शाम को जब मोहन आए तो मैं चलने को एकदम तैयार थी. मेज पर नाश्ता लगा दिया था और चाय बना कर अभीअभी टीकोजी से ढक दी थी.
आते ही मोहन ने मुझे देख कर शरारत से कहा, ‘‘कितनी सुंदर लग रही हो. आंखें बंद कर लेता हूं. कहीं सपना टूट न जाए.’’
मैं लजा गई. मैं ने मुसकरा कर कहा, ‘‘छि:, सिनेमा तो देखते नहीं और बातें करते हो सिनेमा जैसी.’’
इतने में मां गरमगरम मठरी ले कर आ गईं. उन्हें देखते ही मोहन ने कहा, ‘‘अरे मां, तुम तैयार नहीं हुईं? देखो मेरी दुलहन तो तैयार खड़ी है. झटपट कपड़े बदल डालो.’’
मेरे तनबदन में आग लग गई. मुझ से अधिक मां की चिंता है. मोहन के साथ अकेले फिल्म देखने का रोमांटिक सपना चूरचूर हो गया. मुझे लगा कि अगर मैं कुछ देर खड़ी रही तो यहां आंसू टपक पड़ेंगे.
‘‘अरे बेटा, मैं क्या सिनेमा जाऊंगी. तुम दोनों हो आओ,’’ मां ने प्यार से कहा.
मेरी सांस ठहर गई. कुछ आशा बंधी.
‘‘नहीं मां, ऐसा नहीं होगा. मैं ने तुम्हारा टिकट भी लिया है. आखिर, घर बैठ कर करना क्या है?’’ मोहन ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो, देर मत करो.’’
मां का मुंह खिल गया और मैं ईर्ष्या से जलने लगी. अगर कोई मेरा शत्रु है तो मेरी सास है, मुझे मेरे मोहन को नजदीक नहीं आने देतीं.
मन चाहा कि फिल्म जाने से इनकार कर दूं. जाओ, अपनी मां के साथ. मैं कौन होती हूं? मां के चेहरे के स्थान पर शूर्पणखा का चेहरा दिखने लगा. घर में नाटक न हो, यह सोच कर मैं गई तो, पर आज जीवन में पहली बार लगा कि फिल्म न देखती तो अच्छा था. सारे समय कुढ़ती रही.
रात में मां के पेट में दर्द उठा. हम सब जागते रहे. पेट की सिंकाई की. हींग का लेप किया. बड़ी कठिनाई से रात कटी. न जाने क्यों सास को कराहता देख कर मेरे मन में सहानुभूति न हुई. मोहन की बेचैनी देख कर मुझे बहुत बुरा लग रहा था.
सुबह जब डाक्टर ने आ कर देखा तो बताया कि अपैंडिसाइटिस है. शल्य- क्रिया कर के अपैंडिक्स निकालना होगा. कुछ दिन दवा खाएं, जब सूजन उतर जाएगी तभी शल्यक्रिया संभव होगी.
जहां मां आपरेशन के नाम से चिंतित हो रही थीं, मैं मन ही मन प्रसन्न थी. इन की सेवा करने की भी कोई तमन्ना न थी. कुछ तरकीब लड़ानी होगी. मैं ने अपनी मां को एक पत्र डाल दिया.
अगले सप्ताह ही पिताजी का पत्र आया कि मां की तबीयत बहुत खराब है. बेटी को बुला रही हैं. शीघ्र ही कुछ दिनों के लिए भेज दें.
पत्र पढ़ कर मां और मोहन दोनों के मुंह लटक गए. मैं अपनी प्रसन्नता छिपा न पा रही थी.
मैं ने नाटकीयता से कहा, ‘‘आप को छोड़ कर कैसे जा सकती हूं? मैं तो बड़ी दुविधा में पड़ गई हूं.’’
मां ने ठंडी आह भर कर कहा, ‘‘बहू, दुख में अपने ही लोग काम आते हैं. तुम मेरी चिंता मत करो. मोहन संभाल लेगा. मां तो मैं भी हूं, पर जिस ने तुम्हें जन्म दिया है उस का तुम्हारे ऊपर अधिक अधिकार बनता है. जाओ बहू, जाने की तैयारी करो.’’
अचानक मोहन का मुंह खिल उठा, ‘‘ठीक तो कह रही हैं, मां. यहां मैं जो हूं. तुम अपनी मां की सेवा करो, मैं अपनी मां की सेवा करूंगा.’’
मां ने हंस कर वात्सल्य से मोहन के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘यह तो मेरा बेटा भी है और बेटी भी.’’
मोहन ने खिलखिलाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मेरे हाथ का सूजी का हलवा और खीर अच्छी लगती है न? मैं तुम्हारे लिए रोज नएनए सूप बनाया करूंगा. आज चारपाई पर पड़ी हो, देखना 2 दिन में ही भागने लगोगी.’’
मांबेटे दोनों हंस रहे थे और मैं चुप खड़ी थी. मुझे लगा, दोनों मिल कर मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रच रहे थे. न केवल मेरे जाने का विरोध नहीं कर रहे थे, बल्कि मेरे न होने की कल्पना से प्रसन्न हो रहे थे. मुझे लगा, मानो वे यह सोच रहे थे कि मेरी सेवा उन के संबंध को अपवित्र कर देगी, मैं जितनी जल्दी चली जाऊं, उतना ही अच्छा है.
मैं अपनी नजरों में आप ही गिर गई. अपने को बहुत तुच्छ महसूस करने लगी. यह क्यों नहीं समझती कि मोहन सच ही मां से बहुत प्यार करते हैं और अगर मोहन के दिल में जगह बनानी है तो वह मैं मां के द्वारा ही कर सकती हूं. मां के प्रति श्रद्धा, सम्मान व प्यार ही मोहन के लिए पर्याप्त है. यहां ईर्ष्या के लिए कोई स्थान नहीं.
मेरी आंखें छलछला रही थीं, जब मैं ने कहा, ‘‘मां, आप को छोड़ कर मैं नहीं जाऊंगी. अब तो आप ही मेरी मां हैं, जन्म देने वाली मां से भी बढ़ कर.’’
मोहन हंस तो नहीं रहे थे पर उन के मुख पर एक अनोखा सा संतोष था, जिसे मैं ने पहले नहीं देखा था.