अपना बेटा -भाग 2 : मामाजी को देख क्यों परेशान हो उठे अंजलि और मुकेश

अंजलि ने देखा कि मामाजी की बातों में कोई वैरभाव नहीं था. मुकेश भी अंजलि को देख रहा था, मानो कह रहा हो, देखो, हम बेकार ही डर रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारे दोनों बच्चे कहां हैं? क्या नाम हैं उन के?’’

‘‘गगन और रजत,’’ मुकेश बोला, ‘‘स्कूल गए हैं. वे तो जाना ही नहीं चाह रहे थे. कह रहे थे मामाजी से मिलना है. इसीलिए कार से गए हैं ताकि समय से घर आ जाएं.’’

‘‘अच्छा? तुम ने अपने बच्चों को गाड़ी भी सिखा दी. वेरी गुड. मेरे पास तो गाड़ी ही नहीं है, बच्चे सीखेंगे क्या… शादियां कर लूं यही गनीमत है. मैं तो कानवेंट स्कूल में भी बच्चों को नहीं पढ़ा सका. अगर तुम मेरे एक को भी…पढ़ा…’’ मामाजी इतना कह कर रुक गए पर अंजलि और मुकेश का हंसता चेहरा बुझ सा गया.

अंजलि वहां से उठ कर बेडरूम में चली गई.

‘‘कब आ रहे हैं बच्चे?’’ मामाजी ने बात पलट दी.

‘‘आने वाले होंगे,’’ मुकेश इतना ही बोले थे कि घंटी बज उठी. अंजलि दरवाजे की तरफ लपकी. गगनरजत थे.

‘‘मामाजी आ गए…’’ दोनों ने अंदर कदम रखने से पहले मां से पूछ लिया और कमरे में कदम रखते ही पापा के साथ एक अजनबी को बैठा देख कर उन्हें समझते देर नहीं लगी कि यही हैं मामाजी.

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दोनों ने उन के पैर छू लिए. मुकेश ने हंस के कहा, ‘‘मामाजी, मेरे बेटे गगन और रजत हैं.’’

‘‘वाह, कितने बड़े लग रहे हैं. दोनों कद में बाप से ऊंचे निकल रहे हैं और शक्लें भी इन की कितनी मिलती हैं,’’  इस के आगे मामाजी नहीं बोले.

‘‘मामाजी, मैं आप के लिए आइसक्रीम लाया हूं. मम्मी, ये लो ब्रिक,’’ गगन ने अंजलि को ब्रिक पकड़ा दी.

‘‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता कि मामाजी को आइसक्रीम अच्छी लगती है?’’ मुकेश ने पूछा.

‘‘पापा, आइसक्रीम किसे अच्छी नहीं लगती,’’ गगन बोला.

अंजलि ने सब को प्लेटों में आइसक्रीम पकड़ा दी. उस के बाद मामाजी ने दोनों बच्चों से पूछना शुरू किया कि कौन सी क्लास में पढ़ते हो? क्याक्या पढ़ते हो? किस स्कूल में पढ़ने जाते हो? वहां क्याक्या खाते हो?

‘‘बस, मामाजी, अब आप आराम कर लें,’’ अंजलि ने उठते हुए कहा, ‘‘गगनरजत, तुम दोनों कपड़े बदल लो, मैं तुम्हारे कमरे में ही खाना ले कर आती हूं.’’

‘‘मामाजी, आप अभी रहेंगे न हमारे साथ?’’ गगन ने उठतेउठते पूछा.

‘‘हां, 3-4 दिन तो रहूंगा ही.’’

अंजलि के साथ गगन और रजत अपने बेडरूम की तरफ बढ़े.

अंजलि रसोई में जाने लगी तो मामाजी ने मुकेश से पूछा, ‘‘गगन को ही एडोप्ट किया था न तुम ने…’’ मुकेश सकपका गया.

‘‘दोनों को देखने पर बिलकुल नहीं लगता कि इन में एक गोद लिया है,’’ मामाजी ने फिर बात दोहराई थी.

‘‘मामाजी, यह क्या बोल रहे हैं?’’ मुकेश ने हैरत से मामाजी को देखा, ‘‘आप को ऐसा नहीं बोलना चाहिए. वह भी बच्चों के सामने?’’

बच्चे मामाजी की बात सुन कर रुक गए थे. अंजलि के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. गगन तो सन्न ही रह गया. रजत को जैसे होश सा आया.

‘‘मम्मी, मामाजी किस की बात कर रहे हैं? कौन गोद लिया है?’’

अंजलि तो मानो बुत सी खड़ी रह गई थी. सालों पहले कहे गए मामाजी के शब्द, ‘गैर, गैर होते हैं अपने अपने, मैं ऐसा साबित कर दूंगा,’ उस की समझ में अब आ रहे थे. तो इतने सालों बाद मामाजी इसलिए मेरे घर आए हैं कि मेरा बसाबसाया संसार उजाड़ दें.

गगन अभी तक खामोश मामाजी को ही देख रहा था. अंजलि को जैसे होश आया हो, ‘‘कुछ नहीं, बेटे, किसी और गगन की बात कर रहे हैं. तुम अपने कमरे में जाओ.’’

मुकेश के पांव जड़ हो रहे थे.

‘‘अरे, अंजलि बेटे, तुम ने गगन को बताया नहीं कि इस को तुम अनाथाश्रम से लाई थीं. उस के बाद रजत पैदा हुआ था…’’ मामाजी रहस्यमय मुसकान के साथ बोले.

‘‘यह क्या कह रहे हैं, मामाजी?’’ मुकेश विचलित होते हुए बोला.

‘‘देखो मुकेश, आज नहीं तो कल किसी न किसी तरह गगन को सच का पता चल ही जाएगा तो फिर तुम क्यों छिपा रहे हो इस को.’’

गगन जहां खड़ा था वहीं बुत की तरह खड़ा रहा, पर उस की आंखें भर आईं, क्योंकि मम्मीपापा भी मामाजी को चुप कराने की ही कोशिश कर रहे थे. यानी वह जो कुछ कह रहे हैं वह सच… रजत हैरानपरेशान सब को देख रहा था. गगन पलट कर अपने बेडरूम में चला गया. रजत उस के पीछेपीछे चला आया. पूरे घर का माहौल पल भर में बदल गया था. कपड़े बदल कर गगन सो गया. उस ने खाना भी नहीं खाया.

‘‘मम्मी, गगन रोए जा रहा है, आज वह दोस्तों से मिलने भी नहीं गया. पहले कह रहा था कि मुझे एक पेपर लेने जाना है.’’

अंजलि की हिम्मत नहीं हुई गगन से कुछ भी पूछे. रात के खाने के लिए अंजलि ने ही नहीं चाहा कि गगन व रजत मामाजी के पास बैठ कर खाना खाएं. मामाजी टीवी देखने में मस्त थे. ऐसा लग रहा था कि उन का मतलब हल हो गया. मुकेश भी ज्यादा बात नहीं कर रहा था. उसे ध्यान आ रहा था उस झगड़े का, जो मम्मीपापा, मामामामी ने उस के साथ किया था. दरअसल, वे चाहते थे कि हमारा बच्चा नहीं हुआ तो मामी के छोटे बच्चे को गोद ले लें. पर अंजलि चाहती थी कि हम उस बच्चे को गोद लें जिस के मातापिता का पता न हो, ताकि कोई चांस ही न रहे कि बच्चा बड़ा हो कर अपने असली मातापिता की तरफ झुक जाए. वह यह भी चाहती थी कि जिसे वह गोद ले वह बच्चा उसे ही अपनी मां समझे.

वक्त का दोहराव : शशांक को आखिर कौन सी बात याद आई

शशांक दबे पांव छत पर पहुंचा. पूरे महल्ले में निस्तब्धता छाई हुई थी. कहीं आग से झुलसे मकान, टूटी दुकानें, सड़कों पर टूटी लाठियां, ईंटपत्थर और कहींकहीं तो खून के धब्बे भी नजर आ रहे थे. कितना खौफनाक मंजर था. हिंदू-मुसलिम दंगे ने नफरत की ऐसी आग लगाई है कि इंसान सभ्यता की सभी हदों को लांघ कर दरिंदगी पर उतर आता है.

राजनीतिबाज न जाने कब बाज आएंगे अपनी रोटियां सेंकने से. शशांक के अंतर में अपने दादाजी के कहे वो शब्द याद आ रहे थे कि नेता लोग राजनीति खेल जाते हैं और कितने ही लोग अपनी जान से खेल जाते हैं…

भारत-पाकिस्तान का बंटवारा. मानो एक हंसतेखेलते परिवार का दोफाड़ कर दिया गया. कौन अपना, कौन पराया. हिंदू-मुसलमानों के मन में ऐसा जहर घोला कि देखते ही देखते कल तक एक ही थाली में साथसाथ खाते दोस्त एकदूसरे की जान के दुश्मन बन बैठे. अपने पिताजी के मुंह से सुनी थी उस ने उस वक्त की दास्तान. आज वही कहानी फिर से उस की आंखों के सामने पसरने लगी थी…

हवेलीनुमा दोमंजिला घर और बहुत बड़ा चौक, चौक को पार कर के एक बहुत बड़ा दरवाजा, दरवाजा क्या था, पूरा किले का दरवाजा था, बड़ीबड़ी सांकल, सेफ पोल, बड़ेबड़े ताले उस दरवाजे को खोलना व बंद करना हर एक के बस की बात नहीं थी. मास्टर जीवन लाल ही उसे अपने मुलाजिमों के साथ मिल कर खोलते व बंद करते थे.

लेकिन आज यह क्या, वही दरवाजा, ऐसे लगता था कि बस अब गिरा तब गिरा. लगता भी क्यों न, आज एक बहुत बड़ा झुंड उस दरवाजे को धकेल रहा था, पीट रहा था, यह कैसा झुंड था?

मास्टर जीवनलाल जिन का इस पूरे शहर में नाम था, इज्जत थी, रुतबा था, आज वही मास्टरजी अपने पूरे परिवार के साथ इस हवेली में सांस रोके बैठे हैं.

परिवार में पत्नी, 3 बेटे, 3 बेटियां, बहू, सालभर का एक पोता सभी तो हैं, हंसता खेलता परिवार है.

कुछ समय से चल रही हिंदू मुसलमानों की आपस की दूरियां दिख तो रही थीं पर हालात ऐसे हो जाएंगे, किसी ने सोचा भी न था.

मुसलमान और हिंदू एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे, आपस में इतनी नफरत होगी, कभी किसी ने सोचा भी न था. यह क्या हो गया भाइयो, जन्मजन्म से एकदूसरे के साथ रहते आए परिवार एकदूसरे से इतनी नफरत क्यों करने लगे.

हालात ऐसे हो गए थे कि जवान लड़कियों को उठा कर ले जाया जा रहा था.  बूढ़ों को मार दिया जा रहा था. मास्टर जीवन लाल अपनी तीनों जवान लड़कियों और बहू को हवेली की ऊपर वाली मंजिल पर पलंग के नीचे छिपाए हुए थे और दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देख रहे थे. कभी भी दरवाजा टूट सकता था.

मास्टर जीवन लाल का बड़ा बेटा, कटार लिए खड़ा था कि दरवाजा खुलते ही वह अपनी तीनों बहनों व पत्नी को इसलिए मार डालेगा कि कोई उन्हें उठा कर नहीं ले जा पाए. बहनें व पत्नी सामने मौत खड़ी देख ऐसे कांप रही थीं जैसे आंधी में डाल पर लगा पत्ता फड़फड़ा रहा हो.

पर यह क्या, दरवाजे के पीटने और धकेलते रहने के बीच एक आवाज उभरी. वह आवाज थी मास्टर जीवन लाल के किसी विद्यार्थी की. वह कह रहा था कि अरे, क्या कर रहे हो. यह तो मेरे मास्टरजी का घर है. इस घर को छोड़ दो. आगे चलो, और देखते ही देखते बाहर कुछ शांति हो गई.

रात का यह तूफान जब गुजर गया तो मास्टर जीवन लाल ने सोचा कि यहां से अपने पूरे परिवार को सहीसलामत कैसे बाहर निकाला जाए. इस सोच में वे दरवाजा खोल कर बाहर निकले तो बाहर का भयानक दृश्य देख कर रो पड़े. लाशें पड़ी हैं, कोई तड़प रहा है, कोई पानी मांग रहा है. जिस गली में वे और उन का परिवार बड़ी शान से होली, दीवाली, ईद मनाते थे, पड़ोसियों के साथ हंसीमजाक, मौजमस्ती होती थी, वही गली आज खून से नहाई हुई है. सभी आज कितने बेबस व लाचार हैं, किस को पानी पिलाएं, किस को अस्पताल पहुंचाएं. रात आए तूफान से घबराए, आगे आने वाले तूफान से अपने परिवार को बचाने के लिए वे क्या करें. अपनी तीनों जवान बेटियों को आगे आने वाले तूफान से बचाने की गरज से सबकुछ अनदेखा कर के वे आगे बढ़ गए.

मास्टर जीवन लाल जब बाहर का जायजा लेने निकले तो उन्हें पता चला कि हिंदुओं से यह जगह खाली कराई जा रही है. हिंदुओं को किसी तरह लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है और वहां से आगे.

मास्टर जीवन लाल ने यह सुना तो वे जल्दी ही अपने परिवार की हिफाजत के लिए वापस मुड़े और घर पहुंच कर उन्होंने बीवी व बच्चों से कहा कि घर खाली करने की तैयारी करो. अब यहां से सबकुछ छोड़छाड़ कर जाना होगा.

इतना सुनते ही पूरा परिवार शोक में डूब गया. ऐसा होना लाजिमी भी है. सालों से यहां रह रहे थे. यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, यहीं पढ़े और फिर उन से कहा जाए कि यहां तुम्हारा कुछ नहीं है, तुम यहां से जाओ, कैसा लगेगा. खैर, मास्टर जीवन लाल ने हिम्मत दिखाते हुए सब को तैयार किया और जरूरी कागजात व कुछ पैसे लिए. फिर उस आलीशान हवेली को हमेशा के लिए आंसुओं से अलविदा किया.

पैर हवेली के बाहर निकले तो इतने भारी थे कि उठ ही नहीं रहे थे. दिल हाहाकार कर रहा था. परंतु फिर भी उन्होंने अपने परिवार को देखा हिम्मत की और चल पड़े.

अब मास्टर जीवन लाल बिना छत, बेसहारा अपने परिवार के साथ खुले आसमान के नीचे खड़े थे. अब उन के पास कुछ न था. हाय समय का फेर देखो, कुछ समय पहले तो खुशियों की लहरें उठ रही थीं और अब यह क्या हो गया. यह कैसा तूफान था. इस तूफानी बवंडर में कैसे फंस गए. कब बाहर निकलेंगे इस तूफान से, पता नहीं.

अब मास्टर जीवन लाल के पास एक ही मकसद था कि अपने परिवार को सहीसलामत हिंदुस्तान पहुंचाया जाए. मास्टर जीवन लाल को पता चला कि ट्रक भर कर लोगों को लाहौर तक पहुंचाया जा रहा है. बहुत कोशिश के बाद मास्टर जीवन लाल की बहू व पत्नी को एक ट्रक में जगह मिल गई. और पीछे रह गईं मास्टरजी की बेटियां व बेटे.

उफ्फ अब क्या करें अब जो रह गए उन्हें किस के सहारे छोड़ें और जो चले गए उन्हें आगे का कुछ पता नहीं. मास्टरजी इस कशमकश में खड़े थे कि फिर लोगों का जनून उभरा. मार डालो, काट डालो की आवाजें. मास्टरजी फिर से परेशान हो गए. अब वे बेटियों को कहां छिपाएं. मास्टरजी की आंखों से आंसू बह निकले.

इतने में मास्टरजी को एक फरिश्ते की आवाज सुनाई दी. सलाम अलैकम, भाईजान. मास्टरजी ने जब उस ओर देखा तो मास्टरजी के सामने चलचित्र की तरह पुरानी घटनाएं याद आ गईं. दो जिस्म एक जान हुआ करते थे. दोनों परिवार एकसाथ सारे तीजत्योहार एकसाथ मनाते थे. फिर अचानक सलीम भाई को विदेश जाना पड़ गया. और अब मिले तो इस हाल में. न हवेली अपनी थी, न ही देश अपना रह गया था. सबकुछ खत्म हो चुका था. मास्टरजी लुटेपिटे खड़े थे.

सलीम भाई ने मास्टरजी को गले लगा लिया. मास्टरजी का हाल देख कर सलीम भाई भी रो पड़े. सलीम भाई ने मास्टरजी को एक बहुत बड़ी तसल्ली दी, कहा कि भाईजान, आप की बेटियां मेरी बेटियां. अब तुम इन की फिक्र छोड़ो और लाहौर जा कर भाभीजी और बहू को खोजो. मास्टरजी के पास अब कोई चारा भी नहीं था. सलीम भाई का विश्वास ही था, और वे आगे बढ़ गए.

कितना सहा होगा उस वक्त लोगों ने जब अपनी जड़ों से उखड़ कर रिफ्यूजी बन गए होंगे. धर्म क्या यही सिखाता है हमें, तोड़ दो रिश्तों को, मानवीय संवेदनाओं का खून कर दो.

बरसों पुरानी हिंदू, मुसलमान की वह नफरत आज भी बरकरार है तो इन नेताओं की वजह से, धर्म के ठेकेदारों की वजह से, अंधविश्वास की गठरी उठाए लोगों की अंधभक्ति की वजह से.

काश, जल्दी ही हमें समझ में आ जाए कि धर्म तो दिलों को मिलाता है, चोट पर मरहम लगाता है. खून की नदियां नहीं बहाता, बच्चों को रुलाता नहीं, औरतों की इज्जत नहीं उतारता, बसेबसाए घरों को उजाड़ता नहीं. काश, यह बात आने वाली हमारी पीढ़ी जल्दी ही समझ जाए.

 

तपस्या- भाग 3 : क्या शिखर के दिल को पिघला पाई शैली?

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो?

पूरी रात वह सो नहीं सका था.

दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

कलंक : आखिर किसने किया रधिया की बेटी गंगा को मैला

अपनी बेटी गंगा की लाश के पास रधिया पत्थर सी बुत बनी बैठी थी. लोग आते, बैठते और चले जाते. कोई दिलासा दे रहा था तो कोई उलाहना दे रहा था कि पहले ही उस के चालचलन पर नजर रखी होती तो यह दिन तो न देखना पड़ता.

लोगों के यहां झाड़ूबरतन करने वाली रधिया चाहती थी कि गंगा पढ़ेलिखे ताकि उसे अपनी मां की तरह नरक सी जिंदगी न जीनी पड़े, इसीलिए पास के सरकारी स्कूल में उस का दाखिला करवाया था, पर एक दिन भी स्कूल न गई गंगा. मजबूरन उसे अपने साथ ही काम पर ले जाती. सारा दिन नशे में चूर रहने वाले शराबी पति गंगू के सहारे कैसे छोड़ देती नन्ही सी जान को?

गंगू सारा दिन नशे में चूर रहता, फिर शाम को रधिया से पैसे छीन कर ठेके पर जाता, वापस आ कर मारपीट करता और नन्ही गंगा के सामने ही रधिया को अपनी वासना का शिकार बनाता.

यही सब देखदेख कर गंगा बड़ी हो रही थी. अब उसे अपनी मां के साथ काम पर जाना अच्छा नहीं लगता था. बस, गलियों में इधरउधर घूमनाफिरना… काजलबिंदी लगा कर मतवाली चाल चलती गंगा को जब लड़के छेड़ते, तो उसे बहुत मजा आता.

रधिया लाख कहती, ‘अब तू बड़ी हो गई है… मेरे साथ काम पर चलेगी तो मुझे भी थोड़ा सहारा हो जाएगा.’

गंगा तुनक कर कहती, ‘मां, मुझे सारी जिंदगी यही सब करना है. थोड़े दिन तो मुझे मजे करने दे.’

‘अरी कलमुंही, मजे के चक्कर में कहीं मुंह काला मत करवा आना. मुझे तो तेरे रंगढंग ठीक नहीं लगते. यह क्या… अभी से बनसंवर कर घूमतीफिरती रहती है?

इस पर गंगा बड़े लाड़ से रधिया के गले में बांहें डाल कर कहती, ‘मां, मेरी सब सहेलियां तो ऐसे ही सजधज कर घूमतीफिरती हैं, फिर मैं ने थोड़ी काजलबिंदी लगा ली, तो कौन सा गुनाह कर दिया? तू चिंता न कर मां, मैं ऐसा कुछ न करूंगी.’

पर सच तो यही था कि गंगा भटक रही थी. एक दिन गली के मोड़ पर अचानक पड़ोस में ही रहने वाले 2 बच्चों के बाप नंदू से टकराई, तो उस के तनबदन में सिहरन सी दौड़ गई. इस के बाद तो वह जानबूझ कर उसी रास्ते से गुजरती और नंदू से टकराने की पूरी कोशिश करती.

नंदू भी उस की नजरों के तीर से खुद को न बचा सका और यह भूल बैठा कि उस की पत्नी और बच्चे भी हैं. अब तो दोनों छिपछिप कर मिलते और उन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी थीं.

पर इश्क और मुश्क कब छिपाए छिपते हैं. एक दिन नंदू की पत्नी जमना के कानों तक यह बात पहुंच ही गई, तो उस ने रधिया की खोली के सामने खड़े हो कर गंगा को खूब खरीखोटी सुनाई, ‘अरी गंगा, बाहर निकल. अरी कलमुंही, तू ने मेरी गृहस्थी क्यों उजाड़ी? इतनी ही आग लगी थी, तो चकला खोल कर बैठ जाती. जरा मेरे बच्चों के बारे में तो सोचा होता. नाम गंगा और काम देखो करमजली के…’

3 दिन के बाद गंगा और नंदू बदनामी के डर से कहीं भाग गए. रोतीपीटती जमना रोज गंगा को कोसती और बद्दुआएं देती रहती. तकरीबन 2 महीने तक तो नंदू और गंगा इधरउधर भटकते रहे, फिर एक दिन मंदिर में दोनों ने फेरे ले लिए और नंदू ने जमना से कह दिया कि अब गंगा भी उस की पत्नी है और अगर उसे पति का साथ चाहिए, तो उसे गंगा को अपनी सौतन के रूप में अपनाना ही होगा.

मरती क्या न करती जमना, उसे गंगा को अपनाना ही पड़ा. पर आखिर तो जमना उस के बच्चों की मां थी और उस के साथ उस ने शादी की थी, इसलिए नंदू पर पहला हक तो उसी का था.

शादी के 3 साल बाद भी गंगा मां नहीं बन सकी, क्योंकि नंदू की पहले ही नसबंदी हो चुकी थी. यह बात पता चलते ही गंगा खूब रोई और खूब झगड़ा भी किया, ‘क्यों रे नंदू, जब तू ने पहले ही नसबंदी करवा रखी थी तो मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की?’

नंदू के कुछ कहने से पहले ही जमना बोल पड़ी, ‘आग तो तेरे ही तनबदन में लगी थी. अरी, जिसे खुद ही बरबाद होने का शौक हो उसे कौन बचा सकता है?’

उस दिन के बाद गंगा बौखलाई सी रहती. बारबार नंदू से जमना को छोड़ देने के लिए कहती, ‘नंदू, चल न हम कहीं और चलते हैं. जमना को छोड़ दे. हम दूसरी खोली ले लेंगे.’

इस पर नंदू उसे झिड़क देता, ‘और खोली के पैसे क्या तेरा शराबी बाप देगा? और फिर जमना मेरी पत्नी है. मेरे बच्चों की मां है. मैं उसे नहीं छोड़ सकता.’

इस पर गंगा दांत पीसते हुए कहती, ‘उसे नहीं छोड़ सकता तो मुझे छोड़ दे.’

इस पर गंगू कोई जवाब नहीं देता. आखिर उसे 2-2 औरतों का साथ जो मिल रहा था. यह सुख वह कैसे छोड़ देता. पर गंगा रोज इस बात को ले कर नंदू से झगड़ा करती और मार खाती. जमना के सामने उसे अपना ओहदा बिलकुल अदना सा लगता. आखिर क्या लगती है वह नंदू की… सिर्फ एक रखैल.

जब वह खोली से बाहर निकलती तो लोग ताने मारते और खोली के अंदर जमना की जलती निगाहों का सामना करती. जमना ने बच्चों को भी सिखा रखा था, इसलिए वे भी गंगा की इज्जत नहीं करते थे. बस्ती के सारे मर्द उसे गंदी नजर से देखते थे.

मांबाप ने भी उस से सभी संबंध खत्म कर दिए थे. ऐसे में गंगा का जीना दूभर हो गया और आखिर एक दिन उस ने रेल के आगे छलांग लगा दी और रधिया की बेटी गंगा मैली होने का कलंक लिए दुनिया से चली गई.

एक रात की उजास : भाग 2

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

 

अपना बेटा -भाग 3 : मामाजी को देख क्यों परेशान हो उठे अंजलि और मुकेश

मुकेश यह भी समझ रहा था कि मामाजी की नजर उस के और अंजलि के पैसों पर थी. उन्हें लग रहा था कि उन का एक बच्चा भी अगर मेरे घर आ गया तो बाकी के परिवार का मेरे घर पर अपनेआप हक हो जाएगा. उसे आज भी याद है जब मामाजी की हर चाल नाकाम रही तो खीज कर वह चिल्ला पड़े थे, ‘अपने लोगों को दौलत देते हुए एतराज है पर गैरों में बांट कर खुश हो, तो जाओ आज के बाद हमारा तुम से कोई वास्ता नहीं.’

मामाजी जब अंतिम बार मिले तो बोले थे, ‘कान खोल कर तुम दोनों सुन लो, गैर गैर होते हैं, अपने अपने ही. और मैं यह साबित कर दूंगा.’

‘और आज यही साबित करने आए हैं. लगता है गगन को गैर साबित कर के ही जाएंगे, लेकिन मैं मामाजी की यह इच्छा पूरी नहीं होने दूंगा,’ सोचता हुआ मुकेश करवट बदल रहा था.

इधर अंजलि की आंखों से नींद जैसे गायब थी. जब रहा नहीं गया तो उठ कर वह गगन के कमरे की तरफ चल दी. उस का अंदाजा सही था, गगन जाग रहा था. रजत भी जागा हुआ था.

‘‘तू पागल है, गगन,’’ रजत बोला, ‘‘मामाजी ने कहा और तू ने उसे सच मान लिया. मामाजी हमारे ज्यादा अपने हैं या मम्मीपापा.’’

अंजलि के पीछे मुकेश भी आ गए. दोनों गगन के कमरे में अपराधियों की तरह आ कर बैठ गए. अंजलि ने गगन को देखा. उस की आंखें भरी हुई थीं.

‘‘गगन, तू ने खाना क्यों नहीं खाया?’’

गगन कुछ बोला नहीं. बस, मां की नजरों में देखता रहा.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मैं क्या गैर हूं?’’ अंजलि रो पड़ी. उस के शब्दों में अपनापन और रोब दोनों थे, ‘‘मम्मी हूं मैं तेरी…कोई भी उठ कर कुछ कह देगा और तू मान लेगा? मेरी बात पर यकीन नहीं है? उस की बात सुन रहा

है जो सालों बाद अचानक उठ कर चला आया.

‘‘बेटे, अगर हम तेरे मातापिता न होते तो क्या तुम्हें इतने प्यार से रखते? क्या तुम्हें कभी महसूस हुआ कि हम ने तुम्हें रजत से कम चाहा है,’’ अंजलि के आंसू रुक ही नहीं रहे थे. फिर मुकेश की तरफ देख कर बोली, ‘‘तुम्हारे मामा को किसी का बसता घर देख खुशी नहीं होती. कहीं भी उलटीसीधी बातें बोलने लगते हैं. मालूम नहीं कब जाएंगे.’’

गगन नजरें झुकाए आंसू टपकाता रहा. उस का चेहरा बनबिगड़ रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये अचानक तूफान कहां से आ गया. कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि जीवन में इस तरह के किसी तूफान का सामना करना पड़ेगा.

‘‘बेटे, मैं कभी तुम्हें नहीं बताता पर आज स्थिति ऐसी है कि बताना ही पड़ेगा,’’ मुकेश ने कहा, ‘‘अगर हम तुम्हें पराया जानते तो मैं अपनी वसीयत में सारी प्रापर्टी, बैंकबैलेंस सबकुछ, तुम तीनों के नाम न करता.’’

‘‘और मैं ने भी अपनी वसीयत में अपने हिस्से की सारी प्रापर्टी तुम दोनों के नाम ही कर दी है, ताकि कभी भी झगड़ा न हो सके. हमारे किसी बेटे का, अगर कभी दिल बदल भी जाए तो कानूनी फैसला न बदले,’’ अंजलि बोली, ‘‘तुम मामाजी की बातों पर ध्यान मत दो, बेटे.’’

गगन खामोशी से दोनों की बातें सुन रहा था. उसे लगा कि अगर वह कुछ भी बोला तो सिर्फ रुलाई ही बाहर आएगी.

सुबह अंजलि ने रजत को झकझोरा तो उस की नींद खुली.

‘‘गगन कहां है?’’ अंजलि की आवाज में घबराहट थी.

‘‘कहां है, मतलब? वह तो यहीं सो रहा था?’’ रजत बोला.

‘‘बाथरूम में होगा न?’’ रजत ने अधमुंदी आंखों से कहा.

‘‘कहीं नहीं है वह. पूरा घर छान लिया है मैं ने.’’

अंजलि लगभग चीख रही थी, ‘‘तू सोता रहा और तेरी बगल से उठ कर वह चला गया. बदतमीज, तुझे पता ही नहीं चला.’’

‘‘मम्मी, मुझे क्या पता… मम्मी, आप बेकार परेशान हो रही हैं, यहीं होगा, मैं देखता हूं,’’ रजत झटके से बिस्तर से उठ गया पर मन ही मन वह भी डर रहा था कि कहीं मम्मी की बात सच न हो.

‘‘कहीं घूमने निकल गया होगा, आज रविवार जो है? आ जाएगा,’’ मुकेश ने अंजलि को बहलाया. पर वह जानता था कि वह खुद से भी झूठ बोल कर तसल्ली दे रहा है.

अंजलि का देर से मन में रुका गुबार सहसा फूट पड़ा. वह फफक पड़ी. उस का मन किया कि मामाजी को कहे कि हो गई तसल्ली? पड़ गई दिल में ठंडक? साबित कर दिया तुम ने. अब जाओ, यहां से दफा हो जाओ? पर प्रत्यक्ष में कुछ कह नहीं पाई.

‘‘दोपहर हो चुकी है. एक फोन तक नहीं किया उस ने जबकि पहले कभी यों बिना बताए वह कहीं जाता ही नहीं था,’’ मुकेश भी बड़बड़ाए. उन की आंखों से भी अनजानी आशंका से नमी उतर रही थी.

हर फोन पर मुकेश लपकता. अंजलि की आंखों में एक उम्मीद जाग जाती पर फौरन ही बुझ जाती. इस बीच मामाजी अपने घर वालों से फोन पर लंबी बातें कर के हंसते रहे. साफ लग रहा था कि वह इन दोनों को चिढ़ा रहे हैं.

अंधेरा हो गया, रजत लौटा, पर खाली हाथ. उस का चेहरा उतर गया था. वह सोच रहा था कि गगन कितना बेवकूफ है. कोई कुछ कहेगा तो हम उसे सच मान लेंगे?

तभी मामाजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘आजा, आजा, मेरे बेटे, आजा…बैठ…’’

अंजलि, मुकेश और रजत बाहर के दरवाजे की तरफ लपके. गगन मामाजी के पास बैठ रहा था.

‘‘कहां रहा सारा दिन? कहां घूम के आया? पानी पीएगा? अंजलि बेटे, इसे पानी दे, थकाहारा आया है,’’ मामा की आवाज में चटखारे लेने वाला स्वर था.

अंजलि तेजी से गगन की तरफ आई और उसे बांह से पकड़ कर मामाजी के पास से हटा दिया.

‘‘कहां गया था?’’ अंजलि चीखी थी, ‘‘बता के क्यों नहीं गया? ऐसे जाते हैं क्या?’’ और गुस्से से भर कर उसे थप्पड़ मारने लगी और फिर फफक- फफक कर रो पड़ी.

‘‘गगन, तेरा गुस्सा मम्मी पर था न, तो मुझे क्यों नहीं बता कर गया,’’ रजत बोला, ‘‘मैं ने तेरा क्या बिगाड़ा था?’’

‘‘ऐसे भी कोई चुपचाप निकलता है घर से, हम क्या इतने पराए हो गए?’’ मुकेश की आवाज भी भर्राई हुई थी.

सभी की दबी संवेदनाएं फूट पड़ी थीं.

‘‘मामाजी, आप कुछ कह रहे थे. कहिए न…’’ गगन ने अपने आंसू पोंछे… पर अंजलि ने पीछे से गगन को खींच लिया. पागल सी हो गई थी अंजलि, ‘‘कुछ नहीं कह रहे थे. तू जा अपने कमरे में. जो कुछ सुनना है मुझ से सुन. मैं तेरी मां हूं, ये तेरे पिता हैं और ये तेरा भाई.’’

मुकेश अंजलि को पकड़ रहा था.

‘‘मामाजी, आप कह रहे थे मैं इन का गोद लिया बेटा हूं, है न…’’

‘‘नहीं, तुम मेरे बेटे हो,’’ अंजलि ने गगन को जोर से झटक दिया.

गगन अंजलि के कंधे को थाम कर बोला, ‘‘मम्मी, मैं तो मामाजी को यही समझा रहा हूं कि मैं आप का बेटा हूं. मम्मी, अपने पैदा किए बच्चे को तो हर कोई पालता है, पर एक अनाथ बच्चे को इतना ढेर सारा प्यार दे कर तो शायद ही कोई औरत पालती होगी. उस से बड़ी बात तो यह है कि आप ने रजत और मुझ में कोई फर्क नहीं रखा, तो मैं क्यों मानूं मामाजी की बात.

‘‘आप ही मेरी मां हैं,’’ गगन ने अंजलि को अपनी बांहों में समेट लिया और मामाजी से कहा, ‘‘मामाजी, आप ने क्या सोचा था कि मुझे जब पता चलेगा कि मैं अनाथाश्रम से लाया गया हूं तो मैं अपनी असली मां को ढूंढ़ने निकल पड़ूंगा? मामाजी, क्यों ढूंढं़ ू मैं उस औरत को जिस को मेरी जरूरत कभी थी ही नहीं. उस ने मुझे पैदा कर के मुझ पर एहसान नहीं किया बल्कि मम्मीपापा ने मुझे पालापोसा, मुझे नाम दिया, मुझे भाई दिया, मुझे एक घर दिया, समाज में मुझे एक जगह दी. इन का एहसान मान सकता हूं मैं. वरना आज मैं सड़ रहा होता किसी अनाथाश्रम के मैलेकुचैले कमरों में.’’

रजत ने खुशी से गगन का हाथ दबा दिया. मुकेश ने गगन के सिर पर हाथ फिराया. अंजलि, मुकेश और रजत की आंखों में आंसू छलक आए. सब ने तीखी नजरों से मामाजी को देखा.

अंजलि तो नहीं बोली पर मुकेश से रहा नहीं गया. बोले, ‘‘क्यों मामाजी, आप तो गैर को गैर साबित करने आए थे न? और आप, आप तो मेरे अपने थे, तो आप ने गैरों सी दुश्मनी क्यों निभाई?’’

गगन अंजलि के गले से लिपट गया. अंजलि के आंसू फिर निकल आए.

अंजलि जानती थी अब उसे मामा जैसे किसी व्यक्ति से डरने की कोई जरूरत नहीं है. अब सच में उस के दोनों बेटे अपने ही हैं.            द्य

सुगंध: क्या राजीव को पता चली रिश्तों की अहमियत

एक रात की उजास : भाग 1

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

चांद पर धब्बे – भाग 2 : नीटू को किसकी चीख सुनाई दी

हां, कल दोपहर की टिकटें भी हैं, कुल्लूमनाली की.’’ ‘‘पर, आप ने तो बताया नहीं.’’ ‘‘मुझे ही कहां पता था. सुबह भाभी ने बताया कि कामिनी का यह तोहफा है.’’ यह सुनते ही पद्मा सुलग उठी. अपनी शादीशुदा जिंदगी की शुरुआत वह कामिनी के तोहफे से करेगी, इसे मानने से उस का मन मना कर रहा था. समीर नीचे से लौट कर आए, तब भी पद्मा यों ही बैठी थी. उन्होंने पूछा, ‘‘हो गई तैयारी?’’ ‘‘अच्छा, एक बात बताइए, क्या आप ने कभी कामिनी बहन को इतना महंगा तोहफा दिया है?’’ ‘‘तोहफा, इतना महंगा? तुम्हारा मतलब टिकटों के पैसे से है…

नहीं, पर क्यों?’’ समीर ने पूछा. ‘‘फिर हमारा भी उस से इतना महंगा तोहफा लेने का हक नहीं बनता.’’ पद्मा की बात का क्या असर समीर पर हुआ, नहीं पता. पर वे खामोश हो गए. पद्मा ने 40,000 रुपए उन के हाथ पर रखते हुए कहा, ‘‘यह मेरी मुंहदिखाई के रुपए हैं… आप उसे टिकटों और होटल के किराए के दाम दे दें.’’ मेरे रुपए वापस मेरी मुट्ठी में रखते हुए बोले, ‘‘इन रुपयों पर सिर्फ तुम्हारा हक है. रुपए तो मेरे पास हैं… मैं दे भी दूंगा. पर जो बात तुम ने मुझे अभी बताई, वह मेरे दिमाग में कभी आई ही नहीं. कामिनी भैया के अफसर की बेटी है.

उस की इन हरकतों को सब हंसते हुए झेलते हैं, क्योंकि उस की खुशी में भैया की तरक्की भी शामिल है.’’ तभी माया ने दरवाजे से ही आवाज दी, ‘‘समीर भैया, छोटी बहू को मांजी नीचे बुला रही हैं.’’ माया ने जिस रिश्ते की तरफ पद्मा का ध्यान मोड़ा था, उन की तरफ उस ने बारीकी से देखा था. समीर ने इन को शक नहीं होने दिया था. पद्मा ने देखा कि समीर एक मासूम बालक की तरह हैं, जिसे जिधर उंगली पकड़ चला दो चल देगा. समीर उस के प्यार में इस तरह डूब गए कि कामिनी के आनेजाने का भी उन्हें पता न चलता.

फिर कुछ दिनों बाद कामिनी का ब्याह हो गया और वह अपने पति के साथ कनाडा चली गई. तब पद्मा ने चैन की सांस ली. परंतु आने वाले दिनों में ऐसा कुछ घट गया, जिस की उम्मीद किसी को भी न थी. एक सुबह तेज चीखों और शोरगुल की आवाजें आने लगी थीं. उन दिनों नीटू होने वाली थी. पद्मा झटके से उठने लगी, पर समीर ने उसे रोक दिया, ‘‘नहीं, तुम ठहरो… मैं देखता हूं.’’ लौट कर समीर ने जो खबर दी, उस पर पद्मा को यकीन ही नहीं हुआ. वह उस औरत पर लगाए गए इलजाम पर कैसे यकीन कर लेती? माया के पति ने दूध का खौलता पतीला उस के ऊपर उलट दिया था. कमरे में चारों तरफ मिट्टी का तेल डाल कर उस ने माया को जलाने की कोशिश की, पर उस की चीख से घर के लोगों के पहुंच जाने पर वह बचा ली गई.

‘‘क्या हुआ? कैसे हो गया?’’ पद्मा के सवाल के जवाब में बड़ी भाभी की आवाज सुनाई दी थी, ‘‘यह पाप की हांड़ी तो फूटनी थी न कभी. कैसे हंसहंस कर बतियाती थी बांके से. आखिर मर्द था… कैसे सह सकता था. बचा ली गई वरना मार डालता तो अच्छा था. कैसा घमंड था अपने रूप पर इस को.’’ किसी ने पुलिस को खबर कर दी. पुलिस आई और माया के पति को पकड़ कर ले गई. पद्मा को समीर ने नीचे नहीं जाने दिया था. पद्मा जाना चाहती थी उस औरत को देखने, जिस ने उसे कामिनी के बारे में बताया था. वह खुद बुरे चालचलन वाली हो सकती है, पूरे घर के लोग ऐसा कह रहे थे, एक पद्मा को छोड़ कर. माया को पुलिस वाले अस्पताल ले गए.

कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि वह अपनी 3-4 साल की बेटी को ले कर कहीं चली गई है. आज वही माया 9 सालों के बाद सामने खड़ी थी. कैसे गुजारे होंगे उस ने ये दिन? क्या वह सब सच था? अगर नहीं तो सच क्या था? यह सब जानने के लिए पद्मा उतावली हो रही थी. सुबह होने वाली थी. पद्मा ने समीर को देखा, वे बेसुध सो रहे थे. नीटू भी पिता के गले में बांहें डाले आराम से सो रही थी. पद्मा एक कागज पर 2 लाइनें लिख कर मेज पर छोड़ आई कि समीर जागने पर परेशान न हों.

नीचे ही नाव वाला मिल गया. उस पार पहुंचने तक भी सूरज नहीं निकला था. बादल छाए हुए थे. ठंडी हवा जिस्म में चुभ रही थी. माया ने कच्चे कोयलों की अंगीठी लगा रखी थी. उस की बेटी बरतन धो रही थी. पद्मा को देखते ही माया हैरानी से भर उठी, ‘‘छोटी बहू… आप इस समय… दर्द कैसा है?’’ ‘‘ठीक है माया… यों ही चली आई. तुम्हारी बेटी तो अब काफी बड़ी हो गई?है.’’ ‘‘हां छोटी बहू… इसी को देख कर इसे बड़ा करने में गुजरते दिनों का पता ही नहीं चला. आप बैठिए न…

सोमी, चाय का पानी अंगीठी पर चढ़ा दे.’’ ‘‘छोटी बहू बकरी के दूध की चाय तो पी लेंगी न आप?’’ ‘‘तुम जो दोगी, पी लूंगी. माया, तुम ने पहले दिन जो तोहफा दिया था, उसे मैं कैसे भूल सकती हूं. पर एक सवाल बरसों से मुझे बेचैन किए हुए है कि वह सब क्या था? आज भी मेरा दिल उस बात को सच मानने से इनकार करता है…’’ कुछ पल माया चुप रही, फिर आंखें उठाईं तो उन में आंसू डबडबा आए थे. ‘‘मैं ने किसी को नहीं बताया कि सच क्या था. किसी ने कुलटा कहा, किसी ने वेश्या… सब सुन लिया, मुंह नहीं खोला. पर आप से झूठ बोलने की हिम्मत नहीं है… क्योंकि आप ने वह सच नहीं माना… मेरे ऊपर इतना बड़ा एहसान क्या कम है? ‘‘छोटी बहू, मेरा पति कमजोर था.

उलझन- भाग 3 : कनिका की मां प्रेरणा किसे देख कर थी हैरान?

शायद यहीं आ कर नई पीढ़ी आगे निकल गई है. आज किसी कनिका और किसी अभिषेक को किसी से डरने की जरूरत नहीं है. अपना फैसला वे खुद करते हैं. मांबाप को सूचित कर दिया यही काफी है. यह तो कनिका और अभिषेक के भले संस्कारों का असर है जो इंडिया आ कर शादी कर रहे हैं. यों अगर वे अमेरिका में ही कोर्टमैरिज कर लेते तो भला कोई क्या कर लेता.

प्रेरणा की शादी अनिकेत से तय हो गई थी. न कोई शिकवा न गिला यों हुआ उन की प्रेमकथा का एक मूक अंत.

विदाई के समय प्रेरणा की नजरें घर की छत पर जा टिकीं, जहां कपिल को खडे़ देख कर उस के दिल में एक हूक सी उठी थी लेकिन चाहते हुए भी प्रेरणा की नजरें कुछ क्षण से ज्यादा कपिल पर टिकी न रह सकीं.

हर जख्म समय के साथ भर जाए यह जरूरी नहीं.

प्रेरणा को याद है. जब शादी के कुछ समय बाद कपिल से उस की मुलाकात मायके में हुई थी, वह कैसा बुझाबुझा सा लग रहा था.

‘कैसे हो कपिल?’ प्रेरणा ने कपिल के करीब आ कर पूछा.

न जाने कपिल को क्या हुआ कि वह प्रेरणा के सीने से चिपक कर रोने लगा. ‘काश, प्रेरणा हम समय पर बोल पाते. क्यों मैं ने हिम्मत नहीं दिखाई? पे्ररणा, इतनी कायरता भी अच्छी नहीं. तुम से बिछड़ कर जाना कि मैं ने क्या खो दिया.’

‘ओह कपिल…’ प्रेरणा भी रोने लगी.

चाहीअनचाही इच्छाओं के साथ प्रेरणा और कपिल का रिश्ता एक बार फिर से जुड़ गया. प्रेरणा के मायके के चक्कर ज्यादा ही लगने लगे थे.

अब प्रेरणा की दिलचस्पी फिर से कपिल में बढ़ती जा रही थी और अनिकेत में कम होती जा रही थी. पर अकसर टूर पर रहने वाले अनिकेत को प्रेरणा के बारबार मायके जाने का कारण अपनी व्यस्तता और उस को समय न देना ही लगता.

प्रेरणा और कपिल का यह रिश्ता उन्हें कहां ले जाएगा यह दोनों ही नहीं सोचना चाहते थे. बस, एक लहर के साथ वे बहते चले जा रहे थे.

शादी के पहले तो सब के अफेयर होते हैं, जो नाजायज तो नहीं पर जायज भी नहीं होते हैं. पर शादी के बाद के रिश्ते नाजायज ही कहलाएंगे. यह बात प्रेरणा को अच्छी तरह समझ में आ गई थी. कनिका के जन्म के बाद से ही प्रेरणा ने कपिल से संबंध खत्म करने का निर्णय ले लिया था. कनिका के जन्म के बाद पहली बार प्रेरणा अपने मायके आई थी. कमरे में प्रेरणा अपने और कनिका के कपड़े अलमारी में लगा रही थी कि अचानक कपिल ने पीछे से आ कर प्रेरणा को अपनी बांहों में भर लिया.

‘ओह, प्रेरणा कितने दिनों बाद तुम आई हो. उफ, ऐसा लगता है मानो बरसों बाद तुम्हें छू रहा हूं. प्रेरणा, तुम कितनी खूबसूरत लग रही हो. तुम्हारा यह भरा हुआ बदन…सच में मां बनने के बाद तुम्हारी खूबसूरती और भी निखर गई है.’ और हर शब्दों के साथ कपिल की बांहों का कसाव बढ़ता जा रहा था.

इस वक्त घर में कोई नहीं है यह बात कपिल को पता थी, इस वजह से वह बिना डरे बोले जा रहा था.

प्रेरणा के इकरार का इंतजार किए बिना ही कपिल उस की साड़ी उतारने लगा. कंधे से पल्ला गिरते ही लाल रंग के ब्लाउज में प्रेरणा का बदन बहुत उत्तेजित लगने लगा जिसे देख कर कपिल मदहोश हुआ जा रहा था.

इस से पहले कि कपिल के हाथ प्रेरणा के ब्लाउज के हुक खोलते, एक झन्नाटेदार चांटा कपिल के गाल पर पड़ा. ‘यह क्या कर रहे हो कपिल, तुम्हें शर्म नहीं आती कि मेरी बेटी यहां पर लेटी है. अब मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता है.’ न जाने प्रेरणा में इतना परिवर्तन कैसे आ गया था, जो अपने ही प्यार का अपमान इस तरह से कर रही थी.

कपिल एक क्षण के लिए चौंक गया फिर बिना कुछ बोले, बिना कुछ पूछे वह तुरंत कमरे से बाहर निकल गया. शायद इतनी बेइज्जती के बाद उस ने वहां रुकना उचित न समझा. कपिल के जाते ही प्रेरणा फूटफूट कर रोने लगी. कपिल से रिश्ता खत्म करने का शायद उसे यही एक रास्ता दिखा था. कपिल से रिश्ता तोड़ना प्रेरणा के लिए आसान नहीं था पर आज प्रेरणा एक औरत बन कर नहीं बल्कि एक मां बन कर सोच रही थी. कल को उस के नाजायज संबंधों का खमियाजा उस की बेटी को न भोगना पड़े.

बच्चों को आदर्श की बातें बड़े तभी सिखा पाते हैं जब वे खुद उन के लिए एक आदर्श हों. जिन भावनाओं को प्रेरणा शादी के बाद भी नहीं छोड़ पाई, उन्हीं भावनाओं को अपनी औलाद के लिए त्यागना कितना आसान हो गया था.

उस के बाद प्रेरणा और कपिल की कोई मुलाकात नहीं हुई.

पर आज भी कपिल प्रेरणा के खयालों में रहता है और अनिकेत के साथ अंतरंग क्षणों में प्रेरणा को कपिल की यादों का एहसास होता है. वक्तबेवक्त कपिल की यादें प्रेरणा की आंखों को नम कर देती थीं.

कुछ रिश्ते यादों की धुंध में ही अच्छे लगते हैं. यह बात प्रेरणा अच्छी तरह जानती थी पर आज वही रिश्ते यादों की धुंध से निकल कर प्रेरणा को विचलित कर रहे थे.

जिस इनसान से प्रेरणा कभी प्रेम करती थी अब उसी का बेटा उस की बेटी के जीवन में आ गया था.

कैसे प्रेरणा कपिल का सामना कर पाएगी? कपिल के लिए जो भावनाएं आज भी उस के दिल में जीवित हैं उन भावनाओं को हटा कर एक नया रिश्ता कायम करना क्या उस के लिए संभव हो सकेगा? कैसे वह इन नए संबंधों को संभाल पाएगी? बरसों बाद अपने पहले प्यार की मिलनबेला का स्वागत करे या…

कैसे वह अपनी ही जाई बेटी की खुशियों का गला घोट डाले? कैसे अपने और कपिल के रिश्ते को सब के सामने खोले? क्या कनिका यह सहन कर पाएगी?

वैसे भी नई पीढ़ी जातिपांति को नहीं मानती. उस के लिए तो प्यार में सब चलता है. नई पीढ़ी तो इन बंधनों के सख्त खिलाफ है. जातपांति के मिटने में ही सब का भला है. आज की पीढ़ी यही समझ रही है, तब किस आधार पर अभिषेक और कनिका का रिश्ता ठुकराया जाए?

अपने ही खयालों के भंवर में प्रेरणा फंसती जा रही थी. सच में दुनिया गोल है. कोई सिरा अगर छूट जाए तो आगेपीछे मिल ही जाता है. पर ऐसे सिरे से क्या फायदा जो सुलझाने के बजाय और उलझा दे.

अभिषेक के मातापिता को देख कर कनिका का दिल शायद न धड़के पर कपिल का सामना करने के केवल खयाल से ही प्रेरणा का दिल आज पहले की तरह तेजी से धड़क रहा था. धड़कते दिल को संभालने के लिए अनायास ही उस के मुंह  से निकल गया.

‘रखा था खयालों में अपने

जिसे संभाल कर,

ताउम्र उस को निहारा, सब से छिपा कर,

पर आज,

वक्त के थपेड़ों से सब बिखरता नजर आता है,

छिप कर आज कहां जाऊं,

वही चेहरा हर तरफ नजर आता है.’?

‘तो क्या जिस तरह यादों के तीर मेरे सीने के आरपार होते रहे उसी तरह के तीरों का शिकार अपनी बेटी को भी होने दूं?’ खुद से पूछे गए इस एक सवाल ने प्रेरणा को ठीक फैसला ले सकने की प्रेरणा दे दी. ‘कनिका को वैसा कुछ न सहना पड़े जो मैं ने सहा, चाहे इस के लिए अब मुझे कुछ भी सहना पड़े’ यह सोच कर प्रेरणा के मन की सारी उलझन गायब हो गई.

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