परिचय: कौन पराया, कौन अपना

मैं अपने केबिन में बैठी मुंशीजी से पेपर्स टाइप करवा रही थी. मन काम में नहीं लग रहा था. पिछले 1 घंटे से मैं कई बार घड़ी देख चुकी थी, जो लंच होने की सूचना शीघ्र ही देने वाली थी. दरअसल, मुझे वंदना का इंतजार था. पूरी वकील बिरादरी में एक वही तो थी, जिस से मैं हर बात कर सकती थी. इधर घड़ी ने 1 बजाया,

उधर वंदना अपना काला कोट कंधे पर टांगे और अपने चेहरे को रूमाल से पोंछती हुई अंदर दाखिल हुई. मेरे चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. ‘‘बहुत गरमी है आज,’’ कहती हुई वंदना कुरसी खींच कर बैठ गई. मुंशीजी खाना खाने चले गए. मेरा चेहरा फिर गंभीर हो गया. वंदना एक अच्छी वकील होने के साथ ही मन की थाह पा लेने वाली कुशाग्रबुद्धि महिला भी है.

‘‘आज फिर किसी केस में उलझ गई हैं श्रीमती सुनंदिता सिन्हा,’’ उस ने प्रश्नसूचक दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘इस ‘नहीं तो’ में कोई दम नहीं है. तुम कोई बात छिपाते वक्त शायद यह भूल जाती हो कि हम पिछले 3 साल से साथ हैं और अच्छी दोस्त भी हैं.’’

मैं उत्तर में केवल मुसकरा दी.

‘‘चलो, चल कर लंच करें, मुझे बहुत भूख लगी है,’’ वंदना बोली.

‘‘नहीं वंदना, यहीं बैठ जाओ. एक दिलचस्प केस पर काम कर रही हूं मैं.’’

‘‘किस केस पर काम चल रहा है भई?’’ वह उतावली हो कर बोली.

मैं उसे नम्रता के बारे में बताने लगी.

‘‘आज नम्रता मेरे पास आई थी. वह सुंदर, मासूम, भोलीभाली, बुद्धिमान युवती है. 4 साल पहले उस की शादी मुकुल दवे के साथ हुई थी. दोनों खुश भी थे. किंतु शादी के तकरीबन 2 साल बाद उस का परिचय एक अन्य लड़की के साथ हुआ. उन दोनों के बारे में नम्रता को कुछ ही दिन पहले पता चला है. मुकुल, जो एक 3 साल के बेटे का पिता है, उस ने गुपचुप ढंग से उस लड़की से 2 साल पहले विवाह कर रखा है. लड़की उसी के महल्ले में रहती थी. अजीब बात है.’’

‘‘ऐसा तो हर रोज कहीं न कहीं होता रहता है. तुम और मैं, वर्षों से देख रहे हैं. इस में अजीब बात क्या है?’’ वंदना बोली.

‘‘अजीब यह है कि लड़की उसी महल्ले में रहती थी, जिस में नम्रता. बल्कि नम्रता उस लड़की को जानती थी. हैरानी तो इस बात की है कि उन दोनों के पास रहते हुए भी वह यह कैसे नहीं जान पाई कि उस के पति के इस औरत के साथ संबंध हैं.’’

वंदना मेरी इस बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘भई, मुकुल क्या नम्रता को यह बता कर जाता था कि वह फलां लड़की से मिलने जा रहा है और वह उसे रंगे हाथों आ कर पकड़ ले. वैसे नम्रता को उस के बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘उस बेचारी को खुद मुकुल ने बताया कि वह उसे तलाक देना चाहता है. नम्रता उसे तलाक देना नहीं चाहती. उस का उस के पति के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है. कोई प्रोफेशनल टे्रनिंग भी नहीं है उस के पास कि वह आत्मनिर्भर हो सके,’’ मैं ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘क्या वह दूसरी औरत छोड़ने के लिए तैयार  होगा? तुम तो जानती हो ऐसे संबंधों को साबित करना कितना कठिन होता है,’’ वंदना घड़ी देख उठती हुई बोली.

‘‘मुश्किल तो है, लेकिन लड़ना तो होगा. साहस से लड़ेंगे तो जरूर जीतेंगे,’’ मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास था.

‘‘अच्छा चलती हूं,’’ कह कर वंदना चली गई.

मैं दिन भर कचहरी के कामों में उलझी रही. शाम 5 बजे के लगभग घर लौटी तो शांतनु लौन में मेघा के साथ खेल रहे थे. मेरी गाड़ी घर में दाखिल होते ही मेघा मम्मीमम्मी कह कर मेरी तरफ दौड़ी. मैं मेघा को गोद में उठाने को लपकी. शांतनु हमें देख मंदमंद मुसकरा रहे थे. उन्होंने झट से एक खूबसूरत गुलाब तोड़ कर मेरे बालों में लगा दिया.

‘‘कब आए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आधा घंटा हो गया जनाब,’’ कह कर शांतनु मेरे लिए चाय कप में उड़ेलने लगे.

‘‘अरे अरे, मैं बना लेती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम थक कर लौटी हो, तुम्हारे लिए चाय मैं बनाता हूं,’’ वह मुसकरा कर बोले. तभी फोन की घंटी बजी और अंदर चले गए. मैं आंखें मूंदे वहीं कुरसी पर आराम करने लगी.

शांतनु का यही स्नेह, यही प्यार तो मेरे जीवन का सहारा रहा है. घर आते ही शांतनु और मेघा के अथाह प्रेम से दिन भर की थकान सुकून में बदल जाती है. अगर शांतनु का साथ न होता तो शायद मैं कभी भी इतनी कामयाब वकील न होती कि लोग मुझे देख कर रश्क कर सकें.

दिन बीतते गए. यही दिनचर्या, यही क्रम. पता नहीं क्यों मैं नम्रता के केस में अधिक ही दिलचस्पी लेने लगी थी और हर कीमत पर उस के पति को सबक सिखाना चाहती थी, जो अपनी  पत्नी को छोड़ किसी अन्य पर रीझ गया था.

मुझे नम्रता के केस में उलझे हुए लगभग 1 साल बीत गया. दिन भर की व्यस्तता में वंदना की मुसकराहट मानसिक तनाव को कम कर देती थी. उस दिन भी कोर्ट में नम्रता के केस की तारीख थी. मैं जीजान से जुटी थी. आखिर फैसला हो ही गया.

मुकुल दवे सिर झुकाए कोर्ट में खड़ा था. उस ने जज साहब के सामने नम्रता से माफी मांगी और जिंदगी भर उस लड़की से न मिलने का वादा किया. नम्रता की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं भी बहुत खुश थी. घर लौट कर यही खुशखबरी मैं शांतनु को सुनाना चाहती थी.

उस दिन शांतनु पहली बार लौन में नहीं बल्कि अपने कमरे में मेरा इंतजार कर रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती वह बोले, ‘‘बैठो सुनंदिता, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

उन की मुखमुद्रा गंभीर थी. मैं कुरसी खींच कर पास बैठ गई. मैं ने आज तक उन्हें इतना गंभीर नहीं देखा था.

वह बोले, ‘‘हमारी शादी को 6 साल हो गए हैं सुनंदिता और इन 6 सालों में मैं ने यह महसूस किया है कि तुम एक संपूर्ण स्त्री नहीं हो, जो मुझे पूर्णता प्रदान कर सके. तुम में कुछ अधूरा है, जो मुझे पूर्ण होने नहीं देता.’’

मैं अवाक् रह गई. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग गया.

वह आगे बोले, ‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है सुनंदिता. तुम एक चरित्रवान पत्नी, अच्छी मां और अच्छी महिला भी हो. मगर कहीं कुछ है जो नहीं है.’’

शब्द मेरे गले में घुटते चले गए, ‘‘तो इतना बता दो शांतनु, वह कौन  है, जिस के तुम्हारे जीवन में आने से मैं अधूरी लगने लगी हूं?’’

‘‘तुम चाहो तो मेघा को साथ रख सकती हो. उसे मां की जरूरत है.’’

‘‘मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो, शांतनु, कौन है वह?’’

वह खिड़की के पास जा कर खड़े हो गए और अचानक बोले, ‘‘वंदना.’’

मुझ पर वज्रपात हुआ.

‘‘हां, एडवोकेट वंदना प्रधान.’’

मैं बेजान हो गई. यहां तक कि एक सिसकी भी नहीं ले सकी. जी चाह रहा था कि पूछूं, कब मिलते थे वंदना से और कहां? सारा दिन तो वह कोर्ट में मेरे साथ रहा करती थी. तभी वंदना के वे शब्द मेरे कानों में गूंज उठे, ‘क्या मुकुल नम्रता को बता कर जाता होगा कि कब मिलता है उस पराई स्त्री से. ऐसा तो रोज ही होता है.’

‘मैं नम्रता से कहा करती थी कि कैसी बेवकूफ स्त्री हो तुम नम्रता, पति के हावभाव, उठनेबैठने, बोलनेचालने से तुम इतना भी अंदाजा नहीं लगा सकीं कि उस के दिल में क्या है.’ मैं खुद भी तो ऐसा नहीं कर पाई.

मैं ने कस कर अपने कानों पर हाथ टिका लिए. जल्दीजल्दी सामान अपने सूटकेस में भरने लगी. शांतनु जड़वत खड़े रहे. मैं मेघा की उंगली थामे गेट से बाहर निकल आई.

अगले दिन मैं कोर्ट नहीं गई. दिमाग पर बारबार अपने ही शब्द प्रहार कर रहे थे, ‘एक महल्ले में रह कर भी नम्रता कुछ न जान पाई’ और मैं दिन में वंदना और शाम को शांतनु इन दोनों के बीच में ही झूलती रही थी फिर भी…गिला करती तो किस से. पराया ही कौन था और अपना ही कौन निकला. एक पल को मन चाहा कि मुकुल की तरह शांतनु भी हाथ जोड़ कर माफी मांग ले. लेकिन दूसरे ही पल शांतनु का चेहरा खयालों में उभर आया. मन वितृष्णा से भर उठा. मैं शायद उसे कभी माफ न कर सकूं?

मैं नम्रता नहीं हूं. अगले दिन मुंशी जी टाइपराइटर ले कर बैठे और बोले, ‘‘जी, मैडम, लिखवाइए.’’

‘‘लिखिए मुंशीजी, डिस्साल्यूशन आफ मैरिज बाई डिक्री ओफ डिवोर्स सुनंदिता सिन्हा वर्सिज शांतनु सिन्हा,’’ टाइपराइटर की टिकटिक का स्वर लगातार ऊंचा हो रहा था.

मोहरा: क्या चाहती थी सुहानिका?

सुहानिका आज कुछ ज्यादा ही खुश थी. अभी 2 महीने पहले ही तो उस ने एक असिस्टैंट के रूप में यह औफिस जौइन किया था. शुरुआत में उस की तनख्वाह 20 हजार रुपए महीना थी और इन 2 महीने में ही उस की तनख्वाह 40 हजार रुपए महीना हो गई.

सुहानिका को बखूबी मालूम है कि उस के औफिस की बहनजी टाइप लड़कियां उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती हैं, पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

एक दिन रुचिका सुहानिका को देखते हुए बोली, ‘‘तुम कब तक खूबसूरती की बैसाखी के सहारे नौकरी करोगी. तुम से तो एक पावर पौइंट भी ठीक से नहीं बन पाता है.’’

सुहानिका अपनी आंखों को और बड़ा कर के बोली, ‘‘रुचिका, मेरे पास जो है, मैं उस के सहारे ही तो आगे बढ़ूंगी न.’’

रुचिका ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘बेशर्म हो तुम.’’

सुहानिका ने जवाब दिया, ‘‘हां, पर सच्ची हूं.’’

23 साल की सुहानिका का बचपन गरीबी में गुजरा था. उस की मम्मी कैसी थीं, उसे नहीं मालूम, बस तसवीरों में ही उन की यादें उस के साथ थीं.

सुहानिका के पापा बिजली महकमे में क्लर्क थे. वे अपनी छोटी सी तनख्वाह से ही घर चलाते थे. सुहानिका की दादी हर समय उसे ताने मारती रहती थीं, ‘‘तेरे चलते मेरे बेटे ने दूसरी शादी नहीं की. अगर दूसरी मां आ जाती न, तो तेरी जो कैंची की तरह जबान चल रही है न, उसे काट देती.’’

सुहानिका भी कहां चुप रहने वालों में से थी. वह खटाक से जवाब देती, ‘‘दादी, तुम अपने मन को बहला रही हो. कर दो न दूसरी शादी तुम पापा की. दरअसल, सचाई यह है एक बुढ़ाते क्लर्क, जिस के साथ उस की बूढ़ी मां और जवान बेटी रहती हो, का शादी के बाजार में कोई मोल नहीं है.’’

ऐसे ही लड़तेझगड़ते सुहानिका ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा था. खुलता गेहुआं, भूरी आंखें, सुतवा नाक, लाल सुर्ख होंठ, घने घुंघराले बाल, जो उस के चेहरे के चारों ओर बिखरे रहते थे.

दादी गुस्से में सुहानिका के बालों को मधुमक्खी का छत्ता बोलती थीं, पर वही दादी हर शनिवार की रात सरसों और नारियल का तेल उस के बालों में बड़े प्यार से मलती थीं.

सुहानिका के पिता सतीश तोमर अदना से इनसान थे. मझोला कद, मझोली कदकाठी. उन की जिंदगी में सबकुछ ही मझोला था. वे दब्बू किस्म के इनसान थे.

सुहानिका ने कितनी बार अपने पापा को चिंतित देखा था. वे हर समय दफ्तर के काम में बिजी रहते थे, पर फिर भी कभी कोई तरक्की नहीं कर पाए. इस बात ने उन्हें अंदर ही अंदर चिड़चिड़ा कर दिया था.

उधर अपने बेटे की चिड़चिड़ाहट का असर सुहानिका की दादी पर भी होता था और कुलमिला कर यह नतीजा था कि सुहानिका का अपने ही घर में दम घुटता था.

सुहानिका की जिंदगी में हर चीज की कमी थी, जैसे प्यार, पैसा, विश्वास और आजादी. वह बस रूपरंग के मामले में अच्छी थी.

जब सुहानिका 15 साल की थी, तब उस के स्कूल के एक सीनियर लड़के ने उस के सामने दोस्ती का प्रस्ताव रखा था. सुहानिका ने बिना सोचे हां कर दी थी. वह सिलसिला आज तक जारी है. सुहानिका को सबकुछ मिल रहा था. पैसा, उपहार और वह सबकुछ, जो एक आरामदायक जिंदगी के लिए चाहिए.

पापा और दादी की नेक सलाह सुहानिका के कानों से टकरा कर वापस चली जाती थी. उस की क्या गलती है. उसे भी तो खुश रहने का हक है.

कालेज में भी सुहानिका हर हफ्ते किसी नए लड़के के साथ देखी जाती थी. उस के बारे में यह बात मशहूर थी कि 2 डेट के बाद सुहानिका का मन भर जाता है.

सुहानिका को शतरंज के शह और मात के इस खेल में अब एक अलग सा रोमांच होने लगा था. यह उस के चरित्र का एक हिस्सा बन चुका था.

अपनी खूबसूरती व नखरों के बल पर ही सुहानिका ने इस टूर ऐंड ट्रैवल कंपनी में असिस्टैंट की नौकरी हासिल की थी. उस का बौस अजय रावत अव्वल दर्जे का घटिया इनसान था. उसे खूबसूरत लड़कियों का साथ बेहद पसंद था. वह उन पर जीभर कर पैसे लुटाता था और बदले में लड़कियां उस के अहम को सहलाती थीं और उस की मर्दाना कमजोरी को वे बड़े आराम से ढक लेती थीं.

ऐसे ही सुहानिका ने भी किया, पर एक दिन जब वह अजय के साथ दफ्तर में ही रासलीला खेल रही थी, तभी उस कंपनी के मालिक का बेटा रोहित शर्मा वहां आ गया. सुहानिका और अजय के अस्तव्यस्त कपड़े देख रोहित को कुछ पूछने की जरूरत नहीं लगी.

अजय को तुरंत इस्तीफा लिखने के लिए कह दिया गया, पर सुहानिका को रोहित ने अंदर बुलाया. सुहानिका ने भी मौके का पूरा फायदा उठाया और सारी बात अजय के सिर पर डाल दी.

सुहानिका रोतेरोते बोल रही थी, ‘‘सर, मुझे एक मौका और दीजिए. यह मेरी मजबूरी थी.’’

न जाने क्या ऐसा जादू किया था कि सबकुछ जानते हुए भी रोहित ने सुहानिका को न सिर्फ मौका दिया, बल्कि कुछ महीने में अपने लिए भी वहीं इंदौर में एक फ्लैट किराए पर ले लिया.

सुहानिका को अच्छी तरह पता था कि रोहित ने ऐसा क्यों किया है. अब सुहानिका उस कंपनी की ब्रांच हैड बन गई थी.

रोहित के हफ्ते में 3 दिन अब इंदौर में ही बीतते थे. उस ने अपने परिवार को बताया था कि उस को रात में भी काम करना पड़ता है, क्योंकि ब्रांच बहुत ज्यादा नुकसान में चल रही है.

रोहित के पिता सुरेंद्र शर्मा बहुत खुश थे कि आखिरकार बेटे को अक्ल आ ही गई. पर जब सालाना रिपोर्ट आई तो सुरेंद्र का माथा ठनका, क्योंकि इंदौर की ब्रांच बिलकुल गड्ढे में चली गई थी.

उधर हफ्ते में 3 दिन रोहित का हवाई यात्रा से इंदौर जाना वैसे सुरेंद्र शर्मा की जेब पर भारी पड़ रहा था. जब उन्होंने रोहित से इस बारे में बात की तो वह गुस्से में बोला, ‘‘पापा, मैं रातदिन मेहनत कर रहा हूं, आप थोड़ा सब्र तो कीजिए.’’

सुरेंद्र ज्यादा दिनों तक सब्र नहीं रख पाए. एक दिन जब रोहित इंदौर गया हुआ था, तो वे भी पीछेपीछे पहुंच गए. वहां जा कर उन्हें सारा माजरा समझ आ गया था कि क्यों रोहित इंदौर के इतने चक्कर काट रहा है. उन्होंने फौरन इंदौर की ब्रांच बंद करने का फैसला ले लिया.

सुरेंद्र शर्मा जब इंदौर की ब्रांच बंद कर के लौटे तो सुहानिका भी उन के साथ थी. सुहानिका ने उन्हें बड़े आराम से इस बात का विश्वास दिला दिया था कि उसे रोहित ने यह सब करने पर मजबूर किया था.

दिल्ली पहुंच कर सुरेंद्र ने सुहानिका के लिए एक नौकरी के इंतजाम के साथसाथ एक छोटे फ्लैट का बंदोबस्त भी कर दिया.

सुहानिका का बहुत पहले ही अपने घर वालों से नाममात्र का मतलब रह गया था. वैसे, सुरेंद्र जब सुहानिका को दिल्ली लाए, तो उन के मन में सुहानिका के प्रति कोई बुरा भाव नहीं था.

पर सुहानिका को अपनी जिंदगी बहुत रूखी लग रही थी. सुरेंद्र ने जो नौकरी लगवाई थी, उस में उसे मेहनत करनी पड़ रही थी, जिस की उसे आदत नहीं थी.

फिर सुहानिका ने सुरेंद्र शर्मा को मोहरा बनाने की सोची. अब वह किसी न किसी बहाने से उन्हें फोन करने लगी और उन से मिलने भी लगी. ऐसी ही एक मुलाकात में उस ने अपनेआप को सुरेंद्र को सौंप दिया. सुरेंद्र शर्मा जानते थे कि यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुहानिका महज 25 साल की थी और वे 55 साल के थे.

एक तो सुरेंद्र शर्मा अपनी पत्नी की मौत के बाद पिछले 10 साल से अकेलेपन का दर्द झेल रहे थे और दूसरे कौन ऐसा मर्द होगा, जो किसी खूबसूरत और जवान लड़की का मोह छोड़ सके.

सुरेंद्र शर्मा पर सुहानिका के रूप का ऐसा सिक्का चला कि वे समाज और परिवार की परवाह करे बिना सुहानिका के साथ शादी के बंधन में बंध गए. सब नातेरिश्तेदारों ने जम कर शिकायत की, पर दोनों ने किसी की नहीं सुनी.

धीरे-धीरे एक साल और बीत गया. सुहानिका को धनदौलत, ऐशोआराम की कमी नहीं थी, पर अब उसे एक साथी की कमी महसूस होने लगी थी. सुरेंद्र से सुहानिका को प्यार तो नहीं था, पर एक लगाव सा हो गया था. लेकिन वह फिर से बोर हो गई थी.

तभी सुहानिका की जिंदगी में पवन नामक लड़का आया, जो रिश्ते में सुरेंद्र शर्मा का भतीजा लगता था और दिल्ली में नौकरी करने के लिए आया हुआ था.

सुहानिका अपनेआप को रोक नहीं पाई और उस ने फिर से एक नया मोहरा ढूंढ़ लिया.

उधर पवन को सुहानिका के लिए बहुत हमदर्दी हो रही थी. उसे लग रहा था, बेचारी सुहानिका को कितने मर्दों ने अपने फायदे के लिए मोहरा बनाया होगा और फिर भी उस का दिल कितना बड़ा है कि वह सुरेंद्र चाचा के प्रति पत्नी के सारे फर्ज निभा रही है. उन की उम्र के चलते सुहानिका ने अपनी मां बनने की इच्छा का भी बहुत पहले गला घोंट दिया था. ऐसी लड़की का अगर मैं दोस्त बन जाऊं तो इस में क्या खराबी है

उधर चांदनी रात में सुहानिका सुरेंद्र के साथ शतरंज के खेल में मोहरे चल रही थी और उस का दिमाग बहुत तेजी के साथ इस बात पर विचार कर रहा था कि वह कब और कैसे इस नए मोहरे को मात देगी. आखिर उस की गलती क्या है? उसे भी तो खुश रहने का हक है?

यह सोचते हुए सुहानिका के होंठों पर एक कुटिल मुसकान थिरक उठी और उस ने एक झटके से अपनी एक बहुत ही बोल्ड सैल्फी पवन को पोस्ट कर दी. वह खुला निमंत्रण था, अगले शिकार का.

हास्य कहानी: पत्र बम, क्या लिखा था उस चिट्ठी में

शहर का एक दूसरा बड़ा वर्ग धनिक होने की दौड़ में लगा मध्यवर्ग है. जिसके हाथों में अनायास ही शहर की नब्ज है. क्योंकि इसके पास वक्त है. काम है दो, पहला परिवार की पोषण और शहर की… नेता, व्यापारी, छोटे ठेकेदार इस वर्ग में परीगणित किए जा सकते हैं. पार्टियों के प्रमुख ओहदे इन्हीं की जेब में है क्योंकि मंत्री बड़े नेताओं के मुंह लगे हुए चारण हैं .

मुंह इसलिए की चुनाव के दरम्यान संचालक बन कर नेताजी के लिए वैतरणी तैयार करते हैं. शहर का तीसरा तबका बुद्धिजीवियों का है. एक समय तो शहर की धड़कन पर हाथ रखा करता था. छोटा शहर, गांव सदृश्य कस्बा,अभी शहर नहीं बना था. उद्योग कोयला खदानें खुल रही थी. ऐसे समय में बुद्धिजीवी अवतीर्ण हुए और शहर की दिशा देने लगे. इस बीच द्वितीय वर्ग तेजी से उभरा और राजनीति और अर्थतंत्र पर काबिज हो गया. बुद्धिजीवियों की बखत बढ़ती चली गई.

हमारे शहर की ऐसी ही परिस्थितियां है. इन झंझावात में प्रौढ होते शहर को मैंने नजदीक से देखा है .घात प्रतिघात, द्वेष, ईष्या के साथ धड़कता मेरा औद्योगिक शहर या कहें उद्योगपुरी. हां यहाँ बात बे बात एक अनाम पत्र जारी होते है, जो उभरती शक्ति को पटखनी देने की कोशिश में रहते हैं. अकस्मात शुरू होता है शहर के स्वनाम धन्य लोगों की छवि पर प्रश्नचिन्ह लगाने का काम! वह कभी झूठ का पुलिंदा होता है तो कभी सच का आईना भी. तो मैंने देखा,वर्षो पूर्व पत्र जारी होते थे. सुबह देखा! एक चिट्ठी पड़ी है .

एक बड़ा खुलासा करती हुई. मगर किसी लिखने वाले का नाम नहीं है. किसी का मान मर्दन करने का अच्छा तरीका इख्तियार किया है. थोड़ा सा विवाद या द्वेष और जारी हो गया पत्रबम! मजे की बात यह है की यह पत्र शहर के कुछ नामचीन लोगों को ही जारी होता है. कुछ प्रतियो में, फिर एक शख्स दूसरे और दूसरा तीसरे को फोटो कापियां करवा करवा कर देता जाता है.

मैंने देखा है इस काम में बड़ा रस आता है. जो शख्सियत पत्र पाती है, बिल्कुल सरल बन जाती है. सहजता भोलापन मुंह से टपकने लगता है. मन ही मन प्रसन्न होता है. स्वयं में गौरवान्वित. आह ! शहर में कुछ लोगों को मिला है, यह गौरव गान करता पंपलेट, मैं उनमें एक हूं. आस-पास वालों को दानवीर की भांति देखता है. हाय… निरीह प्राणी ! तुम्हें तो कोई गिनता भी नहीं है ! मुझे देखो पत्र मेरे पास आया है. फिर बड़ा दानवीर बन उसकी छाया प्रतियां बांटता है.

हाय… अगर बुद्धिजीवी उस कथित पत्र को वहीं रोक ले तो कितना भला हो… मगर फिर रस कैसे प्रसारित होगा ! इतने दिनों बाद मौका आया है सगर्व छोटे बुद्धिजीवी से पूछता है-‘ क्यों, पर्चा आया है क्या ?’
छोटा बुद्धिजीवी- ‘पत्र ? कैसा पत्र .’
बुद्धिजीवी-‘वही जो डाक से कल आया है ?’
छोटे बुद्धिजीवी का चेहरा उतर जाता है-“अरे! हमारी कोई बखत नहीं.” फिर एक प्रति, छाया प्रति करवा कर उस पाकिट में ऐसे रखता है जैसे कोई बड़ा मैदान मार लिया हो. खुद तीसमार खां हो.

मैं सोचता हूं- चिट्ठी बंटी होगी सिर्फ दस. देखते देखते छाया प्रतिया होकर सैकड़ों में तब्दील हो जाती है. हर आदमी पत्र में प्रस्तुत नायक! के प्रति या तो सम्मान का भाव रखता है या फिर दुराव का .सीधी सी बात है जिस शख्स को अपनी पत्र बम विद्या से ओपन करने का प्रयास किया गया है वह कोई आम आदमी तो होता नहीं .वह या तो शहर की प्रतिष्ठित शख्सियत होता है या शक्ति केंद्र या फिर नया-नया विकसित होता एक शक्ति ध्रुव.

ऐसी विभूति से लोग संबंध बिगाड़ नही चाहते हैं. सामने सिंपैथी के दो शब्द-‘भाई साहब! बड़ा नीच आदमी है वह, जिसने आपके प्रति ऐसा दुष्प्रचार किया.’
‘अब क्या करें? कौन कर सकता है?’ वाह भाव हीन स्वर में कहता है.
“अगर हिम्मत थी, मर्द है तो सामने आता .पीठ पीछे लुकाछिपी कर घात, नामर्द कही का!”

मैं देखता हूं, अधिसंख्य लोग पत्र कांड का आनंद लेते हैं. पत्र को ऐसे सहेज कर रखते हैं, मानो जमीन नामजद खरीदी का रजिस्ट्री विलेख हो या फिर प्रेम पत्र. शहर में आज तलक दर्जनों पत्र कांड हुए हैं. वर्षों पूर्व नगर के वरिष्ठतम पत्रकारों के खिलाफ एक पत्र जारी हुआ था.

रोहरानंद उन दिनों उदयीमान था .सोचा, कभी मेरे खिलाफ भी ऐसा होगा क्या ? और एक दिन हुआ… समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ… “भेड़िए की शक्ल में, पूरा ब्लैकमेलर!” पढ़कर कर मैं बहुत खुश हुआ. लगा अब मैं भी प्रतिष्ठित पत्रकार बन गया. उसे मैंने सहेज कर वर्षों तक रखा. अक्सर मन बहलाने के लिए यानी अवासादपूर्ण क्षणों में उसे पढ़ता और मन प्रसन्न हो जाता. सच! इसको भी वर्षो हो गए… इंतजार है कब दूसरा पत्रबम जारी हो और सनसनी रस वर्षा हो…आह…!

काबुल से कैलिफोर्निया : क्या था मेरा उससे रिश्ता

हम दिल्ली में रहते थे. मेरे पति केंद्रीय संस्थान में वरीय अधिकारी थे. हमारे 2 बच्चे हैं, एक बेटा और एक बेटी. मेरी बेटी अनीता छोटी है. उन दिनों अफगानिस्तान के पठान दिल्ली में अकसर आते थे. दिल्ली की कालोनियों और गलियों में घूमघूम कर ड्राईफूट्स, बादाम, अखरोट, अंजीर बेचा करते थे. साथ में अकसर शुद्ध प्राकृतिक हींग भी रखते थे. कभी महीने में एक बार तो कभी 2 महीने में एक बार आते थे. मैं एक पठान से ड्राईफूट्स और हींग लिया करती थी. अकसर खरीदते समय मेरे बेटी अनीता भी साथ होती. करीब 4 साल की थी वह उस समय. वह पठान कुछ ड्राईफू्रट्स मेरी बेटी के हाथ में जरूर रख देता था. वह पिछले 5 सालों से लगातार आ रहा था. अनीता को बहुत प्यार करता था. बीचबीच में वह काबुल भी जाया करता.

अनीता ने हाल ही में हम लोगों के साथ हिंदी फिल्म ‘काबुलीवाला’ देखी थी, इसलिए वह उस पठान को काबुलीवाले अंकल ही बोला करती थी. जब दूर से ही उस की आवाज सुनती, दौड़ कर ‘काबुलीवाला आया’ बोल कर दरवाजे पर जा कर खड़ी हो जाती और मुझे जोरजोर से आवाज दे कर बुलाती.

हालांकि उस ने अपना नाम अजहर बताया था, पर हम सब उसे काबुलीवाला या पठानभाई ही कहते थे. वह बोला करता कि काबुल में हिंदी फिल्में और हिंदी गाने काफी लोकप्रिय हैं. कुछ हिंदी फिल्मों के नाम भी बताए थे. ‘कुर्बानी’, ‘धर्मात्मा’, ‘धर्मवीर’, ‘शोले’ आदि जो फिल्में उस ने देखी थीं. उसे दिल्ली शहर भी बहुत पसंद था. 80 के दशक की शुरुआत तक तो काबुलीवाला आया करता था. उस के बाद उस का आना अचानक बंद हो गया.

फिर अचानक एक दिन 1984 के मध्य में हमारे घर पर वह आया. उस के साथ उस की 10 साल की बेटी जाहिरा भी थी. जाहिरा बहुत ही सुंदर लड़की थी. वह साथ में कुछ ड्राईफ्रूट्स भी लाया था. उस ने अनीता के बारे में पूछा, तो मैं ने उसे आवाज दे कर बुलाया. अनीता और जाहिरा दोनों लगभग हमउम्र ही थीं.

अनीता ने आ कर कहा, ‘काबुलीवाले अंकल, इतने दिन आप कहां रह गए थे? आप काफी दिनों के बाद आ रहे हैं?’

मैं ने भी अनीता की बात दोहराई. पहले उस ने ड्राईफ्रूट्स अनीता को दिए. फिर कुछ ड्राईफ्रूट्स के पैकेट मुझे दिए. मैं ने कहा, ‘आजकल क्या रेट चल रहा है, मुझे पता नहीं, तुम बताओ कितने रुपए दे दूं, पठानभाई?’

तब वह बोला, ‘मुझे आप पुराने रेट से ही दे दो. आजकल तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है हम लोगों पर. हम आप के वतन में रिफ्यूजी बन कर आए हैं.’

मेरे, ऐसा क्या हो गया, पूछने पर उस ने कहा, ‘हमारे वतन में तो काफी दिनों से जंग चल रही है. जब से रूसी आए हैं, अमन छिन गया है. रोज गोलाबारूद, बम से न जाने कितनी जानें जा रही हैं. मुजाहिदीनों और रूसियों के बीच पिस कर रह गए हम लोग. हजारों लोग वतन छोड़ कर पाकिस्तान, ईरान, हिंदुस्तान भाग कर रिफ्यूजी कैंप में बसर कर रहे हैं. मैं तो आप के मुल्क से वाकिफ हूं, इसीलिए दिल्ली आ गया अपनी बीवी और बच्ची के साथ.’

इतना कहतेकहते वह बच्ची का हाथ पकड़ कर रोने लगा. मैं ने अनीता को कुछ स्नैक्स और मिठाई लाने को कहा और पूछा, ‘पठानभाई, बोलो क्या पिओगे ठंडा या गरम? तुम्हारी बेटी पहली बार आई है.’

इतना बोल कर मैं ने जाहिरा का हाथ पकड़ कर अपने पास खींचते हुए कहा, ‘बेटा, दिल्ली की लस्सी मशहूर है, पिओगी?’

उस ने कहा ‘हां, पिऊंगी. अब्बू भी बोलते हैं यहां की लस्सी बहुत उम्दा होती है.’

मैं पठान की ओर देख कर बोली, ‘अरे, यह तो हिंदी बोल लेती है.’

पठान बोला, ‘हम लोगों ने हिंदी सिनेमा देख कर हिंदी बोलना सीख लिया है.’

अनीता मिठाई, स्नैक्स और लस्सी ले कर आई. पठान और जाहिरा ने निसंकोच खाया भी. मैं ने उस से जब पूछा कि क्या अब वह दिल्ली में ही रहेगा तो उस ने कहा, ‘मेरा बड़ा भाई अमेरिका में है. वह मुझे, मेरी पत्नी और जाहिरा को स्पौंसर कर अमेरिका बुला रहा है.’

मैं ने जब कहा कि क्या इंडिया उसे अच्छा नहीं लगता कि इतनी दूर जा रहा है तो वह बोला, ‘आप का वतन तो बहुत प्यारा है. पर सुना था कि यहां सिर्फ 1 साल का ही वीजा मिलता है. फिर हर साल वीजा 1 साल और आगे बढ़ाना होगा. अमेरिका जा कर वहां मैं रिफ्यूजी होते हुए ग्रीनकार्ड की अर्जी दूंगा और जल्द ही ग्रीनकार्ड मिल भी जाएगा. हमारे वतन के बहुत लोग वहां पहले से ही गए हैं. हम लोग दिल्ली में अंगरेजी बोलना सीख रहे हैं.’

मैं ने जाहिरा के हाथ में 500 रुपए अलग से दे कर कहा कि इस से तुम एक इंडियन ड्रैस ले लेना.

उस के बाद वह फिर 1985 के आरंभ में हमलोगों से मिलने आया. इस बार उस की पत्नी और बेटी भी साथ थी. उस ने बताया कि वे एक सप्ताह में अमेरिका जा रहे हैं. यह इंडिया में हमारी आखिरी मुलाकात थी.

इस के बाद वर्षों बीत गए, लगभग 20 वर्ष. इस बीच दुनिया काफी बदल गई. कितनी जंगें हुईं-इराक, अफगानिस्तान, कारगिल न जाने कितने खूनखराबे, आतंकी घटनाएं हुईं. मैं कैलिफोर्निया की सिलिकौन वैली के एक शहर फ्रेमौंट में आई हूं. मेरे बच्चे यहीं सैटल्ड हैं. यहां अकसर आनाजाना लगा रहता है.

एक दिन मैं वालमार्ट गई थी शौपिंग के लिए. वहां पेमैंट लेन में मेरे आगे एक लड़की थी, उस के साथ एक बुजुर्ग महिला भी थी. लड़की तो रंगरूप, पहनावे से अमेरिकन लग रही थी. पर उस के साथ वाली महिला अपने सिर और गले में स्कार्फ बांधे थी, जैसा कि अकसर मुसलिम महिलाएं यहां बांधा करती हैं. लड़की का चेहरा जानापहचाना लगा, पर मैं ने संकोचवश उस से कुछ नहीं पूछा था. वह मेरे आगे लाइन में खड़ी थी. उस ने मुझे देखा था. अपने देश में होती तो जरूर पूछ लेती.

इस के एक सप्ताह बाद मेरी बेटी ने पार्टटाइम ड्राइवर और डोमैस्टिक हैल्प के लिए विज्ञापन दिया था अपने मोबाइल नंबर के साथ. मेरी बेटी को एक लड़की ने फोन कर कहा कि वह काम के सिलसिले में मिलना चाहती है. बेटी उस समय औफिस में थी. बेटी ने उसे बताया कि मम्मी घर पर हैं, जा कर काम समझ कर बात कर ले. थोड़ी देर में घर की कौलबैल बजी. मैं ने दरवाजा खोला तो देखा कि वही लड़की सामने थी. कुछ पल के लिए दोनों एकदूसरे को देखते रहे थे.

फिर मैं ने पूछा, ‘‘कहीं तुम जाहिरा तो नहीं?’’

वह बोली, ‘‘और आप दिल्लीवाली आंटी?’’

मैं ने उसे अंदर आने को कहा और पूछा, ‘‘क्या कल तुम वालमार्ट में थी?’’ जाहिरा ने कहा, ‘‘हां, मैं और मम्मी दोनों थे. आप ने देखा था क्या?’’

मेरे हां कहते ही वह बोली, ‘‘अगर देखा तो आप ने बात क्यों नहीं की?’’

मैं ने कहा कि तुम तो बिलकुल अमेरिकन दिख रही थी और वैसे भी अमेरिका में बेवजह और बिना जानेपहचाने टोकना मुझे ठीक नहीं लगा था.

इस पर वह बोली, ‘‘यहां तो सभी एकदूसरे के नाम से ही पुकारते हैं, पर मैं तो उसी पुराने रिश्ते से आप को आंटी ही पुकारूंगी. आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं.’’

जाहिरा बोली, ‘‘मैं तो आप की बेटी के कहने पर यहां काम के लिए आई हूं.’’

वैसे तो मैं मुसलिम लड़की रखने में डरती थी, फिर भी उस के प्रति ऐसी भावना मेरे मन में नहीं आई. मैं बोली, ‘‘काम तुम्हें बाद में बताऊंगी, पहले तुम यह बताओ कि काबुल से कैलिफोर्निया तक कैसे आई और यहां तुम्हारे मम्मीपापा सब कैसे हैं? तुम अभी तक हिंदी अच्छी तरह बोल लेती हो.’’

वह बोली, ‘‘थैंक्स टू बौलीवुड, और हिंदी टीवी सीरियल्स हिंदी सिखाने के लिए. यहां घर में हमलोग फारसी में बात करते हैं और बाहर दूसरे लोगों से अंगरेजी में.’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है कि तुम 3 भाषाएं जानती हो.’’

फिर उस ने बोलना शुरू किया, ‘‘मेरे बड़े चाचा काबुल में अमेरिकी एंबैसी में काम करते थे. वे बहुत पहले ही अमेरिका आ गए  थे. उन्होंने हम लोगों को स्पौंसर कर यहां का वीजा दिलाया. बाद में हम ने रिफ्यूजी होने के आधार पर ग्रीनकार्ड के लिए अप्लाई किया जो 6 महीने में ही मिल गया. फिर लगभग 5 साल के अंदर ही यहां की नागरिकता भी मिल गई.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘और कितने लोग अफगानिस्तान से यहां आ कर शरण लिए हुए हैं?’’ उस ने बताया, ‘‘अफगान युद्ध के पहले बहुत ही कम अफगानी लोग अमेरिका में थे. लेकिन रूसी और मुजाहिदीनों के बीच लड़ाई के चलते बड़ी बरबादी हुई और लोग देश छोड़ कर भागने लगे थे. फिलहाल 1 लाख से थोड़े ही कम अफगानी लोग अमेरिका में हैं. इन में ज्यादातर लोग कैलिफोर्निया में हैं. उस में भी फ्रेमौंट शहर में सब से ज्यादा अफगानी शरणार्थी बसे हैं. इस के बाद दूसरे नंबर पर उत्तर वर्जीनिया है. अमेरिकी सरकार ने उन की काफी सहायता की है. सस्ते रैंट पर घर दिलवाए हैं?’’

फिर मैं ने पूछा, ‘‘उस का परिवार यहां क्या कर रहा है?’’ वह बोली, ‘‘मेरे चाचा तो अब बहुत बीमार रहते हैं. इस के अलावा उन की दिमागी हालत भी ठीक नहीं है जिस के चलते उन्हें हर वक्त किसी की देखरेख की जरूरत होती है. यह काम उस के पिता करते हैं और इस के लिए सरकार लगभग 2 हजार डौलर देती है. मम्मी एक स्टोर्स में पार्टटाइम काम करती हैं. मेरे पति एक कार शोरूम में काम करते हैं. मैं ने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली है. आगे की पढ़ाई औनलाइन घर से ही कर रही हूं. फुलटाइम जौब तो कहीं नहीं मिली है, पार्टटाइम जो भी काम मिलता है, कर लेती हूं. अमेरिका में किसी भी काम को हेय दृष्टि से नहीं देखते हैं और यहां आप के पास भी काम के लिए ही आई हूं.’’

मैं ने एक दीर्घ सांस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे अच्छा नहीं लग रहा तुम से घर के काम कराना.’’

‘‘आप के बच्चे इतने दिनों से अमेरिका में हैं और आप भी काफी दिनों से अमेरिका आतीजाती रही हैं, फिर आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं. यहां कर्म ही धर्म है और हर काम करने वाले की समाज में उतनी ही प्रतिष्ठा है. आप बेझिझक कहें, मैं भी निसंकोच खुशीखुशी अपना काम निभाऊंगी.’’

फिर उसे काम बताया कि दोपहर 4 घंटे सोमवार से शुक्रवार तुम्हें टाइम देना होगा. ढाई बजे बच्चों को स्कूल से पिक कर घर लाना है, उन्हें लंच करा कर थोड़ा आराम करने देना. इस बीच किचन के कुछ काम जैसे सब्जियां काटना, साफ बरतनों को डिशवाशर से निकाल उन की जगह पर लगाना, फिर बच्चों को अलगअलग क्लासेज में ले जाना. शाम को जब बच्चों को ले कर आना तो उन के रूम और कपड़े आदि ठीक करना. किसी दिन ज्यादा काम भी हो सकता है और कभी शनिवार या रविवार को भी काम पड़ सकता है.

जाहिरा बोली, ‘‘बस, अब आप निश्चिंत हो जाएं, सभी काम आप के मन लायक करूंगी.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्या वह इंडियन डिशेज पकाना जानती है?’’ तो उस ने कहा, ‘‘सभी तो नहीं, पर कुछकुछ बना लेती हूं. हां, मेरी मां सबकुछ बना लेती हैं. पर आंटी, आप क्या मेरा बनाया खाएंगी? मुझे याद है कि जब हम दिल्ली में थे, ईद की सेवइयां देने अब्बू के साथ आई थी आप के घर. अब्बू ने आप को कच्ची सेवइयां दी थीं. मैं ने उन से वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि हमारे घर का पका खाना आप नहीं खाती हैं.’’

‘‘उस समय की बात और थी. अब तो अमेरिका में थोड़ा ऐडजस्ट नहीं करूंगी तो रहना मुश्किल हो जाएगा. ठीक है, कभी घर में पार्टी देनी होगी तो कुछ खास पकवान बिरयानी आदि घर पर ही बनवाना चाहती हूं. इसीलिए ऐसे मौकों के लिए पार्टटाइम इंडियन कुक खोज रही हूं. वैसे ज्यादा कुछ तो होटल से ही मंगवा लेते हैं. पर सुना है तुम लोग लाजवाब बिरयानी बनाते हो.’’

‘‘डोंट वरी, आंटी, ऐसी जरूरत हो तो एक दिन पहले बता देना, अम्मी आ कर बना देंगी. पर आप तो बिलकुल नहीं बदली हैं, वही साड़ी, सिंदूर और बिंदिया. आप को पता है, हमलोग भी अपनी पार्टी में लहंगेसाड़ी पहन कर इंडियन फिल्मी गानों पर डांस करते हैं. मुझे तो सुर्ख लाल रंग की सितारों वाली साड़ी बहुत अच्छी लगती है.’’

मैं ने कहा, ‘‘उसे 20 डौलर प्रति घंटे के रेट से पे करूंगी’’ इस बात पर वह जोर से हंसने लगी और बोली, ‘‘आप अगर 10 डौलर्स भी देंगी तो हम खुशी से कुबूल करेंगे.’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘कल से ही काम पर आ जाए.’’

अगले दिन से जाहिरा काम पर आने लगी. सभी काम पूरे मन लगा कर हंसतेहंसते करती और मैं भी संतुष्ट थी. हर शुक्रवार की शाम को उस को वीकली पेमैंट कर देती जैसा कि यहां का पार्टटाइम वर्क पेमैंट का नौर्मल तरीका है.

एक दिन जाहिरा अपनी मां को ले कर आई. दुआसलाम के बाद उसकी मां ने कहा, ‘‘बहनजी, अगले सप्ताह से मैं ही काम किया करूंगी. बेटी को फुलटाइम काम मिल गया है. अभी सीजन है. अमेरिका में मौल्स और स्टोर्स में फैस्टिवल सीजन में बिक्री बहुत बढ़ जाती है, इसलिए 3-4 महीने अक्तूबर से दिसंबर या जनवरी तक उन्हें एक्स्ट्रा स्टाफ चाहिए होता है. जाहिरा ने मुझे सारे काम और जगहें, जहां जाना होता है, बता दिया है. आप को कोई एतराज तो नहीं?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे कोई एतराज नहीं है. मगर तुम भी तो कहीं काम करती हो?’’

‘‘हां, वह पार्टटाइम जौब है, सुबह 9 से 12 बजे तक का.’’

मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने कहा, ‘‘आबिदा.’’

अगले सप्ताह से आबिदा ही काम पर आती. मेरी बेटी अनीता तो उस के आने से ज्यादा ही खुश थी. कभीकभी किचन में एक्स्ट्रा हैल्प भी कर दिया करती थी. कुछ दिनों के बाद मेरे नाती का जन्मदिन था. जैसा कि अमेरिका में होता है, पार्टी छुट्टी के दिन इतवार को ही रखी गई थी. हालांकि घर पर उस का सही जन्मदिन 2 दिनों पहले ही मना लिया गया था. मैं ने आबिदा को इतवार को सपरिवार आने का निमंत्रण दिया. पार्टी तो शाम को थी पर मैं ने उसे जल्द ही आने को कहा क्योंकि किचन में उस की मदद की जरूरत थी.

संडे को पार्टी में आबिदा और पठानभाई दोनों आए थे. मैं ने जाहिरा के नहीं आने का कारण पूछा तो उस ने कहा कि जाहिरा घर पर अपने बीमार चाचू की देखभाल कर रही है.

आबिदा की बनाई बिरयानी और वेज कोरमे की सभी तारीफ कर रहे थे. उस दिन मेरा बेटा भी आया था. वह फ्रेमौंट के पास सैन होजे शहर में रहता है. उस का परिवार भी पठान परिवार से मिला.

अनीता पठानभाई से अलग से भी मिली और आदर के साथ दोनों हाथ जोड़ कर ‘नमस्ते काबुलीवाले अंकल’ भी कहा. फिर मैं ने नाती को बुला कर उसे नमस्कार करने को कहा. मेरा नाती झुक कर उस के पैर छूने जा रहा था तो उस ने नाती को बीच में ही रोक कर ढेर सारे आशीष दिए और गिफ्ट दे कर कहा, ‘‘यही तो खासीयत है हिंदुस्तान की तहजीब में, मेहमानों की इज्जत करना और बड़ों का आदर करना. आप का वतन और हिंदुस्तानी लोग बहुत अच्छे हैं, बहनजी.’’

जब आबिदा और पठानभाई जाने लगे तो हम सभी परिवार के लोग उन्हें दरवाजे तक विदा करने आए. उन्हें रिटर्न गिफ्ट दिए. जाहिरा के लिए अलग से 2 पैकेट दिए. एक में उस के लिए खाना था और दूसरे में जाहिरा के लिए लाल रंग की साड़ी. साड़ी देख कर दोनों बहुत खुश हुए और कहा, ‘‘आप ने जो इज्जत दी, उस के लिए शुक्रिया. आप की तहजीब को सलाम.’’

वे दोनों अपनी आंखों में खुशी के आंसू लिए भारतीय तरीके से हाथ जोड़ कर विदा हुए.

शरीफ गवाह : जब कोर्ट पहुंचा एक अनूठा गवाह

‘जमालपुर जाने वाली 2746 डाउन रेलगाड़ी प्लेटफार्म नंबर 1 के बजाय प्लेटफार्म नंबर 3 पर आएगी.’ लाउडस्पीकर से जब यह आवाज आई, तो प्लेटफार्म नंबर 1 पर रेलगाड़ी का इंतजार कर रहे मुसाफिरों में अफरातफरी मच गई. सब पुल की सीढि़यां चढ़ कर प्लेटफार्म नंबर 3 पर पहुंचे.

अवतार शरण भी अपना ब्रीफकेस थामे हांफतेहांफते सीढ़ियां चढ़ रहे थे. उन की उम्र 50 साल थी. शरीर थोड़ा सा भारी था.

किसी नौजवान के समान सीढि़यां चढ़नाउतरना उन की उम्र के माफिक नहीं था, मगर मजबूरी थी. सफर के दौरान ऐसी बातें होना आम है.

अवतार शरण का मोटर के कलपुरजों और स्पेयर पार्ट्स का थोक का कारोबार था. हफ्ते के आखिर में और्डर लेने और पिछली उगाही के लिए वे आसपास के कसबों और शहरों के लिए निकलते थे.

घर लौटते समय कभी शाम हो जाती, कभी आधी रात भी. जब से मोबाइल फोन का चलन हुआ था, एक फायदा यह हुआ था कि वे घर पर देर से लौटने की खबर कर देते थे.

‘खेद से सूचित किया जाता है कि जमालपुर वाली रेललाइन की फिश प्लटें निकल गई हैं, इसलिए आज जमालपुर वाली 2746 डाउन रेलगाड़ी रद्द की जाती है,’ लाउडस्पीकर पर यह सुन कर सब के चेहरे लटक गए.

अब क्या करें? रेलगाड़ी रद्द हो गई थी. बस से जाने का समय भी नहीं था. यह कसबा छोटा सा था. रेलवे स्टेशन का वेटिंग रूम ठीकठाक था, मगर कोई इंतजार नहीं कर सकता था.

‘‘चौक से शायद मैक्सी कैब मिल जाएगी,’’ एक मुसाफिर ने कहा. सब फिर से पुल की सीढि़यां चढ़ कर रेलवे स्टेशन के मेन गेट की ओर लपके.

अवतार शरण भी धीमी चाल से चल रहे थे. रेलवे स्टेशन से कसबे के चौक का 5 मिनट का पैदल रास्ता था. स्टेशन के बाहर एक कतार में कई रिकशे वाले सवारी की आस में खड़े थे. रिकशे वालों ने उम्मीद भरी नजरों से मुसाफिरों की तरफ देखा.

‘‘पैदल चलो जी. 5 मिनट की तो बात है. ये रिकशे वाले भी जरा से रास्ते के लिए 10-20 रुपए मांग लेते हैं,’’ एक मुसाफिर के कहने पर रिकशा करने की तैयारी कर रहे लोग भी पीछे हट गए.

मगर अवतार शरण के लिए पैदल चलना मुश्किल था. उन्होंने एक रिकशे वाले से पूछा, ‘‘चौक का क्या लोगे?’’

‘‘10 रुपए,’’ रिकशे वाले ने कहा.

‘‘10 रुपए…’’ वह कुछ सोचते हुए रिकशे में बैठ गए.

‘‘चौक में कहां जी?’’ रिकशे वाले ने पूछा.

‘‘जमालपुर के लिए मैक्सी कैब पकड़नी है.’’

‘‘मिल जाएगी जी. चौक में हर तरफ की कैब तैयार मिलती हैं,’’ रिकशे वाले ने कहा.

2 मिनट बाद चौक की तरफ कतार में खड़ी कई मैक्सी कैब के पास रिकशा रोक कर रिकशे वाले ने एक कैब की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘लालाजी, वह कैब जमालपुर जाएगी.’’

कैब के समीप पहुंचते ही एक नौजवान बोला, ‘‘आइएआइए सेठजी, सिर्फ 2 सवारियों की जगह बाकी है.’’

अवतार शरण ने पिछले दरवाजे से मैक्सी कैब के अंदर झांका. ठसाठस सवारियां भर रखी थीं, मानो सब भेड़बकरियां हों, मगर किसी सवारी को एतराज नहीं था.

अवतार शरण कैब के भीतर दाखिल हुए. एक सीट अभी भी खाली थी. उन के बैठते ही एक आदमी और आया. उस के बैठते ही एक नौजवान ने दरवाजा अच्छी तरह बंद किया और पायदान पर पैर टिका कर छत का सिरा पकड़ कर खड़ा हो गया और छत थपथपाई. कैब का इंजन एक झटके से चल पड़ा.

कसबे के बाजारों से निकल कर कैब शहर के बाहर जाती डाबर की पक्की सड़क पर आई और सरपट दौड़ने लगी.

‘‘जमालपुर कितनी देर में आ जाएगा?’’ एक मुसाफिर ने अवतार शरण से पूछा.

‘‘गाड़ी तो पौना घंटा लेती है.’’

‘‘इस में भी पौन घंटा ही लगता है,’’ दरवाजे से लटका वह नौजवान बोला.

अभी 15-20 मिनट का ही सफर हुआ था कि एकाएक कैब धीमी होती थम गई. सड़क के बीचोंबीच एक पुलिस की जिप्सी खड़ी थी. तीनसितारा वरदी पहने एक पुलिस इंस्पैक्टर जिप्सी से टेक लगाए खड़ा था. 3 सिपाही हाथ में ‘ठहरें’ का सिगनल थामे थे.

कैब के रुकते ही सिपाहियों ने कैब को घेर लिया. अवतार शरण के सामने बैठे अधेड़ उम्र के एक आदमी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘सब उतर कर एक तरफ खड़े हो जाओ. तलाशी होगी,’’ पुलिस इंस्पैक्टर की रोबदार आवाज गूंजी. सब धीरेधीरे उतर कर एक तरफ खड़े हो गए.

औरतों की तरफ एक सरसरी नजर डाल कर उन को कैब में बैठने का इशारा किया. फिर सब मर्दों की तलाशी शुरू हुई. अवतार शरण गंभीर हो गए. हाथ में थामे ब्रीफकेस में उगाही से आई अच्छी रकम थी.

एक सिपाही ने अवतार शरण को ब्रीफकेस खोलने का इशारा किया और ब्रीफकेस में रखी रकम देख कर चौंका.

‘‘कहां से आए हैं आप?’’

‘‘जी, मैं जमालपुर का हूं?’’

‘‘क्या काम करते हैं?’’

‘‘स्पेयर पार्ट्स का कारोबारी हूं.’’

‘‘ठीक है, बंद कीजिए.’’

इस के बाद साथ खड़े मुसाफिर के हाथ में पकड़ा एयर बैग खोलने का इशारा किया. वह हिचकिचाया और बोला, ‘‘इस में कुछ नहीं है.’’

‘‘कोई बात नहीं, आप खोल कर तो दिखाइए.’’

उस एयर बैग से पौलिथिन की थैलियों में बंद अफीम मिली. उस को हिरासत में ले कर हथकडि़यां डाल दी गईं. पुलिस को किसी मुखबिर ने खबर दी थी, इसलिए पुलिस की चैकिंग चल रही थी. अफीम तस्कर पकड़ा गया था. साथ में दूसरे मर्द मुसाफिरों के लिए परेशानी हो गई थी. औरतों को जाने दिया गया.

मर्द मुसाफिरों को बतौर गवाह अपना नामपता, मोबाइल नंबर दर्ज कराने के लिए कहा गया. एक डायरी में एक सिपाही सब के नामपते दर्ज करता गया और मुसाफिर कैब में बैठते गए.

अफीम तस्कर को ले कर पुलिस की जिप्सी चली गई.

कैब भी अपनी मंजिल की ओर चल पड़ी. अपने घर जमालपुर पहुंच कर इस घटना को एक मामूली सा वाकिआ समझ कर अवतार शरण भूल गए. मगर क्या यह वाकिआ सचमुच मामूली था?

एक दोपहर स्थानीय अदालत से एक चपरासी एक समन ले आया.

‘‘अवतार शरण आप ही हैं न?’’

‘‘जी हां, क्या बात है?’’ अवतार शरण ने चौंक कर पूछा.

‘‘आप के नाम समन है.’’

‘‘समन…?’’ चौंक कर अवतार शरण ने पूछा.

‘‘जी हां, चमनगढ़ की फौजदारी अदालत से है.’’

‘‘फौजदारी अदालत, चमनगढ़…’’

‘‘मेरा मतलब मजिस्ट्रेट के कोर्ट से,’’ चपरासी ने कहा.

‘‘क्यों? मैं ने क्या किया? मैं तो कभी चमनगढ़ नहीं गया.’’

‘‘कियाधरा का मामला नहीं है. आप को शिनाख्त करनी है और गवाही देनी है,’’ चपरासी बोला.

‘‘किस की शिनाख्त? किस की गवाही?’’

‘‘यह आप कोर्ट जा कर पता करना,’’ चपरासी ने समन थमाया और डायरी खोल कर सामने रख दी.

अवतार शरण ने बेमन से दस्तखत किए और समन ले लिया.

अवतार शरण का वास्ता कभी किसी अदालत और मुकदमे से नहीं पड़ा था, इसलिए वे उलझन में थे. पास के दुकानदार उम्रदराज थे, अनुभवी थे. वे समन ले कर उन के पास गए.

‘‘अवतार शरण, यह मामला शिनाख्त और गवाही का है. धाराएं नहीं लिखी हैं. सिर्फ मुकदमा नंबर, तारीख और मुलजिम का नाम है,’’ पड़ोसी दुकानदार नारायण दास ने समन पढ़ कर कहा.

‘‘चमनगढ़ की अदालत से समन आया है. मैं वहां कभी नहीं गया. अब मैं क्या करूं.’’

‘‘समन तुम्हें मिल गया है. तारीख पर कोर्ट में जा कर शिनाख्त कर आना और गवाही दे आना.’’

‘‘मैं मुलजिम को जानतापहचानता नहीं. मुझे इस मामले का कुछ भी नहीं पता.’

‘‘पुलिस अदालत के बाहर आवाज पड़ने से पहले शिनाख्त करवा देगी और गवाही जैसे पुलिस कहे वैसे ही दे देना.’’

‘‘और अगर मैं नहीं गया तो…?’’

‘‘तब तो कोर्ट से तेरे नाम जमानती वारंट आएगा.’’

‘‘जमानती वारंट?’’ यह सुन कर अवतार शरण घबरा गए.

‘‘हां, पहले जमानती वारंट, फिर भी नहीं गए, तो गैरजमानती वारंट. तुम्हें गिरफ्तार कर के अदालत में पेश करेंगे,’’ नारायण दास उस के मुश्किल हालात के मजे ले रहे थे.

उतरा हुआ चेहरा लिए अवतार शरण अपनी दुकान पर जा बैठे. थोड़ी देर बाद उन का बेटा टिफिन ले कर आया और अपने पापा का उतरा हुआ चेहरा देख कर चौंका.

‘‘पापाजी, क्या हुआ? क्या तबीयत खराब है?’’ बेटे ने पूछा.

‘‘नहीं, यह कोर्ट का समन चपरासी दे गया है,’’ अवतार शरण ने कहा.

बेटे ने उस समन को लिया और पढ़ने लगा. उस की भी समझ में कुछ नहीं आया. बेटा बोला, ‘‘पापाजी, किसी वकील से सलाह करते हैं.’’

‘‘वकील से सलाह? कौन से वकील से? इस में तो काफी खर्चा होगा.’’

‘‘सलाह की क्या फीस? ऐसा तो बड़े शहरों के बड़े वकील करते हैं.’’

पड़ोसी दुकानदार नारायण दास के एक परिचित वकील ने यही कहा. समन मिलने पर अवतार शरण को कोर्ट जाना ही पड़ेगा.

तय तारीख पर अवतार शरण अपने बड़े बेटे के साथ पड़ोस के कसबे चमनगढ़ की अदालत में पहुंचे. कसबा एक तहसील था, इसलिए वहां एक फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट ही बैठते थे. अदालत परिसर पुराने जमाने का साफसुथरा था. अवतार शरण को देखते ही एक दोसितारा वरदीधारी सबइंस्पैक्टर उन के पास आया.

‘‘अवतार शरण जमालपुर वाले?’’

‘‘जी हां,’’ उन्होंने समन दिखाते हुए कहा.

‘‘आप को अफीम के तस्कर शमशेर सिंह की शिनाख्त करनी है.’’

‘‘अफीम का तस्कर? ओह वही, जो  मैक्सी कैब में पकड़ा गया था?’’

‘‘जी हां, वही.’’

‘‘मगर मैं उस को अब कैसे पहचानूंगा. 3 महीने पहले मैं ने उसे थोड़ी देर ही देखा था.’’

‘‘हम यहां हवालात में उसे आप को दिखा देते हैं. आप अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने शिनाख्त कर देना.’’

अदालत परिसर की हवालात में कई मुलजिम बंद थे. एक को इशारा कर के थानेदार ने सीखचों के नजदीक बुलाया. दाढ़ी वाला अधेड़ उम्र का आदमी सीखचों के पास आ कर खड़ा हुआ.

अवतार शरण ने उस को पहचान लिया. वह वही था, जो मैक्सी कैब में उन के सामने बैठा था. उस के बैग में से अफीम बरामद हुई थी.

उस आदमी ने मायूसी से उन की तरफ देखा. उस की आंखों में उदासी का भाव था. अवतार शरण ने उसे गौर से देखा और फिर मुड़ आए.

अदालत का समय होने में अभी देर थी. दरवाजे के ऊपर मजिस्ट्रेट के नाम व पद की नेमप्लेट लगी थी. पुलिस इंस्पैक्टर थोड़ी दूर ही खड़ा था. पेशी के लिए आसामी इधरउधर बैठे गपशप कर रहे थे.

‘‘इस मुकदमे में क्या मैं अकेला गवाह हूं?’’ इधरउधर देखते हुए अवतार शरण ने पूछा.

‘‘जी नहीं, 3 गवाह और हैं.’’ ‘‘सिर्फ 4 गवाह. मैक्सी कैब में तो 15-20 आदमी थे,’’ तनिक हैरानी से उन्होंने कहा.

‘‘कुल 6 गवाह नामजद थे, मगर 12 के नामपते फर्जी निकले थे.’’

इंस्पैक्टर के इस जवाब से अवतार शरण और उन के साथ खड़ा बड़ा बेटा और दूसरे लोग हैरान हो गए.

अवतार शरण खामोश हो गए. यह पूछने का फायदा नहीं था कि उन सब ने अपना नामपता क्यों फर्जी बताया था. वे सब समझदार थे. दुनियादार थे. भला कौन कोर्टकचहरी के पचड़े में फंसना चाहता है. अवतार शरण सोच रहे थे कि उन्होंने भी क्यों नहीं दुनियादारी दिखाते हुए अपना नामपता फर्जी लिखवा दिया, वरना वे भी इस कोर्टकचहरी और गवाही के चक्कर में फंसने से बच जाते.

तभी अदालत का समय हो गया. चपरासी कमरे से बाहर आया. मुकदमों से संबंधित लोगों के नाम ले कर आवाज देने लगा. अफीम के तस्कर के नाम से आवाज पड़ी. 2 सिपाही उसे ले कर आगे बढ़े. एक कठघरे में अवतार शरण खड़े हो गए. सामने वाले कठघरे में मुलजिम शमशेर सिंह था.

नौजवान मजिस्ट्रेट ने गवाह और मुलजिम की तरफ देखा. सरकारी वकील आगे बढ़ा और बोला, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘अवतार शरण.’’

‘‘कहां रहते हैं आप?’’

‘‘जमालपुर.’’

‘‘काम क्या करते हैं?’’

‘‘मेरा स्पेयर पार्ट्स का थोक का कारोबार है.’’

‘‘मुलजिम को पहचानते हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘एक महीने पहले जमालपुर जाने वाली मैक्सी कैब में मेरे साथ था.’’

‘‘पहले से जानते थे?’’

‘‘नहीं.’’

इस के बाद सवालों का सिलसिला चला. सब सवालजवाब एक तरफ बैठा रीडर सादा कागज पर लिखता जा रहा था. शिनाख्त और गवाही पूरी हुई. अवतार शरण ने सांस भरी कि चलो, मामला निबटा.

मगर मामला कहां निबटा था. रीडर ने अगली तारीख डालते हुए कहा, ‘‘आप अगली पेशी पर आइए.’’

‘‘अगली पेशी पर क्यों?’’ अवतार शरण ने पूछा.

‘‘आप से बचाव पक्ष का वकील जिरह करेगा.’’

अवतार शरण का चेहरा फिर से गंभीर हो चला. वे बेटे के साथ बाहर चले आए.

अगली पेशी पर मजिस्टे्रट छुट्टी पर था. नई तारीख पड़ गई. नई तारीख पर बचाव पक्ष का वकील बीमार था. फिर तारीख पड़ गई. फिर यह सिलसिला बन गया. तकरीबन 3 साल तक अदालत जाना पड़ा. उस के बाद उन का यह पचड़ा निबट गया.

अपने कारोबार के सिलसिले में अवतार शरण पहले की तरह कभी बस से, कभी रेलगाड़ी से और कभी मैक्सी कैब से भी आतेजाते रहे.

इस दौरान उन की मुलाकात मैक्सी कैब में अफीम तस्कर के खिलाफ गवाह बनाए आदमियों से भी हुई. वे सब कम पढ़ेलिखे और देहाती थे. मगर अवतार शरण जैसे काफी पढ़ेलिखे और शहरी के मुकाबले में ज्यादा दुनियादार थे.

इस मामले पर पूछने पर उन में से एक ने कहा, ‘‘पुलिस और थाना कचहरी के चक्कर में कौन पड़ता है जी. हम ने अपना नामपता फर्जी दे दिया. हमारा पिंड छूट गया. जिन का नामपता असली था, वे भी थाने के मुंशी को 2-4 सौ रुपए टिका कर अपना नाम कटवा

आए थे. कोर्ट की पेशी को कौन भुगते?’’

अवतार शरण एकटक उन समझदार देहातियों को देख रहे थे.

अकाल्पनिक : ये थी रिश्तों की असली हकीकत

रक्षाबंधन से एक रोज पहले ही मयंक को पहली तन्ख्वाह मिली थी. सो, पापामम्मी के उपहार के साथ ही उस ने मुंहबोली बहन चुन्नी दीदी के लिए सुंदर सी कलाई घड़ी खरीद ली.

‘‘सारे पैसे मेरे लिए इतनी महंगी घड़ी खरीदने में खर्च कर दिए या मम्मीपापा के लिए भी कुछ खरीदा,’’ चुन्नी ने घड़ी पहनने के बाद पूछा.

‘‘सब के लिए खरीदा है, दीदी, लेकिन अभी दिया नहीं है. शौपिंग करने और दोस्तों के साथ खाना खाने के बाद रात में बहुत देर से लौटा था. तब तक सब सो चुके थे. अभी मां ने जगा कर कहा कि आप आ गई हैं और राखी बांधने के लिए मेरा इंतजार कर रही हैं, फिर आप को जीजाजी के साथ उन की बहन के घर जाना है. सो, जल्दी से यहां आ गया, अब जा कर दूंगा.’’

‘‘अब तक तो तेरे पापा निकल गए होंगे राखी बंधवाने,’’ चुन्नी की मां ने कहा.

‘‘पापा तो कभी कहीं नहीं जाते राखी बंधवाने.’’

‘‘तो उन के हाथ में राखी अपनेआप से बंध जाती है? हमेशा दिनभर तो राखी बांधे रहते हैं और उन्हीं की राखी देख कर तो तूने भी राखी बंधवाने की इतनी जिद की कि गीता बहन और अशोक जीजू को चुन्नी को तेरी बहन बनाना पड़ा.’’ चुन्नी की मम्मी श्यामा बोली.

‘‘तो इस में गलत क्या हुआ, श्यामा आंटी, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं मुझे. अच्छा दीदी, आप को देर हो रही होगी, आप चलो, अगली बार आओ तो जरूर देखना कि मैं ने क्या कुछ खरीदा है, पहली तन्ख्वाह से,’’ मयंक ने कहा. मयंक के साथ ही मांबेटी भी बाहर आ गईं. सामने के घर के बरामदे में खड़े अशोक की कलाई में राखी देख कर श्यामा बोली, ‘‘देख, बंधवा आए न तेरे पापा राखी.’’

‘‘इतनी जल्दी आप कहां से राखी बंधवा आए पापा?’’ मयंक ने हैरानी से पूछा.

‘‘पीछे वाले मंदिर के पुजारी बाबा से,’’ गीता फटाक से बोली.

मयंक को लगा किअशोक ने कृतज्ञता से गीता की ओर देखा. ‘‘लेकिन पुजारी बाबा से क्यों?’’ मयंक ने पूछा. ‘‘क्योंकि राखी के दिन अपनी बहन की याद में पुजारी बाबा को ही कुछ दे सकते हैं न,’’ गीता बोली. ‘‘तू नाश्ता करेगा कि श्यामा बहन ने खिला दिया?’’

‘‘खिला दिया और आप भी जो चाहो खिला देना मगर अभी तो देखो, मैं क्या लाया हूं आप के लिए,’’ मयंक लपक कर अपने कमरे में चला गया. लौटा तो उस के हाथ में उपहारों के पैकेट थे.

‘‘इस इलैक्ट्रिक शेवर ने तो हर महीने शेविंग का सामान खरीदने की आप की समस्या हल कर दी,’’ अपना हेयरड्रायर सहेजती हुई गीता बोली.

‘‘हां, लेकिन उस से बड़ी समस्या तो पुजारी बाबा का नाम ले कर तुम ने हल कर दी,’’ अशोक की बात सुन कर अपने कमरे में जाता मयंक ठिठक गया. उस ने मुड़ कर देखा, मम्मीपापा बहुत ही भावविह्वल हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. उस ने टोकना ठीक नहीं समझा और चुपचाप अपने कमरे में चला गया. बात समझ में तो नहीं आई थी पर शीघ्र ही अपने नए खरीदे स्मार्टफोन में व्यस्त हो कर वह सब भूल गया.

एक रोज कंप्यूटर चेयरटेबल खरीदते हुए शोरूम में बड़े आकर्षक डबलबैड नजर आए. मम्मीपापा के कमरे में थे तो सिरहाने वाले पलंग मगर दोनों के बीच में छोटी मेज पर टेबललैंप और पत्रिकाएं वगैरा रखी रहती थीं. क्यों न मम्मीपापा के लिए आजकल के फैशन का डबलबैड और साइड टेबल खरीद ले. लेकिन डिजाइन पसंद करना मुश्किल हो गया. सो, उस ने मम्मीपापा को दिखाना बेहतर समझा. डबलबैड के ब्रोशर देखते ही गीता बौखला गई, ‘‘हमें हमारे पुराने पलंग ही पसंद हैं, हमें डबलवबल बैड नहीं चाहिए.’’

‘‘मगर मुझे तो घर में स्टाइलिश फर्नीचर चाहिए. आप लोग अपनी पसंद नहीं बताते तो न सही, मैं अपनी पसंद का बैडरूम सैट ले आऊंगा,’’ मयंक ने दृढ़स्वर में कहा.

गीता रोंआसी हो गई और सिटपिटाए से खड़े अशोक से बोली, ‘‘आप चुप क्यों हैं, रोकिए न इसे डबलबैड लाने से. यह अगर डबलबैड ले आया तो हम में से एक को जमीन पर सोना पड़ेगा और आप जानते हैं कि जमीन पर से न आप आसानी से उठ सकते हैं और न मैं.’’

‘‘लेकिन किसी एक को जमीन पर सोने की मुसीबत क्या है?’’ मयंक ने झुंझला कर कहा, ‘‘पलंग इतना चौड़ा है कि आप दोनों के साथ मैं भी आराम से सो सकता हूं.’’

‘‘बात चौड़ाई की नहीं, खर्राटे लेने की मेरी आदत की है, मयंक. दूसरे पलंग पर भी तुम्हारी मां मेरे खर्राटे लेने की वजह से मुंहसिर लपेट कर सोती है. मेरे साथ एक कमरे में सोना तो उस की मजबूरी है, लेकिन एक पलंग पर सोना तो सजा हो जाएगी बेचारी के लिए. इतना जुल्म मत कर अपनी मां पर,’’ अशोक ने कातर स्वर में कहा.

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी,’’ कह कर मयंक मायूसी से अपने कमरे में चला गया और सोचने लगा कि बचपन में तो अकसर कभी मम्मी और कभी पापा के साथ सोता था और अभी कुछ महीने पहले अपने कमरे का एअरकंडीशनर खराब होने पर जब फर्श पर गद्दा डाल कर मम्मीपापा के कमरे में सोया था तो उसे तो पापा के खर्राटों की आवाज नहीं आई थी.

मम्मीपापा वैसे ही बहुत परेशान लग रहे थे, जिरह कर के उन्हें और व्यथित करना ठीक नहीं होगा. जान छिड़कते हैं उस पर मम्मीपापा. मम्मी के लिए तो उस की खुशी ही सबकुछ है. ऐसे में उसे भी उन की खुशी का खयाल रखना चाहिए. उस के दिमाग में एक खयाल कौंधा, अगर मम्मीपापा को आईपैड दिलवा दे तो वे फेसबुक पर अपने पुराने दोस्तों व रिश्तेदारों को ढूंढ़ कर बहुत खुश होंगे.

हिमाचल में रहने वाले मम्मीपापा घर वालों की मरजी के बगैर भाग कर शादी कर के, दोस्तों की मदद से अहमदाबाद में बस गए थे. न कभी स्वयं घर वालों से मिलने गए और न ही उन लोगों ने संपर्क करने की कोशिश की. वैसे तो मम्मीपापा एकदूसरे के साथ अपने घरसंसार में सर्वथा सुखी लगते थे, मयंक के सौफ्टवेयर इंजीनियर बन जाने के बाद पूरी तरह संतुष्ट भी. फिर भी गाहेबगाहे अपनों की याद तो आती ही होगी.

‘‘क्यों भूले अतीत को याद करवाना चाहता है?’’ गीता ने आईपैड देख कर चिढ़े स्वर में कहा, ‘‘मुझे गड़े मुर्दे उखाड़ने का शौक नहीं है.’’

‘‘शौक तो मुझे भी नहीं है लेकिन जब मयंक इतने चाव से आईपैड लाया है तो मैं भी उतने ही शौक से उस का उपयोग करूंगा,’’ अशोक ने कहा.

‘‘खुशी से करो, मगर मुझे कोई भूलाबिसरा चेहरा मत दिखाना,’’ गीता ने जैसे याचना की.

‘‘लगता है मम्मी को बहु कटु अनुभव हुए हैं?’’ मयंक ने अशोक से पूछा.

‘‘हां बेटा, बहुत संत्रास झेला है बेचारी ने,’’ अशोक ने आह भर कर कहा.

‘‘और आप ने, पापा?’’

‘‘मैं ने जो भी किया, स्वेच्छा से किया, घर वाले जरूर छूटे लेकिन उन से भी अधिक स्नेहशील मित्र और सब से बढ़ कर तुम्हारे जैसा प्यारा बेटा मिल गया. सो, मुझे तो जिंदगी से कोईर् शिकायत नहीं है,’’ अशोक ने मुसकरा कर कहा.

कुछ समय बाद मयंक की, अपनी सहकर्मी सेजल मेहता में दिलचस्पी देख कर गीता और अशोक स्वयं मयंक के लिए सेजल का हाथ मांगने उस के घर गए.‘‘भले ही हम हिमाचल के हैं पर वर्षों से यहां रह रहे हैं, मयंक का तो जन्म ही यहीं हुआ है. सो, हमारा रहनसहन आप लोगों जैसा ही है, सेजल को हमारे घर में कोई तकलीफ नहीं होगी, जयंतीभाई,’’ अशोक ने कहा.

‘‘सेजल की हमें फिक्र नहीं है, वह अपने को किसी भी परिवेश में ढाल सकती है,’’ जयंतीभाई मेहता ने कहा. ‘‘चिंता है तो बस उस के दादादादी की, अपनी परंपराओं को ले कर दोनों बहुत कट्टर हैं. हां, अगर शादी उन के बताए रीतिरिवाज के अनुसार होती है तो वे इस रिश्ते के लिए मना नहीं करेंगे.’’

‘‘वैसे तो हम कोई रीतिरिवाज नहीं करने वाले थे, पर सेजल की दादी की खुशी के लिए जैसा आप कहेंगे, कर लेंगे,’’ गीता ने सहजता से कहा, ‘‘आप बस जल्दी से शादी की तारीख तय कर के हमें बता दीजिए कि हमें क्या करना है.’’

सब सुनने के बाद मयंक ने कहा, ‘‘यह आप ने क्या कह दिया, मम्मी, अब तो उन के रिवाज के अनुसार, सेजल की मां, दादी, नानी सब को मेरी नाक पकड़ कर मेरा दम घोंटने का लाइसैंस मिल गया.’’

गीता हंसने लगी, ‘‘सेजल के परिवार से संबंध जोड़ने के बाद उन के तौरतरीकों और बुजुर्गों का सम्मान करना तुम्हारा ही नहीं, हमारा भी कर्तव्य है.’’ गीता बड़े उत्साह से शादी की तैयारियां करने लगी. अशोक भी उतने ही हर्षोल्लास से उस का साथ दे रहा था.

शादी  से कुछ रोज पहले, मेहता दंपत्ती उन के घर आए. ‘‘शादी से पहले हमारे यहां हवन करने का रिवाज है, जिस में आप का आना अनिवार्य है,’’ जयंतीभाई ने कहा, ‘‘आप को रविवार को जब भी आने में सुविधा हो, बता दें, हम उसी समय हवन का आयोजन कर लेंगे. वैसे हवन में अधिक समय नहीं लगेगा.’’

‘‘जितना लगेगा, लगने दीजिए और जो समय सेजल की दादी को हवन के लिए उपयुक्त लगता है, उसी समय  करिए,’’ गीता, अशोक के बोलने से पहले ही बोल पड़ी.

‘‘बा, मेरा मतलब है मां तो हमेशा हवन ब्रह्यबेला में यानी ब्रैकफास्ट से पहले ही करवाती हैं.’’ जयंतीभाई ने जल्दी से पत्नी की बात काटी, कहा, ‘‘ऐसा जरूरी नहीं है, भावना, गोधूलि बेला में भी हवन करते हैं.’’

‘‘सवाल करने का नहीं, बा के चाहने का है. सो, वे जिस समय चाहेंगी और जैसा करने को कहेंगी, हम सहर्ष वैसा ही करेंगे,’’ गीता ने आश्वासन दिया.

‘‘बस, हम दोनों के साथ बैठ कर आप को भी हवन करना होगा. बच्चों के मंगल भविष्य के लिए दोनों के मातापिता गठजोड़े में बैठ कर यह हवन करते हैं,’’ भावना ने कहा.

गीता के चेहरे का रंग उड़ गया और वह चाय लाने के बहाने रसोई में चली गई. जब वह चाय ले कर आई तो सहज हो चुकी थी. उस ने भावना से पूछा कि और कितनी रस्मों में वर के मातापिता को शामिल होना होगा?

‘‘वरमाला को छोड़ कर, छोटीमोटी सभी रस्मों में आप को और हमें बराबर शामिल होना पड़ेगा?’’ भावना हंसी, ‘‘अच्छा है न, कुछ देर को ही सही, भागदौड़ से तो छुट्टी मिलेगी.’’

‘‘दोनों पतिपत्नी का एकसाथ बैठना जरूरी होगा?’’ गीता ने पूछा.

‘‘रस्मों के लिए तो होता ही है,’’ भावना ने जवाब दिया.

‘‘वैसा तो हिमाचल में भी होता है,’’ अशोक ने जोड़ा, ‘‘अगर वरवधू के मातापिता में से एक न हो तो विवाह की रस्में किसी अन्य जोड़े चाचाचाची वगैरा से करवाई जाती हैं.’’

‘‘बहनबहनोई से भी करवा सकते हैं?’’ गीता ने पूछा.

‘‘हां, किसी से भी, जिसे वर या वधू का परिवार आदरणीय समझता हो,’’ भावना बोली.

मयंक को लगा कि गीता ने जैसे राहत की सांस ली है. मेहता दंपती के जाने के बाद गीता ने अशोक को बैडरूम में बुलाया और दरवाजा बंद कर लिया. मयंक को अटपटा तो लगा पर उस ने दरवाजा खटखटाना ठीक नहीं समझा. कुछ देर के बाद दोनों बाहर आ गए और गीता फोन पर नंबर मिलाने लगी.

‘‘हैलो, चुन्नी…हां, मैं ठीक हूं…अभी तुम और प्रमोदजी घर पर हो, हम मिलना चाह रहे हैं, तुम्हारे भाई की शादी है. भई, बगैर मिले कैसे काम चलेगा… यह तो बड़ी अच्छी बात है…मगर कितनी भी देर हो जाए आना जरूर, बहुत जरूरी बात करनी है.’’ फोन रख कर गीता अशोक की ओर मुड़ी, ‘‘चुन्नी और प्रमोद दोस्तों के साथ बाहर खाना खाने जा रहे हैं, लौटते हुए यहां आएंगे.’’

‘‘ऐसी क्या जरूरी बात करनी है दीदी से जिस के लिए उन्हें आज ही आना पड़ेगा?’’ मयंक ने पूछा.

गीता और अशोक ने एकदूसरे की ओर देखा. ‘‘हम चाहते हैं कि तुम्हारे विवाह की सब रस्में तुम्हारी चुन्नी दीदी और प्रमोद जीजाजी निबाहें ताकि मैं और गीता मेहमानों की यथोचित आवभगत कर सकें,’’ अशोक ने कहा.

‘‘मेहमानों की देखभाल करने को मेरे बहुत दोस्त हैं और दीदीजीजा भी. आप दोनों की जो भूमिका है यानी मातापिता वाली, आप लोग बस वही निबाहेंगे,’’ मयंक ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘उस में कई बार जमीन पर बैठना पड़ता है जो अपने से नहीं होता,’’ गीता ने कहा.

‘‘जमीन पर बैठना जरूरी नहीं है, चौकियां रखवा देंगे कुशन वाली.’’

‘‘ये करवा देंगे वो करवा देंगे से बेहतर है चुन्नी और प्रमोद से रस्में करवा ले,’’ गीता ने बात काटी. ‘‘तेरी चाहत देख कर हम बगैर तेरे कुछ कहे सेजल से तेरी शादी करवा रहे हैं न, अब तू चुपचाप जैसे हम चाहते हैं वैसे शादी करवा ले.’’

‘‘कमाल करती हैं आप भी, अपने मांबाप के रहते मुंहबोली बहनबहनोई से मातापिता वाली रस्में कैसे करवा लूं्?’’ मयंक ने झल्ला कर पूछा.

‘‘अरे बेटा, ये रस्मेंवस्में सेजल की दादी को खुश करने को हैं, हम कहां मानते हैं यह सब,’’ अशोक ने कहा.

‘‘अच्छा? पुजारी बाबा से राखी किसे खुश करने को बंधवाते हैं?’’ मयंक ने व्यंग्य से पूछा और आगे कहा, ‘‘मैं अब बच्चा नहीं रहा पापा, अच्छी तरह समझ रहा हूं कि आप दोनों मुझ से कुछ छिपा रहे हैं. आप को बताने को मजबूर नहीं करूंगा लेकिन एक बात समझ लीजिए, अपनों का हक मैं मुंहबोली बहन को कभी नहीं दूंगा.’’

‘‘अब बात जब अपनों और मुंहबोले रिश्ते पर आ गई है, गीता, तो हमें मयंक को असलियत भी बता देनी चाहिए,’’ अशोक मयंक की ओर मुड़ा, ‘‘मैं भी तुम्हारा अपना नहीं. मुंहबोला पापा, बल्कि मामा हूं. गीता मेरी मुंहबोली बहन है. मैं किसी पुजारी बाबा से नहीं, गीता से राखी बंधवाता हूं. पूरी कहानी सुनना चाहोगे?’’

स्तब्ध खड़े मयंक ने सहमति से सिर हिलाया. ‘‘मैं और गीता पड़ोसी थे. हमारी कोईर् बहन नहीं थी, इसलिए मैं और मेरा छोटा भाई गीता से राखी बंधवाते थे. अलग घरों में रहते हुए भी एक ही परिवार के सदस्य जैसे थे हम. जब मैं चंडीगढ़ में इंजीनियरिंग कर रहा था तो मेरे कहने पर और मेरे भरोसे गीता के घर वालों ने इसे भी चंडीगढ़ पढ़ने के लिए भेज दिया. वहां यह रहती तो गर्र्ल्स होस्टल में थी लेकिन लोकल गार्जियन होने के नाते मैं इसे छुट्टी वाले दिन बाहर ले जाता था.

‘‘मेरा रूममेट नाहर सिंह राजस्थान के किसी रजवाड़े परिवार से था, बहुत ही शालीन और सौम्य, इसलिए मैं ने गीता से उस का परिचय करवा दिया. कब और कैसे दोनों में प्यार हुआ, कब दोनों ने मंदिर में शादी कर के पतिपत्नी का रिश्ता बना लिया, मुझे नहीं मालूम. जब मैं एमबीए के लिए अहमदाबाद आया तो गीता एक सहेली के घर पर रह कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी. नाहर चंडीगढ़ में ही मार्केटिंग का कोर्स कर रहा था.

‘‘मुझे होस्टल में जगह नहीं मिली थी और मैं एक दोस्त के घर पर रहता था. अचानक गीता मुझे ढूंढ़ती हुई वहां आ गई. उस ने जो बताया उस का सारांश यह था कि उस ने और नाहर ने मंदिर में शादी कर ली थी और उस के गर्भवती होते ही नाहर उसे यह आश्वासन दे कर घर गया था कि वह इमोशनल ब्लैकमेल कर के अपनी मां को मना लेगा और फिर सबकुछ अशोक को बता कर अपने घर वालों को सूचित कर देना.

‘‘उसे गए कई सप्ताह हो गए थे और ढीले कपड़े पहनने के बावजूद भी बढ़ता पेट दिखने लगा था. दिल्ली में कुछ हफ्तों की कोचिंग लेने के बहाने उस ने घर से पैसे मंगवाए थे और मेरे पास आ गई थी. मैं और गीता नाहर को ढूंढ़ते हुए बीकानेर पहुंचे. नाहर का घर तो मिल गया मगर नाहर नहीं, वह अपने साले के साथ शिकार पर गया हुआ था. घर पर उस की पत्नी थी. सुंदर और सुसंस्कृत, पूछने पर कि नाहर की शादी कब हुई, उस ने बताया कि चंडीगढ़ जाने से पहले ही हो गईर् थी. नाहर के आने का इंतजार किए बगैर हम वापस अहमदाबाद आ गए.

‘‘समय अधिक हो जाने के कारण न तो गीता का गर्भपात हो सकता था और न ही वह घर जा सकती थी. मैं उस से शादी करने और बच्चे को अपना नाम देने को तैयार था. लेकिन न तो यह रिश्ता गीता और मेरे घर वालों को मंजूर होता न ही गीता अपने राखीभाई यानी मुझ को पति मानने को तैयार थी.

‘‘नाहर से गीता का परिचय मैं ने ही करवाया था, सो दोनों के बीच जो हुआ, उस के लिए कुछ हद तक मैं भी जिम्मेदार था. सो, मैं ने निर्णय लिया कि मैं गीता से शादी तो करूंगा, उस के बच्चे को अपना नाम भी दूंगा लेकिन भाईबहन के रिश्ते की गरिमा निबाहते हुए दुनिया के लिए हम पतिपत्नी होंगे, मगर एकदूसरे के लिए भाईबहन. इतने साल निष्ठापूर्वक भाईबहन का रिश्ता निबाहने के बाद गीता नहीं चाहती कि अब वह गठजोड़ा वगैरा करवा कर इस सात्विक रिश्ते को झुठलाए. मैं समझता हूं कि हमें उस की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.’’

‘‘जैसा आप कहें,’’ मयंक ने भर्राए स्वर में कहा, ‘‘आप ने जो किया है, पापा, वह अकाल्पनिक है, जो कोई सामान्य व्यक्ति नहीं महापुरुष ही कर सकता है.’’

कुछ देर बाद वह लौटा और बोला, ‘‘पापा, मैं सेजल की दादी से बता कर आता हूं. हम दोनों अदालत में शादी करेंगे और फिर शानदार रिसैप्शन आप दे सकते हैं. दादी को सेजल ने कैसे बताया, क्या बताया, मुझे नहीं मालूम. पर आप की बात सुन कर वह तुरंत तैयार हो गई.’’

गीता और अशोक ने एकदूसरे को देखा. उन के बेटे ने उन की इज्जत रख ली.

मारे गए गुलफाम : नौकरानी पर आया मालिक का दिल

मुंबई के इंदिरा नगर में बनी वह चाल बड़ी सड़क से समकोण बनाती एक पतली गली के दोनों ओर आबाद थी. इस के दोनों ओर 15-15 खोलियां बनी हुई थीं. इन खोलियों में ज्यादातर वे लोग रहते थे, जो या तो छोटेमोटे धंधे करते थे या किसी के घर में नौकर या नौकरानी का काम करते थे. इस चाल के आसपास गंदगी थी. गली में जगहजगह कूड़ेकचरे के ढेर नजर आते थे. कहींकहीं खोलियों की नालियों का गंदा पानी बहता दिखलाई पड़ता था.

इन खोलियों में रहने वाले लोगों का स्वभाव भी उन की खोलियों की तरह अक्खड़ और गंदा था. वे बातबात पर गालीगलौज करते थे और देखते ही देखते मरनेमारने पर उतारू हो जाते थे.

इन्हीं खोलियों में से एक खोली सुभद्राबाई की भी थी, जो जबान की कड़वी, पर दिल की नेक थी. वह लोगों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी और इसी से अपना गुजारा करती थी.

मुंबई में तो वैसे ही घर में काम करने वाली बाई मुश्किल से मिलती है, ऊपर से सुभद्राबाई जैसी नेक और ईमानदार बाई का मिलना तो किसी चमत्कार जैसा ही था. यही वजह थी कि सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन के मालिक उस के साथ बहुत अच्छा बरताव करते थे और उस की छोटीमोटी मांग तुरंत मान लेते थे.

सुभद्राबाई जिन घरों में काम करती थी, उन में एक घर प्रताप का भी था. उन का महानगर में रेडीमेड गारमैंट्स का कारोबार था, जो खूब चलता था.

प्रताप की उम्र तकरीबन 55 साल थी और उन की पत्नी नंदिनी भी तकरीबन उन्हीं की उम्र की थीं. घर में पतिपत्नी ही रहते थे, क्योंकि उन के दोनों बेटे दूसरे शहरों में नौकरी करते थे और अपने परिवार के साथ वहीं सैटल हो गए थे. नंदिनी अकसर अपने बेटों के पास जाया करती थीं, जबकि प्रताप को अपने कारोबार के चलते इस का मौका कम ही मिलता था.

जब भी नंदिनी अपने बेटों के पास जातीं, सुभद्राबाई की जिम्मेदारियां बढ़ जातीं. ऐसे में उसे घर का काम करने के अलावा प्रताप के लिए खाना भी बनाना पड़ता. पर सुभद्राबाई खुशीखुशी यह जिम्मेदारी संभालती. प्रताप और नंदिनी भी इस के बदले उसे छोटेमोटे तोहफे और नकद पैसे देते रहते थे.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. महानगर की बत्तियां जल उठी थीं, तभी एक टैक्सी इस गली के मुहाने पर आ कर रुकी. टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और उस में से तकरीबन 25 साला एक खूबसूरत लड़की उतरी. शर्ट और जींस में सजी वह दरमियाने कद की एक सुगठित बदन वाली लड़की थी.

टैक्सी की दूसरी ओर का दरवाजा खोल कर तकरीबन 30 साला एक हैंडसम नौजवान निकला. उस नौजवान ने टैक्सी का किराया चुकाया और जब टैक्सी आगे बढ़ गई, तो वे दोनों गली में दाखिल हो गए.

सुभद्राबाई थोड़ी देर पहले अपने काम से लौटी थी और अब खोली में पड़ी चारपाई पर लेट कर अपनी कमर सीधी कर रही थी. बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा देर तक काम करने पर उस की कमर अकड़ जाती थी और ऐसे में उस के लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता था. अचानक किसी ने उस की खोली का दरवाजा खटखटाया. पहले तो वह चौंकी, फिर उठ कर दरवाजा खोल दिया. पर दरवाजा खोलते ही उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. दरवाजे पर 2 अनजान लोग खड़े थे.

‘‘किस से मिलना है आप को?’’ सुभद्राबाई उन्हें गहरी नजरों से देखती हुई बोली.

‘‘क्या आप सुभद्राबाई हैं?’’ लड़की ने पूछा.

‘‘हां,’’ सुभद्राबाई बोली.

‘‘फिर तो हमें आप से ही मिलना है.’’

‘‘पर, मैं ने तो आप लोगों को पहचाना नहीं. कौन हैं आप लोग?’’

‘‘मेरा नाम हिमानी है और ये शमशेर. जहां तक आप का हमें पहचानने का सवाल है, तो उस के पहले हम मिले ही नहीं.’’

‘‘फिर आज?’’

‘‘क्या हमें सारी बातें यहीं दरवाजे पर ही बतलानी पड़ेंगी?’’

‘‘आइए, अंदर आ जाइए,’’ सुभद्राबाई झेंपते हुए बोली.

अंदर सुभद्राबाई ने उन्हें चारपाई पर बिठाया, फिर खोली का दरवाजा बंद कर उन के पास खोली के फर्श पर ही बैठ गई.

‘‘आप भी चारपाई पर बैठिए,’’ उसे फर्श पर बैठता देख लड़की बोली.

‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘आप बोलिए, आप को मुझ से क्या काम है?’’

‘‘काम तो है, वह भी बहुत जरूरी,’’ पहली बार लड़के ने मुंह खोला, ‘‘पर, इस के पहले हम आप को यह बता दें कि हमें आप के बारे में सबकुछ मालूम है. आप किनकिन लोगों के पास काम करती हैं और उन से आप को क्या पगार मिलती है?’’

‘‘यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है.’’

‘‘हम आप के सवाल का जवाब देंगे, पर इस के पहले आप हमारे एक सवाल का जवाब दीजिए.’’

‘‘कौन से सवाल का?’’

‘‘सुभद्राबाई, आप का शरीर जब तक ठीक है, आप लोगों के घरों में काम कर के अपना गुजारा कर लेती हैं, पर जिस दिन आप का शरीर थक जाएगा, उस दिन आप क्या करेंगी?’’

‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी.’’

‘‘मेरा मतलब यह है कि क्या आप अपने काम से इतना पैसा कमा लेती हैं कि अपना बुढ़ापा सही ढंग से बिता सकें?’’

सुभद्राबाई के चेहरे पर परेशानी के भाव उभरे. पिछले कई दिनों से वह भी यही बात सोच रही थी.

‘‘आप चुप क्यों हैं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़का बोला.

‘‘मुझे अपने काम से जो पैसा मिलता है, वह खानेपहनने और खोली का किराया देने में ही खर्च हो जाता है. मैं लाख कोशिश करती हूं कि हर महीने कुछ पैसे बचा लूं, ताकि बुढ़ापे में काम आएं, पर बचा नहीं पाती.’’

‘‘और कभी बचा भी नहीं पाएंगी, क्योंकि मुंबई में हर चीज इतनी महंगी है कि मेहनतमजदूरी करने वाला इनसान कुछ बचा ही नहीं सकता.’’

‘‘तुम बिलकुल ठीक कहते हो बेटा,’’ सुभद्राबाई एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘पर, किया भी क्या जा सकता है?’’

‘‘हम औरों के लिए तो नहीं, पर आप के लिए इतना जरूर कह सकते हैं कि बहुतकुछ किया जा सकता है.’’

‘‘कौन करेगा मेरे लिए और क्यों?’’

‘‘यहां कोई दूसरे के लिए कुछ नहीं करता, अपना भविष्य संवारने के लिए इनसान को खुद ही कुछ करना पड़ता है. अगर आप अपना बुढ़ापा संवारना चाहती हैं, तो आप को ही इस की कोशिश करनी होगी.’’

‘‘पर क्या…’’

‘‘पहले आप यह बतलाइए कि क्या आप अपने भविष्य के लिए कुछ पैसे जोड़ना चाहती हैं?’’

‘‘भला कौन नहीं चाहेगा?’’

‘‘मैं आप की बात कर रहा हूं.’’

‘‘हां.’’

‘‘हम आप को पूरे 50 हजार रुपए देंगे.’’

‘‘50 हजार…?’’ सुभद्राबाई हैरान हो कर बोली.

‘‘हां, पूरे 50 हजार.’’

‘‘इस के लिए मुझे करना क्या होगा?’’

‘‘कुछ खास नहीं,’’ लड़के के बदले लड़की बोली, ‘‘आप को सिर्फ एक महीने के लिए मुझे प्रताप के घर बतौर नौकरानी रखवाना होगा. वह भी तब, जब वह घर में अकेला हो.’’

‘‘पर, क्यों?’’

‘‘तुम 50 हजार रुपए कमाना चाहती हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर वह करो, जो हम चाहते हैं.’’

‘‘लेकिन, तुम बतौर नौकरानी वहां एक महीने रह कर करना क्या चाहती हो?’’

‘‘कुछ न कुछ तो करूंगी ही, पर यह बात हम तुम्हें नहीं बताएंगे.’’

सुभद्राबाई खामोश हो गई. उस के चेहरे पर चिंता की रेखाएं खिंच आई थीं. 50 हजार रुपए की बात सुन कर उस के मन में लालच की भावना जाग उठी थी, पर दूसरी ओर वह उन लोगों की तरफ से दुखी भी थी. न जाने वे प्रताप के साथ क्या करना चाहते थे.

‘‘अब तुम क्या सोचने लगीं?’’ सुभद्राबाई को खामोश देख लड़की बोली.

‘‘पर, तुम कहीं से भी काम वाली बाई नहीं लगती हो,’’ सुभद्राबाई लड़की को सिर से पैर तक देखते हुए बोली.

‘‘यह हमारी सिरदर्दी है. तुम यह बताओ कि तुम यह काम कर सकती हो या नहीं?’’

‘‘तुम्हारा इरादा प्रतापजी को कोई नुकसान पहुंचाना तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘फिर ठीक है,’’ सुभद्राबाई बोली, ‘‘पर, पैसे?’’

‘‘उस दिन तुम्हें पैसे मिल जाएंगे, जिस दिन तुम मुझे बतौर नौकरानी प्रताप के घर रखवा दोेगी.’’

‘‘अरे सुभद्रा, तुम…’’ सुभद्राबाई ने हिमानी के साथ जैसे ही ड्राइंगरूम में कदम रखा, प्रताप बोला, ‘‘पूरे 4 दिन कहां रहीं? तुम सोच भी नहीं सकतीं कि इन 4 दिनों में मुझे कितनी परेशानी उठानी पड़ी. तुम्हें तो मालूम ही है कि तुम्हारी मालकिन आजकल बेटे के पास गई हैं.’’

‘‘मालूम है मालिक,’’ सुभद्राबाई अपने चेहरे पर दर्द का भाव लाती हुई बोली, ‘‘पीठ दर्द से मेरा उठनाबैठना मुश्किल है. डाक्टर को दिखाया, तो दवाओं के साथसाथ पूरे एक महीने तक बैडरैस्ट करने की सलाह दी है.’’

‘‘एक महीना?’’

‘‘पर, आप फिक्र न करें, आप को इस दरमियान कोई तकलीफ न होगी,’’ सुभद्राबाई हिमानी को आगे करते हुए बोली, ‘‘यह मेरी भतीजी हिमानी है. जब तक मैं नहीं आती, यही आप के घर का सारा काम करेगी.’’

प्रताप ने हिमानी पर एक गहरी नजर डाली. खूबसूरत और जवान हिमानी को देख उस की आंखों में एक अनोखी चमक जागी.

‘‘इसे सबकुछ समझा दिया है न?’’ प्रताप ने पूछा.

‘‘जी मालिक?’’

हिमानी प्रताप के घर काम करने आने लगी थी. उसे यहां पर काम करते हुए 10 दिन बीत गए थे. इस बीच उस ने बड़ी मेहनत और लगन से प्रताप के घर का काम किया था और उस की सुखसुविधा का बेहतर खयाल रखा था. उस के इस बरताव से प्रताप बड़े खुश हुए थे. वे हिमानी के साथ बड़ा ही कोमल और अपनापन भरा बरताव करते थे.

सच तो यह था कि हिमानी की खूबसूरती और जवानी ने उन के अधेड़ बदन में एक नई उमंग जगा दी थी और उन्हें हिमानी का साथ मिलने से एक अजीब खुशी मिलती थी.

उस दिन शाम के तकरीबन 7 बजे थे. प्रताप अपने बैडरूम में पलंग पर बैठे थे. हिमानी घुटने के बल झुकी उस के कमरे की सफाई कर रही थी. ऐसे में उस के भारी और गोरे उभारों का ज्यादातर भाग उस के ब्लाउज से बाहर झांक रहा था. प्रताप की निगाहें रहरह कर उस के इन कयामती उभारों की ओर उठ जाया करती थीं और जब भी ऐसा होता, उन के तनबदन में एक हलचल सी मच जाती थी.

हिमानी कहने को तो काम कर रही थी, पर उस का पूरा ध्यान प्रताप की हरकतों पर था. उस की नजरों का भाव समझ कर वह मन ही मन खुश हो रही थी. उसे लग रहा था कि वह जल्द ही प्रताप को अपने शीशे में उतार लेगी और ऐसा होते ही अपना उल्लू सीधा कर यहां से रफूचक्कर हो जाएगी.

हिमानी सफाई का काम कर खड़ी हुई और ऐसा होते ही प्रताप की नजरों से वह नजारा गायब हो गया. इस के बावजूद उन के बदन में जो कामनाओं की आग भड़की थी, उस ने उन्हें हिला दिया था.

प्रताप पलंग से उतरे, फिर आगे बढ़ कर हिमानी को अपनी बांहों में भर लिया. उन की इस हरकत से हिमानी चौंकी, फिर बांहों में कसमसाते हुए बोली, ‘‘यह क्या कर रहे हैं साहब?’’

‘‘हिमानी, तुम बहुत ही खूबसूरत हो,’’ प्रताप जोश से कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारी इस खूबसूरती ने मेरे तनबदन में आग लगा दी है. तुम से लिपट कर मैं अपने तन की इसी आग को बुझाने की कोशिश कर रहा हूं.’’

‘‘पर, यह गलत है.’’

‘‘कुछ गलत नहीं,’’ प्रताप उसे बुरी तरह चूमते, सहलाते हुए बोले.

मन ही मन मुसकराती हिमानी कुछ देर तक उन की बांहों से छूटने का नाटक करती रही, फिर अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. ऐसा होते ही प्रताप ने उसे उठा कर पलंग पर डाला, फिर उस पर सवार हो गए.

भावनाओं का तूफान जब गुजर गया, तो हिमानी रोते हुए बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? मुझे तो बरबाद कर दिया?’’

पलभर तक तो प्रताप के मुंह से बोल न फूटे, फिर वे शर्मिंदा हो कर बोले, ‘‘हिमानी, मुझ से गलती हो गई. मैं अपने आपे में नहीं था. जो कुछ हुआ, उस का मुझे अफसोस है. प्लीज, यह बात सुभद्राबाई को न बतलाना.’’

‘‘आप ने मेरा सबकुछ लूट लिया और अब कह रहे हैं कि बूआ से यह बात न कहूं.’’

‘‘मैं तुम्हें इस की कीमत देने को तैयार हूं.’’

‘‘कीमत…?’’ हिमानी ने गुस्से वाली निगाहों से प्रताप को देखा.

बदले में प्रताप ने तकिए के नीचे से चाबियों का गुच्छा निकाला, फिर कमरे में रखी अलमारी की ओर बढ़ गए. ऐसा होते ही हिमानी के होंठों पर शातिराना मुसकान रेंग उठी. पर जैसे ही उन्होंने सेफ खोली, उस की निगाहें उस पर जम गईं. अलमारी बड़े नोटों और गहनों से भरी थी.

प्रताप हिमानी के करीब आए और तकरीबन जबरदस्ती नोट की गड्डी उस के हाथ पर रखते हुए बोले, ‘‘प्लीज, सुभद्राबाई को कुछ न बतलाना.’’

हिमानी उन्हें पलभर घूरती रही, फिर अपने कपड़े ठीक करने के बाद नोटों की गड्डी ब्लाउज में रखते हुए कमरे से निकल गई.

उस रात प्रताप पूरी रात ढंग से सो न सके. उन्हें यह बात परेशान करती रही कि कहीं हिमानी उन की करतूत सुभद्राबाई को न बतला दे. अगर ऐसा हो गया, तो वे किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहने वाले थे.

पर दूसरे दिन उन्हें तब हैरानी और खुशी का झटका लगा, जब हिमानी हमेशा की तरह काम पर लौट आई. वह बिलकुल सामान्य थी और उसे देख कर ऐसा हरगिज नहीं लगता था कि उस के साथ कुछ ऐसावैसा घटा है. जब 5 दिन तक सबकुछ ठीक रहा, तो छठे दिन रात को प्रताप ने हिमानी को हिम्मत कर के एक बार फिर अपनी बांहों में समेट लिया.

‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’ हिमानी चौंकने का नाटक करती हुई बोली, ‘‘आप ने वादा किया था कि आप दोबारा ऐसी गलती नहीं करेंगे.’’

‘‘मैं क्या करूं हिमानी…’’ प्रताप कांपती आवाज में बोले, ‘‘तुम्हारे हुस्न और जवानी ने मुझे ऐसा पागल किया है कि मैं अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा हूं. प्लीज, मुझे रोको मत… मुझे मेरी प्यास बुझा लेने दो.’’

हिमानी ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. अगले ही पल दोनों  बदन एकदूसरे से चिपक कर पलंग पर अठखेलियां कर रहे थे. इस बार हिमानी भी पूरे जोश के साथ प्रताप का साथ दे रही थी.

हिमानी ने चालाकी से प्रताप को अपने हुस्नजाल में फांस लिया था. जब उसे यकीन हो गया कि शिकार पूरी तरह उस के जाल में फंस गया है, तो एक रात उस ने उस के खाने में बेहोशी की दवा मिलाई और उस की पूरी अलमारी खाली कर रफूचक्कर हो गई. प्रताप को जब सवेरे होश आया और उस ने अपनी अलमारी देखी, तो सिर पीट लिया. लोकलाज के डर से वे पुलिस में भी इस की शिकायत न कर सके.

जन्म समय: एक डौक्टर ने कैसे दूर की शंका

रिसैप्शन रूम से बड़ी तेज आवाजें आ रही थीं. लगा कि कोई झगड़ा कर रहा है. यह जिला सरकारी जच्चाबच्चा अस्पताल का रिसैप्शन रूम था. यहां आमतौर पर तेज आवाजें आती रहती थीं. अस्पताल में भरती होने वाली औरतों के हिसाब से स्टाफ कम होने से कई बार जच्चा व उस के संबंधियों को संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता था.

अस्पताल बड़ा होने के चलते जच्चा के रिश्तेदारों को ज्यादा भागादौड़ी करनी पड़ती थी. इसी झल्लाहट को वे गुस्से के रूप में स्टाफ व डाक्टर पर निकालते थे.

मुझे एक तरह से इस सब की आदत सी हो गई थी, पर आज गुस्सा कुछ ज्यादा ही था. मैं एक औरत की जचगी कराते हुए काफी समय से सुन रहा था और समय के साथसाथ आवाजें भी बढ़ती ही जा रही थीं. मेरा काम पूरा हो गया था. थोड़ा मुश्किल केस था. केस पेपर पर लिखने के लिए मैं अपने डाक्टर रूम में गया.

मैं ने वार्ड बौय से पूछा, ‘‘क्या बात है, इतनी तेज आवाजें क्यों आ रही हैं?’’

‘‘साहब, एक शख्स 24-25 साल पुरानी जानकारी हासिल करना चाहते हैं. बस, उसी बात पर कहासुनी हो रही है.’’ वार्ड बौय ने ऐसे बताया, जैसे कोई बड़ी बात नहीं हो.

‘‘अच्छा, उन्हें मेरे पास भेजो,’’ मैं ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ वह रिसैप्शन रूम की ओर बढ़ गया.

कुछ देर बाद वह वार्ड बौय मेरे चैंबर में आया. उस के साथ तकरीबन 25 साल की उम्र का नौजवान था. वह शख्स थोड़ा पढ़ालिखा लग रहा था. शक्ल भी ठीकठाक थी. पैंटशर्ट में था. वह काफी परेशान व उलझन में दिख रहा था. शायद इसी बात का गुस्सा उस के चेहरे पर था.

‘‘बैठो, क्या बात है?’’ मैं ने केस पेपर पर लिखते हुए उसे सामने की कुरसी पर बैठने का इशारा किया.

‘‘डाक्टर साहब, मैं कितने दिनों से अस्पताल के धक्के खा रहा हूं. जिस टेबल पर जाऊं, वह यही बोलता है कि यह मेरा काम नहीं है. उस जगह पर जाओ. एक जानकारी पाने के लिए मैं 5 दिन से धक्के खा रहा हूं,’’ उस शख्स ने अपनी परेशानी बताई.

‘‘कैसी जानकारी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जन्म के समय की जानकारी,’’ उस ने ऐसे बोला, जैसे कि कोई बड़ा राज खोला.

‘‘किस के जन्म की?’’ आमतौर पर लोग अपने छोटे बच्चे के जन्म की जानकारी लेने आते हैं, स्कूल में दाखिले के लिए.

‘‘मेरे खुद के जन्म की.’’

‘‘आप के जन्म की? यह जानकारी तो तकरीबन 24-25 साल पुरानी होगी. वह इस अस्पताल में कहां मिलेगी. यह नई बिल्डिंग तकरीबन 15 साल पुरानी है. तुम्हें हमारे पुराने अस्पताल के रिकौर्ड में जाना चाहिए.

‘‘इतना पुराना रिकौर्ड तो पुराने अस्पताल के ही रिकौर्ड रूम में होगा, सरकार के नियम के मुताबिक, जन्म समय का रिकौर्ड जिंदगीभर तक रखना पड़ता है.

‘‘डाक्टर साहब, आप भी एक और धक्का खिला रहे हो,’’ उस ने मुझ से शिकायती लहजे में कहा.

‘‘नहीं भाई, ऐसी बात नहीं है. यह अस्पताल यहां 15 साल से है. पुराना अस्पताल ज्यादा काम के चलते छोटा पड़ रहा था, इसलिए तकरीबन 15 साल पहले सरकार ने बड़ी बिल्डिंग बनाई.

‘‘भाई यह अस्पताल यहां शिफ्ट हुआ था, तब मेरी नौकरी का एक साल ही हुआ था. सरकार ने पुराना छोटा अस्पताल, जो सौ साल पहले अंगरेजों के समय बना था, पुराना रिकौर्ड वहीं रखने का फैसला किया था,’’ मैं ने उसे समझाया.

‘‘साहब, मैं वहां भी गया था, पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. बोले, ‘प्रमाणपत्र में सिर्फ तारीख ही दे सकते हैं, समय नहीं,’’’ उस शख्स ने कहा.

आमतौर पर जन्म प्रमाणपत्र में तारीख व जन्मस्थान का ही जिक्र होता है, समय नहीं बताते हैं. पर हां, जच्चा के इंडोर केस पेपर में तारीख भी लिखी होती है और जन्म समय भी, जो घंटे व मिनट तक होता है यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट तक होता है, यानी किसी का समय कितने घंटे व मिनट पर हुआ.

तभी मेरे दिमाग में एक सवाल कौंधा कि जन्म प्रमाणपत्र में तो सिर्फ तारीख व साल मांगते हैं, इस को समय की जरूरत क्यों पड़ी?

‘‘भाई, तुम्हें अपने जन्म के समय की जरूरत क्यों पड़ी?’’ मैं ने उस से हैरान हो कर पूछा.

‘‘डाक्टर साहब, मैं 26 साल का हो गया हूं. मैं दुकान में से अच्छाखासा कमा लेता हूं. मैं ने कालेज तक पढ़ाई भी पूरी की है. मुझ में कोई ऐब भी नहीं है. फिर भी मेरी शादी कहीं तय नहीं हो पा रही है. मेरे सारे दोस्तों व हमउम्र रिश्तेदारों की भी शादी हो गई है.

‘‘थकहार कर घर वालों ने ज्योतिषी से शादी न होने की वजह पूछी. तो उस ने कहा, ‘तुम्हारी जन्मकुंडली देखनी पड़ेगी, तभी वजह पता चल सकेगी और कुंडली बनाने के लिए साल, तारीख व जन्म के समय की जरूरत पड़ेगी.’

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‘‘मेरी मां को जन्म की तारीख तो याद है, पर सही समय का पता नहीं. उन्हें सिर्फ इतना पता है कि मेरा जन्म आधी रात को इसी सरकारी अस्पताल में हुआ था.

‘‘बस साहब, उसी जन्म के समय के लिए धक्के खा रहा हूं, ताकि मेरा बाकी जन्म सुधर जाए. शायद जन्म का सही समय अस्पताल के रिकौर्ड से मिल जाए.’’

‘‘मेरे साथ आओ,’’ अचानक मैं ने उठते हुए कहा. वह उम्मीद के साथ उठ खड़ा हुआ.

‘‘यह कागज व पैन अपने साथ रखो,’’ मैं ने क्लिप बोर्ड से एक पन्ना निकाल कर कहा.

‘‘वह किसलिए?’’ अब उस के चौंकने की बारी थी.

‘‘समय लिखने के लिए,’’ मैं ने उसे छोटा सा जवाब दिया.

‘‘मेरी दीवार घड़ी में जितना समय हुआ है, वह लिखो,’’ मैं ने दीवार घड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा.

उस ने हैरानी से लिखा. सामने ही डिलीवरी रूम था. उस समय डिलीवरी रूम खाली था. कोई जच्चा नहीं थी. डिलीवरी रूम में कभी भी मर्द को दाखिल होने की इजाजत नहीं होती है. मैं उसे वहां ले गया. वह भी हिचक के साथ अंदर घुसा.

मैं ने उस कमरे की घड़ी की ओर इशारा करते हुए उस का समय नोट करने को कहा, ‘‘अब तुम मेरी कलाई घड़ी और अपनी कलाई घड़ी का समय इस कागज में नोट करो.’’

उस ने मेरे कहे मुताबिक सारे समय नोट किए.

‘‘अच्छा, बताओ सारे समय?’’ मैं ने वापस चैंबर में आ कर कहा.

‘‘आप की घड़ी का समय दोपहर 2.05, मेरी घड़ी का समय दोपहर 2.09, डिलीवरी रूम का समय दोपहर 2.08 और आप के चैंबर का समय दोपहर 2.01 बजे,’’ जैसेजैसे वह बोलता गया, खुद उस के शब्दों में हैरानी बढ़ती जा रही थी.

‘‘सभी घडि़यों में अलगअलग समय है,’’ उस ने इस तरह से कहा कि जैसे दुनिया में उस ने नई खोज की हो.

‘‘देखा तुम ने अपनी आंखों से, सब का समय अलगअलग है. हो सकता है कि तुम्हारे ज्योतिषी की घड़ी का समय भी अलग हो. और जिस ने पंचांग बनाया हो, उस की घड़ी में उस समय क्या बजा होगा, किस को मालूम?

‘‘जब सभी घडि़यों में एक ही समय में इतना फर्क हो, तो जन्म का सही समय क्या होगा, किस को मालूम?

‘‘जिस केस पेपर को तुम ढूंढ़ रहे हो, जिस में डाक्टर या नर्स ने तुम्हारा जन्म समय लिखा होगा, वह समय सही होगा कि गलत, किस को पता?

‘‘मैं ने सुना है कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक पल का फर्क भी ग्रह व नक्षत्रों की जगह में हजारों किलोमीटर में हेरफेर कर देता है. तुम्हारे जन्म समय में तो मिनटों का फर्क हो सकता है.

‘‘सुनो भाई, तुम्हारी शादी न होने की वजह यह लाखों किलोमीटर दूर के बेचारे ग्रहनक्षत्र नहीं हैं. हो सकता है कि तुम्हारी शादी न होने की वजह कुछ और ही हो. शादियां सिर्फ कोशिशों से होती हैं, न कि ग्रहनक्षत्रों से,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘डाक्टर साहब, आप ने घडि़यों के समय का फर्क बता कर मेरी आंखें खोल दीं. इतना पढ़नेलिखने के बावजूद भी मैं सिर्फ निराशा के चलते इन अंधविश्वासों के फेर में फंस गया. मैं फिर से कोशिश करूंगा कि मेरी शादी जल्दी से हो जाए.’’ अब उस शख्स के चेहरे पर निराशा की नहीं, बल्कि आत्मविश्वास की चमक थी.

फैसला: किस बात से मनु की नींद उड़ गई

मनु और मीनू की जिंदगी मस्ती में कट रही थी. मीनू उस का छोटे से छोटा खयाल रखती थी. एक बार मनु को दिल का दौरा पड़ा. उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा. वहां एक नौजवान भी मीनू के साथ आता था. ठीक होने के बाद मनु ने उस नौजवान को शराब पिलाई. लड़के ने बहुतकुछ बक दिया. यह सुन कर मनु की नींद उड़ गई. ऐसा क्या कहा था उस नौजवान ने?

मनु को जब भी दफ्तर जाने की देरी होती तो वह कुछ हबड़तबड़ सी करने लगता था. उस की यह बेचैनी पलपल नजर आती तो मीनू चट इस को भांप जाती और जल्दी से काम करने लगती.

मीनू कब उस को थाली परोस कर लगा देती, मनु जैसे भौंचक सा ही रह जाता था.

कितनी दूर मनु का दफ्तर था, यह मीनू अच्छी तरह जानती थी. रोज 2 घंटे गाड़ी चला कर दूर गांव पहुंचना होता था. वापस आने मेें भी इतना ही समय लगता.

मीनू हमेशा ही कुछ रख दिया करती थी. कभी नमकीन, कभी मठरी ताकि दोपहर में कुछ सहारा तो रहे, जिस का मनु को दफ्तर पहुंच कर ही पता चलता.

मनु यह सब दोपहर को कौफी संग चाव से खाता. मीनू और वह इसी तरह एक सुरताल मे बंध कर गृहस्थी को जिए जा रहे थे.

मनु अकसर याद करता रहता कि कैसे थे, वे दिन जब उस को खुद खाना बनाना होता था. कमरा गंदा ही रहता. सबकुछ बिखराबिखरा सा. आज सब कितना संवरा और निखरा सा हो चला है. कोई चिंता ही नहीं रहती कि लंच में क्या पकाना है, डिनर में क्या खाना है. हर पोशाक कितनी व्यवस्थित रहती है. घर बिलकुल चमचमाता हुआ.

मनु सुबह 8 बजे घर से रवाना हो जाता और रात 9 बजे तक ही वापस आ पाता था. उस के इस दैनिक क्रम में घर पर बस सोना और खाना यही मुख्य काम होते थे. मीनू बाकी सब बहुत सहजता से संभाल लिया करती थी.

मनु को राशन, सब्जी, फलफूल, वारत्योहार किसी बात की फिक्र होती ही नहीं थी. मीनू कभी जताती तक नहीं थी कि दिनभर में वह सबकुछ कैसे संतुलित कर लेती है.

जिंदगी बहुत ही सुकून से आगे बढ़ रही थी. पिछले 2 साल से मनु जैसे शाही मौज उठा रहा था. शादी के कितने फायदे हैं, यह उस को पहले अंदाज हो जाता तो और जल्दी शादी कर चुका होता.

वे दोनों फेसबुक दोस्त थे. बस 2 महीने की दोस्ती मे ही कुछ ऐसा जादुई सा घट गया कि दोनों ने शादी करने का  फैसला कर लिया. एक दिलचस्प बात यह हुई कि मीनू और मनु दोनों ही खुद अपनेअपने अभिभावक थे. उन्हें ही अपना फैसला करना था और अपना जीवनसाथी चुनना था.

मनु को मीनू के विचार अच्छे लगे थे कि आगे मीनू बस एक गृहिणी बन कर जीना चाहती थी. उस का यही सपना था, घर पर रहना और घर की देखभाल करना.

मीनू ने मातापिता, परिवार ऐसा कुछ कभी देखा ही नहीं था. जाने कौन से  किसी बच्चों वाले आश्रम से शुरू हुआ उस का बचपन और किशोर जीवन, फिर  जवानी एक नारीशाला जैसे छात्रावास में बीत रहा था. ये युवतियां दोपहर तक सरकारी कालेज में पढ़ती थीं, शाम को मोमबत्ती बनाती थीं और यहीं रहती थीं.

अब मीनू गृहस्थी का मजा लेना चाहती थी. खूब पढ़ीलिखी तो थी, इसीलिए समझदार भी बहुत थी. मनु का जीवन भी तबाही की दास्तान ही था. उस ने सहमति दे दी. दोनों ने शादी कर ली. मनु यही सब याद कर रहा था.

मनु तो अब अपनी पूरी  तनख्वाह ही मीनू के हाथ पर रख देता है. बचत करना तो उस ने कभी सीखा ही नहीं. वैसे भी अभी उम्र ही क्या थी, जो रुपयापैसा जोड़ने की चिंता में गल जाते.

मनु अब बस आराम से पूरे मौज से अपनी नौकरी कर रहा था, पूरा मन लगा कर. वैसे भी उस को अपना काम डूब कर करने की आदत भी थी.

आज भी जैसे ही मनु दफ्तर पहुंचा, तो वह कुछ घबराहट सी महसूस कर रहा था. उसे अंदर जैसे कुछ चुभ रहा था. दर्द लगातार बढ़ रहा था. अब मनु ने एक ड्राइवर का इंतजाम किया और अस्पताल आया. मीनू को पहले ही खबर मिल गई थी. इसलिए उस ने अस्पताल में बात कर के सब तैयारी कर ली थी.

मनु को दिल का दौरा पड़ा था. सब पहले ही सतर्क थे. तुरंत उपकरण लगा दिया गया. धड़कन सामान्य हो गई. मनु की जान बच गई, मगर तबीयत अभी तक इतनी दुरुस्त नहीं थी. डाक्टर की सलाह से अब आराम की जरूरत थी. एक हफ्ते तक उस को अस्पताल में ही रहना था.

मनु देख रहा था कि कितनी मजबूती से मीनू ने यह सब संभाल लिया था. मीनू के  माथे पर एक शिकन तक नहीं देखी थी उस ने. हां, मगर वह किसी नौजवान के  साथ बाइक पर आजा रही थी.

मीनू ने कार चलाना सीखा ही नहीं. मनु ने बहुत जोर दिया, मगर वह हमेशा टालती रही.

मनु ने इस नौजवान को पहले कभी देखा नहीं था. तकरीबन 20-22 साल का  होगा.  मीनू को वही लाता था. मीनू खाना बना कर लाती तो वह साथ ही आता था.

मीनू बहुत प्यार से कहती तो वह फलों का जूस ले आता था. कौफी बनवा लाता. सब काम करता. कितनी बार तो उस ने मनु के पैर तक दबा दिए. सिर पर हलकी मालिश कर दी.

मनु बिलकुल ठीक हो कर घर आ गया. मनु ने कुछ दिन घर से ही काम करना उचित समझा. अब घर पर सुबह से शाम 2 मर्द रहा करते थे. एक तो राज और एक मनु. एक बीमार और एक बिलकुल फिट. मीनू पूरी फुरती से सारा काम संभालती और राज हर समय मनु की सेवा में रहता था.

मनु जब दफ्तर जाने लगा था. एक रविवार को वह अपने साथ राज को घुमाने ले गया. मीनू साथ नहीं गई थी. एक अच्छे से होटल में मनु ने राज को पहले बढि़या शराब पिलाई और इतनी ज्यादा पिला दी कि वह बहक गया.

किसी ने कहा है कि नशे मे आदमी हो या औरत हमेशा सच बोलते हैं. मनु उस से पूछता रहा और वह बताता रहा.

पिछले साल जब मंडी में आम आया ही था, तब राज को मीनू वही आम खरीदती मिली थी. दोनों में पहली मुलाकात में आमलीची की बातें इतनी गहराई से हुईं कि बारबार मिलने लगे.

2 हफ्ते बाद तक तो दोनों तन और मन से एकदूसरे के हो चुके थे.

मीनू उस का खूब खर्च उठाती थी. उस को शारीरिक, मानसिक सब तरह का सहारा देती थी. राज यहां पढ़ाई कर रहा था. किराए का कमरा ले कर वह रहता था. बहुत ही रूखासूखा सा जीवन था उस का, मगर मीनू से मुलाकात के बाद वह एक अनोखा रस भरा जीवन जी रहा था. रुपएपैसे हर समय उस के पास खूब रहते थे.

इसी तरह बोलतेबोलते राज नशे में धुत्त तो था ही, वहीं पर लुढ़क गया. मनु ने उस को सहारा दिया, बिठाया और सामान्य किया. दोनों ने जराजरा सा ही खाया और वापस लौट आए.

2 दिन तक मनु ने अपनेआप को शांत रखा. तीसरे दिन सामान पैक कर के कहीं जाने लगा. मीनू ने पूछा तो कह दिया कि अभी सूचना मिली है, जरूरी ट्रेनिंग पर जाना है.

मीनू ने कोई सवाल नहीं किया. उस को मनु पर पूरा भरोसा था और मनु भी ज्यादा कुछ न कह कर सीधा चला गया. वह गाड़ी चलाता रहा और उसी कसबे में जा कर रुका, जहां मीनू का मायका था. जहां वह छात्रावास में पलीबढ़ी थी और पढ़ाई भी कर रही थी.

बस, सिर्फ एक ही दिन की खोजखबर से मनु को पता लग गया कि मीनू के यहां भी एक दर्जन आशिक हुआ करते थे. यानी मीनू का स्वभाव तो पहले से ही आशिकाना है, मनु ने अंदाजा लगा लिया. फिर भी मन के किसी कोने में उस को जरा सा दुख तो हुआ कि उस ने शादी से पहले ही मीनू की सहीसही खोजखबर क्यों नहीं की? खैर, उस ने बहुत सोचसमझ कर अब दिल की गवाही से एक फैसला किया.

इतना सब जानने के बाद वह राज की बातें भी याद करता रहा. मन कुछ कड़वा सा हो गया था उस का जैसे नीम की पत्तियां चबा ली हों.

मनु वहां से अपने घर यानी मीनू के पास वापस नहीं लौटा. जिस तरह के तनाव से वह गुजर रहा था, उस में दोबारा दिल का दौरा पड़ सकता था. यों भी वह अब उस शहर में वापस जाना ही नहीं चाहता था.

मनु ने उसी समय तय किया कि अब वह पूरी जिंदगी किसी गांव में खेती करेगा, या फिर एकएक सांस समाजसेवा को समर्पित कर देगा. पैसा कमाना अब उस का मकसद नहीं था. पहले भी उस को खानेपहनने और ओढ़ने की कोई चिंता थी ही नहीं. बहुत कम पैसों में बड़ी खुशी से गुजारा करना तो उस की आदत थी.

मनु विचार कर ही रहा था कि एक दोस्त का संदेश आया कि पूना के पास ही एक गांव है, वहां एक सूखे जंगल को हराभरा करना है. यह 4 साल का प्रोजैक्ट है. मगर हरियाली में ही चौबीसों घंटे रहना होगा. बहुत सुविधाएं मिलेंगी. और भी बहुत सारी जानकारी उस ने मनु को भेज दी. आगे एक संदेश और भेजा कि अगर सहमति देते हो तो आगे बात करूं.

अंधा क्या चाहे दो आंखें. मनु ने कहा कि वह 1-2 दिन में ही वहां पहुंच रहा है और तुरंत काम पर लग जाना चाहता है.

मनु को जीवन जीने का एक मकसद  मिल गया था. उस ने मीनू को फोन पर ही अलविदा का एक डिजिटल लैटर लिखा, जिस में बेहद जरूरी और खास बात यही थी कि वह अब फिर से बिलकुल आजाद थी, अपनी मरजी से जो चाहे कर सकती थी.

राज ने पूरा किस्सा बयां कर दिया होगा, इसलिए मनु ने सोचा कि मीनू का कोई जवाब नहीं आएगा. मगर जवाब भी आ गया. मीनू ने लिखा था कि अपना पूरा खयाल रखना. जहां रहो खुश रहो.

शौकीन: आखिर प्रभा अपनी बहन से क्या छिपा रही थी?

मीनू ने लंबी सांस ली और खिड़की से बाहर झांका तो पता लगा कि अब अच्छीखासी सुबह हो गई थी. ड्राइवर को कहीं चाय के लिए रुकने की कह कर वह पवन के ताजा झोंकों का मजा लेने लगी.

अलसुबह 4 बजे मीनू पूना से चली थी. मुंबई आने को ही था. यह जगह कोई गांव जैसी लग रही थी.

खैर, मीनू को तो चाय की तलब लग रही थी. एक छोटा सा बाजार आ गया और वहां लाइन से चाय के ठेले लगे थे.

मीनू की आवाज पर ड्राइवर ने पहियों को रोक दिया. एक महिला चाय का और्डर लेने उस की कार के पास आई.

उस महिला की सूरत देख कर मीनू तो जैसे आसमान से गिरी. उस ने चाय मंगवा ली और ड्राइवर को दूर नजर आ रहे मंदिर में रुपए चढ़ाने भेज दिया. वह फटाफट चला भी गया. दरअसल, उसे भी बीड़ी की तलब लग रही थी.

मीनू को पक्का यकीन था कि ये महिला वो ही है और दो पल की बातचीत में यह साबित भी हो गया.

…तो वे उस की सगी भाभी प्रभा थी, और पिछले 5 सालों से गुमशुदा भी.

“ओह… तो आज यहां मिली,” मीनू ने कुशलमंगल पूछी और प्रभा ने उस को खुल कर बता दिया कि यह सबकुछ कैसे हुआ.

प्रभा आपबीती बताने लगी कि ससुराल में खेतों का मैनेजर ही उस का आशिक था और आशिकी के आखिरी चरण में संपत्ति के लोभ के वशीभूत हो कर उसी ने उस का यह हाल कर दिया था.

मीनू को उस ने विस्तार से बताया कि लड़कपन से ही वह बहुत आजाद किस्म की थी, शायद 3 भाइयों में अकेली होने के कारण.

विवाह हुआ तो ससुराल में सारी आबोहवा और माजरा बहुत जल्द समझ आ गया. बड़ेबड़े खेत थे. बागबगीचे थे. खूब दौलत थी और पति अकेले थे.

“तुम एक बहन थीं, मगर तुम भी मस्तमौला टाइप ही थीं,” प्रभा बोली.

“तो, यहां मेरी एक तरह से लौटरी ही खुल गई. मगर अपनी हवस में अंधी मैं यह नहीं समझ सकी कि यह क्या कर रही हूं.

“यह दौलत कोई मैं ने तो नहीं कमाई है. इस की रखवाली तक तो ठीक है, पर सब की आंखों मे धूल झोंक कर इतनी रंगीनियां, सब को खुलेआम धोखा.

“मैं यह सब कैसे कर सकती हूं. मगर, जवाब भी मैं अपने हिसाब से बना लिया करती. बचपन से कोई अंकुश रहा ही नहीं. सारे सहीगलत तो मैं ने अपने तरीके और अपनी  सहूलियत से जो बना कर रखे थे.

“जैसी मेरी फितरत हो रही थी, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आगे इतने बुरे दिन देखने थे, मगर यह जाजम तो मैं ने खुद ही अपने लिए बिछा रखी थी.

“हां तो मीनू तुम सब से कमजोर थीं, मैं तुम को फुसलाने  लगी, उल्लू बनाने लगी.

“मैं कभी नहीं कहती थी कि तुम से बात किए बिना मेरा काम नहीं चल पाता. मगर सिर्फ तुम्हारे ही लक्षण, सोचविचार, चालचलन थे ही ऐसे कि मेरा काम आसान हो गया.

“मैं तो आशिकमिजाज थी, लेकिन तुम्हारे ये अंदाज मेरे बाकी के अवगुण को भी बहुत आसानी से छिपाते चले गए.

“तुम्हारे पति को तो अपने हर मिनट को डॉलर में बदलने का जुनून सवार था और तुम्हारे होने ना होने से उस को कभी कोई फर्क नहीं पड़ा.

“वैसे भी वो अच्छी तरह समझ गया था कि तुम्हारे पर्स में नोट भरे हों और वार्डरोब में फैशनेबल कपड़े हों तो तुम को यह भी याद नहीं रहता कि तुम्हारा कोई पति भी है.

“वो इस बात का  फायदा उठा कर तुम को आजादी देने के नाम पर नजरअंदाज करता रहा.

“मीनू, वो खुद एक नंबर का ऐयाश है. 2-3 बार उस ने मुझ से लिपटने की कोशिश की, मगर उस के बदन का पसीना…

“उहूं… मुझे उलटी सी आती थी. पर, तुम तो बेफिक्र सी  अपने रंग मे रहीं.

“तुम आएदिन पीहर आ कर पड़ी रहतीं और तुम्हारे मातापिता यानी मेरे सासससुर तुम्हारी संगत में मिठास से सराबोर रहते. वो बस खातेपीते, आराम करते और तुम से ही बातें करते रहते.

“उन को, तुम्हारे पति को और तुम्हारे भाई तक को अपने जुआताश आदि के नशेपत्ते में, यह कभी पता तक नहीं रहता था कि मैं क्या कर रही हूं. खेत में जाने के बहाने वहां कौनकौन से गुल खिला रही हूं.

“मैं बस दिखावे के लिए तुम से लाड़ करती और सासससुर ही नहीं, मेरे पति भी भावुक हो कर बहुत खुश हो जाते कि कितनी व्यावहारिक हूं मैं. ननद के साथ इतनी सरल, सहज.”

“फिर, उन को कभी बुरा नहीं लगता था कि मैं अपनीअपनी चला रही हूं. उन की मरजी कहीं है ही नहीं. खाना रोज बाहर से आ रहा है. कितनी चीजें बरबाद भी हो रही हैं.

“और मैं… मैं तो अपनी रवानी  में उस के साथ कभी यहां तो कभी वहां, बस आवारागर्दी करती फिरती. तुम और वो सब यही सोचते कि मैं कितनी जिम्मेदार हूं, बागबगीचे, अनाज, मवेशी देख रही हूं. इस घर के लिए तन, मन, धन से जुटी हुई हूं.

“तुम तो भई हद दर्जे की  निकम्मी थीं अपने भाई की तरह, लेकिन मेरा काम तो आसान कर रही थीं. हौलेहौले मैं ने तुम्हें उपन्यास में डूबे रहने  और हर दूसरे दिन टाकीज जा कर फिल्म देखने का ऐसा आदी बना दिया कि तुम उस लत से बाहर आ ही नहीं सकीं. आती भी कैसे, मैं जो तुम्हारी हर बुरी आदत को खादपानी दे रही थी. और मुझे मुश्किल हुई भी नहीं, तुम्हारा जब तक मन होता, पसर कर सोती ही रहती थीं.

“तुम भी अजीब जीव थीं. जब जो मन होता वो करतीं. रात को बाहर बैठ कर नूडल्स खातीं. सुबह से दोपहर तक खर्राटे भर पलंग तोड़तीं.

“समयकुसमय भी नहीं देखती थीं, मैं ने तो बस तुम को हवा दी. मैं तुम को हमेशा राजकुमारी कहती रहती थी, जबकि सच यह था कि तुम इनसान कहलाने लायक भी नहीं थीं.

“तुम्हारे दिलोदिमाग में बस आरामतलबी के कीटाणु भरे पड़े थे. बस, खाना और सोना, बाकी समय ख्यालीपुलावों में मगन रहना. अपने सुकून में मस्तमगन रहना.

“मैं तुम्हारे भाई और तुम को इतना आराम दे रही थी कि तुम इस की आदी बनती चली गई. मातापिता तो खैर पैंसठ-सत्तर को छू रहे थे, उन का सुस्ताना लाजिमी था.

“मेरा हर अवैध काम तुम्हारे आलस के परदे में तसल्ली से परवान चढ़ रहा था कि एक दिन वो धोखेबाज मुझे अपनी चाल मे फंसाने आया. मैं उस के जाल में ऐसी अटकी कि वो मुझे उल्लू बना कर चला गया.

“मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 3 साल छोटा मेरा दीवाना मुझ से ही खेल खेल जाएगा. और मैं बिलकुल अकेली पड़ गई.

“याद है ना, उन दिनों तुम, तुम्हारे मातापिता और भाई के साथ शिमला गई थीं. गरमी बहुत थी और तुम लोग 2-3 हफ्ते तक वहां से वापस नहीं लौटना चाहते थे.

“मुझे कुछ पिलाया गया था. और फिर हलकी सी बेहोशी में मुझे याद है कि मुझे कस कर बांध दिया गया था.

“मैं हिल कर जितनी भी ताकत थी, जूझती रही. मैं बहुत चीखी, जितना दम बचा था उतना.

“पर, वो सब को अपने साथ मिला चुका था, बंगले का  कुक, माली और चौकीदार. मुझ को हाथपैर बांध कर ट्रक में पटक दिया गया और यहां इतनी दूर गांव में फेंक दिया.

“यहां पूरे 2 साल मजदूरों की तरह दिहाडी कर के मैं बच सकी. पत्थर तोड़ कर, झाड़ू लगा कर, नाली साफ कर के रोटी खाई.

“न जाने कैसा चमत्कार हुआ कि मैं निराश नहीं हुई. अब ये चाय का ठेला है, इस से बहुत ही मजे में गुजारा हो जाता है.

“तुम लोग बेहद याद आते थे. पर, अब तक तो मेरी हर  काली करतूत पता लग गई होगी. इस शर्म से यहीं रही. मैं कहीं नहीं गई. कितने दिन तो मुंह छिपाती रहती कि कोई मेरी पहचान न कर ले.”

“मगर, वो एकदम से इतनी घृणा क्यों करने लगा? इतना नाराज हुआ कैसे?” बीच में मीनू ने पूछ लिया.

“बस, जलन हो गई थी उस को. उस ने पकड़ लिया मुझे, रंगेहाथों.

“हां… वो सहन नहीं कर सका. तुम तो जानती हो ना मेरी तलब. मुझ को वो एक नया युवक, जो काम पर लगा था, एक  मवेशी संभालने वाला बहुत ही भा गया था. और मेरा काफी समय उस के साथ गुजरने लगा था. वो मेरे बालों को सहलाता, मेरे पैर दबाता, बहुत सेवा करता था.”

प्रभा ने एकदम चुप्पी साध ली.

उस के आगे और कुछ भी नहीं बता कर वह जरा ठहर कर  आगे बोली, “कैसे हैं सब..?संपत्ति तो वो डकैत लूट ले गया होगा. मैं बहुत शर्मिंदा हूं,” कह कर प्रभा सिसकने  लगी.

“नहीं… ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. हम लोग लौटे और तुम्हारी चिट्ठी पढी. तुम अपनी मरजी से चली गई थीं. फिर भी हम लोगों ने तुम्हारे अचानक  गायब होने की  रिपोर्ट लिखवाई.”

“चिट्ठी भी लिख दी मेरे नाम से. मेरे ही लेख को कौपी कर लिया. उफ,” तड़प कर रह गई प्रभा.

“हम ने तुम्हारे भाइयों को खबर की, पर वे आए ही नहीं. यह बहुत अजीब हुआ.

“हां… उस के बाद तकरीबन एक महीने बाद वो मैनेजर भी अफीम के नशे में कुएं में छलांग लगा बैठा.

“आगे उस की पत्नी और बच्चों  को हम लोगों ने सहारा दिया. अब वो ही मेरी नई भाभी हैं. सब संभाल रही हैं. मेरा पूरा खयाल रखती हैं.

“उस के बच्चों को हम ने अपने परिवार में शामिल कर लिया है. वे बहुत मेहनत करती हैं. इन दिनों उन्होंने नई जमीनें भी खरीदवा ली हैं. संपत्ति, रुपया  तो हर रोज बढ़ता जा रहा है.

“वाशिम अब बहुत ही सुंदर हो गया है. मैं तो कल शाम पूना आ गई थी. मेरे पति वहां पर एक आध्यात्मिक आश्रम के संचालक हो गए हैं. वे खुद नियम से स्नान, ध्यान करते हैं. लगता ही नहीं कि चालीस के हो गए हैं. मुझ से भी छोटे लगते हैं,” मीनू ने हंस कर कहा.

प्रभा बड़ी हैरत से सुन रही थी और बहुत मुश्किल से विश्वास कर पा रही थी.

“मुश्किल से 3-4  घंटे लगते हैं  यहां पहुंचन में,” मीनू बोली.

“हूं…” कह कर प्रभा चुप हो गई. अब वह कहीं भी नहीं जाना चाहती थी.

मीनू ने उस को बताया, “उस को 12 बजे तक फिजियोथैरैपी के लिए नानावटी अस्पताल पहुंचना है. जरा कलाई में दिक्कत है.”

“मुझे तुम्हारे लिए बहुत अफसोस है. तुम अपना खयाल रखना,” कह कर मीनू  अपनी कार में बैठ गई.

प्रभा उस को जाते हुए देर तक देखती रही और अपने वर्तमान पर वापस ठहर कर जूठे  गिलास मांजने  लगी.

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