2019 के फाइनल में कांग्रेस

सत्ता का सैमीफाइनल माने जाने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सब से बड़े 230 सीटों वाले राज्य मध्य प्रदेश में 15 सालों से राज कर रही भारतीय जनता पार्टी के हाथ से सत्ता की डोर तो उसी वक्त फिसलती दिखने लगी थी जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘नमामि देवी नर्मदे’ नाम से नर्मदा यात्रा शुरू की थी. यह यात्रा दिसंबर, 2016 में शुरू हो कर मई, 2017 में खत्म हुई थी.

लंबी और धर्मकर्म वाली इस नर्मदा यात्रा का भाजपा ने ऐसे होहल्ला मचाया था मानो विधानसभा चुनाव में उसे जनता नहीं, बल्कि नर्मदा नदी जिताएगी.

इस यात्रा पर सरकार के कितने करोड़ या अरब रुपए स्वाहा हुए थे, इस का साफसाफ ब्योरा आज तक भाजपा पेश नहीं कर सकी है.

शिवराज सिंह चौहान इस यात्रा की आड़ में जब मंदिरों और घाटों पर पूजापाठ करते और पंडों को दानदक्षिणा देते नजर आए थे, तो लोग मायूस हो उठे थे कि ये कैसी उपलब्धियां हैं जिन में हजारों की तादाद में छोटेबड़े नामी और बेनामी संत दानदक्षिणा से अपनी जेबें भर रहे हैं.

बाद में शिवराज सिंह चौहान ने 4 बाबाओं को मंत्री का दर्जा भी दे दिया था. इस से लोगों में यह संदेशा गया था कि अब साधुसंत सरकार चलाएंगे और दोबारा वर्ण व्यवस्था व ब्राह्मण राज कायम हो जाएगा. दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में ही 15 सालों से सत्ता वापसी की कोशिश कर रही कांग्रेस आधी लड़ाई उस वक्त जीत गई थी जब कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह को हाशिए पर धकेलते हुए छिंदवाड़ा से सांसद और धाकड़ कांग्रेसी नेता कमलनाथ को प्रदेश का अध्यक्ष बनाया था और गुना के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनावी मुहिम की कमान सौंपी थी.

इन दोनों नेताओं को आगे लाने का राहुल गांधी का एक मकसद साल 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी अपनी पकड़ बनाने का था. कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाना एक समझदारी भरा फैसला था, जिस का फायदा भी कांग्रेस को मिला.

यों बिगड़ा भाजपा का खेल

अकेले मध्य प्रदेश में ही नहीं, बल्कि राजस्थान में भी राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री रह चुके अशोक गहलोत के साथ युवा सचिन पायलट को भी चुनावी मुहिम में लगा दिया, तो कांग्रेस वहां भी दौड़ में आ गई.

छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रह चुके अजीत जोगी को कांग्रेस पहले ही बाहर का रास्ता दिखा चुकी थी जिन की बिगड़ी इमेज नतीजों के आईने में भी दिखी. वहां कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल के साथ 2 धाकड़ नेताओं टीएस सिंह देव और चरणदास महंत को भी कांग्रेस ने चुनाव में उतारा.

इन तीनों राज्यों में कांगे्रस शुरू में कहीं गिनती में नहीं थी. एक साल पहले तक यह कहा जा रहा था कि भाजपा इन तीनों राज्यों में फिर से भगवा फहराने में कामयाब हो जाएगी लेकिन महज एक साल में ऐसा कौन सा चमत्कार हो गया कि मध्य प्रदेश में वह 114, राजस्थान में 99 और छत्तीसगढ़ में रिकौर्ड 65 सीटें ले गई? इस का भाजपा के धर्मकर्म और तीनों मुख्यमंत्रियों के कामकाज से गहरा ताल्लुक है.

धर्मकर्म के मामले में न तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पीछे रहे और न ही महारानी के खिताब से नवाजी जाने वाली राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, जो मतगणना वाले दिन सुबह से ही बांसवाड़ा के त्रिपुरा सुंदरी मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने जा कर बैठ गई थीं लेकिन भगवान ने उन की एक न सुनी और राजस्थान में भाजपा को महज 73 सीटों पर लटका कर रख दिया.

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तो उस वक्त हद ही कर दी थी, जब भगवा कपड़ों वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चुनाव प्रचार करने के लिए छत्तीसगढ़ पहुंचे थे. तब रायपुर में उन्होंने योगी आदित्यनाथ के पैरों में लोट लगाई थी.

वहां की एक सभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बेतुकी बात यह कही थी कि चूंकि छत्तीसगढ़ रामलला का ननिहाल है, इसलिए यहां भी उन का मंदिर बनना चाहिए.

इस बात से वहां के लोग घबरा उठे थे कि अब हिंदूवादी संगठन जबरन आदिवासियों को पूजापाठ में धकेलने की अपनी कोशिशें तेज करेंगे.

न केवल तीनों मुख्यमंत्रियों, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का भी ब्लडप्रैशर उस वक्त बढ़ना शुरू हो गया था जब इन राज्यों में राहुल गांधी की रैलियों में भीड़ उमड़ने लगी थी और लोग संजीदगी से उन की बातें सुनने लगे थे.

राहुल गांधी ने चालाकी दिखाते हुए भाजपा के हथियार का उन्हीं पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तो भगवा खेमा और ज्यादा तिलमिला उठा. उज्जैन के महाकाल मंदिर में पूजा और शिव अभिषेक कर उन्होंने चुनाव प्रचार शुरू किया तो भाजपाइयों ने बारबार वही गलती दोहराई जो राहुल गांधी उन से चाहते थे. हालांकि इस के पहले भी उन के धर्म प्रेम को ले कर काफी हल्ला मच चुका था लेकिन चुनाव के वक्त यह बढ़ा तो भाजपा को लेने के देने पड़ने लग गए.

राहुल गांधी खुद को शिवभक्त और जनेऊधारी ब्राह्मण तो बताते रहे, पर उन्होंने मंदिरों की तारीफ नहीं की. दूसरी तरफ जनसभाओं में उन्होंने पुरजोर तरीके से आम लोगों के हितों से जुड़े मुद्दों पर जोर दिया. तीनों ही राज्यों

में उन्होंने बेरोजगारों, रसोई गैस, पैट्रोलडीजल की बढ़ती कीमतों और किसानों की बदहाली पर खासा फोकस किया, किसी देवीदेवता पर नहीं.

मजा तो तब आया जब भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने भोपाल में राहुल गांधी से उन का गोत्र पूछ डाला. भाजपाइयों से और उम्मीद भी नहीं की जा सकती. सदियों से जातियों का नाम ले कर ही वे अपना काम चलाते रहे हैं.

जवाब में राहुल गांधी ने राजस्थान के मशहूर पुष्कर मंदिर में जा कर पंडित से पूछ कर अपना गोत्र दत्तात्रेय और खुद को कौल ब्राह्मण साबित कर डाला.

इस मंदिर के नीचे झूठ का सदा प्रचार होता है. यहां बड़ेबड़े बोर्ड लगे हैं कि जूते मुफ्त रखें, पर बदले में 500 रुपए की चढ़ावे की डाली खरीदनी जरूरी है जो बोर्डों पर नहीं लिखा होता. हालांकि इस सब से साबित यही हुआ था कि किसी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या तहसीलदार के मुकाबले पंडेपुजारी द्वारा जारी जाति प्रमाणपत्र लोग ज्यादा सटीक मानते हैं.

फ्लौप हुए मोदी

जब माहौल बिगड़ने लगा और कांग्रेस की हवा तीनों राज्यों में बंधने लगी तो भाजपा को अपने हीरो नरेंद्र मोदी से उम्मीदें बंधीं कि अब वे ही नैया पार लगाएंगे.

अपनी चुनावी सभाओं में राहुल गांधी ने मुख्यमंत्रियों से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा. इंदौर की एक सभा में राफेल डील को ले कर उन्होंने ‘चौकीदार’ अपने मुंह से बोल कर और ‘चोर है’ जनता से कहलवाया तो राजनीति के जानकारों का यह अहसास यकीन में बदलने लगा कि राहुल गांधी की ‘पप्पू’ वाली इमेज गए कल की बात हो गई है और भाजपा उन का मजाक बना कर खुद का ही नुकसान कर रही है.

नरेंद्र मोदी के लिए इन राज्यों में चुनाव प्रचार एक चुनौती बन गया था. एक तो उन की सभाओं में पहले की तरह भीड़ नहीं उमड़ रही थी, दूसरे महंगाई, नोटबंदी और जीएसटी के फैसले पर वे राहुल गांधी के सवालों और हमलों का कोई तसल्ली वाला जवाब नहीं दे पा रहे थे.

जनता नरेंद्र मोदी से उम्मीद कर रही थी कि वे राफेल डील की कीमतों का खुलासा कर के राहुल गांधी के आरोपों का करारा और सटीक जवाब दें, लेकिन वजहें चाहे राष्ट्रहित की हों, 2 देशों के करार की हों या फिर कोई और, उन्होंने ऐसा नहीं किया तो धर्म, जाति और गोत्र के मसले की तरह राहुल गांधी उन पर भारी पड़ते नजर आए और यह सोचने का मौका भी लोगों को मिल ही गया कि आखिरकार नोटबंदी से किसे और क्या हासिल हुआ और जीएसटी से देश कौन सा मालामाल हो गया? इस के उलट व्यापारियों का ही नुकसान हुआ जिन को नरेंद्र मोदी ने यह अहसास करा दिया था कि वे टैक्स चोर हैं.

भारी पड़े ये मुद्दे

न केवल मध्य प्रदेश और राजस्थान के नतीजे हैरान कर देने वाले आए, बल्कि छत्तीसगढ़ के नतीजे तो इस लिहाज से चौंका देने वाले हैं कि वोटर ने यहां कांग्रेस की झोली लबालब भर दी है. लेकिन अगर राजस्थान और मध्य प्रदेश में 1-1 सीट के लिए तरसा कर रख दिया तो इस की वजह लोकल मुद्दों का भारी पड़ना है.

मध्य प्रदेश में तो 2 अप्रैल की दलित हिंसा के बाद ही भाजपा और शिवराज सिंह चौहान को समझ आ गया था कि बाजी हाथ से जा रही है. एट्रोसिटी ऐक्ट के बवाल से राजस्थान भी अछूता नहीं रहा जहां के ऊंची जाति वाले भाजपा से नाराज दिखे, लेकिन छत्तीसगढ़ में इस मुद्दे का खास असर नहीं देखा गया.

गौरतलब है कि इस मुद्दे पर भाजपा संसद में दलितों के आगे झुक गई थी और उस ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया था. इस से सवर्ण खासा नाराज थे. मध्य प्रदेश में तो दलितों के बाद सवर्णों ने भी जम कर बवाल मचाया था और अपनी अलग पार्टी सपाक्स भी बना ली थी.

उम्मीद के मुताबिक सपाक्स भाजपा को नुकसान नहीं पहुंचा पाई तो यह शिवराज सिंह चौहान की खूबी थी जिन्होंने धीरेधीरे पुचकार कर सवर्णों को मना लिया था, लेकिन इतना नहीं कि भाजपा चौथी बार भी बाजी मार ले जाती.

राजस्थान की हालत उलट थी जहां छोटे दल और निर्दलीय 25 सीटें ले गए. यहां नई बनी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को बराबरी से नुकसान पहुंचाया लेकिन उस से भी ज्यादा नुकसान पहुंचाया भाजपा के बगावती उम्मीदवारों ने जो टिकट न मिलने पर या तो दूसरी पार्टी से चुनाव लड़े या फिर निर्दलीय मैदान में उतरे.

तीनों विधानसभा चुनाव अपनी इस दिलचस्पी के चलते भी याद किए जाएंगे कि राजस्थान के उलट मध्य प्रदेश में भाजपा के बगावती कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाए.

भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में आए पूर्व मंत्री सरताज सिंह होशंगाबाद सीट से विधानसभा अध्यक्ष सीताराम शर्मा के हाथों हारे तो शिवराज सिंह चौहान के साले संजय सिंह तो कांग्रेस के टिकट पर वारासिवनी सीट से तीसरे नंबर पर रहे.

यह बात भी कम हैरत की नहीं कि मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों को लगभग बराबर 41-41 फीसदी वोट मिले लेकिन सीटों के मामले में भाजपा कांग्रेस से 5 सीटों के अंतर से पिछड़ कर सत्ता से बाहर हो गई.

दूरगामी फर्क पड़ेगा

अब यह भाजपा के सोचने की बात और बारी है कि कोई राम, कृष्ण या दूसरा भगवान उसे नहीं जिता सकता, क्योंकि लोकतंत्र में सत्ता की चाबी नीचे वाली जनता के हाथ में होती है, ऊपर वाले भगवान के हाथ में नहीं.

राम मंदिर निर्माण का जिन जिंदा कर रही और देश में बड़ीबड़ी मूर्तियां गढ़ रही भाजपा के लिए तीनों राज्यों के नतीजे सबक देने वाले हैं कि अगर उसे साल 2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदीभाषी राज्यों में साल 2014 के मुकाबले आधी सीटें भी चाहिए, तो रामनाम जपना छोड़ना होगा. राहुल गांधी के धर्म, जाति और गोत्र जैसे सवालों को भी छोड़ना होगा, नहीं तो जनता उसे छोड़ देगी.

भाजपा की एक दिक्कत यह भी है कि उस के पास उपलब्धियों के नाम पर गिनाने के लिए कुछ खास नहीं है. ऐसे में वोट अब वह किस मुद्दे पर मांगेगी, यह बात उस के रणनीतिकार भी शायद ही तय कर पाएं. अमित शाह तय करें, साधुसंत तय करें या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे हिंदूवादी संगठन तय करें, इन सभी को यह समझ आ रहा है कि धर्म का कार्ड 3 अहम भगवा गढ़ों से खारिज हो चुका है.

अब अगर राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को भाजपा हवा देती है या चुनावी मुद्दा बनाती है तो इन नतीजों के मद्देनजर उसे भारी नुकसान होना तय दिख रहा है.

दूसरी तरफ कांग्रेसियों के हौसले बुलंद हैं. कांग्रेसी खेमे में 3 राज्यों की जीत से नया जोश आया है जिस से लोकसभा चुनाव में भी उसे फायदा होगा. कांग्रेस के लिहाज से एक अच्छी बात जो उस की वापसी की वजह बनी, वह उस की एकता है, नहीं तो अब तक इन राज्यों में वह आपसी फूट के चलते ज्यादा हारती रही थी.

तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चुनाव में थोड़ी कलह दिखी, पर मध्य प्रदेश में कमलनाथ को, राजस्थान में अशोक गहलोत को और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बना दिया गया. यह कलह 4 दिन में शांत हो गई. 2019 के चुनाव परिणाम अभी आने हैं.

इन जीतों का सियासी असर दिखना भी शुरू हो गया है. भाजपा विरोधी दलों को एक आस बंधी है कि भाजपा कोई अपराजेय पार्टी नहीं है. अगर मिलजुल कर लड़ा जाए तो उसे हराया भी जा सकता है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बेहद आक्रामक अंदाज में हमलावर हो रहे हैं कि अब उन की उलटी गिनती शुरू हो गई है.

मजबूत होती कांग्रेस को अब इस बात का फायदा होना तय दिख रहा है कि अगर महागठबंधन बना तो दूसरी पार्टियों को उस की छत के नीचे आना पड़ेगा.

अब बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में सीटों की हिस्साबांटी में उस पर ज्यादा दबाव नहीं बना पाएंगे और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को भी उस के पीछे चलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जहां अमित शाह पहले ही नीतीश कुमार से फिफ्टीफिफ्टी का सौदा कर चुके हैं.

वैसे, कांग्रेस को भी वोटर ने पूरी आजादी नहीं दी है, बल्कि बाउंड्री पर बांध कर रखा है. जाहिर है कि उस के नए मुख्यमंत्रियों को बेहतर प्रदर्शन करना पड़ेगा, नहीं तो जनता का मूड बदलने में अब देर नहीं लगती.

अगर राहुल गांधी यह सोच रहे होंगे कि वे कथित जनेऊधारी ब्राह्मण होने के नाते या फिर देवीदेवताओं के आशीर्वाद से कांग्रेस की वापसी कराने में कामयाब हुए हैं, तो यह उन की गलतफहमी ही साबित होगी.

कांग्रेस की 3 राज्यों में जीत की वजहें पंडावाद और मूर्तिवाद के अलावा इन राज्यों में बढ़ती बेरोजगारी को ले कर नौजवानों की भड़ास और लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही खेतीकिसानी ज्यादा है जिस के चलते किसानों ने इस बार उस से तोबा कर ली.

महंगाई, बढ़ते भ्रष्टाचार और बिगड़ती कानून व्यवस्था से लोग आजिज आ गए थे, पर इन से भी ज्यादा अहम बात जो दिख नहीं रही, वह दलितों और आदिवासियों की बढ़ती बदहाली थी. भाजपा इन तबकों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई. अब अगर कांग्रेस भी इसी राह पर चलती है, तो एक बात इन्हीं नतीजों से साबित हुई है कि वोटर अब किसी एक पार्टी के खूंटे से बंधा नहीं रह गया है, इसलिए जो भी सत्ता संभालेगा उसे इन तबकों के लिए ठोस काम तो करने ही पड़ेंगे.

किसे महंगी पड़ी दलितों की गैरत

तीनों राज्यों के नतीजों से भाजपा से बड़ा सबक बसपा को मिला है और उस की विदाई भी हो चुकी है. मायावती ने यह कहते हुए तीनों राज्यों में कांग्रेस से गठबंधन ठुकरा दिया था कि कांग्रेस बसपा को खत्म करना चाहती है जिस की अपनी गैरत है. दलितों की गैरत की बात करने वाली मायावती को फायदा तो कुछ नहीं हुआ, पर नुकसान उम्मीद से ज्यादा हुआ है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बसपा 2-2 सीटों पर सिमट कर रह गई जबकि मायावती यह उम्मीद लगाए बैठी थीं कि वे मध्य प्रदेश में अपने दम पर 8-10 सीटें ला कर जीतने वाली पार्टी को बसपा की मुहताज कर देंगी और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के साथ भी यही समीकरण दोहराएंगी लेकिन इन दोनों ही राज्यों में बसपा का वोट 5 फीसदी का आंकड़ा भी नहीं छू पाया.

सौदेबाजी में माहिर मायावती छत्तीसगढ़ में गच्चा खा गईं, जहां बसपा के वोट तो जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ को मिले लेकिन उस के वोट बसपा को नहीं मिले क्योंकि उस का कोई वोट बैंक था ही नहीं. हैरत तो यह देख कर हुई कि अकलतरा से बसपा के टिकट पर लड़ीं अजीत जोगी की बहू रिचा जोगी भी चुनाव हार गईं.

राजस्थान में जरूर बसपा सम्मानजनक सीटें ले गई लेकिन वहां हालात ऐसे बने कि 4 फीसदी वोट और 6 सीटें ले जा कर भी मायावती कांग्रेस की राह का रोड़ा या जरूरत नहीं बन पाईं. इशारा साफ है कि दलित अब बसपा का वोट बैंक नहीं रह गया है.

दलितों की गैरत का दूसरा पहलू भी बड़ा दिलचस्प है कि मध्य प्रदेश में उस ने गरीब सवर्णों के साथ खड़ा होने से इनकार कर दिया. चुनाव के 3 महीने पहले शिवराज सिंह चौहान ने जिस संबल योजना को लागू किया था, दरअसल वह दलितों को लुभाने की कोशिश थी.

गरीबों के भले वाली इस योजना का दलितों ने फायदा तो उठाया लेकिन यह बात उन्हें रास नहीं आई कि योजना अलग से उन्हीं के लिए क्यों नहीं बनाई गई. पर इस का ढिंढोरा इस तरह पीटा गया मानो दलित तबका मालामाल हो गया हो.

हकीकत तो यह है कि दलित समाज आज भी अपनी झोली खोले खड़ा है. जब उसे समझ आ गया कि भाजपा इस से ज्यादा कुछ नहीं दे पाएगी तो उस ने कांग्रेस का पल्लू थाम लिया, जिस से और ज्यादा खैरात मिले. बात कम हैरत की नहीं जो आगे की राजनीति पर बड़ा फर्क डालेगी कि दलित समुदाय चाहता है कि गरीब सवर्ण और दलित में फर्क कर उस की थाली में दालरोटी डाली जाती रहे. कांग्रेस इस बार उसे मुफीद लगी तो उस ने पाला बदलने में देर नहीं की.

हालांकि एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर भी दलित समुदाय भाजपा से खफा था लेकिन यह मुद्दा वोटिंग के वक्त तक गायब हो चुका था और उस की जगह इस ख्वाहिश ने ली थी कि कौन उसे ज्यादा दे सकता है.

लोकसभा चुनाव 2019 में अब इन बातों के मद्देनजर मायावती पर दलित ज्यादा भरोसा करेगा, ऐसा लग नहीं रहा. उत्तर प्रदेश की राजनीति पर इन नतीजों ने गहरा असर डाला है. अब वहां भी कांग्रेस दलितों को अपने पाले में लाने की कोशिश करेगी. और हैरानी नहीं होनी चाहिए, अगर मायावती वहां भी देखती रह जाएं, क्योंकि अब वाकई उन के पास दलितों को देने के लिए कुछ बचा ही नहीं है.

भाजपा की नजर में तो दलितों की गैरत के कभी कोई माने ही नहीं रहे. इस बात का खुलासा उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ ने बीकानेर की एक सभा में यह कहते हुए किया था कि हनुमान दलित थे यानी भाजपा की नजर में दलितों की हैसियत बंदरों सरीखी है.

बरकरार रहा टीआरएस का करिश्मा

119 सीटों वाले तेलंगाना में इस बार भी मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव यानी केसीआर का जादू बरकरार है जिन की पार्टी टीआरएस यानी तेलंगाना राष्ट्र समिति 88 सीटें जीत गई. कांग्रेस और तेलुगुदेशम पार्टी का गठबंधन नाकाम साबित हुआ और 21 सीटों पर सिमट कर रह गया. इस से भी बड़ा झटका 2014 में 5 सीटें ले जाने वाली भाजपा को लगा जिसे सिर्फ एक सीट से ही तसल्ली करना पड़ी. ओवैसी की एआईएमएआई ने 7 सीटें जीत कर अपनी साख बरकरार रखी.

तेलंगाना में केसीआर ने विधानसभा भंग करते हुए वक्त से पहले चुनाव कराने पर तवज्जुह दी थी जिस का फायदा भी उन्हें मिला. उन की कल्याणकारी योजनाएं जनता ने पसंद कीं जिस में गरीबों की शादी और मकान के लिए पैसा देने वाली बातें लोगों को खूब पसंद आईं.

तेलंगाना में किसानों को 4,000 रुपए प्रतिमाह प्रति एकड़ देने की योजना टीआरएस की बड़ी जीत की अहम वजह बनी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी टीआरएस भारी पड़ेगी क्योंकि केसीआर की लोकप्रियता आज भी बरकरार है.

केसीआर वैसे उतने ही अंधविश्वासी हैं जितने 1947 के बाद कांग्रेसी राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल थे या आज मोदीयोगी हैं, पर फिर भी वे दलितमुसलिम विरोधी नहीं हैं.

पंजे से छूटा मिजोरम

हिंदीभाषी राज्यों में पहली सी पैठ बना चुकी कांग्रेस का उत्तरपूर्वी भारत में पूरी तरह सूपड़ा साफ हो गया है. 40 सीटों वाले छोटे से राज्य मिजोरम की सत्ता उस से एमएनएफ यानी मिजो नैशनल फ्रंट ने छीन ली है. यहां कांग्रेस हैरतअंगेज तरीके से 5 सीटों पर सिमट गई जबकि एमएनएफ ने 26 सीटें जीत कर सत्ता हासिल कर ली.

10 साल से राज कर रही कांग्रेस के मुख्यमंत्री लल थनहवला दोनों सीटों से हारे तो साफ हो गया कि मिजोरम में भी सत्ता विरोधी लहर थी. वहां देहाती और बाहरी दोनों इलाकों से कांग्रेस बुरी तरह हारी. भाजपा इस राज्य में भी कुछ हासिल नहीं कर पाई जिस ने बड़ी उम्मीदों से सभी 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन जीत उसे एक सीट पर ही मिली.

भाजपा इस पट्टी में लगातार कामयाब होती रही थी लेकिन मिजोरम के नतीजे उस का असर कम करने वाले साबित हुए.

भाजपा की नई चाल: मूर्ति में सिमटी मंदिर की राजनीति

अयोध्या में शिव सेना का ‘संत सम्मान’ और भारतीय जनता पार्टी की ‘धर्म संसद’ खत्म हो चुकी है. इस बीच अयोध्या का जनजीवन पूरी तरह से ठप हो गया था. सब से ज्यादा बुरा असर स्कूली बच्चों पर पड़ा. निजी स्कूलों और कई सरकारी स्कूलों में पढ़ाई बंद रही.

शिव सेना के ‘संत सम्मान’ में उद्धव ठाकरे पूरे परिवार के साथ हावी रहे. अयोध्या में पहली बार शिव सेना प्रमुख आए थे. इस के बाद भी जनता का समर्थन उन को नहीं मिला.

शिव सेना ने हमेशा से ही मुंबई में उत्तर भारतीयों का विरोध किया है. ऐसे में उत्तर प्रदेश के लोगों ने शिव सेना को अपना समर्थन नहीं दिया.

‘धर्म संसद’ का आयोजन वैसे तो विश्व हिंदू परिषद का था, पर इस में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की पूरी ताकत लगी थी. संतों से ज्यादा भाजपा नेताओं और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ऊपर सब की नजर थी.

‘धर्म संसद’ में राम मंदिर को ले कर कोई ठोस बात नहीं हुई. उत्तर प्रदेश की सरकार ने अयोध्या में राम की मूर्ति लगाने का ऐलान किया. ऐसे में राम मंदिर की बात को राम की मूर्ति में बदल दिया गया.

उत्तर प्रदेश सरकार ने 800 करोड़ रुपए की लागत से 221 मीटर ऊंची मूर्ति बनाने की बात कही. इस काम को करने में साढ़े 3 साल का समय बताया गया है.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर को हाशिए पर रखा था, पर देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति लगाने की बात कही थी.

4 साल में गुजरात में सरदार सरोवर बांध के पास वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची मूर्ति लगाई गई. राम की मूर्ति इस से भी बड़ी होगी.

बेअसर रही अयोध्या

अयोध्या की जनता इसे बेमकसद की कवायद बताती है. यहां के लोग मानते हैं कि भीड़ जुटाने से कोर्ट के फैसले पर कोई असर नहीं पड़ता है. इस से केवल अयोध्या में रहने वालों को परेशानी होती है.

इसी तरह साल 1992 के पहले कई साल तक कारसेवा के बहाने भीड़ जुटाई जाती थी. अब फिर से मंदिर के नाम पर भीड़ जुटाई जा रही है. इस से अयोध्या के रामकोट महल्ले में रहने वाले लोगों को अपने घरों में आनेजाने में परेशानी का सामना करना पड़ता है.

अयोध्या में रहने वाले व्यापारी भी इस तरह की बंदी से काफी परेशान होते हैं. इन दिनों यहां कारोबार ठप पड़ जाता है. कारोबारी नेता मानते हैं कि अयोध्या के नाम पर पूरे देश में राजनीति होती है, पर इस का बुरा असर केवल अयोध्या के कारोबार पर पड़ता है.

अयोध्या के विनीत मौर्य मानते हैं

कि अयोध्या अब धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गया है. मंदिर पर राजनीति अब बंद होनी चाहिए.

साफ दिख रहा है कि भाजपा का मकसद मंदिर मुद्दे को साल 2019 के आम चुनावों तक गरम बनाए रखने का है. अयोध्या के बाद ऐसे आयोजन दिल्ली और प्रयाग में भी होंगे.

जनवरी, 2019 में प्रयागराज में कुंभ का आयोजन हो रहा है. यह मार्च, 2019 तक चलेगा. इसी दौरान अदालत में मंदिर मुद्दे की सुनवाई भी चलेगी. इस से समयसमय पर अयोध्या मुद्दा आम लोगों की जिंदगी पर असर करता रहेगा.

हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोग इस का फायदा लेना चाहेंगे, जबकि मंदिर के मुद्दे को देखें तो भाजपा और उस के साथी संगठनों ने मंदिर को ले कर केवल होहल्ला ही मचाया है, कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं.

इस बार मंदिर मुद्दे पर विरोधी दलों की राजनीति बदली हुई है. वे खामोश रह कर भाजपा की शतरंजी चालों को देख रहे हैं.

साल 1998 के बाद भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी 2 बार देश के प्रधानमंत्री बने थे. उन के समय में भी मंदिर बनाने की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ था. उस समय भाजपा ने कहा था कि अटल सरकार बहुमत की सरकार नहीं है, इसलिए मंदिर बनवाने की दिशा में कोई कानून नहीं बनाया जा सकता.

लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी की अगुआई में तो केंद्र में भाजपा की बहुमत वाली सरकार बन गई है. इस के बाद भी 4 साल से ज्यादा का समय बीत चुका है और अब जब 2019 के लोकसभा चुनाव आने वाले हैं तो उसे राम मंदिर की याद आई है. उस ने राम मंदिर बनाने की जगह पर फैजाबाद जिले का नाम बदल कर अयोध्या कर दिया. अब वह राम मंदिर से दूर सरयू नदी के किनारे राम की मूर्ति लगानेकी बात कर रही है. ऐसे में साफ दिखता है कि भाजपा के लिए राम मंदिर एक चुनावी मुद्दे से ज्यादा कुछ नहीं है.

मंदिर और अदालत

राजनीतिक फायदे की नजर से अयोध्या राजनीति के केंद्र में है. भाजपा मंदिर मुद्दे पर जनता को ऐसा बताती है कि जैसे सुप्रीम कोर्ट में यह मुकदमा मंदिर बनाने के लिए है. कोर्ट में मंदिर को ले कर केवल हिंदूमुसलिम ही आमनेसामने हैं.

यह सच नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का मुकदमा इस बात के लिए है कि विवादित जगह किस की है.

दरअसल, इस मुकदमे के 3 पक्षकार हैं. इन में से 2 पक्षकार रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा हिंदुओं की पार्टी है. मुकदमे की तीसरी पक्षकार सुन्नी वक्फ बोर्ड ही मुसलिम पक्षकार है.

सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला होगा, वह इन तीनों पक्षकारों में से ही किसी के हक में होगा. अगर मंदिर के पक्ष में भी फैसला हो गया तो 2 हिंदू पक्षकारों को राजी करना होगा.

समझने वाली बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिंदू परिषद ने साल 2010 में हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद भी रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़े से बात करने की कोशिश नहीं की है.

अगर हालिया केंद्र सरकार दोनों हिंदू पक्षकारों से ही बात कर उन्हें एकजुट कर लेती तो भी लगता कि मंदिर बनाने की दिशा में उस ने सही कदम उठाया है.

भाजपा जिस संत समाज की बात कर रही है उस में भी बड़ी तादाद ऐसे संतों की है जो विश्व हिंदू परिषद के विरोधी हैं. ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि मंदिर बनाने में भाजपा का क्या रोल होगा?

60 साल की कानूनी लड़ाई के बाद अयोध्या में राम मंदिर का फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने 30 सितंबर, 2010 को सुनाया था. यह फैसला 3 जजों की स्पैशल बैंच द्वारा 8189 पन्नों में सुनाया गया था. फैसला देने वालों में जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एसयू खान और जस्टिस धर्मवीर शर्मा शामिल थे.

सब से बड़ा फैसला जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने सुनाया था. 5238 पन्नों के फैसले में उन्होंने कहा था, ‘विवादित ढांचे का मध्य गुंबद हिंदुओं की आस्था और विश्वास के अनुसार राम का जन्मस्थान है. यह पता नहीं चल सका कि मसजिद कब और किस ने बनाई लेकिन यह मसजिद इसलाम के मूल सिद्धांतों के खिलाफ बनी है, लिहाजा मसजिद का दर्जा नहीं दिया जा सकता.’

2666 पन्नों के फैसले में जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने कहा था, ‘पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के नतीजों से साफ है कि विवादित ढांचा पुराने निर्माण को गिरा कर बनाया गया था. एएसआई ने साबित किया है कि यहां पर पहले हिंदुओं का बड़ा धार्मिक ढांचा रहा है यानी यहां हिंदुओं का कोई बड़ा निर्माण था.’

285 पन्नों के फैसले में जस्टिस एसयू खान ने कहा, ‘जमीन पर हिंदू, मुसलमान और निर्मोही अखाड़े का बराबर हक है. इसे तीनों में बराबर बांटा जाना चाहिए. अगर किसी पार्टी का हिस्सा कम पड़ता है तो उस की भरपाई केंद्र सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन से दे कर करनी चाहिए.’

अदालत के फैसले के बाद रामलला विराजमान पक्ष को अधिकार मिला कि रामलला जहां पर हैं वहीं विराजमान रहेंगे. जहां रामलला की पूजाअर्चना हो रही है वह स्थल राम जन्मभूमि है.  रामलला को एकतिहाई जमीन भी दी गई.

निर्मोही अखाड़े को रामचबूतरा और सीता रसोई दी गई. साथ ही, एकतिहाई जमीन भी दी गई.

इसी तरह मुकदमे के तीसरे पक्ष सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी एकतिहाई जमीन दी गई है. कोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड की अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 1949 में जब मूर्तियां वहां पर रखी गईं, तब मुकदमा दाखिल क्यों नहीं किया गया?

अयोध्या का यह फैसला जितना रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए अहम है उस से ज्यादा अहम राजनीतिक दलों के लिए भी है. ऐसे में चुनाव के समय यह राजनीतिक मुद्दा बन जाता है.

अयोध्या मामला: एक नजर में

1528: मुगल बादशाह बाबर ने मसजिद बनवाई. हिंदुओं का दावा है कि इस जगह पर पहले राम मंदिर था.

1859: ब्रिटिश अफसरों ने एक अलग बोर्ड बना कर पूजा स्थलों को अलगअलग कर दिया. अंदर का हिस्सा मुसलिमों को और बाहर का हिस्सा हिंदुओं को दिया.

1885: महंत रघुवर दास ने याचिका दायर कर राम चबूतरे पर छतरी बनवाने की मांग की.

1949: मसजिद के भीतर राम की प्रतिमा प्रकट हुई. मुसलिमों का कहना है कि प्रतिमा हिंदुओं ने रखी.  सरकार ने उस जगह को विवादित बता कर ताला लगा दिया.

1950: मालिकाना हक के लिए गोपाल सिंह विशारद ने पहला मुकदमा दायर किया. अदालत ने प्रतिमा को हटाने पर रोक लगा कर पूजा की इजाजत दी.

1959: निर्मोही अखाड़े ने भी मुकदमा दाखिल किया. उस ने सरकारी रिसीवर हटाने और खुद का मालिकाना हक देने की बात कही.

1961: उत्तर प्रदेश सुन्नी सैंट्रल बोर्ड औफ वक्फ भी विवाद में शामिल हुआ.

1986: फैजाबाद जिला अदालत ने मसजिद के फाटक खोलने और राम दर्शन की इजाजत दी. मुसलिमों ने बाबरी मसजिद ऐक्शन कमेटी बनाई.

1989: विश्व हिंदू परिषद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर मालिकाना हक राम के नाम पर ऐलान करने की गुजारिश की. फैजाबाद जिला कोर्ट में चल रहे सारे मामले इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजे गए.

इसी साल विश्व हिंदू परिषद ने विवादित जगह के पास ही राम मंदिर का शिलान्यास किया.

1990: विश्व हिंदू परिषद की अगुआई में कारसेवकों ने विवादित जगह पर बने राम मंदिर में तोड़फोड़ की. मुलायम सरकार ने गोलीबारी की.

1992: विवादित जगह पर कारसेवकों ने तीनों गुंबद ढहा दिए.

2002: अदालत ने एएसआई को खुदाई कर यह पता लगाने के लिए कहा कि विवादित जगह के नीचे मंदिर था या नहीं. इसी साल हाईकोर्ट के 3 जजों ने मामले की सुनवाई शुरू की.

2010: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने विवादित जगह को 3 हिस्सों में बांटने का आदेश दिया.

मूर्ति के माने

मोदी सरकार ने 2,989 करोड़ रुपए खर्च कर के सरदार वल्लभभाई पटेल की जो विशाल मूर्ति बनवाई है, उस का एक परोक्ष लाभ होगा. अब तक देशभर में जो विशाल मूर्तियां बनती रही हैं, वे पूजास्थल बन जाती हैं और उन के इर्दगिर्द पंडों की दुकानें खुल जाती हैं. जो विशाल अक्षरधाम मंदिर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी बने हैं, वहां जम कर धर्म और पाखंड का व्यापार होता है. शिरडी के फकीर की स्वर्णमंडित मूर्तियों को पंडे जम कर बेच रहे हैं.

सरकारों, खासतौर पर भाजपा सरकारों को करोड़ों रुपए इन सब मंदिरों के रखरखाव, प्रबंध, वहां तक पहुंचने वाली सड़कों, बिजली, पानी, सीवर पर खर्च करने पड़ते हैं. ये सब मूर्तियां सरदार पटेल की मूर्ति से चाहे छोटी हों पर खर्च बहुत कराती हैं.

सरदार पटेल की मूर्ति से ये सब मूर्तियां बच जाएंगी. पटेल कांग्रेसी नेता थे, इसलिए मोदी के बाद भाजपाई उन से ऊब जाएंगे और सिवा गुजरात सरकार के, यदि भाजपा की रही तो, कोई परिंदा तक वहां न जाएगा. कुछ भूलेबिसरे यात्री वहां तक जाने की जहमत उठाएंगे वह भी इसलिए कि मूर्ति की लिफ्ट में चढ़ कर कुछ आनंद ले सकें. पर चाहे जितना गुणगान किया जाए, वहां का दृश्य कुछ अजूबा नहीं है. दिल्ली की कुतुबमीनार पर जब तक चढ़ने दिया जाता था, तब भी लोग कतारों में नहीं लगते थे.

इस मूर्ति का महत्त्व महज एक और कुतुबमीनार की तरह का रह जाएगा. आसपास केवल उस की देखभाल करने वाले होंगे. जैसे अहमदाबाद में साबरमती के किनारे महात्मा गांधी का आश्रम सुनसान पड़ा रहता है वैसा ही सरदार पटेल की मूर्ति के साथ होगा. मोदी के बाद न भाजपा, न कांग्रेस, न आम गुजराती, न औसत भारतीय इस मूर्ति में रुचि दिखाएंगे.

मूर्तियां बनाने का पागलपन अब कम होगा, क्योंकि इस से छोटी मूर्तियां बना कर अब कोई विशालता का सुबूत तो नहीं दे सकता. नरेंद्र मोदी ने यदि यह सोच कर पटेल की मूर्ति बनाई हो कि कभी इस से ऊंची उन की खुद की मूर्ति बनेगी, तो बात दूसरी है.

गनीमत है कांग्रेस ने गांधी, नेहरू, इंदिरा और राजीव की बड़ी मूर्तियां नहीं बनवाईं. हां, अंबेडकर एक ऐसे उम्मीदवार अभी अवश्य हैं. उन के समर्थकों को यदि सत्ता मिली तो वे अवश्य 300 मीटर ऊंची मूर्ति बनाएंगे चाहे लखनऊ में अंबेडकर व कांशीराम की मूर्तियों को देखने कोई जाता हो या न हो.

जानें काले गेहूं पर सफेद झूठ

मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर से 40 किलोमीटर दूर बसे कस्बे देपालपुर के गांव शाहपुरा के एक किसान सीताराम गेहलोत इन दिनो बेहद खुश हैं. जो भी सुनता है उनके गांव की तरफ भागता है. सीताराम ने काला गेंहू बोया है जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं और जो जानते हैं वह बड़ा दिलचस्प और हैरतअंगेज है कि इस गेंहू की बनी रोटी खाने से न केवल कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी ठीक होती है बल्कि दूसरी कई डायबिटीज़, मोटापा और हाइ ब्लडप्रेशर सरीखी बीमारियाँ भी दूर होती हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि काला गेंहू खाने से तनाव भी दूर होता है और दिल की बीमारी यानि हार्ट अटैक भी नहीं होता.

सीताराम गेंहू की यह अनूठी किस्म पंजाब के नेशनल एग्री फूड बायोटेक्नालाजी इंस्टीट्यूट यानि एनएबीआई से लाये हैं. जिसे नाबी भी कहा जाता है. गेहूं का रंग हरे और पकने के बाद पीले के अलावा भी कुछ और खासतौर से काला हो सकता है इस बात पर भरोसा करना मुश्किल काम है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि काले रंग का गेहूं होता है पर क्या वह वाकई उतना चमत्कारी होता है जितना बताया जाता है, यह जरूर शक वाली बात है.

lie on black wheat

सीताराम गेहलोत काले गेंहू के बीज के लिए 2 साल से नाबी के चक्कर काट रहे थे, तब कहीं जाकर इस साल उन्हें 5 किलो बीज मिला जिसे वे श्री विधि से उगा रहे हैं इस विधि में फसलों की पैदावार ज्यादा होती है और फसल पर तेज हवा और पानी का असर नहीं होता.

काला गेहूं हर किसी की जिज्ञासा और उत्सुकता का विषय है, वजह केवल इसका रंग ही नहीं बल्कि वे गिनाई जा रही खूबियां भी हैं जिनसे कई बीमारियां न होने या उनके दूर होने की भी चर्चा जमकर होती रहती है. फसल की पैदावार और बढ़वार के वक्त इस गेहूं की  वालियों का रंग हरा ही होता है. लेकिन जैसे जैसे फसल बढ़ती जाती है वैसे वैसे उनका रंग बदलकर काला होने लगता है. यह कोई कुदरत का करिश्मा नहीं है, बल्कि जानकारों की मानें तो एंथोसायनिन नाम का रसायन इसका जिम्मेदार है, जिसकी अधिकता से फसलें नीली बैंगनी या फिर काले रंग की होती हैं. अनाज, सब्जी या फलों का रंग उनमें मौजूद प्लांट पिगमेंट की तादाद पर निर्भर रहता है. अधिकतर पेड़ पौधे हरे क्लोरोफिल की वजह से होते हैं.

दरअसल, एंथोसायनिन एक अच्छा एंटीऔक्सीडेंट होता है, जो हरे रंग के गेहूं के मुकाबले काले गेहूं में 40 गुना ज्यादा तक होता है. काले गेहूं में आयरन भी 60 फीसदी से ज्यादा पाया जाता है.

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अगर ये खूबियां कुदरत ने काले गेहूं को बख्शी हैं तो कुछ कमियां भी उसमें हैं. मसलन इसमें स्टार्च और प्रोटीन के अलावा दूसरे पोषक तत्व कम मात्रा में होते हैं. फिर क्यों और कौन काले गेहूं को अमृत सरीखा बताकर बेच रहा है, इसकी जांच होनी चाहिए. जानकार हैरानी होती है कि कुछ वेबसाइट्स पर काले गेहूं का आटा 2 से लेकर 4 हजार रु प्रतिकिलों तक बिक रहा है.

इस बारे में मध्य प्रदेश कृषि विभाग में कार्यरत स्वदेश विजय कहते हैं कि यह हम भारतीयों के चमत्कारों के आदी हो जाने की वजह से है. जबकि हकीकत में काले गेहूं के बाबत ऐसा कोई दावा जानकारों ने नहीं किया है. हां, काले गेंहू पर काम कर रही नाबी की वैज्ञानिक मोनिका गर्ग ने यह जरूर माना है कि अभी इसका प्रयोग चूहों पर किया गया है जिसके नतीजे उत्साहवर्धक आए हैं. जिन चूहों पर काले गेंहू का प्रयोग किया गया उनका वजन कम हुआ है और उनका कोल्स्ट्रोल और शुगर भी कम हुआ लेकिन इन्सानों के मामले में भी ऐसा हुआ है या होगा इसका दावा नहीं किया जा सकता. लेकिन यह भी सच है कि एंथोसायनिन आक्सीडेंट की वजह से इंसानों को भी फायदा होगा पर वह ठीक वैसा ही जैसा दूसरे एंटऔक्सीडेंट्स से होता है.

तो फिर काले गेंहू के नाम पर हल्ला क्यों इस सवाल का जबाब साफ है कि इसे बढ़ा चढ़ा कर पेश करने वाले जरूर तबियत से चांदी काट रहे हैं. बात ठीक वैसी ही है कि दो सर, चार सींग और छह पैरों वाले पैदा हुये बछड़े को लोग भगवान का अवतार या लीला मानते उसका पूजा पाठ शुरू कर देते हैं, दक्षिणा भी चढ़ाने लगते हैं. फसलों के मामले में भी बगैर सोचे समझे और जाने अगर लोग महज रंग की बिना पर अंधविश्वासी होकर पैसा लुटा रहे हैं तो वे खुद का ही नुकसान कर रहे हैं.

काले गेंहू से अगर कैंसर ठीक होता है तो कोई वजह नहीं कि इस जानलेवा और लाइलाज बीमारी से एक भी मौत हो और शुगर के मरीजों जिनकी तादाद देश में 6 करोड़ का आंकड़ा पार कर रही है को तो रोज सुबह शाम गुलाबजामुन की दावत उड़ाना चाहिए क्योंकि काला गेंहू जो है. हकीकत में एक साजिश के तहत सफेद झूठ फैलाकर काले गेंहू का काला कारोबार कुछ लोग कर रहे हैं जैसे चमत्कारी विज्ञापन वाले किया करते हैं कि हमारी दवाई की एक खुराक लो और सालों पुराना बावसीर जड़ से मिटाओ. बावसीर के मरीज ठीक हो जाने के लालच के चलते एक नहीं बल्कि हजारों खुराक फांक जाते हैं, लेकिन उनकी सुबह की तकलीफ दूर नहीं होती.

यह तय है कि काले गेंहू में कुछ ऐसे गुण हैं जो हर फसल में नहीं होते और होते भी हैं तो  अलग अलग तरीके से होते हैं, इसमें कुछ तत्व ज्यादा हैं जो हैरानी की बात नहीं पर सनसनी और हैरानी गेंहू के काले होने के नाम पर फैलाई जा रही है तो लोगों को इससे सावधान भी रहना चाहिए.

अब सिंधिया ने बताया नरेंद्र मोदी को नाना

जैसे जैसे मध्यप्रदेश मे चुनाव प्रचार शबाब पर आता जा रहा है वैसे वैसे नेताओं के तेवर भी तीखे होते जा रहे हैं. बड़े नेता विपक्षी नेताओं का सीधे नाम लेने के बजाय उन्हें उनके प्रचिलित नामों से संबोधित कर तंज कस रहे हैं. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राहुल गांधी को राहुल बाबा कहना शुरू कर दिया है जो लगभग पप्पू का पर्याय ही है. वैसे तो छोटे बच्चे को बाबा प्यार से कहा जाता है लेकिन शिव भक्तों को भी बाबा कहने का चलन है. अब अमित शाह राहुल को कौन सा वाला बाबा कह रहे हैं इसे समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर देने की जरूरत नही.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान घोषित तौर पर मामा हैं वे खुद को मामा कहलवाने में फख्र भी महसूस करते हैं लेकिन एक मीटिंग मे कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मामा के साथ साथ नाना संबोधन का भी जिक्र किया तो जनता बिना समझाए समझ गई कि इशारा नरेंद्र मोदी की तरफ है. अशोकनगर जिले की मुंगावली विधानसभा सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार बृजेन्द्र सिंह यादव का प्रचार करते उन्होंने कहा कि जनता इस बार मामा और नाना दोनो को बोरिया बिस्तर बांध कर भगा देगी .

नाना के खिताब पर भाजपा खेमे की प्रतिक्रिया जब आएगी तब आएगी पर राहुल गांधी अक्सर राफेल मुद्दे को हवा देते चोर चौकीदार कहते रहते हैं. यह संबोधन अगर ज्यादा चलन में आ गया तो तय है भाजपा को कड़ा कदम उठाना पड़ेगा सवाल आखिर उसके मुखिया की साख का जो है राजनीति मे ऐसे प्रिय अप्रिय संबोधन वाले नेताओं की भरमार है कुछ संबोधनों से इमेज चमकती है तो कुछ से बिगड़ती भी है. कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह दिग्गी राजा के संबोधन से भले ही नवाजे जाते हों पर साल 2003 के चुनाव प्रचार मे उमा भारती ने उन्हें मिस्टर बंटाढार कहते चुनाव प्रचार अभियान चलाया था तो कांग्रेस की लुटिया ही डूब गई थी. इस तरह के रखे हुए नाम क्या सच में वोटर की मानसिकता पर फर्क डालते हैं इस पर कोई मान्य शोध भले ही न हुआ हो लेकिन सामान्य अनुभव बताता है कि इससे फर्क तो पड़ता है मसलन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को महारानी कहने से जनता में नकारात्मक संदेश जाता है पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की चाउर ( चावल ) वाले बाबा की छवि और संबोधन ने उन्हें 2013 के चुनाव मे काफी फायदा पहुंचाया था. धान के बोनस को लेकर किसान उनसे इस बार खफा हैं इसलिए भाजपा इस बार इस संबोधन से बच रही है.

मध्यप्रदेश मे ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी महाराज बनाने पर शिवराज सिंह ने एतराज जताया था जिसकी गंभीरता समझते सिंधिया ने खुद को आम आदमी कहा था और अपने संसदीय क्षेत्र मे दलितों आदिवासियों के घर जाना शुरू कर दिया था जिससे यह मुद्दा तूल नही पकड़ पाया था हालांकि अपने चुनावी विज्ञापनों में भाजपा कह यही रही है कि माफ करो महाराज हमारा नेता शिवराज. बड़े ही नही कई छोटे मोटे नेता भी इसी तरह के नामों और संबोधनों से जाने जाते हैं जो अक्सर किसी न किसी रिश्ते को प्रदर्शित करते हुए होते हैं मसलन मामा, चाचा, कक्का, दाउ, दीदी और भाभी वगेरह. आत्मीयता भी इन संबोधनों से जाहिर होती है अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नाना बनाने पर भाजपा खुश ही होगी क्योंकि बतौर मामा शिवराज सिंह ने खूब लोकप्रियता बटोरी है पर अब ज्योतिरादित्य उन्हें कंस और शकुनि के बाद तीसरा मामा भी कहने लगे हैं तो लोगों का खूब मनोरंजन भी हो रहा है.

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