवाह भी हो गया. सांवली ने एमबीए के कोर्स में प्रवेश ले लिया, मैनेजमैंट और अकाउंटैंसी दोनों में ही सांवली का कोई जोड़ नहीं था. एमबीए पूरा होतेहोते छोटी बहन भी ब्याह कर ससुराल चली गई. अब मातापिता को सांवली की चिंता थी, हालांकि वे यह भी जानते थे कि सारे घर का दारोमदार अब सांवली के कंधों पर ही है, पिता रिटायर हो चुके थे, उन की पैंशन और सांवली की कमाई से ही घर का खर्च चलता था, पिता के पैंशन का मैटर भी विभागीय मसले में उलझ गया था,

जिसे सांवली ने ही अपनी सूझबूझ से निबटाया और पैंशन पक्की हो पाई. पिता तो सांवली के ऐसे कायल हो गए कि हर समस्या के समाधान के लिए उन की जबान पर एक ही नाम होता था सांवली. ‘‘अरे बेटा रो मत, सांवली घर आ जाए, मैं उस से बात करता हूं, दामादजी को वह इस मुश्किल से चुटकी में निकाल देगी, तू फिक्र मत कर,’’ पिता ने समीक्षा से फोन पर कहा. ‘‘ठीक है पापा, मैं कल श्याम के साथ घर आती हूं, सांवली को सारा मसला समझा देंगे,’’ समीक्षा ने कहा और फोन रख दिया. अगले दिन सुबह ही समीक्षा अपने पति के साथ घर आ गई. सांवली को श्याम ने अपने व्यापार में हुए घोटाले और घाटे से सड़क पर आ जाने का पूरा विवरण बताया. सांवली बहुत ही गंभीर मुद्रा में हर बात सुनती रही, फिर उस ने श्याम से कुछ प्रश्न किए जिन के उत्तरों से उसे समझ में आ गया कि आखिर चूक कहां हुई है. उस ने कुछ सुझाव दिए और कहा कि तुम इन पर अमल करो, बाकी मैं संभाल लूंगी. सांवली ने अपने तेज दिमाग से अपने जीजाजी का न केवल घाटा पूरा करवाया, बल्कि उस के बाद उन का बिजनैस जोर पकड़ता गया. अब तो श्याम जैसे सांवली का दीवाना हो गया, कभीकभी मजाक में कह भी देता था कि इस से तो मैं तुम से शादी करता तो ज्यादा अच्छा रहता. खैर, आधी घरवाली तो तुम हो ही.’’ इस पर सांवली कहती,

‘‘इस मुगालते में मत रहना जीजाजी, सांवली सिर्फ सांवली है, किसी की घरवाली नहीं, न आधी न पूरी.’’ जीजाजी जैसे मन मसोस कर रह जाते. कई बार कोशिश करने पर भी सांवली ने उन की दाल गलने न दी. सांवली जानती थी कि, उस का दिमाग और फिट फिगर पुरुषों को बेहद आकर्षित करता है, हर कोई चाहता है कि उस की बीवी खूबसूरत होने के साथ स्मार्ट माइंड भी रखती हो. वह अब यह भी जानती थी कि आज इस समय उस से कोई भी शादी करने के लिए तैयार हो जाएगा, लेकिन अब वह अपनी शर्तों पर जीवन जीना सीख चुकी थी, अब तो पुरुषों को अपनी उंगली पर नचाने में उसे मजा आता था. मन में एक भड़ास थी कि कभी उसे रूप के कारण कमतर आंका गया है, बहुत परिश्रम करना पड़ा है उसे यह मुकाम हासिल करने में. ‘‘हैलो, क्या मैं सांवलीजी से बात कर सकता हूं?’’ फोन पर किसी ने सांवली से कहा. ‘‘जी, कहिए, मैं सांवली बोल रही हूं,’’ सांवली ने जवाब दिया. ‘‘मैडम, आप से अपौइंटमैंट लेना था, एक प्रौपर्टी केस के सिलसिले में आप से कंसल्ट करना चाहता हूं, प्लीज बताइए, मैं आप से किस समय मिल सकता हूं?’’ अजनबी ने कहा.

‘‘आप सारे डौक्युमैंट्स ले कर परसों मेरे औफिस आ जाइए, बाइ दा वे, आप का शुभनाम?’’ सांवली ने पूछा. ‘‘ओह, आई एम सौरी, माई नेम इज बृज, मैं परसों मिलता हूं आप से, थैंक यू सो मच,’’ और फोन काट दिया गया. नियत समय पर बृज सांवली के औफिस पहुंचा. ‘‘गुड मौर्निंग… सांवली,’’ बृज ने अभिवादन किया. ‘‘वैरी गुड मौर्निंग बृज, टेक योर सीट,’’ सांवली ने मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘पेपर्स दिखाइए और केस की डिटेल्स बताइए.’’ ‘‘ओके, ये लीजिए पेपर्स. दरअसल, मेरी पार्टनर मेरी वाइफ ही थी, उस ने अपनी खूबसूरती के जाल में उलझा कर मुझ से कहांकहां साइन करवा लिए, मुझे पता नहीं चला, मेरा सारा बिजनैस खुद के नाम कर के मुझे डिवोर्स पेपर्स भेज दिए, मैं चाहता हूं कि उसे इस की सजा मिले, मुझे किसी ने आप का नाम सजेस्ट किया, बताया कि ऐसे उलझे मामलों को आप ने बड़ी होशियारी से सुलझाया है. मैं चाहता तो किसी वकील के पास भी जा सकता था, लेकिन इस केस को कैसे डील करना है, वह अब आप ही देखिए, वकील तो जो आप कहेंगी उसे कर लेंगे,’’ बृज एक सांस में बोल गया.

‘‘ओके, डौंट वरी, आई विल मैनेज एवरीथिंग, मैं प्लान प्रोग्राम कर आप से कौंटैक्ट करती हूं,’’ सांवली ने फिर एक गहरी मुसकान बिखेरते हुए कहा. ‘‘ओके, थैंक्स,’’ कह कर बृज ने हाथ आगे बढ़ाया, सांवली ने अपना हाथ बढ़ा कर शेक हैंड किया. महीनेभर की मशक्कत के बाद आखिर सांवली केस को सुलझाने में सफल हो गई. बृज की बीवी को स्वीकार करना पड़ा कि उस ने जालसाजी से ये सब किया था, क्योंकि बृज को उस पर अंधाविश्वास था, इसलिए उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाने में वह कामयाब रही, लेकिन जिन पौइंट्स पर वाह चूक गई थी, सांवली ने उन्हें पकड़ कर उस की जालसाजी पकड़ ली, बृज को अपनी प्रौपर्टी वापस मिल गई और महीनेभर की मुलाकातों ने उसे सांवली के व्यक्तित्व ने इतना प्रभावित किया कि उस ने फैसला कर लिया कि वह सांवली को अपना जीवनसाथी बनाएगा, यही सोच कर वह फूलों का बड़ा गुलदस्ता ले कर सांवली के औफिस पहुंचा. ‘‘हैलो मिस सांवली,’’ बृज ने सांवली से कहा. ‘‘हैलो बृज, बधाई हो आप को, अब तो आप खुश हैं न?’’ सांवली ने मुसकान बिखेरते हुए कहा. ‘‘हां, लेकिन यह खुशी दोगुना हो सकती है, अगर आप मेरी हमसफर बनने के लिए राजी हो जाएं?’’

बृज ने बिना किसी भूमिका के दिल की बात कह दी. ‘‘क्यों, एक धोखा खा कर तसल्ली नहीं हुई आप को, जो फिर ओखली में सिर डालने चले हो?’’ अभी तो मैं निकाल लाई आप को, मुझ से कौन बचाएगा आप को? सांवली ने खिलखिलाते हुए कहा. ‘‘अब तुम ने निकलना ही नहीं है. बिजनैस तुम ही संभालोगी, मुझे तो बस एक प्यार करने वाली बीवी चाहिए, जिस की मुसकराहट मेरी जिंदगी संवार दे और जो एक बेहतरीन दिल के साथ, शानदार दिमाग की भी मालिक हो, और वह हो तुम, तो कहो मेरी मलिका बनने को तैयार हो?’’ बृज ने दिल पर हाथ रख कर कुछ झुकते हुए कहा. ‘‘यस जहांपनाह, बाअदब, बामुलाहिजा, होशियार… मलिका ए दिमाग, आप के दिल में दाखिल होने जा रहा है.’’ ‘‘दिमाग चाहे तो वह हर मुकाम हासिल कर सकता है, जो रूप के बूते मिलता है, लेकिन रूप चाह कर भी वह मुकाम हासिल नहीं कर सकता, जो दिमाग हासिल कर सकता है,’’ सांवली बृज की बांहों में झूल रही थी.

लेखिका-नम्रता सरन ‘सोना’

मैं सिर्फ बार्बी डौल नहीं हूं- भाग 2: क्या थी परी की कहानी

उषा की किरणों ने जैसे ही कमरे के अंदर प्रवेश किया, मनीष प्यार से अपनी बार्बी डौल के गाल थपथपाने लगा. पर यह क्या, मनीष एकदम बोल उठा, ‘‘परी, तुम्हारे गाल पर यह क्या हो रहा है?’’

परी घबरा कर उठ बैठी और बोली, ‘‘मनीष सौरी वह कल से पता नहीं क्यों ये दाने हो गए हैं.’’

दरअसल, वे दाने भयावह रूप से मुखर हो उठे थे और रहीसही कसर तनाव ने पूरी कर दी थी.

मनीष बिना किसी हिचकिचाहट के परी के करीब आया और बोला, ‘‘ये तो ठोड़ी पर भी हैं. आज डाक्टर को दिखा कर आना.’’

परी बहुत ज्यादा चिंतित हो उठी थी. उसे अपनी बेदाग त्वचा पर बहुत गुमान था. अब ये दाने…

रात में प्रेम क्रीड़ा के दौरान भी परी के मन में अनकहा तनाव ही व्याप्त रहा. सुबहसवेरे ही उठ कर वह नहा ली. हलकी गुलाबी रंग की साड़ी उस के रंग में मिलजुल गई थी. साथ में उस ने मोतियों की माला और जड़ाऊ झुमके पहने. फिर आईने के आगे खड़ा हो कर गहरे फाउंडेशन की परतों में अपने दानों को छिपा लिया. अब पूरी तरह से अपनेआप से संतुष्ट थी.

बाहर आ कर देखा तो शकुंतला गाउन में घूम रही थीं. अपनी बहू का खिला चेहरा देख कर वे प्रसन्न हो गईं.

शकुंतला ने परी का माथा चूम लिया. परी रसोई की तरफ चली गई और नाश्ते की तैयारी करने लगी.

तभी शकुंतला आईं और अभिमान से बोलीं, ‘‘परी, तुम आराम करो. हमारे यहां बहू बस रसोई में हाथ ही लगाती है. सारे काम के लिए ये नौकरचाकर हैं ही.’’

परी ने चाय का पानी चढ़ाया और बाहर आ कर बैठ गई. शकुंतला भी उस के सामने आ कर बैठ गईं और उसे पैनी नजरों से दखते हुए बोलीं, ‘‘परी, तुम्हें बस सुंदर लगना है. इसी कारण से तुम इस घर की बहू बनी हो.’’

परी असमंजस में बैठी रही. उस का मन बहुत उदास हो चला था. यों 24 साल की परी आत्मविश्वास से भरपूर युवती थी. मनीष से पहले भी उस की जिंदगी में कई युवक आए और गए, पर मनीष के आने के बाद उस के जीवन में स्थिरता आ गई थी.

दोनों के परिवार वालों को इस रिश्ते से कोई परेशानी नहीं थी. कम से कम परी को तो पता था. पर यह तो उसे विवाह के बाद ही पता चला कि मनीष के मातापिता ने उसे पूरे दिल से स्वीकार नहीं किया था.

वह बुझे मन से अंदर चली गई. एक अनकहा भय उसे घेरे हुए था. इतना डर तो उसे किसी ऐग्जाम में भी नहीं लगा था.

तभी जिया अंदर आ गई. वह मनीष की मौसी की बेटी थी और रिश्ते में उस की ननद. जिया बेहद खूबसूरत थी और कालेज के सैकंड ईयर में पढ़ रही थी. चिडि़या की तरह चहकते हुए वह बोली, ‘‘भाभी, चलो आज मूवी देखने चलते हैं. आप की बात भैया कभी नहीं टालेंगे.’’

मनीष उस को चपत लगाते हुए बोला, ‘‘मुझ से नहीं बोल सकती? चलो फिर भाभी ही ले जाएगी तुम्हें…’’

दोनों पूरे कमरे में धमाल मचा रहे थे. न जाने क्यों ये सब देख कर परी की आंखों में आंसू आ गए. सबकुछ अच्छा है फिर भी बंधाबंधा महसूस हो रहा था.

जिया एकाएक सकपका सी गई. मनीष भी परी के करीब आ कर प्यार से उस का सिर सहलाने लगा और बोला, ‘‘परी घर जाना है तो आज ले कर चलता हूं.’’

परी बोली, ‘‘मनीष न जाने क्यों थकावट सी महसूस हो रही है. लगता है पीरियड्स शुरू होने वाले हैं.’’

जिया तब तक अपनी प्यारी भाभी के लिए एक गिलास जूस ले कर आ गई थी. परी का मन भीग गया और उस ने जिया को गले से लगा लिया. उसे लगा जैसे जिया के रूप में उस ने अपनी छोटी बहन को पा लिया हो.

शाम को मनीष के कहने पर परी जींस और कुरती पहन रही थी पर यह क्या जींस तो कमर में फिट ही नहीं हो रही थी. अभी 3 महीने पहले तक तो ठीक थी. झुंझला कर वह कुछ और निकालने लगी.

तभी मनीष बोला, ‘‘परी यह करवाचौथ टाइप की ड्रैस मत पहनो. जींस थोड़ी टाइट है तो क्या हुआ. पहन लो न.’’

परी ने मुश्किल से जींस पहन तो ली पर अपने शरीर पर आई अनावश्यक चरबी उस से छिपी न रही. वह जब तैयार हो कर बाहर निकली, तो मनीष मजाक में बोल ही पड़ा, ‘‘यार, तुम तो शादी के तुरंत बाद आंटी बन गई हो.’’

परी को यह सुन कर अच्छा नहीं लगा. तभी शकुंतला भी बाहर आ गईं और बोलीं, ‘‘परी खुद पर ध्यान दो और कल से ऐक्सरसाइज शुरू करो.’’

उस दिन परी फिल्म का आनंद न ले पाई. एक तो जरूरत से ज्यादा टाइट कपड़ों के कारण वह असहज महसूस कर रही थी, दूसरे बारबार परफैक्ट दिखने का प्रैशर उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था.

अपने शरीर में आए बदलावों से वह परेशान थी. ऐसे में उसे दुलार और प्यार की आवश्यकता थी. पर उस के नए घर में उसे ये सब नहीं मिल पा रहा था.

रात को उस ने मनीष को अपने करीब न आने दिया. मनीष रातभर उसे हौलेहौले दुलारता रहा. सुबह परी की बहुत देर से आंखें खुलीं. वह जल्दीजल्दी नहा कर जब बाहर निकली तो देखा, नाश्ता लग चुका था.

वह भी डाइनिंगटेबल पर बैठ गई. कवींद्र ने परी की तरफ देख कर चिंतित स्वर में कहा, ‘‘परी बेटा, यह क्या हो रहा तुम्हारे चेहरे पर?’’

एकाएक परी को याद आया कि वह आज मेकअप करना भूल गई.

शकुंतला भी बोलीं, ‘‘मनीष आज परी को डाक्टर के पास ले जाओ. चेहरे पर तिल के अलावा किसी भी तरह के निशान अच्छे नहीं लगते हैं.’’

मनीष भी परी को ध्यान से देख रहा था. परी को एकदम से ऐसा महसूस हुआ जैसे वह एक स्त्री नहीं एक वस्तु है.

शाम को जब मनीष और परी डाक्टर के पास गए, तो डाक्टर ने सबकुछ जानने के बाद दवाएं और क्रीम लिख दी.

1 महीना बीत गया पर दानों ने धीरेधीरे परी के पूरे चेहरे को घेर लिया था. परी आईने के सामने जाने से कतराने लगी. उस का आत्मविश्वास कम होने लगा था. वह सब से नजरें चुराने लगी थी. ऊपर से रातदिन शकुंतला की टोकाटाकी और मनीष का कुछ न बोल कर अपनी मां का समर्थन करना उसे जरा भी नहीं भाता था.

औफिस में भी लोग उसे देखते ही सब से पहले यही बोलते, ‘‘अरे, यह क्या हुआ तुम्हारे  चेहरे पर?’’

परी मन ही मन कह उठती, ‘‘शुक्रिया बताने का… आप न होते तो मुझे पता ही नहीं चलता…’’

परी के विवाह को 2 महीने बीत गए थे.

इस बीच घर, नए रिश्ते और औफिस की जिम्मेदारी के बीच बस वह एक ही बार अपने मायके जा पाई थी. परी का जब से विवाह हुआ था वह एक तनाव में जी रही थी. यह तनाव था हर समय खूबसूरत दिखने का, हर समय मुसकराते रहने का, हर किसी को खुश रखने का और इन सब के बीच परी कहीं खो सी गई थी. वह जितनी कोशिश करती कहीं न कहीं कमी रह ही जाती.

कभी अपने लिए

विमान ने उड़ान भरी तो मैं ने खिड़की से बाहर देखा. मुंबई की इमारतें छोटी होती गईं, बाद में इतनी छोटी कि माचिस की डब्बियां सी लगने लगीं. प्लेन में बैठ कर बाहर देखना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगता है. बस, बादल ही बादल, उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि रुई के गोले चारों तरफ बिखरे पड़े हों. कई बार मन होता है कि हाथ बढ़ा कर उन्हें छू लूं.

मुझे बचपन से ही आसमान का हलका नीला रंग और कहींकहीं बादलों के सफेद तैरते टुकड़े बहुत अच्छे लगते हैं. आज भी इस तरह के दृश्य देखती हूं तो सोचती हूं कि काश, इस नीले आसमान की तरह मिलावट और बनावट से दूर इनसानों के दिल भी होते तो आपस में दुश्मनी मिट जाती और सब खुश रहते.

दिल्ली पहुंचने में 2 घंटे का समय लगना था. बाहर देखतेदेखते मन विमान से भी तेज गति से दौड़ पड़ा, एअरपोर्ट से बाहर निकलूंगी तो अभिराम भैया लेने आए हुए होंगे, वहां से हम दोनों संपदा दीदी को पानीपत से लेंगे और फिर शाम तक हम तीनों भाईबहन मां के पास मुजफ्फरनगर पहुंच जाएंगे.

हम तीनों 10 साल के बाद एकसाथ मां के पास पहुंचेंगे. वैसे हम अलगअलग तो पता नहीं कितनी बार मां के पास चक्कर काट लेते हैं. अभिराम भैया दिल्ली में हृदयरोग विशेषज्ञ हैं. संपदा दीदी पानीपत में गर्ल्स कालेज की पिं्रसिपल हैं और मैं मुंबई में हाउसवाइफ हूं. 10 साल से मुंबई में रहने के बावजूद यहां के भागदौड़ भरे जीवन से अपने को दूर ही रखती हूं. बस, पढ़नालिखना मेरा शौक है और मैं अपना समय रोजमर्रा के कामों को करने के बाद अपने शौक को पूरा करने में बिताती हूं. शशांक मेरे पति हैं. मेरे दोनों बच्चे स्नेहा और यश मुंबई के जीवन में पूरी तरह रम गए हैं. मां के पास तीनों के पहुंचने का यह प्रोग्राम मैं ने ही बनाया है. कुछ दिनों से मन नहीं लग रहा था. लग रहा था कि रुटीन में कुछ बदलाव की जरूरत है.

स्नेहा और यश जल्दी कहीं जाना नहीं चाहते, वे कहीं भी चले जाते हैं तो दोनों के चेहरों से बोरियत टपकती रहती है, शशांक सेल्स मैनेजर हैं, अकसर टूर पर रहते हैं. एक दिन अचानक मन में आया कि मां के पास जाऊं और शांति से कम से कम एक सप्ताह रह कर आऊं. शशांक या बच्चों के साथ कभी जाती हूं तो जी भर कर मां के साथ समय नहीं बिता पाती, इन्हीं तीनों की जरूरतों का ध्यान रखती रह जाती हूं, इस बार सोचा अकेली जाती हूं. मां वहां अकेली रहती हैं, हमारे पापा का सालों पहले देहांत हो चुका है. मां टीचर रही हैं. अभी रिटायर हुई हैं.

हम तीनों भाईबहनों ने उन्हें साथ रहने के लिए कई बार कहा है लेकिन वे अपना घर छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें वहीं अच्छा लगता है. सुबहशाम काम के लिए राधाबाई आती है. सालों से वैसे भी मां ने अपने अकेलेपन का रोना कभी नहीं रोया, वे हमेशा खुश रहती हैं, किसी न किसी काम में खुद को व्यस्त रखती हैं.

