भारत में लोकतंत्र का राजतंत्रीकरण करते नेता

अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों में एक बात साफ हो रही है कि राजनीति अब पुश्तैनी पेशा बन गया है. जो भी एक बार राजनीति में सफल हो जाए वह अपने बच्चों को अन्य व्यवसायों में भेजने के बजाय राजनीति में भेजना पसंद करता है. गांधी व सिंधिया परिवार, मुलायम सिंह यादव, एम करुणानिधि, लालू प्रसाद यादव, प्रकाश सिंह बादल, देवीलाल, हेमवतीनंदन बहुगुणा, बाल ठाकरे आदि के उदाहरण भरे पड़े हैं. विदेशों में भी ऐसा ही कुछ होता है और क्यूबा, उत्तर कोरिया, सिंगापुर इस के उदाहरण हैं. यह लोकतंत्र का असल में राजतंत्रीकरण करना है.

नेताओं के बच्चों को बहुत जल्दी समझ आ जाता है कि राजनीति में भले ही उतारचढ़ाव हों, पर कैरियर सुरक्षित रहता है, नेता हार कर भी नेता बना रहता है. कैरियर यदि खराब होता है तो किसी कांड में फंसने से होता है, पर कैट हैज नाइन लाइव्स की तरह राजनीति नेताओं के बच्चों को मरने नहीं देती और छोटेमोटे पद, ट्रस्टों की दादागीरी, बैंकों की चैयरमैनशिप मिलती ही रहती है.

राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने हाथ मिला कर अपने पुरखों के दुश्मन से इंदिरासोनिया गांधी व मुलायम सिंह यादव की लड़ाई को भुला कर इस बार चुनावों में साथ कैरियर बनाने की कोशिश की है. कांग्रेस की अब खासीयत है कि वह जिस पार्टी के साथ छोटी पार्टनर बनती है, वह जीत जाती है चाहे कांग्रेस खुद अकेले न जीत पाए.

राजनीति कैरियर के रूप में बुरा क्षेत्र नहीं है. इसे सत्तालोलुपता  कहना गलत होगा. यह तो एक तरह से सेवा है, जिस की कीमत मिलती है.

सरकार चलाना किसी भी तरह से मुफ्त में नहीं हो सकता. कोई भी बिना पैसे लिए जनता के लिए काम नहीं करेगा. जनता के लिए अगर समाजसेवी संस्था चलाओ तो भी संचालक से चपरासी तक को वेतन तो देना ही होगा.

ऐसे ही हर नेता को अच्छाखासा पैसा चाहिए ताकि आफत के दिनों में उसे याचक बन कर दरदर न भटकना पड़े. जो युवा राजनीति को खराब समझते हैं, उन्हें सबक सीखना चाहिए कि रोहित वेमुला और कन्हैया जैसों की भी जरूरत है तो अखिलेश यादव व स्टालिन की भी.

यह नहीं भूलना चाहिए कि यह कैरियर एक एमबीए पास के कैरियर से भी मुश्किल है. इस में बुद्धि और शारीरिक बल दोनों चाहिए. सैकड़ों लोगों से मिलना, उन के नाम याद रखना, समस्याओं की जड़ों में जाना झगड़ेफसाद या खर्च, वाकपटु होना, भाषण देने की कला आना सब जरूरी है और जो यह नहीं कर सकता वह पीछे रह जाता है. यह कैरियर नेता पुत्रों के लिए तो अच्छा है ही, अन्य लोगों के लिए भी बुरा नहीं. सही नेता ही समाज को नई दिशा देते हैं. कभी सरकार को मनमानी करने से रोकते हैं तो कभी सरकार चलाते हैं.

भारतीय सेना के जवानों को मिले सही माहौल

देश सेवा और सुरक्षा में लगे एक सैनिक के फेसबुक पर आए वीडियो, जिस में उस ने अपने खानेपीने और रहनसहन की पोल खोल डाली है, से हड़कंप मच गया है. अभी कुछ दिन पहले सैनिकों का नाम ले कर देशसेवा की दुहाई देने वाली सरकार को सांप सूंघ गया है कि वह अपने उन जवानों के साथ कैसा व्यवहार करती है, जिन के नाम पर वह नोटबंदी की कतारों में खड़े लोगों को दुत्कार रही थी.

देश की सेना के साथ दुर्व्यवहार की शिकायतें अकसर आती रहती हैं और बहुत जवान खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर लेते हैं, क्योंकि उन के अफसर उन्हें सही सुविधाएं नहीं देते. जब भी भरती होती है, भरती केंद्रों पर हजारों की भीड़ उमड़ जाती है, क्योंकि सेना की नौकरी आज भी सुरक्षित व कमाऊ मानी जाती है. सेना में अनुशासन और कड़ी मेहनत होती है पर जवान उसे सहने को तैयार हैं पर इस का मतलब यह नहीं कि उन के साथ मनमाना व्यवहार किया जाए.

हमारे यहां युवाओं को खासतौर पर गांवों के युवाओं को हर जगह हांका जाता है. उसी का नतीजा है कि या वे आधीअधूरी पढ़ाई कर पाते हैं या फिर बेकाबू और उद्दंड बन जाते हैं. सेना में जाने पर भी उन में वह सोच और बैलेंस नहीं पैदा होता जो युवाओं में होना चाहिए. उन के जोश और कुछ करने की इच्छा को दफन कर दिया जाता है.

सेना में सारा खेल युवाओं का होता है. उन्हीं के बल पर सेनाएं चौकन्नी रहती हैं. उबाऊ दिन और डरावनी रातों में यदि गुस्सा रहे तो सैनिकों का मानसिक बैलेंस बिगड़ ही जाएगा. उन्हें सुविधाएं न दो पर जीने का साधन तो देना ही होगा. हमारे यहां का निकम्मापन सेना में भी घुसा पड़ा है जो इस बीएसएफ के जवान ने फेसबुक पर  पोस्ट किया गया है. ऐसी नौबत आना ही गलत है और चाहे सेना हो, सरकारी या प्राइवेट नौकरियां हों, जवानों को सही माहौल मिले यह जरूरी है.

देश की तरक्की के लिए जरूरी है कि युवावर्ग शांत रहे और अपनी शक्ति गुस्सा प्रकट करने में नहीं, क्रिएटिविटी दिखाने में लगाए. यदि लोग युवाओं को अनुशासन के नाम पर दबाएंगे तो देश में कुछ नया नहीं होगा, कुछ प्रगति नहीं होगी.

दायित्व और देशभक्ति को इस तरह समझिए

यह विडंबना है कि हमारे देश में सीमाओं पर लड़ने वाली सेना टैंकों, राइफलों, लड़ाकू हवाईजहाज और अपने ही रहने के कैंटों, जो देशभर में फैले हैं, में अतिक्रमण की शिकार हैं. सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक फैसले में यह तो कह दिया कि गैरकानूनी रूप से रह रहे बाशिंदों को कैंट वार्डों के चुनावों में वोट देने का हक नहीं है पर उस ने उन्हें हटाने का कोई आदेश नहीं दिया.

सेना के पास लगभग 17 लाख एकड़ जमीन देश के 62 कैंटों में है और करीब 15 लाख एकड़ कैंटों से बाहर है पर इस पर कितनों ने, कब से कब्जा कर रखा है, इस का कोई हिसाब सेना के पास नहीं है.

यह ठीक है कि देश में सेना की जमीन पर अतिक्रमण करने वाले दुश्मन तो नहीं हैं पर फिर भी गैरकानूनी काम तो कर रहे हैं और वह भी सेना की नाक के नीचे. जो लोग सैनिकों की दुहाई देते हुए देशभक्ति के पैरोकार बने रहते हैं उन्हें क्या इस भयंकर अपराध का अंदाजा नहीं है?

27 सितंबर, 2016 को दिए गए निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी कि अधिकारियों को तुरंत इन अवैध कब्जाइयों को हटाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं पाएगा.

अभिव्यक्ति पर पहरा और भगवा सरकार

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भगवा सरकार को अपरोक्ष रूप से चेताया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अंगरेजी में कहे जाने वाले शब्द  ‘डाउट, डिसएग्री और डिस्प्यूट’ भी शामिल हैं. भगवा ब्रिगेड कुछ दिनों से इस बात को सिद्ध करने में लगी है कि किसी को भी धर्म, धर्मग्रंथों, धर्म के विचारों, धर्म से जुड़े देवीदेवताओं के बारे कोई संदेह, भिन्न मत प्रकट करने और विरोध करने का हक नहीं है. देशभर में छोटेछोटे गुट, हिंदू धर्म की सनातन परंपरा की रक्षा के नाम पर, विचारों की अभिव्यक्ति पर तरहतरह से आक्रमण करते रहते हैं.

यह कोई नई बात नहीं है. हर सरकार व संस्था चाहती है कि उस की सत्ता पर कोई रोकटोक न लगे, कोई उस की पोल न खोले. धर्मों ने तो सदियों तक मुंह बंद कर ही सत्तासुख भोगा था और ईशनिंदा को मृत्युदंड के लायक बना दिया. राजाओं, जमींदारों, सेठों ने भी अपने खिलाफ आवाज उठाने वाले को दंड दिया.

अभी हाल में नोटबंदी पर रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने स्पष्ट कर दिया कि इस के कारण बताना जनहित में न होगा. गनीमत यही है कि सरकार ने नोटबंदी के विरोध को पुराने नोटों को रखने की तरह अपराध नहीं माना है.

जो है, जैसा है, वैसा मान लो की परंपरा ने ही मानव समाज को ज्यादा उन्नति करने से रोका है. जबजब समाज में खुली सोच की छूट मिली है, उन्नति हुई है. ग्रीस और रोमन साम्राज्य बने ही इसलिए थे कि उन्होंने असहमति को स्वीकारा था. मार्टिन लूथर द्वारा पोप का भंडाफोड़ करने की आजादी हासिल कर पाने के कारण यूरोप में वैचारिक क्रांति हुई जिस के कारण भरपूर विकास हुआ. भारत में विचारों की स्वतंत्रता रही पर वह जातिगत व्यवस्था के दायरे में रही और उसे तोड़ने में यह स्वतंत्रता कभी भी सफल नहीं हुई और इसीलिए पर्याप्त प्राकृतिक साधनों के बावजूद भारत बिखरा व पिछड़ा रहा.

आज देश के नागरिकों के पास संवैधानिक अधिकार हैं पर देशवासी उन्हें मानने को तैयार नहीं. अधिकांश लोग अपनी खरीखरी बात कहने से नहीं,

बल्कि सही विचार सुनने व पढ़ने से भी कतराते हैं. प्रणब मुखर्जी ने विचारों की अभिव्यक्ति में जिस डाउट यानी संदेह की बात की है वह तो यहां न के बराबर है. आप विष्णु, राम, कृष्ण, मोहम्मद, ईसा के चरित्र के बारे में कुछ कहने का प्रयास तो करें. आप को, बिना सत्य परखे, अपराधी घोषित कर दिया जाएगा.

आप सरकारी, धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं से असहमति प्रकट नहीं कर सकते. अगर करते हैं तो आप को तुरंत अलगथलग कर दिया जाएगा. आप योग और आयुर्वेद को नाटक कह कर देखिए, कौओं के झुंड सिर पर मंडराने लगेंगे.

आप सरकार, धार्मिक संस्थाओं, बैंकों, बड़ी कंपनियों से कोई विवाद नहीं कर सकते. वे बड़ेबड़े वकील लगा कर वर्षों तक आप को उलझाए रख, थका डालेंगे. हमारी सरकारें, समाज, धर्मसंस्थाएं, बैंक, कंपनियां, पार्टियां चाटुकारों को पसंद करती हैं. जो जय बोले, वही जीतता है.

समाजवादी पार्टी में अहंकार सर्वोपरि

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के पारिवारिक विवाद में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव से जीतें या नहीं, पर यह पक्का है कि समाजवादी पार्टी अंदर से खोखली हो गई है. एक व्यक्ति या परिवार पर चलने वाली राजनीतिक पार्टियों के साथ ऐसा होना स्वाभाविक ही है. जब व्यक्ति कमजोर हो या परिवार में विवाद हो तो मामला नीतियों का नहीं, अहं व स्वार्थों का शुरू हो जाता है.

राजनीति आजकल एक व्यवसाय की तरह है, यह अपनेआप में पूर्ण सत्य है. उस का सेवा से बहुत कम लेनादेना है. यह संभव है कि जब नेता राजनीति में कूदा था तो उस के मन में जनसेवा का कोई भाव रहा हो और वह जनता को बेहतर जीवन देने की सोच रहा हो पर शीघ्र ही उसे समझ आ जाती है कि जनसेवा के लिए न केवल सरकार, समाज, धर्म, व्यापार, कौर्पाेरेटों से लड़ना होता है, अपने साथियों से भी लड़ना होता है.

आपसी संघर्ष आमतौर पर ज्यादा गंभीर व हानिकारक होते हैं. सत्ताधारी चाहे जितनी कोशिश कर लें, वे जनता की समस्याओं को पूरी तरह नकार नहीं सकते और उन के लिए खड़े व्यक्ति को पूरी तरह हमेशा के लिए दबा भी नहीं सकते. पर जब यही संघर्ष अपने साथियों या परिवार से हो तो संकट ज्यादा गंभीर होता है खासतौर पर जब मतभेद नीतियों को न ले कर मात्र अहं या किस की चलेगी को ले कर हो.

समाजवादी पार्टी का वर्तमान संकट परिवार में किस की चलेगी को ले कर है और यह पारिवारिक सासबहू, जेठजेठानियों जैसा है कि रसोई किस के इशारे पर चलेगी और घर की रोजमर्रा रस्मों या फैसलों पर किस की मुहर लगेगी. अखिलेश यादव व मुलायम सिंह यादव या दूसरे भाईचाचा सत्ता की चाशनी के लिए लड़ रहे हैं, किसी नीति विशेष के लिए नहीं.

समाजवादी नेता हमेशा से पिछड़ों के विकास का नारा लगाते रहे हैं. उन्हें यह तो स्पष्ट हो गया था कि सदियों से उन्हें शूद्र कहा गया, उन्हें जम कर लूटा गया है, उन्हें गुलाम सा बना कर रखा गया है और उन्हें अशिक्षित बनाए रख कर उन से खेती का व मजदूरी का काम करा के राज्य, शासक, सेठ मौज करते रहे हैं.

समाजवादियों ने कम्यूनिस्टों से अलग बराबरी का सपना देखा था पर यह सपना राममनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के साथ समाप्त हो गया. उस के बाद पिछड़े, जो स्वयं को शूद्र भी नहीं कहलाना चाहते, मंडल आयोग की सिफारिशों से पहले और बाद में भी सत्ता पर सवार हो कर राज करने लगे. लेकिन वे इस दौरान समाजवाद को भूल गए और उत्तर प्रदेश व बिहार, जहां वे ज्यादा चमके, में परिवारों के चुंगल में फंस गए.

अखिलेश बनाम मुलायम विवाद में कौन सही या गलत का नहीं, कौन पार्टी चलाएगा, का मामला है. मुलायम सिंह ने 2012 में अखिलेश के नन्हें हाथों में उत्तर प्रदेश की सरकार सौंप दी ताकि वे खुद केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा कर सकें. पर जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी ने उन सपनों को चकनाचूर कर दिया तो वे उत्तर प्रदेश में अखिलेश को कमजोर करने में लग गए. मौजूदा विवाद का असली यही कारण है.

यह विवाद समाजवादी पार्टी का चाहे विघटन न कर पाए पर समाजवादी सोच व समाजवादी उद्देश्य को दफन अवश्य कर देगा. देश की प्रगति के लिए जरूरी है कि देश की आबादी का 50-60 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग तेजी से उन्नति करे. इस के लिए उसे सही मार्गदर्शन की जरूरत है क्योंकि धर्मजनित सामाजिक नियम उसे कमजोर और दबा कर रखते हैं. ये पिछड़े मजदूर, किसान और माय (मुसलिम-यादव) लठैत न बने रहें, यह आवश्यक है पर अखिलेश और मुलायम परिवार में एकदूसरे पर वार करते हैं तो ऐसे में ये चमकीले उद्देश्य कहीं नहीं दिख रहे. समाजवादी पार्टी

के सहारे पिछड़ों को जो थोड़ाबहुत आत्मसम्मान मिला था वह भी इस विवाद के चलते गंगायमुनागोमती में बह चला है.

शराब का ऐसा कहर कहीं देखा है आपने

तनाव शराब का कारण या शराब तनाव का कारण है यह तय करना कठिन है, पर जिस तरह तनाव और शराब की वजह से राहुल माटा ने दिल्ली में अपने पिता का गला काट दिया और पड़ोसी के घर में आग लगा दी, इस से साफ है कि शराब को कितना ही आधुनिकता का नाम दे दिया जाए, लेकिन यह एक मादक पेय है जो कब होशोहवाश ले बैठे पता नहीं. शराब को सोसायटी की जान मानने वाले भूल जाते हैं कि सोसायटी को जिंदा रखना पहला फर्ज है और खुद को भुला देने का तरीका पालना उस फर्ज को कम नहीं करता.

राहुल माटा एक आप्रवासी भारतीय का बेटा है और मर्चेंट नेवी में नौकरी करता था पर उसे किसी महिला के साथ शराब पी कर बदसलूकी के कारण नौकरी से निकाल दिया गया था. अब वह दिल्ली में पिता के पैसे से खरीदे फ्लैट में रहता था, पर अकसर वह शराब व दूसरे खर्चों के लिए मां से पैसे मांगता था. पिता ने दिल्ली आ कर बेटे को जायदाद से बेदखल करने का एक विज्ञापन भी दे दिया था.

गुस्से में राहुल ने पिता को ही मारने की योजना बना डाली और पिता को सोसायटी फ्लैट में मारने के बाद भागा तो एक पड़ोसी के फ्लैट में जा छिपा, जहां रसोई गैस का सिलैंडर खोल कर उस ने आग लगा डाली. फ्लैट राख हो गया.

इस मामले में शराब ने पढ़ेलिखे के हाथों जान ली और ज्यादातर शराब के कारण होने वाली हत्याओं में यही होता है कि सोसायटी के नाम पर पीने वाले कभीकभार बहक जाते हैं और या तो अनर्गल बोल जाते हैं या फिर अपराध कर डालते हैं. दोनों में ही उन को खुद भी कष्ट भोगने पड़ते हैं, दूसरों को भी.

अफसोस यह है कि शराब के स्पष्ट दुर्गुणों के बावजूद उसे भरपूर प्रचार मिलता है. एक तरह से यह चोरडाकुओं की हिमायत सा है. चूंकि चोरियां तो होनी ही हैं तो क्यों न चोरी को कानूनी बना दिया जाए जैसे तर्कों के सहारे शराब को दुनिया भर में पीने पर छूट मिली है और हर देश में हर रेस्तरां में भरपूर शराब मिलती है. यह बात दूसरी है कि हर रात हर रेस्तरां में एकदो जने धुत्त हो ही जाते हैं.

शराब को सोशल मानना ऐसा ही है जैसे कहा जाए कि बेंगलुरु की तर्ज पर महिलाओं के साथ बदसलूकी तो मानव स्वभाव का हिस्सा है और उसे हिंदी फिल्मों की छेड़खानी की तरह स्वीकार कर लो. हिंदी फिल्मों ने अब तो शराब को पूरी तरह स्टेटस दे दिया है और वैंप ही नहीं हिरोइनें भी जम कर पीती हैं और सभ्य कहलाई जाती हैं. नशा स्वाभाविक है पर यह अपराधी परदे के पीछे रहे तो ही काबू में रहेगा, यह राहुल माटा ने साफ कर दिया है.

समाजवादी पार्टी के घर में आपसी झगड़ा

ऐन चुनावों से पहले या यों कहिए कि चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश में राज कर रही समाजवादी पार्टी के घर में आपसी झगड़ा बापबेटे और चाचाओं का मसला तय हो या नहीं, यह दूसरों को फायदा जरूर पहुंचा देगा. बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के लिए यह झगड़ा जून की बरसात की तरह ठंडक देने वाला है.

बापबेटे में कहासुनी कोई नई बात नहीं है और दुनियाभर में होती रहती है और अकसर बेटे बाप से नाराज हो कर चले जाते हैं. जहां एक परिवार का धंधा होता है, वहां भी बेटे अपना हिस्सा छोड़ कर अलग काम शुरू कर देते हैं. अखिलेश यादव ने यदि मुलायम सिंह यादव से अलग होने की जिद ठान ली है, तो कोई खास बात नहीं है. चुनावों से पहले ही यह होता है, क्योंकि तभी एकदूसरे के बारे में जौहर दिखाने का मौका मिलता है. कुश्ती हजार आदमियों के सामने दंगल में की जाती है, घर की चारदीवारी में नहीं.

इस का नुकसान मुलायम सिंह परिवार को होगा या नहीं, यह कोई बड़ी बात नहीं. राजनीति में जो भी आता है, वह हार के लिए तैयार हो कर आता है. हर चुनाव में 5-10 लोगों में से एक को सीट मिलती है और हार कर बाकी फिर अगले चुनाव में लग जाते हैं. यह दुकानदारी नहीं है कि बाजार में 10 दुकानें साथसाथ चलती रहें, कुछ अच्छी, कुछ खराब.

हारने को तो समाजवादी पार्टी 2014 के लोकसभा चुनावों में ही हार गई थी, जब भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा की 80 में से 71 सीटें जीत ली थीं और समाजवादी पार्टी के लिए बस 5 सीटें छोड़ी थीं. इस घर के झगड़े के बाद अगर समाजवादी पार्टी की हालत कांग्रेस की जैसी हो जाए, तो भी नेताओं को फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि जोड़तोड़ कर के वे राजनीति की कमाई पर जीते रहेंगे.

नुकसान असल में आम जनता को होगा. मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भारतीय जनता पार्टी के मनसूबों पर ब्रेक लगा रखा था. भारतीय जनता पार्टी सिर्फ राज ही नहीं करना चाहती, वह समाज को भी पीछे धकेलना चाहती है. भाजपा की नीतियों में अमीरों की जगह है, ऊंचों की जगह है, संतोंमहंतों की जगह है, सदियों से धर्म और शासकों के कुचलों की कोई जगह नहीं है.

समाजवादी पार्टी ने 5 साल में या उस से पहले बहुजन समाज पार्टी ने 5 साल में ऐसा कुछ किया हो, जिस से इन लोगों को नई रोशनी मिली हो, नहीं लगता, पर इन पर अत्याचार जरूर रुक गया. सत्ता केवल बहुत ऊंचों से पिछड़ों के हाथों में आ गई और सरकारी नौकरियों, छोटी दुकानदारी, गलीमहल्लों की लीडरी में पिछड़ों की भी पहुंच होने लगी थी. बात सरकारों की नीतियों की नहीं, माहौल की है. समाजवादी पार्टी अगर हारती है और बहुजन समाज पार्टी भी उस की जगह नहीं ले पाती तो एक बार फिर कांग्रेसीभाजपाई युग लौटेगा, जिस में ऊंचों की चलेगी. मुलायमअखिलेश कुश्ती में समाजवादी पार्टी की अगर हार होती है, तो आम गरीब जनता को भुगतना पड़ सकता है.

यह सरकार तो ड्रामा क्वीन है

आम आदमी के बैंक अकाउंट में पैसे हैं, लेकिन किसी काम के नहीं हैं. जेब में 5 सौ और 2 हजार के नोट हैं, लेकिन उन से घर का गुजारा नहीं चल सकता, क्योंकि पुराने नोट चलना ही बंद हो चुके हैं.

दरअसल, सरकार ने नोटबंदी का फैसला क्या लिया, आम आदमी की मानो कमर ही टूट गई. लोगों की बैंकों और एटीएम के बाहर लंबीलंबी कतारें लग गईं. अपने पैसों के लिए ही देश के आम आदमी की भिखारी जैसी हालत हो गई. घर में जरूरत की चीजें लाने के लिए पैसे नहीं हैं. रोजमर्रा की जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं.

आखिर कैसे चलाएं घर? कैसे लें सब्जी? कैसे लें दूध? कैसे भरें बच्चों की फीस? आखिर उधारी लें भी तो कब तक लें? उधार लेने वाला भी कब तक उधार लेगा? उसे भी तो आगे से सामान लेना है… ऐसी हालत आखिर क्यों आई?

क्या सरकार को हक है कि वह आम आदमी के पैसों पर इस तरह कब्जा जमा ले? क्या यह तुगलकी फरमान नहीं है? जब सरकार का मन आया, तो नोट बदल दिए… बिना यह जाने कि इस से कितनी बड़ी परेशानी खड़ी हो सकती है.

क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि कोई भी फैसला लेने से पहले उस के तमाम पहलुओं पर गौर करती? तब जा कर कोई भी फैसला लिया जाता.

खास आदमी को इस फैसले से कितना फर्क पड़ा है, इस पर अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस का असर आम आदमी की जेब पर जरूर देखने को मिला है.

क्या सरकार को हक है कि वह जनता को इस तरह परेशान करे? अगर जनता ने आप को चुना है, तो बजाय परेशानी देने के, आप को उस परेशानी से नजात दिलानी चाहिए थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इमोशनल हो कर जनता से 50 दिनों का समय तो मांग लिया… लेकिन क्या इन 50 दिनों में हालत सुधर गई? क्या काला पैसा पूरी तरह से खत्म हो गया?

कतार में जनता

 सुबह हो या शाम… दिन हो या रात… मोदी सरकार का फैसला आने के बाद से जनता या तो एटीएम के बाहर लगी रही या फिर बैंकों की लंबीलंबी कतारों में… दफ्तर से थकहार कर लोगों को एटीएम की लाइन में लगना पड़ा, वहीं घर का काम खत्म होते ही औरतें भी एटीएम की लाइनों में जा कर लग गईं.

सरकार को हक नहीं है जनता को इस तरह परेशान करने का, क्योंकि जनता ने ही सरकार को अपनी परेशानियां खत्म करने के लिए चुना है. सरकार को यह हक कतई नहीं दिया गया है कि वह आम जनता की परेशानियां बढ़ाए. घंटों लाइन में लग कर जनता अपना समय बरबाद कर रही है, वह भी उस पैसे के लिए, जो उस का अपना है. अपना पैसा पाना भी लोगों को नसीब नहीं हो पा रहा है, क्योंकि सरकार उस पैसे पर कुंडली मार कर बैठ गई है.

क्या काला धन रुकेगा

सरकार ने फैसला लेते समय कहा था कि इस फैसले से काला धन रुकेगा, यह कितना सही है? समाचारपत्रों में आ रही खबरों से तो नहीं लगता कि काला धन नोटबदली से रुक पाएगा.

कभी आतंकवादियों के पास से 2 हजार के तमाम नोट बरामद हो रहे हैं, तो कभी किसी सरकारी अफसर के पास से… कभी कोई बैंक वाला ही दरवाजे के पीछे से नए नोट मुहैया करा रहा है, तो बैंकों के मैनेजर नोटबदली करते हुए रंगे हाथ पकड़े जा रहे हैं.

क्या 2000 के नोट से काला धन जमा नहीं होगा? क्या जो लोग पुराने नोट जमा कर सकते हैं, वे नए नोट इकट्ठा नहीं करेंगे? इस फैसले से आम जनता का ज्यादा नुकसान हुआ है.

पीएम निकले इमोशनल

 सरकार ने खुद नोटबंदी का फैसला लिया और इस पर खुद ही अपनी पीठ थपथपा ली. लेकिन जब बात नहीं बनी, तो हमारे प्रधानमंत्री साहब कभी जान पर हमले की बात कहने लगे, तो कभी इमोशनल हो कर जनता से 50 दिनों का समय मांगने लगे.

जाहिर है, हमारे नेता भी जानते हैं कि जो बात जोरजबरदस्ती से नहीं मनवाई जा सकती, उसी बात को थोड़ा इमोशनल हो कर जरूर मनवाई जा सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इमोशनल हो कर अपनी इमेज देश की जनता के सामने रखी. जनता तो इमोशनल होती है. यह भाषा भी वह बखूबी समझती है.

नेताओं का काला धन

अब नोटबंदी महीनों पुरानी बात हो चुकी है, लेकिन इस दौरान एक भी नेता का काला धन आम जनता के सामने नहीं आया. न भाजपा का और न ही कांग्रेस का. न सपा का और न बसपा का. सवाल है कि क्या नेताओं के पास काला धन नहीं है? आयकर विभाग छापेमारी कर रहा है, लेकिन क्या किसी नेता के घर छापामारी हुई?

जाहिर है, किसी नेता के घर छापामारी नहीं हुई, लेकिन इस में सब से ज्यादा नुकसान आम जनता का ही हुआ, जिस के पैसों पर सरकार ने ताला लगा दिया. उसे उधारी में दिन काटने पड़े. अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ी. उसे एकएक पैसे के लिए लाइन में लगना पड़ा.

अगर सरकार ने यह फैसला लिया ही था, तो सब से पहले उस से निबटने की तैयारी करती, ताकि नए नोटों की बैंकों में कमी न हो. 2 हजार का एक नोट बाजार में तोड़ना बहुत ही मुश्किल होता है. एटीएम मशीनों को भी नए नोटों के हिसाब से तैयार नहीं किया गया था, जिस का सीधा असर आम जनता पर पड़ा.

2017 में चमकेंगे फिल्मी सितारों की आंख के तारे

फिल्म स्टारों की औलादों के लिए पिछला साल बहुत ही बुरा रहा. अब साल 2017 में फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कई लोगों के बच्चे बौलीवुड में दस्तक देने आ रहे हैं. इन में से ये खास हैं:

मुस्तफा

मशहूर फिल्म डायरैक्टर जोड़ी अब्बासमस्तान में से अब्बास बर्मावाला के बेटे मुस्तफा साल 2017 में फिल्म ‘मशीन’ से बौलीवुड में अपने कदम रखने जा रहे हैं.

मार्च, 2017 में बड़े परदे पर आने वाली अब्बासमस्तान की डायरैक्ट की गई फिल्म ‘मशीन’ में कियारा आडवाणी और मुस्तफा की जोड़ी है. इस फिल्म को हरीश पटेल, प्रणय, अब्बासमस्तान और धवल जयंतीलाल गाड़ा बना रहे हैं.

सारा अली खान

अमृता सिंह व सैफ अली खान की बेटी सारा अली खान का बौलीवुड में आना पिछले 2 सालों से लगातार किसी न किसी वजह से टलता जा रहा है. इस के लिए कुछ लोग सारा अली खान की मां अमृता सिंह को कुसूरवार ठहराते हैं. पर अमृता सिंह का दावा है कि इस साल उन की बेटी ऐक्टिंग के मैदान में तीर मार लेगी. अब फिल्म कौन सी होगी, यह राज की बात है. वैसे, अब तक जिन फिल्मों के साथ सारा अली खान के जुड़ने की खबरें आईं, बाद में उन सब से सारा अली खान अलग हो गई. पर अब चर्चा है कि सारा अली खान की पहली फिल्म शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान के साथ होगी.

अदार जैन

 राजकपूर की बेटी के बेटे और रणबीर कपूर व करीना कपूर के फुफेरे भाई अदार जैन अपनी बौलीवुड की पारी ‘यशराज फिल्म्स’ द्वारा बनाई गई व हबीब फैजल के डायरैक्शन की अनाम फिल्म करने जा रहे हैं. इस में उन की हीरोइन दिल्ली की नई लड़की अन्या सिंह हैं.

मजेदार बात यह है कि उड़ी हमले की वजह से पाकिस्तानी कलाकारों के खिलाफ बने माहौल का फायदा अदार जैन को मिला है, वरना पहले इस फिल्म में पाकिस्तानी कलाकार अली जफर के भाई दान्याल जफर काम करने वाले थे.

अहान शेट्टी

सुनील शेट्टी की बेटी अथिया शेट्टी को सलमान खान ने सितंबर, 2015 में आई फिल्म ‘हीरो’ से बौलीवुड में उतारा था. मगर फिल्म की नाकामी के साथ ही उन का कैरियर डांवांडोल हो गया.

इस साल सुनील शेट्टी के बेटे व अथिया शेट्टी के भाई अहान शेट्टी बौलीवुड में कदम रखने जा रहे हैं. अहान शेट्टी को हीरो ले कर मशहूर फिल्म प्रोड्यूसर साजिद नाडियाडवाला फिल्म बनाने जा रहे हैं. यह फिल्म जुलाई, 2017 में शुरू होगी.

आर्यन खान

इस साल शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान भी ऐक्टिंग के क्षेत्र में कदम रखने जा रहे हैं. उन्हें शाहरुख खान व गौरी खान के खास दोस्त व फिल्मकार करण जौहर ही बौलीवुड में लौंच करने वाले हैं. इस फिल्म में आर्यन खान की हीरोइन होंगी अमृता सिंह व सैफ अली खान की बेटी सारा अली खान.

शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान लौस एंजेल्स से अपनी पढ़ाई पूरी कर वापस आ चुके हैं. शाहरुख खान की पीआर कंपनी ने आर्यन खान की इमेज को सुधारने का काम शुरू करते हुए सब से पहले आर्यन खान का ‘इंस्टाग्राम’ का अकाउंट बंद कराया, जिस में इमेज खराब करने वाले पार्टी फोटो थे.

जाह्नवी कपूर

श्रीदेवी व बोनी कपूर की बेटी और अर्जुन कपूर की सौतेली बहन जाह्नवी कपूर भी इस साल बौलीवुड में कदम रखने जा रही हैं. श्रीदेवी व बोनी कपूर खुद ही यह फिल्म बना रहे हैं. वैसे, जाह्नवी कपूर अपने प्रेमी शिखर पहाडि़या के चलते ज्यादा चर्चा में रही हैं.

रवीना तौरानी

‘टिप्स’ कंपनी के मालिक रमेश तौरानी ने कुछ साल पहले अपने बेटे गिरीश कुमार को बौलीवुड में हीरो बनाने के लिए ‘रमैया वस्तावैया’ और ‘लवशुदा’ जैसी नाकाम फिल्में बनाईं. अब रमेश तौरानी अपनी बेटी रवीना तौरानी को हीरोइन के रूप में पेश करने के लिए अपनी 15 साल पुरानी फिल्म ‘इश्कविश्क’ का सीक्वल बना रहे हैं.

बिहार : 4 हजार करोड़ लीलती नदियां

नेपाल में भारी बारिश होने और पहाड़ी चट्टानों के खिसकने से हर साल बिहार में भारी तबाही मचती रही है. 2 अगस्त, 2016 को काठमांडू से सौ किलोमीटर उत्तरपूर्व भट्टकोसी जिले के पास जमीन खिसकने से सुनकोसी नदी में रुकावट आने से बहुत बड़ी झील बन गई थी, जिस में सौ फुट की ऊंचाई तक पानी जमा हो गया था.

नेपाली सेना रुकावट को ब्लास्ट के जरीए हटाने लगी, तो नेपाल से सटे बिहार के 8 जिलों में बाढ़ से भारी तबाही का मंजर पैदा हो गया. सुपौल, सहरसा, अररिया, मधेपुरा, पूर्णिया, खगडि़या, मधुबनी और भागलपुर जिले के कई इलाके बाढ़ में डूब गए.

झील की रुकावट को हटाने से 25 लाख क्यूसैक पानी पूरी रफ्तार से कोसी नदी में पहुंचने लगा था, जिस से 3 अगस्त, 2016 को कोसी नदी का जलस्तर 10 मीटर तक बढ़ गया था.

गौरतलब है कि नेपाल में भारी बारिश होने से साल 2008 में 18 अगस्त को बिहारनेपाल सीमा पर कुसहा बांध के टूटने से कोसी नदी में आई भयंकर बाढ़ ने काफी तबाही मचाई थी. बाढ़ की वजह से बिहार के 5 जिलों के 247 गांव पूरी तरह से गायब हो गए थे, 3 सौ लोगों की मौत हुई थी और 30 लाख लोग रातोंरात बेघर हो गए थे.

नेपाल की नदियों से हर साल बिहार में मचने वाली तबाही को कम करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 15 सितंबर, 2016 को नई दिल्ली में नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ से मिल कर सप्तकोसी नदी और सनकोसी नदी पर बांध बनाने के लिए बातचीत की थी.

नीतीश कुमार ने कहा था कि इन दोनों नदियों का ठीक से जलप्रबंधन जरूरी है. उन पर बांध और पनबिजली बनने से भारत और नेपाल दोनों को फायदा होगा.

याद रहे कि बिहार की कई बड़ी नदियां नेपाल से निकलती हैं और उस की बाढ़ से बिहार को भारी तबाही झेलनी पड़ती है. हर साल जून से ले कर अगस्त महीने के बीच नेपाली नदियां बिहार में कहर बरपाती रही हैं, जिस से सालाना 4 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान होता है. बाढ़ की चपेट में 5 सौ से ज्यादा इनसानी और 2 हजार से ज्यादा जानवरों की जानें जाती हैं. इस के साथ ही साथ 2 लाख से ज्यादा घरों को बाढ़ बहा ले जाती है और 6 लाख हैक्टेयर में लगी फसलों को बरबाद कर डालती है.

उत्तरी बिहार की 75 फीसदी से ज्यादा आबादी बाढ़ के खतरों के बीच जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर है, वहीं राज्य की जमीन का 70 फीसदी से ज्यादा इलाका बाढ़ से प्रभावित होता है.

नेपाल की नदियों में आने वाली बाढ़ से बिहार के किशनगंज, पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल, कटिहार, खगडि़या, भागलपुर, मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर जिलों को हर साल भारी नुकसान उठाना पड़ता है.

पर्यावरण मामलों के जानकार प्रोफैसर आरके सिन्हा बताते हैं कि भूकंप, बाढ़ और जमीन खिसकना हिमालय का पुराना स्वभाव रहा है. इन खतरों के प्रति लापरवाह रह कर इनसान हिमालय का दोहन व शोषण ही करता रहा है.

पर्यावरण को बचाने की गुहार लगाने वाली संस्थाएं पिछले कई सालों से चिल्ला रही हैं कि भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान वगैरह देश हिमालय क्षेत्रों में कई बांध बना रहे हैं, जिस से अगले कुछ सालों में हिमालय क्षेत्रों में तकरीबन 4 सौ विशाल जलाशय बन जाएंगे.

इन जलाशयों के बनने से सब से ज्यादा 292 बांध भारत बना रहा है. इस के अलावा चीन सौ, नेपाल 13, पाकिस्तान 9 और भूटान 2 बांध बनाने की योजना पर काम कर रहा है. इस से पर्यावरण को तो नुकसान हो ही रहा है, साथ में इनसानी जानमाल पर खतरा भी बढ़ रहा है.

गौरतलब है कि कोसी को ‘बिहार का शोक’ कहा जाना किसी भी माने में गलत नहीं है. केवल कोसी की बाढ़ से ही बिहार का 21 हजार वर्ग किलोमीटर उपजाऊ खेत तबाह हो जाता है.

18 अगस्त, 2008 को नेपाल में बने कुसहा बांध को तोड़ कर बिहार के एक बड़े हिस्से में काफी ज्यादा तबाही मचा दी थी. उस बाढ़ ने 30 लाख लोगों के घर, परिवार, मवेशी और फसल को बरबाद कर डाला था. कोसी नदी नेपाल में सप्तकोसी नदी के नाम से जानी जाती है.

कोसी समेत कई नदियां जो बिहार में तबाही मचाती रही हैं, उन का उद्गम और जलग्रहण क्षेत्र नेपाल है. कोसी के अलावा नेपाल की नदियां नारायणी (गंडक), करनाली (घाघरा), मेंची, बागमती, कमला बलान भी बारिश के मौके पर बिहार में तबाही मचाती रहती हैं. अगर बिहार में बारिश नहीं हो और नेपाल में भारी बारिश हो जाए, तो ये सारी नदियां बिहार के कई इलाकों में बाढ़ की तबाही मचा देती हैं.

नेपाल की नदियों में भूस्खलन हो जाए, नदी की धारा बदल जाए या रास्ता रुक जाए, तो उस से भी बिहार को परेशानी झेलनी पड़ती है.

राज्य आपदा प्रबंधन महकमे के मुताबिक, साल 1980 से ले कर साल 2012 के बीच हर साल तकरीबन 10 लाख हैक्टेयर खेती वाली जमीन बाढ़ के पानी में डूबती रही है. इस वजह से 6 लाख हैक्टेयर में लगी खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो जाती है. बाढ़ से 17 लाख मवेशी भी प्रभावित होते हैं.

सहरसा जिले का किसान रामदेव महतो कहता है कि बाढ़ में घर के ढहने के बाद एक कच्चा घर बनाने में 20-25 हजार रुपए खर्च हो जाते हैं. गरीब किसानों की मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा तो घर बनाने में ही खर्च हो जाता है.

साल 2015-16 में सरकार को बाढ़ राहत बांटने में 360 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े थे. बाढ़ तकरीबन 25 सौ करोड़ रुपए की फसलें लील जाती है. इस के अलावा घरों, मवेशियों और सरकारी इमारतों को भी बाढ़ हर साल 3 सौ करोड़ रुपए की चपत लगा देती है.

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