ठाकुर भवानी प्रसाद अपने रुतबे के लिए आसपास के कई गांवों में जाने जाते थे. 6 फुट लंबा कद और चौड़े कंधे वाले ठाकुर भवानी प्रसाद के बदन पर सफेद रंग का कुरताधोती खूब फबता था. उन के शरीर का साथ देती हुई उन की रोबदार आवाज और मजबूत भुजाएं उन्हें पहलवान जैसा बलशाली दिखाती थीं.
गांव वाले ठाकुर भवानी प्रसाद को आदर भाव से ‘बाऊजी’ कह कर बुलाते और बहुत इज्जत देते थे, क्योंकि उन्हें मेहमाननवाजी का बहुत शौक था. उन के घर पर चायनाश्ते के दौर चलते ही रहते थे.
बाऊजी आत्मा और परमात्मा पर खूब प्रवचन देते थे. यह अलग बात है कि जब आज से 20 साल पहले उन की पहली पत्नी सुधा की मौत हुई थी, तब वे दहाड़ मार कर रोए थे.
वैसे, वे औरत की खूबसूरती के बहुत गहरे पारखी थे. अभी पहली पत्नी की मौत का ठीक से एक साल भी पूरा नहीं हुआ था कि बाऊजी दूसरी पत्नी सोमवती ब्याह लाए थे और सोमवती के आते ही मानो उन पर जवानी फिर से लौट आई थी. उन का चेहरा पत्नी द्वारा की गई सेवा से गुलाबी हो चला था.
पहली पत्नी सुधा अपने पीछे
2 लड़कियां छोड़ कर मरी थी. बड़ी लड़की गीता जवान हुई, तो बाऊजी ने उस की शादी खूब धूमधाम से कर दी थी. हालांकि उस समय उन के दामादजी नवीन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाई ही कर रहे थे, पर पंडितजी ने लड़के का ऊंचा कुल और परिवार की हैसियत देख कर शादी करा दी थी.
पहली लड़की तो किनारे लग गई थी. ठाकुर भवानी प्रसाद अब जल्दी से जल्दी अपनी दूसरी लड़की रीता की शादी निबटाना चाहते थे, पर रीता के लिए भी लड़का कुलीन होना चाहिए था, भले ही उस का रंगरूप कैसा भी हो.
बताने वालों ने एक से एक रिश्ते बताए, पर वे सब बाऊजी को बराबरी के नहीं लगे. कहीं पैसे की कमी थी, तो कहीं कुल की.
‘‘भाई, रंगरूप का क्या है, आज है तो कल ढल गया… पर कुल की इज्जत तो हमेशा के लिए रहती है और हमें दूसरों से बेहतर बनाती है,’’ कुछ ऐसा मानना था बाऊजी का.
रीता की शादी कुलीन लड़के से हो, इस के लिए बाऊजी ने एड़ीचोटी का जोर लगा दिया और उन की मेहनत भी रंग ले आई. आखिरकार एक मनचाहा लड़का मिल ही गया.
22 साल की रीता के लिए 45 साल का अधेड़ मिल गया था. चेहरे पर थोड़े से चेचक के हलके दाग और पेट निकला हुआ, पर बहुत ऊंचे कुल का. बाऊजी तो बस इसी बात से फूले नहीं समाते थे.
उस अधेड़ का नाम संतोष था, जो एक ट्रस्ट के पुस्तकालय में काम करता था. हालांकि उस के घर में पुरखों का बनाया हुआ बहुतकुछ था और खानेपहनने की कोई कमी न थी, फिर भी संतोष ने हाथ में एक नौकरी पकड़ना उचित समझा था.
रीता की शादी तो एक कुलीन घर में हो गई थी, पर वहां का माहौल उसे बहुत अजीब सा लग रहा था. दोगुनी उम्र का पति, घर में पूजापाठ और साफसफाई का सनक की हद तक माहौल था.
ससुर मर चुके थे, केवल सास ही थी. संतोष और उस की मां में खूब बनती थी और उन दोनों मांबेटे ने कई नियम बनाए हुए थे, कई व्रत ले रखे थे.
सुबह 4 बजे से ही उन के घर के मंदिर की साफसफाई का कार्यक्रम शुरू हो जाता था. रीता के लिए इतनी जल्दी जागना कभी आसान काम नहीं रहा था. उसे अपनेआप को ससुराल में ढालने में बहुत मुश्किल हो रही थी. इस माहौल में बहुत जल्दी ही उस का दम घुटने लगा था.
रीता की ससुराल में सफाई, नियम और व्रत का इतना ध्यान रखा जाता था कि जब भी रीता को माहवारी होती तो संतोष उसे अपने बिस्तर को भी नहीं छूने देता था और महज एक चादर लपेट कर उसे जमीन पर सोना पड़ता था.
संतोष अपनेआप में ही मगन रहता था और रात में प्यार की बात करने के बजाय जल्द ही खर्राटे भरने लगता था. रीता का समय बस घर का काम करने में ही बीतता रहता था.
थकाहारा सा संतोष बातबात में संस्कृत के शब्द तो बोलता था, पर जिंदगी के मजे से दूर भागता था. इसी वजह से वह रीता से दूरी बना कर रखता था. संतोष को न तो अपनी पत्नी से कोई लगाव था और न ही उस के मन में बच्चे पैदा करने की इच्छा नजर आती थी.
धीरेधीरे रीता भी अपने पति का रूखा और ठंडापन समझ गई थी और इसी तरह 5 साल गुजर गए. संतोष पूरे 50 साल का हो गया था और रीता 27 साल की.
एक दिन रीता बाथरूम से बाहर निकली, तो दरवाजे पर किसी अनजान ने आवाज दी. वह गीले बालों के साथ ही दरवाजा खोलने चली गई. सामने एक लड़का खड़ा था, जिस ने अपनी साइकिल पर एक बड़ी सी पोटली बांध रखी थी.
रीता की बड़ीबड़ी आंखों में सवाल तैर रहे थे और उस नौजवान ने उन सवालों को अच्छी तरह से पढ़ लिया था. बिना कुछ कहे उस ने हरे केले के पत्तों को लपेट कर बनाई गई एक पुडि़या रीता की तरफ बढ़ा दी.
‘‘पर, हमारे यहां तो फूल देने के लिए चंद्रिका काका आते हैं…’’ रीता बोली.
‘‘जी, मैं उन का बेटा तिलक हूं. वे बीमार हैं, इसलिए नहीं आ पाए हैं,’’ उस नौजवान ने कहा.
रीता ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, तो तिलक की उंगलियां उस के हाथों को छू गईं. रीता को पराए मर्द का अहसास किसी ताजा बयार की तरह महसूस हुआ था, पर अगले ही पल उस ने अपने बालों को झटक कर मन से इस भाव को तुरंत निकाल दिया था.
अगले दिन जैसे ही दरवाजे पर तिलक की आहट हुई, रीता दरवाजा खोलते हुए बोल पड़ी, ‘‘क्या बात है, कल सारे फूल मुरझाए हुए थे?’’
तिलक अचानक रीता के इस शिकायती लहजे से चौंक गया था.
‘‘जी, वैसे फूल तो ताजा थे, पर गरमी के चलते थोड़ा सा असर आ गया होगा. कल मैं ताजा फूल ले आऊंगा. फिलहाल तो यह कमल का फूल है. एक ही था, आप के लिए ले आया,’’ तिलक ने कहा.
रीता ने कमल का फूल ले लिया. अंदर आ कर उस की खुशबू को महसूस करने की कोशिश की, पर नाकाम ही रही. खुशबू न थी, पर कमल कितना सुंदर था और उस पर पड़ी हुई पानी की बूंदें मोतियों के समान लग रही
थीं. रीता ने उस कमल को अपने कमरे में ला कर बिस्तर के सिरहाने रख दिया.
इतने साल तक गोद हरी न होने पर सास ने रीता को ले जा कर माहिर डाक्टर से जांच कराई. डाक्टर ने बताया कि रीता की तो सब रिपोर्ट ठीक हैं, हो सकता है कि इन के पति में कुछ कमी हो, इसलिए बेहतर होगा कि वह भी अपनी जांच करवा ले.
रात को जब संतोष बिस्तर पर आया, तो रीता उस से अपने मन की बात कह बैठी, ‘‘मैं तो कहती हूं कि आप को भी किसी डाक्टर से जांच करा लेनी चाहिए.’’
‘‘बच्चे नहीं हुए, तो इस का मतलब यह नहीं है कि मुझ में कोई कमी है… और फिर इस शहर में बहुत सारे लोगों से मेरी जानपहचान है. अगर मैं किसी डाक्टर से मिलूंगा तो मेरी बदनामी नहीं होगी क्या?’’ संतोष की धीरेधीरे आवाज तेज हो उठी थी, ‘‘तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मुझ में कुछ कमी है… आज मैं तुम्हें अपनी मर्दानगी दिखाता हूं,’’ चीख रहा था संतोष और चीखते हुए उस ने रीता को लातघूंसों से बहुत मारा.
रीता सिसकती रही और सोचती रही कि अगर औरत को पीटना ही मर्दानगी है, तब तो नामर्द होना कई गुना बेहतर है.
3 लोगों के इस घर में रीता को अकेलापन खाने लगा था. संतोष काम पर चला जाता, सास अपने मंदिर और पूजापाठ में मगन रहती, बेचारी रीता से बात करने वाला कोई न बचता. ऐसे में तिलक बाहर से आने वाला एकमात्र ऐसा इनसान था, जिस से रीता बातें कर सकती थी और इसीलिए रीता को तिलक के आने का इंतजार रहता था.
अगले दिन तिलक आया, तो सीधा घर के आंगन में संगमरमर के पत्थर पर बैठ गया. रीता रसोईघर में थी. वह तिलक को आया देख कर चौंक गई और अपनी साड़ी को सही करते हुए बाहर आई और बोली, ‘‘अरे तिलक, तुम आ गए…’’ रीता की आवाज में खुशी की चहक थी.
तिलक ने फूलों की पुडि़या आगे बढ़ाई, तो उस की नजर रीता के हाथ पर बने नीले निशान पर पड़ी. उस ने इस की वजह पूछी.
‘‘सोनचिरैया… पिंजरा…’’ रीता हंस कर बात को टाल गई, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है, जो तुम छिपा रहे हो?’’
‘‘यह वेणी है. बालों में लगाने के लिए,’’ तिलक बोला.
‘‘लाओ, इसे मुझे दे दो. मैं सजाऊंगी इसे अपने बालों में,’’ कह कर रीता ने वेणी ले ली और बालों में लगाने के लिए अपने कमरे में चली गई.
वेणी के सिंगार से रीता की खूबसूरती कई गुना बढ़ गई थी. तिलक की निगाहें यह बात महसूस कर रही थीं और उस की जबान ने भी यह बात रीता को महसूस करा दी थी.
‘‘इस वेणी को लगा कर आप बहुत सुंदर लग रही हैं,’’ तिलक ने शरमाते
हुए कहा.
शादी के इतने साल बाद भी कभी संतोष ने रीता को प्यारभरी नजरों से नहीं देखा था. उस के रूप की कभी तारीफ तक नहीं की थी, पर आज इस लड़के से अपनी सुंदरता की तारीफ सुन कर रीता का मन खुश हो उठा. उस की नसनस में रोमांच भर उठा.
रीता कुछ भी कह न सकी. वह भाग कर अपने कमरे मे लगे आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारने लगी.
‘क्या है यह? क्या मुझे तिलक से प्यार हो गया है? और फिर वह वेणी क्यों लाया? मेरे लिए ही तो न… नहीं, मैं तो ब्याहता हूं… किसी दूसरे से प्यार नहीं कर सकती… पर ऐसी शादी का भी क्या फायदा, जो सिर्फ पैसे और खानदान की झूठी शान को बनाए रखने के लिए कर दी गई हो और वह भी दोगुनी उम्र के एक अधेड़ के साथ?’ रीता ने अपने विचारों को झटक दिया था और जा कर काम में लग गई.
तिलक जा चुका था. रीता ने अपने कमरे में जा कर देखा, तो वह कमल का फूल मुरझाया हुआ पड़ा था.
‘‘कोई बात नहीं, कल तिलक आएगा तो और कमल मंगवा लूंगी,’’ रीता उस मुरझाए कमल को देखते हुए बुदबुदा रही थी.
अगले दिन सास पूजा में लीन थी कि तिलक आया और सीधा आंगन में आ कर उसी संगमरमर के पत्थर पर बैठ गया और फूल की पुडि़या निकालने के लिए झोली जमीन पर रख दी.
तिलक को देख कर रीता के चेहरे पर मुसकराहट दौड़ गई और वह आगे बढ़ चली. इतने में रीता की सास की नजर भी आंगन में बैठे तिलक पर पड़ी और वह गुस्से से भर गई.
जब तिलक चला गया, तो सास रीता पर बिफर पड़ी, ‘‘इस माली के लड़के को घर के अंदर आने की क्या जरूरत पड़ गई… इसे बाहर खड़े हो कर ही फूल दे देने चाहिए. अब यह आंगन और चबूतरा सब अछूत हो गया. अब तुम
ही यहां की सफाई करो,’’ सास चिल्ला रही थी.
सास की बात सुन कर रीता ने सिर झुका कर आंगन की धुलाई शुरू कर दी.
‘‘माली फूल चुन कर ला दे तो इन्हें कोई परेशानी नहीं, कुछ भी अछूत नहीं… और वही माली आंगन में आ कर बैठ गया, तो आंगन ही अछूत हो गया… कितनी अजीब बात है,’’ रीता को इस रूढि़वाद पर कुढ़न हो रही थी.
अगले 2 दिनों तक तिलक नहीं आया. रीता परेशान होने लगी, ‘लगता है, उस ने मेरी सास की कड़वी बातें सुन ली होंगी. क्या सोचेगा तिलक? कहीं वह बीमार तो नहीं हो गया? क्या मैं तिलक को फिर कभी देख नहीं पाऊंगी?’ अपनेआप से ही कई सवाल और कई जवाब… रीता का सिर भारी होने लगा.
संतोष के बाहर जाने के बाद रीता बिस्तर पर लेट गई और उस की आंख लग गई. वह सपने में खो गई… यह तिलक ही तो है, जो उसे अपनी बांहों में उठाए हुए है… उस के होंठों पर अपने होंठ रखे हुए है, उस के साथ सैक्स कर रहा है और रीता भी तो तिलक का पूरा साथ दे रही है…
जब रीता अपने चरमसुख पर पहुंची, तो एक झटके के साथ उस की नींद टूट गई. उस का रोमरोम रोमांचित हो रहा था
‘यह कैसा सपना… और यह कैसा प्यार, जिसे मैं बारबार जीना चाहूंगी… पर तिलक का इस तरह मेरे सपने में आना?’ और फिर खुद ही सारे सवालों का जवाब उस ने दे दिया, ‘तो इस में गलत क्या है? अगर मुझे तिलक से प्यार है… इस कुलीन खानदान और मेरे पति ने मुझे दिया ही क्या है… शरीर का सुख तो दूर की बात, वह तो मन का सुख भी न दे सका, उलटा मारनापीटना…
‘मायके वाले भी समर्पण कर के गुजारा करने की बात ही कहते हैं. ऐसे में मुझे किसी और से प्यार हो गया तो क्या? पर उस प्यार का नतीजा क्या होगा?’
‘‘प्यार खुद अपना रास्ता खोज लेगा,’’ रीता ने अपनेआप से कहा और रसोईघर में चली गई.
तिलक के आने की आहट हुई. रीता आज पहले से ही तैयार थी. दरवाजे
पर जा कर फूलों की पुडि़या ली और बोली, ‘‘क्या इस सोनचिरैया को आजाद करा सकोगे?’’
तिलक ऐसा सवाल सुन कर चौंक जरूर गया, पर रीता की हालत उस से छिपी न थी.
‘‘सोनचिरैया इस गरीब और अछूत के साथ कैसे जिएगी?’’ तिलक ने पूछा.
‘‘प्यार की चाह सोनेचांदी और खानदान को चाट लेने से नहीं मिट जाती,’’ रीता ने कहा.
इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे की आंखों में ही बहुतकुछ पढ़ लिया और तिलक ने कांपते हाथ से अपना मोबाइल नंबर रीता की तरफ बढ़ा दिया.
अगले दिन से चंद्रिका फूल लाने लगा था. दिनों के बीतने के साथसाथ तिलक और रीता के बीच मोबाइल फोन पर बातें लंबी होती जा रही थीं.
रीता ने अपनी हालत और पति के बारे में तिलक को सबकुछ बता दिया और एक ऐसा समय भी आया, जब
27 साल की ठकुराइन एक 25 साल के माली के लड़के के साथ सबकुछ छोड़ कर भाग जाने को मजबूर हो गई.
रीता रात में दबे पैर उठी, एक नजर अपने पति पर डाली और बुदबुदाई, ‘‘हो सकता है कि सभ्य समाज मेरे इस कदम को कलंकिनी का नाम दे, पर कोई बात नहीं. जाति और कुल की बातें करने वालों ने ही मुझे यह कदम उठाने पर मजबूर किया है,’’ और बिना कोई पैसे या गहने लिए ही वह घर से बाहर निकल आई और उस दिशा में चल दी, जहां तिलक उस का इंतजार कर रहा था.
सुबह 4 बजे से सास पूजापाठ में बिजी हो गई. संतोष अब भी खर्राटे भर कर बेसुध सो रहा था, जबकि सोनचिरैया खुले आसमान में उड़ान भर रही थी.