सुख की पहचान: शराबी सतीश का क्या हुआ?

‘‘सुनते हो, आज एटीएम से 10 हजार रुपए निकाल कर ले आना. राशन नहीं है घर में,’’ किचन से चिल्ला कर बिंदु ने अपने पति सतीश से कहा.

सतीश बाथरूम से निकलते हुए झुंझलाए स्वर में बोला, ‘‘फिर से रुपए? अभी 10 दिन पहले ही तो 12 हजार रुपए निकाल कर लाए थे.’’

‘‘तुम क्या सोचते हो कि मैं ने सारे पैसे उड़ा दिए? खर्चे कम हैं क्या तुम्हारे घर के? बेटे के ट्यूशन में 2 हजार रुपए चले गए. दूधवाले के 2 हजार, डाक्टर की फीस में 1,200 रुपए. तुम ने भी तो 4 हजार रुपए लिए थे मुझ से सेठ का उधार चुकाने को. इस तरह के दूसरे छोटेमोटे खर्च में ही 10 हजार रुपए खर्च हो गए. बाकी बचे रुपए फलसब्जी आदि में लग गए.’’

‘‘देखो बिंदु, मैं हिसाब नहीं मांग रहा. मगर तुम्हें हाथ दबा कर खर्च करना होगा. मैं कोई हर महीने लाख 2 लाख रुपए सैलरी पाने वाला बंदा तो हूं नहीं. मकान किराए पर चढ़ाने का व्यवसाय है मेरा, जो आजकल मंदा चल रहा है.’’

‘‘तुम बताओ कौन सा खर्च रोकूं? घर के खर्चे, राशन, दूध, बिजली, पानी, सब्जी, बच्चे की पढ़ाई… इन सब में तो खर्च होने जरूरी हैं न. फिर हर महीने कुछ न कुछ ऐक्स्ट्रा खर्चे भी आते ही रहते हैं. उस पर तुम 3-4 हजार रुपए तक की शराब भी गटक जाते हो.’’

‘‘तो क्या शराब मैं अकेला पीता हूं? तुम भी पीती ही हो न,’’ सतीश ने चिढ़ कर कहा.

‘‘मैं कभीकभार तुम्हारा साथ देने को पीती हूं. पर तुम पीने के लिए जीते हो. खाना नहीं बना तो चलेगा पर शराब जरूर होनी चाहिए. फ्रिज में दूध नहीं तो चलेगा मगर अलमारी में दारू की बोतल न हो तो हंगामा कर दोगे.’’

‘‘तुम केवल दिमाग खराब करती रहती हो मेरा. मैं ले आऊंगा रुपए,’’ कह कर सतीश भुनभुनाते हुए बाहर निकल गया.

ऐसे झगड़े बिंदु और सतीश के जीवन में रोज की कहानी है. मध्यवर्गीय परिवार में वैसे भी पैसों की किचकिच हमेशा चलती ही रहती है.

सतीश शराब में भी काफी रुपए फेंकता है. हजारों रुपयों की शराब तो वह बिंदु की नजर में आए बिना ही गटक जाता है. वैसे और कोई ऐब नहीं है सतीश में. मेहनत से अपना काम करता है. यारदोस्तों के सुखदुख में शरीक होने की पूरी कोशिश करता है. कभी मन खुश हो या बिजनैस अच्छा चल निकले तो बीवीबच्चों के लिए नए कपड़े और तोहफे भी खरीद कर लाता है. बस, शराब के आगे बेबस हो जाता है. शराब सामने हो तो फिर उसे कुछ भी नहीं दिखता.

इस बीच देश में कोरोना के बढ़ते मामलों की वजह से लौकडाउन हो गया. सतीश को शराब खरीद कर जमा करने का मौका ही नहीं मिला. शराब की जो बोतलें अलमारी में छिपा कर रखी थीं, उन के सहारे 20-25 दिन तो निकल गए. मगर फिर सतीश को शराब की तलब लगने लगी. शराब के बिना उस का कहीं मन नहीं लगता. वैसे भी रोजगार ठप पड़ गया था. प्रौपर्टी बिजनैस शून्य था. उस के पास मकान और औफिस तो था पर नकदी की कमी थी. पैसे आ नहीं रहे थे. बैंक से निकाल कर किसी तरह घर का खर्च चल रहा था. तीसरे लौकडाउन के दौरान शराब बिकने की शुरुआत हुई तो सतीश खुश हो उठा. पहले दिन तो 2-3 घंटे लाइन में लग कर उस ने अपने पास बचे रुपयों से 4-6 बोतल शराब खरीद ली. शराब के चक्कर में उसे पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ीं. हजारों की भीड़ थी उस दिन.

अगले दिन भी वह शराब लेना चाहता था. सतीश के मन में खौफ था कि ठेके फिर से बंद न हो जाएं. इसलिए उस ने शराब स्टौक में रखने की सोची. रुपए पास में थे नहीं. बैंक अकाउंट में भी 10-12 हजार रुपए से अधिक नहीं थे. इतने रुपए तो घर के राशन के लिए जरूरी थे.

सतीश अपनी बीवी के पास पहुंचा और प्यार से बोला, ‘‘यार बिंदु, मुझे शराब खरीदनी है. तू ने

कुछ रुपए बचाए हैं तो दे दो या फिर अपने गहने…’’

गहनों का नाम सुनते ही बिंदु फुंफकार उठी, ‘‘खबरदार जो गहनों का नाम भी लिया. तुम ने नहीं बनवाए हैं. मेरी मां के दिए गहने हैं और इन्हें दारू खरीदने के लिए नहीं दे सकती. जाओ, गटर में जा कर लोटो या शराबी दोस्तों से भीख मांगो. मगर मेरे गहनों की तरफ देखना भी मत.’’

बिंदु की बात सुन कर सतीश को भी गुस्सा आ गया. उस ने बिंदु के बाल पकड़ कर खींचते हुए कहा, ‘‘कलमुंही, मैं ने प्यार से बोला कि कुछ रुपए या जेवर दे दे, तो तेरे भेजे में आग लग गई.’’

‘‘आग तो मैं तुम्हारे कलेजे में लगाती हूं. ठहरो…’’ कहती हुई बिंदु गई और एक बड़ी लाठी उठा लाई, ‘‘खबरदार, मेरे गहनों या पैसों को हाथ लगाया तो हाथ तोड़ दूंगी.’’

‘‘तू हाथ तोड़ेगी मेरा? ठहर अभी दिखाता हूं मैं,’’ सतीश ने लाठी छीन कर उसी को जमा दी.

वह अपना आपा खो चुका था. चीखता हुआ उलटीसीधी बातें बोलने लगा, ‘‘तू नहीं दे सकती तो जा अपने यार से ले कर आ पैसे.’’

‘‘यार? कौन सा यार पाल रखा है मैं ने? बददिमाग कहीं का. घिन्न नहीं आती तुझे ऐसी बातें बोलते हुए?’’

‘‘हां, सतीसावित्री तो बनना मत. सारी करतूतें जानता हूं मैं. किस के लिए सजधज कर निकलती है. उसी की दुकान पर जाती है रोज मरने.’’

बिंदु होश खो बैठी. दहाड़ती हुई उठी और सतीश की गरदन पकड़ कर चीखी, ‘‘एक शब्द भी तू ने मुंह से निकाला तो अभी टेंटुआ दबा दूंगी. फिर लगाते रहना इलजाम मुझ पर.’’

सतीश ने आव देखा न ताव और लाठी बिंदु के सिर पर दे मारी. वह दर्द से बिलबिलाती हुई गिर पड़ी, तो सतीश ने जल्दी से अलमारी में से गहने निकाले. सामने 7 साल का पिंकू सहमा खड़ा मम्मीपापा की लड़ाई देख रहा था. सतीश ने दरवाजा भिड़ाया और तेजी से बाहर निकल आया.

10 मिनट सामने की पुलिया पर बैठा रहा. फिर सोचना शुरू किया कि अब गहने किस के पास गिरवी रखे जाएं. उसे अपने दोस्त श्यामलाल का खयाल आया. मन में सोचा कि चलो आज उसी से रुपए मांगें जाएं.

सतीश श्यामलाल के घर के दरवाजे पर पहुंचा और दस्तक दी. तो अंदर से उस की बीवी की आवाज आई, ‘‘हां जी भाईसाहब, बोलिए क्या काम है?’’

‘‘भाभी, जरा श्याम को भेजना. उस से कुछ काम था.’’

‘‘माफ कीजिएगा. कोरोना के डर से वे आजकल कहीं नहीं निकलते. वैसे भी, अभी तो वे सो रहे हैं. उन की तबीयत ठीक नहीं.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर सतीश ने कदम पीछे कर लिए. श्यामलाल के अलावा सुदेश से भी उस की अच्छी पटती थी. वह सुदेश के घर पहुंचा. सुदेश ने दरवाजे से ही उसे यह कह कर टरका दिया कि अभी खुद पैसों की तंगी है. कोविड-19 के इस बदहाल समय में जेवर ले कर पैसे नहीं दे सकता.

1-2 और लोगों के पास भी सतीश ने जा कर गुहार लगाई. मगर किसी ने उसे घर में घुसने भी नहीं दिया. सब ने अपनेअपने बहाने बना दिए. साथ ही, सब ने उस पर यह तोहमत भी लगाई कि तू कैसा आदमी है जो ऐसे समय में पत्नी के जेवर बेचने निकला है?

सतीश के पास अब एक ही रास्ता था कि वह किसी ज्वैलर से ही संपर्क करे. उस ने ज्वैलरी की दुकान के आगे लिखे नंबर पर फोन किया. उसे उम्मीद थी कि अब काम बन जाएगा. सामने से किसी ने फोन उठाया तो सतीश ने कहा, ‘‘सरजी, मुझे गहने बेचने हैं.’’

‘‘क्यों, ऐसी क्या समस्या है जो पत्नी के गहने बेच रहे हो? कौन हो तुम?’’

‘‘सरजी, मुसीबत में हूं. रुपए चाहिए. इसलिए बेचना चाहता हूं.’’

‘‘सारी मुसीबतें जानता हूं मैं तुम लोगों की. जरूर दारू खरीदनी होगी, तभी पैसे चाहिए. सरकार ने भी जाने क्यों ठेके खोल दिए. पैसे नहीं, तो भी दारू पीनी इतनी जरूरी है?’’

‘‘हां जी, जरूरी है और फ्री में रुपए देने को नहीं कह रहा. गहने लो और पैसे दो,’’ सतीश भी भड़क उठा.

‘‘समझा क्या है तू ने बेवकूफ? पूरा देश कोविड-19 से लड़ रहा है और तुझे अपनी तलब बुझानी है. जिंदगी में कुछ अच्छे काम भी करने चाहिए. कभी देख गरीबों के बच्चों को, 2 रोटी के लिए तरस रहे हैं. दूसरों का भला करने के लिए रुपए मांगता तो तुरंत दे देता पर तुझे तो…’’

सतीश ने फोन काट दिया. इतना उपदेश सुनने के मूड में नहीं था वह. हताश हो कर वापस घर की तरफ लौट चला. कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे. अपनी बेचारगी पर गुस्सा आ रहा था. इस महामारी ने जिंदगी बदल दी थी उस की.

वह घर पहुंचा तो देखा कि दरवाजा खुला हुआ है. अंदर बेटा एक कोने में बैठा रो रहा है और बिस्तर पर बिंदु बेसुध पड़ी है. उस के हाथों में नींद की गोलियों की डब्बी पड़ी थी. दोचार गोलियां इधरउधर बिखरी हुई थीं. बाकी गोलियां खा कर वह बेहोश हो गई थी.

सतीश की काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. उस ने जल्दी से ऐंबुलैंस वाले को फोन किया. बेटे को कमरे में बंद कर, खुद बिंदु को गोद में उठा कर बाहर निकल आया. बिंदु को ऐंबुलैंस में बैठा कर पास वाले अस्पताल में पहुंचा तो उसे ऐंट्री करने से भी रोक दिया गया. बताया गया कि अस्पताल कोविड-19 के लिए बुक है. सतीश ने दूसरे अस्पताल का रुख किया. वहां भी उसे रिसैप्शन से ही टरका दिया गया. बिंदु की हालत खराब होती जा रही थी. इस डर से कि कहीं बिंदु को कुछ हो न जाए, वह पसीने से तरबतर हो रहा था. 3-4 अस्पतालों के चक्कर लगाने पर भी जब कोई मदद नहीं मिली तो वह हार कर वापस घर लौट आया.

बिंदु को बैड पर लिटा कर वह खुद भी बगल में लुढ़क गया. रोता हुआ पिंकू भी आ कर उस से लिपट गया. सतीश को खयाल आया कि इतनी देर से पिंकू भूखा होगा. वह किचन में गया और ब्रैड गरम कर दूध के साथ पिंकू को दे दिया. खुद भी चाय पी कर सो गया.

अगले दिन उस की नींद देर से खुली. किसी तरह पिंकू को नहला कर उसे नाश्ता कराया और खुद चायब्रैड खा कर बिंदु की बगल में आ कर बैठ गया. अचेत पड़ी बिंदु पर उसे बहुत प्यार आ रहा था.

वह पुराने दिन याद करने लगा. 2-3 महीने पहले तक उस की जिंदगी कितनी अच्छी थी. बिंदु ने कितने सलीके से घर संभाला हुआ था. बेटे और पत्नी के साथ वह एक खूबसूरत जिंदगी जी रहा था. मगर आज बिंदु को अपनी आंखों के आगे अचेत पड़ा देख मन में तड़प उठ रही थी.

बिंदु की इस हालत का जिम्मेदार वह खुद था. दारू की लत में पड़ कर उस ने अपने सुखी संसार में आग लगा ली थी. कितना बेबस था वह. कितनी कोशिश की कि बिंदु की जान बचाई जा सके, मगर हर जगह से निराश और बेइज्जत हो कर लौटना पड़ा.

कितनी दयनीय स्थिति हो गई थी उस की. बिंदु का हाथ पकड़े हुए वह उस के सीने पर सिर रख कर सिसकसिसक कर रोने लगा.

तभी उसे लगा जैसे बिंदु के शरीर में कोई हरकत हुई है. वह एकदम से उठ बैठा और बिंदु को आवाज देने लगा. बिंदु ने किसी तरह आंखें खोलीं और ‘पानी’ कह कर फिर से आंखें बंद कर लीं. सतीश दौड़ कर पानी ले आया. 1-2 घूंट पी कर बिंदु फिर सो गई. शाम तक सतीश बिंदु की बगल में यह सोच कर बैठा रहा कि शायद वह फिर से आंखें खोलेगी.

शाम 5 बजे के करीब बिंदु ने फिर से आंखें खोलीं. सतीश ने उसे तुरंत पानी पिलाया. अब वह थोड़ी बेहतर लग रही थी. सतीश उस के लिए संतरे और अनार का जूस बना लाया. बिंदु की स्थिति में और भी सुधार हुआ. वह किसी तरह उठ कर बैठ गई. पिंकू को सीने से लगा कर रोने लगी.

सतीश ने अलमारी से दारू की बची हुई बोतलें निकालीं और बिंदु के सामने ही उन बोतलों को बाहर फेंक दिया. फिर वह बिंदु को गले लगा कर रोता हुआ बोला, ‘‘बिंदु, मुझे मेरा खुशहाल परिवार चाहिए, दारू नहीं,’’ बिंदु हौले से मुसकरा उठी.

आज सतीश को असली सुख की पहचान हो गई थी.

इकलौती बेटी: जब लालजी ने चली अपनी चाल

‘‘किस का पत्र है, उमा?’’ सास ने पूछा.

‘‘पिताजी का पत्र है, मांजी. गृहप्रवेश के लिए उत्सव का आयोजन कर रहे हैं. मुझे भी बुलाया है,’’ उस ने उत्तर दिया.

‘‘जाना चाहती हो क्या?’’ पति ने प्रश्न किया.

‘‘कहीं जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. बबलू की परीक्षा है. फिर मुझे भी तो छुट्टी नहीं मिलेगी. वैसे भी हम इतने स्वतंत्र थोड़े ही हैं कि जब मन आया अटैची उठा कर चल पड़ें,’’ उमा व्यंग्य से मुसकराते हुए बोली. उस की बात सुन कर पति भी मुसकरा कर रह गए. मां दूसरी ओर देखने लगीं पर मीना तिलमिला कर रह गई. पुरानी घटनाएं तेजी से उस की आंखों के सामने घूमने लगीं.

घड़ी में समय देखते हुए मीना अपने पति मनोज से बोली थी, ‘कितनी देर कर दी? गाड़ी छूटने में केवल 1 घंटा रह गया है. मैं ने तुम्हारे कार्यालय में कई बार फोन किया था. कहां चले गए थे?’

‘क्यों, कहां जाना है? क्या मुझे और कोई काम नहीं है जो सदा तुम्हारी ही हाजिरी में खड़ा रहूं,’ मनोज सुनते ही झुंझला गया था.

‘कितनी जल्दी भूल जाते हो तुम? सुबह ही तो बताया था कि मां का फोन आया है,’ मीना ने याद दिलाया.

‘सहारनपुर से आए हुए कितने दिन हुए हैं? पिछले सप्ताह ही तो लौटी हो. अब फिर जाने की तैयारी कर ली?’

‘अरे, तो क्या हो गया, बेटी हूं उन की, बुलाएंगे तो क्या जाऊंगी नहीं? तुम क्या जानो, मातापिता अपनी संतान से कितना प्यार करते हैं,’ मीना नाटकीय अंदाज में बोली.

‘तुम्हारे कुछ ज्यादा ही करते हैं, मेरे भी मातापिता हैं. 1 वर्ष हो गया विवाह को…कितनी बार गया हूं मैं?’

‘पुरुषों की बात दूसरी है, तुम तो पिछले 10 वर्ष से छात्रावास में ही रहते आए हो, अब भला उन्हें तुम से कितना लगाव होगा. तुम तो परिवार के साथ रहते हुए अधिकतर मित्रों के साथ ही घूमते रहते हो. इसीलिए तो तुम्हारे मातापिता तुम्हें याद नहीं करते.’

‘व्यर्थ की बातें करने की आवश्यकता नहीं है…मांजी का फिर फोन आए तो कह देना, अभी आना संभव नहीं है. यहां मेरे मातापिता भी आने वाले हैं.’

‘क्या?’

‘हां, आज ही पत्र आया है,’ मनोज ने एक अंतर्देशीयपत्र निकाल कर सामने रख दिया था.

‘तब तो और भी आसान है, मांजी आ जाएंगी तो तुम्हें खानेपीने की भी सुविधा हो जाएगी और अकेलापन भी नहीं अखरेगा,’ मीना ने छोटी बच्ची की तरह प्रसन्न हो कर कहा.

‘जरा सोचो, विवाह के बाद पहली बार वे लोग आ रहे हैं. तुम चली जाओगी तो उन के मन को कितनी ठेस पहुंचेगी,’ मनोज ने समझाने का प्रयत्न किया.

‘मेरे मातापिता की भावनाओं की भी कुछ चिंता है तुम्हें? मैं उन की इकलौती बेटी हूं. कजरी तीज का व्रत बड़ी धूमधाम से मनाते हैं हम लोग…3 दिन तक उत्सव चलता है. मैं नहीं गई तो मां कितना बुरा मानेंगी,’ मीना तैश में आ गई.

‘हर बार मैं तुम्हारी बात मानता हूं. इस बार मेरी बात मान लो. विवाह की वर्षगांठ आ रही है, सब साथ रहेंगे तो कितना अच्छा लगेगा,’ मनोज ने मिन्नत की.

‘देखो, ट्रेन का समय हो रहा है, व्यर्थ के तर्कवितर्क में उलझने का समय नहीं है. यदि तुम यह समझते होगे कि तुम जोर दे कर मुझे रोक लोगे तो यह बात भूल जाओ. तुम मेरे साथ नहीं चले तो मैं स्वयं ही चली जाऊंगी. स्टेशन तक का मार्ग मुझे भी मालूम है,’ मीना का उत्तर था.

‘तो ठीक है, चली क्यों नहीं जातीं. मेरी भी जान छूटे. मातापिता से इतना ही प्यार था तो विवाह क्यों किया था?’ मनोज क्रोध में इतनी जोर से चीखा कि मीना एक क्षण को तो स्तंभित रह गई. किंतु दूसरे ही क्षण चेहरा क्रोध से लाल हो गया और वह फूटफूट कर रो पड़ी.

2 दिन तक दोनों के बीच मौन छाया रहा. मीना ने खानापीना छोड़ रखा था. मनोज ने मनाने का प्रयत्न किया तो वह और बिफर पड़ी.

‘ठीक है, पहले खाना खा लो. तुम जाना ही चाहती हो तो छोड़ आऊंगा. किसी को जबरदस्ती यहां रोक कर रखने का मेरा कोई इरादा नहीं है और उस से लाभ ही क्या है,’ अंतत: मनोज ने दुखी हो कर हथियार डाल ही दिए थे और मीना सहारनपुर आ गई थी.

6 महीने बीत गए थे. मनोज ने मीना की सुधि नहीं ली थी और मीना को भी जिद थी कि वह बिना बुलाए जाएगी नहीं. किंतु आज उमा भाभी का व्यंग्य उस के सीने को चीरता निकल गया था. वह इतनी नादान भी नहीं थी कि इतनी सी बात भी न समझ पाती. वह फिर सोचने लगी… भाभी की बात सुन कर मां भी चुप रह गई थीं, इस बात ने उसे और अधिक आहत किया था.

पहले भी मां कई बार मीना को खोदखोद कर पूछ चुकी थीं कि इतने दिन बीत गए हैं, मनोज का कोई पत्र क्यों नहीं आया?

‘उन्हें पत्र लिखने की आदत नहीं है, मां,’ वह हंसने का प्रयत्न करती पर हंस न पाती.

किंतु आज इस घटना ने उसे पूर्णत: उद्वेलित कर दिया था. अपने कमरे में वह अकेली बैठी चुपचाप आंसू बहाती रही.

‘‘अरे, मीना, क्या बात है? शाम होने को आई, अभी तक सो रही हो,’’ अचानक उमा ने आ कर कमरे की बत्ती जलाई तो वह चौंक कर उठ बैठी और वर्तमान में आ गई. रोतेरोते कब आंख लग गई थी, वह समझ ही न पाई.

‘‘तबीयत ठीक नहीं है भाभी, बत्ती बुझा दो,’’ वह बोली.

‘‘बुखार तो नहीं है?’’ भाभी ने माथा छूते हुए कहा.

‘‘नहीं, बुखार नहीं, सिर में तेज दर्द है.’’

‘‘सिरदर्द में भी भला कोई इस तरह बिस्तर पर पड़ा रहता है? चलो, एक गोली खा लो और चाय पी लो, दर्द ठीक हो जाएगा. आज तुम्हारी चचेरी बहन सुधा का विवाह है, वहां भी तो जाना है. उठो, तैयार हो जाओ,’’ उमा ने कहा.

‘‘मेरी ओर से सुधा से माफी मांग लेना भाभी. मैं नहीं जा सकूंगी. जी बिलकुल अच्छा नहीं है,’’ मीना की आंखें डबडबा आईं.

‘‘मीना, तुम्हारे सिरदर्द का कारण मैं जानती हूं. सुबह की मेरी बात पर नाराज हो न? उसी समय तुम्हारा चेहरा देख कर मैं अपने मुंह से निकले उस व्यंग्य पर पश्चात्ताप से भर उठी थी. पर क्या करूं, कमान से निकले तीर की तरह मुंह से निकली इस बात को मैं लौटा तो नहीं सकती पर क्या अब तुम यह चाहती हो कि मैं बड़ी हो कर तुम से माफी मांगूं?’’ उमा दुखी स्वर में बोली.

‘‘कैसी बातें करती हो, भाभी. मैं भला तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगी?’’ मीना उदास स्वर में बोली.

‘‘क्या तुम सचमुच सोचती हो कि तुम्हारा यहां रहना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता?’’ उमा ने कहा.

‘‘मैं ने ऐसा कब कहा, भाभी?’’

‘‘मीना, तुम यहां रहती हो तो घर ज्यादा भराभरा लगता है, पर तुम शायद नहीं जानतीं कि खून का रिश्ता न होते हुए भी मैं तुम्हें हमेशा सुखी देखना चाहती हूं. तुम्हारे चेहरे पर घिरती दुख की छाया अब पूरे परिवार को भी घेरने लगी है.’’

‘‘तो क्या तुम चाहती हो कि मैं जा कर मनोज के पैर पकड़ं ू?’’

‘‘पैर मत पकड़ो, पर कम से कम उस की कुशलता जानने के लिए फोन तो कर सकती हो, पत्र तो लिख सकती हो, उसे भी तो लगे कि उस की पत्नी को उस की चिंता है.’’

‘‘मुझे यहां आए 6 माह हो गए, किसी ने मेरी चिंता की?’’

‘‘किसी न किसी को पहल करनी ही पड़ेगी, मीना. सच बताना, तुम मनोज से लड़ कर आई थीं न?’’

‘‘हां,’’ मीना ने सिर हिलाते हुए आंखें झुका लीं.

‘‘मैं तो उसी दिन तुम्हारा उतरा चेहरा देख कर समझ गई थी और मैं नहीं सोचती कि मां या पिताजी की अनुभवी आंखों से यह तथ्य छिपा रहा होगा. इसीलिए तो लोग कहते हैं कि विवाह के बाद बेटी पराई हो जाती है. सबकुछ जानते हुए भी वे तुम से कुछ नहीं कह सकते और मनोज से संपर्क करने को शायद उन का अहं आड़े आ जाता है,’’ उमा बोली.

‘‘मैं क्या करूं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘मेरी मानो तो इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न मत बनाओ. ये छोटीछोटी बातें ही वैवाहिक जीवन में विष घोल देती हैं. मनोज और उस के परिवार के लोग भले हैं, पर वे भी शायद हम लोगों की तरह पहल नहीं करना चाहते. अब तो तुम्हें ही निर्णय लेना है कि तुम क्या चाहती हो,’’ उमा ने समझाते हुए कहा.

‘‘तुम दोनों यहां छिपी बैठी हो और मैं सारे घर में ढूंढ़ आई,’’ तभी मांजी आ गईं और दोनों की बातचीत बीच में ही रह गई.

‘‘मीना की तबीयत ठीक नहीं है, मांजी. वह विवाह में नहीं जाना चाहती,’’ उमा ने सास की ओर देखा.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘सिर में दर्द है.’’

‘‘अरे, इस का तो चेहरा उतरा हुआ है. ठीक है, तुम्हीं चली जाओ, इसे आराम करने दो.’’

‘‘मैं अकेली नहीं जाऊंगी, मीना नहीं जा रही तो आप चलिए,’’ उमा बोली.

‘‘ठीक है, चलो, मैं चलती हूं. जल्दी तैयार हो जाओ, देर हो रही है.’’

सब के जाते ही मीना उठी. उमा भाभी से बातचीत कर के उस का मन काफी हलका हो गया था. वह दिल्ली मनोज को फोन करने का प्रयत्न करने लगी. पर जब बहुत देर तक संपर्क नहीं हुआ तो उस का मन अजीब सी आशंका से भर उठा. तभी उसे याद आया कि मनोज के पड़ोसी लाल भाई का फोन नंबर उस के पास है. अत: उस ने उन से संपर्क करने का निश्चय किया.

‘‘नमस्ते भाभीजी, मैं मीना बोल रही हूं…मनोज कैसे हैं? काफी दिनों से कोई समाचार नहीं मिला,’’ मीना लाल भाई की पत्नी की आवाज पहचान कर बोली.

‘‘अरे, मीना बोल रही हो? क्या हो गया तुम्हें…इस बार तो मायके जा कर जम ही गईं. यहां आने का नाम ही नहीं ले रहीं?’’

एक क्षण को मीना मौन खड़ी रह गई. किस मुंह से कहे कि वह मनोज की प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है.

‘‘हैलो…’’ लाल भाई की पत्नी पुन: बोलीं.

‘‘जी हां, मैं बोल रही हूं. आवश्यक कार्यवश नहीं आ सकी. बहुत देर से मनोज को फोन करने का प्रयत्न कर रही थी पर मिला ही नहीं…वे कैसे हैं?’’

‘‘कैसे होंगे…तुम्हारी अनुपस्थिति में रंगरलियां मना रहे हैं…हर दूसरे दिन नई लड़की के साथ घूमते नजर आते हैं. मैं ने तो समझाया भी पर कौन सुनता है. तुम ने फोन किया तो मैं ने बता दिया परंतु मेरा नाम मत लेना, व्यर्थ ही मनोज बुरा मानेगा,’’ वे बोलीं.

घर के सदस्य विवाह से लौटे तो मीना अस्तव्यस्त दशा में बैठी थी. चेहरा आंसुओं में भीगा था.

‘‘क्या हुआ, मीना?’’ देखते ही सब ने समवेत स्वर में पूछा.

‘‘मुझे दिल्ली जाना है,’’ वह शून्य में देखती हुई बोली.

‘‘अब इस समय? रात के 12 बजे हैं,’’ भैया आश्चर्यचकित हो बोले.

‘‘पर क्या हुआ?’’ मां उलझन भरे स्वर में बोलीं.

‘‘मुझे यहां भेज कर मनोज रंगरलियां मना रहा है.’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ पिताजी ने पूछा.

‘‘उन की पड़ोसिन ने बताया. मैं ने फोन किया था.’’

‘‘सुबह चली जाना…इतनी देर में कुछ नहीं बिगड़ेगा. तुम्हारे भैया जा कर छोड़ आएंगे,’’ पिताजी बोले.

वह रात बच्चों को छोड़ कर सब ने आंखों में ही काटी. दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही मीना पहली बस पकड़ कर भैया के साथ दिल्ली रवाना हो गई.

दोनों भाईबहन घर पहुंचे तो मनोज तो नहीं था पर उस की मां वहां थीं.

‘‘आप कब आईं, मांजी,’’ अभिवादन के बाद भैया ने पूछा.

‘‘मैं तो 4 महीने से पूरे परिवार को छोड़ कर यहां पड़ी हूं. सोचा था मनोज का विवाह हो गया तो उस की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. पर वह लगभग 4 महीने पहले बहुत बीमार हो गया था और मीना सहारनपुर जा कर ऐसी बैठी कि अपने परिवार को भूल ही गई,’’ मनोज की मां शिकायत भरे स्वर में बोलीं.

‘‘सचमुच गलती मीना की है, मांजी. पर इस बार क्षमा कर दीजिए, नासमझ है. आगे से ऐसी भूल नहीं होगी,’’ भैया बोले.

‘‘कैसी बातें करते हो बेटा. मैं तो प्रसन्न हूं कि घर की लक्ष्मी घर आ गई है. अब अपना घर संभाले और मुझे मुक्ति दे,’’ वे बोलीं.

मनोज काफी रात गए घर लौटा, वह मीना को देख हैरान हो गया.

‘‘यह कोई घर आने का समय है?’’ मीना एकांत पाते ही बोली.

उत्तर में मनोज अपनी हंसी न रोक सका.

‘‘इस में हंसने की क्या बात है?’’ मीना ने नाराजगी से कहा.

‘‘नहीं, हंसने की कोई बात नहीं है पर अब तो रोज ही मुझे इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा,’’ मनोज बोला.

‘‘मुझे लाल भाई की पत्नी ने सब बता दिया है,’’ मीना ने आंखें तरेरते हुए कहा.

‘‘मुझे भी उन्होंने आज सुबह सब बताया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि अब तुम्हारे लौटने में अधिक देर नहीं है.’’

‘‘यानी कि उन्होंने सब झूठ कहा था.’’

‘‘यह तो तुम उन्हीं से पूछो.’’

‘‘मैं बिना बुलाए आ गई इसलिए अपनी विजय पर इठला रहे हो.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो मीना, हम दोनों क्या अलग हैं, जो मैं अपमान और सम्मान जैसी ओछी बातें सोचूंगा. तुम अपने घर आई हो, इस में शर्म कैसी? रही बात मेरे वहां आने की तो एक बार लिखा होता या फोन ही कर दिया होता तो मैं सिर के बल दौड़ा आता.’’

‘‘मुझ पर अपना जरा सा भी अधिकार समझते हो तो बिना बुलाए आ सकते थे.’’

‘‘आ सकता था पर सच कहूं?’’

‘‘कहो.’’

‘‘तुम ठहरीं इकलौती बेटी. याद है, मेरे मना करने पर तुम कितने क्रोध में यहां से गई थीं. वहां जाने पर तुम मेरा अपमान कर देतीं और मेरे साथ न आतीं तो शायद मैं सह न पाता.’’

मीना सोच रही थी कि मनोज के विचार कितने सुलझे हुए हैं और एक वह है जिस ने अपनी हठधर्मी के कारण सब के जीवन में विष घोल दिया. वह तो उमा भाभी ने बचा लिया, नहीं तो शायद पछतावे के अतिरिक्त कुछ भी हाथ न लगता.

सुबह का भूला : आखिर क्यों घर से दूर होना चाहते थे मोहन और रोली

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नई जिंदगी : क्या फिर नई जिदंगी जी पाई लता

मुझे आज भी अपने घर का पता ठीक से याद है. आज भी मुझे बाबूजी, अम्मां और लाड़ले भाई बिल्लू की बहुत याद आती है. आज भी हर रात मुझे जलता हुआ अपना घर, चीखते हुए लोग और नकाब पहन कर अपनी ओर आते काले साए दिखने लगते हैं.

यहां इस बदनाम बस्ती में लोग दिन में आते हुए घबराते हैं, क्योंकि वे शरीफ लोग होते हैं. लेकिन रात होते ही वही शरीफ अपने जिस्म की भूख मिटाने यहां चले आते हैं. यहां एक शरीफ घर की बेटी भी रहती है, जो कुछ साल पहले एकमुश्त रकम दे कर खरीदी गई थी और अब हर रात टुकड़ों में बिकती है.

हां, वह शरीफ घर की बेटी मैं ही हूं. पर लोग मेरे खानदान के बारे में जानने नहीं आते, बल्कि अपनी हवस मिटाने आते हैं. कई तो बाबूजी जैसे बूढ़े, कई मेरे सपनों के राजकुमार जैसे जवान और कई मेरे भाई बिल्लू जैसे मुझ से उम्र में छोटे लड़के भी यहां आए और गए.

मैं ने हर किसी को अपना पता बताया और विनती की कि मेरे घर खबर दे दो कि मैं इस गंदी नाली में फंसी हुई हूं. मुझे आ कर ले जाएं. पर लोग आते और अपनी भूख मिटा कर चले जाते.

एक दिन ‘मौसी’ ने बताया, ‘‘आज रात जरा सजसंवर के बैठियो बन्नो, नया दारोगा आ रहा है.’’

हम वहां 3 लड़कियां थीं. तीनों को दारोगा के सामने यों पेश किया गया, मानो पान की गिलौरियां हों. मैं ने नजर उठा कर देखना भी जरूरी नहीं समझा. सोचा, बूढ़ा, जवान या बच्चा, जो भी होगा, कि अपना काम कर के चला ही जाएगा.

दारोगा ने शायद मौसी को इशारा कर के बता दिया था कि मैं उसे पसंद हूं. मौसी उन दोनों लड़कियों को ले कर चली गई. कमरे में बाकी बची मैं और वह दारोगा. वह बोला, ‘‘बैठो, मुझ से डरो नहीं, अपना नाम बताओ.’’

पहली बार मैं ने नजरें उठा कर देखा. वह लंबा, तगड़ा, गोराचिट्टा नौजवान था. मैं हैरान सी उसे देखती रही, तो वह फिर बोला, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

मै ने सोचा कि उस से पूछूं, ‘तुम्हें नाम से क्या काम?’ पर जबान ने साथ नहीं दिया.

मुझे चुप देख कर वह कुछ झुंझला गया और बोला, ‘‘क्या तुम गूंगी हो?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘मैं गूंगी नहीं हूं, पर बेजबान हूं,’’

वह धीरे से बोला, ‘‘मेरा नाम निरंजन सिंह है. मैं मैनपुरी का रहने वाला हूं. बेसहारा लोगों की मदद करने के लिए ही पुलिस में भरती हुआ हूं. घर पर जमींदारी है, शौकिया नौकरी कर रहा हूं. जानना चाहता हूं, तुम यह काम शौकिया कर रही हो या मजबूरी में?’’

मैं खामोश ही रही. दारोगा निरंजन सिंह बोला, ‘‘अपना पता बताओ.’’

न चाहते हुए भी मैं ने अलीगढ़ का अपने घर का पता बता दिया. इस से पहले भी कितने ही आए और बहलाफुसला कर आस का दीया मेरे दिल में जला कर चले गए. इसी तरह मुझे यहां से नजात दिलाने का वादा कर के और घर का पता पूछ कर, मेरे जिस्म से खेल कर कितने ही जा चुके थे.

मैं ने सोचा कि चलो, इसे भी सह ही लूंगी. मौत बुलाने से आती तो कब की आ गई होतीअचानक दारोगा की आवाज सुन कर मैं ने उस की तरफ देखा. वह कह रहा था, ‘‘हाथमुंह धो कर ढंग के कपड़े पहन कर बाहर आओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’

दूसरे कमरे से मौसी और दारोगा की बात करने की आवाज अंदर आ रही थी. वह पूछ रहा था, ‘‘कितने में खरीदा था इसे? आज बेच दो. मैं साथ लिए जा रहा हूं. कीमत बोलो?’’

 

मौसी ने कहा, ‘‘सरकार, ले जाइए, जब मन भर जाए तो लौटा देना.’’

 

अब मैं ने आईने में खुद को देखा. लिपीपुती मैं कितनी गंदी लग रही थी. बहुत समय बाद खुद से नफरत होने लगी. मैं ने जल्दीजल्दी हाथमुंह धोया. एक सादा सा सूट पहना और बाहर चली आई.

 

मौसी ने मुझे चूम कर कहा, ‘‘दारोगा को खुश कर देना.’’

 

बाहर निकल कर मैं ने देखा कि दारोगा जीप में बैठा मेरा इंतजार कर रहा था. फिर एक लंबा सफर शुरू हुआ. सफर के दौरान मुझे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

 

नींद तभी खुली, जब दारोगा ने कंधे से झकझोर कर उठाया और मेरे हाथ में चाय का एक गिलास पकड़ा दिया.

 

भौचक्की सी मैं कभी चाय तो कभी दारोगा को देख रही थी. सवेरा हो चुका था. सबकुछ एकदम अनोखा लग रहा था. हम एक ढाबे के बाहर थे.

 

‘‘अभी आधे घंटे में हम अलीगढ़ पहुंच जाएंगे. तुम एक बार फिर अपनों के बीच होगी,’’ दारोगा ने मुसकराते हुए कहा.

 

कैसे बताऊं, अपनी उस हालत को. ऐसा लगा, मानो मेरे कटे पंख फिर से उग आए हों. मैं अब आजाद हूं, उड़ने के लिए. मेरी आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.

 

जल्दी ही हम अलीगढ़ पहुंच गए. सुबह के लगभग 7 बजे जीप हमारे घर के सामने जा कर रुक गई. दारोगा ने मुझे घर की कुंडी खटखटाने को कहा.

 

अंदर से एक मर्दाना आवाज आई, ‘‘कौन है?’’ और फिर कुंडी खुल गई.

 

आंगन में मां अंगीठी के लिए कोयले तोड़ रही थीं. दरवाजा खोलने वाला शायद मेरा भाई बिल्लू था. पिताजी चारपाई पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. इन 8 सालों में मैं काफी बदल गई थी, तभी तो मुझे किसी ने नहीं पहचाना.

 

मैं ‘मां… मां’ कहती अंदर लपकी. मां मुझे पहचानते ही चीख पड़ीं, ‘‘अरे, मेरी लता? कहां थी बेटी? तुझे कहांकहां नहीं ढूंढ़ा,’’ और हम दोनों मांबेटी गले मिल कर रोने लगीं.

 

पर बिल्लू और पिताजी अजनबी बने दूर खड़े रहे. जब मैं पिताजी की तरफ बढ़ी तो वे बोले, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ भी लगाया. निकल जा इसी वक्त यहां से.’’

 

अब दारोगाजी पहली बार बोले, ‘‘आप अपनी बेटी को नहीं पहचानते. यह बेचारी किसी तरह लोगों के घरों में बरतन धोधो कर जिंदा रही, क्या आप की यही नफरत देखने के लिए?’’

 

पिताजी की कड़कदार आवाज गूंजी, ‘‘जी हां, इस के कई खरीदार आशिकों के खत मुझे पहले भी मिल चुके हैं. मैं जानता हूं कि यह बरतन नहीं हमारी इज्जत धोती रही है.’’

 

मुझे लगा कि जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊं. ‘तो मेरे जिस्म को नोचने वालों में से कुछ ने यहां मेरे बताए पते पर खत डाले थे.’

 

तब तक बिल्लू बोल उठा, ‘‘तू जाती है या धक्के मार कर निकालूं बाहर?’’

 

मां रो रही थीं और पिताजी से कह रही थीं, ‘‘तुम्हें पता था, यह कहां है? और तुम इसे लेने नहीं गए. तुम ने मुझे भी कभी नहीं बताया. मेरी लता का क्या कुसूर है? इसे घर में रहने दो.’’

 

बिल्लू गुस्से से बोला, ‘‘मां, तुम तो पागल हो गई हो. दीदी तो 8 साल पहले मर गई… यह जाने कौन घुस रही है, हमारे घर में.’’

 

अब दारोगाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और सीधे ला कर जीप में बिठाया. फिर से एक अनजाना सफर शुरू हो गया. मैं काफी रो चुकी थी. अब तो आंसू भी सूख गए थे और दिल भी पत्थर बन चुका था.

 

मैनपुरी पहुंच कर हमारा सफर खत्म हुआ. जीप एक हवेली के सामने रुकी. दारोगाजी ने मुझे अपने साथ आने को कहा. 7-8 कमरे पार करने के बाद उन्होंने एक औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह मेरी पत्नी है, भानु… और भानु, यह लता है. इस के मांबाप और भाई सब एक हादसे में मारे गए. अब यह यहां रहेगी. इसे मेरी बहन समझ कर पूरी इज्जत देना.’’

 

फिर दारोगा मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘लता, आज से तुम भानु की देखरेख में यहीं रहोगी.’’

 

मेरी आंखों में फिर आंसू भर आए. भानु भाभी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपने साथ अंदर ले गईं.

वो कमजोर पल: क्या सीमा ने राज से दूसरी शादी की?

वही हुआ जिस का सीमा को डर था. उस के पति को पता चल ही गया कि उस का किसी और के साथ अफेयर चल रहा है. अब क्या होगा? वह सोच रही थी, क्या कहेगा पति? क्यों किया तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा? क्या कमी थी मेरे प्यार में? क्या नहीं दिया मैं ने तुम्हें? घरपरिवार, सुखी संसार, पैसा, इज्जत, प्यार किस चीज की कमी रह गई थी जो तुम्हें बदचलन होना पड़ा? क्या कारण था कि तुम्हें चरित्रहीन होना पड़ा? मैं ने तुम से प्यार किया. शादी की. हमारे प्यार की निशानी हमारा एक प्यारा बेटा. अब क्या था बाकी? सिवा तुम्हारी शारीरिक भूख के. तुम पत्नी नहीं वेश्या हो, वेश्या.

हां, मैं ने धोखा दिया है अपने पति को, अपने शादीशुदा जीवन के साथ छल किया है मैं ने. मैं एक गिरी हुई औरत हूं. मुझे कोई अधिकार नहीं किसी के नाम का सिंदूर भर कर किसी और के साथ बिस्तर सजाने का. यह बेईमानी है, धोखा है. लेकिन जिस्म के इस इंद्रजाल में फंस ही गई आखिर.

मैं खुश थी अपनी दुनिया में, अपने पति, अपने घर व अपने बच्चे के साथ. फिर क्यों, कब, कैसे राज मेरे अस्तित्व पर छाता गया और मैं उस के प्रेमजाल में उलझती चली गई. हां, मैं एक साधारण नारी, मुझ पर भी किसी का जादू चल सकता है. मैं भी किसी के मोहपाश में बंध सकती हूं, ठीक वैसे ही जैसे कोई बच्चा नया खिलौना देख कर अपने पास के खिलौने को फेंक कर नए खिलौने की तरफ हाथ बढ़ाने लगता है.

नहीं…मैं कोई बच्ची नहीं. पति कोई खिलौना नहीं. घरपरिवार, शादीशुदा जीवन कोई मजाक नहीं कि कल दूसरा मिला तो पहला छोड़ दिया. यदि अहल्या को अपने भ्रष्ट होने पर पत्थर की शिला बनना पड़ा तो मैं क्या चीज हूं. मैं भी एक औरत हूं, मेरे भी कुछ अरमान हैं. इच्छाएं हैं. यदि कोई अच्छा लगने लगे तो इस में मैं क्या कर सकती हूं. मैं मजबूर थी अपने दिल के चलते. राज चमकते सूरज की तरह आया और मुझ पर छा गया.

उन दिनों मेरे पति अकाउंट की ट्रेनिंग पर 9 माह के लिए राजधानी गए हुए थे. फोन पर अकसर बातें होती रहती थीं. बीच में आना संभव नहीं था. हर रात पति के आलिंगन की आदी मैं अपने को रोकती, संभालती रही. अपने को जीवन के अन्य कामों में व्यस्त रखते हुए समझाती रही कि यह तन, यह मन पति के लिए है. किसी की छाया पड़ना, किसी के बारे में सोचना भी गुनाह है. लेकिन यह गुनाह कर गई मैं.

मैं अपनी सहेली रीता के घर बैठने जाती. पति घर पर थे नहीं. बेटा नानानानी के घर गया हुआ था गरमियों की छुट्टी में. रीता के घर कभी पार्टी होती, कभी शेरोशायरी, कभी गीतसंगीत की महफिल सजती, कभी पत्ते खेलते. ऐसी ही पार्टी में एक दिन राज आया. और्केस्ट्रा में गाता था. रीता का चचेरा भाई था. रात का खाना वह अपनी चचेरी बहन के यहां खाता और दिनभर स्ट्रगल करता. एक दिन रीता के कहने पर उस ने कुछ प्रेमभरे, कुछ दर्दभरे गीत सुनाए. खूबसूरत बांका जवान, गोरा रंग, 6 फुट के लगभग हाइट. उस की आंखें जबजब मुझ से टकरातीं, मेरे दिल में तूफान सा उठने लगता.

राज अकसर मुझ से हंसीमजाक करता. मुझे छेड़ता और यही हंसीमजाक, छेड़छाड़ एक दिन मुझे राज के बहुत करीब ले आई. मैं रीता के घर पहुंची. रीता कहीं गई हुई थी काम से. राज मिला. ढेर सारी बातें हुईं और बातों ही बातों में राज ने कह दिया, ‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’

मुझे उसे डांटना चाहिए था, मना करना चाहिए था. लेकिन नहीं, मैं भी जैसे बिछने के लिए तैयार बैठी थी. मैं ने कहा, ‘राज, मैं शादीशुदा हूं.’

राज ने तुरंत कहा, ‘क्या शादीशुदा औरत किसी से प्यार नहीं कर सकती? ऐसा कहीं लिखा है? क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?’

मैं ने कहा, ‘हां.’ और उस ने मुझे अपनी बांहों में समेट लिया. फिर मैं भूल गई कि मैं एक बच्चे की मां हूं. मैं किसी की ब्याहता हूं. जिस के साथ जीनेमरने की मैं ने अग्नि के समक्ष सौगंध खाई थी. लेकिन यह दिल का बहकना, राज की बांहों में खो जाना, इस ने मुझे सबकुछ भुला कर रख दिया.

मैं और राज अकसर मिलते. प्यारभरी बातें करते. राज ने एक कमरा किराए पर लिया हुआ था. जब रीता ने पूछताछ करनी शुरू की तो मैं राज के साथ बाहर मिलने लगी. कभी उस के घर पर, कभी किसी होटल में तो कभी कहीं हिल स्टेशन पर. और सच कहूं तो मैं उसे अपने घर पर भी ले कर आई थी. यह गुनाह इतना खूबसूरत लग रहा था कि मैं भूल गई कि जिस बिस्तर पर मेरे पति आनंद का हक था, उसी बिस्तर पर मैं ने बेशर्मी के साथ राज के साथ कई रातें गुजारीं. राज की बांहों की कशिश ही ऐसी थी कि आनंद के साथ बंधे विवाह के पवित्र बंधन मुझे बेडि़यों की तरह लगने लगे.

मैं ने एक दिन राज से कहा भी कि क्या वह मुझ से शादी करेगा? उस ने हंस कर कहा, ‘मतलब यह कि तुम मेरे लिए अपने पति को छोड़ सकती हो. इस का मतलब यह भी हुआ कि कल किसी और के लिए मुझे भी.’

मुझे अपने बेवफा होने का एहसास राज ने हंसीहंसी में करा दिया था. एक रात राज के आगोश में मैं ने शादी का जिक्र फिर छेड़ा. उस ने मुझे चूमते हुए कहा, ‘शादी तो तुम्हारी हो चुकी है. दोबारा शादी क्यों? बिना किसी बंधन में बंधे सिर्फ प्यार नहीं कर सकतीं.’

‘मैं एक स्त्री हूं. प्यार के साथ सुरक्षा भी चाहिए और शादी किसी भी स्त्री के लिए सब से सुरक्षित संस्था है.’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम अपने पति का सामना कर सकोगी? उस से तलाक मांग सकोगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के वापस आते ही प्यार टूट जाए और शादी जीत जाए?’

मुझ पर तो राज का नशा हावी था. मैं ने कहा, ‘तुम हां तो कहो. मैं सबकुछ छोड़ने को तैयार हूं.’

‘अपना बच्चा भी,’ राज ने मुझे घूरते हुए कहा. उफ यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था.

‘राज, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम बच्चे को अपने साथ रख लें?’

राज ने हंसते हुए कहा, ‘क्या तुम्हारा बेटा, मुझे अपना पिता मानेगा? कभी नहीं. क्या मैं उसे उस के बाप जैसा प्यार दे सकूंगा? कभी नहीं. क्या तलाक लेने के बाद अदालत बच्चा तुम्हें सौंपेगी? कभी नहीं. क्या वह बच्चा मुझे हर घड़ी इस बात का एहसास नहीं दिलाएगा कि तुम पहले किसी और के साथ…किसी और की निशानी…क्या उस बच्चे में तुम्हें अपने पति की यादें…देखो सीमा, मैं तुम से प्यार करता हूं. लेकिन शादी करना तुम्हारे लिए तब तक संभव नहीं जब तक तुम अपना अतीत पूरी तरह नहीं भूल जातीं.

‘अपने मातापिता, भाईबहन, सासससुर, देवरननद अपनी शादी, अपनी सुहागरात, अपने पति के साथ बिताए पलपल. यहां तक कि अपना बच्चा भी क्योंकि यह बच्चा सिर्फ तुम्हारा नहीं है. इतना सब भूलना तुम्हारे लिए संभव नहीं है.

‘कल जब तुम्हें मुझ में कोई कमी दिखेगी तो तुम अपने पति के साथ मेरी तुलना करने लगोगी, इसलिए शादी करना संभव नहीं है. प्यार एक अलग बात है. किसी पल में कमजोर हो कर किसी और में खो जाना, उसे अपना सबकुछ मान लेना और बात है लेकिन शादी बहुत बड़ा फैसला है. तुम्हारे प्यार में मैं भी भूल गया कि तुम किसी की पत्नी हो. किसी की मां हो. किसी के साथ कई रातें पत्नी बन कर गुजारी हैं तुम ने. यह मेरा प्यार था जो मैं ने इन बातों की परवा नहीं की. यह भी मेरा प्यार है कि तुम सब छोड़ने को राजी हो जाओ तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं. लेकिन क्या तुम सबकुछ छोड़ने को, भूलने को राजी हो? कर पाओगी इतना सबकुछ?’ राज कहता रहा और मैं अवाक खड़ी सुनती रही.

‘यह भी ध्यान रखना कि मुझ से शादी के बाद जब तुम कभी अपने पति के बारे में सोचोगी तो वह मुझ से बेवफाई होगी. क्या तुम तैयार हो?’

‘तुम ने मुझे पहले क्यों नहीं समझाया ये सब?’

‘मैं शादीशुदा नहीं हूं, कुंआरा हूं. तुम्हें देख कर दिल मचला. फिसला और सीधा तुम्हारी बांहों में पनाह मिल गई. मैं अब भी तैयार हूं. तुम शादीशुदा हो, तुम्हें सोचना है. तुम सोचो. मेरा प्यार सच्चा है. मुझे नहीं सोचना क्योंकि मैं अकेला हूं. मैं तुम्हारे साथ सारा जीवन गुजारने को तैयार हूं लेकिन वफा के वादे के साथ.’

मैं रो पड़ी. मैं ने राज से कहा, ‘तुम ने पहले ये सब क्यों नहीं कहा.’

‘तुम ने पूछा नहीं.’

‘लेकिन जो जिस्मानी संबंध बने थे?’

‘वह एक कमजोर पल था. वह वह समय था जब तुम कमजोर पड़ गई थीं. मैं कमजोर पड़ गया था. वह पल अब गुजर चुका है. उस कमजोर पल में हम प्यार कर बैठे. इस में न तुम्हारी खता है न मेरी. दिल पर किस का जोर चला है. लेकिन अब बात शादी की है.’

राज की बातों में सचाई थी. वह मुझ से प्यार करता था या मेरे जिस्म से बंध चुका था. जो भी हो, वह कुंआरा था. तनहा था. उसे हमसफर के रूप में कोई और न मिला, मैं मिल गई. मुझे भी उन कमजोर पलों को भूलना चाहिए था जिन में मैं ने अपने विवाह को अपवित्र कर दिया. मैं परपुरुष के साथ सैक्स करने के सुख में, देह की तृप्ति में ऐसी उलझी कि सबकुछ भूल गई. अब एक और सब से बड़ा कदम या सब से बड़ी बेवकूफी कि मैं अपने पति से तलाक ले कर राज से शादी कर लूं. क्या करूं मैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.  मैं ने राज से पूछा, ‘मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’

राज हंस कर बोला, ‘ये तो दिल की बातें हैं. तुम्हारी तुम जानो. यदि तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद मैं तुम्हारे प्यार में ही न पड़ता या अपने कमजोर पड़ने वाले क्षणों के लिए अपनेआप से माफी मांगता. पता नहीं, मैं क्या करता?’

राज ये सब कहीं इसलिए तो नहीं कह रहा कि मैं अपनी गलती मान कर वापस चली जाऊं, सब भूल कर. फिर जो इतना समय इतनी रातें राज की बांहों में बिताईं. वह क्या था? प्यार नहीं मात्र वासना थी? दलदल था शरीर की भूख का? कहीं ऐसा तो नहीं कि राज का दिल भर गया हो मुझ से, अपनी हवस की प्यास बुझा ली और अब विवाह की रीतिनीति समझा रहा हो? यदि ऐसी बात थी तो जब मैं ने कहा था कि मैं ब्याहता हूं तो फिर क्यों कहा था कि किस किताब में लिखा है कि शादीशुदा प्यार नहीं कर सकते?

राज ने आगे कहा, ‘किसी स्त्री के आगोश में किसी कुंआरे पुरुष का पहला संपर्क उस के जीवन का सब से बड़ा रोमांच होता है. मैं न होता कोई और होता तब भी यही होता. हां, यदि लड़की कुंआरी होती, अकेली होती तो इतनी बातें ही न होतीं. तुम उन क्षणों में कमजोर पड़ीं या बहकीं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन जब तुम्हारे साथ का साया पड़ा मन पर, तो प्यार हो गया और जिसे प्यार कहते हैं उसे गलत रास्ता नहीं दिखा सकते.’

मैं रोने लगी, ‘मैं ने तो अपने हाथों अपना सबकुछ बरबाद कर लिया. तुम्हें सौंप दिया. अब तुम मुझे दिल की दुनिया से दूर हकीकत पर ला कर छोड़ रहे हो.’

‘तुम चाहो तो अब भी मैं शादी करने को तैयार हूं. क्या तुम मेरे साथ मेरी वफादार बन कर रह सकती हो, सबकुछ छोड़ कर, सबकुछ भूल कर?’ राज ने फिर दोहराया.

इधर, आनंद, मेरे पति वापस आ गए. मैं अजीब से चक्रव्यूह में फंसी हुई थी. मैं क्या करूं? क्या न करूं? आनंद के आते ही घर के काम की जिम्मेदारी. एक पत्नी बन कर रहना. मेरा बेटा भी वापस आ चुका था. मुझे मां और पत्नी दोनों का फर्ज निभाना था. मैं निभा भी रही थी. और ये निभाना किसी पर कोई एहसान नहीं था. ये तो वे काम थे जो सहज ही हो जाते थे. लेकिन आनंद के दफ्तर और बेटे के स्कूल जाते ही राज आ जाता या मैं उस से मिलने चल पड़ती, दिल के हाथों मजबूर हो कर.

मैं ने राज से कहा, ‘‘मैं तुम्हें भूल नहीं पा रही हूं.’’

‘‘तो छोड़ दो सबकुछ.’’

‘‘मैं ऐसा भी नहीं कर सकती.’’

‘‘यह तो दोतरफा बेवफाई होगी और तुम्हारी इस बेवफाई से होगा यह कि मेरा प्रेम किसी अपराधकथा की पत्रिका में अवैध संबंध की कहानी के रूप में छप जाएगा. तुम्हारा पति तुम्हारी या मेरी हत्या कर के जेल चला जाएगा. हमारा प्रेम पुलिस केस बन जाएगा,’’ राज ने गंभीर होते हुए कहा.

मैं भी डर गई और बात सच भी कही थी राज ने. फिर वह मुझ से क्यों मिलता है? यदि मैं पूछूंगी तो हंस कर कहेगा कि तुम आती हो, मैं इनकार कैसे कर दूं. मैं भंवर में फंस चुकी थी. एक तरफ मेरा हंसताखेलता परिवार, मेरी सुखी विवाहित जिंदगी, मेरा पति, मेरा बेटा और दूसरी तरफ उन कमजोर पलों का साथी राज जो आज भी मेरी कमजोरी है.

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. पति को भनक लगी. उन्होंने दोटूक कहा, ‘‘रहना है तो तरीके से रहो वरना तलाक लो और जहां मुंह काला करना हो करो. दो में से कोई एक चुन लो, प्रेमी या पति. दो नावों की सवारी तुम्हें डुबो देगी और हमें भी.’’

मैं शर्मिंदा थी. मैं गुनाहगार थी. मैं चुप रही. मैं सुनती रही. रोती रही.

मैं फिर राज के पास पहुंची. वह कलाकार था. गायक था. उसे मैं ने बताया कि मेरे पति ने मुझ से क्याक्या कहा है और अपने शर्मसार होने के विषय में भी. उस ने कहा, ‘‘यदि तुम्हें शर्मिंदगी है तो तुम अब तक गुनाह कर रही थीं. तुम्हारा पति सज्जन है. यदि हिंसक होता तो तुम नहीं आतीं, तुम्हारे मरने की खबर आती. अब मेरा निर्णय सुनो. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता. मैं एक ऐसी औरत से शादी करने की सोच भी नहीं सकता जो दोहरा जीवन जीए. तुम मेरे लायक नहीं हो. आज के बाद मुझ से मिलने की कोशिश मत करना. वे कमजोर पल मेरी पूरी जिंदगी को कमजोर बना कर गिरा देंगे. आज के बाद आईं तो बेवफा कहलाओगी दोनों तरफ से. उन कमजोर पलों को भूलने में ही भलाई है.’’

मैं चली आई. उस के बाद कभी नहीं मिली राज से. रीता ने ही एक बार बताया कि वह शहर छोड़ कर चला गया है. हां, अपनी बेवफाई, चरित्रहीनता पर अकसर मैं शर्मिंदगी महसूस करती रहती हूं. खासकर तब जब कोई वफा का किस्सा निकले और मैं उस किस्से पर गर्व करने लगूं तो पति की नजरों में कुछ हिकारत सी दिखने लगती है. मानो कह रहे हों, तुम और वफा. पति सभ्य थे, सुशिक्षित थे और परिवार के प्रति समर्पित.

कभी कुलटा, चरित्रहीन, वेश्या नहीं कहा. लेकिन अब शायद उन की नजरों में मेरे लिए वह सम्मान, प्यार न रहा हो. लेकिन उन्होंने कभी एहसास नहीं दिलाया. न ही कभी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छिपाया.

मैं सचमुच आज भी जब उन कमजोर पलों को सोचती हूं तो अपनेआप को कोसती हूं. काश, उस क्षण, जब मैं कमजोर पड़ गई थी, कमजोर न पड़ती तो आज पूरे गर्व से तन कर जीती. लेकिन क्या करूं, हर गुनाह सजा ले कर आता है. मैं यह सजा आत्मग्लानि के रूप में भोग रही थी. राज जैसे पुरुष बहका देते हैं लेकिन बरबाद होने से बचा भी लेते हैं.

स्त्री के लिए सब से महत्त्वपूर्ण होती है घर की दहलीज, अपनी शादी, अपना पति, अपना परिवार, अपने बच्चे. शादीशुदा औरत की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं कभीकभी. उन में फंस कर सबकुछ बरबाद करने से अच्छा है कि कमजोर न पड़े और जो भी सुख तलाशना हो, अपने घरपरिवार, पति, बच्चों में ही तलाशे. यही हकीकत है, यही रिवाज, यही उचित भी है.

दत्तक बेटी ने झुका दिया सिर

लंदन के वेंबली इलाके में ज्यादातर गुजराती रहते हैं. नैरोबी से लंदन आ कर बसे घनश्याम सुंदरलाल अमीन भी अपनी पत्नी सुनंदा के साथ वेंबली में ही रहते थे. वे लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन के ड्राइवर थे. नौकरी से रिटायर होने के बाद वे पत्नी के साथ आराम से रह रहे थे.

घनश्यामभाई को सोशल स्कीम के तहत अच्छा पैसा मिल रहा था. इस के अलावा उन की खुद की बचत भी थी. उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी. बस, एक कमी के अलावा कि वे बेऔलाद थे. गोद में खेलने वाला कोई नहीं था, जिस का पतिपत्नी को काफी दुख था.

किसी दोस्त ने घनश्यामभाई को सलाह दी कि वे कोई बच्चा गोद ले लें. ब्रिटेन में बच्चा गोद लेना बहुत मुश्किल है, वह भी भारतीय परिवार के लिए तो और भी मुश्किल है, इसलिए घनश्यामभाई ने अपने किसी भारतीय दोस्त की सलाह पर कोलकाता की एक स्वयंसेवी संस्था से बात की. उस संस्था ने एक अनाथाश्रम से उन का परिचय करा दिया.

अनाथाश्रम वालों ने घनश्यामभाई से कोलकाता आने को कहा. वे पत्नी के साथ कोलकाता आ गए.

कोलकाता के उस अनाथाश्रम में उन्हें सुचित्र नाम की एक लड़की पसंद आ गई. वह 15 साल की थी. जन्म से बंगाली और महज बंगाली व हिंदी बोलती थी. देखने में एकदम भोली, सुंदर और मुग्धा थी.

पतिपत्नी ने सुचित्र को पसंद कर लिया. सुचित्र भी उन के साथ लंदन जाने को तैयार हो गई. घनश्यामभाई ने सुचित्र को गोद लेने की तमाम कानूनी कार्यवाही पूरी कर ली. सुचित्र को वीजा दिलाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा. तरहतरह के प्रमाणपत्र देने पड़े. आखिरकार 6 महीने बाद सुचित्र को वीजा मिल गया.

सुचित्र अब लंदन पहुंच गई. उस के लिए वहां सबकुछ नया नया था. देश नया, दुनिया नई, भाषा नई, लोग नए. वहां उस का एक स्कूल में दाखिल करा दिया गया. उस ने जल्दी ही इंगलिश भाषा सीख ली. वह गोरी थी और छोटी भी, इसलिए जल्दी से गोरे बच्चों के साथ घुलमिल गई. स्कूल में गुजराती, पंजाबी और बंगलादेश से आए परिवारों के तमाम बच्चे पढ़ते थे.

सुचित्र अब बड़ी होने लगी. वह अकेली लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन में सफर कर सकती थी. वह बिलकुल अकेली पिकाडाली तक जा सकती थी. वह पढ़ने में भी अच्छी थी.

सुचित्र को गोद लेने वाले घनश्यामभाई और उन की पत्नी सुनंदा खुश थे अपनी इस बेेटी से. छुट्टी के दिनों में वे कभी उसे मैडम तुसाद म्यूजियम दिखाने ले जाते तो कभी उसे हाइड पार्क घुमाने ले जाते. दोस्तों के घर पार्टी में भी वे सुचित्र को हमेशा साथ रखते. सुचित्र सुनंदा को ‘मम्मी’ कहती तो वे खुश हो जातीं. उन्हें ऐसा लगता कि सुचित्र उन्हीं की बेटी है. वह स्कूल तो जा ही रही थी, अब कभीकभार अपनी सहेली के घर रुक जाती. समय के साथ अब वह हर शनिवार को सहेली के घर रुकने की बात करने लगी थी. अभी वह 17 साल की ही थी.

एक दिन सुनंदा को पता चला कि सुचित्र घर से तो अपनी सहेली के घर जा कर रुकने की बोल कर गई थी, पर वह सहेली के घर गई नहीं थी. उन्होंने सुचित्र से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र खीज कर बोली, “मैं कहीं भी जाऊं, इस से आप को क्या मतलब…”

सुचित्र की इस बात से घनश्यामभाई और सुनंदा को गहरा धक्का लगा. कुछ दिनों बाद एक दूसरी घटना घटी. सुचित्र अकसर स्कूल नहीं जाती थी. घनश्यामभाई और सुनंदा ने जब उस से पूछा तो उस ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया.

पतिपत्नी ने सुचित्र की सहेलियों से पूछताछ की तो पता चला कि सुचित्र सुखबीर नाम के एक पंजाबी लड़के के साथ घूमती है. वह स्कूल छोड़ कर उस के साथ बाहर घूमने चली जाती है.

घनश्यामभाई ने शाम को सुचित्र से पूछा, “मुझे पता चला है कि तुम सुखबीर नाम के किसी लड़के के साथ घूमती हो, क्या यह सच है?”

यह सुन कर सुचित्र ने कहा, “मैं कहां जाती हूं और बाहर जा कर क्या करती हूं, यह आप को बिलकुल नहीं पूछना चाहिए.”

सुनंदा ने कहा, “तुम हमारी बेटी हो. हमें चिंता होती है. तुम अभी 17 साल की ही तो हो.”

“मैं आप की बेटी नहीं हूं. आप ने अपने फायदे के लिए मुझे गोद लिया है. मैं आप की कोख से पैदा नहीं हुई हूं. मेरे ऊपर आप के बहुत कम अधिकार हैं, समझीं?”

“मतलब?” सुनंदा ने पूछा.

“मैं तुम्हारे शरीर का कोई भी हिस्सा नहीं हूं. मेरे शरीर पर मेरा ही अधिकार है?”

सुचित्र की बात सुन कर घनश्यामभाई को गुस्सा आ गया. उन्होंने सुचित्र को एक तमाचा मार दिया.

सुचित्र चिल्लाई, “अगर दूसरी बार आप ने ऐसा किया तो मैं पुलिस बुला लूंगी.”

घनश्यामभाई ने कहा, “मैं खुद ही पुलिस को बताऊंगा कि मेरे द्वारा गोद ली गई बेटी पढ़ने की उम्र में गलत काम करती है. तुम्हें सामाजिक काउंसलिंग में भेज दूंगा।. उस के बाद भी नहीं सुधरी तो फिर भारत वापस भेज दूंगा.”

भारत वापस भेजने की बात सुन कर सुचित्र सोच में पड़ गई. वह एकदम चुप हो गई और अपने बैडरूम में चली गई. अगले दिन उठ कर उस ने मम्मीपापा से माफी मांगी. यह सुन कर घनश्यामभाई और सुनंदा शांत हो गए.

सुनंदा ने कहा, “देखो बेटा, यह तुम्हारी पढ़नेलिखने की उम है. तुम अच्छी तरह पढ़लिख कर अपना कैरियर बना लो. अभी तुम टीनएज हो. जिस लड़के के साथ मन हो, नहीं घूम सकती हो.”

सुचित्र ने सिर झुका कर कहा, “मम्मी, इस तरह की गलती अब दोबारा नहीं करूंगी.”

इस के बाद सुचित्र नियमित रूप से स्कूल जाने लगी. धीरेधीरे इस बात को काफी समय बीत गया.

एक दिन घनश्यामभाई और सुनंदा के पड़ोसियों ने पुलिस से शिकायत की कि हमारे बगल वाले घर से बहुत तेज बदबू आ रही है. तुरंत पुलिस आ गई. घर का दरवाजा बंद था, पर अंदर से ताला नहीं लगा था. पुलिस ने धक्का मारा तो दरवाजा खुल गया.

पुलिस ने अंदर जा कर देखा तो बैडरूम में घनश्यामभाई और उन की पत्नी की लाशें पड़ी थीं. पूछताछ में पड़ोसियों ने बताया कि इन के साथ गोद ली गई एक बेटी भी रहती थी. उस समय वह घर में नहीं थी.

दोनों लाशों को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया. उन की गोद ली गई बेटी गायब थी. पता चला कि वह कई दिनों से स्कूल भी नहीं गई थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई तो पता चला कि पतिपत्नी की मरने से पहले खाने मेेें नींद की दवा दी गई थी. उस के बाद घनश्यामभाई की हत्या चाकू से और सुनंदा की हत्या मुंह पर तकिया रख कर की गई थी.

पुलिस का पहला शक मारे गए पतिपत्नी की गोद ली गई बेटी सुचित्र पर गया. उन्होंने घनश्यामभाई और सुचित्र के मोबाइल का काल रिकौर्ड चैक किया. 2 ही दिनों में पुलिस सुचित्र के बौयफ्रैंड सुखबीर के घर पहुंच गई.

सुखबीर अकेला ही अपनी विधवा मां के साथ रहता था. सुचित्र भी उसी के घर पर मिल गई. पुलिस ने दोनों से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र और सुखबीर ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने प्रेम का विरोध करते की वजह से घनश्यामभाई और सुनंदा की हत्या की है

सुचित्र ने बताया, “उस रात मैं ने ही अपने मम्मीपापा के खाने में नींद की गोलियां मिला दी थीं, जिस से वे जाग न सकें. दोनों गहरी नींद सो गए तो मैं ने सुखबीर को बुला लिया. उस के बाद मम्मी के मुंह पर तकिया रख कर पूरी ताकत से दबाए रखा तो उन की सांसों की डोर टूट गई.

“मम्मी के छटपटाने की आवाज सुन कर मेरे पापा जाग गए. सुखबीर अपने साथ चाकू लाया था. उसी चाकू से उस ने पापा पर ताबड़तोड़ वार कर के उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया. उस के बाद हम दोनों भाग गए.”

दोनों के बयान सुन कर पुलिस हैरान रह गई. सुचित्र अभी नाबालिग थी. पुलिस ने उस की मैडिकल जांच कराई तो पता चला कि वह पेट है. सुचित्र ने जो किया, उसे सुन कर तो अब यही लगता है कि इस तरह बच्चे को गोद लेने में भी कई बार सोचना पड़ेगा.

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गुच्चूपानी: राहुल क्यों मायूस हो गया?

एकसाथ 3 दिन की छुट्टी देखते हुए पापा ने मसूरी घूमने का प्रोग्राम जब राहुल को बताया तो वह फूला न समाया. पहाड़ों की रानी मसूरी में चारों तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़, उन पर बने छोटेछोटे घर, चारों ओर फैली हरियाली की कल्पना से ही उस का मन रोमांचित हो उठा.

राहुल की बहन कमला भी पापा द्वारा बनाए गए प्रोग्राम से बहुत खुश थी. पापा की हिदायत थी कि वे इन 3 दिन का भरपूर इस्तेमाल कर ऐजौंय करेंगे. एक मिनट भी बेकार न जाने देंगे, जितनी ज्यादा जगह घूम सकेंगे, घूमेंगे.

निश्चित समय पर तैयार हो कर वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए. सुबह पौने 7 बजे शताब्दी ऐक्सप्रैस में बैठे तो राहुल काफी रोमांचित महसूस कर रहा था, उस ने स्मार्टफोन उठाया और साथ की सीट पर बैठी कमला के साथ सैल्फी क्लिक की.

तभी पापा ने बताया कि वे रास्ते में हरिद्वार में उतरेंगे और वहां घूमते हुए रात को देहरादून पहुंच जाएंगे. फिर वहां रात में औफिस के गैस्ट हाउस में रुकेंगे और सुबह मसूरी के लिए रवाना होंगे.

यह सुन कर राहुल मायूस हो गया. हरिद्वार का नाम सुनते ही जैसे उसे सांप सूंघ गया. उसे लग रहा था सारा ट्रिप अंधविश्वास की भेंट चढ़ जाएगा. यह सुनते ही वह कमला से बोला, ‘‘शिट् यार, लगता है हम घूमने नहीं तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं.’’

‘‘हां, पापा आप भी न….’’ कमला ने कुछ कहना चाहा लेकिन कुछ सोच कर रुक गई.

लगभग 12 बजे हरिद्वार पहुंच कर उन्होंने टैक्सी ली, जो उन्हें 2-3 जगह घुमाती हुई शाम को गंगा घाट उतारती और फिर वहां से देहरादून उन के गैस्ट हाउस छोड़ देती.

राहुल ट्रिप के मजे में खलल से आहत चुपचाप चला जा रहा था. शाम को हरिद्वार में गंगा घाट पर घूमते हुए प्राकृतिक आनंद आया, लेकिन गंगा के घाट असल में उसे लूटखसोट के अड्डे ज्यादा लगे. जगहजगह धर्म व गंगा के प्रति श्रद्धा के नाम पर पैसा ऐंठा जा रहा था. उसे तब और अचंभा हुआ जब निशुल्क जूतेचप्पल रखने का बोर्ड लगाए उस दुकानदार ने उन से जूते रखने के 100 रुपए ऐंठ लिए. इस सब से उस के मन का रोमांच काफूर हो गया. फिर भी वह चुपचाप चला जा रहा था.

रात को वे टैक्सी से देहरादून पहुंचे और गैस्टहाउस में ठहरे. पापा ने गैस्टहाउस के रसोइए के जरिए मसूरी के लिए टैक्सी बुक करवा ली. टैक्सी सुबह 8 बजे आनी थी. अत: वे जल्दी खाना खा कर सो गए ताकि सुबह समय से उठ कर तैयार हो पाएं.

वे सफर के कारण थके हुए थे, सो जल्दी ही गहरी नींद में सो गए और सुबह गैस्टहाउस के रसोइए के जगाने पर ही जगे. तैयार हो कर अभी वे खाना खा ही रहे थे कि टैक्सी आ गई. राहुल अब भी चुप था. उसे यात्रा में कुछ रोमांच नजर नहीं आ रहा था.

टैक्सी में बैठते ही पापा ने स्वभावानुसार ड्राइवर को हिदायत दी, ‘‘भई, हमें कम समय में ज्यादा जगह घूमना है इसलिए भले ही दोचार सौ रुपए फालतू ले लेना, लेकिन देहरादून में भी हर जगह घुमाते हुए ले चलना.’’

ज्यादा पैसे मिलने की बात सुन ड्राइवर खुश हुआ और बोला, ‘‘सर, उत्तराखंड में तो सारा का सारा प्राकृतिक सौंदर्य भरा पड़ा है, आप जहां कहें मैं वहां घुमा दूं, लेकिन आप को दोपहर तक मसूरी पहुंचना है इसलिए एकाध जगह ही घुमा सकता हूं. आप ही बताइए कहां जाना चाहेंगे?’’

पापा ने मम्मी से सलाह की और बोले, ‘‘ऐसा करो, टपकेश्वर मंदिर ले चलो. फिर वहां से साईंबाबा मंदिर होते हुए मसूरी कूच कर लेना.’’

‘‘क्या पापा, आप भी न. हम से भी पूछ लेते, सिर्फ मम्मी से सलाह कर ली… और हम क्या तीर्थयात्रा पर हैं, जो मंदिर घुमाएंगे,’’ कमला बोली.

तभी नाराज होता हुआ राहुल बोल पड़ा, ‘‘क्या करते हैं आप पापा, सारे ट्रिप की वाट लगा दी. बेकार हो गया हमारा आना. अभी ड्राइवर अंकल ने बताया कि उत्तराखंड प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा है और एक आप हैं कि देखने को सूझे तो सिर्फ मंदिर, जहां सिर्फ ठगे जाते हैं. आप की सोच दकियानूसी ही रहेगी.’’

पापा कुछ कहते इस से पहले ही ड्राइवर बोल पड़ा, ‘‘आप का बेटा ठीक कह रहा है सर, घूमनेफिरने आने वाले ज्यादातर लोग इसी तरह मंदिर आदि देख कर यात्रा की इतिश्री कर लेते हैं और असली यात्रा के रोमांच से वंचित रह जाते हैं. तिस पर अपनी सोच भी बच्चों पर थोपना सही नहीं. तभी तो आज की किशोर पीढ़ी उग्र स्वभाव की होती जा रही है. हमें इन की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.

‘‘यहां प्राकृतिक नजारों की कमी नहीं. आप कहें तो आप को ऐसी जगह ले चलता हूं जहां के प्राकृतिक नजारे देख आप रोमांचित हुए बिना नहीं रहेंगे. इस समय हम देहरादून के सैंटर में हैं. यहां से महज 8 किलोमीटर दूर अनार वाला गांव के पास स्थित एक पर्यटन स्थल है, ‘गुच्चूपानी,’ जिसे रौबर्स केव यानी डाकुओं की गुफा भी कहा जाता है.

‘‘गुच्चूपानी एक प्राकृतिक पिकनिक स्थल है जहां प्रकृति का अनूठा अनुपम सौंदर्य बिखरा पड़ा है. दोनों ओर ऊंचीऊंची पहाडि़यों के मध्य गुफानुमा स्थल में बीचोंबीच बहता पानी यहां के सौंदर्य में चारचांद लगा देता है. दोनों पहाडि़यां जो मिलती नहीं, पर गुफा का रूप लेती प्रतीत होती हैं.

‘‘यहां पहुंच कर आत्मिक शांति मिलती है. प्रकृति की गोद में बसे गुच्चूपानी के लिए यह कहना गलत न होगा कि यह प्रेम, शांति और सौंदर्य का अद्भुत प्राकृतिक तोहफा है.

‘‘गुच्चूपानी यानी रौबर्स केव लगभग 600 मीटर लंबी है. इस के मध्य में पहुंच कर तब अद्भुत नजारे का दीदार होता है जब 10 मीटर ऊंचाई से गिरते झरने नजर आते हैं. यह मनमोहक नजारा है. इस के मध्य भाग में किले की दीवार का ढांचा भी है जो अब क्षतविक्षत हो चुका है.’’

‘‘गुच्चूपानी…’’ नाम से ही अचंभित हो राहुल एकदम रोमांचित होता हुआ बोला, ‘‘यह गुच्चूपानी क्या नाम हुआ?’’

तभी साथ बैठी कमला भी बोल पड़ी, ‘‘और ड्राइवर अंकल, इस का नाम रौबर्स केव क्यों पड़ा?’’

मुसकराते हुए ड्राइवर ने बताया, ‘‘दरअसल, गुच्चूपानी इस का लोकल नाम है. अंगरेजों के जमाने में इसे ‘डकैतों की गुफा’  के नाम से जाना जाता था. ऐसा माना जाता है कि उस समय डाकू डाका डालने के बाद छिपने के लिए इसी गुफा का इस्तेमाल करते थे. सो, अंगरेजों ने इस का नाम रौबर्स केव रख दिया.’’

‘‘तो क्या अब भी वहां डाकू रहते हैं. वहां जाने में कोई खतरा तो नहीं है?’’ कमला ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, अब वहां ऐसी कोई बात नहीं बल्कि इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर दिया गया है. अब इस का रखरखाव उत्तराखंड सरकार द्वारा किया जाता है,’’ ड्राइवर ने बताया, फिर वह हंसते हुए बोला, ‘‘हां, एक डर है, पैरों के नीचे बहती नदी का पानी. दरअसल, पिछले साल जनवरी में भारी बरसात के कारण अचानक इस नदी का जलस्तर बढ़ गया था, जिस से यहां अफरातफरी मच गई थी. यहां कई पर्यटक फंस गए थे, जिस से काफी शोरशराबा मचा.

‘‘फिर मौके पर पहुंची एनडीआरएफ की टीमों ने पर्यटकों को सकुशल बाहर निकाला था. इस में महिलाएं और बच्चे भी थे. इसलिए जरा संभल कर जाइएगा.’’

‘‘अंकल आप भी न, डराइए मत, बस पहुंचाइए, ऐसी अद्भुत प्राकृतिक जगह पर,’’ राहुल रोमांचित होता हुआ बोला.

‘‘पहुंचाइए नहीं, पहुंच गए बेटा,’’ कहते हुए ड्राइवर ने टैक्सी रोकी और इशारा कर बताया कि उस ओर जाएं. जाने से पहले अपने जूते उतार लें व यहां से किराए पर चप्पलें ले लें.’’

राहुल और कमला भागते हुए आगे बढ़े और वहां बैठे चप्पल वाले से किराए की चप्पलें लीं. इन चप्पलों को पहन कर वे पहुंच गए गुच्चूपानी के गेट पर. यहां 25 रुपए प्रति व्यक्ति टिकट था. पापा ने सब के टिकट लिए और सब ने पानी में जाने के लिए अपनीअपनी पैंट फोल्ड की व ऐंट्री ली.

चारों ओर फैले ऊंचे पहाड़ों के बीच बसा यह क्षेत्र अद्भुत सौंदर्य से भरा था. पानी में घुसते ही दिखने वाला वह 2 पहाडि़यों के बीच का गुफानुमा रास्ता और मध्य में बहती नदी के बीच चलना, जैसा ड्राइवर अंकल ने बताया था, उस से भी अधिक रोमांचित करने वाला था.

मम्मीपापा भी यह नजारा देख स्तब्ध रह गए थे. पहाड़ों के बीच बहते पानी में चलना उन्हें किसी हौरर फिल्म के रौंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य की भांति लगा, जैसे अभी वहां छिपे डाकू निकलेंगे और उन्हें लूट लेंगे.

अत्यंत रोमांचक इस मंजर ने उन्हें तब और रोमांचित कर दिया जब बिलकुल मध्य में पहुंचने पर ऊपर से गिरते झरने ने उन का स्वागत किया. राहुल तो पानी में ऐसे खेल रहा था मानो उसे कोई खजाना मिल गया हो. सामने खड़ी किले की क्षतविक्षत दीवार के अवशेष उन्हें काफी भा रहे थे. इस मनोरम दृश्य को देख किस का मन अभिभूत नहीं होगा.

इस पूरे नजारे की उन्होंने कई सैल्फी लीं. एकदूसरे के फोटो खींचे और वीडियो क्लिप भी बनाई. पानी में उठखेलियां करते जब वे बाहर आ रहे थे तो पापा भी कह उठे, ‘‘अमेजिंग राहुल, वाकई तुम ने हमारी आंखें खोल दीं. हम तो सिर्फ मंदिर आदि देख कर ही लौट जाते. प्रकृति का असली आनंद व यात्रा की पूर्णता तो वाकई ऐसे नजारे देखने में है.’’

फिर बाहर आ कर उन्होंने ड्राइवर का भी धन्यवाद किया ऐसी अनूठी जगह का दीदार करवाने के लिए. साथ ही हिदायत दी कि मसूरी में भी धार्मिक स्थलों पर आस्था के नाम पर लूट का शिकार होने के बजाय ऐसे स्थान देखेंगे. इस पर जब राहुल ने ठहाका लगाया तो पापा बोले, ‘‘बेटा, हमें मसूरी के ऐसे अद्भुत स्थल ही देखने चाहिए. जल्दी चलो, कहीं समय की कमी के कारण कोई नजारा छूट न जाए.’’

अब टैक्सी मसूरी की ओर रवाना हो गई थी. टैक्सी की पिछली सीट पर बैठे राहुल और कमला रहरह कर गुच्चूपानी में ली गईं सैल्फी, फोटोज और वीडियोज में वहां के अद्भुत दृश्य देख कर रोमांचित हो रहे थे, इस आशा के साथ कि मसूरी यानी पहाड़ों की रानी में भी ऐसा ही रोमांच मिलेगा.

खोखले चमत्कार: कैसे दूर हुआ दादी का अंधविश्वास

संजू की दादी का मन सुबह से ही उखड़ा हुआ था. कारण यह था कि जब वे मंदिर से पूजा कर के लौट रही थीं तो चौराहे पर उन का पैर एक बुझे हुए दीए पर पड़ गया था. पास ही फूल, चावल, काली दाल, काले तिल तथा सिंदूर बिखरा हुआ था. वे डर गईं और अपशकुन मनाती हुई अपने घर आ पहुंचीं .

घर पर संजू अकेला बैठा हुआ पढ़ रहा था. उस की मां को बाहर काम था. वे घर से जा चुकी थीं. पिताजी औफिस के काम से शहर से बाहर चले गए थे. उन्हें 2 दिन बाद लौटना था.

दादी के बड़बड़ाने से संजू चुप न रह सका. वह अपनी दादी से पूछ बैठा, ‘‘दादी, क्या बात हुई? क्यों सुबहसुबह परेशान हो रही हो?’’

अंधविश्वासी दादी ने सोचा, ‘संजू मुझे टोक रहा है.’ इसलिए वे उसे डांटती हुई फौरन बोलीं, ‘‘संजू, तू भी कैसी बातें करता है. बड़ा अपशकुन हो गया. किसी ने चौराहे पर टोनाटोटका कर रखा था. उसी में मेरा पैर पड़ गया. उस वक्त से मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’

संजू बोला, ‘‘दादी, अगर ऐसा है तो मैं डाक्टर को बुला लाता हूं.’’  पर दादी अकड़ गईं और बोलीं, ‘‘तेरा भेजा तो नहीं फिर गया कहीं. ऐसे टोनेटोटके में डाक्टर को बुलाया जाता है या ओझा को. रहने दे, मैं अपनेआप संभाल लूंगी. वैसे भी आज सारा दिन बुरा निकलेगा.’’

संजू ने उन की बात पर कोई ध्यान न दिया और अपना होमवर्क करने लगा. संजू स्कूल चला गया तो दादी घर पर अकेली रह गईं. पर दादी का मन बेचैन था. उन्हें लगा कि कहीं किसी के साथ कोई अप्रिय घटना न घट जाए, क्योंकि जब से चौराहे में टोनेटोटके पर उन का पैर पड़ा था, वे अपशकुन की आशंका से कांप रही थीं. तभी कुरियर वाला आया और उन से हस्ताक्षर करवा उन्हें एक लिफाफा थमा कर चला गया. अब तो उन का दिल ही बैठ गया. लिफाफे में एक पत्र था जो अंगरेजी में था और अंगरेजी वे जानती नहीं थीं. उन्हें लगा जरूर इस में कोई बुरी खबर होगी.

इसी डर से उन्होंने वह पत्र किसी से नहीं पढ़वाया. दिन भर परेशान रहीं कि कहीं इस में कोई बुरी खबर न हो. शाम को जब संजू और उस की मां घर लौटे, तब दादी कांपते हाथों से संजू की मां जानकी को पत्र देती हुई बोलीं, ‘‘बहू, जरूर कोई बुरी खबर है. अपशकुन तो सुबह ही हो गया था. अब पढ़ो, यह पत्र कहां से आया है और इस में क्या लिखा है? जरूर कोई संकट आने वाला है. हाय, अब क्या होगा?’’

जानकी ने तार खोल कर पढ़ा लिखा था, ‘‘बधाई, संजय ने छात्रवृत्ति परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है.’’

पढ़ कर जानकी खिलखिला उठीं और अपनी सास से बोलीं, ‘‘मांजी, आप बेकार घबरा रही थीं, खबर बुरी नहीं बल्कि अच्छी है. हमारे संजू को छात्रवृत्ति मिलेगी. उस ने जो परीक्षा दी थी, उत्तीर्ण कर ली.’’ तब दादी का चेहरा देखने लायक था. किंतु दादी अंधविश्वास पर टिकी रहीं. वे रोज मंदिर जाया करती थीं. एक रोज सुबहसुबह दादी मंदिर गईं. थाली में नारियल, केला और लड्डू ले गईं. थाली मूर्ति के सामने ही रख दी और आंखें बंद कर के मन ही मन जाप करने लगीं. इसी बीच वहीं पेड़ पर बैठा एक बंदर पेड़ से उतरा और चुपके से केला व लड्डू ले कर पेड़ पर चढ़ गया.

दादी ने जब आंखें खोलीं और थाली में से केला व लड्डू गायब पाया तो खुश हो कर अपनेआप से बोलीं, ‘‘प्रभु, चमत्कार हो गया. आज आप ने स्वयं ही भोजन ग्रहण कर लिया.’’ वे खुशीखुशी मंदिर से घर लौट आईं. घर पर जब उन्हें सब ने खुश देखा तो संजू कहने लगा, ‘‘दादी, आज तो लगता है कोई वरदान मिल गया?’’

दादी प्रसन्न थी, बोलीं, ‘‘और नहीं तो क्या?’’

फिर दादी ने सारा किस्सा कह सुनाया. संजू खिलखिला कर हंस पड़ा तथा यह कहता हुआ बाहर दौड़ गया, ‘‘इस महल्ले में चोरउचक्कों की भी कमी नहीं है. फिर पिछले कुछ समय से यहां काफी बंदर आए हुए हैं लगता है प्रसाद कोई बंदर ही ले गया होगा.’’ सुन कर दादी ने मुंह बिचकाया. फिर सोचने लगीं कि आज शुभ दिन है. आज मेरी मनौती पूरी हुई. मैं चाहती थी कि मेरा बुढ़ापा सुखचैन से बीते. रोज की तरह उस शाम को दादी टहलने निकल गईं. वे पार्क में जाने के लिए सड़क के किनारे चली जा रही थीं. साथ ही सुबह हुए चमत्कार के बारे में सोच रही थीं.

तभी एक किशोर स्कूटी सीखता हुआ आया और दादी को धकियाता हुआ आगे बढ़ गया. दादी को पता ही नहीं चला, वे लड़खड़ा कर हाथों के बल सड़क पर जा गिरीं. हड़बड़ाहट में उठ तो गईं, पर घर आतेआते उन के दाएं हाथ में सूजन आ गई. वे दर्द के मारे कराहने लगीं. उन्हें फौरन डाक्टर को दिखाया गया. एक्सरे करने पर पता चला कि कलाई की हड्डी चटक गई है

एक माह के लिए प्लास्टर बंध गया. दादी ‘हाय मर गई, हाय मर गई’ की दुहाई देती रहीं.संजू चुटकी लेता हुआ दादी से बोला, ‘‘दादी, यही है वह चमत्कार, जिस के लिए आप सुबह से ही खुश हो रही थीं. तुम्हारी दोनों बातें गलत निकलीं. इसलिए भविष्य में ऐसे अंधविश्वासों के चक्कर में मत पड़ना.’’  दादी रोंआसी हो कर बोलीं, ‘‘हां बेटा, तुम ठीक कहते हो. हम ने तो सारी जिंदगी ही ऐसे भ्रमों में बिता दी पर मैं अब कभी शेष जीवन में इन खोखले चमत्कारों के जाल में नहीं पडूंगी.’’

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