बुढ़ापे में जो दिल बारंबार खिसका-भाग 2

रणवीर और जयंति का तकरीबन रोज ही मिलना हो जाता. दोनों को एकदूसरे का बरसों बाद मिला साथ अच्छा लगने लगा था. एक दिन जब जयंति ने रणवीर से कहा, ‘‘यार, इतने दिन हो गए कई बार कहा भी, घर में तो सब से मिलवाओ, मेरा तो कोई है नहीं, लेदे के एक वही मस्ताना डौग है, वैसे वह भी मिलने लायक चीज है, चलोगे, मिलोगे?’’ वह हंसी थी.

‘‘चलूंगा, पर आज नहीं. मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूं जयंति कि क्यों मैं तुम्हें घर नहीं ले जा पाता,’’ रणवीर ने पिता की वजह से घरबाहर फैले रायते को जयंति के सामने रख दिया. ‘‘छि, बड़ी शर्म आती है मुझे, घर से बाहर निकलते लोगों से मिलते. सब बाप की तरह बेटे को भी समझते होंगे. क्या करूं कोई उपाय सूझ नहीं पाता. मैं खुद उस घर में नहीं जाना चाहता.

सिर्फ मां की वजह से वहां हूं. मां से अलग घर, मैं सोच भी नहीं पाता. ऐसे पिता की वजह से न घर में कोई आता है न ही हम किसी को बुलाने की हिम्मत कर पाते हैं. मां की तो पूरी जिंदगी ही उन्होंने खराब कर दी, वही अब मेरे साथ भी कर रहे हैं. रानी दी ने तो सही किया, लड़की थीं, निकल गईं जंजाल से. पर मैं तो बेटा हूं, इन्हें छोड़ भी नहीं सकता, बुढ़ापे में मां को इन से अलग भी नहीं कर सकता. साथ रख कर ही पालना पड़ेगा. जब तक इन की हरकतें रहेंगी, ये जिंदा रहेंगे, तब तक कुछ नहीं हो सकता. कितना भी कर लूं, पर न मैं ऐसे में खुश रह सकता हूं, न मां को या किसी को खुशी दे सकता हूं. शादी के बारे में तो सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘ओह, तो यह बात है जरा सी, जो तुम सब को कब से परेशान किए हुए है.’’

‘‘तुम्हें यह जरा सी बात लगती है?’’ ‘‘इसीलिए तुम ने शादी न करने का फैसला कर लिया है,’’ वह बोली.

‘‘ऊं, न, नहीं, ऐसा कुछ नहीं. पर कुछ हद तक सही ही है. जहां खुद मेरा दम घुटता हो वहां किसी को लाने की मैं सोच भी कैसे सकता हूं.’’ ‘‘लग तो कुछ ऐसा ही रहा है,’’ वह मुसकराई, तुम शादी तो करो, यार, मैं उसे ऐसे गुरुमंत्र दूंगी कि बस, फिर तुम कमाल देखते ही रहना. आई प्रौमिस यू, तुम तो जानते ही हो, जो मैं कहती हूं वह जरूर कर के रहती हूं.’’

‘‘कोई और क्यों, तुम क्यों नहीं. जानता हूं कि असलियत जान कर किसी को मुझ से शादी करना मंजूर नहीं होगा,’’ वह कुछ संकुचाते हुए बोल ही गया. उस के संबल में उसे एक उम्मीद की किरण सी उसे दिखने लगी. पर जयंति अचानक दिए इस प्रपोजल पर हैरान थी. अपनी हैसियत से उसे ऐसी सपने में भी कल्पना न थी. जल्दी में कुछ न सूझा तो वह बोल पड़ी, ‘‘मेरे ऊपर तो बड़ी जिम्मेदारी है जो कभी पीछा नहीं छोड़ेगी.’’

‘‘अभी तो तुम ने कहा, कोई नहीं रहता, तुम अकेले हो?’’ ‘‘भूल गए, मस्ताना, उस का भी कोई नहीं मेरे सिवा,’’ वह अमिताभ की फिल्म ‘द ग्रेट गैम्बलर’ के अंदाज में गा उठी.

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा, पूरी तरह से सीरियस हूं.’’ ‘‘अच्छा, चलो, फिर कर लेते हैं, पर समझ लो, मैं तुम्हारी हस्ती से मैच भी करूंगी? एक पहिया गाड़ी का, एक स्कूटी का. आड़ातिरछा चलाचला के झूम…’’ और वह हंसने लगी. रणवीर की गंभीर गुस्से वाली मुद्रा देख कर वह फिर बोली, ‘‘अच्छा, अब सीरियस हो जाती हूं. मां से तो मिलवाओगे या सीधे कोर्ट मैरिज कर के घर ले चलना है.’’ वह फिर से हंसने वाली थी, अपने को रोक कर मुसकराई.

जयंति रणवीर की मां रेवती से मिली, आशीर्वाद लिया और फिर शहनाइयां बज उठीं. जयंति ब्याह कर रणवीर के घर आ गई. उस के साथ मस्ताना भी था. रेवती, रणवीर दोनों ही ने उसे साथ लाने को कहा था. रेवती ने देखा, हमेशा गंभीर दिखने वाले बेटे के चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी. मस्ताना की चमकती आंखें रामशरण को लगता उन्हें ही घूर रही हैं. वह अपनी लहरदार, घनी पूंछ जब पटकता तो लगता उन्हें धमकी दे रहा हो. कई बार रामशरण मस्ताना की वजह से ताकझांक करते हुए, कहीं चोरी पकड़ी न जाए, गिरतेगिरते बचते क्योंकि मस्ताना कहीं न कहीं से उन्हें देख लेता. लहराती दुम उठा कर जो वह जोरजोर से भूंकना शुरू करता तो रुकने का नाम ही न लेता. जयंति को मालूम हो गया था कि ससुरजी मस्ताना से थोड़ा डरते हैं. वह अकसर उन्हें मस्ताना से काफी दूर घूम कर जाते हुए देखती तो मुसकराती. कोई शरारत उस के खुराफाती दिमाग में दौड़ने लगी थी. कुछ तो करना ही पड़ेगा घर में सब के सुकून के लिए.

सुबहशाम जयंति भी ससुरजी के टाइम पर ही मस्ताना को टहलाने के लिए जाने लगी. पहले बहुत जिद की थी पापाजी से, ‘‘आप ही उसे अपने साथ ले जाया कीजिए पापाजी, मैं मां का हाथ बंटा लूंगी. फिर औफिस भी जाना होता है.’’ पर रामशरण किसी न किसी बहाने से टाल गए. अगले वीक उस की छुटटी सैंक्शन हो गई. जितनी भी छुट्टियां बची थीं, सब ले डालीं. रणवीर तो उसे यह जौब छोड़ कर उसे अपना पसंदीदा एनीमेशन कोर्स कर कुछ बड़ा करने पर जोर दे रहा था जिसे वह अपने घर की परेशानियों के चलते पूरा न कर सकी थी.

‘‘अब ये सब करने की क्या जरूरत है? जो चाहती थी वह कर डालो न.’’ ‘‘ओ थैंक्स डियर, तुम्हें अब भी याद है? मेरा तो सपना ही था. अभी कुछ दिन रुक जाओ, फिर देखती हूं.’’

रणवीर की आंखों में असीमित प्यार देख कर वह निहाल हुई जा रही थी. उसे सब याद आया कि वह ब्लैकबोर्ड पर, कौपी में अकसर सहपाठियों, टीचर के कार्टून बना दिया करती, हूबहू कोई भी पहचान लेता. एक बार प्रिंसिपल शशिपुरी का भी कार्टून बना डाला. अचानक मैम राउंड पर आ गईं. सभी बच्चे हंसी से लोटपोट हुए जा रहे थे. मैम ने अपना कार्टून पहचान लिया और औफिस बुला कर उसे खूब झाड़ा. उस दिन मिस खुराफाती को पहली बार किसी ने रोते देखा था. सब बच्चों को तो मजा आया पर जाने क्यों रणवीर को अच्छा नहीं लगा था, जबकि उस ने उसे कितनी ही बार चिढ़ाया, कितने ही नाम दिए थे. वह सोचता, ‘इसे तो आज इस अनोखी प्रतिभा के लिए इनाम मिलना चाहिए था.’

जयंति के मस्ताना के साथ सुबह टहलने जाने से पार्क में रामशरण और उन के दोस्तों की मस्ती थोड़ी कम हो गई थी. एक तो साथियों में से वह एक की बहू थी, उस पर से उस का खूंखार नजरों से घूरता अल्सेशियन डौग मस्ताना. कभी जयंति शाम को जल्दी घर आती तो वह शाम को भी मस्ताना को ले कर निकल पड़ती सखियों के पास टहलते हुए. फिर तो रामशरण और उन के दोस्तों की शाम भी खराब होती. चाटगोलगप्पे वालों के यहां उन का लड़कियों से छेड़खानीचुहल करने का मजा किरकिरा हो जाता. जयंति अपने मस्तमौला स्वभाव के कारण जल्दी ही नेहा, शिखा आदि लड़कियों से घुलमिल गई. इतवार व छुट्टियों के दिनों में अकसर वे सुबह अपनीअपनी स्कूटी पर पास की पहाड़ी की ओर खुली हवा में सैर कर आतीं. इन बुड्ढों के दिल में हूक उठती, पार्क में रौनक जो नहीं दिखती.

एक दिन आखिर एक बुड्ढे ने कमैंट कर ही दिया, ‘‘अरे, कहां जाती हो घूमने अकेलेअकेले, हमें भी तो कभी घुमा दिया करो, तरस खाओ हम पे.’’ सुन लिया था जंयति ने भी. मस्ताना को ले कर वह थोड़ा आगे बढ़ गई थी नेहा के पास. उस ने नेहा से धीरे से कहा, ‘‘बोल दो, ‘हांहां, एकएक बैठ जाओ स्कूटी पर’ तुम चारों अपनीअपनी स्कूटी पे इन्हें वहीं पहाड़ी के पीछे झरने के पास दूर छोड़ कर वापस आ जाना. आज इन्हें मजा चखा ही देते हैं. फिर सारी आशिकी भूल जाएंगे. मैं फोन पर कौंटैक्ट में रहूंगी. ससुर हैं एक, इसलिए मैं नहीं जा सकती. तब तक मैं घर जा कर वापस मस्ताना को दोबारा टहलाने यहां आती हूं.’’

एक थी मां- भाग 2: कहानी एक नौकरानी की

पिताजी कभी मना करते, तो उलटे मां उन्हें ही उन की औकात याद दिलाने लगती थीं. पिताजी चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाते थे. आखिर वे अभी तक अपने पिता के कमाए पैसों पर ही तो जीते आ रहे थे.

