
बूआ के लिए भी उन का मायका उन के भाई के कारण ही था. अब उन के लिए भी मायके के नाम पर कुछ नहीं रहा. रमेश बाबू ने अपने जीते जी न बहन को मायके की कमी खलने दी न बेटी को. कहते हैं मायका मां से होता है लेकिन यहां तो पिताजी ने ही हमेशा उन दोनों के लिए ही मां की भूमिका निभाई.
‘‘बेटा, अब तू भी असीम के पास सिंगापुर चली जाना. वैसे भी अब तेरे लिए यहां रखा ही क्या है. आनंद का रवैया तो तुझे पता ही है. जो अपने जन्मदाता की यादों को 1 घंटे भी संभाल कर नहीं रख पाया वह तुझे क्या पूछेगा,’’ बूआ ने उस की हथेली को थपथपा कर कहा. अनुभवी बूआ की नजरें उस के भाईभाभी के भाव पहले ही दिन ताड़ गईं.
‘‘हां बूआ, सच कहती हो. बस, पिताजी की तेरहवीं हो जाए तो चली जाऊंगी. उन्हीं के लिए तो इस देश में रुकी थी. अब जब वही नहीं रहे तो…’’ अंकिता के आगे के शब्द उस की रुलाई में दब गए.
बूआ देर तक उस का सिर सहलाती रहीं. पिताजी ने अंकिता के विवाह की एकएक रस्म इतनी अच्छी तरह पूरी की थी कि लोगों को तथा खुद उस को भी कभी मां की कमी महसूस नहीं हुई.
पिताजी ने 2 साल पहले उस की शादी असीम से की थी. साल भर पहले असीम को सिंगापुर में अच्छा जौब मिल गया. वह अंकिता को भी अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन पिताजी की नरमगरम तबीयत देख कर वह असीम के साथ सिंगापुर नहीं गई. असीम का घर इसी शहर में था और उस के मातापिता नहीं थे, अत: असीम के सिंगापुर जाने के बाद अंकिता अपनी नौकरानी को साथ ले कर रहती थी. असीम छुट्टियों में आ जाता था.
अंकिता ने बहुत चाहा कि पिताजी उस के पास रहें पर इस घर में बसी मां की यादों को छोड़ कर वे जाना नहीं चाहते थे इसलिए वही हर रोज दोपहर को पिताजी के पास चली आती थी. बूआ वडोदरा में रहती थीं. उन का भी बारबार आना संभव नहीं था और अब तो उन का भी इस शहर में क्या रह जाएगा.
पिताजी की तीसरे दिन की रस्म हो गई. शाम को अंकिता बूआ के साथ आंगन में बैठी थी. असीम के रोज फोन आते और उस से बात कर अंकिता के दिल को काफी तसल्ली मिलती थी. असीम और बूआ ही तो अब उस के अपने थे. बूआ के सिर में हलकाहलका दर्द हो रहा था.
‘‘मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, बूआ, आप को थोड़ा आराम मिलेगा,’’ कह कर अंकिता चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल दी.
रसोईघर का रास्ता भैया के कमरे के बगल से हो कर जाता था. अंदर भैयाभाभी, उन के बच्चे, भाभी के दोनों भाई बैठे बातें कर रहे थे. उन की बातचीत का कुछ अंश उस के कानों में पड़ा तो न चाहते हुए भी उस के कदम दरवाजे की ओट में रुक गए. वे लोग पिताजी के कमरे को बच्चों के कमरे में तबदील करने पर सलाहमशविरा कर रहे थे.
बच्चों के लिए फर्नीचर कैसा हो, कितना हो, दीवारों के परदे का रंग कैसा हो और एक अटैच बाथरूम भी बनवाने पर विचार हो रहा था. सब लोग उत्साह से अपनीअपनी राय दे रहे थे, बच्चे भी पुलक रहे थे.
अंकिता का मन खट्टा हो गया. इन बच्चों को पिताजी अपनी बांहों और पीठ पर लादलाद कर घूमे हैं. इन के बीमार हो जाने पर भैयाभाभी भले ही सो जाएं लेकिन पिताजी इन के सिरहाने बैठे रातरात भर जागते, अपनी तबीयत खराब होने पर भी बच्चों की इच्छा से चलते, उन्हें बाहर घुमाने ले जाते. और आज वे ही बच्चे 3 दिन में ही अपने दादाजी की मौत का गम भूल कर अपने कमरे के निर्माण को ले कर कितने उत्साहित हो रहे हैं.
खैर, ये तो फिर भी बच्चे हैं जब बड़ों को ही किसी बात का लेशमात्र ही रंज नहीं है तो इन्हें क्या कहना. सब के सब उस कमरे की सजावट को ले कर ऐसे बातें कर रहे हैं मानो पिताजी के जाने की राह देख रहे थे कि कब वे जाएं और कब ये लोग उन के कमरे को हथिया कर उसे अपने मन मुताबिक बच्चों के लिए बनवा लें. यह तो पिताजी की तगड़ी पैंशन का लालच था, नहीं तो ये लोग तो कब का उन्हें वृद्धाश्रम में भिजवा चुके होते.
अंकिता से और अधिक वहां पर खड़ा नहीं रहा गया. उस ने रसोईघर में जा कर चाय बनाई और बूआ के पास आ कर बैठ गई.
पिताजी की मौत के बाद दुख के 8 दिन 8 युगों के समान बीते. भैयाभाभी के कमरे से आती खिलखिलाहटों की दबीदबी आवाजों से घावों पर नमक छिड़कने का सा एहसास होता था पर बूआ के सहारे वे दिन भी निकल ही गए. 9वें दिन से आडंबर भरी रस्मों की शुरुआत हुई तो अंकिता और बूआ दोनों ही बिलख उठीं.
9वें दिन से रूढि़वादी रस्मों की शुरुआत के साथ श्राद्ध पूजा में पंडितों ने श्लोकों का उच्चारण शुरू किया तो बूआ और अंकिता दोनों की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं. हर श्लोक में पंडित अंकिता के पिता के नाम ‘रमेश’ के आगे प्रेत शब्द जोड़ कर विधि करवा रहे थे. हर श्लोक में ‘रमेश प्रेतस्य शांतिप्रीत्यर्थे श… प्रेतस्य…’ आदि.
व्यक्ति के नाम के आगे बारबार ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण इस प्रकार हो रहा था मानो वह कभी भी जीवित ही नहीं था, बल्कि प्रेत योनि में भटकता कोई भूत था. अपने प्रियजन के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द सुनना उस की यादों के साथ कितना घृणित कार्य लग रहा था. अंकिता से वहां और बैठा नहीं गया. वह भाग कर पिताजी के कमरे में आ गई और उन की शर्ट को सीने से लगा कर फूटफूट कर रो दी.
कैसे हैं धार्मिक शास्त्र और कैसे थे उन के रचयिता? क्या उन्हें इनसानों की भावनाओं से कोई लेनादेना नहीं था? जीतेजागते इनसानों के मन पर कुल्हाड़ी चलाने वाली भावहीन रूढि़यों से भरे शास्त्र और उन की रस्में, जिन में मानवीय भावनाओं की कोई कद्र नहीं. आडंबर से युक्त रस्मों के खोखले कर्मकांड से भरे शास्त्र.
धार्मिक कर्मकांड समाप्त होने के बाद जब पंडित चले गए तब अंकिता अपने आप को संभाल कर बाहर आई. भैया और उन के बेटे का सिर मुंडा हुआ था. रस्मों के मुताबिक 9वें दिन पुत्र और पौत्र के बाल निकलवा देते हैं. उन के घुटे सिर को देख कर अंकिता का दुख और गहरा हो गया. कैसी होती हैं ये रस्में, जो पलपल इनसान को हादसे की याद दिलाती रहती हैं और उस का दुख बढ़ाती हैं.
चेहरे की चमड़ी के रंग को चमका कर जैसे ही मैं वाश बेसिन के सामने से उठ कर हटा, पीछे किसी को खड़ा पा कर तेजी से पलटा. देखा तो सचमुच ऊषा ही मेरे सामने खड़ी थी. हक्काबक्का हो कर मैं कभी शानदार कपड़ों में सजीधजी उस की गुस्से भरी सुंदरता देख रहा था, तो कभी तेल, ग्रीस व धूल सने कपड़ों में लिपटे धुलेपुछे अपने हाथों को. मैं उस की ओर बदहवास नजरों से ताकता हुआ सहज होने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘चल कर औफिस में बैठो. मैं वहीं कपड़े बदल कर आता हूं. आज एक आदमी आया नहीं था, इसीलिए उस का काम करना पड़ गया. सो देख ही रही हो,
मेरा हुलिया कैसा बिगड़ गया है.’’ उसी ऊहापोह में ऊषा को अवाक छोड़ कर कपड़े बदलने के लिए मैं फिर से वर्कशौप में घुस गया. साथ ही, सोचता जा रहा था कि मैं ने तो कभी ऊषा को अपनी फैक्टरी का नाम तक नहीं बताया था. आज इसे क्या सूझी कि फैक्टरी के भीतर ही सीधे पहुंच गई. फैक्टरी के दरबान ने इसे रोका तक नहीं और न ही इसे कहीं औफिस में बिठा कर मुझे खबर ही किया. हो सकता है कि ऊषा ने ही उसे सारी बातें बतासमझा कर मुझे ‘चकित’ करने के लिए रोक दिया हो मुझे बुलाने से. बनठन कर जब मैं पहुंचा, तब ऊषा वहां थी ही नहीं. शायद,
उस ने मेरे बारे में सबकुछ किसी से पता कर लिया था. दौड़ता सा मैं चौड़ी सड़क के मोेड़ तक पहुंचा था. इधरउधर चारों ओर नजरें दौड़ा कर देखा, पर वह कहीं न दिखी. एक बार फिर खूब गौर से सब ओर देखा. हां, उसी नीम के हरेभरे पेड़ के नीचे वह सड़क पार करने के इंतजार में खड़ी थी. मैं ने खंखारते हुए तब कहा था, ‘‘2 मिनट के लिए भी रुकी क्यों नहीं? नाराज हो क्या? देखो, मैं तो कैसा दौड़ताहांफता आ रहा हूं तुम तक, तुम से मिलने, तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलने को.’’ ‘‘नीच, कमीने, धोखेबाज, चुप ही रहो अब. मैं आज की शाम, बल्कि जिंदगीभर के लिए बेइज्जत तो हो ही गई. बताओ, मैं अब अपने पिताजी को जा कर क्या जवाब दूं? तुम ने मेरी जिंदगी का सुनहरा सपना क्यों चूरचूर कर दिया? मैं क्या समझती थी कि तुम मुझे धोखा दे रहो हो,’’ नफरत की तड़पभरी चिनगारी आंखों में भरे उस ने आगे कहा, ‘‘एक मामूली मजदूर ही नहीं, लुटेरे भी हो तुम..
