उजली परछाइयां- भाग 1: क्या अंबर और धरा का मिलन हुआ?

बीकानेर के सैंट पौल स्कूल के सामने बैठी धरा बहुत नर्वस थी. उसे वहां आए करीब 1 घंटा हो रहा था. वह स्कूल की छुट्टी होने और किट्टू के बाहर आने का इंतजार कर रही थी. किट्टू से उस का अपना कोई रिश्ता नहीं था, फिर भी उस की जिंदगी के बीते हुए हर बरस में किट्टू के निशान थे. अंबर का 14 साल का बेटा, जो अंबर के अतीत और धरा के वर्तमान के 10 लंबे सालों की सब से अहम परछाईं था. उसी से मिलने वह आज यहां आई थीं. आज वह सोच कर आई थी कि उस की कहानी अधूरी ही सही, लेकिन बापबेटे का अधूरापन वह पूरा कर के रहेगी.

करीब 10 साल पहले धरा का देहरादून में कालेज का सैकंड ईयर था जब धरा मिली थी मिस आभा आहलूवालिया से, जो उस के और अंबर के बीच की कड़ी थी. उस से कोई 4-5 साल बड़ी आभा कालेज की सब से कूल फैकल्टी बन के आई थी. वहीं, धरा में शैतानी और बेबाकपन हद दर्जे तक भरा था. लेकिन धीरेधीरे आभा और धरा टीचरस्टूडैंट कम रह गई थीं, दोस्त ज्यादा बन गईं. लेकिन शायद इस लगाव का एक और कारण था, वह था अम्बर, आभा का बड़ा भाई, जिस की पूरी दुनिया उस के इर्दगिर्द बसी थी और उसे वह अकसर याद करती रहती थी.

आभा ने बताया था कि अंबर ने करीब 5 साल पहले लवमैरिज की थी, बीकानेर में अपनी पत्नी रोशनी व 4 साल के बेटे किट्टू के साथ रह रहा था और 3-4 महीने में अपने घर आता था. आभा अकसर धरा से कहती कि उस की आदतें बिलकुल उस के भाई जैसी हैं.

ग्रेजुएशन खत्म होतेहोते आभा और धरा एकदूसरे की टीचर और स्टूडैंट नहीं रही थीं, अब वे एक परिवार का हिस्सा थीं. इन बीते महीनों में धरा उस के घर भी हो आई थी, भाई अंबर और बड़ी बहन नीरा से फेसबुक पर कभीकभार बातें भी होने लगी थीं और छुट्टियां उस के मम्मीपापा के साथ बीतने लगी थीं.

एग्जाम हो गए थे लेकिन मास्टर्स का एंट्रैंस देना बाकी था, इसलिए धरा उस समय आभा के घर में ही रह रही थी. तब अंबर घर आया था. बाहर से शांत लेकिन अंदर से अपनी ही बर्बादी का तूफान समेटे, जिस की आंधियों ने उस की हंसतीखेलती जिंदगी, उस का प्यार, सबकुछ तबाह कर दिया था. आभा के साथ रहते धरा को यह मालूम था कि अंबर की शादी के 2 साल तक सब ठीक था, फिर अचानक उस की बीवी रोशनी अपने मम्मी के घर गई, तो आई ही नहीं.

इस बार जब अंबर आया तो उस के हमेशा मुसकराते रहने वाले चेहरे से पुरानी वाली मुसकान गायब थी. धरा के लिए वह सिर्फ आभा का भाई था, जो केवल उतना ही माने रखता था जितना बाकी घरवाले. लेकिन 1-2 दिन में ही न जाने क्यों अंबर की उदास आंखों और फीकी मुसकान ने उसे बेचैन कर दिया.

करीब एक सप्ताह बाद अंबर ने बताया कि वह अपनी जौब छोड़ कर आया है क्योंकि उस के ससुराल वालों और पत्नी को लगता है कि वह पैसे के चलते वहां रहता है. अब वह यहीं जौब करेगा और कुछ महीनों के बाद पत्नी और बेटा भी आ जाएंगे. यह सब के लिए खुश होने की बात थी. लेकिन फिर भी, कुछ था जो नौर्मल नहीं था.

अंबर ने नई जौब जौइन कर ली थी. कितने ही महीने निकल गए, पत्नी नहीं आई. हां, तलाक का नोटिस जरूर आया. रोशनी ने अंबर से फोन पर भी बात करनी बंद कर दी थी और बेटे से भी बात नहीं कराती थी. इन हालात ने सभी को तोड़ कर रख दिया था. अंबर के साथ बाकी घर वालों ने भी हंसना छोड़ दिया.  उन के एकलौते बेटे की जिंदगी बरबाद हो रही थी. वह अपने बच्चे से बात तक नहीं कर पाता था. परिवार वाले कुछ नहीं कर पा रहे थे.

धरा सब को खुश रखने की कोशिश करती. कभी सब की पसंद का खाना बनाती तो कभी अंबर को पूछ कर उस की पसंद का नाश्ता बनाती. उसे देख कर अंबर अकसर सोचता कि यह मेरी और मेरे घर की कितनी केयर करती है. धरा आज की मौडर्न लड़की थी. लेकिन घरपरिवार का महत्त्व वह अच्छी तरह समझती थी. घर के काम करना उसे अच्छा लगता था.

समझौता: आखिर क्यों परेशान हुई रिया

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प्रेम का दूसरा नाम: तलाश मंजिल की

दियाबाती कर अभी उठी ही थी कि सांझ के धुंधलके में दरवाजे पर एक छाया दिखी. इस वक्त कौन आया है यह सोच कर मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं, रोहित, आंटी,’’ कुछ गहरे स्वर में जवाब आया.

रोहित और इस वक्त? अच्छा है जो पूर्वा के पापा घर पर नहीं हैं, यदि होते तो भारी मुश्किल हो जाती, क्योंकि रोहित को देख कर तो उन की त्यौरियां ही चढ़ जाती हैं.

‘‘हां, भीतर आ जाओ बेटा. कहो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, सिर्फ यह शादी का कार्ड देने आया था.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी ही है,’’ कुछ शरमाते हुए वह बोला, ‘‘अगले रविवार को शादी और सोमवार को रिसेप्शन है, आप और अंकल जरूर आना.’’

आज तक हमेशा उसे शादी के लिए उत्साहित करने वाली मैं शादी का कार्ड हाथ में थामे मुंहबाए खड़ी थी.

‘‘चलूं, आंटी, देर हो रही है,’’ रोहित बोला, ‘‘कई जगह कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘हां बेटा, बधाई हो. तुम शादी कर रहे हो, आएंगे हम, जरूर आएंगे…’’ मैं जैसे सपने से जागती हुई बोली.

बहुत खुश हो कर कहा था यह सब पर ऐसा लगा कि रोहित मेरा अपना दामाद, मेरा अपना बेटा किसी और का हो रहा है. उस पर अब मेरा कोई हक नहीं रह जाएगा.

रोहित हमारी ही गली का लड़का है और मेरी बेटी पूर्वा के साथ बचपन से स्कूल में पढ़ता था. पूर्वा की छोटीछोटी जरूरतों का खयाल करता था. पेंसिल की नोंक टूटने से ले कर उसे रास्ता पार कराने और उस का होमवर्क पूरा कराने तक. बचपन से ही रोहित का हमारे घर आनाजाना था. बच्चों के बचपन की दोस्ती ?पर पूर्वा के पापा ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जैसे ही दोनों बच्चे जवानी की ओर कदम बढ़ाने लगे वह रोहित को देखते ही नाकभौं चढ़ा लेते थे. रोहित और पूर्वा दोनों ही पापा की इस अचानक उपजी नाराजगी का कारण समझ नहीं पाते थे.

पापा का व्यवहार पहले जैसा क्यों नहीं रहा, यह बात 12वीं तक जातेजाते वे अच्छी तरह से समझ गए थे क्योंकि उन के दिल में फूटा हुआ प्रेम का नन्हा सा अंकुर अब विशाल वृक्ष बन चुका था. पापा को उन का साथ रहना क्यों नहीं अच्छा लगता है, इस का कारण वे समझ गए थे. छिप कर पूर्वा रोहित के घर जा कर नोट्स लाती थी और रोहित का तो घर के दरवाजे पर आना भी मना था.

रोहित और पूर्वा ने एकदूसरे को इतना चाहा था कि सपने में भी किसी और की कल्पना करना उन के लिए मुमकिन न था. मेरे सामने ही दोनों का प्रेम फलाफूला था. अब इस पर यों बिजली गिरते देख कर वह मन मसोस कर रह जाती थी.

एक और कारण से पूर्वा के पापा को रोहित पसंद नहीं था. वह कारण उस की गरीबी थी. पिता साधारण सी प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. घर में उस के एक छोटा भाई और एक बहन थी. 3 बच्चों का भरणपोषण, शिक्षा आदि कम आय में बड़ी मुश्किल से हो पाता था. इस कारण रोहित की मां भी साड़ी में पीकोफाल जैसे छोटेछोटे काम कर के घर खर्चे में पति का हाथ बंटाती थीं. हमारी कपड़ों की 2 बड़ीबड़ी दुकानें थीं. शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार की इकलौती बेटी पूर्वा राजकुमारी की तरह रहती थी.

रुई की तरह हलके बादलों के नरम प्यार पर जब हकीकत की बिजली कड़कड़ाती है तो क्या होता है? आसमान का दिल फट जाता है और आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती है. मैं कभी यह समझ नहीं पाई कि दुनिया बनाने वाले ने दुनिया बनाई और इस में रहने वालों ने समाज बना दिया, जिस के नियमानुसार पूर्वा रोहित के लिए नहीं बनी थी.

तभी फोन की घंटी बजी. लंदन से पूर्वा का फोन था. फोन पर पूछ रही थी, मम्मी, कैसी हो? यहां विवेक का काम ठीक चल रहा है, सोहम अब स्कूल जाने लगा है. तुम कब आओगी? पापा की तबीयत कैसी है? और भी जाने क्याक्या.

मैं कहना चाह रही थी कि रोहित के बारे में नहीं पूछोगी, उस की शादी है, बचपन की दोस्ती क्या कांच के खिलौने से भी कच्ची थी जो पल में झनझना कर टूट गई…पर कुछ न कह सकी और न ही रोहित की शादी होने वाली है यह खुशखबरी उसे सुना सकी.

दामाद विवेक के साथ बेटी पूर्वा खुश है, मुझे खुश होना चाहिए पर रोहित की आंखों में जब भी गीलापन देखती थी, खुश नहीं हो पाती थी. विवेक लंदन की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है. अच्छी कदकाठी, गोरा रंग, उच्च कुल के साथसाथ उच्च शिक्षित, क्या नहीं है उस के पास. पहले पूर्वा जिद पर अड़ी थी कि शादी करेगी तो रोहित से वरना कुंआरी ही रह जाएगी. पर दुनिया की ऊंचनीच के जानकार पूर्वा के पापा ने खुद की बहन के घर बेटी को ले जा कर उस को कुछ ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह सोचने को मजबूर हो गई कि रोहित के छोटे से घर में रहने से बेहतर है विवेक के साथ लंदन में ऐशोआराम से रहना.

बूआ के घर से वापस आ कर जब पूर्वा ने शरमाते हुए मुझ से कहा कि मुझे विवेक पसंद है, तब मेरा दिल धक् कर रह गया था. मैं अपना दिल पत्थर का करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती और यह लड़की…मेरी अपनी लड़की सबकु छ भूल गई. लेकिन यह मेरी भूल थी.

लंदन में सबकुछ होते हुए भी वह रोहित के बेतहाशा प्यार को अभी भी भूल नहीं पाई थी.

पूर्वा के पापा आ गए थे. बोले, ‘‘क्या हुआ, आज बड़ी अनमनी सी लग रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ उन के हाथ से बैग लेते हुए मैं बोली, ‘‘पूर्वा की याद आ रही है.’’

‘‘तो फोन कर लो.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले ही तो उस का फोन आया था, आप को याद कर रही थी.’’

‘‘हां, सोचता हूं, अगले माह तक हम लंदन जा कर पूर्वा से मिल आते हैं. और यह किस की शादी का कार्ड रखा है?’’

‘‘रोहित की.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो वह शादी कर रहा है. हां, लड़की कौन है?’’

‘‘फैजाबाद की किसी मिडिल क्लास परिवार की लगती है.’’

‘‘अच्छा है, जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारने चाहिए.’’

मैं रसोई में जा कर उन के लिए थाली लगाने लगी. वह जाने क्याक्या बोल रहे थे. मेरा ध्यान रोहित की ओर गया, जिसे मैं बेटे से बढ़ कर मानती हूं. उस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकती.

पूर्वा के विवाह वाले दिन वह कैसे सुन्न खड़ा था. मैं ने देखा था और देख कर आंखें भर आई थीं. कुछ और तो न कर सकी, बस, पीठ पर हाथ फेर कर मैं ने मूक दिलासा दिया था उसे.

उस का यह उदास रूप देख कर हाथ में रखी द्वाराचार के लिए सजी थाली मनों भारी हो गई थी, पैर दरवाजे की ओर उठ नहीं रहे थे. मैं पूर्वा की मां हूं, बेटी की शादी पर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था पर भीतर से ऐसा लग रहा था कि जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है. शादी के लिए जिस पूर्वा को जोरजबरदस्ती से तैयार किया था, वह जयमाला से पहले फूटफूट कर रो पड़ी थी. तब मैं ने उसे कलेजे से लगा लिया था.

बिदाई के समय पीछे मुड़मुड़ कर पूर्वा की आंखें किसे ढूंढ़ रही थीं वह भी मुझे मालूम था. उस समय दिल से आवाजें आ रही थीं :  पूर्वा, रूपरंग और दौलत ही सबकुछ नहीं होते, इस प्यार के सागर को ठुकराएगी तो उम्रभर प्यासी रह जाएगी.

पता नहीं ये आवाजें उस तक पहुंचीं कि नहीं, पर उस के जाने के बाद मानो सारा घरआंगन चीखचीख कर कह रहा था, मन के रिश्ते कोई और होते हैं, जो किसी को दिखाए नहीं जाते और निभाने के रिश्ते कोई और होते हैं जो सिर्फ निभाए जाते हैं. तब से जब भी रोहित को देखती हूं दिल फट जाता है.

पूर्वा की शादी को अब पूरे 7 बरस हो गए हैं और रोहित इन 7 वर्षों तक उस की याद में तिलतिल जलने के बाद अब ब्याह कर रहा है. कितने दिनों से उसे समझा रही थी कि अब नौकरी लग गई है. बेटा, तू भी शादी कर ले तो वह हंस कर टाल जाता था. पिता के रिटायर होने पर उन की जगह ही उसे काम मिला था और घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. उस से अच्छीखासी कमाई हो जाती है. 2 साल हुए उस ने छोटी बहन की अच्छे घर में शादी कर दी है और भाई को इंजीनियरिंग करवा रहा है. मां का काम उस ने छुड़वा दिया है और मुझे लगता है कि मां को आराम मिले इस के लिए ही उस ने शादी की सोची है.

रोहित जैसा गुणी और आज्ञाकारी पुत्र इस जमाने में मिलना कठिन है. मेरे तो बेटा ही नहीं है, उसे ही बेटे के समान मानती थी. उस की शादी फैजाबाद में थी. वहां जाना नहीं हो सकता था इसलिए बहू की मुंहदिखाई और स्वागत समारोह में जाना मैं ने उचित समझा.

रोहित के लिए सुंदर रिस्टवाच और बहू के लिए साड़ी और झुमके खरीदे थे. बहुत खुशी थी अब मन में. इन 7 वर्षों के अंतराल में रिश्ते उलटपुलट गए थे. रोहित, जिसे मैं दामाद मानती थी, बेटा बन चुका था. अब मेरी बहू आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी बहू…पगले ने फोटो तक नहीं दिखाई.

स्वागत समारोह के उस भीड़- भड़क्के में रोहित ने पांव छू कर मुझे नमस्कार किया. उस की देखादेखी अर्चना भी नीचे झुकने लगी तो मैं ने उसे बांहों में भर झुकने से मना किया.

अर्चना सांवली थी पर तीखे नैननक्श के कारण भली लग रही थी. उपहार देते हुए मैं चंद पलों को उन्हें निहारती रह गई. परिचय कराते वक्त रोहित ने अर्चना से धीरे से कहा, ‘‘ये पूर्वा के मम्मीपापा हैं.

उस लड़की ने नमस्कार के लिए एक बार और हाथ जोड़ दिए. जेहन में फौरन सवाल उभरा, ‘क्या पूर्वा के बारे में सबकुछ रोहित ने इसे बता दिया है.’ मैं असमंजस में पड़ी खड़ी थी. तभी रोहित की मां हाथ पकड़ कर खाना खिलाने के लिए लिवा ले गईं.

अर्चना ने रोहित का घर खूब अच्छे से संभाल लिया था. अपनी सास को तो वह किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती थी. कभीकभी मेरे पास आती तो पूर्वा के बारे में ही बातें करती रहती थी. न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बनाने की विधियां मुझ से सीख कर गई और बड़े प्रयत्नपूर्वक कोई नया व्यंजन बना कर कटोरा भर मेरे लिए ले आती थी.

पूर्वा के पापा का ब्लडप्रेशर पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, अत: हमारा लंदन जाने का कार्यक्रम स्थगित हो चुका था. अब की सितंबर में पूर्वा आ रही थी. विवेक को छुट्टी नहीं थी. पूर्वा और सोहम दोनों ही आ रहे थे. जिस रोहित से पूर्वा लड़तीझगड़ती रहती थी, जिस पर अपना पूरा हक समझती थी, अब उसे किसी दूसरी लड़की के साथ देख कर उस पर क्या बीतेगी, मैं यही सोच रही थी.

रोहित की शादी के बारे में मैं ने उसे फोन पर बताया था. सुन कर उस ने सिर्फ इतना कहा था कि चलो, अच्छा हुआ शादी कर ली और कितने दिन अकेले रहता.

अभी पूर्वा को आए एक दिन ही बीता था. रोहित और अर्चना तैयार हो कर कहीं जा रहे थे. मैं ने पूर्वा को खिड़की पर बुलाया तो रोहित के बाजू में अर्चना को चलते देख मानो उस के दिल पर सांप लोट रहा था. मैं ने कहा, ‘‘वह देख, रोहित की पत्नी अर्चना.’’

अर्चना को देख कर पूर्वा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘ऊंह, इस कालीकलूटी से ब्याह रचाया है.’’

‘‘ऐसा नहीं बोलते, अर्चना बहुत गुणी लड़की है,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘हूं, जब रूप नहीं मिलता तभी गुण के चर्चे किए जाते हैं,’’ उपेक्षित स्वर में पूर्वा बोली.

‘‘छोड़ यह सब, चल, सोहम को नहला कर खाना खिलाना है,’’ मैं ने उस का ध्यान इन सब बातों से हटाने के लिए कहा.

पर अर्चना को देखने के बाद पूर्वा अनमनी सी हो गई थी. दोपहर को बोली, ‘‘मम्मी, मुझे रोहित से मिलना है.’’

‘‘शाम 6 बजे के बाद जाना, तब तक वह आफिस से आ जाता है. हां, पर भूल कर भी अर्चना के सामने कुछ उलटासीधा न कहना.’’

‘‘नहीं, मम्मी,’’ पूर्वा मेरे गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘पागल समझा है मुझे.’’

मैं, सोहम और पूर्वा शाम को रोहित के घर गए. गले में फंसी हुई आवाज के साथ पूर्वा उसे विवाह की बधाई दे पाई. रोहित ने कुछ देर को उस के और विवेक के बारे में पूछा फिर सोहम के साथ खेलने लगा. इतने में अर्चना चायनाश्ता बना लाई. मैं, अर्चना और रोहित की मां बातें करने लगे.

खेलखेल में सोहम ने रोहित की जेब से पर्स निकाल कर जब हवा में उछाल दिया तो नोटों के साथ कुछ गिरा था. वह रोहित और पूर्वा के बचपन की तसवीर थी जिस में दोनों साथसाथ खडे़ थे.

तसवीर देख कर हम मांबेटी भौचक्के रह गए पर अर्चना ने पैसों के साथ वह तसवीर भी वापस पर्स में रख दी और हंस कर कहा, ‘‘पूर्वा दीदी, बचपन में कटे बालों में आप बहुत सुंदर दिखती थीं. रोहित को देख कर तो मैं बहुत हंसती हूं…इस ढीलेढाले हाफ पैंट में जोकर नजर आते हैं.’’

बात आईगई हो गई पर हम समझ चुके थे कि अर्चना पूर्वा के बारे में सब जानती है. पूर्वा जिस दिन लंदन वापस जा रही थी, अर्चना उपहार ले कर आई थी.

‘‘लो, दीदी, मेरी ओर से यह रखो. आप रोहित का पहला प्यार हैं, मैं जानती हूं, वह अभी तक आप को नहीं भूले हैं. वह आप को बहुत चाहते हैं और मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. इसलिए वह जिसे चाहते हैं मैं भी उसे बहुत चाहती हूं.’’

उस की यह सोच पूर्वा की समझ से बाहर की थी. पूर्वा ने धीरे से ‘थैंक्यू’ कहा. आज तक रोहित पर अपना एकाधिकार जताने वाली पूर्वा समझ चुकी थी कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग है. आज अर्चना के प्रेम के समक्ष उसे अपना प्रेम बौना लग रहा था.

आहत- एक स्वार्थी का प्रेम

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दिल की दहलीज पर: मधुरा का सपना क्यों चकनाचूर हो गया?

‘‘आहा,चूड़े माशाअल्लाह, क्या जंच रही हो,’’ नवविवाहिता मधुरा की कलाइयों पर सजे चूड़े देख दफ्तर के सहकर्मी, दोस्त आह्लादित थे. मधुरा का चेहरा शर्म से सुर्ख पड़ रहा था. शादी के 15 दिनों में ही उस का रूप सौंदर्य और निखर गया था. गुलाबी रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और लाल रंगे होंठ…

कुछ गहने अवश्य पहने थे मधुरा ने, लेकिन उस के सौंदर्य को किसी कृत्रिम आवरण की आवश्यकता न थी. नए प्यार का खुमार उस की खूबसूरती को चार चांद लगा चुका था.

‘‘और यार, कैसी चल रही है शादीशुदा जिंदगी कूल या हौट?’’ सहेलियां आंखें मटकामटका कर उसे छेड़ने लगीं. सच में मनचाहा जीवनसाथी पा मानों उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गई थीं. मातापिता के चयन और निर्णय से उस का जीवन खिल उठा था.

‘‘वैसे क्या बढि़या टाइम चुना तुम ने अपनी शादी का. क्रिसमस के समय वैसे भी काम कम रहता है… सभी जैसे त्योहार को पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में होते हैं,’’ सहेलियां बोलीं.

‘‘इसीलिए तो इतनी आसानी से छुट्टी मिल गई 15 दिनों की,’’ मधुरा की हंसी के साथसाथ सभी सहकर्मियों की हंसी के ठहाकों से सारा दफ्तर गुंजायमान हो उठा.

तभी बौस आ गए. उन्हें देख सभी चुप हो अपनीअपनी सीट पर चले गए.

‘‘बधाई हो, मधुरा. वैलकम बैक,’’ कहते हुए उन्होंने मधुरा का दफ्तर में पुन: स्वागत किया.

सभी अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए.

‘‘मधुरा, शादी की छुट्टी से पहले जो तुम ने टर्न की प्रोजैक्ट किया था कैरी ऐंड संस कंपनी के साथ, उस का क्लोजर करना शेष है. तुम्हें तो पता हैं हमारी कंपनी के नियम… जो रिसोर्स कार्य आरंभ करता है वही कार्य को पूरी तरह समाप्त कर वित्तीय विभाग से उस का पूर्ण भुगतान करवा कर, फाइल क्लोज करता है. लेकिन बीच में ही तुम्हारे छुट्टी पर जाने के कारण उन का भुगतान अटका हुआ है. उस काम को जल्दी पूरा कर देना,’’ कह कर बौस ने फोन काट दिया.

मधुरा ने फाइल एक बार फिर से देखी. भुगतान के सिवा और कार्य शेष न था. फाइल पूरी करने हेतु उसे कैरी ऐंड संस कंपनी के प्रबंधक जितेन से एक बार फिर मिलना होगा और फिर वह जितेन के विचारों में खो गई.

शाम को घर लौट कर रात के भोजन की तैयारी कर मधुरा अपने कमरे में हृदय के दफ्तर से लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी. समय काटने के लिए उस ने अपनी डायरी उठा ली. पुराने पन्ने पलटने लगी. पुराने पन्ने उसे स्वत: ही पुरानी यादों में ले गए…

29 जुलाई

आज इंप्लोई मीटिंग में बौस ने मेरे काम की तारीफ की. कितनी खुशी हुई, मेरे परिश्रम का परिणाम दिखने लगा है. नए क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी का प्रोजैक्ट भी मुझे मिल गया. इस प्रोजैक्ट को मैं निर्धारित समयसीमा में पूरा कर अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में पूरे अंक लाऊंगी.

30 जुलाई

क्या बढि़या दफ्तर है कैरी ऐंड संस कंपनी का. मुझे आज तक अपना दफ्तर कितना एवन लगता था, लेकिन आज उन का दफ्तर देख कर मेरे होश फाख्ता हो गए. इंटीरियर डिजाइनर का काम लाजवाब है. इतने बढि़या दफ्तर में अकसर आनाजाना लगा रहेगा. मजा आ जाएगा.

31 जुलाई

सारे विभाग बहुत अच्छी तरह नियंत्रित हैं और आपस में अच्छा समन्वय स्थापित है. कैरी ऐंड संस कंपनी का आईटी विभाग प्रशंसा के काबिल है. आज अपने काम की शुरुआत की मैं ने. लोगों से मिल ली. किंतु जिन के साथ मिल कर काम करना है यानी जितेन, उन से मिलना रह गया. कल उन से भी मिल लूंगी.

1 अगस्त

मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसे हीरो जैसा बंदा दफ्तर में टकराएगा मुझ से.

उफ, कितना खूबसूरत नौजवान है जितेन. लंबाचौड़ा, सुंदर… लगता है सीधे ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के उपन्यासों से बाहर आया है… मेरे सपनों का राजकुमार.

6 अगस्त

आज पूरे हफ्ते भर बाद फिर से जितेन से मुलाकात हुई. वे इतना व्यस्त रहते हैं कि मुलाकात ही नहीं हो पाती. इतने ऊंचे पद पर हैं… अभी तक ठीक से बात भी नहीं हो पाई है. पता नहीं कब हम दोनों को बातचीत करने का मौका मिलेगा. अभी तो मैं जितेन को अपने कार्य के बारे में भी ढंग से नहीं बता पाई हूं.

16 अगस्त

जितना देखती हूं उतना ही दीवानी होती जा रही हूं मैं जितेन की. एक बार मेरी ओर देख भर ले वह… मेरी सांस गले में ही अटक जाती है. लगता है जो बोल रही हूं, जो काम कर रही हूं, सब भूल जाऊंगी. इतना स्वप्निल मैं ने स्वयं को कभी नहीं पाया पहले. यह क्या हो जाता है मुझे जितेन के समक्ष. लेकिन वह है कि मुझे समय

ही नहीं देता. बस 4-5 मिनट कुछ काम के बारे में पूछ कर चला जाता है. कब समझेगा वह मेरे दिल का हाल? क्या मेरी आंखों में कुछ नहीं दिखता उसे?

3 सितंबर

आज घर लौटते समय एफएम, पर ‘सत्ते पे सत्ता’ मूवी का गाना सुना, ‘प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया. कि दिल करे हाय, कोई तो बताए क्या होगा… गाड़ी चलाते समय पूरा गला खोल कर गाना गाने का मजा ही कुछ और है…’ फिर आज तो गाना भी मेरे दिल का हाल बयां कर रहा था. न जाने जितेन के साथ पल दो पल कब मिलेंगे और मैं अपने दिल का हाल कब कह पाऊंगी.

हृदय के कमरे में आने की आहट से मधुरा अतीत की स्मृतियों से वर्तमान में लौट आई.

‘‘कैसा रहा दफ्तर में शादी के बाद पहला दिन?’’ हृदय ने पूछा.

मधुरा को हृदय की यह बात भी बहुत भाती थी कि वह उस की हर गतिविधि, हर भावना, हर बात का खयाल रखता है. दोनों ने बातचीत की, खाना खाया और अगली सुबह के लिए अलार्म लगा कर सो गए.

अगले दिन मधुरा अपने क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी पहुंची. आज उस ने फाइल क्लोजर की पूरी तैयारी कर ली थी. फाइनल पेमैंट का चैक देने वह जितेन के कक्ष में पहुंची. उस के हाथों में चूड़े देख जितेन ने उसे बधाई दी, ‘‘मुझे आप की कंपनी से पता चला था कि आप अपनी शादी हेतु छुट्टियों पर गई हैं.’’

कार्य पूरा करने के बाद मधुरा ने अपने दफ्तर लौटने के लिए कैब बुला ली. सारे रास्ते उस के मनमस्तिष्क में जितेन घूमता रहा. किस औपचारिकता से बात कर रहा था आज… उसे याद हो आया वह समय जब जितेन और मधुरा की मित्रता भी हो गई थी और वह ‘सिर्फ अच्छे दोस्त’ की श्रेणी से कुछ आगे भी बढ़ चुके थे.

मधुरा तब कैरी ऐंड संस कंपनी जाने के बहाने खोजती रहती. जितेन भी हर शाम उसे उस के दफ्तर से पिक करता और दोनों कहीं कौफी पीते समय व्यतीत करते. दोनों को ही एकदूसरे का साथ बेहद भाता था. मधुरा के चेहरे की चमक बढ़ती रहती और जितेन कुछ गंभीर स्वभाव का होने के बावजूद उसे देख मुसकराता रहता. जितेन आए दिन मधुरा को तोहफे देता रहता. कभी ‘शैनेल’ का परफ्यूम तो कभी ‘हाई डिजाइन’ का हैंडबैग.

‘‘जितेन, क्यों इतने महंगे तोहफे लाते हो मेरे लिए? मैं हर बार घर और दफ्तर में झूठ बोल कर इन की कीमत नहीं छिपा सकती.’’

‘‘तो सच बता दिया करो न… मैं ने कब रोका है तुम्हें?’’

‘‘तुम तो जानते हो कि हमारी कंपनी में भरती के समय हर मुलाजिम से कौंफिडैंशियलिटी ऐग्रीमैंट भरवाया जाता है. चूंकि तुम एक क्लाइंट हो, मैं तुम्हें न तो डेट कर सकती हूं और न ही तुम से शादी. इतना ही नहीं मैं तुम्हारी कंपनी अगले 2 वर्षों तक भी जौइन नहीं कर सकती हूं… तुम से शादी के बाद मैं नौकरी से त्यागपत्र दे कहीं और नौकरी ढूंढ़ूंगी…’’

‘‘शादी के बाद? हैंग औन,’’ मधुरा की बात को बीच में ही काटते हुए जितेन ने कहा, ‘‘शादी तक कहां पहुंच गईं तुम? हम एक कपल हैं, बस, मैं अभी शादीवादी के बारे में सोच भी नहीं सकता… वैसे भी शादी तो मां अपने सर्कल की किसी लड़की से करवाना चाहेंगी… तुम समझ रही हो न?’’

मधुरा के माथे पर चिंता की लकीरें और चेहरे पर असमंजस के भाव पढ़ कर जितेन ने आगे कहा, ‘‘तुम इस समय का लुत्फ उठाओ न… ये महंगे तोहफे, ये बढि़या रेस्तरां, अथाह शौंपिंग… ये सब तुम्हें खुश करने के लिए ही तो हैं… कूल?’’

उस शाम मधुरा को पता चला कि सामाजिक स्तर का भेदभाव केवल कहानियों में नहीं, अपितु वास्तविक जीवन में भी है. उस ने सोचा न था कि उसे भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ेगा. उस के बाद जब कभी जितेन टकराया, बस एक फीकी सी मुसकान मधुरा के पाले में आई. खैर, उस का भी मन नहीं हुआ कि जितेन से बात करे. उस का मन खट्टा हो चुका था.

फिर उस की मम्मी ने उसे रमा आंटी के बेटे से मिलवाया. अच्छा लगा था मधुरा को वह. खास कर उस का नाम-हृदय. शांत, सुशील और विनम्र. घरपरिवार तो देखाभाला था ही, रहता भी इसी शहर में था. चलो, ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के हीरो को भी देख लिया और अब वास्तविकता के नायक को भी. पर क्या करें. जीवन तो वास्तविक है. इस में सपनों से अधिक वास्तविकता का पलड़ा भारी रहना स्वाभाविक है.

जब से मधुरा की मुलाकात हृदय से हुई थी तभी से कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेजने लगा था वह. हृदय ने उस का मन पिघला दिया था. जल्दी ही हामी भर दी उस ने इस रिश्ते के लिए. उस की मम्मी और आंटी कितनी खुश हुईं. उस का मन भी खुश था. मन की तहों ने जहां एक तरफ जितेन को छाना था वहीं दूसरी तरफ हृदय को भी टटोल कर देखा था. मधुरा जैसी रुचिर, लुभावनी और मेधावी लड़की आगे बढ़ चुकी थी.

हर अनुभव जीवन में कुछ सबक लाता है और कुछ यादें छोड़ जाता है. चलते रहने का नाम ही जीवन है. मधुरा अपने दफ्तर पहुंच चुकी थी. आज वह अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में अपने पूरे किए प्रोजैक्ट को भरने वाली थी.

समझौता- भाग 3 : आखिर क्यों परेशान हुई रिया

राजीव लगभग 10 बजे घर लौटे थे.

‘‘यह क्या है? कल छह बजे घर से निकल कर अब घर लौटे हो. एक फोन तक नहीं किया,’’ रिया ने देखते ही उलाहना दिया था.

‘‘क्या फर्क पड़ता है रिया. मैं रहूं या न रहूं. तुम तो अपने पावों पर खड़ी हो.’’

‘‘ऐसी बात मुंह से फिर कभी मत निकालना और किसी का तो पता नहीं पर मैं तो जीतेजी मर जाऊंगी,’’ रिया फफक उठी थी.

‘‘यह संसार ऐसे ही चलता रहता है रिया. देखो न, मनोज हमें छोड़ कर चला गया पर संसार अपनी ही गति से चल रहा है. न मनोज के जाने का दुख है और न ही उस के लिए किसी की आंखों में दो आंसू,’’ राजीव रो पड़ा था.

पहली बार रिया ने राजीव को इस तरह बेहाल देखा था. वह बच्चों के सामने ही फूटफूट कर रो रहा था.

रिया उसे अंदर लिवा ले गई थी. किशोर और कोयल आश्चर्यचकित से खड़े रह गए थे.

‘‘तुम दोनों यहीं बैठो. मैं चाय बना लाती हूं,’’ रिया हैरानपरेशान सी बच्चों को बालकनी में बिठा कर राजीव को सांत्वना देने लगी थी. वह नहीं चाहती थी कि राजीव की इस मनोस्थिति का प्रभाव बच्चों पर पड़े.

‘‘ऐसा क्या हो गया जो मनोज हद से गुजर गया. पिछले सप्ताह ही तो सपरिवार आया था हमारे यहां. इतना हंसमुख और मिलनसार व्यक्ति अंदर से इतना उदास और अकेला होगा यह भला कौन सोच सकता था,’’ रिया के स्वर में भय और अविश्वास साफ झलक रहा था.

उत्तर में राजीव एक शब्द भी नहीं बोला था. उस ने रिया पर एक गहरी दृष्टि डाली थी और चाय पीने लगा था.

‘‘मनोज की पत्नी और बच्चे का क्या होगा?’’ रिया ने पुन: प्रश्न किया था. वह अब भी स्वयं को समझा नहीं पाई थी.

‘‘उस के पिता आ गए हैं वह ही दोनों को साथ ले जाएंगे. पिता का अच्छा व्यवसाय है. मेवों के थोक व्यापारी हैं. वह तो मनोज को व्यापार संभालने के लिए बुला रहे थे पर यह जिद ठाने बैठा था कि पिता के साथ व्यापार नहीं करेगा.’’

रिया की विचार शृंखला थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. मनोज की पत्नी मंजुला अकसर अपनी पुरातनपंथी ससुराल का उपहास किया करती थी. पता नहीं उन लोगों के साथ कैसे रहेगी. उस के दिमाग में उथलपुथल मची थी. कहीं कुछ भी होता था तो उन के निजी जीवन से कुछ इस प्रकार जुड़ जाता था कि वह छटपटा कर रह जाती थी.

राजीव भी अपने मातापिता की इकलौती संतान है. वे लोग उसे बारबार अपने साथ रहने को बुला रहे हैं. उस के पिता बंगलौर के जानेमाने वकील हैं पर रिया का मन नहीं मानता. न जाने क्यों उसे लगता है कि वहां जाने से उस की स्वतंत्रता का हनन होगा. धीरेधीरे जीवन ढर्रे पर आने लगा था. केवल एक अंतर आ गया था. अब रिया ने पहले की तरह कटाक्ष करना छोड़ दिया था. वह अपनी ओर से भरसक प्रयास करती कि घर की शांति बनी रहे.

उस दिन आफिस से लौटी तो राजीव सदा की तरह कंप्यूटर के सामने बैठा था.

‘‘रिया इधर आओ,’’ उस ने बुलाया था. वह रिया को कुछ दिखाना चाहता था.

‘‘यह तो शुभ समाचार है. कब हुआ था यह साक्षात्कार? तुम ने तो कुछ बताया ही नहीं,’’ रिया कंप्यूटर स्क्रीन पर एक जानीमानी कंपनी द्वारा राजीव का नियुक्तिपत्र देख कर प्रसन्नता से उछल पड़ी थी.

‘‘इतना खुश होने जैसा कुछ नहीं है एक तो वह आधे से भी कम वेतन देंगे, दूसरे मुझे बंगलौर जा कर रहना पड़ेगा. यहां नोएडा में उन का छोटा सा आफिस है अवश्य, पर मुझे उन के मुख्यालय में रहना पड़ेगा.’’

‘‘यह तो और भी अच्छा है. वहां तो तुम्हारे मातापिता भी हैं. उन की तो सदा से यही इच्छा है कि हमसब साथ रहें.’’

‘‘मैं सोचता हूं कि पहले मैं जा कर नई नौकरी ज्वाइन कर लेता हूं. तुम कोयल और किशोर के साथ कुछ समय तक यहीं रह सकती हो.’’

‘‘नहीं, न मैं अकेले रह पाऊंगी न ही कोयल और किशोर. सच कहूं तो यहां दम घुटने लगा है मेरा. मेरे मामूली से वेतन में 6-7 महीने से काम चल रहा है. तुम्हें तो उस से दोगुना वेतन मिलेगा. हमसब साथ चलेंगे.’’

कोयल और किशोर सुनते ही प्रसन्नता से नाच उठे थे. उन्होंने दादादादी के घर में अपने कमरे भी चुन लिए थे.

राजीव के मातापिता तो फोन सुनते ही झूम उठे थे.

‘‘वर्षों बाद कोई शुभ समाचार सुनने को मिला है,’’ उस की मां भरे गले से बोली थीं और आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी.

‘‘पर तुम्हारी स्वतंत्रता का क्या होगा?’’ फोन रखते ही राजीव ने प्रश्न किया था.

‘‘इतनी स्वार्थी भी नहीं हूं मैं कि केवल अपने ही संबंध में सोचूं. तुम ने साथ दिया तो मैं भी सब के खिले चेहरे देख कर समझौता कर लूंगी.’’

‘‘समझौता? इतने बुरे भी नहीं है मेरे मातापिता, आधुनिक विचारों वाले पढ़ेलिखे लोग हैं और मुझ से अधिक मेरे परिवार पर जान छिड़कते हैं.’’

इतना कह कर राजीव ने ठहाका लगाया तो रिया को लगा कि इस खुशनुमा माहौल के लिए कुछ बलिदान भी करना पड़े तो वह तैयार है.

आहत- भाग 3: एक स्वार्थी का प्रेम

लंबेलंबे डग भरता वह होटल में शालिनी के कमरे की तरफ बढ़ा. खूबसूरत फूलों का गुलदस्ता उस के हाथों में था. दिल में शालिनी को खुश करने की चाहत लिए उस ने कमरे पर दस्तक देने के लिए हाथ उठाया ही था कि अंदर से आती शालिनी और किसी पुरुष की सम्मिलित हंसी ने उसे चौंका दिया.

बदहवास सा सौरभ दरवाजा पीटने लगा. अंदर से आई एक आवाज ने उसे स्तब्ध कर दिया था.

‘‘कौन है बे… डू नौट डिस्टर्ब का बोर्ड नहीं देख रहे हो क्या? जाओ अभी हम अपनी जानेमन के साथ बिजी हैं.’’

परंतु सौरभ ने दरवाजा पीटना बंद नहीं किया. दरवाजा खुलते ही अंदर का नजारा देख कर सौरभ को चक्कर आ गया. बिस्तर पर पड़ी उस की अर्धनग्न पत्नी उसे अपरिचित निगाहों से घूर रही थी.

जमीन पर बिखरे उस के कपड़े सौरभ की खिल्ली उड़ा रहे थे. कहीं किसी कोने में विवाह का बंधन मृत पड़ा था. उस का अटल विश्वास उस की इस दशा पर सिसकियां भर रहा था और प्रेम वह तो पिछले दरवाजे से कब का बाहर जा चुका था.

‘‘शालिनी….’’ सौरभ चीखा था.

परंतु शालिनी न चौंकी न ही असहज हुई, बस उस ने विमल को कमरे से बाहर जाने का इशारा कर दिया और स्वयं करवट ले कर छत की तरफ देखते हुए सिगरेट पीने लगी.

‘‘शालिनी… मैं तुम से बात कर रहा हूं. तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती हो?’’ सौरभ दोबारा चीखा.

इस बार उस से भी तेज चीखी शालिनी, ‘‘क्यों… क्यों नहीं कर सकती मैं तुम्हारे साथ ऐसा? ऐसा है क्या तुम्हारे अंदर जो मुझे बांध पाता?’’

‘‘तुम… विमल से प…प… प्यार करती हो?’’

‘‘प्यार… हांहां… तुम इतने बेवकूफ हो सौरभ इसलिए तुम्हारी तरक्की इतनी स्लो है… यह लेनदेन की दुनिया है. विमल ने अगर मुझे कुछ दिया है तो बदले में बहुत कुछ लिया भी है. कल अगर कोई इस से भी अच्छा औप्शन मिला तो इसे भी छोड़ दूंगी. वैसे एक बात बोलूं बिस्तर में भी वह तुम से अच्छा है.’’

‘‘कितनी घटिया औरत हो तुम, उस के साथ भी धोखा…’’

‘‘अरे बेवकूफ विमल जैसे रईस शादीशुदा मर्दों के संबंध ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं. वह खुद मुझ से बेहतर औप्शन की तलाश में होगा. जब तक साथ है है.’’

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आ रही?’’

‘‘शर्म कैसी पतिजी… व्यापार है यह… शुद्घ व्यापार.’’

‘‘शालिनी…’’

‘‘आवाज नीची करो सौरभ. बिस्तर में चूहा मर्द आज शेर बनने की ऐक्टिंग कर रहा है.’’

सौरभ रोते हुए बोला ‘‘शालिनी मत करो मेरे साथ ऐसा. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं.’’

‘‘सौरभ तुम मेरा काफी वक्त बरबाद कर चुके हो. अब चुपचाप लौट जाओ… बाकी बातें घर पर होंगी.’’

‘‘हां… हां… देखेंगे… वैसे मेरा काम आसान करने के लिए धन्यवाद,’’ कह बाहर निकलते सौरभ रमा से टकरा गया.

‘‘आप सब कुछ जानती थीं न’’ उस ने पूछा.

‘‘हां, मैं वह परदा हूं, जिस का इस्तेमाल वे दोनों अपने रिश्ते को ढकने के लिए कर रहे थे.’’

‘‘आप इतनी शांत कैसे हैं?’’

‘‘आप को क्या लगता है शालिनी मेरे पति के जीवन में आई पहली औरत है? न वह पहली है और न ही आखिरी होगी.’’

‘‘आप कुछ करती क्यों नहीं? इस अन्याय को चुपचाप सह क्यों रही हैं?’’

‘‘आप ने क्या कर लिया? सुधार लिया शालिनी को?’’

‘‘मैं उसे तलाक दे रहा हूं…’’

‘‘जी… परंतु मैं वह नहीं कर सकती.’’

‘‘क्यों, क्या मैं जान सकता हूं?’’

‘‘क्योंकि मैं यह भूल चुकी हूं कि मैं एक औरत हूं, किसी की पत्नी हूं. बस इतना याद है कि मैं 2 छोटी बच्चियों की मां हूं. वैसे भी यह दुनिया भेडि़यों से भरी हुई है और मुझ में इतनी ताकत नहीं है कि मैं स्वयं को और अपनी बेटियों को उन से बचा सकूं.’’

‘‘माफ कीजिएगा रमाजी अपनी कायरता को अपनी मजबूरी का नाम मत दीजिए. जिन बेटियों के लिए आप ये सब सह रही हैं उन के लिए ही आप से प्रार्थना करता हूं, उन के सामने एक गलत उदाहरण मत रखिए. यह सब सह कर आप 2 नई रमा तैयार कर रही हैं.’’

औरत के इन दोनों ही रूपों से सौरभ को वितृष्णा हो गई थी. एक अन्याय करना अपना अधिकार समझती थी तो दूसरी अन्याय सहने को अपना कर्तव्य.

दिल्ली छोड़ कर सौरभ इतनी दूर अंडमान आ गया था. कोर्ट में उस का केस चल रहा था. हर तारीख पर सौरभ को दिल्ली जाना पड़ता था. शालिनी ने उस पर सैक्स सुख न दे पाने का इलजाम लगाया था.

सौरभ अपने जीवन में आई इस त्रासदी से ठगा सा रह गया था, परंतु शालिनी जिंदगी में नित नए विकल्प तलाश कर के लगातार तरक्की की नई सीढि़यां चढ़ रही थी.

आज सुबह प्रज्ञा, जो सौरभ की वकील थी का फोन आया था. कोर्ट ने तलाक को मंजूरी दे दी थी, परंतु इस के बदले काफी अच्छी कीमत वसूली थी शालिनी ने. आर्थिक चोट तो फिर भी जल्दी भरी जा सकती हैं पर मानसिक और भावनात्मक चोटों को भरने में वक्त तो लगता ही है.

सौरभ अपनी जिंदगी के टुकड़े समेटते हुए सागर के किनारे बैठा रेत पर ये पंक्तियां लिख रहा था:

‘‘मुरझा रहा जो पौधा उसे बरखा की आस है,

अमृत की नहीं हमें पानी की प्यास है,

मंजिल की नहीं हमें रास्तों की तलाश है.’’

विदाई- भाग 2: क्या कविता को नीरज का प्यार मिला?

उस ने आगे बढ़ कर अपनी पत्नी को बांहों में भर लिया. कविता अचानक हिचकियां ले कर रोने लगी. नीरज की आंखों से भी आंसू बह रहे थे.

कविता के शरीर ने जब कांपना बंद कर दिया तब नीरज ने उसे अपनी बांहों के घेरे से मुक्त किया. अब तक अपनी मजबूत इच्छाशक्ति का सहारा ले कर उस ने खुद को काफी संभाल भी लिया था.

‘‘मेरे सामने यह रोनाधोना नहीं चलेगा, जानेमन,’’ उस ने मुसकरा कर कविता के गाल पर चुटकी भरी, ‘‘इन मुसीबत के क्षणों को भी हम उत्साह, हंसीखुशी और प्रेम के साथ गुजारेंगे. यह वादा इसी वक्त तुम्हें मुझ से करना होगा, कविता.’’

नीरज ने अपना हाथ कविता के सामने कर दिया.

कविता शरमाते हुए पहली बार सहज ढंग से मुसकराई और उस ने हाथ बढ़ा कर नीरज का हाथ पकड़ लिया.

उस रात नीरज अपनी ससुराल में रुका. दोनों ने साथसाथ खाना खाया. फिर देर रात तक हाथों में हाथ ले कर बातें करते रहे.

भविष्य के बारे में कैसी भी योजना बनाने का अवसर तो नियति ने उन से छीन ही लिया था. अतीत की खट्टीमीठी यादों को ही उन दोनों ने खूब याद किया.

सुहागरात, शिमला में बिताया हनीमून, साथ की गई खरीदारी, देखी हुई जगहें, आपसी तकरार, प्यार में बिताए क्षण, प्रशंसा, नाराजगी, रूठनामनाना और अन्य ढेर सारी यादों को उन्होंने उस रात शब्दों के माध्यम से जिआ.

हंसतेमुसकराते, आंसू बहाते वे दोनों देर रात तक जागते रहे. कविता उसे यौन सुख देने की इच्छुक भी थी पर कैंसर ने इतना तेज दर्द पैदा किया कि उन का मिलन संभव न था.

अपनी बेबसी पर कविता की रुलाई फूट पड़ी. नीरज ने बड़े सहज अंदाज में पूरी बात को लिया. वह तब तक कविता के सिर को सहलाता रहा जब तक वह सो नहीं गई.

‘‘मैं तुम्हारी अंतिम सांस तक तुम्हारे पास हूं, कविता. इस दुनिया से तुम्हारी विदाई मायूसी व शिकायत के साथ नहीं बल्कि प्रेम व अपनेपन के एहसास के साथ होगी, यह वादा है मेरा तुम से,’’ नींद में डूबी कविता से यह वादा कर के ही नीरज ने सोने के लिए अपनी आंखें बंद कीं.

अगले दिन सुबह नीरज और कविता 2 कमरों वाले एक फ्लैट में  रहने चले आए. यह खाली पड़ा फ्लैट नीरज के एक पक्के दोस्त रवि का था. रवि ने फ्लैट दिया तो अन्य दोस्तों व आफिस के सहयोगियों ने जरूरत के दूसरे सामान भी फ्लैट में पहुंचा दिए.

नीरज ने आफिस से लंबी छुट्टी ले ली. जहां तक संभव होता अपना हर पल वह कविता के साथ गुजारने की कोशिश करता.

उन से मिलने रोज ही कोई न कोई घर का सदस्य, रिश्तेदार या दोस्त आ जाते. सभी अपनेअपने ढंग से सहानुभूति जाहिर कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश करते.

नीरज की समझ में एक बात जल्दी ही आ गई कि हर सहानुभूतिपूर्ण बातचीत के बाद वह दोनों ही उदासी और निराशा का शिकार हो जाते थे. शब्दों के माध्यम से शरीर या मन की पीड़ा को कम करना संभव नहीं था.

इस समझ ने नीरज को बदल दिया. कविता का ध्यान उस की घातक बीमारी पर से हटा रहे, इस के लिए उस ने ज्यादा सक्रिय उपायों को इस्तेमाल में लाने का निर्णय किया.

उसी शाम वह बाजार से लूडो और कैरमबोर्ड खरीद लाया. कविता को ये दोनों ही खेल पसंद थे. जब भी समय मिलता दोनों के बीच लूडो की बाजी जम जाती.

एक सुबह रसोई में जा कर नीरज ने कविता से कहा, ‘‘मुझे भी खाना बनाना सिखाओ, मैं चाय बनाने के अलावा और कुछ जानता ही नहीं.’’

‘‘अच्छा, खाना बनाना सीखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी जनाब,’’ कविता उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए मुसकराई.

‘‘मैडमजी, मैं पूरी लगन से सीखूंगा.’’

‘‘मेरी डांट भी सुननी पड़ेगी.’’

‘‘मुझे मंजूर है.’’

‘‘तब पहले सब्जी काटना सीखो,’’ कविता ने 4 आलू मजाकमजाक में नीरज को पकड़ा दिए.

नीरज तो सचमुच आलुओं को धो कर उन्हें काटने को तैयार हो गया. कविता ने उसे रोकना भी चाहा, पर वह नहीं माना.

उसे ढंग से चाकू पकड़ना भी कविता को सिखाना पड़ा. नीरज ने आलू के आड़ेतिरछे टुकड़े बड़े ध्यान से काटे. दोनों ने ही इस काम में खूब मजा लिया.

‘‘अब मैं तुम्हें खिलाऊंगा आलू के पकौड़े,’’ नीरज की इस घोषणा को सुन कर कविता ने इतनी तरह की अजीबो- गरीब शक्लें बनाईं कि उस का हंसतेहंसते पेट दुखने लगा.

नीरज ने बेसन खुद घोला. तेल की कड़ाही के सामने खुद ही जमा रहा. कविता की सहायता व सलाह लेना उसे मंजूर था, पर पकौड़े बनाने का काम उसी ने किया.

उस दिन के बाद से नीरज भोजन बनाने के काम में कविता का बराबर हाथ बंटाता. कविता को भी उसे सिखाने में बहुत मजा आता. रसोई में साथसाथ बिताए समय के दौरान वह अपना दुखदर्द पूरी तरह भूल जाती.

‘‘मैं नहीं रहूंगी, तब भी आप कभी भूखे नहीं रहोगे. बहुत कुछ बनाना सीख गए हो अब आप,’’ एक रात सोने के समय कविता ने उसे छेड़ा.

‘‘तुम से मैं ने यह जो खाना बनाना सीखा है, शायद इसी की वजह से ऐसा समय कभी नहीं आएगा, जो तुम मेरे साथ मेरे दिल में कभी न रहो,’’ नीरज ने उस के होंठों को चूम लिया.

नीरज से लिपट कर बहुत देर तक खामोश रहने के बाद कविता ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘आप के प्यार के कारण अब मुझे मौत से डर नहीं लगता है.

‘‘जिस से जानपहचान नहीं उस से डरना क्या. जीवन प्रेम से भरा हो तो मौत के बारे में सोचने की फुरसत किसे है,’’ नीरज ने इस बार उस की आंखों को बारीबारी से चूमा.

‘‘आप बहुत अच्छे हो,’’ कविता की आंखें नम होने लगीं.

‘‘थैंक यू. देखो, अगर मैं तुम्हारी तारीफ करने लगा तो सुबह हो जाएगी. कल अस्पताल जाना है. अब तुम आराम करो,’’ अपनी हथेली से नीरज ने कविता की आंखें मूंद दीं.

कुछ ही देर में कविता गहरी नींद के आगोश में पहुंच गई. नीरज देर तक उस के कमजोर पर शांत चेहरे को प्यार से निहारता रहा.

हर दूसरे दिन नीरज अपने किसी दोस्त की कार मांग लाता और कविता को उस की सहेलियों व मनपसंद रिश्तेदारों से मिलाने ले जाता. कभीकभी दोनों अकेले किसी उद्यान में जा कर हरियाली व रंगबिरंगे फूलों के बीच समय गुजारते. एकदूसरे का हाथ थाम कर अपने दिलों की बात कहते हुए समय कब बीत जाता उन्हें पता ही नहीं चलता.

नीरज कितनी लगन व प्रेम से कविता की देखभाल कर रहा है, यह किसी की नजरों से छिपा नहीं रहा. कविता के मातापिता व भाई हर किसी के सामने नीरज की प्रशंसा करते न थकते.

नीरज के अपने मातापिता को उस का व्यवहार समझ में नहीं आता. वे उस के फ्लैट से हमेशा चिंतित व परेशान से हो कर लौटते.

समझौता – भाग 2 : आखिर क्यों परेशान हुई रिया

रिया को स्वयं पर ही ग्लानि हो आई थी. बिना मतलब बच्चों को धुनने की क्या आवश्यकता थी. न जाने उन के कोमल मन पर क्या बीत रही होगी. भाईबहनों में तो ऐसे झगड़े होते ही रहते हैं. कम से कम उसे तो अपने होश नहीं खोने चाहिए थे पर नहीं, वह तो अपनी झल्लाहट बच्चों पर ही उतारना चाहती थी.

रिया किसी प्रकार उठ कर बच्चों के कमरे में पहुंची थी. किशोर और कोयल अब भी मुंह फुलाए बैठे थे.

रिया ने दोनों को मनायापुचकारा, ‘‘मम्मी को माफ नहीं करोगे तुम दोनों?’’ बच्चों का रुख देख कर रिया ने झटपट क्षमा भी मांग ली थी.

‘‘पर यह क्या?’’ डांट खा कर भी सदा चहकती रहने वाली कोयल फफक पड़ी थी.

‘‘अब हमारा क्या होगा मम्मी?’’ वह रोते हुए अस्पष्ट स्वर में बोली थी.

‘‘क्या होगा का क्या मतलब है? और ऐसी बात तुम्हारे दिमाग में आई कैसे?’’

‘‘पापा की नौकरी चली गई मम्मी. अब आप उन्हें छोड़ दोगी न?’’ कोयल ने भोले स्वर में पूछा था.

‘‘क्या? किस ने कहा यह सब? न जाने क्या ऊलजलूल बातें सोचते रहते हो तुम दोनों,’’ रिया ने किशोर और कोयल को झिड़क दिया था पर दूसरे ही क्षण दोनों बच्चों को अपनी बाहों में समेट कर चूम लिया था.

‘‘हम सब का परिवार है यह. ऐसी बातों से कोई किसी से अलग नहीं होता. हमसब का बंधन अटूट है. पापा की नौकरी चली गई तो क्या हुआ? दूसरी मिल जाएगी. तब तक मेरी नौकरी में मजे से काम चल ही रहा है.’’

‘‘कहां काम चल रहा है मम्मी? मेरे सभी मित्र यही कहते हैं कि अब हम गरीब हो गए हैं. तभी तो प्रगति इंटरनेशनल को छोड़ कर हमें मौडर्न स्कूल में दाखिला लेना पड़ा. ‘टाइगर हाइट्स’ छोड़ कर हमें जनता अपार्टमेंट के छोटे से फ्लैट में रहना पड़ रहा है.’’ किशोर उदास स्वर में बोला तो रिया सन्न रह गई थी.

‘‘ऐसा नहीं है बेटे. तुम्हारे पुराने स्कूल में ढंग से पढ़ाई नहीं होती थी इसीलिए उसे बदलना पड़ा,’’ रिया ने समझाना चाहा था. पर अपने स्वर पर उसे स्वयं ही विश्वास नहीं हो रहा था. बच्चे छोटे अवश्य हैं पर उन्हें बातों में उलझाना बच्चों का खेल नहीं था.

कुछ ही देर में बच्चे अपना गृहकार्य समाप्त कर खापी कर सो गए थे पर रिया राजीव की प्रतीक्षा में बैठे हुए ऊंघने लगी थी.

रात के 11 बज गए तो उस ने मोबाइल उठा कर राजीव से संपर्क करने का प्रयत्न किया था. घर से रूठ कर गए हैं तो मनाना तो पड़ेगा ही. पर नंबर मिलाते ही खाने की मेज पर रखा राजीव का फोन बजने लगा था.

‘‘तो महाशय फोन यहीं छोड़ गए हैं. इतना गैरजिम्मेदार तो राजीव कभी नहीं थे. क्या बेरोजगारी मनुष्य के व्यक्तित्व को इस तरह बदल देती है? कब तक आंखें पसारे बैठी रहे वह राजीव के लिए. कल आफिस भी जाना है.’’ इसी ऊहापोह में कब उस की आंख लग गई थी, पता ही नहीं चला था.

दीवार घड़ी में 12 घंटों का स्वर सुन कर वह चौंक कर उठ बैठी थी. घबरा कर उस ने राजीव के मित्रों से संपर्क साधा था.

‘‘कौन? रमोला?’’ रिया ने राजीव के मित्र संतोष के यहां फोन किया तो फोन उस की पत्नी रमोला ने उठाया था.

‘‘हां, रिया, कहो कैसी हो?’’

‘‘सौरी, रमोला, इतनी रात गए तुम्हें तकलीफ दी पर शाम 6 बजे के गए राजीव अभी तक घर नहीं लौटे हैं. तुम्हारे यहां आए थे क्या?’’

‘‘कैसी तकलीफ रिया, आज तो लगता है सारी रात आंखों में ही कटेगी. राजीव आए थे यहां. राजीव और संतोष ने साथ चाय पी. गपशप चल रही थी कि मनोज की पत्नी का फोन आ गया कि मनोज ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली है. दोनों साथ ही मनोज के यहां गए हैं. पर उन्हें तुम्हें फोन तो करना चाहिए था.’’

‘‘राजीव अपना मोबाइल घर ही भूल गए हैं. पर मनोज जैसा व्यक्ति ऐसा कदम भी उठा सकता है मैं तो सोच भी नहीं सकती थी. हुआ क्या था?’’

‘‘पता नहीं, संतोष का फोन आया था कि मनोज और उस की पत्नी में सब्जी लाने को ले कर तीखी झड़प हुई थी. उस के बाद वह तो पास के ही स्टोर में सब्जी लेने चली गई और मनोज ने यह कांड कर डाला,’’ रमोला ने बताया था.

‘‘हाय राम, इतनी सी बात पर जान दे दी.’’

‘‘बात इतनी सी कहां है रिया. ये लोग तो आकाश से सीधे जमीन पर गिरे हैं. छोटी सी बात भी इन्हें तीर की तरह लगती है.’’

‘‘पर इन्होंने एकदूसरे को सहारा देने के लिए संगठन बनाया हुआ है.’’

‘‘कैसा संगठन और कैसा सहारा? जब अपनी ही समस्या नहीं सुलझती तो दूसरों की क्या सुलझाएंगे.’’ रमोला लगभग रो ही पड़ी थी.

‘‘संतोष भैया फिर भी तकदीर वाले हैं कि शीघ्र ही दूसरी नौकरी मिल गई.’’ रिया के शब्द रमोला को तीर की तरह चुभे थे.

‘‘तुम से क्या छिपाना रिया, संतोष के चाचाजी की फैक्टरी है. पहले से एकतिहाई वेतन पर दिनरात जुटे रहते हैं.’’

‘‘ऐसा समय भी देखना पड़ेगा कभी सोचा न था,’’ रिया ने फोन रख दिया था.

रिया की चिंता की सीमा न थी. इतनी सी बात पर मनोज ने यह क्या कर डाला. अपनी पत्नी और बच्चे के बारे में भी नहीं सोचा. रिया पूरी रात सो नहीं सकी थी. उस के और राजीव के बीच भी तो आएदिन झगड़े होते रहते हैं. वह तो दिन भर आफिस में रहती है और राजीव अकेला घर में. उस से आगे तो वह सोच भी नहीं सकी और फफक कर रो पड़ी थी.

आहत- भाग 2: एक स्वार्थी का प्रेम

बहुत तड़के ही शालिनी उठ कर नहाने चली गई. अभी वह ड्रैसिंगटेबल के पास पहुंची ही थी कि सौरभ ने उसे पीछे से अपनी बांहों में भर लिया और चुंबनों की बौछार कर दी.

‘‘अरे छोड़ो न, क्या करते हो? रात भर मस्ती की है, फिर भी मन नहीं भरा तुम्हारा,’’ शालिनी कसमसाई.

‘‘मैं तुम्हें जितना ज्यादा प्यार करता हूं, उतना ही और ज्यादा करने का मन करता है.’’

‘‘अच्छा… तो अगर मैं आज कुछ मांगूं तो दोगे?’’

‘‘जान मांगलो, पर अभी मुझे प्यार करने से न रोको.’’

‘‘उफ, इतनी बेचैनी… अच्छा सुनो मैं ने नौकरी करने का निर्णय लिया है.’’

‘‘अरे, मैं तो खुद ही कह चुका हूं तुम्हें… घर बैठ कर बोर होने से तो अच्छा ही है… अच्छा समझ गया. तुम चाहती हो मैं तुम्हारी नौकरी के लिए किसी से बात करूं.’’

‘‘नहीं… मुझे नौकरी मिल गई है.’’

‘‘मिल गई, कहां?’’

‘‘विमल ने मुझे अपने औफिस में काम करने का औफर दिया और मैं ने स्वीकार लिया.’’

सौरभ समझ गया था विरोध बेकार है. शालिनी उस से पूछ नहीं रही थी, उसे अपना निर्णय बता रही थी. सौरभ ने गले लगा कर शालिनी को बधाई दी और उस के बाद एक बार फिर दोनों एकदूसरे में समा गए.

शालिनी ने विमल के औफिस में काम करना शुरू कर दिया था. औफिस के काम से दोनों को कई बार शहर से बाहर भी जाना पड़ता था, परंतु सौरभ को कभी उन पर शक नहीं हुआ, क्योंकि शक करने जैसा कुछ था ही नहीं.

विमल के हर टूअर में उस की पत्नी रमा उस के साथ जाती थी. शालिनी तो अकसर

सौरभ से विमल और रमा के प्रेम की चर्चा भी करती थी. ऐसे ही एक टूअर पर विमल और रमा के साथ शालिनी भी गई. वैसे तो यह एक

औफिशियल टूअर था पर मनाली की खूबसूरती ने उन का मन मोह लिया. तय हुआ अभी तीनों ही जाएंगे. सौरभ बाद में उन के साथ शामिल होने वाला था.

मीटिंग के बाद विमल और शालिनी लौट रहे थे. विमल को ड्राइविंग पसंद थी, इसलिए अकसर वह गाड़ी खुद ही चलाता था. अचानक एक सुनसान जगह पर उस ने गाड़ी रोक दी.

‘‘क्या हुआ विमल, गाड़ी खराब हो गई क्या?’’

‘‘गाड़ी नहीं मेरी नियत खराब हो गई है और उस का कारण तुम हो शालिनी.’’

‘‘मैं… वह भला कैसे?’’ शालिनी ने मासूमियत का नाटक करते हुए पूछा.

‘‘तुम इतनी खूबसूरत हो तो तुम्हारे प्यार करने की अदा भी तो उतनी ही खूबसूरत होगी न?’’ कह विमल ने शालिनी का हाथ पकड़ लिया.

‘‘मुझे अपने करीब आने दो… इस में हम दोनों का ही फायदा है.’’

‘‘तुम पागल हो गए हो विमल?’’ शालिनी ने हाथ छुड़ाने का नाटक भर किया.

‘‘नहीं शालिनी अभी पागल तो नहीं हुआ, लेकिन यदि तुम्हें पा न सका तो जरूर हो जाऊंगा.’’

‘‘न बाबा न, किसी को पागल करने का दोष मैं अपने ऊपर क्यों लूं?’’

‘‘तो फिर अपने इन अधरों को…’’ बात अधूरी छोड़ विमल शालिनी को अपनी बांहों में लेने की कोशिश करने लगा.

‘‘अरेअरे… रुक भी जाओ. इतनी जल्दी क्या है? पहले यह तो तय हो जाए इस में मेरा फायदा क्या है?’’

‘‘तुम जो चाहो… मैं तो तुम्हारा गुलाम हूं.’’

शालिनी समझ गई थी, लोहा गरम है और यही उस पर चोट करने का सही वक्त है. अत: बोली, ‘‘मुझे नए प्रोजैक्ट का हैड बना दो विमल. बोलो क्या इतना कर पाओगे मेरे लिए?’’

‘‘बस, समझो बना दिया.’’

‘‘मुझे गलत मत समझना विमल, परंतु मैं ऐसे ही तुम्हारी बात पर भरोसा…’’

‘‘ऐसा है तो फिर यह लो,’’ कह उसी समय उसी के सामने औफिस में फोन कर शालिनी की इच्छा को अमलीजामा पहना दिया.

जब शालिनी के मन की बात हो गई तो फिर विमल के मन की बात कैसे अधूरी रहती.

उस दिन के बाद विमल और शालिनी और करीब आते गए. दोनों एकसाथ घूमते, खातेपीते और रात भर खूब मस्ती करते. रमा होटल के कमरे में अकेली पड़ी रही, पर उस ने विमल से कभी भी कुछ नहीं पूछा.

2 हफ्ते बाद वे लोग दिल्ली लौट आए थे. सौरभ को औफिस से छुट्टी नहीं मिल पाई थी, इसलिए उस का मनाली का टूअर कैंसिल हो गया था. इसी बात को बहाना बना कर शालिनी ने सौरभ से झूठी नाराजगी का ढोंग भी रचाया था.

‘‘वहां विमल और रमा एकसाथ घूमते… मैं अकेली होटल में कमरे में करवटें बदलती रह जाती.’’

सौरभ बेचारा मिन्नतें करता रह जाता और फिर शालिनी को मनाने के लिए उस की पसंद के महंगेमहंगे उपहार ला कर देता रहता… फिर भी शालिनी यदाकदा उस बात को उठा ही देती थी.

मनाली से लौट कर शालिनी के रंगढंग और तेवर लगातार बदल रहे थे.

अब तो वह अकसर घर देर से लौटने लगी और कई बार तो उस के मुंह से शराब की गंध भी आ रही होती.

शालिनी अकसर खाना भी बाहर खा कर आती थी. कुक सौरभ का खाना बना कर चला जाता था. जब वह घर लौटती उस के बेतरतीब कपड़े, बिगड़ा मेकअप भी खामोश जबान से उस की चुगली करते थे. मगर सौरभ ने तो जैसे अपनी आंखें मूंद ली थी. उसे तो यही लगता था कि वह शालिनी को समय नहीं दे पा रहा. इसीलिए वह उस से दूर हो रही.

एक दिन शालिनी ने उसे बताया विमल और रमा घूमने आगरा जा रहे हैं और उन से भी साथ चलने को कह रहे हैं. सौरभ को इस बार भी छुट्टी मिलने में परेशानी हो रही थी. उस के कई बार समझाने पर शालिनी विमल और रमा के साथ चली गई. सब कुछ शालिनी के मनमुताबिक ही हो रहा था, फिर भी उस ने अपनी बातों से सौरभ को अपराधबोध से भर दिया था.

गाड़ी में आगे की सीट पर विमल की बगल में बैठी शालिनी सौरभ की बेवकूफी पर काफी देर तक ठहाका लगाती रही थी.

‘‘अब बस भी करो शालिनी डार्लिंग… बेचारा सौरभ… हाहाहा’’

‘‘चलो छोड़ दिया. तुम यह बताओ तुम्हें गाड़ी से जाने की क्या सूझी?’’

‘‘दिल्ली और आगरा के बीच की दूरी है ही कितनी और वैसे भी लौंग ड्राइव में रोमांस का अपना मजा है मेरी जान,’’ और फिर दोनों एकसाथ हंस पड़े थे. रमा पीछे की सीट पर बैठी उन की इस बेहयाई की मूक दर्शक बनी रही.

सौरभ को छुट्टी अगले दिन ही मिल गई थी, परंतु वह शालिनी को सरप्राइज देना चाहता था. इसलिए शालिनी को बिन बताए ही आगरा पहुंच गया.

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