अब हम दोनों भाईबहन स्कूल जाने के लायक तो हो गए थे, मगर पैसे की तंगी और मांपिताजी के आपसी झगड़े के चलते हम दोनों स्कूल नहीं जा पा रहे थे.

पिताजी से जब मां का रोजरोज का झगड़ा सहा नहीं गया, तो उन्होंने घर के नजदीक वाले मंदिर के पास ही एक पूजा सामग्री और फूल माला की दुकान खोल ली थी. दुकान खोलने के लिए पिताजी ने अपने कुछ जानपहचान वालों से ही पैसे उधार लिए थे.

पिताजी अब अपने काम में ज्यादा बिजी रहने लगे थे. चोरी के डर से रात में भी वे दुकान पर ही सो जाते थे. इधर मां का रहनसहन और चालढाल बहुत तेजी से बदलता जा रहा था.

अब उन्होंने एक मोबाइल फोन भी खरीद लिया था. पिताजी ने जब मोबाइल फोन के बारे में पूछा था, तो अपने मायके से मिला हुआ बता कर पिताजी को डांट कर चुप करा दिया था.

मां अब दिनभर खुद कमरे में सोई रहती थीं और घर का सारा काम हम दोनों भाईबहन से कराने लगी थीं. स्कूल जाने की उम्र में हम दोनों भाईबहन अब हमेशा घर के कामों में उलझे रहने लगे थे. अब तो बातबात पर मां हम दोनों को पीटने भी लगती थीं.

एक रात की बात है. मैं और मेरा भाई अमर साथ ही सोए हुए थे. हम दोनों बचपन से ही साथ सोते आ रहे थे. अचानक आधी रात को मेरे भाई के पेट में दर्द होने लगा था. मुझ से जब उस का दर्द देखा नहीं गया, तो मैं मां के कमरे की ओर उन्हें बुलाने चल पड़ी थी, यह सोच कर कि शायद उन के पास कोई दवा होगी.

बहुत बार दरवाजा खटखटाने और चिल्लाने के बाद मां ने गुस्से में दरवाजा खोला था. जब मैं ने उन्हें अमर के पेटदर्द के बारे में बताया, तो वे मुझे ही गाली देने लगी थीं.

उन की एकएक बात मुझे आज भी याद है, जो मां ने अपने बेटे के लिए कही थी, ‘तुम्हारा भाई पेटदर्द से मर नहीं जाएगा. दिनभर चोरी करकर के तो खाता रहता है, फिर पेटदर्द तो उस का करेगा ही न…’

मैं चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाई थी. कैसी मां थीं वे. मैं चुपचाप अपने नसीब को कोसती हुई कमरे की ओर जाने के लिए अभी मुड़ी ही थी कि तभी मैं ने मां के कमरे में एक अजनबी आदमी को देखा था.

मैं ठीक से चेहरा नहीं देख पाई थी. मां भांप गई थीं कि मैं ने कमरे के अंदर के आदमी को देख लिया था. वे उस समय बोली कुछ नहीं, सिर्फ तेजी से दरवाजा बंद कर लिया था.

भाई के पेटदर्द के चलते मैं बहुत परेशान थी, इसीलिए उस ओर मैं ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी. अमर अभी भी कमरे में जमीन पर लेटा पेट पकड़े दर्द से कराह रहा था. पिताजी तो दुकान पर ही रात में सोते थे, इसीलिए मैं उन को बुला भी नहीं सकती थी.

मैं अमर को पेट के बल लिटा कर उस की पीठ सहलाने लगी. मेरे ऐसा करने से उसे राहत मिलने लगी और कुछ ही देर के बाद उस का पेटदर्द कम हो गया था.

अगले दिन सुबह जब पिताजी घर आए, तो वे पहली बार बहुत खुश दिखाई दे रहे थे. उन्होंने दुकान के लिए लिया हुआ कर्ज चुकाने के लिए पूरा पैसा जमा कर लिया था. वे कल ही जा कर महाजन को पैसा देने की बात कर रहे थे. अब वे हम दोनों भाईबहन को भी स्कूल में दाखिल कराने के लिए बोल रहे थे.

पता नहीं क्यों उस समय मां पिताजी की बात सुन कर भी अनसुना करते हुए कहीं और खोई हुई थीं. वे थी तो पास में ही बैठीं, पर कुछ बोल नहीं रही थीं.

उसी दिन पहली बार पिताजी ने हम सभी को होटल में ले जा कर खाना खिलाया था. उस रात पिताजी हम दोनों भाईबहन के पास ही सो भी गए थे. हम तीनों ने उस रात बहुत सारे सपने देखे थे.

मगर कुदरत को तो कुछ और ही मंजूर था. सुबह जब उठे तो एक बुरी खबर को सुन कर हम सब के पैर तले की जमीन खिसक गई थी. पिताजी की दुकान में रात में आग लग गई थी. सारा सामान जल कर राख हो गया था. महाजन को देने के लिए रखा हुआ पैसा, जिसे पिताजी ने अपनी मेहनत से एकएक पाई जोड़ कर जमा किया था, वह भी आग में जल गया था. मां भी उस दिन बहुत रोई थीं, मगर शायद वह भी उन का दिखावा था.

पिताजी फिर से टूट गए थे. हम सब का देखा हुआ सपना एक ही बार में बिखर गया था.

दुकान जलने के कुछ ही दिन के बाद मां ने मुझे अपने दूर के एक रिश्तेदार के कहने पर बलिया में एक साहब के यहां घर का काम करने और उन के 4 साल के बच्चे की देखभाल के लिए भेज दिया था.

पिताजी ने मां को बहुत समझाया कि अभी कश्मीरा 10 साल की बच्ची है, भला कैसे किसी के यहां नौकरानी का काम कर पाएगी? मगर मां ने एक न सुनी. मैं यानी कश्मीरा बलिया में अपने मालिक साकेत भारद्वाज के यहां नौकरानी बन कर आ गई.

मेरा भाई मुझ से दूर नहीं होना चाहता था. वह भी मेरे साथ ही बलिया आने की जिद पर अड़ गया था, मगर मां ने उसे कमरे में बंद कर दिया था. मैं भी यह सोच कर कि मेरे कमाए पैसे से शायद पिताजी द्वारा लिया हुआ दुकान का कर्जा जमा हो जाएगा, बलिया आ गई थी.

मेरे मालिक साकेत सर और मालकिन मेघना मैडम का बलिया में खुद का घर था. साहब एक औफिस में बड़े पद पर थे. मैडम भी एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर नौकरी करती थीं. दोनों का एक 4 साल का बेटा था गौरव भारद्वाज, जिसे प्यार से सभी ‘गोलू’ कहते थे.

पहले साहब की अपनी बहन साथ में रहती थीं. वे ही बच्चे की देखभाल भी करती थीं, मगर उन की इसी साल शादी हो गई थी और वे यहां से चली गई थीं, जिस के चलते ही इस घर में अब मुझे लाया गया था.

पहले ही दिन से साकेत सर के यहां मुझे इतना प्यार मिला कि अपने घर से भी अच्छा यह घर लगने लगा. मैं सर और मैडम के कहने पर ही उन्हें ‘अंकल’ और ‘आंटी’ कहने लगी थी. गोलू भी मुझे दीदी कहने लगा था. वह तुरंत मुझ से घुलमिल गया था. वह हमेशा मेरे पास ही रहता था.

उजली परछाइयां- भाग 2: क्या अंबर और धरा का मिलन हुआ?

मन साफ सच्चा हो तो सूरत को भी हसीन बना देता है. धरा के चेहरे की खूबसूरती में गजब का आकर्षण था. अभी 23 वर्ष की पिछले महीने ही तो हुई थी. दूसरी ओर धरा जबजब अंबर को देखती तो सोचती थी कि कितना प्यार करता है अपनी बीवी को. काश, मुझे भी ऐसा ही कोई मिले. तलाक की बात सुन कर पहली बार अंबर को रोते देखा था धरा ने और उस के शब्द कानों में अब तक गूंज रहे थे कि ‘मर जाऊंगा लेकिन तलाक नहीं दूंगा. मैं नहीं रह सकता उस के बिना.’

अंबर की गहरी भूरी आंखों में दर्द भरा रहता था. 30 की उम्र हो गई थी लेकिन पर्सनैलिटी उस की ऐसी थी कि देखने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. धरा समझ नहीं पाती थी कि रोशनी को अंबर में ऐसी क्या कमी नजर आई थी जो उसे छोड़ गई.

जुलाई में धरा की दीदी देहरादून घूमने आई थी और उस की खूब खातिर की गई. देहरादून का मौसम खुशगवार था. इसलिए घूमनेफिरने का अलग मजा था. अंबर भी उसे पूछ कर ही सारे प्रोग्राम बना रहा था. प्राकृतिक सौंदर्य के लिए मसूरी, सहस्रधारा, चकराता, लाखामंडल तथा डाकपत्थर देखने का प्रोग्राम अंबर ने झटपट बना डाला. अंबर का किसी और को इंपौर्टेंस देते देख न जाने क्यों धरा के मन में जलन हुई और उसे पहली बार एहसास हुआ कि अनजाने में ही वह अंबर को चाहने लगी है. लेकिन क्यों, कब, कैसे, इस की वजह वह खुद नहीं जानती थी. इस की वजह शायद अंबर का इतना प्यारा इंसान होना था या फिर शायद इतनी गहराई से अपनी बीवी के लिए प्यार था कि धरा खुद उस के प्यार में पड़ गई थी.

धरा के दिल में अंबर ने अनजाने में जगह बना ली थी वहीं धरा जिस तरह सब का खयाल रखती और खुश रहती, वह अंबर के घर वालों को अपना बना रही थी. उस की ये आदतें सब के साथ अंबर को भी उस की तरफ खींच रही थीं. जब कोई चीज हमारे पास न हो तो उस की कमी ज्यादा ही लगती है, घर में भी सब को धरा को देख कर बहू की कमी कुछ ज्यादा ही अखरने लगी थी.

अंबर अकसर धरा को तंग करता रहता, कभी उलझे हुए बालों को खींचता तो कभी गालों पर हलकी चपत लगा देता. दोनों के दिलों में अनकही मोहब्बत जन्म ले चुकी थी जिस का एहसास उन्हें जल्दी ही हुआ. एक दिन धरा ने अंबर को छेड़ते हुए कहा, ‘मुझे तंग क्यों करते रहते हो, सब के लिए आप के दिल में प्यार है, फिर मुझ से ही क्या झगड़ा है?’ इस पर अंबर की मां ने जवाब दिया, ‘वह इसलिए गुस्सा करता है कि तू हमें पहले क्यों नहीं मिली.’ इन चंद शब्दों ने सब के दिलों का हाल बयां कर दिया था.

