
प्रीति ने चश्मा साफ कर के दोबारा बालकनी से नीचे झांका और सोचने लगी, ‘नहीं, यह सपना नहीं है. रेणु सयानी हो गई है. अब वह दुनियादारी समझने लगी है. रोनित भी तो अच्छा लड़का है. इस में गलत भी क्या है, दोनों एक ही दफ्तर में हैं, साथसाथ तरक्की करते जाएंगे, बिना किसी कोशिश के ही मेरी इतनी बड़ी चिंता खत्म हो गई.’
रात को खाने के बाद प्रीति दूध देने के बहाने रेणु के कमरे में जा कर बैठ गई और बात शुरू की, ‘‘बेटी, रोनित के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’’
रेणु ने चौंक कर मां की तरफ देखा तो प्रीति शरारतभरी मुसकान बिखेर कर बोली, ‘‘भई, हमें तो रोनित बहुत पसंद है. हां, तुम्हारी राय जानना चाहते हैं.’’
‘‘राय, लेकिन किस बारे में, मां?’’ रेणु ने हैरानी से पूछा.
‘‘वह तुम्हारा दोस्त है. अच्छा, योग्य लड़का है. तुम ने उस के बारे में कुछ सोचा नहीं?’’
‘‘मां, ऐसी भी कोई खास बात नहीं है उस में,’’ रेणु अपने नाखूनों पर उंगलियां फेरती हुई बोली, फिर वह चुपचाप दूध के घूंट भरने लगी.
लेकिन रेणु के इन शब्दों ने जैसे प्रीति को आसमान से जमीन पर ला पटका था, वह सोचने लगी, ‘क्या वक्त अपनेआप को सदा दोहराता रहता है? यही शब्द तो मैं ने भी अपनी मां से कहे थे. विजय मुझे कितना चाहता था, लेकिन तब हम दोनों क्लर्क थे…’
प्रीति तेज रफ्तार जिंदगी के साथ दौड़ना चाहती थी. विजय से ज्यादा उसे अपने बौस चंदन के पास बैठना अच्छा लगता था. वह सोचती थी कि अगर चंदन साहब खुश हो गए तो उस की पदोन्नति हो जाएगी.
फिर चंदन साहब खुश भी हो गए और प्रीति को पदोन्नति मिल गई. लेकिन चंदन के तबादले के बाद जो नए राघव साहब आए, वे अजीब आदमी थे. लड़कियों में उन की जरा भी दिलचस्पी नहीं थी.
ऐसे में प्रीति बहुत परेशान रहने लगी थी, क्योंकि उस की तरक्की के तो जैसे सारे रास्ते ही बंद हो गए थे. लेकिन नहीं, ढूंढ़ने वालों को रास्ते मिल ही जाते हैं. राघव साहब के पास कई बड़ेबड़े अफसर आते थे. उन्हीं में से एक थे, जैकब साहब. प्रीति की तरफ से प्रोत्साहन पा कर वे उस की तरफ खिंचते चले गए. जैकब साहब के जरिए प्रीति को एक अच्छा क्वार्टर मिल गया.
धीरेधीरे प्रीति तरक्की की कई सीढि़यां चढ़ती चली गई और जीवन की सब जरूरतें आसानी से पूरी होने लगीं. कर्ज मिल गया तो उस ने कार भी ले ली. जमीन मिल गई तो उस का अपना मकान भी बन गया. उस के कई पुरुषमित्र थे, जिन में बड़ेबड़े अफसर व व्यापारी वगैरा सम्मिलित थे. जितने दोस्त, उतने तोहफे. हर शाम मस्त थी और हर मित्र मेहरबान.
उन दिनों वह सोचती थी कि जिंदगी कितनी हसीन है. परेशानियों से जूझती लड़कियों को देख कर वह यह भी सोचती कि ये सब अक्ल से काम क्यों नहीं लेतीं?
एक दिन प्रीति को पता चला कि उस के पहले प्रेमी विजय ने अपने दफ्तर में काम करने वाली एक क्लर्क युवती से शादी कर ली है. क्षणभर के लिए उसे उदासी ने आ घेरा, लेकिन उस ने खुद को समझा लिया और फिर अपनी दुनिया में खो गई.
समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था. अच्छे समय को तो जैसे पंखही लग जाते हैं. वक्त के साथसाथ हरेभरे वृक्ष को भी पतझड़ का सामना करना ही पड़ता है. लेकिन ऐसे पेड़ तो सिर्फ माली को ही अच्छे लगते हैं, जो उन्हें हर मौसम में संभालता, सजाता रहता है. आतेजाते राहगीर तो सिर्फ घने, फलों से लदे पेड़ ही देखना चाहते हैं.
बात पेड़ों की हो तो पतझड़ के बाद फिर बहार आ जाती है, लेकिन मानव जीवन में बहार एक ही बार आती है और बहार के बाद पतझड़ स्वाभाविक है.
प्रीति तेज रफ्तार से दौड़ती रही. यौवन का चढ़ता सूरज कब ढलने लगा, वह शायद इसे महसूस ही नहीं करना चाहती थी. लेकिन एक दिन पतझड़ की आहट उसे सुनाई दे ही गई…
वह एक सुहावनी शाम थी. प्रीति मदन का इंतजार कर रही थी. उस शाम उस ने पीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी, जिस का बौर्डर हरा था. सजसंवर कर वह बहुत देर तक पत्रिकाओं के पन्ने पलटती रही. मदन से उस की दोस्ती काफी पुरानी थी. हर सप्ताह उस की 2-3 शामें प्रीति के संग ही व्यतीत होती थीं. लेकिन उस शाम वह इंतजार ही करती रही, मदन न आया.
प्रीति उलझीउलझी सी सोने चली गई. उलझन से ज्यादा गुस्सा था या गुस्से से ज्यादा उलझन, वह समझ नहीं पा रही थी. कई बार फोन की तरफ हाथ बढ़ाया, लेकिन फिर सोचा कि घर पर क्या फोन करना? क्या पूछेगी और किस से पूछेगी?
दूसरे दिन उस ने मदन के दफ्तर फोन किया तो वह बोला, ‘माफ करना, कहीं फंस गया था, लेकिन आज शाम जरूर आऊंगा.’
उस शाम प्रीति ने फिर वही साड़ी पहनी, जो कि मदन को बहुत पसंद थी. शाम ढलने लगी, देखते ही देखते साढ़े
8 बज गए. गुस्से में उस ने बगैर कुछ सोचे रिसीवर उठा ही लिया और मदन के घर का नंबर घुमाया, ‘हैलो, मदनजी हैं?’
‘साहबजी तो नहीं हैं,’ उस के नौकर ने जवाब दिया.
‘कुछ मालूम है, कहां गए हैं?’
‘हां जी, कल छोटी बेबी का जन्मदिन है न, इसलिए मेम साहब के साथ कुछ खरीदारी करने बाजार गए हैं.’
रिसीवर पटक कर प्रीति बुदबुदा उठी, ‘ओह, तो यह बात है. मगर उस ने यह सब बताया क्यों नहीं? शायद याद न रहा हो, मगर ऐसा तो कभी नहीं हुआ. शायद उस ने बताना जरूरी ही न समझा हो.’
वह सोचने लगी कि उस के पास आने वाले हर मर्द का अपना घरबार है, अपनी जिंदगी है, लेकिन उस की जिंदगी?
उसे लगता था कि वह अपने तमाम दोस्तों की पत्नियों से ज्यादा सुंदर है, ज्यादा आकर्षक है, तभी तो वे अपनी बीवियों को छोड़ कर उस के घर के चक्कर काटते रहते हैं. पर उस क्षण उसे एहसास हो रहा था कि कहीं न कहीं वह उन की बीवियों से कमतर है, जिन की जरूरतों के आगे, किसी दोस्त को उस की याद तक नहीं रहती.
प्रीति ने सोफे की पीठ से सिर टिका दिया. उस की सांसें तेज चल रही थीं. यह गुस्सा था, पछतावा था, क्या था, कुछ पता ही नहीं चल रहा था. पर एक घुटन थी, जो उस के दिलोदिमाग को जकड़ती जा रही थी. उस ने आंखें बंद कर लीं लेकिन चंद आंसू छलक ही आए.
उस के बाद उस ने मदन लाल को फोन नहीं किया और न ही फिर वह उस से मिलने आया.
दूसरी बार पतझड़ का एहसास उस को तब हुआ था जब उस का एक और परम मित्र, विनोद एक रात 9 बजे अचानक आ गया.
‘आओ, विनोद,’ उस की आंखों में अजीब सी रोशनी थी. विनोद के साथ बिताई बहुत सी रातें उसे याद आने लगीं.
‘अरे प्रीति, मैं एक जरूरी काम से आया हूं.’
‘तुम्हारा काम मैं जानती हूं,’ प्रीति अदा से मुसकराई.
‘नहीं, वह बात नहीं है. असल में मुझे एक गैस कनैक्शन चाहिए.’
‘अपने लिए नहीं, और किसी के लिए,’ विनोद ने हौले से कहा, ‘तुम्हारी तो बहुत जानपहचान है. तुम यह काम आसानी से करवा सकती हो.’
‘किस के लिए चाहिए?’ प्रीति के माथे पर बल पड़ गए.
‘एक साथी है दफ्तर में, अचला, क्या मैं उसे कल तुम्हारे पास भेज दूं?’
प्रीति का सिर चकरा गया कि उस ने खुद भी तो कभी गैस कनैक्शन लिया था…और अब अचला? लेकिन उस ने खुद को संभाला, ‘नहीं, भेजने की जरूरत नहीं. उस से कहना मुझे फोन कर ले.’
‘धन्यवाद,’ कह कर विनोद तेजी से बाहर निकल गया.
उस दिन कमरे का माहौल कितना बोझिल सा हो गया था. विनोद ने उस के हुस्न और जवानी का मजाक ही तो उड़ाया था, क्योंकि उस की जगह अब अचला ने ले ली थी.
फिर उसे राज की याद आई. एक दिन उस ने देखा, राज किसी सुंदरी से बातें कर रहा है. वह तेजी से उस के पास पहुंची, ‘हैलो राज, आजकल बहुत व्यस्त रहने लगे हो. अब तो इधर देखने की फुरसत भी नहीं.’
‘अब इधर देखूं या आप की तरफ?’ राज ने उस सुंदरी की ओर देखते हुए मुसकरा कर कहा.
खिलती उम्र की गुलाबी सुबह पर इतनी जल्दी शाम का धुंधलका छाने लगेगा, प्रीति ने सोचा भी न था. दोस्तों के लिए उस का साथ ऐसा ही रहा, जैसे कोट पर सजी गुलाब की कली, जो जरा सी मुरझाई नहीं कि बदल दी जाती है. अब उस की शामें सूनी हो चली थीं. न कोठी की घंटी बजती और न फोन ही आते.
प्रीति का नशा उतरने लगा तो ज्ञात हुआ कि उस के सभी सहयोगी पदोन्नति पा चुके हैं. विजय के पास भी अपना घर था और उस ने एक कार भी खरीद ली थी.
आखिर एक दिन प्रीति ने हालात से समझौता कर लिया और श्रीमती देवराज बन गई. विधुर देवराज को भी अकेलेपन में सहारा चाहिए था. लेकिन रेणु के जन्म के कुछ वर्षों बाद ही देवराज चल बसा. अपना रुपयापैसा वह अपनी पहली, दिवंगत पत्नी के बच्चों के नाम कर चुका था. सो, प्रीति को उस से मिली सिर्फ रेणु. लेकिन यह सहारा भी कम न था.
रेणु को पालतेपोसते प्रीति ने जीवन के काफी वर्ष काट दिए. रेणु भी उसी की तरह सुंदर थी. वह सुंदरता उसे विरासत में मिली थी. लेकिन अभी जो शब्द उस ने कहे थे, वे भी तो विरासत में मिले थे. प्रीति तड़प उठी. रेणु ने दूध का खाली गिलास मेज पर रखा तो प्रीति चौंकी, एक लंबी सांस ली और बोली, ‘‘बेटी, अगर रोनित तुम्हें पसंद है तो और कुछ न सोचो. तुम दोनों धीरेधीरे तरक्की कर लोगे. अभी उम्र ही क्या है.’’
रेणु उदास सी मां को देखती रही. प्रीति ने और कुछ न कहा, गिलास उठाया और कमरे से बाहर निकल गई.
रात के 11 बज चुके थे, लेकिन प्रीति की आंखों से नींद बहुत दूर थी. एक खयाल उस के इर्दगिर्द मंडरा रहा था कि काश, विजय उस के पास होता. यह कोठी, यह दौलत और यह कार न होती. साफसुथरी जिंदगी होती, विजय होता और रेणु होती.
दूसरे दिन रेणु ने धीरे से कमरे का परदा हटाया तो प्रीति बोली, ‘‘आओ, बेटी.’’
‘‘मां…,’’ रेणु पलंग पर बैठ गई, ‘‘मां…,’’ वह कहते हुए हिचकिचा सी रही थी.
‘‘बोलो बेटी,’’ प्रीति ने प्यार से कहा.
‘‘आप के आने से पहले ही रोनित का फोन आया था.’’
‘‘क्या, शादी के बारे में?’’
‘‘जी.’’
‘‘फिर तू ने क्या कहा?’’
‘‘मैं सोचती थी, रोनित एक मामूली क्लर्क है. आप अपनी शान के आगे कभी भी क्लर्क दामाद को बरदाश्त नहीं करेंगी. इसीलिए…’’
‘‘इसीलिए क्या?’’
‘‘इसीलिए मैं ने उसे मना कर दिया.’’
‘‘यह तू ने क्या किया, बेटी. रोनित जो कुछ तुम्हारे लिए कर सकेगा, वह और कोई नहीं कर सकेगा…’’
प्रीति शून्य में घूर रही थी, लेकिन हर ओर उसे विजय का भोलाभाला चेहरा दिखाई दे रहा था. जब वह बड़ेबड़े अफसरों के साथ घूमती थी, तब विजय की उदास आंखें उसे हसरत से देखा करती थीं. उन आंखों का दुख, उदासी उस दिल की तड़प उसे रहरह कर याद आ रही थी.
उस ने रेणु की तरफ देखा, वह भी खामोश बैठी थी. थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘‘बेटी, एक बात पूछूं, अपनी सहेली समझ कर सचसच बताना.’’
रेणु ने सवालिया नजरों से मां को देखा.
‘‘तू रोनित को पसंद तो करती है न?’’
‘‘हां, मां,’’ रेणु ने धीरे से कहा और नजरें झुका लीं.
‘‘अब क्या होगा? मेरी बच्ची, तू ने मुझ से पूछा तो होता. क्या वह फिर आएगा?’’
‘‘पता नहीं,’’ रेणु ने भर्राई आवाज में कहा और उठ कर चली गई.
सुबह प्रीति उठी तो सिर बहुत भारी था. शायद 10 बज रहे थे. रविवार को वैसे भी वह देर से उठती थी. उस ने परदे सरकाए और बालकनी में जा कर खड़ी हो गई. अचानक नजर नीचे पड़ी, रोनित और रेणु नीम के पेड़ की आड़ में खड़े थे. वह धीरेधीरे पीछे हो गई और अपने कमरे में लौट आई. आरामकुरसी पर बैठ कर उस ने अपना सिर पीछे टिका दिया.
देर तक प्रीति इसी मुद्रा में बैठी रही. फिर किसी के आने की आहट हुई तो उस ने भीगी पलकें उठाईं, सामने रेणु खड़ी थी.
‘‘मां, वह आया था, फिर वही कहने.’’ प्रीति टकटकी बांधे उस के अगले शब्दों का इंतजार करने लगी.
‘‘मां, मैं ने…मैं ने…’’
‘‘तू ने क्या कहा?’’ वह लगभग चीख पड़ी.
‘‘मैं ने ‘हां’ कह दी.’’
‘‘मेरी बच्ची,’’ प्रीति ने खींच कर रेणु को सीने से लिपटा लिया और बुदबुदाई, ‘शुक्र है, तू ने मां की हर चीज विरासत में नहीं पाई.’
‘‘क्या मां, कुछ कहा?’’ रेणु ने अलग हो कर उस के शब्दों को समझना चाहा.
‘‘कुछ नहीं बेटी, हमेशा सुखी रहो,’’ और उस ने रेणु का माथा चूम कर उसे अपने सीने से लगा लिया.
उन्होंने खुशी से इजाजत दे दी. अम्मी की तबीयत पहले ही खराब रहती थी, वह कहने लगीं, ‘तुम इतनी दूर चले जाओगे अगर पीछे मुझे कुछ हो गया, तो जनाजे में भी शिरकत न कर सकोगे.’
मैं ने उन्हें तसल्ली दी, ‘आप फिक्र न करें. वहां सब से पहले आप को बुलाऊंगा. एकडेढ़ महीने की बात है फिर आप भी मेरे पास होंगी.’
जिस रोज मुझे घर छोड़ना था. उन की तबियत कुछ ज्यादा बिगड़ गई. डाक्टर को बुलवाया. उस ने आराम का मशविरा दिया कहने लगा कि इन के खून बनने की रफ्तार कुछ सुस्त हो गई है. पूरा चैकअप करवाएं और फिक्रमंद न होने दें.
मैं दिमागी तौर पर 2 हिस्सों में बंट गया. शाहीना से वक्त तय हो चुका था, गाड़ी जाने में अभी कुछ घंटे बाकी थे. अम्मी की हालत ऐसी नहीं थी कि उन्हें छोड़ कर चल देता. सोचा अब्बू से मशविरा ले लूं. उन से पूछा तो वह कहने लगे, मियां इंटरव्यू दे आओ. यहां मैं इन्हें संभालने के लिए हूं, तुम अपना रास्ता खोटा मत करो.
मैं ने बहुत ही बेदिली से अपना सामान समेटा. एकदो जोड़ी कपड़ों और शेव के सामान के अलावा साथ ले जाने के लिए और क्या था. डाक्टर ने अम्मी को नींद की गोली दे दी थी. वह गहरी नींद सो रही थीं. उन्हें इत्मीनान और सुकून की हालत में देख कर मेरे इरादे ने फिर मजबूती पकड़ी.
अब्बू से दुआसलाम कर के घर से निकला. रिक्शा पकड़ कर सीधा स्टेशन पहुंचा. पहले ही देर हो चुकी थी. टिकट बड़ी मुश्किल से मिले. शाहीना अभी तक नहीं आई थी. मैं सीढि़यों के पास ही खड़ा हो गया. मुझे मालूम था कि वह नीला बुरका पहन कर आएगी. हाथ में उसी रंग का पर्स होगा. नकाब नहीं उलटेगी. तय था कि जब तक वह खुद इशारा न करे, मैं उस के करीब न जाऊं.
गाड़ी जाने में 10 मिनट रह गए थे, जब वह आती दिखाई दी. नीले जौर्जेट के नकाब में उस की आंखें मुझे तलाश रही थीं. जैसे ही मैं उसे दिखाई दिया. वह तेजी से मेरी तरफ आई. यह बात हमारे प्रोग्राम में शामिल नहीं थी. इसलिए थोड़ा सा घबरा गया.
वह मेरे करीब आ कर बोली, ‘‘यह बैग अपने पास रखिएगा. बेहतर होगा कि आप इसे अपनी अटैची में रख लें. टिकट सैकंड क्लास का ही लिया है न.’’
हम लेडीज डिब्बे में जा कर बैठ रहे हैं. अगले स्टेशन पर आप हमें टिकट दे दें और इस के बाद आप हर स्टेशन पर मत उतरिएगा. सुबहसवेरे जो स्टेशन आए आप मुंह जरूर धो आइए. हम दूर से देख लेंगे और हां, बंबई स्टेशन पर आप हमें जरूर उतार लें वरना हम खो जाएंगे.
ये नसीहतें मेरे कान में उड़ेल कर उस ने अपना बैग मुझे थमाया और तेजतेज कदमों से लेडीज डिब्बे की तरफ लपकी. वक्त बहुत कम था. मैं चाहता था कि वह बैठ जाए तो मैं उस का डिब्बा देख लूं ताकि उस से संपर्क रखने में आसानी हो. फिर भाग कर किसी करीबी डिब्बे में सवार हो जाऊंगा. मेरे एक हाथ में अटैची थी. दूसरे में उस ने बैग थमा दिया था.
जब वह डिब्बे में सवार हो गई तो मैं भाग कर एक करीबी डिब्बे की तरफ लपका. मगर पीछे से मेरे छोटे भाई अमजद की आवाज आई, ‘‘भाईजान, भाईजान.’’
आवाज पास से ही आई थी. मैं ने गरदन घुमा कर देखा. अमजद का सांस फूला हुआ था. लगता था यह भागता हुआ आया है. कहने लगा, ‘‘भाईजान, अम्मी की हालत नाजुक है. अब्बू ने मुझे भेजा है कि आप को रोक लूं. आप का नाम ले ले कर बुला रही हैं. प्लीज भाईजान, जल्दी चलें. अब्बू उन्हें अस्पताल में एडमिट कर रहे हैं.’
गाड़ी ने सीटी दे दी थी. अमजद मेरा दामन घसीट रहा था और पता नहीं वो वेवकूफ सी लड़की मुझे देख भी रही थी या बैठने के लिए जगह बना रही थी. उसे मुझ पर पूरा भरोसा होगा कि मैं उस के साथ चल रहा हूं. मगर मैं अपने ऊपर से विश्वास खो चुका था. कभी गाड़ी की तरफ भागता और कभी अमजद की तरफ. 12 साल का अमजद परेशान हो कर जोरजोर से रोने लगा था. वह समझ रहा था कि मैं उस के साथ जाने में आनाकानी कर रहा हूं.
सब्र का दामन मेरे हाथ से छूट गया. मैं ने अमजद को खींच कर सीने से लगा लिया. उसे तसल्ली दी कि अच्छे बच्चे रोते नहीं, मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूं. मेरा एक दोस्त गाड़ी में है उसे बता दूं कि मैं उस के साथ नहीं चल रहा हूं.
इतने में गाड़ी चल दी. मैं गाड़ी की तरफ दौड़ा. डिब्बा कौन सा था, यह कैसे याद रखता. यह नहीं, वो… हां यही, नहीं यह कोई और है. गाड़ी की रफ्तार ने जोर पकड़ लिया. मैं उसे कैसे रोकता वह पलभर में स्टेशन छोड़ कर सीटी मारती नजरों से ओझल हो गई. मैं प्लेटफार्म पर पागलों की तरह इधरउधर भागता रह गया.
अमजद मेरे साथ था. जब गाड़ी चली गई तो बोला, ‘‘बस करें भाई जान, आप का दोस्त गाड़ी में से आप को देख चुका होगा. समझ गया होगा कि आप उस के साथ नहीं जा रहे हैं. अब जल्दी चलें.’’
मैं उस के साथ चल दिया. वह बोला, ‘‘भाईजान, यह बैग किस का है. क्या आप ने खरीदा था?’’
मुझे करंट सा छू गया. उफ वह बेबस लड़की उस का बैग, टिकट सब कुछ मेरे पास रह गया. हो सकता है उस के छोटे पर्स में चंद सिक्कों के अलावा और कुछ न हो. वह कहां जाएगी, क्या करेगी?
उस वक्त मैं ने अमजद से झूठ बोला कि हां, यह बैग मैं ने कल ही खरीदा था. हम दोनों परेशानी की हालत में घर पहुंचे. अब्बू अम्मी को अस्पताल ले गए थे. घर में बहनभाई रो पीट रहे थे. ऐसी हालत में शाहीना का खयाल अपने आप दिमाग से फिसल गया. उन्हें संभालने और अस्पताल से संपर्क करने में पूरा दिन लग गया. अम्मी को लगातार देखभाल और तीमारदारी की आवश्यकता थी.
अब्बू के बाद मुझे उन के पास बैठना पड़ा. सारी रात चिंता में गुजर गई. अगली सुबह उन की हालत थोड़ी सी सुधरी. घर में किसी को खानेपीने का होश नहीं था. मेरी छोटी बहन सलमा से घर संभाला नहीं जा रहा था. वह बातबात पर रो पड़ती थी. अब्बू दूसरी बहनों को इत्तला देना नहीं चाहते थे. अजीब परेशानी ने आ घेरा था. इस सारे मामले में 6 दिन लग गए. अम्मी ने आंखें खोलीं और मुझे सामने देख कर रो पड़ीं. मैं भी रोने लगा.
वह अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर घर आ गईं. घर पर उन्हें मिलनेजुलने वालों ने आ घेरा. 20-30 दिन गुजर गए. घर की हालत बिगड़ गई थी, बड़ी बहन फरीदा ने घर को ठीक करने की जिम्मेदारी संभाल ली. फरीदा आगरा में रहती थी. अब्बू ने दूर के लोगों को अम्मी की बीमारी की खबर नहीं पहुंचाई थी. बाद में जिस को भी खबर मिलती गई एकएक कर के आता गया.
फरीदा बाजी सब से आखिर में आईं और 2 महीना रह कर गईं. उन्होंने घर की सारी जिम्मेदारी संभाल ली थी. जब अम्मी की तबीयत ठीक हुई तो उन्होंने झाड़ू संभाल कर घर का कोनाकोना चमका दिया. मेरे कमरे की भी बारी आ गई. अलमारी से मेरा बैग निकाला तो वह मेरे सामने ले कर आ गईं. बोलीं, ‘मंसूर यह किस का बैग है. बाहर से लौक भी है, तुम ने कब खरीदा है?’
मेरा चेहरा फक हो गया. मैं ने उन से बैग ले लिया. बोला, ‘बाजी, यह मेरे एक दोस्त की अमानत है. इसे वहीं रहने दें, जब वो आएगा उसे पहुंचा दूंगा.
अब आप को पता लग गया होगा कि जेवरात से मुझे क्यों एलर्जी है. इस बैग में यही जेवरात तो थे जो मैं ने अपनी बीवी को शादी की पहली रात उतारने के लिए कहा था. मैं ने शाहीना की खबर मालूम करने की कोशिश की थी. जब अम्मी अस्पताल में थीं, मैं वहीद साहब के घर गया था. उन के घर पर ताला पड़ा हुआ था. मोहल्ले के एक आदमी ने बताया कि वो लोग यहां से चले गए हैं. उन्होंने किसी को कुछ बताए बगैर घर छोड़ दिया था.
वो दिन और आज का दिन मुझे शाहीना या उस के घर वालों की कोई इत्तला नहीं मिली. वहीद साहब ने फर्म से 2 महीने की छुट्टी ले ली थी. बाद में उन का इस्तीफा आ गया. वह दुबई रवाना हो गए. अब्बू को डाक्टरों ने मशविरा दिया कि आप अपनी बीवी को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाएं. शायद उन्हें कैंसर है.
अब्बू उन्हें ले कर मुंबई चले गए. वहां टाटा अस्पताल में उन के टैस्ट वगैरह हुए. लेकिन सब सही निकले. 2 महीने बाद अब्बू वापस आए. उन्हें मुंबई इतना पसंद आया कि उन्होंने वहीं रहने का फैसला कर लिया. उन्होंने वहीं एक प्राइवेट फर्म में नौकरी ढूंढ ली और वहीं जा कर बस गए. हम सब भी उन के साथ मुंबई आ गए. इस उम्मीद से मेरे पास था कि शाहीना मिलेगी तो उसे लौटा दूंगा. ऐसे ही 6 साल बीत गए.
मुझे नौकरी मिल गई. तरक्की हो गई. पढ़ाई भी पूरी हो गई. तब शादी का जिक्र छिड़ा. उस वक्त तक अब्बू पर छोटे भाई और बहन की जिम्मेदारी थी. अम्मी की बीमारी पर अच्छाखासा कर्जा हो गया था. मुझे सब कुछ खुद की करना था. यहां मैं ने दूसरी कमीनगी की और वो बैग खोल लिया.
बैग में सोने के 3 कीमती सैट और 30 हजार की रकम रखी हुई थी. उन्हीं पैसों और जेवरात से मेरी शादी का इंतजाम हुआ.
मैं ने एक सैट बरी पर चढ़ाया. दूसरा शादी की दूसरी रात बीवी के हवाले कर दिया. तीसरा पहले बेटे की पैदाइश पर उसे तोहफे में दे दिया. बताइए मैं इन जेवर का और क्या करता? और अब जब उन्हें बीवी के गले और हाथों में देखता हूं तो जान निकलने लगती है.
उस से कई बार कहा कि बीवी इसे बदलवा कर कोई नया जेवर खरीद लो. मगर वह आंखों में नशा भर कर शादी के शुरुआती दिनों को याद करने लगती है और मैं सिकुड़ने लगता हूं. उसे कैसे बताऊं कि जब भी तुम्हें इन जेवरात में लिपटा देखता हूं, शाहीना की आवाजें सुनाई देती हैं, ‘हमें बंबई स्टेशन पर जरूर उतार लेना, वरना हम खो जाएंगे.’
मेरे बदन पर कंपकंपी छा जाती है. खुद खो जाता हूं और मेरी भोली बीवी यह समझती है कि मैं शादी के सुहाने दिनों की यादों में गुम हो गया हूं.
दिनेश हर सुबह पैदल टहलने जाता था. कालोनी में इस समय एक पुलिस अफसर नएनए तबादले पर आए हुए थे. वे भी सुबह टहलते थे. एक ही कालोनी का होने के नाते वे एकदूसरे के चेहरे पहचानने लगे थे.
आज कालोनी के पार्क में उन से भेंट हो गई. उन्होंने अपना परिचय दिया और दिनेश ने अपना. उन का नाम हरपाल सिंह था. वे पुलिस में डीएसपी थे और दिनेश कालेज में प्रोफैसर.
वे दोनों इधरउधर की बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि तभी सामने से आते एक शख्स को देख कर हरपाल सिंह रुक गए. दिनेश को भी रुकना पड़ा.
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हरपाल सिंह ने उस आदमी के पैर छुए. उस आदमी ने उन्हें गले से लगा लिया.
हरपाल सिंह ने दिनेश से कहा,
‘‘मैं आप का परिचय करवाता हूं. ये हैं रामप्रसाद मिश्रा. बहुत ही नेक, ईमानदार और सज्जन इनसान हैं. ऐसे आदमी आज के जमाने में मिलना मुश्किल हैं.
‘‘ये मेरे गुरु हैं. ये मेरे साथ काम कर चुके हैं. इन्होंने अपनी जिंदगी ईमानदारी से जी है. रिश्वत का एक पैसा भी नहीं लिया. चाहते तो लाखोंकरोड़ों रुपए कमा सकते थे.’’
अपनी तारीफ सुन कर रामप्रसाद मिश्रा ने हाथ जोड़ लिए. वे गर्व से चौड़े नहीं हो रहे थे, बल्कि लज्जा से सिकुड़ रहे थे.
दिनेश ने देखा कि उन के पैरों में साधारण सी चप्पल और पैंटशर्ट भी सस्ते किस्म की थीं. हरपाल सिंह काफी देर तक उन की तारीफ करते रहे और दिनेश सुनता रहा. उसे खुशी हुई कि आज के जमाने में भी ऐसे लोग हैं.
कुछ समय बाद रामप्रसाद मिश्रा ने कहा, ‘‘अच्छा, अब मैं चलता हूं.’’
उन के जाने के बाद दिनेश ने पूछा, ‘‘क्या काम करते हैं ये सज्जन?’’
‘‘एक समय इंस्पैक्टर थे. उस समय मैं सबइंस्पैक्टर था. इन के मातहत काम किया था मैं ने. लेकिन ऐसा बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. चाहता तो आज बहुत बड़ा पुलिस अफसर होता लेकिन अपनी ईमानदारी के चलते इस ने एक पैसा न खाया और न किसी को खाने दिया.’’
‘‘लेकिन अभी तो आप उन के सामने उन की तारीफ कर रहे थे. आप ने उन के पैर भी छुए थे,’’ दिनेश ने हैरान हो कर कहा.
‘‘मेरे सीनियर थे. मुझे काम सिखाया था, सो गुरु हुए. इस वजह से पैर छूना तो बनता है. फिर सच बात सामने तो नहीं कही जा सकती. पीठ पीछे ही कहना पड़ता है.
‘‘मुझे क्या पता था कि इसी शहर में रहते हैं. अचानक मिल गए तो बात करनी पड़ी,’’ हरपाल सिंह ने बताया.
‘‘क्या अब ये पुलिस में नहीं हैं?’’ दिनेश ने पूछा.
‘‘ऐसे लोगों को महकमा कहां बरदाश्त कर पाता है. मैं ने बताया न कि न किसी को घूस खाने देते थे, न खुद खाते थे. पुलिस में आरक्षकों की भरती निकली थी. इन्होंने एक रुपया नहीं लिया और किसी को लेने भी नहीं दिया. ऊपर के सारे अफसर नाराज हो गए.
‘‘इस के बाद एक वाकिआ हुआ. इन्होंने एक मंत्रीजी की गाड़ी रोक कर तलाशी ली. मंत्रीजी ने पुलिस के सारे बड़े अफसरों को फोन कर दिया. सब के फोन आए कि मंत्रीजी की गाड़ी है, बिना तलाशी लिए जाने दिया जाए, पर इन पर तो फर्ज निभाने का भूत सवार था. ये नहीं माने. तलाशी ले ली.
‘‘गाड़ी में से कोकीन निकली, जो मंत्रीजी खुद इस्तेमाल करते थे. ये मंत्रीजी को थाने ले गए, केस बना दिया. मंत्रीजी की तो जमानत हो गई, लेकिन उस के बाद मंत्रीजी और पूरा पुलिस महकमा इन से चिढ़ गया.
‘‘मंत्री से टकराना कोई मामूली बात नहीं थी. महकमे के सारे अफसर भी बदला लेने की फिराक में थे कि इस आदमी को कैसे सबक सिखाया जाए? कैसे इस से छुटकारा पाया जाए?
‘‘कुछ समय बाद हवालात में एक आदमी की पूछताछ के दौरान मौत हो गई. सारा आरोप रामप्रसाद मिश्रा यानी इन पर लगा दिया गया. महकमे ने इन्हें सस्पैंड कर दिया.
‘‘केस तो खैर ये जीत गए. फिर अपनी शानदार नौकरी पर आ सकते थे, लेकिन इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी ये आदमी नहीं सुधरा. दूसरे दिन अपने बड़े अफसर से मिल कर कहा कि मैं आप की भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सकता. न ही मैं यह चाहता हूं कि मुझे फंसाने के लिए महकमे को किसी की हत्या का पाप ढोना पड़े. सो मैं अपना इस्तीफा आप को सौंपता हूं.’’
हरपाल सिंह की बात सुन कर रामप्रसाद के प्रति दिनेश के मन में इज्जत बढ़ गई. उस ने पूछा, ‘‘आजकल क्या कर रहे हैं रामप्रसादजी?’’
हरपाल सिंह ने हंसते हुए कहा,
‘‘4 हजार रुपए महीने में एक प्राइवेट स्कूल में समाजशास्त्र के टीचर हैं. इतना नालायक, बेवकूफ आदमी मैं ने आज तक नहीं देखा. इस की इन बेवकूफाना हरकतों से एक बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़ कर आना पड़ा. अब बेचारा आईटीआई में फिटर का कोर्स कर रहा है.
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‘‘दहेज न दे पाने के चलते बेटी की शादी टूट गई. बीवी आएदिन झगड़ती रहती है. इन की ईमानदारी पर अकसर लानत बरसाती है. इस आदमी की वजह से पहले महकमा परेशान रहा और अब परिवार.’’
‘‘आप ने इन्हें समझाया नहीं. और हवालात में जिस आदमी की हत्या कर इन्हें फंसाया गया था, आप ने कोशिश नहीं की जानने की कि वह आदमी कौन था?’’
हरपाल सिंह ने कहा, ‘‘जिस आदमी की हत्या हुई थी, उस में मंत्रीजी समेत पूरा महकमा शामिल था. मैं भी था. रही बात समझाने की तो ऐसे आदमी में समझ होती कहां है दुनियादारी की? इन्हें तो बस अपने फर्ज और अपनी ईमानदारी का घमंड होता है.’’
‘‘आप क्या सोचते हैं इन के बारे में?’’
‘‘लानत बरसाता हूं. अक्ल का अंधा, बेवकूफ, नालायक, जिद्दी आदमी.’’
‘‘आप ने उन के सामने क्यों नहीं कहा यह सब? अब तो कह सकते थे जबकि इस समय वे एक प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं और आप डीएसपी.’’
‘‘बुराई करो या सच कहो, एक ही बात है. और दोनों बातें पीठ पीछे ही कही जाती हैं. सब के सामने कहने वाला जाहिल कहलाता है, जो मैं नहीं हूं.
‘‘जैसे मुझे आप की बुराई करनी होगी तो आप के सामने कहूंगा तो आप नाराज हो सकते हैं. झगड़ा भी कर सकते हैं. मैं ऐसी बेवकूफी क्यों करूंगा? मैं रामप्रसाद की तरह पागल तो हूं नहीं.’’
दिनेश ने उसी दिन तय किया कि आज के बाद वह हरपाल सिंह जैसे आदमी से दूरी बना कर रखेगा. हां, कभी हरपाल सिंह दिख जाता तो वह अपना रास्ता इस तरह बदल लेता जैसे उसे देखा ही न हो.
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मैं ने आगे रास्ते पर बढ़ते हुए हाथ हिला दिया था. उस ने भी जवाब में हाथ हिला दिया था, ‘‘सुबह फिर मिलेंगे.’’ दूसरी सुबह मुलाकात होनी थी उस से. सो, मैं ने अपना सब से कीमती सूट पहना था. मेल खाती टाई लगाई थी. इतना ही नहीं, अपने कपड़ों पर एक बेहतरीन इत्र भी लगाया था. फिर गुनगुनाते हुए कमरे के दरवाजे पर ताला लगा कर बड़ी तेजी से सड़क पर आ गया था. मैं ने देखा था कि वह उसी सुंदर मकान के आगे खड़ी मुड़मुड़ कर मेरी राह देख रही थी. हम दोनों एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए और बड़े खुश हुए थे. न जाने क्या सोच कर वह चहकते हुए बोली थी,
‘‘क्या बात है? आज तो तुम महकते हुए खूब फब रहे हो. एकदम सिनेमा के ‘हीरो’ जैसे…’’ इतना कहतेकहते वह खिलखिला कर हंस पड़ी थी. ‘‘लेकिन, सचमुच आप से कम…’’ मैं ने कहा था, ‘‘मुझे जो फिल्मी हीरोइन पसंद है, अगर इस समय आप के सामने आ जाए तो वह भी पानी भरे.’’ इसी तरह कुछ देर तक घुलमिल कर बातें होती रहीं. फिर उस ने अपना नाम ‘ऊषा’ बताते हुए पूछा, ‘‘क्या आप किसी फैक्टरी में इंजीनियर हैं?’’ उस के इस सवाल से मैं सकपका गया था. फिर खुद को संभालते हुए मुसकरा भर दिया था. ‘‘ठीक?है,’’ उस ने कहा था. वह सचमुच बेहद खुश हो गई थी,
‘‘मैं भी यही समझती थी कि आप किसी बड़ी और शानदार जगह पर हैं.’’ मैं ने पूछा, ‘‘और आप क्या हैं दवा वाली उस फैक्टरी में?’’ ‘‘मैं वहां क्या हूं?… बस यही समझ लीजिए कि किसी तरह सिर्फ समय गुजारती रहती हूं,’’ उस ने कनखियों से मुझे देखते हुए कहा था, ‘‘यों तो मुझे नौकरी करने की कोई खास जरूरत ही न थी. पिताजी ‘बैंक औफ इंडिया’ में मैनेजर हैं. भाई ‘किर्लोस्कर’ के एजेंट और भाभी स्कूल में पढ़ाती हैं. घर में अकेली मैं क्या करूं? मां हैं नहीं, न दूसरा कोई भाईबहन, सो दवाओं की ‘सल्फरी’ गंध के बीच टाइप का काम करती हूं.’’ जवाब देते समय आखिरी बात कहतेकहते वह झेंप भी गई, जो मुझे कुछ ज्यादा लुभा गया. अपनी झेंप पर काबू पाते हुए वह बोली, ‘‘बुरा न मानें तो क्या मैं आप का नाम जान सकती हूं?’’ ‘‘एक ही शर्त पर.’’ ‘‘कौन सी?’’ वह बोली. ‘‘इस बनावटी ‘आपवाप’ के चक्कर से बरी रखना मुझे,’’ मैं ने शरारती अंदाज में कहा था. ‘‘चलो, ऐसा ही सही,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ी थी. ‘‘तो सुन लो और गुन लो जरा गौर से, मांबाप से ज्यादा मेरे चाचा ने रखा था इसे अरमान से…’’ ‘‘अरे बाबा, शायरी से बाहर आओ, मुझ को अपना नाम बताओ,’’
उस ने टोका था मुझे. ‘‘शायरी तो अब तुम भी करने लगी हो ऊषा. वैसे, मेरा नाम है प्रत्यूष. कहो कैसा लगा?’’ ‘‘अरे वाह, बहुत अच्छा. बड़ा प्यारा नाम है, ऊषा से भी कितना मिलताजुलता है. हां, कुछ मुश्किल भी तो है. लेकिन क्या मतलब होता?है इस का… क्या नाम बोला था, ऊष… यूष…’’ ‘‘अजी, ‘ऊष यूष’ नहीं, प्रत्यूष, प्रत्यूष. मतलब, सुबह की लाली से पहले का सूरज… समझीं?’’ ‘‘तब भी एकदम से मिलताजुलता नाम है. ‘प्रत्यूष’ मतलब सवेरे का सूरज और ‘ऊषा’ यानी सुबह, सब को जागने का संदेश देने वाली. है न ठीक?’’ ‘‘बिलकुल ठीक.’’ वह अपनी फैक्टरी की ओर जा चुकी थी और मैं पूरे दिन उस से हुई बातों की याद में डुबकियां लगाता रह गया था. उस के बाद हम दोनों ने अपने नंबर एकदूसरे को दिए. मैं ने नाम में ‘भूचल’ बस लिखा. सड़क का एक दोराहा सा बनता था
, जहां से हम अलगअलग रास्तों की ओर बंट जाते थे. कुछ शायद इस डर से भी कि हम पर फब्तियों और बोलियों की बौछार न हो. एक बात और थी कि मैं अपनेआप को उस से कुछ दिनों तक छुपाएबचाए रखना चाहता था. ये ‘कुछ दिन’ असल में ‘कुछ बरस’ भी हो सकते थे और शायद यह जिंदगी भी. पर देखो तो जिंदगी की मीआद सचमुच कितनी छोटी होती?है. सच तो यह है कि मैं तब दिनरात अच्छी ऊषा और ऊषा के लिए ही अच्छी जिंदगी के ख्वाब में खोया रहने लगा था. मैं अकसर सोचता था कि अगर हर महीने कुछ बचत करूं, तो थोड़ाथोड़ा करते काफीकुछ जमा हो जाएगा. फिर मैं एक मशीन लगवा लूंगा और एक अच्छीखासी फैक्टरी का मालिक बन जाऊंगा. तब ऊषा और मेरा जीवन सुख से बीतेगा. तब तक तो शायद बच्चे भी हो जाएं. उन्हें हम फूलों की तरह रखेंगे. दुनिया के बड़ेबड़े लोगों व धनीमानी लोगों की जिंदगी तक में भी शायद ऐसे ही हरेभरे सपने हुआ करते हैं.
जो आगे चल कर सचाई में बदल जाया करते हैं. आखिर वह कौन सी जादुई छड़ी हुआ करती है उन के पास? कहीं से वह मुझे भी मिल जाए, अगर तो… मैं खूब मजे लेले कर पूरी मेहनत के साथ अपना काम करने लगा था उन दिनों, ताकि बड़ा आदमी बनने का मेरा सपना भी जल्दी पूरा हो जाए. मैं खूब ओवरटाइम भी करने लगा था. इस वजह से मुझे थोड़ी ज्यादा आमदनी हो जाती थी. मेरे मांबाप गांव के थे, जिन की गुजरबसर खेती से हो जाती थी. 7 दिनों में सिर्फ एक दिन हमारी मुलाकात होती थी. हम, यानी मैं और ऊषा चौड़ा बाजार के ‘विवेक रैस्टोरैंट’ में कौफी पीया करते थे. उन दिनों अकसर ऊषा मुझ से पूछ लिया करती थी, ‘‘हर पल क्या सोचते रहते हैं आप?’’ मैं उस के सवाल सुन कर चौंक उठता और कहता, ‘‘मैं… मैं… यही कि मेरी भी कभी एक फैक्टरी होगी… क्यों, तुम्हारा क्या खयाल है?’’ ‘‘सोचती हूं वह दिन जल्दी आए और…’’ ‘‘और क्या?’’ वह शरमा कर कुछ देर चुप रहने के बाद ज्यादा से ज्यादा यही कहती, ‘‘बताऊंगी.’’ छुट्टी के बाद मैं अपने काले पड़ चुके हाथों को लकड़ी के बुरादे और साबुन से रगड़रगड़ कर धोया करता था. साथी कारीगर कृष्णमोहन, जिसे मेरा नाम ‘
प्रत्यूष’ तक ठीक से कहना नहीं आता था या जो शायद लोगों के नाम बिगाड़ने में ही ज्यादा दिलचस्पी लेता था, अकसर कह पड़ता मुझ से, ‘‘परती भाई, कितना ही रगड़ कर हाथ साफ करो, कल फिर यह रंग चढ़ ही जाएगा. फिर क्या फायदा चमड़ी छीलने से? अरे, यह तो रोजीरोटी का रंग है. काला हुआ तो क्या, है तो जीवनभर का रंग भाई.’’ इधर कुछ दिनों से मेरे पड़ोस में रहमान खान की बेटी सलमा मुझ से कुछ ज्यादा मिलने लगी थी. हो सकता?है, प्यार में कोई खुशबू होती होगी कि और तितलियां मंडराने लगती हैं. अभी उस दिन वह रात 8 बजे आई और मेरे दरवाजा खोलते ही अंदर घुस कर तुरंत दरवाजा बंद कर दिया.’’ ‘‘यह क्या कर रही हो सलमा? लोग क्या कहेंगे.’’ ‘‘जानू, लोग क्या कहेंगे यह छोड़ो. यह सुनो मेरा दिल क्या कह रहा है,’’ कह कर उस ने जबरन मेरा सिर अपनी छातियों में छिपा लिया. मैं ने मुश्किल से पकड़ ढीली की. वह बेहद मजबूत थी. रंग थोड़ा सांवला था,
पर एक सैक्सी लुक लिए. ‘‘जानू, तुम्हारे लिए रातदिन तड़प रही हूं,’’ मैं ने उसे चुप करते हुए कहा, ‘‘सलमा, जमाना खराब है. मुसलिम लड़की एक हिंदू के घर दिखी तो बेकार में हंगामा हो जाएगा.’’ वह बोली, ‘‘अरे, जमाने से डरते हो तो क्या करोगे, मैं तो नहीं डरती.’’ ‘‘वह घंटों मेरे पास बैठ कर बकबक करती रही. ऊषा उस के मुकाबले में सुंदर तो थी, पर न हाथ लगाती, न हाथ लगाने देती. लेकिन सलमा बिंदास थी. ऊषा दूरदूर रहने वाली. काले बुरके में तो उस का रंग और निखर उठता, पर मैं तो ऊषा का दीवाना था. रोज दूसरे मजदूर कैसे भी हाथमुंह धोधा कर निकल जाते, किंतु मैं बहुत आराम से शानदार सफारी सूट आदि झाड़, कंघीशंघी कर के अफसर बन कर निकलता. तब तक तो तमाम लोग निकल चुके होते थे. ऊषा अपनी फैक्टरी से आगे निकल कर दोराहे के पास वहीं खड़ी मिलती. मिलते ही मेरी ओर लपकने के साथ शिकायत भरे लहजे में कहती, ‘‘क्यों बड़ी देर लगा देते हो तुम?’’ मैं उस के कंधों को थपथपा कर यों ही झूठमूठ कह देता, ‘‘तुम तो जानती ही हो ऊषा, कितनी जिम्मेदारी का काम है. छुट्टी के बाद सारा काम समेट कर आना पड़ता है.’’ लगभग ढाई साल बीत चुके हैं उस अनचाही शाम को. पर लगता है, जैसे कल ही की बात है. गरमियों की उस शाम ऊषा ने अचानक मुझ से कहा था, ‘‘कितनी सुंदर शाम है और बड़ी प्यारी भी. चलो ऊष, आज किसी पार्क में चल कर बैठते हैं.’’ वह प्यार में मुझे ‘प्रत्यूष’ की जगह ‘ऊष’ बोला करती थी. मैं ने तभी एक आटोरिकशा रोका था,
‘‘चलो भाई, रोज गार्डन.’’ हम पार्क में काफी देर तक बैठे थे. उस शाम आंधीवांधी नहीं चल रही थी. पार्क में हर ओर बच्चे और उन की किलकारियां, हंसी और चीखें गूंज रही थीं. हम एक तरफ हरी घास पर बैठ गए थे. बहुत देर तक एकदूसरे को खोएखोए से देखते रहे. मैं ने ही तब मौन तोड़ा था, ‘‘आज कोई खास बात है क्या? आज मुझे इस तरह अजीब नजरों से देखा जा रहा है. खैरियत तो है?’’ ‘‘खैरियत जरूर मनाओ, खास बात तो है ही…’’ उस ने कहा था, ‘‘तुम्हें देख कर पिताजी बहुत खुश होंगे. वह भी क्या याद करेंगे कि ऊषा की पसंद का भी कोई कमाल देखा था उन्होंने. कितनी अच्छी पसंद है उन की बेटी की.’’ ‘‘तुम ने कह दिया है अपने पिताजी से मेरे बारे में?’’ ‘‘और नहीं तो क्या? वही तो कहने वाली थी तुम से कि कल शाम पिताजी ने बुलाया है तुम्हें. सो, तुम्हें चलना होगा.’’ 21वीं सदी का एक सुंदर तोहफा मेरे सामने था. मैं ने खुशी से उसे अपनी बांहों में भर लिया था. मैं ने पूछा था, ‘‘क्या सचमुच?’’ वह मेरी बांहों में से निकल छूटने की कोशिशों में कसमसाती हुई सी बोली थी,
‘‘हां, सच मेरे प्राण.’’ अगले दिन छुट्टी हो जाने के बाद मैं ग्रीस और कालिख लगा अपना चेहरा खूब रगड़रगड़ कर धो रहा था. मेरे बदन पर तेल और ग्रीस के दागधब्बों से नहाई चीकट सी पैंटशर्ट भी पड़ी थी. मेरे साथ के मिस्त्री और कारीगर जाने कब के चले भी गए थे. हफ्तों के तेल सने और कालिख पुते कपड़ों के बीच अपने हाथों और चेहरे की चमड़ी के रंग को चमका कर जैसे ही मैं वाश बेसिन के सामने से उठ कर हटा, पीछे किसी को खड़ा पा कर तेजी से पलटा. देखा तो सचमुच ऊषा ही मेरे सामने खड़ी थी. हक्काबक्का हो कर मैं कभी शानदार कपड़ों में सजीधजी उस की गुस्से भरी सुंदरता देख रहा था, तो कभी तेल, ग्रीस व धूल सने कपड़ों में लिपटे धुलेपुछे अपने हाथों को. मैं उस की ओर बदहवास नजरों से ताकता हुआ सहज होने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘चल कर औफिस में बैठो. मैं वहीं कपड़े बदल कर आता हूं. आज एक आदमी आया नहीं था, इसीलिए उस का काम करना पड़ गया. सो देख ही रही हो, मेरा हुलिया कैसा बिगड़ गया है.’’ उसी ऊहापोह में ऊषा को अवाक छोड़ कर कपड़े बदलने के लिए मैं फिर से वर्कशौप में घुस गया.
साथ ही, सोचता जा रहा था कि मैं ने तो कभी ऊषा को अपनी फैक्टरी का नाम तक नहीं बताया था. आज इसे क्या सूझी कि फैक्टरी के भीतर ही सीधे पहुंच गई. फैक्टरी के दरबान ने इसे रोका तक नहीं और न ही इसे कहीं औफिस में बिठा कर मुझे खबर ही किया. हो सकता है कि ऊषा ने ही उसे सारी बातें बतासमझा कर मुझे ‘चकित’ करने के लिए रोक दिया हो मुझे बुलाने से. बनठन कर जब मैं पहुंचा, तब ऊषा वहां थी ही नहीं. शायद, उस ने मेरे बारे में सबकुछ किसी से पता कर लिया था. दौड़ता सा मैं चौड़ी सड़क के मोेड़ तक पहुंचा था. इधरउधर चारों ओर नजरें दौड़ा कर देखा, पर वह कहीं न दिखी. एक बार फिर खूब गौर से सब ओर देखा. हां, उसी नीम के हरेभरे पेड़ के नीचे वह सड़क पार करने के इंतजार में खड़ी थी. मैं ने खंखारते हुए तब कहा था, ‘‘2 मिनट के लिए भी रुकी क्यों नहीं? नाराज हो क्या? देखो, मैं तो कैसा दौड़ताहांफता आ रहा हूं तुम तक, तुम से मिलने, तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलने को.’’ ‘‘नीच, कमीने, धोखेबाज, चुप ही रहो अब.
पिछले कई दिनों से मैं सुन रहा था कि हमारे नए निदेशक शीघ्र ही आने वाले हैं. उन की नियुक्ति के आदेश जारी हो गए थे. जब उन आदेशों की एक प्रतिलिपि मेरे पास आई और मैं ने नए निदेशक महोदय का नाम पढ़ा तो अनायास मेरे पांव के नीचे की जमीन मुझे धंसती सी लगी थी.
‘श्री रमेश कुमार.’
इस नाम के साथ बड़ी अप्रिय स्मृतियां जुड़ी हुई थीं. पर क्या ये वही सज्जन हैं? मैं सोचता रहा था और यह कामना करता रहा था कि ये वह न हों. पर यदि वही हुए तो…मैं सोचता और सिहर जाता. पर आज सुबह रमेश साहब ने अपने नए पद का भार ग्रहण कर लिया था. वे पूरे कार्यालय का चक्कर लगा कर अंत में मेरे कमरे में आए. मुझे देखा, पलभर को ठिठके और फिर उन की आंखों में परिचय के दीप जगमगा उठे.
‘‘कहिए सुधीर बाबू, कैसे हैं?’’ उन्होंने मुसकरा कर कहा.
‘‘नमस्कार साहब, आइए,’’ मैं ने चकित हो कर कहा. 10 वर्षों के अंतराल में कितना परिवर्तन आ गया था उन में. व्यक्तित्व कैसा निखर गया था. सांवले रंग में सलोनापन आ गया था. बाल रूखे और गरदन तक कलमें. कत्थई चारखाने का नया कोट. आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लग गया था. सकपकाहट के कारण मैं बैठा ही रह गया.
‘‘तुम अभी तक सैक्शन औफिसर ही हो?’’ कुछ क्षण मौन रहने के बाद उन्होंने प्रश्न किया. क्या सचमुच उन के इस प्रश्न में सहानुभूति थी अथवा बदला लेने की अव्यक्त, अपरोक्ष चेतावनी, ‘तो तुम अभी तक सैक्शन औफिसर हो, बच्चू, अब मैं आ गया हूं और देखता हूं, तुम कैसे तरक्की करते हो?’
‘‘सुधीर बाबू, तुम अधिकारी के सामने बैठे हो,’’ निदेशक महोदय के साथ आए प्रशासन अधिकारी के चेतावनीभरे स्वर को सुन कर मैं हड़बड़ा कर खड़ा हो गया. मन भी कैसा विचित्र होता है. चाहे परिस्थितियां बदल जाएं पर अवचेतन मन की सारी व्यवस्था यों ही बनी रहती है. एक समय था जब मैं कुरसी पर बैठा रहता था और रमेश साहब याचक की तरह मेरे सामने खड़े रहते थे.
‘‘कोई बात नहीं, सुधीर बाबू, बैठ जाइए,’’ कह कर वे चले गए. जातेजाते वे एक ऐसी दृष्टि मुझ पर डाल गए थे जिस के सौसौ अर्थ निकल सकते थे.
मैं चिंतित, उद्विग्न और उदास सा बैठा रहा. मेरे सामने मेज पर फाइलों का ढेर लगा था. फोन बजता और बंद हो जाता. पर मैं तो जैसे चेतनाशून्य सा बैठा सोच रहा था. मेरी अस्तित्वरक्षा अब असंभव है. रमेश यों छोड़ने वाला नहीं. इंसान सबकुछ भूल सकता है, पर अपमान के घाव पुर कर भी सदैव टीसते रहते हैं.
पर रमेश मेरे साथ क्या करेगा? शायद मेरा तबादला कर दे. मैं इस के लिए तैयार हूं. यहां तक तो ठीक ही है. इस के अलावा वह प्रत्यक्षरूप से मुझे और कोई हानि नहीं पहुंचा सकता था.
रमेश की नियुक्ति बड़े ही गलत समय पर हुई थी, इस वर्ष मेरी तरक्की होने वाली थी. निदेशक महोदय की विशेष गोपनीय रिपोर्ट पर ही मेरी पदोन्नति निर्भर करती थी. क्या उन अप्रिय घटनाओं के बाद भी रमेश मेरे बारे में अच्छी रिपोर्ट देगा? नहीं, यह असंभव है. मेरा मन बुझ गया. दफ्तर का काम करना मेरे लिए असंभव था. सो, मैं ने तबीयत खराब होने का कारण लिख कर, 2 दिनों की छुट्टी के लिए प्रार्थनापत्र निदेशक महोदय के पास पहुंचवा दिया. 2 दिन घर पर आराम कर के मैं अपनी अगली योजना को अंतिम रूप देना चाहता था. यह तो लगभग निश्चित ही था कि रमेश के अधीन इस कार्यालय में काम करना अपने भविष्य और अपनी सेवा को चौपट करना था. उस जैसा सिद्घांतहीन, झूठा और बेईमान व्यक्ति किसी की खुशहाली और पदोन्नति का माध्यम नहीं बन सकता. और फिर मैं? मुझ से तो उसे बदले चुकाने थे.
मुझे अच्छी तरह याद है. जब आईएएस का रिजल्ट आया था और रमेश का नाम उस में देखा तो मुझे खुशी हुई थी, पर साथ ही, मैं थोड़ा भयभीत हो गया था. रमेश ने पार्टी दी थी पर उस ने मुझे निमंत्रित नहीं किया था. मसूरी अकादमी में प्रशिक्षण के लिए जाते वक्त रमेश मेरे पास आया था. और वितृष्णाभरे स्वर में बोला था, ‘सुधीर, मेरी बस एक ही इच्छा है. किसी तरह मैं तुम्हारा अधिकारी बन कर आ जाऊं. फिर देखना, तुम्हारी कैसी रगड़ाई करता हूं. तुम जिंदगीभर याद रखोगे.’
कैसा था वह क्षण. 10 वर्षों बाद आखिर उस की कामना पूरी हो गई. यों, इस में कोई असंभव बात भी नहीं थी. रमेश मेरा अधिकारी बन कर आ गया था. जीवन में परिश्रम, लगन तथा एकजुट हो कर कुछ करना चाहो तो असंभव भी संभव हो सकता है, रमेश इस की जीतीजागती मिसाल था. वर्ष 1960 में रमेश इस संस्थान में क्लर्क बन कर आया था. मैं उस का अधिकारी था तथा वह मेरा अधीनस्थ कर्मचारी. रोजगार कार्यालय के माध्यम से उस की भरती हुई थी. मैं ने एक ही निगाह में भांप लिया कि यह नवयुवक योग्य है, किंतु कामचोर है. वह महत्त्वाकांओं की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है. वह स्नातक था और टाइपिंग में दक्ष. फिर भी वह दफ्तर के काम करने से कतराता था. मैं समझ गया कि यह व्यक्ति केवल क्लर्क नहीं बना रहेगा. सो, शुरू से ही मेरे और उस के बीच एक खाई उत्पन्न हो गई.
मैं अनुशासनपसंद कर्मचारी था, जिस ने क्लर्क से सेवा प्रारंभ कर के विभागीय पदोन्नतियों की विभिन्न सीढि़यां पार की थीं. कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं दी थी.पर रमेश अपने भविष्य की सफलताओं के प्रति इतना आश्वस्त था कि उस ने एक दिन भी मेरी अफसरियत को नहीं स्वीकारा था. वह अकसर दफ्तर देर से आता. मैं उसे टोकता तो वह स्पष्टरूप से तो कुछ नहीं कहता, किंतु अपना क्रोध अपरोक्षरूप से व्यक्त कर देता. काम नहीं करता या फिर गलत टाइप करता, सीट पर बैठा मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता. खाने की छुट्टी आधे घंटे की होती तो वह 2 घंटे के लिए गायब हो जाता. मैं उस से बहुत नाराज था. पर शायद उसे मेरी चिंता नहीं थी. सो, वह मनमानी किए जाता. उस ने मुझे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया.
एक दिन मैं ने दफ्तर के बाद रमेश को रोक लिया. सब लोग चले गए. केवल हम दोनों रह गए. मैं ने सोचा था कि मैं उसे एकांत में समझाऊंगा. शायद उस की समझ में आ जाए कि काम कितना अहम होता है. ‘रमेश, आखिर तुम यह सब क्यों करते हो?’ मैं ने स्नेहसिक्त, संयत स्वर में कहा था. ‘क्या करता हूं?’ उस ने उखड़ कर कहा था.
‘तुम दफ्तर देर से आते हो.’
‘आप को पता है, दिल्ली की बस व्यवस्था कितनी गंदी है.’
‘और लोग भी तो हैं जो वक्त से पहुंच जाते हैं.’
‘उस से क्या होता है. अगर मैं देर से आता हूं तो
2 घंटे का काम आधे घंटे में निबटा भी तो देता हूं.’
‘रमेश दफ्तर का अनुशासन भी कुछ होता है. यह कोई तर्क नहीं है. फिर, मैं तुम से सहमत नहीं कि तुम 2 घंटे का काम…’
‘मुझे बहस करने की आदत नहीं,’ कह कर वह अचानक उठा और कमरे से बाहर चला गया. मैं अपमानित सा, तिलमिला कर रह गया. रमेश के व्यवहार में कोई विशेष अंतर नहीं आया. अब वह खुलेआम दफ्तर में मोटीमोटी किताबें पढ़ता रहता था. काम की उसे कोई चिंता नहीं थी.एक दिन मैं ने उसे फिर समझाया, ‘रमेश, तुम दफ्तर के समय में किताबें मत पढ़ा करो.’
‘क्यों?’
‘इसलिए, कि यह गलत है. तुम्हारा काम अधूरा रहता है और अन्य कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता है.’
‘सुधीर बाबू, मैं आप को एक सूचना देना चाहता हूं.’
‘वह क्या?’
‘मैं इस वर्ष आईएएस की परीक्षा दे रहा हूं.’
‘तो क्या तुम्हारी उम्र 24 वर्ष से कम है?’
‘हां, और विभागीय नियमों के अनुसार मैं इस परीक्षा में बैठ सकता हूं.’
‘फिर तुम ने यह नौकरी क्यों की? घर बैठ कर…’
‘आप की दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में टांग अड़ाने की बुरी आदत है,’ उस ने कह तो दिया फिर पलभर सोचने के बाद वह बोला, ‘सुधीर बाबू, यों आप ठीक कह रहे हैं. मजा तो तभी है जब एकाग्रचित्त हो यह परीक्षा दी जाए. पर क्या करूं, घर की आर्थिक परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया.’
‘पर रमेश, यह बौद्धिक तथा नैतिक बेईमानी है. तुम इस कार्यालय में नौकरी करते हो. तुम्हें वेतन मिलता है. किंतु उस के प्रतिरूप उतना काम नहीं करते. तुम अपने स्वार्थ की सिद्धि में लगे हुए हो.’
‘जितने भी डिपार्टमैंटल खूसट मिलते हैं, सब को भाषण देने की बीमारी होती है.’
मैं ने तिलमिला कर कहा था, ‘रमेश, तुम में बिलकुल तमीज नहीं है.’
‘आप सिखा दीजिए न,’ उस ने मुसकरा कर कहा था.
मेरी क्रोधाग्नि में जैसे घी पड़ गया. ‘मैं तुम्हें निकाल दूंगा.’
‘यही तो आप नहीं कर सकते.’
‘तुम मुझे उकसा रहे हो.’
‘सुधीर बाबू, सरकारी सेवा में यही तो सुरक्षा है. एक बार बस घुस जाओ…’
मैं ने आगे बहस करना उचित नहीं समझा. मैं अपने को संयत और शांत करने का प्रयास कर रहा था कि रमेश ने एक और अप्रत्याशित स्थिति में मुझे डाल दिया.
‘सुधीर बाबू, मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं.’
‘पूछो.’
‘आखिर तुम अपने काम को इतनी ईमानदारी से क्यों करते हो?’
‘क्या मतलब?’
‘सरकार एक अमूर्त्त चीज है. उस के लिए क्यों जानमारी करते हो, जिस का कोई अस्तित्व नहीं, उस की खातिर मुझ जैसे हाड़मांस के व्यक्ति से टक्कर लेते रहते हो. आखिर क्यों?’
‘रमेश, तुम नमकहराम और नमकहलाल का अंतर समझते हो?’
‘बड़े अडि़यल किस्म के आदमी हैं, आप,’ रमेश ने मुसकरा कर कहा था.
‘तुम जरूरत से ज्यादा मुंहफट हो गए हो, मैं…’ मैं ने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे पर्याप्त धमकीभरा बना दिया था.
‘मैं…मैं…क्या करते हो? मैं जानता हूं, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते.’
बस, गाड़ी यों ही चलती रही. रमेश के कार्यकलापों में कोई अंतर नहीं आया. पर मैं ने एक बात नोट की थी कि धीरेधीरे उस का मेरे प्रति व्यवहार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक शालीन, संयत और अनुशासित हो चुका था. क्यों? इस का पता मुझे बाद में लगा.
रमेश की परक्षाएं समीप आ गईं. एक दिन वह सुबह ढाई महीने की छुट्टी लेने की अरजी ले कर आया. अरजी को मेरे सामने रख कर, वह मेरी मेज से सट कर खड़ा रहा.
अरजी पर उचटी नजर डाल कर मैं ने कहा, ‘तुम्हें नौकरी करते हुए केवल 8 महीने हुए हैं, 8-10 दिन की छुट्टी बाकी होगी तुम्हारी. यह ढाई महीने की छुट्टी कैसे मिलेगी?’
‘लीव नौट ड्यू दे दीजिए.’
‘यह कैसे मिल सकती है? मैं कैसे प्रमाणपत्र दे सकता हूं कि तुम इसी दफ्तर में काम करते रहोगे और इतनी छुट्टी अर्जित कर लोगे.’
‘सुधीर बाबू, मेरे ऊपर आप की बड़ी कृपा होगी.’
‘आप बिना वेतन के छुट्टी ले सकते हैं.’
‘उस के लिए मुझे आप की अनुमति की जरूरत नहीं. क्या आप अनौपचारिक रूप से यह छुट्टी नहीं दे सकते?’
‘क्या मतलब?’
‘मेरा मतलब साफ है.’
‘रमेश, तुम इस सीमा तक जा कर बेईमानी और सिद्धांतहीनता की बात करोगे, इस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. यह तो सरासर चोरी है. बिना काम किए, बिना दफ्तर आए तुम वेतन चाहते हो.’
‘सब चलता है, सुधीर बाबू.’
‘तुम आईएएस बन गए तो क्या विनाशलीला करोगे, इस की कल्पना मैं अभी से कर सकता हूं.’
‘मैं आप को देख लूंगा.’
‘‘सुधीर बाबू, आप को साहब याद कर रहे हैं,’’ निदेशक महोदय के चपरासी की आवाज सुन कर मेरी चेतना लौट आई भयावह स्मृतियों का क्रम भंग हो गया.
मैं उठा. मरी हुई चाल से, करीब घिसटता हुआ सा, मैं निदेशक के कमरे की ओर चल पड़ा. आगेआगे चपरासी, पीछेपीछे मैं, एकदम बलि को ले जाने वाले निरीह पशु जैसा. परिस्थितियों का कैसा विचित्र और असंगत षड्यंत्र था.
रमेश की मनोकामना पूरी हो गई थी. वर्ष पूर्व उस ने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो कर जो कुछ कहा था, उसे पूरा करने का अवसर उसे मिल चुका था. उस जैसा स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी, सिद्धांतहीन और निर्लज्ज व्यक्ति कुछ भी कर सकता है.
चपरासी ने कमरे का दरवाजा खोला. मैं अंदर चला गया. गरदन झुकाए और निर्जीव चाल से मैं उस की चमचमाती, बड़ी मेज के समीप पहुंच गया.
‘‘आइए, सुधीर बाबू.’’
मैं ने गरदन उठाई, देखा, रमेश अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ है और उस ने अपना दायां हाथ आगे बढ़ा दिया है, मुझ से हाथ मिलाने के लिए.
मैं ने हाथ मिलाया तो मुझे लगा कि यह सब नाटक है. बलि से पूर्व पशु का शृंगार किया जा रहा है.
‘‘सुधीर बाबू, बैठिए न.’’
मैं बैठ गया. सिकुड़ा और सिहरा हुआ सा.
‘‘क्या बात है? आप की तबीयत खराब है?’’
‘‘हां…नहीं…यों,’’ मैं सकपका गया.
‘‘इस अरजी में तो…’’
‘‘यों ही, कुछ अस्वस्थता सी महसूस हो रही थी.’’
‘‘आप कुछ परेशान और घबराए हुए से लग रहे हैं.’’
‘‘हां, नहीं तो…’’
अचानक, कमरे में एक जोर का अट्टहास गूंज गया.
मैं ने अचकचा कर दृष्टि उठाई. रमेश अपनी गुदगुदी घूमने वाली कुरसी में धंसा हुआ हंस रहा था.
‘‘क्या लेंगे, सुधीर बाबू, कौफी या चाय?’’
‘‘कुछ नहीं, धन्यवाद.’’
‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ कह कर रमेश ने सहायिका को 2 कौफी अंदर भेजने का आदेश दे दिया.
कुछ देर तक कमरे में आशंकाभरा मौन छाया रहा. फिर अनायास, बिना किसी संदर्भ के, रमेश ने हा, ‘‘10 वर्ष काफी होते हैं.’’
‘‘किसलिए?’
‘‘किसी को भी परिपक्व होने के लिए.’’
‘‘मैं समझा नहीं, आप क्या कहना चाहते हैं.’’
‘‘10-12 वर्षों के बाद इस दफ्तर में आया हू. देखता हूं, आप के अलावा सब नए लोग हैं.’’
‘‘जी.’
‘‘आखिर इतने लंबे अरसे से आप उसी पद पर बने हुए हैं. तरक्की का कोई मौका नहीं मिला.’’
‘‘इस साल तरक्की होने वाली है. आप की रिपोर्ट पर ही सबकुछ निर्भर करेगा, सर,’’ न जाने किस शक्ति से प्रेरित हो, मैं यंत्रवत कह गया.
रमेश सीधा मेरी आंखों में झांक रहा था, मानो कुछ तोल रहा हो. मैं पछता रहा था. मुझे यह सब नहीं कहना चाहिए था. अब तो इस व्यक्ति को यह अवसर मिल गया है कि वह…
तभी चपरासी कौफी के 2 प्याले ले आया.
‘‘लीजिए, कौफी पीजिए.’
मैं ने कौफी का प्याला उठा कर होंठों से लगाया तो महसूस हुआ जैसे मैं मीरा हूं, रमेश राणा और प्याले में काफी नहीं, विष है.
‘‘सुधीर बाबू, आप की तरक्की होगी. दुनिया की कोईर् ताकत एक ईमानदार, परिश्रमी, नमकहलाल, अनुशासनप्रिय कर्मचारी की पदोन्नति को नहीं रोक सकती.’’ मैं अविश्वासपूर्वक रमेश की ओर देख रहा था. विष का प्याला मीठी कौफी में बदलने लगा था.
‘‘मैं आप की ऐसी असाधारण और विलक्षण रिपोर्ट दूंगा कि…’’
‘‘आप सच कह रहे हैं?’’
‘‘सुधीर बाबू, शायद आप बीते दिनों को याद कर के परेशान हो रहे हैं. छोडि़ए, उन बातों को. 10-12 वर्षों में इंसान काफी परिपक्व हो जाता है. तब मैं एक विवेकहीन, त्तरदायित्वहीन, उच्छृंखल नवयुवक, अधीनस्थ कर्मचारी था और अब मैं विवेकशील, उत्तरदायित्वपूर्ण अधिकारी हूं और समझ सकता हूं कि… तब और अब का अंतर?’’ हां, एक सुपरवाइजर के रूप में आप कितने ठीक थे, इस सत्य का उद्घाटन तो उसी दिन हो गया था, जब मैं पहली बार सुपरवाइजर बना था.’’ रमेश ने मेरी छुट्टी की अरजी मेरी ओर सरका दी और बोला, ‘‘अब इस की जरूरत तो नहीं है.’’
मैं ने अरजी फाड़ दी. फिर खड़े हो कर मैं विनम्र स्वर में बोला, ‘‘धन्यवाद, सर, मैं आप का बहुत आभारी हूं. आप महान हैं.’’
और रमेश के होंठों पर विजयी व गर्वभरी मुसकान बिछ गई.
मैं आज की शाम, बल्कि जिंदगीभर के लिए बेइज्जत तो हो ही गई. बताओ, मैं अब अपने पिताजी को जा कर क्या जवाब दूं? तुम ने मेरी जिंदगी का सुनहरा सपना क्यों चूरचूर कर दिया? मैं क्या समझती थी कि तुम मुझे धोखा दे रहो हो,’’ नफरत की तड़पभरी चिनगारी आंखों में भरे उस ने आगे कहा, ‘‘एक मामूली मजदूर ही नहीं, लुटेरे भी हो तुम… जाओ, अपनी जिंदगी का रास्ता बदलो और अब मेरे पीछे कभी मत आना… ‘‘तुम ने मेरी जान बचाई थी कभी तो उस की कीमत इस तरह लेना चाहते थे? मुझ से कहे होते तो पिताजी से कह कर मैं तुम्हें हजारों रुपए दिलवा देती…’’ इतना बोल कर ही ऊषा का गुस्सा शांत न हो सका था. घायल शेरनी सी बिफरती हुई बोली थी वह, ‘‘तुम ने झूठ क्यों कहा मुझ से कि तुम एक इंजीनियर हो, जबकि तुम हो एक साधारण मजदूर से भी गएबीते एक खरादिए भर हो, चीकट कपड़े पहन कर काम करने वाला… परफ्यूम लगा लेने या ब्रांडेड कपड़े पहन लेने से कोई न तो इंजीनियर बन जाता है और न रईस या बड़ा आदमी. जरूर तुम किसी निचली जाति के भी हो, मेरी तरह राजपूत पिता की संतान नहीं. जाओ, आज से आग लगा दो अपनी सारी टीशर्टों को,’’ कह कर वह सड़क पार कर गई थी. सच तो यह?है कि ‘ऊषा’ मेरे जीवन की
‘अंधेरी रात’ बन गई थी. उस समय ऐसा लग रह था, जैसे किसी ने मेरा दिल मुट्ठी में भींच रखा हो. मेरी दोनों कनपटियां बज रही थीं. चारों ओर जैसे एक ही आवाज गूंज रही थी, ‘चले जाओ धोखेबाज… आग लगा दो अपनी टाइयों को. मैं तुम से नफरत करती हूं… नफरत.’ फिर उस के बाद ऊषा मुझे नहीं मिली. शायद, उस ने वह काम छोड़ दिया था या शहर ही. कभीकभार मेरी नजरें उसे अब भी खोजती हैं ऐसे दिलकश मौसम में, यही मेरी उदासी का राज है. हां, उस के बाद मैं ने सलमा से शादी कर ली. शुरूशुरू में कुछ हल्ला हुआ, पर बाद में सब चुप हो गए, क्योंकि हम दोनों के घरों का रहनसहन एक सा था.
मेरे दिल में कसक तो रही कि ऊषा नहीं मिली, पर सलमा की वजह से आज मेरा छोटा सा अपना कारखाना है, जिस में 20-25 लोग काम करते हैं. मेरे कारखाने के सारे मजदूर जब बाहर निकलते हैं, तो वे पूरे बाबू लगते हैं. सलमा के साथ शादी करने पर समझ आया कि जो खाई है वह हिंदूमुसलिम की कम, पैसे की और जाति की ज्यादा है. सलमा समझ नहीं पाती कि आखिर उस पेड़ से मेरा क्या संबंध है. उसे समझा कर करूंगा भी क्या.
‘‘समय हमेशा एक सा तो नहीं रहता न भाभी. पीयूष भैया का सदमा पापा सह नहीं सके. पक्षाघात का शिकार हो गए. जो कुछ भविष्य निधि मिली उन के इलाज और अमला दीदी के विवाह में खर्च हो गई. पेंशन से फ्लैट की कि स्त दें या घर का खर्च चलाएं. उस पर रोहित भैया की डाक्टरी की पढ़ाई. रोहित भैया पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने जा रहे थे. मैं ने ही कहा कि मैं तो प्राइवेट पढ़ाई भी कर सकती हूं. रोहित भैया ने पढ़ाई पूरी कर ली तो पूरे परिवार का सहारा बन जाएंगे. इसीलिए नौकरी कर ली. 7 हजार भी बड़ी रकम लगती है आजकल,’’ पूरी कहानी बताते हुए रो पड़ी थी मानसी.
‘‘इतना सब हो गया और तुम लोगों ने मुझे सूचित तक नहीं किया. एकदम से पराया कर दिया अपनी भाभी को?’’ सुहासिनी के नेत्र डबडबा आए थे.
‘‘पराया तो आप ने कर दिया, भाभी. भैया क्या गए आप भी हमें भूल गईं और जैसे ही आप घर छोड़ कर गईं मां तो बिलकुल बुझ सी गई हैं. सदा एक ही बात कहती हैं, ‘मैं ने सुहासिनी को अपनी बहू नहीं बेटी समझा था पर उस ने तो पीयूष के बाद पलट कर भी नहीं देखा.’ टीना को देखने को तड़पती रहती हैं. उस के जन्मदिन पर बधाई देना चाहती थीं पर पापा ने मना कर दिया. कहने लगे, आप सोचेंगी कि पैसे के चक्कर में बच्ची को बहका रहे हैं ससुराल वाले,’’ मानसी किसी प्रकार अपने आंसू रोकने का प्रयत्न करने लगी थी.
सुहासिनी ने खाने के लिए जो हलकाफुलका, मंगाया था वैसे ही पड़ा रहा. चाय भी ठंडी हो गई पर दोनों में से किसी ने छुआ तक नहीं.
‘‘मुझे घर छोड़ दो, भाभी. मां सदा यही सोचती रहती हैं कि कहीं कुछ अशुभ न घट गया हो,’’ मानसी उठ खड़ी हुई थी.
सुहासिनी मानसी को बाहर से ही छोड़ कर चली आई थी. घर के अंदर जा कर किसी का सामना करने का साहस उस में नहीं था. वैसे भी कहीं एकांत में बैठ कर फूटफूट कर रोने का मन हो रहा था उस का. अनजाने में ही कैसा अन्याय हो गया था उस से.
पीयूष की पत्नी होने के नाते ही उसे मुआवजा मिला था. उसी के स्थान पर नौकरी मिली थी और वह सारे बंधन तोड़ कर मुंह फेर कर चली आई थी.
‘‘लो, आ गईं महारानी,’’ सुहासिनी को देखते ही मां ने ताना कसा था.
‘‘क्यों, क्या हुआ? आप इतने क्रोध में क्यों हैं,’’ सुहासिनी ने पूछ ही लिया था.
पूजा सुबह से गुमसुम बैठी थी. आज उस की छोटी बहन आरती दिल्ली से वापस लौट रही थी. उस को आरती के वापस आने की सूचना रात को ही मिल चुकी थी. साथ ही इस बात की भनक भी मिल गई थी कि लड़के ने आरती को पसंद कर लिया है और आरती ने भी अपने विवाह की स्वीकृति दे दी है. उस को लगा था कि इस स्वीकृति ने न केवल उस के साथ अन्याय ही किया?है, बल्कि उस के भविष्य को भी तहसनहस कर डाला है.
पूजा आरती से 4 वर्ष बड़ी?थी लेकिन आरती अपने स्वभाव, रूप एवं गुणों के कारण उस से कहीं बढ़ कर थी. वह एक स्कूल में अध्यापिका थी. विवाह में देरी होने के कारण पूजा का स्वभाव काफी चिड़चिड़ा हो गया था. हर किसी से लड़ाईझगड़ा करना उस की आदत बन चुकी थी.
उन के पिता दोनों पुत्रियों के विवाह को ले कर अत्यंत चिंतित थे. इसलिए बड़े बेटों को भी उन्होंने विवाह की आज्ञा नहीं दी थी. उन्हें भय था कि पुत्र अपने विवाह के पश्चात युवा बहनों के विवाह में दिलचस्पी ही नहीं लेंगे. पितापुत्र आएदिन अखबारों में पूजा के विवाह के लिए विज्ञापन देते रहते. कभी पूजा के मातापिता, कभी पूजा स्वयं लड़के को और कभी पूजा को लड़के वाले नापसंद कर जाते और बात वहीं की वहीं रह जाती.
वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए, लेकिन पूजा का विवाह तय नहीं हो पाया. वह अब पड़ोस में जा कर आरती की बुराइयां करने लगी थी.
एक दिन पूजा सामने वाली उषा दीदी के घर जा कर रोने लगी, ‘‘दीदी, मेरे लिए जितने भी अच्छे रिश्ते आते हैं वे सब मुझे ठुकरा कर आरती को पसंद कर लेते हैं. इसीलिए मुझे आरती की शक्ल से भी नफरत हो गई है. मैं ने भी पक्का फैसला कर रखा है कि जब तक मेरा विवाह नहीं होगा, मैं आरती का विवाह भी नहीं होने दूंगी.’’
उषा दीदी पूजा को समझाने लगीं, ‘‘यदि तुम्हारे विवाह से पहले आरती का विवाह हो भी जाए तो क्या हर्ज है? शायद आरती की ससुराल की रिश्तेदारी में तुम्हारे लिए भी कोई अच्छा वर मिल जाए. ऐसे जिद कर के आरती का जीवन बरबाद करना उचित नहीं.’’
लेकिन पूजा का एक ही तर्क था, ‘जब मैं बरबाद हो रही हूं तो दूसरों को क्यों आबाद होने दूं.’
2 वर्ष तक लाख जतन करने के बाद भी जब पूजा का विवाह निश्चित नहीं हुआ तो वह काफी हद तक निराश हो गई थी.
आरती अध्यापन कार्य करने के पश्चात शाम को घर पर भी ट्यूशन पढ़ा कर अपनेआप को व्यस्त रखती.
पूजा सुबह से शाम तक मां के साथ घरगृहस्थी के कार्यों में उलझी रहती. वह यह भी भूल गई थी कि अधिक पकवान, चाटपकौड़ी खाने से उस का शरीर बेडौल होता जा रहा?था.
लोग पूजा को देख कर हंसते तो वह कुढ़ कर कहती, ‘‘बाप की कमाई खा रही हूं, जलते हो तो जलो लेकिन मेरी सेहत पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा.’’
पिता ने हार कर अपने दोनों बड़े पुत्रों की शादियां कर दी?थीं.
बड़े बेटे का एक मित्र मनोज उन के परिवार का बड़ा ही हितैषी?था. उस ने आरती से शादी करने के लिए अपने एक अधीनस्थ सहयोगी को राजी कर लिया था.
मनोज ने आरती के पिता से कहा, ‘‘चाचाजी, आप चाहें तो आरती का रिश्ता आज ही तय कर देते हैं.’’
पिता ने उत्तर दिया, ‘‘बेटा, आरती तुम्हारी अपनी बहन है. मैं कल ही किसी बहाने आरती को तुम्हारे साथ अंबाला भेज दूंगा.’’
चूंकि मनोज का परिवार भी अंबाला में रहता था, इसलिए आरती के बड़े भाई तथा मनोज के परिवार के लोगों ने ज्यादा शोर किए बगैर आरती के शगुन की रस्म अदा कर दी. विवाह की तारीख भी निश्चित कर दी.
चंडीगढ़ में पूजा को इस संबंध में कुछ नहीं बताया गया था. घर में सारे कार्य गुप्त रूप से किए जा रहे थे, ताकि पूजा किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर सके.
अचानक एक दिन पूजा को एक पत्र बरामदे में पड़ा हुआ मिला. वह उत्सुकतावश पत्र को एक सांस में ही पढ़ गई. पत्र के अंत में लिखा था, ‘आरती की गोदभराई की रस्म के लिए हम लोग रविवार को 4 बजे पहुंच रहे हैं.’
पढ़ते ही पूजा के मन में जैसे हजारों बिच्छू डंक मार गए. उस से झूठ बोला गया कि अंबाला में मनोज के बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से आरती को वहां भेजा गया था. उसे लगा कि इस घर के सब लोग बहुत ही स्वार्थी हैं. उस ने पत्र से अंबाला का पता डायरी में लिखा और पत्र को फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया.
2 दिन के पश्चात लड़के के पिता के हाथ में एक चिट्ठी थी, जिस में लिखा था, ‘आरती मंगली लड़की है. यदि इस से आप ने पुत्र का विवाह किया तो लड़का शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होगा.’
पत्र पढ़ते ही उस परिवार में श्मशान जैसी खामोशी छा गई. वे लोग सीधे मनोज के घर पहुंच गए. लड़के के पिता गुस्से से बोले, ‘‘आप जानते थे कि लड़की मंगली है, फिर आप ने हमारे परिवार को ही बरबाद करने का क्यों निश्चय किया? मैं इस रिश्ते को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकता.’’
मनोज ने उन लोगों को समझाने का काफी प्रयत्न किया, लेकिन बिगड़ी बात संवर न सकी.
चंडीगढ़ से पूजा के बड़े भाई को अंबाला बुला कर सारी स्थिति से अवगत कराया गया. पत्र देखने पर पता चला कि यह पूजा की लिखावट नहीं है. उस के पास तो अंबाला का पता ही नहीं था और न ही आरती के रिश्ते की बात की उसे कोई जानकारी थी.
चंडीगढ़ आने पर बड़े भैया उदास एवं दुखी थे. पूजा से इस बात की चर्चा करना बेकार था. घर का वातावरण एक बार फिर खामोश हो चुका था.
उषा दीदी की बड़ी लड़की नीलू, पूजा से सिलाई सीखने आती थी. एक दिन कहने लगी, ‘‘पूजा दीदी, आप ने जो चिट्ठी किसी को बेवकूफ बनाने के लिए लिखवाई थी, उस का क्या हुआ?’’
आरती के कानों में इस बात की भनक पड़ गई और वह झटपट मां तथा?भाई को बताने भाग गई.
2 दिन पश्चात पूजा की मां ने उषा के घर जा कर नीलू से सारी बात उगलवा ली कि पूजा दीदी ने ही मनोज भाई साहब के रिश्तेदारों को तंग करने के लिए उस से चिट्ठी लिखवाई थी.
आरती और पूजा में बोलचाल बंद हो गई लेकिन फिर धीरेधीरे घर का वातावरण सामान्य हो गया. पूजा और आरती चुपचाप अपनेअपने कामों में लगी रहतीं.
आरती स्कूल जाती और फिर शाम को ट्यूशन पढ़ाती.
पूजा उसे अच्छेअच्छे कपड़ोंजेवरों में देख कर कुढ़ती और फिर उस का गुस्सा उतरता अपनी भाभियों तथा बूढ़े पिता पर, ‘‘मैं पैदा ही तुम्हारी गुलामी करने के लिए हुई थी. क्यों नहीं रख लेते मेरे स्थान पर एक माई.’’
स्कूल की अध्यापिकाएं आरती को समझातीं, ‘‘अब भी समय है, यदि कोई लड़का तुम्हें पसंद कर ले तो तुम स्वयं ही कोशिश कर के विवाह कर लो.’’
आरती की एक सखी ने अपने ममेरे भाई के लिए उसे राजी कर लिया था और उस के साथ स्वयं दिल्ली जा कर उस का विवाह तय कर आई थी.
आरती की शादी की बात पूजा को बता दी गई थी. पूजा ने केवल एक ही शर्त रखी थी, ‘आरती की शादी में जितना खर्च होगा, उस से दोगुना धन मेरे नाम से बैंक में जमा कर दो ताकि मैं अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाऊं.’
विवाह का दिन नजदीक आता जा रहा था. बाहरी रूप से पूजा एकदम सामान्य दिखाई दे रही थी. पिता ने मोटी रकम पूजा के नाम बैंक में जमा करवा दी थी. आरती को उपहार देने के लिए पूजा ने अपने विवाह के लिए रखी हुई 2 बेहद सुंदर चादरें व गुड्डेगुडि़या का जोड़ा निकाल लिया था तथा छोटीमोटी अन्य कई कशीदाकारी की चीजें भी थीं.
आरती के विवाह का दिन आ गया. पूजा सुबह से ही भागदौड़ में लगी थी. घर मेहमानों से खचाखच भरा था, इसलिए दहेज के सामान का कमरा ऊपर की मंजिल पर निश्चित हुआ था और विदा से पूर्व दूल्हादुलहन उस में आराम भी कर सकते थे. उस कमरे की चाबी आरती की बड़ी भाभी को दे दी गई थी.
पूजा ने सामान्य सा सूट पहन रखा था. उस की मां ने 2-3 बार गुस्से से उसे डांटा भी, ‘‘आज भी ढंग के कपड़े नहीं पहनने तो फिर 4 सूट बनवाने की जरूरत ही क्या थी?’’
पूजा ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘अब सूट बदलने का क्या फायदा. मुझे कई काम निबटाने हैं.’’
मां बड़ी खुश हुईं कि इस के मन में कोई मलाल नहीं. बेचारी कितनी भागदौड़ कर रही?है.
पूजा अपने कमरे में बारबार आजा रही थी. भाभी समझ रही थीं कि शायद मां उसे ऊपर काम के लिए भेज रही हैं और आरती समझ रही थी कि शायद अधूरे काम पूरे कर रही है.
दरअसल, पूजा अपने दहेज के लिए सहेज कर रखी हुई सब चीजों को छिपाछिपा कर बांध रही थी. यहां तक कि उस ने अपने जेवर भी डब्बों में बंद कर दिए थे.
बरात आने में केवल 1 घंटा शेष रह गया था. आरती को मेकअप के लिए ब्यूटी पार्लर भेज दिया गया था और पूजा घर में ही अपनेआप को संवारने लगी थी. उस ने बढि़या सूट पहना और शृंगार इत्यादि कर के पंडाल में पहुंच गई. सब रिश्तेदारों से हंसहंस कर बतियाती रही.
निश्चित समय पर बरात आई तो बड़े चाव से पूजा आरती को जयमाला के लिए मंच पर ले गई. इस के पश्चात पूजा किसी बहाने से भाभी से चाबी ले कर पंडाल से खिसक गई.
बरात ने खाना खा लिया तो घर के लोग भी खाना खाने में व्यस्त हो गए. अचानक बड़ी?भाभी को खयाल आया कि पूजा ने अभी खाना नहीं खाया. उसे बुलवाने किसी बच्चे को भेजा तो पता चला कि पूजा ऊपर वाला कमरा ठीक कर रही है. थोड़ी देर बाद आ जाएगी.
काफी देर बाद भी पूजा नीचे नहीं उतरी तो मां स्वयं उसे बुलाने ऊपर पहुंच गईं. तब पूजा ने कहा, ‘‘मैं दूल्हादुलहन का कमरा ठीक कर रही हूं. 5 मिनट का काम बाकी है.’’
मां और दूसरे लोग नीचे फेरों की तैयारी में व्यस्त हो गए.
रात 1 बजे तक फेरे भी पूरे हो चुके थे, लेकिन पूजा नीचे नहीं आई थी. घर के लोग डर रहे थे कि बारबार बुलाने से शायद वह गुस्सा न कर बैठे और बात बाहर के लोगों में फैल जाए. इसलिए सभी अपनेआप को काबू में रखे हुए थे.
दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए भेजा जाने लगा तो भाभी ने सोचा कि पहले वह जा कर कमरा देख ले. जैसे ही भाभी ने दरवाजा खोला तो सामने बिस्तर पर फूल इत्यादि बिखरे पड़े थे. साथ ही एक लिफाफा भी रखा हुआ था.
पत्र आरती के नाम था, ‘प्रिय आरती, मैं ने अपनी सभी प्यारी चीजें तुम्हारे विवाह के लिए बांध दी हैं. अपने पास कुछ भी नहीं रखा. पैसा भी पिताजी को लौटा रही हूं. केवल मैं अकेली ही जा रही हूं. पूजा.’
भाभी ने पत्र पढ़ लिया, लेकिन उसे किसी को भी नहीं दिखाया और वापस आ कर दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए उस कमरे में ले गई.
थोड़ी देर बाद अचानक ही आरती भाभी से पूछ बैठी, ‘‘भाभीजी, पूजा दिखाई नहीं दे रही. क्या सो गई है?’’
भाभी ने कहा, ‘‘हां, मैं ने ही सिरदर्द की गोली दे कर उसे अपने कमरे में भिजवा दिया है. थोड़ी देर बाद ऊपर आ जाएगी.’’
भाभी दौड़ कर पति के पास पहुंची और उन्हें छिपा कर पत्र दिखाया. पत्र पढ़ कर उन्हें पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी.
बड़े भैया सोचने लगे कि अगर मातापिता से बात की तो वे लोग घबरा कर कहीं शोर न मचा दें. अभी तो आरती की विदाई भी नहीं हुई. भैयाभाभी ने सलाह की कि विदा तक कोई बहाना बना कर इस बात को छिपाना ही होगा.
विदाई की सभी रस्में पूरी की जा रही थीं कि मां ने 2-3 बार पूजा को आवाज लगाई, लेकिन भैया ने बात को संभाल लिया और मां चुप रह गईं.
सुबह 8 बजे बरात विदा हो गई. आरती ने सब से गले मिलते हुए पूजा के बारे में पूछा तो भाभी ने कहा, ‘‘सो रही है. कल शाम को तेरे घर पार्टी में हम सब पहुंच ही रहे हैं. फिर मिल लेना.’’
बरात के विदा होने के बाद अधिकांश मेहमान भी जाने की तैयारी में व्यस्त हो गए.
10 बजे के लगभग बड़े भैया पिताजी को सही बात बताने का साहस जुटा ही रहे थे कि सामने वाली उषा दीदी का नौकर आया, ‘‘भाभीजी, मालकिन बुला रही हैं. जल्दी आइए.’’
भाभी तथा भैया दौड़ कर वहां पहुंचे. वहां उषा दीदी और उन के पति गुमसुम खड़े थे. पास ही जमीन पर कोई चीज ढकी पड़ी थी. उषा तो सदमे से बुत ही बनी खड़ी थी. उन के पति ने बताया कि नौकर छत पर कपड़े डालने आया तो पूजा को एक कोने में लेटा देख कर घबरा कर नीचे दौड़ा आया और उस ने बताया कि पूजा दीदी ऊपर सो रही?हैं लेकिन यहां आ कर कुछ और ही देखा.
बड़े भैया ने पूजा के ऊपर से चादर हटा दी. उस ने कोई जहरीली दवा खा कर आत्महत्या कर ली थी.
समीप ही एक पत्र भी पड़ा हुआ था. लिखा था :
‘पिताजी जब तक आप के पास यह पत्र पहुंचेगा तब तक मैं बहुत दूर जा चुकी होंगी. आरती को तो आप ने केवल विदा ही किया है, लेकिन मैं आप को अलविदा कह रही हूं. मैं आरती के विवाह में सम्मिलित नहीं हुई, इसलिए मेरी विदाई में उसे न बुलाया जाए.
आप की बेटी पूजा.’
मांबाप और भाइयों को दुख था कि पूजा को पालने में उन से कहीं गलती हो गई थी, जिस से वह इतनी संवेदनशील और जिद्दी हो गई थी और अपनी छोटी बहन से ही जलने लगी थी. उन्हें लगा कि अगर वे कहीं सख्ती से पेश आते तो शायद बात इतनी न बिगड़ती. पूजा न केवल बहन से ही, बल्कि पूरे घर से ही कट गई थी.
जिस लड़की ने जीते जी उन की शांति भंग कर रखी थी, उस ने मृत्यु के बाद भी कैसा अवसाद भर दिया था, उन सब के जीवन में.
अपनी बातों के दरम्यान वह आमतौर पर हम का ही इस्तेमाल करती थी. अपनी उम्र से कहीं ज्यादा समझदार थी. कभी मूड में होती थी तो मजे की बातें करती थी, वरना आमतौर पर मेरे सामने आ कर बैठ जाती थी और बड़ीबड़ी आंखों से एकटक देखा करती थी. मेरे अलावा उस घर में कभीकभार एक लड़का दिखाई दिया करता था. उस का नाम नासिर था.
मुझे यह नहीं मालूम था कि उस का घर से क्या रिश्ता है मगर वह बड़ी बेतकल्लुफी से शाहीना से बात किया करता था. शाहीना ने बस सिर्फ इतना बताया था कि वो उन का रिश्तेदार है. कई बार मन होता कि उस से सवाल करूं कि रिश्ता क्या है? मगर यह सोच कर छोड़ दिया कि मुझे पेड़ गिनने से क्या मतलब?
शाहीना मुझ पर मरती थी. जेब कभी खाली नहीं रहती थी. तनख्वाह 2 सौ रुपए थी. 100 रुपए अब्बू ऐंठ लिया करते थे, 50 अम्माजी की भेंट चढ़ जाते थे. मेरे हिस्से में केवल 50 रुपए रह जाते थे. खुद सोच लें कि एक आवारागर्द लड़के को कितने दिन मजे से रख सकते थे.
महीने के शुरू के दिनों में ही जेब खाली हो जाती थी. शाहीन को मैं ने अपनी आर्थिक स्थिति शुरू में ही बता दी थी कि मैं फोरेस्ट डिपार्टमैंट में काम करने वाले एक मामूली से नौकर की छठी औलाद हूं.
बाप अपनी 3 बहनों और 2 बेटियों की शादी करने के बाद बिलकुल कंगाल हो चुका है. इसलिए मेरी तालीम के खर्चे बड़ी मुश्किल से पूरे हो पाते हैं. अम्मी अकसर बीमार रहती हैं. उन का अच्छी तरह इलाज नहीं हो सका है. रिजल्ट के बाद प्राइवेट तौर पर इम्तिहान की तैयारी करूंगा. अच्छी नौकरी मेरी जिंदगी का मकसद है.
मौजूदा नौकरी टैंपरेरी है किसी भी समय जवाब मिल सकता है. जब तक तुम्हारे अब्बू मेहरबान हैं, हमारा गुजारा हो रहा है. जैसे ही उन्हें पता चलेगा कि उन की बेटी से इश्क फरमाने लगा हूं, वो मुझे नौकरी से निकाल बाहर करेंगे. इस से पहले कि यह स्थिति आ जाए मैं खुद यह नौकरी छोड़ना चाहता हूं.
शाहीना मेरी दर्द भरी कहानी सुन कर मेरी मोहब्बत पर और जोर से ईमान ले आई. वो चुपकेचुपके मेरी जेब में सौपचास के नोट डाल दिया करती थी. कभी सूट का कपड़ा खरीद लाती तो कभी पतलून, टाई तोहफे में दे देती.
3 महीने बाद मेरा रिजल्ट आ गया. मैं थर्ड डिविजन में पास हो गया था. औफिस में मिठाई बांटी. वहीद साहब ने बुलवा लिया. मुबारकबाद दी. कहने लगे, ‘‘मियां, माशा अल्लाह होनहार हो. इम्तिहान में निकल गए यहां मीटिंग होने वाली है, देखते हैं तुम्हारा मुकद्दर यहां भी चमकता है या नहीं. अगर तुक्का चल गया तो तनख्वाह भी बढ़ जाएगी और नौकरी भी पक्की हो जाएगी.’’
मुझ से मीठी बातें करने के बाद उन्होंने तोते की तरह आंखें फेर लीं. हुआ यह कि उन के रिश्तेदार ने भी इंटर पास किया था. वह सिफारिश के लिए उन के पास आ गया. वहीद साहब ने चुपकेचुपके उसे अपने पास रखने का फैसला कर लिया. मुझे पता ही नहीं चलने दिया. मेरी वह रिपोर्ट जो कुछ दिनों बाद मीटिंग में पेश करनी थी, रातोंरात बदल दी.
मुझे इस काम के लिए अयोग्य और गैरजिम्मेदार करार दे कर फौरी तौर पर नौकरी से अलग करने की सिफारिश के साथ दूसरी रिपोर्ट मीटिंग में पेश कर दी. औफिस में दूसरे लोग पहले से ही मुझ से जलते थे कि हर समय साहब के घर के चक्कर काटता रहता है. औफिस का काम करता ही कहां था.
वहीद साहब ने मुझे अपना पीए बना डाला और इस का बदला भी कुछ नहीं मिला. आखिरी समय तक उन्होंने मुझे धोखे में रखा. यही कहते रहे कि फिक्र न करो मियां तुम्हारी नौकरी पक्की करवा देंगे.
मीटिंग हुई. मुझे पूरी उम्मीद थी कि नौकरी भी पक्की होगी और पैसे भी बढ़ेंगे. अपने तौर पर सारी काररवाई बड़े ही खुफिया तरीके से हो रही थी. जैसे ही मीटिंग खत्म हुई, मैं वहीद साहब से मिलने के लिए बेचैन हो गया. वो नहीं मिले, सीधे घर चले गए. मैं घर पहुंचा. पता चला कि किसी काम से बाहर गए हुए हैं.
औफिस आया तो नक्शा ही बदला हुआ था. हर जुबान पर मेरी नौकरी खत्म होने का जिक्र था. जूनियर एकाउंटेट ने बुला कर मुझे सारी सच्चाई बता दी कि वहीद साहब ने तुम्हारे साथ ज्यादती की है.
मेरे तनबदन में आग लग गई. उन्होंने ए टू जैड तक मीटिंग की सारी काररवाई सुना दी. कहने लगे, ‘वह बड़े काइयां हैं. देखना, वो तुम से मिलना भी गवारा नहीं करेंगे. उन्होंने मीटिंग के बाद उस लड़के का अपौइंटमेंट लैटर भी टाइप करवा लिया है, जिसे वह तुम्हारी जगह रखना चाहते हैं. यह लड़का नासिर उन का रिश्तेदार है.’
मेरे कानों की लौएं गरम हो गईं. नासिर को मैं ने उन के घर भी देखा था. इस का मतलब यह हुआ कि दोनों बापबेटी मुझे उल्लू बना रहे थे. वहीद साहब ने उसे नौकरी दिलवाई है. बेटी उसे बहुत लिफ्ट देती है. अब मेरी जगह नासिर वहां जाया करेगा.
अगर इस समय शाहीना इस खेल में शरीक न थी तो क्या हुआ. चंद दिनों बाद वो भी जैनब की तरह पटरी बदल कर नए रास्ते पर चल निकलेगी. लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. मुझे वहीद साहब को ऐसा मजा चखाना होगा कि वह भी याद रखें.
अगले दिन सूरज डूबने के वक्त वहीद साहब के घर पहुंचा, मुझे मालूम था कि इस वक्त बच्चों सहित वह सैर के लिए किसी छोटे पार्क में जाते हैं और घर पर शाहीना अकेली होती है.
मेरा पैगाम पहुंचते ही वह बेकरारी से बाहर निकल आई. कहने लगी, ‘कमाल के आदमी हैं आप, सुना है कल आए थे. बाहर से ही अब्बू को पूछा और चल दिए, हम इंतजार करते ही रह गए. हमें आप से बहुत जरूरी बात करनी थी.’
वह मुझे अंदर ले आई. घर में उस के सिवा और कोई न था. कहने लगी, ‘वो लोग अभी सैर के बाद लौट आएंगे. हम फिर शायद इतनी आजादी के साथ आप से न मिल सकें. अब्बू हमारी शादी नासिर से करना चाहते हैं. वह अब्बू का भांजा है. हमें इस रिश्ते पर कोई ऐतराज न होता अगर आप से पहले वादा न किया होता. हम वादा निभाने वालों में से हैं. बताइए, आप हम से शादी करेंगे या यों ही दिल्लगी कर रहे थे.’
लड़की की इस साफगोई से पसीने छूट गए. मगर यह हिम्मत दिखाने का मौका था. मैं ने कहा, ‘मैं तुम्हें अपनी जिंदगी का साथी बनाना चाहता था, मगर तुम्हारे अब्बू साहब ने सब कुछ चौपट कर दिया. उन्होंने मुझे नौकरी से निकलवा दिया है और नासिर को मेरी जगह रख लिया है.’
वह बोली, ‘यह तो और भी अच्छा हुआ. अब्बू साहब हमारी यह ख्वाहिश कभी पूरी नहीं करेंगे. वह नासिर से भी कहते रहते हैं कि यह लड़की तुम्हारा सुकून बरबाद कर देगी. हम सचमुच उन का सुकून बरबाद कर के छोड़ेंगे, आप हमारे साथ चलने को तैयार हो जाइए.
‘हम दोनों यह शहर छोड़ कर मुंबई चले जाएंगे. आप वहां नौकरी तलाश कर के हमारे लिए छोटा सा घर बना दें, हम सारी उम्र आप के कदमों में बसर करेंगे. इस घर से अब हमें नफरत होने लगी है.’
ओह, तो साहबजादी मेरे साथ भागने के मंसूबे बना रही थीं. यानी कुदरत ने बदला लेने का मौका खुद ही हमारी झोली में डाल दिया था. वहीद साहब ने अपने भांजे को खुशियां देने के लिए मेरी नौकरी और अपनी बेटी के जज्बात की भेंट चढ़ाई थी. उन्हें सबक देना जरुरी हो गया था.
मैं ने फौरन शाहीना के मंसूबे पर हामी भर दी. वह कहने लगी, ‘आप खर्चे की फिक्र न करें. सारा इंतजाम हम करेंगे. आप पर आंच नहीं आने देंगे. जब तक आप की नौकरी नहीं लगेगी, घर का खर्च हम उठाएंगे.
इस हसीन पेशकश पर दिल झूम उठा. सोचा सब मुफ्त में हाथ आए तो बुरा क्या है. मेरे घर वाले खुद मेरी आवारागर्दी से तंग आए हुए हैं. उन से कह दूंगा कि मुंबई जा कर नौकरी ढूंढूंगा. अब्बू के बारे में मुझे पता था कि बहुत खुश होंगे.
वह बारबार कहते थे कि मंसूर मियां कोई दूसरी नौकरी ढूंढो. यह सौपचास वाली नौकरी दिल को कुछ जंचती नहीं. उन की यह हसरत भी पूरी हो जाएगी कि मैं दूसरे शहर जा कर भी नौकरी तलाशने की कोशिश करुंगा. अभी मैं ने उन्हें नौकरी छूटने के बारे में कुछ नहीं बताया था.
घर लौटा तो पूरी योजना मेरे दिमाग में तैयार हो चुकी थी. वहीद साहब से बदला ले कर अपने भविष्य तक के लिए ढेरों सपने देख डाले थे मैं ने. शाहीना एक अच्छी बीवी साबित हो सकती थी. इस से पहले जिन आधा दरजन लड़कियों से मेरा चक्कर चला था, जो खुद भी मेरे जैसी ही थीं. इसलिए मुझे शाहीना की मोहब्बत पर भी शक होने लगा था कि वह भी यूं ही वक्त गुजारी के तौर पर यह शगल अपनाए हुए है.
मगर जब उस ने मेरे साथ जिंदगी गुजारने का पूरा प्रोग्राम संजीदगी से सुना दिया, तब मुझे वो अच्छी लगी कि शादी कहीं न कहीं तो करनी ही होगी. यह लड़की इतनी कुरबानियां दे रही है, सारी उम्र वफादार रहेगी. वहीद साहब तिलमिला कर रह जाएंगे और उन का वो भांजा हाथ मलता रह जाएगा. उन्हें कभी दुश्मन का नाम तक मालूम हो नहीं सकेगा.
प्रोग्राम यह तय हुआ था कि वो अपनी खाला के घर जाने के बहाने घर से निकलेगी. और खुद स्टेशन पहुंच जाएगी. वहां मैं उस का इंतजार करूंगा और पहले से ही 2 टिकट खरीद लूंगा, वह ऐन वक्त पर आएगी. दोनों अलगअलग डिब्बों में सफर करेंगे.
अपनाअपना टिकट पास रखेंगे. ताकि किसी को शुबहा न हो. अगर खुदा न खास्ता पुलिस ने हम में से किसी एक को पकड़ लिया तो वह हरगिज दूसरे का नाम न लेगा और ऐसी सूरत में उस से पूरी तरह से अजनबी बन जाएगा. वैसे इस बात की संभावना बहुत कम थी, फिर भी इस तेज दिमाग की लड़की को मुझे बचाए रखने का पूरा ध्यान था.
तय प्रोग्राम के मुताबिक मैं ने अब्बू को बता दिया कि मैं एक इंटरव्यू के लिए मुंबई जा रहा हूं. अगर नौकरी मिल गई तो अपना सामान लेने वापस आ जाऊंगा. न मिल सकी तो कुछ दिन ठहर कर एकदो जगह और कोशिश करूंगा.