Father’s Day Special- उलटी धारा: हामिद शाह ने अपनी बेटी की जान कैसे बचाई?

यह बात आग की तरह पूरी बस्ती में फैल चुकी थी. सारा महल्ला गुस्से में था और हामिद शाह को खरीखोटी सुना रहा था.  बाय यह थी कि हामिद शाह अपनी बेटी कुलसुम को संभाल नहीं सके और कैसे उस ने एक हिंदू लड़के के साथ शादी कर ली. मौलवीमुल्ला सभी इकट्ठा हो कर एकसाथ मिल कर उन पर हमला बोल रहे थे. एक हिंदू लड़के से शादी कर के मजहब को बदनाम किया.

हामिद शाह का पूरा परिवार आंगन में खड़ा हो कर सब की जलीकटी बातें सुन रहा था. उन के खिलाफ जबान से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा था. मगर बस्ती के कुछ मुसलिम समझदार भी थे, जो इसे गलत नहीं बता रहे थे, मगर ऐसे लोगों की तादाद न के बराबर थी.

भीड़ बड़ी गुस्से में थी खासकर नौजवान. वे कुलसुम को वापस लाने की योजना बनाने लगे. मगर हामिद शाह इस की इजाजत नहीं दे रहे थे, इसीलिए उन से सारी भीड़ नाराज थी. वे किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे थे.

धीरेधीरे सारी भीड़ अपने घरों में चली गई. हामिद शाह भी अपनी बैठक में आ गए. साथ में उन की बेगम नासिरा बी, दोनों बेटेबहुएं बैठे हुए थे.

नासिरा बी सन्नाटे को तोड़ते हुए बोलीं, ‘‘करमजली कुलसुम मर क्यों न गई. इस कलमुंही की वजह से ये दिन देखने पड़े. यह सब आप की वजह से हुआ. न उसे इतनी छूट देते, न वह एक हिंदू लड़के से शादी करती. नाक कटा दी उस ने जातबिरादरी में. देखो, पूरा महल्ला बिफर पड़ा. कैसीकैसी बातें कह रहे थे और आप कानों में तेल डाल कर चुपचाप गूंगे बन कर सुनते रहे.

‘‘अरे, अब भी जबान तालू में क्यों चिपक गई,’’ मगर हामिद शाह ने कोई जवाब नहीं दिया. उन की आंखें बता रही थीं कि उन्हें भी अफसोस है.

‘‘अब्बा, अगर आप कहें तो उस कुलसुम को उस से छुड़ा कर लाता हूं. आग लगा दूंगा उस घर में,’’ छोटा बेटा उस्मान अली गुस्सा हो कर बोला.

‘‘नहीं उस्मान, ऐसी भूल कभी मत करना,’’ आखिर हामिद शाह अपनी जबान खोलते हुए बोले. पलभर रुक कर वे आगे बोले, ‘‘इस में मेरी भी रजामंदी थी. कुलसुम को मैं ने बहुत समझाया था. मगर वह जिद पर अड़ी रही, इसलिए मैं ने फिर इजाजत दे दी थी.’’

‘‘यह आप ने क्या किया अब्बा?’’ नाराज हो कर उस्मान अली बोला.

‘‘उस्मान, अगर मैं इजाजत नहीं देता, तो कुलसुम खुदकुशी कर लेती. यह सारा राज मैं ने छिपा कर रखा था.’’

‘‘आप ने मुझे नहीं बताया,’’ नासिरा बी चिल्ला कर बोलीं, ‘‘सारा राज छिपा कर रखा. अरे, बस्ती के लड़कों को ले जाते उस के घर में और आग लगा देते. कैसे अब्बा हो आप, जो अपनी बेगम को भी नहीं बताया.’’

‘‘कैसी बात करती हो बेगम, ऐसा कर के शहर में दंगा करवाना चाहती थी क्या?’’ हामिद शाह बोले.

‘‘अरे, इतनी बड़ी बात तुम ने छिपा कर रखी. मुझे हवा भी नहीं लगने दी. अगर मुझ से कह देते न तो उस की टांग तोड़ कर रख देती. यह सब ज्यादा पढ़ाने का नतीजा है. मैं ने पहले ही कहा था, बेटी को इतना मत पढ़ाओ. मगर तुम ने मेरी कहां चलने दी. चलो, पढ़ाने तक तो ठीक था. नौकरी भी लग गई,’’ गुस्से से उफन पड़ीं नासिरा बी, ‘‘आखिर ऐसा क्यों किया आप ने? क्यों छूट दी उस को?’’

‘‘देखो बेगम, तुम चुप हो तो मैं तुम्हें सारा किस्सा सुनाऊं,’’ कह कर पलभर को हामिद शाह रुके, फिर बोले, ‘‘तुम तो आग की तरह सुलगती जा रही हो.’’

‘‘हां कहो, अब नहीं सुलगूंगी,’’ कह कर नासिरा बी खामोश हो गईं. तब हामिद शाह ने सिलसिलेवार कहानी सुनानी शुरू की, लेकिन उस से पहले उन के घर के हालात से आप को रूबरू करा दें.

हामिद शाह एक सरकारी मुलाजिम थे. वे 10 साल पहले ही रिटायर हुए थे. कुलसुम से बड़े 2 भाई थे. दोनों की साइकिल की दुकान थी. सब से बड़े का नाम मोहम्मद अली था, जिस के 5 बच्चे थे. छोटे भाई का नाम उस्मान अली था, जिस के 3 बच्चे थे.

कुलसुम से बड़ी 3 बहनें थीं, जिन की शादी दूसरे शहरों में हो चुकी थी. कुलसुम सब से छोटी थी और सरकारी टीचर थी.

कुलसुम जब नौकरी पर लग गई थी, तब उस के लिए जातबिरादरी में लड़के देखना शुरू किया था. शाकिर मियां के लड़के अब्दुल रहमान से बात तकरीबन तय हो चुकी थी. लड़का भी कुलसुम को आ कर देख गया था और उसे पसंद भी कर गया था. मगर कुलसुम ने न ‘हां’ में और न ‘न’ में जवाब दिया था.

एक दिन घर में कोई नहीं था, तब हामिद शाह ने कुलसुम से पूछा, ‘‘कुलसुम, तुम ने जवाब नहीं दिया कि तुम्हें अब्दुल रहमान पसंद है कि नहीं. अगर तुम्हें पसंद है तो यह रिश्ता पक्का कर दूं?’’

मगर 25 साल की कुलसुम अपने अब्बा के सामने चुपचाप खड़ी रही. उस के मन के भीतर तो न जाने कैसी खिचड़ी पक रही थी. उसे चुप देख हामिद शाह फिर बोले थे, ‘‘बेटी, तुम ने जवाब नहीं दिया?

‘‘अब्बा, मुझे अब्दुल रहमान पसंद नहीं है,’’ इनकार करते हुए कुलसुम बोली थी.

‘‘क्यों मंजूर नहीं है, क्या ऐब है उस में, जो तू इनकार कर रही है?’’

‘‘क्योंकि, मैं किसी और को चाहती हूं,’’ आखिर कुलसुम मन कड़ा करते हुए बोली थी.

‘‘किसी और का मतलब…?’’ नाराज हो कर हामिद शाह बोले थे, ‘‘कौन है वह, जिस से तू निकाह करना चाहती है?’’

‘‘निकाह नहीं, मैं उस से शादी करूंगी.’’

‘‘पर, किस से?’’

‘‘मेरे स्कूल में सुरेश है. मैं उस से शादी कर रही हूं. अब्बा, आप अब्दुल रहमान क्या किसी भी खान को ले आएं, मैं सुरेश के अलावा किसी से शादी नहीं करूंगी,’’ कह कर कुलसुम ने हामिद शाह के भीतर हलचल मचा दी थी.

हामिद शाह गुस्से से बोले थे, ‘‘क्या कहा, तू एक हिंदू से शादी करेगी? शर्म नहीं आती तुझे. पढ़ालिखा कर तुझे नौकरी पर लगाया, इस का यही सिला दिया कि मेरी जातबिरादरी में नाक कटवाना चाहती है.’’

‘‘अब्बा, आप मुझे कितना ही समझा लें, चिल्ला लें, मगर मैं जरा भी टस से मस नहीं होऊंगी.’’

‘‘देख कुलसुम, तेरी शादी उस हिंदू लड़के के साथ कभी नहीं होने दूंगा,’’ हामिद शाह फिर गुस्से से बोले, ‘‘जानती नहीं कि हमारा और उस का मजहब अलगअलग है. फिर हमारा मजहब किसी हिंदू लड़के से शादी करने की इजाजत नहीं देता है.

‘‘कब तक मजहब के नाम पर आप जैसे सुधारवादी लोग भी कठमुल्लाओं के हाथ का खिलौना बनते रहेंगे? कब तक हिंदुओं को अपने से अलग मानते रहेंगे,’’ इस समय कुलसुम को भी न जाने कहां से जोश आ गया. उस ने अपनी रोबीली आवाज में कहा, ‘‘अरे अब्बा, 5-6 पीढ़ी पीछे जाओ. इस देश के मुसलमान भी हिंदू ही थे. फिर हिंदू मुसलमान को 2 खानों में क्यों बांट रहे हैं. मुसलमानों को इन कठमुल्लाओं ने अपने कब्जे में कर लिया है.’’

‘‘अरे, चंद किताबें क्या पढ़ गई, मुझे पाठ पढ़ा रही है. कान खोल कर सुन ले, तेरी शादी वहीं होगी, जहां मैं चाहूंगा,’’ हामिद शाह उसी गुस्से से बोले थे.

