अलमारी का ताला : आखिर क्या थी मां की इच्छा?

हर मांबाप का सपना होता है कि उन के बच्चे खूब पढ़ेंलिखें, अच्छी नौकरी पाएं. समीर ने बीए पास करने के साथ एक नौकरी भी ढूंढ़ ली ताकि वह अपनी आगे की पढ़ाई का खर्चा खुद उठा सके. उस की बहन रितु ने इस साल इंटर की परीक्षा दी थी. दोनों की आयु में 3 वर्ष का अंतर था. रितु 19 बरस की हुई थी और समीर 22 का हुआ था. मां हमेशा से सोचती आई थीं कि बेटे की शादी से पहले बेटी के हाथ पीले कर दें तो अच्छा है. मां की यह इच्छा जानने पर समीर ने मां को समझाया कि आजकल के समय में लड़की का पढ़ना उतना ही जरूरी है जितना लड़के का. सच तो यह है कि आजकल लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करती लड़की से शादी करना चाहते हैं. उस ने समझाया, ‘‘मैं अभी जो भी कमाता हूं वह मेरी और रितु की आगे की पढ़ाई के लिए काफी है. आप अभी रितु की शादी की चिंता न करें.’’ समीर ने रितु को कालेज में दाखिला दिलवा दिया और पढ़ाई में भी उस की मदद करता रहता.

कठिनाई केवल एक बात की थी और वह थी रितु का जिद्दी स्वभाव. बचपन में तो ठीक था, भाई उस की हर बात मानता था पर अब बड़ी होने पर मां को उस का जिद्दी होना ठीक नहीं लगता क्योंकि वह हर बात, हर काम अपनी मरजी, अपने ढंग से करना चाहती थी.

पढ़ाई और नौकरी के चलते अब समीर ने बहुत अच्छी नौकरी ढूंढ़ ली थी. रितु का कालेज खत्म होते उस ने अपनी जानपहचान से रितु की नौकरी का जुगाड़ कर दिया था. मां ने जब दोबारा रितु की शादी की बात शुरू की तो समीर ने आश्वासन दिया कि अभी उसे नौकरी शुरू करने दें और वह अवश्य रितु के लिए योग्य वर ढूंढ़ने का प्रयास करेगा.

इस के साथ ही उस ने मां को बताया कि वह अपने औफिस की एक लड़की को पसंद करता है और उस से जल्दी शादी भी करना चाहता है क्योंकि उस के मातापिता उस के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं. मां यह सब सुन घबरा गईं कि पति को कैसे यह बात बताई जाए. आज तक उन की बिरादरी में विवाह मातापिता द्वारा तय किए जाते रहे थे. समीर ने पिता को सारी बात खुद बताना ठीक समझा. लड़की की पिता को पूरी जानकारी दी. पर यह नहीं बताया कि मां को सारी बात पता है. पिता खुश हुए पर कहा, ‘‘अपना निर्णय वे कल बताएंगे.’’

ये भी पढें: जिंदगी का गणित: भाग 3

 

अगले दिन जब पिता ने अपने कमरे से आवाज दी तो वहां पहुंच समीर ने मां को भी वहीं पाया. हैरानी की बात कि बिना लड़की को देखे, बिना उस के परिवार के बारे में जाने पिता ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम खुश तो हम खुश.’’ यह बात समीर ने बाद में जानी कि पिता के जानपहचान के एक औफिसर, जो उसी के औफिस में ही थे, से वे सब जानकारी ले चुके थे. एक समय इस औफिसर के भाई व समीर के पिता इकट्ठे पढ़े थे. औफिसर ने बहाने से लड़की को बुलाया था कुछ काम समझाने के लिए, कुछ देर काम के विषय में बातचीत चलती रही और समीर के पिता को लड़की का व्यवहार व विनम्रता भा गई थी. ‘उल्टे बांस बरेली को’, लड़की वालों के यहां से कुछ रिश्तेदार समीर के घर में बुलाए गए. उन की आवभगत व चायनाश्ते के साथ रिश्ते की बात पक्की की गई और बहन रितु ने लड्डुओं के साथ सब का मुंह मीठा कराया. हफ्ते के बाद ही छोटे पैमाने पर दोनों का विवाह संपन्न हो गया. जोरदार स्वागत के साथ समीर व पूनम का गृहप्रवेश हुआ. अगले दिन पूनम के मायके से 2 बड़े सूटकेस लिए उस का मौसेरा भाई आया. सूटकेसों में सास, ससुर, ननद व दामाद के लिए कुछ तोहफे, पूनम के लिए कुछ नए व कुछ पहले के पहने हुए कपड़े थे. एक हफ्ते की छुट्टी ले नवदंपती हनीमून के लिए रवाना हुए और वापस आते ही अगले दिन से दोनों काम पर जाने लगे. पूनम को थोड़ा समय तो लगा ससुराल में सब की दिनचर्या व स्वभाव जानने में पर अधिक कठिनाई नहीं हुई. शीघ्र ही उस ने घर के काम में हाथ बटाना शुरू कर दिया. समीर ने मोटरसाइकिल खरीद ली थी, दोनों काम पर इकट्ठे आतेजाते थे.

ये भी पढें: थोड़ी सी बेवफाई : प्रिया के घर सरोज ने ऐसा क्या देख लिया

 

समीर ने घर में एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया जो पूनम के आने से आया. उस के पिता, जो स्वभाव से कम बोलने वाले इंसान थे, अपने बच्चों की जानकारी अकसर अपनी पत्नी से लेते रहते थे और कुछ काम हो, कुछ चाहिए हो तो मां का नाम ले आवाज देते थे. अब कभीकभी पूनम को आवाज दे बता देते थे और पूनम भी झट ‘आई पापा’ कह हाजिर हो जाती थी. समीर ने देखा कि पूनम पापा से निसंकोच दफ्तर की बातें करती या उन की सलाह लेती जैसे सदा से वह इस घर में रही हो या उन की बेटी ही हो. समीर पिता के इतने करीब कभी नहीं आ पाया, सब बातें मां के द्वारा ही उन तक पहुंचाई जाती थीं. पूनम की देखादेखी उस ने भी हिम्मत की पापा के नजदीक जाने की, बात करने की और पाया कि वह बहुत ही सरल और प्रिय इंसान हैं. अब अकसर सब का मिलजुल कर बैठना होता था. बस, एक बदलाव भारी पड़ा. एक दिन जब वे दोनों काम से लौटे तो पाया कि पूनम की साडि़यां, कपड़े आदि बिस्तर पर बिखरे पड़े हैं. पूनम कपड़े तह कर वापस अलमारी में रख जब मां का हाथ बटाने रसोई में आई तो पूछा, ‘‘मां, आप कुछ ढूंढ़ रही थीं मेरे कमरे में.’’

‘‘नहीं तो, क्या हुआ?’’

ये भी पढें: मेरा बच्चा मेरा प्यार : अपने बच्चे से प्यार का एहसास

 

पूनम ने जब बताया तो मां को समझते देर न लगी कि यह रितु का काम है. रितु जब काम से लौटी तो पूनम की साड़ी व ज्यूलरी पहने थी. मां ने जब उसे समझाने की कोशिश की तो वह साड़ी बदल, ज्यूलरी उतार गुस्से से भाभी के बैड पर पटक आई और कई दिन तक भाईभाभी से अनबोली रही. फिर एक सुबह जब पूनम तैयार हो साड़ी के साथ का मैचिंग नैकलैस ढूंढ़ रही थी तो देर होने के कारण समीर ने शोर मचा दिया और कई बार मोटरसाइकिल का हौर्न बजा दिया. पूनम जल्दी से पहुंची और देर लगने का कारण बताया. शाम को रितु ने नैकलैस उतार कर मां को थमाया पूनम को लौटाने के लिए. ‘हद हो गई, निकाला खुद और लौटाए मां,’ समीर के मुंह से निकला.

ऐसा जब एकदो बार और हुआ तो मां ने पूनम को अलमारी में ताला लगा कर रखने को कहा पर उस ने कहा कि वह ऐसा नहीं करना चाहती. तब मां ने समीर से कहा कि वह चाहती है कि रितु को चीज मांग कर लेने की आदत हो न कि हथियाने की. मां के समझाने पर समीर रोज औफिस जाते समय ताला लगा चाबी मां को थमा जाता. अब तो रितु का अनबोलापन क्रोध में बदल गया. इसी बीच, पूनम ने अपने मायके की रिश्तेदारी में एक अच्छे लड़के का रितु के साथ विवाह का सुझाव दिया. समीर, पूनम लड़के वालों के घर जा सब जानकारी ले आए और बाद में विचार कर उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया ताकि वे सब भी उन का घर, रहनसहन देख लें और लड़कालड़की एकदूसरे से मिल लें. पूनम ने हलके पीले रंग की साड़ी और मैचिंग ज्यूलरी निकाल रितु को उस दिन पहनने को दी जो उस ने गुस्से में लेने से इनकार कर दिया. बाद में समीर के बहुत कहने पर पहन ली. रिश्ते की बात बन गई और शीघ्र शादी की तारीख भी तय हो गई. पूनम व समीर मां और पापा के साथ शादी की तैयारी में जुट गए. सबकुछ बहुत अच्छे से हो गया पर जिद्दी रितु विदाई के समय भाभी के गले नहीं मिली.

ये भी पढें: मेहंदी लगी मेरे हाथ: क्या दीपा और अविनाश की शादी हुई

 

रितु के ससुराल में सब बहुत अच्छे थे. घर में सासससुर, रितु का पति विनीत और बहन रिचा, जिस ने इसी वर्ष ड्रैस डिजाइनिंग का कोर्स शुरू किया था, ही थे. रिचा भाभी का बहुत ध्यान रखती थी और मां का काम में हाथ बटाती थी. रितु ने न कोई काम मायके में किया था और न ही ससुराल में करने की सोच रही थी. एक दिन रिचा ने भाभी से कहा कि उस के कालेज में कुछ कार्यक्रम है और वह साड़ी पहन कर जाना चाहती है. उस ने बहुत विनम्र भाव से रितु से कोई भी साड़ी, जो ठीक लगे, मांगी. रितु ने साड़ी तो दे दी पर उसे यह सब अच्छा नहीं लगा. रिचा ने कार्यक्रम से लौट कर ठीक से साड़ी तह लगा भाभी को धन्यवाद सहित लौटा दी और बताया कि उस की सहेलियों को साड़ी बहुत पसंद आई. रितु को एकाएक ध्यान आया कि कैसे वह अपनी भाभी की चीजें इस्तेमाल कर कितनी लापरवाही से लौटाती थी. कहीं ननद फिर कोई चीज न मांग बैठे, इस इरादे से रितु ने अलमारी में ताला लगा दिया और चाबी छिपा कर रख ली.

एक दिन शाम जब रितु पति के साथ घूमने जाने के लिए तैयार होने के लिए अलमारी से साड़ी निकाल, फिर ताला लगाने लगी तो विनीत ने पूछा, ‘‘ताला क्यों?’’ जवाब मिला-वह किसी को अपनी चीजें इस्तेमाल करने के लिए नहीं देना चाहती. विनीत ने समझाया, ‘‘मम्मी उस की चीजें नहीं लेंगी.’’

