जवाब : अनसुलझे सवालों के घेरे में माधुरी – भाग 2

सासूजी कहां चुप रहने वाली, ‘अरे, क्यों नहीं लाएंगे,’ बोल पड़तीं, ‘बेटी के घर क्या खाली हाथ आएंगे? अब हम क्या विमला की ससुराल इतना कुछ भेजते नहीं हैं. इन की उतनी औकात तो नहीं है पर जो लाए हैं…’

यह सुन कर मैं कट के रह जाती, जी करता था कि बाबूजी के जुड़े हाथों को पकड़ कर उन्हें इस घर से चले जाने को कह दूं. नहीं देखा जाता था मुझ से उन का यह अपमान.

मेरे दुख को मेरी छोटी ननद जया और देवर समय समझते थे, परंतु जब आप खुद के लिए खड़े नहीं हो सकते तो किसी और से क्या उम्मीद कर सकते हैं. सुमित ने तो बहुत पहले ही अपना फैसला मुझे सुना दिया था.

जब भी बाबूजी मेरी ससुराल से अपमानित हो कर जाते, मेरे अंदर कुछ टूट जाता और कानों में विवाह के दूसरे वचन की ध्वनि सुनाई पड़ती थी. ‘जिस प्रकार आप अपने मातापिता का आदर करते हो उसी प्रकार मेरे मातापिता का आदर करो.’

जब सुमित का तबादला नोएडा हुआ तब पहली बार मेरे ससुर अपनी पत्नी के खिलाफ बोले थे, ‘सरला, जाने दो माधुरी को सुमित के साथ. अपनी गृहस्थी संभालेगी और तुम्हें सुमित के खानेपीने की चिंता भी नहीं रहेगी.’

‘अरे वाह, मां, पापा को तो भाभी की बड़ी चिंता है,’ विमला ने व्यंग्य कसा था.

‘जिसे जहां जाना है जाए. मुझे तो सारी उम्र रोटियां ही बेलनी हैं,’ सासूजी बड़बड़ाती रहीं.

मेरे आज्ञाकारी पति कैसे पीछे रह जाते, ‘नहीं मां, माधुरी यहां रहेगी आप के पास. मैं ने वहां एक कुक का इंतजाम कर लिया है. वैसे भी, रमेश के साथ रहूंगा तो पैसे कम खर्च होंगे.’

‘मेरा राजा बेटा, यह जानता है कि इस पर अपने छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारी है.’

‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं निठल्ला बैठा हूं…घर जैसे इस की कमाई से चलता है,’ ससुरजी ने एक कोशिश और की.

‘चुप होगे अब. हर शनिवार को तो घर आ ही जाएगा,’ सासूजी ने यह कह कर पति की बोलती बंद कर दी.

सुमित नोएडा चले गए थे. अपनी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मैं अपनी सास पर मुहताज थी. कई बार सुमित से कहा भी कि मुझे कुछ पैसे भेज दिया करो.

‘तुम्हें क्या जरूरत है पैसों की? जब कभी जरूरत हो तो मां से मांग लिया करो. मां ने कभी मना किया है क्या?’

उन्होंने कभी किसी वस्तु के लिए मना नहीं किया. परंतु उस वस्तु की उपयोगिता बताने के क्रम में जो कुछ भी मुझे सहना पड़ता था, वह मैं सुमित को नहीं समझा सकती थी.

मैं कपड़ों की जगह सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करना चाहती थी. हिम्मत बटोर कर यह बात जब मैं ने अपनी सास को बताई थी, उन की प्रतिक्रिया आज भी मेरे रोंगटे खड़े कर देती है-

‘अरे, सुनते हो…समय…जया…’

घर के सभी लोग, नौकर तक, बरामदे में आ गए थे.

‘मांजी गलती हो गई, माफ कर दीजिए, प्लीज चुप हो जाइए.’

‘तू होती कौन है मुझे चुप कराने वाली…’

‘अरे, बताओगी भी हुआ क्या?’ ससुरजी की आवाज थी.

‘आप की बहू को अपना मैल उतारने के लिए पैसे चाहिए.’

‘मांजी, प्लीज चुप हो जाइए,’ रो पड़ी थी मैं.

‘तेरे बाप ने भी देखा है कभी पैड, बेटी को पैड चाहिए.’

सारा माजरा समझते ही मेरे ससुर और देवर सिर झुका कर अंदर चले गए थे और मेरे बगल में खड़ी जया मेरे आंसू पोंछती रही थी.

कई घंटे तक वे लगातार मुझे अपमानित करती रही थीं. इस घटना के बाद मैं ने अपनी सारी अभिलाषाओं तथा जरूरतों को एक संदूक में बंद कर के दफन कर दिया था.

मेरे बेटे के जन्म ने मुझे मां बनने का गौरव तो प्रदान किया परंतु जब उस की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी मुझे हाथ फैलाना पड़ता, तब मेरा हृदय चीत्कार कर उठता था.

विवाह का तीसरा वचन भी मेरे कानों के पास आ कर दबी आवाज में चीखा करता था. ‘आप अपनी युवावस्था से ले कर वृद्धावस्था तक कुटुंब का पालन करोगे.’

मेरी एक पुरानी सहेली रम्या मुझे एक दिन बाजार में घूमते हुए मिल गई. औपचारिकतावश मैं ने उसे घर आने को कह दिया था. परंतु मैं उस समय अवाक रह गई जब शनिवार को वह अपने पति व बच्चों के साथ अचानक आ गई.

मेरा आधुनिक वस्त्र पहनना न तो सुमित को पसंद था और न ही उन की मां को. बिना बांहों का ब्लाउज पहनना भी उन के परिवार में मना था. रम्या को जींस और स्लीवलैस टौप में देख कर मैं समझ गई कि आज पति और सास दोनों की ही बातें सुननी पड़ेंगी.

परंतु उस दिन मैं ने सुमित का अलग ही रूप देखा था. जितने वक्त रम्या रही, सुमित मेरे कमरे में ही मौजूद रहे. दिन के समय सुमित हमारे कमरे में बहुत कम आते थे, इसलिए यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. रम्या की तारीफ करते नहीं थक रहे थे वे. और तो और, अगले दिन बाहर घूमने का प्लान भी बना लिया उन्होंने.

रात में मैं ने सुमित से पूछा भी था, ‘बिना मां से पूछे कल घूमने का प्लान कैसे बना लिया तुम ने?’

‘ उस की चिंता तुम छोड़ो. क्या औरत हैं रम्याजी, कितना मेंटेन किया है. उन की फिगर को देख कर कौन कहेगा कि 2 बच्चों की मां हैं.’

‘सौरभजी भी तो कितने अच्छे हैं.’

‘क्या अच्छा लगा तुम्हें सौरभजी में?’

‘नहीं, बस रम्या से पूछ कर निर्णय…’

‘जोरू का गुलाम है. और तुम्हें शर्म नहीं आती अपने पति के सामने किसी और मर्द की तारीफ करती हो. सो जाओ चुपचाप.’

अगले दिन पिकनिक में बातोंबातों के दौरान रम्या ने सुमित को मेरे बारे में बताया कि मैं अपने कालेज की मेधावी छात्राओं में आती थी. इतना सुनना था कि सुमित जोरजोर से हंसने लगे.

‘रम्याजी, क्या आप के कालेज में सभी गधे थे? माधुरी और मेधावी में सिर्फ अक्षर की समानता है. रसोई में खाने में नमक तो सही से डाल नहीं पाती. न चलने का ढंग, न कपड़े पहनने की तमीज. शरीर पर चरबी देखिए, कितनी चढ़ा रखी है,’ इतना कह कर वे अपनी बात पर खुद ही हंस पड़े थे. मेरा चेहरा शर्म और अपमान से काला पड़ गया था.

‘चलिए, बातें बहुत हो गईं, अब बैडमिंटन खेलते हैं,’ सौरभजी ने बात बदलते हुए कहा.

खेल के दौरान सुमित ने फिर एक ऐसी हरकत कर दी जिस की उम्मीद मुझे भी नहीं थी. स्त्री के चरित्र का आकलन आज भी उस के पहने गए कपड़ों से किया जाता है. सुमित ने भी रम्या को ले कर गलत विचारधारा बना ली थी. खेल के दौरान सुमित ने कई बार रम्या को छूने की कोशिश की थी, यह बात मुझ से भी छिपी नहीं रह पाई थी.

इसलिए जब रम्या सुमित को किनारे पर ले जा कर दबे परंतु कड़े शब्दों में कुछ समझा रही थी, मैं समझ गई थी कि वह क्या कह रही है.

घर लौटते ही सुमित की मां रम्या की चर्चा ले कर बैठ गईं. सुमित जैसे इंतजार ही कर रहे थे.

‘अरे मां, बड़ी तेज औरत है. उस से तो दूर रहना ही ठीक होगा.’

‘मैं न कहती थी. अरी ओ माधुरी, तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हें चरित्रवान पति मिला है.’

दिल कर रहा था कि चरित्रवान बेटे की झाड़ खाने की बात मां को बता दूं. परंतु कह नहीं पाई. विवाह के वचन फिर कानों के पास आ कर चुगली करने लगे.

‘मैं अपनी सखियों के साथ या अन्य स्त्रियों के साथ बैठी हूं, आप मेरा अपमान न करें. आप दूसरी स्त्री को मां समान समझें और मुझ पर क्रोध न करें.’

सप्तक को मैं ने सदा प्रश्न करना सिखाया था. सुमित अकसर उस के सवालों से चिढ़ जाया करते थे, परंतु मैं सदा उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करती थी. मेरे और सप्तक के प्रश्नोत्तर के खेल में ही मुझे मेरे जीवन के सब से बड़े सवाल का जवाब मिल गया था.

बैग पर लटका राजू : लौकडाउन ने जड़े पैरों में ताले – भाग 2

सरिता ने जब गांव छोड़ कर शहर में अपना नया ठिकाना बनाया तब भी उस के कष्टों ने सालों तक उस का साथ नहीं छोड़ा. पर जब उस ने इन कष्टों में से खुशियों को निकाल कर अपनी संदूक में रखने का प्रयास किया तब ही लौकडाउन ने संदूक के सारे सामान को बिखरा दिया.

वैसे भी था ही क्या उस के पास. 2 जोड़ी कपड़े और जरूरत का सामान. पर वह तो इतने में ही खुश थी न. दोनों वक्त रूखीसूखी खाने को मिल रही थी और कमाने को काम मिल रहा था. दिनभर काम कर के ऐसे थक जाते कि नंगे फर्श पर लेटते ही नींद की आगोश में समा जाते. रात का बचाखुचा खा कर फिर काम पर चले जाते.

राजू के लिए जरूर रोज दूध लेते और कभीकभी बिस्कुट का पैकेट ले लेते जिन्हें राजू दिनभर खाता रहता. राजू की बालसुलभ क्रीड़ाओं ने उन के कष्टों को हलका कर दिया था.

सरिता ने उस दिन काम से लौटते समय कुछ पैसे मांगे थे सेठ से, ‘सेठ जी, राजू को दूध लेना पड़ता है, पैसे बिलकुल नहीं हैं, सौ रुपए भी दे देंगे तो हमारा काम चल जाएगा.’

‘कल तुम्हारा हफ्ता होगा तब ही पैसे मिलेंगे. चलो, जाओ.’

सरिता कुछ नहीं बोली. पर उस के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं. उस ने साड़ी के पल्लू को टटोला जिस में 10 रुपए का सिक्का बंधा था. वह इस से आज तो राजू के लिए दूध ले ही लेगी, फिर कल तो पैसे मिल ही जाएंगे. उसे कुछ तसल्ली हुई.

दूसरे दिन सरिता और उस का पति जल्दीजल्दी नहाधो कर घर से निकले. जब वे काम पर जाने के लिए घर से निकलते थे तो चौराहे पर हलचल हो जाया करती थी. आसपास लगी चायनाश्ते की दुकानें खुल जाती थीं. यहीं से वे राजू के लिए दूध ले लेते और एकाध बिस्कुट का पैकेट भी. पर आज तो सारा चौराहा सुनसान पड़ा था. दुकानें भी बंद थीं. अब वे राजू के लिए दूध कैसे लेंगे.

सरिता ने अपनी साड़ी के पल्लू में बंधे 10 रुपए के सिक्के को जोर से पकड़ कर रखा था. चौराहे पर पुलिस खड़ी थी. वे कुछ समझ पाते, इस के पहले ही एक पुलिसवाला उन की ओर बढ़ आया था, ‘‘कहां जा रहा है?”

‘‘जी, काम पर.”

‘काम…पर…साले, जानता नहीं है लौकडाउन लग गया है,’ कहते हुए उस ने सरिता के पति पर लाठी चला दी. लाठी की चोट से उस का पति कराह पड़ा. सरिता ने पति को बचाने का प्रयास किया तो लाठी की मार उसे भी पड़ी. उस की गोद में बैठा राजू रोने लगा. उन की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि पुलिस वाले उन्हें मार क्यों रहे हैं और काम पर क्यों नहीं जाने दे रहे हैं.

पुलिस वालों की लाठी जोर से लगी थी. दोनों की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा था. सरिता मजबूती से राजू को अपने कांधे से चिपकाए थी. दोनों कराहते हुए अपने कमरे पर लौट आए थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह लौकडाउन क्या है और उन्हें काम पर क्यों नहीं जाने दिया जा रहा है.

कमरे के फर्श पर दोनों चुपचाप बैठे थे, राजू भी खामोश था. उन की हिम्मत बाहर निकल कर देख लेने की भी नहीं हो रही थी. उन की आंखों से आंसुओं का सैलाब बाहर आ रहा था.

सरिता की आंख जब खुली तब तक अंधेरा फैलेने की जुगत बना रहा था. उस का पति तो अभी भी सोया हुआ ही था. सरिता ने राजू को देखा जो वहां नहीं था. वह घबरा गई. राजू खोली का द्वार खोले गुमसुम सा बैठा था. उस के हाथ में बिस्कुट का एक पैकेट था. घबराई सरिता ने राजू को अपनी आगोश में ले लिया, ‘‘तू यहां काहे को बैठा है और तेरे पास बिस्कुट का पैकेट कहां से आया?’

‘एक आदमी आया था, उस ने दिया और यह भी दिया…,’  राजू ने एक दूसरे पैकेट की ओर इशारा कर बताया.

अचंभित सी सरिता ने हडबड़ाहट में पैकेट खोल कर देखा. उस में 4 रोटियां और अचार रखा था. सरिता को ध्यान आया कि आज तो उन्होंने कुछ खाया ही नहीं है. उस ने पति को जगाया और एकएक रोटियां दोनों ने खा लीं. 2 रोटियां राजू के लिए बचा लीं.

दूसरे दिन वे कुछ ज्यादा ही जल्दी जाग गए थे और सहमे हुए से घर से निकल पड़े थे. उन्हें भरोसा था कि आज उन्हें काम पर जाने दिया जाएगा. चौराहे पर आज भी पुलिस खड़ी थी. वे डर गए और वापस कमरे में लौट आए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. ऐसे वे कब तक काम पर नहीं जा पाएंगे. उन्हें तो सेठ से पैसे भी लेना थे. यदि पैसे नहीं मिले तो वे राजू के लिए दूध कैसे लाएंगे. दोनों के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई थीं.

‘तुम मोहन भैया के पास जाओ. वे ही कुछ बता पाएंगे,’ सरिता ने  पति को बोला.

मोहन दूसरी गली में रहता था.

‘पर बाहर पुलिस खड़ी है. वह फिर डंडे मारेगी.’ उस का चेहरा रोंआसा हो चुका था. कल खाए डंडे की मार अभी तक दर्द दे रही थी. दर्द तो सरिता को भी हो रहा था.

‘जाना तो पड़ेगा ताकि हमें कुछ पता तो चले,’ सरिता बुदबुदाई और दोनों हिम्मत कर के मोहन के पास पहुंच गए.

सरिता खामोशी से सारी बात सुन रही थी. मोहन ने बताया था कि 21 दिनों तक लौकडाउन रहेगा तब तक काम भी बंद रहेगा और कोई घर के बाहर भी नहीं निकल पाएगा. यदि निकला तो पुलिस उसे मारेगी और जेल में भी बंद कर देगी. मोहन ने ही बताया था कि वे लोग गांव लौटने की तैयारी कर रहे हैं. पैदल ही जाना पड़ेगा क्योंकि न तो ट्रेन चल रही हैं और न ही बसें.

‘पैदल…इतनी दूर…सरिता की आंखें डबडबा आई थीं.

‘तो क्या करें? यहां रहेंगे तो खाएंगे क्या…इस का कोई भरोसा भी नहीं है…’ मोहन बता रहा था, ‘कऊनो बीमारी फैली है, यदि वह खत्म नहीं हुई तो इसे और बढ़ा दिया जाएगा.’

‘गांव चले जाएंगे तो सेठ जी से पैसे कैसे मिलेंगे? अभी तो हाथ में फूटी कौड़ी तक नहीं है.’

‘‘सेठ जी तक जा कैसे पाएंगे?’

‘कुछ पैसे तो लाओ, रास्ते में कुछ तो पैसा लगेगा.’

कोई कुछ नहीं बोला.

हजारों लोगों का जनसैलाब सड़कों पर बदहवास की हालत में दिखाई दे रहा था. सभी पैदल ही अपने घरों की ओर रवाना हो चुके थे. गरमी की भीषण तपन उन्हें परेशान कर रही थी पर यह परेशानी वहां रुके रहने से होने वाली परेशानी से कम थी.

उसे किस ने मारा : दीपाली की नासमझी का नतीजा- भाग 2

उस ने उसी समय निर्णय लिया था कि लोग चाहे जो भी करें पर वह इस पाप की कमाई को हाथ नहीं लगाएगा. वैसे भी पहली बार नौकरी पर जाने से पहले जब वह पिताजी से आशीर्वाद लेने गया था, तो उन्होंने कहा था, ‘बेटा, जिंदगी की डगर बड़ी कठिन है, जो कठिनाइयों को पार कर के आगे बढ़ता जाता है निश्चय ही सफल होता है. कामनाओं की पूर्ति के लिए ऐसा कोई काम मत करना जिस के लिए तुम्हें शर्मिंदा होना पड़े. जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाना.’

वह उन की बातों को दिल में उतार कर जीवन की नई डगर पर नई आशाओं के साथ चल पड़ा था. अपनी पत्नी दीपाली को अपना फैसला सुनाया तो उस ने भी उस की बात का समर्थन कर दिया. तब उसे लगा था कि जीवनसाथी का सहयोग जीवन की कठिन से कठिन राहों पर चलने की प्रेरणा देता है.

काम को आकाश ने बोझ समझ कर नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी समझ कर अपनाया था, इसलिए काम को संपूर्ण करने के लिए वह ऐसे जुट जाता था कि न दिन देखता न ही रात, इस के लिए उसे अपने परिवार से भी भरपूर सहयोग मिला.

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. ऊंचा ओहदा, सम्मान, सुंदर पत्नी, पल्लव और स्मिता जैसे प्यारे 2 बच्चे, बूढ़े मांबाप का सान्निध्य. अपने काम के साथ मातापिता की जिम्मेदारी भी वह सहर्ष निभा रहा था. आखिर उन्होंने ही तो उसे इस मुकाम पर पहुंचने में मदद की थी.

दीपाली और वसुधा साथसाथ पढ़ी थीं. यही कारण था कि विवाह हो जाने के बाद भी हमेशा वे एकदूसरे के संपर्क में रहीं. यहां तक कि वर्ष में एक बार दोनों परिवार मिल कर एकसाथ कहीं घूमने चले जाते. वसुधा के पति सुभाष को भी आकाश का साथ अच्छा लगता. जी भर कर बातें होतीं. लगता, समय यहीं ठहर जाए पर समय कभी किसी के लिए रुका है?

जैसेजैसे खर्चे बढ़ने लगे दीपाली अपने वादे से मुकरने लगी. महीने का अंत होता नहीं था कि हाथ खाली होने लगता था, उस पर बूढ़े मातापिता के साथ 2 बच्चों का खर्चा अलग से बढ़ गया था. दीपाली अकसर अपनी परेशानी का जिक्र वसुधा से करती तो वह उसे संयम से काम लेने के लिए कहती, पर उस पर तो जैसे कोई जनून ही सवार हो गया था, आकाश की बुराई करने का.

यह वही दीपाली है जो एक समय आकाश की तारीफ करते नहीं थकती थी और अब बुराई करते नहीं थकती है. इनसान में इतना परिवर्तन कब, क्यों और कैसे आ जाता है, समझ नहीं पा रही थी वसुधा. आखिर कोई औरत अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पति से वह सबकुछ क्यों करवाना चाहती है जो वह करना नहीं चाहता. दीपाली और आकाश के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी और वसुधा चाह कर भी कुछ कर नहीं पा रही थी.

दीपाली कहती, ‘वसुधा, आखिर इन की ईमानदारी से किसी को क्या फर्क पड़ता है. जो इन की सचाई पर विश्वास करते हैं वह इन्हें गलत प्रोफेशन में आया कह कर इन का मजाक बनाते हैं और जो नहीं करते वे भी कह देते हैं कि भई, हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. भला आज के जमाने में ऐसा भी कहीं हो सकता है.’

बाहर तो बाहर आकाश घर में भी शिकस्त खाने लगा था. पत्नी और बच्चों के चेहरे पर छाई असंतुष्टि अकसर सोचने को मजबूर करती कि कहीं वह गलत तो नहीं कर रहा है, पर आकाश के अपने संस्कार उस को कुछ भी गलत करने से सदा रोक देते.

वह बच्चों की किसी मांग को अगले महीने के लिए टाल देने को कहता तो उस की 5 वर्षीय बेटी स्मिता ही कह देती, ‘इस का मतलब आप खरीदवाओगे नहीं. अगले महीने फिर अगले महीने पर टाल दोगे.’

आकाश कभी दीपाली को उस का वादा याद दिलाता तो वह कह देती,  ‘वह तो मेरी नादानी थी पर अब जब दुनिया के रंगढंग देखती हूं तो लगता है कि तुम्हारे इस खोखले दंभ के कारण हम कितना सफर कर रहे हैं. तुम्हारे जैसे लोग जहां आज नई गाड़ी खरीदने में जरा भी नहीं सोचते, वहीं हमें रोज की जरूरतों को पूरा करने के लिए अगले महीने का इंतजार करना पड़ता है. कार भी खरीदी तो वह भी सेकंड हैंड. मुझे तो उस में बैठने में भी शर्म आती है.’

‘दीपाली, इच्छाओं की तो कोई सीमा नहीं होती. वैसे भी घर सामानों से नहीं उस में रहने वालों के आपसी प्यार और विश्वास से बनता है.’

‘प्यार और विश्वास भी वहीं होगा, जहां व्यक्ति संतुष्ट होगा, उस की सारी इच्छाएं पूरी हो रही होंगी.’

‘तो क्या तुम सोचती हो जिन्हें तुम संतुष्ट समझ रही हो, उन में कोई असंतुष्टि नहीं है. वहां जा कर देखो तो पता चलेगा कि वे हम से भी ज्यादा असंतुष्ट हैं.’

‘बस, रहने भी दीजिए…कोरे आदर्शों के सहारे दुनिया नहीं चलती.’

‘अगर ऐसा है तो तुम आजाद हो, अपनी नई दुनिया बसा सकती हो, जैसे चाहे रह सकती हो.’

तब तिलमिला कर उस ने कहा था, ‘बस, अब यही तो सुनने को रह गया था.’

यह कह कर दीपाली तो चली गई पर आकाश वहीं बैठाबैठा अपने सिर के बाल नोंचने लगा. उस बार उन दोनों के बीच लगभग हफ्ते भर अबोला रहा. उन के झगड़े अब इतने बढ़ गए थे कि बच्चे भी सहमने लगे थे, कभीकभी लगता कहीं इन दोनों की तकरार के कारण बच्चे अपना स्वाभाविक बचपन न गंवा बैठें.

इसी की आशंका जाहिर करते हुए मैं ने जबजब दीपाली को समझाना चाहा तबतब एक ही उत्तर मिलता, ‘यह बात मैं भी समझती हूं वसुधा, पर केवल दालरोटी से ही तो काम नहीं चलता. अभी बच्चे छोटे हैं, बड़े होंगे तो उन की पढ़ाई, शादीविवाह में भी तो खर्चा होगा, अगर अभी से कुछ बचत नहीं कर पाए तो आगे कैसे होगा.

रोधो कर जिंदगी घिसटती ही गई. पहला झटका आकाश को तब लगा जब उस के पिताजी को हार्ट अटैक आया. डाक्टर ने आकाश से पिता की बाईपास सर्जरी करवाने की सलाह दी. उस समय आकाश के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह खुद के खर्चे पर उन का इलाज करवा पाता. उस के पिताजी उस पर ही आश्रित थे, अत: कानून के अनुसार उन की बीमारी का खर्चा आकाश को कंपनी से मिलना था. उस ने एडवांस के लिए आवेदन कर दिया, पर कागजी खानापूर्ति में ही लगभग 2 महीने निकल गए.

शिवानी: सोने के पिंजरे में कैद बुलबुल -भाग 2

पहली दफा उस की सास ने उसे स्टील के गिलास में चाय पीते देख कर फौरन टोका था, ‘‘बहू, वैसे तो चाय गिलास में भी पी जा सकती है… अपने मायके में तुम ऐसा करती ही रही हो, पर यहां की बात और है. अच्छा रहेगा कि कमला चाय की ट्रे सजा कर लाए और तुम हमेशा कपप्लेट में ही चाय पीने की आदत बना लो.’’

आज बैंडएड वाली घटना के कारण शिवानी के मन में विद्रोह के भाव थे. तभी उस ने चाय गिलास में तैयार की और ऐसा करते हुए उसे अजीब सी शांति महसूस हो रही थी.

समीर फैक्टरी के काम से 3 दिन के लिए मुंबई गया था. उस की गैरमौजूदगी में शिवानी की व्यस्तता बहुत कम हो गई. चाय पीने के बाद उस ने कुछ देर आराम किया. फिर उठने के बाद वह अपने भैया के घर जन्मदिन पार्टी में शामिल होने गाजियाबाद जाने की तैयारी में लग गई.

सुमित्रा को जब पता चला कि बहू गाजियाबाद जाने की तैयारी कर रही है तो यह सोच कर वह भी पति रामनाथ सहित बहू के साथ हो लीं कि रास्ते में अपनी बहन सीमा से मिल लेंगी. मम्मी, पापा और भाभी को जाता देख कर नेहा भी उन के साथ हो ली.

सुमित्रा की बड़ी बहन सीमा की कोठी ऐसे इलाके में थी जहां का विकास अभी अच्छी तरह से नहीं हुआ था. रास्ता काफी खराब था. सड़क पर प्रकाश की उचित व्यवस्था भी नहीं थी. ड्राइवर राम सिंह को कार चलाने में काफी कठिनाई हो रही थी.

सुमित्रा जब अपनी बहन के घर पहुंचीं तो पता चला कि उन का लगभग पूरा परिवार एक विवाह समारोह में भाग लेने मेरठ गया हुआ था. घर में सीमा की छोटी बेटी अंकिता और नौकर मोहन मौजूद थे.

अंकिता ने जिद कर के उन्हें चाय पीने को रोक लिया. उन्हें वहां पहुंचे अभी 10 मिनट भी नहीं बीते थे कि अचानक हवा बहुत तेजी से चलने लगी और बिजली चली गई.

‘‘मैं मोमबत्तियां लाती हूं,’’ कहते हुए अंकिता रसोई की तरफ चली गई.

‘‘लगता है बहुत जोर से बारिश आएगी,’’ रामनाथजी की आवाज चिंता से भर उठी.

मौसम का जायजा लेने के इरादे से रामनाथजी उठ कर बाहर बरामदे की दिशा में चले. कमरे में घुप अंधेरा था, सो वह टटोलतेटटोलते आगे बढे़.

तभी एक चुहिया उन के पैर के ऊपर से गुजरी. वह घबरा कर उछल पड़े. उन का पैर मेज के पाए से उलझा और अंधेरे कमरे में कई तरह की आवाजें एक साथ उभरीं. मेज पर रखा शीशे का गुलदान छनाक की आवाज के साथ फर्श पर गिर कर टूट गया. रामनाथजी का सिर सोफे के हत्थे से टकराया. चोट लगने की आवाज के साथ उन की पीड़ा भरी हाय पूरे घर में गूंज गई.

‘‘क्या हुआ जी?’’ सुमित्रा की चीख में नेहा और शिवानी की चिंतित आवाजें दब गईं.

रामनाथजी किसी सवाल का जवाब देने की हालत में ही नहीं रहे थे. उन की खामोशी ने सुमित्रा को बुरी तरह से घबरा दिया. वह किसी पागल की तरह चिल्ला कर अंकिता से जल्दी मोमबत्ती लाने को शोर मचाने लगीं.

अंकिता जलती मोमबत्ती ले भागती सी बैठक में आई. उस के प्रकाश में फर्श पर गिरे रामनाथजी को देख सुमित्रा और नेहा जोरजोर से रोने लगीं.

अपने ससुर के औंधे मुंह पड़े शरीर को शिवानी ने ताकत लगा कर सीधा किया. उन के सिर से बहते खून पर सब की नजर एकसाथ पड़ी.

‘‘पापा…पापा,’’ नेहा के हाथपांव की शक्ति जाती रही और वह सोफे पर निढाल सी पसर गई.

शिवानी के आदेश पर अंकिता ने मोमबत्ती सुमित्रा को पकड़ा दी.

मोहन भी घटनास्थल पर आ गया. शिवानी ने मोहन और अंकिता की सहायता से मूर्छित रामनाथजी को किसी तरह उठा कर सोफे पर लिटाया.

‘‘पापा को डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा,’’ शिवानी घाव की गहराई को देखते हुए बोली, ‘‘अंकिता, तुम बाहर खडे़ राम सिंह ड्राइवर को बुला लाओ.’’

सुमित्रा अपने पति को होश में लाने की कोशिश रोतेरोते कर रही थी और नेहा भयभीत हो अश्रुपूरित आंखों से अधलेटी सी पूरे दृश्य को देखे जा रही थी. अंकिता बाहर से आ कर बोली, ‘‘भाभी, आप का ड्राइवर राम सिंह गाड़ी के पास नहीं है. मैं ने तो आवाज भी लगाई, लेकिन उस का मुझे कोई जवाब नहीं मिला.’’

‘‘मैं देखती हूं. मम्मी, आप हथेली से घाव को दबा कर रखिए.’’

सुमित्रा की हथेली घाव पर रखवा कर शिवानी मेन गेट की तरफ बढ़ गई. अंकिता भी उस के पीछेपीछे हो ली.

‘‘पापा को डाक्टर के पास ले जाना जरूरी है, अंकिता. यहां पड़ोस में कोई डाक्टर है?’’

‘‘नहीं भाभी,’’ अंकिता ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘नजदीकी अस्पताल कहां है?’’

‘‘बाहर निकल कर मुख्य सड़क पर.’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर कहां मिलेगा?’’

‘‘मेन रोड पर.’’

‘‘चल मेरे साथ.’’

‘‘कहां, भाभी?’’

‘‘टैक्सी या थ्री व्हीलर लाने. उसी में पापा को अस्पताल ले चलेंगे.’’

अंधेरे में डूबी गली में दोनों तेज चाल से मुख्य सड़क की तरफ चल पड़ीं. तभी बादल जोर से गरजे और तेज बारिश पड़ने लगी.

सड़क के गड्ढों से बचतीबचाती दोनों करीब 10 मिनट में मुख्य सड़क पर पहुंचीं. बारिश ने दोनों को बुरी तरह से भिगो दिया था.

एक तरफ उन्हें थ्री व्हीलर खड़े नजर आए तो वे उस ओर चल दीं.

शिवानी ने थ्री व्हीलर के अंदर बैठते हुए ड्राइवर से कहा, ‘‘भैया, अंदर कालोनी में चलो. एक मरीज को अस्पताल तक ले जाना है.’’

‘‘कौन से अस्पताल?’’ ड्राइवर ने रूखे स्वर में पूछा.

‘‘किसी भी पास के सरकारी अस्पताल में ले चलना है. अब जरा जल्दी चलो.’’

‘‘अंदर सड़क बड़ी खराब है, मैडम.’’

‘‘स्कूटर निकल जाएगा.’’

‘‘किसी और को ले जाओ, मैडम. मौसम बेहद खराब है.’’

‘‘बहनजी, आप मेरे स्कूटर में बैठें,’’ एक सरदार ड्राइवर ने उन की बातचीत में दखल देते हुए कहा.

‘‘धन्यवाद, भैया,’’ शिवानी ने अंकिता के साथ स्कूटर में बैठते हुए कहा.

आधी तस्वीर : कैसा था मनशा का शक- भाग 2

तुषार से घनिष्ठता बढ़ने के साथसाथ मनशा से भी अलग से संबंध विकसित होते चले गए. वह पहले से अधिक भावुक और गंभीर रहने लगी, अधिक एकांतप्रिय और खोईखोई सी दिखाई देने लगी. अपने में आए इस परिवर्तन से मनशा खुद भी असुविधा महसूस करने लगी क्योंकि उस का संपर्क का दायरा सिमट कर उस पर और रवि पर केंद्रित हो गया था. कानों में रवि के वाक्य ही प्रतिध्वनित होते रहते थे, जिन्होंने सपनों की एक दुनिया बसा दी थी. ‘वे कौन से संस्कार होते हैं जो दो प्राणियों को इस तरह जोड़ देते हैं कि दूसरे के बिना जीवन निरर्थक लगने लगता है. ‘तुम्हें मेरे साथ देख कर नियति की नीयत न खराब हो जाए. सच, इसीलिए मैं ने उस चित्र के 2 भाग कर दिए.’ रवि के कंधे पर सिर रखे वह घंटों उस के हृदय की धड़कन को महसूस करती रही. उस की धड़कन से सिर्फ एक ही आवाज निकलती रही, मनशा…मनशा…मनशा.

वे क्षण उसे आज भी याद हैं जैसे बीते थे. सामने बालसमंद झील का नीला जल बूढ़ी पहाडि़यों की युवा चट्टानों से अठखेलियां कर रहा था. रहरह कर मछलियां छपाक से छलांग लगातीं और पेट की रोशनी में चमक कर विलीन हो जातीं. झील की सारी सतह पर चलने वाला यह दृश्य किसी नववधू की चुनरी में चमकने वाले सितारों की झिलमिल सा लग रहा था. बांध पर बने महल के सामने बड़े प्लेटफौर्म पर बैंचें लगी हुई थीं. मनशा का हाथ रवि के हाथ में था. उसे सहलातेसहलाते ही उस ने कहा था, ‘मनशा, समय ठहर क्यों नहीं जाता है?’

मनशा ने एक बहुत ही मधुर दृष्टि से उसे देख कर दूसरे हाथ की उंगली उस के होंठों पर रख दी थी, ‘नहीं, रवि, समय के ठहरने की कामना मत करो. ठहराव में जीवन नहीं होता, शून्य होता है और शून्य-नहीं, वहां कुछ नहीं होता.’ रवि हंस पड़ा था, ‘साहित्य का अध्ययन करतेकरते तुम दार्शनिक भी हो गई हो.’

न जाने ऐसे कितने दृश्यखंड समय की भित्ती पर बनते गए और अपनी स्मृतियां मानसपटल पर छोड़ते गए. बीते हुए एकएक क्षण की स्मृति में जीने में इतना ही समय फिर बीत जाएगा और जब इन क्षणों का अंत आएगा तब? क्या फिर से उस अंत को झेला जा सकता है? क्या कभी कोई ऐसी सामर्थ्य जुटा पाएगा, जीवन के कटु और यथार्थ सत्य को फिर से जी सकने की, उस का सामना करने की? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, इसीलिए जीवन की नियति ऐसी नहीं हुई.

चलतेचलते ही जीवन की दिशा और धारा मुड़ जाती हैं या अवरुद्ध हो जाती हैं. हम कल्पना भी नहीं कर पाते कि सत्य घटित होने लगता है. मनशा के जीवन के सामने कब प्रश्नचिह्न लग गया, उसे इस का भान भी नहीं हुआ. घर के वातावरण में एक सरसराहट होने लगी. कुछ सामान्य से हट कर हो रहा था जो मनशा की जानकारी से दूर था. मां, बाबूजी और भैया की मंत्रणाएं होने लगीं. तब आशय उस की समझ में आ गया. मां ने उस की जिज्ञासा अधिक नहीं रखी. उदयपुर का एक इंजीनियर लड़का उस के लिए देखा जा रहा था. उस ने मां से रोषभरे आश्चर्य से कहा, ‘मेरी शादी, और मुझ से कुछ कहा तक नहीं.’

‘कुछ निश्चित होता तभी तो कहती.’ ‘तो निश्चित होने के बाद कहा जा रहा है. पर मां, सिर्फ कहना ही तो काफी नहीं, पूछना भी तो होता है.’

‘मनशा, इस घर की यह परंपरा नहीं रही है.’ ‘जानती हूं, परंपरा तो नई अब बनेगी. मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

‘मनशा.’ ‘हां, मां, मैं उस से शादी नहीं करूंगी.’

जब उस ने दोहराया तो मां का गुस्सा भड़क उठा, ‘फिर किस से करेगी? मैं भी तो सुनूं.’ ‘शायद घर में सब को इस का अंदाजा हो गया होगा.’

‘मनशा,’ मां ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. जातपांत, समाज का कोई खयाल ही नहीं है?’ मनशा हाथ छुड़ा कर कमरे में चली गई.

घर में सहसा ही तनाव व्याप्त हो गया. शाम को तुषार के सामने रोरो कर मां ने अपने मन की व्यथा कह सुनाई. बाबूजी को सबकुछ नहीं बताया गया. तुषार इस समस्या को हल करने की चेष्टा करने लगा. उसे विश्वास था वह मनशा को समझा देगा, और नहीं मानेगी तो थोड़ी डांटफटकार भी कर लेगा. मन से वह भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि मनशा पराई जाति के लड़के रवि से ब्याह

करे. वह जानता था, कालेज के जीवन में प्रेमप्यार के प्रसंग बन ही जाते हैं पर…

‘भैया, क्या तुम भी मेरी स्थिति को नहीं समझ सकते? मां और बाबूजी तो पुराने संस्कारों से बंधे हैं लेकिन अब तो सारा जमाना नईर् हवा में नई परंपराएं स्थापित करता जा रहा है. हम पढ़लिख कर भी क्या नए विचार नहीं अपनाएंगे?’ ‘मनशा,’ तुषार ने समझाना चाहा, ‘मैं बिना तुम्हारे कहे सब जानता हूं. यह भी मानता हूं कि रवि के सिवा तुम्हारी कोई पसंद नहीं हो सकती. पर यह कैसे संभव है? वह हमारी जाति का कहां है?’

‘क्या उस के दूसरी जाति के होने जैसी छोटी सी बात ही अड़चन है.’ ‘तुम इसे छोटी बात मानती हो?’

‘भैया, इस बाधा का जमाना अब नहीं रहा. उस में कोई कमी नहीं है.’ ‘मनशा…’ तुषार ने फिर प्रयास किया, ‘‘आज समाज में इस घर की जो प्रतिष्ठा है वह इस रिश्ते के होते ही कितनी रह जाएगी, यह तुम ने सोचा है? यह ब्याह होगा भी तो प्रेमविवाह अधिक होगा अंतर्जातीय कम. मैं सच कहता हूं कि बाद में तालेमल बैठाना तुम्हारे लिए बहुत कठिन होगा. तुम एकसाथ दोनों समाजों से कट जाओगी. मां और बाबूजी बाद में तुम्हें कितना स्नेह दे सकेंगे? और उस घर में तुम कितना प्यार पा सकोगी? इस की कल्पना कर के देखो तो सही.’

मालती का बदला: दिलावर सिंह की दहशत – भाग 2

पुलिस की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद डाक्टर ने पोस्टमार्टम करने के बाद लाश मालती को सौंप दी. इस घटना के बाद मालती शहर में नहीं दिखी.

दिलावर दूसरे दिन पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर से मिला और उस से पोस्टमार्टम के बारे मे पूछा. डाक्टर ने कहा, ‘‘गोली सामने से सीने के बाईं ओर मारी गई थी. कोई पेशेवर हत्यारा था.’’

‘‘वह मैं ही था और तुम्हें कैसे मालूम कि गोली सामने से मारी गई?’’ दिलावर ने पूछा.

‘‘जी सामने कार्बन के ट्रेड मार्क्स थे और प्रवेश का घाव सामने ही था.’’

दिलावर ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम कि घाव बून्ड औफ एंट्री सामने ही था?’’

डाक्टर ने जवाब दिया, ‘‘उस के किनारे अंदर की ओर थे.’’

‘‘अच्छा,’’ तो गोली बाहर निकलने का घाव पीछे की ओर होगा क्योंकि वह बड़ा होगा और उस के किनारे फटे होंगे.’’

‘‘हां.’’ डाक्टर ने जवाब दिया.

अब दिलावर ने चैकबुक निकाली उस पर पहले से ही हस्ताक्षर थे. फिर डाक्टर से कहा कि अमाउंट अपनी औकात के अनुसार भर लेना, पर घाव सिर के बाजू में ही चाहिए.

‘‘डाक्टर कैन नाट बी परचेज्ड लाईक दिस,’’ डाक्टर बोला.

दिलावर ने पिस्टल निकाल कर टेबिल पर रखी और पूछा, ‘‘कैन डाक्टर बी परचेज्ड विद दिस?’’

डाक्टर कांपने लगा और दोनों लौटाते हुए बोला, ‘‘आप दोनों रखिए. गोली के अंदर जाने का घाव खोपड़ी के दाहिनी तरफ ही होगा और त्वचा जली हुई होगी.’’

दिलावर गनमैन के साथ बाहर चला गया.

सरकार उन्हें तो पिस्टल का लाइसैंस नहीं देती जिन्हें आत्मरक्षा की जरूरत है पर उन्हें दे देती है जो पिस्टल ले कर नाचते हुए वीडियो फेसबुक पर डाल देते हैं.

कोई आतंकवादी या सामूहिक बलात्कारी पुलिस एनकांउटर में मारे जाते हैं तो जाने कहां से मानव अधिकार आयोग उन की रक्षा के लिए खड़ा हो जाता है पर कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ तो मानव अधिकार आयोग कहां छिप कर बैठ गया था, किसी को नहीं मालूम.

दिलावर एक दबंग और प्रभावशाली व्यक्ति था. उस के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी, इसलिए उस ने अपने प्रभाव से डाक्टर से भी मालती के पति की पोस्टमार्टम रिपोर्ट बदलवा दी थी. डाक्टर ने सिर में गोली लगने की बात पोस्टमार्टम रिपोर्ट में लिखी थी. जबकि पुलिस ने जो पंचनामा बनाया था, उस में गोली सीने पर बाईं ओर लगने की बात लिखी थी. इस का फायदा दिलावर को न्यायालय में मिला.

कोर्ट में पुलिस और पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर की अलगअलग रिपोर्ट देख कर जज भी हैरान रह गया. दिलावर के वकीलों ने कोर्ट में दलील दी कि उन के क्लायंट को रंजिश के चलते इस केस में फंसाया गया है. उन का इस हत्या से कोई संबंध नहीं है. इस का नतीजा यह हुआ कि सबूतों के अभाव में कोर्ट ने दिलावर को हत्या के इस केस से बरी कर दिया.

दिलावर के छूट जाने के बाद मालती को बहुत दुख हुआ. वह पति के हत्यारे को सजा दिलाना चाहती थी, लेकिन दबंगई और पैसों के बूते वह साफ बच गया था. इस के बाद मालती ने तय कर लिया कि भले ही दिलावर कोर्ट से बरी हो गया है लेकिन उस का घरबार उजाड़ने वाले दिलावर को वह ऐसी सजा देगी, जिस से वह किसी और की दुनिया उजाड़ने लायक ही न रहे.

काफी सोचनेविचारने के बाद आखिर उस ने एक खतरनाक योजना बना ली. इस के लिए उस ने खुद को भी भस्म करने की ठान ली.

इस के बाद वह एक डाक्टर के पास गई और उन से एड्स बीमारी के बारे में जानकारी ली. डाक्टर ने बताया कि एचआईवी एक बहुत खतरनाक ह्यूमन इम्यूनोडेफिसिएंसी वायरस है, जो व्यक्ति की रोगों से लड़ने की क्षमता कम करता है. यह व्यक्ति के शारीरिक द्रवों के संपर्क ड्रग्स, यूजर, संक्रमित रक्त या मां से बच्चे को ही फैलता है.

एड्स, एचआईवी संक्रमित मरीजों में संक्रमण या कैंसर होने की श्रंखला है. संक्रमण के 3 महीने बाद ही रक्त की रिपोर्ट पौजिटिव आती है. बीच का समय ‘विंडो पीरियड’ होता है.

अपनी इसी योजना के तहत वह एक दिन सफेद साड़ी पहन कर सरकारी अस्पताल में गई. उस ने एड्स काउंसलर से एड्स पीड़ितों की सूची मांगी.

काउंसलर ने कहा, ‘‘वह लिस्ट तो नहीं दी जा सकती. क्योंकि उन के नाम गुप्त रखे जाते हैं.’’

मालती ने झूठ बोलते हुए कहा, ‘‘मैं एक एनजीओ से हूं और एड्स पीड़ितों के बीच काम करना चाहती हूं.’’

काउंसलर ने पूछा, ‘‘आप को काउंसिलिंग की परिभाषा भी मालूम है?’’

‘‘जी, 2 व्यक्तियों या समूहों के मध्य संवाद, जिस में एक जानने वाला दूसरे के डर एवं गलतफहमियां दूर करता है.’’

उस की बातों से काउंसलर ने संतुष्ट हो कर करीब 400 एचआईवी पौजिटिव पुरुषों की सूची उसे दे दी. काउंसलर ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं आप की सेवा भावना से प्रमावित हूं.’’

धन्यवाद दे कर वह मालती बाहर आ गई.

लिस्ट पा कर मालती मन ही मन खुश हुई. इस के बाद मालती ने हर रात एक एड्स पीड़ित के साथ बिताई. फिर 3 महीने बाद उस ने स्वयं का एचआईवी टैस्ट करवाया. रिपोर्ट पौजिटिव आई तो मालती को सीमातीत प्रसन्नता हुई.

3 महीने बाद एक रात को मालती दिलावर के घर पहुंची. दिलावर उसे देख कर अचकचा गया. उस ने कहा, ‘‘इतनी रात को तुम यहां?’’

‘‘जी मेरे पति तो गुजर गए. मैं ने आवेश में अपनी बैंक नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया. मैं बदनाम हो गई थी. अब आप का ही सहारा है,’’ वह बोली.

दिलावर खुश हो कर बोला, ‘‘सहारा मजबूत पेड़ का ही लेना चाहिए. महिलाओं की मनमोहक सुंदरता पुरुषों को आकर्षित करती है इसलिए वे खुद को संभाल नहीं पाते. मैं हैरान हूं कि तुम्हारा आकर्षण अभी तक बरकरार है. तुम्हारा स्वागत है.’’

इस तरह मालती दिलावर की प्रेमिका बन कर उस के साथ रहने लगी. उसे रोज रात को दिलावर को शरीर समर्पण करना पड़ता, जिस से उसे अत्यंत प्रसन्नता होती.

3 महीने बाद दिलावर को फ्लू जैसा बुखार आया, जिस से मालती को दिल में अत्यंत प्रसन्नता हुई. वह दिखावे के तौर पर चिंतित हो कर बोली, ‘‘सर, मैं फैमिली डाक्टर को बुला लाऊं?’’

‘‘अरे नहीं, सामान्य बुखार और खांसी है. खुदबखुद ठीक हो जाएगा.’’ दिलावर बोला.

‘‘नहींनहीं, मुझे आप की बहुत चिंता रहती है. आप ही तो मेरा सहारा हैं,’’ कहती हुई मालती बाहर चली गई और दिलावर के फैमिली डाक्टर को बुला लाई.

दिलावर के फैमिली डाक्टर शहर के प्रसिद्ध डाक्टर थे. उन्होंने दिलावर का परीक्षण किया और सामान्य दवाइयां लिख दीं. उन्होंने खून की जांच के लिए भी लिख दिया.

कोशिशें जारी हैं : सास – बहू का निराला रिश्ता – भाग 2

निया की उम्र इस समय 30 साल थी और शिवानी की 52 साल. हर समय प्रसन्नचित, शांत हंसतीखिलखिलाती शिवानी ने जैसे अपनी उम्र 7 तालों में बंद की हुई थी. लंबी, स्मार्ट, सुगठित काया की धनी शिवानी हर तरह के कपड़े पहनती. निया भी लंबी, छरहरी, सुंदर युवती थी. दोनों कभी जींसटौप पहन कर, कभी सलवारसूट, कभी चूड़ीदार तो कभी इंडोवैस्टर्न कपड़े पहन कर इधरउधर निकल जातीं. उन के बीच के तारतम्य को देख कर किसी ने यह पूछना तो गैरवाजिब ही समझा कि निया उस की कौन है.

शिवानी लेटी हुई सोच रही थी कि कई महिलाएं यह रोना रोती हैं कि उन की बहू उन्हें नहीं समझती. लेकिन न हर बहू खराब होती है, न हर सास. फिर भी अकसर पूरे परिवार की खुशी के आधार, इस प्यारे रिश्ते के समीकरण बिगड़ क्यों जाते हैं. जबकि दोनों की जान एक ही इंसान, बेटे व पति के पास ही अटकी रहती है और उस इंसान को भी ये दोनों ही रिश्ते प्यारे होते हैं. इस एक रिश्ते की खटास बेटे का सारा जीवन डांवांडोल कर देती है, न पत्नी उसे पूरी तरह पा पाती है और न मां.

बहू जब पहला कदम घर में रखती है तो शायद हर सास यह बात भूल जाती है कि वह अब हमेशा के लिए यहीं रहने आई है, थोड़े दिनों के लिए नहीं और एक दिन उसी की तरह पुरानी हो जाएगी. आज मन मार कर अच्छीबुरी, जायजनाजायज बातों, नियमों, परंपराओं को अपनाती बहू एक दिन अपने नएपन के खोल से बाहर आ कर तुम्हारे नियमकायदे, तुम्हें ही समझाने लगेगी, तब क्या करोगे?

बेटी को तुम्हारी जो बातें नहीं माननी हैं उन्हें वह धड़ल्ले से मना कर देती है, तो चुप रहना ही पड़ता है. लेकिन अधिकतर बहुएं आज भी शुरूशुरू में मन मार कर कई नापसंद बातों को भी मान लेती हैं. लेकिन धीरेधीरे बेटे की जिंदगी की आधार स्तंभ बनने वाली उस नवयौवना से तुम्हें हार का एहसास क्यों होने लगता है कुछ समय बाद. उसी समय समेट लेना चाहिए था न सबकुछ जब बहू ने अपना पहला कदम घर के अंदर रखा था.

दोनों बांहों में क्यों न समेट लिया उस खुशी की गठरी को? तब क्यों रिश्तेदारों व पड़ोसियों की खुशी बहू की खुशी से अधिक प्यारी लगने लगी थी. बेटी या बहू का फर्क आज के जमाने में कोई खानपान या काम में नहीं करता. फर्क विचारों में आ जाता है.

बेटी की नौकरी मेहनत और बहू की नौकरी मौजमस्ती या टाइमपास, बेटी छुट्टी के दिन देर तक सोए तो आराम करने दो, बहू देर तक सोए तो पड़ोसी, रिश्तेदार क्या कहेंगे? बेटी को डांस का शौक हो और घर में घुंघरू खनकें तो कलाप्रेमी और बहू के खनकें तो घर है या कोठा? बेटी की तरह ही बहू भी नन्हीं, कोमल कली है किसी के आंगन की, जो पंख पसारे इस आंगन तक उड़ कर आ गई है.

आज पढ़लिख कर टाइमपास नौकरी करना नहीं है लड़कियों के शौक. अब लड़कियों के जीवन का मकसद है अपनी मंजिल को हर हाल में पाना. चाहे फिर उन का वह कोई शौक हो या कोई ऊंचा पद. वे सबकुछ संभाल लेंगी यदि पति व घरवाले उन का बराबरी से साथ दें, खुले आकाश में उड़ने में उन की मदद करें.

ऐसा होगा तो क्यों न होगी इस रिश्ते की मजबूत बौंडिंग. सास या बहू कोई हव्वा नहीं हैं, दोनों ही इंसान हैं. मानवीय कमजोरियों व खूबियों से युक्त एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत. शिवानी अपनी सोचों के तर्कवितर्क में गुम थी कि तभी बाहर का दरवाजा खुला, आहट से ही समझ गई शिवानी कि निया आ गई. एक अजीब तरह की खुशी बिखेर देती है यह लड़की भी घर के अंदर प्रवेश करते ही. निया लैपटौप बैग कुरसी पर पटक कर उस के कमरे में आ गई.

‘‘हाय ममा.. हाऊ यार यू…,’’ कह कर वह चहकती हुई उस से लिपट गई.

‘‘फाइन… हाऊ वाज युअर डे…’’

‘‘औसम… पर मैं ने आप को कई बार फोन किया, आप रिसीव नहीं कर रही थीं. फिर सुकरानी को फोन कर के पूछा तो उस ने बताया कि आप ठीक हैं. वह लंच दे कर चली गई थी.’’

‘‘ओह, फोन. शायद औफ हो गया है.’’ शिवानी मोबाइल उठाती हुई बोली, ‘‘चल तेरे लिए चाय बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, चाय मैं बनाती हूं. आप अभी कमजोर हैं. थोड़े दिन और आराम कर लीजिए’’, कह कर निया 2 कप चाय बना लाई और चाय पीतेपीते दिन भर का पूरा हाल शिवानी को सुनाना शुरू कर दिया.

जवाब : अनसुलझे सवालों के घेरे में माधुरी – भाग 1

कमरे का वातावरण बाहर के मौसम की ही तरह गरम था. मेरी बहू द्वारा लिया गया एक निर्णय मुझे बिलकुल नागवार गुजरा था. मैं इस बात से ज्यादा नाराज थी कि मेरे बेटे की भी इस में मूल सहमति थी. ऐसा नहीं था कि मैं पोंगापंथी विचारधारा की कोई कड़क सास थी. परंतु बात ही कुछ ऐसी थी कि आधुनिक विचारधारा तथा स्त्री स्वतंत्रता का हिमायती मेरा मन मान ही नहीं पा रहा था.

‘‘मम्मी आप समझ नहीं रही हैं…’’

‘‘मैं नहीं समझ रही हूं, यह सही कह रही हो तुम. मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि तुम्हें अकेले ही क्यों घूमने जाना है? सप्तक नहीं जाना चाहता तो अगले महीने स्नेहल और अपनी बाकी दोस्तों के साथ चली जाना.’’

‘‘मम्मी, स्नेहल या कोई और ट्रेकिंग पर जाना पसंद नहीं करती.’’

‘‘तो तुम्हें क्यों जाना है? वैसे भी शादी के बाद यह सब ठीक नहीं है. अनजान लोगों के साथ रातरात भर अकेले रहने में भला कौन सी समझदारी है.’’

‘‘मधु एकदम ठीक कह रही है.’’ सुमित, मेरे पति बोल पड़े थे.

‘‘पापाजी, मेरी जानपहचान का ग्रुप है. ग्रुप के सदस्यों के साथ पहले भी गई हूं मैं.’’

‘‘बात जानपहचान की नहीं है, अलीना. मैं ने क्या कभी तुम्हें किसी भी काम के लिए मना किया है? परंतु बच्चे, शादी के बाद कुछ चीजें सही नहीं लगतीं. सप्तक साथ होता तो बात अलग होती. मैं तो तुम्हें रजामंदी नहीं दूंगी, बाकी तुम खुद समझदार हो अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो, वयस्क हो.’’

‘‘मम्मी, शादी का क्या अर्थ होता है?’’ काफी देर से शांत हो कर हमारी बातें सुन रहा मेरा बेटा सप्तक अचानक बोला.

‘‘अर्थ…’’

‘‘हां मम्मी, क्या यह अर्थ स्त्री और पुरुष के लिए भिन्न होता है?’’

‘‘नहीं, ऐसा तो मैं ने नहीं कहा.’’

‘‘आज तक मुझे तो मेरी किसी पसंद को भूलने को नहीं कहा आप लोगों ने. फिर अलीना के साथ यह अलग व्यवहार क्यों? शादी का अर्थ अपनी पसंदनापसंद को पति के अनुरूप बदलना तो नहीं होता.’’

फिर वह मेरे घुटनों के पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘इस रिश्ते से विलग स्त्री का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रिश्ता स्वयं से भी है. शादी का अर्थ उस रिश्ते को तो भुला देना कदापि नहीं है. पता नहीं हमारा समाज स्त्रियों से ही सदा त्याग की उम्मीद रखना कब छोड़ेगा? वे भी पुरुषों की तरह इंसान हैं. उन की भी इच्छाएं हैं. अपने पति से इतर उन का एक अलग व्यक्तित्व भी है.’’

‘‘बेटा…’’ मैं ने कुछ कहना चाहा, लेकिन वह बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, आप को तो पता है मुझे एक्रोफोबिया है, मुझे ऊंचाई से घबराहट होती है. परंतु अलीना तो कई सालों से ट्रेकिंग पर जाती रही है, उस का पहला प्यार ही ट्रेकिंग है. हिमालय की चोटी पर चढ़ना तो उस का ख्वाब रहा है और आज उस का यह सपना पूरा होने जा रहा है, मैं उसे यह कह कर रोक दूं कि तुम अब किसी घर की बहू हो, इसलिए तुम अपना सपना भूल जाओ.

‘‘स्त्री को त्याग की देवी, परिवार की धुरी और ममता की छांव बता कर पुरुष और यह समाज अपने स्वार्थ की पूर्ति कब तक करता रहेगा. मेरे अनुसार, अलीना सही है और उसे जाना ही चाहिए. मम्मा, इस बार आप गलत हैं.

बात उस दिन यहीं समाप्त हो गई थी. अलीना के जाने में अभी 15 दिन का समय बाकी था. रात को खाने के बाद मैं लेटने जा ही रही थी कि सुमित ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, ‘‘देख लिया अपने बेटे को, तुम्हारा बेटा जोरू का गुलाम हो गया है. तुम्हारा बुढ़ापा तो कष्टमय गुजरने वाला है. नाक कटा दी खानदान की. मैं ने तो कभी भी अपनी मां की बात नहीं काटी और इसे देखो. मधु, सोचा था मेरा बेटा मेरे जैसा बनेगा, परंतु यह तो…’’

शुरू से ही सप्तक बड़ा हो कर क्या बनेगा, यह निर्णय मैं ने पूरी तरह सप्तक की खुद की पसंद पर छोड़ रखा था. परंतु वह कैसा पुरुष बनेगा, इस की एक छवि मैं ने अपने मन में बना रखी थी, और वह छवि कहीं भी सुमित से मेल नहीं खाती थी.

सुमित के बड़बड़ाने की आवाज अभी भी नेपथ्य में आ रही थी, परंतु मैं 30 साल पहले की अपनी दुनिया में पहुंच चुकी थी.

संगीत मेरे शरीर में लहू की तरह बहता था. पिताजी संगीत शिक्षक थे और मां गृहिणी. हम चारों बहनों के नाम भी संगीतात्मक थे. बड़ी दीदी सुरीली, मंझली दीदी स्वरा, छोटी दीदी संगीता और मैं सब से छोटी माधुरी. परंतु संगीत से मन भले ही संतुष्ट होता हो, पेट नहीं भरता. और जब गरीब के घर में शादी करने के लायक 4 बेटियां हों तो उन का गुण भी अवगुण बन जाता है.

बड़ी मुश्किल से पिताजी हम बहनों को शिक्षा दिला पाए थे. कन्यादान करने के लिए उन्हें न जाने कहांकहां से उधार लेना पड़ा था. पूरे विश्व में शायद भारत ही एक ऐसा देश होगा जहां दान देने के लिए भी दाता को ग्रहीता को शुल्क अदा करना पड़ता है.

स्त्री वह वस्तु नहीं, कर दिया जिसे तुम ने दान दे कर दान में उसे तुम ने, छीन लिया उस का स्वाभिमान…

शादी के सात फेरों के साथ सात वचन ले कर मैं ने सुमित के घर में प्रवेश किया. सात वचन तो हम दोनों ने लिए थे परंतु निभाने की एकमात्र उम्मीद मुझ से ही की गई थी. मेरी ससुराल वालों को मेरा गाना बिलकुल पसंद नहीं था, विशेषकर मेरी सास को. उन का मानना था कि यह काम अच्छे घर की कुलवधू को शोभा नहीं देता. उन के आदेश की अवहेलना जब कभी भी उन के पति नहीं कर पाए तो फिर मेरे पति क्या कर पाते. वैसे मैं ने एक कमजोर ही सही, परंतु प्रयास किया था, सुमित से कहा था अपनी माताजी से बात करने को.

‘माधुरी, मैं एक आदर्शवादी पुत्र हूं, मुझे तुम जोरू का गुलाम नहीं बना पाओगी. मां ने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर है.’

‘चाहे वह गलत ही क्यों न हो,’ मैं ने कहा था.

‘हां, आज के बाद इस बारे में कोई भी बात नहीं होगी. किसी भी बात में तुम मुझे सदा मां के साथ ही खड़ा पाओगी. प्रेम मैं तुम से करता हूं पर खानदानभर में मैं तुम्हारी वजह से बदनाम नहीं होना चाहता.’

विवाह के समय कन्या वामांग में आने के लिए सात वचन मांगती है. प्रथम वचन मेरे कानों में उस समय गूंज गया था. ‘हर निर्णय आप मुझे साथ ले कर करोगे, तभी मैं आप के वाम भाग में आना स्वीकार करूंगी.’ मेरी सास को शब्दों के व्यंगबाण से मुझे मारना बहुत पसंद था. मेरी बड़ी ननद विमला भी मेरी सास का इस में पूर्ण सहयोग करती थीं. उन की शादी मेरठ में ही हुई थी. एक ही शहर में मायका और ससुराल होने की वजह से लगातार उन का मायके चक्कर लगता रहता था. हालांकि मेरा मायका भी मेरठ ही था परंतु मेरी सास को मेरा वहां ज्यादा आनाजाना पसंद नहीं था.

वे कहा करती थीं, ‘बहू को अपने मायके ज्यादा नहीं जाने देना चाहिए. मायके वाले बिगाड़ देते हैं. वैसे भी शादी हो गई है, सासससुर की सेवा करो, मांबाप को भूलो.’

परंतु ननद के समय वे यह सब बातें भूल जाया करती थीं. तब उन का वाक्य होता था, ‘घर में रौनक तो बेटियों से ही होती है. अपनी सास की मत सुना कर ज्यादा. जब दिल करे आ जाया कर.’

मेरी ननद भी अपनी मां की आज्ञा का पूरा पालन करती थीं, साल में 6-7 महीने यहीं गुजरते थे उन के.

मेरा मायके जाना मेरी सास को पसंद नहीं था, परंतु हर तीजत्योहार पर मेरे मायके से आने वाले तोहफों से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी.

‘अरे, कमलेशजी आप इतना सब क्यों ले आते हैं?’ मेरे सहृदय ससुरजी कहा करते थे.

शिवानी : सोने के पिंजरे में कैद बुलबुल- भाग 3

सरदारजी सावधानी से स्कूटर चलाने के साथसाथ उन दोनों का हौसला भी अपनी बातों से बढ़ाते रहे. घर पहुंचने के बाद वह उन दोनों के पीछेपीछे बैठक में भी चले आए.

‘‘मम्मी, मैं थ्री व्हीलर ले आई हूं. पापा को अस्पताल ले चलते हैं,’’ शिवानी की आवाज में जरा भी कंपन नहीं था.

रामनाथजी होश में आ चुके थे पर अपने अंदर बैठने या बोलने की ताकत महसूस नहीं कर रहे थे. चिंतित नजरों से सब की तरफ देखने के बाद उन की आंखें भर आईं.

‘‘इन से चला नहीं जाएगा. पंजे में मोच आई है और दर्द बहुत तेज है,’’ घाव को दबा कर बैठी सुमित्रा ने रोंआसे स्वर में उसे जानकारी दी.

‘‘ड्राइवर भैया, आप पापाजी को बाहर तक ले चलने में हमारी मदद करेंगे,’’ शिवानी ने मदद मांगने वाली नजरों से सरदारजी की तरफ देखा.

‘‘जरूर बहनजी, फिक्र की कोई बात नहीं,’’ हट्टेकट्टे सरदारजी आगे बढ़े और उन्होंने अकेले ही रामनाथजी को अपनी गोद में उठा लिया.

थ्री व्हीलर में पहले सुमित्रा और फिर शिवानी बैठीं. उन्होंने रामनाथजी को अपनी गोद में लिटा सा लिया.

सरदारजी ने अंकिता और नेहा को पास के सरकारी अस्पताल का रास्ता समझाया और राम सिंह के लौटने पर कार अस्पताल लाने की हिदायत दे कर स्कूटर अस्पताल की तरफ मोड़ दिया. बिजली की कौंध व बादलों की गड़गड़ाहट के साथ तेज बारिश थमी नहीं थी.

मुख्य सड़क के किनारे बने छोटे से सरकारी अस्पताल में फैली बदइंतजामी का सामना उन्हें पहुंचते ही करना पड़ा. वहां के कर्मचारियों ने खस्ताहाल स्ट्रेचर सरदारजी को मरीज लाने के लिए थमा दिया.

अंदर आपातकालीन कमरे में डाक्टर का काम 2 कंपाउंडर कर रहे थे. डाक्टर साहब अपने बंद कमरे में आराम फरमा रहे थे.

डाक्टर को बुलाने की शिवानी की प्रार्थना का कंपाउंडरों पर कोई असर नहीं पड़ा तो वह एकदम से चिल्ला पड़ी.

‘‘डाक्टर यहां सोने आते हैं या मरीजों को देखने? मैं उठाती हूं उन्हें,’’ और इसी के साथ शिवानी डाक्टर के कमरे की तरफ चल पड़ी.

एक कंपाउंडर ने शिवानी का रास्ता रोकने की कोशिश की तो सरदारजी उस का हाथ पकड़ कर बोले, ‘‘बादशाहो, इन बहनजी से उलझे तो जेल की हवा खानी पड़ेगी. यह पुलिस कमिश्नर की रिश्तेदार हैं. इनसान की पर्सनैलिटी देख कर उन की हैसियत का अंदाजा लगाना सीखो और अपनी नौकरी को खतरे में डालने से बचाओ.’’

एक ने भाग कर शिवानी के पहुंचने से पहले ही डाक्टर के कमरे का दरवाजा खटखटाया. डाक्टर ने नाराजगी भरे अंदाज में दरवाजा खोला. कंपाउंडर ने उन्हें अंदर ले जा कर जो समझाया, उस के प्रभाव में आ कर डाक्टर की नींद हवा हो गई और वह रामनाथजी को देखने चुस्ती से कमरे से बाहर निकल आया.

डाक्टर को जख्म सिलने में आधे घंटे से ज्यादा का समय लगा. रामनाथजी के पैर में एक कंपाउंडर ने क्रैप बैंडेज बड़ी कुशलता से बांध दिया. दूसरे ने दर्द कम करने का इंजैक्शन लगा दिया.

‘‘मुझे लगता नहीं कि हड्डी टूटी है पर कल इन के पैर का एक्सरे करा लेना. दवाइयां मैं ने परचे पर लिख दी हैं, इन्हें 5 दिन तक खिला देना. अगर हड्डी टूटी निकली तो प्लास्टर चढे़गा. माथे के घाव की पट्टी 2 दिन बाद बदलवा लीजिएगा,’’ डाक्टर ने बड़े अदब के साथ सारी बात समझाई.

तभी राम सिंह, अंकिता और नेहा वहां आ पहुंचे. नेहा अपने पिता की छाती से लग कर रोने लगी.

राम सिंह ने सुमित्रा को सफाई दी, ‘‘साहब ने कहा था कि घंटे भर बाद चलेंगे. मैं सिगरेट लाने को दुकान ढूंढ़ने निकला तो जोर से बारिश आ गई. मुझ से गलती हुई. मुझे कार से दूर नहीं जाना चाहिए था.’’

स्ट्रेचर पर लिटा कर दोनों कंपाउंडर रामनाथजी को कार तक लाए. शिवानी ने उन्हें इनाम के तौर पर 50 रुपए सुमित्रा से दिलवाए.

सरदारजी तो किराए के पैसे ले ही नहीं रहे थे.

‘‘अपनी इस छोटी बहन की तरफ से उस के भतीजेभतीजियों को मिठाई खिलवाना, भैया,’’ शिवानी के ऐसा कहने पर ही भावुक स्वभाव वाले सरदारजी ने बड़ी मुश्किल से 100 रुपए का नोट पकड़ा.

विदा लेने के समय तक सरदारजी ने शिवानी के हौसले व समझदारी की तारीफ करना जारी रखा.

इसी तरह का काम लौटते समय अंकिता भी करती रही. वह इस बात से बहुत प्रभावित थी कि अंधेरे और बारिश की चिंता न कर शिवानी भाभी निडर भाव से थ्री व्हीलर लाने निकल पड़ी थीं.

अंकिता को उस के घर छोड़ वह सब वापस लौट पड़े. सभी के कपड़े खराब हो चुके थे. रामनाथजी को आराम करने की जरूरत भी थी.

उस रात सोने जाने से पहले सुमित्रा और नेहा शिवानी से मिलने उस के कमरे में आईं, ‘‘बहू, आज तुम्हारी हिम्मत और समझबूझ ने बड़ा साथ दिया. हमारे तो उन की खराब हालत देख कर हाथपैर ही फूल गए थे. तुम न होतीं तो न जाने क्या होता?’’ शिवानी को छाती से लगा कर सुमित्रा ने एक तरह से उसे धन्यवाद दिया.

‘‘भाभी, मुझे भी अपनी जैसी साहसी बना दो. अपने ढीलेपन पर मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही है,’’ नेहा ने कहा.

‘‘बहू, तुम्हारे सीधेसादे व्यक्तित्व की खूबियां हमें आज देखने को मिलीं. मुसीबत के समय हम मांबेटी की सतही चमकदमक फीकी पड़ गई. हम बेकार तुम में कमियां निकालते थे. जीवन की चुनौतियों व संघर्षों का सामना करने का आत्मविश्वास तुम्हीं में ज्यादा है. तुम्हारा इस घर की बहू बनना हम सब के लिए सौभाग्य की बात है,’’ भावुक नजर आ रही सुमित्रा ने एक तरह से अपने अतीत के रूखे बरताव के लिए शिवानी से माफी मांगी.

बैग पर लटका राजू : लौकडाउन ने जड़े पैरों में ताले- भाग 1

‘‘अब और पैदल नहीं चला जा रहा है मां,” राजू ने जैसे ही अपनी लड़खड़ाती जबान से यह बोला, सरिता के चलते कदम ठहर गए. इस के पहले भी राजू उस से दोतीन बार बोल चुका था कि वह थक गया है और उस से चला नहीं जा रहा. पर, हर बार सरिता उसे दिलासा देती रही कि ‘बस, कुछ दूर और चल लो, फिर हम कहीं रुक जाएंगे और खाने को भी देंगे.’

वैसे, सरिता जानती थी कि उस के पास खाने के नाम पर कुछ नहीं है. बिस्कुट के 2 पैकैट किसी ने दिए थे, उन्हें राजू खा चुका था. उसे तो राजू को दिलासा देना था, सो उस ने यों ही बोल दिया था. वहीं, राजू भी सरिता की परेशानी को समझ रहा था, पर वह करता क्या.

उस के नन्हे पैर जितना चल सकते थे, वह पूरी ताकत के साथ उन्हें चला रहा था. 4 साल का राजू भला कितना पैदल चलेगा. वह 2 दिनों से चल ही तो रहा है. कहींकहीं वे रुक जाते हैं, थोड़ा आराम कर फिर चलने लगते हैं.

मंजिल तो अभी दूर है. सरिता ने गहरी सांस ली. उस के कदम रुक चुके थे. उस ने सड़क के चारों ओर निगाह दौड़ाई, कोई साया मिल जाए तो वह राजू को गोदी में ले कर कुछ देर सुस्ता ले.

अप्रैल की गरम दोपहरी में सूरज आसमान से अंगारे बरसा रहा था. सरिता ने तो अपने सिर पर आंचल ले रखा था और राजू के सिर पर रूमाल बांध दिया था. सरिता एक हाथ से ट्रौलीबैग को घसीटते हुए चल रही थी और दूसरे हाथ की उंगलियों में राजू का हाथ पकड़ा हुआ था.

सरिता अपने गांव लौट रही थी अकेले ही पैदल चलते हुए. वह जिस शहर में मजूदरी का काम करती थी वहां काम बंद कर दिया गया था. वह तो उस दिन भी दिनभर काम कर के घर लौटी थी अपने पति के साथ. उस का पति और वह 3 सालों से मजदूरी का काम कर रहे थे. वैसे तो वे बहुत दूर दूसरे प्रांत के मड़ई गांव में रहते थे. जब वह ब्याह कर आई थी तब उस के घर के हालात इतने खराब नहीं थे कि उसे मजदूरी करने जाना पड़े.

पति अकेला काम पर जाता और वह घर के सारे कामकाज निबटाती. सास खेतों को चली जाती, एकाध गट्ठा चारा काट लाती. वह खुद बाखर में जा कर थोड़ाबहुत काम कर लेती जिस के बदले में उसे गल्ला मिल जाता. उन के परिवार का गजुरबसर हो ही जाता था.

पड़ोस में रहने वाला मोहन तो इसी शहर में काम कर रहा था. दीवाली पर जब वह गांव आया तो उस ने ही उस के पति को शहर में काम करने के लिए बहला लिया. उस का पति तो शहर जाने को राजी हो गया पर सरिता ने साफ मना कर दिया. वह पेट से थी, ऐसी हालत में अपना गांव तो अपना गांव ही होता है, हर कोई मदद करने को तैयार हो जाता है. परदेश में भला कौन मदद करेगा. उस की सास ने भी उस के पति को परदेश जाने की मनाही कर दी थी. पर वह नहीं माना. वह अकेला ही जाने को तैयार हो गया. मजबूरी में उसे साथ आना पड़ा.

यहां आ कर एक खोली किराए पर ले ली और अपनी घरगृहस्थी बसा ली. शुरूशुरू में तो उस का मन यहां बिलकुल नहीं लगा पर राजू के पैदा होने के बाद वह भी यहां के हिसाब से रचबस गई.

दोनों सुबह ही काम पर चले जाते और शाम का धुंधलका फैलतेफैलते ही घर लौट पाते. कई बार तो उन्हें रात भी हो जाती. जिस सेठ के यहां वे काम करते थे उस का साफ कहना था, ‘कितनी ही देर हो जाए पर जब तक काम पूरा नहीं होगा, काम बंद करने नहीं दिया जाएगा.’ उस के इस उसूल के चलते कई बार काम रात का अंधकार फैलने के बाद तक चलता रहता.

सेठ 15 दिनों में मजूदरी देता था. वे पैसों से खानेपीने का सामान खरीद लेते. राजू के पैदा होने के बाद उन का खर्चा बढ़ चुका था, जबकि मजदूरी जस की तस थी. राजू के लिए दूध वे रोज लेते और अपने खर्चे में कटौती कर लेते. वह केवल दूध ही तो पीता था. वे हर मांबाप की तरह राजू को राजकुमार की तरह पाल लेने का सपना देख रहे थे. वे काम करते रहते और वहीं पास में राजू खेलता रहता. उन के दिन अच्छे गुजर रहे थे.

पेड़ की छांव में सरिता राजू को गोद में लिए उस का सिर सहला रही थी. राजू आंख बंद किए उस की गोद में लेटा था. सरिता के पैरों में छाले साफ दिखाई दे रहे थे. वैसे भी उस के पैरों में टूटी प्लास्टिक की चप्पलें ही तो थीं. वे कितना चल पातीं. घिसघिस कर उन के तलुए टूट चुके थे.

उस ने दांएं हाथ से अपने पैरों के छालों पर हाथ फेरा. उस के मुंह से चीख निकल गई. उस के छाले दर्द कर रहे थे. उस की चीख से राजू ने भी आंखें खोल ली थीं, ‘‘क्या हुआ मां?” उस के चहरे पर मां की परेशानी को समझ लेने की उत्सुकता झलक रही थी.

‘‘कुछ नहीं,” सरिता ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था ताकि राजू उस की आंखों में छलक आए आंसू न देख पाए. वैसे, उस की आंखों से झलकने वाले आंसू स्थायी ठिकाना बना चुके थे. पिछले 15-20 दिनों में इतनी बार आंसू झलके थे जिन की गिनती वह लगा ही नहीं सकती थी.

लौकडाउन ने उस की जिंदगी की सारी खुशियां छीन ली थीं. सत्ता में बैठे लोगों को गरीबों की खुशियां दिखाई नहीं देतीं. वे अपने मद में चूर बड़ेबड़े औफिसों में बैठ कर ऐसे निर्णय कर लेते हैं जिन की गाज केवल और केवल गरीबों पर ही गिरती है. ऐसे ही तो नोटबंदी की थी. रात के अंधियारे में घोषणा कर दी कि कल से फलां नोट नहीं चलेंगे. उस समय भी गरीब लोग बहुत परेशान हुए थे.

सरिता ने जो पाईपाई कर पैसे जोड़े थे, उन्हें बदलवाने के लिए बैंक की लाइन में घंटों खड़े रहना पड़ा था. फिर भी, उस के नोट नहीं बदल पाए, तो उसे अपने गांव के साहूकार के पास जाना पड़ा जिस ने आधे पैसे दे कर नोट बदले थे.

सरिता ने गहरी सांस ली. काश, सरकार ने लौकडाउन लगाने के पहले एक बार यह भी सोच लिया होता कि जो लोग अपने घरों से बाहर हैं वे अपने घरों की ओर लौटेंगे कैसे. रातोंरात गाड़ियां बंद कर दीं, रातोंरात बसें बंद कर दीं और रातोंरात ही कह दिया कि कल से कोई घर से न निकले. गरीब घर से नहीं निकलेगा तो खाएगा क्या. सरिता ने मन ही मन नेताओं को कोसा. एक गरीब की खुशियां जरा सी होती हैं और कष्ट भयानक होते हैं. वे कष्टों में रहरह कर खुशियों के आने की बाट जोहते हैं और सारी खुशियों को समेट कर स्थायीरूप से अपनी संदूक में रख लेने का जतन करते हैं.

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