शक्ति के सपने : क्या पूरे हो सके

हरियाणा के पलवल इलाके में पलाबढ़ा शक्ति बेहद चंचल और चालाक था. बचपन से ही वह पढ़ाई में तो नहीं, पर दिमाग से बाकी काम बनाने में बहुत तेज था. मिसाल के तौर पर सामाजिक समारोह में दरीगद्दे कैसे लगाने हैं, कौन सा हलवाई बढि़या है, किस जगह पर थोक में आतिशबाजी वाजिब दाम पर मिलेगी जैसी बहुत सी बातों का वह बचपन से ही जानकार था.

शुद्ध खानपान और कर्मठ दिनचर्या ने शक्ति का डीलडौल भी मजबूत बना दिया था. उस की 2 बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी और जैसे ही वह 18 साल का हुआ, परिवार वाले उस का भी ब्याह करने के लिए जोर देने लग गए थे. मगर शक्ति के मन में कुछ और ही था. वह अभी शादी के लिए तैयार नहीं था.

दिल्ली में शक्ति के मामा रहते थे. उन की मदद से शक्ति ने वहां के एक कालेज में अपना दाखिला करा लिया. वह शादी करने के दबाव से छुटकारा पाना चाहता था और बाहर पढ़ने को मिला, तो काफी हद तक कामयाब भी रहा.

शक्ति 3-4 महीने बाद कुछ दिन के लिए घर जाता और फिर पढ़ाई का बहाना कर के अपने होस्टल वापस लौट आता. कालेज की जिंदगी उसे खूब रास आने लगी थी. सब चिंताओं और जिम्मेदारियों से परे और यारदोस्तों से हंसीमजाक के साथ वह नएनए अनुभव ले रहा था. शहर का चकाचौंध भरा माहौल उसे सुकून दे रहा था.

शक्ति के डीलडौल और बोलने के हरियाणवी स्टाइल ने उसे जल्दी ही कालेज का एक जानापहचाना चेहरा बना दिया, मगर ज्यादातर लड़कियां जरूर उस से बचती थीं, क्योंकि अपने देहातीपन से वह गुंडा सा लगता था.

पहला साल इसी मस्तीमजाक में गुजर गया. पास होने लायक नंबर लाने में शक्ति को ज्यादा मेहनत नहीं लगी. 3 सहपाठियों को छोड़ कर बाकी सभी छात्र दूसरे साल में ऐंट्री पाने में कामयाब हो गए थे.

एक महीने की छुट्टी पर जाने से पहले सब छात्रों ने मिल कर एक पार्टी रखी. इस पार्टी में शक्ति ने भी पहली बार बीयर के अलावा रम और वोदका का स्वाद चखा था. उस के बाद खुमारी में जब उस ने खुल कर एक जोश वाला हरियाणवी लोकगीत गाया, तो सुनने वाले मस्त हो गए.

शक्ति के लिए देर तक तालियां बजती रहीं. अब उस से कन्नी काटने वाली लड़कियां भी हाथ मिला कर बधाई दे रही थीं, पर सविता का हाथ मिलाने का अंदाज सब से अलग था. उस की आंखों का गहरापन, गालों की लाली और दोनों हाथों से उस की हथेली को जोर से जकड़ना साफ संकेत दे रहे थे कि वह उस के मोहपाश मे बंध चुकी है.

इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर ले लिया था. महीनेभर की छुट्टियों में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि दोनों के बीच बातचीत न हुई हो. न ही छुट्टी का ऐसा कोई दिन बीता, जिस में शादी को ले कर चर्चा न हुई हो.

कालेज का दूसरा साल शुरू होते ही शक्ति होस्टल पहुंचने वाले छात्रों में सब से पहले था. 2 दिन के बाद सविता भी वहां आ गई. वह शक्ति के लिए अपने हाथों से बना क्रोशिया आसन तोहफे में लाई थी.

शक्ति को बड़ा अजीब सा लगा. वह तो उस के लिए कुछ लाया नहीं था. घर से लाया घी का डब्बा उस ने सविता को पकड़ा दिया. सविता को शक्ति के इस भोलेपन पर बहुत हंसी आई, पर वह उस के भीतर खुद के लिए पनप चुके प्यार को अच्छी तरह महसूस कर पा रही थी. उस का जी चाहा कि वह कस कर उस के होंठों को चूम ले, पर लोकलाज ने ऐसा करने से रोक दिया.

शक्ति को अभी एक और नए अनुभव से रूबरू होना था. उसे कालेज का महासचिव चुनने की तैयारी कर ली गई थी. बाकी पदों के लिए तो चुनाव हुए, पर उस के सामने कोई खड़ा नहीं हुआ. इस अनुभव ने शक्ति को उम्र से ज्यादा बड़ा कर दिया. अब उसे इज्जत भी मिलती और बुराई भी होती.

शक्ति अब राजनीति को गंभीरता से लेने लग गया. बड़े नेताओं से मिलने का मौका वह कभी न चूकता. दिल्ली में होने का फायदा उसे मिलता गया और नैशनल लैवल के नेताओं से उस की मुलाकात बढ़ती गई. वह राजनीति को तेजी से समझाता जा रहा था.

तीसरे साल में शक्ति को सीधे यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार बना दिया गया. जिस दिन उस का चयन हुआ, उसी दिन सविता उस से अकेले मिलने आई.

शक्ति बहुत खुश था, पर सविता उदास थी. वजह जान कर उस के पैरों तले की जमीन सरक गई. सविता उस के बच्चे की मां बनने वाली थी. इस नाजुक मोड़ पर यह खबर किसी एटम बम से कम नहीं थी. विरोधी उम्मीदवार को अगर पता चलता तो गरमागरम अफवाह फैला कर उसे जीतने का आसान मौका मिल सकता था.

शक्ति ने कुछ खास दोस्तों के साथ जा कर मंदिर में सविता से शादी कर ली. शादी के वक्त शक्ति को पता चला कि सविता तो निचली जाति की है. उस ने कभी पूछा नहीं और सविता ने बताया भी नहीं. प्यार तो इनसान का इनसान से हुआ था. जाति को जानना प्यार के लिए बिलकुल जरूरी नहीं था, पर घर वालों को तो इस की सूचना दे कर उन की रजामंदी लेना जरूरी था.

सविता को तो अपने घर वालों को राजी कर लेने का पूरा भरोसा था, पर शक्ति को नहीं. उस ने यह जिम्मेदारी अपने मामा के कंधों पर सौंप दी और खुद चुनाव प्रचार में बिजी हो गया.

यूनिवर्सिटी के 5 कालेजों में एक महीने तक जम कर किए प्रचार का नतीजा भी सुखद आया. 1,000 से भी ज्यादा वोटों से शक्ति जीता था. उस का भाषण और बोलने का चुटीला अंदाज छात्रों को खूब भा रहा था, पर इस खुशी के आलम में शक्ति के घर पर मातम पसर गया था. मामा ने उस के अध्यक्ष बनने और शादी करने की खबर एकसाथ परिवार वालों को दी थी.

शक्ति की मां का तो रोरो कर बुरा हाल हो गया था. उस की बहनों ने मोरचा संभाला और परिवार वालों को समझाया, फिर शक्ति और सविता को घर बुलाया गया. घर पर नाराजगी कम तो हुई थी, पर खत्म नहीं. एक ही दिन में सब से मिल कर वे दोनों दिल्ली लौट आए.

हफ्तेभर बाद वे दोनों सविता के मातापिता के घर भी गए. एक गांव में सविता के पिता अपने 2 बेटों के साथ दरी और छोटे कालीन बनाने का काम करते थे. घर पर ग्राहक सीधे ही कालीन खरीदने आते थे. यह इस बात का सुबूत था कि उन का काम बहुत अच्छा था.

उन का घर छोटा था, पर शक्ति के लिए उन सब का स्नेह बहुत गहरा और एकदम खरा था. दिनभर के लिए रुकने की सोच कर आया शक्ति सब के कहने पर 2 दिन खुशीखुशी वहीं रुका. अब तक शादी के नाम से भागने वाले शक्ति को शादी के बाद यह मेहमाननवाजी मजा दे रही थी.

सविता के साथ लौटते समय शक्ति सोच रहा था कि वह राजनीति करने के काबिल है. अपनी सोच और बातों से लोगों को प्रभावित करने की उस में काबिलीयत भी है और जुनून भी.

शक्ति ने सविता को अपने मन की बात बताई, तो वह भी उस से सहमत थी. वह बोली, ‘‘तुम अपना पूरा ध्यान राजनीति को दो.’’

सविता जागरूक थी. वह शक्ति की बाधा नहीं, बल्कि ताकत बनना चाहती थी. सविता चाहती थी कि शक्ति खुद को और मजबूत कर के एक मुकाम हासिल करने की दिल से कोशिश करे. वह जानती थी कि अपने बच्चे के 2 साल का होने तक वह अपनी एमए की डिगरी पा लेगी. उस के बाद वह घर के लिए जरूरी खर्च उठाने लायक हो जाएगी, तब तक वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेगी.

रात हो चली थी. अपने कमरे में लौटते हुए खिड़की से बाहर दिखाई दे रहे आसमान की ओर उन दोनों ने एकसाथ निहारा. स्याह आसमान में बहुत से तारे टिमटिमा रहे थे, पर एक तारा ऐसा था, जिस की चमक कुछ ज्यादा थी. शायद अगला सूरज बनने का ख्वाब उस तारे के मन में भी मजबूती से पनप रहा था.

दूसरा पत्र: क्या था पत्र में खास?

विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में, दिन का अंतिम पीरियड प्रारंभ होने ही वाला था कि अचानक माहौल में तनाव छा गया. स्पीड पोस्ट से डाकिया सभी 58 छात्रछात्राओं व प्रोफैसरों के नाम एक पत्र ले कर आया था. तनाव की वजह पत्र का मजमून था. कुछ छात्रों ने वह लिफाफा खोल कर अभी पढ़ा ही था कि प्रोफैसर मजूमदार ने धड़धड़ाते हुए कक्षा में प्रवेश किया. उन के हाथ में भी उसी प्रकार का एक लिफाफा था. आते ही उन्होंने घोषणा की, ‘‘प्लीज, डोंट ओपन द ऐनवलप.’’

अफरातफरी में उन्होंने छात्रछात्राओं से वे लिफाफे लगभग छीनने की मुद्रा में लेने शुरू कर दिए, ‘‘प्लीज, रिटर्न मी दिस नौनसैंस.’’ वे अत्यधिक तनाव में नजर आ रहे थे, लेकिन तब तक 8-10 छात्र उस  पत्र को पढ़ चुके थे.

अत्यंत परिष्कृत अंगरेजी में लिखे गए उस पत्र में बेहद घृणात्मक टिप्पणियां छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर की गई थीं और कुछ छात्राओं के विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज प्रसाद, कुलपति डाक्टर माधवविष्णु प्रभाकर और प्रोफैसर मजूमदार से सीधेसीधे जोड़ कर उन के अवैध संबंधों का दावा किया गया था. पत्र लेखक ने अपनी कल्पनाओं के सहारे कुछ सुनीसुनाई अफवाहों के आधार पर सभी के चरित्र पर कीचड़ उछालने की भरपूर कोशिश की थी. हिंदी साहित्य की स्नातकोत्तर कक्षा में इस समय 50 छात्रछात्राओं के साथ कुल 6 प्राध्यापकों सहित विभागाध्यक्ष व कुलपति को सम्मिलित करते हुए 58 पत्र बांटे गए थे. 7 छात्र व 5 छात्राएं आज अनुपस्थित थे जिन के नाम के पत्र उन के साथियों के पास थे.

सभी पत्र ले कर प्रोफैसर मजूमदार कुलपति के कक्ष में चले गए जहां अन्य सभी प्रोफैसर्स पहले से ही उपस्थित थे. इधर छात्रछात्राओं में अटकलबाजी का दौर चल रहा था. प्रोफैसर मजूमदार के जाते ही परिमल ने एक लिफाफा हवा में लहराया, ‘‘कम औन बौयज ऐंड गर्ल्स, आई गौट इट,’’ उस ने अनुपस्थित छात्रों के नाम आए पत्रों में से एक लिफाफा छिपा लिया था. सभी छात्रछात्राएं उस के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए. वह छात्र यूनियन का अध्यक्ष था, अत: भाषण देने वाली शैली में उस ने पत्र पढ़ना शुरू किया, ‘‘विश्वविद्यालय में इन दिनों इश्क की पढ़ाई भी चल रही है…’’ इतना पढ़ कर वह चुप हो गया क्योंकि आगे की भाषा अत्यंत अशोभनीय थी.

एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुंचता हुआ वह पत्र सभी ने पढ़ा. कुछ छात्राओं के नाम कुलपति, विभागाध्यक्ष और प्राध्यापकों से जोड़े गए थे. तो कुछ छात्रछात्राओं के आपसी संबंधों पर भद्दी भाषा में छींटाकशी की गई थी. इन में से कुछ छात्रछात्राएं ऐसे थे जिन के बारे में पहले से ही अफवाहें गरम थीं जबकि कुछ ऐसे जोड़े बनाए गए थे जिन पर सहज विश्वास नहीं होता था, लेकिन पत्र में उन के अवैध संबंधों का सिलसिलेवार ब्यौरा था.

पत्र ऐसी अंगरेजी में लिखा गया था जिसे पूर्णत: समझना हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए मुश्किल था परंतु पत्र का मुख्य मुद्दा सभी समझ चुके थे. कुछ छात्रछात्राएं, जिन के नाम इस पत्र में छींटाकशी में शामिल नहीं थे, वे प्रसन्न हो कर इस के मजे ले रहे थे तो कुछ छात्राएं अपना नाम जोड़े जाने को ले कर बेहद नाराज थीं. जिन छात्रों के साथ उन के नाम अवैध संबंधों को ले कर उछाले गए थे वे भी उत्तेजित थे क्योंकि पत्र के लेखक ने उन की भावी संभावनाओं को खत्म कर दिया था. सभी एकदूसरे को शक की नजरों से देखने लगे थे.

कुछ छात्राएं जिन्होंने पिछले माह हुए सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लिया था उन का नाम विभागाध्यक्ष अमिजोत प्रसाद के साथ जोड़ा गया था क्योंकि उन के कैबिन

में ही उस कार्यक्रम के संबंध में जरूरी बैठकें होती थीं और वे सीधे तौर पर कार्यक्रम के आयोजन से जुड़े थे. यह कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा था और उन छात्राओं ने साफसाफ उन लोगों पर इस दुष्प्रचार का आरोप लगाया जिन्हें इस कार्यक्रम के आयोजन से दूर रखा गया था.

छात्र राजनीति करने वाले परिमल और नवीन पर ऐसा पत्र लिखने के सीधे आरोप लगाए गए. इस से माहौल में अत्यंत तनाव फैल गया. परिमल और नवीन का तर्क था कि यदि यह पत्र उन्होंने लिखा होता तो उन का नाम इस पत्र में शामिल नहीं होता, जबकि उन छात्राओं का कहना था कि ऐसा एक साजिश के तहत किया गया है ताकि उन पर इस का शक नहीं किया जा सके. एकदूसरे पर छींटाकशी, आरोप और प्रत्यारोप का दौर इस से पहले कि झगड़े का रूप लेता यह तय किया गया कि कुलपति और विभागाध्यक्ष से अपील की जाए कि मामले की जांच पुलिस से करवाई जाए. पुलिस जब अपने हथकंडों का इस्तेमाल करेगी तो सचाई खुद ही सामने आ जाएगी.

कुलपति के कमरे का माहौल पहले ही तनावपूर्ण था. उन का और विभागाध्यक्ष का नाम भी छात्राओं के यौन शोषण में शामिल किया गया था. पत्र लिखने वाले ने दावा किया था कि पत्र की प्रतिलिपि राज्यपाल और यूजीसी के सभी सदस्यों को भेजी गई है. सब से शर्मनाक था कुलपति डाक्टर  माधवविष्णु पर छात्राओं से अवैध संबंधों का आरोप. वे राज्य के ही नहीं, देश के भी एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, सम्मानित साहित्यकार और समाजसेवी थे. उन की उपलब्धियों पर पूरे विश्वविद्यालय को गर्व था.

जिन छात्राओं के साथ उन का नाम जोड़ा गया था वे उम्र में उन की अपनी बेटियों जैसी थीं. आरोप इतने गंभीर और चरित्रहनन वाले थे कि उन्हें महज किसी का घटिया मजाक समझ कर ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता था. छात्राएं इतनी उत्तेजित थीं कि यदि पत्र लिखने वाले का पता चल जाता तो संभवत: उस का बचना मुश्किल था.

आरोपप्रत्यारोप का यह दौर कुलपति के कमरे में भी जारी रहा. विरोधी गुट के छात्र नेता परिमल पर प्रत्यक्ष आरोप लगा रहे थे कि वे सीधे तौर पर यदि इस में शामिल नहीं है तो कम से कम यह हुआ उसे के इशारे पर है. सब से ज्यादा गुस्से में संध्या थी. वह छात्र राजनीति में विरोधी गुट के मदन की समर्थक थी और उस का नाम दूसरी बार इस तरह के अवैध संबंधों की सूची में शामिल किया गया था.

दरअसल, एक माह पहले भी एक पत्र कुलपति के कार्यालय में प्राप्त हुआ था, जिस में संध्या का नाम विभागाध्यक्ष अमितोज के साथ जोड़ा गया था. तब कुलपति ने पत्र लिखने वाले का पता न चलने पर इसे एक घटिया आरोप मान कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था. और अब यह दूसरा पत्र था. इस बार पत्र लेखक ने कई और नामों को भी इस में शामिल कर लिया था.

स्पष्ट था कि पहले पत्र में उस ने जो आरोप लगाए थे उन्हें पूरा प्रचार न मिल पाने से वह असंतुष्ट था और इस बार ज्यादा छात्रछात्राओं के नामों को सम्मिलित करने के पीछे उस का उद्देश्य यही था कि मामले को दबाया न जा सके और इसे भरपूर प्रचार मिले.

वह अपने उद्देश्य में इस बार पूरी तरह सफल रहा था क्योंकि हिंदी विभाग से उस पत्र की प्रतिलिपियां अन्य विभागों में भी जल्दी ही पहुंच गईं. शरारती छात्रों ने सूचनापट्ट पर भी उस की एक प्रतिलिपि लगवा दी.

कुलपति महोदय ने बड़ी मुश्किल से दोनों पक्षों को चुप कराया और आश्वासन दिया कि वे दोषी को ढूंढ़ने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. यदि पता चल गया तो उस का मुंह काला कर उसे पूरे शहर में घुमाएंगे. सभी छात्राओं ने तैश में कहा, ‘‘आप पुलिस को या सीबीआई को यह मामला क्यों नहीं सौंप देते, वे खुद पता कर लेंगे.’’

संध्या को डर था कि कहीं यह पत्र भी पहले पत्र की तरह ठंडे बस्ते में ही न डाल दिया जाए. विभागाध्यक्ष व कुलपति इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे. कुलपति महोदय ने ही कहा, ‘‘हम ने इस बात पर भी विचार किया है, लेकिन इस से एक तो यह बात मीडिया में फैल जाएगी और विश्वविद्यालय की बदनामी होगी. दूसरा पुलिस छात्राओं को पूछताछ के बहाने परेशान करेगी और यह बात उन के घर वालों तक भी पहुंच जाएगी जो कि उचित नहीं होगा.’’

‘‘फिर पता कैसे चलेगा कि यह गंदी हरकत की किस ने है?’’ मदन ने तैश में आ कर कहा, ‘‘पहले भी एक पत्र आया था, जिस में 2 छात्राओं का नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ा गया था. तब भी आप ने यही कहा था कि हम पता लगाएंगे, लेकिन आज तक कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘उसे रोका नहीं गया तो अगली बार हो सकता है वह इस से भी आगे बढ़ जाए,’’ सोनाली ने लगभग चीखते हुए कहा. उस का अगले माह विवाह तय था और उस का नाम आनंद से जोड़ते हुए लिखा गया था कि अकसर वह शहर के पिकनिक स्पौटों पर उस के साथ देखी गई है.

डाक्टर अमितोज ने उसे मुश्किल से शांत कराया तो वह फफकफफक कर रो पड़ी, ‘‘आनंद के साथ कभी मैं यूनिवर्सिटी के बाहर भी नहीं गई.’’

‘‘तो इस में रोने की क्या बात है, अब चली जा. अभी तो 1 महीना पड़ा है शादी में,’’ कमल जिस का नाम इस पत्र में शामिल नहीं था, मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘चुप रह, मरवाएगा क्या’’ उस ने एक चपत उस के सिर पर जमा दी,‘‘ अगर झूठा शक भी पड़ गया न तो अभी तेरी हड्डीपसली एक हो जाएगी, बेवकूफ.’’

‘‘गुरु, कितनी बेइज्ज्ती की बात है, मेरा नाम किसी के साथ नहीं जोड़ा गया. कम से कम उस काली कांता के साथ ही जोड़ देते.’’

‘‘अबे, जिस का नाम उस के साथ जुड़ा था उस ने भी उस की खूबसूरती से तंग आ कर तलाक ले लिया.

‘‘शुक्र है, आत्महत्या नहीं की,’’ और फिर ठहाका मार कर दोनों देर तक उस का मजाक उड़ाते रहे.

कांता एक 25 वर्षीय युवा तलाकशुदा छात्रा थी जो उन्हीं के साथ हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. सभी के लिए उस की पहचान सिर्फ काली कांता थी. अपनी शक्लसूरत को ले कर उस में काफी हीनभावना थी. इसलिए वह सब से कटीकटी रहती थी. किसी ने न तो इस मुद्दे पर उस की सलाह ली और न ही वह बाकी लड़कियों की तरह खुद इस में शरीक हुई. अगर होती तो ऐसे ही व्यंग्यबाणों की शिकार बनती रहती.

‘‘इस बार ऐसा नहीं होगा,‘‘ डाक्टर अमितोज ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘पुलिस और सीबीआई की सहायता के बिना भी दोषी का पता लगाया जा सकता है. आप लोग कुछ वक्त दीजिए हमें. बजाय आपस में लड़नेझगड़ने के आप भी अपनी आंखें और कान खुले रखिए. दोषी आप लोगों के बीच में ही है.’’

‘‘हां, जिस तरह से उस ने नाम जोड़े हैं उस से पता चलता है कि वह काफी कुछ जानता है,’’ अभी तक चुपचाप बैठे साहिल  ने कहा तो कुछ उस की तरफ गुस्से में देखने लगे और कुछ बरबस होठों पर आ गई हंसी को रोकने की चेष्टा करने लगे.

‘‘मेरा मतलब था वह हम सभी लोगों से पूरी तरह परिचित है,’’ साहिल ने अपनी सफाई दी. उस का नाम इस सूची में तो शामिल नहीं था परंतु सभी जानते थे कि वह हर किसी लड़की से दोस्ती करने को हमेशा लालायित रहता था.

‘‘कहीं, यही तो नहीं है?’’ कमल फिर मदन के कान में फुसफुसाया.

‘‘अबे, यह ढंग से हिंदी नहीं लिख पाता, ऐसी अंगरेजी कहां से लिखेगा,’’ मदन बोला.

‘‘गुरु, अंगरेजी तो किसी से भी लिखवाई जा सकती है और मुझे तो लगता है इंटरनैट की किसी गौसिप वैबसाइट से चुराई गई है यह भाषा,’’ कमल ने सफाई दी.

‘‘अबे, उसे माउस पकड़ना भी नहीं आता अभी तक और इंटरनैट देखना तो दूर की बात है,’’ मदन ने उसे चुप रहने का इशारा किया, ‘‘पर गुरु…’’  कमल के पास अभी और भी तर्क थे साहिल को दोषी साबित करने के.

‘‘अच्छा आप लोग अपनी कक्षाओं में चलिए,’’ कुलपति महोदय ने आदेश दिया तो सभी बाहर निकल आए.

बाहर आ कर भी तनाव खत्म नहीं हुआ. सभी छात्रों ने कैंटीन में अपनी एक हंगामी मीटिंग की. सभी का मत था कि दोषी हमारे बीच का ही कोई छात्र है, लेकिन है कौन? इस बारे में एकएक कर सभी नामों पर विचार हुआ लेकिन नतीजा कुछ न निकला. अंत में तय हुआ कि कल से सभी कक्षाओं का तब तक बहिष्कार किया जाए जब तक कि दोषी को पकड़ा नहीं जाता. दूसरे विभाग के छात्रछात्राएं भी अब इस खोज में शामिल हो गए थे.

उन में से कुछ को वाकई में छात्राओं से सहानुभूति थी तो कुछ यों ही मजे ले रहे थे, लेकिन इतना स्पष्ट था कि यह मामला अब जल्दी शांत होने वाला नहीं था. सब से पहले यह तय हुआ कि मुख्य डाकघर से पता किया जाए कि वे पत्र किस ने स्पीड पोस्ट कराए हैं. परिमल, कमल व मदन ने यह जिम्मेदारी ली कि वे मुख्य डाकघर जा कर यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि दोषी कौन है.

अगले दिन जब वे मुख्य डाकघर पहुंचे तो पता चला कि इस बाबत पूछने के लिए दो लड़कियां पहले ही आ चुकी हैं.

‘‘वही होगी संध्या,’’ मदन फुसफुसाया.

‘‘अबे, उसी की तो सारी शरारत है, सबकुछ उस की जानकारी में ही हुआ है.’’

‘‘वह कैसे हो सकती है?’’ परिमल  बोला, ‘‘वह जो इतना तैश खा रही थी न… वह सब दिखावा था.’’

‘‘लेकिन गुरु, उस का तो नाम खुद ही सूची में है,’’ मदन बोला.

‘‘यही तो तरीके होते हैं डबल क्रौस करने के,’’ परिमल बोला, ‘‘एक तरफ अपना नाम डाक्टर अमितोज से जोड़ कर अपनी दबीढकी भावनाएं जाहिर कर दीं, दूसरी तरफ दूसरों को बदनाम भी कर दिया.’’

डाकघर की काउंटर क्लर्क ने जब यह बताया कि उन दोनों लड़कियों में से एक ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था और दूसरी के बाल कटे हुए थे तो तीनों को अति प्रसन्नता हुई, क्योंकि संध्या के न तो बाल कटे हुए थे और न ही वह नजर का चश्मा लगाती थी.

‘‘देखा मैं ने कहा था न कि संध्या नहीं हो सकती, वह क्यों पूछने आएगी. वे जरूर सोनाली और दीपिका होंगी क्योंकि वे दोनों ही इस में सब से ज्यादा इनोसैंट हैं. दीपिका तो बेचारी किताबों के अलावा किसी को देखती तक नहीं और सोनाली की अगले माह ही शादी है.’’

‘‘हां, मुझे अच्छी तरह उन लड़कों के चेहरे याद हैं,’’ काउंटर क्लर्क बोली, ‘‘चूंकि वे सभी लिफाफे महाविद्यालय में एक ही पते पर जाने थे अत: मैं ने ही उन्हें सलाह दी थी कि इन सभी को अलगअलग लिफाफों में पोस्ट करने के बजाय इस का सिर्फ एक लिफाफा बनाने से डाक व्यय कम लगेगा. इस पर उन में से एक लड़का जो थोड़ा सांवले रंग का था, भड़क उठा. कहने लगा, ‘‘आप को पता है ये कितने गोपनीय पत्र हैं, हम पैसे चुका रहे हैं इसलिए आप अपनी सलाह अपने पास रखिए.’’

मुझे उस का बोलने का लहजा बहुत अखरा, मैं उस की मां की उम्र की हूं परंतु वह बहुत ही बदतमीज किस्म का लड़का था, जबकि उस के साथ आया गोरा लड़का जिस ने नजर का चश्मा लगाया हुआ था बहुत शालीन था. उस ने मुझ से माफी मांगते हुए जल्दी काम करने की प्रार्थना की. गुस्से में वह सांवला लड़का बाहर दरवाजे पर चला गया जहां उन का तीसरा साथी खड़ा था. उस का चेहरा मैं देख नहीं सकी क्योंकि काउंटर की तरफ उस की पीठ थी, लेकिन मैं इतना विश्वास के साथ कह सकती हूं कि वे 3 थे, जिन में से 2 को मैं अब भी पहचान सकती हूं.’’

यह जानकारी एक बहुत बड़ी सफलता थी क्योंकि इस से जांच का दायरा मात्र उन छात्रों तक सीमित हो गया जो नजर का चश्मा लगाते थे और सांवले रंग के थे. परिमल स्वयं नजर का चश्मा लगाता था लेकिन वह नहीं हो सकता था क्योंकि डाकखाने की क्लर्क से उस ने खुद बात की थी. विपक्ष का नेता मदन भी सांवले रंग का था, लेकिन वह भी साथ था. महाविद्यालय

के हिंदी विभाग में 50 छात्रछात्राओं में से 32 छात्र और 18 छात्राएं थीं और मात्र 12 छात्र नजर का चश्मा लगाते थे. परिमल को अगर छोड़ दिया जाए तो मात्र 11 छात्र बचते थे.

जब यह जानकारी हिंदी विभाग  में पहुंची तो नजर का चश्मा लगाने वाले सभी छात्र संदेहास्पद हो गए. आरोपप्रत्यारोप का माहौल फिर गरम हो गया. नजर का चश्मा लगाने वालों की पहचान परेड उस क्लर्क के सामने कराई जाए. संध्या और सभी छात्राएं इस सूची को लिए फिर विभागाध्यक्ष डाक्टर अमितोज के कमरे में विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंच गईं, ‘‘सर, अब यह साफ हो चुका है कि इन 11 में से ही कोई है जिस ने यह गंदी हरकत की है. आप इन सभी को निर्देश दें कि वे पहचान परेड में शामिल हों.’’

डाक्टर अमिजोत ने मुश्किल से उन्हें शांत कराया और आश्वासन दिया कि वे इन सभी को ऐसा करने के लिए कहेंगे हालांकि उन्होंने साथसाथ यह मत भी जाहिर कर दिया कि यह सारा काम किसी शातिर दिमाग की उपज है और वे खुद इन पत्रों को डाकखाने जा कर पोस्ट करने की बेवकूफी नहीं कर सकता.

आनंद, जिस का नाम सोनाली से जोड़ा गया था और जो नजर का चश्मा लगाता था, ने इस पहचान परेड में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया, ‘‘मैं कोई अपराधी हूं जो इस तरह पहचान परेड कराऊं.’’

उस के इस इनकार ने फिर माहौल गरमा दिया. संध्या इस बात पर उस से उलझ पड़ी और तूतड़ाक से नौबत हाथापाई तक आ गई. आनंद ने सीधेसीधे संध्या पर आरोप जड़ दिया, ‘‘सारा तेरा किया धरा है. डाक्टर अमितोज के साथ तेरे जो संबंध हैं न, उन्हें कौन नहीं जानता. उसी मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए तू ने औरों को भी बदनाम किया है ताकि वे लोग तुझ पर छींटाकशी न कर सकें. तू सोनाली की हितैषी नहीं है बल्कि उसे भी अपनी श्रेणी में ला कर अपने मुद्दे से सभी का ध्यान हटाना चाहती है.’’

परिमल ने उस समय तो बीचबचाव कर मामला सुलझा दिया, परंतु सरेआम की गई इस टिप्पणी ने संध्या को अंदर तक आहत कर दिया. कुछ छात्रों का मानना था कि आनंद के आरोप में सचाई भी हो सकती है.

‘‘यार, तेरी बात में दम है. सब जानते हैं कि जब से यह पत्र आया है सब से ज्यादा यही फुदक रही है,’’ संध्या के जाते ही परिमल ने आनंद को गले लगा लिया और कहने लगा कि पहला पत्र जिस में केवल संध्या और डाक्टर अमितोज का नाम था वह किसी और ने लिखा था. उस से इस की जो बदनामी हुई उसी से ध्यान बंटाने के लिए इस ने इस पत्र में औरों को घसीटा है ताकि लगे कि हमाम में सभी नंगे हैं. परिमल ने संध्या को बदनाम करने के लिए इस जलते अलाव या की वजह से उस के छात्राओं के काफी वोट जो कट जाते थे.

जो छात्र पहचान परेड कराने के लिए तैयार थे वे जब डाकखाने पहुंचे तो डाकखाने का स्टाफ इस समूह को देख कर आशंकित हो गया. उन्होंने उस महिलाकर्मी को इस पहचान परेड के लिए मना कर दिया. वह महिलाकर्मी खुद भी बहुत डरीसहमी थी, उसे नहीं पता था कि मुद्दा क्या है. उस ने तो अपनी तरफ से साधारण सी बात समझ कर जानकारी दी थी.

काफी देर तक डाकखाने के कर्मियों और छात्रों में बहस होती रही. उन का तर्क था कि वे इस झगड़े में क्यों पड़ें. वह महिलाकर्मी यदि किसी की पहचान कर लेती है तो वह छात्र उसे नुकसान भी तो पहुंचा सकता है. छात्रों ने जब दबाव बनाया तो उस ने सहकर्मियों की सलाह मान कर सरसरी निगाह छात्रों पर डालते हुए सभी को क्लीन चिट दे दी. स्पष्ट था वह इस झगड़े में नहीं पड़ना चाहती थी. वह सच बोल रही है या झूठ इस का फैसला नहीं किया जा सकता था.

बात जहां से शुरू हुई थी फिर से वहीं पहुंच गई थी. अटकलों का बाजार पुन: गरम हो चुका था. यह मांग फिर उठने लगी थी कि इस मामले में कुलपति हस्तक्षेप करें और मामला पुलिस या सीबीआई को दे दिया जाए. सभी जानते थे कि हर अपराध के पीछे एक मोटिव होता है.

हिंदी विभाग से बाहर का कोई छात्र ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि एक तो इतने सारे छात्रछात्राओं को बदनाम करने के पीछे उस का कोई उद्देश्य नहीं हो सकता था. दूसरे जो जोड़े बनाए गए थे वे बहुत ही गोपनीय जानकारी पर आधारित थे और कइयों के बारे में ऊपरी सतह पर कुछ भी दिखाई नहीं देता था, लेकिन उन में से अधिकांश के तल में कुछ न कुछ सुगबुगाहट चल रही थी.

अब तो अन्य विभागों के छात्रछात्राएं भी इस में रुचि लेने लगे थे, लेकिन यह निश्चित था कि ‘मास्टर माइंड’ इन्हीं 50 छात्रछात्राओं में से कोई एक था. 6 प्रोफैसर्स में से भी कोई हो सकता था परंतु इस की संभावना कम ही थी क्योंकि सभी प्रोफैसर्स अपनीअपनी फेवरेट छात्राओं के साथ अपने गुरुशिष्या के संबंधों पर परम संतुष्ट थे.

अचानक एक तीसरा पत्र डाक्टर अमितोज के नाम साधारण डाक से प्राप्त हुआ. यह पत्र भी अंगरेजी में था और इस में सारे घटनाक्रम पर क्षमा मांगते हुए इस का पटाक्षेप करने की प्रार्थना की गई थी. पत्र कंप्यूटर पर टाइप किया हुआ था और उस में फौंट, स्याही और कागज वही इस्तेमाल हुए थे जो दूसरे पत्र के लिए हुए थे.

डाक्टर अमितोज ने ध्यान से वह पत्र कई बार पढ़ा. अचानक उन के मस्तिष्क में एक विचार तीव्रता से कौंधा. वे तेजी से हिंदी विभाग के कार्यालय में पहुंचे और सभी छात्रछात्राओं के आवेदनपत्र की फाइल लिपिक से कह कर अपने कार्यालय में मंगवा ली. तेजी से उन की निगाहें उन आवेदनपत्रों में पूर्व शैक्षणिक योग्यता के कौलम में कुछ खोज करती दौड़ने लगीं. अचानक उन्हें वह मिल गया जिस की उन्हें तलाश थी. उन्होंने पता देखा तो वह हौस्टल का था.

तीसरा पत्र उन के हाथ में था जब उन्होंने हौस्टल के उस कमरे का दरवाजा खटखटाया. दरवाजा खुलते ही उन की निगाह सामने रखे पीसी पर पड़ी. वे समझ गए कि उन की तलाश पूरी हो चुकी है. वह कमरा युवा तलाकशुदा छात्रा कांता का था जो पूर्व में अंगरेजी साहित्य में स्नातकोत्तर थी, उस की बदसूरती और गहरे काले रंग को ले कर सभी छात्रछात्राएं मजाक उड़ाया करते थे.

उन के सामने अब इस अपराध का मोटिव स्पष्ट था और इस पर किसी तर्क की गुंजाइश नहीं थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस अपराध के लिए वे उस पर नाराज हों या तरस खाएं.

‘‘मैं नहीं पूछूंगा कि दूसरे पत्र को पोस्ट करवाने में जिन तीन लड़कों का तुम ने सहयोग लिया वे कौन थे क्योंकि उन्हें पता भी नहीं होगा कि वे क्या करने जा रहे हैं. लेकिन तुम्हारा गुरु होने के नाते एक सीख तुम्हें जरूर दूंगा. जो कमी तुम्हें अपने में नजर आती है और जिस में तुम्हारा अपना कोई दोष नहीं है उस के लिए स्वयं पर शर्मिंदा हो कर दूसरों से उस का बदला लेना अपनेआप में एक अपराध है, जो तुम ने किया है.

तुम ने इस अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना की है. एक शर्त पर मैं तुम्हें क्षमा कर सकता हूं यदि तुम यह वादा करो कि कभी अपने रंगरूप पर शर्मिंदगी महसूस नहीं करोगी. अपनेआप से प्यार करना सीखो, तभी दूसरे भी तुम्हें प्यार करेंगे.’’ उन्होंने वह पत्र फाड़ा और आंसू बहाती कांता के सिर को सहला कर चुपचाप वहां से बाहर निकल आए.

सरोकार : मंझधार में फंसा एक बेटा

जनकदेव जनक  समय ही एक ऐसा साथी है, जो अच्छे और बुरे दिनों में इनसान के साथ रहता है. चाहे अमीर हो या गरीब, राजा हो या रंक, वह सब को अपने आगोश में लिए घूमता है, मगर जिस का भी समय पूरा हो जाता है, उसे यमराज के हवाले कर हमेशा के लिए अलविदा कह देता है. ठीक वैसे ही एक दिन 28 साल के एक नौजवान अमर की मां के साथ हुआ. 55 साल की उस की मां की उम्र मरने की तो नहीं थी, लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि ठीक से वह उस का इलाज करा सके. फिर भी जब तक सांस है, तब तक आस है. अमर ने एक डाक्टर से उस का इलाज कराया. अमर अपनी मां के मरने से बहुत आहत हुआ, इसलिए कि उस की मां का अंतिम संस्कार उस के लिए एक समस्या बनी हुई थी, क्योंकि वह अपनी बिरादरी से छांट दिया गया था. मां की अर्थी को कंधा देने वाला उस के सिवा कोई नहीं था. संयुक्त परिवार होने के बावजूद अमर अपने घर पर अकेला मर्द सदस्य था.

उस के पिता की मौत 5 साल पहले हो चुकी थी, जबकि घर के दूसरे सदस्य उस के चाचा जितेंद्र कोलकाता में रहते थे. घर पर उस के साथ चाची मंजू देवी व उन की 3 बेटियां सोनी, पार्वती व कंचन थीं, जो कि 16, 17 व 18 साल की थीं.  अमर ने अपनी मां के मरने की खबर जब मोबाइल से अपने चाचा को दी, तो उन्होंने कहा, गाडि़यों की हड़ताल के चलते मैं समय से घर नहीं पहुंच सकता, इसलिए तुम भाभी का अंतिम संस्कार जल्द कर देना. मेरे इंतजार में लाश को घर में रखना ठीक नहीं है. चाचा की इस बात से अमर को गहरा सदमा पहुंचा. वह कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा. उस के बाद वह गांव के सूर्यभान पहलवान और अपने पट्टीदारों के घर पहुंचा.

उन की चौखट पर नाक रगड़रगड़ कर अंतिम संस्कार में चलने को कहा, लेकिन सभी ने नकार दिया. आखिर में अमर हताश और निराश हो कर लौट रहा था, तभी उस की मुलाकात एक दोस्त आरती से हुई, जो बीए पास एक दलित लड़की थी, साथ ही भीम सेना की क्षेत्रीय सचिव भी थी. ‘‘क्या बात है अमर, आज तेरा हंसमुख चेहरा बहुत उदास और बुझाबुझा सा लग रहा है? कोई मुसीबत आ पड़ी है क्या?’’ आरती ने पूछा. ‘‘क्या करोगी जान कर? मेरी मुसीबत तेरे वश की बात नहीं है,’’

अमर ने कहा. ‘‘फिर भी कुछ तो बोलो, शायद मैं कोई रास्ता निकाल सकूं,’’ आरती ने गंभीरता के साथ अमर को देखते हुए पूछा. ‘‘मेरी मां इस दुनिया में नहीं रहीं आरती. उन की अर्थी को कंधा देने वाले 4 लोग नहीं मिल रहे हैं. क्या मेरी मां की लाश घर में ही पड़ी रहेगी?’’

भावुक हो कर अमर फूटफूट कर रोने लगा. ‘‘अमर, हौसला रखो… हम तुम्हारे साथ हैं,’’ आरती ने अमर के कंधे पर हाथ रख कर थपथपाते हुए धीरज बंधाया और बोली, ‘‘घबराने की कोई जरूरत नहीं है अमर. मैं ने रास्ता निकाल लिया है. तुम्हारी मां की अर्थी को कंधा देने वाले मिल गए हैं.’’ ‘‘कौन हैं वे लोग…?’’ अमर ने उत्सुकता जताते हुए आरती से पूछा,

जैसे समाज की सब से बड़ी चुनौती का हल निकल गया हो. ‘‘अर्थी को कंधा मैं, तुम, तुम्हारी चचेरी बहन कंचन व पार्वती देंगी. साथ में पश्चिम टोला से हम भगवान भैया, वकील भैया, बुजुर्ग नागा दादा को भी ले लेंगे. सूर्यभान पहलवान से डरना नहीं है. अब उस का जमाना लद गया है. पश्चिम टोला के लोगों ने उस से डरना छोड़ दिया है.’’ ‘‘लेकिन, अर्थी को बेटियां कंधा नहीं देती हैं.

हम रीतिरिवाज और परंपरा के खिलाफ जा रहे हैं.’’ ‘‘अमर, जिंदगी में हमेशा जीतना सीखो, हारना नहीं. देखो, आगेआगे होता क्या है?’’ अर्थी को कंधा दे कर वे लोग गंडकी नदी के किनारे ले गए. वहां जमीन पर अर्थी को रख दिया गया. उस के बाद बुजुर्ग नागा दादा ने कहा, ‘‘अमर की मां को टीबी की बीमारी थी, इसलिए उस की लाश को जलाया नहीं जा सकता. कब्र के लिए 6 फुट लंबा, 4 फुट चौड़ा और तकरीबन 5 फुट गहरा गड्ढा खोदा जाए.’’ ‘‘ठीक है दादा, जमीन की खुदाई का काम जल्दी शुरू किया जाए. सूरज पश्चिम दिशा में डूब गया है. ठंड भी बढ़ने लगी है.

अमर, एक कुदाल मुझे भी दो,’’ आरती ने कहा. ‘‘अरे, चिंता क्यों करती हो आरती बेटी, कुदाल चलाने में माहिर भगवान, वकील, अमर हैं न. तुम कंचन और पार्वती के साथ कब्र की मिट्टी बाहर निकालो. सब की मदद से कब्र जल्दी तैयार हो जाएगी,’’ बुजुर्ग नागा दादा ने समझदारी के साथ सब को अलगअलग काम बांट दिए. नदी के किनारे साफसुथरी जगह देख कर कुदाल से मिट्टी की खुदाई की जाने लगी… साथ में गए लोग खुदाई के काम में लग गए. हालांकि मिट्टी बाहर निकालते समय पार्वती का ध्यान अंधेरे में कहीं भटक जाता. उस ने गांव के लोगों से सुन रखा था कि श्मशान में भूतप्रेत, चुड़ेल हवा में घूमती रहती हैं, जो मौका पाते ही आदमी की देह में घुस जाती हैं और उस आदमी के साथ उस के घरपरिवार को भी तबाह कर देती हैं. पार्वती मारे डर के कभीकभी कांप जाती.

नागा दादा पार्वती की मनोदशा को ताड़ गए. वे उस के पास गए. उसे स्नेह व प्यार से देखा और उस के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘भूतप्रेत कुछ नहीं होता है पार्वती. सब मन का वहम है. कब्र से मिट्टी को बाहर निकालने में मदद करो,’’ नागा दादा की इस बात से पार्वती अपने काम में जुट गई. अमर ने आकाश की ओर देखा. शाम ढल कर रात के आगोश में समा रही थी. आसमान में कई तारे निकल आए थे. नदी किनारे चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था.

जमीन खुदाई वाली जगह से थोड़ी दूरी पर अमर की मां की लाश थी, जो अमर द्वारा सामाजिक कुरीतियां और पाखंडों को त्यागने पर शायद आरती का धन्यवाद कर रही थी. कब्र तैयार होने पर लाश को आहिस्ताआहिस्ता नीचे उतारा गया. उस के बाद मिट्टी डाल कर कब्र को अच्छी तरह से ढक दिया गया. फिर वे सभी वहां से अपनेअपने घर चले गए. अमर ने अपनी मां के मरने पर किसी तरह का कोई कर्मकांड नहीं किया. उस ने न तो पीपल के पेड़ में पानी दिया, न मुंडन संस्कार कराया, न तेरहवीं के दिन श्राद्ध पर किसी ब्राह्मण को भोजन कराया. अमर के नास्तिक होने की बात पूरे इलाके में चर्चा का मुद्दा बन गई थी. एक दिन अमर अपने खेतों की बोरवैल से सिंचाई कर रहा था,

तभी वहां सूर्यभान सिंह पहुंचा और अपने खेतों में बोरवैल का पानी ले जाने लगा तो अमर ने उस का विरोध किया और कहा, ‘‘10,000 रुपए बकाया हो गया है. पहले रुपए चुकता करो, तब पानी ले जाओ. डीजल 110 रुपए प्रति लिटर हो गया है. मोटर पंप कैसे चलेगा? मेरे पास पैसा रहेगा, तभी तो पंप में डीजल डाला जाएगा.’’ अमर ने सरकारी अनुदान से अपने खेत में बोरवैल लगाया था.

बोरवैल का पानी वह 300 रुपए प्रति घंटा के हिसाब से दूसरों को सिंचाई के लिए बेचता था. उस से मिले पैसे से वह बोरवैल की सरकारी किस्त भरता था. वह जब भी सूर्यभान से सिंचाई का पैसा मांगता, वह रुपए देने में आनाकानी करता. तब अमर ने इस की शिकायत सरपंच भानु प्रताप सिंह से की थी, लेकिन सरपंच ने कभी सुनवाई तक नहीं की. ‘‘पानी का बकाया… मेरे पास तेरा कोई बकाया नहीं है. तू मुझ पर धौंस जमाना चाहता है. तू जानता नहीं है कि मैं कौन हूं. तेरी बिरादरी से मैं ने ही तेरा हुक्कापानी बंद कराया. इस के बावजूद तेरी हेकड़ी नहीं गई. ठहर, कल तुम्हारी सारी हेकड़ी भुला दूंगा,’’

उलटे सूर्यभान सिंह ने उस पर रोब जमाते हुए गुस्से  में कहा. सूर्यभान सिंह और अमर दोनों का शोरगुल सुन कर वहां खेतों में सिंचाई कर रहे खेतिहर मजदूर जुट गए और किसी तरह समझाबुझा कर मामला  शांत कराया गया. पैर पटकते हुए सूर्यभान सिंह जाने लगा. जातेजाते उस ने अमर को बुरे नतीजे भुगतने की चेतावनी दी. अमर के गांव में ऊंची जाति वालों की तूती बोलती थी.

लोगों के दिलोदिमाग पर सरपंच भानु प्रताप सिंह और सूर्यभान सिंह का खौफ छाया रहता था. उन के आदेश के बिना कोई भी शख्स अपना निजी काम तक नहीं कर सकता था. अगर बिना इजाजत किसी ने कुछ किया, तो उस की खैर नहीं थी. वहां सूर्यभान सिंह पहुंच कर काम रुकवा देता और मोटी रकम ले कर ही काम करने देता. जो कोई रुपए देने में आनाकानी करता, उसे घसीटते हुए सरपंच के पास ले जाता और झूठे आरोप लगा कर उसे सजा दिला कर ही दम लेता.

वह किसी को नहीं छोड़ता था. 40 साल का सूर्यभान सिंह एक बेऔलाद व अक्खड़ पहलवान था, जो अपनी ताकत का इस्तेमाल लोगों को सताने में किया करता था. वह अपनी दबंगई दिखाने के लिए अकसर सरपंच के इशारों पर नाचता था.  सरपंची का चुनाव हो या ठेकेदारी, किसी प्रतिद्वंद्वी को सबक सिखाना हो या फिर किसी मामले को दबाना, वह परछाईं की तरह सरपंच भानु प्रताप सिंह के साथ रहता था. उस के आतंक के खिलाफ कोई अपनी जबान तक नहीं खोलता था.  अगले दिन अमर के दरवाजे पर सरपंच का कारिंदा पहुंचा और पंचायत में ठीक दिन के 12 बजे आने की सूचना दी.

कारिंदे के जाने के बाद अमर ने आरती को फोन किया और सूर्यभान सिंह के साथ हुई घटना का जिक्र किया. साथ ही, पंचायत में पहुंचने को कहा. ‘‘अपनी मां की मौत पर बिना किसी रीतिरिवाज की चिंता किए तू ने दाह संस्कार किया है. उस की भरपूर सजा मिलेगी. पहले 5 ब्राह्मणों को 1-1 बछिया दान दो और मृत्युभोज में पूरे गांव को खाना खिलाना जरूरी है. इस गांव में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है.’’ सरपंच भानु प्रताप सिंह ने अपना फरमान जारी करते हुए कहा. ‘‘बोलो अमर, पंचायत का फैसला मंजूर है या गांव छोड़ कर दूसरी जगह जाओगे?’’ पंच की हैसियत से सूर्यभान सिंह ने अमर से पूछा.

‘‘यह तो सरासर गलत फैसला है. अमर के साथ नाइंसाफी है. इस के खिलाफ भीम सेना अदालत का दरवाजा खटखटाएगी,’’ पंचायत में मौजूद आरती ने कहा. ‘‘भीम सेना जिंदाबाद…’’ का नारा लगाते हुए आरती के समर्थन में भीम सेना के दर्जनों कार्यकर्ता खड़े हो गए. ‘‘यह कोई राजनीतिक पार्टी की बैठक नहीं, जहां तुम लोग नारेबाजी कर रहे हो. यह पंचायत है, पंचायत. शांति से चले जाओ, वरना…’’ सरपंच भानु प्रताप सिंह ने चेतावनी दी. ‘‘वरना क्या करेंगे सरपंच साहब, दलित, पीडि़त और शोषितों पर गोली चलाएंगे. वह जमाना लद गया, जब आप की गीदड़ भभकी से लोग डर जाते थे. हम आप की मनुवादी विचारधारा के खिलाफ हैं. जरूरत पड़ी तो सड़क से सदन तक आवाज बुलंद करेंगे,’’ आरती ने बिना डरे अपनी बात रखी और अपने समर्थकों को शांत रहने का इशारा किया. ‘‘गीदड़ की मौत आती है, तो वह शहर की ओर भागता है. वह समय अब आ गया है,

’’ सरपंच भानु प्रताप सिंह ने भीम सेना पर ताना कसा. ‘‘मौत की बात करते हैं सरपंच साहब, शर्म नहीं आती है. अमर की मां सुबह मरी थीं और शाम तक कंधा देने वाले लोग नहीं मिले.  ‘‘आप मृत्युभोज व गाय दान देने की बात करते हैं. जिस के घर में अन्न का एक दाना नहीं है, न पैसे हैं, वह अपने पुरखों की जमीन बेच कर क्यों सामंतियों का पेट भरेगा? आप ने तो इनसानियत को शर्मसार किया है. आप को मरने के लिए चुल्लू भर पानी भी नसीब नहीं होगा…’’

‘धांय’ गोली चलने की आवाज गूंजी. अभी आरती बोल ही रही थी कि सूर्यभान सिंह ने पिस्टल का ट्रिगर दबा दिया. भयानक आवाज के साथ गोली आरती के सिर के ऊपर से निकल गई.

पंचायत में भगदड़ मच गई. लोग इधरउधर भागने लगे. भीम सेना के सदस्य सूर्यभान सिंह से भिड़ गए. माहौल बिगड़ता देख सरपंच भानु प्रताप सिंह ने पुलिस को सूचना दे दी. थोड़ी देर बाद ही वहां पुलिस दलबल के साथ पहुंच गई. इसी बीच अमर ने सूर्यभान सिंह के हाथ से उस का पिस्टल छीन लिया था. भीम सेना के सदस्य उस की जम कर पिटाई करने लगे.

जब सूर्यभान सिंह वहां से भागने लगा, तो सब ने मिल कर उसे पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया. थाने में आरती ने घटना की लिखित शिकायत की. थानेदार राजेंद्र प्रसाद ने घटना की जांच कर सूर्यभान सिंह के खिलाफ आर्म्स ऐक्ट का मामला दर्ज कर उसे जेल भेज दिया, वहीं अमर ने सरपंच भानु प्रताप सिंह पर मृत्युभोज के नाम  पर गरीबों को सताने की लिखित शिकायत की. दूसरे दिन आरती व अमर की खबरें सभी अखबारों, चैनलों, पोर्टलों और सोशल मीडिया की सुर्खियों में थीं.

बहादुर लड़की : क्या नक्सलियों को चकमा दे पाई सालबनी

आदिवासियों के जीने का एकमात्र साधन और बेहद खूबसूरत वादियों वाले हरेभरे पहाड़ी जंगलों को स्थानीय और बाहरी नक्सलियों ने छीन कर अपना अड्डा बना लिया था. उन्हें अपने ही गांवघर, जमीन से बेदखल कर दिया था. यहां के जंगलों में अनेक जड़ीबूटियां मिलती हैं. जंगल कीमती पेड़पौधों से भरे हुए हैं.

3 राज्यों से हो कर गुजरने वाला यह पहाड़ी जंगल आगे जा कर एक चौथे राज्य में दाखिल हो जाता था. जंगल के ऊंचेनीचे पठारी रास्तों से वे बेधड़क एक राज्य से दूसरे राज्य में चले जाते थे.

दूसरे राज्यों से भाग कर आए नक्सली चोरीचुपके यहां के पहाड़ी जंगलों में पनाह लेते और अपराध कर के दूसरे राज्यों के जंगल में घुस जाते थे.

कोई उन के खिलाफ मुंह खोलता तो उसे हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देते. यहां वे अपनी सरकारें चलाते थे. गांव वाले उन के डर से सांझ होने से पहले ही घरों में दुबक जाते. उन्हें जिस से बदला लेना होता था, उस के घर के बाहर पोस्टर चिपका देते और मुखबिरी का आरोप लगा कर हत्या कर देते थे.

नक्सलियों के डर से गांव वाले अपना घरद्वार, खेतखलिहान छोड़ कर शहरों में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां चले गए थे.

डुमरिया एक ऐसा ही गांव था, जो चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ था. पहाड़ी जंगल के कच्चे रास्ते को पार कर के ही यहां आया जा सकता था. यहां एक विशाल मैदान था. कभी यहां फुटबाल टूर्नामैंट भी होता था जो अब नक्सलियों के कब्जे में था. एक उच्च माध्यमिक स्कूल भी था जहां ढेर सारे लड़केलड़कियां पढ़ते थे.

पिछले दिनों नक्सलियों ने अपने दस्ते में नए रंगरूटों को भरती करने के लिए जबरदस्ती स्कूल पर हमला कर दिया और अपने मनपसंद स्कूली बच्चों को उठा ले गए. गांव वाले रोनेपीटने के सिवा कुछ न कर सके.

नक्सली उन बच्चों की आंखों पर पट्टी बांध कर ले गए थे. बच्चे उन्हें छोड़ देने के लिए रोतेचिल्लाते रहे, दया की भीख मांगते रहे, लेकिन उन्हें उन मासूमों पर दया नहीं आई. जंगल में ले जा कर उन्हें अलगअलग दस्तों में गुलामों की तरह बांट दिया गया. सभी लड़केलड़कियां अपनेअपने संगीसाथियों से बिछुड़ गए.

अगवा की गई एक छात्रा सालबनी को संजय पाहन नाम के नक्सली ने अपने पास रख लिया. वह रोरो कर उस दरिंदे से छोड़ देने की गुहार करती रही, लेकिन उस का दिल नहीं पसीजा. पहले तो सालबनी को उस ने बहलाफुसला कर मनाने की कोशिश की, लेकिन सालबनी ने अपने घर जाने की रट लगाए रखी तो उस ने उसे खूब मारा. बाद में सालबनी को एक कोने में बिठाए रखा.

सोने से पहले उन के बीच खुसुरफुसुर हो रही थी. वे लोग अगवा किए गए बच्चों की बात कर रहे थे.

एक नक्सली कह रहा था, ‘‘पुलिस हमारे पीछे पड़ गई है.’’

‘‘तो ठीक है, इस बार हम सारा हिसाबकिताब बराबर कर लेते हैं,’’ दूसरा नक्सली कह रहा था.

‘‘पूरे रास्ते में बारूदी सुरंग बिछा दी जाएंगी. उन के साथ जितने भी जवान होंगे, सभी मारे जाएंगे और अपना बदला भी पूरा हो जाएगा.’’

इस गुप्त योजना पर नक्सलियों की सहमति हो गई.

सालबनी आंखें बंद किए ऐसे बैठी थी जैसे उन की बातों पर उस का ध्यान नहीं है लेकिन वह उन की बातों को गौर से सुन रही थी. फिर बैठेबैठे वह न जाने कब सो गई. सुबह जब उस की नींद खुली तो देखा कि संजय पाहन उस के बगल में सो रहा था. वह हड़बड़ा कर उठ गई.

तब तक संजय पाहन की भी नींद खुल गई. उस ने हंसते हुए सालबनी को अपनी बांहों में जकड़ना चाहा. उस के पीले दांत भद्दे लग रहे थे जिन्हें देख कर सालबनी अंदर तक कांप गई.

सुबह संजय पाहन ने सालबनी से जल्दी खाना बनाने को कहा. खाना खाने के बाद वे लोग तैयार हो कर निकल गए. सालबनी भी उन के साथ थी.

उस दिन जंगल में घुसने वाले मुख्य रास्ते पर बारूदी सुरंग बिछा कर वे लोग अपने अड्डे पर लौट आए.

मौत के सौदागरों का खतरनाक खेल देख कर सालबनी की रूह कांप गई. उस ने मन ही मन ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वह इन्हें छोड़ेगी नहीं. वह मौका तलाशने लगी.

खाना बनाने का काम सालबनी का था. रात के समय वह खाना बनाने के साथ ही साथ भागने का जुगाड़ भी बिठा रही थी. खाना खा कर जब सभी सोने की तैयारी करने लगे तो उन के सामने सवाल खड़ा हो गया कि आज रात सालबनी किस के साथ सोएगी. संजय पाहन ने सब से पहले सालबनी का हाथ पकड़ लिया.

‘‘इस लड़की को मैं लाया हूं, इसे मैं ही अपने साथ रखूंगा.’’

‘‘क्या यह तुम्हारी जोरू है, जो रोज रात को तुम्हारे साथ ही सोएगी? आज की रात यह मेरे साथ रहेगी,’’ दूसरा बोला और इतना कह कर वह सालबनी का हाथ पकड़ कर अपने साथ ले जाने लगा.

संजय पाहन ने फुरती से सालबनी का हाथ उस से छुड़ा लिया. इस के बाद सभी नक्सली सालबनी को अपने साथ सुलाने को ले कर आपस में ही एकदूसरे पर पिल पड़े, वे मरनेमारने पर उतारू हो गए.

इसी बीच मौका देख कर सालबनी अंधेरे का फायदा उठा कर भाग निकली. वह पूरी रात तेज रफ्तार से भागती रही. भौर का उजाला फैलने लगा था. दम साधने के लिए वह एक ऊंचे टीले की ओट में छिप कर खड़ी हो गई और आसपास के हालात का जायजा लेने लगी.

सालबनी को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि वह जहां खड़ी है, उस का गांव अब वहां से महज 2-3 किलोमीटर की दूरी पर रह गया है. मारे खुशी के उस की आंखों में आंसू आ गए.

सालबनी डर भी रही थी कि अगर गांव में गई तो कोई फिर से उस की मुखबिरी कर के पकड़वा देगा. वह समझदार और तेजतर्रार थी. पूछतेपाछते सीधे सुंदरपुर थाने पहुंच गई.

जैसे ही सालबनी थाने पहुंची, रातभर भागते रहने के चलते थक कर चूर हो गई और बेहोश हो कर गिर पड़ी.

सुंदरपुर थाने के प्रभारी बहुत ही नेक पुलिस अफसर थे. यहां के नक्सलियों का जायजा लेने के लिए कुछ दिन पहले ही वे यहां ट्रांसफर हुए थे. उन्होंने उस अनजान लड़की को थाने में घुसते देख लिया था. पानी मंगा कर मुंह पर छींटे मारे. वे उसे होश में लाने की कोशिश करने लगे.

सालबनी को जैसे ही होश आया, पहले पानी पिलाया. वह थोड़ा ठीक हुई, फिर एक ही सांस में सारी बात बता दी.

थाना प्रभारी यह सुन कर सकते में आ गए. उन्हें इस बात की गुप्त जानकारी अपने बड़े अफसरों से मिली थी कि डुमरिया स्कूल के अगवा किए गए छात्रछात्राओं का पता लगाने के लिए गांव से सटे पहाड़ी जंगलों में आज रात 10 बजे से पुलिस आपरेशन होने वाला है. लेकिन पुलिस को मारने के लिए नक्सलियों ने बारूदी सुरंग बिछाई है, यह जानकारी नहीं थी.

उन्होंने सालबनी से थोड़ा सख्त लहजे में पूछा, ‘‘सचसच बताओ लड़की, तुम कोई साजिश तो नहीं कर रही, नहीं तो मैं तुम्हें जेल में बंद कर दूंगा?’’

‘‘आप मेरे साथ चलिए, उन लोगों ने कहांकहां पर क्याक्या किया है, वह सब मैं आप को दिखा दूंगी,’’ सालबनी ने कहा.

थाना प्रभारी ने तुरंत ही अपने से बड़े अफसरों को फोन लगाया. मामला गंभीर था. देखते ही देखते पूरी फौज सुंदरपुर थाने में जमा हो गई. बारूदी सुरंग नाकाम करने वाले लोग भी आ गए थे.

सालबनी ने वह जगह दिखा दी, जहां बारूदी सुरंग बिछाई गई थी. सब से पहले उसे डिफ्यूज किया गया.

सालबनी ने नक्सलियों का गुप्त ठिकाना भी दिखा दिया. वहां पर पुलिस ने रेड डाली, पर इस से पहले ही नक्सली वहां से फरार हो गए थे. वहां से अगवा किए गए छात्रछात्राएं तो नहीं मिले, मगर उन के असलहे, तार, हथियार और नक्सली साहित्य की किताबें जरूर बरामद हुईं.

इस तरह सालबनी की बहादुरी और समझदारी से एक बहुत बड़ा हादसा होतेहोते टल गया.

बढ़ई की बेटी : उर्मिला ने भरी नई उड़ान

‘‘जगता चाचा, ओ, जगता चाचा,’’ कुंदन ने दरवाजे पर खड़े हो कर जगता बढ़ई को आवाज लगाई.

‘‘हां कुंदन बेटा, क्यों चिल्ला रहा है? दरवाजा खोल कर अंदर आ जा.’’

‘‘अरे चाचा, आप को खाट की बाही और पाए बनाने को दिए थे. इतने दिन हो गए, लेकिन कुछ हुआ नहीं…’’

‘‘हां बेटा, बस कुछ दिन की और बात है. टांग ठीक हो जाए, तो मैं चारपाई छोड़ कर कामधंधे में लगूं. सब से पहले तुम्हारी खाट ही तैयार करूंगा.’’

‘‘चाचा, हमें खाट की बहुत जरूरत है. पिताजी ने कहलवा कर भेजा है कि खाट बुनने के लिए तैयार न हो, तो उस की लकड़ी वापस ले आना. हम दूसरे गांव के बढ़ई से बनवा लेंगे.’’

‘‘कुंदन बेटा, तुम कैसी बातें करते हो? तुम्हारे परिवार का कोई काम कभी मेरे हाथों पीछे छूटा हो तो बताओ. अब ऐसी मजबूरी आ पड़ी है कि उठा तक नहीं जाता. जब से हादसे में टांग टूटी है, लाचार हो गया हूं. बस, कुछ दिन और रुक जाओ बेटा.’’

‘‘नहीं चाचा, अब हम और नहीं रुक सकते. हमें खाट की सख्त जरूरत है. हम दूसरों की खाट मांग कर काम चला रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बेटा. नहीं रुक सकते तो ले जाओ अपनी लकडि़यां, वे पड़ी हैं उस कोने में.’’ कुंदन कोने में पड़ी अपनी लकडि़यां उठाने लगा.

जगता बढ़ई की बेटी सुनीता दरवाजे के पीछे खड़ी सारी बातें सुन रही थी. वह बाहर आई और कुंदन से बोली, ‘‘कुंदन भैया, अगर तुम शाम तक का समय दो, तो तुम्हारी बाही और पाए दोनों तैयार हो जाएंगे. उन्हें ठोंकपीट कर तुम्हारी खाट का भी ढांचा तैयार हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन सुनीता, यह तो बताओ इन को तैयार कौन करेगा? जगता चाचा तो अपनी चारपाई से नीचे भी नहीं उतर सकते.’’

‘‘मैं तैयार करूंगी कुंदन भैया. तुम परेशान क्यों होते हो? आखिर मैं बढ़ई की बेटी हूं. इतना तो तुम मुझ पर यकीन कर ही सकते हो.’’

सुनीता की बात सुन कर कुंदन मुसकराया और बोला, ‘‘ठीक है, सुनीता. तुम कहती हो, तो शाम तक इंतजार कर लेते हैं,’’ इतना कह कर कुंदन वहीं लकडि़यां छोड़ कर चला गया.

कुंदन के जाने के बाद जगता ने कहा, ‘‘सुनीता बिटिया, यह तुम ने कुंदन से कैसा झूठा वादा कर लिया?’’

‘‘नहीं पिताजी, मैं ने कोई झूठा वादा नहीं किया है,’’ सुनीता ने जोश में आ कर कहा.

‘‘तो फिर खाट की बाही और पाए कौन तैयार करेगा?’’

‘‘मैं तैयार करूंगी पिताजी.’’

यह सुन कर जगता चौंक गया. उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि सुनीता अपने कंधों पर यह जिम्मेदारी ले सकती है.

जगता का नाम वैसे तो जगत सिंह धीमान था, लेकिन जटपुर गांव के लोग उसे ‘जगता’ कह कर ही पुकारते थे. जगता को पता था कि सुनीता को बचपन से ही बढ़ईगीरी का शौक है. इसी शौक के चलते वह बढ़ईगीरी के औजार हथौड़ा, बिसौली, आरी, रंदा, बरमा आदि चलाना अच्छे से सीख गई है, लेकिन जगता ने अपनी बेटी सुनीता से कोई काम पैसे कमाने के लिए कभी नहीं कराया था, शौकिया चाहे वह कुछ भी करे.

लेकिन आज मुसीबत के समय सुनीता खाट की बाही और पाए तैयार करने के लिए बड़ी कुशलता से औजार चला रही थी. उस की कुशलता को देख कर जगता भी हैरान था.

सुनीता ने चारों बाही और पाए तैयार कर के और उन्हें ठोंकपीट कर खाट का ढांचा दोपहर तक तैयार कर दिया. फिर कुंदन को कहलवा भेजा कि वह अपनी खाट ले जाए, तैयार हो गई है.

कुंदन जब आया तो उस ने देखा कि उस की खाट तैयार है. उस ने पैसे पकड़ाए और चलते समय कहा, ‘‘सुनीता, हम तो यही सोच रहे थे कि जगता चाचा ने तो चारपाई पकड़ ली है और अब लकड़ी का सारा काम पड़ोस के गांव के बढ़ई से ही करवाना पड़ा करेगा.’’

तब सुनीता ने बड़े यकीन के साथ कहा, ‘‘कुंदन भैया, ऐसा है कि जितना भी लकड़ी का काम तुम्हारे पास है, सब ले आना. सारा काम समय से कर के दूंगी, दूसरे गांव में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

‘‘सुनीता, जब सारा काम गांव में ही हो जाएगा, तो कोई बेवकूफ ही होगा, जो दूसरे गांव जाने की सोचेगा.’’

यह कहते हुए कुंदन तो खाट का ढांचा उठा कर चला गया, लेकिन ये सब बातें सुन कर जगता कहां चुप रहने वाला था. उस ने कहा, ‘‘सुनीता, तू कुंदन से क्या कह रही थी कि लकड़ी का सारा काम ले आना, मैं कर के दूंगी? बिटिया, क्या मैं अब इतना गयागुजरा हो गया हूं कि बेटी की कमाई खाऊंगा और अपने सिर पर बुढ़ापे में पाप चढ़ाऊंगा?’’

‘‘अरे पिताजी, छोडि़ए इन पुराने ढकोसलों को. इन पुरानी बातों पर अब कौन ही यकीन करता है? अपने पिता की मदद करने से बेटी के बाप को पाप लगता है, यह कौन से शास्त्र में लिखा है?’’

‘‘लेकिन, बिटिया…’’

‘‘पिताजी, आप चिंता न करें. आप की बेटी बेटों से कम है क्या? देखो, तुम्हारे दोनों बेटे अजीत और सुजीत बढ़ईगीरी का पुश्तैनी काम छोड़ कर और इसे छोटा काम समझ कर बनियों की दो टके की नौकरी करने शहर भाग गए. लेकिन, इस में भी उन का गुजारा नहीं होता, हर महीने आप के सामने हाथ फैलाए खड़े रहते हैं.

‘‘इस से अच्छा तो यह होता पिताजी कि वे अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ाते. गांव के कितने ही लोग अब दूसरे गांव जा कर या शहर से लकड़ी का काम करवा कर लाते हैं, क्योंकि आप अकेले से इतना काम नहीं हो पाता. गांव भी हर साल फैल रहा है.’’

‘‘कहती तो ठीक हो बेटी. मैं ने तेरे दोनों भाइयों को कितना समझाया कि अपने काम को आगे बढ़ाओ, मालिक बन कर जिओ. दूसरों की नौकरी बजाने से अपना काम लाख बेहतर होता है. लेकिन उन्हें तो बढ़ईगीरी करने में न जाने कितनी शर्म आती है?’’

‘‘लेकिन पिताजी, तुम्हारी इस बेटी को बढ़ईगीरी करने में कोई शर्म नहीं आती है, बल्कि गर्व महसूस होता है.’’

‘‘लेकिन सुनीता, तुम्हें अभी अपनी पढ़ाई भी तो करनी है. अभी तुम्हारा इंटर ही तो हुआ है.’’

‘‘देखो पिताजी, अब बहुत ज्यादा पढ़ाई करने से भी कोई फायदा नहीं. हमारे यहां पढ़ाई करने का मकसद सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाना ही तो है. हमारी सरकारों ने मैकाले की शिक्षा पद्धति को ही तो आगे बढ़ाया है, पढ़ाई सिर्फ नौकर पैदा करने के लिए, शासक या मालिक बनने के लिए नहीं.’’

जगता अपनी बेटी की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था. उसे उस की बातों में दम नजर आ रहा था, फिर भी जगता ने कहा, ‘‘लेकिन बिटिया, फिर भी ज्यादा पढ़नालिखना जरूरी है. लड़के वाले शादी के समय यह जरूर पूछते हैं कि आप की लड़की कितनी पढ़ीलिखी है.’’

‘‘और चाहे पिताजी एमए पास लड़की को एप्लिकेशन तक लिखनी न आती हो. बस, रद्दी डिगरी जमा करने का धंधा बन गया है, फिर भी आप कहते हो तो मैं बीए, एमए कर लूंगी, लेकिन प्राइवेट कालेज से.’’

‘‘बिटिया, यह तू जाने. मैं ने तो किसी डिगरी कालेज का मुंह तक नहीं देखा. 8वीं जमात तक गांव की ही पाठशाला में पढ़ा और उस के बाद कान पर पैंसिल लगा कर पुश्तैनी काम बढ़ईगीरी करने लगा.’’

इस के बाद तो सुनीता ने बढ़ईगीरी का सब काम अपने हाथ में ले लिया. जगता के ठीक होने पर बापबेटी दोनों मिल कर बढ़ईगीरी का काम करते. लेकिन जगता पर बुढ़ापा हावी होने लगा था. एक ही काम को करते हुए सुनीता थकती नहीं थी, लेकिन जगता हांफने लगता था.

एक दिन गांव की ही एक लड़की उर्मिला बैठने की एक पटरी बनवाने के लिए सुनीता के पास आई. दोनों में बातें होने लगीं.

सुनीता ने पूछा, ‘‘उर्मिला, अब तू कहां एडमिशन ले रही है?’’

‘‘कहीं भी नहीं. बापू कह रहे हैं कि इंटर कर लिया और कितना पढ़ेगी? तेरी पढ़ाई पर ही खर्च करते रहेंगे, तो तेरी शादी में दहेज के लिए पैसे कहां से जुटाएंगे?’’

उर्मिला की बात सुन कर सुनीता ने आरी चलाना रोक दिया और बोली, ‘‘उर्मिला, अपने बापू से कह देना कि उन्हें तुम्हारी पढ़ाई का खर्च उठाने की जरूरत नहीं है. बता देना कि तुम अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठा सकती हो.’’

‘‘लेकिन सुनीता, मैं अपनी पढ़ाई का खर्च खुद कैसे उठा सकती हूं? मेरी तो कोई आमदनी ही नहीं है.’’

‘‘तेरी आमदनी होगी न उर्मिला. अगर तू मेरी बात माने तो मेरे यहां दिहाड़ी पर काम कर ले. तेरी पढ़ाई का खर्चा तो निकलेगा ही और तू चार पैसे अपने दहेज के लिए भी जुटा लेगी.’’

‘‘बात तो तू पते की कह रही है सुनीता, लेकिन तेरी बात तब कामयाब होगी, जब मेरा बापू मानेगा.’’

घर जा कर उर्मिला ने जब यह बात अपनी मां को बताई, तो वे तुरंत मान गईं, लेकिन यही बात सुन कर उस का बापू भड़क गया, ‘‘उर्मिला, तुझे यह बात कहते हुए शर्म नहीं आई. अब एक ब्राह्मण की बेटी बढ़ईगीरी करेगी. क्या कहेगा समाज?’’

इस का जवाब दिया उर्मिला की मां ने. वे भड़कते हुए बोलीं, ‘‘क्यों, क्या दे रहा है समाज तुम्हें? बेटी को पढ़ाने के लिए दो कौड़ी नहीं. वह कुछ करना चाहती है तो ब्राह्मण होने का घमंड… तुम्हारे पूजापाठ से जिंदगीभर दो वक्त की रोटी ठीक से खाने को मिली नहीं. दान के कपड़े से अपना और परिवार का जैसेतैसे तन ढकती रही, तब तुम्हें शर्म नहीं आई? अब बेटी मेहनत के दो पैसे कमाने चली तो उस में भी अड़ंगा…’’

‘‘लेकिन पंडिताइन, सुनो तो…’’

‘‘कुछ नहीं सुनना मुझे. तुम ने मेरी जिंदगी तो लाचार बना दी, लेकिन मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूंगी. वह पढ़ेगी भी और काम भी करेगी. देखती हूं कि कौन रोकता है उसे ऐसा करने से. जान ले लूंगी उस की.’’

पंडिताइन का गुस्सा देख कर उर्मिला का बापू सहम गया.

अगले दिन से ही उर्मिला ने सुनीता के पास काम पर जाना शुरू कर दिया. जब शाम को उर्मिला ने 500 रुपए ले जा कर अपनी मां के हाथ में रखे, तो उस खुशी को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता.

कुछ लोगों ने कुछ दिन तक जरूर उर्मिला पर तंज कसे कि देखो तो क्या समय आ गया है? ब्राह्मण की बेटी बढ़ईगीरी कर रही है, लेकिन उर्मिला ऐसी बातों पर कान न धरती. वह ऐसी बातों को अनसुना कर देती. अपने काम पर ध्यान देना उस का मकसद था.

सुनीता अब अपने बुजुर्ग पिता को ज्यादा से ज्यादा आराम करने की सलाह देती. वह उर्मिला के साथ मिल कर हाथों में आए काम को जल्दी निबटाने की कोशिश करती. खाली समय में वह बची हुई लकड़ी से स्टूल, पटरी, पीढ़े, खुरपी और फावड़े के बिट्टे यानी हत्थे वगैरह बनाती. गांव में ऐसे सामान की खूब मांग थी.

सुनीता का काम बढ़ा, तो हाथों की जरूरत भी बढ़ी. उस ने एक दिन गत्ते पर लिख कर अपनी कार्यशाला से बाहर एक इश्तिहार लगा दिया, ‘बढ़ईगीरी के काम के लिए 2 लड़कियों/औरतों की जरूरत. दिहाड़ी 500 रुपए रोज’.

इश्तिहार देख कर दलित समाज के नथवा की बेटी बबीता काम मांगने आई. नथवा को उस के बढ़ईगीरी के काम करने से कोई गुरेज नहीं था. वह खुद मजदूरी करता था. वह जानता था कि घर कितनी मुश्किल से चलाया जाता है.

लेकिन मामला तब गरम हो गया, जब चौधरी रामपाल की विधवा पुत्रवधू विमला अपने 3 साल के बच्चे को गोद में ले कर सुनीता के यहां काम पर गई.

विमला का पति पिछले साल सड़क हादसे का शिकार हो गया था. तब से उस के ससुर चौधरी रामपाल और देवर इंदर ने उस की जमीन पर कब्जा कर रखा था. इस के बदले वे उसे कुछ देते भी नहीं थे और घर और घेर (गौशाला) का सारा काम उस से करवाते थे. वह पैसेपैसे से मुहताज थी.

जैसे ही विमला अगले दिन सुनीता की कार्यशाला में काम पर पहुंची, चौधरी रामपाल और इंदर भी लट्ठ ले कर वहां पहुंच गए. इंदर बिना कोई बात किए जबरदस्ती विमला का हाथ पकड़ कर उसे घसीट कर ले जाने लगा.

रामपाल दूसरों को अपनी अकड़ दिखाने के लिए चिल्ला कर कहने लगा, ‘‘अरे, चौधरियों की बहू अब बढ़ई के यहां काम करेगी क्या? सुन लो गांव वालो, अभी चौधरियों के लट्ठ में खूब दम बाकी है.’’

तभी आपे से बाहर होते हुए रामपाल और इंदर विमला को गालियां बकने लगे, ‘‘बदजात, तू यहां इन की गुलामी करेगी, हमारी नाक कटवाने के लिए.’’

इतना सुनते ही विमला ने एक ही झटके में इंदर से अपना हाथ छुड़ाया और तन कर बोली, ‘‘सुनो, अगर तुम चौधरी हो तो मैं भी चौधरी की बेटी हूं. जितना लट्ठ चलाना तुम जानते हो, उतना लट्ठ चलाना मैं भी जानती हूं. मैं तुम दोनों के जुल्मों से तंग आ गई हूं. अब तुम अपनी चौधराहट अपने पास रखो. और सुनो, बदजात होगी तुम्हारी मां.’’

यह वाक्य चौधरी रामपाल के दिल में बुझे तीर की तरह चुभा. वह लट्ठ ले कर विमला की तरफ बढ़ा, ‘‘बहू हो कर ऐसी गंदी जबान चलाती है, अभी ठहर…’’

वह विमला पर लट्ठ चलाने ही वाला था, तभी सुनीता ने पीछे से उस का लट्ठ मजबूती से पकड़ लिया. चौधरी रामपाल का संतुलन बिगड़ा और वह धड़ाम से पीठ के बल गिरा.

इतनी देर में वहां भीड़ जमा हो गई. कुछ लोगों ने चौधरी रामपाल और इंदर को पकड़ लिया और उन्हें समझानेबुझाने लगे, लेकिन वे तो अपनी बेइज्जती पर झंझलाए बैठे थे.

आखिर में गांव में पंचायत हुई और विमला के हिस्से में 4 बीघा जमीन और मकान का एकतिहाई हिस्सा आया. विमला को लगा कि कई बार झगड़ा करने से भी बात बन जाती है. उस ने अपनी जमीन तो बंटाई पर दे दी और चार पैसे कमाने के लिए खुद सुनीता की कार्यशाला में काम करती रही. उस की तो मानो झगड़ा कर के लौटरी ही लग गई.

सुनीता ने अपना काम और बढ़ाया. अब उस ने दरवाजे और खिड़कियां बनाना और चढ़ाना भी सीख लिया. शहर जा कर सोफा सैट बनाने का तरीका भी सीख लिया. अब उसे गांव के बाहर भी काम मिलने लगा, तो उस ने मोटरसाइकिल खरीद ली. अब उस ने पहचान के लिए अपनी कार्यशाला का नामकरण किया ‘जगता बढ़ई कारखाना’ और बाहर इसी नाम का बोर्ड टांग दिया.

धीरेधीरे सुनीता का काम इतना ज्यादा बढ़ गया कि शहर के फर्नीचर वाले भी उसे फर्नीचर बनाने का और्डर देने लगे. जैसेजैसे काम बढ़ा, वैसेवैसे कारखाने में काम करने वालियों की तादाद भी बढ़ने लगी.

सुनीता ने अपना एक छोटा सा केबिन बनवा लिया. वही उस का औफिस था, जहां बैठ कर वह और्डर लेती, सब से मिलतीजुलती और सब का हिसाबकिताब करती.

आमदनी और बढ़ी, तो सुनीता इनकम टैक्स भरने लगी. उस ने कार भी खरीद ली और फर्नीचर का शोरूम बनाने के लिए जमीन भी.

सुनीता के काम और कामयाबी की चर्चा दूरदूर तक होने लगी. अखबार वालों ने भी उस के बारे में छापा. कलक्टर के कानों तक यह खबर पहुंची

तो सचाई जानने के लिए उस ने जटपुर के प्रधान मान सिंह को अपने औफिस में बुलवाया. बात सही थी. फिर कलक्टर खुद सुनीता का हुनर देखने के लिए जटपुर पहुंचे.

कलक्टर ने सुनीता के कारखाने में 13 औरतों को काम करते देखा. वे सुनीता के काम और हुनर से इतने प्रभावित हुए कि उस का नाम पुरस्कार और सम्मान हेतु राज्य सरकार को भेजा.

सुनीता को पुरस्कार देते हुए और उस का सम्मान करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, ‘‘साथियो, सुनीता ने यह साबित कर दिया है कि कामयाबी पाने के लिए कोई समस्या आड़े नहीं आ सकती. बस, आप के अंदर कामयाबी पाने की लगन होनी चाहिए.

‘‘सुनीता किसी नौकरी के पीछे नहीं दौड़ी. उस ने अपने पुश्तैनी काम बढ़ईगीरी को ही आगे बढ़ाया, जिस को करने से औरतें तो क्या मर्द भी हिचकते हैं.

‘‘आज यह जान कर बड़ी खुशी हुई कि सुनीता के कारखाने में 13 औरतें काम कर रही हैं. सुनीता ने रूढ़ियों और परंपराओं को तोड़ कर महिला जगत को ही नहीं, बल्कि हम सब को एक नई राह दिखाई है.’’

सुनीता ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मुख्यमंत्री से पुरस्कार और सम्मान हासिल किया. उस की मुसकान बता रही थी कि उस के हौसले बुलंद हैं.

किस्मत का खेल : किसने उजाड़ी अनवर की दुनिया

अनवर बिजनौर जिले के नगीना शहर का रहने वाला था. उस की शादी साल 2010 में बिजनौर जिले के नारायणपुर गांव में हुई थी. शादी कराने वाली अनवर की चाची थीं, जिन्होंने उसे शादी से एक हफ्ता पहले आगाह किया था कि यह लड़की सही नहीं है.

दरअसल, शादी से एक हफ्ता पहले लड़की के मामा, जो अनवर की चाची के दूर के रिश्तेदार थे, ने आ कर चाची को बताया था कि यह लड़की जेबा शादी से पहले भी अपने दूर के एक रिश्तेदार के साथ भाग चुकी है और एक महीना उस के साथ रह कर आई है.

चाची की इस बात को सुन कर अनवर का शादी से मना करने के लिए दिल नहीं माना, इसलिए उस ने सही जानकारी हासिल करने और जेबा की इस शादी के लिए रजामंदी है या नहीं, यह जानने के लिए उस से फोन पर बात की, ‘‘जेबा, तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार तो हो न? तुम्हारे अम्मीअब्बा ने तुम पर कोई दबाव तो नहीं डाला है न?’’

जेबा ने कहा, ‘तुम ऐसा सवाल क्यों कर रहे हो? मैं बहुत खुश हूं. मुझ पर किसी ने कोई दबाव नहीं डाला है.’

‘‘तुम्हारे मामा मेरी चाची के पास आए थे और बोल रहे थे कि तुम अपने किसी रिश्तेदार से प्यार करती हो और उस के साथ घर से भाग गई थी.’’

‘मेरे मामा झूठ बोल रहे हैं. वे मेरे सगे मामा नहीं हैं, बल्कि मेरी अम्मी के दूर के भाई हैं. दरअसल, वे अपने साले के बेटे से मेरी शादी कराना चाहते थे. मैं ने और मेरे घर वालों ने मना कर दिया तो वे मुझे बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.’

जेबा की यह बात सुन कर अनवर के दिल को ठंडक पहुंची. इस के बाद उस ने जेबा के घर के दूसरे लोगों से बात की. सब ने यही बताया कि जेबा अपनी मरजी से शादी के लिए तैयार हुई है.

शादी से पहले अनवर और जेबा चाची के घर मिले थे और इस रिश्ते से खुश थे. अनवर ने जेबा को बताया, ‘‘मैं मुंबई में रहता हूं और मेरा बेकरी का कारोबार है, जिस में अच्छीखासी कमाई है. वैसे, हमारी काफी जमीनजायदाद है. घर में किसी बात की कोई कमी नहीं है.

‘‘मैं ने एमकौम तक पढ़ाई की है. घर में 4 भाई और 2 बहनें हैं. मेरी मां बचपन में ही इस दुनिया से रुखसत हो गई थीं. बड़े 2 भाई डाक्टर हैं. उन की शादी हो गई है. एक बहन की भी शादी हो गई है. मेरी उम्र 30 साल है.’’

जेबा ने भी अपने घर की जानकारी इस तरह दी, ‘‘मेरे अब्बा खेती करते हैं. 3 भाई हैं. एक भाई की शादी हो गई है, जो देहरादून में रहते हैं और वहां एक दुकान चलाते हैं. 2 भाई छोटे हैं. वे अभी पढ़ाई कर रहे हैं.

‘‘मैं और मेरी एक बड़ी बहन दोनों ने पिछले साल ही इंटर पास किया है और उस का रिश्ता नेहटोर शहर में तय हो गया है. हम दोनों बहनों की शादी एकसाथ ही होगी.’’

फिर वह समय भी आ गया और 19 मई, 2010 को जेबा और अनवर की शादी हो गई. अनवर के मुकाबले जेबा बहुत खूबसूरत थी. शादी के सुर्ख जोड़े में वह किसी हूर से कम नहीं लग रही थी. गुलाबी होंठ, सुर्ख गाल, बड़ीबड़ी आंखें, गदराया बदन, जिसे देख कर वह अपने होश ही खो बैठा था.

उन दोनों ने रातभर एकदूसरे से खूब प्यार किया. प्यार में रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबह के 8 बज चुके थे. जेबा के फोन की घंटी बजी. अनवर ने स्पीकर औन कर के जेबा को फोन दिया.

जैसे ही जेबा ने ‘हैलो’ बोला, उधर से किसी लड़के की आवाज आई, ‘जानू, हमें छोड़ कर चली गई. शादी मुबारक हो. हम तो तुम्हारी याद में सो ही नहीं पाए.’

जेबा ने तुरंत फोन काट दिया. अनवर का खिलता हुआ चेहरा अचानक मुरझा गया. उस ने दबी आवाज में पूछा, ‘‘कौन था?’’

जेबा ने अनवर का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘यह लड़का मुझे काफी समय से ऐसे ही फोन करता है. मैं नहीं जानती इसे.’’

जेबा के इस जवाब से अनवर की जान में जान आई कि जेबा उस से प्यार नहीं करती है और वह कोई बदतमीज लड़का है, जो जेबा को परेशान करता है.

शादी को 2 महीने ही गुजरे थे. अनवर को वापस मुंबई जा कर अपना काम संभालना था. जेबा उदास हो गई.

अनवर ने उस से कहा, ‘‘मैं तुम्हें जल्दी ही वहां बुला लूंगा.’’

अगले दिन अनवर मुंबई के लिए रवाना हो गया. 10 दिन बाद ही उस ने जेबा को अपने भाई के साथ मुंबई आने के लिए कह दिया.

जेबा के मुंबई आते ही उन दोनों की जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ गई. समय गुजरता रहा. जेबा 2 बेटियों की मां बन गई थी. बड़ी बेटी का नाम अजमी और छोटी बेटी का नाम अमरीन रखा गया.

समय गुजरता गया. अनवर काम में इतना बिजी रहा कि उसे गांव जाने का मौका ही नहीं मिला.

एक दिन जेबा ने अनवर से कहा, ‘‘मैं दिल्ली में अपनी बहन से मिलने जाना चाहती हूं.’’

अनवर ने कहा, ‘‘तुम अकेले कैसे जाओगी?’’

जेबा बोली, ‘‘अम्मी आ जाएंगी. उन के साथ बहन से भी मिल लूंगी और दिल्ली भी घूम लूंगी. बस, तुम मेरा और अम्मी के जाने का टिकट निकलवा दो.’’

2 दिन के बाद जेबा की अम्मी उसे लेने आ गईं और अनवर ने उन के दिल्ली जाने के 2 टिकट ट्रेन के निकलवा दिए. जेबा को घूमने और खर्च के लिए 20,000 रुपए दे दिए. वे दोनों दिल्ली चली गईं.

अगले ही दिन जेबा के अब्बू का फोन अनवर के पास आया और वे बोले, ‘जेबा की अम्मी वहां आई हैं क्या?’

यह सुन कर अनवर हैरान रह गया और बोला, ‘‘क्यों, आप को नहीं पता कि वे जेबा को लेने यहां आई हैं? जेबा अपनी बहन से मिलने के लिए अम्मी के साथ दिल्ली के लिए चली गई है.’’

‘जेबा की अम्मी ने हमें कुछ नहीं बताया. वह बोली थी कि मैं नजीबाबाद जा रही हूं, पर वह मुंबई पहुंच गई और जेबा की बहन अभी दिल्ली में नहीं है, वह अपनी सुसराल नेहटोर आई हुई है.’

अनवर ने जेबा को फोन लगाया और उस से पूछा, ‘‘क्या तुम दिल्ली पहुंच गई हो?’’

जेबा बोली, ‘हां, मैं तो सुबह ही पहुंच गई थी.’

अनवर ने पूछा, ‘‘इस समय कहां हो? तुम्हारी बहन तो अपनी सुसराल में गई हुई है.’’

जेबा बोली, ‘मेरे दूर के मामा हैं. मैं उन्हीं के घर पर हूं.’’

यह सुन कर अनवर को सुकून मिला. 2-3 दिन दिल्ली घूम कर जेबा मुंबई के लिए रवाना हो गई. उसे छोड़ने उस की अम्मी भी आई थीं और 2 दिन बाद ही वे वापस चली गई थीं.

एक दिन अनवर अपनी पासबुक की ऐंट्री कराने बैंक गया, तो अपने खाते में से निकले एक लाख रुपए देख कर दंग रह गया. उस ने बैंक मैनेजर से इस की शिकायत की, तो वे बोले, ‘‘तुम्हारे पैसे एटीएम से निकाले गए हैं.’’

अनवर बोला, ‘‘एटीएम के पिन नंबर की जानकारी मुझे और मेरी बीवी के अलावा किसी और को नहीं है. मैं ने निकाले नहीं और बीवी भी मुझे बिना बताए निकालेगी नहीं.’’

मैनेजर बोले, ‘‘तुम अपनी बीवी से मालूम करो.’’

अनवर ने उसी समय जेबा को फोन लगाया, तो वह मना करने लगी. अनवर ने हैरान होते हुए कहा, ‘‘फिर तो पुलिस को बताना पड़ेगा.’’

यह सुन कर जेबा घबरा कर रोते हुए बोली, ‘‘मैं ने निकाले हैं. मेरी एक सहेली को 50,000 रुपए की जरूरत थी और 50,000 रुपए मैं ने अपनी बड़ी बहन को दिए हैं.’’

जेबा का रोना देख कर अनवर को उस पर तरस आ गया और उस ने इस बात को यहीं खत्म कर दिया.

एक शाम को अनवर अपने घर जा रहा था कि एक औरत ने रास्ते में उसे रोक लिया और बोली, ‘‘मुझे और मेरे बच्चों को मार दो.’’

यह सुन कर अनवर ने हैरान हो कर पूछा, ‘‘क्यों? क्या हुआ?’’

वह औरत बोली, ‘‘मैं आदिल इलैक्ट्रिशियन की बीवी हूं. ये मेरे बच्चे हैं. तुम्हारी बीवी खूबसूरत है, इस का यह मतलब नहीं है कि वह किसी और के शौहर को अपने प्यार के जाल में फंसा कर उस के बीवीबच्चों की जिंदगी बरबाद करेगी.’’

अनवर ने उस से कहा, ‘‘साफसाफ बताओ कि बात क्या है?’’

वह औरत बोली, ‘‘तुम्हारी बीवी का मेरे शौहर से नाजायज रिश्ता है. अगर तुम उसे रोक नहीं सकते हो, तो हम सब को मार दो.’’

उस औरत की यह बात सुन कर अनवर को गुस्सा आया. उस ने घर जा कर जेबा से इस बारे में पूछा, तो उस ने अपनी पोल खुलते देख हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं बहक गई थी.’’

अनवर जेबा से बहुत ज्यादा मुहब्बत करता था, इसलिए उस की इतनी बड़ी गलती को भी उस ने माफ कर दिया.

इसी बीच जेबा और उस की अम्मी अनवर की जायदाद में से हिस्सा मांगने की बात करने लगी थीं. वे गांव का बाग बेचने पर जोर दे रही थीं. बाद में बाग बेचने के बाद जो फ्लैट खरीदा था, उस के बाद भी 20 लाख रुपए घर पर बच गए थे.

दिन गुजरते गए. एक दिन अनवर दूध पी कर घर से निकला और अपनी बेकरी पर आ कर बैठा ही था कि उस की आंखें बंद होने लगीं. हाथपैर कांपने लगे. कुछ ही पलों में वह बेहोश हो कर गिर गया. रात के 8 बजे जब उसे होश आया, तो अपनेआप को बेकरी के एक कमरे में पाया.

अनवर के पार्टनर ने उस से पूछा, ‘‘क्या हुआ? क्या खाया था?’’

अनवर ने कहा, ‘‘मैं तो सिर्फ घर से दूध पी कर निकला था. बेकरी पर आ कर बैठा तो मेरी आंखें खुद ब खुद बंद होने लगीं, हाथपैर कांपने लगे.’’

‘‘क्या तुम्हारे घर पर कोई टैंशन चल रही है?’’

अनवर ने पूरी बात बता दी. पार्टनर ने कहा, ‘‘अपनी बीवी के कुछ नाम नहीं करना. अगर कर दिया तो तुम्हारा खेल खत्म. ध्यान रखो कि घर पर कुछ मत खाना. तुम्हें दूध में नशा मिला कर दिया गया है और काफी दिनों से दिया जा रहा है. तुम पुलिस में शिकायत दर्ज कर दो.’’

अनवर जेबा को खोना नहीं चाहता था. वह जानता था कि अगर पुलिस के पास गया तो जेबा और भड़क जाएगी.

अगले दिन जब अनवर सो कर उठा, तो उस के 20 लाख रुपए अलमारी से गायब हो चुके थे.

अनवर ने जब जेबा की अलमारी की तलाशी ली, तो उस में रखे जेवर भी नहीं थे. यह देख कर वह सदमे से वहीं गिर गया. जब उस की आंखें खुलीं, तो उस की दोनों बेटियां उस के पास बैठी थीं. जेबा और उस की अम्मी भी वहीं थीं.

अनवर ने जेबा और उस की अम्मी के हाथ जोड़े, पैर पकड़े कि उस का पैसा दे दो, जेवर दे दो, पर उन्होंने साफ कह दिया कि इस बारे में उन्हें कुछ नहीं मालूम है. अगले ही दिन अनवर ने जेबा की अम्मी को वहां से उन के घर भेज दिया.

गाड़ी में बिठाने के बाद अनवर अपने काम पर चला गया और शाम को घर आया, तो जेबा ने उस से बात नहीं की और अपने कमरे में घुसने भी नहीं दिया. वह कई दिनों तक ऐसा ही करती रही.

अब जेबा जिम से 1-2 नहीं, बल्कि 3-4 घंटे में वापस आती थी. न बच्चों को खाना मिलता और न घर का कोई काम होता था. उन की पढ़ाईलिखाई भी नहीं हो पाती थी.

इसी बीच डाक्टर ने अनवर को आराम करने की सलाह दी. वजह, उसे हलका सा दिल का दौरा पड़ा था. पर जेबा को इस बात की कोई चिंता नहीं थी.

अनवर ने जेबा से गांव चलने को कहा, पर उस ने साफ मना कर दिया. अनवर अकेला ही गांव चला गया. घर वाले उस की हालत देख कर हैरान थे.

अभी अनवर को गांव आए हुए 3 दिन ही हुए थे कि एक दिन उस के फोन की घंटी बजी. उस ने फोन उठाया, तो दूसरी तरफ से कोई नहीं बोला.

फोन स्पीकर पर था. साफ आवाज आ रही थी, जो अनवर की सास, जेबा और बच्चों की थी. अनवर ने वहां से आ रही है हर आवाज को रिकौर्ड कर लिया. अनवर की सास और जेबा की हर करतूत और प्लानिंग फोन रिकौर्ड हो गई थी.

अगले दिन अनवर ने फोन कर के जेबा को गांव आने को कहा और साथ ही यह भी कह दिया कि अगर तुम गांव वापस नहीं आओगी, तो मैं यहीं बिजनौर में तुम्हारी पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दूंगा. पुलिस तुम दोनों मांबेटी को खुद पकड़ कर लाएगी.

यह सुन कर जेबा घबरा गई और जल्दी ही आने की बोल दी. अनवर खुश था. जोकुछ हो गया था, वह उसे भूलना चाह कर अपने गांव में ही एक नई जिंदगी शुरू करना चाहता था.

कुछ दिन तक तो सब ठीक रहा, फिर अचानक जेबा की बूआ की बेटी अनवर के घर पर आने लगी और हर समय घर पर ही पड़ी रहती. अनवर सोने के इंतजार में इधरउधर भटकता रहता था. फिर उस ने कड़े मन से उसे घर न आने को कहा. पर अब जेबा हर समय उन के घर जाने लगी.

अनवर एक दिन बाजार से घर लौटा तो देखा कि जेबा घर में नहीं थी. उस ने अपने अब्बा से मालूम किया तो वे बोले कि शायद अपनी बूआ के घर गई है.

वह वहां गया और दरवाजे पर खड़ा हो कर उन की बातें सुनने लगा.

जेबा का फुफेरा भाई बोल रहा था, ‘‘जेबा, तुम दिल्ली में शिफ्ट हो जाओ, पर रूम लेने के लिए तुम्हारा आधारकार्ड चाहिए.’’

अनवर ने जब यह बात सुनी, तो उसे गुस्सा आ गया और वह जेबा को वहां से ले आया और उसे हिदायत दी कि अब उन के घर नहीं जाना.

कुछ दिन बाद जेबा फिर उन के घर गई. अनवर उसे फिर बुला लाया और अपनी बड़ी बेटी को बाजार घुमाने के बहाने ले गया और उस से पूछा, ‘‘बेटा, तुम्हारी अम्मी वहां क्या बात कर रही थीं?’’

बेटी ने बताया, ‘‘अब्बा, वहां पर दादू को कुछ दे कर मारने की बात चल रही थी. वे लोग अम्मी से कह रहे थे कि अपने ससुर को मार डालो, फिर सारी जायदाद तुम्हारे शौहर के नाम आ जाएगी. उस के बाद इसे बहलाफुसला कर मुंबई ले जाना, फिर इसे भी मार देना और ऐश करना.’’

इतना सुन कर अनवर को गुस्सा आ गया. वह जेबा की बूआ के घर गया और उन्हें बोला, ‘‘जेबा को उलटीसीधी पट्टी पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है.’’ अनवर घर लौट आया. अभी कुछ ही देर हुई थी कि उस की सास काफोन आया और वे उसे उलटासीधा बोलने लगीं.

इधर जेबा ने भी घर सिर पर उठा लिया. अनवर ने पुलिस बुला ली, पर जेबा ने उन की एक न सुनी और बोली, ‘‘मुझे मेरे मामा के घर छोड़ दो. मेरी अम्मी भी वहीं हैं, वरना मैं खुदखुशी कर लूंगी.’’

पुलिस वाले अनवर और जेबा को थाने ले गए. कुछ देर में जेबा की अम्मी भी वहां आ गईं और जेबा को अपने साथ ले गईं.

कुछ ही देर में अनवर के भाई वहां आ गए और वे उसे भी वहां से ले आए. कई दिन गुजर गए. एक दिन जेबा के मामा अनवर से मिलने उस की चाची के घर आए, पर वह उन से नहीं मिल पाया तो वे उस की बड़ी बेटी से बात करने लगे. बेटी ने उन्हें वह बताया, जो अनवर भी नहीं जानता था.

बेटी बोली, ‘‘अम्मी गंदी हैं. एक अंकल के साथ गंदे कपड़े पहन कर लेटती हैं और जब कहीं बाहर खाने जाती थीं तो मुझे भी अपने साथ ले जाती थीं और अंकल से खूब गले मिलती थीं और दोनों गंदीगंदी बातें करते थे. अम्मी अब्बा को मारना चाहती थीं. वे उन के दूध में कुछ मिलाती थीं.’’

अनवर ने जब अपनी बेटी से जेबा की करतूतों के बारे में पूछा, तो उस ने सारी बातें उसे बता दीं. जेबा और उस की मां अब कहां थीं, किसी को कुछ नहीं मालूम था. अब बात कोर्ट तक पहुंच गई थी.

कई महीने ऐसे ही गुजर गए, पर अनवर के पास कोई नोटिस नहीं आया. बाद में जेबा केस की तारीख पर भी हाजिर नहीं हुई, तो वह केस भी खारिज हो गया. अनवर अपनी बेटियों के साथ खुश था और अब जेबा को भूलने लगा था.

बंजारन: कजरी से खूबसूरत कोई ना था

अरी ओ कजरी, सारा दिन शीशे में ही घुसी रहेगी क्या… कुछ कामधाम भी कर लिया कर कभी.’’
‘‘अम्मां, मुझ से न होता कामवाम तेरा. मैं तो राजकुमारी हूं, राजकुमारी… और राजकुमारी कोई काम नहीं करती…’’
यह रोज का काम था. मां उसे काम में हाथ बंटाने को कहती और कजरी
मना कर देती. दरअसल, कजरी का रूपरंग ही ऐसा था, जैसे कुदरत ने पूरे जहां की खूबसूरती उसी पर उड़ेल दी हो. बंजारों के कबीले में आज तक इतनी खूबसूरत न तो कोई बेटी थी और न ही बहू थी.
कजरी को लगता था कि अगर वह काम करेगी, तो उस के हाथपैर मैले हो जाएंगे. वह हमेशा यही ख्वाब देखती थी कि सफेद घोड़े पर कोई राजकुमार आएगा और उसे ले जाएगा.
आज फिर मांबेटी में वही बहस छिड़ गई, ‘‘अरी ओ कमबख्त, कुछ तो मेरी मदद कर दिया कर… घर और बाहर का सारा काम अकेली जान कैसे संभाले… तुम्हारे बापू थे तो मदद कर दिया करते थे. तू तो करमजली, सारा दिन सिंगार ही करती रहती है. अरी, कौन सा महलों में जा कर सजना है तुझे, रहना तो इसी मिट्टी में है और सोना इसी तंबू में…’’
‘‘देखना अम्मां, एक दिन मेरा राजकुमार आएगा और मुझे ले जाएगा.’’
तकरीबन 6 महीने पहले कजरी के बापू दूसरे कबीले के साथ हुई एक लड़ाई में मारे गए थे. जब से कजरी के बापू
की मौत हुई थी, तब से कबीले के सरदार का लड़का जग्गू कजरी के पीछे हाथ धो कर पड़ा था कि वह उस से शादी करे, मगर कजरी और उस की मां को वह बिलकुल भी पसंद नहीं था. काला रंग, मोटा सा, हर पल मुंह में पान डाले रखता.
जग्गू से दुखी हो कर एक रात कजरी और उस की अम्मां कबीले से निकल कर मुंबई शहर की तरफ चल पड़ीं. वे शहर तक पहुंचीं, तो उन से 2 शराबी टकरा गए.
लेकिन कजरी कहां किसी से डरने वाली थी, बस जमा दिए उन्हें 2-4 घूंसे, तो भागे वे तो सिर पर पैर रख कर.
जब यह सब खेल चल रहा था, सड़क के दूसरी ओर एक कार रुकी और जैसे ही कार में से एक नौजवान बाहर निकलने लगा, तो वह कजरी की हिम्मत देख कर रुक गया.
जब शराबी भाग गए, तो वह कार वाला लड़का ताली बजाते हुए बोला, ‘‘वाह, कमाल कर दिया. हर लड़की को आप की तरह शेरनी होना चाहिए. वैसे, मेरा नाम रोहित है और आप का…?’’
दोनों मांबेटी रोहित को हैरानी से देख रही थीं. कजरी ने कहा, ‘‘मेरा नाम कजरी है और ये मेरी अम्मां हैं.’’
‘‘कजरीजी, आप दोनों इतनी रात कहां से आ रही हैं और कहां जा रही हैं? आप जानती नहीं कि मुंबई की सड़कों पर रात को कितने मवाली घूमते हैं… चलिए, मैं आप को घर छोड़ देता हूं, वरना फिर कोई ऐसा मवाली टकरा जाएगा.’’
‘‘बाबूजी, हमारा घर नहीं है. हम मुंबई में आज ही आई हैं और किसी को जानती भी नहीं. बस, रहने का कोई ठिकाना ढूंढ़ रहे थे,’’ कजरी बोली.
‘‘ओह तो यह बात है… अगर आप लोगों को एतराज न हो, तो आप दोनों मेरे साथ मेरे घर चल सकती हैं. मेरे घर में मैं और रामू काका रहते हैं. आज रात वहीं रुक जाइए, कल सुबह जहां आप को सही लगे, चली जाइएगा. इस वक्त अकेले रहना ठीक नहीं,’’ रोहित ने अपनी बात रखी.
मजबूरी में दोनों मांबेटी रोहित के साथ चली गईं. कजरी ने अपने बारे में रोहित को सब बताया. रात उस के घर में गुजारी और सुबह जाने की इजाजत मांगी.
रोहित ने कजरी की अम्मां से कहा, ‘‘मांजी, आप जाना चाहें तो जा सकती हैं, लेकिन इस अनजान शहर में जवान लड़की को कहां ले कर भटकोगी… आप चाहो तो यहीं पर रह सकती हो. वैसे भी इतना बड़ा घर सूनासूना लगता है.’’
कजरी ने रोहित से पूछा, ‘‘आप अकेले क्यों रहते हैं? आप का परिवार कहां है?’’
‘‘मेरे मातापिता एक हादसे में मारे गए थे. रामू काका ने ही मुझे पाला है. अब तो यही मेरे सबकुछ हैं.’’
‘‘ठीक है बेटा, कुछ दिन हम यहां रह जाती हैं. पर, हम ठहरीं बंजारन, कहीं तुम्हें कोई कुछ बोल न दे…’’ कजरी की अम्मां ने बताया.
‘‘बंजारे क्या इनसान नहीं होते… आप ऐसा क्यों सोचती हैं… बस, आप यहीं रहेंगी… मुझे भी एक मां मिल जाएगी,’’ रोहित के जोर देने पर वे दोनों वहीं रहने लगीं.
रोहित ने कजरी को शहरी कपड़े पहनने और वहां के तौरतरीके सिखाए. कजरी को पढ़ने का भी शौक था, इसलिए रोहित ने घर पर ही टीचर का इंतजाम करा दिया.
इसी तरह 6 महीने बीत गए. अब कजरी पूरी तरह बदल चुकी थी. वह एकदम शहरी तितली बन गई थी.
वह थोडीबहुत इंगलिश बोलना भी सीख गई थी. अम्मां घर पर खाना वगैरह बना देती थी और कजरी ने रोहित के साथ औफिस जाना शुरू कर दिया था.
रोहित धीरेधीरे कजरी के नजदीक आने लगा था. कजरी का भी जवान खून उबाल मारने लगा था. वह
रोहित की मेहरबानियों को प्यार समझ बैठी और अपना कुंआरापन उसे
सौंप दिया.
एक दिन रोहित कजरी को एक बिजनैस मीटिंग में ले कर गया. जैसे ही मीटिंग खत्म हुई, रोहित ने कजरी को मीटिंग वाले आदमी के साथ जाने को कहा. साथ ही यह भी कहा, ‘‘तुम इन्हें खुश रखना और वापस आते हुए प्रोजैक्ट की फाइल लेती आना.’’
‘‘खुश रखना…? मतलब क्या है आप का? मैं आप से प्यार करती हूं. क्या आप मुझे किसी के भी साथ भेज दोगे?’’ कजरी ने हैरान हो कर पूछा.
कजरी की इस बात पर रोहित ठहाका लगा कर हंसा और बोला, ‘‘एक बंजारन और मेरी प्रेमिका? तुम ने यह सोचा भी कैसे? वह तो तुम्हारी खूबसूरती पर दिल आ गया था मेरा, इसलिए इस गुलाब की कली को बांहों में ले कर मसल दिया.
‘‘मैं ने तुम पर काफी खर्च किया है, अब उस के बदले में मेरा इतना भी हक नहीं कि कुछ तुम से भी कमा सकूं? तुम्हारी एक रात से मुझे इतना बड़ा काम मिलेगा, कम से कम तुम्हें एहसान? समझ तो जाना ही चाहिए न…’’
रोहित की इस तरह की बातें सुन कर कजरी आंखों में आंसू लिए चुपचाप उस शख्स के साथ चली गई, लेकिन अगले दिन वह अम्मां से बोली, ‘‘चलो, अपने कबीले वापस चलते हैं. बंजारन के लिए कोई राजकुमार पैदा नहीं होता…’’
अम्मां ने कजरी के भाव समझ कर चुपचाप चलने की तैयारी कर दी और वे दोनों रोहित को बिना बताए अपनी बस्ती की तरफ निकल गईं

बेइज्जती : कहानी मदमस्त रसिया की

करिश्मा और रसिया भैरव गांव से शहर के एक कालेज में साथसाथ पढ़ने जाती थीं. साथसाथ रहने से उन दोनों में गहरी दोस्ती हो गई थी. उन का एकदूसरे के घरों में आनाजाना भी शुरू हो गया था.

करिश्मा के छोटे भाई अजीत ने रसिया को पहली बार देखा, तो उस की खूबसूरती को देखता रह गया. रसिया के कसे हुए उभार, सांचे में ढला बदन और गुलाबी होंठ मदहोश करने वाले थे.

रसिया ने एक दिन महसूस किया कि कोई लड़का छिपछिप कर उसे देखता है. उस ने करिश्मा से पूछा, ‘‘वह लड़का कौन है, जो मु?ो घूरता है?’’

‘‘वह…’’ कह कर करिश्मा हंसी और बोली, ‘‘वह तो मेरा छोटा भाई अजीत है. तुम इतनी खूबसूरत हो कि तुम्हें कोई भी देखता रह जाए…

‘‘ठहरो, मैं उसे बुलाती हूं,’’ इतना कह कर उस ने अजीत को पुकारा, जो दूसरे कमरे में खड़ा सब सुन रहा था.

‘‘आता हूं…’’ कहते हुए अजीत करिश्मा और रसिया के सामने ऐसा भोला बन कर आया, जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो.

करिश्मा ने बनावटी गुस्सा करते हुए पूछा, ‘‘अजीत, तुम मेरी सहेली रसिया को घूरघूर कर देखते हो क्या?’’

‘‘घूरघूर कर तो नहीं, पर मैं जानने की कोशिश जरूर करता हूं कि ये कौन हैं, जो अकसर तुम से मिलने आया करती हैं,’’ अजीत ने कहा.

‘‘यह बात तो तुम मु?ा से भी पूछ सकते थे. यह मेरी सहेली रसिया है.’’

‘‘रसिया… बड़ा प्यारा नाम है,’’ अजीत ने मुसकराते हुए कहा, तो करिश्मा ने रसिया से अपने भाई का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘रसिया, यह मेरा छोटा भाई अजीत है.’’

‘‘मैं हूं रसिया. क्या तुम मु?ा से दोस्ती करोगे?’’ रसिया ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं…’’ कहते हुए अजीत ने जोश के साथ अपना हाथ उस की ओर बढ़ाया.

रसिया ने उस से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘अजीत, तुम से मिल कर खुशी हुई. वैसे, तुम करते क्या हो?’’

‘‘मैं कालेज में पढ़ता हूं. जल्दी पढ़ाई खत्म कर के नौकरी करूंगा, ताकि अपनी बहन की शादी कर सकूं.’’

रसिया हंस पड़ी. उस के हंसने से उस के उभार कांपने लगे. यह देख कर अजीत के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

तभी रसिया ने कहा, ‘‘वाह अजीत, वाह, तुम तो जरूरत से ज्यादा सम?ादार हो गए हो. बहन की शादी करने का इरादा है या अपनी भी शादी करोगे?’’

‘‘अपनी भी शादी कर लूंगा, अगर तुम्हारी जैसी लड़की मिली तो…’’ कहते हुए अजीत वहां से चला गया.

रात में जब अजीत अपने बिस्तर पर लेटा, तो रसिया के खयालों में खोने लगा. उसे बारबार रसिया के दोनों उभार कांपते दिखाई दे रहे थे. वह सिहर उठा.

2 दिन बाद अजीत रसिया से फिर अपने घर पर मिला. हंसीहंसी में रसिया ने उस से कह दिया, ‘‘अजीत, तुम मु?ो बहुत प्यारे और अच्छे लगते हो.’’

अजीत बोला, ‘‘रसिया, तुम भी मु?ो बहुत अच्छी लगती हो. तुम मु?ा से शादी करोगी?’’

यह सुन कर रसिया को हैरानी हुई. उस ने हड़बड़ा कर कहा, ‘‘तुम ने मेरे कहने का गलत मतलब लगाया है. तुम नहीं जानते कि मैं निचली जाति की हूं. ऐसा खयाल भी अपने मन में मत लाना. तुम्हारा समाज मु?ो नफरत की निगाह से देखेगा. वैसे भी तुम मु?ा से उम्र में बहुत छोटे हो. करिश्मा के नाते मैं भी तुम्हें अपना भाई सम?ाने लगी थी.’’

अजीत कुछ नहीं बोला और बात आईगई हो गई.

समय तेजी से आगे बढ़ता गया. एक दिन करिश्मा ने  अपने जन्मदिन पर अपनी सभी सहेलियों को घर पर बुलाया. काफी चहलपहल में देर रात हो गई, तो रसिया घबराने लगी. उसे अपने घर जाना था. उस ने करिश्मा से कहा, ‘‘अजीत से कह दो कि वह मु?ो मेरे घर छोड़ दे.’’

करिश्मा ने अजीत को पुकार कर कहा, ‘‘अजीत, जरा इधर आना. तुम रसिया को अपनी मोटरसाइकिल से उस के घर तक छोड़ आओ. आसमान में बादल घिर आए हैं. तेज बारिश हो सकती है.’’

‘‘इन से कह दो कि आज रात को यहीं रुक जाएं,’’ अजीत ने सु?ाया.

‘‘नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मेरे घर वाले परेशान होंगे. अगर तुम नहीं चल सकते, तो मैं अकेले ही चली जाऊंगी,’’ रसिया ने कहा.

‘‘नहीं, मैं आप को छोड़ दूंगा,’’ कह कर अजीत ने अपनी मोटरसाइकिल निकाली, तभी हलकीहलकी बारिश शुरू हो गई. कुछ फासला पार करने पर तूफानी हवा के साथ खूब तेज बारिश और ओले गिरने लगे. ठंड भी बढ़ गई थी.

रसिया ने कहा, ‘‘अजीत, तेज बारिश हो रही है. क्यों न हम लोग कुछ देर के लिए किसी महफूज जगह पर रुक कर बारिश के बंद होने का इंतजार कर लें?’’

‘‘तुम्हारा कहना सही है रसिया. आगे कोई जगह मिल जाएगी, तो जरूर रुकेंगे.’’

बिजली की चमक में अजीत को एक सुनसान ?ोंपड़ी दिखाई दी. अजीत ने वहां पहुंच कर मोटरसाइकिल रोकी और दोनों ?ोंपड़ी के अंदर चले गए.

अजीत की नजर रसिया के भीगे कपड़ों पर पड़ी. वह एक पतली साड़ी पहन कर सजधज कर करिश्मा के जन्मदिन की पार्टी में गई थी. उसे क्या मालूम था कि ऐसे हालात का सामना करना पड़ेगा. पानी से भीगी साड़ी में उस का अंगअंग दिखाई दे रहा था.

रसिया का भीगा बदन अजीत को बेसब्र कर रहा था. वह बारबार सोचता कि ऐसे समय में रसिया उस की बांहों में समा जाए, तो उस के जिस्म में गरमी भर जाए,

कांपती हुई रसिया ने अजीत से कुछ कहना चाहा, लेकिन उस की जबान नहीं खुल सकी. लेकिन ठंड इतनी बढ़ गई थी कि उस से रहा नहीं गया. वह बोली, ‘‘भाई अजीत, मु?ो बहुत ठंड लग रही है. कुछ देर मु?ो अपने बदन से चिपका लो, ताकि थोड़ी गरमी मिल जाए.’’

‘‘क्यों नहीं, भाई का फर्ज है ऐसी हालत में मदद करना,’’ कह कर अजीत ने रसिया को अपनी बांहों में जकड़ लिया. धीरेधीरे वह रसिया की पीठ को सहलाने लगा. रसिया को राहत मिली.

लेकिन अब अजीत के हाथ फिसलतेफिसलते रसिया के उभारों पर पड़ने लगे और उस ने सम?ा कि रसिया को एतराज नहीं है. तभी उस ने उस के उभारों को दबाना शुरू किया, तो रसिया ने अजीत की नीयत को भांप लिया.

रसिया उस से अलग होते हुए बोली, ‘‘अजीत, ऐसे नाजुक समय में क्या तुम करिश्मा के साथ भी ऐसी ही हरकत करते? तुम्हें शर्म नही आई?’’ कहते हुए रसिया ने अजीत के गाल पर कस कर चांटा मारा.

यह देख कर अजीत तिलमिला उठा. उस ने भी उसी तरह चांटा मारना चाहा, पर कुछ सोच कर रुक गया.

उस ने रसिया की पीठ सहलाते हुए जो सपने देखे थे, वे उस के वहम थे. रसिया उसे बिलकुल नहीं चाहती थी. जल्दबाजी में उस ने सारा खेल ही खत्म कर दिया. अगर रसिया ने उस की शिकायत करिश्मा से कर दी, तो गड़बड़ हो जाएगी.

अजीत ?ाट से शर्मिंदगी दिखाते हुए बोला, ‘‘रसिया, मु?ो माफ कर दो. मेरी शिकायत करिश्मा से मत करना.’’

‘‘ठीक है, नहीं करूंगी, लेकिन इस शर्त पर कि तुम यह सब बिलकुल भूल जाओगे,’’ रसिया ने कहा.

‘‘जरूरजरूर. दोबारा मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं ने सम?ा था कि दूसरी निचली जाति की लड़कियों की तरह शायद तुम भी कहीं दिलफेंक न हो.’’

‘‘तुम्हारे जैसे बड़े लोग ही हम निचली जाति की लड़कियों से गलत फायदा उठाने की कोशिश करते हैं. सभी लड़कियां कमजोर नहीं होतीं. अब यहां रुकना ठीक नहीं है,’’ रसिया ने कहा.

दोनों मोटरसाइकिल से रसिया के घर पहुंचे. रसिया ने बारिश बंद होने तक अजीत को रोकना चाहा, लेकिन वह नहीं रुका.

उस दिन के बाद से अजीत अपने गाल पर हाथ फेरता, तो गुस्से में उस के रोंगटे खड़े हो जाते.

अजीत रसिया के चांटे को याद करता और तड़प उठता. सोचता कि रसिया ने चांटा मार कर उस की जो बेइज्जती की है, वह उसे जिंदगीभर भूल नहीं सकता. उस चांटे का जवाब वह जरूर देगा.

उस दिन करिश्मा के यहां खूब चहलपहल थी, क्योंकि उस की सगाई होने वाली थी. उस की सहेलियां नाचगाने में मस्त थीं. रसिया भी उस जश्न में शामिल थी, क्योंकि वह करिश्मा की खास सहेली जो थी. वह खूब सजधज  कर आई थी.

अजीत भी लड़कियों के साथ नाचने लगा. उस की नजर जब रसिया से टकराई, तो दोनों मुसकरा दिए. अजीत ने उसी समय मौके का फायदा उठाना चाहा.

अजीत ने ?ामते हुए आगे बढ़ कर रसिया की कमर में हाथ डाला और अपनी बांहों में कस लिया. फिर उस के गालों को ऐसे चूमा कि उस के दांतों के निशान रसिया के गालों पर पड़ गए.

यह देख रसिया तिलमिला उठी और धक्का दे कर उस की बांहों से अलग

हो गई.

रसिया ने उस के गाल पर कई चांटे रसीद कर दिए. जश्न में खलबली मच गई. पहले तो लोग सम?ा ही नहीं पाए कि माजरा क्या है, लेकिन तुरंत रसिया की कठोर आवाज गूंजी, ‘‘अजीत, तुम ने आज इस भरी महफिल में केवल मेरा ही नहीं, बल्कि अपनी बहन औेर सगेसंबंधियों की बेइज्जती की है. मैं तुम पर थूकती हूं.

‘‘मैं सोचती थी कि शायद तुम उस दिन के चांटे को भूल गए हो, पर मु?ो ऐसा लगता है कि तुम यही हरकतें अपनी बहन करिश्मा के साथ भी करते रहे होगे.

‘‘अगर मैं जानती कि तुम्हारे दिल में बहनों की इसी तरह इज्जत होती है, तो यहां कभी न आती. ’’

रसिया ने करिश्मा के पास जा कर उस रात की घटना के बारे में बताया और यह भी बताया कि अजीत ने उस से भविष्य में ऐसा न होने के लिए माफी भी मांगी थी.

करिश्मा का सिर शर्म से ?ाक गया. उस की आंखों से आंसू गिर पड़े.

नासम?ा अजीत ने रसिया को जलील नहीं किया था, बल्कि अपने परिवार की बेइज्जती की थी.

चौकलेट चाचा: आखिर क्यों फूटा रूपल का गुस्सा?

रूपल के पति का तबादला दिल्ली हो गया था. बड़े शहर में जाने के नाम से ही वह तो खिल गई थी. नया शहर, नया घर, नए तरीके का रहनसहन. बड़ी अच्छी जगह के अपार्टमैंट में फ्लैट दिया था कंपनी ने. नीचे बहुत बड़ा एवं सुंदर पार्क था, जिस में शाम के समय ज्यादातर महिलाएं अपने बच्चों को ले कर आ जातीं. बच्चे वहीं खेल लेते और महिलाएं भी हवा व बातों का आनंद लेतीं. हरीभरी घास में रंगबिरंगे कपड़े पहने बच्चे बड़े ही अच्छे लगते. रूपल ने भी सोसाइटी के रहनसहन को जल्दी ही अपना लिया और शाम के समय अपनी डेढ़ वर्षीय बेटी को पार्क में ले कर जाने लगी. एक दिन उस ने देखा कि एक बुजुर्ग के पार्क में आते ही सभी बच्चे दौड़ कर उन के पास पहुंच गए और चौकलेट चाचा, चौकलेट चाचा कह कर उन से चौकलेट लेने लगे. सभी बच्चों को चौकलेट दे वे रूपल के पास भी आए और उस से भी बातें करने लगे. फिर रूपल व उस की बेटी को भी 1-1 चौकलेट दी. पहले तो रूपल ने झिझकते हुए चौकलेट लेने से इनकार कर दिया, किंतु जब चौकलेट चाचा ने कहा कि बच्चों के चेहरे पर खुशी देख उन्हें बहुत अच्छा लगता है, तो उस ने व उस की बेटी ने चौकलेट ले ली.

पूरे अपार्टमैंट के लोग उन्हें चौकलेट चाचा के नाम से पुकारते, इसलिए अब रूपल की बेटी भी उन्हें चौकलेट चाचा कहने लगी और उन से रोज चौकलेट लेने लगी. वह भी और बच्चों की तरह उन्हें देख कर दौड़ पड़ती. ऐसा करतेकरते 6 माह बीत गए. अब तो रूपल की अपार्टमैंट में सहेलियां भी बन गई थीं. एक दिन उस की एक सहेली ने जिस की 10 वर्षीय बेटी थी, उस से पूछा, ‘‘क्या तुम चौकलेट चाचा को जानती हो?’’

रूपल ने कहा, ‘‘हां बहुत अच्छे इंसान हैं. सारे बच्चों को बहुत प्यार करते हैं.’’ उस की सहेली ने कहा, ‘‘मैं ने सुना है कि चौकलेट के बदले लड़कियों को अपने गालों पर किस करने के लिए बोलते हैं.’’

रूपल बोली, ‘‘ऐसा तो नहीं देखा.’’

सहेली ने आगाह करते हुए कहा, ‘‘तुम थोड़ा ध्यान देना इस बार जब वे पार्क में आएं.’’

रूपल ने जवाब में ‘हां’ कह दिया. अगले ही दिन जब रूपल अपनी बेटी को ले कर पार्क गई तो उस ने देखा कि चौकलेट चाचा वहां बैठे थे. उस की बेटी दौड़ कर उन के पास गई और उन के गालों पर किस कर दिया. रूपल तो यह देखते ही सन्न रह गई. वह तो समझ ही न पाई कि कब व कैसे चौकलेट चाचा ने उस की बेटी को किस करने के लिए ट्रेंड कर दिया था. वह चौकलेट के लालच में उन्हें किस करने लगी थी. अब जब भी वह पार्क में जाती तो चौकलेट चाचा को देखते ही सतर्क हो जाती और हर बार उन्हें मना करती कि वे उस की बेटी को चौकलेट न दें. वह यह भी देखती कि चौकलेट चाचा अन्य लड़कियों को गले लगाते एवं कुछ की छाती व पीठ पर भी मौका पाते ही हाथ फिरा देते. यह सब देख उसे घबराहट होने लगी थी और वह स्तब्ध रह जाती थी कि चौकलेट चाचा कैसे सब लड़कियों को ट्रेनिंग दे रहे थे और उन की मासूमियत और अपने बुजुर्ग होने का फायदा उठा रहे थे.

उस ने अपने पति को भी यह बात बताई, तो जब कभी वह अपने पति व बेटी के साथ पार्क जाती और चौकलेट चाचा को देखती तो उस के पति यह कह देते कि उन की बेटी को डाक्टर ने चौकलेट खाने के लिए मना किया है, इसलिए वे उसे न दें. पर चौकलेट चाचा तो उसे चौकलेट दिए बिना मानते ही नहीं थे. दोनों पतिपत्नी ने उन्हें कई बार समझाया, पर वे किसी न किसी तरह उन की बेटी को चौकलेट दे ही देते. अब रूपल चौकलेट चाचा को देखते ही अपनी बेटी को उन के सामने से हटा ले जाती, लेकिन चौकलेट चाचा तो अपार्टमैंट में सब जगह घूमते और उस की बेटी को चौकलेट दे ही देते. बदले में उस की बेटी उन्हें बिना बोले ही किस कर देती. अब रूपल मन ही मन डरने लगी थी कि इस तरह तो उस की बेटी चौकलेट या किसी अन्य वस्तु के लिए किसी के भी पीछे चल देगी. और वह इतनी बड़ी भी न थी कि वह उसे समझा सके. इस तरह तो कोई भी उस की बेटी को बहलाफुसला सकता है. उस ने फैसला कर लिया कि अब वह चौकलेट चाचा को मनमानी नहीं करने देगी.

अगले दिन जब चौकलेट चाचा अपने अन्य बुजुर्ग मित्रों के साथ पार्क में आए और जैसे ही उस की बेटी को चौकलेट देने लगे, वह चीख कर बोली, ‘‘मैं आप को कितनी बार बोलूं कि आप मेरी बेटी को चौकलेट न दें.’’ इस बार चौकलेट चाचा रूपल का मूड समझ गए. उन के मित्र तो इतना सुन कर वहां से नदारद हो गए. चौकलेट चाचा भी बिना कुछ बोले वहां से खिसक लिए. किसी बुजुर्ग से इस तरह व्यवहार करना रूपल को अच्छा न लगा, इसलिए वह पार्क में अकेले ही चुपचाप बैठ गई. तभी वे सभी महिलाएं जो आसपास थीं और यह सब होते देख रही थीं, उस के पास आईं. उन में से एक बोली, ‘‘हां, तुम ने ठीक किया. हम सभी चौकलेट चाचा की इन हरकतों से बहुत परेशान हैं. ये तो लिफ्ट में आतीजाती महिलाओं को भी किसी न किसी बहाने स्पर्श करना चाहते हैं. मगर इन की उम्र का लिहाज करते हुए महिलाएं कुछ बोल नहीं पातीं.’’ उस के इतना कहने पर सब एकएक कर अपनेअपने किस्से बताने लगीं. अब रूपल को समझ में आ गया था कि चौकलेट चाचा की हरकतों को कोई भी पसंद नहीं कर रहा था, लेकिन कहते हैं न कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, इसीलिए सभी चुप थीं.

उस दिन वह गहरी सोच में पड़ गई कि क्या यही है हमारा सभ्य समाज, जहां लोग अपनी उम्र की आड़ में या फिर लोगों द्वारा किए गए लिहाज का फायदा उठाते हुए मनमानी या यों कहिए कि बदतमीजी करते हैं? और तो और मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ते. अब उसे अपने किए पर कोई पछतावा न था और अपने उठाए कदम की वजह से वह अपार्टमैंट की सभी महिलाओं की अच्छी सहेली बन गई थी. उस के द्वारा की गई पहल पर सब उसे बधाइयां  दे रहे थे.

रूहानी इलाज : रेशमा को कैसे मिला जिस्मानी सुख

‘‘नहीं…नहीं,’’ चीखते हुए रेशमा अचानक उठ बैठी, तो उस का पति विवेक भी हड़बड़ा कर उठ बैठा और पूछने लगा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘वही डरावना सपना…’’ कहते हुए रेशमा विवेक से लिपट कर रो पड़ी.

‘‘घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’’ विवेक रेशमा को हिम्मत देते हुए बोला, ‘‘शाम को जब मैं दफ्तर से लौटूंगा, तब तुम्हें डाक्टर को दिखा दूंगा.’’

विवेक और रेशमा की शादी को 2 साल हो गए थे, पर रेशमा को अभी तक जिस्मानी सुख नहीं मिल पाया था. वह इस बारे में न तो किसी से कह सकती थी और न इस से नजात पा सकती थी. बस, मन ही मन घुटती रहती थी.

विवेक रात को दफ्तर से वापस आता, तो थकामांदा उस के साथ सोता. फिर पलभर के छूने के बाद करवट बदल लेता और रेशमा जिस्मानी सुख को तरसती रह जाती. ऐसे में बच्चा पैदा होने की बात तो वह सोच भी नहीं सकती थी.

विवेक के दफ्तर जाने के बाद रेशमा की पड़ोसन सीमा उस से मिलने आई और हालचाल पूछा.

बातोंबातों में रेशमा ने सीमा को अपने सपनों के बारे में बता दिया.

सीमा बोली, ‘‘घबरा मत. सब ठीक हो जाएगा. यहीं नजदीक में ही एक तांत्रिक पहलवान हैं. वे तंत्र विद्या से रूहानी इलाज करते हैं. उन्होंने कइयों को ठीक किया है. तू भी चलना, अगर मुझ पर भरोसा है तो.’’

‘‘नहीं सीमा, आज शाम विवेक मुझे डाक्टर के पास ले जाने वाले हैं,’’ रेशमा ने कहा, तो सीमा बोली, ‘‘छोड़ न डाक्टर का चक्कर. पहले मोटी फीस लेगा, फिर ढेर सारे टैस्ट लिख देगा और ज्यादा से ज्यादा नींद आने या तनाव भगाने की दवा दे देगा. तुझ पर तो किसी प्रेत का साया लगता है. ये बीमारियां ठीक करना डाक्टरों के बस की बात नहीं. आगे तेरी मरजी.’’

सीमा की बात रेशमा पर असर कर गई. उसे लगा कि तांत्रिक को दिखाने में हर्ज ही क्या है. कुछ सोच कर उस ने हामी भर दी और विवेक को मोबाइल फोन मिला कर सब सच बता दिया.

सीमा और रेशमा तांत्रिक पहलवान के पास पहुंचीं. वहां बाहर ही बड़ा सा बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था, ‘यहां हर बीमारी का शर्तिया रूहानी इलाज किया जाता है’.

उन्होंने तांत्रिक से मिलने की इच्छा जताई, तो वहां बैठे तांत्रिक के अर्दली ने उन्हें बाहर बैठा दिया और बोला, ‘‘अभी पहलवान पूजा सिद्ध कर रहे हैं.’’

फिर वह बड़ी देर तक उन से बातें करता रहा और उन के मर्ज के बारे में  भी पूछा.

थोड़ी देर बाद अर्दली पहलवान से इजाजत लेने अंदर गया.

तभी एक और औरत आ कर उन के पास बैठ गई और इन से मर्ज पूछा. साथ ही बताया कि पहलवान बहुत अच्छा इलाज करते हैं.

रेशमा ने उस औरत को सारा मर्ज बता दिया और पहलवान के बारे में जान कर उस का भरोसा और बढ़ गया.

इतने में अर्दली आया और बोला, ‘‘चलिए, आप को बुलाया है.’’

अंदर एक मोटीमोटी आंखों वाला लंबाचौड़ा आदमी माथे पर पटका बांधे बैठा था. कमरे में दीवारों पर तंत्रमंत्र लिखे कई पोस्टर लगे थे. चारों ओर धूपबत्ती का धुआं फैला था. वहां सिर्फ जीरो वाट का एक लाल बल्ब रोशनी फैलाता माहौल को और डरावना बना रहा था.

वह आदमी मोबाइल फोन पर किसी से बात कर रहा था. उस ने बात करतेकरते इन्हें बैठने का इशारा किया. फिर बात खत्म कर इन की ओर मुखातिब हुआ, तो रेशमा ने कुछ दबी सी जबान में अपनी बात कही.

रेशमा की दास्तां सुन कर पहलवान तांत्रिक बोला, ‘‘तुम्हें डरावने सपने आते हैं. पति की कमजोरी का खमियाजा भुगत रही हो और न किसी से कह सकती हो और न सह सकती हो. अभी तक कोई बच्चा भी नहीं है… सब के ताने सहने पड़ते हैं…’’

रेशमा हैरान थी कि तांत्रिक यह सब बिना बताए कैसे जानता है. लेकिन उसे वह पहुंचा हुआ तांत्रिक लगा व इस से उस पर रेशमा का भरोसा बढ़ गया.

फिर वह उन से बोला, ‘‘लगता है कि किसी बुरी आत्मा की छाया है तुम पर, जिस ने तुम्हारे दिमाग पर कब्जा कर रखा है. इस का इलाज हो जाएगा, लेकिन जैसा मैं कहूं वैसा करना होगा. 4-5 बार झाड़फूंक के लिए बुलाऊंगा. नतीजा खुद तुम्हारे सामने आ जाएगा.’’

रेशमा को उस के रूहानी इलाज पर भरोसा हो गया था, इसलिए वह रूहानी इलाज के लिए तैयार हो गई और फीस के बारे में पूछा.

इस पर तांत्रिक बोला, ‘‘अपनी मरजी से कुछ भी दे देना. मनमांगी फीस तो हम तब लेंगे, जब काम हो जाएगा. हमें पैसों का कोई लालच नहीं है,’’ कहते हुए तांत्रिक ने नजर से नजर मिला कर रेशमा की ओर देखा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर रेशमा ने इलाज के लिए हामी भरी, तो सीमा को बाहर भेज कर तांत्रिक ने कमरा बंद कर लिया.

तांत्रिक ने रेशमा को भभूत लिपटा एक लड्डू दिया और वहीं खा कर जाने को कहता हुआ बोला, ‘‘2 दिन बाद फिर आना. पूरी विधि से झाड़फूंक कर दूंगा. असर तो आज से ही पता चल जाएगा तुम्हें.’’

घर पहुंच कर रेशमा को कुछ हलकापन महसूस हो रहा था. उसे लग रहा था कि इस रूहानी इलाज का उस पर असर जरूर होगा. वह चिंतामुक्त हो बिस्तर पर पसर गई. कब आंख लगी, उसे पता ही न चला. आंख खुली तब, जब विवेक ने दरवाजा खटखटाया.

‘ओह, आज कितने अरसे बाद इतनी गहरी नींद आई है. शायद यह रूहानी इलाज का ही असर है,’ रेशमा ने सोचा और दरवाजा खोला.

चाय पीते समय रेशमा ने विवेक को तांत्रिक की बात बता दी. रेशमा को तरोताजा देख कर विवेक को भी यकीन हो गया कि इस इलाज का असर होगा. लेकिन चुटकी लेता हुआ वह बोला, ‘‘कहीं तांत्रिक ने नींद की दवा तो नहीं डाल दी थी लड्डू में, जो घोड़े बेच कर सोई थी?’’

2 दिन बाद रेशमा को फिर तांत्रिक पहलवान के पास जाना था. उस ने फोन कर के पहलवान से मिलने का समय ले लिया और तय समय पर पहुंच गई.

तांत्रिक ने पहले की झाड़फूंक का असर पूछा, तो रेशमा ने बता दिया कि फर्क लग रहा है.

तांत्रिक की घूरती निगाहें अब रेशमा के उभारों का मुआयना कर रही थीं. जीरो वाट के बल्ब की लाल रोशनी में धूपबत्ती के धुएं और बंद कमरे में तांत्रिक ने एक बार फिर रेशमा की झाड़फूंक की और उस से करीबी बनाने लगा.

फिर उस ने रेशमा को भभूत लिपटा लड्डू खाने को दिया, जिसे खाने पर वह बेहोश सी होने लगी.

असर होते देख तांत्रिक पहलवान ने रेशमा को अपनी बांहों में जकड़ लिया. अब तांत्रिक को मुंहमांगी मुराद मिल गई थी. उस ने रेशमा के अंगों के साथ खुल कर खेलना शुरू कर दिया.

मनमुताबिक भोगविलास के बाद तांत्रिक पहलवान ने रेशमा को घर भेज दिया. घर आ कर रेशमा बिस्तर पर पड़ गई.

उसे तांत्रिक की इस हरकत का पता चल गया था, लेकिन उस ने जिस्मानी सुख का सुकून भी पाया था, जिसे वह खोना नहीं चाहती थी.

अगली बार रेशमा तांत्रिक के पास गई, तो खुला दरवाजा देख बिना इजाजत अंदर जा पहुंची. अंदर का नजारा देख कर वह दंग रह गई. अंदर तांत्रिक उसी औरत की बांहों में बांहें डाले बैठा था, जिसे उस ने पहले दिन वहां देखा था और सारा मर्ज बताया था.

रेशमा समझ गई कि यह तांत्रिक की ही जानकार है और इसी ने मरीज बन कर सब जान लिया और फोन पर तांत्रिक को बताया था, तभी तो तांत्रिक फोन पर बात करता मिला और हमारे बारे में सब सचसच बता पाया.

रेशमा को देखते ही वह औरत तांत्रिक से अलग हो गई और कमरे से बाहर चली गई. रेशमा भी सबकुछ जानने के बावजूद खामोश रही.

तांत्रिक ने रूहानी इलाज शुरू किया और रेशमा खुद को उस के सामने परोसती चली गई.

अब रेशमा जबतब पहलवान के पास इलाज के बहाने पहुंच जाती और देहसुख का लुत्फ उठाती.

उस दिन रेशमा की सास उन के यहां आई हुई थी. उसे जोड़ों का दर्द व बुढ़ापे की अनगिनत बीमारियां थीं, जिस के लिए विवेक ने उन्हें पहलवान के पास ले जाना चाहा था.

तभी रेशमा उबकाई करती दिखी, तो सास और खुश हो गईं. वे विवेक को बधाई देते हुए बोलीं, ‘‘सचमुच पहलवान का इलाज कारगर है, जो बहू पेट से हो गई.’’

लेकिन रेशमा के मन में हजारों शक पनपने लगे थे. उस ने किसी तरह सास को इलाज के लिए ले जाने को टरकाया व पहलवान से छुटकारे की योजना सोचने लगी.

इधर कुछ दिन से रेशमा को न पा कर पहलवान का दिल मचलने लगा था. उस ने रेशमा को फोन कर के बुलाना चाहा. रेशमा ने आनाकानी की और बताया कि इस से उन के संबंध का भेद खुलने का खतरा है. पर पहलवान की बेचैनी हद पर थी.

तांत्रिक पहलवान बोला, ‘‘अगर तुम नहीं आओगी, तो मैं तुम्हारे इस संबंध के बारे में खुद तुम्हारे पति को बता दूंगा.’’

अब रेशमा दुविधा में थी. पति को बताए तो परेशानी और न बताए तो पहलवान का डर. रेशमा को खुद को बचाना मुश्किल हो रहा था.

उधर पहलवान तांत्रिक ने दोबारा फोन कर के धमकाया, ‘अगर तुम यहां नहीं आईं, तो तुम्हारे पति को बता दूंगा.’

रातभर रेशमा बचने का उपाय सोचती रही. उसे लग रहा था, जैसे उसे पुरानी बीमारी ने फिर आ जकड़ा था. वह गहरे तनाव में थी. अचानक उस के दिमाग में कुछ आया और वह निश्चिंत हो कर सो गई.

सुबह उठी और बाहर जा कर पहलवान को फोन कर दिया कि शाम को वह उस के पास आएगी. इस से वह खुश व संतुष्ट हो गया.

साथ ही, उस ने अपने पति विवेक को विश्वास में लिया और बोली, ‘‘देखो, तुम सासू मां का इलाज पहलवान से करवाने की कह रहे थे, लेकिन मैं तुम्हें बता दूं कि वह ठीक आदमी नहीं है. मंत्र पढ़ते समय उस ने मुझे भी कई बार छूने की कोशिश की.’’

सुनते ही विवेक आगबबूला हो गया और बोला, ‘‘तुम ने पहले क्यों नहीं बताया? मैं करता हूं उस का रूहानी इलाज. आज ही उस के खिलाफ पुलिस में शिकायत करता हूं.’’

रेशमा ने उसे रोका, उसे खुद को भी तो बचाना था. फिर वह बोली, ‘‘मैं आज शाम इलाज के लिए वहां जाऊंगी… अगर उस ने ऐसी कोई बात की, तो तुम्हें फोन कर दूंगी. तुम फौरन पुलिस ले कर पहुंच जाना.’’

अब रेशमा रूहानी इलाज करने वाले पहलवान तांत्रिक के पास पहुंची. रेशमा को देखते ही पहलवान खुश हो गया.

वह झूठा गुस्सा दिखाते हुए बोला, ‘‘तुम समझती क्या हो खुद को? मैं जब बुलाऊं तुम्हें आना होगा, वरना मैं तुम्हारे पति को सब बता दूंगा,’’ कहते हुए उस ने दरवाजा बंद किया और रेशमा को अपनी बांहों में जकड़ने लगा. तब तक रेशमा अपने पति को मिस काल कर के संकेत दे चुकी थी.

थोड़ी ही देर में विवेक पुलिस को ले कर आ पहुंचा. पहलवान रंगे हाथों पकड़ा गया. पुलिस उस के कमरे पर ताला जड़ कर उसे साथ ले गई.

उधर रेशमा खुश थी. उस ने एक तीर से दो निशाने जो साधे थे. एक तो उस ने रूहानी इलाज के बहाने जिस्मानी भूख खत्म की, फिर तांत्रिक को पकड़वा कर खुद को उस के चंगुल से निकाल लिया था. साथ ही, पति की नजरों में भी उस ने खुद को बेदाग साबित कर लिया था.

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