हां, तो मैं ने ही दीदी और भैया के साथ यह कार्यक्रम बनाया है कि हम तीनों अपनेअपने परिवार के बिना एक सप्ताह मां के साथ रहेंगे. अपनी हर व्यस्तता, हर जिम्मेदारी से स्वयं को दूर रख कर. कभी अपने लिए, अपने मन की खुशी के लिए भी तो कुछ सोच कर देखें, बस कुछ दिन.

अभिराम भैया को अपने मरीजों से समय नहीं मिलता, दीदी कालेज की गतिविधियों में व्यस्त रह कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं करतीं, मेरा एक अलग निश्चित रुटीन है लेकिन मेरे प्रस्ताव पर दोनों सहर्ष तैयार हो गए, शायद हम तीनों ही कुछ बदलाव चाह रहे थे. शशांक तो मेरा कार्यक्रम सुनते ही हंस पड़े, बोले, ‘हम लोगों से इतनी परेशान हो क्या, सुखदा?’

मैं ने भी छेड़ा था, ‘हां, तुम लोगों को भी तो कुछ चेंज चाहिए, मैं जा रही हूं, मेरा भी चेंज हो जाएगा और तुम लोगों का भी, बोर हो गई हूं एक ही रुटीन से,’ शशांक ने हमेशा की तरह मेरी इच्छा का मान रखा और मैं आज जा रही हूं.

एअरहोस्टैस की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, मैं काफी देर से अपने विचारों में गुम थी. दिल्ली पहुंच कर जैसे ही एअरपोर्ट से बाहर आई, अभिराम भैया खड़े थे, उन्होंने हाथ हिलाया तो मैं तेजी से बढ़ कर उन के पास पहुंच गई, उन्होंने हमेशा की तरह मेरा सिर थपथपाया, बैग मेरे हाथ से लिया. बोले, ‘‘कैसी हो सुखदा, मान गए तुम्हें, यह योजना तुम ही बना सकती थीं, मैं तो अभी से एक हफ्ते की छुट्टी के लिए ऐक्साइटेड हो रहा हूं, पहले घर चलते हैं, तुम्हारी भाभी इंतजार कर रही हैं.’’

रास्ते भर हम आने वाले सप्ताह की प्लानिंग करते रहे. भैया के घर पहुंच कर स्वाति भाभी के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना खाया. अपने भतीजे राहुल के लिए लाए उपहार मैं ने उसे दिए तो वह चहक उठा. भैया बोले, ‘‘सुखदा, थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं ने कहा, ‘‘बैठीबैठी ही आई हूं, एकदम फ्रैश हूं, कब निकलना है?’’

भाभी ने कहा, ‘‘1-2 दिन मेरे पास रुको.’’

‘‘नहीं भाभी, आज जाने दो, अगली बार रुकूंगी, पक्का’’

‘‘हां भई, मैं कुछ नहीं बोलूंगी बहनभाई के बीच में,’’ फिर हंस कर कहा, ‘‘वैसे कुछ अलग तरह का ही प्रोग्राम बना है इस बार, चलो, जाओ तुम लोग, मां को सरप्राइज दो.’’

मैं ने भाभी से विदा ले कर अपना बैग उठाया, भैया ने अपना सामान तैयार कर रखा था. हम भैया की गाड़ी से ही पानीपत बढ़ चले. वहां संपदा दीदी हमारा इंतजार कर रही थीं. ढाई घंटे में दीदी के पास पहुंच गए, वहां चायनाश्ता किया, जीजाजी हमारे प्रोग्राम पर हंसते रहे, अपनी टिप्पणियां दे कर हंसाते रहे, बोले, ‘‘हां, भई, ले जाओ अपनी दीदी को, इस बहाने थोड़ा आराम मिल जाएगा इसे,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘हमें भी.’’ सब ठहाका लगा कर हंस पड़े. दीदी की बेटियों के लिए लाए उपहार उन्हें दे कर हम मां के पास जाने के लिए निकल पड़े. पानीपत से मुजफ्फरनगर तक का समय कब कट गया, पता ही नहीं चला.

मुजफ्फरनगर में गांधी कालोनी में  जब कार मुड़ी तो हमें दूर से ही  अपना घर दिखाई दिया, तो भैया बच्चों की तरह बोले, ‘‘बहुत मजा आएगा, मां के लिए यह बहुत बड़ा सरप्राइज होगा.’’

हम ने धीरे से घर का दरवाजा खोला. बाहरी दरवाजा खोलते ही गेंदे के फूलों की खुशबू हमारे तनमन को महका गई. दरवाजे के एक तरफ अनगिनत गमले लाइन से रखे थे और मां अपने बगीचे की एक क्यारी में झुकी कुछ कर रही थीं. हमारी आहट से मुड़ कर खड़ी हुईं तो खड़ी की खड़ी रह गईं, इतना ही बोल पाईं, ‘‘तुम तीनों एकसाथ?’’

हम तीनों ही मां के गले लग गए और मां ने अपने मिट्टी वाले हाथ झाड़ कर हमें अपनी बांहों में भरा तो पल भर के लिए सब की आंखें भर आईं, फिर हम चारों अंदर गए, दीदी ने कहा, ‘‘यह कार्यक्रम सुखदा ने मुंबई में बनाया और हम आप के साथ पूरा एक हफ्ता रहेंगे.’’

मां की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, हमारे सुंदर से खुलेखुले घर में मां अकेली ही तो रहती हैं. हां, एक हिस्सा उन के किराएदार के पास है. मां के मना करने पर भी हम दोनों मां के साथ किचन में लग गईं और भैया थोड़ी देर सो गए. इतनी देर गाड़ी चलाने से उन्हें कुछ थकान तो थी ही. फिर हम चारों ने डिनर किया, अपनेअपने घर सब के हालचाल लिए. सोने को हुए तो बिजली चली गई, मां को फिक्र हुई, बोलीं, ‘‘तुम तीनों को दिक्कत होगी अब, इनवर्टर भी खराब है, तुम लोगों को तो ए.सी.  की आदत है. मैं तो छत पर भी सो जाती हूं.’’

संपदा  दीदी ने कहा, ‘‘मां, मुझ से छत पर नहीं सोया जाएगा.’’

भैया बोले, ‘‘फिक्र क्यों करती हो दीदी, चल कर देखते हैं.’’ और हम चारों अपनीअपनी चटाई ले कर छत पर चले गए. हम छत पर क्या गए, तनमन खुशी से झूम उठा. क्या मनमोहक दृश्य था, फूलों की मादक खुशबू छाई हुई थी, संदली हवाओं के बीच धवल चांदनी छिटकी हुई थी. हम सब खुले आसमान के नीचे चटाई बिछा कर लेट गए, फ्लैटों में तो कभी छत के दर्शन ही नहीं हुए थे. खुले आकाश के आंचल में तारों का झिलमिल कर टिमटिमाना बड़ा ही सुखद एहसास था. बचपन में मां ने कई बार बताया था, ठीक 4 बजे भोर का तारा निकल आता है.

‘‘प्रकृति में कितना रहस्य व आनंद है लेकिन आज का मनुष्य तो बस, मशीन बन कर रह गया है. अच्छा किया तुम लोग आ गए, रोज की दौड़भाग से तुम लोगों को कुछ आराम मिल जाएगा,’’ मां ने कहा.

प्राकृतिक सुंदरता को देखतेदेखते हम कब सो गए, पता ही नहीं चला जबकि ए.सी. में भी इतना आनंद नहीं था. सब ने सुबह बहुत ही तरोताजा महसूस किया. जैसे हम में नई चेतना, नए प्राण आ गए थे. गमले के पौधों की खुशबू से पूरा वातावरण महक रहा था. रजनीगंधा व बेले की खुशबू ने तनमन दोनों को सम्मोहित कर लिया था. हम नीचे आए, मां नाश्ता तैयार कर चुकी थीं. भैया अपनी पसंद के आलू के परांठे देख कर खुश हो गए. उत्साह से कहा, ‘‘आज तो खा ही लेता हूं, बहुत हो गया दूध और कौर्नफ्लेक्स का नाश्ता.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, मुझे तो कुछ हलका ही दे दो, मुझे सुबह कुछ हलका ही लेने की आदत है.’’

दीदी भी बोलीं, ‘‘हां, मां, एक ब्रैडपीस ही दे दो.’’

अभिराम भैया ने टोका, ‘‘यह पहले ही तय हो गया था कि कोई खानेपीने के नखरे नहीं करेगा, जो बनेगा सब एकसाथ खाएंगे.’’

मां हंस पड़ीं, ‘‘क्या यह भी तय कर के आए हो?’’

दीदी बोलीं, ‘‘हां, मां, सुखदा ने ही कहा था, दीदी आप अपना माइग्रेन भूल जाना और मैं कमरदर्द तो मैं ने इस से कहा था, तू भी फिगर और ऐक्सरसाइज की चिंता मुंबई में ही छोड़ कर आना.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, चलो, चारों नाश्ता करते हैं.’’

हम ने डट कर नाश्ता किया और फिर मां के साथ किचन समेट कर खूब बातें कीं.

राधाबाई आई तो हम तीनों बाजार घूमने चले गए. दिल्ली, मुंबई के मौल्स में घूमना अलग बात है और यहां दुकानदुकान जा कर खरीदारी करना अलग बात है. हम तीनों ने अपनेअपने परिवार के लिए कुछ न कुछ खरीदा, फोन पर सब के हालचाल लिए और फिर अपनी मनपसंद जगह ‘गोल मार्किट’ चाट खाने पहुंच गए. हमारा डाक्टर भाई जिस तरह से हमारे साथ चाट खा रहा था, कोई देखता तो उसे यकीन ही नहीं होता कि वह अपने शहर का प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ है. ढीली सी ट्राउजर पर एक टीशर्ट पहने दीदी को देख कर कौन कह सकता है कि वे एक सख्त पिं्रसिपल हैं, मैं ये पल अपने में संजो लेना चाहती थी, दीदी ने मुझे कहीं खोए हुए देख कर पूछा भी, ‘‘चाट खातेखाते हमारी लेखिका बहन कोई कहानी ढूंढ़ रही है क्या?’’ मैं हंस पड़ी.

हम तीनों ने मां के लिए साडि़यां खरीदीं और खाने का काफी सामान पैक करवा कर घर आए. बस, अब हम तीनों मां के साथ बातें करते, चारों कभी घूमतेफिरते ‘शुक्रताल’ पहुंच जाते कभी बाजार. भैया ने अपने मरीजों से, दीदी ने कालेज से और मैं ने अपने गृहकार्यों से जो समय निकाल लिया था, उसे हम जी भर कर जी रहे थे. शाम होते ही हम अपनी चटाइयां ले कर छत पर पहुंच जाते, इनवर्टर ठीक हो चुका था लेकिन छत पर सोने का सुख हम खोना नहीं चाहते थे. अपनी मां के साथ हम तीनों छत पर साथ बैठ कर समय बिताते तो हमें लगता हम किसी और ही दुनिया में पहुंच गए हैं.

मैं सोचती महानगर में सोचने का वक्त भी कहां मिलता है, अपनी भावनाओं को टटोलने की फुरसत भी कहां मिलती है. शाम की लालिमा को निहार कर कल्पनाओं में डूबने का समय कहां मिलता है, सुबह सूरज की रोशनी से आंखें चार करने का पल तो कैद हो जाता है कंकरीट की दीवारों में.

दीदी अपना माइग्रेन और मैं अपना कमरदर्द भूल चुकी थी. आंगन में लगे अमरूद के पेड़ से जब भैया अमरूद तोड़ कर खाते तो दृश्य बड़ा ही मजेदार होता.

छठी रात थी. कल जाना था, छत पर गए तो लेटेलेटे सब चुप से थे, मेरा दिल भी भर आया था, ये दिन बहुत अच्छे बीते थे, बहुत सुकून भरे और निश्चिंत से दिन थे, ऐसा लगता रहा था कि फिर से बचपन में लौट गए थे, वही बेफिक्री के दिन. सच ही है किसी का बचपन उम्र बढ़ने के साथ भले ही बीत जाए लेकिन वह उस के सीने में सदैव सांस लेता रहता है. यह संसार, प्रकृति तो नहीं बदलती, धूपछांव, चांदतारे, पेड़पौधे जैसे के तैसे अपनी जगह खड़े रहते हैं और अपनी गति से चलते रहते हैं. वह तो हमारी ही उम्र कुछ इस तरह बढ़ जाती है कि बचपन की उमंग फिर जीवन में दिखाई नहीं देती.

मां ने मुझे उदास और चुप देखा तो मेरे लेखन और मेरी प्रकाशित कहानियों की बातें छेड़ दीं क्योेंकि मां जानती हैं यही एक ऐसा विषय है जो मुझे हर स्थिति में उत्साहित कर देता है. मुझे मन ही मन हंसी आई, बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, मां हमेशा अपने बच्चों के दिल की बात समझ जाती है. मां ने मेरी रचनाओं की बात छेड़ी तो सब उठ कर बैठ गए. मां, दीदी, भैया वे सब पत्रिकाएं जिन में मेरी रचनाएं छपती रहती हैं जरूर पढ़ते हैं और पढ़ते ही सब मुझे फोन करते हैं और कभीकभी तो किसी कहानी के किसी पात्र को पढ़ते ही समझ जाते हैं कि वह मैं ने वास्तविक जीवन के किस व्यक्ति से लिया है. फिर सब मुझे खूब छेड़ते हैं. कुछ हंसीमजाक हुआ तो फिर सब का मन हलका हो गया.

जाने का समय आ गया, दिल्ली से ही फ्लाइट थी. मां ने पता नहीं क्याक्या, कितनी चीजें हम तीनों के साथ बांध दी थीं. हम तीनों की पसंद के कपड़े तो पहले ही दिलवा लाईं. अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदा ले कर हम तीनों पानीपत निकल गए, रास्ते में ही अगले साल इसी तरह मिलने का कार्यक्रम बनाया, यह भी तय किया परिवार के साथ आएंगे, यदि बच्चे आ पाए तो अच्छा होगा, हमें भी तो अपने बच्चों का प्रकृति से परिचय करवाना था, हमें लगा कहीं महानगरों में पलेबढ़े हमारे बच्चे प्रकृति के उस रहस्य व आनंद से वंचित न रह जाएं जो मां की बगिया में बिखरा पड़ा था और अगर बच्चे आना नहीं चाहेंगे तो हम तीनों तो जरूर आएंगे, पूरे साल से बस एक हफ्ता तो हम कभी अपने लिए निकाल ही सकते हैं, मां के साथ बचपन को जीते हुए, प्रकृति की छांव में.

मेरे बेटे की गर्लफ्रैंड

बेटे राहुल के स्वभाव में मुझे कुछ बदलाव साफ दिखाई दे रहे थे, ये बदलाव तो प्राकृतिक थे इसलिए इस में कुछ हैरानी की बात नहीं थी और जब राहुल के 14वें जन्मदिन पर मैं ने घर पर उस के दोस्तों के लिए पार्टी रखी तो उस के ग्रुप में पहली बार 2-3 लड़कियां आईं. विजय मेरे कान में फुसफुसाए, ‘अरे वाह, बधाई हो, तुम्हारा लड़का जवान हो गया है.’ मैं ने उन्हें घूरा फिर मुसकरा दी. मुझे उन लड़कियों को देख कर अच्छा लगा. छोटी सी बच्चियां कोने में बैठ गईं, मैं ने उन्हें दिल से अटैंड किया. लड़के- लड़कियां आजकल साथ पढ़ते हैं, साथ खेलते हैं, मैं उन की दोस्ती को बुरा भी नहीं मानती.

उन तीनों में से 1 लड़की स्वाति कुछ ज्यादा ही संकोच में बैठी थी. बाकी 2 मुझे देख कर मुसकराती रहीं, दोचार बातें भी कीं, लेकिन स्वाति ने मुझ से नजरें भी नहीं मिलाईं तो मुझे बहुत अजीब सा लगा. मैं ने अपनी 17 वर्षीया बेटी स्नेहा से कहा भी, ‘‘यह लड़की इतना शरमा क्यों रही है?’’

स्नेहा बोली, ‘‘अरे मम्मी, छोड़ो भी, इतने बच्चों में 1 लड़की के व्यवहार पर इतना क्यों सोच रही हैं?’’ मेरी तसल्ली नहीं हुई. मैं ने विजय से कहा, ‘‘वह लड़की तो कुछ भी नहीं खा रही है, बहुत संकोच कर रही है, सब बच्चों को देखो, कितनी मस्ती कर रहे हैं.’’

विजय ने कहा, ‘‘हां, कुछ ज्यादा ही चुप है. खैर, छोड़ो, बाकी बच्चे तो मस्त हैं न.’’

राहुल ने केक काटा तो हमें खिलाने के बाद उस की नजरें सीधे स्वाति पर गईं तो मैं ने राहुल की मुसकराहट में एक पल के लिए कुछ नई सी बात नोट की, मां हूं उस की लेकिन किसी से कुछ कहने की बात नहीं थी. खैर, कुछ गेम्स फिर डिनर के बाद बच्चे खुशीखुशी अपने घर चले गए. मैं ने बाद में राहुल से पूछा, ‘‘सिया और रश्मि तो सब से अच्छी तरह बात कर रही थीं, यह स्वाति क्यों इतना शरमा रही थी?’’

राहुल मुसकराया, ‘‘हां, उसे शरम आ रही थी.’’

‘‘क्यों? शरमाने की क्या बात थी?’’

‘‘अरे मम्मी, हमारे सब दोस्त हम दोनों का साथ नाम ले कर खूब चिढ़ाते हैं न.’’

मैं चौंकी, ‘‘क्या? क्यों चिढ़ाते हैं?’’

‘‘अरे, आप को भी न हर बात समझा कर बतानी पड़ती है मम्मी. सब दोस्त एकदूसरे को किसी न किसी लड़की का नाम ले कर छेड़ते हैं.’’ मैं अपने युवा होते बेटे के समझाने के इतने स्पष्ट ढंग पर कुछ हैरान सी हुई, फिर मैं ने कहा, ‘‘यह कोई उम्र है इन मजाकों की, पढ़नेलिखने, खेलने की उम्र है.’’

‘‘लीव इट, मम्मी, आप हर बात को इतना सीरियसली क्यों लेती हैं…सभी ऐसी बातें करते हैं.’’

फिर मैं ने आने वाले दिनों में नोट किया कि राहुल का फोन पर बात करना बढ़ गया है. कई बार मैं उठाती तो फोन काट दिया जाता था, फिर राहुल के उठाने पर बात होती रहती थी. मेरे पूछने पर राहुल साफ बताता कि स्वाति का फोन है. मैं कहती, ‘‘इतनी क्या बात करनी होती है तुम दोनों को.’’

राहुल नाराज हो जाता, ‘‘मेरी फ्रैंड है, क्या मैं उस से बात नहीं कर सकता?’’ धीरेधीरे यह सब बढ़ता ही जा रहा था.

स्वाति हमारी ही सोसायटी में रहती थी. उस के मम्मीपापा दोनों नौकरीपेशा थे. मैं उन से कभी नहीं मिली थी. राहुल और स्वाति एक ही स्कूल में थे, एक ही बस में जाते थे. दोनों के शौक भी एक जैसे थे. राहुल अपने स्कूल की फुटबाल टीम का बहुत अच्छा प्लेयर था और स्वाति उस के हर मैच में उस का साहस बढ़ाने के लिए उपस्थित रहती. मैं विजय से कहती, ‘‘कुछ ज्यादा ही हो रहा है दोनों का.’’ विजय कहते, ‘‘तुम यह सब नहीं रोक पाओगी. अब तो उस की ऐसी उम्र भी नहीं है कि ज्यादा डांटडपट की जाए.’’

अब तक हमेशा 90 प्रतिशत से ऊपर अंक लाने वाला मेरा बेटा कहीं पढ़ाई में न पिछड़ जाए, इस बात की मुझे ज्यादा चिंता रहती. मैं रातदिन अब राहुल की हरकतों पर नजर रखती और महसूस करती कि मैं किसी भी तरह राहुल और स्वाति को एकदूसरे से मिलने से रोक ही नहीं सकती, सारा दिन तो साथ रहते थे दोनों. कुछ और समय बीता. राहुल और स्वाति दोनों ने 10वीं की बोर्ड की परीक्षाओं में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त किए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

विजय कहते, ‘‘देखा? इतने दिन तुम अपना खून जलाती रहीं, पढ़ाई तो दोनों ने अच्छी की.’’

मैं कुछ कह नहीं पाई. राहुल को हम ने गिफ्ट में एक मोबाइल फोन ले दिया तो वह बहुत खुश हुआ, कई दिनों से कह रहा था कि उसे फोन चाहिए. फिर मैं ने ही धीरेधीरे अपने मन को समझा लिया कि स्वाति राहुल की गर्लफ्रैंड है और मैं उसे कुछ नहीं कह सकती. सांवली सी, पतलीदुबली स्वाति महाराष्ट्रियन थी, हम उत्तर भारतीय कायस्थ. वह मुझ से अब भी कतराती थी. एक ही सोसायटी थी, कई बार सामना होता तो वह नजरें चुरा लेती. मुझे गुस्सा आता. राहुल से कहती, ‘‘और भी तो लड़कियां हैं, सब हायहलो करती हैं और इस लड़की को इतनी भी तमीज नहीं कि कभी विश कर दे.’’

राहुल तुरंत उस की साइड लेता, ‘‘वह आप से डरती है, मम्मी.’’

‘‘क्यों? क्या मैं उसे कुछ कहती हूं?’’

‘‘नहीं, मैं ने उसे बताया है कि आप को उस की और मेरी दोस्ती के बारे में पता है और आप को यह सब बिलकुल पसंद नहीं है.’’

मैं कहती, ‘‘दोस्ती को मैं थोड़े ही बुरा समझती हूं लेकिन हद से बाहर कुछ दिखता है तो गुस्सा तो आता ही है. सब खबर है मुझे.’’

राहुल पैर पटकता चला जाता. कुछ समय और बीता, दोनों की 12वीं भी हो गई. इस बार राहुल के 91 प्रतिशत और स्वाति के 93 प्रतिशत अंक आए. हम सब बहुत खुश थे. अब राहुल ने कौमर्स ली, स्वाति ने साइंस. अब तो कई मेरी करीबी सहेलियां सोसायटी के गार्डन में सैर करते हुए स्वाति को आतेजाते देख कर मुझे कोहनी मारतीं, ‘‘देख, तेरे बेटे की गर्लफैं्रड जा रही है.’’ मैं ऊपर से मुसकरा देती और दिल ही दिल में सोचती, इस का मतलब अच्छे- खासे मशहूर हैं दोनों. मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि दोनों एकदूसरे को बहुत सीरियसली लेते हैं. अब मैं ही विजय से कहती, ‘‘बचपन से ये दोनों साथ हैं, मुझे तो लगता है अपने पैरों पर खड़ा होने पर ये विवाह भी करेंगे.’’

विजय मेरी इतनी गंभीरता से कही गई बात को हलकेफुलके ढंग से लेते और हंस कर कहते, ‘‘वाह, क्या हमारे घर में महाराष्ट्रियन बहू आ रही है? क्या बुराई है?’’ अब तो मैं भी मानसिक रूप से उसे बहू के रूप में देखने के लिए तैयार हो गई थी. मन ही मन कई बातें उस के बारे में सोचती रहती. स्नेहा कभी अपनी टिप्पणी देती, कभी चुपचाप हमारी बात सुनती. वह भी हमें राहुल और स्वाति की कई बातें बताती रहती.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. राहुल का यहीं मुंबई में ऐडमिशन हुआ, स्वाति का कोटा में. मैं सोचती अब तो बस फोन ही माध्यम होगा इन की बातचीत का. स्वाति कोटा चली गई. राहुल कई दिन चुप व गंभीर सा रहा. फोन पर बात कर रहा होता तो मैं समझ जाती उधर कौन है. वह कई बार फोन पर दोस्तों से बात करता लेकिन जब वह स्वाति से बात करता तो उस के बिना बताए मैं उस के चेहरे के भावों से समझ जाती कि उधर स्वाति है फोन पर.

अब राहुल बीकौम के साथसाथ सीए भी कर रहा था. मैं ने आश्चर्यजनक रूप से एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया. अब किसी अवनि के फोन आने लगे थे. राहुल की बातों से पता चला कि उस की क्लासफैलो अवनि उस की खास दोस्त है. 1-2 बार वह उसे किसी प्रोजैक्ट की तैयारी के लिए 2-3 दोस्तों के साथ घर भी लाया. उन की दोस्ती साधारण दोस्ती से हट कर लगी. अवनि ने मुझ से पूरे कौन्फिडैंस से बात की, किचन में मेरा हाथ बंटाने भी आ गई. वह साउथइंडियन थी, स्मार्ट थी. जब तक घर में रही, राहुलराहुल करती रही. मैं चुपचाप उस की भावभंगिमाओं का निरीक्षण करती रही और इस नतीजे पर पहुंची कि जो संबंध अब तक राहुल का स्वाति से था, वही आज अवनि से है.

मुझे मन ही मन राहुल पर गुस्सा आने लगा कि यह क्या तमाशा है, कभी किसी लड़की से इतनी दोस्ती तो कभी किसी और से. वह अवनि के साथ फोन पर गप्पें मारता रहता. मैं ने 1-2 बार पूछ ही लिया, ‘‘स्वाति कैसी है?’’‘‘ठीक है, क्यों?’’‘‘उस से बात तो होती रहती होगी?’’‘‘हां, कभी फ्री होता हूं तो बात हो जाती है, वह भी बिजी है, मैं भी.’’मैं ने मन ही मन सोचा, ‘हां, मुझे पता है तुम कहां बिजी हो.’मैं ने इतना ही कहा, ‘‘तुम्हारी तो वह अच्छी फ्रैंड है न, उस के लिए तो टाइम मिल ही जाता होगा.’’

वह झुंझला गया, ‘‘तो क्या उस से रोज बात करता रहूं? और रोजरोज कोई क्या बात करे.’’मैं हैरान उस का मुंह देखती रह गई और वह पैर पटकता वहां से चला गया.अब राहुल पर मुझे हर समय गुस्सा आता रहता. अवनि कभी भी उस के दोस्तों के साथ आ जाती, लंच करती, हम सब से खूब बातें करती. रात को बैडरूम में विजय को देखते ही मेरे मन का गुबार निकलना शुरू हो जाता, ‘‘हुंह, पुरुष है न, किसी लड़की की भावनाओं से खेलना अपना हक समझता है, बचपन से जिस के साथ घूम रहा है, जिस के साथ सोसायटी में अच्छेखासे चर्चे हैं, अब इतने आराम से उसे भूल कर किसी और लड़की से दोस्ती कर ली है, आवारा कहीं का.’’

विजय कहते, ‘‘प्रीति, तुम क्यों बच्चों की बातों में अपना दिमाग खराब करती रहती हो. यह उम्र ही ऐसी है, ज्यादा ध्यान मत दिया करो.’’मैं चिढ़ जाती, ‘‘हां, आप तो उसी की साइड लेंगे, खुद भी तो एक पुरुष हो न.’’‘‘अरे, हम तो हमेशा से आप के गुलाम हैं, कभी शिकायत का मौका दिया है,’’ विजय नाटकीय स्वर में कहते तो भी मैं चुप रहती.

मेरा ध्यान स्वाति में रहता. मैं उसी के बारे में सोचती. कोई भी काम करते हुए मुझे उस का ध्यान आ जाता कि बेचारी को राहुल का व्यवहार कितना खलता होगा, उसे राहुल का बचपन का साथ याद आता होगा.

काफी समय बीतता चला गया. स्नेहा एमबीए कर रही थी, राहुल का भी सीए पूरा होने वाला था. यह पूरा समय मुझे स्वाति का ध्यान आता रहा था. राहुल के किसी फोन से मुझे अब यह न लगता कि वह स्वाति के संपर्क में भी है. अवनि से उस की घनिष्ठता बढ़ गई थी. एक दिन मुझे शौपिंग के लिए जाना था, विजय ने कहा, ‘‘तुम शाम को 6 बजे कैफे कौफी डे पहुंच जाना, वहीं कुछ खापी कर शौपिंग करने चलेंगे.’’

मैं वहां पहुंची, एक कार्नर में बैठ गई. विजय को फोन कर के पूछा कि कितनी देर में आ रहे हो. उन्होंने कहा, ‘‘तुम और्डर दे दो, मैं भी पहुंच ही रहा हूं.’’

मैं ने और्डर दे कर यों ही नजरें इधरउधर दौड़ाईं तो मैं चौंक पड़ी, स्वाति एक टेबल पर एक लड़के के साथ बैठी थी और दोनों चहकते हुए आसपास के माहौल से बेखबर अपनी बातों में व्यस्त थे. मैं गौर से स्वाति को देखती रही, वह काफी खुश लग रही थी. मेरी नजरें स्वाति से हट नहीं रही थीं, शायद उसे भी किसी की घूरती निगाहों का एहसास हुआ हो, उस ने इधरउधर देखा, चौंक कर उस लड़के को कुछ कहा, फिर उठ कर आई, मेरी टेबल के पास खड़ी हुई, मुझे नमस्ते की. मैं ने उसे बैठने का इशारा करते हुए उस के हालचाल पूछे.

वह बैठी तो नहीं लेकिन आज पहली बार वह मुझ से बात कर रही थी. मैं ने उस की पढ़ाई के बारे में पूछा. उस से बात करतेकरते मेरी नजर उस के पीछे आ कर खड़े हुए लड़के पर पड़ी. स्वाति ने उस से परिचय करवाया, ‘‘आंटी, यह आकाश है, कोटा में मेरे कालेज में ही है. यहीं मुंबई में ही रहता है.’’ मैं ने दोनों से कुछ हलकीफुलकी बात की, फिर वे दोनों ‘बाय आंटी’ कह कर चले गए.

मैं स्वाति को हंसतेमुसकराते जाते देखती रही. मैं सोच रही थी, यह लड़की कभी नहीं जान पाएगी कि यह कितने दिनों से मेरे दिमाग पर छाई थी. मैं ने मन ही मन पता नहीं क्या रिश्ता बना लिया था इस से, पता नहीं इस की कितनी भावनाओं से मेरा मन जुड़ गया था, लेकिन आज मैं स्वाति को खुश देख कर बेहद खुश थी.

मैं सिर्फ बार्बी डौल नहीं हूं- भाग 1: क्या थी परी की कहानी

खुद को आईने में निहारते हुए परी को अपने दाहिने गाल पर एक दाना दिखा. वह परेशान हो गई. क्या करे? क्या डाक्टर के पास जाए? फिर उस ने जल्दीजल्दी फाउंडेशन और कंसीलर की मदद से उस दाने को छिपाया और होंठों पर लिपस्टिक का फाइनल टच दिया. सिर पर थोड़ा सा पल्लू कर, पायल और चूडि़यां खनकाती वह बाहर निकली.

परी की सास और ननद उसे प्रशंसा से देख रही थीं, वहीं जेठानियों की आंखों में उस ने ईर्ष्या का भाव देखा तो परी को लगा कि उस का शृंगार सार्थक हुआ.

पासपड़ोस की आंटी और दूर के रिश्ते की चाची, ताई सब शकुंतला को इतनी सुंदर बहू लाने के लिए बधाई दे रही थीं. शकुंतला अभिमान से मंदमंद मुसकरा रही थीं. वे बड़े सधे स्वर में बोलीं, ‘‘यह तो हमारे मनु की पसंद है. पर हां, शायद इतनी खूबसूरत बहू मैं भी नहीं ढूंढ़ पाती.’’

नारंगी शिफौन साड़ी पर नीले रंग का बौर्डर था और नीले रंग का ही खुला ब्लाउज, जो उस की पीठ की खूबसूरती को उभार रहा था. पीठ पर ही परी ने एक टैटू बनवा रखा था जो मछली और एक परी के चित्र का मिलाजुला स्वरूप था.

परी को अपने इस टैटू पर बहुत गुमान था. इसी टैटू के कारण कितने ही लड़कों का दिल उस ने अपनी मुट्ठी में कर रखा था. परी की पारदर्शी त्वचा, दूध जैसा रंग, गहरी कत्थई आंखें सबकुछ किसी को भी बांधने के लिए पर्याप्त था. मनीष से उस की मुलाकात बैंगलुरु के नौलेज पार्क में हुई थी. दोनों का औफिस उसी बिल्डिंग में था. कभीकभी दोनों की मुलाकात कौफीहाउस में भी हो जाती थी.

मनीष अपने मातापिता की इकलौती संतान था. शकुंतला और कवींद्र दोनों ने ही अपनी पूरी ताकत अपनी संतान के पालनपोषण में लगा दी थी. बचपन से ही मनीष के दिमाग में यह बात घर कर गई थी कि उसे हर चीज में अव्वल आना है. कोई भी दोयम दरजे की चीज या व्यक्ति उसे मान्य नहीं था. पढ़ाई में अव्वल, खेलकूद में शीर्ष स्थान.

12वीं के तुरंत बाद ही उस का दाखिला देश के सब से अच्छे इंजीनियरिंग कालेज में हो गया था. उस के तुरंत बाद मुंबई के सब से प्रतिष्ठित कालेज से उस ने मैनेजमैंट की डिग्री हासिल की और बैंगलुरु में 60 लाख की सालाना आय पर उस ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर के रूप में जौइन कर लिया था जहां पर उस की मुलाकात परी से हुई और परी हर मामले में उस की जिंदगी के सांचे में फिट बैठती थी.

परी के मातापिता के पास अपनी बेटी के सौंदर्य और पढ़ाई के अलावा कुछ और दहेज में देने के लिए नहीं था. शकुंतला और कवींद्र ने मनीष की शादी के लिए बहुत बड़े सपने संजोए थे पर परी की खूबसूरती, काबिलीयत और मनीष की इच्छा के कारण चुप लगा गए. सादे से विवाह समारोह के बाद शकुंतला और कविंद्र ने बहुत ही शानदार रिसैप्शन दे कर मन के सारे अरमान पूरे कर लिए थे.

शाम को मनीष के दोस्त के यहां खाने पर जाना था. परी थक गई थी. उस का कपड़े बदलने का मन नहीं था. जब वह उसी साड़ी में बाहर आई तो शकुंतला ने टोका, ‘‘परी तुम नईनवेली दुलहन हो. ऐसे बासी कपड़ों में कैसे जाओगी?’’

परी बुझे स्वर में बोली, ‘‘मम्मी, मुझे बहुत थकान हो रही है. यह साड़ी भी तो अच्छी है.’’

शकुंतला ने बिना कुछ कहे उसे मैरून रंग का कुरता और शरारा पकड़ा दिया. परी ने मदद के लिए मनीष की तरफ देखा तो वह भी मंदमंद मुसकान के साथ अपनी मां का समर्थन ही करता नजर आया.

फिर से उस ने पूरा शृंगार किया. आईने में उस ने देखा, अब वह दाना और स्पष्ट हो गया था. तभी पीछे से शकुंतला की आवाज सुन कर घबरा कर उस ने उस दाने के ऊपर फाउंडेशन लगा लिया और फाउंडेशन का धब्बा अलग से उभर कर चुगली कर रहा था.

बाहर ड्राइंगरूम की रोशनी में शकुंतला बोलीं, ‘‘परी फाउंडेशन तो ठीक से लगाया करो. यह क्या फूहड़ की तरह मेकअप किया है तुम ने?’’

परी घबरा गई. जैसे ही शकुंतला उस के करीब आईं तभी मनीष की कार का हौर्न सुनाई दिया. परी बाहर की तरफ भागी.

पीछे से शकुंतला की आवाज आई, ‘‘परी रास्ते में ठीक कर लेना.’’

कार में बैठते ही मनीष ने परी को अपने करीब खींच लिया और चुंबनों की बरसात कर दी. फिर धीरे से उस के कान में फुसफुसाया, ‘‘मन नहीं है मयंक के घर जाने का. कहीं उस की नीयत न बिगड़ जाए. जान, बला की खूबसूरत लग रही हो तुम.’’

मनीष की बात पर परी धीरे से मुसकरा दी. करीब 15 मिनट बाद कार एक नए आबादी क्षेत्र में बनी सोसाइटी के आगे रुक गई. मनीष ने घंटी बजाई और एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला. चेहरे पर मुसकान और मधुरता लिए हुए उन्हें देख कर ऐसा आभास हुआ परी को कि वह उन के साथ बैठ कर थोड़ा सुस्ता ले.

तभी अंदर से ‘‘हैलो… हैलो…’’ बोलता हुआ एक नौजवान आया. गहरी काली आंखें, तीखी नाक और खुल कर हंसने वाला. उस के व्यक्तित्व में सबकुछ खुलाखुला था. परी बिना परिचय के ही समझ गई थी कि यह मयंक है और वह महिला उस की मां है.’’

परी और मनीष 4 घंटे तक वहां बैठे रहे. परी को लगा ही नहीं कि वह यहां पहली बार आई है. जहां मनीष के घर उसे हर समय डर सा लगा रहता था कि कहीं कुछ गलत न हो जाए. हर समय अपने रंगरूप को ले कर सजग रहना पड़ता था, वहीं यहां वह एकदम सहज थी.

तभी परी के मोबाइल की घंटी बजी. शकुंतलाजी दूसरी तरफ थीं, ‘‘परी तुम्हें कुछ होश है या नहीं, क्या समय हुआ है? मनीष का तो वह दोस्त है पर तुम्हें तो खयाल रखना चाहिए न…’’

जब वे लोग वहां से बिदा हो कर चले तब रात के 11 बज चुके थे. घर पहुंच कर परी जब चेहरा धो रही थी तब उस ने करीब से देखा, उस दाने के साथ एक और दाना बगल में उग चुका था. वह गहरी चिंता में डूब गई. वह मन ही मन सोच में डूब गई कि अब कैसे सामना करूंगी? उस ने तो मुझे पसंद ही मेरी खूबसूरत पारदर्शी त्वचा की वजह से किया है.

मनीष अधीरता से बाथरूम का दरवाजा पीट रहा था, ‘‘डौल, मेरी बार्बी डौल जल्दी आओ.’’

उस की कोमल व बेदाग साफ त्वचा के कारण ही तो वह उसे बार्बी डौल कहता था. फिर से उस ने फाउंडेशन लगाया और बाहर आ गई. मनीष ने उसे बांहों में उठाया और फिर दोनों प्यार में डूब गए.

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना- भाग 1

‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

सपनों की राख तले : भाग 2

कई बार निवेदिता खुद से पूछती कि उस में उस का कुसूर क्या था कि वह सुंदर थी, स्मार्ट थी. लोगों के बीच जल्द ही आकर्षण का केंद्र बन जाती थी या उस की मित्रता सब से हो जाती थी. वरना पत्नी के प्रति दुराव की क्षुद्र मानसिकता के मूल कारण क्या हो सकते थे? शरीर के रोगों को दूर करने वाले तेजेश्वर यह क्यों नहीं समझ पाए कि इनसान अपने मृदु और सरल स्वभाव से ही तो लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र बनता है.

दिनरात की नोकझोंक और चिड़- चिड़ाहट से दुखी हो उठी थी निवेदिता. सोचा, क्या रखा है इन घरगृहस्थी के झमेलों में?

एक दिन अपनी डिगरियां और सर्टिफिकेट निकाल कर तेज से बोली, ‘घर में बैठेबैठे मन नहीं लगता, क्यों न मैं कोई नौकरी कर लूं?’

‘और यह घरगृहस्थी कौन संभालेगा?’ तेज ने आंखें तरेरीं.

‘घर के काम तो चलतेफिरते हो जाते हैं,’ दृढ़ता से निवेदिता ने कहा तो तेजेश्वर का स्वर धीमा पड़ गया.

‘निवेदिता, घर से बाहर निकलोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’

‘क्यों…’ लापरवाही से पूछा था उस ने.

‘लोग न जाने तुम्हें कैसीकैसी निगाहों से घूरेंगे.’

कितना प्यार करते हैं तेज उस से? यह सोच कर निवेदिता इतरा गई थी. पति की नजरों में, सर्वश्रेष्ठ बनने की धुन में वह तेजेश्वर की हर कही बात को पूरा करती चली गई थी, पर जब टांग पर टांग चढ़ा कर बैठने में, खिड़की से बाहर झांक कर देखने में, यहां तक कि किसी से हंसनेबोलने पर भी तेज को आपत्ति होने लगी तो निवेदिता को अपनी शुरुआती भावुकता पर अफसोस होने लगा था.

निरी भावुकता में अपने निजत्व को पूर्ण रूप से समाप्त कर, जितनी साधना और तप किया उतनी ही चतुराई से लासा डाल कर तेजेश्वर उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ही बाधित करते चले गए.

दर्द का गुबार सा उठा तो निवेदिता ने करवट बदल ली. यादों के साए पीछा कहां छोड़ रहे थे. विवाह की पहली सालगिरह पर मम्मीपापा 2 दिन पहले ही आ गए थे. मित्र, संबंधी और परिचितों को आमंत्रित कर उस का मन पुलक से भर उठा था लेकिन तेजेश्वर की भवें तनी हुई थीं. निवेदिता के लिए पति का यह रूप नया था. उस ने तो कल्पना भी नहीं की थी कि इस खुशी के अवसर को तेज अंधकार में डुबो देंगे और जरा सी बात को ले कर भड़क जाएंगे.

‘मटरमशरूम क्यों बनाया? शाही पनीर क्यों नहीं बनाया?’

छोटी सी बात को टाला भी जा सकता था पर तेजेश्वर ने महाभारत छेड़ दिया था. अकसर किसी एक बात की भड़ास दूसरी बात पर ही उतरती है. तेज का स्वभाव ही ऐसा था. दोस्ती किसी से करते नहीं थे, इसीलिए लोग उन से दूर ही छिटके रहते थे. आमंत्रित अतिथियों से सभ्यता और शिष्टता से पेश आने के बजाय, लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ही उन्होंने वह हंगामा खड़ा किया था. यह सबकुछ निवेदिता को अब समझ में आता है.

2 दिन तक मम्मीपापा और रहे थे. तेज इस बीच खूब हंसते रहे थे. निवेदिता इसी मुगालते में थी कि मम्मीपापा ने कुछ सुना नहीं था पर अनुभवी मां की नजरों से कुछ भी नहीं छिपा था.

घर लौटते समय तेज का अच्छा मूड देख कर उन्होंने मशविरा दिया था, ‘जिंदगी बहुत छोटी है. हंसतेखेलते बीत जाए तो अच्छा है. ज्यादा ‘वर्कोहोलिक’ होने से शरीर में कई बीमारियां घर कर लेती हैं. कुछ दिन कहीं बाहर जा कर तुम दोनों घूम आओ.’

इतना सुनते ही वह जोर से हंस दी थी और उस के मुंह से निकल गया था, ‘मां, कभी सोना लेक या बटकल लेक तक तो गए नहीं, आउट आफ स्टेशन ये क्या जाएंगे?’

मजाक में कही बात मजाक में ही रहने देते तो क्या बिगड़ जाता? लेकिन तेज का तो ऐसा ईगो हर्ट हुआ कि मारपीट पर ही उतर आए.

हतप्रभ रह गई थी वह तेज के उस व्यवहार को देख कर. उस दिन के बाद से हंसनाबोलना तो दूर, उन के पास बैठने तक से घबराने लगी थी निवेदिता. कई दिनों तक अबोला ठहर जाता उन दोनों के बीच.

सपनों की राख तले : भाग 1

दौड़भाग, उठापटक करते समय कब आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह गश खा कर गिर पड़ी, याद नहीं.

आंख खुली तो देखा कि श्वेता अपने दूसरे डाक्टर सहकर्मियों के साथ उस का निरीक्षण कर रही थी. तभी द्वार पर किसी ने दस्तक दी. श्वेता ने पलट कर देखा तो डा. तेजेश्वर का सहायक मधुसूदन था.

‘‘मैडम, आप के लिए दवा लाया हूं. वैसे डा. तेजेश्वर खुद चेक कर लेते तो ठीक रहता.’’

आंखों की झिरी से झांक कर निवेदिता ने देखा तो लगा कि पूरा कमरा ही घूम रहा है. श्वेता ने कुछ देर पहले ही उसे नींद का इंजेक्शन दिया था. पर डा. तेज का नाम सुन कर उस का मन, अंतर, झंकृत हो उठा था. सोचनेविचारने की जैसे सारी शक्ति ही चुक गई थी. ढलती आयु में भी मन आंदोलित हो उठा था. मन में विचार आया कि पूछे, आए क्यों नहीं? पर श्वेता के चेहरे पर उभरी आड़ीतिरछी रेखाओं को देख कर निवेदिता कुछ कह नहीं पाई थी.

‘‘तकदीर को आप कितना भी दोष दे लो, मां, पर सचाई यह है कि आप की इस दशा के लिए दोषी डा. तेज खुद हैं,’’ आज सुबह ही तो मांबेटी में बहस छिड़ गई थी.

‘‘वह तेरे पिता हैं.’’

‘‘मां, जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके वह व्यक्ति समाज में रह कर समाज का अंग नहीं बन सकता और न ही सम्माननीय बन सकता है,’’ क्रोधित श्वेता कुछ ही देर में कमरा छोड़ कर बाहर चली गई थी.

बेटी के जाने के बाद से उपजा एकांत और अकेलापन निवेदिता को उतना असहनीय नहीं लगा जितना हमेशा लगता था. एकांत में मौन पड़े रहना उन्हें सुविधाजनक लग रहा था.

खयालों में बरसों पुरानी वही तसवीर साकार हो उठी जिस के प्यार और सम्मोहन से बंधी, वह पिता की देहरी लांघ उस के साथ चली आई थी.

उन दिनों वह बी.ए. फाइनल में थी. कालिज का सालाना आयोजन था. म्यूजिकल चेयर प्रतियोगिता में निवेदिता और तेजेश्वर आखिरी 2 खिलाड़ी बचे थे. कुरसी 1 उम्मीदवार 2. कभी निवेदिता की हथेली पर तेजेश्वर का हाथ पड़ जाता, कभी उस की पीठ से तेज का चौड़ा वक्षस्थल टकरा जाता. जीत, तेजेश्वर की ही हुई थी लेकिन उस दिन के बाद से वे दोनों हर दिन मिलने लगे थे. इस मिलनेमिलाने के सिलसिले में दोनों अच्छे मित्र बन गए. धीरेधीरे प्रेम का बीज अंकुरित हुआ तो प्यार के आलोक ने दोनों के जीवन को उजास से भर दिया.

अंतर्जातीय विवाह के मुद्दे को ले कर परिवार में अच्छाखासा विवाद छिड़ गया था. लेकिन बिना अपना नफानुकसान सोचे निवेदिता भी अपनी ही जिद पर अड़ी रही. कोर्ट में रजिस्टर पर दस्तखत करते समय, सिर्फ मांपापा, तेजेश्वर और निवेदिता ही थे. इकलौती बेटी के ब्याह पर न बाजे बजे न शहनाई, न बंदनवार सजे न ही गीत गाए गए. विदाई की बेला में मां ने रुंधे गले से इतना भर कहा था, ‘सपने देखना बुरा नहीं होता पर उन सपनों की सच के धरातल पर कोई भूमिका नहीं होती, बेटी. तेरे भावी जीवन के लिए बस, यही दुआ कर सकती हूं कि जमीन की जिस सतह पर तू ने कदम रखा है वह ठोस साबित हो.’

विवाह के शुरुआती दिनों में सुंदर घर, सुंदर परिवार, प्रिय के मीठे बोल, यही पतिपत्नी की कामना थी और यही प्राप्ति. शुरू में तेज का साथ और उस के मीठे बोल अच्छे लगते थे. बाद में यही बोल किस्सा बन गए. निवि को बात करने का ढंग नहीं है, पहननाओढ़ना तो उसे आता ही नहीं है. सीनेपिरोने का सलीका नहीं. 2 कमरों के उस छोटे से फ्लैट को सजातेसंवारते समय मन हर पल पति के कदमों की आहट को सुनने के लिए तरसता. कुछ पकातेपरोसते समय पति के मुख से 1-2 प्रशंसा के शब्द सुनने के लिए मन मचलता, लेकिन तेजेश्वर बातबात पर खीजते, झल्लाते ही रहते थे.

निवेदिता आज तक समझ नहीं पाई कि ब्याह के तुरंत बाद ही तेज का व्यवहार उस के प्रति इतना शुष्क और कठोर क्यों हो गया. उस ने तो तेज को मन, वचन, कर्म से अपनाया था. तेज के प्रति निवेदिता को कोई गिलाशिकवा भी नहीं था.

प्यार में कंजूसी: क्या थी शुभा की कहानी

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मिट गई दूरियां: कैसे एक हुए राजेश और अंजलि

कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान जहां सभी लोग अपनेअपने घरों में सिमट गए थे, वहीं नौकरीपेशा लोगों के लिए ड्यूटी पर जमे रहना जरूरी था.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले का रहने वाला 25 साल का राजेश कुमार रेलवे में ट्रैकमैन की नौकरी कर रहा था. उस की पोस्टिंग बिहार के रोहतास जिले में हुई थी. वह कई सालों से रोहतास के डेहरी औन सोन के रेलवे क्वार्टर में रह रहा था.

रेलवे लाइन के किनारे सरकारी क्वार्टर बने हुए थे. वैसे, इस महकमे के सरकारी क्वार्टरों की हालत अच्छी नहीं थी. ज्यादातर रेलवे मुलाजिम इन क्वार्टरों में रहना पसंद नहीं करते थे. इस की वजह यह थी कि सरकारी क्वार्टर होने के चलते इन के रखरखाव और मरम्मत ठीक से नहीं हो पाई थी, जिस से कुछ को छोड़ कर ज्यादार क्वार्टर जर्जर हो चुके थे, इसलिए लोगों को रहने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था.

लिहाजा, ज्यादातर रेलवे मुलाजिम सरकारी क्वार्टर को अलौट नहीं करवाना चाहते थे. दूसरी वजह यह भी थी कि रेलवे स्टेशन शहर से थोड़ा दूर था. लेकिन राजेश कुंआरा था और उसे घर के लिए पैसे भी बचाने थे, इसलिए उस के लिए रेलवे क्वार्टर में ही रहना ठीक था.

जब कोरोना की पहली लहर आई तो राजेश को हाजिरी लगाने भर के लिए ड्यूटी जाना पड़ता था, क्योंकि देशभर में ट्रेनों की आवाजाही बंद कर दी गई थी.

उस दिन रात के तकरीबन 9 बजे राजेश क्वार्टर से खाना खा कर आदतन चहलकदमी करने निकला था. वह जैसे ही घर से बाहर निकला, घर के पिछवाड़े में एक औरत उस के कमरे की दीवार के पास बदहवास हालत में पड़ी हुई थी.

राजेश उसे देख कर हैरान हुआ. दूर से आ रही लैंपपोस्ट की रोशनी में भी वह साफ देख पा रहा था. उस की साड़ी और पेटीकोट घुटने से ऊपर तक चढ़े हुए थे. ब्लाउज का ऊपरी हुक टूट हुआ था, जिस के चलते उस के उभार साफ दिख रहे थे. उस की साड़ी जगहजगह से फटी हुई थी. उस के पैर लहूलुहान दिख रहे थे. देखने में वह भले घर की लग रही थी. राजेश को ऐसा महसूस हुआ कि उस औरत के साथ कुछ न कुछ गलत जरूर हुआ है.

राजेश को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे हिम्मत नहीं हो रही थी कि उस से कुछ पूछे. फिर भी वह इनसानियत के नाते उस औरत के नजदीक गया और पूछा, ‘‘तुम कौन हो? यहां क्या कर रही हो?’’

वह औरत सिसक रही थी. उस ने अपने आंचल से आंखों के कोनों को साफ किया. वह कुछ पल राजेश की तरफ देखती रही, फिर डरतेडरते बोलने की कोशिश की, ‘‘मुझे जोर से प्यास लगी है.’’

राजेश झटपट जा कर कमरे से एक गिलास पानी ले आया था. वह पानी के गिलास को एक ही सांस में खाली कर गई थी. देखने से अंदाजा लगा कि वह काफी भूखीप्यासी है.

‘‘मैं काफी थकी हूं. मुझे सोने दो,’’ यह कह कर वह एक तरफ वहीं जमीन पर सोने लगी थी.

‘‘बाहर बहुत कीड़ेमकोड़े और मच्छर भी हैं. यहां सोना महफूज भी नहीं है… अंदर आ कर मेरे कमरे में सो जाओ,’’ राजेश ने उस से कहा.

वह औरत कुछ पल सोचती रही, क्योंकि बाहर बहुत सन्नाटा था. वह ऐसी सुनसान जगह में कभी नहीं रही थी.

उसे अजनबी आदमी पर यकीन नहीं हो रहा था, फिर भी वह बाहर डर महसूस कर रही थी. वर्तमान हालात ऐसे थे कि उसे राजेश पर यकीन करना ही ठीक लगा था, इसलिए वह उस के कहने पर अंदर आ गई थी.

राजेश उसे कमरे में सो जाने के लिए बोला था. उस के पास कुछ रोटियां थीं, उसे खाने के लिए दी थीं, पर वह बिना खाए ही कमरे में सो गई थी. राजेश बाहर बरामदे में सो गया था.

किंतु राजेश को नींद नहीं आ रही थी. वह उसी के बारे में सोच रहा था. कुछ भी अंदाजा नहीं लगा पा रहा था. आखिर यह औरत कौन है? इस हालत में यहां तक यह कैसे पहुंची है? इसी उधेड़बुन में उसे कब नींद लग गई, पता भी नहीं चला था.

राजेश की सुबह जल्दी ही नींद खुल गई थी. कुछ देर बाद वह औरत भी जाग गई थी. राजेश ने उसे बाथरूम के बारे में बता दिया. उस के पैर में छाले होने के चलते वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी.

राजेश के मन में कई तरह के सवाल उठ रहे थे. तभी राजेश किचन से चाय बना कर ले आया था. वह डरते हुए चाय पीने लगी थी और खुद के बारे में सोच रही थी.

चाय पीते ही राजेश ने उस औरत से कई तरह के सवाल पूछ डाले थे.

उस औरत ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं अंजली हूं और मेरा घर तिलौथू ब्लौक के निमियाडीह गांव में है, जो यहां से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर है.

‘‘दरअसल, मैं घर से भाग कर रेलवे लाइन पर मरने के लिए आई थी, लेकिन लौकडाउन होने के चलते कई दिनों से ट्रेन आजा नहीं रही है. मैं पिछली रात को ही अपने घर से चुपके से निकल गई थी. रातभर चलने के बाद यहां पहुंची थी.

‘‘दिनभर रेलवे लाइन के किनारे मरने के लिए भूखीप्यासी इधरउधर भटकती रही. लेकिन एक भी ट्रेन नहीं आ पाई तो मैं बहुत निराश हो गई थी.

‘‘मैं भूखप्यास से काफी थक गई थी, इसीलिए रात में आप के घर के पिछवाड़े पड़ी हुई थी. मैं यहां अपनी किस्मत पर रो रही थी. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? मुझे सुनसान जगह होने के चलते काफी डर लग रहा था.’’

राजेश ने सवाल किया, ‘‘आखिर तुम मरना क्यों चाहती हो?’’

यह सुन कर अंजली काफी उदास हो गई थी. उस की आंखों से आंसू छलक पड़े थे. काफी कोशिश के बाद उस ने बताया, ‘‘मेरा पति एक नंबर का शराबी है. वह नकारा है. वह मुझे कोसता रहता था कि बेटी की शादी कौन करेगा?

‘‘एक दिन शराब के नशे में उस ने मेरी बेटी को बिस्तर से नीचे फेंक दिया था. ज्यादा चोट लगने के चलते मेरी बेटी मर गई.

‘‘इस के बाद मुझे अपने पति से नफरत हो गई थी, इसीलिए मैं जीना नहीं चाहती थी,’’ यह कहते हुए अंजली की आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे थे.

राजेश को अंजली की आपबीती सुन कर दुख हुआ था. उसे अंजली के पति पर काफी गुस्सा आ रहा था, लेकिन कुछ शक भी हो रहा था कि कोई भी औरत इतनी दूर मरने के लिए क्यों आएगी?

राजेश ने चाय के खाली प्याले को टेबल पर रखते हुए अंजली को समझाया, ‘‘अब तुम नहाधो लो. अभी लौकडाउन है. तुम कहीं जा भी नहीं सकती हो. अगर तुम चाहो तो यहां अपने पैर के जख्म को ठीक होने तक रुक सकती हो. वैसे, तुम इस हालत में कहीं जाने लायक भी नहीं हो.

‘‘अरे हां, तुम्हारे पास तो कपड़े भी नहीं हैं. हैंगर पर मेरी पैंट और टीशर्ट टंगे हुए हैं. अभी तुम्हें वही पहन कर काम चलाना पड़ेगा. मैं थोड़ा बाहर से सब्जी, दूध और तुम्हारे लिए दवा लेने जा रहा हूं. यहां 2 घंटे के बाद दुकानें बंद हो जाएंगी,’’ यह कह कर वह एक थैला ले कर बाहर निकल गया.

जब राजेश डेढ़ घंटे बाद अपने क्वार्टर में वापस आया, तो अंजली उस हालत में भी घर की साफसफाई कर चुकी थी. वह नहाधो कर कर पैंटटीशर्ट पहन चुकी थी और अपनी साड़ी, ब्लाउज और पेटीकोट को सूखने के लिए आंगन में रस्सी पर फैला रखा था.

अंजली बालों में कंघी कर रही थी. वह देखने में काफी खूबसूरत लग रही थी. वह कहीं से भी शादीशुदा नहीं लग रही थी. अभी मुश्किल से उस की उम्र 24-25 साल के आसपास रही होगी. खिलेखिले बड़े उभारों की गोलाई और उस के गुलाबी होंठ देख कर एकबारगी राजेश का मन मचलने लगा था.

राजेश ने अंजली को गरम दूध के साथ ब्रैड खाने को दी. इस के बाद अपने हाथों से दवा खिलाई थी.

राजेश तौलिया ले कर बाथरूम में नहाने चला गया था. जब वह नहा कर आया, तो औफिस में हाजिरी लगाने के लिए निकल पड़ा. तकरीबन ढाई घंटे बाद जब वह घर लौट कर आया, तो अंजली खाना पका कर उस के इंतजार में बैठी हुई थी.

राजेश ने आते ही पूछा, ‘‘तुम ने खाना खा लिया?’’

‘‘नहीं,’’ अंजली ने छोटा सा जवाब दिया.

राजेश के कहने पर उस ने थोड़ा सा खाना खाया. खाना खाने के बाद वे एकदूसरे के सामने बैठे हुए थे. राजेश ने उस से कुरेदकुरेद कर पूछना शुरू किया, तो उस ने बताया, ‘‘मैं 10वीं जमात तक पढ़ी हूं. गरीबी के चलते मेरे मामा ने कम उम्र में ही मेरी शादी कर दी थी, क्योंकि मेरे मातापिता बचपन में ही गुजर गए थे.

‘‘मेरे मामा किसी तरह से मेरी शादी कर के छुटकारा पाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बिना जानेसमझे मुझे उस पियक्कड़ के गले बांध दिया था.’’

1-2 दिन बाद ही राजेश को यह एहसास हुआ कि जिस घर में वह अकेलापन महसूस करता था, उस घर में अब रौनक आ गई थी. पहले वह घर से बाहर ज्यादा समय बिताना चाहता था, पर अब अंजली के आते ही उस का रूटीन बदल गया था. वह ज्यादा से ज्यादा समय उस के साथ बिताना चाहता था. उस के साथ बातें करना अच्छा लग रहा था.

अंजली कुछ दिन में ही अपना दुखदर्द भूल चुकी थी. अब वह बातचीत के दौरान थोड़ाबहुत हंसनेमुसकराने लगी थी. वह रोज उस के लिए खाना पकाने लगी थी. दोनों मिल कर खाते थे और देर रात तक इधरउधर की बातें करते थे.

तकरीबन हफ्तेभर बाद राजेश एक दिन औफिस से छुट्टी ले कर अपने एक दोस्त की बाइक से अंजली के गांव की तरफ चला गया था. वहां उस ने एक पान बेचने वाले से पूछा, ‘‘भैया, यहां कोरोना वायरस से कितने लोगों की मौत हुई होगी?’’

उस पान वाले ने बताया, ‘‘यहां कोरोना से किसी की मौत नहीं हुई है, पर हालफिलहाल में एक औरत ने घर से भाग कर नदी में कूद कर अपनी जान दे दी है. उस की लाश अभी तक नहीं मिल पाई है.’’

‘‘वे लोग कैसे जानें कि वह औरत नदी में कूद गई है?’’ राजेश ने पान वाले से सवाल किया.

‘‘उस औरत की चप्पल नदी के किनारे पड़ी मिली थी. अब उस औरत का श्राद्ध किया जा रहा है. उस का पति शराबी होने के साथसाथ नालायक भी है. वह बिना शराब पिए रह ही नहीं पाता है. बेचारी उस औरत को मुक्ति मिल गई,’’ पान बेचने वाले ने राजेश को बताया.

राजेश भरे मन से वापस लौट आया. वह इस उधेड़बुन में था कि अंजली को यह सब बात बताए कि नहीं बताए.

लेकिन वह अंजली से सचाई को छिपाना नहीं चाहता था, इसलिए उस ने बताया, ‘‘आज मैं तुम्हारे गांव में गया था. तुम उन लोगों की नजरों में मर चुकी हो, इसलिए तुम्हारे परिवार के द्वारा तुम्हारा श्राद्ध भी किया जा रहा था.’’

यह सुन कर अंजली निराश हुई. धीरेधीरे अनलौक की प्रक्रिया शुरू हो गई थी. दुकानें वगैरह ज्यादा समय के लिए खुलने लगी थीं, इसीलिए राजेश अंजली के लिए पहनने के लिए कुछ नई साड़ी खरीद लाया था. अबतक राजेश को अंजली से लगाव हो चुका था.

राजेश की नईनई नौकरी लगी थी, इसलिए शादी के लिए उस के घर पर लड़की वाले आ रहे थे. उस के मातापिता जल्दी ही शादी कराना चाहते थे, लेकिन लौकडाउन के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा था.

अंजली के आने के बाद राजेश की इच्छा बदलने लगी थी. अंजली भी चाहती थी कि जब वह मर नहीं सकी तो राजेश के लिए ही जिएगी, क्योंकि उसी के चलते उसे नई जिंदगी मिली थी. वह मन ही मन राजेश को चाहने लगी थी.

उस रात मूसलाधार बारिश होने लगी थी. राजेश बरामदे में सो रहा था, लेकिन तेज बारिश के झोंकों के चलते बरामदे का बिस्तर गीला हो गया था. अंजली के कहने पर राजेश उस के साथ बिस्तर पर सो गया था.

तेज हवा और बारिश के चलते वातावरण में ठंडापन भी आ गया था. ऐसे में बिजली चली गई. जैसे ही दोनों की गरम सांसें टकराईं, दोनों के अंदर बिजली कौंधने लगी थी. वे एकदूसरे की बांहों में समाने लगे थे. कुछ देर में दूरियां मिट गई थीं. अब वे दोनों एकदूसरे की बांहों में पड़ कर भविष्य के नए सपने बुन रहे थे.

धीरज कुमार

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