थोड़ी सी जमीं थोड़ा आसमां: जिंदगी की राह चुनती स्त्री- भाग 3

इस घटना के बाद तो कविता एकदम ही गुमसुम रहने लगी थी. इस दौरान राघव ने अपने दफ्तर से छुट्टी ले कर एक छोटे बच्चे की तरह कविता की देखभाल की.

कविता को यों मन ही मन घुटते देख, एक दिन मां ने उस से कहा, ‘‘कविता, मैं तुम्हारा दर्द समझती हूं, बेटा, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि जीना छोड़ दिया जाए.’’

मां की बात सुन कर कविता ने सिसकते हुए कहा, ‘‘तो और क्या करूं, अब किस के लिए जीने की इच्छा रखूं मैं, रंजन के लिए, जिस ने यह खबर सुन कर भी आने से मना कर दिया…सोचा था बच्चे के आने पर सब ठीक हो जाएगा, पर…मां, रंजन अपने बड़े भाई जैसे क्यों नहीं हैं…’’ कहते हुए कविता मां के गले से लग गई.

कविता के स्वास्थ्य में कुछ सुधार आने के बाद राघव एक दिन एक व्यक्ति को ले कर घर आए और बोले, ‘‘कविता, मैं जानता हूं तुम बहुत अच्छा डांस करती हो और मैं चाहता हूं कि तुम नृत्य की विधिवत शिक्षा लो.’’

अब कविता को एक नया लक्ष्य मिल गया था. वह लगन से डांस सीखने लगी. उसे खुश देख कर राघव को बहुत संतुष्टि मिलती थी.

एक दिन मां ने राघव से कहा, ‘‘बेटा, तेरी मौसी का फोन आया था, वह तीर्थयात्रा पर जा रही हैं, मैं भी साथ जाना चाहती हूं, तुम मेरे जाने का इंतजाम कर दो.’’

राघव कुछ चिंतित हो कर बोले, ‘‘मां, कविता से तो पूछ लो, वह यहां मेरे साथ अकेली रह लेगी.’’

मां ने इस बारे में जब कविता से पूछा तो वह मान गई.

मां के जाने के बाद राघव कविता से कुछ दूरी बना कर रहने की कोशिश करते और कविता भी अपने डांस में व्यस्त रहती थी. एक दिन कविता ने राघव से कहा, ‘‘मुझे आप को एक अच्छी खबर सुनानी है. गुरुजी एक स्टेज शो ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ कर रहे हैं और मैं उस में शकुंतला बन रही हूं.’’

राघव खुश हो कर बोले, ‘‘अरे, वाह, कब है वह?’’

‘‘अगले शुक्रवार…’’

राघव ताली बजा कर बोले, ‘‘वाह, इसे कहते हैं संयोग, उसी दिन तो रंजन और मां वापस  आ रहे हैं. बड़ा मजा आएगा, जब रंजन तुम्हें स्टेज पर शकुंतला बना देखेगा.’’

शाम को राघव घर लौटे तो तेज बारिश हो रही थी. आते ही उन्होंने आवाज दी, ‘‘कविता, एक कप चाय दे दो.’’

बहुत देर तक जब कविता नहीं आई तो वह बाहर आ कर कविता को देखने लगे, कविता वहां भी न थी, तभी उन्हें छत पर पैरों के थाप की आवाज सुनाई दी. वह छत पर गए तो देखा कि कविता बारिश में भीगते हुए नृत्य का अभ्यास कर रही थी और उस की गुलाबी साड़ी उस के शरीर से चिपक कर शरीर का एक हिस्सा लग रही थी. उस पल कविता बहुत खूबसूरत लग रही थी. राघव ने अपनी नजरें झुका लीं और बोले, ‘‘कविता… नीचे चलो, बीमार पड़ जाओगी.’’

राघव की आवाज सुन कर कविता चौंक पड़ी और उन के पीछेपीछे चल पड़ी. थोड़ी देर बाद जब वह चाय ले कर राघव के कमरे में आई तब भी उस के गीले केशों से पानी टपक रहा था.

चाय पीते हुए राघव बोले, ‘‘कविता, बैठो, तुम्हारा एक पोर्टे्ट बनाता हूं,’’ कविता बैठ गई. पोटे्रट बनाते हुए राघव ने देखा कि कविता की आंखों से आंसू बह रहे हैं. वह ब्रश रख कर कविता के पास आ गए और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘कविता, अब तो रंजन आने वाला है, अब इन आंसुओं का कारण?’’

कविता तड़प उठी और राघव के सीने से जा लगी. राघव चौंक पडे़. कविता ने सिसकते हुए कहा, ‘‘आप ने मुझे अपने लिए क्यों नहीं चुना…चुना होता तो आज मैं इतनी अतृप्त और अधूरी न होती.’’

कविता भी उन से प्यार करने लगी है, यह जान कर राघव अचंभित हो उठे. अनायास ही उन के हाथ कविता के बालों को सहलाने लगे. कविता ने राघव की ओर देखा, तो उन्होंने कविता की भीगी हुई आंखों को चूम लिया.

राघव के स्पर्श से बेचैन हो कर कविता ने अपने प्यासे अधर उन की ओर उठा दिए. कविता की आंखों में उतर आए मौन आमंत्रण को राघव ठुकरा न सके और दोनों कब प्यार के सुखद एहसास में खो गए उन्हें पता ही न चला.

सुबह जब राघव की नींद खुली तो कविता को अपने पास न पा कर वह हड़बड़ा कर उस के कमरे की ओर भागे, देखा, वह चाय बना रही थी. तब उन की जान में जान आई. कविता ने मुसकरा कर कहा, ‘‘आप उठ गए, लो, चाय पी लो.’’

राघव नजरें झुका कर बोेले, ‘‘कविता, कल रात जो हुआ…’’

‘‘मुझे उस का कोई अफसोस नहीं…’’ कविता राघव की बात बीच में ही काटती हुई बोली, ‘‘और आप भी अफसोस जता कर मुझे मेरे उस सुखद एहसास से वंचित मत करना.’’

कविता ने राघव के पास जा कर कहा, ‘‘सच राघव, मैं ने पहली बार जाना है कि प्यार क्या होता है. रंजन के प्यार में सदा दाता होने का दंभ पाया है मैं ने, पर आप के साथ मैं ने अपनेआप को जिया है, उस कोमल एहसास को आप मुझ से मत छीनो.’’

‘‘पर कवि… आज रंजन वापस आने वाला है, फिर…’’ कहते हुए राघव ने कविता को जोर से अपने सीने से लगा लिया, मानो अब वह कविता को अपने से दूर जाने नहीं देना चाहते हैं.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. कविता ने दरवाजा खोला तो मां को सामने पा कर वह खुशी  से उछल पड़ी. मां ने कविता के चेहरे पर छाई खुशी को देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, कविता, बहुत खुश लग रही हो, रंजन आ गया क्या?’’

मां की बात सुन कर कविता ने राघव की ओर देखा तो बात को संभालते हुए वह बोले, ‘‘रंजन आज शाम को आएगा, और आज कविता का स्टेज शो है न इसीलिए यह बहुत खुश है.’’

शाम को कविता को मानस भवन छोड़ कर राघव, रंजन को लेने एअरपोर्ट चले गए. एअरपोर्ट से लौटते समय घर न जा कर कहीं और जाते देख रंजन बोला, ‘‘हम कहां जा रहे हैं, भैया?’’

‘‘चलो, तुम्हें कुछ दिखाना है.’’

स्टेज पर अपनी पत्नी कविता को शकुंतला के रूप में देख कर रंजन निहाल हो गया. वह बहुत ही आकर्षक लग रही थी, उस का डांस भी बहुत अच्छा था. नाटक खत्म होने पर जब राघव और रंजन, कविता से मिलने गए तो वहां लोगों की भीड़ देख कर हैरान रह गए. लौटते हुए रंजन ने कविता से कहा, ‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम इतनी अच्छी डांसर हो.’’

कविता ने धन्यवाद कहा.

घर लौटते ही कविता बोली, ‘‘मां, मैं अपने घर जा रही हूं.’’

कविता की बात सुन कर सभी सकते में आ गए. मां ने चौंक कर कहा, ‘‘आज ही तो रंजन आया है और तुम अपने घर जाने की बात कर रही हो.’’

‘‘इसीलिए तो जा रही हूं मां, अब मैं रंजन के साथ एक छत के नीचे नहीं रह सकती.’’

कविता की यह बात सुन कर रंजन ने गुस्से से कहा, ‘‘यह क्या बकवास कर रही हो, कविता. मैं तुम्हारा पति हूं, कोई गैर नहीं.’’

कविता बिफर कर बोली, ‘‘पति… तुम जानते भी हो कि पति शब्द का मतलब क्या होता है? नहीं…तुम्हारे लिए बस, काम, पैसा, तरक्की, स्टेटस यही सबकुछ है. भावनाएं, प्यार क्या होता है इस से तुम अनजान हो.’’

रंजन भड़क कर बोला, ‘‘तुम इस तरह मुझे छोड़ कर नहीं जा सकतीं…’’

‘‘क्यों…क्यों नहीं जा सकती? ऐसा क्या किया है तुम ने आज तक मेरे लिए, जो तुम मुझे रोकना चाहते हो? जबजब मुझे तुम्हारी जरूरत थी, तुम नहीं थे, यहां तक कि जब मैं ने अपना बच्चा खोया तब भी तुम मेरे साथ नहीं थे और तुम्हें तो इस से खुशी ही हुई होगी, तुम उस झंझट के लिए तैयार जो नहीं थे. मन का रिश्ता तो तुम मुझ से कभी जोड़ ही नहीं सके और इस तन का रिश्ता भी मैं आज तोड़ कर जा रही हूं.’’

कविता के तानों से तिलमिला कर रंजन ने तल्खी से कहा, ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि तुम यों ही चली जाओगी और मैं तुम्हें जाने दूंगा,’’ इतना कह कर रंजन कविता की बांह पकड़ कमरे की ओर ले जाते हुए बोला, ‘‘चुपचाप अंदर चलो, मैं तुम्हें अपने को इस तरह अपमानित नहीं करने दूंगा. आखिर मेरी भी समाज में कोई इज्जत है.’’

‘‘रंजन…कविता का हाथ छोड़ दो…’’ मां ने तेज स्वर में कहा.

‘‘मां, तुम भी इस का साथ दे रही हो?’’ रंजन चौंक कर बोला.

कविता की बांह रंजन से छुड़ाते हुए मां बोलीं, ‘‘हां, रंजन, क्योंकि मैं जानती हूं कि यह जो कर रही है, सही है. आज भी तुम उसे अपने प्यार की खातिर नहीं, समाज में बनी अपनी झूठी प्रतिष्ठा के कारण रोकना चाहते हो. कविता को यह कदम तो बहुत पहले उठा लेना चाहिए था. जाने दो उसे…’’

कविता ने नम आंखों के साथ मां के पैर छुए और राघव की ओर पलट कर बोली, ‘‘आप ने मुझे जीने की जो नई राह दिखाई है उस के लिए आप की आभारी हूं, अब नृत्य साधना को ही मैं ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है. आप से जो भी मैं ने पाया है वह मेरे लिए अनमोल है. वह सदा मेरी अच्छी यादों में अंकित रहेगा…’’

इतना कह कर कविता चल पड़ी, अपने लिए, अपने हिस्से की थोड़ी सी जमीं और थोड़ा सा आसमां.

तूफान: कुसुम ने क्यों अपनी इज्जत दांव पर लगा दी?- भाग 2

कुसुमजी का मन जैसे कोई भंवर बन गया था जिस में सबकुछ गोलगोल घूम रहा था. महाराजिन? वह तो चौके के अलावा कभी किसी के कमरे में भी नहीं जाती. उस के अलगथलग बने मेहमानों के कमरे में जाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था. महरी? वह बरतन मांज कर चौके से ही आंगन में हो कर पिछवाड़े के दरवाजे से निकल जाती है. गरीब आदमी के ईमान पर शक नहीं करना चाहिए. फिर कंबल गया तो गया कहां? अब मेहमान से भी क्या कहें? कुसुमजी की परेशानी सुलझने का नाम ही नहीं ले रही थी. तभी मेहमान ने अपना सामान ला कर आंगन में रख दिया.

वह कुसुमजी को नमस्कार करने के लिए उद्यत हुआ. वह बिना कंबल के जा रहा है या कंबल मिल गया है यह जानने के लिए जैसे ही उन्होंने पूछा तो मेहमान ने झिझकते हुए कहा, ‘‘नहीं, भाभीजी, मिला तो नहीं. पर छोडि़ए इस बात को.’’ ‘‘नहींनहीं, अभी और देख लेते हैं. आप रुकिए तो.’’ कुसुमजी ने पति को बुलवा लिया. इत्तला की कि मेहमान का कंबल नहीं मिल रहा है. वह भी सुन कर सन्न रह गए. इस का सीधा सा अर्थ था कि कंबल खो गया है.

उन के घर में ही किसी ने चुरा लिया है. कुसुमजी ने बड़े अनुनय से मेहमान को रोका, ‘‘अभी रुकिए आप. कंबल जाएगा कहां? ढूंढ़ते हैं सब मिल कर.’’ कुसुमजी, उन के पति, बच्चे, सासससुर सब मिल कर घर को उलटपलट करने लगे. सारी अलमारियां, घर के बिस्तर, ऊपर परछत्ती, टांड, कोई ऐसी जगह नहीं छोड़ी जहां कंबल को न ढूंढ़ा गया हो. कुसुमजी ने पहली बार गृहस्वामी को ऊंची आवाज में बोलते सुना, ‘‘घर की कैसी देखभाल करती हो? घर में मेहमान का कंबल खो गया, इस से बड़ी शर्म की क्या बात होगी?’’ कुसुमजी तो पहले ही हैरानपरेशान थीं, पति की डांट खा कर उन का जी और छोटा हो गया.

उन की आंखों से आंसू टपटप टपकने लगे. साथ ही वह सब जगह कंबल की तलाश करती रहीं. ऐसा लगता था जैसे घर में कोई भूचाल आ गया हो. दालान में बैठा मेहमान मन में पछताने लगा कि अच्छा होता कंबल खोने की बात बताए बिना ही वह चला जाता. क्यों शांत घर में सुबहसवेरे तूफान खड़ा कर दिया. इस दौरान गृहस्वामी का उग्र स्वर भी टुकड़ोंटुकड़ों में सुनने को मिल रहा था.

मेहमान सोचने लगा, 300 रुपए अपने लिए तो बड़ी रकम है पर इन लोगों के लिए वह कौन सी बड़ी रकम है, जो इस कंबल के लिए जमीनआसमान एक किए हुए हैं. मेहमान ने उठ कर फिर गृहस्वामी को आवाज दी, ‘‘भाई साहब, आप कंबल के लिए परेशान न हों. अब मैं चलता हूं.’’ ‘‘नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? आप बस 10 मिनट और रुकिए,’’ मेहमान को जबरदस्ती रोक कर गृहस्वामी बाहरी दरवाजे की तरफ लपक लिए. वह आधे घंटे बाद लौटे, हाथ में एक बड़ा सा कागज का पैकेट लिए.

उन्होंने मेहमान के सामान पर पैकेट ला कर रखा और बोले, ‘‘भाई साहब, इनकार न कीजिएगा. आप का कंबल हमारे यहां खोया है. इस की शर्मिंदगी ही हमारे लिए काफी है.’’ मेहमान भी कनखियों से देख कर जान चुके थे कि पैकेट में नया कंबल है, जिसे गृहस्वामी अभीअभी बाजार से खरीद कर लाए हैं. थोड़ीबहुत नानुकर करने के बाद मेहमान कंबल सहित विदा हो लिए. मेहमान तो चले गए, पर कुसुमजी के लिए वह अपने पीछे एक तूफान छोड़ गए. मुसीबत तो टल गई थी, लेकिन कंबल के खोने का सवाल अब भी ज्यों का त्यों मुंहबाए खड़ा था.

कोई आदमी ऐसा नहीं था जिस पर कुसुमजी शक कर सकें. फिर कंबल गया तो कहां गया? बिना सचाई जाने छोड़ भी कैसे दें? इसी उधेड़बुन में कुसुमजी उस रात सो नहीं सकीं. सुबह उठीं तो सिर भारी और आंखें लाल थीं. इतना दुख कंबल खरीद कर देने का नहीं था जितना इस बात का था कि चोर घर में था. चोरी घर में हुई थी. कुसुमजी यह समझती थीं कि घर में उन की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता, पर अचानक उन का यह विश्वास हिल गया था.

किस से कहें कि ठीक उन की नाक के नीचे एक चोर भी मौजूद है जो आज कंबल चुरा सकता है तो कल घर की कोई भी चीज चुरा सकता है. घर में कुछ भी सुरक्षित नहीं है. कुसुमजी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए. इसी परेशानी के आलम में उन की सहेली सविता ने परामर्श दिया कि पास में ही एक पहुंचे हुए ज्योतिषी बाबा हैं. वह बड़े तांत्रिक और सिद्ध पुरुष हैं. कैसा भी राज हो, बाबा को सब मालूम हो जाता है.

अपने घर में : सासबहू की बेमिसाल जोड़ी-भाग 2

नीरजा ने एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर ली थी. सैटरडे, संडे उस की छुट्टी होती थी. उस दिन कमला देवी जरूर आतीं. उस के और अपनी पोतियों के साथ समय बितातीं. उन की हर समस्या का हल निकालतीं और फिर शाम तक अपने घर लौट जातीं.

इधर, दूसरी शादी के बाद जब भी सागर ने मिनी और गुड़िया से मिलना चाहा, तो मिनी ने साफ इनकार कर दिया. अब उसे अपने पापा से बात करना भी पसंद नहीं था. उस ने पापा के बिना जीना सीख लिया था और गुड़िया को भी सिखा दिया था. वह उस पापा को कभी माफ नहीं कर पाई जिस ने उस की सीधीसादी मां को छोड़ कर किसी और के साथ शादी कर ली थी.

वक्त इसी तरह निकलता गया. नई शादी से सागर को कोई संतान नहीं हुई थी. दिनोंदिन श्वेता के नखरे बढ़ते जा रहे थे. सागर का जीना मुहाल हो गया था. दोनों के बीच अकसर झगड़े होने लगे थे. श्वेता अकसर घर से बाहर निकल जाती. सागर भी देर रात शराब पी कर घर लौटता.

कमला देवी यह सब देखसमझ रही थीं. पर वह अपने बेटे के स्वार्थी रवैए से भी अच्छी तरह परिचित थीं, इसलिए उन्हें बेटे पर तरस नहीं बल्कि गुस्सा आता था.

कमला देवी को अकसर वह समय याद आता जब पति से तलाक के बाद उन की जिंदगी का एक ही मकसद था और वह था सागर को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना. इस के लिए उन्होंने अपनी सारी शक्ति लगा दी थी. स्कूल टीचर की नौकरी करते हुए बेटे को ऊंची शिक्षा दिलाई, काबिल बनाया. मगर अब एहसास होने लगा था कि कितना भी काबिल बना लिया, वह रहा तो अपने बाप का बेटा ही जो बाप की तरह ही शराबी, स्वार्थी और बददिमाग निकला.

इधर कमला द्वारा नीरजा को अपनाने और हर जगह उस की तारीफ किए जाने की वजह से नातेरिश्तेदारों का व्यवहार भी नीरजा के प्रति काफी अच्छा बना रहा. सागर के चचेरेममेरे भाईबहनों के घर कोई भी आयोजन होता तो नीरजा और उस की बेटियों को परिवार के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य की तरह आमंत्रित किया जाता और उन की पूरी आवभगत की जाती. यही नहीं, सागर के विवाहित दोस्त भी नीरजा को अवश्य बुलाते. यह सब देख कर सागर और श्वेता भुनभुनाते हुए घर लौटते.

श्वेता चिढ़ कर कहती, “देख लो तुम्हारी रिश्तेदारी में हर जगह अभी भी मुझ से ज्यादा नीरजा की पूछ होती है. लगता है जैसे मैं जबर्दस्ती पहुंच गई हूं. तुम्हारी मां भी जब देखो, नीरजा और उस की बेटियों से ही चिपकी रहती हैं.”

सागर समझाने के लिहाज से कहता, “बुरा तो मुझे भी लगता है पर क्या करूं श्वेता? नीरजा के साथ मेरी बेटियां भी हैं न. बस, इसीलिए चुप रह जाता हूं.”

एक दिन तो हद ही हो गई. सागर के एक दोस्त के बेटे की बर्थडे पार्टी थी. आयोजन बहुत शानदार रखा गया था. सागर के सभी दोस्त वहां मौजूद थे. सागर ने इधरउधर नजरें दौड़ाईं. उसे नीरजा कहीं भी नजर नहीं आई.

सागर ने चैन की सांस लेते हुए श्वेता को कुहनी मारी और बोला, “शुक्र है, आज नीरजा नहीं है.”

श्वेता मुसकरा कर बच्चे को गिफ्ट देने लगी. तभी दरवाजे से नीरजा और उस की दोनों बेटियों ने प्रवेश किया. नीरजा ने खूबसूरत सी बनारसी साड़ी पहन रखी थी और बाल खुले छोड़े थे. उस के आकर्षक व्यक्तित्व ने सब का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया. श्वेता जलभुन गई और सागर पर अपना गुस्सा निकालने लगी.

कुछ देर बाद जब पार्टी उफान पर थी तो सागर किनारे खड़े अपने दोस्तों के ग्रुप को जौन करता हुआ बोला, ‘यार, यह थोड़ा अजीब लगता है कि तुम लोग अब तक हर आयोजन में नीरजा को जरूर बुला लेते हो. तुम लोग जानते हो न, कि मैं नीरजा से अलग हो चुका हूं. अब उसे बुलाने की क्या जरूरत?”

एक दोस्त गुस्से में बोला, “क्या बात कह दी यार, तू अलग हुआ है भाभी से. पर हम तो अलग नहीं हुए न. उन से हमारा जो रिश्ता था वह तो रहेगा ही न.”

“पर क्यों रहेगा? जब वह मेरी पत्नी ही नहीं, तो तुम लोगों की भाभी कैसे हो गई?” सागर ने गुस्से में कहा तो एक दोस्त हंसता हुआ बोला, “ठीक है यार, भाभी नहीं तो दोस्त ही सही. यही मान ले कि अब एक दोस्त की हैसियत से हम सब उन्हें बुलाएंगे. रही बात तेरी, तो ठीक है. तेरी वर्तमान बीवी यानी श्वेता को भी हम न्योता भेज दिया करेंगे, मगर नीरजा को नहीं छोड़ेंगे. समझा?”

इस बात पर काफी देर तक उन के बीच तूतू मैंमैं होती रही. श्वेता पास खड़ी सबकुछ सुन रही थी. अंदर ही अंदर उसे नीरजा पर गुस्सा आ रहा था. उसे महसूस हो रहा था जैसे नीरजा उस की खुशियों के आगे आ कर खड़ी हो जाती है. सागर और उस के बीच कहीं न कहीं नीरजा अब भी मौजूद है. घर लौटते समय भी पूरे रास्ते श्वेता हमेशा की तरह सागर से लड़तीझगड़ती रही.

एक दिन शनिवार को जब कमला देवी बहू और पोती के साथ थीं, तो दोपहर में उछलतीकूदती मिनी घर में घुसी. आते ही उस ने मां और दादी के पैर छुए. नीरजा ने खुशी की वजह पूछी, तो मिनी खुशी से चिल्लाई, “मम्मा मैडिकल एंट्रेंस टैस्ट में मेरे बहुत अच्छे नंबर आए हैं और मुझे यहां के सब से बेहतरीन मैडिकल कालेज में दाखिला मिल रहा है.”

“सच बेटी?” दादी ने खुशी से पोती को गले लगा लिया.

मगर नीरजा थोड़ी उदास स्वर में बोली, “बेटा, यहां दाखिले में और उस के बाद पढ़ाई में कुल खर्च लगभग कितना आएगा?”

अब मिनी भी सीरियस हो गई थी. सोचते हुए उस ने कहा, “मम्मा, मेरे खयाल से लगभग दोढाई लाख रुपए तो लग ही जाएंगे. इस से ज्यादा भी लग सकते हैं.”

“पर बेटा, इतने रुपए मैं कहां से लाऊंगी?”

“मम्मा, मेरी शादी वाली जो एफडी आप ने रखी है न, बस, उसे तोड़ दो.”

“पागल है क्या? नहीं नीरजा, तू वैसा कुछ नहीं करेगी. पढ़ाई का खर्च मैं उठाऊंगी मिनी,” कमला देवी ने कहा.

“पर कैसे मम्मी? आप के पास इतने रुपए कहां से आएंगे?”

“बेटा, मैं ने अपनी नौकरी के दौरान कुछ रुपए बचा कर अलग रखे थे. वे रुपए मैं ने कभी सागर को भी नहीं दिए. अब उन्हें अपनी मिनी के मैडिकल की पढ़ाई के लिए खर्च करूंगी. इस का अलग ही सुख होगा.”

“नहीं मम्मी, उन्हें आप न निकालें. वैसे भी, इस उम्र में आप को पैसे अपने पास रखने चाहिए. कल को सागर ने कुछ गलत व्यवहार किया या बिजनैस डुबो दिया तो आप…?”

चोरी का फल : दोस्ती की आड़ – भाग 2

मैं बड़े प्यार से उस का चेहरा निहार रहा था. मेरी आंखों के भाव पढ़ कर उस के गोरे गाल अचानक गुलाबी हो उठे.

मैं उसे चाहता हूं, यह बात उस दिन शिखा पूरी तरह से समझ गई. उस दिन से हमारे संबंध एक नए आयाम में प्रवेश कर गए.

जिस बीज को उस दिन मैं ने बोया था उसे मजबूत पौधा बनने में एक महीने से कुछ ज्यादा समय लगा.

‘‘हमारे लिए दोस्ती की सीमा लांघना गलत होगा, सर. संजीव को धोखा दे कर मैं गहरे अपराधबोध का शिकार बन जाऊंगी.’’

जब भी मैं उस से प्रेम का इजहार करने का प्रयास करता, उस का यही जवाब होता.

शिखा को मेरे प्रस्ताव में बिलकुल रुचि न होती तो वह आसानी से मुझ से कन्नी काट लेती. नाराज हो कर उस ने मुझ से मिलना बंद नहीं किया, तो उस का दिल जीतने की मेरी आशा दिनोदिन बलवती होती चली गई.

वह अपने घर की परिस्थितियों से खुश नहीं थी. संजीव का व्यवहार, आदतें व घर का खर्च चलाने में उस की असफलता उसे दुखी रखते. मैं उस की बातें बड़े धैर्य से सुनता. जब उस का मन हलका हो जाता, तभी मेरी हंसीमजाक व छेड़छाड़ शुरू होती.

उस के जन्मदिन से एक दिन पहले मैं ने जिद कर के उस से अपने घर चलने का प्रस्ताव रखा और कहा, ‘‘अपने हाथों से मैं ने तुम्हारे लिए खीर बनाई है, अगर तुम मेरे यहां चलने से इनकार करोगी तो मैं नाराज हो जाऊंगा.’’

मेरी प्यार भरी जिद के सामने थोड़ी नानुकुर करने के बाद शिखा को झुकना ही पड़ा.

मैं ने उस के जन्मदिन के मौके पर एक सुंदर साड़ी उपहार में दी और उसे पहली बार मैं ने अपनी बांहों में भरा तो वह घबराए लहजे में बोली, ‘‘नहीं, यह सब ठीक नहीं है. मुझे छोड़ दीजिए, प्लीज.’’

अपनी बांहों की कैद से मैं ने उसे मुक्त नहीं किया क्योंकि वह छूटने का प्रयास बडे़ बेमन से कर रही थी. उस के मादक जिस्म का नशा मुझ पर कुछ इस तरह हावी था कि मैं ने उस के कानों और गरदन को गरम सांसें छोड़ते हुए चूम लिया. उस ने झुरझुरी के साथ सिसकारी ली. मुंह से ‘ना, ना’ करती रही पर मेरे साथ और ज्यादा मजबूती से वह लिपट भी गई.

शिखा को गोद में उठा कर मैं बेडरूम में ले आया. वहां मेरे आगोश में बंधते ही उस ने सब तरह का विरोध समाप्त कर समर्पण कर दिया.

सांचे में ढले उस के जिस्म को छूने से पहले मैं ने जी भर कर निहारा. वह खामोश आंखें बंद किए लेटी रही. उस की तेज सांसें ही उस के अंदर की जबरदस्त हलचल को दर्शा रही थीं. हम दोनों के अंदर उठे उत्तेजना के तूफान के थमने के बाद भी हम देर तक निढाल हो एकदूसरे से लिपट कर लेटे रहे.

कुछ देर बाद शिखा के सिसकने की आवाज सुन कर मैं चौंका. उस की आंखों से आंसू बहते देख मैं प्यार से उस के चेहरे को चूमने लगा.

उस की सिसकियां कुछ देर बाद थमीं तो मैं ने कोमल स्वर में पूछा, ‘‘क्या तुम मुझ से नाराज हो?’’

जवाब में उस ने मेरे होंठों का चुंबन लिया और भावुक स्वर में बोली, ‘‘प्रेम  का इतना आनंददायक रूप मुझे दिखाने के लिए धन्यवाद, राकेश.’’

हमारे संबंध एक और नए आयाम में प्रवेश कर गए. मैं अब तनावमुक्त व प्रसन्न रहता. शिखा ही नहीं बल्कि उस के घर के बाकी सदस्य भी मुझे अच्छे लगने लगे. मैं भी अपने को उन के घर का सदस्य समझने लगा.

मैं शिखा के घर वालों की जरूरतों का ध्यान रखता. कभी संजीव को रुपए की जरूरत होती तो शिखा से छिपा कर दे देता. मैं ने शिखा की सास के घुटनों के दर्द का इलाज अच्छे डाक्टर से कराया. उन्हें फायदा हुआ तो उन्होंने ढेरों आशीर्वाद मुझे दे डाले.

इन दिनों मैं अपने को बेहद स्वस्थ, युवा, प्रसन्न और भाग्यशाली महसूस करता. शिखा ने मेरी जिंदगी में खुशियां भर दीं.

एक रविवार की दोपहर शिखा मुझे शारीरिक सुख दे कर गई ही थी कि मेरे मातापिता मुझ से मिलने आ पहुंचे. मेरठ से मेरे लिए एक रिश्ता आया हुआ था. वह दोनों इसी सिलसिले में मुझ से बात करने आए थे.

‘‘वह लड़की तलाकशुदा है,’’ मां बोलीं, ‘‘तुम कब चलोगे उसे देखने?’’

‘‘किसी रविवार को चले चलेंगे,’’ मैं ने गोलमोल सा जवाब दिया.

‘‘अगले रविवार को चलें?’’

‘‘देखेंगे,’’ मैं ने फिर टालने की कोशिश की.

मेरे पिता अचानक गुस्से में बोले, ‘‘इस से तुम मेरठ चलने को ‘हां’ नहीं कहलवा सकोगी क्योंकि आजकल इस के सिर पर उस शिखा का जनून सवार है.’’

‘‘प्लीज पापा, बेकार की बातें न करें. शिखा से मेरा कोई गलत रिश्ता नहीं है,’’ मैं नाराज हो उठा.

‘‘अपने बाप से झूठ मत बोलो, राकेश. यहां क्या चल रहा है, इस की रिपोर्ट मुझ तक पहुंचती रहती है.’’

‘‘लोगों की गलत व झूठी बातों पर आप दोनों को ध्यान नहीं देना चाहिए.’’

मां ने पिताजी को चुप करा कर मुझे समझाया, ‘‘राकेश, सारी कालोनी शिखा और तुम्हारे बारे में उलटीसीधी बातें कर रही है. उस का यहां आनाजाना बंद करो, बेटे, नहीं तो तुम्हारा कहीं रिश्ता होने में बड़ा झंझट होगा.’’

‘‘मां, किसी से मिलनाजुलना गुनाह है क्या? मेरी जानपहचान और बोलचाल सिर्फ शिखा से ही नहीं है, मैं उस के पति और उस की सास से भी खूब हंसताबोलता हूं.’’

अपने झूठ पर खुद मुझे ऐसा विश्वास पैदा हुआ कि सचमुच ही मारे गुस्से के मेरा चेहरा लाल हो उठा.

मुझे कुछ देर और समझाने के बाद मां पिताजी को ले कर मेरठ चली गईं. उन के जाने के काफी समय बाद तक मैं बेचैन व परेशान रहा. फिर शाम को जब मैं ने शिखा से फोन पर बातें कीं तब मेरा मूड कुछ हद तक सुधरा.

शिखा को ले कर मेरे संबंध सिर्फ मांपिताजी से ही नहीं बिगड़े बल्कि छोटे भाई रवि और उस की पत्नी रेखा के चेहरे पर भी अपने लिए एक खिंचाव महसूस किया.

शिखा के मातापिता ने भी उस से मेरे बारे में चर्चा की थी. उन तक शिखा और मेरे घनिष्ठ संबंध की खबर मेरी समझ से रेखा ने पहुंचाई होगी, क्योंकि रेखा जब भी मायके जाती है तब वह शिखा के मातापिता से जरूर मिलती है. यह बात खुद शिखा ने मुझे बता रखी थी.

‘‘मम्मी, पापा, राकेशजी के ही कारण आज तुम्हारी बेटी इज्जत से अपनी घरगृहस्थी चला पा रही है. रोहित उन्हें बहुत प्यार करता है. संजीव उन की बेहद इज्जत करते हैं. मेरी सास उन्हें अपना बड़ा बेटा मानती हैं. हमारे बीच अवैध संबंध होते तो उन्हें मेरे घर में इतना मानसम्मान नहीं मिलता. आप दोनों अपनी बेटी की घरगृहस्थी की सुखशांति की फिक्र करो, न कि लोगों की बकवास की,’’ शिखा के ऐसे तीखे व भावुक जवाब ने उस के मातापिता की बोलती एक बार में ही बंद कर दी.

लाली : क्या रोशन की हुई लाली ? – भाग 2

‘मुझे यहां नहीं रहना रोशन, मुझे यहां से ले चलो.’

‘क्यों, क्या हुआ लाली?’ रोशन ने लड़खड़ाते स्वर में पूछा.

‘मुझे यहां सभी अंधी कोयल कह कर बुलाते हैं. मैं और यह सब नहीं सुन सकती.’

‘अरे, बस इतनी सी बात, शुक्र मना, वे तुझे काली कौवी कह कर नहीं बुलाते या काली लाली नहीं बोलते.’

‘क्या मतलब है तुम्हारा. मैं काली हूं और मेरी आवाज कौवे की तरह है?’

‘अरे, तू तो बुरा मान गई. मैं तो मजाक कर रहा था. तेरी आवाज कोयल की तरह है तभी तो सभी तुझे कोयल कह कर बुलाते हैं और रोशन के रहते तेरी आंखों को रोशनी की जरूरत ही नहीं है,’ रोशन ने खुद की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘पर मुझे यहां नहीं रहना, मुझे यहां से ले चलो.’

‘लाली, मैं ने तुझे पहले भी बोला है कि कुछ दिन सब्र कर, मुझे कुछ रुपए जमा कर लेने दे फिर मैं तुझे मुंबई ले चलूंगा और बहुत बड़ी गायिका बनाऊंगा,’ रोशन ने खांसते हुए कहा.

‘देख, रोशन, मुझे गायिका नहीं बनना. तू बारूद के कारखाने में काम करना बंद कर दे. बाबा भी नहीं चाहते थे कि तू वहां काम करे. मुझे तेरी जान की कीमत पर गायिका नहीं बनना. मैं देख नहीं सकती, इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं महसूस भी नहीं कर सकती. तेरी हालत खराब हो रही है,’ लाली ने परेशान होते हुए कहा.

लाली की परेशानी बेवजह नहीं थी. रोशन सचमुच बीमार रहने लगा था. दिन- रात बारूद का काम करने के कारण उस की छाती में जलन होने लगी थी, लेकिन लाली को गायिका बनाने का सपना उसे दिनरात काम करने की प्रेरणा देता था.

आज रोशन की खुशी का ठिकाना नहीं था. टे्रन सपनों की नगरी मुंबई पहुंचने ही वाली थी. उस के साथसाथ लाली का वर्षों का सपना पूरा होने वाला था. बारबार वह अपनी जेब में रखे 10 हजार रुपयों को देखता और सोचता क्या इन रुपयों से वह अपना सपना पूरा कर पाएगा. इन रुपयों के लिए ही तो उस ने जीवन के 4 साल कारखाने की अंधेरी कोठरी में गुजारे थे. लाली साथ वाली सीट पर बैठी थी. नाबालिग होने के कारण आश्रम ने उसे रोशन के साथ जाने की इजाजत नहीं दी लेकिन वह सब की नजरों से बच कर रोशन के पास आ गई थी.

मुंबई की अट्टालिकाओं को देख कर रोशन को लगा कि लोगों के इस महासागर में वह एक कण मात्र ही तो है. उस ने अपने को इतना छोटा कभी नहीं पाया था. अब तो बस, एक ही सवाल उस के सामने था कि क्या वह अपने सपनों को सपनों की इस नगरी में यथार्थ रूप दे पाएगा.

काफी जद्दोजहद के बाद मुंबई की एक गंदी सी बस्ती में एक छोटा कमरा किराए पर मिल पाया. कमरे की खोज ने रोशन को एक सीख दी थी कि मुंबई में कोई काम करना आसान नहीं होगा. उस ने खुद को आने वाले दिनों के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था.

आज सुबह रोशन और लाली को अपने सपने को सच करने की शुरुआत करनी थी अत: दोनों निकल पड़े अपने उद्देश्य को पूरा करने. उन्होंने कई संगीतकारों के दफ्तर के चक्कर काटे पर कहीं भी अंदर जाने की इजाजत नहीं मिली. यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा. लाली का धैर्य और आत्म- विश्वास खत्म होने लगा और खत्म होने लगी उन की पूंजी भी. लेकिन रोशन इतनी जल्दी हार मानने वाला कहां था. वह लाली को ले कर हर दिन उम्मीद क ी नई किरण अपनी आंखों में बसाए निकल पड़ता.

उस दिन रोशन को सफलता मिलने की पूरी उम्मीद थी, क्योंकि वह लाली को ले कर एक गायन प्रतियोगिता के चुनाव में जा रहा था, जिसे जीतने वाले को फिल्मों में गाने का मौका मिलने वाला था. रोशन को भरोसा था कि लाली इस प्रतियोगिता को आसानी से जीत जाएगी. हर दिन के रियाज और आश्रम में मिलने वाली संगीत की शिक्षा ने उस की आवाज को और भी अच्छा बना दिया था.

प्रतियोगिता भवन में हजारों लोगों की भीड़ अपना नामांकन करवाने के लिए आई हुई थी. करीब 3 घंटे के इंतजार के बाद एक चपरासी ने उन्हें एक कमरे में जाने को कहा. वहां एक बाबू प्रतियोगिता के लिए नामांकन करा रहे थे.

अंदर आते 2 किशोरों को देख उस व्यक्ति ने उन्हें बैठने का इशारा किया और अपने मोटे चश्मे को नीचे करते चुटकी लेते हुए कहा, ‘किस गांव से आ रहे हो तुम लोग और इस अंधी लड़की को कहां से भगा कर ला रहे हो?’

‘अरे, नहीं साहब, भगा कर नहीं लाया, मैं लाली को यहां गायिका बनाने लाया हूं,’ रोशन ने धीमे से कहा.

‘गायिका और यह…सुर की कितनी समझ है तुझे, गलीमहल्ले में गा कर खुद को गायिका समझने की भूल मत कर, यहां देश भर से कलाकार आ रहे हैं. मेरा समय बरबाद मत करो और निकलो यहां से,’ साहब ने गुर्राते हुए कहा.

‘अरे, नहीं साहब, लाली बहुत अच्छा गाती है. आप एक बार सुन कर तो देखिए,’ रोशन ने बात को संभालने के अंदाज से कहा.

‘देखो लड़के, यह कार्यक्रम सारे देश में टेलीविजन पर दिखाया जाएगा और मैं नहीं चाहता कि एक गंवार, अंधी लड़की इस का हिस्सा बने. तुम जाते हो या पुलिस को बुलाऊं,’ साहब ने चिल्लाते हुए कहा.

दोनों स्तब्ध, अवाक् खड़े रहे जैसे सांप सूंघ गया हो उन्हें. लाली खुद को ज्यादा देर रोक नहीं पाई और उस की आंखों से आंसू निकल आए और वह फौरन कमरे से बाहर निकल आई. अंदर रोशन अपने सपनों को टूट कर बिखरते हुए देख खुद टूट गया था.

मुंबई नगरी अब उसे सपनों की नगरी नहीं शैतानों की नगरी लग रही थी. ये बिलकुल वैसे ही शैतान थे जिन्हें वह बचपन में सपनों में देखा करता था. बस, एक ही अंतर था, इन के सिर पर सींग नहीं थे. पर यह सब सोचने का समय नहीं था उस के पास, अभी तो उसे लाली को संभालना था.

दोनों समंदर के किनारे बैठे अपने दुख को भूलने की कोशिश कर रहे थे. रोशन डूबते सूरज के साथ अपने सपने को भी डूबता देख रहा था. उस ने लाली को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसे समझाना मुश्किल लग रहा था.

‘तुम्हें पता है लाली, डूबता सूरज बहुत खूबसूरत होता है,’ उस ने लाली को समझाने का अंतिम प्रयास किया, ‘और पता है यह खूबसूरत क्यों होता है, क्योंकि यह लाल रंग का होता है. और पता है तेरा नाम लाली क्यों है क्योंकि तू सब से सुंदर है. मेरा भरोसा कर लाली, तू मेरे लिए दुनिया की सब से खूबसूरत लड़की है.’

रोशन ने अनजाने में आज वह बात कह दी थी जिसे कहने की हिम्मत वह पहले कभी नहीं जुटा पाया था. डूबते सूरज की रोशनी में लाली का चेहरा पहले से ही लाल नजर आ रहा था, यह सुन कर उस का चेहरा और भी लाल हो गया और उस के होठों  पर मुसकान आ गई.

12 साल बाद की उस घटना को सोच कर रोशन के चेहरे पर हंसी आ गई जैसे सबकुछ अभी ही हुआ है. रात का तीसरा पहर भी बीत गया था. चारदीवारी के अंदर का कोलाहल शांत हो गया था. शायद लाली की शादी हो गई थी. उस के सीने की जलन बढ़ती जा रही थी. कारखाने में काम करने के कारण उस के फेफड़े जवाब दे चुके थे. डाक्टरों के लाख समझाने के बाद भी उस ने बारूद के कारखाने में काम करना नहीं छोड़ा था अब उसे मरने से डर नहीं लगता था वह जीना ही नहीं चाहता था. उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं और फिर से उस के जेहन में अतीत की यादें सजीव होने लगीं.

अब लाली महल्ले के मंदिर के  सत्संग में गाने लगी थी और रोशन एक ढाबे में काम करने लगा था. शायद उन लोगों ने मुंबई की जिंदगी से समझौता कर लिया था. लाली के गाए भजनों की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी, अब आसपास के लोग भी उसे सुनने आते थे. लाली इसी में खुश थी.

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. रोशन ने दरवाजा खोला तो देखा एक अधेड़ व्यक्ति साहब जैसे कपड़े पहने खड़ा था.

‘बेटे, लाली है क्या? मैं आकाश- वाणी में सितार बजाता हूं. हमारा भक्ति संगीत का कार्यक्रम हर दिन सुबह 6 बजे रेडियो पर प्रसारित होता है. जो गायिका हमारे लिए गाया करती थी वह बीमार है,’ उस व्यक्ति ने कमरे के अंदर बैठी लाली को देखते हुए कहा.

लाली यह सुन कर बाहर आ गई.

‘लाली, क्या तुम हमारे रेडियो कार्यक्रम के लिए गाओगी?’

यह सब किसी सपने से कम नहीं था, रोशन को अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था.

‘बेटे, मैं ने लाली को मंदिर में गाते हुए सुना है. मैं ने अपने संगीतकार को लाली के बारे में बताया है. वह लाली को एक बार सुनना चाहते हैं. अगर उन्हें लाली की आवाज पसंद आई तो लाली को रेडियो में गाने का काम मिल सकता है,’ उस व्यक्ति ने स्पष्ट करते हुए कहा.

उसी दिन शाम को दोनों रेडियो स्टेशन पहुंच गए. लाली को माइक्रो- फोन के आगे खड़ा कर दिया गया. साजिंदों ने साज बजाने शुरू किए और लाली ने गाना :

‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम…’

गाना खत्म हुआ और अचानक सभी बाहर आ गए. लाली के आसपास भीड़ जुटने लगी. स्वर के जादू ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था, जैसे सभी उस आवाज को आत्मसात कर रहे हों. गाने के बाद तालियों की गूंज ने लाली को बता दिया था कि उस की नौकरी पक्की हो गई है. रोशन की खुशी का ठिकाना नहीं था.

श्रोताओं में शास्त्रीय संगीत के जानेमाने संगीतकार पंडित मदनमोहन शास्त्री भी थे. दूसरों की तरह वह भी लाली की आवाज से बेहद प्रभावित थे. उन्होंने लाली को बुलाया और कहने लगे, ‘बेटी, तुम्हारे कंठ में बेहद मिठास है पर तुम अभी सुर में थोड़ी कच्ची हो. मैं तुम्हें संगीत की विधिवत शिक्षा दूंगा.’

लाली मारे खुशी के कुछ बोल नहीं पाई. बस, स्वीकृति में सिर हिला दिया.

लाली की संगीत की शिक्षा शुरू हो गई. पंडितजी लाली के गाने से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लाली को गोद ले लिया और वह लाली से लालिमा शास्त्री बन गई. पंडितजी के इस फैसले के कारण लाली पंडितजी के घर में ही रहने लगी और नियति ने रोशन के एकमात्र सहारे को भी उस से छीन लिया.

ऐसा भी होता है- भाग 2

पर ऐसा अवसर कहां आया. मां तो थानेदार की तरह तैनात रहती हैं. आते ही मोहन की निगाह सब से पहले उन पर पड़ती है. वह उन्हें अपनी बांहों में लेते हैं और उन्हें आश्चर्यचकित करने का पूरा नाटक करते हैं. चुप, मैं ने अपने को समझाया, लगता है तुझे अपनी सास से ईर्ष्या होने लगी है.

‘‘मां, देखो, तुम्हारे लिए क्या लाया हूं,’’ मोहन के मुंह पर उल्लास की चमक थी.

बुरा तो लगा, पर उत्सुकतावश देखने चली आई कि आज बेटा मां के लिए क्या लाया है.

मां ने पैकेट खोलते हुए आश्चर्य से कहा, ‘‘क्या, यह बंगलौरी साड़ी मेरे लिए लाया है?’’

‘‘हां, मां, अच्छी है न?’’

‘‘बहुत सुंदर. मुझे यह रंग बहुत अच्छा लगता है. तुझे तो मेरी पसंद मालूम है. बहुत महंगी होगी. बेकार में इतने पैसे खर्च कर दिए.’’

मां की आंखों में वात्सल्य का सागर था और मेरा दिल बुझ रहा था. मैं ने मुंह मोड़ लिया. कहीं मेरी गीली आंखें कोई देख न ले.

‘‘मां, तुम्हें पसंद आई, तो बस समझो, पूरे पैसे वसूल हो गए. आज दफ्तर में एक बाबू 4 साडि़यां लाया था. वह बंगलौर का है. अभीअभी छुट्टियों से आया था. मैं ने यह तुम्हारे लिए पसंद कर ली.’’

मोहन बहुत खुश हो रहे थे. मेरा दिल जलने लगा.

मां ने साड़ी फैला कर अपने कंधे पर डालते हुए कहा, ‘‘कितना सुंदर बार्डर है. पल्लू भी खूब भारी है. क्यों बहू, देख, कैसी है?’’

आवाज की कंपन पर काबू करते हुए मैं ने कहा, ‘‘बहुत अच्छी साड़ी है, मां. आप इस में खिल जाएंगी,’’ मैं ने मुसकराने की कोशिश की.

‘‘देखूं, तेरे ऊपर कैसी लगेगी?’’

मैं अपने को रोक न सकी. चट से उन के आगे जा कर खड़ी हो गई. उन्होंने साड़ी का पल्लू खोल कर मेरे ऊपर डाल दिया.

‘‘हाय, तू कितनी प्यारी लग रही है.’’

‘‘तू ही रख ले. मैं क्या पहनूंगी.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा कैसे हो सकता है. यह साड़ी तो आप के लिए लाए हैं. मेरे लिए फिर आ जाएगी.’’

‘‘फिर क्यों? चल, मैं ने तुझे अपनी तरफ से दी और फिर साड़ी घर में ही तो रहेगी. मेरा मन करेगा तो तुझ से मांग कर पहन लूंगी.’’

मैं ने अधिक जिद नहीं की. मोहन के मुंह पर वही शरारती मुसकराहट थी. मैं जैसे ही साड़ी उठा कर चलने लगी, मोहन ने टोक दिया, ‘‘लो, मां ने साड़ी दी और तुम ने पैर छू कर आशीर्वाद भी नहीं लिया, गंदी लड़की.’’

मेरे उत्साह पर पानी पड़ गया. मन में आया कि साड़ी मां के ऊपर फेंक कर चल दूं. अपने ऊपर नियंत्रण कर के पति की आज्ञा का पालन किया. कभी नहीं पहनूंगी इस साड़ी को, मैं ने मन में निश्चय किया. क्या समझ रखा है अपने को.

रात में पलंग पर लेटे हुए मोहन मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘साड़ी अच्छी लगी न?’’

‘‘आप को मतलब?’’ मैं ने रूठ कर कहा.

‘‘क्यों, तुम्हारे लिए साड़ी लाया और मुझे कोई मतलब नहीं?’’

‘‘मेरे लिए लाए थे,’’ मैं ने व्यंग्य से कहा, ‘‘मां के लिए लाए थे. मैं कौन होती हूं?’’

ठंडी आह भर कर मोहन ने कहा, ‘‘रूठी रानी पर यह तेवर खिल रहा है. सच तो यह है कि साड़ी मैं तुम्हारे लिए लाया था. सोचा, क्यों न एक तीर से दो शिकार कर लिए जाएं. मुझे मालूम था कि मां तुम्हें दे देंगी. कैसी रही?’’

मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘अगर वह रख लेतीं तो?’’

मोहन के चेहरे की हंसी उड़ गई, ‘‘क्या कह रही हो?’’

मैं ने संभल कर कहा, ‘‘मैं ने कहा, अगर वह रख लेतीं तो अच्छा था.’’

‘‘ओह,’’ मोहन ने हंस कर कहा, ‘‘मैं कुछ और समझा था. अगर रख भी लेतीं तो क्या था? मेरी मां हैं. फिर तुम्हें कभी…’’

फिर मैं नियंत्रण खो बैठी, ‘‘वह ‘फिर कभी’ कभी न आता. दूसरी श्रेणी में आती हूं न.’’

‘‘छोड़ो, किस पचड़े में पड़ गईं. चलो, साड़ी पहन कर दिखाओ. देखूं, मेरा चुनाव कैसा है.’’

जब मैं ने नहीं पहनी तो वह मुझे गुदगुदाने लगे. अंत में मुझे पहननी पड़ी. दर्पण में देखा तो मैं अपने ऊपर ही मुग्ध हो गई, परंतु दिल में कुछ चुभन हो रही थी. यह साड़ी मेरी नहीं है, यह मैं कभी नहीं पहनूंगी.

लगता है कि मां के प्रति मेरी ईर्ष्या कुछ गहरी होती जा रही है. मोहन का उन के प्रति प्यार दर्शाना अब मुझे खलने लगा है. मां के मोहन के लिए चिंता के प्रदर्शन से मुझे जलन होती है. मां जब तक रहेंगी, मोहन का प्यार मेरे लिए अधूरा रहेगा. मुझे एहसास हुआ कि मां मेरे और मोहन के बीच एक दीवार बन कर खड़ी हैं. मोहन के जीवन में अपना सही स्थान मुझे कभी नहीं मिलेगा.

मोहन ने दफ्तर जाते हुए बाहर दरवाजे से आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘हां, आज शाम को फिल्म देखने चलेंगे. मैं टिकट लेता हुआ आऊंगा.’’

‘‘अच्छा,’’ मैं ने अंदर से ही उत्तर दिया.

मन खिल उठा. मोहन को फिल्मों का चाव कम था. मेरा मन इस कारण कुछ मरामरा रहता था. हाय, कितना मजा आएगा मोहन के साथ फिल्म देखने में. वातानुकूलित हाल में ठंड से फुरफुरी लग रही होगी. तब मैं मोहन से और सट कर बैठ जाऊंगी. अंधेरे में हम दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े बैठे होंगे. मैं आनंदविभोर हो गई. कल्पना में खो गई.

एक घड़ी औरत : प्रिया की जिंदगी की कहानी- भाग 2

बाद में किसी न किसी बहाने नरेश औफिस में आते रहे. प्रिया को बहुत जल्दी एहसास हो गया कि महाशय के दिल में कुछ और है. एक दिन वह शाम को औफिस से बाहर निकल रही थी कि नरेश अपने स्कूटर पर आते नजर आए. पहले तो वह मुसकरा दी पर दूसरे ही क्षण वह सावधान हो गई कि अजनबी आदमी से यों सरेराह हंसतेमुसकराते मिलना ठीक नहीं है.

‘अगर बहुत जल्दी न हो आप को, तो मैं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठ कर आप से एक बात करना चाहता हूं,’ नरेश ने पास आ कर कहा.

प्रिया इनकार नहीं कर पाई. उन के साथ रेस्तरां की तरफ चल दी. वेटर को 1-1 डोसा व कौफी का और्डर दे कर नरेश प्रिया से बोले, ‘भूख लगी है, आज सुबह से वक्त नहीं मिला खाने का.’

वह जानती थी कि यह सब असली बात को कहने की भूमिका है. वह चुप रही. नरेश उसे भी बहुत पसंद आए थे… काली घनी मूंछें, लंबा कद और चेहरे पर हर वक्त झलकता आत्मविश्वास…

‘टीवी में एक विज्ञापन आता है, हम कमाते क्यों हैं? खाने के लिए,’ प्रिया हंसी और बोली, ‘कितनी अजीब बात है, वहां विज्ञापन में उस बेचारे का खाना बौस खा जाता है और यहां वक्त नहीं खाने देता.’

‘हां प्रिया, सचमुच वक्त ही तो हमारा सब से बड़ा बौस है,’ नरेश हंसे. फिर जब तक डोसा और कौफी आते तब तक नरेश ने पानी पी कर कहना शुरू किया, ‘अपनी बात कहने से मुझे भी कहीं देर न हो जाए, इसलिए मैं ने आज तय किया कि अपनी बात तुम से कह ही डालूं.’

प्रिया समझ गई थी कि नरेश उस से क्या कहना चाहते हैं, पर सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही.

‘वैसे तो तुम किसी न किसी से शादी करोगी ही, प्रिया, क्या वह व्यक्ति मैं हो सकता हूं? कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. अगर तुम ने किसी और के बारे में तय कर रखा हो तो मैं सहर्ष रास्ते से हट जाऊंगा. और अगर तुम्हारे मांबाप तुम्हारी पसंद को स्वीकार कर लें तो मैं तुम्हें अपनी जिंदगी का हमसफर बनाना चाहता हूं.’

प्रिया चुप रही. इसी बीच डोसा व कौफी आ गई. नरेश उस के घरपरिवार के बारे में पूछते रहे, वह बताती रही. उस ने नरेश के बारे में जो पूछा, वह नरेश ने भी बता दिया.

जब नरेश के साथ वह रेस्तरां से बाहर निकली तो एक बार फिर नरेश ने उस की ओर आशाभरी नजरों से ताका, ‘तुम ने मेरे प्रस्ताव के बारे में कोईर् जवाब नहीं दिया, प्रिया?’

‘अपने मांबाप से पूछूंगी. अगर वे राजी होंगे तभी आप की बात मान सकूंगी.’

‘मैं आप की राय जानना चाहता हूं.’ सहसा एक दूरी उन के बीच आ गई.

‘क्यों एक लड़की को सबकुछ कहने के लिए विवश कर रहे हैं?’ वह लजा गई, ‘हर बात कहनी जरूरी तो नहीं होती.’

‘धन्यवाद, प्रिया,’ कह कर नरेश ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

उस के बाद जैसे सबकुछ पलक झपकते हो गया. उस ने अपने घर जा कर मातापिता से बात की तो वे नाराज हुए. रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. जाति बाधा बन गई. वह उदास मन से जब वापस लौटने लगी तो पिता उसे स्टेशन तक छोड़ने आए, ‘तुम्हें वह लड़का हर तरह से ठीक लगता है?’ उन्होंने पूछा.

प्रिया ने सिर्फसिर ‘हां’ में हिलाया. पिता कुछ देर सोचते रहे. जब गाड़ी चलने को हुई तो किसी तरह गले में फंसे अवरोध को साफ करते हुए बोले, ‘बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी और कुछ नहीं प्रिया. वैसे, तुम खुद अब समझदार हो, अपना भलाबुरा स्वयं समझ सकती हो. बाद में कहीं कोई धोखा हुआ तो हमें दोष मत देना.’

मातापिता इस शादी से खुश नहीं थे, इसलिए प्रिया ने उन से आर्थिक सहायता भी नहीं ली. नरेश ने भी अपने मातापिता से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली. दोनों ने शादी कर ली. शादी में मांबाप शामिल जरूर हुए पर अतिथि की तरह.

विवाह कर घर बसाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी खर्च करने के बाद भी दोनों को अपने मित्रोंसहेलियों से कुछ उधार लेना पड़ा था. उसे चुका कर वे निबटे ही थे कि पहला बच्चा आ गया. उस के आने से न केवल खर्चे बढ़े, कुछ समय के लिए प्रिया को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी. जब दूसरी कंपनी में आई तो उसे पहले जैसी सुविधाएं नहीं मिलीं.

नरेश की भागदौड़ और अधिक बढ़ गई थी. घर का खर्च चलाने के लिए वे दिनरात काम में जुटे रहने लगे थे.

‘मैं ने एक फ्लैट देखा है, प्रिया’ एक दिन नरेश ने अचानक कहा, ‘नया बना है, तीसरी मंजिल पर है.’

‘पैसा कहां से आएगा?’ प्रिया नरेश की बात से खुश नहीं हुई. जानती थी कि फ्लैट जैसी महंगी चीज की कल्पना करना सपना है. पर दूसरे बच्चे की मां बनतेबनते प्रिया ने अपनेआप को सचमुच एक नए फ्लैट में पाया, जिस की कुछ कीमत चुकाई जा चुकी थी पर अधिकांश की अधिक ब्याज पर किस्तें बनी थीं, जिन्हें दोनों अब तक लगातार चुकाते आ रहे थे.

उस की नई बनी सहेली ने प्रिया का परिचय एक दिन शीला से कराया, ‘नगर की कलामर्मज्ञा हैं शीलाजी,’ सहेली ने आगे कहा, ‘अपने मकान के बाहर के 2 कमरों में कलादीर्घा स्थापित की है. आजकल चित्रकारी का फैशन है. इन दिनों हर कोईर् आधुनिक बनने की होड़ में नएपुराने, प्रसिद्ध और कम जानेमाने चित्रकारों के चित्र खरीद कर अपने घरों में लगा रहे हैं. 1-1 चित्र की कीमत हजारों रुपए होती है. तू भी तो कभी चित्रकारी करती थी. अपने बनाए चित्र शीलाजी को दिखाना. शायद ये अपनी कलादीर्घा के लिए उन्हें चुन लें. और अगर इन्होंने कहीं उन की प्रदर्शनी लगा दी तो तेरा न केवल नाम होगा, बल्कि इनाम भी मिलेगा.’

प्रिया शरमा गई, ‘मुझे चित्रकारी बहुत नहीं आती. बस, ऐसे ही जो मन में आया, उलटेसीधे चित्र बना देती थी. न तो मैं ने इस के विषय में कहीं से शिक्षा ली है और न ही किसी नामी चित्रकार से इस कला की बारीकियां जानीसमझी हैं.’

लेकिन वह सचमुच उस वक्त चकित रह गई जब शीलाजी ने बिना हिचक प्रिया के घर चल कर चित्रों को देखना स्वीकार कर लिया. थोड़ी ही देर में तीनों प्रिया के घर पहुंचीं.

2 सूटकेसों में पोलिथीन की बड़ीबड़ी थैलियों में ठीक से पैक कर के रखे अपने सारे चित्रों को प्रिया ने उस दिन शीलाजी के सामने पलंग पर पसार दिए. वे देर तक अपनी पैनी नजरों से उन्हें देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘अमृता शेरगिल से प्रभावित लगती हो तुम?’

प्रिया के लिए अमृता शेरगिल का नाम ही अनसुना था. वह हैरान सी उन की तरफ ताकती रही.

‘अब चित्रकारी करना बंद कर दिया है क्या?’

‘हां, अब तो बस 3 चीजें याद रह गई हैं, नून, तेल और लकड़ी,’ हंसते वक्त उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगी.

शायद : पैसों के बदले मिला अपमान-भाग 2

सुवीरा चुप नहीं हुई. प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बरसों से सहेजी संवेदनाएं सारी सीमाएं तोड़ कर बाहर निकलने लगीं.

‘मैं उस समय 5 साल की बच्ची ही तो थी जब अम्मां दुधमुंहे सोहन को मेरे हवाले छोड़ पड़ोस की औरतों के बीच गप मारने में मशगूल हो जाती थीं. लौट कर आतीं तो किसी थानेदार की तरह ढेरों प्रश्न कर डालतीं.

‘बेटे के लिए तो रचरच कर नाश्ता तैयार करतीं, लेकिन मैं अपनी पसंद का कुछ भी खाना चाहती तो बुरा सा मुंह बना लेतीं. उन की इस उपेक्षा और डांटफटकार से बचपन से ही मेरे मन में एक भावना घर कर गई कि अगर इतनी ही अकर्मण्य हूं मैं तो इन सब को अपनी काहिली दिखा कर रहूंगी.

‘सच मानो गिरीश, मां की तल्ख तेजाबी बहस के बीच भी मैं सफलता के सोपान चढ़ती चली गई. बाबूजी ने कई बार लड़खड़ाती जबान के इशारे से अम्मां को समझाया था कि थोड़ी जिम्मेदारी का एहसास सोहन को भी करवाएं, पर अम्मां बाबूजी की कही सुनते ही त्राहित्राहि मचा देतीं. घर का हर काम उन की ही मरजी से होता था, वरना वे घर की ईंट से ईंट बजा कर रख देती थीं.

‘एक रात बाबूजी फैक्टरी से लौटते समय सड़क दुर्घटना में बुरी तरह जख्मी हो गए थे. शरीर के आधे हिस्से को लकवा मार गया था. अच्छेभले तंदरुस्त बाबूजी एक ही झटके में बिस्तर के हो कर रह गए. धीरेधीरे व्यापार ठप पड़ने लगा. सोहन की परवरिश सही तरीके से की गई होती तो वह व्यापार संभाल भी लेता. खानापीना, मौजमस्ती, यही उस की दिनचर्या थी. सीधा खड़ा होने के लिए भी उसे बैसाखी की जरूरत पड़ती थी तो वह कारोबार क्या संभालता?

‘व्यापार के सिलसिले में मेरा अनुभव शून्य से बढ़ कर कुछ भी नहीं था. जमीन पर मजबूती से खड़े रहने के लिए मुझे भी बाबूजी के पार्टनरों, भागीदारों का सहयोग चाहिए था, पर अम्मां को न जाने क्या सूझी कि वह फोन पर ही सब को बरगलाने लगीं. शायद उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि उन की बेटी उन के पति का कारोबार चला कर पूरी धनसंपदा हथिया लेगी और उन्हें और उन के बेटे को दरदर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देगी.

‘धीरेधीरे बाबूजी के सभी पार्टनर हाथ खींचते गए. मेरी दिनरात की मेहनत भी व्यापार को आगे बढ़ाने में सफल नहीं हो सकी. हार कर व्यापार बंद करना पड़ा. बहुत रोए थे बाबूजी उस दिन. उन की आंखों के सामने ही उन की खूनपसीने से सजाई बगिया उजड़ गई थी. लेकिन अम्मां की आंखों में न विस्मय था न पश्चात्ताप बल्कि मन ही मन उन्होंने दूसरी योजना बना डाली थी. और एक दिन बेहोशी की हालत में पति से अंगूठा लगवा कर पूरा मकान और बैंक बैलेंस सोहन के नाम करवा कर ही उन्होंने चैन की सांस ली थी.

‘कालिज की पढ़ाई, ट्यूशन, बाबूजी की तीमारदारी में कंटीली बाढ़ की तरह जीवन उलझता चला गया. जितनी आमद होती, अम्मां और सोहन उस रकम पर यों टूटते जैसे कबूतरों के झुंड दानों पर टूटते हैं.’

कहतेकहते सिसक उठी थी सुवीरा. होंठों पर हाथ रख कर गिरीश ने उस के मुंह पर चुप्पी की मोहर लगा दी थी. 2 दिन तक प्रसव पीड़ा से छटपटाने के बाद आपरेशन से जुड़वां बेटों को जन्म देने में कितनी पीड़ा सुवीरा की शिथिल काया ने बरदाश्त की थी, यह तो गिरीश ही जानते थे.

दिन बीतते गए. सोहन की आवारागर्दी देख सुवीरा का मन दुखी होता था. सोचती इस के साथ पूरा जीवन पड़ा है, कमाएगा नहीं तो अपनी गृहस्थी कैसे चलाएगा? कई धंधे खुलवा दिए थे सुवीरा और गिरीश ने पर सोहन महीने दो महीने में सबकुछ उड़ा कर घर बैठ जाता. उस पर अम्मां उस की तारीफ करते नहीं अघातीं.

एक दिन अचानक खबर मिली कि सोहन का ब्याह तय हो गया. जिस धीरेंद्र की लड़की के साथ शादी तय हुई है वह गिरीश के अच्छे दोस्त थे. सुवीरा यह नहीं समझ पा रही है कि अम्मां ने कैसे उन्हें विश्वास में लिया कि वह अपनी बेटी सोहन के साथ ब्याहने को तैयार हो गए.

सगाई से एक दिन पहले ही सुवीरा अम्मां के पास चली गई थी. दोनों पक्षों से उस का रिश्ता था. गिरीश ने भी पूरा सहयोग दिया था. सुवीरा ने घर सजाने से ले कर सब के नाश्ते आदि का इंतजाम किया पर अम्मां ने बड़ी खूबसूरती से सारा श्रेय खुद ओढ़ लिया. उस का मन किया, ठहाका लगा कर हंसे. आत्मप्रशंसा में तो अम्मां का जवाब नहीं.

ब्याह के कार्ड बंटने शुरू हो गए. आस और उम्मीद की डोर से बंधी सुवीरा सोच रही थी कि शायद इस बार अम्मां खुद आ कर बेटी को न्योता देंगी लेकिन अम्मां को न आना था न वह आईं. हां, निमंत्रण डाक से जरूर आ गया था. गिरीश ने पत्नी के सामने भूमिका बांध कर रिश्तों के महत्त्व को समझाया था, ‘सोहन का ब्याह है, सुवीरा, चलना है.’

गुस्से से सुवीरा का चेहरा तमतमा गया था, ‘सगाई पर बिना निमंत्रण के चली गई तो क्या अब भी चली जाऊंगी?’

‘ये आया तो है निमंत्रण,’ गिरीश ने टेबल पर रखा गुलाबी लिफाफा पत्नी को पकड़ाया तो स्वर प्रकंपित हो उठा था सुवीरा का, ‘डाक से…’

‘छोटीछोटी बातों को क्यों दिल से लगाती हो? रिश्ते कच्चे धागों से बंधे होते हैं. टूट जाएं तो जोड़ने मुश्किल हो जाते हैं.’

जोर से खिलखिला दी सुवीरा उस समय. भाई के विवाह में शामिल होने की इच्छा अब भी दिल के किसी कोने में दबी हुई थी. मन में ढेर सारी उमंगें लिए दोनों बेटों और पति के साथ जनवासे पहुंची तो मेहमानों की आवभगत में उलझी अम्मां को यह भी ध्यान नहीं रहा कि बेटीदामाद आए हैं.

मित्रोंपरिजनों की भीड़ में अपना मनोरंजन खुद ही करने लगे थे गिरीश और सुवीरा. पार्टी जोरशोर से चल रही थी. हंसीठट्ठे का माहौल था. अचानक तारिणी देवी की चिल्लाहट सुन कर दोनों का ध्यान उस ओर चला गया.

विक्रम को पकड़े अम्मां कह रही थीं, ‘भीम की तरह 40 पूरियां खा गया, ऊपर से कीमती गिलास भी तोड़ दिया.’

दौड़तीभागती सुवीरा जब तक मूल कारण तक पहुंचती, अम्मां जोर से चीखने लगी थीं. सहमीसकुची सुवीरा इतना ही कह पाई थी, ‘गलती से गिर गया होगा अम्मां. जानबूझ कर नहीं किया होगा.’

अचानक गिरीश की आंखों से चिंगारियां बरसने लगीं. बिना कुछ खाए ही जनवासे से लौट आए थे और सास को सुना भी दिया था, ‘सोहन की ससुराल से आए सामान की तो आप को चिंता है लेकिन बेटीदामाद और उन के बच्चों की आवभगत की जरा भी चिंता नहीं है.’

घर लौटने के बाद भी फोन घुमा कर चोट खाए घायल सिंह की तरह ऐसी पटखनी दी थी सास तारिणी देवी को कि तिलमिला कर रह गई थीं, ‘अम्मां, मेरे बेटे ने आप की 40 पूरियां खाई हैं या 50, आप चिंता मत करना…मुझ में इतना दम है कि आप के उस खर्च की भरपाई कर सकूं.’

वह रात सुवीरा ने जाग कर काटी. पीहर के हर सुखदुख में सहभागिता दिखाते उन के पति का इस तरह अपमान क्यों किया अम्मां ने? आत्मविश्लेषण किया… उसे ही नहीं जाना चाहिए था भाई के ब्याह में. हो सकता है अम्मां बेटीदामाद को बुलाना ही न चाहती हों. डाक के जरिए न्योता भेज कर महज औपचारिकता निभाई हो.

विक्रम और विनय अब जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके थे. मानअपमान की भाषा भी खूब समझने लगे थे. मां को धूर्तता का उपहार देने वाले लोगों से बच्चों को कतई हमदर्दी नहीं थी. कितनी बार मनोबल और संयम टूटे. गिरीश की बांहों का सहारा न मिला होता तो सुवीरा कब की टूट चुकी होती.

वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत-भाग 2

नरेंद्र ने जब से होश संभाला था उस का भी अमली चाचा से वास्ता पड़ता रहा था. जब भी उस के पांव की चप्पल कहीं से टूटती थी तो उस की मरम्मत अमली चाचा ही करता था. चप्पल की मरम्मत और पालिश कर के एकदम उस को नया जैसा बना देता था अमली चाचा.

काम करते हुए बातें करने की अमली चाचा की आदत थी. बातों की झोंक में कई बार बड़ी काम की बातें भी कह जाता था अमली चाचा.

‘कुदेसन’ के बारे में अमली चाचा से वह पूछेगा, ऐसा मन बनाया था नरेंद्र ने.

एक दिन जब स्कूल से वापस आ कर सब लड़के अपनेअपने घर की तरफ रुख कर गए तो नरेंद्र घर जाने के बजाय चौपाल के करीब पीपल के नीचे जूतों की मरम्मत में जुटे अमली चाचा के पास पहुंच गया.

नरेंद्र को देख अमली चाचा ने कहा, ‘‘क्यों रे, फिर टूट गई तेरी चप्पल? तेरी चप्पल में अब जान नहीं रही. अपने कंजूस बाप से कह अब नई ले दें.’’

‘‘मैं चप्पल बनवाने नहीं आया, चाचा.’’

‘‘तब इस चाचा से और क्या काम पड़ गया, बोल?’’ अमली ने पूछा.

नरेंद्र अमली चाचा के पास बैठ गया. फिर थोड़ी सी ऊहापोह के बाद उस ने पूछा, ‘‘एक बात बतलाओ चाचा, यह ‘कुदेसन’ क्या होती है?’’

नरेंद्र के सवाल पर जूता गांठ रहे अमली चाचा का हाथ अचानक रुक गया. चेहरे पर हैरानी का भाव लिए वह बोले, ‘‘ तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’

‘‘मैं ने सुरजीत के घर में एक औरत को देखा था चाचा, सुरजीत कहता है कि वह औरत ‘कुदेसन’ है जिस को उस का बापू बाहर से लाया है. बतलाओ न चाचा कौन होती है ‘कुदेसन’?’’

‘‘क्या करेगा जान कर? अभी तेरी उम्र नहीं है ऐसी बातों को जानने की. थोड़ा बड़ा होगा तो सब अपनेआप मालूम हो जाएगा. जा, घर जा.’’ नरेंद्र को टालने की कोशिश करते हुए अमली चाचा ने कहा. लेकिन नरेंद्र जिद पर अड़ गया. तब अमली चाचा ने कहा,

‘‘ ‘कुदेसन’ वह होती है बेटा, जिस को मर्द लोग बिना शादी के घर में ले आते हैं और उस को बीवी की तरह रखते हैं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं चाचा.’’

‘‘थोड़े और बड़े हो जाओ बेटा तो सब समझ जाओगे. कुदेसनें तो इस गांव में आती ही रही हैं. आज सुरजीत का बाप ‘कुदेसन’ लाया है. एक दिन तेरा बाप भी तो ‘कुदेसन’ लाया था. पर उस ने यह सब तेरी मां की रजामंदी से किया था. तभी तो वह वर्षों बाद भी तेरे घर में टिकी हुई है. बातें तो बहुत सी हैं पर मेरी जबानी उन को सुनना शायद तुम को अच्छा नहीं लगेगा, बेहतर होगा तुम खुद ही उन को जानो,’’ अमली चाचा ने कहा.

अमली चाचा की बातों से नरेंद्र हक्काबक्का था. उस ने सोचा नहीं था कि उस का एक सवाल कई दूसरे सवालों को जन्म दे देगा.

सवाल भी ऐसे जो उस की अपनी जिंदगी से जुडे़ थे. अमली चाचा की बातों से यह भी लगता था कि वह बहुत कुछ उस से छिपा भी गया था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि होश संभालने के बाद वह जिस खामोश औरत को अपने घर में देखता आ रहा है वह कौन है?

वह भी ‘कुदेसन’ है, लेकिन सवाल तो कई थे.

यदि मेरा बापू कभी मां की रजामंदी से ‘कुदेसन’ लाया था तो आज मां उस से इतना बुरा सलूक क्यों करती है? अगर वह ‘कुदेसन’ है तो मुझ को देख कर रोती क्यों है? जरा सा मौका मिलते ही मुझ को अपने सीने से चिपका कर चूमनेचाटने क्यों लगती थी वह? मां की मौजूदगी में वह ऐसा क्यों नहीं करती थी? क्यों डरीडरी और सहमी सी रहती थी वह मां के वजूद से?

फिर अमली चाचा की इस बात का क्या मतलब था कि अपने घर की कुछ बातें खुद ही जानो तो बेहतर होगा?

ऐसी कौन सी बात थी जो अमली चाचा जानता तो था किंतु अपने मुंह से उस को नहीं बतलाना चाहता?

एक सवाल को सुलझाने निकला नरेंद्र का किशोर मन कई सवालों में उलझ गया.

उस को लगने लगा कि उस के अपने जीवन से जुड़ी हुई ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन के बारे में वह कुछ नहीं जानता.

अमली चाचा से नई जानकारियां मिलने के बाद नरेंद्र ने मन में इतना जरूर ठान लिया कि वह एक बार मां से घर में रह रही ‘कुदेसन’ के बारे में जरूर पूछेगा.

‘कुदेसन’ के कारण अब सुरजीत के घर में बवाल बढ़ गया था. सुरजीत की मां ‘कुदेसन’ को घर से निकालना चाहती थी मगर उस का बाप इस के लिए तैयार नहीं था.

इस झगड़े में सुरजीत की मां के दबंग भाइयों के कूदने से बात और भी बिगड़ गई थी. किसी वक्त भी तलवारें खिंच सकती थीं. सारा गांव इस तमाशे को देख रहा था.

वैसे भी यह गांव में इस तरह की कोई नई या पहली घटना नहीं थी.

जब सारे गांव में सुरजीत के घर आई ‘कुदेसन’ की चर्चा थी तो नरेंद्र का घर इस चर्चा से अछूता कैसे रह सकता था?

नरेंद्र ने भी मां और सिमरन बूआ को इस की चर्चा करते सुना था लेकिन काफी दबी और संतुलित जबान में.

इस चर्चा को सुन कर नरेंद्र को लगा था कि उस के मां से कु छ पूछने का वक्त आ गया है.

एक दिन जब नरेंद्र स्कूल से वापस घर लौटा तो मां अपने कमरे में अकेली थीं. सिमरन बूआ किसी रिश्तेदार के यहां गई हुई थीं और बापू खेतों में था.

नरेंद्र ने अपना स्कूल का बस्ता एक तरफ रखा और मां से बोला, ‘‘एक बात बतला मां, गायभैंस बांधने वाली जगह के पास बनी कोठरी में जो औरत रहती है वह कौन है?’’

पार्क वाली लड़की : यौवन वाली नवयौवना की कहानी-भाग 2

हालांकि जैसेजैसे रिटायर होने का समय नजदीक आ रहा है, वे परेशान होते जा रहे हैं. उन्हें लगता है, जिंदगी की रेत उन की मुट्ठी से झर कर खत्म होने जा रही है. बस, चंद जर्रे और बचे हैं उन की बंद मुट्ठी में, फिर खाली…रीती…

फिर क्या होगा? यह सवाल अब हर वक्त उन के दिलोदिमाग पर हावी रहता है. वे तय नहीं कर पा रहे. हालांकि लड़का कहता है, ‘पिताजी, बहुत हो गया काम. अब तो आप रिटायर होने के बाद घर पर आराम करिए, सुबहशाम टहलिए. अपनी सेहत का खयाल रखिए.’ लेकिन फिर भी भविष्य को ले कर वे चिंतित हैं.

छोटे बच्चे अचानक गेंद ले कर पार्क के उस हिस्से में आ गए जिस में वह लड़की पढ़ रही थी. लड़की के माथे पर बल पड़ने लगे. वह परेशान हो उठी. उस की परेशानी वे सह न सके. बैंच से उठे और गेंद खेलते बच्चों के कप्तान के पास पहुंचे, ‘‘बेटे, यहां ये दीदी पढ़ती हैं तुम्हारी…इन की परीक्षा नजदीक है. इन्हें पढ़ने दो यहां. तुम्हें अपनी जगह खेलना चाहिए.’’

‘‘कैसे खेलें दादाजी?’’ कप्तान ने परेशान हो कर कहा, ‘‘हमारी जगह पर दूसरे लड़कों ने क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया है. आप उन्हें रोकिए, हमारी जगह न खेलें.’’

बात जायज थी. पर क्रिकेट खेलने वाले लड़के शक्ल से ही उन्हें उद्दंड लगे. उन से उलझना उन्हें ठीक न लगा. इसलिए उन बच्चों को ले कर वे दूसरे कोने में पहुंचे. वहां ताश खेलने वाला दल बैठा था. वे सचमुच चिंतित हुए कि बच्चे कहां खेलें? आखिरकार उन्होंने फैसला किया, ‘‘तुम लोग उस पानी की टंकी के पास वाले मैदान में खेलो, वहां कोई नहीं आता.’’

बच्चे मान गए तो उन्हें सचमुच खुशी हुई.

अनजाने ही या जानबूझ कर उस लड़की को परेशान करने की नीयत से ताश खेलने वाले लड़कों का वह दल एक दिन उस लड़की वाले कोने में आ जमा. लड़की आई और परेशान सी पार्क में अपने लिए कोई सुरक्षित कोना देखने लगी पर उसे कोई उपयुक्त जगह न दिखी. चिंतित, खिन्न, उद्विग्न वह उन के नजदीक बैंच के एक सिरे की तरफ आ खड़ी हुई.

‘‘कहो तो इन उद्दंड लड़कों से तुम्हारा कोना खाली करने को कहूं?’’ उन्होंने उस लड़की के परेशान चेहरे की तरफ एक पल को ताका.

‘‘रहने दीजिए. आप जैसे भले आदमी का अपमान कर देंगे तो हमें अच्छा नहीं लगेगा,’’ लड़की के स्वर के अपनेपन ने उन की रगों में एक झनझनाहट पैदा कर दी. ‘कितना मधुर स्वर है इस का,’ उन्होंने सोचा.

कुछ सोच कर वे बैंच से उठे. लड़कों के नजदीक पहुंचे. एक लड़के की बगल में जा कर बैठ गए. कुछ देर चुपचाप उन का खेल देखते रहे. वह लड़का बीचबीच में बैंच के पास खड़ी लड़की को देखे जा रहा था. मन ही मन शायद मुसकरा भी रहा था. उन्हें ऐसा ही लगा.

‘‘आप लोग तो शरीफ और पढ़ेलिखे लड़के हैं,’’ उन्होंने कहना शुरू किया.

‘‘इसीलिए बेकार हैं. घर में रहें तो मांबाप को खटकते हैं. यहां किसी को खटकते नहीं हैं, इसलिए ताश जमाते हैं,’’ वह लड़का बोला.

‘‘जिंदगी के ये खूबसूरत दिन आप लोग यों बेकार बैठ कर जाया  कर रहे हैं. आप लोगों को नहीं लगता कि इन दिनों का कोई इस से बेहतर उपयोग हो सकता था?’’ वे बोले.

‘‘जिंदगी खूबसूरत होती है खूबसूरत लड़की से, जनाब,’’ एक मुंहफट लड़का बोला, ‘‘और खूबसूरत लड़की मिलती है अच्छी नौकरी वालों को या आरक्षण वालों को. हम लोग न सिफारिश वाले हैं और न आरक्षण वाले, इसलिए यहां बैठ कर ताश खेलते हुए जिंदगी को जाया कर रहे हैं. अब बताइए आप?’’

‘‘इस उम्र में आप लोगों को इस तरह जिंदगी की लड़ाई से हार मान कर अपने हथियार नहीं डाल देने चाहिए. मेरा खयाल है, आप लोग वक्त जाया न कर के अपने रुके हुए कैरियर को कोई और मोड़ देने का प्रयास करिए. न कुछ करने से, कुछ करना हमेशा बेहतर होता है. अगर आप चाहें तो मैं आप लोगों की इस मामले में मदद करने को तैयार हूं.’’

उन की बात सुनते ही ताश खेलती उंगलियां एकदम थम गईं, सब के चेहरे उन की तरफ उन्मुख हो गए. वे सब उसी तरह शांत बने रहे, ‘‘मैं उस सामने वाले मकान में ऊपर वाले हिस्से में रहता हूं. अपनी डिगरियां और प्रमाणपत्र ले कर आएं किसी दिन, शायद मैं आप लोगों को कुछ सुझा सकूं.’’

‘‘जी, धन्यवाद, दादाजी,’’ कह कर वे सब लड़के वहां से उठ कर चले गए.

‘‘आप तो सचमुच जादूगर हैं,’’ वह लड़की पार्क के अपने उस कोने में आ कर उन के निकट ही घास पर किताबें लिए बैठ गई. उस ने उस दिन जामुनी रंग का सूट पहन रखा था और उस पर सफेद रंग की चुन्नी.

वह अपलक उस के चेहरे को ताकते रहे. उन का मन हुआ, उस से कह दें, ‘इस तरह हंसती हुई तुम कितनी अच्छी लगती हो. क्या नाम है तुम्हारा? कहां रहती हो? किस की बेटी हो? और कौनकौन हैं तुम्हारे घर में?’ पर वे कुछ न बोले, सिर्फ मुसकराते रहे.

‘‘गेंद खेलने वाले बच्चों को दूसरी जगह पहुंचा दिया और अब इन लड़कों को पता नहीं आप ने कान में क्या कह दिया कि सब गऊ बने हुए यहां से चले गए,’’ लड़की चकित थी.

‘‘मैं ने लड़कों को अपने उस सामने वाले घर को दिखा दिया. कह दिया, वे जिंदगी के ये खूबसूरत दिन यों जाया न करें. जरूरी समझें तो मेरे घर में आएं, मैं ऊपर वाले हिस्से में रहता हूं. शायद उन की मदद कर सकूं.’’

‘‘आप सिर्फ लड़कों की ही मदद करेंगे, मेरी नहीं?’’ पता नहीं क्या सोच कर लड़की मुसकराई, ‘‘अगर मैं किसी दिन आप से सहायता मांगने आऊं तो…?’’

‘‘आइए न किसी दिन. मुझे तो उस दिन का इंतजार रहेगा,’’ हालांकि वे कहना तो यह चाहते थे कि उन्हें तो उस दिन का बेताबी से इंतजार रहेगा. पर लड़की से वे पहली बार बोल रहे थे. सिर्फ इतना ही पूछा, ‘‘नाम नहीं बताना चाहोगी मुझे?’’

‘‘जी, ताना, लोग घर में तन्नू कहते हैं,’’ वह हंसी.

वे उस के हंसते गुलाबी अधरों और संगमरमरी दांतों को अपलक ताकते रहे, ‘कितनी प्यारी लड़की है, न जाने किस का जीवन संवारेगी.’

‘‘ताना, कुछ अजीब सा नाम नहीं लगता तुम्हें?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘हां, है तो अजीब ही. मेरे पिता बहुत अच्छे संगीतकार हैं. घर में हर वक्त रियाज करते रहते हैं. उन से कुछ कह नहीं सकती. पढ़ने में बाधा पड़ती है, इसलिए यहां चली आती हूं. ताना नाम उन्होंने ही दिया है, तान से या लय से मतलब बताते हैं वे इस का. पर मुझे पता चला है, विख्यात संगीतसम्राट तानसेन की महबूबा थी कोई ताना नाम की लड़की. और वह तानसेन से भी ज्यादा अच्छी गायिका थी. पिताजी ने जरूर उसी के नाम पर मेरा नाम रखा होगा, यह सोच कर कि मैं भी उन की तरह संगीत में रुचि लूंगी और अच्छी गायिका बनूंगी. पर मुझे संगीत में कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘तुम शायद एमबीए की तैयारी कर रही हो?’’ वे बोले. हालांकि वे कहना तो यह चाहते थे कि आजकल के बच्चे कितने खोजी किस्म के हो गए हैं. बाप ने ताना का जो अर्थ बताया, उस से संतुष्ट नहीं होते. नाम का अर्थ खोजा और पता चला ही लिया कि ताना तानसेन की प्रेमिका थी. कोई बाप अपनी लड़की से यह कैसे कह देता कि उस का नाम उस संगीतसम्राट की महबूबा के नाम पर रखा है.

‘‘जी, आप ने कैसे जाना?’’ वह हंस दी.

एकदम निश्छल, भोली, बच्चों जैसे हंसी को वे अपलक ताकते रहे,

‘‘तुम्हारी किताबों से…और मैं यह भी जान गया हूं कि तुम्हें अंगरेजी में खास दिक्कत आ रही है.’’

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