पहचान: लता और मंगेश को करीब देख गुजरिया ने क्या किया?

चिलचिलाती धूप में रिकशा एक झांके के साथ एक खूबसूरत मकान के सामने ठहर गया. लता रिकशे से उतर कर मकान के अंदर जाने लगी कि तभी रिकशे वाले ने पुकारा, ‘‘मेम साहब, आप ने अभी मेरे पैसे नहीं दिए.’’

लता ने पलट कर देखा और झोंपती सी बोली, ‘‘ओह सौरी, मैं जल्दी में थी,’’ और पर्स से कुछ पैसे निकाल कर रिकशे वाले को दिए.

रिकशे वाला उसे देखते हुए बोला, ‘‘मेम साहब, गरमी बहुत है. थोड़ा पानी मिल जाता तो…’’ लता ने कहा, ‘‘हांहां, क्यों नहीं. अंदर आ जाओ.’’

वह रिकशे से उतर गया. लता आगेआगे और रिकशे वाला पीछेपीछे घर के भीतर चला गया. वह फ्रिज से पानी निकालने लगी.

रिकशे वाला बड़े ध्यान से घर देखता हुआ बोला, ‘‘मेम साहब, बड़ा सुंदर घर है आप का.’’

लता ने उसे पानी की एक बोतल पकड़ाई और गिलास थमाते हुए बोली, ‘‘यह लो और पानी लो.’’

रिकशे वाला पानी पी रहा था. लता उसे एकटक देख रही थी. वह तकरीबन 30-35 साल के आसपास का होगा. लंबीचौड़ी कदकाठी, चेहरे पर हलकी मूंछें और सिर पर घने बाल.

रिकशे वाले ने पानी पी कर लता को बोतल वापस की, तो लता बोली, ‘‘आओ, मैं तुम्हें अपना पूरा घर दिखाती हूं.’’

रिकशे वाला ‘जी’ कहते हुए लता के पीछेपीछे हो लिया.

‘‘यह देखो रसोईघर है.’’

रिकशे वाले ने कहा, ‘‘वाह…’’

लता बोली, ‘‘और यह बाथरूम.’’

इस के बाद लता ने शावर खोल कर दिखाया, तो वह मुसकरा उठा. शावर की बौछार से थोड़ा बदन लता का और थोड़ा बदन रिकशे वाले का भीग गया. वह सिहर कर पीछे हट गया.

लता ने अजीब नजरों से उसे देखा. कुछ पल के लिए वे दोनों ठिठक से गए, फिर लता ने खामोशी तोड़ी, ‘‘आओ, अब उधर चलें…’’ और वह उसे एक खूबसूरत हाल की ओर ले गई.

रिकशे वाला बड़े ध्यान से सब देख रहा था कि अचानक उस की नजर एक तसवीर पर टिक कर रह गई.

लता ने उस की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

रिकशे वाले ने कहा, ‘‘आप का यह फोटो बड़ा वो है.’’

लता ने पूछा, ‘‘वो मतलब…?’’

वह थोड़ा शरमाते हुए बोला, ‘‘जिसे कहते हैं सक्सी.’’

लता ठहाका मार कर हंस पड़ी, फिर बोली, ‘‘सक्सी नहीं… सैक्सी.’’

रिकशे वाले ने कहा, ‘‘हां, वही बात मैडम. हम ज्यादा पढ़ेलिखे तो हैं नहीं.’’

तभी लता ने आंखों में खुमारी लाते हुए पूछा, ‘‘वैसे, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘जी, मंगेश.’’

‘‘तो मंगेश, मैं सिर्फ फोटो में ही सैक्सी लगती हूं… ऐसे नहीं?’’ कहते हुए लता ने उस की बांहें थाम लीं.

मंगेश एकदम से हकलाने लगा,

‘‘म… मैडम…’’

‘‘बोलो मंगेश… क्या मैं ऐसे सैक्सी नहीं लगती?’’ कहते हुए लता ने अपनी साड़ी का आंचल नीचे गिरा दिया और उसे बिस्तर पर धकेल दिया.

मंगेश संभलते हुए बोला, ‘‘मेम साहब, मेरी सवारियां आती होंगी. मुझे जाने दीजिए अब.’’

लता ने रिकशे वाले के करीब बैठ कर अपनी बांहें उस की कमर के इर्दगिर्द कर लीं और बोली, ‘‘कितनी सवारियां आएंगी दिनभर में? कितना पैसा कमा लोगे तुम?’’

मंगेश बोला, ‘‘यही कोई 8 से 10 सवारियां. पूरे दिन में तकरीबन 500 रुपए कमा लूंगा.’’

‘‘मैं तुम्हें 1,000 रुपए दूंगी. तुम कहीं मत जाओ. आज तुम देखो कि मैं सैक्सी दिखती ही नहीं… सैक्सी हूं भी,’’ इतना कह कर लता ने मंगेश का हाथ मजबूती से पकड़ लिया.

मंगेश सहमा सा हाथ छुड़ाते हुए बोला, ‘‘नहीं मेम साहब…’’

लता दांत पीसते हुए बोली, ‘‘जैसा कह रही हूं वैसा करो, वरना अभी पुलिस बुलाती हूं कि तुम ने पानी पीने के बहाने घर में घुस कर मेरे साथ छेड़छाड़ की है.’’

यह सुन कर मंगेश सहम गया. लता ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया और बैडरूम का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया.

आधा घंटे बाद मंगेश थकाथका सा बाहर निकला. उस की मुट्ठी में 1,000 रुपए थे. रास्ता सुनसान था. जेठ की गरमी के चलते लोग अपनेअपने घरों में दुबके पड़े थे. कुछ दूरी पर एक परचून की दुकान थी. उस पर भी जो लड़का बैठा था, वह अधसोया सा था.

मंगेश ने एक बार चोर निगाहों से हर तरफ देखा, फिर रिकशे पर बैठ कर वहां से निकल गया.

आते वक्त लता ने उस से कहा था, ‘तुम रोज यहीं आ जाया करो. तुम्हें दिनभर की कमाई भी मिल जाएगी और धूप में यहांवहां थकना भी नहीं पड़ेगा.’

अगले दिन मंगेश संकोच में कहीं बाहर नहीं गया. उस के दिमाग में पिछले दिन की सारी बातें चल रही थीं. एकएक सीन याद आ रहा था, जबकि पत्नी गुजरिया कई बार कह चुकी थी, ‘‘काम पर नहीं जाना हैं क्या? राशन भी खत्म हो गया है.’’

मंगेश अलसाते हुए बोला, ‘‘सब हो जाएगा, तुम चिंता न कर…’’ और फिर आंखें बंद कर के कुछ सोचने लगा.

अगले दिन मंगेश कुछ सहमा सा लता के पास गया. वह उसे देख कर खुश हो गई और बोली, ‘‘अरे, कहां चले गए थे? तुम कल क्यों नहीं आए? बैठो, मैं तुम्हें कुछ दिखाती हूं,’’ कहते हुए वह कमरे की तरफ जाने लगी.

मंगेश बैठने लगा कि तभी लता रुक कर बोली, ‘‘सुनो, तुम भी इधर ही चले आओ.’’

यह सुन कर मंगेश कांप गया. वह ठिठकते हुए उठा और लता के पीछेपीछे चला गया.

लता ने एक कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘बैठो.’’

मंगेश बैठ गया. इतने में लता ने अलमारी खोली. उस में से 2 पैकेट निकाले और उस की तरफ बढ़ा दिए.

मंगेश ने पैकेट ले लिए और उन्हें खोलने लगा, फिर हैरत से बोला, ‘‘अरे मेम साहब, इतने कीमती कपड़े…’’

लता बोली, ‘‘अरे कीमती क्या, बस ऐसे ही हैं…’’ फिर उस से कपड़े ले कर वह समेटते हुए बोली, ‘‘अब घर ले जा कर देखना अच्छी तरह से. चलो, अब कुछ काम कर लें…’’

इतना सुनते ही मंगेश का चेहरा उतर गया, मगर वह मजबूर सा बैठा रहा. लता ने आगे बढ़ कर दरवाजा बंद कर दिया.

अब यह रोज का काम हो गया था. मंगेश की रोजाना 1,000 रुपए की आमदनी हो जाती थी.

एक दिन मंगेश ने लता से पूछा, ‘‘मेम साहब, आप का परिवार और बच्चे कहां हैं?’’

लता ने एकदम सपाट सा जवाब दिया, ‘‘बच्चे नहीं हैं. पति सारा दिन औफिस में रहते हैं और शाम को वापस आते हैं. तुम ने क्यों पूछा वैसे?’’

मंगेश बोला, ‘‘बस, ऐसे ही.’’

लता ने कहा, ‘‘मेरा पति सिर्फ पैसे कमाने के लायक है… सुना तुम ने… औरत के लायक नहीं…’’

मंगेश ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, ‘‘आह… वे आप जैसी खूबसूरत पत्नी को भोग भी नहीं पा रहे हैं…’’ लता चुप रही.

गुजरिया कई दिनों से देख रही थी कि मंगेश सिर्फ 2-3 घंटे के लिए बाहर जाता है और अच्छाखासा पैसा कमा लाता है. वह कहीं कोई नंबर दो का काम तो नहीं करने लगा?

गुजरिया ने एक दिन पूछा, ‘‘मुनिया के बापू, तुम 2-4 घंटे में इतना पैसा कैसे कमा लाते हो… एकसाथ इतनी दिहाड़ी कैसे मिल जाती है?’’

मंगेश हंस कर पीढ़े पर बैठते हुए बोला, ‘‘सब तुम लोगों के भाग्य से आता है, इतना समझ लो.’’

गुजरिया ने आंखें तरेर कर उसे देखा, मगर बोली कुछ नहीं. यह बात उसे हजम नहीं हुई.

दूसरे दिन जब अपना रिकशा ले कर मंगेश घर से चला, तो गुजरिया भी दूसरे रिकशे वाले को बोल कर उस के पीछेपीछे चल दी. कई चौराहे और गलियां पार करते हुए आखिरकार मंगेश का रिकशा एक मकान के सामने ठहरा.

गुजरिया ने भी अपना रिकशा काफी दूरी पर रुकवा लिया, उसे पैसे दिए और वहीं खड़ी हो गई दीवार की ओट में.

गुजरिया ने देखा कि मकान का गेट खुला है और उस का पति अंदर दाखिल हो गया है. परचून की दुकान खुली थी. लड़का बैठा इधरउधर देख रहा था कि तभी गुजरिया वहां पहुंची और बोली, ‘‘भैया, यह घर किस का है?’’

दुकान वाला बोला, ‘‘रमेश बाबू का है. वे टैलीफोन दफ्तर में जेई हैं. वे बेचारे औफिस में खटते हैं और उन की बीवी यहां मजे करती है.’’

गुजरिया ने पूछा, ‘‘मतलब…?’’

दुकान वाला बोला, ‘‘दिख नहीं रहा सामने रिकशा. रिकशे वाले के हाथ मोती लग गया है. हम लोग तो वहां फटक भी नहीं पाते…’’

गुजरिया फौरन वापस हो ली और रिकशा कर के टैलीफोन दफ्तर पहुंची. वहां रमेश बाबू का केबिन पता किया और जल्दी से वहां पहुंची.

गुजरिया ने अंदर आने की इजाजत मांगी, तो रमेश बाबू ने शीशे से बाहर देखा और हुड़क दिया, ‘‘जाओ, अपना काम करो. ये भिखमंगे यहां भी पीछा नहीं छोड़ते.’’

लेकिन, गुजरिया दरवाजे पर ‘खटखट’ करती रही. आखिरकार वे झल्ला कर अपनी कुरसी से उठे और झटके से दरवाजा खोला.

गुजरिया ने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया, लेकिन उन्होंने उसे नजरअंदाज कर आवाज लगाई, ‘‘चौकीदार, ये किसकिस को आने देते हो यहां… ये भिखमंगों का अड्डा नहीं है, समझे…’’

चौकीदार गुजरिया की बांहें पकड़े खींच रहा था, तभी वह उस का हाथ झटकते हुए रमेश बाबू की ओर चिल्लाई, ‘‘बाबूजी, हमारे कपड़े गंदे हैं, लेकिन मन नहीं गंदा है…

‘‘जा कर अपने घर की गंदगी देखो एक बार. तुम को अपनी गंदगी का अंदाजा ही नहीं, जिसे गले से लगाए फिरते हो.’’

यह सुन कर रमेश बाबू सन्न रह गए. वे मुड़े और बोले, ‘‘चौकीदार, छोड़ दो इसे.’’

गुजरिया तीर की तरह केबिन में उन के पीछेपीछे आ गई और बोली, ‘‘साहब, इसी समय मेरे साथ चलिए.’’

रमेश बाबू कांपती सी आवाज में बोले, ‘‘कहां?’’

गुजरिया ने कहा, ‘‘आप के घर.’’

रमेश बाबू चिल्लाए, ‘‘तुम्हारा दिमाग खराब है क्या? जाओ, अपना काम करो.’’

गुजरिया ने हाथ जोड़ दिए और बोली, ‘‘चलिए बाबूजी, बहुत जरूरी है. मेरे लिए न सही तो अपने लिए चलिए.’’

रमेश बाबू ने लता को फोन करना चाहा, तो गुजरिया बोली, ‘‘नहीं बाबूजी, बात खराब हो जाएगी. बिना बताए चलिए, देर मत कीजिए.’’

रमेश बाबू ने एक गहरी निगाह से उसे देखा, फिर उठ गए और पीछेपीछे गुजरिया. उन्होंने अपनी कार निकाली. पीछे गुजरिया बैठ गई.

कुछ ही देर में रमेश बाबू अपने घर के सामने थे. बाहरी गेट की एक चाभी उन के पास रहती थी. उन्होंने गेट खोला और दबे कदमों से बैडरूम की ओर गए.

बैडरूम का दरवाजा हलका सा बंद था. वे दोनों तेजी से अंदर घुसे. वहां का सीन देख कर गुजरिया तेजी से चीख ही पड़ी, ‘‘तू यहां अपना मुंह काला करा रहा है…’’

सैक्स में डूबे लता और मंगेश उन को देख कर हड़बड़ा गए. रमेश बाबू ने बढ़ कर लता को कई थप्पड़ जड़े. गुजरिया ने मंगेश को कई थप्पड़ लगाए.

मंगेश ने गुजरिया को धकेल दिया, तो वह चिल्लाई, ‘‘एक तो तू हम सब को हराम की कमाई खिलाता रहा, ऊपर से चिल्लाता है… बेहया,’’ फिर वह रमेश बाबू से बोली, ‘‘बाबूजी, पुलिस बुलाओ… इस को इस का अंजाम भुगतना पड़ेगा. अब इस का और हमारा साथ खत्म…’’

रमेश बाबू गुस्से से थरथरा रहे थे. वे फोन मिलाने लगे कि मंगेश ने उन का गला दबोच लिया. रमेश बाबू के गले से ‘गोंगों’ की आवाज निकलने लगी. गुजरिया उन्हें छुड़ा रही थी.

मंगेश ने लात मार कर गुजरिया को अलग किया. रमेश बाबू के गले पर उस की पकड़ कसती जा रही थी.

लता ने जल्दीजल्दी कपड़े पहन लिए थे. उस ने रमेश बाबू की हालत देखी, तो हड़बड़ाहट में बड़ा सा गुलदान उठा कर मंगेश के सिर पर दे मारा. वह चीख कर वहीं ढेर हो गया.

तब तक पड़ोसियों ने पुलिस बुला ली थी. लता को गिरफ्तार कर लिया गया. वह रमेश बाबू से हाथ जोड़ते हुए बोली, ‘‘रमेश… बचा लो मुझे…’’

रमेश बाबू ने नफरत से मुंह घुमा लिया और गुजरिया से बोले, ‘‘तुम ने सही कहा था. साफसुथरे कपड़ों में भी घिनौने और नीच लोग रहते हैं… माफ करना बहन. मुझे अच्छेबुरे की पहचान ही नहीं थी.’’

News Kahani: सियासत, सत्ता और समझदारी

एक तो तेज गरमी का मौसम, उस पर बारिश का डर. हाल ही में सरपंच बनी संगीता यह सोचसोच कर परेशान थी कि आज चुनाव प्रचार के सिलसिले में सत्ता पार्टी के जिलाध्यक्ष रामप्रकाश के साथ घर से बाहर निकले या नहीं?

दरअसल, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव रूपपुर में इस बार सरपंच का पद दलित महिला के लिए रिज्वर्ड था. संगीता अभी 28 साल की थी और राजनीति में भी दिलचस्पी रखती थी. पति पवन ने बढ़ावा दिया तो वह सरपंच पद के लिए खड़ी हो गई.

जिलाध्यक्ष रामप्रकाश ऊंची जाति का था और गांव में उस का दबदबा था. इलाके के एमपी साहब से उस का काफी मिलनाजुलना था. उस ने संगीता को जिताने में काफी अहम रोल निभाया था और अब वह लोकसभा चुनाव में संगीता के साथ इधर से उधर घूमता था.

‘‘सुनो…’’ संगीता ने अपने पति पवन से कहा, ‘‘मुझे बाहर बड़ी सड़क तक छोड़ आओ. वहां से मैं रामप्रकाशजी के साथ एमपी साहब के घर चली जाऊंगी. आज बहुत ज्यादा काम है, इसलिए मना नहीं कर सकती.’’

पवन सो रहा था. उस ने बिना आंखें खोले ही कहा, ‘‘तुम अपना खुद देख लो. मुझे नींद आ रही है,’’ फिर वह करवट बदल कर दोबारा सो गया.

इतने में जिलाध्यक्ष रामप्रकाश का फोन आ गया, ‘कहां हो सरपंचजी? मैं बड़ी रोड पर खड़ा हूं. हमें पहले ही देर हो गई है. एमपी साहब नाराज हो जाएंगे.’

‘‘क्या बताऊं रामप्रकाशजी, मैं तो तैयार बैठी हूं, पर आज पवन मुझे छोड़ने नहीं आ रहे हैं. आप ही कुछ कीजिए,’’ संगीता ने अपनी समस्या बताई.

‘ठीक है, तुम घर के बाहर तक आओ, मैं लेने आ जाता हूं,’ इतना कह कर रामप्रकाश ने फोन काट दिया.

थोड़ी देर में ही वे दोनों एमपी साहब के घर की तरफ रवाना हो गए. आज संगीता ने साड़ी बांधी थी. वह जवान तो थी ही, दिखने में भी खूबसूरत थी. गोरी देह, अच्छे नैननैक्श, घने काले बाल और कद भी ठीकठाक ही था. कोई कह नहीं सकता था कि उस की 5 साल की एक बेटी भी है, जिस की देखभाल सास ही करती थी.

रामप्रकाश 40 साल का हट्टाकट्टा मर्द था. उस के परिवार में पत्नी गोमती और 2 बच्चे थे. वह राजनीति में आगे बढ़ना चाहता था और इसीलिए वह एमपी साहब से मिलने का कोई मौका नहीं छोड़ता था.

चूंकि चुनाव नजदीक थे, इसलिए दिनभर की भागादौड़ी में दिन बीतने का पता ही नहीं चला. शाम के 5 बजने वाले थे, पर अब तक तो मौसम भी पलटी मार चुका था.

‘‘जल्दी चलो रामप्रकाशजी, कहीं बारिश शुरू हो गई तो दिक्कत हो जाएगी. मेरी बेटी की तबीयत भी ढीली है,’’ संगीता ने आसमान की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘तुम चिंता मत करो, हम समय से घर पहुंच जाएंगे. आज मैं खुश हूं, क्योंकि एमपी साहब हमारे काम से संतुष्ट हैं,’’ रामप्रकाश ने मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए कहा.

लेकिन मौसम को कुछ और ही मंजूर था. अभी वे थोड़ी ही दूर आए थे कि एकदम से घनघोर बारिश होने लगी. बारिश इतनी ज्यादा तेज थी कि रामप्रकाश को आगे सड़क पर कुछ नहीं दिखाई दे रहा था. वे दोनों पानी से तर हो गए थे.

‘‘अब क्या होगा? लगता नहीं कि यह बारिश जल्दी रुक जाएगी…’’ संगीता को चिंता होने लगी.

रामप्रकाश ने कहा, ‘‘यहीं आगे ही खेतों में मेरे एक दोस्त का ट्यूबवैल है. वहां बारिश से बचने का इंतजाम होगा,’’ फिर रामप्रकाश ने एक खेत की तरफ मोटरसाइकिल मोड़ दी. गन्ने के खेतों के बीच से वे दोनों ट्यूबवैल तक जा पहुंचे.

वहां एक टूटाफूटा कमरा भी बना हुआ था. वे दोनों उस में चले गए. भीतर एक छोटी सी पुरानी खाट थी और कोने में फूस रखा था. संगीता पानी से तर हो चुकी थी. गीली साड़ी में उस की देह फूट रही थी. उस ने ?ि?ाकते हुए कोने में जगह ली और कांपते हुए अपने कपड़े सुखाने की नाकाम कोशिश की.

रामप्रकाश सम?ा गया था कि संगीता को ठंड लग रही है. उस ने अपनी परवाह न करते हुए थोड़ा फूस और कुछ सूखी लकडि़यां जमा कीं और आग जला दी. उस कमरे में रोशनी होने से पता चला कि वहां कोई चादर वगैरह नहीं थी.

रामप्रकाश ने वह खाट उठाई और सीधी खड़ी कर दी और बोला, ‘‘संगीता, तुम इस की आड़ में अपने कपड़े ठीक से सुखा लो.’’

पहले तो संगीता को ?ि?ाक हुई, पर वह बहुत ज्यादा गीली थी, तो उस ने अपनी साड़ी खोल दी और आग की आंच में उसे सुखाने लगी.

रामप्रकाश ने खाट की आड़ में से देखा कि संगीता पेटीकोट और ब्लाउज में अपनी साड़ी सुखा रही थी. एक पल को तो वह बेचैन हो गया, पर फिर उस ने पूछा, ‘‘संगीता, तुम्हारी बेटी का क्या नाम है?’’

संगीता बोली, ‘‘महिमा.’’

‘‘अरे वाह, बहुत बढि़या नाम है. मेरी बेटी का नाम रोशनी है. बड़ी ही होनहार है. 10वीं जमात में पढ़ती है. अपनी मां के काम में हाथ बंटाती है’’ रामप्रकाश जैसे अपनी बेटी की याद में खो गया.

‘‘बेटियां होती ही अपने बाप की लाड़ली हैं. पवन भी महिमा के बगैर नहीं रह पाते हैं,’’ संगीता ने कहा, ‘‘लेकिन, फिलहाल तो इस बारिश का क्या करें… समय बीत रहा है और हम यहां फंस गए हैं,’’ संगीता बोली.

रामप्रकाश ने घड़ी देखी. शाम के 7 बजने वाले थे. पर बारिश तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसे भी चिंता हो रही थी. उस ने बात पलटते हुए पूछा, ‘‘तुम आगे क्या करना चाहती हो? हम इतने दिनों से एकसाथ काम कर रहे हैं, पर कभी एकदूसरे के बारे में ज्यादा पूछा नहीं.’’

तब तक संगीता के कपड़े कुछ हद तक सूख गए थे. वह खाट की ओट से बाहर आ गई. अब कपड़े सुखाने की बारी रामप्रकाश की थी.

‘‘मैं तो अपने गांव के लिए अच्छे काम करना चाहती हूं. अपने समाज की लड़कियों को पढ़ने की प्रेरणा देना चाहती हूं. महिमा को बड़ी अफसर बनाना चाहती हूं,’’ संगीता ने बताया.

‘‘बहुत अच्छी बात है. पढ़ेलिखे जनप्रतिनिधियों की इस देश को जरूरत है. तुम कामयाब रहो. जितना हो सकेगा, मैं तुम्हारी मदद करूंगा.’’

उन दोनों को घर पहुंचने में रात के 10 बज गए थे. पवन की मां ने दरवाजा खोला और जब संगीता के साथ रामप्रकाश को देखा, तो वे जलभुन गईं.

पवन का मिजाज भी ठीक नहीं था. उस ने कड़े शब्दों में कह दिया, ‘‘आज के बाद तुम रामप्रकाश के साथ कहीं नहीं जाओगी. आज रात में 10 बजे आई हो, कल क्या पता पूरी रात उस के साथ काली करो.’’

‘‘पर, हम दोनों बारिश में फंस गए थे,’’ संगीता ने अपनी बात रखी.

इस पर सास भी तिलमिला गईं, ‘‘पवन जो कह रहा है, वही कर. बहुत हो गई सरपंची. हम किसकिस का मुंह बंद करते फिरेंगे.’’

संगीता ने कुछ नहीं कहा और अपने कमरे में चली गई.

उधर, रामप्रकाश के घर में तो बवाल ही मच गया. गोमती को संगीता फूटी आंख नहीं भाती थी और आज इस बारिश में दोनों का एकसाथ होना गोमती के कान खड़े कर गया.

‘‘तुम बात का बतंगड़ बना रही हो. जो भी मैं ने तुम्हें बताया, वही सौ फीसदी सच है,’’ रामप्रकाश अपनी सफाई दे रहा था.

‘‘मुझे कुछ नहीं सुनना. भले ही अखबार तुम खरीदते हो, पर पढ़ती मैं भी हूं,’’ गोमती ने तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘तुम से ज्यादा दीनदुनिया की खबर मुझे रहती है. देश में चुनावी माहौल है और दिल्ली में एक नामचीन औरत के साथ हुई बदसुलूकी पर तुम मर्दों की जबान को लकवा मार जाता है.’’

‘‘तुम किस खबर की बात कर रही हो?’’ राम प्रकाश ने झंझला कर पूछा.

‘‘स्वाति मालीवाल के साथ जो कांड हुआ है, वह किसी से नहीं छिपा है. अंदरखाते जो हुआ है, वह तो स्वाति मालीवाल और विभव कुमार ही जानें, पर अगर स्वाति मालीवाल की बातों में जरा सा भी दम है, तो तुम भी संभल जाओ. यह जो तुम उस कलमुंही सरपंच के पल्लू से बंधने की कोशिश कर रहे हो न, किसी दिन वही तुम्हारे लत्ते उतरवा देगी सरेआम. फिर न कहना कि बताया नहीं था,’’ गोमती के तेवर ही अलग थे.

‘‘अच्छा बताओ कि स्वाति मालीवाल ने क्या बयान दिया है?’’ रामप्रकाश ने गोमती से पूछा.

‘‘इस में क्या बड़ी बात है. अखबार की छपी खबर चीखचीख कर बता रही है कि स्वाति मालीवाल ने कहा कि मैं कैंप दफ्तर के अंदर गई. सीएम के पीए विभव कुमार को फोन किया, लेकिन मैं अंदर नहीं जा सकी. फिर मैं ने उन के मोबाइल नंबर पर एक मैसेज भेजा था. हालांकि, कोई जवाब नहीं आया.

‘‘इस के बाद स्वाति मालीवाल ने बताया कि मैं उन के आवास परिसर में गई, जहां मैं अकसर जाती थी. वहां विभव कुमार मौजूद नहीं थे, इसलिए मैं ने आवास परिसर में एंट्री की और वहां मौजूद कर्मचारियों को जानकारी दी कि मैं यहां सीएम से मिलने के लिए आई हूं.

‘‘ये सब बातें एफआईआर में लिखी गई हैं. स्वाति मालीवाल ने आगे कहा कि मुझे बताया गया कि वे घर में मौजूद हैं और मुझे ड्राइंगरूम में इंतजार करने के लिए कहा है. मैं ड्राइंगरूम में गई और सोफे पर बैठ गई और उन से मिलने का इंतजार किया.

‘‘इस के बाद स्वाति मालीवाल ने बताया कि मुझे पता चला कि सीएम मिलने के लिए आ रहे हैं, लेकिन अचानक पीए विभव कुमार कमरे में घुस आए. उन्होंने बिना किसी उकसावे के चिल्लाना शुरू कर दिया. मुझे गालियां भी दीं. मैं स्तब्ध रह गई. इतना ही नहीं, मुझे थप्पड़ मारना शुरू कर दिया. जब मैं लगातार चिल्लाती रही, तो मुझे कम से कम 7 से 8 बार थप्पड़ मारे. मैं वहां मदद के लिए भी चिल्लाई थी. जानबूझ कर मेरी शर्ट ऊपर खींची.

‘‘स्वाति मालीवाल ने आगे बताया कि मैं ने उन से बारबार कहा कि मैं मासिक धर्म के दौर से गुजर रही हूं, कृपया मुझे जाने दें, लेकिन जाने नहीं दिया. फिर मैं वहीं बैठ गई. मैं ड्राइंगरूम के सोफे पर गई और हमले के दौरान जमीन पर गिरे अपने चश्मे को उठाया. इस के बाद 112 नंबर पर फोन किया और पुलिस को सूचना दी.’’

‘‘तुम ने स्वाति मालीवाल का पक्ष तो बता दिया, पर आम आदमी पार्टी तो इसे साजिश बता रही है. स्वाति मालीवाल वाले मामले में आप नेता और दिल्ली सरकार में मंत्री आतिशी ने पत्रकारों के सामने सीएम हाउस का पक्ष रखा.

‘‘आतिशी ने इस साजिश के पीछे भारतीय जनता पार्टी का हाथ बताया है. उन्होंने कहा कि स्वाति मालीवाल झूठ बोल रही हैं. सीएम केजरीवाल के पीए विभव कुमार पर झूठे आरोप लगाए जा रहे हैं. मुख्यमंत्री केजरीवाल घटना वाले दिन वहां पर नहीं थे. अब बताओ कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ?

‘‘वैसे भी खबरों के मुताबिक, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ स्वाति मालीवाल की पहले से कोई मुलाकात तय नहीं थी. स्वाति जिस चोट की बात कह रही हैं, वह कहीं दिख नहीं रही.’’

गोमती भी कहां चुप रहने वाली थी, ‘‘ऐसा है तो राष्ट्रीय महिला आयोग ने स्वाति मालीवाल के मामले में अरविंद केजरीवाल के निजी सचिव विभव कुमार को क्यों नोटिस जारी किया था?

‘‘विभव कुमार को शुक्रवार, 17 मई, 2024 को सुबह 11 बजे कमीशन के सामने पेश होने के लिए कहा गया था, लेकिन वे एनसीडब्ल्यू के सामने पेश नहीं हुए.

‘‘एनसीडब्ल्यू की चीफ रेखा शर्मा ने बीबीसी संवाददाता दिलनवाज पाशा को बताया था कि आज विभव कुमार को दूसरा समन भेजा गया है. अगर वे नहीं आते हैं, तो उन्हें बुलाने के लिए पुलिस की मदद ली जाएगी.

‘‘रेखा शर्मा ने यह भी बताया कि महिला आयोग की टीम विभव कुमार के घर नोटिस देने के लिए गई थी, लेकिन वे घर पर नहीं थे.

‘‘रेखा शर्मा ने पत्रकारों से यह भी कहा कि विभव कुमार की पत्नी ने नोटिस लेने से मना कर दिया. मेरी टीम आज पुलिस के साथ उन के घर फिर से गई और अगर वे एनसीडब्ल्यू के सामने पेश नहीं हुए, तो हम खुद वहां जा कर जांच करेंगे.

‘‘इतना ही नहीं, रेखा शर्मा ने स्वाति मालीवाल का पक्ष लेते हुए कहा कि मैं स्वातिजी से ट्विटर पर कह रही थी कि वे अपनी आवाज उठाएं, लेकिन मुझे लगता है कि वे पार्टी नेता के घर में हुई घटना की वजह से सदमे में हैं. एक सांसद, जो हमेशा महिलाओं के मुद्दे उठाती रही हैं, उन्हें पीटा गया है.’’

‘‘इस खबर से तुम क्या साबित करना चाहती हो?’’ रामप्रकाश ने सवाल किया.

‘‘यही कि तुम उस सरपंच को ज्यादा भाव मत दो और उस के ज्यादा करीब मत रहो,’’ गोमती ने कहा.

‘‘पर, मेरे और संगीता के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है. हम सरकारी काम के सिलसिले में आपस में मिलते हैं और एमपी साहब के प्रचार का काम करते हैं. उन का हाथ सिर पर रहेगा, तभी तो हमें भी थोड़ी मलाई खाने को मिलेगी.’’

‘‘मुझे नहीं चाहिए ऐसी मलाई, जिस में किसी पराई औरत की गंध शामिल हो,’’ गोमती का गुस्सा सातवें आसमान पर था, ‘‘और अब तो मेरी इस समस्या का हल तुम्हारे एमपी साहब के घर से ही मिलेगा. हम चारों कल ही उन के घर जाएंगे और मैं फरियाद करूंगी कि मुझे सरपंच के भूत से नजात दिलाएं.’’

उधर संगीता के घर का भी यही हाल था. वह भले ही गांव की सरपंच बन गई थी, पर अब भी घर पर उस की दो कौड़ी की हैसियत थी. पवन भी गोमती की तरह यह मान बैठा था कि रामप्रकाश और संगीता काम के बहाने अपनी ही कामवासना का गेम खेल रहे हैं.

पवन खाना खाने बैठा ही था कि संगीता के मोबाइल फोन की घंटी बजी. रामप्रकाश का फोन था. वह उस का नाम देख कर कुढ़ गया.

संगीता ने फोन उठाया, तो उधर से आवाज आई, ‘आज तो गजब हो गया. हम दोनों के घर देर से आने के चलते गोमती ने घर सिर पर उठा लिया है. वह नहीं मान रही है कि हम दोनों बारिश में फंस गए थे. अब हमें अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए एमपी साहब के घर जाना होगा. कल तुम तैयार रहना. पवन को भी मना लेना’

फोन कट गया. संगीता ने पवन की ओर देखा और बोली, ‘‘कल हमें एमपी साहब के घर जाना है.’’

‘‘क्यों? अब रामप्रकाश ने कौन सा प्रपंच रचा है?’’ पवन तो जैसे भरा बैठा था.

‘‘अब यह तो कल ही पता चलेगा,’’ इतना कह कर संगीता रसोईघर में चली गई.

अगले दिन दोपहर के 2 बज रहे थे. वे चारों एमपी साहब के घर पर थे. पर उस समय एमपी साहब घर पर नहीं थे. लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए दौरे पर थे. रामप्रकाश को थोड़ी निराशा हुई, पर जब एमपी साहब की पत्नी कुसुम देवी ने बाहर बैठक में आ कर रामप्रकाश की नमस्ते ली, तो रामप्रकाश का जी हलका हो गया. वह उन्हें थोड़ा अलग ले गया और अपनी समस्या बताई.

कुसुम देवी ने उन चारों को बिठाया और अपने नौकर से कह कर चाय मंगवाई, फिर उन्होंने गोमती से पूछा, ‘‘तुम्हें अपने पति पर यकीन नहीं है क्या?’’

गोमती पहले तो सकपका गई, फिर बोली, ‘‘ऐसा नहीं है, पर जब लोगों में कानाफूसी बढ़ जाती है, तो आंखों देखी मक्खी भी तो निगली नहीं जाती न.’’

‘‘अच्छा तो तुम लोगों ने यह मान लिया है कि रामप्रकाश और संगीता का ज्यादा घूमनाफिरना यह साबित करता है कि इन दोनों के बीच कोई नाजायज रिश्ता है’’

पवन कुछ नहीं बोला, पर उसे भी यही लगता था कि संगीता और रामप्रकाश में कुछ तो खिचड़ी पक रही है और ये दोनों घर से बाहर जा कर रंगरलियां मनाते हैं. संगीता को उस की चुप्पी अखर रही थी.

‘‘तुम लोगों की गलती नहीं है. पहले मैं भी एमपी साहब के दिनभर घर से बाहर रहने और तमाम मर्दऔरतों के मिलने के चलते परेशान रहती थी. मुझे लगता था कि ये राजनीति कम और ऐयाशी ज्यादा करते हैं, पर फिर समझ आने लगा कि दुनियाभर में बहुत से ऐसे काम हैं, जहां कोई मर्द हो या औरत, उसे परिवार से कट कर लोगों के बीच जाना ही पड़ता है. वहां तरहतरह की फितरत के मर्दऔरत से उन का वास्ता पड़ता है और बहुत बार तो अकेलेपन में उन में नजदीकियां भी बढ़ जाती हैं और इसे टाला नहीं जा सकता.

‘‘हमारा तो समाज ही ऐसा है कि औरतों को किसी पराए मर्द की नजदीकी के चलते गलत मान लिया जाता है. संगीता गांव की सरपंच है और रामप्रकाश हमारी पार्टी के जिलाध्यक्ष. चुनाव के दिनों में किसी भी नेता को ऐसे लोगों से बहुत काम पड़ता है. लिहाजा, इन्हें इधर से उधर दौड़ाया जाता है. न दिन देखा जाता और न ही रात.’’

‘‘लेकिन मैडम, इस में घर वाले क्या करें? हमें तो दुनिया को जवाब देना पड़ता है न,’’ पवन बोला.

‘‘तुम्हारी बात सही है, पर हमारे देश में तो सदियों से ऐसा होता आया है कि गलती चाहे मर्द की क्यों न हो, गाज तो औरत पर ही गिरती है. ‘महाभारत’ का वह किस्सा ही ले लो, जब विचित्रवीर्य की शादी कराने के लिए भीष्म ने काशीराज की 3 बेटियों का वाराणसीपुरी की स्वयंवर सभा से हरण कर लिया था,’’ कुसुम देवी ने कहा.

‘‘क्या किस्सा था यह?’’ रामप्रकाश ने पूछा.

‘‘उन तीनों लड़कियों का नाम अंबा, अंबिका और अंबालिका था. अंबा ने जब सुना कि भीष्म अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य से उस की शादी कराना चाहते हैं, तो उस ने कहा कि वह राजा शाल्व को मन ही मन अपना पति मान चुकी है, तो भीष्म ने उसे शाल्व के यहां जाने की इजाजत दे दी और बाकी दोनों बहनों अंबिका और अंबालिका को विचित्रवीर्य की पत्नी के रूप में सौंप दिया. लेकिन शादी के 7 साल बाद ही विचित्रवीर्य नहीं रहे,’’ कुसुम देवी ने बताया.

‘‘मेरा कहने का मतलब यह है कि हमारे समाज में औरतों और लड़कियों से उन के मन की बात न तो जानी जाती है और न ही समझ जाती है. अब जब वे अपनी मरजी से घर से बाहर निकलने लगी हैं, तब भी उन्हें अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है.

‘‘मेरा कहा मानो तो अपने दिमाग से यह बात बिलकुल निकाल दो कि संगीता और रामप्रकाश में कुछ गलत चल रहा है, तभी तुम चारों अपने परिवार को सही ढंग से संभाल पाओगे. अगर मैं एमपी साहब पर शक करती रहूंगी, तो वे कभी भी राजनीति में आगे नहीं बढ़ पाएंगे.’’

इतने में नौकर सब के लिए चाय ले आया. कुसुम देवी ने सब के साथ चाय पी. बाद में बैठक में लगे ठहाकों से ऐसा लग रहा था कि उन चारों की समस्या का हल मानो निकल आया है.

टैटू वाली लड़की : कौन सी चिंता कर रही थी ममता को परेशान

मध्य प्रदेश का छिंदवाड़ा जिला संरक्षित वन क्षेत्र और आदिवासी बहुल जिला माना जाता है. यहां रहने वाले लोग जंगलों में मिलने वाले अचार, चिरौंजी, हर्रा, बहेड़ा, आंवला और महुआ के जरीए अपनी आजीविका चलाते हैं. मार्चअप्रैल महीने में महुआ के पेड़ से गिरने वाले महुआ बीनने के लिए गांव के मर्दऔरत सुबह जल्दी ही जंगल की ओर पैदल चल देते हैं.

गरमी की दस्तक शुरू होते ही एक सुबह गांव की औरतों का समूह महुआ बीनने के लिए जंगल की ओर जा रहा था. सुबह के तकरीबन साढ़े 5 बजे का समय था. रात का अंधेरा खत्म हो चुका था और आसपास उजाले की दस्तक साफ दिखाई दे रही थी.

औरतों का वह समूह आमा?ारी गांव के पास ही पहुंचा था कि तभी लाजवंती नाम की एक औरत को रोड से तकरीबन 50 कदम दूर लाल साड़ी में लिपटी एक औरत जमीन पर पड़ी दिखाई दी.

लाजवंती ने साथ चल रही दूसरी औरतों से कहा, ‘‘इतनी सुबह जंगल में यह औरत बेहोश कैसे पड़ी है?’’

साथ चल रही औरतों ने भी इस मंजर को देखा. एक औरत ने लाजवंती से कहा, ‘‘चलो, चलो, पास चल कर देखते हैं कि आखिर माजरा क्या है.’’

इतना कहते ही वे सारी औरतें रोड से नीचे उतर कर उस लाल साड़ी वाली औरत की ओर चल दीं. जैसे ही वे उस के पास पहुंचीं, तो डर के मारे उन सब की चीख निकल गई. दरअसल, वहां पर लाल साड़ी पहने एक औरत की सिर कटी लाश पड़ी हुई थी.

लाजवंती ने रोड से जंगल की ओर जा रहे कुछ मर्दों को आवाज लगा कर पास बुलाया. उन लोगों में एक लड़का पुलिस द्वारा बनाई गई ग्राम रक्षा समिति का सदस्य था और उस के पास नजदीकी पुलिस चौकी का मोबाइल नंबर भी था.

वह मंजर देख कर उस लड़के ने जेब से मोबाइल फोन निकाला और चौकी प्रभारी का नंबर खोज कर फोन कर दिया.

आदिवासी अंचल की पुलिस चौकी खमारपानी की सबइंस्पैक्टर पूनम उस समय अपने घर से ड्यूटी पर जाने की तैयारी कर रही थीं. जैसे ही उन के मोबाइल फोन पर घंटी बजी, तो उन्होंने फोन रिसीव करते हुए कहा, ‘हैलो… कौन?’

‘‘मैडम, मैं गढ़ेवानी गांव से ग्राम रक्षा समिति का सदस्य बोल रहा हूं. कपूरखेड़ा के जंगल में एक औरत की सिर कटी लाश पड़ी हुई है.’’

‘ठीक है, तुम लोग वहीं पर रुको. मैं जल्द ही वहां पर पहुंच रही हूं.’ सबइंस्पैक्टर पूनम बोलीं.

सबइंस्पैक्टर पूनम ने लाश मिलने की सूचना बड़े पुलिस अफसरों को दे दी और पुलिस बल के साथ मौका ए वारदात की ओर रवाना हो गईं.

मौके पर पहुंची पुलिस टीम ने देखा कि  महिला की लाश रोड से 50 कदम दूर एक खंती (गड्ढे) के पास पड़ी हुई थी, जिस का सिर गायब था. उस औरत ने लाल रंग की जरीदार साड़ी पहनी थी, जबकि उस ने कुछ पारंपरिक जेवर भी पहने हुए थे. उस के हाथ में गुदना (टैटू) का निशान मिला, जिस में ‘एमआरबी’ लिखा हुआ था.

मौके पर जा कर फोरैंसिक टीम ने जांचपड़ताल की तो पता चला कि उस औरत की हत्या एक दिन पहले ही रात में हुई होगी.

इस से पुलिस का अंदाजा था कि हत्या में एक से ज्यादा लोग शामिल रहे होंगे. पुलिस का यह भी अंदाजा था कि वह औरत आसपास के इलाके की रहने वाली होगी. पहचान छिपाने के मकसद से हत्यारों ने उस का सिर धड़ से काटा होगा.

आसपास के गांव के लोगों की भीड़ मौका ए वारदात पर मौजूद थी, लेकिन उस औरत की शिनाख्त नहीं हो पा रही थी. आसपास के गांवों में पुलिस टीम ने जा कर मामले की जांच की, मगर कोई ठोस सुराग हाथ नहीं लग पाया.

पुलिस इस मामले को नाजायज रिश्ते से जोड़ कर भी देख रही थी, क्योंकि जिस बेरहमी से उस औरत की हत्या की गई थी, उसे देख कर तो ऐसा ही लग रहा था.

सोशल मीडिया पर सिर कटी लाश मिलने की खबर से शांत रहने वाले आदिवासी अंचल में हड़कंप मच गया. मरी हुई औरत के एक हाथ में बने टैटू में इंगलिश में ‘एमआरबी’ लिखा हुआ था, जबकि दूसरे हाथ में ‘स्टार’ बना हुआ था.

सुरंगी गांव की औरतों को यह पता था कि गांव में रहने वाली एक लड़की ममता के हाथ पर भी इसी तरह का टैटू बना हुआ है. सोशल मीडिया पर आई तसवीर को जब कुछ औरतों ने ममता की मां उर्मिला को दिखाया, तो उस के होश उड़ गए.

उर्मिला को मालूम था कि जिस दिन ममता अशोक के साथ शादी की रिसैप्शन के लिए घर से निकली थी, उस दिन यही लाल रंग की जरी वाली साड़ी पहने हुए थी. उस के गले में पहने हार से भी मां को यकीन हो गया था कि यह लाश ममता की ही है.

उर्मिला ने अशोक को फोन लगाया तो उस का फोन स्विच्ड औफ बता रहा था. मोबाइल में यह भयावह तसवीर देख कर मां उर्मिला चीखचीख कर रोने लगी. पड़ोस में रहने वाले लोगों ने उसे हिम्मत बंधाई.

इतने में ममता का भाई भी घर आ गया. उस ने मां को सब्र रखने की कहते हुए पुलिस चौकी जा कर ममता की लाश की शिनाख्त की.

कहते हैं कि कानून के लंबे हाथों से बड़े से बड़ा अपराधी भी बच नहीं पाता है. सबइंस्पैक्टर पूनम ने जब ममता के घर वालों से पूछताछ की तो पता चला कि ममता अशोक नाम के एक लड़के के साथ लिवइन रिलेशनशिप में रह रही थी.पुलिस ने जब अशोक को ढूंढ़ निकाला, तो इस हत्याकांड के पूरे राज से परदा हट गया .

28 साल की ममता सुरंगी गांव के रहने वाले सालकराम की लड़की थी. ममता से बड़ा उस का एक भाई था. जब ममता छोटी थी, तभी उस के पिता परिवार छोड़ कर कहीं चले गए थे. ममता और उस के भाई का पालनपोषण उस की मां उर्मिला ने किया था.

जब ममता 22 साल की हुई, तो भाई और मां ने उस की शादी पास के गांव में रहने वाले देवेंद्र से कर दी. शादी के बाद ममता को पता चला कि उस का पति शराबी है. वह शराब के नशे में ममता के साथ बदसुलूकी करता था.

किसी तरह ममता ने 6 महीने उस के साथ बिताए, मगर देवेंद्र की आदतों में कोई बदलाव नहीं आया. इस के बाद ममता ससुराल से आ कर अपने मायके में रहने लगी.

परिवार की माली हालत इतनी अच्छी नहीं थी कि ममता का भाई और मां उसे बिठा कर अच्छी तरह खिला पाते. ममता भी खुद्दार लड़की थी. लिहाजा, उस ने गांव के आसपास खेतों में जा कर मजदूरी का काम शुरू कर दिया.

इसी दौरान ममता की मुलाकात जामुन टोला गांव के अशोक से हुई. 19 साल का अशोक ममता के सांवले और गठीले बदन को देख कर उस की तरफ खिंच गया था. ममता को ससुराल में पति का प्यार नहीं मिल पाया था, ऐसे में वह भी अशोक की तरफ उम्मीदभरी निगाहों से देखती थी.

एक दिन खेत में कपास चुनते हुए अशोक ने अपने दिल की बात जबान पर लाते हुए कहा, ‘‘ममता, तुम बहुत खूबसूरत हो. तुम्हारी आंखों में गजब का नशा है. जी चाहता है इन में दिनरात डूबा रहूं.’’

‘‘?ाठ मत बोलो अशोक. हमारी आंखों में नशा होता तो हमारा पति शराब के नशे में न डूबा रहता,’’ ममता ने जवाब दिया.

‘‘ममता, खूबसूरती तो देखने वालों की आंखों में होती है. हो सकता है, तुम्हारे पति की आंखें तुम्हारी आंखों में प्यार का दरिया न खोज पाई हों,’’ अशोक बोला.

‘‘तुम बातें बड़ी प्यारी करते हो अशोक. तुम्हारी बातों से लगता है कि तुम 19 साल के नहीं, बल्कि 29 साल के हो,’’ ममता ने कहा.

‘‘उम्र से क्या है, दिल तो हमारा अब तुम्हारे लिए धड़कने लगा है. दिन में तुम्हारा साथ रहता है, मगर रात तनहाई में कटती है,’’ अशोक बोला.

‘‘रात में मेरे ही सपने देखा करो तो तनहाई भी दूर हो जाएगी,’’ ममता ने अदा के साथ कहा.

ममता को पति से दूर रहते हुए काफी समय हो गया था. ऐसे में अशोक की उस के प्रति दीवानगी ने आग में घी का काम कर दिया था. ममता के दिल में भी अशोक के लिए प्यार के बीज अंकुरित हो चुके थे.

अशोक ममता को मजदूरी के लिए घर से साथ ले कर जाता था. अशोक ममता से उम्र में छोटा था. इस वजह से किसी को उन के प्रेम संबंध का शक भी नहीं था. गांव में घरपरिवार के सख्त पहरे और समाज की नजरों की वजह से उन का प्यार परवान तो चढ़ रहा था, लेकिन उन की हसरतें पूरी नहीं हो पा रही थीं.

ऐसे में तकरीबन एक साल पहले एक दिन दोनों काम की तलाश में नागपुर आ गए. नागपुर में एक रूम ले कर लिवइन रिलेशनशिप में रहने लगे.

इसी साल अप्रैल महीने में अशोक की बहन की शादी थी, जिस में शामिल होने के लिए वह नागपुर से ममता को ले कर अपने गांव आया था. उस ने ममता को उस के मायके छोड़ दिया था और वह खुद बहन की शादी में चला गया था.

अशोक नागपुर से अपने साथ ममता को ले तो आया था, मगर वह घरपरिवार के लोगों के डर से उसे शादी में ले कर नहीं गया था.

यह बात ममता को अखर रही थी. ममता यही सोच कर परेशान थी कि अशोक उसे पत्नी बना कर रख रहा है, मगर घर में बहन की शादी में उसे ले कर नहीं जा रहा है.

पिछले एक साल से नागपुर में लिवइन रिलेशनशिप में रहते हुए वे दोनों पतिपत्नी की तरह खुशहाल जिंदगी बिता रहे थे. ममता और अशोक की प्यार की निशानी के तौर पर ममता के पेट में अशोक का बच्चा पल रहा था.

पेट से होने के बाद से ही ममता को अपनी गलती का अहसास होने लगा था. उस ने अगर सुरक्षित तरीके से अशोक से जिस्मानी रिश्ता बनाया होता तो वह पेट से न होती.

ममता ने जैसे ही पेट से होने की जानकारी अशोक को दी, तो खुश होने के बजाय उस का चेहरा लटक गया था. ममता मर्दों की इस फितरत को अच्छी तरह सम?ा गई थी कि वे केवल अपनी जिस्मानी भूख मिटाने से ही मतलब रखते हैं. औरतों की भावनाएं उन के लिए कोई मतलब नहीं रखतीं.

औरत के जिस्म को मर्द केवल भोगने का सामान ही सम?ाते हैं. अशोक भी ममता की देह का भूखा था, जो उस के जिस्म का पूरे हक से सुख ले रहा था, मगर जब वह पेट से हो गई, तो इस बात को ले कर दोनों के बीच तकरार भी होने लगी थी.

ममता को यही चिंता दिनरात खाए जा रही थी कि आखिर बच्चे के जन्म के बाद अशोक उसे बेसहारा तो नहीं छोड़ देगा. अशोक बहन की शादी की तैयारियों में लगा हुआ था, मगर ममता उसे फोन कर के उस पर शादी करने का दबाव बना रही थी.

परेशान हो कर एक दिन ममता ने अशोक से फोन पर कहा, ‘‘अशोक, अब तो तुम मु?ा से शादी कर लो, मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं. कहीं ऐसा न हो, मैं समाज में मुंह दिखाने के काबिल न रहूं.’’

‘‘ममता, अभी घर के लोग बहन की शादी में लगे हैं, तुम थोड़ा सब्र रखो. मैं घर वालों को मना लूंगा,’’ अशोक ने दिलासा देते हुए कहा.

‘‘लेकिन, अब 3 महीने का पेट हो चुका है, कब तक मुझे इस तरह दिलासा देते रहोगे…’’ ममता ने चिंता जताते हुए कहा.

‘‘ममता, हम नागपुर जा कर किसी डाक्टर से बच्चा गिरवा लेंगे, तुम चिंता मत करो,’’ अशोक बोला.

‘‘तुम आखिर कब तक मेरे बदन से खेलते रहोगे… मैं अपने बच्चे की हत्या नहीं करूंगी,’’ ममता ने गुस्से से कहा.

‘‘अभी तुम अपनेआप को संभालो. मैं तुम्हें बहन की रिसैप्शन पार्टी में ले कर चलता हूं,’’ अशोक ने चाल बदलते हुए कहा.

अशोक ने जब से ममता के पेट से होने  की बात सुनी थी, तभी से वह ममता से नफरत करने लगा था. वह अकसर सोचता था कि जिस तरह ममता ने आसानी से उस के साथ जिस्मानी रिश्ता बना लिया है, क्या पता उस के और भी लोगों से संबंध न हों. वह ममता से शादी भी तो नहीं कर सकता था. गांव में जातबिरादरी के लोग दूसरी जाति की उस से बड़ी उम्र की लड़की से शादी करने के लिए भला कैसे राजी होंगे.

जब इनसान को अपनी परेशानी का कोई हल नहीं मिलता, तो अकसर उस का दिमाग शैतान बन जाता है. अशोक के शैतान मन में भी एक प्लान बन गया था.

प्लान बनते ही अशोक ने फोन पर ममता की खूब तारीफ करते हुए कहा, ‘‘ममता, मैं परिवार के बड़े बुजुर्गों के डर से तुम्हें बहन की शादी में गांव तो नहीं ले जा पाया, पर उस की रिसैप्शन में ले जाना चाहता हूं. तुम चलोगी न?’’

‘‘हांहां, जरूर चलूंगी. आखिर मैं भी तो देखना चाहती हूं कि मेरी ननद की ससुराल कैसी है,’’ ममता ने खुशी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘हां तो तुम कल सुबह तैयार रहना. कल मैं तुम्हें लेने आऊंगा,’’ अशोक ने जानकारी देते हुए कहा.

‘‘हां अशोक, मैं सजधज कर तैयार मिलूंगी. मैं ने तो कुछ आर्टिफिशियल ज्वैलरी भी भाभी से मांग ली है,’’ ममता चहकते हुए बोली.

दूसरे दिन सुबह ही अशोक ममता के घर पहुंच गया. ममता की मां, भाई और नानी को इस बात की जानकारी पहले से ही थी कि ममता अशोक की पत्नी बन कर नागपुर में रह रही है. इसी वजह से उन्होंने अशोक की खातिरदारी की और ममता को उस के साथ भेज दिया. जातेजाते अशोक ने ममता की मां को यह भी बताया कि वह रिसैप्शन के दूसरे दिन वहां से नागपुर चला जाएगा.

मोटरसाइकिल पर सवार हो कर अशोक के साथ जा रही ममता अपनी ननद के रिसैप्शन में जाने को ले कर बहुत खुश हो रही थी, मगर उसे नहीं पता था कि जिसे वह पति मान बैठी थी, वही उस की जान का दुश्मन बनने की ठान चुका था.

गांव से तकरीबन 25-30 किलोमीटर का फासला तय करते ही जंगल के बीच अशोक ने मोटरसाइकिल रोक दी, तो ममता ने पूछा, ‘‘यहां बीच जंगल में कहां बाइक रोक दी? मु?ो बहुत डर लगता है.’’

‘‘काहे का डर… देखो, पेड़ों की कितनी घनी छांव है, थोड़ा आराम कर लेते हैं, फिर चलते हैं,’’ अशोक ने ममता के गालों को छूते हुए कहा.

अशोक सड़क पर बनी पुलिया के नीचे उतर कर पेड़ों की घनी छांव में उसे ले गया. चलतेचलते अशोक ने ममता से हंसीमजाक करते हुए कहा, ‘‘मेरी जान, आज तुम लाल सुर्ख साड़ी में गजब ढा रही हो. मैं अपनेआप को कंट्रोल नहीं कर पा रहा हूं.’’

‘‘तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती… यहां जंगल में मंगल करने आए हो क्या?’’ ममता ने उसे टोकते हुए कहा.

‘‘जानू, जंगल में ही तो मंगल होता है और फिर क्या तुम कोई गैर हो?’’ ममता को अपने आगोश में लेते हुए अशोक बोला.

‘‘जोकुछ करना है, जल्दी से कर लो. यहां जमीन पर मेरे कपड़े खराब हो जाएंगे,’’ ममता ने भी अशोक के होंठ चूमते हुए कहा.

दोनों पेड़ की छांव में एक कपड़ा बिछा कर प्यार करने लगे. अशोक ने ममता से जिस्मानी रिश्ता बना कर अपनी हसरत पूरी की. जैसे ही ममता जमीन पर बैठ कर अपने कपड़े ठीक कर रही थी, तभी अशोक ने अपनी पैंट की जेब में रखा चाकू निकाला और ममता की ओर झपट पड़ा.

अशोक के बदले हुए रूप को देख कर पहले तो ममता को यकीन नहीं हुआ, मगर जैसे ही अशोक ने उस की गरदन पकड़ी, वह पूरी ताकत से चीख पड़ी और चीखते हुए वहां से भागने लगी, पर तभी अशोक ने उसे जोर से पकड़ लिया और चाकू से उस का गला रेत दिया. कुछ ही पलों में ममता लाश का ढेर बन गई.

पुलिस के सामने मामले की पूरी सचाई बता रहे अशोक हाथों में हथकड़ी और आंखों में आंसू लिए सोच रहा था कि वह देह का भूखा न बन कर प्यार का भूखा होता तो प्यार करने वाली ममता को यों धोखा न देता.

शराबी की घरवाली : कैसी थी रमेश क्लर्क की जिंदगी

रोज की तरह रात को रमेश जब घर पहुंचा तो उसे देख कर उस की घरवाली और उस के बच्चे सहम गए और डर कर एक तरफ हट कर बैठ गए.

‘‘क्या बात है बबलू और मीना, तुम दोनों चुप क्यों हो? देखो, मैं आज तुम्हारे लिए क्या लाया हूं.’’

रमेश ने आमों से भरा थैला अपनी घरवाली की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लता, ये आम अभी धो कर ले आओ. हम सभी साथसाथ खाएंगे.’’

रमेश को बिना शराब पिए देख कर लता को बड़ी खुशी हुई. बबलू और मीना पिताजी की मीठी बोली सुन कर बड़े खुश हुए और मुसकराते हुए उन से लिपट गए.

रमेश एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क था और रोज शराब पीने का आदी था. शुरू में उस ने साथी मुलाजिमों के साथ शौकिया तौर पर शराब पीनी शुरू की थी, मगर बाद में उस का आदी बन गया और रोज शराब पी कर घर आने लगा.

रमेश जब शराब पी कर घर आता तो आते ही लता को किसी न किसी बात पर गालियां देने लगता और उस की पिटाई भी कर देता. बबलू और मीना अपनी मां को पिता से पिटते हुए देख कर सहम जाते और डर के मारे भूखे ही सो जाते.

शराब की आदत के चलते रमेश ने लता के सभी जेवर और अपने हाथ की घड़ी तक बेच डाली थी. उसे जो तनख्वाह मिलती थी, उस में से ज्यादा पैसे तो उस की शराब के खाते में चले जाते थे और जो थोड़ेबहुत बचते थे, उन से घर का खर्चा चला पाना नामुमकिन था. फिर भी लता थोड़ाबहुत काम कर के घर का खर्चा चला रही थी.

लता अपने अलावा बबलू और मीना के लिए कबाड़ी बाजार से पुराने कपड़े खरीद कर गुजारा कर रही थी.

पड़ोसियों के बच्चों के पिता अपने बच्चों के लिए रोज शाम को कुछ न कुछ खाने के लिए लाते थे, मगर रमेश रोज शराब के नशे में चूर हो कर ही घर लौटता था. वह आते ही लता पर बरसने लगता, चाहे उस का कोई कुसूर हो या न हो.

एक दिन तो बात हद से बढ़ गई थी. हुआ यह था कि उस दिन रात को रमेश अपने किसी साथी क्लर्क को साथ ले आया था और वे दोनों शराब पीने लगे थे. लता सामने बैठी खाना बना रही थी कि अचानक रमेश ने उस पर सब्जी से भरी हुई प्लेट दे मारी, जिस से लता के माथे से खून बहने लगा और वह रोने लगी.

‘‘बेवकूफ औरत, तुम मेरे घर

में रहने लायक ही नहीं,’’ कहते हुए रमेश ने उठ कर लता को एक थप्पड़ भी मार दिया.

‘‘क्यों, मैं ने ऐसा क्या किया है?’’

‘‘क्या किया है… तू मेरे दोस्त पर डोरे डाल रही थी. तू क्या समझती है कि मुझे पता नहीं चलता…’’ कहते हुए रमेश ने 2 थप्पड़ लता को और लगा दिए थे.

लता का रोना देख कर पड़ोस की लीला भाभी वहां आईं और उन्होंने लता को साथ ले जा कर डाक्टर से पट्टी करवाई थी और रमेश को समझाबुझा कर चुप कराया था. इस बीच रमेश का दोस्त जा चुका था.

बेकुसूर लता के माथे की चोट कई दिनों तक उसे रुलाती रही थी और पट्टियों का खर्चा अलग उसे सहना

पड़ा था.

इस के बाद रमेश का लता पर

जुल्म बढ़ता ही गया और वह रोज उसे मारतापीटता रहा.

मगर उस दिन जब रमेश बिना पिए घर पहुंचा और बच्चों के खाने के लिए आम भी ले आया, तो लता की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने पति से आमों का लिफाफा ले कर रख लिया और पति के लिए खाना परोसने लगी.

बबलू और मीना इस इंतजार में बैठे थे कि पिताजी को खाना दे कर मां उन्हें आम देंगी कि तभी रमेश का एक दोस्त आया और उसे अपने साथ ले गया.

‘‘मां, पिताजी कहां गए हैं?’’ मीना ने पूछा.

‘‘वे अपने दोस्त के साथ गए हैं,’’ लता ने कहा.

‘‘पिताजी कब आएंगे मां?’’ बबलू ने पूछा.

‘‘बस, अभी थोड़ी ही देर में आ जाएंगे,’’ लता बोली.

‘‘मां, पिताजी ने आज शराब नहीं पी न?’’ बबलू ने पूछा.

‘‘हां बबलू, आज का दिन हमारे लिए बहुत अच्छा है,’’ लता ने कहा.

‘‘तभी तो आज पिताजी हमारे लिए आम लाए हैं,’’ मीना बोली.

‘‘हां मीना, अगर वे रोज शराब न पिएं तो तुम्हारे लिए रोज ही आम ला सकते हैं,’’ लता ने कहा.

‘‘मां, पिताजी शराब पीना छोड़ क्यों नहीं देते?’’ बबलू ने पूछा.

‘‘लगता है, वे शराब छोड़ने की कोशिश में हैं, तभी तो आज उन्होंने शराब नहीं पी,’’ लता ने कहा.

इसी तरह बातें करतेकरते रात के 10 बज गए. बबलू और मीना धीरेधीरे सोने लगे. लता पति के इंतजार में बैठी रही.

रात के तकरीबन 11 बजे  रमेश जब घर लौटा, तो उस पर शराब का नशा चढ़ा हुआ था. लता ने खाने की थाली उस के सामने रखी और पास बैठ गई.

रमेश ने रोटी का एक निवाला तोड़ कर मुंह में रखा ही था कि गुस्से में भड़क उठा, ‘‘जाहिल औरत, यह सब्जी बनाई है या जहर… कौन खाएगा इतनी नमक वाली सब्जी…’’ कह कर उस ने सब्जी की प्लेट एक तरफ फेंक दी.

कुछ समय बाद लता रोज की तरह अपने मर्द के हाथों पिट रही थी और बच्चे बिना आम खाए ही सो चुके थे.

लेकिन उस रोज कुछ और ही हुआ. लता ने पास रखी झाड़ू उठाई और रमेश की पिटाई शुरू कर दी. शराब के नशे में चूर रमेश को मालूम ही नहीं हुआ कि उस के साथ क्या हुआ. वह बेहोश हो कर लुढ़क गया.

सुबह उठा तो रमेश ने देखा कि घर में सन्नाटा था और सारा घर खाली था. लता अपना और बच्चों का सारा सामान ले कर चली गई थी. यहां तक कि रमेश के कपड़े भी नहीं थे. वह उलटी किए हुए और खून से सने कपड़ों में था. उस ने रसोईघर में जा कर अपने मुंह पर पानी डाला और आईने में देखा तो एकदम खरोंचों से भरा चेहरा था. उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे.

2-4 घंटे इंतजार करने के बाद भी कोई नहीं आया. पेट में कुछ न गया, तो रमेश को अहसास हुआ कि उस ने क्या गलती की है. पर तब तक बहुत देर नहीं हो चुकी थी. वह दिनभर उन्हीं कपड़ों में बिस्तर पर रोता रहा.

पुनर्मरण: शुचि खुद को क्यों अपराधी समझती थी?

कुछ सजा ऐसी भी होती है जो बगैर किसी अपराध के ही तय कर दी जाती है. उस दिन अपने परिवार के सामने मैं भी बिना किसी किए अपराध की सजा के रूप में अपराधिनी बनी खड़ी थी. हर किसी की जलती निगाहें मुझे घूर रही थीं, मानो मुझ से बहुत बड़ा अपराध हो गया हो.

मांजी की चलती तो शायद मुझे घर से निकाल दिया होता. मेरे दोनों बेटे त्रिशंक और आदित्य आंगन में अपनी दादी के साथ खड़े थे. पंडितजी कुरसी पर बैठे थे और मांजी को समझा रहे थे कि जो हुआ अच्छा नहीं हुआ. अब विभु की आत्मा की शांति के लिए उन्हें हवन- पूजा करनी होगी.. भारी दान देना होगा, क्योंकि आप की बहू के हाथों भारी पाप हो गया है.

मेरा अपना बड़ा बेटा त्रिशंक मुझे हिकारत से देखते हुए क्रोध में बोला, ‘‘मेरा अधिकार आप का कैसे हो गया, मां? यह आप ने अच्छा नहीं किया.’’

‘‘परिस्थितियां ऐसी थीं जिन में एक के अधिकार के लिए दूसरे के शरीर की दुर्गति तो मैं नहीं कर सकती थी, बेटे,’’ भीगी आंखों से बेटे को देखते हुए मैं ने कहा.

‘‘मजबूरी का नाम दे कर अपनी गलती पर परदा मत डालिए, मां.’’

तभी मांजी गरजीं, ‘‘बड़ी आंदोलनकारी बनती है. अरे, इस से पूछ त्रिशंक कि विभु के कुछ अवशेष भी साथ लाई है या सब वहीं गंगा में बहा आई.’’

‘‘बोलो न मां, चुप क्यों हो? दो जवाब दादी की बातों का.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो भैया, आखिर पापा पर पहला हक तो मां का ही था न?’’

‘‘चुप बेसऊर,’’ मांजी फिर गरजीं, ‘‘पति की मौत पर पत्नी को होश ही कहां होता है जो वह उस का अंतिम संस्कार करे, इसे तो कोई दुख ही न हुआ होगा, आजाद जो हो गई. अब करेगी समाज सेवा जम कर.’’

‘‘चुप रहिए,’’ मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई और मैं गरज पड़ी, ‘‘मेरा कुसूर क्या है? किस बात की सजा दे रहे हैं आप सब मुझे. यही न कि मैं ने अपने पति का उन की मौत के बाद अंतिम संस्कार क्यों कर दिया, तो सुनिए, वह मेरी मजबूरी थी. क्षतविक्षत खून से सनी लाश को मैं 2 दिन तक कैसे संभालती. कटरा से कोलकाता की दूरी कितनी है, क्या आप सब नहीं जानते? मेरे पास कोई साधन नहीं था. कैसे ले कर आती उन्हें यहां तक? फिर अपने पति का, जो मेरे जीवनसाथी थे, हर दुखसुख के भागीदार थे, अंतिम संस्कार कर के मैं ने क्या गलत कर दिया?’’

मेरी आवाज भर्रा गई और मैं ऊपर अपने कमरे में आ गई. मेरी दोनों बहुएं रेवती और रौबिंका भी मेरे पीछेपीछे ऊपर आ गईं. मेरी छोटी बहू रशियन थी. उस की समझ में जब कुछ नहीं आया तो वह अंगरेजी में बस यही कहती रही, ‘‘पापा की आत्मा के लिए प्रार्थना करो, वही ज्यादा जरूरी है, यह कलह क्यों हो रही है.’’

मैं उसे क्या समझाती कि यहां हर धार्मिक अनुष्ठान शोरगुल और चिल्लाहट से ही शुरू होता है. कहीं पढ़ा था कि झूठ को जोर से बोलो तो वह सच बन जाता है. यही पूजापाठ का मंत्र भी है, जो पुजारी जितनी जोर से मंत्र पढे़गा, वह उतना ही बड़ा पंडित माना जाएगा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए जो मेरे गालों पर बह निकले. विभु की मौत हो गई है. मेरा सबकुछ चला गया, मैं इस का शोक भी शांति से नहीं मना पा रही हूं. कमरे की खिड़की का परदा जरा सा खिसका हुआ था. दूर गगन में देखते हुए मैं अतीत में चली गई.

बचपन से ही मैं दबंग स्वभाव की थी. मम्मी और पापा दोनों ही नौकरी में थे. घर पर मैं और मुझ से छोटा भाई बस, हम दोनों ही रहते. मां ने यही सिखाया था कि कभी अन्याय न करना और न सहना. हमेशा सच का साथ देना. मेरा पूरा परिवार खुले विचारों का था. मेरी परवरिश इस तरह के माहौल में हुई तो जाहिर है मैं रूढि़यों को न मानने वाली और हमेशा सही का साथ देने वाली बन गई.

बी. एड. में मैं ने प्रवेश लिया था. पहला साल था कि विभु के घर से विवाह के लिए रिश्ता आ गया. मैं शादी से कतरा रही थी पर मां ने समझाया, ‘शुचि, विभु प्रवक्ता है. यानी एक पढ़ालिखा इनसान. तेरा भी पढ़ाई में रुझान ज्यादा है. शादी कर ले, वह तुझे अच्छी तरह समझेगा और जितना पढ़ना चाहेगी पढ़ाएगा भी.’

शादी के बाद जब मैं विभु के घर पहुंची तो यह देख कर आश्चर्य में पड़ गई कि विभु बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे. विभु ने शादी की रात में ही मुझ से कह दिया था, ‘शुचि, मैं पूजापाठ करता हूं, पर तुम से इतना वादा करता हूं कि तुम्हें यह सब करने के लिए मैं कभी बाध्य नहीं करूंगा. हां, जहां जरूरत होगी वहां साथ जरूर रखूंगा.’

उन दिनों मेरी बी. एड. की परीक्षा चल रही थी, नवरात्र का समय था. सुबह विभु उठ कर शंख, घंटी से पूजा करते. मेरी आदत सुबहसुबह उठ कर पढ़ने की थी. इस शोर से मैं पढ़ नहीं पाती. आखिर मैं ने विभु से कह दिया. उस दिन से विभु मौन पूजा करने लगे. बल्कि मां को भी सुबह जोर से मंत्रोच्चारण करने को मना कर दिया.

हमारा जीवन एक खुशहाल जीवन कहा जा सकता है. शादी के शुरुआती दिनों में हम जहां भी घूमने जाते वहां के मंदिरों में जरूर जाते. मैं तटस्थ ही रहती थी, कभी भी विभु को इस के लिए मना नहीं करती. आखिर अपनीअपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का सभी को हक है. जब मैं अपना खाली समय पत्रिकाओं को पढ़ने में बिताती तो विभु भी नहीं बोलते. हमारे प्यार के बीच एक आपसी समझौता हम दोनों ने कर रखा था.

4 वर्ष बाद त्रिशंक पैदा हुआ. बी.एड. के बाद मैं नौकरी करने लगी थी. त्रिशंक दादी के पास रहता और उस का बचपन दादी की परी, बेताल और धार्मिक किस्सेकहानियों में बीता. इसी कारण वह बचपन से धर्म के मामले में संकीर्ण हो गया.

आदित्य के समय तक मैं ने नौकरी छोड़ दी. अपना पूरा समय मैं बच्चों और परिवार में बिताती. बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे. एक ने कंप्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग की, दूसरा अमेरिकन बैंक में लग गया. दोनों ही विदेश चले गए. बड़े ने मेरी देखी हुई लड़की से शादी की परंतु छोटे ने विदेश मेें अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह कर लिया. उस के विवाह में हम सब गए थे. मांजी खूब बड़बड़ाई थीं पर विभु नाराज नहीं हुए थे.

विभु का रिटायरमेंट करीब था. मेरे पास भी समय था. बच्चों के बाहर बसने से मेरे लिए कुछ करने को रह ही नहीं गया था, सो मैं समाजसेवा से जुड़ गई.

एक दिन बैठेबैठे यों ही विभु के मुंह से निकल गया, ‘शुचि, हमारी सारी जिम्मेदारियां पूरी हो गई हैं. चलो, तीर्थ कर आएं.’

मैं हंस दी तो वह भी हंस दिए. बोले, ‘मैं जानता हूं शुचि, तुम पूजापाठ में विश्वास नहीं रखती हो. पर मैं मजबूर हूं. बचपन से ही मां ने मेरे अंदर यह भावना बिठा दी है कि भगवान ही सबकुछ है. जो कुछ भी करो उसे सपर्पित कर के करो. बस, मैं यही कर रहा हूं.’

मैं ने अनायास ही पूछ लिया, ‘आप ने ईश्वर देखा है क्या?’

‘नहीं, पर मैं मानता हूं कि यह धरती, आकाश, परिंदे और वृक्षों को बनाने वाला ईश्वर है.’

विभु थोड़ी देर शांत बैठे रहे, फिर बाहर टहलने चले गए. उन के ध्यान और योग को मैं अच्छा मानती थी. इन दोनों चीजों से व्यक्ति का मस्तिष्क और शरीर दोनों ही स्वस्थ होते हैं.

जुलाई का महीना था. अपने तय कार्यक्रम के अनुसार हम हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक नजारों को देखते धार्मिक स्थानों पर घूमते हुए कटरा पहुंचे थे ताकि वैष्णोदेवी का स्थान देख कर दर्शन कर सकें. कई दिनों की लगातार थकावट से बदन का पोरपोर दुख रहा था. विभु को तभी सांस की तकलीफ होने लगी थी. बाणगंगा पर ही मैं ने जिद कर के उन के लिए घोड़ा करवा दिया ताकि उन की सांस की तकलीफ और न बढ़े.

घोड़े पर बैठ कर जब हम चले तो मुझे डर भी लग रहा था. यह घोड़े अजीब होते हैं. कितनी भी जगह हो पर चलेंगे एकदम किनारे. गजब की सधी हुई चाल होती है इन की. नीचे झांको तो कलेजा मुंह को आ जाए, गहरीगहरी खाइयां.

सवारी की वजह से हम जल्दी ही मंदिर देख कर नीचे वापस आ गए. हमारी इस यात्रा में पटना का एक परिवार भी शामिल हो गया. मेरा थकावट से बुरा हाल था. रात हो गई थी. लौटतेलौटते भूख भी लग रही थी और विश्राम करने की इच्छा भी हो रही थी.

पटना वालों ने बताया कि नीचे बाणगंगा के पास लंगर चलता है, चल कर वहीं भोजन करते हैं. घोड़े वाले ने कहा कि भोजन कर के चले चलिए तो रात में ही होटल पहुंच जाएंगे. फिर वहां आराम करिएगा.

लंगर में लोग खाने के लिए लाइन लगाए खड़े थे. सब तरफ हलवा बांटा जा रहा था. मैं ने गौर किया कि थालियां ठीक से धुली नहीं थीं फिर भी उन में खाना परोस दिया जा रहा था. थालियां ऐसे बांटी जा रही थीं मानो हाथ नहीं मशीन हो. मैं विभु के साथ हाथमुंह धो कर बैठ गई.

‘चलो, दर्शन हो गए, अब घर चल कर एक हवन करा लेंगे.’

मैं होंठ दबा कर हंसी तो विभु ने मुंह दूसरी तरफ फेर लिया. हवन का आशय मेरी समझ से दूसरा था. पिताजी ने ही एक बार समझाया था कि हवन के धुएं से पूरा घर साफ हो जाता है. कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं.

भोजन की लाइन में बैठ विभु उस समय काफी तरोताजा लग रहे थे. चारों तरफ गहमागहमी थी. लंगर की यह विशेषता मुझे अच्छी लगती है, जहां एक ही कतार में सेठ भी खाते हैं और उन के मातहत भी. यहां कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है.

अचानक मुझे जोर की उबकाई आई. मैं उठ कर बाहर भागी. शायद कुछ न खाने की वजह से पेट में गैस बन गई थी. मैं मुंह धो कर हटी ही थी कि एक जोर का धमाका हुआ और  सारा वातावरण धुएं और धूल से भर गया. लोग जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगे, एकदूसरे पर गिरने लगे. विभु का ध्यान आते ही मैं पागलों की तरह उधर भागी पर वहां धुएं की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. 10 मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक और जोरदार धमाका हुआ. आतंकवादियों ने कहीं से गोले फेंके थे. मेरे पेट में जोर की ऐंठन हुई और लाख न चाहने के बावजूद मैं अचेत हो कर वहीं गिर पड़ी.

मुझे जब होश आया, भगदड़ कुछ थम गई थी. मैं जमीन पर एक तरफ पड़ी थी. प्रेस वाले और पुलिस वाले वहां मौजूद थे. मैं ने हिम्मत कर के उठने की कोशिश की. मैं जानना चाहती थी कि विभु कहां हैं. पर किस से पूछती, हर कोई अपने साथ वाले के लिए बेचैन था. लोग आपस में बात कर रहे थे कि आतंकवादियों ने कहीं से बम फेंका है जिस में लगभग 7 लोगों की जान चली गई है. कई गंभीर अवस्था में घायल पड़े हैं जिन्हें कटरा अस्पताल ले जाया जा रहा है.

मैं अपने पांवों को घसीटते हुए उधर गई जहां बैठ कर विभु भोजन कर रहे थे. देखा, वहां चावल, रोटी के बीच खून की धारें बह रही थीं. शरीर के चिथड़े बिखरे पड़े थे. इस विस्फोट ने माता के कई भक्तों की जानें ले ली थीं. मुझे विभु कहीं नजर नहीं आए. मैं जिसे देखती उसी से पूछती, ‘क्या आप ने विभु को देखा है?’ पर मेरे विभु को वहां जानता ही कौन था. कौन बताता भला.

घायलों की तरफ मैं गई तो विभु वहां भी नहीं थे. तभी मेरा कलेजा मुंह को आ गया. पांव बुरी तरह कांपने लगे. थोड़ी दूर पर विभु का क्षतविक्षत शव पड़ा हुआ था. मैं बदहवास सी उन के ऊपर गिर पड़ी. मैं चीख रही थी, ‘कोई इन्हें बचा लो…यह जिंदा हैं, मरे नहीं हैं.’

मेरी चीख से एक पुलिस वाला वहां आया. विभु का निरीक्षण किया और सिर हिला कर चला गया. मैं चीखतीचिल्लाती रही, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता, मेरा विभु मर नहीं सकता.’ सहानुभूति से भरी कई निगाहें मेरी तरफ उठीं पर मेरी सहायता को कोई नहीं आया.

इस आतंकवादी हमले के बाद जो भगदड़ मची उस में मेरा पर्स, मोबाइल सभी जाने कहां खो गए. मैं खाली हाथ खड़ी थी. किसे अपनी सहायता के लिए बुलाऊं. विभु को ले कर कोलकाता तक का सफर कैसे करूंगी?

मैं ने हिम्मत की. विभु को एक तरफ लिटा कर मैं गाड़ी की व्यवस्था में लग गई. पर मुझे विभु को ले जाने से मना कर दिया गया. पुलिस का कहना था कि लाशें एकसाथ पोस्टमार्टम के लिए जाएंगी. मैं विभु को यों नहीं जाने देना चाहती थी पर पुलिस व्यवस्था के आगे मजबूर थी.

मेरा मन क्षोभ से भर गया, धर्म के नाम पर यह आतंकवादी हमले जाने कब रुकेंगे. क्यों करते हैं लोग ऐसा? मैं सोचने लगी, मेरे पति की तरह कितने ही लोग 24 घंटे के भीतर मर गए हैं. क्या गुजर रही होगी उन परिवारों पर. मैं खुद अनजान जगह पर विवश और परेशान खड़ी थी.

विभु का शव मिलने में पूरा दिन लग गया. मेरे पास पैसा भी नहीं था. एक आदमी मोबाइल लिए घूम रहा था, मैं ने उस से विनती कर के अपने घर फोन मिलाया. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. मांजी शायद मंदिर गई होंगी. फिर मैं ने बड़े बेटे का नंबर लगाया तो वह सुन कर फोन पर ही रोने लगा, ‘मां, हम जल्दी ही पहुंचने की कोशिश करेंगे पर फिर भी आने में 3 दिन तो लग ही जाएंगे. आप कोलकाता पहुंचिए. हम वहीं पहुंचेंगे.’

विभु का मृत शरीर मेरे पास था. कोई भी गाड़ी वाला लाश को कोलकाता ले जाने को तैयार नहीं हुआ. मैं परेशान, क्या करूं. उधर दूसरे दिन ही विभु का शरीर ऐंठने लगा था. कुछ लोगों ने सलाह दी कि इन का अंतिम संस्कार यहीं कर दीजिए. आप अकेली इन्हें ले कर इतनी दूर कैसे जाएंगी?

विभु जीवन भर पूजापाठ करते रहे. क्या इसी मौत के लिए विभु भगवान को पूजते रहे?

विभु के बेजान शरीर की और छीछालेदर मुझ से सही नहीं गई. मैं ने सोचा, यहीं गंगा के किनारे उन का अंतिम संस्कार कर दूं. कुछ लोगों की सहायता से मैं ने यही किया. विभु का पार्थिव शरीर अनंत में विलीन हो गया. मेरे आंसू सूख चुके थे. मेरे आंसुओं को पोंछने वाला हाथ और सहारा देने वाला संबल दोनों ही छूट गए थे.

मेरी तंद्रा किसी के स्पर्श से टूटी. जाने कितनी देर से मैं बिस्तर पर इसी हाल में पड़ी रह गई थी. दोनों बहुएं मेरे अगलबगल बैठी थीं और छोटी बहू का हाथ मेरे केशों को सहला रहा था.

‘‘उठिए, मां.’’

मैं ने धीमे से अपनी आंखें खोलीं. दोनों बहुएं आंखों में प्यार, सहानुभूति लिए मुझे देख रही थीं. छोटी बहू की आंखों में प्रेम के साथ कौतूहल भी था. वह बेचारी क्या समझ पाती कि यहां क्या कहानी गढ़ी जा रही है. वह बस टुकुरटुकुर मुझे निहारती रहती.

‘‘नीचे चलिए, मां, पंडितजी आ गए हैं और कुछ पूजाहवन करवा रहे हैं,’’ बड़ी बहू रेवती बोली.

‘‘शायद मेरी उपस्थिति मांजी को अच्छी न लगे. तुम लोग जाओ. मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘पिताजी के किसी भी संस्कार में शामिल होने का आप को पूरा अधिकार है, मां. आप चलिए,’’ बड़ी बहू ने मुझ से कहा.

भारी कदमों से मैं नीचे उतरी तो वहां का दृश्य देख कर मन भारी हो गया. मांजी त्रिशंक से कह रही थीं, ‘‘बेटा, पंडितजी आ गए हैं. यह जैसा कहें वैसा कर, यह ऐसी पूजा करवा देंगे जिस से विभु का अंतिम संस्कार तेरे हाथों से हुआ माना जाएगा.’’

अपने को बिना किसी अपराध के अपराधिनी समझ बैठी हूं मैं. एक मरे इनसान की अनदेखी आत्मा की शांति के लिए जो अनुष्ठान किया जा रहा था वह मेरी सोच के बाहर का था. इस क्रिया से क्या विभु की आत्मा प्रसन्न हो जाएगी? यदि मांजी यह सब करतीं तो शायद मुझे इतना दुख न लगता जितना अपने बड़े बेटे को इस पूजा में शामिल होते देख कर मुझे हो रहा था.

पंडितजी जोरजोर से कोई मंत्र पढ़ रहे थे. त्रिशंक सिर पर रूमाल रखे हाथ जोड़ कर बैठा था. एक ऊंचे आसन पर विभु का शाल रख दिया गया था. मांजी रोते हुए यह सब करवा रही थीं. काश, आज विभु यह सब देख पाते कि उन के संस्कारों ने किस तरह उन के बेटे में प्रवेश कर लिया है. गलत परंपरा की नींव त्रिशंक और मांजी मिल कर डाल रहे हैं. मैं भीगी आंखों से अपने पति को एक बार फिर मरते हुए देख रही थी.

सैंडल : गुड्डी किशन की अनोखी जोड़ी

अपने बैडरूम के पीछे से किसी बच्ची के जोरजोर से रोने की आवाज सुन कर मैं चौंका. खिड़की से ?ांकने पर पता चला कि किशन की बेटी गुड्डी दहाड़ें मारमार कर रो रही थी.

मैं ने खिड़की से ही पूछा, ‘‘अरी लीला, छोरी क्यों रो रही?है?’’

इस पर गुड्डी की मां ने जवाब दिया, ‘‘क्या बताएं सरकार, छोरी इस दीवाली पर बहूरानी जैसे सैंडल की जिद कर रही है…’’ वह कुछ रुक कर बोली, ‘‘इस गरीबी में मैं इसे सैंडल कहां से ला कर दूं?’’

मैं अपनी ठकुराहट में चुप रहा और खिड़की का परदा गिरा दिया.

मैं ने जब से होश संभाला था, तब से किशन के परिवार को अपने खेतों में मजदूरी करते ही पाया था. जब 10वीं जमात में आया, तब जा कर सम?ा आया कि कुछ नीची जाति के परिवार हमारे यहां बंधुआ मजदूर हैं.

सारा दिन जीतोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से इन्हें दो जून की रोटी व पहनने के लिए ठाकुरों की उतरन ही मिल पाती थी. इस में भी बेहद खुश थे ये लोग.

गुड्डी किशन की सब से बड़ी लड़की थी. भूरीभूरी आंखें, गोल चेहरा, साफ रंग, सुंदर चमकीले दांत, इकहरा बदन. सच मानें तो किसी ‘बार्बी डौल’ से कम न थी. बस कमी थी तो केवल उस की जाति की, जिस पर उस का कोई वश नहीं था. वह चौथी जमात तक ही स्कूल जा सकी थी.

अगले ही साल घर में लड़का पैदा हुआ तो 13 साल की उम्र में स्कूल छुड़वा दिया गया और छोटे भाई कैलाश की जिम्मेदारी उस के मासूम कंधों पर डाल दी गई.

दिनभर कैलाश की देखभाल करना, उसे खिलानापिलाना, नहलानाधुलाना वगैरह सबकुछ गुड्डी के जिम्मे था. कैलाश के जरा सा रोने पर मां कहती, ‘‘अरी गुड्डी, कहां मर गई? एक बच्चे को भी संभाल नहीं सकती.’’

बेचारी गुड्डी फौरन भाग कर कैलाश को उठा लेती और चुप कराने लग जाती. इस काम में जरा सी चूक होने पर लीला उसे बड़ी बेरहमी से पीटती. फिर भी वह सारा दिन चहकती रहती. शायद बेटी होना ही उस का जुर्म था.

मेरी शादी के बाद ‘ऊंची एड़ी के सैंडल’ पहनना गुड्डी का सपना सा बन गया था. गृहप्रवेश की रस्म के समय उस ने मेरी बीवी के पैरों में सैंडल देख लिए थे. बस, फिर क्या था, उस ने मन ही मन ठान लिया था कि अब तो वह सैंडल पहन कर ही दम लेगी.

उस की सोच का दायरा बस सैंडल तक ही सिमट कर रह गया था.

गुड्डी कभीकभार हमारी कोठी में आया करती थी. एक बार की बात है कि वह अपने हाथ में मुड़ातुड़ा अखबार का टुकड़ा लिए इठलाती हुई जा रही थी.

मैं ने पूछ लिया, ‘‘गुड्डी, क्या है तेरे हाथ में?’’

वह चुप रही. मैं ने मांगा तो कागज का टुकड़ा मु?ो थमा दिया. मैं ने अखबार का पन्ना खोल कर देखा तो पाया कि वह सैंडल का इश्तिहार था, जिसे गुड्डी ने सहेज कर अपने पास रखा था.

मैं ने अखबार का टुकड़ा उसे वापस दे दिया. वह लौट गई. इस से पहले भी कमरे में ?ाड़ू लगाते समय मैं ने एक बार उसे अपनी बीवी के सैंडल पहनते हुए देख लिया था.

मेरे कदमों की आहट सुन कर गुड्डी ने फौरन उन्हें उतार कर एक ओर सरका दिया. मैं ने भी बचकानी हरकत जान कर उस से कुछ नहीं कहा.

गुड्डी की जिद को देख कर मन तो मेरा भी बहुत हो रहा था कि उसे एक जोड़ी सैंडल ला दूं. मगर मांबाबूजी के आगे हिम्मत न पड़ती थी, अपने मजदूरों पर एक धेला भी खर्च करने की.

बाबूजी इतने कंजूस थे कि एक बार गांव के कुछ लोग मरघट की चारदीवारी के लिए चंदा मांगने आए थे तो उन्हें यह कह कर लौटा दिया, ‘‘अरे बेवकूफो, ऐसी जगह पर चारदीवारी की क्या जरूरत है, जहां जिंदा आदमी तो जाना नहीं चाहता और मरे हुए उठ कर आ नहीं सकते.’’

बेचारे गांव वाले अपना सा मुंह ले कर लौट गए. गुड्डी को कुछ ला कर देना तो दूर की बात है, हमें उस से बात करने तक की इजाजत नहीं थी.

हमारे घरेलू नौकरों तक को नीची जाति के लोगों से बात करने की मनाही थी. गांव में उन के लिए अलग कुआं, अलग जमीन पर धान, सागसब्जी उगाने का इंतजाम था.

वैसे तो किशन की ?ोंपड़ी हमारी कोठी से कुछ ही दूरी पर थी, मगर उस के परिवार में कितने लोग हैं, इस का मु?ो भी अंदाजा नहीं था.

मैं राजस्थान यूनिवर्सिटी से बीकौम का इम्तिहान पास कर वकालत पढ़ने विलायत चला गया. वहां भी गुड्डी मेरे लिए एक सवाल बनी हुई थी.

देर रात तक नींद न आने पर जब

घर के बारे में सोचता तो गुड्डी के सैंडल की याद ताजा हो उठती. मैं मन ही मन उसे अपने परिवार का सदस्य मान चुका था.

4 साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. मैं ने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली थी. अब बात आगे काम सीखने की थी, जो मैं यहां अपने देश में ही करना चाहता था. इधर पिताजी ने जोधपुर हाईकोर्ट में अपने वकील दोस्त भंडारी

से मेरे बारे में बात कर ली थी इसलिए मैं भारत लौट रहा था.

चंद रोज बाद ही मैं मुंबई एयरपोर्ट पर था. एयरपोर्ट से रेलवे स्टेशन करीब डेढ़ किलोमीटर दूर था. 4 साल तक विदेश में रहने के बावजूद भी मैं मांबाबूजी के खिलाफ जाने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाया था, फिर भी किसी तरह उन्हें मनाने का मन बना लिया था.

ट्रेन के आने में अभी 5 घंटे का समय था, इसलिए रिकशे वाले को जूतों की किसी अच्छी सी दुकान पर ले चलने को कहा. वहां से गुड्डी के लिए एक जोड़ी सैंडल खरीदे और रेलवे स्टेशन पहुंच गया.

कुली ने सारा सामान टे्रन में चढ़ा दिया. मैं ने सैंडल वाली थैली अपने हाथ में ही रखी. यह थैली मु?ो अपने मन की पोशाक जान पड़ती थी, जिस के सहारे मैं ऊंचनीच का भेद भुला कर पुण्य का पापड़ सेंकने की फिराक में था.

मेरा गांव रायसिंह नगर मुंबई से तकरीबन 800 किलोमीटर दूर था. आज बड़ी लाइन के जमाने में भी वहां तक पहुंचने में 20 घंटे लग जाते हैं और

3 बार ट्रेन बदलनी पड़ती है.

आजादी से 2 साल पहले तो 3 दिन और 2 रातें सफर में ही गुजर जाती थीं. अगले दिन शाम तकरीबन 5 बजे मैं थकाहारा गांव पहुंचा.

गांव में त्योहार का सा माहौल था. पूरा गांव मेरे विदेश से लौटने पर खुश था. गांवभर में मिठाइयां बांटी जा रही थीं. सभी के मुंह पर एक ही बात थी, ‘‘छोटे सरकार विदेश से वकालत पढ़ कर लौटे हैं.’’

मैं बीकानेर इलाके का पहला वकील था. उस जमाने में वकील को लोग बड़ी इज्जत से देखते थे.

घर पहुंचने पर बग्घी से उतरते ही मैं ने किशन की ?ोंपड़ी की ओर एक नजर डाली, मगर वहां गुड्डी नहीं दिखाई दी.

रात 9 बजे के बाद माहौल कुछ शांत हुआ. पर मेरा पूरा बदन टूटा जा रहा था. खाना खाया और दर्द दूर करने की दवा ले कर सो गया.

अगले दिन सुबह 9 बजे के आसपास मेरी आंख खुली. श्रीमतीजी मेरा सूटकेस व दूसरा सामान टटोल रही थीं. उस ने अपने मतलब की सभी चीजें निकाल ली थीं, जो मैं उस के लिए ही लाया था. यहां तक कि मां की साड़ी, पिताजी के लिए शाल, छोटे भाईबहनों के कपड़े वगैरह सबकुछ मेरे जगने से पहले ही बंट चुके थे. पर सैंडल वाली थैली नदारद थी.

मैं ने सोचा कि सुधा ने अपना सम?ा कर कहीं रख दी होगी.

दोपहर के खाने के बाद मैं ने सोचा कि अब गुड्डी के सैंडल दे आऊं. उसे बड़ी खुशी होगी कि बाबूजी परदेश से मेरे लिए भी कुछ लाए हैं.

मैं ने अपनी बीवी से पूछा, ‘‘सुधा, वह लाल रंग की थैली कहां रख दी, जिस में सैंडल थे?’’

सुधा ने जवाब दिया, ‘‘ऐसी तो कोई थैली नहीं थी आप के सामान में.’’

मैं ने फिर कहा, ‘‘अरे यार, मुंबई

से लाया था. यहींकहीं होगी. जरा गौर

से देखो.’’

सुधा ने सारा सामान उलटपुलट कर दिया, मगर वह लाल रंग की थैली कहीं नहीं मिली.

काफी देर के बाद याद आया कि अजमेर रेलवे स्टेशन पर एक आदमी बड़ी देर से मेरे सामान पर नजर गड़ाए था, शायद वही मौका पा कर ले गया होगा. यह बात मैं ने सुधा को बताई

तो वह बोली, ‘‘चलो अच्छा ही हुआ. किसी जरूरतमंद के काम तो आएगी. वैसे भी मेरे पास तो 6-7 जोड़ी सैंडल पड़े हैं.’’

इस पर मैं ने कहा, ‘‘अरी सुधा, वह मैं तुम्हारे लिए नहीं गुड्डी के लिए

लाया था.’’

गुड्डी का नाम सुनते ही सुधा सिसकने लगी. उस की आंखें भीग गईं. वह बोली, ‘‘किसे पहनाते, गुड्डी को मरे तो 4 महीने हो गए.’’

सुधा की पूरी बात सुन कर मैं भी रो पड़ा. सुधा ने बताया कि मेरे जाने के एक साल बाद ही बेचारी गरीब को एक ऐयाश शराबी के साथ ब्याह दिया गया. उम्र में भी वह काफी बड़ा था. गुड्डी लोगों के घरों में ?ाड़ूपोंछा कर जो भी 2-4 रुपए कमा कर लाती, उसे भी वह मारपीट कर ले जाता.

चौबीसों घंटे वह शराब पी कर पड़ा रहता था. बहुत दुखी थी बेचारी. फिर भी उस ने अपने सपने को ज्यों का त्यों संजो कर रखा था. करीब 4 महीने पहले बड़ी मुश्किल से छिपछिपा कर बेचारी ने 62 रुपए जोड़ लिए थे.

करवाचौथ के दिन गांव में हाट लगा था, जहां से गुड्डी अपना सपना खरीद कर लाई थी. उसे क्या पता था कि यह सपना ही उस के लिए काल बन जाएगा.

गुड्डी ने हाट से वापस आ कर सैंडल ऊपर के आले में रखे थे. एक बार पहन कर देखे तक नहीं कि कहीं मैले न हो जाएं.

शाम को न जाने कहां से उस के पति की नजर सैंडल पर पड़ गई. कहने लगा, ‘‘बता चुड़ैल, कहां से लाई इतने पैसे? किस के साथ गई थी?’’ और लगा उसे जोरजोर से पीटने.

गुड्डी पेट से थी. उस ने एक लात बेचारी के पेट पर दे मारी. वही लात उस के लिए भारी पड़ गई. उस की मौत हो गई. उस का पति आजकल जेल में पड़ा सड़ रहा है.

यही थी गुड्डी की दर्दभरी कहानी, जिसे सुन कर कोई भी रो पड़ता था.

पर अब न गुड्डी थी, न गुड्डी का सपना.

समझौता : क्या जूही ने खुद के साथ समझौता किया?

डाक्टर के हाथ से परचा लेते ही जूही की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. बेचारी आज बहुत परेशान थी. होती भी क्यों न, मां को कैंसर की बीमारी जो थी. इधर 6 महीने से तो उन की सेहत गिरती ही जा रही थी. वे बेहद कमजोर हो गई थीं.

पिछले महीने मां को अस्पताल में भरती कराना पड़ा. ऐसे में पूरा खर्चा जूही के ऊपर आ गया था. मां का उस के अलावा और कौन था. पिता तो बहुत पहले ही चल बसे थे. तब से मां ने ही जूही और उस के दोनों भाइयों को पालापोसा था.

तभी जूही के कानों में मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘बेटी जूही, जरा पानी तो पिला दे. होंठ सूखे जा रहे हैं मेरे.’’

अपने हाथों से पानी पिला कर जूही मां के पैर दबाने लगी. परचा पकड़ते ही वह परेशान हो गई, ‘अब क्या करूं?’

रिश्तेदारों ने भी धीरेधीरे उन से कन्नी काट ली थी. जैसेजैसे वक्त बीतता जा रहा था, खर्चे तो बढ़ते ही जा रहे थे. सबकुछ तो बिक गया था. अब क्या था जूही के पास?

तभी जूही को सुभाष का ध्यान आया. उस की परचून की दुकान थी. वह शादीशुदा और 2 बच्चों का बाप था. जूही उस की दुकान की तरफ चल दी.

सुभाष जूही को देख कर चौंका और उस के अचानक इस तरह से आने की वजह पूछी, ‘‘आज मेरी याद कैसे आ गई?’’ कह कर सुभाष उस की कमर पर हाथ फेरने लगा.

जूही ने कहा, ‘‘वह… लालाजी… मां की तबीयत काफी खराब है. मैं आप से मदद मांगने आई हूं. दवा तक के पैसे नहीं हैं मेरे पास,’’ कहते हुए वह हिचकियां ले कर रोने लगी.

जूही की मजबूरी में सुभाष को अपनी जीत नजर आई, ‘‘बोल न क्या चाहती है? मैं तो हर वक्त तैयार हूं. बस, तू मेरी इच्छा पूरी कर दे,’’ बोलते हुए सुभाष ने उस की तरफ ललचाई नजरों से ऐसे देखा, जैसे कोई गिद्ध अपने शिकार को देखता है.

जूही सुभाष की आंखों में तैर रही हवस को पढ़ चुकी थी. वह तो खुद ही समर्पण के लिए आई थी. हालात से हार मान कर वह उस के सामने जमीन पर बैठ गई. आखिर चारा भी क्या था, उस के पास सम?ौते के सिवा. जीत की खुशबू पा कर सुभाष की हवस दोगुनी हो गई थी. उस ने अपने मन की कर डाली.

थोड़ी देर बाद सुभाष ने जूही को रुपए देते हुए कुटिल मुसकराहट के साथ कहा, ‘‘कभी भी, कैसी भी जरूरत हो, मैं तुम्हारी मदद के लिए तैयार हूं. बस, एक रात के लिए तू मेरे पास आ जाना.’’

खुद को ठगा हुआ महसूस करते हुए जूही वापस अस्पताल आ गई. उस ने दवा और अस्पताल के बिल चुकाए. वह मन ही मन सोच रही थी, ‘आज तो मैं ने सम?ौता कर के मां की दवाओं का इंतजाम कर दिया, लेकिन अब आगे क्या होगा?’

यही नहीं, जूही को अपने दोनों भाइयों की पढ़ाई और खानेपीने के खर्च की भी चिंता सताने लगी थी.

अब जब भी पैसों की जरूरत होती, जूही सुभाष के पास चली जाती और कुछ दिन के लिए परेशानी आगे टल जाती. वह अकसर अपने को दलदल में फंसा हुआ महसूस करती, लेकिन जानती थी कि रुपएपैसे के बिना गुजारा नहीं है.

धीरेधीरे मां की सेहत में सुधार होने लगा. भाइयों की पढ़ाई भी पूरी हो गई. नौकरी मिलते ही दोनों भाइयों ने अपनीअपनी पसंद की लड़कियों से शादी कर ली.

मां ने जब भाइयों से घर की जिम्मेदारी लेने को कहा, तो उन्होंने खर्चा देने से मना कर दिया. अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर वे अलग हो गए.

घर का खर्च, मां की बीमारी, डाक्टर की फीस व दवाओं का खर्च… इन जिम्मेदारियों को निभाने के लिए जूही को बस एक सहारा दिखता था सुभाष.

लेकिन, जूही अब थक कर टूट चुकी थी. एक दिन मां ने उसे उदास देखा तो वे पूछे बिना न रह सकीं, ‘‘क्या हुआ आज तुझे? तू इतनी चुप क्यों हैं?’’ और उस की पीठ पर प्यार भरा हाथ फेरा.

जूही सिसकसिसक कर रोने लगी. वह मां से लिपट कर बहुत रोई. मां हैरान भी हुईं और परेशान भी, क्योंकि सिर्फ वे ही जानती थीं कि जूही ने इस घर के लिए क्याक्या कुरबानियां दी हैं.

कुछ दिन बाद जूही की मां हमेशा के लिए इस दुनिया से चली गईं. उन के जाने के बाद जूही बहुत अकेली रह गई. इधर सुभाष को भी उस में कोई खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी. जिस मकान में जूही रहती थी, वह भी बिक गया. सब सहारे साथ छोड़ कर जा चुके थे.

जूही ने एक कच्ची बस्ती में एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया और लोगों के घरों में रोटी बनाने लगी. रोज सपने बुनती, जो सुबह उठने तक टूट जाते थे, फिर भी उस ने हिम्मत नहीं हारी. पर शरीर भी कब तक साथ देता.

अब जूही बीमार रहने लगी थी. तेज बुखार होने की वजह से एक दिन सांसें थमीं तो दोबारा चालू ही नहीं हो पाईं. आज उस ने फिर एक नया सम?ौता किया था मौत के साथ. वह मौत के आगोश में हमेशाहमेशा के लिए चली गई थी…

भंवर: क्या पूरा हो पाया रजिया का सपना

रजिया तीखे नैननक्श की लड़की थी. खूब गोरी भी थी. एक दकियानूसी परिवार में पलीबढ़ी होने के बावजूद उस ने बीए कर लिया था. वह मास्टरनी बनना चाहती थी, इसलिए अपनी अम्मी से पूछ कर उस ने बीएड का फार्म भर दिया. कुछ ही दिनों में उस के पास बीएड में दाखिला लेने के लिए कालेज से चिट्ठी भी आ गई.

चिट्ठी आते ही रजिया के अब्बू और अम्मी में जम कर झगड़ा शुरू हो गया. अब्बू तो रजिया को शुरू से ही स्कूल में पढ़ाने के खिलाफ थे. रजिया ने जब 5वीं जमात पास की थी, तब उस की पढ़ाईलिखाई को ले कर परिवार के बुजुर्गों में बहस शुरू हो गई थी.

उस की अम्मी नरगिस के अलावा सभी की यह राय थी कि रजिया को स्कूल के बजाय अपने मजहब की तालीम दी जाए. उस के अब्बू करीम साहब चाहते थे कि उसे कुरान शरीफ रटाया जाए. लेकिन रजिया की अम्मी ने उन्हें समझाया, ‘‘वह कुरान शरीफ तो पढ़ ही चुकी है. जमाना अब बदल गया है, इसलिए रजिया के लिए भी पढ़ाईलिखाई की जरूरत है.’’

तभी एक साहब आगे बढ़े और कहने लगे, ‘‘बड़े स्कूल में न भेजो, लड़की बिगड़ जाएगी. पढ़ा कर क्या कराना है, घर में परदे में ही तो रहेगी.’’

काफी बहस के बाद रजिया का दाखिला लखनऊ में कर दिया गया, जहां उस की मौसी रहती थीं. रजिया ने अपनी अम्मी द्वारा हौसला बढ़ाए जाने और अपनी जिद से बीए कर लिया था.

दरअसल, रजिया का परिवार लखनऊ के पास एक छोटे से कसबे में रहता था. वहां आज भी लड़कियों की पढ़ाई पर इतना जोर नहीं दिया जाता था. यही वजह थी कि रजिया ने अपने इलाके के कालेज के बजाय लखनऊ से बीए किया था.

जब करीम साहब से नरगिस ने रजिया की बीएड करने की इच्छा बताई, तो वे आगबबूला हो उठे, ‘‘रहने दो, बहुत हो चुका यह नाटक. यह सब तुम्हारी वजह से हो रहा है. मेरी इज्जत का तो खयाल करो. लोग क्या कहेंगे?’’ करीम साहब ने नरगिस से कहा.

‘‘जरा समझने की कोशिश करो. इस में क्या हर्ज है?’’

‘‘मैं हरगिज रजिया को बीएड में दाखिला कराने के लिए राजी नहीं हूं. लड़की बड़ी हो कर दुलहन बनती है, अपने घर को संभालती है, न कि बेपरदा हो कर बाहर घूमती है.’’

रजिया से तब चुप न रहा गया. उस ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘आप परदापरदा चिल्ला रहे हैं. आज कहां है परदा? बाजारों और बसों में औरतें बुरका पहनती जरूर हैं, पर उन का नकाब हमेशा उठा ही रहता है… क्यों? औरतें खेतों में काम करती हैं, सब्जियां लाती हैं, फिर कहां गया उन का परदा?’’

‘‘तुम मुझ से बहस कर रही हो?’’ करीम साहब ने गुस्से से कहा.

‘‘अब्बू, मैं बहस नहीं कर रही, बल्कि सही बात कह रही हूं. लड़कों की तरह लड़कियों की भी पढ़ाईलिखाई जरूरी है. अगर वे नौकरी न भी करें तो शादी के बाद मां बन कर अपने बच्चों की देखभाल तो अच्छी तरह कर सकती हैं.’’

बातचीत के दौरान वहां उन के कुछ करीबी रिश्तेदार और पड़ोसी भी आ गए. करीम साहब के एक पोंगापंथी दोस्त कहने लगे, ‘‘छोड़ो बेटी इन बातों को, अभी तुम नादान हो. आज हमारे देश की सरकार मुसलमानों के साथ इंसाफ नहीं कर रही है. सरकारी नौकरियों में हमें बहुत कम लिया जाता है. चारों तरफ हिंदूमुसलिम के झगड़े होते रहते हैं. यहां तक कि लोग हमें गयागुजरा समझते हैं. गिरी निगाहों से देखते हैं.’’

‘‘नहीं चाचा मियां, आप के समझने में फर्क है. जो भी पढ़ाईलिखाई में तेज होता है, वह अपनी मंजिल तक आराम से पहुंच जाता है, चाहे फिर वह हिंदू हो या मुसलमान. आज हिंदुस्तान का हर आदमी आजादी से अपने मजहब के मुताबिक रहने और अपने त्योहार मनाने का पूरा हक रखता है.

‘‘उधर जरा पाकिस्तान और दूसरे मुसलिम देशों को देखो, जो इसलामी देश होने का ढिंढोरा पीटते हैं, पर वहां क्या हो रहा है? इसलाम सिखाता है कि सभी से प्यार करो, न कि सिर्फ मुसलमानों को.

‘‘उन देशों में भी बराबरी का हक नहीं है. यहां से गए मुसलमानों को छोटा समझा जाता है, जबकि हमारे देश के कानून में किसी मजहब या बिरादरी को ज्यादा सुविधा नहीं दी गई है. हमारे देश में पढ़ाईलिखाई के आधार पर ही किसी को नौकरी मिलती है, हिंदूमुसलिम के आधार पर नहीं. इस मामले में लड़केलड़कियों में भी भेद नहीं किया जाता. कई नौकरियों में तो लड़के देखते रह जाते हैं और लड़कियां अपनी पढ़ाईलिखाई और हुनर के बल पर नौकरी पा जाती हैं.

‘‘2 मिसाल हमारे गांव की ही ले लो. हरदेव का बड़ा लड़का एक मुकदमे के चक्कर में जेल चला गया. ऐसे मौके पर किसी ने उस का साथ नहीं दिया. घर में उस की औरत और एक बच्चा था. औरत पढ़ीलिखी थी, इसलिए एक दफ्तर में नौकरी कर ली.

‘‘उस ने खुद की गुजरबसर की और अपने आदमी की भी जमानत करा ली,’’ नरगिस ने करीम साहब की ओर देखते हुए फिर कहा, ‘‘दूसरी ताजा मिसाल नईम की बेटी की ले लो. वह अनपढ़ लड़की शादी के बाद ससुराल गई.

‘‘अभी 2 ही साल बीते होंगे शादी को हुए कि उस का आदमी एक हादसे में मारा गया. सासससुर थे ही नहीं, रिश्तेदारों ने भी दुत्कार दिया उसे.

‘‘अब वह अपने बच्चे के साथ दुख व लाचारी के दिन काट रही है. अगर वह भी पढ़ीलिखी होती तो उस की यह हालत नहीं होती,’’ रजिया ने मजबूती से अपनी बात रखी.

इन सब के बावजूद रजिया अपनेआप को एक गहरे भंवर में फंसा हुआ महसूस कर रही थी. करीम साहब अपने फैसले पर अडिग थे, तो आखिर में रजिया की अम्मी को कहना पड़ा, ‘‘यह फैसला मेरा नहीं, बल्कि खुद रजिया का है. कानून के मुताबिक हमें उस के फैसले में दखल देने का कोई हक नहीं है.’’

‘‘हक क्यों नहीं? क्या हम उस के…’’ करीम साहब ने बहुत कोशिश की कि रजिया बीएड में दाखिला न ले, पर नरगिस ने हमेशा की तरह उस की तरफदारी की और वह बीएड करने लगी.

समय बीतता गया. रजिया की ट्रेनिंग पूरी हो गई. कुछ ही दिनों में वह एक स्कूल में अंगरेजी की बड़ी मास्टरनी हो गई.

करीम साहब रजिया के नौकरी करने से परेशान रहने लगे थे और अकसर उन की तबीयत खराब रहने लगी थी. एक दिन जब रजिया स्कूल से आई तो घर में कोई नहीं था. पड़ोसी से पता लगा कि उस के अब्बू की तबीयत खराब हो गई है. लोग उन्हें अस्पताल ले गए हैं.

कुछ ही देर में रजिया अस्पताल पहुंच गई. वहां बड़ी भीड़ जमा थी.

तभी नर्स ने आ कर कहा, ‘‘खून चाहिए. क्या आप में से कोई खून दे सकता है? अस्पताल में खून नहीं है.’’

खून देने के नाम पर सब चुप हो गए. रजिया सब की ओर देख रही थी. रजिया के कानों में एक ही शब्द ‘खून’ बारबार गूंज रहा था.

‘‘खून जितना चाहिए मेरा ले लीजिए, पर मेरे अब्बू को बचा लीजिए.’’

एकएक पल कीमती था. नर्स उसे अंदर ले गई, पर उस का खून दूसरे ग्रुप का था.

करीम साहब का इलाज करने वाले डाक्टरों में सर्जन वसीम भी थे. वे करीम साहब को पहचान गए, जिन के मकान में तकरीबन 23 साल पहले वे अपने मातापिता के साथ रहते थे.

उस समय वसीम और रजिया बहुत छोटे थे, इसलिए अब वे एकदूसरे को नहीं पहचान पाए थे. उन्हीं दिनों वसीम के पिताजी की बदली देहरादून हो गई थी. वसीम की पढ़ाईलिखाई वहीं हुई. वही वसीम अब सर्जन वसीम हो गए थे और रजिया मास्टरनी. उन्होंने रजिया से पूछा, ‘‘ये आप के क्या लगते हैं?’’

‘‘ये मेरे अब्बू हैं.’’

‘‘तो फिर आप का नाम रजिया होगा?’’ सर्जन वसीम ने सवालिया निगाह रजिया पर डाली.

‘‘जी, हां.’’

तभी वसीम ने अपने सहयोगी डाक्टर विमल से कहा, ‘‘डाक्टर, मेरा ब्लड ग्रुप करीम साहब के ब्लड ग्रुप से मिलता है, इसलिए मेरा खून ले लीजिए,’’ कहते हुए डाक्टर वसीम खून देने के लिए करीम साहब के बगल वाले बिस्तर पर लेट गए.

जब खून देने के बाद डाक्टर वसीम बाहर निकले, तो रजिया बड़े आभार से उन्हें देखने लगी और बोली, ‘‘मैं तुम्हारा शुक्रिया किस तरह अदा करूं. तुम ने मेरे अब्बू की जान बचा ली.’’

‘‘अरे, यह तो मेरा फर्ज था,’’ वसीम ने झुकी नजरों से कहा.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ होश में आने पर करीम साहब ने पूछा.

‘‘वसीम. शायद आप ने मुझे पहचाना नहीं? आप रफीक साहब को तो जानते होंगे, जो आप के मकान में रहते थे?’’

‘‘हां. वही रफीक साहब जो सरकारी बैंक में मैनेजर थे?’’

‘‘जी हां, मैं उन्हीं का लड़का हूं.’’

अब सर्जन वसीम बिना रोकटोक उन के घर में आनेजाने लगे. एक शाम चाय पीने के बाद वसीम वहां से चले गए. रजिया ने खिड़की खोल कर सड़क की ओर देखा. सड़क की ज्यादातर बत्तियां बुझ चुकी थीं. सड़क सुनसान थी, जिसे वसीम के जूतों की आहट तोड़ रही थी. पेड़ों, मैदानों और मकानों पर चांदनी छिटक गई थी.

तभी रजिया ने खिड़की के पट बंद कर दिए और सोने की कोशिश करने लगी. लेकिन उस की आंखों के आगे बारबार वसीम का चेहरा नाचने लगता. उस के दिल में वसीम के प्रति प्यार हिलोरे मारने लगा था.

हो भी क्यों न. वसीम थे ही इतने हैंडसम. 5 फुट, 10 इंच का कद, चौड़ा सीना, चेहरामोहरा भी बहुत गजब. कालेज में खूब लड़कियां उन पर मरती होंगी.

एक दिन जब डाक्टर वसीम जाने लगा, तो रजिया ने अकेले में कहा, ‘‘कल मेरे जन्मदिन की पार्टी है. तुम आओगे न?’’

‘‘क्यों नहीं, जरूर आऊंगा और तुम्हें एक खूबसूरत तोहफा दूंगा.’’

यह सुन कर रजिया मुसकरा दी.

पार्टी के दिन अकेले में डाक्टर वसीम ने रजिया से कहा, ‘‘रजिया, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘शादी?’’ रजिया ने चौंक कर कहा, ‘‘क्या यही तोहफा है तुम्हारा?’’

‘‘सिर्फ यह ही नहीं, एक और भी है,’’ कहते हुए डाक्टर वसीम ने सोने की एक अंगूठी रजिया की उंगली में पहना दी.

कुछ ही दिनों में दोनों पक्षों में बातचीत शुरू हो गई. डाक्टर वसीम भी अपने मातापिता की एकलौती औलाद थे, इसलिए वे अपने बेटे के लिए अच्छे खानदान की खूबसूरत और पढ़ीलिखी बहू चाहते थे. राजकुमारी सी रजिया उन्हें एक ही नजर में भा गई.

करीम साहब अपनी रजिया का इतने अच्छे घराने में रिश्ता होने पर फूले नहीं समा रहे थे.

‘‘देखा न आप ने, यह सब रजिया की पढ़ाईलिखाई की वजह से हुआ है,’’ रजिया की अम्मी नरगिस ने करीम साहब से कहा.

करीम साहब बोले, ‘‘तुम ठीक कहती हो. अगर रजिया पढ़ीलिखी नहीं होती, तो किसी डाक्टर से निकाह की बात सोच भी नहीं सकती थी. यह बात सच है कि कोई मजहब पढ़ाईलिखाई के लिए मना नहीं करता.

‘‘उस वक्त मेरी आंखों पर पट्टी पड़ गई थी. अब मेरी आंखें खुल गई हैं. मैं अब सब को सही सलाह दूंगा कि

लड़के के साथसाथ लड़की की तालीम भी जरूरी है, तभी हमारी बिरादरी आगे बढ़ सकेगी.’’

और राज खुला : किरन ने क्यों बनाया आटोरिकशा वाला दोस्त

‘‘राजू मेरा नाम है. अक्ल एमए पास है और शक्ल पीएचडी करने के काबिल है,’’ अपने आटोरिकशा की रफ्तार को और तेज करते हुए राजू ने अपना परिचय फिल्मी अंदाज में दिया.

यूनिवर्सिटी के सामने से राजू ने एक खूबसूरत सवारी अपने आटोरिकशा में बैठाई थी. मशरूम कट बाल, आंखों पर नीला चश्मा, गुलाबी टीशर्ट और काली जींस पहने उस सवारी ने उस से यों ही नाम पूछ लिया था.

उस के जवाब में राजू ने अपना दिलचस्प परिचय दिया था.

राजू के जवाब पर वह सवारी मुसकरा दी, ‘‘बड़े दिलचस्प आदमी हो. कितने पढ़ेलिखे हो?’’

‘‘मैं ने इतिहास में एमए किया है. आगे पढ़ने का इरादा है, लेकिन पिताजी की अचानक मौत हो जाने की वजह से घर की गाड़ी में ब्रेक लग गया है. बैंक से कर्ज ले कर यह आटोरिकशा खरीदा है. दिनभर कमाई और रातभर पढ़ाई. बात समझ में आई…’’

‘‘वैरी गुड, कीप इट अप. तुम बहुत होशियार और मेहनती हो. मेरा नाम किरन है,’’ उस सवारी ने राजू की बात से खुश होते हुए कहा.

किरन को साइड मिरर में देख कर राजू ने सोचा, ‘यह जरूर किसी बड़े बाप की औलाद है. एसी में बैठ कर चेहरा गुलाबी हो गया है.’

आटोरिकशा आंचल सिनेमा के पास से गुजरा. उस में एक पुरानी फिल्म ‘मुझ से दोस्ती करोगे’ चल रही थी. किरन ने फिल्म का पोस्टर देख कर कहा, ‘‘मुझ से दोस्ती करोगे?’’

‘‘क्यों नहीं करूंगा. इतिहास गवाह है कि मर्द को अपने दोस्त और अपनी औरत से ज्यादा अजीज कुछ नहीं होता,’’ राजू ने जोश में आ कर कहा.

राजू की बात सुन कर किरन के होंठों पर मुसकराहट तैरने लगी. उस ने तो फिल्म का बस नाम पढ़ा था और राजू ने उस का और ही मतलब निकाल लिया था, पर उस के चेहरे से जाहिर हो रहा था कि उसे इस पढ़ेलिखे आटोरिकशा वाले से दोस्ती करने में कोई एतराज नहीं है.

राजू खुश था. खुशी से उस का चेहरा दमक उठा था. पिछले 6 महीने से वह इस रूट से सवारियां उठाता रहा था, मगर हर कोई उस से तूतड़ाक में ही बात करता था. पहली बार उस के आटोरिकशा में ऐसी सवारी बैठी थी, जिस का दिल भी उसे उतना ही खूबसूरत लगा, जितना कि बदन.

‘‘आप को कहां जाना है, यह तो आप ने बताया ही नहीं?’’ राजू ने पीछे मुड़ कर पूछा.

‘‘पांचबत्ती चौराहा…’’ छोटा सा जवाब देने के बाद किरन ने गला साफ करते हुए पूछा, ‘‘फिल्में देखते हो?’’

‘‘बचपन में खूब देखता था, इसलिए फिल्मों का मुझ पर बहुत ज्यादा असर पड़ा है.’’

तभी आटोरिकशा एक झटके से रुक गया और राजू बोला, ‘‘आप की मंजिल आ गई.’’

‘‘बातोंबातों में समय का पता ही नहीं चला,’’ कह कर किरन ने 20 रुपए का नोट निकाल कर राजू की ओर बढ़ाया.

राजू नोट लेने से इनकार करते हुए बोला, ‘‘दोस्ती इस मुलाकात तक ही थी तो बेशक मैं पैसे ले लूंगा, वरना आप यह नोट वापस अपनी जेब के हवाले कर लें.’’

किरन ने मुसकरा कर राजू को घूरती निगाहों से देखा, जैसे उस की निगाहें यह परख रही हों कि उस ने किसी गलत आदमी को तो अपना दोस्त नहीं बनाया है.

किरन ने नोट वापस जेब में रख लिया और फिर अपना हाथ राजू की तरफ बढ़ाया. राजू ने दोस्त के रूप में किरन का हाथ थाम लिया.

राजू ने महसूस किया कि किरन का हाथ छूते ही उस के दिमाग में अजीब सी तरंगें उठीं. किरन के जाने के 10 मिनट बाद तक राजू वहीं खड़ा रहा.

दूसरे दिन राजू को यूनिवर्सिटी के बाहर किरन के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा.

आटोरिकशा में बैठते ही किरन ने कहा, ‘‘राजू, तुम्हें एमए में कितने फीसदी नंबर मिले थे?’’

‘‘64 फीसदी,’’ कहते हुए राजू ने आटोरिकशा स्टार्ट कर साइड मिरर में किरन के चेहरे को देखा.

किरन ने राजू का जोश बढ़ाते हुए कहा, ‘‘फिर तो तुम प्रतियोगी इम्तिहान पास कर के किसी भी कालेज में लैक्चरर बन सकते हो.’’

‘‘दोस्त, अपनी तकदीर खराब है. मेरी तकदीर में तो यह आटोरिकशा चलाना ही लिखा है.’’

‘‘तकदीर, माई फुट… मुझे इन चीजों पर यकीन नहीं है. आदमी अगर पूरी लगन से काम करे तो वह जो चाहता है, पा सकता है,’’ किरन ने राजू को डांट दिया.

राजू और किरन की दोस्ती पक्की हो गई थी. दोनों राजनीति, पढ़ाईलिखाई, फिल्म, दूसरी घटनाओं वगैरह पर खुल कर बातचीत करने लगे थे.

उस दिन रविवार था. राजू सुबहसुबह पांचबत्ती चौराहा पहुंच गया. आज उस की सालगिरह थी और वह उसे किरन के साथ मनाना चाहता था.

चौराहे के दाईं ओर किरन का बंगला था. बेबाक बातें करने में माहिर किरन ने राजू को अपने नाम के अलावा अपनी निजी जिंदगी और परिवार के बारे में कुछ नहीं बताया था.

किरन को बंगले से निकल कर आते देख राजू का चेहरा खिल गया. राजू को खुश देख कर किरन के होंठों पर भी मुसकान उभरी.

किरन के आटोरिकशा में बैठते ही राजू ने म्यूजिक सिस्टम चला दिया. ‘जिंदगी एक सफर है सुहाना…’ गीत ने किरन के चेहरे पर ताजगी ला दी. उस ने राजू से पूछा, ‘‘क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘तुम बोलो. जहां चाहो, वहां घुमा दूंगा. अच्छे होटल में खाना खिला दूंगा,’’ राजू ने कहा.

‘‘चलो, शहर में घूमते हैं. फिर दिल ने जो चाहा वही करेंगे. बोलो, मंजूर है?’’ किरन ने कहा.

‘‘आज का पूरा दिन तुम्हारे नाम. जो चाहोगे वही होगा,’’ कह कर राजू ने आटोरिकशा शहर के बाजार के भीड़भाड़ वाले इलाके की ओर मोड़ दिया.

थोड़ी दूर जाने के बाद किरन ने राजू को आटोरिकशा रोकने के लिए कहा. राजू ने आटोरिकशा रोक दिया.

‘‘आज मेरा मूड बहुत खराब है. मुझे तुम्हें कुछ बताना है. एक ऐसा सरप्राइज, जो तुम्हें चौंका देगा,’’ किरन ने आटोरिकशा रुकने के बाद कहा.

‘‘तो बताओ, क्या है सरप्राइज?’’

‘‘ऐसे नहीं, पहले तुम मुझे कुछ खिलाओपिलाओ.’’

‘‘क्या पीना है, कोल्ड डिंक या जूस?’’ राजू ने पूछा.

‘‘शराब पीनी है.’’