रितु ने कहा, ‘‘रिचा तो मांग लेगी.’’ अगले हफ्ते रितु को एक सप्ताह के लिए मायके जाना था. उस ने सूटकेस तैयार कर अपनी अलमारी में ताला लगा दिया. सास को ये सब अच्छा नहीं लगा. सब तो घर के ही सदस्य हैं, बाहर का कोई इन के कमरे में जाता नहीं, पर वे चुप ही रहीं. मायके पहुंची तो मां ने ससुराल का हालचाल पूछा. रितु ने जब अलमारी में ताला लगाने वाली बात बताई तो मां ने सिर पकड़ लिया उस की मूर्खता पर. मां ने बताया कि यहां ताला पूनम ने नहीं बल्कि मां के कहने पर उस के भाई समीर ने लगाना शुरू किया था और चाबी हमेशा मां के पास रहती थी. ताला लगाने का कारण रितु का लापरवाही से भाभी की चीजों का बिना पूछे इस्तेमाल करना और फिर बिगाड़ कर लौटाना था. यह सब उस की आदतों को सुधारने के लिए किया गया था. वह तो सुधरी नहीं और फिर कितनी बड़ी नादानी कर आई वह ससुराल में अपनी अलमारी में ताला लगा कर. मां ने समझाया कि चीजों से कहीं ऊपर है एकदूसरे पर विश्वास, प्यार और नम्रता. ससुराल में अपनी जगह बनाने के लिए और प्यार पाने के लिए जरूरी है प्यार व मान देना. रितु की दोपहर तो सोच में डूबी पर शाम को जैसे ही भाईभाभी नौकरी से घर लौटे उस ने भाभी को गले लगाया. भाभी ने सोचा शायद काफी दिनों बाद आई है, इसलिए ऐसा हुआ पर वास्तविकता कुछ और थी.

रितु ने देखा यहां अलमारी में कोई ताला नहीं लगा हुआ, वह भी शीघ्र ससुराल वापस जा ताले को हटा मन का ताला खोलना चाहती है ताकि अपनी भूल को सुधार सके, सब की चहेती बन सके जैसे भाभी हैं यहां. एक हफ्ता मायके में रह उस ने बारीकी से हर बात को देखासमझा और जाना कि शादी के बाद ससुराल में सुख पाने का मूलमंत्र है सब को अपना समझना, बड़ों को आदरमान देना और जिम्मेदारियों को सहर्ष निभाना. इतना कठिन तो नहीं है ये सब. कितनी सहजता है भाभी की अपने ससुराल में, जैसे वह सब की और सब उस के हैं. मां के घुटनों में दर्द रहने लगा था. रितु ने देखा कि भाभी ने सब काम संभाल लिया था और रात को सोने से पहले रोज वे मां के घुटनों की मालिश कर देती थीं ताकि वे आराम से सो सकें. अब वही भाभी, जिस के लिए उस के मन में इतनी कटुता थी, उस की आदर्श बनती जा रही थीं.

एक दिन जब पूनम और समीर को औफिस से आने में देर हो गई तब जल्दी कपड़े बदल पूनम रसोई में पहुंची तो पाया रात का खाना तैयार था. मां से पता चला कि खाना आज रितु ने बनाया है, यह बात दूसरी थी कि सब निर्देश मां देती रही थीं. रितु को अच्छा लगा जब सब ने खाने की तारीफ की. पूनम ने औफिस से देर से आने का कारण बताया. वह और समीर बाजार गए थे. उन्होंने वे सब चीजें सब को दिखाईं जो रितु के ससुराल वालों के लिए खरीदी गई थीं. इस इतवार दामादजी रितु को लिवाने आ रहे थे. खुशी के आंसुओं के साथ रितु ने भाईभाभी को गले लगाया और धन्यवाद दिया. मां भी अपने आंसू रोक न सकीं बेटी में आए बदलाव को देख कर. रितु ससुराल लौटी एक नई उमंग के साथ, एक नए इरादे से जिस से वह सब को खुश रखने का प्रयत्न करेगी और सब का प्यार पाएगी, विशेषकर विनीत का.

रितु ने पाया कि उस की सास हर किसी से उस की तारीफ करती हैं, ननद उस की हर काम में सहायता करती है और कभीकभी प्यार से ‘भाभीजान’ बुलाती है, ससुर फूले नहीं समाते कि घर में अच्छी बहू आई और विनीत तो रितु पर प्यार लुटाता नहीं थकता. रितु बहुत खुश थी कि जैसे उस ने बहुत बड़ा किला फतह कर लिया हो एक छोटे से हथियार से, ‘प्यार का हथियार’.

हिमशैल: भाग 1

‘‘अजय, अब केवल तुम्हारे लिए हम चाचाजी के परिवार को तो छोड़ नहीं सकते. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाएंगे ही.’’

बड़े भाई विजय के पिघलते शीशे से ये शब्द अजय के कानों से होते हुए सीधे दिलोदिमाग तक पहुंच कर सारी कोमल भावनाओं को पत्थर सा जमाते चले गए थे, जो आज कई महीने बाद भी उन के पारिवारिक सौहार्द को पुनर्जीवित करने के प्रयास में शिलाखंड से राह रोके पड़ेथे.

आपसी भावनाओं के सम्मान से ही रिश्तों को जीवित रखा जा सकता है पर जब दूसरे का मान नगण्य और अपना हित ही सर्वोपरि हो जाए तो रिश्तों को बिखरते देर नहीं लगती. अजय ने अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाने के बजाय संयुक्त परिवार से निर्वासन स्वीकार कर लिया था.

ये भी पढ़ें : जिंदगी का गणित: भाग 1

धीरेधीरे नेहा की गोदभराई की तिथि नजदीक आती जा रही थी पर दोनों भाइयों के बीच की स्थिति ज्यों की त्यों थी और जब आज सुबह से ही विजय के घर में लाउडस्पीकर पर ढोलक की थापों की आवाज रहरह कर कानों में गूंजने लगी तो अजय की पत्नी आरती न चाहते हुए भी पुरानी यादों में खो सी गई.

वक्त कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है जब वह अपने पूरे वजूद के साथ सामने आता है. कल तक छोटी सी नेहा उस के आगेपीछे चाचीचाची कह कर भागती रहती थी. उस का कोई काम चाची के बिना पूरा ही नहीं होता था और आज वह एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही है तो एक बार भी उसे अपनी चाची की याद नहीं आई. शायद अब भी उस की मां ने उसे रोक लिया हो पर एक फोन तो कर ही सकती थी…ऊंह, जब उन लोगों को ही उस की याद नहीं आती तो वह क्यों परेशान हो. उस ने सिर झटक कर पुरानी यादों को दूर करना चाहा, पर वे किसी हठी बालक की तरह आसपास ही मंडराती रहीं. उस ने ध्यान हटाने के लिए खुद को व्यस्त रखना चाहा पर वे शरारती बच्चे की तरह उंगली पकड़ कर उसे फिर अतीत में खींच ले गईं.

तीनों भाइयों, विजय, अजय व कमल में कितना प्यार था. उस के ससुर रायबहादुर पत्नी के न होने की कमी महसूस करते हुए भी उन के द्वारा लगाई फुलवारी को फलताफूलता देख खुशी से भर उठते थे. उच्चपदासीन बेटे, आज्ञाकारी बहुएं व पोतेपोतियों से भरेपूरे परिवार के मुखिया अपने छोटे भाई के परिवार को भी कम मान व प्यार नहीं देते थे. जो उसी शहर में कुछ ही दूरी पर रहते थे.

हर तीजत्योहार पर दोनों परिवार जब एकसाथ मिल कर खुशियां मनाते तो घर की रौनक ही अलग होती थी. उन के खानदानी आपसी प्यार का शहर के लोग उदाहरण दिया करते थे पर न तो समय सदैव एक सा रहता है और न ही एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर होती हैं.

रायबहादुर के छोटे भाई भी उन्हीं की तरह सज्जन थे परंतु कलेक्टर पति के पद के मद में डूबी उन की पत्नी जानेअनजाने अपने बच्चों में भी अहंकार भर बैठी थीं. पिता के पद का दुरुपयोग उन्हें घर में विलासिता व कालिज में यूनियन का नेता तो बना गया पर न तो पढ़ाई में अव्वल बना सका और न ही मानवीय मूल्यों की इज्जत करने वाला संस्कारशील स्वभाव दे सका. जीवन में आगे बढ़ने के अवसर, व्यर्थ के कामों में समय गंवा कर वे खुद ही अपना रास्ता अवरुद्ध करते गए. बीता समय तो लौट कर आता नहीं, आखिर मन मार कर उन्हें साधारण नौकरियों पर ही संतोष करना पड़ा.

संतान ही मांबाप का सिर गर्व से ऊंचा कराती है. जब कलेक्टर की बीवी अपने जेठ रायबहादुर के परिवार पर निगाह डालतीं तो अपने बच्चों के साधारण भविष्य का एहसास उन्हें मन ही मन कुंठित कर देता पर उन्होंने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया था. उन जैसे लोग अपने सुख से इतना सुखी नहीं होते जितना कि दूसरे के सुख से दुखी. उन के अंदर के ईर्ष्यालु भाव से अनजान रायबहादुर की दोनों बहुएं आरती व भारती, जो देवरानीजेठानी कम, बहनें ज्यादा लगती थीं, अपनी सास की कमी चचिया सास की निकटता पा कर भूल जाती थीं. यद्यपि विवाह के कुछ वर्ष बाद ही आरती को चचिया सास का वैमनस्य से भरा व्यवहार उलझन में डालने लगा था. चाचीजी अकसर उस के कामों में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे शर्म्ंिदा करने का बहाना ढूंढ़ती रहती थीं और हर झिड़की के साथ वह यह जरूर कहती थीं, ‘अजय अपनी पसंद की लड़की ब्याह तो लाया है, देखते हैं कितना निभाती है. इतनी अच्छी लड़की बताई थी पर जरा कान नहीं दिया.’

अपनी बात न रखे जाने का मलाल वाणी से स्पष्ट झलकता था. शायद इसीलिए वह चाची की आंख में सदैव कांटा सी खटकती रही. चोट खाए अहं के कारण ही शायद चाची कभी किसी बात के लिए उस की प्रशंसा न कर सकीं. घर में शांति बनाए रखने के लिए व्यर्थ के वादविवाद में न पड़ कर, छोटीछोटी बातों को नजरअंदाज कर के वह उन के मनमुताबिक ही कर देती.

ये भी पढ़ें : मन का दाग : सरोज को क्यों भड़का रही थी पड़ोसन

आरती जितनी झुकती गई उतना ही वे अजय व आरती के खिलाफ जहर घोलते हुए एक कूटनीति के तहत विजय व भारती के प्रति प्रेमप्रदर्शन करती गईं. दूध चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो, विष की एक बूंद ही उसे विषैला बनाने के लिए काफी होती है. शुरू में तो भारती व आरती एकदूसरे का सुखदुख बांट लेती थीं पर विजय व भारती का चाची के परिवार के प्रति बढ़ता झुकाव, साथ ही अपने सगे भाई अजय व पिता की उपेक्षा से उन के आपसी रिश्तों में दूरियां आने लगीं.

अच्छाई से अधिक बुराई अपना असर जल्दी दिखाती है. उन के इस पक्षपातपूर्ण रवैए का असर घर के निर्मल वातावरण को भी दूषित करने लगा था. आपसी प्यार का स्थान प्रतिस्पर्धा ने ले लिया. चचिया सास के प्रपंच से अनजान उन की आंखों का तारा बनी भारती को भी अब अजय व आरती की हर बात में स्वार्थ ही नजर आता. उन के भले के लिए कही गई सही बात भी गलत लगती.

ये भी पढ़ें : टीसता जख्म : उमा के चरित्र पर अनवर ने कैसा दाग लगाया

कई कलाओं की जानकार आरती के पास जब जेठानी के बच्चे नेहा, नीतू व शिशिर अपने स्कूल की हस्तकला प्रतियोगिता के लिए वस्तुएं बनाना सीख रहे होते तो खुद को उपेक्षित समझ भारती इसे अपना अपमान समझती. अपने बच्चों का उन लोगों के प्रति स्नेह भी उसे आरती का षड्यंत्र ही लगता.

‘अब तो हर चीज बाजार में मिलती है, खरीद कर दे देना. समय क्यों खराब कर रहे हो तुम लोग, उठो यहां से और पढ़ने जाओ,’ कहती हुई भारती बच्चों को स्वयं कुछ करने या सीखने की प्रेरणा से विलग करती जा रही थी.

आगे पढ़ें

क्षतिपूर्ति : शरद बाबू को किस बात की चिंता सता रही थी

हरनाम सिंह की जलती हुई चिता देख कर शरद बाबू का कलेजा मुंह को आ रहा था. शरद बाबू को हरनाम के मरने का दुख इस बात से नहीं हो रहा था कि उन का प्यारा दोस्त अब इस दुनिया में नहीं था बल्कि इस बात की चिंता उन्हें खाए जा रही थी कि हरनाम को 2 लाख रुपए शरद बाबू ने अपने बैंक के खाते से निकाल कर दिए थे और जिस की भनक न तो शरद बाबू की पत्नी को थी और न ही हरनाम के घरपरिवार वालों को, उन रुपयों की वापसी के सारे दरवाजे अब बंद हो चुके थे.

हरनाम का एक ही बेटा था और वह भी 10-12 साल का. उस की आंखों से आंसू थम नहीं रहे थे, और प्रीतो भाभी, हरनाम की जवान पत्नी, वह तो गश खा कर मूर्छित पड़ी थी. शरद बाबू ने सोचा कि उन्हें तो अपने 2 लाख रुपयों की पड़ी है, इस बेचारी का तो सारा जहान ही लुट गया है.

मन ही मन शरद बाबू हिसाब लगाने लगे कि 2 लाख रुपयों की भरपाई कैसे कर पाएंगे. चोर खाते से साल में 30-40 हजार रुपए भी एक तरफ रख पाए तो भी कहीं 7-8 साल में 2 लाख रुपए वापस उसी खाते में जमा हो पाएंगे. हरनाम को अगर उन्होंने दुकान के खाते से रुपए दिए होते तो आज उन्हें इतना संताप न झेलना पड़ता. उस समय वे हरनाम की बातों में आ गए थे.

हरनाम ने कहा था कि बस, एकाध साल का चक्कर है. कारोबार तनिक डांवांडोल है. अगले साल तक यह ठीकठाक हो जाएगा. जब सरकार बदलेगी और अफसरों के हाथों में और पैसा खर्च करने के अधिकार आ जाएंगे तब नया माल भी उठेगा और साथ में पुराने डूबे हुए पैसे भी वसूल हो जाएंगे.

शरद बाबू अच्छीभली लगीलगाई 10 साल की सरकारी नौकरी छोड़ कर पुस्तक प्रकाशन के इस संघर्षपूर्ण धंधे में कूद पड़े थे. उन की पत्नी का मायका काफी समृद्ध था. पत्नी के भाई मर्चेंट नेवी में कप्तान थे. बहुत मोटी तनख्वाह पाते थे. बस शरद बाबू आ गए अपनी पत्नी की बातों में. नौकरी छोड़ने के एवज में 10 लाख रुपए मिले और 5 लाख रुपए उन के सालेश्री ने दे दिए यह कह कर कि वे खुद कभी वापस नहीं मांगेंगे. अगर कभी 10-20 साल में शरद बाबू संपन्न हों तो लौटा दें, यह उन पर निर्भर करता है.

 

शरद बाबू को पुस्तक प्रकाशन का अच्छा अनुभव था. राज्य साहित्य अकादमी का उन का दफ्तर हर साल हजारों किताबें छापता था. जहां दूसरे लोग अपनी सीट पर बैठेबैठे ही लाखों रुपए की हेराफेरी कर लेते वहां शरद बाबू एकदम अनाड़ी थे. दूसरे लोग कागज की खरीद में घपला कर लेते तो कहीं दुकानों को कमीशन देने के मामले में हेरफेर कर लेते, कहीं किताबें लिखवाने के लिए ठेका देने के घालमेल में लंबा हाथ मार लेते. सौ तरीके थे दो नंबर का पैसा बनाने के, मगर शरद बाबू के बस में नहीं था कि किसी को रिश्वत के लिए हुक कर सकें. बकौल उन की पत्नी, शरद बाबू शुरू से ही मूर्ख रहे इस मामले में. पैसा बनाने के बजाय उन्होंने लोगों को अपना दुश्मन बना लिया था. वे अनजाने में ही दफ्तर के भ्रष्टाचार विरोधी खेमे के अगुआ बन बैठे और अब रिश्वत मिलने के सारे दरवाजे उन्होंने खुद ही बंद कर लिए थे.

मन ही मन शरद बाबू चाहते थे कि गुप्त तरीके से दो नंबर का पैसा उन्हें भी मिल जाए मगर सब के सामने उन्होंने अपनी साख ही ऐसी बना ली थी कि अब ठेकेदार व होलसेल वाले उन्हें कुछ औफर करते हुए डरते थे कि कहीं वे शरद बाबू को खुश करतेकरते रिश्वत देने के जुर्म में ही न धर लिए जाएं या आगे का धंधा ही चौपट कर बैठें.

पत्नी बिजनैस माइंडैड थी. शरद बाबू दफ्तर की हरेक बात उस से आ कर डिस्कस करते थे. पत्नी ने शरद बाबू को रिश्वत ऐंठने के हजार टोटके समझाए मगर शरद बाबू जब भी किसी से दो नंबर का पैसा मांगने के लिए मुंह खोलते, उन के अंदर का यूनियनिस्ट जाग उठता और वे इधरउधर की झक मारने लगते. अब यह सब छोड़ कर सलाह की गई कि शरद बाबू अपना धंधा खोलें. 10-12 लाख रुपए की पूंजी से उन दिनों कोई भी गधा आंखें मींच कर यह काम कर सकता था. 5 लाख रुपए उन की पत्नी ने भाई से दिलवा दिए. इन 5 लाख रुपयों को शरद बाबू ने बैंक में फिक्स्ड डिपौजिट करवा दिए. ब्याज दर ही इतनी ज्यादा थी कि 5 साल में रकम डबल हो जाती थी.

 

शरद बाबू के अनुभव और लगन से किताबें छापने का धंधा खूब चल निकला. हर जगह उन की ईमानदारी के झंडे तो पहले ही गड़े हुए थे. घर की आर्थिक हालत भी अच्छी थी. 5 सालों में ही शरद बाबू ने 10 लाख को 50 लाख में बदल दिया था. पूरे शहर में उन का नाम था. अब हर प्रकार की किताबें छापने लगे थे वे. प्रैस व राजनीतिक सर्कल में खूब नाम होने लगा था.

हरनाम शरद बाबू का लंगोटिया यार था. दरअसल, उसे भी इस धंधे में शरद बाबू ने ही घसीटा था. हरनाम की अच्छीभली मोटर पार्ट्स की दुकान थी. शरद बाबू की गिनती जब से शहर के इज्जतदार लोगों में होने लगी थी, बहुत से पुराने दोस्त, जो शरद बाबू की सरकारी नौकरी के वक्त उन से कन्नी काट गए थे, अब फिर से उन के हमनिवाला व हमखयाल बन गए थे.

हरनाम का मोटर पार्ट्स का धंधा डांवांडोल था. बिजनैस में आदमी एक ही काम से आजिज आ जाता है. दूर के ढोल उसे बहुत सुहावने लगते हैं. इधर, मोटर मार्केट में अनेक दुकानें खुल गई थीं, कंपीटिशन बढ़ गया था और लाभ का मार्जिन कम रह गया था. हरनाम के दिमाग में साहित्यिक कीड़ा हलचल करता रहता था. शरद बाबू से फिर मेलजोल बढ़ा तो इस नामुराद कीड़े ने अपनी हरकत और जोरों से करनी शुरू कर दी थी.

हरनाम ने अपनी मोटर पार्ट्स की दुकान औनेपौने दामों में अगलबगल की और अपनी रिहायशी कोठी में ही एक आधुनिक प्रैस लगवा ली. शुरू में शरद बाबू के कारण उसे काम अच्छा मिला मगर फिर धीरेधीरे उस की पूंजी उधारी में फंसने लगी. सरकारी अफसरों ने रिश्वत ले कर खूब मोटे और्डर तो दिला दिए मगर सरकारी दफ्तरों से बिलों का समय पर भुगतान न होने के कारण हरनाम मुश्किलों में फंसता चला गया.

हरनाम पिछले महीने शरद बाबू से क्लब में मिला तो उन से 2 लाख रुपयों की मांग कर बैठा. शरद बाबू ने कहा कि उन के पैसों का सारा हिसाबकिताब उन की पत्नी देखती है. हरनाम तो गिड़गिड़ाने लगा कि उसे कागज की बिल्टी छुड़ानी है वरना 50 हजार रुपए का और भी नुकसान हो जाएगा. खैर, किसी तरह शरद बाबू ने अपने व्यक्तिगत खाते से रकम निकाल कर दे दी.

 

किसे पता था कि हरनाम इतनी जल्दी इस दुनिया से चला जाएगा. सोएसोए ही चल बसा. शायद दिल का दौरा था या ब्रेन हैमरेज. आज श्मशान में खड़े लोग हरनाम की तारीफ कर रहे थे कि वह बहुत ही भला आदमी था. इतनी आसान और सुगम मौत तो कम ही लोगों को नसीब होती है.

शरद बाबू सोच रहे थे कि यह नेक बंदा तो अब नहीं रहा मगर उस के साथ नेकी कर के जो 2 लाख रुपए उन्होंने लगभग गंवा दिए हैं, उन की भरपाई कैसे होगी. हरनाम की विधवा तो पहले ही कर्ज के बोझ से दबी होगी.

हरनाम की चिता की लपटें अब और भी तेज हो गई थीं. जब सब लोगों के वहां से जाने का समय आया तो चिता के चारों तरफ चक्कर लगाने के लिए हरेक को एकएक चंदन की लकड़ी का टुकड़ा पकड़ा दिया गया. मंत्रों के उच्चारण के साथ सब को वह टुकड़ा चिता का चक्कर लगाते हुए जलती हुई अग्नि में फेंकना था. शरद बाबू जब चंदन की लकड़ी का टुकड़ा जलती हुई चिता में फेंकने के लिए आगे बढ़े तो एक अनोखा दृश्य उन के सामने आया.

उन्होंने देखा कि चिता में जलती हुई एक मोटी सी लकड़ी के अंतिम सिरे पर सैकड़ों मोटीमोटी काली चींटियां अपनी जान बचाने के लिए प्रयासरत थीं और चिता की प्रचंड आग से बाहर आने के लिए भागमभाग वाली स्थिति में थीं.

एक ठंडी आह शरद बाबू के सीने से निकली. क्या उन के दोस्त हरनाम ने इतने अधिक पाप किए थे कि चिता जलाने के लिए घुन लगी लकड़ी ही नसीब हुई. उन्होंने सोचा कि शायद वह आदमी ही खोटा था जो मरतेमरते उन्हें भी 2 लाख रुपए का चूना लगा गया.

घर आ कर सारी रात सो नहीं पाए शरद बाबू. सुबह अपनी दुकान पर न जा कर वे टिंबर बाजार पहुंच गए. वहां से 3 क्ंिवटल सूखी चंदन की लकड़ी तुलवा कर उन्होंने दुकान के बेसमैंट में रखवा दी और वसीयत करवा दी कि उन के मरने के बाद उन्हें इन्हीं लकडि़यों की चिता दी जाए.

शरद बाबू की पत्नी ने यह सब सुना तो आपे से बाहर हो गईं कि मरें आप के दुश्मन. और ये 3 लाख रुपए की चंदन की लकड़ी खरीदने का हक उन्हें किस ने दिया. शरद बाबू ने हरनाम की चिता में जलती लकड़ी से लिपटती चींटियों का सारा किस्सा पत्नी को सुना दिया और हरनाम द्वारा लिया गया उधार भी बता दिया. पत्नी थोड़ी नाराज हुईं मगर अब क्या किया जा सकता है.

हरनाम को मरे 5 साल हो गए. शरद बाबू अब शहर के मेयर हो गए थे. प्रकाशन का धंधा बहुत अच्छा चल रहा था. स्टोर में रखी चंदन की लकड़ी कब की भूल चुके थे. अब तो उन की नजर सांसद के चुनावों पर थी. एमपी की सीट के लिए पार्टी का टिकट मिलना लगभग तय हो चुका था. होता भी कैसे न, टिकट खरीदने के लिए 2 करोड़ रुपए की राशि पार्टी कार्यालय में पहुंच चुकी थी. कोई दूसरा इतनी बड़ी रकम देने वाला नहीं था.

चुनाव प्रचार के दौरान शरद बाबू एक शाम अपने चुनाव क्षेत्र से लौट रहे थे कि उन का मोबाइल बज उठा. पत्नी का फोन था.

पत्नी ने बताया कि सुबह ही नगर के बड़े सेठ घनश्याम दास की मौत हो गई है. टिंबर बाजार से रामा वुड्स कंपनी का फोन आया था कि सेठ के अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी कम पड़ रही है. वैसे भी जब से चंदन की तस्करी पर प्रतिबंध लगा है तब से यह महंगी और दुर्लभ होती जा रही है.

शरद बाबू की पत्नी ने उन्हें बताया कि मैं ने दुकान के स्टोर में पड़ी चंदन की लकड़ी बहुत अच्छे दामों में निकाल दी है.

पहले तो शरद बाबू को याद ही नहीं आया कि गोदाम में चंदन की लकड़ी पड़ी है. फिर उन्हें अपने दोस्त हरनाम की मौत याद आ गई और उन की चिता की लकड़ी पर रेंगती चींटियां देख कर भावुक हो कर अपने लिए चंदन की लकड़ी खरीदने का सारा मामला याद आ गया.

उधर, शरद बाबू की पत्नी कह रही थीं, ‘‘10 लाख का मुनाफा दे गई है यह चंदन की लकड़ी. यह समझ लो कि आप के दोस्त हरनाम ने अपने सारे पैसे सूद समेत लौटा दिए हैं.’’

शरद बाबू की आंखें पहली बार अपने दोस्त हरनाम की याद में छलछला उठीं.

मेहमान : रवि आखिर क्यों हो रहा था इतना उतावला

रवि ने उस दिन की छुट्टी ले रखी थी. दफ्तर में उन दिनों काम कुछ अधिक ही रहने लगा था. वैसे काम इतना अधिक नहीं था. परंतु मंदी के मारे कंपनी में छंटनी होने का डर था इसलिए सब लोग काम मुस्तैदी से कर रहे थे. बिना वजह छुट्टी कोई नहीं लेता था. क्या पता, छुट्टियां लेतेलेते कहीं कंपनी वाले नौकरी से ही छुट्टी न कर दें.

रवि का दफ्तर घर से 20 किलोमीटर दूर था. वह बस द्वारा भूमिगत रेलवे स्टेशन पहुंचता और वहां से भूमिगत रेलगाड़ी से अपने दफ्तर पहुंचता. 9 बजे दफ्तर पहुंचने के लिए उसे घर से साढ़े सात बजे ही चल देना पड़ता था. उसे सवेरे 6 बजे उठ कर दफ्तर के लिए तैयारी करनी पड़ती थी. वह रोज उठ कर अपने और विभा के लिए सवेरे की चाय बनाता था. फिर विभा उठ कर उस के लिए दोपहर का भोजन तैयार कर डब्बे में रख देती, फिर सुबह का नाश्ता बनाती और फिर रवि तैयार हो कर दफ्तर चला जाता था.

 

विभा विश्वविद्यालय में एकवर्षीय डिप्लोमा कोर्स कर रही थी. उस की कक्षाएं सवेरे और दोपहर को होती थीं. बीच में 12 से 2 बजे के बीच उस की छुट्टी रहती थी. घर से उस विश्वविद्यालय की दूरी 8 किलोमीटर थी. उन दोनों के पास एक छोटी सी कार थी. चूंकि रवि अपने दफ्तर आनेजाने के लिए सार्वजनिक यातायात सुविधा का इस्तेमाल करता था इसलिए वह कार अधिकतर विभा ही चलाती थी. वह कार से ही विश्वविद्यालय जाती थी. घर की सारी खरीदारी की जिम्मेदारी भी उसी की थी. रवि तो कभीकभार ही शाम को 7 बजे के पहले घर आ पाता था. तब तक सब दुकानें बंद हो जाती थीं. रवि को खरीदारी करने के लिए शनिवार को ही समय मिलता था. उस दिन घर की खास चीजें खरीदने के लिए ही वह रवि को तंग करती थी वरना रोजमर्रा की चीजों के लिए वह रवि को कभी परेशान नहीं होने देती.

रवि को पिताजी के आप्रवास संबंधी कागजात 4 महीने पहले ही मिल पाए थे. उस के लिए रवि ने काफी दौड़धूप की थी. रवि खुश था कि कम से कम बुढ़ापे में पिताजी को भारत के डाक्टरों या अस्पतालों के धक्के नहीं खाने पड़ेंगे. इंगलैंड की चिकित्सा सुविधाएं सारी दुनिया में विख्यात हैं. यहां की ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा’ सब देशों के लिए एक मिसाल है. खासतौर से पिताजी को सारी सुविधाएं 65 वर्ष से ऊपर की उम्र के होने के कारण मुफ्त ही मिलेंगी.

हालांकि भारत से लंदन आना आसान नहीं परंतु 3-3 कमाऊ बेटों के होते उन के टिकट के पैसे जुटाना मुश्किल नहीं था. खासतौर पर जबकि रवि लंदन में अच्छी नौकरी पर था. जब विभा का डिप्लोमा पूरा हो जाएगा तब वह भी कमाने लगेगी.

 

लंदन में रवि 2 कमरे का मकान खरीद चुका था. सोचा, एक कमरा उन दोनों के और दूसरा पिताजी के रहने के काम आएगा. भविष्य में जब उन का परिवार बढ़ेगा तब कोई बड़ा घर खरीद लिया जाएगा.

पिछले 2 हफ्तों से रवि और विभा पिताजी के स्वागत की तैयारी कर रहे थे. घर की विधिवत सफाई की गई. रवि ने पिताजी के कमरे में नए परदे लगा दिए. एक बड़ा वाला नया तौलिया भी ले आया. पिताजी हमेशा ही खूब बड़ा तौलिया इस्तेमाल करते थे. रवि अखबार नहीं खरीदता था, क्योंकि अखबार पढ़ने का समय ही नहीं मिलता था. किंतु पिताजी के लिए वह स्थानीय अखबार वाले की दुकान से नियमित अखबार देने के लिए कह आया. रवि जानता था कि पिताजी शायद बिना खाए रह सकते हैं परंतु अखबार पढ़े बिना नहीं.

रवि से पूछपूछ कर विभा ने पिताजी की पसंद की सब्जियां व मिठाइयां तैयार कर ली थीं. रवि और विभा की शादी हुए 3 साल होने को जा रहे थे. पहली बार घर का कोई आ रहा था और वह भी पिताजी. रवि और विभा बड़ी बेसब्री से उन के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

रवि ने एअर इंडिया वालों को साढ़े 11 बजे फोन किया. सूचना मिली, हवाई जहाज 4 बजे ही पहुंचने वाला था. रवि ने फिर 1 बजे एअर इंडिया के दफ्तर में फोन किया. इस बार एअर इंडिया वाले ने रवि की आवाज पहचान ली. वह झुंझला

 

गया, ‘‘आप के खयाल से क्या हर 5 किलोमीटर के बाद विमानचालक मुझे बताता है कि कब हवाई जहाज पहुंचने वाला है. दिल्ली से सीधी उड़ान है. ठीक समय पर ही पहुंचने की उम्मीद है.’’

उस की बात सुन कर रवि चुप हो गया.

विमान साढ़े 4 बजे लंदन हवाई अड्डे पर उतर गया. रवि ने चैन की सांस ली. पिताजी को सरकारी कार्यवाही निबटाने में कोई परेशानी नहीं हुई. वे साढ़े पांच बजे अपना सामान ले कर बाहर आ गए. रवि पिताजी को देख कर खुशी से नाच उठा. खुशी के मारे उस की आंखों में आंसू आ गए.

विभा ने पिताजी के चरण छुए. फिर उन से उन का एअरबैग ले लिया. रवि ने उन की अटैची उठा ली. शाम के पौने 6 बजे वे घर की ओर रवाना हो गए. उस समय सभी दफ्तरों और दुकानों के बंद होने का समय हो गया था. अत: सड़क पर गाडि़यां ही गाडि़यां नजर आ रही थीं. घर पहुंचतेपहुंचते 8 बज गए. पिताजी सोना चाहते थे. सफर करने के कारण रात को सो नहीं पाए थे. दिल्ली में तो उस समय 2 बजे होंगे. इसलिए उन्हें नींद नहीं आ रही थी. विभा रसोई में फुलके बनाने लगी. रवि ने पिताजी के थैले से चीजें निकाल लीं. पिताजी मिठाई लाए थे. रवि ने मिठाई फ्रिज में रख दी. विभा सब्जियां गरम कर रही थी और साथ ही साथ फुलके भी बना रही थी. हर रोज तो जब वह फुलके बनाती थी तो रवि ‘माइक्रोवेव’ में सब्जियां गरम कर दिया करता था परंतु उस दिन रवि पिताजी के पास ही बैठा था.

विभा ने खाने की मेज सजा दी. रवि और पिताजी खाना खाने आ गए. पिताजी ने बस एक ही फुलका खाया. उन को भूख से अधिक नींद सता रही थी. खाने के पश्चात पिताजी सोने चले गए. रवि बैठक में टीवी चला कर बैठ गया.

विभा ने रवि को बुलाया, ‘‘जरा मेरी मदद कर दो. अकेली मैं क्याक्या काम करूंगी?’’
विभा ने सोचा कि आज रवि को क्या हो गया है? उसे दिखता नहीं कि रसोई का इतना सारा काम निबटाना है बाकी बची सब्जियों को फ्रिज में रखना है. खाने की मेज की सफाई करनी है. हमेशा तो जब विभा बरतन मांजती थी तब रवि रसोई संवारने के लिए ऊपर के सारे काम समेट दिया करता था.

रवि कुछ सकुचाता हुआ रसोई में आया और कुछ देर बाद ही बिना कुछ खास मदद किए बैठक में चला गया. विभा को रसोई का सारा काम निबटातेनिबटाते साढ़े 10 बज गए.

वह बहुत थक गई थी. अत: सोने चली गई.

सवेरे अलार्म बजते ही रवि उठ बैठा और उस ने विभा को उठा दिया, ‘‘कुछ देर और सोने दीजिए. अभी आप ने चाय कहां बनाई है?’’ विभा बोली.

‘‘चाय तुम्हीं बनाओ. पिताजी के सामने अगर मैं चाय बनाऊंगा तो वे क्या सोचेंगे?’’

पिताजी तो पहले ही उठ गए थे. उन को लंदन के समय के अनुसार व्यवस्थित होने में कुछ दिन तो लगेंगे ही. सवेरे की चाय तीनों ने साथ ही पी. रवि चाय पी कर तैयार होने चला गया. विभा दरवाजे के बाहर से सवेरे ताजा अखबार ले आई. पिताजी अखबार पढ़ने लगे. पता नहीं, पिताजी कब और क्या नाश्ता करेंगे?

उस ने खुद पिताजी से पूछ लिया, ‘‘नाश्ता कब करेंगे, पिताजी?’’

‘‘9 बजे कर लूंगा, पर अगर तुम्हें कहीं जाना है तो जल्दी कर लूंगा,’’ पिताजी ने कहा.

तब तक रवि तैयार हो कर आ गया. उस ने तो वही हमेशा की तरह का नाश्ता किया. टोस्ट और दूध में कौर्नफ्लैक्स.

‘‘विभा, पिताजी ऐसा नाश्ता नहीं करेंगे. उन को तो सब्जी के साथ परांठा खाने की आदत है और एक प्याला दूध. तुम कोई सब्जी बना लेना थोड़ी सी. दोपहर को खाने में कल शाम वाली सब्जियां नहीं चलेंगी. दाल और सब्जी बना लेना,’’ रवि बोला. दफ्तर जातेजाते पिताजी की रुचि और सुविधा संबंधी और भी कई बातें रवि विभा को बताता गया.

विभा को 10 बजे विश्वविद्यालय जाना था परंतु पिताजी का नाश्ता और भोजन तैयार करने की वजह से वह पढ़ने न जा सकी.

उस ने 2 परांठे बनाए और आलू उबाल कर सूखी सब्जी बना दी. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं भारत में लोग नाश्ते में परांठा और सब्जी कैसे खा लेते हैं? यदि मुझ से नाश्ते में परांठासब्जी खाने के लिए कोई कहे तो मैं तो उसे एक सजा ही समझूंगी.’

‘‘विभा बेटी, मैं जरा नमक कम खाता हूं और मिर्चें ज्यादा,’’ पिताजी ने प्यार से कहा.

‘बापबेटे की रुचि में कितना फर्क है? रवि को मिर्चें कम और नमक ज्यादा चाहिए,’ विभा ने सोचा, ‘कम नमकमिर्च की सब्जियां बनाऊंगी. जिस को ज्यादा नमकमिर्च चाहिए वह ऊपर से डाल लेगा.’

नाश्ते के बाद विभा ने दोपहर के लिए दाल और सब्जी बना ली. यह सब करतेकरते 11 बज गए थे. विभा ने सोचा, ‘पिताजी को 1 बजे खाना खिला कर 2 बजे विश्वविद्यालय चली जाऊंगी.’

साढ़े ग्यारह बजे उस ने फुलके बना कर खाने की मेज पर खाना लगा दिया. पिताजी ने रोटी जैसे ही खाई उन के चेहरे के कुछ हावभाव बदल गए, ‘‘शायद तुम ने सवेरे का गुंधा आटा बाहर छोड़ दिया होगा, इसलिए कुछ महक सी आ रही है,’’ पिताजी बोले.

विभा अपने को अपराधी सी महसूस करने लगी. उस को तो रोटियों में कोई महक नहीं आई, ‘कुछ घंटों पहले ही तो आटा गूंधा था. खैर, आगे से सावधानी बरतूंगी,’ विभा ने सोचा. खाना खातेखाते सवा बारह बज गए. बरतन मांजने और रसोई साफ करने का समय नहीं था. विभा सब काम छोड़ कर विश्वविद्यालय चली गई.
विश्वविद्यालय से घर आतेआते साढ़े चार बज गए. पिताजी उस समय भी सो ही रहे थे. जब उठेंगे तो चाय बनाऊंगी. यह सोच कर वह रसोई संवारने लगी.

पिताजी साढ़े पांच बजे सो कर उठे. वे हिंदुस्तानी ढंग की चाय पीते थे, इसलिए दूध और चायपत्ती उबाल कर चाय बनाई. फल काट दिए और पिताजी की लाई मिठाई तश्तरी में रख दी. चाय के बरतन धोतेधोते साढ़े छह बज गए. वह बैठक में आ गई और पिताजी के साथ टीवी देखने लगी. 7 बजे तक रवि भी आ गया.

‘‘रवि के लिए चाय नहीं बनाओगी, विभा?’’ पिताजी ने पूछा.

विभा हमेशा की तरह सोच रही थी कि रवि दफ्तर से आ कर खाना ही खाना चाहेगा परंतु दिल्ली में लोग घर में 9 बजे से पहले खाना कहां खाते हैं.

‘‘चाय बना दो, विभा. खाने के लिए भी कुछ ले आना. खाना तो 9 बजे के बाद ही खाएंगे,’’ रवि ने कहा.

विभा कुछ ही देर में रवि के लिए चाय बना लाई. रवि चाय पीने लगा.

‘‘शाम को क्या सब्जियां बना रही हो, विभा?’’ रवि ने पूछा.

‘‘सब्जियां क्या बनाऊंगी? कल की तीनों सब्जियां और छोले ज्यों के त्यों भरे रखे हैं. सवेरे की सब्जी और दाल रखी है. वही खा लेंगे,’’ विभा ने कहा.

रवि ने विभा को इशारा करते हुए कुछ इस तरह देखा जैसे आंखों ही आंखों में उस को झिड़क रहा हो.

‘‘बासी सब्जियां खिलाओगी, पिताजी को?’’ रवि रुखाई से बोला.

‘‘मैं तो आज कोई सब्जी खरीद कर लाई ही नहीं. चलिए, बाजार से ले आते हैं. विमलजी की दुकान तो खुली ही होगी. इस बहाने पिताजी भी बाहर घूम आएंगे,’’ विभा ने कहा.

रवि ने अपनी चाय खत्म कर ली थी. वह अपनी चाय का प्याला वहीं छोड़ कर शयनकक्ष में चला गया. विभा को यह बहुत अटपटा लगा. सोचा, ‘क्या हो गया है रवि को? घर में नौकर रख लिए हैं क्या, जो कल से साहब की तरह व्यवहार कर रहे हैं.’

कुछ देर बाद तीनों विमल बाबू की दुकान पर पहुंच गए. रवि की जिद थी कि खूब सारी सब्जियां और फल खरीद लिए जाएं. पिताजी जरा कुछ दूरी पर देसी घी के डब्बे की कीमत देख कर उस की कीमत रुपए में समझने की कोशिश कर रहे थे.

‘‘इतनी सारी सब्जियों का क्या होगा? कहां रखूंगी इन को? फ्रिज में?’’ विभा ने शिकायत के लहजे में कहा.

‘‘जब तक यहां पिताजी हैं तब तक घर में बासी सब्जी नहीं चलेगी. मुझे तुम्हारे पीहर का पता नहीं, परंतु हमारे यहां बासी सब्जी नहीं खाई जाती,’’ रवि दबी आवाज में यह सब कह गया.

विभा को रवि के ये शब्द कड़वे लगे.

‘‘मेरे पीहर वालों का अपमान कर के क्या मिल गया तुम्हें?’’ विभा ने कहा.

घर आते ही रवि ने विभा को ताजी सब्जियां बनाने के लिए कहा. पिताजी ने जिद की कि नई सब्जी बनाने की क्या जरूरत है जबकि दोपहर की सब्जियां बची हैं. विभा की जान में जान आई. अगर सब्जियां बनाने लग जाती तो खाना खातेखाते रात के 11 बज जाते. पिताजी रसोई में ही बैठ गए. रवि भी वहीं खड़ा रहा. वह कभी विभा के काम में हाथ बंटाता और कभी पिताजी से बातें कर लेता. खाना 9 बजे ही निबट गया. रवि और पिताजी टीवी देखने लगे.

विभा रसोई का काम सवेरे पर छोड़ कर अपने अध्ययन कक्ष में चली गई. पढ़तेलिखते रात के 12 बज गए. बीचबीच में रसोई से बरतनों के खड़कने की आवाज आती रही. शायद रवि चाय या दूध तैयार कर रहा होगा अपने और पिताजी के लिए. विभा इतना थक गई थी कि उस की हिम्मत बैठक में जा कर टीवी देखने की भी न थी. बिस्तर पर लेटते ही नींद ने उसे धर दबोचा.
अलार्म की पहली घंटी बजते ही उठ गई विभा. रसोई में चाय बनाने पहुंची. पिताजी को वहां देख कर चौंक गई. पिताजी ने रसोई को पूरी तरह से संवार दिया था. बिजली की केतली में पानी उबल रहा था. मेज पर 3 चाय के प्याले रखे थे.

‘‘आप ने इतनी तकलीफ क्यों की?’’ विभा ने कहा.

‘‘अब मेरी सफर की थकान उतर गई है. मैं यहां यही निश्चय कर के आया था कि सारा दिन टीवी देख कर अपना समय नहीं बिताऊंगा बल्कि अपने को किसी न किसी उपयोगी काम में व्यस्त रखूंगा. तुम अपना ध्यान डिप्लोमा अच्छी तरह से पूरा करने में लगाओ. घर और बाहर के कामों की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ दो,’’ पिताजी बोले.

पिताजी की बात सुन कर विभा की आंखें नम हो गईं. पिताजी ने रवि को आवाज दी. रवि आंखें मलता हुआ आ गया. विभा ने सोचा, ‘रवि इन को मेहमान की तरह रखने की सोच रहा था? पिताजी क्या कभी मेहमान हो सकते हैं?’

जिंदगी का गणित: भाग 2

‘‘अभी आई,’’ कह कर वह बच्चे को पालने में लिटा फिर वहां आ गई. परंतु अब राहुल बाहर जाने को उद्यत था. उसे बाहर फाटक तक छोड़ने गई तो उस ने पलट कर रमा को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और हौले से मुसकरा कर हिचकते हुए कहा, ‘‘यह तो अशिष्टता ही होगी कि पहली मुलाकात में ही मैं आप से इतनी छूट ले लूं, लेकिन कहना भी जरूरी है…’’

रमा एकाएक घबरा गई, ‘बाप रे, यह क्या हो गया. क्या कहने जा रहा है राहुल, कहीं मेरे मन की कमजोरी इस ने भांप तो नहीं ली?’

रमा अपने भीतर की कंपकंपी दबाने के लिए चुप ही रही. राहुल ही बोला, ‘‘असल में मैं अपने एक दोस्त के साथ रहता हूं. अब उस की पत्नी उस के पास आ कर रहना चाहती है और वह परेशान है. अगर आप की सिफारिश से मुझे कोई बरसाती या कमरा कहीं आसपास मिल जाए तो बहुत एहसान मानूंगा. आप तो जानती हैं, एक छड़े व्यक्ति को कोई आसानी से…’’ वह हंसने लगा तो रमा की जान में जान आई. वह तो डर ही गई थी कि पता नहीं राहुल एकदम क्या छूट उस से ले बैठे.

ये भी पढ़ें: अब आएगा मजा: कैसे सिया ने अपनी सास का दिल जीता?

‘‘शाम को अपने पति से इस सिलसिले में भी बात करूंगी. इसी इमारत में ऊपर एक छोटा सा कमरा है. मकान मालिक इन्हें बहुत मानता है. हो सकता है, वह देने को राजी हो जाए. परंतु खाना वगैरह…?’’

‘‘वह बाद की समस्या है. उसे बाद में हल कर लेंगे,’’ कह कर वह बाहर निकल गया. गहरे ऊहापोह और असमंजस के बाद आखिर रमा ने अपने पति विनोद से फिर नौकरी करने की बात कही. विनोद देर तक सोचता रहा. असल परेशानी बच्चे को ले कर थी.

‘‘अपनी मां को मैं मना लूंगी. कुछ समय वे साथ रह लेंगी,’’ रमा ने सुझाव रखा.

‘‘देख लो, अगर मां राजी हो जाएं तो मुझे एतराज नहीं है,’’ वह बोला, ‘‘उमेशजी हमारे जानेपरखे व्यक्ति हैं. उन की कंपनी में नौकरी करने से कोई परेशानी और चिंता नहीं रहेगी. फिर तुम्हारी पसंद का काम है. शायद कुछ नया करने को मिल जाए.’’

राहुल के लिए ऊपर का कमरा दिलवाने की बात जानबूझ कर रमा ने उस वक्त नहीं कही. पता नहीं, विनोद इस बात को किस रूप में ले. दूसरे दिन वह बच्चे के साथ मां के पास चली गई और मां को मना कर साथ ले आई. विनोद भी तनावमुक्त हो गया.

रमा ने फिर से नौकरी आरंभ कर दी. पुराने कर्मचारी उस की वापसी से प्रसन्न ही हुए, पर राहुल तो बेहद उत्साहित हो उठा, ‘‘आप ने मेरी बात रख ली, मेरा मान रखा, इस के लिए किन शब्दों में आभार व्यक्त करूं?’’

रमा सोचने लगी, ‘यह आदमी है या मिसरी की डली, कितनी गजब की चाशनी है इस के शब्दों में. कितने भी तीखे डंक वाली मधुमक्खी क्यों न हो, इस डली पर मंडराने ही लगे.’ एक दिन उमेशजी ने कहा था, ‘कंपनी में बहुत से लोग आएगए, पर राहुल जैसा होनहार व्यक्ति पहले नहीं आया.’

