एक और परिणीता : भाग 3

अगली शाम वह उसी दुकान पर गई और अपने लिए सुंदर साडि़यां खरीद लाई. फिर जाने क्या सोच कर अपनी मां के लिए ठीक वैसी ही साड़ी खरीदी जैसी शिवेन की मां के लिए उस ने पसंद की थी.

मां को ला कर साड़ी दी तो वह उदास स्वर में बोलीं, ‘‘क्या मेरी तकदीर में बेटी की कमाई की साड़ी ही लिखी है?’’

‘‘मां, तुम यह क्यों नहीं समझ लेतीं कि मैं तुम्हारा बेटा हूं.’’

स्वर्णा अपनी खुशी में मिसेज ठाकुर को शरीक करने के लिए उन के घर की ओर चल दी. धीरेधीरे उन्हें सबकुछ बता दिया. वह गंभीर हो गईं. समझाते हुए बोलीं, ‘‘स्वर्णा, तुम जवान लड़की हो. आगेपीछे सोच कर कदम उठाना. शिवेन बड़े ओहदे वाला इनसान है. क्या तुम्हें अपनी बिरादरी के सामने स्वीकार करेगा? कहीं ऐसा न हो कि जिस दिन उसे अपनी बिरादरी की कोई अच्छी लड़की मिले तो तुम्हें फटे कपड़े की तरह छोड़ दे. थोड़े दिनों की खुशी के लिए जीवन भर का दुख मोल लेना कहां की समझदारी है? अब अगर शिवेन बुलाए तो मत जाना.’’

अगली बार शिवेन ने फोन पर उसे अपने घर आने के लिए कहा. स्वर्णा ने पहली बार टाल दिया. लेकिन दूसरी बार शिवेन ने फिर बुलाया तो उस ने मिसेज ठाकुर को बताया. सुनते ही वह भड़क उठीं.

‘‘देखा न, घर पर बुला रहा है. इस का इरादा कतई नेक नहीं है, कुछ करना पड़ेगा.’’

‘‘दीदी, अगर मैं नहीं गई तो भी वह बदला निकाल सकते हैं. मेरी नौकरी और पदोन्नति का भी तो खयाल करो. सब उन्हीं की मेहरबानी है. टेलीफोन पर उन की बातों से ऐसा नहीं लगता कि उन का कोई बुरा इरादा होगा. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं क्या न करूं.’’

‘‘ठीक से सोच लो, स्वर्णा. जाना तो तुम्हें कल है.’’

मिसेज ठाकुर के घर से लौटते समय आगे की सोच कर उस का गला सूखा जा रहा था. मन का तनाव उस की नसनस में बह रहा था. अनायास उस ने महसूस किया कि वह नितांत अकेली है. उस के आसपास के सभी व्यक्ति, जो उस पर अधिकार जताते हैं, किसी न किसी डर के अधीन हैं. अपनीअपनी सामाजिकता से बंधे पालतू पशुओं की तरह एक नियत जीवनयापन कर रहे हैं.

दादी को जातबिरादरी का डर, पिताजी को अपने कर्तव्य से गिर जाने का डर, मां को इन दोनों को नाराज करने का डर और इन सब के नीचे, लगभग कुचला हुआ उस का अपना अस्तित्व था.

इन सब के विपरीत उस के मन को एक शिवेन ही तो था जो बादलों तक उड़ा ले जा रहा था.

शिवेन का खयाल आते ही उस का अंगअंग झंकृत हो उठा. सहसा उसे लगा कि वह इतनी हलकी है कि कोई शिला उसे पूरी तरह दबा दे, नहीं तो वह उड़ जाएगी. वह अपने ही हाथपैरों को कस कर समेटे गठरी सी बनी खिड़की के बाहर देखती कब सो गई उसे पता ही न चला.

सुबह आंख खुली तो उस की नजर सामने अलमारी पर पड़ी जिस के एक खाने में उस की दोनों छोटी बहनों के विवाह की तसवीरें रखी थीं. उन के ठीक बीच में एक बंगाली दूल्हादुलहन की जोड़ी रखी थी जो वर्षों पहले उस ने एक मेले से खरीदी थी.

सुबह उस ने अपना फैसला फोन पर मिसेज ठाकुर को सुनाया. वह बोली, ‘‘चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं. तुम आगे जा कर दरवाजा खुलवाना. बाहर ही खड़ी रह कर बात करना. यदि अंदर आने के लिए शिवेन जोर दें तो बताना मैं भी साथ हूं. रिकशे वाला भी हमारा अपना है. यदि जरूरत पड़ी तो शोर मचा देंगे.’’

हिम्मत कर के स्वर्णा शिवेन के घर चल दी. मिसेज ठाकुर भी रिकशे में पीछेपीछे हो लीं. शिवेन का मकान कई गलियों से गुजरने के बाद मिला था.

स्वर्णा ने दरवाजा खटखटाया. अंदर से एक स्त्री कंठ ने कहा, ‘‘कौन है, दरवाजा खुला है, आ जाओ.’’

स्वर्णा ने अपना नाम बताया और दरवाजा जरा सा खोला तो वह पूरा ही खुल गया. सामने आंगन में बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला उसे बुला रही थी.

स्वर्णा ने दरवाजा खुला ही छोड़ दिया क्योंकि उस के ठीक सामने 10 गज की दूरी पर मिसेज ठाकुर उसे अपने रिकशे में बैठेबैठे देख सकती थीं.

‘‘बेटी शेफाली, देखो, स्वर्णा आई है.’’

शेफाली धड़धड़ाती हुई सीढि़यों से उतरी और स्वर्णा को प्रेम से गले लगाया.

‘‘शिबू ने बताया था कि आप आएंगी. वह कोलकाता गया है. परसों आ जाएगा. आइए, बैठिए.’’

शेफाली को देख कर स्वर्णा का मुंह खुला का खुला रह गया, क्योंकि उस का ऊपर का होंठ बीच में से कटा हुआ था. इस के बाद भी शेफाली ने सहज ढंग से उस की खातिर की. मांजी के पास रखे बेंत के मूढ़ों पर दोनों बैठीं बातचीत करती रहीं. नाश्ता किया और फिर शेफाली उसे अपना घर दिखाने के लिए अंदर ले गई. स्वर्णा ने देखा कि शिवेन के कमरे में ढेरों पुस्तकें पड़ी थीं. एक कोने में सितार रखा था.

शेफाली ने बताया, ‘‘शिबू मुझ से 3 साल छोटा है और वह तुम को बेहद पसंद भी करता है. इस से पहले शिवेन ने कभी अपनी शादी की बात नहीं की थी. तुम पहली लड़की हो जो उस के जीवन में आई हो.

‘‘आज से 20 साल पहले जब  पिताजी का देहांत हुआ था तब मैं 19 साल की थी और शिवेन 16 का रहा होगा. इतनी छोटी उम्र में ही उस पर मेरी शादी का बोझ आ पड़ा. मेरा ऊपर का होंठ जन्म से ही विकृत था. विकृति के कारण रिश्तेदारों ने मेरे योग्य जो वर चुने उन में से कोई विधुर था, कोई अपंग. स्वयं अपंग होते हुए भी लोग मुझे देख कर मुंह बना लेते थे.

‘‘एक दिन एक आंख से अपंग व्यक्ति ने जब मुझे नकार दिया तो शिवेन उसे बहुत भलाबुरा कहते हुए बोला कि चायमिठाई खाने आ जाते हैं, अपनी सूरत नहीं देखते.

‘‘इस बात को ले कर हमारे रिश्तेदारों ने हमें बहुत फटकारा. बस, उसी दिन मैं ने शिवेन को बुला कर कह दिया कि बंद करो यह नाटक. मुझे किसी से शादी नहीं करनी है. शिवेन रोते हुए बोला, ‘ऐसा मत सोचिए, दीदी. मैं अपना फर्ज पूरा नहीं करूंगा तो समाज यही कहेगा कि बाप रहता तो बेटी कुंआरी तो न बैठी रहती,’’’ शेफाली स्वर्णा को बता रही थी.

‘‘ ‘बाबा मेरी शादी करवा सकते थे क्या?’’ क्या उन के पास देने के लिए लाखों रुपए का दहेज था?’ मैं ने शिवेन से पूछा, ‘अभी तू छोटा है तभी फर्ज की बात कर रहा है. कल को जब तू शादी लायक होगा तो क्या तू मेरी जैसी लड़की से शादी कर लेगा? दूसरों को क्यों लज्जित करता है?’

‘‘बस, उसी दिन से उस ने शपथ ले ली कि विकृत चेहरे वाली लड़की से ही शादी करूंगा.’’

थोड़ा रुक कर शेफाली फिर बोली, ‘‘स्वर्णा, जिस दिन पहली बार उस ने तुम्हें देखा था उसी दिन शिबू ने तुम से शादी के लिए अपना मन बना लिया था. इस पर तुम इतनी गुणी निकलीं. अब तुम्हारी बारी है. घरबार भी तुम ने देख लिया है. बोलो, क्या कहती हो?’’

स्वर्णा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. उस की रुलाई फूट पड़ी. शेफाली ने उसे गले से लगाया. स्वर्णा चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू पीछे से खींच कर सर ढक लिया और घुटनों के बल बैठ कर मांजी के पांव छुए.

स्वर्णा जाते समय धीरे से शेफाली से बोली, ‘‘आज से चौथे दिन मैं आप सब का अपने घर पर इंतजार करूंगी.’’

कादंबरी मेहरा

Monsoon Special: वह पूनम की रात- भाग 3

इस पर फिर अपने गाल फुला कर प्रीति बोली, ‘‘ऐसी बातें करोगे, तो मैं चली जाऊंगी.‘‘

‘‘तो चली जाओ. भले ही मुझे नाराजगी न हो, यह रात और यह चांदनी, यह मौसम और ये नजारे तुम से जरूर नाराज हो जाएंगे. कहेंगे, यह लड़की कितनी पत्थर दिल है,‘‘ रूठी मैना को मनाने के चक्कर में मैं ने भी रूठने का नाटक किया.

तब अचानक अपने कदम रोक कर बिना कुछ बोले प्रीति मुझ से लिपट गई थी.

‘‘अरे, यह हुई न बात, वैसे मैं तो तुम्हें यों ही छेड़ रहा था,‘‘ मैं ने भी भावुक हो कर उसे अपनी बांहों में समेट लिया था.

प्रीति कुछ देर तक उसी तरह मेरी बांहों में लिपटी रही. दोनों की सांसें अनायास ही तेज हो चली थीं और दिल की धड़कनों का टकराना, दोनों ही महसूस कर रहे थे. फिर मैं ने प्रीति की मौन स्वीकृति को भांप कर प्यार से उस के होंठों को चूम लिया. फिर जब दोनों अलग हुए, तो दोनों की ही आंखों में प्रेम के आंसू झिलमिला रहे थे.

‘‘चलो, अब वापस चलते हैं, काफी देर हो गई,‘‘ अपने मोबाइल पर समय देखते हुए प्रीति ने कहा.

‘‘थोड़ी देर और रुको न, तुम तो जानती हो, मैं इसी रात के लिए शहर से गांव आया हूं. अगर तुम आने का वादा न करती, तो क्या मैं यहां आता?‘‘

‘‘तुम्हें पता है, मैं कितनी होशियारी से निकली हूं. अगर घर में किसी को भनक लग गई तो…‘‘

‘‘तो क्या होगा? हम यहां घूमने ही तो आए हैं, कोई गलत काम तो नहीं कर रहे.‘‘

‘‘मेरे भोले मजनूं, यह शहर नहीं गांव है. मैं यहां 14-15 साल से रह रही हूं. तुम तो बस, 2-3 दिन के लिए कभीकभार ही आते हो. यहां बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती.‘‘

‘‘तो डरता कौन है? जब हमारा प्यार सच्चा है, तो मुझे किसी की परवा नहीं.‘‘

‘‘मेरी तो परवा है…‘‘

‘‘तुम्हें कोई कुछ कह कर तो देखे…‘‘

‘‘मैं अपने मांबाप की बात कर रही हूं. अगर वे ही कुछ कहेंगे तो?‘‘

‘‘अरे, उन्हें तो मैं कुछ नहीं कह सकता. मेरे लिए तो वे पूजनीय हैं, क्योंकि उन के कारण ही तो तुम मुझे मिली हो. मैं तो जिंदगी भर उन के पैर धो सकता हूं.‘‘

‘‘तो चलो, चलते हैं,‘‘ प्रीति मुसकराते हुए मेरा हाथ पकड़ कर बोली.

‘‘काश, इस तरह हम रोज मिल पाते,‘‘ मैं ने प्रीति के साथ कदम बढ़ाते हुए आह भर कर कहा.

‘‘इंतजार का मजा लेना भी सीखो. ऐसी चांदनी रात रोज नहीं हुआ करती,‘‘ प्रीति मेरी ओर देखते हंसते हुए बोली.

‘‘इसीलिए तो कह रहा हूं, थोड़ी देर और ठहर लेते हैं. खैर, छोड़ो. अब तो कुछ दिन कुछ रातें, इंतजार का ही मजा लेना पड़ेगा. तुम महीने भर बाद जो शहर लौटोगी.  मुझे तो शायद कल ही लौटना पड़ेगा,‘‘ मैं ने कुछ उदास स्वर में कहा.

‘‘क्या? तुम कल ही लौट रहे हो,‘‘ प्रीति हैरानी जाहिर करते हुए बोली.

‘‘हां, पापा का फोन आया था. इस बार उन्हें छुट्टी नहीं मिल पाई वरना मम्मीपापा भी सप्ताह भर के लिए यहां आ जाते. वे नहीं आ पाएंगे, इसलिए उन्होंने इस बार दादी को भी साथ ले कर आने के लिए कहा है. अगर तुम भी साथ वापस चलती तो कितना अच्छा होता.‘‘

‘‘अगर चाचाजी आ जाते तो शायद जल्दी लौटना हो जाता, पर उन को भी छुट्टी नहीं मिल पाई. बाबा, खेतों का काम खत्म होने से पहले जाएंगे नहीं और तुम तो जानते हो मैं अकेली जा नहीं सकती.‘‘

‘‘खासकर किसी दूसरी जाति के लोगों के साथ…‘‘

‘‘फिर मुझे ताने सुना रहे हो?‘‘

‘‘नहीं, मैं तुम्हें कुछ नहीं कह रहा पर कभीकभी सोचने पर विवश हो जाता हूं कि हमारा गांव इतना खूबसूरत है मगर यहां अभी भी जातपांत के पुराने खयालातों से लोग मुक्त नहीं हो पाए हैं. पता नहीं, हमारे प्यार का अंजाम क्या होगा…‘‘

‘‘तो क्या तुम अंजाम से डरते हो?‘‘

‘‘हां, डरता तो हूं. अगर कोई कहेगा, तुम्हारी जिंदगी, तुम्हारी नहीं हो सकती, तो क्या डरना नहीं चाहिए?‘‘

‘‘बिलकुल नहीं डरना चाहिए आप को, क्योंकि आप की जिंदगी हमेशा आप के साथ रहेगी,‘‘ प्रीति मुसकरा कर बोली.

‘‘तो मैं भी अंजाम से नहीं डरता,‘‘ मैं ने भी उसी अंदाज में कहा.

‘‘यह हुई न बात‘‘ फिर शांत स्वर में बोली, ‘‘रमेश, देखना इस गांव में बदलाव हम ही लाएंगे. लोगों को यह मानना पड़ेगा कि इंसानियत से बड़ी दूसरी कोई जात नहीं होती और इंसानियत कहती है कि एकदूसरे को समान दृष्टि से देखा जाए और सभी प्रेम से मिल कर रहें.‘‘

‘‘तुम जब भी इस तरह की बातें करती हो, तो मेरे अंदर एक जोश आ जाता है. आज मैं भी इस पूनम की रात में कसम खाता हूं, रास्ता चाहे जितना कठिन हो, जब तक हमें मंजिल मिल नहीं जाती, मैं हर कदम तुम्हारे साथ रहूंगा,‘‘ मैं ने अपने दोनों हाथों को ऊपर फैला कर बड़े जोश में कहा.

उस रात ढेर सारी उम्मीदों के साथ, दिल में ढेर सारे सपनों को सजाए, एकदूसरे से विदा ले कर, हम दोनों अपनेअपने घर चले गए थे. लेकिन जिस कठिन रास्ते की हम ने कल्पना की थी, वह इतना कंटीला साबित होगा, कभी सोचा न था.

उस रात लौटते वक्त शायद किसी ने हमें देख लिया था. हो सकता है, वह मंदिर का पुजारी, गांव का पंडित ही रहा हो. क्योंकि उस ने ही प्रीति के बाबा को बुलवा कर इस की शिकायत की थी. धर्म के, समाज के ऐसे ठेकेदार, जिन्हें राधाकृष्ण के प्रेम, उन की रासलीला से तो कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन यदि हम जैसे जोड़े उस का अनुसरण करें, तो उन के लिए समाज की मानमर्यादा, उस की इज्जत का सवाल उत्पन्न हो जाता है…

उस दिन प्रीति के साथ क्या हुआ? यह कहने की आवश्यकता नहीं है. उस के घर वाले तो मुझे भी ढूंढ़ने आ गए थे… पर मैं दादी को ले कर शहर के लिए सुबह की बस से पहले ही निकल गया था.

बाद में गांव से प्रीति का फोन आने पर मैं पिताजी के सामने जा कर उन्हें सारी बातें बता कर रोने लगा. हमेशा की तरह एक दोस्त के समान मेरा साथ देते हुए पिताजी मुझे समझा कर तुरंत प्रीति के चाचाजी से बात करने चले गए. जो हम से कुछ ही दूर किराए के मकान में रहते थे. चाचाजी, पिताजी की तरह ही सुलझे विचारों वाले आदमी थे. गांव जा कर सब को काफी समझाने का प्रयास किया. यहां तक कि पंचों से भी बात कर के देखा, लेकिन बात नहीं बन पाई.

भाईभाई के बीच मनमुटाव वाली स्थिति पैदा हो गई. फिर पंचों से भी यह धमकी मिली कि यदि वे समाज की परंपरा के खिलाफ जाएंगे, तो उन्हें जातबिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा. कोई उन का छुआ पानी तक नहीं पीएगा.

अंत में हार कर चाचाजी और पिताजी को पुलिस का सहारा लेना पड़ा और न चाहते हुए भी हम दोनों की शादी मजबूरन कोर्ट में करनी पड़ी.

हम दोनों की बस इतनी ही तो इच्छा थी कि समाज के सामने सामाजिक रीतिरिवाज से हम दोनों की शादी हो जाए. लेकिन समाज की रूढि़वादी परंपराओं की दीवार को गिरा पाना आसान काम तो नहीं होता. हम ने प्रयास क्या किया? कितना कुछ घटित हो गया. बाद में यह भी पता चला कि गांव के कुछ लोगों ने हमारे घर को आग लगाई और गांव से हमेशा के लिए हमारा बहिष्कार कर दिया गया.

आज इतने सालों बाद भी स्थिति जस की तस है. हमारे लिए वह रास्ता उतना ही दुर्गम है, जो वापसी को उस गांव तक जाता है. उस रात के बारे में कभी सोचता हूं, तो अपनी उस नादानी पर डर जाता हूं. क्योंकि जिस समाज में जातपांत के आधार पर इंसान का विभाजन होता हो और जहां जवान लड़केलड़की के बीच पवित्र रिश्ते जैसी किसी चीज की कल्पना तक नहीं की जाती, वहां उस सुनसान रात में एक जवान जोड़े को घूमते देख कर क्या उन्हें यों ही छोड़ दिया जाता?

फिर भी पता नहीं क्यों? उस रात को, प्रीति का साथ मैं भी कभी भुला नहीं पाया. आज भी हर ऐसी चांदनी रात में वह पूनम की रात याद आते ही मन भावविभोर हो जाता है.

तंत्र मंत्र का खेला – भाग 3 : बाबा के जाल से निकल पाए सुजाता और शैलेश

सुजाता गदगद हो गई. आज सुबह  इतनी सुहावनी होगी, उस ने  सोचा न था. उसे पड़ोसिनों ने बताया तो था यदि मजार वाले बाबा का आशीर्वाद भी मिल जाए तो फिर तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई ही समझो.

खुश मन से सुजाता ने जब घर में प्रवेश किया, तो उस का पति चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ने में तल्लीन था. सुजाता गुनगुनाते हुए घर के कार्यों में व्यस्त हो गई. महेंद्र सब समझ गया कि वह मजार का चक्कर लगा कर आई है, मगर कुछ न बोला.

वह सोचने लगा कितने सरल स्वभाव की है उस की पत्नी, सब की बातों में तुरंत आ जाती है, अब अगर मैं वहां जाने से रोकूंगा तो रुक तो जाएगी मगर उम्रभर मुझे दोषी भी समझती रहेगी कि मैं ने उस के मन के अनुसार कार्य न कर के, उसे संतान पाने के आखिरी अवसर से भी वंचित कर दिया. आज जा कर आई है तो कितनी खुश लग रही है वरना कितनी बुझीबुझी सी रहती है. चलो, कोई नहीं, 40 दिनों की ही तो बात है, फिर खुद ही शांत हो कर बैठ जाएगी. मेरे टोकने से इसे दुख ही पहुंचेगा.

दिन बीतते देर नहीं लगती, 40 दिन क्या 4 महीने बीत गए, मगर सुजाता का मजार जाना न रुका. अब वह गैस्ट फैकल्टी के कार्य में भी रुचि नहीं लेती, न ही आसपड़ोस की महिलाओं के संग कार्यक्रम में मन लगाती. अपने कमरे को अंदर से बंद कर, घंटों न जाने कैसे तंत्रमंत्र अपनाती. इन सब बातों से बेखबर एक दिन अचानक रमा उस महल्ले से गुजरी. उस ने सोचा, सुजाता भाभी की खबर भी लेती चलूं, अरसा हो गया उन्हें, वे पार्लर नहीं आईं.

दोपहर का समय, दरवाजे की घंटी सुन सुजाता को ताज्जुब हुआ कि इस समय कौन है? दरवाजा खोलते ही रमा को देख कर खुशी से चहक उठी. उसे लगभग खींचते हुए भीतर ले गई.

मगर रमा उसे देख कर हैरान थी कि क्या यह वही सुजाता है जो कितनी सजीसंवरी रहती थी. सामने मैलेकुचैले गाउन में, कालेसफेद बेतरतीब बालों की खिचड़ी के साथ, न मांग में सिंदूर, न मंगलसूत्र, न चूडि़यां, न बिंदी पहने सुजाता किसी सड़क पर घूमती पगली से कम नहीं लगी. ‘‘भाभी, आप को क्या हो गया है? तबीयत तो ठीक है न आप की? भाईसाहब ठीक तो हैं न?’’ रमा ने हैरानी से पूछा.

‘‘अब आई है, तो बैठ. तुझे सब बताती हूं. मेरी तबीयत को कुछ नहीं हुआ बल्कि मेरे चारों तरफ भूतों का डेरा हो गया है. कोई मेरी बात का विश्वास नहीं करता. यहां देख मैं इसे सोफे पर रातभर जाग कर टीवी देखती रहती हूं. अगर झपकी आई तो सो गई वरना पूरी रात यों ही कट जाती है. ये भूत दिनरात मेरे चारों तरफ मंडराते रहते हैं. दिन में भी कभी महल्ले के बच्चे के रूप में तो कभी पड़ोसिन के रूप में आ कर बैठ जाते हैं. फिर चाय बनाने या कुछ लेने भीतर जाओ, तो गायब हो जाते हैं.’’

‘‘भाभी, ऐसी बातें कर के मुझे मत डराओ?’’ रमा घबरा गई.

‘‘यह मेरी जिंदगी की सचाई बन गई है. ये देखो, मेरे हाथ में ये निशान. अगर मैं चूड़ी, बिंदी, कुछ भी पहनती हूं तो ऐसे निशान बन जाते हैं. सजनेसंवरने पर मुझे ये भूत बहुत परेशान करते हैं, इसीलिए मैं अब सादगी से रहती हूं, बाल भी नहीं रंगती, मेहंदी भी नहीं लगाती,’’ सुजाता बोली.

‘‘भाईसाहब, आप को कुछ समझाते नहीं हैं क्या?’’ रमा सुजाता की बातें सुन कर उलझन में पड़ गई.

‘‘मेरे पति के अंदर तो खुद ही आत्मा आती है. जब वह आत्मा आती है तो उन की आवाज भर्रा जाती है, चेहरा सर्द हो जाता है, उसी आत्मा ने मुझे सादगी से रहने का आदेश दिया है.’’

‘‘मैं चलती हूं भाभी, बेटे के स्कूल से लौटने का समय हो गया है,’’ कह कर रमा उठ खड़ी हुई. सुजाता की बातें सुन कर रमा के रोंगटे खड़े हो गए. उस ने वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी.

रमा अपनी स्कूटी स्टार्ट कर ही रही थी कि सामने से शैलेश आता दिखा. शैलेश उसी की गांवबिरादरी का है, रिश्ते में उस का चचेरा भाई लगता है. उसे देख कर वह रुक गई. उसी ने तो 2 महीने पहले उसे स्कूटी चलानी सिखाई थी. उस ने सुजाता के दरवाजे पर नजर डाली. सुजाता ने अपनेआप को फिर से घर में कैद कर लिया था. उस ने शैलेश को अपने पीछे बैठने का इशारा किया और वहां से सीधा अपने घर को चल पड़ी.

शैलेश ने जो बताया उसे सुन कर रमा हैरान रह गई. ‘‘सुजाता जब पहली बार मजार में गई थी तो उसी दिन बाबा ने उस के बारे में पूरी जानकारी उस से जुटा ली. सुजाता धीरेधीरे बाबा की कही बातों का आंख मूंद कर विश्वास करने लगी थी. किंतु 40 दिन बीतने के बाद भी जब कोई परिणाम न मिला तो बाबा ने उसे समझाया कि यह सब तुम्हारे पति की शंका करने की वजह से हो रहा है. जब तक वे भी सच्चे मन से इस ताकत को नमन नहीं करेंगे, तब तक तुम अपने लक्ष्य को नहीं पा सकतीं. यह सुन कर सुजाता ने अपने पति को भी मजार लाने का फैसला किया और रोधो कर, गिड़गिड़ा कर, उसे यहां तक लाने में सफल हो ही गई. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, शैलेश? रमा की उत्सुकता चरम पर थी.’’

‘‘लेकिन जब मैं ने महेंद्र सर से कहा तो वे गुस्से से लालपीले हो कर कहने लगे, ‘ये सारी बातें बकवास हैं, ये फेरे लगाने से कुछ नहीं होता बल्कि अब तो सुजाता घरेलू कार्य में भी रुचि नहीं लेती. बीमारों की तरह पूरे दिन वह लेटी रहती है. चलो, मैं भी वहां का नजारा देख कर आता हूं.

‘‘उस दिन बाबा स्टेशन से पहले पीपल के पेड़ के नीचे बैठे आसपास से आए आदिवासियों को घेर कर बैठे थे. उस दिन मजार का मेला भी था जो मजार पर न लग कर बाहर पास के मैदान में लगता है. उस दिन की भीड़ को देखते हुए किसी को भी स्टेशन की सुरक्षा के लिहाज से मजार तक जाने नहीं दिया जाता. इसलिए जो भी भक्त, चादर, अगरबत्ती, धूप जो भी चढ़ाना चाहे, वह बाबा को सौंप देता है. इसीलिए बाबा के चारों तरफ भीड़ जुटी थी. जिस में गरीब आदिवासी महिलाएं, उन की बेटियां बहुत श्रद्धा के साथ हाथ जोड़ लाइन से आगे बढ़ती जा रही थीं.’’

‘‘सर, उन सब को बड़े ध्यान से देख रहे थे. थोड़ी देर में जब बाबा की नजर मेरे साथ खड़े सर पर पड़ी तो वे समझ गए कि ये सुजाता मैम के पति होंगे. उन्होंने उन्हें दूसरे दिन आ कर बात करने को कहा. सर मेरे साथ वापस आ गए.

‘‘तब तक तो मैं भी नहीं जानता था कि मैं खुद बाबा के हाथों का मोहरा बन कर रह गया हूं. वह एकतरफ सुजाता मैम को बच्चे के ख्वाब दिखा कर बरगला रहा था तो दूसरी तरफ प्रोफैसर को दूसरी शादी के सब्जबाग दिखाने लगा. इन दोनों को अपनी बातों का विश्वास दिलाने को, बाबा जब न तब, मुझे और मेरे दोस्तों को बुला कर हमारी मनोकामनाओं के पूरी होने के उदाहरण देता. हम भी उस की बात में हां में हां मिलाते, क्योंकि हमें बाबा की ताकत पर भरोसा भी था और डर भी.’’

‘‘धीरेधीरे उस ने मैम के दिमाग में यह बात भर दी कि उस का रहनसहन, पहनावा आकर्षक होने के कारण, पीपल के पेड़ के भूत, उस पर आसक्त हो गए हैं. इसलिए उसे सब से पहले अपने आप को सादगी में रखना होगा. दूसरी तरफ, प्रोफैसर को दूसरी शादी के लिए रिश्ते दिखाने लगा. उन्हीं में से एक रिश्ते में 16 साल की एक गरीब की लड़की का रिश्ता भी था, जो प्रोफैसर को बहुत ही भा गया.

‘‘आजकल सर के बहुत चक्कर लग रहे हैं उस लड़की के गांव के. यहां से 15 किलोमीटर पर ही तो है वह गांव. वहां आदिवासी परिवार हैं. उन के वहां अभी भी बालविवाह, बहुविवाह का चलन है. अब क्या है, सर की पांचों उंगलियां घी में हैं. वे भी बस लगता है अपनी बीवी के पूरी पागल होने के इंतजार में हैं ताकि उसे पागलखाने भेज कर, उस की सहानुभूति भी बटोर लें और फिर उस कन्या से विवाह कर संतान भी पैदा कर लें.

‘‘मेरी गलती, बस, यही है कि मैं बाबा और सर की चालों को पहले समझ ही नहीं पाया वरना मैम की कुछ मदद कर देता. मगर अब उन की मानसिक स्थिति को केवल किसी मानसिक रोग विशेषज्ञ से मिल कर ही संभाला जा सकता है.’’

लेकिन मानसिक रोग विशेषज्ञ इस शहर में मौजूद ही नहीं हैं और दूसरे बड़े शहर में ले जा कर इलाज कराने के मूड में प्रोफैसर हैं ही नहीं. शैलेश के मुख से यह सब सुन रमा घोर चिंता में आ गई.

बेचारी सुजाता भाभी, यह मक्कार बाबा जब प्रोफैसर को अपनी बातों में न उलझा पाया तो उस ने दूसरा जाल फेंका जिस में बड़ेबड़े ऋ षिमुनि न पार पा पाए. तो फिर उस जाल में यह प्रोफैसर कैसे बच पाता. वह दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली पत्नी को भूल गया, मौकापरस्त आदम जात. यह सोच कर रमा अपना सिर पकड़ कर बैठ गई.

Monsoon Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए -भाग 2

‘‘पर, मैं खुश क्यों नहीं हूं, क्या मैं विहान से प्यार… नहींनहीं, हम तो बस बचपन के साथी हैं. इस से ज््यादा तो कुछ नहीं है, फिर मैं आजकल विहान को ले कर इतना क्यों परेशान रहती हूं. उस से बात न होने से मुझे ये क्या हो रहा है? क्या मैं अपनी ही फीलिंग्स समझ नहीं पा रही हूं…?‘‘

इसी उधेड़बुन में रात आंखों में ही बीत गई थी. किसी से कुछ शेयर किए बिना ही वह वापस मुंबई लौट गई.

दिन यों ही बीत रहे थे, पूजा की शादी के बारे में न घर वालों ने आगे कुछ बताया और न ही मिशी ने पूछा.
एक दिन दोपहर को मिशी को काल आया, ‘‘घर की लोकेशन भेजो, डिनर साथ ही करेंगे.‘‘

मिशी ‘करती हूं’ के अलावा कुछ ना बोल सकी. उस के चेहरे पर मुसकान बिखर गई थी, उस रोज वह औफिस से जल्दी घर पहुंची, खाना बना कर, घर संवारा और खुद को संवारने में जुट गई, ‘‘मैं विहान के लिए ऐसे क्यों संवर रही हूं, इस से पहले तो कभी मैं ने इस तरह नहीं सोचा… ‘‘ उस को खुद पर हंसी आ गई, अपने ही सिर पर धीरे से चपत लगा कर वह विहान के इंतजार में भीतरबाहर होने लगी. उसे लग रहा था, जैसे वक्त थम गया हो, वक्त काटना मुश्किल हो रहा था.

शाम के लगभग 8 बजे बेल बजी. मिशी की सांसें ऊपरनीचे हो गईं. शरीर ठंडा सा लगने लगा. होंठों पर मुसकराहट तैर गई. दरवाजा खोला, पूरे 10 महीने बाद विहान उस के सामने था. एक पल को वह उसे देखती ही रही, दिल की बेचैनी आंखों से निकलने को उतावली हो उठी.

विहान भी लंबे समय बाद अपनी मिशी से मिल उसे देखता ही रह गया.फिर मिशी ने ही किसी तरह संभलते हुए विहान को अंदर आने के लिए कहा. मिशी की आवाज सुन विहान अपनी सुध में वापस आया. दोनों देर तक चुप बैठे, छुपछुप कर एकदूसरे को देख लेते, नजरें मिल जाने पर यहांवहां देखने लगते. दोनों ही कोशिश में थे कि उन की चोरी पकड़ी न जाए.

डिनर करने के बाद जल्दी ही फिर मिलने की कह कर विहान वापस चला गया.

उस रात वह विहान से कोई सवाल नहीं कर सकी थी, जितना विहान पूछता रहा, वह उतना ही जवाब देती गई. वह खोई रही, विहान को इतने दिनों बाद अपने करीब पा कर, जैसे जी उठी थी वह उस रात…

विहान एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था… 15 दिन बीत चुके थे, इन 15 दिनों में विहान और मिशी दो ही बार मिले.

विहान का काम पूरा हो चुका था, 1 दिन बाद उस को निकलना था. मिशी विहान को ले कर बहुत परेशान थी. आखिर उस ने निर्णय लिया कि विहान के जाने के पहले वह उस से बात करेंगी… पूछेगी उस की बेरुखी की वजह… मिशी अभी उधेड़बुन में थी, तभी मोबाइल बज उठा… विहान का था…
‘‘हेलो, मिशी औफिस के बाद तैयार रहना… बाहर चलना है, तुम्हें किसी से मिलवाना है.‘‘

‘‘किस से मिलवाना है, विहान.‘‘

‘‘शाम होने तो दो, पता चल जाएगा.‘‘

‘‘बताओ तो…‘‘

‘‘समझ लो, मेरी गर्लफ्रैंड है.‘‘

इतना सुनते ही मिशी चुप हो गई. 6 बजे विहान ने उसे पिक किया. मिशी बहुत उदास थी. दिल में हजारों सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. वह कहना चाहती थी, विहान तुम्हारी शादी पूजा दी से होने वाली है, ये क्या तमाशा है. पर नहीं कह सकी, चुपचाप बैठी रही.

‘‘पूछोगी नहीं, कौन है?’’ विहान ने कहा.

‘‘पूछ कर क्या करना है? मिल ही लूंगी कुछ देर में,‘‘ मिशी ने धीरे से कहा.
थोड़ी देर बाद वे समुद्र किनारे पहंुचे. विहान ने मिशी को एक जगह इंतजार करने को कहा, ‘‘ तुम यहां रुको, मैं उस को ले कर आता हूं.‘‘

आसमान झिलमिलाते तारों की सुंदर बूटियों से सजा था. समुद्र की लहरें प्रकृति का मनभावन संगीत फिजाओं में घोल रही थीं. हवा मंथर गति से बह रही थी, फिर भी मिशिका का मन उदासी के भंवर में फंसा जा रहा था.

‘‘विहान मुझ से दूर हो जाएगा, मेरा विहान,‘‘ सोचतेसोचते उस की उंगलियां खुद बा खुद रेत पर विहान का नाम उकेरने लगीं.

‘‘विहान… मेरा नाम इस से पहले इतना अच्छा कभी नहीं लगा,‘‘ विहान पीछे से खड़ेखड़े ही बोला.

मिशी ने हड़बड़ाहट में नाम पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कहां…. है, कब आए तुम… कहां है वह?‘‘

 

Monsoon Special: वह पूनम की रात-भाग 1

‘दिल ढूंढ़ता, है फिर वही… फुरसत के रात दिन…‘ सामने वाले मकान से आते इस गाने की धुन को सुन कर मैं जल्दी से छत पर आ गया. शायद कोई साउंड बौक्स पर या कैसियो से इस गाने की धुन को बजा रहा था.

‘‘वाह, कितना सुंदर…‘‘ मेरे मुंह से अनायास ही निकला. छत पर उस गाने की धुन और भी स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी. मैं चुपचाप खड़ा गाने की धुन को सुनने लगा.

उस धुन को सुन कर ऐसा लग रहा था, जैसे कानों के रास्ते दिल में कोई अमृतरस टपक रहा हो. ऊपर से मौसम भी काफी खुशगवार था. साफ आसमान, टिमटिमाते तारे, हौलेहौले बहती ठंडी हवाएं मन आनंदित हो उठा. तभी मैं ने देखा, ऊंचीऊंची इमारतों की ओट से बड़ा सा गोलगोल चमकता हुआ चांद, अपना चेहरा बाहर निकालने का इस तरह से प्रयास कर रहा है, जैसे कोई नईनवेली दुलहन शर्मोहया से लबरेज आहिस्ताआहिस्ता अपना घूंघट हटा रही हो. प्रकृति के इस खूबसूरत नजारे को देख कर मैं ठगा सा रह गया.

‘‘क्या देख रहे हो?‘‘ तभी अचानक पीछे से प्रीति की आवाज आई. उस की आवाज सुन कर क्षण भर के लिए मैं चौंक गया. फिर उसे देख कर मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आओ, तुम भी देखो,  कितना खूबसूरत नजारा है न.‘‘

‘‘बहुत सुंदर है, आज पूनम की रात जो है.‘‘ प्रीति मेरे बगल में आ कर मुझ से सट कर खड़ी हो गई. फिर वह भी उस खूबसूरत नजारे को अपलक निहारने लगी.

‘‘ऐसी रात में अगर सारी रात भी जागना पड़ जाए, तो कुछ गम नहीं,‘‘ भावातिरेक में मैं ने प्रीति के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘तुम्हें वह पूनम की रात याद है न?‘‘ प्रीति अपनी झील जैसी झिलमिलाती आंखों से मेरी ओर देखती, जैसे मुझे कुछ याद दिलाने का प्रयास करते हुए बोली.

‘‘उस रात को कैसे भूल सकता हूं? उस रात तो जैसे चांद ही धरती पर उतर आया था…‘‘ मैं ने गंभीर हो कर उदासी भरे स्वर में कहा.

उस गाने की धुन अभी भी सुनाई पड़ रही थी. चांद भी इमारतों की ओट से निकल आया था. उस की चांदनी से आंखों की ज्योत्सना बढ़ती जा रही थी पर उस रात की याद आते ही, मेरे साथसाथ प्रीति के चेहरे पर भी उदासी की झलक उतर आई. मैं ने देखा, इस के बावजूद उस के होंठों पर हलकी सी मुसकान उभर आई थी, लेकिन आंखों में तैर आए पानी को वह छिपा नहीं पाई. मैं ने उस के कंधे पर हौले से हाथ रख कर जैसे ढांढ़स बंधाने का प्रयास किया.

उस रात मेरी आंखों में नींद ही नहीं थी. बस, बिस्तर पर बारबार मैं करवटें बदल रहा था और अपने कमरे की खुली खिड़की से बाहर के नजारे को निहारे जा रहा था.

बाहर चांदी की चादर की तरह पूनम की चांदनी बिखरी हुई थी, जिस में सभी नजारे नहा रहे थे. ऐसी खूबसूरती को देख मेरे मन में आनंद की लहरें उमड़ रही थीं. खिड़की के ठीक सामने, आंगन में लगे जामुन की नईनई कोमल पत्तियों की चमक ऐसी थी, जैसे उन पर पिघली हुई चांदी की पतलीपतली परत चढ़ा दी गई हो. फिर हवा के झोंकों से अठखेलियां करती, उन पत्तियों की सरसराहट से मन में मदहोशी के साथ दिल में गुदगुदी सी पैदा हो रही थी.

दादी खाना खाने के बाद जैसा कि अकसर गांव में होता है, सीधे अपने कमरे में चली गई थीं. शायद वे सो रही थीं. रात के 9 बज चुके थे इसलिए चारों तरफ गहरी खामोशी थी. बस, कभीकभार कुत्तों के भौंकने की आवाज आती थी और दूर मैदानों में टुंगरी के आसपास उस निशाचरपक्षी के बोलने की आवाज सुनाईर् पड़ रही थी, जिसे कभी देखा तो नहीं, पर दादी से उस के बारे में सुना जरूर था, ‘रात को चरने वाली उस चिडि़या का नाम ‘टिटिटोहों‘ है. वह अधिकतर चांदनी रात में ही निकलती है.‘ उस का बोलना पता नहीं क्यों मेरे मन को हमेशा ही मोहित सा कर देता. लगता जैसे वह चांदनी रात में अपने साथ विचरण करने के लिए बुला रही हो.

मेरे दिल की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी, मन अधीर होता जा रहा था. उस वक्त एकएक पल जैसे घंटे के समान लग रहा था पर घड़ी के कांटे को मेरी तड़प से शायद कोई मतलब नहीं था. उस की चाल इतनी सुस्त जान पड़ रही थी कि अपने पर काबू रखना मुश्किल होता जा रहा था. फिर बड़ी मुश्किल से जब घड़ी के मिनट का कांटा तय समय पर जा कर अटका, तो मैं उसी बेचैनी के साथ जल्दी से

अपने बिस्तर से उठ कर आहिस्ताआहिस्ता अपने कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.

गांव के बाहर स्थित मंदिर के पास प्रीति पहले से मेरा इंतजार कर रही थी. प्रीति को देखते ही खुशी से मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई, लेकिन अनजानी आशंका से थोड़ी घबराहट भी हुई, ‘‘कोई गड़बड़ तो नहीं हुई न,‘‘ पास पहुंचते ही मैं ने धीरे से पूछा था.

‘‘कोई गड़बड़ नहीं हुई. सभी सो चुके थे. मैं बड़ी सावधानी से निकली हूं,‘‘ प्रीति मुसकरा कर बोली थी.

‘‘तो चलो, चलते हैं,‘‘ मैं ने उत्साहित हो कर प्रीति का हाथ थामते हुए कहा.

फिर दोनों एकदूसरे का हाथ थामे टुंगरी की ओर जाने लगे. रास्ते में दोनों तरफ पुटूस के झुरमुट थे, जिन में जुगनुओं की झिलमिलाती लड़ी देखते बन रही थी. ऊपर चांदनी रात की खूबसूरती, दोनों के मन को जैसे बहकाए जा रही थी.

 

Monsoon Special: वह पूनम की रात- भाग 2

दोनों जब खुले मैदान में पहुंचे, तो नजारा और भी खूबसूरत हो उठा. साफ नीला आसमान, टिमटिमाते तारे और बड़ा गोल सा चांदी जैसा चमकता चांद, जिस की बरसती चांदनी में पूरी धरती जैसे स्नान कर रही थी और मंदमंद बहती हवा मन को जैसे मदहोश किए जा रही थी.

अचानक बेखुदी में दोनों के कदम तेज हो गए और एकदूसरे का हाथ पकड़, मैदान में दौड़ने लगे. अब टुंगरी भी बिलकुल पास ही थी. वह निशाचर चिडि़या नजदीक ही कहीं आवाज दे रही थी. तभी उस के पंख फड़फड़ाए और वह उड़ती नजर आई. मेरा दिल एक बार फिर से धक रह गया.

‘‘प्रीति, मुझे तो यकीन नहीं हो रहा है कि यह सब हकीकत है. कहीं यह ख्वाब तो नहीं,‘‘ मैं ने प्रीति की नाजुक हथेली को जोर से भींच कर कहा. अपने बहकते जज्बातों को मैं जैसे रोक नहीं पा रहा था.

‘‘ख्वाब ही तो है, जो हम दोनों हमेशा से देखते रहे थे. ऐसी चांदनी रात में एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले, कुदरत के ऐसे खूबसूरत नजारे को निहारते, एकदूसरे में खोए, जब सारी दुनिया सो रही हो, हम जागते रहें…‘‘

‘‘सच कहा तुम ने, मैं ने ऐसी ही रात की कल्पना की थी.‘‘

‘‘तो फिर अब मुझे वह गाना सुनाओ, मोहम्मद रफी वाला, जो तुम हमेशा गुनगुनाते रहते हो.‘‘

‘‘कौन सा खोयाखोया चांद वाला…‘‘ मैं ने मजाकिया लहजे में कहा.

‘‘हां, गाओ न,‘‘ प्रीति खुशी से मुसकराते हुए आग्रहपूर्वक बोली.

‘‘एक शर्त पर,‘‘ मैं ने रुक कर कहा.

‘‘क्या,‘‘ कह कर प्रीति मुझे घूरने लगी.

‘‘तुम्हें भी उस फिल्म का गाना सुनाना होगा, जो मैं ने तुम्हें नैट से डाउनलोड कर के दिया था,‘‘ मैं ने मुसकरा कर कहा.

‘‘फिल्म ‘पाकीजा‘ का ‘मौसम है आशिकाना…‘‘ प्रीति मुसकराते हुए बोली.

‘‘हां,‘‘  कह कर मैं फिर से मुसकराया.

‘‘हमें मंजूर है, हुजूरेआला,‘‘ प्रीति भी जैसे चहक उठी.

उस चांदनी रात में गुनगुनाते हुए दोनों एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले आगे बढ़ते जा रहे थे. कुछ देर बाद दोनों टुंगरी के ऊपर थे. जहां से चांदनी रात की खूबसूरती अपने पूरे शबाब में दिख रही थी. चारों तरफ पूनम की चांदनी दूर तक बिखरी हुई थी. आसमान अब भी साफ था, लेकिन कहीं से आए छोटेछोटे आवारा बादल चांद से जैसे जबरदस्ती आंखमिचौली का खेल रहे थे.

उस दिलकश खेल को देख कर दोनों के आनंद की सीमा न रही, मन नाच उठा. फिर उस जगह की खामोशी में, रात के उस सन्नाटे में एकदूसरे के धड़कते हुए दिल की आवाज सुन कर अंगड़ाइयां लेते मीठे एहसासों से, अंदर कहां से यह आवाज आ रही थी… जैसे यह चांद कभी डूबे नहीं, यह वक्त यहीं रुक जाए, यह रात कभी खत्म न हो. काश, यह दुनिया इतनी ही सुंदर होती, जहां कोईर् पाबंदी, कोई रोकटोक नहीं होती. सभी एकदूसरे से यों प्रेम करते. इस रात में जो शांति, जो संतोष का एहसास है, ऐसा ही सब के दिलों में होता. किसी को किसी से कोई बैर नहीं होता.

‘‘प्रीति, तुम्हें नहीं लगता हम दोनों जैसा सोचते हैं, ऐसा काम तो कवि या लेखक लोग करते हैं यानी कल्पना की दुनिया में जीना. वे ऐसी दुनिया या माहौल का सृजन करते हैं, जो आज के दौर में संभव ही नहीं है.‘‘

‘‘संभव है, चाहे नहीं, पर सचाई तो सचाई होती है. जिंदगी इस चांदनी रात के समान ही होनी चाहिए, शीतल, बिलकुल स्निग्ध, एकदम तृप्त. फिर सकारात्मक सोच ही जीवन को गति प्रदान करती है. जहां उम्मीद है, जिंदगी भी वहीं है.‘‘

‘‘अरे वाह, तुम्हारी इन्हीं बातों से तो मैं तुम्हारा इतना दीवाना हूं. तुम इतनी गहराई की बातें सोच कैसे लेती हो?‘‘

‘‘जब जिंदगी में किसी से सच्चा प्यार होता है, तो मन गहराई में उतरने की कला अपनेआप सीख लेता है. फिर जिसे साहित्य से भी प्यार हो, उसे सीखने में अधिक समय नहीं लगता.‘‘

‘‘प्रीति, अगर तुम मेरी जिंदगी में न आती, तो शायद मैं आज गलत रास्ते में भटक गया होता. मुझे अधिक हुड़दंगबाजी तो कभी पसंद नहीं थी. मगर आधुनिकता के नाम पर अपने दोस्तों के साथ, पौप अंगरेजी गाने सुनना और इंटरनैट पर गंदी फिल्में देखने का नशा तो चढ़ ही चुका था. अगर इस बार परीक्षाओं में मेरा बढि़या रिजल्ट आया है, तो सिर्फ तुम्हारी वजह से. अब मैं अपने उन दोस्तों से भी शान से कहता हूं कि क्लासिकल गाने एक बार दिल से सुन कर देखो, उस के रस में, उस के जज्बातों में डूब कर देखो, तुम्हें भी मेरी तरह किसी न किसी प्रीति से जरूर प्यार हो जाएगा.‘‘

‘‘तुम अब वे फिल्में तो कभी नहीं देखते न?‘‘ प्रीति ने अचानक इस तरह से प्रश्न किया, जैसे कोई अच्छी शिक्षिका अपने छात्र को उस का सबक फिर से याद दिला रही हो.

मैं ने भी डरने का नाटक करते, उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘अरे नहीं, कभी नहीं… अब देखूंगा भी तो तुम्हारे साथ शादी के बाद ही.‘‘

‘‘तो अभी से मन में सब सोच कर रखा है?‘‘ शिक्षिका के होंठों पर मुसकान थी, लेकिन नाराजगी स्पष्ट झलक रही थी.

‘मुझे कहीं डांट न पड़ जाए‘ यह सोच कर मैं ने झट से अपने दोनों कान पकड़ कर कहा, ‘‘अरे, नहीं बाबा, जिंदगी में कभी नहीं देखूंगा. मैं तो बस, यों ही मजाक कर रहा था पर तुम से एक बात कहने की इच्छा हो रही है.‘‘

‘‘क्या…‘‘ अपनी आंखें फिर बड़ी कर प्रीति मुझे घूरने लगी.

उसे गुस्साते देख कर, मैं ने मुसकरा कर कहा, ‘‘यही कि तुम अभी और भी खूबसूरत लग रही हो. सच कहता हूं, उस चांद से भी खूबसूरत…‘‘

‘‘अच्छा जी, तो अब  मुझे बहकाने की कोशिश हो रही है,‘‘ प्रीति फिर मुंह बना कर बोली पर चेहरे पर मुसकान थी.

‘‘सच कहता हूं, जब भी तुम्हारी ये झील जैसी आंखें और गुलाब की पंखडि़यों जैसे होंठों को देखता हूं, तो अपने दिल को समझा नहीं पाता हूं. कम से कम एक किस तो दे दो,‘‘ मैं याचना कर बैठा.

 

विस्मृत होता अतीत

आखिर क्या कमी थी- भाग 2 : क्यों विजय की पत्नी ने किया उसका जीना हराम

‘‘पिछले कुछ महीनों से हम अलगअलग कमरे में सोते हैं. मेरी परछाईं से भी वह दूर भागती है. मेरी सूरत देखते ही जैसे उसे दौरा पड़ जाता है. मैं आत्महत्या ही कर लूंगा, मुझे ऐसा लगता है. तुम्हारे पास इसीलिए आया हूं. तुम नीरा से बात करो, पूछो उस से, वह क्या चाहती है…’’

विजय का कंधा थपथपा दिया मैं ने. थोड़ी देर के लिए खुद को विजय के स्थान पर रख कर सोचा, मेरी पत्नी अगर मेरी परछाईं से भी दूर भागे या मेरी सूरत देखते ही चीखनेचिल्लाने लगे तो क्या हो? जाहिर सा लगा कि कहीं मैं ने ही ऐसा कुछ किया है जो मेरी पत्नी के गले में कांटे सा फंस गया है.

नीरा भाभी जैसी संतोषी औरत बहुत कम नजरों के सामने आती हैं. जब वे ब्याह कर आई थीं तब ब्याहने लायक विजय की एक बहन भी घर में थी. पिता का साया उठ चुका था. पूरा घर विजय के कंधों पर था. अच्छा वर मिल गया तो एक क्षण भी नहीं लगाया था, भाभी ने अपनी कोरी, अनछुई साडि़यां और गहने ला कर विजय के सामने रख दिए थे.

भाभी ने बड़ी सहजता से अपना सब बांट लिया था इस परिवार के साथ. नीरा भाभी का निष्कपट रूप किसी गहने का मोहताज नहीं था, फिर भी एक शाम उन के कानों में छोटीछोटी चमकती बालियों को देखा तो सहसा मेरे होंठों से निकल गया था, ‘‘भाभी, आज कुछ बदलाबदला सा है आप में?’’

‘‘भैया, नई बाली पहनी है. थोड़ेथोड़े रुपए बचा कर आज ही लाई हूं.’’

मन भर आया था मेरा. सच में भाभी पर बालियां बहुत खिल रही थीं और फिर जिस औरत ने अपने मायके का सारा सोना विजय की बहन पर कुरबान कर दिया था वही औरत पाईपाई जोड़ अपने लिए पुन: एक छोटा सा गहना संजो पाई थी और उसी में बहुत संतुष्ट भी थी.

इसी तरह जराजरा संजोतेसंजोते, पता नहीं कहांकहां अपना मन मारते नीरा भाभी पूरी तरह विजय के जीवन में रचबस गई थीं. मेरी पत्नी के साथ भी भाभी का गहरा जुड़ाव है. हैरान हूं कि मेरी पत्नी ने भी कभी कुछ नहीं बताया. अगर पतिपत्नी में कुछ दूरी होती तो कभी तो नीरा भाभी उसे बतातीं.

‘‘नीरा भाभी से मिले तुम्हें कितने दिन होे गए?’’ मैं ने शोभा से पूछा जो उस समय शीना को खाना खिला रही थी.

‘‘काफी समय हो गया है. पहले उन के बच्चों के पेपर चल रहे थे इसलिए मैं नहीं गई. फिर भाभी के मायके में कोई शादी थी उस में वे व्यस्त रहीं, उस के बाद मैं शीना की वजह से नहीं मिल पाई,’’ सहज ही थी शोभा. सहसा बोली, ‘‘हां, मैं ने फोन किया था पर ज्यादा बात नहीं हो पाई थी…चलिए, आज चलें उन के घर.’’

मैं बिना कुछ बात बढ़ाए मान गया. शोभा को कुछ नहीं बताया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि वह पहले से ही कोई पूर्वाग्रह पाल ले. यदि नीरा भाभी में कुछ समस्या होगी तो अपनेआप ही शोभा भांप जाएगी.

शाम को हम दोनों उन के घर पहुंचे. भाभी को देख धक्का सा लगा. बीमार लग रही थीं. मैं पछता उठा कि कैसा इनसान हूं मैं कि जिसे इतना मानता हूं उसी की सुध लेने में काफी समय लगा दिया. समीप जा कर भाभी की बांह पकड़ी, इस से पहले कि मैं कुछ पूछूं, भाभी मेरी छाती से लग कर चीखचीख कर रोने लगीं.

‘‘सब खत्म हो गया भैया…मेरा सब समाप्त हो गया.’’

शोभा भी घबरा गई. भाभी की पीठ सहलासहला कर दुलारने लगी. वह ऐसी कोई भी बात नहीं जानती थी जिस का सिरा पकड़ बात शुरू कर पाती. किसी तरह शांत किया हम ने भाभी को.

‘‘क्या हो गया, भाभी? ऐसा क्या हो गया है जो आप ऐसा कहने लगीं? कितनी कमजोर हो गई हैं आप, बीमार हैं क्या?’’

भाभी चुप थीं. टकटकी लगा कर कभी हमारा मुंह देखतीं और कभी शून्य में कुछ निहारतीं. शोभा बारबार प्रश्न करती रही.

‘‘मेरा घर उजड़ गया है प्रकाश भैया, आप का भाई अब मेरा नहीं रहा…’’

‘‘आप को ऐसा क्यों लगा, भाभी, आप ने ऐसा क्या देखा?’’

मैं शोभा से नजरें चुरा रहा था. मैं नहीं चाहता था, वह जाने कि मैं भी कुछ जानता हूं.

‘‘पुरुष का तो कार्यक्षेत्र ही बाहर होता है भाभी, पूरे दिन में आधे से ज्यादा समय वह घर के बाहर खटता है, किसलिए? अपने परिवार के लिए ही न. विश्वास की डोर पर ही वह दूरदूर तक उड़ता है और अगर आप ही डोर तोड़ देंगी तो कैसे चलेगा.’’

 

कलंक

कलंक- भाग 3 : बलात्कारी होने का कलंक अपने माथे पर लेकर कैसे जीएंगे वे तीनों ?

उन की खामोशी से इन तीनों की घबराहट व चिंता और भी ज्यादा बढ़ गई. संजय के पिता की माली हालत अच्छी नहीं थी. इसलिए रुपए खर्च करने की बात सुन कर उस के माथे पर पसीना झलक उठा था.

‘‘फोन कर के तुम दोनों अपनेअपने पिता को यहीं बुला लो. सब मिल कर ही अब इस मामले को निबटाने की कोशिश करेंगे,’’ रामनाथ की इस सलाह पर अमल करने में सब से ज्यादा परेशानी नरेश ने महसूस की थी.

नरेश का रिश्ता कुछ सप्ताह पहले ही तय हुआ था. अगले महीने उस की शादी होने की तारीख भी तय हो चुकी थी. वह रेप के मामले में फंस सकता है, यह जानकारी वह अपने मातापिता व छोटी बहन तक बिलकुल भी नहीं पहुंचने देना चाहता था. उन तीनों की नजरों में गिर कर उन की खुशियां नष्ट करने की कल्पना ही उस के मन को कंपा रही थी. मन के किसी कोने में रिश्ता टूट जाने का भय भी अपनी जड़ें जमाने लगा था.

नरेश अपने पिता को सूचित न करे, यह बात रामनाथ ने स्वीकार नहीं की. मजबूरन उसे अपने पिता को फौरन वहां पहुंचने के लिए फोन करना पड़ा. ऐसा करते हुए उसे संजय अपना सब से बड़ा दुश्मन प्रतीत हो रहा था.

करीब घंटे भर बाद वकील राकेश का फोन आया.

‘‘रामनाथ, उस इलाके के थानाप्रभारी का नाम सतीश है. मैं ने थानेदार को सब समझा दिया है. वह हमारी मदद करेगा पर इस काम के लिए 10 लाख मांग रहा है.’’

‘‘क्या उस लड़की ने रिपोर्ट लिखवा दी है?’’ रामनाथ ने चिंतित स्वर में सवाल पूछा.

‘‘अभी तो रिपोर्ट करने थाने में कोई नहीं आया है. वैसे भी रिपोर्ट लिखाने की नौबत न आए, इसी में हमारा फायदा है. थानेदार सतीश तुम से फोन पर बात करेगा. लड़की का मुंह फौरन रुपयों से बंद करना पड़ेगा. तुम 4-5 लाख कैश का इंतजाम तो तुरंत कर लो.’’

‘‘ठीक है. मैं रुपयों का इंतजाम कर के रखता हूं.’’

संजय के लिए 2 लाख की रकम जुटा पाना नामुमकिन सा ही था. उस के पिता साधारण सी नौकरी कर रहे थे. वह तो अपने दोस्तों की दौलत के बल पर ही ऐश करता आया था. जहां कभी मारपीट करने या किसी को डरानेधमकाने की नौबत आती, वह सब से आगे हो जाता. उस के इसी गुण के कारण उस की मित्रमंडली उसे अपने साथ रखती थी.

वह इस वक्त मामूली रकम भी नहीं जुटा पाएगा, इस सच ने आलोक, नरेश और रामनाथ से उसे बड़ी कड़वी बातें सुनवा दीं.

कुछ देर तो संजय उन की चुभने वाली बातें खामोशी से सुनता रहा, पर अचानक उस के सब्र का घड़ा फूटा और वह बुरी तरह से भड़क उठा था.

‘‘मेरे पीछे हाथ धो कर मत पड़ो तुम सब. जिंदगी में कभी न कभी मैं तुम लोगों को अपने हिस्से की रकम लौटा दूंगा. वैसे मुझे जेल जाने से डर नहीं लगता. हां, तुम दोनों अपने बारे में जरूर सोच लो कि जेल में सड़ना कैसा लगेगा?’’ यों गुस्सा दिखा कर संजय ने उन्हें अपने पीछे पड़ने से रोक दिया था.

थानेदार ने कुछ देर बाद रामनाथ से फोन पर बात की और पैसे के इंतजाम पर जोर डालते हुए कहा कि जरूरत पड़ी तो रात में आप को बुला लूंगा या सुबह मैं खुद ही आ जाऊंगा.

नरेश के पिता विजय कपूर ने जब रामनाथ की कोठी में कदम रखा तो उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

रामनाथ ने उन्हें जब उन तीनों की करतूत बताई तो उन की आंखों में आंसू भर आए थे.

अपने बेटे की तरफ देखे बिना विजय कपूर ने भरे गले से रामनाथ से प्रार्थना की, ‘‘सर, आप इस समस्या को सुलझवाइए, प्लीज. अगले महीने मेरे घर में शादी है. उस में कुछ व्यवधान पड़ा तो मेरी पत्नी जीतेजी मर जाएगी.’’

अपने पिता की आंखों में आंसू देख कर नरेश इतना शर्मिंदा हुआ कि वह उन के सामने से उठ कर बाहर बगीचे में निकल आया.

अब संजय व आलोेक के लिए भी उन दोनों के सामने बैठना असह्य हो गया तो वे भी वहां से उठे और बगीचे में नरेश के पास आ गए.

चिंता और घबराहट ने उन तीनों के मन को जकड़ रखा था. आपस में बातें करने का मन नहीं किया तो वे कुरसियों पर बैठ कर सोचविचार की दुनिया में खो गए.

उस अनजान लड़की के रेप करने से जुड़ी यादें उन के जेहन में रहरह कर उभर आतीं. कई तसवीरें उन के मन में उभरतीं और कई बातें ध्यान में आतीं.

इस वक्त तो बलात्कार से जुड़ी उन की हर याद उन्हें पुलिस के शिकंजे में फंस जाने की आशंका की याद दिला रही थी. जेल जाने के डर के साथसाथ अपने घर वालों और समाज की नजरों में सदा के लिए गिर जाने का भय उन तीनों के दिलों को डरा रहा था. डर और चिंता के ऐसे भावों के चलते वे तीनों ही अब अपने किए पर पछता रहे थे.

संजय का व्यक्तित्व इन दोनों से अलग था. इसलिए सब से पहले उस ने ही इस समस्या को अलग ढंग से देखना शुरू किया.

‘‘हो सकता है कि वह लड़की पुलिस के पास जाए ही नहीं,’’ संजय के मुंह से निकले इस वाक्य को सुन कर नरेश और आलोक चौंक कर सीधे बैठ गए.

‘‘वह रिपोर्ट जरूर करेगी…’’ नरेश ने परेशान लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर बलात्कार होने का ढिंढोरा पीट कर हमेशा के लिए लोगों की सहानुभूति दिखाने या मजाक उड़ाने वाली नजरों का सामना करना किसी भी लड़की के लिए आसान नहीं होगा,’’ आलोक ने अपने मन की बात कही.

‘‘वह रिपोर्ट करना भी चाहे तो भी उस के घर वाले उसे ऐसा करने से रोक सकते हैं. अगर रिपोर्ट लिखाने को तैयार होते तो अब तक उन्हें ऐसा कर देना चाहिए था,’’ संजय ने अपनी राय के पक्ष में एक और बात कही.

‘‘मुझे तो एक अजीब सा डर सता रहा है,’’ नरेश ने सहमी सी आवाज में वार्त्तालाप को नया मोड़ दिया.

‘‘कैसा डर?’’

‘‘अगर उस लड़की ने कहीं आत्महत्या कर ली तो हमें फांसी के फंदे से कोई नहीं बचा सकेगा.’’

‘‘उस लड़की का मर जाना उलटे हमारे हक में होगा. तब रेप हम ने किया है, इस का कोई गवाह नहीं रहेगा,’’ संजय ने क्रूर मुसकान होंठों पर ला कर उन दोनों का हौसला बढ़ाने की कोशिश की.

‘‘लड़की आत्महत्या कर के मर गई तो उस के पोस्टमार्टम की रिपोर्ट रेप दिखलाएगी. पुलिस की तहकीकात होगी और हम जरूर पकड़े जाएंगे. यह एसएचओ भी तब हमें नहीं बचा पाएगा. इसलिए उस लड़की के आत्महत्या करने की कामना मत करो बेवकूफो,’’ आलोक ने उन दोनों को डपट दिया.

‘‘मुझे लगता है एसएचओ को इतनी जल्दी बीच में ला कर हम ने भयंकर भूल की है, वह अब हमारा पिंड नहीं छोड़ेगा. लड़की ने रिपोर्ट न भी की तो भी वह रुपए जरूर खाएगा,’’ संजय ने अपनी खीज जाहिर की.

‘‘तू इस बात की फिक्र क्यों कर रहा है? रेप करने में सब से आगे था और अब रुपए निकालने में तू सब से पीछे है.’’

आलोक के इस कथन ने संजय के तनबदन में आग सी लगा दी. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘अपना हिस्सा मैं दूंगा. मुझे चाहे लूटपाट करनी पड़े या चोरी, पर तुम लोगों को मेरा हिस्सा मिल जाएगा.’’

संजय ने उसी समय मन ही मन जल्द से जल्द अमीर बनने का निर्णय लिया. उस का एक चचेरा भाई लूटपाट और चोरी करने वाले गिरोह का सदस्य था. उस ने उस के गिरोह में शामिल होने का पक्का मन उसी पल बना लिया. उस ने अभावों व जिल्लत की जिंदगी और न जीने की सौगंध खा ली.

नरेश उस वक्त का सामना करने से डर रहा था जब वह अपनी मां व जवान बहन के सामने होगा. एक बलात्कारी होने का ठप्पा माथे पर लगा कर इन दोनों के सामने खड़े होने की कल्पना कर के ही उस की रूह कांप रही थी. जब आंतरिक तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया तो अचानक उस की रुलाई फूट पड़ी.

रामनाथ ने अब उन्हें अपने फार्महाउस में भेजने का विचार बदल दिया क्योंकि एसएचओ उन से सवाल करने का इच्छुक था. उन के सोने का इंतजाम उन्होंने मेहमानों के कमरे में किया.

विजय कपूर अपने बेटे नरेश का इंतजार करतेकरते सो गए, पर वह कमरे में नहीं आया. उस की अपने पिता के सवालों का सामना करने की हिम्मत ही नहीं हुई थी.

सारी रात उन तीनों की आंखों से नींद कोसों दूर रही. उस अनजान लड़की से बलात्कार करना ज्यादा मुश्किल साबित नहीं हुआ था, पर अब पकड़े जाने व परिवार व समाज की नजरों में अपमानित होने के डर ने उन तीनों की हालत खराब कर रखी थी.

सुबह 7 बजे के करीब थानेदार सतीश श्रीवास्तव रामनाथ की कोठी पर अपनी कार से अकेला मिलने आया.

उस का सामना इन तीनों ने डरते हुए किया. थाने में बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाने वह अनजान लड़की रातभर नहीं आई थी, लेकिन थानेदार फिर भी 50 हजार रुपए रामनाथ से ले गया.

‘‘मैं अपनी वरदी को दांव पर लगा कर आप के भतीजे और उस के दोस्तों की सहायता को तैयार हुआ हूं,’’ थानेदार ने रामनाथ से कहा, ‘‘मेरे रजामंद होने की फीस है यह 50 हजार रुपए. वह लड़की थाने न आई तो इन तीनों की खुशकिस्मती, नहीं तो 10 लाख का इंतजाम रखिएगा,’’ इतना कह कर वह उन को घूरता हुआ बोला, ‘‘और तुम तीनों पर मैं भविष्य में नजर रखूंगा. अपनी जवानी को काबू में रखना सीखो, नहीं तो एक दिन बुरी तरह पछताओगे,’’ कठोर स्वर में ऐसी चेतावनी दे कर थानेदार चला गया था.

वे तीनों 9 बजे के आसपास रामनाथ की कोठी से अपनेअपने घरों को जाने के लिए बाहर आए. उस लड़की का रेप करने के बाद करीब 1 दिन गुजर गया था. उसे रेप करने का मजा उन्हें सोचने पर भी याद नहीं आ रहा था.

इस वक्त उन तीनों के दिमाग में कई तरह के भय घूम रहे थे. कटे बालों वाली लंबे कद की किसी भी लड़की पर नजर पड़ते ही पहचाने जाने का डर उन में उभर आता. खाकी वरदी वाले पर नजर पड़ते ही जेल जाने का भय सताता. अपने घर वालों का सामना करने से वे मन ही मन डर रहे थे. उस वक्त की कल्पना कर के उन की रूह कांप जाती जब समाज की नजरों में वे बलात्कारी बन कर सदा जिल्लत भरी जिंदगी जीने को मजबूर होंगे.

अगर तीनों का बस चलता तो वे वक्त को उलटा घुमा कर उस लड़की को रेप करने की घटना घटने से जरूर रोक देते. सिर्फ 12 घंटे में उन की हालत भय, चिंता, तनाव और समाज में बेइज्जती होने के एहसास से खस्ता हो गई थी. इस तरह की मानसिक यंत्रणा उन्हें जिंदगी भर भोगनी पड़ सकती है, इस एहसास के चलते वे तीनों अपनेआप और एकदूसरे को बारबार कोस रहे थे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें