जाएं तो जाएं कहां : चार कैदियों का दर्द- भाग 3

‘‘बेकुसूरों की भी पिटाई कर दी,’’ राकेश ने कहा.

‘‘यहां भी जंगलराज ही तो है,’’ बिशनलाल बोला.

‘‘मुझे तो लगा कि हमारी भी…’’ चांद मोहम्मद ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘हमारी क्यों? हम ने तो कभी अपना सिर नहीं उठाया. उन के हर अच्छेबुरे समय में साथ दिया है,’’ अनुपम ने कहा.

‘‘गेहूं के साथ घुन भी पिसता है,’’ बिशनलाल बोला.

‘‘हां, हो भी सकता था. हम क्या कर सकते हैं? उन की कैद में?हैं. गुलाम हैं उन के,’’ चांद मोहम्मद ने कहा.

‘‘चांद मोहम्मद, कैद में तो सभी हैं. तुम अपनी कहो,’’ राकेश बोला.

‘‘क्या कहूं…’’ चांद मोहम्मद ने कहा, ‘‘जब मैं बाहर था तो सोचता था कि मेरे साथ जो हुआ, वह इसलिए हुआ क्योंकि मैं मुसलिम हूं. लेकिन, तुम लोगों को सुन कर लगा कि सभी का एक सा हाल है. ज्यादा सोचना भी ठीक नहीं, वरना फायदा उठाते हैं धर्म के ठेकेदार.’’

‘‘तो तुम यह कहना चाहते हो कि तुम भी बेकुसूर हो?’’ राकेश ने कहा.

‘‘नहीं, मैं बेकुसूर नहीं हूं, तो कुसूरवार भी नहीं हूं,’’ कह कर चांद मोहम्मद चुप हो गया.

‘‘साफसाफ कहो, तुम क्या कहना चाहते हो?’’ अनुपम ने पूछा.

चांद मोहम्मद को वह जमाना याद आ गया, जब वह शेरोशायरी किया करता था. प्यारमुहब्बत भरी गजलें लिखा करता था. फिर उस की शादी उसी लड़की से हो गई, जिसे वह बेहद प्यार करता था. पत्नी पेट से थी. चांद मोहम्मद एक जलसे में गया हुआ था. लौट कर वह वापस आया, तो पूरी बस्ती जल कर राख हो चुकी थी. हर तरफ घायलों की कराहें, जले हुए घर, लाशों के ढेर लगे हुए थे. उस की पत्नी मर चुकी थी. उस के पेट में त्रिशूल घुसा हुआ था.

चारों ओर पुलिस की गाडि़यों के सायरन, अस्पताल, राहत कैंप, मीडिया की रिपोर्टिंग का नजारा था.

धर्म के ठेकेदारों के तीखे बयान. राजनीतिबाजों ने अपनी सियासत तेज कर दी थी. मसजिद में धर्मगुरु खून का बदला खून से लेने की बात कर रहे थे कि सच्चे मुसलिम हो तो उठो और जिहाद करो.

चांद मोहम्मद सोच रहा था, ‘क्या यह हमारा वतन नहीं है? क्यों हम लोगों को पाकिस्तान भेजने की बात कही जाती है? क्यों हमें गद्दार कहा जाता है? कुछ लोगों की गलती की सजा पूरी कौम को क्यों दी जाती है? क्यों बेकुसूरों को ही सूली पर चढ़ना पड़ता है हर बार?’

चांद मोहम्मद ने उन सब को बताया, ‘‘मौलवी ने हमें भड़काते हुए कहा, ‘कौम की खिदमत करो. जन्नत नसीब होगी. सच्चे मुसलिम बनो.’

‘‘और मैं सरहद पार चला गया. ट्रेनिंग से जब मैं वापस आया, तो मुझ से कहा गया कि तुम्हारा टारगेट है हिंदू नेता की हत्या कर के गोधरा का बदला लेना.

‘‘मैं इस के लिए तैयार भी हो गया. जो त्रिशूल मेरी पत्नी के पेट में घोंपा गया?था, वह मुझ में भी तब तक चुभा रहेगा, जब तक कि मैं उस त्रिशूल वाले नेता की हत्या नहीं कर देता. मेरे साथ 2 और जिहादी थे. मैं, नुसरत बेगम, जो सौफ्टवेयर इंजीनियर थी.

‘‘नुसरत बेगम 30 साल की एक खूबसूरत औरत थी. किसी हिंदू लड़के से इश्क कर बैठी थी. लड़के ने धोखा दे दिया था, इसलिए वह पक्की जिहादी बन चुकी थी. हर हिंदू लड़के में उसे अपना बेवफा प्रेमी दिखता था.

‘‘दूसरा, असलम. उस का पूरा परिवार फसाद में मारा गया था. वह खून के बदले खून चाहता था. हम तीनों कौम के रहनुमा अकबर खान से मिलने वाले थे. अकबर खान की विशाल हवेली के एक गुप्त कमरे में हमें ठहराया गया था.

‘‘रात के 2 बजे अचानक मेरी नींद खुली. किसी के हंसीठहाके की आवाज सुनाई दी. रात के 2 बजे कौन हो सकता है अकबर अली की हवेली में?

‘‘मैं आवाज का पीछा करते हुए गुप्त कमरे से बाहर निकला. वहां बड़े से हाल में अकबर अली के साथ एक और शख्स बैठा हुआ था. शराबकबाब का दौर चल रहा था.

‘‘हंसीठहाकों के बीच अकबर खान की आवाज सुनाई दी, ‘इस बार तुम ने हमारे कुछ ज्यादा ही लोग मार दिए.’

‘‘दूसरी आवाज आई, ‘अगली बार तुम हिसाब बराबर कर लेना.’

‘‘दूसरी आवाज वाला आदमी अब मुझे साफ दिखाई दिया. मैं चौंक गया. यह तो वही त्रिशूलधारी नेता था.

‘‘अकबर खान ने कहा, ‘हां, बलि के 3 बकरे मिले हैं. कल तुम्हारी सभा है. तुम बुलेटप्रूफ जैकेट पहने रखना. मारे जाएंगे सभा में आए लोग.’

‘‘वह त्रिशूलधारी नेता बोला, ‘और तुम्हारे आतंकी?’

‘‘‘उन्हें पुलिस मार गिराएगी.’

‘‘‘चलो, तब तो हमें राजनीति को चमकाने का खूब मौका मिलेगा. चुनाव आ रहे हैं.

‘‘‘तुम ने हमें गोधरा दिया था, तभी तो हमारे लोगों ने वोट दिया था हमें.’

‘‘‘तुम ने किया तो हम ने किया.’

‘‘‘राजनीति इसी तरह चलती है.’

‘‘यह सुन कर मैं सकते में था. मैं तेजी से अपने 2 साथियों के पास पहुंचा. उन्हें जगा कर सारी बात बताई. उन के चेहरे पर भी तनाव छा गया.

‘‘असलम ने गुस्से में कहा, ‘मतलब, हमें इस्तेमाल किया जा रहा है. बलि के बकरे हैं हम?’

‘‘मैं ने कहा, ‘हम जैसे लोग हमेशा मजहब के नाम पर गुमराह होते रहे हैं. सब आपस में मिले हुए हैं.’

‘‘नुसरत ने गुस्से में कहा, ‘गोली तो इन के सीने में उतारनी चाहिए.’

‘‘असलम बोला, ‘अच्छा है कि हम यहां से भाग निकलें.’

‘‘और हम तीनों वहां से भागने की तैयारी में लग गए. हमें?क्या पता था कि जिस गुप्त कमरे में हमें ठहराया गया है, वहां पर गुप्त कैमरे भी लगे हुए हैं. हमारी बातें उन तक पहुंच रही थीं.

‘‘हम शहर से 40 किलोमीटर दूर सुनसान रास्ते में थे कि हमारी गाड़ी को चारों तरफ से पुलिस ने घेर लिया. असलम और नुसरत के पास पिस्तौल थी. उन दोनों ने गाड़ी से निकल कर भागते हुए पुलिस पर फायरिंग की. जवाबी कार्यवाही में पुलिस ने भी गोली चलाई. वे दोनों मारे गए. मैं ने हाथ ऊपर कर दिए. मुझे आतंकवादी होने के आरोप में अंदर कर दिया.’’

बैरक में फिर सन्नाटा पसर गया और वे चारों थकेहारे से जमीन पर बिछे अपने कंबलों में निढाल हो कर लेट गए.

आज बिशनलाल और अनुपम की पेशी थी. वे दोनों जल्दीजल्दी खाना खा कर मुख्य द्वार के पास बने कमरे की ओर चल दिए. पेशी की तारीख पिछली पेशी में ही कोर्ट के बाबू द्वारा पता चल जाती थी. जिन के वकील होते थे, वे बता देते थे.

जेल में पेशी पर जाने वालों की रोज लिस्ट बना कर उन्हें आवाज दी जाती थी. जेल के बाहर पुलिस की गाड़ी खड़ी रहती थी.

पेशी पर जाने वाले सारे विचाराधीन कैदियों को एक कमरे में जमा करने के बाद जेल के मुख्य द्वार से एकएक कर के बाहर निकाला जाता और गेट से सटी पुलिस गाड़ी में पुलिस के पहरे में अंदर बिठा दिया जाता.

सारे कैदियों के बैठने के बाद पुलिस की गाड़ी का दरवाजा बंद कर ताला लगा दिया जाता. फिर पिछले केबिन में 4 हथियारबंद पुलिस वाले बैठते और अदालत की ओर गाड़ी चल पड़ती.

अदालत के पास बने एक छोटे, पर मजबूत कमरे में सारे विचाराधीन कैदी जानवरों की तरह ठूंस दिए जाते. जिस की पेशी की पुकार लगती, उसे 2 पुलिस वाले दोनों हाथों में हथकड़ी लगा कर अदालत में पेश करते.

बिशनलाल और अनुपम जैसे अपराधियों को 4 पुलिस वाले बंदूक के साए में ले जाते. अदालत भी सरकार की होती है. काम सरकारी तरीके से चलता है. मुलजिम को कठघरे में खड़ा किया जाता. पुलिस वाले भी मुलजिम के कठघरे के पास ही खड़े रहते. जिन का वकील होता, वह मुलजिम की तरफ से बोलता. जिस का नहीं होता, उसे सरकार की तरफ से वकील दिया जाता. जो न होने के बराबर ही होता था.

अनुपम और बिशनलाल को जमानत नहीं दी गई. सरकारी वकील ने भरपूर विरोध जताया. उन्हें नक्सलवादी, आतंकवादी बता कर यह कहा कि इन से समाज को खतरा है. जमानत मिलने पर इन के भाग जाने का डर है.

ऐसे भी बहुत से विचाराधीन कैदी थे, जिन्हें जमानत मिली तो उन के पास जमानतदार नहीं थे. कुछ ऐसे भी विचाराधीन कैदी थे, जिन की पेशी हुई ही नहीं, क्योंकि उन के गवाह नहीं आए थे. गवाह आते तो सरकारी वकील छुट्टी पर होता. कभी मजिस्ट्रेट लंबी छुट्टी पर होता. फिर सरकारी छुट्टी, जांच अधिकारी, डाक्टर का हाजिर न होना. इस तरह छोटेछोटे केसों में लोग सालों पडे़ रहते जेल के अंदर.

शाम होते ही अगली तारीख ले कर मुलजिमों को पुलिस की गाड़ी में बिठा कर वापस जेल भेज दिया जाता. जितने गए थे, उन की गिनती के साथ उन्हें अंदर लिया जाता. फिर वही रूटीन. भोजन लो. अपने बैरक में जाओ और ‘टनटनटन’ की आवाजों के साथ बैरक में सभी की गिनती होती और शाम 7 बजे से सुबह 7 बजे तक सब अपने बैरकों में कैद.

अपनी ही दुश्मन : जिस्म और पैसे की भूखी कविता – भाग 2

भाभी का मुंह खुला का खुला रह गया. बोली, ‘‘कहीं और चक्कर तो नहीं चल रहा?’’

‘‘वह बौड़म क्या चक्कर चलाएगा भाभी, फैक्ट्री से आते ही बेदम हो कर पड़ जाता है. बिलकुल बेकार नौकरी है उस की.’’ कविता रोष में बोली, ‘‘2 दिन सुबह की शिफ्ट, फिर 2 दिन शाम की और 2 दिन रात की शिफ्ट.’’

‘‘तो तुझे क्या परेशानी है.’’ भाभी ने कविता को समझाया, ‘‘दामादजी की नईनई नौकरी है. मेहनत कर रहे हैं तो आगे जा कर लाभ मिलेगा.’’

‘‘भाभी, तुम नहीं समझोगी. एक तो वैसे ही फैक्ट्री के उलटेसीधे टाइमटेबल हैं, ऊपर से मोनू को संभालने के लिए इतना वक्त देना पड़ता है. इस सब से ऊब गई हूं मैं. बिलकुल नीरस जिंदगी है, किस से कहूं. क्या कहूं?’’

भाभी आश्चर्य से देखती रह गईं. वह समझ कर भी कुछ नहीं समझ पा रही थीं. 5 फुट 5 इंच लंबी, इकहरे बदन और तीखे नैननक्श वाली उस की ननद कविता में कुछ ऐसा आकर्षण था कि उस के मोहपाश में कोई भी बंध सकता था. सुरेश के साथ भी यही हुआ था.

उस ने छत पर कई बार कविता और सुरेश को नैनों के दांवपेंच लड़ाते देखा था. इस के बाद उस ने ही दादी को समझाबुझा कर सुरेश और कविता की शादी करा दी थी. सुरेश था तो उस के पति का सहपाठी, पर कविता के चक्कर में उन्हीं के घर में घुसा रहता था.

काफी भागदौड़ के बाद सुरेश को एक कंपनी में नौकरी मिली थी. कंपनी की तरफ से ही रहने का भी इंतजाम हो गया था. कविता की नाजायज मांगों के लिए वह अपनी नौकरी खतरे में कैसे डाल सकता था. भाभी कविता की मांग सुन कर हैरत में रह गईं. सुरेश भला उस की चांदतारों की मांग के लिए रोजीरोटी की फिक्र कैसे छोड़ सकता था.

‘‘क्या सोच रही हो भाभी, बडे़ भैया तो अभी भी तुम्हारे आगेपीछे घूमते हैं.’’ भाभी को चुप देख कर कविता ने हल्के व्यंग्य में कहा, ‘‘अच्छा हुआ जो तुम ने अभी बच्चे का बवाल नहीं पाला. अभी तो खूब मौजमजे की उम्र है.’’

कविता की बात का कोई जवाब दिए बिना भाभी सोचने लगी, ‘जब तक दादी जिंदा हैं, पूरा परिवार एक डोर में बंधा है, बाद में तो सब को अलगअलग ही हो जाना है. कविता अपना घर छोड़ कर आ गई तो सब के लिए मुसीबत बन जाएगी. अपनी आधी पढ़ाई छोड़ कर शादी के मंडप में बैठ गई थी और अब बच्चे को उठा कर चली आई, वह भी यह सोच कर कि अब वापस नहीं जाएगी. जरूर इस का कुछ न कुछ इलाज करना पड़ेगा.’

‘‘कहां खो गईं भाभी,’’ कविता ने भाभी की आंखों के सामने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘बड़के भैया की रोमांटिक यादों में खो गईं क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में सोच रही थी. तुम मोनू की वजह से परेशान हो न, ऐसा करो उसे यहीं छोड़ जाओ, हम पाल लेंगे. बस आगे से सावधानी रखना कि कहीं मोनू का भैया न आ जाए. रही बात सुरेश की तो उन की ड्यूटी दिन की हो या रात की, बाकी वक्त तुम्हारे साथ ही रहेंगे, तुम्हारे पास. समय बचे तो अपना ग्रैजुएशन पूरा कर लेना. तुम भी व्यस्त हो जाओगी.’’

भाभी की राय कविता को जंच गई. बात चली तो यह सुझाव घर में भी सब को पसंद आया. बहरहाल 2 दिनों बाद कविता मोनू को मायके में छोड़ कर सुरेश के पास चली गई. उस के जाने से सभी ने राहत की सांस ली.

देखतेदेखते 5 साल गुजर गए. इस बीच कविता कानपुर छोड़ कर लखनऊ आ गई. वहां उसे एक सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई थी. मोनू को भी उस ने अपने पास बुला लिया था. सुरेश शनिवार को उस के पास आता और रविवार को उस के साथ रह कर सोमवार सुबह वापस लौट जाता.

अकेली रहने की वजह से कविता के पंख फड़फड़ाने लगे. नया शहर, नई मित्र मंडली, किसी की कोई रोकटोक नहीं. बड़े लोगों से संपर्क बने तो वह पार्टियों में भी जाने लगी. मोनू की वजह से उसे नाइट पार्टियों में जाने में परेशानी होती थी, इसलिए उसे संभालने के लिए उस ने एक नौकर रख लिया.

कविता का सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उस की जिंदगी में खलल तब पड़ा, जब सुरेश एक दिन दोपहर में आ गया. दरअसल उस दिन मंगलवार था और लखनऊ में उसे एक दोस्त की शादी में शामिल होना था. वैसे भी उस दिन कोई छुट्टी नहीं थी. उस ने सोचा था कि अचानक पहुंच कर कविता को सरप्राइज देगा. लेकिन दांव उलटा पड़ गया. ड्राइंगरूम में खुलने वाला दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में खिलौने बिखरे पड़े थे. उन्हें देख कर लग रहा था कि मोनू खेल से बोर हो कर कहीं बाहर चला गया है. यह भी संभव हो कि वह मां के पास अंदर हो.

अंदर बैडरूम का दरवाजा वैसे ही भिड़ा हुआ था. अंदर से हंसनेखिलखिलाने की आवाजें आ रही थीं. सुरेश ने दरवाजे को थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. भीतर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गया. बेशर्मी, बेहयाई और बेवफाई की मूरत बनी नग्न कविता परपुरुष की बांहों में अमरबेल की तरह लिपटी हुई पड़ी थी. पत्नी को इस हाल में देख कर सुरेश की आंखों में खून उतर आया. उस का मन कर रहा था कि वहीं पड़ा बैट उठा कर दोनों के सिर फोड़ दे.

‘‘पापा, पापा आ गए.’’ बाहर से आती मोनू की आवाज उस के कानों में पड़ी. कुछ नहीं सूझा तो उस ने झट से बैडरूम का दरवाजा बंद कर दिया. उसी वक्त अंदर से कुंडी लगाने की आवाज आई. यह काम शायद कविता ने किया होगा. सुरेश धीरे से बड़बड़ाया, ‘‘कमबख्त को बच्चे का भी लिहाज नहीं.’’

‘‘पापा, खेलने चलें.’’ मोनू ने सुरेश के पैर पकड़ कर इस तरह खींचते हुए कहा, जैसे उसे मम्मी से कोई मतलब ही न हो.

अब सुरेश की समझ में आ रहा था कि कविता उसे बौड़म क्यों कहती थी. सब कुछ उस की नाक के नीचे चलता रहा और वह उस पर विश्वास किए बैठा रहा. सचमुच बौड़म ही था वह. किराए का ही सही, महंगा घर, शानदार परदे, उच्च क्वालिटी की क्रौकरी, ब्रांडेड कपड़े, मोनू का महंगा स्कूल. सब कुछ कैसे मैनेज करती होगी कविता, उस ने कभी सोचा ही नहीं. यहां तक कि अभी अंदर आते वक्त उस ने दीवार के साथ खड़ी लाल रंग की आलीशान कार देखी थी, उस पर भी ध्यान नहीं दिया था उस ने. सुरेश सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया.

‘‘पापा, पापा खेलने चलें.’’ कहते हुए मोनू ने उस की टांगें हिलाईं. लेकिन वह जड़वत बैठा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे. अब तो उस के मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि वह मोनू का पिता है या नहीं?

‘‘तुम खेलने जाओ, मैं अभी आता हूं.’’ दुखी मन से कहते हुए उस ने मोनू को बाहर भेज दिया.

सुरेश ने घड़ी देखी तो शाम के 4 बज रहे थे. सोचविचार कर उस ने कविता को उस के हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया. उस ने 4 लाइनों का पत्र लिखा, ‘मैं ने तुम्हारा असली चेहरा देख लिया है. तुम्हारे खून से हाथ रंग कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे यह भी नहीं पता कि मोनू मेरा बेटा है या किसी और का? लेकिन तुम्हें अब कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से निकाल कर खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं’

सुरेश ने अपना बैग उठाया और वापस लौट गया. कभी वापस न लौटने के लिए. उस दिन से सुरेश कविता की जिंदगी से निकल गया और उस की जगह दरजनों मर्द आ गए. कविता को सुरेश के जाने का कोई गम नहीं हुआ. उस ने चैन की सांस ली. अब वह आजाद पंछी की तरह थी.

आजकल वह जिस आखिलेंद्र से पेंच लड़ा रही थी, वह व्यवसायी था और उस का पूरा परिवार लंदन में रहता था. वहां भी उन का बड़ा बिजनैस था. परिवार के कुछ लोग जरूर लखनऊ में पुश्तैनी घर में रहते थे. अखिलेंद्र उन से चोरीछिपे कविता के पास जाता था. उस के रहते उसे सुरेश की कोई चिंता नहीं थी.

धीरेधीरे कविता ने गोमतीनगर जैसे महंगे इलाके में घर ले लिया और कार भी. उस ने ड्राइविंग भी सीख ली. अखिलेंद्र चूंकि कभीकभी ही आता था और उस का लंदन आनाजाना भी लगा रहता था, इसलिए कविता ने कुछ और चाहने वाले ढूंढ लिए थे. स्कूल में वह प्रधानाध्यापक नवलकिशोर के सामने अपने सिंगल पैरेंट्स होने का रोना रोती रहती थी. कितनी ही बार वह आधे दिन की छुट्टी ले कर स्कूल से निकल जाती थी. तब तक मोनू 10 साल का हो गया था.

उस दिन कविता ने बेटे की बीमारी का रोना रो कर नवलकिशोर को 2 दिनों की आकस्मिक छुट्टी की अरजी दी थी. लेकिन अचानक ही उन्होंने उस के बेटे को देखने की इच्छा जाहिर करते हुए उस के घर चलने की इच्छा जाहिर कर दी. कविता किस मुंह से मना करती. उस ने हां कर दी. नवलकिशोर की नजर काफी दिनों से कविता पर जमी थी. वह उन्मुक्त पक्षी जैसी लगती थी, इसीलिए वह उस की हकीकत जानने को उत्सुक थे.

एक नई दिशा : क्या अपना मुकास हासिल कर पाई वसुंधरा – भाग 2

मैडम की बातें सुन कर वसुंधरा, जो इतने दिनों से घुट रही थी, फफक कर रो पड़ी. उसे रोते देख कर मैडम ने घबरा कर कहा, ‘क्यों, क्या हुआ? घर पर सब ठीक तो है?’

वसुंधरा ने रोतेरोते सारी बात मैडम को बता दी. उस की बातें सुन कर मैडम स्तब्ध रह गईं. इनसान की मजबूरी उसे कैसेकैसे कदम उठाने पर मजबूर कर देती है. काफी देर तक वह विचार करती रहीं. सहसा उन का मन उस के पिता से मिलने को करने लगा. हालांकि उस के पिता से मिलना उन्हें खुद बड़ा अटपटा लग रहा था लेकिन वसुंधरा को बरबादी से बचाने के लिए उन का मन बेचैन हो उठा.

‘तुम चिंता मत करो. मैं तुम्हारे पिताजी से इस विषय में बात करूंगी. कल रविवार है, उन से कहना कि मैं उन से मिलना चाहती हूं. बस, तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो,’ मैडम ने वसुंधरा की पीठ थपथपाते हुए कहा.

वसुंधरा खुश हो कर सहमति से सिर हिलाते हुए चली गई.

दीनानाथ रविवार के दिन ममता मैडम के घर मिलने आ गए. उन के पति नीरज भी वहां पर मौजूद थे. चाय के बाद उन्होंने वसुंधरा के लिए आए रिश्ते के बारे में बातचीत शुरू की, ‘यह तो हमारा अहोभाग्य है कि ऐसा बड़ा घर हमें अपनी लड़की के लिए मिल रहा है.’

मैडम ने तमक कर कहा, ‘घर तो आप की बेटी के लिए अवश्य अच्छा मिल रहा है लेकिन आप ने वर के बारे में कुछ सोचा कि वह क्या करता है? कितना पढ़ा लिखा है? उस की आदतें कैसी हैं?’

तब वह अति दयनीय स्वर में बोले, ‘मैडम, आप तो हमारे समाज के चलन को जानती हैं. अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते भी दहेज के कारण नहीं हो पाते. फिर मैं अभागा 4 बेटियों का बाप कैसे यह दायित्व निभा पाऊंगा? वह परिवार मुझ से कुछ दहेज भी नहीं मांग रहा है. बस, लड़का थोड़ा बिगड़ा हुआ है. पर मुझे भरोसा है कि वसुंधरा उसे संभाल लेगी.’

‘उसे जब उस के मातापिता नहीं संभाल पाए तो एक 20 साल की लड़की कैसे संभाल लेगी?’ अचानक मैडम कड़क आवाज में बोलीं, ‘आप वसुंधरा की शादी हरगिज वहां नहीं करेंगे. वह उसे दुख के सिवा और कुछ नहीं दे सकता. आप उस परिवार की ऊपरी चमकदमक पर मत जाएं.’

वह लाचारी से खामोश बैठे रहे. मैडम अपने स्वर को संयत करते हुए उन्हें समझाने लगीं, ‘वसुंधरा एक मेधावी छात्रा है. उम्र भी कम है. शादी एक आवश्यकता है मगर मंजिल तो नहीं. उसे पढ़ने दीजिए. प्रतियोगिताओं में बैठने का अवसर दीजिए. एक अच्छी नौकरी लगते ही रिश्तों की कोई कमी उस के जैसी सुंदर लड़की के लिए न रह जाएगी. नौकरी न केवल उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाएगी वरन उस के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को भी बढ़ाएगी.’

मैडम की बातों से सहमत हुए बगैर वसुंधरा के पिता एकाएक उठ गए और रुखाई से बोले, ‘चलता हूं, मैडमजी, देर हो रही है. वसुंधरा की सगाई की तैयारी करनी है.’

वसुंधरा बेताबी से पिता के लौटने का इंतजार कर रही थी. उसे पूरा विश्वास था कि मैडम ने जरूर पिताजी को सही फैसला लेने के लिए मना लिया होगा. जैसे ही दीनानाथ ने घर में प्रवेश किया वसुंधरा चौकन्नी हो गई.

‘सुनती हो, तुम्हारी बेटी घर की बातें अपनी मैडमों को बताने लगी है,’ पिताजी ने गरजते हुए घर में प्रवेश किया.

‘क्या हुआ? क्यों गुस्सा हो रहे हो?’ मां रसोईघर से निकलते हुए बोलीं.

‘अपनी बेटी से पूछो. साथ ही यह भी पूछना कि क्या उस की मैडम आएगी यहां इन चारों का विवाह करने?’ पिता पूरी ताकत से चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा सहम कर पढ़ाई करने लगी. तीनों बहनें भी पिताजी का गुस्सा देख कर घबरा गईं.

वसुंधरा को यह साफ दिखाई  देने लगा था कि पिताजी को समझा पाना बेहद मुश्किल है. उसे खुद ही कोई कदम उठाना पड़ेगा. उस ने फैसला ले लिया कि वह किसी भी कीमत पर राजू से विवाह नहीं करेगी. भले ही इस के लिए उसे मातापिता के कितने भी खिलाफ क्यों न जाना पड़े.

मैडम की बातों से वसुंधरा उस समय एक नए जोश से भर गई जब दूसरे दिन कालिज में उन्होंने कहा, ‘यह लड़ाई तुम्हें स्वयं लड़नी होगी, वसुंधरा. बिना किसी दबाव में आए शादी करने के लिए एकदम मना कर दो. तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी मंजिल के हर रास्ते को खोलेगी. मैं तुम्हें वचन देती हूं कि मैं तुम्हारा मार्गदर्शन करूंगी.’

उस ने सारी बातों को एक तरफ झटक कर अपनेआप को पूरी तरह अपनी आने वाली परीक्षा की तैयारी में डुबा दिया.

‘बेटी, आज कालिज मत जाना. लड़के वाले आने वाले हैं. पसंद तू सब को है, बस, वह सब तुम से मिलना चाहते हैं. साथ ही अंगूठी का नाप भी लेना चाहते हैं,’ मां ने अनुरोध करते हुए कहा.

‘मां, मैं पहले भी कह चुकी हूं कि मैं यह विवाह नहीं करूंगी,’ वसुंधरा ने किताबें समेटते हुए कहा.

‘क्या कह रही है? हम जबान दे चुके हैं और सगाई की तैयारी भी कर चुके हैं. अब तो मना करने का प्रश्न ही नहीं उठता,’ मां ने वसुंधरा को समझाने की कोशिश करते हए कहा, ‘फिर मुझे पूरा विश्वास है कि तू उसे अवश्य अपने अनुसार ढाल लेगी.’

‘मां, मैं अपनी जिंदगी और शक्ति एक बिगड़े लड़के को सुधारने में बरबाद नहीं करूंगी,’ वसुंधरा ने दृढ़ता से कहा. फिर मां की ओर मुड़ते हुए बोली, ‘आप के सामने तो घर में ही एक उदाहरण हैं चाचीजी, क्या चाचाजी को सुधार पाईं? चाचाजी रोज रात को नशे में धुत हो कर घर लौटते हैं और चाचीजी अपनी तकदीर को कोसती हुई रोती रहती हैं. उन के तीनों बच्चे सहमे से एक कोने में दुबक जाते हैं.

जाएं तो जाएं कहां : चार कैदियों का दर्द – भाग 2

बैरक में सन्नाटा छा गया. बाकी तीनों के चेहरों पर भी उदासी थी. रात हो चुकी थी. गार्डों की ड्यूटी बदल चुकी थी.

‘‘और तुम्हारे परिवार की कोई खैरखबर?’’ चांद मोहम्मद ने पूछा.

‘‘नहीं, कुछ पता नहीं. कोई आज तक आया भी नहीं, ‘‘अनुपम की आंखों से आंसू बहने लगे.

सुबह 4 बजे गार्ड ने ताला खोला. वे सभी रसोईघर की ओर चल दिए. दोपहर में फिर ‘टनटनटन’ की आवाज हुई. सब को अपनेअपने बैरक में जाना था.

धीरेधीरे कर के सब बैरक में पहुंचे. गार्ड ने गिनती की. गिनती मिलते ही गार्ड ने ताला लगाया. सब अपना रूखासूखा खा कर एकदूसरे से बातचीत करने लगे. कुछ सो गए.

‘‘मेरी तो सुन ली, अपनी भी कहो,’’ अनुपम ने राकेश से कहा.

‘‘पहले मेरी सुन लो. मेरा मन शायद कहने से हलका हो जाए,’’ बिशनलाल ने कहा.

‘‘अच्छा तुम्हीं कहो,’’ राकेश बोला.

‘‘बड़े मजे और चैन के साथ जिंदगी कट रही थी. हम तेंदूपत्ता और महुआ बेचते थे. महुए की शराब पीते थे. अपने में मस्त रहते?थे. लेकिन न जाने किस की नजर लग गई हमारे जंगलों को.

‘‘माओवादी अपनी अलग सरकार बना रहे थे. जो उन के विरोध में होता, उसे गोली मार दी जाती. फिर पुलिस और माओवादियों के बीच में हम आदिवासी पिसने लगे.

‘‘पुलिस को हम पर शक हो गया था कि आदिवासी माओवादियों का सहारा बनते हैं. माओवादियों को यह शक होता था कि आदिवासी पुलिस की मुखबिरी करते हैं.

‘‘पुलिस के साथ माओवादियों की इस लड़ाई में शिकार होते हैं हम जैसे कमजोर, शांत आदिवासी.

‘‘पहले जंगल महकमे वाले हम आदिवासियों पर जोरजुल्म करते थे, उस के बाद नक्सलवादी आए. फिर अमीर लोग कारोबार करने आए. उन्होंने हम से हमारी जमीनें, हमारे जंगल छीनने शुरू कर दिए. उन की मदद सरकार और पुलिस करने लगी.

‘‘हम चारों तरफ से घिरे हुए?थे. एक ओर नक्सली, दूसरी ओर पुलिस. तीसरी ओर कारोबारी, चौथी ओर से सरकार.

‘‘इसी बीच सलवा जुडूम आ गया. अब हमारे घर जलाए जाने लगे. हमारी औरतों के साथ बलात्कार होने लगे. हमें नक्सली कह कर मुठभेड़ में मारा जाने लगा.

‘‘पुलिस अपने प्रमोशन, मैडल पाने के लिए आदिवासियों को नक्सली बता कर जेलों में भरने लगी. हमारे ही लोग अब हमारे दुश्मन बन चुके थे. हमारा अमनचैन सब लुट चुका था.

‘‘एक दिन एक पुलिस ने मुझ से कहा, ‘हमारे लिए तुम जासूसी करो. नक्सलयों की सूचना दो.’

‘‘मैं ने गुस्से में कहा, ‘और बदले में आप हमारे लोगों को नक्सली बता कर फर्जी मुठभेड़ में मारो. हमारी औरतों की इज्जत लूटो. कारोबारियों से पैसा ले कर हमारे घर जलाओ.’

‘‘मेरी बात से वह पुलिस अफसर भड़क गया. उस ने गुस्से में कहा, ‘नेता मत बनो. तुम अपने बारे में सोचो.’

‘‘‘और नक्सलियों को पता चल गया, तो उन से हमें कौन बचाएगा?’ मेरे कहने पर पुलिस अफसर ने हंसते हुए कहा, ‘मौत तो दोनों तरफ है. तुम चुन लो कि किस तरह की मौत मरना चाहते हो. नक्सली एक झटके में मार देंगे और हम तिलतिल कर मारेंगे.’

‘‘मुझे लगा कि अब बस्तर के ये जंगल हमारे लिए मौत के जाल बन चुके हैं, लेकिन हम जाएं तो जाएं कहां? रात का समय था. उमस थी. झींगुरों की आवाज अचानक तेज हो गई. मैं समझ गया कि कुछ गड़बड़ है.

‘‘फिर हमारी बस्ती पर तेज लाइट पड़ी. पुलिस अफसर की आवाज सुनाई दी. आवाज रात के सन्नाटे में गूंज रही?थी. हमें अपनी बस्ती खाली करने के लिए कहा जा रहा था.

‘‘तभी गोलियों की आवाज सुनाई दी. नक्सलियों ने पुलिस पर हमला बोल दिया था. बचाव में पुलिस वाले भी छिपतेछिपाते नक्सलियों पर हमला करने लगे. लेकिन नक्सलियों की घेराबंदी तगड़ी थी. कई पुलिस वाले मारे गए. कुछ घायल हुए थे. कुछ जान बचा कर अंधेरे का फायदा उठा कर भाग गए.

‘‘इस गोलाबारी में बस्ती के भी कुछ लोग मारे गए. तभी नक्सली कमांडर वीरन की आवाज सुनाई दी, ‘लाल सलाम.’

‘‘नक्सलियों ने भी ऊंची आवाज में कहा, ‘लाल सलाम.’

‘‘बस्ती के लोग अपनेअपने घरों से बाहर आए. नक्सली कमांडर ने कहा, ‘वीरन आ गया है. अब जो तुम्हें परेशान करेगा, वह ऐसे ही कुत्ते की मौत मरेगा.’

‘‘बस्ती वालों के लिए वीरन इस समय तो फरिश्ता था, लेकिन जान बचा कर भागते हुए एक पुलिस अफसर ने वीरन का ‘लाल सलाम’ सुन लिया था.

‘‘दूसरे दिन पुलिस की कई गाड़ियां आ गईं और बस्ती पर हमला बोल दिया. आदिवासियों को लाठियों, बैल्टों से पीटते हुए पुलिस की गाड़ी में जानवरों की तरह भरा जाने लगा.

‘‘पुलिस अफसर चीख रहा था, ‘सब को गिरफ्तार करो. नक्सलियों को सपोर्ट करते हैं सब. एकएक पुलिस वाले की मौत का बदला लिया जाएगा.’

‘‘जो आवाज उठा रहा था, उसे गोली मारी जा रही थी. दिनदहाड़े औरतों को खींच कर ले जाया जा रहा था. उन के साथ जबरदस्ती की जा रही थी.

‘‘मैं ने भी भागने की कोशिश की. पुलिस अफसर ने मुझ पर गोली चलाई. गोली मेरे कंधे पर जा लगी. मैं वहीं चीखते हुए गिर गया. उस के बाद मुझे वीरन के दल का नक्सली बता कर जेल भेज दिया गया.

‘‘पता नहीं कितने आदिवासी किसकिस जेल में?थे. औरतों के साथ क्याक्या हुआ? कितने घर जलाए गए. बस्ती अब है भी या नहीं…

‘‘उस पुलिस अफसर को मालूम था कि मैं पढ़ालिखा हूं. पत्रकारों को इंटरव्यू भी दे चुका हूं, इसलिए मुझे खतरनाक नक्सली बता कर दिल्ली भेज दिया गया. सब बरबाद हो गया.’’

बिशनलाल की यह दास्तान सुन कर सब सकते में थे. बिशनलाल की आंखों में आंसू थे.

तभी सीटी की आवाज सुनाई दी. जेल के अंदर जेल गार्ड द्वारा सीटी बजाने का मतलब है खतरा.

सीटी बजने के बाद होने वाले अंजाम को कैदी बखूबी जानते थे. सीटी बजती रही और सारे जेल वाले अपनीअपनी लाठियों के साथ इकट्ठा होते रहे. माहौल में अजीब सा डर भर गया. इमर्जेंसी अलार्म बजाया गया, ताकि वे जेल गार्ड भी अपने कमरों से तुरंत ड्यूटी पर आ सकें, जिन की ड्यूटी इस वक्त नहीं थी.

थोड़ी देर में पूरी जेल छावनी में बदल गई. सारे कैदी दौड़ कर अपने बैरक के अंदर भागे.

जेल सुपरिंटैंडैंट, जेलर, उपजेलर, हवलदार सभी जेल गार्ड बैरक नंबर 2 के सामने खड़े थे. एकएक कैदी को बाहर निकाल कर लाठियोंजूतों से गिरागिरा कर पीटा जा रहा था.

कैदियों की चीखों से आसमान में उड़ते पंछी भी डर गए थे. सब पिट रहे थे और यही कह रहे थे कि ‘साहब, हम ने कुछ नहीं किया’, लेकिन वही गार्ड जो सारे कैदियों के बड़े भाई, दोस्त जैसे रहते थे, इस घड़ी बेरहम बने हुए थे.

यही वह समय होता है, जब जेल प्रशासन को अपनी धाक जमाने का मौका मिलता है. इस समय बड़े से बड़ा खतरनाक कैदी भी पनाह मांगने लगता है. बात बिगड़ने पर बाहर की फोर्स भी आ कर मोरचा संभाल लेती है.

जेल सुपरिंटैंडैंट ने कहा, ‘‘किस ने झगड़ा किया था?’’

बैरक के नंबरदार से पूछा गया. बैरक का नंबरदार, जो खुद दर्द से कराह रहा?था, ने बताया, ‘‘नए कैदी सोमेश से सुजान सिंह ने कहा था कि मुलाकात में अपने घर के लोगों से 10 हजार रुपए मंगवाओ. सोमेश ने जेलर से शिकायत करने की धमकी दी, तो गुस्से में सुजान सिंह और उस के साथियों ने सोमेश पर बुरी तरह से हमला कर दिया और उस के चेहरे पर ब्लेड मारा.’’

जेल सुपरिंटैंडैंट ने गार्डों से कहा, ‘‘सुजान सिंह और उस के साथियों को अभी ले कर आओ.’’

सुजान सिंह और उस के 5 साथी सामने लाए गए और जेल सुपरिंटैंडैंट का इशारा मिलते ही गार्डों ने उन पर बेतहाशा लाठियां बरसाना शुरू कर दिया. ‘हायहाय’ की दर्दनाक चीखें गूंजने लगीं.

‘‘इन पर केस बनाओ,’’ जेल सुपरिंटैंडैंट ने गुस्से से कहा और वापस दफ्तर की ओर चल दिए. उन के पीछेपीछे जेलर, उपजेलर और जेल के मुख्य द्वार पर तैनात संतरी भी चल दिए.

जेल गार्डों ने डर के इस माहौल का खूब फायदा उठाया. वे हर नए और कमजोर, डरे हुए कैदियों को धमका कर उन से पैसों की मांग करते. उन के परिवार द्वारा भेजे गए सामान में से अपने काम का सामान छीन लेते.

वैसे भी मुलाकात के समय मुख्य द्वार पर 2 सिपाहियों की ड्यूटी रहती है. एक रजिस्टर में लिखता, दूसरा मुलाकात करने वाले कैदी पर नजर रखता कि कहीं वह कोई गैरकानूनी सामान तो अंदर नहीं ला रहा है.

लेकिन भ्रष्टाचार यहां भी था. हर मिलने आने वाले से मुलाकात के नाम पर 10 रुपए लिए जाते. सुबह 8 बजे से दोपहर 12 बजे तक ही मिलने का समय होता.

अंदर कैदियों की तादाद 450-500 होती. जिसे 5 मिनट से ज्यादा मिलना हो, उस से ज्यादा पैसे की मांग की जाती. कोई अपनी बीवीबच्चों से कईकई दिनों बाद मिल रहा होता, तो उस की बीवी 10-20 रुपए निकाल कर दे देती.

जेल में कई बार सरकारी अफसर, डाक्टर, इंजीनियर, बड़े कारोबारी भी आ जाते, तब तो मुलाकात में ड्यूटी करने वालों की चांदी होती. ऐसे थोड़े ही जेल में अपराधियों के पास गांजा, पिस्तौल, मोबाइल जैसी चीजें पहुंच जाती थीं.

जो दमदार कैदी होते, उन के साथी बाहर से जेल प्रशासन के लोगों द्वारा अंदर मनचाहा सामान पहुंचाते. बदले में जेल प्रशासन को भी खुश किया जाता.

मुलाकात के दौरान गेट पर ड्यूटी के लिए जेल के गार्ड, हवलदार बड़ी रकम जेलर व सुपरिंटैंडैंट को पहुंचाते. रसोई में काम करने वाले इन चारों कैदियों की पिटाई नहीं हुई, क्योंकि ये चारों न कभी जेल प्रशासन से उलझे, न किसी गार्ड से कभी ऊंची आवाज में बात की, बल्कि जेल गार्डों की हर सही और गलत बात भी मानी.

जेल में कुछ गार्डों द्वारा नशीली चीजों जैसे गांजा, शराब, अफीम को रसोई से ही बेची जाती. बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू तो बिलकुल खुलेआम बेचे जाते. कोई रोक नहीं थी.

आज रविवार था. नियम के मुताबिक कैदियों को पूरी,आटे का हलवा, सब्जी दी गई. चारों अपने बैरक में बैठे कैदियों की पिटाई की चर्चा कर रहे थे.

बदला : डाक्टर मीता की कशमकश

आपरेशन थियेटर से निकल कर डा. मीता अपने केबिन में आईं. एप्रिन उतारने के बाद उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए पूछा, ‘‘रीना, क्या डा. दीपक का कोई फोन आया था?’’

‘‘जी, मैम, वह 2 बजे तक कानपुर से लौट आएंगे और लंच घर पर ही करेंगे,’’ इंटरकाम पर रिसेप्शनिस्ट रीना की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘ठीक है,’’ कह कर डा. मीता ने फोन रख दिया और घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 12 बजे थे. वह सोचने लगीं कि

डा. दीपक के लौटने में अभी डेढ़ घंटे का समय है और इतनी देर में अस्पताल का एक राउंड लिया जा सकता है.

डा. मीता ने आज अकेले ही 3 आपरेशन किए थे, इसलिए कुछ थकावट महसूस कर रही थीं. तभी अटेंडेंट कौफी दे गया. वह कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर कौफी की चुस्कियां लेने लगीं.

मीता और दीपक लखनऊ मेडिकल कालिज में सहपाठी थे. एम.एस. करने के बाद दोनों ने शादी कर ली थी. पहले उन्होंने अपना नर्सिंग होम लखनऊ में खोला था किंतु अचानक घटी एक दुर्घटना के कारण उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ गया था.

उस के बाद वे इलाहाबाद चले आए. उन की दिनरात की मेहनत के कारण 3 वर्षों में ही उन के नए नर्सिंग होम की शोहरत काफी बढ़ गई थी. डा. दीपक आज सुबह किसी जरूरी काम से कानपुर गए थे. आज के आपरेशन पूरा करने के बाद डा. मीता उन की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा. उन्होंने अटेंडेंट को बुला कर पूछा, ‘‘यह शोर कैसा है?’’

‘‘जी…एक्सीडेंट का एक केस आया है और स्टाफ उन्हें भगा रहा है लेकिन वे लोग भाग नहीं रहे हैं,’’ अटेंडेंट ने हिचकते हुए बताया.

‘‘क्यों भगा रहे हैं? क्या तुम लोगों को पता नहीं कि हमारे नर्सिंग होम में छोटेबड़े सभी का इलाज बिना किसी भेदभाव के किया जाता है,’’ मीता का चेहरा तमतमा उठा. वह जानती थीं कि शहर के कई नर्सिंग होम तो ऐसे हैं जिन में गरीबों को घुसने भी नहीं दिया जाता है.

‘‘जी…वो…’’ अटेंडेंट हकला कर रह गया. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कहना चाह रहा है किंतु साहस नहीं जुटा पा रहा है.

‘‘यह क्या वो…वो…लगा रखी है,’’ डा. मीता ने अटेंडेंट को डांटा फिर पूछा, ‘‘घायल की हालत कैसी है?’’

‘‘खून काफी बह गया है और वह बेहोश है.’’

‘‘तो फौरन उसे आपरेशन थियेटर में ले चलो. मैं भी पहुंच रही हूं,’’

डा. मीता ने खड़े होते हुए आदेश दिया.

अटेंडेंट हक्काबक्का सा चंद पलों तक उन के चेहरे को देखता रहा फिर आंखें झुकाते हुए बोला, ‘‘जी, मैडम, वह विधायक उपदेश सिंह राणा हैं. नर्सिंग होम के पास ही उन की गाड़ी को एक ट्रक ने टक्कर मार दी है.’’

इतना सुनने के बाद डा. मीता को लगा जैसे कोई ज्वालामुखी फट पड़ा हो और पूरी सृष्टि हिल गई हो. वह धम्म से कुरसी पर गिर पड़ीं. अगर उन्होंने कुरसी के दोनों हत्थों को मजबूती से थाम न लिया होता तो शायद चकरा कर नीचे गिर पड़ती होतीं. उन के दिमाग पर हथौड़े बरसने लगे और सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी. अटेंडेंट उन की मनोदशा को समझ गया था अत: चुपचाप वहां से खिसक गया.

लगभग साढ़े 3 वर्ष पहले की बात है. उस दिन भी डा. मीता अपने पुराने नर्सिंग होम में अकेली थीं. तभी कुछ लोग गोली से बुरी तरह घायल एक व्यक्ति को ले कर आए. उस की गोली निकालने के लिए वह आपरेशन थियेटर में अभी जा ही रही थीं कि फोन की घंटी बज उठी :

‘डा. साहिबा, मैं उपदेश सिंह राणा बोल रहा हूं,’ फोन पर आवाज आई.

‘जी, कहिए,’ डा. मीता अचकचा उठीं.

उपदेश सिंह राणा शहर का आतंक था. छोटेबड़े सभी उस के नाम से थर्राते थे. उस का भला उन से क्या काम?

‘डा. साहिबा, वह मेरी गोली से तो बच गया है लेकिन आप के आपरेशन थियेटर से जिंदा वापस नहीं आना चाहिए,’ उपदेश सिंह राणा ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘मैं एक डाक्टर हूं और डाक्टर के हाथ लोगों की जान बचाने के लिए उठते हैं, लेने के लिए नहीं,’ डा. मीता ने स्पष्ट इनकार कर दिया.

‘मैं आप के हाथों को बहकने की कीमत देने के लिए तैयार हूं. आप मुंह खोलिए,’ राणा ने हलका सा कहकहा लगाया.

‘आप अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हैं,’ राणा का प्रस्ताव सुन

डा. मीता का मन कसैला हो उठा.

‘डा. साहिबा, कुछ करने से पहले सोच लीजिएगा कि मैं महिलाओं को सिर्फ उपदेश ही नहीं देता बल्कि…’ इतना कहतेकहते राणा क्षण भर के लिए रुका फिर खतरनाक अंदाज में बोला, ‘अगर आप ने मेरे शिकार को बचाने की कोशिश की तो फिर आप का कुछ भी नहीं बच पाएगा.’

डा. मीता ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया और आपरेशन थियेटर में घुस गईं. उस व्यक्ति की हालत बहुत खराब थी. 3 गोलियां उस की पसलियों में घुस गई थीं. 2 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह गोलियां निकाल पाई थीं. अब उस की जान को कोई खतरा नहीं था.

किंतु राणा ने अपनी धमकी को सच कर दिखाया. 2 दिन बाद ही उस ने

डा. मीता का अपहरण कर उन की इज्जत लूट ली. दीपक ने बहुत भागदौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. राणा गिरफ्तार हुआ किंतु 3 दिन बाद ही जमानत पर छूट गया. उस के आतंक के कारण कोई भी उस के खिलाफ गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुआ था.

इस घटना ने डा. मीता को तोड़ कर रख दिया था. वह एक जिंदा लाश बन कर रह गई थीं. हमेशा बुत सी खामोश रहतीं. जागतीं तो भयानक साए उन्हें अपने आसपास मंडराते नजर आते. सोतीं तो स्वप्न में हजारों गिद्ध उन के शरीर को नोंचने लगते. उन की मानसिक हालत बिगड़ती जा रही थी.

मनोचिकित्सकों की सलाह पर दीपक ने वह शहर छोड़ दिया था. नए शहर के नए माहौल ने मरहम का काम किया. अतीत की यादों को करीब आने का मौका न मिल सके, इसलिए डा. दीपक अपने साथ

डा. मीता को भी मरीजों की सेवा में व्यस्त रखते. धीरेधीरे जीवन की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी. दोनों की मेहनत और लगन से इन चंद वर्षों में ही उन के नर्सिंग होम का काफी नाम हो गया था.

इन चंद वर्षों में और भी बहुत कुछ बदल चुका था. अपने आतंक और बूथ कैप्चरिंग के दम पर शहर का दुर्दांत गुंडा उपदेश सिंह राणा दबंग विधायक बन चुका था. अब इसे समय का क्रूर मजाक ही कहा जाए कि डा. मीता की जिंदगी बरबाद करने वाले दरिंदे उपदेश सिंह राणा की जिंदगी बचाने के लिए लोग आज उसे उन की ही शरण में ले आए थे.

डा. मीता की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंध गए जब वह गिड़गिड़ाते हुए उस शैतान से दया की भीख मांग रही थी और वह हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था. वह अपने डाक्टरी पेशे की मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई दे रही थीं और वह उन की इज्जत की चादर को तारतार किए दे रहा था. वह रोती रहीं, बिलखती रहीं, तड़पती रहीं पर उस नरपिशाच ने उन की अंतर आत्मा तक को अंगारों से दाग दिया था.

सोचतेसोचते डा. मीता के जबड़े भिंच गए और आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं. बाहर बढ़ रहे शोर के कारण उन की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. क्रोध की अधिकता के चलते वह हांफने सी लगीं. व्याकुलता जब बरदाश्त से बाहर हो गई तो उन्होंने सामने रखा पेपरवेट उठा कर दीवार पर दे मारा. पर न तो पेपरवेट टूटा और न ही दीवार टस से मस हुई.

पेपरवेट फर्श पर गिर कर गोलगोल घूमने लगा. डा. मीता की दृष्टि उस पर ठहर सी गई. पेपरवेट के स्थिर होने पर उन्होंने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई. उन में दृढ़ता के चिह्न छाए हुए थे. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कर गुजरने का फैसला कर चुकी हैं.

इंटरकाम का बटन दबाते हुए डा. मीता ने पूछा, ‘‘रीना, घायल को आपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया गया है या नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जी…वो…दरअसल…स्टाफ कह… रहा है…कि…’’ रिसेप्शनिस्ट झिझक के कारण अपनी बात कह नहीं पा रही थी.

‘‘तुम लोग सिर्फ वह करो जो कहा जा रहा है. बाकी क्या करना है, मैं जानती हूं,’’ डा. मीता ने सर्द स्वर में आदेश दिया और आपरेशन थियेटर की ओर चल दीं.

अचानक उन्हें कुछ याद आया. वापस लौट कर उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए कहा, ‘‘रीना, मैं उस आदमी का चेहरा नहीं देख सकती. नर्स से कहो कि आपरेशन टेबल पर पहुंचाने से पहले उस का मुंह किसी कपड़े से बांध दे या ठीक से ढंक दे.’’

इतना कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए डा. मीता तेजी से आपरेशन थियेटर की ओर चली गईं. घायल के भीतर जाते ही आपरेशन थियेटर का दरवाजा बंद हो गया और उस पर लगा लाल बल्ब जल उठा.

टिक…टिक…टिक…की ध्वनि के साथ घड़ी की सूइयां आगे बढ़ती जा रही थीं. इसी के साथ आपरेशन कक्ष के बाहर खड़े स्टाफ के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. आपरेशन कक्ष के दरवाजे को बंद हुए 2 घंटे से अधिक समय बीत चुका था. भीतर डा. मीता क्या कर रही होंगी इस का अंदाजा होते हुए भी कोई सचाई को अपने होंठों तक नहीं लाना चाहता था.

डा. दीपक 3 बजे लौट आए. भीतर घुसते ही उन्होंने एक वार्ड बौय से पूछा, ‘‘डा. मीता कहां हैं?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने एक घायल का आपरेशन किया था. उस के बाद…’’ वार्ड बौय कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘उस के बाद क्या?’’

‘‘उस के बाद वह उसे अपना खून दे रही हैं, क्योंकि उस का ब्लड गु्रप ‘ओ निगेटिव’ है और वह कहीं मिल नहीं सका,’’ वार्ड बौय ने हिचकिचाते हुए बताया.

‘‘ऐसा कौन सा खास मरीज आ गया है जिसे डा. मीता को खुद अपना खून देने की जरूरत आ पड़ी?’’

डा. दीपक ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी…विधायक उपदेश सिंह राणा हैं.’’

‘‘तुझे होश भी है कि तू क्या कह रहा है?’’ वार्ड बौय का गिरेबान पकड़ डा. दीपक चीख पड़े.

‘‘सर, हम लोग उसे नर्सिंग होम से भगा रहे थे लेकिन मैडम ने जबरन बुला कर उस का आपरेशन किया और अब उसे अपना खून भी दे रही हैं,’’ तब तक  वहां जमा हो चुके कर्मचारियों में से एक ने हिम्मत कर के बताया.

डा. दीपक ने उसे घूर कर देखा फिर बिना कुछ कहे अपने केबिन की ओर चले गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मीता ने ऐसा क्यों किया. क्या किसी ने मीता को इस के लिए मजबूर किया था या कोई और कारण था? सोचतेसोचते डा. दीपक के दिमाग की नसें फटने लगीं लेकिन वह अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज सके.

थोड़ी देर बाद डा. मीता ने वहां प्रवेश किया. उन का चेहरा पत्थर की भांति भावनाशून्य था. डा. दीपक ने आगे बढ़ उन की बांह थाम कांपते स्वर में पूछा, ‘‘मीता…तुम ने… उस की जान क्यों बचाई?’’

‘‘हम लोग डाक्टर हैं. हमारा काम ही लोगों की जान बचाना है,’’ डा. मीता के होंठों ने स्पंदन किया.

डा. दीपक ने पत्नी की बांहों को छोड़ चंद पलों तक उस के चेहरे की ओर देखा फिर मुट्ठियां भींचते हुए बोले, ‘‘लेकिन क्या उस का आपरेशन करते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे थे?’’

‘‘अगर हाथ कांप जाते तो हम में और सामान्य लोगों में क्या फर्क रह जाता,’’ डा. मीता ने धीमे स्वर में कहा. उन का चेहरा पूर्ववत भावनाशून्य था.

‘‘हम इनसान हैं मीता, इनसान,’’ डा. दीपक तड़प उठे.

‘‘मैं ने इनसानियत का ही फर्ज निभाया है,’’ डा. मीता के होंठ यंत्रवत हिले.

‘‘फर्ज निभाने का शौक था तो निभा लेतीं, महानता की चादर ओढ़ने का शौक था तो ओढ़ लेतीं, लेकिन अपना खून चूसने वाले को अपना खून तो न देतीं,’’

डा. दीपक मेज पर घूंसा मारते हुए चीख पड़े.

डा. मीता ने कोई उत्तर नहीं दिया.

दीपक ने आगे बढ़ कर उन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और उन की आंखों में झांकते हुए बोले, ‘‘मीता, प्लीज, मुझे बताओ ऐसी क्या मजबूरी थी जो तुम ने उस दरिंदे की जान बचाई? क्या किसी ने तुम्हें फिर धमकी दी थी?’’

डा. मीता ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था  मानो वह सप्रयास अपने को कुछ कहने से रोक रही हैं.

‘‘मैडम, उस मरीज को होश आ गया,’’ तभी एक नर्स ने वहां आ कर बताया.

डा. मीता के भीतर जैसे कोई शक्ति समा गई हो. दीपक को परे धकेल वह आंधीतूफान की तरह भागते हुए वार्ड की ओर दौड़ पड़ीं. भौचक्के से डा. दीपक अपने को संभालते हुए पीछेपीछे दौड़े.

उपदेश सिंह राणा को अब तक उन के पास खड़े पुलिस वालों ने बता दिया था कि जिस लेडी डाक्टर ने उन का आपरेशन किया था उसी ने उन्हें अपना खून भी दिया है क्योंकि उन के गु्रप का खून किसी ब्लड बैंक में उपलब्ध न था.

‘‘वह महान डाक्टर कौन हैं. मैं उन के दर्शन करना चाहता हूं,’’ राणा ने कराहते हुए कहा.

‘‘लो, वह आ गईं,’’ एक पुलिस वाले ने वार्ड के भीतर आ रही डा. मीता की ओर इशारा किया.

उन पर दृष्टि पड़ते ही राणा को ऐसा झटका लगा जैसे किसी को करंट लग गया हो. घबरा कर उस ने उठना चाहा लेकिन कमजोरी के कारण हिल भी न सका.

‘‘इन्होंने ही आप की जान बचाई है. जीवन भर इन के चरण धो कर पीजिएगा तब भी आप इस ऋण से उऋण नहीं हो सकेंगे,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बताया.

पल भर के लिए राणा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ किंतु सत्य अपने पूरे वजूद के साथ सामने उपस्थित था. राणा की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंधने लगे जब रोती हुई

डा. मीता हाथ जोड़जोड़ कर विनती कर रही थीं कि उन्होंने सिर्फ एक डाक्टर के फर्ज का पालन किया है किंतु वह उन की एक नहीं सुन रहा था.

आज एक बार फिर उन्होंने सबकुछ भुला कर एक डाक्टर के फर्ज को पूरा किया है. तभी उस की सासें शेष बच पाई हैं.  राणा के भीतर उन से आंख मिलाने का साहस नहीं बचा था. उन के विराट व्यक्तित्व के आगे वह अपने को बहुत छोटा महसूस कर रहा था.

बहुत मुश्किल से अपनी पूरी शक्ति को बटोर कर राणा, ने अपने हाथों को जोड़ा और कांपते स्वर में बोला, ‘‘डाक्टर साहिबा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘माफ और तुम्हें,’’ डा. मीता दांत भींचते हुए चीख पड़ीं, ‘‘राणा, तुम ने मेरे साथ जो किया था उस के बाद मैं तो क्या दुनिया की कोई भी औरत मरते दम तक तुम्हें माफ नहीं कर सकती.’’

चीख सुन कर पूरे वार्ड में सन्नाटा छा गया. किसी में भी उसे भंग करने का साहस न था. अपनी ओर डा. मीता को आता देख कर राणा ने एक बार फिर अपनी बिखरती हुई सांसों को बटोरा और लड़खड़ाते स्वर में बोला, ‘‘आप ने जो एहसान किया है मैं उसे कभी…’’

‘‘मैं ने कोई एहसान नहीं किया है तुम पर,’’ डा. मीता राणा की बात को बीच में काट कर फिर चीख पड़ीं, ‘‘तुम क्या समझते हो अपनेआप को? सर्वशक्तिमान? जो जिस की जिंदगी से जब चाहे खेल लेगा? तुम ने मेरी जिंदगी से खेला था, आज मैं ने तुम्हारी जिंदगी से खेला है. मेरे जिस खून को तुम ने अपवित्र किया था आज वही खून तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है. तुम चाह कर भी उसे अपने शरीर से अलग नहीं कर सकते. जब तक जीवित रहोगे यह एहसास तुम्हें कचोटता रहेगा कि तुम्हारी जिंदगी मेरी दी हुई भीख है.

‘‘कमजोर समझ कर जिस नारी के चंद पलों को तुम ने रौंदा था उस के रक्त के चंद कतरे अब हर पल तुम्हारे स्वाभिमान को रौंदते रहेंगे. तुम्हारा रोमरोम तुम्हारे गुनाहों के लिए तुम्हें धिक्कारेगा लेकिन तुम्हें दया की भीख नहीं मिलेगी. जब तक जीवित रहोगे, राणा, तुम प्रायश्चित की आग में जलते रहोगे लेकिन तुम्हें शांति नहीं मिलेगी. यही मेरा प्रतिशोध है.’’

डा. मीता के मुंह से निकला एकएक शब्द गोली की तरह राणा के दिल और दिमाग को छेदे जा रहा था. गुनाहों के बोझ तले दबी उस की अंतर आत्मा में कुछ कहने की शक्ति नहीं बची थी. उस की कायरता बेबसी बन उस की आंखों से छलक पड़ी.

राणा के आंसुओं ने अग्निकुंड में घी का काम किया. डा. मीता गरजते हुए बोलीं, ‘‘इस से पहले कि मेरे अंदर की नारी, डाक्टर को पीछे ढकेल कर सामने आ जाए और मैं तुम्हारा खून कर दूं, दूर हो जाओ मेरी नजरों से. चले जाओ यहां से.’’

हतप्रभ डा. दीपक अब तक चुपचाप खड़े थे. उन्होंने पुलिस वालों को इशारा किया तो वे राणा के बेड को धकेलते हुए बाहर ले जाने लगे.

डा. मीता हिचकियां भरती हुई पूरी शक्ति से डा. दीपक के चौड़े सीने से लिपट गईं. उन्होंने उन्हें अपनी बांहों में यों संभाल लिया जैसे किसी वृक्ष की शाखाएं नन्हे घोंसले को संभाल लेती हैं.

अनोखी जोड़ी: विशाल ने अवंतिका को तलाक देने से क्यों मना कर दिया? -भाग 1

दिल्ली की एक अदालत में विशाल अपनी मुसीबतों का बखान कर रहा था और इस में भी वह अपने को कठिनाइयों में घिरा पा रहा था, क्योंकि कहानी 8 वर्षों से चली आ रही थी.

विशाल मुंबई की एक मशहूर तेलशोधक कंपनी में अधिकारी था. किसी काम से दिल्ली आया तो चांदनी चौक में अवंतिका से मुलाकात हो गई…वह भी रात के 1 बजे.

खूबसूरत अवंतिका रात में सीढ़ी पर खड़ी हो कर दीवार पर ‘कांग्रेस गिराओ’ का एक चित्र बना रही थी. नीचे खड़ा विशाल उस की दस्तकारी को देख रहा था. तभी बड़ी तूलिका ने अवंतिका के हाथ से छूट कर विशाल के चेहरे को हरे रंग से भर दिया.

उस छोटी सी मुलाकात ने दोनों के दिलों को इस कदर बेचैन किया कि उन्होंने ‘चट मंगनी पट ब्याह’ कहावत को सच करने के लिए अगले ही दिन अदालत में जा कर अपने विवाह का पंजीकरण करवा लिया.

प्रेम में कई बार ऐसा भी होता है कि वह पारे की तरह जिस तेजी से ऊपर चढ़ता है उसी तेजी से नीचे भी उतर जाता है. अवंतिका के 2 कमरों के मकान में दोनों का पहला सप्ताह तो शयनकक्ष में बीता किंतु दूसरे सप्ताह जब जोश थोड़ा ठंडा हुआ तो विशाल को लगा कि उस से शादी करने में कुछ जल्दी हो गई है, क्योंकि अवंतिका का आचरण घरेलू औरत से हट कर था. नईनवेली पत्नी यदि पति व घर की परवा न कर अपनी क्रांतिकारी सक्रियता पर ही डटी रहे तो भला कौन पति सहन कर पाएगा.

विवाह के 10वें दिन से ही विवाद में घर के प्याले व तश्तरियां शहीद होने लगे तो स्थिति पर धैर्यपूर्वक विचार कर विशाल ने पत्नी को छोड़ना ही उचित समझा.

8 वर्ष बीत गए. इस बीच विशाल की कंपनी ने कई बार उसे शेखों से सौदा करने के लिए सऊदी अरब व कुवैत भेजा. अपनी वाक्पटुता व मेहनत से विशाल ने लाखों टन तेल का फायदा कंपनी को कराया तो कंपनी के मालिक मुंशी साहब बहुत खुश हुए और उसे तरक्की देने का निर्णय लिया, किंतु अफवाहों से उन्हें पता चला कि विशाल का पत्नी से तलाक होने वाला है. कंपनी के मालिक नहीं चाहते थे कि उन के किसी कर्मचारी का घर उजडे़. अत: विशाल के टूटते घर को बचाने के लिए उन्होंने उस के मित्र विवेक को इस काम पर लगाया कि वह इस संबंध  विच्छेद को बचाए. जाहिर है कहीं न कहीं कंपनी की प्रतिष्ठा का सवाल भी इस से जुड़ा था.

विशाल से मिलते ही विवेक ने जब उस के तलाक की खबर पर चर्चा शुरू की तो वह तमक कर बोला, ‘‘यह किस बेवकूफ के दिमाग की उपज है.’’

‘‘खुद मुंशी साहब ने फरमान जारी किया है. प्रबंध परिषद चाहती है कि कंपनी के सब उच्चाधिकारी पारिवारिक सुखशांति से रहें, कंपनी की इज्जत बढ़ाएं.’’

‘‘क्या बेवकूफी का सिद्धांत है. कंपनी को अधिकारियों की निपुणता से मतलब है कि उन के बीवीबच्चों से?’’‘‘भैया, वातानुकूलित बंगला, कंपनी की गाड़ी, नौकरचाकर आदि की सुविधा चाहते हो तो परिषद की बात माननी ही होगी. वार्षिक आम सभा में केवल 1 महीना ही बाकी है. तुम अवंतिका को ले कर आम बैठक में शक्ल दिखा देना, पद तुम्हारा हो जाएगा. बाद में जो चाहे करना.’’

‘‘अवंतिका इस छल से सहमत नहीं होगी…विवेक और मैं उसे मना नहीं सकता. औंधी खोपड़ी की जो है,’’ इतना कह कर विशाल अपने तलाक को अंतिम रूप देने के लिए निकल पड़ा.

अदालत में दोनों के वकील तलाक की शर्तों पर आपस में बहस करते रहे जबकि वे दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे. पुराना प्रेम फिर से दिल में उमड़ने लगा, बहस बीच में रोक दी गई क्योंकि जज उठ कर जा चुके थे. मुकदमे की अगली तारीख लगा दी गई.

अदालत के बाहर बारिश हो रही थी. एक टैक्सी दिखाई दी तो विशाल ने उसे रोका. अवंतिका का हाथ भी उठा हुआ था. दोनों बैठ गए. रास्ते में बातें शुरू हुईं:

‘‘क्या करती हो आजकल?’’

‘‘ड्रेस डिजाइनिंग की एक कंपनी में काम करती हूं और सामाजिक सेवा के कार्यक्रमों से भी जुड़ी हूं…जैसे पहले करती थी.’’

‘‘अच्छा, किस के साथ?’’

‘‘हेमंतजी के साथ. वह मेरे अधिकारी भी हैं. वैसे तो उन से मेरी शादी भी होने वाली थी किंतु अचानक तुम मिले और मेरे दिलोदिमाग पर छा गए. याद है न तुम्हें?’’

‘‘कैसे भूल सकता हूं उन हसीन पलों को,’’ विशाल पुरानी यादों में खो गया. फिर बोला, ‘‘तुम अभी भी उसी घर में रहती हो?’’

एक नई दिशा : क्या अपना मुकास हासिल कर पाई वसुंधरा – भाग 1

पोस्टमैन के जाते ही वसुंधरा ने जैसे ही लिफाफा खोला वह खुशी से उछल पड़ी और जोर से आवाज लगा कर मां को बुलाने लगी.

मां गायत्री ने कमरे में प्रवेश करते हुए घबरा कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘मां, आप की बेटी बैंक में अफसर बन गई. यह देखो, मेरा नियुक्तिपत्र आया है,’’ और इसी के साथ वसुंधरा मां से लिपट गई.

‘‘क्या…’’ कहने के साथ गायत्री का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया.

‘‘मां, मैं न कहती थी कि मैं एक दिन अपने पैरों पर खड़े हो कर दिखाऊंगी. बस, आप मुझे सहयोग दो. देखो, मां, आज वह दिन आ गया,’’ वसुंधरा भावुक हो कर बोली.

मां की आंखों से खुशी के छलकते आंसू पोंछते हुए उस ने गले में चुन्नी डाली और बैग उठाते हुए बोली, ‘‘मां, मैं ममता मैडम के घर जा रही हूं, उन्हें अपना नियुक्तिपत्र दिखाने. मैडम कालिज से अब वापस आ चुकी होंगी.’’

वसुंधरा का बस चलता तो वह उड़ कर ममता मैडम के पास चली जाती, जो बी.एससी. में पहले साल से ले कर तीसरे साल तक उस को फिजिक्स पढ़ाती रहीं और उस का मार्गदर्शन भी करती रहीं. आज खुशी का यह दिन उन के मार्गदर्शन का ही नतीजा है.

वसुंधरा को याद हैं अतीत के वे दिन जब प्राइमरी स्कूल के अध्यापक और 4 बेटियों के पिता दीनानाथ को अपनी बेटी वसुंधरा का सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आना भी कोई तसल्ली नहीं दे पा रहा था. उन्होंने हड़बड़ाहट में उस का विवाह वहां तय कर दिया जहां के बारे में वसुंधरा कभी सोच भी नहीं सकती थी. वह भी उस समय जब वह बी.एससी. द्वितीय वर्ष में थी.

राजू उस की सहेली मंजू की मौसी का लड़का था. मंजू ने उस के बारे में सबकुछ बता दिया था. अपार संपत्ति ने राजू को गैरजिम्मेदार ही नहीं विवेकहीन भी बना दिया था. कोई ऐसा व्यसन न था जिस का वह आदी न हो. बड़ों का सम्मान करना तो वह जानता ही न था.

वसुंधरा को यह जान कर घोर आश्चर्य और दुख हुआ कि राजू के बारे में सबकुछ जानने के बाद भी उस के पिता वहां उस के रिश्ते की बात चला रहे हैं.

‘पिताजी, मैं अभी शादी नहीं करना चाहती और उस लड़के से तो हरगिज नहीं जिस से आप मेरा रिश्ता करना चाहते हैं,’ वसुंधरा ने पिता से स्पष्ट शब्दों में अपने विचार रखते हुए कहा.

‘तुम कौन होती हो यह फैसला लेने वाली? मैं पिता हूं और यह मेरा अधिकार व जिम्मेदारी है कि मैं तुम्हारा विवाह समय से कर दूं,’ दीनानाथ गरजते हुए बोले.

‘पिताजी, मैं अभी पढ़ना चाहती हूं, जिंदगी में कुछ बनना चाहती हूं,’ वसुंधरा गिड़गिड़ाते हुए बोली.

‘तुम्हारी 3 बहनें और भी हैं. मुझे उन के बारे में भी सोचना है.’

‘वसु, तू तो हमारी स्थिति जानती है बेटी, वह एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार है, फिर उन्होंने खुद ही तेरा हाथ मांगा है. तू खुद सोच, हम कैसे मना कर दें,’ मां ने वसुंधरा को प्यार से समझाते हुए कहा.

‘अरे, जवानी में थोड़ी नासमझी तो सभी दिखाते हैं लेकिन परिवार की जिम्मेदारी पड़ते ही सब ठीक हो जाते हैं,’ दीनानाथ ने लड़के का बचाव करते हुए कहा.

‘पिताजी, वह  खुद अपनी जिम्मे- दारी उठाने के काबिल तो है नहीं, फिर परिवार की जिम्मेदारी क्या उठाएगा?’ वसुंधरा ने आवेश में आ कर कहा.

‘खामोश…अपने पिता से बात करने की तमीज भी भूल गई. मैं ने फैसला ले लिया है, तुम्हारा विवाह वहीं होगा,’ दीनानाथ चिल्लाते हुए बोले.

वसुंधरा समझ गई कि उस के विरोध का कोई फायदा नहीं है. वह सोचने लगी कि वादविवाद प्रतियोगिताओं में निर्णायकगण और अपार जन समूह को अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से प्रभावित करने वाली लड़की आज अपने विचारों से अपने ही मातापिता को सहमत नहीं करा पा रही है.

घर पर उस के पिताजी ने सगाई की सभी तैयारियां शुरू कर दी थीं. वसुंधरा का मन बहुत बेचैन रहने लगा. किसी भी काम में उस का मन नहीं लग रहा था.

‘वसुंधरा, तुम्हारी फाइल पूरी हो गई?’ ममता मैडम ने ऊंची आवाज में पूछा.

‘मैडम, बस थोड़ा सा काम रह गया है,’ वसुंधरा ने झेंपते हुए कहा.

‘क्या हो गया है तुम्हें आजकल? प्रैक्टिकल की डेट आने वाली है और अभी तक तुम्हारी फाइल पूरी नहीं हुई. अभी फाइल पूरी कर के स्टाफ रूम में ले आना,’ मैडम ने जातेजाते आदेश दिया.

वसुंधरा ने जल्दीजल्दी फाइल पूरी की और सीधे स्टाफरूम की ओर भागी. संयोग से ममता मैडम उस समय वहां पर अकेली बैठी फाइलें चेक कर रही थीं. जैसे ही वसुंधरा ने अपनी फाइल मैडम को दी उन्होंने उस की परेशानी को भांपते हुए कहा, ‘क्या बात है, वसुंधरा, आजकल तुम कुछ परेशान लग रही हो. टेस्ट में भी तुम्हारे नंबर अच्छे नहीं आए. तुम तो बहुत होशियार लड़की हो और हमें तुम से बहुत उम्मीदें हैं.’

अपनी ही दुश्मन : जिस्म और पैसे की भूखी कविता – भाग 1

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी. लड़कों को तो बेवकूफ बना कर वह खूब खुश होती थी. युवा होने पर लड़कों की टोली उस के इर्दगिर्द घूमा करती थी. उस टोली में हर महीने एकदो सदस्य बढ़ जाते थे. कविता उन से खुल कर बातें करती थी.

लेकिन उस की यही स्वच्छंदता उस के वैवाहिक जीवन में बाधक बन गई थी. बचपन गया, किशोरावस्था आई, तब तक तो सब कुछ ठीक था. लेकिन जवानी की ड्यौढ़ी पर कदम रखते ही उसे जीवन के कठोर धरातल पर उतरना पड़ा. उस की शादी सुरेश के साथ कर दी गई. भूल या गलती किस की थी, यह तो नहीं पता, लेकिन एक दिन कविता अपने बेटे मोनू को गोद में थामे, हाथ में ट्रौली बैग खींचती आंगन में आ खड़ी हुई.

आंगन के तीनों ओर कमरे बने थे. आवाज सुनते ही तीनों ओर से दादी, बड़की अम्मा, छोटी अम्मा, भाभी, पापा और चचेरे भाईबहन बाहर निकल कर आंगन में एकत्र हो गए. कविता की शादी को अभी कुल डेढ़ साल ही हुआ था. उसे इस तरह आया देख कर सभी हैरत में थे. खुशी किसी के चेहरे पर नहीं थी. मम्मी पापा ने घबरा कर एक साथ पूछा, ‘‘क्या हुआ बिटिया, तू इस तरह…?’’

‘‘इसे संभालो.’’ कविता मोनू को मां की गोद में थमाते हुए बोली, ‘‘मैं अब सुरेश के साथ वापस नहीं जा सकती.’’ इसी के साथ वह ट्रौली बैग को आंगन में ही छोड़ कर एक कमरे की ओर बढ़ गई.

‘‘अरी चुप कर, जो मुंह में आया बक दिया. शर्म नहीं आती अपने मर्द का नाम लेते.’’ दादी ने नाराजगी दिखाई. लेकिन कविता ने उन की बात पर ध्यान नहीं दिया. भाभी ने मोनू को मां की गोद में से ले कर सीने से लगा लिया.

अंदर जाते ही कविता ने इस तरह जूड़ा खोला मानो चैन की सांस लेना चाहती हो. लंबे घने काले बाल उस की पीठ पर इस तरह पसर गए, जैसे उस के आधे अस्तित्व को ढंक लेना चाहते हों. सब लोग बाहर से अंदर आ गए थे. कविता पर सवालों की बौछार होने लगी. लेकिन कविता ने सब को 2 शब्दों में चुप करा दिया, ‘‘मुझे थकान भी है और भूख भी लगी है. पहले मैं नहाऊंगीखाऊंगी, उस के बाद बात करना.’’

चचेरा भाई कविता का ट्रौली बैग अंदर ले आया था. उस ने उठ कर बैग खोला और अपने कपड़े ले कर इस तरह नहाने के लिए बाथरूम में चली गई, जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो. इस बीच भाभी और बच्चे मोनू को हंसाने और खेलाने में लग गए थे. जबकि कविता के मातापिता दूसरे कमरे में एकदूसरे पर कविता को बिगाड़ने का दोषारोपण कर रहे थे.

तभी उन की बातें सुन कर दादी अंदर आ गई और आते ही बोलीं, ‘‘अरे चुप करो दोनों. तुम दोनों ने ही बिगाड़ा है इसे. मैं तो इस के लच्छन पहले ही जानती थी. सुरेश शादी न हुई होती तो अब तक पता नहीं क्या गुलखिलाती. न सुनने की तो आदत ही नहीं है इसे. हर जगह मनमानी करती है. देखो 20-22 साल की हो गई और ससुराल से बच्चा लटका कर मायके लौट आई.’’

‘‘अरे अम्मा, बेकार परेशान हो रही हो, सुरेश को यहीं बुला कर दोनों का समझौता करा देंगे.’’ मोहन ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘मियांबीबी में छोटेमोटे झगड़े तो चलते ही रहते हैं. कविता को तो जानती ही हो, सुरेश ने कुछ कह दिया होगा और यह तैश में आ कर भाग आई.’’

कविता नहा कर आ गई तो भाभी उस की बांह पकड़ कर छत पर ले गईं. ऊपर जा कर भाभी ने पूछा, ‘‘लाडो, दामादजी से कोई गलती हो गई क्या?’’

‘‘अब तुम से क्या छिपाना भाभी, अब सुरेश मुझ से पहले की तरह प्यार नहीं करते.’’ कहते हुए कविता के आंसू छलक आए.

जाएं तो जाएं कहां : चार कैदियों का दर्द – भाग 1

वे चारों दिल्ली के तिहाड़ जेल में विचाराधीन कैदी थे. वे दिल्ली में ही पकड़े गए थे. चारों की उम्र 40 से 45 साल के आसपास थी. वे जानते थे कि कुछ समय बाद उन को अपने इलाके के जेलों में भेज दिया जाएगा. पुलिस के मुताबिक, उन्होंने अपराध किए थे. विचाराधीन कैदियों से काम करवाने का कोई कानून नहीं था, लेकिन कानून उस का जिस के हाथ में ताकत. हर बैरक का एक इंचार्ज होता है, जिसे जेल की भाषा में वार्डन कहते हैं. जेल में आते ही कैदियों से उन के बारे में जान लिया जाता है कि वे क्या काम कर सकते हैं. वे चारों बहुत तगड़े नहीं थे. उन से पानी भरवाने या साफसफाई का मेहनत वाला काम नहीं लिया जा सकता था. उन से पूछा गया कि वे क्या काम कर सकते हैं  उन्होंने कुछ नहीं कहा. वे चुप ही रहे.

जेल में 5 सौ लोगों के लिए दोनों वक्त का भोजन, दलिया, चाय बनाना होता है. इस के लिए रसोई में काम करने वालों को सुबह 4 बजे उठना पड़ता है. उन्हें एक अलग बैरक दे दिया जाता है, जिस में रसोई में काम करने वाले कैदी रहते हैं.

लेकिन रसोई में काम करने का एक फायदा यह भी था कि उन्हें 100-150 आदमियों के बीच जानवरों की तरह रहने की जरूरत नहीं थी, न ही बारबार की मारपिटाई, बेइज्जती की चिंता थी और न ही गुंडेटाइप लोगों की सेवा करने की जरूरत पड़ती थी. जेल के वार्ड सुबह 7 बजे खुलते थे. जिन कैदियों की जेल में सत्ता थी, पकड़ थी, वे अपना चायनाश्ता ले कर रसोई में आ जाते और रसोइए बड़ीबड़ी भट्ठियों में किनारे की थोड़ी सी जगह उन के लिए छोड़ देते. रसोई में काम करने वाले पुराने कैदी रिहा हो चुके थे या दूसरे जेलों में ट्रांसफर हो चुके थे. शुरू में आए कैदियों को जेल के दूसरे कैदी और जेल प्रशासन उसी नजर से देखता है, जो केस पुलिस ने बताया है. धीरेधीरे उन के तौरतरीकों से समझ आता है कि वे आदतन अपराधी नहीं हैं. अपराध या तो गुस्से में आ कर जोश में हुआ है या पुलिस ने झूठे केस में फंसाया है.

शुरूशुरू में उन चारों पर बड़ी सख्ती होती. उन पर निगरानी रखी जाती. उन के साथ वही होता, जो नए कैदी के साथ होता है. गालीगलौज, मारपीट. बड़े अपराधियों द्वारा अपने निजी काम कराना. बैरक की साफसफाई से ले कर झाड़ू लगाना. सीनियर कैदियों के कपड़े धोना. उन की हर तरह से सेवा करना. जब बैरक नंबर एक का कैदी अनुपम परेशान हो गया, तो उस ने हिम्मत कर के हवलदार से कहा, ‘‘साहब, ऐसे तो मैं मर जाऊंगा. आप कुछ कीजिए.’’ अनुपम ने जिस हवलदार से कहा, वह उसी की जाति का था. हवलदार ने कहा, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं  यह जेल है, घर नहीं. यहां तो यह सब होता ही है.’’ अनुपम की बारबार की गुजारिश से पसीज कर हवलदार ने कहा, ‘‘रसोई का काम ले लो. काम ज्यादा है, लेकिन बाकी मुसीबतों से बच जाओगे.’’

यह सुनते ही अनुपम मान गया. बैरक नंबर 2 में बंद बिशनलाल को खाना बनाना आता था. जब यह बात जेलर को पता चली, तो उसे बुला कर पूछा, ‘‘रसोई में काम कर सकते हो ’’

बिशनलाल ने तुरंत हां कर दी. बैरक नंबर 3 में चांद मोहम्मद और राकेश थे. वे भी दबंग कैदियों की सेवा से थक चुके थे. उन्होंने गार्ड मोहम्मद आसिफ से अपनी तकलीफ कही. गार्ड मोहम्मद आसिफ ने कहा, ‘‘मैं साहब से बात कर के रसोईघर में रखवा सकता हूं, लेकिन कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए. मन लगा कर ईमानदारी से काम करना.’’ उन दोनों ने हामी भर दी. गार्ड मोहम्मद आसिफ ने जेलर से उन को रसोईघर में काम पर रखने के लिए कहा. जेलर ने यह कह कर मना कर दिया कि ये तो संगीन और बड़े अपराध में आते हैं. अगर कहीं उन्होंने भागने की कोशिश की या कुछ और गड़बड़ की, तो जेल प्रशासन मुसीबत में आ जाएगा.

गार्ड मोहम्मद आसिफ ने कहा कि ये 2 साल से बंद हैं. इन का कोई भी नहीं है. इतने समय में आदमी की पहचान हो जाती है. दोनों बहुत ही सीधे हैं.

जेलर ने अपनी बात रखते हुए कहा, ‘‘लेकिन, विचाराधीन कैदियों को काम देना नियम के खिलाफ है.’’

इस पर गार्ड मोहम्मद आसिफ ने कहा, ‘‘साहब, यहां कौन से काम नियम से होते हैं. जेल में गांजा बिकता है. बड़े विचाराधीन कैदियों के पास मोबाइल फोन हैं. हथियार हैं. उन का खानापीना अलग बनता है. वे सब कौन से नियम का पालन करते हैं या हम उन से करवा सकते हैं.

‘‘उन की मुलाकात जब चाहे तब होती है. वे जब तक चाहें, तब तक मिल सकते हैं. उन के पास बाहर से हफ्ता आता है. हम उन पर रोक नहीं लगा सकते.

‘‘और फिर, इन का तो अपराध भी साबित नहीं हुआ है. पहली बार जेल आए हैं. न ही इन की कोई जमानत कराने वाला है, न ही कोई मिलने आने वाला. अनुपम और बिशनलाल भी तो बड़े अपराध में बंद हैं. वे भी रसोई में काम कर रहे हैं.’’

जेलर ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘ठीक है.’’

इस तरह उन चारों को रसोई वाला छोटा सा बैरक मिल गया, जो उन के लिए सुकून की जगह थी.

वे सुबह 4 बजे उठते. जेल का गार्ड आ कर उन के बैरक का ताला खोलता, उन्हें बाहर निकालता. वे रसोई में चाय और दलिया बनाना शुरू कर देते.

इस बीच जेल के गार्डों के लिए और साथ में खुद के लिए अच्छी चाय बनाते. गार्ड अपनी ड्यूटी करते और वे चारों मिलजुल कर जेल में बंद 5 सौ कैदियों के लिए जेलछाप चाय बनाते.

जेलछाप चाय मतलब बहुत बड़े बरतन में 5 सौ लोगों के लिए चाय, जिस में शक्कर भी कम, चायपत्ती भी कम और दूध भी कम.

कैदियों के हिस्से की शक्कर, चायपत्ती, दूध वगैरह जेलर, सुपरिंटैंडैंट व उपजेलर के घर पहुंचते थे. इस का कोई विरोध नहीं करता था. यह नियम सा बन गया था. एक लिटर वाले 5 पैकेट दूध में 500 लोगों की चाय. बाकी 45 पैकेट दूध जेल प्रशासन के पास जाता.

जेल में सामग्री सप्लाई करने वाले ठेकेदार और जेल सुपरिंटैंडैंट, जेलर के बीच सब तय हो जाता था. अंदर जो आता, वही कैदियों के हिस्से का माना जाता.

साथ काम करतेकरते उन चारों में अपनापन हुआ, जुड़ाव हुआ. उन्होंने एकदूसरे के बारे में पूछना शुरू किया.

उन चारों प्रमुख रसोइयों के अलावा उन के जूनियर भी थे, जो रहते थे मुख्य बैरकों में, लेकिन सुबह 7 बजे बैरक खुलने के बाद वे मुख्य रसोइयों द्वारा बनाई गई चाय व दलिया 2 बड़ेबड़े बरतनों में ले कर सब को बांटते थे.

दोपहर के 12 बजे तक खाना बंटने के बाद वे चारों अपने छोटे से बैरक में आ कर अपने लिए बनाया स्वादिष्ठ भोजन करते. इस बीच गिनती के साथ सभी बैरक बंद हो जाते.

वे चारों भी अपने बैरक में आराम करते. फिर शाम की चाय बनाते. फिर 6 बजे तक खाना बनता और बंटता. बांटने वाले अलग थे. चारों अपने लिए बनाया खाना ले कर अपने बैरक में आते.

शाम 6 से साढ़े 6 बजे के बीच फिर से सभी कैदियों की गिनती होती. गार्ड बाहर से ताला लगाते और कैदी बैरक के अंदर खाना खाते, टैलीविजन देखते और सेवा करने वाले गरीब, कमजोर हाथपैर दबाते हुए अमीर, ताकतवर कैदियों से बदले में बीड़ीतंबाकू इनाम के तौर पर पाते, फिर सो जाते.

टैलीविजन में सिर्फ दूरदर्शन आता, बाकी के चैनल नहीं. कुछ बैरकों में रंगीन टैलीविजन, कुछ में ब्लैक ऐंड ह्वाइट. जो सब के लिए खाना बनाते, उन्हें इतना हक खुद ब खुद मिला हुआ था कि वे अपने लिए अच्छी रोटी और तड़का लगी दाल और अच्छी सब्जी बना सकते थे.

ताकतवर कैदी भी अपने लिए ये साधन जुटा लेते. बाकियों का भोजन ऐसा था कि दाल में दाल के दाने ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते थे. रोटियां कच्ची या जली हुई होतीं.

वे चारों रसोई के बैरक में थे. सिपाही बैरक का ताला लगा कर अपनी ड्यूटी पर तैनात था. शाम के 7 बज चुके थे. चारों ने मिल कर खाना खाया.

चांद मोहम्मद ने बिशनलाल से पूछा, ‘‘तुम्हारी जमानत का क्या हुआ ’’

‘‘खारिज हो गई है…’’ बिशनलाल ने उदास लहजे में कहा.

अनुपम ने बीच में कहा, ‘‘जुर्म भी तो बड़ा है.’’

‘‘मैं बेकुसूर हूं,’’  बिशनलाल ने विरोध में कहा.

‘‘हर कुसूरवार जेल में आ कर यही कहता है, ‘‘अनुपम ने ताना कसा.

‘‘तो तुम मानते हो कि तुम ने गुनाह किया है ’’ राकेश ने अनुपम से पूछा.

‘‘मेरे कहने या न कहने से क्या होता है. एक बार पुलिस ने जो केस बना दिया, लग गया वही ठप्पा. मैं बेकुसूर हूं, इस बात को कौन मानेगा ’’

‘‘तुम फंसे कैसे इस चक्कर में  लगता तो नहीं…’’ राकेश ने पूछा.

‘‘सुनने में दिलचस्प है न मेरी कहानी ’’ अनुपम ने कहा.

‘‘सुनाओ, एकदूसरे की सुन कर मन भी हलका होगा और समय भी कटेगा,’’ चांद मोहम्मद ने कहा.

अनुपम उन्हें अपनी आपबीती सुनाते हुए समय को पीछे की ओर खींच ले गया.

‘‘मैं कश्मीरी ब्राह्मण हूं. जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में अपने परिवार के साथ मैं भी जन्नत की सी जिंदगी जी रहा था. खूबसूरत बीवी. 2 प्यारी बेटियां. बैंक की नौकरी. अपना घर.

‘‘मेरी बीवी मनोरमा घरेलू औरत थी. बेटियां पलक और अलका 10वीं और 11वीं जमात में पढ़ रही थीं. जिंदगी बड़े आराम से गुजर रही थी.

‘‘आतंकवाद ने फिर से दस्तक दी. हमें लगा कि आतंक का एक दौर गुजर चुका है. कई बेकुसूर मारे जा चुके थे. आतंकवादी मारे जा चुके थे या सरैंडर कर चुके थे. चारों ओर सैनिकों के कदमों की आवाजें सुनाई देती थीं, लेकिन हम जैसे मिडिल क्लास लोग सुकून महसूस कर रहे थे.

‘‘हमें लगा कि सेना है, तो हम महफूज हैं, लेकिन कुदरत का नियम हर जगह लागू होता है. हर कमजोर भोजन होता है ताकतवर का.

‘‘रात का वक्त था. अचानक घर की पिछली दीवार से किसी के कूदने की आवाज सुनाई दी. मैं पीछे देखने के लिए गया. सामने का नजारा देख कर मेरी रूह कांप गई.

‘‘मैं दरवाजा बंद करने के लिए तेजी से मुड़ा कि आवाज आई, ‘अपनी जगह से हिले तो गोली चला दूंगा.’

‘‘वे 3 थे. तीनों की एके 47 मेरी तरफ ही तनी हुई थी.

‘‘मेरे हलक से बड़ी मुश्किल से आवाज निकली, ‘क्या…चाहिए ’

‘‘उन में से एक ने कहा, ‘हमें आज रात आसरा चाहिए. कल सुबह हम चले जाएंगे. लेकिन अगर तुम ने कोई हरकत की, तो गोली मार दूंगा.’

‘‘इस के बाद वे मुझे धकेलते हुए मेरे ही घर के अंदर ले गए और वहां जा कर एक आतंकवादी ने कहा, ‘कौनकौन हैं घर में  सब सामने आओ.’

‘‘मेरी पत्नी समझदार थी. उस ने दोनों बेटियों को दूसरे कमरे में अलमारी के पीछे छिपा दिया.

‘‘पत्नी सामने आई. उस ने कहा, ‘हम दोनों ही हैं. बेटियां अपने मामा के घर गई हुई हैं.’

‘‘उन्होंने घर की तलाशी ली. इस के बाद वे निश्चिंत हुए. उन में से एक ने कहा, ‘हमें भूख लगी है. खाना चाहिए.’

‘‘पत्नी ने डरते हुए कहा, ‘अभी बनाती हूं.’

‘‘पत्नी खाना बनाने लगी. वे चारों टैलीविजन देखने लगे. मुझे उन्होंने अपने बीच बिठा लिया और एक ने कहा, ‘डरो मत. हम सुबह चले जाएंगे. पर तुम कोई बेवकूफी मत करना, नहीं तो…’

‘‘मैं समझ गया था उन की धमकी. उन के पास शराब की बोतल थी. उन्होंने मुझे गिलास लाने का इशारा किया.

‘‘मैं रसोईघर में गया. उन में से एक अपनी एके 47 के साथ मेरे पीछेपीछे आया.

‘‘मैं रसोईघर से कांच के 3 गिलास लाया. तब तक खाना बन चुका था. मेरी पत्नी ने उन्हें खाना परोसा. वे खाना खाते रहे, शराब पीते रहे. खाना खाने के बाद उन्होंने बाकी शराब भी खत्म की.

‘‘उन में से एक ने कहा, ‘हमें औरत चाहिए.’ ‘‘यह सुन कर मैं सकते में था और मेरी पत्नी दहशत में. ‘‘एक आतंकवादी ने मुझे कुरसी पर जबरदस्ती बिठा कर अपनी एके 47 मेरे सिर पर लगा दी. दूसरे ने मेरी पत्नी से कहा, ‘हम बहुत दिनों से भटक रहे हैं. कल सुबह चले जाएंगे. अपनी और अपने पति की सलामती चाहती हो, तो हमें अपनी मनमानी करने दो. आवाज निकली, तो समझो कि तुम दोनों की लाशें बिछीं.’ ‘‘बाकी 2 मेरी पत्नी के साथ बारीबारी से बलात्कार करते रहे. ‘‘जब दोनों मनमानी कर चुके, तो तीसरा मेरी पत्नी के पास पहुंचा. पहले ने मुझ पर एके 47 तान दी. रात के 12 बजे से 4 बजे तक वे बारीबारी से मेरी पत्नी के साथ बलात्कार करते रहे और मैं सिर झुकाए बैठा रहा.

‘‘हमें चिंता अपनी बेटियों की थी. विरोध करने पर हमारे साथ कुछ होता, तो  दोनों बाहर आ जातीं. ‘‘सुबह के 4 बजे वे निकल गए. हमें हमारे ही घर में लाश की तरह बना कर. बस तसल्ली थी तो इतनी कि बेटियों की आबरू बची रही.

‘‘सुबह के 8 बजे थे. टैलीविजन पर खबर आई कि सुबह 5 बजे सेना ने मुठभेड़ में 2 आतंकी मार गिराए. तीसरा पकड़ा गया. उस आतंकी ने बताया कि वे रात में एक घर में पनाह लिए हुए थे.

‘‘खबर सुन कर पत्नी ने घबरा कर कहा, ‘मैं बेटियों को ले कर अपने भाई के घर जा रही हूं. यहां कभी भी पुलिस आ सकती है. आप तुरंत किसी वकील के पास जाइए, नहीं तो आतंकियों को पनाह देने के जुर्म में पता नहीं हमें क्याक्या भुगतना पड़े ’

‘‘पत्नी रोते हुए बच्चों को ले कर घर से निकल गई. मैं वकील के घर पहुंचा. ‘‘वकील ने गुस्से में कहा, ‘अपने साथ क्या हमें भी मरवाओगे  यहां कोई नहीं सुनेगा. तुम दिल्ली जा कर किसी वकील से मिलो.’

‘‘उस ने मुझे फौरन घर से बाहर कर दिया. मैं छिपतेछिपाते दिल्ली पहुंचा, पर गिरफ्तार कर लिया गया.

‘‘मैं जितनी बार खुद को बेकुसूर कहता, उतनी ही बार मुझ पर कानून की थर्ड डिगरी चलती. मैं ने पुलिस के दिए कागजों पर दस्तखत कर दिए. तब से  यहां 2 साल हो गए.’’

शिकार: काव्या पर क्यों टूटा दुख का पहाड़

वहीं दूसरी ओर काव्या गोरीचिट्टी, छरहरे बदन की गुडि़या सी दिखने वाली एक भोलीभाली, मासूम सी लड़की थी. मुश्किल से अभी उस ने 20वां वसंत पार किया होगा. कुछ महीने पहले दुख क्या होता है, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती तक न थी.

मांबाप के प्यार और स्नेह की शीतल छाया में काव्या बढि़या जिंदगी गुजार रही थी, पर दुख की एक तेज आंधी आई और उस के परिवार के सिर से प्यार, स्नेह और सुरक्षा की वह पिता रूपी शीतल छाया छिन गई.

अभी काव्या दुखों की इस आंधी से अपने और अपने परिवार को निकालने के लिए जद्दोजेहद कर ही रही थी कि एक नई समस्या उस के सामने आ खड़ी हुई.

उस दिन काव्या अपनी नईनई लगी नौकरी पर पहुंचने के लिए घर से थोड़ी दूर ही आई थी कि उस आदमी ने उस का रास्ता रोक लिया था.

एकबारगी तो काव्या घबरा उठी थी, फिर संभलते हुए बोली थी, ‘‘क्या है?’’

वह उसे भूखी नजरों से घूर रहा था, फिर बोला था, ‘‘तू बहुत ही खूबसूरत है.’’

‘‘क्या मतलब…?’’ उस की आंखों से झांकती भूख से डरी काव्या कांपती आवाज में बोली.

‘‘रंजन नाम है मेरा और खूबसूरत चीजें मेरी कमजोरी हैं…’’ उस की हवस भरी नजरें काव्या के खूबसूरत चेहरे और भरे जिस्म पर फिसल रही थीं, ‘‘खासकर खूबसूरत लड़कियां… मैं जब भी उन्हें देखता हूं, मेरा दिल उन्हें पाने को मचल उठता है.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो…’’ अपने अंदर के डर से लड़ती काव्या कठोर आवाज में बोली, ‘‘मेरे सामने से हटो. मुझे अपने काम पर जाना है.’’

‘‘चली जाना, पर मेरे दिल की प्यास तो बुझा दो.’’

काव्या ने अपने चारों ओर निगाह डाली. इक्कादुक्का लोग आजा रहे थे. लोगों को देख कर उस के डरे हुए दिल को थोड़ी राहत मिली. उस ने हिम्मत कर के अपना रास्ता बदला और रंजन से बच कर आगे निकल गई.

आगे बढ़ते हुए भी उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ऐसा लगता था जैसे रंजन आगे बढ़ कर उसे पकड़ लेगा.

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस ने कुछ दूरी तय करने के बाद पीछे मुड़ कर देखा. रंजन को अपने पीछे न पा कर उस ने राहत की सांस ली.

काव्या लोकल ट्रेन पकड़ कर अपने काम पर पहुंची, पर उस दिन उस का मन पूरे दिन अपने काम में नहीं लगा. वह दिनभर रंजन के बारे में ही सोचती रही. जिस अंदाज से उस ने उस का रास्ता रोका था, उस से बातें की थीं, उस से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि रंजन की नीयत ठीक नहीं थी.

शाम को घर पहुंचने के बाद भी काव्या थोड़ी डरी हुई थी, लेकिन फिर उस ने यह सोच कर अपने दिल को हिम्मत बंधाई कि रंजन कोई सड़कछाप बदमाश था और वक्ती तौर पर उस ने उस का रास्ता रोक लिया था.

आगे से ऐसा कुछ नहीं होने वाला. लेकिन काव्या की यह सोच गलत साबित हुई. रंजन ने आगे भी उस का रास्ता बारबार रोका. कई बार उस की इस हरकत से काव्या इतनी परेशान हुई कि उस का जी चाहा कि वह सबकुछ अपनी मां को बता दे, लेकिन यह सोच कर खामोश रही कि इस से पहले से ही दुखी उस की मां और ज्यादा परेशान हो जाएंगी. काश, आज उस के पापा जिंदा होते तो उसे इतना न सोचना पड़ता.

पापा की याद आते ही काव्या की आंखें नम हो उठीं. उन के रहते उस का परिवार कितना खुश था. मम्मीपापा और उस का एक छोटा भाई. कुल 4 सदस्यों का परिवार था उस का.

उस के पापा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करते थे और उन्हें जो पैसे मिलते थे, उस से उन का परिवार मजे में चल रहा था. जहां काव्या अपने पापा की दुलारी थी, वहीं उस की मां उस से बेहद प्यार करती थीं.

उस दिन काव्या के पापा अपनी कंपनी के काम के चलते मोटरसाइकिल से कहीं जा रहे थे कि पीछे से एक कार वाले ने उन की मोटरसाइकिल को तेज टक्कर मार दी.

वे मोटरसाइकिल से उछले, फिर सिर के बल सड़क पर जा गिरे. उस से उन के सिर के पिछले हिस्से में बेहद गंभीर चोट लगी थी.

टक्कर लगने के बाद लोगों की भीड़ जमा हो गई. भीड़ के दबाव के चलते कार वाले ने उस के घायल पापा को उठा कर नजदीक के एक निजी अस्पताल में भरती कराया, फिर फरार हो गया.

पापा की जेब से मिले आईकार्ड पर लिखे मोबाइल से अस्पताल वालों ने जब उन्हें फोन किया तो वे बदहवास अस्पताल पहुंचे, पर वहां पहुंच कर उन्होंने जिस हालत में उन्हें पाया, उसे देख कर उन का कलेजा मुंह को आ गया.

उस के पापा कोमा में जा चुके थे. उन की आंखें तो खुली थीं, पर वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे.

फिर शुरू हुआ मुश्किलों का न थमने वाला एक सिलसिला. डाक्टरों ने बताया कि पापा के सिर का आपरेशन करना होगा. इस का खर्च उन्होंने ढाई लाख रुपए बताया.

किसी तरह रुपयों का इंतजाम किया गया. पापा का आपरेशन हुआ, पर इस से कोई खास फायदा न हुआ. उन्हें विभिन्न यंत्रों के सहारे एसी वार्ड में रखा गया था, जिस की एक दिन की फीस 10,000 रुपए थी.

धीरेधीरे घर का सारा पैसा खत्म होने लगा. काव्या की मां के गहने तक बिक गए, फिर नौबत यहां तक आई कि उन के पास के सारे पैसे खत्म हो गए.

बुरी तरह टूट चुकी काव्या की मां जब अपने बच्चों को यों बिलखते देखतीं तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता, पर अपने बच्चों के लिए वे अपनेआप को किसी तरह संभाले हुए थीं. कभीकभी उन्हें लगता कि पापा की हालत में सुधार हो रहा है तो उन के दिल में उम्मीद की किरण जागती, पर अगले ही दिन उन की हालत बिगड़ने लगती तो यह आस टूट जाती.

डेढ़ महीना बीत गया और अब ऐसी हालत हो गई कि वे अस्पताल के एकएक दिन की फीस चुकाने में नाकाम होने लगे. आपस में रायमशवरा कर उन्होंने पापा को सरकारी अस्पताल में भरती कराने का फैसला किया.

पापा को ले कर सरकारी अस्पताल गए, पर वहां बैड न होने के चलते उन्हें एक रात बरामदे में गुजारनी पड़ी. वही रात पापा के लिए कयामत की रात साबित हुई. काव्या के पापा की सांसों की डोर टूट गई और उस के साथ ही उम्मीद की किरण हमेशा के लिए बुझ गई.

फिर तो उन की जिंदगी दुख, पीड़ा और निराशा के अंधकार में डूबती चली गई. तब तक काव्या एमबीए का फाइनल इम्तिहान दे चुकी थी.

बुरे हालात को देखते हुए और अपने परिवार को दुख के इस भंवर से निकालने के लिए काव्या नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उसे एक प्राइवेट बैंक में 20,000 रुपए की नौकरी मिल गई और उस के परिवार की गाड़ी खिसकने लगी. तब उस के छोटे भाई की पढ़ाई का आखिरी साल था. उस ने कहा कि वह भी कोई छोटीमोटी नौकरी पकड़ लेगा, पर काव्या ने उसे सख्ती से मना कर दिया और उस से अपनी पढ़ाई पूरी करने को कहा.

20 साल की उम्र में काव्या ने अपने नाजुक कंधों पर परिवार की सारी जिम्मेदारी ले ली थी, पर इसे संभालते हुए कभीकभी वह बुरी तरह परेशान हो उठती और तब वह रोते हुए अपनी मां से कहती, ‘‘मम्मी, आखिर पापा हमें छोड़ कर इतनी दूर क्यों चले गए जहां से कोई वापस नहीं लौटता,’’ और तब उस की मां उसे बांहों में समेटते हुए खुद रो पड़तीं.

धीरेधीरे दुख का आवेग कम हुआ और फिर काव्या का परिवार जिंदगी की जद्दोजेहद में जुट गया.

समय बीतने लगा और बीतते समय के साथ सबकुछ एक ढर्रे पर चलने लगा तभी यह एक नई समस्या काव्या के सामने आ खड़ी हुई.

काव्या जानती थी कि बड़ी मुश्किल से उस की मां और छोटे भाई ने उस के पापा की मौत का गम सहा है. अगर उस के साथ कुछ हो गया तो वे यह सदमा सहन नहीं कर पाएंगे और उस का परिवार, जिसे संभालने की वह भरपूर कोशिश कर रही है, टूट कर बिखर जाएगा.

काव्या ने इस बारे में काफी सोचा, फिर इस निश्चय पर पहुंची कि उसे एक बार रंजन से गंभीरता से बात करनी होगी. उसे अपनी जिंदगी की परेशानियां बता कर उस से गुजारिश करनी होगी

कि वह उसे बख्श दे. उम्मीद तो कम थी कि वह उस की बात समझेगा, पर फिर भी उस ने एक कोशिश करने का मन बना लिया.

अगली बार जब रंजन ने काव्या का रास्ता रोका तो वह बोली, ‘‘आखिर तुम मुझ से चाहते क्या हो? क्यों बारबार मेरा रास्ता रोकते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं,’’ रंजन उस के खूबसूरत चेहरे को देखता हुआ बोला, ‘‘मेरा यकीन करो. मैं ने जब से तुम्हें देखा है, मेरी रातों की नींद उड़ गई है. आंखें बंद करता हूं तो तुम्हारा खूबसूरत चेहरा सामने आ जाता है.’’

‘‘सड़क पर बात करने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम किसी रैस्टोरैंट में चल कर बात करें.’’

काव्या के इस प्रस्ताव पर पहले तो रंजन चौंका, फिर उस की आंखों में एक अनोखी चमक जाग उठी. वह जल्दी से बोला, ‘‘हांहां, क्यों नहीं.’’

रंजन काव्या को ले कर सड़क के किनारे बने एक रैस्टोरैंट में पहुंचा, फिर बोला, ‘‘क्या लोगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो लेना होगा.’’

‘‘तुम्हारी जो मरजी मंगवा लो.’’

रंजन ने काव्या और अपने लिए कौफी मंगवाईं और जब वे कौफी पी चुके तो वह बोला, ‘‘हां, अब कहो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘देखो, मैं उस तरह की लड़की नहीं हूं जैसा तुम समझते हो,’’ काव्या ने गंभीर लहजे में कहना शुरू किया, ‘‘मैं एक मध्यम और इज्जतदार परिवार से हूं, जहां लड़की की इज्जत को काफी अहमियत दी जाती है. अगर उस की इज्जत पर कोई आंच आई तो उस का और उस के परिवार का जीना मुश्किल हो जाता है.

‘‘वैसे भी आजकल मेरा परिवार जिस मुश्किल दौर से गुजर रहा है, उस में ऐसी कोई बात मेरे परिवार की बरबादी का कारण बन सकती है.’’

‘‘कैसी मुश्किलों का दौर?’’ रंजन ने जोर दे कर पूछा.

काव्या ने उसे सबकुछ बताया, फिर अपनी बात खत्म करते हुए बोली, ‘‘मेरी मां और भाई बड़ी मुश्किल से पापा की मौत के गम को बरदाश्त कर पाए हैं, ऐसे में अगर मेरे साथ कुछ हुआ तो मेरा परिवार टूट कर बिखर जाएगा…’’ कहतेकहते काव्या की आंखों में आंसू आ गए और उस ने उस के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘इसलिए मेरी तुम से विनती है कि तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो.’’

पलभर के लिए रंजन की आंखों में दया और हमदर्दी के भाव उभरे, फिर उस के होंठों पर एक मक्कारी भरी मुसकान फैल गई.

रंजन काव्या के जुड़े हाथ थामता हुआ बोला, ‘‘मेरी बात मान लो, तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो जाएगा. मैं तुम्हें पैसे भी दूंगा और प्यार भी. तू रानी बन कर राज करेगी.’’

काव्या को समझते देर न लगी कि उस के सामने बैठा आदमी इनसान नहीं, बल्कि भेडि़या है. उस के सामने रोने, गिड़गिड़ाने और दया की भीख मांगने का कोई फायदा नहीं. उसे तो उसी की भाषा में समझाना होगा. वह मजबूरी भरी भाषा में बोली, ‘‘अगर मैं ने तुम्हारी बात मान ली तो क्या तुम मुझे बख्श दोगे?’’

‘‘बिलकुल,’’ रंजन की आंखों में तेज चमक जागी, ‘‘बस, एक बार मुझे अपने हुस्न के दरिया में उतरने का मौका दे दो.’’

‘‘बस, एक बार?’’

‘‘हां.’’

‘‘ठीक है,’’ काव्या ने धीरे से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया, ‘‘मैं तुम्हें यह मौका दूंगी.’’

‘‘कब?’’

‘‘बहुत जल्द…’’ काव्या बोली, ‘‘पर, याद रखो सिर्फ एक बार,’’ कहने के बाद काव्या उठी, फिर रैस्टोरैंट के दरवाजे की ओर चल पड़ी.

‘तुम एक बार मेरे जाल में फंसो तो सही, फिर तुम्हारे पंख ऐसे काटूंगा कि तुम उड़ने लायक ही न रहोगी,’ रंजन बुदबुदाया.

रात के 12 बजे थे. काव्या महानगर से तकरीबन 3 किलोमीटर दूर एक सुनसान जगह पर एक नई बन रही इमारत की 10वीं मंजिल की छत पर खड़ी थी. छत के चारों तरफ अभी रेलिंग नहीं बनी थी और थोड़ी सी लापरवाही बरतने के चलते छत पर खड़ा कोई शख्स छत से नीचे गिर सकता था.

काव्या ने इस समय बहुत ही भड़कीले कपड़े पहन रखे थे जिस से उस की जवानी छलक रही थी. इस समय उस की आंखों में एक हिंसक चमक उभरी हुई थी और वह जंगल में शिकार के लिए निकले किसी चीते की तरह चौकन्नी थी.

अचानक काव्या को किसी के सीढि़यों पर चढ़ने की आवाज सुनाई पड़ी. उस की आंखें सीढि़यों की ओर लग गईं.

आने वाला रंजन ही था. उस की नजर जब कयामत बनी काव्या पर पड़ी, तो उस की आंखों में हवस की तेज चमक उभरी. वह तेजी से काव्या की ओर लपका. पर उस के पहले कि वह काव्या के करीब पहुंचे, काव्या के होंठों पर एक कातिलाना मुसकान उभरी और वह उस से दूर भागी.

‘‘काव्या, मेरी बांहों में आओ,’’ रंजन उस के पीछे भागता हुआ बोला.

‘‘दम है तो पकड़ लो,’’ काव्या हंसते हुए बोली.

काव्या की इस कातिल हंसी ने रंजन की पहले से ही भड़की हुई हवस को और भड़का दिया. उस ने अपनी रफ्तार तेज की, पर काव्या की रफ्तार उस से कहीं तेज थी.

थोड़ी देर बाद हालात ये थे कि काव्या छत के किनारेकिनारे तेजी से भाग रही थी और रंजन उस का पीछा कर रहा था. पर हिरनी की तरह चंचल काव्या को रंजन पकड़ नहीं पा रहा था.

रंजन की सांसें उखड़ने लगी थीं और फिर वह एक जगह रुक कर हांफने लगा.

इस समय रंजन छत के बिलकुल किनारे खड़ा था, जबकि काव्या ठीक उस के सामने खड़ी हिंसक नजरों से उसे घूर रही थी.

अचानक काव्या तेजी से रंजन की ओर दौड़ी. इस से पहले कि रंजन कुछ समझ सके, उछल कर अपने दोनों पैरों की ठोकर रंजन की छाती पर मारी.

ठोकर लगते ही रंजन के पैर उखड़े और वह छत से नीचे जा गिरा. उस की लहराती हुई चीख उस सुनसान इलाके में गूंजी, फिर ‘धड़ाम’ की एक तेज आवाज हुई. दूसरी ओर काव्या विपरीत दिशा में छत पर गिरी थी.

काव्या कई पलों तक यों ही पड़ी रही, फिर उठ कर सीढि़यों की ओर दौड़ी. जब वह नीचे पहुंची तो रंजन को अपने ही खून में नहाया जमीन पर पड़ा पाया. उस की आंखें खुली हुई थीं और उस में खौफ और हैरानी के भाव ठहर कर रह गए थे. शायद उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की मौत इतनी भयानक होगी.

काव्या ने नफरत भरी एक नजर रंजन की लाश पर डाली, फिर अंधेरे में गुम होती चली गई.

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