Hindi Story : हिम्मत – क्या माधुरी ने अतीत के बारे में अपने पति को बताया

Hindi Story : काफी सोचने के बाद माधुरी ने अपने और अशोक के बारे में पति आकाश को सबकुछ बता देने का फैसला किया. अशोक के रास्ते पर चलने से उसे बरबाद होने से कोई नहीं बचा सकता था. पति को सचाई बता देने से शायद वह उस की गलती माफ कर उसे स्वीकार कर सकता था.

माधुरी अपने मातापिता की एकलौती औलाद थी. उस के पिता एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे और किराए के मकान में रहते थे. उस की मां घरेलू थी. माधुरी के पिता के पास कोई जायदाद नहीं थी. उन का एक ही सपना था कि उन की बेटी पढ़लिख कर बहुत बड़ी अफसर बने.

माघुरी भी अपने पिता का सपना पूरा करना चाहती थी. उस का सपना पूरा नहीं हुआ. जो कुछ भी हुआ, उस की कल्पना उस ने नहीं की थी.

स्कूल तक माधुरी ने खूब अच्छी तरह पढ़ाई की थी, मगर कालेज में जाते ही उस का मन पढ़ाई से हट गया था. इस की वजह यह थी कि कालेज में जाते ही अशोक से उस की आंखें लड़ गईं. वह बड़ा ही हैंडसम और स्मार्ट लड़का था.

मौका देख कर एक दिन अशोक ने माधुरी को आई लव यू कह दिया, तो माधुरी भी अपनेआप को रोक न सकी. उस ने अपने दिल की बात कह दी, ‘‘मैं भी तुम्हें प्यार करती हूं.’’ इस के बाद वे दोनों बराबर अकेले में मिलनेजुलने लगे. 6 महीने बाद एक दिन अशोक माधुरी को अपने घर ले गया.

अशोक ने माधुरी को बताया था कि शहर में वह अकेले ही किराए के मकान में रहता है. उस का परिवार गांव में रहता है. उस के पिता के पास धनदौलत की कोई कमी नहीं है. उस के पिता हर महीने उसे 20 हजार रुपए भेजते हैं. माधुरी अशोक से बहुत प्रभावित थी. वह उस पर पूरा भरोसा भी करती थी, इसीलिए यह जानते हुए भी कि वह अकेला रहता है, वह उस के घर चली गई थी.

बंद कमरे में प्यारमुहब्बत की बातें करतेकरते अचानक अशोक ने माधुरी को अपनी बांहों में भर लिया. माधुरी ने विरोध किया, तो अशोक ने उसे यह कह कर यकीन दिला दिया कि पढ़ाई पूरी होते ही वह उस से शादी कर लेगा. फिर माधुरी ने अशोक का कोई विरोध नहीं किया और अपनेआप को उस के हवाले कर दिया, फिर तो यह सिलसिला चल निकला.

अशोक का वादा झूठा था, इस का पता माधुरी को तब चला, जब वह पेट से हो गई. माधुरी ने शादी करने के लिए अशोक से कहा, तो वह अपने वादे से मुकर गया. उसे बच्चा गिरवा लेने की सलाह दी.

माधुरी किसी भी हाल में बच्चा नहीं गिराना चाहती थी. वह तो अशोक से शादी कर के बच्चे को जन्म देना चाहती थी.

माधुरी ने धमकी भरे लहजे में अशोक से कहा, ‘‘तुम मुझ से शादी नहीं करोगे, तो मैं पुलिस की मदद लूंगी. पुलिस को बताऊं गी कि शादी का झांसा दे कर तुम ने मेरी इज्जत से खिलवाड़ किया है.’’ ‘‘अगर तुम ऐसा करोगी, तो मैं भी चुप नहीं रहूंगा. पुलिस को बताऊंगा कि तुम धंधेवाली हो. जिस्म बेच कर पैसा कमाना तुम्हारा पेशा है. मुझ से तुम ने 5 लाख रुपए मांगे थे. मैं ने रुपए देने से मना कर दिया, तो मुझे ब्लैकमेल करना चाहती हो. ‘‘मैं सबकुछ साबित भी कर दूंगा. तुम सुबूत देखना चाहती हो, तो देख लो,’’ कहने के बाद अशोक ने जेब से एक लिफाफा निकाला और माधुरी को दे दिया. धड़कते दिल से माधुरी ने लिफाफा खोला, तो वह सन्न रह गई.

लिफाफे में 4 फोटो थे. पहले फोटो में वह अशोक के साथ हमबिस्तर थी और बाकी 3 फोटो में वह अलगअलग लड़कों के साथ थी. माधुरी हैरान हो कर फोटो देख रही थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अशोक उस के साथ ऐसा भी कर सकता है.

माधुरी को चुप देख कर अशोक ने ही कहा, ‘‘तुम यही सोच रही होगी कि फोटो में तुम मेरे अलावा दूसरे लड़कों के साथ कैसे हो, जबकि तुम मेरे सिवा कभी किसी मर्द के साथ सोई ही नहीं? ‘‘मैं जानता था कि दूसरी लड़कियों की तरह तुम भी आसानी से मेरी बात नहीं मानोगी, इसीलिए तुम्हें धंधेवाली साबित करना जरूरी था.

‘‘एक दिन मैं ने तुम्हारी चाय में बेहोशी की दवा मिला दी थी. तुम बेहोश हो गई, तो योजना के तहत बारीबारी से अपने 3 साथियों को सुलाया. उन के साथ फोटो खींचे और वीडियो फिल्म बनाई. ‘‘अब मेरी बात ध्यान से सुन लो. फोटो और सीडी पाना चाहती हो, तो तुम्हें 3 लाख रुपए देने होंगे, नहीं तो तुम्हारे फोटो इंटरनैट पर डाल दूंगा. फिर तुम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाओगी.’’

माधुरी हैरान हो कर अशोक की बातें सुन रही थी. अशोक बोले जा रहा था, ‘‘अगर तुम एकसाथ 3 लाख रुपए नहीं दे सकती, तो एक साल तक तुम्हें मेरे साथ धंधेवाली वाला काम करना होगा.

‘‘जिस मर्द को मैं तुम्हारे पास भेजा करूंगा, उसे तुम्हें खुश करना होगा. एक साल बाद फोटो और सीडी मैं तुम्हें लौटा दूंगा.’’ माधुरी समझ गई कि वह अशोक के जाल में बुरी तरह फंस चुकी है. उस ने रोरो कर के उस से गुजारिश की कि वह उसे धंधेवाली बनने पर मजबूर न करे, मगर अशोक ने उस की एक न सुनी.

आखिरकार माधुरी ने सोचनेसमझने के लिए उस से एक हफ्ते का समय मांगा. 5 दिन बाद भी माधुरी को अशोक से छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उस ने खुदकुशी करने का फैसला कर लिया. वह खुदकुशी करती, उस से पहले ही एक दिन अखबार में उस ने पढ़ा कि एक लड़की को ब्लैकमेल करने के आरोप में पुलिस ने अशोक को गिरफ्तार कर लिया है.

माधुरी ने राहत की सांस ली. अब वह पढ़ाई छोड़ कर जल्दी से शादी कर शहर से दूर चली जाना चाहती थी. इस के लिए एक दिन उस ने मां को बताया, ‘‘अब मेरा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है.’’ उस की मां समझदार थी. अपने पति से बात की और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. जल्दी ही माधुरी के लिए अच्छा लड़का मिल गया. फिर उस की शादी आकाश से हो गई.

आकाश कोलकाता का रहने वाला था. वह एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर था. उस के मातापिता नहीं थे. प्यार करने वाला पति पा कर माधुरी बहुत जल्दी अशोक को भूल गई. वैसे भी अशोक को 3 साल की सजा हुई थी. उस लड़की ने अदालत में अपना आरोप साबित कर दिया था.

माधुरी को यकीन था कि अशोक उस की जिंदगी में अब कभी नहीं आएगा, मगर ऐसा नहीं हुआ. 3 साल बाद एक दिन अशोक ने उसे फोन किया और यह कह कर होटल में बुलाया कि अगर वह नहीं आएगी, तो उस के पति आकाश को उस की फोटो और सीडी दे देगा.

होटल के बंद कमरे में अशोक ने माधुरी के साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की, लेकिन सीडी और फोटो लौटाने की 3 साल पहले वाली शर्त उसे याद दिला दी.

माधुरी रुपए देने में नाकाम थी. वह पति से रुपए मांगती, तो क्या कह कर मांगती. माधुरी पति के साथ बेवफाई भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए अंजाम की परवाह किए बिना उस ने अशोक को अपना फैसला सुना दिया, ‘‘न तो मैं तुम्हें रुपए दूंगी और न ही पति के साथ बेवफाई करूंगी. तुम्हें जो करना है कर लो.’’

अशोक जल्दबाजी में कोई गलत कदम नहीं उठाना चाहता था, इसलिए उस ने माधुरी को फिर से सोचने के लिए 2 दिन का समय दिया. होटल से घर आ कर माधुरी तब से यह लगातार सोचने लगी. अब उसे कौन सा रास्ता चुनना चाहिए. सबकुछ पति को बता देना चाहिए या अशोक की बात मान कर धंधेवाली बन जाना चाहिए? आखिर में माधुरी ने पति को सचाई बता देने का फैसला किया.

आकाश शाम 7 अजे घर आया, तो वह अपनेआप को रोक न सकी. वह आकाश से जा कर लिपट गई और रोने लगी.

आकाश ने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया और पूछा, ‘‘क्या बात है? तुम जानती हो कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं, इसलिए तुम्हें रोते हुए नहीं देख सकता.’’ माधुरी ने आकाश को अशोक के बारे में सब सचसच बता दिया. पति आकाश से माधुरी ने कुछ नहीं छिपाया.

आकाश बहुत समझदार था. वह रिश्ते को तोड़ने में नहीं जोड़ने में यकीन रखता था. किसी को उस की गलती की सजा देन में नहीं, बल्कि माफ कर उसे सुधारने में यकीन करता था. आकाश ने माधुरी को माफ कर दिया और उसे बांहों में भर कर कहा, ‘‘जो हुआ, उसे दुखद सपना समझ कर भूल जाओ. पुलिस में कई बड़े अफसरों से मेरी जानपहचान है. वे लोग अशोक का सही इंतजाम करेंगे. कोई जान नहीं पाएगा कि वह कहां चला गया. अब तुम किसी बात की चिंता मत करो.’’

माधुरी की आंखों से निकलती आंसुओं की गरम बूंदों ने आकाश के सीने को नम कर दिया.

Hindi Story : अमानत – उस औरत ने दिखाया सच्चाई का आईना

Hindi Story : कानपुर सैंट्रल रेलवे स्टेशन के भीड़ भरे प्लेटफार्म से उतर कर जैसे ही मैं सड़क पर आया, तभी मुझे पता चला कि किसी जेबकतरे ने मेरी पैंट की पिछली जेब काट कर उस में से पूरे एक हजार रुपए गायब कर दिए थे. कमीज की जेब में बची 2-4 रुपए की रेजगारी ही अब मेरी कुल जमापूंजी थी.

मुझे शहर में अपना जरूरी काम पूरा करने और वापस लौटने के लिए रुपयों की सख्त जरूरत थी. पूरे पैसे न होने के चलते मैं अपना काम निबटाना तो दूर ट्रेन का वापसी टिकट भी कैसे ले सकूंगा, यह सोच कर बुरी तरह परेशान हो गया.

इस अनजान शहर में मेरा कोई जानने वाला भी नहीं था, जिस से मैं कुछ रुपए उधार ले कर अपना काम चला सकूं.

हाथ में अपना सूटकेस थामे मैं टहलते हुए सड़क पर यों ही चला जा रहा था. शाम के साढ़े 5 बजने को थे. सर्दी का मौसम था. ऐसे सर्द भरे मौसम में भी मेरे माथे पर पसीना चुहचुहा आया था.

मुझे बड़ी जोरों की भूख लग आई थी. मैं ने सड़क के किनारे एक चाय की दुकान से एक कप चाय पी कर भूख से कुछ राहत महसूस की, फिर अपना सूटकेस उठा कर सड़क पर आगे चलने के लिए जैसे ही तैयार हुआ कि तकरीबन 9 साल का एक लड़का मेरे पास आया और बोला, ‘‘अंकलजी, आप को मेरी मां बुला रही हैं. चलिए…’’

इतना कहते हुए वह लड़का मेरे बाएं हाथ की उंगली अपने कोमल हाथों से पकड़ कर खींचने लगा. मैं उस लड़के को अपलक देखते हुए पहचानने की कोशिश करने लगा, पर मेरी कोशिश बेकार साबित हुई. मैं उस लड़के को बिलकुल भी नहीं पहचान सका था.

अगले ही पल मेरे कदम बरबस ही उस लड़के के साथ उस के घर की ओर बढ़ चले. उस लड़के का घर चाय की उस दुकान से कुछ ही दूर एक गली में था . मैं जैसे ही उस के दरवाजे पर पहुंचा, तो उस लड़के की मां मेरा इंतजार करती नजर आई.

मैं ने तो उसे पहचाना तक नहीं, पर उस ने बिना झिझकते हुए पूछा, ‘‘आइए महेशजी, हम लोग आप के पड़ोसी गांव सुंदरपुर के रहने वाले हैं. यहां मेरे पति एक फैक्टरी में काम करते हैं.

‘‘मैं अभी डबलरोटी लेने दुकान पर गई थी, तो आप को पहचान गई. आप रामपुर के हैं न?

‘‘जब आप गांव से कसबे के स्कूल में पढ़ाने के लिए साइकिल से आतेजाते थे, तब मैं सड़क से लगी पगडंडी पर घास काटती हुई आप को हर दिन देखती थी. कभीकभी तो आप मेरे कहने पर मेरा घास का गट्ठर भी उठवा दिया करते थे.’’

पलभर में ही मैं उस लड़के की मां को पहचान गया था. 10 साल पहले की बात है, तब मैं गांव से साइकिल चला कर कसबे के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने जाया करता था.

उस समय शायद यह औरत तकरीबन 16-17 साल की थी. तब इस की शादी नहीं हुई थी. यह अकसर पगडंडियों पर अपने गांव की दूसरी औरतों और लड़कियों के साथ घास काटती रहती थी.

उस समय की एक घटना मुझे अब भी याद है. एक दिन मैं ने उन सभी घास वालियों को बहुत भलाबुरा कहते हुए उन पर चोरी का इलजाम लगाया था.

हुआ यह था कि मुझे उस दिन स्कूल से तनख्वाह मिली थी. पूरे ढाई हजार रुपए थे तनख्वाह के. मैं ने एक लिफाफे में उन रुपयों को रखा और अपनी कमीज की ऊपरी जेब में डालते हुए साइकिल से घर चल पड़ा था. उस दिन कई जगहों पर बीचबीच में साइकिल की चेन उतर जाने से उसे चढ़ाते हुए मैं घर आया था.

घर आने पर पता चला कि मेरा रुपयों वाला लिफाफा साइकिल की चेन चढ़ाते समय रास्ते में कहीं गिर गया था.

मैं उसी समय साइकिल से रास्ते में अपना रुपयों वाला लिफाफा ढूंढ़ते हुए उन घास वालियों से जा कर पूछताछ करने लगा.

घास वालियों ने लिफाफा देखने से साफ इनकार कर दिया. मैं ने बारबार उन घास वालियों पर शक जताते हुए उन्हें बहुत ही बुराभला सुनाया था और तभी से नाराज हो कर फिर कभी उन के घास के गट्ठर को उठाने के लिए सड़क पर साइकिल नहीं रोकी.

मैं ने उस औरत के यहां रह कर कुछ रुपए उधार मांग कर अगले 3 दिनों में अच्छी तरह अपना काम पूरा किया था. उस औरत का पति बहुत अच्छे स्वभाव का था. वह मुझ से बहुत घुलमिल कर बातें करता था, जैसे मैं उस का कोई खास रिश्तेदार हूं.

3 दिनों के बाद जब मैं वापस जाने लगा, तो उस औरत का पति फैक्टरी के लिए ड्यूटी पर जा चुका था और छोटा बच्चा स्कूल गया था. घर में केवल वह औरत थी.

मैं ने सोचा कि चलते समय किराए के लिए कुछ रुपए उधार मांग लूं और घर जा कर रुपया मनीऔर्डर कर दूंगा.

मैं उस औरत के पास गया और उस से उधार के लिए बतौर रुपया मांगने ही वाला था कि तभी वह बोली, ‘‘भाई साहब, अगर आप बुरा न मानें, तो मैं आप की एक अमानत लौटाना चाहूंगी.’’

मैं उस औरत की बात समझा नहीं और हकलाते हुए पूछ बैठा, ‘‘कैसी अमानत?’’

उस ने मुझे पूरे ढाई हजार रुपए लौटाते हुए कहा, ‘‘सालों पहले आप ने एक दिन सभी घास वालियों पर रुपए लेने का जो इलजाम लगाया था, वह सच था.

‘‘जब आप साइकिल की चेन चढ़ा रहे थे, तो आप के रुपए का लिफाफा जमीन पर गिर पड़ा था और आप को रुपए गिरने का पता नहीं चला था. मैं ने दूसरी घास वालियों की नजर बचा कर वह लिफाफा उठा लिया था.

‘‘उस समय मेरे बापू की तबीयत बहुत ज्यादा खराब चल रही थी. दवा के लिए रुपयों की सख्त जरूरत थी और कहीं से कोई उधार भी देने को तैयार था.

‘‘मैं ने बापू की दवा पर वे रुपए खर्च करने के लिए झूठ बोल दिया कि मैं ने रुपयों का कोई लिफाफा नहीं उठाया है. फिर तो उन रुपयों से मैं ने अपने बापू का अच्छी तरह इलाज कराया और वे बिलकुल ठीक हो गए, उन की जान बच गई.

‘‘इस के बाद मुझे आज तक यह हिम्मत नहीं हुई कि सच बोल कर अपने झूठ का पछतावा कर सकूं.’’

मैं उन रुपयों को अपने हाथ में थामे हुए उस औरत की आंखों में झांकते हुए यह सोच रहा था कि वह झूठ जो कभी किसी की जान बचाने के लिए बोला गया था, झूठ नहीं कहा जा सकता. क्योंकि वह तो इस औरत ने सच की पोटली में अमानत के रुपए बतौर बांध कर अपने पाकसाफ दिल में महफूज रखा हुआ था.

मैं उस औरत के मुसकराते हुए चेहरे को एक बार फिर सच के आईने में झांकते हुए, उस के नमस्ते का जवाब देता हुआ तेज कदमों से रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया.

Hindi Story : नास्तिक – श्वेता के साथ शादी के बाद क्या हुआ

Hindi Story : श्वेता के ससुराल जाने के बाद उस के मातापिता को अपना खाली घर काटने को दौड़ रहा था. श्वेता चुलबुली, बड़बोली और खुले दिल की लड़की थी. मम्मी के दिल में एक ही बात खटकती रहती थी कि श्वेता देवधर्म, कर्मकांड वगैरह नहीं मानती थी.

तरहतरह के पकवान हम कभी भी खा, बना सकते हैं, इस के लिए किसी त्योहार की जरूरत क्यों? दीवाली के व्यंजन तो पूरे साल मिलते हैं. हम कभी भी खरीद सकते हैं, इस में कोई समस्या नहीं है? श्वेता की सोच कुछ ऐसी ही थी. मातापिता को तो कभी कोई समस्या नहीं हुई, लेकिन उस की ससुराल वालों को होने लगी.

श्वेता का पति आकाश किसी सुपरस्टार की तरह दिखता था. औरतें मुड़मुड़ कर उसे देखती थीं और कहती थीं कि एकदम रितिक रोशन की तरह दिखता है. श्वेता की सहेलियां उस से जलती थीं. जिम जाने और खूबसूरत दिखने वाले पति के साथ श्वेता की शादीशुदा जिंदगी बहुत अच्छी बीत रही थी.

दोनों पर मिलन की एक अलग ही धुन सवार थी. लेकिन एक दिन आकाश ने उस से बोल ही दिया, ‘‘केवल मेरे मातापिता के लिए तुम रोज पूजा कर लिया करो… प्लीज. प्रसाद के रूप में नारियल बांटने में तुम्हें क्या दिक्कत है. नाम के लिए एक दिन व्रत रखा करो ताकि मां को तसल्ली हो कि उन की बहू सुधर गई है.’’

श्वेता गुस्से में बोली, ‘‘सुधर गई, मतलब…? नास्तिक औरतें बिगड़ी हुई होती हैं क्या? दबाव में आ कर भक्ति करना क्या सही है? ‘‘जब मुझे यह सब करना नहीं अच्छा लगता तो जबरदस्ती कैसी? मैं ने कभी अपने मायके में उपवास नहीं किया है. मुझे एसिडिटी हो जाती है इसलिए मैं कम खाती हूं, 2 रोटी और थोड़े चावल तो व्रत क्यों रखना?’’

श्वेता सच बोल रही थी. लेकिन इस बात से आकाश नाराज हो गया और धीरेधीरे उस ने श्वेता से बात करना कम कर दिया. जब भी श्वेता की जिस्मानी संबंध बनाने की इच्छा होती तो ‘आज नहीं, मैं थक गया हूं’ कहते हुए आकाश मना कर देता. ये सब बातें अब रोज की कहानी बन गई थीं.

‘‘तुम्हारा मुझ में इंटरैस्ट क्यों खत्म हो गया? तुम्हारी दिक्कत क्या है?’’ श्वेता ने आकाश से पूछा. बैडरूम में उस का खुला और गठीला बदन देख कर श्वेता का मन अपनेआप ही मचल जाता था, लेकिन आकाश ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘‘तुम पहले भगवान को मानने लगो, मां को खुश करो, उस के बाद हम अपने बारे में सोचेंगे…’’

‘‘मेरा भगवान, पूजापाठ में विश्वास नहीं है, यह सब मैं ने शादी से पहले तुम्हें बताया था. जब हम दोनों गोरेगांव के बगीचे में घूमने गए थे… तुम्हें याद है?’’

‘‘मुझे लगा था कि तुम बदल जाओगी…’’ ‘‘ऐसे कैसे बदल जाऊंगी. मैं

कोई मन में गुस्से की भावना रख कर नास्तिक नहीं बनी हूं, यह मेरा सालों का अभ्यास है.’’ धीरेधीरे श्वेता और उस की सास के बीच झगड़े होने लगे. श्वेता उन के साथ मंदिर तो जाती थी लेकिन बाहर ही खड़ी रहती थी, जिस पर झगड़े और ज्यादा बढ़ जाते थे.

एक बार सास ने कहा, ‘‘मंदिर के बाहर चप्पल संभालने के लिए रुकती है क्या? अंदर आएगी तो क्या हो जाएगा?’’ श्वेता ने भी तुरंत जवाब देते हुए कहा, ‘‘आप अपना काम पूरा करें, मुझे सिखाने की जरूरत नहीं है. मैं इन ढकोसलों को नहीं मानती.’’

सास घर लौट कर रोने लगीं, ‘‘मुझ से इस जन्म में आज तक किसी ने ऐसी बात नहीं की थी. ऊपर वाला देख लेगा तुम्हें,’’ ऐसा बोलते हुए सास ने पलभर में एक पढ़ीलिखी बहू को दुश्मन ठहरा दिया.

शाम को आकाश के आने के बाद श्वेता बोली, ‘‘मैं मायके जा रही हूं, मुझे लेने मत आना. जब मेरा मन करेगा तब आऊंगी. लेकिन अभी से कुछ तय नहीं है. मायके ही जा रही हूं, कहीं भाग नहीं रही हूं. नहीं तो कुछ भी झूठी अफवाहें उड़ेंगी.’’ आकाश उस की तरफ देखता रह गया. उस की तीखी और करारी बातों से उसे थोड़ा डर लगा.

श्वेता अपने अमीर मातापिता के साथ जा कर रहने लगी. मां को यह बात अच्छी नहीं लगी, लेकिन श्वेता ने कहा, ‘‘आप थोड़ा धीरज रखो. आकाश को मेरे बिना अच्छा नहीं लगेगा.’’ आखिर वही हुआ. 15-20 दिन बीतने के बाद उस का फोन आना शुरू हो गया. पत्नी का मायके में रहने का क्या मतलब है? यह सोच कर वह बेचैन हो रहा था. उस का किया उस पर ही भारी पड़ गया. मां के दबाव में आ कर वह भगवान को मानता था.

श्वेता ने फोन काट दिया इसलिए आकाश ने मैसेज किया, ‘मुझे तुम से बात करनी है, विरार आऊं क्या?’ श्वेता के मन में भी प्यार था और उस ने झट से हां कह दिया.

श्वेता ने कहा, ‘‘मैं ने तुम्हें भगवान को मानने के लिए कभी मना नहीं किया. पूजाअर्चना, जो तुम्हें करनी है जरूर करो, लेकिन मुझे मेरी आजादी देने में क्या दिक्कत है. तुम्हारी मां को समझाना तुम्हारा काम है. अब तुम बोल रहे हो इसलिए आ रही हूं. अगर फिर कभी मेरी बेइज्जती हुई तो मैं हमेशा के लिए ससुराल छोड़ दूंगी… इस तरह से श्वेता ने अपनी नास्तिकता की आजादी को हासिल कर लिया.

Hindi Story : अनोखा सबक – टीकाचंद के किस बात से दारोगाजी हैरान रह गए

Hindi Story : सिपाही टीकाचंद बड़ी बेचैनी से दारोगाजी का इंतजार कर रहा था. वह कभी अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी की तरफ देखता, तो कभी थाने से बाहर आ कर दूर तक नजर दौड़ाता, लेकिन दारोगाजी का कहीं कोई अतापता न था. वे शाम के 6 बजे वापस आने की कह कर शहर में किसी सेठ की दावत में गए थे, लेकिन 7 बजने के बाद भी वापस नहीं आए थे. ‘शायद कहीं और बैठे अपना रंग जमा रहे होंगे,’ ऐसा सोच कर सिपाही टीकाचंद दारोगाजी की तरफ से निश्चिंत हो कर कुरसी पर आराम से बैठ गया.

आज टीकाचंद बहुत खुश था, क्योंकि उस के हाथ एक बहुत अच्छा ‘माल’ लगा था. उस दिन के मुकाबले आज उस की आमदनी यानी वसूली भी बहुत अच्छी हो गई थी. आज उस ने सारा दिन रेहड़ी वालों, ट्रक वालों और खटारा बस वालों से हफ्ता वसूला था, जिस से उस के पास अच्छीखासी रकम जमा हो गई थी. उन पैसों में से टीकाचंद आधे पैसे दारोगाजी को देता था और आधे खुद रखता था.

सिपाही टीकाचंद का रोज का यही काम था. ड्यूटी कम करना और वसूली करना… जनता की सेवा कम, जनता को परेशान ज्यादा करना. सिपाही टीकाचंद सोच रहा था कि इस आमदनी में से वह दारोगाजी को आधा हिस्सा नहीं देगा, क्योंकि आज उस ने दारोगाजी को खुश करने के लिए अलग से शबाब का इंतजाम कर लिया है.

जिस दिन वह दारोगाजी के लिए शबाब का इंतजाम करता था, उस दिन दारोगाजी खुश हो कर उस से अपना आधा हिस्सा नहीं लेते थे, बल्कि उस दिन का पूरा हिस्सा उसे ही दे देते थे. रात के तकरीबन 8 बजे तेज आवाज करती जीप थाने के बाहर आ कर रुकी. सिपाही टीकाचंद फौरन कुरसी छोड़ कर खड़ा हो गया और बाहर की तरफ भागा.

नशे में चूर दारोगाजी जीप से उतरे. उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. आंखें नशे से बुझीबुझी सी थीं. उन की हालत से तो ऐसा लग रहा था, जैसे उन्होंने शराब पी रखी हो, क्योंकि चलते समय उन के पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे. उन के होंठों पर पुरानी फिल्म का एक गाना था, जिसे वे बड़े रोमांटिक अंदाज में गुनगुना रहे थे. दारोगाजी गुनगुनाते हुए अंदर आ कर कुरसी पर ऐसे धंसे, जैसे पता नहीं वे कितना लंबा सफर तय कर के आए हों.

सिपाही टीकाचंद ने चापलूसी करते हुए दारोगाजी के जूते उतारे. दारोगाजी ने सामने रखी मेज पर अपने दोनों पैर रख दिए और फिर पैरों को ऐसे अंदाज में हिलाने लगे, जैसे वे थाने में नहीं, बल्कि अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठे हों. दारोगाजी ने अपनी पैंट की जेब में से एक महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला और फिल्मी अंदाज में सिगरेट को अपने होंठों के बीच दबाया, तो सिपाही टीकाचंद ने अपने लाइटर से दारोगाजी की सिगरेट जला दी.

‘‘साहबजी, आज आप ने बड़ी देर लगा दी?’’ सिपाही टीकाचंद अपनी जेब में लाइटर रखते हुए बोला. दारोगाजी सिगरेट का लंबा कश खींच कर धुआं बाहर छोड़ते हुए बोले, ‘‘टीकाचंद, आज माहेश्वरी सेठ की दावत में मजा आ गया. दावत में शहर के बड़ेबड़े लोग आए थे. मेरा तो वहां से उठने का मन ही नहीं कर रहा था, लेकिन मजबूरी में आना पड़ा.

‘‘अच्छा, यह बता टीकाचंद, आज का काम कैसा रहा?’’ दारोगाजी ने बात का रुख बदलते हुए पूछा. ‘‘आज का काम तो बस ठीक ही रहा, लेकिन आज मैं ने आप को खुश करने का बहुत अच्छा इंतजाम किया है,’’ सिपाही टीकाचंद ने धीरे से मुसकराते हुए कहा, तो दारोगाजी के कान खड़े हो गए.

‘‘कैसा इंतजाम किया है आज?’’ दारोगाजी बोले. ‘‘साहबजी, आज मेरे हाथ बहुत अच्छा माल लगा है. माल का मतलब छोकरी से है साहबजी, छोकरी क्या है, बस ये समझ लीजिए एकदम पटाखा है, पटाखा. आप उसे देखोगे, तो बस देखते ही रह जाओगे. मुझे तो वह छोकरी बिगड़ी हुई अमीरजादी लगती है,’’ सिपाही टीकाचंद ने कहा.

उस की बात सुन कर दारोगाजी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई. ‘‘टीकाचंद, तुम्हारे हाथ वह कहां से लग गई?’’ दारोगाजी अपनी मूंछों पर ताव देते हुए बोले.

दारोगाजी के पूछने पर सिपाही टीकाचंद ने बताया, ‘‘साहबजी, आज मैं दुर्गा चौक से गुजर रहा था. वहां मैं ने एक लड़की को अकेले खड़े देखा, तो मुझे उस पर कुछ शक हुआ. ‘‘जिस बस स्टैंड पर वह खड़ी थी, वहां कोई भला आदमी खड़ा होना भी पसंद नहीं करता है. वह पूरा इलाका चोरबदमाशों से भरा हुआ है.

‘‘उस को देख कर मैं फौरन समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है. उस के आसपास 2-4 लफंगे किस्म के गुंडे भी मंडरा रहे थे. ‘‘मैं ने सोचा कि क्यों न आज आप को खुश करने के लिए उस को थाने ले चलूं. ऐसा सोच कर मैं फौरन उस के पास जा पहुंचा.

‘‘मुझे देख कर वहां मौजूद आवारा लड़के फौरन वहां से भाग लिए. मैं ने उस लड़की का गौर से मुआयना किया. ‘‘फिर मैं ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘कौन हो तुम? और यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह मुझे घूरते हुए बोली, ‘यहां अकेले खड़ा होना क्या जुर्म है?’ ‘‘उस का यह जवाब सुन कर मैं समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है और आसानी से कब्जे में आने वाली नहीं.

‘‘मैं ने नाम पूछा, तो वह कहने लगी, ‘मेरे नाम वारंट है क्या?’ ‘‘वह बड़ी निडर छोकरी है साहब. मैं जो भी बात कहता, उसे फौरन काट देती थी.

‘‘मैं ने उसे अपने जाल में फंसाना चाहा, लेकिन वह फंसने को तैयार ही नहीं थी. ‘‘आसानी से बात न बनते देख उस पर मैं ने अपना पुलिसिया रोब झाड़ना शुरू कर दिया. बड़ी मुश्किल से उस पर मेरे रोब का असर हुआ. मैं ने उस पर 2-4 उलटेसीधे आरोप लगा दिए और थाने चलने को कहा, लेकिन थाने चलने को वह तैयार ही नहीं हुई. ‘‘मैं ने कहा, ‘थाने तो तुम्हें जरूर चलना पड़ेगा. वहां तुम से पूछताछ की जाएगी. हो सकता है कि तुम अपने दोस्त के साथ घर से भाग कर यहां आई हो.’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह बौखला गई और मुझे धमकी देते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे थाने ले जा कर तुम बहुत पछताओगे, मेरी पहुंच ऊपर तक है.’ ‘‘छोकरी की इस धमकी का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसी धमकी सुनने की हमें आदत सी पड़ गई है…

‘‘पता नहीं, आजकल जनता पुलिस को क्या समझती है? हर कोई पुलिस को अपनी ऊंची पहुंच की धमकी दे देता है, जबकि असल में उस की पहुंच एक चपरासी तक भी नहीं होती. ‘‘मैं धमकियों की परवाह किए बिना उसे थाने ले आया और यह कह कर लौकअप में बंद कर दिया कि थोड़ी देर में दारोगाजी आएंगे. पूछताछ के बाद तुम्हें छोड़ दिया जाएगा.

‘‘जाइए, उस से पूछताछ कीजिए, बेचारी बहुत देर से आप का इंतजार कर रही है,’’ सिपाही टीकाचंद ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा. दारोगाजी के होंठों पर मुसकान तैर गई. उन की मुसकराहट में खोट भरा था. उन्होंने टीकाचंद को इशारा किया, तो वह तुरंत अलमारी से विदेशी शराब की बोतल निकाल लाया और पैग बना कर दारोगाजी को दे दिया.

दारोगाजी ने कई पैग अपने हलक से नीचे उतार दिए. ज्यादा शराब पीने से उन का चेहरा खूंख्वार हो गया था. उन की आंखें अंगारे की तरह लाल हो गईं. वह लुंगीबनियान पहन लड़खड़ाते कदमों से लौकअप में चले गए. सिपाही टीकाचंद ने फुरती से दरवाजा बंद कर दिया और वह बैठ कर बोतल में बची हुई शराब खुद पीने लगा.

दारोगाजी को कमरे में घुसे अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि उन के चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं. सिपाही टीकाचंद ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, तो दारोगाजी उस के ऊपर गिर पड़े. उन का हुलिया बिगड़ा हुआ था.

थोड़ी देर पहले तक सहीसलामत दारोगाजी से अब अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. उन का सारा मुंह सूजा हुआ था. इस से पहले कि सिपाही टीकाचंद कुछ समझ पाता, उस के सामने वही लड़की आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘देख ली अपने दारोगाजी की हालत?’’ ‘‘शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को. सरकार तुम्हें यह वरदी जनता की हिफाजत करने के लिए देती है, लेकिन तुम लोग इस वरदी का नाजायज फायदा उठाते हो,’’ लड़की चिल्लाते हुए बोली.

लड़की एक पल के लिए रुकी और सिपाही टीकाचंद को घूरते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी बदतमीजी का मजा मैं तुम्हें वहीं चखा सकती थी, लेकिन उस समय तुम ने वरदी पहन रखी थी और मैं तुम पर हाथ उठा कर वरदी का अपमान नहीं करना चाहती थी, क्योंकि यह वरदी हमारे देश की शान है और हमें इस का अपमान करने का कोई हक नहीं. पता नहीं, क्यों सरकार तुम जैसों को यह वरदी पहना देती है?’’ लड़की की इस बात से सिपाही टीकाचंद कांप उठा.

‘‘जातेजाते मैं तुम्हें अपनी पहुंच के बारे में बता दूं, मैं यहां के विधायक की बेटी हूं,’’ कह कर लड़की तुरंत थाने से बाहर निकल गई. सिपाही टीकाचंद आंखें फाड़े खड़ा लड़की को जाते हुए देखता रहा.

दारोगाजी जमीन पर बैठे दर्द से कराह रहे थे. उन्होंने लड़की को परखने में भूल की थी, क्योंकि वह जूडोकराटे में माहिर थी. उस ने दारोगाजी की जो धुनाई की थी, वह सबक दारोगाजी के लिए अनोखा था.

Hindi Short Story : सैंडल – आखिर गुड्डी फूट-फूट कर क्यों रो रही थी

Hindi Short Story : अपने बैडरूम के पीछे से किसी बच्ची के जोरजोर से रोने की आवाज सुन कर मैं चौंका. खिड़की से झांकने पर पता चला कि किशन की बेटी गुड्डी दहाड़ें मारमार कर रो रही थी.

मैं ने खिड़की से ही पूछा, ‘‘अरी लीला, छोरी क्यों रो रही?है?’’ इस पर गुड्डी की मां ने जवाब दिया, ‘‘क्या बताएं सरकार, छोरी इस दीवाली पर बहूरानी जैसे सैंडल की जिद कर रही है…’’ वह कुछ रुक कर बोली, ‘‘इस गरीबी में मैं इसे सैंडल कहां से ला कर दूं?’’

मैं अपनी ठकुराहट में चुप रहा और खिड़की का परदा गिरा दिया. मैं ने जब से होश संभाला था, तब से किशन के परिवार को अपने खेतों में मजदूरी करते ही पाया था. जब 10वीं जमात में आया, तब जा कर समझ आया कि कुछ नीची जाति के परिवार हमारे यहां बंधुआ मजदूर हैं.

सारा दिन जीतोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से इन्हें दो जून की रोटी व पहनने के लिए ठाकुरों की उतरन ही मिल पाती थी. इस में भी बेहद खुश थे ये लोग. गुड्डी किशन की सब से बड़ी लड़की थी. भूरीभूरी आंखें, गोल चेहरा, साफ रंग, सुंदर चमकीले दांत, इकहरा बदन. सच मानें तो किसी ‘बार्बी डौल’ से कम न थी. बस कमी थी तो केवल उस की जाति की, जिस पर उस का कोई वश नहीं था. वह चौथी जमात तक ही स्कूल जा सकी थी.

अगले ही साल घर में लड़का पैदा हुआ तो 13 साल की उम्र में स्कूल छुड़वा दिया गया और छोटे भाई कैलाश की जिम्मेदारी उस के मासूम कंधों पर डाल दी गई. दिनभर कैलाश की देखभाल करना, उसे खिलानापिलाना, नहलानाधुलाना वगैरह सबकुछ गुड्डी के जिम्मे था. कैलाश के जरा सा रोने पर मां कहती, ‘‘अरी गुड्डी, कहां मर गई? एक बच्चे को भी संभाल नहीं सकती.’’

बेचारी गुड्डी फौरन भाग कर कैलाश को उठा लेती और चुप कराने लग जाती. इस काम में जरा सी चूक होने पर लीला उसे बड़ी बेरहमी से पीटती. फिर भी वह सारा दिन चहकती रहती. शायद बेटी होना ही उस का जुर्म था. मेरी शादी के बाद ‘ऊंची एड़ी के सैंडल’ पहनना गुड्डी का सपना सा बन गया था. गृहप्रवेश की रस्म के समय उस ने मेरी बीवी के पैरों में सैंडल देख लिए थे. बस, फिर क्या था, उस ने मन ही मन ठान लिया था कि अब तो वह सैंडल पहन कर ही दम लेगी.

उस की सोच का दायरा बस सैंडल तक ही सिमट कर रह गया था. गुड्डी कभीकभार हमारी कोठी में आया करती थी. एक बार की बात है कि वह अपने हाथ में मुड़ातुड़ा अखबार का टुकड़ा लिए इठलाती हुई जा रही थी.

मैं ने पूछ लिया, ‘‘गुड्डी, क्या है तेरे हाथ में?’’ वह चुप रही. मैं ने मांगा तो कागज का टुकड़ा मुझे थमा दिया. मैं ने अखबार का पन्ना खोल कर देखा तो पाया कि वह सैंडल का इश्तिहार था, जिसे गुड्डी ने सहेज कर अपने पास रखा था.

मैं ने अखबार का टुकड़ा उसे वापस दे दिया. वह लौट गई. इस से पहले भी कमरे में झाड़ू लगाते समय मैं ने एक बार उसे अपनी बीवी के सैंडल पहनते हुए देख लिया था. मेरे कदमों की आहट सुन कर गुड्डी ने फौरन उन्हें उतार कर एक ओर सरका दिया. मैं ने भी बचकानी हरकत जान कर उस से कुछ नहीं कहा.

गुड्डी की जिद को देख कर मन तो मेरा भी बहुत हो रहा था कि उसे एक जोड़ी सैंडल ला दूं. मगर मां बाबूजी के आगे हिम्मत न पड़ती थी, अपने मजदूरों पर एक धेला भी खर्च करने की. बाबूजी इतने कंजूस थे कि एक बार गांव के कुछ लोग मरघट की चारदीवारी के लिए चंदा मांगने आए थे तो उन्हें यह कह कर लौटा दिया, ‘‘अरे बेवकूफों, ऐसी जगह पर चारदीवारी की क्या जरूरत है, जहां जिंदा आदमी तो जाना नहीं चाहता और मरे हुए उठ कर आ नहीं सकते.’’

बेचारे गांव वाले अपना सा मुंह ले कर लौट गए. गुड्डी को कुछ ला कर देना तो दूर की बात है, हमें उस से बात करने तक की इजाजत नहीं थी. हमारे घरेलू नौकरों तक को नीची जाति के लोगों से बात करने की मनाही थी. गांव में उन के लिए अलग कुआं, अलग जमीन पर धान, सागसब्जी उगाने का इंतजाम था.

वैसे तो किशन की झोंपड़ी हमारी कोठी से कुछ ही दूरी पर थी, मगर उस के परिवार में कितने लोग हैं, इस का मुझे भी अंदाजा नहीं था. मैं राजस्थान यूनिवर्सिटी से बीकौम का इम्तिहान पास कर वकालत पढ़ने विलायत चला गया. वहां भी गुड्डी मेरे लिए एक सवाल बनी हुई थी.

देर रात तक नींद न आने पर जब घर के बारे में सोचता तो गुड्डी के सैंडल की याद ताजा हो उठती. मैं मन ही मन उसे अपने परिवार का सदस्य मान चुका था.

4 साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. मैं ने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली थी. अब बात आगे काम सीखने की थी, जो मैं यहां अपने देश में ही करना चाहता था. इधर पिताजी ने जोधपुर हाईकोर्ट में अपने वकील दोस्त भंडारी से मेरे बारे में बात कर ली थी इसलिए मैं भारत लौट रहा था.

चंद रोज बाद ही मैं मुंबई एयरपोर्ट पर था. एयरपोर्ट से रेलवे स्टेशन करीब डेढ़ किलोमीटर दूर था. 4 साल तक विदेश में रहने के बावजूद भी मैं मांबाबूजी के खिलाफ जाने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाया था, फिर भी किसी तरह उन्हें मनाने का मन बना लिया था. ट्रेन के आने में अभी 5 घंटे का समय था, इसलिए रिकशे वाले को जूतों की किसी अच्छी सी दुकान पर ले चलने को कहा. वहां से गुड्डी के लिए एक जोड़ी सैंडल खरीदे और रेलवे स्टेशन पहुंच गया.

कुली ने सारा सामान टे्रन में चढ़ा दिया. मैं ने सैंडल वाली थैली अपने हाथ में ही रखी. यह थैली मुझे अपने मन की पोशाक जान पड़ती थी, जिस के सहारे मैं ऊंचनीच का भेद भुला कर पुण्य का पापड़ सेंकने की फिराक में था. मेरा गांव रायसिंह नगर मुंबई से तकरीबन 800 किलोमीटर दूर था. आज बड़ी लाइन के जमाने में भी वहां तक पहुंचने में 20 घंटे लग जाते हैं और

3 बार ट्रेन बदलनी पड़ती है. आजादी से 2 साल पहले तो 3 दिन और 2 रातें सफर में ही गुजर जाती थीं. अगले दिन शाम तकरीबन 5 बजे मैं थकाहारा गांव पहुंचा.

गांव में त्योहार का सा माहौल था. पूरा गांव मेरे विदेश से लौटने पर खुश था. गांवभर में मिठाइयां बांटी जा रही थीं. सभी के मुंह पर एक ही बात थी, ‘‘छोटे सरकार विदेश से वकालत पढ़ कर लौटे हैं.’’ मैं बीकानेर इलाके का पहला वकील था. उस जमाने में वकील को लोग बड़ी इज्जत से देखते थे.

घर पहुंचने पर बग्घी से उतरते ही मैं ने किशन की झोंपड़ी की ओर एक नजर डाली, मगर वहां गुड्डी नहीं दिखाई दी. रात 9 बजे के बाद माहौल कुछ शांत हुआ. पर मेरा पूरा बदन टूटा जा रहा था. खाना खाया और दर्द दूर करने की दवा ले कर सो गया.

अगले दिन सुबह 9 बजे के आसपास मेरी आंख खुली. श्रीमतीजी मेरा सूटकेस व दूसरा सामान टटोल रही थीं. उस ने अपने मतलब की सभी चीजें निकाल ली थीं, जो मैं उस के लिए ही लाया था. यहां तक कि मां की साड़ी, पिताजी के लिए शाल, छोटे भाईबहनों के कपड़े वगैरह सबकुछ मेरे जगने से पहले ही बंट चुके थे. पर सैंडल वाली थैली नदारद थी. मैं ने सोचा कि सुधा ने अपना समझ कर कहीं रख दी होगी.

दोपहर के खाने के बाद मैं ने सोचा कि अब गुड्डी के सैंडल दे आऊं. उसे बड़ी खुशी होगी कि बाबूजी परदेश से मेरे लिए भी कुछ लाए हैं. मैं ने अपनी बीवी से पूछा, ‘‘सुधा, वह लाल रंग की थैली कहां रख दी, जिस में सैंडल थे?’’

सुधा ने जवाब दिया, ‘‘ऐसी तो कोई थैली नहीं थी आप के सामान में.’’ मैं ने फिर कहा, ‘‘अरे यार, मुंबई से लाया था. यहींकहीं होगी. जरा गौर से देखो.’’

सुधा ने सारा सामान उलटपुलट कर दिया, मगर वह लाल रंग की थैली कहीं नहीं मिली. काफी देर के बाद याद आया कि अजमेर रेलवे स्टेशन पर एक आदमी बड़ी देर से मेरे सामान पर नजर गड़ाए था, शायद वही मौका पा कर ले गया होगा. यह बात मैं ने सुधा को बताई

तो वह बोली, ‘‘चलो अच्छा ही हुआ. किसी जरूरतमंद के काम तो आएगी. वैसे भी मेरे पास तो 6-7 जोड़ी सैंडल पड़े हैं.’’ इस पर मैं ने कहा, ‘‘अरी सुधा, वह मैं तुम्हारे लिए नहीं गुड्डी के लिए लाया था.’’ गुड्डी का नाम सुनते ही सुधा सिसकने लगी. उस की आंखें भीग गईं. वह बोली, ‘‘किसे पहनाते, गुड्डी को मरे तो 4 महीने हो गए.’’

सुधा की पूरी बात सुन कर मैं भी रो पड़ा. सुधा ने बताया कि मेरे जाने के एक साल बाद ही बेचारी गरीब को एक ऐयाश शराबी के साथ ब्याह दिया गया. उम्र में भी वह काफी बड़ा था. गुड्डी लोगों के घरों में झाड़ूपोंछा कर जो भी 2-4 रुपए कमा कर लाती, उसे भी वह मारपीट कर ले जाता. चौबीसों घंटे वह शराब पी कर पड़ा रहता था. बहुत दुखी थी बेचारी. फिर भी उस ने अपने सपने को ज्यों का त्यों संजो कर रखा था. करीब 4 महीने पहले बड़ी मुश्किल से छिपछिपा कर बेचारी ने 62 रुपए जोड़ लिए थे.

करवाचौथ के दिन गांव में हाट लगा था, जहां से गुड्डी अपना सपना खरीद कर लाई थी. उसे क्या पता था कि यह सपना ही उस के लिए काल बन जाएगा. गुड्डी ने हाट से वापस आ कर सैंडल ऊपर के आले में रखे थे. एक बार पहन कर देखे तक नहीं कि कहीं मैले न हो जाएं.

शाम को न जाने कहां से उस के पति की नजर सैंडल पर पड़ गई. कहने लगा, ‘‘बता चुड़ैल, कहां से लाई इतने पैसे? किस के साथ गई थी?’’ और लगा उसे जोरजोर से पीटने. गुड्डी पेट से थी. उस ने एक लात बेचारी के पेट पर दे मारी. वही लात उस के लिए भारी पड़ गई. उस की मौत हो गई. उस का पति आजकल जेल में पड़ा सड़ रहा है.

यही थी गुड्डी की दर्दभरी कहानी, जिसे सुन कर कोई भी रो पड़ता था. पर अब न गुड्डी थी, न गुड्डी का सपना.

Short Story : बहके कदम – आखिर क्यों बहके उषा के कदम?

Short Story : उषा को इस बात का मलाल था कि उस का पति किसान है. वह किसानी को गंवारों का काम समझती थी. उसे गांव में रहना बिलकुल पसंद नहीं था. उषा की सारी सहेलियां शहर में सैटल्ड थीं. जब वे बात करतीं तो शहर के मौल्स,मल्टीप्लेक्स, मार्केट आदि के बारे में तरहतरह की बातें बतातीं. उषा के पास बताने के लिए कुछ खास नहीं होता. खेत, बागबगीचे के बारे में बात करना वह अपनी तौहीन समझती थी.

अपनी सहेलियों में वह सब से सुंदर और तेजतर्रार थी. गोरा रंग, लंबी छरहरी काया और तीखे नैननक्श वाली उषा के पीछे कई लड़के फिदा थे.

शादी से पहले उषा का एक प्रेमी भी था. उषा के परिवार वालों को जब इस प्रेमलीला के बारे में पता चला, तो आननफानन ही उस की शादी एक संपन्न किसान परिवार में करा दी गई.

उषा को ससुराल में कोई कमी नहीं थी. उस का पति अमित उस की हर जरूरत का खयाल रखता था. उषा को भी अमित से कोई दिक्कत नहीं थी. बस उसे गांव का लाइफस्टाइल पसंद नहीं था. वह चाहती थी कि अमित भी शहर में सैटल्ड हो. दूसरी ओर अमित किसानी में कुछ नया करना चाहता था. इस बात को ले कर अकसर ही दोनों में कहासुनी होती रहती थी.

अमित उसे समझाता था, ‘‘उषा, शहर की जिंदगी में बहुत संघर्ष भरी है. वहां की रोशनी का अंधकार बेहद गहरा होता है.”

‘‘यहां की जिंदगी कौन सी बेहतर है? शहर में कम से कम अवसर तो मिलता है,’’ उषा अमित से बहस करती.

‘‘अवसर मिलता है, यह कहना आसान है. पर हकीकत इस से कोसों दूर है. मेरा एक दोस्त विनोद दिल्ली में नौकरी करता है. वह गांव आने वाला है. मैं तुम्हें उस से मिलवाऊंगा. वह तुम्हें शहर की सचाई बताएगा,’’ अमित ने कहा.

कुछ दिन बाद विनोद गांव आया. वह रंगीनमिजाज का बांका जवान था. वह जब भी गांव आता, घूमघूम कर गांव वालों पर रोब झाड़ा करता था. हालांकि अमित को उस की असलियत पता थी. उसे भरोसा था कि लंगोटिया यार होने के नाते विनोद उस की बीवी को सही सलाह देगा.

अमित ने विनोद को अपनी पत्नी उषा से मिलवाया. पहली ही नजर में विनोद उषा पर फिदा हो गया. विनोद ने गांवभर में ऐसी सुंदर औरत नहीं देखी थी. उषा की नशीली गहरी आंखें, गुलाबी होंठ और उफनती जवानी विनोद की आंखों में अटक गए. वह उषा को पाने के लिए बेचैन हो उठा. उषा भी विनोद की रंगीली पर्सनैलिटी पर रीझ गई. बातचीत के दौरान विनोद ने भांप लिया कि उषा गांव में खुश नहीं है और शहर में शिफ्ट होना चाहती है.

विनोद ने शहरी जीवन की चकाचौंध के सब्जबाग दिखा कर उषा पर डोरे डालने शुरू किए. अमित के घर पर न होने पर विनोद उषा से मिलने पहुंच जाया करता था. उषा को भी विनोद की लुभावनी बातें रास आने लगी थीं.

एक दिन दोपहर में उषा नहा कर बाथरूम से निकली ही थी कि विनोद पहुंच गया. उषा के खुले भीगे बाल और पेटीकोट में मचलती जवानी ने विनोद को मदहोश कर दिया. उस ने उषा को अपनी बांहों में भर लिया और बेतहाशा चूमने लगा. उषा भी मचल उठी. उस ने विनोद को अपने आगोश में भींच लिया.

जवानी के उफान में वे गोते लगाने लगे. फिर यह सिलसिला चल निकला. वे जिस्मानी संबंध बनाने का कोई मौका नहीं चूकते.

विनोद के दिल्ली लौटने की तारीख नजदीक आ रही थी. उषा विनोद के प्यार में सुधबुध खो चुकी थी. विनोद भी उषा को चाहने लगा था. दोनों ने शादी करने का फैसला किया. वे भाग कर दिल्ली आ गए.

विनोद दिल्ली में झुग्गी में रहता था. उषा ने जब झुग्गी में रहने से मना किया, तो विनोद ने झूठ बोला कि वह जल्दी ही बड़ा घर ले लेगा. थोड़े ही दिनों में विनोद की सचाई सामने आ गई.

विनोद सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करता था. उस की सैलरी इतनी नहीं थी कि किसी अच्छी जगह पर घर ले सके.

विनोद और उषा में अब हर रोज किसी न किसी बात पर झगड़ा होने लगा. गुस्से में आ कर विनोद उषा की पिटाई भी कर देता था. उषा के सारे अरमान बिखर गए. अब उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था.

विनोद के झांसे में आ कर उस ने जो कदम उठाए थे, उस के आगे अंधकार ही अंधकार दिख रहा था. उषा को अमित के साथ गुजारे दिन याद आ रहे थे.

अमित भले ही स्टाइलिश नहीं था, लेकिन सच्चा आदमी था. उस के प्यार और समर्पण में कोई संदेह नहीं था. उषा ने हिम्मत कर के अमित को फोन किया, ‘‘अमित मुझे माफ कर दो. प्लीज, मुझे अपने पास बुला लो,‘‘ उषा इस से ज्यादा कुछ कह न सकी.

‘‘उषा, तुम हमेशा से शहर और शहरी लोगों के साथ रहना चाहती थी. किस्मत से तुम्हें दोनों मिल भी गए. वहीं सदा खुश रहो,” कह कर अमित ने फोन रख दिया.

उषा निढ़ाल हो कर बिस्तर पर गिर पड़ी. उसे अपने बहके कदमों का हिसाब ताउम्र चुकता करना था.

लेखक – सुजीत सिन्हा

Hindi Story : मेघनाद – आदमी की पहचान उसके गुणों से होती है!

Hindi Story : ‘मेघनाद…’ हमारे प्रोफैसर क्लासरूम में हाजिरी लेते हुए जैसे ही यह नाम पुकारते, ‘खीखी’ की दबीदबी आवाजें आने लगतीं. एक तो नाम भी मेघनाद, ऊपर से जनाब 6 फुट के लंबे कद के साथसाथ अच्छेखासे सांवले रंग के मालिक भी थे. उस पर घनीघनी मूंछें. कुलमिला कर मेघनाद को देख कर हम शहर वाले उसे किसी फिल्मी विलेन से कम नहीं समझते थे.

पास ही के गांव से आने वाला मेघनाद पढ़ाई में अव्वल तो नहीं था लेकिन औसत दर्जे के छात्रों से तो अच्छा ही था.

आमतौर पर क्लास में पीछे की तरफ बैठने वाला मेघनाद इत्तिफाक से एक दिन मेरे बराबर में ही बैठा था. जैसे ही प्रोफैसर ने उस का नाम पुकारा कि ‘खीखी’ की आवाजें आने लगीं.

मेरे लिए अपनी हंसी दबाना बड़ा ही मुश्किल हो रहा था. मुझे लगा कि मेघनाद को बुरा लग सकता है, लेकिन मैं ने देखा कि वह खुद भी मंदमंद मुसकरा रहा था.

कुछ दिनों से मैं नोट कर रहा था कि मेघनाद चुपकेचुपके श्वेता की तरफ देखता रहता था. कालेज में लड़कियों की तरफ खिंचना कोई नई बात नहीं थी लेकिन श्वेता अपने नाम की ही तरह खूब गोरी और बेहद खूबसूरत थी. क्लास के कई लड़के उस पर फिदा थे लेकिन श्वेता किसी को भी घास नहीं डालती थी.

मैं ने यह बात खूब मजे लेले कर अपने दोस्तों को बताई.

एक दिन जब प्रोफैसर महेश ने मेघनाद का नाम पुकारा तो कोई जवाब नहीं आया. उन्होंने फिर से नाम पुकारा लेकिन फिर भी कोई जवाब नहीं आया.

मेघनाद कभी गैरहाजिर नहीं होता था इसलिए प्रोफैसर महेश ने सिर उठा कर फिर से उस का नाम लिया. अब तक क्लास की ‘खीखी’ अच्छीखासी हंसी में बदल गई थी.

इतने में श्वेता ने मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘सर, वह शायद लक्ष्मणजी के साथ कहीं युद्ध कर रहा होगा.’’

यह सुन कर सभी हंसने लगे. यहां तक कि प्रोफैसर महेश भी अपनी हंसी न रोक पाए.

तभी सब की नजर दरवाजे पर पड़ी जहां मेघनाद खड़ा था. आज उस की ट्रेन लेट हो गई थी तो वह भी थोड़ा लेट हो गया था. उस ने श्वेता की बात सुन ली थी और उस का चेहरा उतर गया था.

मुझे मेघनाद का उदास सा चेहरा देख कर अच्छा नहीं लगा. शायद उस को लोगों की हंसी से ज्यादा श्वेता की बात बुरी लगी थी.

बीएससी पूरी कर के मैं दिल्ली आ गया और फिर अगले 10 सालों में एक बड़ी मैडिकल ट्रांसक्रिप्शन कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर बन गया.

कालेज के मेरे कुछ दोस्त सरकारी टीचर बन गए तो कुछ अपना कारोबार करने लगे.

कालेज के कुछ पुराने छात्रों ने 10 साल पूरे होने पर रीयूनियन का प्रोग्राम बनाया. अनुराग, अजहर, विनोद, इकबाल, पारुल वगैरह ने प्रोग्राम के लिए काफी मेहनत की.

प्रोग्राम में अपने पुराने साथियों से मिल कर मुझे बहुत अच्छा लगा.

यों तो प्रोग्राम में अपनी क्लास के करीब आधे ही लोग आ पाए, फिर भी उन सब से मिल कर काफी अच्छा लगा.

मेरे सहपाठी हेमेंद्र और दीप्ति शादी कर के मुंबई में रह रहे थे तो संजय एक बड़ी गारमैंट कंपनी में वाइस प्रैसीडैंट बन गया था. अतीक जरमनी में सीनियर साइंटिस्ट के पद पर था. वह प्रोग्राम में तो नहीं आ पाया लेकिन उस ने हम सब को अपनी शुभकामनाएं जरूर भेजी थीं.

वंदना एक कामयाब डाक्टर बन गई थी. हमारे टीचरों ने भी हम सब को अपनेअपने फील्ड में कामयाब देख कर अपना आशीर्वाद दिया. कुलमिला कर सब से मिल कर बहुत अच्छा लगा.

हमारे सीनियर मैनेजर मनीष सर 2 साल के लिए अमेरिका जा रहे थे. उन की जगह कोई नए सीनियर मैनेजर हैदराबाद से आ रहे थे. मेरे साथी असिस्टैंट मैनेजर ऋषि, जिन को औफिस में सब ‘पार्टी बाबू’ के नाम से बुलाते थे, ने नए सीनियर मैनेजर के स्वागत में एक छोटी सी पार्टी करने का सुझाव दिया. हम सभी को उन की बात जंच गई और सभी लोग पार्टी की तैयारियों में लग गए.

तय दिन पर नए सीनियर मैनेजर औफिस में पधारे और उन को देखते ही मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न रही. मेरे सामने मेघनाद खड़ा था. वह भी मुझे देख कर तुरंत पहचान गया और बड़ी गर्मजोशी से आ कर मिला.

मेघनाद बड़ा आकर्षक लग रहा था. सूटबूट में आत्मविश्वास से भरपूर फर्राटेदार अंगरेजी में बात करता एक अलग ही मेघनाद मेरे सामने था. अपने पहले ही भाषण में उस ने सभी औफिस वालों को प्रभावित कर लिया था.

थोड़ी देर बाद चपरासी ने आ कर मुझ से कहा कि सीनियर मैनेजर आप को बुला रहे हैं. मेघनाद ने मेरे और परिवार के बारे में पूछा. फिर वह अपने बारे में बताने लगा कि ग्रेजुएशन करने के बाद वह कुछ साल दिल्ली में रहा, फिर हैदराबाद चला गया. पिछले साल ही उस ने हमारी कंपनी की हैदराबाद ब्रांच जौइन की थी.

फिर उस ने मुझे रविवार को सपरिवार अपने घर आने की दावत दी.

रविवार को मैं अपनी श्रीमती के साथ मेघनाद के घर पहुंचा. घर पर मेघनाद के 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी थे. लेकिन असली झटका मुझे उस की पत्नी को देख कर लगा. मेरे सामने श्वेता खड़ी थी. मेरे हैरानी को भांप कर मेघनाद भी हंसने लगा.

‘‘हैरान हो गए क्या…’’ मेघनाद ने हंसते हुए कहा, फिर खुद ही वह अपनी कहानी बताने लगा, ‘‘दिल्ली आने के बाद नौकरी के साथसाथ मैं एमबीए भी कर रहा था. वहां मेरी मुलाकात श्वेता से हुई थी. फिर हमारी दोस्ती हो गई और कुछ समय बाद शादी. वैसे, मुझ में इन्होंने क्या देखा यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया.’’

श्वेता ने भी अपने दिल की बात बताई, ‘‘कालेज में तो मैं इन को सही से जानती भी नहीं थी, पता नहीं कहां पीछे बैठे रहते थे. दिल्ली आ कर मैं ने इन के अंदर के इनसान को देखा और समझा. मैं ने अपनी जिंदगी में इन से ज्यादा ईमानदार, मेहनती और प्यार करने वाला इनसान नहीं देखा.’’

मेघनाद और श्वेता के इस प्रेम संसार को देख कर मुझे वाकई बड़ी खुशी हुई. सच ही है कि आदमी की पहचान उस के नाम या रंगरूप से नहीं, बल्कि उस के गुणों से होती है. और हां, अब मुझे मेघनाद नाम सुन कर हंसी नहीं आती, बल्कि फख्र महसूस होता है.

Hindi Story : कर्मयोगी – धीरज ने गलत कदम क्यों उठाया

Hindi Story : धीरज को मैनेजर कुलकर्णी ने अपने केबिन में बुलाया. लिहाजा, मशीन रोक कर वह उसी ओर चल दिया. लेकिन अंदर चल रही बातचीत को सुन कर उस के कदम केबिन के बाहर ही ठिठक गए. ‘‘देख फकीरा…’’ मैनेजर कुलकर्णी अंदर बैठे हुए फकीरा को समझा रहे थे, ‘‘अगर तू ने ऐसा कर लिया, तो समझ ले कि 2 ही दिन में तेरी सारी गरीबी दूर हो जाएगी.’’

‘‘लेकिन साहब…’’ फकीरा हकलाने लगा, ‘‘यह तो धोखाधड़ी होगी.’’ ‘‘युधिष्ठिर न बन फकीरा,’’ कुलकर्णी की आवाज में कुछ झुंझलाहट थी, ‘‘कारोबार में यह सब चलता रहता है. सभी तो मिलावट किया करते हैं.’’

धीरज उलटे पांव अपनी मशीन के पास लौट आया. मैनेजर और फकीरा में आगे क्या बात हुई होगी, उस ने इस का अंदाजा लगा लिया. वह सोच में पड़ गया, ‘तो क्या कुलकर्णी मालिक की आंखों में धूल झोंकना चाहता है?’ धीरज फिर से मशीन पर काम करने लगा. मशीन के मुंह से लालपीले कैप्सूल उछलउछल कर नीचे रखी ट्रे में गिरते जा रहे थे.

ओखला में कपूर की उस लेबोरेटरी में जिंदगी को बचाने वाली बहुत सारी दवाएं बनती हैं. 60-70 मजदूरों की देखरेख मैनेजर कुलकर्णी करता है. कपूर साहब तो कभीकभार ही आते हैं. कारोबार के संबंध में वह ज्यादातर दिल्ली से बाहर ही रहते हैं. धीरज उन का बहुत ही भरोसेमंद मुलाजिम था. 2 साल पहले धीरज ओखला की किसी फैक्टरी में तालाबंदी होने से बेरोजगार हो गया था. उस दिन वह निजामुद्दीन के क्षेत्रीय रोजगार दफ्तर के बाहर खड़ा था, तभी सामने दौड़ती हुई कार के तेज रफ्तार में मुड़ने से एक फाइल सड़क पर आ गिरी.

धीरज ने फाइल उठा कर जोरजोर से आवाजें दीं, ‘साहबजीसाहबजी, आप के कागजात गिर गए हैं.’ आगे के चौराहे पर वह कार तेजी से रुक गई.

धीरज भागता हुआ वहीं पहुंचा. वह हांफने लगा था. फाइल लेते हुए कपूर साहब ने उस से पूछा था, ‘क्या करते हो तुम?’

‘बस साहब, इन दिनों तो ऐसे ही सड़कें नाप रहा हूं,’ कह कर वह सिर खुजलाने लगा. ‘नौकरी करोगे?’ उन्होंने पूछा था.

‘मेहरबानी होगी साहबजी,’ उस ने हाथ जोड़ दिए. ‘आओ, गाड़ी में बैठो,’ उन्होंने गाड़ी का पिछला दरवाजा खोल दिया, तो धीरज कार में जा बैठा.

धीरज के बैठते ही कार तेजी से ओखला की तरफ दौड़ने लगी थी. बस, तभी से वह उन की लेबोरेटरी में काम कर रहा है. पिछले महीने मजदूरों की एक मीटिंग हुई थी. उस में कई लोकल कामरेड आए हुए थे. वे लोग बोनस के मसले पर बात कर रहे थे. धीरज ने भी कुछ कहना चाहा था.

एक कामरेड उस की ओर देख कर बोला था, ‘आप शायद कुछ कहना चाहते हैं?’ ‘बोनस का मामला आपसी बातचीत से ही सुलझाना ठीक रहेगा,’ धीरज ने अपना सुझाव दिया था, ‘घेरावों और हड़तालों से अपने ही लोगों की हालत खराब होती है.’

‘ठीक कहते हो कामरेड,’ कह कर एक मजदूर नेता मुसकरा दिया. ‘हड़ताल तो हमारा आखिरी हथियार होता है. इस से तालाबंदी की नौबत तक आ जाती है,’ धीरज बोला था.

‘जानते हैं, अच्छी तरह से जानते हैं,’ सिर हिला कर कामरेड ने अपनी सहमति जताई थी. खाली मशीन खड़खड़ की आवाज करने लगी थी. धीरज ने उस में दवा का पाउडर डाल दिया था. लालपीले कैप्सूल फिर से ट्रे में गिरने लगे.

‘‘अरे…’’ फकीरा ने धीरज के पास आ कर उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘तुझे मैनेजर साहब याद कर रहे थे?’’

यह सुन कर धीरज मुसकरा दिया और पूछा, ‘‘क्यों?’’ फकीरा ने उस की मुसकान का राज जानना चाहा.

‘‘वह मुझे भी चोर बनाना चाहते होंगे,’’ धीरज उसी तरह मुसकराते हुए बोला. ‘‘तो तू हमारी बातचीत सुन चुका है?’’ फकीरा चौंक गया.

‘‘हां…’’ धीरज ने गहरी सांस ली, ‘‘सुन कर मैं वापस चला आया था.’’ ‘‘हमारे न करने से कुछ नहीं होता धीरज…’’ फकीरा उसे समझाने लगा, ‘‘हमारे यहां मिलावट का धंधा पिछले 2-3 साल से हो रहा है. घीसू, मातंबर, सांगा सभी तो मिलावट करते हैं.’’

‘‘यह तो बहुत गलत किया जा रहा है,’’ धीरज गंभीर हो गया और उस के माथे पर चिंता की लकीरें दिखने लगीं, ‘‘ये लोग तो मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं.’’ ‘‘ज्यादा न सोचा कर मेरे यार,’’ फकीरा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया, ‘‘हम मजदूरों को ज्यादा नहीं सोचना चाहिए. हम लोगों का काम केवल मजदूरी करना होता है.’’

‘‘नहीं फकीरा, यहां मैं तुम से सहमत नहीं हूं,’’ धीरज ने उस की बात काट दी, ‘‘मजदूर होने के साथसाथ हम इनसान भी तो हैं.’’ ‘‘तो फिर सोचतेसोचते अपना शरीर सुखाता रह,’’ झुंझला कर फकीरा अपनी मशीन की तरफ चल दिया.

शाम को लेबोरेटरी में छुट्टी हो गई, तो सभी मजदूर घर जाने लगे. धीरज भी अपनी साइकिल उठा कर चल दिया. आगे चौराहे पर वह रुक गया. उस के मन में खलबली मच रही थी. वह तय नहीं कर पा रहा था कि किधर जाए? अगले ही मिनट उस की साइकिल मेन रोड की ओर मुड़ गई.

पैडल मारता हुआ वह डिफैंस कालोनी की ओर चल दिया. आज वह मालिक को सबकुछ सचसच बता देना चाहता था. कपूर साहब की कोठी आ गई. उस ने साइकिल कोठी के बाहर खड़ी कर दी. उस समय कपूर साहब क्यारी में पानी दे रहे थे. उसे देख कर वह मुसकरा कर बोले, ‘‘आओ धीरज, अंदर आ जाओ.’’

वह सिर खुजलाता हुआ बोला, ‘‘सर, मैं आज आप से जरूरी बात करने आया हूं.’’ ‘‘शीला…’’ कपूर साहब ने अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘‘जरा 2 कप चाय तो भेजना.’’

धीरज संकोच से सिकुड़ता ही जा रहा था. आज तक उस ने जितनी भी नौकरियां कीं, कपूर साहब जैसा मालिक कहीं नहीं देखा. ‘‘वो सर,’’ धीरज ने कुछ कहना चाहा.

‘‘अच्छा, पहले यह बता कि तेरी बेटी कैसी है?’’ कपूर साहब ने उस की बात बीच में ही काट दी. धीरज ठगा सा रह गया. उस की बेटी के बारे में उन्हें कैसे मालूम? तभी उसे याद हो आया कि पिछले महीने शरबती बेटी के बीमार होने पर उस ने एक हफ्ते की छुट्टी ली थी. हो सकता है कि उस की अरजी मालिक तक पहुंची हो. तभी उस ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘पहले से ठीक है, सर.’’

कपूर साहब की पत्नी लान में 2 कप चाय ले आईं. धीरज ने उठ कर उन्हें नमस्कार किया. कपूर साहब ने पत्नी को उस का परिचय दिया, ‘‘यह अपनी लेबोरेटरी में काम करता है.’’ मालकिन मुसकरा कर अंदर चली गईं. कपूर साहब ने चाय की चुसकी ले कर पूछा, ‘‘हां, तो धीरज अब बताओ कि कैसे आना हुआ?’’

‘‘लोगों की जान बचाइए मालिक,’’ कहते हुए धीरज ने सहीसही बात बता दी.

‘‘ठीक है धीरज…’’ कपूर साहब ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘इस बारे में मैं पूरी छानबीन करूंगा.’’ कपूर साहब को नमस्कार कर धीरज घर की ओर चल पड़ा. रास्तेभर वह उसी मामले पर सोचता रहा, ‘कहीं मैं ने मजदूरों के साथ गद्दारी तो नहीं की?’

उस के कानों में फकीरा के शब्द गूंजते जा रहे थे, ‘मजदूरों को ज्यादा नहीं सोचना चाहिए.’ धीरज दिमागी रूप से बहुत परेशान हो गया था. पत्नी ने कारण पूछा, तो उस ने सारी बात बता दी.

पत्नी हंस कर बोली, ‘‘शरबती के पापा, तुम ने जो भी किया है, अच्छा ही किया है. अपने सही काम पर पछतावा कैसा?’’

‘‘तो अच्छा ही किया, है न?’’ धीरज ने कहा. ‘‘तुम ने तो अपना फर्ज निभाया है,’’ पत्नी ने धीरज के कंधे पर अपना हाथ रख कर कहा.

कपूर साहब को कुलकर्णी पर बहुत ज्यादा भरोसा था. उन्हें कुलकर्णी से इस तरह की उम्मीद नहीं थी. कपूर साहब ने लेबोरेटरी में बने कैप्सूलों व दूसरी दवाओं की किसी भरोसे की प्रयोगशाला से जांच कराई. पता चला कि उन में 20 फीसदी मिलावट है. ऐसे में उन्हें सारी दुनिया घूमती नजर आने लगी. इस से उन्हें गहरा धक्का लगा.

एक दिन कपूर साहब ने कुलकर्णी को मैनेजर के पद से हटा दिया. उस की जगह पर वह खुद ही मैनेजर का काम देखने लगे. लेबोरेटरी में फिर से बिना मिलावट के दवाएं बनने लगीं. उन की बिगड़ी साख फिर से लौट आई. एक दिन कपूर साहब ने धीरज को अपने केबिन में बुलाया. धीरज एक तरफ हाथ बांधे खड़ा हो कर बोला,

‘‘जी मालिक.’’ ‘‘हम तुम्हारे बहुत आभारी हैं धीरज,’’ कपूर साहब आभार जताने लगे, ‘‘अगर तुम न होते, तो हम पूरी तरह से तबाह ही हो जाते. हमारी सारी साख मिट्टी में मिल जाती.’’

‘‘यह तो मेरा फर्ज था मालिक,’’ धीरज ने कहा. ‘‘हर कोई तो फर्ज नहीं निभाता न,’’ कपूर साहब बोले. धीरज चुप रहा.

‘‘आज से तुम हमारी लेबोरेटरी के सुपरवाइजर बन गए हो,’’ कपूर साहब ने धीरज को उसी समय तरक्की दे दी. ‘‘ओह मालिक,’’ कह कर धीरज उन के पैरों पर गिर गया.

कपूर साहब ने उसे दोनों हाथों से उठाया. वह उस की पीठ थपथपाने लगे और कहने लगे, ‘‘यह तरक्की मैं ने नहीं दी है, बल्कि यह तो तुम्हें तुम्हारी काबिलीयत से मिली है.’’

अब धीरज के रहनसहन में बदलाव आने लगा. इस बीच उस की बेटी शरबती भी ठीक हो गई. कपूर साहब की उस लेबोरेटरी में वह और भी लगन व ईमानदारी के साथ काम करने लगा था.

Hindi Story : पानी – रमन ने कैसे दिया जवाब

Hindi Story : पटवारी गंगाराम प्रसाद की मोटरसाइकिल जब गांव के छोर पर बने उन के दोमंजिला मकान के सामने रुकी, तब शाम का अंधेरा गहरा चुका था. उन्होंने मोटरसाइकिल बरामदे में खड़ी की ही थी कि उन की बीवी सुशीला देवी हमेशा की तरह गिलास में पानी ले कर बाहर निकल आई. गंगाराम ने मोटरसाइकिल की डिक्की से एक छोटा सा बैग निकाला. पानी भरा गिलास एक हाथ से थामते हुए, दूसरे हाथ में पकड़ा बैग बीवी के आगे बढ़ाते हुए वे बोले, ‘‘लो, इस को अपनी अलमारी में संभाल कर रख दो.’’

सुशीला बैग के वजन को हाथों पर ही तौलते हुए बोली, ‘‘लगता है, आज का दिन काफी अच्छा रहा है.’’ गंगाराम कुल्ला करने लगे थे, इसलिए जल्दी से कोई जवाब न दे सके. पलट कर रूमाल से होंठों को पोंछते हुए वे बोले, ‘‘वाकई आज का दिन बहुत अच्छा रहा. जाने कब से लटकते आ रहे 2 केस आज निबट गए और मुझे भी उम्मीद से ज्यादा मिला है.’’

‘‘आओ,’’ सुशीला ने घर के अंदर जाने के लिए मुड़ते हुए कहा, ‘‘चाय तैयार है.’’ कुछ देर बाद गंगाराम एक आराम कुरसी पर बैठे हुए चाय पी रहे थे और अपने पास खड़ी सुशीला से कह रहे थे, ‘‘पूरे 25 हजार दिए हैं एक ने और दूसरे ने 18 हजार. दोनों का इस रकम से

4-5 गुना कीमत का फायदा जो कराया है मैं ने.’’ ‘‘अब तो रमन के लिए दुकान पक्की हो जाएगी न?’’ सुशीला देवी की बात सुन कर गंगाराम के चौड़े माथे पर शिकन पड़ गई. वे बोले, ‘‘अभी नहीं. तुम रमन के पीछे क्यों पड़ी हो? दुकान तो शहर की नई बाजार में पहले से ही ले ली है, पर अभी उसे चालू नहीं करवाऊंगा. वह दुकान कपड़े का धंधा करने के लिए बड़े मौके की है. और तुम्हारे बेटे को तो मैडिकल स्टोर खोलने की सनक सवार है. तुम ने उसे इतना सिर चढ़ा रखा है कि मेरी बात उस के पल्ले ही नहीं पड़ती.’’

सुशीला से एकाएक ही कुछ कहा न गया. गंगाराम ही बोले, ‘‘कहां गए हैं तुम्हारे साहबजादे?’’ ‘‘शहर गया है. कह रहा था कि किसी दोस्त के घर

दावत है.’’ सुशीला के इतना कहते ही गंगाराम ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, ‘‘अब क्या आधी रात के पहले लौट कर आएगा? अपना आगापीछा कुछ सोचता ही

नहीं. बस पैसे उड़ाना जानता है, पैसे कमाना नहीं.’’ ‘‘इन सब बातों से क्या फायदा है?’’ सुशीला बोली, ‘‘जब वह कहता है, तो आप उसे दुकान क्यों नहीं खुलवा देते?’’

‘‘वह अपने अंदर दुकान की जिम्मेदारी संभालने लायक हुनर भी तो पैदा करे.’’ कुछ देर की चुप्पी के बाद सुशीला ने अचानक कहा, ‘‘आप जो रकम घर ले आए हैं, उसे बैंक में जमा नहीं करेंगे क्या?’’

‘‘नहीं,’’ गंगाराम ने कहा, ‘‘बल्कि कल बैंक से और पैसे निकालूंगा और ईंटसीमेंट वगैरह सारा सामान मंगवाने की सोच रहा हूं कि मंदिर बनवाने का काम शुरू करवा दूं. ‘‘हां सुशीला, मां की आत्मा की शांति के लिए यह जरूरी है. मैं ने मां को वचन दिया था कि उन के नाम से मैं अपने गांव में एक बढि़या सा मंदिर जरूर बनवाऊंगा.

‘‘तुम तो जानती ही हो कि बचपन में मैं ने बड़े ही कष्ट के दिन देखे हैं. मैं ने तुम को पहले भी बताया है कि मां ने सूत कातकात कर मुझे पढ़ायालिखाया और पालापोसा. यह उन का ही आशीर्वाद है कि मैं इस नौकरी के लायक हो सका. ‘‘लेकिन, सुख के दिन आने से पहले ही मां गुजर गईं. मैं जीतेजी तो उन को कोई सुख न दे सका, पर उन की अंतिम इच्छा जरूर पूरी करूंगा.’’

तभी बाहर रमन की मोपेड की आवाज सुनाई दी. गंगाराम के चेहरे पर तनाव आ गया. सुशीला ने जल्दी से कहा, ‘‘अब आप उस पर बिगड़ना मत. मैं उसे समझा दूंगी,’’ इतना कह कर सुशीला कमरे से बाहर निकल गई.

सुबह की गुलाबी धूप में गंगाराम का चेहरा चमक रहा था. वे सुशीला पर गरज रहे थे, ‘‘मैं कहता हूं कि उस ने जब 3 सौ रुपए मांगे थे, तो तुम ने बगैर मुझ से पूछे हामी भरी ही क्यों? मैं क्या मर गया था? पैसे देने ही थे, तो उस के सामने अलमारी खोली ही क्यों?’’ ‘‘मैं क्या जानती थी कि वह इतनी बड़ी रकम को ही उड़ा ले जाएगा? मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि वह इतनी बड़ी रकम का करेगा क्या?’’

‘‘क्या करेगा? अरे, जिसे पैसे बरबाद करने की लत पड़ चुकी हो, उस के लिए लाखोंकरोड़ों की रकम भी कम पड़ जाएगी,’’ गंगाराम ने कहा और दोनों हाथों में अपना सिर थाम लिया. गंगाराम ने थोड़ी देर बाद अपना चेहरा ऊपर उठाया. सुशीला देवी रोंआसी हो उठी थी. गंगाराम ने दांत किटकिटा कर कहा, ‘‘आने दो उसे घर वापस. जाएगा कहां? मैं उस की अच्छी खबर लूंगा.’’ ‘‘उसे कुछ भी कहना, पर एक बात ध्यान रखना कि वह अब बच्चा नहीं है. जवान खून में उबाल जल्दी आता है. कहीं कोई बात लग गई और उस ने कुछ करकरा लिया, तो हम तो कहीं मुंह दिखाने लायक न रहेंगे.’’

‘‘कुछ नहीं करेगा वह,’’ गंगाराम ने कड़क आवाज में कहा. उसी शाम जब गंगाराम घर लौटे, तो सुशीला देवी ने पानी से भरा गिलास पकड़ाते हुए पहला सवाल यही किया, ‘‘रमन का कुछ पता चला?’’

‘‘भाड़ में जाए वह,’’ गंगाराम गुस्से में बोले. सुशीला ने आगे कुछ न पूछा. गंगाराम ने बरामदे में ही पड़ी आराम कुरसी पर पसरते हुए

शरीर को ढीला छोड़ कर आंखें बंद कर लीं. अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि रमन लाल रंग की मोटरसाइकिल खड़ी कर के नीचे उतरा और अपनी ओर घूरते गंगाराम व सुशीला की ओर उड़ती नजरों से देखते हुए वह घर की ओर बढ़ा.

गंगाराम ने कहा, ‘‘ठहरो.’’ रमन खड़ा हो गया. अपनी आंखों से फैंसी चश्मा उतार कर कमीज की जेब में रखते हुए वह बोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘तुम अलमारी से पैसे ले गए थे?’’ गंगाराम के बोलने से पहले ही सुशीला ने पूछा. रमन ने उसी सपाट लहजे में कह दिया, ‘‘और कौन ले जा सकता था? मुझे यह मोटरसाइकिल खरीदने के लिए पैसों की जरूरत थी, सो ले गया. उस खटारा मोपेड से मैं तंग आ चुका था. पहले भी कहा था कि मैं उसे बेच कर एक ठीकठाक गाड़ी लेना चाहता हूं.’’

‘‘तुम…?’’ गंगाराम गुस्से में न जाने क्याक्या बकते चले गए. रमन चुपचाप खड़ा सबकुछ सुनता रहा. सुशीला ने गंगाराम को शांत करने के लिए कुछ कहना चाहा, पर गंगाराम ने उस को भी डपट दिया. हांफते हुए गंगाराम की जबान लड़खड़ाने लगी, तो वे चुप हो गए और जल्दीजल्दी सांसें लेने लगे.

रमन ने शांतिपूर्वक कहा, ‘‘पैसे मैं ने ही तो खर्च किए हैं. कोई डकैती तो हो नहीं गई, जो आप इतना परेशान हुए जा रहे हैं?’’ गंगाराम भड़क उठे, ‘‘तुम अपने बाप को सिखा रहे हो? जब कमाओगे, तब पता चलेगा…’’

‘‘ओह, तो इसे भी आप अपनी कमाई मानते हैं,’’ रमन कुटिल हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘काश, हिंदुस्तान का हर आदमी ऐसे ही कमाई करने लायक हो जाए, तो इस देश से गरीबी मिट जाए. ‘‘और फिर आप के बारे में तो मशहूर है कि आप 2 पक्षों में से जो पक्ष कमजोर होता है, उस की जायदाद को हड़पने में मालदार और ताकतवर की मदद कर उन से एक मोटी रकम वसूल लेते हैं.

‘‘बोलिए, ऐसा होता?है या नहीं? इस हराम की दौलत को अपनी कमाई कहने में शर्म नहीं आती आप को?’’ सुशीला हैरान रह गई, जब गंगाराम रमन की इतनी सारी कड़वी बातें सुन कर भी भड़के नहीं, बल्कि धीरे से कहा, ‘‘तुम को पता है कि तुम्हारी दादी की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मैं ने वह रकम…’’

रमन बोला, ‘‘कैसा है आप का वह भगवान, जिसे आप हराम की कमाई से मंदिर बनवा कर देंगे? ‘‘आप का कहना है कि आप की

मां ने सूत कातकात कर आप को पढ़ायालिखाया, उसी मां की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए आप गरीबों की गरदनें काटकाट कर पुण्य कमा रहे हैं?’’ गंगाराम के मुंह से इस के आगे एक बोल न फूटा.

Hindi Story : गुरु की शिक्षा – बड़ी मामी से सब क्यों परेशान थे

Hindi Story : सारे घर में कोलाहल मचा हुआ था, ‘‘अरे, छोटू, साथ वाला कमरा साफ कर दिया न?’’

‘‘अरे, सुमति, देख तो खाना वगैरह सब तैयार है.’’

‘‘अजी, आप क्यों ऐसे बैठे हैं, जल्दी कीजिए.’’

पूरे घर को पद्मा ने सिर पर उठा रखा था. बड़ी मामी जो आ रही थीं दिल्ली.

वैसे तो निर्मला, सुजीत बाबू की मामी थीं, इस नाते वह पद्मा की ममिया सास हुईं, परंतु बड़े से छोटे तक वह ‘बड़ी मामी’ के नाम से ही जानी जाती थीं. बड़ी मामी ने आज से करीब 8-9 वर्ष पहले दिल्ली छोड़ कर अपने गुरुभभूतेश्वर स्वामी के आश्रम में डेरा जमा लिया था. उन्होंने दिल्ली क्यों छोड़ी, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. हां, बड़ी मामी स्वयं यही कहती थीं, ‘‘हम तो सब बंधन त्याग कर गुरुकी शरण में चले गए. वरना दिल्ली में कौन 6-7 लाख की कोठी को बस सवा 4 लाख में बेच देता.’’

जाने के बाद लगभग 4 साल तक बड़ी मामी ने किसी की कोई खोजखबर नहीं ली थी. पर एक दिन अचानक तार भेज कर बड़ी मामी आ धमकीं मामा सहित. बस, तब से हर साल दोनों चले आते थे. पद्मा पर उन की विशेष कृपादृष्टि थी. कम से कम पद्मा तो यही समझती थी.

उस दिन भी रात की गाड़ी से बड़ी मामी आ रही थीं. इसलिए सभी भागदौड़ कर रहे थे. रात को पद्मा और सुजीत बाबू दोनों उन्हें स्टेशन पर लेने गए. वैसे घर से स्टेशन अधिक दूर न था, फिर भी पद्मा जितनी जल्दी हो सका, घर से निकल गई.

पद्मा को गए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि बड़ी जोर से घर की घंटी बजी.

‘‘छोटू, देखो तो,’’ सुमति बोली.

छोटू ने दरवाजा खोला. वह हैरानी से चिल्लाया, ‘‘बहूजी, बड़ी मामी.’’

समीर और सुमति फौरन दौड़े.

‘‘मामीजी आप मां कहां है?

‘‘तो क्या पद्मा मुझे लेने पहुंची है? मैं ने तो 5-7 मिनट इंतजार किया. फिर चली आई.’’

‘‘हां, दूसरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती हैं. परंतु खुद…’’ समीर धीरे बोला, परंतु सुमति ने स्थिति संभाल ली.

थोड़ी देर में पद्मा और सुजीत बाबू भी हांफते हुए आ गए.

‘‘नमस्कार, मामाजी,’’

‘‘जुगजुग जिओ. देख री पद्मा, तेरे लिए घर के सारे मसाले ले आई हूं. हमें आश्रम में सस्ते मिलते हैं न.’’

पद्मा गद्गद हो गई,  ‘‘इतनी तकलीफ क्यों की, मामीजी.’’

‘‘अरी, तकलीफ कैसी? तुझे मुफ्त में थोड़े ही दूंगी. वैसे मैं तो दे दूं, पर हमारे गुरुजी कहते हैं, किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए. क्यों बेकार तुम्हें ‘पाप’ का भागीदार बनाऊं. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी तो जैसे समर्थन के लिए तैयार थे.

पद्मा का मुंह ही उतर गया.

पद्मा को छोड़ कर घर में कोई भी अन्य व्यक्ति मामी को पसंद नहीं करता था. बस, वह हमेशा अपने आश्रम की बातें करती थीं. कभी अपने गुरुकी तारीफों के पुल बांधने लगतीं परंतु उन की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर था. जितने दिन बड़ी मामी रहतीं, पूरे घर में कोहराम मचाए रखतीं. सभी भुनभुनाते रहते थे, सिर्फ पद्मा को छोड़ कर. उस पर तो बड़ी मामी के गुरुऔर आश्रम का भूत सवार था.

दूसरे दिन सुबह 5 बजे उठ कर बड़ी मामी ने जोरजोर से मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया. सुमति को रेडियो सुनने का बहुत शौक था. उस ने देखा कि 7 बज रहे हैं. वैसे भी बड़ी मामी तो 5 बजे की उठी थीं, इसलिए उस ने रेडियो चालू कर दिया. पर बड़ी मामी का मुंह देखते ही बनता था. लाललाल आंखें ऐसी कि खा जाएंगी.

पद्मा ने देखा तो फौरन बहू को झिड़का, ‘‘बंद कर यह रेडियो, मामीजी पाठ कर रही हैं.’’

‘‘रहने दे, बहू. मेरा क्या, मैं तो बरामदे में पाठ कर लूंगी. किसी को तंग करने की शिक्षा हमारे गुरु ने नहीं दी है.’’

‘‘नहींनहीं, बड़ी मामी. चल री बहू, बंद कर दे.’’

रेडियो तो बंद हो गया पर सुमति का चेहरा उतर गया. दोपहर में छोटू ने रेडियो लगा दिया तो बड़ी मामी उसे खाने को दौड़ीं, ‘‘अरे मरे, नौकर है, और शौक तो देखो राजा भोज जैसे. चल, बंद कर इसे. मुझे सोना है.’’

छोटू बोला, ‘‘अच्छा, बड़ी मामी, फिर तुम्हारे गुरुका टेप चला दूं.’’

‘‘ठहर दुष्ट, मेरे गुरुजी के बारे में ऐसा बोलता है. आज तुझे न पिटवाया तो मेरा नाम बदल देना.’’

जब तक पद्मा को पूरी बात पता चले, छोटू खिसक चुका था.

‘‘सच बहूजी, अब तो 15 दिन तक रेडियो, टीवी सब बंद,’’ छोटू ने कहा.

‘‘हां रे,’’ सुमति ने गहरी सांस ली.

अगले दिन शाम को चाय पीते हुए बड़ी मामी बोल पड़ीं, ‘‘हमारे आश्रम में खानेपीने की बहुत मौज है. सब सामान मिलता है. समोसा, कचौरी, दालमोठ, सभी कुछ, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ सदा की भांति मामाजी ने उत्तर में सिर हिलाया.

पद्मा खिसिया गई, ‘‘बड़ी मामी, यहां भी तो सब मिलता है. जा छोटू, जरा रोशन की दुकान से 8 समोसे तो ले आ.’’

‘‘रहने दो, बहू, हम ने तो खूब खाया है अपने समय में. खुद खाया और सब को खिलाया. मजाल है, किसी को खाली चाय पिलाई हो.’’

‘‘तो मामीजी, हम ने भी तो बिस्कुट और बरफी रखी ही है,’’ सुमति ने कहा.

बस, बड़ी मामी तो सिंहनी सी गरजीं, ‘‘देखा, बहू.’’

पद्मा ने भी झट बहू को डांट दिया, ‘‘बहू, बड़ों से जबान नहीं लड़ाते. चल, मांग माफी.’’

‘‘रहने दे, बहू, हम तो अब इन बातों से दूर हो चुके हैं. सच, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी ने खूंटे से बंधे प्यादे की तरह सिर हिलाया.

‘‘बहू, शाम को जरा बाजार तो चलना. कुछ खरीदारी करनी है,’’ सुबह- सुबह मामी ने आदेश सुनाया.

‘‘आज शाम,’’ पद्मा चौंकी.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आज मां को अपनी दवा लेने डाक्टर के पास जाना है,’’ समीर ने बताया.

‘‘मैं क्या जबरदस्ती कर रही हूं. वैसे हमारे गुरुजी ने तो परसेवा को परमधर्म बताया है.’’

‘‘हांहां, मामीजी, मैं चलूंगी. दवा फिर ले आऊंगी.’’

‘‘सोच ले, बहू, हमारा क्या है, हम तो गुरु  के आसरे चलते हैं,’’ टेढ़ी नजरों से समीर को देखती हुई मामी चली गईं.

समीर ने मां को समझाना चाहा, पर उस पर तो गुरुजी के वचनों का भूत सवार था. बोली, ‘‘ठीक ही तो है, बेटा. परसेवा परम धर्म है.’’

और शाम को पद्मा बाजार गई. पर लौटतेलौटते सवा 8 बजे गए. बड़ेबड़े 2 थैले पद्मा ने उठाए हुए थे और हांफ रही थी.

आते ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘सुनो जी, यहां आज बाजार लगा हुआ था. अच्छा किया न, चले गए. सामान काफी सस्ते में मिल गया है.’’

सारा सामान निकाल कर मामी एकदम उठीं और बोलीं, ‘‘हाय री, पद्मा, लिपस्टिक तो लाना भूल ही गए. अब कल चलेंगे.’’

‘‘मामीजी, आप और लिपस्टिक?’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, हम तो इन बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वरना कौन मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं. हमारे आश्रम में तो नातीपोती वाली भी लाललाल रंग की लिपस्टिक लगाती हैं. मैं तो फिर भी स्वाभाविक रंग लेती हूं. सच, क्या पड़ा है इन चोंचलों में. हमारे लिए तो गुरु ही सबकुछ हैं.’’

‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’ छोटू फुसफुसाया तो समीर और सुमति चाह कर भी हंसी न रोक सके. हालांकि बड़ी मामी ने छोटू की बात तो नहीं सुनी फिर भी उन्होंने भृकुटि तान लीं.

अगले दिन पद्मा की तबीयत खराब हो गई. इसलिए उठने में थोड़ी देर हो गई. उस ने देखा कि बड़ी मामी रसोई में चाय बना रही हैं.

‘‘मुझे उठा दिया होता, मामीजी,’’  पद्मा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, तुम सो जाओ चैन से. हमारे गुरुजी ने इतना तो सिखाया ही है कि कोई काम न करना चाहे तो उस के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘नहींनहीं, मामीजी. ऐसी बात नहीं. आज जरा तबीयत ठीक नहीं थी,’’ पद्मा मिमियाई.

‘‘तो बहू, जा कर आराम कर न. हम किसी से कुछ आशा नहीं करते. यह हमारे गुरुजी की शिक्षा है.’’

उस दिन तो पद्मा के मन में आया कि कह दे ‘चूल्हे में जाओ तुम और तुम्हारे गुरुजी.’

दोपहर को खाते वक्त बड़ी मामी ने सुमति से पूछा, ‘‘क्यों सुमति, दही नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं मामीजी. आज सुबह दूध अधिक नहीं मिला. इसलिए जमाया नहीं. नहीं तो चाय को कम पड़ जाता.’’

‘‘हमारे आश्रम में तो दूधघी की कोई कमी नहीं है. न भी हो तो हम कहीं न कहीं से जुगाड़ कर के मेहमानों को तो खिला ही देते हैं.’’

‘‘हां, अपनी और बात है. भई, हम न तो लालच करते हैं, न ही हमें जबान के चसके हैं. हमारे गुरुजी ने तो हमें रूखीसूखी में ही खुश रहना सिखाया है क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ रटारटाया उत्तर मिला.

‘‘रूखीसूखी?’’ सुमति ने मुंह बिगाड़ा, ‘‘2 सूखे साग, एक रसे वाली सब्जी, रोटी, दालभात, चटनी, पापड़ यह रूखीसूखी है?’’

शाम को बड़ी मामी ने फिर शोर मचाया, ‘‘हम ने तो सबकुछ छोड़ दिया है. अब लिपस्टिक लगानी थी. पर हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, किसी की चीज मत इस्तेमाल करो. भले ही खुद कष्ट सहना पड़े.’’

‘‘लिपस्टिक न लगाने से कैसा कष्ट, मामीजी?’’ छोटू ने छेड़ा.

‘‘चल हट, ज्यादा जबान न लड़ाया कर,’’ बड़ी मामी ने उसे झिड़क दिया.

आखिर पद्मा को बड़ी मामी के साथ बाजार जाना ही पड़ा. लौटी तो बेहद थकी हुई थी और बड़ी मामी थीं कि अपना ही राग अलाप रही थीं, ‘‘जितना हो सके, दूसरों के लिए करना चाहिए. नहीं तो जीवन में रखा ही क्या है, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी के बोलने से पहले ही छोटू बोला और भाग गया.

एक दिन बैठेबैठे ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘जानती है, पद्मा, वहां अड़ोस- पड़ोस में मैं ने तेरी बहुत तारीफें कर रखी हैं. सब से कहती हूं, ‘बहू हो तो पद्मा जैसी. मेरा बड़ा खयाल रखती है. क्याक्या सामान नहीं ले कर रखती मेरे लिए.’ सच बहू, तू मेरी बहुत सेवा करती है.’’

पद्मा तो आत्मविभोर हो गई. कुछ कह पाती, उस से पहले ही बड़ी मामी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘हां बहू, सुना है यहां काजू की बरफी बहुत अच्छी मिलती है. सोच रही थी, लेती जाऊं. वैसे हमें कोई लालसा नहीं है. पर अपनी पड़ोसिनों को भी तो दिखाऊंगी न कि तू ने क्या मिठाई भेजी है.’’

पद्मा तो ठंडी हो गई, ‘इस गरमी में, जबकि पीने को दूध तक नहीं है, इन्हें बरफी चाहिए, वह भी काजू वाली. 80 रुपए किलो से कम क्या होगी?’

अभी पद्मा इसी उधेड़बुन में थी कि बड़ी मामी ने फिर मुंह खोला, ‘‘बहू, अब किसी को कोई चीज दो तो खुले दिल से दो. यह क्या कि नाम को पकड़ा दी. यह पैसा कोई साथ थोड़े ही चलेगा. यही हमारे गुरुजी का कहना है. हम तो उन्हीं की बताई बातों पर चलते हैं.’’

पद्मा को लगा कि अगर वह जल्दी ही वहां से न खिसकी तो जाने बड़ी मामी और क्याक्या मांग बैठेंगी.

फिर बड़ी मामी ने नई बात छेड़ दी. ‘‘जानती है, बहू. हमारे गुरुजी कहते हैं कि जितना हो सके मन को संयम में रखो. खानपान की चीजों की ओर ध्यान कम दो. अब तू जाने, घर में सब के साथ मैं भी अंटसंट खा लेती हूं. पर मेरा अंतर्मन मुझे कोसता है, ‘छि:, खाने के लिए क्या मरना.’ इसलिए बहू, आज से हमारे लिए खाने की तकलीफ मत करना. बस, हमें तो रात में एक गिलास दूध, कुछ फल और हो सके तो थोड़ा मेवा दे दिया कर, आखिर क्या करना है भोगों में पड़ कर.’’

कहां तो पद्मा बड़ी मामी के गुण गाते न थकती थी, कहां अब वह पछता रही थी कि किस घड़ी में मैं ने यह बला अपने गले बांध ली थी.

बस, जैसेतैसे 20 दिन गुजरे, जब बड़ी मामी जाने लगीं तो सब खुश थे कि बला टलने को है. पर जातेजाते भी बड़ी मामी कह गईं, ‘‘बहू, अब कोई इतनी दूर से भाड़ा लगा कर आए और रखने वाले महीना भर भी न रखें तो क्या फायदा? हमारे गुरुजी तो कहते हैं, ‘घर आया मेहमान, भगवान समान’ पर अब वह बात कहां. हां, हमारे यहां कोई आए, तो हम तो उसे तब तक न छोड़ें जब तक वह खुद न जाने को चाहे.’’

यह सुन कर सुमति ने पद्मा की ओर देखा तो पद्मा कसमसा कर रह गई.

‘‘अच्छा बहू, इस बार आश्रम आना. तू ने तो देख रखा है, कैसा अच्छा वातावरण है. सत्संग सुनेगी तो तेरे भी दिमाग में गुरु के कुछ वचन पड़ेंगे, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी का जवाब था.

बड़ी मामी को विदा करने के बाद सब हलकेफुलके हो कर घर लौटे. घर आ कर समीर ने पूछा, ‘‘क्यों मां, कब का टिकट कटा दूं?’’

‘‘कहां का?’’ पद्मा ने पूछा.

‘‘वहीं, तुम्हारे आश्रम का. बड़ी मामी न्योता जो दे गई हैं.’’

‘‘न बाबा, मैं तो भर पाई उस गुरु से और उस की शिष्या से. कान पकड़ लेना, जो दोबारा उन का जिक्र भी करूं. शिष्या ऐसी तो गुरु के कहने ही क्या. सच, आज तक मैं ऊपरी आवरण देखती रही. सुनीसुनाई बातों को ही सचाई माना. परंतु सच्ची शिक्षा है, अपने अच्छे काम. ये पोंगापंथी बातें नहीं.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ आश्चर्यचकित समीर ने पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या, क्यों जी?’’

और समवेत स्वर सुनाई दिया, ‘‘हां जी.’’

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