‘‘शराब, वह भी दिन में… मैं ने तो कभी शराब को छुआ तक नहीं,’’ राजू ने हैरानी से कहा.

‘‘अभी तो तुम ने मेरी मरजी के मुताबिक दिन बिताने का वादा किया था और फौरन भूल गए,’’ किरन ने कहा.

‘‘ठीक है, चलो,’’ कह कर राजू ने बेमन से आटोरिकशा बाजार की ओर बढ़ा दिया.

शराब का ठेका पास ही था. राजू शराब की बोतल ले आया. साथ में 2 कोल्ड ड्रिंक की बोतलें भी थीं. फिर दोनों सुनसान जगह पर जा पहुंचे. राजू ने वहां आटोरिकशा खड़ा कर दिया.

किरन ने कोल्ड ड्रिंक की दोनों बोतलों को आधा खाली कर के उन में शराब डाल दी. राजू का मन थोड़ा बेचैन सा हो गया, लेकिन वह अपने नए दोस्त को नाराज नहीं करना चाहता था. दोनों शराब पीने लगे.

जैसा कि शराब पीने के बाद पीने वाले का हाल होता है, वही उन दोनों का भी हुआ. किरन को कम, मगर राजू को बहुत नशा चढ़ गया. वह निढाल सा हो कर आटोरिकशा की पिछली सीट पर बैठ गया.

‘‘चलो, अब शहर घूमते हैं. अब आटोरिकशा चलाने का जिम्मा मेरा,’’ कह कर किरन ने आटोरिकशा स्टार्ट कर दिया.

किरन को कार चलानी आती थी, इसलिए आटोरिकशा चलाना उसे बाएं हाथ का खेल लगा. उस ने आटोरिकशा का हैंडिल थाम लिया और भीड़भाड़ वाली सड़क की ओर मोड़ दिया.

नशे के सुरूर में किरन से आटोरिकशा संभल नहीं रहा था, फिर भी उसे चलाने में मजा आने लगा.

बाजार में घुसते ही आटोरिकशा सब्जी के एक ठेले से टकरा गया, फिर आगे बढ़ कर एक साइकिल सवार को ऐसी टक्कर मारी कि वह बेचारा सड़क पर मुंह के बल गिर पड़ा. उस के होंठ व नाक से खून बहने लगा.

वह साइकिल सवार आटोरिकशा चलाने वाले को भलाबुरा कहता, उस से पहले ही सड़क के किनारे एक शोरूम के सामने खड़ी कार से आटोरिकशा टकरा कर बंद हो गया.

नशे की वजह से राजू को कुछ भी पता नहीं लगा. देखते ही देखते वहां लोगों की अच्छीखासी भीड़ जमा हो गई.

‘‘2 थप्पड़ मारो इस को, अभी नशा उतर जाएगा. दूध के दांत भी नहीं टूटे कि शराब पीना शुरू कर दिया,‘‘ भीड़ में से किसी ने कहा.

एक लड़के ने किरन को खींच कर आटोरिकशा से बाहर निकाला और पीटना शुरू किया.

‘‘मुझे मत मारो, मैं…’’ किरन ने डरते हुए कहा. मगर उस की बात किसी ने नहीं सुनी.

तभी 2 पुलिस वाले वहां आ गए. उन्होंने भी लगे हाथ किरन के गालों पर 2 थप्पड़ रसीद कर दिए.

शोरगुल सुन कर नशे में धुत्त राजू उठ खड़ा हुआ. मारपीट देख कर वह घबरा गया. वह किरन को बचाने के लिए भीड़ में घुस गया, मगर भीड़ तो मरनेमारने पर उतारू हो चुकी थी.

‘‘मैं लड़की हूं. मुझ पर हाथ मत उठाओ,’’ किरन ने चीखते हुए कहा.

‘‘अच्छा, खुद को लड़की बता कर पिटने से बचना चाहता है…’’ एक आदमी ने उसे घूंसा मारते हुए कहा.

किरन चेहरेमोहरे और कपड़ों से लड़की नहीं लगती थी. लोगों ने उसे पीटना जारी रखा. राजू भी बीचबचाव में किरन के साथ पिटने लगा.

‘‘मैं लड़की हूं… मुझे छोड़ दो,’’ किरन ने जोर से चिल्लाते हुए अपनी टीशर्ट उतार दी.

किरन के टीशर्ट उतारते ही लोग सकते में आ गए. वे दूर हट कर खड़े हो गए. किरन के कसे हुए ब्लाउज में छाती के उभार उस के लड़की होने का सुबूत दे रहे थे.

यह देख कर राजू का नशा काफूर हो गया. जिसे वह लड़का समझ कर दोस्ती निभा रहा था, वह एक लड़की थी.

यह राज खुलना लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि राजू के लिए भी अचरज की बात थी.

मजबूरी : क्या बेटी का दहेज जुटा पाए शराफत अली

शराफत अली बड़ी बेचैनी से कमरे में चहलकदमी कर रहे थे. कभी वे दरवाजे के पास आ कर बाहर की तरफ देखते, तो कभी मोबाइल की घड़ी को. घड़ी की बढ़ती गिनती के साथ उन की चहलकदमी और भी तेज होती जा रही थी.

शराफत अली सोच रहे थे, ‘आखिर अभी तक वे लोग आए क्यों नहीं? मैं ने तो दोपहर में 2 बजे का वक्त दिया था और अब तो 3 बजने वाले हैं. फोन भी नहीं मिल रहा. आखिर ऐसी कौन सी वजह हो सकती है?’

इसी बीच एक टैक्सी तेजी से आ कर उन के दरवाजे के पास रुकी. उस टैक्सी में से एक आदमी और 2 औरतें बाहर निकलीं. टैक्सी वाले को पैसे देने के बाद वे तीनों शराफत अली के घर की तरफ बढ़े.

यह देख कर शराफत अली का चेहरा खिल उठा. वे तेजी से उन लोगों की तरफ लपके. तब तक वे तीनों दरवाजे तक आ चुके थे. शराफत अली ने बढ़ कर हाथ मिलाया और उन्हें अंदरले आए.

‘‘बैठिए, तशरीफ रखिए,’’ शराफत अलीने कहा.

‘‘जी, शुक्रिया. भई, हम लोग थोड़ी देर से आने के लिए माफी चाहते हैं,’’ उस आदमी ने बैठते हुए कहा.

शराफत अली बोले, ‘‘अरे नहीं, इस में माफी की क्या बात है, यह तो सभी के साथ हो जाता है.’’

‘‘माफ कीजिएगा साहब, आज ज्यादा देर तक नहीं रुक सकेंगे, इसलिए हो सके तो जल्द ही बिटिया को बुलवा लीजिए,’’ एक औरत ने कहा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. जैसी आप की मरजी,’’ कहते हुए शराफत अली अंदर चले गए.

जब कुछ देर बाद वे लौटे, तो उन के हाथों में नाश्ते की एक ट्रे थी. उसे

मेज पर रखते हुए वे बोले, ‘‘लीजिए, नाश्ता कीजिए.’’

‘‘अरे, इस की क्या जरूरत थी? आप बेकार परेशान हुए,’’ आदमीने कहा.

‘‘नहीं, इस में परेशानी की क्या बात है. यह तो हमारा फर्ज है. जीनत बेटी, चाय ले आओ,’’ शराफत अली ने कहा.

जीनत चाय ले कर जैसे ही अंदर दाखिल हुई, उस की खूबसूरती देख कर वे तीनों दंग रह गए.

‘‘जमाल साहब, यह है मेरी बेटी जीनत,’’ शराफत अली ने जीनत का परिचय कराते हुए कहा. तब तक जीनत चाय मेज पर रख कर वापस जा चुकी थी.

‘‘शराफत साहब, इसे आप ने तालीम कहां तक दिलवाई है?’’ जमाल अहमद ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा.

‘‘जी, इसी साल इस ने बीए किया है.’’

‘‘तो ठीक है, हमें आप की लड़की पसंद है. सबीहा, तुम लोग अंदर जा कर जीनत से कुछ बातचीत करो, तब तक मैं शराफत साहब से कुछ जरूरी बातें करता हूं,’’ जमाल अहमद ने कहा. वे दोनों औरतें उठ कर अंदर चली गईं.

‘‘देखिए शराफत साहब, हम चाहते हैं कि हमारी जो भी बातचीत हो, साफसुथरी हो, ताकि बाद में कोई मसला न खड़ा हो.

‘‘यह तो आप जानते ही हैं कि मैं ने अभी कुछ ही दिनों पहले अपनी 2 बेटियों की शादी की है. जमा किए गए मेरे सारे रुपए तो उसी में खर्च हो गए. अब मेरे पास इतने रुपए तो हैं नहीं कि मैं अकरम की शादी में कुछ लगा सकूं, इसलिए मैं चाहता हूं कि जो नकद रुपए आप उस वक्त देें, वे मुझे पहले ही दे दें, क्योंकि मैं अकरम की शादी धूमधाम से करना चाहता हूं,’’ जमाल अहमद ने सपाट लहजे में कहा.

‘‘तो आप मुझ से कितना पैसा चाहते हैं?’’ शराफत अली ने पूछा.

‘‘कुछ खास नहीं, बस यही कोई 2 लाख रुपए. बाकी तो आप खुद ही देंगे. अपनी बेटी को खाली हाथ थोड़े ही विदा कर देंगे.

‘‘अब आप जानते ही हैं कि आजकल दफ्तर आनेजाने में सवारी के लिए काफी परेशान होना पड़ता है. यही वजह है कि काफी समय लग जाता है. आप का दामाद घर जल्दी चला आए, ताकि आप की बेटी को ज्यादा इंतजार न करना पड़े, इस के लिए आप बाइक तो देंगे ही.’’

‘‘2 लाख और साथ में बाइक भी?’’ शराफत अली चौंके.

‘‘अब देखिए न, आजकल इतनी सख्त गरमी पड़ती है कि आधा घंटे भी आप बाहर नहीं रह सकते. एसी होने से आप की बेटी को ठंडी हवा मिलती रहेगी.

‘‘और हां, आजकल के लड़केलड़कियों को फिल्म देखने का इतना शौक होता है कि चाहे कितने पैसे बरबाद हो जाएं, सिनेमाघर जरूर जाएंगे. जब घर में 60 इंच का बड़ा एलईडी टीवी होगा, तो वह फुजूलखर्ची अपनेआप बंद हो जाएगी. और अब खुद से क्या बताऊं, आप खुद ही समझदार हैं.’’

‘‘लेकिन जमाल साहब, मैं इस हालत में नहीं हूं कि इतना सब कर सकूं,’’ शराफत अली ने मजबूरी बताते हुए कहा.

‘‘चलिए, कोई बात नहीं. यह जरूरी नहीं कि आप छोटेबड़े सभी सामान हमें दें. अरे, 10-20 हजार रुपए के छोटेमोटे सामान आप हमें नहीं दीजिएगा तो मुझे कोई शिकायत नहीं होगी,’’ जमाल अहमद ने मानो एहसान जताते हुए कहा.

‘‘यह आप कैसी बातें कर रहे हैं जमाल साहब… आप आप तो मुसलमान हैं. आप के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं,’’ शराफत अली ने कहा.

‘‘जी हां, मैं जानता हूं कि मैं मुसलमान हूं, लेकिन मैं यह भी अच्छी तरह जानता हूं कि मैं उस वक्त भी मुसलमान था, जब मेरी बड़ी बेटी दहेज की आग में जिंदा जला दी गई थी. मैं उस वक्त भी मुसलमान था, जब मैं ने अपनी 2 बेटियों की शादी में 5-7 लाख रुपए का खर्च उठाया था और आज जब मेरा वक्त आया, तो आप मुझे मेरे मुसलमान होने की याद दिला रहे हैं,’’ कहतेकहते जमाल अहमद का चेहरा सख्त होता चला गया.

‘‘मेरे कहने का यह मतलब नहीं था, जमाल साहब. मैं तो सिर्फ अपनी बात कर रहा था कि मैं साधारण आदमी हूं. अब आप ही सोचिए कि मैं इतना सब कैसे कर सकता हूं? मेरी मजबूरी समझने की कोशिश कीजिए जमाल साहब,’’ शराफत अली ने तकरीबन गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘कोई बात नहीं, जब आप की मजबूरी खत्म हो जाए, तभी अपनी इस बेटी की शादी के बारे में सोचिएगा, क्योंकि इस जमाने में बेटी को अगर खुश देखना चाहते हैं, तो मुंहमांगा दहेज भी देना पड़ेगा, वरना…

‘‘खैर, छोडि़ए न इन सब बातों को. मैं ऐसे हालात पर पहुंचने के बजाय शादी न करना ही बेहतर समझता हूं. और बुरा मत मानिएगा, बिना दहेज के कम से कम मैं तो शादी नहीं कर सकता,’’ जमाल अहमद ने बड़ी बेरुखी से कहा.

‘‘देखिए जमाल साहब, जो मुझ से हो सकता है, वह तो मैं दूंगा ही, लेकिन आप की मांगें मुझ जैसे आदमी के लिए बहुत ज्यादा हैं,’’ शराफत अली ने अपनी आवाज में नरमी ला कर कहा.

‘‘हो सकता है, लेकिन मैं इस से कम में शादी नहीं कर सकूंगा. आप ठीक से सोचसमझ लें.

मुझे कोई जल्दी नहीं है,’’ जमाल अहमद ने कहा और अपने साथ आईं औरतों को साथ ले कर वहां से चले गए.

शराफत अली एकदम ठगे से खड़े रह गए. जमाल अहमद की बातों से उन्हें गहरी चोट पहुंची थी. पहुंचती भी क्यों न, उन की बेटी का यह तीसरा रिश्ता भी दहेज की वजह से आज तय होतेहोते रह गया. वे कुछ सोचने लग गए.

‘‘ठीक है, ठीक है,’’ अचानक उन के मुंह से ऐसे निकला मानो उन्होंने कोई बड़ा फैसला कर लिया हो.

रात के 2 बजने वाले थे. तभी महल्ले में शोर हुआ, ‘‘चोर… चोर… पकड़ो… चोर.’’

ये आवाजें शराफत अली के घर के पास ही रहने वाली रमा देवी के घर से उठ रही थीं. जब लोग वहां पहुंचे, तब तक चोर भाग चुका था.

रमा देवी बुरी तरह रोरो कर कह रही थीं, ‘‘अरे, कुछ करो. मैं लुट गई, बरबाद हो गई. अपनी बेटी की शादी के लिए एकएक पैसा मैं ने जमा किया था. अब मैं क्या करूंगी? पूरे 12 लाख रुपए के जेवर उठा ले गए. मैं तो अब कहीं की नहीं रही.’’

रमा देवी इस महल्ले की अच्छी औरतों में गिनी जाती थीं. अपने पति की मौत के बाद से वे किसी तरह सिलाईकढ़ाई कर के अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच रही थीं. उस वक्त उन के 3 छोटेछोटे बच्चे थे, 2 लड़कियां और एक छोटा लड़का. अगले हफ्ते ही उन की बेटी की बरात आने वाली थी. लोग उन्हें समझाबुझा कर थाने ले गए और चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराई.

चोरी हुए 12 घंटे बीत चुके थे, लेकिन अभी तक चोर का कोई पता नहीं लगाया जा सका था. अब रमा देवी चुप हो कर बैठ गई थीं.

तभी शराफत अली हाथ में एक झोला लिए हुए उन के मकान में दाखिल हुए. रमा देवी के नजदीक पहुंच कर उन्होंने अपना झोला पलट दिया. उस में से और जेवरात नीचे गिरे.

यह देख कर रमा देवी की खुशी का ठिकाना न रहा, लेकिन अगले ही पल उन के मुंह से निकला, ‘‘यह आप के पास कैसे…?’’

‘‘बहन, मैं ने ही तुम्हारे घर में चोरी की थी. मैं ने ही भागते वक्त तुम्हें धक्का दिया था…’’ रुंधे गले से शराफत अली ने कहा.

‘‘आप ने? लेकिन क्यों?’’ रमा देवी ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘अपनी बेटी के दहेज का इंतजाम जो करना था,’’ शराफत अली ने लंबी सांस ले कर कहा.

‘‘तो फिर आप इन्हें वापस करने क्यों चले आए?’’

‘‘और करता भी क्या? जिस के लिए मैं ने यह चोरी की, वही नहीं रही,’’ कह कर शराफत अली फफकफफक कर रोने लगे.

‘‘जीनत नहीं रही? मगर, यह हुआ कैसे?’’ रमा देवी ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘कुछ पल चुप रह कर उन्होंने कहा, ‘‘कल रात जब मैं आप के घर से चुराया हुआ माल ले कर अपने घर पहुंचा, तो महल्ले वालों के शोर से जीनत भी जाग चुकी थी. मैं दौड़ताहांफता हुआ जैसे ही अपने घर में अंदर घुसा, वैसे ही मेरा हाथ दरवाजे की चौखट पर इतनी जोर से टकराया कि झोला हाथ से छूट कर दूर जा गिरा.

‘‘तब तक जीनत वहां चली आई थी. बिखरे माल को देख कर उस ने मुझे झकझोरते हुए पूछा, ‘अब्बू, आप ने चोरी की है? बोलते क्यों नहीं, आप ने चोरी की है?’

‘‘मैं ने दरवाजा बंद करते हुए कहा. ‘हांहां, मैं ने चोरी की है,’

‘‘वह बोली, ‘मगर क्यों? अब्बू, क्यों?’

‘‘मैं ने कहा, ‘इसलिए कि तुझे डोली में बैठा कर विदा कर सकूं, दहेज के इन भूखे भेडि़यों के मुंह पर चांदी का जूता मार सकूं.’

‘‘इतना सुनते ही वह बोली, ‘नहीं अब्बू, नहीं. मुझे नहीं चाहिए ऐसी डोली, जो किसी बेबस की आहों पर उठे, नहीं चाहिए मुझे ऐसी डोली, नहीं चाहिए,’

‘‘यह कहते हुए जीनत अंदर चली गई. जब कुछ देर बाद मैं उस के कमरे में पहुंचा तो देखा कि पंखे से लटक रहे एक रस्सी के फंदे में वह झूल रही थी,’’ कहतेकहते शराफत अली चक्कर खा कर जमीन पर गिर पड़े.

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