ऐसा भी होता है- भाग 3

शाम को जब मोहन आए तो मैं चलने को एकदम तैयार थी. मेज पर नाश्ता लगा दिया था और चाय बना कर अभीअभी टीकोजी से ढक दी थी.

आते ही मोहन ने मुझे देख कर शरारत से कहा, ‘‘कितनी सुंदर लग रही हो. आंखें बंद कर लेता हूं. कहीं सपना टूट न जाए.’’

मैं लजा गई. मैं ने मुसकरा कर कहा, ‘‘छि:, सिनेमा तो देखते नहीं और बातें करते हो सिनेमा जैसी.’’

इतने में मां गरमगरम मठरी ले कर आ गईं. उन्हें देखते ही मोहन ने कहा, ‘‘अरे मां, तुम तैयार नहीं हुईं? देखो मेरी दुलहन तो तैयार खड़ी है. झटपट कपड़े बदल डालो.’’

मेरे तनबदन में आग लग गई. मुझ से अधिक मां की चिंता है. मोहन के साथ अकेले फिल्म देखने का रोमांटिक सपना चूरचूर हो गया. मुझे लगा कि अगर मैं कुछ देर खड़ी रही तो यहां आंसू टपक पड़ेंगे.

‘‘अरे बेटा, मैं क्या सिनेमा जाऊंगी. तुम दोनों हो आओ,’’ मां ने प्यार से कहा.

मेरी सांस ठहर गई. कुछ आशा बंधी.

‘‘नहीं मां, ऐसा नहीं होगा. मैं ने तुम्हारा टिकट भी लिया है. आखिर, घर बैठ कर करना क्या है?’’ मोहन ने मां का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो, देर मत करो.’’

मां का मुंह खिल गया और मैं ईर्ष्या से जलने लगी. अगर कोई मेरा शत्रु है तो मेरी सास है, मुझे मेरे मोहन को नजदीक नहीं आने देतीं.

मन चाहा कि फिल्म जाने से इनकार कर दूं. जाओ, अपनी मां के साथ. मैं कौन होती हूं? मां के चेहरे के स्थान पर शूर्पणखा का चेहरा दिखने लगा. घर में नाटक न हो, यह सोच कर मैं गई तो, पर आज जीवन में पहली बार लगा कि फिल्म न देखती तो अच्छा था. सारे समय कुढ़ती रही.

रात में मां के पेट में दर्द उठा. हम सब जागते रहे. पेट की सिंकाई की. हींग का लेप किया. बड़ी कठिनाई से रात कटी. न जाने क्यों सास को कराहता देख कर मेरे मन में सहानुभूति न हुई. मोहन की बेचैनी देख कर मुझे बहुत बुरा लग रहा था.

सुबह जब डाक्टर ने आ कर देखा तो बताया कि अपैंडिसाइटिस है. शल्य- क्रिया कर के अपैंडिक्स निकालना होगा.  कुछ दिन दवा खाएं, जब सूजन उतर जाएगी तभी शल्यक्रिया संभव होगी.

जहां मां आपरेशन के नाम से चिंतित हो रही थीं, मैं मन ही मन प्रसन्न थी. इन की सेवा करने की भी कोई तमन्ना न थी. कुछ तरकीब लड़ानी होगी. मैं ने अपनी मां को एक पत्र डाल दिया.

अगले सप्ताह ही पिताजी का पत्र आया कि मां की तबीयत बहुत खराब है. बेटी को बुला रही हैं. शीघ्र ही कुछ दिनों के लिए भेज दें.

पत्र पढ़ कर मां और मोहन दोनों के मुंह लटक गए. मैं अपनी प्रसन्नता छिपा न पा रही थी.

मैं ने नाटकीयता से कहा, ‘‘आप को छोड़ कर कैसे जा सकती हूं? मैं तो बड़ी दुविधा में पड़ गई हूं.’’

मां ने ठंडी आह भर कर कहा, ‘‘बहू, दुख में अपने ही लोग काम आते हैं. तुम मेरी चिंता मत करो. मोहन संभाल लेगा. मां तो मैं भी हूं, पर जिस ने तुम्हें जन्म दिया है उस का तुम्हारे ऊपर अधिक अधिकार बनता है. जाओ बहू, जाने की तैयारी करो.’’

अचानक मोहन का मुंह खिल उठा, ‘‘ठीक तो कह रही हैं, मां. यहां मैं जो हूं. तुम अपनी मां की सेवा करो, मैं अपनी मां की सेवा करूंगा.’’

मां ने हंस कर वात्सल्य से मोहन के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘यह तो मेरा बेटा भी है और बेटी भी.’’

मोहन ने खिलखिलाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मेरे हाथ का सूजी का हलवा और खीर अच्छी लगती है न? मैं तुम्हारे लिए रोज नएनए सूप बनाया करूंगा. आज चारपाई पर पड़ी हो, देखना 2 दिन में ही भागने लगोगी.’’

मांबेटे दोनों हंस रहे थे और मैं चुप खड़ी थी. मुझे लगा, दोनों मिल कर मेरे विरुद्ध कोई षड्यंत्र रच रहे थे. न केवल मेरे जाने का विरोध नहीं कर रहे थे, बल्कि मेरे न होने की कल्पना से प्रसन्न हो रहे थे. मुझे लगा, मानो वे यह सोच रहे थे कि मेरी सेवा उन के संबंध को अपवित्र कर देगी, मैं जितनी जल्दी चली जाऊं, उतना ही अच्छा है.

मैं अपनी नजरों में आप ही गिर गई. अपने को बहुत तुच्छ महसूस करने लगी. यह क्यों नहीं समझती कि मोहन सच ही मां से बहुत प्यार करते हैं और अगर मोहन के दिल में जगह बनानी है तो वह मैं मां के द्वारा ही कर सकती हूं. मां के प्रति श्रद्धा, सम्मान व प्यार ही मोहन के लिए पर्याप्त है. यहां ईर्ष्या के लिए कोई स्थान नहीं.

मेरी आंखें छलछला रही थीं, जब मैं ने कहा, ‘‘मां, आप को छोड़ कर मैं नहीं जाऊंगी. अब तो आप ही मेरी मां हैं, जन्म देने वाली मां से भी बढ़ कर.’’

मोहन हंस तो नहीं रहे थे पर उन के मुख पर एक अनोखा सा संतोष था, जिसे मैं ने पहले नहीं देखा था.

खाली जगह : सड़क पर नारियल पानी बेचने का संघर्ष – भाग 3

कार आगे बढ़ गई. एक कपड़े की बड़ी सी दुकान के सामने रुकी. वे उसे ले कर अंदर गई. उसे आईने के सामने बैठा कर उस के बालों को काटा, फिर उसे नहलाया और रेडीमेड कपड़ों को पहनाया गया. 2-3 घंटे में ही वह निखर गया. जब आईने के सामने सुरेश खड़ा हुआ तो खुद को पहचान नहीं पाया. लेकिन आखिर मैडमजी क्यों इतनी मेहरबानी कर रही हैं?

फिर दोनों एक अच्छे से होटल में खाने के लिए गए. सुरेश तो चावल और रसम खाने की उम्मीद कर रहा था लेकिन मैडम ने न जाने क्याक्या खाने को मंगवा लिया जो बहुत लजीज था.

सुरेश ने भरपेट खाना खाया. वह सबकुछ ऐसा ही कर रहा था जैसा मैडम कह रही थीं. हालांकि उस का नालायकपन उभरउभर कर सामने आ रहा था. किस फूहड़ता से वह खापी रहा था. जब वहां से निकले तो एक छोटे से लेकिन महंगे सिनेमाघर में जा कर बैठ गए. कोई हिंदी फिल्म थी. प्रेमकथा थी. वह बरसों बाद फिल्म देख रहा था. थोड़े से पैर लंबे किए तो सीट फैल कर आरामदायक हो गई.

फिल्म में सुरेश कई बार ‘होहो’ कर के हंसा तो मैडमजी ने उस की जांघ पर हाथ रख कर चुप रहने का संकेत किया. हंसने में किस तरह की रोक? जब फिल्म देख कर बाहर निकले तो रात हो चुकी थी. आसमान में काले बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था. ठंडीठंडी हवा चल रही थी.

जिंदगी इतनी खूबसूरत भी हो सकती है, सुरेश ने आज जाना था. दोनों कार से शहर का चक्कर लगा कर एक बंगले के सामने ठहरे. दोनों उतर कर अंदर गए. सुरेश का दिल जोरों से धड़क रहा था. ऐसे घर उस ने सपने में भी नहीं देखे थे.

मैडम उसे अपने साथ बैडरूम में ले गईं. सुरेश को रात के पहने जाने वाले कपड़े दिए जो वे अपने साथ लाई थीं. उसे बहुत हैरानी हुई कि सोने के कपड़े अलग क्यों. जबकि वह तो सुबह से रात तक एक ही कपड़े पहने रहता था.

नहाने के बाद रात में एक बड़े बिस्तर पर उसे सोने को कह दिया. ऐसे बिस्तर पर तो उसे नींद नहीं आएगी.

बाहर हवा तेज चल रही थी. काले बादलों से रिमझिम पानी गिरना शुरू हो गया था. मैडम सुरेश के बगल में आ कर लेट गईं. सुरेश हड़बड़ा कर उठ बैठा. लेकिन मैडमजी ने हाथ पकड़ कर लेटे रहने को मजबूर कर दिया. वह बुरी तरह से घबरा गया. ऐसी घटना की तो उस ने कभी कल्पना नहीं की थी. इतनी अमीर और पढ़ीलिखी मैडम जिंदगी में आएंगी.

