Romantic Story in Hindi- रिश्तों की परख: भाग 3

लेखक- शैलेंद्र सिंह परिहार

हमेशा ठंडे दिमाग से काम लेने वाली मम्मी क्रोधित हो गई थीं, ‘नहीं करना किसी के फोनवोन का इंतजार, दूसरा लड़का देखना शुरू कर दीजिए.’

‘पागल न बनो,’ पापा ने समझाया था, ‘अपनी बेटी को यह सपना तुम ने ही दिखाया था, पल भर में उसे कैसे तोड़ दोगी? कभी सोचा है उस के दिल को कितनी ठेस लगेगी?’

एक दिन मां ने मुझ से कहा था, ‘बेटी, कमल शादी के लिए तैयार नहीं है. कहता है कि यदि उस की जबरन शादी की गई तो वह आत्महत्या कर लेगा, अब तू ही बता, हम लोग क्या करें?’

मैं इतना ही पूछ पाई थी, ‘वह इस समय कहां है?’

‘कहां होगा…वहीं…इलाहाबाद में मर रहा है,’ मम्मी ने गुस्से से कहा था.

‘मैं उस से एक बार मिलूंगी…एक बार मां…बस, एक बार,’ मैं ने रोते हुए कहा था.

पापा मुझे ले कर इलाहाबाद गए थे. वह अपने कमरे में ही मिला था. बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई, कपड़े अस्तव्यस्त, हालत पागलों की तरह लग रही थी. पापा मुझे छोड़ कर कमरे से बाहर चले गए. औपचारिक बातचीत होने के बाद वह मुझ से बोला था, ‘तुम लड़कियों को क्या चाहिए, बस, एक अच्छा सा पति, एक सुंदर सा घर, बालबच्चे और घरखर्च के लिए हर महीने कुछ पैसे. लेकिन मेरे सपने दूसरे हैं. अभी शादी के बारे में सोच भी नहीं सकता. तुम जहां मन करे शादी कर लो.’

कमल की बातें सुन कर मुझे भी क्रोध आ गया था, ‘तुम मुझे अपने पास न रखो, लेकिन शादी तो कर सकते हो, मेरे मांबाप भी चिंतामुक्त हों, कब तक वह लोग तुम्हारे आई.ए.एस. बन जाने का इंतजार करते रहेंगे?’

मेरी बात सुनते ही वह गुस्से से चीख पड़ा, ‘इंतजार नहीं कर सकती हो तो मर जाओ लेकिन मेरा पीछा छोड़ो…प्लीज…’

उस की बात सुन मैं सन्न रह गई थी. एक ही पल में 10 सालों से संजोया हुआ स्वप्न बिखर गया था. सोच रही थी, क्या यह वही कमल है? मन से निकली हूक तब शब्दों में इस तरह फूटी थी कि मरूंगी तो नहीं लेकिन एक बात कहती हूं, जब किसी बेबस की ‘आह’ लगती है तो मौत भी नसीब नहीं होती मिस्टर कमलकांत वर्मा, और इसे याद रखना.

घर आ कर मैं मम्मी से बोली थी, ‘आप लोग जहां भी मेरी शादी करना चाहें कर सकते हैं, लेकिन जिस से भी कीजिएगा उसे मेरी पिछली जिंदगी के बारे में पता होना चाहिए.’

1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी सुप्रीम कोर्ट के वकील गौरव के साथ हो गई. एक जमाने में उन के पापा वहीं के जानेमाने वकील थे. हम लोग दिल्ली में ही रहने लगे. गौरव जैसा चाहने वाला पति पा कर मैं कमल को भूल सी गई. साल भर में एक बार ही मायके जाना हो पाता था. इस बार तो अकेली ही जा रही थी. गौरव को कोर्ट का कुछ आवश्यक काम निकल आया था.

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मैं ने घड़ी की तरफ देखा, रात के 3 बज रहे थे. ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी कि अचानक कर्णभेदी धमाका हुआ और आंखों के सामने अंधेरा सा छाता चला गया. जब होश आया तो खुद को अस्पताल में पाया. गौरव भी आ चुके थे. एक ही ट्रैक पर 2 ट्रेनें आ गई थीं. आमनेसामने की टक्कर थी. कई लोग मारे गए थे. सैकड़ों लोग घायल हुए थे. मैं जिस बोगी में थी वह पीछे थी इसलिए कोई खास क्षति नहीं हुई थी फिर भी बेटे की हालत गंभीर थी. उसे 5-6 घंटे बाद होश आया था. 2 दिन बाद जब मैं डिस्चार्ज हो कर जा रही थी तो नर्स ने मुझे एक खत ला कर यह कहते हुए दिया कि मैडम, यह आप के लिए है…देना भूल गई थी…माफ कीजिएगा.

मैं ने आश्चर्य से पूछा था, ‘‘किस ने दिया?’’

‘‘वही, जो आप लोगों को यहां तक ले कर आया था. क्या आप नहीं जानतीं?’’

‘‘नहीं?’’

‘‘कमाल है,’’ नर्स आश्चर्य से बोल रही थी, ‘‘उस ने आप की मदद की, आप के बेटे को अपना खून भी डोनेट किया और आप कहती हैं कि आप उस को नहीं जानतीं?’’

मैं आतुरता से खत को पढ़ने लगी :

‘स्नेह,

सोचा था कि अपने किए की माफी मांग लूंगा लेकिन मृत्यु के इस तांडव ने मौका ही नहीं दिया. रिजर्वेशन टिकट पर ही गौरव का मोबाइल नंबर था. उन्हें फोन कर दिया है. वह जब तक नहीं आते मैं यहां रहूंगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. तुम्हारा गुनाहगार कमल.’

पत्र को गौरव ने भी पढ़ा था. ‘‘अच्छा तो वह कमल था…’’

गौरव खोएखोए से बोले थे, ‘‘सचमुच उस ने बड़ी मदद की, हमारे बेटे को एक नया जीवन दिया है.’’

बात आईगई हो गई. पीछे गौरव को एक केस में काफी व्यस्त पाया था. पूछने पर बस यही कहते, ‘‘समझ लो स्नेह, एक महत्त्वपूर्ण केस है. यदि जीत गया तो बड़ा आत्मिक सुख मिलेगा.’’

1 वर्ष तक केस चलता रहा, फैसला हुआ, गौरव के पक्ष में ही. वह उस दिन खुशी से पागल हो रहे थे. शाम को आते ही बोले, ‘‘यार, जल्दी से अच्छी- अच्छी चीजें बना लो, मेरा एक दोस्त आ रहा है, आई.ए.एस. है.’’

‘‘कौन दोस्त?’’ मैं ने पूछा था.

‘‘जब आएगा तो खुद ही उसे देख लेना, मैं उसी को लेने जा रहा हूं.’’

कुछ देर बाद गौरव वापस आए थे और अपने साथ जिसे ले कर आए थे उसे देख कर मैं अवाक् रह गई. यह तो ‘कमल’ है लेकिन यह कैसे हो सकता है?

‘‘स्नेह,’’ गौरव ने प्यार से कहा था, ‘‘तुम्हें आहत कर के इस ने भी कोई सुख नहीं पाया है. हमारी शादी के 1 साल बाद इस का आई.ए.एस. में चयन हुआ था. लेकिन तब तक लगातार मिलती असफलताओं ने इसे विक्षिप्त कर दिया था. यह पागलों की तरह हरकतें करने लगा था. इस कारण आयोग ने इस की नियुक्ति को भी निरस्त कर दिया था.

‘‘3 साल तक मेंटल हास्पिटल में रहने के बाद जब यह ठीक हुआ तो सब से पहले तुम्हारे ही घर गया, तुम से माफी मांगने के लिए. लेकिन पापाजी ने इसे हमारा पता ही नहीं दिया था और फिर जीवन से निराश, जीवनयापन के लिए इस ने टी.सी. की नौकरी कर ली. आज मैं इसी का केस जीता हूं, अदालत ने इस की पुन: नियुक्ति का फैसला दिया है. आज यह फिर तुम से माफी मांगने ही आया है.’’

वर्षों बाद मुझे वही कमल दिखा था, जिस से मैं पहली बार मिली थी, शर्मीला और संकोची. उस ने अपने दोनों हाथ मेरे सामने जोड़ दिए थे. मुझ से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था. उस की आंखों से प्रायश्चित्त के आंसू बह निकले, ‘‘स्नेह, मैं तुम्हारा अपराधी हूं, एक लक्ष्य पाने के लिए जीवन के ही लक्ष्य को भूल गया था…आप के कहे शब्द…आज भी मेरे हृदय में कांटे की तरह चुभते हैं…लगता है आज भी एक आह मेरा पीछा कर रही है…हो सके तो मुझे माफ कर दो.’’

‘‘कमल,’’ मैं ने भरे गले से कहा, ‘‘मैं ने तो तुम्हें उसी दिन माफ कर दिया था जिस दिन तुम ने मेरी ममता की रक्षा की थी. अब तुम से कोई शिकायत नहीं…तुम जहां भी रहो खुश रहो, यह मेरे मन की आवाज है.’’

‘‘हां, कमल,’’ गौरव भी उसे समझाते हुए बोले थे, ‘‘कल तुम ने एक रिश्ते को परखने में भूल की थी, आज फिर से वही भूल मत करना, मातापिता को खुश रखना, अपना घरसंसार बसाना और अपनी शादी में हमें भी बुलाना…भूल तो न जाओगे?’’

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वह गौरव के गले लग रो पड़ा. निर्मल जल के उस शीतल प्रवाह ने हमारे हृदय के सारे मैल को एक ही पल में धो दिया.

‘‘7 वर्षों तक दिशाहीन और पागलों सा जीवन व्यतीत किया है मैं ने, मर ही चुका था, आप ने तो मुझे नया जीवन ही दिया…कैसे भूल जाऊंगा.’’

कमल के जाने के बाद मैं गौरव के सीने से लगते हुए बोली थी, ‘‘गौरव, सचमुच मुझे आप पर गर्व है…लेकिन यह क्या, आप की आंखों में भी आंसू.’’

‘‘हां…खुशी के हैं, जानती हो सच्चा प्रायश्चित्त वही होता है जब आंसू उस की आंखों से भी निकलें जिन के लिए प्रायश्चित्त किया गया हो, आज कमल का प्रायश्चित्त पूरा हुआ.’’

पति की बात सुन कर स्नेह भी अपनेआप को रोने से न रोक सकी.

Family Story in Hindi- खुशियों की दस्तक: भाग 2

‘‘मैं आप का दर्द समझता हूं. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहा हूं. कितनी खूबसूरत थी मेरी जिंदगी और आज क्या हो गई,’’ कौस्तुभ ने कहा. एकदूसरे का दर्द बांटतेबांटते कौस्तुभ और प्रिया ने एकदूसरे का नंबर भी शेयर कर लिया. फिर अकसर दोनों के बीच बातें होने लगीं. दोनों को एकदूसरे का साथ पसंद आने लगा. वैसे भी दोनों की जिंदगी एक सी ही थी. एक ही दर्द से गुजर रहे थे दोनों. एक दिन घर वालों के सुझाव पर दोनों ने शादी का फैसला कर लिया. कोर्ट में सादे समारोह में उन की शादी हो गई.कौस्तुभ को एक नाइट कालेज में नौकरी मिल गई. साथ ही वह शिक्षा से जुड़ी किताबें भी लिखने लगा और अनुवाद का काम भी करने लगा. 2 साल के अंदर उन के घर एक चांद सा बेटा हुआ. बच्चा पूर्ण स्वस्थ था और चेहरा बेहद खूबसूरत. दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा. बेटे को अच्छी शिक्षा दिला कर ऊंचे पद पर पहुंचाना ही अब उन का लक्ष्य बन गया था. बच्चा पिता की तरह तेज दिमाग का और मां की तरह आकर्षक निकला. मगर थोड़ा सा बड़ा होते ही वह मांबाप से कटाकटा सा रहने लगा. वह अपना अधिकांश वक्त दादादादी या रामू काका के पास ही गुजारता, जिसे उस की देखभाल के लिए रखा गया था.

कौस्तुभ समझ रहा था कि वह बच्चा है, इसलिए उन के जले हुए चेहरों को देख कर डर जाता है. समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. लेकिन 8वीं कक्षा के फाइनल ऐग्जाम के बाद एक दिन उस ने अपने दादा से जिद की, ‘‘बाबा, मुझे होस्टल में रह कर पढ़ना है.’’

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‘‘पर ऐसा क्यों बेटे?’’ बाबा चौंक उठे थे.कौस्तुभ तो अपने बेटे को शहर के सब से अच्छे स्कूल में डालने वाला था. इस के लिए कितनी कठिनाई से दोनों ने पैसे इकट्ठा किए थे. मगर बच्चे की बात ने सभी को हैरत में डाल दिया. दादी ने लाड़ लड़ाते हुए पूछा था, ‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो बेटा, भला यहां क्या प्रौब्लम है तुम्हें? हम इतना प्यार करते हैं तुम से, होस्टल क्यों जाना चाहते हो?’’ मोहित ने साफ शब्दों में कहा था, ‘‘मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि तुम्हारे मांबाप कितने बदसूरत हैं. इसीलिए वे मेरे घर भी नहीं आते. मैं इन के साथ नहीं रहना चाहता.’’ मोहित की बात पर दादी एकदम से भड़क उठी थीं, ‘‘ये क्या कह रहे हो? तुम तो जानते हो कि मम्मीपापा कितनी मेहनत करते हैं तुम्हारे लिए, तभी तुम्हें नएनए कपड़े और किताबें ला कर देते हैं. और तुम्हें कितना प्यार करते हैं, यह भी जानते हो तुम. फिर भी ऐसी बातें कर रहे हो.’’ तभी कौस्तुभ ने मां का हाथ दबा कर उन्हें चुप रहने का इशारा किया और दबे स्वर में बोला, ‘‘ये क्या कर रही हो मम्मी? बच्चा है, इस की गलती नहीं.’’

मगर कई दिनों तक मोहित इसी बात पर अड़ा रहा कि उसे होस्टल में रह कर पढ़ना है, यहां नहीं रहना. दादादादी इस के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. आखिर पूरे घर में चहलपहल उसी की वजह से तो रहती थी. तब एक दिन कौस्तुभ ने अपनी मां को समझाया, ‘‘मां, मैं चाहता हूं, हमारा बच्चा न सिर्फ शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहे और इस के लिए जरूरी है कि हम उसे अपने से दूर रखें. वह हमारे साथ रहेगा तो जाहिर है कभी भी खुश और मानसिक रूप से मजबूत नहीं बन सकेगा. मेरी गुजारिश है कि वह जो चाहता है, उसे वैसा ही करने दो. मैं कल ही देहरादून के एक अच्छे स्कूल में इस के दाखिले का प्रयास करता हूं. भले ही वहां फीस ज्यादा है पर हमारे बच्चे की जिंदगी संवर जाएगी. उसे वह मिल जाएगा, जिस का वह हकदार है और जो मुझे नहीं मिल सका.’’

2 सप्ताह के अंदर ही कौस्तुभ ने प्रयास कर के मोहित का ऐडमिशन देहरादून के एक अच्छे स्कूल में करा दिया, जहां उसे 70 हजार डोनेशन के देने पड़े. पर बच्चे की ख्वाहिश पूरी करने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था. मोहित को विदा करने के बाद प्रिया बहुत रोई थी. उसे लग रहा था जैसे मोहित हमेशा के लिए उस से बहुत दूर जा चुका है. और वास्तव में ऐसा ही हुआ. छुट्टियों में भी मोहित आता तो बहुत कम समय के लिए और उखड़ाउखड़ा सा ही रहता. उधर उस के पढ़ाई के खर्चे बढ़ते जा रहे थे जिन्हें पूरा करने के लिए कौस्तुभ और प्रिया को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही थी. समय बीतते देर नहीं लगती. मोहित अब बड़ा हो चुका था. उस ने बीए के बाद एम.बी.ए. करने की जिद की. अबतक कौस्तुभ के मांबाप दिवंगत हो चुके थे. कौस्तुभ और प्रिया स्वयं ही एकदूसरे की देखभाल करते थे. उन्होंने एक कामवाली रखी थी, जो घर के साथ बाहर के काम भी कर देती थी. इस से उन्हें थोड़ा आराम मिल जाता था. मगर जब मोहित ने एम.बी.ए. की जिद की तो कौस्तुभ के लिए पैसे जुटाना एक कठिन सवाल बन कर खड़ा हो गया. कम से कम 3-4 लाख रुपए तो लगने ही थे. इतने रुपयों का वह एकसाथ इंतजाम कैसे करता?

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तब प्रिया ने सुझाया, ‘‘क्यों न हम घर बेच दें? हमारा क्या है, एक छोटे से कमरे में भी गुजारा कर लेंगे. मगर जरूरी है कि मोहित ढंग से पढ़ाईलिखाई कर किसी मुकाम तक पहुंचे.’’ ‘‘शायद ठीक कह रही हो तुम. घर बेच देंगे तो काफी रकम मिल जाएगी,’’ कौस्तुभ ने कहा. अगले ही दिन से वह इस प्रयास में जुट गया. अंतत: घर बिक गया और उसे अच्छी रकम भी मिल गई. उन्होंने बेटे का ऐडमिशन करा दिया और स्वयं एक छोटा घर किराए पर ले लिया. बाकी बचे रुपए बैंक में जमा करा दिए ताकि उस के ब्याज से बुढ़ापा गुजर सके. 1 कमरे और किचन, बाथरूम के अलावा इस घर में एक छोटी सी बालकनी थी, जहां बैठ कर दोनों धूप सेंक सकते थे.

बेटे के ऐडमिशन के साथ खर्चे भी काफी बढ़ गए थे, अत: उन्होंने कामवाली भी हटा दी और दूसरे खर्चे भी कम कर दिए. अब उन्हें इंतजार था कि बेटे की पढ़ाई पूरी होते ही उस की अच्छी सी नौकरी लग जाए और वे उस के सपनों को पूरा होते अपनी आंखों से देखें. फिर एक खूबसूरत सी लड़की से उस की शादी करा दें और पोतेपोतियों को खिलाएं. मगर एक दिन मोहित के आए फोन ने उन के इस सपने पर भी पल में पानी फेर दिया, जब उस ने बताया कि पापा मुझे सिंगापुर में एक अच्छी जौब मिल गई है और अगले महीने ही मैं हमेशा के लिए सिंगापुर शिफ्ट हो जाऊंगा. ‘‘क्या? सिंगापुर जा रहा है? पर क्यों बेटे?’’ कौस्तुभ की जबान लड़खड़ा गई, ‘‘अपने देश में भी तो अच्छीअच्छी नौकरियां हैं, फिर तू बाहर क्यों जा रहा है?’’ लपक कर प्रिया ने फोन ले लिया था, ‘‘नहींनहीं बेटा, इतनी दूर मत जाना. तुझे देखने को आंखें तरस जाएंगी. बेटा, तू हमारे साथ नहीं रहना चाहता तो न सही पर कम से कम इसी शहर में तो रह. हम तेरे पास नहीं आएंगे, पर इतना सुकून तो रहेगा कि हमारा बेटा हमारे पास ही है. कभीकभी तो तेरी सूरत देखने को मिल जाएगी. पर सिंगापुर चला गया तो हम…’’ कहतेकहते प्रिया रोने लगी थी.

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‘‘ओह ममा कैसी बातें करती हो? भारत में कितनी गंदगी और भ्रष्टाचार है. मैं यहां नहीं रह सकता. विदेश से भी आनाजाना तो हो ही जाता है. कोशिश करूंगा कि साल दो साल में एक दफा आ जाऊं,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया था. प्रिया के आंसू आंखों में सिमट गए. उस ने रिसीवर रखा और बोली, ‘‘वह फैसला कर चुका है. वह हम से पूरी तरह आजादी चाहता है, इसलिए जाने दो उसे. हम सोच लेंगे हमारी कोई संतान हुई ही नहीं. हम दोनों ही एकदूसरे के दुखदर्द में काम आएंगे, सहारा बनेंगे. बस यह खुशी तो है न कि हमारी संतान जहां भी है, खुश है.’’ उस दिन के बाद कौस्तुभ और प्रिया ने बेटे के बारे में सोचना छोड़ दिया. 1 माह बाद मोहित आया और अपना सामान पैक कर हमेशा के लिए सिंगापुर चला गया. शुरुआत में 2-3 माह पर एकबार फोन कर लेता था, मगर धीरेधीरे उन के बीच एक स्याह खामोशी पसरती गई. प्रिया और कौस्तुभ ने दिल पत्थर की तरह कठोर कर लिया. खुद को और भी ज्यादा कमरे में समेट लिया. धीरेधीरे 7 साल गुजर गए. इन 7 सालों में सिर्फ 2 दफा मोहित का फोन आया. एक बार अपनी शादी की खबर सुनाने को और दूसरी दफा यह बताने के लिए कि उस का 1 बेटा हो गया है, जो बहुत प्यारा है.

Social Story in Hindi: डुप्लीकेट- भाग 3: आखिर क्यों दुखी था मनोहर

निशा के साथ मनोहर का मेलजोल बढ़ता रहा. वह भी फिल्म नगरी के इस अंधकार से ऊब चुकी थी. वह भी यहां से कहीं दूर जाना चाहती थी, पर अकेली कहां जाए? हर जगह इनसान के रूप में ऐसे भेडि़ए मौजूद हैं जो उस जैसी अकेली को नोचनोच कर खा जाना चाहते हैं.

मनोहर व निशा को एकदूसरे के सहारे की जरूरत थी. सो, उन्होंने शादी कर ली.

कुछ दिनों बाद वे दोनों मुंबई से हजारों किलोमीटर दूर इस शहर में आ गए थे.

यहां आ कर अपने पैर जमाने के लिए मनोहर को बहुत मेहनत करनी पड़ी थी.

15 साल बीत गए. इस बीच निशा ने एक बेटी को जन्म दिया, जिसे मधुरिमा कहा जाने लगा. मधुरिमा अब 10वीं में और कमल बीए फाइनल में पढ़ रहा था.

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जनकपुरी में रिकशा रुका तो मनोहर यादों से बाहर निकला. रिकशे वाले को पैसे दे कर वह भारी मन से घर पहुंचा. एक कमरे में सोफे पर जा कर वह पसर गया. उस ने आंखें बंद कर लीं. बारबार आंखों के सामने वही सीन आ रहा था, जब नीलू सीढि़यों से लुढ़क कर गिरती है.

मनोहर के पास आ कर निशा सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘देख आए वह सीन. सचमुच देखा नहीं जाता. बहुत दुख होता है. उस समय नीलू को कितना दर्द सहना पड़ा होगा.’’

मनोहर कुछ नहीं बोला.

‘‘मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर निशा रसोईघर की ओर चल दी.

मनोहर की नजर दीवार पर लगी नीलू की तसवीर पर चली गई. वह एकटक उस की ओर ही देखता रहा.

निशा ने चाय मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘चाय पी लीजिए. मन ज्यादा दुखी करने से कुछ नहीं होगा.’’

मनोहर ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘कमल अभी तक नहीं आया? कहां रह गया वह? उस का कोई फोन आया या नहीं?’’

‘‘हां, एक घंटा पहले आया था कि अभी पहुंच रहा हूं.’’

‘‘फिल्म की शूटिंग देखने वह लखनपुर गया है?’’

‘‘हां, मैं ने तो उसे बहुत मना किया था, पर वह माना नहीं, बच्चों की तरह जिद करने लगा. कह रहा था कि पहली बार फिल्म की शूटिंग देखने जा रहा हूं. बचपन में मुंबई में देखी होगी, वह तो अब याद नहीं. साथ में उस का दोस्त सूरज भी जा रहा है. बस शाम तक लौट आएंगे?’’

‘‘फिल्मी दुनिया की चमकदमक किसे अच्छी नहीं लगती,’’ मनोहर ने कह कर लंबी सांस छोड़ी.

मधुरिमा दूसरे कमरे में पढ़ाई कर रही थी, तभी घर के बाहर मोटरसाइकिल के रुकने की आवाज आई तो मनोहर समझ गया कि कमल आ गया है.

कमल कमरे में घुसा. उस के माथे पर पट्टी बंधी देख मनोहर व निशा बुरी तरह चौंक उठे.

‘‘यह क्या हुआ? कोई हादसा हो गया था क्या?’’ मनोहर ने पूछा.

‘‘नहीं पापा…’’

‘‘फिर यह चोट…? तू तो लखनपुर शूटिंग देखने गया था न? वहां किसी से झगड़ा तो नहीं हो गया?’’ निशा ने कमल की ओर देखते हुए पूछा.

तभी मधुरिमा भी कमरे से बाहर निकल आई. उस ने भी एकदम पूछा, ‘‘यह क्या हुआ भैया?’’

कमल ने कहा, ‘‘मैं शूटिंग देखने ही गया था. जैसे ही शूटिंग शुरू हुई तो हीरो के डुप्लीकेट के पेट में भयंकर दर्द हो गया. जब दवा से भी आराम नहीं हुआ तो उसे शहर के एक बड़े अस्पताल में भेज दिया. प्रोड्यूसर माथा पकड़ कर बैठ गया, तभी डायरैक्टर की नजर मुझ पर पड़ी…’’

‘‘फिर…?’’ मनोहर ने पूछा.

‘‘डायरैक्टर ने मुझे अपने पास बुलाया. नीचे से ऊपर तक देखा और कहा कि एक छोटा सा काम करोगे. काम बहुत आसान है. हीरोइन नाराज हो कर जाती है. हीरो आवाज देता है, पर हीरोइन सुनती नहीं और चली जाती है. हीरो उस के पीछे दौड़ता है. पैर फिसलता है और छोटी सी पहाड़ी से लुढ़क कर नीचे गिरता है. बस यही काम था उस डुप्लीकेट का.

‘‘मैं मना नहीं कर सका. सीन ओके हो गया. तब डायरैक्टर ने मेरी पीठ थपथपा कर मुझे 10,000 रुपए भी दिए थे. सिर में मामूली सी चोट लग गई है. 2-4 दिन में ठीक हो जाएगी,’’ कमल ने बताया.

यह सुन कर मनोहर ने एक जोरदार थप्पड़ कमल के मुंह पर मारा और चीखते हुए कहा, ‘‘तू भी बन गया डुप्लीकेट. दफा हो जा मेरी नजरों के सामने से. मैं तेरी सूरत भी नहीं देखना चाहता. जा, भाग जा… चला जा मुंबई. वहां जा कर देख कि किस तरह कीड़ेमकोड़े की जिंदगी जीते हैं ये डुप्लीकेट.

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‘‘मेरे साथ चल कर देख फिल्म ‘अपना कौन’ में तेरी मम्मी डुप्लीकेट का काम करतेकरते हमेशा के लिए हमें छोड़ कर चली गई. मुझे इस काम से क्यों नफरत हो गई थी. मैं यह काम छोड़ कर क्यों मुंबई से यहां आ गया था? तुझे भी तो यह सब मालूम है, फिर तू ने क्यों जानबूझ कर अपने माथे पर डुप्लीकेट का लेबल लगा लिया?

‘‘अगर तुझे आज कुछ हो जाता तो हमारा क्या होता? यह सब नहीं सोचा होगा तू ने,’’ कहतेकहते मनोहर का गला भर्रा उठा.

कमल को अपनी भूल का अहसास हो रहा था. वह बोला, ‘‘माफ कर देना पापा, मुझे दुख है कि मैं ने आप का दिल दुखाया. यह मेरी पहली और आखिरी भूल है.’’

Romantic Story in Hindi- बात एक रात की: भाग 3

लेखक : श्री प्रकाश

तपन चित्रा को विदा करने स्टेशन गया. चलते समय चित्रा ने कहा, ‘‘आगे जब कोलकाता आएं तो मुझ से जरूर मिलना. फिलहाल मेरे साल्ट लेक फ्लैट में ही मेरी कंपनी है,’’ और फिर अपना कार्ड तपन को दे दिया.

‘‘श्योर,’’ कह तपन ने भी अपना कार्ड चित्रा को दे दिया.

चित्रा कोलकाता लौट गई. अब वे अकसर फोन पर बातें करते थे. तपन ज्यादातर चित्रा के काम और स्वास्थ्य के बारे में पूछता, तो चित्रा तपन और उस की मां के बारे में. कभी चित्रा मां से बात करती तो हर बार मां यही पूछतीं कि उस ने अपने भविष्य के बारे में क्या फैसला लिया है? चित्रा भी हर बार यही कहती कि अभी कोई फैसला नहीं लिया.

एक बार जब चित्रा का फोन आया तो मां ने उस से पूछा, ‘‘मेरा तपन तुम्हें कैसा लगता है?’’

चित्रा इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी, फिर भी उस ने कहा, ‘‘तपन तो बहुत ही अच्छे इनसान हैं.’’

‘‘वह हमेशा तुम्हारी तारीफ करता रहता है. कहता है कि बहुत मेहनती लड़की है. खूब तरक्की करेगी,’’ मां बोलीं.

‘‘यही तो उन का बड़प्पन है.’’

कुछ दिनों के बाद तपन को कोलकाता जाना पड़ा. वह चित्रा से मिला. चित्रा ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया. दोनों ने काफी देर तक बातें कीं, पर केवल काम से संबंधित. चलते समय चित्रा ने उसे फिर आने को कहा और हाथ मिला कर विदा किया. यह तपन और चित्रा का दूसरा दैहिक स्पर्श था. पहला स्पर्श रिकशे पर हुआ था. इधर चित्रा का प्रोजैक्ट पूरा होने जा रहा था. उस का टैस्ट चल रहा था, जिस के बाद प्रोजैक्ट को अमेरिकन कंपनी को बेचा जाना था. इधर तपन की मां की तबीयत काफी खराब थी. चित्रा भी सुन कर आई थी. बोकारो में बड़े अस्पताल नहीं थे, तो चित्रा ने तपन को उन्हें कोलकाता ले चलने को कहा. वह स्वयं टैक्सी बुक कर मां और तपन के साथ कोलकाता आई. मां को बड़े अस्पताल में भरती कराया गया. 2 हफ्ते में तपन की मां को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. इस बीच तपन चित्रा के फ्लैट में रहा. चित्रा और तपन अब थोड़ा करीब आ चुके थे. दोनों एकदूसरे को बेहतर समझ रहे थे.

तपन की मां को अस्पताल से छुट्टी मिली तो चित्रा उन्हें भी अपने घर ले आई थी और कहा था कि यहां कुछ दिन आराम करने के बाद ही लौटना. 1 हफ्ते तक वे चित्रा के फ्लैट में ही रहे.

1 सप्ताह बाद तपन मां के साथ बोकारो लौट रहा था. पर चलते समय मां ने चित्रा से फिर कहा, ‘‘बेटी, तुम ने तो अपनी बेटी से भी बढ़ कर मेरा खयाल रखा है. कुदरत तुम्हारी हर मनोकामना पूरी करे… पर मेरी बात पर भी सोचना.’’

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‘‘कौन सी बात मां?’’ चित्रा ने पूछा.

‘‘अपने और तपन के बारे में.’’

आप के आशीर्वाद से मेरा प्रोजैक्ट पूरा हो गया है. 2 हफ्तों के अंदर ही इस के

अच्छे परिणाम मिलने की आशा है. फिर आप की बात भी मान लूंगी.

तपन और मां दोनों चित्रा की ओर देखने लगे. चित्रा की तरफ से पहला पौजिटिव संकेत मिला था.

इधर चित्रा के मातापिता भी उस के लिए चिंतित रहते थे. चित्रा ने तपन की चर्चा उन से कर रखी थी. उस ने कहा था कि बोकारो जाने वाली एक रात की बात ने चित्रा को काफी इंप्रैस किया है. इतना ही नहीं, चित्रा के पिता ने एक बार चुपके से बोकारो आ कर तपन के बारे में जानकारी भी ले ली थी. वे तपन से संतुष्ट थे. उन्होंने अपनी सहमति चित्रा को बता दी थी.

इस के 1 महीने के अंदर ही चित्रा ने तपन को फोन पर बताया कि उस का प्रोडक्ट अमेरिका की कंपनी ने अच्छी कीमत दे कर खरीद लिया है. उस की कंपनी के चारों पार्टनर्स को 5-5 करोड़ रुपए का फायदा हुआ है.

तपन की मां ने चित्रा से फोन पर कहा, ‘‘तुम्हारी सफलता पर बहुतबहुत बधाई. देखा तपन ने ठीक ही कहा था कि तुम बहुत मेहनती लड़की हो और जल्द ही तुम्हें तरक्की मिलेगी.’’

‘‘सब आप लोगों के आशीर्वाद से है.’’

‘‘अब तो तेरा प्रोजैक्ट भी पूरा हो गया तो बता तपन के बारे में क्या सोचा है?’’

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‘‘मैं ने कहा था न कि तपन बहुत अच्छे इनसान हैं. मुझे भी अच्छे लगते हैं. इस के आगे मैं क्या बोलूं? हां, एक और सरप्राइज है, मेरी कंपनी को अमेरिका से बहुत बड़ा और्डर मिला है.’’

मां ने जब यह बात तपन को बताई तो उस ने फोन मां के हाथ से ले कर चित्रा से कहा, ‘‘बहुतबहुत बधाई इस दूसरी कामयाबी पर और एक सरप्राइज मेरी ओर से भी है. मुझे प्रमोशन दे कर कंपनी ने कोलकाता औफिस में पोस्टिंग की है. 1 हफ्ते के अंदर जौइन करना होगा.’’

फिर मां ने चित्रा से कहा, ‘‘अब तो और इंतजार नहीं कराना है?’’

‘‘नो मोर इंतजार मांजी. अब आगे आप की मरजी का इंतजार है. आप जो कहेंगी वैसा ही करूंगी,’’ और हंसते हुए फोन काट दिया.

इधर मां की आंखों में भी खुशी के आंसू छलक आए थे.

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कायरता का प्रायश्चित्त: भाग 1

लेखक-  शुचिता श्रीवास्तव

डा. मिहिर ने जैसे ही अपने चेहरे के सामने से किताब हटाई और सामने बैठे मरीज की तरफ देखा तो वह चौंक गए.

चौंकी तो मिताली भी थी पर उस ने अपनेआप को संयत कर लिया था.

‘‘अरे मिहिर, आप?’’ मिताली बोली, ‘‘मैं ने तो सोचा भी नहीं था कि आप यहां हो सकते हैं.’’

‘‘कहो, मिताली, कैसी हो और क्या हुआ तुम्हें जो एक डाक्टर की जरूरत पड़ गई?’’ डा. मिहिर सामान्य स्वर में बोले.

‘‘मिहिर, मैं तो ठीक हूं पर यहां मैं अपने पति नवीन को दिखाने आई हूं,’’ मिताली बोली, ‘‘पिछले 3-4 माह से उन की तबीयत कुछकुछ खराब रहती थी पर इधर कुछ दिनों से काफी अधिक अस्वस्थ रहने लगे हैं,’’ कह कर मिताली ने

डा. मिहिर का परिचय नवीन से करवाया, ‘‘नवीन, डा. मिहिर का घर कानपुर में मेरी बूआ के घर के बगल में है. मेरे फूफाजी और मिहिर के डैडी बचपन के दोस्त हैं.’’

डा. मिहिर ने नवीन का चेकअप किया व कुछ टेस्ट करवाने का परामर्श दिया जिस की रिपोर्ट ले कर अगले दिन आने को कहा.

मिताली व नवीन चले गए पर

डा. मिहिर का मन उचट गया. एक बार उन के मन में आया कि वह घर लौट जाएं लेकिन जब अपने मरीजों का ध्यान आया जो कई दिन पहले नंबर लगवा चुके थे और काफी दूरदूर से आए थे तो उन्होंने अपनेआप को संभाल लिया और चपरासी से मरीजों को अंदर भेजने के लिए कह दिया.

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शाम के समय मिहिर को किसी दोस्त के घर पार्टी में जाना था पर वह वहां न जा कर सीधे घर आ कर चुपचाप बिस्तर पर लेट गए.

डा. मिहिर को बारबार एक ही बात चुभ रही थी कि जिस मिताली के कारण अपना घर, डैडी का अच्छाखासा नर्सिंग होम छोड़ कर उसे इस अनजान शहर में आ कर अपनी प्रैक्टिस जमानी पड़ी वही मिताली उन के शांत जीवन में कंकड़ फेंकने के लिए यहां भी आ गई.

‘‘साहब, चाय लेंगे या कौफी?’’ हरिया ने अंदर आ कर पूछा.

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं लूंगा,’’ मिहिर ने छोटा सा जवाब दिया तो वह चला गया.

उस के जाते ही मिहिर का मन अतीत के सागर में गोते लगाने लगा.

मिताली को पहली बार मिहिर ने रस्तोगी अंकल की बेटी रानी के जन्मदिन की पार्टी में देखा था. यों तो वह रानी के घर वालों के मुंह से मिताली की सुंदरता की चर्चा पहले भी सुन चुका था पर उस दिन जो देखा तो बस देखता ही रह गया था.

हालांकि मिहिर भी कम सुंदर न था. उस पर संपन्न परिवार का इकलौता लड़का, साथ में डाक्टरी की पढ़ाई. पार्टी में आई तमाम लड़कियों की नजरें उस पर टिकी थीं और वे उस से बातें करने को आतुर थीं. पर मिहिर जिस से बात करना चाहता था वह अपनी सहेलियों से बातें करने में व्यस्त थी.

काफी देर बाद मिहिर को मिताली से बात करने का मौका मिला.

‘आप का नाम मिताली है?’ बातचीत शुरू करने के उद्देश्य से मिहिर ने पूछा.

‘हां, पर आप को मेरा नाम कैसे पता चला?’ मिताली ने उसे आश्चर्य से देखते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘सिर्फ नाम ही नहीं, मैं तो आप के बारे में और भी बहुत कुछ जानता हूं,’ मिहिर ने कहा तो मिताली की आंखें आश्चर्य से फैल गईं.

‘अच्छा, और क्याक्या जानते हैं आप मेरे बारे में?’ उस ने पूछा.

‘यही कि आप रानी के मामा की बेटी हैं और एम.बी.ए. की छात्रा हैं. संगीत सुनना, बैडमिंटन खेलना, कविताएं लिखना आप की हौबी है,’ मिहिर बोला.

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‘हां, आप कह तो सच रहे हैं पर मेरे बारे में इतना सबकुछ आप कैसे जानते हैं? क्या मैं आप का परिचय जान सकती हूं?’ मिताली ने कहा.

‘मैं रानी का पड़ोसी हूं. मेरा नाम मिहिर है. मैं मेडिकल अंतिम वर्ष का छात्र हूं. आजकल छुट्टियों में घर आया हूं,’ मिहिर ने अपना परिचय दिया.

तभी मिताली को किसी ने पुकारा और वह वहां से चली गई. मिहिर भी घर लौट आया. उस की आंखों की नींद व मन का चैन उड़ चुका था. दिनरात, सोते- जागते, उठतेबैठते बस उसे मिताली ही नजर आती थी.

उस दिन मिहिर अपनी छोटी बहन रूपाली के साथ शापिंग करने गया था. रूपाली बुटीक में अपने लिए कपड़े पसंद कर रही थी. मिहिर बोर होने लगा तो वह बाहर आ गया. अचानक उस की नजर सामने की गिफ्ट शाप की तरफ गई तो वह चौंक पड़ा. वहां मिताली कुछ खरीद रही थी. मिहिर उस ओर बढ़ चला.

‘हाय, मिताली, कैसी हो और यहां कैसे?’ मिताली के करीब जा कर मिहिर ने पूछा.

‘अरे मिहिर, आप और यहां. दरअसल आज मेरी एक फैं्रड का जन्मदिन है. मैं उसी के लिए गिफ्ट खरीदने आई हूं, और आप?’ मिताली ने उस से कहा.

‘मैं अपनी बहन रूपाली के साथ आया हूं. वह सामने की दुकान से कपड़े खरीद रही है. बोर होने लगा तो अंदर से बाहर आ गया और तुम यहां दिख गईर्ं.’

मिताली ने एक टेबल लैंप पैक करवा लिया. वह पैसे देने के लिए मुड़ी तो मिहिर ने उसे फिर शो केसों की तरफ बुला लिया और एक सफेद संगमरमर से बने ताजमहल की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘मिताली, देखो तो जरा यह कैसा लग रहा है?’

‘बहुत खूबसूरत है,’ मिताली बोली.

मिहिर ने सोचा, क्यों न वह अपने प्यार का इजहार मिताली को यह सुंदर उपहार दे कर करे? यह सोच कर उस ने वह ताजमहल और साथ में एक खूबसूरत पत्थर का बना कीमती ब्रेसलेट भी खरीद लिया.

तभी मिहिर को ढूंढ़ते हुए वहां रूपाली भी आ गई और मिताली को देख कर उस से बातें करने लगी.

मिहिर मन ही मन खुश हुआ कि चलो वह सफाई देने से बच गया वरना न जाने कितनी देर तक उस की छोटी बहन उस से सिर्फ इसलिए लड़ती कि वह उसे बिना बताए क्यों चला आया.

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‘अच्छा अब मैं चलती हूं,’ घड़ी की तरफ नजर डालते हुए मिताली बोली.

‘मिताली, हमारे साथ ही चलो न, मुझे मेरी दोस्त के घर छोड़ कर मिहिर भैया तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देंगे.’

Family Story in Hindi: विश्वास- भाग 2: क्या अंजलि अपनी बिखरती हुई गृहस्थी को समेट पाई?

अंजलि ने शिखा के गाल पर थप्पड़ मारने के लिए उठे अपने हाथ को बड़ी कठिनाई से रोका और गहरीगहरी सांसें ले कर अपने क्रोध को कम करने के प्रयास में लग गई. दूसरी तरफ तनी हुई शिखा आंखें फाड़ कर चुनौती भरे अंदाज में उसे घूरती रहीं.

कुछ सहज हो कर अंजलि ने उस से पूछा, ‘‘वंदना के घर मेरे जाने की खबर तुम्हें उन के घर के सामने रहने वाली रितु से मिलती है न?’’

‘‘हां, रितु मुझ से झूठ नहीं बोलती है,’’ शिखा ने एकएक शब्द पर जरूरत से ज्यादा जोर दिया.

‘‘यह अंदाजा उस ने या तुम ने किस आधार पर लगाया कि मैं वंदना की गैर- मौजूदगी में कमल से मिलने जाती हूं?’’

‘‘आप कल सुबह उन के घर गई थीं और परसों ही वंदना आंटी ने मेरे सामने कहा था कि वह अपनी बड़ी बहन को डाक्टर के यहां दिखाने जाएंगी, फिर आप उन के घर क्यों गईं?’’

‘‘ऐसा हुआ जरूर है, पर मुझे याद नहीं रहा था,’’ कुछ पल सोचने के बाद अंजलि ने गंभीर स्वर में जवाब दिया.

‘‘मुझे लगता है कि वह गंदा आदमी आप को फोन कर के अपने पास ऐसे मौकों पर बुलाता है और आप चली जाती हो.’’

‘‘शिखा, तुम्हें अपनी मम्मी के चरित्र पर यों कीचड़ उछालते हुए शर्म नहीं आ रही है,’’ अंजलि का अपमान के कारण चेहरा लाल हो उठा, ‘‘वंदना मेरी बहुत भरोसे की सहेली है. उस के साथ मैं कैसे विश्वासघात करूंगी? मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारे पापा बसते हैं, और कोई नहीं.’’

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‘‘तब आप उन के पास लौट क्यों नहीं चलती हो? क्यों कमल अंकल के भड़काने में आ रही हो?’’ शिखा ने चुभते लहजे में पूछा.

‘‘बेटी, तेरे पापा के और मेरे बीच में एक औरत के कारण गहरी अनबन चल रही है, उस समस्या के हल होते ही मैं उन के पास लौट जाऊंगी,’’ शिखा को यों स्पष्टीकरण देते हुए अंजलि ने खुद को शर्म के मारे जमीन मेें गड़ता महसूस किया.

‘‘मुझे यह सब बेकार के बहाने लगते हैं. आप कमल अंकल के कारण पापा के पास लौटना नहीं चाहती हो,’’ शिखा अपनी बात पर अड़ी रही.

‘‘तुम जबरदस्त गलतफहमी का शिकार हो, शिखा. वंदना और कमल मेरे शुभचिंतक हैं. उन दोनों का बहुत सहारा है मुझे. दोस्ती के पवित्र संबंध की सीमाएं तोड़ कर कुछ गलत न मैं कर रही हूं न कमल अंकल. मेरे कहे पर विश्वास कर बेटी,’’ अंजलि बहुत भावुक हो उठी.

‘‘मेरे मन की सुखशांति की खातिर आप अंकल से और जरूरी हो तो वंदना आंटी से भी अपने संबंध पूरी तरह तोड़ लो, मम्मी. मुझे डर है कि ऐसा न करने पर आप पापा से सदा के लिए दूर हो जाओगी,’’ शिखा ने आंखों में आंसू ला कर विनती की.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में आया खिंचाव

‘‘तुम्हारे नासमझी भरे व्यवहार से मैं बहुत निराश हूं,’’ ऐसा कह कर अंजलि उठ कर अपने कमरे में चली आई.

इस घटना के बाद मांबेटी के संबंधों में बहुत खिंचाव आ गया. आपस में बातचीत बस, बेहद जरूरी बातों को ले कर होती. अपने दिल पर लगे घावों को दोनों नाराजगी भरी खामोशी के साथ एकदूसरे को दिखा रही थीं.

शिखा की चुप्पी व नाराजगी वंदना और कमल ने भी नोट की. अंजलि उन के किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकी. वह कैसे कहती कि शिखा ने कमल और उस के बीच नाजायज संबंध होने का शक अपने मन में बिठा रखा था.

करीब 4 दिन बाद रात को शिखा ने मां के कमरे में आ कर अपने मन की बातें कहीं.

‘‘आप अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं कि मेरी सहेली रितु ने अन्य सहेलियों को सब बातें बता कर मेरे लिए इज्जत से सिर उठा कर चलना ही मुश्किल कर दिया है. अपनी ये सब परेशानियां मैं आप के नहीं, तो किस के सामने रखूं?’’

मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है

‘‘मुझे तुम्हारी सहेलियों से नहीं सिर्फ तुम से मतलब है, शिखा,’’ अंजलि ने शुष्क स्वर में जवाब दिया, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन क्यों मान लिया? मुझ से ज्यादा तुम्हें अपनी सहेली पर विश्वास क्यों है?’’

‘‘मम्मी, बात विश्वास करने या न करने की नहीं है. हमें समाज में मानसम्मान से रहना है तो लोगों को ऊटपटांग बातें करने का मसाला नहीं दिया जा सकता.’’

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‘‘तब क्या दूसरों को खुश करने के लिए तुम अपनी मां को चरित्रहीन करार दे दोगी? उन की झूठी बातों पर विश्वास कर के अपनी मां को उस की सब से प्यारी सहेली से दूर करने की जिद पकड़ोगी?’’

‘‘मुझ पर क्या गुजर रही है, इस की आप को भी कहां चिंता है, मम्मी,’’ शिखा चिढ़ कर गुस्सा हो उठी, ‘‘मैं आप की सहेली नहीं बल्कि सहेली के चालाक पति से आप को दूर देखना चाहती हूं. अपनी बेटी की सुखशांति से ज्यादा क्या कमल अंकल के साथ जुडे़ रहना आप के लिए जरूरी है?’’

‘‘कमल अंकल मेरे लिए तुम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं, शिखा? मुझे तो अफसोस और दुख इस बात का है कि मेरी बेटी को मुझ पर विश्वास नहीं रहा. मैं पूछती हूं कि तुम ही मुझ पर विश्वास क्यों नहीं कर रही हो?  अपनी सहेलियों की बकवास पर ध्यान न दे कर मेरा साथ क्यों नहीं दे रही हो? मेरे मन में खोट नहीं है, इस बात को मेरे कई बार दोहराने के बावजूद तुम ने उस पर विश्वास न कर के मेरे दिल को जितनी पीड़ा पहुंचाई है, क्या उस का तुम्हें अंदाजा है?’’ बोलते हुए अंजलि का चेहरा गुस्से से लाल हो गया.

‘‘यों चीखचिल्ला कर आप मुझे चुप नहीं कर सकोगी,’’ गुस्से से भरी शिखा उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘चित भी मेरी और पट भी मेरी का चालाकी भरा खेल मेरे साथ न खेलो.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अंजलि फौरन उलझन का शिकार बन गई.

‘‘मतलब यह कि पापा ने अपनी बिजनेस पार्टनर सीमा आंटी को ले कर आप को सफाई दे दी तब तो आप ने उन की एक नहीं सुनी और यहां भाग आईं, और जब मैं आप से कमल अंकल के साथ संबंध तोड़ लेने की मांग कर रही हूं तो किस आधार पर आप मुझे गलत और खुद को सही ठहरा रही हो?’’

साहब- भाग 1: आखिर शादी के बाद दिपाली अपने पति को साहब जी क्यों कहती थी

महरू कामवाली बाई थी. बहुत ही ईमानदार. कपड़े इतने सलीके से पहनती थी कि अगर पोंछा या झाड़ू लगाने के लिए झुके तो मजाल है शरीर का कोई नाजुक हिस्सा दिख जाए. वह कई घरों में काम करती थी. उम्र होगी तकरीबन 42 साल.

रमेश अकेले रहते थे. उन्होंने शादी नहीं की थी और न करने की इच्छा थी. पिछले 4 सालों में महरू रमेश के बारे में और वे महरू के बारे में बहुतकुछ जान चुके थे.

अनपढ़ महरू ने जाति के बाहर शादी की थी. उस का पति शादी के पहले तो ठीक था, पर बाद में शराब पीने की लत लग गई थी. उस ने काम करना छोड़ दिया था. दिनरात शराब में डूबा रहता.

इस बीच महरू के एक बेटी हो गई. घर चलाने के लिए महरू को काम करना पड़ा. उस ने लोगों के घरों में झाड़ूपोंछा लगाने और बरतन धोने का काम शुरू कर दिया. उसे जो मजदूरी मिलती थी, पति छीन कर शराब पी जाता था.

शराब के नशे में बहकते कदमों के चलते एक दिन महरू का पति सड़क हादसे में मारा गया. अब महरू को अपनी बेटी के लिए जीना था.

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महरू जब रमेश के घर काम मांगने आई तो वे उस की सादगी से प्रभावित हुए थे. उन्होंने उस से साफ शब्दों में कहा था कि वे अकेले रहते हैं. घर पर कोई औरत नहीं है. खाना बाहर खाते हैं तो बरतन तो धोने के लिए निकलते नहीं. अब बचा झाड़ूपोंछा, चाहो तो कर सकती हो.

पहले महरू को कुछ डर हुआ, फिर पड़ोस की एक औरत ने उसे रमेश के अच्छे चरित्र के बारे में बताया. उसे काम की जरूरत भी थी. लिहाजा, वह काम करने को तैयार हो गई.

शुरूशुरू में जब महरू काम करने आती और रमेश उस के सामने पड़ते तो उस के चेहरे पर डर सा तैर जाता. अकेले होने की वजह से कुछ संकोच रमेश को भी होता और कभीकभार यह खयाल भी आता कि पता नहीं रुपएपैसे ऐंठने के चक्कर में महरू उन पर कौन सा आरोप लगा दे. महरू जिस कमरे में होती, रमेश दूसरे कमरे में चले जाते.

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आज होटल के भोजन में न जाने क्या था कि रमेश का सिर चकराने लगा. बुखार आ गया. उलटियां भी होने लगीं. वे रातभर बिस्तर पर पड़े रहे. घर के मैडिकल किट में बुखार और पेटदर्द की जो दवाएं थीं, वे खा चुके थे, लेकिन उन की हालत में कोई फर्क नहीं आया.

सुबह महरू ने जब दरवाजे की डोर बैल बजाई, तब रमेश ने बड़ी मुश्किल से दरवाजा खोला. महरू ने जब उन की हालत देखी तो वह घबरा गई. पूरा घर गंदा पड़ा था.

महरू ने सब से पहले गंदगी साफ की. रमेश के सिर पर हाथ रखा और देखा कि तेज बुखार था. उस ने अपने सस्ते से मोबाइल से फोन लगा कर अपनी बेटी को बुलाया.

जब तक महरू की बेटी वहां नहीं पहुंची, तब तक वह साफसफाई करती रही और रमेश को सुना कर बड़बड़ाती रही, ‘‘अकेले कब तक जिएंगे. कोई तो साथ चाहिए. शादी कर के घर बसा लेते तो एक देखभाल करने वाली होती. मैं नहीं आती तो पड़े रहते, पता भी नहीं चलता किसी को.’’

इस के बाद महरू ने रमेश को सहारा दे कर उठाया. उन के हाथमुंह धुलवाए. कपड़े बदलवाए और डाक्टर के पास ले जाने के लिए तैयार कर लिया.

तभी एक आटोरिकशा आ कर रुका. महरू की बेटी उस में से उतरी. बिलकुल फूल सी. गोरी दूध सी.

उम्र 15-16 साल.

महरू ने उस से कहा, ‘‘तू यहीं रहना. मैं आती हूं साहब को डाक्टर से दिखा कर.’’

‘‘क्या हो गया?’’ रमेश की हालत देख कर बेटी ने अपनी मां से पूछा.

‘‘कुछ नहीं. अभी आती हूं. तू घर देखना,’’ महरू ने कुछ तेज आवाज में कहा. फिर बेटी ने कुछ न पूछा.

महरू ने रमेश को सहारा दे कर आटोरिकशा में बिठाया और डाक्टर के पास ले गई. इलाज करवाया. घर वापस लाई. जब तक वे ठीक नहीं हुए तब तक वह उन की देखरेख करती रही. वह अपने घर से दलिया बना कर लाती. समय से दवा देती.

अब महरू रमेश के लिए महज औरत शरीर न रही और न रमेश उस के लिए मर्द शरीर. यह फर्क मिट चुका था. संकोच खत्म हो चुका था. अब वे दोनों एकदूसरे के लिए इनसान थे, मर्दऔरत होने से पहले. भरोसा था एकदूसरे पर.

Family Story in Hindi- अपना अपना रास्ता: भाग 3

उन्होंने समझ लिया था कि उन का और इंद्रा का निबाह होना कठिन था. इंद्रा की बड़ीबड़ी महत्त्वाकांक्षाएं थीं, ऊंचेऊंचे सपने थे, जो उन के छोटे से घर की दीवारों से टकरा कर चूरचूर हो गए थे.

उन का छोटा सा घर, छोटा सा ओहदा, छोटीछोटी इच्छाएं और आवश्यकताएं, कोई भी चीज इंद्रा को पसंद नहीं आई थी. दिनदिनभर पड़ोसिनों के साथ फिल्में देखना और मौल्स के चक्कर लगाना अथवा किसी के घर में किट्टी पार्टियों के साथ नएनए फैशन की साडि़यों व गहनों की चर्चा करना, यही थी उस की कुछ चिरसंचित अभिलाषाएं जो मातापिता के कठोर नियंत्रण से मुक्त हो कर अब स्वच्छंद आकाश में पंख पसार कर उड़ना चाहती थीं.

दिनभर के थकेहारे सुरेंद्र घर लौट कर आते तो दरवाजे पर झूलते ताले को देख उन का तनमन सुलग उठता. ‘क्या तुम अपना घूमनाफिरना 5 बजे तक नहीं निबटा सकतीं, इंद्रा?’

‘ओहो, कौन सा आसमान टूट पड़ा, जो जरा सी देर इंतजार करना पड़ गया. ताश की बाजी चल रही थी, कैसे बीच से उठ कर आ जाती, बोलो?’ उस का स्वर सुरेंद्र को आरपार चीरता चला जाता. ‘खुद तो दिनभर दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते फिरते हैं, मैं कहीं जाऊं तो जवाबतलबी होती है.’

‘नहीं, इंद्रा, मुझे गलत मत समझो. मेरी तरफ से तुम्हें पूरी आजादी है. कहीं जाओ, कहीं घूमो. बस, मेरे आने तक घर लौट आया करो. तुम्हारी खिलीखिली सी मुसकान मेरी दिनभर की थकान हर लेती है.’

सुरेंद्र पत्नी की जिह्वा का हलाहल कंठ में उतार वाणी में मिठास सी घोल देते.

‘ओफ, इच्छाएं तो देखो, मीठीमीठी मुसकान चाहिए इन्हें. करते हैं क्लर्की और ख्वाब देखते हैं महलों के?हुंह, ऐसी ही पलकपांवड़े बिछाने वाली का शौक था तो ले आए होते कोई देहातिन. मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

इंद्रा का तीखा स्वर सुरेंद्र के कानों में लावा सा पिघलाता उतर जाता. अंदर ही अंदर तिलमिला कर वे जबान पर नियंत्रण कर लेते. जितना बोलेंगे, बात बढ़ेगी, अड़ोसीपड़ोसी तमाशा देखेंगे. अभी नईनई शादी हुई है, और अभी से…

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चुपचाप कपड़े बदल कर वे बिस्तर पर पड़ जाते. वे सोचते, ‘क्या विवाह का यही अर्थ है? दिनभर के बाद घर आओ तो पत्नी नदारद. फिर ऊपर से जलीकटी सुनो? क्या शिक्षा का यही अर्थ है कि पति को हर क्षण नीचा दिखाया जाए?’

कैसे खिंचेगी जीवन की यह गाड़ी, जहां पगपग पर आलोचना और अपमान की बड़ीबड़ी शिलाएं हैं. कहां तक ठेल सकेंगे अकेले इस गाड़ी को, जहां दूसरा पहिया साथ देने से ही इनकार कर दे? क्या इन कठोर शिलाखंडों से टकरा कर एक दिन सबकुछ अस्तव्यस्त नहीं हो जाएगा?

जीवन को हतोत्साहित करने वाले इन निराशावादी विचारों को धकेलते हुए मन में आशा की किरण भी झिलमिला जाती कि अभी इंद्रा ने जीवन में देखा ही क्या है? सिर्फ मातापिता का स्नेह, बहनभाइयों का प्यारदुलार. गृहस्थी की जिम्मेदारियां बढ़ेंगी तो स्वयं रास्ते पर आ जाएगी. अभी नादान है. 20-22 की भी कोई आयु होती है.

लेकिन इंद्रा ने तो जैसे पति की हर झिलमिलाती आशा को पांवों तले रौंद कर चूरचूर कर देने का फैसला कर लिया था. 2-2 वर्षों के अंतराल से विनोद, प्रमोद और अचला आते गए. उन के साथ आई उन की नन्हींनन्हीं समस्याएं, उन के नाजुककोमल बंधन, उन के नन्हेनन्हे सुखदुख.

लेकिन इंद्रा को उन के वे भोलेभाले चेहरे, उन की मीठीतुतली वाणी, उन के स्नेहसिक्तकोमल बंधन भी बांध कर न रख सके. नौकरों के सहारे बच्चे छोड़ वह अपने महिला क्लब की गतिविधियों में दिनबदिन उलझती चली गई. वक्तबेवक्त आंधी की तरह घर में आती और तूफान की तरह निकल जाती.

हर दिन एक नया आयोजन, जहां पति और बच्चों का कोई अस्तित्व नहीं था. कोई आवश्यकता भी नहीं थी. शायद इंद्रा गृहस्थी के संकुचित दायरे में बंध कर जीने के लिए बनी ही नहीं थी. उस का अपना अस्तित्व था. अपना रास्ता था. जहां मान था, आदर था, यश और प्रशंसा की फूलमालाएं थीं. जहां से उसे वापस लौटा लाने का हर प्रयत्न सुरेंद्र को पहले से और अधिक तोड़ता चला गया था.

जबजब वे उसे गृहस्थी के दायित्वों के प्रति सजग रहने की सलाह देते, वह कु्रद्ध बाघिन सी भन्ना उठती, ‘तुम चाहते क्या हो? क्या मैं दिनभर अनपढ़गंवार औरतों की तरह बच्चों और चूल्हेचौके में सिर खपाया करूं? क्या मांबाप ने मुझे इसलिए कालेज में पढ़ाया था?’

‘नहीं तो क्या इसलिए पढ़ाया था कि अपनी जिम्मेदारियां नौकरों और पड़ोसियों पर छोड़ कर तुम दिनदिनभर सड़कों की धूल फांकती फिरो. जानती हो तुम्हारा यह घूमनाफिरना, यह सोशल लाइफ इन नन्हेनन्हे बच्चों का भविष्य बरबाद कर रहा है, इन्हें असभ्य और लावारिस बना रहा है. अनाथाश्रम में जा करतुम उन बिन मांबाप के बच्चों को सभ्य और सुशिक्षित बनाने की शिक्षा दिया करती हो, पर यह क्यों नहीं सोचतीं कि तुम्हारी अनुपस्थिति में तुम्हारे इन 3 बच्चों का क्या होगा?

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‘जानती हो, इंदु, भूख लगने पर इन्हें क्या मिलता है? नौकरों की झिड़कियां, थप्पड़. बीमारी में तुम्हारे स्नेहभरे संरक्षण की जगह मिलती है उपेक्षा, अवहेलना, तिरस्कार. सच, इंदु, क्या तुम्हें इन अनाथों पर तनिक भी दया नहीं आती?’

किंतु इंद्रा पर सुरेंद्र के इन तमाम उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था.

पत्नी से उपेक्षित सुरेंद्र देरदेर तक दफ्तर में बैठे कंप्यूटर में दिमाग खपाया करते. पर वहां का वातावरण भी धीरेधीरे असहनीय होने लगा. आतेजाते फब्तियां कसी जातीं, ‘अरे भई, इस बार तरक्की मिलेगी तो मिस्टर सुरेंद्र को. पत्नी शहर की प्रसिद्ध समाजसेविका, बड़ेबड़े लोगों के साथ उठनाबैठना, अच्छेअच्छे आदमियों का पटरा बैठ जाएगा, देख लेना.’

यह कैसा प्यार- भाग 2

‘अंकल, आप कैसी बातें कर रहे हैं? आप की इज्जत मेरी इज्जत. रमा मेरी पत्नी बने, मेरे लिए गर्व की बात होगी.’’

विजय की बात सुन कर रमा के मन में फिर से एक बार कंपन हुई. इस कंपन में प्यार के साथ सम्मान भी था और आभार भी. विजय ने अपने घर में दोटूक उत्तर दिया, ‘‘मैं रमा से ही शादी करूंगा. यह मेरा पहला और आखिरी फैसला है. आप मना करेंगे तो भी मैं शादी करूंगा, चाहे कोर्ट में ही क्यों न करनी पडे़?’’

विजय के परिवार के लोग भी सहमत हो गए. शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. रमा खुश थी, बहुत खुश. उसे बचपन से जवानी तक देखाभला युवक पति के रूप में मिल रहा था. रही विजय के बेरोजगार होने की बात, तो रमा के पिता ने स्पष्ट कह दिया कि ऐसे नेक लड़के के रोजगार लगने की प्रतीक्षा की जा सकती है. यदि नौकरी नहीं मिली तो अपनी जमा पूंजी से विजय के लिए रोजगार की व्यवस्था मैं करूंगा.

रमा के मोबाइल की रिंगटोन बजी. रमा ने मोबाइल उठा कर पूछा ‘‘हैलो कौन?’’

‘‘आप का शुभचिंतक.’’

‘‘नाम बताइए.’’

‘‘मैं बंगाली बाबा. आप को वशीभूत करने के लिए एक व्यक्ति ने मुझे रुपए दिए थे. यदि आप नाम जानना चाहें तो 10 हजार रुपए मेरे अकाउंट में जमा करवा दीजिए.’’

‘‘मुझे नहीं जानना.’’

‘‘हो सकता है जो तंत्रमंत्र के द्वारा आप का वशीकरण चाहता हो, कल आप को दूसरे तरीके से भी नुकसान पहुंचा दे.’’

‘‘कौन है वह?’’

‘‘पहले अकाउंट में रुपए.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं, इस का क्या सुबूत है?’’

‘‘मेरे पास आप का फोटो, घर का पता, मातापिता का नाम, सारी जानकारी है आप की.’’

रमा का माथा ठनका. पिछले दिनों जो कुछ उस के साथ हुआ कहीं ये सब उसी व्यक्ति का कियाधरा तो नहीं है. रमा ने उस के अकाउंट में रुपए जमा करवा कर नाम पूछा. नाम सुन कर रमा भौचक्की रह गई. रमा सीधे पुलिसस्टेशन पहुंची. थाना इंचार्ज सीमा तिवारी से मिली. अपनी बदनामी और उन पत्रों की जानकारी दे कर बाबा द्वारा बताया गया नाम भी बताया.

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‘‘आप चिंता मत करिए. मैं बारीकी से जांच कर के अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाऊंगी.’’

पुलिस ने अपनी जांच शुरू की. रमा की शादी जिस लड़के से होने वाली थी उस लड़के और उस के परिवार वालों को थाने बुला कर पूछताछ की. लड़के को जिस नंबर से फोन पर जान से मारने की धमकी मिली थी, उस नंबर की जांच के साथ उन तमाम पत्रों की भी जांच की गई जो रमा के विरुद्ध महल्ले, कालेज में और लड़के वालों के घर भेजे गए थे. जांच का परिणाम यह निकला कि सबकुछ विजय द्वारा किया गया था. पुलिस की थर्ड डिगरी के आरंभिक दौर में ही विजय ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया. रमा ने गुस्से में आ कर कई थप्पड़ विजय को जड़ दिए.

‘‘क्यों किया तुम ने ऐसा?’’

‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं. तुम्हें पाने के लिए, तुम से शादी करने के लिए किया सब.’’

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम्हें. जिस से प्यार करते हो उसी को सारे शहर में बदनाम कर दिया. यह कैसा प्यार है? यह प्यार है तो नफरत किसे कहते हो? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. मैं तुम्हें अपना दोस्त समझती रही. तुम पर भरोसा करती रही और तुम ने भरोसा तोड़ा, मेरी शादी तुड़वाई. गिर चुके हो तुम मेरी नजरों से. मैं चाहूं तो जेल भिजवा सकती हूं अभी लेकिन फिर तुम्हारी बहन की शादी कैसे होगी? तुम्हारे मातापिता कैसे जी पाएंगे?’’

रमा ने थाना प्रभारी सीमा तिवारी से निवेदन किया, ‘‘मैडम, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. मैं इस व्यक्ति के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करना चाहती. इसे क्षमा करना ही इस की सब से बड़ी सजा होगी.’’

विजय नजरें झुकाएं हवालात में खड़ा था. रमा की डांट से, थप्पड़ से वह अंदर ही अंदर टूट चुका था. रमा थाने के बाहर आई. सामने शादी तोड़ने वाला परिवार खड़ा था. रमा से माफी मांग कर लड़के ने कहा, ‘‘दूसरे के बहकावे में आ कर मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी. मैं शादी करने को तैयार हूं.’’

‘‘लेकिन मैं तैयार नहीं हूं. किसी के बहकावे में आ कर शादी तोड़ने वालों पर विश्वास नहीं कर सकती. शादी के बाद यदि यही बातें तुम तक पहुंचतीं तब क्या करते, तलाक दे देते? विवाह के लिए भरोसा जरूरी है. पहले विश्वास करना सीखिए.’’

रमा ने अपनी स्कूटी उठाई और घर की ओर चल दी. धीरेधीरे यह बात सब जगह पहुंच गई कि रमा को बदनाम करने में विजय का हाथ था. वह तो रमा भली लड़की है जिस ने विजय के परिवार को ध्यान में रख कर उस पर कोई केस नहीं किया.

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रमा अब सरकारी नौकरी करती है. इसी शहर में उस का विवाह हो चुका है एक डाक्टर से. रमा के 2 बच्चे हैं. वह खुशहाल भरापूरा जीवन जी रही है. पुलिस थाने से निकलने के बाद विजय न घर आया न किसी ने उसे देखा. विजय की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज है.

मेरा कुसूर क्या है: भाग 1

लेखक- एस भाग्यम शर्मा

मेरा नाम आकांक्षा है. अब बड़ी होने के बाद अकसर सोचती हूं कि मेरा यह नाम क्यों पड़ा.

सभी कहते थे कि तुम्हारा नाम बहुत प्यारा है. मम्मी कहती थीं, ‘मैं ने तो पंडितजी से पूछा था. उन्होंने कहा था कि इस का नाम आकांक्षा रखना ताकि इस लड़की की सारी इच्छाएं पूरी हों.’

सारी इच्छाएं तो जाने दें, यहां तो जरूरी इच्छाएं भी पूरी नहीं हुईं. आप सोच रहे होंगे कि यह मैं कैसी पहेली बु झा रही हूं.  मगर यह पहेली नहीं, मेरी जिंदगी का सत्य है.

मेरे मम्मीपापा पढ़ेलिखे और नौकरी करने वाले थे. मेरी मां एमए पास थीं. उन्होंने मुझे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाया. आजकल तो गलीगली में इंग्लिश मीडियम के स्कूल हैं. उस समय तो एक ही स्कूल था. जानेमाने स्कूल में मेरा दाखिला करवाया था. मम्मीपापा दोनों ही बड़े खुले विचारों व आधुनिक सोच वाले थे.

मैं पढ़ने में तेज और औलराउंडर थी. पढ़ने के साथ ऐक्ंिटग व संगीत में भी मैं माहिर थी. मम्मी को गाने का बहुत शौक था, इसलिए उन्होंने स्कूल के बाद गायन क्लास में भी ऐडमिशन दिलवाया.

पापा मेरी किसी भी बात को मना नहीं करते थे. उन से मैं ने बहुतकुछ सीखा. तब स्कूल के सभी प्रोग्राम्स में मैं भाग लेती थी. क्या नाटक, क्या वादविवाद प्रतियोगिता और क्या गानाबजाना, सभी में मैं ने पुरस्कार प्राप्त किए थे. मैं टीचर्स की फेवरेट स्टूडैंट्स में से थी.

स्कूल के बाद मैं कालेज में आई. मैं ने नाटकों और लगभग सभी ऐक्टिविटीज में भाग लिया. कालेज के शिक्षकों ने भी मु झे बहुत प्रोत्साहित किया.

मेरी मम्मी आकाशवाणी में प्रोग्राम देती थीं. मैं भी उन के साथ बच्चों के प्रोग्राम में भाग लेती थी. बड़ी होने पर वहां पर मु झे दूसरे प्रोग्राम में लेने लगे. मैं कंपेयरिंग करने लगी.

थोड़े दिनों बाद तो जयपुर शहर में दूरदर्शन भी खुल गया था. मु झे वहां भी जाने का अवसर प्राप्त हुआ. आकाशवाणी में न्यूजरीडर और ड्रामा विभाग में मेरा सलैक्शन हो गया था.

मैं ने पढ़ाई के साथसाथ दूरदर्शन में न्यूजरीडर और ड्रामा आर्टिस्ट के लिए इंटरव्यू दिया. दोनों ही में मेरा सलैक्शन हो गया. मम्मीपापा बड़े खुश हुए. मैं तो खुश  थी ही क्योंकि मेरी मनोकामनाएं जो पूरी हो गई थीं.

सब ठीकठाक चल रहा था. मम्मी को मेरी शादी की चिंता होने लगी. इसी समय मेरे पापा का ऐक्सिडैंट हो गया. उन को आंखों से कम दिखाई देने लगा. जब मोतियाबिंद का औपरेशन कराया तो वह बिगड़ गया. पापा डिप्रैशन में आ गए थे. सो, उन का बाहर आनाजाना कम हो गया.

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अब तो मम्मी को मेरी बहुत चिंता सताने लगी कि बेटी की शादी कैसे होगी? जैसे ही मेरे एमए प्रीवियस का रिजल्ट आया और मैं अच्छे नंबरों से पास हो गई तो अब मेरी मम्मी ज्यादा ही शोर मचाने लगीं, ‘अभी से देखना शुरू करेंगे, तभी लड़का मिलेगा. ढूंढ़ने में भी 2 साल लगेंगे,’ ऐसा वे हरेक से कहती रहतीं.

पता नहीं पापा के डिप्रैशन से उन्हें भी डिप्रैशन हो गया, जिसे मैं पहचान नहीं पाई. मु झ में कोई कमी तो थी नहीं. शक्लसूरत भी मेरी अच्छी थी. पढ़ाई के साथ लगभग हर ऐक्टिविटी में भी आगे थी ही, इस के अलावा मम्मी ने मु झे घर के कामों में भी निपुण बना दिया था.

ननिहाल वालों ने एक लड़का बताया जो लैक्चरार था. पर उन की फैमिली बहुत बैकवर्ड थी. पापा उसे बड़े परेशान हो कर देखने गए. उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आया.

मम्मी को यह बात अच्छी नहीं लगी. वे कहने लगीं, ‘शादी के बाद सब ठीक  हो जाएगा. कालेज में लैक्चरार है और  क्या चाहिए?’

वे कई दिनों तक नाराज रहीं.

पापा बोले, ‘लड़का इंग्लिश मीडियम का पढ़ा हुआ नहीं है, छोटीछोटी जगहों पर उस की पोस्ंिटग होगी. बेटी आकांक्षा को तकलीफ होगी.’

खैर, मेरे तक तो बात पहुंची नहीं, वहीं समाप्त हो गई. अब किसी ने मम्मी को बता दिया एक लड़का सरकारी कालेज में लैक्चरार है. पापामम्मी दोनों देखने गए. लड़का सचमुच अच्छा था, देखने में भी और योग्यता में भी, पर वे लोग बहुत ही पारंपरिक, अंधविश्वासी और पूजापाठ करने वाले थे. मेरे पापा तो आर्यसमाजी थे. उन को ये सब बातें पसंद नहीं आईं. पर मेरी मम्मी तो पीछे ही पड़ गईं. लड़का पढ़ालिखा है, बाहर जा कर तेज हो जाएगा. उदाहरण दे कर सम झाने लगीं.

पापा बोले, ‘ठीक है, शादी कर लेते हैं पर लड़की को एमए पास कर लेने दो.’

लड़के के पापा अड़ गए, ‘नहीं, एक महीने के अंदर ही शादी होगी. नहीं तो यह शादी नहीं होगी?’

पापा तो हरगिज तैयार नहीं थे. उन को लगा दाल में कुछ काला है, पर मम्मी तो पीछे पड़ गईं, ‘लड़के वाले हैं, उन की बात तो माननी ही पड़ेगी. वे कह रहे हैं कि हम उसे पढ़ने के लिए नहीं रोकेंगे, फिर क्या बात है.’

मु झे भी लड़का पसंद तो आया था पर घरपरिवार से मैं संतुष्ट नहीं थी. मम्मी ने अपने पीहर वालों को भी इस बारे में बताया. मामाजी और नानीजी भी आ गए.

लड़का देख कर मामाजी ने कहा, ‘यह तो हीरा है. ऐसे लड़के को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए.’

पापा बोले, ‘देखिए, वे लोग कर्मकांडी लोग हैं. हमारी बिटिया आकांक्षा आधुनिक विचारों की है. कर्मकांड और अंधविश्वास उसे पसंद नहीं.’

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मम्मी बोलीं, ‘अरे लड़का नामी कालेज में पढ़ा हुआ है. अभी तो मांबाप के कहे पर है पर वह बाद में अंधविश्वास, कर्मकांड में विश्वास नहीं करेगा. आप भी तो गांव के थे, अब कैसे बदल गए?’

मेरे घर में सभी खुले विचारों के थे, ‘आप की बहन के घर में तो ऐसा ही वातावरण था. पर सब बच्चे पढ़लिख कर बड़ीबड़ी पोस्टों पर आ गए और सब बदल गए. राजीव भी बदल जाएगा.’

मामा और नानी के बहुत कहने के बाद पापा ने परेशान हो कर ‘हां’ कह दिया. पर उन्होंने कहा कि एक महीने में मैं तैयारी नहीं कर सकता?

‘अजी हम लोग हैं न. हम कर लेंगे.’

पापा को मजबूरी में मानना पड़ा. शादी की तारीख तय कर दी गई. तैयारियां शुरू हो गईं. मैं बात को ठीक से सम झ नहीं पाई, क्योंकि मैं तब सिर्फ 20 साल की थी. मु झे सोचनेसम झने का समय ही नहीं दिया गया.

एक दिन जब सगाई की अंगूठी के लिए हम बाजार गए तो वे लोग भी आए. जब मेरी बात राजीव से हुई तब मैं सम झ चुकी थी कि घर के सभी लोगों की सोच एकजैसी है और सब के सब अंधविश्वासी व रूढि़वादी हैं. तब तक पापा भी सम झ चुके थे.

वहां से वापस आ कर जब मैं ने शादी के लिए मना किया तो सारे रिश्तेदार, जो घर पर आ चुके थे, ने कहा, ‘इस में तो बचपना है. कार्ड छप चुका है, खानेपीने का ऐडवांस दे चुके हैं. अब कुछ नहीं हो सकता. हमारी बदनामी होगी. यह शादी तो करनी होगी.’

मेरे मन में तो आया कि मैं भाग जाऊं. पर पापा के बारे में सोच कर ऐसा न कर सकी.

2-3 दिनों बाद पता चला कि होने वाले ससुरजी का व्यवहार भी बड़ा अजीब है. पापा से कुछ बात हुई थी और तब वे खासा परेशान हुए थे.

घर के बुजुर्गों ने पापा को सम झा दिया, ‘शादी में ऐसी बातें होती रहती हैं, उस पर ध्यान मत दो.’

मेरा मन बहुत ही आहत हुआ. मैं तो रोने लगी.

‘तू हम से ज्यादा सम झती है क्या? समय आने पर सब ठीक हो जाएगा,’ मामानाना कहने लगे.

मम्मी को अपने पीहर वालों पर बहुत भरोसा था. उन्हें लगा कि वे कह रहे हैं तो सब ठीक ही हो जाएगा.

शादी हो गई. शादी भी लड़के वालों ने अपने घर से नहीं की, एक धर्मशाला से की.

पापा बोले, ‘इस में भी कोई राज है जो वे लोग कुछ छिपा रहे हैं. वरना अपनी बहू का गृहप्रवेश अपने घर में करते हैं, धर्मशाला में नहीं.’

‘आकांक्षा, तुम घूंघट करोगी,’ यह हिदायत पहले ही दिन मैं सुन चुकी थी.

जयपुर शहर की बात है. गलती से भी थोड़ा सिर दिखता, तो ससुरजी देवर से कहते, ‘जा पंकज,  भाभी का घूंघट खींच ले.’

मु झे बहुत बुरा लगता पर मैं खून के घूंट पी कर रह जाती.

एक दिन तो मु झ से रहा नहीं गया, ‘पापाजी, आप तो अंडरवियर पहन कर बहूबेटियों के सामने घूमते हो, मेरे सिर ने ऐसा क्या कर दिया, जो उसे ढंकने की जरूरत है?’

ससुरजी ने इसे अपनी इंसल्ट तो मानी पर मु झे घूंघट पर छूट नहीं दी.

फिर नागपंचमी आई. तब मु झ से पारंपरिक ड्रैस लहंगा पहना कर सिर में बोड़ला लगा कर घूंघट में जहां पर सांपों के बिल थे वहां जा कर पूजा करने और बिल में दूध डालने को कहा गया. इसे मु झे सहन करना बहुत मुश्किल हो रहा था.

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उसी समय इस तमाशे को देखने के लिए मेरे साथ पढ़ने वाली एक सहेली वहां आई. वहां सब औरतें कह रही थीं कि नई बहू है. बहुत सुंदर है. इंग्लिश स्कूल में पढ़ी हुई है. इंग्लिश में एमए कर रही है.

उस लड़की ने उत्सुकतावश मेरा घूंघट हटा कर मु झे देखा, तो हैरान रह गई, ‘अरे आकांक्षा, तेरी शादी कब हुई? तू ने हमें क्यों नहीं बुलाया? तू ने तो बताया भी नहीं? तुम तो कहती थीं  कि तुम्हारी फैमिली बहुत आधुनिक सोच वाली है और पापा दकियानूसी सोच वाले लोगों से शादी नहीं करेंगे? मगर तू यहां कैसे फंस गई? ये लोग तो बहुत ही अंधविश्वासी हैं?’

उस का इतना कहना था कि मेरा रोना फूट पड़ा. मैं ने उसे बड़ी मुश्किल से रोका. वह सहेली मेरे साथ ही मेरी ससुराल भी आ गई. जब उस ने घर की हालत देखी तो बोली, ‘आकांक्षा, तू तो सचमुच में फंस गई?’

उस का इतना कहना था कि मु झे बहुत तेज रोना आया. दूसरे दिन जब मैं अपने पीहर आई तो बुरी तरह रोई.

मम्मी कहने लगीं, ‘बेटी, सहन करो, थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा.’

मैं ने कहा, ‘मु झे छत पर जाने नहीं देते. सब लोग कपड़े छत पर सुखाते हैं और मु झ से कहते हैं कि अपने देवर को दे दो वह सुखा देगा. मम्मी बताओ अंडरगारमैंट्स अपने जवान देवर को कैसे दूं फैलाने के लिए?’’

मेरे सासससुर कहते हैं कि अब तेरा घर यही है. अब तू पीहर नहीं जाएगी. बहुत रह लिया पीहर में.

मेरी मम्मी सुन कर बहुत रोईं.

मेरे मम्मीपापा मु झे जान से भी ज्यादा चाहते थे. पापा तो मु झे आकांक्षा भी नहीं बुलाते आकांक्षाजी कहते थे. उन्होंने हमेशा मु झे प्रेम, प्यार और इज्जत से रखा.

जब मैं पीहर आती तो मेरे ससुरजी मेरे पर्स की तलाशी लेते और कहते कि हमारे घर से क्या ले जा रही हो? उन के घर में कुछ भी नहीं था जो मैं साथ ले जाती. और ले भी क्यों जाती क्योंकि पीहर में कोई कमी नहीं थी.

एक दिन तो मु झे बहुत तेज गुस्सा आया. जैसे ही उन्होंने कहा कि पर्स दो तो मैं ने कह दिया, ‘पापाजी, आप तो बहू से घूंघट करवाते हो. फिर आप कैसे बहू के पर्स को खोल कर देख सकते हो? हमें अपने पर्स में सैनिटरी पैड्स भी रखना पड़ता है… हम आप को दिखाएं?’

सास अनपढ़ थीं. उन को कुछ सम झ में नहीं आता. वह भी ससुर से उलटा चुगली करती थीं. ससुरजी हमेशा लड़ने को तैयार रहते थे.

इस बीच ऐसा हुआ कि मेरे दूर के मामाजी, जो जयपुर में ही रहते थे, मेरे ससुरजी उन के औफिस में पहुंच गए.

उन से बोले, ‘आप की भांजी देवरों के अंडरवियर नहीं धोती.’

मामाजी भौचक्के रह गए.

मामाजी ने सिर्फ इतना कहा, ‘साहब, छोटी बात को बड़ा मत कीजिए. अभी तो  वह 20 साल की ही है. घर में लाड़प्यार  से पलीबढ़ी बच्ची है. धीरेधीरे सब ठीक  हो जाएगा.’

शाम को मामाजी घर आए. उन्होंने पूछा, ‘बिटिया आकांक्षा कैसी है?’

‘बहुत बढि़या,’ मम्मी बोलीं.

पापा से पूछा. उन का भी यही जवाब था.

तब वे बोले, ‘मेरी तो कुछ सम झ में नहीं आ रहा. मैं तो जब आप से पूछता हूं कि आकांक्षा कैसी है, सब बढि़या कहते हो. आज आकांक्षा के ससुरजी मेरे औफिस आए. वे जो भी कह रहे थे, बहुत हास्यास्पद था. आप क्यों छिपा रहे हो?’

अब फटने की बारी पापा की थी, ‘मैं ने तो पहले ही कहा था ये लोग बेकार आदमी हैं. आप की बहन मानी नहीं और अपनी जिद पर अड़ी रही. आज मेरी लड़की तकलीफ में है. अब हम क्या कर सकते हैं?’

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