तीन युग – भाग 2 : क्या थी आसिफ की कहानी

‘‘भई, अब तो नईमा अप्पी भी परवीन बाजी की तरह खूब चमचमाती साडि़यां पहना करेंगी. झुमके, झाले और पता नहीं क्याक्या, इन की बराबरी भला कहां कर पाएंगे हम लोग…’’ नईमा बनावटी ठंडी सांस भर फिर से गोटा टांकने लगी. ‘‘अप्पी, हम से मिलने रोज आना दूल्हा भाई के साथ,’’ छोटी नाजिया की बात पर सब बहनें हंस पड़ीं. ‘‘परवीन बाजी तो रोज आती हैं अपने दूल्हा के साथ… तुम क्यों नहीं आओगी?’’ नाजिया बेचारी खिसिया कर बोली.

‘‘आऊंगी नाजो, मैं भी आया करूंगी रोज,’’ गालों पर शर्म की लाली बिखेरती नईमा ने जवाब दिया. उस की आंखों में परवीन का चेहरा चमक गया, ‘वाकई परवीन की तरह मैं भी खूब सजधज कर मायके आया करूंगी, बल्कि उस से भी ज्यादा.’ परवीन नईमा के पड़ोस में रहती थी. दोनों बचपन की सहेलियां थीं. परवीन के घर काफी पैसा था. उस के बाप की कपड़े की दुकान थी. परवीन का घर भी शानदार था. पैसे की रेलपेल थी, सो छोटी सी उम्र में उस के लिए अच्छेअच्छे पैगाम आने लगे थे. पढ़ाई के बीच ही उस की शादी भी हो गई. वह तीसरेचौथे रोज सजधज कर अपने पति के साथ गाड़ी में मायके आती थी. ‘मैं भी उन के साथ खूब घूमा करूंगी,’

नईमा हर समय खोई रहती थी. पर सपने कभी सच नहीं होते. इस बात का एहसास नईमा को शादी के चंद दिनों बाद ही होने लगा था. नईमा के पति की बिजली के सामान की छोटी सी दुकान थी, जिस में वह दिनरात खटता रहता. उस से 2 छोटे भाई थे. एक मोटर का काम सीख रहा था, दूसरा पढ़ने जाता था. बाप अपने जमाने के बेहतरीन कारीगर थे, पर अब नजर बेकार हो जाने के चलते कुछ नहीं करते थे. इस तरह सारे घर की जिममेदारी जाकिर मियां पर थी, जिस से वह अकसर परेशान और चिढ़चिढ़ा रहता था. एक सास थी, जिन की जबान दिनभर चलती रहती थी और निशाना बेचारी नईमा बनती. उन की मिलने वाली कोईर् न कोई रोज आ जाती और बूढ़ी सास तेरीमेरी बहूबेटियों के बहाने नईमा को सौ बातें सुनाती रहतीं. इन्हीं तानों की मार के डर से बेचारी नईमा कई कई महीनों तक मायके जाने का नाम न लेती. सुबह से रात तक बावर्चीखाने में जुटी रहती.

पर तारीफ के दो बोल तक उस की झोली में न आते. मायके की याद आती, भाईबहन, मांबाप सब याद आते, लेकिन सास की जहरीली बातें याद कर वह कांप जाती कि पता नहीं कब उन पर या उन के मायके वालों पर भी कोई इलजाम लग जाए. कभीकभी जाकिर मियां ही जब मूड में होते तो 1-2 दिन के लिए बीवी को मायके छोड़ आते. पर बुढि़या जल्दी ही किसी न किसी बहाने से बुलवा लेती. सारा घर जो चौपट हो जाता था. रात तक नईमा थकहार कर आंखें बंद करती तो दिल किसी नन्हे बच्चे की तरह मचल उठता, ‘‘कहां हैं वे सुनहरे सुख, जिन के सपने देखे थे?’’

ऐसे में परवीन का हंसता हुआ चेहरा उस के सामने आ जाता. परवीन तो खूबसूरत भी नहीं थी, पढ़ाई भी अधूरी थी. फिर कैसे जिंदगी की सारी खुशियां उस की झोली मे उतर आई थीं, सौगात बन कर. दूसरी ओर खुद उन में क्या कमी थी, जो दुखों के सिवा उस के दामन में कुछ भी नहीं था. मोतियों की लड़ी टूट कर उस की आंखों से बिखरने लगती,

‘‘आखिर मेरी जिंदगी में ही अरमानों का खून क्यों लिखा है?’’ वह खुद से सवाल कर बैठती. वक्त का पहिया अपनी रफ्तार से चलता रहा. नईमा के आंगन के 2 फूल आसिफ और नजमा अब जवान हो चुके थे. सासससुर गुजर चुके थे. दोनों देवर अपने कदम जमा कर घरगृहस्थी चला रहे थे. जाकिर मियां की दिनरात की मेहनत रंग लाई थी.

उन की छोटी सी बिजली की दुकान काफी बड़ी बन चुकी थी. कई आदमी उन के पास नौकरी करते थे. जाकिर मियां की शुमार पैसे वालों में होने लगी थी. लेकिन वह तहेदिल से नईमा की मेहनत और कुरबानी के कायल थे. नईमा खुद भी अब नमकीन चेहरे वाली सलोनी न रह गई थी. अपनी जवानी उन्होंने पति और बच्चों पर कुरबान कर दी थी, शायद इस उम्मीद के सहारे कि यह कुरबानी कभी बेकार नहीं जाएगी. सारी जिंदगी खूनपसीना बहा कर जो पूंजी उन्होंने जमा की है, वह अनमोल है. कभीकभी नईमा सोचती कि चलो, तमाम जिंदगी कड़ी धूप में झुलसने के बाद अब वह बेटे के सहारे ठंडी छाया में जिंदगी के बचे दिन गुजार देगी. काफी पैसा आ जाने के बाद भी नईमा ने उसी तरह गुजरबसर कर घर में अपनी हैसियत ऊंची की थी. दहेज दे कर बड़े चाव से अपनी बेटी नजमा की शादी बड़े घर में की थी.

अपनी नाकाम तमन्नाएं अपनी बेटी के रूप में पूरी की. मुंहमांगा दहेज दे कर बेटी की ससुराल वालों का नईमा ने हमेशा के लिए मुंह बंद कर दिया था, ताकि उस की बेटी पर कभी दुखों का साया भी न पड़े. नजमा की शादी कर उस ने सुख की सांस लेनी चाही, पर सुख हमेशा की तरह दूर थे, उस की पहुंच से. जाकिर मियां अचानक बीमार पड़ गए. ऐसे पलंग से लगे कि जल्दी ही दुनिया छोड़ दी. गम का पहाड़ नईमा पर आ गिरा. पर जल्दी ही खुद को संभाला.

बाप का साया सिर पर से उठने के बाद कहीं आसिफ गलत राहों पर न चल दे, इसलिए अपने गमों को भुला कर उस ने बेटे के लिए लड़की की तलाश करना शुरू कर दिया. लोगों ने उस की ऊंची हैसियत के मुताबिक बड़ेबड़े घरों के एक से बढ़ कर एक लड़कियों के रिश्ते बताए.

लेकिन नईमा को अपने बीते दिन याद थे. उस ने अच्छी से अच्छी बड़े घर की लड़कियों को ठुकरा कर गरीब घर की लड़की अपनाई. ब्याह कर घर लाते ही अपनी कुल जमापूंजी उस की झोली में डालते हुए कहा, ‘‘दुलहन, यह सबकुछ आज से तुम्हारा है.’’ पर शायद नईमा बी की जिंदगी में सुख था ही नहीं, बहू ने जो पैसे की चमक देखी तो अपनी औकात ही भूल गई. चंद दिनों में ही आसिफ को ऐसी पट्टी पढ़ाई कि मां की सूरत देखना भी भूल गया. बेचारी नईमा बी सारा दिन बावर्चीखाने में घुटती रहती, पर बेटा पलट कर न पूछता कि मां तुम क्यों काम कर रही हो? पड़ोस की औरतें कहतीं, ‘अरे खाला, अब तो बहू ले आई हो, कुछ तो बुढ़ापे में आराम कर लो.’

तीन युग – भाग 1 : क्या थी आसिफ की कहानी

ढीली सी खाट पर दीवार की ओर करवट बदलते हुए नईमा बी ने ठंडी सांस भर कर आंखें बंद कर लीं. दोपहर ढल रही थी, पर वे ‘दो रोटी’ की अभी तक झूठी आस लगाए पड़ी थीं. वे सोचने लगीं, ‘लगता है, दुलहन अभी तक सो कर नहीं उठी. नाहक ही उस वक्त मैं ने खाने को मना कर दिया. अरे, जब दे रही थी तो खा लेती. अब सारी भी गई और आधी भी… अब मरो, भूखे पेट.’ खुद को कोसते हुए सूख रहे गले को तर करने के लिए नईमा बी ने पास की तिपाई पर रखी सुराही से पानी पीना चाहा,

तो वह भी भिखारी के कटोरे की तरह खाली पड़ी थी. किसी तरह हिम्मत बटोर कर हिलतेकांपते वजूद के साथ वे सुराही ले कर नल पर भरने के लिए चल पड़ीं. नईमा बी जैसे ही सुराही भर कर चलने को हुईं, कदम डगमगा गए. बीमार हड्डियां सूखी टहनी की तरह चरमराईं और वे फर्श पर ढेर हो गईं. बूढ़ी हड्डियां बिखर गईं तो खैर कोई गम नहीं, मुसीबत तो यह हुई कि सुराही भी टूट गई. कुछ टूटने की आवाज जब बहू के कानों से टकराई, तो वह कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर निकल आई. सामने फर्श पर नईमा बी पड़ी कराह रही थीं. किसी तरह मुंह बना कर बहू ने उन्हें खाट पर घसीट कर पहुंचाया, फिर बड़बड़ाने लगी, ‘‘किस ने कहा था आप से इधरउधर घूमने को…

बूढ़ी हो गई हैं, लेकिन चैन से एक जगह बैठा नहीं जाता.’’ पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में वापस चली गई, मगर एक गहरी धुंध ने नईमा बी की धुंधली आंखों को और भी धुंधला कर दिया. उस के सीने पर रखा बोझ कुछ और ज्यादा भारी हो गया. आज अगर अपना बेटा मुझे कुछ समझता होता तो भला बहू की यह मजाल कि ऐसी बातें सुनाए. जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे के सिर कुसूर क्या मढ़ना, टूटे दिल को समझाने की कोशिश में नईमा बी के जख्म हरे होने लगे.

बूढ़ी आंखों से आंसू बहने लगे. वे गुजरे दिनों में भटकने लगी थीं… आसिफ चेहरा ऊपर उठाए खड़ा मुसकरा रहा था. नईमा बी उस की दुलहन की बलाएं लेते हुए बोलीं, ‘‘कहीं नजर न लग जाए मेरी बच्ची को.’’ आसिफ की दुलहन की मुंहदिखाई में उन्होंने अपने सारे जेवरात और चाबियां उस की झोली में डाल दीं, ‘‘लो दुलहन, संभालो अपना हक… मुझे अब इन झंझटों से छुट्टी दो, बहुत थक चुकी हूं.’’ जिस लड़की को नईमा बी ने अपना सबकुछ सौंप दिया था, वह दो वक्त की रोटी को भी तरसा देगी. इस का तो गुमान भी न था. दर्द से नईमा बी कराह रही थीं. यादों का एक सिलसिला तार दर तार आगे बढ़ता जा रहा था… घर का माहौल एक बार फिर से बोझिल हो गया था.

दालान में अब्बाअम्मी मुंह लटकाए बैठे कुछ बातें कर रहे थे. एक ठंडी सांस के साथ अम्मी ने बात खत्म की, ‘‘पता नहीं, इस लड़की में क्या खराबी है, हर जगह से इनकार हो जाती है.’’ बावर्चीखाने में जाती हुई नईमा बी ने समझ लिया कि इस बार भी शिकस्त उस के हिस्से में आई है. एक दिन अम्मी तख्त पर बैठी पान लगा कर मुंह में रख रही थीं कि महल्लेभर की बड़ी बी चुपके से हवा की तरह आईं और अम्मी के कान में कुछ कहसुन कर चली गईं. तब अम्मी ने उसे आवाज दी, ‘‘अरे नईमा, जरा तख्त की चादर बदल दो और हां, अब की ईद का जोड़ा पहन कर कायदे से शाम को तैयार हो जाना, मेहमान आने वाले हैं.’’ उस शाम 2-3 औरतें सजधज कर बड़ी बी के साथ उस के घर आई थीं.

कई तरह का नाश्ता लगा उन के आगे रखा गया. हर तरह से उन औरतों ने नईमा को देखापरखा, नापातोला, आपस में खुसुरफुसुर की और फिर चली गईं. ‘देखो, इस बार क्या हाथ आता है?’ कोठरी में कपड़े बदलते हुए नईमा ने सोचा. रात पलंग पर लेटेलेटे छत को घूरते हुए वह अपनेआप को एक बार फिर एक नई हार के लिए तैयार करने लगी थी. लेकिन नहीं, इस बार वह जीत गई थी. उन लोगों ने उसे पसंद कर लिया था. बड़ी बी सुबह ही दौड़ी आई थीं, यह खुशखबरी ले कर. एक बहुत बड़ा बोझ नईमा के दिल पर से उतर गया. खुशी से उन का मन खिलाखिला जा रहा था.

किसी पल वह आकाश को छूता, तो किसी पल हवाओं में तैरता, इठलाता. नईमा देखने में खूबसूरत थी, पर अब तक सिर्फ इसलिए रिश्ता तय नहीं हो पाया था, क्योंकि वह गरीब मांबाप की बेटी थी. लेकिन अब जो उम्मीद का चिराग रोशन हुआ तो घरभर में खुशियों की लहर दौड़ गई. अब्बा भी खुश नजर आने लगे थे. बेचारे लड़कियों को पार लगाने के खयाल से अधमरे हुए जा रहे थे. एक का जो रिश्ता तय हुआ तो अधिक छानबीन की जरूरत भी नहीं समझी. खुद नईमा का दिल अब बड़ा हलकाफुलका हो गया था. अब घर की गरीबी उसे काटने को नहीं दौड़ती थी, न ही फटे बदरंग कपड़ों से उसे चिढ़ होती थी और न ही एक ही कमरे में छोटे भाईबहनों का शोर मचाना बुरा लगता था.

अब तो उस की दुनिया ही बदलने वाली थी. रंगबिरंगे, सुनहरे, सजीले सपने दिनरात उस की आंखों में बसेरा किए रहते. एक दिन अम्मी ने पुराने संदूक से काफी कपड़ा निकाला. वह अब्बा से बोलीं, ‘‘इन कपड़ों को इसी दिन के लिए रखा हुआ था मैं ने. इतना पैसा कहां है, जो सबकुछ बाजार से खरीदती फिरूं. तांबे के बरतन तो मेरे ही दहेज के रखे हुए हैं… ‘‘थोड़ेथोडे सब लड़कियों में बांट दूंगी. थोड़ाबहुत पैसा घर का खर्च काटछांट कर बचाया है, उस से तुम ऊपरी इंतजाम कर लेना.’’ शादी में खर्च से परेशान अब्बा को अम्मी के इन शब्दों से बड़ी राहत मिली. घर में काम जल्दीजल्दी निबटा कर चारों बहनें शादी के कपड़े सिलने बैठ जातीं. रात में दुपट्टों में गोटा टांका जाता और आपस में हंसीमजाक भी होता. नईमा से छोटी सादिया सूई में धागा डालते हुए बोली.

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