वह अचानक यह सुन कर बाहर भाग गई थी, बाहर बालकनी में रेलिंग पकड़ कर खड़ी थी. सांसें ऊपरनीचे हो रही थीं. अंबर ने पास आ कर कहा, ‘मैं ने और मेरे घर वालों ने तुम्हारी जैसी पत्नी और बहू का सपना देखा था.’ अंबर ने आगे कहा, ‘पता नहीं कब से, लेकिन मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. हां, मगर मैं तुम से शादी नहीं कर सकता क्योंकि अगर मैं ने ऐसा किया तो अपने बेटे को हमेशा के लिए खो सकता हूं.’

धरा का सुर्ख होता चेहरा सफेद पड़ गया था. उस ने नजरें उठा कर अंबर को देखा, तो अंबर की आंखों में आंसू थे, ‘मेरे पास जीने की वजह सिर्फ यह है कि कभी मेरा बेटा मुझे मिलेगा. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता लेकिन अपना बुढ़ापा जरूर सिर्फ तुहारे साथ बिताना चाहूंगा. सुबहसुबह तुम्हारे हाथ की चाय पिया करूंगा,’ उस वक्त दोनों की सांसें महसूस कर सकती थी धरा जब अंबर ने ये शब्द कहे थे जिन्होंने एक पल में ही उस को आसमान पर ले जा कर वापस नीचे धरातल पर पटक दिया था.

एक पल को धरा को लगा यह कैसा प्यार है और कैसी बेतुकी बात कही है अंबर ने, लेकिन दूसरे ही पल उसे भविष्य में अंबर में एक हारा और टूटा हुआ पिता नजर आया जिस का बेटा उसे कह रहा था कि तुम ने दूसरी शादी के लिए मुझे और मेरी मां को छोड़ा. शायद सही भी थी अंबर की बात. 4 साल का बच्चा जब मां के साथ रहता है तो वह उतना ही सच समझेगा जितना उसे बताया जाएगा.

जिस से प्यार करती है उसे अपनी वजह से ही टूटा हुआ कैसे देखती धरा. अगर अंबर बेटे के लिए उस का इंतजार कर सकता है तो धरा भी तो अंबर का इंतजार कर सकती है. फिर अंबर मान भी जाता लेकिन अपने ही घर वालों को मनाना भी तो धरा के लिए आसान नहीं था.

अंबर का हाथ पकड़ कर धरा बोली, ‘अगर सच में हमारे बीच प्यार है तो एक दिन हम जरूर मिलेंगे. मैं इंतजार करूंगी उस दिन का जब सबकुछ सही होगा और रही शादी की बात, तो राधाकृष्णा की भी शादी नहीं हुई थी लेकिन आज भी उन का नाम साथ ही लिया जाता है.’

लेकिन शर्तें तो दिमाग लगाता है, दिल नहीं और सब हालात को जानतेसमझते भी उन दोनों के तनमन भी दूर नहीं रह सके. शादी की बात तो दोबारा नहीं हुई, लेकिन दोनों के ही घर वालों को उन के बीच पनपे रिश्ते का अंदाजा हो गया था. ऐसे ही साथ रहते 2 साल निकल गए थे. अब भी अंबर अपने बेटे किट्टू से बात करने को तरसता था. सबकुछ वैसा ही चल रहा था.

धरा ने जौब जौइन कर ली और एक फ्रैंड की शादी में गई थी. वहां से आ कर एक बार फिर उस के दिल में अंबर से शादी करने की चाहत करवट लेने लगी. बहुत मुश्किल था उस का अंबर के इतने पास होते हुए भी दूर होना और इसीलिए उस का प्यार और उस की छुअन को अपने एहसासों में बसा कर धरा देहरादून छोड़ मुंबई आ गई थी. अब एक ही धुन थी उसे, टीवी इंडस्ट्री में नाम की और बहुत सारे पैसे कमाने की जिस से शादी न सही कम से कम सफल हो कर अपने घर वालों के प्रति कर्तव्य निभा सके.

अंधविश्वास की बलिवेदी पर : भाग 2- रूपल क्या बचा पाई इज्जत

पर अभी जो रूपल के साथ हो रहा था, वह तो और भी बुरा था. पिछले कुछ वक्त से उस ने महसूस किया था कि आश्रम के काम के बहाने उसे गुरुजी के साथ जानबूझ कर अकेले छोड़ा जाता है.

रूपल छोटी जरूर थी, पर इतनी भी नहीं कि अपने शरीर पर रेंगते उन हाथों की बदनीयती पहचान न सके. वैसे भी उस ने गुरुदेव को अपने खास कमरे में आश्रम की एक दूसरी सेवादारिन के साथ जिन कपड़ों और हालात में देखा था, वे उसे बहुत गलत लगे थे. गुरुदेव के प्रति उस की भक्ति और आस्था उसी वक्त चूर हो चुकी थी.

मगर उस ने यह बात जब मामी को बताई तो उन्होंने इसे नजर का धोखा कह कर बात वहीं खत्म करने को कह दिया था. तब से रूपल के मन में एक दहशत सी समा गई थी. वह बिना मामी के उस आश्रम में पैर भी नहीं रखना चाहती थी. सपने में भी वह बाबा अपनी आंखों में लाल डोरे लिए अट्टहास लगाता उस की ओर बढ़ता चला आता और नींद में ही डर से कांपते हुए रूपल की चीख निकल जाती. पर मामी का गुस्सा उसे वहां जाने पर मजबूर कर देता.

‘आखिर इस हालत में कब तक मैं बची रह सकती हूं. काश, मैं मां को बता सकती. वे आ कर मुझे यहां से ले जातीं…’ रूपल का दर्द आंखों से बह निकला.

‘‘बहरी हो गई क्या. कुकर सीटी पर सीटी दिए जा रहा?है, तुझे सुनाई नहीं देता?’’ अचानक मामी के चिल्लाने पर रूपल ने गालों पर ढुलक आए आंसू आहिस्ता से पोंछ डाले, ‘‘जी मामी, यहीं हूं,’’ कह कर उस ने गैस पर से कुकर उतारा.

‘‘सुन, आज गुरुजी का बुलावा है. सब काम निबटा कर वहां चली जाना,’’ सुबह मामा के औफिस जाते ही मामी ने रूपल को फरमान सुनाया.

‘‘मामीजी, एक बात कहनी थी आप से…’’ थोड़ा डरते हुए रूपल के मुंह से निकला, ‘‘दरअसल, मैं उन बाबा के पास नहीं जाना चाहती. वह मुझे अकेले में बुला कर यहांवहां छूने की कोशिश करता है. मुझे बहुत घिन आती है.’’

‘‘पागल हुई है लड़की… इतने बड़े महात्मा पर इतना घिनौना इलजाम लगाते हुए तुझे शर्म नहीं आती. उस दिन भी तू उन के बारे में अनापशनाप बके जा रही थी. तू बखूबी जानती भी है कि वे कितने चमत्कारी हैं.’’

‘‘मामीजी, मैं आप से सच कह रही हूं. प्लीज, आप मुझ से कोई भी काम करा लो लेकिन उन के पास मत भेजो,’’ रूपल की आंखों में दहशत साफ दिखाई दे रही थी.

‘‘देख रूपल, अगर तुझे यहां रहना है, तो फिर मेरी बात माननी पड़ेगी, नहीं तो तेरी मां को फोन लगाती हूं और तुझे यहां से ले जाने के लिए कहती हूं.’’

‘‘नहीं मामी, मां पहले ही बहुत परेशान हैं, आप उन्हें फोन मत करना. आप जहां कहेंगी मैं चली जाऊंगी,’’ रूपल ने दुखी हो कर हथियार डाल दिए.

यह सुन कर मामी के होंठों पर एक राजभरी मुसकान बिखर गई. पता नहीं पर उस दिन रूपल की मामी भी उस के साथ गुरुजी के आश्रम पहुंचीं. कुछ ही देर में बाबा भक्तों को दर्शन देने वाले थे.

‘‘तू यहीं बैठ, मैं अंदर कुछ जरूरी काम से जा रही हूं,’’ मामी बोलीं.

रूपल को सब से अगली लाइन में बिठा कर मामी ने उसे अपना मोबाइल फोन पकड़ाया.

‘‘बाबा, मैं ने अपना काम पूरा किया. आप को एक कन्या भेंट की है. अब तो मेरी गोदी में नन्हा राजकुमार खेलेगा न?’’ मामी ने बाबा के सामने अपना आंचल फैलाते हुए कहा.

‘‘अभी देवी से प्रभु का मिलन बाकी है. जब तक यह काम नहीं हो जाता, तू कोई उम्मीद लगा कर मत बैठना,’’ बाबा के पास खड़े सेवादार ने जवाब दिया.

‘‘लेकिन, मैं ने तो अपना काम पूरा कर दिया…’’

‘‘हम ने तुझे पहले ही कहा था कि प्रभु और देवी के मिलन में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए. तुझे उसे खुद तैयार करना होगा. इस काम में प्रभु को जबरदस्ती पसंद नहीं.’’

‘‘ठीक है, कल तक यह काम भी हो जाएगा,’’ मामी ने बाबा के पैरों को छूते हुए कहा. उधर तुरंत ही किसी काम से मामा का फोन आने से मामी के पीछे चल पड़ी रूपल ने जैसे ही ये बातें सुनीं, उस के पैरों तले जमीन सरक गई.

मामी को आते देख रूपल थोड़ी सी आड़ में हो गई. ‘कहां गई थी?’’ उसे अपने पीछे से आते देख मामी हैरान हो उठीं.

‘‘बाथरूम गई थी…’’ रूपल ने धीरे से इशारों में बताया.

रूपल बुरी तरह डर चुकी थी. अपनी मामी का खौफनाक चेहरा उस के सामने आ चुका था. अब तक उसे यही लगता था कि मामी भले ही तेज हैं, पर वे अच्छी हैं और बाबा की सचाई से बेखबर हैं, जिस दिन उन्हें गुरुजी की असलियत पता चलेगी वे उसे कभी आश्रम नहीं भेजेंगी. पर अब खुद उस की आंखों पर पड़ा परदा उठ गया था. उसे मामी की हर चाल अब समझ आ चुकी थी.

शादी के 10 साल तक बेऔलाद होने का दुख उन्होंने इस तरह दूर करने की कोशिश की. गांव में आ कर उन की गरीबी पर तरस खा कर उसे यहां एक साजिश के तहत लाना और बाबा के आश्रम में जबरदस्ती भेजना. इन बातों का मतलब अब वह समझ चुकी थी.

लेकिन अब रूपल क्या करे. उसे अपनी मां की बहुत याद आ रही थी. वह बस हमेशा की तरह उन के आंचल के पीछे छिप जाना चाहती थी.

‘मैं मां से इस बारे में बात करूं क्या… पर मां तो मामी की बातों पर इतना भरोसा करती हैं कि मेरी बात उन्हें झूठी ही लगेगी. और फिर घर के हालात… अगर मां जान भी जाएं तो क्या उस का गांव जाना ठीक होगा. वहां मां अकेली 4-4 जनों का खानाखर्चा कैसे संभालेंगी?’ बेबसी और पीड़ा से उस की आंखें भर आईं.

‘‘रूपल… 2 लिटर दूध ले आना, आज तेरी पसंद की सेवइयां बना दूंगी. तुझे मेरे हाथ की बहुत अच्छी लगती हैं न,’’ बातों में मामी ने उसे भरपूर प्यार परोसा.

खाना खा कर रात को बिस्तर पर लेटी रूपल की आंखों से नींद कोसों दूर थी. मामी ने आज उसे बहुत लाड़ किया था और मांबहनों के सुखद भविष्य का वास्ता दे कर सच्चे भाव से बाबा की हर बात मान कर उन की भक्ति में डूब जाने को कहा था. पर अब वह बाबा की भक्ति में डूब जाने का मतलब अच्छी तरह समझती थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अम्मा- भाग 2: आखिर अम्मा वृद्धाश्रम में क्यों रहना चाहती थी

अपर्णा समझ गई थी कि बेटी के रिक्त स्थान ने अपनी जगह शून्य तो बनाया हुआ है, पर बाबूजी और अम्मां, बहू के नाज की डोलियां भी बड़े लाड़ से उठा रहे हैं.

बाबूजी की मृत्यु के बाद बहुत कुछ बदल गया. उन 13 दिनों में ही अम्मां बेहद थकीथकी सी रहने लगी थीं. नीरा और अजय अम्मां का बेहद ध्यान रख रहे थे पर आनेजाने वाले लंबी सांस भर कर, अम्मां को चेतावनी जरूर दे जाते थे.

‘पति के जाने के बाद पत्नी का सबकुछ छिन जाता है. अधिकार, आधिपत्य सबकुछ,’ दूसरी, पहली के सुर में सुर मिला कर सर्द आह भरती.

जितने मुंह उतनी बातें. ऐसी नकारात्मक सोच से कहीं उन के हंसतेखेलते परिवार का वातावरण दूषित न हो जाए, अम्मां ने 4 दिनों में ही बाबूजी का उठाला कर दिया.

लोगों ने आलोचना में कहा, ‘बड़ी माडर्न हो गई है लीलावती,’ पर अम्मां तो अम्मां ठहरीं. अपने परिवार की खुशियों के लिए रूढि़यों और परंपराओं का त्याग, सहर्ष ही करती चली गईं.

लोगों की आवाजाही बंद हुई तो दिनचर्या पुराने ढर्रे पर लौट आई. अम्मां हर समय इसी  कोशिश में रहतीं कि घर का वातावरण दूषित न हो. उसी तरह बच्चों के साथ हंसतीखेलतीं, घर का कामकाज भी करतीं लेकिन 9 बजे के बाद वह जग नहीं पाती थीं और कमरे का दरवाजा भेड़ कर सो जातीं. अजय अच्छी तरह समझता था कि 12 बजे तक जागने वाली अम्मां 9 बजे कभी सो ही नहीं सकतीं. आखिर उन्हीं की गोद में तो वह पलाबढ़ा था.

एक रात 12 बजे, दरवाजे की दरार में से पतली प्रकाश की किरण बाहर निकलती दिखाई दी तो अजय उन के कमरे में चला गया. अम्मां लैंप के मद्धिम प्रकाश में स्वामी विवेकानंद की कोई पुस्तक पढ़ती जा रही थीं और रोती भी जा रही थीं. अजय ने धीरे से उन के हाथ से पुस्तक ली और बंद कर के पास ही स्टूल पर रख कर उन की बगल में बैठ गया. अम्मां उठ कर पलंग पर बैठ गईं और बोलीं, ‘तू सोया नहीं?’

‘आप नहीं सोईं तो मैं कैसे सो जाऊं? इस तरह से तो आप कोई बीमारी पाल लेंगी,’ अजय ने चिंतित स्वर में कहा.

‘अच्छा है, मेरे जीने का अब मकसद ही क्या रह गया है. तेरे बाबूजी ने मुझे सबकुछ दे दिया. धन, ऐश्वर्य, मानसम्मान. जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है मुझे. दोनों बच्चों की शादी हो गई. अपनीअपनी गृहस्थी में रमे हुए हो तुम दोनों. नातीपोतों का मुंह देख लिया. तेरे बाबूजी के बिना अब एकएक दिन भारी लग रहा है.’

अजय ने पहली बार अम्मां को कमजोर पड़ते देखा था, ‘और सुबहशाम मैं आप का चेहरा न देखूं तो मुझे चैन पड़ता है क्या? कभी सोचा है अम्मां कि मैं कैसे रह पाऊंगा तुम्हारे बिना?’

अम्मां ने बेटे के थरथराते होंठों पर हाथ रख दिया. बेटे की आंखों से टपका एकएक आंसू का कतरा उन्होंने अपने आंचल में समेट लिया था.

उस दिन के बाद से अजय अम्मां को एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ता था. मां को अकेलापन महसूस न हो, इसलिए लवकुश अम्मां के पास ही सोने लगे. वैसे भी उन्होंने ही उन्हें पाला था. अब वह बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने और लेने भी जाने लगीं. घर लौट कर उन का होमवर्क भी अम्मां ही करवा देती थीं. अजय हर काम अम्मां से पूछ कर या बता कर करता. यहां तक कि सुबहशाम सब्जी कौन सी बनेगी यह भी अम्मां से ही पूछा जाता. शाम को अपर्णा भी पति के साथ आ जाती थी.

इस तरह घर का माहौल तो बदल गया पर नीरा को अपना अधिकार छिनता सा लगने लगा. पति का अम्मां के प्रति जरूरत से ज्यादा जुड़ाव उसे पसंद नहीं आया. उठतेबैठते अजय को उलाहना देती, ‘ऐसी भी क्या मातृभक्ति कि उठतेबैठते, सोतेजागते मां की आराधना ही करते रहो.’

‘नीरा, कुछ ही समय की बात है. समय स्वयं मरहम का काम करता है. धीरेधीरे अम्मां भी सहज होती चली जाएंगी. बाबूजी और अम्मां का साथ दियाबाती का साथ था. जरा सोचो, कैसे जीती होंगी वह बाबूजी की मृत्यु के बाद.’

‘अजी, पिताजी तो मेरे भी गुजरे थे. 2-4 दिन रह कर सामाजिकता निभाई और अपने घर के हो कर रह गए. यहां तो 6 माह से गमी का माहौल चल रहा है. ऊपर से अपर्णा दीदी अलग धमक पड़ती हैं.’

अजय ने नीरा के होंठों को कस कर भींच दिया था पर चौखट पर खड़ी अपर्णा ने सबकुछ सुन लिया था. उस के तो तनबदन में आग सी लग गई पर सीधे नीरा से कुछ न कह कर अम्मां से जरूर मन की भड़ास निकाली थी.

‘3-3 ननदें हैं मेरी. हफ्ते में बारीबारी से तीनों आती हैं. मेरी सास के साथ मुंह से मुंह जोड़ कर बैठी रहती हैं, चौके में मैं अकेली पिसती हूं. सब्जी काट कर भी कोई नहीं देता. एक यह घर है, सबकुछ किया कराया मिलता है, तब भी बहू को चैन नहीं.’

‘तेरी ससुराल में होता होगा. बहू तो घर की लक्ष्मी होती है. उस की निंदा कोई बेटी से क्यों करे? वह पहले ही अपना घर छोड़ कर पराए घर की हो गई,’ अपर्णा की बात को बीच में काट कर अम्मां ने साफगोई से बीचबचाव करते हुए कहा था.

पर बेटी के जाने के बाद उन्होंने बारीकी से विश्लेषण किया. सुहाग उन का उजड़ा, वैधव्य उन्हें मिला. न किसी से कुछ मांगा, न ही गिलाशिकवा किया. चुपचाप कोने में बैठी, किताबों से मन बहलाती रहीं. फिर भी घर का वातावरण दूषित क्यों हो गया.

मन में यह विचार आया कि कहीं ऐसा तो नहीं, अजय उन्हें ज्यादा समय देने लगा है. इसलिए नीरा चिड़चिड़ी हो गई है. हर पत्नी को अपने पति का सान्निध्य भाता ही है.

अम्मां ने एक अहम फैसला लिया. अगले दिन शाम होते ही वह सत्संग पर निकल गई थीं. अपनी हमउम्र औरतों के साथ मिल कर कुछ देर प्रवचन सुनती रहीं फिर गपशप में थोड़ा समय व्यतीत कर वापस आ गईं. यही दिनचर्या आगे भी चलती रही.

हमेशा की तरह अजय अम्मां के कमरे में जाता और जब वह नहीं मिलतीं तो नीरा से प्रश्न करता. नीरा 10 दलीलें देती, पर अजय को चैन नहीं था. व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाली अम्मां ‘कर्म’ पर विश्वास करती थीं. घर छोड़ कर सत्संग, कथा, कीर्तन करने वाली महिलाओं को अम्मां हेयदृष्टि से ही देखती थीं. फिर अब क्या हो गया?

नीरा प्रखर वक्ता की तरह बोली, ‘बाबूजी के गुजरने के बाद अम्मांजी कुछ ज्यादा ही नेमनियम मानने लगी हैं. शायद समाज के भय से अपने वैधव्य के प्रति अधिक सतर्कता बरतनी शुरू कर दी है.’

एक शाम अम्मां घर लौटीं तो घर कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. नीरा बुरी तरह चीख रही थी. अजय का स्वर धीमा था. फिर भी अम्मां ने इतना तो सुन ही लिया था, ‘दालरोटी का खर्च तो निकलता नहीं, फलदूध कहां से लाऊं?’

रात को नीरा अम्मां के कमरे में फलदूध रखने गई तो उन्होंने बहू को अपने पास बिठा लिया और बोलीं, ‘एक बात कहूं, नीरा.’

‘जी, अम्मां,’ उसे लगा, अम्मां ने शायद हम दोनों की बात सुन ली है.

‘तुम ने एम.ए., बी.एड. किया है और शादी से पहले भी तुम एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थीं.’

‘वह तो ठीक है अम्मां. पर तब घरपरिवार की कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब लवकुश भी हैं. इन्हें कौन संभालेगा?’ नीरा के चेहरे पर चिढ़ के भाव तिर आए.

‘मैं संभालूंगी,’ अम्मां ने दृढ़ता से कहा, ‘चार पैसे घर में आएंगे तो घर भी सुचारु रूप से चलेगा.’

सासबहू की बात चल ही रही थी, जब अजय और अपर्णा कमरे में प्रविष्ट हुए. नीरा चौके में चायनाश्ते का प्रबंध करने गई तो अजय ने ब्रीफकेस खोल कर एकएक कर कागज अम्मां के सामने फैलाने शुरू किए और फिर बोला, ‘अम्मां, सी.पी. फंड, इंश्योरेंस, गे्रच्युटी से कुल मिला कर 5 लाख रुपए मिले हैं. मिल तो और भी सकते थे, पर बाबूजी ने यहां से थोड़ाथोड़ा ऋण ले कर हमारी शादियों और शिक्षा आदि पर खर्च किया था. 7 हजार रुपए महीना तुम्हें पेंशन मिलेगी.’

‘अरे, बेटा, मैं क्या करूंगी इतने पैसों का? तुम्हीं रखो यह कागज अपने पास.’

‘अम्मां, पैसा तुम्हारा है. सुख में, दुख में तुम्हारे काम आएगा,’ अजय ने लिफाफा अम्मां को पकड़ा दिया.

नीरा ने सुना तो अपना माथा पीट लिया. बाद में अजय को आड़े हाथों ले कर बोली, ‘राजीखुशी अम्मां तुम्हें अपनी जमा पूंजी सौंप रही थीं तो ले क्यों न ली? पूरे मिट्टी के माधो हो. अब बुढि़या सांप की तरह पैसे पर कुंडली मार कर बैठी रहेगी.’

कम्मो डार्लिंग – भाग 2 : इच्छाओं के भंवरजाल में कमली

मां ने उस से कहा था, ‘बेटा, कमली मुझे बहुत अच्छी लगती है. तेरे पीछे वह जिस तरह मेरी देखभाल करती है, उस तरह तो मेरी अपनी बेटी होती, तो वह भी नहीं कर पाती. मैं ने सोच लिया है कि तेरी शादी मैं कमली से ही कराऊंगी, क्योंकि मुझे पूरा यकीन है कि वह तेरा घर अच्छी तरह संभाल लेगी. नीतेश मन से अभी शादी करने को तैयार नहीं था. उस की इच्छा थी कि पहले वह अच्छा पैसा कमाने लगे. शहर में किराए के मकान को छोड़ कर अपना मकान बना ले, कुछ पैसा इकट्ठा कर ले, ताकि भविष्य में पैसों के लिए किसी का मुंह न ताकना न पड़े. लेकिन मां की खुशी के लिए उसे अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर कमली से शादी करनी पड़ी.

शादी के कुछ ही महीनों बाद अचानक नीतेश की मां की तबीयत बिगड़ गई. काफी इलाज के बाद भी वे बच नहीं पाईं. नीतेश कमली को अपने साथ शहर ले आया. वहां कमली के रहनसहन, खानपान, बोलचाल और पहननेओढ़ने में एकदम बदलाव आ गया. उसे देख कर लगता ही नहीं था कि वह गांव की वही अल्हड़ और सीधीसादी कमली है, जो कभी सजनासंवरना भी नहीं जानती थी.

कमली में आए इस बदलाव को देख कर नीतेश को जितनी खुशी होती, उतना ही दुख भी होता था, क्योंकि वह दूसरों की बराबरी करने लगी थी. पड़ोस की कोई औरत 2 हजार रुपए की साड़ी खरीदती, तो वह 3 हजार रुपए की साड़ी मांगती. किसी के घर में 10 हजार रुपए का फ्रिज आता, तो वह 15 हजार वाले फ्रिज की डिमांड करती. नीतेश ने कई बार कमली को समझाया भी कि दूसरों की बराबरी न कर के हमें अपनी हैसियत और आमदनी के मुताबिक ही सोचना चाहिए, लेकिन उस के ऊपर कोई असर नहीं हुआ, जिस का नतीजा यह निकला कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने की खातिर एक ऐसे भंवरजाल में जा फंसी, जिसे नीतेश ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.

एक दिन शाम को नीतेश अपनी ड्यूटी से वापस आया, तो घर के दरवाजे पर ताला लटका हुआ था. उस ने सोचा कि कमली किसी काम से कहीं चली गई होगी, इसलिए वह बाहर खड़ा हो कर उस का इंतजार करने लगा. इस बीच उस ने कई बार कमली को फोन भी मिलाया, लेकिन उस का फोन बंद था. रात के तकरीबन 12 बज चुके थे, तभी उस के दरवाजे के सामने एक चमचमाती कार आ कर रुकी, जिस में से कमली नीचे उतरी. उस के कदम लड़खड़ा रहे थे. उस के लड़खड़ाते कदमों को देख कर कार में बैठा शख्स बोला, ‘‘कम्मो डार्लिंग, संभल कर.’’

कमली उस की ओर देख कर मुसकराई. वह शख्स भी मुसकराया और बोला, ‘‘ओके कम्मो डार्लिंग, बाय.’’ इतना कह कर वह वहां से चला गया. यह देख कर नीतेश हैरान रह गया. उस का दिल टूट गया. उसे कमली से नफरत हो गई. उस के जी में तो आया कि वह अपने हाथों से उस का गला घोंट दे, मगर…

कमली शराब के नशे में इस कदर चूर थी कि उसे घर का ताला खोलना भी मुश्किल हो रहा था. नीतेश ने उस से चाबी छीनी और दरवाजा खोल कर अंदर चला गया. विचारों की कश्ती में सवार सोफे पर बैठा नीतेश खुद से सवाल कर रहा था और खुद ही उन के जवाब दे रहा था. उसे खामोश देख कर कमली ने कहा, ‘‘नीतेश, मुझ से यह नहीं पूछोगे कि मैं इतनी रात को कहां से आ रही हूं? मेरे साथ कार में कौन था और मैं ने शराब क्यों पी है?’’

‘‘कमली, अगर बता सकती हो तो सिर्फ इतना बता दो कि मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी रह गई थी, जिस ने तुम्हें कमली से कम्मो डार्लिंग बनने के लिए मजबूर कर दिया?’’

‘‘नीतेश, मैं तुम्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहती. सबकुछ साफसाफ बता देना चाहती हूं. मैं आकाश से प्यार करने लगी हूं.’’

‘‘प्यार…?’’ चौंकते हुए नीतेश ने कहा. ‘‘हां, नीतेश. यह वही आकाश है, जिस के साड़ी इंपोरियम से हम एक बार साड़ी खरीदने गए थे. तुम्हें याद होगा िमैं ने गुलाबी रंग की साड़ी पसंद की थी और तुम ने उस साड़ी को महंगा बता कर खरीदने से इनकार कर दिया था.

तब आकाश ने तुम से कहा था कि साड़ी महंगी बता कर भाभीजी का दिल मत तोड़ो. भाभीजी की खूबसूरती के सामने 3 हजार तो क्या 20 हजार की साड़ी भी सस्ती होगी. लेकिन तुम आकाश की बातों में नहीं आए, जिस से मेरा दिल टूट गया.’’

‘‘दिल टूट गया और तुम आकाश से प्यार करने लगीं?’’ ‘‘नीतेश, हर लड़की की तरह मेरे भी कुछ सपने हैं. मैं भी ऐश की जिंदगी जीना चाहती हूं. महंगी से महंगी साड़ी और गहने पहनना चाहती हूं.

मगर मैं जानती हूं कि तुम जैसे तंगदिल और दकियानूसी इनसान के साथ रह कर मेरा यह अरमान कभी पूरा नहीं होगा, इसलिए मैं सोचने लगी कि काश, मैं आकाश की पत्नी होती. वह कितने खुले दिन का इनसान है. कितनी खुशनसीब होगी वह लड़की, जो आकाश की पत्नी होगी.

कितना प्यार करता होगा आकाश अपनी पत्नी को. लेकिन आकाश शादीशुदा नहीं है, यह तो मुझे तब पता चला, जब एक दिन आकाश से अचानक मेरी मुलाकात बाजार में हो गई और उस ने मुझ से अपने साथ कौफी पीने को कहा. मैं खुद को रोक नहीं पाई और उस के साथ कौफी पीने चली गई.’’

औनर किलिंग- भाग 2: आखिर क्यों हुई अतुल्य की हत्या?

उस लड़की ने कंपकंपाते हाथों से पानी का गिलास लिया और एक ही सांस में पूरा गिलास खाली करते हुए बोली, ‘‘वे लोग मेरे पीछे पड़े हैं. वे मु झे भी जान से मार डालना चाहते हैं. लेकिन किसी तरह मैं अपनी जान बचाते हुए यहां तक पहुंची हूं, ताकि पुलिस को सब बता सकूं.’’

‘‘हांहां, मैं सम झ गया. लेकिन तुम डरो मत, क्योंकि अब तुम पुलिस के पास हो.’’

पर, घबराहट के मारे उस लड़की के मुंह से ठीक तरह से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी. उस का पूरा शरीर कांप रहा था. चेहरा पीला पड़ गया था. होंठ काले पड़ गए थे. आंखें सूजी हुई थीं.

लड़की को घबराया हुआ देख कर इंस्पैक्टर माधव ने हवलदार को इशारा किया कि दरवाजे पर 2 और बंदूकधारी तैनात कर दो, ताकि इस लड़की का डर थोड़ा कम हो.

जब वह लड़की थोड़ा शांत हुई और लगा कि यहां उस की जान को कोई खतरा नहीं है, तो वह बताने लगी, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, मैं अमृता हूं और वे दोनों हत्यारे मेरे भाई हैं. उन्होंने ही मेरे अतुल्य की हत्या…’’ बोल कर वह फूटफूट कर रोने लगी.

इंस्पैक्टर माधव को अमृता की बात से यह तो सम झ में आने ही लगा था कि जरूर यह इश्कमुहब्बत का मामला है, लेकिन वे उस लड़की के मुंह से सारी कहानी सुनना चाहते थे.

अपने आंसू पोंछ कर अमृता बताने लगी कि वह और अतुल्य एकदूसरे से प्यार करते थे और जल्द ही दोनों अपने रिश्ते के बारे में परिवार वालों को बताने ही वाले थे कि यह सब हो गया.

अपने और अतुल्य के बारे में बताते हुए अमृता अतीत की यादों में खोती चली गई.

अमृता उस गांव के ठाकुर की बेटी थी और अतुल्य एक कुम्हार परिवार का बेटा. लेकिन कुम्हार का काम उस के दादापरदादा किया करते थे. अतुल्य के पिताजी तो इसी गांव के एक स्कूल में टीचर थे.

स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अतुल्य ने शहर जा कर एक इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला ले लिया और इधर अमृता के घर वाले उसे गांव के ही कालेज में दाखिला दिलवाने लगे. मगर वह जिद करने लगी कि उसे शहर के कालेज में जा कर पढ़ना है.

थोड़ी आनाकानी के बाद अमृता के घर वाले उसे शहर भेजने को राजी हो गए. अमृता का दाखिला भी उसी कालेज में हो गया, जिस में अतुल्य पढ़ रहा था.

अमृता की बड़ी भाभी रुक्मिणी, जो उसे अपनी बेटी की तरह प्यार करती थीं, ने अपने हाथों से उस के लिए नमकीन, मिठाई, मठरी, चिवड़ा बनाया और सम झाया कि वह शहर में अपना खयाल रखे और कोई बात हो, तो उन्हें फोन जरूर करे.

‘‘हां, जरूर करूंगी मेरी मां…’’ अपनी भाभी के गले लग कर उन से विदा लेते हुए अमृता बोली थी.

एक ही शहर में रहने और एक ही कालेज में पढ़ने के चलते अमृता और अतुल्य की नजदीकियां और बढ़ती चली गईं. कालेज के बाद अकसर वे दोनों कहीं एकांत जगह पर बैठ कर अपने भविष्य के सपने बुनते.

इस शहर में दोनों के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यहां उन्हें कोई पहचानने वाला नहीं था, वरना गांव में तो डर लगा रहता था कि जाने कब कौन देख ले और बात का बतंगड़ बना कर उन के परिवार को सुना आए और फिर उन का एकदूसरे को देखना तक मुहाल हो जाए, इसलिए तो वे दोनों बचबचा कर किसी तरह उस पुरानी फैक्टरी में मिला करते थे, जहां लोगों का आनाजाना न के बराबर होता था.

लेकिन अब शहर में वे दोनों आजाद पंछी की तरह जहां मन होता वहां उड़तेफिरते रहते थे, हंसतेमुसकराते, गुनगुनाते हुए एकदूसरे की बांहों में कैसे 3 साल बीत गए, पता ही नहीं चला.

लेकिन अब कालेज पूरा होने के एक साल के बाद अमृता के घर वाले उस के लिए लड़का देखने लगे थे और इधर अतुल्य की मां भी बहू लाने के सपने देखने लगी थीं. उन दोनों ने इतने सालों तक यह बात इसलिए अपने परिवार वालों से छिपा कर रखी थी कि सही समय आने पर बता देंगे.

वैसे भी अतुल्य की सब से छोटी बहन की अगले ही महीने शादी तय हुई थी. शादी में तो जाना ही था, सोचा उसी समय वह अपने और अमृता के रिश्ते के बारे में सब को बता देगा.

इधर अमृता को यकीन था कि उस के परिवार वाले उस की खुशियों के आड़े कभी नहीं आएंगे, क्योंकि वह अपने परिवार में सब की लाड़ली जो थी. आज तक ऐसा नहीं हुआ, जो उस की कोई भी जिद पूरी न की गई हो.

अमृता के दोनों भाई उसे अपनी हथेलियों पर और पिता सिर पर बिठा कर रखते थे. घर में उसे इसलिए सब इतना प्यार करते थे, क्योंकि उन के घर में 3 पुश्तों के बाद बेटी पैदा हुई थी.

अमृता के पिताजी गांव के जमींदार तो थे ही, वे लोगों को सूद पर पैसे भी दिया करते थे. गांवभर के लोग जरूरत के समय उन के पास सूद पर पैसे लेने आते थे. लेकिन उन का एक उसूल था कि चाहे जितने पैसे ले जाओ सूद पर, लेकिन अगर तय समय पर पैसे नहीं लौटा पाए, तो उन की खैर नहीं.

पैसों के बदले वे मजबूर लोगों की जमीन, घर यहां तक कि गायभैंस तक अपने कब्जे में कर लेते थे और तब तक वापस नहीं देते थे, जब तक उन के पूरे पैसे नहीं मिल जाते थे.

लेकिन अतुल्य के पिता इन लोगों से दूरी बना कर रखने में ही अपनी भलाई सम झते थे. वे जानते थे कि कोयले से न दोस्ती अच्छी और न ही दुश्मनी अच्छी. ऊपर से घर में 4-4 जवान बेटियां हैं, इसलिए वे गांव के किसी भी मसले से दूर ही रहते थे.

‘‘अमृता, तुम से एक बात पूछूं क्या?’’ गोद में लेटी अमृता की हथेली को प्यार से दबा कर चूमते हुए अतुल्य बोला था, ‘‘अगर तुम्हारे या मेरे परिवार वालों ने हमें एक न होने दिया तो हम क्या करेंगे? मैं तो तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा. सच कहता हूं अमृता?’’ बोलते हुए अतुल्य उदास हो गया था.

मैं अहम हूं- भाग 2: शशि की लापरवाही

उस के व्यावहारिक होने का थोड़ा अंदाजा तो बाहर से ही मिल रहा था. जब अंदर जा कर देखा तो एलईडी टैलीविजन, कंप्यूटर, चमचमाता महंगा फर्नीचर ओह, क्याक्या गिनाए. शशि की हैरानी को इंदुशायद भांप गई थी. बड़े गर्व से, गर्व के बजाय घमंड कहना ही उचित होगा, बोली, ‘यह सब मेरी मेहनत का फल है. यदि विकी को छात्रावास में न रखती तो इतने आराम से नौकरी थोड़े ही की जा सकती थी. उस को देखने के लिए आया, नौकर रखो, फिर उन नौकरों की निगरानी करो, अच्छा सिरदर्द ही समझो. अब मुझे कोई फिक्र नहीं. हर महीने 70 हजार रुपए कमा लेती हूं. काम भी अच्छा ही है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में कंसल्टैंट के तौर पर काम करती हूं. जरा ढंग से संवर के रहना, लोगों से मिलना और मुसकान बिखेरते रहना. संवर के रहना किस औरत को अच्छा नहीं लगेगा. अरे, मैं तो बोले ही जा रही हूं. आप भी कहेंगी, अच्छी मिली. आइए, मैं आप को पूरा घर दिखाऊं.’

शयनकक्ष तो बिलकुल फिल्मी था. बढि़या सुंदर डबलबैड और उस पर बिछी चादर इतनी सुंदर कि हाय, शशि कल्पना में अपनेआप को उस पर अजय के साथ देखने लगी. सिर को झटक कर उस विचार को तुरंत निकाल देने की कोशिश की. बाहर के कमरे में आने पर अजय बोला, ‘चलो शशि, क्या यहीं रहने का इरादा है?’

इंदु ने अजय से कहा, ‘आप इन्हें कभीकभी यहां ले आया करिए. इन का मन भी बहला करेगा. आप को समय न हो तो मनोज को फोन कर दिया कीजिए, हम खुद ही इन्हें ले आएंगे.’ शशि की इच्छा तो हुई कि कहे, जब आप लेने आएंगी तो वहीं, मेरे घर पर बातचीत हो सकती है. पर उस का मन इतना भारी हो रहा था कि लग रहा था कि अगर एक बोल भी मुंह से निकला तो वह रो देगी. वह समझ रही थी कि इंदु सिर्फ अपने धन का दिखावा भर दिखाना चाहती थी. घर लौटते हुए आधे रास्ते तक दोनों चुप रहे. फिर अजय एकदम बोला, ‘मनोज की पत्नी भी खूब है.’ वह आगे कुछ बोले, इस से पहले शशि ने टोक दिया, ‘हां, मुझ जैसी बेवकूफ थोड़ी है.’

उस की आवाज रोंआसी थी. अजय ने आश्चर्य से उस की ओर देखा और प्यार से बोला, ‘शशि, कैसी बेवकूफों सी बातें करती हो?’ फिर उस ने एकदम दांतों तले जीभ दबा ली. यह वह अनजाने में क्या बोल गया, मानो शशि की कही हुई बात का समर्थन कर दिया हो. एकदम बात बदलते हुए बोला, ‘बहुत देर हो गई, बच्चे शायद सो भी गए होंगे.’ पर शशि की आग्नेय दृष्टि देख कर फिर वह रास्ते भर चुप ही रहा.

घर पहुंचने पर शशि सिरदर्द का बहाना कर के बिना कुछ खाएपिए लेट गई. पर रातभर उसे इंदु के बैडरूम के ही सपने आते रहे. इंदु की अलमारी में सजी साडि़योें की इंद्रधनुषी छटा रहरह कर आंखों के सामने नाच रही थी. ओह, कितनी साडि़यां, रोज एकएक पहने तो साल में उसे 3 या 4 बार से अधिक पहनने का मौका न आए. अब तो उन की दूसरी कार भी आने को है. वैसे तो कई लोगों के अच्छे व बड़े घर, कार सब देख चुकी है. खुद उस के भाईसाहब के पास कार है पर वे बहुत बड़े इंजीनियर हैं. अपने पति की बराबरी में तो जो भी हैं, सब का रहनसहन करीबकरीब एकसा ही है. शशि ने यह नहीं सोचा था कि उस की बेचैनी एक दिन उसे नौकरी करने पर मजबूर कर देगी. आवेदन देने के पहले कई दिन तक ऊहापेह में पड़ी रही. ढाई साल का बबलू, उसे कौन संभालेगा? सासूमां बूढ़ी हैं. अजय से जब राय मांगी तो उन्होंने भी यही कहा, ‘भई, परिस्थितिवश नौकरी करना बुरी बात नहीं, पर तुम्हें नौकरी की क्या जरूरत पड़ गई? कम से कम बबलू ही कुछ बड़ा हो कर स्कूल जाने लगे तो ठीक है. फिर आगे तुम्हारी इच्छा.’

सासससुर ने भी कहा, ‘बहू, बबलू को तो हम संभाल लेंगे. हमारा और है ही कौन. पर तुम्हारा शरीर भी तो दोनों भार को सहन कर सके तब न. जो भी करो, सोचसमझ कर करो.’’ पर उस के सिर पर तो जैसे जनून सवार था. 6-7 दिन तक तो स्कूल में बबलू की खूब याद आती थी, फिर ठीक लगने लगा. पर रोज स्कूल से लौट कर जब घर में कदम रखती तो घर की कुछ अव्यवस्थता मन को खटकती. एक दिन जब वह स्कूल से लौटी तो घर में कोई मेहमान आए हुए थे. कामवाली घर पर नहीं थी तो नीलू उन को पानी दे रही थी. नीलू को देखते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर आ पहुंचा. बाल बिखरे हुए, फ्रौक की तुरपन उधड़ी हुई, हाथ में पेंटिंग कलर लगे हुए थे, अजीब हाल बना रखा था. नीलू को बगल से पकड़ कर खींचते हुए वह अंदर ले गई. उस का तमतमाता चेहरा देख कर वहां का वातावरण एकदम बोझिल हो गया. नीलू सुबकती हुई एक कोने में खड़ी हो गई.

उस समय शशि को अपनी गलती का खयाल नहीं आया, बल्कि उसे सब पर गुस्सा आया कि सब उस से खार खाए बैठे हैं और जानबूझ कर उस का अपमान करना चाहते हैं. पर आज लगता है, वास्तव में उस ने अपनी नौकरी के आगे बाकी हर बात को गौण समझ लिया. पहले वह अजय के मोजे, रूमाल देख कर रख दिया करती थी, उस के कपड़ों पर प्रैस, बटन आदि का भी ध्यान रखती थी. दोपहर के समय बच्चों के पुराने कपड़ों को बड़ा करना, मरम्मत करना आदि काफी कुछ काम कर लेती थी. अब तो अजय अपने हाथ से बटन लगाना आदि छोटीमोटी मरम्मत कर लेता है, पर मुंह से कुछ नहीं बोलता. बबलू भी इन 2 ही महीनों में कुछ दुबला हो गया है. दादी दूध दे सकती हैं, खिला सकती हैं, प्यार भी बहुत करती हैं, पर मां की ममता व आरंभिक शिक्षा और कोई थोड़े ही दे सकता है.

विस्मृत होता अतीत – भाग 2: शादी से पहले क्या हुआ था विभा के साथ

अब मैं ने उसे अपनी फ्रैंड्स लिस्ट में से हटाने का सोच कर जैसे ही माउस पर हाथ रखा कि डोरबैल बजी. मैं ने दरवाजा खोलने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया, बाहर से शिवांग की आवाज आई, ‘‘मम्मी जल्दी दरवाजा खोलो, आइसक्रीम पिघल जाएगी.’’

मैं जानती थी कि यदि मैं ने जल्दी दरवाजा नहीं खोला तो उस के शोर से ही आसपास के फ्लैट से लोग निकल आएंगे. मैं जल्दी में नैट बंद करना भूल गई.

राजीव ढेर सारा खाने का सामान ले कर आए थे यानी आज रात खाना बनाने से छुट्टी. राजीव ने चाय की फरमाइश की तो मैं तुरंत बना लाई और चाय की चुसकियों के बीच मुझे याद आया कि मैं नेट बंद करना तो भूल ही गई थी. मेरा फेसबुक अकाउंट खुला पड़ा था और चैटिंग विंडो पर 2-3 मैसेज मेरा इंतजार कर रहे थे. मैं खुद को उन्हें खोलने से रोक नहीं पाई. एक मैसेज किसी कवि प्रदीप की ओर से कवि सम्मेलन में कविता पाठ के लिए था और दूसरा मैसेज कौशल महादेव का था, जिसे पढ़ कर मुझे बेहद झुंझलाहट हुई. उस की गाड़ी एक ही जगह पर अटकी पड़ी थी, ‘आप नाराज हैं क्या…?’, ‘आप चैट क्यों नहीं करतीं…?’, ‘आप ने अपना फोटो क्यों नहीं अपलोड किया…?’ अब तो मुझे लगने लगा कि इसे वाकई अपनी फ्रैंड्स लिस्ट में से हटा देना चाहिए और मैं ने किया भी वही, पर बारबार दिमाग में एक ही सवाल दौड़ रहा था कि मैं ने अपना फोटो अपलोड नहीं किया. क्या यह प्रश्न इतना जरूरी है…?

यह सवाल मेरे अतीत की उस कब्र को खोदने के लिए काफी था जिसे दफन करने में मुझे काफी वक्त लगा था और जिस के कारण मैं मानसिक यातना के दौर से गुजरी थी और मेरे परिवार ने जो सामाजिक और मानसिक प्रताड़ना सही थी वह मुझे पागल कर देने के लिए काफी थी. अतीत की परतें उधेड़ने से मैं बहुत अपसैट हो गई और चुपचाप बालकनी में आ कर बैठ गई.

थोड़ी देर बाद राजीव मुझे ढूंढ़ते हुए आए और उन्होंने जैसे ही बालकनी की लाइट जलाई तो मुझे कहना पड़ा कि लाइट बंद रहने दो. वे मेरे करीब आए और धीरे से मेरा सिर सहला कर पूछा कि मैं अपसैट क्यों हूं…? तब मैं ने उन्हें पूरी बात बताई तो उन्होंने कहा मैं सब कुछ भूलने की कोशिश करूं. मैं थोड़ी देर अकेले रहना चाहती थी, वे बिना कुछ बोले खामोशी से उठ कर बाहर चले गए और मैं अपने अतीत को अंधेरे में फिर से जीवित होते देखती रही…

उस अंधेरे में मेरी आंखों के आगे वह शाम फिर से रिवाइंड हो गई. कालेज की फेयरवैल पार्टी थी. मैं ने बीएससी फाइनल ईयर का एग्जाम दिया था और कौलेज में वह मेरी आखिरी शाम थी. उस पार्टी में यह तय हुआ था कि लड़के धोतीकुरता या पाजामाकुरता और लड़कियां साड़ी पहन कर आएंगी. वह बेहद यादगार शाम थी पर वह मेरी जिंदगी में अंधेरा ले आएगी, मैं भी कहां जानती थी…? पार्टी में फोटो खींचने का दौर भी चल रहा था. हमारा एक क्लासमेट राहुल कैमरा ले कर आया था. वह हमारी क्लास का पढ़ने में सब से होनहार लड़का था. मेरे लिए सौफ्ट कौर्नर रखता था, यह मैं जानती थी पर वह मेरे लिए दूसरे क्लासमेट जैसा ही था. वह बारबार मेरे मना करने पर भी मेरी सिंगल फोटो खींचने की कोशिश कर रहा था जिस के लिए मैं ने उसे झिड़क दिया. सब के सामने यह बात होने से वह पार्टी से चुपचाप चला गया तो मैं ने चैन की सांस ली, पर मुझे नहीं मालूम था कि दूसरी सुबह मेरी जिंदगी का चैन हर लेने वाली है.

कुछ दिन बाद एक सुबह डाक से लिफाफा मेरे नाम आया. मां मेरे हाथ में उसे थमा कर चली गईं. लिफाफा वजनी था, मैं ने उसे उलटपलट कर देखा तो भेजने वाले का नाम नदारद पाया. खोलने पर उस में से कुछ तसवीरें फर्श पर गिर पड़ीं. उन तसवीरों को जैसे ही फर्श से उठाने के लिए झुकी तो ऐसा लगा कि कोई सांप देख लिया हो. तसवीरों में राहुल मेरे साथ इस तरह के पोज में खड़ा था कि समीपता का एहसास हो रहा था जबकि सचाई यह थी कि राहुल के पास तो क्या दूर खड़े हो कर भी मैं ने कोई तसवीर नहीं खिंचवाई थी.

मुझे रोना आ रहा था. जैसेजैसे मैं उन तसवीरों को देखती जा रही थी मेरा रोना गुस्से और आक्रोश में बदलता जा रहा था. मां ने जब मेरी हालत देखी तो मेरे पास आईं और उन की निगाह जब तसवीरों पर पड़ी तो वे सकते में आ गईं. पहले तो उन्होंने गुस्से में मेरी ओर देखा पर मेरी हालत देख कर वे नर्म पड़ गईं.

घर में जब सब को पता चला तो दादी का रिऐक्शन सब से पहले इस रूप में फूट कर सामने आया, ‘‘और पढ़ाओ लड़कों के साथ, यह तो होना ही था.’’

पापा और भैया कुछ न बोले पर वे बड़े गुस्से में थे. मेरा पूरा शक राहुल पर था, क्योंकि पार्टी वाले दिन मैं ने उसे अपनी फोटो लेने से डांटा था और उसी बात का बदला उस ने लिया था. मैं ने अपने इस शक के बारे में पापा को बताया तो उन्होंने उस से पूछने की ठानी पर वह अपनी इस हरकत से साफ मुकर गया. तब पापा और कोई चारा न देख कर उस के पापा से मिलने की सोच कर भैया के साथ उस के घर गए पर वहां से उन्हें अपमानित हो कर लौटना पड़ा.

इन सब बातों से धीरेधीरे लोगों को यह बात पता चल गई और मेरा घर से निकलना लगभग बंद हो गया. अब पूरा परिवार मानसिक प्रताड़ना से गुजर रहा था. और मैं जो आईएएस बनने का सपना पाले बैठी थी वह पूरा होना तो दूर, मेरी आगे की पढ़ाई करने की भी गुंजाइश शेष नहीं रही थी. मेरा सपना चकनाचूर हो चुका था. पापा को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी. वे मेरा जल्दी से जल्दी विवाह कर देना चाहते थे. वे जहां भी बात चलाते मेरे साथ हुई घटना की जानकारी पहले ही पहुंच जाती और फिर बिरादरी में रिश्ता मिलना लगभग नामुमकिन होने लगा था.

ऐसे ही समय पर राजीव के पापा हमारे घर आए. वे 10-12 सालों के बाद पापा से मिलने आए थे और हमारे घर 2-3 दिन ठहरे. घर के तनावपूर्ण माहौल को वे भांप गए पर उन्होंने अधिक पूछना ठीक न समझा. मुझे उन के आने से बेहद अच्छा लगा, क्योंकि घर में कोई मुझ से ठीक से बात तक नहीं करता था. मैं ने अपना अधिकतर समय उन के साथ ही बिताया था, पर उन के जाने की बात सुन कर मैं बेहद उदास हो गई थी. उन्होंने मुझ से पूछना चाहा कि मैं इतनी उदास क्यों रहती हूं, तो मैं उन के प्रश्न को टाल गई. वे इतना तो समझ ही चुके थे कि जरूर कोई बात है और वह भी कुछ गंभीर सी, पर उन्हें यह ठीक नहीं लगा कि इतने सालों के बाद दोस्त के घर आ कर रहूं और उस के घरेलू मामलों में दखल दूं.

उन के व्यवहार से ऐसा लग रहा था कि मानों वे कुछ कहना चाहते हैं पर कहने से झिझक रहे हैं. जब वे हम से बिदा ले रहे थे तो अचानक उन्होंने पापा से कहा कि वे कुछ कहना चाहते हैं तो पापा ने हंस कर कहा कि इतना झिझक क्यों रहे हैं? इस पर उन्होंने राजीव के लिए मेरा हाथ मांग लिया और उन्होंने बताया कि उन का बेटा एक मल्टीनैशनल कंपनी में सीईओ है. पापा यह बात सुन कर थोड़े संजीदा हो गए. वे एक विजातीय के साथ अपनी बेटी का रिश्ता करने में हिचकिचा रहे थे. उन्हें यह भी पता था कि अपनी जाति में वे मेरे रिश्ते के लिए कितना हाथपांव मार चुके थे पर कोई रिश्ता करने को तैयार नहीं था. ऐसे में यह रिश्ता घर बैठे ही मिल रहा था. पापा ने घर में सब से बात करी तो सब की राय यही थी कि इस रिश्ते के लिए हां कर दी जाए, पर पापा ने इस के पहले मेरी सचाई के बारे में बताना जरूरी समझा.

