
‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.
‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.
‘‘तुम्हीं वह भाई थे जिस ने कभी अपनी इसी बहन को फोन कर मांपिता को भेजने के लिए मिन्नतें की थीं, फरियाद की थी. बस, एक साल भी नहीं रख पाए, तुम्हारे चौकीदार जो नहीं बने वो.
‘‘तुम से तो मैं ने जिंदगी के कितने सही विचार सीखे. कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम बुरी संगत में पड़, ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए अपने खून के रिश्तों की जड़ें काटने पर तुल जाओगे.
‘‘एक ही शहर में, दो कदम की दूरी पर रहने वाले तुम, आज पत्र लिख अपने मन की शांति के लिए मेरे घर आना चाहते हो. क्यों, क्या अब तुम्हारे परिवार को एतराज नहीं होगा?
‘‘अब समझ आया न. पैसा नहीं, रिश्ते, अपनापन व प्यार अहम होते हैं. क्या पैसा अब तुम्हें मन की शांति नहीं दे सकता? अब खरीद लो मांबाप क्योंकि अपनों को तो तुम ने सौतेला बना दिया था.
‘‘तुम्हीं ने छोटे भाईभावज को लालच दिया था अपने बिजनैस में साझेदारी कराने का लेकिन इस शर्त पर कि मातापिता को बहन के घर से बुला अपने पास रखो, घर अपने नाम करवाओ और इतना तंग किया करो कि वे घर छोड़ कर भाग जाएं. तुम ने उन से यह भी कहा था कि वे बहन से नाता तोड़ लें. इतनी शर्तों के साथ करोड़ों के बिजनैस में छोटे भाई को साझेदारी मिल जाएगी, लेकिन साझेदारी दी क्या?
‘‘हमें क्या फर्क पड़ा. अगर पड़ा तो तुम दोनों नकारे व सफेद खून रखने वाले पुत्रों को पड़ा. पुलिस व समाज में जितनी थूथू और जितना मुंह काला छोटे भाईभावज का हुआ उतना ही तुम्हारा भी क्योंकि तुम भी उतने ही गुनाहगार थे. मत भूलो कि झूठ के पैर नहीं होते और साजिश का कभी न कभी तो परदाफाश होता है.
‘‘ठीक है, तुम कहते हो कि इतना सब होने के बाद भी मांपिताजी ने तुम्हें व छोटे को माफ कर दिया था. सो, अब हम भी कर दें, यह चाहते हो? वो तो मांबाप थे ‘नौहां तो मांस अलग नईं कर सकदे सी’, (नाखूनों से मांस अलग नहीं कर सकते थे.) पर, हम तुम्हें माफ क्यों करें?
‘‘क्या तुम अपने बीवीबच्चों को घर से बाहर निकाल सकते हो? नहीं न. क्या मांबाप लौटा सकते हो?
‘‘अब तुम भी बुढ़ापे की सीढ़ी पर पैर जमा चुके हो. इतिहास खुद को दोहराता है, यह मत भूलना. अब चूंकि तुम्हारा बेटा बिजनैस संभालने लगा है तो तुम्हारी स्थिति भी कुछकुछ मांपिताजी जैसी होने लगी है. अगर बबूल बोओगे तो आम नहीं लगेंगे. सो, अपने बुरे कृत्यों का दंश व दंड तो तुम्हें सहना ही पड़ेगा. क्षमा करना, मेरे पास तुम्हारे लिए जगह व समय नहीं है.
‘‘बेरहम नहीं हूं मैं. तुम मुझे मेरे मातापिता लौटा दो, मैं तुम्हें बहन का रिश्ता दे दूंगी, तुम्हें भाई कहूंगी. मुझे पता है उन के आखिरी दिन कैसे कटे. आज भी याद करती हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो दशरथ की तरह पुत्रवियोग में बिलखतेविलापते, पर तुम राम न बन सके. निर्मोही, निष्ठुर यहां तक कि सौतेला पुत्र भी ऐसा व्यवहार नहीं करता होगा जैसा तुम ने किया.
‘‘तुम लिखते हो, ‘बेहद अकेले हो.’ फोन पर भी तो ये बातें कर सकते थे पर शायद इतिहास खुद को दोहराता… तुम उन के फोन की बैटरी निकाल देते थे. खैर, जले पर क्या नमक छिड़कना. जरा बताओ तो, तुम्हें अकेला किस ने बनाया? तुम्हें तो बड़ा शौक था रिश्ते तोड़ने का. अरे, ये तो मांपिताजी के चलते चल रहे थे. तुम तो रिश्ते हमेशा पैसों पर तोलते रहे. बहन, बूआ, बेटी, ननद इन सभी रिश्तों की छीछालेदर करने वाले तुम और तुम्हारी पत्नी व बेटी अब किस बात के लिए शिकायत करती फिर रही हैं. जो रिश्तेनाते अपनापन जैसे शब्द व इन की अहमियत तुम्हारी जिंदगी की किताब में कभी जगह नहीं रखते थे, उन के बारे में अब इतना क्यों तड़पना. अब इन रिश्तों को जोड़ तो नहीं सकते. उस के लिए अब नए समीकरण बनाने होंगे व नई किताब लिखनी होगी. क्या कर पाओगे ये सब?
‘‘ओह, तो तुम्हें अब शिकायत है अपने बेटेबहू से कि वे तुम्हें व तुम्हारी पत्नी को बूढ़ेबुढि़या कह कर बुलाते हैं. ये शब्द तुम ही लाए थे होस्टल से सौगात में. चलो, कम से कम पीढ़ीदरपीढ़ी यह सम्मानजनक संबोधन तुम्हारे परिवार में चलता रहेगा. बधाई हो, नई शुरुआत के लिए और रिश्तों को छीजने के लिए.
‘‘खैर, छोड़ो इन कड़वी बातों को. मीठा तो तुरंत मुंह में घुल जाता है पर कड़वा स्वाद काफी देर तक रहता है और फिर कुछ खाने का मन भी नहीं करता. सो, अब रोना काहे का. कहां गई तुम्हारी वह मित्रमंडली जिस के सामने तुम मांपिता को लताड़ते थे. क्यों, क्या वे तुम्हारे अकेलेपन के साथी नहीं या फिर आजकल महफिलें नहीं जमा पाते. बेटे को पसंद नहीं होगा यह सब?
‘‘छोड़ो वह राखीवाखी, टीकेवीके की दुहाई देना, वास्ता देना. सब लेनदेन बराबर था. शुक्र है, कुछ बकाया नहीं रहा वरना उसी का हिसाबकिताब मांग बैठते तुम.
‘‘अपने रिश्ते तो कच्चे धागे से जुड़े थे जो कच्चे ही रह गए. खुदगर्जी व लालच ही नहीं, बल्कि तुम्हारे अहंकार व दंभ ने सारे परिवार को तहसनहस कर डाला.
‘‘अब जुड़ाव मत ढूंढ़ो. दरार भरने से भी कच्चापन रह जाता है. वह मजबूती नहीं आ पाएगी अब. इस जुड़ाव में तिरस्कार की बू ताजा हो जाती है. वैसे, याद रखना, गुजरा वक्त कभी लौट कर नहीं आता.
‘‘वक्त और रिश्ते बहुत नाजुक व रेत की तरह होते हैं. जरा सी मुट्ठी खोली नहीं कि वे बिखर जाते हैं. इन्हें तो कस कर स्नेह व खुद्दारी की डोर में बांध कर रखना होता है.
‘‘कभी वक्त मिले तो इस पत्र को ध्यान से पढ़ना व सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना. अगर जवाब ढूंढ़ पाए तो जरूर सूचना देना. तब वक्त निकाल कर मिलने की कोशिश करूंगी. अभी तो बहुतकुछ बाकी है भा…न न…भाई नहीं कहूंगी.
‘‘मुझ बहन के घर में तो नहीं, पर हमारे द्वारा संचालित वृद्धाश्रम के दरवाजे तुम्हारे जैसे ठोकर खाए लोगों के लिए सदैव खुले हैं.
‘‘यह पनाहघर तुम्हारी जैसी संतानों द्वारा फेंके गए बूढ़े व लाचार मातापिता के लिए है. सो, अब तुम भी पनाह ले सकते हो. कभी भी आ कर रजिस्ट्रेशन करवा लेना.
‘‘तुम्हारी सिर्फ चिंतक
शोभा.’’
बड़े से मौल में अपनी सहेली शिखा के साथ चहलकदमी करते हुए साड़ी कार्नर की ओर बढ़ गई थी सुहासिनी. शो केस में काले रंग की एक साड़ी ने उस का ध्यान आकर्षित किया पर सेल्स- गर्ल की ओर पलटते ही वह कुछ यों चौंकी मानो सांप पर पांव पड़ गया हो.
‘‘अरे, मानसी तुम, यहां?’’ उस के मुंह से अनायास ही निकला था.
‘‘जी हां, मैं यहां. कहिए, किस तरह की साड़ी आप को दिखाऊं? या फिर डे्रस मेटीरियल?’’ सेल्स गर्ल ने मीठे स्वर में पूछा था.
‘‘नहीं, कुछ नहीं चाहिए मुझे. मैं तो यों ही देख रही थी,’’ सुहासिनी के मुख से इतना भी किसी प्रकार निकला था.
मानसी कुछ बोलती उस से पहले ही सुहासिनी बोल पड़ी, ‘‘मानसी, क्या मैं तुम से कुछ देर के लिए बातें कर सकती हूं?’’
‘‘क्षमा कीजिए, मैम, हमें काम के समय व्यक्तिगत कारणों से अपना स्थान छोड़ने की अनुमति नहीं है. आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगी,’’ मानसी ने धीमे स्वर में उत्तर दिया था और अपने कार्य में व्यस्त हो गई थी.
‘‘क्या हुआ? इस तरह प्रस्तरमूर्ति बनी क्यों खड़ी हो? चलो, जल्दी से भोजन कर के चलते हैं. लंच टाइम समाप्त होने वाला है,’’ शिखा ने उसे झकझोर ही दिया था और मौल की 5वीं मंजिल पर स्थित रेस्तरां की ओर खींच ले गई थी.
‘‘क्या लोगी? मैं तो अपने लिए कुछ चाइनीज मंगवा रही हूं,’’ शिखा ने मीनू पर सरसरी निगाह दौड़ाई थी.
‘‘मेरे लिए एक प्याली कौफी मंगवा लो और कुछ खाने का मन नहीं है,’’ सुहासिनी रुंधे गले से बोली थी.
‘‘बात क्या है? कैंटीन में खाने का तुम्हारा मन नहीं था इसीलिए तो हम यहां तक आए. फिर अचानक तुम्हें क्या हो गया?’’ शिखा अनमने स्वर में बोली थी.
‘‘साड़ी कार्नर के काउंटर पर खड़ी सेल्सगर्ल को ध्यान से देखा तुम ने?’’
‘‘नहीं. मैं ने तो उस पर ध्यान नहीं दिया. मैं दुपट्टा खरीदने लगी थी पर तुम ने तो उस से बात भी की थी और उसे ध्यान से देखा भी था.’’
‘‘ठीक कह रही हो तुम. मेरे मनमस्तिष्क पर इतनी देर से वही छाई हुई है. पता है कौन है वह?’’
‘‘नहीं तो.’’
‘‘वह मेरी ननद मानसी है, शिखा.’’
‘‘क्या कह रही हो? वह यहां क्या कर रही है?’’
‘‘साडि़यों के काउंटर पर साडि़यां बेच रही है और क्या करेगी.’’
‘‘पर क्यों?’’
‘‘यही तो जानना चाहती थी मैं पर उस ने तो बात तक नहीं की.’’
‘‘बात नहीं की तो तुम उसे गोली मारो. क्यों अपनी जान हल्कान कर रही हो. वैसे भी तुम तो उस घर को 3 वर्ष पहले ही छोड़ चुकी हो. जब पीयूष ही नहीं रहा तो तुम्हारा संपर्क सूत्र तो यों भी टूट चुका है,’’ शिखा ने समझाया था.
‘‘संपर्क सूत्र तोड़ना क्या इतना सरल होता है, शिखा? उस समय पीयूष का संबल छूट जाने पर मैं कुछ भी सोचनेसमझने की स्थिति में नहीं थी. मातापिता, भाईभाभी ने विश्वास दिलाया कि वे मेरे सच्चे हितैषी हैं और मैं अपनी ससुराल छोड़ कर उन के साथ चली आई थी. उन्हें यह डर सता रहा था कि पीयूष के बीमे और मुआवजे आदि के रूप में जो 20 लाख रुपए मिले थे उन्हें कहीं मेरे ससुराल वाले न हथिया लें.’’
‘‘उन का डर निर्मूल भी तो नहीं था, सुहासिनी?’’
‘‘पता नहीं शिखा, पर मेरे और पीयूष के विवाह को मात्र 3 वर्ष हुए थे. परिवार का बड़ा, कमाऊ पुत्र हादसे का शिकार हुआ था…उन पर तो दुखों का पहाड़ टूटा था…मैं स्वयं भी विक्षिप्त सी अपनी 2 वर्ष की बेटी को सीने से चिपकाए वास्तविकता को स्वीकार करने का प्रयत्न कर रही थी. ऐसे में मेरे परिवार ने क्या किया जानती हो?’’
‘‘क्या?’’
‘‘मेरे दहेज की एकएक वस्तु वापस मांग ली थी उन्होंने. मेरी सास ने विवाह में उन्हें दी गई छोटीमोटी भेंट भी लौटा दी थी. सिसकते हुए कहने लगीं, ‘मेरा बेटा ही चला गया तो इन व्यर्थ की वस्तुओं को रख कर क्या करूंगी?’ पर जब मैं अपनी बेटी टीना को उठा कर चलने लगी तो वे तथा परिवार के अन्य सदस्य फफक उठे थे, ‘मत जाओ, सुहासिनी और तुम जाना ही चाहती हो तो टीना को यहीं छोड़ जाओ. पीयूष की एकमात्र निशानी है वह. हम पाल लेंगे उसे. वैसे भी वह तुम्हारे भविष्य में बाधक बनेगी.’’’
‘‘तो तुम ने क्या उत्तर दिया था, सुहासिनी?’’
‘‘मैं कुछ कह पाती उस से पहले ही बड़ी भाभी ने झपट कर टीना को मेरी गोद से छीन लिया था और टैक्सी में जा बैठी थीं. मैं निशब्द चित्रलिखित सी उन के पीछे खिंची चली गई थी.’’
‘‘जो हुआ उसे दुखद सपना समझ कर भूल जाओ सुहासिनी. उन दुख भरी यादों को याद करोगी तो जीना दूभर हो जाएगा,’’ शिखा ने सांत्वना दी थी.
‘‘जीना तो वैसे ही दूभर हो गया है. तब मैं कहां जानती थी कि धन के लालच में ही मेरा परिवार मुझे ले आया था. छोटे भाई सुहास ने कार खरीदी तो मुझ से 2 लाख रुपए उधार लिए थे. वादा किया था कि वर्ष भर में सारी रकम लौटा देंगे पर लाख मांगने पर भी एक पैसा नहीं लौटाया. अब तो मांगने का साहस भी नहीं होता. सुहास उस प्रसंग के आते ही आगबबूला हो उठता है.’’
‘‘चल छोड़ यह सब पचड़े और थोड़ा सा चाऊमीन खा ले. भूख लगी होगी,’’ शिखा ने धीरज बंधाया था.
‘‘मैं लाख भूलने की कोशिश करूं पर मेरे घर के लोग भूलने कहां देते हैं. अब बडे़ भैया को फ्लैट खरीदना है. प्रारंभिक भुगतान के लिए 10 लाख मांग रहे हैं. मैं ने कहा कि सारी रकम टीना के लिए स्थायी जमा योजना में डाल दी है तो कहने लगे, खैरात नहीं मांग रहे हैं, बैंक से ज्यादा ब्याज ले लेना.’’
‘‘ऐसी भूल मत करना, तुम्हें अपने लिए भी तो कुछ चाहिए या नहीं. मुझे नहीं लगता उन की नीयत ठीक है,’’ शिखा ने सलाह दी थी.
‘‘मुझे तो पूरा विश्वास है कि मेरे प्रति उन का पे्रेम केवल दिखावा है. टीना बेचारी तो बिलकुल दब कर रह गई है. हर बात पर उसे डांटतेडपटते हैं. मैं बीच में कुछ बोलती हूं तो कहते हैं कि तुम टीना को बिगाड़ रही हो.’’
‘‘तुम्हारे मातापिता कुछ नहीं कहते?’’
‘‘नहीं, वे तो अपने बेटों का ही पक्ष लेते हैं. जब से मैं ने बड़े भैया को फ्लैट के लिए 10 लाख देने से मना किया है, मां मुझ से बात तक नहीं करतीं,’’ सुहासिनी के नेत्र डबडबा गए थे.
‘‘क्यों अपने को दुखी करती है, सुहासिनी. अलग फ्लैट क्यों नहीं ले लेती. मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था. क्या नहीं है तेरे पास? सौंदर्य, उच्च शिक्षा, मोटा बैंक बैलेंस. दूसरे विवाह के संबंध में क्यों नहीं सोचती तू?’’
‘‘मेरे जीवन में पीयूष का स्थान कोई और नहीं ले सकता और मैं टीना के लिए सौतेला पिता लाने की बात सोच भी नहीं सकती.’’
‘‘इसीलिए तुम ने योगेश जैसे योग्य युवक को ठुकरा दिया?’’ शिखा ने अपना चाऊमीन समाप्त करते हुए कहा था.
‘‘नहीं, मैं खुद दूसरा विवाह नहीं करना चाहती. यों भी उसे मुझ से या टीना से नहीं मेरे पैसे और नौकरी में अधिक रुचि थी.’’
‘‘चलो, ठीक है, तुम सही और सब गलत. बहस में तुम से कोई जीत ही नहीं सकता,’’ शिखा ने पटाक्षेप करते हुए बिल चुकाया और दोनों सहेलियां मौल से बाहर आ गईं.
कार्यालय में व्यस्तता के बीच भी मानसी का भोलाभाला चेहरा सुहासिनी की आंखों के सामने तैरता रहा था.
5 बजते ही सुहासिनी अपना स्कूटर उठा कर मौल के सामने आ खड़ी हुई. उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. कुछ ही देर में मानसी आती नजर आई थी.
‘‘अरे, भाभी, आप अभी तक यहीं हैं? आप तो मुझे देख कर बिना कुछ खरीदे ही लौट गई थीं?’’ मानसी ने उसे देख कर नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़ दिए थे.
‘‘मैं तब से यहीं नहीं हूं, मैं और मेरी सहेली शिखा यहां लंच के लिए आए थे. मैं कार्यालय से यहां फिर से केवल तुम्हारे लिए आई हूं. चलो बैठो, कहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ सुहासिनी ने अपने स्कूटर की पिछली सीट की ओर इशारा किया था.
‘‘नहीं भाभी, मेरी बस छूट जाएगी. देर हो जाने पर मां बहुत चिंता करने लगती हैं,’’ मानसी संकुचित स्वर में बोली थी.
‘‘बैठो मानसी, मैं तुम्हें घर तक छोड़ दूंगी,’’ सुहासिनी का अधिकारपूर्ण स्वर सुन कर मानसी ना नहीं कह सकी थी.
‘‘अब बताओ, तुम्हें मौल में सेल्सगर्ल की नौकरी करने की क्या आवश्यकता पड़ गई?’’ रेस्तरां में आमने- सामने बैठते ही पूछा था सुहासिनी ने.
दूसरे भाग में जानिए आखिर क्यों सेल्सगर्ल बनने पर मजबूर हुई मानसी?
टैलीविजन पर मेरा इंटरव्यू दिखाया जा रहा है. मुझे साहित्य का इतना बड़ा सम्मान जो मिला है. बचपन से ही कागज काले करती आ रही हूं. छोटेबड़े और सम्मान भी मिलते रहे हैं लेकिन इतना बड़ा सम्मान पहली बार मिला है. इसलिए कई चैनल वाले मेरा इंटरव्यू लेने पहुंच गए थे.
मैं ने इस बारे में अपने घर में किसी को कुछ भी नहीं बताया. बताना भी किसे था? आज तक कभी किसी ने मेरी इस प्रतिभा को सराहा ही नहीं. घर की मुरगी दाल बराबर. न पति को, न बच्चों को, न मायके में और न ही ससुराल में किसी को भी आज तक मेरे लेखिका होने से कोई मतलब रहा है.
मैं एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी, अच्छी मां बनूं यह आशा तो मुझ से सभी ने की, लेकिन मैं एक अच्छी लेखिका भी बनूं, मानसम्मान पाऊं, ऐसी कोई चाह किसी अपने को नहीं रही. मैं अपनों की उम्मीद पर पता नहीं खरी उतरी या नहीं लेकिन आलोचकों और पाठकों की उम्मीदों पर पूरी तरह खरी उतरी. तभी तो आज मैं साहित्य के इस शिखर पर पहुंची हूं.
इंटरव्यू लेने वाले भी कैसेकैसे प्रश्न पूछते हैं? शायद अनजाने में हम लेखक ही कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो पाठकों को हमारे अंतर्मन का पता दे देता है जबकि लेखकों को लगता है कि वे मात्र दूसरों के जीवन को, उन की समस्याओं को, उन के परिवेश को ही कागज पर उतारते हैं.
इंटरव्यू लेने वाले ने बड़े ही सहज ढंग से एक सवाल मेरी तरफ उछाला था, ‘‘वैसे तो जीवन में कभी किसी को रीटेक का मौका नहीं मिलता फिर भी यदि कभी आप को जीवन की एक भूल सुधारने का अवसर दिया जाए तो आप क्या करेंगी? क्या आप अपनी कोई भूल सुधारना चाहेंगी?’’
मैं ने 2 बार इस सवाल को टालने की कोशिश की, लेकिन हर बार शब्दों का हेरफेर कर उस ने गेंद फिर मेरे ही पाले में डाल दी. मैं उत्तर देने से बच न सकी. झूठ मैं बोल नहीं पाती, इसीलिए झूठ मैं लिख भी नहीं पाती. मैं ने जीवन की अपनी एक भूल स्वीकार कर ली और कहा कि अगर मुझे अवसर मिले तो मैं अपनी वह एक भूल सुधारना चाहूंगी जिस ने मुझ से मेरे जीवन के वे कीमती 25 साल छीन लिए हैं, जिन्हें मैं आज भी जीने की तमन्ना रखती हूं, हालांकि यह सब अब बहुत पीछे छूट गया है.
प्रोग्राम कब का खत्म हो चुका था लेकिन मैं वर्तमान में तब लौटी जब फोन की घंटी बजी.
बेटी किन्नी का फोन था. मेरे हैलो कहते ही वह चहक कर बोली, ‘‘क्या मम्मा, आप को इतना बड़ा सम्मान मिला, इतना अच्छा इंटरव्यू टैलीकास्ट हुआ और आप ने हमें बताया तक नहीं? वह तो चैनल बदलते हुए एकाएक आप को टैलीविजन स्क्रीन पर देख कर मैं चौंक गई.’’
‘‘इस में क्या बताना था? यह सब तो…’’
‘‘फिर भी मम्मा, बताना तो चाहिए था. मुझे मालूम है आप को एक ही शिकायत है कि हम कभी आप का लिखा कुछ पढ़ते ही नहीं. खैर, छोड़ो यह शिकायत बहुत पुरानी हो गई है. मम्मा, बधाई हो. आई एम प्राउड औफ यू.’’
‘‘थैंक्स, किन्नी.’’
‘‘सिर्फ इसलिए नहीं कि आप मेरी मम्मा हैं बल्कि आप में सच बोलने की हिम्मत है. पर यह सच मेरी समझ से परे है कि आप ने इस को स्वीकारने में इतने साल क्यों लगा दिए? मैं ने तो जब से होश संभाला है मुझे हमेशा लगा कि पता नहीं आप इस रिश्ते को कैसे ढो रही हैं? मैं तो यह सोच कर हैरान हूं कि जब आप इसे अपनी भूल मान रही थीं तो ढो क्यों रही थीं?’’
‘‘तुम दोनों के लिए बेटा, तब इस भूल को सुधार कर मैं तुम दोनों का जीवन और भविष्य बरबाद कर कोई और भूल नहीं करना चाहती थी. भूल का प्रायश्चित्त भूल नहीं होता, किन्नी.’’
‘‘ओह, मम्मा, हमारे लिए आप ने अपना पूरा जीवन…इस के लिए थैंक्स. आई एम रियली प्राउड आफ यू. अच्छा मम्मा, जल्दी ही आऊंगी. अभी फोन रखती हूं. मिलने पर ढेर सारी बातें करेंगे,’’ कहते हुए किन्नी ने फोन रख दिया.
किन्नी हमेशा ऐसे ही जल्दी मेें होती है. बस, अपनी ही कहती है. मुझे तो कभी कुछ कहने या पूछने का अवसर ही नहीं देती. इस से पहले कि मैं कुछ और सोचती फोन फिर बज उठा. दीपक का फोन था.
‘‘हैलो दीपू, क्या तुम ने भी प्रोग्राम देखा है?’’
‘‘हां, देख लिया है. वह तो मेरे एक दोस्त, रवि का फोन आया कि आंटी का टैलीविजन पर इंटरव्यू आ रहा है, बताया नहीं? मैं उसे क्या बताता? पहले मुझे तो कोई कुछ बताए,’’ दीपक नाराज हो रहा था.
‘‘वह तो बेटा, तुम लोग इस सब में कभी रुचि नहीं लेते तो सोचा क्या बताना है,’’ मैं ने सफाई देते हुए कहा.
‘‘मम्मा, यह तो आप को पता है कि हम रुचि नहीं लेते, लेकिन आप ने कभी यह सोचा है कि हम रुचि क्यों नहीं लेते? क्या यही सब सुनने और बेइज्जत होने के लिए हम रुचि लें इस सब में?’’
‘‘क्या हुआ, बेटा?’’
‘‘इस इंटरव्यू का आखिर मतलब क्या है? क्या हम सब की सोसाइटी में नाक कटवाने के लिए आप यह सब…आज तो इंटरव्यू देखा है, किताबों में पता नहीं क्याक्या लिखती रहती हैं. पता तो है न कि हम आप का लिखा कुछ पढ़ते नहीं.’’
‘‘बेटा, तुम ही नहीं पढ़ते, मैं ने तो कभी किसी को पढ़ने से नहीं रोका. बल्कि मुझे तो खुशी ही होगी अगर कोई मेरी…’’
‘‘वैसे पढ़ कर करना भी क्या है? कभी सोचा ही नहीं था कि पापा से अपनी शादी को आप भूल मानती आ रही हैं, तो क्या मैं और किन्नी आप की भूल की निशानियां हैं?’’ बेटे का स्वर तीखा होता जा रहा था.
‘‘यह तू क्या कह रहा है दीपू. मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’’
‘‘वैसे जब 25 साल तक चुप रहीं तो अब मुंह खोलने की क्या जरूरत थी? चुप भी तो रह सकती थीं आप?’’
‘‘बेटा, इंटरव्यू में कहे मेरे शब्दों का यह मतलब नहीं था. तू समझ नहीं रहा है मैं…’’
‘‘मैं क्या समझूंगा, पापा भी कहां समझ पाए आप को? दरअसल, औरतों को तो बड़ेबड़े ज्ञानीध्यानी भी नहीं समझ पाए. पता नहीं आप किस मिट्टी से बनी हैं, कभी खुश रह ही नहीं सकतीं,’’ कहते हुए उस ने फोन पटक दिया था.
मैं तो ठीक से समझ भी नहीं पाई कि उसे शिकायत मेरे इंटरव्यू के उत्तर से थी या अपनी पत्नी से लड़ कर बैठा था, जो इतना भड़का हुआ था. यह इतनी जलीकटी सुना कर भड़क रहा है, दूसरी तरफ बेटी है जो गर्व अनुभव कर रही है.
औरत को खानेकपड़े के अलावा भी जीवन में बहुत कुछ चाहिए होता है. यह बात जब पिछले 25 वर्षों में मैं इस के पापा को नहीं समझा पाई तो भला इसे क्या समझा पाऊंगी? बहुत सहा है इन 25 वर्षों में, आज पहली बार मुंह खोला तो परिवार में तूफान के आसार बन गए. कैसे समझाऊं अपने बेटे को कि मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि यदि कभी पता होता कि शादीशुदा जीवन में इतनी घुटन, इतनी सीलन, इतना अकेलापन, इतने समझौते हैं तो मैं शादी ही नहीं करती.
मैं तो उस पल में वापस जाना चाहती हूं जब इंद्रजीत को दिखा कर मेरे मम्मीपापा ने शादी के लिए मेरी राय पूछी थी और मैं ने इन की शिक्षा, इन का रूप देख कर शादी के लिए हां कर दी थी. तब मुझे क्या पता था कि साल में 8 महीने घर से दूर रहने वाला यह व्यक्ति अपने परिवार के लिए मेहमान बन कर रह जाएगा. इस का सूटकेस हमेशा पैक ही रहेगा. न जाने कब एक फोन आएगा और यह फिर काम पर निकल जाएगा.
बच्चों का क्या है…बचपन में कीमती तोहफों से बहलते रहे, बड़े हुए तो पढ़ाई और कैरियर की दौड़ में दौड़ते हुए मित्रों के साथ मस्त हो गए और शादी के बाद अपने घरपरिवार में रम गए. मां और बाप दोनों की जिम्मेदारियां उठाती हुई घर की चारदीवारी में मैं कितनी अकेली हो गई हूं, इस ओर किसी का कभी ध्यान ही नहीं गया. जब मुझे जीवन अकेले अपने दम पर ही जीना था और कलम को ही अपने अकेलेपन का साथी बनाना था तो इस शादी का मतलब ही क्या रह जाता है?
बेटे के गुस्से को देख कर तो मुझे इंद्रजीत की तरफ से और भी डर लगने लगा है. अगर उन्होंने भी यह इंटरव्यू देखा होगा तो क्या होगा? पता नहीं क्या कहेंगे? मैं जब इतने वर्षों में अपनी परेशानी कभी उन्हें नहीं कह पाई तो अब अपनी सफाई में क्या कह पाऊंगी? वे कहीं मुझे तलाक ही न दे दें और कहें कि लो, मैं ने तुम्हारी भूल सुधार दी है.
मैं परेशान हो उठी. वर्षों से सच उजागर करने वाली मैं अपने जीवन के एक सच का सामना नहीं कर पा रही थी. आंसुओं से मेरा चेहरा भीग गया. पहली बार मुझे सच बोलने पर खेद हो रहा था. मेरा मन मुझे धिक्कार रहा था. बेटा ठीक ही तो कह रहा था कि अब इस उम्र में मुझे मुंह खोलने की क्या जरूरत थी. काश, इंटरव्यू देते समय मैं ने यह सब सोच लिया होता.
ये मीडिया वाले भी कैसे हैं… ‘मौका पाते ही सामने वाले को नंगा कर के रख देते हैं.’
अचानक फोन की घंटी बज उठी. इंद्रजीत का फोन था. मैं ने कांपते हाथों से फोन उठाया. मेरे रुंधे गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी. मुझे लगा अभी उधर से आवाज आएगी, ‘तलाक… तलाक…’
‘‘सुभी…हैलो सुभी…’’ वह मुझे पुकार रहे थे.
‘‘हैलो…’’ मैं चाह कर भी इस के आगे कुछ नहीं बोल पाई.
‘‘अरे, सुभी, मैं ने तो सोचा था खुशी से चहकती हुई फोन उठाओगी. तुम तो शायद रो रही हो? क्या हुआ, सब ठीक तो है न?’’ उन के स्वर में घबराहट थी. मैं ने पहली बार उन्हें अपने लिए परेशान पाया था.
‘‘अरे, भई, इतना बड़ा सम्मान मिला है. तुम्हें बताना तो चाहिए था? खैर, मैं परसों दोपहर पहुंच रहा हूं फिर सैलीब्रेट करेंगे तुम्हारे इस सम्मान को.’’
पति का यह रूप मैं ने 25 साल में पहली बार देखा था. आज अचानक यह परिवर्तन कैसा? मैं भय से कांप उठी. कहीं यह किसी तूफान की सूचना तो नहीं?
‘‘क्या आप ने टैलीविजन पर मेरा इंटरव्यू देखा है?’’ मैं ने घबराते हुए पूछा. मुझे लगा शायद उन्हें किसी से मुझे मिले सम्मान की बात पता लगी है.
‘‘देखा है सुभी, उसे देख कर ही तो सब पता लगा है, वरना तुम कब कुछ बताती हो?’’
‘‘क्या आप ने इंटरव्यू पूरा देखा था?’’ मेरी शंका अभी भी अपनी जगह खड़ी थी. पति में आए इस परिवर्तन को मैं पचा नहीं पा रही थी.
‘‘पूरा देखा ही नहीं रिकार्ड भी कर लिया है. रिकार्डिंग भी साथ ले आ रहा हूं.’’
‘‘फिर भी आप नाराज नहीं हैं?’’
‘‘नाराज तो मैं अपनेआप से हो रहा हूं. मैं ने अनजाने में तुम्हें कितनी तकलीफ पहुंचाई है. तुम इतनी बड़ी लेखिका हो, जिस का सम्मान पूरा देश कर रहा है उसे मेरे कारण अपनी शादी एक भूल लग रही है. काश, मैं तुम्हारी लिखी किताबें पढ़ता होता तो यह सब मुझे बहुत पहले पता लग जाता. खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, शेष जीवन प्रायश्चित्त के लिए बहुत है,’’ इंद्रजीत हंसने लगे.
‘‘मैं क्षमा चाहती हूं, क्या आप मुझे माफ कर पाएंगे?’’ मैं रोंआसी हो गई.
‘‘क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए पगली, लेकिन मैं मात्र क्षमा मांग कर इस भूल का प्रायश्चित्त नहीं करना चाहता, बल्कि तुम्हारे पास आ रहा हूं, तुम्हारे हिस्से की खुशियां लौटाने. वास्तव में यह तुम्हारी भूल नहीं मेरे जीवन की भूल थी जो मैं ने अपनी गुदड़ी में पड़े हीरे को नहीं पहचाना.’’
मेरे आंसू खुशी के आंसुओं में बदल चुके थे. मुझे इंद्रजीत का बेसब्री से इंतजार था. उन के कहे शब्द मेरे लिए किसी भी सम्मान से बड़े थे. मैं वर्षों से इसी प्यार के लिए तो तरस रही थी.
जैसे तेज बारिश और तूफान अपने साथ सब गंदगी बहा ले जाए और निखरानिखरा सा, खिलाखिला सा प्रकृति का कणकण दिलोदिमाग को अजीब सी ताजगी से भर दे कुछ ऐसा ही मैं महसूस कर रही थी. खुशियों के झूले में झूलते हुए न मालूम कब आंख लग गई. सपने भी बड़े ही मोहक आए. अपने पति की बांहों में बांहें डाल मैं फूलों की वादियों में, झरनों, पहाड़ों में घूमती रही.
सुबह दरवाजे की घंटी से नींद खुली. सूरज सिर पर चढ़ आया था. संगीता काम करने आई होगी यह सोच कर मैं ने जल्दी से जा कर दरवाजा खोला तो सामने किन्नी खड़ी थी. मुझे देखते ही मुझ से लिपट गई. मैं वर्षों से अपनी सफलताओं पर किसी अपने की ऐसी ही प्रतिक्रिया, ऐसे ही स्वागत की इच्छुक थी. मैं भी उसे कस कर बांहों में समेटे हुए ड्राइंगरूम तक ले आई. मन अंदर तक भीग गया.
‘‘मम्मा, मुझे हमेशा लगता था कि आप नहीं समझेंगी, लेकिन कल टैलीविजन पर आप का इंटरव्यू देख कर लगा, मैं गलत थी,’’ किन्नी मेरी बांहों से अपने को अलग करती हुई बोली.
‘‘क्या नहीं समझूंगी? क्या कह रही है?’’ मैं वास्तव में कुछ नहीं समझी थी.
‘‘मम्मा, मैं ने तय कर लिया है कि मैं कार्तिक के साथ अब और नहीं रह सकती,’’ किन्नी एक ही सांस में बोल गई.
‘‘क्या…क्या कह रही है तू? किन्नी, यह कैसा मजाक है?’’ मैं ने उसे डांटते हुए कहा.
‘‘मैं मजाक नहीं कर रही. यह सच है. यह कोई जरूरी तो नहीं कि मैं भी अपनी भूल स्वीकार करने में 25 वर्ष लगा दूं?’’
‘‘लेकिन कार्तिक के साथ शादी करने का फैसला तो तुम्हारा ही था?’’
‘‘तभी तो इसे मैं अपनी भूल कह रही हूं. फैसले गलत भी तो हो जाते हैं. यह बात आप से ज्यादा कौन समझ सकेगा?’’
‘‘बेटा, मैं ने कहा था कि मैं शादी ही करने की भूल नहीं करती, न कि तुम्हारे पिता से शादी करने की भूल नहीं करती. तुम गलत समझ रही हो. दोनों में बहुत फर्क है.’’
‘‘आप अपनी बात को शब्दों में कैसे भी घुमा लो, मतलब वही है. मैं कार्तिक के साथ और नहीं रह सकती. बस, मैं ने फैसला कर लिया है,’’ कहते हुए उस ने अपने दोनों हाथ कुछ इस तरह से सोफे की सीट पर फेरे मानो अपनी शादी की लिखी इबारत को मिटा रही हो.
मैं हैरान सी उस का चेहरा देख रही थी. ठीक इसी तरह 2 वर्ष पहले उस ने कार्तिक के साथ शादी करने का अपना फैसला हमें सुनाया था. कार्तिक पढ़ालिखा, अच्छे संस्कारों वाला, कामयाब लड़का है इसलिए हमें भी हां करने में कोई ज्यादा सोचना नहीं पड़ा. वैसे भी आज के दौर में मातापिता को अपने बच्चों की शादी में अपनी राय देने का अधिकार ही कहां है? हमारी पीढ़ी से चला वक्त बच्चों की पीढ़ी तक पहुंचतेपहुंचते कुछ ऐसी ही करवट ले चुका है.
लेकिन अब क्या करूं? क्या आज भी किन्नी की हां में हां मिलाने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है? एकदूसरे को समझने के लिए तो पूरा जीवन भी कम पड़ जाता है, 2 वर्षों की शादीशुदा जिंदगी होती ही कितनी है?
बहुत पूछने पर भी किन्नी ने अपने इस फैसले का कोई ठोस कारण नहीं बताया. उस का कहना था, मैं नहीं समझ पाऊंगी. मैं जो लोगों के भीतर छिपे दर्द को महसूस कर लेती हूं, उस के बताने पर भी कुछ नहीं समझ पाऊंगी, ऐसा उस का मानना है.
मैं जानती हूं आज की पीढ़ी के पास रिश्तों को जोड़ने, निभाने और तोड़ने की कोई ठोस वजह होती ही नहीं फिर भी इतने बड़े फैसले के पीछे कोई बड़ा कारण तो होना ही चाहिए.
एक दिन वह उस के बिना नहीं रह सकती थी तो शादी का फैसला कर लिया. अब उस के साथ नहीं रह सकती तो तलाक का फैसला ले लिया. जीवन कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल है क्या? लेकिन मैं उसे कुछ भी न समझा पाई क्योंकि वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी. अपनी तथा परिवार की नजरों में भी मैं इस के लिए कुसूरवार थी. इंद्रजीत को भी किन्नी के फैसले का पता लग गया था. अगले दिन लौटने वाले वे अगले महीने भी नहीं लौटे थे. कोई नया प्रोजैक्ट शुरू कर दिया था. दीपक उस दिन से ही नाराज है. अब उसे कौन समझाता. किन्नी का यह फैसला मेरी खुशियों पर तुषारापात कर गया.
यह नया दर्द, यह उपेक्षा, यह साहिल पर उठा भंवर फिर किसी कालजयी रचना का माहौल बना रहा है. सभी खिड़कीदरवाजे बंद कर मैं ने कलम उठा ली है.
रीता कश्यप
पपीहाने घर से आया कूरियर उत्सुकता से खोला. 2 लेयर्स के नीचे 3 साडि़यां झांक रही थीं. तीनों का ही फैब्रिक जौर्जेट था. एक मटमैले से रंग की थी, दूसरी कुछ धुले हरे रंग की, जिस पर सलेटी फूल खिले हुए थे और तीसरी साड़ी चटक नारंगी थी.
पपीहा साडि़यों को हाथ में ले कर सोच रही थी कि एक भी साड़ी का रंग ऐसा नहीं है जो उस पर जंचेगा. पर मम्मी, भाभी या दादी किसी को भी कोई ऐसी सिंथैटिक जौर्जेट मिलती है तो फौरन उपहारस्वरूप उसे मिल जाती है.
दीदी तो नाक सिकोड़ कर बोलती हैं, ‘‘मेरे पास तो रखी की रखी रह जाएगी… मु झे तो ऐलर्जी है इस स्टफ से. तू तो स्कूल में पहन कर कीमत वसूल कर लेगी.’’
पपीहा धीमे से मुसकरा देती थी. उस के पास सिंथैटिक जौर्जट का अंबार था. बच्चे भी हमेशा बोलते कि बैड के अंदर भी मम्मी की साडि़यां, अलमारी में भी मम्मी की साडि़यां. ‘‘फिर भी मम्मी हमेशा बोलती हैं कि उन के पास ढंग के कपड़े नहीं हैं.’’
आज स्कूल का वार्षिकोत्सव था. सभी टीचर्स आज बहुत सजधज कर आती थीं. अधिकतर टीचर्स के लिए यह नौकरी बस घर से बाहर निकलने और लोगों से मिलनेजुलने का जरीया थी.
पपीहा ने भी वसंती रंग की साड़ी पहनी और उसी से मेल खाता कंट्रास्ट में कलमकारी का ब्लाउज पहना. जब स्कूल के गेट पर पहुंची तो जयति और नीरजा से टकरा गई.
जयति हंसते हुए बोली, ‘‘जौर्जेट लेडी आज तो शिफौन या क्रैप पहन लेती.’’
जयति ने पिंक रंग की शिफौन साड़ी पहनी हुई थी और उसी से मेल खाती मोतियों की ज्वैलरी.
नीरजा बोली, ‘‘मैं तो लिनेन या कौटन के अलावा कुछ नहीं पहन सकती हूं.’’
‘‘कौटन भी साउथ का और लिनेन भी
24 ग्राम का.’’
पपीहा बोली, ‘‘आप लोग अच्छी तरह
कैरी कर लेते हो. मैं कहां अच्छी लगूंगी इन साडि़यों में?’’
पूरी शाम पपीहा देखती रही कि सभी छात्राएं केवल उन टीचर्स को कौंप्लिमैंट कर रही थीं, जिन्होंने महंगे कपड़े पहने हुए थे.
किसी भी छात्रा या टीचर ने उस की तारीफ नहीं की. वह घर से जब निकली थी तो उसे तो आईने में अपनी शक्ल ठीकठाक ही लग रही थी.
तभी उस की प्रिय छात्रा मानसी आई और बोली, ‘‘मैम, आप रोज की तरह आज भी अच्छी लग रही हैं.’’
पपीहा ये शब्द सुन कर अनमनी सी हो गई. उसे सम झ आ गया कि वह रोज की तरह ही बासी लग रही है.
घर आतेआते पपीहा ने निर्णय कर लिया कि अब अपनी साडि़यों का चुनाव सोचसम झ कर करेगी. क्या हुआ अगर उस के पति की आमदनी औरों की तरह नहीं है. कम से कम कुछ महंगी साडि़यां तो खरीद ही सकती है.
जब पपीहा घर पहुंची तो विनय और
बच्चों ने धमाचौकड़ी मचा रखी थी. उस का
मूड वैसे ही खराब था और यह देख कर उस
का पारा चढ़ गया. चिल्ला कर बोली, ‘‘अभी स्कूल से थकी हुई आई हूं… घर को चिडि़याघर बना रखा है.’’
मम्मी का मूड देख कर ओशी और गोली अपने 2 अपने कमरे में दुबक गए.
विनय प्यार से बोला, ‘‘पपी क्या हुआ है? क्यों अपने खूबसूरत चेहरे को बिगाड़ रही हो.’’
पपीहा आंखों में पानी भरते हुए बोली, ‘‘बस तुम्हें लगती हूं… आज किसी ने भी मेरी तारीफ नहीं की. सब लोग कपड़ों को ही देखते
हैं और मेरे पास तो एक भी ढंग की साड़ी
नहीं है.’’
विनय बोला, ‘‘बस इतनी सी बात. चलो तैयार हो जाओ, बाहर से कुछ पैक भी करवा लेते हैं और तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद की साड़ी भी खरीद लेते हैं.’’
जब विनय का स्कूटर एक बहुत बड़ी साड़ी की दुकान के आगे रुका तो पपीहा बोली, ‘‘अरे फुजूलखर्ची क्यों कर रहे हो.’’
विनय बोला, ‘‘एक बार देख लेते हैं… तुम नौकरी करती हो, बाहर आतीजाती हो…. आजकल सीरत से ज्यादा कपड़ों का जमाना है.’’
पपीहा ने जब साड़ी के लिए कहा तो दुकानदार ने साडि़यां दिखानी आरंभ कर दीं. एक से बढ़ कर एक खूबसूरत साडि़यां थीं पर किसी भी साड़ी की कीमत क्व8 हजार से कम नहीं थी. पपीहा की नजर अचानक एक साड़ी पर ठहर गई. एकदम महीन कपड़ा, उस पर रंगबिरंगे फूल खिले थे.
दुकानदार भांप गया और बोला, ‘‘मैडम
यह साड़ी तो आप ही के लिए बनी है. देखिए फूल से भी हलकी है और आप के ऊपर तो खिलेगी भी बहुत.’’
विनय बोला, ‘‘क्या प्राइज है?’’
‘‘क्व12 हजार.’’
पपीहा बोली, ‘‘अरे नहीं, थोड़े कम दाम
की दिखाइए.’’
विनय बोला, ‘‘अरे एक बार पहन कर
तो देखो.’’
पपीहा ने जैसे ही साड़ी का पल्लू अपने से लगा कर देखा, ऐसा लगा वह कुछ और ही बन गई है.
पपीहा का मन उड़ने लगा, उसे लगा जैसे वह फिर से स्कूल पहुंच गई है. जयति और नीरजा उस की साड़ी को लालसाभरी नजरों से देख रही हैं.
छात्राओं का समूह उसे घेरे हुए खड़ा है और सब एक स्वर में बोल रहे थे कि मैम यू आर लुकिंग सो क्यूट.
तभी विनय बोला, ‘‘अरे, कब तक हाथों में लिए खड़ी रहोगी?’’
जब साड़ी ले कर दुकान से बाहर निकले तो पपीहा बेहद ही उत्साहित थी. यह उस की पहली शिफौन साड़ी थी.
पपीहा बोली, ‘‘अब मैं इस साड़ी की स्पैशल फंक्शन में पहनूंगी.’’
पपीहा जब अगले दिन स्कूल पहुंची तो स्टाफरूम में साडि़यों की चर्चा हो रही थी. पहले पपीहा ऐसी चर्चा से दूर रहती थी, परंतु अब उस के पास भी शिफौन साड़ी थी. अत: वह भी ध्यान से सुनने लगी.
नीरजा शिफौन के रखरखाव के बारे में बात कर रही थी.
पपीहा भी बोल पड़ी, ‘‘अरे वैसे शिफौन थोड़ी महंगी जरूर है पर सिंथैटिक जौर्जेट उस के आगे कहीं नहीं ठहरती है.’’
अब पपीहा प्रतीक्षा कर रही थी कि कब
वह अपनी शिफौन साड़ी पहन कर
स्कूल जाए. पहले उस ने सोचा कि पेरैंटटीचर मीटिंग में पहन लेगी पर फिर उसे लगा कि टीचर्स डे पर पहन कर सब को चौंका देगी. पपीहा ने पूरी तैयारी कर ली थी पर 5 सितंबर को जो बरसात की झड़ी लगी वह थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.
जब पपीहा तैयार होने लगी तो विनय ने कहा भी, ‘‘पपी, वह शिफौन वाली साड़ी पहन लो न.’’
पपीहा मन मसोस कर बोली, ‘‘विनय इतनी महंगी साड़ी बरसात में कैसे खराब कर दूं?’’
जब पपीहा स्कूल पहुंची तो देखा चारों
तरफ पानी ही पानी भरा था पर तब भी जयति बड़ी अदा से शिफौन लहराते हुए आई और बोली, ‘‘जौर्जेट लेडी, आज तो तुम शिफौन
पहनने वाली.’’
पपीहा बोली, ‘‘बरसात में कैसे पहनती?’’
नीरजा ग्रे और गोल्डन लिनेन पहने इठलाती हुई आई और बोली, ‘‘अरे लिनेन सही रहती है इस मौसम में.’’
पपीहा को लग रहा था वह कितनी
फूहड़ हैं.
पपीहा के जन्मदिन पर विनय बोला,
‘‘शाम को डिनर करने बाहर जाएंगे तो वही साड़ी पहन लेना.’’
पपीहा बोली, ‘‘अरे किसी फंक्शन में
पहन लूंगी.’’
विनय चिढ़ते हुए बोला, ‘‘मार्च से फरवरी आ गया… कभी तो उस साड़ी को हवा लगा दो.’’
पपीहा बोली, ‘‘विनय इस बार पेरैंटटीचर मीटिंग पर पहन लूंगी.’’
पेरैंटटीचर मीटिंग के दिन जब विनय ने याद दिलाया तो पपीहा बोली, ‘‘अरे काम में लथड़पथड़ जाएगी.’’
ऐसा लग रहा था जैसे पपीहा के लिए वह साड़ी नहीं, अब तक की जमा की हुई जमापूंजी हो. पपीहा रोज अलमारी में टंगी हुई शिफौन साड़ी को ममता भरी नजरों से देख लेती थी.
पेरैंटटीचर मीटिंग में फिर पपीहा ने मैहरून सिल्क की साड़ी
पहन ली.
पपीहा ने सोच रखा था कि नए सैशन में वह साड़ी वही पहन कर सब टीचर्स के बीच ईर्ष्या का विषय बन जाएगी, परंतु कोरोना के कारण स्कूल अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गए थे. पपीहा के मन में रहरह कर यह खयाल आ जाता कि काश वह अपनी साड़ी अपने जन्मदिन पर पहन लेती या फिर पेरैंटटीचर मीटिंग में. देखते ही देखते 10 महीने बीत गए, परंतु लौकडाउन के कारण क्या शिफौन कया जौर्जेट किसी भी कपड़े को हवा नहीं लगी.
धीरेधीरे लौकडाउन खुलने लगा और जिंदगी की गाड़ी वापस पटरी पर
आ गई. पपीहा के भाई ने अपने बेटे के जन्मदिन पर एक छोटा सा गैटटुगैदर रखा था. पपीहा ने सोच रखा था कि वह भतीजे के जन्मदिन पर शिफौन की साड़ी पहन कर जाएगी. जरा भाभी भी तो देखे कि शिफौन पहनने का हक बस उन्हें ही नहीं है. कितने दिनों बाद घर से बाहर निकलने और तैयार होने का अवसर मिला था. सुबह भतीजे के उपहार को पैक करने के बाद पपीहा नहाने के लिए चली गई.
बाहर विनय और बच्चे बड़ी बेसब्री से पपीहा का इंतजार कर रहे थे.
विनय शरारत से बोल रहा था, ‘‘बच्चो आज मम्मी से थोड़ा दूर ही रहना. पूरे क्व12 हजार की शिफौन पहन रही है वह आज.’’
आधा घंटा हो गया पर पपीहा बाहर नहीं निकली तो विनय बोला, ‘‘अरे भई आज किस की जान लोगी.’’ फिर अंदर जा कर देखा तो पपीहा जारजार रो रही थी. शिफौन की साड़ी बिस्तर पर पड़ी थी.
विनय ने जैसे ही साड़ी को हाथ में लिया तो जगहजगह साड़ी में छेद नजर आ रहे थे. विनय सोचने लगा कि शिफौन साड़ी इस जौर्जेट लेडी के हिस्से में नहीं है.
’’ अमीना बेगम गुस्से में बोलीं. ‘‘नहीं अम्मी, आप को समझाने की कोशिश कर रहा हूं. जो भूल आप ने अनवर के साथ की है, उस भूल को मेरे साथ न दोहराएं. अम्मी, किसी मासूम की जिंदगी से खेलना अच्छा नहीं होता…’’ ‘‘वसीम, मैं तुम्हारी दूसरी शादी करूंगी.’’ ‘‘अगर दूसरी बीवी से भी लड़कियां पैदा हुईं, तब आप क्या करेंगी…?’’ ‘‘ऐसा नहीं होगा…’’ अमीना बेगम ने जोर दे कर कहा. ‘‘लेकिन, मुझे आप की बात मंजूर नहीं है,’’ कहते हुए वसीम आगे बढ़ा.
‘‘वसीम, एक बात कान खोल कर सुन लो, तुम ने आज तक अपनी जिद की है. इस बार भी तुम जिद कर रहे हो. अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं जिंदगीभर तुम्हारा मुंह नहीं देखूंगी.’’ ‘‘अम्मी, आप समझती क्यों नहीं? शमीम बहुत ही नेक औरत है.’’ ‘‘मुझे तुम्हारा जवाब ‘हां’ या ‘न’ में चाहिए.’’ ‘‘मुझे दूसरी शादी नहीं करनी,’’ वसीम ने दोटूक जवाब दिया. ‘‘ठीक है, आज के बाद तुम मुझ से कभी भी मिलने की कोशिश मत करना,’’ इतना कह कर अमीना बेगम तेज कदमों से आगे बढ़ गईं. वसीम ने एक गहरी सांस ली और वार्ड में चला गया. सामने ही शमीम लेटी हुई थी. सफेद कपड़ों में उस का पीला चेहरा बुरी तरह मुरझाया हुआ था. आंखों से आंसू बह रहे थे.
शमीम को रोते देख कर वसीम उस के ही बैड पर बैठ गया और उंगली से उस के आंसू पोंछते हुए बोला. ‘‘शमीम, तुम रो रही हो. लगता है, तुम ने मेरी और अम्मी की बातें सुन ली हैं.’’ ‘‘ठीक ही तो कहती हैं अम्मी. उन्हें पोता चाहिए. आप दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ ‘‘शमीम, क्या हमारे मुहब्बत की डोर इतनी नाजुक है कि एक हलका सा झटका उसे तोड़ दे.’’ ‘‘लेकिन, हम अम्मी को तो नाराज नहीं कर सकते…’’ ‘‘तुम इस बारे में जरा भी मत सोचो, तुम्हें आराम की जरूरत है,’’ वसीम ने शमीम की बगल में सो रही बच्ची को प्यार किया और वहीं पर रखी एक कुरसी पर गुमसुम सा बैठ गया. अमीना बेगम के 2 बेटे थे, वसीम और अनवर. उन के शौहर कई साल पहले गुजर गए थे.
उन्होंने मेहनतमजदूरी कर के जैसेतैसे अपने बच्चों की परवरिश की थी. वसीम अनवर से 2 साल बड़ा था. अनवर की शादी हुए 8 साल बीत गए थे और उस के 4 लड़के थे. वह केवल इंटर तक पढ़ पाया था. अम्मी की जिद पर उस ने जल्दी ही शादी कर ली थी. उस के कंधों पर परिवार का बोझ आ गया, तो वह नौकरी खोजने लगा. नौकरी न मिलने पर वह बसस्टैंड पर फल बेचने का धंधा करने लगा. धीरेधीरे परिवार बड़ा होने लगा. अनवर की आमदनी कम थी और परिवार की जरूरतें ज्यादा. इसी वजह से न तो वह सुख में था और न ही उस का परिवार. वह अंदर ही अंदर घुटता रहता था. वसीम अनवर से बड़ा था, लेकिन उस ने शादी अनवर के बाद में की थी. वैसे, उस की अम्मी ने उस के लिए ऊंचे रिश्ते की पेशकश की थी, मगर उस ने साफ कह दिया था कि वह तब तक शादी नहीं करेगा, जब तक कि अपने पैरों पर खड़ा न हो जाए. कठिनाइयों से जूझते हुए अपनी मेहनत के बल पर वसीम ने एम. कौम पास किया.
एक बैंक में क्लर्क हो गया. इस के बाद उस ने अपनी अम्मी की इच्छा से एक साधारण परिवार की लड़की शमीम से शादी कर ली. वसीम का पारिवारिक जीवन सुखी था और उस की अम्मी उस के साथ ही रहती थीं. अगर उस के जीवन में कोई अभाव था, तो वह संतान का न होना था. शादी हुए 4 साल बीत गए थे, मगर संतान के बिना उस का घर सूना पड़ा था. उस दिन उस नवजात बच्ची ने इस कमी को दूर कर दिया था. वसीम ने एक गहरी सांस ले कर शमीम की ओर देखा, जो उस की ओर ही देखतेदेखते सो गई थी. वसीम कुरसी से उठा और पिछली खिड़की खोल कर बाहर देखने लगा. दूर पेड़ों की ओट में सूरज डूब रहा था. कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद शमीम अपने घर वापस आ गई. वसीम ने अपनी बेटी का नाम नीलोफर रखा था. शमीम उसे प्यार से ‘नीलो’ कहती थी. वह दोनों अपनी बेटी को बहुत प्यार करते थे. समय का पंछी पंख फड़फड़ाया, मौसम बदले, साल दर साल गुजरते चले गए.
नीलो बहुत ही सुंदर और पढ़नेलिखने में होशियार थी. उस दिन नीट का नतीजा निकलना था. वह सुबह से ही रिजल्ट देखने चली गई थी. शमीम अपने छोटे से घर के ड्राइंगरूम में बैठी हुई एक पत्रिका पढ़ रही थी. वह बड़ी बेकरारी से अपनी बेटी के आने का इंतजार कर रही थी, तभी शहद की तरह मीठी आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘अम्मी…’’ शमीम ने देखा, हाथ में खूबसूरत सा फूलों का गुलदस्ता उठाए नीलो दौड़ती हुई उस की ओर आ रही थी, ‘‘अम्मी देखो… मैं ने नीट की परीक्षा में पहले 25 में जगह पाई है.’’ ‘‘मेरी बेटी… मेरी लाल,’’ शमीम ने आगे बढ़ कर नीलो को गले लगा लिया, ‘‘मुझे पूरा भरोसा था कि मेरी बेटी अपने अब्बा का नाम जरूर रोशन करेगी.’’ ‘‘और एक दिन डाक्टर भी बनूंगी… क्यों अम्मी?’’ नीलो मुसकराई. ‘‘हां… हमारी बेटी हमारा यह सपना जरूर पूरा करेगी.’’ ‘‘अम्मी, अब्बा कहां हैं…?’’ ‘‘मैं यहां हूं बेटी. मुझे मालूम था कि हमारी बेटी जरूर नीट क्लियर कर पाएगी. देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या इनाम लाया हूं,’’ वसीम मुसकराता हुआ घर के अंदर आया. ‘‘अब्बा,’’ नीलो वसीम की ओर दौड़ पड़ी, ‘‘आप मेरे लिए क्या लाए हैं?’’ ‘‘यह आईफोन… यही इनाम तो मांगा था तुम ने,’’ वसीम ने नीलो को फोन पकड़ा दिया. नीलो खुशी से उछलती घर में इधरउधर दौड़ने लगी.
शमीम और वसीम उस दिन बहुत खुश थे, तभी वसीम को अचानक कुछ ध्यान आया और बोला, ‘‘शमीम, जानती हो इस बार भी अम्मी ने मनीऔर्डर नहीं लिया.’’ ‘‘क्यों नहीं किसी दिन समय निकाल कर आप खुद उन से मिल आते?’’ ‘‘सोचा मैं ने भी यही था, लेकिन जब से मुझे प्रमोशन दे कर जोधपुर भेजा गया है, तब से अपने पुराने शहर में जाने का मौका ही नहीं मिला. न अम्मा ने बुलाया और न उन्होंने अनवर को मुझ से मिलने दिया.’’ वसीम फिर भी मनीऔर्डर से पैसे भेजता था, जो अकसर वापस आ जाते थे. कुछ के बारे में पता नहीं चलता था. एक शहर से दूसरे शहर में घूमते हुए वसीम 20 साल बाद फिर उसी अपने शहर में वापस आ गया था. उस के आने की खबर सुन कर उस के सभी दोस्त व रिश्तेदार उस से मिलने आए, लेकिन उस की अम्मी नहीं आईं. वसीम और शमीम उन से मिलने भी गए, लेकिन उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया. वसीम का छोटा भाई अनवर उस से जरूर मिला. अपने भाई की हालत देख कर वसीम का दिल कचोटने लगा था.
बड़े परिवार की जिम्मेदारियों और परेशानियों ने उसे वक्त से पहले ही बूढ़ा कर दिया था. अनवर के 4 बेटे थे, लेकिन कोई भी किसी रोजगार में नहीं लग सका था. बड़े परिवार की उलझनों के चलते वह अपने बच्चों को पूरा समय भी न दे पाता था. यही वजह थी कि उस के 2 बेटे आवारा हो गए थे. एक बेटा फलों का कारोबार संभालता था, उस से छोटा कपड़ों की सिलाई का काम करता था. परिवार काफी बड़ा था. इसी वजह से अनवर की माली हालत दिन ब दिन बिगड़ती जा रही थी. अपने भाई की हालत देख कर वसीम ने उस की कुछ मदद भी कर दी थी. मगर वह बात उस की अम्मी अमीना बेगम को नहीं मालूम थी. तभी कार के रुकने की आवाज सुन कर शमीम खुशी से उछल पड़ी. पुरानी यादों का सिलसिला एकाएक टूट गया था. वह बैठक से बाहर आई, तो नीलो दौड़ कर उस के सीने से लग गई, ‘‘अम्मी… देखो, आप की बेटी ने आप का सपना पूरा कर दिया. मैं डाक्टर बन गई हूं.’’
‘‘हां बेटी… हां…’’ बेशुमार खुशी के चलते शमीम की आंखें भर आईं. सभी बैठक की ओर बढ़ गए. नीलो हंसहंस कर अपने कालेज की बातें सुनाने लगी. अगले दिन रविवार था. तड़के सुबह किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई, तो वसीम को नींद खुल गई. वह अपने बिस्तर से नीचे उतरे. उस से पहले ही रसोईघर से निकल कर नीलोफर ने दरवाजा खोल दिया. दरवाजे पर एक अनजान और बूढ़ी औरत को देख कर नीलोफर चौंक गई और बोली, ‘‘आ… आप, किस से मिलना है आप को?’’ ‘‘मुझे वसीम से मिलना है बेटी.’’ ‘‘लेकिन, अब्बा तो अभी सो कर नहीं उठे हैं. आप थोड़ी देर बाद आ जाइए.’’ ‘‘मगर, मेरा उन से मिलना बहुत जरूरी?है.’’ ‘‘नीलो बेटी, कौन?है…?’’ तभी वसीम वहां पहुंच गए. जैसे ही उन की नजर उस बूढ़ी औरत पर पड़ी, वे चौंक गए. वसीम ने लपक कर उस औरत को अपने हाथों का सहारा दिया, ‘‘अम्मी… आप?’’ ‘‘मैं तुम्हारे पास एक जरूरी काम से आई हूं बेटे…’’ अमीना बेगम कमजोरी से कंपकंपा रही थीं. ‘‘नीलो… ये तुम्हारी दादीजान हैं.’’ ‘‘ओह, मेरी प्यारी दादीजान,’’ नीलोफर आगे बढ़ कर दादी के सीने से लग गई. ‘‘मेरी बच्ची… यह तो बहुत बड़ी हो गई है,’’
अमीना बेगम ने अचरज से नीलोफर की ओर देखा. ‘‘अम्मी, यह कल ही डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर के वापस लौटी है.’’ ‘‘तुम सच कह रहे हो?’’ अमीना बेगम को मानो इस बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था. ‘‘हां अम्मी, मैं ने आप से एक दिन कहा था न कि मेरी बेटी बड़ी हो कर मेरा नाम रोशन करेगी.’’ ‘‘तुम ने ठीक कहा था बेटे,’’ अचानक ही अमीना बेगम की आंखों से ढेर से आंसू निकल पड़े. आंसू पछतावे के थे या खुशी के, वसीम और नीलो समझ न सके. वसीम अपनी अम्मी को साथ ले कर बैठक में आए. एक कुरसी पर बैठते हुए अमीना बेगम बोलीं, ‘‘बेटा, अनवर तो शर्म से नहीं आया, मुझे भेज दिया. उस की तबीयत भी ठीक नहीं. कुछ देर पहले ही पुलिस अनवर के बड़े बेटे रजाक को पकड़ कर ले गई?है. उस पर इलजाम है…’’ अमीना पूरी बात कह न सकीं.
‘‘इट्स टू मच यार, लड़के कितने चीप, आई मीन कितने टपोरी होते हैं.’’ कमरे में घुसते ही सीमा ने बैग पटकते हुए झुंझलाए स्वर में कहा तो मैं चौंक पड़ी.
‘‘क्या हुआ यार? कोई बात है क्या? ऐसे क्यों कह रही है?’’
‘‘और क्या कहूं प्रिया? आज विभा मिली थी.’’
‘‘तेरी पहली रूममेट.’’
‘‘हां, यार. उस के साथ जो हुआ मैं तो सोच भी नहीं सकती. कोई ऐसा कैसे कर सकता है?’’
‘‘कुछ बताएगी भी? यह ले पहले पानी पी, शांत हो जा, फिर कुछ कहना,’’ मैं ने बोतल उस की तरफ उछाली.
वह पलंग पर बैठते हुए बोली, ‘‘विभा कह रही थी, उस का बौयफ्रैंड आजकल बड़ी बेशर्मी से किसी दूसरी गर्लफैं्रड के साथ घूम रहा है. जब विभा ने एतराज जताया तो कहता है, तुझ से बोर हो गया हूं. कुछ नया चाहिए. तू भी किसी और को पटा ले. प्रिया, मैं जानती हूं, तेरी तरह विभा भी वन मैन वूमन थी. कितना प्यार करती थी उसे. और वह लफंगा… सच, लड़के होते ही ऐसे हैं.’’
‘‘पर तू सारे लड़कों को एक जैसा क्यों समझ रही है? सब एक से तो नहीं होते,’’ मैं ने जिरह की.
‘‘सब एक से होते हैं. लड़कों के लिए प्यार सिर्फ टाइम पास है. वे इसे गंभीरता से नहीं लेते. बस, मस्ती की और आगे बढ़ गए, पर लड़कियां दिल से प्यार करती हैं. अब तुझे ही लें, उस लड़के पर अपनी जिंदगी कुरबान किए बैठी है, जिस लफंगे को यह भी पता नहीं कि तू उसे इतना प्यार करती है. उस ने तो आराम से शादी कर ली और जिंदगी के मजे ले रहा है, पर तू आज तक खुद को शादी के लिए तैयार नहीं कर पाई. आज तक अकेलेपन का दर्द सह रही है और एक वह है जिस की जिंदगी में तू नहीं कोई और है. आखिर ऐसी कुरबानी किस काम की?’’
मैं ने टोका, ‘‘ऐक्सक्यूजमी. मैं ने किसी के लिए जिंदगी कुरबान नहीं की. मैं तो यों भी शादी नहीं करना चाहती थी. बस, जीवन का एक मकसद था, अपने पैरों पर खड़ा होना, क्रिएटिव काम करना. वही कर रही हूं और जहां तक बात प्यार की है, तो हां, मैं ने प्यार किया था, क्योंकि मेरा दिल उसे चाहता था. इस से मुझे खुशी मिली पर मैं ने उस वक्त भी यह जरूरी नहीं समझा कि इस कोमल एहसास को मैं दूसरों के साथ बांटूं, ढोल पीटूं कि मैं प्यार करती हूं. बस, कुछ यादें संजो कर मैं भी आगे बढ़ चुकी हूं.’’
‘‘आगे बढ़ चुकी है? फिर क्यों अब भी कोई पसंद आता है तो कहीं न कहीं तुझे उस में अमर का अक्स नजर आता है. बोल, है या नहीं…’’
‘‘इट्स माई प्रौब्लम, यार. इस में अमर की क्या गलती. मैं ने तो उसे कभी नहीं कहा कि मैं तुम से प्यार करती हूं, शादी करना चाहती हूं. हम दोनों ने ही अपना अलग जहां ढूंढ़ लिया.’’
‘‘अब सोच, फिजिकल रिलेशन की तो बात दूर, तूने कभी उस के साथ रोमांस भी नहीं किया और आज तक उस के प्रति वफादार है, जबकि वह… तूने ही कहा था न कि वह कालेज की कई लड़कियों के साथ फ्लर्ट करता था. क्या पता आज भी कर रहा हो. घर में बीवी और बाहर…’’
‘‘प्लीज सीमा, वह क्या कर रहा है, मुझे इस में कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन देख उस के बारे में उलटासीधा मत कहना.’’
‘‘हांहां, ऐसा करने पर तुझे तकलीफ जो होती है तो देख ले, यह है लड़की का प्यार. और लड़के, तोबा… मैं आजाद को भी अच्छी तरह पहचानती हूं. हर तीसरी लड़की में अपनी गर्लफ्रैंड ढूंढ़ता है. वह तो मैं ने लगाम कस रखी है, वरना…’’
मैं हंस पड़ी. सीमा भी कभीकभी बड़ी मजेदार बातें करती है, ‘‘चल, अब नहाधो ले और जल्दी से फ्रैश हो कर आ. आज डिनर में मटरपनीर और दालमक्खनी है, तेरी मनपसंद.’’
मुसकराते हुए सीमा चली गई तो मैं खयालों में खो गई. बंद आंखों के आगे फिर से अमर की मुसकराती आंखें आ गईं. मैं ने उसे एक बार कहा था, ‘तुम हंसते हो तो तुम्हारी आंखें भी हंसती हैं.’
वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘तुम ने ही कही है यह बात. और किसी ने तो शायद मुझे इतने ध्यान से कभी देखा ही नहीं.’
सच, प्यार को शब्दों में ढालना कठिन होता है. यह तो एहसास है जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है. इस खूबसूरत एहसास ने 2 साल तक मुझे भी अपने रेशमी पहलू में कैद कर रखा था. कालेज जाती, तो बस अमर को एक नजर देखने के लिए. स्मार्ट, हैंडसम अमर को अपनी तरफ देखते ही मेरे अंदर एक अजीब सी सिहरन होती.
वह अकसर जब मेरे करीब आता तो गुनगुनाने लगता. मुझ से बातें करता तो उस की आवाज में कंपन सी महसूस होती. उस की आंखें हर वक्त मुझ से कुछ कहतीं, जिसे मेरा दिल समझता था, पर दिमाग कहता था कि यह सच नहीं है. वह मुझ से प्यार कर ही नहीं सकता. कहां मैं सांवली सी अपने में सिमटी लड़की और कहां वह कालेज की जान. पर अपने दिल पर एतबार तब हुआ जब एक दिन उस के सब से करीबी दोस्त ने कहा कि अमर तो सिर्फ तुम्हें देखने को कालेज आता है.
मैं अजीब सी खुशफहमी में डूब गई. पर फिर खुद को समझाने लगी कि यह सही नहीं होगा. हमारी जोड़ी जमेगी नहीं. और फिर शादी मेरी मंजिल नहीं है. मुझे तो कुछ करना है जीवन में. इसलिए मैं उस से दूरी बढ़ाने की कोशिश करने लगी. घर छोड़ने के लिए कई दफा उस ने लिफ्ट देनी चाही, पर मैं हमेशा इनकार कर देती. वह मुझ से बातें करने आता तो मैं घर जाने की जल्दी दिखाती.
इसी बीच एक दिन आशा, जो हम दोनों की कौमन फ्रैंड थी, मेरे घर आई. काफी देर तक हम दोनों ने बहुत सी बातें कीं. उस ने मेरा अलबम भी देखा, जिस में ग्रुप फोटो में अमर की तसवीरें सब से ज्यादा थीं. उस ने मेरी तरफ शरारत से देख कर कहा, ‘लगता है कुछ बात है तुम दोनों में.’ मैं मुसकरा पड़ी. उस दिन बातचीत से भी उसे एहसास हो गया था कि मैं अमर को चाहती हूं. मुझे यकीन था, आशा अमर से यह बात जरूर कहेगी, पर मुझे आश्चर्य तब हुआ जब उस दिन के बाद से वह मुझ से दूर रहने लगा.
मैं समझ गई कि अमर को यह बात बुरी लगी है, सो मैं ने भी उस दूरी को पाटने की कोशिश नहीं की. हमारे बीच दूरियां बढ़ती गईं. अब अमर मुझ से नजरें चुराने लगा था. कईकई दिन बीत जाने पर भी वह बात करने की कोशिश नहीं करता. मैं कुछ कहती तो शौर्ट में जवाब दे कर आगे बढ़ जाता, जबकि आशा से उस की दोस्ती काफी बढ़ चुकी थी. उस के इस व्यवहार ने मुझे बहुत चोट पहुंचाई. भले ही पहले मैं खुद उस से दूर होना चाहती थी, पर जब उस ने ऐसा किया तो बहुत तकलीफ हुई.
इसी बीच मुझे नौकरी मिल गई और मैं अपना शहर छोड़ कर यहां आ गई. हौस्टल में रहने लगी. बाद में अपनी एक सहेली से खबर मिली की अमर की शादी हो गई है. इस के बाद मेरे और अमर के बीच कोई संपर्क नहीं रहा.
मैं जानती थी, उस ने कभी भी मुझे याद नहीं किया होगा और करेगा भी क्यों? हमारे बीच कोई रिश्ता ही कहां था? यह मेरी दीवानगी है जिस का दर्द मुझे अच्छा लगता है. इस में अमर की कोई गलती नहीं. पर सीमा को लगता है कि अमर ने गलत किया. सीमा ही क्यों मेरे घर वाले भी मेरी दीवानगी से वाकिफ हैं. मेरी बहन ने साफ कहा था, ‘तू पागल है. उस लड़के को याद करती है, जिस ने तुझे कोई अहमियत ही नहीं दी.’
‘‘किस सोच में डूब गई, डियर?’’ नहा कर सीमा आ चुकी थी. मैं हंस पड़ी, ‘‘कुछ नहीं, फेसबुक पर किसी दूसरे नाम से अपना अकाउंट खोल रही थी.’’
‘‘किसी और नाम से? वजह जानती हूं मैं… यह अकाउंट तू सिर्फ और सिर्फ अमर को ढूंढ़ने के लिए खोल रही है.’’
‘‘जी नहीं, मेरे कई दोस्त हैं, जिन्हें ढूंढ़ना है मुझे,’’ मैं ने लैपटौप बंद करते हुए कहा.
‘‘तो ढूंढ़ो… लैपटौप बंद क्यों कर दिया?’’
‘‘पहले भोजन फिर मनोरंजन,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ पर धौल जमाई.
रात 11 बजे जब सीमा सो गई तो मैं ने फिर से फेसबुक पर लौगइन किया और अमर का नाम डाल कर सर्च मारा. 8 साल बाद अमर की तसवीर सामने देख कर यकायक ही होंठों पर मुसकराहट आ गई. जल्दी से मैं ने उस के डिटेल्स पढ़े. अमर ने फेसबुक पर अपना फैमिली फोटो भी डाला हुआ था, जिस में उस की बहन भी थी. कुछ सोच कर मैं ने उस की बहन के डिटेल्स लिए और उस के फेसबुक अकाउंट पर उस से दोस्ती के लिए रिक्वैस्ट डाल दी.
2 दिन बाद मैं ने देखा, उस की बहन निशा ने रिक्वैस्ट स्वीकार कर ली है. फिर क्या था, मैं ने उस से दोस्ती कर ली ताकि अमर के बारे में जानकारी मिलती रहे. वैसे यह बात मैं ने निशा पर जाहिर नहीं की और बिलकुल अजनबी बन कर उस से दोस्ती की.
निशा औनलाइन अपने बारे में ढेर सारी बातें बताती. वह दिल्ली में ही थी और प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. उस ने लाजपत नगर में कमरा किराए पर ले रखा था. अब तो जानबूझ कर मैं दिन में 2-3 घंटे अवश्य उस से चैटिंग करती ताकि हमारी दोस्ती गहरी हो सके.
एक दिन अपने बर्थडे पर उस ने मुझे घर बुलाया तो मैं ने तुरंत हामी भर दी. शाम को जब तक मैं उस के घर पहुंची तबतक पार्टी खत्म हो चुकी थी और उस के फ्रैंड्स जा चुके थे. मैं जानबूझ कर देर से पहुंची थी ताकि अकेले में उस से बातें हो सकें. कमरा खूबसूरती से सजा हुआ था. हम दोनों जिगरी दोस्त की तरह मिले और बातें करने लगे. निशा का स्वभाव बहुत कुछ अमर की तरह ही था, चुलबुली, मजाकिया पर साफ दिल की. वह सुंदर भी काफी थी और बातूनी भी.
मैं अमर के बारे में कुछ जानना चाहती थी जबकि निशा अपने बारे में बताए जा रही थी. उस के कालेज के दोस्तों और बौयफ्रैंड्स की दास्तान सुनतेसुनते मुझे उबासी आ गई. यह देख निशा तुरंत चाय बनाने के लिए उठ गई.
अब मैं चुपचाप निशा के कमरे में रखी चीजों का दूर से ही जायजा लेने लगी, यह सोच कर कि कहीं तो कोई चीज नजर आए, तभी टेबल पर रखी डायरी पर मेरी नजर गई तो मैं खुद को रोक नहीं सकी. डायरी के पन्ने पलटने लगी. ‘निशा ने अच्छा संग्रह कर रखा है,’ सोचती हुई मैं डायरी के पन्ने पलटती रही. तभी एक पृष्ठ पर नजरें टिक गईं. ‘बेवफा’ यह एक कविता थी जिसे मैं पूरा पढ़ गई.
मैं यह कविता पढ़ कर बुत सी बन गई. दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. ‘तुम्हारी आंखें भी हंसती हैं…’ यह पंक्ति मेरी आंखों के आगे घूम रही थी. यह बात तो मैं ने अमर से कही थी. एक नहीं 2-3 बार.
तभी चाय ले कर निशा अंदर आ गई. मेरे हाथ में डायरी देख कर उस ने लपकते हुए उसे खींचा. मैं यथार्थ में लौट आई. मैं अजीब सी उलझन में थी, नेहा ने हंसते हुए कहा, ‘‘यार, यह डायरी मेरी सब से अच्छी सहेली है. जहां भी मन को छूती कोई पंक्ति या कविता दिखती है मैं इस में लिख लेती हूं.’’ उस ने फिर से मुझे डायरी पकड़ा दी और बोली, ‘‘पढ़ोपढ़ो, मैं ने तो यों ही छीन ली थी.’’
डायरी के पन्ने पलटती हुई मैं फिर उसी पृष्ठ पर आ गई. ‘‘यह कविता बड़ी अच्छी है. किस ने लिखी,’’ मैं ने पूछा.
‘‘यह कविता…’’ निशा मुसकराई, ‘‘मेरे अमर भैया हैं न, उन्होंने ही लिखी है. पिछली दीवाली के दिन की बात है. वे चुपचाप बैठे कुछ लिख रहे थे. मैं पहुंच गई तो हड़बड़ा गए. दिखाया भी नहीं पर बाद में मैं ने चुपके से देख लिया.’’
‘‘किस पर लिखी है इतनी अच्छी कविता? कौन थी वह?’’ मैं ने कुरेदा.
‘‘थी कोई उन के कालेज में. जहां तक मुझे याद है, प्रिया नाम था उस का. भैया बहुत चाहते थे उसे. पहली दफा उन्होंने किसी को दिल से चाहा था, पर उस ने भैया का दिल तोड़ दिया. आज तक भैया उसे भूल नहीं सके हैं और शायद कभी न भूल पाएं. ऊपर से तो बहुत खुश लगते हैं, परिवार है, पत्नी है, बेटा है, पर अंदर ही अंदर एक दर्द हमेशा उन्हें सालता रहता है.’’
मैं स्तब्ध थी. तो क्या सचमुच अमर ने यह कविता मेरे लिए लिखी है. वह मुझे बेवफा समझता है? मैं ने उस के होंठों की मुसकान छीन ली.
हजारों सवाल हथौड़े की तरह मेरे दिमाग पर चोट कर रहे थे.
मुझ से निशा के घर और नहीं रुका गया. बहाना बना कर मैं बाहर आ गई. सड़क पर चलते वक्त भी बस, यही वाक्य जहर बन कर मेरे सीने को बेध रहा था… ‘बेवफा’… मैं बेवफा हूं…’
तभी भीगी पलकों के बीच मेरे होंठों पर हंसी खेल गई. जो भी हो, मेरा प्यार आज तक मेरे सीने में दहक रहा है. वह मुझ से इतना प्यार करता था तभी तो आज तक भूल नहीं सका है. बेवफा के रूप में ही सही, पर मैं अब भी उस के दिलोदिमाग में हूं. मेरी तड़प बेवजह नहीं थी. मेरी चाहत बेनाम नहीं. बेवफा बन कर ही सही अमर ने आज मेरे प्यार को पूर्ण कर दिया था.
‘आई लव यू अमर ऐंड आई नो… यू लव मी टू…’ मैं ने खुद से कहा और मुसकरा पड़ी.
मधु के मातापिता उस के लिए काबिल वर की तलाश कर रहे थे. मधु ने फैसला किया कि यह ठीक समय है जब उसे आलोक और अंशू के बारे में उन्हें बता देना चाहिए.
‘‘पापा, मैं आप को आलोक के बारे में बताना चाहती हूं. पिछले कुछ दिनों से मैं उस के घर जाती रही हूं. वह शादीशुदा था. उस की पत्नी सुहानी की मृत्यु कुछ वर्षों पहले हो चुकी है. उस का एक लड़का अंशू है जिसे वह बड़े प्यार से पाल रहा है. मैं आलोक को बहुत चाहती हूं.’’
मधु के कहने पर उस के पापा ने पूछा, ‘‘तुम्हें उस के शादीशुदा होने पर कोई आपत्ति नहीं है. बेशक, उस की पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है. अच्छी तरह सोच कर फैसला करना. यह सारी जिंदगी का सवाल है. कहीं ऐसा तो नहीं है तुम आलोक और अंशू पर तरस खा कर यह शादी करना चाहती हो?’’
‘‘पापा, मैं जानती हूं यह सब इतना आसान नहीं है, लेकिन सच्चे दिल से जब हम कोशिश करते हैं तो सबकुछ संभव हो जाता है. अंशु मुझे बहुत प्यार करता है. उसे मां की सख्त जरूरत है. जब तक वह मुझे मां के रूप में अपना नहीं लेता है, मैं इंतजार करूंगी. बचपन से आप ने मुझे हर चुनौती से जूझने की शिक्षा और आजादी दी है. मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह फैसला कर रही हूं.’’
मधु के यकीन दिलाने पर उस की मां ने कहा, ‘‘मैं समझ सकती हूं, अगर अंशू के लालनपालन में तुम आलोक की मदद करोगी तो उस घर में तुम्हें इज्जत और भरपूर प्यार मिलेगा. सासससुर भी तुम्हें बहुत प्यार देंगे. मैं बहुत खुश हूं तुम आलोक की पत्नी खोने का दर्द महसूस कर रही हो और अंशू को मां मिल जाएगी. ऐसे अच्छे परिवार में तुम्हारा स्वागत होगा, मुझे लगता है हमारी परवरिश रंग लाई है.’’
मां ने मधु को गले लगा लिया. मधु की खुशी की कोई सीमा नहीं थी. उस ने कहा, ‘‘अब आप दोनों इस रिश्ते के लिए राजी हैं तो मैं आलोक को मोबाइल पर यह खबर दे ही देती हूं खुशी की.’’
मधु आलोक के दिल्ली के रोहिणी इलाके के शेयर मार्केटिंग औफिस में उस से मिलने जाया करती थी. इस का उस से पहला परिचय तब हुआ था जब उस ने कनाट प्लेस से पश्चिम विहार के लिए लिफ्ट मांगी थी. उस ने आलोक को बताया था वह एक पब्लिशिंग हाउस में एडिटर के पद पर कार्यरत थी. लिफ्ट के समय कार में ही दोनों ने एकदूसरे को अपने विजिटिंग कार्ड दे दिए थे. मधु की खूबसूरत छवि आलोक के दिमाग पर अंकित हो गई.
जब आलोक ने अपने बारे में पूरी तरह से बताया तो उस की बातचीत में उस के शादीशुदा और पत्नी सुहानी के निधन की बात शामिल थी.
बड़े ही अच्छे लहजे में मधु ने कहा था ‘मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम शादीशुदा हो. मेरे मातापिता मेरे लिए वर की तलाश कर रहे हैं. मैं ने तुम्हें अपने वर के रूप में पसंद कर लिया है जो भी थोड़ीबहुत मुलाकातें हुई हैं, उन में मैं जीवन के प्रति तुम्हारी सोच से प्रभावित हूं. तुम ने मुझे यह बताया है कि तुम्हारा एकमात्र मिशन है अपने लड़के अंशू को अच्छी परवरिश देना. दादादादी द्वारा उस का लालनपालन अपनेआप में काफी नहीं जान पड़ता है. यदि हमारा विवाह हो जाता है तो यह मेरे लिए बड़ी चुनौती का काम होगा कि मैं तुम्हारी मदद उस की परवरिश में करूं. मुझे काम करने का शौक है, मैं चाहूंगी कि अपना पब्लिशिंग हाउस का काम जारी रखते हुए घर के कामकाज को सुचारु रूप से चलाऊं.
आलोक ये सब बातें ध्यान से सुन रहा था, बोला, ‘सुहानी की मृत्यु के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरी दुनिया अंशू के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई है. मेरा पूरा ध्यान अंशू को पालने में केंद्रित हो गया. जिंदगी के इस पड़ाव पर जब मेरी तुम से मुलाकात हुई तो मुझे एक उम्मीद दिखी कि चाहे तुम्हारा साथ विवाह के बाद एक मित्र की तरह हो या पत्नी की हैसियत से, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. अगर तुम्हारे जैसी खूबसूरत और समझदार लड़की सारे पहलुओं का जायजा ले कर मेरे घर आती है तो अंशू को मां और परिवार को एक अच्छी बहू मिल जाएगी.’
मधु ने आलोक को यकीन दिलाते हुए कहा था, ‘इस में कोई शक नहीं है कि मुझे कुंआरे लड़के भी विवाह के लिए मिल सकते हैं, लेकिन मुझे विवाह के बाद की समस्याओं से डर लगता है. इसी समाज में लड़कियां शादी के बाद जला दी जाती हैं, दहेज की बलि चढ़ा कर उन्हें तलाक दे दिया जाता है या ससुराल पसंद न आने पर लड़कियों को वापस मायके आ कर रहना पड़ जाता है. तुम से मुलाकात के बाद मुझे लगता है ऐसा कुछ मेरे साथ नहीं होने वाला. तुम्हारी तरह अंशू को पालने का चैलेंज मैं स्वीकार करती हूं. तुम्हारे घर आ कर अंशू से मेलजोल बढ़ाने का काम मैं बहुत जल्द शुरू करूंगी. अपनी मम्मी को यकीन में ले कर मेरे बारे में बात कर लो. एक बात और मैं बताना चाहूंगी, मैं ने एमए साइकोलौजी से कर रखा है. उस में चाइल्ड साइकोलौजी का विषय भी था.’
वकील साहब का हंसताखेलता परिवार था. उन की पत्नी सीधीसाधी घरेलू महिला थी. वकील साहब दिलफेंक थे यह वे जानती थीं पर एक दिन सौतन ले आएंगे वह ऐसा सोचा भी नहीं था. उस दिन वे बहुत रोईं.
वकील साहब ने समझाया, ‘‘बेगम, तुम तो घर की रानी हो. इस बेचारी को एक कमरा दे दो, पड़ी रहेगी. तुम्हारे घर के काम में हाथ बटाएगी.’’
वे रोती रहीं, ‘‘मेरे होते तुम ने दूसरा निकाह क्यों किया?’’
वकील साहब बातों के धनी थे. फुसलाते हुए बोले, ‘‘बेगम, माफ कर दो. गलती हो गई. अब जो तुम कहोगी वही होगा. बस इस को घर में रहने दो.’’
बेगम का दिल कर रहा था कि अपने बच्चे लें और मायके चली जाएं. वकील साहब की सूरत कभी न देखें. पर मायके जाएं तो किस के भरोसे? पिता हैं नहीं, भाइयों पर मां ही बोझ है. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि शादी के 14 साल बाद 40 साल की उम्र में वकील साहब यह गुल खिलाएंगे. बसाबसाया घर उजड़ गया.
वकील साहब ने नीचे अपने औफिस के बगल वाले कमरे में अपनी दूसरी बीवी का सामान रखवा दिया और ऊपर अपनी बड़ी बेगम के पास आ गए जैसे कुछ हुआ ही नहीं. बड़ी बेगम का दिल टूट गया. इतने जतन से पाईपाई बचा कर मकान बनवाया था. सोचा भी न था कि गृहस्थी किसी के साथ साझा करनी पड़ेगी.
दिन गुजरे, हफ्ते गुजरे. बड़ी बेगम रोधो कर चुप हो गईं. पहले वकील साहब एक दिन ऊपर खाना खाते और एक दिन नीचे. फिर धीरेधीरे ऊपर आना बंद हो गया. उन की नई बीवी में चाह इतनी बढ़ी कि वकालत पर ध्यान कम देने लगे. आमदनी घटने लगी और परिवार बढ़ने लगा. छोटी बेगम के हर साल एक बच्चा हो जाता. अत: खर्चा बड़ी बेगम को कम देने लगे.
बड़ी बेगम ने हालत से समझौता कर लिया था. हाईस्कूल पास थीं, इसलिए महल्ले के ही एक स्कूल में पढ़ाने लगीं. बच्चों की छोटीमोटी जरूरतें पूरी करतीं. शाम को घर पर ही ट्यूशन पढ़ातीं जिस से अपने बच्चों की ट्यूशन की फीस देतीं. अब उन का एक ही लक्ष्य था अपने बेटेबेटी को खूब पढ़ाना और उन्हें उन के पैरों पर खड़ा करना. पति और सौतन के साथ रहने का उन का निर्णय केवल बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए ही था. वे जानती थीं कि बच्चों के लिए मांपिता दोनों आवश्यक हैं.
अब सारे घर पर छोटी बेगम का राज था. बड़ी बेगम और उन के बच्चे एक कमरे में रहते थे जहां कभी किसी विशेष कारण से वकील साहब बुलाए जाने पर आते.
इस तरह समय बीतता गया और फिर एक दिन वकील साहब अपनी 5 बेटियों और छोटी बेगम को छोड़ कर चल बसे. छोटी बेगम ने जैसेतैसे बेटियों की शादी कर दी. मकान भी बेच दिया.
बड़ी बेगम की बेटी सनोबर की एक अच्छी कंपनी में जौब लग गई थी. देखने में सुंदर भी थी पर शादी के नाम से भड़कती थी. वह अपनी मां का अतीत देख चुकी थी अत: शादी नहीं करना चाहती थी. बड़ी बेगम के बहुत समझाने पर वह शादी के लिए राजी हो गई. साहिल अच्छा लड़का था, परिवार का ही था.
सनोबर ने शादी के लिए हां तो कर दी पर अपनी शर्तें निकाहनामे में रखने को कहा.
साहिल ने कहा, ‘‘मुझे तुम्हारी हर शर्त मंजूर है.’’
सनोबर ने बात साफ की, ‘‘ऐसे कह देने से नहीं, निकाहनामे में लिखना होगा की मेरे रहते तुम दूसरी शादी नहीं करोगे और अगर कभी हम अलग हों और हमारे बच्चे हों तो वे मेरे साथ रहेंगे.’’
सनोबर को साहिल बचपन से जानता था. उस के दिल का डर समझता था. बोला, ‘‘सनोबर निकाहनामे में यह भी लिख देंगे और भी जो तुम कहो. अब तो मुझ से शादी करोगी?’’
सनोबर मान गई और दोनों की शादी हो गई. दोनों की अच्छी जौब, अच्छा प्लैट, एक प्यारी बेटी थी. कुल मिला कर खुशहाल जीवन था सनोबर का. शादी के 12 साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.
सनोबर का प्रमोशन होने वाला था. अत: वह औफिस पर ज्यादा ध्यान दे रही थी. घर बाई ने ही संभाल रखा था. बेटी भी बड़ी हो गईर् थी. वह अपना सब काम खुद ही कर लेती थी. सनोबर उस को भी पढ़ाने का समय नहीं दे पाती. अत: ट्यूशन लगा दिया था. सनोबर का सारा ध्यान औफिस के काम पर था. घर की ओर से वह निश्चिंत थी. बाई ने सब संभाल लिया था.