‘‘अब्बा, मैं भी शादी करूंगी तो सुरेश से ही, सुरेश के अलावा किसी से नहीं,’’ उसी तरह कुलसुम भी जवाब देते हुए बोली थी.

इतना सुनते ही हामिद शाह आगबबूला हो उठे, मगर जवाब नहीं दे पाए थे. अपनी जवान लड़की का फैसला सुन कर वे भीतर ही भीतर तिलमिला उठे थे. फिर ठंडे पड़ कर वे समझाते हुए बोले थे, ‘‘देखो बेटी, तुम पढ़ीलिखी हो, समझदार हो. जो फैसला तुम ने लिया है, वह भावुकता में लिया है. फिर निकाह जातबिरादरी में होता है. तुम तो जातबिरादरी छोड़ कर दूसरी कौम में शादी कर रही हो.

‘‘बेटी, मेरा कहना मानो, तुम अपना फैसला बदल लो और बदनामी से बचा लो. तुम्हारी मां, तुम्हारे भाई और तुम्हारी बहनों को जातबिरादरी का पता चलेगा तो कितना हंगामा होगा, इस बात को समझो बेटी, मैं कहीं भी मुंह देखाने लायक नहीं रहूंगा.’’

‘‘देखिए अब्बा, आप की कोई भी बात मुझे नहीं पिघला सकती,’’ थोड़ी नरम पड़ते हुए कुलसुम बोली, ‘‘सुरेश और मैं ने शादी करने का फैसला कर लिया है. अगर आप मुझ पर दबाव डालेंगे, तब मैं अपने प्यार की खातिर खुदकुशी कर लूंगी.’’

कुलसुम ने जब यह बात कही, तब हामिद शाह ऊपर से नीचे तक कांप उठे, फिर वे बोले थे, ‘‘नहीं बेटी, खुदकुशी मत करना.’’

‘‘तब आप मुझे मजबूर नहीं करेंगे, बल्कि इस शादी में आप मेरा साथ देंगे,’’ कुलसुम ने जब यह बात कही, तब हामिद शाह सोच में पड़ गए. एक तरफ कुआं दूसरी तरफ खाई. कुलसुम का साथ दें, तो समाज नाराज. अगर जबरदस्ती कुलसुम की शादी बिरादरी में कर भी दी, तब कुलसुम सुखी नहीं रहेगी, बल्कि खुदकुशी कर लेगी.

अपने अब्बा को चुप देख कुलसुम बोली, ‘‘अब्बा, अब सोचो मत. इजाजत दीजिए.’’

‘‘मैं ने कहा न कि बेटी घर में बहुत बड़ा हंगामा होगा. सचमुच में तुम सुरेश से ही शादी करना चाहती हो?’’

‘‘हां अब्बा,’’ कुलसुम हां में गरदन हिला कर बोली.

‘‘बीच में धोखा तो नहीं देगा वह?’’

‘‘नहीं अब्बा, वे लोग तो बहुत

अच्छे हैं.’’

‘‘तुम एक मुसलमान हो, तो क्या वे तुम्हें अपना लेंगे?’’

‘‘हां अब्बा, वे मुझे अपनाने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘देख बेटी, हमारा कट्टर समाज इस शादी की इजाजत तो नहीं देगा, मगर मैं इस की इजाजत देता हूं.’’

‘‘सच अब्बा,’’ खुशी से झूम कर कुलसुम बोली.

‘‘हां बेटी, तुझे एक काम करना होगा, सुरेश से तुम गुपचुप शादी कर लो. किसी को कानोंकान हवा न लगे. इस से सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी…’’ सलाह देते हुए अब्बा हामिद शाह बोले, ‘‘जब तुम दोनों शादी कर लोगे, तब फिर कुछ नहीं होगा. थोड़े दिन चिल्ला कर लोग चुप हो जाएंगे.’’

इस घटना को 8 दिन भी नहीं गुजरे थे कि कुलसुम ने सुरेश के साथ कोर्ट में शादी कर ली. इस घटना की खबर आग की तरह पूरे शहर में फैल गई.

‘‘देखिएजी, इस शादी को मैं शादी नहीं मानती,’’ नासिरा बी झल्लाते हुए बोलीं, ‘‘मुझे कुलसुम चाहिए. कैसे भी कर के उस को उस हिंदू लड़के से छुड़ा कर लाओ.’’

‘‘बेगम, जिसे तुम हिंदू कह रही हो, वही तुम्हारा दामाद बन चुका है. कोर्ट में मैं खुद मौजूद था गवाह के तौर पर और तभी जज ने शादी बिना रोकटोक के होने दी थी.’’

‘‘मैं नहीं मानती उसे दामाद,’’ उसी तरह नासिरा बी गुस्से से बोलीं, ‘‘पुलिस को ले जाओ और उसे छुड़ा कर लाओ.’’

‘‘पुलिस भी कानून से बंधी हुई है बेगम. दोनों बालिग हैं और कुलसुम बयान देगी कि उस ने अपनी मरजी से शादी की है और बाप की गवाही है, तब पुलिस भी कुछ नहीं कर पाएगी. उसे अपना दामाद मान कर भूल जाओ,’’ समझाते हुए हामिद शाह बोले.

‘‘तुम बाप हो न, इसलिए तुम्हारे दिल में पीड़ा नहीं है. एक मां की पीड़ा को तुम क्या जानो?’’ गुस्से से नासिरा बी बोलीं, ‘‘मैं सब समझती हूं तुम बापबेटी की यह चाल है. खानदान में मेरी नाक कटा दी,’’ कह कर नासिरा बी गुस्से से बड़बड़ाती हुई चली गईं.

हामिद शाह मुसकराते हुए रह गए. नासिरा बी अब भी अंदर से बड़बड़ा रही थीं. इधर दोनों बेटे भी दुकान पर चले गए.

तेजतर्रार तिजोरी : रघुवीर ने अपनी बेटी का नाम तिजोरी क्यों रखा – भाग 5

‘‘डाक्टर साहब, क्या मैं सुनील से मिल सकती हूं?’’

‘‘हां, ड्रैसिंग कंप्लीट कर के नर्स बाहर आ जाए तो तुम अकेली जा सकती हो. मरीज के पास अभी ज्यादा लोगों का होना ठीक नहीं है,’’ डाक्टर ने कहा.

नर्स के बाहर आते ही तिजोरी लपक कर अंदर पहुंची. सुनील की चोट वाली आंख की ड्रैसिंग के बाद पट्टी से ढक दिया गया था, दूसरी आंख खुली थी.

तिजोरी सुनील के पास पहुंची. उस ने अपनी दोनों हथेलियों में बहुत हौले से सुनील का चेहरा लिया और बोली, ‘‘बहुत तकलीफ हो रही है न. सारा कुसूर मेरा है. न मैं तुम्हें गुल्लीडंडा खिलाने ले जाती और न तुम्हें चोट लगती.’’

तिजोरी को उदास देख कर सुनील अपने गालों पर रखे उस के हाथ पर अपनी हथेलियां रखता हुआ बोला, ‘‘तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है तिजोरी, मैं ही उस समय असावधान था. तुम्हारे बारे में सोचने लगा था… इतने अच्छे स्वभाव की लड़की मैं ने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखी,’’ कहतेकहते सुनील चुप हो गया.

तिजोरी समझ गई और बोली, ‘‘चुप क्यों हो गए… मन में आई हुई बात कह देनी चाहिए… बोलो न?’’

‘‘लेकिन, न जाने क्यों मुझे डर लग रहा है. मेरी बात सुन कर कहीं तुम नाराज न हो जाओ.’’

‘‘नहीं, मैं नाराज नहीं होती. मुझे कोई बात बुरी लगती है, तो तुरंत कह देती हूं. तुम बताओ कि क्या कहना चाह रहे हो.’’

‘‘दरअसल, मैं ही तुम को चाहने लगा हूं और चाहता हूं कि तुम से ही शादी करूं.’’

तिजोरी ने सुनील के गालों से अपने हाथ हटा लिए और उठ कर खड़े होते हुए बोली, ‘‘मुझ से शादी करने के लिए अभी तुम्हें 2 साल और इंतजार करना होगा. ठीक होने के बाद तुम्हें मेरे पिताजी से मिलना होगा.’’

इतना कह कर तिजोरी बाहर चली आई. श्रीकांत और महेश तो वहां इंतजार कर ही रहे थे, लेकिन अपने पिता को उन के पास देख कर वह चौंक पड़ी. उन के पास पहुंच कर वह सीने से लिपट पड़ी, ‘‘आप को कैसे पता चला?’’

‘‘मेरे खेतों में कोई घटना घटे, और मुझे पता न चले, ऐसा कभी हुआ है? मैं तो बस उस लड़के को देखने चला आया और अंदर भी आ रहा था, पर तुम दोनों की बातें सुन कर रुक गया. अब तू यह बता कि तू क्या चाहती है?’’

‘‘मैं ने तो उस से कह दिया है कि…’’ तिजोरी अपनी बात पूरी नहीं कर पाई थी कि रघुवीर यादव ने बात पूरी की…  ‘‘2 साल और इंतजार करना होगा.’’

अपने पिता के मुंह से अपने ही कहे शब्द सुन कर तिजोरी के चेहरे पर शर्म के भाव उमड़ आए और उस ने अपने पिता की चौड़ी छाती में अपना चेहरा छिपा लिया.

रघुवीर यादव अपनी बेटी की पीठ थपथपाने के बाद उस के बालों पर हाथ फेरने लगे. उन्होंने अपनी जेब से 10,000 रुपए निकाल कर श्रीकांत को दिए और बोले, ‘‘बेटा, यह सुनील के इलाज के लिए रख लो. कम पड़ें तो खेत में काम कर रहे किसी मजदूर से कह देना. खबर मिलते ही मैं और रुपए पहुंचा दूंगा,’’ इतना कह कर वे तिजोरी और महेश को ले कर घर की तरफ बढ़ गए.

अगले दिन तिजोरी अपने भाई महेश के साथ रोज की तरह खेत पर गई. आज उस का मन खेत पर नहीं लग रहा था. पानी पीने के लिए वह गोदाम की तरफ गई, तो उस ने किनारे जा कर बिजली महकमे के स्टोर की तरफ झांका.

तभी सामने वाली सड़क पर एक मोटरसाइकिल रुकी. उस पर बैठा लड़का सिर पर गमछा लपेटे और आंखों में चश्मा लगाए था. तिजोरी को देखते ही उस ने मोटरसाइकिल पर बैठेबैठे ही हाथ हिलाया, पर तिजोरी ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उसे पहचानने की कोशिश करने लगी, पर दूरी होने के चलते पहचान न सकी.

तभी जब स्टोर में काम करते श्रीकांत की नजर तिजोरी पर पड़ी, तो श्रीकांत उसे वहां खड़ा देख उस के करीब चल कर जैसे ही आया, वह बाइक सवार अपनी बाइक स्टार्ट कर के चला गया.

तिजोरी के करीब आ कर श्रीकांत बोला, ‘‘हैलो तिजोरी, कैसी हो?’’

उस बाइक सवार को ले कर तिजोरी अपने दिमाग पर जोर देते हुए उसे पहचानने की कोशिश रही थी, लेकिन श्रीकांत की आवाज सुन कर वहां से ध्यान हटाती हुई बोली, ‘‘मैं ठीक हूं. यहां से खाली हो कर तुम्हारे बौस को देखने अस्पताल जाऊंगी. वैसे, कैसी तबीयत है उन की?’’

‘‘आज शाम तक उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी. डाक्टर का कहना है कि चूंकि आंख के बाहर का घाव है, इसलिए वे एक आंख पर पट्टी बांधे काम कर सकते हैं. मैं शाम को उन्हें ले कर सरकारी गैस्ट हाउस में आ जाऊंगा.’’

‘‘लेकिन, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब वे पूरी तरह से ठीक हो जाएं, तब काम करना शुरू करें?’’

‘‘चोट गंभीर होती तो वैसे भी वे काम नहीं कर पाते, पर जब डाक्टर कह रहा है कि चिंता की कोई बात नहीं, तो दौड़भाग का काम मैं देख लूंगा और इस स्टोर को वे संभाल लेंगे. फिर हमें समय से ही काम पूरा कर के देना है, तभी अगला कौंट्रैक्ट मिलेगा.’’

‘‘ठीक है, मुझे कल भी खेत पर आना ही है. यहीं पर कल उस से मिल लूंगी. तुम्हें अगर प्यास लग रही हो, तो मैं फ्रिज से पानी की बोतलें निकाल कर देती जाऊं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. कल मिलूंगी,’’ कह कर तिजोरी उस खेत की तरफ चली गई, जहां बालियों से गेहूं और भूसा अलग कर के बोरियों में भरा जा रहा था.

अगले दिन पिताजी के हिसाबकिताब का बराबर मिलान करने के चलते तिजोरी को देर होने लगी. जैसे ही हिसाब मिला, तो वह उसे फेयर कर के लिखने का काम महेश को सौंप कर अकेले ही खेत की तरफ आ गई.

चूंकि तिजोरी तेज चलती हुई आई थी और उसे प्यास भी लग रही थी, इसलिए उस ने सोचा कि पहले गोदाम में जा कर घड़े से पानी पी ले और फिर सुनील का हालचाल लेने चली जाएगी.

तिजोरी ने गोदाम के शटर के दोनों ताले खोले और अंदर घुस कर घड़े की तरफ बढ़ ही रही थी कि अचानक शटर गिरने की आवाज सुन कर वह पलटी. कल जो बाइक पर सवार लड़का था, उसे वह पहचान गई, फिर उस के बढ़ते कदमों के साथ इरादे भांपते हुए वह बोली, ‘‘ओह तो तुम शंभू हो… मुझे लग रहा है कि उस दिन मैं ने तुम्हारी नीयत को सही पहचान लिया था… लगता है, उसी दिन से तुम मेरी फिराक में हो.’’

‘‘ऐसा है तिजोरी, शंभू जिसे चाहता है, उसे अपना बना कर ही रहता है. उस दिन तो मैं तुम्हें देखते ही पागल हो गया था. आज मौका मिल ही गया. अब तुम्हारे सामने 2 ही रास्ते हैं… या तो सीधी तरह मेरी बांहों में आ जाओ, नहीं तो…’’ कह कर वे उसे पकड़ने के लिए लपका.

तिजोरी ने गोदाम के ऊपर बने रोशनदानों की ओर देखा और ऊपर मुंह कर के पूरी ताकत से चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’

तिजोरी को चिल्लाता देख शंभू तकरीबन छलांग लगाता उस तक पहुंच गया. तिजोरी की एक बांह उस की हथेली में आई, लेकिन तिजोरी सावधान थी, इसलिए पकड़ मजबूत होने से पहले उस ने अपने को छुड़ा कर शटर की तरफ ‘बचाओबचाओ’ चिल्लाते हुए दौड़ लगानी चाही, पर इस बार शंभू ने उसे तकरीबन जकड़ लिया.

तभी शटर के तेजी से उठने की आवाज आई. जैसे ही शंभू का ध्यान शटर खुलने पर एक आंख में पट्टी बांधे इनसान की तरफ गया, तिजोरी ने उस की नाक पर एक झन्नाटेदार घूंसा जड़ दिया. और जब तक शंभू संभलता, सुनील ने उसे फिर संभाल लिया.

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना- भाग 4

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

प्यार के राही-भाग 4 : हवस भरे रिश्ते

इधर चाचा के न रहने पर चाची खुश हो गई. वह मासूम पर अपने पालतू गुंडों से कहर ढाने लगीं. फिर भी मासूम ने शादी के लिए ‘हां’ नहीं कहा. उस ने उन के पैर पकड़ कर रोतेरोते कहा, ‘‘मां, मुझ पर रहम कीजिए, मैं तो बचपन से ही आप को अपनी मां की तरह मानता आया हूं. मेरी शादी गजाला से हो गई है. मैं गजाला को अपनी नजरों से गिराना नहीं चाहता.’’

चाची के आसपास के लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि मासूम की जिंदगी बरबाद मत कीजिए, लेकिन चाची ने किसी की बात नहीं सुनी. मासूम के सीने पर बंदूक रख कर निकाह कबूल करवा ही लिया.

निकाह के बाद मासूम ने 2-3 बार खुदकुशी करने की कोशिश की, लेकिन चाची ने हर बार उस की कोशिश को नाकाम कर दिया. उस के बाद अपने भरोसेमंद नौकरों और गुंडों का कड़ा पहरा लगा दिया, ताकि मासूम खुदकुशी न कर सके. चाची ने मासूम को जिंदा लाश बना दिया था.

इस बीच चाची अपने हवस की प्यास मासूम से बुझाती रही. इधर मैं कैद थी, इसलिए अपने दिल का दर्द उसे बता नहीं सकती थी. मेरे पैर पर प्लास्टर

2 दिनों के बाद खुलने वाला था, तभी मासूम राही को किसी तरह पता चला कि मैं अपने घर में कैद हूं.

तब मासूम का खून खौल उठा. उस ने तूफान की तरह हमारे घर की तरफ आना चाहा, लेकिन चाची के भरोसेमंद नौकरों और गुंडों ने रोक लिया. लेकिन उस समय मासूम के सीने में आग

सुलग रही थी. नौकरों और गुंडों से जम कर मुकाबला किया और सभी को जमीन सुंघा दी. उस समय चाची कहीं गई हुई थीं.

मासूम तेजी से मेरे घर में आया. उस समय अम्मी और अब्बा बाजार गए हुए थे. मैं लेटी हुई थी. मासूम को अपने कमरे में देखते ही मैं उस से लिपट कर रोने लगी.

मासूम ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘रो मत गजाला. मैं तुम्हें यहां से निकालने आया हूं. चलो, मेरे साथ चलो. आज दुनिया की कोई ताकत मुझे तुम से जुदा नहीं कर सकती. वैसे मैं तुम्हारे प्यार के काबिल नहीं रहा. अब मेरा मर जाना ही अच्छा है.’’

‘‘ऐसा मत कहो, मासूम,’’ मैं ने भरे कलेजे से कहा. ‘‘खैर, छोड़ो. आओ, चलो मेरे साथ,’’ कहते हुए मासूम ने मेरा हाथ थाम लिया.

मैं चलफिर नहीं सकती थी. मेरे पैर में लगा प्लास्टर देख कर मासूम ने पिछली जेब से एक चमकदार चाकू निकाला, जिसे उस ने शायद गुंडों से छीना था. प्लास्टर कट जाने के बाद मैं आजाद हो गई. हम दोनों जैसे कमरे से बाहर निकले, अब्बा और अम्मी को देख कर दंग रह गए.

अब्बा का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ने लगा. वे गुस्से में बोले, ‘‘तुझ बेगैरत की हिम्मत कैसे हुई हमारे घर में आने की? मासूम, तू चला जा, नहीं तो मैं यहां खून की नदियां बहा दूंगा. बदजात, अपनेआप को समझता क्या है?’’

मुझे मासूम की बेइज्जती बरदाश्त नहीं हुई. मैं ने कहा, ‘‘अब्बा, हम दोनों मरेंगे साथसाथ और जिएंगे भी साथसाथ. मैं ने मासूम से शादी कर ली है.’’

‘‘नहीं, इस की जाति और खानदान का पता नहीं. यह इस घर का दामाद नहीं बन सकता. जिसे तुम अपना शौहर होने का दावा कर रही हो, वह अब तुम्हारा चाचा है और चाचा बाप के समान होता है,’’ अब्बा ने गरज कर कहा.

‘‘चलो मासूम, हमें इस महल्ले में नहीं रहना है. हम दोनों कहीं और चलें,’’ मैं ने यह कहा और हम दोनों घर से निकल गए.

जब चाची घर आईं, तो गुंडों और नौकरों के सिर पर कई जगह पट्टी बंधी देख कर वे चौंकीं.

‘‘मासूम गजाला के साथ कहीं भाग गया है,’’ एक नौकर ने कहा.

चाची का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वे नौकरों और गुंडों पर बहुत बिगड़ीं और थाने में मेरे खिलाफ अपहरण की रिपोर्ट लिखाई.

हम दोनों जानते थे कि पुलिस हमें जरूर खोजेगी, इसलिए हम लोग जल्द से जल्द पुलिस की पकड़ से दूर निकल जाना चाहते थे. लेकिन हम लोगों के पास एक भी पैसा नहीं था. फिर भी हम दोनों ने हिम्मत की और स्टेशन पहुंच कर बिना टिकट लिए ही दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गए.

हम दोनों दिल्ली पहुंचते ही कान की बालियां बेच कर एक दिन छोटे होटल में रहे. फिर मासूम ने एक कालोनी में 2,000 रुपए किराए पर 2 कमरे ले लिए. हम दोनों बीए तक पढ़ चुके थे.

मासूम रोज नौकरी खोजने जाते, लेकिन निराश हो कर लौट आते. अब पैसे भी खत्म होने पर थे. तभी मासूम को एक कारखाने में बड़े बाबू के

रूप में 15,000 रुपए महीना पर नौकरी मिल गई.

एक दिन पड़ोस की जरीना से जानपहचान हुई, जो डाक्टर थी. वह हम दोनों को अपनी सगी जैसी समझने लगी.

एक दिन उस ने मुझ से पूछा, ‘‘तुम तो बीए पास हो. हमारे क्लिनिक में नर्स की नौकरी कर लो. तनख्वाह 5,000 रुपए दूंगी.’’

मैं ने वह नौकरी करनी शुरू कर दी. अब हम दोनों अपनी जिंदगी मौजमस्ती से गुजारने लगे. बाद में फिर जरीना और उस के शौहर ने मिल कर हम दोनों का निकाह धूमधाम से करा दिया.

प्यार का सफल प्रायश्चित्त – भाग 3

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड और रात के 11 बजे महल्ले वाले अपनेअपने घरों की रजाइयों में दुबके होंगे. जबकि प्रेम की अगन, हम दोनों को एकदूसरे से मिलने के लिए बेकरारी बढ़ा रही थी. मैं अपने घर की छत पर पहुंचा. धीरे से उस की छत पर पहुंचा पूरी सावधानी से. मन में डर था. कोई देख न ले. प्रेम आदमी में हिम्मत और जोश भर देता है. यह बात तो आज पक्की हो गई थी.

मैं उस के बैडरूम में था उस के साथ. मैं उसे जीभर कर देख रहा था. और वह मु झे. मैं उस से लिपट गया. उस ने विरोध नहीं किया. मैं उसे चूमने लगा. उस ने मेरा साथ दिया. मैं ने उस के कपड़े उतारने की कोशिश की. उस ने कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या? मन तो मिल चुके हैं,’’ मैं ने अपने हाथ वापस खींच लिए. उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर फूल की तरह रखा और उस से लिपट गया. मैं उसे फिर से चूमने लगा. वह भी मु झे चूमने लगी. सर्दी में गरमी का एहसास होने लगा. मैं ने फिर आगे बढ़ना चाहा. उस ने फिर कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या?’’

‘‘तुम डर रही हो. घबराओ मत. मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ मैं ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा. और मेरे हाथ फिर से उस के वस्त्र उतारने की ओर बढ़े.

‘‘यह सब तो तुम अपनी पत्नी के साथ कई बार कर चुके होगे. मैं तुम से सैक्स नहीं, केवल प्यार चाहती हूं.’’

‘‘सैक्स भी तो प्यार प्रदर्शित करने का एक माध्यम है. क्या तुम मु झे नहीं चाहती. यदि प्रेम करती हो तो फिर संबंध बनाने से इनकार क्यों?’’ उस के जिस्म पर मेरे होंठ और हाथ हरकत कर रहे थे. उस का शरीर समर्पण मुद्रा में था.

‘‘अगर तुम यही चाहते हो तो यही सही. मैं आप की खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं. आगे कुछ हो तो आप संभाल लेना.’’

मैं शिकारी की मुद्रा में था. इस अनमोल समय को मैं किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहता था. एकदो बार दिमाग ने सम झाने की कोशिश की. लेकिन इस स्थिति में दिमाग की कौन सुनता है. दिमाग खुदबखुद शरीर के बाकी हिस्से के साथ शामिल हो जाता है. वह शरमाती रही. मैं उसे निर्वस्त्र करता रहा. उस ने कहा, ‘‘एक बार फिर सोच लो.’’

मैं ने कहा, ‘आई लव यू’ और मैं आगे बढ़ता रहा. वह धीरेधीरे कराहती रही और मैं आगे बढ़ता रहा. कुछ समय बाद वह मेरा साथ देने लगी. मेरे चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. उस के चेहरे पर संतुष्टि के साथ डर भी था. मैं ने उसे गोली निकाल कर दी.

‘‘इसे खा लो.’’

‘‘पूरी तैयारी के साथ आए हो,’’ उस ने गोली हाथ में ले ली. फिर वह मु झ से लिपट कर रोने लगी.

‘‘मु झे छोड़ना मत. मैं ने अपना सबकुछ तुम्हें सौंप दिया.’’

मैं ने उसे कभी न छोड़ने का वादा किया. सुबह 4 बजे में वापस लौटा. मेरे मन पर भी कुछ बो झ सा आ गया था. मैं भी सही और गलत पर विचार करने लगा था. और वह तो अब जैसे मु झ पर ही निर्भर हो चुकी थी. मु झे ही अपना सबकुछ मान बैठी थी. उस का बारबार फोन आना. अपना अधिकार जता कर बात करना. भविष्य के बारे में बात करना. बातबात पर रो देना. कभी भी मेरे कालेज चले आना. फिर मिलने की बात करना. इन सब बातों ने मु झे भारी दबाव में ला दिया था.

मैं स्वयं को मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त सा पा रहा था. मैं ने उसे सम झाया कि देखो, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं. इस तरह तुम्हारी जिद और अधिकार हमारे प्रेमभरे संबंधों के लिए घातक हैं. हम बिना किसी बंधन के ज्यादा सुखी रह सकते हैं. तुम्हें अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाहिए. मेरी बात पर उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘मैं कहां अधिकार जता रही हूं. प्रेम के बदले प्रेम ही तो मांग रही हूं. पहले आप मिलने के लिए कितने उतावले रहते थे. अब तो बस हां या न में उत्तर देते हो. पहले की तरह सुबह आते भी नहीं हो.’’

‘‘इन दिनों मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है,’’ कहने को तो मैं ने कह दिया. लेकिन सच बात यही थी कि मैं अपने अंदर अब वह जोश वह उत्साह नहीं पा रहा था, चाह कर भी. उस की बारबार की शिकायतों से तंग आने लगा था मैं. तो क्या मु झे उस से जो चाहिए था उस की पूर्ति हो चुकी थी? क्या उस के प्रति मेरी दीवानगी मात्र उस के शरीर को पाने तक सीमित थी? क्या चंद रातों के लिए मैं ने अपना सुकून और एक लड़की का जीवन दांव पर लगा दिया था? क्या मु झे अपनी पत्नी से ऐसा कुछ नहीं मिल रहा था जो मैं ने इस लड़की में तलाशना चाहा? कहीं यह मेरी अधेड़ावस्था के कारण तो नहीं.

प्यार तो उस समय करता था मैं उस से. आज भी करता हूं लेकिन वह बात नहीं रही अब? क्यों नहीं रही वह बात? क्या मैं उस के शरीर का भूखा था मात्र? अब क्यों उस के पीछेपीछे नहीं जाता मैं? क्यों उस से कतराता रहता हूं. इस के लिए कहीं न कहीं वह भी दोषी है. एकदम से पीछे पड़ जाना, बारबार फोन करना, हरदम मिलने की कोशिश करना कहां तक उचित है? लेकिन मु झे उसे सम झाना होगा. उस पर ध्यान भी देना होगा. कमउम्र की लड़की है. न जाने गुस्से या नाराजगी में क्या कर बैठे? वह जबजब मिली, नईपुरानी शिकायतों के साथ मिली. और मैं प्रेम से उसे प्रेम की परिभाषा सम झाता रहा. जिस में त्याग की भावना मुख्य थी. लेकिन सम झाना व्यर्थ ही रहता. वह अधिकार चाहती थी. जो मैं उसे नहीं दे सकता था.

‘‘आप ने ही तो कहा था कि मेरे लिए सबकुछ कर सकते हो.’’

‘‘हां, तो कर तो रहा हूं. तुम से मिलता हूं, बात करता हूं.’’

‘‘मु झे अपना अधिकार चाहिए.’’

‘‘हमारे बीच अधिकार की बात कहां से आ गई?’’

‘‘प्यार है तो अधिकार तो आएगा ही, मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं, अरमान हैं. मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं. घर बसाना चाहती हूं.’’

‘‘अब वह शादी की बात कहां से आ गई? तुम क्या चाहती हो? मैं अपने बीवी, बच्चे छोड़ दूं? क्या वे मु झे इतनी आसानी से छोड़ देंगे? समाज, कानून भी कोईर् चीज है.’’

‘‘आप ने जो वादे किए थे उन का क्या?’’

‘‘मैं ने प्यार करने का, निभाने का वादा किया था.’’

‘‘तो ले चलो मु झे कहीं दूर अपने साथ. मत करना शादी. मैं ऐसे ही रहने को तैयार हूं.’’

‘‘उफ यह क्या मुसीबत मोल ले ली मैं ने. कहां ले जाऊं इसे? कहां रखूं? लोगों को पता चलेगा. पत्नी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी मेरे बारे में. मैं उस से स्पष्ट नहीं कह सकता था कि मेरा पीछा छोड़ो. वह कुछ भी कर सकती थी. इन दिनों उस के तेवर ठीक नजर नहीं आ रहे थे मु झे. वह मेरा नाम लिख कर आत्महत्या कर सकती थी. वह पुलिस थाने जा कर यौनशोषण का आरोप लगा सकती थी मु झ पर. मु झे ऐसी किसी भी स्थिति से बचने के लिए उसे यह एहसास दिलाना जरूरी था कि मैं जल्द ही उस की इच्छा पूरी करने के लिए कोई कदम उठाने जा रहा हूं. क्या करूं, कैसे पीछा छुड़ाऊं? जिस लड़की के लिए मैं मरा जा रहा था आज उस से पीछा छुड़ाने के विषय में सोच रहा था.’’

मैं भूल गया था कि वह कोई सैक्स का खिलौना नहीं थी कि जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल कर दिया और रख दिया एक तरफ. वह जीवित हाड़मांस की 25 वर्षीया नौजवान लड़की थी. उस की इच्छाएं, अरमान होना स्वाभाविक था. लेकिन मेरा अपना जीवन था. मैं प्रोफैसर था. विवाहित था. 2 बच्चों का बाप था. यह बात मु झे उस रात उस के घर में जा कर उस से संबंध बनाने से पहले सोचनी चाहिए थी. तो क्या करूं पीछा छुड़ाने के लिए. ले जाऊं कहीं दूर और फेंक दूं मार कर उस की लाश को कहीं. क्या मैं यह कर सकता हूं? क्या यह मु झे करना चाहिए? तो क्या उसे अपनी गैरकानूनी पत्नी बना कर रख लूं. लोग यही तो कहेंगे कि दूसरी औरत रख ली है. हत्यारा बनने से तो बचूंगा. फिर मेरी उम्र और उस की उम्र में 20 वर्ष का अंतर है. जब मु झ से शारीरिक सुखों की पूर्ति नहीं होगी, तो खुद ही चली जाएगी छोड़ कर. सारा प्यार एक तरफ धरा रह जाएगा. नहीं…नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता.

एक दिन उस ने रोते हुए कहा, ‘‘जल्दी कुछ करो, मेरे घर वाले शादी के लिए लड़का तलाश रहे हैं.’’

‘‘यह तो अच्छी बात है. तुम्हारी उम्र का पढ़ालिखा, अच्छी नौकरी वाला जीवनसाथी मिलेगा. जो सिर्फ तुम्हारा होगा.’’

‘‘मैं किसी से शादी नहीं करूंगी. मेरी शादी होगी तो सिर्फ तुम से… वरना सारा जीवन कुंआरी रहूंगी.’’

मैं ने उसे सम झाते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है तुम अपने पैरों पर खड़ी हो. यदि शादी की तुम्हारी शर्त है तो मेरी भी एक शर्त है. तुम्हें प्रोफैसर की पत्नी बनना है तो पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

मैं ने दांव चलाया. दांव चल गया. उस ने जोश में कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं आप को अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाऊंगी. लेकिन प्यार कम नहीं होना चाहिए.’’

उस के आखिरी वाक्य से मैं आहत

सा हुआ. लेकिन मु झे रास्ता मिल गया.

अच्छा रास्ता जो लड़की के भविष्य के लिए उचित था.

‘‘हां, प्यार कम नहीं होगा. वादा रहा. लेकिन तुम्हें किसी बड़ी कंपनी या सरकारी नौकरी में ऊंची पोस्ट पर आना होगा. इस के लिए तुम्हें खूब तैयारी करनी होगी. सबकुछ भूल कर कम से कम 12 घंटे पढ़ना होगा. चाहो तो किसी बड़े शहर में कोचिंग जौइन कर लो. साथ ही, अपनी पढ़ाई भी जारी रखो. मैं इस में तुम्हारी मदद करूंगा.’’

‘‘लेकिन मेरे घर वाले मु झे बाहर भेजने के लिए राजी नहीं होंगे.’’

‘‘तुम पढ़ाई पर ध्यान दो. तुम्हारी लगन और मेहनत देख कर वे खुद तुम्हें भेजेंगे. मैं भी सम झाऊंगा उन्हें.’’

‘‘लेकिन अपना वादा याद रखना.’’

‘‘तुम अपना वादा तो निभाओ.’’

‘‘मैं बीचबीच में मिलती रहूंगी. मिलना होगा आप को. फोन पर बात भी करनी होगी.’’

‘‘मु झे मंजूर है,’’ मैं ने खुशी के साथ कहा.

यदि लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो कर भी मु झ से जुड़ी रहना चाहे तो मु झे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. ऐसा मेरा मानना था. धीरेधीरे उम्र बढ़ेगी. सम झ भी बढ़ेगी. लड़की नौकरी में होगी तो उस का अपना स्टेटस भी होगा. वह अपने बराबर का रिश्ता देखेगी. चार लोगों में उसे भी तो अपने पति से मिलवाना होगा. मु झे नहीं लगता कि वह आज से 5 वर्ष बाद मु झे किसी से अपने पति के रूप में मिलवाना पसंद करेगी.

इस बीच मेरी पत्नी का शक मजबूत हो चुका था. अब वह उसे घर आने की बात पर टाल देती. उस से ठीक से बात नहीं करती. मु झ से भी कई बार उसे ले कर  झगड़ा हो चुका था. मेरे मोबाइल की घंटी बजते ही  झट से पत्नी आ कर मोबाइल उठा कर पूछती. जब उसे यकीन हो जाता कि दूसरी तरफ मेरी प्रेमिका है तो वह उलटीसीधी बातें सुनाती. गालियां देती और मोबाइल पटक देती. कई बार मेरे कालेज भी आ जाती. एकदो बार उस ने बात करते हुए पकड़ भी लिया और उसे और मु झे खूब खरीखोटी सुनाई. मैं ने अपनी पत्नी को कई बार सम झाया कि वह कम उम्र की नादान लड़की है. पढ़ाईलिखाई में मदद मांगने आती है. लेकिन पत्नी का स्पष्ट कहना था कि मु झे बेवकूफ बनाने की जरूरत नहीं है. मैं सब सम झती हूं. घर में मेरे सम्मान की धज्जियां उड़ने लगीं. पत्नी बातबात पर व्यंग्य करने से नहीं चूकती.

मैं ने अपनी पत्नी की आड़ ले कर उसे डराते हुए सम झाया, ‘‘मेरे मोबाइल पर बात मत करना. खासकर जब मैं घर में रहूं. तुम्हारे घर वालों से शिकायत कर दी, तो तुम्हारे घर वाले तुम्हें चरित्रहीन सम झेंगे. तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हारा विवाह कर देंगे. यदि तुम हम दोनों का भला चाहती हो, सुखी भविष्य देखना चाहती हो तो अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाओ. इसी दिन के लिए मैं बारबार फोन करने, मिलने के लिए मना करता था. यह दुनिया शुरू से प्यार की दुश्मन रही है. लेकिन तुम ने प्यार को प्यार न सम झ कर अधिकार सम झ लिया.’’

उस ने रोंआसे स्वर में कहा, ‘‘जब तुम्हारी पत्नी ने मु झे भलाबुरा कहा, तब तुम ने क्यों कुछ नहीं कहा. अपने प्यार का अपमान होते देखते रहे.’’

मैं ने गुस्से से कहा, ‘‘यदि मैं कुछ कहता तो वह तुम्हारा तमाशा बना कर रख देती. जो मैं नहीं चाहता था. तुम सम झतीं क्यों नहीं बात?’’

वह सम झ गई. उदास हो कर घर चली गई. मैं ने लड़की के पिता बिहारीलालजी को एक पत्र लिखा और उन के बैंक के पते पर पोस्ट कर दिया. पत्र में बहुत विश्वसनीयता से उन की पुत्री के गैर लड़के से संबंधों की जानकारी लिखी थी. बिहारीलालजी बैंक में अंकाउंटैंट थे. उन के परिवार में इस बेटी के अलावा एक बेटी, एक बेटा और पत्नी थी. मैं जानता था कि भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार में लड़की बाहर चाहे जो करे लेकिन प्रेम के नाम पर यदि मातापिता उसे डांटेंमारें तो वह किसी अपराधी की तरह सिर  झुका कर सब सुनतीसहती रहेगी. यही हुआ भी. उस के मातापिता डांट रहे थे. उन की आवाजें मेरे घर तक आ रही थीं. मेरी पत्नी ने मु झ पर व्यंग्य करते हुए कहा, ‘‘लो, लड़की ने तो तुम जैसे न जाने कितने फंसा रखे हैं.’’

मैं ने पत्नी को जम कर लताड़ते हुए कहा, ‘‘गंवार, बेवकूफ औरत. वह एक सीधीसाधी लड़की है. कम उम्र की है. बचपना है उस में. मैं तो उसे टीचर बन कर पढ़ाता था. तुम ने मु झे भी नहीं बख्शा. इस उम्र में हो जाता है लगाव. मैं उस के पिता से बात कर के उन्हें सम झाऊंगा. दोबारा मेरा नाम उस के साथ जोड़ने की गलती मत करना. वह सिर्फ मेरे लिए एक स्टूडैंट है. और ऐसी न जाने कितनी छात्राएं मु झ से पढ़ाई संबंधी सवाल पूछती हैं. कभीकभी कम उम्र के बच्चों को लगाव हो जाता है. इस का अर्थ यह तो नहीं कि मैं उस का प्रेमी हो गया.’’

पत्नी खामोश हो गई. कभीकभी तेज स्वर में सचाई से  झूठ बोलना सच को छिपा देता है. दूसरे ही दिन मैं बैंक में जा कर बिहारीलालजी से मिला. मु झे देख कर वे आश्चर्य में पड़ गए. मैं ने कहा, ‘‘कुछ बात करनी थी. थोड़ा सा समय लूंगा आप का.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘थोड़ा एकांत में.’’

वे बैंक से बाहर आ गए. मैं ने कहा, ‘‘कल आप के घर से तेज आवाजें आ रही थीं.’’ उन के चेहरे पर तनाव आ गया.’’

‘‘मैं पहले ही इस संबंध में आप को बताना चाहता था लेकिन हिम्मत नहीं हुई. अब जब आप को सब पता चल ही चुका है तो मेरी सलाह मानिए. आप की बेटी पढ़ने में होशियार है. किसी लड़के के बहकावे में आ गई है. लड़की सभ्य, संस्कारी, पढ़ने में तेज है. इस तरह की बातों पर शोर करने से मामला बिगड़ता है. कल गुस्से में लड़की ने कोई गलत कदम उठा लिया तो मुश्किल हो जाएगी आप के लिए.’’

‘‘आप ही बताइए, क्या करूं मैं?’’

‘‘मेरी मानिए, लड़की को कुछ समय कोचिंग और कालेज की पढ़ाई के लिए बाहर भेज दीजिए. यदि नौकरी में आ गई तो आप के दोनों बच्चों को भी मार्गदर्शन मिल जाएगा. घर की मदद भी हो जाएगी. यह सारा  झमेला भी खत्म हो जाएगा.’’

‘‘आप जानते हैं उस लड़के को?’’

‘‘नहीं, मैं ने एकदो बार उसे मोटरसाइकिल पर घूमते देखा है आप की लड़की को. आप यह सब छोडि़ए और लड़की के भविष्य व परिवार के सम्मान की खातिर उसे दिल्ली भेज दीजिए. दोतीन साल की बात है. इस बीच कोई अच्छा रिश्ता आ जाए तो बुला कर शादी कर दीजिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ बिहारीलालजी मेरी बात से सहमत थे.

उन्होंने तब तक लड़की का घर से निकलना बंद कर दिया. उस का मोबाइल छीन लिया. जब तक कि वे उसे दिल्ली के एक अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट में नहीं छोड़ आए. मैं ने राहत की सांस ली. एक प्यारभरी गलती, एक विवाहित पुरुष की प्यार करने की गलती, एक कम उम्र की लड़की से प्यार करने का अपराध और बाद में उस से अपने सुखद भविष्य, शांतिपूर्ण गृहस्थी और लड़की की भलाई के लिए मु झे जो करना था, वह मैं ने किया. इसे गुनाह छिपाने का सकारात्मक तरीका भी कहा जा सकता है.

कालेज के समय पर उस के फोन आते. वह ‘आई लव यू’, ‘आई मिस यू’ के मैसेज करती. मु झे बेइंतहा प्यार करने की बात कहती और साथ ही अपना वादा याद रखने की बात कहती. मैं बदले में यही कहता, ‘कुछ बन कर दिखाओ, प्यार के लिए, पहले.’

वह शायद पढ़ाई में व्यस्त होती गई. अब फोन आते, लेकिन पहले वह पढ़ाई संबंधी मार्गदर्शन लेती, उस के बाद अंत में आई लव यू पर अपनी बात खत्म करती. मैं जानता हूं होस्टल का खुलापन, हमउम्र लड़केलड़कियों की एक कालेज में पढ़ाई के साथ मौजमस्ती. धीरेधीरे उस का मेरी तरफ से ध्यान हटेगा. अपने हमउम्र किसी लड़के पर उस का  झुकाव बढ़ेगा.

उस ने एक दिन फोन कर के बताया कि वह बैंक के साथसाथ पीएससी की तैयारी भी कर रही है. कालेज की पढ़ाई खत्म हो चुकी है. उस ने यह भी बताया कि पिताजी को किसी ने मेरे बारे में उलटासीधा पत्र लिखा था. इसलिए उन्होंने मु झे दिल्ली भेज दिया. जबकि ऐसा नहीं था. उस ने यह भी बताया कि शादी के लिए पिताजी ने एक लड़का पसंद किया है. मु झे बुलाया है. लेकिन मैं ने उन से स्पष्ट कह दिया कि मैं जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती, वापस नहीं आऊंगी. यदि वे रुपए न भी भेजें, तो कोई पार्टटाइम जौब कर लूंगी. फिर धीरेधीरे फोन अंतराल से आने लगे. कईकई दिनों में. फोन आते भी तो आई लव यू भी कई बार नहीं कहा जाता.

मेरी उम्र 50 वर्ष हो चुकी थी. उसे गए हुए 5 वर्ष बीत चुके थे. मु झे पता चला उस के पिता से कि उस ने पीएचडी कर ली है. नैट निकाल लिया है. वह साथ ही आईपीएस की तैयारी भी कर रही है. मु झे खुशी हुई कि उस ने मु झे फोन लगा कर नहीं बताया. इच्छा हुई कि एक बार उस से मिलूं, इस मिलने में कोई प्रेम नहीं था, वासना नहीं थी. बस, देखना था कि कितना भूल चुकी है वह.

मैं ने 3 माह लगातार साबुन से बाल धोए. न बाल कटवाए, न डाई करवाई. इस से मेरे बालों की पिछली सारी ब्लैक डाई निकल चुकी थी. मेरे सारे बाल सफेद थे. और चेहरे पर सफेद चमचमाती दाढ़ी. आंखों में पावर का चश्मा. मैं इग्नू के काम से दिल्ली आया हुआ था. सोचा, मिलता चलूं और परिवर्तन देखूं. होस्टल का पता उसी के द्वारा मु झे मालूम था. मैं होस्टल के बाहर था. वह गु्रप में लड़कियों के साथ हंसीमजाक कर रही थी. मु झे देख कर वह सकते में आ गई.

मैं उस के पास पहुंचा तो उस ने अपनी साथ की लड़कियों से कहा, ‘‘यह मेरे अंकल हैं,’’ सभी लड़कियों ने मु झे ‘हाय अंकल,’ ‘नमस्ते अंकल’ कहा. उसे लगा मैं कुछ कह न दूं. वह मु झे फौरन होस्टल के गैस्टरूम में ले गई. उस समय वहां कोई नहीं था. वह मु झ पर भड़क कर बोली, ‘‘आप बिना बताए कैसे आ गए? आए थे तो कम से कम हुलिया ठीक कर के आते. इस समय आप अंकल नहीं, दादाजी लग रहे हैं. क्या जरूरत थी आप को यहां आने की?’’

मु झे खुशी हुई उस की बात सुन कर. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘तुम से मिलने की इच्छा हुई, तो चला आया.’’

‘‘ऐसे कैसे चले आए? यह गर्ल्स होस्टल है. फिर आशिकी का भूत सवार तो नहीं हो गया ठरकी बुड्ढे. जो हुआ मेरा बचपना था. अगर वह बात किसी को बता कर बदनाम करने की कोशिश की तो जेल भिजवा दूंगी यौनशोषण का केस लगा कर.’’

तभी उस का फोन बजा. वह एक तरफ जा कर बात करने लगी.

‘‘हां, रमेश, कल की पार्टी मेरी तरफ से. उस के बाद पिक्चर का भी प्रोग्राम है. हां, मेरा सलैक्शन हो गया है कालेज में.’’

‘‘यह रमेश कौन है?’’ मैं ने पूछा, हालांकि मु झे पूछने की जरूरत नहीं थी.

‘‘मेरा बौयफ्रैंड है,’’ फिर उस ने मु झे सम झाया, ‘‘प्लीज, पुरानी बातें भूल जाओ. मैं ने गुस्से में जो कहा, उस के लिए माफ करना. यहां मेरा अपना टौप का सर्कल है. यदि किसी को तुम्हारे बारे में पता चलेगा तो मेरा मजाक उड़ाएंगे सब.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं,’’ मैं पूरी तरह निश्ंिचत हो कर उठा.

‘‘अंकल, आप ने पढ़ाई में मेरी जो मदद की है, उस के लिए धन्यवाद. एक बार गलती हम दोनों से हुई थी. उसे याद करने की जरूरत नहीं. प्लीज, आप जाइए. कोई पूछे तो कहना आप मेरे अंकल हैं. घर के लोगों ने कहा था कि दिल्ली जा रहे हो, तो बेटी के हालचाल पूछते हुए आना.’’

‘‘हां, बिलकुल यही कहूंगा.’’

मैं होस्टल के गैस्टरूम से बाहर निकला. उस का मु झे भूलना, मु झ से चिढ़ना, मु झ से बचना, यही तो चाहता था मैं. जो हो चुका था. मेरी गलती का, अपराध का सफल प्रायश्चित्त हो चुका था. मैं खुश था, मेरे मन का सारा बो झ उतर चुका था. मैं अपनी सफाई, सम झदारी से बच तो निकला था लेकिन दाग फिर भी धुला नहीं था पूरी तरह.

घर पर जब कभी कोई नैतिकता, प्रेम, विश्वास की बात करता तो पत्नी के मुंह से निकल ही जाता, तुम तो रहने ही दो. तुम्हारे मुंह से ये बातें अच्छी नहीं लगतीं. और मैं चुप रह जाता. चुप रहने में ही भलाई सम झता. कहने को अपनी सफाई में बहुतकुछ कह सकता था मैं. लेकिन, मैं खामोश रहता क्योंकि अंदर से मैं जानता था कि कहीं न कहीं से गुनहगार हूं मैं. द्य

Father’s Day Special: पापा जल्दी आ जाना- भाग 3

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

यह कैसा प्यार – भाग 3 : मर्यादा की दहलीज

‘‘अंकल, आप कैसी बातें कर रहे हैं? आप की इज्जत मेरी इज्जत. रमा मेरी पत्नी बने, मेरे लिए गर्व की बात होगी.’’

विजय की बात सुन कर रमा के मन में फिर से एक बार कंपन हुई. इस कंपन में प्यार के साथ सम्मान भी था और आभार भी. विजय ने अपने घर में दोटूक उत्तर दिया, ‘‘मैं रमा से ही शादी करूंगा. यह मेरा पहला और आखिरी फैसला है. आप मना करेंगे तो भी मैं शादी करूंगा, चाहे कोर्ट में ही क्यों न करनी पडे़?’’

विजय के परिवार के लोग भी सहमत हो गए. शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. रमा खुश थी, बहुत खुश. उसे बचपन से जवानी तक देखाभला युवक पति के रूप में मिल रहा था. रही विजय के बेरोजगार होने की बात, तो रमा के पिता ने स्पष्ट कह दिया कि ऐसे नेक लड़के के रोजगार लगने की प्रतीक्षा की जा सकती है. यदि नौकरी नहीं मिली तो अपनी जमा पूंजी से विजय के लिए रोजगार की व्यवस्था मैं करूंगा.

रमा के मोबाइल की रिंगटोन बजी. रमा ने मोबाइल उठा कर पूछा ‘‘हैलो कौन?’’

‘‘आप का शुभचिंतक.’’

‘‘नाम बताइए.’’

‘‘मैं बंगाली बाबा. आप को वशीभूत करने के लिए एक व्यक्ति ने मु?ो रुपए दिए थे. यदि आप नाम जानना चाहें तो 10 हजार रुपए मेरे अकाउंट में जमा करवा दीजिए.’’

‘‘मु?ो नहीं जानना.’’

‘‘हो सकता है जो तंत्रमंत्र के द्वारा आप का वशीकरण चाहता हो, कल आप को दूसरे तरीके से भी नुकसान पहुंचा दे.’’

‘‘कौन है वह?’’

‘‘पहले अकाउंट में रुपए.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं, इस का क्या सुबूत है?’’

‘‘मेरे पास आप का फोटो, घर का पता, मातापिता का नाम, सारी जानकारी है आप की.’’

रमा का माथा ठनका. पिछले दिनों जो कुछ उस के साथ हुआ कहीं ये सब उसी व्यक्ति का कियाधरा तो नहीं है. रमा ने उस के अकाउंट में रुपए जमा करवा कर नाम पूछा. नाम सुन कर रमा भौचक्की रह गई. रमा सीधे पुलिसस्टेशन पहुंची. थाना इंचार्ज सीमा तिवारी से मिली. अपनी बदनामी और उन पत्रों की जानकारी दे कर बाबा द्वारा बताया गया नाम भी बताया.

‘‘आप चिंता मत करिए. मैं बारीकी से जांच कर के अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाऊंगी.’’

पुलिस ने अपनी जांच शुरू की. रमा की शादी जिस लड़के से होने वाली थी उस लड़के और उस के परिवार वालों को थाने बुला कर पूछताछ की. लड़के को जिस नंबर से फोन पर जान से मारने की धमकी मिली थी, उस नंबर की जांच के साथ उन तमाम पत्रों की भी जांच की गई जो रमा के विरुद्ध महल्ले, कालेज में और लड़के वालों के घर भेजे गए थे. जांच का परिणाम यह निकला कि सबकुछ विजय द्वारा किया गया था. पुलिस की थर्ड डिगरी के आरंभिक दौर में ही विजय ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया. रमा ने गुस्से में आ कर कई थप्पड़ विजय को जड़ दिए.

‘‘क्यों किया तुम ने ऐसा?’’

‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं. तुम्हें पाने के लिए, तुम से शादी करने के लिए किया सब.’’

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम्हें. जिस से प्यार करते हो उसी को सारे शहर में बदनाम कर दिया. यह कैसा प्यार है? यह प्यार है तो नफरत किसे कहते हो? कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा. मैं तुम्हें अपना दोस्त सम?ाती रही. तुम पर भरोसा करती रही और तुम ने भरोसा तोड़ा, मेरी शादी तुड़वाई. गिर चुके हो तुम मेरी नजरों से. मैं चाहूं तो जेल भिजवा सकती हूं अभी लेकिन फिर तुम्हारी बहन की शादी कैसे होगी? तुम्हारे मातापिता कैसे जी पाएंगे?’’

रमा ने थाना प्रभारी सीमा तिवारी से निवेदन किया, ‘‘मैडम, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. मैं इस व्यक्ति के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करना चाहती. इसे क्षमा करना ही इस की सब से बड़ी सजा होगी.’’

विजय नजरें झकाएं हवालात में खड़ा था. रमा की डांट से, थप्पड़ से वह अंदर ही अंदर टूट चुका था. रमा थाने के बाहर आई. सामने शादी तोड़ने वाला परिवार खड़ा था. रमा से माफी मांग कर लड़के ने कहा, ‘‘दूसरे के बहकावे में आ कर मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी. मैं शादी करने को तैयार हूं.’’

‘‘लेकिन मैं तैयार नहीं हूं. किसी के बहकावे में आ कर शादी तोड़ने वालों पर विश्वास नहीं कर सकती. शादी के बाद यदि यही बातें तुम तक पहुंचतीं तब क्या करते, तलाक दे देते? विवाह के लिए भरोसा जरूरी है. पहले विश्वास करना सीखिए.’’

रमा ने अपनी स्कूटी उठाई और घर की ओर चल दी. धीरेधीरे यह बात सब जगह पहुंच गई कि रमा को बदनाम करने में विजय का हाथ था. वह तो रमा भली लड़की है जिस ने विजय के परिवार को ध्यान में रख कर उस पर कोई केस नहीं किया.

रमा अब सरकारी नौकरी करती है. इसी शहर में उस का विवाह हो चुका है एक डाक्टर से. रमा के 2 बच्चे हैं. वह खुशहाल भरापूरा जीवन जी रही है. पुलिस थाने से निकलने के बाद विजय न घर आया न किसी ने उसे देखा. विजय की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज है.

 

पापा के लिए- भाग 3: सौतेली बेटी का त्याग

तभी इतनी देर से विचारों की कशमकश में हिचकोले सी खाती मैं ने, उन की बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘नहीं मम्मी, हम सब को, पूरे परिवार को आप की बहुत जरूरत है. पापा को किडनी मैं दूंगी और कोई नहीं.’’

मेरी बात सुन कर मम्मी एकदम चीख कर ऐसे बोलीं, मानो बरसों का आक्रोश आज एकसाथ लावा बन कर फूट पड़ा हो, ‘‘दिमाग तो सही है तेरा नेहा. उस आदमी के लिए अपना जीवन दांव पर लगा रही है, जिस ने तुझे कभी अपना माना ही नहीं, जिस ने कभी दो बोल प्यार के नहीं बोले तुझ से… तू उसे अपने शरीर की इतनी कीमती चीज दे रही है… नहीं, कभी नहीं, यह बेवकूफी मैं तुझे नहीं करने दूंगी मेरी बच्ची, कभी नहीं. अभी तेरे सामने पूरा जीवन पड़ा है. पराए घर की अमानत है तू. अरे, जिन बच्चों पर वे अपना सर्वस्व लुटाते रहे, वे करें यह सब. अमन का फर्ज बनता है यह सब करने का, तेरा नहीं. तू ही है सिर्फ क्या उन के लिए.’’

‘‘मैं उन के लिए चाहे कुछ न हूं लेकिन मेरे लिए वे बहुत कुछ हैं. मैं ने तो दिल से उन्हें अपना पापा माना है मम्मी. मैं अपने पापा के लिए कुछ भी कर सकती हूं और फिर मम्मी, प्यार का प्रतिकार प्यार ही हो, यह कोई जरूरी तो नहीं.’’

मम्मी मुझे हैरत से देखती रह गई थीं. उन का पूरा चेहरा आंसुओं से भीग गया था. शायद सोच रही थीं – काश, इस बेटी के दिल को भी पढ़ा होता उन्होंने कभी. इस बेटी को भी गले लगाया होता कभी. अपने दोनों बच्चों की तरह कभी इस की भी पढ़ाई, होमवर्क और ऐग्जाम्स की फिक्र की होती. कभी डांटा होता, तो कभी पुचकारा होता इसे भी. कभी झिड़का होता तो कभी समझाया होता इसे भी. मगर उन्होंने तो कभी इसे नजर भर देखा तक नहीं और यह है कि…

और फिर किसी की भी नहीं सुनी मैं ने. पापा ने भले न बनाया हो, मैं ने अपनी एक किडनी दे कर उन्हें अपने शरीर का एक हिस्सा बना ही लिया. दोनों को हौस्पिटल से एक ही दिन डिस्चार्ज किया गया. मैं गाड़ी में कनखियों से बराबर देख रही थी कि पापा बराबर मुझे ही देख रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. कुछ कहना चाह रहे थे, मगर कह नहीं पा रहे थे. ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे उन के दिल के अनकहे शब्द मेरे दिल को स्नेह की तपिश से सहला रहे हों, जिस से बरसों से किया मेरे प्रति उन का अन्याय शीशा बन कर पिघला जा रहा हो.

घर आने के भी कई दिनों बाद एक दिन अचानक वे मेरे कमरे में आए. मुझे तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. आज तक वो मेरे इतने करीब, वे भी अकेले में आए भी तो नहीं थे और आज वे मेरे करीब, बिलकुल मेरे करीब. मेरे बैड पर बैठ गए थे. मैं ने उन की तरफ देखा. वे उदासी भरी, दर्दभरी, आंसुओं भरी आंखों से मुझे देख रहे थे. मैं भी देखती ही रही उन्हें… अपने पापा को. मुझे तो अब तक कि जिंदगी का एक दिन भी या यह कहूं कि एक लमहा भी याद नहीं, जब उन्होंने मुझे देखा भी हो. आंखों ही आंखों में उन्होंने बहुत कुछ कह दिया और बहुत कुछ मैं ने सुन लिया. मुझे लगा कि अगर एक शब्द भी उन्होंने जबानी बोला तो अपने आंसुओं के वेग को न मैं थाम सकूंगी और शायद न वे. भरभरा कर बस गिर ही पड़ूंगी अपने पापा की गोद में, जिस के लिए मैं अतृप्त सी न जाने कब से तरस रही थी. फड़फड़ाए ही थे उन के होंठ कुछ कहने को कि तड़प कर उन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया मैं ने. बोली ‘‘न पापा न, कुछ मत कहना. मैं ने कोई बड़ा काम नहीं किया है. बस अपने पापा के लिए अपना छोटा सा फर्ज निभाया है.’’

अंतत: रोक ही नहीं सकी खुद को, रो ही पड़ी फूटफूट कर. पापा भी रो पड़े जोर से. उन्होंने मुझे अपने से लिपटा लिया, ‘‘मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… माफ कर दे अपने इस गंदे से पापा को… बेटी है मेरी तू तो, दुनिया की सब से अच्छी बेटी है तू तो.’’

जिन लफ्जों और जिस स्नेह से मैं अब तक अपने ख्वाबों में ही रूबरू होती रही थी, आज हकीकत बन कर मेरे सामने आया था. इन पलों ने सब कुछ दे दिया था मुझे. बरसों के गिलेशिकवे आंसुओं के प्रवाह में बह गए थे. तभी पापा को देख कर मम्मी भी वहीं आ गईं तो उन्होंने मम्मी को भी अपने गले से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम दोनों के साथ मैं ने बहुत अन्याय किया है, अतीत की यादों में इतना उलझा रहा कि वर्तमान के इतने खूबसूरत साथ और रिश्ते को नकारता रहा. मुझे माफ कर दो तुम दोनों… मुझे माफ कर दो…’’

बरसों बाद ही सही, यह परिवार आज मेरा भी हो गया था. मम्मी की भी आंखें खुशी से भीग गई थीं.

उस के बाद तो जैसे मेरी जिंदगी ही बदल गई. पापा ने मुझे और अमन दोनों को एकसाथ एम.बी.ए. में ऐडमिशन दिला दिया था. वे चाहते थे कि अब हम दोनों भाईबहन नई सोच और नई तकनीक से उन की कंपनी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दें. अमन का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मैं अपने पापा के लिए कुछ भी करूंगी…

Father’s Day Special – हमारी अमृता- भाग 3: क्या अमृता को पापा का प्यार मिला?

उसी समय स्कूल में मतिमंद बच्चों की बनाई गई वस्तुओं की एक प्रदर्शनी आयोजित की गई. बच्चों द्वारा बनाए गए ग्रीटिंग कार्ड, मिटटी के अनगढ़ खिलौने एवं चित्र रखे गए थे. अमृता के चित्र सभी को बहुत पसंद आए. उस की पीठ पर हाथ रख कर जब कोई उसे शाबाशी देता तो उस की आंखों में चमक आ जाती. चित्रकला प्रदर्शनी का उद्घाटन उसी विद्यालय के पिं्रसिपल ने ही किया. वह अमृता के बनाए चित्रों से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने चित्रों की बेहद तारीफ की.

वह अपने स्कूल के बच्चों के चित्रों की प्रदर्शनी विदेश में लगाना चाहते थे. उन्होंने अमृता के 2 चित्र विदेश भेजने के लिए पसंद कर लिए. वीना ने सुना तो उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. विदेश में अमृता का नाम होगा यह सोच कर ही वह रोमांचित हो उठीं.

आज वीना को अपनी बेटी कहीं से भी अपूर्ण नहीं दिखाई दे रही थी, वह तो पूर्ण है. वह उन्हें कविता एवं वनिता से भी ज्यादा पूर्ण लग रही थी. खुशी के अतिरेक में उन की आंखों से आंसू निकल गए. तुरंत फोन कर के उन्होंने अमर को यह खुशखबरी दी. वह भी चौंक गए कि जिस बेटी को वह दुनिया की नजरों से छिपाते आए थे, आज वही उन का नाम रौशन कर रही है. खुशी से उन की आंखें भर आईं.

शाम को जब अमर घर आए तो प्यार से उन्होंने अमृता का माथा चूम लिया. वह उस की गुडि़या के लिए नया फ्राक एवं उस के लिए खिलौने एवं कपड़े लाए थे. घर के सभी सदस्य एक अरसे बाद साथ बैठे. उन की खिल-खिलाहट देख कर लग रहा था कि घर की असली सुखशांति इसी में ही है. कितने ही सुखसुविधा के सामान इस हंसी के आगे फीके पड़ जाते हैं.

अमर ने बातोंबातों में बताया कि कल अमृता की उपलब्धि के उपलक्ष्य में पार्टी आयोजित की जाएगी. वीना के हृदय में कांटा सा चुभा. वह पिछली पार्टी की बात भूली न थी, फिर भी वह बहस कर के रंग में भंग नहीं डालना चाहती थी, अत: चुपचाप रही.

दूसरे दिन सुबह से वीना पार्टी की तैयारी में लग गईं. अमर आफिस के काम के कारण ऐन वक्त पर आने वाले थे. हमेशा की तरह लान में पार्टी रखी गई थी. कविता, वनिता और वीना तैयार हो कर मेहमानों का स्वागत कर रही थीं.

अमर किसी जरूरी काम से

10-15 मिनट लेट आए. आते ही उन की नजरें किसी को खोजने लगीं. उन्होंने वीना को करीब बुलाया और धीरे से पूछा, ‘‘अमृता कहां है?’’

वीना चौंक कर अमर का मुंह देखती रह गईं फिर बोलीं, ‘‘वह अपने कमरे में बाई के साथ बंद है.’’

‘‘अरे, यह क्या वीना, यह पार्टी अमृता के लिए ही रखी गई है. कुछ देर को ही सही, उसे जरूर यहां लाओ. और हां, मैं जो कपड़े लाया था उसे पहना दो.’’

वीना के पैर खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. वह झट अंदर गईं. अमृता को नए कपड़े पहनाए. उसे समझाया कि सब से नमस्ते कैसे करनी है. फिर उस का हाथ पकड़ कर पार्टी में ले आईं. लोग जब सवालिया नजरों से अमृता को देखने लगे तब अमर, अमृता और वीना के पास गए. उन्होंने अमृता के गले में हाथ डाल दिया और बोले, ‘‘लेडिज एंड जेंटिलमैन, यह हमारी तीसरी बेटी अमृता है. इसी के बनाए चित्र पुरस्कार हेतु विदेश में भेजे जा रहे हैं और इसी खुशी में आज यह पार्टी रखी गई है.’’

सभी अमृता को तारीफ की नजरों से देखने लगे. उसे बधाई देने वालों का तांता लग गया. तभी ऋतु ने आ कर अमृता को उस की उपलब्धि पर बधाई दी, साथ ही उस ने अमर को भी बधाई दी. अमर बोले, ‘‘ऋतुजी, यह तो आप की नजर है जो आप ने इसे परखा, नहीं तो हमें भी कहां मालूम था कि इतनी गुणी है हमारी अमृता.’’

अनजाने में अमर के मुंह से निकला ‘हमारी अमृता’ शब्द वीना के हृदय के सारे तार छेड़ गया और प्रतिध्वनि रूप में उस में से आवाजें आने लगीं, ‘हमारी अमृता… हमारी अमृता.’

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