पूरी बात सुन कर राजीव के पापा हंस पड़े और कहने लगे, ‘‘अरे यार, यह तो आजकल हो ही रहा है. मैं ने तेरी बेटी का हाथ इसलिए मांग लिया कि वह बहुत अच्छी है. मैं तो यह समझ रहा था कि मैं विजातीय हूं इसलिए तू मेरे बेटे से रिश्ता जोड़ने से हिचकिचा रहा है.’’

फिर उन्होंने राजीव को बुला लिया और जल्द ही उन की परिणिता बन कर मैं उन के घर आ गई. मैं अपने अतीत के अंधेरे में ही डूबी रहती यदि राजीव ने आ कर बालकनी की लाइट न जलाई होती.

उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘अब कैसा लग रहा है?’’

‘‘पहले से बेहतर,’’ मैं ने कहा.

‘‘चलो कहीं घूम कर आते हैं,’’ उन्होंने बड़े इसरार से कहा.

‘‘नहीं, अभी मेरा मन नहीं है, फिर कभी.’’

‘‘तो एक काम करो…’’ इस पर मैं ने उन की तरफ देखा. उन के चेहरे पर शरारत खेल रही थी. मैं समझ गई कि वे अब कुछ न कुछ जरूर कहेंगे.

‘‘अपनी फोटो फेसबुक पर अपलोड करो. लोगों को जान लेने दो कि मेरी बीबी कितनी सुंदर है,’’ वे शरारत भरे स्वर में बोले.

Mother’s Day Special- प्रश्नों के घेरे में मां: भाग 2

मैं ने घर का दरवाजा खोल कर चाय का पानी चूल्हे पर रखा ही था कि कालबेल बज उठी.

‘कौन?’ मैं ने पूछा.

‘आंटी, मैं निधि.’

मैं ने दरवाजा खोल दिया. फिर निधि के चेहरे को ध्यान से देखने लगी. उस की सूनी बेजान आंखों को देख कर मैं ने प्यार से पुचकारा और उस के सिर पर हाथ फे रते हुए उसे गोद में उठा लिया. फिर उस के गालों को चूमती हुई बोली, ‘तू क्यों अपनी मम्मीपापा को नाराज करती है?’

‘नहीं तो,’ सहमी सिकुड़ी सी निधि मेरी आंखों में देखते हुए बोली तो मैं ने उसे जमीन पर उतारते हुए कहा, ‘निधि बेटा, सीमा तुम्हारी छोटी बहन है और छोटों को हमेशा प्यार करते हैं.’

‘उस की चिंता मत कीजिए, वह बहुत अक्लमंद और सुंदर है, आंटी,’ और उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

वातावरण को सहज बनाने के लिए मैं ने आवाज में कोमलता भरते हुए पूछा, ‘यह तुम से किस ने कहा?’

‘मां और पापा दोनों कहते हैं.’

‘गलत कहते हैं,’ मैं ने उस के कान के पास धीरे से कहा तो उस का चेहरा खिल उठा और वह घर में उछलकूद करने लगी.

10वीं की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो सीमा अपने स्कूल में ही नहीं, पूरे प्रांत में प्रथम आई थी. अरु और शशांक को मैं बधाई देने पहुंची तो देखा, निधि कोने में गुमसुम बैठी है. उस ने 12वीं में 90 प्रतिशत अंक हासिल किए थे पर सीमा की तरह प्रांत में प्रथम नहीं आई थी.

मैं धीरे से उस के पास सरक गई, ‘निधि, तुम तो बहुत बुद्धिमान निकलीं. 90 प्रतिशत अंक हासिल करना कोई आसान बात नहीं है.’

एक तरल मुसकान होंठों पर ला कर निधि बोली, ‘वह तो ठीक है आंटी, पर मैं सीमा की बराबरी तो नहीं कर सकती न?’

मैं सोच रही थी कि काश, इस के मातापिता धन से न सही जबान से ही बेटी की तारीफ कर देते तो इस मासूम का भी दिल रह जाता, उन्हें सोचना चाहिए कि जब अपने हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं हैं तो बच्चे कैसे बराबर हो सकते हैं. हर बच्चे का अपना आई क्यू होता है.

शिक्षक दिवस पर स्कूल में निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था. जीतने वाले को नकद पुरस्कार के साथ ट्राफी भी मिलने वाली थी. निधि ने सारी निबंध की पुस्तकें छिपा लीं कि उस का लाभ सीमा को न मिल सके. उस  समय शशांक ने सीमा को दुविधा से उबार लिया और लाइब्रेरी से ढेरों किताबें ले आए.

कुशाग्रता, नम्रता और पिता के मार्गदर्शन में सीमा ने प्रतियोगिता जीत ली. शशांक एक बार फिर बधाई के पात्र बने और निधि को मिली उदासीनता.

उस दिन निधि का उतरा चेहरा देख कर सीमा बोली, ‘दीदी, इस बार इनाम पर मुझ से ज्यादा आप का अधिकार है.’

‘क्यों?’

‘इसलिए कि बचपन से ले कर अब तक मैं ने आप की किताबों को ही पढ़ा है. आप के नोट्स और गाइड्स का इस्तेमाल किया है. मैं तो आप की आभारी हूं,’ सीमा ने विनम्रता से कहा

क्रोध के आवेग में निधि की कनपटियां बजने लगीं. निधि को लगा सीमा ताना मार रही है. बहन के हाथ से ट्राफी छीन कर जैसे ही निधि ने जमीन पर फेंकनी चाही, ट्राफी सीमा के सिर पर लग गई. रक्त की धारा फूट पड़ी. बदहवास मां दौड़ती हुई आईं और रक्त का प्रवाह रोकने के लिए पट्टी बांध दी.

कुछ समय बाद सीमा तो स्वस्थ हो गई पर अरु सहज नहीं हो पाई थीं. निधि का यह रूप उन के लिए सर्वथा नया था. बेटी के स्वभाव ने उन्हें चिंता में डाल दिया था.

अरु इस समस्या को ले कर दुविधा में पड़ गई थीं. मैं ने उन्हें समझाया, ‘2 बच्चों में बराबरी कैसी? हर बच्चे का अपना स्वभाव होता है और फिर यह कहां का न्याय है कि दूसरे बच्चे के आते ही पहले का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया जाए? ऐसे में पहला बच्चा आक्रामक हो जाए तो उसे दोष मत दीजिए.’

धीरेधीरे अरु के स्वभाव में परिवर्तन आया. निधि के पास अब वह घंटों बैठी रहती थीं और जानने का भरसक प्रयत्न करतीं कि बेटी किन तर्कहीन सवालों में उलझी हुई है पर समस्याओं के तानोंबानों में उलझी निधि का व्यवहार जरा भी न बदलता था.

निधि के लिए अच्छेअच्छे समृद्ध परिवारों से कई रिश्ते आए पर वह हर बार चुप्पी साधे रही. उस के ही दायरे में बंधे, उस की छोटीछोटी गतिविधियों को देखतेदेखते अरु इतना तो जान ही गई थीं कि बेटी किसी को पसंद करने लगी है और फिर एक दिन जिद कर के जब राहुल को निधि अपने घर बुला कर लाई तो शक सच में बदल गया.

राहुल अच्छे खातेपीते घर का लड़का था पर पढ़ाई को ले कर घर के लोगों का मन नहीं मान रहा था. अरु ने कहा भी कि एम.ए. पास और कंप्यूटर डिग्रीधारी युवक को कोई विशेष योग्यता वाला नहीं माना जा सकता है. क्या कमाएगा क्या खिलाएगा. पर निधि अपनी ही जिद पर अड़ी रही.

अनुशासनप्रिय पिता के सामने बेटी का ऐसा विरोधी रूप सर्वथा नया था. कई दिन ऊहापोह में कटे. अरु व शशांक दोनों समझ रहे थे कि बेटी तर्कहीन बियाबान में खोई हुई है. उलझनों को शायद तौलना ही नहीं चाहती. तब सीमा ने मां को समझाया, ‘दीदी जहां जाना चाहती हैं उन्हें जाने दो, मां. उन की खुशी में ही हमारी खुशी है.’

लेकिन अरु को लगा निधि रेत में महल खड़ा करना चाह रही है. मां को तो हर पहलू से सोचना पड़ता है फिर चाहे अपनी बेटी के बारे में ऐसीवैसी ही बात क्यों न हो.

अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर दहेज और ढेर सारी नसीहतों की पोटली बांध कर बिटिया को मां ने विदा किया तो दुख भी हुआ और आश्चर्य भी. कितना अंतर है दोनों बहनों में, एक जिद्दी तो दूसरी सरल और सौम्य.

अब निधि हर दूसरे दिन मायके आ धमकती. राहुल के पास कोई काम तो था नहीं. अत: वह भी निधि के साथ बना रहता था. हर समय की आवाजाही को देख एक दिन अरु ने निधि को टटोला तो वह ज्वालामुखी के लावे सा फट पड़ी थी.

‘मां, मेरी देवरानियां अमीर घरानों से आई हैं, मायके से उन्हें हर बार अच्छाखासा सामान मिलता है और एक आप लोग हैं कि एक बार दहेज दे कर छुट्टी पा ली. जैसे बेटी से कोई रिश्ता ही न हो. तानेउलाहने तो मुझे सहने पड़ते हैं न?’

अरु के चेहरे पर बेचारगी के भाव तिर आए. मां थीं, दुख तो होना ही था. निधि की बातें सुन कर बुरा तो मुझे भी बहुत लग रहा था पर क्या किया जा सकता था. बचपन की तृष्णा ने उस को बागी बना दिया था. छीन कर हर चीज हासिल करना उस का स्वभाव बन चुका था. काश, शशांक दंपती ने समझा होता कि बचपन ही जीवन का ऐसा स्वर्णिम अध्याय है जब उस के व्यक्तित्व की बुलंद इमारत का निर्माण होता है लेकिन यदि बच्चे को अंकुश के कड़े चाबुक से साध दिया जाए तो उस के अंदर कुंठा, घृणा, ईर्ष्या और लालच जैसी भावनाएं तो जन्म लेंगी ही.

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