. जाओ, अपनी जिंदगी का रास्ता बदलो और अब मेरे पीछे कभी मत आना… ‘‘तुम ने मेरी जान बचाई थी कभी तो उस की कीमत इस तरह लेना चाहते थे? मुझ से कहे होते तो पिताजी से कह कर मैं तुम्हें हजारों रुपए दिलवा देती…’’ इतना बोल कर ही ऊषा का गुस्सा शांत न हो सका था. घायल शेरनी सी बिफरती हुई बोली थी वह, ‘‘तुम ने झूठ क्यों कहा मुझ से कि तुम एक इंजीनियर हो, जबकि तुम हो एक साधारण मजदूर से भी गएबीते एक खरादिए भर हो, चीकट कपड़े पहन कर काम करने वाला… परफ्यूम लगा लेने या ब्रांडेड कपड़े पहन लेने से कोई न तो इंजीनियर बन जाता है और न रईस या बड़ा आदमी. जरूर तुम किसी निचली जाति के भी हो, मेरी तरह राजपूत पिता की संतान नहीं. जाओ, आज से आग लगा दो अपनी सारी टीशर्टों को,’’ कह कर वह सड़क पार कर गई थी. सच तो यह?है कि ‘ऊषा’ मेरे जीवन की ‘अंधेरी रात’ बन गई थी. उस समय ऐसा लग रह था, जैसे किसी ने मेरा दिल मुट्ठी में भींच रखा हो.
दोपहर के 2 बज रहे थे. रसोई का काम निबटा कर मैं लेटी हुई अपने बेटे राहुल के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजा दी. कौन हो सकता है? शायद डाकिया होगा यह सोचते हुए बाहर आई और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक 22-23 साल की युवती खड़ी थी.
‘‘आंटी, मुझे पहचाना आप ने, मैं कंचन. आप के बगल वाली,’’ वह बोली.
‘‘अरे, कंचन तुम? यहां कैसे और यह क्या हालत बना रखी है तुम ने?’’ एकसाथ ढेरों प्रश्न मेरे मुंह से निकल पड़े. मैं उसे पकड़ कर प्यार से अंदर ले आई.
कंचन बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए एक अबोध बालक की तरह मेरे पीछेपीछे अंदर आ गई.
‘‘बैठो, बेटा,’’ मेरा इशारा पा कर वह यंत्रवत बैठ गई. मैं ने गौर से देखा तो कंचन के नक्श काफी तीखे थे. रंग गोरा था. बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थीं. यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी कंचन का शरीर बस, ये समझिए कि हड्डियों का ढांचा भर था.
मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, कैसी हो तुम?’’
नजरें झुकाए बेहद धीमी आवाज में कंचन बोली, ‘‘आंटी, मैं ने कितने पत्र आप को लिखे पर आप ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.’’
मैं खामोश एकटक उसे देखते हुए सोचती रही, ‘बेटा, पत्र तो तुम्हारे बराबर आते रहे पर तुम्हारी मां और पापा के डर के कारण जवाब देना उचित नहीं समझा.’
मुझे चुप देख शायद वह मेरा उत्तर समझ गई थी. फिर संकोच भरे शब्दों में बोली, ‘‘आंटी, 2 दिन हो गए, मैं ने कुछ खाया नहीं है. प्लीज, मुझे खाना खिला दो. मैं तंग आ गई हूं अपनी इस जिंदगी से. अब बरदाश्त नहीं होता मां का व्यवहार. रोजरोज की मार और तानों से पीडि़त हो चुकी हूं,’’ यह कह कर कंचन मेरे पैरों पर गिर पड़ी.
मैं ने उसे उठाया और गले से लगाया तो वह फफक पड़ी और मेरा स्पर्श पाते ही उस के धैर्य का बांध टूट गया.
‘‘आंटी, कई बार जी में आया कि आत्महत्या कर लूं. कई बार कहीं भाग जाने को कदम उठे किंतु इस दुनिया की सचाई को जानती हूं. जब मेरे मांबाप ही मुझे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं तो और कौन देगा मुझे अपने आंचल की छांव. बचपन से मां की ममता के लिए तरस रही हूं और आखिर मैं अब उस घर को सदा के लिए छोड़ कर आप के पास आई हूं वह स्पर्श ढूंढ़ने जो एक बच्चे को अपनी मां से मिलता है. प्लीज, आंटी, मना मत करना.’’
उस के मुंह पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘ऐसा दोबारा भूल कर भी मत कहना. अब कहीं नहीं जाएगी तू. जब तक मैं हूं, तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है.’’
उसे मैं ने अपनी छाती से लगा लिया तो एक सुखद एहसास से मेरी आंखें भर आईं. पूरा शरीर रोमांचित हो गया और वह एक बच्ची सी बनी मुझ से चिपकी रही और ऊष्णता पाती रही मेरे बदन से, मेरे स्पर्श से.
मैं रसोई में जब उस के लिए खाना लेने गई तो जी में आ रहा था कि जाने क्याक्या खिला दूं उसे. पूरी थाली को करीने से सजा कर मैं बाहर ले आई तो थाली देख कंचन रो पड़ी. मैं ने उसे चुप कराया और कसम दिलाई कि अब और नहीं रोएगी.
वह धीरेधीरे खाती रही और मैं अतीत में खो गई. बरसों से सहेजी संवेदनाएं प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बाहर निकलने लगीं.
कंचन 2 साल की थी कि काल के क्रूर हाथों ने उस से उस की मां छीन ली. कंचन की मां को लंग्स कैंसर था. बहुत इलाज कराया था कंचन के पापा ने पर वह नहीं बच पाई.
इस सदमे से उबरने में कंचन के पापा को महीनों लग गए. फिर सभी रिश्तेदारों एवं दोस्तों के प्रयासों के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली. इस शादी के पीछे उन के मन में शायद यह स्वार्थ भी कहीं छिपा था कि कंचन अभी बहुत छोटी है और उस की देखभाल के लिए घर में एक औरत का होना जरूरी है.
शुरुआत के कुछ महीने पलक झपकते बीत गए. इस दौरान सुधा का कंचन के प्रति व्यवहार सामान्य रहा. किंतु ज्यों ही सुधा की कोख में एक नए मेहमान ने दस्तक दी, सौतेली मां का कंचन के प्रति व्यवहार तेजी से असामान्य होने लगा.
सुधा ने जब बेटी को जन्म दिया तो कंचन के पिता को विशेष खुशी नहीं हुई, वह चाह रहे थे कि बेटा हो. पर एक बेटे की उम्मीद में सुधा को 4 बेटियां हो गईं और ज्योंज्यों कंचन की बहनों की संख्या बढ़ती गई त्योंत्यों उस की मुसीबतों का पहाड़ भी बड़ा होता गया.
आएदिन कंचन के शरीर पर उभरे स्याह निशान मां के सौतेलेपन को चीखचीख कर उजागर करते थे. कितनी बेरहम थी सुधा…जब बच्चों के कोमल, नाजुक गालों पर मांबाप के प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है तब कंचन के मासूम गालों पर उंगलियों के निशान झलकते थे.
सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.
‘‘पर उन इच्छाओं को पूरा करने के क्रम में परिवार को कष्ट होता है तो होता रहे? स्वाति ने तो कनक से साफ कह दिया कि वह विवाह के बाद संयुक्त परिवार में नहीं रहेगी.’’
‘‘तोे कनक ने क्या कहा?’’
‘‘वह तो हतप्रभ रह गया, कुछ सूझा ही नहीं उसे.’’
‘‘क्या कह रही हो, भाभी? उसे साफ शब्दोें में कहना चाहिए था कि वह परिवार का बड़ा बेटा है. परिवार से अलग होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. स्वाति ने तो अपने मन की बात कह दी, कोई दूसरी लड़की विवाह के बाद यह मांग करेगी तो क्या करेगा कनक और क्या करेंगी आप?’’
‘‘क्या कहूं, मुझे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा है,’’ विमलाजी की आंखें छलछला आईं, स्वर भर्रा गया.
‘‘इतना असहाय अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है. घरपरिवार आप का है. इसे सजाने व संवारने में अपना जीवन होम कर दिया आप ने. दृढ़ता से कहो कि इस तरह के निर्णय बच्चे नहीं लेते बल्कि आप स्वयं लेती हैं.’’
‘‘मेरे कहने से क्या होगा, दीदी. लड़की यदि झगड़ालू हुई तो हम सब का जीना दूभर कर देगी. कनक तो इसी कारण नौकरी वाली लड़की चाहता है. उसे तो झगड़ा करने का समय ही नहीं मिलेगा.’’
‘‘पर स्वाति तो नौकरी वाली युवतियों से भी अधिक व्यस्त रहती है. राव साहब के रेडीमेड कपड़ों के डिपार्टमैंट में महिला और बाल विभाग स्वाति संभालती है, उस के डिजाइनों को लाखों के आर्डर मिलते हैं.’’
‘‘पर कनक तो कह रहा था कि स्वाति केवल स्नातक है. उसे कहीं नौकरी तक नहीं मिलेगी.’’
‘‘हां, पर फैशन डिजाइनिंग में स्नातक है. इतना बड़ा व्यापार संभालती है तो नौकरी करने का प्रश्न ही कहां उठता है. मुझे लगता है कनक ने उस से कुछ पूछा ही नहीं, बस उस की सुनता रहा.’’
‘‘थोड़ा शर्मीला है कनक, पहली ही मुलाकात में किसी से घुलमिल नहीं पाता,’’ विमलाजी संकुचित स्वर में बोली थीं.
‘‘होता है, भाभी. पहली मुलाकात में ऐसा ही होता है. सहज होने में समय लगता है. मैं तो कहती हूं दोनों को मिलनेजुलने दो. एकदूसरे को समझने दो. आप भी ठोकबजा कर देख लो, सबकुछ समझ में आए तभी अपनी स्वीकृति देना.’’
‘‘आप की बात सच है. मैं कनक से कहूंगी कि स्वाति और वह फिर मिल लें. पर दीदी, सबकुछ कनक के हां कहने पर ही तो निर्भर करता है. तुम तो जानती ही हो, आज के समय में बच्चों पर अपनी राय थोपना असंभव है.’’
‘‘बिलकुल सही बात है पर तुम एक बार राव दंपती से मिल तो लो. उस दिन तुम और कनक अचानक उठ कर चले आए तब वे बहुत आहत हो गए थे.’’
‘‘उस के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं पर कनक अचानक ही उठ कर चल पड़ा तो मुझे उस का साथ देना ही पड़ा.’’
‘‘चलो, कोई बात नहीं है. जो हो गया सो हो गया. जब आप को सुविधा हो बता देना. मैं उसी के अनुसार राव दंपती से आप की भेंट का समय निश्चित कर लूंगी,’’ रमोलाजी ने सुझाव दिया था.
‘‘एक बार कनक से बात कर लूं फिर आप को फोन कर दूंगी.’’
‘‘एक बात कहूं, भाभी? बुरा तो नहीं मानोगी.’’
‘‘कैसी बातें करती हो, दीदी? आप की बात का बुरा मानूंगी? आप ने तो कदमकदम पर मेरा साथ दिया है. वैसे भी बच्चों के विवाह भी तो आप को ही करवाने हैं.’’
‘‘तो सुनो, समय बहुत खराब आ गया है. इसलिए सावधानी से सोचसमझ कर अपने निर्णय स्वयं लेना सीखो. आजकल के युवा अपने पैरों पर खड़े होते ही स्वयं को तीसमारखां समझने लगते हैं. मेरा तो अपने काम के सिलसिले में हर तरह के परिवारों में आनाजाना लगा रहता है. राजतिलकजी का नाम तो आप ने सुना ही होगा?’’
‘‘उन्हें कौन नहीं जानता,’’ विमला के नेत्र विस्फारित हो गए थे.
‘‘उन का इकलौता बेटा सुबोध, हर लड़की में कोई न कोई कमी निकाल देता था. फिर अपनी मरजी से स्वयं से 10 साल बड़ी अपनी अफसर से विवाह कर लिया. लड़की भी पहले की विवाहित थी. 2 बच्चे भी थे. दोनों परिवार बरबाद हो गए. राजतिलकजी का तो दिल ही टूट गया.’’
‘‘सच कह रही हो, दीदी, आजकल की औरतों ने तो हयाशरम बेच ही खाई है,’’ विमलाजी ने हां में हां मिलाई थी.
‘‘सो मत कहो भाभी. सैनी साहब का नाम तो सुना ही होगा आप ने?’’
‘‘नहीं तो, क्यों?’’
‘‘उन के बेटे निखिल ने तो अपने पुरुष मित्र से ही विवाह कर लिया. बेचारे सैनी साहब तो शरम के मारे अपना घर बेच कर चले गए,’’ रमोलाजी ने बात आगे बढ़ाई थी.
‘‘लगता है अब घोर कलियुग आ गया है,’’ विमलाजी ने इतना बोल कर दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया.
‘‘इसीलिए तो कहती हूं, भाभी. सावधान हो जाओ और होशियारी से काम लो. बच्चे आखिर बच्चे हैं…दुनियादारी की बारीकियां वे भला क्या समझें,’’ रमोलाजी विदा लेते हुए बोली थीं.
रमोलाजी चली गई थीं पर विमला को सकते में छोड़ गईं, ‘‘ठीक कहती हैं रमोला. निर्णय तो स्वयं लेंगी. कनक क्या जाने जीवन की पेचीदगियों को.’’
रमोलाजी तुरुप का पत्ता चल गई थीं और जानती थीं कि उन का दांव कभी खाली नहीं जाता.
रूबी ताई ने जैसे ही बताया कि हिना छत पर रेलिंग पकड़े खड़ी है तो घर में हलचल सी मच गई.
‘‘अरे, वह छत पर कैसे चली गई, उसे तीसरे माले पर किस ने जाने दिया,’’ शारदा घबरा उठी थीं, ‘‘उसे बच्चा होने वाला है, ऐसी हालत में उसे छत पर नहीं जाना चाहिए.’’
आदित्य चाय का कप छोड़ कर तुरंत सीढि़यों की तरफ दौड़ा और हिना को सहारा दे कर नीचे ले आया. फिर कमरे में ले जा कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.
हिना अब भी न जाने कहां खोई थी, न जाने किस सोच में डूबी हुई थी.
हिना का जीवन एक सपना जैसा ही बना हुआ था. खाना बनाती तो परांठा तवे पर जलता रहता, सब्जी छौंकती तो उसे ढकना भूल जाती, कपड़े प्रेस करती तो उन्हें जला देती.
हिना जब बहू के रूप में घर में आई थी तो परिवार व बाहर के लोग उस की खूबसूरती देख कर मुग्ध हो उठे थे. उस के गोरे चेहरे पर जो लावण्य था, किसी की नजरों को हटने ही नहीं देता था. कोई उस की नासिका को देखता तो कोई उस की बड़ीबड़ी आंखों को, किसी को उस की दांतों की पंक्ति आकर्षित करती तो किसी को उस का लंबा कद और सुडौल काया.
सांवला, साधारण शक्लसूरत का आदित्य हिना के सामने बौना नजर आता.
शारदा गर्व से कहतीं, ‘‘वर्षों खोजने पर यह हूर की परी मिल पाई है. दहेज न मिला तो न सही पर बहू तो ऐसी मिली, जिस के आगे इंद्र की अप्सरा भी पानी भरने लगे.’’
धीरेधीरे घर के लोगों के सामने हिना के जीवन का दूसरा पहलू भी उजागर होने लगा था. उस का न किसी से बोलना न हंसना, न कहीं जाने का उत्साह दिखाना और न ही किसी प्रकार की कोई इच्छा या अनिच्छा.
‘‘बहू, तुम ने आज स्नान क्यों नहीं किया, उलटे कपडे़ पहन लिए, बिस्तर की चादर की सलवटें भी ठीक नहीं कीं, जूठे गिलास मेज पर पडे़ हैं,’’ शारदा को टोकना पड़ता.
फिर हिना की उलटीसीधी विचित्र हरकतें देख कर घर के सभी लोग टोकने लगे, पर हिना न जाने कहां खोई रहती, न सुनती न समझती, न किसी के टोकने का बुरा मानती.
एक दिन हिना ने प्रेस करते समय आदित्य की नई शर्ट जला डाली तो वह क्रोध से भड़क उठा, ‘‘मां, यह पगली तुम ने मेरे गले से बांध दी है. इसे न कुछ समझ है न कुछ करना आता है.’’
उस दिन सभी ने हिना को खूब डांटा पर वह पत्थर बनी रही.
शारदा दुखी हो कर बोलीं, ‘‘हिना, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, घर का काम करना नहीं आता तो सीखने का प्रयास करो, रूबी से पूछो, मुझ से पूछो, पर जब तुम बोलोगी नहीं तो हम तुम्हें कैसे समझा पाएंगे.’’
एक दिन हिना ने अपनी साड़ी के आंचल में आग लगा ली तो घर के लोग उस के रसोई में जाने से भी डरने लगे.
‘‘हिना, आग कैसे लगी थी?’’
‘‘मांजी, मैं आंचल से पकड़ कर कड़ाही उतार रही थी.’’
‘‘कड़ाही उतारने के लिए संडासी थी, तौलिया था, उन का इस्तेमाल क्यों नहीं किया था?’’ शारदा क्रोध से भर उठी थीं, ‘‘जानती हो, तुम कितनी बड़ी गलती कर रही थीं…इस का दुष्परिणाम सोचा है क्या? तुम्हारी साड़ी आग पकड़ लेती तब तुम जल जातीं और तुम्हारी इस गलती की सजा हम सब को भोगनी पड़ती.’’
आदित्य हिना को मनोचिकित्सक को दिखाने ले गया तो पता लगा कि हिना डिप्रेशन की शिकार थी. उसे यह बीमारी कई साल पुरानी थी.
‘‘डिपे्रशन, यह क्या बला है,’’ शारदा के गले से यह बात नहीं उतर पा रही थी कि अगर हिना मानसिक रोगी है तो उस ने एम.ए. तक की पढ़ाई कैसे कर ली, ब्यूटीशियन का कोर्स कैसे कर लिया.
‘‘हो सकता है हिना पढ़ाई पूरी करने के बाद डिप्रेशन की शिकार बनी हो.’’
आदित्य ने फोन कर के अपने सासससुर से जानकारी हासिल करनी चाही तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर कर दी.
शारदा परेशान हो उठीं. लड़की वाले साफसाफ तो कुछ बताते नहीं कि उन की बेटी को कौन सी बीमारी है, और कुछ हो जाए तो सारा दोष लड़के वालों के सिर मढ़ कर अपनेआप को साफ बचा लेते हैं.
‘‘मां, इस पागल के साथ जीवन गुजारने से तो अच्छा है कि मैं इसे तलाक दे दूं,’’ आदित्य ने अपने मन की बात जाहिर कर दी.
घर के दूसरे लोगोें ने आदित्य का समर्थन किया.
घर में हिना को हमेशा के लिए मायके भेजने की बातें अभी चल ही रही थीं कि एक दिन उसे जोरों से उलटियां शुरू हो गईं.
डाक्टर के यहां ले जाने पर पता चला कि वह मां बनने वाली है.
‘‘यह पागल हमेशा को गले से बंध जाए इस से तो अच्छा है कि इस का एबौर्शन करा दिया जाए,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.
शारदा का विरोध घर के लोगों की तेज आवाज में दब कर रह गया.
आदित्य, हिना को डाक्टर के यहां ले गया, पर एबौर्शन नहीं हो पाया क्योंकि समय अधिक गुजर चुका था.
घर में सिर्फ शारदा ही खुश थीं, सब से कह रही थीं, ‘‘बच्चा हो जाने के बाद हिना का डिप्रेशन अपनेआप दूर हो जाएगा. मैं अपनी बहू को बेटी के समान प्यार दूंगी. हिना ने मेरी बेटी की कमी दूर कर दी, बहू के रूप में मुझे बेटी मिली है.’’
अब शारदा सभी प्रकार से हिना का ध्यान रख रही थीं, हिना की सभी प्रकार की चिकित्सा भी चल रही थी.
लेकिन हिना वैसी की वैसी ही थी. नींद की गोलियों के प्रभाव से वह घंटों तक सोई रहती, परंतु उस के क्रियाकलाप पहले जैसे ही थे.
‘‘अगर बच्चे पर भी मां का असर पड़ गया तो क्या होगा,’’ आदित्य का मन संशय से भर उठता.
‘‘तू क्यों उलटीसीधी बातें बोलता रहता है,’’ शारदा बेटे को समझातीं, ‘‘क्या तुझे अपने खून पर विश्वास नहीं है? क्या तेरा बेटा पागल हो सकता है?’’
‘‘मां, मैं कैसे भूल जाऊं कि हिना मानसिक रोगी है.’’
‘‘बेटा, जरूर इस के दिल को कोई सदमा लगा होगा, वक्त का मरहम इस के जख्म भर देगा. देख लेना, यह बिलकुल ठीक हो जाएगी.’’
‘‘तो करो न ठीक,’’ आदित्य व्यंग्य कसता, ‘‘आखिर कब तक ठीक होगी यह, कुछ मियाद भी तो होगी.’’
‘‘तू देखता रह, एक दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा…पहले घर में बच्चे के रूप में खुशियां तो आने दे,’’ शारदा का विश्वास कम नहीं होता था.
पूरे घर में एक शारदा ही ऐसी थीं जो हिना के पक्ष में थीं, बाकी लोग तो हिना के नाम से ही बिदकने लगे थे.
शारदा अपने हाथों से फल काट कर हिना को खिलातीं, जूस पिलातीं, दवाएं पिलातीं, उस के पास बैठ कर स्नेह दिखातीं.
प्यार से तो पत्थर भी पिघल जाता है, फिर हिना ठहरी छुईमुई सी लड़की.
‘‘मांजी, आप मेरे लिए इतना सब क्यों कर रही हैं,’’ एक दिन पत्थर के ढेर से पानी का स्रोत फूट पड़ा.
हिना को सामान्य ढंग से बातें करते देख शारदा खुश हो उठीं, ‘‘बहू, तुम मुझ से खुल कर बातें करो, मैं यही तो चाहती हूं.’’
हिना उठ कर बैठ गई, ‘‘मैं अपनी जिम्मेदारियां ठीक से नहीं निभा पा रही हूं.’’
‘‘तुम मां बनने वाली हो, ऐसी हालत में कोई भी औरत काम नहीं कर सकती. सभी को आराम चाहिए, फिर मैं हूं न. मैं तुम्हारे बच्चे को नहलाऊंगी, मालिश करूंगी, उस के लिए छोटेछोटे कपडे़ सिलूंगी.’’
हिना अपने पेट में पलते नवजात शिशु की हलचल को महसूस कर के सपनों में खो जाती, और कभी शारदा से बच्चे के बारे में तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती.
‘‘हिना ठीक हो रही है. देखो, मैं कहती थी न…’’ शारदा उत्साह से भरी हुई सब से कहती रहतीं.
आदित्य भी अब कुछ राहत महसूस कर रहा था और हिना के पास बैठ कर प्यार जताता रहता.
एक शाम आदित्य हिना के लिए जामुन खरीद कर लाया तो शारदा का ध्यान जामुन वाले कागज के लिफाफे की तरफ आकर्षित हुआ.
‘‘देखो, इस कागज पर बनी तसवीर हिना से कितनी मिलतीजुलती है.’’
आदित्य के अलावा घर के अन्य लोग भी उस तसवीर की तरफ आकर्षित हुए.
‘‘हां, सचमुच, यह तो दूसरी हिना लग रही है, जैसे हिना की ही जुड़वां बहन हो, क्यों हिना, तुम भी तो कुछ बोलो.’’
हिना का चेहरा उदास हो उठा, उस की आंखें डबडबा आईं, ‘‘हां, यह मेरी ही तसवीर है.’’
‘‘तुम्हारी?’’ घर के लोग आश्चर्य से भर उठे.
‘‘मैं ने कुछ समय मौडलिंग की थी. पैसा और शौक पूरा करने के लिए यह काम मुझे बुरा नहीं लगा था, पर आप लोग मेरी इस गलती को माफ कर देना.’’
‘‘तुम ने मौडलिंग की, पर मौडल बनना आसान तो नहीं है?’’
‘‘मैं अपने कालिज के ब्यूटी कांटेस्ट में प्रथम चुनी गई थी. फिर…’’
‘‘फिर क्या?’’ शारदा ने उस का उत्साह बढ़ाया, ‘‘बहू, तुम ब्यूटी क्वीन चुनी गईं, यह बात तो हम सब के लिए गर्व की है, न कि छिपाने की.’’
‘‘फिर इस कंपनी वालों ने खुद ही मुझ से कांटेक्ट कर के मुझे अपनी वस्तुओं के विज्ञापनों में लिया था,’’ इतना बताने के बाद हिना हिचकियां भर कर रोने लगी.
काफी देर बाद वह शांत हुई तो बोली, ‘‘मुझे एक फिल्म में सह अभिनेत्री की भूमिका भी मिली थी, पर मेरे पिताजी व ताऊजी को यह सब पसंद नहीं आया.’’
अब हिना की बिगड़ी मानसिकता का रहस्य शारदा के सामने आने लगा था.
हिना ने बताया कि उस के रूढि़वादी घर वालों ने न सिर्फ उसे घर में बंद रखा बल्कि कई बार उसे मारापीटा भी गया और उस के फोन सुनने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी.
शारदा के मन में हिना के प्रति वात्सल्य उमड़ पड़ा था.
हिना के मौडलिंग की बात खुल जाने से उस के मन का बोझ हलका हो गया था. वह बोली, ‘‘मांजी, मुझे डर था कि आप लोग यह सबकुछ जान कर मुझे गलत समझने लगेंगे.’’
‘‘ऐसा क्यों सोचा तुम ने?’’
‘‘लोग मौडलिंग के पेशे को अच्छी नजर से नहीं देखते और ऐसी लड़की को चरित्रहीन समझने लगते हैं. फिर उस लड़की का नाम कई पुरुषों के साथ जोड़ दिया जाता है, मेरे साथ भी यही हुआ था.’’
‘‘बेटी, सभी लोग एक जैसे नहीं हुआ करते. आजकल तुम खुश रहा करो. खुश रहोगी तो तुम्हारा बच्चा भी खूबसूरत व निरोग पैदा होगा.’’
शारदा का स्नेह पा कर हिना अपने को धन्य समझ रही थी कि आज के समय में मां की तरह ध्यान रखने वाली सास भी है, वरना उस ने तो सास के बारे में कुछ और ही सुन रखा था.
नियत समय पर हिना ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया तो घर में खुशियों की शहनाई गूंज उठी.
हिना बेटे की किलकारियों में खो गई. पूरे दिन बच्चे के इतने काम थे कि उस के अलावा और कुछ सोचने की उसे फुरसत ही नहीं थी.
एक दिन शारदा की इस बात ने घर में विस्फोट जैसा वातावरण बना दिया कि हिना धारावाहिक में काम करेगी. पारस, मेरी सहेली के पति हैं और वह एक पारिवारिक धारावाहिक बना रहे हैं. उन्होंने हिना को कई बार देखा है और मेरे सामने प्रस्ताव रखा है कि आदर्श बहू की भूमिका वह हिना को देना चाहते हैं.
‘‘मां, तुम यह क्या कह रही हो. हिना को धारावाहिक में काम दिलवाओगी, वह कहावत भूल गईं कि औरत को खूंटे से बांध कर रखना चाहिए. एक बार औरत के कदम घर से बाहर निकल जाएं तो घर में लौटना कठिन रहता है,’’ आदित्य आक्रोश से उबल रहा था.
शारदा भी क्रोध से भर उठीं, ‘‘क्या मैं औरत नहीं हूं? पति के मरने के बाद मैं ने घर से बाहर जा कर सैकड़ों जिम्मेदारियां पूरी की हैं. मां बन कर तुम्हें जन्म दिया और बाप बन कर पाला है. सैकड़ों कष्ट झेले, पैसा कमाने को छोटीछोटी नौकरियां कीं, कठिन परिश्रम किया, तो क्या मैं ने अपना घर उजाड़ लिया? पुरुष तो सभी जगहों पर होते हैं, रूबी ताई भी तो दफ्तर में नौकरी कर रही है, क्या उस ने अपना घर उजाड़ लिया है. फिर हिना के बारे में ही ऐसा क्यों सोचा जा रहा है?
‘‘अगर तुम हिना को खूंटे से ही बांधना चाहते हो तो पहले मुझे बांधो, रूबी को बांधो. हिना का यही दोष है न कि वह सामान्य से कुछ अधिक ही खूबसूरत है, पर यह उस का दोष नहीं है. अरे, कोई खूबसूरत चीज है तो लोगों की नजरें उस तरफ उठेंगी ही.’’
शारदा के तर्कों के आगे सभी की जुबान पर ताले लग गए थे.
हिना शारदा की गोद में मुंह छिपा कर रो रही थी. फिर अपने आंसुओं को पोंछ कर बोली, ‘‘मां, तुम सचमुच मेरे लिए मेरा आदर्श ही नहीं बल्कि मां भी हो.’’
एक दिन जब हिना का धारावाहिक टेलीविजन पर प्रसारित हुआ तो उस के अभिनय की सभी ने तारीफ की और बधाइयां मिलने लगीं.
हिना उत्तर देती, ‘‘बधाई की पात्र तो मेरी सास हैं, उन्हीं ने मुझे डिप्रेशन से मुक्ति दिलाई और एक नया सम्मान से भरा जीवन दिया.’’
शारदा सिर्फ मुसकरा कर रह जातीं, ‘‘बहू हो या बेटी, दोनों ही एक हैं. दोनों के प्रति एक ही प्रकार से फर्ज निभाना चाहिए.’’
असीम को आखिर छुट्टी मिल ही गई और पिताजी की तेरहवीं पर वह आ गया. उस के कंधे पर सिर रख कर पिताजी की याद में और भैयाभाभी के स्वार्थी पक्ष पर वह देर तक आंसू बहाती रही. अंकिता का बिलकुल मन नहीं था उस घर में रुकने का लेकिन पिताजी की यादों की खातिर वह रुक गई.
तेरहवीं की रस्म पर भैया ने दिल खोल कर खर्च किया. लोग भैया की तारीफें करते नहीं थके कि बेटा हो तो ऐसा. देखो, पिताजी की याद में उन की आत्मा की शांति के लिए कितना कुछ कर रहा है, दानपुण्य, अन्नदान. 2 दिन तक सैकड़ों लोगों का भोजन चलता रहा. लोगों ने छक कर खाया और भैयाभाभी को ढेरों आशीर्वाद दिए. अंकिता, असीम और बूआ तटस्थ रह कर यह तमाशा देखते रहे. वे जानते थे कि यह सब दिखावा है, इस में तनिक भी भावना या श्रद्धा नहीं है.
यह कैसा धर्म है जो व्यक्ति को इनसानियत का पाठ पढ़ाने के बजाय आडंबर और दिखावे का पाठ पढ़ाता है, ढोंग करना सिखाता है.
जीतेजी पिता को दवाइयों और खानेपीने के लिए तरसा दिया और मरने पर कोरे दिखावे के लिए झूठी रस्मों के नाम पर ब्राह्मणों और समाज के लोगों को भोजन करा रहे हैं. सैकड़ों लोगों के भोजन पर हजारों रुपए फूंक कर झूठी वाहवाही लूट रहे हैं जबकि पिताजी कई बार 2 बजे तक एक कप चाय के भरोसे पर भूखे रहते थे. अंकिता जब दोपहर में आती तो उन के लिए फल, दवाइयां और खाना ले कर आती और उन्हें खिलाती.
रात को कई बार भैया व भाभी को अगर शादी या पार्टी में जाना होता था तो भाभी सुबह की 2 रोटियां, एक कटोरी ठंडी दाल के साथ थाली में रख कर चली जातीं. तब पिताजी या तो वही खा लेते या उसे फोन कर देते. तब वह घर से गरम खाना ला कर उन्हें खिलाती.
अंकिता सोच रही थी कि श्राद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, श्रद्धा से किया गया कर्म. लेकिन भैया जैसे कुपुत्रों और लालची पंडितों ने उस के अर्थ का अनर्थ कर डाला है.
जीतेजी पिताजी को भैया ने कभी कपड़े, शौल, स्वेटर के लिए नहीं पूछा. इस के उलट अपने खर्चों और महंगाई का रोना रो कर हर महीने उन की पैंशन हड़प लेते थे, लेकिन उन की तेरहवीं पर भैया ने खुले हाथों से पंडितों को कपड़े, बरतन आदि दान किए. अंकिता को याद है उस की शादी से पहले पिताजी के पलंग की फटी चादर और बदरंग तकिए का कवर. विवाह के बाद जब उस के हाथ में पैसा आया तो सब से पहले उस ने पिताजी के लिए चादरें और तकिए के कवर खरीदे थे.
जीवित पिता पर खर्च करने के लिए भैया के पास पैसा नहीं था, लेकिन मृत पिता के नाम पर आज समाज के सामने दिखावे के लिए अचानक ढेर सारा पैसा कहां से आ गया.
असीम ने 2 दिन बाद के अपने और अंकिता के लिए हवाई जहाज के 2 टिकट बुक करा दिए.
दूसरे दिन भैया ने कुछ कागज अंकिता के आगे रख दिए. दरअसल, पिताजी ने वह घर भैया और उस के नाम पर कर दिया था.
‘‘अब तुम तो असीम के साथ सिंगापुर जा रही हो और वैसे भी असीम का अपना खुद का भी मकान है तो…’’ भैया ने बात आधी छोड़ दी. पर अंकिता उन की मंशा समझ गई. भैया चाहते थे कि वह अपना हिस्सा अपनी इच्छा से उन के नाम कर दे ताकि भविष्य में कोई झंझट न रहे.
‘‘हां भैया, इस घर में आप के साथसाथ आधा हिस्सा मेरा भी है. इन कागजों की एक कापी मैं भी अपने पास रखूंगी ताकि मेरे पिता की यादें मेरे जीवित रहने तक बरकरार रहें,’’ कठोर स्वर में बोल कर अंकिता ने कागज भैया के हाथ से ले कर असीम को दे दिए ताकि उन की कापी करवा सकें, ‘‘और हां भाभी, मां के कंगन पिताजी ने तुम्हें दिए थे अब पिताजी की अंगूठी और चेन आप मुझे दे देना निकाल कर.’’
भैयाभाभी के मुंह लटक गए. दोपहर को असीम और अंकिता ने पिताजी का पलंग, कुरसी, टेबल और कपड़े वापस उन के कमरे में रख लिए. नया गद्दा पलंग पर डलवा दिया. पिताजी के कमरे और उस के साथ लगे अध्ययन कक्ष पर नजर डाल कर अंकिता बूआ से बोली, ‘‘मेरा और आप का मायका हमेशा यही रहेगा बूआ, क्योंकि पिताजी की यादें इसी जगह पर हैं. इस की एक चाबी आप अपने पास रखना. मैं जब भी यहां आऊंगी आप भी आ जाया करना. हम यहीं रहा करेंगे.’’
बूआ ने अंकिता और असीम को सीने से लगा लिया और तीनों पिताजी को याद कर के रो दिए.
‘‘क्या हुआ? इस तरह उठ कर क्यों चला आया?’’ कनक को अचानक ही उठ कर बाहर की ओर जाते देख कर विमलाजी हैरानपरेशान सी उस के पीछे चली आई थीं.
‘‘मैं आप के हावभाव देख कर डर गया था. मुझे लगा कि आप कहीं रिश्ते के लिए हां न कर दें इसलिए उठ कर चला आया. मैं ने वहां से हटने में ही अपनी भलाई समझी,’’ कनक ने समझाया.
‘‘हां कहने में बुराई ही क्या है? विवाह योग्य आयु है तुम्हारी. कितना समृद्ध परिवार है. हमारी तो उन से कोई बराबरी ही नहीं है. उन की बेटी स्वाति, रूप की रानी न सही पर बुरी भी नहीं है. लंबी, स्वस्थ और आकर्षक है. और क्या चाहिए तुझे?’’ विमला देवी ने अपना मत प्रकट किया था.
‘‘मां, आप की और मेरी सोच में जमीनआसमान का अंतर है. लड़की सिर्फ स्नातक है. चाह कर भी उसे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी.’’
‘‘लो, उसे भला नौकरी करने की क्या जरूरत है? रमोलाजी तो कह रही थीं कि स्वाति के मातापिता बेटी को इतना देंगे कि सात पीढि़यों तक किसी को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. ऐसे परिवार की लड़की नौकरी क्यों करेगी?’’
‘‘नौकरी करने के लिए योग्यता चाहिए, मां. मुझे तो इस में कोई बुराई भी नहीं लगती. आजकल सभी लड़कियां नौकरी करती हैं. मुझे अमीर बाप की अमीर बेटी नहीं, अपने जैसी शिक्षित, परिश्रमी और ढंग की नौकरी करने वाली पत्नी चाहिए.’’
‘‘अपना भलाबुरा समझो कनक बेटे. तुम क्या चाहते हो? तुम और तुम्हारी पत्नी नौकरी करेगी और मैं जैसे अभी सुबह 5 बजे उठ कर सारा काम करती हूं. तुम सब भाईबहनों के टिफिन पैक करती हूं, तुम्हारे विवाह के बाद भी मुझे यही सब करना पड़ा तो मेरा तो बेटा पैदा करने का सुख ही जाता रहेगा,’’ विमला ने नाराजगी जताई थी.
‘‘वही तो मैं समझा रहा हूं, मां. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है? मुझे तो लड़की वालों का व्यवहार बड़ा ही संदेहास्पद लग रहा है. जरा सोचो, मां, इतना संपन्न परिवार अपनी बेटी का विवाह मुझ जैसे साधारण बैंक अधिकारी से करने को क्यों तैयार है?’’
‘‘तुम स्वयं को साधारण समझते हो पर बैंक मैनेजर की हस्ती क्या होती है इसे वे भलीभांति जानते हैं.’’
‘‘हमारे परिवार के बारे में भी वे अच्छी तरह से जानते होंगे न मां, मेरे 2 छोटे भाई अभी पढ़ रहे हैं. दोनों छोटी बहनें विवाह योग्य हैं.’’
‘‘कहना क्या चाहते हो तुम? इन सब का भार क्या तुम्हारे कंधों पर है? तुम्हारे पापा इस शहर के जानेमाने चिकित्सक थे. तुम्हारे दादाजी भी यहां के मशहूर दंत चिकित्सक थे. इतनी बड़ी कोठी बना कर गए हैं तुम्हारे पूर्वज. बाजार के बीच में बनी दुकानों से इतना किराया आता है कि तुम कुछ न भी करो तो भी हमारा काम चल जाए.’’
‘‘मां, पापा और दादाजी थे, अब नहीं हैं. हमारी असलियत यही है कि 6 लोगों के इस परिवार का मैं अकेला कमाऊ सदस्य हूं.’’
‘‘बड़ा घमंड है अपने कमाऊ होने पर? इसलिए स्वाति के परिवार के सामने तुम ने मेरा अपमान किया. मुझ से बिना कुछ कहे ही तुम्हारे वहां से चले आने से मुझ पर क्या बीती होगी यह कभी नहीं सोचा तुम ने,’’ विमलाजी फफक उठी थीं.
‘‘मां, मैं आप को दुख नहीं पहुंचाना चाहता था पर जरा सोचो, विवाह के बाद कोई मुझे आप से छीन कर अलग कर दे तो क्या आप को अच्छा लगेगा?’’ कनक ने विमलाजी के आंसू पोंछे थे.
‘‘कनक, यह क्या कह रहा है तू?’’ वे चौंक उठी थीं.
‘‘वही, जो मैं वहां से सुन कर आ रहा हूं. आप सब हम दोनों को अकेला छोड़ कर चले गए थे. हम ने अपने भविष्य पर विस्तार से चर्चा की. मेरी और स्वाति की सोच में इतना अंतर है कि आप सोच भी नहीं सकतीं. वह यदि सातवें आसमान पर है तो मैं रसातल में.’’
‘‘ऐसा क्या कहा उस ने?’’
‘‘पूछ रही थी कि सगाई की अंगूठी कहां से खरीदोगे. हाल ही में किसी फिल्मी हीरोइन का विवाह हुआ है. कह रही थी उस की अंगूठी 3 करोड़ की थी. मैं कितने की बनवाऊंगा.’’
‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’
‘‘मैं ने हंस कर बात टाल दी कि बैंक का अफसर हूं. बैंक का मालिक नहीं और बैंक में डकैती डालने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’
कनक के छोटे भाई तनय व विनय और बहनें विभा और आभा खिलखिला कर हंस पड़े थे.
‘‘तुम लोगों को हंसी आ रही है और मेरा चिंता के कारण बुरा हाल है,’’ विमला ने सिर थाम लिया था.
‘‘छोटीछोटी बातों पर चिंता करना छोड़ दो, मां, सदा खुश रहना सीखो, दुख भरे दिन बीते रे भैया…’’ तनय ने अपने हलकेफुलके अंदाज में कहा.
‘‘चिंता तो मेरे जीवन के साथ जुड़ी है बेटे. आज तेरे पापा होते तो ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय वे ही लेते पर अब तो मुझे ही सोचसमझ कर सब कार्य करना है.’’
‘‘और क्या कहा स्वाति ने, भैया?’’ विभा ने हंसते हुए बात आगे बढ़ाई थी.
‘‘मैं बताती हूं दीदी, विवाह परिधान किस डिजाइनर से बनवाया जाएगा. गहने कहां से और कितने मूल्य के खरीदे जाएंगे. हनीमून के लिए हम कहां जाएंगे. स्विट्जरलैंड या स्वीडन,’’ आभा ने हासपरिहास को आगे बढ़ाया.
‘‘कनक भैया, सावधान हो जाओ. दीवाला निकलने वाला है तुम्हारा. यहां तो उलटी गंगा बह रही है. पहले लड़की वाले दहेज को ले कर परेशान रहते थे. यहां तो शानशौकत वाले विवाह का सारा भार तुम्हारे कंधों पर आ पड़ा है,’’ विनय भी कब पीछे रहने वाला था.
‘‘चुप रहो तुम सब. यह उपहास का विषय नहीं है. हम यहां गंभीर विषय पर विचारविमर्श कर रहे हैं. विभा और आभा तुम्हारी कल से परीक्षाएं हैं, जाओ उस की तैयारी करो. यहां समय व्यर्थ मत गंवाओ. तनय, विनय, तुम लोग भी जाओ, अपना काम करो और हमें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो,’’ विमला ने चारों को डपटा.
चारों चुपचाप उठ कर चले गए थे.
‘‘हां, अब बताओ और क्या बातें हुईं तुम दोनों के बीच. पता तो चले कि वह लड़की हमारे साथ हिलमिल पाएगी या नहीं,’’ एकांत पाते ही विमला ने पूछा था.
दरवाजे पर लगी नाम की तख्ती पर उस ने एक नजर डाली, जो अरहर की टाटी में गुजराती ताले की तरह लगी हुई थी. तख्ती पर लिखा ‘मिर्जा अख्तर’ का नाम पढ़ कर वह रुक गई. मन ही मन उन का नाम उस ने कई बार दुहराया और इमारत को गौर से देखने लगी. अंगरेजों के जमाने की बेढंगी जंग लगी पुरानी इमारत थी वह, जिस की दाईं तरफ का कुछ हिस्सा फिर से बसाया गया था और उस पर 3-4 मंजिलें चढ़ाई गई थीं. उन सब में लोग दड़बों में चूजों की तरह भरे होंगे,
यह बाहर से दिख जाता था. सैकड़ों कपड़े बाहर बरामदे में सूख रहे थे और ज्यादातर लड़कियों के ही थे. पुराने हिस्से में बहुत दिनों से शायद सफेदी नहीं हुई थी. जगहजगह कबूतरों की बीट से सफेद निशान पड़े हुए थे. कुलमिला कर ‘नूर’ को वह मकान कबूतरों का दड़बा लग रहा था. नूर कुछ देर तक तो अवाक रह गई. सोचा, सचमुच बड़े शहरों में आबादी की बढ़ती समस्या मकान ढूंढ़ने वालों के लिए महंगाई से भी भयानक बीज बन गई है. और वह भी दिल्ली में, जहां अकेला आया हुआ इनसान 4 बच्चों का बाप तो बन सकता है, मगर एक अदद मकान का मालिक नहीं. आजकल वैसे भी मुसलमानों को रहने की जगह कम ही मिल पाती है. नूर भी दिल्ली में नई ही थी. सचिवालय में नौकरी पाने के बाद मकान की समस्या उस के लिए सिरदर्द बन गई थी. कुछ दिन तो उस ने होटल में गुजारे थे, फिर साथ काम करने वाली एक लड़की के साथ एक कमरे में रहने लगी थी.
मगर तब भी रहने की समस्या उसे परेशान किए रहती थी. गांव में बूढ़े मांबाप थे. वह उन की एकलौती संतान थी. उन को किस के सहारे छोड़ें और जब तक मकान नहीं मिलता, वह उन्हें कैसे ले आए? मकान के लिए नूर ने कई लोगों से कह रखा था. उसे खबर मिली थी कि पुराने सराय महल्ले में मिर्जा अख्तर के मकान में 2 कमरों का फ्लैट खाली है. नूर मन ही मन सोचने लगी, ‘इस दड़बे में फ्लैट नाम की चीज कहां हो सकती है?’ फिर उस ने सारे खयालों को एक तरफ किया और आगे बढ़ कर दरवाजा खटखटा दिया. भारीभरकम दरवाजे के बगल में जंगले के समान कोई चीज थी. उसी में से कोई झांका था और एक खनकती आवाज उभरी थी, ‘‘कौन है?’’ ‘‘जी, जरा सुन लीजिए… कुछ काम है,’’ नूर ने अपनी आवाज में और मिठास घोलते हुए कहा, ‘‘वह मकान देखना था किराए के लिए. नूर नाम है मेरा.’’ उधर अंदर कमरे में जैसे हंगामा मच गया था.
पहले फुसफुसाहटें और फिर तेजतेज आवाजें. खबर देने वाले ने बताया था कि मेन मकान में 2 ही जने हैं, मिर्जा अख्तर और उन की बेगम. दोनों ही कब्र में पैर लटकाए बैठे हैं. एक ही बेटा है, जो मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री में शायरों के लातजूते खा रहा है. फिर यह ठंडी आह…? तो क्या अख्तर साहब अब भी आहें भरते हैं? नूर कुछ ज्यादा सोच न सकी थी कि माथा भट्ठी की तरह सुलग उठा. उधर अंदर से आवाजें अब भी बराबर उभर रही थीं. ‘‘अरे, मैं कहती हूं कि दरवाजा खोलते क्यों नहीं?’’ फिर किसी के पैर पटकने की आवाज उभरी थी. धीरेधीरे फुसफुसाहटें शांत हो गई थीं और फिर आहिस्ता से दरवाजा खुला था. ‘‘हाय, मैं यह क्या देख रहा हूं? यह सपना है या सचाई, समझ में नहीं आता,’’ मिर्जाजी गुनगुनाए थे, ‘‘हम बियाबान में हैं और घर में बहार आई?है. अजी, मैं ने कहा, आदाब अर्ज है.
आइए, तशरीफ लाइए.’’ मिर्जा अख्तर को देख कर नूर बहुत मुश्किल से अपनी हंसी रोक सकी थी. सूखा छुहारा सा पिचका हुआ चेहरा, गहरी घाटियों की तरह धंसी आंखों में काले अंधेरों की तरह रची सुरमे की लंबी लकीर. जल्दबाजी में शायद पाजामा भी उन्होंने उलटा पहन लिया था. बाहर लटकते नाड़े पर उस की नजर ठिठक गई थी. मिर्जा ने कुछ पल नूर की नजरों को अपने चेहरे पर पढ़ते देखा था और नजरों के साथ ही उन की भी नजर अपने लटकते नाड़े पर पड़ी थी, ‘‘ओह… मोहतरमा, आप ठहरिए एक मिनट. हम अभी आ रहे हैं,’’ कह कर मिर्जा साहब पलट कर फिर अंदर चले गए थे. नूर ठगी सी उन की तरफ देखती रह गई थी. बाप रे, यह उम्र और ये जलवे. तभी फिर दरवाजे में एक काया नजर आई थी. भारीभरकम फूली रोटी की तरह शरीर.
कुछ बाहर की तरफ निकल कर चुगली खाते हुए दांत और पान की लाली से रचे कालेकाले होंठ. सबकुछ कुदरत की कलाकारी की याद ताजा कर रहा था. ‘‘आइए, अंदर बैठिए, मिर्जा साहब अभी आते हैं,’’ वही खनकती हुई आवाज सुन कर नूर के मन की सारी घबराहट गायब हो गई. उस ने अंदर कदम रखा. ‘बैठिए,’ अपनी काया को रोता पुराना सोफा मानो उसे पुकार रहा था. नूर आहिस्ता से सोफे पर बैठ गई, मानो उसे डर था कि कहीं तेजी से बैठने पर सोफा उसे ले कर जमीन में न धंस जाए. उसे सोफे पर बिठा कर बेगम फिर अंदर कमरे में चली गई थीं. उस ने कमरे को गौर से देखना शुरू किया. पुराने नवाबों के दीवानखाने की तरह एक तरफ रखा हुआ तख्त, जिस में पायों के बदले ईंटें रखी हुई थीं.
तख्त के ऊपर बाबा आदम के जमाने की बिछी चादर. सामने ही खुली हुई अलमारी थी, जिस में कबाड़ की तरह तमाम चीजें ठुंसी हुई थीं. कुछ भारीभरकम किताबें, कुछ अखबार के टुकड़े… आदि. तभी मिर्जा साहब फिर अंदर दाखिल हुए, ‘‘हेहेहे… जी, मुझ नाचीज को मिर्जा गुलफाम कहते हैं और मोहतरमा आप की तारीफ?’’ ‘‘जी, मुझे नूर कहते हैं. मैं यहीं सचिवालय में नौकरी करती हूं.’’ मगर मिर्जा साहब ने तो आखिरी बात मानो सुनी ही नहीं थी, ‘‘नूर, वाह क्या प्यारा नाम है. जैसा रूप वैसा नाम,’’ और उन्होंने डायरी उठा कर नूर का नाम लिख लिया. ‘‘जी देखिए, मैं… मैं ने सुना है कि आप के यहां कोई फ्लैट खाली है.’’ ‘‘अजी, फ्लैट को मारिए बम, यहां तो पूरा दिल ही खाली है… पूरा घर ही खाली है,’’ मिर्जा गुलफाम ने सीने पर हाथ मारा, ‘‘कहिए, कहां रहना पसंद करेंगी?’’
‘‘उफ,’’ नूर के माथे पर पसीना छलछला आया था, ‘‘जी, रहना तो फ्लैट में ही है. अगर आप मेहरबानी कर दें, तो मैं एहसानमंद रहूंगी.’’ ‘‘छोडि़ए भी मोहतरमा, एहसान की क्या बात है. अरे, वे जमाने गए, जब हम एहसान करते थे. अब तो हम खुद ही एहसान की ख्वाहिश करते हैं. सच कहता हूं… अगर आप की नजरे नूर मिल जाए, तो हम कयामत तक सबकुछ खाली रखेंगे. बस, आप को पसंद आ जाए तो…’’ नूर को पसीना आने लगा था. उस ने माथे को टटोला. माथा जैसे चक्कर खा रहा था, ‘‘जी, अगर आप वह फ्लैट दिखा सकें, तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं, क्यों नहीं. आइए, चलिए अभी दिखाता हूं,’’ कहते हुए मिर्जा साहब उठ खड़े हुए थे. फ्लैट को देख कर नूर को बहुत निराशा हुई थी. ढहने की कगार पर पहुंचे 2 कमरे बस… नूर की इच्छा हुई थी कि लौट जाए, फिर अपनी परेशानी का खयाल आया था और उस ने हां में सिर हिला दिया था. ‘‘तो क्या मैं समझूं कि मोहतरमा ने हमारे सूने घर को आबाद करने का फैसला कर लिया है?’’ ‘‘जी देखिए, ऐसा है कि आप किराया बता दीजिए.
फिर मैं कुछ कह सकूंगी.’’ ‘‘हाय,’’ मिर्जा इस तरह तड़पे थे मानो नूर ने सीने में खंजर उतार दिया हो, ‘‘देखिए मोहतरमा, ये सब बातें यों सीधे मत कहा कीजिए. उफ, देखिए तो कितना बड़ा घाव हो गया,’’ उन्होंने फिर सीने पर हाथ मारा. ‘‘मगर, मैं ने तो किराए की बात की थी,’’ नूर बौखला उठी. ‘‘बस यही बात तो हमारे दिल को भाले की तरह छेद गई… अजी साहब, आप की इनायत चाहिए, किराए की बात अपनेआप तय हो जाएगी.’’ नूर लाख सिर पटकने पर भी मिर्जा साहब को समझ नहीं पाई थी. किसी तरह सबकुछ तय कर के वह बाहर निकल आई. बाहर निकल कर उस ने लंबीलंबी सांसें खींचीं, फिर अपनी मजबूरी को कोसा कि वक्त ने उसे कहां ला पटका.
धीरेधीरे मन का बोझ उतरता जा रहा था. उसे मकान मिल गया था. मिर्जा अख्तर उन गुमनाम शायरों में थे, जो खुद को ही जानते हैं और खुद में ही खो कर रह जाते हैं. क्या पता, वे किस खानदान के थे, मगर अपना संबंध वह नवाब वाजिद अली शाह के घराने से ही जोड़ते थे. रंगीनमिजाजी मानो उन की नसनस में घुली थी. मगर जिंदगी के हर मोरचे पर उन्होंने थपेड़े ही खाए थे. वे इश्क की चोटी पर चढ़ने वाले उन बहादुरों की तरह थे, जो अपने हाथपैर तुड़वा कर शान से कहते हैं, ‘अजी, गिर गए तो क्या हुआ. गिरे भी तो इश्क की खातिर.’ उन का बेटा भी उन से परेशान हो कर मुंबई चला गया था और हवेलीनुमा मकान के एक हिस्से में उन्होंने अनऔथराइज्ड तीन मंजिलों में कमरे डलवा दिए थे, जिस के किराए से उन का खानापीना हो जाता था. मिर्जा साहब के पास पुराना वाला हिस्सा रह गया था. जब से नूर घर में रहने आई थी,
मिर्जा साहब का मानो काया ही पलट हो गया था. अब तो वे जागती आंखों से भी नूर का सपना देखने लगे थे. उधर नूर उस फ्लैटनुमा दड़बे में रहने तो आ गई थी, मगर उस का जीना मुश्किल हो गया था. आतेजाते हर समय उसे मिर्जा साहब की जबान से निकले तीर का सामना करना पड़ता था. ‘‘अहा, यह हुस्न की बिजली आज कहां गिरेगी हुजूर?’’ मिर्जा साहब अकसर ऐसी बातें कहते हुए अपनी नकली बत्तीसी दिखाने लगते थे. नूर जलभुन कर राख हो जाती, ‘‘संभल के रहिएगा मिर्जा साहब, कहीं आप के ऊपर ही न गिर जाए.’’ मिर्जा साहब की मुसकराहट नूर को जला कर राख कर देती थी. पूरे दिन उस का मन उखड़ाउखड़ा सा रहता था. मगर वह करती भी क्या? कोई दूसरा चारा भी तो नहीं था उस के सामने. उस दिन भी उसी जानेपहचाने अंदाज में गले तक की अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए मिर्जा साहब नूर के सामने आ गए. नूर ने गुलाबी कुरती और चूड़ीदार पाजामा पहन रखा था.
मिर्जा साहब ने उसे ऊपर से नीचे तक घूरती नजरों से देखा. उन के चेहरे पर जमानेभर की मासूमियत उभर आई थी. ‘‘मिर्जा साहब, आदाब,’’ कह कर नूर आगे बढ़ने को हुई थी कि मिर्जा साहब सामने आ गए. ‘‘किया है कत्ल जो मेरा तो थोड़ी देर तो ठहरो, तड़पना देख लो दिल का लहू बहता है बहने दो,’’ चहकते हुए मिर्जा साहब ने यह शेर सुनाया. ‘‘उफ मिर्जा साहब, दफ्तर जाने में देर हो जाएगी. फिलहाल तो मुझे जाने दें और फिर दिनभर शायरी की टांग तोड़ते रहिएगा,’’ नूर झल्ला कर बोली. ‘‘उफ… फूलों से बदन इन के कांटे हैं जबानों में. अरे मोहतरमा, अगर प्यार से दो बोल हमारी तरफ भी उछाल दोगी तो क्या कयामत आ जाएगी?’’ ‘‘आप तो मजाक करते हैं मिर्जा साहब.
कहां मैं और कहां आप…?’’ नूर ने कहा. ‘‘बसबस, यही मैं और आप की दीवार ही तो मैं गिराना चाहता हूं… काश, तुम्हें दिखा सकता कि मेरा दिल तुम्हें देख कर कबूतर की मानिंद फड़फड़ाता है और तुम हो कि बिल्ली की नजरों से हमें देखती हो,’’ मिर्जा साहब की आवाज में जमाने भर का दर्द उभर आया था. नूर का दिमाग चक्कर खा रहा था. क्या करे वह? किस तरह से मिर्जा गुलफाम के इश्क का बुखार उतारे. लाख सिर पटका, मगर कोई रास्ता नजर न आया. मिर्जा साहब की हरकतें रोज ही बढ़ती जा रही थीं. नूर के अम्मीअब्बा ने फैसला किया था कि ईद के बाद ही आएंगे और ईद में पूरा महीना है. महीनेभर में तो वह पागल हो जाएगी. घंटों बैठ कर वह सिर खपाती रही.
आखिर में एक उपाय उस के दिमाग में कौंध गया. ‘‘अजी, मैं ने कहा, कि मिर्जा साहब आदाब अर्ज,’’ सुबहसुबह ही रोज की तरह मिर्जा साहब को अपने सामने पा कर नूर ने कहा. ‘‘हाय, क्या अदा है… हुजूर… आप ने तो जान ही निकाल ली. अरे, मैं ने कहा, सुबहसुबह यह सूरज पूरब में कैसे निकल गया?’’ ‘‘सूरज तो रोज ही पूरब में निकलता है गुलफाम साहब, बस देखने वाली नजरें होनी चाहिए,’’ नूर ने अपनी आवाज में और मिठास घोलते हुए कहा. ‘‘गुलफाम? हाय मोहतरमा, तुम ने मुझे गुलफाम कहा. हाय मेरी नूरे नजर, मेरे दिल की जलती हुई मोमबत्ती, मेरी नजरों की लालटेन, मेरा दिल तो जैसे तपता हुआ तवा हो गया…’’ मिर्जा साहब पिघल कर रसमलाई हो गए थे.
‘‘कभी हमारे गरीबखाने में भी आया कीजिए न. देखिए न दफ्तर से आने के बाद कमरे में अकेले ऊब जाती हूं. जरा सा यह भी नहीं सोचते कि इस भरी दुनिया में कोई इस कदर मेरी तरह तनहा भी है.’’ ‘‘क्या बात है? हाय, हम तो मर गए हुजूर की सादगी पर, कत्ल करते हैं और हाथ में झाड़ू भी नहीं, अरे मोहतरमा, तुम कहती हो, तो हम आज से वहीं अपना टूटा तख्त बिछाएंगे.’’ ‘‘नहींनहीं, उस की जरूरत नहीं. बस कुछ पलों के लिए बांदी को भी तनहाई दूर करने का मौका दे दिया कीजिए,’’ नूर जल्दी से बोली. ‘‘आज शाम को. मगर देखिए, बेगम साहिबा को पता न चले. जरा संभल कर.’’ ‘‘छोडि़ए भी हुजूर, बेगम साहिबा को दूध में नींद की गोली दे दूंगा. आप कहिए तो गला ही दबा दूं.’’ ‘‘तोबातोबा, आप भी कैसी बातें करते हैं गुलफाम साहब, फिर फांसी पर चढ़ना होगा.
न बाबा, न. बस, आप रात में बेगम साहिबा के सोने पर जरा तशरीफ लाइए. कुछ गुफ्तगू करनी है. अच्छा, मैं चलूं,’’ कह कर नूर तो चली गई और बेचारे मिर्जा साहब सारे दिन खयालीपुलाव पकाते रहे. शाम होते ही मिर्जा साहब के शरीर में मानो नई फुरती उतर आई थी. आईना ले कर वह घंटों अपने मुखड़े को हर तरफ से निहारते रहे थे. ‘‘अरे बेगम, मैं ने कहा, अरी ओ मेरी इलायची,’’ मिर्जा साहब तेज आवाज में चिल्लाए. ‘‘आती हूं, तुम तो हरदम बेसुरे तबले की तरह बजा करते हो. क्या बात है?’’ बेगम पास आ कर झल्लाईं. ‘‘भई, तुम्हारी तो गुस्से में ही नाक रहती है. सुनो, जरा मेरा शेविंग बौक्स तो दे दो.’’ ‘‘हाय, तो क्या अब आप दाढ़ी भी बनाएंगे,’’ बेगम ने नजाकत से पूछा. ‘‘उफ बेगम, तुम भी मजाक करती हो. हम दाढ़ी नहीं बनाएंगे? भला क्यों? अरे, अभी तो हम ने अपनी जवानी का दीदार भी नहीं किया. देखो बेगम, मजाक मत करो. जाओ, जल्दी से शेविंग बौक्स ला दो.’’
बेगम पैर पटकते हुए गईं और शेविंग बौक्स ला कर मिर्जा साहब को थमा दिया. आईने को सामने रख कर बहुत जतन से मिर्जा साहब ने ब्लेड निकाला. पुराना जंग खाया ब्लेड. बहुत दिनों से दाढ़ी बनाने की जरूरत नहीं पड़ी थी, ब्लेड में भी जंग लग गया था. उन्होंने दाढ़ी बनानी शुरू की. कई जगह गाल कट भी गया, मगर उन के जोश में कोई कमी न आई. खून भी बहे तो क्या हुआ? दाढ़ी बनाने के बाद गुनगुनाते हुए वे उठे ही थे कि बेगम फिर सिर पर सवार हो गईं, ‘‘तुम तो सोतेजागते नूर का ही सपना देखते रहते हो. कुछ तो शर्म करो. वह तुम्हारी बेटी की तरह है.’’ ‘‘क्या बात कही है? अरी बेगम साहिबा, तुम कहती हो बेटी की तरह है और मैं कहता हूं… छोड़ो… सुनो, हम जरा कनाट प्लेस तक जा रहे हैं.’’
‘‘कनाट प्लेस?’’ बेगम चौंकीं. ‘‘हां, और देर रात गए आएंगे. हमारा इंतजार मत करना. खाना खा कर सो जाना,’’ उन्होंने शेरवानी और चूड़ीदार पाजामा पहना था और छड़ी घुमाते हुए बाहर निकल गए थे. उन के मन में तब भी नूर का चेहरा घूम रहा था. ‘‘मिर्जा साहब दिनभर यों ही इधरउधर घूमते रहे. रात में जब 9 बज गए, तब वे अपनी हवेली के अंदर दाखिल हुए. पता चला कि बेगम अभी भी जाग रही हैं. मिर्जा साहब ने माथा ठोंक लिया, ‘‘उफ बेगम, तुम भी हद करती हो. अरे, इंतजार की क्या जरूरत थी, खा कर सो गई होतीं.’’ बेगम नई दुलहन की तरह शरमाईं, ‘‘हाय, कैसी बात करते हो जी. बिना तुम्हारे खाए हम ने कभी खाया भी?है.’’ मिर्जा साहब ने मन ही मन बेगम को हजारों गालियां दीं. वे बोल थे, ‘‘सुनो, मुझे भूख नहीं है. एक गिलास दूध ला दो तो वही पी लेंगे.’’ ‘‘ठीक है, वही मैं भी पी लूंगी. खाने का मेरा बिलकुल भी मन नहीं है,’’ बेगम ने कहा और दूध लेने चली गईं.
मिर्जा साहब मन ही मन बड़े खुश हुए, सारा काम अपनेआप बनता जा रहा था. उन्होंने जेब से नींद की गोली की शीशी निकाली, जो कनाट प्लेस से उन्होंने खरीदी थी. तभी बेगम दूध का गिलास ले कर आ गईं. ‘‘अरे बेगम, दूध में शक्कर तो है ही नहीं. क्या डालना भूल गई?’’ उन्होंने दूध का गिलास होंठों से लगाते हुए कहा. ‘‘अभी लाती हूं,’’ कह कर बेगम बाहर चली गईं. उन्होंने इधरउधर देखा और जल्दी से सारी गोलियां बेगम के गिलास में उड़ेल कर उन्हें मिला दिया. बेगम ने लौट कर उन के गिलास में शक्कर डाली ही थी, तभी बिजली चली गई. ‘‘उफ, यह क्या हुआ,’’ बेगम झल्लाईं, मगर मिर्जा साहब की तो बांछें खिल गईं. अंधेरे की ही तो उन्हें जरूरत थी. अंधेरे में ही दूध का गिलास दोनों ने खाली किया था और फिर बेगम लेट गईं. मिर्जा साहब कुछ पल चोर नजरों से देखते रहे और फिर पुकारा,
‘‘बेगम, अरी ओ बेगम.’’ मगर, बेगम तो नींद की दुनिया में खो गई थीं. मिर्जा साहब आहिस्ता से उठे और बाहर निकल गए. वे कुछ पल तक बाहर वाली बैठक में बैठ कर इंतजार करते रहे थे कि कहीं बेगम बाहर न आ जाएं. मगर, बेगम तो नींद की दुनिया में खो गई थीं. इसी तरह जब आधा घंटा गुजर गया, तब वे आहिस्ता से उठे और नूर के कमरे का दरवाजा खटखटाया. होंठों ही होंठों में वह गुनगनाए, ‘जरा मन की किवडि़या खोल कि सइयां तेरे द्वारे खड़े.’ मगर दरवाजा न खुला. ‘‘नूर, अरे ओ प्यारी नूर,’’ मिर्जा साहब ने धीमी आवाज में पुकारा, मगर तब भी कोई आवाज न आई. मिर्जा साहब का दिल धड़क उठा, ‘‘उफ प्यारी नूर… जरा दिल का रोशनदान खोल कर देखो, बाहर तुम्हारी नजरों का दावेदार, तुम्हारे दिल का तलबगार खड़ा तुम्हें आवाज दे रहा है…’’ दरवाजा तब भी नहीं खुला था. मिर्जा साहब का मन मानो कांप उठा था, ‘‘हाय, क्या हो गया तुम्हें मेरी छप्पन छुरी? मेरे दिल की कटोरी, अरे, बाहर तो आओ. तुम्हारा गुलफाम तुम्हें पुकार रहा है,’’ मिर्जा साहब की आंखें बेबसी पर छलक आई थीं. ‘‘हाय, कमबख्त दिल तड़प रहा है.
जरा इस पर तो नजर डाल लो. देखो तो तुम्हारे लिए खास कनाट प्लेस से हम बर्गर लाए हैं. दोनों मिल कर खाएंगे और नजरों से बतियाएंगे. दरवाजा खोलो न,’’ मिर्जा साहब तड़प कर पुकार रहे थे. तभी धीरे से दरवाजा खुला और नूर की मीठी आवाज उभरी, ‘‘हाय, आप आ गए? उफ, कमबख्त आंखें लग गई थीं. आइए, अंदर आ जाइए.’’ अंदर गहरा अंधेरा था. मगर मिर्जा साहब के दिल में तो मानो हजारों वाट की लालटेन जल उठी थी, ‘‘हाय नूर, कहां हो तुम? अरे जालिम, अब तो सामने आओ. देखो तो नामुराद दिल तुम्हारे दीदार के लिए केकड़े के माफिक बारबार गरदन निकाल रहा है. कहां हो तुम?’’ मिर्जा साहब ने हाथ बढ़ा कर टटोला था. ‘‘मगर, बेगम साहिबा…?’’
नूर की आवाज फिर उभरी. ‘‘अरे, उस कमबख्त की बात मत करो. उसे तो नींद की गोली खिला कर आए हैं. अब तो बस, हम और तुम… हाय, क्या प्यारा मौसम है. प्यारी नूर, कहां हो तुम?’’ और तभी मौसम से अचानक ही बिजलियां टूट पड़ीं. उन के सिर पर किसी चीज का जोरदार धमाका हुआ था. और फिर धमाके होते चले गए थे. सिर, हाथ, पैर, सीना और कमर कोई भी तो जगह बाकी नहीं थी, जहां धमाका न हुआ हो. ऐन वक्त पर कमबख्त बिजली भी आ गई थी. मिर्जा साहब का सारा जोश ठंडा पड़ गया था. सामने भारीभरकम काया वाली बेगम साहिबा हाथ में झाड़ू लिए खड़ी थीं. ‘‘बेगम साहिबा तुम…?’’ मुंह से भरभराती आवाज निकली थी मिर्जा के… ‘‘हां, मैं…,’’
और बेगम साहिबा के मुंह से गालियों का तूफान टूट पड़ा था. हाथ में जैसे बिजली भर गई थी और झाड़ू फिर मिर्जा साहब के सूखे जिस्म पर टूट पड़ी थी. मिर्जा साहब की नजरों के आगे जैसे अंधेरा सा छा गया था और वे धड़ाम से गिर कर बेहोश हो गए. फिर उन्हें पता नहीं चला कि क्या हुआ? जाने कब वह अपने कमरे में पहुंचे थे, उन्हें कुछ भी याद नहीं था. बस, उन्हें इतना ही याद था कि होश आने के बाद गुलफाम बनने का नशा सिर से उतर गया था. पहलीपहली बार इश्क का पहाड़ा पढ़ने चले थे और जो ठोकर मिली थी, उस ने उन्हें गुलफाम से फिर अख्तर बना दिया था. उधर नूर बराबर वाले हिस्से में मिर्जा साहब के बेटे से चोंचें लड़ा रही थी. उस ने कई दिन पहले उन के बेटे को मुंबई से बुला लिया था और सारी बात बताई थी. बेटे को नूर की हिम्मत पर बहुत नाज हो गया और उस ने शादी की इच्छा जाहिर कर दी थी. अब नूर और मिर्जा साहब का बेटा बगल वाले हिस्से में एक खाली रह गए फ्लैट में रहेंगे. और नूर के मातापिता…? वे मिर्जा और मिर्जाइन के हिस्से में परमानैंट मेहमान बने रहेंगे. यह सब जान कर मिर्जा साहब का दिल कितना घायल हुआ, न पूछें.