भाजपा के लिए चुनौती हैं प्रियंका

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने चुनावी प्रचार का शुभारम्भ ‘गंगा यात्रा’ से करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. इस बार का लोकसभा चुनाव सीधे-सीधे कांग्रेस और भाजपा के बीच होने वाला महायुद्ध नजर आ रहा है. प्रयागराज के मनैया घाट से अपनी तीन दिन की ‘गंगा-यात्रा’ का आगाज करके प्रियंका ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. वही गंगा, काशी में जिसके तट पर खड़े होकर 2014 में नरेन्द्र मोदी ने ललकार लगायी थी – ‘मुझे मां गंगा ने बुलाया है…’ वही गंगा, जिसके घाट पर 56 इंच की छाती ठोंक कर नरेन्द्र मोदी ने उसे प्रदूषण-मुक्त करने की शपथ उठायी थी और आजतक गंगा को प्रदूषण-मुक्त न कर सके, प्रयागराज में उसी गंगा की गोद में बैठ कर काशी तक 140 किलोमीटर का रास्ता बोट से तय करके प्रियंका गांधी वाड्रा ने भाजपा और मोदी की नींद उड़ा दी है. गंगा तट पर खड़े होकर उन्होंने गंगा मय्या में दूध अर्पित करते वक्त कहा – ‘मैं गंगा की बेटी हूं और मां का दर्द बेटी ही समझ सकती है.’ प्रियंका की यह भावनात्मक बात मोदी के दंभ और दावे पर भारी पड़ती है. वहीं गंगा तट पर घने बसे अत्यन्त पिछड़ी जाति के लोगों से सीधा सम्वाद स्थापित करके उन्होंने बसपा नेत्री मायावती का ब्लडप्रेशर भी बढ़ा दिया है. गंगा तट पर बसे केवट और मछुआरों को ही नहीं, बल्कि गैर यादव, गैर कुर्मी और गैर जाटव जातियों को अपने पाले में लाने की कोशिश में प्रियंका मोदी के ‘मन की बात’ सरीखी एकतरफा संवाद के विपरीत लोगों से जिस तरह आमने-सामने बातचीत कर रही हैं, उसके परिणाम कांग्रेस के हित में सिद्ध होंगे, इसमें दोराय नहीं है. गौरतलब है कि अत्यन्त पिछड़ी जातियों की संख्या उत्तर प्रदेश में करीब 34 फीसदी है, जिसमें निषाद, मछुआरा, बिंद, चौहान, धोबी, कुम्हार, केवट आदि शामिल हैं. यह जातियां गंगा के किनारे वाले इलाकों में बहुतायत से बसी हैं और  मिर्जापुर, जौनपुर, इलाहाबाद, लखीमपुर खीरी, फतेहपुर, मुजफ्फरनगर, अंबेडकर नगर, भदोही, बनारस जैसी सीटों पर इनका खासा प्रभाव है. इस तबके को जहां भाजपा की ’सवर्ण-मानसिकता’ अपने निकट भी फटकने नहीं देती, वहीं बसपा के सत्ता में रहने पर भी इस तबके को कभी कोई खास फायदा नहीं मिला है. प्रियंका की नजर उत्तर प्रदेश के मछुआरों और निषादों पर खासतौर पर है, जो पिछले चुनावों में भाजपा को वोट करते रहे हैं. पूरे सूबे में इन जातियों की आबादी करीब 12 फीसदी है. दरअसल, गोरखपुर उपचुनाव के परिणामों के बाद निषाद सूबे में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे थे. निषादों को अपने पाले में बनाये रखने के लिए भाजपा भी जीतोड़ मेहनत कर रही है. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार तो निषादराज की भव्य प्रतिमा बनवाने का ऐलान कर चुकी है. निषादों को साथ लाने के लिए प्रियंका ने संगम के पास छतनाग से ‘गंगा यात्रा’ शुरू करने के बजाय मनैया के घाट को चुना क्योंकि मनैया निषादों द्वारा बसाया गया गांव है. कहना गलत न होगा कि प्रियंका की ‘गंगा यात्रा’ के निहितार्थ गहरे हैं, होमवर्क पूरा है और शायद यही वजह है कि किसी भी गठबंधन से दूर कांग्रेस ने पूरे देश में अपने दम पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है.

घिर गये हैं चौकीदार

खुद को देश का चौकीदार घोषित करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जनता से संवाद के वक्त बॉडीलैंग्वेज जहां अहंकार, कठोरता, कटुता, व्यंग्य, अतिश्योक्तियों और लड़ने-मरने जैसे भाव प्रदर्शित करती है, वहीं उससे बिल्कुल उलट प्रियंका के भाषणों में जमीन से जुड़ी, किसानों-मजदूरों की परेशानियों से जुड़ी, युवाओं के रोजगार से जुड़ी इमोशनल बातें लोगों को ज्यादा प्रभावित कर रही हैं. प्रियंका के वाक्यों पर गौर करें – ‘देश संकट में है, इसलिए मुझे घर से निकलना पड़ा… मैं काफी वर्षों से घर में थी, लेकिन अब देश संकट में है… आज किसानों को फसलों का सही दाम नहीं मिल रहा है… पिछले पांच साल में देश में बेरोजगारी बढ़ी है…’ इन वाक्यों से आमजन खुद का ज्यादा जुड़ा हुआ पाता है. और सबसे बड़ा और तीखा हमला तो प्रियंका ने मोदी पर यह कह कर किया है कि – ‘चौकीदार तो अमीरों के होते हैं….’. ऐसा कह कर प्रियंका ने मोदी को उन्हीं के नारे ‘मैं भी चौकीदार’ में घेर दिया है. मोदी सिर्फ अपने खास और अमीर उद्योगपति अडानी-अम्बानी के चौकीदार हैं, प्रियंका के कथन में छिपी इस बात को समझना जनता के लिए मुश्किल नहीं है.

संभ्रांत और सेक्युलर छवि

भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी संगठन अक्सर प्रियंका को ईसाई बता कर उन पर निशाना साधते रहे हैं, लेकिन संगम तट पर लेटे हुए हनुमान जी के दर्शन और पूजा-अर्चना के बाद ‘गंगा-यात्रा’ की शुरुआत करके उन्होंने साफ कर दिया है कि उनकी रगों में हिन्दू का खून भी है. प्रियंका ने उसी जगह पर पूजा की, जहां कभी उनकी दादी इंदिरा गांधी ने पूजा की थी. ऐसा करके जहां उन्होंने इंदिरा की यादों को लोगों के दिलों में ताजा किया, वहीं उन्हें हिन्दू विरोधी कहने वालों के मुंह पर भी ताला जड़ दिया है. रोजी-रोटी के सवालों से जूझ रही और देश में शान्ति-अमन की चाह रखने वाली जनता प्रियंका की इस सेक्युलर छवि से काफी प्रभावित है और इसका फायदा चुनाव में कांग्रेस को मिलेगा, इसमें कोई शक नहीं है.

वहीं, अब तक जो मुसलमान बसपा, सपा और भाजपा के बीच बंट गया था, वह भी अब कांग्रेस के पक्ष में एकजुट होता नजर आ रहा है. बीते पांच सालों में मोदी-राज में गोरक्षा और लवजिहाद के नाम पर जो कत्लेआम मचा उससे अल्पसंख्यकों में डर का माहौल है, ऐसे में प्रियंका की सेक्युलर छवि उन्हें आकर्षित कर रही है. इसमें दोराय नहीं है कि इस बार मुसलमान कांग्रेस के पक्ष में एकजुट होगा. वहीं अति पिछड़ी जातियों से सीधा संवाद स्थापित करके प्रियंका ने सपा और बसपा के दिल में भी धुकधुकी पैदा कर दी है.

मेरठ में जिस तरह प्रियंका भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद को देखने अस्पताल पहुंचीं, उससे बसपा नेत्री मायावती की झुंझलाहट बढ़ गयी है. भीम आर्मी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे मजबूत है. यहां के लोग मायावती से बड़ा नेता युवा और जोश से लबालब चंद्रशेखर को मानते हैं, जो लम्बे समय से मजदूरों के हक में आवाज बुलंद कर रहे हैं. दलित समुदाय के युवा खुद को चंद्रशेखर से जुड़ा महसूस करते हैं. ऐसे में प्रियंका का उनसे मिलना एक सीधा सियासी गणित है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एससी वोटों पर अच्छी पकड़ रखने वाले चंद्रशेखर आजाद के साथ गठबंधन कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित होगा.

ठीक वक्त पर एंट्री

नजरें लक्ष्य पर, सौम्य-सधी आवाज और बातचीत में एकदम अपनों जैसा प्यार… इन विशेषताओं के साथ प्रियंका गांधी वाड्रा अन्तत: चुनाव मैदान में हैं. सालों से पर्दे के पीछे रह कर काम करने वाली प्रियंका को राजनीति में प्रत्यक्ष उतारने की मांग बहुत लम्बे समय से होती रही है, मगर निजी कारणों का हवाला देकर इतने सालों तक उन्हें इससे अलग रखा गया. एक तो उनके बच्चे छोटे थे और दूसरा उनके भाई राहुल गांधी का करियर डांवाडोल था. अब ऐसे वक्त में प्रियंका की एंट्री हुई है, जब बच्चे भी समझदार हो गये हैं और राहुल गांधी भी ‘पप्पू’ वाली छवि तोड़ कर बतौर पार्टी-अध्यक्ष कांग्रेस की झोली में तीन राज्यों की सरकारें डालने में कामयाब रहे हैं. अब सदन के भीतर-बाहर राहुल धाराप्रवाह भाषण करते हैं. उनके अचानक अटैक और प्यार की झप्पी से तो प्रधानमंत्री मोदी तक हतप्रभ हो चुके हैं. इसलिए अब ऐसा कहना कि प्रियंका के आने से राहुल का करियर चौपट हो जाएगा, गलत है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो प्रत्यक्ष राजनीति में प्रियंका की एंट्री से कांग्रेस दोहरी मजबूती के साथ चुनाव मैदान में है. एक और एक ग्यारह की ताकत के साथ राहुल-प्रियंका 2019 की लोकसभा की वैतरणी पार करेंगे.

दो मोर्चों पर मजबूती से खड़ी हैं प्रियंका

प्रियंका गांधी वाड्रा आज देश और परिवार दोनों ही मोर्चों पर मजबूती से खड़ी हैं. गौरतलब है कि उनके राजनीति में उतरने की सुगबुगाहट के साथ ही भाजपा चौकन्नी हो गयी थी. जैसे ही यह ऐलान हुआ कि प्रियंका को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया जा रहा है, पांच साल तक राबर्ट वाड्रा के अवैध रूप से प्रॉपर्टी खरीद मामले में खामोशी ओढ़े पड़ी जांच एजेंसियों में अचानक हलचल देखी जाने लगी और फिर प्रवर्तन निदेशालय ने राबर्ट वाड्रा को कथित रूप से अवैध सम्पत्ति और मनी लांड्रिग मामले में पूछताछ के लिए ठीक उसी दिन तलब कर लिया, जिस दिन प्रियंका को बतौर कांग्रेस महासचिव अपना पद ग्रहण करना था. आशंका व्यक्त की जा रही थी कि इसके खिलाफ कांग्रेसी हो-हल्ला मचाएंगे, मगर राबर्ट और प्रियंका दोनों ने शालीनता और सहयोग का परिचय दिया और रॉबर्ट वाड्रा पूछताछ का सामना करने के लिए एजेंसी के सामने हाजिर हो गये. चुनावी तैयारियों और रैलियों के अतिव्यस्त कार्यक्रम के बीच प्रियंका अपने पति राबर्ट को पूरा सपोर्ट करती नजर आयीं. कांग्रेस महासचिव की कुर्सी पर बैठने से पहले वे पति को लेकर प्रवर्तन निदेशालय पहुंचीं और फिर वहां से कांग्रेस आॅफिस जाकर उन्होंने कार्यभार संभाला. यही नहीं, जब राबर्ट वाड्रा को पूछताछ के लिए जयपुर तलब किया गया, तब भी प्रियंका लखनऊ में रैली पूरी करने के बाद सीधी जयपुर पहुंचीं. इन बातों से प्रियंका ने साफ कर दिया है कि वह देश और परिवार दोनों ही मोर्चों पर लड़ने के लिए मजबूती से कमर कस के खड़ी हैं और उनके यही तेवर भाजपा खेमे को डरा रहे हैं.

गौरतलब है कि 2014 में जब मोदी सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब राबर्ट वाड्रा को जेल भेजने की बातें खूब करते थे, मगर सत्ता में आने के बाद पांच साल तक वह इस मामले में खामोशी ओढ़े रहे. जैसे ही यह खबर आयी कि प्रियंका गांधी राजनीति में पदार्पण करने वाली हैं, केन्द्र के अधीन जांच एजेंसियां अचानक नींद से जाग पड़ीं. ऐसा क्यों हुआ यह सवाल सबकी जुबां पर है. प्रियंका ने एक लाइन में इस सवाल का जवाब दिया है – ‘सबको पता है, क्या हो रहा है?’ वहीं प्रियंका की तारीफ करते हुए पति रॉबर्ट वाड्रा ने सोशल मीडिया पर लिखा – ‘प्रिय पी, तुम एक सच्ची दोस्त, परफेक्ट वाइफ और मेरे बच्चों के लिए बेस्ट मां साबित हुई हो. आज के दिन दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक माहौल है, मुझे पता है तुम अपनी जिम्मेदारी को सही से निभाओगी. हम प्रियंका को देश के हवाले करते हैं. भारत की जनता इनका ध्यान रखे.’ राबर्ट के इस इमोशनल मैसेज से प्रियंका तो प्रभावित हुर्इं ही, कांग्रेसी खेमे में इस मैसेज ने संजीवनी का काम किया.

खून में दौड़ती राजनीति

राजनीति प्रियंका के खून में है. लम्बे समय से वह अमेठी और रायबरेली में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की रैलियों के आयोजन का कार्यभार संभालती रही हैं. उनकी कार्यशैली अनूठी है. वे अजनबियों के साथ पलक झपकते ही स्नेहिल सम्बन्ध बना लेती हैं. उनकी खूबसूरती और मोहक मुस्कान सामने वाले को सम्मोहित कर लेती है. अपने राजनीतिक दौरों के दौरान कभी प्रियंका किसी बूढ़ी महिला का हाथ थाम कर बैठ जाती हैं, कभी उनके साथ परांठा-अचार का नाश्ता करती हैं, तो कभी रिक्शे पर अपने बच्चों को घुमाती हैं. उनका यह व्यवहार क्षेत्र के लोगों को उनसे गहरे जोड़ता है. हालांकि वे थोड़ी गुस्सैल स्वभाव की भी हैं. मगर कार्यकर्ताओं का मानना है कि उनका गुस्सा उन लोगों पर ही प्रकट होता है, जो पार्टी का काम ठीक से नहीं करते हैं. ऐसा ही आचरण उनकी दादी इंदिरा गांधी का भी था. दरअसल प्रियंका में लोगों को इंदिरा की ही छवि नजर आती है. खासतौर पर उनकी हेयर स्टाइल और लम्बी नाक. तमाम समानताओं के साथ एक समानता यह भी है कि प्रियंका गांधी का करियर भी इंदिरा गांधी की तरह ही शुरू हुआ है. प्रियंका की तरह इंदिरा भी शुरू से ही स्मार्ट थीं, लेकिन उन्हें राजनीति से दूर रखा गया था. जवाहर लाल नेहरू ने कभी उन्हें अपनी उत्तराधिकारी के रूप में नहीं देखा. ये अलग बात थी कि राजनीति उन्हें विरासत में मिली थी. शुरू में गूंगी गुड़िया के रूप में मशहूर इंदिरा के राजनीतिक तेवर पिता की मृत्यु के बाद राजनीति में पदार्पण के साथ देश-दुनिया ने देखे. वैसे ही तेवर प्रियंका के हैं. महज 16 साल की उम्र में, प्रियंका गांधी ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया था. तब से वह कई राजनीतिक जुलूसों, रैलियों और सम्मेलनों में हिस्सा लेती रही हैं.

अपनी बात मनवाने में माहिर हैं प्रियंका

रायबरेली के पुराने लोग प्रियंका में हमेशा इंदिरा को देखते हैं. इंदिरा की तरह वे भी सीधी और भावुक बातें करके लोगों को वह करने पर मजबूर कर देती हैं, जो वह चाहती हैं. यह बात तो रायबरेली की पहली ही जनसभा में ही साबित हो गयी थी. वह 1999 का लोकसभा चुनाव था. कांग्रेस ने रायबरेली सीट से कैप्टन सतीश शर्मा को खड़ा किया था. भाजपा ने जवाब में राजीव गांधी के ममेरे भाई अरुण नेहरू को टिकट दिया था. अरुण नेहरू और राजीव गांधी में रिश्ते बिगड़ गये थे. वे कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गये थे. अरुण नेहरू मजबूत नेता थे. वहीं कैप्टन सतीश शर्मा सोनिया परिवार के घरेलू मित्र थे. प्रियंका उन्हें अंकल कहती थीं. कैप्टन रायबरेली से लगभग हारे हुए कैंडिडेट नजर आ रहे थे. उन्होंने प्रियंका से आग्रह किया कि वह उनकी एक चुनावी सभा में आ जाएं. तब प्रियंका सिर्फ 27 साल की थीं. रायबरेली में उनकी पहली जनसभा थी. प्रियंका ने वहां सिर्फ एक लाइन बोली – ‘मेरे पापा के साथ जिसने गद्दारी की. पीठ में छुरा भोंका, ऐसे आदमी को आपने यहां घुसने कैसे दिया? उनकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’ भीड़ ने प्रियंका की डांट सुनी. एक सन्नाटा खिंच गया चारों ओर. प्रियंका को लगा कि कुछ ज्यादा हो गया. उन्होंने बात संभाली और बोलीं – ‘मेरी मां ने ये कह कर भेजा था कि कभी किसी की बुराई मत करना. लेकिन मैं आपसे भी अगर अपने दिल की बात नहीं कहूंगी, तो किससे कहूंगीं.’ और प्रियंका के इस इमोशनल सम्बोधन के बाद पूरा चुनाव ही पलट गया. कैप्टन सतीश शर्मा जीत गये और अरुण नेहरू का राजनीतिक करियर खत्म हो गया. कैप्टन खुद मानते थे कि ये चुनाव उन्हें अकेली प्रियंका की एक मीटिंग ने जिता दिया था.

27 साल की तब की प्रियंका और 47 साल की आज की प्रियंका में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है. वे आज भी उसी तरह इमोशनल बातें करके लोगों का दिल जीत जीतने में उस्ताद हैं, मगर कोई कार्यकर्ता काम से जी चुराये तो डांट-डपट भी करने से नहीं चूकतीं. राजनीति उनके खून में है और मेच्योरिटी लेवल भाई राहुल गांधी से कहीं ज्यादा. यही वजह रही कि इतने साल तक सोनिया ने उन्हें राजनीति से दूर रखा ताकि राहुल ठीक तरह से स्थापित हो सकें.

भय्याजी के नाम से मशहूर हैं प्रियंका

राहुल और सोनिया गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी और रायबरेली में प्रियंका बचपन से ही काफी सक्रिय रही हैं. क्षेत्र के लोग राहुल गांधी के साथ-साथ प्रियंका को भी ‘भय्याजी’ के सम्बोधन से पुकारते हैं. इन दोनों जगहों को प्रियंका अपने घर के रूप में देखती हैं. प्रियंका की खासियत है कि वो लोगों से जल्दी जुड़ जाती हैं. इस बात के गवाह कई लोग हैं कि रायबरेली में प्रियंका गांधी कभी भी अचानक ही बीच सड़क पर रुककर किसी भी कार्यकर्ता को नाम से पुकार लेती थीं और उसका हालचाल लेती थीं. वर्ष 2004 के आम चुनाव में उन्होंने रायबरेली में सोनिया गांधी के लिए अभियान प्रबंधक के रूप में जबरदस्त काम किया था. वहीं अमेठी में भाई राहुल गांधी के अभियान की निगरानी भी उन्होंने की. वर्ष 2004 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत का परचम लहराया तो पार्टी में प्रियंका का कद बढ़ गया. हालांकि वह एक उम्मीदवार के रूप में या प्रचारक के रूप में पार्टी की चुनावी जीत में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभाती थीं, लेकिन वह इसके पीछे थीं.

2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जब राहुल गांधी अपने राज्यव्यापी अभियान में व्यस्त थे, प्रियंका ने अमेठी-रायबरेली क्षेत्र की दस सीटों पर अपनी ऊर्जा और प्रयास केन्द्रित किया. आम चुनाव 2009 और 2014 में, प्रियंका गांधी ने अमेठी और रायबरेली के निर्वाचन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर प्रचार किया और अपने भाई और मां के लिए जीत हासिल करने में मदद की.

प्रियंका गांधी की छवि और कार्यशैली में उनकी दादी इंदिरा की छाप और असर है. कांग्रेस पार्टी में प्रियंका से बड़ा स्टार प्रचारक कोई नहीं है. अबकी लोकसभा में कांग्रेस की नय्या पार लगाने की पूरी जिम्मेदारी प्रियंका पर है. गांधी परिवार की इस सदस्या के सक्रिय राजनीति में उतरने की राह लोग काफी समय से देख रहे थे. प्रियंका गांधी वाड्रा का लक्ष्य भी हालांकि सत्ता प्राप्त करना है, मगर यह सत्ता वह अपने भाई राहुल गांधी के लिए पाना चाहती हैं. वह लम्बे समय से पार्टी और राहुल के लिए काम कर रही हैं. मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के तमाम राजनीतिक कार्यक्रमों में संयोजक के तौर पर उनकी भूमिका हमेशा प्रभावशाली रही है. उनकी तेजी और स्मरण शक्ति गजब की है. अमेठी और रायबरेली में वह अपने कार्यकर्ताओं को बकायदा नाम से पुकारती हैं. उनकी यह खूबी उन्हें कार्यकर्ताओं से सीधे जोड़ती है. 2019 के चुनाव में उनका उतरना विपक्षी दलों के लिए चिन्ता का विषय है.

भाजपाइयों में उत्साह नदारद

भाजपा का सीधा मुकाबला इस बार कांग्रेस से है, यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनका गोदी-मीडिया भलीभांति समझ रहा है. प्रियंका के आने के बाद कांग्रेस पार्टी मजबूती से खड़ी हुई है, इस बात से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इत्तेफाक रखते हैं. कांग्रेस का सपा और बसपा से गठबंधन न करना यह साफ जाहिर करता है कि प्रियंका की लीडरशिप में अबकी बार पार्टी पूरे कॉन्फिडेंस में है. विरोधी खेमा प्रियंका-प्रलय का आंकलन करने में जुटा है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कुम्भ स्नान के बाद से ही हवा का रुख भांपने में लगे हैं. पुलवामा में सीआरपीएफ के चालीस जवानों की शहादत और पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक कर मोदी-शाह जनता पर ‘भाजपा की देशभक्ति’ का रौब गालिब करने में उस तरह सफल नहीं हो पाये, जैसा कि उनकी सोच थी. उलटे वह कई संगीन और संवेदनशील सवालों के घेरे में आ फंसे हैं. कई जवानों के परिजनों ने यह सवाल उठा दिये हैं कि पुलवामा में एक आतंकी इतना विस्फोटक लेकर पहुंचा कैसे? सुरक्षा में इतनी बड़ी खामी आखिर किसकी गलती से हुई? पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक कर सेना के कारनामे को अपना कारनामा बताने वाली केन्द्र की भाजपा सरकार ने आखिर अब तक पुलवामा हमले की जांच क्यों नहीं करवायी? यह तमाम सवाल चारों ओर से उठ रहे हैं और ऐसे में प्रियंका गांधी वाड्रा का अनेक शहीद जवानों के परिजनों से जाकर मिलना और उनसे संवाद स्थापित करना मोदी-शाह की मुश्किलें बढ़ा रहा है.

अबकी बार भाजपा कार्यकर्ताओं में भी जोश 2014 के मुकाबले जरा कम ही नजर आ रहा है. संघ के भीतर से भी कई बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर अलग-अलग मत सामने आ चुके हैं. 2014 में जहां भाजपा के दिग्गज नेताओं ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकारा था और संघ की पूरी ताकत उनके पीछे थी, वहीं अबकी बार यह ताकत कुछ कम दिख रही है. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ या ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसा कोई प्रभावी नारा भी अभी तक जनता के कानों में नहीं पड़ा है. ‘मैं भी चौकीदार’ मुहिम भी टांय-टांय फिस्स ही दिख रही है. प्रधानमंत्री मोदी की इस मुहिम में शामिल होकर जब पंकजा मुंडा ने ट्वीट किया – ‘मैं भी चौकीदार’ तो इस पर उनको मिला एक मजेदार जवाब – ‘चिक्की कौन खाया?’

पार्टी कार्यकर्ताओं में ही नहीं, बल्कि भाजपा के धुरंधर नेताओं में भी इस बार जोश नदारद है. राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, उमा भारती, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी, अरुण जेटली जैसे कई दिग्गज भाजपाई खामोशी ओढ़े बैठे हैं, तो वहीं पुराने भाजपाई कलराज मिश्र, सैयद शाहनवाज हुसैन अपने टिकट कटने से नाराज दिख रहे हैं. ऐसे में चुनाव प्रचार उस गर्मजोशी से परवान चढ़ेगा, जैसा कि 2014 में था, ऐसा लगता नहीं है.

कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक प्रियंका गांधी

राजनीति की चुनावी रणभेरी अब बज चुकी है. 2019 का आम चुनाव कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के लिए ही जीने मरने का सवाल बन गया है. 3 राज्यों में मिली जीत से कांग्रेस में जोश है. वह इस जोश को पार्टी और वोटर दोनों के लिए इस्तेमाल करना चाहती है. यही वजह है कि कांग्रेस ने भी प्रियंका गांधी को मैदान में उतार कर अपना सब से अहम किरदार सामने कर दिया है.

कांग्रेस के पक्ष में बन रही हवा को इस ‘मास्टर स्ट्रोक’ से केवल चुनावी फायदा ही नहीं मिलेगा, बल्कि चुनाव के बाद उपजे हालात में नए तालमेल बनाने में भी खासा मदद मिलेगी. ‘शाहमोदी’ खेमे में भी इस से बेचैनी बढ़ गई है. ऐसे में एक बार फिर से प्रियंका गांधी को ले कर नएनए मैसेज वायरल होने लगे हैं.

12 जनवरी, 1972 को जनमी प्रियंका गांधी 47 साल की हो चुकी हैं. जनता उन में प्रधानमंत्री रह चुकी इंदिरा गांधी की छवि देखती है. इसी वजह से वे हमेशा ही कांग्रेस की स्टार प्रचारक मानी जाती रही हैं. समयसमय पर कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता प्रियंका गांधी के राजनीति में आने को ले कर मांग भी करते रहे हैं. कई चुनावों में अपनी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के चुनाव प्रचार में उन्होंने हिस्सा भी लिया है.

अभी तक प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली सीटों पर ही प्रचार अभियान को संभालती रही हैं या फिर परदे के पीछे रह कर काम करती रही हैं, पर साल 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है. पहली बार प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली से बाहर निकल कर चुनाव प्रचार करेंगी.

शानदार रुतबा

लोकसभा में सब से ज्यादा सीटें होने के चलते उत्तर प्रदेश बहुत अहम हो जाता है. उम्मीद की जा रही है कि प्रियंका गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की संसदीय सीट रायबरेली से चुनाव लड़ेंगी. प्रियंका का लंबा छरहरा कद, छोटे बाल और साड़ी पहनने का लुक उन्हें दादी इंदिरा गांधी के काफी करीब लाता है.

प्रियंका गांधी के अंदर संगठन की क्षमता, राजनीतिक चतुराई और बोलने की कला सब से अलग है. लोगों से बात करते समय खिलखिला कर हंसना और अपनी बात बच्चों की तरह जिद कर के मनवाने की कला प्रियंका गांधी को दूसरों से अलग करती है.

वैसे, प्रियंका गांधी जरूरत पड़ने पर अपने तेवर तल्ख करना भी जानती हैं. इस से कार्यकर्ता अनुशासन में रहते हैं. वे देश के सब से बड़े सियासी परिवार की होने के बाद भी सियासी बातें कम करती हैं. विरोधी दल के नेता उन के बारे में कुछ भी कहें, पर वे कभी इन नेताओं पर कमैंट नहीं करती हैं. कभी मीडिया कमैंट करने के लिए कहती भी है तो वे मुसकरा कर बात को टाल जाती हैं.

जोश में है कांग्रेस

प्रियंका गांधी को ले कर कई तरह के नारे कार्यकर्ताओं के बीच बहुत मशहूर हैं. इन में ‘अमेठी का डंका बेटी प्रियंका’ और ‘प्रियंका नहीं यह आंधी है नए युग की इंदिरा गांधी है’ सब से खास हैं.

साल 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रियंका गांधी जब साल 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए आई थीं तो सब से पहले इतने दिन बाद आने के लिए माफी मांगी थी. वे औरतों और बच्चों से बेहद करीब से बात करती हैं. उम्रदराज औरतें जब उन के पैर छूने के लिए आगे बढ़ती हैं तो उन्हें वे रोक लेती हैं. उन के हाथ अपने सिर पर रख लेती हैं.

प्रियंका गांधी के इस प्यार भरे बरताव से गांव की औरतें निहाल हो जाती हैं. कईकई दिन तक वे प्रियंका गांधी की बातें करती नहीं अघाती हैं.

खूब चला जादू

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने अमेठी व रायबरेली इलाके में चुनाव प्रचार किया था. उत्तर प्रदेश के इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने पूरे प्रदेश की 402 विधानसभा सीटों में से 22 सीटें जीती थीं.

अमेठी रायबरेली क्षेत्र में कुल

10 विधानसभा की सीटें थीं. इन में से 7 सीटें कांग्रेस ने जीत ली थीं. इन में बछरांवा से राजाराम, संताव से शिव गणेश लोधी, सरेनी से अशोक सिंह, डलमऊ से अजय पाल सिंह, सलोन से शिवबालक पासी, अमेठी से रानी अमिता सिंह और जगदीशपुर से रामसेवक कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए थे. 10 में से 7 सीटें जीतना कांग्रेस के लिए चमत्कार जैसा था. कांग्रेस के लिए यह चमत्कार प्रियंका गांधी वाड्रा ने किया था.

प्रियंका गांधी ने इस के पहले साल 2004 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली संसदीय सीट पर चुनाव लड़ रही अपनी मां सोनिया गांधी के चुनाव संचालन को संभाला था, वहीं 2009 के लोकसभा चुनाव में भी प्रियंका गांधी ने रायबरेली और अमेठी तक अपने को समेट कर रखा था.

प्रियंका गांधी के इस सहयोग से राहुल और सोनिया को पूरे प्रदेश में पार्टी के प्रचार का मौका मिला. इस से कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 22 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

प्रियंका गांधी को कांग्रेस का प्रचार प्रचारक माना जाता है. इसी वजह से उन को राजनीति में सीधेतौर पर उतरने की मांग कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के द्वारा होती रहती है. चुनावी राजनीति से दूर रहते हुए प्रियंका गांधी कांग्रेस का प्रचार करती रही हैं.

कामयाबी की धुरी

प्रियंका गांधी की शादी रौबर्ट वाड्रा से हुई है. उन के एक बेटा रेयान और बेटी मिरिया हैं.

प्रियंका जब चुनाव प्रचार में जाती हैं तो आमतौर पर बच्चे उन के साथ होते हैं. वे पौलिटिक्स के साथ अपने परिवार का पूरा ध्यान रखती हैं. वे अपनी मां और भाई के सहयोगी की भूमिका में अपने को रखती रही हैं.

कई बार प्रियंका गांधी बिना कहे ही सारी बात कह जाती हैं. उन का यही अंदाज राहुल गांधी से जुदा लगता है.

राहुल गांधी अपनी बात कहने के लिए भाषण का सहारा लेते हैं. प्रियंका गांधी जब नाराज होती हैं या किसी बात से सहमत नहीं होती हैं तो उन के हावभाव से पता चल जाता है. गुस्से में प्रियंका का चेहरा तमतमा कर लाल हो जाता है.

जानकार लोग कहते हैं कि ऐसे मौके कम ही आते हैं. कार्यकर्ताओं का गुस्सा कम करने के लिए प्रियंका गांधी अपनी मुसकान का सहारा लेती हैं. वे अपने ऊपर भी गुस्सा हो जाती हैं. उन की यह अदा देख कर कार्यकर्ता सबकुछ भूल कर वापस प्रियंका गांधी की बात सुनने लगते हैं.

प्रियंका गांधी की यही सफलता विरोधी दलों के लिए सोचने का विषय बन जाता है. सभी दलों को लगता है कि अगर प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार की कमान संभाल ली तो उन के सामने मुश्किल खड़ी हो जाएगी.

भाजपा के राज में सामाजिक विकास नहीं ब्राह्मणवाद का ढोंग बढ़ा?

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 15-15 साल, गुजरात में 20 साल और राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड जैसे राज्यों में राज कर चुकी भारतीय जनता पार्टी के समय में भले कुछ और न हुआ हो, वह दलित, पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण कराने में जरूर कामयाब हुई है. निचली और पिछड़ी जातियों में हिंदुत्व का उभार हुआ है.

मिडिल क्लास में हिंदू धार्मिकता बढ़ रही है. इस के देशभर में प्रचारप्रसार में भाजपा के राज वाले राज्यों का बड़ा योगदान रहा है. निचली, पिछड़ी जातियों के हिंदूकरण की वजह से ऊंची जातियों में भाजपा के प्रति नाराजगी जाहिर होने लगी थी.

गुजरात दंगों ने गुजराती समाज का हिंदूकरण करा दिया था. भाजपा ने हिंदुत्व विचारधारा को घरघर पहुंचाया. दलित, पिछड़ों को मूर्तियां दी जा रही हैं.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह चौहान ने अपने 15 साल के राज में सब से ज्यादा धार्मिक यात्राएं कराईं. वे खुद पिछड़े तबके से होते हुए भी हवनयज्ञ, तीर्थयात्राएं, मंदिर परिक्रमा करते रहे और गौ व ब्राह्मण महिमा का गुणगान करते रहे.

शिवराज सिंह चौहान ने दलितों को कुंभ स्नान कराने के पीछे इस तबके का शुद्धीकरण कर उसे ब्राह्मण बनाया था. हिंदू रीतिरिवाजों से जोड़ कर हिंदू धर्म में संस्कारित कराया था ताकि दलित तबका ब्राह्मणों की सेवा कर सके और दानदक्षिणा दे.

मुख्यमंत्री द्वारा सांसारिक सुखों का त्याग का दावा करने करने वाले 5 साधुओं तक को मंत्री बना दिया गया.

दलित, पिछड़े नेताओं की मूर्तियां लगाई गईं और इन तबके के लोगों को मूर्ति पूजा की ओर धकेलने की कोशिशें की गईं. चुनावों में हनुमान को दलित, वंचित जाति का बता कर इस तबके को हनुमान की पूजा करने और मंदिर बनाने का संदेश दिया गया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आएदिन हिंदू धर्म की बात करते रहते हैं. राजस्थान में वसुंधरा राजे मंदिरों की परिक्रमा करती रहीं. दलितों और पिछड़ों का शुद्धीकरण कर उन्हें ब्राह्मण बनाने की कोशिश होती रही.

यह अलग बात है कि दलितों और मुसलिमों पर हमले जारी रहे. दलित और पिछड़े तबके वाले हिंदू धर्म के संस्कारों को अपनाने में हिचकिचाते थे या डरते थे, उन्हें भाजपा सरकार ने हौसला दिया.

भाजपा के पार्टी दफ्तरों में दलित, पिछड़े तबके के नेता, कार्यकर्ता माथे पर तिलक, भगवा जैकेट, कुरतापाजामा पहने नजर आने लगे. मौब लिंचिंग की घटनाओं में पिछड़े और दलित जातियों के नौजवान ज्यादा भागीदार पाए गए. पिछड़ी जातियों के नौजवान गौ रक्षक बना दिए गए.

उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक नामक शख्स के घर में घुस कर भीड़ ने लाठी और ईंटों से हमला किया गया और फिर उस की हत्या कर दी गई.

अखलाक का बेटा दानिश उन्हें बचाने आया तो उसे घायल कर दिया गया. आरोपी पिछड़ी जातियों के निकले. इन जातियों के कुछ नौजवानों ने अखलाक पर गौ मांस खाने और घर में रखने का आरोप लगाया और गांव के मंदिर में लाउडस्पीकर से ऐलान कर के भीड़ को इकट्ठा किया गया.

सहारनपुर में दलित बस्ती में तोड़फोड़ की गई और आगजनी का मामला भी दलितों पर हमले की बड़ी घटना थी. यहां महाराणा प्रताप जयंती पर जुलूस निकाला गया और उन्हें हिंदू धर्म का रक्षक बताया गया. यह जुलूस दलित बस्ती से निकला तो दोनों समुदायों का झगड़ा हो गया. बाद में दलितों के घर जला दिए गए और उन के घरों में तोड़फोड़ की गई.

इसी तरह राजस्थान के अलवर में गौ गुंडों द्वारा 55 साल के पहलू खान की हत्या कर दी गई. पहलू खान गायों को ले कर अपने घर जा रहा था.

इन्हीं दिनों शंभूलाल रैगर ने अफराजुल नामक युवक की लव जिहाद के नाम पर हत्या कर दी थी. शंभूलाल रैगर ने अफराजुल को न केवल मौत के घाट उतारा, बल्कि इस दिल दहला देने वाले अपराध का वीडियो बना कर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया.

सरकारों का ऐसी घटनाओं को समर्थन मिलता रहा और आरोपियों का बचाव किया गया. सहारनपुर घटना में दलित युवा नेता चंद्रशेखर को देशद्रोह का मामला बना कर जेल भेज दिया गया.

टैलीविजन चैनलों पर शनि की दशा पर प्रवचन देने और उपाय बताने वाले मदन दाती को महामंडलेश्वर बना दिया गया.

मदन दाती राजस्थान के पाली के मेघवाल जाति के दलित समुदाय से हैं. यह बात अलग है कि अब वे अपने आश्रम में रह रही एक युवती के साथ बलात्कार मामले में फंसे हुए हैं और अपने सहयोगियों के साथ पैसों के लेनदेन मामले में विवादों में भी हैं.

मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जो विधायक चुन कर आ रहे हैं, वे अब पिछड़े, दलित नहीं, ब्राह्मण बन चुके हैं. ज्यादातर की 2-3 पीढि़यां सामाजिक और माली तौर पर बदल गई हैं.

लेकिन अभी भी इन तबकों का माली, सामाजिक विकास नहीं हो पाया. भाजपा ने इसे सामाजिक समरसता का नाम जरूर दिया, पर दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारे जाने की सब से ज्यादा वारदातें भाजपा के राज वाले राज्यों में ही हुईं.

भाजपा के राज वाले राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मामलों में पिछड़े हुए हैं. इन राज्यों में  निचली व पिछड़ी जातियों के लड़केलड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर सब से ज्यादा है.  इन तबकों के हाथों में ‘गीता’, ‘रामायण’ तो थमाईर् जा रही है, पर पढ़ाईलिखाई, रोजगार का इंतजाम कर के असली सामाजिक, माली विकास से अभी भी कोसों दूर हैं.

राफेल पर सरकार का बहाना

राफेल हवाई जहाजों की बढ़ी कीमतों के बारे में एक बहाना जो मोदी सरकार दे रही है कि वे पूरी तरह सुसज्जित हैं. भाजपा समर्थक वैबसाइटों और ग्रुपों पर फोटो प्रचारित किए जा रहे हैं कि पहले जो राफेल खरीदे जा रहे थे वेबस चेसिस की तरह के थे और अब जो आएंगे वे लक्जरी टूरिस्ट बस की तरह के हैं. अगर यह तथ्य सच है तो सरकार बनाने में क्यों हिचक रही है कि क्या बदलाव लाए गए हैं और क्या खर्चा हुआ है.

रक्षा मामलों को गुप्त रखा जाना चाहिए पर इस का मतलब यह तो नहीं कि रक्षा खरीद और सैनिक मामलों में कुछ लोग मनमानी कर सकें. सेना की कौन सी ऐसी बात है जो दूसरे देश की सेना को नहीं मालूम होती. हर देश भारी पैसा और लोहो लगाता है कि दुश्मन की हर जानकारी मिलती रहे. आम जनता से छिपा कर रखने से तो लाभ तब हो जब वही एकमात्र जानकारी स्रोत हो.

भारत ये जहाज खुद नहीं बना रहा. फ्रांस की कंपनी डोसा बना रही है. वह यह जहाज किसी को भी बेच सकती है. पाकिसतान, चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश और यहां तक कि चाहे तो भूटान भी इन्हें खरीद सकता है. ये सब देश जब खरीदने जाएंगे तो कंपनी निश्चित रूप से अपनी नई से नई तकनीक बनाएगी और कहेगी कि भारत ने भी इसे खरीदा है और यदि भारत की तकनीक की मार या ….. उन के पास होगी तो वे क्यों न बेचेंगी.

ऐसे मामले में हमारी सुरक्षा धरी की धरी नहीं रह जाएगी क्या, फ्रांस और इंजिप्स ने राफेल हवाई जहाज खरीद ही रखे हैं. इंजिप्स से उन की जानकारी दूसरे मुसलिम  देश पाकिस्तान को न देगा इस की गारंटी क्या है?

वैसे भी आजकल जो इलैक्ट्रौनिक्स इन हवाई जहाहों की तो छोडि़ए आप की महंगी गाडि़यों तक में लग रही है वह दूर बैठे बनाने वाले के हाथों में पलपल में पहुंच रही है. हमारे मोबाइल की हर गतिविधि चाहे तो बनाने वाली कंपनी कभी भी खोल सकती है, यहां तक कि हम ने क्या बात की.

राफेल विमानों में गुप्त बातों का बहाना तो बेमतलब की बात है क्योंकि ये बातें हर खरीदार या संभावित खरीदार देश को बनानी ही होगी और इस तरह के लड़ाकू विमानों के हर समय दुनिया में 20-25 देश ग्राहक होते हैं. कतार और ब्रूनेई जैसे छोटे अमीर देश भी हवाई बेड़े रखते हैं. कतार भी राफेल के खरीदारों में से एक है.

अगर यह विवाद नहीं उठता, अगर 15 दिन पुरानी कंपनीको औफसेट पार्टनर नहीं बनाया जाता जिस के मालिक अनिल अंबानी हैं, अगर फैसला नरेंद्र मोदी की जगह रक्षा मंत्री और रक्षा अधिकारी करते तो बात दूसरी थी. अब जब लग रहा है कि घड़े में पानी के साथ कुछ और तो सिर्फ अमृत कहने से बला नहीं टल जाएगी. उस में गंगाजल नहीं यह गारंटी कहां है, नरेंद्र मोदी को इस को निबटाना होगा ही. उन के आराध्य विष्णु और शिव कहीं मोहिनी अवतार और विष पीने वाले बन कर आएं तो बात बने.

उज्ज्वला फेल, लकड़ी व उपले पास

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीसियों और घोषणाओं की तरह उज्ज्वला योजना के जरीए गांव में चूल्हे के कायाकल्प करने का दावा किया गया. 1 मई, 2016 से शुरू की गई इस योजना में गरीब परिवारों को एलपीजी गैस के मुफ्त कनैक्शन दिए गए.

सरकार दावा कर रही थी कि इस योजना के बाद गांवदेहात के घरों में लकड़ी के चूल्हों से छुटकारा मिल जाएगा, पर उज्ज्वला योजना में गैस के कनैक्शन जहां दिए गए वहां चूल्हे महज दिखाने के लिए ही हैं. ज्यादातर चूल्हों में जंग लग चुका है या फिर वे किसी ज्यादा पैसे वाले नातेरिश्तेदार के घर पहुंच चुके हैं.

गरीबी है अहम वजह

गांवों में ही नहीं, बल्कि शहरों की झुग्गियों में आज भी बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो गरीबी में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं. उन को यह पता है कि धुएं से आंखें खराब होती हैं और सांस यानी दमे की बीमारी का खतरा होता है.

वाराणसी के रहने वाले इंदू शेखर सिंह कहते हैं, ‘‘गांव के रहने वाले ज्यादातर लोगों की हालत ऐसी नहीं है कि वे 500 से 1,000 रुपए का गैस सिलैंडर खरीद सकें. गांव में उन्हें लकड़ी या उपले मुफ्त में मिल जाते हैं. ऐसे में उन्हें लकड़ी और उपले ही सुलभ ईंधन लगते हैं. जिन लोगों के पास पैसा है भी, तो वे यह सोचते हैं कि अगर पैसा बचा लिया जाए तो क्या नुकसान है? यही पैसा किसी और काम में लग जाएगा. गैस के इस्तेमाल को गांव के लोग अभी भी जरूरत की नहीं, बल्कि विलासिता की चीज मानते हैं.’’

सस्ती और सुलभ हो

लखनऊ की नेहा सिंह अपना स्कूल चलाती हैं जिस में तमाम गांव के लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते हैं.

वे कहती हैं, ‘‘गांव के लोगों के पास पैसा पहले की तुलना में बढ़ा जरूर है, पर उसी अनुमात में महंगाई भी बढ़ गई है. घरेलू गैस के लिए खर्च करना उन को फुजूल का काम लगता है. जरूरत इस बात की है कि घरेलू गैस को सस्ता किया जाए और वह हर जगह मिल जाए. अभी तो लोगों को दूर जा कर सिलैंडर लेना होता है.’’

उज्ज्वला योजना के सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि सिलैंडर को दोबारा सही से भरने का काम नहीं हो रहा है. गैस कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि 60 फीसदी गैस सिलैंडर दोबारा ढंग से नहीं भर पाते हैं.

आमदनी के साधन बढ़ें

दलितों व गरीबों के गांवों में अभी भी 60 से 80 फीसदी आबादी लकड़ी और चूल्हे पर ही खाना बना रही है. जिन बड़े परिवारों में घरेलू गैस का इस्तेमाल होने लगा है, वहां भी पूरा खाना घरेलू गैस पर नहीं बनता है.

ऐसे तमाम घरों में चायनाश्ता या घर की लड़कियां और नई बहुएं घरेलू गैस पर भले ही खाना या नाश्ता बना लें, पर बड़े घरों में भी पारंपरिक खाना चूल्हे पर ही बन रहा है. ऐसे में पैसे की कमी के साथसाथ जानकारी की कमी भी इस के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती है. इस की वजह एक ओर पैसों की कमी तो दूसरी ओर मुफ्त की लकड़ी और उपले हैं. अगर गांव के लोगों को भी लकड़ी और उपले खरीदने पड़ें तो वे पारंपरिक चूल्हों को बंद कर घरेलू गैस का इस्तेमाल शुरू कर सकते हैं.

मोदी और विपक्ष

वर्ष 2018 में कांग्रेस द्वारा बेंगलुरु में गैरभाजपाई दलों को इकट्ठा करना और अब तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी द्वारा कोलकाता में दोगुने जोश में लगभग सभी गैरभाजपाई दलों के नेताओं को जमा कर लेने की सफलता ने भाजपा को हिला दिया है. बेंगलुरु में जब कांग्रेस और जनता दल (सैक्युलर) ने मिल कर सरकार बनाई थी तो लगा था कि 2014 के बाद यह महज दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की जीत जैसी फ्लूक घटना है पर 5 विधानसभा चुनावों के नतीजों, जिन में भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार करने के बावजूद हारी है, ने साफ कर दिया है कि नरेंद्र मोदी की सरकार से मतदाता संतुष्ट नहीं हैं. कोलकाता की रैली में विपक्षियों का मिलन होने से साफ हो गया है कि मोदी की तानाशाही के खिलाफ विपक्षी एकजुट हैं. विपक्षी दलों की मजबूत होती एकता से भाजपा चिंता में है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीमार मंत्री, अस्पतालों से चाहे जो भी कहते रहें और नरेंद्र मोदी चाहे जितना मखौल उड़ाने की शैली में, बचाव करते नजर आएं, उन की परेशानियां बढ़ रही हैं, यह पक्का है.

गलती भाजपा की साफसाफ है. सब से बड़ी बात यह है कि हिंदू धर्म के पाखंड को देश से ऊपर मानने की भाजपा की गलती विपक्षी पार्टियों को फिर से जान दे रही है जिन्हें जनता ने पिछले आम चुनावों में इतिहास के कचरे में डाल सा दिया था. नरेंद्र मोदी की सरकार अपने कार्यकाल के दौरान हिंदू धर्म को चलाने में ज्यादा उत्सुक रही बजाय देश को गरीबी, गंदगी और गहरे गड्ढे से निकालने के.

बहुत लंबे समय बाद 2014 में नरेंद्र मोदी को एक ऐसी सरकार का मुखिया होने का मौका मिला था जिस में उन के पास पूर्ण से ज्यादा बहुमत था. फिर राज्यों के चुनावों ने इस उपलब्धि को और ज्यादा बेहतर कर दिया. लेकिन बजाय देश व समाज के पुनर्निर्माण में लगने के, नरेंद्र मोदी ने पौराणिक हिंदू राजाओं की तरह धार्मिक कर्मकांडों में अपना समय देना शुरू कर दिया.

नोटबंदी और जीएसटी भी धार्मिक काम बन कर रह गए. नोटबंदी पर नरेंद्र मोदी के भाषण की तुलना महाभारत के पात्र युधिष्ठिर से की जा सकती है जिस ने प्रण ले रखा था कि जब भी कोई उन्हें जुए में चुनौती देगा, तो जुआ खेल लेंगे. कालाधन निकालने के लिए उन्होंने जुआ खेला और पूरे देश की संपत्ति को बाहर कर दिया. गनीमत यह रही कि अज्ञात वनवास कुछ महीनों का ही रहा. लेकिन आखिरकार इसी जुए के कारण पांडवों को महाभारत का युद्ध करना पड़ा. महाभारत में भी भाजपा के आराध्य विष्णु के अवतार कृष्ण ने उसी तरह दुष्ट कौरवों के खिलाफ इधरउधर से एक धर्मसेना जमा की थी जैसी बेंगलुरु और कोलकाता में हुई है.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने कट्टर हिंदुओं को फिर से पौराणिक राज स्थापित करने की छूट दे रखी है. ऊंचे ब्राह्मणों और सवर्णों के लिए उन्होंने 10 फीसदी आरक्षण का तोहफा दिया है जबकि गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों की हत्याओं, किसानों की फसलों को बरबाद, और चमड़े के काम को नष्ट करने के आतंक के चलते उन्हें दंड देना था. ब्राह्मणपुत्र की मृत्यु के लिए वेदपाठी शंबूक की हत्या करने दी गई है. दलितों को मारने के लिए किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. दलितों और गरीबों का साथ देने वालों को देशद्रोही, अरबन नक्सलाइट कह कर जेलों में बंद कर रखा है.

निश्चित है कि जनआक्रोश अब पैदा होगा ही क्योंकि आज का समाज और आज की सरकार पौराणिक कहानियों के आधार पर नहीं चल सकती. वर्तमान की चुनौतियां कुछ और हैं. ममता बनर्जी और राहुल गांधी में मतभेद हैं पर, फिलहाल, उन को किसी और से मुकाबला करना है, इसीलिए कोलकाता पुलिस अफसर पर सीबीआई हमले पर सारा विपक्ष एकजुट हो गया है.

मसूद अजहर को छोड़ना भारत की सबसे बड़ी गलती थी

पुलवामा में सीआरपीएफ काफिले पर आतंकी हमले के बाद पूरा देश आक्रोशित है, 38 जवानो के शवों को देखकर हर आंख भीगी है. हर जुबान से बस यही निकल रहा है कि बस अब बहुत हुआ… अब इन्हे छोड़ना नहीं है. जिस वक़्त देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने शहीद जवान के ताबूत को कंधा दिया वो पल पूरे देश को रुला गया. पुलवामा की घटना और इससे पहले हुई कई घटनाएं ना घटतीं अगर हमने मसूद अज़हर जैसे खूंखार आतंकी को अपने चंगुल से ना निकलने दिया होता. बहुत बड़ी गलती हो गई जब कंधार विमान हाईजैक के दौरान आतंकी मसूद अजहर को छोड़ा गया. अगर उसको उस वक़्त शूट कर दिया जाता तो शायद संसद, उरी, पठानकोट और अब पुलवामा में आतंकी हमले न होते.

पुलवाम की साजिश रचने वाला जैश-ए-मुहम्मद का सरगना मौलाना मसूद अजहर वही आतंकी है, जिसे कंधार विमान हाईजैक के दौरान रिहा करना पड़ा था. मसूद अजहर की रिहाई के बाद पाकिस्तान चौड़ा हो गया और उसकी शह पाकर ही मसूद ने आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद को जन्म दिया. इसमें कोई शक नहीं कि मसूद के आतंकी संगठन को जहां पाकिस्तानी सेना का पूरा सपोर्ट है वहीं चीन भी उसको पूरा सपोर्ट करता है और उसका इस्तेमाल भारत को परेशान करने के लिए करता है.

मसूद अजहर को साल 1994 में पहली बार गिरफ्तार किया गया था. कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन का सदस्य होने के आरोप में उस वक्त उसकी श्रीनगर से गिरफ्तारी हुई. मौलाना मसूद अजहर की गिरफ्तारी के बाद, जो कुछ हुआ उसका शायद किसी को अंदाजा भी नहीं था. अज़हर को छुड़ाने के लिए आतंकियों ने 24 दिसंबर, 1999 को 180 यात्रियों से भरे एक भारतीय विमान को नेपाल से अगवा कर लिया और विमान को कंधार ले गए. भारतीय इतिहास में यह घटना ‘कंधार विमान कांड’ के नाम से दर्ज है. कंधार विमान कांड के बाद भारतीय जेलों में बंद आतंकी मौलाना मसूद अजहर, मुश्ताक जरगर और शेख अहमद उमर सईद की रिहाई की मांग की गई और यात्रियों की जान बचाने के लिए छह दिन बाद 31 दिसंबर को आतंकियों की शर्त मानते हुए भारत सरकार ने मसूद अजहर समेत तीनों आतंकियों को छोड़ दिया. इसके बदले में कंधार एयरपोर्ट पर अगवा रखे गए विमान के बंधकों समेत सभी को छोड़ दिया गया.

यहीं से शुरू हुई जैश की कहानी 

जेल से छूटने के बाद मसूद अजहर ने फरवरी 2000 में जैश-ए-मुहम्मद आतंकी संगठन की नींव रखी, जिसका मकसद था भारत में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देना और कश्मीर को भारत से अलग करना. उस वक्त सक्रिय हरकत-उल-मुदाहिददीन और हरकत-उल-अंजाम जैसे कई आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद में शामिल हो गए. खुद मसूद अजहर भी हरकत-उल-अंसार का महासचिव रह चुका है. साथ ही हरकत-उल-मुजाहिदीन से भी उसके संपर्क थे.

संसद, पठानकोट, उरी से लेकर पुलवामा हमले में जैश का हाथ

यह कोई पहली बार नहीं है, जब जैश ने भारत को दहलाने की कोशिश की हो. साल 2001 में संसद हमले से लेकर उरी और पुलवामा हमले में जैश का हाथ रहा है. अपनी रिहाई और आतंकी संगठन की स्थापना के दो महीने के भीतर ही जैश ने श्रीनगर में बदामी बाग स्थित भारतीय सेना के स्थानीय मुख्यालय पर आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी ली थी.

बड़े आतंकी हमले में जैश का हाथ

28 जून, 2000:

जम्मू कश्मीर सचिवालय की इमारत पर हमला. जैश ने ली हमले की जिम्मेदारी.

14 मई, 2002:

जम्मू-कश्मीर के कालूचक में हुए हमले में 36 जवान शहीद हो गए, जबकि तीन आतंकी मारे गए.

1, अक्टूबर 2008:

जैश के तीन आत्मघाती आतंकी विस्फोटक पदार्थों से भरी कार लेकर जम्मू-कश्मीर विधानसभा परिसर में घुस गए. इस घटना में 38 लोग मारे गए.

26/11 मुंबई हमला:

26/11 मुंबई आतंकी हमले को भी जैश ने अंजाम दिया था. 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में समुद्र के रास्ते आए 10 आतंकियों ने 72 घंटे तक खूनी तांडव किया था. इस हमले में 166 लोग मारे गए थे, जबकि कई घायल हो गए थे. इस हमले का मास्टर माइंड भी मसूद अजहर रहा है. मुंबई हमले में 9 आतंकी भी मारे गए थे. इस में एक जिंदा आतंकी आमिर अजमल कसाब को भी पकड़ा गया था, जिसे बाद में फांसी की सजा दी गई.

संसद हमला

13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर हुए हमले के पीछे भी लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद के आतंकियों का हाथ. इस हमले में 6 पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे, जबकि तीन संसद भवन कर्मी भी मारे गए. संसद हमले का दोषी अफजल गुरु भी जैश से जुड़ा था. उसे 10 फरवरी 2013 में फांसी दी गई थी.

पठानकोट हमला

जनवरी 2016 को पंजाब के पठानकोट स्थित वायु सेना ठिकाने पर हमले के लिए भी ज़िम्मेदार. इस हमले में वायुसेना और एनएसजी के कुल सात सुरक्षाकर्मी शहीद हुए थे. दो दिनों की मुठभेड़ के बाद सभी आतंकियों को मार गिराया गया था.

उरी हमला

18 सितंबर, 2016 में कश्मीर के उरी स्थित सैन्य ठिकाने पर हुए हमले में भी जैश का हाथ रहा है. उरी हमले में 18 सैनिक शहीद हो गए थे. इस हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक की थी और पीओके में घुसकर कई आतंकी ठिकानों का खात्मा कर दिया था.

आतंकी संगठनों की सूची में शामिल ‘जैश’

जैश-ए-मुहम्मद को भारत ने ही नहीं बल्कि ब्रिटेन, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र भी आतंकी संगठनों की सूची में शामिल कर चुका है. हालांकि अमेरिका के दबाव के बाद पाकिस्तान ने भी साल 2002 में इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था, मगर अंदर ही अंदर सेना का पूरा सपोर्ट जैश को मिलता रहा. भारत मसूद अज़हर के प्रत्यर्पण की पाकिस्तान से कई बार मांग कर चुका है, लेकिन पाकिस्तान हर बार सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए इस मांग को नामंजूर कर देता है. इसके लिए उसे चीन की मदद भी बराबर मिल रही है. चीन ने तो मसूद अज़हर को आतंकी मानने तक से इंकार कर दिया है.

भारत को अब अपने पड़ोसी देशों – पकिस्तान और चीन से टक्कर लेने और और उनको कड़ा सबक सिखाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए. सांप को दूध पिलाने से वो अपनी प्रवृत्ति नहीं छोड़ देगा, पुलवामा के बाद तो हमें ये बाद अच्छी तरह समझ में आ जानी चाहिए.

सपा-बसपा गठबंधन के सियासी मायने

सपा बसपा के गठबंधन से जमीनी स्तर पर भले ही कोई बड़ा सामाजिक बदलाव न हो पर इसके सियासी मायने फलदायक हो सकते हैं. सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस भले ही शामिल ना हो पर इस गठबंधन से मिलने वाले सियासी लाभ में उसका हिस्सा भी होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस होगी. ऐसे में सरकार बनाने ही हालत में कांग्रेस ही सबसे आगे होगी. सपा-बसपा ही नहीं दूसरे क्षेत्रिय दल भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों से परेशान हैं. ऐसे में वह केन्द्र से भाजपा को हटाने के लिये कांग्रेस के खेमे में खड़े हो सकते हैं.

भाजपा के लिये परेशानी का कारण यह है कि उसका एक बडा वोटबैंक पार्टी से बिदक चुका है. उत्तर प्रदेश में पार्टी 2 साल के अंदर ही सबसे खराब हालत में पहुंच चुकी है. सत्ता में रहते हुए भाजपा एक भी उपचुनाव नहीं जीती है. उत्तर प्रदेश के अलावा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भाजपा खराब दौर से गुजर रही है. राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार से विपक्षी दलों को ताकत दे दी है. ऐसे में सबसे पार्टी की जीत का सबसे अधिक दारोमदार उत्तर प्रदेश पर ही टिका है.

लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 सीटें काफी महत्वपूर्ण हो जाती हैं. 2014 के चुनाव में 73 सीटें भाजपा और उनके सहयोगी दलों को मिली थी. 7 सीटे सपा और कांग्रेस के खाते में थी. बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा-सपा के एक होने से सियासी परिणाम बदल सकते हैं. 2014 की जीत में मोदी लहर और कांग्रेस का विरोध भाजपा को सत्ता में लाने का सबसे बड़ा कारण था. नरेन्द्र मोदी ने जनता से जो वादे किये उसे वह पूरा नहीं कर पाए. अपनी कमियों को छिपाने के लिये अपने धर्म के एजेंडे को आगे बढ़ाते गये. पार्टी के नेताओं के स्वभाव में एक अक्खडपन आ गया.

राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार ने बता दिया कि मोदी मैजिक अब पार्टी का जीत दिलाने में सफल नहीं होगा. ऐसे में पार्टी की नीतियों से ही जीत का मार्ग निकलता है. भाजपा जमीनी स्तर पर जातियों के साथ तालमेल कर चलने में तो असफल रही ही, अपने कोर वोटर को भी कोई सुविधा नहीं दे सकी. मध्यमवर्गीय कारोबारी सबसे अधिक परेशान हो रहा है.ऐसे में वह पार्टी से अलग थलग पड़ गया है. इस वजह से ही भाजपा अब सवर्ण आरक्षण के मुद्दे को लेकर आई.

वरिष्ठ पत्राकार शिवसरन सिंह कहते है ‘2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावो में प्रदेश ही जनता ने भाजपा के विकास की नीतियों से प्रभावित होकर भाजपा को वोट देकर बहुमत की सरकार बनाई थी. सरकार बनाने के बाद भाजपा राज में जिस तरह से मंहगाई, बेराजगारी, जीएसटी और नोटबंदी का दबाव आया लोग परेशान हो गये. यह भाजपा के लिये सबसे बड़ा नुकसान का कारण है. जातीय स्तर पर जिस समरसता की उम्मीद भाजपा से प्रदेश की जनता को थी वह पूरी नहीं हुई. ऐसे में जिस तरह से सभी जातियों ने भाजपा का साथ दिया था वह उससे दूर जाने लगी. दलित और पिछड़ी जातियां सपा-बसपा और सवर्ण कांग्रेस का दामन थामने को मजबूर हैं. भाजपा के लिए यह खराब संदेश है.’

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर : अक्षय खन्ना का शानदार अभिनय

रेटिंग : डेढ़ स्टार

हम बार बार इस बात को दोहराते आए हैं कि सरकारें बदलने के साथ ही भारतीय सिनेमा भी बदलता रहता है. (दो दिन पहले की फिल्म ‘उरी : सर्जिकल स्ट्राइक’ की समीक्षा पढ़ लें.) और इन दिनों पूरा बौलीवुड मोदीमय नजर आ रहा है. एक दिन पहले ही एक तस्वीर सामने आयी है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, फिल्मकार करण जोहर के पूरे कैंप के साथ बैठे नजर आ रहे हैं. फिल्मकार भी इंसान हैं, मगर उसका दायित्व अपने कर्तव्य का सही ढंग से निर्वाह करना होता है. इस कसौटी पर फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ के निर्देशक विजय रत्नाकर गुटे खरे नहीं उतरते. उन्होंने इस फिल्म को एक बालक की तरह बनाया है. इस फिल्म से उनकी अयोग्यता ही उभरकर आती है. ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ एक घटिया प्रचार फिल्म के अलावा कुछ नहीं है. इस फिल्म के लेखक व निर्देशक अपने कर्तव्य के निर्वाह में पूर्णरूपेण विफल रहे हैं.

2004 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह के करीबी व कुछ वर्षों तक उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब ‘‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ पर आधारित फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ में भी तमाम कमियां हैं. फिल्म में डा. मनमोहन सिंह का किरदार निभाने वाले अभिनेता अनुपम खेर फिल्म के प्रदर्शन से पहले दावा कर रहे थे कि यह फिल्म पीएमओ के अंदर की कार्यशैली से लोगों को परिचित कराएगी. पर अफसोस ऐसा कुछ नहीं है. पूरी फिल्म देखकर इस बात का अहसास होता है कि पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अपने पहले कार्यकाल में संजय बारू और दूसरे कार्यकाल में सोनिया गांधी के के हाथ की कठपुतली बने हुए थे. पूरी फिल्म में उन्हे बिना रीढ़ की हड्डी वाला इंसान ही चित्रित किया गया है.

‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को शुरुआत में ‘सिंह इज किंग’ कहा गया. पर धीरे धीरे उन्हे अति कमजोर, बिना रीढ़ की हड्डी वाला इंसान, एक परिवार को बचाने में जुटे महाभारत के भीष्म पितामह तक बना दिया गया, जिसने गांधी परिवार की भलाई के लिए देश के सवालों के जवाब देने की बजाय चुप्पी साधे रखी. फिल्म में डा. मनमोहन सिंह की इमेज को धूमिल करने वाली बातें ही ज्यादा हैं.

फिल्म की कहानी पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार व करीबी रहे संजय बारू (अक्षय खन्ना) के नजरिए से है. कहानी 2004 के लोकसभा चुनावों में यूपीए की जीत के साथ शुरू होती है. कुछ दलों द्वारा उनके इटली की होने का मुद्दा उठाए जाने के कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (सुजेन बर्नेट) स्वयं प्रधानमंत्री/पीएम बनने का लोभ त्यागकर डा. मनमोहन सिंह (अनुपम खेर) को पीएम पद के लिए चुनती हैं. उसके बाद कहानी में प्रियंका गांधी (अहाना कुमार), राहुल गांधी (अर्जुन माथुर), अजय सिंह (अब्दुल कादिर अमीन), अहमद पटेल (विपिन शर्मा), लालू प्रसाद यादव (विमल वर्मा), लाल कृष्ण अडवाणी (अवतार सैनी), शिवराज पाटिल (अनिल रस्तोगी), पी वी नरसिम्हा राव (अजित सतभाई), पी वी नरसिम्हा राव के बड़े बेटे पी वी रंगा राव (चित्रगुप्त सिन्हा), नटवर सिंह सहित कई किरदार आते हैं.

संजय बारू, जो पीएम के मीडिया सलाहकार हैं, लगातार पीएम की इमेज को मजबूत बनाते जाते हैं. वैसे भी संजय बारू ने मीडिया सलाहकार का पद स्वीकार करते समय ही शर्त रख दी थी कि वह हाई कमान सोनिया गांधी को नहीं, बल्कि सिर्फ पीएम को ही रिपोर्ट करेंगें. इसी के चलते पीएमओ में संजय बारू की ही चलती है, इससे अहमद पटेल सहित कुछ लोग उनके खिलाफ हैं. यानी कि उनके विरोधियों की कमी नहीं है. पर संजय बारू पीएम में काफी बदलाव लाते हैं. वह उनके भाषण लिखते हैं.

उसके बाद पीएम का मीडिया के सामने आत्म विश्वास से लबरेज होकर आना, अमेरिकी राष्ट्रति बुश के साथ न्यूक्लियर डील पर बातचीत, इस सौदे पर लेफ्ट का सरकार से अलग होना, समाजवादी पार्टी का समर्थन देना, पीएम को कटघरे में खड़े किए जाना, पीएम के फैसलों पर हाई कमान का लगातार प्रभाव, पीएम और हाई कमान का टकराव, विरोधियों का सामना जैसे कई दृश्यों के बाद कहानी उस मोड़ तक पहुंचती है, जहां न्यूक्लियर मुद्दे पर पीएम डा. मनमोहन सिंह स्वयं इस्तीफा देने पर आमादा हो जाते हैं. पर राजनीतिक परिस्थितियों के चलते सोनिया उनको इस्तीफा देने से रोक लेती हैं. उसके बाद हालात ऐसे बदलते हैं कि संजय बारू अपना त्यागपत्र देकर सिंगापुर चले जाते हैं, मगर डा. मनमोहन सिंह से उनके संपर्क में बने रहते हैं.

उसके बाद की कहानी बड़ी तेजी से घटित होती है, जिसमें डा. मन मोहन सिंह पूरी तरह से हाई कमान सोनिया व गांधी परिवार के सामने समर्पण भाव में ही नजर आते हैं. अहमद पटेल भी उन पर हावी रहते हैं. फिर आगे की कहानी में उनकी जीत के अन्य पांच साल दिखाए गए हैं, जो एक तरह से यूपीए सरकार के पतन की कहानी के साथ कोयला, 2 जी जैसे घोटाले दिखाए गए हैं. फिल्म में इस बात का चित्रण है कि प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह स्वयं इमानदार रहे, मगर उन्होंने हर तरह के घोटालों को परिवार विशेष के लिए अनदेखा किया. फिल्म उन्हे परिवार को बचाने वाले भीष्म की संज्ञा देती है. पर फिल्म की समाप्ति में 2014 के चुनाव के वक्त की राहुल गांधी व वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाएं दिखायी गयी हैं.

फिल्म के लेखक व निर्देशक दोनों ने बहुत घटिया काम किया है. फिल्म सिनेमाई कला व शिल्प का घोर अभाव है. पटकथा अति कमजोर है. इसे फीचर फिल्म की बजाय ‘डाक्यू ड्रामा’ कहा जाना चाहिए. क्योंकि फिल्म में बीच बीच में कई दृश्य टीवी चैनलों के फुटेज हैं. एडीटिंग के स्तर भी तमाम कमियां है. फिल्म में पूरा जोर गांधी परिवार की सत्ता की लालसा, सोनिया गांधी की अपने बेटे राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की बेसब्री, डा मनमोहन सिंह के कमजोर व्यक्तित्व व संजय बारू के ही इर्द गिर्द है.

डा. मनमोहन सिंह को लेकर अब तक मीडिया में जिस तरह की खबरें आती रही हैं, वही सब कुछ फिल्म का हिस्सा है, जबकि संजय बारू उनके करीबी रहे हैं, तो उम्मीद थी कि डा मनमोहन सिंह की जिंदगी के बारे में कुछ रोचक बातें सामने आएंगी, पर अफसोस ऐसा कुछ नहीं है. फिल्म में इस बात को भी ठीक से नहीं चित्रित किया गया कि अहमद पटेल किस तरह से खुरपैच किया करते थे. कोयला घोटाला, 2 जी घोटाला आदि को बहुत सतही स्तर पर ही उठाया गया है. फिल्म में सभी घोटालों पर कपिल सिब्बल की सफाई देने वाली प्रेस कांफ्रेंस भी मजाक के अलावा कुछ नजर नहीं आती.

कमजोर पटकथा व कमजोर चरित्र चित्रण के चलते एक भी चरित्र उभर नहीं पाया. कई चरित्र तो महज कैरीकेचर बनकर रह गए हैं. फिल्म के अंत में बेवजह ठूंसे गए राहुल गांधी व नरेंद्र मोदी की चुनाव प्रचार की सभाओं के टीवी फुटेज की मौजूदगी लेखकों, निर्देशक व फिल्म निर्माताओं की नीयत पर सवाल उठाते हैं. पूरी फिल्म एक ही कमरे में फिल्मायी गयी नजर आती है.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो संजय बारू के किरदार में अक्षय खन्ना ने काफी शानदार अभिनय किया है. मगर पटकथा व चरित्र चित्रण की कमजोरी के चलते अनुपम खेर अपने अभिनय में खरे नहीं उतरते, बल्कि कई जगह उनका डा. मनमोहन सिंह का किरदार महज कैरीकेचर बनकर रह गया है. किसी भी किरदार में कोई भी कलाकार खरा नहीं उतरता. फिल्म का पार्श्वसंगीत भी सही नहीं है.

एक घंटे 50 मिनट की अवधि की फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ का निर्माण सुनील बोहरा व धवल गाड़ा ने किया है. संजय बारू के उपन्यास पर आधारित फिल्म के निर्देशक विजय रत्नाकर गुटे, लेखक विजय रत्नाकर गुटे, मयंक तिवारी, कर्ल दुने व आदित्य सिन्हा, संगीतकार सुदीप रौय व साधु तिवारी, कैमरामैन सचिन कृष्णन तथा कलाकार हैं – अनुपम खेर, अक्षय खन्ना, सुजेन बर्नेट, अहाना कुमार, अर्जुन माथुर, अब्दुल कादिर अमीन, अवतार सैनी, विमल वर्मा, अनिल रस्तोगी, दिव्या सेठ, विपिन शर्मा, अजीत सतभाई, चित्रगुप्त सिन्हा व अन्य.

20 सेकेंड में देखिए अनुपम खेर से ‘मनमोहन सिंह’ का बनना

हाल ही में अनुपम खेर ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो शेयर किया है. वीडियो में वो मेकअप से अनुपम से मनमोहन बनते हुए दिखाई दे रहे हैं. अनुपम से मनमोहन बनने में उन्हें 2 घंटे लगते थे. पर इस पूरे वक्त को उन्होंने टाइम लैप्स से बस 20 सेकेंड्स में दिखाया है. अनुपम ने मेकअप आर्टिस्ट अभिलाषा, पगड़ी के लिए जसप्रीत और बाकी टीम का धन्यवाद देते हुए लिखा है कि आपके बिना में ये नहीं कर सकता था.

आपको बता दें कि अनुपम खेर अपनी नई फिल्म ‘दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ के साथ जल्दी दी बड़े पर्दे पर नजर आने वाले हैं. इस फिल्म में वो देश के पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के किरदार में दिखेंगे. ये फिल्म संजय बारू की किताब दी ‘एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर आधारित है. इसमें अनुपम खेर के अलावा अक्षय खन्ना भी मुख्य भूमिका में हैं.

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