एक बार तो पूछा होता: मजाक हो तो ऐसा

‘‘पता नहीं क्यों किसीकिसी के साथ दम घुटता सा लगता है. जैसे आप की हर सांस पर किसी का पहरा हो या कोई हर पल आप पर नजर रख रहा हो. क्या ऐसे में दम घुटता सा नहीं लगता?’’ सीमा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखा.

‘‘कहीं तुम्हें दमा का रोग तो नहीं हो गया?’’ मैं ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया.

मेरा मजाक उस के गले में फांस जैसा अटक जाएगा, मुझे नहीं पता था.

‘‘तुम्हें लग रहा है कि मैं तमाशा कर रही हूं, मैं अपने मन की बात समझाना चाह रही हूं और तुम समझ रहे हो…’’

सीमा का स्वर रुंध जाएगा मुझे पता नहीं था. सहसा मुझे रुकना पड़ा. हंसतीखेलती सीमा इतनी परेशान भी हो सकती है मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

सीमा मेरे पापा के दोस्त की बेटी है और मेरे बचपन की साथी है. हम ने साथसाथ अपनी पढ़ाई पूरी की और जीवन के कई उतारचढ़ाव भी साथसाथ पार किए हैं. ऐसा क्या हो गया उस के साथ. हो सकता है उस के पापा ने कुछ कहा हो, लेकिन पापा के साथ पूरी उम्र दम नहीं घुटा तो अब क्यों दम घुटने लगा.

2 दिन बाद मैं फिर सीमा से मिला तो क्षमायाचना कर कुछ जानने का प्रयास किया.

‘‘ऐसा क्या है, सीमा…मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं. अब क्या मुझे भी रुलाओगी तुम?’’

‘‘मेरी वजह से तुम क्यों रोओगे?’’

तनिक रुकना पड़ा मुझे. सवाल गंभीर और जायज भी था. भला मैं क्यों रोऊंगा? मेरा क्या रिश्ता है सीमा से? सीमा की मां का एक्सीडेंट, उन का देर तक अस्पताल में इलाज और फिर उन की मौत, सीमा का अकेलापन, सीमा के पापा का पुनर्विवाह और फिर उन का भी अलगाव. कोई नाता नहीं है मेरा सीमा से, फिर भी कुछ तो है जो मुझे सीमा से बांधता है.

‘‘तुम मेरे कौन हो, राघव?’’

‘‘पता नहीं, तुम्हारे सवाल से तो मुझे दुविधा होने लगी है और विचार करना पड़ेगा कि मैं कौन हूं तुम्हारा.’’

तनिक क्रोध आ गया मुझे. यह सोच कर कि कौन है जो हमारे रिश्ते पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है?

‘‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं घूम गया. अच्छी बात है, नहीं मिलूंगा मैं तुम से. पता नहीं कैसे लोगों में उठतीबैठती हो आजकल, लगता है किसी मानसिक रोगी की संगत में हो जो खुद तो बीमार होगा ही तुम्हारा भी दिमाग खराब कर रहा है,’’ और इतना कह कर मैं ने हाथ में पकड़ी किताब पटक दी.

‘‘यह लाया था तुम्हारे लिए. पढ़ लो और अपनी सोच को जरा स्वस्थ बनाओ.’’

मैं तैश में उठ कर चला तो आया पर पूरी रात सो नहीं सका. भैयाभाभी और पिताजी पर भी मेरी बेचैनी खुल गई. बातोंबातों में उन के होंठों से निकल गया, ‘‘सीमा के रिश्ते की बात चल रही थी, क्या हुआ उस का? उस दिन भाई साहब बात कर रहे थे कि जन्मपत्री मिल गई है. लड़के को लड़की भी पसंद है. दोनों अच्छी कंपनी में काम करते हैं, क्या हुआ बात आगे बढ़ी कि नहीं…’’

‘‘मुझे तो पता नहीं कि सीमा के रिश्ते की बात चल रही है?’’

‘‘क्या सीमा ने भी नहीं बताया? भाई साहब तो बहुत उतावले हैं इस रिश्ते को ले कर कि लड़का उसी के साथ काम करता है. मनीष नाम है उस का, जाति भी एक है.’’

‘‘अरे, भाभी, आप को इतना सब पता है और मुझे इस का क ख ग भी पता नहीं,’’ इतना कह कर मैं भाभी का चेहरा देखने लगा और भौचक्का सा अपने कमरे में चला आया. पता नहीं चला कब भाभी भी मेरे पीछे कमरे में चली आईं.

‘‘राघव, क्या सचमुच तुम कुछ नहीं जानते?’’

‘‘हां, भाभी, बिलकुल सच कह रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता.’’

‘‘क्यों, सीमा ने नहीं बताया. तुम से तो उस की अच्छी दोस्ती है. जराजरा सी बात भी एकदूसरे के साथ तुम बांटते हो.’’

‘‘भाभी, यही तो मैं भी सोच रहा हूं मगर यह सच है. आजकल सीमा परेशान बहुत है. पिछले 3-4 दिनों में हम जब भी मिले हैं बस, हम में झगड़ा ही हुआ है. मैं पूछता हूं तो कुछ बताती भी नहीं है. हो सकता है वह लड़का मनीष ही उसे परेशान कर रहा हो…उस ने कहा भी था कुछ…’’

सहसा याद आया मुझे. दम घुटने जैसा कुछ कहा था. उसी बात पर तो झगड़ा हुआ था. सब समझ आने लगा मुझे. हो सकता है वह लड़का सीमा को पसंद न हो. वह सीमा की हर सांस पर पहरा लगा रहा हो. बचपन से जानता हूं न सीमा को, जरा सा भी तनाव हो तो उस की सांस ही रुकने लगती है.

‘‘तुम से कुछ पूछना चाहती हूं, राघव,’’ भाभी बड़ी बहन का रूप ले कर बोलीं, ‘‘सीमा तुम्हारी अच्छी दोस्त है या उस से ज्यादा भी है कुछ?’’

‘‘अच्छी मित्र है, यह कैसी बातें कर रही हैं आप? कल सीमा भी पूछ रही थी कि मैं उस का क्या लगता हूं… जैसे वह जानती नहीं कि मैं उस का क्या हूं.’’

‘‘तुम तो पढ़ेलिखे हो न,’’ भाभी बोलीं, ‘‘एमबीए हो, बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हो. सब को समझा कर चलते हो, क्या मुझे समझा सकते हो कि तुम सीमा के क्या हो?’’

‘‘हम दोनों बचपन के साथी हैं. बहुत कुछ साथसाथ सहा भी है…’’

भाभी बात को बीच में काट कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या 2 पल भी बिना सीमा को सोचे कभी रहे हो?’’

‘‘न, नहीं रहा.’’

‘‘तो क्या उस के बिना पूरा जीवन जी लोगे? उस की शादी कहीं और हो गई तो…’’

‘‘भाभी, मैं सीमा को किसी धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता था इसीलिए ऐसा सपना ही नहीं देखा. उस का सुख ही मेंरे लिए सबकुछ है. वह जहां रहे सुखी रहे, बस.’’

‘‘तुम ने उस से पूछा, वह मनीष को पसंद करती है? नहीं न, तुम्हें कुछ पता ही नहीं है. जिस के साथ उस के पिता ने जन्मकुंडली मिलाई है क्या उस के साथ उस के विचार भी मिलते हैं. नहीं जानते न तुम…तुम उस का सुखदुख जानते ही नहीं तो उसे सुखी रखने की कल्पना भी कैसे कर सकते हो. एक बार तो उस से खुल कर बात कर लो. बहुत देर न हो जाए, मुन्ना.’’

भाभी का हाथ मेरे सिर पर आया तो लगा एक ममतामई सुरक्षा कवच उभर आया मन के आसपास. क्या भाभी मेरा मन पहचानती हैं. लगा चेतना पर से कुछ हट सा रहा है.

‘‘ज्यादा से ज्यादा सीमा ना कर देगी,’’ भाभी बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, हम बुरा नहीं मानेंगे. कम से कम दिल की बात कहो तो सही. तुम डरते हो तो मैं अपनी तरफ से बात छेड़ं ू.’’

‘‘मुझे डर है राघव कहीं ऐसा न हो कि वह इतनी दूर चली जाए कि तुम उसे देख भी न पाओ. सवाल अनपढ़ या पढ़ेलिखे होने का नहीं है, कुछ सवाल इतने भी आसान नहीं होते जितना तुम सोचते हो. क्योंकि बड़ेबड़े पढ़ेलिखे भी अकसर कुछ प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते. सीमा को तो अनपढ़ कह दिया, तुम्हीं कौन से पढ़ेलिखे हो, जरा समझाओ मुझे.’’

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं भाभी को देखता रहा. मेरा मन भर आया. अपने भाव छिपाने चाहे लेकिन प्रयास असफल रहा. भाभी से क्या छिपाऊं. शायद भाभी मुझ से ज्यादा मुझे जानती हैं और सीमा को भी.

‘‘मुन्ना, तुम आज ही सीमा से बात करो. मैं शाम तक का समय तुम्हें देती हूं, वरना कल सुबह मैं सीमा से बात करने चली जाऊंगी. अरे, जाति नहीं मिलती न सही, दिल तो मिलता है. वह ब्राह्मण है हम ठाकुर हैं, इस से क्या फर्क पड़ता है? जब उसे साथ ही लेना है तो उस के  लायक बनने की जरूरत ही क्या है?

‘‘जिंदगी इतनी सस्ती नहीं होती बच्चे कि तुम इसे यों ही गंवा दो और इतनी छोटी भी नहीं कि सोचो बस, खत्म हुई ही समझो. पलपल भारी पड़ता है जब कुछ हाथ से निकल जाए. मुन्ना, तुम मेरी बात सुन रहे हो न.’’

मैं भाभी की गोद में समा कर रो पड़ा. पिछले 10 सालों में मां बन कर भाभी ने कई बार दुलारा है. जब भाभी इस घर में आई थीं तब मैं 16-17 साल का था. डरता भी था, पता नहीं कैसी लड़की घर में आएगी, घर को घर ही रहने देगी या श्मशान बना देगी. और अब सोचता हूं कि मेरी यह नन्ही सी मां न होती तो मैं क्या करता.

‘‘तुम बडे़ कब होगे, राघव?’’ चीखी थीं भाभी.

‘‘मुझे बड़े होने की जरूरत ही नहीं है, आप हैं न. अगर आप को लगता है बात करनी चाहिए तो आप बात कर लीजिए, मुझ में हिम्मत नहीं है. उन की ‘न’ उन की ‘हां’ आप ही पूछ कर बता दें. डरता हूं, कहीं दोस्ती का यह रिश्ता हाथ से ही न फिसल जाए.’’

‘‘इस रिश्ते को तो यों भी तुम्हारे हाथ से फिसलना ही है. जितनी पीड़ा तुम्हें सीमा की वजह से होती है वह तब तक कोई अर्थ रखती है जब तक उस की शादी नहीं हो जाती. उस के बाद यह पीड़ा तुम्हारे लिए अभिशाप बन जाएगी और सीमा के लिए भी. राघव, तुम एक बार तो सीमा से खुद बात कर लो. अपने मन की कहो तो सही.’’

‘‘भाभी, आप सोचिए तो, उस के पापा नहीं मानेंगे तो क्या सीमा उन के खिलाफ जाएगी? नहीं जाएगी. इसलिए कि अपने पापा का कहना वह मर कर भी निभाएगी. मेरे प्रति अगर उस के मन में कुछ है भी तो उसे हवा देने की क्या जरूरत?’’

‘‘क्या सीमा यह सबकुछ सह लेगी? इतना आसान होगा नहीं, जितना तुम मान बैठे हो.’’

भाभी गुस्से से मेरे हाथ झटक कर चली गईं और सामने चुपचाप कुरसी पर बैठे अपने भाई पर मेरी नजर पड़ी, जो न जाने कब से हमारी बातें सुन रहे थे.

‘‘क्या लड़के हो तुम? भाभी का पल्ला पकड़ कर रो तो सकते हो पर सीमा का हाथ पकड़ एक जरा सा सवाल नहीं पूछ सकते. आदमी बनो राघव, हिम्मत करो बच्चे, चलो, उठो, नहाधो कर नाश्ता करो और निकलो घर से. आज इतवार है और सीमा भी घर पर ही होगी. हाथ पकड़ कर सीमा को घर ले आओगे तो भी हमें मंजूर है.’’

भैयाभाभी के शब्दों का आधार मेरे लिए एक बड़ा प्रोत्साहन था, लेकिन एक पतली सी रेखा संकोच और डर की मैं पार नहीं कर पा रहा था. किसी तरह सीमा के घर पहुंचा. बाहर ही उस के पापा मिल गए. पता चला सीमा की तबीयत अच्छी नहीं है.

‘‘कभी ऐसा नहीं हुआ उसे. कहती है सांस ही नहीं आती. रात भर फैमिली डाक्टर पास बैठे रहे. क्या करूं मैं, अच्छीभली थी, पता नहीं क्या होता जा रहा है इसे.’’

‘‘अंकल, आप को पता तो है कि घबराहट में सीमा को दम घुटने जैसा अनुभव होता है. उस दिन मुझ से बात करनी भी चाही थी पर मैं ने ही मजाक में टाल दिया था.’’

‘‘तो तुम उस से पूछो, बात करो.’’

मैं सीमा के पास चला आया और उस की हालत देख घबरा गया. 3-3 तकिए पीठ के पीछे रखे वह किसी तरह शरीर को सीधा रख सांस खींचने का प्रयास कर रही थी. एकएक सांस को तरसता इनसान कैसा दयनीय लगता है, मैं ने पहली बार जाना था. आंखें बाहर को फट रही थीं मानो अभी पथरा जाएंगी.

उस की यह हालत देख कर मैं रो पड़ा था. सच ही कहा था भाभी ने कि मेरा सीमा के प्रति स्नेह और ममता इतनी भी सतही नहीं जिसे नकारा जा सके. दोनों हाथ बढ़ा कर किसी तरह हांफते शरीर को सहारा देना चाहा. क्या करूं मैं जो सीमा को जरा सा आराम दे पाऊं. माथा सहला कर पसीना पोंछा. ऐसा लग रहा था मानो अभी सीमा के प्राणपखेरू उड़ जाएंगे. दम घुट जो रहा था.

‘‘सीमा, सीमा क्या हो रहा है तुम्हें, बात करो न मुझ से.’’

दोनों हाथों में उस का चेहरा ले कर सामने किया. आत्मग्लानि से मेरा ही दम घुटने लगा था. उस दिन सीमा कुछ बताना चाह रही थी तो क्यों नहीं सुना मैं ने. अचानक ही भीतर आते पापा की आवाज सुनाई दी.

‘‘सीमा, देखो, तुम से मिलने मनीष आया है.’’

पापा के स्वर में उत्साह था. शायद भावी पति को देख सीमा को चैन आएगा.

एक नौजवान पास चला आया और उस का अधिकारपूर्ण व्यवहार ऐसा मानो बरसों पुराना नाता हो. मेरे मन में एक विचित्र भाव जाग उठा, जैसे मैं सीमा के आसपास कोई अवांछित प्राणी था.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ कल अच्छीभली तो थीं तुम. अचानक ऐसा कैसे हो गया?’’

सवाल पर सवाल, उत्तर न मिलने पर भी एक और सवाल.

‘‘कल शाम तुम्हारा इंतजार करता रहा. नहीं आना था तो एक फोन तो कर देतीं. दीदी और जीजाजी तुम्हारी वजह से नाराज हो गए हैं. उन्हें फोन कर के ‘सौरी’ बोल देना. जीजाजी को कह कर न आने वालों से बहुत चिढ़ है.’’

मुझे मनीष एक संवेदनहीन इनसान लगा. सीमा पर पड़ती उस की नजरों में अधिकार- भावना अधिक थी और चिंता कम. यह इनसान सीमा से प्यार ही कहां कर पाएगा जिसे उस की तकलीफ पर जरा भी चिंता नहीं हो रही. सीमा रो पड़ी थी और अगले पल उस का समूचा अस्तित्व मेरी बांहों में आ समाया और मेरी छाती में चेहरा छिपा कर वह चीखचीख कर रोने लगी.

सीमा के पापा अवाक्थे. मनीष की पीड़ा को मैं नकार नहीं सकता…जिस की होने वाली बीवी उसी की ही नजरों के सामने किसी और की बांहों में समा जाए.

कुछ प्रश्न और कुछ उत्तर शायद इसी एक पल का इंतजार कर रहे थे. सीमा ने पीड़ा की स्थिति में अपना समूल मुझे सौंप दिया था और मेरे शरीर पर उस के हाथों की पकड़ इतनी मजबूत थी कि मेरे लिए विश्वास करना मुश्किल था. स्पर्श की भाषा कभीकभी इतनी प्रभावी होती है कि शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाता है.

मेरे हाथों में क्या था, मैं नहीं जानता. लेकिन कुछ ऐसा अवश्य था जिस ने सीमा की उखड़ी सांसों को आसान बना दिया था. मेरे दोनों हाथों को कस कर पकड़ना उस का एक उत्तर था जिस की मुझे भी उम्मीद थी.

मुझे पता ही नहीं चला कब मनीष और पापा कमरे से बाहर चले गए. गले में ढेर सारा आवेग पीते हुए मैं ने सीमा के बालों में उंगलियां डाल सहला दिया. देर तक सीमा मेरी छाती में समाई रही. सांस पूरी तरह सामान्य हो गई थी, जिस पर मैं भी हैरान था और सीमा के पापा भी.

‘‘तुम ने पूछा था न, मैं तुम्हारा कौन हूं? कल तक पता नहीं था. आज बता सकता हूं.’’

चुप थी सीमा, और उस के पापा भी चुप थे. मुझे वे प्रकृति के आगे नतमस्तक से लगे. सीमा की सांसें अगर मेरी नजदीकियों की मोहताज थीं तो इस सच से वे आंखें कैसे मोड़ लेते.

‘‘मुझे बताया क्यों नहीं तुम दोनों ने? बचपन से साथसाथ हो और एकदूसरे पर इतना अधिकार है तो…’’

‘‘अंकल, मुझे भी पता नहीं था. आज ही जान पाया,’’ और इसी के साथ मेरा गला रुंध गया था.

मुझे अच्छी तरह याद है जब सीमा की मां की मौत के कुछ साल बाद उस के पापा ने अपनी बहन के दबाव में आ कर पुनर्विवाह कर लिया था तब वह कितने परेशान थे. सीमा और उस की नई मां के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे. तब अकसर मेरे सामने रो दिया करते थे.

‘‘अपनी जाति अपनी ही जाति होती है. यह औरत हमारी जाति की नहीं है, इसीलिए हम में घुलमिल नहीं पाती.’’

‘‘अंकल, आप अपनी जाति से बाहर भी तो जाना नहीं चाहते थे न. और मैं भी नहीं चाहता था मेरी वजह से सीमा आप से दूर हो जाए. क्योंकि आप ने सीमा के लिए अपने सारे सुख भुला दिए थे.’’

‘‘तो क्या उस का बदला मैं सीमा के जीवन में जहर घोल कर  लूंगा. मैं उस का बाप हूं. जो मैं ने किया वह कोई एहसान नहीं था. कैसे नादान हो, तुम दोनों.’’

सीमा को गले लगा कर अंकल रो पड़े थे. हम तीनों ही अंधेरे में थे. कहीं कोई परदा नहीं था फिर भी एक काल्पनिक आवरण खुद पर डाले बस, जिए जा रहे थे हम.

डरने लगा हूं अब वह पल सोच कर, जब सीमा सदासदा के लिए जीवन से चली जाती. तब शायद यही सोचसोच कर जीवन नरक बन जाता कि एक बार मैं ने बात तो की होती, एक बार तो पूछा होता, एक बार तो पूछा होता.

Mother’s Day 2024- मां: गु़ड्डी अपने बच्चों को आश्रम में छोड़कर क्यों चली गई

रात के 10 बजे थे. सुमनलता पत्रकारों के साथ मीटिंग में व्यस्त थीं. तभी फोन की घंटी बज उठी…

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

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‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

‘‘ऐसा कर, बच्चों के साथ तू भी यहां रह ले. तुझे भी काम मिल जाएगा और बच्चे भी पल जाएंगे,’’ सुमनलता ने कहा.

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‘‘मैं कहां आप लोगों पर बोझ बन कर रहूं, मम्मीजी. काम भी जानती नहीं और मुझ अकेली का क्या, कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ हो जाएगा. अब आप तो इन बच्चों का भविष्य बना दो.’’

‘‘अच्छा, तो तू उस ट्रक ड्राइवर से शादी करने के लिए अपने बच्चों से पीछा छुड़ाना चाह रही है,’’ सुमनलता की आवाज तेज हो गई, ‘‘देख, या तो तू इन बच्चोें के साथ यहां पर रह, तुझे मैं नौकरी दे दूंगी या बच्चों को छोड़ जा पर शर्त यह है कि तू फिर कभी इन बच्चों से मिलने नहीं आएगी.’’

सुमनलता ने सोचा कि यह शर्त एक मां कभी नहीं मानेगी पर आशा के विपरीत गुड्डी बोली, ‘‘ठीक है, मम्मीजी, आप की शरण में हैं तो मुझे क्या फिक्र, आप ने तो मुझ पर एहसान कर दिया…’’

आंसू पोंछती हुई वह जमुना को दोनों बच्चे थमा कर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गई थी.

‘‘अब मैं कैसे संभालूं इतने छोटे बच्चों को,’’ हैरान जमुना बोली.

गोदी का बच्चा तो अब जोरजोर से रोने लगा था और बच्ची कोने में सहमी खड़ी थी.

कुछ देर सोच में पड़ी रहीं सुमनलता फिर बोलीं, ‘‘देखो, ऐसा है, अंदर थोड़ा दूध होगा. छोटे बच्चे को दूध पिला कर पालने में सुला देना. बच्ची को भी कुछ खिलापिला देना. बाकी सुबह आ कर देखूंगी.’’

‘‘ठीक है, मम्मीजी,’’ कह कर जमुना बच्चों को ले कर अंदर चली गई. सुमनलता बाहर खड़ी गाड़ी में बैठ गईं. उन के मन में एक अजीब अंतर्द्वंद्व शुरू हो गया कि क्या ऐसी भी मां होती है जो जानबूझ कर दूध पीते बच्चों को छोड़ गई.

‘‘अरे, इतनी देर कैसे लग गई, पता है तुम्हारा इंतजार करतेकरते पिंकू सो भी गया,’’ कहते हुए पति सुबोध ने दरवाजा खोला था.

‘‘हां, पता है पर क्या करूं, कभीकभी काम ही ऐसा आ जाता है कि मजबूर हो जाती हूं.’’

तब तक बहू दीप्ति भी अंदर से उठ कर आ गई.

‘‘मां, खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, तुम भी आराम करो, मैं कुछ थोड़ाबहुत खुद ही निकाल कर खा लूंगी.’’

ड्राइंगरूम में गुब्बारे, खिलौने सब बिखरे पडे़ थे. उन्हें देख कर सुमनलता का मन भर आया कि पोते ने उन का कितना इंतजार किया होगा.

सुमनलता ने थोड़ाबहुत खाया पर मन का अंतर्द्वंद्व अभी भी खत्म नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें देर रात तक नींद नहीं आई थी.

सुमनलता बारबार गुड्डी के ही व्यवहार के बारे में सोच रही थीं जिस ने मन को झकझोर दिया था.

मां की ममता…मां का त्याग आदि कितने ही नाम से जानी जाती है मां…पर क्या यह सब झूठ है? क्या एक स्वार्थ की खातिर मां कहलाना भी छोड़ देती है मां…शायद….

सुबोध को तो सुबह ही कहीं जाना था सो उठते ही जाने की तैयारी में लग गए.

पिंकू अभी भी अपनी दादी से नाराज था. सुमनलता ने अपने हाथ से उसे मिठाई खिला कर प्रसन्न किया, फिर मनपसंद खिलौना दिलाने का वादा भी किया. पिंकू अपने जन्मदिन की पार्टी की बातें करता रहा था.

दोपहर 12 बजे वह आश्रम गईं, तो आते ही सारे कमरों का मुआयना शुरू कर दिया.

शिशु गृह में छोटे बच्चे थे, उन के लिए 2 आया नियुक्त थीं. एक दिन में रहती थी तो दूसरी रात में. पर कल रात तो जमुना भी रुकी थी. उस ने दोनों बच्चों को नहलाधुला कर साफ कपडे़ पहना दिए थे. छोटा पालने में सो रहा था और जमुना बच्ची के बालों में कंघी कर रही थी.

‘‘मम्मीजी, मैं ने इन दोनों बच्चों के नाम भी रख दिए हैं. इस छोटे बच्चे का नाम रघु और बच्ची का नाम राधा…हैं न दोनों प्यारे नाम,’’ जमुना ने अब तक अपना अपनत्व भी उन बच्चों पर उडे़ल दिया था.

सुमनलता ने अब बच्चों को ध्यान से देखा. सचमुच दोनों बच्चे गोरे और सुंदर थे. बच्ची की आंखें नीली और बाल भूरे थे.

अब तक दूसरे छोटे बच्चे भी मम्मीजीमम्मीजी कहते हुए सुमनलता के इर्दगिर्द जमा हो गए थे.

सब बच्चों के लिए आज वह पिंकू के जन्मदिन की टाफियां लाई थीं, वही थमा दीं. फिर आगे जहां कुछ बडे़ बच्चे थे उन के कमरे में जा कर उन की पढ़ाईलिखाई व पुस्तकों की बाबत बात की.

इस तरह आश्रम में आते ही बस, कामों का अंबार लगना शुरू हो जाता था. कार्यों के प्रति सुमनलता के उत्साह और लगन के कारण ही आश्रम के काम सुचारु रूप से चल रहे थे.

3 माह बाद एक दिन चौकीदार ने आ कर खबर दी, ‘‘मम्मीजी, वह औरत जो उस रात बच्चों को छोड़ गई थी, आई है और आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘कौन, वह गुड्डी? अब क्या करने आई है? ठीक है, भेज दो.’’

मेज की फाइलें एक ओर सरका कर सुमनलता ने अखबार उठाया.

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‘‘मम्मीजी…’’ आवाज की तरफ नजर उठी तो दरवाजे पर खड़ी गुड्डी को देखते ही वह चौंक गईं. आज तो जैसे वह पहचान में ही नहीं आ रही है. 3 महीने में ही शरीर भर गया था, रंगरूप और निखर गया था. कानोें में लंबेलंबे चांदी के झुमके, शरीर पर काला चमकीला सूट, गले में बड़ी सी मोतियों की माला…होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाई थी. और किसी सस्ते परफ्यूम की महक भी वातावरण में फैल रही थी.

‘‘मम्मीजी, बच्चों को देखने आई हूं.’’

‘‘बच्चों को…’’ यह कहते हुए सुमनलता की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘मैं ने तुम से कहा तो था कि तुम अब बच्चों से कभी नहीं मिलोगी और तुम ने मान भी लिया था.’’

‘‘अरे, वाह…एक मां से आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह बच्चों से नहीं मिले. मेरा हक है यह तो, बुलवाइए बच्चों को,’’ गुड्डी अकड़ कर बोली.

‘‘ठीक है, अधिकार है तो ले जाओ अपने बच्चों को. उन्हें यहां क्यों छोड़ गई थीं तुम,’’ सुमनलता को भी अब गुस्सा आ गया था.

‘‘हां, छोड़ रखा है क्योंकि आप का यह आश्रम है ही गरीब और निराश्रित बच्चों के लिए.’’

‘‘नहीं, यह तुम जैसों के बच्चों के लिए नहीं है, समझीं. अब या तो बच्चों को ले जाओ या वापस जाओ,’’ सुमनलता ने भन्ना कर कहा था.

‘‘अरे वाह, इतनी हेकड़ी, आप सीधे से मेरे बच्चों को दिखाइए, उन्हें देखे बिना मैं यहां से नहीं जाने वाली. चौकीदार, मेरे बच्चों को लाओ.’’

‘‘कहा न, बच्चे यहां नहीं आएंगे. चौकीदार, बाहर करो इसे,’’ सुमनलता का तेज स्वर सुन कर गुड्डी और भड़क गई.

‘‘अच्छा, तो आप मुझे धमकी दे रही हैं. देख लूंगी, अखबार में छपवा दूंगी कि आप ने मेरे बच्चे छीन लिए, क्या दादागीरी मचा रखी है, आश्रम बंद करा दूंगी.’’

चौकीदार ने गुड्डी को धमकाया और गेट के बाहर कर दिया.

सुमनलता का और खून खौल गया था. क्याक्या रूप बदल लेती हैं ये औरतें. उधर होहल्ला सुन कर जमुना भी आ गई थी.

‘‘मम्मीजी, आप को इस औरत को उसी दिन भगा देना था. आप ने इस के बच्चे रखे ही क्यों…अब कहीं अखबार में…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा, तुम लोग भी अपनाअपना काम करो.’’

सुमनलता ने जैसेतैसे बात खत्म की, पर उन का सिरदर्द शुरू हो गया था.

पिछली घटना को अभी महीना भर भी नहीं बीता होगा कि गुड्डी फिर आ गई. इस बार पहले की अपेक्षा कुछ शांत थी. चौकीदार से ही धीरे से पूछा था उस ने कि मम्मीजी के पास कौन है.

‘‘पापाजी आए हुए हैं,’’ चौकीदार ने दूर से ही सुबोध को देख कर कहा था.

गुड्डी कुछ देर तो चुप रही फिर कुछ अनुनय भरे स्वर में बोली, ‘‘चौकीदार, मुझे बच्चे देखने हैं.’’

‘‘कहा था कि तू मम्मीजी से बिना पूछे नहीं देख सकती बच्चे, फिर क्यों आ गई.’’

‘‘तुम मुझे मम्मीजी के पास ही ले चलो या जा कर उन से कह दो कि गुड्डी आई है…’’

कुछ सोच कर चौकीदार ने सुमनलता के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘मम्मीजी, गुड्डी फिर आ गई है. कह रही है कि बच्चे देखने हैं.’’

‘‘तुम ने उसे गेट के अंदर आने क्यों दिया…’’ सुमनलता ने तेज स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ सुबोध भी चौंक  कर बोले.

‘‘अरे, एक पागल औरत है. पहले अपने बच्चे यहां छोड़ गई, अब कहती है कि बच्चों को दिखाओ मुझे.’’

‘‘तो दिखा दो, हर्ज क्या है…’’

‘‘नहीं…’’ सुमनलता ने दृढ़ स्वर में कहा फिर चौकीदार से बोलीं, ‘‘उसे बाहर कर दो.’’

सुबोध फिर चुप रह गए थे.

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इधर, आश्रम में रहने वाली कुछ युवतियों के लिए एक सामाजिक संस्था कार्य कर रही थी, उसी के अधिकारी आए हुए थे. 3 युवतियों का विवाह संबंध तय हुआ और एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न भी हो गया.

सुमनलता को फिर किसी कार्य के सिलसिले में डेढ़ माह के लिए बाहर जाना पड़ गया था.

लौटीं तो उस दिन सुबोध ही उन्हें छोड़ने आश्रम तक आए हुए थे. अंदर आते ही चौकीदार ने खबर दी.

‘‘मम्मीजी, पिछले 3 दिनों से गुड्डी रोज यहां आ रही है कि बच्चे देखने हैं. आज तो अंदर घुस कर सुबह से ही धरना दिए बैठी है…कि बच्चे देख कर ही जाऊंगी.’’

‘‘अरे, तो तुम लोग हो किसलिए, आने क्यों दिया उसे अंदर,’’ सुमनलता की तेज आवाज सुन कर सुबोध भी पीछेपीछे आए.

बाहर बरामदे में गुड्डी बैठी थी. सुमनलता को देखते ही बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे अपने बच्चे देखने हैं.’’

उस की आवाज को अनसुना करते हुए सुमन तेजी से शिशुगृह में चली गई थीं.

रघु खिलौने से खेल रहा था, राधा एक किताब देख रही थी. सुमनलता ने दोनों बच्चों को दुलराया.

‘‘मम्मीजी, आज तो आप बच्चों को उसे दिखा ही दो,’’ कहते हुए जमुना और चौकीदार भी अंदर आ गए थे, ‘‘ताकि उस का भी मन शांत हो. हम ने उस से कह दिया था कि जब मम्मीजी आएं तब उन से प्रार्थना करना…’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, बाहर करो उसे,’’ सुमनलता बोलीं.

सहम कर चौकीदार बाहर चला गया और पीछेपीछे जमुना भी. बाहर से गुड्डी के रोने और चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. चौकीदार उसे डपट कर फाटक बंद करने में लगा था.

‘‘सुम्मी, बच्चों को दिखा दो न, दिखाने भर को ही तो कह रही है, फिर वह भी एक मां है और एक मां की ममता को तुम से अधिक कौन समझ सकता है…’’

सुबोध कुछ और कहते कि सुमनलता ने ही बात काट दी थी.

‘‘नहीं, उस औरत को बच्चे बिलकुल नहीं दिखाने हैं.’’

आज पहली बार सुबोध ने सुमनलता का इतना कड़ा रुख देखा था. फिर जब सुमनलता की भरी आंखें और उन्हें धीरे से रूमाल निकालते देखा तो सुबोध को और भी विस्मय हुआ.

‘‘अच्छा चलूं, मैं तो बस, तुम्हें छोड़ने ही आया था,’’ कहते हुए सुबोध चले गए.

सुमनलता उसी तरह कुछ देर सोच में डूबी रहीं फिर मुड़ीं और दूसरे कमरों का मुआयना करने चल दीं.

2 दिन बाद एक दंपती किसी बच्चे को गोद लेने आए थे. उन्हें शिशुगृह में घुमाया जा रहा था. सुमन दूसरे कमरे में एक बीमार महिला का हाल पूछ रही थीं.

तभी गुड्डी एकदम बदहवास सी बरामदे में आई. आज बाहर चौकीदार नहीं था और फाटक खुला था तो सीधी अंदर ही आ गई. जमुना को वहां खड़ा देख कर गिड़गिड़ाते स्वर में बोली थी, ‘‘बाई, मुझे बच्चे देखने हैं…’’

उस की हालत देख कर जमुना को भी कुछ दया आ गई. वह धीरे से बोली, ‘‘देख, अभी मम्मीजी अंदर हैं, तू उस खिड़की के पास खड़ी हो कर बाहर से ही अपने बच्चों को देख ले. बिटिया तो स्लेट पर कुछ लिख रही है और बेटा पालने में सो रहा है.’’

‘‘पर, वहां ये लोग कौन हैं जो मेरे बच्चे के पालने के पास आ कर खडे़ हो गए हैं और कुछ कह रहे हैं?’’

जमुना ने अंदर झांक कर कहा, ‘‘ये बच्चे को गोद लेने आए हैं. शायद तेरा बेटा पसंद आ गया है इन्हें तभी तो उसे उठा रही है वह महिला.’’

‘‘क्या?’’ गुड्डी तो जैसे चीख पड़ी थी, ‘‘मेरा बच्चा…नहीं मैं अपना बेटा किसी को नहीं दूंगी,’’ रोती हुई पागल सी वह जमुना को पीछे धकेलती सीधे अंदर कमरे में घुस गई थी.

सभी अवाक् थे. होहल्ला सुन कर सुमनलता भी उधर आ गईं कि हुआ क्या है.

उधर गुड्डी जोरजोर से चिल्ला रही थी कि यह मेरा बेटा है…मैं इसे किसी को नहीं दूंगी.

झपट कर गुड्डी ने बच्चे को पालने से उठा लिया था. बच्चा रो रहा था. बच्ची भी पास सहमी सी खड़ी थी. गुड्डी ने उसे भी और पास खींच लिया.

‘‘मेरे बच्चे कहीं नहीं जाएंगे. मैं पालूंगी इन्हें…मैं…मैं मां हूं इन की.’’

‘‘मम्मीजी…’’ सुमनलता को देख कर जमुना डर गई.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चे दे दो इसे,’’ सुमनलता ने धीरे से कहा था और उन की आंखें नम हो आई थीं, गला भी कुछ भर्रा गया था.

जमुना चकित थी, एक मां ने शायद आज एक दूसरी मां की सोई हुई ममता को जगा दिया था.            द्य

Mother’s Day 2024: प्यार का पलड़ा : कष्ट में सासू मां

सास की बिगड़ती स्थिति को देख कर तनु दुखी थी. वह मांजी को भरपूर सुख और आराम देना चाहती थी पर घर में काम इतना अधिक रहता था कि वह चाह कर भी मांजी की सेवा के लिए पूरा समय नहीं निकाल पाती थी.

जब से एक दुर्घटना में आभा के पैर की हड्डी टूटी, वह सामान्य नहीं हो पाई थीं. चूंकि आपरेशन द्वारा पैर में नकली हड्डी डाली गई थी जो उन्हें जबतब बेचैन कर देती और वह दर्द से घंटों कराहती रहतीं. कहतीं, ‘‘बहू, डाक्टरों ने मेरे पैर में तलवार तो नहीं डाल दी, बड़ी चुभ रही है.’’

दोनों बेटे उन्हें विश्वास दिलाते कि वे उन के पैर का आपरेशन दोबारा से करा देंगे, चाहे कितना भी रुपया क्यों न लग जाए.

आभा झुंझला उठतीं, ‘‘मेरे बूढ़े जिस्म को कितनी बार कटवाओगे. साल भर से यही कष्ट तो भोग रही हूं. पहले दुर्घटना फिर आपरेशन, कब तक बिस्तर पर पड़ी रहूंगी.’’

डाक्टर से जब उन की परेशानी बताई जाती तो वे आश्वासन देते कि उन का आपरेशन संपूर्ण रूप से सफल हुआ है, उन्हें धीरेधीरे सहन करने की आदत पड़ जाएगी.

आभा बेंत के सहारे धीरेधीरे चल कर अपने बेहद जरूरी काम निबटातीं, परंतु उन का हर काम बड़ी मुश्किल से होता था.

वह रसोईघर में जाने का प्रयास करतीं तो छोटी बहू तनु उन्हें सहारा दे कर वापस उन के बिस्तर पर ले आती और थाली परोस कर उन्हें वहीं बिस्तर पर दे जाती.

बेटे कहते, ‘‘मां, 2 बहुओं के होते हुए तुम्हें रसोई में जाने की क्या जरूरत है.’’

आभा दुखी स्वर में  कहतीं, ‘‘कब तक बहुओं पर बोझ बनी रहूंगी.’’

बेटों ने मां की सेवा करने के लिए एक नौकरानी की व्यवस्था कर दी. परंतु बड़ी बहू लीना के काम ही इतने अधिक हो जाते कि नौकरानी को आभा की तरफ ध्यान देने की फुरसत ही नहीं मिल पाती थी.

लीना चाहे कुछ भी करे, उस के खिलाफ बोलने की हिम्मत पूरे घर में किसी के अंदर नहीं थी क्योंकि वह धनी घर से आई थी. घर में आधुनिक सुविधाओं के साधन फ्रिज, रंगीन टेलीविजन और स्कूटर आदि सामान अपने साथ लाई थी. नकद रुपए भी इतने मिले थे कि छत पर बड़ा कमरा उसी से बना था.

घर के लोगों के दब्बूपन का भरपूर लाभ लीना उठा रही थी. वह घर के कामों में हाथ न बंटा कर अधिकांश समय ऊपर  अपने कमरे में रहती थी और नौकरानी लीना को पुकार कर ऊपर ही अपने लिए चाय, बच्चों का दूध मंगाती रहती.

तनु ने नौकरानी पर सख्ती बरती, ‘‘तुम्हें मांजी की सेवा करने के लिए रखा गया है तो वही करो, फालतू का काम क्यों करती हो.’’

लीना तनु की बात से चिढ़ गई. तनु का मायका उस के मुकाबले कुछ भी नहीं था, फिर जब घर के लोग कुछ नहीं कहते तो वह कल की आई छोकरी कौन होती है मुंह चलाने वाली.

लीना ने ऊपर से ही लड़ना शुरू कर दिया कि छोटे बच्चों का साथ होने के कारण नौकरानी की जरूरत उसे अधिक है न कि मांजी को.

घर में फूट न पड़े इस डर से मांजी ने सब से कह दिया कि वह बगैर नौकरानी के अपना काम चला लेंगी, उन का काम ही कितना होता है.

तनु को सास में अपनी मां नजर आती. वह उन्हें घिसटघिसट कर पूजा का कमरा धोते व कपड़े धोते देखती तो दुखी हो जाती.

वह जेठानी से भी लगाव रखती और पूरे परिवार की एकता बनाए रखने का भरसक प्रयास करती थी.

मगर लीना की नजरों में तनु उसी दिन से आंख की किरकिरी बन गई थी. वह उस के खिलाफ बोलने का मौका ताकती और जब मौका मिलने पर बोलना शुरू करती तो उस की सातों पुश्तों को कोस डालती.

तनु फिर भी शांत बनी रह कर अपनेआप को सामान्य बनाए रखने की कोशिश करती रहती.

रवि कहता, ‘‘तुम ने भाभी के खिलाफ बोल कर उन से दुश्मनी पाल ली, जब भैया कुछ नहीं कहते तो तुम ने क्यों कहा?’’

‘‘मुझ से मांजी का कष्ट देखा नहीं जाता. फिर नौकरानी मांजी के लिए रखी गई थी.’’

‘‘इस घर के मालिक हम नहीं, भैयाभाभी हैं. वे जो चाहें कर सकते हैं,’’ रवि ने अपनी लाचारी दिखाई. यद्यपि वह मां को बहुत चाहता था पर उन के सुखआराम के लिए कुछ कर भी तो नहीं सकता था क्योंकि उस का वेतन बहुत साधारण था.

वह मां से आराम करने को कहता, पर वह पूरे दिन बिस्तर पर पड़ी ऊब जातीं.

वह दुर्घटना से पहले की अपनी दिनचर्या में अब भी उसी प्रकार जीना चाहती थीं.

एक दिन रवि ने अपनी मां को पूजाघर की सफाई करते देखा तो सख्ती दिखाते हुए बोला, ‘‘मां, मिट्टीपत्थर के इस भगवान पर फालतू का विश्वास करना छोड़ दो. तुम ने इन की इतनी अधिक पूजा की, इन पर आंख मूंद कर भरोसा किया फिर भी यह तुम्हारे साथ होने वाला हादसा नहीं रोक पाए.’’

‘‘तू हमेशा नास्तिकों जैसी बातें करता है. यह क्यों नहीं सोचता कि दुर्घटना में मेरी जान बच गई, भगवान की कृपा न होती तो मैं मर जाती.’’

‘‘तुम फालतू की अंधविश्वासी हो.’’

आभा के ऊपर बेटेबहुओं के समझाने का कोई असर नहीं पड़ता था. वह पैर के दर्द से कराहती हुई घिसट कर बालटी भर पानी से गणेशजी की तांबे से बनी प्रतिमा को रेत से मांज कर धोतीं और आरती उतार कर लड्डुओं का भोग लगातीं, तब जा कर भोजन का कौर उन के गले से नीचे उतरता था.

तनु को अटपटा लगता कि ऐसे तो मांजी का कष्ट और अधिक बढ़ जाएगा.

एक दिन तनु दरवाजे के बाहर खड़े ठेले वाले से सब्जी खरीद रही थी कि तभी उस की नजर एक लड़की पर पड़ी. लड़की ने फटेपुराने कपड़े पहने हुए थे और नौकरानी जैसी लग रही थी.

तनु ने पुकारा तो वह लड़की उस के नजदीक चली आई. पूछताछ करने पर पता लगा कि उस का नाम माया है और वह कुछ घरों में बरतन, कपड़े धोने व सफाई का काम करती है.

तनु ने उस से 200 रुपए महीने पर मांजी का पूरा काम करना तय कर लिया और सख्ती से ताकीद कर दी कि वह घर के किसी अन्य सदस्य के बहकावे में आ कर मांजी का काम नहीं छोड़ेगी.

माया ने उसी दिन से मांजी का काम करना शुरू कर दिया. उन का कमरा धोया, बिस्तर की चादर बदली और पैरों की मालिश की.

मांजी छोटी बहू का अपने प्रति प्रेम देख कर खुशी से गद्गद हो उठीं और देर तक बहू को आशीर्वाद देती रहीं तथा उस की प्रशंसा करती रहीं.

सास द्वारा तनु की प्रशंसा सुन कर बड़ी बहू लीना जलभुन कर राख हो गई और कहे बिना नहीं चूकी कि छोटी ने अपने पास से 200 रुपए महीने नौैकरानी पर खर्च कर के कोई तीर नहीं मार लिया. वह क्या घर के लिए कम खर्च कर रही है. पूरे दिन की नौकरानी तो उसी के पैसों की है.

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तनु जेठानी की बात का बुरा न मान कर उसे समझाती रही कि दीदी हम दोनों मांजी की बेटियों के समान हैं. उन की किसी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए.

लीना बदले की आग में झुलसती रही. उसे बुरा लगता कि सास ने तनु की रखी नौकरानी की जितनी प्रशंसा की उस से आधी भी कभी उस के मायके से मिले दहेज की नहीं की थी.

लीना चिढ़ती रही और तनु को नीचा दिखाने की ताकझांक में लगी रही.

सास का स्नेह तनु के तनमन में हिलोरें भर देता. उस ने पति से कह दिया कि वह अपने खर्चें में से कटौती कर के माया का वेतन चुकाती रहेगी. कम से कम सास को आराम तो मिल रहा है.

धीरेधीरे माया आभा के साथ सगी बेटी जैसी घुलमिल गई. वह रसोई में जा कर उन के लिए चाय व फुलके बना लाती, खिचड़ी बना कर अपने हाथ से खिला देती.

एक बार माया को किसी काम के सिलसिले में 4 दिन की छुट्टी लेनी पड़ गई तो आभा की परेशानी अधिक बढ़ गई. अब तो उन्हें अपने हाथों पानी की बालटी उठाने की आदत भी छूट चुकी थी, ऐसे में पूजाघर की सफाईधुलाई किस प्रकार से की जाए. तनु की भी हालत ऐसी नहीं थी कि वह कुछ काम कर सके क्योंकि वह गर्भावस्था में चक्कर और उलटियों से परेशान थी, फिर डाक्टर ने उसे वजन उठाने के लिए मना कर रखा था.

मां की परेशानी को देख कर बेटों ने उन के पूजाघर में ताला लगाते हुए कह दिया, ‘‘कभी 2-4 दिन गणेशजी को भी आराम कर लेने दो. माया आएगी तो सफाईधुलाई कर लेना.’’

पूजाघर में ताला डाले अभी तीसरा दिन ही बीता था कि उस बंद कमरे से आती बदबू के कारण घर में बैठना कठिन हो गया. शायद कोई चूहा मर कर सड़ गया था.

मां की चिंता व बेचैनी देख कर बेटों ने पूजाघर की चाबी मां को थमा दी और अपने काम पर चले गए.

गणेशजी की प्रतिमा से चिपके सड़े चूहे के जिस्म पर रेंगते कीड़ों को देख कर किसी की भी हिम्मत पूजाघर की सफाई करने की नहीं हुई, ऐसी गंदगी को कौन हाथ लगाए.

घर के लोगों ने जब जमादार को बुला कर चूहा फिंकवाने की बात की तो मांजी बिदक गईं और बोलीं, ‘‘हमारे पूजाघर में जमादार के जाते ही उस की पवित्रता नष्ट हो जाएगी. जमादार तो साक्षात चांडाल का रूप होता है.’’

वह बेटों पर क्रोधित होती रहीं कि यदि वे पूजाघर में ताला बंद नहीं करते तो वहां चूहा नहीं मरता.

बेटे कहते रहे, ‘‘तुम थाली भरभर कर लड्डू गणेशजी को भोग लगाती हो तभी पूजाघर में इतने अधिक चूहे हो गए हैं. और यह कैसे भगवान हैं जो चूहों से अपनी रक्षा नहीं कर पाए तो अपने भक्तों की रक्षा कैसे करेंगे?’’

मां और बेटों में सड़े चूहे को ले कर वादविवाद चलता रहा पर आभा किसी भी प्रकार नीच जाति के आदमी से गणेशजी की प्रतिमा का स्पर्श कराने को तैयार नहीं हुईं.

पूरा दिन घर के लोग पुरानी नौैकरानी को डांटडपट कर मरा चूहा उठाने को तैयार करते रहे पर वह कहती रही कि यह काम माया का है, वही करेगी.

अगले दिन सुबह माया आई तो सभी ने चैन की सांस ली. वह आते ही पूजाघर की सफाई में जुट गई. उस ने तुरतफुरत चूहा उठा कर फेंक दिया और गणेशजी की प्रतिमा को पहले तो रेत से रगड़रगड़ कर साफ किया फिर साबुन लगा कर नहलाया. फिनायल डाल कर पूजाघर की धुलाई की व कई अगरबत्तियां जला कर गणेशजी के सामने रख दीं.

आभा मुग्ध भाव से माया को देखती रहीं और उस के काम की सराहना कर के बारबार प्रशंसा करती रहीं.

माया सफाई का काम पूरा कर के 2 गिलासों में चाय डाल कर ले आई. एक मांजी को थमा दिया और दूसरा अपने मुंह से लगा कर चाय पीती हुई लापरवाही से बोली, ‘‘अम्मां, क्यों हमारी इतनी तारीफ करती हो, मरा हुआ चूहा हम नहीं फेंकेंगे तो कौन फेंकेगा. सफाई करना तो हमारा खानदानी काम है. हमारे दादा म्युनिसिपैलिटी के सफाई कर्मचारी थे. मां अस्पताल में मरीजों की गंदगी फेंकती हैं. पिता व चाचा मुरदाघर की लाशें ढोते हैं.’’

माया के मुंह से उस के खानदान के बखान को सुन कर मांजी की बोलती बंद होने लगी. वह लड़खड़ाती जबान से पूछने लगीं, ‘‘माया, तेरी जाति क्या है?’’

‘‘हम बाल्मीकि हैं, मांजी,’’ माया ऐसे बोली जैसे कितनी बड़ी पंडापुरोहित हो.

‘‘बाल्मीकि यानी कि जमादार?’’

‘‘हां, अम्मां, आप चाहे जो कह लो, वैसे हम हैं तो बाल्मीकि. आप ने रामायण में पढ़ा होगा कि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता रही थीं, उनके लवकुश वहीं पैदा हुए थे.’’

माया की बातें आभा के कानों से टकरा कर वापस लौट रही थीं. एक ही बात उन की समझ में आ रही थी कि माया अछूत कन्या है और उन के पूजाघर की सफाई अब तक उसी के हाथों से हो रही थी.

‘‘हाय, सबकुछ अपवित्र हो गया,’’ मांजी कराह उठी थीं.

तनु रसोईघर से माया की तरफ लपकी कि किसी प्रकार से इसे चुप करा सके, पर माया तो न जाने क्याक्या उगल चुकी थी और सकपकाई जड़ पड़ी मांजी से वह पूछ रही थी, ‘‘क्या हुआ, अम्मां?’’

लीना को आज बदला चुकाने का अवसर मिला था. फटाक से आ कर उस ने माया के गाल पर जोर से तमाचा जड़ दिया.

‘‘कलमुंही, कैसी भोली बन रही है, पूछ रही है क्या हुआ. अरे, क्या नहीं हुआ? तू ने मांजी का सारा धर्म भ्रष्ट कर दिया. गलती तो सारी छोटी बहू की है, जानबूझ कर घर में जमादारिन को ले आई,’’ लीना डांटने के अंदाज में बोली.

तनु भय से थरथर कांप रही थी. कितनी बड़ी गलती हो गई उस से, वह माया को काम पर रखने से पहले उस की जाति पूछना भूल गई थी.

वह सास के पैर पकड़ कर रोने लगी, ‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. बहुत बड़ी गलती हो गई है मुझ से.’’

माया भी रो रही थी. बड़ी बहू ने इतनी जोर से तमाचा मारा था कि उस का गाल लाल हो गया था. उस पर उंगलियों के निशान उभर आए थे.

‘‘अच्छा, अब हम चलें अम्मां, हम से गलती हो गई. हम ने मरा चूहा फेंक कर गलती की, अपने खानदान की प्रशंसा कर के गलती की, हम अपनी गलती की माफी मांगते हैं, अम्मां. हमें अपनी पगार भी नहीं चाहिए,’’ माया उठ कर दरवाजे की तरफ चल दी.

मांजी को जैसे होश आया. लपक कर माया का हाथ कस कर थाम लिया और बोलीं, ‘‘अम्मां को किस के सहारे छोड़ कर जा रही है. अभी मेरा आखिरी वक्त नहीं आ गया कि तू छोड़ कर चल दी. और छोटी बहू, तुम से कोई गलती नहीं हुई है. यह रोना बंद करो और जा कर मुंह धो लो.’’

‘‘क्या? मांजी…आप…’’ तनु आश्चर्य से अटकअटक कर बोली. उस की समझ में मांजी का यह बदला हुआ रूप नहीं आ रहा था.

बाजी उलटी पड़ती देख लीना चुपचाप ऊपर चली गई.

माया की रुलाई फिर से फूट पड़ी थी पर यह खुशी के आंसू थे.

‘‘अम्मां, तुम ने मुझे माफ कर दिया, मैं ने तुम्हरा पूजाघर अपवित्र कर दिया था?’’ माया को जैसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उस की नौकरी बनी रहेगी.

‘‘किसी ने कुछ अपवित्र नहीं किया,’’ मांजी निर्णयात्मक स्वर में बोलीं, ‘‘अपवित्रता तो मेरे मन में थी जो अब हमेशा के लिए निकल चुकी है. जा बेटी, माया, तू रसोईघर में जा कर अपने हाथों से मेरे लिए व अपने लिए रोटी सेंक कर ले आ. आज हम दोनों एकसाथ बैठ कर  खाना खाएंगे.’’

माया दौड़ती हुई रसोईघर में चली गई.

मांजी तनु से कह रही थीं, ‘‘आज से सारी छुआछूत बंद. इस माया ने बेटी से बढ़ कर मेरी सेवा की है, जरा सी बात पर क्या इसे निकाल दूंगी. और अगर यह चली गई तो मैं जीऊंगी कैसे. मेरी सेवा, मेरी देखभाल कौन करेगा? छोटी बहू, तुम्हारी यह खोज मेरे लिए बहुत लाभदायक साबित हुई है. माया ने मेरी बेटी की कमी पूरी कर दी.’’

तनु मन ही मन मुसकरा रही थी. जेठानी चाहे कितनी कोशिश कर ले, मांजी के प्यार का पलड़ा उसी की तरफ भारी रहेगा.

Mother’s Day 2024: अर्धविक्षिप्त बच्चे की मां का दर्द

आटा खत्म हो गया था किंतु सुदीर्घ की भूख नहीं, वह उसी प्रकार थाली पर हाथ रखे टुकुरटुकुर देख रहा था. 16 रोटियां वह खा चुका था. मां हो कर भी मैं उस की रोटियां गिन रही थी. फिर आटा गूंध कर सुदीर्घ को खिलापिला कर जब मैं उठी तो रात के साढ़े 10 बज रहे थे.

सुदीर्घ वहीं थाली में हाथ धो कर जमीन पर औंधा पड़ा सो रहा था, उसे किसी तरह खींच कर बिस्तर पर लिटाया. उस की मसहरी लगाई. इस के बाद मैं भी लेट गई.

सुदीर्घ मेरा 20 वर्षीय अर्द्घ्रविक्षिप्त पुत्र था. लगभग 5 वर्ष तक वह सामान्य बच्चों की तरह रहा फिर उस का शरीर तो बढ़ता गया किंतु मानसिक क्षमता जस की तस ही बनी रही. वह हंस कर या क्रोधित हो कर अपनी बात समझा देता था, शरीर से बलवान था. उस से 4 वर्ष बडे़ उस के भाई सुमीर में ऐसी किसी भी तरह की अस्वाभाविकता के लक्षण न थे. वह तीक्ष्ण बुद्घि का स्मार्ट युवक था और बहुत कम उम्र में ही प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा बैंक की नौकरी पा गया था.

मेरे पति, 2 बेटे और ‘मैं’ इस छोटे से परिवार में मानसिक शांति और सुकून न था. सुदीर्घ की भूख अस्वाभाविक थी, हर 2 घंटे में वह खाने के लिए बच्चों की तरह उपद्रव करता. उम्र बढ़ने के साथ उस में उन्मत्तता भी बढ़ती गई. उन्मत्तता की स्थिति में वह चीखता, चिल्लाता, कपड़े फाड़ डालता और पकड़ने वाले पर हिंसक आक्रमण भी कर देता था. उस के पिता और भाई उसे पकड़ कर नींद का इंजेक्शन देते और कमरे में बंद कर देते.

1-2 वर्ष के बाद उस मेें एक समस्या और उत्पन्न हो गई थी. वह लड़कियों और औरतों के प्रति तीव्र आकर्षण महसूस करता एवं अशोभ- नीय हरकतें करने लगा था. कभी काम वाली बाई को परेशान करता. कभी महल्लेटोले की लड़कियों और महिलाओं को घूरता, उन्हें छूने का प्रयास करता. उस की इन आदतों की वजह से ही मैं उसे कहीं भी ले कर नहीं जाती थी.

दीदी के बेटे के विवाह की घटना तो मैं भूल ही नहीं सकती. उन के बहुत अनुरोध पर मैं मय परिवार वहां पहुंची. सुदीर्घ उन के महीनों के लिए बनाए लडडुओं, मठरियों को 2 ही दिन में चट कर गया, रिश्तों की बहनों के साथ भी वह अनापशनाप हरकतें करता, उन के करीब जाने की कोशिश करता, लोग उसे पागल समझ कर टाल जाते, उस पर हंसते और मैं खून का घूंट पी कर रह जाती.

विवाह की पूर्व रात्रि को तो उस ने हद ही कर दी, लड़कियों के बीच जा कर लेट गया. मना करने पर उपद्रव करने लगा. उसे दवा वगैरह दे कर हम उसी रात किराए की कार से लौट गए. उस के बाद मैं ने उसे ले कर कहीं न जाने की कसम खा ली.

मानसिक शांति के अभाव में सुमीर भी घर में कम ही रहता. उस के पिता भी पूरापूरा दिन बाहर बैठ कर अखबार पढ़ते रहते, केवल खाने और सोने को अंदर आते. सुदीर्घ का पूरा दायित्व मुझ पर था. वह मुझे भी धकिया देता, नोच लेता किंतु प्यार से समझाने पर केवल मेरी ही बात सुनता.

एक दिन काम वाली बाई ने मुझ से कहा, ‘माताजी, आप भैया की शादी क्यों नहीं कर देतीं?’

‘कौन लड़की देगा उस को?’ मैं ने उदासीनता से कहा.

‘अरे, गरीब घर की लड़कियां बहुतेरी मिलेंगी, शादी के बाद वह ठीक भी हो जाएंगे.’

मैं ने ‘हां, हूं’ कर दिया, गरीब घर की लड़की की क्या जिंदगी नहीं होती. गुस्से में कहीं उसे मार ही डाले तो कौन जिम्मेदार होगा.

उसी दिन शाम को सुदीर्घ ने काम वाली बाई पर आक्रमण कर दिया. मैं और सुदीर्घ के पापा बाहर बैठे चाय पी रहे थे. नींद का इंजेक्शन लिए सोते सुदीर्घ के प्रति हम निश्चिंत थे. अचानक चीख सुन कर अंदर गए, आंगन में बाई को पकड़ कर कमरे की ओर घसीटते सुदीर्घ को चीख कर मैं ने सावधान किया फिर बाई को छुड़ाने लगी तो उस ने मुझे दानव की तरह धकेल दिया.

हक्केबक्के खड़े उस के पिता ने पास रखी सुमीर की हाकी उठा ली और पागलों की तरह उस पर टूट पड़े. मैं उसे बचाने को आगे बढ़ी और लड़खड़ा कर गिरी और अचेत हो गई. आंखें खुलने पर सुमीर व उस के पिता को अपने पास बैठे पाया.

‘सुदीर्घ कहां है?’ मैं ने पूछा था.

‘यहीं है, घर के बाहर बैठा है,’ सुमीर के पिता ने कहा.

‘बाहर, अरे, कहीं भाग जाएगा?’

‘भाग जाने दो नालायक को. खानेपीने व आराम की खूब समझ है लेकिन अन्य बातों के लिए पागल बन जाता है.’ उस के पिता गुस्से से लाल थे.

मैं रोने लगी. सुमीर ने मुझे समझाया, ‘मां, आप परेशान क्यों हो रही हैं. वह यहीं दरवाजे के बाहर बैठा है. पापा ने उसे पीट कर बाहर निकाला है. सही और गलत की समझ उसे होनी चाहिए, यह सजा जरूरी है, कब तक लाड़प्यार में हम उस की भद्दी हरकतों को बरदाश्त करते रहेंगे.’

मुझे बाई वाली घटना का ध्यान आया, लज्जा आ गई. यह विवेकहीन, बुद्धिहीन, निरा पागल लड़का मेरी ही तो कोख की संतान था. रात में सब के सोने पर मैं धीरे से उठी, रात के 11 बज रहे थे. बेचारा, बिना खाएपिए बाहर बैठा था, किंतु दरवाजा खोलने पर वहां सुदीर्घ नहीं मिला.

सुमीर व उस के पिता को जगाया. दोनों स्कूटर ले कर आसपास का पूरा इलाका छान आए किंतु वह कहीं नहीं मिला. एक राहगीर ने बताया कि उन्होंने एक गोरे, स्वस्थ लड़के को ट्रक के पीछे लटक कर जाते देखा था. पुलिस को खबर की गई किंतु उस का कहीं अतापता न चला.

दिन के बाद महीने और अब साल बीतने को आ रहा था. सुदीर्घ न लौटा न उस का कोई सुराग मिला. हम भी रोरो कर थक चुके थे.

परिजनों की सलाह पर अब हम सुमीर के विवाह का सपना देखने लगे. घर में पायल और चूडि़यों की छनक गूंजेगी, जीने का एक बहाना मिल गया. जीवन में एक लय उत्पन्न हो गई किंतु तभी एक दिन पुलिस हमारे दरवाजे पर आ खड़ी हुई. बताया, सुदीर्घ का पता चल गया था, उस ने एक नशेड़ीगंजेड़ी साधु की संगत में पूरा साल बिता दिया था. निश्चय ही वह भी नशा करने लगा था.

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पुलिस जीप में हम तीनों हैरान- परेशान बैठ गए, शहर से लगभग 50-55 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव में पुलिस हमें ले कर पहुंची. आगे जो दृश्य हम ने देखा उसे किस तरह सहन किया यह केवल हम ही जानते हैं.

वहां सुदीर्घ नहीं उस की क्षतविक्षत सड़ीगली देह पड़ी थी. तेज रफ्तार से जाते किसी ट्रक की चपेट में वह आ गया था और नशे में धुत उस के साथी को अपनी ही खबर नहीं थी तो उस की क्या होती.

कई दिन बाद गांव वालों की खबर पर पुलिस आई. उस के साथ सुदीर्घ की फोटो व पहचान का मिलान कर के हमें सूचित किया गया था.

सुदीर्घ के शव को जीप में डाल हम लौैट चले. उस का सिर उस के पिता की गोद में पड़ा था. वे पश्चात्ताप की आग में जलते रो रहे थे. उन्होेंने ही उसे घर से निकाला जो था.

मुझे याद आ रहा था कि उस के जन्म पर कितना जश्न मनाया गया था. वह था भी गोलमटोल, प्यारा सा. कितने सपने बुने थे उसे ले कर. लेकिन उस के बड़े होतेहोते सब टूट गए. वह विधि के विधान का एक ‘मजाक’ बन कर रह गया, आश्रित, बलिष्ठ पर बुद्धिहीन. सभ्य लोगों की दुनिया का असभ्य, हिंसक सदस्य, अपने सभी कर्म, कुकर्मों का लेखाजोखा छोड़ पंच तत्त्व में विलीन हो गया.

मैं हमेशा उस के बचपन की यादों में खोई रहती, पगपग पर सुमीर के पिता व सुमीर मुझे संभालतेसमझाते. उन्हीं कठिन परिस्थितियों में ‘इन की’ बड़ी बहन सुमीर के लिए ‘रम्या’ का रिश्ता ले कर आईं. हम ने ‘हां’ कर दी. चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

सुंदर, कोमल, बुद्धिमान, शिक्षित ‘रम्या’ हमारे घर खुशियों का झोंका ले कर पहुुंची. टूटे हृदय वाले हम 3 लोगों को उस ने बखूबी संभाल लिया. आराम से बैठ कर रोटी खाने का क्या आनंद होता है वह तो अब हम ने जाना था. मैं और सुमीर के पिता टेलीविजन देखते हुए चाय की चुस्कियां लेते, बातें करते हुए शाम को झोला लिए बाजारहाट कर आते. लौटने पर घर साफसुथरा चमकता हुआ मिलता. गरमागरम भोजन मेज पर सजा रहता.

महल्ले की लड़कियों व औरतों का जमघट अब हमारे घर लगा रहता. पहले जो सुदीर्घ के कारण आसपास नहीं फटकती थीं अब रम्या के सुंदर स्वभाव के आकर्षण में बंधी चली आतीं. उन की चहचहाहटों, खिलखिलाहटों में हम अपने जीवन का लुत्फ उठाते. सुमीर आफिस के बाद अब हर समय घर पर ही बना रहता. जीवन की इन छोटीछोटी खुशियों में इतना आनंदरस होता है, यह हम ने अब जाना. महीने दो महीने में हम रिश्तेदारों के घर भी चक्कर लगा आते और वे भी चले आते. हमें अब जीवन से कोई शिकायत नहीं रह गई थी.

आज दोपहर को खाकी वरदी वाले पुन: ढेरों आशंकाएं लिए जीप में आए. और इन को सुदीर्घ की एक फोटो दिखाई, ‘‘यह आप का लड़का है?’’

‘‘हां, लेकिन इस की मृत्यु हो चुकी है?’’

‘‘नहीं, यह जिंदा है,’’ पुलिस अधिकारी हंस कर बोला.

‘‘मैं कैसे विश्वास करूं, अपने हाथों उस का दाहसंस्कार किया है मैं ने,’’ सुमीर के पिता परेशान थे.

‘‘क्या उस को देख कर आप को लगा था कि वह आप का ही बेटा है, मेरा मतलब सारे पहचान चिह्न आदि?’’

हम में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. पहचानलायक शरीर तो था ही नहीं, वह तो इस कदर बुरी हालत में था कि उस में पहचान के चिह्न खोजना ही मुश्किल था. सच, किसी अपरिचित भिखारी की मृत देह को दुलारते, पुचकारते, आंसुओं की गंगा बहाते हम ने मुखाग्नि दे डाली थी.

अगले दिन अपने चिरपरिचित अंदाज में सुदीर्घ हमारे सामने खड़ा था. कुछ आवश्यक औपचारिकता पूरी कर के उसे हमें सौंप दिया गया था. इन डेढ़ सालों तक वह किसी अमीर व्यापारी के फार्म हाउस में पड़ा था. वहीं मजदूरों के बीच सुमीर के एक मित्र ने उसे पहचाना था जो वहीं नौकरी कर रहा था, जिस के चलते सुदीर्घ आज हमारी आंखों के सामने खड़ा था.

वह सभी कमरों में घूमता रहा. मेरे पास आया, पिता के पास गया फिर रम्या के पास जा कर ठिठक गया, उस के चारों ओर गोलगोल घूमते हुए वह हंसने लगा. उस के जोरजोर से हंसने से भयभीत हो कर रम्या अपने कमरे की ओर दौड़ी, पीछे वह भी दौड़ा, सुमीर उसे पकड़ कर उस के कमरे में ले गया.

बहुत दिनों बाद मैं ने रसोई में जा कर उस के लिए ढेर सारा खाना बनाया. शाम तक सुदीर्घ के आने की खबर आग की तरह महल्ले में फैल गई. काम वाली बाई ने न आने का समाचार भिजवा दिया. रम्या की सहेलियां बाहर से ही उलटे पांव लौट गईं. रात गहराने से पहले सुमीर, रम्या को अपना सामान पैक करते देख मैं सन्न रह गई.

‘‘मम्मी, अब रम्या का यहां रहना मुश्किल होगा. सुदीर्घ को या तो मानसिक अस्पताल में भरती करवा दो या उस की कहीं भी शादी करवा दो,’’ सुमीर ने कहा.

वह ठीक कह रहा था. मैं और उस के पिता आंखों में आंसू भरे उन्हें जाते विवशता से देखते रहे. हम हताश व निराश थे. अंदर कमरे से खापी कर सो रहे सुदीर्घ के खर्राटों की आवाज आ रही थी. घर में सन्नाटा छाया था. चलती हुई हवा की आवाज भी कान में शोर पैदा कर रही थी.

‘‘हम ने उसे जन्म दिया है, सड़क पर थोड़े ही न फेंक देंगे, उस की जिम्मेदारी तो हमें ही वहन करनी होगी. लेकिन कल तक कितने खुश थे न हम, आज सब हमें छोड़ कर चल दिए,’’ सुमीर के पिता धीरेधीरे कह रहे थे मानो खुद से बतिया रहे हों.

मन की सारी खिन्नता, क्षोभ, असंतोष, दुख और शायद तनिक स्वार्थ से प्रेरित, भरे मन से यह एक वाक्य निकला, ‘‘काश, जिस अपरिचित व्यक्ति का हम ने अंतिम संस्कार किया था वह सुदीर्घ ही होता.’’

सुमीर के पिता चौंक कर मुझे देखने लगे, क्या यह एक अपने कोख से जन्मे पुत्र के लिए मां के कथन थे?

बेटियां : क्या श्वेता बन पाई उस बूढ़ी औरत का सहारा

‘‘ओफ्फो, आज तो हद हो गई…चाय तक पीने का समय नहीं मिला,’’ यह कहतेकहते डाक्टर कुमार ने अपने चेहरे से मास्क और गले से स्टेथोस्कोप उतार कर मेज पर रख दिया.

सुबह से लगी मरीजों की भीड़ को खत्म कर वह बहुत थक गए थे. कुरसी पर बैठेबैठे ही अपनी आंखें मूंद कर वह थकान मिटाने की कोशिश करने लगे.

अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुन कर डाक्टर कुमार को लगा यह फोन उन्हें अधिक देर तक आराम करने नहीं देगा.

‘‘नंदू, देखो तो जरा, किस का फोन है?’’

वार्डब्वाय नंदू ने जा कर फोन सुना और फौरन वापस आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लिए लेबर रूम से काल है.’’

आराम का खयाल छोड़ कर डाक्टर कुमार कुरसी से उठे और फोन पर बात करने लगे.

‘‘आक्सीजन लगाओ… मैं अभी पहुंचता हूं्…’’ और इसी के साथ फोन रखते हुए कुमार लंबेलंबे कदम भरते लेबर रूम की तरफ  चल पड़े.

लेबर रूम पहुंच कर डाक्टर कुमार ने देखा कि नवजात शिशु की हालत बेहद नाजुक है. उस ने नर्स से पूछा कि बच्चे को मां का दूध दिया गया था या नहीं.

‘‘सर,’’ नर्स ने बताया, ‘‘इस के मांबाप तो इसे इसी हालत में छोड़ कर चले गए हैं.’’

‘‘व्हाट’’ आश्चर्य से डाक्टर कुमार के मुंह से निकला, ‘‘एक नवजात बच्चे को छोड़ कर वह कैसे चले गए?’’

‘‘लड़की है न सर, पता चला है कि उन्हें लड़का ही चाहिए था.’’

‘‘अपने ही बच्चे के साथ यह कैसी घृणा,’’ कुमार ने समझ लिया कि गुस्सा करने और डांटडपट का अब कोई फायदा नहीं, इसलिए वह बच्ची की जान बचाने की कोशिश में जुट गए.

कृत्रिम श्वांस पर छोड़ कर और कुछ इंजेक्शन दे कर डाक्टर कुमार ने नर्स को कुछ जरूरी हिदायतें दीं और अपने कमरे में वापस लौट आए.

डाक्टर को देखते ही नंदू ने एक मरीज का कार्ड उन के हाथ में थमाया और बोला, ‘‘एक एक्सीडेंट का केस है सर.’’

डाक्टर कुमार ने देखा कि बूढ़ी औरत को काफी चोट आई थी. उन की जांच करने के बाद डाक्टर कुमार ने नर्स को मरहमपट्टी करने को कहा तथा कुछ दवाइयां लिख दीं.

होश आने पर वृद्ध महिला ने बताया कि कोई कार वाला उन्हें टक्कर मार गया था.

‘‘माताजी, आप के घर वाले?’’ डाक्टर कुमार ने पूछा.

‘‘सिर्फ एक बेटी है डाक्टर साहब, वही लाई है यहां तक मुझे,’’ बुढ़िया ने बताया.

डाक्टर कुमार ने देखा कि एक दुबलीपतली, शर्मीली सी लड़की है, मगर उस की आंखों से गजब का आत्म- विश्वास झलक रहा है. उस ने बूढ़ी औरत के सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, ‘‘मां, फिक्र मत करो…मैं हूं न…और अब तो आप ठीक हैं.’’

वृद्ध महिला ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘श्वेता, मुझे जरा बिठा दो, उलटी सी आ रही है.’’

इस से डाक्टर कुमार को पता चला कि उस दुबलीपतली लड़की का नाम श्वेता है. उन्होंने श्वेता के साथ मिल कर उस की मां को बिठाया. अभी वह पूरी तरह बैठ भी नहीं पाई थी कि एक जोर की उबकाई के साथ उन्होंने उलटी कर दी और श्वेता की गुलाबी पोशाक उस से सन गई.

मां शर्मसार सी होती हुई बोलीं, ‘‘माफ करना बेटी…मैं ने तो तुम्हें भी….’’

उन की बात बीच में काटती हुई श्वेता बोली, ‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है मां कि आप की सेवा का मुझे मौका मिल रहा है.’’

श्वेता के कहे शब्द डाक्टर कुमार को सोच के किसी गहरे समुद्र में डुबोए चले जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, कोई गहरी चोट तो नहीं है न,’’ श्वेता ने रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए पूछा.

‘‘वैसे तो कोई सीरियस बात नहीं है फिर भी इन्हें 5-6 दिन देखरेख के लिए अस्पताल में रखना पड़ेगा. खून काफी बह गया है. खर्चा तकरीबन….’’

‘‘डाक्टर साहब, आप उस की चिंता न करें…’’ श्वेता ने उन की बात बीच में काटी.

‘‘कहां से करेंगी आप इंतजाम?’’ दिलचस्प अंदाज में डाक्टर ने पूछा.

‘‘नौकरी करती हूं…कुछ जमा कर रखा है, कुछ जुटा लूंगी. आखिर, मेरे सिवा मां का इस दुनिया में है ही कौन?’’ यह सुन कर डाक्टर कुमार निश्चिंत हो गए. श्वेता की मां को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इधर डाक्टर ने लेबररूम में फोन किया तो पता चला कि नवजात बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं है. वह फिर बेचैन से हो उठे. वह इस सच को भी जानते थे कि बनावटी फीड में वह कमाल कहां जो मां के दूध में होता है.

डाक्टर कुमार दोपहर को खाने के लिए आए तो अपने दोनों मरीजों के बारे में ही सोचते रहे. बेचैनी में वह अपनी थकान भी भूल गए थे.

शाम को डाक्टर कुमार वार्ड का राउंड लेने पहुंचे तो देखा कि श्वेता अपनी मां को व्हील चेयर में बिठा कर सैर करा रही थी.

‘‘दोपहर को समय पर खाना खाया था मांजी ने?’’ डाक्टर कुमार ने श्वेता से मां के बारे में पूछा.

‘‘यस सर, जी भर कर खाया था. महीना दो महीना मां को यहां रहना पड़ जाए तो खूब मोटी हो कर जाएंगी,’’ श्वेता पहली बार कुछ खुल कर बोली. डाक्टर कुमार भी आज दिन में पहली बार हंसे थे.

वार्ड का राउंड ले कर डाक्टर कुमार अपने कमरे में आ गए. नंदू गायब था. डाक्टर कुमार का अंदाजा सही निकला. नंदू फोन सुन रहा था.

‘‘जल्दी आइए सर,’’ सुन कर डाक्टर ने झट से जा कर रिसीवर पकड़ा, तो लेबर रूम से नर्स की आवाज को वह साफ पहचान गए.

‘‘ओ… नो’’, धप्प से फोन रख दिया डाक्टर कुमार ने.

नवजात बच्ची बच न पाई थी. डाक्टर कुमार को लगा कि यदि उस बच्ची के मांबाप मिल जाते तो वह उन्हें घसीटता हुआ श्वेता के पास ले जाता और ‘बेटी’ की परिभाषा समझाता. वह छटपटा से उठे. कमरे में आए तो बैठा न गया. खिड़की से परदा उठा कर वह बाहर देखने लगे.

सहसा डाक्टर कुमार ने देखा कि लेबर रूम से 2 वार्डब्वाय उस बच्ची को कपड़े में लपेट कर बाहर ले जा रहे थे… मूर्ति बने कुमार उस करुणामय दृश्य को देखते रह गए. यों तो कितने ही मरीजों को उन्होंने अपनी आंखों के सामने दुनिया छोड़ते हुए देखा था लेकिन आज उस बच्ची को यों जाता देख उन की आंखों से पीड़ा और बेबसी के आंसू छलक आए.

डाक्टर कुमार को लग रहा था कि जैसे किसी मासूम और बेकुसूर श्वेता को गला घोंट कर मार डाला गया हो.

पढ़ाई सुधर गई : क्या जीत पाया दीपक

जैसे ही दोपहर के खाने की घंटी बजी, सारे बच्चे दौड़ते हुए खाने की तरफ भागे. दीपक सर, जो गणित के टीचर थे और हाल ही में इस स्कूल में आए थे, स्कूल के इन तौरतरीकों को देख कर हैरान थे.

आज बच्चों का खाना देख कर तो और भी हैरान हो गए. दाल बिलकुल पानी जैसी, भात और सब्जी के नाम पर उबले हुए चने. कैसे किसी के गले से उतरेंगे?

स्टाफ रूम में सारे टीचर अपनेअपने खाने का डब्बा खोल कर खाने बैठ गए थे. दीपक सर ने जैसे ही अपने खाने का डब्बा खोला, मिश्रा सर, जो हिंदी के टीचर थे, कहने लगे, ‘‘दीपक सर, क्या बात है… आज तो आप के खाने के डब्बे से बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है?’’

‘‘जी,’’ मुसकराते हुए दीपक सर ने कहा और अपने खाने का डब्बा उन के आगे बढ़ा दिया.

थोडी़ देर बाद दीपक ने वहां बैठे दूसरे टीचरों से पूछा, ‘‘चलिए, मैं तो चलता हूं, अगली क्लास लेने. आप सब को नहीं चलना है?’’

‘‘अरे भैया, क्यों इतने उतावले हो रहे हो? बैठो जरा. बच्चे कहां भागे जा रहे हैं,’’  संस्कृत के पांडे सर ने कहा.

विज्ञान की टीचर वंदना मैडम बोल पड़ीं, ‘‘बच्चे अगर 1-2 सब्जैक्ट नहीं भी पढ़ेंगे, तो कौन सा आईएएस बनना है उन्हें, जो नहीं बन पाएंगे?’’

‘‘वंदना मैडम, बच्चों को पढ़ाना हमारी ड्यूटी है और अगर हम ईमानदारी से बच्चों पढ़ाएंगे न, तो बच्चे एक दिन जरूर आईएएस बनेंगे. हम यहां इसलिए तो आए हैं. तनख्वाह भी तो हमें बच्चों को पढ़ाने की ही मिलती है,’’ दीपक सर ने कहा.

‘‘मैं ने तो कुछ ज्यादा ही खा लिया. अब क्या करें? पत्नीजी खाना ही इतना दे देती हैं. और खाते ही मुझे जोरों की नींद आने लगती है,’’ कह कर सिन्हा सर वहीं पड़ी कुरसी पर अपने पैर पसार कर सो गए.

दीपक ने जब मिश्रा सर की तरफ देखा, तो वे भी अपने मुंह में पान दबाते हुए बोले, ‘‘देखिए दीपक सर, आप भी नएनए आए हैं, तो आप को यहां के नियमकानून का कुछ पता नहीं है.’’

‘‘कैसे नियमकानून हैं सर?’’ दीपक ने हैरान होते हुए पूछा.

मिश्रा सर भी वहीं लगी दूसरी कुरसी पर आराम से अपने पैर पसारते हुए कहने लगे, ‘‘दीपक सर, मैं कोचिंग सैंटर भी चलाता हूं. अब पूरे दिन इसी स्कूल में बैठा रह गया, तो वहां के बच्चे को कौन पढ़ाएगा?

‘‘अब ऐसे मत देखिए दीपक सर. अब अगर कोचिंग सैंटर नहीं चलाएंगे, तो दालरोटी पर मक्खन कहां से मिलेगा.’’

‘‘मिश्रा सर, वह सब तो ठीक है, पर जब प्रिंसिपल मैडम को आप सब की हरकतों का पता चलेगा तो…?’’

दीपक सर की बात को बीच में ही काटते हुए श्रीवास्तव सर कहने लगे, ‘‘अरे छोडि़ए मैडम की बातें. उन को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम क्या करें और क्या न करें. उन के हाथों में हर महीने हरेहरे नोट सरका दीजिए बस. और वे कौन सी दूध की धुली हैं, जो हमें कुछ कहेंगी.’’

तभी मिश्राजी हंसते हुए कहने लगे, ‘‘लगता है दीपक बाबू को प्रिंसिपल मैडम की कहानी नहीं पता?’’

दीपक सर ने हैरानी से सब का मुंह देखते हुए पूछा, ‘‘कौन सी कहानी सर?’’

‘‘लो भैया, अब इन्हें भी बतानी पड़ेगी मैडम की कहानी कि कैसे वे एक अदना सी टीचर से प्रिंसिपल बन बैठीं,’’ अपने मुंह से पान की पीक दीवार पर ही फेंकते हुए मिश्राजी ने कहा.

‘‘दीपक सर, ये बबीता मैडम जो हैं न, पहले अपने ही गांव के एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थीं. आप समझ रहे हैं न?’’ एक बार फिर उन्होंने पान की पीक दीवार पर मारते हुए कहा.

दीपक सर ने उन्हें बड़ी अजीब नजरों से देखा.

‘‘बबीता मैडम जिस गांव से थीं, उसी गांव से एमएलए प्रवीण यादव चुनाव के लिए खड़े हुए थे. बबीताजी के पति चुनाव महकमे में ही एक छोटेमोटे मुलाजिम थे.

‘‘प्रवीण यादव की तरफ से बबीता मैडम और उन के पति ने खूब चुनाव प्रचार किया था. प्रवीण यादव ने बबीताजी से यह वादा किया था कि अगर वे जीत गए, तो उन्हें खुश कर देंगे और उन्होंने ऐसा किया भी.

‘‘बबीताजी कितनी पढ़ीलिखी हैं, यह तो आज तक हम में से कोई नहीं जानता है. उस के बावजूद उन्हें इस स्कूल में मिडिल तक की टीचर बना दिया गया. बबीता मैडम गांव के स्कूल से सीधा शहर में आ गईं.

‘‘प्रवीण यादव और बबीता मैडम अब किसी न किसी बहाने एकदूसरे से मिलने लगे. लोगों की नजरों में तो वे अच्छे दोस्त थे, पर सचाई कुछ और ही थी. धीरेधीरे सब को पता चल ही गया कि नेता प्रवीण यादव और बबीताजी के रिश्ते कितने गहरे हैं.

‘‘बबीता मैडम स्कूल में तो जब मन करता तब ही आती थीं, पर तनख्वाह पूरे महीने की उठाती थीं. वे अब ज्यादातर नेताजी की सेवा में ही लगी रहती थीं.

‘‘दीपक सर, आप समझ रहे हैं न. मैडम कहां बिजी रहने लगी थीं और नेताजी उन पर इतने मेहरबान क्यों थे?’’ एक खलनायक वाली हंसी हंसते हुए मिश्रा सर  ने कहा, तो दीपक सर ने भी अपना सिर हां में हिला दिया. मिश्रा सर ने पूरा किस्सा बताया.

‘‘नेताजी की पत्नी को जब उन दोनों के नाजायज रिश्तों के बारे में पता चला, तो एक दिन वे सीधे अपने फार्महाउस पहुंच गईं, जहां पहले से बबीता मैडम मौजूद थीं.

‘‘पहले तो उन्होंने बबीताजी के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया, फिर कहने लगीं, ‘नीच औरत, तुझे शर्म नहीं आती किसी पराए मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ाते हुए. अपने पति से मन भर गया, तो मेरे पति का बिस्तर गरम कर रही है. आगे से कभी भी मैं ने तुझे इन के इर्दगिर्द भी देखा ना, तो समझ लेना…’

‘‘नेताजी को भी उन्होंने खूब खरीखोटी सुनाई, ‘आप को यह जो एमएलए की पोस्ट मिली है न, वह मैं मिनटों में छिनवा लूंगी… समझे नेताजी?’

‘‘नेताजी के ससुर खुद ही मुख्यमंत्री रह चुके थे. उन्होंने ही अपने दामाद को टिकट दिलवाया था.

‘‘बबीताजी की हरकतों से परेशान हो कर उन के पति ने भी उन्हें अपनी जिंदगी से निकाल दिया.

‘‘बबीताजी के सिर पर अब शिक्षा मंत्रीजी का हाथ है. अरे, एक ने घर से निकाल दिया, तो दूसरे ने अपनी पत्नी के डर से उन्हें छोड़ दिया तो क्या हुआ. आप ने सुना है दीपक सर, एक नहीं तो और सही,’’ चुटकी लेते हुए मिश्रा सर ने कहा.

मिश्रा सर ने आगे कहा, ‘‘शिक्षा मंत्रीजी, जो अकसर स्कूल की शिक्षा व्यवस्था देखने आते रहते हैं, बबीताजी ने अब उन को फंसा रखा है. उन के साथ भी बबीता मैडम के बहुत गहरे संबंध बन गए हैं. देखिए, एक मामूली टीचर से आज वे प्रिंसिपल बन बैठी हैं.’’

दीपक को ये सब बातें सुन कर बहुत हैरानी हुई. कैसा अंधा कानून चल रहा है इस स्कूल में. एक प्रिंसिपल कितनी पढ़ीलिखी हैं, यह भी किसी को नहीं पता है. वे कैसे इतनी बड़ी कुरसी पर बैठ सकती हैं? और ये सारे निकम्मे टीचर अपनी कामचोरी, रिश्वतखोरी, आलसीपन का सुबूत खुद अपने मुंह से दे रहे हैं.

ऐसे ही कुछ टीचरों की वजह से आज सारे टीचरों को गलत समझा जा रहा है. क्लास में बच्चे तो आते हैं, पर पढ़ाने के लिए टीचर ही नहीं आते हैं. सब अपनाअपना कोचिंग सैंटर चलाते हैं और तनख्वाह इस स्कूल से लेते हैं. यह सरासर गलत है.

उस दिन अंगरेजी की टीचर ममता मैडम बच्चों को 8 की अंगरेजी में स्पैलिंग ईआईजीटी समझा रही थीं.

दीपक ने ही उन्हें टोका था, ‘‘मैडम, आप गलत स्पैलिंग बता रही हैं बच्चों को. ईआईजीटी नहीं, ईआईजीएचटी होगा.’’

इस पर अंगरेजी की मैडम ममता बरस पड़ीं, ‘‘दीपक सर, आप अपनी क्लास के बच्चों को संभालिए.’’

अगले दिन दीपक जब स्कूल गया, तो स्कूल के चपरासी ने आ कर उस से कहा, ‘‘आप को प्रिंसिपल मैडम ने अपने औफिस में बुलाया है.’’

‘‘नमस्ते मैडम,’’ दीपक ने प्रिंसिपल मैडम से कहा. उस ने देखा कि पहले से ही वहां और भी कई टीचर बैठे थे.

‘‘दीपक सर, आइए बैठिए. मैं ने आप सब को यहां यह कहने के लिए बुलाया है कि कल हमारे स्कूल में स्कूल निरीक्षक आने वाले हैं. आप सब अपनीअपनी क्लास के बच्चों को ठीक से समझा दें कि क्या कहना है और क्या नहीं.

‘‘और हां, कल दोपहर का खाना बहुत ही स्वादिष्ठ बनना चाहिए और मिठाई तो जरूर होनी चाहिए.

‘‘मिश्रा सर, आप पूरे स्कूल की व्यवस्था ठीक से देख लीजिएगा. कुछ भी गड़बड़ नहीं होनी चाहिए,’’ बबीता मैडम ने सब को अच्छी तरह से समझा दिया. अगले दिन बराबर बैठी वंदना मैडम ने कहा, ‘‘पांडेजी, जरा देखिए तो, कैसे प्रिंसिपल मैडम निरीक्षक महोदय के बगल में अपनी कुरसी चिपका कर बैठी हैं.

‘‘मैडम की इसी अदा पर तो मर्द फिदा हो जाते हैं,’’ पांडे सर की बातों पर वहां बैठे सारे टीचर हंस पड़े.

‘‘सर, आप को बच्चों से कुछ पूछना है, तो पूछ सकते हैं,’’ प्रिंसिपल मैडम ने निरीक्षक महोदय से कहा.

‘‘बच्चो, आप सब को कोई दिक्कत तो नहीं है न इस स्कूल में? किसी को कुछ कहना हो या कुछ पूछना हो तो पूछो. डरने की कोई बात नहीं है,’’ निरीक्षक महोदय ने कहा.

सारे बच्चों ने एकसाथ जवाब दिया, ‘‘नहीं सर, यहां सबकुछ ठीक है. हमें कोई दिक्कत नहीं है.’’ बच्चों ने वही कहा, जो उन्हें पहले से रटाया गया था.

‘‘आप टीचरों को कुछ कहना है?’’ निरीक्षक महोदय ने पूछा.

‘‘नहीं महोदय, हमें कुछ नहीं कहना है,’’ सारे टीचरों ने जवाब दिया. तभी अपना हाथ ऊपर करते हुए दीपक सर ने कहा, ‘‘महोदयजी, मुझे कुछ कहना है.’’

दीपक ने सोचा कि अगर आज हम चुप रहे तो फिर पता नहीं निरीक्षक सर कब आएं इस स्कूल में. दीपक के इतना कहते ही प्रिंसिपल मैडम समेत सारे टीचर उन का मुंह ताकने लगे कि भाई इन्हें क्या कहना है.

‘‘हांहां, कहिए, आप क्या कहना चाहते हैं?’’ निरीक्षक महोदय ने पूछा.

‘‘महोदय, बच्चे तो वही कह रहे हैं, जो उन्हें कहने को कहा गया है. दरअसल, यहां की स्कूली व्यवस्था बिलकुल अच्छी नहीं है.’’

‘‘आप मुझे जरा खुल कर बताइए,’’ निरीक्षक महोदय ने दीपक से कहा.

‘‘महोदय, पहली बात तो यह है कि कोई भी टीचर अपनी क्लास ठीक से नहीं लेते हैं. जब मन हुआ बच्चों को पढ़ाते हैं, नहीं मन हुआ तो नहीं पढ़ाते हैं.

‘‘दूसरी बात यह कि यहां खाने के नाम पर बच्चों को भात के साथ पानी जैसी दाल और उबली हुई सब्जी परोसी जाती है. हर क्लास में पंखे सिर्फ दिखाने के लिए हैं, चलता कोई नहीं है, जबकि प्रिंसिपल रूम और स्टाफ रूम में एयरकंडीशंड का इंतजाम है.’’

और भी जितनी बातें दीपक ने इस स्कूल में देखीं और सुनीं, वे सब उस ने निरीक्षक को बता दीं, बिना अंजाम की परवाह किए.

निरीक्षक ने सारी बातें अपनी डायरी में लिख लीं, पर रजिस्टर में कुछ नहीं लिखा और पेज खाली छोड़ दिया. बाद में प्रिंसिपल और दूसरे टीचर ने दीपक को बहुत फटकार लगाई और कहने लगे, ‘‘दीपक सर, जो भी बात थी, आप हमें आ कर बताते, निरीक्षक को बताने की क्या जरूरत थी.’’

मिश्रा सर कहने लगे, ‘‘दीपक सर, यह आप ने ठीक नहीं किया. अब आप को क्या होगा देख लेना,’’ जैसे उन्हें सब पता था कि क्या होगा.

‘‘माफ कीजिएगा मिश्रा सर, मैं यहां कोई रिश्वत दे कर या किसी की पैरवी से नहीं आया हूं, जो मैं डर जाऊंगा. अंजाम की परवाह तो वे लोग करते हैं, जो खुद गलत हैं.’’

हफ्तेभर बाद दीपक का तबादला हो गया, तो मिश्रा और सारे टीचर मुसकरा कर बोले, ‘‘देख लिया न अंजाम.’’

दीपक को यह समझते जरा भी देर नहीं लगी कि ये सब मिले हुए हैं, निरीक्षक भी. यहां तो पूरा घोटाला है, अकेला वह कुछ नहीं कर सकता है. यह तो चलता रहेगा.

आज टीचर की नौकरी उस की काबिलीयत को देख कर नहीं लगती है. नौकरी लगती है तो किसी बड़े नेता की पैरवी से. यहां टीचर 15 दिन की नौकरी करते हैं और पूरे महीने की तनख्वाह उठाते हैं. अपना खुद का कोचिंग सैंटर चलाते हैं. पैसे ले कर बच्चों को ज्यादा नंबर देते हैं. आज कोई भी मांबाप अपने बच्चे के उज्ज्वल भविष्य की कामना कैसे कर सकते हैं, जब वे ही इन नकारा टीचर को बढ़ावा दे रहे हैं.

प्रिंसिपल शिक्षा मंत्री की चमचागीरी करते हैं और टीचर प्रिंसिपल की, ताकि बिना मेहनत के उन्हें तरक्की मिलती रहे. मेहनती टीचर को या तो मैमो दिलवाते हैं या कोसों दूर तबादला कर देते हैं.

दीपक का तबादला एक पहाड़ी गांव में कर दिया गया था, जहां स्कूल की अधूरी बिल्डिंग बनी थी, पर 2 कमरों की छत ढह चुकी थी. बच्चे आते ही नहीं थे, क्योंकि टीचर ऊंची जातियों के थे और बच्चे दलितों के. उन को बहला दिया गया था कि उन्हें पास होने का सर्टिफिकेट मिल जाएगा.

छोटू की तलाश : क्या पूरी हो पाई छोटू की तलाश

सुबह का समय था. घड़ी में तकरीबन साढे़ 9 बजने जा रहे थे. रसोईघर में खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. कुकर अपनी धुन में सीटी बजा रहा था. गैस चूल्हे के ऊपर लगी चिमनी चूल्हे पर टिके पतीलेकुकर वगैरह का धुआं समेटने में लगी थी. अफरातफरी का माहौल था.

शालिनी अपने घरेलू नौकर छोटू के साथ नाश्ता बनाने में लगी थीं. छोटू वैसे तो छोटा था, उम्र यही कोई 13-14 साल, लेकिन काम निबटाने में बड़ा उस्ताद था. न जाने कितने ब्यूरो, कितनी एजेंसियां और इस तरह का काम करने वाले लोगों के चक्कर काटने के बाद शालिनी ने छोटू को तलाशा था.

2 साल से छोटू टिका हुआ, ठीकठाक चल रहा था, वरना हर 6 महीने बाद नया छोटू तलाशना पड़ता था. न जाने कितने छोटू भागे होंगे. शालिनी को यह बात कभी समझ नहीं आती थी कि आखिर 6 महीने बाद ही ये छोटू घर से विदा क्यों हो जाते हैं?

शालिनी पूरी तरह से भारतीय नारी थी. उन्हें एक छोटू में बहुत सारे गुण चाहिए होते थे. मसलन, उम्र कम हो, खानापीना भी कम करे, जो कहे वह आधी रात को भी कर दे, वे मोबाइल फोन पर दोस्तों के साथ ऐसीवैसी बातें करें, तो उन की बातों पर कान न धरे, रात का बचाखुचा खाना सुबह और सुबह का शाम को खा ले.

कुछ खास बातें छोटू में वे जरूर देखतीं कि पति के साथ बैडरूम में रोमांटिक मूड में हों, तो डिस्टर्ब न करे. एक बात और कि हर महीने 15-20 किट्टी पार्टियों में जब वे जाएं और शाम को लौटें, तो डिनर की सारी तैयारी कर के रखे.

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शालिनी के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यह वाला छोटू बड़ा ही सुंदर था. गोराचिट्टा, अच्छे नैननक्श वाला. यह बात वे कभी जबान पर भले ही न ला पाई हों, लेकिन वे जानती थीं कि छोटू उन के खुद के बेटे अनमोल से भी ज्यादा सुंदर था. अनमोल भी इसी की उम्र का था, 14 साल का.

घर में एकलौता अनमोल, शालिनी और उन के पति, कुल जमा 3 सदस्य थे. ऐसे में अनमोल की शिकायतें रहती थीं कि उस का एक भाई या बहन क्यों नहीं है? वह किस के साथ खेले?

नया छोटू आने के बाद शालिनी की एक समस्या यह भी दूर हो गई कि अनमोल खुश रहने लग गया था. शालिनी ने छोटू को यह छूट दे दी कि वह जब काम से फ्री हो जाए, तो अनमोल से खेल लिया रे.

छोटू पर इतना विश्वास तो किया ही जा सकता था कि वह अनमोल को कुछ गलत नहीं सिखाएगा.

छोटू ने अपने अच्छे बरताव और कामकाज से शालिनी का दिल जीत लिया था, लेकिन वे यह कभी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं कि छोटू कामकाज में थोड़ी सी भी लापरवाही बरते. वह बच्चा ही था, लेकिन यह बात अच्छी तरह समझता था कि भाभी यानी शालिनी अनमोल की आंखों में एक आंसू भी नहीं सहन कर पाती थीं.

अनमोल की इच्छानुसार सुबह नाश्ते में क्याक्या बनेगा, यह बात शालिनी रात को ही छोटू को बता देती थीं, ताकि कोई चूक न हो. छोटू सुबह उसी की तैयारी कर देता था.

छोटू की ड्यूटी थी कि भयंकर सर्दी हो या गरमी, वह सब से पहले उठेगा, तैयार होगा और रसोईघर में नाश्ते की तैयारी करेगा.

शालिनी भाभी जब तक नहाधो कर आएंगी, तब तक छोटू नाश्ते की तैयारी कर के रखेगा. छोटू के लिए यह दिनचर्या सी बन गई थी.

आज छोटू को सुबह उठने में देरी हो गई. वजह यह थी कि रात को शालिनी भाभी की 2 किट्टी फ्रैंड्स की फैमिली का घर में ही डिनर रखा गया था. गपशप, अंताक्षरी वगैरह के चलते डिनर और उन के रवाना होने तक रात के साढे़ 12 बज चुके थे. सभी खाना खा चुके थे. बस, एक छोटू ही रह गया था, जो अभी तक भूखा था.

शालिनी ने अपने बैडरूम में जाते हुए छोटू को आवाज दे कर कहा था, ‘छोटू, किचन में खाना रखा है, खा लेना और जल्दी सो जाना. सुबह नाश्ता भी तैयार करना है. अनमोल को स्कूल जाना है.’

‘जी भाभी,’ छोटू ने सहमति में सिर हिलाया. वह रसोईघर में गया. ठिठुरा देने वाली ठंड में बचीखुची सब्जियां, ठंडी पड़ चुकी चपातियां थीं. उस ने एक चपाती को छुआ, तो ऐसा लगा जैसे बर्फ जमी है. अनमने मन से सब्जियों को पतीले में देखा. 3 सब्जियों में सिर्फ दाल बची हुई थी. यह सब देख कर उस की बचीखुची भूख भी शांत हो गई थी. जब भूख होती है, तो खाने को मिलता नहीं. जब खाने को मिलता है, तब तक भूख रहती नहीं. यह भी कोई जिंदगी है.

छोटू ने मन ही मन मालकिन के बेटे और खुद में तुलना की, ‘क्या फर्क है उस में और मुझ में. एक ही उम्र, एकजैसे इनसान. उस के बोलने से पहले ही न जाने कितनी तरह का खाना मिलता है और इधर एक मैं. एक ही मांबाप के 5 बच्चे. सब काम करते हैं, लेकिन फिर भी खाना समय पर नहीं मिलता. जब जिस चीज की जरूरत हो तब न मिले तो कितना दर्द होता है,’ यह बात छोटू से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता होगा.

छोटू ने बड़ी मुश्किल से दाल के साथ एक चपाती खाई औैर अपने कमरे में सोने चला गया. लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. आज उस का दुख और दर्र्द जाग उठा. आंसू बह निकले. रोतेरोते सुबकने लगा वह और सुबकते हुए न जाने कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला.

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थकान, भूख और उदास मन से जब वह उठा, तो साढे़ 8 बज चुके थे. वह उठते ही बाथरूम की तरफ भागा. गरम पानी करने का समय नहीं था, तो ठंडा पानी ही उडे़ला. नहाना इसलिए जरूरी था कि भाभी को बिना नहाए किचन में आना पसंद नहीं था.

छोटू ने किचन में प्रवेश किया, तो देखा कि भाभी कमरे से निकल कर किचन की ओर आ रही थीं. शालिनी ने जैसे ही छोटू को पौने 9 बजे रसोईघर में घुसते देखा, तो उन की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘छोटू, इस समय रसोई में घुसा है? यह कोई टाइम है उठने का? रात को बोला था कि जल्दी उठ कर किचन में तैयारी कर लेना. जरा सी भी अक्ल है तुझ में,’’ शालिनी नाराजगी का भाव लिए बोलीं.

‘‘सौरी भाभी, रात को नींद नहीं आई. सोया तो लेट हो गया,’’ छोटू बोला.

‘‘तुम नौकर लोगों को तो बस छूट मिलनी चाहिए. एक मिनट में सिर पर चढ़ जाते हो. महीने के 5 हजार रुपए, खानापीना, कपड़े सब चाहिए तुम लोगों को. लेकिन काम के नाम पर तुम लोग ढीले पड़ जाते हो…’’ गुस्से में शालिनी बोलीं.

‘‘आगे से ऐसा नहीं होगा भाभी,’’ छोटू बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, अब ज्यादा बातें मत बना. जल्दीजल्दी काम कर,’’ शालिनी ने कहा.

छोटू और शालिनी दोनों तेजी से रसोईघर में काम निबटा रहे थे, तभी बैडरूम से अनमोल की तेज आवाज आई, ‘‘मम्मी, आप कहां हो? मेरा नाश्ता तैयार हो गया क्या? मुझे स्कूल जाना है.’’

‘‘लो, वह उठ गया अनमोल. अब तूफान खड़ा कर देगा…’’ शालिनी किचन में काम करतेकरते बुदबुदाईं.

‘‘आई बेटा, तू फ्रैश हो ले. नाश्ता बन कर तैयार हो रहा है. अभी लाती हूं,’’ शालिनी ने किचन से ही अनमोल को कहा.

‘‘मम्मी, मैं फ्रैश हो लिया हूं. आप नाश्ता लाओ जल्दी से. जोरों की भूख लगी है. स्कूल को देर हो जाएगी,’’ अनमोल ने कहा.

‘‘अच्छी आफत है. छोटू, तू यह दूध का गिलास अनमोल को दे आ. ठंडा किया हुआ है. मैं नाश्ता ले कर आती हूं.’’

‘‘जी भाभी, अभी दे कर आता हूं,’’ छोटू बोला.

‘‘मम्मी…’’ अंदर से अनमोल के चीखने की आवाज आई, तो शालिनी भागीं. वे चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्या हुआ बेटा… क्या गड़बड़ हो गई…’’

‘‘मम्मी, दूध गिर गया,’’ अनमोल चिल्ला कर बोला.

‘‘ओह, कैसे हुआ यह सब?’’ शालिनी ने गुस्से में छोटू से पूछा.

‘‘भाभी…’’

छोटू कुछ बोल पाता, उस से पहले ही शालिनी का थप्पड़ छोटू के गाल पर पड़ा, ‘‘तू ने जरूर कुछ गड़बड़ की होगी.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं ने कुछ नहीं किया… वह अनमोल भैया…’’

‘‘चुप कर बदतमीज, झूठ बोलता है,’’ शालिनी का गुस्सा फट पड़ा.

‘‘मम्मी, छोटू का कुसूर नहीं था. मुझ से ही गिलास छूट गया था,’’ अनमोल बोला.

‘‘चलो, कोई बात नहीं. तू ठीक तो है न. जलन तो नहीं हो रही न? ध्यान से काम किया कर बेटा.’’

छोटू सुबक पड़ा. बिना वजह उसे चांटा पड़ गया. उस के गोरे गालों पर शालिनी की उंगलियों के निशान छप चुके थे. जलन तो उस के गालोंपर हो रही थी, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था.

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‘‘अब रो क्यों रहा है? चल रसोईघर में. बहुत से काम करने हैं,’’ शालिनी छोटू के रोने और थप्पड़ को नजरअंदाज करते हुए लापरवाही से बोलीं.

छोटू रसोईघर में गया. कुछ देर रोता रहा. उस ने तय कर लिया कि अब इस घर में और काम नहीं करेगा. किसी अच्छे घर की तलाश करेगा.

दोपहर को खेलते समय छोटू चुपचाप घर से निकल गया. महीने की 15 तारीख हो चुकी थी. उस को पता था कि 15 दिन की तनख्वाह उसे नहीं मिलेगी. वह सीधा ब्यूरो के पास गया, इस से अच्छे घर की तलाश में.

उधर शाम होने तक छोटू घर नहीं आया, तो शालिनी को एहसास हो गया कि छोटू भाग चुका है. उन्होंने ब्यूरो में फोन किया, ‘‘भैया, आप का भेजा हुआ छोटू तो भाग गया. इतना अच्छे से अपने बेटे की तरह रखती थी, फिर भी न जाने क्यों चला गया.’’ छोटू को नए घर और शालिनी को नए छोटू की तलाश आज भी है. दोनों की यह तलाश न जाने कब तक पूरी होगी.

दैहिक भूख : किस राह पर चल पड़ी थी उसकी बेटी

आज मनोज बहुत खुश था और पहुंच गया यादों में. 4 साल पहले वह नौकरी की तलाश में मुंबई आया था. पढ़लिख कर गांव में रहने का कोई फायदा नहीं था. वहां तो कोई छोटीमोटी नौकरी मिलती या अपनी छोटी सी दुकान खोल कर बैठना पड़ता. इस के अलावा वहां और कुछ था भी नहीं, जिस पर अपनी गुजरबसर की जा सके. यही सोच कर मनोज ने मुंबई जाने वाली ट्रेन पकड़ ली थी.

पहले कुछ दिन तो मनोज को एक लौज में रहना पड़ा, फिर धीरेधीरे उसे उस के गांव के लोग मिल गए, जो 3-4 के समूह में साथसाथ रहते थे. मनोज भी उन्हीं के साथ चाल में रहने लगा था.

चाल का मतलब है आधे कच्चेपक्के घरों की वे बस्तियां, जहां संकरी गलियों में छोटेछोटे कमरे होते हैं. पानी के लिए एक सरकारी नल का इंतजाम होता है, जहां बच्चेऔरतें और मर्द सुबह से ही अपनेअपने बरतन ले कर लाइन लगा देते हैं, ताकि वे पूरे दिन के लिए पीने व नहानेधोने का पानी भर सकें.

अब मनोज बड़ी मेहनत से नौकरी कर के पैसा कमा रहा था और एकएक पैसा जोड़ रहा था, ताकि रहने के लिए अपना छोटा सा घर खरीद सके. आज मनोज इसीलिए खुश था, क्योंकि उस ने एक छोटा सा 8 बा 8 फुट का कमरा खरीद लिया था. इधर उस के मातापिता भी काफी समय से जोर दे रहे थे कि शादी कर लो. रहने का ठिकाना हो गया था, सो अब मनोज ने भी इस के लिए हामी भर दी थी.

मां ने गांव में अपने ही रिश्ते में एक लड़की पसंद कर रखी थी, जिस का नाम शिल्पा था. शिल्पा भी राह देख रही थी कि कब मनोज आए और उसे ब्याह कर मुंबई ले जाए.

मनोज गांव गया और फिर चट मंगनी पट ब्याह. वह एक महीने में शिल्पा को ले कर मुंबई आ गया.

शिल्पा मुंबई के तौरतरीके सीख रही थी. वह भी रोज सुबह पानी की लाइन में लग जाती और वहां की मराठी औरतों के साथ बातें कर के थोड़ीथोड़ी मराठी भी सीखने लगी थी.

जब शाम को मनोज दफ्तर से काम कर के खोली में लौटता और शिल्पा को अपनी बांहों में भर कर प्यार भरी बातें करता, तो वह कहती, ‘‘धीरे बोलिए, सब के कमरे आसपास हैं. खिड़की भी तो सड़क पर खुलती है. कोई सुन लेगा तो…’’ मनोज कहता, ‘‘सुन ले तो सुन ले, हम अपनी बीवी से बात कर रहे हैं, कोई चोरी थोड़े ही कर रहे हैं.’’

आसपास की जवान लड़कियां भी कभीकभार शिल्पा को छेड़ कर कहतीं, ‘भाभी, कल भैया से क्या बातें हो रही थीं? हम ने सुना था सबकुछ…’

शिल्पा जवाब में कहती, ‘‘कोई और काम नहीं है तुम्हारे पास, हमारी बातें सुनने के अलावा?’’

इस तरह 4 साल बीत गए और शिल्पा के 2 बच्चे भी हो गए. बड़ी बेटी संध्या और छोटा बेटा वीर. मनोज अपने परिवार में बहुत सुखी था. वह अब एक फ्लैट खरीदना चाहता था, ताकि जब उस के बच्चे बड़े हों तो थोड़े अच्छे माहौल में पलबढ़ सकें. इस के लिए वह एकएक पाई जोड़ रहा था.

शिल्पा और मनोज सोने से पहले रोज नए फ्लैट के बारे में ही बात करते थे. मनोज कहता, ‘‘एक वन बैडरूम का फ्लैट हो जाए बस.’’ शिल्पा कहती, ‘‘हां, तुम नया घर लेने की तैयारी करो. हम उसे सजा देंगे और बाहर नेम प्लेट पर मेरा भी नाम लिखना. घर के दरवाजे पर हम लिख देंगे ‘आशियाना’.’’

मनोज हर छुट्टी के दिन ब्रोकर से मिल कर फ्लैट देख कर आता. कोई बहुत अंदर गली में होता, जहां से मेन रोड पर आने में ही आधा घंटा लग जाए, तो कोई बच्चों के स्कूल से बहुत दूर होता. कोई बहुत पुरानी बिल्डिंग होती, जिस में लीकेज की समस्या होती, तो कोई बहुत अंधेरी सी बिल्डिंग होती और कीमत पूछते ही मकान मालिक भी बड़ा सा मुंह खोल देते. कीमत बड़ी और फ्लैट का साइज छोटा. लोग 30 लाख रुपए तक मांगते.

कहां से लाता मनोज इतने पैसे? सो, 20 लाख रुपए में अच्छी सी लोकेशन देख कर उस ने एक वन बैडरूम फ्लैट खरीद लिया, जिस के आसपास सारी सुविधाएं थीं और रेलवे स्टेशन भी नजदीक था. फ्लैट में रहने से शिल्पा और बच्चे भी मुंबई के रंग में रंगने लगे थे.

मनोज की बेटी संध्या 13वें साल में थी. उस का शरीर अब गोलाई लेने लगा था और वह अब थोड़ा सजधज कर भी रहने लगी थी. ऊपर से टैलीविजन और मीडिया. आजकल के बच्चे वक्त से पहले ही सबकुछ समझने लग जाते हैं. फिर घर में जगह व एकांत की कमी. अब घर छोटा पड़ने लगा था. मनोज अब बच्चों से नजरें बचा कर मौका ढूंढ़ता कि कब शिल्पा के करीब आए और उसे अपने आगोश में ले.

वक्त तेजी से बीत रहा था. संध्या अब कालेज जाने लगी थी और रोजाना नए कपड़े, जूते, बैग वगैरह की मांग भी करने लगी थी. उस की ये सब जरूरतें पूरी करना मनोज के लिए मुश्किल होता जा रहा था.

एक दिन संध्या बोली, ‘‘पापा, मेरी सारी सहेलियां नई फिल्म देखने जा रही हैं, मुझे भी जाना है. मां से कहिए न कि मुझे कुछ रुपए देंगी.’’ मनोज ने कहा, ‘‘देखो संध्या बेटी, तुम्हारी बात बिलकुल सही है. तुम्हें भी घूमनेफिरने की आजादी होनी चाहिए. लेकिन बेटी, हम इतने पैसे वाले नहीं हैं. अभी तुम्हारी पढ़ाईलिखाई के तमाम खर्च हैं और बाद में तुम्हारी शादी के. फिर तुम्हारा छोटा भाई भी तो है. उस के बारे में भी तो सोचना है. आज तो मैं तुम्हें पैसे दे रहा हूं, लेकिन रोजरोज जिद मत करना.’’

संध्या खुशीखुशी पैसे ले कर कालेज चली गई.

शिल्पा मनोज से बोली, ‘‘कैसी बातें करते हैं आप. आज पैसे दिए तो क्या वह रोज नहीं मांगेगी? लड़की को इतनी छूट देना ठीक नहीं है.’’

मनोज बोला, ‘‘बच्चों के लिए करना पड़ता है शिल्पा. ये भी तो बाहर की दुनिया देखते हैं, तो इन का भी मन मचलता है. और अगर हम न दें, तो इन का हम पर से भरोसा उठ जाएगा.’’

अब संध्या तकरीबन हर रोज मनोज से पैसे मांगने लगी थी. कभीकभी मनोज मना कर देता, तो उस दिन संध्या मुंह फुला कर कालेज जाती.

कालेज के बाद या कभीकभी कालेज से छुट्टी कर के लड़केलड़कियां हाथ में हाथ डाले मुंबई के बीच पर घूमते नजर आते. कई बार थोड़े अमीर परिवार के लड़के लड़कियों को अच्छे रैस्टोरैंट में ले जाते, तो कभी फिल्म दिखा कर भी लाते.

मनोज तो संध्या की जरूरत पूरी करने में नाकाम था, सो अब संध्या भी उन लड़कों के साथ घूमने लगी थी. किसी लड़की को बांहों में बांहें डाल कर घुमानाफिराना इस उम्र के लड़कों के लिए बड़े गर्व की बात होती है और लड़कियां सोचती हैं कि यह प्यार है और वह लड़का उन की खूबसूरती का दीवाना है.

संध्या की दूसरी सहेलियां भी ऐसे ही लड़कों के साथ घूमती थीं. एक दिन सभी लड़केलड़कियां गोराई बीच चले गए. बोरीवली से छोटी नाव, जिसे ‘फेरी’ कहते हैं, चलती है, जो एक छोटी सी क्रीक को पार करा देती है और गोराई बीच आ जाता है. यह मछुआरों का गांव है. मछुआरे बहुत ही कम कीमत पर, यों समझिए 2 सौ, 3 सौ रुपयों में कमरे किराए पर दे देते हैं, ताकि लोग बीच से आ कर कपड़े बदल लें और आराम भी कर लें. सो, सारा गु्रप पूरा दिन सैरसपाटा कर के आता और अलगअलग कमरों में बंद हो जाता. यह सारा खर्चा लड़के ही करते थे.

अब यह सब संध्या व उस की सहेलियों व लड़कों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गया था. कभीकभी वे लड़के अपने दूसरे दोस्तों को भी वहां ले जाते और संध्या व उस की सहेलियां उन लड़कों से भी हिलमिल गईं. यही तो खास बात है इस उम्र की कि कुछ बुरा तो नजर आता ही नहीं. सब अच्छा ही अच्छा लगता है और अगर मातापिता कुछ कहें, तो उन की बातें दकियानूसी लगती हैं.

लड़केलड़कियां एकदूसरे की सारी जरूरतें पूरी करते, दैहिक भूख व मौजमस्ती. कुछ महीनों तक ऐसा ही चलता रहा, लेकिन एक दिन वहां पर पुलिस की रेड पड़ गई, जिस में संध्या भी पकड़ी गई. फिर क्या था… सभी लड़केलड़कियों को पुलिस स्टेशन ले जाया गया और फोन कर के उन के मातापिता को भी वहां बुलाया गया. मनोज के पास भी पुलिस स्टेशन से फोन आया. वह तो फोन सुनते ही हक्काबक्का रह गया. जल्दी से वह दफ्तर से आधे दिन की छुट्टी ले कर पुलिस स्टेशन पहुंचा.

वहां संध्या को देखा और सारी बात मालूम होते ही उस की आंखों में खून उतर आया. खैर, पुलिस के हाथपैर जोड़ कर वह संध्या को वहां से ले कर घर आया. जब संध्या की मां ने सारी बात सुनी, तो उस ने संध्या को जोरदार तमाचा जड़ कर कहा, ‘‘शर्म नहीं आई तुझे उन लड़कों के साथ गुलछर्रे उड़ाते हुए?’’

संध्या कहां चुप रहने वाली थी. वह कहने लगी, ‘‘19 साल की हूं मैं और बालिग भी हूं. अगर आप और पापा सब कर सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं? कितनी बार देखा है मैं ने आप और पापा को…’’

इतना सुनते ही शिल्पा ने संध्या के गाल पर दूसरा तमाचा जड़ दिया और गुस्से में बोली, ‘‘अरे, हम तो पतिपत्नी हैं, पर तुम इस पढ़नेलिखने की उम्र में बिन ब्याहे ही…’

संध्या ने सारी हदें पार कर दीं और बोली, ‘‘तो क्या हुआ जो शादी नहीं हुई तो. तुम लोगों को देख कर बदन में उमंग नहीं जागती? कैसे शांत करूं मैं उसे बिन ब्याहे? अगर वे लड़के मुझे घुमातेफिराते हैं, मेरी जरूरतों का खयाल रखते हैं, तो बुराई भी क्या है इस दैहिक संबंध में? पापा और आप भी तो शादी कर के यही कर रहे हो. सिर्फ एकदूसरे की जरूरतों को पूरा करना. तो क्या इस पर शादी की मुहर लगाना जरूरी है?

‘‘आप लोग तो मेरी जरूरतें पूरी कर नहीं पाते. सिर्फ मैं ही नहीं, आजकल तो अकसर सभी लड़कियां करती हैं यह सब. ‘‘मां, अब तुम लोग पुराने जमाने के हो गए हो. आजकल सब चलता है. कुदरत ने देह दी है, तो उस को इस्तेमाल करने में क्या बुराई है?’’

संध्या की ये बेशर्मी भरी बातें सुनी नहीं जा रही थीं. मनोज तो अपने कानों पर हाथ रख मुंह नीचे किए बैठा था और संध्या लगातार बोले जा रही थी. उस ने तो मौजमस्ती की चाह और अपनी दैहिक भूख को शांत करने के लिए सारी हदें पार कर ली थीं. नएनए लड़कों से दैहिक संबंध बनाने में उसे कोई बुराई नजर न आई. इस का कोई दुख या गिला भी न था उसे.

शिल्पा कोने में दीवार पर सिर टिका कर आंसू बहाए जा रही थी. अब मनोज जुट गया था 2 कमरों का घर ढूंढ़ने में.

नो बौल विद फ्री हिट : प्यार की सच्ची कहानी

कोलकाता से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर समीर ने कुछ  ही दिन पहले नौकरी जौइन की थी. वह वहां के गार्डन रीच वर्कशौप में ट्रेनिंग ले रहा था जो रक्षा मंत्रालय के अधीन भारत सरकार का एक उद्यम है. वहां जहाज निर्माण से ले कर उन के रखरखाव की भी सुविधा है.

कोलकाता के मटियाबुर्ज महल्ला में स्थित गार्डन रीच वर्कशौप देश का जहाज बनाने का प्रमुख कारखाना है. यह मुख्य शहर से दूर है. समीर झारखंड के धनबाद शहर का रहने वाला है, जिसे कोल कैपिटल औफ इंडिया भी कहा जाता है. यही उस की एक साल की ट्रेनिंग थी. कोलकाता में वह धर्मतल्ला में एक कमरे के फ्लैट में एक अन्य युवक के साथ शेयर कर के रहता था.

मटियाबुर्ज धर्मतल्ला से लगभग 13 किलोमीटर दूर है. इस का भी एक इतिहास है, अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने अंगरेजों के चंगुल से भाग कर यहीं आ कर शरण ली थी. मटियाबुर्ज बहुत गंदा इलाका था और वहां मुख्यता: अनस्किल्ड लेबर ही रहते थे. ज्यादातर मजदूर बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश से आते हैं.

समीर वर्कशौप जाने के लिए फ्लैट से थोड़ी दूर पैदल चल कर धर्मतल्ला बस स्टौप से सुबह 8 बजे की बस पकड़ता था. 9 बजे तक उसे औफिस पहुंचना होता था. उस के फ्लैट से कुछ दूरी पर स्थित एक फ्लैट से एक युवती भी रोज उसी बस को पकड़ती थी.

शुरू में तो समीर को उस में कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन लगातार एक ही स्टैंड से रोज बस पकड़ने, एक ही बस में आनेजाने से समीर का उस युवती के प्रति खासा आकर्षण हो गया था.

वैसे, दोनों में कभी कोई बातचीत नहीं हुई थी, पर कभीकभी नजरें चुरा कर समीर उसे देख लेता था. वह गेहुएं रंग के चेहरे वाली भोलीभाली युवती थी. कभीकभी भीड़ के कारण यदि उसे सीट नहीं मिलती तो वह उस युवती के बगल वाली लेडीज सीट पर जा बैठता था. तब वह युवती थोड़ा और सिमट कर खिड़की से बाहर देखने लगती थी. कभी वह उसे देखती तो समीर झट से अपनी आंखें दूसरी ओर फेर लेता.

समीर उस से बातचीत करना चाहता था पर खुद पहल न कर पाया. उस युवती ने भी उस से आगे बढ़ कर कभी हायहैलो तक न की.

एक दिन अचानक बसों की हड़ताल हो गई. सुबह तो समीर और उस युवती को बस मिल गई थी, पर लौटते वक्त बसें नहीं चल रही थीं. तो समीर अपने बौस की कार से घर आ रहा था. कंपनी की गाड़ी थी, ड्राइवर चला रहा था. कार में पीछे की सीट पर समीर अपने बौस और कंपनी के एक और अफसर के साथ बैठा था तभी समीर ने खिद्दीरपुर बस स्टौप पर उस युवती को देखा. पहले तो उसे संकोच हुआ पर उस ने साहस कर बौस से उस युवती को लिफ्ट देने की विनती की.

बौस ने हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, कोई चक्कर चल रहा है क्या?’’

समीर बोला, ‘‘नो सर, मैं तो उस का नाम भी नहीं जानता. बस, काफी दिनों से हम दोनों एक ही बस पकड़ते हैं. आज तो उसे बस मिलने से रही और टैक्सी की भी डिमांड इतनी ज्यादा है कि वह भी उसे शायद न मिले.’’

ड्राइवर ने कार रोक कर हौर्न बजाया पर युवती ने उन की ओर देखा ही नहीं. तभी समीर ने खिड़की से बाहर सिर निकाल कर आवाज दी. ‘‘हैलो मैडम, आप ही को बोल रहा हूं. आज कोई बस नहीं मिलने वाली और टैक्सी की भी किल्लत है. हमारी कार में बैठ जाएं, बौस हमें धर्मतल्ला स्टौप पर ड्रौप कर देंगे.’’

पहले तो वह संकोच कर रही थी, पर बाद में समीर के कहने पर वह आ कर ड्राइवर की बगल वाली सीट पर थैंक्स कह कर बैठ गई. पिछली सीट पर तो 3 लोग पहले से ही बैठे थे.

धर्मतल्ला स्टौप पर उतर कर समीर और उस युवती ने बौस को थैंक्स कहा. समीर का भी थैंक्स करते हुए वह अपने घर की ओर चल दी. समीर सोच रहा था कि आज वह थैंक्स के अलावा और कुछ भी बात करेगी, पर ऐसा नहीं हुआ. समीर मन ही मन चिढ़ गया और उस ने भी आगे कुछ नहीं कहा. दोनों अपनेअपने घर की ओर चल दिए.

लेकिन अगले दिन बस स्टौप पर समीर ने उस युवती से गुडमौर्निंग कहा तो उस ने होंठों ही होंठों में कुछ कहा और मुसकरा कर सिर झुका कर बस का इंतजार करने लगी. इसी तरह कुछ दिनों तक समीर गुडमौर्निंग कहता और वह होंठ फड़फड़ा कर धीरे से गुडमौर्निंग का जवाब दे देती.

एक बार 2 दिनों से वह युवती बस स्टौप पर नहीं मिली तो समीर का मन बेताब हो गया. तीसरे दिन जब वह मिली तो समीर ने अपने पुराने अंदाज में गुडमौर्निंग कहा. युवती आज खुल कर मुसकराई और उस ने धीरे से गुडमौर्निंग कहा. बस आई और दोनों बस में चढ़े, लेकिन युवती से कोई बात नहीं हो पाई.

अगले दिन जब समीर को युवती की बगल वाली सीट पर बैठने का मौका मिला तो वह उस से पूछ बैठा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? आप इधर बीच में 2 दिन नहीं आई थीं.’’

‘‘ऐसे ही, घर में कुछ काम था,’’ युवती ने जवाब दिया.

समीर बोला, ‘‘अच्छा, अपना नाम तो बताएं. मेरा नाम समीर है.’’

फिर दोनों हंस पड़े. दरअसल, समीर की शर्ट की जेब पर उस का आईडी कार्ड टंगा था, जिसे युवती ने पहले ही देख लिया था. अगले दिन बस स्टौप पर समीर ने फिर उस का नाम पूछा तो वह बोली, ‘‘समझ लें, जिस का कोई नाम नहीं होता उसे क्या कहते हैं…’’

‘‘उसे तो अनामिका कहते हैं,’’ समीर बोला. इस बीच कोई लेडी पैसेंजर आ गई और समीर को सीट छोड़नी पड़ी. उस ने खड़ा होते हुए कहा, ‘‘तब तो तुम्हारा नाम अनामिका होना चाहिए.’’

अब दोनों में थोड़ीबहुत बातचीत होने लगी थी और कुछ मेलजोल भी बढ़ गया था. कुछ हफ्ते बाद एक दिन औफिस से समीर को जल्दी छुट्टी मिली तो वह बस से लौट रहा था कि रास्ते से अनामिका भी उसी बस में चढ़ी. दोपहर में बस में उतनी भीड़ नहीं थी तो वह भी समीर के बगल वाली सीट पर बैठ गई और पूछा, ‘‘आज का दिन वर्कशौप में कैसा रहा? इस समय तो कभी तुम्हें लौटते देखा नहीं है.’’

समीर बोला, ‘‘आज तो बौस ने मुझे सरप्राइज दिया है. उन्होंने कहा कि बाकी 2 महीने की ट्रेनिंग रांची के मैरिन इंजन प्लांट में लेनी है. कंपनी की एक फैक्टरी वहां भी है और टे्रनिंग के बाद मेरी पोस्टिंग भी उसी फैक्टरी में होगी. 3-4 दिनों में जाना होगा.’’

अनामिका बोली, ‘‘चलो, अच्छी बात है. तुम्हारी ट्रेनिंग पूरी होने जा रही है. यहां मेरे औफिस में भी मेरे ट्रांसफर की बात चल रही है.’’

अगले दिन समीर को वर्कशौप नहीं जाना था, फिर भी वह रोज की तरह बस स्टौप पर अनामिका से मिलने पहुंच गया. पर आज वह नहीं आई थी. दूसरे दिन वह समीर को उसी स्टौप पर मिली तो उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है, मैं कल भी यहां आया था पर तुम नहीं मिलीं?’’

अनामिका बोली, ‘‘कल लड़के वाले मुझे देखने आए थे, इसलिए औफिस नहीं जा सकी थी.’’

समीर ने निराश होते हुए बस ‘ओह’ कहा और चुप हो गया.

अनामिका ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

समीर के ‘कुछ नहीं’ कहते ही बस आ गई और अनामिका चढ़ते हुए बोली, ‘‘शाम को 4 बजे वाली बस से लौटूंगी.’’

हालांकि अनामिका ने उसे शाम को स्टौप पर मिलने को नहीं कहा था, पर समीर वहां मौजूद था. शायद अनामिका की भी यही इच्छा रही होगी. उस के बस से उतरते ही समीर बोला, ‘‘चलो, आज बगल वाले कौफी हाउस में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

अनामिका सहर्ष तैयार हो गई. दोनों ने साथ बैठ कर कौफी पी. वहां समीर ने पूछा, ‘‘कल तुम्हें लड़के वाले देखने आए थे न? तो मेरा विकेट तो डाउन हो गया न. मैं क्लीन बोल्ड हो गया.’’

अनामिका बोली, ‘‘नहीं. वह नो बौल थी. तुम आउट होने से बच गए.’’

‘‘क्या मतलब?’’ कहते हुए समीर के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

‘‘उन्होंने मुझे रिजैक्ट कर दिया,’’ अनामिका बोली.

‘‘पर ऐसा क्यों किया. जो भी हो, मेरे लिए तो अच्छा ही है. मुझे नो बौल पर एक और चांस तो मिला.’’

अनामिका बोली, ‘‘एक और चांस नहीं, फ्री हिट का मौका भी मिला है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ समीर ने पूछा तो वह बैग से एक लिफाफा निकाल कर समीर की ओर बढ़ाती हुई बोली,

‘‘यह देखो, आज मुझे भी ट्रांसफर और्डर मिला है. मेरी पोस्टिंग भी रांची में हुई है, हुआ न नो बौल विद फ्री हिट.’’ और दोनों हंसते हुए कौफी हाउस से निकल पड़े.

सदमा : मन्नू भाई और बालकनी वाली डौली

रविवार की अलसाई सुबह थी. 9 बज रहे थे, मनसुख लाल उर्फ मन्नू भाई अधखुली आंखें लिए ड्राइंगरूम को पार करते हुए अपने फ्लैट की बालकनी में जा पहुंचे और पूरा मुंह खोल कर एक बड़ी सी उबासी ली. तभी उन की नजर सामने पड़ी. उन का मुंह खुला का खुला रह गया.

दरअसल, मन्नू भाई के सामने के फ्लैट, जो तकरीबन 6 महीने से बंद पड़ा हुआ था, की बालकनी में 40-45 साल की एक खूबसूरत औरत खड़ी थी. गुलाबी रंग का गाउन पहने वह अपने गीले बालों को बारबार तौलिए से पोंछते हुए कपड़े सुखा रही थी.

वह औरत पूरी तरह से बेखबर अपने काम में मगन थी, लेकिन मन्नू भाई पूरी तरह से चौकस, अपनी आंखों को खोल कर नयन सुख लेने में मशगूल थे.

‘चांद का टुकड़ा हमारे घर के सामने और हमें खबर तक नहीं’, मन्नू भाई मन ही मन बुदबुदाए.

‘‘अजी कहां हो, चाय ठंडी हो रही है,’’ तभी उन की पत्नी शशि की तेज आवाज आई.

मन्नू भाई तुरंत संभल गए.

‘‘हां, आया,’’ कह कर उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘इसे भी अभी ही आना था.’ फिर से मन्नू भाई ने सामने बालकनी की ओर देखा, पर वहां अब कोई नहीं था.

‘इतनी जल्दी चली गई,’ सोचते हुए बुझे मन से मन्नू भाई अंदर कमरे में आ गए और चाय पीने लगे.

मनसुख लाल उर्फ मन्नू भाई एक सरकारी महकमे में थे. घर में सुंदर, सुशील पत्नी शशि, 2 प्यारे बच्चे, एक मिडिल क्लास खुशहाल परिवार था मन्नू भाई का. पर ‘मन्नू भाई’ तबीयत से जरा रूमानी थे. या यों कहिए कि आशिकमिजाज. उन की इसी आदत की वजह से वे कालेज में कई बार पिटतेपिटते बचे थे.

औरतों से बात करना उन्हें बड़ा भाता था. दफ्तर में साथ काम करने वाली औरतें भी उन से इसलिए जरा दूर ही रहती थीं. अपनी पत्नी उन्हें ‘घर की मुरगी दाल बराबर’ लगती थी.

मन्नू भाई खाने के भी बड़े शौकीन थे. इसी वजह से ‘तोंद’ बाहर निकल आई थी, जिसे ‘बैल्ट’ के सहारे सही जगह टिकाए रखने की नाकाम कोशिश वे बराबर करते रहते थे.

सिर पर अब चंद ही बाल बचे थे. नएनए शैंपू, तेल और खिजाब के अंधाधुंध इस्तेमाल से खोपड़ी असमय ही चांद की शेप में आ गई थी, फिर भी वे अपनेआप को किसी ‘फन्ने खां’ से कम नहीं समझते थे.

हर जानपहचान वाली औरत को देखते ही मुसकरा कर नमस्कार करना, आगे बढ़ कर उस का हालचाल पूछना उन की दिनचर्या में शामिल था.

आज का रविवार बड़ा खुशनुमा गुजरा. मन्नू भाई ने बच्चों को डांटा नहीं. पत्नी के हाथ के खाने की जी खोल कर तारीफ की. घर वाले हैरान थे कि आज हो क्या रहा है. असली बात तो मन्नू भाई ही जानते हैं. जब सुबह की इतनी खूबसूरत शुरुआत हो, तो दिन तो अच्छा गुजरना ही था.

सोमवार की सुबह मन्नू भाई तैयार हो कर दफ्तर जाने को निकले, इस से पहले वे 4 चक्कर बालकनी के लगा आए थे. कपड़े जरूर सूख रहे थे, पर वह कहीं नजर नहीं आई. वे मन मसोस कर दफ्तर जाने की तैयारी करने लगे.

‘‘आज आप बारबार बालकनी में क्यों जा रहे हैं? कुछ हुआ है क्या?’’ शशि 2-3 बार सवाल पूछ चुकी थी.

बिना कोई जवाब दिए मन्नू भाई नीचे उतर आए, देखा कि स्कूटर पंचर है. घड़ी की ओर नजर डाली, 9 बज चुके थे. बस से जाने का समय निकल चुका था.

मन्नू भाई ने शशि को फोन मिलाया, ‘‘शशि, कार की चाबी भेज दो. स्कूटर पंचर है.’’

‘‘अच्छा…’’ शशि ने अपनी कामवाली बाई रेणु को चाबी दे कर कहा, ‘‘जा रेणु, नीचे साहब को चाबी दे आ.’’

तभी मन्नू भाई की आंखें खुशी से चमकने लगीं. बाहर गेट पर वह कल वाली ‘पड़ोसन’ खड़ी थी.

आदत के मुताबिक, वे लंबेलंबे डग भरते हुए ठीक उस के सामने जा पहुंचे, ‘‘जी नमस्ते, मैं मन्नू भा… मन्नू…’’ फिर वे संभल कर बोले, ‘‘आप के सामने वाले फ्लैट में रहता हूं. लगता है, आप यहां नई आई हैं.’’

खुले हुए कटे बाल, गोरा रंग… वह चुस्त ड्रैस पहने हुए थी. मन्नू भाई खुशी के मारे कांपने लगे, ‘सिंगल ही है.’ वह बोली, ‘‘हैलो, मैं डौली. जी हां, मैं यहां पर 2-4 दिन पहले ही शिफ्ट हुई हूं.’’

अब तक आंखों से पूरा मुआयना कर चुके मन्नू भाई बोले, ‘‘आप क्या कहीं जा रही हैं. मैं छोड़ देता हूं.’’

‘‘साहब, चाबी…’’ बिना बाई की ओर देखे ही मन्नू भाई ने हाथ बढ़ा कर चाबी ले ली. बाई मुंह बिचकाते हुए चली गई. ‘‘हां, मार्केट तक जाना है. कोई टैक्सी भी नहीं दिख रही,’’ वह बोली.

‘‘अरे, मैं उसी तरफ जा रहा हूं. आइए चलिए,’’ कार का दरवाजा खोल कर बड़े मीठे लहजे में मन्नू भाई ने कहा.

उस औरत ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओके थैंक्स,’’ बोल कर वह आगे वाली सीट पर बैठ गई. मन्नू भाई का दिल बल्लियों उछलने लगा. अपने चार बालों पर हाथ फेरा, बैल्ट से पैंट को ऊपर खींच कर जीत की मुसकान के साथ वे स्टेयरिंग पर बैठ गए.

रास्ते में उन्होंने सब पता कर लिया. वह औरत डौली किसी बैंक में अफसर थी. मुंबई से वह अभी यहां प्रमोट हो कर आई थी.

इतने में मार्केट आ गया. ‘थैंक्स’ कह कर वह मुसकराते हुए अपने बैंक की तरफ बढ़ गई और मन्नू भाई… वे तो खुशी के मारे पगला गए, उन की उम्मीद से परे डौली लिफ्ट ले कर उन के साथ आई थी. अभी तक कार में उस के परफ्यूम की महक मौजूद थी.

एक गहरी सांस ले कर मन्नू भाई एक रोमांटिक गाना गुनगुनाते हुए अपने दफ्तर की ओर बढ़ गए.

आजकल मन्नू भाई सुबह जल्दी उठ जाते. शशि हैरान थी. धक्के देदे कर उठाने पर भी उठने वाले उन के पति अपनेआप ही सुबह जल्दी उठ जाते और सुबह की चाय वे बालकनी में बैठ कर ही पीते.

शशि के आते ही वे अखबार में मुंह दे कर बैठ जाते और उस के जाते ही आधा अखबार नीचे सरका कर ‘नयन सुख’ लेने में मशगूल हो जाते.

डौली कभी कपड़े सुखाती, कभी चाय पीती, कभी यों ही दिख ही जाती थी. अब तो गाहेबगाहे मन्नू भाई उसे लिफ्ट भी दे दिया करते थे. जिंदगी में कभी इतनी बहार भी आएगी, यह मन्नू भाई ने सोचा भी न था.

15 दिन मौज से बीते. आज रविवार था. बच्चे जिद कर रहे थे कि आज शाम को घूमने चलेंगे. खुश होते हुए मन्नू भाई ने वादा किया, ‘‘हां, शाम को पक्का चलेंगे.’’

शाम को वे अपनी पत्नी शशि और दोनों बच्चों को ले कर चौपाटी, जो उन के घर के पास ही ‘मिनी शौपिंग माल’ था, पहुंच गए. खाने के शौकीन मन्नू भाई सीधे गोलगप्पे की दुकान पर पहुंचे, ‘‘चल भई खिला दे सब को,’’ और्डर मार कर वे गपागप ‘गोलगप्पे’ खाने में जुट गए.

अभी 4-5 ही खाए थे कि देखा सामने से डौली चली आ रही थी. ‘‘हैलो मन्नूजी,’’ उस ने पास आ कर मुसकरा कर बोला. पत्नी की सवालिया नजरें ताड़ कर मन्नू भाई ने संभल कर बोला, ‘‘जी, नमस्ते.’’

गोलगप्पे वाला तब तक एक और गोलगप्पा मन्नू भाई की ओर बढ़ा कर बोला, ‘‘साहब, यह लो.’’

तभी सामने से एक नौजवान लड़का और एक हैंडसम सा अधेड़ आदमी डौली के पास आ कर खड़े हो गए.

गोलगप्पे वाले से गोलगप्पा ले कर मन्नू भाई ने जैसे ही मुंह में रखा, डौली बोली, ‘‘मन्नूजी, ये हैं मेरे पति और यह मेरा बेटा.’’

इतना सुनते ही गोलगप्पा मन्नू भाई के गले में फंस गया. बड़े जोर का ‘ठसका’ लगा और गोलगप्पे का पानी नाकमुंह से बहने लगा. पानी तीखा था. आंख, नाक, मुंह सब में जलन होने लगी. वे खांसने लगे. इतनी जोर का झटका लगा कि वे अचानक सदमे में आ गए. शशि दौड़ कर पानी ले आई और बोली, ‘‘कितनी बार कहा है कि जरा धीरे खाओ, पर सुनते कहां हो…’’

‘‘जी, मैं इन की पत्नी शशि, ‘‘उस ने डौली से कहा.

‘‘आप से मिल कर खुशी हुई,’’ डौली बोली.

‘‘चलो मम्मी…’’ डौली का बेटा बोला.

‘‘चलो डार्लिंग.’’

डौली ने एक हाथ से बेटे का, दूसरे हाथ से पति का हाथ थामा और बोली, ‘‘बाय मन्नूजी, अपना ध्यान रखना.’’

‘‘कौन थी ये? ये आप को कैसे जानती है?’’ मन्नू भाई की पत्नी शशि सवालों के गोले दाग रही थी और वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े डौली को जाते हुए देख रहे थे.

कितना बड़ा सदमा पहुंचा था उन्हें, सिर्फ और सिर्फ उन का मन ही जानता था. क्या समझा था उन्होंने डौली को और वह… क्या निकली, उन के प्यार का फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया. रस्तेभर मन्नू भाई चुप रहे. दूसरे दिन सवेरे फिर शशि ने धक्के देदे कर उठाया, ‘‘दफ्तर नहीं जाना क्या?’’ वह फिर हैरान थी. उस की समझ में कुछ नहीं आया.

मन्नू भाई थकहार कर बिस्तर से उठ ही गए, तैयार हो कर स्कूटर की चाबी ले कर जाने लगे.

शशि बोली, ‘‘आज कार नहीं ले जाओगे क्या?’’

वीरान आंखों से मन्नू भाई ने बालकनी की ओर देखा. शीशे का दरवाजा बंद था, फिर मुंह लटका कर चल दिए. वे शशि को कैसे बताते कि उन्हें कितना बड़ा सदमा लगा है. अब न जाने कितने दिन लगेंगे उन्हें इस सदमे से बाहर आने में.

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