Story in hindi

Story in hindi
जिस उम्र में बच्चे मां की गोद में लोरियां सुनसुन कर मधुर नींद में सोते हैं, कहानीकिस्से सुनते हैं, सुबहशाम पिता के साथ आंखमिचौली खेलते हैं, दादादादी के स्नेह में बड़ी मस्ती से मचलते रहते हैं, उसी नन्हीं सी उम्र में अमान ने जब होश संभाला, तो हमेशा अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते हुए ही देखा. वह सदा सहमासहमा रहता, इसलिए खाना खाना बंद कर देता. ऐसे में उसे मार पड़ती. मांबाप दोनों का गुस्सा उसी पर उतरता. जब दादी अमान को बचाने आतीं तो उन्हें भी झिड़क कर भगा दिया जाता. मां डपट कर कहतीं, ‘‘आप हमारे बीच में मत बोला कीजिए, इस से तो बच्चा और भी बिगड़ जाएगा. आप ही के लाड़ ने तो इस का यह हाल किया है.’’
फिर उसे आया के भरोसे छोड़ कर मातापिता अपनेअपने काम पर निकल जाते. अमान अपने को असुरक्षित महसूस करता. मन ही मन वह सुबकता रहता और जब वे सामने रहते तो डराडरा रहता. परंतु उन के जाते ही अमान को चैन की सांस आती, ‘चलो, दिनभर की तो छुट्टी मिली.’
आया घर के कामों में लगी रहती या फिर गपशप मारने बाहर गेट पर जा बैठती. अमान चुपचाप जा कर दादी की गोद में घुस कर बैठ जाता. तब कहीं जा कर उस का धड़कता दिल शांत होता. दादी के साथ उन की थाली में से खाना उसे बहुत भाता था. वह शेर, भालू और राजारानी के किस्से सुनाती रहतीं और वह ढेर सारा खाना खाता चला जाता.
बीचबीच में अपनी जान बचाने को आया बुलाती, ‘‘बाबा, तुम्हारा खाना रखा है, खा लो और सो जाओ, नहीं तो मेमसाहब आ कर तुम्हें मारेंगी और मुझे डांटेंगी.’’
अमान को उस की उबली हुई सब्जियां तथा लुगदी जैसे चावल जहर समान लगते. वह आया की बात बिलकुल न सुनता और दादी से लिपट कर सो जाता. परंतु जैसेजैसे शाम निकट आने लगती, उस की घबराहट बढ़ने लगती. वह चुपचाप आया के साथ आ कर अपने कमरे में सहम कर बैठ जाता.
घर में घुसते ही मां उसे देख कर जलभुन जातीं, ‘‘अरे, इतना गंदा बैठा है, इतना इस पर खर्च करते हैं, नित नए कपड़े लाला कर देते हैं, पर हमेशा गंदा रहना ही इसे अच्छा लगता है. ऐसे हाल में मेरी सहेलियां इसे देखेंगी तो मेरी तो नाक ही कट जाएगी.’’ फिर आया को डांट पड़ती तो वह कहती, ‘‘मैं क्या करूं, अमान मानता ही नहीं.’’
फिर अमान को 2-4 थप्पड़ पड़ जाते. आया गुस्से में उसे घसीट कर स्नानघर ले जाती और गुस्से में नहलातीधुलाती.
नन्हा सा अमान भी अब इन सब बातों का अभ्यस्त हो गया था. उस पर अब मारपीट का असर नहीं होता था. वह चुपचाप सब सहता रहता. बातबात में जिद करता, रोता, फिर चुपचाप अपने कमरे में जा कर बैठ जाता क्योंकि बैठक में जाने की उस को इजाजत नहीं थी. पहली बात तो यह थी कि वहां सजावट की इतनी वस्तुएं थीं कि उन के टूटनेफूटने का डर रहता और दूसरे, मेहमान भी आते ही रहते थे. उन के सामने जाने की उसे मनाही थी.
जब मां को पता चलता कि अमान दादी के पास चला गया है तो वे उन के पास लड़ने पहुंच जातीं, ‘‘मांजी, आप के लाड़प्यार ने ही इसे बिगाड़ रखा है, जिद्दी हो गया है, किसी की बात नहीं सुनता. इस का खाना पड़ा रहता है, खाता नहीं. आप इस से दूर ही रहें, तो अच्छा है.’’
सास समझाने की कोशिश करतीं, ‘‘बहू, बच्चे तो फूल होते हैं, इन्हें तो जितने प्यार से सींचोगी उतने ही पनपेंगे, मारनेपीटने से तो इन का विकास ही रुक जाएगा. तुम दिनभर कामकाज में बाहर रहती हो तो मैं ही संभाल लेती हूं. आखिर हमारा ही तो खून है, इकलौता पोता है, हमारा भी तो इस पर कुछ अधिकार है.’’
कभी तो मां चुप हो जातीं और कभी दादी चुपचाप सब सुन लेतीं. पिताजी रात को देर से लड़खड़ाते हुए घर लौटते और फिर वही पतिपत्नी की झड़प हो जाती.
अमान डर के मारे बिस्तर में आंख बंद किए पड़ा रहता कि कहीं मातापिता के गुस्से की चपेट में वह भी न आ जाए. उस का मन होता कि मातापिता से कहे कि वे दोनों प्यार से रहें और उसे भी खूब प्यार करें तो कितना मजा आए. वह हमेशा लाड़प्यार को तरसता रहता.
इसी प्रकार एक वर्र्ष बीत गया और अमान का स्कूल में ऐडमिशन करा दिया गया. पहले तो वह स्कूल के नाम से ही बहुत डरा, मानो किसी जेलखाने में पकड़ कर ले जाया जा रहा हो. परंतु 1-2 दिन जाने के बाद ही उसे वहां बहुत आनंद आने लगा. घर से तैयार कर, टिफिन ले कर, पिताजी उसे स्कूटर से स्कूल छोड़ने जाते. यह अमान के लिए नया अनुभव था.
स्कूल में उसे हमउम्र बच्चों के साथ खेलने में आनंद आता. क्लास में तरहतरह के खिलौने खेलने को मिलते. टीचर भी कविता, गाना सिखातीं, उस में भी अमान को आनंद आने लगा. दोपहर को आया लेने आ जाती और उस के मचलने पर टौफी, बिस्कुट इत्यादि दिला देती. घर जा कर खूब भूख लगती तो दादी के हाथ से खाना खा कर सो जाता. दिन आराम से कटने लगे.
परंतु मातापिता की लड़ाई, मारपीट बढ़ने लगी, एक दिन रात में उन की खूब जोर से लड़ाई होती रही. जब सुबह अमान उठा तो उसे आया से पता चला कि मां नहीं हैं, आधी रात में ही घर छोड़ कर कहीं चली गई हैं.
पहले तो अमान ने राहत सी महसूस की कि चलो, रोज की मारपीट और उन के कड़े अनुशासन से तो छुट्टी मिली, परंतु फिर उसे मां की याद आने लगी और उस ने रोना शुरू कर दिया. तभी पिताजी उठे और प्यार से उसे गोदी में बैठा कर धीरेधीरे फुसलाने लगे, ‘‘हम अपने बेटे को चिडि़याघर घुमाने ले जाएंगे, खूब सारी टौफी, आइसक्रीम और खिलौने दिलाएंगे.’’
पिता की कमजोरी का लाभ उठा कर अमान ने और जोरों से ‘मां, मां,’ कह कर रोना शुरू कर दिया. उसे खातिर करवाने में बहुत मजा आ रहा था, सब उसे प्यार से समझाबुझा रहे थे. तब पिताजी उसे दादी के पास ले गए. बोले, ‘‘मांजी, अब इस बिन मां के बच्चे को आप ही संभालिए. सुबहशाम तो मैं घर में रहूंगा ही, दिन में आया आप की मदद करेगी.’’
अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें, दादी, पोता दोनों प्रसन्न हो गए.
नए प्रबंध से अमान बहुत ही खुश था. वह खूब खेलता, खाता, मस्ती करता, कोई बोलने, टोकने वाला तो था नहीं, पिताजी रोज नएनए खिलौने ला कर देते, कभीकभी छुट्टी के दिन घुमानेफिराने भी ले जाते. अब कोई उसे डांटता भी नहीं था.
स्कूल में एक दिन छुट्टी के समय उस की मां आ गईं. उन्होंने अमान को बहुत प्यार किया और बोलीं, ‘‘बेटा, आज तेरा जन्मदिन है.’’ फिर प्रिंसिपल से इजाजत ले कर उसे अपने साथ घुमाने ले गईं. उसे आइसक्रीम और केक खिलाया, टैडीबियर खिलौना भी दिया. फिर घर के बाहर छोड़ गईं.
जब अमान दोनों हाथभरे हुए हंसताकूदता घर में घुसा तो वहां कुहराम मचा हुआ था. आया को खूब डांट पड़ रही थी. पिताजी भी औफिस से आ गए थे, पुलिस में जाने की बात हो रही थी. यह सब देख अमान एकदम डर गया कि क्या हो गया.
पिताजी ने गुस्से में आगे बढ़ कर उसे 2-4 थप्पड़ जड़ दिए और गरज कर बोले, ‘‘बोल बदमाश, कहां गया था? बिना हम से पूछे उस डायन के साथ क्यों गया? वह ले कर तुझे उड़ जाती तो क्या होता?’’
दादी ने उसे छुड़ाया और गोद में छिपा लिया. हाथ का सारा सामान गिर कर बिखर गया. जब खिलौना उठाने को वह बढ़ा तो पिता फिर गरजे, ‘‘फेंक दो कूड़े में सब सामान. खबरदार, जो इसे हाथ लगाया तो…’’
वह भौचक्का सा खड़ा था. उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या? क्यों पिताजी इतने नाराज हैं?
2 दिनों बाद दादी ने रोतरोते उस का सामान और नए कपड़े अटैची में रखे. अमान ने सुना कि पिताजी के साथ वह दार्जिलिंग जा रहा है. वह रेल में बैठ कर घूमने जा रहा था, इसलिए खूब खुश था. उस ने दादी को समझाया, ‘‘क्यों रोती हो, घूमने ही तो जा रहा हूं. 3-4 दिनों में लौट आऊंगा.’’
दार्जिलिंग पहुंच कर अमान के पिता अपने मित्र रमेश के घर गए. दूसरे दिन उन्हीं के साथ वे एक स्कूल में गए. वहां अमान से कुछ सवाल पूछे गए और टैस्ट लिया गया. वह सब तो उसे आता ही था, झटझट सब बता दिया. तब वहां के एक रोबीले अंगरेज ने उस की पीठ थपथपाई और कहा, ‘‘बहुत अच्छे.’’ और टौफी खाने को दी.
परंतु अमान को वहां कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. वह घर चलने की जिद करने लगा. उसे महसूस हुआ कि यहां जरूर कुछ साजिश चल रही है.
उस के पिताजी कितनी देर तक न जाने क्याक्या कागजों पर लिखते रहे, फिर उन्होंने ढेर सारे रुपए निकाल कर दिए. तब एक व्यक्ति ने उन्हें स्कूल और होस्टल घुमा कर दिखाया. पर अमान का दिल वहां घबरा रहा था. उस का मन आशंकित हो उठा कि जरूर कोई गड़बड़ है. उस ने अपने पिता का हाथ जोर से पकड़ लिया और घर चलने के लिए रोने लगा.
शाम को पिताजी उसे माल रोड पर घुमाने ले गए. छोटे घोड़े पर चढ़ा कर घुमाया और बहुत प्यार किया, फिर वहीं बैंच पर बैठ कर उसे खूब समझाते रहे, ‘‘बेटा, तुम्हारी मां वही कहानी वाली राक्षसी है जो बच्चों का खून पी जाती है, हाथपैर तोड़ कर मार डालती है, इसलिए तो हम लोगों ने उसे घर से निकाल दिया है. उस दिन वह स्कूल से जब तुम्हें उड़ा कर ले गई थी, तब हम सब परेशान हो गए थे. इसलिए वह यदि आए भी तो कभी भूल कर भी उस के साथ मत जाना. ऊपर से देखने में वह सुंदर लगती है, पर अकेले में राक्षसी बन जाती है.’’
अमान डर से कांपने लगा. बोला, ‘‘पिताजी, मैं अब कभी उन के साथ नहीं जाऊंगा.’’
दूसरे दिन सवेरे 8 बजे ही पिताजी उसे बड़े से गेट वाले जेलखाने जैसे होस्टल में छोड़ कर चले गए. वह रोता, चिल्लाता हुआ उन के पीछेपीछे भागा. परंतु एक मोटे दरबान ने उसे जोर से पकड़ लिया और अंदर खींच कर ले गया. वहां एक बूढ़ी औरत बैठी थी. उस ने उसे गोदी में बैठा कर प्यार से चुप कराया, बहुत सारे बच्चों को बुला कर मिलाया, ‘‘देखो, तुम्हारे इतने सारे साथी हैं. इन के साथ रहो, अब इसी को अपना घर समझो, मातापिता नहीं हैं तो क्या हुआ, हम यहां तुम्हारी देखभाल करने को हैं न.’’
अमान चुप हो गया. उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा था. फिर उसे उस का बिस्तर दिखाया गया, सारा सामान अटैची से निकाल कर एक छोटी सी अलमारी में रख दिया गया. उसी कमरे में और बहुत सारे बैड पासपास लगे थे. बहुत सारे उसी की उम्र के बच्चे स्कूल जाने को तैयार हो रहे थे. उसे भी एक आया ने मदद कर तैयार कर दिया.
फिर घंटी बजी तो सभी बच्चे एक तरफ जाने लगे. एक बच्चे ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो, नाश्ते की घंटी बजी है.’’
अमान यंत्रवत चला गया, पर उस से एक कौर भी न निगला गया. उसे दादी का प्यार से कहानी सुनाना, खाना खिलाना याद आ रहा था. उसे पिता से घृणा हो गई क्योंकि वे उसे जबरदस्ती, धोखे से यहां छोड़ कर चले गए. वह सोचने लगा कि कोई उसे प्यार नहीं करता. दादी ने भी न तो रोका और न ही पिताजी को समझाया.
वह ऊपर से मशीन की तरह सब काम समय से कर रहा था पर उस के दिल पर तो मानो पहाड़ जैसा बोझ पड़ा हुआ था. लाचार था वह, कई दिनों तक गुमसुम रहा. चुपचाप रात में सुबकता रहा. फिर धीरेधीरे इस जीवन की आदत सी पड़ गई. कई बच्चों से जानपहचान और कइयों से दोस्ती भी हो गई. वह भी उन्हीं की तरह खाने और पढ़ने लग गया. धीरेधीरे उसे वहां अच्छा लगने लगा. वह कुछ अधिक समझदार भी होने लगा.
इसी प्रकार 1 वर्ष बीत गया. वह अब घर को भूलने सा लगा था. पिता की याद भी धुंधली पड़ रही थी कि एक दिन अचानक ही पिं्रसिपल साहब ने उसे अपने औफिस में बुलाया. वहां 2 पुलिस वाले बैठे थे, एक महिला पुलिस वाली तथा दूसरा बड़ी मूंछों वाला मोटा सा पुलिस का आदमी. उन्हें देखते ही अमान भय से कांपने लगा कि उस ने तो कोई चोरी नहीं की, फिर क्यों पुलिस पकड़ने आ गई है.
खैर, कैरैक्टर तो मैं अपना बहुत पहले नीलाम कर चुका हूं. यह जो मेरे पास दोमंजिला मकान, आलीशान गाड़ी है, सब मैं ने अपना कैरैक्टर नीलाम करने के बाद ही हासिल की है. इनसान जिंदगी में चाहे कितनी ही मेहनत क्यों न करे, पर जब तक वह अपने कैरैक्टर को बंदरिया के मरे बच्चे सा अपने से चिपकाए रखता है, तब तक भूखा ही मरता है.
इधर बंदे ने अपना कैरैक्टर नीलाम किया, दूसरी ओर हर सुखसुविधा ने उसे सलाम किया. कहने वाले जो कहें सो कहते रहें, पर अपना तजरबा है कि जब तक बंदे के पास कैरैक्टर है, उस के पास केवल और केवल गरीबी है.
पर कैरैक्टर नीलाम करने के बाद कमबख्त फिर गरीबी आन पड़ी. जमापूंजी कितने दिन चलती है? अब मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं अपना क्या नीलाम करूं? अनारकली होता, तो मीना बाजार जा पहुंचता.
जब मुझे पता चला कि उन के कपड़े डेढ़ करोड़ रुपए में बिके, तो अपना तो कलेजा ही मुंह को आ गया. लगा, मेरे लिए नीलामी का एक दरवाजा और खुल गया. जिस के कपड़े ही डेढ़ करोड़ के नीलाम हो रहे हों, वह बंदा आखिर कितना कीमती होगा?
बस, फिर क्या था. मुझे उन के कपड़ों की नीलामी की बोली के अंधेरे में उम्मीद की किरण नहीं, बल्कि दोपहर का चमकता सूरज दिखा और मैं ने आव देखा न ताव, अपने और बीवी के सारे कपड़ों के साथ पड़ोसी की बीवी के भी चार फटेपुराने कपड़ों की गठरी बांधी और लखपति होने के सपने लेता बाजार चलने को हुआ, तो बीवी ने टोका, ‘‘अब ये मेरे कपड़े कहां लिए जा रहे हो? पागलपन की भी हद होती है.’’
‘‘मैं बाजार जा रहा हूं… नीलाम करने,’’ मैं ने ऐसा कहा, तो बीवी चौंकी, ‘‘अपना सबकुछ नीलाम करने के बाद अब कपड़े भी नीलाम करने की नौबत आ गई क्या?’’
‘‘आई नहीं. नौबत क्रिएट कराई है उन्होंने. तेरेमेरे इन कपड़ों में मुझे लाखों रुपए की कमाई दिख रही है. चल फटाफट बंधी गांठ उठवा और शाम को मेरे आते ही लखटकिया की बीवी हो जा.’’
‘‘पर, इन कपड़ों को कौन गधा खरीदेगा?’’ कहते हुए वह परेशान हो गई.
‘‘अरी भागवान, ये कोई मामूली कपड़े नहीं हैं, बल्कि ये लैलामजनूं, हीररांझा, शीरींफरहाद के ऐतिहासिक कपड़े हैं.
‘‘तू भी न… सारा दिन टैलीविजन के पास बैठीबैठी बस सासबहू के सीरियल ही देखती रहती है. कभी समाचार सुनने नहीं, तो कम से कम देख ही लिया कर. उन के कपड़े की एक जोड़ी डेढ़ करोड़ रुपए में बिकी. हो सकता है कि लाखों रुपए में न सही, तो कम से कम हजारों रुपए में अपने ये कपड़े भी कोई खरीद ले.’’
‘‘घर में कोई जोड़ी बदलने के लिए भी छोड़ी है कि नहीं? कोई क्या पागल है, जो हमारे न पहनने लायक कपड़ों की बोली लगाएगा?’’
यह मेरी बीवी भी न, जब देखो शक में ही जीती रहती है.
‘‘क्यों न लगाएगा… मैं अपने कपड़ों को चमत्कारी रंग दे कर ऐसा प्रचार करूंगा कि… मसलन, ये कपड़े मेरी बीवी को हीर ने उसे तब दिए थे, जब वह पहली बार मुझ से मंदिर जाने के बहाने मिलने आई थी.
‘‘और ये कपड़े मेरी बीवी को लैला ने हमारी फर्स्ट मैरिज एनिवर्सरी पर दिए थे. यह वाला सूट हीर ने उसे उस की बर्थडे पर गिफ्ट किया था.
‘‘यह सूट तो तुम्हें महारानी विक्टोरिया ने खुद अपने हाथों से सिल कर दिया था. और मेरा कुरतापाजामा मजनूं ने मेरी शादी पर तब मुझे पहनाया था, जब मैं घोड़ी लायक पैसे न होने के चलते गधे पर शान से बैठ कर तुम्हें ब्याहने गया था.
‘‘यह तौलिया महात्मा गांधी का है, जिस से वे अपनी नाक पोंछा करते थे. यह उन्होंने मेरे दादाजी को भेंट में दिया था. यह रूमाल जवाहरलाल नेहरू का है. मेरे पिताजी जब 15 अगस्त को उन से मिलने गए थे, तो लालकिले पर झंडा फहराने के बाद इसे उन्होंने उन्हें उपहार के तौर पर दिया था.’’
‘‘और यह मफलर?’’
‘‘रहने दे. इसे बाद में देखेंगे. इसे कुछ काम तो करने दे,’’ जब मैं बोला, तो पहली बार उसे मुझ पर यकीन हुआ और उस ने कोई सवाल नहीं उठाया.
उलटे सुनहरे ख्वाब बुनते हुए मैं ने अपने सिर पर कपड़ों की बंधी गांठ रखी और मैं एक बार फिर अपने माल को नीलाम करने बाजार में जा खड़ा हुआ.
बाजार में पहुंचते ही खाली जगह देख कर दरी बिछाई और अपने और अपनी परीजादी को गिफ्ट में मिले सारे कपड़े उस पर बिखेर दिए.
पर यह क्या… एक घंटा बीता… 2 घंटे बीते… कोई कपड़ों के पास आ ही नहीं रहा था. उलटा, जो भी हमारे कपड़ों के पास से गुजर रहा था, नाक पर हाथ रख लेता. शाम तक मैं नीलामी करने वालों को टुकुरटुकुर ताकता रहा. अब समस्या यह कि गांठ जो बांध भी लूं, तो उठवाए कौन?
तभी एक पुलिस वाला आ धमका. वह डंडे से मेरी बीवी के कपड़ों को टटोलने लगा, तो मुझे उस की इस हरकत पर बेहद गुस्सा आया. पर बाजार की बात थी, सो चुप रहा.
‘‘अरे, यह सब क्या है? चोरी के कपड़े हैं क्या? यमुना के किस छोर से चिथड़े उठा लाया?’’
‘‘नहीं साहब, ये वाले हीर के हैं, ये वाले लैला के हैं. ये वाले मजनूं के हैं और ये वाले ओबामा की जवानी के दिनों के…
‘‘और ये…
‘‘फरहाद के…’’
‘‘छि:, इतने गंदे?’’
‘‘बरसों से धोए नहीं हैं न साहब. जस के तस संभाल कर रखे हैं.’’
‘‘मतलब, पुलिस वाले को उल्लू बना रहा है?’’
‘‘उल्लू… और आप को? मर जाए, जो आप को उल्लू बनाए,’’ कह कर मैं ने उस के दोनों पैरों को हाथ लगाया, तो वह आगे बोला, ‘‘म्यूजियम से चुरा कर लाया है क्या?’’ कह कर वह मुसकराता हुआ मेरी जेब में झांकने लगा, तो मैं ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘साहब, उन की देखादेखी मैं भी इन्हें नीलाम करने ले आया था.’’
‘‘पता है, वे किस के कपड़े थे? चल उठा जल्दी से इन गंदे कपड़ों को, वरना…’’
तभी सामने से पुराने कपड़े लेने वाली एक औरत आ धमकी और कमर नचाते हुए बोली, ‘‘ऐ, क्या लोगे इन सब पुराने कपड़ों का? 2 पतीले लेने हों, तो जल्दी बोलो…’’
हमारे गांवदेहात में एक कहावत मशहूर है कि ‘गरीब की लुगाई गांवभर की भौजाई’. कुछ यही हाल हमारे देश के मास्साबों का हो गया है. सरकार ने इन्हें भी गांवभर की भौजाई समझ लिया है. जनगणना से ले कर पशुगणना तक, ग्राम पंचायत के पंच से ले कर संसद सदस्य तक के चुनाव मास्साबों के जिम्मे है.
किस गांव में कितने कमउम्र बच्चों को पोलियो की खुराक देनी है, गांव के कितने मर्दऔरतों ने नसबंदी कराई है, कितने बच्चों के जाति प्रमाणपत्र कचहरी में धूल खा रहे हैं, कितनों की आईडी रोजगार सहायक के कंप्यूटर में कैद है, कितने परिवार गरीबी की रेखा के नीचे दब कर छटपटा रहे हैं और कितने गरीबी की रेखा को पीछे सरकाते हुए आगे निकल गए हैं, कितने परिवार घर में शौचालय न होने के चलते खुले में शौच करते हैं. कितने लोगों के आधार कार्ड नहीं बने हैं, कितनों के बैंक में लिंक नहीं हुए, बच्चों का वजीफा, साइकिल, खाता खोलने के लिए बैंकों के कितने चक्कर लगाने हैं, इन सब बातों की जानकारी भला मास्साबों से बेहतर कौन जान सकता है. सरकार ने मास्साबों के इसी हुनर को देख कर पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सारे काम उन्हें दे रखे हैं. सरकार जानती है कि पढ़ाई का क्या है, वह तो बच्चे को जिंदगीभर करनी है. पढ़ाईलिखाई के महकमे की बैठकों में अफसर पढ़ाई को छोड़ कर बाकी सारी बातें करते हैं. किसी गांव को पूरी तरह पढ़ालिखा बनाना मास्साबों को बाएं हाथ का खेल लगता है.
मास्साब कहते हैं कि हम तो सरकारी आदेशों के गुलाम हैं. सरकार जो चाहे खुशीखुशी कर देते हैं. आखिर पगार काहे की लेते हैं. सरकार द्वारा दिए गए लोगों के भले के कामों की वजह से मास्साब की ईमानदारी पर शक किया जाने लगा है. जब सरकारी स्कूलों में मास्साब कभी किचन शैड, शौचालय या ऐक्स्ट्रा कमरा बनाने का काम कराते हैं, तो वे देश के लिए इंजीनियर और ठेकेदार का रोल भी निभाते हैं. यही बात गांव वालों को खलती है और वे मास्साब की ईमानदारी पर भी बेवजह शक करने लगते हैं. गांवों में अकसर ही लोगों को यह शिकायत रहती है कि मास्साब नियमित स्कूल नहीं आते, बच्चों को ठीक से नहीं पढ़ाते, घर में कोचिंग क्लास चलाते हैं.
अरे जनाब, आप को पता होना चाहिए कि बच्चे मास्साब के कंधों पर कितना बड़ा बोझ हैं. बच्चे भी क्या कम हैं, वे स्कूल पढ़ने नहीं रिसर्च करने आते हैं. बच्चे मास्साब के स्मार्टफोन का मजा लेते हैं. ह्वाट्सऐप पर भेजे वीडियो व फोटो को भी वे शेयर करते हैं. मास्साब की फेसबुक पर वे कमैंट करने में भी पीछे नहीं हैं. कभी मास्साब को समय मिलता है और वे लड़कों को भारत का इतिहास पढ़ाते हैं, तो भी क्लास की लड़कियों के इतिहास की जानकारी लेने में बिजी रहते हैं. लड़कियों के इतिहास पर लड़कों
की रिसर्च चलती रहती है. इस के लिए थीसिस, जिसे नासमझ प्रेमपत्र भी कहते हैं, लिखने का काम भी करते हैं, तभी उन्हें पीएचडी यानी शादी बतौर अवार्ड मिल पाती है. यह बात और है कि ज्यादातर लड़कों का इस काम में भूगोल बिगड़ने का खतरा रहता है. रिजल्ट भी खराब आता है, जिस की जिम्मेदारी मास्साबों पर थोपी जाती है. लड़कों की गलतियों की सजा मास्साबों की वेतन वृद्धि रोक कर वसूल की जाती है.
यही वजह है कि मास्साब कभीकभी नकल की खुली छूट दे देते हैं. इस से रिजल्ट भी अच्छा बन जाता है और छात्रों की नजर में मास्साब की इज्जत भी बढ़ जाती है. इस तरह मास्साब एक पंथ दो काज निबटा लेते हैं. मास्टरी के क्षेत्र में औरतों की चांदी है. मैडमजी सुबहसवेरे ही सजसंवर कर स्कूल चली जाती हैं और चूल्हाचौका सासूजी के मत्थे मढ़ जाती हैं.
कुमारियां तो स्कूल को किसी फैशन परेड का रैंप समझती हैं, तो श्रीमतियां अपने घर के काम निबटा लेती हैं. वे स्कूल समय में मटर छील लेती हैं, पालकमेथी के पत्तों को तोड़ कर सब्जी बनाने की पूरी तैयारी कर लेती हैं. कभीकभार जब समय नहीं रहता, तो स्कूल के मिड डे मील की बची हुई रेडीमेड सब्जीपूरी भी घर ले जाती हैं. ठंड के दिनों में स्वैटर बुनने की सब से अच्छी जगह सरकारी स्कूल ही होती है, जहां पर कुनकुनी धूप में बच्चों को मैदान में बिठा कर उन्हें जोड़घटाने के सवालों में उलझा कर मैडम अपने पति के स्वैटर के फंदों का जोड़घटाना कर ह्वाट्सऐप के मजे लेती हैं.
कुछ मैडमें अपने नन्हेमुन्ने बच्चों को भी साथ में स्कूल ले आती हैं, जिन के लालनपालन की जिम्मेदारी क्लास के गधा किस्म के बच्चों की होती है. उन की इस सेवा के बदले उन का प्रमोशन अगली क्लास में कर दिया जाता है. जब से सरकार ने मास्साबों की भरती में औरतों को 50 फीसदी रिजर्वेशन व उम्र की सीमा को खत्म किया है, तब से सास बनी बैठी औरतों ने भी मास्टरनी बनने की ठानी है. अब देखना यही है कि रसोई की कमान मर्दों के हाथों में आती है या नहीं?
देश के महामहिम राष्ट्रपति रह चुके डा. राधाकृष्णन के जन्मदिन 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ मनाया जाता है. स्कूली बच्चे चंदा कर के मास्साब के लिए शाल और चायबिसकुट का इंतजाम करते हैं.
देश के राष्ट्रपति द्वारा इस दिन दिल्ली में होनहार मास्साबों को सम्मानित किया जाता है. कुछ मास्साब यहां भी अपने हुनर को दिखा कर टैलीविजन चैनलों पर अवार्ड लेते दिख जाते हैं. अवार्ड लेने के बाद मास्साबों को गांवगांव, गलीगली में सम्मानित किया जाता है. इसी चक्कर में मास्साब कईकई दिनों तक स्कूल नहीं पहुंच पाते. पर कभीकभार स्कूल के हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत कर उसे भी गौरवान्वित कर आते हैं.
ठीक ही तो है कि सारी ईमानदारी का बोझ अकेले मास्साबों के कंधों पर नहीं डाला जा सकता. जब से देश को बनाने की जिम्मेदारी अंगूठा लगाने वाले जनप्रतिनिधि निभाने लगे हैं, तब से मास्साबों को शर्म आने लगी है. इतनी पढ़ाई के बाद भी मास्साब अंगूठे की छाप नहीं बदल सके? काश, मास्साबों का यह दर्द कोई समझ पाता.
सुच्चामल हमारी कालोनी के दूसरे ब्लौक में रहते थे. हर रोज मौर्निंग वाक पर उन से मुलाकात होती थी. कई लोगों की मंडली बन गई थी. सुबह कई मुद्दों पर बातें होती थीं, लेकिन बातों के सरताज सुच्चामल ही होते थे. देशदुनिया का ऐसा कोई मुद्दा नहीं होता था जिस पर वे बात न कर सकें. उस पर किसी दूसरे की सहमतिअसहमति के कोई माने नहीं होते थे, क्योंकि वे अपनी बात ले कर अड़ जाते थे. उन की खुशी के लिए बाकी चुप हो जाते थे. बड़ी बात यह थी कि वे, सेहत के मामले में हमेशा फिक्रमंद रहते थे. एकदम सादे खानपान की वकालत करते थे. मोटापे से बचने के कई उपाय बताते थे. दूसरों को डाइट चार्ट समझा देते थे. इतना ही नहीं, अगले दिन चार्ट लिखित में पकड़ा देते थे. फिर रोज पूछना शुरू करते थे कि चार्ट के अनुसार खानपान शुरू किया कि नहीं. हालांकि वे खुद भी थोड़ा थुलथुल थे लेकिन वे तर्क देते थे कि यह मोटापा खानपान से नहीं, बल्कि उन के शरीर की बनावट ही ऐसी है.
एक दिन सुबह मुझे काम से कहीं जाना पड़ा. वापस आया, तो रास्ते में सुच्चामल मिल गए. मैं ने स्कूटर रोक दिया. उन के हाथ में लहराती प्लास्टिक की पारदर्शी थैली को देख कर मैं चौंका, चौंकाने का दायरा तब और बढ़ गया जब उस में ब्रैड व बड़े साइज में मक्खन के पैकेट पर मेरी नजर गई. मैं सोच में पड़ गया, क्योंकि सुच्चामल की बातें मुझे अच्छे से याद थीं. उन के मुताबिक वे खुद भी फैटी चीजों से हमेशा दूर रहते थे और अपने बच्चों को भी दूर रखते थे. इतना ही नहीं, पौलिथीन के प्रचलन पर कुछ रोज पहले ही उन की मेरे साथ हुई लंबीचौड़ी बहस भी मुझे याद थी.
वे पारखी इंसान थे. मेरे चेहरे के भावों को उन्होंने पलक झपकते ही जैसे परख लिया और हंसते हुए पिन्नी की तरफ इशारा कर के बोले, ‘‘क्या बताऊं भाईसाहब, बच्चे भी कभीकभी मेरी मानने से इनकार कर देते हैं. कई दिनों से पीछे पड़े हैं कि ब्रैडबटर ही खाना है. इसलिए आज ले जा रहा हूं. पिता हूं, बच्चों का मन रखना भी पड़ता है.’’
‘‘अच्छा किया आप ने, आखिर बच्चों का भी तो मन है,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा.
‘‘नहीं बृजमोहन, आप को पता है मैं खिलाफ हूं इस के. अधिक वसा वाला खानपान कभीकभी मेरे हिसाब से तो बहुत गलत है. आखिर बढ़ते मोटापे से बचना चाहिए. वह तो श्रीमतीजी भी मुझे ताना देने लगी थीं कि आखिर बच्चों को कभी तो यह सब खाने दीजिए, तब जा कर लाया हूं.’’ थोड़ा रुक कर वे फिर बोले, ‘‘एक और बात.’’
‘‘क्या?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा, तो वे नाखुशी वाले अंदाज में बोले, ‘‘मुझे तो चिकनाईयुक्त चीजें हाथ में ले कर भी लगता है कि जैसे फैट बढ़ रहा है, चिकनाई तो दिल की भी दुश्मन होती है भाईसाहब.’’
‘‘आइए आप को घर तक छोड़ दूं,’’ मैं ने उन्हें अपने स्कूटर पर बैठने का इशारा किया, तो उन्होंने सख्त लहजे में इनकार कर दिया, ‘‘नहीं जी, मैं पैदल चला जाऊंगा, इस से फैट घटेगा.’’
आगे कुछ कहना बेकार था क्योंकि मैं जानता था कि वे मानेंगे ही नहीं. लिहाजा, मैं अपने रास्ते चला गया.
2 दिन सुच्चामल मौर्निंग वौक पर नहीं आए. एक दिन उन के पड़ोसी का फोन आया. उस ने बताया कि सुच्चामल को हार्टअटैक आया है. एक दिन अस्पताल में रह कर घर आए हैं. अब मामला ऐसा था कि टैलीफोन पर बात करने से बात नहीं बनने वाली थी. घर जाने के लिए मुझे उन की अनुमति की जरूरत नहीं थी. यह बात इसलिए क्योंकि वे कभी भी किसी को घर पर नहीं बुलाते थे बल्कि हमारे घर आ कर मेरी पत्नी और बच्चों को भी सादे खानपान की नसीहतें दे जाते थे.
मैं दोपहर के वक्त उन के घर पहुंच गया. घंटी बजाई तो उन की पत्नी ने दरवाजा खोला. मैं ने अपना परिचय दिया तो वे तपाक से बोलीं, ‘‘अच्छाअच्छा, आइए भाईसाहब. आप का एक बार जिक्र किया था इन्होंने. पौलिथीन इस्तेमाल करने वाले बृजमोहन हैं न आप?’’
‘‘ज…ज…जी भाभीजी.’’ मैं थोड़ा झेंप सा गया और समझ भी गया कि अपने घर में उन्होंने खूब हवा बांध रखी है हमारी. सुच्चामल के बारे में पूछा, तो वे मुझे अंदर ले गईं. सुच्चामल ड्राइंगरूम के कोने में एक दीवान पर पसरे थे. मैं ने नमस्कार किया, तो उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकान आई. चेहरे के भावों से लगा कि उन्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा था. हालचाल पूछा, ‘‘बहुत अफसोस हुआ सुन कर. आप तो इतना सादा खानपान रखते हैं, फिर भी यह सब कैसे हो गया?’’
‘‘चिकनाई की वजह से.’’ जवाब सुच्चामल के स्थान पर उन की पत्नी ने थोड़ा चिढ़ कर दिया, तो मुझे बिजली सा झटका लगा, ‘‘क्या?’’
‘‘कैसे रोकूं अब इन्हें भाईसाहब. ऐसा तो कोई दिन ही नहीं जाता जब चिकना न बनता हो. कड़ाही में रिफाइंड परमानैंट रहता है. कोई कमी न हो, इसलिए कनस्तर भी एडवांस में रखते हैं.’’ उन की बातों पर एकाएक मुझे विश्वास नहीं हुआ.
‘‘लेकिन भाभीजी, ये तो कहते हैं कि चिकने से दूर रहता हूं?’’
‘‘रहने दीजिए भाईसाहब. बस, हम ही जानते हैं. किचेन में दालों के अलावा आप को सब से ज्यादा डब्बे तलनेभूनने की चीजों से भरे मिलेंगे. बेसन का 10 किलो का पैकेट 15 दिन भी नहीं चलता. बच्चे खाएं या न खाएं, इन को जरूर चाहिए. बारिश की छोड़िए, आसमान में थोड़े बादल देखते ही पकौड़े बनाने का फरमान देते हैं.’’
यह सब सुन कर मैं हैरान था. सुच्चामल का चेहरा देखने लायक था. मन तो किया कि उन की हर रोज होने वाली बड़ीबड़ी बातों की पोल खोल दूं, लेकिन मौका ऐसा नहीं था. सुच्चामल हमेशा के लिए नाराज भी हो सकते थे. यह राज भी समझ आया कि सुच्चामल अपने घर हमें शायद पोल खुलने के डर से क्यों नहीं बुलाना चाहते थे. इस बीच, डाक्टर चैकअप के लिए वहां आया. डाक्टर ने सुच्चामल से उन का खानपान पूछा, तो वह चुप रहे. लेकिन पत्नी ने जो डाइट चार्ट बताया वह कम नहीं था. सुच्चामल सुबह मौर्निंग वाक से आ कर दबा कर नाश्ता करते थे.
हर शाम चाय के साथ भी उन्हें समोसे चाहिए होते थे. समोसे लेने कोई जाता नहीं था, बल्कि दुकानदार ठीक साढ़े 5 बजे अपने लड़के से 4 समोसे पैक करा कर भिजवा देता था. सुच्चामल महीने में उस का हिसाब करते थे. रात में भरपूर खाना खाते थे. खाने के बाद मीठे में आइसक्रीम खाते थे. आइसक्रीम के कई फ्लेवर वे फ्रिजर में रखते थे. मैं चलने को हुआ, तो मैं ने नजदीक जा कर समझाया, ‘‘चलता हूं सुच्चामल, अपना ध्यान रखना.’’
‘‘ठीक है.’’
‘‘चिकने से परहेज कर के सादा खानपान ही कीजिए.’’
‘‘मैं तो सादा ही…’’ उन्होंने सफाई देनी चाही, लेकिन मैं ने बीच में ही उन्हें टोक दिया, ‘‘रहने दीजिए, तारीफ सुन चुका हूं. डाक्टर साहब को भी भाभीजी ने आप की सेहत का सारा राज बता दिया है.’’ मेरी इस सलाह पर वे मुझे पुराने प्राइमरी स्कूल के उस बच्चे की तरह देख रहे थे जिस की मास्टरजी ने सब से ज्यादा धुनाई की हो. अगले दिन मौर्निंग वाक पर गया, तो हमारी मंडली के लोगों को मैं ने सुच्चामल की तबीयत के बारे में बताया, तो वे सब हैरान रह गए.
‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ एक ने पूछा, तो मैं ने बताया, ‘‘अजी खानपान की वजह से.’’
एक सज्जन चौंक कर बोले, ‘‘क्या…? इतना सादा खानपान करते थे, ऐसा तो नहीं होना चाहिए.’’
‘‘अजी काहे का सादा.’’ मेरे अंदर का तूफान रुक न सका और सब को हकीकत बता दी. मेरी तरह वे भी सुन कर हैरान थे. सुच्चामल छिपे रुस्तम थे. कुछ दिनों बाद सुच्चामल मौर्निंग वाक पर आए, लेकिन उन्होंने खानपान को ले कर कोई बात नहीं की. 1-2 दिन वे बोझिल और शांत रहे. अचानक उन का आना बंद हो गया.
एक दिन पता चला कि वे दूसरे पार्क में टहल कर लोगों को अपनी सेहत का वही ज्ञान बांट रहे हैं जो कभी हमें दिया करते थे. हम समझ गए कि सुच्चामल जैसे लोग ज्ञान की गंगा बहाने के रास्ते बना ही लेते हैं. यह भी समझ आ गया कि कथनी और करनी में कितना फर्क होता है. सुच्चामल से कभीकभी मुलाकात हो जाती है, लेकिन वे अब सेहत के मामले पर नहीं बोलते.
‘‘साहब, लगता है आप अपनी बेटी की शादी के बारे में चिंतित हैं. अगर कहें तो…’’ कहतेकहते कुमार रुक गया.
अब कहने के लिए बचा ही क्या है? मैं मोहभंग, विषादग्रस्त सा बैठा रहा.
‘‘साहब, क्या आप अपनी बेटी का रिश्ता विदेश में कार्य कर रहे एक इंजीनियर से करना पसंद करेंगे?’’ कुमार के स्वर में संकोच था.
अंधा क्या चाहे दो आंखें. कुमार की बात सुन मैं हतप्रभ रह गया. तत्काल कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सका.
‘‘साहब, कुछ लोग अपनी बेटियों को विदेश भेजने से कतराते हैं. पर आज के जेट युग में दूरी का क्या महत्त्व? आप कनाडा से दिल्ली, मैसूर से दिल्ली की अपेक्षा जल्दी पहुंच सकते हैं.’’
मेरे अंतर के सागर में उल्लास का ज्वार उठ रहा था, परंतु आवेग पर अंकुश रख, मैं ने शांत स्वर में पूछा, ‘‘कोई लड़का तुम्हारी नजर में है? क्या करता है? किस परिवार का है? किस देश में है?’’
‘‘साहब, मेरे कालिज के जमाने का एक दोस्त है. हम मैसूर में साथसाथ पढ़ते थे. करीब 5 साल पहले वह कनाडा चला गया था. वहीं पढ़ा और आज अंतरिक्ष इंजीनियर है. 70 हजार रुपए मासिक वेतन पाता है. परसों वह भारत आया है. 3 सप्ताह रहेगा. इस बार वह शादी कर के ही लौटना चाहता है.’’
मेरी बांछें खिल गईं. मुझे लगा, कुमार ने खुल जा सिमसिम कहा. खजाने का द्वार खुला और मैं अंदर प्रवेश कर गया.
‘‘साहब, उस के परिवार के बारे में सुन कर आप अवश्य निराश होंगे. उस के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. चाचाजी ने पालपोस कर बड़ा किया. बड़े कष्ट, अभावों तथा ममताविहीन माहौैल में पला है वह.’’
‘‘ऐसे ही बच्चे प्रगति करते हैं. सुविधाभोगी तो बस, बिगड़ जाते हैं. कष्ट की अग्नि से तप कर ही बालक उन्नति करता है. 70 हजार, अरे, मारो गोली परिवार को. इतने वेतन में परिवार का क्या महत्त्व?’’
इधर कुमार का वार्त्ताक्रम चालू था, उधर मेरे अंतर में विचारधारा प्रवाहित हो रही थी, पर्वतीय निर्झर सी.
‘‘साहब, लगता है आप तो सोच में डूब गए हैं. घर पर पत्नी से सलाह कर लीजिए न. आप नरेश को देखना चाहें तो मैं…’’
बिजली की सी गति से मैं ने निर्णय कर लिया. बोला, ‘‘कुमार, तुम आज शाम को नरेश के साथ चाय पीने घर क्यों नहीं आ जाते?’’
‘‘ठीक है साहब,’’ कुमार ने अपनी स्वीकृति दी.
‘‘क्या तुम्हारे पास ही टिका है वह?’’
‘‘अरे, नहीं साहब, मेरे घर को तो खोली कहता है. वह मुंबई में होता है तो ताज में ठहरता है.’’
मैं हीनभावना से ग्रस्त हो गया. कहीं मेरे घर को चाल या झुग्गी की संज्ञा तो नहीं देगा.
‘‘ठीक है, कुमार. हम ठीक 6 बजे तुम लोगों का इंतजार करेंगे,’’ मैं ने कहा.
मेरा अभिवादन कर कुमार चला गया. तत्पश्चात मैं ने तुरंत शांति से फोन पर संपर्क किया. उसे यह खुशखबरी सुनाई. शाम को शानदार पार्टी के आयोजन के संबंध में आदेश दिए. हांगकांग से मंगवाए टी सेट को निकालने की सलाह दी.
शाम को वे दोनों ठीक समय पर घर पहुंच गए.
हम तीनों अर्थात मैं, शांति औैर सुमन, नरेश को देख मंत्रमुग्ध रह गए. मूंगिया रंग का शानदार सफारी सूट पहने वह कैसा सुदर्शन लग रहा था. लंबा कद, छरहरा शरीर, रूखे किंतु कलात्मक रूप से सेट बाल. नारियल की आकृति वाला, तीखे नाकनक्श युक्त चेहरा. लंबी, सुती नाक और सब से बड़ा आकर्षक थीं उस की कोवलम बीच के हलके नीले रंग के सागर जल सी आंखें.
बातों का सैलाब उमड़ पड़ा. चायनाश्ते का दौर चल रहा था. नरेश बेहद बातूनी था. वह कनाडा के किस्से सुना रहा था. साथ ही साथ वह सुमन से कई अंतरंग प्रश्न भी पूछता जा रहा था.
मैं महसूस कर रहा था कि नरेश ने सुमन को पसंद कर लिया है. नापसंदगी का कोई आधार भी तो नहीं है. सुमन सुंदर है. कानवेंट में पढ़ी है. आजकल के सलीके उसे आते हैं. कार्यशील है. उस का पिता एक सरकारी वैज्ञानिक संगठन में उच्च प्रशासकीय अधिकारी है. फिर और क्या चाहिए उसे?
लगभग 8 बजे शांति ने विवेक- शीलता का परिचय देते हुए कहा, ‘‘नरेश बेटे, अब तो खाने का समय हो चला है. रात के खाने के लिए रुक सको तो हमें खुशी होगी.’’
‘‘नहीं, मांजी, आज तो नहीं, फिर कभी सही. आज करीब 9 बजे एक औैर सज्जन होटल में मिलने आ रहे हैं,’’ नरेश ने शांत स्वर में कहा.
‘‘क्या इसी सिलसिले में?’’ शांति ने घबरा कर पूछा.
‘‘हां, मांजी. मेरी समझ में नहीं आता, इस देश में विदेश में बसे लड़कों की इतनी ललक क्यों है? जिसे देखो, वही भाग रहा है हमारे पीछे. जोंक की तरह चिपक जाते हैं लोग.’’
चिंता की बात तो है. पर ऐसी नहीं कि शांति, सुमन के मामा के साथ मिल कर मुझ पर बमबारी शुरू कर दी. मेरी निगाहें तो कुमार पर जमी हैं. फंस गया तो ठीक है. वैसे, मैं ने तो एक अलग ही सपना देखा था. शायद वह पूरा होने वाला नहीं.
कल शाम पुणे से सुमन के मामा आए थे. अकसर व्यापार के संबंध में मुंबई आते रहते हैं. व्यापार का काम खत्म कर वह घर अवश्य पहुंचते हैं. आजकल उन को बस, एक ही चिंता सताती रहती है.
‘‘शांति, सुमन 26 पार कर गईर्र्र् है. कब तक इसे घर में बिठाए रहोगे?’’ सुमन के मामा चाय खत्म कर के चालू हो गए. वही पुराना राग.
‘‘सुमन घर में नहीं बैठी है. वह आकाशवाणी में काम करती है, मामाजी,’’ मैं भी मजाक में सुमन के मामा को मामाजी कह कर संबोधित किया करता था.
‘‘जीजाजी, आप तो समझदार हैं. 25-26 पार करते ही लड़की के रूपयौैवन में ढलान शुरू हो जाता है. उस के अंदर हीनभावना घर करने लगती है. मेरे खयाल से तो….’’
‘‘मामाजी, अपनी इकलौती लड़की को यों रास्ता चलते को देने की मूर्खता मैं नहीं करूंगा,’’ मैं ने थोड़े गंभीर स्वर में कहा, ‘‘आप स्वयं देख रहे हैं, हम हाथ पर हाथ रखे तो बैठे नहीं हैं.’’
‘‘जीजाजी, जरा अपने स्तर को थोड़ा नीचे करो. आप तो सुमन के लिए ऐसा लड़का चाहते हैं जो शारीरिक स्तर पर फिल्मी हीरो, मानसिक स्तर पर प्रकांड पंडित तथा आर्थिक स्तर पर टाटाबाटा हो. भूल जाइए, ऐसा लड़का नहीं मिलना. किसी को आप मोटा कह कर, किसी को गरीब खानदान का बता कर, किसी को मंदबुद्धि करार दे कर अस्वीकार कर देते हैं. आखिर आप चाहते क्या हैं?’’ मामाजी उत्तेजित हो गए.
मैं क्या चाहता हूं? पलभर को मैं चुप हो, अपने बिखरे सपने समेट, कुछ कहना ही चाहता था कि मामाजी ने अपना धाराप्रवाह भाषण शुरू कर दिया,
‘‘3-4 रिश्ते मैं ने बताए, तुम्हें एक भी पसंद नहीं आया. मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा. अभी तुम लड़कों को अस्वीकार कर रहे हो, बाद में लड़के सुमन को अस्वीकार करना शुरू कर देंगे. तब देखना, तुम आज की लापरवाही के लिए पछताओगे.’’
‘‘भैया, मैं बताऊं, यह क्या चाहते हैं?’’ शांति ने पहली बार मंच पर प्रवेश किया.
मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से शांति को ताका और विद्रूप स्वर में बोला, ‘‘फरमाइए, हमारे मन की बात आप नहीं तो और क्या पड़ोसिन जानेगी.’’
शांति मुसकराईर्. उस पर मेरे व्यंग्य का कोईर्र्र्र् प्रभाव नहीं पड़ा. वह तटस्थ स्वर में बोली, ‘‘भैया, इन्हें विदेशी वस्तुओं की सनक सवार है. घर में भरे सामान को देख रहे हो. टीवी, वीसीआर, टू इन वन, कैमरा, प्रेस…सभी कुछ विदेशी है. यहां तक कि नया देसी फ्रिज खरीदने के बजाय इन्होंने एक विदेशी के घर से, इतवार को अखबार में प्रकाशित विज्ञापन के माध्यम से पुराना विदेशी फ्रिज खरीद लिया.’’
‘‘भई, बात सुमन की शादी की हो रही थी. यह घर का सामान बीच में कहां से आ गया?’’ मामाजी ने उलझ कर पूछा.
‘‘भैया, आम भारतवासियों की तरह इन्हें विदेशी वस्तुओं की ललक है. इन की सनक घरेलू वस्तुओं तक ही सीमित नहीं. यह तो विदेशी दामाद का सपना देखते रहते हैं,’’ शांति ने मेरे अंतर्मन के चोर को निर्वस्त्र कर दिया.
इस महत्त्वाकांक्षा को नकारने की मैं ने कोई आवश्यकता महसूस नहीं की. मैं ने पूरे आत्मविश्वास के साथ शांति के द्वारा किए रहस्योद्घाटन का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘इस सपने में क्या खराबी है? आज अपने हर दूसरे मित्र या रिश्तेदार की बेटी लंदन, कनाडा, अमेरिका या आस्ट्रेलिया में है. जिसे देखो वही अपनी बेटीदामाद से मिलने विदेश जा रहा है औैर जहाज भर कर विदेशी माल भारत ला रहा है,’’ मैं ने गंभीर हो कर कहा.
‘‘विदेश में काम कर रहे लड़कों के बारे में कई बार बहुत बड़ा धोखा हो जाता है, जीजाजी,’’ मामाजी ने चिंतित स्वर में कहा.
‘‘मामाजी, ‘दूध के जले छाछ फूंकफूंक कर पीते हैं’ वाली कहावत में मैं विश्वास नहीं करता. इधर भारत में क्या रखा है सिवा गंदगी, बेईमानी, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के. विदेश में काम करो तो 50-60 हजार रुपए महीना फटकार लो. जिंदगी की तमाम भौतिक सुखसुविधाएं वहां उपलब्ध हैं. भारत तो एक विशाल- काय सूअरबाड़ा बन गया है.’’
मेरी इस अतिरंजित प्रतिक्रिया को सुन कर मामाजी ने हथियार डाल दिए. एक दीर्घनिश्वास छोड़ वह बोले, ‘‘ठीक है, विवाह तो वहां तय होते हैं.’’
मामाजी की उंगली छत की ओर उठी हुई थी. मैं मुसकराया. मैं ने भी अपने पक्ष को थोड़ा बदल हलके स्वर में कहा, ‘‘मामाजी, मैं तो यों ही मजाक कर रहा था. सच कहूं, मैं ने सुमन को इस दीवाली तक निकालने का पक्का फैसला कर लिया है.’’
‘‘कब इंपोर्ट कर रहे हो एक अदद दामाद?’’ मामाजी ने व्यंग्य कसा.
‘‘इंपोर्टेड नहीं, देसी है. दफ्तर में मेरे नीचे काम करता है. बड़ा स्मार्ट और कुशाग्र बुद्धि वाला है. लगता तो किसी अच्छे परिवार का है. है कंप्यूटर इंजीनियर, पर आ गया है प्रशासकीय सेवा में. कहता रहता है, मैं तो इस सेवा से त्यागपत्र दे कर अमेरिका चला जाऊंगा,’’ मैं ने रहस्योद््घाटन कर दिया.
शांति और मामाजी की आंखों में चमक आ गई.
दरवाजे पर दस्तक हुई तो मेरी तंद्रा टूट गई. मैं घर नहीं दफ्तर के कमरे में अकेला बैठा था.
दरवाजा खुला. सुखद आश्चर्य, मैं जिस की कल्पना में खोया हुआ था, वह अंदर दाखिल हो रहा था. मैं उमंग और उल्लास में भर कर बोला, ‘‘आओ कुमार, तुम्हारी बड़ी उम्र है. अभी मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था और तुम आ गए.’’
कुमार मुसकराया. कुरसी पर बैठते हुए बोला, ‘‘हुक्म कीजिए, सर. कैसे याद कर रहे थे?’’
मैं ने सोचा घुमाफिरा कर कहने की अपेक्षा सीधा वार करना ठीक रहेगा. मैं ने संक्षेप में अपनी इच्छा कुमार के समक्ष व्यक्त कर दी.
कुमार फिर मुसकराया और अंगरेजी में बोला, ‘‘साहब, मैं केवल बल्लेबाज ही नहीं हूं, मैं ने रन भी बटोरे हैं. एक शतक अपने खाते में है, साहब.’’
मैं चकरा गया. आकाश से पाताल में लुढ़क गया. तो कुमार अविवाहित नहीं, विवाहित है. उस की शादी ही नहीं हुई है, एक बच्चा भी हो गया है. क्रिकेट की भाषा की शालीनता की ओट में उस ने मेरी महत्त्वाकांक्षा की धज्जियां उड़ा दीं. मैं अपने टूटे सपने की त्रासदी को शायद झेल नहीं पाया. वह उजागर हो गई.
कुदरतउल्लाह ऐसा आदमी था, जिसे कहीं भी पहचाना जा सकता था. लंबे कद और दुबलेपतले शरीर वाले कुदरतउल्लाह की आंखें छोटीछोटी थीं और गालों की हड्डियां उभरी हुईं. उन उभरी हड्डियों के बीच में एक काला मस्सा था, जो किसी तालाब के टापू की तरह उभरा था, लेकिन माथा काफी ऊंचा था. उस की गरदन काफी छोटी, जो लंबे कद पर बड़ी विचित्र लगती थी. चपटी नाक के नीचे घनी मूछों की वजह से उस का चेहरा आम चेहरों से अलग लगता था. वह हुलिया भी ऐसा बनाए रहता था कि दूर से पहचान में आ जाता था.
कुल मिला कर उस का डीलडौल ऐसा था कि उस से मिलने आने वालों को उस के बारे में किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती थी. निसार चौधरी भी बिना किसी से कुछ पूछे उस के पास जा पहुंचे थे. कुदरतउल्लाह ने उन्हें नीचे से ऊपर तक देखते हुए पूछा, ‘‘आप की तारीफ?’’
‘‘मुझे निसार चौधरी कहते हैं.’’ निसार ने बिना इजाजत लिए सामने रखी कुरसी खींच कर बैठते हुए कहा, ‘‘आप के बारे में मुझे सब पता है. फरजंद अली ने मुझे सब बता दिया था.’’
‘‘मैं भी आप का ही इंतजार कर रहा था.’’ कुदरतउल्लाह ने अपने पतले होंठों पर मुसकराहट सजाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा, ‘‘फरजंद अली ने मुझे भी आप के बारे में सब बता दिया था.’’
‘‘इधरउधर की बातों में समय बेकार करने के बजाए सीधे काम की बात करनी चाहिए,’’ निसार ने कुदरतउल्लाह से चाय मंगाने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘मुझे इस कारोबार में आए अभी 2 साल ही हुए हैं. वैसे तो मेरे पास अभी 4 मशीनें हैं, लेकिन उन में एक ही मशीन ऐसी है, जो ठीकठाक प्रोडेक्शन देती है. मैं ने यह बात फरजंद अली से कही तो उन्होंने आप के बारे में बताया कि आप के यहां तैयार मशीनें और कारखाने में तैयार मशीनों से अच्छा काम करती हैं.’’
‘‘मुझे जानने वालों का यही खयाल है.’’ कुदरतउल्लाह ने कहा, ‘‘इस समय मेरे पास 3 मशीनें हैं, जिन्हें मैं एक साथ बेचना चाहता हूं. जो आदमी तीनों मशीनें एक साथ खरीदेगा मैं उसी को बेचूंगा.’’
‘‘ऐसा क्यों?’’ निसार ने हैरानी से कहा, ‘‘भई मुझे तो 2 ही मशीनें चाहिए.’’
‘‘बाकी बची एक मशीन का मैं क्या करूंगा? दरअसल मैं अपना कारखाना कहीं और शिफ्ट करना चाहता हूं.’’
‘‘क्यों…? लोग बाहर से आ कर यहां कारखाने लगाते हैं और आप यह शहर छोड़ कर कहीं और जा रहे हो. मशीनें तैयार करने के लिए यहां जैसा कच्चा माल शायद कहीं और नहीं मिलेगा?’’
‘‘कच्चा माल तो वाकई यहां बड़ी आसानी से और सस्ता मिल जाता है, लेकिन यहां के कच्चे माल से तैयार की गई मशीनें जल्दी बिकती नहीं. लोग इन्हें कम ही खरीदते हैं. वजह शायद यह है कि यहां की मशीनें उन के दिल में नहीं उतरतीं.’’
‘‘खैर, यह लंबी बहस का विषय है,’’ निसार ने कहा, ‘‘चूंकि मैं पहली बार आप के यहां आया हूं, इसलिए मुझे मालूम नहीं कि आप की मशीनों की कीमत क्या है. अगर आप बताए तो…’’
‘‘कीमत मशीन के हिसाब से होती हैं. इस समय मेरे पास जो मशीनें हैं, उन में से केवल एक 20 हजार रुपए की है, बाकी की 2 मशीनें 50-50 हजार की हैं.’’
‘‘कीमत कुछ ज्यादा नहीं हैं?’’
‘‘ज्यादा नहीं हैं भाई, मैं बहुत कम बता रहा हूं.’’
‘‘इतनी रकम वसूलने में ही सालों लग जाएंगे. उस के बाद फायदे का नंबर आएगा.’’ निसार ने कहा, ‘‘मेरे पास जो मशीनें हैं, वे 10-15 हजार से ज्यादा की नहीं हैं.’’
‘‘इसीलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो,’’ कुदरतउल्लाह ने कहा, ‘‘मेरी मशीनें ऐसी हैं, जिन के प्रोडेक्शन पर लोग गर्व करते हैं. 3-4 महीने में ही लाभ देने लगती हैं. मेरे साथ जो कारीगर काम करते हैं, उन्हें मेरी मशीनों का बहुत अच्छा अनुभव है.’’
‘‘मैं ने यह तो नहीं कहा कि तुम्हारी मशीनें फायदा नहीं देंगी.’’ निसार ने दबे लहजे में कहा, ‘‘लेकिन मेरे पास उतनी रकम नहीं हैं, जितनी तुम मांग रहे हो. तीनों मशीनों की कीमत एक लाख 20 हजार रुपए होती है ऊपर से आप तीनों मशीनें एक साथ बेचना चाहते हैं.’’
‘‘इस कारोबार में उधार बिलकुल नहीं चलता. वैसे भी मैं यह शहर ही छोड़ कर जा रहा हूं, इसलिए पैसे भी नकद चाहिए.’’
‘‘क्या तुम मुझे मशीनें दिखा सकते हो?’’
‘‘कारखानों में ले जा कर दिखाना तो मुश्किल है, क्योंकि कारखाना दिखाना हमारे उसूल के खिलाफ है.’’ कुदरतउल्लाह ने कहा, ‘‘मेरे पास मशीनों की तसवीरें हैं, उन्हें देख कर आप को अंदाजा हो जाएगा कि मेरे कारीगरों ने इन पर कितनी मेहनत की हैं.’’
निसार चौधरी कुदरतउल्लाह से तसवीरें ले कर एकएक कर के ध्यान से देखने लगा. वाकई उन मशीनों को तैयार करने में काफी मेहनत की गई थी. निसार ने तसवीरों को उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता कि अभी आप मुझ से 70 हजार रुपए ले लें और बाकी की रकम बाद में.’’
‘‘मेरी एक बात मानोगे?’’ कुदरतउल्लाह ने कहा.
‘‘एक नहीं, आप की 10 बातें मानूंगा.’’ निसार ने खुशदिली से कहा.
‘‘फरजंद अली आप का दोस्त है न?’’
‘‘हां, मेरे उन से बहुत अच्छे संबंध हैं.’’
‘‘तो ऐसा करो कि उधार करने के बजाए बाकी रकम उस से उधार ले कर दे दो.’’
‘‘भाई साहब, वह ऐसे ही रुपए नहीं देता, मोटा ब्याज लेता है. जबकि मैं ब्याज पर रकम ले कर कारोबार करना ठीक नहीं समझता. क्योंकि जो कमाई होगी, वह ब्याज अदा करने में ही चली जाएगी.’’
‘‘फिर तो आप का आना बेकार गया,’’ कुदरतउल्लाह ने कहा.
निसार चौधरी उठने ही वाले थे कि उस ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘अच्छा, आप एक काम करो, 30 हजार रुपए का इंतजाम कर के एक लाख रुपए में सौदा कर लो. उस के बाद मुझे बता दो कि मशीनें कहां पहुंचानी है.’’
‘‘ठीक है कोशिश करता हूं. इस वक्त मेरे पास 50 हजार रुपए हैं, इन्हें रख लीजिए.’’ निसार ने 5 सौ रुपए की एक गड्डी निकाल कर कुदरतउल्लाह की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘बाकी रुपए मैं कल पहुंचा दूंगा.’’
‘‘आप शायद मेरी मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं?’’ कुदरतउल्लाह ने गड्डी जेब में रखते हुए कहा, ‘‘वैसे मशीनें कहां पहुंचानी होंगी?’’
‘‘बंदर रोड पर त्रिभुवनलाल जगमल का जो बोर्ड लगा है, उस के सामने वाली गली में मशीनें पहुंचानी हैं.’’ निसार ने कहा, ‘‘बाकी पैसे भी मैं वहीं दे दूंगा.’’
‘‘मशीनें कल रात 11 बजे पहुंच जाएंगी. लेकिन रुपए आप को दिन में देने होंगे. दोटांकी के पास एक शानदार कैफे है. कल दोपहर को मैं वहां पहुंच जाऊंगा. वहीं आ जाना.’’
‘‘क्या आप को मुझ पर विश्वास नहीं है.’’
‘‘यहां विश्वास की बात नहीं है. कारोबार के अपने नियम होते हैं. हमारा कारोबार परचून की दुकान नहीं है कि बेच कर पैसे अदा कर दोगे. इस कारोबार में लेनदेन का अपना अलग नियम है.’’ कुदरतउल्लाह ने एकएक शब्द पर जोर दे कर कहा, ‘‘अभी आप की मशीनें कहां लगी हैं?’’
‘‘मेरी मशीनें अच्छी जगहों पर लगी हैं. बड़ी मुश्किल से उन जगहों को मैं ने पगड़ी की मोटी रकम दे कर हासिल किया था. मुंबई में आजकल जगह की बड़ी कमी है. लोगों ने पहले से ही अच्छी जगहों पर कब्जा जमा रखा है.’’
‘‘मेरे पास अपनी एक जगह भी है, अगर आप वहां अपनी मशीन लगाना चाहें तो…?’’
‘‘उस जगह के भी आप मुंहमांगे दाम लेंगे?’’
‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है,’’ कुदरतउल्लाह ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘अगर आप चाहें तो मैं उसे किराए पर भी दे सकता हूं. किराया आप मेरे घर पहुंचा दिया करना.’’
‘‘जगह की बात मैं अभी नहीं कर सकता. इस बारे में फरजंद अली से मेरी बात चल रही है. उस के पास भी अच्छी…’’
‘‘अगर फरजंद अली से आप की बात चल रही है तो ठीक है.’’ कुदरतउल्लाह ने निसार की बात काटते हुए कहा, ‘‘चलो, अब चला जाए. सौदा तय हो ही गया है.’’
दोनों कमरे से बाहर आए तो उन का स्वागत ट्रैफिक के शोर ने किया. वे दोनों फुटपाथ पर आ कर खडे हो गए. निसार ने कहा, ‘‘आप कहां से बस पकड़ोगे?’’
‘‘मुझे तो उस सामने के चौराहे से बस मिल जाएगी.’’ कुदरतउल्लाह ने सामने इशारा करते हुए कहा, ‘‘और आप को?’’
‘‘चलिए पहले आप को बस पर बैठा दूं.’’
‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है. मैं चला जाऊंगा.’’ कुदरतउल्लाह ने लालबत्ती की ओर देखते हुए कहा.
‘‘इंसानियत के भी कुछ फर्ज होते हैं जनाब,’’ निसार चौधरी ने गंभीरता से कहा.
फुटपाथ के दाईं ओर एक पतली सी गली के नुक्कड़ पर एक जूस की दुकान के जगमग करते बोर्ड के पास वाले खंभे पर पोलियो से सुरक्षित रखने के संदेश वाला बोर्ड टंगा था. कुदरतउल्लाह उसे ध्यान से पढ़ने लगा, इसलिए उस ने निसार को जवाब में कुछ नहीं कहा. दोनों खामोशी से आगे बढ़ने लगे. जैसे ही वे चौराहे पर पहुंचे तो मसजिद में अजान की आवाज सुनाई दी.
‘‘मेरा खयाल है, कहीं आसपास ही मसजिद है?’’ कुदरतउल्लाह ने निसार की ओर देखते हुए कहा.
‘‘हम लोग जहां जा रहे हैं, उसी चौराहे के दाईं ओर मसजिद है.’’
‘‘तो पहले वहीं चलें…’’
तभी दर्द में डूबी एक आवाज सुनाई दी, ‘‘अल्लाह के नाम पर कुछ दे दे बाबा.’’
‘‘चलो हरी बत्ती हो गई है.’’ चौधरी ने आगे बढ़ते हुए कहा तो कुदरतउल्लाह का ध्यान भंग हुआ.
कुदरतउल्लाह रुक गया. उस के सामने थोड़ी दूर पर 10-11 साल का एक लड़का चौराहे के कोने में गंदे से कपड़े पर लेटा था. उस के दोनों पैर घुटनों से नीचे लकड़ी की तरह सूखे हुए थे. बायां हाथ भी लकड़ी जैसा हो गया था.
उस मासूम का ऊपरी होंठ आधे से अधिक कटा हुआ था, जिस से उस के पीलेपीले दांत नजर आ रहे थे. उस की एक आंख का पपोटा कटा हुआ था, जिस से उस की आंख बड़े भयानक अंदाज में बाहर निकली हुई थी. उसे देख कर घृणा और दया के भाव गड्डमड्ड हो रहे थे.
कुदरतउल्लाह ने उस लड़के की ओर अंगुली से इशारा करते हुए कहा, ‘‘इसे देख रहे हो चौधरी?’’
‘‘हां हां, देख रहा हूं.’’
‘‘यह मेरे कारखाने की तैयार की हुई मशीन हैं.’’ कुदरतउल्लाह ने गर्व से सीना फुलाते हुए कहा, ‘‘यह मशीन पिछले साल मैं ने ही फरजंद अली को बेची थी. यह सुबह से देर रात तक बड़ी आसानी से हजार 2 हजार रुपए छाप लेती है. तुम्हें जो 2 मशीन दे रहा हूं वे भी इस मशीन से किसी भी तरह कम नहीं हैं. अगर तुम उन्हें अच्छी जगह फिट कर दोगे तो वे भी इसी तरह नोट छापेंगी.’’
‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’
‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’
‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’
‘‘मुझे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’
‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.
‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.
‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.
‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’
‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’
‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.
‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’
‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’
‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.
लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’
‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.
‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’
‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,
‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’
‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.
इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.
गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.
पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.
छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.
तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.
बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’
ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.
बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?
मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’
तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’
तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’
‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’
तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.
‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.
लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’
‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.
‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.
‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’
‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’
‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’
‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.
‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’
लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.
जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’
‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’
‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’
‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’
‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’
‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’
‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’
‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मु झे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.