मेरे कपड़े उन के कपड़े : कैरैक्टर की कहानी

खैर, कैरैक्टर तो मैं अपना बहुत पहले नीलाम कर चुका हूं. यह जो मेरे पास दोमंजिला मकान, आलीशान गाड़ी है, सब मैं ने अपना कैरैक्टर नीलाम करने के बाद ही हासिल की है. इनसान जिंदगी में चाहे कितनी ही मेहनत क्यों न करे, पर जब तक वह अपने कैरैक्टर को बंदरिया के मरे बच्चे सा अपने से चिपकाए रखता है, तब तक भूखा ही मरता है.

इधर बंदे ने अपना कैरैक्टर नीलाम किया, दूसरी ओर हर सुखसुविधा ने उसे सलाम किया. कहने वाले जो कहें सो कहते रहें, पर अपना तजरबा है कि जब तक बंदे के पास कैरैक्टर है, उस के पास केवल और केवल गरीबी है.

पर कैरैक्टर नीलाम करने के बाद कमबख्त फिर गरीबी आन पड़ी. जमापूंजी कितने दिन चलती है? अब मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं अपना क्या नीलाम करूं? अनारकली होता, तो मीना बाजार जा पहुंचता.

जब मुझे पता चला कि उन के कपड़े डेढ़ करोड़ रुपए में बिके, तो अपना तो कलेजा ही मुंह को आ गया. लगा, मेरे लिए नीलामी का एक दरवाजा और खुल गया. जिस के कपड़े ही डेढ़ करोड़ के नीलाम हो रहे हों, वह बंदा आखिर कितना कीमती होगा?

बस, फिर क्या था. मुझे उन के कपड़ों की नीलामी की बोली के अंधेरे में उम्मीद की किरण नहीं, बल्कि दोपहर का चमकता सूरज दिखा और मैं ने आव देखा न ताव, अपने और बीवी के सारे कपड़ों के साथ पड़ोसी की बीवी के भी चार फटेपुराने कपड़ों की गठरी बांधी और लखपति होने के सपने लेता बाजार चलने को हुआ, तो बीवी ने टोका, ‘‘अब ये मेरे कपड़े कहां लिए जा रहे हो? पागलपन की भी हद होती है.’’

‘‘मैं बाजार जा रहा हूं… नीलाम करने,’’ मैं ने ऐसा कहा, तो बीवी चौंकी, ‘‘अपना सबकुछ नीलाम करने के बाद अब कपड़े भी नीलाम करने की नौबत आ गई क्या?’’

‘‘आई नहीं. नौबत क्रिएट कराई है उन्होंने. तेरेमेरे इन कपड़ों में मुझे लाखों रुपए की कमाई दिख रही है. चल फटाफट बंधी गांठ उठवा और शाम को मेरे आते ही लखटकिया की बीवी हो जा.’’

‘‘पर, इन कपड़ों को कौन गधा खरीदेगा?’’ कहते हुए वह परेशान हो गई.

‘‘अरी भागवान, ये कोई मामूली कपड़े नहीं हैं, बल्कि ये लैलामजनूं, हीररांझा, शीरींफरहाद के ऐतिहासिक कपड़े हैं.

‘‘तू भी न… सारा दिन टैलीविजन के पास बैठीबैठी बस सासबहू के सीरियल ही देखती रहती है. कभी समाचार सुनने नहीं, तो कम से कम देख ही लिया कर. उन के कपड़े की एक जोड़ी डेढ़ करोड़ रुपए में बिकी. हो सकता है कि लाखों रुपए में न सही, तो कम से कम हजारों रुपए में अपने ये कपड़े भी कोई खरीद ले.’’

‘‘घर में कोई जोड़ी बदलने के लिए भी छोड़ी है कि नहीं? कोई क्या पागल है, जो हमारे न पहनने लायक कपड़ों की बोली लगाएगा?’’

यह मेरी बीवी भी न, जब देखो शक में ही जीती रहती है.

‘‘क्यों न लगाएगा… मैं अपने कपड़ों को चमत्कारी रंग दे कर ऐसा प्रचार करूंगा कि… मसलन, ये कपड़े मेरी बीवी को हीर ने उसे तब दिए थे, जब वह पहली बार मुझ से मंदिर जाने के बहाने मिलने आई थी.

‘‘और ये कपड़े मेरी बीवी को लैला ने हमारी फर्स्ट मैरिज एनिवर्सरी पर दिए थे. यह वाला सूट हीर ने उसे उस की बर्थडे पर गिफ्ट किया था.

‘‘यह सूट तो तुम्हें महारानी विक्टोरिया ने खुद अपने हाथों से सिल कर दिया था. और मेरा कुरतापाजामा मजनूं ने मेरी शादी पर तब मुझे पहनाया था, जब मैं घोड़ी लायक पैसे न होने के चलते गधे पर शान से बैठ कर तुम्हें ब्याहने गया था.

‘‘यह तौलिया महात्मा गांधी का है, जिस से वे अपनी नाक पोंछा करते थे. यह उन्होंने मेरे दादाजी को भेंट में दिया था. यह रूमाल जवाहरलाल नेहरू का है. मेरे पिताजी जब 15 अगस्त को उन से मिलने गए थे, तो लालकिले पर झंडा फहराने के बाद इसे उन्होंने उन्हें उपहार के तौर पर दिया था.’’

‘‘और यह मफलर?’’

‘‘रहने दे. इसे बाद में देखेंगे. इसे कुछ काम तो करने दे,’’ जब मैं बोला, तो पहली बार उसे मुझ पर यकीन हुआ और उस ने कोई सवाल नहीं उठाया.

उलटे सुनहरे ख्वाब बुनते हुए मैं ने अपने सिर पर कपड़ों की बंधी गांठ रखी और मैं एक बार फिर अपने माल को नीलाम करने बाजार में जा खड़ा हुआ.

बाजार में पहुंचते ही खाली जगह देख कर दरी बिछाई और अपने और अपनी परीजादी को गिफ्ट में मिले सारे कपड़े उस पर बिखेर दिए.

पर यह क्या… एक घंटा बीता… 2 घंटे बीते… कोई कपड़ों के पास आ ही नहीं रहा था. उलटा, जो भी हमारे कपड़ों के पास से गुजर रहा था, नाक पर हाथ रख लेता. शाम तक मैं नीलामी करने वालों को टुकुरटुकुर ताकता रहा. अब समस्या यह कि गांठ जो बांध भी लूं, तो उठवाए कौन?

तभी एक पुलिस वाला आ धमका. वह डंडे से मेरी बीवी के कपड़ों को टटोलने लगा, तो मुझे उस की इस हरकत पर बेहद गुस्सा आया. पर बाजार की बात थी, सो चुप रहा.

‘‘अरे, यह सब क्या है? चोरी के कपड़े हैं क्या? यमुना के किस छोर से चिथड़े उठा लाया?’’

‘‘नहीं साहब, ये वाले हीर के हैं, ये वाले लैला के हैं. ये वाले मजनूं के हैं और ये वाले ओबामा की जवानी के दिनों के…

‘‘और ये…

‘‘फरहाद के…’’

‘‘छि:, इतने गंदे?’’

‘‘बरसों से धोए नहीं हैं न साहब. जस के तस संभाल कर रखे हैं.’’

‘‘मतलब, पुलिस वाले को उल्लू बना रहा है?’’

‘‘उल्लू… और आप को? मर जाए, जो आप को उल्लू बनाए,’’ कह कर मैं ने उस के दोनों पैरों को हाथ लगाया, तो वह आगे बोला, ‘‘म्यूजियम से चुरा कर लाया है क्या?’’ कह कर वह मुसकराता हुआ मेरी जेब में झांकने लगा, तो मैं ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘साहब, उन की देखादेखी मैं भी इन्हें नीलाम करने ले आया था.’’

‘‘पता है, वे किस के कपड़े थे? चल उठा जल्दी से इन गंदे कपड़ों को, वरना…’’

तभी सामने से पुराने कपड़े लेने वाली एक औरत आ धमकी और कमर नचाते हुए बोली, ‘‘ऐ, क्या लोगे इन सब पुराने कपड़ों का? 2 पतीले लेने हों, तो जल्दी बोलो…’’

मास्साबों का दर्द : गांवभर की भौजाई क्यों हो गए हैं मास्साब

हमारे गांवदेहात में एक कहावत मशहूर है कि ‘गरीब की लुगाई गांवभर की भौजाई’. कुछ यही हाल हमारे देश के मास्साबों का हो गया है. सरकार ने इन्हें भी गांवभर की भौजाई समझ लिया है. जनगणना से ले कर पशुगणना तक, ग्राम पंचायत के पंच से ले कर संसद सदस्य तक के चुनाव मास्साबों के जिम्मे है.

किस गांव में कितने कमउम्र बच्चों को पोलियो की खुराक देनी है, गांव के कितने मर्दऔरतों ने नसबंदी कराई है, कितने बच्चों के जाति प्रमाणपत्र कचहरी में धूल खा रहे हैं, कितनों की आईडी रोजगार सहायक के कंप्यूटर में कैद है, कितने परिवार गरीबी की रेखा के नीचे दब कर छटपटा रहे हैं और कितने गरीबी की रेखा को पीछे सरकाते हुए आगे निकल गए हैं, कितने परिवार घर में शौचालय न होने के चलते खुले में शौच करते हैं. कितने लोगों के आधार कार्ड नहीं बने हैं, कितनों के बैंक में लिंक नहीं हुए, बच्चों का वजीफा, साइकिल, खाता खोलने के लिए बैंकों के कितने चक्कर लगाने हैं, इन सब बातों की जानकारी भला मास्साबों से बेहतर कौन जान सकता है. सरकार ने मास्साबों के इसी हुनर को देख कर पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सारे काम उन्हें दे रखे हैं. सरकार जानती है कि पढ़ाई का क्या है, वह तो बच्चे को जिंदगीभर करनी है. पढ़ाईलिखाई के महकमे की बैठकों में अफसर पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सारी बातें करते हैं. किसी गांव को पूरी तरह पढ़ालिखा बनाना मास्साबों को बाएं हाथ का खेल लगता है.

मास्साब कहते हैं कि हम तो सरकारी आदेशों के गुलाम हैं. सरकार जो चाहे खुशीखुशी कर देते हैं. आखिर पगार काहे की लेते हैं. सरकार द्वारा दिए गए लोगों के भले के कामों की वजह से मास्साब की ईमानदारी पर शक किया जाने लगा है. जब सरकारी स्कूलों में मास्साब कभी किचन शैड, शौचालय या ऐक्स्ट्रा कमरा बनाने का काम कराते हैं, तो वे देश के लिए इंजीनियर और ठेकेदार का रोल भी निभाते हैं. यही बात गांव वालों को खलती है और वे मास्साब की ईमानदारी पर भी बेवजह शक करने लगते हैं. गांवों में अकसर ही लोगों को यह शिकायत रहती है कि मास्साब नियमित स्कूल नहीं आते, बच्चों को ठीक से नहीं पढ़ाते, घर में कोचिंग क्लास चलाते हैं.

अरे जनाब, आप को पता होना चाहिए कि बच्चे मास्साब के कंधों पर कितना बड़ा बोझ हैं. बच्चे भी क्या कम हैं, वे स्कूल पढ़ने नहीं रिसर्च करने आते हैं. बच्चे मास्साब के स्मार्टफोन का मजा लेते हैं. ह्वाट्सऐप पर भेजे वीडियो व फोटो को भी वे शेयर करते हैं. मास्साब की फेसबुक पर वे कमैंट करने में भी पीछे नहीं हैं. कभी मास्साब को समय मिलता है और वे लड़कों को भारत का इतिहास पढ़ाते हैं, तो भी क्लास की लड़कियों के इतिहास की जानकारी लेने में बिजी रहते हैं. लड़कियों के इतिहास पर लड़कों

की रिसर्च चलती रहती है. इस के लिए थीसिस, जिसे नासमझ प्रेमपत्र भी कहते हैं, लिखने का काम भी करते हैं, तभी उन्हें पीएचडी यानी शादी बतौर अवार्ड मिल पाती है. यह बात और है कि ज्यादातर लड़कों का इस काम में भूगोल बिगड़ने का खतरा रहता है. रिजल्ट भी खराब आता है, जिस की जिम्मेदारी मास्साबों पर थोपी जाती है. लड़कों की गलतियों की सजा मास्साबों की वेतन वृद्धि रोक कर वसूल की जाती है.

यही वजह है कि मास्साब कभीकभी नकल की खुली छूट दे देते हैं. इस से रिजल्ट भी अच्छा बन जाता है और छात्रों की नजर में मास्साब की इज्जत भी बढ़ जाती है. इस तरह मास्साब एक पंथ दो काज निबटा लेते हैं. मास्टरी के क्षेत्र में औरतों की चांदी है. मैडमजी सुबहसवेरे ही सजसंवर कर स्कूल चली जाती हैं और चूल्हाचौका सासूजी के मत्थे मढ़ जाती हैं.

कुमारियां तो स्कूल को किसी फैशन परेड का रैंप समझती हैं, तो श्रीमतियां अपने घर के काम निबटा लेती हैं. वे स्कूल समय में मटर छील लेती हैं, पालकमेथी के पत्तों को तोड़ कर सब्जी बनाने की पूरी तैयारी कर लेती हैं. कभीकभार जब समय नहीं रहता, तो स्कूल के मिड डे मील की बची हुई रेडीमेड सब्जीपूरी भी घर ले जाती हैं. ठंड के दिनों में स्वैटर बुनने की सब से अच्छी जगह सरकारी स्कूल ही होती है, जहां पर कुनकुनी धूप में बच्चों को मैदान में बिठा कर उन्हें जोड़घटाने के सवालों में उलझा कर मैडम अपने पति के स्वैटर के फंदों का जोड़घटाना कर ह्वाट्सऐप के मजे लेती हैं.

कुछ मैडमें अपने नन्हेमुन्ने बच्चों को भी साथ में स्कूल ले आती हैं, जिन के लालनपालन की जिम्मेदारी क्लास के गधा किस्म के बच्चों की होती है. उन की इस सेवा के बदले उन का प्रमोशन अगली क्लास में कर दिया जाता है. जब से सरकार ने मास्साबों की भरती में औरतों को 50 फीसदी रिजर्वेशन व उम्र की सीमा को खत्म किया है, तब से सास बनी बैठी औरतों ने भी मास्टरनी बनने की ठानी है. अब देखना यही है कि रसोई की कमान मर्दों के हाथों में आती है या नहीं?

देश के महामहिम राष्ट्रपति रह चुके डा. राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ मनाया जाता है. स्कूली बच्चे चंदा कर के मास्साब के लिए शाल और चायबिसकुट का इंतजाम करते हैं.

देश के राष्ट्रपति द्वारा इस दिन दिल्ली में होनहार मास्साबों को सम्मानित किया जाता है. कुछ मास्साब यहां भी अपने हुनर को दिखा कर टैलीविजन चैनलों पर अवार्ड लेते दिख जाते हैं. अवार्ड लेने के बाद मास्साबों को गांवगांव, गलीगली में सम्मानित किया जाता है. इसी चक्कर में मास्साब कईकई दिनों तक स्कूल नहीं पहुंच पाते. पर कभीकभार स्कूल के हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत कर उसे भी गौरवान्वित कर आते हैं.

ठीक ही तो है कि सारी ईमानदारी का बोझ अकेले मास्साबों के कंधों पर नहीं डाला जा सकता. जब से देश को बनाने की जिम्मेदारी अंगूठा लगाने वाले जनप्रतिनिधि निभाने लगे हैं, तब से मास्साबों को शर्म आने लगी है. इतनी पढ़ाई के बाद भी मास्साब अंगूठे की छाप नहीं बदल सके? काश, मास्साबों का यह दर्द कोई समझ पाता.

फर्क कथनी और करनी का : सुच्चामल फैला रहा था रायता

सुच्चामल हमारी कालोनी के दूसरे ब्लौक में रहते थे. हर रोज मौर्निंग वाक पर उन से मुलाकात होती थी. कई लोगों की मंडली बन गई थी. सुबह कई मुद्दों पर बातें होती थीं, लेकिन बातों के सरताज सुच्चामल ही होते थे. देशदुनिया का ऐसा कोई मुद्दा नहीं होता था जिस पर वे बात न कर सकें. उस पर किसी दूसरे की सहमतिअसहमति के कोई माने नहीं होते थे, क्योंकि वे अपनी बात ले कर अड़ जाते थे. उन की खुशी के लिए बाकी चुप हो जाते थे. बड़ी बात यह थी कि वे, सेहत के मामले में हमेशा फिक्रमंद रहते थे. एकदम सादे खानपान की वकालत करते थे. मोटापे से बचने के कई उपाय बताते थे. दूसरों को डाइट चार्ट समझा देते थे. इतना ही नहीं, अगले दिन चार्ट लिखित में पकड़ा देते थे. फिर रोज पूछना शुरू करते थे कि चार्ट के अनुसार खानपान शुरू किया कि नहीं. हालांकि वे खुद भी थोड़ा थुलथुल थे लेकिन वे तर्क देते थे कि यह मोटापा खानपान से नहीं, बल्कि उन के शरीर की बनावट ही ऐसी है.

एक दिन सुबह मुझे काम से कहीं जाना पड़ा. वापस आया, तो रास्ते में सुच्चामल मिल गए. मैं ने स्कूटर रोक दिया. उन के हाथ में लहराती प्लास्टिक की पारदर्शी थैली को देख कर मैं चौंका, चौंकाने का दायरा तब और बढ़ गया जब उस में ब्रैड व बड़े साइज में मक्खन के पैकेट पर मेरी नजर गई. मैं सोच में पड़ गया, क्योंकि सुच्चामल की बातें मुझे अच्छे से याद थीं. उन के मुताबिक वे खुद भी फैटी चीजों से हमेशा दूर रहते थे और अपने बच्चों को भी दूर रखते थे. इतना ही नहीं, पौलिथीन के प्रचलन पर कुछ रोज पहले ही उन की मेरे साथ हुई लंबीचौड़ी बहस भी मुझे याद थी.

वे पारखी इंसान थे. मेरे चेहरे के भावों को उन्होंने पलक झपकते ही जैसे परख लिया और हंसते हुए पिन्नी की तरफ इशारा कर के बोले, ‘‘क्या बताऊं भाईसाहब, बच्चे भी कभीकभी मेरी मानने से इनकार कर देते हैं. कई दिनों से पीछे पड़े हैं कि ब्रैडबटर ही खाना है. इसलिए आज ले जा रहा हूं. पिता हूं, बच्चों का मन रखना भी पड़ता है.’’

‘‘अच्छा किया आप ने, आखिर बच्चों का भी तो मन है,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.

‘‘नहीं बृजमोहन, आप को पता है मैं खिलाफ हूं इस के. अधिक वसा वाला खानपान कभीकभी मेरे हिसाब से तो बहुत गलत है. आखिर बढ़ते मोटापे से बचना चाहिए. वह तो श्रीमतीजी भी मुझे ताना देने लगी थीं कि आखिर बच्चों को कभी तो यह सब खाने दीजिए, तब जा कर लाया हूं.’’ थोड़ा रुक कर वे फिर बोले, ‘‘एक और बात.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, तो वे नाखुशी वाले अंदाज में बोले, ‘‘मुझे तो चिकनाईयुक्त चीजें हाथ में ले कर भी लगता है कि जैसे फैट बढ़ रहा है, चिकनाई तो दिल की भी दुश्मन होती है भाईसाहब.’’

‘‘आइए आप को घर तक छोड़ दूं,’’ मैं ने उन्हें अपने स्कूटर पर बैठने का इशारा किया, तो उन्होंने सख्त लहजे में इनकार कर दिया, ‘‘नहीं जी, मैं पैदल चला जाऊंगा, इस से फैट घटेगा.’’

आगे कुछ कहना बेकार था क्योंकि मैं जानता था कि वे मानेंगे ही नहीं. लिहाजा, मैं अपने रास्ते चला गया.

2 दिन सुच्चामल मौर्निंग वौक पर नहीं आए. एक दिन उन के पड़ोसी का फोन आया. उस ने बताया कि सुच्चामल को हार्टअटैक आया है. एक दिन अस्पताल में रह कर घर आए हैं. अब मामला ऐसा था कि टैलीफोन पर बात करने से बात नहीं बनने वाली थी. घर जाने के लिए मुझे उन की अनुमति की जरूरत नहीं थी. यह बात इसलिए क्योंकि वे कभी भी किसी को घर पर नहीं बुलाते थे बल्कि हमारे घर आ कर मेरी पत्नी और बच्चों को भी सादे खानपान की नसीहतें दे जाते थे.

मैं दोपहर के वक्त उन के घर पहुंच गया. घंटी बजाई तो उन की पत्नी ने दरवाजा खोला. मैं ने अपना परिचय दिया तो वे तपाक से बोलीं, ‘‘अच्छाअच्छा, आइए भाईसाहब. आप का एक बार जिक्र किया था इन्होंने. पौलिथीन इस्तेमाल करने वाले बृजमोहन हैं न आप?’’

‘‘ज…ज…जी भाभीजी.’’ मैं थोड़ा झेंप सा गया और समझ भी गया कि अपने घर में उन्होंने खूब हवा बांध रखी है हमारी. सुच्चामल के बारे में पूछा, तो वे मुझे अंदर ले गईं. सुच्चामल ड्राइंगरूम के कोने में एक दीवान पर पसरे थे. मैं ने नमस्कार किया, तो उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आई. चेहरे के भावों से लगा कि उन्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा था. हालचाल पूछा, ‘‘बहुत अफसोस हुआ सुन कर. आप तो इतना सादा खानपान रखते हैं, फिर भी यह सब कैसे हो गया?’’

‘‘चिकनाई की वजह से.’’ जवाब सुच्चामल के स्थान पर उन की पत्नी ने थोड़ा चिढ़ कर दिया, तो मुझे बिजली सा झटका लगा, ‘‘क्या?’’

‘‘कैसे रोकूं अब इन्हें भाईसाहब. ऐसा तो कोई दिन ही नहीं जाता जब चिकना न बनता हो. कड़ाही में रिफाइंड परमानैंट रहता है. कोई कमी न हो, इसलिए कनस्तर भी एडवांस में रखते हैं.’’ उन की बातों पर एकाएक मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘लेकिन भाभीजी, ये तो कहते हैं कि चिकने से दूर रहता हूं?’’

‘‘रहने दीजिए भाईसाहब. बस, हम ही जानते हैं. किचेन में दालों के अलावा आप को सब से ज्यादा डब्बे तलनेभूनने की चीजों से भरे मिलेंगे. बेसन का 10 किलो का पैकेट 15 दिन भी नहीं चलता. बच्चे खाएं या न खाएं, इन को जरूर चाहिए. बारिश की छोड़िए, आसमान में थोड़े बादल देखते ही पकौड़े बनाने का फरमान देते हैं.’’

यह सब सुन कर मैं हैरान था. सुच्चामल का चेहरा देखने लायक था. मन तो किया कि उन की हर रोज होने वाली बड़ीबड़ी बातों की पोल खोल दूं, लेकिन मौका ऐसा नहीं था. सुच्चामल हमेशा के लिए नाराज भी हो सकते थे. यह राज भी समझ आया कि सुच्चामल अपने घर हमें शायद पोल खुलने के डर से क्यों नहीं बुलाना चाहते थे. इस बीच, डाक्टर चैकअप के लिए वहां आया. डाक्टर ने सुच्चामल से उन का खानपान पूछा, तो वह चुप रहे. लेकिन पत्नी ने जो डाइट चार्ट बताया वह कम नहीं था. सुच्चामल सुबह मौर्निंग वाक से आ कर दबा कर नाश्ता करते थे.

हर शाम चाय के साथ भी उन्हें समोसे चाहिए होते थे. समोसे लेने कोई जाता नहीं था, बल्कि दुकानदार ठीक साढ़े 5 बजे अपने लड़के से 4 समोसे पैक करा कर भिजवा देता था. सुच्चामल महीने में उस का हिसाब करते थे. रात में भरपूर खाना खाते थे. खाने के बाद मीठे में आइसक्रीम खाते थे. आइसक्रीम के कई फ्लेवर वे फ्रिजर में रखते थे. मैं चलने को हुआ, तो मैं ने नजदीक जा कर समझाया, ‘‘चलता हूं सुच्चामल, अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘चिकने से परहेज कर के सादा खानपान ही कीजिए.’’

‘‘मैं तो सादा ही…’’ उन्होंने सफाई देनी चाही, लेकिन मैं ने बीच में ही उन्हें टोक दिया, ‘‘रहने दीजिए, तारीफ सुन चुका हूं. डाक्टर साहब को भी भाभीजी ने आप की सेहत का सारा राज बता दिया है.’’ मेरी इस सलाह पर वे मुझे पुराने प्राइमरी स्कूल के उस बच्चे की तरह देख रहे थे जिस की मास्टरजी ने सब से ज्यादा धुनाई की हो. अगले दिन मौर्निंग वाक पर गया, तो हमारी मंडली के लोगों को मैं ने सुच्चामल की तबीयत के बारे में बताया, तो वे सब हैरान रह गए.

‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ एक ने पूछा, तो मैं ने बताया, ‘‘अजी खानपान की वजह से.’’

एक सज्जन चौंक कर बोले, ‘‘क्या…? इतना सादा खानपान करते थे, ऐसा तो नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अजी काहे का सादा.’’ मेरे अंदर का तूफान रुक न सका और सब को हकीकत बता दी. मेरी तरह वे भी सुन कर हैरान थे. सुच्चामल छिपे रुस्तम थे. कुछ दिनों बाद सुच्चामल मौर्निंग वाक पर आए, लेकिन उन्होंने खानपान को ले कर कोई बात नहीं की. 1-2 दिन वे बोझिल और शांत रहे. अचानक उन का आना बंद हो गया.

एक दिन पता चला कि वे दूसरे पार्क में टहल कर लोगों को अपनी सेहत का वही ज्ञान बांट रहे हैं जो कभी हमें दिया करते थे. हम समझ गए कि सुच्चामल जैसे लोग ज्ञान की गंगा बहाने के रास्ते बना ही लेते हैं. यह भी समझ आ गया कि कथनी और करनी में कितना फर्क होता है. सुच्चामल से कभीकभी मुलाकात हो जाती है, लेकिन वे अब सेहत के मामले पर नहीं बोलते.

मायके जाने की धमकी : मिर्जा को आया गुस्सा

उस दिन मिर्जा इस तरह से फुफकारते हुए चले आ रहे थे, जैसे जलेबी का खमीर उबाल खा रहा हो. बाल ऐसे बिखरे हुए थे, जैसे तूफान आने के बाद पेड़ गिरे होते हैं. जुमे का दिन और… दिन के 11 बजे मिर्जा मैलेकुचैले कपड़ों में? देखते ही मुझ पर तो जैसे आसमान की बिजली गिर पड़ी.

मैं ने अपनेआप को बड़ी मुश्किल से काबू में किया और मन ही मन कहा. ‘जलते जलाल तू, कुदरत कमाल तू, आई बला को टाल तू,’ फिर झपट कर मिर्जा का हाथ थामा और कहा, ‘‘मिर्जा, यह तुम ही हो…’’

ऐसा सुनना था कि मिर्जा गरजते हुए बोले, ‘‘तो क्या तुझे मोनिका लेवेंस्की दिखाई दे रही है?’’

मैं ने मौके की नजाकत को समझा और कहा, ‘‘यार, मैं ने तो यों ही कहा था. पहले अंदर आओ.’’

उन्हें सोफे पर बैठाते हुए मैं बोला, ‘‘देख मिर्जा, मैं तेरा लंगोटिया यार हूं. मुझे बता कि आज तू ने जुमे की तैयारी क्यों नहीं की? जुमे के दिन 11 बजे तक तो तुम दूल्हे की तरह सजसंवर कर जामा मसजिद में इमाम साहब के सामने खड़े हो कर अजान पढ़ा करते थे. लेकिन आज यहां पर, वह भी इस हालत में… कहीं भाभी ने…’’

मैं बात पूरी उगल भी न पाया था कि मिर्जा गरजते हुए बोले, ‘‘अगर तू वाकई मेरा सच्चा यार है, तो बता कि शादी पर औरत ही क्यों ब्याह कर लाई जाती है? मर्द को ब्याह कर ससुराल क्यों नहीं ले जाया जाता?’’

यह सुनते ही मेरा दिमाग घूम गया. मैं ने हंस कर कहा, ‘‘यार मिर्जा, तू यह बता कि पान की लत तो खैर तुम्हें विरासत में ही मिली है, अब कहीं भांग वगैरह तो नहीं लेनी शुरू कर दी?’’

मिर्जा तमतमा उठे और बोले, ‘‘एक मुसलमान पर इस तरह की तुहमत लगाते हो. क्या तू ने मुझे काफिर समझा है? मैं पक्का मुसलमान हूं और सात वक्त की नमाज पढ़ता हूं.’’

अब तो मेरा वहम यकीन में बदल चुका था. शायद खुदा ने दो वक्त अलग से मिर्जा को दिए हैं. तभी मिर्जा बोले, ‘‘मैं इशराक व तहज्जुद 12 महीने की पढ़ता हूं.’’ इस के बाद मिर्जा खड़े होते हुए बोले, ‘‘तू भी मेरा दुख बांटने वाला वह सच्चा यार नहीं रहा.’’

मिर्जा की आवाज भर्रा गई थी और गला रुंध गया था. मैं ने सोफे पर बैठाते हुए मिर्जा को समझाया, ‘‘तुम गलत समझ रहे हो. मुझे आज भी तुम से उतनी ही हमदर्दी है, जितनी कभी कुंआरेपन में भी नहीं रही होगी.’’

‘‘तो क्या औरतों के मायके जाने की धमकी जायज है?’’ मिर्जा बोले. मेरी समझ में अब सारा माजरा आ रहा था कि आज जरूर इन की बेगम ने मायके जाने की धमकी दी है और यह जोरू का परमानैंट गुलाम मिर्जा उसे बरदाश्त नहीं कर पा रहा है.

मैं ने कहा, ‘‘जायज तो नहीं है, पर मर्दों से लड़ने के वास्ते फर्स्ट क्वालिटी का हथियार तो यही है न?’’ इतना सुनते ही मिर्जा एकदम आपे से बाहर हो गए और बोले, ‘‘तो क्या दूसरा हथियार भी होता है?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां मिर्जा, तुम तो खुशनसीब हो, जो भाभी ने अपना दूसरा हथियार यानी बेलन तुम्हें नहीं दिखाया.’’

मिर्जा गुस्से में भड़क कर चिल्लाए, ‘‘अरे बेवकूफ, मत पूछ कि आज तो उस ने अमेरिका इराक युद्ध की तरह अपने बड़े हथियार का भी इस्तेमाल कर लिया. यह तो अच्छा हुआ कि मैं किवाड़ के पास खड़ा था, फुरती से उस की आड़ ले ली, नहीं तो जुमे की नमाज के साथ आज तो अपनी भी नमाजे जनाजा अदा की जाती.’’

मैं ने मिर्जा से कहा, ‘‘चलो, अच्छा हुआ, लेकिन अभी तक तुम्हारी दूल्हा ब्याह कर ले जाने वाली बात समझ में नहीं आई.’’

यह सुन कर मिर्जा कुछ संजीदा हो कर बोले, ‘‘देख, ध्यान से सुन. घर में तकरार होने पर बीवी हमेशा मायके जाने की धमकी देती है और यह धमकी अच्छेअच्छे मर्द को मेमने की तरह मिमियाने को मजबूर कर देती है.

‘‘अगर दूल्हा ब्याह कर ससुराल ले जाया जाता, तो बेलन वगैरह का खतरा होने पर मायके जाने की धमकी को काम में ला सकता था और मर्द सीना तान कर ससुराल में शान से राज करता.’’

मैं ने मिर्जा की बात पर दिखावटी हमदर्दी दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, जैसे एक जीभ बत्तीस दांतों से घिरी हो कर काबू में नहीं रह सकती, उसी तरह औरत ससुराल में अकेली सभी पर भारी पड़ती है. ‘‘अगर तुम्हारे चालू फार्मूले पर समाज चलता, तो बच्चू मिर्जा, खोपड़ी का नटबोल्ट कस कर समझ ले कि अगर दूल्हा ससुराल में रहता, तो पता है क्या होता? होता यह कि पत्नी बेलन से तुम्हारा सिर तोड़ती.

‘‘अगर जीजा साले की बहन को घूर कर भी धमकाता, तो वे उसे लठिया देते. सासससुर के उपदेश अलग से दिमाग चाट कर रख देते.‘‘सालियां अमरबेल की तरह तुम्हारे जेबरूपी पेड़ को परजीवी बन कर सुखा देतीं. सालों के बच्चों को जिद करने पर न जाने महीने में कितनी बार फिल्म दिखाने ले जाना पड़ता और तब भी वे घर आ कर कहते, ‘पापापापा, फूफाजी ने फिल्म तो दिखाई, पर हमें वहां चाट नहीं खिलाई.’

‘‘इस तरह तुम्हें बेकार में ही कंजूस मक्खीचूस की उपाधि मिल जाती. भले ही तुम ने चाट पर मक्खियों का परमानैंट कब्जा होने के चलते न खिलाई हो, पर इसे कोई नहीं मानता.

‘‘अगर चाट खिलाने से बच्चे बीमार पड़ जाते, तो सास ऐसे लताड़ती जैसे कि पता नहीं क्या खिला लाया. बड़ी मनौतियां मान कर 2 पोते हुए, इन्हें तो मार कर ही इस का कलेजा ठंडा होगा.

‘‘इसलिए मिर्जा, जो कायदेकानून हमारे बड़ों ने बनाए हैं, वे जरूर सोचसमझ कर ही बनाए हैं, इसलिए तू अपना दिल छोटा न कर और भाभी को अपने मन की भड़ास निकाल लेने दिया कर… समझे हजरत मिर्जा?’’

अब मिर्जा धीरेधीरे मुसकराए और बोले, ‘‘यार, वाकई आज तो तू ने कमाल कर दिया. इतने काम की बात मेरे दिमाग में आज तक क्यों नहीं आई? मैं ने इतनी उम्र यों ही गंवाई.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, अब जा कर घर में जुमे की नमाज अदा कर. और हां, दुआ में मुझे मत भूल जाना और भाभी की अच्छी सेहत की दुआ जरूर मांगना.’’ यह सुन कर मिर्जा झेंपते हुए अपने घर की तरफ चल दिए.

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