ये भी पढ़ें: अनिता की समझदारी: अनिता ने जालसाजों को कैसे सबक

‘लेकिन राहुल आप की डांटफटकार से बहुत परेशान रहता है. उसे हर वक्त डर रहता है कि कहीं आप उसे कंपनी से निकाल न दें,’ रमा मुसकराई थी.

‘तुम्हें पता ही है, अगर ऐसा न करें तो ये नौजवान लड़के हमारे लिए अपनी जान क्यों लड़ाएंगे?’ उमेशजी हंसने लगे थे.

‘‘राहुल, एक सूचना दूं तुम्हें?’’ एक दिन अचानक रमा राहुल की आंखों में झांकती हुई मुसकराने लगी तो राहुल जैसे निहाल ही हो गया था.

‘‘अगर आप ने ये शब्द मुसकराते हुए न कहे होते तो मेरी जान ही निकल जाती. मैं समझ लेता, साहब ने मुझे कंपनी से निकाल देने का फैसला कर लिया है और मेरी नौकरी खत्म हो गई है.’’

‘‘आप उमेशजी से इतने आतंकित क्यों रहते हैं? वे तो बहुत कुशल मैनेजर हैं. व्यक्ति की कीमत जानते हैं. आदमी की गहरी परख है उन्हें और वे आप को बहुत पसंद करते हैं.’’

‘‘क्यों सुबहसुबह मेरा मजाक बना रही हैं,’’ वह हंसा, ‘‘उमेशजी और मुझे पसंद करें? कहीं कैक्टस में भी हरे पत्ते आते हैं. उस में तो चारों तरफ सिर्फ तीखे कांटे ही होते हैं, चुभने के लिए.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ वह बोली, ‘‘वे तुम्हें बहुत पसंद करते हैं.’’

‘‘उन्हें छोडि़ए, रमाजी, अपने को तो अगर आप भी थोड़ा सा पसंद करें तो जिंदगी में बहुतकुछ जैसे पा जाऊं,’’ उस ने पूछा, ‘‘क्या सूचना थी?’’

ये भी पढ़ें: गोल्डन वुमन: फैशन मौडल कैसे बनी दुल्हन

‘‘हमारे ऊपर वाला वह छोटा कमरा आप को मिलना तय हो गया है. 500 रुपए किराया होगा, मंजूर…?’’ रमा ने कहा तो राहुल ने अति उत्साह में आ कर उस का हाथ ही पकड़ लिया, ‘‘बहुतबहुत…’’ कहताकहता वह रुक गया.

उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो तुरंत हाथ छोड़ दिया, ‘‘क्षमा करें, रमाजी, मैं सचमुच कमरे को ले कर इतना परेशान था कि आप अंदाजा नहीं लगा सकतीं. कंपनी के काम के बाद मैं अपना सारा समय कमरा खोजने में लगा देता था. आप ने…आप समझ नहीं सकतीं, मेरी कितनी बड़ी मदद की है. इस के लिए किन शब्दों में…’’

‘‘कल से आ जाना,’’ रमा ने झेंपते हुए कहा.

किसीकिसी आदमी की छुअन में इतनी बिजली होती है कि सारा शरीर, शरीर का रोमरोम झनझना उठता है. रगरग में न जाने क्या बहने लगता है कि अपनेआप को समेट पाना असंभव हो जाता है. पति की छुअन में भी पहले रमा को ऐसा ही प्रतीत होता था, परंतु धीरेधीरे सबकुछ बासी पड़ गया था, बल्कि अब तो पति की हर छुअन उसे एक जबरदस्ती, एक अत्याचार प्रतीत होती थी. हर रात उसे लगता था कि वह एक बलात्कार से गुजर रही है. वह जैसे विनोद को पति होने के कारण झेलती थी. उस का मन उस के साथ अब नहीं रहता था. यह क्या हो गया है, वह खुद समझ नहीं पा रही थी.

मां से अपने मन की यह गुत्थी कही थी तो वे हंसने लगीं, ‘पहले बच्चे के बाद ऐसा होने लगता है. कोई खास बात नहीं. औरत बंट जाती है, अपने आदमी में और अपने बच्चे में. शुरू में वह बच्चे से अधिक जुड़ जाती है, इसलिए पति से कटने लगती है. कुछ समय बाद सब ठीक हो जाएगा.’

‘पर यह राहुल…? इस की छुअन…?’ रमा अपने कक्ष में बैठी देर तक झनझनाहट महसूस करती रही.

ये भी पढ़ें: सहारा: क्या जबरदस्ती की शादी निभा पाई सुलेखा

राहुल ऊपर के कमरे में क्या आया, रमा को लगा, जैसे उस के आसपास पूरा वसंत ही महकने लगा है. वह खुशबूभरे झोंके की तरह हर वक्त उस के बदन से जैसे अनदेखे लिपटता रहता.

वह सोई विनोद के संग होती और उसे लगता रहता, राहुल उस के संग है और न जाने उसे क्या हो जाता कि विनोद पर ही वह अतिरिक्त प्यार उड़ेल बैठती.

नींद से विनोद जाग कर उसे बांहों में भर लेता, ‘‘क्या बात है मेरी जान, आज बहुत प्यार उमड़ रहा है…’’

वह विनोद को कुछ कहने न देती. उसे बेतहाशा चूमती चली जाती, पागलों की तरह, जैसे वह उस का पति न हो, राहुल हो और वह उस में समा जाना चाहती हो.

आगे पढ़ें

जिंदगी का गणित: भाग 3

अब वह मन ही मन राहुल से बोलती, बतियाती रहती, जैसे वह हर वक्त उस के भीतरबाहर रह रहा हो. उस के रोमरोम में बसा हुआ हो. वह अब जो भी रसोई में पकाती, उसे लगता राहुल के लिए पका रही है, वह खाती या विनोद को खिलाती तो उसे लगता रहता, राहुल को खिला रही है. वह अपने सामने बैठे पति को अपलक ताकती रहती, जैसे उस के पीछे राहुल को निहार रही हो.

ये भी पढ़ें: मैं चुप रहूंगी: क्या थी विजय की असलियत

वह स्नानघर में वस्त्र उतार कर नहा रही होती तो उसे लगता रहता, राहुल उस के पोरपोर को अपनी नरम उंगलियों से छू और सहला रहा है और वह पानी की तरह ही बहने लगती.

राहुल के लिए ऊपर छत पर कोई स्नानघर नहीं था. नीचे सीढि़यां उतर कर इमारत के कर्मचारियों के लिए एक साझा स्नानघर था, जिस में उसे नहाने की अनुमति थी. वह किसी महकते साबुन से नहा कर जब सीढि़यां चढ़ता हुआ उस के फ्लैट के सामने से गुजरता तो अनायास ही वह जंगले में आ कर खड़ी हो जाती. देर तक उस के साबुन की सुगंध हवा के साथ वह अपने भीतर फेफड़ों में महसूस करती रहती. आदमी में भी कितनी महक होती है. आदमी की आदम महक और वह उस महक की दीवानी…उस में मदहोश, गाफिल.

वह जानबूझ कर विनोद के सामने कभी गलती से भी राहुल का जिक्र न करती थी. कमरे में आ जाने के बावजूद कभी उस ने विनोद के सामने उस से बात करने का प्रयास नहीं किया था. न उसे कभी चाय या खाने पर ही बुलाया था.

परंतु क्या सचमुच ऐसा था, इतना सहज और सरल? या संख्याएं और गणितीय रेखाएं आपस में उलझ गई थीं, गड्डमड्ड हो गई थीं?

उस ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि वह विनोद के अलावा भी किसी अन्य पुरुष की कामना करेगी कि उस के भीतर कोई दूसरा भी कभी इस तरह रचबस जाएगा कि वह पूरी तरह अपनेआप पर से काबू खो बैठेगी.

ये भी पढ़ें: थोड़ी सी बेवफाई : प्रिया के घर सरोज ने ऐसा क्या देख लिया

‘‘राहुल, तुम मेरा भला चाहते हो या बुरा…?’’ एक दिन उस की चार्टर्ड बस नहीं आई थी तो उसे राहुल के साथ ही सामान्य बस से दफ्तर जाना पड़ रहा था. वे दोनों उस समय बस स्टौप पर खड़े थे.

‘‘तुम ने कैसे सोच लिया कि मैं कभी तुम्हारा बुरा भी चाह सकता हूं? अपने मन से ही पूछ लेतीं. मेरे बजाय तुम्हारा मन ही सच बता देता,’’ राहुल सीधे उस की आंखों में झांक रहा था.

‘‘तुम मेरी खातिर ऊपर का कमरा ही नहीं, बल्कि यह नौकरी भी छोड़ कर कहीं चले जाओ. सच राहुल, मैं अब…’’

‘‘अगर तुम मेरे बिना रह सकती हो तो कहो, मैं दुनिया ही छोड़ दूं. मैं तुम्हारे बिना जीवित रहने की अब कल्पना नहीं करना चाहता,’’ उस ने कहा तो रमा की पलकों पर नमी तिर आई.

‘‘किसी भी दिन मेरा पागलपन विनोद पर उजागर हो जाएगा. और उस दिन की कल्पनामात्र से ही मैं कांप उठती हूं.’’

‘‘सच बताना, मेरे बिना अब जी सकती हो तुम?’’चुप रह गई रमा.

बस आई तो राहुल उस में चढ़ गया. उस ने हाथ पकड़ कर रमा को भी चढ़ाना चाहा तो वह बोली, ‘‘तुम जाओ, मैं आज औफिस नहीं जाऊंगी,’’ कह कर वापस घर आ गई.

मां ने उस की हालत देखी तो पहले तो कुछ नहीं कहा, पर जब वह अपने शयनकक्ष में बिस्तर पर तकिए में मुंह गड़ाए सिसकती रही तो न जाने कब मां उस के पलंग पर आ बैठीं, ‘‘अपनेआप को संभालो, बेटी. यह सब ठीक नहीं है. मैं समझ रही हूं, तू कहां और क्यों परेशान है. मैं आज ही राहुल से चुपचाप कह दूंगी कि वह यहां से नौकरी छोड़ कर चला जाए. इस तरह कमजोर पड़ना अच्छा नहीं होता, बेटी. तेरा अपना घरपरिवार है. संभाल अपनेआप को.’’

रमा न जाने क्यों देर तक एक नन्ही बच्ची की तरह मां की गोद में समाई फफकती रही, जैसे कोई उस का बहुत प्रिय खिलौना उस से छीनने की कोशिश कर रहा हो.

ये भी पढ़ें: मेरा बच्चा मेरा प्यार : अपने बच्चे से प्यार का एहसास

जिंदगी का गणित: भाग 1

जिंदगी का गणित सीधा और सरल नहीं होता. वह बहुत उलझा हुआ और विचित्र होता है. रमा को लगा था, सबकुछ ठीकठाक हो गया है. जिंदगी के गणितीय नतीजे सहज निकल आएंगे. उस ने चाहा था कि वह कम से कम शादी से पहले बीए पास कर ले. वह कर लिया. फिर उस ने चाहा कि अपने पैरों पर खड़े होने के लिए कोई हुनर सीख ले. उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया और उस में महारत भी हासिल कर ली.

ये भी पढ़ें : रश्मि: बलविंदर सिंह से क्या रिश्ता था रश्मि का?

फिर उस ने चाहा, किसी मनमोहक व्यक्तित्व वाले युवक से उस की शादी हो जाए, वह उसे खूब प्यार करे और वह भी उस में डूबडूब जाए. दोनों जीवनभर मस्ती मारें और मजा करें. यह भी हुआ. विनोद से उस के रिश्ते की बात चली और उन लोगों ने उसे देख कर पसंद कर लिया. वह भी विनोद को पा कर प्रसन्न और संतुष्ट हो गई पर…

शादी हुए 2 साल गुजरे थे. 7-8 माह का एक सुंदर सा बच्चा भी हो गया था. वह सबकुछ छोड़छाड़ कर और भूलभाल कर अपनी इस जिंदगी को भरपूर जी रही थी. दिनरात उसी में खोई रहती थी. वह पहले एक रेडीमेड वस्त्रों की निर्यातक कंपनी में काम करती थी. जब उस की शादी हुई, उस वक्त इस धंधे में काफी गिरावट चल रही थी. इसलिए उस नौकरी को छोड़ते हुए उसे कतई दुख नहीं हुआ. कंपनी ने भी राहत की सांस ली.

परंतु जैसे ही इधर फिर कारोबार चमका और विदेशों में भारतीय वस्त्रों की मांग होने लगी, इस व्यापार में पहले से मौजूद कंपनियों ने अपने हाथ आजमाने शुरू कर दिए.

राहुल इसी सिलसिले में कंपनी मैनेजर द्वारा बताए पते पर रमा के पास आया था, ‘‘उमेशजी आप के डिजाइनों के प्रशंसक हैं. वे चाहते हैं, आप फिर से नौकरी शुरू कर लें. वेतन के बारे में आप जो उपयुक्त समझें, निसंकोच कहें. मैं साहब को बता दूंगा…

ये भी पढ़ें : परिवर्तन: मोहिनी क्यों बदल गई थी?

‘‘मैडम, हम चाहते हैं कि आप इनकार न करें, इसलिए कि हमारा भविष्य भी कंपनी के भविष्य से जुड़ा हुआ है. अगर कंपनी उन्नति करेगी तो हम भी आगे बढ़ेंगे, वरना हम भी बेकारों की भीड़ के साथ सड़क पर आ जाएंगे. आप अच्छी तरह जानती हैं, चार पैसे कंपनी कमाएगी तभी एक पैसा हमें वेतन के रूप में देगी.’’

व्यापारिक संस्थानों में आदमी कितना मतलबी और कामकाजी हो जाता है, राहुल रमा को इसी का जीताजागता प्रतिनिधि लगा था. एकदम मतलब की और कामकाजी बात सीधे और साफ शब्दों में कहने वाला. रमा ने उस की तरफ गौर से देखा, आकर्षक व्यक्तित्व और लंबी कदकाठी का भरापूरा नौजवान. वह कई पलों तक उसे अपलक ताकती रह गई.

‘‘उमेशजी को मेरी ओर से धन्यवाद कहिएगा. उन के शब्दों की मैं बहुत कद्र करती हूं. उन का कहा टालना नहीं चाहती पर पहले मैं अपने फैसले स्वयं करती थी, अब पति की सहमति जरूरी है. वे शाम को आएंगे. उन से बात कर के कल उमेशजी को फोन करूंगी. असल में हमारा बच्चा बहुत छोटा है और हमारे घर में उस की देखभाल के लिए कोई है नहीं.’’

चाय पीते हुए रमा ने बताया तो राहुल कुछ मायूस ही हुआ. उस की यह मायूसी रमा से छिपी न रही.

‘‘कंपनी में सभी आप के डिजाइनों की तारीफ अब तक करते हैं. अरसे तक बेकार रहने के बाद  इस कंपनी ने मुझे नौकरी पर रखा है. अगर कामयाबी नहीं मिली तो आप जानती हैं, कंपनी मुझे निकाल सकती है.’’

जाने क्यों रमा के भीतर उस युवक के प्रति एक सहानुभूति सी उभर आई. उसे लगा, वह भीतर से पिघलने लगी है. किसीकिसी आदमी में कितना अपनापन झलकता है. अपनेआप को संभाल कर रमा ने एक व्यक्तिगत सा सवाल कर दिया, ‘‘इस से पहले आप कहां थे?’’

‘‘कहीं नहीं, सड़क पर था,’’ वह झेंपते हुए मुसकराया, ‘‘बंबई में अपने बड़े भाई के पास रह कर यह कोर्स किया. वहीं नौकरी कर सकता था परंतु भाभी का स्वभाव बहुत तीखा था. फिर हमारे पास सिर्फ एक कमरा था. मैं रसोई में सोता था और कोई जगह ही नहीं थी.

‘‘भैया तो कुछ नहीं कहते थे, पर भाभी बिगड़ती रहती थीं. शायद सही भी था. यही दिन थे उन के खेलनेखाने के और उस में मैं बाधक था. वे चाहती थीं कि मैं कहीं और जा कर नौकरी करूं, जिस से उन के साथ रहना न हो. मजबूरन दिल्ली आया. 3-4 महीने से यहां हूं. हमेशा तनाव में रहता हूं.’’

‘‘लेकिन आप तो बहुत स्मार्ट युवक हैं, अच्छा व्यवसाय कर सकते हैं.’’

‘‘आप भी मेरा मजाक बनाने लगेंगी, यह उम्मीद नहीं थी. कंपनी की अन्य लड़कियां भी यही कह कर मेरा मजाक उड़ाती हैं. मुझे सफलता की जगह असफलता ही हाथ लगती है. पिछले महीने भी मैं ज्यादा व्यवसाय नहीं कर पाया था. तब उमेशजी ने बहुत डांट पिलाई थी. इतनी डांट तो मैं ने अपने मांबाप और अध्यापकों से भी नहीं खाई. नौकरी में कितना जलील होना पड़ता है, यह मैं अब जान रहा हूं.’’

मुसकरा दी रमा, ‘‘हौसला रखिए, ऐसा होता रहता है. ऊपर से जो हर वक्त मुसकराते दिखाई देते हैं, भीतर से वे उतने खुश नहीं होते. बाहर से जो बहुत संतुष्ट नजर आते हैं, भीतर से वे उतने ही परेशान और असंतुष्ट होते हैं. यह जीवन का कठोर सत्य है.’’

चलतेचलते राहुल ने नमस्कार करते हुए जब कृतज्ञ नजरों से रमा की ओर देखा तो वह सहसा आरक्त हो उठी. बेधड़क आंखों में आंखें डाल कर अपनी बात कह सकने की सामर्थ्य रखने वाली रमा को न जाने क्या हो गया कि वह छुईमुई की तरह सकुचा गई और उस की पलकें झुक गईं.

‘‘आप मेरी धृष्टता को क्षमा करें, जरूर आप का बच्चा आप की ही तरह बेहद सुंदर होगा. क्या मैं एक नजर उसे देख सकता हूं?’’ दरवाजे पर ठिठके राहुल के पांव वह देख रही थी और आवाज की थरथराहट अपने कानों में अनुभव कर रही थी.

रमा तुरंत शयनकक्ष में चली गई और पालने में सो रहे अपने बच्चे को उठा लाई.

ये भी पढ़ें : अब आएगा मजा: कैसे सिया ने अपनी सास का दिल जीता?

‘‘अरे, कितना सुंदर और प्यारा बच्चा है,’’ लपक कर वह बाहर फुलवारी में खिले एक गुलाब के फूल को तोड़ लाया और रमा के आंचल में सोए बच्चे पर हौले से रख दिया. फिर उस ने झुक कर उस के नरम गालों को चूम लिया तो बच्चा हलके से कुनमुनाया. जेब से 50 रुपए का नोट उस बच्चे की नन्ही मुट्ठी में वह देने लगा तो रमा बिगड़ी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘यह हमारे और इस बच्चे के बीच का अनुबंध है. आप को बीच में बोलने का हक नहीं है, रमाजी,’’ कह कर वह मुसकराया.

‘यह आदमी कोई जादूगर है. कंपनी की अन्य लड़कियों को तो इस ने दीवाना बना रखा होगा,’ रमा पलभर में न जाने क्याक्या सोच गई.

आगे पढ़ें

मन का दाग : सरोज को क्यों भड़का रही थी पड़ोसन

‘‘अरे तेरी बहू अब तक सो रही है और तू रसोई में नाश्ता बना रही है. क्या सरोज, तू ने तो अपने को घर की मालकिन से नौकरानी बना लिया,’’ सरोज की पड़ोसिन सुबहसुबह चीनी लेने आई और सरोज को काम करता देख सहानुभूति दिखा कर चली गई. उस के जाने के बाद सरोज फिर से अपने काम में लग गई पर मन में कही पड़ोसिन की बात खटकने लगी. वह सोचने लगी कि पिछले 30 साल से यही तो कर रही है. सुबह का नाश्ता, दोपहर को क्या बनना है, बाजार से क्या लाना है, बच्चों को क्या पसंद है, इसी में सारा दिन निकल जाता है. घर के बाकी कामों के लिए तो बाई आती ही है. बस, बच्चों को अपने हाथ का खाना खिलाने का मजा ही कुछ और है. इतने में सोच में डूबी सरोज के हाथ से प्लेट गिर गई तो पति अशोक ने रसोई में आ कर कहा, ‘‘सरोज, जरा ध्यान से, बच्चे सो रहे हैं.’’

‘‘हांहां, गलती से गिर गई,’’ सरोज ने प्लेट उठा कर ऊपर रख दी. आज से पहले भी छुट्टी वाले दिन सुबह नाश्ता बनाते हुए कभी कोई बरतन गिरता तो अशोक यही कहते कि बच्चे सो रहे हैं. बस, फर्क इतना था तब मेरा बेटा और बेटी सो रहे होते थे और आज बेटा और बहू. आज रविवार था, इसलिए बच्चे इतनी देर तक सो रहे हैं. वरना रोज तो 8 बजे तक औफिस के लिए निकल जाते हैं.

‘‘तुम इतनी सुबहसुबह रसोई में कर क्या रही हो?’’ इन्होंने रसोई में मेरे पास आ कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं जी, आज रविवार है. अमन और शिखा की छुट्टी है. सोचा कुछ अच्छा सा नाश्ता बना दूं. बस, उसी की तैयारी कर रही हूं.’’

‘‘ओ अच्छा, फिर तो ठीक है. सुनो, मेरे लिए चाय बना दो,’’ ये अखबार ले कर बैठ गए. इन को चाय दे कर मैं फिर रसोई में लग गई. 10.30 बजे अमन जगा तो चाय लेने रसोई में आया.

ये भी पढ़ें-क्या थी सलोनी की सच्चाई: भाग 1

‘‘मां, 2 कप चाय बना दो, शिखा भी उठ गई है. बाथरूम गई है. और हां मां, जल्दी तैयार हो जाओ. हम सब फिल्म देखने जा रहे हैं.’’

मैं ने पूछना चाहा कि चाय लेने शिखा क्यों नहीं आई और फिल्म का प्रोग्राम कब बना पर तब तक अमन अपने कमरे में जा चुका था.

‘‘अरे वाह, फिल्म, मजा आ गया. आज की छुट्टी का तो अच्छा इस्तेमाल हो जाएगा. सरोज, मैं तो चला नहाने. तुम मेरी वह नीली वाली कमीज जरा इस्तिरी कर देना,’’ अशोक फिल्म की बात सुन कर खुश हो गए और गुनगुनाते हुए नहाने चले गए. मैं अभी रसोई में ही थी कि शिखा आ गई.

‘‘अरे मम्मी, आप अभी तक यहां ही हैं, 12 बजे का शो है. चलिए, जल्दी से तैयार हो जाइए. चाय मैं बनाती हूं. मम्मी आप वह गुलाबी साड़ी पहनना. वह रंग आप पर बहुत अच्छा लगता है.’’

अमन भी अब तक रसोई में आ गया था. ‘‘शिखा, यह फिल्म का प्रोग्राम कब बना? देखा, मैं ने नाश्ते की सारी तैयारी कर रखी थी…’’ मेरी बात पूरी होने से पहले ही शिखा की जगह अमन बोल पड़ा, ‘‘मम्मी, रात को शिखा ने प्रोग्राम बनाया और फिर इंटरनैट पर ही बुकिंग भी कर ली. अब प्लीज, जल्दी चलो न, मम्मी, नाश्ता हम डिनर में खा लेंगे,’’ अमन ने मेरा हाथ प्यार से पकड़ा और कमरे तक ले आया. बचपन से ही मैं अमन को कभी किसी बात के लिए मना नहीं कर पाती थी. यहां तक कि जब उस ने शिखा को पसंद किया था तब भी मेरी मरजी न होते हुए भी मैं ने हां की ताकि अमन खुश रह सके. अमन जितना चुलबुला और बातूनी था, शिखा उतनी ही शांत थी. मुझे शादी के कुछ ही दिनों में महसूस होने लगा था कि शिखा अमन के अधिकतर फैसले खुद लेती थी, चाहे वह किसी के घर डिनर का हो या कहीं घूमने जाने का. खैर, उस दिन हम चारों ने बहुत मजा किया. फिल्म ठीक थी. पर रात को किसी ने खाना नहीं खाया और मुझे सारा नाश्ता अगले दिन काम वाली को देना पड़ा. मेरी मेहनत खराब हुई और मुझे बहुत दुख हुआ. कुछ दिन के बाद पड़ोस में मेरी सहेली माधुरी के पोते का मुंडन था. मैं ने सोचा मैं ही चली जाती हूं. मैं ने अशोक को फोन कर के बता दिया कि घर पर ताला लगा हुआ है और मैं पड़ोस में जा रही हूं. बच्चे तो रात को लेट ही आते हैं, इसलिए उन्हें बताने की जरूरत नहीं समझी. कुछ ही देर बाद मेरे फोन पर शिखा का फोन आया, ‘‘मम्मी, आप कहां हो, घर पर ताला लगा है. मैं आज जल्दी आ गई.’’

‘‘शिखा, तुम रुको, मैं आती हूं,’’ मैं घर पहुंची तो देखा कि शिखा बुखार से तप रही थी. मैं ने जल्दी से ताला खोला और उसे उस के कमरे में लिटा दिया. बुखार तेज था तो मैं ने बर्फ की पट्टियां उस के माथे पर रख दीं. थोड़ी देर बाद शिखा दवा खा कर सो गई. इतने में दरवाजे की घंटी बजी, माधुरी, जिस का फंक्शन मैं अधूरा छोड़ कर आ गई थी, मुझे मेरा पर्स लौटाने आई थी जो मैं जल्दी में उस के घर भूल आई थी.

ये भी पढ़ें-लक्ष्मण-रेखा

‘‘क्या हुआ, सरोजजी, आप जल्दीजल्दी में निकल आईं?’’ माधुरी, जिन्हें मैं दीदी कहती हूं, ने मुझ से पूछा तो मैं ने कहा, ‘‘बस दीदी, बहू घर आ गई थी, थोड़ी तबीयत ठीक नहीं थी उस की.’’

‘‘क्या बात है सरोज, तू भी कमाल करती है, बहू घर जल्दी आ गई तो तू सबकुछ बीच में छोड़ कर चली आई. अरे उस से कहती कि 2 घर छोड़ कर माधुरी के घर में हूं. आ कर चाबी ले जा. सरोज, तेरी बहू को आए अभी सिर्फ 2 महीने ही हुए हैं और तू ने तो उसे सिर पर बिठा लिया है. मुझे देख, 3-3 बहुएं हैं, उन की मजाल है कि कोई मुझे कुछ कह दे. सिर से पल्ला तक खिसकने नहीं देती मैं उन का. पर तू भी क्या करेगी? बेटे की पसंद है, सिर पर तो

बिठानी ही पड़ेगी,’’ माधुरी दीदी न जाने मुझे कौन सा ज्ञान बांट कर चली गईं. पर उन के जाते ही मैं सोच में पड़ गई कि उन्होंने जो कहा वह ठीक था. हर लड़की को शादी के बाद घर की जिम्मेदारियां भी समझनी होती हैं. यह क्या बात हुई, मुझे क्या समझ रखा है शिखा ने. पर अगर शिखा की जगह मेरी बेटी नीति (मेरी बेटी) होती तब भी तो मैं सब छोड़ कर आ जाती. लेकिन बहुओं को घर का काम तो करना ही होता है. शिखा के ठीक होते ही मैं उस से कहूंगी कि सुबह मेरे साथ रसोई में मदद करे. पर वह तो सुबह जल्दी जाती है और रात को देर से आती है और मैं सारा दिन घर पर होती हूं. बहू की मदद के बिना भी काम आराम से हो जाता है. फिर क्यों उस को परेशान करूं. इसी पसोपेश में विचारों को एक ओर झटक कर मैं रात के खाने की तैयारी में जुट गई. बहू की तबीयत ठीक नहीं है उस के लिए कुछ हलका बना देती हूं और अमन के लिए बैगन का भरता. उसे बहुत पसंद है. फिर दिमाग के किसी कोने से आवाज आई 2-2 चीजें क्यों बनानी, बहू इतनी भी बीमार नहीं कि भरता न खा सके. पर दिल ने दिमाग को डांट दिया-नहीं, तबीयत ठीक नहीं है तो हलका ही खाना बनाती हूं. रात को अमन शिखा के लिए खाना कमरे में ही ले गया. मुझे लगा तबीयत कहीं ज्यादा खराब न हो जाए, इसलिए मैं पीछेपीछे कमरे में चली गई. शिखा सोई हुई थी और खाना एक ओर रखा था. अमन लैपटौप पर कुछ काम कर रहा था.

‘‘क्या हुआ, अमन? शिखा ने खाना नहीं खाया?’’

‘‘नहीं, मम्मी, उस को नींद आ रही थी. मैं कुछ देर में खाना रखने आ रहा था. आप आ गई हो तो प्लीज, इसे ले जाओ.’’ अमन फिर लैपटौप पर काम करने लगा. मुझे बहुत गुस्सा आया, एक तो मैं ने उस की बीमारी देखते हुए अलग से खाना बनाया और शिखा बिना खाए सो गई. श्रीमती शर्मा ठीक ही कहती हैं, मैं कुछ ज्यादा ही कर रही हूं. मुझे शिखा की लगाम खींचनी ही पड़ेगी, वरना मेरी कद्र इस घर में खत्म हो जाएगी. अगले दिन मैं रसोई में थी तभी शिखा तैयार हो कर औफिस के लिए निकलने लगी, ‘‘मम्मी, मैं औफिस जा रही हूं.’’

‘‘शिखा, तुम्हारी तो तबीयत ठीक नहीं है, औफिस क्यों जा रही हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मम्मी, बहुत जरूरी मीटिंग है, टाल नहीं सकती. कल भी जल्दी आ गई थी तो काम अधूरा होगा…’’ अपनी बात खत्म किए बिना ही शिखा औफिस चली गई. मुझे बहुत गुस्सा आया कि कैसी लड़की है, अपने आगे किसी को कुछसमझती ही नहीं. घर में हर किसी को अपने तरीके से चलाना चाहती है. घर की कोई जिम्मेदारी तो समझती नहीं, ऊपर से घर को होटल समझ रखा है…पता नहीं मैं क्याक्या सोचती रही. फिर अपने काम में लग गई. काम खत्म कर के मैं माधुरी दीदी के घर चली गई, जिन के पोते के मुंडन का कार्यक्रम मैं अधूरा छोड़ आई थी. सोचा एक बार जा कर शगुन भी दे आऊं. उन की बहू ने बताया कि माताजी की तबीयत ठीक नहीं है, वे अपने कमरे में हैं. मैं उन के कमरे में ही चली गई. माधुरी दीदी पलंग पर लेटी थीं और उन की दूसरी बहू उन के पैर दबा रही थी. मुझे देख कर उन्होंने अपनी बहू से कहा, ‘‘चल छुटकी, आंटी के लिए चाय बना ला.’’ उन की एक आवाज पर ही उन की बहू उठ कर रसोई में चली गई.

‘‘क्या हुआ, दीदी, आप की तबीयत खराब है क्या?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं…कल की थकान है, बस. यों समझ लो कि आज आराम का मन है मेरा,’’ वह मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘तेरी बहू की तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है, दीदी. औफिस गई है,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या, औफिस गई? देखो तो जरा, कल तक तो इतनी बीमार थी कि 2 घर छोड़ कर चाबी तक लेने नहीं आ पाई. अपनी सास को भगाया और आज औफिस चली गई. सब तेरी ही गलती है, सरोज. तू ने उसे बहुत ढील दे रखी है.

‘‘अरे देख, मेरी बहुओं को, मजाल है कि आवाज निकल जाए इन की मेरे सामने.’’

इतने में छोटी बहू चायपकोड़े रख गई. माधुरी दीदी ने बात आगे शुरू की, ‘‘देख सरोज, मैं ने दुनिया देखी है. इन बहुओं को सिर पर बैठाएगी तो पछताएगी एक दिन. तेरे बेटे को तुझ से दूर कर देगी.’’ तब से वे बोली जा रही थीं और मैं मूक श्रोता बन उन की बातें सुने जा रही थी. दर्द से सिर फटने लगा था. वे बोले जा रही थीं, ‘‘सरोज, मेरी बहन भी तेरी तरह ही बड़ी सीधी है. आज देख उस को, बहुओं ने पूरा घर अपने हाथ में ले लिया.’’ उन्होंने चाय पीनी शुरू कर दी. मुझे कुछ अजीब सा लगने लगा. सिर बहुत भारी हो गया. मैं ने जैसे ही कप उठाया वह छलक कर मेरे कपड़ों पर गिर गया.

‘‘अरे सरोज, आराम से. जा, जल्दी इस को पानी से धो ले वरना निशान पड़ जाएगा.’’

दीदी के कहने पर मैं खुद को संभाल कर बाथरूम की ओर चल पड़ी. बाथरूम की दीवार रसोई के एकदम साथ थी. बाथरूम में खड़े हुए मुझे रसोई में काम कर रही दीदी की बहुओं की आवाजें साफ सुनाई दे रही थीं. ‘‘देखा बुढि़या को, कल सारा वक्त पसर के बैठी थी और फिर भी थक गई,’’ यह आवाज शायद छोटी बहू की थी.

‘‘और नहीं तो क्या, पता नहीं कब यह बुढि़या हमारा पीछा छोड़ेगी. पूरे घर पर कब्जा कर के बैठी है. जल्दी ये मरे और हम घर का बंटवारा कर लें.’’

‘‘हां दीदी, आप के देवर भी यही कहते हैं. कम से कम अपनी मरजी से जी तो पाएंगे. इस के रहते तो हम खुल कर सांस तक नहीं ले सकते.’’

‘‘चल, धीरे बोल. और काम खत्म कर. अगर इस बुढि़या ने सुन लिया तो बस,’’ दोनों दबी आवाज में हंस दीं.

उन दोनों की बात सुन कर मुझे मानो एक धक्का सा लगा, यह कैसी सोच थी उन दोनों की अपनी सास के लिए. पर ठीक ही था, दीदी ने कभी इन दोनों को अपने परिवार का हिस्सा नहीं माना. हाय, मैं भी तो यही करने की सोच रही थी. घर पर अपना ऐसा भी क्या कब्जा कर के रखना कि सामने वाला तुम्हारे मरने का इंतजार करता रहे. अगर मैं दीदी की बातों में आ कर शिखा को बंधन में रखने की कोशिश करती तो घर की शांति ही खत्म हो जाती और कहीं शिखा भी तो मेरे लिए ऐसा ही नहीं सोचने लगती. न न, बिलकुल नहीं, शिखा तो बहुत समझदार है.’’

‘‘क्या हुआ, सरोज, दाग गया या नहीं?’’ बाहर से दीदी की आवाज ने मुझे विचारों से बाहर निकाल दिया.

मैं ने तुरंत बाहर आ कर कहा, ‘‘हां दीदी, सब दाग निकल गए,’’ मैं ने मन में सोचा, ‘साड़ी के भी और मन के भी.’

मैं ने तुरंत घर आ कर शिखा को फोन किया. उस का हालचाल पूछा और उस से जल्दी घर आ कर आराम करने को कहा. फिर मैं रसोई में चली गई रात का खाना बनाने.

आज शिखा के लिए अलग से खाना बनाते हुए मैं ने एक बार भी नहीं सोचा. ऐसा लगा मानो कि अपनी बेटी की बीमारी से परेशान एक मां उस के औफिस से घर आने का इंतजार कर रही हो ताकि वह घर आ कर आराम कर सके.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें