बरसों की साध

चक्रव्यूह भेदन : क्या सही थी वान्या की सोच?

जून का महीना था. सुबह के साढ़े 8 ही बजे थे, परंतु धूप शरीर को चुभने लगी थी. दिल्ली महानगर की सड़कों पर भीड़ का सिलसिला जैसे उमड़ता ही चला आ रहा था. बसें, मोटरें, तिपहिए, स्कूटर सब एकदूसरे के पीछे भागे चले जा रहे थे. आंखों पर काला चश्मा चढ़ाए वान्या तेज कदमों से चली आ रही थी. उसे घर से निकलने में देर हो गई थी. वह मन ही मन आशंकित थी कि कहीं उस की बस न निकल जाए. ‘अब तो मुझे यह बस किसी भी तरह नहीं मिल सकती,’ अपनी आंखों के सामने से गुजरती हुई बस को देख कर वान्या ने एक लंबी सांस खींची. अचानक लाल बत्ती जल उठी और वान्या की बस सड़क की क्रौसिंग पर जा कर रुक गई.

वान्या भाग कर बस में चढ़ गई और धक्कामुक्की करती हुई अपने लिए थोड़ी सी जगह बनाने लगी. उस ने इधरउधर दृष्टि दौड़ाई. बस की सारी सीटें भर चुकी थीं. कहींकहीं 2 की सीट पर 3 लोग बैठे थे. कोई और उपाय न देख कर वह भी बस में खड़े अन्य यात्रियों की कतार में खड़ी हो गई. बस में बैठे पुरुषों में से किसी ने भी उठ कर उसे सीट देने की सहानुभूति न जताई. वान्या सोचने लगी, ‘ठीक ही तो है, जब महिलाओं ने घर से निकल कर बाहर की दुनिया में कदम रखा है, तो उन्हें अब अपनी सुकुमारता भी छोड़नी ही होगी.’

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हरी बत्ती जल चुकी थी और बस ने क्रौसिंग पार कर के गति पकड़ ली थी. ‘उफ, इतनी गरमी और ऊपर से यह भीड़,’ वान्या पर्स से टिकट के पैसे निकालते हुए बुदबुदाई. वह अपनेआप को संभाल भी नहीं पाई थी कि बस अचानक एक ओर मुड़ी. बस के मुड़ने के साथ ही वान्या सामने की सीट पर बैठे पुरुष यात्रियों के ऊपर जा गिरी. किसी तरह उस ने पर्स से पैसे निकाल कर टिकट खरीदा और बस की छत में लगे पाइप को मजबूती से पकड़ कर खड़ी हो गई.

पड़ोसिन ने एक दिन व्यंग्य कसा था, ‘नौकरी करने में कितना आनंद है, प्रतिदिन अच्छीअच्छी साडि़यां पहनना और सुबहसुबह बनसंवर कर सैर को चल देना.’ ‘उन्हें तो मेरा सिर्फ बननासंवरना ही नजर आता है. बसों में भीड़ के बीच इस तरह पिचके रहना और घंटों हाथ ऊपर कर के खड़े रहना नजर ही नहीं आता. उस पर सारा दिन शिशु सदन में पड़े बच्चों की चिंता अलग से रहती है,’ वान्या अपने विचारों में खोई हुई थी कि अचानक उस ने अपने ऊपर कुछ भार सा महसूस किया. पलट कर देखा तो एक महाशय भीड़ का फायदा उठा कर अनावश्यक रूप से उस के ऊपर झुके जा रहे थे.

‘‘जरा सीधे खड़े रहिए,’’ वान्या खिसियाते हुए बोली.

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बस ने गति पकड़ ली थी और इस के साथ ही वान्या के मन की परतें भी उघड़ने लगीं… 

आज तो कपड़े धो कर सूखने के लिए डालना ही भूल गई. सारे कपड़ों में सिलवटें पड़ गई होंगी और शाम को जा कर उन्हें फिर से पानी में निकालना पड़ेगा. सुबहसुबह काम का इतना तूफान मचा होता है कि कुछ होश ही नहीं रहता. बिस्तर से उठते ही सब से पहले पानी का झमेला. इसी बीच पति की चाय की फरमाइश. नौकरीपेशा महिलाओं की जिम्मेदारियां तो दोहरी हो गईं, परंतु पुरुषों की जिम्म्ेदारियां वहीं की वहीं रह गईं. शायद पुरुष यह सोचते हैं कि जब औरत में इतनी सामर्थ्य है कि वह घर का कामकाज संभालने के साथ बाहर का भी कर सकती है तो क्यों न उस के सामर्थ्य का सदुपयोग किया जाए.’

‘वान्या, जरा बाहर देखना, शायद समाचारपत्र आ गया होगा,’ अक्षत ने बिस्तर में लेटेलेटे ही आवाज दी थी. सोनू और लवी अभी सो कर नहीं उठे थे. सो उसे ही समाचारपत्र लाने के लिए बाहर भागना पड़ा था. वह चाय का घूंट भी नहीं ले पाई थी कि उस की कामवाली आ गई थी. फिर तो सारे काम छोड़ कर वह मायारानी की सहायिका बन कर उस के पीछेपीछे घूमती रही. मायारानी को बरतन धोने हैं तो पानी गरम कर के वह दे, उसे झाड़ू मारनी है तो सोफा, टेबल वह खिसकाए. माया की बच्ची रोए तो उसे भी चुप कराए. फिर मायारानी का काम समाप्त होने पर उसे चाय बना कर पिलाए. उसे दफ्तर के लिए देर माया के कारण ही हुई थी.

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वान्या चिल्लाती रही, ‘माया, जल्दी, चाय पी ले, मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’ पर वह बालकनी में बैठी अपनी 2 वर्षीया बेटी कमली को खिलाने में लगी थी.

‘तू यहां क्या कर रही है माया, अभी कमरे में पोंछा लगाना बाकी है.’आवाज सुनते ही वह हड़बड़ा कर उठी थी और पोंछा लगाने के लिए चल पड़ी थी. वान्या सोनू के टिफिन में सैंडविच डाल कर लवी की शिशु सदन की टोकरी तैयार करने लगी थी. दूध की बोतल, बदलने के लिए फ्रौक, बिस्कुट, फल आदि सबकुछ उस ने ध्यान से टोकरी में रख दिया था. अब सिर्फ लवी को दलिया खिलाना बाकी था. उस ने अक्षत को आवाज दी, ‘सुनो जी, जरा लवी को दलिया खिला देना, मैं सोनू की कमीज में बटन टांक रही हूं.’

‘वान्या, तुम मुझे प्रतिदिन दफ्तर के लिए देर कराती हो. अभी मुझे स्वयं भी तैयार होना है, सोनू को बस तक छोड़ना है.’ शिशु सदन का नाम सुनते ही वान्या की 3 वर्षीया बेटी लवी बिफर पड़ी थी, ‘मैं नहीं जाऊंगी वहां.’ लवी का यह रोनाधोना और फिर उसे मनाना उस का प्रतिदिन का काम था. 10-15 मिनट का समय तो इसी में निकल जाता था. वान्या लवी के आंसू पोंछ कर उसे पुचकारने लगी थी.

‘मैं तो कहता हूं वान्या, तुम यह नौकरी छोड़ दो. मेरा वेतन अब इतना तो हो ही चुका है कि मैं तुम्हारी नौकरी के बिना भी घर का खर्च चला सकता हूं,’ अक्षत ने गुसलखाने में जातेजाते कहा था. शायद अपनी लाड़ली बेटी को रोता हुआ देख कर उस का हृदय द्रवित हो उठा था. ‘तुम्हारी यह बेटी जरा सा रोई नहीं कि तुम तुरंत मेरी नौकरी छुड़वाने के बारे में सोचने लगते हो. याद नहीं तुम्हें, कितनी मुश्किलों से मिली है मुझे यह नौकरी,’ वान्या अक्षत को बीते दिनों की याद दिलाना चाहती थी.

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अक्षत को कार्यालय के लिए देर हो रही थी. वह नहाने के लिए गुसलखाने की ओर चला गया और वान्या सोचती रही, ‘कितने पापड़ बेले हैं इस नौकरी को पाने के लिए और आज चार पैसे घर में लाने लगी हूं तभी तो थोड़ा सलीके से रह पा रहे हैं. इस नौकरी के पहले तो न उन के पास ढंग के कपड़ेलत्ते होते थे और न ही कोई कीमती सामान. उसे तो सिर्फ 2-4 साडि़यों में ही गुजारा करना पड़ता था. बेचारे सोनू के पास तो केवल 2 ही स्वेटर हुआ करते थे. अक्षत के पास स्कूटर तो क्या साइकिल भी नहीं हुआ करती थी. बस स्टौप तक पहुंचने के लिए उन्हें काफी दूर तक पैदल चलना पड़ता था. उन दिनों प्रतिदिन रिकशे का भाड़ा भी तो देने की सामर्थ्य नहीं थी उन में. एक बच्चे को भी वह पूरा पौष्टिक आहार नहीं दे पाती थी.

‘नहींनहीं, कभी नहीं छोड़ूंगी मैं यह नौकरी,’ वान्या सोचतेसोचते मुखर हो उठी थी.

डै्रसिंग टेबल के सामने खड़ा अक्षत उसे तिरछी नजरों से देख रहा था. शायद वह वान्या की मनोस्थिति को समझने की कोशिश कर रहा था. वान्या सोनू को नाश्ते के लिए आवाज लगा कर उस का बैग स्कूटर पर रखने लगी थी. अक्षत ने स्कूटर स्टार्ट किया तो उस ने स्कूटर के पीछे बैठे सोनू के सिर पर प्यार से हाथ फेरा. 10 वर्षीय सोनू समय से पहले ही इतना गंभीर हो गया था. वान्या को ऐसा लगता, जैसे वह अपराधिनी है, उस ने ही अपने बच्चों से उन का बचपन छीन लेने का अपराध किया है. वह खयालों में खोई हुई दूर तक जाते हुए अक्षत के स्कूटर को देखती रही. अचानक उसे ध्यान आया, अभी तो कमरे में फैला सारा सामान समेटना है. वह भाग कर ऊपर आई. उस ने एक दृष्टि पूरे कमरे में दौड़ाई. बिस्तर पर गीला तौलिया पड़ा था. उस ने तौलिए को निचोड़ कर बालकनी में फैला दिया. वान्या ने बिजली की गति से भागभाग कर सामान समेटना शुरू किया. सभी वस्तुओं को यथास्थान रखने में उसे कम से कम 10 चक्कर लगाने पड़े. नाश्ते का निवाला निगलतेनिगलते उसे ध्यान आया, ‘कहीं मायारानी गुसलखाने की बालटी खाली तो नहीं कर गई.’

वान्या ने स्नानघर में जा कर देखा तो बालटी सचमुच ही खाली पड़ी थी. अब तो पानी भी जा चुका था. वह गुस्सा पी कर रह गई. अभी उसे तैयार भी होना था. घड़ी की सूइयों पर नजर गई तो हड़बड़ा कर अलमारी में से साड़ी निकालने लगी. लवी को शिशु सदन में छोड़ते समय वान्या का मन बहुत विचलित हो गया था. उस की सोच जारी थी, ‘आखिर क्या दे पा रही है वह अपने बच्चों को इस नौकरी से? इस उम्र में जब उन्हें उस के प्यार की जरूरत है, तो वह उन्हें छोड़ कर दफ्तर चली जाती है और शाम को जब थकीहारी लौटती है तो उन्हें दुलारने, पुचकारने का उस के पास समय नहीं होता. आखिर इस नौकरी से उसे मिलता ही क्या है? सुबह से शाम तक की भागदौड़ जीवन स्तर बढ़ाने की होड़ और इस होड़ में कुछ भी तो नहीं बचा पाती वह अपनी आमदनी का.

‘जब वह नौकरी नहीं करती थी तो उस का काम 4-5 साडि़यों में ही चल जाता था, लेकिन कार्यालय के लिए अब 15-20 साडि़यां भी कम पड़ती हैं. वर्ष में 2-3 जोड़ी चप्पलें घिस ही जाती हैं. ऊपर से पाउडर, क्रीम, लिपस्टिक का खर्चा अलग से. पतिपत्नी दोनों कमाऊ हों तो ससुराल वाले भी कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करते हैं. वह तो बस सुखसुविधा के साधन जुटाने की मशीन बन कर रह गई है और दिनरात पिस रही है, इसी चक्की में. पारिवारिक स्नेह और प्यार की जगह अब टीवी और स्टीरियो ने ले ली है. किसी को एकदूसरे से बात करने तक की फुरसत नहीं है.

‘उफ, नहीं करूंगी मैं ऐसी नौकरी,’ वान्या के होंठों से कुछ अस्फुट स्वर निकल पड़े. आसपास की सवारियों ने उसे चौंक कर देखा, तो उस की विचारतंद्रा रुकी. अब उस की आंखें बस की खिड़की से कहीं दूर कुछ तलाश रही थीं.

उसे फैसला करने में 4-5 दिन लगे. साथ काम करने वाली महिलाओं ने विरोध किया, ‘‘क्या मियां की पैर की जूती बन कर रहेगी?’’

चटकमटक वीना ने कहा, ‘‘लीना का पति रोज उस से झगड़ता था. उस ने पिछले 3 साल से अलग मकान ले रखा है.’’

‘‘हमारे पास इतनी दौलत कहां कि नौकरी छोड़ सकें,’’ यह सरोज का कहना था. कांतिहीन चेहरे वाली सरोज घर और दफ्तर के बीच पिस रही थी. वान्या को दोनों की सलाह में स्वार्थ नजर आया. फिर भी उस ने जी कड़ा कर के त्यागपत्र दे दिया. 2-4 दिन घर पर बेफिक्री से बीते. ढेरों काम थे, रसोई सड़ी हुई थी. पहले घर में डब्बाबंद सामान ही खाया जाता था, अब वह खुद बनाने लगी. बेटी भी अब संयत होने लगी. 7-8 दिन बाद अक्षत बोला, ‘‘मैं 4 दिनों के लिए टूर पर जा रहा हूं. तुम्हें दिक्कत तो न होगी?’’

‘लो बोलो, घर बैठी नहीं कि पति के पर निकलने लगे,’ वान्या ने सोचा. फिर विवाद न खड़ा करने की नीयत से बोली, ‘‘दिक्कत क्यों होगी, आप निश्चिंत हो कर जाइए.’’ अक्षत के बिना 4 दिन काफी लगने लगे. पहले वह टूर पर जाना टाल देता था कि वान्या को दिक्कत होगी. वह घर का जो छोटामोटा काम कर देता था, वह कौन करेगा… 

4 दिन बाद जब अक्षत लौटा तो बहुत खिलाखिला था, बोला, ‘‘मेरे अधिकारी भी साथ थे. मेरे काम से बहुत खुश थे. वहीं मेरी तरक्की भी कर दी और यह लो 5 हजार रुपए बोनस भी दिया है.’’

थोड़ी देर बाद अक्षत फिर बोला, ‘‘अधिकारी कह रहे थे कि पहले घरेलू कठिनाइयों के कारण ही वे मुझे जिम्मेदारियां देने से कतरा रहे थे. वे नहीं चाहते थे कि बाहर जाने के कारण घर में विवाद हो.’’ वान्या सन्न रह गई. वह तो सोचती थी कि उस की नौकरी से घर में बरकत थी, पर यह तो उलटा था. उसे अपने निर्णय पर गर्व हो आया. उस ने सोचा कि नौकरी नहीं तो क्या, वह भी तो अक्षत की कमाई में हिस्सा देती ही है.

अपना घर: भाग 1

विजय की गुस्से भरी आवाज सुनते ही सुरेखा चौंक उठी. उस का मूड खराब था. वह तो विजय के आने का इंतजार कर रही थी कि कब विजय आए और वह अपना गुस्सा उस पर बरसाए क्योंकि आज सुबह औफिस जाते समय विजय ने वादा किया था कि शाम को कहीं घूमने चलेंगे. उस के बाद खरीदारी करेंगे. खाना भी आज होटल में खाएंगे. शाम को 6 बजे से पहले घर पहुंचने का वादा किया था.

4 बजे के बाद सुरेखा ने कई बार विजय के मोबाइल फोन पर बात करनी चाही तो उस का फोन नहीं सुना था. हर बार उस का फोन काट दिया गया था. वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर क्या बात है? जल्दी नहीं आना था तो मना कर देते. बारबार फोन काटने का क्या मतलब?

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सुरेखा तो शाम के 5 बजे से ही जाने के लिए तैयार हो गई थी. पता नहीं, औफिस में देर हो रही है या यारदोस्तों के साथ सैरसपाटा हो रहा है. बस, उस का मूड खराब होने लगा था. उसे कमरे की लाइट औन करना भी ध्यान नहीं रहा.

सुरेखा ने विजय की ओर देखा. विजय का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी में आज वह पहली बार विजय को इतने गुस्से में देख रही थी.

सुरेखा अपना गुस्सा भूल कर हैरान सी बोल उठी, ‘‘यह क्या कह रहे हो? मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हूं. तुम्हारा फोन मिलाया तो हर बार तुम ने फोन काट दिया. आखिर बात क्या है?’’

‘‘बात तो बहुत बड़ी है. तुम ने मुझे धोखा दिया है. तुम्हारे मातापिता ने मुझे धोखा दिया है.’’

‘‘धोखा… कैसा धोखा?’’ सुरेखा के दिल की धड़कन बढ़ती चली गई.

‘‘तुम्हारे धोखे का मुझे आज पता चल गया है कि तुम शादी से पहले विकास की थी,’’ विजय ने कहा.

यह सुन कर सुरेखा चौंक गई. वह विजय से आंख न मिला पाई और इधरउधर देखने लगी.

‘‘अब तुम चुप क्यों हो गई? शादी को 2 साल होने वाले हैं. इतने दिनों से मैं धोखा खा रहा था. मुझे क्या पता था कि जिस शरीर पर मैं अपना हक समझता था, वह पहले ही कोई पा चुका था और मुझे दी गई उस की जूठन.’’

‘‘नहीं, आप यह गलत कह रहे हो.’’

‘‘क्या तुम विकास से प्यार नहीं करती थी? तुम उस के साथ पता नहीं कहांकहां आतीजाती थी. तुम दोनों को शादी की मंजूरी भी मिल गई थी कि अचानक वह कमबख्त विकास एक हादसे में मर गया. यह सब तो मुझे आज पता चल गया नहीं तो मैं हमेशा धोखे में रहता.’’

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यह सुन कर सुरेखा की आंखें भर आईं. वह बोली, ‘‘तुम्हें किसी ने धोखा नहीं दिया है, मेरी किस्मत ने ही मुझे धोखा दिया है जो विकास के साथ ऐसा हो गया था.’’

‘‘तुम ने मुझे अब तक बताया क्यों नहीं?’’

सुरेखा चुप रही.

‘‘अब तुम यहां नहीं रहोगी. मैं तुम जैसी चरित्रहीन और धोखेबाज को अपने घर में नहीं रखूंगा.’’

‘‘विजय, मैं चरित्रहीन नहीं हूं. मेरा यकीन करो.’’

‘‘प्रेमी ही तो मरा है, तुम्हारे मांबाप तो अभी जिंदा हैं. जाओ, वहां दफा हो जाओ. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहता. अपने धोखेबाज मांबाप से कह देना कि अपना सामान ले जाएं.’’

सुरेखा सब सहन कर सकती थी, पर अपने मातापिता की बेइज्जती सहना उस के वश से बाहर था. वह एकदम बोल उठी, ‘‘तुम मेरे मम्मीपापा को क्यों गाली देते हो?’’

‘‘वे धोखेबाज नहीं हैं तो उन्होंने क्यों नहीं बताया?’’ कहते हुए विजय ने गालियां दे डालीं.

‘‘ठीक है, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रहूंगी,’’ कहते हुए सुरेखा ने एक बैग में कुछ कपड़े भरे और चुपचाप कमरे से बाहर निकल गई.

सुरेखा रेलवे स्टेशन पर जा पहुंची. रात साढ़े 10 बजे ट्रेन आई.

3 साल पहले एक दिन सुरेखा बाजार में कुछ जरूरी सामान लेने जा रही थी. उस के हाथ में मोबाइल फोन था. तभी एक लड़का उस के हाथ से फोन छीन कर भागने लगा. वह एकदम चिल्लाई ‘पकड़ो… चोरचोर, मेरा मोबाइल…’

बराबर से जाते हुए एक नौजवान ने दौड़ लगाई. वह लड़का मोबाइल फेंक कर भाग गया था. जब उस नौजवान ने मोबाइल लौटाया, तो सुरेखा ने मुसकरा कर धन्यवाद कहा था.

वह युवक विकास ही था जिस के साथ पता नहीं कब सुरेखा प्यार के रास्ते पर चल दी थी.

एक दिन सुरेखा ने मम्मी से कह दिया था कि विकास उस से शादी करने को तैयार है. विकास के मम्मीपापा भी इस रिश्ते के लिए तैयार हो गए हैं.

पर उस दिन अचानक सुरेखा के सपनों का महल रेत के घरौंदे की तरह ढह गया जब उसे यह पता चला कि मोटरसाइकिल पर जाते समय एक ट्रक से कुचल जाने पर विकास की मौत हो गई है.

सुरेखा कई महीने तक दुख के सागर में डूबी रही. उस दिन पापा ने बताया था कि एक बहुत अच्छा लड़का विजय मिल गया है. वह प्राइवेट नौकरी करता है.

सुरेखा की विजय से शादी हो गई. एक रात विजय ने कहा था, ‘तुम बहुत खूबसूरत हो सुरेखा. मुझे तुम जैसी ही घरेलू व खूबसूरत पत्नी चाहिए थी. मेरे सपने सच हुए.’

जब कभी सुरेखा विजय की बांहों में होती तो अचानक ही एक विचार से कांप उठती थी कि अगर किसी दिन विजय को विकास के बारे में पता चल गया तो क्या होगा? क्या विजय उसे माफ कर देगा. नहीं, विजय कभी उसे माफ नहीं करेगा क्योंकि सभी मर्द इस मामले में एकजैसे होते हैं. तब क्या उसे बता देना चाहिए? नहीं, वह खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारे?

आज विजय को पता चल गया और जिस बात का उसे डर था, वही हुआ. पर वह शक, नफरत और अनदेखी के बीच कैसे रह सकती थी?

सुबह सुरेखा मम्मीपापा के पास जा पहुंची थी.

सुरेखा के कमरे से निकल जाने

के बाद भी विजय का गुस्सा बढ़ता

ही जा रहा था. वह सोफे पर पसर गया. धोखेबाज… न जाने खुद को क्या समझती है वह? अच्छा हुआ आज पता चल गया, नहीं तो पता नहीं कब तक उसे धोखे में ही रखा जाता?

2-3 दिन में ही पासपड़ोस में सभी को पता चल गया. काम वाली बाई कमला ने साफसाफ कह दिया, ‘‘देखो बाबूजी, अब मैं काम नहीं करूंगी. जिस घर में औरत नहीं होती, वहां मैं काम नहीं करती. आप मेरा हिसाब कर दो.’’

विजय ने कमला को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, काम न छोड़ो, 100-200 रुपए और बढ़ा लेना.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मेरी भी मजबूरी है. मैं यहां काम नहीं करूंगी.’’

‘‘जब तक दूसरी काम वाली न मिले, तब तक तो काम कर लेना कमला.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं एक दिन भी काम नहीं करूंगी,’’ कह कर कमला चली गई.

4-5 दिन तक कोई भी काम वाली बाई न मिली तो विजय के सामने बहुत बड़ी परेशानी खड़ी हो गई. सुबह घर व बरतनों की सफाई, शाम को औफिस से थका सा वापस लौटता तो पलंग पर लेट जाता. उसे खाना बनाना नहीं आता था. कभी बाजार में खा लेता. दिन तो जैसेतैसे कट जाता, पर बिस्तर पर लेट कर जब सोने की कोशिश करता तो नींद आंखों से बहुत दूर हो जाती. सुरेखा की याद आते ही गुस्सा व नफरत बढ़ जाती.

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रात को देर तक नींद न आने के चलते विजय ने शराब के नशे में डूब

कर सुरेखा को भुलाना चाहा. वह जितना सुरेखा को भुलाना चाहता, वह उतनी ज्यादा याद आती.

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तू आए न आए – भाग 1: शफीका का प्यार और इंतजार

मैं इंगलैंड से एमबीए करने के लिए श्रीनगर से फ्लाइट पकड़ने को घर से बाहर निकल रहा था तो मुझे विदा करने वालों के साथसाथ फूफीदादी की आंखों में आंसुओं का समंदर उतर आया. अम्मी की मौत के बाद फूफीदादी ने ही मुझे पालपोस कर बड़ा किया था. 2 चाचा और 1 फूफी की जिम्मेदारी के साथसाथ दादाजान की पूरी गृहस्थी का बोझ भी फूफीदादी के नाजुक कंधों पर था. ममता का समंदर छलकाती उन की बड़ीबड़ी कंटीली आंखों में हमारे उज्ज्वल भविष्य की अनगिनत चिंताएं भी तैरती साफ दिखाई देती थीं. उन से जुदाई का खयाल ही मुझे भीतर तक द्रवित कर रहा था.

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कार का दरवाजा बंद होते ही फूफीदादी ने मेरा माथा चूम लिया और मुट्ठी में एक परचा थमा दिया, ‘‘तुम्हारे फूफादादा का पता है. वहां जा कर उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश करना और अगर मिल जाएं तो बस, इतना कह देना, ‘‘जीतेजी एक बार अपनी अम्मी की कब्र पर फातेहा पढ़ने आ जाएं.’’

फूफीदादी की भीगी आवाज ने मुझे भीतर तक हिला कर रख दिया. पूरे 63 साल हो गए फूफीदादी और फूफादादा के बीच पैसिफिक अटलांटिक और हिंद महासागर को फैले हुए, लेकिन आज भी दादी को अपने शौहर के कश्मीर लौट आने का यकीन की हद तक इंतजार है.

इंगलैंड पहुंच कर ऐडमिशन की प्रक्रिया पूरी करतेकरते मैं फूफीदादी के हुक्म को पूरा करने का वक्त नहीं निकाल पाया, लेकिन उस दिन मैं बेहद खुश हो गया जब मेरे कश्मीरी क्लासफैलो ने इंगलैंड में बसे कश्मीरियों की पूरी लिस्ट इंटरनैट से निकाल कर मेरे सामने रख दी. मेरी आंखों के सामने घूम गया 80 वर्षीय फूफीदादी शफीका का चेहरा.

मेरे दादा की इकलौती बहन, शफीका की शादी हिंदुस्तान की आजादी से ठीक एक महीने पहले हुई थी. उन के पति की सगी बहन मेरी सगी दादी थीं. शादी के बाद 2 महीने साथ रह कर उन के शौहर डाक्टरी पढ़ने के लिए लाहौर चले गए. शफीका अपने 2 देवरों और सास के साथ श्रीनगर में रहने लगीं.

लाहौर पहुंचने के बाद दोनों के बीच खतों का सिलसिला लंबे वक्त तक चलता रहा. खत क्या थे, प्यार और वफा की स्याही में डूबे प्रेमकाव्य. 17 साल की शफीका की मुहब्बत शीर्ष पर थी. हर वक्त निगाहें दरवाजे पर लगी रहतीं. हर बार खुलते हुए दरवाजे पर उसे शौहर की परछाईं होने का एहसास होता.

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मुहब्बत ने अभी अंगड़ाई लेनी शुरू ही की थी कि पूरे बदन पर जैसे फालिज का कहर टूट पड़ा. विभाजन के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच खतों के साथसाथ लोगों के आनेजाने का सिलसिला भी बंद हो गया.

शफीका तो जैसे पत्थर हो गईं. पूरे 6 साल की एकएक रात कत्ल की रात की तरह गुजारी और दिन जुदाई की सुलगती भट्टी की तरह. कानों में डाक्टर की आवाजें गूंजती रहतीं, सोतीजागती आंखों में उन का ही चेहरा दिखाई देता था. रात को बिस्तर की सिलवटें और बेदारी उन के साथ बीते वक्त के हर लमहे को फिर से ताजा कर देतीं.

अचानक एक दिन रेडियो में खबर आई कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होगा. इस मैच को देखने जाने वालों के लिए वीजा देने की खबर इक उम्मीद का पैगाम ले कर आई.

शफीका के दोनों भाइयों ने रेलवे मिनिस्टर से खास सिफारिश कर के अपने साथसाथ बहन का भी पाकिस्तान का 10 दिनों का वीजा हासिल कर लिया. जवान बहन के सुलगते अरमानों को पूरा करने और दहकते जख्मों पर मरहम लगाने का इस से बेहतरीन मौका शायद ही फिर मिल पाता.

पाकिस्तान में डाक्टर ने तीनों मेहमानों से मिल कर अपने कश्मीर न आ सकने की माफी मांगते हुए हालात के प्रतिकूल होने की सारी तोहमत दोनों देशों की सरकारों के मत्थे मढ़ दी. उन के मुहब्बत से भरे व्यवहार ने तीनों के दिलों में पैदा कड़वाहट को काई की तरह छांट दिया. शफीका के लिए वो 9 रातें सुहागरात से कहीं ज्यादा खूबसूरत और अहम थीं. वे डाक्टर की मुहब्बत में गले तक डूबती चली जा रही थीं.

उधर, उन के दोनों भाइयों को मिनिस्टरी और दोस्तों के जरिए पक्की तौर पर यह पता चल गया था कि अगर डाक्टर चाहें तो पाकिस्तान सरकार उन की बीवी शफीका को पाकिस्तान में रहने की अनुमति दे सकती है. लेकिन जब डाक्टर से पूछा गया तो उन्होंने अपने वालिद, जो उस वक्त मलयेशिया में बड़े कारोबारी की हैसियत से अपने पैर जमा चुके थे, से मशविरा करने के लिए मलयेशिया जाने की बात कही.साथ ही, यह दिलासा भी दिया कि मलयेशिया से लौटते हुए वे कश्मीर में अपनी वालिदा और भाईबहनों से मिल कर वापसी के वक्त शफीका को पाकिस्तान ले आएंगे. दोनों भाइयों को डाक्टर की बातों पर यकीन न हुआ तो उन्होंने शफीका से कहा, ‘बहन, जिंदगी बड़ी लंबी है, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हें डाक्टर के इंतजार के फैसले पर पछताना पड़े.’

‘भाईजान, तलाक लेने की वजह दूसरी शादी ही होगी न. यकीन कीजिए, मैं दूसरी शादी तो दूर, इस खयाल को अपने आसपास फटकने भी नहीं दूंगी.’ 27 साल की शफीका का इतना बड़ा फैसला भाइयों के गले नहीं उतरा, फिर भी बहन को ले कर वे कश्मीर वापस लौट आए.

वापस आ कर शफीका फिर अपनी सास और देवरों के साथ रहने लगीं. डाक्टर की मां अपने बेटे से बेइंतहा मुहब्बत करती थीं. बहू से बेटे की हर बात खोदखोद कर पूछती हुई अनजाने ही बहू के भरते जख्मों की परतें उधेड़ती रहतीं.

शफीका अपने यकीन और मुहब्बत के रेशमी धागों को मजबूती से थामे रहीं. उड़तीउड़ती खबरें मिलीं कि डाक्टर मलयेशिया तो पहुंचे, लेकिन अपनी मां और बीवी से मिलने कश्मीर नहीं आए. मलयेशिया में ही उन्होंने इंगलैंड मूल की अपनी चचेरी बहन से निकाह कर लिया था. शफीका ने सुना तो जो दीवार से टिक कर धम्म से बैठीं तो कई रातें उन की निस्तेज आंखें, अपनी पलकें झपकाना ही भूल गईं. सुहागिन बेवा हो गईं, लेकिन नहीं, उन के कान और दिमाग मानने को तैयार ही नहीं थे.

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‘लोग झूठ बोल रहे हैं. डाक्टर, मेरा शौहर, मेरा महबूब, मेरी जिंदगी, ऐसा नहीं कर सकता. वफा की स्याही से लिखे गए उन की मुहब्बत की शीरीं में डूबे हुए खत, उस जैसे वफादार शख्स की जबान से निकले शब्द झूठे हो ही नहीं सकते. मुहब्बत के आसमान से वफा के मोती लुटाने वाला शख्स क्या कभी बेवफाई कर सकता है? नहीं, झूठ है. कैसे यकीन कर लें, क्या मुहब्बत की दीवार इतनी कमजोर ईंटों पर रखी गई थी कि मुश्किल हालात की आंधी से वह जमीन में दफन हो जाए? वो आएंगे, जरूर आएंगे,’ पूरा भरोसा था उन्हें अपने शौहर पर.

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तू आए न आए : शफीका का प्यार और इंतजार

इस में बुरा क्या है : महेश और आभा ने मां के साथ क्या किया

महेश और आभा औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि आभा का मोबाइल बज उठा. आभा ने नंबर देखा, ‘रुक्मिणी है,’ कहते हुए फोन उठाया. कुछ ही पलों बाद ‘ओह, अच्छा, ठीक है,’ कहते हुए फोन रख दिया. चेहरे पर चिंता झलक रही थी. महेश ने पूछा, ‘‘कहीं छुट्टी तो नहीं कर रही है?’’

‘‘3 दिन नहीं आएगी. उस के घर पर मेहमान आए हैं.’’ दोनों के तेजी से चलते हाथ ढीले पड़ गए थे. महेश ने कहा, ‘‘अब?’’

‘‘क्या करें, मैं ने पिछले हफ्ते 2 छुट्टियां ले ली थीं जब यह नहीं आई थी और आज तो जरूरी मीटिंग भी है.’’

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‘‘ठीक है, आज और कल मैं घर पर रह लेता हूं. परसों तुम छुट्टी ले लेना,’’ कह कर महेश फिर घर के कपड़े पहनने लगे. उन की 10वीं कक्षा में पढ़ रही बेटी मनाली और चौथी कक्षा में पढ़ रहा बेटा आर्य स्कूल के लिए तैयार हो चुके थे. नीचे से बस ने हौर्न दिया तो दोनों उतर कर चले गए. आभा भी चली गई. महेश ने अंदर जा कर अपनी मां नारायणी को देखा. वे आंख बंद कर के लेटी हुई थीं. महेश की आहट से भी उन की आंख नहीं खुली. महेश ने मां के माथे पर हाथ रख कर देखा, बुखार तो नहीं है?

मां ने आंखें खोलीं. महेश को देखा. अस्फुट स्वर में क्या कहा, महेश को समझ नहीं आया. महेश ने मां को चादर ओढ़ाई, किचन में जा कर उन के लिए चाय बनाई, साथ में एक टोस्ट ले कर मां के पास गए. उन्हें सहारा दे कर बिठाया. अपने हाथ से टोस्ट खिलाया. चाय भी चम्मच से धीरेधीरे पिलाई. 90 वर्ष की नारायणी सालभर से सुधबुध खो बैठी थीं. वे अब कभीकभी किसी को पहचानती थीं. अकसर उन्हें कुछ पता नहीं चलता था. रुक्मिणी को उन्हीं की देखरेख के लिए रखा गया था. रुक्मिणी के छुट्टी पर जाने से बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती थी. इतने में साफसफाई और खाने का काम करने वाली मंजू बाई आई तो महेश ने कहा, ‘‘मंजू, देख लेना मां के कपड़े बदलने हों तो बदल देना.’’

मां का बिस्तर गीला था. मंजू ने ही उन्हें सहारा दे कर खड़ा किया. बिस्तर महेश ने बदल दिया. ‘‘मां के कपड़े बदल दो, मंजू,’’ कह कर महेश कमरे से बाहर गए तो मंजू ने नारायणी को साफ धुले कपड़े पहनाए और मां को फिर लिटा दिया.

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नारायणी के 5 बेटे थे. सब से बड़ा बेटा नासिक के पास एक गांव में रहता था. बाकी चारों बेटे मुंबई में ही रहते थे. महेश घर में सब से छोटे थे. नारायणी ने हमेशा महेश के ही साथ रहना पसंद किया था. महेश का टू बैडरूम फ्लैट एक अच्छी सोसाइटी में दूसरे फ्लोर पर था. एक वन बैडरूम फ्लैट इसी सोसाइटी में किराए पर दिया हुआ था. पहले महेश उसी में रहते थे पर बच्चों की पढ़ाई और मां की दिन पर दिन बढ़ती अस्वस्थता के चलते बाकी भाइयों के आनेजाने से वह फ्लैट काफी छोटा पड़ने लगा था. तो वे इस फ्लैट में शिफ्ट हो गए थे. मां की सेवा और देखरेख में महेश और आभा ने कभी कोई कमी नहीं छोड़ी थी. कुछ महीनों पहले जब नारायणी चलतीफिरती थीं, रुक्मिणी का ध्यान इधरउधर होने पर सीढि़यों से उतर कर नीचे पहुंच जाती थीं. फिर वाचमैन ही उन्हें ऊपर तक छोड़ कर जाया करता था. महेश के सामने वाले फ्लैट में रहने वाले रिटायर्ड कुलकर्णी दंपती ने हमेशा महेश के परिवार को नारायणी की सेवा करते ही देखा था. उन के दोनों बेटे विदेश में कार्यरत थे. आमनेसामने दोनों परिवारों में मधुर संबंध थे. पर जब से नारायणी बिस्तर तक सीमित हो गई थीं, सब की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी.

बच्चे स्कूल से वापस आए तो महेश ने हमेशा की तरह पहले मां को बिठा कर अपने हाथ से खिलाया. उस के औफिस में रहने पर रुक्मिणी ही उन का हर काम करती थी. फिर बच्चों के साथ बैठ कर खुद लंच किया. मां की हालत देख कर महेश की आंखें अकसर भर आती थीं. उसे एहसास था कि उस के पैदा होने के एक साल बाद ही उस के पिता की मृत्यु हो गई थी. पिता गांव के साधारण किसान थे. 5 बेटों को नारायणी ने कई छोटेछोटे काम कर के पढ़ायालिखाया था. अपने बच्चों को सफल जीवन देने में जो मेहनत नारायणी ने की थी उस के कई प्रत्यक्षदर्शी रिश्तेदार थे जिन के मुंह से नारायणी के त्याग की बातें सुन कर महेश का दिल भर आता था. यह भी सच था कि जितनी जिम्मेदारी और देखरेख मां की महेश करते थे उतनी कोई और बेटा नहीं कर पाया था. शायद, इसलिए नारायणी हमेशा महेश के साथ ही रहना पसंद करती थीं.

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नारायणी को एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था, यहां तक कि घूमनेफिरने का प्रोग्राम भी इस तरह बनाया जाता था कि कोई न कोई घर पर उन के पास रहे. मनाली की इस साल 10वीं बोर्ड की परीक्षा थी. तो वह अपनी पढ़ाई में व्यस्त थी. शाम को महेश के बड़े भाई का फोन आया कि वे होली पर मां को देखने सपरिवार आ रहे हैं. मनाली के मुंह से तो सुनते ही निकला, ‘‘पापा, उस दौरान बोर्ड की परीक्षाएंशुरू होंगी. मैं सब लोगों के बीच कैसे पढ़ूंगी?’’ ‘‘ओह, देखते हैं,’’ महेश इतना ही कह पाए. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था पर आजकल मां को देखने के नाम पर जो भीड़ अकसर जुटती रहती थी उस से महेश और आभा को काफी असुविधा हो रही थी. हर भाई के 2 या 3 बच्चे तो थे ही, सब आते तो उन की आवभगत में महेश या आभा को औफिस से छुट्टी करनी ही पड़ती थी, ऊपर से बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ता. मां को देखने आने का नाम ही होता, उन के पास बैठ कर उन की सेवा करने की इच्छा किसी की भी नहीं होती. सब घूमतेफिरते, अच्छेअच्छे खाने की फरमाइश करते. भाभियां तो मां के गीले कपड़े बदलने के नाम से ही कोई बहाना कर वहां से हट जातीं. आभा ही रुक्मिणी के साथ मिल कर मां की सेवा में लगी रहती. अब महेश थोड़ा चिंतित हुए, दिनभर सोचते रहे कि क्या करें, मां की तरफ से भी लापरवाही न हो, बच्चों की पढ़ाई में भी व्यवधान न हो.

महेश और आभा दोनों ही मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पदों पर थे. आर्थिक स्थिति अच्छी ही थी, शायद इसलिए भी दिनभर कई तरह की बातें सोचतेसोचते आखिर एक रास्ता महेश को सूझ ही गया. रात को आभा लौटी तो महेश, भाई के सपरिवार आने का और मनाली की परीक्षाओं का एक ही समय होने के बारे में बताते हुए कहने लगे, ‘‘आभा, दिनभर सोचने के बाद एक बात सूझी है. मैं दूसरा फ्लैट खाली करवा लेता हूं. मां को वहां शिफ्ट कर देते हैं. मां के लिए किसी अतिविश्वसनीय व्यक्ति का उन के साथ रहने का प्रबंध कर देते हैं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो महेश? मां अकेली रहेंगी?’’

‘‘अकेली कहां? हम वहां आतेजाते ही रहेंगे. पूरी नजर रहेगी वहां हमारी. जो भी रिश्तेदार उन्हें देखने के नाम से आते हैं, वहीं रह लेंगे और यहां भी आने की किसी को मनाही थोड़े ही होगी. मैं ने बहुत सोचा है इस बारे में, मुझे इस में कुछ गलत नहीं लग रहा है. थोड़े खर्चे बढ़ जाएंगे, 2 घरों का प्रबंध देखना पड़ेगा, किराया भी नहीं आएगा. लेकिन हम मां की देखरेख में कोई कमी नहीं करेंगे. बच्चों की पढ़ाई भी डिस्टर्ब नहीं होने देंगे.’’

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‘‘महेश, यह ठीक नहीं रहेगा? मां को कभी दूर नहीं किया हम ने,’’ आभा की आंखें भर आईं.

‘‘तुम देखना, यह कदम ठीक रहेगा. किसी को परेशानी नहीं होगी. और अगर किसी को भी तकलीफ हुई तो मां को यहीं ले आएंगे फिर.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे.’’

अगला एक महीना महेश और आभा काफी व्यस्त रहे. दूसरा फ्लैट बस 2 बिल्ंडग ही दूर था. किराएदार भी महेश की परेशानी समझ जल्दी से जल्दी फ्लैट खाली करने के लिए तैयार हो गए. महेश ने स्वयं उन के लिए दूसरा फ्लैट ढूंढ़ने में सहयोग किया. महेश की रिश्तेदारी में एक लता काकी थीं, जो विधवा थीं, जिन की कोई संतान भी नहीं थी. वे कभी किसी रिश्तेदार के यहां रहतीं, कभी किसी आश्रम में चली जातीं. महेश ने उन की खोजबीन की तो पता चला वे पुणे में किसी रिश्तेदार के घर में हैं. महेश खुद कार ले कर उन्हें लेने गए. नारायणी जब स्वस्थ थीं, वे तब कई बार उन के पास मिलने आती थीं. महेश को देख कर लता काफी खुश हुईं और जब महेश ने कहा, ‘‘बस, मैं आप पर ही मां की देखभाल का भरोसा कर सकता हूं काकी, आप उन के साथ रहना, घर के कामों के लिए मैं एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दूंगा,’’ लता खुशीखुशी महेश के साथ आ गईं.

दूसरा फ्लैट खाली हो गया. एक फुलटाइम मेड राधा का प्रबंध भी हो गया था. एक रविवार को मां को दूसरे फ्लैट में ले जाया जा रहा था. महेश और आभा ने उन के हाथ पकड़े हुए थे. वे बिलकुल अंजान सी साथ चल रही थीं. सामने वाले फ्लैट के मिस्टर कुलकर्णी पूरी स्थिति जानते ही थे. वे कह रहे थे, ‘‘महेशजी, आप ने सोचा तो सही है पर आप की भागदौड़ और खर्चे बढ़ने वाले हैं.’’

‘‘हां, देखते हैं, आगे समझ आ ही जाएगा, यह सही है या नहीं?’’ आभा ने वहां किचन पूरी तरह से सैट कर ही दिया था. लता काकी को सब निर्देश दे दिए गए थे. महेश ने उन्हें यह भी संकेत दे दिया था कि वे उन्हें हर महीने कुछ धनराशि भी जरूर देंगे. वे खुश थीं. उन्हें अब एक ठिकाना मिल गया था. सोसाइटी में पहले तो जिस ने सुना, हैरान रह गया. कई तरह की बातें हुईं. किसी ने कहा, ‘यह तो ठीक नहीं है, बूढ़ी मां को अकेले घर में डाल दिया.’ पर समर्थन में भी लोग थे. उन का कहना था, ‘ठीक तो है, मां जी को देखने इतना आनाजाना होता है, लोगों की भीड़ रहती थी, यह अच्छा विचार है.’ महेश और बाकी तीनों भी मां के आसपास ही रहते, जिस को समय मिलता, वहीं पहुंच जाता. मां अब किसी को पहचानती तो थीं नहीं, पर फिर भी सब ज्यादा से ज्यादा समय वहीं बिताते. वहां की हर जरूरत पर उन का ध्यान रहता. मिस्टर कुलकर्णी ने अकसर देखा था महेश सुबह औफिस जाने से पहले और आने के बाद सीधे वहीं जाते हैं और छुट्टी वाले दिन तो अकसर सामने ताला रहता, मतलब सब नारायणी के पास ही होते. 3 महीने बीत गए. होली पर भाई सपरिवार आए. पहले तो उन्हें यह प्रबंध अखरा पर कुछ कह नहीं पाए. आखिर महेश ही थे जो सालों से मां की सेवा कर रहे थे. मनाली की परीक्षाएं भी बिना किसी असुविधा के संपन्न हो गई थीं. मां की हालत खराब थी. उन्होंने खानापीना छोड़ दिया था. डाक्टर को बुला कर दिखाया गया तो उन्होंने भी संकेत दे दिया कि अंतिम समय ही है. कभी भी कुछ हो सकता है. बड़ी मुश्किल से उन के मुंह में पानी की कुछ बूंदें या जूस डाला जाता. लता काकी को इन महीनों में एक परिवार मिल गया था.

मां को कुछ होने की आशंका से लता काकी हर पल उदास रहतीं और एक रात नारायणी की सांसें उखड़ने लगीं तो लता काकी ने फौरन महेश को इंटरकौम किया. महेश सपरिवार भागे. मां ने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं. सब बिलख उठे. महेश बच्चे की तरह रो रहे थे. आभा ने सब भाइयों को फोन कर दिया. सुबह तक मुंबई में ही रहने वाले भाई पहुंच गए, बाकी रिश्तेदारों का आना बाकी था. सोसाइटी में सुबह खबर फैलते ही लोग इकट्ठा होते गए. भीड़ में लोग हर तरह की बातें कर रहे थे. कोई महेश की सेवा के प्रबंध की तारीफ कर रहा था, वहीं सोसाइटी के ही दिनेशजी और उन की पत्नी सुधा बातें बना रहे थे, ‘‘अंतिम दिनों में अलग कर दिया, अच्छा नहीं किया, मातापिता बच्चों के लिए कितना करते हैं और बच्चे…’’

वहीं खड़े मिस्टर कुलकर्णी से रहा नहीं गया. उन्होंने कहा, ‘‘भाईसाहब, महेशजी ने अपनी मां की बहुत ही सेवा की है, मैं ने अपनी आंखों से देखा है.’’

‘‘हां, पर अंतिम समय में दूर…’’

‘‘दूर कहां, हर समय तो ये सब उन के आसपास ही रहते थे. उन की हर जरूरत के समय, वे कभी अकेली नहीं रहीं, आर्थिक हानिलाभ की चिंता किए बिना महेशजी ने सब की सुविधा का ध्यान रखते हुए जो कदम उठाया था, उस में कुछ भी बुरा नहीं है. आप के बेटेबहू भी तो अपने बेटे को ‘डे केयर’ में छोड़ कर औफिस जाते हैं न, तो इस का मतलब यह तो नहीं है न, कि वे अपने बेटे से प्यार नहीं करते. आजकल की व्यस्तता, बच्चों की पढ़ाई, सब ध्यान में रखते हुए कुछ नए रास्ते सोचने पड़ते हैं. इस में बुरा क्या है. बातें बनाना आसान है. जिस पर बीतती है वही जानता है.  महेशजी और उन का परिवार सिर्फ प्रशंसा का पात्र है, एक उदाहरण है.’’ वहां उपस्थित बाकी लोग मिस्टर कुलकर्णी की बात से सहमत थे. दिनेशजी और उन की पत्नी ने भी अपने कहे पर शर्मिंदा होते हुए उन की बात के समर्थन में सिर हिला दिया था.

प्रतिदिन: भाग 1

लेखक- कमला घटाऔरा

और वह दीप्ति से मिसेज शर्मा के बारे में जानने की जिज्ञासा को दबा न सकी. कहते हैं परिवर्तन ही जिंदगी है. सबकुछ वैसा ही नहीं रहता जैसाआज है या कल था. मौसम के हिसाब से दिन भी कभी लंबे और कभी छोटे होते हैं पर उन के जीवन में यह परिवर्तन क्यों नहीं आता? क्या उन की जीवन रूपी घड़ी को कोई चाबी देना भूल गया या बैटरी डालना जो उन की जीवनरूपी घड़ी की सूई एक ही जगह अटक गई है. कुछ न कुछ तो ऐसा जरूर घटा होगा उन के जीवन में जो उन्हें असामान्य किए रहता है और उन के अंदर की पीड़ा की गालियों के रूप में बौछार करता रहता है.

मैं विचारों की इन्हीं भुलभुलैयों में खोई हुई थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो,’’ मैं ने रिसीवर उठाया.

‘‘हाय प्रीत,’’ उधर से चहक भरी आवाज आई, ‘‘क्या कर रही हो…वैसे मैं जानती हूं कि तू क्या कर रही होगी. तू जरूर अपनी स्टडी मेज पर बैठी किसी कथा का अंश या कोई शब्दचित्र बना रही होगी. क्यों, ठीक  कहा न?’’

‘‘जब तू इतना जानती है तो फिर मुझे खिझाने के लिए पूछा क्यों?’’ मैं ने गुस्से में उत्तर दिया.

‘‘तुझे चिढ़ाने के लिए,’’ यह कह कर हंसती हुई वह फिर बोली, ‘‘मेरे पास बहुत ही मजेदार किस्सा है, सुनेगी?’’

मेरी कमजोरी वह जान गई थी कि मुझे किस्सेकहानियां सुनने का बहुत शौक है.

‘‘फिर सुना न,’’ मैं सुनने को ललच गई.

‘‘नहीं, पहले एक शर्त है कि तू मेरे साथ पिक्चर चलेगी.’’

‘‘बिलकुल नहीं. मुझे तेरी शर्त मंजूर नहीं. रहने दे किस्साविस्सा. मुझे नहीं सुनना कुछ और न ही कोई बकवास फिल्म देखने जाना.’’

‘‘अच्छा सुन, अब अगर कुछ देखने को मन करे तो वही देखने जाना पड़ेगा न जो बन रहा है.’’

‘‘मेरा तो कुछ भी देखने का मन नहीं है.’’

‘‘पर मेरा मन तो है न. नई फिल्म आई है ‘बेंड इट लाइक बैखम.’ सुना है स्पोर्ट वाली फिल्म है. तू भी पसंद करेगी, थोड़ा खेल, थोड़ा फन, थोड़ी बेटियों को मां की डांट. मजा आएगा यार. मैं ने टिकटें भी ले ली हैं.’’

‘‘आ कर मम्मी से पूछ ले फिर,’’ मैं ने डोर ढीली छोड़ दी.

मैंने मन में सोचा. सहेली भी तो ऐसीवैसी नहीं कि उसे टाल दूं. फोन करने के थोड़ी देर बाद वह दनदनाती हुई पहुंच जाएगी. आते ही सीधे मेरे पास नहीं आएगी बल्कि मम्मी के पास जाएगी. उन्हें बटर लगाएगी. रसोई से आ रही खुशबू से अंदाजा लगाएगी कि आंटी ने क्या पकाया होगा. फिर मांग कर खाने बैठ जाएगी. तब आएगी असली मुद्दे पर.

‘आंटी, आज हम पिक्चर जाएंगे. मैं प्रीति को लेने आई हूं.’

‘सप्ताह में एक दिन तो घर बैठ कर आराम कर लिया करो. रोजरोज थकती नहीं बसट्रेनों के धक्के खाते,’ मम्मी टालने के लिए यही कहती हैं.

‘थकती क्यों नहीं पर एक दिन भी आउटिंग न करें तो हमारी जिंदगी बस, एक मशीन बन कर रह जाए. आज तो बस, पिक्चर जाना है और कहीं नहीं. शाम को सीधे घर. रविवार तो है ही हमारे लिए पूरा दिन रेस्ट करने का.’

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‘अच्छा, बाबा जाओ. बिना गए थोड़े मानोगी,’ मम्मी भी हथियार डाल देती हैं.

फिर पिक्चर हाल में दीप्ति एकएक सीन को बड़ा आनंद लेले कर देखती और मैं बैठी बोर होती रहती. पिक्चर खत्म होने पर उसे उम्मीद होती कि मैं पिक्चर के बारे में अपनी कुछ राय दूं. पर अच्छी लगे तब तो कुछ कहूं. मुझे तो लगता कि मैं अपना टाइम वेस्ट कर रही हूं.

जब से हम इस कसबे में आए हैं पड़ोसियों के नाम पर अजीब से लोगों का साथ मिला है. हर रोज उन की आपसी लड़ाई को हमें बरदाश्त करना पड़ता है. कब्र में पैर लटकाए बैठे ये वृद्ध दंपती पता नहीं किस बात की खींचातानी में जुटे रहते हैं. बैक गार्डेन से देखें तो अकसर ये बड़े प्यार से बातें करते हुए एकदूसरे की मदद करते नजर आते हैं. यही नहीं ये एकदूसरे को बड़े प्यार से बुलाते भी हैं और पूछ कर नाश्ता तैयार करते हैं. तब इन के चेहरे पर रात की लड़ाई का कोई नामोनिशान देखने को नहीं मिलता है.

हर रोज दिन की शुरुआत के साथ वृद्धा बाहर जाने के लिए तैयार होने लगतीं. माथे पर बड़ी गोल सी बिंदी, बालों में लाल रिबन, चमचमाता सूट, जैकट और एक हाथ में कबूतरों को डालने के लिए दाने वाला बैग तथा दूसरे हाथ में छड़़ी. धीरेधीरे कदम रखते हुए बाहर निकलती हैं.

2-3 घंटे बाद जब वृद्धा की वापसी होती तो एक बैग की जगह उन के हाथों में 3-4 बैग होते. बस स्टाप से उन का घर ज्यादा दूर नहीं है. अत: वह किसी न किसी को सामान घर तक छोड़ने के लिए मना लेतीं. शायद उन का यही काम उन के पति के क्रोध में घी का काम करता और शाम ढलतेढलते उन पर शुरू होती पति की गालियों की बौछार. गालियां भी इतनी अश्लील कि आजकल अनपढ़ भी उस तरह की गाली देने से परहेज करते हैं. यह नित्य का नियम था उन का, हमारी आंखों देखा, कानों सुना.

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हम जब भी शाम को खाना खाने बैठते तो उधर से भी शुरू हो जाता उन का कार्यक्रम. दीवार की दूसरी ओर से पुरुष वजनदार अश्लील गालियों का विशेषण जोड़ कर पत्नी को कुछ कहता, जिस का दूसरी ओर से कोई उत्तर न आता.

मम्मी बहुत दुखी स्वर में कहतीं, ‘‘छीछी, ये कितने असभ्य लोग हैं. इतना भी नहीं जानते कि दीवारों के भी कान होते हैं. दूसरी तरफ कोई सुनेगा तो क्या सोचेगा.’’

मम्मी चाहती थीं कि हम भाईबहनों के कानों में उन के अश्लील शब्द न पड़ें. इसलिए वह टेलीविजन की आवाज ऊंची कर देतीं.

खाने के बाद जब मम्मी रसोई साफ करतीं और मैं कपड़ा ले कर बरतन सुखा कर अलमारी में सजाने लगती तो मेरे लिए यही समय होता था उन से बात करने का. मैं पूछती, ‘‘मम्मी, आप तो दिन भर घर में ही रहती हैं. कभी पड़ोस वाली आंटी से मुलाकात नहीं हुई?’’

‘‘तुम्हें तो पता ही है, इस देश में हम भारतीय भी गोरों की तरह कितने रिजर्व हो गए हैं,’’ मम्मी उत्तर देतीं, ‘‘मुझे तो ऐसा लगता है कि दोनों डिप्रेशन के शिकार हैं. बोलते समय वे अपना होश गंवा बैठते हैं.’’

‘‘कहते हैं न मम्मी, कहनेसुनने से मन का बोझ हलका होता है,’’ मैं अपना ज्ञान बघारती.

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कुछ दिन बाद दीप्ति के यहां प्रीति- भोज का आयोजन था और वह मुझे व मम्मी को बुलाने आई पर मम्मी को कहीं जाना था इसीलिए वह नहीं जा सकीं.

यह पहला मौका था कि मैं दीप्ति के घर गई थी. उस का बड़ा सा घर देख कर मन खुश हो गया. मेरे अढ़ाई कमरे के घर की तुलना में उस का 4 डबल बेडरूम का घर मुझे बहुत बड़ा लगा. मैं इस आश्चर्य से अभी उभर भी नहीं पाई थी कि एक और आश्चर्य मेरी प्रतीक्षा कर रहा था.

अचानक मेरी नजर ड्राइंगरूम में कोने में बैठी अपनी पड़ोसिन पर चली गई. मैं अपनी जिज्ञासा रोक न पाई और दीप्ति के पास जा कर पूछ बैठी, ‘‘वह वृद्ध महिला जो उधर कोने में बैठी हैं, तुम्हारी कोई रिश्तेदार हैं?’’

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अधूरी प्रीत

लेखक: आशीष दलाल

घर की दहलीज पर कदम रखते ही सामने दीवार पर मम्मी का मुसकराता फोटो देख कर उस के कदम वहीं रुक गए. न जाने कितनी देर अपलक वह मम्मी के फोटो को निहारती रही.

‘‘दीदी, अब अंदर भी चलो. कब तक दरवाजे के बाहर खड़ी रहोगी?’’ उन को बसस्टैंड से लिवाने गए अविनाश ने पीछे से आते हुए कहा.

‘‘हां, चलो,’’ कहते हुए वह घर के अंदर दाखिल हो गई.

मम्मी की फोटो के आगे हाथ जोड़ कर प्रणाम करने के बाद वह कमरे का मुआयना करने लगी. अविनाश उस का बैग ले कर अंदर के कमरे में चला गया. कमरे में करीने से सजा कर रखी गई एक भी वस्तु में उसे कहीं भी इस बार अपनेपन का एहसास नहीं हो रहा था. इस कमरे में दीवार पर लगी मम्मी की फोटो के अतिरिक्त उसे सबकुछ अपरिचित सा दिखाई दे रहा था. 10 महीनों में पूरे घर की साजसज्जा ही बदल चुकी थी. लकड़ी के नक्काशी वाले पुराने सोफे की जगह मखमली गद्दी वाले नए सोफे ने ले ली थी.

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एक समय मम्मी की पसंद रही भारीभरकम सैंट्रल टेबल की जगह पर कांच वाली राउंड सैंट्रल टेबल आ चुकी थी. खिड़की के पास कमरे के कोने में मनीप्लांट का पौट रखा हुआ होता था. वह उसे कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. मम्मी ने कई वर्षों तक जतन कर उसे सहेज कर रखा हुआ था. उसे अब भी याद है कि सुबह हाथ में चाय का प्याला लेने के साथ ही मम्मी मनीप्लांट को पानी देना कभी नहीं भूलती थीं.

तभी अविनाश की पत्नी ज्योति पानी का गिलास ले कर बाहर के कमरे में आई.

‘‘आप खड़ी क्यों हैं? बैठिए न दीदी.’’

‘‘बस यों ही कमरे की सजावट देख रही थी,’’ पानी का गिलास हाथ में लेते हुए उस ने अनमने भाव से कहा.

‘‘पसंद आया न आप को? सारी चीजें मेरी पसंद की हैं. आप के भाई को तो इन सब बातों में कुछ सूझता ही नहीं,’’ ज्योति ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अच्छा है,’’ बुझे स्वर में उत्तर देते हुए वह अंदर की ओर जाने लगी. उस के कदम अपनेआप ही मम्मी जिस कमरे में सोती थीं उस ओर बढ़ गए. तभी पीछे से ज्योति की आवाज सुन कर वह रुक गई.

‘‘दीदी, उधर नहीं इधर. सासुमां के जाने के बाद अब वह कमरा रानी का है. आप का सामान इधर दूसरे कमरे में रखा है.’’

मम्मी और उस की कई कही और अनकही बातों का साक्षी था वह कमरा. 12वीं पास करने के बाद से ही वह इस कमरे में मम्मी के साथ अपनी शादी होने तक रह चुकी थी. उस के इस घर से विदा होने के बाद मम्मी अपनी अंतिम सांस तक इसी कमरे में रहीं. दो घड़ी एक नजर उस ने उस कमरे पर डाली और फिर मनमसोस कर दूसरे कमरे में चली गई.

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यह कमरा उसे पहले की अपेक्षा कुछ छोटा महसूस हुआ. सहसा कमरे के फर्नीचर पर नजर पड़ते ही उसे इस के छोटे लगने का कारण समझ आ गया. दरवाजे के बाजू की सूनी पड़ी रहती दीवार पर वार्डरोब बन चुका था. खिड़की के पास एक बैड और उस के नजदीक एक कुरसी रखी हुई थी. 10×10 फुट के कमरे में इस से अधिक फर्नीचर आने की गुंजाइश नहीं थी. वह वहीं पलंग पर बैठ गई.

पलंग पर बैठ कर न जाने क्यों उसे एक अजीब तरह की अनुभूति होने लगी. यहां उसे कुछ अपना सा महसूस हो रहा था. उठ कर उस ने गौर से पलंग को देखा तो उस का मन खुशी से भर गया. इसी पलंग पर तो मम्मी ने अपनी अंतिम सांसें ली थीं. इसी पलंग पर लेटे हुए उन्होंने उस से और अविनाश से एकदूसरे के सुखदुख में हमेशा साथ निभाने का वचन लिया था. पुरानी डिजाइन का यह पलंग शायद रानी को पसंद नहीं आया होगा, इसीलिए इसे मम्मी के जाने के बाद शायद अलग कमरे में रख दिया. वह यह सोच कर कुछ अंदाजा लगा रही थी कि सहसा उसे याद आया इसी कमरे में तो मम्मी की अलमारी रखी होती थी. अलमारी की जगह पर तो वार्डरोब बन चुका था.

‘तो अलमारी कहां गई?’ वह मन ही मन बुदबुदाई.

मम्मी की अलमारी से तो उन की कितनी सारी यादें जुड़ी हुई थीं. वह तब 14 वर्ष की रही होगी जब पापा ने मम्मी को उन के जन्मदिन पर अलमारी गिफ्ट में दी थी. मम्मी ने बड़ी ही सूझबूझ के साथ अलमारी में पापा, अविनाश और उस के कपड़ों के लिए एक अलग जगह बना दी थी. उन्होंने अपने सामान के लिए एक लौकर वाला पार्टिशन बचा कर रखा था जिस में वे अपने गहने और अन्य कीमती सामान रखा करती थीं.

घर में किसी की भी मजाल नहीं थी कि कोई उन के उस लौकर को छू सके. पापा तो हर दफा अपने कपड़े अलमारी से निकालते वक्त सारी अलमारी अस्तव्यस्त कर देते थे और मम्मी उन पर गुस्सा होते हुए सारे कपड़े फिर से करीने से जमाने बैठ जाती थीं. उसे अब भी याद है जब एक बार अविनाश से अलमारी के दरवाजे पर लगा कांच टूट गया था और वह मम्मी के खौफ से बचने के लिए अलमारी के अंदर ही छिप गया था.

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बड़बड़ाते हुए मम्मी ने अविनाश को खोजा, उस के न मिलने पर उसे कोसती हुई वे टूटे पड़े कांच बटोरने लगीं. तभी अलमारी के दरवाजे के कोने से खून की बूंदें निकलते देख वे घबरा उठीं और हड़बड़ा कर दरवाजा खोला तो अविनाश नीचे के खाने में बेहोश पड़ा हुआ था.

घबराए बिना उन्होंने उसे बाहर निकाला और पानी के छींटे दे कर उसे होश में लाने का प्रयत्न किया. उस ने जब आंखें खोलीं तो उसे सीने से लगाए वे घंटों तक रोती रहीं. इस घटना के बाद तो उन्होंने उस के समझदार होने तक अलमारी को लौक कर रखने की आदत बना ली.

तभी अविनाश अंदर आ कर उस के पास ही कुरसी ले कर बैठ गया.

‘‘दीदी, मम्मी के जाने के बाद से तो जैसे आप ने इस ओर आना ही बंद कर दिया. मम्मी थीं तो कम से कम महीनेदोमहीने में आप उन की खबर पूछने के बहाने आ जाती थीं.’’

‘‘तब की बात और थी, अविनाश. मम्मी की बीमारी का पता चलते ही हर बार मन में एक भय सा बना रहता था कि अगली बार मम्मी मिलेंगी या नहीं. इसलिए बारबार जब मन होता था तो आ जाती थी,’’ उस ने शांति से अविनाश की बात का उत्तर दिया.

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‘‘आप का यह छोटा भाई अब भी इसी घर में रहता है. आप को इस घर की याद अब क्या केवल रक्षाबंधन के दिन ही आती है?’’ अविनाश के स्वर में शिकायत थी.

‘‘नहीं रे, ऐसा नहीं है. तू तेरी घरगृहस्थी में सुखी है, फिर अब मम्मी के जाने के बाद बारबार इस उम्र में मायके आना शोभा नहीं देता,’’ कहते हुए उस के चेहरे के भाव बदल गए.

‘‘क्या बात है, दीदी? आप कुछ उखड़ी हुई सी लग रही हैं,’’ अविनाश उस के चेहरे के बदलते भाव भांप गया.

‘‘अविनाश, यहां इस कमरे में मम्मी की अलमारी रखी होती थी. वह कहां है?’’ उस से रहा नहीं गया.

‘‘वो तो निकाल दी. इस कमरे में वार्डरोब बनवाने के बाद तिजोरी रखने की जगह नहीं बची थी. वैसे भी, वह बहुत पुरानी हो चुकी थी,’’ अविनाश ने जवाब दिया.

मम्मी की मौजूदगी में जब भी आई तब तक वह घर उस के लिए मम्मी का घर था पर अब एक रिश्ते के जाते ही जैसे समीकरण बदल चुके थे. मम्मी का घर कहलाने वाला घर अब भाई का घर हो चुका था. इसीलिए मम्मी के जाने के 10 महीनों के बाद एक बार फिर से इस घर में आने पर उसे बारबार पहली बार यहां आने का आभास हो रहा था. दुख उसे इस बात का हो रहा था कि मम्मी से जुड़ी यादों का सौदा करने से पहले अविनाश ने एक बार भी उस से पूछा नहीं. मम्मी के जाते ही उसे पराया कर दिया.

‘‘तू ने मम्मी की आखिरी निशानी नहीं रखी? उसे बेच दिया? मम्मी को कितनी प्यारी थी वह अलमारी, मुझ से एक बार कहा होता तो…’’ कहते हुए उस की आंखों से आंसू की 2 बूंदें उभर आईं.

‘‘क्या दीदी आप भी. इतनी भावुक हो कर कैसे जी लेती हैं?’’ अविनाश थोड़ा असहज हो गया.

‘‘सवाल भावुकता का नहीं है. मम्मी की वह कीमती निशानी तो रहने दी होती इस घर में?’’

‘‘पुरानी चीज जाएगी तभी तो नया सामान आएगा. फिर मम्मी ने दादी की बसाई हुई पुरानी चीजें समय बीतने पर नहीं निकाल दी थीं?’’ अविनाश ने अपना तर्क रखा.

‘‘पर कम से कम कुछ समय तो बीतने दिया होता. अभी सालभर भी नहीं हुआ है उन को गए,’’ कहते हुए उस का गला रुंध गया.

‘‘आप की भावना समझता हूं मैं. मम्मी की बसाई सारी चीजें ऐसी जगह गई हैं जहां उन की सब से ज्यादा जरूरत थी.’’

‘‘तू कहना क्या चाहता है? मैं समझी नहीं?’’ अविनाश की बात सुन कर उस ने उस की ओर देखा.

‘‘एक वृद्धाश्रम को उन सब चीजों की जरूरत थी तो मैं ने दान कर दीं. इस बहाने उन की याद बनी रहेगी. वैसे भी मम्मी को तो अलमारी इसलिए प्यारी थी क्योंकि उस में उन की एक और कीमती चीज उन्होंने रख छोड़ी थी,’’ अविनाश की बात सुन कर वह उसे सवालिया नजरों से देखने लगी.

किचन में काम करती ज्योति शायद भाईबहन के बीच हो रही बात सुन चुकी थी. तभी वह एक छोटा सा डब्बा ले कर उस कमरे में दाखिल हुईर्. अविनाश ने वह डब्बा उस के हाथ से ले लिया.

‘‘दीदी, आप को याद है मम्मी की अलमारी का लौकर हम सब के लिए कुतूहल का विषय बना रहता था? लौकर को वे किसी को भी छूने नहीं देती थीं?’’

‘‘हां, तो?’’ अविनाश के प्रश्न के उत्तर में उस ने हामी भरते हुए सिर हिला दिया.

‘‘यह उन के उस अलमारी के लौकर से निकला है,’’ यह कह कर अविनाश ने वह डब्बा उस की ओर बढ़ा दिया.

उस छोटे से डिब्बे को हाथ में ले कर उस की आंखें डबडबा आईं. उसे लगा जैसे उस ने मम्मी को स्पर्श कर लिया. धीमे से उस ने उस डब्बे का ढक्कन खोला. एक पुराना सा ब्लैक ऐंड व्हाइट फोटो और एक पुराना सा पत्र उस के हाथ में आ गया.

फोटो को बड़े ही गौर से देखने के बाद भी उस में कैद छवि को वह पहचान नहीं पाई.

‘‘कौन है यह अविनाश?’’

‘‘फोटो के साथ रखा पत्र पढ़ लो, दीदी, सब समझ जाओगी,’’ अविनाश ने उस की जिज्ञासा को और बढ़ाते हुए कहा.

‘मेरी प्रिय रंजना,

फूलों की खुशबू की तरह अब भी तुम मेरे मन पर छाई हुई हो. तुम्हारी तसवीर जब भी देखता हूं, बस, तुम से मिलने को जी बेताब होने लगता है. इस बार शायद गांव न आ पाऊं. यहां बौर्डर पर दुश्मनों की हलचल बढ़ चुकी है, इसलिए अगले महीने मिलने वाली छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं. जब भी छुट्टी मंजूर होगी, दौड़ा चला आऊंगा तुम से मिलने और तुम्हें अपना बनाने. आते ही तुम्हारे बाबा से बात कर हमारी शादी के लिए उन्हें मना लूंगा. बस, तब तक मेरा इंतजार करना.

तुम्हारा, केवल तुम्हारा

रतन.’

वह 2-3 बार धूमिल हो चुके उस पत्र को पढ़ गई.

‘‘रतन? कहीं ये मामा के गांव वाले रतन चाचा तो नहीं?’’ उस ने एक बार फिर से उस तसवीर को गौर से देख कर कुछ अनुमान लगाते हुए कहा.

‘‘वही हैं, दीदी. मैं ने फोन पर उन से बात कर कन्फर्म किया है,’’ कहते हुए अविनाश की आंखें भीग आईं.

‘‘तू यह क्या कह रहा है? मम्मी और रतन चाचा…फिर पापा…? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है?’’ उस के मन में एक अजीब सी हड़बड़ाहट होने लगी.

‘‘सबकुछ सच है, दीदी. मम्मी और रतन चाचा आपस में प्यार करते थे पर जब वे 2 साल तक बौर्डर पर से गांव नहीं आ पाए तो मम्मी की शादी पापा से हो गई. रतन चाचा उन्हें बेहद प्यार करते थे और यही वजह है कि फिर वे किसी दूसरी स्त्री को अपनी जिंदगी में स्थान नहीं दे पाए.’’ अविनाश अपनी जगह से खड़ा हो गया.

मम्मी की मृत्यु के बाद पहली बार इस घर में आ कर जिन चीजों में वह मम्मी के एहसास को खोज रही थी उन्हें न पा कर मन ही मन उसे अब अपनेआप को इस घर से पराए होने का एहसास हो रहा था. पर फिर अविनाश द्वारा सहेज कर रखी गई मम्मी की इस अमूल्य याद को पा कर उस के मन में उठता पराएपन का भाव अपनेआप ही तिरोहित हो गया. इस क्षण पहली बार उसे भाई के घर में मम्मी के अब भी होने का एहसास हो आया.

‘‘अब समझ आ रहा है कि क्यों मम्मी के प्यार में एक दुखमिश्रित दर्द समाया होता था. अपने अंतिम समय में क्यों वे बारबार अलमारी की रट लगाए हुए थीं. आज पहली बार जान पाई कि मम्मी किस पीड़ा को अपने अंदर समाए जी रही थीं,’’ कहते हुए उस की आंखों से अश्रुधारा निकल पड़ी.

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