मैडमजी ने नारियल का तेल लिया, उस के बालों में लगाना शुरू किया. उस के काले बालों में धीमेधीमे उंगलियां चला रही थीं, सुरेश किसी बेहोशी का शिकार हो रहा था. बाहर बिजली चमकी और काले घने बादलों ने बरसना शुरू किया और फिर बरसते गए. सुबह जब सुरेश की नींद खुली तो उसे अपने झोंपड़े की याद आई. पूरा बदन दर्द से टूट रहा था.

एक नौकरानी नाश्ते में इडली, चटनी, सांबर और थर्मस में कौफी रख गई. उस ने मुंह धोया और चुपचाप नाश्ता कर लिया जो बहुत ही स्वाद वाला था. वह इस महल से बाहर निकलना चाह रहा था, लेकिन डर भी रहा था.

तकरीबन 2 रातों तक सुरेश वहीं ठहरा. न जाने कितने सपने उस के टूट गए थे. टूट जाने के बाद भी उसे सबकुछ अच्छा लग रहा था.

अगली सुबह अन्ना के झोंपड़े पर जाने की बात तय हो गई थी. रात बहुत ही उदासी, बेचैनी से कटी.

अगले दिन मैडम ने अन्ना के झोंपड़े के पास उतार दिया. शाम को या अगले दिन मिलने के वादे के साथ. सुरेश की जेब में हजार रुपए जबरदस्ती रख दिए गए थे, इसलिए नहीं कि उस की कीमत चुकाई गई हो. यह दुकान के नुकसान की भरपाई थी. अन्ना से जब वह मिला तो अन्ना उसे ले कर बहुत परेशान थे.

सुरेश को झोंपड़ा ऐसा लग रहा था मानो कहां की जेल में आ गया हो. यह झोंपड़पट्टी की चाल उसे किसी गटर जैसी लग रही थी. उसे लगा कि यहां कितनी बदबू है और यहां लोग कैसे रहते हैं? यहां तो एक पल भी नहीं रहा जा सकता. उस के कपडे़, कटिंग देख कर अन्ना को बहुत हैरानी हुई. हजार सवाल होने पर भी उन्होंने कहा कुछ नहीं.

दोपहर होतेहोते सुरेश कालेज के गेट पर जा पहुंचा. ऐसे शानदार कपड़े पहन कर वह कैसे नारियल काट कर बेचेगा? न तो यह बेइज्जती होगी कपड़ों की. वह मैडम की मदद से कुछ नया काम खोज लेगा. उस ने मन ही मन विचार किया. कालेज के गेट पर गांव का काला लड़का ग्राहकों को नारियल काटकाट कर बेच रहा था. सुरेश को देख कर वह पहचाना नहीं लेकिन फिर बहुत हैरानी के साथ उस ने कहा, ‘‘भाई, आप तो बिलकुल हीरो लग रहे हो.’’ सुरेश झेंप गया.

मौसम खुल गया था, तपिश थी, उमस थी. हवा बिलकुल नहीं चल रही थी. सुरेश मैडमजी का इंतजार कर रहा था. दूर से वह काली कार आती दिखाई दी. कार आ कर सड़क के उस ओर ठहरी व खिड़की का कांच नीचे उतरा, हाथ बाहर निकला और पास आने का इशारा किया.

सुरेश आगे बढ़ा. अचानक हाथ ने इशारे से आने को मना किया और सुरेश को इशारा किया मानो कह रही हो, ‘तुम नहीं, वह नया काला लड़का जो खड़ा है, उसे भेजो.’

सुरेश ठिठक गया. वह लौट गया और उस गांव वाले लड़के को कहा, ‘‘मैडमजी तुझे बुला रही हैं.’’

‘‘क्यों…?’’

‘‘तू जा तो सही, मालूम पड़ जाएगा,’’ सुरेश ने कहा.

वह काला लड़का कार में बैठ गया. मैडम ने सुरेश पर एक नजर डाली जिस में कोई भी भाव नहीं था. लड़के को ले कर वह कार आगे बढ़ गई.

सुरेश अपमानित सा अपनी दुकान के सामने खड़ा था. वह सड़क पर इतने जोर से चीखा कि सड़क पर चलते सभी लोग एक पल को सहम गए. उस ने छुरा निकाला और हरे नारियल को हाथ में ले कर एक झटके में ऐसा काटा मानो किसी का सिर काट रहा हो. वह चीखते हुए रो पड़ा. यह शहर अजीब है. यहां के रिश्ते, परंपराएं अजीब हैं. न प्यार, न कोई अपनापन. वह ऐसी जगह नहीं रह सकता. वह रोते हुए उठा, थैले में नारियल लिए, अन्ना के झोंपड़े में आया और सूचना दी, ‘‘मैं गांव जा रहा हूं.’’

अगले 2 दिनों बाद कार आई, रुकी, पर वहां कोई नहीं था. सुरेश वाली जगह खाली पड़ी थी. नया काला गांव का लड़का भी अपने गांव को रवाना हो गया था. जगह खाली थी, कोई नहीं था. मैडम की आंखों में अजीब सी खोज थी, लेकिन वहां कोई नहीं था. कुछ देर ठहर कर वे अगले किसी चौराहे पर कार को ले कर बढ़ गईं. आसमान में बादल थे लेकिन वे बरस नहीं रहे थे. चारों तरफ अजीब सा सूखापन और गरमी थी.

चोरी का फल- भाग 3

यह सच है कि मैं अपने घर वालों से कट कर रहने लगा. औफिस के सहयोगियों या पड़ोसियों के साथ खाली समय में उठनाबैठना भी मैं ने कम कर दिया. किसी से फालतू बात कर के मैं उसे शिखा व अपने बारे में कुछ पूछने या कहने का मौका नहीं देना चाहता था. इस तरह सामाजिक दायरा घटते ही मैं धीरेधीरे अजीब से असंतोष, तनाव व खीज का शिकार बनने लगा.

एक दिन शिखा को अपनी बांहों में भर कर बोला, ‘‘मेरा मन करता है कि तुम हमेशा मेरी बांहों में इसी तरह बनी रहो. अब तो अपने इस घर का अकेलापन मुझे काटने लगा है.’’

उदास से लहजे में शिखा ने जवाब दिया, ‘‘हम दोनों को सामाजिक कायदेकानून का ध्यान रखना ही होगा. अपने पति व सास को छोड़ कर सदा के लिए आप के पास आ जाने की हिम्मत मुझ में नहीं है. फिर मेरा ऐसा कदम बेटे रोहित के भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा और उस के हित की फिक्र मैं अपनी जान से ज्यादा करती हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारे मनोभावों को समझता हूं, शिखा. देखो, तकदीर ने मेरे साथ कैसा मजाक किया है. मेरी पत्नी मुझे बहुत प्यारी थी पर उसे जिंदगी छोटी मिली. तुम्हें मैं बहुत प्रेम करता हूं, पर तुम सदा के लिए खुल कर मेरी नहीं हो सकती हो. जब कभी इस तरह की बातें सोचने लगता हूं तो मन बड़ा अकेला, उदास और बेचैन हो जाता है.’’

जो बात दिमाग में बैठ जाए फिर उसे भुलाना या निकाल कर बाहर फेंकना बड़ा कठिन होता है. शिखा मेरे दिल के बहुत करीब थी, फिर भी मेरे अंदर का असंतोष व बेचैनी बढ़ती ही गई.

रोहित के जन्म की 5वीं सालगिरह पर मेरे असंतोष का घड़ा पूरा भर कर एक झटके में फूट गया.

इत्तफाक से जन्मदिन के कुछ रोज पहले संजीव को स्टाक मार्किट से अच्छा फायदा हुआ. तड़कभड़क से जीने के शौकीन संजीव ने फौरन रोहित के जन्मदिन की पार्टी धूमधाम से मनाने का फैसला कर लिया.

उस दिन घर के आगे टैंट लगा. हलवाई ने खाना तैयार किया. डीजे सिस्टम पर बज रहे गानों की धुन पर खूब सारे मेहमान थिरकने लगे. कम से कम 250-300 लोग वहां जरूर उपस्थित रहे होंगे.

रोहित उस दिन स्वाभाविक तौर पर सब के आकर्षण का केंद्र बना. उस के साथ घूमते हुए शिखा व संजीव ने इतनी अच्छी पार्टी देने के लिए खूब वाहवाही लूटी.

मैं एक तरफ उपेक्षित सा बैठा रहा. शिखा को फुरसत नहीं मिली, मेरे साथ चंद मिनट भी गुजारने की. शायद मेरे साथ हंसबोल कर वह अपने करीबी रिश्तेदारों को बातें बनाने का मौका नहीं देना चाहती थी.

मैं पार्टी का बिलकुल भी मजा नहीं ले सका. उस बड़ी भीड़ में मैं अपने को अकेला, उदास व उपेक्षित सा महसूस कर रहा था.

मेरा मन एक तरफ तो मांग कर रहा था कि शिखा को मेरे पास आ कर मेरा भी ध्यान रखना चाहिए था. उस के परिवार की हंसीखुशी में मेरा योगदान कम नहीं था. दूसरी तरफ मन शिखा के पक्ष में बोलता. मैं उस का प्रेमी जरूर था पर यह कोई भी समझदार स्त्री खुलेआम अपने करीबी लोगों के सामने रेखांकित नहीं कर सकती.

मैं जब इस तरह की कशमकश से तंग आ गया तो बिना किसी को बताए घर चला आया.

उस रात मुझे बिलकुल नींद नहीं आई. जिस ढर्रे पर मेरी जिंदगी चल रही थी उस से गहरा असंतोष मेरे दिलोदिमाग में पैदा हुआ था.

मेरी सारी रात करवटें बदलते गुजरी पर सुबह मन शांत था. पिछली परेशानी भरी रात के दौरान मैं ने अपनी जिंदगी से जुड़े कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए थे.

अगले दिन शिखा 11 बजे के करीब आई. मेरे गंभीर चेहरे को देख कर चिंतित स्वर में बोली, ‘‘क्या आप की तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘मैं ठीक हूं,’’ मैं ने उसे अपने सामने बैठने का इशारा किया.

‘‘कल पार्टी में किसी ने कुछ गलत कहा? गलत व्यवहार किया?’’ वह परेशान हो उठी.

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई.’’

‘‘फिर यों बुझेबुझे से क्यों लग रहे हो?’’

‘‘रात को ठीक से सो नहीं पाया.’’

‘‘किसी बात की परेशानी थी?’’

‘‘हां, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था, शिखा. कुछ जरूरी बातें करनी हैं मुझे तुम से.’’

‘‘कहो…’’

मैं ने कुछ लम्हों की खामोशी के बाद भावहीन स्वर में उसे बताया, ‘‘मैं आज मेरठ वाली उस लड़की को देखने जा रहा हूं जिस का मेरे लिए रिश्ता आया है.’’

‘‘मैं तो हमेशा आप को मेरठ जाने की सलाह देती रही हूं.’’

‘‘शिखा, मैं खुद नहीं जाता था क्योंकि तुम्हारे अलावा किसी और स्त्री को अपनी जिंदगी में प्रवेश देना मुझे अनुचित लगता था… वैसा करना उस मेरठ वाली लड़की के साथ धोखा करना होता.’’

‘‘क्या अब आप ने मुझे अपने दिल से निकालने का फैसला कर लिया है?’’ यह कहतेकहते शिखा की आंखों में आंसू छलक आए.

‘‘शिखा, तुम बिना आंसू बहाए मेरी बात को समझने की कोशिश करो, प्लीज,’’ मैं ने अपनी आवाज को कमजोर नहीं पड़ने दिया, ‘‘देखो, तुम्हारी घरगृहस्थी सदा तुम्हारी रहेगी. मैं चाह कर भी उस का स्थायी सदस्य कभी नहीं बन सकता हूं. तुम्हारा नाम संजीव के साथ ही जुड़ेगा, मेरे साथ नहीं. यह बात कल रात मुझे बिलकुल साफ नजर आई.

‘‘चोरी का मीठा फल खाने का अपना मजा है… तुम्हारे प्यार को मैं बहुत कीमती व महत्त्वपूर्ण मानता रहा हूं. अब थक गया हूं, अकेले इस घर में रातें बिताते हुए… अब मैं सिर्फ फल खाना नहीं बल्कि अपनी छोटी सी बगिया बनाना चाहता हूं जिसे मैं अपना कह सकूं… जिसे फलताफूलता देख मैं ज्यादा खुशी व सुकून महसूस कर सकूं.’’

‘‘मैं ने आप को अपनी घरगृहस्थी की बगिया बनाने से कभी नहीं रोका,’’ शिखा भावुक स्वर में बोली, ‘‘आप जरूर शादी कर लें. आप की इच्छा होगी तो मैं खुशीखुशी आप की जिंदगी में प्रेमिका बन कर बनी रहूंगी.’’

‘‘नहीं, शिखा, वैसा करना बिलकुल गलत होगा,’’ मैं ने तीखे स्वर में उस के प्रस्ताव का विरोध किया.

‘‘तब क्या आज आप मुझे हमेशा के लिए अलविदा कह रहे हैं?’’ वह रोंआसी हो उठी.

भीगी पलकें और भारी मन से मैं इतना भर कह सका, ‘‘आई एम सौरी, शिखा, दोस्ती की सीमाएं लांघ कर तुम्हें अपनी प्रेमिका नहीं बनाना चाहिए था मुझे. मैं सिर्फ तुम्हारे मन में जगह बना कर रखता तो आज मेरी भावी शादी के कारण हमें एकदूसरे से दूर न होना पड़ता.’’

शिखा उठ कर खड़ी हो गई और थके से स्वर में बोली, ‘‘सर, आप जैसे नेक इनसान को कभी भुला नहीं पाऊंगी. पर शायद आप का फैसला बिलकुल सही है. मैं चलती हूं.”

पछतावा: थर्ड डिगरी का दर्द- भाग 3

रतन की आवाज सुनते ही नैना बिछावन से उठ बैठी. रतन को देखते ही उस का मन किया कि उस के गले से लग जाए और रोरो कर अपना मन हलका कर ले, पर दूसरे ही पल उस का विचार बदल गया. उस के मन ने कहा कि रतन तो देशद्रोही है, किसी दुष्कर्मी से भी बड़ा अपराधी. जिस ने देश की एकता, अखंडता और अमन को भंग करने का संकल्प ले रखा हो, वैसे अपराधी से वह कैसे संबंध रख सकती है? यह सोच कर उस का मन नफरत से भर उठा. रतन को घूरते हुए उस की नजरें हिकारत से भर उठीं.

‘‘नैना हिम्मत से काम लो, हौसला बनाए रखो…’’

‘‘मत लो मेरा नाम, मुझे किसी की हमदर्दी की जरूरत नहीं. तुम सब एक ही थाली के चट्टेबट्टे हो. जिस थाली में खाते हो, उसी में छेद करते हो. तुम लोगों का एक ही धर्म है, इनसानियत को दागदार करना,’’ नैना गुस्से में रतन पर बरस पड़ी.

‘‘तुम गलत समझ रही हो, नैना. मैं वैसा आदमी नहीं हूं. मुझे कुछ लोगों ने एक साजिश के तहत फंसाया है. पुलिस के पास मेरे खिलाफ कोई सुबूत नहीं है. बम धमाके के मामले में मुझे नाहक ही घसीटा जा रहा है,’’ रतन ने अपनी सफाई देनी चाही.

‘‘फंसने के डर से कोई भी अपराधी अपना सुबूत वारदात वाली जगह पर नहीं छोड़ना चाहता, तो भला तुम क्यों छोड़ोगे? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि नैना का बलात्कार हो गया, फिर भी वह किसी लाश की तरह जिंदा है. तुम पत्थरदिल हैवान, दिल की भाषा क्या जानो…?’’ अपने शब्दों के बाणों से रतन पर वार किया.

‘‘चुप रहो नैना, बहुत हो चुका…’’ गुस्से में रतन चीखा और बोला, ‘‘मैं एक इनसान हूं, बिलकुल तुम्हारी तरह. बस फर्क इतना है कि तुम अमीर बाप की बेटी हो और मैं गरीब का बेटा. तुम्हें क्या पता, इनसान कैसे अपराधी बनता है. जा कर उन मुसीबतों और हालात से पूछो.

‘‘जब मैं नौकरी के लिए दरदर की ठोकरें खा रहा था. काम नहीं मिलने पर भूख और प्यास से बिलबिलाता था. मेरे घर में न अनाज था, न पैसा. गरीब बेटे की मां एकएक पैसे के लिए उस की राह ताकती थी. अनजाने में एक दिन मैं नक्सलियों के हाथ लग गया. उन के दबाव में आ कर उन का काम करने लगा. उन के इशारे पर काम जरूर किया, लेकिन मौका मिलते ही एक दिन सब की पोल खोल कर रख दूंगा नैना, लेकिन क्या उन के खूनी पंजों से मुझे कानून बचा पाएगा…?’’

तभी नैना के मोबाइल की घंटी बज उठी. वह अपनी जगह से उठ कर बालकौनी में चली गई. उस ने काल रिसीव किया. कुछ पलों तक बात करने के बाद वह वापस आई और बोली, ‘‘आगे क्या हुआ…?’’

‘‘मेरे इस हालात के जिम्मेदार देश के भाग्यविधाता कहलाने वाले नेता हैं, जो अपने फायदे के लिए लोगों का इस्तेमाल करते हैं. कभी चुनाव के दौरान, तो कभी किसी दुश्मन को सबक सिखाने के लिए, तो कभी जनता में दहशत फैलाने के लिए. हर बार मेरे जैसे नौजवानों को गोली, बारूद जैस विस्फोटकों से जूझना पड़ता है. अपना सिर ऊंचा उठाने के लिए ये नेता लड़कों को गलत रास्ते पर धकलते हैं. देश के रक्षक ही भक्षक हो गए हैं.’’

तुम कहती हो कि मेरे पास दिल नहीं है. अगर दिल नहीं होता तो सड़क पर खून से लथपथ तुम को अपराधियों से क्यों बचाता. अगर हैवान होता तो तुम्हें मरने के लिए छोड़ नहीं देता. अस्पताल में भरती कराने के बाद कई बार तुम से मिलने गया, लेकिन डर था कि मुझे पहचानने के बाद तुम कोई नया हंगामा न खड़ा कर दो, इसलिए कभी तुम से बात करने की हिम्मत नहीं हुई. पर आज दिल ने कहा कि जो होगा देखा जाएगा, इसलिए तुम से मिलने आ गया…’’

‘‘क्या मुझे तू ने बचाया…?’’ हैरानी से नैना उसे देखते हुए बोल पड़ी और कहा, ‘‘अस्पताल के डाक्टरों का कहना है कि मंत्री सुरेश राय ने मुझे भरती कराया था.’’

‘‘हां, उन्होंने सही कहा था. मैं मंत्रीजी के लिए काम करता हूं. उस रात उन्हीं के साथ था. तभी सड़क पर एक लड़की को बेतहाशा दौड़ते हुए देखा था. जिस का कुछ लोग उस का पीछा कर रहे थे. अगर मैं गलत बोल रहा हूं तो लो मंत्रीजी का नंबर, उन्हीं से पूछ लो, क्योंकि बिना सुबूत के तुम्हें यकीन नहीं होगा.’’

‘‘नहीं रतन, अब मुझे सुबूत की जरूरत नहीं है. हो सके तो मुझे माफ कर दो…’’

‘‘अरे, इस में माफी की क्या बात है.’’

‘‘जरूरत है रतन, मैं ने मयंक के साथ मिल कर पुलिस को फोन कर बताया था कि तुम ओम सिनेमा घर के पास दोपहर का शो देखने जा रहे हो. तुम्हारी गिरफ्तारी के लिए मैं खुद गुनाहगार हूं.’’

‘‘खैर, तू ने जो कुछ किया, वह मयंक के बहकावे में आ कर किया. मैं तो कानून की नजरों में गुनाहगार हूं, पर तुम चाहो तो मैं बेकुसूर साबित हो सकता हूं.’’

‘‘मेरे रतन, मेरे अच्छे रतन,’’ अचानक नैना रतन के सीने से चिपक गई. देर तक दोनों एकदूसरे की बांहों में खोए रहे. जब मन का मैल धुल गया तो एकदूसरे से अलग हुए.

रतन ने उस से कहा, ‘‘नैना, अब कोई ऐसा काम नहीं करूंगा, जिस से तुम्हें शर्मिंदगी महसूस हो. आज ही मैं खुद को कानून के हवाले कर दूंगा. अगर उम्रभर के लिए कारावास भी हो जाए तो मेरी यादों के सहारे जेल की सलाखों के पीछे पूरी उम्र गुजार दूंगा…’’

‘‘रतन, मैं ने एक भूल और कर दी है…’’ नैना रतन से बोली,’’ तुम्हें इस के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा. मेरे फ्लैट के बाहर पुलिस है. थोड़ी देर पहले इंसपैक्टर राजन छेत्री का फोन आया था.’’

‘‘नैना, मेरी अच्छी नैना, अब जेल में ही अपने किए का पछतावा करूंगा,’’ अचानक रतन ने उसे अपनी बांहों में समेट लिया और उस के होंठों को बेतहाशा चूमने लगा.

थोड़ी सी जमीं थोड़ा आसमां: जिंदगी की राह चुनती स्त्री- भाग 3

इस घटना के बाद तो कविता एकदम ही गुमसुम रहने लगी थी. इस दौरान राघव ने अपने दफ्तर से छुट्टी ले कर एक छोटे बच्चे की तरह कविता की देखभाल की.

कविता को यों मन ही मन घुटते देख, एक दिन मां ने उस से कहा, ‘‘कविता, मैं तुम्हारा दर्द समझती हूं, बेटा, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि जीना छोड़ दिया जाए.’’

मां की बात सुन कर कविता ने सिसकते हुए कहा, ‘‘तो और क्या करूं, अब किस के लिए जीने की इच्छा रखूं मैं, रंजन के लिए, जिस ने यह खबर सुन कर भी आने से मना कर दिया…सोचा था बच्चे के आने पर सब ठीक हो जाएगा, पर…मां, रंजन अपने बड़े भाई जैसे क्यों नहीं हैं…’’ कहते हुए कविता मां के गले से लग गई.

कविता के स्वास्थ्य में कुछ सुधार आने के बाद राघव एक दिन एक व्यक्ति को ले कर घर आए और बोले, ‘‘कविता, मैं जानता हूं तुम बहुत अच्छा डांस करती हो और मैं चाहता हूं कि तुम नृत्य की विधिवत शिक्षा लो.’’

अब कविता को एक नया लक्ष्य मिल गया था. वह लगन से डांस सीखने लगी. उसे खुश देख कर राघव को बहुत संतुष्टि मिलती थी.

एक दिन मां ने राघव से कहा, ‘‘बेटा, तेरी मौसी का फोन आया था, वह तीर्थयात्रा पर जा रही हैं, मैं भी साथ जाना चाहती हूं, तुम मेरे जाने का इंतजाम कर दो.’’

राघव कुछ चिंतित हो कर बोले, ‘‘मां, कविता से तो पूछ लो, वह यहां मेरे साथ अकेली रह लेगी.’’

मां ने इस बारे में जब कविता से पूछा तो वह मान गई.

मां के जाने के बाद राघव कविता से कुछ दूरी बना कर रहने की कोशिश करते और कविता भी अपने डांस में व्यस्त रहती थी. एक दिन कविता ने राघव से कहा, ‘‘मुझे आप को एक अच्छी खबर सुनानी है. गुरुजी एक स्टेज शो ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ कर रहे हैं और मैं उस में शकुंतला बन रही हूं.’’

राघव खुश हो कर बोले, ‘‘अरे, वाह, कब है वह?’’

‘‘अगले शुक्रवार…’’

राघव ताली बजा कर बोले, ‘‘वाह, इसे कहते हैं संयोग, उसी दिन तो रंजन और मां वापस  आ रहे हैं. बड़ा मजा आएगा, जब रंजन तुम्हें स्टेज पर शकुंतला बना देखेगा.’’

शाम को राघव घर लौटे तो तेज बारिश हो रही थी. आते ही उन्होंने आवाज दी, ‘‘कविता, एक कप चाय दे दो.’’

बहुत देर तक जब कविता नहीं आई तो वह बाहर आ कर कविता को देखने लगे, कविता वहां भी न थी, तभी उन्हें छत पर पैरों के थाप की आवाज सुनाई दी. वह छत पर गए तो देखा कि कविता बारिश में भीगते हुए नृत्य का अभ्यास कर रही थी और उस की गुलाबी साड़ी उस के शरीर से चिपक कर शरीर का एक हिस्सा लग रही थी. उस पल कविता बहुत खूबसूरत लग रही थी. राघव ने अपनी नजरें झुका लीं और बोले, ‘‘कविता… नीचे चलो, बीमार पड़ जाओगी.’’

राघव की आवाज सुन कर कविता चौंक पड़ी और उन के पीछेपीछे चल पड़ी. थोड़ी देर बाद जब वह चाय ले कर राघव के कमरे में आई तब भी उस के गीले केशों से पानी टपक रहा था.

चाय पीते हुए राघव बोले, ‘‘कविता, बैठो, तुम्हारा एक पोर्टे्ट बनाता हूं,’’ कविता बैठ गई. पोटे्रट बनाते हुए राघव ने देखा कि कविता की आंखों से आंसू बह रहे हैं. वह ब्रश रख कर कविता के पास आ गए और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘कविता, अब तो रंजन आने वाला है, अब इन आंसुओं का कारण?’’

कविता तड़प उठी और राघव के सीने से जा लगी. राघव चौंक पडे़. कविता ने सिसकते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे अपने लिए क्यों नहीं चुना…चुना होता तो आज मैं इतनी अतृप्त और अधूरी न होती.’’

कविता भी उन से प्यार करने लगी है, यह जान कर राघव अचंभित हो उठे. अनायास ही उन के हाथ कविता के बालों को सहलाने लगे. कविता ने राघव की ओर देखा, तो उन्होंने कविता की भीगी हुई आंखों को चूम लिया.

राघव के स्पर्श से बेचैन हो कर कविता ने अपने प्यासे अधर उन की ओर उठा दिए. कविता की आंखों में उतर आए मौन आमंत्रण को राघव ठुकरा न सके और दोनों कब प्यार के सुखद एहसास में खो गए उन्हें पता ही न चला.

सुबह जब राघव की नींद खुली तो कविता को अपने पास न पा कर वह हड़बड़ा कर उस के कमरे की ओर भागे, देखा, वह चाय बना रही थी. तब उन की जान में जान आई. कविता ने मुसकरा कर कहा, ‘‘आप उठ गए, लो, चाय पी लो.’’

राघव नजरें झुका कर बोेले, ‘‘कविता, कल रात जो हुआ…’’

‘‘मुझे उस का कोई अफसोस नहीं…’’ कविता राघव की बात बीच में ही काटती हुई बोली, ‘‘और आप भी अफसोस जता कर मुझे मेरे उस सुखद एहसास से वंचित मत करना.’’

कविता ने राघव के पास जा कर कहा, ‘‘सच राघव, मैं ने पहली बार जाना है कि प्यार क्या होता है. रंजन के प्यार में सदा दाता होने का दंभ पाया है मैं ने, पर आप के साथ मैं ने अपनेआप को जिया है, उस कोमल एहसास को आप मुझ से मत छीनो.’’

‘‘पर कवि… आज रंजन वापस आने वाला है, फिर…’’ कहते हुए राघव ने कविता को जोर से अपने सीने से लगा लिया, मानो अब वह कविता को अपने से दूर जाने नहीं देना चाहते हैं.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. कविता ने दरवाजा खोला तो मां को सामने पा कर वह खुशी  से उछल पड़ी. मां ने कविता के चेहरे पर छाई खुशी को देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, कविता, बहुत खुश लग रही हो, रंजन आ गया क्या?’’

मां की बात सुन कर कविता ने राघव की ओर देखा तो बात को संभालते हुए वह बोले, ‘‘रंजन आज शाम को आएगा, और आज कविता का स्टेज शो है न इसीलिए यह बहुत खुश है.’’

शाम को कविता को मानस भवन छोड़ कर राघव, रंजन को लेने एअरपोर्ट चले गए. एअरपोर्ट से लौटते समय घर न जा कर कहीं और जाते देख रंजन बोला, ‘‘हम कहां जा रहे हैं, भैया?’’

‘‘चलो, तुम्हें कुछ दिखाना है.’’

स्टेज पर अपनी पत्नी कविता को शकुंतला के रूप में देख कर रंजन निहाल हो गया. वह बहुत ही आकर्षक लग रही थी, उस का डांस भी बहुत अच्छा था. नाटक खत्म होने पर जब राघव और रंजन, कविता से मिलने गए तो वहां लोगों की भीड़ देख कर हैरान रह गए. लौटते हुए रंजन ने कविता से कहा, ‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम इतनी अच्छी डांसर हो.’’

कविता ने धन्यवाद कहा.

घर लौटते ही कविता बोली, ‘‘मां, मैं अपने घर जा रही हूं.’’

कविता की बात सुन कर सभी सकते में आ गए. मां ने चौंक कर कहा, ‘‘आज ही तो रंजन आया है और तुम अपने घर जाने की बात कर रही हो.’’

‘‘इसीलिए तो जा रही हूं मां, अब मैं रंजन के साथ एक छत के नीचे नहीं रह सकती.’’

कविता की यह बात सुन कर रंजन ने गुस्से से कहा, ‘‘यह क्या बकवास कर रही हो, कविता. मैं तुम्हारा पति हूं, कोई गैर नहीं.’’

कविता बिफर कर बोली, ‘‘पति… तुम जानते भी हो कि पति शब्द का मतलब क्या होता है? नहीं…तुम्हारे लिए बस, काम, पैसा, तरक्की, स्टेटस यही सबकुछ है. भावनाएं, प्यार क्या होता है इस से तुम अनजान हो.’’

रंजन भड़क कर बोला, ‘‘तुम इस तरह मुझे छोड़ कर नहीं जा सकतीं…’’

‘‘क्यों…क्यों नहीं जा सकती? ऐसा क्या किया है तुम ने आज तक मेरे लिए, जो तुम मुझे रोकना चाहते हो? जबजब मुझे तुम्हारी जरूरत थी, तुम नहीं थे, यहां तक कि जब मैं ने अपना बच्चा खोया तब भी तुम मेरे साथ नहीं थे और तुम्हें तो इस से खुशी ही हुई होगी, तुम उस झंझट के लिए तैयार जो नहीं थे. मन का रिश्ता तो तुम मुझ से कभी जोड़ ही नहीं सके और इस तन का रिश्ता भी मैं आज तोड़ कर जा रही हूं.’’

कविता के तानों से तिलमिला कर रंजन ने तल्खी से कहा, ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम यों ही चली जाओगी और मैं तुम्हें जाने दूंगा,’’ इतना कह कर रंजन कविता की बांह पकड़ कमरे की ओर ले जाते हुए बोला, ‘‘चुपचाप अंदर चलो, मैं तुम्हें अपने को इस तरह अपमानित नहीं करने दूंगा. आखिर मेरी भी समाज में कोई इज्जत है.’’

‘‘रंजन…कविता का हाथ छोड़ दो…’’ मां ने तेज स्वर में कहा.

‘‘मां, तुम भी इस का साथ दे रही हो?’’ रंजन चौंक कर बोला.

कविता की बांह रंजन से छुड़ाते हुए मां बोलीं, ‘‘हां, रंजन, क्योंकि मैं जानती हूं कि यह जो कर रही है, सही है. आज भी तुम उसे अपने प्यार की खातिर नहीं, समाज में बनी अपनी झूठी प्रतिष्ठा के कारण रोकना चाहते हो. कविता को यह कदम तो बहुत पहले उठा लेना चाहिए था. जाने दो उसे…’’

कविता ने नम आंखों के साथ मां के पैर छुए और राघव की ओर पलट कर बोली, ‘‘आप ने मुझे जीने की जो नई राह दिखाई है उस के लिए आप की आभारी हूं, अब नृत्य साधना को ही मैं ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है. आप से जो भी मैं ने पाया है वह मेरे लिए अनमोल है. वह सदा मेरी अच्छी यादों में अंकित रहेगा…’’

इतना कह कर कविता चल पड़ी, अपने लिए, अपने हिस्से की थोड़ी सी जमीं और थोड़ा सा आसमां.

तूफान: कुसुम ने क्यों अपनी इज्जत दांव पर लगा दी?- भाग 2

कुसुमजी का मन जैसे कोई भंवर बन गया था जिस में सबकुछ गोलगोल घूम रहा था. महाराजिन? वह तो चौके के अलावा कभी किसी के कमरे में भी नहीं जाती. उस के अलगथलग बने मेहमानों के कमरे में जाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था. महरी? वह बरतन मांज कर चौके से ही आंगन में हो कर पिछवाड़े के दरवाजे से निकल जाती है. गरीब आदमी के ईमान पर शक नहीं करना चाहिए. फिर कंबल गया तो गया कहां? अब मेहमान से भी क्या कहें? कुसुमजी की परेशानी सुलझने का नाम ही नहीं ले रही थी. तभी मेहमान ने अपना सामान ला कर आंगन में रख दिया.

वह कुसुमजी को नमस्कार करने के लिए उद्यत हुआ. वह बिना कंबल के जा रहा है या कंबल मिल गया है यह जानने के लिए जैसे ही उन्होंने पूछा तो मेहमान ने झिझकते हुए कहा, ‘‘नहीं, भाभीजी, मिला तो नहीं. पर छोडि़ए इस बात को.’’ ‘‘नहींनहीं, अभी और देख लेते हैं. आप रुकिए तो.’’ कुसुमजी ने पति को बुलवा लिया. इत्तला की कि मेहमान का कंबल नहीं मिल रहा है. वह भी सुन कर सन्न रह गए. इस का सीधा सा अर्थ था कि कंबल खो गया है.

उन के घर में ही किसी ने चुरा लिया है. कुसुमजी ने बड़े अनुनय से मेहमान को रोका, ‘‘अभी रुकिए आप. कंबल जाएगा कहां? ढूंढ़ते हैं सब मिल कर.’’ कुसुमजी, उन के पति, बच्चे, सासससुर सब मिल कर घर को उलटपलट करने लगे. सारी अलमारियां, घर के बिस्तर, ऊपर परछत्ती, टांड, कोई ऐसी जगह नहीं छोड़ी जहां कंबल को न ढूंढ़ा गया हो. कुसुमजी ने पहली बार गृहस्वामी को ऊंची आवाज में बोलते सुना, ‘‘घर की कैसी देखभाल करती हो? घर में मेहमान का कंबल खो गया, इस से बड़ी शर्म की क्या बात होगी?’’ कुसुमजी तो पहले ही हैरानपरेशान थीं, पति की डांट खा कर उन का जी और छोटा हो गया.

उन की आंखों से आंसू टपटप टपकने लगे. साथ ही वह सब जगह कंबल की तलाश करती रहीं. ऐसा लगता था जैसे घर में कोई भूचाल आ गया हो. दालान में बैठा मेहमान मन में पछताने लगा कि अच्छा होता कंबल खोने की बात बताए बिना ही वह चला जाता. क्यों शांत घर में सुबहसवेरे तूफान खड़ा कर दिया. इस दौरान गृहस्वामी का उग्र स्वर भी टुकड़ोंटुकड़ों में सुनने को मिल रहा था.

मेहमान सोचने लगा, 300 रुपए अपने लिए तो बड़ी रकम है पर इन लोगों के लिए वह कौन सी बड़ी रकम है, जो इस कंबल के लिए जमीनआसमान एक किए हुए हैं. मेहमान ने उठ कर फिर गृहस्वामी को आवाज दी, ‘‘भाई साहब, आप कंबल के लिए परेशान न हों. अब मैं चलता हूं.’’ ‘‘नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? आप बस 10 मिनट और रुकिए,’’ मेहमान को जबरदस्ती रोक कर गृहस्वामी बाहरी दरवाजे की तरफ लपक लिए. वह आधे घंटे बाद लौटे, हाथ में एक बड़ा सा कागज का पैकेट लिए.

उन्होंने मेहमान के सामान पर पैकेट ला कर रखा और बोले, ‘‘भाई साहब, इनकार न कीजिएगा. आप का कंबल हमारे यहां खोया है. इस की शर्मिंदगी ही हमारे लिए काफी है.’’ मेहमान भी कनखियों से देख कर जान चुके थे कि पैकेट में नया कंबल है, जिसे गृहस्वामी अभीअभी बाजार से खरीद कर लाए हैं. थोड़ीबहुत नानुकर करने के बाद मेहमान कंबल सहित विदा हो लिए. मेहमान तो चले गए, पर कुसुमजी के लिए वह अपने पीछे एक तूफान छोड़ गए. मुसीबत तो टल गई थी, लेकिन कंबल के खोने का सवाल अब भी ज्यों का त्यों मुंहबाए खड़ा था.

कोई आदमी ऐसा नहीं था जिस पर कुसुमजी शक कर सकें. फिर कंबल गया तो कहां गया? बिना सचाई जाने छोड़ भी कैसे दें? इसी उधेड़बुन में कुसुमजी उस रात सो नहीं सकीं. सुबह उठीं तो सिर भारी और आंखें लाल थीं. इतना दुख कंबल खरीद कर देने का नहीं था जितना इस बात का था कि चोर घर में था. चोरी घर में हुई थी. कुसुमजी यह समझती थीं कि घर में उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता, पर अचानक उन का यह विश्वास हिल गया था.

किस से कहें कि ठीक उन की नाक के नीचे एक चोर भी मौजूद है जो आज कंबल चुरा सकता है तो कल घर की कोई भी चीज चुरा सकता है. घर में कुछ भी सुरक्षित नहीं है. कुसुमजी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए. इसी परेशानी के आलम में उन की सहेली सविता ने परामर्श दिया कि पास में ही एक पहुंचे हुए ज्योतिषी बाबा हैं. वह बड़े तांत्रिक और सिद्ध पुरुष हैं. कैसा भी राज हो, बाबा को सब मालूम हो जाता है.

लिली: उस लड़की पर अमित क्यो प्रभावित था ?-भाग 3

‘‘ऐसे तो वह और कइयों से साथ रही होगी?’’ अमित के पापा ने सच ही कहा था, मगर अमित के दिमाग में घुसे तब न. उस के ऊपर तो लिली का भूत सवार था. आखिरकार अमित की मां के आगे पापा को झुकना पड़ा. मकान का एक हिस्सा बेच कर उन्होंने अमित को रुपए दे दिए. जातेजाते एक नसीहत दी कि देखना, तुम एक दिन पछताओगे.

अमित रुपए पा कर मुंबई लौट आया.

फ्लैट लिली के नाम खरीदा. लिली का कहना था कि जब शादी करनी है, तो चाहे तुम अपने नाम खरीदो या फिर मेरे, बात तो एक ही है.

अब दोनों निश्चिंत थे. एक हफ्ते बाद अमित ने लिली से कोर्ट मैरिज करने के लिए कहा. वह टालती रही.

आजिज आ कर एक दिन अमित ने तल्ख शब्दों में कहा, ‘‘लिली, अब देर किस बात की है?’’

‘‘अमित, शादी कर के घरगृहस्थी में तो फंसना ही है. क्यों न कुछ दिन और मजे ले लें,’’ लिली की यह बात उसे अच्छी नहीं लगी.

दूसरे दिन औफिस के काम से अमित अहमदाबाद चला गया. 2 दिन बाद लौटा तो देखा कि एक आदमी उस के फ्लैट के अंदर था.

‘‘यह कौन है?’’ अंदर घुसते ही उस ने सब से पहले लिली से सवाल किया.

‘‘मेरा फुफेरा भाई. आज ही आया है.’’

अमित दूसरे कमरे में आया. पीछेपीछे लिली भी आई.

‘‘पहले तो तुम ने इस के बारे में कोई जिक्र नहीं किया था. अब यह कहां से आ गया?’’

उस रोज किसी तरह लिली ने बहाना कर के फुफेरे भाई का मामला  टाला. मगर अमित इस से संतुष्ट नहीं था. वह अकसर उस से शादी की जिद करने लगा.

लिली के मन में तो कुछ और ही चल रहा था. एक दिन उस ने भी त्योरियां चढ़ा लीं.

‘‘मान लो कि मैं तुम से शादी के लिए तैयार नहीं होती हूं, तो तुम क्या कर लेगे?’’ इस सवाल ने अमित को सकते में डाल दिया.

‘‘तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती  हो लिली? हम काफी दूर निकल  चुके हैं.’’

‘‘तुम्हारी गंवई सोच है, वरना तुम्हारे साथ रह कर मैं तो ऐसा नहीं सोचती?’’

‘‘मतलब…?’’

‘‘‘मतलब साफ है. मैं किसी और से शादी करना चाहती हूं.’’

अमित को काटो तो खून नहीं. उसे सपने में भी भान नहीं था कि लिली के मन में उस के प्रति इतना छल भरा है. उसे पापा की बात याद आने लगी, जब उन्होंने कहा था कि देखना, तुम एक  दिन पछताओगे.

लिली ने खुद बताया था कि उस के और भी कई अफेयर हैं. इस के बावजूद अमित नहीं चेता. अब सिवा पछतावे के उस के पास कोई रास्ता नहीं रहा.

फ्लैट लिली के नाम से था. अमित की तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा लिली के ऊपर खर्च होता रहा. वह यही सोचता रहा कि जिस के साथ जिंदगी गुजारनी है, उस से क्या हिसाब ले?

‘‘लिली, तुम मजाक तो नहीं कर रही हो?’’ अमित का स्वर डूबा था.

‘‘बिलकुल नहीं. जिस लड़के को  मैं फुफेरा भाई कह रही थी, वही मेरा पति होगा.’’

‘‘लिली, तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा छल किया?’’

लिली के होंठों पर कुटिल मुसकान तैर गई, ‘‘मैं तुम्हें एक हफ्ते की मोहलत दे रही हूं. इस फ्लैट को खाली कर दो,’’ लिली ने अपना फैसला सुना दिया.

‘‘नहीं छोड़ूंगा. यह मेरा फ्लैट है,’’ अमित की बात पर लिली ठहाका लगा कर हंस पड़ी.

‘‘एक साल तक मेरे जिस्म पर तुम्हारा हक रहा. क्या उस की कीमत नहीं दोगे? थोड़ी सी नकदी, कुछ गहने और यह फ्लैट. इतना ही तो लिया है तुम से. क्या इतना भी नहीं देना चाहोगे  माई डियर…?’’

अमित के पास इस का कोई जवाब नहीं था. गलती तो उस से हुई है, सो दंड भुगतना ही होगा.

‘‘यही कीमत है लिव इन रिलेशनशिप की. मुफ्त में तुम्हें क्यों दूं? एक वेश्या भी अपने शरीर का सौदा करती है, वह भी कुछ घंटों के लिए.

मैं ने तो कई महीने तुम्हारे साथ  गुजार दिए.’’

अमित की आंखों से आंसू निकल पड़े. उसे यही चिंता खाने लगी कि वह अपने मांबाप को क्या मुंह दिखाएगा?

अगली सुबह भरे मन से अमित ने लिली का फ्लैट छोड़ कर वापस बनारस जाने का फैसला ले लिया. लिली के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं थी. वह खुश थी. चलो, छुटकारा तो मिला. अब किसी और को फांस कर वह लिव इन रिलेशनशिप का खेल खेलेगी.

चोरी का फल : दोस्ती की आड़ – भाग 2

मैं बड़े प्यार से उस का चेहरा निहार रहा था. मेरी आंखों के भाव पढ़ कर उस के गोरे गाल अचानक गुलाबी हो उठे.

मैं उसे चाहता हूं, यह बात उस दिन शिखा पूरी तरह से समझ गई. उस दिन से हमारे संबंध एक नए आयाम में प्रवेश कर गए.

जिस बीज को उस दिन मैं ने बोया था उसे मजबूत पौधा बनने में एक महीने से कुछ ज्यादा समय लगा.

‘‘हमारे लिए दोस्ती की सीमा लांघना गलत होगा, सर. संजीव को धोखा दे कर मैं गहरे अपराधबोध का शिकार बन जाऊंगी.’’

जब भी मैं उस से प्रेम का इजहार करने का प्रयास करता, उस का यही जवाब होता.

शिखा को मेरे प्रस्ताव में बिलकुल रुचि न होती तो वह आसानी से मुझ से कन्नी काट लेती. नाराज हो कर उस ने मुझ से मिलना बंद नहीं किया, तो उस का दिल जीतने की मेरी आशा दिनोदिन बलवती होती चली गई.

वह अपने घर की परिस्थितियों से खुश नहीं थी. संजीव का व्यवहार, आदतें व घर का खर्च चलाने में उस की असफलता उसे दुखी रखते. मैं उस की बातें बड़े धैर्य से सुनता. जब उस का मन हलका हो जाता, तभी मेरी हंसीमजाक व छेड़छाड़ शुरू होती.

उस के जन्मदिन से एक दिन पहले मैं ने जिद कर के उस से अपने घर चलने का प्रस्ताव रखा और कहा, ‘‘अपने हाथों से मैं ने तुम्हारे लिए खीर बनाई है, अगर तुम मेरे यहां चलने से इनकार करोगी तो मैं नाराज हो जाऊंगा.’’

मेरी प्यार भरी जिद के सामने थोड़ी नानुकुर करने के बाद शिखा को झुकना ही पड़ा.

मैं ने उस के जन्मदिन के मौके पर एक सुंदर साड़ी उपहार में दी और उसे पहली बार मैं ने अपनी बांहों में भरा तो वह घबराए लहजे में बोली, ‘‘नहीं, यह सब ठीक नहीं है. मुझे छोड़ दीजिए, प्लीज.’’

अपनी बांहों की कैद से मैं ने उसे मुक्त नहीं किया क्योंकि वह छूटने का प्रयास बडे़ बेमन से कर रही थी. उस के मादक जिस्म का नशा मुझ पर कुछ इस तरह हावी था कि मैं ने उस के कानों और गरदन को गरम सांसें छोड़ते हुए चूम लिया. उस ने झुरझुरी के साथ सिसकारी ली. मुंह से ‘ना, ना’ करती रही पर मेरे साथ और ज्यादा मजबूती से वह लिपट भी गई.

शिखा को गोद में उठा कर मैं बेडरूम में ले आया. वहां मेरे आगोश में बंधते ही उस ने सब तरह का विरोध समाप्त कर समर्पण कर दिया.

सांचे में ढले उस के जिस्म को छूने से पहले मैं ने जी भर कर निहारा. वह खामोश आंखें बंद किए लेटी रही. उस की तेज सांसें ही उस के अंदर की जबरदस्त हलचल को दर्शा रही थीं. हम दोनों के अंदर उठे उत्तेजना के तूफान के थमने के बाद भी हम देर तक निढाल हो एकदूसरे से लिपट कर लेटे रहे.

कुछ देर बाद शिखा के सिसकने की आवाज सुन कर मैं चौंका. उस की आंखों से आंसू बहते देख मैं प्यार से उस के चेहरे को चूमने लगा.

उस की सिसकियां कुछ देर बाद थमीं तो मैं ने कोमल स्वर में पूछा, ‘‘क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’

जवाब में उस ने मेरे होंठों का चुंबन लिया और भावुक स्वर में बोली, ‘‘प्रेम  का इतना आनंददायक रूप मुझे दिखाने के लिए धन्यवाद, राकेश.’’

हमारे संबंध एक और नए आयाम में प्रवेश कर गए. मैं अब तनावमुक्त व प्रसन्न रहता. शिखा ही नहीं बल्कि उस के घर के बाकी सदस्य भी मुझे अच्छे लगने लगे. मैं भी अपने को उन के घर का सदस्य समझने लगा.

मैं शिखा के घर वालों की जरूरतों का ध्यान रखता. कभी संजीव को रुपए की जरूरत होती तो शिखा से छिपा कर दे देता. मैं ने शिखा की सास के घुटनों के दर्द का इलाज अच्छे डाक्टर से कराया. उन्हें फायदा हुआ तो उन्होंने ढेरों आशीर्वाद मुझे दे डाले.

इन दिनों मैं अपने को बेहद स्वस्थ, युवा, प्रसन्न और भाग्यशाली महसूस करता. शिखा ने मेरी जिंदगी में खुशियां भर दीं.

एक रविवार की दोपहर शिखा मुझे शारीरिक सुख दे कर गई ही थी कि मेरे मातापिता मुझ से मिलने आ पहुंचे. मेरठ से मेरे लिए एक रिश्ता आया हुआ था. वह दोनों इसी सिलसिले में मुझ से बात करने आए थे.

‘‘वह लड़की तलाकशुदा है,’’ मां बोलीं, ‘‘तुम कब चलोगे उसे देखने?’’

‘‘किसी रविवार को चले चलेंगे,’’ मैं ने गोलमोल सा जवाब दिया.

‘‘अगले रविवार को चलें?’’

‘‘देखेंगे,’’ मैं ने फिर टालने की कोशिश की.

मेरे पिता अचानक गुस्से में बोले, ‘‘इस से तुम मेरठ चलने को ‘हां’ नहीं कहलवा सकोगी क्योंकि आजकल इस के सिर पर उस शिखा का जनून सवार है.’’

‘‘प्लीज पापा, बेकार की बातें न करें. शिखा से मेरा कोई गलत रिश्ता नहीं है,’’ मैं नाराज हो उठा.

‘‘अपने बाप से झूठ मत बोलो, राकेश. यहां क्या चल रहा है, इस की रिपोर्ट मुझ तक पहुंचती रहती है.’’

‘‘लोगों की गलत व झूठी बातों पर आप दोनों को ध्यान नहीं देना चाहिए.’’

मां ने पिताजी को चुप करा कर मुझे समझाया, ‘‘राकेश, सारी कालोनी शिखा और तुम्हारे बारे में उलटीसीधी बातें कर रही है. उस का यहां आनाजाना बंद करो, बेटे, नहीं तो तुम्हारा कहीं रिश्ता होने में बड़ा झंझट होगा.’’

‘‘मां, किसी से मिलनाजुलना गुनाह है क्या? मेरी जानपहचान और बोलचाल सिर्फ शिखा से ही नहीं है, मैं उस के पति और उस की सास से भी खूब हंसताबोलता हूं.’’

अपने झूठ पर खुद मुझे ऐसा विश्वास पैदा हुआ कि सचमुच ही मारे गुस्से के मेरा चेहरा लाल हो उठा.

मुझे कुछ देर और समझाने के बाद मां पिताजी को ले कर मेरठ चली गईं. उन के जाने के काफी समय बाद तक मैं बेचैन व परेशान रहा. फिर शाम को जब मैं ने शिखा से फोन पर बातें कीं तब मेरा मूड कुछ हद तक सुधरा.

शिखा को ले कर मेरे संबंध सिर्फ मांपिताजी से ही नहीं बिगड़े बल्कि छोटे भाई रवि और उस की पत्नी रेखा के चेहरे पर भी अपने लिए एक खिंचाव महसूस किया.

शिखा के मातापिता ने भी उस से मेरे बारे में चर्चा की थी. उन तक शिखा और मेरे घनिष्ठ संबंध की खबर मेरी समझ से रेखा ने पहुंचाई होगी, क्योंकि रेखा जब भी मायके जाती है तब वह शिखा के मातापिता से जरूर मिलती है. यह बात खुद शिखा ने मुझे बता रखी थी.

‘‘मम्मी, पापा, राकेशजी के ही कारण आज तुम्हारी बेटी इज्जत से अपनी घरगृहस्थी चला पा रही है. रोहित उन्हें बहुत प्यार करता है. संजीव उन की बेहद इज्जत करते हैं. मेरी सास उन्हें अपना बड़ा बेटा मानती हैं. हमारे बीच अवैध संबंध होते तो उन्हें मेरे घर में इतना मानसम्मान नहीं मिलता. आप दोनों अपनी बेटी की घरगृहस्थी की सुखशांति की फिक्र करो, न कि लोगों की बकवास की,’’ शिखा के ऐसे तीखे व भावुक जवाब ने उस के मातापिता की बोलती एक बार में ही बंद कर दी.

तूफान: कुसुम ने क्यों अपनी इज्जत दांव पर लगा दी?- भाग 3

कुसुमजी का कभी किसी ज्योतिषी या तांत्रिक से वास्ता नहीं पड़ा था, इसलिए उन के मन में उन के प्रति अविश्वास की कोई भावना नहीं थी. दरअसल, उन के जीवन में ऐसा कोई टेढ़ामेढ़ा मोड़ ही नहीं आया था जिस में से निकलने की कोई उम्मीद ले कर उन्हें किसी बाबा आदि की शरण में जाना पड़ता. सविता का परामर्श मान कर कुसुमजी तैयार हो गईं. उन्हें यह जानने की उत्सुकता अवश्य थी कि अगर सचमुच ज्योतिष नाम की कोई विद्या है तो बाबा से जा कर पूछा जाए कि उन के अपने घर में आखिर कौन चोर हो गया है. जाने कितने गलीकूचों से हो कर कुसुमजी बाबा के पास पहुंचीं.

भगवा वस्त्र, माथे पर त्रिपुंड, गले में रुद्राक्ष की माला, बंद आंखें और तेजस्वी मूर्ति. सविता ने उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया और चोर का नाम जानने की इच्छा प्रकट करते हुए बाबा के सामने फलों की टोकरी भेंटस्वरूप रख दी. बाबा ने उस की ओर ध्यान भी नहीं दिया, किंतु उन के शिष्य ने टोकरी उठा कर अंदर पहुंचा दी. बाबा ध्यानावस्थित हुए. कुसुमजी ने बड़ी आशा से उन की ओर देखा, यह सोच कर कि वह पिछले दिनों जिस सवाल का उत्तर खोजतेखोजते थक गई हैं शायद उस का कोई उत्तर बाबा दे सकें.

बाबा की पलकें धीरेधीरे खुलीं, उन्होंने सर्वज्ञ की भांति कुसुमजी पर एक दृष्टि डाली और गंभीर स्वर में घोषणा की, ‘‘चोर घर में ही है.’’ चोर तो घर में ही था. बाहर का कोई आदमी घर में आया ही नहीं था. पर सवाल यह था कि उन के अपने ही घर में चोर था कौन. बाबा ने कहा, ‘‘यह तो घर में आ कर ही बता सकेंगे कि चोर कौन है. हम चोर के मस्तक की लिखावट पढ़ सकते हैं.

वारदात के मौके पर होंगे तो चोर से कंबल भी वहीं बरामद करा देंगे.’’ कुसुमजी ने बाबा की बात मान ली. बाबा ने 2 दिन बाद आने का समय दिया. 2 दिन बाद बाबा को लेने के लिए कार भेजी गई. बाबा पधारे. उन के सामने घर के सब लोग चोर की तरह उपस्थित हुए. बड़े आडंबर और दलबल के संग आने वाले बाबा के स्वागतसत्कार के बाद चोर की पहचान का काम शुरू हुआ. बाबा ने घर के हर सदस्य को ‘मैटल डिटेक्टर’ की तरह पैनी निगाहों से देखा.

फिर सिर हिलाया, ‘‘इन में से कोई नहीं है. इन के अलावा घर में कोई नौकरचाकर नहीं है क्या?’’ ‘‘महाराजिन और महरी हैं.’’ ‘‘दोनों को बुलाओ.’’ उन्हें बुलाया गया. वे दोनों गरीब और ईमानदार औरतें थीं. घर में बरसों से काम कर रही थीं. आज तक कभी कोई ऐसीवैसी बात नहीं हुई थी. लेकिन आज उन की चोरों की तरह पेशी हो रही थी. अपमान के कारण उन के मुंह से कोई बात नहीं निकल रही थी.

उन्हें डर लग रहा था कि बाबा का क्या, चाहे जो कह दें. बाबा को कौन पकड़ता फिरेगा? सब में अपनी किरकिरी होगी. कही बात और लुटी इज्जत किस काम की? बाबा ने दोनों नौकरानियों की ओर देखा. महरी की ओर उन की रौद्र दृष्टि पड़ी. उंगली से इंगित किया, ‘‘यही है.’’ बेचारी महरी के सिर पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. जिस पर घर के मालिक तक भरोसा करते आए थे, उस पर एक बाबा के कहने पर बिना सुबूत चोर होने का इलजाम लगाया जा रहा था. उस ने बड़ी हसरत से मालिकों की ओर देखा.

यह सोच कर कि शायद वे अभी कहेंगे कि नहीं, यह चोर नहीं हो सकती. यह तो बड़े भरोसे की औरत है. गरीब की तो इज्जत ही सब कुछ होती है. लेकिन नहीं. न मालिक बोले, न कोई और ही कुछ बोला. कुसुमजी ने कहा कि पुलिस को बुला लो. बाबा के अधरों पर विजय की मंदमंद मुसकान नाच रही थी. मालिक ने अगले क्षण झपट कर महरी की चोटी पकड़ ली.

हमेशा के मितभाषी, मृदुभाषी पति के मुंह से झड़ती फूहड़ गालियों की बौछार से कुसुमजी भी अवाक् रह गईं. उन को भी महरी से कोई सहानुभूति नहीं थी. जिस पर भरोसा किया, वही चोर निकली. जाने कितनी देर तक महरी पिटती रही. मालिक का हाथ चाहे जहां पड़ता रहा. भरेपूरे घर के आंगन में निरीह औरत की पिटाई होती रही.

बाबा की आवाज गूंजी, ‘‘कंबल निकाल.’’ महरी ने महसूस किया कि पीटने वाले का हाथ रुक गया है. कमजोर, थकाटूटा सिसकतासिहरता स्वर निकला, ‘‘कंबल तो नहीं है मेरे पास.’’ ‘‘कहां गया. कहां छिपा दिया?’’ महरी चुप. ‘‘बेच दिया?’’ ‘‘हां,’’ पिटाई से अधमरी हो चुकी महरी के मुंह से एकाएक निकला.

घर के सभी लोग सुन कर हैरत से बाबा की तरफ देखने लगे. कैसे त्रिकाल- दर्शी हैं बाबा. जिसे घर में इतने वर्षों काम करते देख कर हम नहीं पहचान सके उस की असलियत इतनी दूर बसे अनजान बाबा की नजरों में कैसे आई? कुसुमजी को ध्यान है कि उस के बाद सब ने मिल कर फैसला किया था कि महरी कंबल के 300 रुपए दे दे. 300 रुपए नकद न होने की हालत में महरी के कान की सोने की बालियां उतरवा ली गई थीं. नौकरी से तो उस की छुट्टी हो ही गई थी.

कुसुमजी के सीने से एक बोझ तो हट गया था. चलो, चोर तो पहचाना गया. घर में रहती तो न जाने और कितना नुकसान करती. पहले भी न जाने कितना नुकसान होता रहा है. वह तो विश्वास में मारी गई. खैर, जब जागे, तभी सवेरा. इस परेशानी से निकलने के लिए बाबा की सेवा और भेंट आदि में 500 रुपए खर्च होने का कुसुमजी को कोई अफसोस नहीं था.

अफसोस अपने विश्वास के छले जाने का था. आश्चर्य था तो बाबा के सर्वज्ञ होने का, वह कैसे जान गए कि असल चोर कौन था? कंबल की चोरी से घर में उठा यह तूफान थम गया था. पर आज हाथ में पकड़े पोस्टकार्ड को ले कर कुसुमजी फिर उसी तूफान से घिरी हुई थीं. अभी कुछ देर पहले डाकिया जो डाक दे गया है उसी में यह पोस्टकार्ड भी था. उस में लिखा है : ‘‘घर पहुंचा तो मालूम हुआ कि कंबल तो मैं यहीं छोड़ गया था.

आप को जो परेशानी हुई उस के लिए हृदय से क्षमा चाहता हूं. आप का कंबल या तो किसी के हाथ भिजवा दूंगा और नहीं तो आने पर स्वयं लेता आऊंगा.’’ कुसुमजी की आंखों के सामने यह पोस्टकार्ड, कान की वे बालियां, बाबा का गंभीर चेहरा और महरी की कातर दृष्टि सब गड्डमड्ड हो रहे थे. मन- मस्तिष्क में एक तूफान आया जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. एक पाखंडी बाबा के चक्कर में पड़ कर उन के हाथों से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था.

ऐसा भी होता है- भाग 2

पर ऐसा अवसर कहां आया. मां तो थानेदार की तरह तैनात रहती हैं. आते ही मोहन की निगाह सब से पहले उन पर पड़ती है. वह उन्हें अपनी बांहों में लेते हैं और उन्हें आश्चर्यचकित करने का पूरा नाटक करते हैं. चुप, मैं ने अपने को समझाया, लगता है तुझे अपनी सास से ईर्ष्या होने लगी है.

‘‘मां, देखो, तुम्हारे लिए क्या लाया हूं,’’ मोहन के मुंह पर उल्लास की चमक थी.

बुरा तो लगा, पर उत्सुकतावश देखने चली आई कि आज बेटा मां के लिए क्या लाया है.

मां ने पैकेट खोलते हुए आश्चर्य से कहा, ‘‘क्या, यह बंगलौरी साड़ी मेरे लिए लाया है?’’

‘‘हां, मां, अच्छी है न?’’

‘‘बहुत सुंदर. मुझे यह रंग बहुत अच्छा लगता है. तुझे तो मेरी पसंद मालूम है. बहुत महंगी होगी. बेकार में इतने पैसे खर्च कर दिए.’’

मां की आंखों में वात्सल्य का सागर था और मेरा दिल बुझ रहा था. मैं ने मुंह मोड़ लिया. कहीं मेरी गीली आंखें कोई देख न ले.

‘‘मां, तुम्हें पसंद आई, तो बस समझो, पूरे पैसे वसूल हो गए. आज दफ्तर में एक बाबू 4 साडि़यां लाया था. वह बंगलौर का है. अभीअभी छुट्टियों से आया था. मैं ने यह तुम्हारे लिए पसंद कर ली.’’

मोहन बहुत खुश हो रहे थे. मेरा दिल जलने लगा.

मां ने साड़ी फैला कर अपने कंधे पर डालते हुए कहा, ‘‘कितना सुंदर बार्डर है. पल्लू भी खूब भारी है. क्यों बहू, देख, कैसी है?’’

आवाज की कंपन पर काबू करते हुए मैं ने कहा, ‘‘बहुत अच्छी साड़ी है, मां. आप इस में खिल जाएंगी,’’ मैं ने मुसकराने की कोशिश की.

‘‘देखूं, तेरे ऊपर कैसी लगेगी?’’

मैं अपने को रोक न सकी. चट से उन के आगे जा कर खड़ी हो गई. उन्होंने साड़ी का पल्लू खोल कर मेरे ऊपर डाल दिया.

‘‘हाय, तू कितनी प्यारी लग रही है.’’

‘‘तू ही रख ले. मैं क्या पहनूंगी.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा कैसे हो सकता है. यह साड़ी तो आप के लिए लाए हैं. मेरे लिए फिर आ जाएगी.’’

‘‘फिर क्यों? चल, मैं ने तुझे अपनी तरफ से दी और फिर साड़ी घर में ही तो रहेगी. मेरा मन करेगा तो तुझ से मांग कर पहन लूंगी.’’

मैं ने अधिक जिद नहीं की. मोहन के मुंह पर वही शरारती मुसकराहट थी. मैं जैसे ही साड़ी उठा कर चलने लगी, मोहन ने टोक दिया, ‘‘लो, मां ने साड़ी दी और तुम ने पैर छू कर आशीर्वाद भी नहीं लिया, गंदी लड़की.’’

मेरे उत्साह पर पानी पड़ गया. मन में आया कि साड़ी मां के ऊपर फेंक कर चल दूं. अपने ऊपर नियंत्रण कर के पति की आज्ञा का पालन किया. कभी नहीं पहनूंगी इस साड़ी को, मैं ने मन में निश्चय किया. क्या समझ रखा है अपने को.

रात में पलंग पर लेटे हुए मोहन मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘साड़ी अच्छी लगी न?’’

‘‘आप को मतलब?’’ मैं ने रूठ कर कहा.

‘‘क्यों, तुम्हारे लिए साड़ी लाया और मुझे कोई मतलब नहीं?’’

‘‘मेरे लिए लाए थे,’’ मैं ने व्यंग्य से कहा, ‘‘मां के लिए लाए थे. मैं कौन होती हूं?’’

ठंडी आह भर कर मोहन ने कहा, ‘‘रूठी रानी पर यह तेवर खिल रहा है. सच तो यह है कि साड़ी मैं तुम्हारे लिए लाया था. सोचा, क्यों न एक तीर से दो शिकार कर लिए जाएं. मुझे मालूम था कि मां तुम्हें दे देंगी. कैसी रही?’’

मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘अगर वह रख लेतीं तो?’’

मोहन के चेहरे की हंसी उड़ गई, ‘‘क्या कह रही हो?’’

मैं ने संभल कर कहा, ‘‘मैं ने कहा, अगर वह रख लेतीं तो अच्छा था.’’

‘‘ओह,’’ मोहन ने हंस कर कहा, ‘‘मैं कुछ और समझा था. अगर रख भी लेतीं तो क्या था? मेरी मां हैं. फिर तुम्हें कभी…’’

फिर मैं नियंत्रण खो बैठी, ‘‘वह ‘फिर कभी’ कभी न आता. दूसरी श्रेणी में आती हूं न.’’

‘‘छोड़ो, किस पचड़े में पड़ गईं. चलो, साड़ी पहन कर दिखाओ. देखूं, मेरा चुनाव कैसा है.’’

जब मैं ने नहीं पहनी तो वह मुझे गुदगुदाने लगे. अंत में मुझे पहननी पड़ी. दर्पण में देखा तो मैं अपने ऊपर ही मुग्ध हो गई, परंतु दिल में कुछ चुभन हो रही थी. यह साड़ी मेरी नहीं है, यह मैं कभी नहीं पहनूंगी.

लगता है कि मां के प्रति मेरी ईर्ष्या कुछ गहरी होती जा रही है. मोहन का उन के प्रति प्यार दर्शाना अब मुझे खलने लगा है. मां के मोहन के लिए चिंता के प्रदर्शन से मुझे जलन होती है. मां जब तक रहेंगी, मोहन का प्यार मेरे लिए अधूरा रहेगा. मुझे एहसास हुआ कि मां मेरे और मोहन के बीच एक दीवार बन कर खड़ी हैं. मोहन के जीवन में अपना सही स्थान मुझे कभी नहीं मिलेगा.

मोहन ने दफ्तर जाते हुए बाहर दरवाजे से आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘हां, आज शाम को फिल्म देखने चलेंगे. मैं टिकट लेता हुआ आऊंगा.’’

‘‘अच्छा,’’ मैं ने अंदर से ही उत्तर दिया.

मन खिल उठा. मोहन को फिल्मों का चाव कम था. मेरा मन इस कारण कुछ मरामरा रहता था. हाय, कितना मजा आएगा मोहन के साथ फिल्म देखने में. वातानुकूलित हाल में ठंड से फुरफुरी लग रही होगी. तब मैं मोहन से और सट कर बैठ जाऊंगी. अंधेरे में हम दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े बैठे होंगे. मैं आनंदविभोर हो गई. कल्पना में खो गई.

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