Hindi Story : कमरिया लचके रे

Hindi Story : ‘कमरिया लचके रे, बाबू, जरा बच के रे…’ की आवाज चारों ओर गूंजी तो डांस देखने के लिए आए सभी दर्शक उतावले हो गए.

सामने के स्टेज पर एक पतली कमर वाली 22 साल की लड़की अपनी कमर को हिलाहिला कर मस्ती में नाचे जा रही थी और दर्शक आंखें फाड़फाड़ कर उस की नंगी कमर और गहरी नाभि को अपनी आंखों में बसा लेना चाहते थे.

गाने के बदलते बोल के साथ वह लड़की अपने डांस के स्टैप लगातार बदल रही थी, जिस से देखने वाले लोगों की नजरें किसी एक अंग पर नहीं ठहर पा रही थीं.

आंखों में हवस और होंठों पर भद्दी गालियां देते हुए आगे की लाइन में बैठे लोगों ने नोट उड़ाना शुरू कर दिया था. उन नोटों को एक लड़का लगातार उठाने का काम कर रहा था.

कुछ देर बाद ही डांसर की गोरी कमर पसीने से तर हो गई थी, जिस से देखने वालों को वह और भी सैक्सी और मस्त नचनिया लग रही थी.

डांस खत्म हो चुका था. दर्शक ‘एक बार और, एक बार और’ की मांग करते रहे, पर वह डांसर अपना पसीना पोंछते हुए तंबू के पीछे आ गई थी.

देखने वाले हवस के मारे जोश में थे, पर इस नाचने वाली लड़की के लिए यह रोजीरोटी कमाने के लिए उस का काम भर था.

इस खूबसूरत लड़की का नाम शबनम था. शबनम नाम होने से लोग उसे मुसलमान समझते थे, पर शबनम को खुद नहीं पता था कि वह मुसलमान है या हिंदू है. उस ने जब से होश संभाला था, तब से अपनेआप को इसी डांस पार्टी में पाया था और अपनी रोजीरोटी चलाने के लिए उसे यह काम करना पड़ा था. दीनधर्म के बारे में कभी सोचा ही नहीं और न ही शबनम को कभी अपना धर्म जानने की जरूरत महसूस हुई.

शबनम को तो डांस करना भी किसी ने नहीं सिखाया, बस अपने साथ वाली दीदी लोगों को नाचते देख कर वह कब खुद भी स्टेज पर नाचने लगी, उसे खुद भी पता नहीं चला. हां, पर स्टेज पर वह शौक से नहीं नाची, बल्कि उसे बताया गया था कि उसे पैसे चाहिए तो नाचना ही पड़ेगा.

इस डांस पार्टी के मालिक का नाम धर्मा पंडित था. 50 साल का धर्मा पंडित बड़ा रोबीला लगता था.

लंबाचौड़ा शरीर और बड़ीबड़ी गोल आंखें. वह सामने वाले से बात करते समय अपनी धाक बड़ी आसानी से जमा लेता था.

धर्मा पंडित की इस डांस पार्टी में तकरीबन 20 से 25 लोग काम करते थे, जिन में से 6 लेडीज डांसर थीं. कुछ लोग आरकेस्ट्रा पर काम करते थे, तो कुछ लोग डांस पार्टी के तंबू वगैरह का काम संभालते थे.

लेडीज डांसर सभी के आकर्षण का केंद्र थीं. हालांकि, ये डांसर फिल्मी गानों पर नाचती थीं, पर धर्मा पंडित ने अपनी इस डांस पार्टी को नाम दिया था ‘क्लासिकल डांस पार्टी’ और अपनी इस डांस पार्टी को धर्मा पंडित कसबों और गांवों में ले जाता था और एक जगह तकरीबन 15 से 20 दिन तक कार्यक्रम करता था.

जिस भी कसबे और गांव में धर्मा पंडित की डांस पार्टी जाती थी, वहां पर जम कर प्रचारप्रसार कराने के लिए नाचने वाली लड़कियों के छोटे कपड़े पहने हुए पोस्टर तैयार कराए जाते थे और सड़कों के किनारे लगवा दिए जाते थे, जिन्हें देख कर लोग अच्छीखासी तादाद में डांस देखने आते थे और जम कर पैसे भी लुटाते थे.

धर्मा पंडित की डांस पार्टी में नाचने वाली लड़कियों की खूबसूरती देख कर गांवकसबे के शोहदे कई बार इन लड़कियों के साथ जिस्मानी संबंध भी बनाना चाहते थे और इस के लिए वे अपना रोबताब दिखा कर धर्मा पंडित से बात भी करते थे, पर यहां तो धर्मा पंडित का अलग ही रूप देखने को मिलता था.

वह इन हुस्न के सौदागरों को साफ मना कर देता था, ‘‘ये क्लास्किल और फिल्मी डांस दिखाने वाले कलाकार हैं. यह तो समय की मांग ने इन के कपड़ों को जरूर छोटा कर दिया है, पर जब तक ये मेरे पास हैं, तब तक इन्हें जिस्म बेचने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

धर्मा पंडित के इस रूप को देख कर लोग चिढ़ जाते थे और पीठ पीछे धर्मा पंडित को खूब गरियाते थे. उन्हें लगता था कि धर्मा पंडित खाली इस तरह की बड़ी बातें कर के अपनी नाचने वालियों का रेट बढ़ाना चाहता है और फिर वे और ज्यादा पैसे देने की बात भी कहते, पर धर्मा पंडित टस से मस नहीं होता था और फिर बारबार परेशान किए जाने पर वह अगले गांव की तरफ चल देता था.

अब धर्मा पंडित और उस की डांस पार्टी कमलापुर नामक गांव में जाने वाली थी. कमलापुर में जम कर इस डांस पार्टी का प्रचारप्रसार भी कर दिया गया था. इस के चलते वहां के नौजवानों में आने वाली डांस पार्टी को ले कर बहुत जोश था. मजे की बात तो यह थी कि सिर्फ नौजवान ही नहीं, बल्कि बड़ी उम्र के लोग भी डांस देखने के लिए उतावले थे और इसीलिए खुद को सजानेसंवारने में लगे हुए थे.

गांव के नुक्कड़ पर इकबाल नाम के लड़के का लकड़ी का बनाया हुआ खोखा था, जिस में उस ने एक बड़ा सा आईना रख कर उसे एक सैलून की शक्ल देने की कोशिश की थी. गांव के लोग यहां पर अपने दाढ़ीबाल कटवाने आते थे.

इकबाल कुछ खास लोगों को ही अपने चेहरे पर पीली वाली क्रीम की मालिश करवाने को कहता था, ‘‘यह पीली वाली क्रीम बादाम क्रीम है, जिस को लगाने से चेहरा एकदम सलमान खान की तरह चमकीला हो जाता है,’’ सलमान खान के एक पोस्टर की तरफ इशारा करते हुए इकबाल कहता, तो लोग तुरंत ही अपना चेहरा आगे कर देते और इकबाल खूब मेहनत से उन के चेहरे पर मसाज करता.

मसाज के बाद लोग अपना चेहरा आईने में देखते तो उन्हें खुद भी फर्क साफ नजर आता और वे इकबाल
को पैसे देने के साथसाथ शुक्रिया कहना न भूलते.

गांव की तरफ से शहर की ओर जाने वाली रोड के किनारे बहुत चहलपहल थी, क्योंकि आज क्लासिकल डांस पार्टी का कमलापुर गांव मे पहला शो था. स्टेज के आगे एक तख्त पर चादर बिछा दी गई थी, जो गांव के चौधरी साहब के लिए थी. इस के बाद की लाइन में प्लास्टिक के तार से बिनी हुई कुरसियां और इस के बाद दरी और टाट को धूल झाड़ कर बिछा दिया गया था.

धर्मा पंडित अपने साथ गांव के चौधरी साहब को बड़े आदरभाव से अंदर लाया और सब से आगे पड़े तख्त पर बिठा दिया.

50 साल के आसपास के चौधरी साहब भी तन कर बैठ गए और उन के गुरगे पास ही नीचे जमीन पर बैठ गए और सभी की निगाहें स्टेज के परदे के खुलने का इंतजार करने लगीं.

इंतजार लंबा हो रहा था, तो सभी लोग सीटियां बजा कर शोर करने लगे. आखिरकार परदा खुला और शबनम एक नौजवान दिलीप के साथ स्टेज पर आई. एक भड़काऊ भोजपुरी गाना भी बजने लगा, जिस के बोल थे, ‘हमार मिक्सी, तोहार मिक्सी, दोनों के मिक्सी बा कालाकाला… हमार पीसे नरम मसाला, तोहार पीसे गरम मसाला…’

इस गीत पर शबनम और दिलीप एकदूसरे की कमर से कमर चिपकाते हुए मसाला पीसने का इशारा करते, तो दर्शकों के बीच जोश की लहर फैल जाती और वे भी खड़े हो कर नाचने लगते और पैसे लुटाते.

हालांकि, चौधरी साहब का मन भी नाचने का कर रहा था, पर उन्होंने अपनी शान का खयाल करते हुए सिर्फ पैसे ही लुटाए.

शबनम के जाते ही दूसरी डांसर ने अपने नाच का जलवा दिखाया और उस के बाद 3 गीत और बजाए गए, जिन पर भी भड़काऊ नाच का मजा दर्शकों ने उठाया.

रात हो चली थी और शो भी खत्म हो गया था. चौधरी साहब के गुरगे भी उन्हें बड़े से मकान के बाहर तक छोड़ गए थे.

चौधरी साहब बड़े ही अदब से घर में गए और सीधे हाथमुंह धोने चले गए. घर में उन की 20 साल की रीता नाम की एक विधवा बेटी ही थी, जो चौधरी साहब के इंतजार में अभी तक जाग रही थी.

‘‘बाबूजी, आप के लिए खाना लगा दूं?’’ रीता ने पूछा, तो चौधरी साहब ने यह कहते हुए मना कर दिया, ‘‘सरखु के यहां कुछ आयोजन था, इसलिए वहां पर भोजन कर लिया है.’’

इतना कह कर चौधरी साहब सीधा अपने कमरे में चले गए.

रीता, जो पिता के इंतजार में भूखी बैठी थी, का मन भी अकेले खाने का नहीं हुआ और रसोईघर में कुंडी लगा कर वह भी सोने चले गई.

रीता की 18 साल की उम्र में ही शादी कर दी गई थी और अगले साल ही वह विधवा हो गई थी और फिर उस ने अपने पिता की देखभाल करने के लिए अपने मायके में ही रहना ठीक समझा.

हालांकि, चौधरी साहब ने अपने रोब का इस्तेमाल करते हुए 2-3 जगह रीता की शादी की बात चलाई, पर कुछ बात नहीं बनी.

किसी भी नौटंकी या डांस पार्टी के लोगों में सब से ज्यादा नोट उड़ाने वाले ग्राहक को पहचानने का एक गजब का टैलेंट धर्मा पंडित में भी था. उस ने अच्छी तरह से देखा था कि कल के शो में सब से ज्यादा पैसे चौधरी साहब ने ही उड़ाए थे. धर्मा पंडित और उस की डांस पार्टी के लिए ऐसे ही ग्राहक अच्छे माने जाते हैं.

2 दिन के बाद धर्मा पंडित ने अपने डांसर दिलीप को चौधरी के घर पर भेज कर संदेश भिजवाया कि उस ने एक खास शो रखवाया है, जिस में सिर्फ चौधरी साहब और उन के अपने आदमी ही होंगे.

दिलीप की बात सुन कर चौधरी साहब को बहुत खुशी मिली और उन्होंने भी अपनी पसंद बताते हुए कहा कि एक नाच शबनम का भी जरूर होना चाहिए.

दिलीप ने मुसकरा कर देखा और वापस जाने लगा. जाते समय उस की नजर रीता से टकरा गई, जो छत पर कपड़े फैला कर नीचे आ रही थी.

रीता जैसी खूबसूरत लड़की दिलीप ने कभी नहीं देखी थी. उस के पैर ठिठक गए थे, पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया.

उस दिन अकेले में चौधरी साहब ने शबनम का जो नाच देखा, तो वे तो उस के जिस्म और नाच के कायल हो गए.

उस दिन चौधरी साहब ने धर्मा पंडित को उस के हाथ में पैसे देते हुए कहा, ‘‘बड़ा खूबसूरत हीरा है तुम्हारा. इसे तो हमारे जैसे जौहरी के पास होना चाहिए.’’

चौधरी साहब ने अपनी बाईं आंख दबा दी थी. धर्मा पंडित भी बिना मुसकराए नहीं रहा था.

चौधरी साहब की पत्नी को मरे हुए 10 बरस हो चले थे और उन के मन में औरत की देह भोगने की बेतहाशा चाह थी, जो शबनम की नंगी कमर, गहरी नाभि और मांसल सीना देख कर और भी भड़क उठी थी, इसीलिए उस दिन के बाद कई बार अकेले ही शबनम के शो के लिए उन्होंने धर्मा पंडित से बात की थी.

पर उस दिन तो चौधरी साहब ने हद कर दी, जब उन्होंने अपनी उम्र की परवाह न करते हुए शबनम के जिस्म को भोगने की बात कह दी, पर धर्मा पंडित नहीं डिगा.

‘‘हम लड़कियों को नचाते जरूर हैं, पर उन से जिस्म का धंधा नहीं करवाते चौधरी साहब. हां, अगर आप को नाच अकेले में देखना हो, तो उस के लिए आप का हमेशा स्वागत रहेगा,’’ धर्मा पंडित ने मुसकराते हुए चौधरी साहब से कहा.

धर्मा पंडित की यह बात चौधरी साहब को अच्छी नहीं लगी, पर बदले में वे कुछ नहीं बोले.

उधर दिलीप, जो रीता को देख कर पहली नजर में ही उस से एकतरफा प्यार कर बैठा था, वह रीता के पास जाने और मिलने की ताक में रहता था. आज जब दिलीप ने चौधरी साहब और धर्मा पंडित को आपस में बातें करते देखा, तो वह बिना हिचके तुरंत ही चौधरी साहब के घर पहुंच गया और कुंडी खटका दी.

अंदर से बिना दरवाजा खोले ही दरवाजे में बनी एक छोटी सी खिड़की को रीता ने खोला और उस की आंखें सीधा दिलीप से टकराईं, तो वह कुछ हड़बड़ाते हुए बोली, ‘‘बाबूजी घर में नहीं हैं. जब वे आ जाएं, तब आना.’’

दिलीप ने कहा, ‘‘मुझे पता है कि वे घर में नहीं हैं, इसीलिए मैं आया हूं और यह कहना चाहता हूं कि आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’’

रीता ने तुरंत ही उस छोटी सी खिड़की को बंद कर दिया. उस का दिल भी हलका सा धड़क कर रह गया था, पर ये शब्द उस के मन को रोमांचित जरूर कर गए थे.

रीता विधवा जरूर थी, पर थी तो अभी जवान ही. उस के भी अरमान थे कि उसे कोई अपनी बांहों में इतनी
जोर से जकड़ ले कि उन के बीच बिलकुल भी फासला न रह जाए. कोई उस के होंठों पर अपने होंठ रख दे, पर मजबूर थी.

लेकिन दिलीप की यह बात रीता के मन को छू गई थी, जैसे तपती धूप के बाद बारिश की कुछ बूंदों ने तनमन को भिगो दिया हो, पर वह तो एक विधवा है, कैसे किसी को प्यार कर सकती है… पर क्यों? उस के विधवा होने में उस का क्या कसूर है? और फिर एक विधवा भी तो एक औरत ही होती है…

दिलीप के मन में रीता के लिए प्यार था और वह उस से शादी करना चाहता था, क्योंकि रीता भले ही विधवा थी, पर वह बिलकुल वैसी लड़की थी जैसी उसे अपने लिए चाहिए थी. लेकिन वह जानता था कि गांव के चौधरी साहब की विधवा बेटी के मन को जीतने के लिए उसे चौधरी साहब के मन को भी जीतना होगा.

‘‘बड़ा खोएखोए से रहते हैं सरकार,’’ चौराहे पर चौधरी साहब को अकेला देख कर दिलीप ने पूछा, तो चौधरी साहब भी डांस मंडली के आदमी को देख कर मन की बात कह बैठे, ‘‘क्या बताएं… शबनम पर हमारा दिल आ गया है, पर तुम्हारा धर्मा पंडित मान ही नहीं रहा है.’’

बस, यही शब्द सुनना चाहता था दिलीप. उस ने तपाक से बात बनाई और चौधरी साहब को भरोसा दिलाया कि वह उन्हें शबनम के जिस्म को भोगने का मौका जरूर दिलवाएगा.

यहां से दिलीप का चौधरी साहब के घर पर आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया था. वह बेधड़क चौधरी साहब के घर जाता, तो चौधरी साहब उसे सीधा अपने पास बुला लेते और दोनों बतियाते रहते. इस बीच रीता से दिलीप की नजरें भी दोचार हो जाती थीं.

एक दिन मौका देख कर दिलीप ने रीता का हाथ पकड़ लिया. रीता ने झट से हाथ छुड़ा लिया और तुरंत ही वहां से यह कहते हुए भाग गई, ‘‘मैं एक विधवा हूं और यह सब मेरे लिए पाप है.’’

दिलीप का चौधरी के घर आनाजाना बढ़ गया था और अब तक डांस कंपनी के दूसरे लोगों को रीता और दिलीप के संबंधों की भनक भी लग गई थी.

धर्मा पंडित की डांस कंपनी में भूलर नाम का एक 25 साल का लड़का था, जो बिजली का इंतजाम देखता था. वह था तो अनाथ, पर ऊंची जाति का था और धर्मा पंडित ने उसे गोद लिया हुआ था.

भूलर को वह हर सम्मान मिलता था, जो एक डांस कंपनी के मालिक के बेटे को मिलना चाहिए. जब भूलर को दिलीप और रीता के संबंधों की खबर मिली, तो उस पर जाति का घमंड हावी हो गया.

‘‘यह निचली जाति का चौधरी साहब की लड़की के साथ मजे लेना चाह रहा है, पर हम इस का मनसूबा कभी कामयाब नहीं होने देंगे.’’

भूलर ने नमकमिर्च लगा कर धर्मा पंडित को सारी बता दी. यों तो धर्मा पंडित सैकुलर होने का दावा करता था और अपनी डांस मंडली के लोगों के लिए खुद को पिता के जैसा दिखाता था, पर उसे यह कतई मंजूर नहीं हुआ कि उस की डांस मंडली में काम करने वाला कोई निचली जाति का किसी ऊंची जाति की लड़की से इश्क लड़ाए.

हालांकि, धर्मा पंडित के लिए यह बहुत आसान होता कि वह अपनी डांस मंडली को किसी दूसरे गांव में ले जाए और दिलीप और रीता का मामला यहीं खत्म हो जाए, पर ऐसा करने के बाद भी दिलीप और रीता का प्रेम बदस्तूर कायम रह सकता था और हो सकता था कि वे दोनों भाग कर शादी भी कर लेते.

धर्मा पंडित को कुछ ऐसा सोचना होगा, जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. धर्मा पंडित मन ही मन गहरी सोच में डूबने लगा था.

2-3 दिन बीतने के बाद धर्मा पंडित चौधरी से मिलने उस के घर गया. उसे देख कर चौधरी साहब बहुत खुश हुए और दालान में कुरसियां डलवा कर मीठा शरबत और पान मंगवाया.

थोड़ी देर वे दोनों इधरउधर की बातें करते रहे, फिर धर्मा पंडित ने फुसफुसाते हुए चौधरी साहब से कहा, ‘‘बड़े जागेजागे से लग रहे हैं, क्या बात है? रातों में नींद नहीं आ रही लगता है…’’

धर्मा पंडित की बात सुन कर पहले तो चौधरी साहब थोड़ा सा सकुचाए, फिर मुसकराते हुए कहने लगे, ‘‘क्या बताऊं धर्मा, जब से तुम्हारी उस नचनिया शबनम को देखा है, तब से तो मेरी रातों की नींद ही उड़ गई है. अब तो मन में यही आता है कि जब तक उसे बांहों में भर कर उस का सारा रस न निकाल लूं, तब तक शायद ही इस दिल को चैन मिले.’’

धर्मा पंडित का तुरुप का पत्ता कामयाब हो गया था. उस ने चौधरी साहब से कहा कि वह तो 1 या 2 रातें नहीं, बल्कि हर रात शबनम को उन के साथ सुला सकता है, पर चौधरी साहब को अपने घर की विधवा बेटी का भी ध्यान रखना चाहिए.

धर्मा पंडित ने चौधरी साहब को उन की विधवा बेटी का ब्याह कर देने की बात कही, तो उन्हें अचानक धर्मा पंडित के मुंह से अपनी विधवा बेटी के दूसरे ब्याह की बात सुन कर झटका सा लगा, मानो वे नींद से जागे हों, पर फिर उन्होंने कहा, ‘‘आजकल किसी विधवा से कौन शादी करना चाहेगा?’’

धर्मा पंडित ने तुरंत भूलर का नाम पेश कर दिया और फिर धीरे से चौधरी साहब को दिलीप और रीता के बढ़ते प्यार की बात भी बता दी और दिलीप धोबी जाति का है, यह बताना भी नहीं भूला था धर्मा पंडित.

चौधरी साहब के अहंकार को ठेस लगी कि एक निचली जाति का लड़का उन की विधवा बेटी से इश्क लड़ा रहा है. उन का ऊंची जाति का घमंड जाग उठा और उन्होंने बिना ज्यादा कुछ सोचेसमझे धर्मा पंडित से रीता की शादी भूलर के साथ कर देने के लिए हां कर दी.

शबनम के जिस्म का लालच चौधरी साहब के दिमाग में अब भी चल रहा था, पर धर्मा पंडित अभी भी संतुष्ट नहीं हुआ था. उस ने चौधरी साहब को अपनी बातों में लिया और कहा कि भूलर अभी भी एक डांस मंडली वाले का बेटा जाना जाता है और चौधरी एक ऐसे लड़के से अपनी विधवा बेटी की शादी करे, यह कुछ शोभा नहीं देता. इस के लिए जरूरी है कि उन का दामाद कुछ खास हो.

‘‘तो उस के लिए मुझे क्या करना होगा?’’ चौधरी साहब ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, बस आप शहर में एक अच्छा सा मकान अपनी बेटी और दामाद को दिलवा दीजिए और कोई छोटामोटा धंधा चालू करवा दीजिए, जिस से आप की बेटी भी सुखी रहेगी और आप के दामाद का नाम भी होगा.’’

चौधरी साहब को धर्मा पंडित की यह बात पसंद आ गई. उन्होंने जब अपनी बेटी रीता से उस के दोबारा ब्याह की बात कही, तो वह सोच में पड़ गई. उस के मन में तो दिलीप के लिए प्यार था, पर एक विधवा भला कब अपने मन की बात अपने पिता से कह सकती है?

रीता ने कुछ देर नानुकर की, पर चौधरी साहब ने फैसला सुना दिया था, इसलिए वह चुप रही. वह चाह कर भी दिलीप का नाम नहीं ले सकी, क्योंकि वह जानती थी कि एक विधवा के लिए किसी दूसरे मर्द से प्यार करना महापाप समझ जाता है.

रीता ने चुपचाप अपने पिता के फैसले को स्वीकार कर लिया था.

चौधरी ने शहर में एक 2 कमरे का मकान देखा और उस से कुछ दूरी पर ही एक दुकान देख कर उस में खाद और बीज भंडार का उद्घाटन कर दिया.

रीता और भूलर की शादी एक सादा समारोह में हो गई थी. भरी आंखों से चौधरी ने रीता को विदा किया.

पूरा गांव चौधरी साहब के इस कदम की बहुत तारीफ कर रहा था. धर्मा पंडित की यह सारी योजना सही से कामयाब हो सके, इस के लिए उस ने बड़ी चालाकी से दिलीप को 15 दिन पहले ही शहर में किसी ऐसे काम से भेज दिया था, जिस से कि वह जल्दी वापस न आ सके.

आज जब दिलीप वापस आया, तो धर्मा पंडित ने उसे शाबाशी दी और कहा, ‘‘आज शाम को चौधरी साहब के घर पर हम सब को एक भोज के लिए चलना है.’’

बेचारा दिलीप सब बातों से अनजान था, इसलिए उस ने हामी में सिर हिला दिया.

रात को धर्मा पंडित और दिलीप चौधरी साहब के घर पहुंचे, तो वहां पर बढि़या शराब और मीट का इंतजाम था. धर्मा पंडित ने बोटी खाने से तो इनकार किया, हालांकि उस ने मीट की करी लेने से कोई परहेज नहीं किया और अपनी पांचों उंगलियां मीट के रस में डुबोडुबो कर चाट डालीं.

आज धर्मा पंडित कुछ ज्यादा ही अपनेपन से दिलीप को शराब पिला रहा था. दिलीप पर अब शराब हावी हो रही थी और उस की आंखें अपनेआप बंद होने लगी थीं. उसे लगा कि वह बेहोश हो रहा है, पर वह चाह कर भी अपनी बेहोशी को रोक नहीं पाया और अगली सुबह जब उस की आंख खुली तो उस ने पुलिस को अपने चारों तरफ पाया.

पुलिस इंस्पैक्टर ने दिलीप को घूरते हुए कहा, ‘‘इसे गिरफ्तार कर लो और इस की इतनी तुड़ाई करो कि अगली बार यह किसी चौधरी के घर में चोरी करने से पहले हजार बार सोचे.’’

दिलीप अपने बेकुसूर होने की दुहाई देता रहा, पर पुलिस इंस्पैक्टर ने उस की पैंट की जेब से नोटों की गड्डियां बरामद कर ली थीं.

दिलीप को पुलिस वैन में बिठा लिया गया था. उस की आंखें अभी भी रीता को ढूंढ़ रही थीं, पर रीता अब उसे कहां मिलने वाली थी?

आज रात चौधरी साहब की हवेली गुलजार थी और कुछ ज्यादा ही रोशन थी. चौधरी साहब धर्मा पंडित के साथ अपने सोफे पर धंसे हुए थे और उन के सामने शबनम अपनी नंगी कमर और गहरी नाभि हिलाहिला कर नाच रही थी. चौधरी साहब आज शबनम का सारा रस निकाल लेने वाले थे.

हवेली में गाना गूंज रहा था, ‘कमरिया लचके रे… बाबू, जरा बच के रे… दिल मेरा धड़के रे…’

Social Story : यह कैसा प्यार है

Social Story : यमुनानगर में बसे छोटे मौडल टाउन इलाके का एक लड़का गगन शर्मा वहां के मुकुंदलाल कालेज में बीकौम थर्ड ईयर का छात्र था और सुमनप्रीत कौर भी यमुनानगर से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से कसबे मुस्तफाबाद की लड़की थी, जो उसी कालेज में पढ़ती थी. वह बीकौम के फर्स्ट ईयर की छात्रा थी.

सुमनप्रीत का कद 5 फुट, 3 इंच लंबा था, उस का रंग गोरा, लंबे और घने काले बाल, समुद्र के हलके नीले पानी जैसी आंखें, तीखी नाक, लंबी सुराहीदार गरदन और ऊंचे उठे उभार उसे दूसरी लड़कियों से अलग बनाते थे.

वहीं गगन शर्मा 5 फुट, 6 इंच का गोराचिट्टा लड़का था. उस का चौड़ा सीना, घुंघराले बाल, छोटीछोटी बारीक सी मूंछें थीं. वह साधारण सी पैंटशर्ट पहन कर आता था, मगर उस में भी ऐसा लगता था, मानो कहीं का राजकुमार हो.

लेकिन लड़कियों के मामले में गगन शर्मीला था, पर वह पढ़ाई में होशियार था और हर साल पूरी क्लास तो क्या राज्यभर में अव्वल रहता था, इसलिए सारा कालेज उसे जानतापहचानता था.

सुमनप्रीत कौर ने भी गगन के बारे में सुना, तो मन में मिलने की भी इच्छा होने लगी.

आखिरकार एक दिन उन दोनों का आमनासामना भी हो गया. कैंटीन में सुमनप्रीत कौर और उस की एक सहेली रजनीत कौर बैठी कौफी पी रही थीं कि तभी अचानक 2 लड़के कैंटीन में आए और कोई भी टेबल खाली न होने पर वापस जाने लगे.

तभी उन में से एक लड़के पम्मे ने कहा, ‘‘गगन, वह सीट खाली है. चल, वहां चल कर बैठते हैं.’’

‘‘नहीं यार पम्मे, वहां नहीं यार. वे लड़कियां बैठी हैं. ऐसे किसी को डिस्टर्ब क्यों करें…’’

‘‘अरे, लड़कियां हैं तो क्या हुआ, उन से पूछ कर ही बैठेंगे,’’ पम्मे ने कहा.

ये बातें सुमनप्रीत और उस की सहेली रजनीत कौर ने सुन ली थीं.

रजनीत कौर ने गगन की बात सुन कर इशारा कर के सुमनप्रीत को बताया, ‘‘यही गगन है और साथ में उस का दोस्त परमजीत सिंह है.’’

इतने में परमजीत सिंह वहां आ गया और उन दोनों से वहां बैठने की इजाजत मांगी.

रजनीत कौर ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, सामने की सीट खाली है, आप बैठिए.’’

लेकिन सुमनप्रीत कौर कुछ नहीं बोल पाई. वह तो बस गगन को एकटक देखे जा रही थी.

गगन और पम्मा दोनों ‘धन्यवाद’ कह कर बैठ गए.

रजनीत कौर ने उन्हें सुमनप्रीत कौर से मिलवाया, ‘‘यह है मेरी सहेली सुमनप्रीत कौर… और सुमन, ये हैं गगन शर्मा और परमजीत सिंह.’’

लेकिन सुमनप्रीत को तो जैसे होश ही नहीं था. वह तो बुत बनी केवल गगन को देखे जा रही थी.

रजनीत कौर ने सुमनप्रीत को कुहनी मारी, तब सुमन को अहसास हुआ कि उसे कुछ कहा है किसी ने.

सब ने आपस में ‘हायहैलो’ किया. इतने में वेटर आया और उन दोनों का और्डर दे गया. सब चुपचाप अपनी कौफी पी रहे थे, लेकिन सुमन की नजरें गगन से हट ही नहीं रही थीं.

इतने में क्लास का समय हो गया. वे सब अपनीअपनी क्लास में चले गए.

रजनीत कौर ने सुमनप्रीत से कहा, ‘‘सुमन, क्या हुआ? तुम किस दुनिया में खोई हुई थी?’’

‘‘पता नहीं यार, मुझे क्या हो गया है. कहीं दिल ही नहीं लग रहा है. ऐसा लगता है कि गगन के सामने बैठी रहूं,’’ सुमनप्रीत ने कहा.

‘‘कहीं तुझे प्यार तो नहीं हो गया न…? पर यह लड़का तो किसी लड़की को पलट कर देखता ही नहीं है. बस, अपनी किताबों में ही मस्त रहता है.’’

सुमनप्रीत को खुद ही नहीं समझ आ रहा था कि उसे क्या हुआ है. हर पल उस के दिमाग पर गगन ही छाया हुआ है, लेकिन गगन कभी किसी लड़की की तरफ न तो देखता था, न ही बात करता था.

सुमनप्रीत ने गगन से बात करने के लिए परमजीत से दोस्ती कर ली, क्योंकि गगन और परमजीत हर समय साथ रहते थे. दोनों की पक्की यारी थी. परमजीत के बहाने सुमनप्रीत की कभीकभार गगन से भी बात हो जाती थी.

सुमनप्रीत ने गगन की नजदीकियां पाने का एक नया रास्ता निकाला और अकाउंट्स न समझ आने का बहाना बनाया और गगन को यह सब्जैक्ट सम?ाने की रिक्वैस्ट की, तो परमजीत के जोर देने पर गगन मान गया.

अब तो रोज कालेज के बाद थोड़ी देर वहीं रुक कर सुमनप्रीत गगन से अकाउंट्स सीखती थी. उधर, परमजीत भी सुमनप्रीत को चाहने लगा था, पर सुमनप्रीत के दिल में तो गगन बैठा था.

साल खत्म होने को आया, मगर सुमनप्रीत गगन से अपने प्यार का इजहार न कर सकी. वह 2 बातों से डरती थी कि गगन ब्राह्मण है और वह सिख है. घर वाले किसी कीमत पर नहीं मानेंगे. दूसरा यह कि गगन भी उसे चाहता है या नहीं?

गगन बीकौम पास कर के चला गया. उस की कार के एक शोरूम में अच्छी नौकरी लग गई, लेकिन परमजीत फेल हो गया. लेकिन गगन लंच टाइम में फ्री होता था, तो कालेज पहुंच जाता था और पम्मा और सुमनप्रीत को थोड़ी देर अकाउंट्स समझ जाता था.

एक बार गगन को कंपनी की तरफ से ट्रेनिंग के लिए 4-5 दिन के लिए गुरुग्राम जाना था. यह सुन कर सुमनप्रीत सुन कर उदास हो गई कि इतने दिन गगन को नहीं देख पाएगी.

मगर जब गगन ट्रेनिंग पर चला गया, तो वहां उस का मन नहीं लगा. उसे हरपल सुमनप्रीत ही आंखों के सामने नजर आती थी. वह सम?ा नहीं पा रहा था कि उसे क्या हो रहा है.

गगन ने फोन पर परमजीत से भी कहा, ‘‘यार पम्मे, सुमनप्रीत ठीक तो है न? पता नहीं, क्यों मुझे हरपल उस का ही खयाल आ रहा है. ऐसा लगता है जैसे वह मेरे पास है और कोई उसे मुझ से छीन कर दूर ले जा रहा है. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है मेरे साथ?’’

परमजीत ने महसूस किया कि गगन को सुमनप्रीत से प्यार हो रहा है. हालांकि, वह खुद भी सुमनप्रीत से प्यार करता था, लेकिन अपने दोस्त के लिए वह अपना प्यार भूल गया, कुरबान कर दिया अपना प्यार अपने जिगरी दोस्त पर.

‘‘ओए गगन, तुझे प्यार हो गया है. अब ट्रेनिंग से आते ही जल्दी से अपने प्यार का इजहार भी कर देना. कहीं ऐसा न हो कि कोई दुलहनिया ले जाए और तू बरात में नाचता ही रह जाए,’’ ऐसा कह कर परमजीत जोरजोर से हंसने लगा.

लेकिन गगन सोच रहा था कि क्या सचमुच जो प्यार नाम की चिडि़या को पहचानता भी नहीं था, उसे प्यार हो गया है?

खैर, ट्रैनिंग से वापस आ कर गगन ने परमजीत से बात की, तो उस ने समझाया, ‘‘बुद्धू, जो तुझे सुमन की दूरी बरदाश्त नहीं हुई, हरपल उस की याद सताती रही, यही तो प्यार है… और अब देर मत कर, कल ही प्रपोज कर दे सुमनप्रीत को. उस का जन्मदिन भी है कल.’’

अगले दिन गगन ने होटल मधु में एक छोटी सी सरप्राइज पार्टी रखी. रजनीत कौर और परमजीत सिंह बहाने से सुमनप्रीत को वहां ले गए, लेकिन वहां गगन की तरफ से पार्टी को देख कर सुमन फूली न समाई.

केक काटने के बाद गगन हाथ में एक फूल लिए सुमन के सामने घुटनों के बल बैठ कर बोला, ‘‘सुमन, क्या तुम मेरा प्यार स्वीकार करोगी? क्या तुम जिंदगी के हर सुखदुख में मेरा साथ दोगी? अगर तुम मुझे अपने लायक समझती हो, तो क्या मुझ से शादी करोगी?’’

सुमन ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा और ‘हां’ कह दिया.

‘‘सुमन, अभी समय है, सोच लो. तुम महलों में पली हो, मेरा छोटा सा घर है. नौकरी भी कोई बहुत बड़ी नहीं है, बस ठीकठाक गुजरबसर ही होती है.’’

‘‘गगन, मुझे केवल तुम चाहिए. तुम्हारा साथ होगा तो मैं भूखी भी रह लूंगी. न होगा मखमल का बिस्तर, तो तुम्हारे सीने पर सिर टिका कर चैन की सांस लूंगी. बस, तुम न मुझे छोड़ना मत, चाहे तो सारी दुनिया मैं छोड़ दूंगी.’’

इस के बाद उन दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा. वे साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे.

सुमनप्रीत की बीकौम पूरी हुई, तो घर वालों ने शादी के लिए जोर डालना शुरू कर दिया. सुमन ने घर में गगन के बारे में बताया तो तूफान आ गया सुमनप्रीत के पापा ने नाराजगी में कहा, ‘‘हम सरदार हैं और वह शर्मा. यह मेल कभी नहीं हो सकता. गगन अकेला नौकरी करने वाला है. उस के पापा कोई काम नहीं करते हैं. उस का बड़ा भाई भी नौकरी करता है, मगर उस का अपना अलग परिवार है. मांबाप की जिम्मेदारी भी गगन पर है. जिस लाड़प्यार से तुम पली हो, वहां तुम्हारा गुजारा नहीं हो सकता.’’

जिस तरह से घर वालों ने अपना गुस्सा जाहिर किया था, उस से सुमन समझ चुकी थी कि इस शादी के लिए वे किसी भी कीमत पर राजी नहीं होंगे.

लेकिन गगन का परिवार इस शादी के लिए तैयार था. वे लोग जातपांत, बिरादरी जैसी दकियानूसी बातों को नहीं मानते थे, क्योंकि गगन के पापा की भी इंटरकास्ट मैरिज थी.

लेकिन गगन का परिवार सुमनप्रीत के परिवार के बराबर नहीं था. सुमनप्रीत के पापा रेलवे से अच्छी पोजिशन से रिटायर हुए थे. उस का भाई चंडीगढ़ में लैक्चरर था और पुरखों की जमीन व जायदाद भी काफी थी.

लेकिन प्यार का जोश, दीवानापन ऐसी बातें कहां समझता है. सुमनप्रीत चुप हो गई, मगर दिमाग में शैतानी खयाल आ रहे थे, इसलिए कंप्यूटर कोर्स के बहाने फिर से यमुनानगर जाने लगी और एक दिन उन दोनों ने भाग कर कोर्टमैरिज कर ली. गगन सुमनप्रीत को अपने घर ले आया.

खैर, जब सुमनप्रीत के घर वालों को इस शादी के बारे में पता चला, तो उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की. छोटा सा कसबा है, बात फैलने पर बदनामी होगी. बस, इतना ही कहा कि आज से सुमनप्रीत उन के लिए मर चुकी है.

लेकिन ससुराल वालों ने सब रीतिरिवाजों के साथ अपनी बहू का गृहप्रवेश कराया. जिस दिन शादी हुई, उस के 2 दिन बाद ही गगन की प्रमोशन हो गई.

अब तो सुमनप्रीत को भाग्यशाली समझ जाने लगा. सबकुछ ठीक चल रहा था. एक साल में ही सुमनप्रीत ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया.

सुमनप्रीत ने गगन से कहा, ‘‘गगन, मेरी इच्छा है कि मैं अपनी बेटी का नाम मेरे पापा के नाम हरजोत सिंह पर हरलीन कौर रखूं, लेकिन कहीं मम्मीडैडी को बुरा न लगे जाए…?’’

‘‘नहीं सुमन, मम्मीडैडी बुरा नहीं मानेंगे. हम इस का नाम हरलीन कौर ही रखेंगे,’’ गगन ने कहा.

बच्ची का नाम हरलीन कौर रखा गया. एक दिन गगन और सुमनप्रीत उस बच्ची को ले कर मायके गए और बच्ची को उस के नाना की गोद में रख दिया.

बच्ची को देख कर सुमनप्रीत के मम्मीपापा के मन में भी प्यार उमड़ा और उन्होंने सुमनप्रीत की गलती को भुला कर उसे गले से लगाया.

दोनों परिवार मिल गए. सुमनप्रीत की जिंदगी में अब और भी खुशियां बढ़ गई थीं. मायके का प्यार जो फिर से मिल गया था.

इधर बच्ची के आने से खर्च बढ़ने लगा. अभी तो गगन को प्रमोशन पर प्रमोशन मिल रहा था. सुमनप्रीत ने आगे पढ़ने की इच्छा जताई.

गगन ने उसे पत्राचार से एमकौम कराई और उस के बाद कंप्यूटर का एक कोर्स भी कराया.

अब तक हरलीन स्कूल जाना शुरू हो गई थी, तो सुमनप्रीत ने कहा, ‘‘गगन, हरलीन स्कूल चली जाती है. आप भी सुबह से जा कर शाम को घर आते हो.

घर पर कुछ खास काम तो रहता नहीं है, क्यों न मैं किसी स्कूल में नौकरी के लिए ट्राई करूं?’’

सुमनप्रीत की खुशी के लिए गगन ने उसे नौकरी करने के लिए मना नहीं किया.

सुमनप्रीत ने अपनी बेटी के ही स्कूल में नौकरी के लिए अप्लाई किया और उसे वहां नौकरी भी मिल गई.

हरलीन अब 10 साल की हो गई थी. सुमनप्रीत की दूसरी बेटी पैदा हुई, जिस का नाम प्रेजी रखा.

अब 2 बच्चों का खर्च और मांबाप की उम्र के हिसाब से बीमारी का बढ़ता खर्च… धीरेधीरे घर में तनाव भरा माहौल रहने लगा.

सुमनप्रीत ने अब महाराजा अग्रसेन कालेज में अपना बायोडाटा भेज दिया और वहां से नौकरी का बुलावा
आ गया.

गगन और सुमनप्रीत की आमदनी से बस गुजारा ही होता था. सुमनप्रीत को अपनी इच्छाओं को मारना पड़ता था, लेकिन कब तक?

कालेज में सुमनप्रीत की दोस्ती अपने से 6 साल छोटे आयुष के साथ हो गई, जो एक ऊंचे और अमीर खानदान से था, जो वहां शौकिया नौकरी करता था. वह सुमनप्रीत की हर इच्छा पूरी करता था, इसलिए वह उस की तरफ खिंचती चली गई.

जहां एक तरफ गगन और ज्यादा कमाने और सुमनप्रीत की इच्छाओं को पूरा करने के लिए दिनरात जद्दोजेहद करता था, वहीं दूसरी तरफ सुमनप्रीत आयुष के रंग में रही.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते, सुमनप्रीत का भी परदाफाश हुआ. गगन को एक दिन खबर मिली कि इस समय सुमन और आयुष किसी मीटिंग या कालेज में नहीं हैं, बल्कि होटल में रंगरलियां मना रहे हैं.

गगन भड़का हुआ होटल गया और दोनों को रंगे हाथ पकड़ लिया और सुमन को घर ले आया.

इस समय हरलीन 14 साल की और प्रेजी 4 साल की थी. गगन ने सुमनप्रीत को बहुत समझाया, लेकिन वह खुले शब्दों में विरोध करते हुए बोली, ‘‘गगन, जब तुम मेरी इच्छाएं पूरी नहीं कर सकते, तो मुझे तलाक दे दो. मैं आयुष के साथ नया सफर शुरू करना चाहती हूं. वह मुझे हर तरह से खुश रखेगा.’’

‘‘सुमन, प्लीज ऐसा मत करो. बच्चियों के बारे में भी सोचो. तुम ने अब तक जो भी किया, मैं सब भुला दूंगा. तुम्हारी हर गलती माफ कर दूंगा. तुम अपने बच्चों के साथ मेरा परिवार बन कर एक अच्छी बीवी, अच्छी मां और अच्छी बहू की तरह रहो.’’

‘‘बहुत बन चुकी मैं अच्छी बीवी, बहू और मां, पर मुझे अपनी जिंदगी भी जीनी है. कब तक मैं दूसरों के लिए जीऊं?’’

‘‘मैं तुम्हें हर खुशी दूंगा, तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूंगा. मैं दिनरात मेहनत करूंगा. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. मैं बहुत प्यार करता हूं तुम से,’’ गगन ने कहा.

‘‘मिस्टर गगन, प्यार से पेट नहीं भरता. प्यार से तन नहीं सजता. प्यार चांदतारों की भी ख्वाहिश करता है. मेरी भी कुछ ऐसी हसरतें हैं, जो आयुष पूरी कर सकता है.’’

एक दिन गगन के पास कोर्ट से तलाक के पेपर आ गए. रात को गगन जब औफिस से घर आया, तो गुस्से में बोला, ‘‘सुमन, यह क्या है? तुम ने तलाक के लिए अर्जी दी है?’’

सुमन ने हंसते हुए कहा, ‘‘हां, तो और क्या करूं मैं? तुम्हें कितनी बार कहा कि मुझे तलाक दो. तुम तो तलाक लोगे नहीं, तो सोचा कि मैं ही यह शुभ काम कर दूं.’’

गगन ने रोते हुए कहा, ‘‘सुमन, प्लीज ऐसा मत करो. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘अब मैं बिलकुल भी तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. मेरे पास और वक्त नहीं है इंतजार के लिए. मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है, जो मेरे लिए चांदतारे भी तोड़ कर लाएगा.’’

‘‘ये सिर्फ बातें हैं. वह तुम्हें हमेशा के लिए नहीं अपनाएगा. अधर में छोड़ देगा, तब पछताओगी.’’

‘‘जो होगा देखा जाएगा, मैं फैसला ले चुकी हूं. इन पेपर पर साइन करो, वरना मैं यहीं खुदकुशी कर लूंगी,’’ सुमनप्रीत ने कहा.

गगन ने कहा, ‘‘मैं ऐसे तलाक नहीं दूंगा. अगर तलाक लेना है, तो कोर्ट में जा कर ही क्यों न फैसला किया जाए…’’

दोनों ने कोर्ट में बच्चों की कस्टडी के लिए एप्लीकेशन दे दी. केस अभी भी चल रहा है, लेकिन गगन अभी भी सुमनप्रीत को मना रहा है कि वह आयुष को भूल जाए और उस की जिंदगी में वापस आ जाए.

पर यह कैसा प्यार है, जो अपनी इच्छाओं को पूरा करने की चाहत में सबकुछ भूल चला है?

Short Story : प्यार और दौलत

Short Story : आंगन में धमधम की आवाज से मोहिनी यह समझ गई कि रामजीवन आ गया है. अपने यकीन को पुख्ता करने के लिए वह उठी और देखा कि आंगन में एक मिट्टी का ढेला पड़ा है, क्योंकि आज रामजीवन के आने पर इसी इशारे का वादा था. रामजीवन और मोहिनी का प्यार परवान पर था. रामजीवन के बगैर मोहिनी एक पल भी नहीं रहना चाहती थी. लेकिन मोहिनी के घर वाले रामजीवन की कहानी जानते थे.

रामजीवन सही आदमी नहीं था. वह झोलाछाप डाक्टरी के अलावा और भी गैरकानूनी धंधे करता था. उस ने दहेज के लालच में अपनी बीवी तक को मार डाला था. लेकिन न जाने मोहिनी पर रामजीवन का कौन सा जादू छाया था. वैसे रामजीवन था तो मोहिनी की बिरादरी का ही, मगर मोहिनी के घर वाले अपनी बेटी पर उस की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहते थे.

मोहिनी का पूरा परिवार पढ़ालिखा था. भाई भी नौकरी करते थे और खुद मोहिनी भी इंटर पास थी. रामजीवन को आया जान मोहिनी घर के जेवर व नकदी एक थैले में डाल कर छत पर चढ़ गई. घर के सभी लोग सो रहे थे. सारे गांव में सन्नाटा था. आज गली के कुत्तों को भी नींद आ गई थी. उन का भूंकना बंद था. वह धीरेधीरे चलती हुई पिछवाड़े की मुंड़ेर पर पहुंच गई. रामजीवन वहीं खड़ा इंतजार कर रहा था.

मोहिनी रामजीवन की बांहों में जल्द से जल्द समा जाना चाहती थी. पड़ोस की खपरैल से होते हुए वह रामजीवन के बहुत नजदीक पहुंच गई. रामजीवन ने उस का थैला थामा और उसे एक ओर रख कर अपने हाथों का सहारा दे कर मोहिनी को भी नीचे उतार लिया.

रात आधी से ज्यादा बीत गई थी. दोनों सारी रात चलते रहे. सुबह होने तक वे एक काफी सुनसान जगह पर आ कर रुक गए. सवेरा हो गया था. जहां वे लोग रुके थे, वहीं पास में ही रामजीवन का खेत था, जहां रामजीवन के खास साथी डेरा डाल कर रहते थे. मोहिनी को वहीं छोड़ रामजीवन अपने एक साथी को ले आया.

उस साथी को मोहिनी के पास बैठा कर रामजीवन खुद खाना लाने के बहाने एक ओर चला गया. जातेजाते रामजीवन ने मोहिनी से झोले में क्याक्या है, जानना चाहा था. तब मोहिनी ने बताया था कि 80 हजार की नकदी और सोनेचांदी के जेवर हैं.

एक नजर थैले पर डाल मोहिनी को तसल्ली देते हुए वह बोला, ‘‘इसे मैं अपने साथ लिए जा रहा हूं. कुछ नकद का और इंतजाम कर के मैं शाम तक आ जाऊंगा, फिर कहीं दूर चले जाएंगे.’’ वहां बैठा साथी, जिस का नाम शंकर था, उन की बातें गौर से सुन रहा था. शंकर जानता था कि आज ठाकुर सोने की चिडि़या फांस कर लाए हैं लेकिन वह चुप था.

दिन बीता रात आई लेकिन रामजीवन नहीं आया. अब शंकर से रहा नहीं गया. वह बोला, ‘‘कहां रहती हैं आप?’’ ‘‘किशनपुर में,’’ मोहिनी ने जवाब दिया.

‘‘अच्छा, जहां मालिक डाक्टरी करते हैं?’’ शंकर ने पूछा. मोहिनी चुप रही.

शंकर ने फिर पूछा, ‘‘क्या नाम है आप का?’’ ‘‘मोहिनी,’’ उस ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘जैसा नाम वैसा गुण,’’ शंकर कहे बिना नहीं रह सका. सचमुच वह रात में चांदनी की तरह चमक रही थी. शंकर ने पूछा, ‘‘घर क्यों छोड़ा आप ने?’’ मोहिनी ने लजा कर कहा, ‘‘तुम्हारे मालिक के साथ रहने के लिए.’’

शंकर मन ही मन सोच रहा था, ‘अजब जादू चलाया है मालिक ने. न जाने क्या हाल होगा इस का?’ फिर उस ने सोचा, ‘बेवकूफ लड़की, तू ने ठीक नहीं किया. मांबाप हमेशा अपनी औलाद का भला ही चाहते हैं, बुरा तो सपने में भी नहीं सोच सकते. कसाई भी अपने बच्चों को खुश व सुखी देखना चाहते हैं.’ मन ही मन शंकर चुप ही रहा. इसी दौरान किसी के पैरों की आहट से उन का ध्यान बंटा.

रात के 10 बजे होंगे. दोनों चौकन्ने हो गए. दूर कहीं सियार की डरावनी आवाज सुनाई दे रही थी. पास आता एक चेहरा अब साफ दिखाई दे रहा था, यह रामजीवन ही था. नजदीक आ कर रामजीवन शंकर को एक ओर ले गया, जहां उस ने शंकर की छाती पर रामपुरी चाकू रख दिया. शंकर के पैरों तले जमीन खिसकने लगी, सामने मौत जो खड़ी थी. उस का हलक सूख गया था.

रामजीवन ने कहा, ‘‘मरना चाहते हो कि…’’ शंकर की सूखी जबान से खरखराती आवाज निकली, ‘‘म… म… म… मालिक.’’

‘‘ले चाकू और मार दे उस लड़की को. नहीं तो तू भी फंसेगा और मैं भी. पुलिस हम दोनों को ढूंढ़ रही है,’’ रामजीवन ने धीरे से, पर कड़कती आवाज में कहा. ‘‘न… न… नहीं मालिक, यह काम मैं नहीं कर पाऊंगा. मैं ने कभी मुरगी तक नहीं…’’ शंकर हकलाया.

‘‘तो ले, तू ही मरने को…’’ शंकर अब तक संभल चुका था. वह सहमते हुए बोला, ‘‘मालिक, चाहे मुझे मार दो, मगर मुझ से यह काम नहीं होगा.’’

रामजीवन कुछ ढीला हो कर बोला, ‘‘एक शर्त पर तू बचेगा. तू किसी से कुछ नहीं कहेगा. जो मैं कहूंगा वही करेगा.’’ ‘‘हर शर्त मंजूर है मालिक,’’ शंकर ने डरते हुए कहा.

‘‘आओ,’’ ऐसा कहते हुए रामजीवन मोहिनी के पास गया. शंकर दूर खड़ा अनहोनी का अंदाजा लगा रहा था. रामजीवन मोहिनी को एक टीले की ओर ले गया. दूर झींगुरों की आवाज से रात और भी डरावनी हो रही थी.

प्यार में अंधी मोहिनी चहकती हुई उस की ओर बड़ी अदा से बलखाती सी जाने लगी, क्योंकि उसे लग रहा था कि टीले की ओट में वह उसे बहुत प्यार करेगा. उस की भरी जवानी का रस पीएगा. आज कई दिनों बाद सबकुछ करने का एक अच्छा मौका जो मिला है. वह रामजीवन की बांहों में समा जाने को मचल रही थी. मगर यह क्या, जैसे ही मोहिनी रामजीवन के गले लगी तो आसमान कांप उठा. रामजीवन ने प्यार करने के बजाय एक हाथ से मोहिनी के जिगर में रामपुरी चाकू घुसेड़ दिया और दूसरे हाथ से उस का मुंह कस कर दबोच लिया.

मोहिनी चीख भी नहीं सकी. उस की चीख अंदर ही अंदर दब कर रह गई. जब वह निढाल हो गई, तब कहीं रामजीवन ने उसे छोड़ा. शंकर चुपचाप एक कसाई के हाथों गऊ जैसी मोहिनी को हलाल होते देख रहा था. जिस के जिस्म से खेला, जो लाखों की दौलत ले कर घरपरिवार, रिश्तेदारों को छोड़ कर आ गई थी, आज उसी मोहिनी के लिए रामजीवन कालिया नाग बन गया था.

‘‘खड़ेखड़े क्या देख रहा है? ले, इस की लाश उठा उधर से,’’ रामजीवन की आवाज से शंकर सोते सा जगा और मशीन की तरह उस ने मोहिनी को एक तरफ से उठा लिया. फिर दोनों उसे एक ढलान पर ले गए. ढलान में एक गहरा गड्ढा देख कर शंकर समझ गया कि रामजीवन अभी तक क्या कर रहा था. उसी गड्ढे में मोहिनी को हमेशा के लिए दफना दिया गया मानो प्यार की दौलत ही दफना दी हो.

Hindi Story : बेवफा कौन ?

Hindi Story : रघुवर  को कब शराब के शौक ने घेर लिया, उसे एहसास ही नहीं हुआ. उसकी ऐसे-ऐसों से मित्रता हो गई कि जो अपने आप में इस क्षेत्र के अखंड खिलाड़ी थे.  कहते हैं न, आदमी को एक ऐब पकड़ता है, तो दूसरे ऐब भी आने घेरने लगते हैं, सो रघुवर दास को दूसरी कई बुराइयों ने भी भी  जकड़ लिया.  परिणाम स्वरूप कोयला खान जाते समय नूर होटल में बैठकी भी जमने लगी है.

वहां खूब खाते-पीते और दूसरों की भी सेवा करते. फिर संध्या समय लौटते, तो बैठकी होती. धीरे धीरे हाथों में पैसे की तंगी होने लगी तो एक मित्र रामनारायण ने कहा, -“तुम्हें कितने पैसे चाहिए…. मैं हूं न .”

रघुवर  का चेहरा खिल गया.

रामनारायण ने कहा, – “ चलो, प्रभात  के पास, कितना पैसा चाहिए, मैं ब्याज में दिलवाता हूं .”

रघुवर ने मालिक राम की ओर देखा तो उसने भी सिर हिला कर पुष्टि की,-” कभी कभी मैं भी लेता हूं .”

-” कितना ब्याज है .” संशय से भर कर रघुवर दास ने जानना चाहा.

– “देखो, कम पैसे कम लोगे तो 10% ज्यादा लोगे तो 8% .”

” भैय्या, ऐसा क्यों ?”

– “हम भी स्वयं खुद लेते हैं ! ऐसा तो सभी जगह है… आखिर उन्हें भी तो बाल बच्चे पालने हैं, फिर कितना रिस्क है…घर से पैसे निकाल कर देते हैं . मजाक है क्या.”

रामनारायण ने बात समझायी तो रघुवर सहमत हो गया.

अब शराब के लिए पैसे ब्याज पर लिए जाने लगे थे. शुरू में रघुवर को लगा वह गलत कर रहा है, यह भविष्य के लिए घातक है मगर तब तक मदिरा का आनंद सर चढ कर बोलने लगा था. मित्रों ने समझाया था,- “हम लोग  कोयला खदान में काम करने वाले लोग हैं, अगर हमें स्वस्थ रहना है तो शराब पीनी होगी . नहीं पियोगे तो हाथ पैर में दर्द रहेगा, काम नहीं कर पाओगे…मन नहीं लगेगा .”

मालिकराम का उद्घोष था ,- “आखिर कमाते किसके लिए हो बंधु ! क्या बाल बच्चों का पालन-पोषण उनके लिए खपना ही हमारा जीवन है, क्या हम कुछ अपने लिये  नहीं जी सकते…”

रघुवर को बातें जंचती थी और वह बातें उसके मस्तिष्क पर गहरा असर डालती थी. कहते हैं न जैसा माहौल, वैसा वैसा चढ़े रंग ! बस रघुवर के साथ भी यही हुआ. वह एक नंबर का मदिरा प्रेमी बन गया और ब्याज पर रुपए लेकर जिंदगी का सुख भोगने लगा . मगर इसका परिणाम, भविष्य में  तो उसे ही भोगना था….

रघुवर को अचानक पता चला – उसे कैंसर है….!

शराब व सूदखोरी के संजाल में वह बुरी तरह फंसा ही हुआ था, अभी हाल मे शादी हुई थी, पत्नी रत्ना ! जैसा नाम, सचमुच वैसे ही रूप लावण्य से परिपूर्ण रत्नावती थी. उसकी सुंदरता के आगे कोई ठहर नहीं पाती थी . रघुवर का इलाज कोयला खदान की सबसे वृहदकाय हॉस्पिटल में होने लगा, इधर ‘म‌द्म’ का नशा छुट नहीं रहा !

एक दिन प्रभात  घर आ पहुंचा . रघुवर बीमार लेटा हुआ था . प्रभात आया तो पति का मित्र मान, रत्ना आगंतुक को भीतर ले आई .

-” भैय्या ! यह क्या सुन रहा हूं. बहुत दुख हुआ .” प्रभात ने दुखी स्वर में कहा.

– “अब क्या कहूं… कब क्या होगा, किसे पता था… प्रभात .”

– “ओह !बड़ी दुखद खबर है.मेरे लायक कोई भी सेवा हो तो कहना….”

रत्ना प्रभात की बातें सुन रही थी .घर की स्थिति खराब होती जा रही थी, राशन नहीं था, पैसे नहीं थे. ड्यूटी पर रघुवर जा नहीं पा रहा है .

रघुवर ने ने कहा, -” भैय्या ! तुमने तो हमेशा  मदद  की है, अभी भी तुम्हारा भरोसा है .”

-“हां, कहो… मैं हूं न !”

अब अक्सर प्रभात घर आ जाता, घंटों रत्ना से बातें करता .रत्ना उससे प्रभावित होती चली गई, उस पर विश्वास करने लगी है. कमजोर लता थोड़ा सा सहारा पा जाए तो उस पर ही आसरा कर बैठती है . रघुवर इलाज , पानी के लिए हॉस्पिटल जाता.कोयला खदान के चक्कर लगाता कभी लोन के लिए कभी पी.एफ की राशि से लोन के लिए. उसकी स्थिति दिनोंदिन खराब हो रही थी.

एक दिन  रघुवर  घर पहुंचा, संध्या का वक्त था .रत्ना को आवाज दी… दरवाजा खुला, तो देखा भीतर प्रभात बैठा है ! उसे तो मानो काठ मार गया…

” रत्ना ! यह ठीक नहीं है .” रघुवर का का स्वर दुःख से भरा हुआ था.

” मगर यह तो आपके मित्र हैं, आपके बारे में ही बातचीत कर रहे थे, हाल-चाल पूछ रहे थे.”

– “तुम जानती हो… मुझे यह पसंद नहीं .”

– “और आपको पता है,  बीमार हो… घर का खर्चा चलाने लायक भी  नहीं रहे .”

– “तो ?” तो क्या हुआ… मुझे लोन मिल जाएगा . तुम्हारा भविष्य सुरक्षित है .”

रघुवर असहाय है, क्या करें… एक तरफ बीमारी दूसरी तरफ रत्ना की जवां उम्र .  उसे लगा रत्ना प्रभात की ओर आकर्षित हो रही है, प्रभात अक्सर घर आता, उसका हाल चाल लेता, फिर खूब हंसता और रत्ना को हंसाता.

रघुवर एक दो दफे प्रतिकार की भाषा में बात की तो रत्ना  बोली,-”  तुम बीमार हो… अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दो…. और हां मुझ पर विश्वास रखो. ”

रघुवर मानो मन मसोस कर रह जाता . समय की मार त्रासदी यही तो है, कभी अपनी पत्नी रत्ना की खूबसूरती पर उसे नाज था, उसे लग रहा था, आज वह सबसे लावण्यमयी रत्ना उसके हाथों से निकल रही है और वह असहाय है…

एक दिन तो पराकाष्ठा हो गई. रत्ना बाथरूम में नहा रही थी . रघुवर बिस्तर पर पड़ा हुआ था .अचानक प्रभात आ गया.

” भैय्या कैसे हो ? कुछ मदद हो तो कहना… बिल्कुल संकोच नहीं….”

– “हां… हां अब… और किसको कहूगा .” तभी बाथरूम से रत्ना ने झांक कर देखा सामने प्रभात बैठा है . प्रभात ने रत्ना को देखा और सौंदर्य देखता रह गया,  रघुवर की आंखें भीग गई . वह सोच रहा था मैं  कितना असहाय हो चुका हूं.

रघुवर की नासाज तबीयत के बारे मे जानने, एक दिन प्रभात रघुवर के घर पहुँचा.दरवाज़ा रघुवर की पत्नी रत्ना ने खोला.  आज उसकी सुंदरता देख प्रभात सोच में पड़ गया. उसकी आँखों में एक बार फिर धूर्तता चमकने लगी . अपनी आवाज़ में शहद सी मधुरता घोलकर वह रघुवर से बोला,-” रघुवर,  तुम दवाई लो और आराम करो.जल्द ही ठीक हो जाओगे .”

रघुवर-“लेकिन मैं  अभी काम पर नही जा पा रहा हूँ .घर कैसे चलेगा.दवा कहाँ से आएगी.यही चिंता खाए जा रही है. आखिर तुम से कब तक मदद लूं.”

प्रभात,-”तुम परेशान मत हो बंधु,मैं सब इंतज़ाम कर दूँगा.”

प्रभात की‌ निगाहें  बहुत दिनों से रत्ना पर थी उसकी दुकान से  राशन आ रहा.पैसा आ गया.दवाइयां भी आने लगी.प्रभात  जब तब घर आने लगा.वह रत्ना से बात करने और उसे छूने की कोशिश करता.रत्ना उसके आने से सहम जाती.

एक रात रघुवर की तबियत बिगड़ गई.अस्पताल में डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिए 75 हज़ार जमा करने की बात कही. रघुवर ने प्रभात को बुलाया . प्रभात तो मौक़े का इंतज़ार कर रहा था . तिरछी नज़रों से रत्ना को देखते हुए बोला,-“तुम्हारे ऊपर बहुत उधार हो गया है रघुवर और अब फिर इतना रूपया  !!! मुश्किल होगा व्यवस्था करना. हाँ, एक उपाय हैं यदि तुम दो चार दिन के लिए रत्ना को मेरे साथ भेज दो तो .”

-“प्रभातऽऽऽऽऽ .”  रघुवर चिल्लाने की कोशिश करने लगा और गश खाकर गिर पड़ा.

निरीह रत्ना एक बार प्रभात को देखती है और फिर पति  को . धीरे धीरे  उसका चेहरा कठोर हो गया.बोली -”मैं तैयार हूँ .”

प्रभात की आंखें चमक उठीं तुरंत रत्ना को लेकर दूसरे कमरे में चला गया. रघुवर बेबस देखता रहा.

आज उसे अपनी शराब पीने की लत का परिणाम देखने को मिल रहा था जिसका खामियाजा रत्ना भुगत रही थी.

रत्ना बाहर आयी.उसके हाथ मे ढेर सारे हज़ार रुपये थे. रघुवर अस्पताल में भर्ती हो गया .इधर प्रभात जब जब तब रत्ना के पास आता .मोहल्ले में चर्चा होने लगी .

10 दिन बाद जब रघुवर स्वस्थ हो घर पहुँचा तो रत्ना की लाश पंखे पर टंगी थी .इधर रघुवर रत्ना कि लाश से लिपट लिपट कर रो रहा था और कभी शराब न पीने की कसमें खा रहा था और उधर ख़बर छपी ……चरित्रहीन रत्ना ने की आत्महत्या .”खबर पढ़कर रघुवर अपना दिमाग़ी संतुलन खो बैठा.शराब के कारण एक और हसता खेलता परिवार उजाड़ दिया.

Hindi Story : सुबह का भूला

Hindi Story : ‘‘सुनो जरा, आज रमा दीदी के यहां लेडीज संगीत का प्रोग्राम है, इसलिए दोपहर को अस्पताल से जल्दी घर आ जाना. शाम को 5 बजे निकल चलेंगे. यहां से 80 किलोमीटर ही तो दूर है, शाम के 7 बजे तक पहुंच ही जाएंगे.’’

‘‘नहीं सीमा, यह कैसे मुमकिन होगा… शाम को 6 बजे से अपना क्लिनिक भी तो संभालना होगा. कितने मरीज दूसरे शहरों से आते हैं. सभी को परेशानी होगी,’’ डाक्टर श्रीधर ने अपनी परेशानी सीमा को बताई.

‘‘मतलब, आप को लौटतेलौटते तो रात के 9-10 बज जाएंगे और उस के बाद अगर हम जाएंगे भी तो प्रोग्राम खत्म होने के बाद ही पहुंचेंगे,’’ सीमा निराश हो कर बोली.

सीमा को अपनी बड़ी बहन रमा की बेटी की शादी में जाने का बड़ा ही मन था.

‘‘सीमा, तुम सम झने की कोशिश करो न कि एक डाक्टर पर समाज की कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है. वह अपनी जिम्मेदारियों से कैसे मुंह मोड़ सकता है…’’ श्रीधर सीमा को सम झाने के लहजे में बोला.

‘‘उस जिम्मेदारी को निभाने के लिए तो सरकार ने तुम्हें सरकारी अस्पताल में नौकरी दे रखी है. क्लिनिक पर तो तुम ज्यादा पैसा पाने के लिए ही तो जाते हो न?’’ सीमा ने उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, तुम्हीं लोगों के लिए तो कर रहा हूं. अभी श्रीशिव 6 साल का ही तो है. कल जब वह बड़ा होगा तो उस की पढ़ाईलिखाई के लिए जिन पैसों की जरूरत होगी, उन का इंतजाम भी तो अभी से करना होगा,’’ श्रीधर अपने समय पर न आ पाने की दलील को सही ठहराने के नजरिए से बोला.

‘‘तो फिर वहां जाने का प्रोग्राम कैंसिल करते हैं,’’ सीमा काफी निराश लहजे में बोली.

‘‘नहीं सीमा, प्रोग्राम कैंसिल करने की जरूरत नहीं है. वैसे भी शादी तो कल ही है, इसलिए कल सुबह 5 बजे हम यहां से निकल चलेंगे और जल्दी ही पहुंच जाएंगे.

‘‘वैसे भी शादीब्याह जैसे कार्यक्रम का मतलब अपने सभी नातेरिश्तेदारों, जानपहचान वालों से मुलाकात करना होता है, खाना, नाचनागाना नहीं.

‘‘शाम को 5 बजे तक मैं वहां से निकल जाऊंगा और फिर अपना क्लिनिक संभाल लूंगा. तुम शादीविदाई की रस्मों तक वहीं रुकना. कार्यक्रम खत्म होते ही मैं ड्राइवर और गाड़ी पहुंचा दूंगा,’’ श्रीधर ने अपनी योजना सम झाई. सीमा ने मन मार कर हां कर दी.

श्रीधर के पिता गांव के एक मिडिल स्कूल में टीचर थे. उसी गांव में उन की थोड़ीबहुत जमीन थी, इसीलिए वे गांव में ही रहते थे. गांव में एक प्राइमरी हैल्थ सैंटर था, जो समय से खुल कर बंद हो जाता था. डाक्टर पास के शहर से रोज आतेजाते थे. इस के अलावा गांव में कोई एंबुलैंस नहीं थी.

श्रीधर के दादाजी की मौत भी समय पर पूरा इलाज न मिलने के चलते हुई थी. इसी वजह से श्रीधर के पिताजी उसे डाक्टर बना कर गांव में लाना चाहते थे, ताकि गांव वालों को समय पर इलाज मिल सके.

मैडिकल की डिगरी मिल जाने के फौरन बाद ही श्रीधर की पहली बहाली एक ब्लौक लैवल के सरकारी अस्पताल में हो गई.

सीमा से शादी के समय वह इसी अस्पताल में थे. सीमा के परिवार वाले दबदबे वाले थे और उन्होंने श्रीधर का ट्रांसफर इस मैट्रो सिटी में करा दिया.

यहीं पर सरकारी नौकरी करतेकरते श्रीधर ने अपना क्लिनिक खोल लिया. आज हालात यह है कि श्रीधर 10,000 रुपए रोज तो कमा ही लेते हैं. यही वजह है कि श्रीधर सरकारी अस्पताल से छुट्टी ले कर शादी में तो जाना चाहते हैं, पर अपना क्लिनिक और प्रैक्टिस छोड़ना नहीं चाहते हैं.

सुबह के 5 बजे अच्छाखासा अंधेरा था. कुछ देर पहले बारिश भी हो चुकी थी. श्रीशिव को आगे बैठना पसंद था इसलिए वह ड्राइवर के साथ आगे बैठ गया. सीमा व श्रीधर पीछे बैठ गए.

सुबह का समय था, इसलिए रोड पर टै्रफिक न के बराबर था. ड्राइवर ने म्यूजिक सिस्टम भी औन कर दिया था. पीछे बैठे श्रीधर व सीमा नींद में ऊंघ रहे थे.

अभी तकरीबन 40-50 किलोमीटर ही आए थे कि सड़क की साइड में एक ढाबे के पास खड़ा ट्राला चलने लगा और शायद कंट्रोल न होने के चलते बीच सड़क पर लहराने लगा. तेज रफ्तार से आ रही श्रीधर की कार को रोकना नामुमकिन था. काफी खतरनाक हादसा हुआ था. ट्राला वाला अपना ट्राला ले कर भाग चुका था.

तेज रफ्तार के चलते कार का अगला हिस्सा पूरी तरह टूट गया था. श्रीशिव व ड्राइवर की हालत गंभीर थी और काफी खून निकल रहा था. श्रीधर व सीमा को भी गंभीर चोटें आई थीं, पर वे दोनों होश में थे. चीखनेचिल्लाने की आवाज सुन कर आसपास से काफी लोग मदद के लिए आ गए थे.

सीमा व श्रीधर को तुरंत बाहर निकाल लिया गया. वे दोनों बदहवास हालत में थे. श्रीशिव व ड्राइवर को निकालने की कोशिशें की जा रही थीं, पर डैश बोर्ड के बीच फंसे होने के चलते बहुत दिक्कतें आ रही थीं.

जैसे ही श्रीधर सामान्य हुए, तो उन्होंने पूछताछ शुरू की. पता चला कि यह एक छोटा सा गांव है. तकरीबन सवा सौ घर हैं और सब से नजदीक प्राथमिक स्वास्थ केंद्र यहां से 5 किलोमीटर दूर है. वहां पर भी डाक्टर मिलेगा या नहीं, कह नहीं सकते.

श्रीधर ने तुरंत ही अपने सरकारी अस्पताल में फोन किया और एंबुलैंस भेजने के लिए कहा. फिर भी एंबुलैंस के आ कर वापस जाने में कम से कम डेढ़ घंटा तो लग ही सकता था. अब तक श्रीशिव को कार से बाहर निकाला जा चुका था.

श्रीधर ने उसे चैक किया. श्रीशिव की अभी मंदमंद सांसें चल रही थीं. अगर अभी औक्सिजन दी जाए तो शायद जान बच जाए. श्रीधर अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे. अब तक ड्राइवर को भी निकाला जा चुका था, पर वह अब इस दुनिया में नहीं था.

दूर से आती एंबुलैंस की आवाज से श्रीधर को कुछ उम्मीद बंधी. एंबुलैंस रुकी और जैसे ही स्ट्रैचर निकाला जाने लगा, बेटे श्रीशिव ने अपनी अंतिम सांसें लीं.

‘‘अगर आज गांव में डाक्टर होता, एंबुलैंस होती तो शायद इन दोनों की जानें बच जातीं,’’ भीड़ में से कोई कह रहा था.

‘‘अरे, डाक्टर इस छोटे से गांव में क्यों आएंगे? उन्हें तो मलाई चाहिए, जो सिर्फ शहरों में ही मिलती है,’’ किसी और ने कहा.

‘‘जब डाक्टरी की पढ़ाई करते हैं, तब कसम खाते हैं कि जन सेवा करेंगे, पर डिगरी मिलते ही सब भूल जाते हैं और सिर्फ धन सेवा करते हैं,’’ तीसरे आदमी ने कहा.

इसी तरह की और भी बातें हो रही थीं, जो श्रीधर को साफ सुनाई नहीं दे रही थीं.

श्रीधर को भी वह सब याद आ रहा था कि पिताजी ने किस वजह से उसे मैडिकल की पढ़ाई करने के लिए भेजा था.

दादाजी की मौत की सारी घटना उस की आंखों के सामने घूम गई. आज इतिहास ने खुद को दोहरा दिया. पिछली बार मौत उस के दादा को ले गई थी, इस बार बेटे को.

बेटे श्रीशिव की मौत के क्रियाकर्मों को निबटाने के बाद जब पिताजी वापस गांव जाने लगे तो श्रीधर ने उन से कहा, ‘‘मैं वापस गांव लौटना चाहता हूं. वहां लोगों की सेवा करना चाहता हूं.’’

‘‘पर, वहां तुम्हें इतने पैसे कमाने के मौके नहीं मिलेंगे,’’ पिताजी ने साफ शब्दों में जवाब दिया.

‘‘अब पैसा कमा कर भी क्या करना है. मेरी जानकारी अपने ही गांव के लोगों के काम आ जाए, तो मैं अपनेआप को धन्य सम झूंगा,’’ श्रीधर ने साफसाफ लहजे में जवाब दिया.

‘‘तुम्हारा स्वागत है. अगर तुम्हारे जैसा हर डाक्टर सोच ले तो गांव से बेचारे गरीबों को छोटीछोटी बीमारियों के इलाज के लिए दौड़ कर शहर नहीं आना पड़ेगा. इस से शहर के डाक्टर का भी बोझ कुछ कम होगा और सभी को बेहतर इलाज मिल पाएगा,’’ पिताजी एक सांस में सब बोल गए.

दूसरे दिन औफिस जाते ही श्रीधर ने सब से पहले अपने कई अफसरों को चिट्ठी लिख कर अपने फैसले की सूचना दी और अपने ही गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ट्रांसफर करने का अनुरोध किया.

सीमा का मन महीनों तक बुझा रहा, पर फिर जब अगले चुनावों में उसे निर्विरोध सरपंच चुन लिया गया तो उस की सब शिकायतें खत्म हो गईं.

आम जनता के निकट आने पर उसे पता चला कि जनता की समस्याएं आखिर वैसी हैं और कितना भी करो कम हैं. उसे खुशी हुई कि वे दोनों कम से कम कोशिश तो कर रहे हैं.

Hindi Story : सनक

Hindi Story : सुनयना के पिता नृपेंद्रनाथ ने जो मकान बनवाया था वह काफी लंबाचौड़ा और शानदार था. लोग उस की कीमत 8 लाख रुपए के आसपास आंकते थे, पर नृपेंद्रनाथ उस की लागत दोढाई लाख ही बताते थे. मकान के अलावा बैंक में जमा धन था. गृहस्थी की हर नई से नई वस्तु मौजूद थी.

नृपेंद्रनाथ राजकीय सेवा में थे और एक विभाग में निरीक्षक थे. ऊपरी आमदनी का तो पता नहीं, पर उन के पास जो कुछ भी था, उसे मात्र वेतन से एकत्र नहीं कर सकते थे. वह कहा भी करते थे कि नौकरी तो उन्होंने शौक के लिए की है. गांव में उन के पास काफी कृषि भूमि है, बाग हैं और शानदार हवेली है. उसी की आमदनी से भरेपूरे हैं.

किसी को फुरसत न थी सुदूर गांव जा कर, अपना खर्चा कर के, नृपेंद्रनाथ की जायदाद का पता लगाए. जरूरत भी क्या थी? इस कारण नृपेंद्रनाथ की बात सच भी माननी पड़ती थी.

सुनयना उन की एकमात्र कन्या थी. 2 पुत्र भी थे. सुनयना तो किसी प्रकार स्नातक हो गई थी, पर बेटों ने शिक्षा की अधिक आवश्यकता महसूस नहीं की थी. जरूरत भी क्या थी? जब पिता के पास ढेर सारा धन हो, जायदाद हो तो शिक्षा का सिरदर्द मोल लेना उचित नहीं होता. वे दोनों भी वही सोचते थे जो आमतौर पर अपने देश में भरपूर धन और जायदाद वालों के पुत्र सोचते हैं.

सुनयना के नाकनक्श अच्छे थे. बोली भी अच्छी थी. केवल कमी थी तो यह कि रंग गहरा सांवला था. आर्थिक रूप से कमी न होने के कारण उस ने गृहकार्य सीखने की आवश्यकता नहीं समझी थी.

सुनयना की मां स्नेहलता तो उस के ब्याह के लिए नृपेंद्रनाथ को तभी से कोंचने लगी थी जब उस ने 18वें में कदम रखा था. यह नहीं कि नृपेंद्रनाथ को चिंता नहीं थी. थी और बहुत थी. वह जैसा चाहते थे वैसा वर नहीं दिखाई दे रहा था. जिस का भी पता लगता, वह उन की शर्तों पर खरा नहीं उतरता था.

नृपेंद्रनाथ चाहते थे कि लड़का भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो. उच्च ब्राह्मण कुल का हो. गोश्त, प्याज, लहसुन आदि न खाता हो. शराब न छूता हो. शानदार व्यक्तित्व का मालिक हो.

ऐसे दामाद की कीमत वह डेढ़ लाख स्वयं लगा चुके थे. 2 लाख तक जा चुके थे. ऐसे लड़के का पता लगता तो दौड़े चले जाते. प्रतीक्षा सूची में लग जाते, पर अभी तक ऐसा हुआ था कि ऐसे लड़कों को 3 लाख और साढ़े 3 लाख वाले उड़ा ले जाते.

नृपेंद्रनाथ भी धुन के पक्के थे. एक वांछित शर्तों वाला लड़का हाथ से निकल जाता तो दूसरे के पीछे पड़ जाते और तब तक पीछे पड़े रहते जब तक उसे भी ऊंची कीमत वाले छीन न लेते.

सुनयना के पास करने को कोई काम नहीं था. मां ने भी कुछ करवाने की जरूरत नहीं समझी. वह खूब खाती, खूब सोती और जागते समय उपन्यास पढ़ती. मुसीबत घर के बड़ेबूढ़े की होती है और ऐसी कन्या के विवाह में कठिनाई होती है, जिस का बाप अपने को बहुत बड़ा और कुलीन समझता हो. पिता की जिद ने सुनयना को 28 वर्ष की परिधि में ला दिया. उम्र के कारण कठिनाई और बढ़ गई थी.

स्थिति यह आ गई थी कि लोग नृपेंद्रनाथ को देख कर वक्रता से मुसकरा पड़ते. कह ही डालते, ‘‘कायदे से इन्हें कोई मिनिस्टर तलाशना चाहिए जिस के आगेपीछे प्रशासनिक सेवा वाले दुम हिलाते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के कान में भी बात गई. कोई असर न हुआ. उत्तर दे दिया, ‘‘मंत्री अस्थायी होते हैं और प्रशासनिक सेवा वाले स्थायी होते हैं.’’

नृपेंद्रनाथ के साले चक्रपाणि ने सुझाया, ‘‘जीजाजी, हो सकता है कि लड़का अभी शराब न पीता हो, गोश्त न खाता हो, सिगरेट न पीता हो. पर शादी के बाद यह सब करने लगे तो आप क्या कर लेंगे?’’

नृपेंद्रनाथ ने कोई उत्तर न दिया. उन के कानों पर जूं भी न रेंगी. वह अपनी शर्तों से तिल भर भी अलग होने को तैयार नहीं थे.

प्रो. कैलाशनाथ मिश्र का पुत्र भारतीय प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया.

नृपेंद्रनाथ ने विवाह का प्रस्ताव रखा तो लड़के पंकज ने दोटूक उत्तर दे दिया, ‘‘एक मामूली इंस्पेक्टर की बेटी से विवाह? क्या हमारे स्तर के लोग देश में खत्म हो गए हैं?’’

नृपेंद्रनाथ ने उत्तर सुना. उत्तर क्या था जहर का घूंट था. जिद की सनक में उन्हें पीना ही पड़ गया, पर वह अपने उद्देश्य पर कायम रहे.

ऊब कर सुनयना की मां ने भी कह डाला, ‘‘अच्छे परिवार का ऐसा स्वस्थ लड़का देखिए जिस से दोनों की जोड़ी अच्छी लगे. इतना और ध्यान रखिए कि कामकाज से लगा हो.’’

नृपेंद्रनाथ झिड़क देते, ‘‘तुम्हें तो अक्ल आ ही नहीं सकती. जब अपने पास सबकुछ है तो इकलौती बेटी के लिए लड़का भी उच्च पद वाला ही ढूंढ़ना है.’’

जवाब मिला, ‘‘तुम्हारी सनक के कारण लड़की बूढ़ी हुई जा रही है. उस की चचेरी और ममेरी बहनें 2-2 बच्चों की मां बन गई हैं. जब खेत ही सूख गया तो वर्षा का क्या फायदा?’’

इस कटु सत्य का कोई उत्तर देने के स्थान पर नृपेंद्रनाथ टाल जाना ही उचित समझते थे. अपनी शर्तों के संबंध में झुकने को तैयार होने की बात सोच ही न सकते थे. ऐसा न था कि लड़के न थे. उच्च कुल वाले भी थे. अच्छे पदों पर भी थे. पूर्ण शाकाहारी भी थे. स्वस्थ और सुंदर थे. परंतु नृपेंद्रनाथ की सनक भारतीय प्रशासनिक सेवा वाले के लिए ही थी.

कपिलजी को रामायण याद थी. जो कुछ कहते थे उस में एक चौपाई जरूर जोड़ देते. रामायण कंठस्थ थी पर उस के कोई आदर्श चरित्र उन में न थे.

पर वह भी एक दिन बोल ही पड़े, ‘‘लिखा न विधि वैदेहि विवाहू. प्रशासनिक सेवा का शुभ धनु न टूटेगा और न नृपेंद्रनाथ भाई की पुत्री का ब्याह होगा.’’

कपिलजी की पत्नी हां में हां मिलाती हुई बोलीं, ‘‘अब सुनयना का ब्याह क्या होगा. उस का 32वां वर्ष खत्म हो रहा है. अब उस को कुंआरा वर शायद ही मिले. विधुर या तलाकशुदा ही मिल सकता है.’’

सुनयना भी ऊब सी गई थी. अपनी सहेली शिल्पा से यों ही कह गई, ‘‘पिताजी की सनक भी खूब है. जिद में पड़े हैं. क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा वालों को छोड़ कर और अच्छे लड़के नहीं मिल सकते समाज में? अच्छा हुआ कि नानीजी ने ऐसा नहीं सोचा. नहीं तो मां भी अभी तक कुंआरी ही होतीं अथवा कुंआरी ही मर चुकी होतीं.’’

वैसे हर कन्या चाहती है कि उस का पति कमाने वाला हो, पर कमाई से भी बढ़ कर वह अच्छे स्वभाव का स्वस्थ पुरुष पसंद करती है, जिस के पास 2 भुजाएं हैं वह कमाई तो कर ही लेता है.

नृपेंद्रनाथ अब अजीब स्थिति में आ गए थे. वह जिसे पसंद करते उसे वह और उन का परिवार पसंद न आता. कभी कुछ बात बनती भी तो कन्या की उम्र और सांवलापन आड़े आ जाता.

पुत्रों को अपनी मस्ती से मतलब था. पत्नी कभीकभी भुनभुना लेती थी. रिश्तेदारों और सुहृदों ने जिक्र करना ही छोड़ दिया था.

नृपेंद्रनाथ मूर्ख नहीं थे, पर उन की सनक ने उन्हें मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया था. उन की सनक ध्यान ही न दे पाती थी कि कन्या के विचारों में कुंठाएं घर कर चुकी हैं और शरीर की कोमलता जठरता में बदल चुकी है. किसी विवाह या अन्य समारोह में जाने पर वह अलगथलग पड़ जाती. लोग कहते कुछ न थे पर उन की निगाहें उस में एक अजीब सी सनसनाहट पैदा कर देती थीं. यही सनसनाहट एक अजीब सी ग्रंथि को जन्म दे चुकी थी.

एक बूढ़ी महिला ने सुनयना को बिना सुहाग चिह्नों के देखा तो दुखी हो कर उस की मामी से कह ही डाला, ‘‘क्या यह जवानी में ही विधवा हो गई?’’

मामी ने उस का मुंह पकड़ा, ‘‘ताईजी, अभी तो इस का विवाह ही नहीं हुआ है. इस के पिताजी इस के लिए काफी दिनों से अच्छा लड़का तलाश रहे हैं.’’

बूढ़ी का पोपला मुंह और बिगड़ गया. कुछ तो प्रकृति ने पहले से बिगाड़ दिया था, ‘‘इस का बाप तो मूर्ख लगता है. गरीब से गरीब लड़की का ब्याह हो जाता है. अगर इस के बाप के पास कुछ नहीं है तो भी एक जोड़ी कपड़े में ही किसी को कन्या का दान कर देता. बेचारी कुंआरी विधवा बन कर तो न घूमती.’’

मामी ने राज उजागर कर दिया, ‘‘इस के पिताजी गरीब नहीं हैं, पैसे वाले हैं. पैसा जब अधिक हो जाता है तो दिमाग को खराब कर देता है और आदमी औकात से बढ़ कर सोचने लगता है. इस के पिताजी अगर औकात से बढ़ कर न सोचते तो आज से वर्षों पूर्व इस का विवाह हो जाता. अब तक बालबच्चों वाली हो गई होती.’’

बूढ़ी ने आगे कहना चाहा तो सुनयना की मामी ने रोक दिया, ‘‘रहने दो, ताईजी, अगर किसी के कान में भनक पड़ गई तो अच्छा नहीं होगा.’’

बात आईगई हो गई, पर कोई बात अगर मुख से निकल जाए तो किसी न किसी प्रकार किसी न किसी कान में पहुंच ही जाती है.

कुंआरी विधवा की बात सुन कर नृपेंद्रनाथ खूब बड़बड़ाए. कहने वाली को उलटीसीधी सुनाईं. पर वह सामने न थी. लेकिन उन की सनक पर इतना असर जरूर पड़ा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की शर्त को प्रांतीय प्रशासनिक सेवा में बदल दिया. बाकी शर्तें पूर्ववत ही रहीं.

फिलहाल किसी में इतना दम बाकी न था कि उन्हें समझा पाए कि फसल यदि समय से न बोई जाए और उगे पौधों को समय से पानी न दिया जाए तो अच्छी जुताई और भरपूर खाद देने के बावजूद फसल पर पीलापन छा जाता है. उपज मात्र भूसा रह जाती है. दानों के लिए तरसना पड़ता है.

सुनयना अब भी कुंआरी ही है. बाप की सनक उसे जला चुकी है. रहीसही कमी भी पूरी करती जा रही है.

Hindi Story : बेला फिर महकी

Hindi Story : मधु दीदी अपनत्व लुटा कर और मेरे दिलोदिमाग में भूचाल पैदा कर चली गई थीं. कितने अपनेपन से उन्होंने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘सच बेला, तुम्हारी तो तकदीर ही कुछ ऐसी है कि हर रिश्ता तुम्हें इस्तेमाल करने के लिए ही बना है. तुम ब्याह कर आईं तो भाई साहब तुम्हें मांपिताजी की सेवा में सौंप कर निश्ंिचत हो गए. इतने बरसों में हम ने कभी तुम्हें उन के साथ घूमनेफिरने या पिक्चर जाते नहीं देखा.

‘‘सासससुर की सेवा और बच्चों की परवरिश से उबरीं तो अब अफसर बहू के बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी तुम पर आ पड़ी है. शुक्र है कि बहू बोलती मीठा है. हां, जब सारी जिम्मेदारी सास पर डाल कर नौकरी के नाम पर तफरी की जा रही हो, तो व्यवहार तो मीठा रखना ही पड़ेगा. चलो, अच्छा है कि तुम उस की मिठास पर लट्टू हो कर उस के बच्चों को जीजान से पालती रहो वरना सारी असलियत सामने आ जाएगी.’’

मधु दीदी के इस अपनेपन ने जैसे सारे रिश्तों के अपनत्व की कलई खोल दी. सासससुर और रमेश बाबू के रूखे व्यवहार को सहने की तो जैसे आदत सी पड़ गई थी. उसे मैं ने अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था. बहू के लिए प्यार का परदा मधु दीदी ने हटा कर मुझे निराश ही कर दिया था.

बेला नाम मेरे पिताजी ने कितने अरमानों से रखा था. मेरे जन्म के बाद ही आंगन में पिताजी ने बेला का एक छोटा पौधा रोप दिया था. बेला को झाड़ बन कर फूलों से लद कर महकते और मेरी किलकारी को लरजती मुसकराहट में बदलते कहां वक्त लगा था. पिताजी ने बेला को अपने आंगन में ही महकने दिया और मुझे रमेश बाबू के आंगन को महकाने के लिए डोली में बिठा कर विदा कर दिया. मेरे पति रमेश बाबू ने मेरे कोमल जज्बात को कभी महत्त्व नहीं दिया. स्त्री के सामने प्रेम प्रदर्शन कर उसे सिर पर चढ़ाना उन्हें अपनी मर्दानगी के खिलाफ लगता था.

पिछवाड़े के बगीचे में पेड़ोें और झाडि़यों पर लिपटी अमरबेल को दिखला कर पति ने यह जतला दिया था कि उन की जिंदगी में मेरी हैसियत इस अमरबेल से अधिक कुछ नहीं है. जड़, पत्र और पुष्पविहीन पीली सी बदरंग अमरबेल… अनचाही बगिया में छाई रहती है, जिसे काटछांट कर जितना पीछा छुड़ाना चाहो वह उतनी ही अपनी लता फैला देती है.

मेरी ससुराल में सबकुछ स्वार्थ के रिश्तों पर कायम था. उस पर भी हर पल मुझे यह एहसास कराया जाता कि मैं निपट घरेलू महिला अमरबेल की तरह आश्रित और अनपेक्षित हूं. तब विरोध और विद्रोह बहुओं का अधिकार कहां था. पति से तिरस्कृत पत्नी सासससुर की लाड़ली भी नहीं बन पाती है. मैं ने सहमे हुए इस नए नाम अमरबेल  को चुपचाप स्वीकार कर लिया और बेला की महक न जाने कहां गुम होती गई. मैं और बगिया की अमरबेल बिन चाहत और जरूरत के अपनीअपनी उम्र आगे बढ़ाते रहे.

ऐसी नीरस जिंदगी के बाद बहू का अपनापन बुझे मन पर प्यार की फुहार बन कर आया. पोतेपोती की मासूम शरारतों और उन के साथ बढ़ी व्यस्तता में मन की टीस कहीं गहरे दबने लगी थी. यह टीस न चाहते हुए भी जानेअनजाने उभर आती थी, जब मैं अपने बेटे मयंक और बहू रीना में आपसी सामंजस्य और अधिक से अधिक समय साथ गुजारने की चाहत देखती. मयंक ने रीना का आफिस दूर होने से उसे आनेजाने में होने वाली परेशानी से बचने के लिए कार चलाना सिखाया और एक नई कार उसे जन्मदिन पर उपहार में दे दी.

इस समय भी मेरे पति मुझे ताना मारने से नहीं चूके कि अगर पत्नी लायक और समझबूझ में समान स्तर की हो तो इतना ध्यान रखा जाना लाजमी है. इस तरह जिंदगी भर मुझे दिए गए तिरस्कार का कारण बता दिया था उन्होंने और बरसों से घुटती, जीती मैं तब भी मौन रह गई थी. मैं बेला से अमरबेल जो बन चुकी थी.

लेकिन आज मधु दीदी ने जब मेरे और रीना के ममता भरे रिश्ते में मुझे स्वार्थ के दर्शन कराए तो मेरा कुंठित मन विद्रोह के लिए बेचैन हो उठा. बहू को लगातार मिल रही सुविधाएं और सम्मान व्यर्थ नजर आ रहा था. अब तक जाने- अनजाने हुई लापरवाही और गलतियां, जिन्हें मैं रीना की नादानी मान कर नजरअंदाज कर रही थी, आज वे सारी गलतियां मेरी पुरातन परंपराओं और संकुचित सोच को, जानबूझ कर मेरे सम्मान को ठेस पहुंचाने की कोशिश जान पड़ रही थीं.

गुस्से और अपमान से मेरे कान लाल थे और बढ़ी हुई धड़कन जैसे सारे बंधन तोड़ शरीर को कंपा रही थी. कल तक बहू से मिल रहा प्यार मुझे आत्मसंतोष दे रहा था, लेकिन आज मधु दीदी ने मेरे संतोष में आग लगा दी थी. बहू का सारा प्यार स्वार्थ के तराजू में तौल कर अपवित्र कर दिया था. अगर मैं गृहस्थी की साजसंवार, बच्चों का होमवर्क, स्कूल से वापस आने पर उन की देखभाल को दरकिनार कर सत्संग और पूजा में मन लगाऊं  तो आत्मशांति तो मिलेगी ही, बहू का व्यवहार बदलने से असलियत भी सामने आ जाएगी.

सोचा, क्यों न कुछ दिन के लिए अपनी बेटी रोजी के यहां चली जाऊं? जरा मेरे जाने के बाद यह महारानी भी जाने कि मेरे बिना वह अपनी अफसरी कैसे कायम रख सकती है, लेकिन वहां जाना क्या अच्छा लगेगा? नौकरीशुदा रोजी भी तो अपने सासससुर के साथ भरे परिवार में रहती है. उसे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी तो मैं ने ही किया था, जिस से वह मेरी तरह प्रताडि़त हो कर नहीं सम्मान की जिंदगी जी सके.

बहुत कशमकश के बाद मैं ने हालात से लड़ने का फै सला लिया, ‘नहीं, मैं यहीं रह कर अपने लिए जीऊंगी. सारे दिन रीना और बच्चों की दिनचर्या के मुताबिक चक्करघिन्नी बनने के बजाय अब आदेशात्मक रवैया अपनाऊंगी. भला हो मधु दीदी का, जो उन्होंने मुझे समय रहते चौकन्ना कर दिया.’

हमेशा हंसतीमुसकराती रीना जो वक्तबेवक्त गलबहियां डाल कर मांमां की रट लगाए रहती है, आज मुझे खलनायिका लग रही थी. कुश और नीति के स्कूल से आने पर उन के कपड़े बदलवाने और खाना खिलाने में मन नहीं लग रहा था. दोनों बच्चे दादी को अनमना देख कर चुपचाप खाना खा कर टीवी देखने लगे थे.

बेचैनी अपनी चरम सीमा पर थी. बच्चों के पास जा कर टीवी देख कर मन बहलाने का प्रयास भी बेकार गया. सिर भारी हो रहा था. शाम होते ही बच्चे पार्क में खेलने और रमेश  बाबू अपने मित्रों के साथ टहलने चले गए. रसोई में जा कर रात के खाने की व्यवस्था देखने का मन आज कतई नहीं हो रहा था. परिवार की जिम्मेदारियों में सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद आज मैं खुद को शोषित मान रही थी.

शाम का अंधेरा गहराने लगा था. बाहर बहू की कार का हार्न सुनाई दिया. मन गुस्से से और भर गया. रीना को पता है कि रामू अपने गांव गया है और बच्चे पार्क में होंगे तो हार्न बजाने पर क्या मैं गेट खोलने जाऊंगी? और फिर सामने बालकनी में खड़ी मधु दीदी ने अगर मुझे गेट खोलते देख लिया तो व्यंग्य से ऐसे मुसकराएंगी मानो कह रही हों कि अच्छी तरह करो अफसर बहू की चाकरी.

मैं रुकी रही कि दोबारा हार्न की आवाज आई. मैं गुस्से में उठी कि बहू को इतनी जोर से झिड़कूंगी कि मधु दीदी भी सामने के घर में सुन लें कि मैं भी सास का रौब रखती हूं.

मैं बाहर पहुंची तो रीना तुरंत कार से उतर कर गेट खोलने लगी, ‘‘अरे, मां, आप क्यों आईं. मैं तो भूल ही गई थी कि आज रामू घर में नहीं है,’’ उस की मीठी बोली में मैं सारा आक्रोश भूल गई.

‘‘ओफ, मां, आप कैसी अव्यवस्थित सी घूम रही हैं?  आप की तबीयत तो ठीक है न?’’ कहते हुए रीना ने मेरा माथा छू कर देखा, ‘‘लगता है आप ने दिन में जरा भी आराम नहीं किया. आप जल्दी से तैयार हो जाइए. रोजी दीदी और जीजाजी भी आने वाले हैं.’’

मैं फिर उस के जादू में बंधी कपड़े बदल बाल संवार कर आ गई. जल्दी ही रीना भी फ्रेश हो कर आ गई.

‘‘हां, अब लग रही हैं न आप बर्थडे गर्ल. हैप्पी बर्थ डे, मां,’’ कहते हुए बड़ा सा गुलदस्ता मेरे हाथों में दे कर रीना ने मेरे चरण स्पर्श किए.

‘तुम्हें कैसे पता चला’ वाले आश्चर्य मिश्रित भाव को ले कर जब मैं ने उसे गले लगाया तो उस ने बताया कि पापा के पेंशन के पेपर्स में आप की जन्मतिथि पढ़ी थी. मयंक भी आज आफिस से जल्दी घर आएंगे और हां, आज आप की और मेरी रसोई से छुट्टी है, क्योंकि हम सब आप का जन्मदिन मनाने होटल जा रहे हैं.’’

मैं मधु दीदी के बहकावे में आ कर अपनी संकीर्ण मनोदशा से खुद ही शर्मिंदा होने लगी. अब तक देखीसुनी बुरी सासुओं की कुंठा आज मुझ पर भी हावी हो गई थी. मुझे लगा कि पति, सासससुर से मिले अपमान को हर नारी की कहानी मान चुपचाप स्वीकार किया और निरपराध बहू को मात्र पड़ोसन के बहकावे में आ कर स्वार्थ का पुतला मान लिया. बरसों से अपने जन्मदिन को साधारण दिनों की तरह गुजारती आज बहू की बदौलत ही खुशियों के साथ मना पाऊंगी. पति के रूप में रमेश बाबू तो इन औपचारिकताओें के महत्त्व को कभी समझे ही नहीं.

‘‘मां, आओ, आप को अच्छी तरह तैयार कर दूं. बच्चों के पार्क से आते ही फिर उन्हें भी तैयार करना होगा,’’ यह कह कर बहू ने एक नई कोसा की साड़ी मुझे दी और बोली, ‘‘कैसी लगी साड़ी, मां?’’

‘‘तुम मेरी पसंद को कितनी अच्छी तरह समझती हो,’’ बस, इतना ही कह पाई मैं.

साड़ी पहन कर जब मैं उस के पास आई तो रीना ने बेला का एक बड़ा सा गजरा मेरे जूड़े पर सजा दिया तो मैं ने रीना को अपने सीने से लगा लिया.

आंखों में आए आंसुओं से मैं अपने दिन भर दिल में भरे जहर को निकाल देना चाहती हूं. मेरी प्यारी रीना और जूडे़ में बंधे बेला के गजरे की भीनीभीनी महक ने आज बरसों बाद यह एहसास करा दिया कि मैं अमरबेल नहीं, बेला हूं.

Hindi Story : भटकाव के बाद

Hindi Story : राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी.

Hindi Story : नैपकिंस का चक्कर

Hindi Story : शनिवार का दिन था. विकास के औफिस की छुट्टी थी. उस ने नहाधो कर अपना नाश्ता बनाया. फिर मधुश का इंतजार करने लगा. मधुश के साथ की कल्पना से ही वह उत्साहित था. मधुश 2 साल से उस की प्रेमिका थी. वह भी मेरठ में ही जौब करती थी. वह अपने मम्मीपापा और भाईबहन के साथ रहती थी. विकास थापरनगर में किराए के घर में अकेला रहता था.

दोनों किसी कौमन फ्रैंड की पार्टी में मिले थे. दोस्ती हुई जो फिर प्यार में बदल गई थी. विकास की मम्मी राधा सहारनपुर में रहती थीं. वे टीचर थीं. विकास के पिता नहीं थे. न कोई और भाईबहन. विकास हमेशा वीकैंड में मम्मी के पास चला जाता था पर इस बार उस की मम्मी ही कल रविवार को आने वाली थीं. दशहरे पर उन के स्कूल की छुट्टियां थीं.

मधुश अकसर अपने मम्मीपापा से  झूठ बोल कर कि ‘दिल्ली में मीटिंग है,’ विकास के पास रात में भी कभीकभी रूक जाती थी. डोरबैल बजी, मधुश थी. सुंदर, स्मार्ट, चहकती हुई मधुश ने घर में आते ही विकास के गले में बांहें डाल दीं. विकास ने भी उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. दोनों ने पूरा दिन साथ में बिताया. रात तक मधुश का घर जाने का मन नहीं हुआ. विकास ने भी कहा, ‘‘आज रात में भी रुक जाओ, कल तो मां भी आ रही हैं.’’

‘‘मां के आने पर मैं बहुत खुश होती हूं, बहुत अच्छी हैं वे.’’

‘‘रुक जाओ आज, फिर कुछ दिन ऐसे नहीं मिल पाएंगे.’’

‘‘सोचती हूं कुछ, क्या बहाना करूं घर पर?’’

‘‘कह दो किसी सहेली के घर स्लीपओवर है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश ने अपनी सहेली निभा को फोन किया, ‘‘निभा, मेरे घर से कोई फोन आए तो कहना मैं तुम्हारे साथ ही हूं. जरा देख लेना.’’

निभा हंसी, ‘‘सम झ गई, वीकैंड मनाया जा रहा है.’’

‘‘हां.’’

‘‘अच्छा, डौंट वरी.’’

विकास ने मधुश को फिर बांहों में भर लिया. दोनों ने मिल कर डिनर बनाया. विकास ने कहा, ‘‘गरमी लग रही है, नहा कर आता हूं, फिर डिनर करते हैं.’’

विकास नहाने गया तो लाइट चली गई. मधुश ने कहा, ‘‘विकास, बहुत गरमी है, जब तक तुम नहा रहे हो, छत पर टहल आऊं?’’

‘‘हां, संभल कर रहना, पड़ोस की छत पर कोई हो तो लौट आना, पड़ोसिन आंटी कुछ दकियानूसी लेडी लगती हैं, मां से कुछ कह न दें.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ मधुश छत पर चली गई. वह पहले भी ऐसे ही आती रहती थी, इसलिए उसे घर के आसपास का सब पता था. पड़ोस की छत पर कोई नहीं था. वह यों ही टहलती रही. खुलीखुली जगह, ठंडीठंडी हवा बेहद भली लग रही थी. अचानक उसे छत पर एक कोने में कुछ दिखा. वह  झुक कर देखने लगी. फिर बुरी तरह चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन था, ऐसे ही पड़ा हुआ. उसे बहुत गुस्सा आया. यह किस का है? दिमाग पता नहीं क्याक्या सोच गया. क्या कोई और लड़की भी आती है विकास के पास? शक ने जब एक बार मधुश के दिल में जगह बना ली तो गुस्सा बढ़ता ही चला गया. वह पैर पटकते हुए सीढि़यों से नीचे आई. विकास नहा कर आ चुका था. अपने गीले बालों के छींटे उस पर डालता हुआ शरारत से उसे बांहों में भरने के लिए आगे बढ़ा तो मधुश ने उस के हाथ  झटक दिए, चिल्लाई, ‘‘जरा, ऊपर आना.’’ विकास मधुश का गुस्सा देख चौंक गया, बोला, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘आना,’’ कह कर मधुश वापस छत पर चली गई, कोने में ले जा कर नैपकिन की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘यह किस का है?’’

‘‘यह क्या है? ओह, मु झे क्या पता.’’

‘‘फिर किसे पता होगा? तुम्हारी छत है, तुम्हारा घर है.’’

‘‘क्या फालतू बात कर रही हो, मु झे क्या पता.’’

‘‘विकास, क्या तुम्हारे किसी और लड़की से भी संबंध हैं?’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, मधुश, शक कर रही हो मु झ पर? मु झे तुम से यह उम्मीद नहीं थी.’’

‘‘मु झे भी तुम से यह उम्मीद नहीं थी, मैं जा रही हूं,’’ विकास मधुश को रोकता रह गया पर वह गुस्से में बड़बड़ाती निकल गई. विकास सिर पकड़ कर बैठ गया, वह देर रात तक मधुश को फोन करता रहा पर मधुश ने गुस्से में फोन ही नहीं उठाया.

मधुश और विकास एकदूसरे को प्यार तो बहुत करते थे, मधुश को भी विकास से नाराज हो कर अच्छा तो नहीं लग रहा था, पर मन में बैठा शक सामान्य भी नहीं होने दे रहा था. संडे को फिर सुबह ही विकास ने मधुश को फोन किया. उस ने नहीं उठाया तो विकास ने मैसेज किया, ‘मां आने वाली हैं, उन से मिलने तो आओगी न?’ मधुश को पढ़ कर हंसी आ गई. उस ने मैसेज ही किया, ‘हां, जब वे आ जाएं, मु झे बता देना.’

राधा उसे सचमुच अच्छी लगती थीं. अपनी अच्छी दोस्त कह कर विकास ने उसे पिछली बार मिलवाया था. संडे शाम को मधुश राधा से मिलने गई. राधा बहुत स्नेहपूर्वक उस से मिलीं, मधुश उन्हें अच्छी लगती थी. वे उदारमन की आधुनिक विचारों वाली महिला थीं. विकास मधुश से बात करने की कोशिश करता रहा. थोड़ीबहुत नाराजगी दिखाते हुए मधुश फिर सामान्य होती गई. हलकेफुलके माहौल में तीनों ने काफी समय साथ बिताया, फिर मधुश चली गई.

डिनर के बाद राधा ने कहा, ‘‘विकास, मैं थोड़ा छत पर टहल कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, मां.’’

राधा जब भी आती थीं, छत पर जरूर टहलती थीं. उन्हें दूसरी छत पर टहलती पड़ोसिन उमा दिखीं, औपचारिक अभिवादन हुए. उमा के जाने के बाद राधा को छत पर एक कोने में कुछ दिखाई दिया तो वे  झुक कर देखने लगीं, चौंकी, यूज्ड सैनेटरी नैपकिन. विकास की छत पर? ओह, इस का मतलब विकास और मधुश एकदूसरे के काफी करीब आ चुके  हैं. दोनों के बीच शायद अब बहुतकुछ चलता है, ठीक है. लड़की अच्छी है. अब उन का विवाह हो ही जाना चाहिए. वे काफीकुछ सोचतीविचारती नीचे आ गईं. विकास टीवी देख रहा था. उस के पास बैठती हुई बोलीं, ‘‘विकास, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘हां, मां, बोलो.’’

‘‘अब तुम और मधुश विवाह कर लो.’’

वह चौंका, ‘‘अरे मां, यह अचानक कैसे सू झा?’’

‘‘हां, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो तो देर क्यों करनी.’’

‘‘पर मैं तो कभी उस के घरवालों से मिला भी नहीं.’’

‘‘वह सब तुम मु झ पर छोड़ दो. अभी मेरी छुट्टियां भी हैं, गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करते हैं. तुम पहले मधुश से डिस्कस कर लो.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ कह कर मुसकराता हुआ विकास मां से लिपट गया. वे मुसकरा दीं, ‘‘फिर मेरी चिंता भी कम हो जाएगी, अकेले रहते हो यहां.’’

‘‘आप भी तो वहां अकेली रहती हैं.’’ दोनों हंस दिए. विकास खुश था, मां पर खूब प्यार आ रहा था. फौरन अपने रूम में जा कर मधुश से बात की. वह भी चौंकी पर इस हैरानी में भी बहुत खुशी थी. बोली, ‘‘इतनी जल्दी, यह तो नहीं सोचा था, पर मम्मीपापा…’’

‘‘मां बात कर लेंगी.’’

मधुश भी पिछली नाराजगी एक तरफ रख विचारविमर्श करती रही. अगले ही दिन उस ने अपने मम्मीपापा को विकास के  बारे में सबकुछ बता दिया. और फिर विकास और राधा उन से मिलने गए. राधा के स्नेहमयी, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व, आधुनिक विचारों से सब प्रभावित हुए. अच्छे खुशनुमा माहौल में सब तय हो गया. दोनों पक्ष विवाह की तैयारियों में जुट गए.

मधुश दुलहन बन विकास के घर चली आई. आई तो पहले भी कई बार थी पर अब के आने और तब के आने में जमीनआसमान का अंतर था. मां दोनों को ढेरों आशीष दे सहारनपुर चली गईं. कभी विकास और मधुश उन के पास चले जाते थे, कभी वे आ जाती थीं. एक दिन मां मेरठ आई हुई थीं, रात को उन के सिर में हलका दर्द था. वे छत पर खुली हवा में बैठ गईं. मधुश उन के पास ही तेल ले कर आई. बोली, ‘‘लाओ मां, तेल लगा कर थोड़ा सिर दबा देती हूं.’’

दोनों सासबहू के संबंध बहुत स्नेहपूर्ण थे. खुशनुमा, हलकी रोशनी में ताजगीभरी ठंडक में मधुश धीरेधीरे राधा का सिर दबाने लगी. उन्हें बड़ा आराम मिला. अचानक पायल के घुंघरुओं की आवाज ने उन दोनों का ध्यान खींचा, आंखों तक घूंघट लिए पड़ोस की छत पर एक नारी आकृति धीरेधीरे सावधानीपूर्वक चलते हुए इधरउधर देखती आई और विकास की छत पर एक कोने में कुछ फेंक कर मुड़ने लगी तो मधुश ने सख्त आवाज में कहा, ‘‘ऐ, रुको.’’ आकृति ठहर गई.

मधुश और राधा दोनों अपनी छत की मुंडेर तक गईं, कांपतीडरती सी एक नवविवाहिता खड़ी थी. मधुश ने फेंकी हुई चीज देखी, सैनेटेरी नैपकिन. ओह. पूछा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है? तुम फेंकती हो यह हमारी छत पर?’’

लड़की ने ‘हां’ में सिर हिलाया. मधुश गुर्राई, ‘‘क्यों? यह क्या तरीका है? ऐसे फेंकते हैं?’’ लड़की रोंआसी हो गई, कहने लगी, ‘‘अभी कुछ महीने पहले ही मेरा विवाह हुआ है यहां, मैं गांव से आई हूं. सासुमां से बहुत डर लगता है, उन से पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि कैसे फेंकूं, आप से माफी मांगती हूं.’’ मधुश का सारा गुस्सा उस की डरी हुई आवाज पर खत्म हो गया. उसे उस पर तरस आया, बोली, ‘‘डरो मत, आगे से यहां मत फेंकना, किसी पेपर में लपेट कर अपने घर के डस्टबिन में डालना, ऐसे इधरउधर नहीं फेंकते.’’

‘‘जी, अच्छा,’’ कह कर वह तो चली गई, पर मधुश और राधा एकदूसरे को देख कर हंसती चली गईं.

मधुश ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां, पता है मैं ने इसे छत पर देख कर विकास से  झगड़ा किया था. उस पर शक किया था. जिस दिन आप विवाह से पहले आई थीं, तब.’’ राधा और जोर से हंस पड़ीं. वे भी बताने लगीं, ‘‘और पता है तुम्हें, मैं ने भी उसी रात देखा था और तुम्हारे बारे में बहुतकुछ सोच लिया था. तभी फौरन तुम दोनों का विवाह करवाया था.’’

‘‘हां? हाहा, मां.’’

दोनों सासबहू चेयर्स पर बैठ गई थीं और उन की हंसी नहीं रुक रही थी. राधा का सिरदर्द तो हंसतेहंसते गायब हो चुका था और मधुश मन ही मन अपनी सासुमां को थैंक्यू कहते हुए प्यार और सम्मानभरी आंखों से निहार रही थी.

Hindi Story : नाव पर गाड़ी

Hindi Story : बाहर अदालत का चपरासी चिल्ला कर कह रहा था, ‘‘दिनेश शर्मा हाजिर हो…’’

दिनेश चुपचाप कठघरे में जा कर खड़ा हो गया. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने दस्तावेजों को देखना बंद कर उस की ओर निगाह दौड़ाई. एकबारगी तो वे भी चौंकीं, फिर मुसकरा कर उस की ओर गहरी निगाहों से देखने लगीं, मानो कह रही हों, ‘मु झे पहचानते हो न. देखो, मु झे देखो. मैं वही देहाती लड़की हूं, जिसे तुम ने अपने अहम के चलते ठुकरा दिया था. आज मैं कहां हूं और तुम कहां हो.

‘तुम्हें अपनी शहरी सभ्यता और पढ़ाईलिखाई का बड़ा घमंड था न, मगर तुम कुछ कर नहीं पाए. लेकिन मैं अपनी मेहनत के बल पर बहुत अच्छी हालत में हूं और तुम इंसाफ के फैसले के लिए मेरे सामने कठघरे में खड़े हो.’

‘आज तो सारा हिसाबकिताब चुकता कर देगी,’ दिनेश मन में सोच रहा था. मगर लक्ष्मी उसी गंभीरता का भाव लिए बैठी थीं.

दोनों तरफ के वकील बहस में उल झे थे. लक्ष्मी उन की दलीलों को ध्यान से सुनते हुए दिनेश को देख रही थीं.

मामला जमीन के एक पुश्तैनी टुकड़े को ले कर था, जिस पर दिनेश एक मार्केट बनाना चाहता था. इस के लिए उस ने बाकायदा नगरनिगम से नक्शा पास करा कर काम भी शुरू कर दिया था. मगर उस के एक रिश्तेदार ने उस पर अपना दावा करते हुए कोर्ट से स्टे और्डर ले कर मार्केट का काम रुकवा दिया था.

‘यह लक्ष्मी आज मु झे नहीं छोड़ने वाली. इस से इंसाफ की उम्मीद करना बेकार है…’ दिनेश बारबार यही सोच रहा था, ‘पिछली बेइज्जती का बदला यह इस रूप में लेगी और मेरी मिल्कीयत से मु झे ही अलग कर देगी.’

2 साल पहले की ही तो बात थी, जब दिनेश ने लक्ष्मी को देखा था. उन का रिश्ता तकरीबन तय हो चुका था और वह दोस्तों के साथ उसे देखने लक्ष्मी के गांव गया था.

पहली ही नजर में दिनेश को लक्ष्मी कालीकलूटी, गांव की गंवार लड़कियों के समान दिखी थी. उन दिनों दिनेश राज्य लोक सेवा आयोग की प्रतियोगिता की तैयारी करते हवाई सपने देखा करता था. फिल्मी हीरो की तरह रंगढंग थे उस के.

दिनेश मुंहफट तो था ही, सो वह वहीं बोल पड़ा था, ‘इस गांव की गंवार सी दिखने वाली लड़की से शादी कर के मु झे अपना स्टेटस खराब करना है क्या?’

लक्ष्मी के घर वाले सन्न रह गए थे. मगर लक्ष्मी दबी आवाज में बोल पड़ी थी, ‘तो इस के लिए आप पर दबाव कौन डाल रहा है?’

‘अरे, यह लड़की तो बोलती भी है,’ वह मजाकिया लहजे में हंसते हुए बोला था, ‘मैं तो सोचता था कि गांव की लड़कियों के जबान नहीं होती.’

‘क्यों, गांव की लड़कियों के जबान क्यों नहीं होगी?’ लक्ष्मी आखिरकार हिम्मत कर के बोल पड़ी थी, ‘फिर मैं ने तो इसी साल ग्रेजुएशन किया है.’

‘तो कौन सा तीर मार लिया है तुम ने,’ दिनेश शर्मा ऐंठते हुए बोला था, ‘कोई एसडीओ, कलक्टर तो नहीं बन गईं. तुम्हारे जैसी ग्रेजुएट शहरों में चप्पलें चटकाते 100-100 रुपए की मास्टरी करती फिरती हैं.’

वहां से वापस लौटने के बाद दिनेश कई दिनों तक लक्ष्मी की चटकारे ले कर चर्चा किया करता था कि कैसे वह एक गंवार लड़की के चंगुल से बालबाल बच गया कि कैसे उस ने एक बातूनी, जवाब देने वाली लड़की से पिंड छुड़ा लिया है.

समय गुजरता रहा. इस बीच दिनेश ने अनेक प्रतियोगिता परीक्षाएं दीं, मगर वह सब में नाकाम रहा. इस बीच उस ने एमए की परीक्षा भी पास कर ली, मगर ढंग की कोई नौकरी न मिलने पर उस ने मैडिकल स्टोर की दुकान खोल ली.

दुकान ठीक ढंग से चलती न थी. तब उस ने अपनी पुश्तैनी जमीन पर एक मार्केट बनाना शुरू किया, ताकि उस से किराए के रूप में ही कुछ आमदनी हो सके. मगर इस बीच उस जमीन पर उस के एक रिश्तेदार ने अपना मुकदमा ठोंक दिया.

अब उस जमीन पर स्टे और्डर था और वह मुकदमेबाजी में फंस कर फटेहाल हो चुका था. फिर भी एक उम्मीद थी कि वह मुकदमा जीत जाएगा, मगर अब लक्ष्मी को देख कर उस की यह आस भी खत्म होती नजर आती थी.

अपना बयान दे कर दिनेश बु झे मन के साथ कठघरे से वापस लौटा और बैंच पर अपनी पत्नी सरला के नजदीक बैठ गया.

‘‘यह केस हम हार जाएंगे…’’ दिनेश बोला, ‘‘मजिस्ट्रेट के हावभाव से यही लग रहा है कि फैसला हमारे खिलाफ जाएगा.’’

‘‘अभी से उलटेसीधे विचार मन में नहीं लाइए…’’ सरला बोली, ‘‘बड़े पदों पर बैठे लोग बहुतकुछ देखते हैं. वे कभी भी नाइंसाफी नहीं होने देंगे.’’

‘‘ये सब फालतू की बातें हैं…’’ दिनेश  झुं झला कर बोला, ‘‘तुम्हें पता है, वहां मजिस्ट्रेट के पद पर कौन बैठा है?’’

‘‘मजिस्ट्रेट के पद पर कोई औरत बैठी है, तो इस से क्या हुआ. उसे भी सहीगलत की सम झ होगी.’’

‘‘अरे, वह और कोई नहीं, वही लक्ष्मी है, जिस की मैं कभी बेइज्जती कर चुका हूं. इसी लक्ष्मी की कहानी तो मैं तुम्हें सुनाता रहता हूं. मगर, आज देखो, वह कहां बैठी है और मैं कहां खड़ा हूं.’’

दिनेश की बात सुन कर सरला सन्न रह गई.

‘‘कहां तो यह भरोसा किया था कि जल्दी ही अपनी मार्केट का उद्घाटन कर दूंगा और कहां यह आफत सिर पर आ गिरी…’’ दिनेश बुदबुदाया, ‘‘अब फैसले का इंतजार क्या करना, वह तो मेरे खिलाफ जाना ही है.’’

तमाम सुबूतों की जांचपड़ताल करने और गवाहों की दलीलों को सुनने के बाद लक्ष्मी ने फैसला तैयार कर दिया था. लक्ष्मी का फैसला जान कर दिनेश ताज्जुब में पड़ गया, क्योंकि लक्ष्मी ने उस के हक में फैसला दिया था.

फैसला हो जाने के साथ ही अदालत का वह कमरा खाली हो चुका था. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी पहले ही अपने केबिन में जा चुकी थीं.

लेकिन मुकदमे में जीत के बावजूद पता नहीं क्यों दिनेश को कुछ हार जाने का भी अहसास हो रहा था. फैसला उस के हक में गया है, उसे जैसे यकीन ही नहीं हो रहा था.

‘‘अब वापस नहीं चलना है क्या?’’ सरला की बातों से दिनेश चौंका.

सरला कह रही थी, ‘‘अभी हमें जल्दी से ढेरों काम निबटाने हैं.’’

‘‘पता नहीं क्यों, मु झे इस फैसले पर अभी भी यकीन नहीं हो रहा…’’ वह हिम्मत कर के बोला, ‘‘सचमुच सरला, मु झे ऐसा लग रहा है, मानो मैं जीत कर भी हार गया हूं.’’

‘‘वह भी गांव की एक गंवार लड़की से… क्यों?’’ सरला की इस बात से दिनेश का सिर  झुक सा गया.

‘‘यह आप नहीं, आप का अहंकार बोल रहा है,’’ सरला कहती गई, ‘‘और देखा जाए तो आज आप के अहंकार की हार हुई है. इसे स्वीकार कीजिए. समय और हालात हमेशा एक से नहीं रहते. यह तो बस मौका मिलने की बात है.’’

‘‘मैं एक बार लक्ष्मी से मिलना चाहता था.’’

‘‘तो मिल लीजिए न.’’

दिनेश ने चपरासी से मिन्नतें कर कहा कि वह मजिस्ट्रेट साहिबा से मिलना चाहता है.

मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने उसे मिलने की इजाजत दे दी थी.

दिनेश सरला के साथ  िझ झकते हुए लक्ष्मी के केबिन में दाखिल हुआ. मजिस्ट्रेट लक्ष्मी अपनी कुरसी पर बैठी थीं. उन्होंने दोनों को कुरसी की तरफ बैठने का इशारा किया, फिर चपरासी को चाय लाने का और्डर दिया.

‘‘हम आप के बड़े आभारी हैं,’’ बमुश्किल दिनेश के बोल फूटे, ‘‘आप ने हमारे हक में फैसला दे कर हमें अनेक मुसीबतों से बचा लिया है.’’

‘‘इस में आभार जैसी कोई बात नहीं…’’ लक्ष्मी हंस कर बोलीं, ‘‘मैं ने अपना फैसला किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं किया है. सुबूतों और गवाहों के बयान के मुताबिक मैं ने अपना फैसला सिर्फ इंसाफ के पक्ष में दिया है. यही मेरा फर्ज है. मैं भी इस देश के कायदे और कानून से बंधी हूं, और उन का सम्मान करती हूं.’’

दिनेश शर्मा पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया. वह शर्म से गड़ा जा रहा था. उस ने बमुश्किल चाय की प्याली थाम रखी थी. लक्ष्मी उस के संकोच को तोड़ती हुई सी बोलीं, ‘‘पुरानी बातों को भूल जाइए शर्मा साहब. जिंदगी में अनेक हादसे घटते रहते हैं. इस से जिंदगी रुक नहीं जाती. आप चाय पीजिए.’’

‘‘हमें आप की बात सुन कर बहुत खुशी हुई…’’ सरला चाय का प्याला रखते हुए बोली, ‘‘अगले महीने मार्केट का उद्घाटन होना है. अगर आप उस दिन हमारे यहां आएंगी, तो हमारी खुशी दोगुनी हो जाएगी.’’

‘‘यह खुशी की बात है कि आप के मार्केट का उद्घाटन होने वाला है…’’ लक्ष्मी बोल रही थीं, ‘‘मु झे भी उस वक्त आप के यहां आने से खुशी होती, मगर मैं ने बताया न कि मैं कुछ कायदेकानून से बंधी हूं. उन में से एक कानून यह भी है कि मजिस्ट्रेट लोग उन लोगों के यहां के कार्यक्रमों में नहीं जाते, जिन के मुकदमे वे देखते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं…’’ सरला अपनी निश्छल हंसी बिखेरते हुए बोली, ‘‘आप कायदेकानून से बंधी हैं, इसलिए आप नहीं आ सकतीं. मगर हमारे साथ तो ऐसा कोई बंधन नहीं. हम तो आप के यहां आ ही सकते हैं?’’

‘‘शौक से आइए…’’ लक्ष्मी अपनी गहरी नजरों से दिनेश शर्मा को देखते हुए बोलीं, ‘‘मु झे बहुत खुशी होगी, मगर साथ में इन्हें भी लाना.’’

एक सम्मिलित हंसी के बीच दिनेश संकोच से गड़ गया. वह अपने बौनेपन के अहसास से दबा जा रहा था. उद्घाटन के दिन भी क्या वह अपने इसी छोटेपन के अहसास से घिरा रहेगा. हां, यही उस की सजा है, जिसे उसे भुगतना ही होगा.

उद्घाटन के दिन दिनेश शर्मा की खुशी देखते बनती थी. उस का सालों का देखा हुआ सपना जो साकार हो रहा था. शहर के बिजी इलाके में 8-8 दुकानों की मार्केट का मालिक होना माने रखता था. आज मार्केट का उद्घाटन हुआ था. सैकड़ों लोगों ने उस के द्वारा कराए गए इस भव्य कार्यक्रम में आ कर भोजन किया था.

एकएक कर सारे मेहमान विदा हो चुके थे. दिनेश एक कुरसी पर बैठा कुछ सोच रहा था. अचानक सरला उस के पास जा कर खड़ी हो गई. लाल रंग की बनारसी साड़ी और जड़ाऊ गहनों से लदीफदी थी वह. वह उसे एकटक देखता रह गया. उस के हाथ में लाल रंग के एक मखमली डब्बे में चांदी का एक छोटा सा दीया था.

‘‘चलना नहीं है क्या?’’ सरला बोली, ‘‘फिर हमें वहां जा कर लौटना भी तो है.’’

‘‘अब कहां जाना है?’’ वह हैरान होते हुए बोला.

‘‘अरे, मजिस्ट्रेट लक्ष्मी के घर पर,’’ सरला हंस कर बोली, ‘‘वे आप का इंतजार कर रही होंगी.’’

दिनेश अनचाहे भाव के साथ उठ खड़ा हुआ.

मजिस्ट्रेट लक्ष्मी ने अपने पति आनंद के साथ उन का स्वागत किया. उस के पति आनंद शहर की यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे.

‘‘लक्ष्मी ने आप के बारे में मु झे सबकुछ पहले ही बता दिया है,’’ आनंद हंसते हुए बोले, ‘‘चलिए, आप ने इन्हें नकारा, तो मु झे ये मिल गईं.’’

‘‘मैं अपने किए पर वाकई बहुत शर्मिंदा हूं…’’ दिनेश बमुश्किल बोल पा रहा था, ‘‘मु झे अब अपनी गलती का अहसास हो रहा है, इसलिए अब मु झे और शर्मिंदा न कीजिए.’’

‘‘फिर भी आप को आगे का हाल जानने की उत्सुकता तो होगी ही,’’ लक्ष्मी उन्हें देखते हुए बोलीं, ‘‘उस दिन की घटना के बाद मैं पहले तो खूब रोई, फिर जीजान से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लग गई. पहली बार तो नाकामी मिली, मगर दूसरी बार में मेरा चयन राज्य लोक सेवा आयोग के लिए हो गया. इस के बाद तो मैं ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.’’

‘‘सिर्फ एक बार,’’ लक्ष्मी के पति आनंद मुसकरा कर बोले, ‘‘शादी के समय को छोड़ कर.’’

एक सम्मिलित हंसी वहां गूंज उठी. मिठाइयों की प्लेट सजाते हुए लक्ष्मी ने दिनेश को देखा. वह नजरें चुरा रहा था.

सरला अपने साथ लाए चांदी के दीपक को वहीं बैठक में जला चुकी थी. उस की रोशनी में वह खो सी गई थी.

‘‘क्या करती लक्ष्मी बहन, मैं आप के लिए कुछ नहीं कर सकती, आप कायदेकानूनों से जो बंधी हैं.’’

‘‘किस कानून से…’’

‘‘यही कि आप हम से उपहार नहीं स्वीकार कर सकतीं, क्योंकि आप ने हमारा मामला देखा है.’’

फिर एक सम्मिलित हंसी गूंजी.

दिनेश किसी से नजरें नहीं मिला पा रहा था. विदा लेते वक्त लक्ष्मी ने उसे दोबारा देखा.

‘क्या अजीब बात है…’ लक्ष्मी ने सोचा, ‘कभीकभी गाड़ी को भी नदी पार कराने के लिए नाव पर चढ़ाया जाता है और तब उसे अपने छोटेपन का पता चलता है. चलो जो हुआ, अच्छा ही हुआ. किसी का अहंकार तो टूटा.’

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