घर का भूला- भाग 2: कैसे बदलने लगे महेंद्र के रंग

वह रोती हुई अपने कमरे में घुस गई. अमित के समझाने पर भी वह मन का संदेह नहीं दबा पा रही थी. उस का अब पढ़ने में रत्ती भर भी मन नहीं लगता था. उस ने घबरा कर अपनी नानी को खत लिख दिया. नानाजी तो थे नहीं, सोचा, नानी यहां घर पर रह कर सब संभाल लेंगी. तब तक उस की परीक्षा भी निबट जाएगी.

हफ्ते भर के अंदर नानी आ गईं. महेंद्र अचानक उन्हें देख कर चौंके जरूर परंतु ज्यादा कुछ कहा नहीं, ‘‘अरे अम्मांजी, आप…अचानक कैसे आ गईं?’’

‘‘भैया महेंद्र, 6 मास से बच्चों को नहीं देखा था. इसलिए नरेंद्र को ले कर चली आई. यह तो कल लौट जाएगा, मैं रहूंगी.’’

‘‘अच्छा किया आप ने, बच्चों की परीक्षाएं भी पास हैं. आभा को भी कुछ राहत मिलेगी. वैसे मालती बहुत अच्छी औरत हमें मिल गई है. सुबहशाम काम कर के चली जाती है. काम भी सफाई से करती है.’’

‘‘ठीक है  भैया, अब तो अमित का एम.ए. फाइनल होने जा रहा है. आभा भी बी.ए. कर लेगी. अमित के लिए लड़की और आभा के लिए अच्छा घरवर देख कर दोनों को निबटा दो. बहू आने से घर- गृहस्थी की समस्याएं सुलझ जाएंगी.’’

‘‘अम्मांजी, अमित अपने पैरों पर तो खड़ा हो ले, तभी तो कोई अपनी बेटी देगा उसे. आभा के लिए भी अभी देर है. वह एम.ए. करना चाहती है. 2 साल और सही. अभी तो सब काम चल ही रहा है.’’

‘‘ठीक है भैया, जैसा तुम चाहो. पर एक बात पर और ध्यान दो, माया के सब सोनेचांदी के जेवर लाकर में रख दो. घर पर रखना ठीक नहीं है. तुम तीनों घर से बाहर रहते हो, बडे़ नगरों में चोरियां बहुत होती हैं, इसलिए कह रही हूं.’’

‘‘हां, यह ठीक कहा आप ने. अब बैंक में लाकर ले ही लूंगा.’’

बहुत बार कहने पर भी वह लापरवाही बरतते रहे. तब अलमारी के लाकर की चाबी आभा अपने पास रखने लगी थी. जब से उस ने मालती के पैरों में मां की पायल देखी थीं, तभी दोनों भाईबहनों ने बैंक में चुपचाप एक लाकर ले कर सारे जेवर उस में रख दिए थे. पिता से इस की चर्चा नहीं की. सोचा, समय आने पर बता देंगे. बस कुछ नकली जेवर ही उन्होंने घर पर छोड़ रखे थे.

ये भी पढ़ें- दूसरा विवाह: विकास शादी क्यों नहीं करना चाहता था?

नानी एकडेढ़ माह के पश्चात चली गईं. आभा ने कम्प्यूटर क्लास ज्वाइन कर ली थी, इस से वह पापा के नानी के साथ जाने के आग्रह को टाल गई. अमित भी कंप्यूटर कोर्स के साथ ही कोचिंग कर रहा था.

उस दिन आभा जल्दी लौट आई थी, क्योंकि सर के किसी निकट संबंधी की मृत्यु हो गई थी. घर आ कर उसे आश्चर्य हुआ क्योंकि मालती घर पर मौजूद थी, जबकि घर की दूसरी चाबी केवल पापा के पास रहती थी.

‘‘अरे, आज तुम समय से पहले कैसे आ गईं?’’ वह पूछ बैठी.

‘‘साहब आ गए हैं न, उन की तबीयत कुछ ठीक नहीं है,’’ वह कुछ घबराहट में अटकअटक कर बोली.

‘‘तो तुम्हें किस ने बतलाया कि उन की तबीयत ठीक नहीं है. क्या पापा तुम्हें लेने गए थे तुम्हारे घर?’’

‘‘अरे नहीं, वह सुबह कह रहे थे. इस से मैं यों ही चली आई.’’

आभा लपक कर पापा के कमरे में घुस गई, देखा वह अपने बेड पर आंखें बंद किए चुपचाप लेटे हैं.

‘‘पापा, आप ने सुबह हम लोगों को क्यों नहीं बतलाया कि आप की तबीयत ठीक नहीं है. मैं आज नहीं जाती,’’ वह उन के माथे पर हाथ रख कर बोली तो उन्होंने पलकें खोलीं, ‘‘अरे, ऐसी खराब नहीं है. थोड़ा सिरदर्द था सुबह से, सोचा ठीक हो जाएगा, इस से आफिस चला गया, पर दर्द कम नहीं हुआ तो लौट आया. सुबह मालती से यों ही कह दिया था तो वह चली आई.’’

परंतु टेबिल पर जूठी पड़ी प्लेटों में समोसेरसगुल्लों के टुकड़े और ही कहानी कह रहे थे. 2 प्लेटें, 2 चाय के मग, क्या यह सब नित्य उन के जाने के बाद होता है? मन के किसी कोने में शंका के अंकुर सबल पौध से सिर उठाने लगे. उस ने देख कर भी अनदेखा कर दिया और कुछ क्षण वहां बैठ कर रसोई की ओर आई तो देखा, मालती गैस के नीचे कोई पालिथीन की थैली छिपा रही है.

‘‘यह गैस के नीचे कचरा क्यों ठूंसा तुम ने?’’ उस ने झपट कर थैली को बाहर घसीटा तो  2 रसगुल्ले, 2 समोसे जमीन पर आ गिरे. मालती का मुंह सफेद पड़ गया.

‘‘अरे, ये कहां से आए?’’

‘‘ये…ये बचे थे, साहब ने कहा कि रख लो, बच्चों को दे देना. इसलिए रख लिए.’’

आभा कुछ भी न बोल पाई. उस का मन किसी भावी आशंका की चेतावनी दे रहा था. शाम को जब अमित घर आया तो आभा ने उसे सब बता दिया. उस के ललाट पर भी चिंता की गहरी रेखाएं खिंच गईं.

जब से उन की मां नहीं रहीं पापा खाना प्राय: अपने कमरे में ही मंगा कर खाते थे. मालती 1-1 फुलके के बहाने कई चक्कर उन के कमरे के लगा लेती थी. यह आभा को बहुत अखर रहा था. एक दिन वह बोली, ‘‘मालती, तुम जल्दी खाना बना कर घर चली जाया करो.’’

ये भी पढ़ें- मीठा जहर: रोहित क्यों था कौलगर्ल्स का आदी?

‘‘साहब को गरम फुलके पसंद हैं और आप लोगों को भी तो. देरसवेर की क्या बात है. बना खिला कर चली जाया करूंगी. आप क्यों परेशान हो, मुझे तो आदत है.’’

‘‘नहीं, तुम कल से हम दोनों का खाना कैसरोल में बना कर रख दिया करो और आटा सान कर रख देना, मैं पापा को खुद सेंक कर खिला दूंगी. जैसा मैं ने कहा है वैसा करो, समझी,’’ उस ने जरा सख्त लहजे में कहा तो वह चुप रह गई. परंतु थोड़ी देर पश्चात ही उस की चुप्पी का कारण सामने आ गया. पापा ने आभा को आवाज दी.

‘‘तुम ने मालती को शाम का खाना बनाने से क्यों मना किया?’’

‘‘मना कहां किया, पापा. यह कहा कि हम दोनों का खाना बना कर कैसरोल में रख दे, अगर आप गरम फुलके चाहेंगे तो मैं सेंक कर आप को खिला दूंगी, तो वह आप से शिकायत कर गई?’’ आभा को गुस्सा आ गया.

‘‘शिकायत क्यों, बस कह रही थी कि कल से बेबी आप की रोटियां सेंकेगी. बेकार में तुम क्यों गरमी में मरो, बनाने दो उसे.’’

सूना आसमान- भाग 1: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता जब छोटी थी तो मेरे साथ खेलती थी. मुझे पता नहीं अमिता के पिता क्या काम करते थे, लेकिन उस की मां एक घरेलू महिला थीं और मेरी मां के पास लगभग रोज ही आ कर बैठती थीं. जब दोनों बातों में मशगूल होती थीं तो हम दोनों छोटे बच्चे कभी आंगन में धमाचौकड़ी मचाते तो कभी चुपचाप गुड्डेगुडि़या के खेल में लग जाते थे.

धीरेधीरे परिस्थितियां बदलने लगीं. मेरे पापा ने मुझे शहर के एक बहुत अच्छे पब्लिक स्कूल में डाल दिया और मैं स्कूल जाने लगा. उधर अमिता भी अपने परिवार की हैसियत के मुताबिक स्कूल में जाने लगी थी. रोज स्कूल जाना, स्कूल से आना और फिर होमवर्क में जुट जाना. बस, इतवार को वह अपनी मां के साथ नियमित रूप से मेरे घर आती, तब हम दोनों सारा दिन खेलते और मस्ती करते.

हाईस्कूल के बाद जीवन पूरी तरह से बदल गया. कालेज में मेरे नए दोस्त बन गए, उन में लड़कियां भी थीं. अमिता मेरे जीवन से एक तरह से निकल ही गई थी. बाहर से आने पर जब मैं अमिता को अपनी मां के पास बैठा हुआ देखता तो बस, एक बार मुसकरा कर उसे देख लेता. वह हाथ जोड़ कर नमस्ते करती, तो मुझे वह किसी पौराणिक कथा के पात्र सी लगती. इस युग में अमिता जैसी सलवारकमीज में ढकीछिपी लड़कियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था. अमिता खूबसूरत थी, लेकिन उस की खूबसूरती के प्रति मन में श्रद्धाभाव होते थे, न कि उस के साथ चुहलबाजी और मौजमस्ती करने का मन होता था.

वह जब भी मुझे देखती तो शरमा कर अपना मुंह घुमा लेती और फिर कनखियों से चुपकेचुपके मुसकराते हुए देखती. दिन इसी तरह बीत रहे थे.

फिर मैं ने नोएडा के एक कालेज में बीटैक में दाखिला ले लिया और होस्टल में रहने लगा. केवल लंबी छुट्टियों में ही घर जाना हो पाता था. जब हम घर पर होते थे, तब अमिता कभीकभी हमारे यहां आती थी और दूर से ही शरमा कर नमस्ते कर देती थी, लेकिन उस के साथ बातचीत करने का मुझे कोई मौका नहीं मिलता था. उस से बात करने का मेरे पास कोई कारण भी नहीं था. ज्यादा से ज्यादा, ‘कैसी हो, क्या कर रही हो आजकल?’ पूछ लेता. पता चला कि वह किसी कालेज से बीए कर रही थी. बीए करने के बावजूद वह अभी तक सलवारकमीज में लिपटी हुई एक खूबसूरत गुडि़या की तरह लगती थी. लेकिन मुझे तो जींसटौप में कसे बदन और दिलकश उभारों वाली लड़कियां पसंद थीं. उस की तमाम खूबसूरती के बावजूद, संस्कारों और शालीन चरित्र से मुझे वह प्राचीनकाल की लड़की लगती थी.

ये भी पढ़ें- पुरस्कार: क्या था राम सिंह के मन में

गरमी की एक उमसभरी दोपहर थी. मैं अपने कमरे में एसी की ठंडी हवा लेता हुआ एक उपन्यास पढ़ने में व्यस्त था, तभी दरवाजे पर एक हलकी थाप पड़ी. मैं चौंक गया और लेटेलेटे ही पूछा, ‘‘कौन?’’

‘‘मैं, एक मीठी आवाज कानों में पड़ी. मैं पहचान गया, अमिता की आवाज थी, मैं ने कहा, आ जाओ, दरवाजे की सिटकिनी नहीं लगी है.’’

‘‘हां,’’ उस का सिर झुका हुआ था, आंखें उठा कर उस ने एक बार मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में एक अनोखी कशिश थी, जो सामने वाले को अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी. उस का चेहरा भी दमक रहा था. वह बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. उस के नैननक्श बहुत सुंदर थे. मैं एक पल के लिए देखता ही रह गया और मेरे हृदय में एक कसक सी उठतेउठते रह गई.

‘‘तुम…अचानक…इतनी दोपहर को? कोईर् काम है?’’ मैं उस के सौंदर्य से अभिभूत होता हुआ बिस्तर पर बैठ गया. पहली बार वह मुझे इतनी सुंदर और आकर्षक लगी थी.

वह शरमातीसकुचाती सी थोड़ा आगे बढ़ी और अपने हाथों को आगे बढ़ाती हुई बोली, ‘‘मिठाई लीजिए.’’

‘‘मिठाई?’’

‘‘हां, आज मेरा जन्मदिन है. मां ने मिठाई भिजवाई है,’’ उस ने सिर झुकाए हुए ही कहा.

‘‘अच्छा, बधाई हो,’’ मैं ने उस के हाथों से मिठाई ले ली.

मैं उस वक्त कमरे में अकेला था और एक जवान लड़की मेरे साथ थी. कोई देखता तो क्या समझता. मेरा ध्यान भी उपन्यास में लगा हुआ था. कहानी एक रोचक मोड़ पर पहुंच चुकी थी. ऐसे में अमिता ने आ कर अनावश्यक व्यवधान पैदा कर दिया था. अत: मैं चाहता था कि वह जल्दी से जल्दी मेरे कमरे से चली जाए. लेकिन वह खड़ी ही रही. मैं ने प्रश्नवाचक भाव से उसे देखा.

‘‘क्या मैं बैठ जाऊं?’’ उस ने एक कुरसी की तरफ इशारा करते हुए कहा.

‘‘हां…’’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी. मेरे दिल में धुकधुकी पैदा हो गई. क्या अमिता किसी खास मकसद से मेरे कमरे में आई थी? उस की आंखें याचक की भांति मेरी आंखों से टकरा गईं और मैं द्रवित हो उठा. पता नहीं, उस की आंखों में क्या था कि डरने के बावजूद मैं ने उस से कह दिया, ‘‘हांहां, बैठो,’’ मेरी आवाज में अजीब सी बेचैनी थी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या आप को डर लग रहा है?’’

‘‘नहीं, क्या तुम डर रही हो?’’ मैं ने अपने को काबू में करते हुए कहा.

‘‘मैं क्यों डरूंगी? आप से क्या डरना?’’ उस ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘डरने की बात नहीं है? चारों तरफ सन्नाटा है. दूरदूर तक किसी की आवाज सुनाई नहीं पड़ रही. भरी दोपहर में लोग अपनेअपने घरों में बंद हैं. ऐसे में एक सूने कमरे में एक जवान लड़की किसी लड़के के साथ अकेली हो तो क्या उसे डर नहीं लगेगा?’’

ये भी पढ़ें- दीप जल उठे: प्रतिमा ने सासूमां का दिल कैसे जीता?

वह हंसते हुए बोली, ‘‘इस में डरने की क्या बात है? मैं आप को अच्छी तरह जानती हूं. आप भी तो कालेज में लड़कियों के साथ उठतेबैठते हैं, उन के साथ घूमतेफिरते हो. रेस्तरां और पार्क में जाते हो, तो क्या वे लड़कियां आप से डरती हैं?’’

मैं अमिता के इस रहस्योद्घाटन पर हैरान रह गया. कितनी साफगोई से वह यह बात कह रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम कि हम लोग लड़कियों के साथ घूमतेफिरते हैं और मौजमस्ती करते हैं?’’

‘‘अब मैं इतनी भोली भी नहीं हूं. मैं भी कालेज में पढ़ती हूं. क्या मुझे नहीं पता कि किस प्रकार युवकयुवतियां एकदूसरे के साथ घूमते हैं और आपस में किस प्रकार का व्यवहार करते हैं?’’

‘‘लेकिन वे युवतियां हमारी दोस्त होती हैं और तुम…’’ मैं अचानक चुप हो गया. कहीं अमिता को बुरा न लग जाए. अफसोस हुआ कि मैं ने इस तरह की बात कही. आखिर अमिता मेरे लिए अनजान नहीं थी. बचपन से हम एकदूसरे को जानते हैं. जवानी में भले ही आत्मीयता या निकटता न रही हो, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि वह मुझ से मिल नहीं सकती थी.

सोच का विस्तार- भाग 1: जब रिया ने सुनाई अपनी आपबीती

Writer- वीना त्रेहन

रियाअपनी दादी के कंधे पर सिर रख कर रो रही थी. रिया की मां ने देखा कि दादी रिया के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे शांत होने को कह रही थीं. पापा बाहर के कमरे में कुरसी पर बैठे दोनों हाथों से सिर पकड़े रो रहे थे कि जान से प्यारी बेटी रिया को विदेश भेज क्या मिला?

वह तो उन्हें छोड़ जाना ही नहीं चाहती थी. मगर पत्नी की सहेली के बेटे से शादी का प्रस्ताव आया तो विदेश में बसे लड़के का मोह रिया की मां रेखा नहीं छोड़ सकीं. सोचा घर बैठे रिश्ता मिल रहा है… आजकल लड़के ढूंढ़ना और फिर उन की डिमांड्स पूरी करना क्या आसान है?

रिया ने तो अपने लिए साथ काम करते स्मार्ट, अच्छे परिवार व अच्छी पोस्ट पर लगे लड़के से विवाह करने की सोची थी. पापा सुरेश की इस में पूरी सहमति भी थी पर दादी बिदक गई थीं यह जान कर कि लड़का ब्राह्मण परिवार से नहीं है.

सुरेशजी ने मां को समझाने का पूरा प्रयास किया कि आज के समय की सोच अलग है पर रूढि़वादी मां को मनाना नामुमकिन था. रिया ने पापा से कहा था कि जल्दी न करें. शायद दादी अपनी सोच बदल लें. मगर ऐसा नहीं हो पाया.

2 साल पहले दादाजी के गुजर जाने के बाद दादी और भी जिद्दी हो गई थीं. अपने कमरे में ही रहतीं. उन्हें स्नान करना, अलग बरतनों में अलग खाना बनाना, मां के अलावा किसी और से कोई काम न करवाना मां के लिए कठिन होता जा रहा था. पर क्या करें. अपने ही बेटे को पराया कर दिया. उन के दरवाजे की चौखट पर खड़े पापा प्रणाम कहते और वे वहीं बैठी हाथ उठा आशीर्वाद दे देतीं.

सहेली ने सूचना दी और बेटे अमन को ले रिया को देखने चली आईं. काफी समय अमेरिका की बातें करती रहीं.

रेखाजी ने पूछा, ‘‘तो तुम घूम आई वहां?’’

‘‘नहीं. अब इन की शादी के बाद जाऊंगी. देखो हमें कोई दहेजवहेज नहीं चाहिए. बस बेटीदामाद के लिए अमेरिका के टिकट करवा दें.’’

ये भी पढ़ें- नमस्ते जी: नीतिन की पत्नी क्यों परेशान थी?

रिया को अजीब लगी थीं आंटी, आंटी का बेटा और उन की सोच… पर मां ने कहा, ‘‘बेटा यहां से क्या कुछ ले जाना… वहां अच्छीअच्छी चीजें मिलती हैं… फिर हमारा ढेरों आशीर्वाद जो होगा तुम्हारे साथ.’’

रिया के मम्मीपापा खुश थे, दादी नाराज कि कहां गए सब ब्राह्मण जाति के लोग और उन के बेटे… रिया को तो देखो पहले अपनी मरजी का लड़का ढूंढ़ बैठी और अब जब दूसरा मिल रहा है, तो वह है तो ब्राह्मण पर विदेश में रहता… क्या भरोसा मांसाहारी हो… शराब भी पीता हो… आज रिया के दादाजी होते तो यह रिश्ता कभी नहीं मानते.

मगर दादी को क्या पता कि पढ़लिखे व सरकारी नौकरी में अफसर वे दादी की हां में हां इसलिए मिलाते थे कि वे जानते थे कि मायके से लाई सोच को पत्नी कभी नहीं बदलेगी. पढ़ालिखा, कमाता व संस्कारी लड़का उन की रिया को खुश रखे और ससुराल वाले सब एकदूसरे का मान, सम्मान करें यही सोच होती दादाजी की.

अचानक सहेली के घर से आई सूचना कि अमन आ रहा है, जल्दी शादी करनी है ने सब को व्यस्त कर दिया. अकेली बेटी को बहुत धूमधाम से ब्याहने के सपने को छोटा कर साधारण ढंग से ब्याह कर विदा किया. अमेरिका के अनजाने शहर में पहुंच रिया थोड़ा अकेला महसूस कर रही थी, पर औफिस के बाद का समय अमन उसे न्यूयौर्क घुमाने में बिताता, कभी वर्डट्रेड सैंटर, कभी स्टेटन आईलैंड फेरी और आज ऐंपायर स्टेट बिल्डिंग की 104वीं मंजिल पर खड़े न्यूयौर्क शहर के कई फोटो खींचते रोमांच हो आया रिया को. कई फोटो भेजते मैसेज भी लिख डाला कि मैं बहुत खुश हूं. मम्मीपापा को तसल्ली हुई.

1 महीना खुशीखुशी बीत गया. फिर एक दिन अमन ने झिझकते बताया कि उसे 3 दिनों के लिए औफिस के काम से बाहर जाना है. तब रिया ने भी साथ चलने को कहा तो अमन बोला कि नहीं, वह उसे फोन करता रहेगा.

मगर न तो स्वयं फोन किया और न ही रिया के किए फोन को उठाया. 3 दिन की कह 25वें दिन लौटे अमन को देख रिया घबरा गई. ऐसा लगा जैसे कुछ पीछे छोड़ आया हो. उस के गले लगने लगी तो हाथ से रोकते कहा कि वह बहुत थका है. आराम करेगा. क्या हुआ शायद काम ज्यादा हो या कुछ काम बिगड़ गया हो.

बिगड़ ही तो गया था. पिछले 3 सालों से साथ रह रही गर्लफ्रैंड कैसे बरदाश्त करती अमन की पत्नी को. पहले तो अमन भी टालता रहा मां की इस जिद को कि शादी कर लो. वहां अकेले रहते हो. उन्हें चिंता होती है. पर उन का थोपा विवाह उसे रास आया.

कितनी प्यारी और उस का ध्यान रखने वाली है रिया. उस के स्पर्श में कितना अपनापन है. उस की मुसकराहट देख उस के अंदर तक प्यार की लहर झूम उठती है. मगर अब अचानक आए बदलाव से कैसे बचे?

कहीं नहीं गया था वह औफिस के काम से…गर्लफ्रैंड अमीलिया की धमकी से उस के घर में छिपा था… बिना विवाह किए साथ रह रहे थे, उस के चलते 2 बार गर्भपात करवाया था अमीलिया ने. अस्पताल के कागज पू्रफ  थे, जिन पर पिता के नाम के आगे अमन का नाम लिखा था. क्या वह ये सब बता पाएगा रिया को?

परेशान रिया जानने की कोशिश कर रही थी कि अमन में अचानक आए बदलाव का क्या कारण हो सकता है. जल्दी परदाफाश हो गया. औफिस से लौटते एक लड़की बड़ा सा सूटकेस लिए अमन के साथ आई तो बताया गया कि उस के मकानमालिक ने जल्दी में उस से मकान खाली करवा लिया. दूसरा मिलते ही चली जाएगी.

भोली रिया खुश हुई कि कुछ दिन अच्छी कंपनी रहेगी. दूसरा बैडरूम उसे दे दिया. दोनों सुबह इकट्ठे निकलते और रात देर से आते. चौथे ही दिन सुबह अमन को अमीलिया के कमरे से निकलते देख रिया का तो रंग ही फक हो गया. सोचने लगी कि सही सुना था अमेरिका के कल्चर के बारे में… बिना बात किए अमन तैयार हो चला गया. अमीलिया घर पर ही रुकी.

ये भी पढ़ें- चिराग नहीं बुझा: कैसे बदल गया गोंडू लुटेरा

थोड़ी देर बाद अमीलिया सीधी रिया के सामने जा खड़ी हुई. धमकाते हुए अमीलिया ने कहा कि चाहे तुम्हारी अमन से इंडिया में शादी हो चुकी है, पर उस पर अभी भी उस का हक ज्यादा है. इस देश में बिना शादी किए भी बच्चे पैदा करने की मान्यता है और यदि पिता चाहे तो बच्चे का खर्चा उठा अलग हो सकता है. सरकार भी ऐसी स्थिति में सिंगल मदर की सहायता करती है.

ये सब सुन रिया का सिर घूम गया. कुछ समझ न पाने की स्थिति में वह धम्म से पास रखी कुरसी पर जा गिरी. जब होश आया तो अमीलिया को वहां नहीं पाया. उस रात वह लौटी भी नहीं.

अमन औफिस से जल्दी लौटा तो बिस्तर पर बैठी रिया को शून्य में ताकते पाया. न कुछ पूछा न कहा. चाय व नाश्ता ला सामने आ बैठा. रो दी रिया. क्यों किया अमन ऐसा? का उत्तर उस ने संक्षेप में दिया कि तुम चाहो तो यहां रहो नहीं तो लौट जाओ. रिया का जवाब था कि कौन है मेरा यहां तुम्हारे सिवा. बीचबीच में अमीलिया आती रहती. रिया ने सोच लिया कि वह पति को नहीं बांटेगी. क्या मां से बात कर सलाह ले? पर फिर घबरा उठी.

खूबसूरती की मल्लिका अनारा बेगम- भाग 3: एक हिंदू राजा ने मुस्लिम स्त्री से ऐसे निभाया प्यार

महाराजा ने उस के नाजुक हाथ को चूमते हुए कहा, ‘‘बेगम, मैं बहुत ही अय्याश रहा हूं, लेकिन आप से प्यार होने के बाद मेरा दिल बदल गया है. मैं भी बदल गया हूं. मुझे लगता है कि वह गजसिंह जो औरतों को खेल और भोग विलास की वस्तु समझता था, मर गया है.’’

प्रकाश धीमा था. बेगम रुंधे गले से बोली, ‘‘कुछ कीजिए न, मुझ से अब अलगाव नहीं सहा जाता. मैं कब तक मोहब्बत की झूठी बातों से नवाब को भरमाए रखूंगी. जिंदगी जीने का असली लुत्फ तो आप के साथ है. सच, मैं आप के इश्क के साए में इन बलिष्ठ भुजाओं में ही दम लेना और तोड़ना चाहती हूं. मैं नवाब के साथ हरगिज नहीं रह सकती.’’

गजसिंह बाहर फैले अंधेरे को देखते रहे, बेगम खिड़की की चौखट पर सिर रख कर लंबीलंबी सांसें ले रही थी. गज सिंह ने तभी कहा, ‘‘अनारा मेरी जान, चिंता मत करो, मैं आप के लिए संसार की सारी खुशियां छोड़ सकता हूं. मैं आप को वचन देता हूं कि आप को प्राण रहते नहीं छोड़ूंगा. मैं राजपूताने का वीर हूं. क्षत्रिय हूं. क्षत्रियों में राठौड़ हूं. हम राजपूत अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए सिर कटने के बाद भी धराशाई नहीं होते. आप को अपनी तलवार पर हाथ रख कर भरोसा देता हूं कि आप का वही ओहदा होगा, जो हमारे महलों में पटरानी का होता है.’’

ये भी पढ़ें- मौत जिंदगी से सस्ती है

‘‘फिर आप मुझे यहां से ले चलिए,’’ अनारा बेगम ने कहा.

‘‘मैं आप को अभी ले जा सकता हूं.’’

‘‘फिर देरी क्यों?’’

और फिर उसी वक्त रात के अंधेरे में दोनों प्रेमी झरोखे से उतर कर चल दिए.

खामोश रात और दोनों के खामोश इरादे. किसी को कुछ पता न चला. सिर्फ जरीन जानती थी कि अनारा बेगम कहां गई है. दूसरे दिन आगरा में तूफान मच गया.

आगरा के हर प्रतिष्ठित व्यक्ति के यहां इसी चर्चा का बाजार गरम था. लोगों को पता था कि अनारा बेगम कहां गई हैं? पर सब चुप थे. हां, यह निर्विवाद रूप से कहा जाता रहा कि बेगम की उम्र नवाब फजल से बहुत कम थी. कुल मिला कर नवाब अनारा बेगम के लायक नहीं थे.

नवाब साहब जो मुगल सम्राट शाहजहां के कृपापात्र थे, जहांपनाह के हुजूर में हाजिर हुए.

‘‘क्या बात है नवाब साहब?’’ बादशाह शाहजहां ने पूछा.

नवाब फजल ने सारी बातें दर्द भरी आवाज में सम्राट शाहजहां को सुना दी.

‘‘आप फिक्र न करो.’’

शाहजहां ने तुरंत महाराजा गजसिंह को तलब किया. गजसिंह ने भी हाजिर हो कर औपचारिकताएं पूरी करने के बाद बादशाह से कहा, ‘‘जहांपनाह कहिए, कैसे याद किया?’’

सुन कर बादशाह ने तनिक आदेश भरे स्वर में कहा, ‘‘अनारा बेगम कहां हैं?’’

ये भी पढ़ें- सांझ पड़े घर आना: नीलिमा की बौस क्यों रोने लगी

‘‘मुझे नहीं मालूम, और आप ने मुझ से ऐसा सवाल किया ही क्यों? मैं मुगलिया सल्तनत की देखभाल करता हूं. उस के मनसबदारों, सरदारों की बीबियों की नहीं.’’ गजसिंह कठोरता से एक ही सांस में बोलते चले गए.

शाहजहां ने प्रश्नवाचक नजरें गजसिंह पर डालीं. ईरानी कालीन पर थोड़ी चहलकदमी करते हुए कहा, ‘‘मुगलिया सल्तनत पर आप के बहुत एहसान हैं. आप ने अपनी बहादुरी और जवांमर्दी से हमारे तख्तोताज की कई बार हिफाजत की है, लेकिन हम यह भी जानते हैं कि औरत आप की कमजोरी रही है. ऐसी हालत में आप हमारे किसी खैरख्वाह को नाराज कर हमारे बीच झगड़ा भी करा सकते हैं. आप हमारी बात पर गौर कीजिए कि इस से फसाद भी हो सकता है.’’

गजसिंह की भौहें तन गई थीं. रूखेपन से बोले, ‘‘एक अदना सा मनसबदार मुझ पर बेबुनियाद दोष लगा रहा है आलमपनाह. राठौड़ का रक्त अभी ठंडा नहीं हुआ है कि मुगल जब चाहें उन्हें ललकार दें. यदि मुझ पर झूठा दोष लगाने का साहस किया गया तो नवाब को बहुत बुरे अंजाम से टकराना पड़ेगा.’’

अब शाहजहां ने अपना रुख बदला. वह समझ गए कि महाराजा गजसिंह राठौड़ इस तरह की डांटडपट और धमकियों में नहीं आ सकते. तुरंत मधुरता से बोले, ‘‘आप मेरी बात का मतलब नहीं समझे. आप मुझ पर यकीन क्यों नहीं करते? मुझ में भी आप का खून है. मैं आप को तहेदिल से कहता हूं, मामू आप मुझे अपना समझ कर सब कुछ सचसच बता दें. मैं आप से एक शहंशाह की हैसियत से नहीं जाती तौर पर अर्ज कर रहा हूं, मैं आप के हक में ही फैसला करूंगा.’’

‘‘वायदा करते हो.’’

‘‘वायदा करता हूं मामू.’’ शाहजहां ने विनीत स्वर में कहा, ‘‘मैं नहीं चाहता कि ऐसी मामूली बातें खौफनाक अंजाम में बदल जाएं.’’

गजसिंह ने सारी बातें बता कर कहा, ‘‘बेगम हमारे पास हैं. हम उन से अलग नहीं रह सकते. हम उन के लिए सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हैं. आप की नजरेइनायत और ओहदा भी. यह भी सच है कि हम उस के लिए दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत से टकरा भी सकते हैं.’’

‘‘हम से भी मामू?’’ सम्राट शाहजहां ने कहा.

‘‘गुस्ताखी मुआफ हो, वक्त आया तो मुगल सल्तनत से भी.’’ गज सिंह की आंखें झुक गई थीं.

बादशाह ने बात बदलते हुए पूछा, ‘‘आप के राठौड़ वंश में बेगम का ओहदा क्या रहेगा?’’

ये भी पढ़ें- मृदुभाषिणी: सामने आया मामी का चरित्र

‘‘हम उन्हें बड़ी इज्जत देंगे, जो अपनी महारानी को दे रहे हैं. जहांपनाह, हम उन्हें बहुत प्यार करते हैं. हम उन के साथ पूरी वफा से पेश आएंगे.’’ गजसिंह ने जवाब दिया.

शाहजहां ने कहा, ‘‘हम आप को उसे गैर तरीके से बख्शते हैं. आप उसे जोधपुर भेज दीजिए. पीछे से आप भले जाइए, लेकिन बहुत ही खुफिया से. हम नवाब को दक्षिण भेज देते हैं.’’

‘‘हम आप का यह एहसान कभी नहीं भूल सकेंगे.’’ गजसिंह ने सिर झुका लिया.

महाराजा गजसिंह ने अनारा बेगम को अपनी मौत तक एक हिंदू रानी की तरह इज्जत दी. आज भी जोधपुर में महाराजा की प्रेम दीवानी की याद में अनारा की बावड़ी बनी हुई है.

साथी- भाग 4: क्या रजत और छवि अलग हुए?

‘‘क्या रजत का दिल नहीं करता होगा कि उस के दोस्तों की बीवियों की तरह उस की पत्नी भी स्मार्ट व शिक्षित दिखे, इतना वजन बढ़ा लिया है तुम ने… इस बेडौल शरीर को ढोना तुम्हें क्या उच्छा लगता है? तुम अच्छी पत्नी तो बनी छवि पर अच्छी साथी न बन सकी अपने पति की… सोचो छवि, कई लड़कियों को ठुकरा कर रजत ने तुम्हें पसंद किया था. कहां खो गईर् वह छवि, जिसे वह दीवानों की तरह प्यार करता था?’’

रीतिका की बातें सुन कर छवि को याद आने लगा कि ऐसा कुछ रजत भी कहता था. कई तरह से कई बातें समझाना चाहता था पर उस ने कभी ध्यान ही नहीं दिया. रजत की बातें कभी समझ में नहीं आईं पर रीतिका की बातें उस के कहने के अंदाज से समझ में आ रही थीं.

रीतिका उसे चुप देख कर फिर बोली, ‘‘छवि आज यह बात स्त्रियों पर ही नहीं पुरुषों पर भी समान रूप से लागू होती है… स्मार्ट और शिक्षित स्त्री भी अपने पति में यही सब गुण देखना पसंद करती है… बड़ी उम्र की महिलाएं भी आज अपने प्रति उदासीन नहीं हैं… वे अपने रखरखाव के प्रति सजग हैं… बेडौल पति तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता. फिर पुरुष की तो यह फितरत है.’’

‘‘तो मैं अब क्या करूं रीतिका?’’ छवि हताश सी बोली.

‘‘करना चाहोगी तो सबकुछ आसान लगेगा… पहले तो घर के पास वाला जिम जौइन कर लो… तरहतरह के पकवान बनाना थोड़ा कम करो… रोज का अखबार पढ़ो… टीवी पर समाचार सुनो… बाहर के हर कार्य के लिए बेटे और रजत पर निर्भर मत रहो, खुद करो… इन सब बातों से विश्वास बढ़ता है और विश्वास बढ़ने से व्यक्तित्व निखरता है और व्यक्तित्व निखरने से पति पर अधिकारभावना खुद आ जाएगी.’’

रीतिका की बात सुन कर छवि खुद में गुम हो गई. फिर खुद से एक वादा सा करते हुए बोली, ‘‘मुझे माफ करना रीतिका… मैं ने तुम्हें गलत समझा… मैं आज ही से तुम्हारी बात पर अमल करूंगी. बस एक बात की उम्मीद कर सकती हूं तुम से?’’

ये भी पढ़ें- चाय पे बुलाया है: क्या मनीष के हसीन ख्वाब पूरे हुए?

‘‘हां, क्यों नहीं.’’

‘‘तुम्हारीमेरी यह मुलाकात रजत को कभी पता न चले.’’

‘‘कभी पता नहीं चलेगी मुझ पर विश्वास करो. मैं कभी नहीं चाहूंगी कि किसी भी कारण से तुम दोनों के बीच दूरी आए… हमारी यह मुलाकात मेरे सीने में दफन हो गई. तुम बेफिक्र हो कर घर जाओ.’’

छवि घर आ गई. घर लौटते हुए जिम में बात करती आई. 4 महीने का पैकेज था. जिम चलाने वाले ने शर्तिया 15 किलोग्राम वजन घटाने का वादा किया था… उसे एक डाइट चार्ट भी दिया कि उसे सख्ती से इस का पालन करना होगा.

रजत से बिना कुछ बोले छवि अपने अभियान में जुट गई. सच है कोई कितना भी बदलना चाहे किसी को तब तक नहीं बदल सकता, जब तक कोई खुद न बदलना चाहे. अब छवि का नियम बन गया था रोज अखबार पढ़ना और टीवी पर समाचार सुनना. उस ने अखबार वाले से कई पत्रपत्रिकाएं भी लगा ली थीं.

घर की साफसफाई और पकवान बनने कुछ कम हो गए थे पर किसी के जीवन पर इस का कोई खास असर नहीं पड़ा. अलबत्ता छवि की जिंदगी बदलने लगी थी. अब वह अकसर किसी न किसी काम से घर से निकल जाती. इस से खुद को तरोताजा महसूस करती.

बाहर के काम खुद करने से उसे संतुष्टि महसूस होती, जिस से उस में आत्मविश्वास आना शुरू हो गया था. रजत उस में धीरेधीरे आने वाले परिवर्तन को देख रहा था, पर सोच रहा था कि थोड़े दिन की बात है, जो उस की बेरुखी की वजह से शायद छवि में आ गया हो. थोड़े दिनों में अपने फिर पुराने ढर्रे पर आ जाएगी.

लेकिन छवि अपनी उसी दिनचर्या पर कायम रही. 4-5 महीने होतेहोते छवि का वजन 15 किलोग्राम कम हो गया. बदन के उतारचढ़ाव की प्रखरता फिर अपनी मौजूदगी का एहसास कराने लगी. चेहरे की चरबी घट कर कसाव आने से चेहरा कांतिमय हो गया. बड़ीबड़ी झील सी आंखें, जो चरबी बढ़ने से छोटी हो गई थीं, फिर से अपनी गहराई नापने लगीं.

रजत देखता कि अकसर वह खाली समय में पत्रपत्रिकाएं पढ़ते हुए मिलती या फिर बच्चों से कंप्यूटर सीखने का प्रयास करती. वह छवि को फोन पर किसी से बात करते हुए सुनता तो उसे छवि के लहजे व बातचीत पर हैरानी होती. उस की बातचीत का अंदाज तक बदल चुका था.

एक दिन उस ने पार्लर जा कर अपने पूंछ जैसे बाल भी कटवा लिए. कंधों तक लहराते बालों में जब उस ने शीशे में अपना चेहरा देखा तो खुद को ही नहीं पहचान पाई. उस ने कटे बालों को रबड़बैंड से बांधा और घर आ गई.

दूसरे दिन उन्हें सपरिवार मामाजी के घर जाना था. बच्चे तैयार हो कर बाहर निकल गए थे. रजत भी तैयार हो कर बाहर निकला. कार बैक कर के खड़ी की और छवि के बाहर आने का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर इंतजार करने के बाद छवि को देर करते देख वह उसे बुलाने अंदर चला गया.

‘‘कहां हो छवि… कितनी देर लगा रही हो… जल्दी करो, देर हो रही है,’’ कहता हुआ वह बैडरूम में चला गया. उस ने देखा चूड़ीदार सूट पहने एक सुंदर व स्मार्ट सी युवती अपने कंधों तक लहराते बालों पर कंघी फेर रही है.

ये भी पढ़ें- अविश्वास: कैसे रश्मि ने अकेलेपन को खत्म किया ?

‘‘छवि,’’ आवाज सुन कर छवि ने पलट कर देखा.

‘‘छवि यह तुम हो,’’ रजत उसे खुशी मिश्रित आश्चर्य से देख रहा था. उसे सामने देख कर छवि ऐसे शरमा रही थी जैसे कल ही शादी हुई हो.

रजत उस के करीब आ गया, ‘‘विश्वास नहीं हो रहा कि यह तुम हो… तुम्हें देख कर तो आज 17-18 साल पहले के दौर में पहुंच गया हूं… ‘‘कितनी सुंदर लग रही हो,’’ वह उस की झील सी गहरी आंखों में डुबकी लगाते हुए बोला.

‘‘चलो हटो… ऐसे ही बोल रहे हो… बहुत सताया आप ने मुझे.’’

‘‘सच कह रहा हूं छवि… प्यार तो मैं तुम्हें हमेशा ही करता था पर पतिपत्नी को एकदूसरे को प्यार करने के लिए, प्यार के माध्यम कभी कम नहीं होने देने चाहिए,’’ वह उसे बांहों में कसते हुए बोला, ‘‘आज तो दिल बहकने को कर रहा है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो रजत… मैं ने आप की बातें समझने में बहुत देर कर दी.’’

‘‘कोई बात नहीं… आखिर समझ तो गई, पर अब मेरा मामाजी के घर जाने का मूड नहीं है… बच्चों को भेज देते हैं…’’ रजत शरारत से उस के कान के पास मुंह ला कर बोला.

‘‘ठीक है,’’ रजत की बात समझ खिलखिलाती हुई छवि ने अपनी बांहें रजत के गले में डाल दीं.

मुहरे- भाग 3: विपिन के लिए रश्मि ने कैसा पैंतरा अपनाया

8 बजे निकलती है, मैं उसी समय डस्टबिन बाहर रख देती हूं. हमारी बिल्डिंग में 4 फ्लैट हैं. 2 में महाराष्ट्रियन परिवार रहते हैं. दोनों परिवारों में पतिपत्नी कामकाजी हैं. चौथे फ्लैट में बस एक आदमी ही है. उम्र पैंतीस के आसपास होगी. वीकैंड पर उस के दरवाजे पर ताला लगा रहता है. मेरा अंदाजा है शायद अपने घर, आसपास के किसी शहर जाता होगा. इस आदमी की विपिन और हमारे बच्चों से कभी कोई हायहैलो नहीं हुई है. एक दिन मुझ से सामना होने पर उस ने पूछा, ‘‘मैडम, पीने के पानी की एक बौटल मिलेगी प्लीज? मेरा फिल्टर खराब हो गया है.’’

मैं ने ‘श्योर’ कहते हुए उस की बौटल में पानी भर दिया था. जब मैं डस्टबिन रख रही होती हूं तो वह भी अकसर अपने घर से निकल रहा होता है और मुझे गुडमौर्निंग मैम कहता हुआ सीढि़यां उतर जाता है. उस से सामना होने पर अब मेरी हायहैलो हो जाती है. बस, हायहैलो और कभी कोई बात नहीं. एक दिन हम चारों बाहर से आ रहे थे और लिफ्ट का वेट कर रहे थे तो वह आदमी मुझे गुड ईवनिंग मैम कहता हुआ सीढि़यां चढ़ गया. मैं ने भी सिर हिला कर जवाब दे दिया.

विपिन ने पूछा, ‘‘यह कौन है?’’ ‘‘हमारा पड़ोसी.’’

‘‘वह किराएदार?’’ ‘‘हां.’’

‘‘तुम से हायहैला कब शुरू हो गई? तुम्हें कैसे जानता है?’’ ‘‘एक दिन पानी मांगा था, तब से.’’

‘‘तुम से ही क्यों पानी मांगा, भई?’’ ‘‘बाकी दोनों फ्लैट दिन भर बंद रहते हैं. पानी मांगना कोई बहुत बड़ी बात थोड़े ही है.’’

ये भी पढ़ें- रश्मि: बलविंदर सिंह से क्या रिश्ता था रश्मि का?

‘‘तमीज देखो महाशय की. सिर्फ तुम्हें विश कर के गया.’’ ‘‘अरे, तुम लोगों को जानता ही नहीं है तो विश क्या करेगा? तुम लोग भी तो अपनी धुन में रहते हो… कहां किसी में इंट्रैस्ट लेते हो.’’

‘‘हां, ठीक है, घर में तुम हो न सब में इंट्रैस्ट लेने के लिए. आजकल बड़ी सोशल हो रही हो… कभी लिफ्ट वाले लड़के को अपना नाम बताती हो, तो कभी पड़ोसी को पानी देती हो.’’ मैं ने नाटकीय ढंग से सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘भई, बढ़ती उम्र में आसपास के लोगों से जानपहचान होनी चाहिए. क्या पता कब किस की जरूरत पड़ जाए.’’

‘‘क्या बुजुर्गों जैसी बातें कर रही हो?’’ ‘‘हां, विपिन, उम्र बढ़ने के साथ आसपास के लोगों से संबंध रखने में ही समझदारी है.’’

विपिन मुझे घूरते रह गए. कहते भी क्या. अब बातें करतेकरते हम घर आ कर चेंज कर रहे थे. कई दिन बाद लिफ्ट वाला प्रशांत मुझे शाम के समय गार्डन में भी दिखा तो मैं चौकन्नी हो गई. वह गार्डन में अब मेरे आनेजाने के समय कुछ बातें भी करने लगा था जैसे ‘आप कैसी हैं, मैम?’ या ‘कल आप सैर करने नहीं आईं’ या ‘यह ड्रैस आप पर बहुत अच्छी लग रही है, मैम.’ उस के हावभाव से, नजरों से मैं सावधान होने लगी थी. यह तो कुछ और ही सोचने लगा है.

विपिन और मेरे डिनर के बाद टहलने के समय प्रशांत रोज नीचे मिलने लगा था और मुझे देख कर मुसकराते हुए आगे बढ़ जाता था. प्रशांत का मेरे आसपास मंडराना तो इरादतन था पर नए पड़ोसी का मुझ से आमनासामना होना शतप्रतिशत संयोग होता था. स्त्री हूं इतना तो समझती ही हूं पर विपिन की बेचैनी देखने लायक थी.

वान्या को बाय कहती हुई मैं अकसर पड़ोसी की भी गुडमौर्निंग का जवाब देती तो ड्राइंगरूम में पेपर पढ़ते विपिन मुझे अंदर आते हुए देख कर यों ही पूछते, ‘‘कौन था?’’

मैं पड़ोसी कह कर किचन में व्यस्त हो जाती. अब अच्छे मूड में विपिन अकसर मुझे ऐसे छेड़ते, ‘‘इतनी वैलड्रैस्ड हो कर सैर पर जाती हो… लगता ही नहीं कि तुम्हारे इतने बड़े बच्चे हैं… बहन लगती हो वान्या की.’’

मैं हंस कर उन के गले में बांहें डाल देती, ‘‘कितनी भी बहन लगूं पर उम्र तो हो ही रही है न?’’

‘‘अभी तो तुम बहुत स्मार्ट और यंग दिखती हो, फिर उम्र की क्या टैंशन है?’’ ‘‘सच?’’ मैं मन ही मन खुश हो जाती.

ये भी पढ़ें- 10 साल: क्यों नानी से सभी परेशान थे

‘‘और क्या? देखती नहीं हो? आकर्षक हो तभी तो वह लिफ्ट वाला और यह पड़ोसी तुम से हायहैलो का कोई मौका नहीं छोड़ते.’’ ‘‘अरे, उन की क्या बात करनी… उन की उम्र देखो, दोनों मुझ से छोटे हैं.’’

‘‘फिर भी उम्र की तो बात छोड़ ही दो, नजर तुम पर उठती ही है. तुम ने अपनेआप को इतना फिट भी तो रखा है.’’ मैं मुसकराती रही. अब मैं ने नोट किया विपिन ने पूरी तरह से उम्र बढ़ने के मजाक बंद कर दिए थे पर अब भी जब प्रशांत और पड़ोसी मुझे विश कर रहे होते, ये मुझे गंभीर होते लगते.

विपिन और मैं एकदूसरे को दिलोजान से चाहते हैं. सालों का प्यार भरा साथ है, जो दिन पर दिन बढ़ ही रहा है. मैं उन्हें इन गैरों के लिए टैंशन में नहीं देख सकती थी. मुझे उम्र के मजाक हर बात में पसंद नहीं थे, वे अब बंद हो चुके थे. यही तो मैं चाहती थी. मुझे स्वयं को ऊर्जावान, फिट रखने का शौक है और मैं स्वयं को कहीं से भी बढ़ती उम्र का शिकार नहीं समझती तो क्यों विपिन उम्र याद दिलाएं. अब ऐसा ही हो रहा था. विपिन को सबक सिखाने के लिए अब प्रशांत और उस पड़ोसी का जानबूझ कर सामना करने की शरारत की जरूरत नहीं थी मुझे. मैं डस्टबिन और पहले बाहर रखने लगी थी. सैर के समय में भी बदलाव कर लिया था. मुझे आते देख कर प्रशांत लिफ्ट की तरफ बढ़ रहा होता तो मैं झट सीडि़यां चढ़ जाती थी. प्रशांत और पड़ोसी मुहरे ही तो थे. इन का काम अब खत्म हो गया था. इन से मेरा अब कोई लेनादेना नहीं था.

नमस्ते जी- भाग 1: नीतिन की पत्नी क्यों परेशान थी?

Writer- डा. उर्मिला कौशिक ‘सखी’

हम दोनों पतिपत्नी सुबह बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजने के बाद सैर करने की नीयत से जैसे ही कोठी के बाहर निकले कि पति की निगाहें गली में खड़ी धोबी की लड़की पर जा कर ठहर गईं. वह लड़की अकसर इस्तरी के लिए आसपास की कोठियों से कपड़े लेने आती थी. उसे देख कर नितिन का अंदाज बड़ा ही रोमांटिक हो आया.

नितिन की बाछें खिल उठीं. मानो कोई अप्सरा स्वर्ग से उतर कर उस के सामने खड़ी, उस का अभिनंदन कर रही हो. नितिन के कदम कुछ क्षणों के लिए ठहर से गए. बदले में उस ने भी मुसकराहट के साथ उस का अभिवादन स्वीकार करते हुए पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

वह शोख अंदाज में फिर मुसकराई और धीरे से बोली, ‘‘ठीक हूं.’’

मुझे यह सब ठीक नहीं लगा तो थोड़ा आगे चलने के बाद मैं ने नितिन को टोक दिया.

‘‘तुम एक फैक्टरी के मालिक और एक हैसियतदार आदमी हो. तुम्हारा बस नमस्ते कहना ही काफी था. मगर गाना गाना, हंसना और ज्यादा मुंह लगाना ठीक नहीं. खासकर इस तरह की लड़कियों को. देखो, धोबी की लड़की है. इस्तरी के लिए घरघर कपड़े मांग रही है और हाथ में 8-10 हजार का मोबाइल लिए है…उसे देख कर कौन कहेगा कि यह धोबी की लड़की है.’’

‘‘तुम तो बस किसी के भी पीछे पड़ जाती हो. अरे, तुम्हारे जैसी किसी ‘मेम’ ने पुराना सूट दे दिया होगा और फिर फैशन करना कौन सी बुरी बात है? यह मोबाइल तो अब  आम हो गया है.’’

नितिन ने उस के पक्ष में यह सब कहा तो मुझे 3-4 दिन पहले का वह वाकया याद हो आया जब नितिन ने मुझे बालकनी में बुला कर कहा था.

‘देख निक्की, इस धोबी की लड़की को. यह जब हंसती है तो इस के दोनों गालों पर पड़ते हुए डिंपल कितने प्यारे लगते हैं? कितनी अच्छी ‘हाइट’ है इस की, उस पर छरहरा बदन कितनी सैक्सी लगती है यह?’ मेरे दिमाग में फिर एक और दास्तान ताजा हो आई थी.

ये भी पढ़ें- लॉन्ग डिस्टेंस रिश्ते: अभय को बेईमान मानने को रीवा क्यों तैयार न थी?

अभी बच्चों की गरमियों की छुट्टियों में  मैं 15-16 दिन गांव में रह कर आई थी. पीछे से नितिन अकेले ही रहे थे. मैं जब गांव से वापस आई तो देखा कि साहब ने ढेर सारे कपड़े इस्तरी करा रखे थे. यहां तक कि जिन कपड़ोें को पहनना छोड़ रखा था, वे भी धुल कर इस्तरी हो चुके थे.

मैं ने चकित भाव से नितिन से पूछा, ‘‘ये इतने कपड़े क्यों इस्तरी करा रखे हैं? इन कपड़ों को दे कर तो मुझे बरतन लेने थे और तुम ने इन को धुलवा कर इस्तरी करवा दिया. और तो और जो पहनने…’’

मेरी बात को बीच में ही काट कर नितिन ने झट से कहा, ‘‘वह सब छोड़ो, एक बात याद रखना कि मेरे कपड़े इस्तरी करने के लिए उस लड़के को मत देना. वह ठीक से इस्तरी नहीं करता. वह जो सांवली लड़की कपड़े लेने के लिए आती है, उसे दिया करो. वह इस्तरी भी बढि़या करती है और समय पर वापस भी दे जाती है.’’

मैं कुछ परेशान सी यह सब अपने मन में याद करती हुई चली जा रही थी कि अचानक मेरी नजर नितिन के चेहरे पर पड़ी तो देखा कि वह मंदमंद मुसकरा रहे हैं. मैं ने टोक दिया, ‘‘क्या बात है, बड़े मुसकरा रहे हो. मेरी बात पर गौर नहीं किया क्या?’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि थोड़ा रौब से रहा करो.’’

बात पूरी होने से पहले ही नितिन बोल पड़े, ‘‘निक्की, अगर तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूं. तुम थोड़ी मोटी हो गई हो और वह धोबी की लड़की सैक्सी लगती है, शायद इसलिए.’’

यह सुन कर मेरा मूड खराब हो गया. मैं वापस घर चली आई. ऐसे ही दिन गुजर गया, रात हो आई. न मैं ने बात की न ही नितिन ने.

2 दिन बाद शाम को जालंधर से इन की किसी परिचित का फोन आ गया. नितिन व उस के बीच लगभग 6 मिनट फोन पर बातचीत चली थी. बातों को सुन कर पता चला कि किसी की बेटी का पी.जी. के तौर पर गर्ल्स हास्टल में रहने का प्रबंध कराना था. जब मैं ने पूछा कि कौन थी? किसे पी.जी. रखवाने की बात हो रही थी? तो नितिन टाल गए. मैं ने भी बात को अधिक बढ़ाना उचित नहीं समझा और घर के काम में लग गई.

नितिन कभी जूते पालिश नहीं करते. हमेशा मैं ही करती हूं लेकिन अगले दिन सुबह उठ कर खुद उन को जूते चमकाते देखा तो अचरज सा हुआ. मैं ने पूछा, ‘‘आज शूज बड़े चमकाए जा रहे हैं, क्या बात है?’’

‘‘गर्ल्स हास्टल का पता करने कई जगह जाना है.’’

यह सुन कर मैं ने अपनी मंशा जाहिर करते हुए कहा, ‘‘कहो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूं, एक से भले दो.’’

‘‘रहने दो, तुम नाहक ही थक जाओगी, फिर आजकल धूप भी तेज होती है.’’

‘‘हां, भई हां, मेरा तो रंग काला पड़ जाएगा. मैं छुईमुई की तरह हूं जो मुरझा जाऊंगी. साफसाफ यह क्यों नहीं कहते कि मुझे अकेले जाना है. मैं सब जानती हूं लेकिन पिछली बार जब मेरी सहेली ने अपनी बेटी को पी.जी. रखवाने के लिए फोन किया था तो तुम उन्हें ले कर अकेले ही गए थे. अब की बार मैं तुम्हारे साथ चलूंगी. मुझे अच्छा नहीं लगता, तुम्हारा जवान लड़कियों के ‘हास्टल’ में जा कर पूछताछ करना. मैं औरत हूं, मेरा पूछना हमारी सभ्यता के लिहाज से ठीक है.’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं अकेला ही पता कर के आऊंगा,’’ यह कह कर नितिन गाना गाने लगे, ‘‘अभी तो मैं जवान हूं…अभी तो मैं…’’

ये भी पढ़ें- मैं फिर हार गया: अमित की हार का क्या कारण था

नितिन को चिढ़ाने के अंदाज में मैं ने कहा, ‘‘अगर आज तुम अकेले गए तो मैं भी तुम्हारे पीछेपीछे आऊंगी और तुम यह मत सोचना कि मैं तुम्हें अब गुलछर्रे उड़ाने का मौका आसानी से दे दूंगी.’’

यह सुन कर नितिन एकदम गंभीर हो गए और सख्त लहजे में बोले, ‘‘बस निक्की, अब तुम आगे एक भी शब्द नहीं बोलोगी. अगर कुछ उलटा बोला तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’

‘‘हां…हां, जानती हूं, और तुम कर भी क्या सकते हो, मुझ कमजोर को पीटने के अलावा. मगर आज मैं तुम्हें अकेले पी.जी. के बारे में पता करने नहीं जाने दूंगी, चाहे कुछ भी हो जाए. तुम जरा अकेले जा कर तो देखो?’’

सत्य असत्य- भाग 2: क्या था कर्ण का असत्य

उस समय भैया नाश्ता कर रहे थे. शायद कौर गले में अटक गया था, क्योंकि उसी क्षण उन्होंने मुझ से पानी मांगा.

उस दिन निशा अपने घर गई हुईर् थी. मां बोलीं, ‘‘इस लड़की ने तो मुझे अपाहिज बना दिया है, किसी काम को हाथ ही नहीं लगाने देती. इस के जाने के बाद मैं घर का कामकाज कैसे करूंगी.’’

पिताजी बोले, ‘‘उसे यहीं रख लो, मुझे भी बहुत प्यारी लगती है.’’

तभी अनायास मैं बोल उठी, ‘‘वह किसी और को पसंद करती है. उस का ब्याह वहीं होना चाहिए, जहां वह चाहे, यह बिना सिरपैर की इच्छा उस से मत बांधो.’’

‘‘किसी और को, पर किसे? उस ने हमें तो कुछ नहीं बताया.’’

‘‘बताया तो उस ने अपने पिता को भी नहीं था. मुझे भी नहीं बताया. परंतु उस से क्या होता है. सत्य तो सत्य ही है न.’’

‘‘तुम ने उसे किसी के साथ देखा है क्या?’’ हाथ का काम छोड़ मां समीप चली आईं. वे सचमुच उसे बहू बनाने को आतुर थीं.

‘‘भैया ने देखा है. और मैं इसे बुरा भी नहीं मानती. निशा वहीं जाएगी, जहां वह चाहेगी.’’

उस समय भैया के चेहरे पर कई रंग आजा रहे थे.

‘‘ऐसी बात है तो मैं आज ही निशा से बात करता हूं,’’ पिताजी बोले.

‘‘नहीं, उस से बात मत कीजिए. वैसे, विजय भी अच्छा लड़का है.’’

‘‘अगर विजय अच्छा लड़का है तो आप कौन से बुरे हैं. आप क्यों नहीं? साफसाफ बताइए भैया, वह लड़का कौन है, जिस के साथ आप ने उसे

देखा था?’’ मैं ने तनिक ऊंचे स्वर

में पूछा.

‘‘बोलो कर्ण, कुछ तो बताओ?’’ पिताजी ने भी उन का कंधा हिलाया.

‘‘गीता, कैसी बेकार की बात करती हो. वह मुझे ‘भैया’ कह के पुकारती है. और…’’

‘‘कुछ तो कहेगी न. जब उसे पता चलेगा कि आप उस से प्रेम करते हैं तो हो सकता है, ‘भैया’ न कहे. फिलहाल यह बताइए कि  वह लड़का कौन था, जिसे आप ने…’’

‘‘चुप भी करो गीता, क्यों इस के पीछे पड़ी हो,’’ मां ने मुझे टोक दिया.

‘‘मैं ने कहा न, विजय उस के लिए…’’ भैया बोले तो मैं ने उन की बात काटते हुए कहा, ‘‘आप यह निर्णय करने वाले कौन होते हैं? मैं आज खुद निशा से पूरी बात खोलूंगी, चाहे उसे बुरा ही लगे.’’

ये भी पढ़ें- मन के बंधन: दिल पर किसी का जोर नहीं चलता!

‘‘नहीं, उस से कुछ मत पूछना,’’ भैया ने रोका और पिताजी बुरी तरह चीख उठे, ‘‘इस का मतलब है, तुम झूठ बोलते हो. उसे किसी के साथ जरूर देखा था. कहीं तुम्हीं तो उस के पिता को फोन नहीं करते रहे?’’ पिताजी के होंठों से निकला एकएक शब्द सच निकलेगा, मैं ने कभी सोचा नहीं था.

तभी पिताजी ने भैया की गाल पर जोरदार थप्पड़ दे मारा, ‘‘तुझे उस मासूम लड़की पर दोष लगाते शर्म नहीं आई. अरे, हमारी भी बेटी है. यही सब हमारे साथ हो तो तुझे कैसा लगेगा?’’

उस क्षण मां ने बेटे की तरफ नफरत से देखा.

‘‘पिताजी, मैं ने झूठ नहीं बोला था,’’ भैया ने शायद सारी शक्ति बटोरते हुए कहा, ‘‘जो देखा, वह सच था, लेकिन.’’

‘‘लेकिन क्या. अब कुछ बकोगे भी?’’

‘‘जी…जो…जो समझा, वह झूठ था. उस रात अस्पताल में निशा के पिता को देखा तो पता चला कि उस के साथ सदा वही होते थे. वे इतने कम उम्र लगते थे कि मैं धोखा…’’

यह सुनते ही मां ने माथे पर जोर से हाथ मारा, ‘‘सच, तुम्हारी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई.’’

उस पल हम चारों के लिए वक्त जैसे थम गया. सचाई जाने बिना उस के पिता को फोन कर के शिकायत करने की भला क्या आवश्यकता थी? आंखों देखा भी गलत हो सकता है और इतना घातक भी, यह मैं ने पहली बार देखासुना था.

पिताजी दुखी स्वर में बोले, ‘‘कैसा जमाना आ गया है. पितापुत्री साथसाथ कहीं आजा भी नहीं सकते. पता नहीं इस नई पीढ़ी ने आंखों पर कैसी पट्टी बांध ली है.’’

उस दिन भैया अपने कार्यालय नहीं जा सके, अपने कमरे में ऐसे बंद हुए कि शाम को ही बाहर निकले.

निशा तब तक नहीं लौटी थी, इसलिए सभी परेशान थे. भैया मोटरसाइकिल निकाल कर बाहर निकल गए और पिताजी खामोशी से उन्हें जाते हुए देखते रहे.

उस दिन हमारे घर में खाना भी नहीं बना. एक शर्म ने सब की भूख मार रखी थी. सहसा पिताजी बोले, ‘‘दोष तुम्हारा भी तो है. कम से कम निशा से साफसाफ पूछतीं तो सही, सारा दोष कर्ण को कैसे दे दूं. तुम भी बराबर की दोषी हो.’’

लगभग डेढ़ घंटे बाद भैया हड़बड़ाए से लौटे और बोले, ‘‘प्रोफैसर सुरेंद्र की पत्नी ने बताया कि वह तो दोपहर को ही चली गई थी.’’

‘‘वह कहां गई होगी?’’ पिताजी ने मेरी ओर देखा.

‘‘चलो भैया, वहीं दोबारा चलते हैं,’’ मैं उन के साथ निशा के घर गई. द्वारा खोला, घर साफसुथरा था, यानी वह सुबह यहां आई थी. पूरा घर छान मारा, पर निशा दिखाई न दी.

अचानक भैया बोले, ‘‘उसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा. मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, ऐसा अपराध कर बैठूंगा. अब मैं कहां जाऊं?’’

सामने मेज पर एक सुंदर पुरुष की तसवीर पर ताजे फूलों का हार चढ़ा था. मैं तसवीर के नजदीक जा कर सोचने लगी कि निशा ने सच ही कहा था कि उस के पिता बहुत सुंदर थे. भैया को गलतफहमी हो गई होगी, शायद मुझे भी हो जाती.

‘‘अब क्या होगा गीता, तुम्हीं कुछ सोचो?’’ तभी भैया भी उस के पिता की तसवीर के पास आ कर बोले, ‘‘यह देखो गीता, यही तो थे.’’

मैं कुछ और ही सोचने लगी थी. चंद क्षणों बाद बोली, ‘‘भैया, निशा से शादी कर लो. यह तो सत्य ही है कि आप उस से बेहद प्यार करते हैं.’’

‘‘क्या उसे सचाई न बताऊं?’’

‘‘और कितना दुख दोगे उसे? क्या उस से बात और नहीं बिगड़ जाएगी?’’

‘‘क्या निशा के साथ एक झूठा जीवन जी पाऊंगा?’’

‘‘जीवन तो सच्चा ही होगा भैया, परंतु यह जरा सा सत्य हम चारों को सदा छिपाना पड़ेगा, क्योंकि हम उसे और किसी तरह भी अब सुख नहीं दे सकते.’’

ये भी पढ़ें- यही सच है- भाग 1: आखिर क्या थी वह त्रासदी?

भारी मन में हम घर लौट आए. मगर सामने ही बरामदे में निशा को देख हैरान रह गए. एक लंबे समय के बाद मैं ने उसे हंसते देखा था. सामने मेज पर कितने ही पैकेट पड़े थे. डबडबाई आंखें लिए पिताजी उसे एकटक निहार रहे थे. वह उतावले स्वर में बोली, ‘‘गीता, मुझे नौकरी मिल गई.’’

‘‘वह तो ठीक है, मगर तुम बिना हम से कुछ कहे…पता भी है, 3 घंटे से भटक रहा हूं. तुम कहां चली गई थीं?’’ भैया की डूबती सांसों में फिर से संजीवनी का संचार हो गया था.

निशा ने बताया, ‘‘12 बजे घर से निकली तो सोचा, पिताजी के विभाग से होती जाऊं. वहां पता चला कि मेरी नियुक्ति कन्या विद्यालय में हो चुकी है.’’

‘‘लेकिन अब तक तुम थीं कहां?’’ इस बार मैं ने पूछा.

‘‘बता तो रही हूं, मैं विद्यालय देखने चली गई. आज ही उन्होंने मुझे रख भी लिया. 4 बजे वहां से निकली, तब यह सामान खरीदने चली गई. यह देखो. तुम सब के लिए स्वेटर लाई हूं.’’

‘‘तुम्हारे पास इतने पैसे थे?’’ मैं हैरान रह गई.

‘‘आज घर की सफाई की तो पिताजी के कपड़ों से 10 हजार रुपए मिले. उसी दिन वेतन लाए थे न.’’

औरत एक पहेली- भाग 3: विनीता के मृदु स्वभाव का क्या राज था

कभी ऐसा भी हो जाता कि विनीता अपने किसी निजी कार्यवश संदीप को कार में बैठा कर कहीं ले जातीं. संदीप घंटों के पश्चात प्रसन्न मुद्रा में वापस लौटते और बताते कि वह किसी बड़े होटल में विनीता के साथ भोजन कर के आ रहे हैं.

मेरे अंदर की औरत यह सब सहन नहीं कर पा रही थी. मैं यह सोच कर ईर्ष्या से जलती भुनती रहती कि विनीता की खूबसूरती ने संदीप के मन को बांध लिया है. अब उन्हें मैं फीकी लगने लगी हूं. उन के मन में मेरा स्थान विनीता लेती जा रही है.

कभी मैं क्षुब्ध हो कर सोचने लगती, इस शहर में मकान बनवाने से मेरा जीवन ही नीरस हो गया. एक शहर में रहते हुए संदीप और विनीता का साथ कभी नहीं छूट पाएगा. अब संदीप मुझे पहले की भांति कभी प्यार नहीं दे पाएंगे. विनीता अदृश्य रूप से मेरी सौत बन चुकी है, हो सकता है दोनों हमबिस्तर हो चुके हों. आखिर होटलों में जाने का और मकसद भी क्या हो सकता है?’

हमारा मकान पूरा बन गया तो मुहूर्त्त करने के पश्चात हम अपने घर में आ कर रहने लगे.

विनीता का आनाजाना और संदीप के साथ घुलमिल कर बातें करना कम नहीं हो पाया था.

एक दिन मेरे मन का आक्रोश जबान पर फूट पड़ा, ‘‘अब इस औरत के यहां आनाजाना बंद क्यों नहीं कर देते? मकान कभी का बन कर पूरा हो चुका है, अब इस फालतू मेलजोल का समापन हो जाना ही बेहतर है.’’

‘‘कैसी स्वार्थियों जैसी बातें करने लगी हो. विनीताजी ने हमारी कितनी सहायता की थी, अब हम उन का तिरस्कार कर दें, क्या यह अच्छा लगता है?’’

ये भी पढ़ें- अंतहीन- भाग 1: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

‘‘तब क्या जीवन भर उसे गले से लगाए रहोगे.’’

‘‘तुम्हें जलन होती है उस की खूबसूरती से,’’ संदीप मेरे क्रोध की परवा न कर के मुसकराते रहे. फिर लापरवाही से बाहर चले गए.

क्रोध और उत्तेजना से मैं कांप रही थी. जी चाह रहा था कि अभी जा कर उस आवारा, चरित्रहीन औरत का मुंह नोच डालूं.

अपने अपाहिज पति की आंखों में धूल झोंक कर पराए मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती है. अब तक न मालूम कितने पुरुषों के साथ मुंह काला कर चुकी होगी.

मुझे उस अपरिचित अनदेखे व्यक्ति से गहरी सहानुभूति होने लगी, जिस की पत्नी बन कर विनीता उस के प्रति विश्वासघात कर रही थी.

मैं सोचने लगी, ‘अगर यह कांटा अभी से उखाड़ कर नहीं फेंका गया तो मेरा मन जख्मी हो कर लहूलुहान हो जाएगा. इस से पहले कि मामला और आगे बढ़े मुझे विनीता के पति के पास जा कर सबकुछ साफसाफ बता देना चाहिए कि वे अपनी बदचलन पत्नी के ऊपर अंकुश लगाना शुरू कर दें. वह दूसरों के घर उजाड़ती फिरती है.’

उन के घर का पता मुझे मालूम था. एक बार मैं संदीप के साथ घर के बाहर तक जा चुकी थी. उस वक्त विनीता घर पर नहीं थीं. नौकर के बताने पर हम बाहर से ही लौट आए थे.

घर के सभी काम बच्चों पर छोड़ कर मैं विनीता के घर जाने के लिए तैयार हो गई. एक रिकशे में बैठ कर मैं उन के घर पहुंच गई.

विनीता घर में नहीं थीं. नौकर से साहब का कमरा पूछ कर मैं दनदनाती हुई सीढि़यां चढ़ कर ऊपर पहुंची.

नौकर ने कमरे के अंदर जा कर साहब को मेरे आगमन की सूचना दे दी. फिर मुझे अंदर जाने का इशारा कर के वह किसी काम में लग गया.

दरवाजे पर लहराता परदा एक ओर खिसका कर मैं ने अंदर प्रवेश किया तो सभी शब्द मेरे हलक में ही सूख गए. सामने कुरसी पर एक ऐसा इनसान बैठा हुआ था, जिस की कमर के नीचे दोनों टांग गायब थीं. उसे इनसान न कह कर सिर्फ एक धड़ कहा जाए तो बेहतर होगा.

‘‘आ जाओ, रेखा, मुझे विश्वास था  जीवन में दोबारा तुम से मुलाकात अवश्य होगी,’’ एक दर्दीला चिरपरिचित स्वर गूंज उठा.

उस पुरुष को पहचान कर मेरा रोंआरोंआ सिहर उठा था. पैरों तले जमीन खिसकती जा रही थी.

ये भी पढ़ें- गलतफहमी: क्या नीना को उसका प्यार मिल पाया

यह कोई और नहीं, मेरे भूतपूर्व पति सूरज थे. इन से वर्षों पहले मेरा तलाक हो चुका था. फिर मैं ने संदीप के साथ नई दुनिया बसा ली थी और संदीप को अपने अतीत से हमेशा अनभिज्ञ रखा था.

अब सूरज को देख कर मेरे कड़वे अतीत का वह काला पन्ना फिर से उजागर हो गया था, जिस की यादें मेरे मन की गहराइयों में दफन हो चुकी थीं.

वर्षों पहले मांबाप ने बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह सूरज के साथ किया था. सूरज एक कुशल वास्तुकार थे. घर भी संपन्न था. विवाह के प्रथम वर्ष में ही मैं एक सुंदर, स्वस्थ बेटे की मां बन गई थी.

फिर हमारी खुशियों पर एकाएक वज्रपात हुआ. एक सड़क दुर्घटना में सूरज की दोनों टांगों की हड्डियां टूट कर चूरचूर हो गई थीं. जान बचाने हेतु डाक्टरों को उन की टांगें काट देनी पड़ी थीं.

एक अपाहिज पति को मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाया. मैं खिन्न हो उठी. बातबात पर लड़ने, चिड़चिड़ाने लगी. मन का असंतोष अधिक बढ़ गया तो मैं सूरज को छोड़ कर मायके  में जा कर रहने लगी थी.

मायके वालों के प्रयासों के बाद भी मैं ससुराल जाने को तैयार नहीं हो पाई तो सब ने मुझे दुखी देख कर मेरा तलाक कराने के लिए कचहरी में प्रार्थनापत्र दिलवा दिया. मैं सूरज से छुटकारा पा कर किसी समर्थ पूर्ण पुरुष से विवाह करने के लिए अत्यंत इच्छुक थी.

एक दिन हमेशा के लिए हमारा संबंधविच्छेद हो गया. कानून ने सूरज की विकलांगता के कारण हमारे बेटे विक्की को मेरी सुपुर्दगी में दे दिया.

विक्की की वजह से मेरे पुनर्विवाह में अड़चनें आने लगीं. बच्चे वाली स्त्री से विवाह करने के लिए कौन पुरुष तैयार हो सकता था. मेरे मायके वाले भी विक्की की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार नहीं हो पाए.

इन सब बातों की जानकारी हो जाने पर एक दिन सूरज की माताजी मेरे मायके आ पहुंचीं. उन्होंने रोरो कर विक्की को मुझ से ले लिया.

सूरज की माताजी प्रसन्न मन से वापस लौट आईं. मेरा बोझ हलका हो गया था. विक्की की जुदाई के गम से अधिक मुझे दूसरे विवाह की अभिलाषा थी.

एक दिन मेरा विवाह संदीप से संपन्न हो गया. हम दोनों का यह दूसरा विवाह था. संदीप विधुर थे. विवाह की पहली रात ही हम दोनों ने अपनेअपने अतीत को हमेशा के लिए भुला देने की प्रतिज्ञा कर ली थी.

फिर एक दिन मायके जाने पर मुझे मालूम हुआ कि सूरज की माताजी सूरज और विक्की को ले कर किसी अन्य शहर में चली गई हैं.

‘‘बैठो, रेखा. खड़ी क्यों हो? लगता है, मुझे अचानक देख कर हैरान रह गई हो. तुम ने तो समझ लिया होगा मैं कहीं मरखप गया होऊंगा.’’

‘‘नहीं, सूरज, ऐसा मत कहो. सभी को जीवित रहने का पूरापूरा अधिकार है,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया और मैं एक कुरसी पर निढाल सी बैठ गई.

‘‘मेरे जीवित रहने का अधिकार तो तुम छीन कर ले गई थीं. रेखा, तुम छोड़ कर चली गईं तो मैं लाश बन कर रह गया था. अगर विनीता का सहारा नहीं मिलता तो मैं अब तक अवश्य मर चुका होता. आज विनीता की बदौलत ही मैं इतनी बड़ी फर्म का मालिक बना बैठा हूं.’’

बहुत प्रयत्न करने के बाद भी मेरे आंसू रुक नहीं पाए. मैं ने मुंह फेर कर रूमाल से अपना चेहरा साफ किया.

सूरज कहते जा रहे थे, ‘‘तुम्हें वह नर्स याद है जो मेरी देखभाल के लिए मां ने घर में रखी थी. वह शर्मीली सी छुईमुई लड़की विनी.’’

‘ओह, अब मैं समझी कि मुझे विनीताजी का चेहरा इतना जानापहचाना क्यों लग रहा था.’

‘‘तुम विनी को नहीं पहचान पाईं, परंतु विनी ने पहली बार देख कर ही तुम्हें पहचान लिया था. उस ने मुझे तुम्हारे बारे में, तुम्हारी आर्थिक स्थिति और रहनसहन के बारे में सभी कुछ बतला दिया था. मैं तुम्हारी यथासंभव सहायता करने के लिए तुरंत तैयार हो गया था. मेरे आग्रह पर विनीता ने कदमकदम पर तुम्हारी और तुम्हारे पति की मदद की थी.

‘‘मेरे पैर मौजूद होते तो मैं खुद चल कर तुम्हारे घर आता. तुम्हारे सामने दौलत के ढेर लगा कर कहता, ‘जितनी दौलत की आवश्यकता हो, ले कर अपनी भूख मिटा लो. तुम इसी वजह से मुझे छोड़ कर गई थीं कि मैं अपाहिज हूं. दौलत पैदा करने में असमर्थ हूं…तुम्हें पूर्ण शारीरिक सुख नहीं दे पाऊंगा…’’ कहतेकहते सूरज का गला भर आया था.

‘‘बस, रहने दो सूरज, मैं और अधिक नहीं सुन सकूंगी,’’ मैं रो पड़ी, ‘‘एक जहरीली चुभती हुई यादगार ही तो हूं, भुला क्यों नहीं दिया मुझे.’’

‘‘कैसे भुला पाता कि मेरे विक्की की तुम मां हो…’’

ये भी पढ़ें- निर्णय: क्या था जूही का अतीत?

‘‘विक्की कहां है, सूरज? वह कैसा है, क्या मैं उसे देख सकती हूं,’’ मैं व्यग्र हो कर कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई.

सूरज अपनेआप को संयत कर चुके थे, ‘‘विक्की यानी विकास से तुम विनीता के दफ्तर में मिल चुकी हो. वह विनीता के बराबर वाली कुरसी पर बैठ कर दफ्तर के कामों में उस का हाथ बंटाता है. अब वह एक प्रसिद्ध वास्तुकार है. तुम्हारे मकान का नक्शा उसी ने तैयार किया था.’’

‘‘सच, वही मेरा विक्की है,’’ हर्ष व उत्तेजना से मैं गद्गद हो उठी. मेरी आंखों के सामने वह गोरा, स्वस्थ युवक घूम गया, जिस से मैं कई बार मिल चुकी थी, बातें कर चुकी थी. मेरे मकान के मुहूर्त पर वह विनीता के साथ मेरे घर भी आया था.

अचानक मेरे मन में एक अनजाना डर उभर आया, ‘‘क्या विक्की जानता है कि मैं उस की मां हूं?’’

‘‘नहीं, वह उस मां से नफरत करता है जो उस के अपाहिज पिता को छोड़ कर सुख की तलाश में अन्यत्र चली गई थी. वह विनीता को ही अपनी सगी मां मानता है. जानती हो रेखा, वह मुझे कितना चाहता है, मेरे बिना भोजन भी नहीं करता.’’

‘‘सूरज, मेरी एक बात मानोगे.’’

‘‘कहो, रेखा.’’

‘‘विक्की से कभी मत कहना कि मैं उस की मां हूं. यही कहना कि विनीता ही उस की असली मां है,’’ रोती हुई मैं सूरज के कमरे से बाहर निकल आई.

जिस पौधे को मैं उजाड़ कर चली गई थी, विनीता ने उसे जीवनदान दे कर हराभरा कर दिया था, मैं सोचती रह गई कि स्वार्थी विनीता है या मैं. कितना गलत समझ बैठी थी मैं विनीता को. इस महान नारी ने 2 बार मेरा घर बसाया था. एक बार अपाहिज सूरज और मासूम बेसहारा विक्की को अपनाकर और दूसरी बार मेरा मकान बनवा कर.

मैं सीढि़यां उतर कर नीचे आ गई.

घर वापस लौटी तो मेरे चेहरे की उड़ी हुई रंगत देख कर बच्चे और संदीप सब सोच में पड़ गए. एकसाथ ही मुझ से कारण पूछने लगे. मैं ने एक गिलास पानी पिया और इत्मीनान से बिस्तर पर बैठ कर संदीप से कहने लगी, ‘‘सुनो, तुम विनीताजी के दफ्तर में जा कर उन्हें और उन के पूरे परिवार को रात के खाने के लिए आमंत्रित कर आओ. उन्होंने हमारे लिए इतना सब किया है, हमारा भी तो उन के प्रति कुछ फर्ज है.’’

बच्चे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. संदीप मेरी ओर ऐसे देखने लगे, जैसे कह रहे हों, ‘औरत सचमुच एक पहेली होती है. उसे समझ पाना असंभव है.’

सत्य असत्य- भाग 3: क्या था कर्ण का असत्य

उस के समीप जा कर मैं ने उस का हाथ पकड़ा, ‘‘पिताजी की आखिरी तनख्वाह इस तरह उड़ा दी.’’

‘‘मेरे पिताजी कहीं नहीं गए. वे यहीं तो हैं,’’ उस ने मेरे पिता की ओर इशारा किया, ‘‘इस घर में मुझे सब मिल गया है. आज जब मैं देर से आई तो इन्होंने मुझे बहुत डांटा. मेरी नौकरी की बात सुन रोए भी और हंसे भी. पिताजी होते तो वे भी ऐसा ही करते न.’’

‘‘हां,’’ स्नेह से मैं ने उस का माथा चूम लिया.

‘‘बहुत भूख लगी है, दोपहर को क्या बनाया था?’’ निशा के प्रश्न पर मैं कुछ कहती, इस से पहले ही पिताजी बोल पड़े, ‘‘आज तुम नहीं थीं तो कुछ नहीं बना, सब भूखे रहे. जाओ, देखो, रसोई में. देखोदेखो जा कर.’’

निशा रसोई की तरफ लपकी. जब वहां कुछ नहीं मिला तो हड़बड़ाई सी बाहर चली आई, ‘‘क्या आज सचमुच सभी भूखे रहे? मेरी वजह से इतने परेशान रहे?’’

‘‘जाओ, अब दोनों मिल कर कुछ बना लो और इस नालायक को भी खिलाओ. इस ने भी कुछ नहीं खाया.’’

निशा ने गहरी नजरों से भैया की ओर देखा.

उस रात हम चारों ही सोच में डूबे थे. खाने की मेज पर एक वही थी, जो चहक रही थी.

‘‘बेटे, तुम्हारे उपहार हमें बहुत पसंद आए,’’ सहसा पिताजी बोले, ‘‘परंतु हम बड़े, हैं न. बच्ची से इतना सब कैसे ले लें. बदले में कुछ दे दें, तभी हमारा मन शांत होगा न.’’

‘‘जी, यह घर मेरा ही तो है. आप सब मेरे ही तो हैं.’’

‘‘वह तो सच है बेटी, फिर भी तुम्हें कुछ देना चाहते हैं.’’

‘‘मैं सिरआंखों पर लूंगी.’’

‘‘मैं चाहता हूं, तुम्हारी शादी हो जाए. मैं ने विजय के पिता से बात कर ली है. वह अच्छा लड़का है.’’

‘‘जी,’’ निशा ने गरदन झुका ली.

हम सब हैरानी से पिताजी की ओर देख रहे थे कि तभी वे बोल उठे, ‘‘झूठ नहीं कहूंगा बेटी, सोचा था तुम्हें अपनी बहू बनाऊंगा, परंतु मेरा बेटा तुम्हारे लायक नहीं है. मैं हीरे को पत्थर से नहीं जोड़ सकता. परंतु कन्यादान कर के तुम्हें विदा जरूर करना चाहता हूं. मेरी बेटी बनोगी न?’’

‘‘जी,’’ निशा का स्वर रुंध गया.

‘‘बस, अब आराम से खाना खाओ और सो जाओ,’’ मुंह पोंछ पिताजी उठ गए और पीछे रह गई प्लेट पर चम्मच चलने की आवाज.

उस के बाद कई दिन बीत गए. भैया की भूल की वजह से मां और पिताजी ने उन से बात करना लगभग छोड़ रखा था. निशा विद्यालय जाने लगी थी. शाम के समय हम सब चाय पीने साथसाथ बैठते.

एक शाम पिताजी ने फिर से सब को चौंका दिया, ‘‘निशा, कल विजय आने वाला है. आज मैं उस से मिला था. तुम कल जल्दी आ जाना.’’

तभी भैया बोल उठे, ‘‘विजय आज मुझ से भी मिला था, लेकिन उस ने तो नहीं बताया कि आप उस से मिले थे?’’

‘‘तो इस में मैं क्या करूं?’’ पिताजी का स्वर रूखा था, ‘‘मैं पिछले कई दिनों से उस से मिल रहा हूं. निशा के विषय में उस से पूरी बात की है. उस ने तुम से क्यों बात नहीं की, यह तुम जानो.’’

ये भी पढ़ें- कितने दिल: क्या रमन और रमा का कोई पुराना रिश्ता था?

‘फिर भी उसे मुझ से बात तो करनी चाहिए थी, मुझे भी तो वह हर रोज मिलता है.’’

‘‘चलो, उस ने नहीं की, अब तुम्हीं कर लेना. और अपने साथ ही लेते आना.’’

‘‘मैं क्यों उस से बात करूं? हमारा बचपन का साथ है, क्या उसे अपनी शादी की बात मुझ से नहीं करनी चाहिए थी. क्या उस का यह फर्ज नहीं था?’’

‘‘फर्जों की दुहाई मत दो कर्ण, फर्ज तो उस से पूछने का तुम्हारा भी था. निशा कोई पराई नहीं है. कम से कम तुम भी तो आगे बढ़ते.’’

‘‘लेकिन पिताजी, उस ने एक  बार भी निशा का नाम नहीं लिया, दोस्ती में इतना परदा तो नहीं होता.’’

दोस्ती के अर्थ जानते भी हो, जो इस की दुहाई देने लगे हो. फर्ज और दोस्ती बहुत गहरे शब्द हैं, जिन का तुम ने अभी मतलब ही नहीं समझा. सदा अपना ही सुख देखते हो, तुम्हें क्या करना चाहिए, बस, यही सोचते हो. तुम्हें क्या नहीं मिला, हमेशा उस का रोना रोते हो. यह नहीं सोचते कि तुम्हें क्या करना चाहिए था. उस ने बात नहीं की, तो तुम ही पूछ सकते थे. अपनेआप को इतना ज्यादा महत्त्व देना बंद करो.’’

उसी रात मैं ने आखिरी प्रयास किया. निशा से पहली बार पूछा, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’

परंतु कुछ न बोल वह खामोश रही.

‘‘निशा, बोलो, क्या इस रिश्ते से तुम खुश हो?’’

उस की चुप्पी से मैं परेशान हो गई.

‘‘भैया पसंद नहीं हैं क्या? मैं तो यही चाहती हूं कि तुम यहीं रहो, इसी घर में. कहीं मत जाओ. भैया तुम से बहुतबहुत प्यार करते हैं,’’ कहते हुए मैं ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. फिर जल्दी से बत्ती जलाई. उस की सूजी आंखों में आंसू भरे हुए थे.

सुबह पिताजी के कमरे से भैया की आवाज आई, ‘‘निशा इसी घर में रहेगी.’’

ये भी पढ़ें- अपना घर: सीमा अपने मायके में खुश क्यों नहीं थी?

‘‘क्या उस की शादी नहीं होने दोगे? विजय का नाम तुम ने ही सुझाया था न, आज क्या हो गया?’’

‘‘मैं…मैं तब बड़ी उलझन में था, आत्मग्लानि ने मुझे तोड़ रखा था. मैं खुद को उस के काबिल नहीं पा रहा था.’’

‘‘काबिल तो तुम आज भी नहीं हो. जिस से जीवनभर का नाता जोड़ना चाहते हो, क्या उस के प्रति ईमानदार हो? तुम ने उस का कितना बड़ा नुकसान किया है, क्या उसे यह बात बता सकते हो?’’

अब भैया खामोश हो गए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें