मैं चुप रहूंगी: क्या थी विजय की असलियत

Rita Kashyap

पिछले दिनों मैं दीदी के बेटे नीरज के मुंडन पर मुंबई गई थी. एक दोपहर दीदी मुझे बाजार ले गईं. वे मेरे लिए मेरी पसंद का तोहफा खरीदना चाहती थीं. कपड़ों के एक बड़े शोरूम से जैसे ही हम दोनों बाहर निकलीं, एक गाड़ी हमारे सामने आ कर रुकी. उस से उतरने वाला युवक कोई और नहीं, विजय ही था. मैं उसे देख कर पल भर को ठिठक गई. वह भी मुझे देख कर एकाएक चौंक गया. इस से पहले कि मैं उस के पास जाती या कुछ पूछती वह तुरंत गाड़ी में बैठा और मेरी आंखों से ओझल हो गया. वह पक्का विजय ही था, लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो वह इन दिनों अमेरिका में है. मुंबई आने से 2 दिन पहले ही तो मैं मीनाक्षी से मिली थी.

उस दिन मीनाक्षी का जन्मदिन था. हम दोनों दिन भर साथ रही थीं. उस ने हमेशा की तरह अपने पति विजय के बारे में ढेर सारी बातें भी की थीं. उस ने ही तो बताया था कि उसी सुबह विजय का अमेरिका से जन्मदिन की मुबारकबाद का फोन आया था. विजय के वापस आने या अचानक मुंबई जाने के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुई थी.

लेकिन विजय जिस तरह से मुझे देख कर चौंका था उस के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उस ने भी मुझे पहचान लिया था. आज भी उस की गाड़ी का नंबर मुझे याद है. मैं उस के बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहती थी. लेकिन उसी शाम मुझे वापस दिल्ली आना था, टिकट जो बुक था. दीदी से इस बारे में कहती तो वे इन झमेलों में पड़ने वाले स्वभाव की नहीं हैं. तुरंत कह देतीं कि तुम अखबार वालों की यही तो खराबी है कि हर जगह खबर की तलाश में रहते हो.

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दिल्ली आ कर मैं अगले ही दिन मीनाक्षी के घर गई. मन में उस घटना को ले कर जो संशय था मैं उसे दूर करना चाहती थी. मीनाक्षी से मिल कर ढेरों बातें हुईं. बातों ही बातों में प्राप्त जानकारी ने मेरे मन में छाए संशय को और गहरा दिया. मीनाक्षी ने बताया कि लगभग 6 महीनों से जब से विजय काम के सिलसिले में अमेरिका गया है उस ने कभी कोई पत्र तो नहीं लिखा हां दूसरे, चौथे दिन फोन पर बातें जरूर होती रहती हैं. विजय का कोई फोन नंबर मीनाक्षी के पास नहीं है, फोन हमेशा विजय ही करता है. विजय वहां रह कर ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के जुगाड़ में है, जिस के मिलते ही वह मीनाक्षी और अपने बेटे विशु को भी वहीं बुला लेगा. अब पता नहीं इस के लिए कितने वर्ष लग जाएंगे.

मैं ने बातों ही बातों में मीनाक्षी को बहुत कुरेदा, लेकिन उसे अपने पति पर, उस के प्यार पर, उस की वफा पर पूरा भरोसा है. उस का मानना है कि वह वहां से दिनरात मेहनत कर के इतना पैसा भेज रहा है कि यदि ग्रीन कार्ड न भी मिले तो यहां वापस आने पर वे अच्छा जीवन बिता सकते हैं. कितन भोली है मीनाक्षी जो कहती है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही पड़ता है.

मीनाक्षी की बातें सुन कर, उस का विश्वास देख कर मैं उसे अभी कुछ बताना नहीं चाह रही थी, लेकिन मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. मैं ने दोबारा मुंबई जाने का विचार बनाया, लेकिन दीदी को क्या कहूंगी? नीरज के मुंडन पर दीदी के कितने आग्रह पर तो मैं वहां गई थी और अब 1 सप्ताह बाद यों ही पहुंच गई. मेरी चाह को राह मिल ही गई. अगले ही सप्ताह मुंबई में होने वाले फिल्मी सितारों के एक बड़े कार्यक्रम को कवर करने का काम अखबार ने मुझे सौंप दिया और मैं मुंबई पहुंच गई.

वहां पहुंचते ही सब से पहले अथौरिटी से कार का नंबर बता कर गाड़ी वाले का नामपता मालूम किया. वह गाड़ी किसी अमृतलाल के नाम पर थी, जो बहुत बड़ी कपड़ा मिल का मालिक है. इस जानकारी से मेरी जांच को झटका अवश्य लगा, लेकिन मैं ने चैन की सांस ली. मुझे यकीन होने लगा कि मैं ने जो आंखों से देखा था वह गलत था. चलो, मीनाक्षी का जीवन बरबाद होने से बच गया. मैं फिल्मी सितारों के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में व्यस्त हो गई.

एक सुबह जैसे ही मेरा औटो लालबत्ती पर रुका, बगल में वही गाड़ी आ कर खड़ी हो गई. गाड़ी के अंदर नजर पड़ी तो देखा गाड़ी विजय ही चला रहा था. लेकिन जब तक मैं कुछ करती हरीबत्ती हो गई और वाहन अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगे. मैं ने तुरंत औटो वाले को उस सफेद गाड़ी का पीछा करने के लिए कहा. लेकिन जब तक आटो वाला कुछ समझता वह गाड़ी काफी आगे निकल गई थी. फिर भी उस अनजान शहर के उन अनजान रास्तों पर मैं उस कार का पीछा कर रही थी. तभी मैं ने देखा वह गाड़ी आगे जा कर एक बिल्डिंग में दाखिल हो गई. कुछ पलों के बाद मैं भी उस बिल्डिंग के गेट पर थी. गार्ड जो अभी उस गाड़ी के अंदर जाने के बाद गेट बंद ही कर रहा था मुझे देख कर पूछने लगा, ‘‘मेमसाहब, किस से मिलना है? क्या काम है?’’

‘‘यह अभी जो गाड़ी अंदर गई है वह?’’

‘‘वे बड़े साहब के दामाद हैं, मेमसाहब.’’

‘‘वे विजय साहब थे न?’’

‘‘हां, मेमसाहब. आप क्या उन्हें जानती हैं?’’

गार्ड के मुंह से हां सुनते ही मुझे लगा भूचाल आ गया है. मैं अंदर तक हिल गई. विजय, मिल मालिक अमृत लाल का दामाद? लेकिन यह कैसे हो सकता है? बड़ी मुश्किल से हिम्मत बटोर कर मैं ने कहा, ‘‘देखो, मैं जर्नलिस्ट हूं, अखबार के दफ्तर से आई हूं, तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना चाहती हूं. क्या मैं अंदर जा सकती हूं?’’

‘‘मेमसाहब, इस वक्त तो अंदर एक जरूरी मीटिंग हो रही है, उसी के लिए विजय साहब भी आए हैं. अंदर और भी बहुत बड़ेबड़े साहब लोग जमा हैं. आप शाम को उन के घर में उन से मिल लेना.’’

‘‘घर में?’’ मैं सोच में पड़ गई. अब भला घर का पता कहां से मिलेगा?

लगता था गार्ड मेरी दुविधा समझ गया. अत: तुरंत बोला, ‘‘अब तो घर भी पास ही है. इस हाईवे के उस तरफ नई बसी कालोनी में सब से बड़ी और आलीशान कोठी साहब की ही है.’’

मेरे लिए इतनी जानकारी काफी थी. मैं ने तुरंत औटो वाले को हाईवे के उस पार चलने के लिए कहा. विजय और उस का सेठ इस समय मीटिंग में हैं. यह अच्छा अवसर था विजय के बारे में जानकारी हासिल करने का. विजय से बात करने पर हो सकता है वह पहचानने से ही इनकार कर दे.

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गार्ड का कहना ठीक था. उस नई बसी कालोनी में जहां इक्कादुक्का कोठियां ही खड़ी थीं, हलके गुलाबी रंग की टाइलों वाली एक ही कोठी ऐसी थी जिस पर नजर नहीं टिकती थी. कोठी के गेट पर पहुंचते ही नजर नेम प्लेट पर पड़ी. सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘विजय’ हालांकि अब विजय का व्यक्तित्व मेरी नजर में इतना सुनहरा नहीं रह गया था.

औटो वाले को रुकने के लिए कह कर जैसे ही मैं आगे बढ़ी, गेट पर खड़े गार्ड ने पहले तो मुझे सलाम किया, फिर पूछा कि किस से मिलना है और मेरा नामपता क्या है?

‘‘मैं एक अखबार के दफ्तर से आई हूं.

मुझे तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना है,’’ कहते हुए मैं ने अपना पहचानपत्र उस के सामने रख दिया.

‘‘साहब तो इस समय औफिस में हैं.’’

‘‘घर में कोई तो होगा जिस से मैं बात कर सकूं?’’

‘‘मैडम हैं. पर आप रुकिए मैं उन से पूछता हूं,’’ कह उस ने इंटरकौम द्वारा विजय की पत्नी से बात की. फिर उस से मेरी भी बात करवाई. मेरे बताने पर मुझे अंदर जाने की इजाजत मिल गई.

अंदर पहुंचते ही मेरा स्वागत एक 25-26 वर्ष की बहुत ही सुंदर युवती ने किया. दूध जैसा सफेद रंग, लाललाल गाल, ऊंचा कद, तन पर कीमती गहने, कीमती साड़ी. गुलाबी होंठों पर मधुर मुसकान बिखेरते हुए वह बोली, ‘‘नमस्ते, मैं स्मृति हूं. विजय की पत्नी.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई. विजय साहब तो हैं नहीं. मैं आप से ही बातचीत कर के उन के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी जरूर,’’ कहते हुए उस ने मुझे सोफे पर बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही वह भी मेरे पास ही सोफे पर बैठ गई.

इतने में नौकर टे्र में कोल्डड्रिंक ले आया. मुझे वास्तव में इस की जरूरत थी. बिना कुछ कहे मैं ने हाथ बढ़ा कर एक गिलास उठा लिया. फिर जैसेजैसे स्मृति से बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे विजय की कहानी पर पड़ी धूल की परतें साफ होती गईं.

स्मृति विजय को कालेज के समय से जानती है. कालेज में ही दोनों ने शादी करना तय कर लिया था. विजय का तो अपना कोई है नहीं, लेकिन स्मृति के पिता, सेठ अमृतलाल को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन का कहना था कि विजय मात्र उन के पैसों की लालच में स्मृति से प्रेम का नाटक करता है. कितनी पारखी है सेठ की नजर, काश स्मृति ने उन की बात मान ली होती. वे स्मृति की शादी अपने दोस्त के बेटे से करना चाहते थे, जो अमेरिका में रहता था. लेकिन स्मृति तो विजय की दीवानी थी.

वाह विजय वाह, इधर स्मृति, उधर मीनाक्षी. 2-2 आदर्श, पतिव्रता पत्नियों का एकमात्र पति विजय, जिस के अभिनयकौशल की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. स्मृति से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरे समक्ष पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो गया. हुआ यों कि जिन दिनों स्मृति को उस के पिता जबरदस्ती अमेरिका ले गए थे, विजय घबरा कर मुंबई की नौकरी छोड़ दिल्ली आ गया था और दिल्ली में उस ने मीनाक्षी से शादी कर ली. उधर अमेरिका पहुंचते ही सेठ ने स्मृति की सगाई कर दी, लेकिन स्मृति विजय को भुला नहीं पा रही थी. उस ने अपने मंगेतर को सब कुछ साफसाफ बता दिया. पता नहीं उस के मंगेतर की अपने जीवन की कहानी इस से मिलतीजुलती थी या उसे स्मृति की स्पष्टवादिता भा गई थी, उस ने स्मृति से शादी करने से इनकार कर दिया.

स्मृति की शादी की बात तो बनी नहीं थी. अत: वे दोनों यूरोप घूमने निकल गए. उस दौरान स्मृति ने विजय से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि विजय मुंबई छोड़ चुका था. 6 महीनों बाद जब वे मुंबई लौटे तो विजय को बहुत ढूंढ़ा गया, लेकिन सब बेकार रहा. स्मृति विजय के लिए परेशान रहती थी और उस के पिता उस की शादी को ले कर परेशान रहते थे.

एक दिन अचानक विजय से उस की मुलाकात हो गई. स्मृति बिना शादी किए लौट आई है, यह जान कर विजय हैरानपरेशान हो गया. उस की आंखों में स्मृति से शादी कर के करोड़पति बनने का सपना फिर से तैरने लगा.

मेरे पूछने पर स्मृति ने शरमाते हुए बताया कि उन की शादी को मात्र 5 महीने हुए हैं. मन में आया कि इसी पल उसे सब कुछ बता दूं. धोखेबाज विजय की कलई खोल कर रख दूं. स्मृति को बता दूं कि उस के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है. लेकिन मैं ऐसा न कर सकी. उस के मधुर व्यवहार, उस के चेहरे की मुसकान, उस की मांग में भरे सिंदूर ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.

मेरे एक वाक्य से यह बहार, पतझड़ में बदल जाती. अत: मैं अपने को इस के लिए तैयार नहीं कर पाई. यह जानते हुए भी कि यह सब गलत है, धोखा है मेरी जबान मेरा साथ नहीं दे रही थी. एक तरफ पलदोपल की पहचान वाली स्मृति थी तो दूसरी तरफ मेरे बचपन की सहेली मीनाक्षी. मेरे लिए किसी एक का साथ देना कठिन हो गया. मैं तुरंत वहां से चल दी. स्मृति पूछती ही रह गई कि विजय के बारे में यह सब किस अखबार में, किस दिन छपेगा? खबर तो छपने लायक ही हाथ लगी थी, लेकिन इतनी गरम थी कि इस से स्मृति का घरसंसार जल जाता. उस की आंच से मीनाक्षी भी कहां बच पाती. ‘बाद में बताऊंगी’ कह कर मैं तेज कदमों से बाहर आ गई.

मैं दिल्ली लौट आई. मन में तूफान समाया था. बेचैनी जब असहनीय हो गई तो मुझे लगा कि मीनाक्षी को सब कुछ बता देना चाहिए. वह मेरे बचपन की सहेली है, उसे अंधेरे में रखना ठीक नहीं. उस के साथ हो रहे धोखे से उसे बचाना मेरा फर्ज है.

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मैं अनमनी सी मीनाक्षी के घर जा पहुंची. मुझे देखते ही वह हमेशा की भांति खिल उठी. उस की वही बातें फिर शुरू हो गईं. कल ही विजय का फोन आया था. उस के भेजे क्व50 हजार अभी थोड़ी देर पहले ही मिले हैं. विजय अपने अकेलेपन से बहुत परेशान है. हम दोनों को बहुत याद करता है. दोनों की पलपल चिंता करता है वगैरहवगैरह. एक पतिव्रता पत्नी की भांति उस की दुनिया विजय से शुरू हो कर विजय पर ही खत्म हो जाती है.

मेरे दिमाग पर जैसे कोई हथौड़े चला रहा था. विजय की सफल अदाकारी से मन परेशान हो रहा था. लेकिन जबान तालू से चिपक गई. मुझे लगा मेरे मुंह खोलते ही सामने का दृश्य बदल जाएगा. क्या मीनाक्षी, विजय के बिना जी पाएगी? क्या होगा उस के बेटे विशु का?

मैं चुपचाप यहां से भी चली आई ताकि मीनाक्षी का भ्रम बना रहे. उस की मांग में सिंदूर सजा रहे. उस का घरसंसार बसा रहे. लेकिन कब तक?

‘सदा सच का साथ दो’, ‘सदा सच बोलो’, और न जाने कितने ही ऐसे आदर्श वाक्य दिनरात मेरे कानों में गूंजने लगे हैं, लेकिन मैं उन्हें अनसुना कर रही हूं. मैं उन के अर्थ समझना ही नहीं चाहती, क्योंकि कभी मीनाक्षी और कभी स्मृति का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहता है. मैं उन के खिले चेहरों पर मातम की काली छाया नहीं देख पाऊंगी.

पता नहीं मैं सही हूं या गलत? हो सकता है कल दोनों ही मुझे गलत समझें. लेकिन मुझ से नहीं हो पाएगा. मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक विजय का नाटक सफलतापूर्वक चलता रहेगा. परदा उठने के बाद तो आंसू ही आंसू रह जाने हैं, मीनाक्षी की आंखों में, स्मृति की आंखों में, सेठ अमृतलाल की आंखों में और स्वयं मेरी भी आंखों में. फिर भला विजय भी कहां बच पाएगा? डूब जाएगा आंसुओं के उस सागर में.

साक्षी के बाद: भाग 1

लेखक- कमल कपूर

भोर हुई तो चिरैया का मीठासुरीला स्वर सुन कर पूर्वा की नींद उचट गई. उस की रिस्टवाच पर नजर गई तो उस ने देखा अभी तो 6 भी नहीं बजे हैं. ‘छुट्टी का दिन है. न अरुण को दफ्तर जाना है और न सूर्य को स्कूल. फिर क्या करूंगी इतनी जल्दी उठ कर? क्यों न कुछ देर और सो लिया जाए,’ सोच कर उस ने चादर तान ली और करवट बदल कर फिर से सोने की कोशिश करने लगी. लेकिन फोन की बजती घंटी ने उस के छुट्टी के मूड की मिठास में कुनैन घोल दी. सुस्त मन के साथ वह फोन की ओर बढ़ी. इंदु भाभी का फोन था.

‘‘इंदु भाभी आप? इतनी सुबह?’’ वह बोली.

‘‘अब इतनी सुबह भी नहीं है पुरवैया रानी, तनिक परदा हटा कर खिड़की से झांक कर तो देख, खासा दिन चढ़ गया है. अच्छा बता, कल शाम सैर पर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यों ही इंदु भाभी, जी नहीं किया.’’

‘‘अरी, आती तो वे सब देखती, जो इन आंखों ने देखा. जानती है, तेरे वे संदीप भाई हैं न, उन्होंने…’’

और आगे जो कुछ इंदु भाभी ने बताया उसे सुन कर तो जैसे पूर्वा के पैरों तले की जमीन ही निकल गई. रिसीवर हाथ से छूटतेछूटते बचा. अपनेआप को संभाल कर वह बोली, ‘‘नहीं इंदु भाभी, ऐसा हो ही नहीं सकता. मैं संदीप भाई को अच्छी तरह जानती हूं, वे ऐसा कर ही नहीं सकते. आप से जरूर देखने में गलती हुई होगी.’’

‘‘पूर्वा, मैं ने 2 फुट की दूरी से उस मोटी खड़ूस को देखा है. बस, लड़की कौन है, यह देख न पाई. उस की पीठ थी मेरी तरफ.’’

इंदु भाभी अपने खास अक्खड़ अंदाज में आगे क्या बोल रही थीं, कुछ सुनाई नहीं दे रहा था पूर्वा को. रिसीवर रख कर जैसेतैसे खुद को घसीटते हुए पास ही रखे सोफे तक लाई और बुत की तरह बैठ गई उस पर. सुबहसुबह यह क्या सुन लिया उस ने? साक्षी के साथ इतनी बड़ी बेवफाई कैसे कर सकते हैं संदीप भाई और वह भी इतनी जल्दी? अभी वक्त ही कितना हुआ है उस हादसे को हुए. बमुश्किल 8 महीने ही तो. हां, 8 महीने पहले की ही तो बात है, जब भोर होते ही इसी तरह फोन की घंटी बजी थी. वह दिन आज भी ज्यों का त्यों उस की यादों में बसा है…

उस रात पूर्वा बड़ी देर से अरुण और सूर्य के साथ भाई की शादी से लौटी थी. थकान और नींद से बुरा हाल था, इसलिए आते ही बिस्तर पर लेट गई थी. आंख लगी ही थी कि रात के सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी ने उसे जगा दिया. घड़ी पर नजर गई तो देखा 4 बजे थे. ‘जरूर मां का फोन होगा… जब तक बेटी के सकुशल पहुंचने की खबर नहीं पा लेंगी उन्हें चैन थोड़े ही आएगा,’ सोचते हुए वह नींद में भी मुसकरा दी, लेकिन आशा के एकदम विपरीत संदीप का फोन था.

‘पूर्वा भाभी, मैं संदीप बोल रहा हूं,’ संदीप बोला.

वह चौंकी, ‘संदीप भाई आप? इतनी सुबह? सब ठीक तो है न?’

‘कुछ ठीक नहीं है पूर्वा भाभी, साक्षी चली गई,’ भीगे स्वर में वह बोला था.

‘साक्षी चली गई? कहां चली गई संदीप भाई? कोई झगड़ा हुआ क्या आप लोगों में? आप ने उसे रोका क्यों नहीं?’

‘भाभी… वह चली गई हमेशा के लिए…’

‘क्या? संदीप भाई, यह क्या कह रहे हैं आप? होश में तो हैं? कहां है मेरी साक्षी?’ पागलों की तरह चिल्लाई पूर्वा.

‘पूर्वा, वह मार्चुरी में है… हम अस्पताल में हैं… अभी 2-3 घंटे और लगेंगे उसे घर लाने में, फिर जल्दी ही ले जाएंगे उसे… तुम समझ रही हो न पूर्वा? आखिरी बार अपनी सहेली से मिल लेना…’ यह सुनंदा दीदी थीं. संदीप भाई की बड़ी बहन.

फोन कट चुका था, लेकिन पूर्वा रिसीवर थामे जस की तस खड़ी थी. तभी अपने कंधे पर किसी हाथ का स्पर्श पा कर डर कर चीख उठी वह.

‘अरेअरे, यह मैं हूं पूर्वा,’ अरुण ने सामने आ कर उसे बांहों में भर लिया, ‘बहुत बुरा हुआ पूर्वा… मैं ने सब सुन लिया है. अब संभालो खुद को,’ उसे सहारा दे कर अरुण पलंग तक ले गए और तकिए के सहारे बैठा कर कंबल ओढ़ा दिया, ‘सब्र के सिवा और कुछ नहीं किया जा सकता है पूर्वा. मुझे संदीप के पास जाना चाहिए,’ कोट पहनते हुए अरुण ने कहा तो पूर्वा बोली, ‘मैं भी चलूंगी अरुण.’

‘तुम अस्पताल जा कर क्या करोगी? साक्षी तो…’ कहतेकहते बात बदल दी अरुण ने, ‘सूर्य जाग गया तो रोएगा.’

अरुण दरवाजे को बाहर से लौक कर के चले गए. कैसे न जाते? उन के बचपन के दोस्त थे संदीप भाई. उन की दोस्ती में कभी बाल बराबर भी दरार नहीं आई, यह पूर्वा पिछले 9 साल से देख रही थी. पिछली गली में ही तो रहते हैं, जब जी चाहता चले आते. यों तो संदीप अरुण के हमउम्र थे, लेकिन विवाह पहले अरुण का हुआ था. संदीप भाई को तो कोई लड़की पसंद ही नहीं आती थी. खुद तो देखने में ठीकठाक ही थे, लेकिन अरमान पाले बैठे थे स्वप्नसुंदरी का, जो उन्हें सुनंदा दीदी के देवर की शादी में कन्या पक्ष वालों के घर अचानक मिल गई. बस, संदीप भाई हठ ठान बैठे और हठ कैसे न पूरा होता? आखिर मांबाप के इकलौते बेटे और 2 बहनों के लाड़ले छोटे भाई जो थे. लड़की खूबसूरत, गुणवान और पढ़ीलिखी थी, फिर भी मां बहुत खुश नहीं थीं, क्योंकि उन की तुलना में लड़की वालों का आर्थिक स्तर बहुत कम था. लड़की के पिता भी नहीं थे. बस मां और एक छोटी बहन थी.

बिना मंगनीटीका या सगाई के सीधे विवाह कर दुलहन को घर ले आए थे संदीप भाई के घर वाले. साक्षी सुंदर और सादगी की मूरत थी. पूर्वा ने जब पहली बार उसे देखा था, तो संगमरमर सी गुडि़या को देखती ही रह गई थी.

संदीप भाई के विवाह के 18वें दिन बाद सूर्य का पहला जन्मदिन था और साक्षी ने पार्टी का सारा इंतजाम अपने हाथों में ले लिया था.

संदीप भाई बहुत खुश और संतुष्ट थे अपनी पत्नी से, लेकिन घोर अभावों में पली साक्षी को काफी वक्त लगा था उन के घर के साथ सामंजस्य बैठाने में. फिर 5 महीने बाद जब साक्षी ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो संदीप भाई खुशी से नाच उठे थे. पलकों पर सहेज कर रखते थे उसे.

डाक्टर ने सुबहशाम की सैर बताई थी साक्षी को और यह जिम्मेदारी संदीप भाई ने पूर्वा को सौंप दी थी यह कहते हुए कि पूर्वा भाभी, आप तो सुबहशाम सैर पर जाती हैं न, मेरी इस बावली को भी ले जाया करें. मेरी तो ज्यादा चलने की आदत नहीं.

और सुबहशाम की सुहानी सैर ने पूर्वा और साक्षी के दिलों के तारों को जैसे जोड़ दिया था. साक्षी चलतेचलते थक जाती तो पार्क की बेंच पर बैठ जाती और छोटी से छोटी बात भी उसे बताती, ‘पूर्वा भाभी, बाकी सब तो ठीक है. संदीप तो जान छिड़कते हैं मुझ पर, लेकिन मम्मीजी मुझे ज्यादा पसंद नहीं करतीं. गाहेबगाहे सीधे ही ताना देती हैं कि मैं खाली हाथ ससुराल आई हूं, एक से एक धन्नासेठ उन के घर संदीप के लिए रिश्ता ले कर आते रहे पर… और दुनिया में गोरी चमड़ी ही सब कुछ नहीं होती वगैरहवगैरह.’

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साक्षी के बाद: संदीप ने जल्दबाजी में क्यों की दूसरी शादी

सबक : सुधीर को लेकर क्या थी अनु की कशमकश ?

रक्षाबंधन पर मैं मायके गई तो भैया ने मेरे ननदोई सुधीर जीजाजी के विषय में कुछ ऐसा बताया जिसे सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘नहीं भैया, ऐसा हो ही नहीं सकता, जरूर आप को कोई भ्रम हुआ होगा.’’

‘‘नहीं अनु, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ. पिछले महीने औफिस के काम से दिल्ली गया तो सोचा, सुधीर से भी मिल लूं क्योंकि उन से मुलाकात हुए काफी अरसा हो चुका था. काम से फारिग होने के बाद जब मैं सुधीर के घर पहुंचा तो वे मुझे अचानक आया हुआ देख कर कुछ घबरा से गए. उन्होंने मेरा स्वागत वैसा नहीं किया जैसा कि मेरे पहुंचने पर अकसर किया करते थे. तभी मेरी नजर शोकेस में रखी एक तसवीर पर गई. उस तसवीर में सुधीर के साथ संध्या नहीं, कोई और युवती थी. जब मैं बाथरूम से फ्रैश हो कर आया तो वह तसवीर वहां से गायब थी लेकिन वह तसवीर वाली युवती ही उन की रसोई में चायनाश्ता तैयार कर रही थी.’’

‘‘भैया, हो सकता है वह उन की मेड हो.’’

‘‘शायद मैं भी यही समझता, अगर मैं ने वह तसवीर न देखी होती.’’

‘‘देखने में कैसी थी वह युवती?’’ मैं अपनी उत्सुकता छिपा न सकी.

देखने में सुंदर मगर बहुत ही साधारण थी. एक बात और मैं ने नोटिस की, मेरे अचानक आ जाने से वह सुधीर की तरह असहज नहीं थी, बिलकुल सामान्य नजर आ रही थी. उस के हाथ की चाय और नाश्ते में आलूप्याज की पकौडि़यों और सूजी के हलवे के स्वाद से ही मैं ने जान लिया था कि वह साक्षात अन्नपूर्णा होने के साथसाथ एक कुशल गृहिणी है.

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‘‘सुधीर जीजाजी ने आप का उस से परिचय नहीं करवाया?’’

‘‘उस को चायनाश्ते के लिए कहते वक्त सुधीर शायद मुझे यह दर्शा रहे थे कि वह उन की मेड है लेकिन उन के साथ उस की तसवीर, फिर तसवीर का गायब होना और मेरी उपस्थिति से सुधीर का असहज होना इस बात की तरफ साफ संकेत कर रहा था कि वह युवती उन की मेड नहीं बल्कि कुछ और है.’’

‘‘भैया, इस विषय में हमें संध्या दी को तुरंत बता देना चाहिए,’’ मैं ने उतावले स्वर में कहा.

‘‘नहीं अनु, इस विषय में तुम संध्या दी को कुछ नहीं बताओगी,’’ भैया के बजाय भाभी बड़े ही कठोर और आदेशात्मक लहजे में बोलीं. ‘‘भाभी, आप एक औरत हो कर भी औरत के साथ अन्याय की बात कर रही हैं. संध्या दी मेरे पति की सगी बहन हैं, मेरी ननद हैं. जैसे मैं आप की ननद हूं’’ ‘‘जानती हूं मैं, संध्या आप के पति की सगी बहन है, लेकिन 14 साल पहले वह अपने पति से बुरी तरह लड़झगड़ कर अपनी मरजी से अपनी दोनों बेटियों को ले कर मायके आ गई थी. सुधीर और उन के परिवार वालों ने लाख कोशिश की कि वह लौट आए लेकिन हर बार उन्हें संध्या दी ने अपमानित किया. ऐसी स्थिति में सुधीर के मांबाप ने चाहा भी कि दोनों का तलाक हो जाए लेकिन संध्या दी पर तो जैसे जिंदगीभर सुधीर को परेशान करने का जनून सवार था. शायद इसी वजह से उस ने सुधीर को तलाक भी नहीं दिया.’’

‘‘जानती हो अनु, जब तुम्हारी संध्या दी ने अपना ससुराल छोड़ा था तब अपने पति के मुंह पर थूक कर गई थी. तो भला, कौन पति अपनी ऐसी बेइज्जती सहेगा? इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद, सुधीर की इंसानियत और बड़प्पन देखो कि वे उस का और दोनों बेटियों का पूरा खर्चा बिना किसी हीलहुज्जत के नियम से दे रहे हैं. उन की हर सुखसुविधा का खयाल भी रखते हैं. महीने में उन से मिलने भी आते हैं.’’

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‘‘यह तो उन का फर्ज है, भाभी. वे एक पिता और पति भी हैं,’’ मैं ने संध्या दी का पक्ष लेते हुए कहा. ‘‘सारे फर्ज सुधीर के ही हैं, तुम्हारी संध्या दी के कुछ भी नहीं,’’ भाभी कड़वे स्वर में बोलीं, ‘‘अनु, तुम ही बताओ तुम्हारी संध्या दी ने शादी के बाद अपने पति को क्या सुख दिया? उन का जीवन खराब कर दिया. कभी उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली. मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन की बेटियां कैसे हो गईं? उन्हें तो सुधीर के सान्निध्य से ही घिन आती थी. उन के हर काम, व्यवहार में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन के कपड़े धोना तो दूर, उन्हें हाथ तक न लगाती थी. उन्हें खाने तक के लिए तरसा दिया था. वे बेचारे मां के पास खाते तो उन पर ताने कसती, उन पर व्यंग्य करती. तो बताओ अनु, क्या ऐसी औरत से हम सहानुभूति रखें? ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो अपने पति और ससुराल वालों

इतना कर्कश व्यवहार रखती हैं. एक अच्छी और सुघड़ औरत वह होती है जो परिवार को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है. लेकिन तुम्हारी संध्या दी ने तो जोड़ना नहीं, तोड़ना सीखा है. प्रेम और मिलनसार व्यवहार जैसे शब्द तो शायद उन के शब्दकोश में हैं ही नहीं. सच पूछो, तो मुझे बेहद खुशी है कि सुधीर उस औरत के साथ हंसीखुशी रह रहे हैं.’’

‘‘भाभी, आप जो कुछ कह रही हैं वह हम सब जानते हैं. न वे व्यवहार की अच्छी हैं न स्वभाव की. जबान की भी बेहद कड़वी हैं या दूसरे शब्दों में कहें वे शुद्ध खालिस स्वार्थ की प्रतिमा हैं. मायके में भी किसी से नहीं बनी, तभी तो किराए के मकान में रह रही हैं. लेकिन एक औरत होने के नाते हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और संध्या दी को सबकुछ बता देना चाहिए.’’

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‘‘अनु, इस मामले में मेरी सोच तुम से जुदा है. मैं भी एक औरत हूं लेकिन इस प्रकरण में मैं सुधीर का साथ दूंगी क्योंकि हर जगह आदमी ही गलत नहीं होता. 95 प्रतिशत मामलों में दोषी न होते हुए भी पुरुषों को ही दोषी ठहराया जाता है. अगर एक पति अपनी कर्कशा पत्नी को पूरा खर्चा दे रहा है, अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा है और इस के एवज में अगर वह अपना एकाकीपन दूर करने के लिए एक औरत के साथ सुखी, संतुष्ट और तनावमुक्त जीवन जी रहा है तो इस में गलत क्या है? वह औरत भी पूरी सचाई से वाकिफ है, तो बुरा क्या है. प्लीज, जैसा चल रहा है, चलने दो. इस बारे में संध्या को बताने का मतलब साफ है कि सुधीर का जीवन पहले से और भी बदतर हो जाना क्योंकि संध्या की फितरत से वाकिफ हूं मैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, उस औरत को अंत में क्या हासिल होगा? कानूनी रूप से तो संध्या ही उन की पत्नी हैं. सुधीर जीजाजी के न रहने पर उन की सारी संपत्ति, जमीनजायदाद और पैंशन पर तो संध्या दी का ही हक होगा. यह सब छिपा कर हम उस औरत के साथ भी तो एक तरह से अन्याय ही कर रहे हैं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘नहीं अनु, तुम किसी के साथ कोई अन्याय नहीं कर रही हो. मैं जानती हूं, सुधीर जैसे नेकदिल इंसान मात्र अपने सुख और स्वार्थ के लिए उस औरत के साथ कोई धोखा नहीं करेंगे, न ही उसे अंधेरे में रखेंगे. पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ वे अपना रिश्ता निभाएंगे. मुझे पूरा विश्वास है सुधीर जैसे पढ़ेलिखे, समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ने उस के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य कर दिया होगा.

‘‘रही बात संध्या की, तो ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो बिना वजह अपने पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त कर के उन्हें कानूनी धमकी दे कर अपने मायके आ जाती हैं. इस श्रेणी में तुम्हारी संध्या दी भी आती हैं. यह बात मैं ही नहीं, तुम और तुम्हारे ससुराल वाले और यहां तक कि दोनों तरफ के रिश्तेदार व पड़ोसी भी जानते हैं. इसलिए यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ती हूं कि तुम संध्या को बता कर सुधीर की खुशहाल जिंदगी में जहर घुलवाओगी या चुप रह कर उन की वर्तमान खुशियां बरकरार रखोगी,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

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जानती हूं मैं, भाभी ने जो कुछ कहा है वह एकदम सच कहा है क्योंकि सुधीर जीजाजी उन के करीबी रिश्तेदार हैं. उन्होंने अपना दर्द उन से बयां किया है. मैं अजीब कशमकश में हूं कि एक निर्दोष आदमी की खुशियों की खातिर चुप रहूं या फिर एक कटु, कठोर व कर्कशा औरत के न्याय के लिए बोलूं… फिर भी यह तो मैं भी मानती हूं कि पतिपत्नी के रिश्ते को चाहे वह पति हो या पत्नी, कोई एक भी उस रिश्ते को तोड़ने का जिम्मेदार है तो कुसूरवार वही है. ऐसे में दोषी के साथ सहानुभूति दिखाना बेकुसूर के साथ बेइंसाफी होगी. सुधीर जीजाजी को पूरा हक है कि वे अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारें.

एक जहां प्यार भरा: भाग 1

कहते हैं इंसान को जब किसी से प्यार होता है तो जिंदगी बदल जाती है. खयालों का मौसम आबाद हो जाता है और दिल का साम्राज्य कोई लुटेरा लूट कर ले जाता है.

प्यार के सुनहरे धागों से जकड़ा इंसान कुछ भी करने की हालत में नहीं होता सिवाए अपने दिलबर की यादों में गुम रहने के. कुछ ऐसा ही होने लगा था मेरे साथ भी. हालांकि मैं सिर्फ अपने एहसासों के बारे में जानती थी.

इत्सिंग क्या सोचता है इस बारे में मुझे जानकारी नहीं थी. इत्सिंग से परिचय हुए ज्यादा दिन भी तो नहीं हुए थे. 3 माह कोई लंबा वक्त नहीं होता.

मैं कैसे भूल सकती हूं 2009 के उस दिसंबर महीने को जब दिल्ली की ठंड ने मुझे रजाई में दुबके रहने को विवश किया हुआ था. कभी बिस्तर पर, कभी रजाई के अंदर तो कभी बाहर अपने लैपटौप पर चैटिंग और ब्राउजिंग करना मेरा मनपसंद काम था.

हाल ही में मैं ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से चाइनीज लैंग्वेज में ग्रैजुएशन कंप्लीट किया था.

आप सोचेंगे मैं ने चाइनीज भाषा ही क्यों चुनी? दरअसल, यह दुनिया की सब से कठिन भाषा मानी जाती है और इसी वजह से यह पिक्टोग्राफिक भाषा मुझे काफी रोचक लगी. इसलिए मैं ने इसे चुना. मैं कुछ चीनी लोगों से बातचीत कर इस भाषा में महारत हासिल करना चाहती थी ताकि मुझे इस के आधार पर कोई अच्छी नौकरी मिल सके.

मैं ने इंटरनैट पर लोगों से संपर्क साधने का प्रयास किया तो मेरे आगे इत्सिंग का प्रोफाइल खुला. वह बीजिंग की किसी माइन कंपनी में नौकरी करता था और खाली समय में इंटरनैट सर्फिंग किया करता.

मैं ने उस के बारे में पढ़ना शुरू किया तो कई रोचक बातें पता चलीं. वह काफी शर्मीला इंसान था. उसे लौंग ड्राइव पर जाना और पेड़पौधों से बातें करना पसंद था. उस की हौबी पैंटिंग और सर्फिंग थी. वह जिंदगी में कुछ ऐसा करना चाहता था जो दुनिया में हमेशा के लिए रह जाए. यह सब पढ़ कर मुझे उस से बात करने की इच्छा जगी. वैसे भी मुझे चाइनीस लैंग्वेज के अभ्यास के लिए उस की जरूरत थी.

काफी सोचविचार कर मैं ने उस से बातचीत की शुरुआत करते हुए लिखा, “हैलो इत्सिंग.”

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हैलो का जवाब हैलो में दे कर वह गायब हो गया. मुझे कुछकुछ अजीब सा लगा लेकिन मैं ने उस का पीछा नहीं छोड़ा और फिर से लिखा,” कैन आई टौक टू यू?”

उस का एक शब्द का जवाब आया, “यस”

“आई लाइक्ड योर प्रोफाइल,” कह कर मैं ने बात आगे बढ़ाई.

“थैंक्स,” कह कर वह फिर खामोश हो गया.

उस ने मुझ से मेरा परिचय भी नहीं पूछा. फिर भी मैं ने उसे अपना नाम बताते हुए लिखा,” माय सैल्फ रिद्धिमा फ्रौम दिल्ली. आई हैव डन माई ग्रैजुएशन इन चाइनीज लैंग्वेज. आई नीड योर हैल्प टू इंप्रूव इट. विल यू प्लीज टीच मी चाइनीज लैंग्वेज?”

इस का जवाब भी इत्सिंग ने बहुत संक्षेप में दिया,” ओके बट व्हाई मी? यू कैन टौक टू ऐनी अदर पीपल आलसो.”

“बिकौज आई लाइक योर थिंकिंग. यू आर वेरी डिफरैंट. प्लीज हैल्प मी.”

“ओके,” कह कर वह खामोश हो गया पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. उस से बातें करना जारी रखा. धीरेधीरे वह भी मुझ से बातें करने लगा. शुरुआत में काफी दिन हम चाइनीज लैंग्वेज में नहीं बल्कि इंग्लिश में ही चैटिंग करते रहे. बाद में उस ने मुझे चाइनीज सिखानी भी शुरू की. पहले हम ईमेल के द्वारा संवाद स्थापित करते थे. पर अब तक व्हाट्सएप आ गया था सो हम व्हाट्सएप पर चैटिंग करने लगे.

व्हाट्सएप पर बातें करतेकरते हम एकदूसरे के बारे में काफी कुछ जाननेसमझने लगे. मुझे इत्सिंग का सीधासाधा स्वभाव और ईमानदार रवैया बहुत पसंद आ रहा था. उस की सोच बिलकुल मेरे जैसी थी. वह भी अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता था. शोशेबाजी से से दूर रहता और महिलाओं का सम्मान करता. उसे भी मेरी तरह फ्लर्टिंग और बटरिंग पसंद नहीं थी.

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आज हमें बातें करतेकरते 3-4 महीने से ज्यादा समय गुजर चुका था. इतने कम समय में ही मुझे उस की आदत सी हो गई थी. वह मेरी भाषा नहीं जानता था पर मुझे बहुत अच्छी तरह समझने लगा था. उस की बातों से लगता जैसे वह भी मुझे पसंद करने लगा है. मैं इस बारे में अभी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी. पर मेरा दिल उसे अपनाने की वकालत कर चुका था. मैं उस के खयालों में खोई रहने लगी थी. मैं समझ नहीं पा रही थी कि उस से अपनी फीलिंग्स शेयर करूं या नहीं.

एक दिन मेरी एक सहेली मुझ से मिलने आई. उस वक्त मैं इत्सिंग के बारे में ही सोच रही थी. सहेली के पूछने पर मैं ने उसे सब कुछ सचसच बता दिया.

वह चौंक पड़ी,”तुझे चाइनीज लड़के से प्यार हो गया? जानती भी है कितनी मुश्किलें आएंगी? इंडियन लड़की और चाइनीज लड़का…. पता है न उन का कल्चर कितना अलग होता है? रहने का तरीका, खानापीना, वेशभूषा सब अलग.”

“तो क्या हुआ? मैं उन का कल्चर स्वीकार कर लूंगी.”

“और तुम्हारे बच्चे? वे क्या कहलाएंगे इंडियन या चाइनीज?”

“वे इंसान कहलाएंगे और हम उन्हें इंडियन कल्चर के साथसाथ चाइनीज कल्चर भी सिखाएंगे.”

मेरा विश्वास देख कर मेरी सहेली भी मुसकरा पड़ी और बोली,” यदि ऐसा है तो एक बार उस से दिल की बात कह कर देख.”

मुझे सहेली की बात उचित लगी. अगले ही दिन मैं ने इत्सिंग को एक मैसेज भेजा जिस का मजमून कुछ इस प्रकार था,”इत्सिंग क्यों न हम एक ऐसा प्यारा सा घर बनाएं जिस में खेलने वाले बच्चे थोड़े इंडियन हों तो थोड़े चाइनीज.”

“यह क्या कह रही हैं आप रिद्धिमा? यह घर कहां होगा इंडिया में या चाइना में?” इत्सिंग ने भोलेपन से पूछा तो मैं हंस पड़ी,”घर कहीं भी हो पर होगा हम दोनों का. बच्चे भी हम दोनों के ही होंगे. हम उन्हें दोनों कल्चर सिखाएंगे. कितना अच्छा लगेगा न इत्सिंग.”

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मेरी बात सुन कर वह अचकचा गया था. उसे बात समझ में आ गई थी पर फिर भी क्लियर करना चाहता था.

“मतलब क्या है तुम्हारा? आई मीन क्या सचमुच?”

“हां इत्सिंग, सचमुच मैं तुम से प्यार करने लगी हूं. आई लव यू.”

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एक जहां प्यार भरा: रिद्धिमा और इत्सिंग मिल पाए?

खेल : मासूम दिखने वाली दिव्या तो मुझ से भी माहिर निकली

आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

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‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

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कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

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बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए.

जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर,

भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें,

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भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर,

पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो,

आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

फैसला : सुरेश और प्रभाकर में से बिट्टी ने किसे चुना

रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’

बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.

‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.

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कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.

बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.

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बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.

‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’

‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’

‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.

मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए. परंतु मैं जानती थी, निश्चितरूप से वह प्रेम पूर्णरूप से किसी एक को ही करती है. दूसरे से महज दोस्ती है. वह नहीं जानती कि वह किसे चाहती है, परंतु निश्चित ही किसी एक का ही पलड़ा भारी होगा. वह किस का है, मुझे यही देखना था.

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रात में बिट्टी पढ़तेपढ़ते सो गई तो उसे चादर ओढ़ा कर मैं भी बगल के बिस्तर पर लेट गई. योगेश 2 दिनों से बाहर गए हुए थे. बिट्टी उन की भी बेटी थी, लेकिन मैं जानती थी, यदि वे यहां होते, तो भी बिट्टी के भविष्य से ज्यादा अपने व्यापार को ले कर ही चिंतित होते. कभीकभी मैं समझ नहीं पाती कि उन्हें बेटी या पत्नी से ज्यादा काम क्यों प्यारा है. बिस्तर पर लेट कर रोजाना की तरह मैं ने कुछ पढ़ना चाहा, परंतु एक भी शब्द पल्ले न पड़ा. घूमफिर कर दिमाग पीछे की तरफ दौड़ने लगता. मैं हर बार उसे खींच कर बाहर लाती और वह हर बार बेशर्मों की तरह मुझे अतीत की तरफ खींच लेता. अपने अतीत के अध्याय को तो मैं जाने कब का बंद कर चुकी थी, परंतु बिट्टी के मासूम चेहरे को देखते हुए मैं अपने को अतीत में जाने से न रोक सकी…

जब मैं भी बिट्टी की उम्र की थी, तब मुझे भी यह रोग हो गया था. हां, तब वह रोग ही था. विशेषरूप से हमारे परिवार में तो प्रेम कैंसर से कम खतरनाक नहीं था. तब न तो मेरी मां इतनी सहिष्णु थीं, जो मेरा फैसला मेरे हक में सुना देतीं, न ही पिता इतने उदासीन थे कि मेरी पसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही होता. तब घर की देहरी पर ज्यादा देर खड़ा होना बूआ या दादी की नजरों में बहुत बड़ा गुनाह मान लिया जाता था. किसी लड़के से बात करना तो दूर, किसी लड़की के घर भी भाई को ले कर जाना पड़ता, चाहे भाई छोटा ही क्यों न हो. हजारों बंदिशें थीं, परंतु जवानी कहां किसी के बांधे बंधी है. मेरा अल्हड़ मन आखिर प्रेम से पीडि़त हो ही गया. मैं बड़ी मां के घर गई हुई थी. सुमंत से वहीं मुलाकात हुई थी और मेरा मन प्रेम की पुकार कर बैठा. परंतु बचपन से मिले संस्कारों ने मेरे होंठों का साथ नहीं दिया. सुमंत के प्रणय निवेदन को मां और परिवार के अन्य लोगों ने निष्ठुरता से ठुकरा दिया.

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फिर 1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी एक ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जो था तो छोटा सा व्यापारी, पर जिस का ध्येय भविष्य में बड़ा आदमी बनने का था. इस के लिए मेरे पति ने व्यापार में हर रास्ता अपनाया. मेरी गोद में बिट्टी को डाल कर वे आश्वस्त हो दिनरात व्यापार की उन्नति के सपने देखते. प्रेम से पराजित मेरा तप्त हृदय पति के प्यार और समर्पण का भूखा था. उन के निस्वार्थ स्पर्श से शायद मैं पहले प्रेम को भूल कर उन की सच्ची सहचरी बनती, पर व्यापार के बीच मेरा बोलना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. मुझे याद नहीं, व्यापारिक पार्टी के अलावा वे मुझे कभी कहीं अपने साथ ले गए हों.

लेकिन घर और बिट्टी के बारे में सारे फैसले मेरे होते. उन्हें इस के लिए अवकाश ही न था. बिट्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारी से मेरे अतीत की पुस्तक फड़फड़ाती रही. अतीत का अध्याय सारी रात चलता रहा, क्योंकि उस के समाप्त होने तक पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया था… दूसरे दिन से मैं बिट्टी के विषय में चौकन्नी हो गई. प्रभाकर का फोन आते ही मैं सतर्क हो जाती. बिट्टी का उस से बात करने का ढंग व चहकना देखती. घंटी की आवाज सुनते ही उस का भागना देखती.

एक दिन सुरेश ने कहा, ‘चाचीजी, देखिएगा, एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा में आ कर रहूंगा, मां का एक बड़ा सपना पूरा होगा. मैं आगे बढ़ना चाहता हूं, बहुत आगे,’ उस के ये वाक्य मेरे लिए नए नहीं थे, परंतु अब मैं उन्हें भी तोलने लगी.

प्रभाकर से बिट्टी की मुलाकात उस के एक मित्र की शादी में हुई थी. उस दिन पहली बार बिट्टी जिद कर के मुझ से साड़ी बंधवा कर गईर् थी और बालों में वेणी लगाई थी. उस दिन सुरेश साक्षात्कार देने के लिए इलाहाबाद गया हुआ था. बिट्टी अपनी एक मित्र के साथ थी और उसी के साथ वापस भी आना था. मैं सोच रही थी कि सुरेश होता तो उसे भेज कर बिट्टी को बुलवा सकती थी. उस के आने में काफी देर हो गई थी. मैं बेहद घबरा गई. फोन मिलाया तो घंटी बजती रही, किसी ने उठाया ही नहीं.

लेकिन शीघ्र ही फोन आ गया था कि बिट्टी रात को वहीं रुक जाएगी. दूसरे दिन जब बिट्टी लौटी तो उदास सी थी. मैं ने सोचा, सहेली से बिछुड़ने का दर्द होगा. 2 दिन वह शांत रही, फिर मुझे बताया, ‘मां, वहां मुझे प्रभाकर मिला था.’

‘वह कौन है?’ मैं ने प्रश्न किया. ‘मीता के भाई का दोस्त, फोटो खींच रहा था, मेरे भी बहुत सारे फोटो खींचे.’

‘क्यों?’ ‘मां, वह कहता था कि मैं उसे अच्छी लग रही हूं.’

‘तुम ने उसे पास आने का अवसर दिया होगा?’ मैं ने उसे गहराई से देखा. ‘नहीं, हम लोग डांस कर रहे थे, तभी बीच में वह आया और मुझे ऐसा कह कर चला गया.’

मैं ने उसे आश्वस्त किया कि कुछ लड़के अपना प्रभाव जमाने के लिए बेबाक हरकत करते हैं. फिर शादी वगैरह में तो दूल्हे के मित्र और दुलहन की सहेलियों की नोकझोंक चलती ही रहती है. परंतु 2 दिनों बाद ही प्रभाकर हमारे घर आ गया. उस ने मुझ से भी बातें कीं और बिट्टी से भी. मैं ने लक्ष्य किया कि बिट्टी उस से कम समय में ही खुल गई है.

फिर तो प्रभाकर अकसर ही मेरे सामने ही आता और मुझ से तथा बिट्टी से बतिया कर चला जाता. बिट्टी के कालेज के और मित्र भी आते थे. इस कारण प्रभाकर का आना भी मुझे बुरा नहीं लगा. जिस दिन बिट्टी उस के साथ शीतल पेय या कौफी पी कर आती, मुझे बता देती. एकाध बार वह अपने भाई को ले कर भी आया था. इस दौरान शायद बिट्टी सुरेश को कुछ भूल सी गई. सुरेश भी पढ़ाई में व्यस्त था. फिर प्रभाकर की भी परीक्षा आ गई और वह भी व्यस्त हो गया. बिट्टी अपनी पढ़ाई में लगी थी.

धीरेधीरे 2 वर्ष बीत गए. बिट्टी बीएड करने लगी. उस के विवाह का जिक्र मैं पति से कई बार चुकी थी. बिट्टी को भी मैं बता चुकी थी कि यदि उसे कोई लड़का पति के रूप में पसंद हो तो बता दे. फिर तो एक सप्ताह पूर्व की वह घटना घट गई, जब बिट्टी ने स्वीकारा कि उसे प्रेम है, पर किस से, वह निर्णय वह नहीं ले पा रही है.

सुरेश के परिवार से मैं खूब परिचित थी. प्रभाकर के पिता से भी मिलना जरूरी लगा. पति को जाने का अवसर जाने कब मिलता, इस कारण प्रभाकर को बताए बगैर मैं उस के पिता से मिलने चल दी.

बेहतर आधुनिक सुविधाओं से युक्त उन का मकान न छोटा था, न बहुत बड़ा. प्रभाकर के पिता का अच्छाखासा व्यापार था. पत्नी को गुजरे 5 वर्ष हो चुके थे. बेटी कोई थी नहीं, बेटों से उन्हें बहुत लगाव था. इसी कारण प्रभाकर को भी विश्वास था कि उस की पसंद को पिता कभी नापसंद नहीं करेंगे और हुआ भी वही. वे बोले, ‘मैं बिट्टी से मिल चुका हूं, प्यारी बच्ची है.’ इधरउधर की बातों के बीच ही उन्होंने संकेत में मुझे बता दिया कि प्रभाकर की पसंद से उन्हें इनकार नहीं है और प्रत्यक्षरूप से मैं ने भी जता दिया कि मैं बिट्टी की मां हूं और किस प्रयोजन से उन के पास आई हूं.

‘‘कहां खोई हो, मां?’’ कमरे से बाहर निकलते हुए बिट्टी बोली. मैं चौंक पड़ी. रजनीगंधा की डालियों को पकड़े कब से मैं भावशून्य खड़ी थी. अतीत चलचित्र सा घूमता चला गया. कहानी पूरी नहीं हो पाई थी, अंत बाकी था.

जब घर में प्रभाकर और सुरेश ने एकसाथ प्रवेश किया तो यों प्रतीत हुआ, मानो दोनों एक ही डाली के फूल हों. दोनों ही सुंदर और होनहार थे और बिट्टी को चाहने वाले. प्रभाकर ने तो बिट्टी से विवाह की इच्छा भी प्रकट कर दी थी, परंतु सुरेश अंतर्मुखी व्यक्तित्व का होने के कारण उचित मौके की तलाश में था.

सुरेश ने झुक कर मेरे पांव छुए और बिट्टी को एक गुलाब का फूल पकड़ा कर उस का गाल थपथपा दिया. ‘‘आते समय बगीचे पर नजर पड़ गई, तोड़ लाया.’’

प्रभाकर ने मुझे नमस्ते किया और पूरे घर में नाचते हुए रसोई में प्रवेश कर गया. उस ने दोचार चीजें चखीं और फिर बिट्टी के पास आ कर बैठ गया. मैं भोजन की अंतिम तैयारी में लग गई और बिट्टी ने संगीत की एक मीठी धुन लगा दी. प्रभाकर के पांव बैठेबैठे ही थिरकने लगे. सुरेश बैठक में आते ही रैक के पास जा कर खड़ा हो गया और झुक कर पुस्तकों को देखने लगा. वह जब भी हमारे घर आता, किसी पत्रिका या पुस्तक को देखते ही उसे उठा लेता. वह संकोची स्वभाव का था, भूखा रह जाता. मगर कभी उस ने मुझ से कुछ मांग कर नहीं खाया था.

मैं सोचने लगी, क्या सुरेश के साथ मेरी बेटी खुश रह सकेगी? वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका है. संभवतया साक्षात्कार भी उत्तीर्ण कर लेगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी बनने की गरिमा से युक्त सुरेश बिट्टी को कितना समय दे पाएगा? उस का ध्येय भी मेरे पति की तरह दिनरात अपनी उन्नति और भविष्य को सुखमय बनाने का है जबकि प्रभाकर का भविष्य बिलकुल स्पष्ट है. सुरेश की गंभीरता बिट्टी की चंचलता के साथ कहीं फिट नहीं बैठती. बिट्टी की बातबात में हंसनेचहकने की आदत है. यह बात कल को अगर सुरेश के व्यक्तित्व या गरिमा में खटकने लगी तो? प्रभाकर एक हंसमुख और मस्त युवक है. बिट्टी के लिए सिर्फ शब्दों से ही नहीं वह भाव से भी प्रेम दर्शाने वाला पति साबित होगा. बिट्टी की आंखों में प्रभाकर के लिए जो चमक है, वही उस का प्यार है. यदि उसे सुरेश से प्यार होता तो वह प्रभाकर की तरफ कभी नहीं झुकती, यह आकर्षण नहीं प्रेम है. सुरेश सिर्फ उस का अच्छा मित्र है, प्रेमी नहीं. खाने की मेज पर बैठने के पहले मैं ने फैसला कर लिया था.

पैकेज 24 लाख का : आशा को किस बात का गुमान था

अरुणा को जब पता चला कि उस की बहन आशा पुणे से नोएडा पिताजी के पास 4-5 दिनों के लिए रहने के लिए आ रही है, तो उस ने एक पल भी नहीं गंवाया सोचने में और उस से मिलने का मन बना लिया. हापुड़ से नोएडा दूर ही कितना था. उस के पति ने भी मना नहीं किया.

4 साल पहले मां की मृत्यु के समय ही आशा से मिलना हुआ था. मां के जाने के बाद अरुणा का उस घर में न तो कभी जाना ही हुआ और न ही कभी उस ने जाना चाहा. मां के बिना उस घर की कल्पना कर के ही वह सिहर उठती थी. लेकिन इस बार उस ने 3-4 दिनों का कार्यक्रम बना कर झटपट अटैची लगाई और बेटी के साथ बस में बैठ कर नोएडा के लिए रवाना हो गई.

रास्तेभर जहां उसे इतने सालों बाद आशा से मिलने की खुशी हो रही थी, वहीं मां विहीन उस उजड़े घर में कैसे प्रवेश करेगी, इस की भी चिंता हो रही थी. आशा को सरप्राइज देने का मन हुआ, इसलिए अरुणा ने उसे सूचित नहीं किया और पहुंच गई. अचानक उसे आया देख कर आशा ने हमेशा की तरह बनावटी खुशी दिखाई. उस के इस स्वभाव को जानते हुए भी यह सोच कर कि पता नहीं फिर कब मिलना होगा, अपने को आने से रोक नहीं पाई. आखिर थी तो उस की छोटी और इकलौती सगी बहन.

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अरुणा की बहन आशा, उस से 2 साल छोटी थी, लेकिन बचपन से ही, उस से बेहतर अपनी कदकाठी के कारण तथा अपने व्यवहार से, अपना वर्चस्व रख कर उस पर हावी रहती थी.

अरुणा इस के विपरीत बहुत मृदुल स्वभाव की थी. कोई भी अनजान व्यक्ति आशा को अरुणा की बड़ी बहन समझ सकता था. पढ़ाईलिखाई में अरुणा हमेशा उस से अव्वल रही, लेकिन फिर भी आशा उसे अपने आगे कुछ भी नहीं गिनती थी. अरुणा को बहुत मानसिक कष्ट भी होता था, लेकिन आशा को कोई परवा न थी. उस का विवाह अरुणा के विवाह के सालभर बाद ही हो गया था.

जहां अरुणा के पति हापुड़ जैसे छोटे शहर में छोटी सी सरकारी नौकरी करते थे, वहीं आशा के पति पुणे में किसी बहुत बड़ी कंपनी के मालिक थे. विवाह के बाद भी आशा के स्वभाव में रत्तीभर परिवर्तन नहीं आया, बल्कि ससुराल में बड़ी बहू होने के कारण और पति के ऊंचे ओहदे पर होने के कारण वह पहले से भी अधिक अभिमानी हो गई थी.

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मायके में जब भी वे दोनों मिलतीं, आशा अरुणा को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थी. और तो और, उस के बच्चों में और अपने बच्चों में भी बहुत अंतर रखती थी. एक दिन तो हद हो गई जब अरुणा ने अपनी मां के घर, रसोई से फुरसत पा कर कमरे में जा कर देखा कि आशा अपनी बेटी के साथ रजाई में बैठ कर टैलीविजन देख रही थी और उस की बेटी बिना रजाई के ठिठुर रही थी. उस ने अपनी बेटी को रजाई तो ओढ़ा दी, लेकिन अपना रिश्ता स्थिर रखने के लिए आशा से कुछ नहीं कहा, जानती थी कि बोलने पर बात बहुत बढ़ जाएगी.

उन की मां भी यदि आशा को कुछ समझाने के लिए कुछ कहती तो वह उलट कर तुरंत उत्तर देती, ‘हां, हां, आप की लाड़ली बेटी है न. आप तो उस की तरफदारी करेंगी ही.’ मां क्या बोलती, चुप रह जाती थी. लाड़ली बेटी का ताना तो आशा अकसर देती रहती थी. उसे यह समझ नहीं थी कि मां के लिए सभी बच्चे बराबर होते हैं, वे अपने स्वभाव से ही अंतर पैदा करवाते हैं.

मां की असमय मृत्यु होने पर सभी भाईबहन इकट्ठे हुए थे. अरुणा का मन हुआ कि अपनी बहन आशा के गले से लिपट कर खूब रो ले, लेकिन उस का रुख देख कर लगा ही नहीं कि उस को रत्ती भर भी मां के जाने का संताप है. वह मन मसोस कर रह गई, दोनों भाई तो विवाह के बाद पहले ही पराए हो चुके थे, सभी अपनों के असली चेहरे देख कर अरुणा का मन बहुत क्षुब्ध हुआ. उस को लगा कि वह अकेली रह गई है.

उस का बेटा और बेटी दोनों ही नानी से बहुत जुड़े हुए थे. बेटी तो समझदार थी, लेकिन बेटा छोटा होने के कारण सब क्रियाकलाप देख कर बहुत विचलित हो गया था और सब से अजीब व्यवहार करने लगा था. आशा कारण की गहराई में गए बिना सब के सामने जोरजोर से बोलने लगी, ‘मांबाप ने सिर पर चढ़ा रखा है. जरा भी तमीज नहीं सिखाई. अभी से यह हाल है तो आगे क्या करेगा.’

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अरुणा यह देख कर हतप्रभ रह गई. पहले तो वह समझ नहीं पाई कि वह किस के लिए बोल रही है, समझ में आने पर उस को विश्वास ही नहीं हुआ कि उस की बहन उस के बेटे की भावना को समझने के स्थान पर उस के लिए इतना अनर्गल बोल सकती है, वह भी ऐसे मौके पर. उस की 2 बेटियां ही थीं इसलिए वह इतनी कुंठित रहती थी कि उस को अरुणा का बेटा फूटी आंख नहीं सुहाता था.

मौसी को तो मां-सी माना गया है, फिर यह कैसी मौसी है, जिस ने इस रिश्ते को पराया करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उस की बेटियों को अपनी मां का व्यवहार बिलकुल ठीक नहीं लग रहा था, यह साफ उन के चेहरे के भाव बता रहे थे. लेकिन वे अपनी मां से अत्यधिक डरती थीं, इसलिए मूकदर्शक बनी रहती थीं. अरुणा को बच्चों को इस तरह डरा कर रखना उचित नहीं लगता था. मां की तेरहवीं के अगले दिन ही वह आहत मन से वापस हापुड़ लौट गई.

उस के बाद आज मिलना हो रहा था. इतना कुछ होने के बाद भी अरुणा, उस से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाई. इसी को तो खून का रिश्ता कहते हैं, जो अटूट माने जाते हैं. आशा अपनी बेटियों के साथ आई थी. बड़ी बेटी, नेहा ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई रुड़की के आईआईटी कालेज से पास की थी, आशा उसी को स्थायी रूप से वहां से ले जाने के लिए ही, रुड़की से लौटते हुए नोएडा आई थी. वह नेहा के गुणगान गाते नहीं थक रही थी कि पुणे जाते ही उसे नौकरी मिल जाएगी. फिर कंपनी अवश्य उसे अमेरिका भेजेगी. उस की शादी की वह जल्दी नहीं करेगी. उस का साथ उस के पति भी भरपूर दे रहे थे.

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अरुणा उन की दंभभरी बातें सुन कर अवाक रह गई. वह तो उन की बातचीत का हिस्सा बनने लायक ही नहीं थी क्योंकि उस की बेटी, जो नेहा से कुछ ही महीने बड़ी थी, ने तो साधारण बीए किया था और टैक्सटाइल डिजाइनिंग का कोर्स, दिल्ली के किसी इंस्टिट्यूट से कर रही थी. इस बारे में सुनते ही आशा ने नाकभौं सिकोड़ ली. इस कोर्स के बाद उस को किसी फैक्टरी में ही नौकरी मिल सकती है. क्या पैकेज मिलेगा उस को, ज्यादा से ज्यादा साल का डेढ़ लाख. नेहा की तो एक महीने की इतनी सैलरी होगी,’’ उस ने अरुणा की बेटी की ओर तिरस्कारपूर्ण दृष्टि डालते हुए कहा. ‘‘लड़कियों का भविष्य अच्छा पैकेज नहीं, अच्छा ससुराल और उसे समझने वाला पति है. मैं ने उसे पैरों पर खड़ा कर दिया है, जिस से आवश्यकता पड़ने पर वह अपने परिवार की आर्थिक आवश्यकता भी पूरी कर सके, बस. और उस की पढ़ाई तो ऐसी है कि जिस से वह अपना व्यवसाय भी कर सकती है, जिस से उस का घर भी डिस्टर्ब नहीं होगा. मैं तो कोर्स पूरा होते ही उस के लिए अच्छा वर ढूंढ़ कर जल्द विवाह कर दूंगी, ससुराल जा कर जो चाहे करे. लड़कियों की प्राथमिकता घरपरिवार और बच्चे संभालना है, न कि नौकरी. पढ़ाई का सदुपयोग केवल नौकरी करना नहीं है, बल्कि पढ़ीलिखी लड़कियां, जागरूक होने के कारण अधिक अच्छी तरह, सुचारु रूप से परिवार को चला सकती हैं और बच्चे की बेहतर परवरिश कर सकती हैं,’’ अरुणा ने दो टूक जवाब देते हुए कहा. उस की बेटी के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचे, इसलिए बोले बिना अपने को रोक नहीं पाई.

‘‘दीदी, पढ़ीलिखी होने के बाद भी कैसी दकियानूसी बातें कर रही हैं आप. जमाना बहुत बदल गया है. पैसा हो तो घर संभालने के लिए हाउसकीपर रख सकते हैं और बच्चों के लिए, जैसा चाहो वैसे क्रेच खुले हुए हैं, उन में उन को छोड़ सकते हैं. उन को, वे जो चाहें, खरीद कर दे सकते हैं. हर उम्र के अनुसार खिलौने बाजार में आते हैं, जिन में वे बिजी रह सकते हैं. पैसे से हम बच्चों के लिए क्या नहीं उपलब्ध करा सकते…’’

आशा ने उस की बात नकारते हुए कहा, ‘‘बच्चे महंगे खिलौनों से सजे कमरे में नहीं, अपनी मां की गोद में सुरक्षित महसूस करते हैं. उन की प्रतिदिन की गतिविधियों को निहारने में जो सुख है, वह महंगी कारों में घूमने में और भोगविलास में भी नहीं है. पैसे से बच्चों के लिए भौतिक साधन तो जुटाए जा सकते हैं लेकिन अपने लिए उन के मन में जुड़ाव पैदा नहीं कर सकते. यह तभी संभव है जब हम उन्हें अपना साथ और समय देंगे, नहीं तो बड़े हो कर वे भी हमारे लिए सुखसाधन तो जुटा देंगे, लेकिन अपना समय नहीं देंगे और तुम्हें पता है, बुढ़ापे में अकेलापन किसी त्रासदी से कम नहीं होता है.’’

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अरुणा को अपनी बहन की सोच पर तरस आ रहा था. लेकिन वह समझने वाली कहां थी. पलट कर थोड़ा उत्तेजित हो कर बोली, ‘‘ठीक है दीदी, आप अपनी बेटी को हाउसवाइफ बनाओ, मेरी बेटी ने इंजीनियरिंग घर में बैठने के लिए नहीं की है.’’ उस के इस तीखे जवाब से अरुणा का मन कसैला सा हो गया. उस ने चुप रहना ही उचित समझा. रात को आशा और उस के पति एक कमरे में, बाकी सभी दूसरे कमरे में सोने चले गए. आशा की बेटियां जैसे मौके की तलाश में थीं, बोलीं, ‘‘मौसी, आप तो ममा से बड़ी हैं न. फिर वे क्यों आप की बात नहीं सुनतीं? मुझे उन का आप से इस तरह का व्यवहार बिलकुल अच्छा नहीं लगता, पता है हम अपने घर में कुछ भी अपने मन का नहीं कर सकते. हमारे लिए सारे निर्णय वे ही लेती हैं, पापा की भी नहीं सुनतीं. अदिति कितनी अच्छी है न, कि उसे आप जैसी मां मिलीं.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा कुछ नहीं है, अपनीअपनी सोच है, समय सब ठीक कर देगा.’’ इतना कहते ही अरुणा को नींद ने घेर लिया, लेकिन तीनों बहनों का वार्त्तालाप रातभर चलता रहा. अगले ही दिन भारी मन से अरुणा ने अपनी बहन से विदा ली. उस ने 1-2 दिन और रुकने के लिए उस से कहा. ‘‘नहीं, तेरे जीजाजी को खानेपीने की तकलीफ हो रही होगी,’’ अरुणा ने बहाना बनाया, जबकि आशा भी जानती थी कि वे बहुत अच्छा खाना पकाते हैं, फिर भी उस ने बात अनसुनी कर दी. अपनी बेटी को होस्टल छोड़ते हुए अरुणा वापस अपने घर पहुंच गई. समय बीतता गया.

अरुणा की बेटी, अदिति की सगाई एक कपड़े के व्यावसायिक परिवार में हो गई. लड़का पढ़ालिखा था और अकेला होने के कारण पिता के कपड़े के व्यवसाय से ही जुड़ा हुआ था. उस ने ही अदिति को किसी समारोह में देख कर पसंद किया था. अरुणा तथा उस के पति ने उन की सामाजिक स्थिति को देखते हुए कहा कि वे उन की हैसियत के अनुसार विवाह में खर्च नहीं कर पाएंगे, तो प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि उन्हें सिर्फ उन की बेटी चाहिए और कुछ नहीं.

विवाह में आशा भी अपनी दोनों बेटियों के साथ आई थी. नेहा को देख कर, कई लोगों ने उस के रिश्ते की बात चलाई, तो उस ने अहंकारभरी आवाज में उत्तर दिया कि अभी 2 साल वह और नौकरी कर ले, उस के बाद ही वह उस का विवाह करना चाहती है. तब तक उस का पैकेज 24 लाख रुपए का हो जाएगा. लेकिन शर्त यह है कि लड़का इंजीनियर हो, दूसरा, लड़के का पैकेज नेहा के पैकेज से अधिक होना चाहिए.

नेहा अपनी मां की बात बड़े ध्यान से सुन रही थी. अदिति का विवाह धूमधाम से हो गया. बेटी को विदा करने के बाद सभी मेहमान एकएक कर के वापस चले गए, सिर्फ आशा अपने परिवार के साथ 2 दिनों के लिए रुकी थी. विवाह के अगले ही दिन आशा की बेटी नेहा ने कहा, ‘‘ममा, मैं थोड़े दिन मौसी के पास रहना चाहती हूं, जिस से इन को अदिति की कमी न महसूस हो. मैं औफिस से छुट्टी ले लूंगी, प्लीज ममा मना मत करना.’’

‘‘तेरा दिमाग तो नहीं खराब हो गया? यहां हापुड़ में रह कर क्या करेगी? टाइम वैस्ट होगा. न कोई घूमने की जगह…’’ इस से पहले कि आशा अपनी बात पूरी करे, नेहा बोली, ‘‘मुझे मौसी के साथ कुछ दिन रहना है, जिस से कि मैं इन से कुछ अच्छे संस्कार ले सकूं.’’

‘‘मतलब, तू अदिति जैसा जीवन जीना चाहती है. तुझे इसी दिन के लिए इंजीनियरिंग करवाई है मैं ने?’’

‘‘क्या बुराई है ममा, मैं अपने सहयोगी चेतन से विवाह करने वाली हूं और उस की मां की तबीयत ठीक नहीं रहती है, इसलिए मुझे नौकरी छोड़ कर घर पर रहना पड़ेगा. आप तो किटी पार्टी और क्लब में इतनी बिजी रहती हैं कि मुझे कुछ सीखने को मिला ही नहीं, इसलिए इन के पास रह कर कुछ लड़कियों वाले गुण सीखूंगी, जिस से चेतन और उस की मां को खुश रख सकूं.’’

‘‘चेतन, जो तेरा सबौर्डिनेट है, उस से विवाह करेगी, ऐसा तू ने सोचा भी कैसे?’’

‘‘ममा, अभी तक अपना जीवन आप के अनुसार जीती आई हूं, अब अपने विवाह का निर्णय मैं स्वयं लेना चाहती हूं. यह मेरा व्यक्तिगत मामला है.’’ आशा अवाक अपनी बेटी का मुंह देखती रह गई. नेहा, जिस ने कभी उस के सामने मुंह भी नहीं खोला था, उस को जवाबसवाल करते देख कर आशा भौचक्की रह गई थी. अरुणा ने नेहा को समझाते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटा, ममा से इस तरह बात नहीं करते.’’ अरुणा की बात बीच में काट नेहा बोली, ‘‘यह तो मैं ने इन से ही सीखा है, नानी को और आप को भी तो ये इसी तरह जवाब देती हैं. मैं तंग आ गई हूं इन की तानाशाही से, अपने मन का कुछ कर ही नहीं सकती.’’

इतना कह कर नेहा रोंआसी हो कर सोफे पर बैठ गई. आशा को अपनी बेटी के इस अप्रत्याशित रूप को देख कर बहुत धक्का लगा, और धम्म से अपना सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गई तो अरुणा उसे गले लगाते हुए बोली, ‘‘आशा, मेरी बहन, आजकल के बच्चे हमारे जमाने वाले नहीं हैं. इन की डोर जितनी खींचोगे, उतनी ही दूर ये टूट कर जा गिरेंगे, आवश्यकतानुसार ही डोर खींचनी चाहिए. मैं बड़ी हूं, इसलिए समझा रही हूं, बुरा मत मानना.’’

‘‘नहीं दीदी, मेरी आंखें खुल गई हैं, मुझे माफ कर दीजिए, किसी ने सच कहा है, अपनी औलाद ही मांबाप को एक न एक दिन सबक सिखाती है,’’ आशा इतना बोल कर सुबकने लगी. आशा बीता वक्त तो लौटा नहीं सकती थी लेकिन भविष्य को तो संवार सकती थी.

बरसों की साध: भाग 1

प्रशांत को जब अपने मित्र आशीष की बेटी सुधा के साथ हुए हादसे के बारे में पता चला तो एकाएक उसे अपनी भाभी की याद आ गई. जिस तरह शहर में ठीकठाक नौकरी करने वाले मित्र के दामाद ने सुधा को छोड़ दिया था, उसी तरह डिप्टी कलेक्टर बनने के बाद प्रशांत के ताऊ के बेटे ईश्वर ने भी अपनी पत्नी को छोड़ दिया था. अंतर सिर्फ इतना था कि ईश्वर ने विदाई के तुरंत बाद पत्नी को छोड़ा था, जबकि सुधा को एक बच्चा होने के बाद छोड़ा गया था.

आशीष के दामाद ने उन की भोलीभाली बेटी सुधा को बहलाफुसला कर उस से तलाक के कागजों पर दस्तखत भी करा लिए थे. सुधा के साथ जो हुआ था, वह दुखी करने और चिंता में डालने वाला था, लेकिन इस में राहत देने वाली बात यह थी कि सुधा की सास ने उस का पक्ष ले कर अदालत में बेटे के खिलाफ गुजारेभत्ते का मुकदमा दायर कर दिया था.

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अदालत में तारीख पर तारीख पड़ रही थी. हर तारीख पर उस का बेटा आता, लेकिन वह मां से मुंह छिपाता फिरता. कोर्टरूम में वह अपने वकील के पीछे खड़ा होता था.

लगातार तारीखें पड़ते रहने से न्याय मिलने में देर हो रही थी. एक तारीख पर पुकार होने पर सुधा की सास सीधे कानून के कठघरे में जा कर खड़ी हो गई. दोनों ओर के वकील कुछ कहतेसुनते उस के पहले ही उस ने कहा, ‘‘हुजूर, आदेश दें, मैं कुछ कहूं, इस मामले में मैं कुछ कहना चाहती हूं.’’

अचानक घटी इस घटना से न्याय की कुरसी पर बैठे न्यायाधीश ने कठघरे में खड़ी औरत को चश्मे से ऊपर से ताकते हुए पूछा, ‘‘आप कौन?’’

वकील की आड़ में मुंह छिपाए खडे़ बेटे की ओर इशारा कर के सुधा की सास ने कहा, ‘‘हुजूर मैं इस कुपुत्र की मां हूं.’’

‘‘ठीक है, समय आने पर आप को अपनी बात कहने का मौका दिया जाएगा. तब आप को जो कहना हो, कहिएगा.’’ जज ने कहा.

‘‘हुजूर, मुझे जो कहना है, वह मैं आज ही कहूंगी, आप की अदालत में यह क्या हो रहा है.’’ बहू की ओर इशारा करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप इस की ओर देखिए, डेढ़ साल हो गए. इस गरीब बेसहारा औरत को आप की ड्योढ़ी के धक्के खाते हुए. यह अपने मासूम बच्चे को ले कर आप की ड्योढ़ी पर न्याय की आस लिए आती है और निराश हो कर लौट जाती है. दूसरों की छोडि़ए साहब, आप तो न्याय की कुरसी पर बैठे हैं, आप को भी इस निरीह औरत पर दया नहीं आती.’’

न्याय देने वाले न्यायाधीश, अदालत में मौजूद कर्मचारी, वकील और वहां खडे़ अन्य लोग अवाक सुधा की सास का मुंह ताकते रह गए. लेकिन सुधा की सास को जो कहना था. उस ने कह दिया था.

उस ने आगे कहा, ‘‘हुजूर, इस कुपुत्र ने मेरे खून का अपमान किया है. इस के इस कृत्य से मैं बहुत शर्मिंदा हूं. हुजूर, अगर मैं ने कुछ गलत कह दिया हो तो गंवार समझ कर माफ कर दीजिएगा. मूर्ख औरत हूं, पर इतना निवेदन जरूर करूंगी कि इस गरीब औरत पर दया कीजिए और जल्दी से इसे न्याय दे दीजिए, वरना कानून और न्याय से मेरा भरोसा उठ जाएगा.’’

सुधा की सास को गौर से ताकते हुए जज साहब ने कहा, ‘‘आप तो इस लड़के की मां हैं, फिर भी बेटे का पक्ष लेने के बजाए बहू का पक्ष ले रही हैं. आप क्या चाहती हैं इसे गुजारे के लिए कितनी रकम देना उचित होगा?’’

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‘‘इस लड़की की उम्र मात्र 24 साल है. इस का बेटा ठीक से पढ़लिख कर जब तक नौकरी करने लायक न हो जाए, तब तक के लिए इस के खर्चे की व्यवस्था करा दीजिए.’’

जज साहब कोई निर्णय लेते. लड़के के वकील ने एक बार फिर तारीख लेने की कोशिश की. पर जज ने उसी दिन सुनवाई पूरी कर फैसले की तारीख दे दी. कोर्ट का फैसला आता, उस के पहले ही आशीष सुधा की सास को समझाबुझा कर विदा कराने के लिए उस की ससुराल जा पहुंचा. मदद के लिए वह अपने मित्र प्रशांत को भी साथ ले गया था कि शायद उसी के कहने से सुधा की सास मान जाए.

उन के घर पहुंचने पर सुधा की सास ने उन का हालचाल पूछ कर कहा, ‘‘आप लोग किसलिए आए हैं, मुझे यह पूछने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मुझे पता है कि आप लोग सुधा को ले जाने आए हैं. मुझे इस बात का अफसोस है कि मेरे समधी और समधिन को मेरे ऊपर भरोसा नहीं है. शायद इसीलिए बिटिया को ले जाने के लिए दोनों इतना परेशान हैं.’’

‘‘ऐसी बात नहीं हैं समधिन जी. आप के उपकार के बोझ से मैं और ज्यादा नहीं दबना चाहता. आप ने जो भलमनसाहत दिखाई है वह एक मिसाल है. इस के लिए मैं आप का एहसान कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’ आशीष ने कहा.

सुधा की सास कुछ कहती. उस के पहले ही प्रशांत ने कहा, ‘‘दरअसल यह नहीं चाहते कि इन की वजह से मांबेटे में दुश्मनी हो. इन की बेटी ने तलाक के कागजों पर दस्तखत कर दिए हैं. उस हिसाब से देखा जाए तो अब उसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. सुधा इन की एकलौती बेटी है.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. मेरे पास जो जमीन है उस में से आधी जमीन मैं सुधा के नाम कर दूंगी. जब तक मैं जिंदा हूं, अपने उस नालायक आवारा बेटे को इस घर में कदम नहीं रखने दूंगी. सुधा अगर आप लोगों के साथ जाना चाहती है तो मैं मना भी नहीं करूंगी.’’ इस के बाद उस ने सुधा की ओर मुंह कर के कहा, ‘‘बताओ सुधा, तुम क्या चाहती हो.’’

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‘‘चाचाजी, आप ही बताइए, मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली अपनी इन सास को छोड़ कर मैं आप लोगों के साथ कैसे चल सकती हूं.’’ सुधा ने कहा.

सुधा के इस जवाब से प्रशांत और आशीष असमंजस में पड़ गए. प्रशांत ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘मां से भी ज्यादा प्यार करने वाली सास को छोड़ कर अपने साथ चलने के लिए कैसे कह सकता हूं.’’

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