रूह का स्पंदन – भाग 1: क्या था दीक्षा ने के जीवन की हकीकत

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

पैर की जूती – भाग 1: क्या बहु को मिल पाया सास-ससुर का प्यार

होली के रंगों की तरह, वह ससुराल में यह उम्मीद ले कर आई थी कि उसे यहां अपने शौहर और सासससुर का प्यार मिलेगा, आने वाला समय इंद्रधनुषी रंगों की तरह आकर्षक और रंगबिरंगा होगा. लेकिन यहां आते ही उस की सारी आशाएं लुप्त हो गईं. हर वक्त ढेर सारा काम और ऊपर से मारपीट व गालियों की बौछार. इन यातनाओं से वह भयभीत हो उठी. न जाने कब ये कयामत के बादल बन कर उस पर टूट पड़ें. करीम से पहले उस के रिश्ते की बात उस के फुफेरे भाई अमजद से चली थी. पर अमजद ने इस रिश्ते को यह कह कर ठुकरा दिया कि वे भाईबहन हैं और वह भाईबहन के निकाह को ठीक नहीं समझता.

करीम से उस के रिश्ते की बात जब महल्ले में उड़ी तो महल्ले के सभी बुजुर्ग खुश हो उठे और बोले, ‘‘वाह, लड़की हो जरीना जैसी. फौरन मांबाप का कहना मान गई. वैसे आजकल की लड़कियां तौबातौबा, कितनी नाफरमान हो गई हैं. सचमुच जरीना जैसी लड़की सब को नहीं मिलती.’’

बुजुर्गों की बातों से छुटकारा मिलता तो सहेलियां उस पर कटाक्ष करतीं, ‘‘वाह बन्नो, अपने हबीब से मिलने की इतनी जल्दी तैयारी कर ली? अरी, थोड़े दिन तो और सब्र किया होता. दीवाली व ईद तो मना ली, होली भी मना कर जाती तो क्या फर्क पड़ जाता? ’’ और वह गुस्से व शर्म से कसमसा कर रह जाती.

कुछ दिनों बाद उस की शादी बड़ी धूमधाम से हो गई. शादी से पहले उस ने एक ख्वाब देखा था. ख्वाब यह था कि वह करीम को अपने मायके लाएगी और होली का त्योहार उल्लास से मनाएगी. पर उस का सपना, सपना ही रह गया.

उस के मायके में मुसलिम त्योहारों को जितनी खुशी से मनाया जाता है उतनी ही हिंदू त्योहारों को भी. वहां त्योहार मनाते समय यह नहीं देखा जाता कि उस का ताल्लुक उन के अपने मजहब से है या किसी दूसरे धर्म से. वे तो इस देश में मनाए जाने वाले प्रत्येक त्योहार को अपना त्योहार मानते हैं पर उस की ससुराल में तो सब उलटा ही था. उसे ऐसा पति मिला, जो पत्नी की इज्जत करना भी नहीं जानता था. वह तो उसे अपने पैर की जूती समझता था.

शादी के कुछ महीने बाद की बात है. उस दिन सब्जी में नमक कुछ ज्यादा हो गया था. करीम के निवाला उठाने से पहले सासससुर ने निवाला उठाया और मुंह में लुकमा डालते ही चीख पड़े, ‘‘यह सब्जी है या जहर? क्या करीम की शादी हम ने यही दिन देखने के लिए की थी?’’

यह सुनते ही करीम भड़क उठा था, ‘‘नालायक, खाना पकाना तक नहीं आता? क्या तेरे मांबाप ने तुझे यही सिखाया था? इस महंगाई के जमाने में इतनी बरबादी. चल, सारी सब्जी तू ही खा, नहीं तो मारमार कर खाल खींच लूंगा.’’

उसे विवश हो कर पतीली की पूरी सब्जी अपने गले से उतारनी पड़ी थी. इनकार करती तो करीम के हाथ में जो आता, उस से मारमार कर उस का भुकस निकाल देता.

इस घटना से भयभीत हो कर वह इतनी बीमार पड़ी कि उस के लिए दो कदम चलना भी मुश्किल हो गया.

पर करीम के मांबाप यही कहते, ‘‘काम के डर से बहाना बना रही है. चल उठ, काम कर, हमारे घर में तेरे ये नखरे नहीं चलेंगे.’’

उसे लाचार हो कर बिस्तर से उठना पड़ता. कदमकदम पर चक्कर आता तो पूरा घर खिल्ली उड़ा कर कहता, ‘‘देखा, कुलच्छन कैसी नजाकत दिखा रही है.’’

अंत में हार कर उस ने करीम से कह दिया, ‘‘देखिए, मुझे कुछ दिनों के लिए मायके भिजवा दीजिए. मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘वाह, क्या मैं तुझे इसलिए निकाह कर के लाया हूं कि तू अपने मांबाप के यहां अपनी हड्डियां गलाए? अगर फिर कभी जाने का नाम लिया तो ठीक नहीं होगा.’’

इन जानवरों के बीच में वह विवश सी हो गई. घर जाने का  नाम उस की जबान पर आते ही ये लोग भूखे गिद्ध की तरह उस के शरीर पर टूट पड़ते. अगर उस की पड़ोसिन निर्मला उस का ध्यान न रखती और उसे वक्त पर चोरीछिपे दवा ला कर न देती तो वह कभी की इस दुनिया से कूच कर गई होती.

करीम ने उस दिन फिर उसे बुरी तरह मारा था. इस स्थिति को सहतेसहते उसे करीब 3 साल हो गए थे. उस की स्थिति उस वहशी कसाई के हाथों में बंधी बकरी की तरह थी जिस का हलाल होना तय था.

इस मुसीबत के समय उसे एक ही हमदर्द चेहरा नजर आता और वह था अमजद का. यह सही था कि उस ने ममेरी बहन होने की वजह से उस से शादी करने से इनकार कर दिया था, पर जब उसे यह पता चला कि जरीना का निकाह करीम से हो रहा है, तो वह दौड़ादौड़ा मामू के पास आया था और उन से बोला था, ‘अरे मामृ, जरीना बहन को कहां दे रहे हो? वह लड़का तो बिलकुल गधा है. अपनी समझ से तो काम ही लेना नहीं जानता. जो मांबाप कहते हैं, बस, आंख मींच कर वही करने लगता है, चाहे वह ठीक हो या गलत. जरीना वहां जा कर कभी खुश नहीं रह सकती. वे लोग उसे अपने पैर की जूती बना कर रखेंगे.’

पर अमजद की बात को किसी ने नहीं माना और जो होना था, वही हुआ. विदा के वक्त अमजद ने उस के सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा था, ‘पगली, तू रोती क्यों है? अगर तुझे कभी जरूरत पड़े तो अपने इस भाई को याद कर लेना. तू फिक्र मत कर, मैं तेरे हर दुखदर्द में काम आऊंगा.’

जरीना ने किसी तरह जीवन के 3 साल बिता दिए पर अब उस से बरदाश्त नहीं होता था. उस ने सोचा, अब उसे उस शख्स का दामन थामना ही होगा, जो सही माने में उस का हमदर्द है. फरजाना भाभी यानी अमजद की बीवी भी कई बार उस के घर आईं. वे उस की खैरियत पूछतीं तो जरीना हमेशा हंस कर यही कहती, ‘ठीक हूं, भाभी.’

और कई बार तो ऐसा हुआ कि जब वह मार खा कर सिसक रही होती, ठीक उसी वक्त फरजाना वहां पहुंच जाती. ऐसे वक्त चेहरे पर मुसकराहट लाना बड़ा कठिन होता है. भाभी भी चेहरा देख कर समझ जाती थीं पर घर के अन्य लोगों की मौजूदगी में कुछ बोल नहीं पाती थीं. आखिर वे चुपचाप चली जातीं. कुछ अरसे बाद अमजद का दूसरे शहर में तबादला हो गया. एक रहासहा आसरा भी दूर हो गया.

उस रोज घर में कोई नहीं था. मार और दर्द से उस का बदन टूट रहा था. गुस्से से उस का शरीर कांपने लगा. उस ने अपने वहशी पति के नाम एक लंबा खत लिखा और उसे मेज पर रख कर घर से निकल गई.

2 बजे की ट्रेन पकड़ कर शाम को वह अमजद के शहर पहुंची. रेलवेस्टेशन से टैक्सी ले कर घर पहुंचतेपहुंचते अंधेरा हो गया था. टैक्सी से उतर कर वह बुझे मन से घर की ड्योढ़ी की ओर बढ़ गई.

सामने से आती फरजाना भाभी उसे देखते ही चौंकीं, ‘‘अरी जरीना, तू कब आई?’’

वह भाभी को सलाम कर सोफे पर बैठते हुए धीमे से बोली, ‘‘बस, सीधे  घर से चली आ रही हूं, भाभी.’’

फरजाना उस के मैले कुचैले कपड़ों और रूखे बालों को एकटक देखती रहीं. फिर क्षणभर बाद बोली, ‘‘यह अपनी क्या हालत बना रखी है, जरीना?’’

भाभी के शब्दों से उस के धैर्य का बांध टूट गया. जो आंसू अब तक जज्ब थे, वे फरात नदी की तरह बह निकले.

‘‘अरी, तू रो रही है,’’ भाभी ने दिलासा देते हुए उस की आंखों से आंसू पोंछ दिए, ‘‘चल जरीना, हाथमुंह धो, कपड़े बदल और जो कुछ हुआ उसे भूल जा.’’

मेरा संसार – भाग 1 : अपने रिश्ते में फंसते हुए व्यक्ति की कहानी

आज पूरा एक साल गुजर गया. आज के दिन ही उस से मेरी बातें बंद हुई थीं. उन 2 लोगों की बातें बंद हुई थीं, जो बगैर बात किए एक दिन भी नहीं रह पाते थे. कारण सिर्फ यही था कि किसी ऐसी बात पर वह नाराज हुई जिस का आभास मुझे आज तक नहीं लग पाया.

मैं पिछले साल की उस तारीख से ले कर आज तक इसी खोजबीन में लगा रहा कि आखिर ऐसा क्या घट गया कि जान छिड़कने वाली मुझ से अब बात करना भी पसंद नहीं करती? कभीकभी तो मुझे यह भी लगता है कि शायद वह इसी बहाने मुझ से दूर रहना चाहती हो. वैसे भी उस की दुनिया अलग है और मेरी दुनिया अलग. मैं उस की दुनिया की तरह कभी ढल नहीं पाया. सीधासादा मेरा परिवेश है, किसी तरह का कोई मुखौटा पहन कर बनावटी जीवन जीना मुझे कभी नहीं आया. सच को हमेशा सच की तरह पेश किया और जीवन के यथार्थ को ठीक उसी तरह उकेरा, जिस तरह वह होता है. यही बात उसे पसंद नहीं आती थी और यही मुझ से गलती हो जाती. वह चाहती है दिल बहलाने वाली बातें, उस के मन की तरह की जाने वाली हरकतें, चाहे वे झूठी ही क्यों न हों, चाहे जीवन के सत्य से वह कोसों दूर हों. यहीं मैं मात खा जाता रहा हूं. मैं अपने स्वभाव के आगे नतमस्तक हूं तो वह अपने स्वभाव को बदलना नहीं चाहती. विरोधाभास की यह रेखा हमारे प्रेम संबंधों में हमेशा आड़े आती रही है और पिछले वर्ष उस ने ऐसी दरार डाल दी कि अब सिर्फ यादें हैं और इंतजार है कि उस का कोई समाचार आ जाए. जीवन को जीने और उस के धर्म को निभाने की मेरी प्रकृति है अत: उस की यादों को समेटे अपने जैविक व्यवहार में लीन हूं, फिर भी हृदय का एक कोना अपनी रिक्तता का आभास हमेशा देता रहता है

तभी तो फोन पर आने वाली हर काल ऐसी लगती हैं मानो उस ने ही फोन किया हो. यही नहीं हर एसएमएस की टोन मेरे दिल की धड़कन बढ़ा देती हैं, किंतु जब भी देखता हूं मोबाइल पर उस का नाम नहीं मिलता. मेरी इस बेचैनी और बेबसी का रत्तीभर भी उसे ज्ञान नहीं होगा, यह मैं जानता हूं क्योंकि हर व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है और अपनी तरह के विचारों से अपना वातावरण तैयार करता है व उसी की तरह जीने की इच्छा रखता है. मेरे लिए मेरी सोच और मेरा व्यवहार ठीक है तो उस के लिए उस की सोच और उस का व्यवहार उत्तम है. यही एक कारण है हर संबंधों के बीच खाई पैदा करने का. दूरियां उसे समझने नहीं देतीं और मन में व्यर्थ विचारों की ऐसी पोटली बांध देती है जिस में व्यक्ति का कोरा प्रेममय हृदय भी मन मसोस कर पड़ा रह जाता है. जहां जिद होती है, अहम होता है, गुस्सा होता है. ऐसे में बेचारा प्रेम नितांत अकेला सिर्फ इंतजार की आग में झुलसता रहता है, जिस की तपन का एहसास भी किसी को नहीं हो पाता. मेरी स्थिति ठीक इसी प्रकार है. इन 365 दिनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उस की याद न आई हो, उस के फोन का इंतजार न किया हो. रोज उस से बात करने के लिए मैं अपने फोन के बटन दबाता हूं किंतु फिर नंबर को यह सोच कर डिलीट कर देता हूं कि जब मेरी बातें ही उसे दुख पहुंचाती हैं तो क्यों उस से बातों का सिलसिला दोबारा प्रारंभ करूं? हालांकि मन उस से संपर्क करने को उतावला है. बावजूद उस के व्यवहार ने मेरी तमाम प्रेमशक्ति को संकुचित कर रख दिया है. मन सोचता है, आज जैसी भी वह है, कम से कम अपनी दुनिया में व्यस्त तो है, क्योंकि व्यस्त नहीं होती तो उस की जिद इतने दिन तक तो स्थिर नहीं रहती कि मुझ से वह कोई नाता ही न रखे.

संभव है मेरी तरह वह भी सोचती हो, किंतु मुझे लगता है यदि वह मुझ जैसा सोचती तो शायद यह दिन कभी देखने में ही नहीं आता, क्योंकि मेरी सोच हमेशा लचीली रही है, तरल रही है, हर पात्र में ढलने जैसी रही है, पर अफसोस वह आज तक समझ नहीं पाई. मई का सूरज आग उगल रहा है. इस सूनी दोपहर में मैं आज घर पर ही हूं. एक कमरा, एक किचन का छोटा सा घर और इस में मैं, मेरी बीवी और एक बच्ची. छोटा घर, छोटा परिवार. किंतु काम इतने कि हम तीनों एक समय मिलबैठ कर आराम से कभी बातें नहीं कर पाते. रोमी की तो शिकायत रहती है कि पापा का घर तो उन का आफिस है. मैं भी क्या करूं? कभी समझ नहीं पाया. चूंकि रोमी के स्कूल की छुट्टियां हैं तो उस की मां ज्योति उसे ले कर अपने मायके चली गई है. पिछले कुछ वर्षों से ज्योति अपनी मां से मिलने नहीं जा पाई थी. मैं अकेला हूं. यदि गंभीरता से सोच कर देखूं तो लगता है कि वाकई मैं बहुत अकेला हूं, घर में सब के रहने और बाहर भीड़ में रहने के बावजूद.

किंतु निरंतर व्यस्त रहने में उस अकेलेपन का भाव उपजता ही नहीं. बस, महसूस होता है तमाम उलझनों, समस्याओं को झेलते रहने और उस के समाधान में जुटे रहने की क्रियाओं के बीच, क्योंकि जिम्मेदारियों के साथ बाहरी दुनिया से लड़ना, हारना, जीतना मुझे ही तो है. आज छुट्टी है और कोई अपना दफ्तर का काम भी नहीं है इसलिए इस दोपहर की सूनी सी तपन के बीच खुद को देख पा रहा हूं. दूरदूर तक सिर्फ सूरज की आग और अपने अंदर भी विचारों की एक आग, ‘उस के’ निरंतर दिए जाने वाले दर्द की आग. गरमी से राहत पाने का इकलौता साधन कूलर खराब हो चुका है जिसे ठीक करना है, अखबार की रद्दी बेचनी है, दूध वाले का हिसाब करना है, ज्योति कह कर गई थी. रोमी का रिजल्ट भी लाना है और इन सब से भारी काम खाना बनाना है, और बर्तन भी मांजना है. घर की सफाई पिछले 2 दिनों से नहीं हुई है तो मकडि़यों ने भी अपने जाले बुनने का काम शुरू कर दिया है.

उफ…बहुत सा काम है…, ज्योति रोज कैसे सबकुछ करती होगी और यदि एक दिन भी वह आराम से बैठती है तो मेरी आवाज बुलंद हो जाती है…मानो मैं सफाईपसंद इनसान हूं…कैसा पड़ा है घर? चिल्ला उठता हूं. ज्योति न केवल घर संभालती है, बल्कि रोमी के साथसाथ मुझे भी संभालती है. यह मैं आज महसूस कर रहा हूं, जब अलमारी में तमाम कपडे़ बगैर धुले ठुसे पडे़ हैं. रोज सोचता हूं, पानी आएगा तो धो डालूंगा. मगर आलस…पानी भी कहां भर पाता हूं, अकेला हूं तो सिर्फ एक घड़ा पीने का पानी और हाथपैर, नहाधो लेने के लिए एक बालटी पानी काफी है. ज्योति आएगी तभी सलीकेदार होगी जिंदगी, यही लगता है.

वे 3 दिन – भाग 1 : इंसान अपनी सोच से मौडर्न बनता है

‘‘मेरी प्यार बूआ, आप तो एकदम जंच रही हो, बिलकुल पंजाबी लड़कियों की तरह. पंजाबी सलवार… लिपस्टिक… क्या बात है,’’ नव्या ने दिल्ली से आई अपनी बूआ को कुहनी मारते हुए छेड़ा और फिर उन के गले लग गई और उन के गालों को चूम लिया.

नव्या की बूआ निकिता को उन के भैया ने कल फोन कर तुरंत बुढ़ाना आ जाने को कहा था.

‘हैलो निकिता, हम लोग 3 दिन के लिए शिमला जा रहे हैं. नव्या के फाइनल एग्जाम हैं और साथ में उस की तबीयत भी ठीक नहीं है. तुम हमारे पीछे से उस के पास आ जातीं, तो हमें परेशानी नहीं होती. अब जवान लड़की है, तो अकेले या आसपड़ोस वालों के भरोसे भी छोड़ कर जाने को मन नहीं मान रहा है.’

‘नहीं भाईसाहब, आप बिलकुल बेफिक्र हो कर जाइए, मैं कल सुबह की किसी बस से शाम तक वहां पहुंच जाऊंगी.’

‘‘क्या हुआ री नव्या तुझे? भाई साहब बता रहे थे कि तेरी तबीयत ठीक नहीं है,’’ निकिता बूआ ने आते ही चिंतित आवाज में पूछा, ‘‘और तू ने यह क्या पहन रखा है… यह फटी जींस और कटे शोल्डर वाला टौप. तुम यह सब कब से पहनने लगी?’’

‘‘अरे, कुछ नहीं बूआ, वही मंथली पीरियड…’’

‘‘मतलब, तू टाइम से है?’’ निकिता बूआ उछल कर खड़ी हो गईं और अपना गाल पोंछने लगीं, जहां पर एक मिनट पहले नव्या ने चूमा था. जैसे उन के गाल पर किसी ने कीचड़ मल दिया हो.

‘‘तेरी मां ने तुझे इतना भी नहीं सिखाया है कि इन दिनों में किसी नहाएधोए को छूना नहीं चाहिए. अब मुझे फिर से नहा कर आना पड़ेगा.’’

‘‘सौरी बूआ, आप पहले चाय तो ले लीजिए. मैं ने आप के लिए अदरक वाली चाय बना दी है और साथ में आप की पसंद के पालक के पकौड़े भी हैं,’’ बूआ का मूड अच्छा करने की गरज से नव्या ने बात बदलते हुए कहा.

‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या? 3 दिन रसोई में जाना तो दूर उस के आसपास भी नहीं फटकना चाहिए. तुझे लगता है कि मैं तेरे हाथ का छुआ पानी भी पीऊंगी?’’ अब निकिता बूआ की आवाज कुछ कठोर हो गई थी.

नव्या को बूआ के गरममिजाज और दकियानूसी विचारों के बारे में मालूम था, जो दिल्ली में रहते हुए भी मानो बुढ़ाना में रह रही थीं, पर उन का ऐसा रूप देखने का मौका पहली बार पड़ा था.

नव्या कुछ समय के लिए सहम गई, फिर माहौल को बदलने के लिए अपनी बूआ को लाड़ लड़ाते हुए उन का हाथ पकड़ कर उन्हें सोफे पर बिठाने लगी.

‘‘अरे, तुझे अभी तो मना किया था मुझे छूने को… पर तू है कि तुझे कोई बात समझ ही नहीं आ रही है,’’ बूआ चिल्लाईं.

‘‘बूआ, मुझे इन सब चीजों की आदत नहीं है न, तो बारबार भूल जाती हूं,’’ नव्या ने निकिता के कंधे से अपना हाथ हटा लिया और उन के साथसाथ खुद भी सोफे पर बैठ गई.

नव्या के बैठते ही बूआ फिर से तुनक गईं, ‘‘अगर ये 3 दिन तुम थोड़ेबहुत नियम मान लोगी, तो तुम पर आसमान टूट कर गिर जाएगा क्या?

‘‘अच्छा है, अम्मां यह सब देखने से पहले ही इस दुनिया से विदा हो गईं, नहीं तो वे यह सब देख कर जीतेजी मर जातीं. तेरी मां का राज आते ही पूरे घर में अपवित्रता आ गई.

‘‘मुझे कहना तो नहीं चाहिए, पर जिस घर में ऐसा पाप हो रहा हो, वहां कहां से कुलदीपक आता. अब चाहे देवीदेवताओं की लाख मन्नतें कर लो, कुछ हासिल नहीं होने वाला है, जब घर में ही ऐसा अनर्थ.

‘‘अम्मां थीं तब तक शहर से ब्याह कर आई तेरी संस्कारहीन मां को सबकुछ मानना पड़ा, चाहे डंडे के जोर पर ही. पर अब तो लगता है, यहां जंगल राज आ गया है.’’

निकिता बूआ इस बार 8-9 साल बाद बुढ़ाना आई थीं. घर का खाका ही बदल गया था. तख्त की जगह सोफा था, टीवी भी नया था.

अब तक सब्र से काम लेती हुई नव्या को भी गुस्सा आ गया. घर से निकलते हुए उस की मम्मी द्वारा दी गई सारी नसीहतों को भी वह भूल गई, क्योंकि अब बात उस की मम्मी के संस्कारों पर आ गई थी.

‘‘बूआ, मम्मी के संस्कारों की तो आप बात न ही करें तो बेहतर होगा. भूल गईं आप अपना समय… जब पहली बार अपने कपड़ों पर धब्बे देख कर कितना डर गई थीं आप.

आप को लगा था कि आप कैंसर जैसी किसी खतरनाक बीमारी की चपेट में आ गई हैं. आप रोतेरोते दादी के पास गई थीं और पूजा करती हुई दादी ने आप के कपड़े देख कर आप को पुचकारने के बजाय अपने से दूर धकेल दिया था.

अब क्या करूं मैं – भाग 1

‘‘भाभी, शीशे पर क्या गुस्सा निकाल रही हो, जो हो रहा है उसे होने दो. मैं तो कई साल पहले से ही जानती थी. आज का यह दिन तुम्हें न देखना पड़े इसीलिए तो सदा टोकती रही हूं कि अपना व्यवहार इतना भी हलका न बनाओ…’’

‘‘मेरा व्यवहार हलका है?’’ सदा की तरह भाभी ने आंखें तरेरीं, ‘‘तू होगी हलकी…तेरा सारा खानदान होगा हलका…’’

भैया और भतीजा पास ही खड़े थे. मेरी आंखें उन से मिलीं. शरम आ रही थी उन्हें अपनी पत्नी और मां के व्यवहार पर. आज बरसों बाद मैं मायके आई हूं. नाराज थी भाभीभाई से, ऐसा कहना उचित नहीं होगा, मैं तो बस, भाभी के व्यवहार से तंग आ कर मायके को त्याग चुकी थी.

भाभी का ओछा व्यवहार और ऊपर से भैया का चुपचाप सब सुनते रहना जब तक सहा गया सहती रही और जब लगा अब नहीं सह सकती, पीठ दिखा दी. उम्र के इस पड़ाव पर, जब मैं भी सास बन चुकी हूं और भाभी भी दादीनानी, बच्चों की तरह उन का लड़ पड़ना अभी गया नहीं है. आज भी उन में परिपक्वता नहीं आई.

‘‘मेरे खानदान को छोड़ो भाभी, तुम्हारामेरा खानदान अलगअलग कहां है, जो खानदान पर उतर आई हो. आधी उम्र मैं इस खानदान की बेटी रही हूं, मेरा खानदान तो यह भी है, जो आज तुम्हारा है. हमारी उम्र इस तरह लड़ने की नहीं रही जो हम ऊलजलूल बकते रहें. आज सवाल हमारे बच्चों का है कि हमारे व्यवहार से उन का अनिष्ट हो, ऐसा नहीं होना चाहिए.’’

‘‘अरे, मेरी बेटी का सर्वनाश तो तेरे कारण हो रहा है चंदा, तेरी ही ससुराल के हैं न उस के ससुराल वाले…तू ही उस का पैर वहां लगने नहीं देती.’’

‘‘मेरी ससुराल में जब बेटी का रिश्ता किया था तब क्या मुझ से पूछा था तुम ने, भाभी? भैया, आप ने भी जरूरी नहीं समझा मुझे बताना कि लड़का कितना पढ़ालिखा है, कोई बुरी आदत तो  नहीं. भला मुझ से बेहतर कौन बताता आप को जिस के सामने वह पलाबढ़ा है… तब तो मैं आप को दुश्मन नजर आती थी कि कहीं रिश्ता ही न तुड़वा दूं.

‘‘मुझे तो पता ही तब चला था जब मेरी चचिया सास ने शादी का कार्ड हाथ में थमा दिया था. क्या कहती मैं तब अपनी ससुराल में कि आने वाली मेरी सगी भतीजी है, जिस की मां और बाप ने मुझे एक बार पूछा तक नहीं.’’

गला भर आया मेरा, ‘‘जानती हो भाभी, मेरी चचिया सास ने भी इसी अनबन का फायदा उठाया और अपना खोटा सिक्का चला लिया. अब जो हो रहा है उस में मेरा दोष क्यों निकाल रही हो. तुम्हारी बच्ची वहां सुखी नहीं है तो उस में मैं क्या करूं? न मैं कल किसी गिनती में थी न ही मैं आज किसी गिनती में हूं.’’

‘‘उसी का बदला ले रही है न चंदा, तू चाहती है कि मेरी बेटी तेरी जूती के नीचे रहे…’’

‘‘मेरा घर तो उस के घर से 50 किलोमीटर दूर है भाभी. भला मेरी जूती के नीचे वह कैसे रह सकती है? सच तो यह है कि जो कलह तुम सदा यहां डालती रही हो उसी को अपनी बच्ची के संस्कारों में गूंथ कर तुम ने साथ बांध दिया है. एक तो सोना उस पर सुहागा. पति अच्छा होता तो पत्नी की आदतों पर परदा डालता रहता…जिस तरह भैया डालते रहे हैं लेकिन वहां वह भी तो सहारा नहीं है… शराबी, चरित्रहीन पति, पत्नी को नंगा करने में लगा रहता है और पत्नी, पति के परदे तारतार करने से नहीं चूकती. उस पर आग में घी का काम तुम करती हो.

‘‘बेटी का घर बसाना चाहती हो तो कम से कम अब तो जागो और बेटी को समझाओ कि समझदारी से काम ले. घर में रुपएपैसे की कमी नहीं है. लड़का अच्छा नहीं, लेकिन सासससुर तो लड़की को सिरआंखों पर रखते हैं. पति को समझाए, उसे सुधारने का प्रयास करे.’’

‘‘कैसे समझाए उसे मेरी बेटी? उस के तो 10-10 हजार चक्कर हैं. कईकई दिन वह घर ही नहीं आता. ऊपर से तू भी उसी को दोष देती है.’’

‘‘तो क्या करूं मैं? कोई बीच का रास्ता निकालना होगा न हमें. कम से कम घर तो संभाल ले तुम्हारी बेटी…सासससुर इज्जतमान देते हैं तो उन्हीं का मान रख कर घर में सुखशांति बनाने की कोशिश करे. मेरे दोष देने या न देने का कोई अर्थ नहीं है भैया, मैं कब उस के घर जाती हूं. तुम ने इतना प्यार ही कहां छोड़ा है कि वह बूआ के घर आना चाहे या मैं ही उसे अपने घर बुलाऊं…तुम्हारे परिवार से दूर ही रहने में मैं अपना भला समझती हूं.’’

मन भर आया मेरा और मैं अतीत में विचरण करने लगी. यही वह घरआंगन है जहां मैं और भैया दिनभर धमाचौकड़ी मचाते थे. अच्छा संस्कारी परिवार था हमारा मगर भाभी के आते ही सब बिखर गया. छोटे दिलोदिमाग की भाभी की जबान गज भर लंबी थी. कुदरत ने शायद लंबी जबान दे कर ही बुद्धि और विवेक की भरपाई करने का प्रयास कर दिया था, जिस का भाभी जम कर इस्तेमाल करती थीं. अवाक् रह जाते थे हम सब. बच्चों की तरह लड़ पड़ती थीं मुझ से. समझ में नहीं आता था कि भाभी का दिमाग इस दिशा में जाता है तो जाता कैसे है.

एक पढ़ालिखा सभ्य इनसान किसी दूसरे पर सीधासीधा आरोप लगाने से पहले हजार बार सोचता है कि बरसों का रिश्ता कहीं टूट ही न जाए, लेकिन भाभी तो अपनी जरा सी चीज आगेपीछे होने पर भी झट से मुझ पर आरोप लगा देती थीं कि मैं ने अपनी आंखों से देखा है.

 

अब पता चलेगा – भाग 1 : क्या कभी रुक पाया राधा और विकास का झगड़ा

28दुबई से संदली उत्साह से भरे स्वर में अपने पापा विकास और मम्मी राधा को बता रही थी,”पापा, मैं आप को जल्दी ही आर्यन से मिलवाउंगी. बहुत अच्छा लड़का है. मेरे साथ उस का एमबीए भी पूरा हो रहा है. हम दोनों ही इंडिया आ कर आगे का प्रोग्राम बनाएंगे.”

विकास सुन कर खुश हुए, कहा,”अच्छा है,जल्दी आओ, हम भी मिलते हैं आर्यन से. वैसे कहां का है वह?”

”पापा, पानीपत का.”

”अरे वाह, इंडियन लड़का ही ढूंढ़ा तुम ने अपने लिए. तुम्हारी मम्मी को तो लगता था कि तुम कोई अंगरेज पसंद करोगी.‘’

संदली जोर से हंसी और कहा,”मम्मी को जो लगता है, वह कभी सच होता है क्या? फोन स्पीकर पर है पर मम्मी कुछ क्यों नहीं बोल रही हैं?”

”शायद उसे शौक लगा है आर्यन के बारे में जान कर.”

राधा का मूड बहुत खराब हो चुका था. वह सचमुच जानबूझ कर कुछ नहीं बोलीं.

जब विकास ने फोन रख दिया तो फट पड़ीं,”मुझे तो पता ही था कि यह लड़की पढ़ने के बहाने से ऐयाशियां करेगी. अब पता चलेगा पढ़ने भेजा था या लड़का ढूंढ़ने.”

”क्या बात कर रही हो, जौब भी मिल ही जाएगा. अब अपनी पसंद से लड़का ढूंढ़ लिया तो क्या गलत किया? संदली समझदार है, जो फैसला करेगी, अच्छा ही होगा.”

“अब पता चलेगा कि इस लड़की की किसी से निभ नहीं सकती, न किसी काम की अकल है, न कोई तमीज.और जो यह लोन ले रखा है, शादी कर के बैठ जाएगी तो कौन उतारेगा लोन? मुझे पता ही था कि यह लड़की कभी किसी को चैन से नहीं रहने दे सकती,” राधा जीभर कर संदली को कोसती रहीं.

विकास को उन पर गुस्सा आ गया, बोले,”तुम्हें तो सब पता रहता है. बहुत अंतरयामी समझती हो खुद को.पता नहीं कैसे इतना ज्ञानी समझती हो खुद को.

“आसपड़ोस की अपनी जैसी हर समय कुड़कुड़ करने वाली लेडीज की बातों के अलावा कुछ भी पता है कि क्या हो रहा है दुनिया में?”

हर बार की तरह दोनों का गुस्स्सा रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

विकास ने जूते पहनते हुए कहा, “मैं ही जा रहा हूं थोड़ी देर बाहर, अकेली बोलती रहो.”

यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं था. बातबेबात किचकिच करने वाली राधा का तकियाकलाम था,’अब पता चलेगा.’

बड़ी बेटी प्रिया कनाडा में अपनी फैमिली के साथ रहती थी, संदली फिलहाल दुबई में थी. कोई भी कैसी भी बात करता, राधा हमेशा यही कहतीं कि उन्हें सब पता था. उन का कहना था कि उन्होंने इतनी दुनिया देखी है, उन्हें हर बात का इतना ज्ञान है कि कोई भी बात उन से छिपी नहीं रहती, फिर चाहे कुकिंग की बात हो या फैशन की.

यहां तक कि राजनीति की हलचल पर भी कोई बात होती तो उन का कहना होता कि उन्हें तो पता ही था कि फलां पार्टी यह करेगी. 1-2 दिन पहले वे किसी से कह रहीं थीं कि उन्हें तो पता ही था कि अब किसान आंदोलन होगा.

उन की बात सुनते हुए विकास ने बाद में टोका था,”ऐसी हरकतें क्यों करती हो, राधा? किसान आंदोलन होगा, यह भी तुम्हें पता था, कुछ तो सोच कर बोला करो.”

”अरे,मुझे पता था कि कुछ ऐसा होगा.”

विकास चुप हो गए, पता नहीं कौन सी ग्रंथि है राधा के मन में जो वह हर बात में घर में किसी न किसी बात में हावी होने की कोशिश करती थी. कई बार विकास अपने रिश्तेदारों के सामने राधा की बातों से शर्मिंदा भी हो जाते थे. बेटियां भी इस बात से हमेशा बचती रहीं कि राधा के सामने उन की फ्रैंड्स आएं.

विकास अंधेरी में एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत थे. आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी पर राधा कंजूस भी थी और बहुत तेज भी, साथ ही उन्हें अपने उस ज्ञान पर भी बहुत घमंड था जो ज्ञान दूसरों की नजर में मूर्खता में बदल चुका था. अजीब सी आत्ममुग्ध इंसान थीं.

घर में उन के व्यवहार से सब हमेशा दुखी रहते. राधा ने संदली को अगले दिन फोन किया और सीधे पूछा,”अभी शादी कर लोगी तो तुम्हारा लोन कौन चुकाएगा?”

”मैं इंडिया आ कर जौब करूंगी, लोन उतार दूंगी. अभी हम दोनों सीधे मुंबई ही आ रहे हैं, आर्यन को आप लोगों से मिलवा दूं?”

राधा ने कोई उत्साह नहीं दिखाया. संदली ने उदास हो कर फोन रख दिया. संदली और आर्यन को एअरपोर्ट से लेने विकास खुद जा रहे थे.

प्रोग्राम यह तय हुआ कि विकास औफिस से सीधे एअरपोर्ट चले जाएंगे. देर रात सब घर पहुंचे तो राधा ने सब के लिए डिनर तैयार कर रखा था. आर्यन उन्हें पहली नजर में ही बहुत अच्छा लगा पर बेटी से मन ही मन नाराज थीं कि पढ़ने भेजा था, लड़का पसंद कर के घर ले आई है.

उन्हें विकास पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था कि अभी से कैसे आर्यन को दामाद समझ रहे हैं. संदली फोन पर पहले ही बता चुकी थी कि पानीपत में आर्यन के पिता का बहुत लंबाचौड़ा बिजनैस है. बहुत धनी, आधुनिक परिवार है. 2 ही भाई हैं, आर्यन बड़ा है, छोटा भाई अभय अभी पढ़ रहा है.

आर्यन से मिलने, उस से बातें करने के बाद कोई कारण ही नहीं था कि राधा कुछ कमी निकालती पर यह बात हजम ही नहीं हो रही थी कि बेटी ने अपने लिए लड़का खुद पसंद कर लिया है.

विकास को भी आर्यन बहुत पसंद आया था. वह ऐसे घुलमिल गया था कि जैसे कब से इस परिवार का ही सदस्य है.

डिनर करते हुए संदली ने कहा,”मम्मी, हम दोनों अब कल ही दिल्ली जा रहे हैं. वहां आर्यन के पेरैंट्स हमें एअरपोर्ट पर लेने आ जाएंगे. मुझे भी उन से मिलना है. मैं जल्दी ही वापस आ जाउंगी.”

राधा ने कहा,”मुझे तो पता ही था कि तुम हम से पूछोगी भी नहीं, खुद ही होने वाले ससुराल पहुंच जाओगी.अब पता चलेगा.’’

विकास ने आर्यन की उपस्थिति को देखते हुए मुसकरा कर बात संभाली,”यह तो अच्छा ही है न कि तुम अपनी बेटी को जानती हो, तुम्हें पता था, अच्छा है.”

संदली ने मां की बात पर ध्यान ही नहीं दिया. युवा मन अपने सपनों में खोया था, प्यार से बीचबीच में एकदूसरे को देखते संदली और आर्यन विकास को बड़े अच्छे लगे.

गुलदारनी – भाग 1: चालाक शिकारी की कहानी

इलाके में मादा गुलदार ताबड़तोड़ शिकार कर रही थी. न वह इनसानों को छोड़ रही थी, न जानवरों को. वह छोटेबड़े का शिकार करते समय कोई लिहाज नहीं करती थी.

वह अपने शिकार को बुरी तरह घसीटघसीट कर, तड़पातड़पा कर मारती थी.

जंगल महकमे के माहिरों के भी मादा गुलदार को पकड़ने की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं. वह इतनी चालाक शिकारी थी कि पिंजरे में फंसना तो दूर, वह पिंजरे को ही पलट कर भाग जाती थी. उसे ढूंढ़ने के लिए अनेक ड्रोन उड़ाए गए, लेकिन शिकार कर के वह कहां गुम हो जाती थी, किसी को पता ही नहीं चलता.

मादा गुलदार की चालाकी के किस्से इलाके में मशहूर हो गए. आसपास के गांव के लोग उसे ‘गुलदारनी’ कह कर पुकारने लगे.

जटपुर की रहने वाली स्वाति भी किसी ‘गुलदारनी’ से कम नहीं थी. वह कुछ साल पहले ही इस गांव में ब्याह कर आई थी. 6 महीने में ही उस ने अपने पति नरदेव समेत पूरे परिवार का मानो शिकार कर लिया था. नरदेव उस के आगेपीछे दुम हिलाए घूमता था.

सासससुर अपनी बहू स्वाति की अक्लमंदी के इतने मुरीद हो गए थे कि उन को लगता था कि पूरी दुनिया में ऐसी कोई दूसरी बहू नहीं. ननद तो अपनी भाभी की दीवानी हो गई थी. घर में स्वाति के और्डर के बिना पत्ता तक नहीं हिलता था.

घर फतेह करने के बाद स्वाति ने धीरेधीरे बाहर भी अपने पैर पसारने शुरू कर दिए. गांव में चौधरी राम सिंह की बड़ी धाक थी. इज्जत के मामले में कोई उन से बढ़ कर नहीं था. हर कोई सलाहमशवरा लेने के लिए उन की चौखट पर जाता. लंगोट के ऐसे पक्के कि किरदार पर एक भी दाग नहीं

एक दिन नरदेव और स्वाति शहर से खरीदारी कर के मोटरसाइकिल से लौट रहे थे. नरदेव ने रास्ते में चौधरी राम सिंह को पैदल जाते देखा, तो नमस्ते करने के लिए मोटरसाइकिल रोक ली.

स्वाति ने चौधरी राम सिंह का नाम तो खूब सुना था, पर वह उन्हें पहचानती नहीं थी.

नरदेव ने स्वाति से राम सिंह का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आप हमारे गांव के चौधरी राम सिंह हैं. रिश्ते में ये मेरे चाचा लगते हैं.’’

स्वाति के लिए इतना परिचय काफी था. उस की आंखों का आकर्षण किसी को भी बींध देने के लिए काफी था.

स्वाति बिना हिचकिचाए बोली, ‘‘चौधरी साहब, आप को मेरी नमस्ते.’’

‘‘नमस्ते बहू, नमस्ते,’’ चौधरी राम सिंह ने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा.

तब तक स्वाति मोटरसाइकिल से उतर कर चौधरी राम सिंह के सामने खड़ी हो गई. अपनी लटों को ठीक करते हुए वह बोली, ‘‘चौधरी साहब, केवल ‘नमस्ते’ से ही काम नहीं चलेगा, कभी घर आइएगा चाय पर. हमारे हाथ की चाय नहीं पी, तो फिर कैसी ‘नमस्ते’.’’

इतना सुन कर चौधरी राम सिंह की केवल ‘हूं’, निकली.

स्वाति अपने पल्लू को संभालते हुए मोटरसाइकिल पर सवार हो गई. चौधरी राम सिंह उन्हें दूर तक जाते देखते रह गए. उन पर एक बावलापन सवार हो गया. वे रास्तेभर ‘चाय पीने’ का मतलब निकालते रहे.

चौधरी राम सिंह रातभर यों ही करवटें बदलते रहे और स्वाति के बारे में सोचते रहे. वे किसी तरह रात कटने का इंतजार कर रहे थे.

उधर घर पहुंच कर नरदेव ने स्वाति से पूछा, ‘‘तुम ने चौधरी को चाय पीने का न्योता क्यों दिया?’’

‘‘तुम भी निरे बुद्धू हो. गांव में चौधरी की कितनी हैसियत है. ऐसे आदमी को पटा कर रखना चाहिए, न जाने कब काम आ जाए.’’

स्वाति का जवाब सुन कर नरदेव लाजवाब हो गया. उसे स्वाति हमेशा अपने से ज्यादा समझदार लगती थी. वह फिर अपने कामधाम में लग गया.

चौधरी राम सिंह को जैसे दिन निकलने का ही इंतजार था.

सुबह होते ही वे नरदेव के चबूतरे पर पहुंच गए. उन्होंने नरदेव के पिता मनुदेव को देखा, तो ‘नमस्ते’ कहते हुए चारपाई पर ऐसे बैठे, जिस से निगाहें घर की चौखट पर रहें.

नरदेव ने खिड़की से झांक कर चौधरी राम सिंह को देखा तो तुरंत स्वाति के पास जा कर बोला, ‘‘लो स्वाति, और दो चौधरी को चाय पीने का न्योता, सुबह होते ही चतूबरे पर आ बैठा.’’

‘‘तो खड़ेखड़े क्या देख रहे हो? उन्हें चाय के लिए अंदर ले आओ.’’

‘‘लेकिन स्वाति, चाय तो चबूतरे पर भी जा सकती है, घर के अंदर तो खास लोगों को ही बुलाया जाता है.’’

‘‘तुम भी न अक्ल के अंधे हो. तुम्हें तो पता ही नहीं, लोगों को कैसे अपना बनाया जाता है.’’

नरदेव के पास स्वाति के हुक्म का पालन करने के सिवा कोई और रास्ता न था. वह बाहर जा कर चबूतरे पर बैठे चौधरी राम सिंह से बोला, ‘‘चाचा, अंदर आ जाइए. यहां लोग आतेजाते रहते हैं. अंदर आराम से बैठ कर चाय पिएंगे.’’

चौधरी राम सिंह को स्वाति के दर पर इतनी इज्जत की उम्मीद न थी. नरदेव ने उन्हें अंदर वाले कमरे में बिठा दिया. नरदेव भी पास में ही रखी दूसरी कुरसी पर बैठ कर उन से बतियाने लगा.

कुछ ही देर में स्वाति एक ट्रे में चाय, नमकीन, बिसकुट ले कर आ गई. नरदेव को चाय देने के बाद वह चौधरी राम सिंह को चाय पकड़ाते हुए बोली, ‘‘चौधरी साहब, आप के लिए खास चाय बनाई है, पी कर बताना कि कैसी बनी है.’’

स्वाति के इस मनमोहक अंदाज पर चौधरी राम सिंह खुश हो गए. स्वाति चाय का प्याला ले कर मेज के दूसरी तरफ खाट पर बैठ गई. फिर स्वाति ने एक चम्मच में नमकीन ले कर चौधरी राम सिंह की ओर बढ़ाई तो चौधरी राम सिंह ऐसे निहाल हो गए, जैसे मैना को देख कर तोता.

चाय पीतेपीते लंगोट के पक्के चौधरी राम सिंह अपना दिल हार गए. जातेजाते चाय की तारीफ में कितने कसीदे उन्होंने पढ़े, यह खुद उन को भी पता नहीं.

फिर तो आएदिन चौधरी राम सिंह चाय पीने के लिए आने लगे. स्वाति भी खूब मन से उन के लिए खास चाय बनाती.

अब चौधरी राम सिंह को गांव में कहीं भी जाना होता, उन के सब रास्ते स्वाति के घर के सामने से ही गुजरते. उन के मन में यह एहसास घर कर गया कि स्वाति पूरे गांव में बस उन्हीं को चाहती है.

कुछ ही दिनों बाद राम सिंह ने देखा कि गांव में बढ़ती उम्र के कुछ लड़के स्वाति के घर के सामने खेलने के लिए जुटने लगे हैं. लड़कों को वहां खेलते देख कर चौधरी राम सिंह बडे़ परेशान हुए.

एक दिन उन्होंने लड़कों से पूछा, ‘‘अरे, तुम्हें खेलने के लिए कोई और जगह नहीं मिली? यहां गांव के बीच में क्यों खेल रहे हो?’’

‘‘ताऊजी, हम से तो स्वाति भाभी ने कहा है कि हम चाहें तो यहां खेल सकते हैं. आप को तो कोई परेशानी नहीं है न ताऊजी?’’

‘‘न…न… मुझे क्या परेशानी होगी? खूब खेलो, मजे से खेलो.’’

चौधरी राम सिंह लड़कों पर क्या शक करते? लेकिन, उन का मन बेहद परेशान था. हालत यह हो गई थी कि उन्हें किसी का भी स्वाति के पास आना पसंद नहीं था.

एक दिन चौधरी राम सिंह ने देखा कि स्वाति उन लड़कों के साथ खड़ी हो कर बड़ी अदा के साथ सैल्फी ले रही थी. सभी लड़के ‘भाभीभाभी’ चिल्ला कर स्वाति के साथ फोटो खिंचवाने के लिए कतार में लगे थे.

उस रात चौधरी राम सिंह को नींद नहीं आई. उन्हें लगा कि स्वाति ने उन का ही शिकार नहीं किया है, बल्कि गांव के जवान होते हुए लड़के भी उस के शिकार बन गए हैं.

चौधरी राम सिंह को रहरह कर जंगल की ‘गुलदारनी’ याद आ रही थी, जो लगातार अपने शिकार के मिशन पर निकली हुई थी.

एक दिन गांव में होहल्ला मच गया. बाबूराम की बेटी ने नरदेव पर छेड़छाड़ का आरोप लगा दिया. शुरू में गांव में किसी को इस बात पर यकीन न हुआ. सब का यही सोचना था कि इतनी पढ़ीलिखी, खूबसूरत और कमसिन बीवी का पति ऐसी छिछोरी हरकत कैसे कर सकता है. लेकिन कुछ गांव वालों का कहना था, ‘भैया, बिना आग के कहीं धुआं उठता है क्या?’

अभी गांव में खुसुरफुसुर का दौर जारी ही था कि शाम को बाबूराम ने दारू चढ़ा कर हंगामा बरपा दिया. उस ने नशे की झोंक में सरेआम नरदेव को देख लेने और जेल भिजवाने की धमकी दे डाली.

जब स्वाति को इस बात का पता चला तो उस ने नरदेव को बचाने के लिए मोरचा संभाल लिया. चौधरी राम सिंह को तुरंत बुलावा भेजा गया.

स्वाति का संदेशा पाते ही वे हाजिरी लगाने पहुंच गए. चाय पीतेपीते उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति, जब तक मैं हूं, तुम चिंता क्यों करती हो. अपना अपनों के काम नहीं आएगा, तो किस के काम आएगा.’’

चौधरी राम सिंह के मुंह से यह बात सुन कर स्वाति हौले से मुसकराई और बोली, ‘‘चौधरी साहब, हम भी तो सब से ज्यादा आप पर ही भरोसा करते हैं, तभी तो सब से पहले आप को याद किया.’’

चौधरी राम सिंह तो पहले से ही बावले हुए पड़े थे, यह सुन कर और बावले हो गए. उन्हें लगा कि स्वाति का दिल जीतने का उन के पास यह सुनहरा मौका है. उन्होंने यह मामला निबटाने के लिए पूरी ताकत लगा दी.

ले बाबुल घर आपनो…: सीमा ने क्या चुना पिता का प्यार या स्वाभिमान

Story in hindi

गर्भपात: क्या रमा अनजाने भय से मुक्त हो पाई?

सुबह उठते ही रमा की नजर कैलेंडर पर पड़ी. आज 7 तारीख थी. उस के मन ने अपना काम शुरू कर दिया. झट से रमा के मन ने गणना की कि आज उस के गर्भ का तीसरा महीना पूरा और चौथा शुरू होता है जबकि रमा इसी गणना को मन में नहीं लाना चाहती थी क्योंकि मन में इस विचार के आते ही उस पर उस का पुराना भय हावी हो जाता और वह इस भय से बचना चाहती थी.

रमा डरतेडरते बाथरूम गई. वेस्टर्न स्टाइल की सीट पर बैठते ही उस का गला सूखना शुरू हो गया. उसे लग रहा था कि यदि उसे जल्दी से पानी नहीं मिला तो उस का दम घुट जाएगा. सामने ही नल था और वह पूरा जोर लगा कर उठने की कोशिश करने लगी. फिर भी उस से उठा नहीं गया.

तभी अचानक उस के पेट में दर्द उठा और नीचे पूरा पाट खून से भर गया. ऐसा उस के साथ दूसरी बार हो रहा था. रमा की रुलाई फूट पड़ी और वह अपनी प्यास भूल गई. उस ने किसी तरह से उठ कर दरवाजा खोला और अपने पति को पुकारा. उस की दर्द भरी आवाज सुन कर रवि बिस्तर छोड़ कर भागे. किसी तरह रमा को संभाला और उसे कार में डाल कर अस्पताल ले गए. डाक्टर ने रमा के गर्भ को साफ किया और घर भेज दिया. रमा फिर से खाली हाथ घर लौट आई थी.

रमा की शादी को 3 साल बीत चुके थे और इन 3 सालों में दूसरी बार उस का गर्भपात हुआ था. जब वह पहली बार गर्भवती हुई थी तो घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. पति रवि और सास मीना खुशी से झूम उठे थे. पर तब भी कहीं भीतर से रमा उदास हो गई थी. एक अनजाना सा डर तब भी उस के मन में था. उस के मन में यही डर था कि कहीं बच्चे के जन्म के समय उस की मृत्यु न हो जाए. इस डर के कारण उस की मानसिक स्थिति ठीक नहीं रही थी. उस का खानापीना भी कम हो गया था. दूध और फल उसे हजम ही नहीं होते थे. केवल पेट भरने के लिए वह सूखी चपाती खाती थी.

रमा के इस व्यवहार को देख कर उस की सास मीना सोचतीं कि शुरूशुरू में ऐसा सभी औरतों के साथ होता है पर धीरेधीरे सब ठीक हो जाता है लेकिन तीसरा महीना खत्म होते ही जब रमा का गर्भपात हो गया था तो उस का रोना देख कर मांबेटा दोनों ही घबरा गए. डाक्टर ने जांच के बाद गर्भाशय साफ किया और उसे घर भेज दिया.

इस घटना के बाद कुछ दिनों तक रमा उदास रही थी लेकिन सास का अपनापन भरा व्यवहार और पति के प्यार में वह इस हादसे को भूल गई. 8 महीने बाद फिर रमा ने गर्भ धारण किया. इस बार रवि उसे ले कर डा. प्रेमा के पास पहुंच गए.

डा. प्रेमा स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं. उन्होंने दोनों को तसल्ली दी, ‘‘देखिए, डरने की कोई बात नहीं है. मैं ने ठीक से जांच कर ली है. रमा के गर्भाशय की स्थिति जरा ठीक नहीं है. वह थोड़ा नीचे की ओर खिसका हुआ है. ऐसे में उन को फुल बेडरेस्ट की जरूरत है. ज्यादा समय लेटे ही रहना है. पैरों के नीचे भी तकिया लगा कर रखना है और केवल शौच जाने के लिए उठना है. शौच जाते समय भी ध्यान रखें कि जोर नहीं लगाना है.’’

‘‘देखो रमा, जैसे डाक्टर बता रही हैं वैसे ही करना है और खुश रहना है,’’ रवि ने प्यार से कहा.

‘‘हां, खुश रहना बहुत जरूरी है,’’ डा. प्रेमा ने भी सलाह दी, ‘‘अच्छी किताबें पढ़ो, मधुर संगीत सुनो और सुखद भविष्य की कल्पना कर के खुश रहो,’’ रवि ने प्यार से कहा.

‘‘डाक्टर, मेरी जान को तो खतरा नहीं है?’’ रमा ने डरतेडरते पूछा था.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों सोचा?’’

डा. प्रेमा ने पूछा.

‘‘मुझे डर लगता है.’’

‘‘किस बात का?’’

‘‘मैं दर्द सहन नहीं कर पाऊंगी और मर जाऊंगी.’’

‘‘सभी औरतें मर जाती हैं क्या?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो आप इस तरह का क्यों सोच रही हैं?’’

रमा और रवि खुशीखुशी वापस घर आए. मां को सारी बातें बताईं. रवि मां से बोले, ‘‘मां, अब रमा का ध्यान आप को ही रखना है. मैं तो सारा दिन बाहर रहता हूं.’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है. रमा तो मेरी बेटी है. अब मैं इस की सहेली भी बन जाऊंगी और इसे खुश रखूंगी.’’

मीना अब जीजान से रमा के साथ हो लीं. उसे बिस्तर से बिलकुल उठने नहीं देतीं. सहारा दे कर शौचालय ले जातीं. टानिक और विटामिन की गोलियां समय पर देतीं. बातबात पर उसे हंसाने की कोशिश करतीं. 3 महीने ठीक से निकले. पर चौथा शुरू होते ही शौचालय में फिर से रमा का गर्भपात हो गया. रवि फिर उसे ले कर अस्पताल गए और रमा इस बार फिर वहां से खाली हो कर घर आ गई.

रवि एक दिन अकेले जा कर डाक्टरसे मिले, ‘‘डाक्टर, अब की बार क्या हुआ? ऐसा बारबार क्यों होता है?’’

‘‘सब ठीक चल रहा था,’’ डा. प्रेमा ने बताया, ‘‘मैं नहीं जानती, ऐसा क्यों हुआ. अगली बार जब यह गर्भवती हों तो आप शुरू में ही मुझ से संपर्क करें. इन के कुछ टैस्ट करवाने पड़ेंगे, उस के बाद ही गर्भपात के कारणों का पता चलेगा.’’

दूसरी बार गर्भपात होने के बाद से रमा की उदासी और भी बढ़ गई. उस का शरीर काफी कमजोर हो गया था. इस बार रवि ने मन ही मन फैसला कर लिया कि यह तमाशा और अधिक नहीं चलेगा. रमा मानसिक और शारीरिक रूप से संतुलित हो जाए उस के बाद ही बच्चे की बात सोची जाएगी. जरूरत पड़ी तो वह किसी बच्चे को गोद ले लेंगे.

जीवन अपनी गति से चलने लगा. धीरेधीरे रमा सामान्य हो चली. इस बीच वह अपने भाई की शादी के लिए अपने मायके गई तो 2 महीने रह कर वापस लौटी.

मायके से लौटने पर रमा बहुत प्रसन्नचित्त थी. घर के कामकाज में वह अपनी सास के साथ लगातार हाथ बंटाती. खाली समय में ‘जिम’ भी जाती. उस की सहेलियों का दायरा भी बढ़ गया था. एक बड़े पुस्तकालय की वह सदस्य भी बन गई थी. एक बार माइंड पावर नामक एक पुस्तक उस के हाथ लगी. उस पुस्तक में जब उस ने पढ़ा कि हमारा मन हमारा कितना बड़ा मित्र बन सकता है और उतना ही बड़ा शत्रु भी बन सकता है तो वह हैरान रह गई. अपने मन में बैठे डर का उस ने विश्लेषण किया और सोचा, क्या उस का मन ही उसे मां  नहीं बनने दे रहा है? क्या उस का मन ही हर तीसरे माह के समाप्त होते ही उस का गर्भपात करवा रहा है? एक दिन उस ने रवि से इस बारे में बात की.

‘‘रवि, इस किताब में जो भी लिखा है क्या वह सच है?’’

‘‘इतने बड़े मशहूर लेखक की किताब है, उस की यह किताब बेस्ट सैलर भी है. कितने ही लोग इसे पढ़ कर अपना जीवन सुधार चुके हैं.’’

‘‘मैं नहीं मानती. मैं ने तो हमेशा ही बच्चा चाहा है, फिर गर्भपात क्यों हुआ? अगर मेरा मन बच्चा नहीं चाहता तो मुझे भी गर्भनिरोधक गोलियों का प्रयोग करना आता था.’’

‘‘मुझे लगता है तुम्हारा मन 2 भागों में बंटा हुआ है. एक मन तो मां बनना चाहता है और दूसरा प्रसव पीड़ा से डरता है.’’

‘‘हां, तुम ठीक कहते हो पर मुझे बताओ, मैं क्या करूं?’’

रमा परेशान हो उठी थी. शादी हुए 7 साल बीत चुके थे. वे दोनों अब बच्चे की बात ही नहीं करते. पर मन ही मन रमा के अंदर एक संघर्ष चल रहा था. वह उस संघर्ष पर विजय पाना चाहती थी. उस का एक ही तरीका था कि वह पूरी सच्ची बात रवि को बताए. एक रात वह रवि से बोली, ‘‘रवि, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूं जोकि मैं ने आज तक तुम्हें नहीं बताई है. जब मैं 10 साल की थी तो मेरी बूआ प्रसव के लिए मायके आई थीं. जिस दिन उन्हें प्रसव पीड़ा शुरू हुई उस दिन घर में कोई नहीं था. केवल मैं और बूआ ही थीं. मां और पिताजी बाहर गए हुए थे.

‘‘डाक्टर के अनुसार बूआ के प्रसव में अभी 10-15 दिन बाकी थे पर अचानक ही उन्हें दर्द शुरू हो गया. भयानक दर्द से बूआ तड़पती रहीं और मैं उन्हें देख कर रोती रही. तड़पतेतड़पते बूआ बिस्तर से नीचे उतर आई थीं. दर्द के कारण चिल्लाने से उन का गला सूख गया था. उन्होंने मुझ से पानी मांगा पर मैं इतनी डर गई कि ऐसा लगा जैसे मैं वहां से हिल नहीं पाऊंगी.

‘‘बूआ ‘पानीपानी’ चिल्लाती रहीं पर मैं उन्हें पानी नहीं दे पाई और कुछ देर बाद सब शांत हो गया. बूआ खून और पानी के ढेर में शांत सी हो कर सो गईं. तभी मां आ गईं. उन्हें देख कर मैं जहां डर कर बैठी थी वहीं चिल्लाई,  ‘मां,’ देखो तो बूआ को क्या हुआ? उन्हें पानी दो.’

‘‘मां ने बूआ को देखा तो पाया कि वह सदा के लिए ही शांत हो गई थीं, पर मेरे नन्हे मन में यह बैठ गया कि अगर मैं बूआ को पानी दे देती तो शायद वह बच जातीं, मेरा मन अपराधबोध से भर गया.

‘‘तीसरा महीना शुरू होते ही वह अपराधबोध मुझ पर इस कदर हावी हो जाता है कि मैं रात में कितनी बार उठ कर पानी पीती हूं. बूआ का पानी मांगना मेरे दिलोदिमाग में छा जाता है. मेरी बूआ मेरे कारण ही बिना मां बने ही इस दुनिया से चल बसीं. इसलिए मैं सोचती हूं कि शायद अतीत का अपराधबोध और प्रसव पीड़ा का वह भयावह दृश्य ही मुझे डराता है और डर के मारे मेरा गर्भपात हो जाता है.’’

‘‘पहले क्यों नहीं बताया यह सब,’’ रवि बोले ‘‘बूआ की मौत की जिम्मेदार तुम नहीं हो. यह अपराधबोध तो मन से बिलकुल ही निकाल दो. एक 10 साल की बच्ची किसी की मौत का कारण कैसे बन सकती है और तुम्हारा दूसरा डर तो बिलकुल बेकार है. उस का सामना तो हम आसानी से कर सकते हैं. हम पहले से ही डाक्टर से बात कर लेंगे कि तुम्हारा बच्चा आपरेशन द्वारा ही हो. तुम्हें प्रसव पीड़ा होगी ही नहीं.’’

‘‘अगर डाक्टर नहीं मानी तो?’’

‘‘जरूर मानेंगी, जब तुम्हारी कहानी सुनेगी तो उन्हें मानना ही पड़ेगा.’’

दूसरे दिन ही रमा और रवि डा. कांता के पास पहुंचे. डा. कांता एक प्रसिद्ध स्त्री रोग विशेषज्ञ थीं. उन के पास जच्चाबच्चा से संबंधित एक से एक कठिन केस आते थे. अनुभवों के आधार पर वह इतना ज्ञान प्राप्त कर चुकी थीं कि जब रमा और रवि उन के पास सलाह के लिए आए तो उन्होंने सब से पहले रमा के पिछले सभी गर्भपातों के बारे में जानकारी हासिल की और रमा के लिए कुछ जरूरी टैस्ट लिख दिए. जब टैस्टों की रिपोर्ट आई तो उन्हें पता चला कि रमा को टोक्सो प्लाज्मा है. डा. कांता ने बताया कि रुबैला और टोक्सो प्लाज्मा ये 2 ऐसी बीमारियां हैं जो किसी गर्भवती महिला के लिए घातक होती हैं.

रुबैला अगर गर्भवती स्त्री को हो तो उस के कीटाणु पेट में पल रहे शिशु तक पहुंच कर उसे नुकसान पहुंचाते हैं. पर रमा के खून की जांच के बाद पता चला कि उसे टोक्सो प्लाज्मा हुआ है. यह खून में फैला हुआ इन्फेक्शन है जो ज्यादातर चूहों और बिल्लियों में पाया जाता है, पर कई बार यह मनुष्यों में भी आ जाता है और गर्भवती स्त्री के गर्भ में पल रहे शिशु के लिए घातक होता है. रमा के साथ भी यही हो रहा था. डाक्टर ने रमा को सलाह दी कि अगली बार गर्भ का निश्चय होते ही वह तुरंत अस्पताल में भर्ती हो जाए.

रमा गर्भ ठहरते ही डा. कांता के नर्सिंग होम में दाखिल हो गई. डा. कांता ने शुरू से ही रमा को उचित दवाइयां देनी शुरू कर दीं. रमा को बिलकुल बेडरेस्ट पर रखा. देखते ही देखते 4 महीने सही से निकल गए. अब तो रमा पूरी तरह आशा से भर गई थी.

डाक्टर की निगरानी, उचित दवाओं और अपने सकारात्मक विचारों और भावनाओं के कारण रमा के 9 महीने पूरे हुए. पूर्वनिश्चित समय पर डाक्टर ने आपरेशन किया और जीताजागता, रोताचिल्लाता प्यारा सा बच्चा उसकी गोद में थमा दिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें