बेरुखी : पति को क्यों दिया ऐश्वर्या ने धोखा – भाग 2

27 फरवरी को नरेश की हत्या हुई थी. जाहिर था, किसी ने पैसे मांगे थे. नरेश ने पैसे नहीं दिए तो उस ने उसे मार दिया. पैसे किसे देना था, कहां देना था, इस का पता लगाना अब मुश्किल था. क्योंकि काल डिटेल्स में ऐसा कोई नंबर नहीं मिला था, जिस पर इस तरह पैसे वसूलने का शक किया जाता. इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा, ‘‘नरेश ने आप से इस बारे में कोई चर्चा की थी?’’

‘‘नहीं.’’ ऐश्वर्या ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है, आप उन की पत्नी हैं. ऐसे मामलों में पति अपनी पत्नी से जरूर जिक्र करता है.’’

‘‘हो सकता है, वह मुझे परेशान न करना चाहते रहे हों.’’

बहरहाल, इंसपेक्टर शर्मा ने उस कागज के टुकड़े को सहेज कर रख लिया. वह बाहर निकले तो उन्हें गार्ड की याद आ गई. वह गार्डरूम में पहुंचे तो वह कहीं दिखाई नहीं दिया. उस की जगह दूसरा गार्ड था. उन्होंने उस से पूछा, ‘‘यहां एक दूसरा गार्ड था, वह कहां गया?’’

‘‘सर, वह तो गांव चला गया.’’

‘‘अब वह कब तक लौट कर आएगा?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा.

‘‘साहब, यह तो यहां के चेयरमैन साहब ही बता सकते हैं.’’

‘‘उस का नामपता तो मिल सकता है?’’

‘‘साहब, मैं उस के बारे में कुछ नहीं बता सकता. मैं तो नयानया आया हूं. आप चाहें तो चेयरमैन साहब से पूछ लें.’’

संयोग से तभी चेयरमैन की कार अंदर दाखिल हुई. गार्ड ने इशारा किया तो साथ के सिपाही ने कार रोकवा ली. चेयरमैन जैसे ही कार से बाहर आए, इंसपेक्टर शर्मा ने उन के पास जा कर कहा, ‘‘मैं पुराने गार्ड के बारे में जानना चाहता हूं. उस का नामपता मिल सकता है?’’

बिना किसी हीलहुज्जत के चेयरमैन ने इंसपेक्टर शर्मा को सब बता दिया. पता चला कि गार्ड नौकरी छोड़ कर चला गया था. वह थाने लौट आए. गार्ड के इस तरह नौकरी छोड़ कर चले जाने से उन्हें लगा कि गार्ड को ऐश्वर्या के बारे में जरूर कोई जानकारी थी. गार्ड नौकरी छोड़ कर चला गया था, इसलिए अब उस से कुछ पूछने के लिए उन्हें ही उस के घर जाना था. फिर भी वह इंतजार करते रहे कि शायद वह आ ही जाए.

इस बीच वह अंधेरे में तीर चलाते रहे. एक दिन उन्होंने नरेश के बड़े भाई को बुला कर पूछा, ‘‘सुना है, आप के और नरेश के बीच रुपयों को ले कर झगड़ा हुआ था?’’

‘‘सवाल ही नहीं उठता. यह बात कहीं आप को रुखसाना ने तो नहीं बताई?’’

‘‘यह रुखसाना कौन है?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं उस का नाम ले कर अपनी जुबान खराब नहीं करना चाहता.’’

‘‘भई, जब नाम ले ही लिया है तो बता भी दीजिए कि यह रुखसाना कौन है? हो सकता है, उसी से नरेश के कातिल तक पहुंचने का रास्ता मिल जाए.’’

कुछ सोच कर बड़े भाई ने कहा, ‘‘रुखसाना नरेश की पत्नी का नाम है.’’

‘‘आप ऐश्वर्या की बात कर रहे हैं?’’

‘‘जी हां, मैं उसी की बात कर रहा हूं.’’

नरेश के बड़े भाई के इस खुलासे से यह साफ हो गया कि रुखसाना ही ऐश्वर्या है. इंसपेक्टर शर्मा समझ गए कि इसी वजह से नरेश को अलग मकान ले कर रहना पड़ रहा था. यह तो घर वालों की शराफत थी कि उन्होंने नरेश को व्यवसाय से अलग नहीं किया था.

ऐश्वर्या की असलियत पता चलने पर इंसपेक्टर शर्मा को उसी पर शक हुआ. उन्हें पहले से ही उस पर शक था. अब उन्होंने अपनी जांच उसी पर केंद्रित कर दी. नरेश देर रात घर लौटता था. इस बीच वह किनकिन लोगों से मिलती थी, कहां जाती थी, अब यह पता लगाना जरूरी हो गया था. ये सारी जानकारियां गार्ड से ही मिल सकती थीं. लेकिन वह अभी तक आया नहीं था. इस का मतलब अब वह आने वाला नहीं था.

इंसपेक्टर शर्मा ने चेयरमैन द्वारा दिए पते पर जाने का विचार किया. वह बिहार के सीवान जिले का रहने वाला था. इंसपेक्टर शर्मा स्थानीय पुलिस की मदद से उस के घर पहुंच गए. पूछने पर उस की पत्नी ने बताया कि वह तो मुंबई चले गए हैं. इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा कि उस ने वाराणसी वाली नौकरी क्यों छोड़ दी तो उस की पत्नी ने बताया कि वहां कोई लफड़ा हो गया था, जिस से उन की जान को खतरा था.

इंसपेक्टर शर्मा चौंके. उन्हें लगा कि गार्ड को कुछ तो पता रहा ही होगा, तभी हत्यारे ने उसे चेतावनी दी होगी. हो सकता है वह खुद ही हत्या में शामिल रहा हो, इसलिए भाग गया है. फिर तो बिना देर किए उन्होंने फ्लाइट पकड़ी और सीधे मुंबई पहुंच गए. गार्ड का मुंबई का पता पत्नी से मिल ही गया था.

संयोग से गार्ड उसी पते पर मिल गया. इंसपेक्टर शर्मा को देख कर उस का चेहरा सफेद पड़ गया. उस ने कहा, ‘‘साहब, मुझे कुछ नहीं पता. मैं तो सिर्फ इसलिए भाग आया था कि एक साहब ने मुझे 50 हजार रुपए दे कर हमेशा के लिए वह नौकरी छोड़ कर चले जाने की हिदायत दी थी. न जाने पर उन्होंने जान से मारने की धमकी दी थी.’’

‘‘उस आदमी को पहचानते हो?’’ इंसपेक्टर शर्मा ने पूछा तो पहले तो गार्ड हीलाहवाली करता रहा. परंतु जब इंसपेक्टर शर्मा ने उसे जेल भेजने की धमकी दी तो उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘साहब, पहले आप भरोसा दिलाइए कि मुझे कुछ नहीं होगा.’’

‘‘विश्वास करो, अगर तुम ने कुछ नहीं किया तो तुम्हें कुछ नहीं होगा.’’ इंसपेक्टर शर्मा ने आश्वासन दिया.

‘‘साहब, उस आदमी का नाम सलीम है.’’

‘‘यह सलीम कौन है?’’

‘‘साहब, वह अकसर शाम को कार से आता था. पूरी रात नरेश साहब के फ्लैट में रुकता और सुबह जल्दी चला जाता था. इस बात को छिपाए रखने के लिए वह मुझे टिप भी देता था.’’

इंसपेक्टर शर्मा चौंके. नरेश से उस का क्या संबंध था, जो वह उस की मौजूदगी में भी उस के फ्लैट में पूरी रात रुकता था. लेकिन कोई आदमी भला किसी गैरमर्द को कैसे अपने फ्लैट में पूरी रात रुकने देगा? यह बात उन की समझ में नहीं आई. बस इतना ही समझ में आया कि किसी बात पर दोनों में तकरार हुई होगी, जिस की वजह से नरेश को जान गंवानी पड़ी. तकरार की वजह रुपया भी हो सकता था और ऐश्वर्या की खूबसूरती भी.

अब इंसपेक्टर शर्मा के सामने चुनौती थी सलीम का पता लगाना. वह भी इस तरह कि ऐश्वर्या को पता न लग सके. इंसपेक्टर शर्मा गार्ड को साथ ले कर वाराणसी आ गए. काफी सोचविचार कर उन्होंने एक चाल चली. वह सीधे ऐश्वर्या के फ्लैट पर पहुंचे और उसे बताया कि खूनी का पता चल गया है. एकदम से चौंक कर ऐश्वर्या ने पूछा, ‘‘कैसे, कौन है हत्यारा?’’

‘‘आप की कागज वाली बात सच निकली. मांगी गई रकम न मिलने पर नरेश के औफिस के एक कर्मचारी ने उस की हत्या की है.’’ झूठ बोल कर इंसपेक्टर शर्मा ऐश्वर्या के चेहरे पर आनेजाने वाले भावों को पढ़ने की कोशिश करते रहे. उन्होंने देखा, ऐश्वर्या के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच आई थीं. उन्होंने पूछा, ‘‘कातिल के पकड़े जाने से आप खुश नहीं हैं क्या?’’

‘‘क्यों नहीं, मैं तो बहुत खुश हूं.’’ ऐश्वर्या ने कहा, ‘‘क्या आप ने उस कर्मचारी को गिरफ्तार कर लिया है?’’

‘‘नहीं, वह फरार है.’’ इंसपेक्टर शर्मा ने कहा. इस तरह उन्हें आगे की जांच के लिए समय मिल गया. इस के बाद उन्होंने सादे कपड़ों में ऐश्वर्या के घर की निगरानी के लिए सिपाहियों को लगा दिया. अगले दिन ही दोपहर के आसपास ऐश्वर्या अपने फ्लैट से निकली और मुख्य सड़क पर आ कर एक जगह खड़ी हो गई. थोड़ी देर में काले रंग की एक कार आई, जिस पर बैठ कर वह चली गई. कार में कौन था, यह सिपाही नहीं देख पाया. लेकिन उस कार का नंबर उस ने नोट कर लिया था. नंबर से पता चला कि वह कार किसी सलीम की थी. इस तरह सलीम का पता चल गया.

हवस की मारी : रेशमा और विजय की कहानी – भाग 2

सुहागरात मनाने के लिए रेशमा को सजा कर पलंग पर बैठाया गया था. विजय कमरे में आया. उस ने अपनी लुभावनी बातों से रेशमा को खुश करना चाहा, हथेली सहलाई, अपने पास खींचना चाहा, तो उस ने मना किया. कई बार उस के छेड़ने पर रेशमा उस से कटती रही, उस की आंखों से आंसू निकलते देख विजय ने सोचा कि पिता की एकलौती औलाद है, उसे पिता से बिछुड़ने की पीड़ा सता रही होगी, क्योंकि उस की मां न थी. बड़े लाड़प्यार से पिता ने पालापोसा और मांबाप दोनों का फर्ज अदा किया था. बहुत पूछने पर रेशमा ने बतलाया कि उसे पीरियड आ रहा है. कुछ रोज तक रेशमा उस की मंसा पूरी नहीं कर सकेगी.

चौथे दिन विवेक राय का मुनीम बड़ी कार ले कर यह बतलाने पहुंचा कि रेशमा के पिता की हालत एकाएक बेटी के चले जाने से खराब हो गई. वे बेटी को देखना चाहते हैं. रेशमा की विदाई कर दी जाए. मजबूरी में बिना सुहागरात मनाए रेशमा को विदा करना पड़ा. विजय ने साथ जाना चाहा, तो मुनीम ने यह समझाते हुए मना कर दिया कि पहली बार उन्हें ससुराल में इज्जत के साथ बुलाया जाएगा.

एक महीने से ज्यादा हो चुका था. रेशमा को वापस भेजने के लिए श्यामाचरन गुजारिश करते रहे, पर विवेक राय ने अपनी बीमारी की बात कह कर मना कर दिया.

डेढ़ महीने बाद विवेक राय खुद अपनी कार से रेशमा को ले कर श्यामाचरन के यहां आए और बेटी को छोड़ कर चले गए. डेढ़ महीने बाद फिर वही सुहागरात आई, तो दोनों के मिलन के लिए कमरा सजाया गया. रेशमा घुटनों में सिर छिपाए सेज पर बैठी रही. उस की आंखों से झरझर आंसू गिर रहे थे. विजय के पूछने पर उस ने कुछ नहीं बताया, बस रोती ही रही.

इतने दिनों बाद पहली सुहागरात को विजय को रेशमा का बरताव बड़ा अटपटा सा लगा. उसे ऐसी उम्मीद जरा भी न थी. पहले सोचा कि रेशमा को अपने घर वालों से दूर होने का दुख सता रहा होगा, इसलिए याद कर के रोती होगी, कुछ देर बाद सामान्य हो जाएगी, पर वह नहीं हुई. जब रेशमा विजय की छेड़खानी से भी नहीं पिघली, तो उस ने पूछा, ‘‘रेशमा, सचसच बताओ, क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं हूं? अगर तुम्हें मेरे साथ सहयोग नहीं करना था, तो शादी क्यों की? पति होने के नाते अब मेरा तुम पर हक है कि तुम्हें खुश रख कर खुद भी खुश रह सकूं.’’

 

रेशमा के जवाब न देने पर विजय ने फिर पूछा, ‘‘रेशमा, डेढ़ महीने तुम्हारे तन से मिलने के लिए बेताबी से इंतजार करता रहा है. आज वह समय आया, तो तुम निराश करने लगी. सब्र की भी एक सीमा होती है, ऐसी शादी से क्या फायदा कि पतिपत्नी बिना वजह एकदूसरे से अलग हो कर रहें,’’ कहते हुए विजय ने रेशमा को अपनी बांहों में कस लिया और चूमने लगा. रेशमा कसमसाई और खुद को उस से अलग कर लिया. लेकिन जब विजय उसे बारबार परेशान करने लगा, तो वह चीख मार कर रो पड़ी.

‘‘आप मुझे परेशान मत कीजिए. मैं आप के काबिल नहीं हूं. मेरे दिल में जो पीड़ा दबी है, उसे दबी रहने दीजिए. मुझे इस घर में केवल दासी बन कर जीने दीजिए, नहीं तो मैं खुदकुशी कर लूंगी.’’ ‘‘खुदकुशी करना मानो एक रिवाज सा हो गया है. मैं शादी नहीं करना चाहता था, तो मेरे बाप ने खुदकुशी करने की धमकी देते हुए मुझे शादी करने को मजबूर कर दिया. शादी करने के बाद मेरी औरत भी खुदकुशी करने की बात करने लगी. अच्छा तो यही होगा कि सब की चाहत पूरी करने के लिए मैं ही कल सब के सामने खुदकुशी कर लूं.’’

‘‘नहीं… नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते. आप इस घर के चिराग हैं… पर आप मुझे मजबूर मत कीजिए. मैं आप के काबिल नहीं रह गई हूं. मुझे अपनों ने ही लूट लिया. मैं उस मुरझाए फूल की तरह हूं, जो आप जैसे अच्छे इनसान के गले का हार नहीं बन सकती. ‘‘मैं आप को अपने इस पापी शरीर के छूने की इजाजत नहीं दे सकती, क्योंकि इस शरीर में पाप का जहर भरा जा चुका है. मैं आप को कैसे बताऊं कि मेरे साथ जो घटना घटी, वह शायद दुनिया की किसी बेटी के साथ नहीं हुई होगी.

‘‘ऐसी शर्मनाक घटना को बताने से पहले मैं मर जाना बेहतर समझूंगी. मुझे मरने भी नहीं दिया गया. 2 बार खुदकुशी करने की कोशिश की, पर बचा ली गई, मानो मौत भी मुझे जीने के लिए तड़पाती छोड़ गई. ‘‘उफ, कितना बुरा दिन था वह, जब मैं आजाद हो कर अंगड़ाई भी न ले

सकी और किसी की बदनीयती का शिकार बन गई.’’ इतना कह कर रेशमा देर तक रोती रही. विजय ने उसे रोने से नहीं रोका. अपनी आपबीती सुनातेसुनाते वह पलंग पर ही बेहोश हो कर गिर पड़ी.

विजय ने रेशमा के मुंह पर पानी के छींटे मारे. उसे होश आया, तो वह उठ बैठी. ‘‘मेरी आपबीती सुन कर आप को दुख पहुंचा. मुझे माफ कर दीजिए,’’ कह कर रेशमा गिड़गिड़ाई.

‘‘तुम ने जो बताया, उस से यह साफ नहीं हुआ कि किस ने तुम पर जुल्म किया? ‘‘अच्छा होगा, तुम उस का खुलासा कर दो, तो तुम्हें सुकून मिलेगा.

‘‘लो, एक गिलास पानी पी लो. तुम्हारा गला सूख गया है, फिर अपनी आपबीती मुझे सुना दो. भरोसा रखो, मैं बुरा नहीं मानूंगा.’’ विजय के कहने पर आंखें पोंछती हुई रेशमा अपनी आपबीती सुनाने को मजबूर हो गई.

 

पीछा करता डर भाग : पीठ में छुरा भाग – 2

मेज के नीचे दो खाली गिलास रखे थे. भानु ने बारीबारी से दोनों गिलास उठा कर सूंघे और मेज पर रखते हुए गर्दन हिला कर हंसते हुए बोला, ‘‘हूं…उं…! दोनों ने पी है.’’

माथुर की हालत रंगेहाथों पकड़े गए चोर जैसी हो गई. वह बहुत कुछ कहना चाहते थे, विरोध करना चाहते थे, लेकिन चाह कर भी वे न विरोध कर सके, न कुछ कह सके.

भानु ने कुर्सी से उठ कर बेड के नीचे झांका. ह्विस्की की बोतल बेड के नीचे उल्टी पड़ी थी. भानु बोतल उठ कर देखते हुए बोला, ‘‘वाह विंटेज,…अच्छी चीज है. शबाब के साथ शराब भी तो बढि़या होनी चाहिए.’’

शराब की बोतल हाथ में उठाए भानु फिर कुर्सी पर आ बैठा. वह बोतल को एक हाथ में ऊपर उठा कर देखते हुए बोला, ‘‘दोनों ने दोदो पैग पिए हैं. इतनी सर्दी में दो पैग से क्या होता है.’’

बोतल मेज पर रख कर भानु ने मेज के नीचे फिर ताकझांक की. मेज के नीचे 2 प्लेंटे रखी थीं. उस ने दोनों प्लेंटे उठा कर मेज पर रख दीं. एक प्लेट में भुने काजू थे, दूसरी में सलाद. भानु प्लेटों की ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘मुझे काजू और सलाद पसंद नहीं हैं. मुझे नानवेज चाहिए. रूमसर्विस को फोन कर के खाली गिलास, सोडा और रोस्ट चिकन लाने को बोलो.’’

नंदन माथुर किंकर्तव्यविमूढ से बैठे थे. उन्हें चुप देख भानु बोला, ‘‘एक काम करो, पहले उसे बाहर बुला लो. ठंड में अकड़ जाएगी. हां उस से बस इतना ही कहना कि मैं तुम्हारा दोस्त हूं.’’

नंदन माथुर जड़वत् बैठे थे. चेहरे पर तनाव. आंखों में विचित्र सा भय. भानु खड़े हो कर उन का कंधा थपथपाते हुए बोला, ‘‘दोस्त, कोई गलत इरादा नहीं है मेरा. जिंदगी जीने का सबका अलगअलग ढंग होता है. यकीन करो, तुम्हारा ये राज इस कमरे से बाहर नहीं जाएगा. चलो उठो, बुला लो उसे.’’

मन मार कर नंदन माथुर उठे और बाथरूम की ओर बढ़ गए. भानु दोनों हाथ पीछे बांधे वहीं खड़ा रहा. नंदन ने बाथरूम का दरवाजा नौक करते हुए धीरे से आवाज दी, ‘‘बाहर आ जाओ.’’

पहले बाथरूम की कुंडी खुलने की आवाज आई, फिर दरवाजा खोल कर एक युवती ने बाहर झांका. नंदन बाथरूम के बाहर ही खड़े थे. वह उसे देखते ही बोले, ‘‘डरो मत, एक दोस्त है. अचानक चला आया.’’

25-25 साल की वह गौरांगी गुलाबी नाइटी में बड़ी खूबसूरत लग रही थी. ठंड के मारे उस का बुरा हाल था. उस के भीगे बालों से अभी तक पानी टपक रहा था, जिस से नाइटी का ऊपरी भाग भीग गया था.

बाथरूम से बाहर निकल कर उस युवती ने पहले एक नजर पास खड़े नंदन पर डाली, फिर भानु की ओर देखा. ठीक उसी समय भानु के पीछे सिमटे हाथ तेजी से आगे आए और क्लिक की आवाज के साथ युवती और नंदन के चेहरे फ्लैश की रोशनी में चमक उठे.

पलभर के लिए नंदन और युवती दोनों ही स्तब्ध रह गए. भानु की चालाकी भांप कर नंदन ने जैसेतैसे अपने आप को संभाला और भानु को देख कर आंखें तरेरते हुए पूछा, ‘‘यह क्या बद्तमीजी है?’’

‘‘इस में बद्तमीजी की क्या बात है?’’ भानु मोबाइल संभाले कुर्सी पर बैठते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों इस पोज में प्रेमीप्रेमिका लग रहे थे. मुझे नेचुरल पोज लगा, सो खींच लिया. ऐसे पोज रोजरोज थोड़े ही बनते हैं.’

नंदन और वह युवती अभी तक सहमे खड़े थे, तभी भानु ने उन की ओर देख कर मोबाइल वाला हाथ ऊपर उठाते हुए कहा, ‘‘वंस मोर’’

नंदन और युवती ने अपनेअपने हाथ उठा कर मुंह छिपाने की कोशिश की, लेकिन तब तक भानु कैमरे का शटर दबा चुका था.

भानु मोबाइल जेब में डालते हुए बोला, ‘‘नंदन, तुम तो ऐसे डर रहे हो, जैसे मैं कोई ब्लैकमेलर हूं. डरो मत दोस्त, मेरा कोई भी गलत इरादा नहीं है.’’

‘‘इरादा तो मैं तुम्हारा समझ गया हूं.’’ नंदन ने गुस्से में कहा. भानु संभल कर बैठते हुए बोला, ‘‘समझ गए हो तो और भी अच्छा है. मुझे अपनी बात कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

नंदन तो डरे हुए थे ही, युवती उन से भी ज्यादा डर गई थी. उस ने मुंह फेर कर तौलिया उठाया और ड्रेसिंग टेबल की ओर बढ गई. नंदन भानु के पास आ खड़े हुए और उस से पूछा, ‘‘तुम चाहते क्या हो, भानु?’’

‘‘सिर्फ दो पैग ह्विस्की,’’ भानु लड़की की ओर इशारा कर के बोला, ‘‘तुम्हारे और उस के साथ. क्या नाम है उस का?’’

‘‘भाड़ में गया नाम. मुझे यह बताओ, मैं ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा है क्या?’’

‘‘मैं भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ूंगा. मेरे खयाल से 2 पैग ह्विस्की पिलाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगडेगा.’’

‘‘बात ह्विस्की की नहीं है. तुम चाहो तो पूरी बोतल ले जाओ.’’

‘‘तो क्या बात है? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही है?’’

‘‘ये फोटो… क्या है ये सब?’’

‘‘मुझे पोज अच्छा लगा, खींच लिया. तुम्हें अच्छा नहीं लगा, बनवा कर तुम्हें दे दूंगा. इस में डरने की क्या बात है?’’

‘‘फोन से डिलीट कर दो, प्लीज.’’

सम्मान की जीत- भाग 2

अगले 15 दिनों तक रूबी अपने पति का बरताव देखने और नजर रखने की गरज से काम पर नहीं गई और न ही घर से बाहर निकली. इन दिनों में करन ने बड़ा ही संयमित जीवन बिताया. रोज नहाधो कर पूजापाठ में ही रमा रहना उस के रोज के कामों में शामिल था. उस का आचरण देख कर रूबी को लगने लगा कि करन जो कह रहा था, वही सही है. गलती करन की नहीं है, गलती उसी औरत की ही है.

कुछ दिनों बाद सबकुछ पहले की  तरह ही हो गया. फिर रूबी काम पर जाने लगी. उसे विश्वास हो चला था कि उस का पति उस से सच बोल रहा है, पर उस का यह विश्वास तब गलत साबित हो गया, जब उस ने एक बार फिर करन और उस औरत को एकसाथ संबंध बनाते हुए पकड़ लिया.

रूबी दुख और गुस्से में डूब गई थी और अब उस ने मन ही मन कुछ कठोर फैसला ले लिया था.

रूबी अपनी बेटियों को अपने साथ ले कर सीधे गांव के प्रधान पारस के पास पहुंची. उसे देख कर पारस की बांछें खिल गईं.

‘‘अरे… अरे भाभीजी… आज हमारे दरवाजे पर आई हैं… अरे, धन्य भाग्य हमारे… बताइए, हमारे लिए क्या

आदेश है?’’

‘‘करन का एक दूसरी औरत के साथ गलत संबंध है… मैं खुद अपनी आंखों से उन दोनों को गलत काम करते देख चुकी हूं… मुझे इंसाफ मिलना चाहिए… अब मैं करन के साथ और नहीं रहना चाहती हूं… तुम इस गांव के प्रधान हो, इसलिए मैं तुम्हारे पास आई हूं.’’

‘‘सही कहा आप ने भाभीजी…  मैं इस गांव का प्रधान हूं… और इस नाते मेरा फर्ज बनता है कि मैं लोगों की मदद करूं और आप की भी… पर, गांव का प्रधान कोई भी फैसला अकेला नहीं

सुना सकता. उस के लिए पंचायत बुलानी पड़ेगी…

‘‘और भाभीजी आप का मामला तो बहुत संगीन है… तो हम ऐसा करते हैं कि कल ही पंचायत बुला लेते हैं. आप कल सुबह 11 बजे पंचायत भवन में आ जाना… तब तक हम करन भैया को भी संदेश पहुंचवा देते हैं.’’

यह सुन कर रूबी वहां से चली आई और अगले दिन 11 बजने का इंतजार करने लगी.

अगले दिन ठीक 10 बजे पंचायत बुलाई गई, जिस में दोनों पक्षों के लोग भी थे. रूबी के मातापिता भी थे, पर करन के मातापिता ने यह कह कर आने से मना कर दिया कि लड़के ने अपनी मरजी से निचली जाति में शादी की है, अब हमें उस से कोई मतलब नहीं है… जैसा किया है… वैसा भुगते… लिहाजा, करन अपना पक्ष खुद ही रखने वाला था.

पंचायत की कार्यवाही शुरू हुई. पहले रूबी को अपना पक्ष रखने का मौका दिया गया.

‘‘मैं कहना चाहती हूं कि मैं ने अपने घर वालों की मरजी के खिलाफ जा कर करन से शादी की थी, जिस से मैं

खुश भी थी, पर अब मेरे पति के गांव की ही दूसरी औरत के साथ गलत संबंध बन गए हैं, जिन्हें मैं ने अपनी आंखों से देखा है.

‘‘इस के बावजूद मैं ने करन को संभलने का एक मौका भी दिया, पर वह फिर भी गलत काम करता रहा, इसलिए मैं उस के साथ और नहीं रहना

चाहती. मैं करन से तलाक लेना चाहती हूं. कार्यवाही आगे कोर्ट तक ले जाने

से पहले मैं पंचायत की इजाजत

चाहती हूं.’’

इस के बाद करन बोला, ‘‘मैं ने तो गले में कंठी धारण कर रखी है. मैं तो ऐसा कर ही नहीं सकता. और सारा गांव जानता है कि जब रूबी काम पर जाती है, तो मैं अपनी बेटियों के साथ घर पर रहता हूं. अब अपनी बेटियों के सामने कोई भला ऐसा काम कैसे कर सकता है… फिर भी रूबी के पास मेरे खिलाफ कोई सुबूत हो तो वह अभी पेश करे. अगर आरोप सही निकलेगा, तो मैं तुरंत ही तलाक दे दूंगा.’’

पारस तो पहले से ही रूबी से बदला लेना चाहता था, पर ऐसा कर नहीं पा रहा था. आज उस के सामने रूबी को जलील करने का अच्छा मौका था और पंचायत में भी सभी पारस की मंडली के ही लोग थे.

पारस द्वारा पंचायत का फैसला सुनाया गया, ‘‘रूबी किसी भी तरह से अपने पति को गुनाहगार साबित नहीं कर पाई और न ही करन के खिलाफ कोई सुबूत ही पेश कर पाई है. पंचायत को लगता है कि करन बेकुसूर है, इसलिए पंचायत के मुताबिक दोनों को एकसाथ ही रहना होगा. इन का तलाक नहीं कराया जा सकता.

‘‘रूबी ने अपने बेकुसूर पति पर बेवजह आरोप लगाए और पंचायत का समय खराब किया, इसलिए रूबी को सजा भुगतनी होगी.

‘‘रूबी को यह पंचायत 30,000 रुपए बतौर जुर्माना जमा करने का हुक्म देती है. और पैसे न जमा कर पाने की हालत में रूबी पर कड़ी कार्यवाही भी हो सकती है. जुर्माना परसों शाम तक प्रधान के पास जमा हो जाना चाहिए.’’

यह फैसला सुन कर रूबी टूट गई थी. जो रूबी कुछ दिनों पहले तक महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जगा रही थी, वही रूबी जिस ने अपने मांबाप की मरजी के खिलाफ जा कर शादी की थी, उसे ही धोखा मिला.

और सब बातों के साथसाथ रूबी के सामने इतने पैसे जुर्माने के तौर पर जमा करने का हुक्म भी बजाना था, नहीं तो जालिम पंचायत न जाने क्या करवा दे.

एक दिन बीत गया था. पोस्ट औफिस में कुछ पैसे जमा थे और कुछ संदूक में थे, उन्हें मिला कर 20,000 रुपए ही हो सके. जब और पैसे का इंतजाम नहीं हो सका, तो तय समय पर रूबी इतने ही पैसों को ले कर पंचायत के सामने पहुंची और जुर्माने के पूरे पैसे जमा कर पाने में अपनी मजबूरी दिखाई.

प्रधान पारस ने बोलना शुरू किया, ‘‘रूबी हमारी भाभी लगती हैं… ये कहें तो हम सारा जुर्माना खुद ही जमा कर देंगे, पर क्यों करें, इंसाफ और धर्म के हाथों मजबूर हैं. हम ऐसा नहीं कर सकते… और हमारी रूबी भाभी जुर्माना नहीं जमा कर पाई हैं, इसलिए पंचों का फैसला है कि इन को बाकी के बचे 10,000 रुपयों के बदले दूसरी तरह का जुर्माना देना होगा.

‘‘और वह जुर्माना यह होगा कि हमारे खेत में जितना कटा हुआ गेहूं पड़ा हुआ है, उसे किसी भी तरह से हमारे आंगन तक पहुंचाना होगा.’’

एक बार फिर यह पंचायती फरमान सुन कर रूबी दंग रह गई थी,

हां, शायद भाग ही जाती, पर दो बच्चियों को छोड़ कर जाना संभव नहीं था. और फिर करन का क्या भरोसा?

‘‘बोलो… जुर्माने के तौर पर दी जाने वाली सजा मंजूर है तुम्हें?’’ प्रधान पारस की आवाज गूंजी. कोई चारा नहीं था उस अबला रूबी के पास, पर वह इस समय एक ऐसे दर्द में थी, जिस से एक दूसरी औरत ही समझ सकती है.

रूबी ने हिम्मत जुटाई और सभी के सामने बोल दिया, ‘‘फैसला मंजूर है, पर मैं अभी यह सजा नहीं झेल सकती.’’

‘‘पर क्यों?’’ एक पंच बोला.

‘‘क्योंकि, मैं रजस्वला हूं…’’

सारी बैठी औरतें सन्न रह गईं और आपस में खुसुरफुसुर करने लगीं.

‘‘मैं इस समय कोई भारी चीज नहीं उठा पाऊंगी, इसलिए मैं विनती करती हूं कि मेरी यह सजा माफ कर दी जाए.’’

प्रधान और पंचायत के कानों में जूं तक नहीं रेंगी. और नहीं किसी औरत के प्रति इस हालत में जरा भी हमदर्दी आई.

भूल किसकी: रीता की बहन ने उसके पति के साथ क्या किया? – भाग 2

खिड़कियों से आती हवा और धूप ने जैसे कमरे को नया जीवन दिया. सफाई होते ही कमरा जीवंत हो उठा. रीता ने एक लंबी सांस ली. बदबू अभी भी थी. उसे उस ने रूम फ्रैशनर से दूर करने की कोशिश की.

कमरे में आते ही पापाजी ने मुआयना किया. खुली खिड़कियों से आती हवा और रोशनी से जैसे उन के अंदर की भी खिड़की खुल गई. चेहरे पर एक मुसकराहट उभर आई. पलट कर रीता की ओर देखा और फिर धीरे से बोले, ‘‘थैंक्स.’’

पापाजी को कोई बीमारी नहीं थी. वे मम्मीजी के जाने के बाद चुपचाप से हो गए थे. खुद को एक कमरे तक सीमित कर लिया था.

तुषार भी दिनभर घर पर नहीं रहता था और नौकरों से ज्यादा बात नहीं करता था. उस के चेहरे पर अवसाद साफ दिखाई देता था. ये सब बातें तुषार उसे पहले ही बता चुका था.

कमरे की तो सफाई हो गई, अब एक काम जो बहुत जरूरी था या वह था पापाजी को अवसाद से बाहर निकालना. वह थक गई थी पर इस थकावट में भी आनंद की अनुभूति हो रही थी. भूख लगने लगी थी. फटाफट नहाधो कर लंच के लिए डाइनिंगटेबल पर पहुंची.

‘‘उफ, कितनी धूल है इस टेबल पर,’’ रीता खीज उठी.

‘‘बहूरानी इस टेबल पर कोई खाना नहीं खाता इसलिए…’’

‘‘अरे रुको पारो… यह थाली किस के लिए ले जा रही हो?’’

‘‘पापाजी के लिए… वे अपने कमरे में ही खाते हैं न… हम वहां खाना रख देते हैं जब उन की इच्छा होती है खा लेते हैं.’’

‘‘लेकिन तब तक तो खाना ठंडा हो जाता होगा? 2 रोटियां और थोड़े से चावल… इतना कम खाना?’’

‘‘पापाजी बस इतना ही खाते हैं.’’

रीता की सम झ में आ गया था कि कोई भी अकेले और ठंडा बेस्वाद खाना कैसे खा सकता है. इसलिए पापाजी की खुराक कम हो गई है. उन की कमजोरी की यह भी एक वजह हो सकती है.

‘‘तुम टेबल साफ करो, पापाजी आज से यहीं खाना खाएंगे.’’

‘‘बहुरानी, कमरे से बाहर नहीं जाएंगे.’’

‘‘आएंगे, मैं उन्हें ले कर आती हूं.’’

पापाजी बिस्तर पर लेटे छत की ओर एकटक देख रहे थे. रीता के आने का उन्हें पता ही नहीं चला.

पापाजी, ‘‘चलिए, खाना खाते हैं.’’

‘‘मेरा खाना यहीं भिजवा दो,’’ वे धीरे से बोले.

‘‘पापाजी मैं तो हमेशा मांपापा और रीमा के साथ खाना खाती थी. यहां अकेले मु झ से न खाया जाएगा,’’ रीता ने उन के पलंग के पास जा कर कहा.

पापाजी चुपचाप आ कर बैठ गए. सभी आश्चर्य से कभी रीता को तो कभी पापाजी को देख रहे थे.

खाने खाते हुए रीता बातें भी कर रही थी पर पापाजी हां और हूं में ही जवाब दे रहे थे. रीता देख रही थी खाना खाते हुए पापाजी के चेहरे पर तृप्ति का भाव था. पता नहीं कितने दिनों बाद गरम खाना खा रहे थे. खाना भी रोज के मुकाबले ज्यादा खाया.

फिर रीता ने थोड़ी देर आराम किया. शाम के 6 बजे थे. फटाफट तैयार हुई. कमरे के इस बदलाव पर तुषार की प्रतिक्रिया जो देखना चाहती थी. बारबार नजर घड़ी पर जा रही थी. तुषार का इंतजार करना उसे भारी लग रहा था.

डोरबैल बजते ही मुसकराते हुए दरवाजा खोला. तुषार का मन खिल उठा. कौन नहीं चाहता घर पर उस का स्वागत मुसकराहटों से हो.

‘‘सौरी, देर हो गई.’’

‘‘कोई बात नहीं.’’

कमरे में पैर रखते हुए चारों ओर नजर घुमाई और फिर एक कदम पीछे हट गया.

‘‘क्या हुआ?’’ रीता ने पूछा.

‘‘शायद मैं गलत घर में आ गया हूं.’’

रीता ने हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा, ‘‘हां, आप मेरे घर में आ गए हो,’’ और फिर दोनों की सम्मिलित हंसी से कमरा भी मुसकरा उठा. रीता को अपने काम की प्रशंसा मिल चुकी थी.

पलंग पर बैठ कर तुषार जूते उतार कर हमेशा की तरह जैसे ही उन्हें पलंग के नीचे खिसकाने लगा रीता बोल पड़ी, ‘‘प्लीज, जूते रैक पर रखें.’’

‘‘सौरी, आगे से ध्यान रखूंगा,’’ कहते हुए उस ने जूते रैक पर रख दिए.

आदतें एकदम से नहीं बदलतीं. उन्हें समय तो लगता ही है. जैसे ही तुषार ने कपड़े उतार कर बिस्तर पर रखे रीता ने उठा कर हैंगर पर टांग दिए. बारबार टोकना व्यक्ति में खीज पैदा करता है, यह बात रीता बहुत अच्छी तरह सम झती थी. आदतन बाथरूम से निकल कर तौलिया फिर बिस्तर पर… जब मुसकराते हुए रीता उसे बाथरूम में टांगने गई तो तुषार को अपनी इस हरकत पर शर्म महसूस हुई. तभी उस ने तय कर लिया कि वह भी कोशिश करेगा चीजें व्यवस्थित रखने की.

‘‘अच्छा बताओ ससुराल में आज का दिन कैसे बिताया? मैं भी न… मु झे दिखाई दे रहा है दिनभर तुम ने बहुत मेहनत की.’’

‘‘पहली बात तो यह है यह ससुराल नहीं मेरा अपना घर है. इसे व्यवस्थित करना भी तो मेरा ही काम है.

फिर रीता ने पापाजी के कमरे की सफाई, पापाजी का डाइनिंग टेबल पर खाना खाना सारी बातें विस्तार से बताईं. तुषार को खुद पर नाज हो रहा था कि इतनी सुघड़ पत्नी मिली.

‘‘अरे, 9 बज गए. समय का पता ही नहीं चला. डिनर का भी समय हो गया. आप पहुंचिए मैं पापाजी को ले कर आती हूं.’’

फिर उन के कमरे में जा कर बोली, ‘‘पापाजी, चलिए खाना तैयार है.’’

इस बार पापाजी बिना कुछ कहे डाइनिंगटेबल पर आ गए.

‘‘पापाजी, मु झे अभी आप की और तुषार की पसंद नहीं मालूम, इसलिए आज अपनी पसंद से खाना बनवाया है.’’

‘‘तुम्हारी पसंद भी तुम्हारी तरह अच्छी ही होगी. क्यों पापाजी?’’

तुषार की इस बात का जवाब पापाजी ने मुसकराहट में दिया.

रीमा को घर के कामों से कोई मतलब नहीं था. रीता की शादी के बाद पापा को सारे काम अकेले ही करने पड़ते थे.

शादी को 1 साल होने वाला था. पापाजी अवसाद से बाहर आ गए थे. उन की दवाइयां भी बहुत कम हो गई थीं. अब वे कमरे में सिर्फ सोने जाते थे.

जैसे एक छोटा बच्चा दिनभर मां के आगेपीछे घूमता है वही हाल पापाजी का भी था. थोड़ी भी देर यदि रीता दिखाई न दे तो पूछने लग जाते. 1 साल में मुश्किल से 1-2 बार ही मायके गई थी. पापाजी जाने ही नहीं देते थे. वह स्वयं भी पापाजी को छोड़ कर नहीं जाना चाहती थी. मायका लोकल होने के कारण मम्मीपापा खुद ही मिलने आ जाते थे.

पापाजी अस्वस्थ होने के कारण अपने बेटे की शादी ऐंजौय नहीं कर पाए थे, इसलिए वे शादी की पहली सालगिरह धूमधाम से मनाना चाहते थे. इस के लिए वे बहुत उत्साहित भी थे. सारे कार्यक्रम की रूपरेखा भी वही बना रहे थे. आखिर जिस दिन का इंतजार था वह भी आ गया.

सुबह से ही तुषार और रीता के मोबाइल सांस नहीं ले पा रहे थे. हाथ में ऐसे चिपके थे जैसे फैविकोल का जोड़ हो. एक के बाद एक बधाइयां जो आ रही थीं. घर में चहलपहल शुरू हो गई थी. मेहमानों का आना शुरू था. कुछ तो रात में ही आ गए थे.

खुल गई आंखें : रवि के सामने आई कैसी हकीकत – भाग 2

मनीष सेना में कैप्टन था. जब रिया मां के पेट में थी उन्हीं दिनों बौर्डर पर सिक्योरिटी का जायजा लेते समय आतंकियों के एक हमले में उस की जान चली गई थी. इस के बाद सुधा टूट कर रह गई थी. पर मनीष की निशानी की खातिर वह जिंदा रही. अब उस ने लोगों की सेवा को ही अपने जीने का मकसद बना लिया था.

थोड़ी देर तक शांत रहने के बाद रवि कुछ बुदबुदाया. शायद उसे प्यास लग रही थी. सुधा उस के बुदबुदाने का मतलब समझ गई थी. उस ने 8-10 चम्मच पानी उस को पिला दिया. पानी पिला कर उस ने रूमाल से रवि के होंठों को पोंछ दिया था. फिर वह पास ही रखे स्टूल पर बैठ कर आहिस्ताआहिस्ता उस का सिर सहलाने लगी थी. यह देख कर रवि की आंखें नम हो गई थीं.

सुधा को रवि के बारे में मालूम था. डाक्टर अशोक लाल ने उसे रवि के बारे में पहले से ही सबकुछ बता दिया था. नर्सिंगहोम में रवि के दफ्तर से आनेजाने वालों का जिस तरह से तांता लगा रहता, उसे देख कर उस के रुतबे का अंदाजा लग जाता था.

कुछ दिनों के इलाज के बाद बेशक अभी भी रवि कुछ बोल पाने में नाकाम था, पर उस के हाथपैर हिलनेडुलने लगे थे. अब वह किसी चिट पर लिख कर अपनी कोई बात सुधा या डाक्टर के सामने आसानी से रख पा रहा था. कभी जब सुधा की रात की ड्यूटी होती तब भी वह पूरी मुस्तैदी से उस की सेवा में लगी रहती.

एक दिन सुबह जब सुधा अपनी ड्यूटी पर आई तो रवि बहुत खुश नजर आ रहा था. सुधा के आते ही रवि ने उसे एक चिट दी, जिस पर लिखा था, ‘आप बहुत अच्छी हैं, थैंक्स.’

चिट के जवाब में सुधा ने जब उस के सिर पर हाथ फेरते हुए मुसकरा कर ‘वैलकम’ कहा तो उस की आंखें भर आई थीं. उस दिन रवि के धीरे से ‘आई लव यू’ कहने पर सुधा शरमा कर रह गई थी.

सुधा का साथ पा कर रवि के मन में जिंदगी को एक नए सिरे से जीने की इच्छा बलवती हो उठी थी. जब तक सुधा उस के पास रहती, उस के दिल को बड़ा ही सुकून मिलता था.

एक दिन सुधा की गैरहाजिरी में जब रवि ने वार्ड बौय से उस के बारे में कुछ जानना चाहा था तो वार्ड बौय ने सुधा की जिंदगी की एकएक परतें उस के सामने खोल कर रख दी थीं.

सुधा की कहानी सुन कर रवि भावुक हो गया था. उस ने उसी पल सुधा को अपनाने और एक नई जिंदगी देने का मन बना लिया था. उस ने तय कर लिया था कि वह कैसे भी हो, सुधा को अपनी पत्नी बना कर ही दम लेगा. पर सवाल यह उठता था कि एक पत्नी के होते हुए वह दूसरी शादी कैसे करता?

उस दिन अस्पताल से छुट्टी मिलते ही रवि दफ्तर के कुछ काम निबटा कर सीधा अपने गांव चला गया था. जब वह सुबह अपने गांव पहुंचा तब घर वाले हैरान रह गए थे. बूढे़ मांबाप की आंखों में तो आंसू आतेआते रह गए थे.

पूरे घर में अजीब सा भावुक माहौल बन गया था. आसपास के लोग रवि के घर के दरवाजे पर इकट्ठा हो कर घर के अंदर का नजारा देखे जा रहे थे.

रवि बहुत कम दिनों के लिए गांव आया था. वह जल्दी से जल्दी गुंजा को तलाक के लिए तैयार कर शहर लौट जाना चाहता था. पर घर का माहौल एकदम से बदल जाने के चलते वह असमंजस में पड़ गया था. उस दिन पूरे समय गुंजा उस की खातिरदारी में लगी रही. वह उसे कभी कोई पकवान बना कर खिलाती तो कभी कोई. पर रवि पर उस की इस मेहमाननवाजी का कोई असर नहीं हो रहा था.

दिनभर की भीड़भाड़ से जूझतेजूझते और सफर की रातभर की थकान के चलते उस रात रवि को जल्दी ही नींद आ गई थी. गुंजा ने अपना व उस का बिस्तर एकसाथ ही लगा रखा था, पर इस की परवाह किए बगैर वह दालान में पड़े तख्त पर ही सो गया था. पर थोड़ी ही देर में उस की नींद खुल गई थी. उसे नींद आती भी तो कहां से. एक तो मच्छरमक्खियों ने उसे परेशान कर रखा था, उस पर से भविष्य की योजनाओं ने थकान के बावजूद उसे जगा दिया था.

रवि देर रात तक सुधा और अपनी जिंदगी के तानेबाने बुनने में ही लगा रहा. रात के डेढ़ बजे उस पर दोबारा नींद

की खुमारी चढ़ी कि उसे अपने पैरों के पास कुछ सरसराहट सी महसूस हुई. उसे ऐसा लगा मानो किसी ने उस के पैरों को गरम पानी में डुबो कर रख दिया हो.

रवि हड़बड़ा कर उठ बैठा. उस ने देखा, गुंजा उस के पैरों पर अपना सिर रखे सुबक रही थी. पास में ही मच्छर भगाने वाली बत्ती चारों ओर धुआं छोड़ रही थी. उस के उठते ही गुंजा उस से लिपट गई और फिर बिलखबिलख कर रोने लगी.

गुंजा रोते हुए बोले जा रही थी, ‘‘इस बार मुझे भी शहर ले चलो. मैं अब अकेली गांव में नहीं रह सकती. भले ही मुझे अपनी दासी बना कर रखना, पर अब अकेली छोड़ कर मत जाना, नहीं तो मैं कुएं में कूद कर मर जाऊंगी.’’

अपहरण नहीं हरण : भाग 2- क्या हरीराम के जुल्मों से छूट पाई मुनिया?

जो मजदूर बस में पहले घुस आए थे, उन्होंने बस की तरकीबन सभी अच्छी सीटों पर कब्जा जमा रखा था. उन्हीं में एक बांका और गठीले बदन का दिखने वाला देवा भी था. आगे से चौथी लाइन में पड़ने वाली बाईं ओर की  2 सीटों में से एक सीट पर खुद जम कर बैठ गया था और दूसरी सीट पर अपना बैग उस ने कुछ इस अंदाज से रख  लिया था कि देखने वाला समझ जाए  कि वह सीट खाली नहीं है.

बस के पास पहुंच कर हरीराम ने जैसेतैसे अटैची, बक्सा और बालटी बस की छत पर लादे जाने वाले सामान के बीच में ठूंस देने के लिए ऊपर चढ़े एक आदमी को पकड़ा दी और मुनिया की पीठ पर धौल जमा कर आगे धकियाते हुए जैसेतैसे बस के अंदर दाखिल हुआ. पीछे से लोगों के धक्के खा कर आगे बढ़ती मुनिया पास से गुजरी और आगे खड़े लोगों के बढ़ने का इंतजार कर रही थी, तभी देवा की आंखें मुनिया की कजरारी आंखों से टकराईं.

दोनों की नजरों से एक कौंध सी निकल कर एकदूसरे के दिल में समा गई. देवा ने पास रखा बैग उठा कर अपनी जांघों पर रख लिया और मुनिया को इशारे से खाली सीट पर बैठ जाने  को कहा.  मजदूरों से भरी इस भीड़ वाली बस में बगल में बैठी कमसिन मुनिया के साथ लंबे और सुहाने सफर की सोच से देवा ने खुश होना शुरू ही किया था कि पीछे से हरीराम की आवाज आई, ‘‘अपने बैठने की बहुत जल्दी है. पति की चिंता नहीं है कि वह कहां बैठेगा,’’ कहते हुए उस ने मुनिया के सिर पर पीछे से एक धौल जमा दी.

हरीराम शायद उसे एकाध हाथ और भी जड़ता, लेकिन तब तक मुनिया खिड़की की तरफ वाली सीट पर बैठ चुकी थी और उस के बगल में देवा ने बैठ कर हरीराम को घूरना शुरू कर दिया. देवा का बस चलता तो ऐसे बेहूदा आदमी की तो वह गरदन दबा देता. तभी पीछे से किसी ने हरीराम को देख कर आवाज लगाई, ‘‘अरे ओ हरीराम, इधर पीछे आ जाओ, एक सीट खाली है.’’ यह उसी फैक्टरी में काम करने वाले जग्गू दादा की आवाज थी. वे मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के रहने वाले थे और  2 महीने बाद ही उन की रिटायरमैंट थी.

भांग के शौकीन जग्गू दादा की आवाज सुन कर हरीराम ने राहत की सांस ली और उन की बगल की सीट पर जा कर बैठ गया. हरीराम इस बात से भी खुश था कि बीड़ी तो बस के अंदर पी नहीं पाएगा, पर पानी के साथ भांग तो पी जा सकेगी. अच्छी बात यह थी कि सब ठुंसे हुए लोग अपनीअपनी सीटों पर बैठ चुके थे और कोई भी आदमी खड़ा नहीं था. बस जैसे ही स्टार्ट हुई, देवा ने अपने बाएं हाथ की कलाई पर बंधी घड़ी को देखा. शाम के 4 बज चुके थे.

बगल में बैठी मुनिया को उस की कलाई में बंधी काले पट्टे वाली घड़ी बहुत पसंद आई. उस की नजरें अपनेआप ही कलाई से हट कर देवा के चेहरे की तरफ चली गईं. इस बार नजरें मिलीं तो मुनिया सहजता से हंस दी. देवा ने सुन रखा था  कि औरत हंसी तो जानो फंसी. यही सोच कर उस के दिल की धड़कनें तेज हो गईं  मुनिया तो इस बात से इतनी खुश थी कि कम से कम उसे अपने खड़ूस पति की बगल में बैठ कर यह लंबा सफर तो नहीं तय करना पड़ेगा.

तभी देवा को लगा कि मुनिया उस से कुछ कह रही है, लेकिन बस के इंजन का शोर इतना तेज था कि वह क्या कह रही है, देवा सुन नहीं पा रहा था, इसलिए मुनिया के पास खिसक कर, थोड़ा झुकते हुए उस ने अपना कान मुनिया के होंठों से मानो चिपका सा दिया. मुनिया का मन तो हुआ कि इसी समय वह देवा के कानों को अपने होंठों से काट ले, पर लाजशर्म भी कुछ होती है, इसलिए उस ने अपने शब्द दोहराए, ‘‘पता नहीं, यह सीट न मिलती तो हम कहां बैठ कर जाते…’’ ‘अरे, सीट न मिलती तो हम तुम को अपने दिल में बैठा के ले चलते,’ देवा ने यह तो मन में सोचा, पर कहा कुछ यों, ‘‘अरे, हमारे होते सीट क्यों न मिलती तुम को.’’ ‘‘तो तुम को मालूम था कि हम ही यहां आ कर बैठेंगे? और मान लो, हमारे पति यहां बैठने की जिद पकड़ लेते तो…?’’ ‘‘तब की तब देखी जाती, पर यह पक्का जानो कि हम अपने बगल में उसे कभी न बैठने देते.

हमें जो इंसान पसंद नहीं आता है, उसे हम अपने से बहुत दूर रखते हैं,’’ देवा ने अपने सीने पर एक हाथ रखते हुए कहा, तो मुनिया उस के चेहरे पर उभर आए दृढ़ विश्वास से बहुत प्रभावित हुई. उस कैंपस से बाहर निकल कर वह बस सड़क पर एक दिशा में जाने को खड़ी हो गई थी. उस का इंजन स्टार्ट था. बीचबीच में ड्राइवर हौर्न भी बजा देता  था और कंडक्टर बस के अगले गेट  पर लटकता हुआ चिल्लाता, ‘‘भोपाल, भोपाल…’’ आखिरकार बस अपनी दिशा की तरफ चल दी.

मुनिया ने गरदन घुमा कर पीछे की तरफ देखा, तो वह निश्चिंत हो गई. जग्गू दादा के साथ हरीराम आराम से बैठा बतिया रहा था. हां, बीचबीच में उस की खांसी उठनी शुरू हो जाती थी. बस ने अब थोड़ी रफ्तार पकड़ ली थी. स्टेयरिंग काटते हुए जब बस झटका खाती और मुनिया का शरीर जब देवा से टकराता तो उसे वह छुअन अच्छी लगती. फिर तो देवा ने अपनी बांहें उस की बांहों से चिपका दीं और पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ मुनिया ने हंसते हुए कहा, ‘‘पहले तुम अपना नाम बताओ, तब हम अपना नाम बताएंगे.’’ हमारा तो सीधासादा नाम है, ‘‘देवा’’. ‘‘तो हमारा कौन सा घुमावदार नाम है. वह भी बिलकुल सीधा है मुनिया…’’ होंठों को गोल कर के कजरारी आंखें नचाते हुए जब मुनिया ने अपना नाम बताया, तो देवा तो उस की इस अदा पर फिदा हो गया.

आज 2 साल बाद मुनिया को अपना मन बहुत हलका लग रहा था. खुद को इतना खुश होते देख उसे एक अरसा बीत गया था. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे वह देवा से इतनी जल्दी घुलमिल कर बातें किए जा रही है. इतने अपनेपन से तो मुनिया से कभी हरीराम ने भी बातें नहीं की थीं. सुहागरात वाले दिन भी नहीं.

आखिर हरीराम ने उसे कौन सा सुख दिया है? जिस्मानी सुख भी तो वह ढंग से नहीं दे पाया. पता नहीं उस के बापू ने क्या देख कर उसे जबरदस्ती हरीराम के पल्ले बांध दिया. मुनिया को इस समय अपनी मां पर भी गुस्सा आया. वह पीछे न पड़ती तो अभी बापू शादी न करता. उस की शादी तो देवा जैसे किसी बांके जवान के साथ होनी चाहिए थी.

कितने प्यार से बातें कर रहा है… और एक हरीराम है… लगता है, अभी खा जाएगा. पता नहीं, कितनी खुरदरी जबान पाई है हरीराम ने. मीठा तो बोलना ही नहीं जानता. बातबात पर हाथ अलग उठा देता है. ऐसे ब्याही से तो बिन ब्याही रहना ही अच्छा था. मुनिया को बस की खिड़की से बाहर कहीं खोया देख कर देवा ने मुनिया के घुटने पर थपकी देते हुए पूछा, ‘‘कहां खो गई थी? क्या सोच रही थी?’’ चेहरे से गंभीरता हटा कर मुनिया ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कुछ नहीं. सोचने लगी थी कि तुम्हारी पत्नी तो बहुत सुखी रहती होगी तुम्हारा प्यार पा कर.

वह अपने को धन्य समझती होगी.’’ ‘‘अरे मुनिया, क्या मैं तुम्हें शादीशुदा लगता हूं? मैं शादी लायक जरूर हो गया हूं, पर अभी तक इस बारे में कुछ सोचा नहीं. मैं अभी तक कुंआरा हूं.’’ ‘‘तो हरियाणा में अकेले ही रहते हो? काम क्या करते हो? और मध्य प्रदेश में कहां के रहने वाले हो?’’ ‘‘बाप रे, एकसाथ इतने सवाल. इतने सवाल तो फिटर के रूप में मेरी नौकरी लगने पर भी नहीं पूछे गए थे,’’ कहते हुए देवा खिलखिलाया और इस अदा पर मुनिया उस की ओर ताकती रही.

उस का मन हुआ कि वह अपनी बांहें फैला कर देवा के सीने से लिपट जाए. तभी देवा ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं देवास के पास का हूं. मेरे पिता किसान हैं और 2 बहनें भी हैं, जो शादीशुदा हैं और अपनीअपनी ससुराल में रहती हैं.  ‘‘मुझे गांव में बुढ़ापे की औलाद कहा जाता है, क्योंकि मैं अपनी दूसरी बहन के पैदा होने के 10 साल बाद पैदा हुआ था. ‘‘मैं जब बड़ा हुआ, तो इंटर के बाद मेरे बड़े पापा यानी ताऊजी मुझे अपने साथ देवास ले आए.

वहीं से मैं ने पौलिटैक्निक कालेज से मेकैनिकल का डिप्लोमा किया और फिर हरियाणा में चारा काटने वाली मशीन के पार्ट बनाने वाली कंपनी में फिटर का काम मिल गया. अभी तकरीबन 2 साल से यहां हूं. ‘‘अब कुछ तुम अपने बारे में बताओ. देखो, बातोंबातों में समय अच्छा कट जाता है. तुम रास्तेभर मुझ से ऐसे ही बतियाती रहना, समय आराम से कट जाएगा.

‘‘और हां, यह गठरी कब तक यों पकड़े रहोगी, मुझे दो. मैं इसे ऊपर रख देता हूं,’’ कह कर देवा चलती हुई बस में खड़ा हुआ और गठरी अपने बैग के बगल में ठूंस दी. खड़े होते समय उस ने हरीराम की सीट की तरफ भी नजर डाली थी. वह शायद सो गया था, क्योंकि बस के साथ उस का और उस के साथी का सिर भी इधरउधर झूल रहा था. ‘इंसान जब शरीर से कमजोर होता है, तो किसी भी सवारी से वह सफर करे, जल्दी ही ऊंघने लगता है,’ हरीराम को देख कर देवा को अपने ताऊजी यानी बड़े पापा के कहे शब्द याद आ गए थे.

शिकस्त-भाग 2: शाफिया-रेहान के रिश्ते में दरार क्यों आने लगी

जिंदगी ठीक गुजर रही थी. मैं ने खुद को रेहान के हिसाब से ढाल लिया था. एक दिन सासुमां को घबराहट होने लगी, बेचैनी भी थी. उन्हें अस्पताल ले गई. दिल का दौरा पड़ा था. 2 दिनों तक ही इलाज चला, तीसरे दिन वे दुनिया छोड़ गईं.

सासुमां ने हमेशा मेरा बेटी की तरह खयाल रखा. मेरे बच्चों को वे बेहद प्यार करती थीं.

रेहान को भी मां की मौत का बड़ा शौक लगा. काफी चुप से हो गए. हर गम वक्त के साथ भरने लगता है. हम लोग भी धीरेधीरे संभलने लगे. हालात बेहतर होने लगे कि मेरे पापामम्मी का अचानक एक कार ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. मैं रोतीबिलखती घर पहुंची. सारे रिश्तेदार जमा हुए. 10 दिन रह कर सब चले गए. रेहान की भी जौब थी, वे भी चले गए.

अब घर में मैं, बूआ और 15 साल की आबिया रह गए. कुछ समझ में नहीं आता था क्या करूं. रिश्ते के मेरे एक चाचा, जो पड़ोस में रहते थे, ने मुझे समझाया, ‘देखो बेटी, तुम जवान बहन को किसी के सहारे नहीं छोड़ सकतीं. तुम्हारी बूआ या मामा, किसी की भी आबिया की जिम्मेदारी लेने की मंशा नहीं है. उसे अकेले छोड़ा नहीं जा सकता, सो, तुम आबिया को अपने साथ ले जाओ. मैं तुम्हारा घर बेचने की कोशिश करता हूं. पैसे आधेआधे तुम दोनों के नाम पर जमा करा देंगे.’ मुझे उन की बात ठीक लगी. मैं ने रेहान को बताया और आबिया को ले कर घर आ गई. बूआ को एक अच्छा अमाउंट दिया, उन्होंने बहुत साथ दिया था.

वक्त बड़े से बड़े गम का मरहम है. मैं ने आबी का ऐडमिशन अच्छे स्कूल में करवा दिया. वैसे, पढ़ाई में उस का ज्यादा ध्यान नहीं लगता था. टीवी, फिल्म और फैशन उस के खास शौक थे. बचपन में मैं ने लाड़प्यार में बिगाड़ा था. फिर मम्मी भी उस की नजाकत व हुस्न देख कर उसे कुछ काम न करने देती थीं.

आबी के मेरे घर आने के बाद उस की जिम्मेदारी भी मेरे सिर पड़ गई. कहां तो मैं सोच रही थी कि आबी के आने से मेरा काम कुछ हलका हो जाएगा, यहां तो उलटा हुआ. उस के काम भी मुझे करने पड़ते. असद और शीरी के साथसाथ आबी की पढ़ाई, स्कूल की तैयारी में मैं बेहद थक जाती. कभी आबी को कुछ काम करने के लिए डांटती तो रेहान उस का पक्ष लेने लगते, ‘इतनी नाजुक सी गुडि़या है, थक जाएगी. उस के हाथ खराब हो जाएंगे.’ मैं हमेशा की तरह खामोश हो जाती और अपने काम में लग जाती.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. आबिया अब कालेज में आ गई, बेइंतहा हसीन, स्मार्ट और फैशनेबल.

एक सुबह मेरे लिए बड़ी खूबसूरत साबित हुई, अचानक मेरी दोस्त सोहा आ गई. वह कालेज में लैक्चरार थी. एक सैमिनार में शिरकत करने यहां आई थी. वह पूरा एक हफ्ता यहां रुकने वाली थी. उस दिन इतवार था, सोहा ने आते ही ऐलान कर दिया, ‘आज मैं और शाफिया सिर्फ बातें करेंगे, घर का सारा काम आबिया, रेहान और असद करेंगे.’ सब ने बात मान ली.

हम दोनों ऊपर के कमरे में आ गए और बातों में मगन हो गए. सोहा एक हफ्ता रही. वह रोज सुबह किचन में मेरी मदद करवाती. जाते वक्त बड़ी उदास थी, तनहाई में मुझे गले लगा कर बोली, ‘शाफिया, तुम बहुत सीधी और मासूम हो. हर कोई तुम्हारे जैसा फेयर नहीं होता.’

मैं नासमझी से उसे देखने लगी. उस ने धीरे से कहा, ‘पता नहीं क्यों तुम्हें महसूस नहीं हुआ वरना एक औरत की छठी इंद्रिय इन सब बातों से बड़ी जल्दी आगाह हो जाती है. शायद आबिया तुम्हारी बहन है, इसलिए तुम सोच नहीं सकीं. मुझे आबिया और रेहान के बीच कुछ गलत लगता है. घर में शाम से ले कर रात तक का वक्त दोनों साथ बिताते हैं. वे हंसते हैं, बतियाते हैं, शरारतें करते हैं और तुम किचन में घुसी, मसाले और पसीने में गंधाती, अच्छाअच्छा पका कर उन की खातिर करती रहती हो. वह एक बार भी उठ कर किचन में नहीं झांकती. पूरे वक्त रेहान के साथ, कभी उस के गले में झूल जाती है, कभी कंधे पर सिर रख कर बैठ जाती है. वह कोई बच्ची नहीं है, 18-19 साल की जवान लड़की है.

‘शाफिया, मैं ने उन दोनों की आंखों में मोहब्बत के शोले चमकते देखे हैं. रेहान घर में घुसते ही आबिया को आवाज देता है. तुम्हें खाना पकाने में मसरूफ कर वे दोनों बच्चों को ले कर कभी गार्डन चल देते हैं, कभी पिक्चर चले जाते हैं. तुम जरा याद करो, तुम कब रेहान के साथ घूमने गईर् थीं?’

सोहा की बातें सुन कर मेरे हाथपांव ठंडे पड़ गए. ऐसा लगा जैसे दिल गम की गहराइयों में उतर रहा है. मैं ने ध्यान से सोचा तो मुझे सोहा की बातों में सचाई नजर आने लगी. अब मुझे याद आ रहा था कैसे दोनों मुझे नजअंदाज करते थे. खानों की तारीफें कर के मुझे किचन में बिजी रखते और आबी और रेहान खूब मस्ती करते. दिखाने को बच्चों को शामिल कर लेते. बच्चों को भी अपने मजे व स्वार्थ की खातिर जिद्दी और मूडी बना दिया था. जब देखो तब टीवी, घूमनाफिरना और नएनए खानों की फरमाइशें. और मैं बेवकूफों की तरह उन की फरमाइशें पूरी करती रहती. मेरी आंखों से आबी के लिए अंधी मोहब्बत की पट्टी उतर रही थी. दिल में अजब सी तकलीफ होने लगी, समझ में नहीं आया किस से गिला करूं.

सोहा ने मुझे रोने दिया. जब जरा संभली तो उस ने पीठ सहलाते हुए कहा, ‘शाफी, इस के लिए तुम भी जिम्मेदार हो. तुम्हें आबी को इतनी छूट देनी ही नहीं चाहिए थी. तुम ने अपना हाल क्या बना रखा है. तुम्हारे खूबसूरत व चमकीले बाल कितने बेरंग और रूखे हो रहे हैं. स्किन देखो कैसी रफ हो रही है. तुम ने अपनेआप को काम और किचन में झोंक दिया. तुम्हारे पास अपने लिए एक घंटा भी नहीं है जो कभी ब्यूटीपार्लर जाओ या खुद को संवारो.’

मुझे अपनी लापरवाही और नादानी पर गुस्सा आ रहा था पर मैं कैसे अपनी बेटी जैसी बहन पर शक कर सकती थी? पर अब आंखें नहीं बंद की जा सकती थीं.

सोहा ने कहा, ‘शाफी, तुम पढ़ीलिखी हो, हिम्मत करो, बाहर निकलो और मामले की तहकीकात करो. अभी तक तुम भी मोहब्बत व यकीन के सहर में डूबी हुई थीं. उस से बाहर निकलो और देखो, दुनिया कितनी जालिम है. एक छोटी बहन अपनी मां जैसी बहन का घर उजाड़ सकती है. और रोने की जरूरत नहीं है ऐसे बेहिस लोगों पर. कीमती आंसू बहाने से कुछ हासिल न होगा. सचाई अगर वही है जो मैं कह रही हूं तो पूरे साहस और मजबूती से फैसला करो. अपनी इज्जत और अहं को मोहब्बत के पैरों तले कुचलने मत देना.’

शिकस्त-भाग 1: शाफिया-रेहान के रिश्ते में दरार क्यों आने लगी

अपनों के हाथों छले जाने का गम व्यक्ति को ताउम्र दर्द देता है. शफिया मोहब्बत व यकीन के सहर में डूबी हुई थी, इसलिए शायद सचाई देख नहीं पाई. लेकिन, अपनी इज्जत और अहं को उस ने मोहब्बत के पैरों तले कुचलने नहीं दिया.

ट्रेन के एयरकंडीशंड कोच में मैं ने मुंह धो कर सिर उठाया. बेसिन पर  लगे आईने में एक चेहरा और नजर आया जो कभी मेरा बहुत अपना था. बहुत प्यारा था. आज वक्त की दूरी बीच में बाधक थी. एक पल में मैं ने सोच लिया था कि मुझे क्या करना है. ब्रश उठा टौवल से मुंह पोंछते हुए अजनबियों की तरह उस के करीब से गुजरते हुए अपनी सीट पर आ कर बैठ गई. नाश्ता आ चुका था.

मैं ने ट्रे सामने रख कर नाश्ता करना शुरू कर दिया. कान उस की तरफ लगे हुए थे पर मिलने की या देखने की ख्वाहिश न थी.

कुछ देर बाद मुझे महसूस हुआ कि वह मेरी सीट के करीब रुकी है, मुझे देख रही है. मैं ने उचटती सी नजर उस पर डाली. उस के चेहरे पर उम्र की लकीरें, एक अजब सी थकन, सबकुछ हार जाने का गम साफ नजर आ रहा था. मैं नाश्ता करती रही. कुछ लमहे वह खड़ी रही, फिर अपनी सीट की तरफ बढ़ गई.

मैं ने चाय पी कर अधूरा नौवेल निकाला और खिड़की से टेक लगा कर पढ़ना शुरू कर दिया. पर किताब के शब्द गायब हो रहे थे. उन की जगह यादों की परछाइयां हाथ थामे खड़ी थीं. मेरा अतीत किसी जिद्दी बच्चे की तरह मेरी उंगली खींच रहा था, ‘चलो एक बार फिर वही हसीन लमहे जी लें,’ और न चाहते हुए भी मेरे कदम जानीपहचानी डगर पर चल पड़े…

हम 2 ही बहनें थीं. मैं बड़ी और मुझ से 12 साल छोटी आबिया. मम्मीपापा ने बड़े प्यार से हमारी परवरिश की थी. बेटा न होने का उन्हें कोई गम न था. मेरी पढ़ाई की हर जरूरत पूरी करना उन दोनों की खुशी थी. पढ़ने में मैं काफी अच्छी थी. शहर के मशहूर कौन्वैंट में पढ़ रही थी. जब मैं 8वीं में थी तो आबिया का जन्म हुआ था. उस की पैदाइश के बाद से मम्मी की कमर और घुटने में दर्द रहने लगा. धीरेधीरे आबी की सारी जिम्मेदारियां मुझ पर आती गईं.

वक्त हंसीखुशी गुजर रहा था. सोहा, जो पड़ोस में रहती थी, से मेरी खूब बनती थी. वह मेरी दोस्त थी. कभी मैं उस के घर पढ़ने चली जाती, कभी वह मेरे घर आ जाती. हम दोनों साथ पढ़ते और आबी को भी साथ रखते. वह सोहा से भी खूब घुलीमिली हुई थी.

दिन गुजरते रहे. मैं ने और सोहा ने फर्स्ट क्लास से बीएससी पास कर लिया. मम्मी का इरादा पोस्टग्रेजुएशन कराने का नहीं था क्योंकि उस की पढ़ाई के लिए बहुत दूर जाना पड़ता. सोहा के कहने पर मैं ने उस के साथ बीएड कोर्स जौइन कर लिया.

बीएड का रिजल्ट अभी आया भी नहीं था कि मेरे लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आ गया. लड़का एक अच्छी मल्टीनैशनल कंपनी में काम करता था. पापा के दोस्त का लड़का था. खानदान अच्छा था, देखेभाले लोग थे. रेहान ने किसी शादी में मुझे देख कर वहीं पर पसंद कर लिया था. इकलौता बेटा, पढ़ालिखा खानदान, इसलिए ज्यादा पूछपरख की जरूरत न थी.

पहला रिश्ता ही अच्छा आ जाए तो इनकार करना अच्छा नहीं माना जाता. सो, शादी की तैयारी शुरू हो गई. एमएससी करने की ख्वाहिश शादी की चमकदमक में कहीं नीचे दब गई.

मेरी विदाई के वक्त 7 वर्षीया आबिया का रोना मुझ से देखा नहीं जा रहा था क्योंकि वह मुझ से इतनी घुलीमिली थी कि उस की जुदाई के खयाल से मैं खुद रो पड़ती थी. सोहा ने उस का खूब खयाल रखने का वादा किया.

भीगी आंखों के साथ विदा हो कर मैं ससुराल आ गई. मेरी सास थीं, ससुर का देहांत कुछ महीने पहले ही हुआ था. रेहान का घर बहुत शानदार था. सास का मिजाज भी बहुत अच्छा था. वे खानेपीने की खूब शौकीन थीं. अच्छे खाने का शौक रेहान को भी था.

मम्मी की बीमारी की वजह से काफी छोटी उम्र में ही मैं किचन के काम करने में लग गई थी, इसलिए खाना बनाने में ऐक्सपर्ट हो चुकी थी. मेरी शादी के बाद मम्मी ने फुलटाइम कामवाली रख ली थी, जो खाना भी पकाती थी और आबिया के काम भी करती थी.

शादी के बाद 3-4 महीने तो जैसे पंख लगा कर उड़ गए, घूमनाफिरना, दावतें आदि. फिर जिंदगी अपने रूटीन पर आ गई. मेरी सास यों तो बहुत अच्छी थीं पर घर के कामों में उन की कोई दिलचस्पी न थी. कभीकभार कुछ मदद कर देतीं वरना उन का ज्यादा वक्त टीवी देखने और किताबें पढ़ने में गुजरता. मुझे कोई मलाल न था, मुझे काम करने की आदत थी. ऊपर का काम करने के लिए एक कामवाली भी थी.

शादी के 2 वर्षों बाद बेटा हो गया. घर में खुशी के संगीत बज उठे. मेरा भी खूब खयाल किया जाता. बेटे का नाम असद रखा गया. असद के आने के बाद मेरा मायके जाना काफी कम हो गया. छोटे बच्चे के साथसाथ घर का काम और मसरूफियत बढ़ती जा रही थी. वैसे, असद को तैयार कर के मैं सासुमां को थमा देती और सारे काम संभाल लेती थी.

असद 3 साल का था कि शीरी पैदा हो गई. अब तो जैसे मैं घनचक्कर बन गई. 2 बच्चे संभालना, घर का काम करना मुश्किल होने लगा. रेहान ने मेरी परेशानी देख कर एक कुक का इंतजाम कर दिया. जैसेतैसे 3-4 महीने सब ने

उस के हाथ का खाना बरदाश्त किया. फिर उसे हटा दिया. सास ने बच्चों की जिम्मेदारी ले ली, मैं ने किचन संभाल लिया.

रेहान मेरा बहुत खयाल रखते थे. जन्मदिन, एनिवर्सिरी सब याद रखते, बाकायदा तोहफे लाते, बाहर ले जाते. बस, घर के काम से बेहद जी चुराते. उन के औफिस जाने के बाद कमरे का हाल यों होता जैसे वहां घमासान हुआ हो. बिखरे कपड़े, जूते, टाइयां. जब कोई चीज नहीं मिलती तो अलमारी का सारा सामान बाहर आ जाता और मैं समेटतेसमेटते परेशान हो जाती. पर धीरेधीरे मैं इस की आदी हो गई. मगर इन सब के बीच मेरा वजूद, मेरे शौक, मेरी ख्वाहिशें सब पीछे छूट गईं. महीनों ब्यूटीपार्लर जाना न होता. कपड़े जो हाथ लग गए, पहन लिए. कुछ इंतजाम करने की मुझे फुरसत ही नहीं मिलती थी.

अपहरण नहीं हरण : भाग 1- क्या हरीराम के जुल्मों से छूट पाई मुनिया?

हरीराम उर्फ हरिया मुनिया का हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचता हुआ राहत शिविर से बाहर आया. कई हफ्तों से उस जैसे कई मजदूरों को उन शिविर में ला कर पटक दिया गया था. न तो खानेपीने का उचित इंतजाम था, न जलपान कराने की कोई फिक्र. शौचालयों की साफसफाई का कोई इंतजाम नहीं.

2 बड़े हालनुमा कमरों में दरी पर पड़े मजदूर लगातार माइक पर सुनते रहते थे, ‘प्रदेश सरकार आप सब के लिए बसों का इंतजाम करने में जुटी हुई है. इंतजाम होते ही आप सब को अपनेअपने प्रदेश भेज दिया जाएगा. कृपया साफसफाई का ध्यान रखें और एकदूसरे से दूरदूर रहें.’ कोरोना की तबाही के मद्देनजर लौकडाउन का ऐलान किया जा चुका था. फैक्टरिया बंद होनी शुरू हो गई थीं.

फैक्टरी मुलाजिमों से उन के कमरे खाली करा के उन्हें गेट से बाहर कर दिया गया था. वहां से वे पैदल ही अपनाअपना बोरियाबिस्तर समेट कर राहत शिविरों तक चल कर आए थे. जिस ऊन फैक्टरी में हरीराम उर्फ हरिया काम करता था और अभी 2 साल पहले वह अपने से 12 साल छोटी मुनिया को गांव से ब्याह कर लाया था, वह मुनिया चाहती और हरिया की बात मान कर फैक्टरी के मैनेजर के घर रुक जाती तो शायद आज हफ्तेभर से इस राहत केंद्र में उन्हें मच्छरों की भिनभिन न सुननी पड़ती. पर मुनिया जिद पर अड़ गई थी, ‘‘जब सब अपनेअपने गांव जा रहे हैं, तो हम भी यहां नहीं रहेंगे. मुझे तो गांव जाना है.’’

उस रात हरीराम जब मुनिया की जिद को न तोड़ सका, तो उस ने मुनिया को मारना शुरू कर दिया, लेकिन पिटने पर भी मुनिया ने जिद नहीं छोड़ी, तो हरीराम हार गया. उस की सांसें फूलने लगीं. उसे लगातार खांसी आनी शुरू हो गई. अपनी हार और कमजोरी को छिपाने के लिए उस ने कोने में पड़ी हुई शराब की बोतल निकाली.

बड़ेबड़े घूंट भरे, फिर बीड़ी का बंडल खोल कर एक बीड़ी सुलगाई और सामने घर का सामान समेटती मुनिया को गरियाता रहा, ‘‘करमजली, जब से शादी कर के लाया हूं, चैन से नहीं रहने दिया इस चुड़ैल ने…’’ बड़बड़ाते हुए वह न जाने कब बिना खाना खाए बिस्तर पर ही लुढ़क गया, पता ही नहीं चला. मुनिया ने एक अटैची और एक बक्से के अलावा बाकी सामान गठरी में बांधा और खाना खा कर बची रोटियां और अचार को छोटी पोटली में समेट कर खुद भी लेट गई.

मुनिया के दिमाग में पिछले 2 सालों का बीता समय और नामर्द से हरीराम के बेहूदे बरताव के साथसाथ फैक्टरी के मैनेजर का गंदा चेहरा भी घूम गया. उस का मन करता कि वह यहां से कहीं दूर भाग जाए, पर हिम्मत नहीं जुटा पाई. बेहद नफरत करने लगी थी वह हरीराम से. उसे हरीराम के शराबी दोस्तों खासकर मैनेजर का अपने घर आनाजाना बिलकुल भी पसंद नहीं था, वह इस का विरोध करती तो भले ही हरीराम से पिटती, पर जब उस ने हार नहीं मानी तो हरीराम को ही समझौता करना पड़ा.

मुनिया इन 2 सालों में फैक्टरी मैनेजर के हावभाव और उसे घूरने के अंदाज से परिचित हो चुकी थी. उधर हरीराम जानता था कि जो सुखसुविधाएं उसे यहां मिलती हैं, वे गांव में कहां? फिर मैनेजर भी उस का कितना खयाल रखता है. मैनेजर का वह इसलिए भी एहसानमंद था कि शादी से कुछ समय पहले ही उन की उस फैक्टरी में काम करते हुए, सांसों द्वारा शरीर में जमने वाले रुई के रेशों ने उस के फेफड़ों को संक्रमित कर डाला था और जब उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगी थी, तब इसी मैनेजर ने फैक्टरी मालिक से सिफारिश कर के उस का उचित इलाज कराया था, फिर ठीक होने के बाद उसे प्रोडक्शन से हटा कर पैकिंग महकमे में भेज दिया था.

उन्हीं दिनों फैक्टरी से छुट्टी ले कर हरीराम अपने गांव आया था, जहां आननफानन वह मुनिया से शादी कर के उसे अपने साथ फैक्टरी के कमरे में ले आया था. मुनिया की बिलकुल भी इच्छा नहीं थी हरीराम से शादी करने की. 8वीं जमात पास कर के वह घर में बैठी थी. वह चाहती थी कि और पढ़े, लेकिन 8वीं से आगे की पढ़ाई के लिए दूर तहसील वाले इंटर स्कूल में दाखिला करा पाना उस के बापू श्रीधर के बस में नहीं था. भला दूसरों के खेतों को बंटाई पर जोतने वाला श्रीधर उसे आगे पढ़ाता भी तो कैसे?

उधर मां अपने दमे की बीमारी से परेशान रातरातभर खांसा करती. न खुद सोती, न किसी को सोने देती. 8वीं पास मुनिया उसे शादी लायक दिखाई देने लगी थी. वह अकसर श्रीधर से कह बैठती, ‘‘अरे मुनिया के बापू, अपनी जवान हो गई छोकरी को कब तक घर में बैठाए रखोगे… कोई लड़का ढूंढ़ो और हमारी सांस उखड़ने से पहले इस के हाथ पीले कर दो.’’ मुनिया के शरीर की उठान ही कुछ ऐसी थी कि वह अपनी उम्र से बड़ी दिखती थी.

आंखें खूब बड़ीबड़ी और उन में वह हमेशा काजल डाले रखती. गांव के माहौल में सरसों के तेल से सींचे काले बाल. हफ्ते में वह एक बार ही बालों में जम कर तेल लगाती, फिर उन्हें अगले दिन रीठे के पानी से धोती और जब वह काले घने लंबे बालों की  2 चोटियां बना कर आईने में अपना चेहरा देखती, तो खुद ही मुग्ध हो उठती. आईने के सामने खड़े हो कर अपनी देह को देखना उसे बहुत पसंद था. उसे लगता था कि कुछ आकर्षण सा है उस के शरीर में, पर मां को उस का यों आईने के सामने देर तक खड़े रहना बिलकुल पसंद नहीं था.

2 चोटियां गूंथने के बाद मुनिया कुछ लटें अपनी दोनों हथेलियों की मदद से माथे पर गिराती और आंखों में मोटा सा काजल लगा कर झट आईने के सामने अपनी छवि को निहार कर हट जाती, फिर घर के कामों में जुट पड़ती. साफसफाई, चौकाबतरन, कपड़ों की धुलाई, खाना बनाना, सब उसी के जिम्मे तो था. मां तो बीमार ही रहती थी. उन्हीं दिनों जब हरीराम गांव आया हुआ था, तो किसी ने श्रीधर को बताया कि वह इस बार शादी कर के और दुलहन ले कर ही शहर जाएगा, तो उस ने कोशिश कर के मुनिया से हरीराम की शादी को अंजाम दे ही दिया.

मुनिया ने भरपूर विरोध किया, पर मां की कसम ने उसे मजबूर कर दिया. मुनिया की शादी के तकरीबन  4 महीने बाद ही मुनिया की मां चल बसी और श्रीधर भी ज्यादा दिन जी नहीं पाया.  मां के मरने की खबर तो हरीराम ने उसे दे दी थी, पर बहुत कहने पर भी उसे गांव नहीं ले कर गया. वही हरीराम मुनिया का हाथ पकड़े जब राहत केंद्र से बाहर आया तो सामने 8-10 बसें कतार में आ कर खड़ी हो गई थीं.

अब इन में से मध्य प्रदेश की ओर जाने वाली बस कौन सी है, यह हरीराम  को समझ में नहीं आ रहा था. उस ने गुस्से में मुनिया की चोटी को अपने दाएं हाथ में भर कर जोरों से खींचा, फिर चिल्लाया, ‘‘उस डंडा लिए खाकी वरदी वाले से पूछती क्यों नहीं? पूछ कौन सी बस हमारे प्रदेश की तरफ जाएगी…’’ अचानक चोटी के खिंचने के दर्द से मुनिया चीख उठी. मुनिया ने एक हाथ में अटैची पकड़ी हुई थी और दूसरे में बक्सा. हरीराम के बाएं कंधे पर हलकी गठरी थी और उसी हाथ में उस ने बालटी पकड़ी हुई थी. हरिया का दायां हाथ खाली था, जिस से वह चोटी खींच सका.

सभी घर लौटने वाले मजदूरों में अपनीअपनी बस पकड़ने की आपाधापी मची हुई थी. ज्यादातर बसों के गेट पर अंदर घुस कर बैठने की जैसे लड़ाई चल रही थी. लाउडस्पीकर पर क्या बोला  जा रहा है, किसी की समझ में नहीं आ रहा था. चारों ओर अफरातफरी का माहौल था. ड्यूटी पर लगे लोग जैसे अंधेबहरे थे. किसी के भी सवाल का जवाब देने से कतराने की कोशिश करते हुए वे उन्हें अगली खिड़की पर भेज देते. परेशान हरीराम ने इस बार मुनिया की गरदन अपने चंगुल में ले कर हलके से दबाते हुए कहा, ‘‘पूछती क्यों नहीं? बस भर जाएगी तब पूछेगी क्या.’’ लेकिन इस बार मुनिया ने अटैची और बक्सा जोरों से जमीन पर पटके और खाली हुए अपने दाएं हाथ से हरीराम के हाथ को इतनी जोर से झटक कर दूर हटाया कि वह गिरतेगिरते बचा.

उस की खांसी फिर उखड़ गई. उस ने लगातार खांसना शुरू कर दिया. उसे खा जाने वाली नजरों से घूरते हुए मुनिया चिल्लाई, ‘‘तुम्हारे मुंह में जबान नहीं है क्या? हम नहीं पूछेंगे, तुम्हीं पूछो…’’ मुनिया इतनी जोर से चीखी थी कि आसपास के सभी इधर से उधर भटकते लोग उस की तरफ घूम पड़े और वह वरदी वाला उन्हीं के पास आ कर अपना डंडा जमीन पर पटकते हुए बोला, ‘‘क्या बात है? क्यों झगड़ रहे हो? पता है, यहां तेज चिल्लाना मना है. अंदर बंद कर दिए जाओगे.’’ ‘‘अरे भई, समझ में नहीं आ रहा है कि मध्य प्रदेश की तरफ कौन सी बस जाएगी,’’ हरीराम ने ही अपनी खांसी को काबू में करते हुए पूछा.

सिपाही तो खुद ही अनजान था. उसे क्या पता कि कौन सी बस किधर जाएगी. उसे तो एक कमजोर से डंडे के सहारे भीड़ को काबू करने की जिम्मेदारी मिली थी और वह खुद ही नहीं समझ पा रहा था कि इस जिम्मेदारी को कैसे निभाए. तभी उसी भीड़ में से कोई बोल पड़ा, ‘‘वह जो लाल रंग वाली, नीली पट्टी की बस देख रहे हो, वह जा रही है तुम्हारे प्रदेश की तरफ.’’ मुनिया और हरीराम ने अपनेअपने हाथों का सामान उठाया और उधर लपक गए, जिधर वह बस खड़ी थी. उस खटारा सी दिखने वाली सरकारी बस में कई मजदूर घुस कर बैठ चुके थे. अंदर ज्यादातर सीटों की रैक्सीन उखड़ी पड़ी थी. फोम नदारद थी. एकाध सीटों के नीचे लगी छतों के नटबोल्ट ढीले पड़े थे.

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