Romantic Story: रंग और रोशनी – शादी की बात सुन प्रिया सकपका क्यों गई?

Romantic Story: मनीष अपनी पत्नी मुक्ता के साथ बरामदे में बैठा शाम की चाय की चुसकियां ले रहा था. दफ्तर में बीते दिन के  कुछ रोचक पल मुक्ता को सुना रहा था. मुक्ता भी उस के साथ अपने दिन भर के अनुभव बांट रही थी. अरेंज्ड मैरिज और नईनई गृहस्थी के अनुभव. बहुत कुछ था दोनों के बीच साझा करने को.

‘‘वाह, एक तो तुम्हारे हाथ के बने समोसे और वे भी एअर फ्रायर में. स्वाद भी और सेहत भी. एक अच्छी पत्नी का फर्ज तुम बढि़या ढंग से निभा रही हो.’’

मनीष के कथन पर मुक्ता शरमाते हुए हंसी ही थी कि तभी मनीष का दोस्त गोपाल आ गया.

‘‘आओ गोपाल, बैठो. मुक्ता 1 कप चाय गोपाल के लिए भी हो जाए.’’

मनीष के कहते ही मुक्ता फुरती से रसोई की ओर चल दी.

‘‘क्या दोस्त, मेरे आते ही भाभी को भगा दिया? खैर, अच्छा ही किया. आज मैं तुझे एक समाचार देने आया हूं. तेरी प्रिया अपनी मां के घर वापस आ गई है. मुझे आज बाजार में मिली थी. मैं ने जैसे ही तेरे बारे में खबर दी तो, वह तेरा फोन नंबर मांगने लगी… कहने लगी उस का फोन चोरी हो गया था, इसलिए तेरा नंबर खो गया.’’

आगे गोपाल ने क्या कहा, वह मनीष को सुनाई नहीं दिया. वह तो प्रिया का नाम सुनते ही अतीत की गहरी खाई में गिरता चला गया. 6 माह पहले तक इस नाम के इर्दगिर्द ही उस का पूरा जीवन सिमटा था. उस की प्रिया, उस की जान, उस का प्यार…

कमल की पार्टी में प्रिया अलग ही चमक रही थी. कौन था ऐसा पार्टी में जिस की नजर उस पर न पड़ी हो. मनीष अपने शरमीले स्वभाव के कारण बस दूर से ही उसे निहार कर खुश था. पर पार्टी के बाद जब पता चला कि प्रिया का घर मनीष के रास्ते में आता है, तो उसे घर छोड़ने का काम उस ने सहर्ष स्वीकार लिया. प्रिया की आंखों और मुसकराहट में भी तो कुछ महसूस किया था उस ने. रास्ते में पता चला कि प्रिया कालेज में पढ़ती है. मनीष कालेज की पढ़ाई के बाद प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहा था.

‘‘तब तो तुम बहुत मेधावी होगे. मुझे जो समझ न आया करे उसे क्या तुम से समझने आ जाया करूं?’’

‘‘जब तुम्हारा मन करे,’’ मनीष ने बिना देर किए कहा. आखिर अंधा क्या चाहे 2 आंखें.

मनीष अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. उस के पिताजी नौकरी के सिलसिले में अकसर दौरे पर रहते थे और मां इतनी सीधी थीं कि प्रिया का घंटों मनीष के कमरे में रहना उन्हें जरा भी नहीं अखरता था. प्रिया के घर जाने में मनीष को किसी बहाने की जरूरत न थी. प्रिया की मां अकसर घर से बाहर रहती थीं. पति से उन का तलाक हो चुका था.

धीरे-धीरे मनीष और प्रिया के संबंधों में प्रगाढ़ता आने लगी. कुछ दोष उम्र का भी था. कच्ची उम्र, सतरंगी सपने. बिना आई लव यू कहे भी दोनों एकदूसरे को अपने दिल का हाल सुनाने में सक्षम थे. दोनों को एकदूसरे का साथ बहुत भाता. जब साथ न

होते तब व्हाट्सऐप पर हरपल की खबर रहती. प्रिया मनीष की हर बात में अपनी हां मिलाती. मनीष उसे नित नए कपड़े, नेलपौलिश, लिपस्टिक, परफ्यूम इत्यादि देता रहता. यहां तक कि प्रिया की औनलाइन शौपिंग के लिए उसे क्रैडिट कार्ड भी मनीष ने ही दिया था. इस के बदले में प्रिया ने मनीष की हर कमी को पूरा कर दिया था. उस ने कभी मनीष को स्वयं को हाथ लगाने से नहीं रोका था. शायद मनीष का शरमीला स्वभाव उसे आगे बढ़ने की स्वीकृति नहीं देता यदि प्रिया ने उस दोपहर अपने अकेले घर में स्वयं को मनीष को न सौंप दिया होता. उस अनुभव के बाद मनीष का मन प्रिया के बिना कहीं लगता ही नहीं था. दोनों एकदूसरे के घर, कमरे में एकांत तलाशते. एकदूसरे के बिना स्वयं को अकेला पाते.

‘‘प्रिया, मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. तुम्हारे मेरी जिंदगी में आने से पहले मेरा जीवन कितना सूना था. तुम ने उस में रंग और रोशनी भर दी.’’

मनीष प्रिया के प्रेम की लहर में बह जाता-

‘‘जीना हराम कर रखा है मेरी इन आंखों ने,

खुली हों तो तलाश तेरी और बंद हों तो ख्वाब तेरे.’’

इस प्रेम का असर मनीष की निजी जिंदगी में तो हो ही रहा था, उस की पढ़ाई पर भी पड़ने लगा था. उस की प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी में न तो वह लगन थी और न ही मेहनत, जिस की जरूरत होती है. प्रिया की सूरत और उस के सपने कभी उसे अकेला न छोड़ते. इस का नतीजा यह रहा कि वह परीक्षा में असफल रहा. अब चूंकि घर पिताजी की पेंशन पर चल रहा था, इसलिए मनीष को जेबखर्ची, क्रैडिट कार्ड इत्यादि सब बंद करने पड़े.

मनीष को आज भी अच्छी तरह याद है जब उस के मित्र परीक्षा में अनुत्तीर्ण रह जाने पर अफसोस करने आए थे. सब के साथ प्रिया भी आई थी पर उस के चेहरे पर अफसोस का कोई भाव न था, बल्कि जब उस के एक मित्र ने यह कहा कि मनीष प्रिया के कारण परीक्षा में पूरी मेहनत न कर सका तो कितनी बेहयाई से हंसते हुए उस ने कहा था कि वाह, एक तो फेल हो गए, उस पर तुर्रा यह कि इलजाम किसी और के सिर मढ़ दो. यह अच्छा है यानी उस के स्वर में हमदर्दी की जगह व्यंग्य था.

मनीष को प्रिया की यह बात बुरी अवश्य लगी थी, पर वह इसे प्रिया का अल्हड़पन समझ कर टाल गया था. अभी तक उस ने प्रिया से अपने जीवन का हिस्सा बनने की बात भी कहां छेड़ी थी. जब वह उस के जीवन में शामिल हो जाएगी, तभी तो एक की स्थिति की जिम्मेदारी दूसरे की भी होगी. उसे विश्वास था कि प्रिया के साथ से वह जीवन में अवश्य सफल होगा. इसीलिए जल्द ही बिना देर किए मनीष ने प्रिया के समक्ष शादी का प्रस्ताव रख दिया.

प्रिया स्तब्ध सी उसे देखती रह गई. फिर उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘कैसी बातें कर रहे हो मनीष? माना कि तुम मुझे अच्छे लगते हो,

पर शादी? शादी की क्या जरूरत है, मैं तो तुम्हारी हूं ही.’’

‘‘पर प्रिया ऐसे कब तक चलेगा? मेरे मातापिता मेरी शादी की सोचेंगे और आखिर तुम्हारी मां भी कब तक इंतजार करेंगी. उन्हें भी तो तुम्हारी शादी की चिंता होगी. मैं ने सोचा है कि कोई छोटीमोटी नौकरी तो मुझे मिल ही जाएगी. पिताजी ने एक जगह बात चलाई है, छोटी ही सही पर गृहस्थी का बोझ मैं उठा लूंगा.’’

‘‘छोटीमोटी नौकरी? समझने की कोशिश करो मनीष… पैसे के बिना जीवन क्या है? देखो, आजकल तुम न तो मुझे कोई उपहार दे पाते हो और न ही मेरी खरीदारी करा पाते हो. ऐसे में भला शादी की कैसे सोच सकते हो? वैसे भी शादी का मतलब है खाना पकाना, घर संभालना, बच्चे पैदा करना और फिर उन का पालनपोषण और भविष्य की चिंता में घुलते रहना. बदले में एक ढर्रे की जिंदगी. मुझे इन सब से चिढ़ है. मैं एक स्वतंत्र विचारों की लड़की हूं. मेरी मां को ही देख लो. आज अकेले कितनी प्रसन्न और मस्त हैं. मैं भी वैसा ही जीवन चाहती हूं.’’

प्रिया के इस उत्तर ने मनीष को निरुत्तर कर दिया. उस दिन के बाद से मनीष को न जाने ऐसा क्यों लगने लगा जैसे प्रिया उस से कतराने लगी है, जैसे उस का व्यवहार ठंडा पड़ने लगा है, वह उस से किनारा करने लगी है. वह कई दिनों तक उस से न मिलती, न ही फोन पर संपर्क करती. कहीं टकरा जाने पर बहानों की कतार लगा देती, ‘‘बस इतना ही जान पाए अपनी प्रिया को तुम मनीष? मैं तुम्हें कैसे भूल सकती हूं? मैं स्वयं को भूल सकती हूं पर तुम मेरी हर सांस में बसते हो…’’

बात इमोशनल ब्लैकमेल तक पहुंच जाती. मनीष पूछना चाहता कि इतनी चाहत है, तो छलकती क्यों नहीं है तुम्हारे चेहरे पर? पर डरता था कि कहीं बात साफ करतेकरते वह प्रिया को खो न बैठे. उसे इंतजार मंजूर था पर अपने सुनहरे स्वप्नों की उड़ान में दरार नहीं.

‘प्रिया को पाने से पहले मुझे जीवन में कुछ और बुलंदियां भी हासिल करनी होंगी,’ सोच उस नेएक बार फिर प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी. अब की बार उस ने शुरू से ही पूरा परिश्रम करने की ठानी थी. कभीकभार फोन पर प्रिया से बात कर वह स्वयं को हलका महसूस कर लेता था.

फिर एक दिन प्रिया ने बताया, ‘‘मैं अपने मामा के घर जा रही हूं… तुम यों परेशान हो रहे हो जैसे मेरी शादी हो रही है. तुम क्या समझते हो मैं तुम्हारे बिना खुश रह सकूंगी? पर मैं यह सब तुम्हारे लिए कर रही हूं. मेरे यहां रहते तुम पढ़ाई में मन नहीं लगा पाओगे. यह हमारी परीक्षा की घड़ी है. मनीष इस में हमें पास हो कर दिखाना है.’’

बड़ी मुश्किल से मनीष का मन शांत हो पाया था.

प्रिया के जाने के बाद सुहावना मौसम भी बोझिल लगता. मानो अंदर का बुझापन बाहर की रौनक पर हावी हो गया हो. लेकिन समय अपनी गति कब छोड़ता है? परीक्षा की तारीख पास आ रही थी. किसी तरह मनीष ने अपना ध्यान पढ़ाई में लगाया. पर प्रिया के पत्र का इंतजार उसे रोज रहता. अंतत: 3 महीने बाद उस का पत्र आया. पत्र में प्रिया की मजबूरियों का बखान था…. मनीष के बिना वह कितनी अधूरी थी, कितनी तनहा. प्रिया की तड़प पढ़ कर मनीष की आंखें भर आईं कि क्यों वह बारबार प्रिया के प्यार पर अविश्वास की परत चढ़ा देता है? हर किसी का प्यार करने और जताने का ढंग अलगअलग होता है और फिर प्रिया एक लड़की है. कुछ शर्म, कुछ हया उस के व्यक्तित्व का हिस्सा है. जरूरी तो नहीं हर बात कही जाए, कुछ महसूस भी की जाती है. एक सच्ची प्रेमिका पा कर वह स्वयं को धन्य मान रहा था.

परीक्षा समाप्त हो गई. कुछ ही समय बाद परिणाम भी आ गया. इस बार मांपिताजी की प्रसन्नता का ठिकाना न था. घर पर दोस्तों के लिए एक छोटी सी दावत रखी थी. उस शाम मनीष को प्रिया की कमी बहुत खली थी. वह प्रिया को यह खुशखबरी स्वयं सुनाना चाहता था. उस के चेहरे की खुशी को वह अपनी आंखों से देखना चाहता था. फोन पर खबर दे कर वह इस दृश्य को खोना नहीं चाहता था.

मनीष ने कमल से प्रिया का पता मांगते

हुए, जो उस के अलावा प्रिया का भी दोस्त था कहा, ‘‘यार, प्रिया को यह खुशखबरी दे दूं…

सच कहूं तो मैं उस से शादी करना चाहता हूं.

हम दोनों ने अलग रह कर बहुत कठिन परीक्षा दी है. यह त्याग उस ने मेरी सफलता के

लिए दिया और अब जब मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं तो…’’

‘‘अरे मनीष, तुम्हारे जैसा सुशील और लायक लड़का प्रिया जैसी तितली के जाल में फंस जाएगा यह तो मैं सोच भी नहीं सकता था. प्रिया जैसी लड़की सैरसपाटे के लिए ठीक है

पर शादी के लिए नहीं. क्यों अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहा है?’’

कमल ने मनीष के मन की शांत झील में पहला पत्थर मारा था. उस ने प्रिया के बारे में जो कुछ भी बताया उसे सुन कर मनीष स्तब्ध रह गया.

‘‘प्रिया के प्रियों की संख्या का भान है तुझे? आए दिन वह किसी न किसी से रासलीला रचा रही होती है… उस की मां भी तो वैसी ही,’’ और फिर आगे कुछ कहने के बजाय कमल हंसने लगा.

‘‘बदलता है रंग आसमान कैसेकैसे.’’

मनीष की नायिका अचानक खलनायिका बना दी गई थी. उस के मन में उथलपुथल मची थी कि क्या सच में वह बेवकूफ बन रहा था या प्रिया जैसी प्रेमिका के कारण कमल उस से जल रहा है? उस का मन बेचैन हो उठा था. यह उस के जीवन का अहम निर्णय था. इसलिए उस ने खुद छानबीन करने की ठानी. मनीष ने काफी पूछताछ की. जितनी जानकारी मिलती गई, उस का मन उतना ही खिन्न होता गया. वह कितना पागल था प्रिया के प्यार में. प्रिया की रस घुली बातों में आने में उसे जरा भी देर न लगती थी.

‘‘ख्वाहिशों के काफिले भी बड़े अजीब होते हैं, वे गुजरते वहीं से हैं जहां रास्ते नहीं होते हैं.’’

अब मनीष की सफलता का परिणाम सुन कर शायद प्रिया शादी के लिए फौरन हामी भर

दे. विरह में बीते दिनरातों की व्यथा सुनाए. पर आंखों देखी मक्खी किस से निगली जाती है भला? इसलिए मां के बारबार पूछने पर मनीष ने उन की पसंद की लड़की से शादी के लिए हां कह दी.

उसी सप्ताहांत मनीष अपने मांपिताजी के साथ लड़की देखने उन के घर पहुंचा. लड़की सुंदर थी. उन्हें भी मनीष पसंद आया. रिश्ता पक्का हो गया. किंतु मनीष अपनी जीवनसंगिनी से अपने जीवन का अतीत अंधेरे में नहीं रखना चाहता था. अत: उस ने मुक्ता से अकेले में बात करने की इच्छा व्यक्त की. संकोचवश मुक्ता कुछ असहज थी.

मनीष ने ही शुरुआत की, ‘‘जब हम दोनों अपना पूरा जीवन साथ गुजारने का निर्णय लेने जा रहे हैं, तो हमें अपना अतीत भी साझा कर लेना चाहिए. मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. पहले सुन लो, फिर जो तुम्हारा निर्णय होगा, मुझे मान्य होगा,’’ और फिर मनीष ने मुक्ता को प्रिया के बारे में पूरी ईमानदारी से सब बता दिया.

कुछ क्षण चुप रहने के बाद मुक्ता बोली, ‘‘चलिए, खट्टा ही सही पर आप को प्यार में अपना निर्णय लेने का मौका तो मिला… ताउम्र यह गिला तो नहीं रह जाएगा कि किसी से प्यार ही न कर सके. मेरा भी मन था कि मैं लव मैरिज करूं पर हमारे यहां तो लड़कियों का आंख उठाना भी वर्जित है.’’

‘‘तो तुम क्या इसलिए उदास लग रही हो?’’

मुक्ता चुप रही, लेकिन उस की आंखों ने हामी भर दी थी.

‘‘अच्छा किया तुम ने अपने दिल की बात मुझ से कही. हमारे बीच कोई संकोच नहीं होना चाहिए.’’

‘‘दरअसल, मैं भी चाहती थी कि जो खुशी प्यार में पड़े लोगों को महसूस होती है,

उसे मैं भी अनुभव कर पाती… प्यार में जिंदगी बदल देने वाले वे…’’ बोलते ही मुक्ता रुक गई. फिर जीभ काटते हुए कहने लगी, ‘‘माफ कीजिए, मैं भी पागल हूं, पता नहीं क्याक्या बोल रही हूं.’’

मगर उस की बातें सीधे मनीष के दिल तक पहुंचीं. कितनी साफगोई से मुक्ता ने अपनी ख्वाहिश उस पर जाहिर कर दी थी. ठीक ही तो है मनीष ने अपनी मरजी कर के देख ली और अब मातापिता की इच्छा से शादी कर रहा था. किंतु मुक्ता को अपनी मरजी का अवसर कहां मिला?

मनीष ने उसी दिन से मुक्ता के जीवन में प्यार का रंग और प्यार के  खुमार की रोशनी भरने की जिम्मेदारी उठा ली. उस ने हर प्रयास कर के मुक्ता को प्यार में मिलने वाली हर खुशी दी. यहां तक कि शादी होने तक मुक्ता को लगने लगा कि जैसे उस की लव मैरिज हो रही हो.

सच कहते हैं कि शादियां ऊपर तय होती हैं. यहां जमीन पर तो हम सिर्फ उन का मेल कराते हैं. मनीष और मुक्ता असल मानों में हमसफर बने.

आज गोपाल फिर उसी भूकंप की खबर लाया था, जिस से कभी मनीष का संसार डोल जाया करता था. पर आज वह शांत था. उस का संसार प्रसन्नता के झूले में झूल रहा था और इस की डोर थी मुक्ता के हाथों में. दोनों प्यार में जिंदगी बदल देने वाले रंग और रोशनी अनुभव कर रहे थे.

Romantic Story: नींव – अंजु ने ऐसा क्या किया कि संजीव खुश हो गया?

Romantic Story, लेखक – वैभव जैन

उस दिन करीब 8 साल के बाद मानसी को एक हेयर सैलून से बाहर आते देखा तो आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. कालेज के दिनों में वह कभी मेरी बहुत अच्छी दोस्त हुआ करती थी. फिर वह एमबीए करने मुंबई चली गई और हमारे बीच संपर्क कम होतेहोते समाप्त हो गया था.

मैं मुसकराता उस के सामने पहुंचा तो उस ने भी मुझे फौरन पहचान लिया. हम ने बड़े अपनेपन के साथ हाथ मिलाया और हंसतेमुसकराते एकदूसरे के बारे में जानकारी का आदानप्रदान करने लगे.

‘‘तुम यहां दिल्ली में कैसे नजर आ रही हो?’’

‘‘मेरे पति को यहां नई जौब मिली है.’’

‘‘क्या पति को घर छोड़ कर केश कटवाने आई हो?’’

‘‘नहीं भई. वे मुझे यहां छोड़ कर किसी दोस्त से मिलने गए हैं. बस, अब लेने आते ही होंगे. तुम बताओ जिंदगी कैसी गुजर रही है?’’

‘‘ठीकठीक सी गुजर रही है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी क्या करती है?’’

‘‘अंजु नौकरी करती है.’’

‘‘तुम तो कहा करते थे कि पत्नी को सिर्फ घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां संभालनी चाहिए. फिर अंजु को नौकरी कैसे करा रहे हो?’’ उस ने हंसते हुए पूछा.

‘‘मैं तो अभी भी यही चाहता हूं कि अंजु घर में रहे पर आज की महंगाई में डबल इनकम का होना जरूरी है.’’

‘‘बच्चे कितने बडे़ हो रहे हैं?’’

‘‘हमारा 1 बेटा है समीर, जो पिछले महीने 6 साल का हुआ है.’’

‘‘उस के लिए भाई या बहन अभी तक क्यों नहीं लाए हो?’’

‘‘अरे, दूसरे बच्चे की बात ही मत छेड़ो. आजकल 1 बच्चे को ही ढंग से पालना आसान नहीं है. तुम अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं तो कोई जौब नहीं करती हूं. पति सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. 3 साल अहमदाबाद में रहे. अब यहां दिल्ली की एक कंपनी में जौब शुरू करने के कारण 2 महीने पहले यहां आए हैं. अभी तक मन नहीं लग रहा था पर अब तुम मिल गए हो तो अकेलेपन का एहसास कम हो ही जाएगा. कब मिलवा रहे हो अंजु और समीर से, संजीव?’’

‘‘बहुत जल्दी मिलने का कार्यक्रम बना लेते हैं. तुम ने अपने बच्चों के बारे में तो कुछ बताया नहीं,’’ मैं ने जानबूझ कर विषय बदल दिया.

‘‘मेरी 2 बेटियां हैं – श्वेता और शिखा. श्वेता स्कूल जाती है और शिखा अभी 2 साल की है.’’

‘‘बहुत अच्छा मैंटेन किया हुआ है तुम ने खुद को. कोई देख कर कह नहीं सकता कि तुम 2 बेटियों की मम्मी हो.’’

‘‘थैंकयू, मैं नियम से डांस करती हूं. कोई टैंशन नहीं है, इसलिए स्वास्थ्य ठीक चल रहा है,’’ मेरे मुंह से अपनी प्रशंसा सुन वह खुश हो कर बोली, ‘‘वैसे तुम भी बहुत जंच रहे हो. तुम्हें देख कर कोई भी कह सकता है कि तुम ने जिंदगी में अच्छी तरक्की की है.’’

‘‘थैंकयू, ये शायद तुम्हारे पति ही हमारी तरफ आ रहे हैं,’’ अपनी तरफ एक ऊंचे कद व आकर्षक व्यक्तित्व वाले पुरुष को आते देख कर मैं ने कहा.

आत्मविश्वास से भरा वह व्यक्ति मानसी का पति रोहित ही निकला. उस ने रोहित से मेरा परिचय कालेज के बहुत अच्छे दोस्त के रूप में कराया.

रोहित ने बड़ी गर्मजोशी के साथ मुझ से हाथ मिलाया. फिर हम दोनों एकदूसरे के काम के विषय में बातें करने लगे.

मानसी अब चुप रह कर हमारी बातें सुन रही थी.

करीब 15 मिनट बातें करने के बाद रोहित ने विदा लेने को अपना हाथ आगे बढ़ा दिया और बोला, ‘‘संजीव, तुम्हें अपनी वाइफ और बेटे के साथ हमारे घर बहुत जल्दी आना ही है. मानसी को अपने शहर में बोर मत होने देना.’’

‘‘हम बहुत जल्दी मिलते हैं,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अपना मोबाइल नंबर तो दो, नहीं तो एकदूसरे के संपर्क में कैसे रहेेंगे?’’ मानसी को याद आया तो हम ने एकदूसरे के मोबाइल नंबर ले लिया.

वे दोनों अपनी कार में बैठे और हाथ हिलाते हुए मेरी आंखों से ओझल हो गए.

मैं ने डिपार्टमैंटल स्टोर से घर का सामान खरीदा और अपनी 2 साल पुरानी कार से घर आ गया.

‘‘आप कहां अटक गए थे? मुझे मशीन लगानी थी पर बिना वाशिंग पाउडर के कैसे लगाती?’’ अंजु मुझे देखते ही नाराज हो उठी.

‘‘मशीन अब लगा लो. खाना देर से खा लेंगे,’’ मैं ने उसे शांत करने के लिए धीमी आवाज में जवाब दिया.

‘‘कितनी आसानी से कह दिया कि मशीन अब लगा लो. मैं नहा चुकी हूं और समीर को तो सही वक्त पर खाना चाहिए ही न. अब खाना बनाऊं या मशीन लगाऊं?’’ उस का गुस्सा कम नहीं हुआ था.

‘‘इतनी गुस्सा क्यों हो रही हो? तुम मशीन लगा लो, आज लंच करने बाहर चलते हैं.’’

‘‘अपना पेट खराब करने के लिए मुझे बाहर का खाना नहीं खाना है. आप यह बताओ कि अटक कहां गए थे?’’

‘‘अटका कहीं नहीं. ऐसे ही विंडो शौपिंग करते हुए समय का अंदाजा नहीं रहा,’’ न जाने क्यों उसे मानसी और रोहित से हुई मुलाकात के बारे में उस समय कुछ बताने को मेरा मन नहीं किया.

अंजु ड्राइंगरूम में समीर द्वारा फैलाई चीजें उठाने के काम में लग गई. अब उस का ध्यान मेरी तरफ न होने के कारण मैं उसे ध्यान से देख सकता था.

कितना फर्क था मानसी और अंजु के व्यक्तित्व में. शादी होने के समय वह आकर्षक फिगर की मालकिन होती थी, पर अब उस का शरीर काफी भारी हो चुका था. चेहरे पर तनाव की रेखाएं साफ पढ़ी जा सकती थीं. उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. समीर के होने के समय से उसे पेट और कमर दर्द ने एक बार घेरा तो अब तक छुटकारा नहीं मिला है.

अंजु की मानसी से तुलना करते हुए मेरा मन अजीब सी खिन्नता महसूस कर रहा था. रोहित और हमारे आर्थिक स्तर में खास अंतर नहीं था. पर हमारी पत्नियों के व्यक्तित्व कितने विपरीत थे.

मेरा चेहरा सारा दिन मुरझाया सा रहा. रात में भी ढंग से नींद नहीं आई. मानसी का रंगरूप आंखों के सामने आते ही बगल में लेटी अंजु से अजीब सी चिढ़ हो रही थी.

किसी से अपनी हालत की तुलना कर के दिमाग खराब करने का कोई फायदा नहीं होता है. खुद को बारबार ऐसा समझाने के बाद ही मैं ढंग से सो पाया था. मेरे पास मानसी का 2 दिन बाद ही औफिस में लंच के समय फोन आ गया.

‘‘अपने घर का पता बताओ. हम आज रात को अंजु और समीर से मिलने आ रहे हैं,’’ उस की यह बात सुन कर मैं बहुत बेचैन हो उठा.

‘‘आज मत आओ. अंजु को अपने भाई के यहां जाना है,’’ मैं ने झूठ बोल कर उन के आने को टाल दिया.

‘‘चलो, उन से मिलने फिर किसी और दिन आ जाएंगे पर तुम अपना पता तो लिखवा ही दो.’’

मैं उसे घर बुलाना नहीं चाहता था पर मजबूरन उसे अपना पता लिखवाना पड़ा. मैं ने उस से ज्यादा बातें नहीं कीं. कहीं मन ही मन मैं ने यह फैसला कर लिया कि मैं उन के साथ ज्यादा घुलनेमिलने से बचूंगा.

फिर मैं शनिवार की शाम को औफिस से घर पहुंचा तो वे दोनों मुझे ड्राइंगरूम में बैठे मिले. अंजु उन से बातें कर रही थी. मानसी के सामने वह बहुत साधारण सी नजर आ रही है, ऐसी तुलना करते ही मेरा मन उखड़ सा गया.

तभी मैं एकदम चुपचुप सा हो गया. मेरे मुकाबले अंजु उन दोनों से वार्त्तालाप करने की जिम्मेदारी कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से निभा रही थी.

मानसी ने अचानक मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘इतने उदास क्यों दिख रहे हो, संजीव?’’

‘‘सिर में दर्द हो रहा है. आज औफिस में काम कुछ ज्यादा ही था,’’ मुझे यों झूठ बोलना पड़ा तो मेरा मन और बुझाबुझा सा हो गया.

रोहित ने मेरे बेटे समीर से बहुत अच्छी दोस्ती कर ली थी. मानसी अंजु के साथ खूब खुल कर हंसबोल रही थी. बस मैं ही खुद को उन के बीच अलगथलग सा महसूस कर रहा था.

उन दोनों को रोहित के किसी मित्र के घर भी जाना था, इसलिए वे ज्यादा देर नहीं बैठे और हमें जल्दी अपने घर आगामी रविवार को आने का निमंत्रण देने के बाद चले गए.

उन के जाने के बाद मैं बहुत चिड़चिड़ा हो गया. मैं ने उन से ज्यादा तअल्लुकात न रखने का फैसला करने में ज्यादा वक्त नहीं लिया.

‘‘ये अच्छे लोग हैं. दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा है,’’ अंजु के मुंह से उन दोनों की तारीफ में निकले इन शब्दों को सुन कर मैं अपनी चिढ़ व नाराजगी को नियंत्रण में नहीं रख सका.

‘‘यार, इन लोगों की बात मुझ से मत करो. ये बनावटी लोग हैं. इन की सतही चमकदमक से प्रभावित न होओ. ऐसे लोगों के साथ मित्रता बढ़ा कर सिर्फ दुख और परेशानियां ही हासिल होती हैं,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘क्या कालेज के दिनों में आप मानसी के बहुत अच्छे दोस्त नहीं थे?’’ मुझे यों अचानक उत्तेजित होता देख कर वह हैरान नजर आ रही थी.

‘‘मानसी मेरे एक अच्छे दोस्त नवीन की प्रेमिका थी. इस कारण मुझे उसे सहन करना पड़ता था. जब मानसी का उस के साथ चक्कर खत्म हो गया, तब मैं ने उस के साथ बोलना बिलकुल खत्म कर दिया था. वह न तब मुझे पसंद थी और न आज.’’

‘‘मुझे तो दोनों अच्छे इंसान लगे हैं. क्या अगले संडे हम उन के घर नहीं जाएंगे?’’

‘‘नहीं जाएंगे और अब कोई और बात करो. हमें नहीं रखना है इन के साथ ज्यादा संबंध,’’ रूखे से अंदाज में उसे टोक कर मैं ने मानसी और रोहित के बारे में चर्चा खत्म कर दी.

अंजु ने फिर उन दोनों के बारे में कोई बात नहीं की. सच तो यह है कि वह मुझे ज्यादा खुश नजर आ रही थी. उस ने बड़े प्यार से मुझे खाना खिलाया और सोने से पहले सिर की मालिश भी की.

अगले दिन अंजु ने मुझे सुबह उठा कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘उठिए, सरकार. आज से हम दोनों रोज नियमित रूप से घूमने जाया करेंगे.’’

‘‘यार, तुम्हें जाना हो तो जाओ पर मुझे सोने दो,’’ मैं ने फिर से रजाई में घुसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जनाब, ऐसे नहीं चलेगा. अगर आप मेरा साथ नहीं देगे तो मैं और मोटी हो जाऊंगी. क्या आप मुझे मानसी की तरह सुंदर और स्मार्ट बनता नहीं देखना चाहते हो?’’

अंजु की बात सुन कर मैं उठ बैठा और फिर बोला, ‘‘तुम उस के जैसा नकली पीतल नहीं, बल्कि खरा सोना हो. बेकार में उस के साथ अपनी तुलना कर के टैंशन में मत आओ.’’

अंजु ने अपनी बांहों का हार मेरे गले में डाल कर कहा, ‘‘टैंशन में मैं नहीं, बल्कि आप नजर आ रहे हो.’’

‘‘मैं टैंशन में नहीं हूं,’’ मैं ने उस से नजरें चुराते हुए जवाब दिया.

‘‘मैं आप के हर मूड को पहचानती हूं, जनाब. मुझ से कुछ भी छिपाने की कोशिश बेकार जाएगी.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘मतलब यह कि मेरी मानसिक सुखशांति की खातिर आप की झूठ बोलने की आदत बहुत पुरानी है.’’

‘‘तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है. मैं ने कब तुम से झूठ बोला है?’’

अंजु ने हलकेफुलके अंदाज में जवाब दिया, ‘‘मैं बताती हूं. जब हमारे पास कार नहीं थी तो आप कार की कितनी बुराई करते थे. कार के पुरजे महंगे आते हैं, सर्विसिंग महंगी होती है, पैट्रोल का खर्चा बहुत बढ़ जाता है, मुझे ड्राइव करना अच्छा नहीं लगता और भी न जाने आप क्याक्या कहते थे.’’

‘‘तुम कहना क्या चाह रही हो?’’

‘‘पहले एक और बात सुनो और फिर मैं आप के सवाल का जवाब दूंगी.

जब समीर के ऐडमिशन का समय आया तो आप महंगे पब्लिक स्कूलों के कितने नुक्स गिनाते थे. वहां पढ़ने वाले अमीर मांबाप के बच्चे छोटी उम्र में बिगड़ जाते हैं, बच्चे को अच्छे संस्कार घर में मिलते हैं स्कूल में नहीं, जैसी दलीलें दे कर आप ने मेरे मन को शांत और खुश रखने की सदा कोशिश की थी.’’

‘‘मैं जो कहता था वह गलत नहीं था.’’

‘‘मैं यह नहीं कह रही हूं कि आप गलत कहते थे.’’

‘‘मैं वही कह रही हूं, जो मैं ने शुरू में कहा था. मेरे मन की सुखशांति के लिए आप दलीलें गढ़ सकते हो, लेकिन ऐसे मौकों पर आप की जबान जो कहती है वह आप की आंखों के भावों से जाहिर नहीं होता है.’’

‘‘तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं.’’

‘‘देखिए, जब आप कार की बुराई करते थे तब हम कार नहीं खरीद सकते थे. लेकिन जब कार घर में आई तो आप कितने खुश हुए थे.

फिर जब समीर को अच्छे स्कूल में ऐडमिशन मिल गया तो भी आप की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था.’’

‘‘अब यह भी समझा दो कि तुम ये पुरानी बातें आज क्यों उठा रही हो?’’

‘‘क्योंकि आज भी आप की जबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और. आज भी मेरे मन के सुकून की खातिर आप मानसी जैसी सुंदर, स्मार्ट महिला की बुराई कर रहे हो. लेकिन कल रात मैं ने देखा था कि जब भी आप सहज हो कर उस से बातें करते थे तो आप की आंखें खुशी से चमक उठती थीं.’’

‘‘सचाई यह भी है कि मानसी के मुकाबले मैं मोटी और अनाकर्षक लगती हूं. तभी अपनी पुरानी आदत के अनुरूप आप ने अपना सुर बदल लिया है. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘लेकिन आप मुझे हीनभावना का शिकार बनने से बचाने के लिए न मानसी की बुराई करो और न ही उन के साथ परिचय गहरा करने से कतराओ. कार और समीर के ऐडमिशन का संबंध हमारी माली हालत से था पर यह मामला भिन्न है. मैं भली प्रकार समझती हूं कि अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने का प्रयास मुझे ही करना होगा. तभी मैं ने अपने में बदलाव लाने की कमर कस ली है.

‘‘आप बनावटी व्यवहार से मुझे झूठी तसल्ली दे कर मेरे मन की सुखशांति बनाए रखने की चिंता छोड़ दो. आप के सहज अंदाज में खुश रहने से ही हमारे बीच प्यार की नींव मजबूत होगी.

‘‘आप के सहयोग से मैं अपने लक्ष्य को बहुत जल्दी पा लूंगी. इसीलिए मेरी प्रार्थना है कि कुछ देर और सोने का लालच त्याग कर मेरे साथ घूमने चलिए.’’

‘‘यार, तुम तो बहुत समझदार हो,’’ मैं ने दिल से उस की प्रशंसा की.

‘‘और प्यारी भी तो कहो,’’ अंजु इतरा उठी.

‘‘बहुतबहुत प्यारी भी हो… मेरे दिल की रानी हो.’’

‘‘थैंकयू. अगले संडे हम मानसी के घर चलेंगे न?’’

‘‘श्योर.’’

‘‘और अभी मेरे साथ पार्क में घूमने चल रहे हो न?’’

‘‘जरूर चल रहा हूं पर वैसे इस वक्त मैं तुम्हारे साथ कहीं और होना चाहता हूं,’’ मेरी आवाज नशीली हो उठी.

‘‘कहां?’’

‘‘इस रजाई की गरमाहट में.’’

‘‘अभी सारा दिन पड़ा है. पहले पार्क चलो,’’ मेरी आंखों में प्यार से झांकते हुए अंजु का चेहरा लाजशर्म से लाल हो उठा तो वह मेरी नजरों में संसार की सब से खूबसूरत औरत बन गई थी.

Short Story: फ्रेम में सजे महापुरुष की दुविधा

Short Story: मैंने औफिस की अपने पीछे वाली दीवार पर महापुरुषों की तसवीरें इसलिए नहीं लगाई हैं कि मैं उन की तरह हूं या होना चाहता हूं या कि मैं उन के पदचिह्नों पर चलने वाला सरकारी मुलाजिम हूं. होना बहुत मुश्किल होता है, दिखाना बहुत आसान.

होने का जोखिम मैं ही क्या, आज कोई भी नहीं उठाना चाहता. दिखने का सब आसानी से उठा लेते हैं, उठा रहे हैं. देश की मिट्टी तक बेच कर उस मिट्टी से सोना कमा रहे हैं.

मैं सरकार बदलते ही कई महापुरुषों की तसवीरें एकदम हटा कर रातोंरात उन की जगह नई सरकार के महापुरुषों की तसवीरें अपने औफिस की दीवार पर लटकाता रहने वाला महापुरुष हूं. और तब तक यह काम सारे काम छोड़ करता रहूंगा, जब तक सरकारी नौकरी में हूं, ताकि हर नई सरकार को मैं अपना बंदा लगूं.

तब मुझ से काम करवाने कोई आए, तो उस में यही इंप्रैशन जाए कि मैं टुच्चेपुच्चे टाइप का पिछली सरकार का अफसर नहीं, वर्तमान सरकार का खांटी पार्टी वर्कर हूं, नई सरकार का कोई महापुरुष टाइप का पुरुष हूं कि इन के उन के नीचे मुझे लेटेबैठे देख सब मुझे भी महापुरुष समझें, क्योंकि इन दिनों इसी तरह के महापुरुष होने का प्रचलन चलन में है.

अब औफिसों में कुछ बदलें या न, पर सरकार के बदलने के साथ सरकारी औफिसों के फ्रेम में बंद दीवारों पर टंगने वाले महापुरुष भी बदलते रहते हैं. सरकारों की कोई विचारधारा हो या न, पर अपनेअपने मार्क्ड महापुरुष जरूर होते हैं, जिन की पीठ पर सवार हो कर ये भी महापुरुष बने फिरते हैं. आज के समय का कोई ऐवरग्रीन महापुरुष नहीं, सत्ता समय महापुरुष हैं.

सरकार के साथ बदलते अपने औफिस की दीवार पर बदलते इन फ्रेमों में जबरदस्ती हंसते महापुरुषों को नजर न होने के बाद भी अकसर मैं ने देखा है कि वे वैसे तो सारा साल अपनीअपनी फ्रेम में बंद अपने गले के बदले अपनी फ्रेम पर कागजी फूलों की माला डलवाए, अपनी सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए फ्रेम में बंद होने के बाद भी फ्रेम से बाहर आने को न दिखने वाली छटपटाहट लिए छटपटाते ही रहते हैं, पर जबजब इन की कोई जयंतीवयंती, पुण्यतिथि आती है, तब इन की फ्रेम से बाहर आने की छटपटाहट कुछ और ही बढ़ जाती है.

मतलब, तब फे्रम में बंद होने के बाद भी इन की बाहर आने की छटपटाहट साफ महसूस करने की ताकत न होने के बाद भी साफ महसूस की जा सकती है.

तब मैं ने फ्रेम में जबरदस्ती मुसकराते बंद उस हंसते महापुरुष को फ्रेम से बाहर निकलने की पूरी कोशिश करते देखा तो जान गया कि या तो बंधु की पुण्यतिथि नजदीक है या फिर जयंती. इन महापुरुषों को अकसर इन्हीं 2 दिनों में फ्रेम से बाहर आने की इजाजत होती है.

वे महापुरुष आधे फ्रेम से बाहर निकल जाने के बाद बाकी बहुत मशक्कत के बाद भी न निकल पाए तो वे फ्रेम से बाहर निकलने को आड़ेतिरछे होते जोर मारते मदद को पुकारे तो मैं ने उन की मदद करने पर उन्हें बहुत गुस्सा होते देखा.

हद है यार, फ्रेम में बंद हो जाने के बाद भी चैन से नहीं रह सकते क्या? अब बाहर आ कर क्या नया करने का इरादा है?

फ्रेम में बंद मुसकराते दीवार पर टंगे महापुरुषों पर जब जरा गौर से नजर दौड़ाई, तो फ्रेम में बंद महात्मा गांधी वाले फोटो में छटपटाहट थी.

सच कहूं, तो उन्हें मैं ने जब से देखा है, फ्रेम में बंद ही देखा है या फिर खुले में उन का रोल करते फिल्मों में किसी और कलाकार को.

जब वे फ्रेम से बाहर निकलने को बहुत ही कराहने लगे, तो मैं ने उन के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या है गांधी? छटपटा क्यों रहे हो? अब तो यहां ऐसे ही चलेगा. महापुरुष फ्रेम में बंद ही मुसकराते हुए अच्छे लगते हैं. अब तुम फ्रेम में ही बंद रहो, तो तुम्हारी भी इज्जत बनी रहे और हमारी भी.’’

‘‘अपने सपनों के भारत को देखना चाहता हूं कि वह इस साल कितना और गिरा? साल में 1-2 दिन तो हमारा भी बाहर निकलना बनता है कि नहीं?’’

‘‘तुम बाहर निकलोगे तो दिवंगत होने के बाद भी तुम्हारा मन आत्महत्या करने को हो जाएगा,’’ पता नहीं क्यों कह मैं ने दिया.

‘‘मतलब? मरने के बाद भी क्या आदमी आत्महत्या करने की सोच सकता है?’’ गांधी ने जैसेतैसे फ्रेम में से पूरा निकलने की कोशिश करते हुए मेरी बाजू पकड़ कर पूछा, तो मैं ने कहा, ‘‘गांधी, फ्रेम में रहो तो हंसने को न चाहते हुए भी मन कर ही जाया करेगा. अब वह समय नहीं, जो तुम्हारे टाइम में था, क्योंकि वह कुछ बना ही नहीं जो तुम बनाना चाहते थे, तो ऐसे में फ्रेम से बाहर निकल क्यों परेशान होना?’’

‘‘तो फ्रेम से बाहर निकल कर अपने सपनों को बचाने के लिए सत्याग्रह करूंगा, उस के लिए असहयोग आंदोलन छेड़ूंगा,’’ फादर औफ नेशन ने कहा, तो सुन कर मैं हंसा और बोला, ‘‘अरे माई डियर, कहने के लिए फादर औफ नेशन, अब तुम्हें अपनाने के लिए नहीं, दिखाने, खाने, सत्ता पाने, लोगों को बरगलाने मात्र के लिए फादर रह गए हो.

‘‘अब तो यहां कदमकदम पर असत्याग्रह हो रहे हैं. देश को तोड़ने को एकदूसरे के लिए सहयोग हो रहे हैं. अब न कहीं विचार है, न कहीं आचार. सब मौके की देशभक्ति में रमे हैं.

‘‘अब समय पहले से ज्यादा नाजुक चल रहा है, इसलिए प्लीज, सबकुछ किया करो, पर फ्रेम के भीतर रह कर ही,’’ मैं ने कहा, तो उन की एक टांग फ्रेम के बाहर तो एक भीतर. उन का एक बाजू फ्रेम के बाहर तो दूसरा भीतर. मतलब, वे न फ्रेम के बाहर, न फ्रेम के भीतर.

Short Story: बलिदान – खिलजी और रावल रत्न सिंह के बीच क्यों लड़ाई हुई?

Short Story: चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मिनी खूबसूरती की एक मिसाल थीं. तभी तो उस समय दिल्ली की गद्दी पर विराजमान अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी को पाने की ठान ली. इस के लिए खिलजी और रावल रत्न सिंह की सेना के बीच 6 महीने से ज्यादा युद्ध चला. युद्ध जीतने के बाद भी उसे रानी पद्मिनी नहीं हासिल हो सकीं, क्योंकि…

इतिहास के पन्नों में बलिदान के अनगिनत किस्सेकहानियां दर्ज हैं. उन में कई कहानियां वैसी स्त्रियों के बलिदान की हैं, जिन्होंने राष्ट्र, मातृभूमि या फिर स्त्री जाति की अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान तक की कुरबानी दे दी. वैसी ही एक दास्तान चित्तौड़गढ़ की इस ऐतिहासिक कहानी में है. मुसलिम शासन के दौर में रानी पद्मिनी ने जो कुछ किया, वह अविस्मरणीय मिसाल बन गया.

बला की खूबसूरत रानी पद्मिनी की सुंदरता के किस्से दूरदूर तक फैल चुके थे. वह कितनी सुंदर थी? कैसी दिखती थी? चेहरा कितना चमकतादमकता था? नाकनक्श कैसे थे? होंठों, आंखों, गालों या बालों की सुंदरता में कितना अंतर था? कैसा तालमेल था? कैसे इतनी सुंदर दिखती थी? सुंदर काया की देखभाल के लिए कैसा सौंदर्य प्रसाधन इस्तेमाल करती थी? आदिआदि….

इन सवालों के जवाब लोगों ने तरहतरह के सुन रखे थे. उस समय भी कोई कहता कि रानी दिखने में बहुत ही गोरी हैं. उन का चेहरा दूधिया रोशनी की तरह चमकता रहता है… वह दूध और गुलाब जल से नहाती हैं… दुर्लभ जड़ीबूटियों का उबटन लगाती हैं… बेशकीमती सौंदर्य प्रसाधन के सामान, काजल, इत्र आदि सुदूर देशों से मंगवाए जाते हैं. काले बालों को संवारने के लिए अलग से दासियां रखी गई हैं… उन्हें सजनेसंवरने में काफी वक्त लगता है… महंगा पारंपरिक परिधान पहनती हैं… उन में सोने के महीन तारों की नक्काशी की होती है.

अधिकांश लोग यह भी चर्चा करते कि सजीधजी रानी हमेशा परदे में रहती हैं. चेहरा एक झीने परदे से ढंका रहता है. उन्हें सिर्फ राजा ही देख सकता है… उसे कोई और देखे यह राजा को कतई स्वीकार नहीं. यही कारण था कि राजमहल में आईना केवल 2 जगह ही लगे थे. एक राजा के शयन कक्ष में तो दूसरा रानी के निजी कक्ष में.

भले ही लोग चर्चा चाहे जैसी भी करते थे, लेकिन एक सच्चाई यही थी कि महल में पूरी तरह से पाबंदी लगी हुई थी कि उन पर राजा के सिवाय किसी की नजर नहीं पड़े. किसी की परछाईं तो बहुत दूर की बात है. उन के कहीं भी आनेजाने से पहले कुछ दासियां महल के दूसरे दासदासियों और दूसरे कर्मचारियों को सतर्क कर देती थीं. तब सैनिक अपना मुंह दीवार की ओर फेर लेते थे.’

ऐसे कई किस्सेकहानियां किंवदंतियों की तरह चित्तौड़गढ़ की पूरी सियासत में फैली हुई थीं. चित्तौड़गढ़ भी हिंदुस्तान का किसी साधारण राज्य मेवाड़ का एक महत्त्वपूर्ण भाग नहीं था. प्राकृतिक धनसंपदा और कृषि उत्पादों से भरपूर. मेवाड़ में लोग सुखीसंपन्न थे. खाने के लिए सालों तक का अनाज बड़ेबड़े भवनों और उन की कोठियों में भरा रहता था.

बहुत ही अच्छी पैदावार वाली मिट्टी थी. न सूखे या बाढ़ की प्राकृतिक आपदा और न ही किसी बाहरी के घुसपैठ से उत्पन्न हुई विपदा की समस्या थी. राज्य में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं थी.

राजमहल काफी बड़ा बना था, जिस की सुरक्षा 7 घेरे में की गई थी. महल में कोई परिंदा भी बगैर सुरक्षाकर्मियों की जांचपरख और अनुमति के पर नहीं मार सकता था. रानी की सुरक्षा के भी काफी कड़े इंतजाम किए गए थे.

क्या मजाल थी कि बगैर राजा रावल रत्न सिंह की अनुमति और आदेश के राजमहल का कुछ भी बाहर निकलने पाए या भीतर प्रवेश हो जाए. न कोई तिनका और न ही किसी तरह की सूचना संदेश! किंतु राज्य के लोगों को उन की कल्पनाओं और निजी सोचविचार से कैसे रोका जा सकता था.

यही कारण था कि रानी पद्मिनी की खूबसूरती की चर्चाएं दबी जुबान पर होती रहती थीं. वही हवा में तेजी से फैलने वाली खुशबू की तरह हजारों मील दूर हिंदुस्तान की दिल्ली की गद्दी पर बैठे सुलतान अलाउद्दीन खिलजी तक जा पहुंची थी.

खिलजी एक सनकी किस्म का शासक था. वह जिसे हासिल करने के लिए मन में ठान लेता था, उसे हासिल कर के ही छोड़ता था.

उसे राजा रत्न सिंह के राजदरबार से निष्कासित ज्योतिष के द्वारा रानी की अपूर्व सुंदरता का बखान सुनने को मिला था. वह उसे पाने के लिए लालायित हो उठा. किंतु खिलजी को नहीं मालूम था कि रानी को पाना तो दूर, वह उस का दीदार तक नहीं कर सकता था. फिर भी वह एक बड़ी सेना ले कर चित्तौड़गढ़ के मुहाने पर जा पहुंचा. उस ने सभी कुछ जंग जीत कर ही हासिल किया था, हीरेजवाहरात और खानेपीने का शौकीन खिलजी एक विक्षिप्त किस्म का इंसान था. उस का मानना था कि दुनिया की हर दुर्लभ वस्तु सिर्फ उस के पास ही हो. रानी पद्मिनी और उन की असाधारण सुंदरता को भी वह दुर्लभ वस्तु की तरह ही मानता था.

पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर विशाल सेना के साथ चढ़ाई तो कर दी. किंतु दुर्ग की सुरक्षा को भेद तक नहीं पाया.  राजपूत सैनिकों की अद्भुत वीरता के आगे खिलजी के सैनिकों की एक नहीं चली, जबकि वह सैनिकों के साथ महीनों तक चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी किए जमा रहा.

उस दौरान दुर्ग के बाहर युद्ध चलता रहा, लेकिन भीतर सारे पर्वत्यौहार और दूसरे तरह के आयोजन पूरे जोश और उत्साह, उमंग के साथ मनाए जाते रहे.

युद्ध की रणनीति और कौशल के बावजूद जब खिलजी दुर्ग में घुस नहीं पाया, तब उस ने कूटनीति की योजना बनाई. उस ने युद्ध समाप्ति और मित्रता के संदेश के साथ अपने एक दूत को रावल रत्न सिंह के पास भेजा.

खिलजी ने अपने संदेश में लिखा, ‘हम आप से मित्रता करना चाहते हैं. रानी की सुंदरता के बारे में बहुत सुना है, इसलिए हमें सिर्फ रानी का चेहरा दिखा दीजिए, हम सैनिकों का घेरा उठा कर दिल्ली लौट जाएंगे.’

यह संदेश सुनते ही रत्न सिंह आगबबूला हो गए. मगर रानी ने इस पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए पति को समझाया, ‘‘मेरे कारण व्यर्थ ही मेवाड़ के सैनिकों का खून बहाना बुद्धिमानी नहीं है.’’ यह कहते हुए रानी ने अपनी नहीं, बल्कि पूरे मेवाड़ की चिंता जताई.

उन्होंने राजा से कहा कि उन के कारण पूरा मेवाड़ तबाह हो जाएगा. प्रजा को काफी नुकसान होगा. उन्हें भारी दुख उठाना पड़ेगा. उन की छोटी सेना खिलजी की विशाल सेना के आगे बहुत दिनों तक और नहीं टिक पाएंगी. 2 राज्यों के बीच दुश्मनी हो जाएगी सो अलग. उस का भी भविष्य में किसी न किसी रूप में नुकसान उठा पड़ सकता है.

इसलिए रानी बीच का रास्ता निकालते हुए राजा से बोली कि उन्हें राजधर्म का निर्वाह करते हुए खिलजी की बात मान लेनी चाहिए. वह चाहे तो आईने में अपना चेहरा उसे दिखा सकती हैं.

राजा को पद्मिनी की यह सलाह पसंद आई और उन्होंने शर्त मानते हुए खिलजी को अपना अतिथि बनाने का संदेश भेज दिया, साथ ही रानी द्वारा आईने में चेहरा दिखाने के सुझाव की शर्त बता दी.

दूसरी तरफ खिलजी को भी महीनों तक युद्ध करते हुए यह एहसास हो गया था कि चित्तौड़गढ़ की सेना को हराना आसान नहीं था. उन का राशन भी खत्म होने वाला था और 4 महीने की जंग में उस के हजारों सैनिकों की जान चली गई थी. यह वजह रही कि उस ने भी रत्न सिंह की शर्त मानते हुए उन के प्रस्ताव के साथ आतिथ्य स्वीकार कर लिया.

दुर्ग में खिलजी के अतिथि सत्कार के लिए महल में सरोवर के बीचोबीच भव्य आयोजन की तैयारी की गई थी. स्वादिष्ट भोजन का उत्तम प्रबंध किया गया. मनोरंजन के लिए लोक कलाकारों को विशेष तौर पर बुलाया गया था.

इन में सब से महत्त्वपूर्ण शर्त के मुताबिक महल की दीवार पर आईना इस तरह से लगवाया गया, ताकि रानी अपने कमरे में खिड़की के पास बैठने पर उन का चेहरा आईने में नजर आए. आईने की परछाईं को सरोवर के साफ और स्थिर पानी में दिखने के इंतजाम किए गए थे.

यहां तक तो सब कुछ ठीक था. निर्धारित समय के अनुसार खिलजी और राजा रत्न सिंह आतिथ्य आयोजन के लिए आमनेसामने बैठ गए थे. उन के आगे किस्मकिस्म के पेय परोसे जाने लगे. थोड़ी दूरी पर नृत्य गीतसंगीत का कार्यक्रम भी शुरू हो गया.

आखिरकार वह घड़ी भी आ गई, जब खिलजी ने सरोवर के पानी में रानी का खूबसूरत चेहरा देखा. रानी की पानी में अप्रतिम सुंदरता को देख कर वह दंग रह गया. उस ने जो कुछ सुना था और उस के मन में किसी स्त्री के अपूर्व सुंदरता की जो कल्पना थी, रानी पद्मिनी उस से भी कई गुणा अत्यधिक सुंदर दिख रही थी.

फिर क्या था. एक पल के लिए उस के मन में विचार आया, ‘जो पानी में इतनी सुंदर दिख रही है, सामने से और न जाने कितनी सुंदर होगी?’

खिलजी ने अपना आपा खो दिया और दूर खड़े अपने सैनिकों को इशारा कर रावल रत्न सिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया.

रत्न सिंह को कैद कर वह अपने साथ दिल्ली ले आया और उन्हें जंजीरों में जकड़ कर कैदखाने में डाल दिया. उन के सामने प्रस्ताव रखा कि रानी पद्मिनी को सौंपने के बाद ही उन्हें मुक्त किया जाएगा. यह संदेशा उस ने दुर्ग में रानी के पास भिजवा दिया.

दुर्ग में राजा के कैद किए जाने की खबर से खलबली मच गई, लेकिन रानी ने धैर्य का परिचय देते हुए कूटनीतिक जवाब भेजा.

संदेश में लिखवाया, ‘मैं मेवाड़ की महारानी अपनी 700 दासियों के साथ आप के सम्मुख उपस्थित होने से पहले अपने पति राजा रत्न सिंह के दर्शन करना चाहूंगी. मुझे पहले उन की सलामती का प्रमाण देना होगा.’

रानी का यह संदेशा पा कर खिलजी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और अद्भुत सुंदर रानी को पाने के लिए बेताब हो गया. उस ने रानी की शर्त तुरंत स्वीकार ली.

उस के संदेश को पाते ही रानी ने अपने सेनापति गोरा और उन के भतीजे बादल से रत्न सिंह को छुड़वाने की योजना बनाई. दोनों रियासत के अत्यंत ही वीर और पराक्रमी योद्धा थे. उन के साहस, बल और पुरुषार्थ से सारे शत्रु कांपते थे. वे ताकवर ही नहीं, कुशाग्र बुद्धि के भी थे. रानी गोरा के पास गई. तब उस ने रानी को वचन दिया कि जब तक गोरा का शीश रहेगा, तब तक राजा रत्न सिंह का मस्तक नहीं कटेगा.

रानी गोरा की बात सुन कर गदगद हो गईं. उस के बाद गोरा और बादल योजना बना कर दिल्ली की ओर कूच कर गए. योजना के मुताबिक गोरा ने 700 सशस्त्र सैनिकों को पालकियों में बिठा दिया था. जबकि खिलजी को बताया कि पालकियों में रानी पद्मिनी की 700 दासियां हैं. उन्हीं में से एक पालकी में रानी होगी. उन के इशारे पर वे बाहर निकल आएंगी. उन पालकियों को कंधा देने वाले सैनिक ही थे. इस तरह से गोरा और बादल करीब 3 हजार से अधिक सैनिकों के साथ दिल्ली पहुंचे थे.

दूत से इस की जानकारी मिलने पर खिलजी खुशी से उछल पड़ा और उस ने तुरंत रत्न सिंह को पद्मिनी से मिलवाने का हुक्म दे दिया. आदेश की सूचना पा कर गोरा ने बादल को आगे की रणनीति समझाई.

उस से कहा कि रानी के वेश में लोहार जाएगा. उस के पीछे की पालकी में वह स्वयं रहेगा. साथ में दासियों की 10 पालकियां भी होंगी, जिन में दासियों के वेश में सैनिक होंगे.

लोहार रत्न सिंह को लोहे की जंजीरों से मुक्त कर देगा. बाहर धुड़सवार आड़ लिए तैयार रहेंगे. रत्न सिंह के आते ही वे उन्हें ले कर आंधी की तरह उड़ जाएंगे. उस के बाद गोरा योजना के मुताबिक रत्न सिंह के कैदखाने की तरफ बढ़ गए.

राजा रत्न सिंह ने वेश बदले गोरा को पहचान लिया. वह उस के गले लग गए. उन्होंने उस के साथ राजदरबार में की गई बीते समय की बेइज्जती की माफी मांगी. यहीं उन से एक भूल हो गई और खिलजी के सेनापति को उस पर संदेह हो गया.

देर नहीं करते हुए उस ने खिलजी तक इस की तत्काल सूचना भेज दी. यह सुन कर खिलजी बौखला उठा. खिलजी की सेना आने तक रत्न सिंह को ले कर गोरा और बादल फरार हो चुके थे. हालांकि वे जल्द ही खिलजी के सैनिकों से घिर गए. उस के सेनापति जफर ने ललकारते हुए उन पर हमला कर दिया था.

दोनों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया. एक तरफ खिलजी के हजारों सैनिक थे, जबकि गोरा और बादल राजा रत्न सिंह को बचाते हुए कुछ सैनिकों के साथ ही जंग जीतने के प्रयास में थे.

अंतत: उन के बीच खूब तलवारें चलीं. एकदूसरे पर भाले फेंके गए.  गोरा और बादल जख्मी होने के बावजूद लड़ते रहे. एक मौका ऐसा भी आया जब गोरा ने अपनी तलवार खिलजी की गरदन पर रख दी, लेकिन उस ने चपलता के साथ अपनी बेगम की आड़ ले ली. उस की बेगम ने अपने पति को छोड़ देने की भीख मांगी. गोरा एक पत्नी द्वारा पति के रहम की भीख मांगने पर पसीज गया. तब तक मौका पा कर उस के सेनापति ने गोरा पर हमला बोल दिया.

खिलजी बच निकलने में सफल हो गया, जबकि जफर ने गोरा का सिर काट डाला. तभी गुस्से में बादल ने जफर का भी शीश काट दिया. इस भयंकर युद्ध में गोरा और बादल की मौत हो गई, लेकिन राजा रत्न सिंह वहां से निकल भागने में सफल हो गए.

उन्होंने चितौड़गढ़ पहुंच कर सारा वाकया रानी पद्मिनी को सुनाया. पद्मिनी गोरा और बादल की शहादत से काफी आहत हुईं. उन की याद में रत्न सिंह और रानी ने चित्तौड़गढ़ किले में रानी पद्मिनी के महल के दक्षिण में 2 गुंबद बनवाए. उन्हें गोरा और बादल का नाम दिया गया.

उधर अलाउद्दीन खिलजी अपनी हार से काफी आहत हो गया था. वह बदले की आग में जल रहा था. वह रानी को पाने के लिए भी व्याकुल था. उस की स्थिति एकदम से विक्षिप्तावस्था जैसी हो गई थी.

हार से खुद पर लज्जित था. बदले की आग में जलते हुए खिलजी ने एक बार फिर चित्तौड़गढ़ पर हमला करने की ठान ली. इस बार उस ने पूरी तैयारी के साथ हजारों सैनिकों को ले कर चित्तौड़गढ़ दुर्ग के चारों तरफ डेरा डाल दिया.

यह लड़ाई पहले की लड़ाइयों से ज्यादा खतरनाक थी. एक बार फिर रानी पद्मिनी ने अपनी सूझबूझ से मुगल सेना की बड़ी फौज को हटवाने की पहल की, लेकिन तब तक खिलजी काफी आक्रामक बन चुका था.

वह चोट खाए नाग की तरह बन चुका था. रानी ने खिलजी को राजा के साथ संधि करने की सूचना भेज कर उस के गुस्से को शांत करने की कोशिश की, किंतु उस में सफलता नहीं मिली.

उधर 6 महीने से दुर्ग के घेरे और युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री की किल्लत होने लगी. दोनों मौसमी फसलों की बुआई तक नहीं हो पाई. हजारों सैनिकों की जानें चली गईं. राजा रत्न सिंह भी परेशान और चिंतित रहने लगे.

मुगल सेना का दबदबा दुर्ग पर बढ़ता ही जा रहा था. रानी को दुर्ग में रहने वाली औरतों और लड़कियों की अस्मिता की चिंता सताने लगी. रानी ने एक बड़ा फैसला लिया. वह फैसला जौहर की चिता का था. उस के लिए सैनिकों ने केसरिया परिधान में इस की तैयारी शुरू कर दी.

गोमुख के उत्तरी भाग वाले मैदान में एक विशाल चिता बनाई गई. रानी पद्मिनी ने अपनी हजारों रमणियों के साथ गोमुख में स्नान किया और सभी एक साथ भयंकर आग की उठती लपटों वाली चिता में प्रवेश कर गईं. उन्होंने सामूहिक जौहर को जिस तरह से अपनाया, उस से उन का अप्रतिम सौंदर्य अग्नि में जल कर कुंदन बन गया.

आसमान में आग की लपटें छू रही थीं. बाहर खिलजी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि दुर्ग में आखिर क्या हो रहा था. इस जौहर से राजा रत्न सिंह भी आहत हो गए. उन्होंने दुर्ग में मौजूद 30 हजार से अधिक सैनिकों के लिए किले के द्वार खुलवा दिए.

द्वार खुलते ही सभी सैनिक भूखे शेर की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े. इस तरह से 6 महीने और 7 दिनों के खूनी संघर्ष के बाद 18 अप्रैल, 1303 को खिलजी को जीत मिली. लेकिन दुर्ग में चारों ओर शव ही शव थे. न कोई स्त्री और न ही कोई बच्चे और जवान व्यक्ति. यहां तक कि राजा रत्न सिंह भी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे.

रानी पद्मिनी ने राजपूत नारियों की कुल परंपरा, मर्यादा और गौरव को बचाने का जो बलिदान दिया, वह इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया.

Romantic Story: जीती तो मोहे पिया मिले हारी तो पिया संग

Romantic Story: सियाने टक बिजनैस स्कूल हैनोवर से एमबीए किया तो भारी पैकेज के साथ गूगल ने उसे अपने यहां नौकरी दे कर उस के वीजा को ऐक्सटैंड करवा दिया. अब कुछ दिनों के लिए वह इंडिया जा रही थी. मगर इतना कुछ हासिल करने के बावजूद सिया के चेहरे पर गमों के बादल मंडरा रहे थे. आंसुओं के बोझ से पलकें सूज गई थीं. यह भी इत्तफाक ही था कि ठीक 2 साल पहले ही दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अपनों से दूर होने का शोकाकुल मन इमिग्रेशन के लिए सिया के बढ़ते कदमों को बारबार पीछे खींच रहा था और आज वही मन उस से कितनी निर्दयता से आंखमिचौली करते हुए उसे आगे ही नहीं बढ़ने दे रहा था.

बोस्टन की गलियों में सैम की बांहों में बंधी वह अनमनी सी दिन भर घूमती रही. उस के मन में उमड़ रहे विरहवियोग के समंदर को शांत करता सैम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ले कर स्टैनफोर्ड के चप्पेचप्पे में उसे घुमाता रहा. सिया के दुबलेपतले नाजुक शरीर को अपनी बांहों में भरते हुए सैम भर्राए कंठ से बोला, ‘‘मुझे ऐसे छोड़ कर मत जाओ सिया, मैं तुम्हारे बिना किसी आईने की तरह टूट कर बिखर जाऊंगा… जिसे तुम जानती तक नहीं उसी की होने के लिए लौट रही हो और जिस ने तुम्हें प्राणों से बढ़ कर चाहा उसे छोड़ रही हो.’’

सैम का इतना कहना था कि सिया किसी लता की तरह उस से लिपट गई. दोनों की आंखों से सावनभादो बरस रहे थे. सैम ने बांहों में भरी सिया को ला कर कार की पिछली सीट पर बैठा दिया. उसे आलिंगन में कसते हुए उस के अश्रुपूरित चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. सिया भी प्यार की इस बरसात में बिना किसी प्रतिवाद के भीगती रही. कभी न खत्म होने वाली जुदाई की घडि़यों से घबरा कर दोनों ने प्यार की मर्यादा की सरहद को पार कर लिया. दोनों को कहीं कोई पछतावा नहीं था. दोनों पूर्णता के एहसास में डूबउतरा रहे थे.

एकदूसरे को समर्पित हो कर दोनों का शोकाकुल मन ऊंची लहरों के जाने के बाद किसी समंदर की तरह शांत पड़ चुका था. परम संतुष्टि का एहसास संजोए अभीअभी शादी के बंधन में बंधे नए जोड़े की तरह दोनों घूमते रहे. मतवाला मन पंख लगा कर उड़ा जा रहा था. दोनों एकदूसरे में इतने खोए हुए थे कि हर बार उन की गाड़ी चारों ओर से घूम कर हाईवे पर आ कर रुक रही थी. यह बोस्टन शहर की अपनी विशेषता है.

सैम के गले में अपनी बांहों का हार पहनाते हुए सिया ने कहा, ‘‘सैम, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सारी जिंदगी इसी तरह गोलगोल घूमते रहें?’’ जवाब में सैम ने उसे बांहों में भर लिया. बड़ी जद्दोजहद के बाद दोनों ने अपने उतावलेपन पर काबू पाया. फिर सिया को बांहों में ही लिए भरे मन से सैम ने अपनी गाड़ी हवाईअड्डे की ओर मोड़ दी.

3 घंटे का रिपोर्टिंग टाइम बीत गया था. प्लेन के उड़ान भरने में घंटा भर रह गया था. सैम से गले मिल कर सिया सामान की ट्रौली के साथ झटके से आगे बढ़ तो गई मगर फिर उसी वेग से पीछे लौट कर सैम से लिपट गई. अश्रुपूरित नेत्रों से सिया ने सैम को बाय कहते हुए विदा ली. जब तक आंखों से वह ओझल नहीं हुई हाथ हिलाते हुए सैम उसे निहारता रहा. यह प्यार भी बड़ी खूबसूरत और अजीबोगरीब घटना होती है. जिस ने किया वह ठगा ही रह जाता है. कैसे प्यार के हजारों रंग मिल कर धनक बन कर, धड़कते दिलों में चुपके से उतर कर देश, जाति, धर्म, भाषा की सारी सरहदें चुटकियों में फांद जाते हैं.

‘उदास, बुझा हुआ सैम हैनोवर लौट रहा होगा,’ सोच सिया बेचैन हो उठी. 4 घंटे के सफर में उस के खयालों से शायद ही वह बाहर आ सकी. ‘यह भी बड़ा हसीन इत्तफाक है कि किसी दूसरे देश का वासी उस के सपनों का, अरे नहीं उस के जीवन का राजकुमार बन गया,’ सोच वह एक अजीब ठंड के एहसास से सिहर उठी. फिर शाल को ओढ़ते हुए सैम की छवि को कल्पना में साकार कर उठी कि काश, इस यात्रा में वह भी उस के साथ होता.

एक मीठी सी आह भर कर उस ने आंखें बंद कर लीं. सभी तरह से अनजान सैम चुपकेचुपके उस की धड़कन बन गया… 2 साल पहले के अतीत के सारे पन्ने 1-1 कर उस के समक्ष खुलते चले गए. डाइनिंगहौल में टेबल पर सजी केवल नौनवैज डिशेज को डबडबाई नजरों से देखती असहाय सी वैजिटेरियन सिया. सभी कितने आनंद से खाने का लुत्फ उठा रहे थे. सिया अपने कमरे में प्रवेश कर ही रही थी कि अचानक सैम वहां आ पहुंचा और फिर उसे डाइनिंगहौल में आने को विवश कर दिया.

बटर लगे ब्रैडपीस, दही और कुछ ताजे फलों के साथ सिया को प्लेट थमाई तो उस का मुरझाया चेहरा खिल उठा. दोनों के विषय एवं क्लासेज बिल्डिंग्स अलगअलग थीं फिर भी उस दिन के बाद से सैम उस की आवश्यकता बन कर उस की हर समस्या का समाधान बन गया. 1 साल बाद सभी स्टूडैंट्स होस्टल से बाहर कौटेज ले कर रहते हैं. 3 लड़कियों के साथ सिया के रहने की व्यवस्था सैम ने ही की. सिया के पैसे कम से कम खर्च हों, सैम को हर समय इस की चिंता रहती थी. उस भयानक रात को सिया कैसे भूल सकती है जब बर्फ का तूफान आया था. सारा हैनोवर अंटार्टिका बन गया था. बिजली के जाने से सब कुछ ठप हो गया था. आवागमन के सारे रास्ते बंद हो चुके थे.

इतनी ठंड और बर्फ की परवाह न करते हुए सैम सिया के खानेपीने के सामान के साथ उस के कौटेज आ गया था. उस तूफानी रात को सिया ने सैम को रोक लिया था. उस अंधेरी रात को दोनों ने टौर्च की रोशनी में बिताया था. बिजली की हर गरजना के साथ वह सहम कर सैम की हथेलियों को थाम लेती थी. ऐसा देश जहां सैक्स को भी और चीजों की तरह शारीरिक आवश्यकता समझा जाता है, उसी देश के एक फरिश्ते ने उसे आगोश में बांधे सारी रात गुजार दी पर कहीं असंयमित नहीं हुआ… मर्यादा की सीमा नहीं लांघी.

2 हफ्ते पहले सैम सिया को न्यूजर्सी ले गया था. ‘फारमर्स सन औफ गार्डन सिटी’ का कह कर स्वयं का परिचय देने वाले सैम के महल को सिया अपलक देखती रह गई. दरवाजे पर खड़ी चमचमाती 3-3 गाडि़यां, थोड़ी दूरी पर पार्क किया रिक्रीएशन व्हीकल, जो एक तरह से सारी सुविधाओं से सजा मोबाइल घर होता है, ट्रैक्टर, खेती करने के सारे औजार, स्टैबल में बंधे श्वेतश्याम रंग के तगड़े घोड़े, मुरगीखाना आदि को देख कर सिया को अपने देश के दीनहीन, भूखे किसान और उन के नंगधडं़ग बच्चे याद आ गए. कैसे लुटेरों के हाथों में देश चला गया है कि दिनोंदिन गरीबीबेकारी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है. सैम के मम्मीडैडी ने सिया को गले लगा कर प्यार किया. तीनों दिन तक उस की सुखसुविधा का खयाल अच्छी तरह रखने के लिए सैम को आगाह करते रहे. पर रात तक वे नीचे के लिविंग रूम में बैठ कर मूवी देखते रहते और फिर दोनों कितनी शालीनता से गुड नाइट कह अपनेअपने रूम में चले जाते. कोई ताकझांक नहीं.

राबर्ट वुड हौस्पिटल में मैडिसिन की पढ़ाई कर रही सैम की बहन एलिस भी मैमोरियल डे की छुट्टी पर घर आ गई थी. सिया और सैम को देख हंस कर उस ने परफैक्ट पेयर कहा. उस ने सिया को ढेर सारे परफ्यूम, लिपस्टिक और नेलपौलिश दी. सैम की मां ने भी फेयरी जैसे श्वेत परिधान के साथ धवल मोतियों का सैट मुसकराते हुए अंगरेजी में यह कहते हुए सिया को दिया, ‘‘सैम, तुम्हें बहुत चाहता है… हमेशा सुखी व खुश रहो.’’ सिया ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें देखा और फिर अपनी मिट्टी की परंपरा को निभाते हुए उन के पैरों को छू लिया. मैमोरियल डे के दिन सैम उसे न्यूयौर्क सिटी घुमाने ले गया. पूरा दिन दोनों एकदूसरे में बंधे घूमते रहे.

उस दिन हडसन नदी में अनगिनत बड़े जहाज आए थे. उन जहाजों पर कहीं विमान उतर रहे थे तो कहीं उड़ रहे थे जिन्हें देख कर सिया किसी बच्ची की तरह चहक उठी थी. सारे दर्शनीय स्थल देख कर दोनों थक गए थे. टाइम्स स्क्वायर में सड़क के किनारे बनी गैलरी में बैठ कर दोनों ने थिएटर का आनंद उठाया. वहीं पास के रेस्तरां में डिनर ले कर रौक फेलर सैंटर की विपरीत दिशा में बनी लोहे की बैंच पर बैठ गए.

रात को जब सिया को ठंड लगने लगी तो सैम ने उसे अपनी जैकेट के अंदर ले लिया. दोनों यों ही बैठे एकदूसरे के दिलों की धड़कनें सुनते रहे. सैम की उंगलियां जब सिया के बदन पर बिजली का करंट बन कर प्रवाहित होने लगीं तो वह जैकेट से बाहर आ गई. बड़ी मुश्किल से अपने बेताब मन को समझा सकी. ‘‘यू इंडियन बेबी,’’ कहते हुए सैम ने हंस कर उसे पास खींच लिया.

सड़क किनारे पार्किंग में लगी गाड़ी में दोनों ने सारी रात गुजारी थी. बहकते मन पर काबू पाना कितना मुश्किल लगा था.

मैसी मौल से सिया ने अपने मम्मीपापा, दिव्या व दिया के लिए ड्रैसेज लीं. उस के लाख मना करने के बावजूद सैम ने उन लोगों के लिए कितने उपहार खरीद दिए थे. सिया को तो उस ने अपनी पसंद की सारी चीजों से ढक दिया था.

आज जो भी घटित हुआ वह अचानक था, फिर भी कितना तसल्ली दे गया है मन को. जिसे मन से चाहा उस की समर्पिता भी हो गई. क्या हुआ जो अगर उस के म्ममीपापा अपनी सोच और पारिवारिक मर्यादा के लिए सैम को उस के जीवन में नहीं ला सके. वह अपने होंठों को सी लेगी. उफ तक नहीं करेगी. उन की इच्छा का मान रखते हुए वह राज से ब्याह कर लेगी. प्रीत की गली इतनी संकरी होती ही है कि जहां 2 दिल ही मुश्किल से समाते हैं तो तीसरे के समाने की गुंजाइश ही कहां रह जाती है. इस तन पर राज का अधिकार क्यों न हो जाए दुलहनियां तो सैम की ही रहेगी. अपनी समस्त पीड़ा को, मीठी कसक को आंसुओं से नहला आनंद उगा लेगी. जिस ने भी सच्ची प्रेम पगी इस चुनर को ओढ़ा उस के अंतर में ‘एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोए…’ के बोल प्रतिध्वनि हो उठे.

अतीत को खंगालने में सारा समय सिया ने आंखों में ही बिता दिया. देह की सिहरन उसे आनंद की चरम सीमा पर ले आई थी. बीते पलों की खुमारी उसे खुल कर सांसें भी नहीं लेने दे रही थी. सैम तो नहीं पर उस के परिमल को अपने साथ ले कर आई थी जिसे महसूस कर के उस के प्रेम का मधु पी कर सच में बौरा उठा था सिया का कणकण. जहाज की लैंडिंग की घोषणा हो रही थी.

जैसे ही सिया हवाईअड्डे से बाहर आई दोनों छोटी बहनें दिव्या और दिया दौड़ कर उस से लिपट गईं. मम्मीपापा की छलक आई आंखों को देखते ही वे दौड़ कर दोनों से लिपट गई. ‘‘मां देखो न दीदी कितनी खिल गई है… राज जीजू कितने खुश होंगे दीदी को देख कर… दीदी की उपलब्धियों पर उन्हें कितना गर्व होगा,’’ दिव्या बोली.

‘‘अच्छा तो बड़ी बातें बनाने लगी है तू,’’ कहते हुए सिया बुदबुदाई, ‘‘अरे बावरी सैम जीजू कह.’’

दूसरे दिन ही राज अपने मम्मीपापा के साथ सिया के घर आ गया. उसे देख कर सिया खुश नहीं हुई तो उसे दुख भी नहीं हुआ. सब कुछ उस ने अपनी नियति पर छोड़ दिया था. उस के मम्मीपापा तो उन के समक्ष छिपे जा रहे थे. उन्होंने सिया की टक स्कूल की उपलब्धियों को उन्हें बताया जिन्हें सुन कर वे चुप हो गए. औपचरिकता के लिए भी उन्होंने सिया को बधाई नहीं दी. एकांत पाते ही राज ने सिया के समक्ष अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा, ‘‘सुना है अमेरिका में लोग खुलेआम कहीं भी, किसी से भी सैक्स ऐंजौय कर लेते हैं… इतने लंबे समय में तुम ने कभी इस का आनंद लिया या नहीं? अगर नहीं लिया तो तुम परले दर्जे की बेवकूफ हो.

‘‘और कुछ नहीं तो लिप किस तो अवश्य दिया होगा जिसे कोई भी गले लगाते समय अंकित कर के होंठों पर मुहर लगा ही देता है. मुझे नहीं लग रहा है कि तुम इन सब से स्वयं को बचा पाई होगी. क्यों ठीक कहा न? कोई बात नहीं, जब मैं वहां जाऊंगा तो सूद सहित इस की भरपाई कर लूंगा,’’ कहते हुए उस ने सिया की उंगलियों को भींच दिया. दर्द से सिया के मुंह से कराह निकल गई. राज की ओछी मानसिकता पर, उस की गिरी सोच पर घृणा से सिया उस से हाथ छुड़ा कर भागी. कितना फर्क है सैम और राज की छुअन में… एक की जरा सी छुअन सारी ऋतुओं को पल भर में ही पावस और वसंत बना कर रख देती है तो दूसरे के स्पर्श से अनगिनत बिलबिलाते कीड़े उस के शरीर पर रेंग गए… कैसे इस लिजलिजे व्यक्ति के साथ अपना जीवन बिता पाएगी…

इंगेजमैंट से ले कर शादी का सारा इंतजाम सिया के पापा को करना था और ये सब किसी पांचसितारा होटल में होने की बात कह कर उन लोगों ने विदा ली. फेसटाइम कर के सिया ने सारी बातें सैम को बता कर अपने मन को हलका कर लिया था. जैसेजैसे इंगेजमैंट के दिन निकट आ रहे थे, राज के यहां से फरमाइशों की लिस्ट में कोई न कोई नई आइटम जुड़ती जा रही थीं. सिया के पापामम्मी चिंतित से लग रहे थे. उन की खुशियों का दायरा सिमटता जा रहा था.

जब उन्होंने कार की मांग रखी तो सिया के पापा उबल पड़े, ‘‘नहीं करनी हमें सिया की शादी इन लालचियों के यहां. मेरी प्रतिभाशाली बेटी के समक्ष कुछ भी तो नहीं है राज… एक मामूली इंजीनियर जो मेरी बेटी के बल पर अमेरिका जाएगा, फिर इस की मेहरबानियों से एच4 वीजा पर नौकरी करेगा.’’ ‘‘सच पापा,’’ कह कर सिया उन के गले लग गई.

तभी खुसरो की पंक्तियां उस के कानों में रस घोल गईं. ‘‘खुसरो बाजी प्रेम की लागी पी के संग, जीती तो मोहे पिया मिले, हारी तो पिया संग.’’

मारे खुशी के वह पूरी रात सैम से बातें करती प्रेम रस में भीगती रही. सैम से सभी आश्वासन पा कर सिया ने अगले दिन सैम के इतिहास से सभी घर वालों को अवगत करा दिया, जिसे सुन कर सभी सैम के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो गए. फिर क्या था, फेसटाइम पर सैम से सभी ने जी खोल कर बातें कीं. सैम के आकर्षक व्यक्तित्व और शालीनता ने सभी को मोह लिया.

बेटी के शानदार चयन पर गौरवान्वित हो पापा और मम्मी की आंखें भर आईं. दिव्या व दिया भी आगे की पढ़ाई अमेरिका में करेंगी. सैम से आश्वासन पा कर सभी भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गए. सिया के लिए तो खुशियों की कायनात ही जमीं पर उतर आई थी. जो इश्क आसान नहीं था उसे सिया के धैर्य और अटल विश्वास ने प्राप्त कर लिया था. मीरा बन कर सैम की जोगिन तो हमेशा रहेगी तभी रुक्मिणी और सत्यभामा के जीवन को जी पाएगी.

3 हफ्ते के भीतर सैम अपने परिवार के साथ इंडिया आ गया. पहले रजिस्टर्ड मैरिज और फिर छेड़छाड़ वाली भारतीय परंपराओं वाली ऊटपटांग रस्मों व रिवाज से खूब धूमधाम से शादी हुई. भारतीय दूल्हा बना सैम सब का दुलारा बना हुआ था. उस की मम्मी, पापा और बहन की खुशियां सिया समेट नहीं पा रही थी. श्वेत परिधान और हीरेमोतियों के जेवरों से चमचमाती सिया और सैम के परिवार आपस में जुड़ गए. कहीं जाति, धर्म, देश का आडंबर नहीं था. एकदूसरे के घर के तौरतरीकों को मानसम्मान देते हुए दोनों परिवार खिल उठे थे.

फिर सैम और सिया ने अपना हनीमून अपने परिवार वालों के साथ भारत के सारे दर्शनीय स्थानों को घूमघूम कर मनाया. पंख लगा कर छुट्टी के दिन गुजर गए. अगले हफ्ते ही सिया और सैम को अपनी ड्यूटी जौइन करनी थी. हजारों खूबसूरत सपनों को पलकों में सजाए खुशी के आंसुओं को दामन में समेटे सिया वहां लौट गई जहां एक नया सूर्योदय उस के जीवन को आलोकित करने के लिए बेचैन था.

Family Story: बंद खिड़की – अलका ने अपने पति का घर क्यों छोड़ दिया?

Family Story, लेखक – मृदुला नरुला
‘‘मौसी की बेटी मंजू विदा हो चुकी थी. सुबह के 8 बज गए थे. सभी मेहमान सोए थे. पूरा घर अस्तव्यस्त था. लेकिन मंजू की बड़ी बहन अलका दीदी जाग गई थीं और घर में बिखरे बरतनों को इकट्ठा कर के रसोई में रख रही थीं.

अलका को काम करता देख रचना, जो उठने  की सोच रही थी ने पूछा, ‘‘अलका दीदी क्या समय हुआ है?’’

‘‘8 बज रहे हैं.’’

‘‘आप अभी से उठ गईं? थोड़ी देर और आराम कर लेतीं. बहन के ब्याह में आप पूरी रात जागी हो. 4 बजे सोए थे हम सब. आप इतनी जल्दी जाग गईं… कम से कम 2 घंटे तो और सो लेतीं.

अलका मायूस हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘अरे, हमारे हिस्से में कहां नींद लिखी है. घंटे भर में देखना, एकएक कर के सब लोग उठ जाएंगे और उठते ही सब को चायनाश्ता चाहिए. यह जिम्मेदारी मेरे हिस्से में आती है. चल उठ जा, सालों बाद मिली है. 2-4 दिल की बातें कर लेंगी. बाद में तो मैं सारा दिना व्यस्त रहूंगी. अभी मैं आधा घंटा फ्री हूं.’’ रचना अलका दीदी के कहने पर झट से बिस्तर छोड़ उठ गई. यह सच था कि दोनों चचेरी बहनें बरसों बाद मिली थीं. पूरे 12 साल बाद अलका दीदी को उस ने ध्यान से देखा था. इस बीच न जाने उन पर क्याक्या बीती होगी.

उस ने तो सिर्फ सुना ही था कि दीदी ससुराल छोड़ कर मायके रहने आ गई हैं. वैसे तो 1-2 घंटे के लिए कई बार मिली थीं वे पर रचना ने कभी इस बारे में खुल कर बात नहीं की थी. गरमी की छुट्टियों में अकसर अलका दीदी दिल्ली आतीं तो हफ्ता भर साथ रहतीं. खूब बनती थी दोनों की. पर सब समय की बात थी. रचना फ्रैश हो कर आई तो देखा अलका दीदी बरामदे में कुरसी पर अकेली बैठी थीं.

‘‘आ जा यहां… अकेले में गप्पें मारेंगे…. एक बार बचपन की यादें ताजा कर लें,’’ अलका दीदी बोलीं और फिर दोनों चाय की चुसकियां लेने लगीं.

‘‘दीदी, आप के साथ ससुराल वालों ने ऐसा क्या किया कि आप उन्हें छोड़ कर हमेशा के लिए यहां आ गईं?’’

‘‘रचना, तुझ से क्या छिपाना. तू मेरी बहन भी है और सहेली भी. दरअसल, मैं ही अकड़ी हुई थी. पापा की सिर चढ़ी लाडली थी, अत: ससुराल वालों की कोई भी ऐसी बात जो मुझे भली न लगती, उस का जवाब दे देती थी. उस पर पापा हमेशा कहते थे कि वे 1 कहें तो तू 4 सुनाना. पापा को अपने पैसे का बड़ा घमंड था, जो मुझ में भी था.’’

दीदी ने चाय का घूंट लेते हुए आगे कहा, ‘‘गलती तो सब से होती है किंतु मेरी गलती पर कोई मुझे कुछ कहे मुझे सहन न था. बस मेरा तेज स्वभाव ही मेरा दुश्मन बन गया.’’

चाय खत्म हो गई थी. दीदी के दुखों की कथा अभी बाकी थी. अत: आगे बोलीं, ‘‘मेरे सासससुर समझाते कि बेटा इतनी तुनकमिजाजी से घर नहीं चलते. मेरे पति सुरेश भी मेरे इस स्वभाव से दुखी थे. किंतु मुझे किसी की परवाह न थी. 1 वर्ष बाद आलोक का जन्म हुआ तो मैं ने कहा कि 40 दिन बाद मैं मम्मीपापा के घर जाऊंगी. यहां घर ठंडा है, बच्चे को सर्दी लग जाएगी.’’ मैं दीदी का चेहरा देख रही थी. वहां खुद के संवेगों के अलावा कुछ न था.

‘‘मैं जिद कर के मायके आ गई तो फिर नहीं गई. 6 महीने, 1 वर्ष… 2 वर्ष… जाने कितने बरस बीत गए. मुझे लगा, एक न एक दिन वे जरूर आएंगे, मुझे लेने. किंतु कोई न आया. कुछ वर्ष बाद पता लगा सुरेश ने दूसरा विवाह कर लिया है,’’ और फिर अचानक फफकफफक कर रोने लगीं. मैं 20 वर्ष पूर्व की उन दीदी को याद कर रही थी जिन पर रूपसौंदर्य की बरसात थी. हर लड़का उन से दोस्ती करने को लालायित रहता था. किंतु आज 35 वर्ष की उम्र में 45 की लगती हैं. इसी उम्र में चेहरा झुर्रियों से भर गया था.

मुझे अपलक उन्हें देखते काफी देर हो गई, तो वे बोलीं, ‘‘मेरे इस बूढ़े शरीर को देख रही हो… लेकिन इस घर में मेरी इज्जत कोई नहीं करता. देखती नहीं मेरे भाइयों और भाभियों को? वे मेरे बेटे आलोक और मुझे नौकरों से भी बदतर समझते हैं. पहले सब ठीक था. पापा के जाते ही सब बदल गए. भाभियों की घिसी साडि़यां मेरे हिस्से आती हैं तो भतीजों की पुरानी पैंटकमीजें मेरे बेटे को मिलती हैं. इन के बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और मेरा बेटा सरकारी स्कूल में. 15 वर्ष का है आलोक 7वीं में ही बैठा है. 3 बार 7वीं में फेल हो चुका है. अब क्या कहूं,’’ और दीदी ने साड़ी के किनारे से आंखें पोंछ कर धीरे से आगे कहा, ‘‘भाई अपने बेटों के नाम पर जमीन पर जमीन खरीदते जा रहे हैं, पर मेरे बेटे के लिए क्या है? कुछ नहीं. घर के सारे लोग गरमी की छुट्टियों में घूमने जाते हैं और हम यहां बीमार मम्मी की सेवा और घर की रखवाली करते हैं.

‘‘तू तो अपनी है, तुझ से क्या छिपाऊं… जवान जोड़ों को हाथ में हाथ डाल कर घूमते देखती हूं तो मनमसोस कर रह जाती हूं.’’

मैं दीदी को अवाक देख रही थी, किंतु वे थकी आवाज में कह रही थीं, ‘‘रचना, आज मैं बंद कमरे का वह पक्षी हूं जिस ने अपने पंखों को स्वयं कमरे की दीवारों से टक्कर मार कर तोड़ा है. आज मैं एक खाली बरतन हूं, जिसे जो चाहे पैर से मार कर इधर से उधर घुमा रहा है…’’  आज मैं अकेलेपन का पर्याय बन कर रह गई हूं.’’

दीदी का रोना देखा न जाता था, किंतु आज मैं उन्हें रोकना नहीं चाहती थी. उन के मन में जो था, उसे बह जाने देना चाहती थी. थोड़ी देर चुप रहने के बाद अलका दीदी आगे बोलीं, ‘‘सच तो यह है कि मेरी गलती की सजा मेरा बेटा भी भुगत रहा है… मैं उसे वह सब न दे पाई जिस का वह हकदार था… न पिता का प्यार न सुखसुविधाओं वाला जीवन… कुछ भी तो न मिला. सोचती हूं आखिर मैं ने यह क्या कर डाला? अपने साथ उसे भी बंद गली में ले आई… क्यों मैं ने उस की खुशियों की खिड़की बंद कर दी,’’ और फिर दीदी की रुलाई फूट पड़ी. उन का रोना सुन कर 2-3 रिश्तेदार भी आ गए. पर अच्छा हुआ जो तभी बूआ ने किचन से आवाज लगा दी, ‘‘अरी अलका, आ जल्दी… आलू उबल गए हैं.’’

दीदी साड़ी के पल्लू से अपनी आंखें पोंछते हुए उठ खड़ी हुईं. फिर बोली, ‘‘देख मुझे पता है कि तू भी अपनी मां के पास आ गई है, पति को छोड़ कर. पर सुन इज्जत की जिंदगी जीनी है तो अपना घर न छोड़ वरना मेरी तरह पछताएगी.’’ अलका दीदी की बात सुन कर रचना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. यह एक भयानक सच था. उसे लगा कि राजेश और उस के बीच जरा सी तकरार ही तो हुई है. राजेश ने किसी छोटी से गलती पर उसे चांटा मार दिया था, पर बाद में माफी भी मांग ली थी. फिर रचना की मां ने भी उसे समझाया था कि ऐसे घर नहीं छोड़ते. उस ने तुझ से माफी भी मांग ली है. वापस चली जा. रचना सोच रही थी कि अगर कल को उस के भैयाभाभी भी आलोक की तरह उस के बेटे के साथ दुर्व्यवहार करेंगे तो क्या पता मेरे साथ भी दीदी जैसा ही कुछ होगा… फिर नहीं… नहीं… कह कर रचना ने घबरा कर आंखें बंद कर लीं और थोड़ी देर बाद ही पैकिंग करने लगी. अपने घर… यानी राजेश के घर जाने के लिए. उसे बंद खिड़की को खोलना था, जिसे उस ने दंभवश बंद कर दिया था. बारबार उन के कानों में अलका दीदी की यह बात गूंज रही थी कि रचना इज्जत से रहना चाहती हो तो घर अपना घर कभी न छोड़ना.

Family Story: कशमकश – सीमा भाभी के चेहरे से मुस्कान क्यों गायब हो गई थी

Family Story: ‘‘वाहभई, मजा आ गया… भाभी के हाथों में तो जैसे जादू की छड़ी है… बस खाने पर घुमा देती हैं और खाने वाला समझ ही नहीं पाता कि खाना खाए या अपनी उंगलियां चाटे,’’ मयंक ने 2-4 कौर खाते ही हमेशा की तरह खाने की तारीफ शुरू कर दी तो रसोई में फुलके सेंकती सीमा भाभी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई.

पास ही खड़ी महिमा के भीतर कुछ दरक सा गया, मगर उस ने हमेशा की तरह दर्द की उन किरचों को आंखों का रास्ता नहीं दिखाया, दिल में उतार लिया.

‘‘अरे भाभी, महिमा को भी कुछ बनाना सिखा दो न… रोजरोज की सादी रोटीसब्जी से हम ऊब गए… बच्चे तो हर तीसरे दिन होटल की तरफ भागते हैं,’’ मयंक ने अपनी बात आगे बढ़ाई तो लाख रोकने की कोशिशों के बावजूद महिमा की पलकें नम हो आईं.

इस के पास कहां इतना टाइम होता है जो रसोई में खपे… एक ही काम होगा… या तो कलम पकड़ लो या फिर चकलाबेलन… सीमा की चहक में छिपे व्यंग्यबाण महिमा को बेंध गए, मगर बात तो सच ही थी, भले कड़वी सही.

महिमा एक कामकाजी महिला है. सरकारी स्कूल में अध्यापिका महिमा को मलाल रहता है कि वह आम गृहिणियों की तरह अपने घर को वक्त नहीं दे पाती. ऐसा नहीं है कि उसे अच्छा खाना बनाना नहीं आता, मगर सुबह उस के पास टाइम नहीं होता और शाम को वह थक कर इतनी चूर हो चुकी होती है कि कुछ ऐक्स्ट्रा बनाने की सोच भी नहीं पाती.

महिमा सुबह 5 बजे उठती है. सब का नाश्ता, खाना बना कर 8 बजे तक स्कूल पहुंचती है. दोपहर 3 बजे तक स्कूल में व्यस्त रहती है. उस के बाद घर आतेआते इतनी थक जाती है कि यदि घंटाभर आराम न करे तो रात तक चिड़चिड़ाहट बनी रहती है. रात को रसोई समेटतेसमटते 11 बज जाते हैं. अगले दिन फिर वही दिनचर्या.

इतनी व्यस्तता के बाद महिमा चाह कर भी सप्ताह के 6 दिन पति या बच्चों की खाने, नाश्ते की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाती. एक रविवार का दिन उसे छुट्टी के रूप में मिलता है, मगर यह एक दिन बाकी 6 दिनों पर भारी पड़ता है. सब से पहले तो वह खुद ही इस दिन थोड़ा देर से उठती. फिर सप्ताह भर के कल पर टलने वालेकाम भी इसी दिन निबटाने होते हैं. मिलनेजुलने वाले दोस्तरिश्तेदार भी इसी रविवार की बाट जोहते हैं. इस तरह रविवार का दिन मुट्ठी में से पानी की तरह फिसल जाता है.

क्या करे महिमा… अपनी ग्लानि मिटाने के लिए वह बच्चों को हर रविवार होटल में खाने की छूट दे देती है. धीरेधीरे बच्चों को भी इस आजादी और रूटीन की आदत सी हो गई है.

महिमा महसूस करती है कि उस का घर सीमा भाभी के घर की तरह हर वक्त सजासंवरा नहीं दिखता. घर के सामान पर धूलमिट्टी की परत भी दिख जाती है. कई बार छोटेछोटे मकड़ी के जाले भी नजर आ जाते हैं. इधरउधर बिखरे कपड़े और जूते तो रोज की बात है. लौबी में रखी डाइनिंगटेबल भी खाने के कम, बच्चों की किताबों, स्कूल बैग, हैलमेट आदि रखने के ज्यादा काम आती है.

कई बार जब महिमा झुंझला कर साफसफाई में जुट जाती है, तो बच्चे पूछ बैठते हैं, ‘‘आज अचानक यह सफाई का बुखार कैसे चढ़ गया? कोई आने वाला है क्या?’’ तब वह और भी खिसिया जाती.

हालांकि महिमा ने अपनी मदद के लिए कमला को रखा हुआ है, मगर वह उस के स्कूल जाने के बाद आती है, इसलिए जो जैसा कर जाती है उसी में संतुष्ट होना पड़ता है.

स्कूल में आत्मविश्वास से भरी दिखने वाली महिमा भीतर ही भीतर अपना आत्मविश्वास खोती जा रही थी. यदाकदा अपनी तुलना सीमा भाभी से करने लगती कि कितने आराम से रहती हैं सीमा भाभी. घर भी एकदम करीने से सजा हुआ… अच्छे खाने से पतिबच्चे भी खुश.

दिन में 2-3 घंटे एसी की ठंडी हवा में आराम… और एक मैं हूं…. चाहे हजारों रुपए महीना कमाती हूं… कभी अपने पैसे का रोब नहीं झाड़ती… जेठानी के सामने हमेशा देवरानी ही बनी रहती हूं… कभी भी रानी बनने का गरूर नहीं दिखाती… फिर भी मयंक ने कभी मेरी काबिलियत पर गर्व नहीं किया. बच्चे भी अपनी ताई के ही गुण गाते रहते हैं.

वैसे देखा जाए तो वे सब भी कहां गलत हैं. कहते हैं कि दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से हो कर गुजरता है. मगर मैं कहां इन दूरियों को तय कर पाई हूं… जल्दीजल्दी जो कुछ बना पाती हूं बस बना देती हूं. एक सा नाश्ता और खाना खाखा कर बेचारे ऊब जाते होंगे… कैसी मां और पत्नी हूं… अपने परिवार तक को खुश नहीं रख पाती… महिमा खुद को कोसने लगती और फिर अवसाद के दलदल में थोड़ा और गहरे धंस जाती.

क्या करूं? क्या इतनी मेहनत से लगी नौकरी छोड़ दूं? मगर अब यह सिर्फ नौकरी कहां रही… यह तो मेरी पहचान बन चुकी है. स्कूल के बच्चे जब मुझे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. उन के अभिभावक बच्चों के सामने मेरा उदाहरण देते हैं तो वे कितने गर्व के पल होते हैं… वह अनमोल खुशी को क्या सिर्फ इतनी सी बात के लिए गंवा दूं कि पति और बच्चों को उन का मनपसंद खाना खिला सकूं. महिमा अकसर खुद से ही सवालजवाब करने लगती, मगर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती.

इसी बीच महिमा की स्कूल में गरमी की छुट्टियां हो गईं. उस ने तय कर लिया कि इन पूरी छुट्टियों में वह सब की शिकायतें दूर करने की कोशिश करेगी. सब का मनपसंद खाना बनाएगी. नईनई डिशेज बनाना सीखेगी… घर को एकदम साफसुथरा और सजा कर रखेगी…

छुट्टी का पहला दिन. नाश्ते में गरमगरम आलू के परांठे देखते ही सब के चेहरे खिल उठे. भूख से अधिक ही खा लिए सब ने. उन्हें संतुष्ट देख कर महिमा का दिल भी खुश हो गया. मयंक टिफिन ले कर औफिस निकल गया और बच्चे कोचिंग क्लास. महिमा घर को समेटने में जुट गई.

दोपहर ढलतेढलते पूरा घर चमक उठा. लगा मानो दीवाली आने वाली है. मयंक और बच्चे घर लौट आए. आते ही बच्चों ने अपनी किताबें और बैग व मयंक ने अपनी फाइलें और हैलमेट लापरवाही से डाइनिंगटेबल पर पटक दिया. महिमा का मूड उखड़ गया, मगर उस ने एक लंबी सास ली और सारा सामान यथास्थान पर रख कर डाइनिंगटेबल फिर से सैट कर दी.

महिमा ने रात के खाने में भी 2 मसालेदार सब्जियों के अलावा रायता और सूजी का हलवा भी बनाया. सजी डाइनिंगटेबल देख कर मयंक और बच्चे खुश हो गए. उन्हें खुश देख कर महिमा भी खुश हो उठी.

अब रोज यही होने लगा. नाश्ते में अकसर मैदा, बेसन, आलू और अधिक तेलमिर्च मसाले का इस्तेमाल होता था. रात में भी महिमा कई तरह के व्यंजन बनाती थी. अधिक वैरायटी बनाने के चक्कर में अकसर रात का खाना लेट हो जाता था और गरिष्ठ होने के कारण ठीक से हजम भी नहीं हो पाता था.

अभी 15 दिन भी नहीं बीते थे कि मयंक ने ऐसिडिटी की शिकायत की. रातभर खट्टी डकारों और सीने में जलन से परेशान रहा. सुबह डाक्टर को दिखाया तो उस ने सादे खाने और कई तरह के दूसरे परहेज बताने के साथसाथ क्व2 हजार का दवाओं का बिल थमा दिया.

दूसरी तरफ घर को साफसुथरा और व्यवस्थित रखने के प्रयास में बच्चों की आजादी छिनती जा रही थी. महिमा उन्हें हर वक्त टोकती रहती कि इस्तेमाल करने के बाद अपना सामान प्रौपर जगह पर रखें. मगर बरसों की आदत भला एक दिन में छूटती है और फिर वैसे भी अपना घर इसीलिए तो बनाया जाता है ताकि वहां अपनी मनमरजी से अपने तरीके से रहा जाए. मां की टोकाटाकी से बच्चे घर वाली फीलिंग के लिए तरसने लगे, क्योंकि घर अब होटल की तरह लगने लगा था.

घर को संवारने और सब को मनपसंद खाना खिलाने की कवायद में महिमा पूरा दिन उलझी रहने लगी. हर वक्त कोई न कोई नई डिश या नया आइडिया उस के दिमाग में पकता रहता. साफसफाई के लिए भी दिन भर परेशान होती, कभी कमला पर झल्लाती तो कभी बच्चों को टोकती. नतीजन, एक दिन रसोई में खड़ीखड़ी महिमा गश खा कर गिर पड़ी. मयंक ने उसे उठा कर बिस्तर में लिटाया. बेटे ने तुरंत डाक्टर को फोन किया.

चैकअप करने के बाद पता चला कि महिमा का बीपी बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ है. डाक्टर ने आराम करने की सलाह के साथसाथ मसालेदार, ज्यादा घी व तेल वाले खाने से परहेज करने की सलाह दी. साथ ही लंबाचौड़ा बिल थमाया वह अलग.

‘‘सौरी मयंक मैं एक अच्छी पत्नी और मां की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी,’’ महिमा ने मायूसी से कहा.

‘‘पगली यह तुम से किस ने कहा? तुम ने तो हमेशा अपनी जिम्मेदारियां पूरी शिद्दत के साथ निभाई है. मुझे गर्व है तुम पर,’’ मयंक ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘तो फिर वे हमेशा सीमा भाभी की तारीफें… वह सब क्या है?’’ महिमा ने संशय से पूछा.

‘‘अरे बावली, तुम भी गजब करती हो… पता नहीं किस आसमान तक अपनी सोच के घोड़े दौड़ा लेती हो,’’ मयंक ने ठहाका लगाते हुए कहा. महिमा अचरज के भाव लिए मुंह खोले उसे देख रही थी.

जब हमारी सगाई हुई थी उस के बाद से ही सीमा भाभी के व्यवहार में परिवर्तन नजर आने लगा था. उन्हें लगने लगा था कि नौकरीपेशा बहू आने के बाद घर में उन की अहमियत कम हो जाएगी. यह भी हो सकता है कि तुम उन पर अपने पैसे का रोब दिखाओ.

बातबात में उन की तारीफ करते हैं ताकि वे किसी हीनभावना से ग्रस्त न हो जाएं. मगर इस सारे गणित में अनजाने में ही सही, हम से तुम्हारा पक्ष नजरअंदाज होता रहा. हम सब तुम्हारे गुनाहगार हैं,’’ मयंक ने शर्मिंदा होते हुए अपने कान पकड़ लिए.

यह देख महिमा खिलखिला पड़ी, ‘‘तो अब सजा तो आप को मिलेगी ही… आप सब को अगले 20 दिन और इसी तरह का चटपटा और मसालेदार खाना खाना पड़ेगा.’’

‘‘न बाबा न… इतनी बड़ी सजा नहीं… हमें तो वही सादी रोटीसब्जी चाहिए ताकि हमारा पेट भी हैप्पी रहे और जेब भी. क्यों बच्चो?’’ मयंक ने नाटकीयता से कहा. अब तक बच्चे भी वहां आ चुके थे.

‘‘ठीक है, मगर सप्ताह में एक दिन तो होटल जाने दोगे और हमें अपनी मनपसंद डिशेज खाने दोगे न?’’ दोनों बच्चे एकसाथ चिल्लाए तो महिमा के होंठों पर भी मुसकराहट तैर गई.

Romantic Story: रुक जाओ शबनम

Romantic Story: आज शबनम अब तक अस्पताल नहीं आई थी. 2 बजने को आए वरना वह तो रोज 10 बजे ही अस्पताल पहुंच जाती थी. कभी भी छुट्टी नहीं करती. मैं उस के लिए चिंतातुर हो उठा था.

इन दिनों जब से कोरोना का संकट गहराया है वह मेरे साथ जीजान से मरीजों की सेवा में जुटी हुई थी. मैं डॉक्टर हूं और वह नर्स. मगर उसे मेडिकल फील्ड की इतनी जानकारी हो चुकी है कि कभी मैं न रहूं तो भी वह मेरे मरीजों को अच्छी तरह और आसानी से संभाल लेती है.

मैं आज अपने मरीजों को अकेले ही संभाल रहा था. अस्पताल की एक दूसरी नर्स स्नेहा मेरी हैल्प करने आई तो मैं ने उसी से पूछ लिया,” क्या हुआ शबनम आज आई नहीं. ठीक तो है वह ?”

“हां ठीक है. मगर कल शाम घर जाते वक्त कह रही थी कि उसे आसपड़ोस के कुछ लोग काफी परेशान करने लगे हैं. वह मुस्लिम है न. अभी जमात वाले केसेज जब से बढ़े हैं सोसाइटी के कट्टरपंथी लोग उसे ही कसूरवार मारने लगे हैं. उसे सोसाइटी से निकालने की मांग कर रहे हैं और गद्दार कह कर नफरत से देखते हैं. बेचारी अकेली रहती है. इसलिए ये लोग उसे और भी ज्यादा परेशान करते हैं. मुझे लगता है इसी वजह से नहीं आई होगी.”

“कैसी दुनिया है यह? धर्म या जाति के आधार पर किसी को जज करना कितना गलत है. कोई नर्स रातदिन लोगों की केयर करने में लगी हुई है. उस पर इतना गंदा इल्जाम….?” मेरे अंदर गुस्से का लावा फूट पड़ा.

स्नेहा भी शबनम को ले कर परेशान थी, “आप सही कह रहे हैं सर. शबनम ने तो अपनी जिंदगी मरीजों की देखभाल में लगा रखी है. उस ने तो यह कभी नहीं देखा कि उस के सामने हिंदू मरीज है या मुस्लिम. फिर लोग उस का धर्म क्यों देख रहे हैं? देश को विभाजित करने वाले कट्टरपंथी ही ऐसी गलत सोच को हवा देते हैं.”

तभी मेरा मोबाइल बज उठा. शबनम का फोन था,” हैलो शबनम, ठीक तो हो तुम?” मैं ने चिंतित स्वर में पूछा.

“नहीं सर मैं ठीक नहीं. सोसाइटी के कुछ लोगों ने मेरे निकलने पर रोक लगा दी है. एक तरह से नजरबंद कर के रखा है मुझे. उस पर अभी दोपहर में मैं बाथरूम में गिर गई. अब तो समझ नहीं आ रहा कि दवा लेने भी कैसे जाऊं?”

“तुम घबराओ नहीं. एकदो घंटे आराम करो. मैं खुद तुम्हारे लिए बैंडेज और दवाइयों का इंतजाम करता हूं.” कह कर मैंने फोन रख दिया.

अब मुझे शबनम के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी थी. उस ने आज तक हमेशा मेरा साथ दिया है. मानवता के नाते अब मेरा धर्म है कि मैं उस का साथ दूं.

5 बजे के बाद मरीजों को निबटा कर मैं फर्स्ट ऐड बॉक्स, जरूरी दवाओं और फल सब्जियों के साथ उस के घर पहुंचा. उस की सोसाइटी के बाहर पुलिस खड़ी थी. मेरे डाक्टर होने के बावजूद काफी पूछताछ और स्क्रीनिंग के बाद अंदर जाने दिया गया. शबनम का घर दूसरे माले पर था. मैं ने उस के दरवाजे की घंटी बजाई तो लंगड़ाती हुई वह बाहर निकली और दरवाजा खोला. मुझे देख कर उस के चेहरे पर सुकून भरी मुस्कुराहट की लकीरें खिंच गई.

“डॉक्टर अविनाश आप खुद आ गए ?”

हां शबनम दिखाओ कहां चोट लगी है तुम्हें? ठीक से बैंडेज कर दूं. ”

“जी बैंडेज का सामान मेरे पास था. पट्टी तो बांध ली है मैं ने.”

“ठीक है फिर भी ये कुछ जरूरी दवाइयां अपने पास रखो और फलसब्जियां भी.”

“थैंक यू वेरी मच सर .” शबनम की आंखों में कृतज्ञता के आंसू आ गए तो मैं ने उस के कंधे थपथपाए और बाहर निकलता हुआ बोला,” देखो शबनम, कभी भी किसी भी चीज की जरूरत हो तो मुझे जरूर बताना. वैसे मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हें इस सोसाइटी से ले कर जाऊं. अस्पताल के पास जो मेरा दो कमरे वाला घर है न वहीं तुम्हें ठहरा दूंगा. आजकल मैं भी वहीं रहने लगा हूं क्योंकि अस्पताल पास में और फिर मेरे कारण मेरे परिवार में कोरोनावायरस न फैल जाए यह डर भी रहता है.”

“जी सर जैसा आप उचित समझें” कह कर शबनम ने मुझे विदा किया.

इस के बाद दोतीन बार खानेपीने की और दूसरी चीजें ले कर मैं उस के घर गया.

सोसाइटी वाले मुझे घूरघूर कर देखते थे. एक दिन तो हद ही हो गई जब सोसाइटी वालों के कहने पर एक ऊंची जाति के पुलिस एस आई नीरज शर्मा ने मुझ पर दोतीन डंडे बरसा दिए. मैं चीख पड़ा,” एक डॉक्टर के साथ इस तरह का सुलूक किया जाता है?”

” तुम डॉक्टर हो तो फिर तुम उस मुस्लिम लड़की के घर क्यों आते हो? दोनों मिले हुए हो न? तेरी यार है न वह ? क्या करने वाले हो मिलकर ?”

सर मैं डॉक्टर हूं और वह मेरे साथ काम करने वाली नर्स. इतना ही रिश्ता है हमारा. ऊंची और नीची जाति, हिंदू और मुस्लिम जैसे भेदभाव मैं नहीं मानता.” चिल्लाता हुआ मैं घर आ गया था मगर शबनम को ले कर चिंता बढ़ गई थी.

उस दिन मैं ने तय किया कि अब मैं शबनम को अपने घर ले आऊंगा. अगले दिन सुबहसुबह मैं उसे अपने घर ले आया.

अब शबनम मेरे घर में थी और अस्पताल भी करीब था. इसलिए वह जिद कर के अस्पताल जाने लगी. उसे लंगड़ाते हुए, तकलीफ सहते हुए भी मरीजों के लिए दौड़भाग करते देख मेरे मन में उस की इज्जत बढ़ती जा रही थी.

वह घर में भी मेरे लिए पौष्टिक खाना बनाती. दरअसल मेरे घरवाले मेरे साथ नहीं थे. स्वभाविक था कि मुझे खानेपीने की दिक्कत हो रही थी. ऐसे में मैं अस्पताल के कैंटीन में खा कर गुजारा करता था. मगर जब से शबनम मेरे घर आई उस ने मेरे मना करने के बावजूद किचन की कमान संभाल ली.
अपने पैर की तकलीफ के बावजूद मुझे मेरी पसंद की चीजें बना कर खिलाती. मुझे यह एहसास ही नहीं होने देती कि मैं घर वालों से दूर हूं.

अस्पताल में तो वह मेरी सहायिका थी ही घर में भी मेरी हर जरूरत का ध्यान रखती. हम दोनों बिना कहे ही एक अनजान से बंधन में बनते जा रहे थे. उस का कष्ट मैं महसूस करता था और मेरी तकलीफों का बोझ वह उठाने को तैयार थी. हमारा धर्म अलग था. जाति भी अलग थी. मगर मन एक था. हम एकदूसरे को खुद से बेहतर समझने लगे थे.

इधर आसपड़ोस में हम दोनों को ले कर सुगबुगाहट होने लगी थी. जल्द ही सब को पता लग गया कि शबनम दूसरे धर्म की है. लोगों के दिमाग में यह बात कुलबुलाने लगी कि वह मेरे घर में मेरे साथ क्यों रह रही है? उस के साथ मेरा रिश्ता क्या है?

शबनम की सोसाइटी वालों ने भी मेरे कुछ पड़ोसियों को भड़काने का काम किया. अभी तक सामने आ कर किसी ने मुझे कुछ कहा नहीं था मगर उन की आंखों में सवाल दिखने लगे थे.

फिर एक दिन मैं घर लौटा तो मुझे अपनी तबीयत खराब लगने लगी. गले में खराश के साथ सर दर्द हो रहा था. मैं ने खुद को क्वैरांटाइन कर लिया. मैं ने शबनम से भी चले जाने को को कहा मगर वह कहने लगी कि तबियत खराब में ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकती. तब मैं ने उसे अपने कमरे में आने के लिए सख्ती से मना कर दिया. वह दूर से ही मेरा ख्याल रखती रही.

एक दिन दो पड़ोसी मेरे घर आए और शबनम को ले कर पूछताछ करने लगे. मैं ने सब सच बताया. अगले दिन सुबह उठा तो देखा घर के बाहर काफी हलचल है. इधर मेरी तबीयत खराब थी उधर मेरे घर के आगे कट्टरपंथी इकटठे हो कर नारे लगा रहे थे. मुझे गद्दार कहा जा रहा था. शबनम के साथ मेरा नाम ले कर सोसाइटी से निकाले जाने की मांग की जा रही थी.

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था. काफी देर तक होहल्ला होता रहा. तब तक शबनम अपने कपड़े पैक करने लगी.

वह हड़बड़ाती हुई बोली,” सर अब मैं यहां बिल्कुल नहीं रह सकती. मेरी वजह से आप को भी परेशानी सहनी पड़ रही है. मैं तो कहती हूं आप भी चलिए. आप को अस्पताल में एडमिट हो जाना चाहिए. तबीयत ठीक नहीं है आप की. कहिए तो आप के घर वालों को बुला देती हूं.”

“नहीं नहीं. तुम घर वालों से कुछ मत कहो. वे परेशान होंगे. तुम जाओ. मैं सब संभाल लूंगा.”

“मैं पहले भी कह चुकी हूं. आप को ऐसे अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती. वैसे भी ये लोग यहां आप का जीना मुहाल कर देंगे. आप की तबीयत भी ज्यादा खराब हो रही है. मैं डॉक्टर अतुल को फोन कर देती हूं. वे हमें यहां से ले जाएंगे.”

“ओके. जैसा सही समझो.” मैं ने कहा.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सोसायटी का अध्यक्ष सामने खड़ा था,” मिस्टर अविनाश, हम सबों का फैसला है कि अब आप इस सोसाइटी में नहीं रह सकते.”

“ठीक है. मैं जा रहा हूं. ” लड़खड़ाती आवाज में मैं ने कहा.

शबनम ने जल्दीजल्दी सब इंतजाम किया. किसी तरह हम अस्पताल पहुंच गए और कोरोना के संदेह की वजह से मुझे एडमिट कर दिया गया. टेस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आई. मेरी तबियत तेजी से खराब होने लगी. मगर शबनम ने न तो मेरा साथ छोड़ा और न आस. वह लगातार मेरा ख्याल रखती रही. मेरे अंदर सकारात्मक उर्जा भरती रही.

लंबे इलाज के बाद धीरेधीरे मैं ठीक हो गया. इस के बाद भी 14 दिन तक मुझे अस्पताल में ही रखा गया. इस दौरान शबनम के लिए एक लगाव मेरे मन में पैदा हो गया था. उसे पूरे समर्पण भाव के साथ मरीजों की और अपनी देखभाल करता देखता तो लगता जैसे इस से बेहतर लड़की मुझे कहीं मिल नहीं सकती.

एक दिन शबनम मुझे दुखी सी नजर आई. मैं ने टोका तो उस ने बताया,” मैं बस आप के ठीक होने का इंतजार कर रही थी. डॉक्टर अब मैं इस इलाके में और नहीं रहना चाहती. बहुत दुत्कारा है लोगों ने मुझे. आप के साथ मेरा नाम जोड़ कर आप को भी बदनाम किया गया. मेरी कोई गलती नहीं थी मगर मेरे पेशे को भी इज्जत नहीं दी गई. मेरा मन भर गया है. मैं तो बस आप की खातिर ही यहां अब तक रुकी रही. अब मुझे जाने की अनुमति दें. मैं अस्पताल छोड़ कर जाना चाहती हूं.”

शबनम की भीगी आंखों के पीछे मेरे लिए छुपा प्यार मैं साफ देख रहा था. मैं ने उसे रोका,”रुक जाओ शबनम. तुम कहीं नहीं जाओगी. जो नाम उन्होंने बदनाम करने के लिए जोड़ा उसे मैं हकीकत में जोड़ना चाहता हूं.”

शबनम ने अचरज से मेरी तरफ देखा. मैं ने मुस्कुराते हुए कहा, क्यों न इसी अस्पताल में हम आज शादी कर लें? देर करने की जरूरत क्या है?”

शबनम ने शरमा कर निगाहें झुका लीं. उस;का जवाब मुझे मिल गया था. अस्पताल में मौजूद दूसरे डॉक्टरों और नर्सों ने झटपट एक बहुत ही सादगी भरी शादी का इंतजाम कर दिया और इस तरह एक हिंदू डॉक्टर और एक मुस्लिम नर्स हमेशा के लिए हमसफर बन गए.

Romantic Story: विश्वास की आन – क्या मृदुला का सिद्धार्थ पर भरोसा करना सही था?

Romantic Story: ‘‘दिल संभल जा जरा, फिर मुहब्बत करने चला है तू…’’ गाने की आवाज से मृदुला अपना फोन उठाने के लिए रसोई से भागी, जो ड्राइंगरूम में पड़ा यह गाना गा रहा था. नंबर पर नजर पड़ते ही उस का दिल जोरजोर से धड़कने लगा. नाम फ्लैश नहीं हो रहा था, पर जो  नंबर चमक रहा था वह उसे अच्छी तरह याद था. वह नंबर तो शायद वह सपने में भी न भूल पाए.

रोहन अपने कमरे से चिल्ला रहा था, ‘‘मौम, आप का फोन बज रहा है.’’

मृदुला ने झटके से फोन उठाया. एक नजर उस ने कमरे में टीवी देखने में व्यस्त ऋषि पर डाली और दूसरी नजर रोहन पर जो अपने कमरे में पढ़ रहा था. वह फोन उठा कर बाहर बालकनी की ओर बढ़ गई.

‘‘हैलो… हाय… क्या हाल हैं?’’

‘‘अब ठीक हूं,’’ उधर से आवाज आई.

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’

‘‘बस तुम्हारी आवाज सुन ली बंदे का दिन अच्छा हो गया.’’

‘‘अच्छा, तो यह बात है… अच्छा बताओ फोन क्यों किया? आज मेरी याद कैसे आ गई? तुम अच्छे से जानते हो आज शनिवार है. ऋषि और रोहन दोनों घर पर होते हैं… ऐसे में बात करना मुश्किल होता है,’’ मृदुला जल्दीजल्दी कह रही थी.

‘‘मैं ने तो बस यह बताने के लिए फोन किया कि अब मुझ से ज्यादा सब्र नहीं होता. मैं अगले हफ्ते दिल्ली आ रहा हूं तुम से मिलने. प्लीज तुम किसी होटल में मेरे लिए कमरा बुक करवा दो जहां बस तुम हो और मैं और हो तनहाई,’’ सिद्धार्थ ने अपना दिल खोल कर रख दिया.

‘‘होटल? न बाबा न मैं होटल में मिलने नहीं आऊंगी.’’

‘‘तो फिर हम कहां मिलेंगे? मैं 1500 किलोमीटर मुंबई से दिल्ली सिर्फ तुम्हें मिलने आ रहा हूं ओर एक तुम हो जो होटल तक नहीं आ सकतीं.’’

मृदुला बातों में खोई हुई थी. उसे एहसास ही न हुआ कि कब रोहन अपने कमरे से निकल कर बाहर बालकनी में उस के पीछे आ खड़ा हो गया था.

रोहन पर नजर पड़ते ही मृदुला ने कहा, ‘‘अच्छा, मैं बाद में बात करती हूं,’’ और फिर फोन काट दिया.

‘‘किस का फोन था मौम?’’ रोहन ने पूछा.

‘‘वो… वो मेरी फ्रैंड का फोन था.’’ कह वह फोन ले कर रसोई में चली गई और सब्जी काटने लगी.

वैसे तो वह रसोई में काम कर रही थी पर दिलोदिमाग मुंबई में सिद्धार्थ के पास पहुंच चुका था. दिल जोरजोर से धड़क रहा था. बस एक मिलने की आस में वह पिछले 8 सालों से जल रही थी. अब समझ नहीं पा रही थी कि कहां, कब और कैसे मिलेगी.

जिंदगी में कब कोई आ जाए, इनसान जान ही नहीं पाता. कोई दिल के इतने करीब पहुंच जाता है कि बाकी सब से दूर हो जाता है.

यों तो मृदुला की जिंदगी में कोई कमी न थी. प्यार करने वाला पति ऋषि था. होशियार और समझदार 16 साल का बेटा रोहन था पर फिर सिद्धार्थ, औनलाइन फ्रैंड बन कर उस की जिंदगी में आ गया था और फिर सब उलटपुलट हो गया था.

वह बेटे और पति से छिपछिप कर कंप्यूटर से बहुत मेल और चैट करती थी और फोन भी बहुत करती थी. उस की जिंदगी का हर खुशीगम तब तक अधूरा होता जब तक वह उसे सिद्धार्थ से बांट न लेती.

दोस्ती एक जनून बन गई थी. वह उस से एक दिन भी बिना बात किए न रहती थी. रोज बात करना दोनों की दिनचर्या का अभिन्न अंग था. ऐसा ही कुछ हाल सिद्धार्थ का भी था.

यों तो मृदुला पति के औफिस और बेटे के स्कूल जाने के बाद बात करती थी, फिर भी रोहन गूगल की हिस्ट्री में जा कर कई बार पूछता था कि मम्मी यह सिद्धार्थ कौन है? और वह कुछ जवाब नहीं दे पाती थी सिवा इस के कि पता नहीं.

रोहन को कुछकुछ अंदाजा होता जा रहा था कि मम्मी कुछ ऐसा कर रही हैं, जिसे वे छिपा रही हैं. कई बार गुस्से और आक्रोश में वह अपनी परेशानी का इजहार भी करता पर ज्यादा कुछ कह न पाता.

अब मृदुला क्या करेगी, सिद्धार्थ से मिलने की तमन्ना को दबा लेगी? या फिर होटल जाएगी उस से मिलने? यही सब सोचसोच कर वह परेशान थी.

फिर अचानक उस ने अपना मन बना दिया और सिद्धार्थ को फोन मिला लिया,

‘‘सिद्धार्थ, मैं पहले ही जिंदगी में काफी डरडर कर तुम से बात करती हूं… मैं अब इस डर के साथ और नहीं जीना चाहती. मेरे मन में कोई खोट नहीं है और न ही तुम्हारे मन में, तो क्यों न तुम मेरे घर आ जाओ. मैं तुम से मिलने होटल नहीं आ पाऊंगी और न ही मैं तुम से मिलने का मौका गंवाना चाहती हूं.’’

मृदुला की बात सुन कर सिद्धार्थ हड़बड़ा गया, ‘‘पागल हो गई हो क्या? तुम्हारा पति और रोहन क्या कहेंगे? नहीं यह ठीक नहीं होगा.’’

‘‘क्या ठीक नहीं होगा? क्या यह मेरा घर नहीं है जहां मैं किसी को अपनी मरजी से बुला सकूं? मेरे मन में कोई खोट नहीं है. मैं ने तुम से दोस्ती की तो क्या गलत किया? और अगर ऋषि, रोहन कोई परेशानी हैं तो ठीक है हम इस चैप्टर को अभी हमेशा के लिए बंद कर देते हैं… पर मुझे एक बार तो तुम से मिलना ही है. बहुत बेताब है यह दिल तुम से मिलने को… तुम आओगे न मेरे घर?’’ एक सांस में मृदुला सब बोल गई.

‘‘मुझे थोड़ा वक्त दो सोचने का,’’ उस ने गंभीर होते हुए कहा.

‘‘बस घबरा गए? यों तो बहुत दलीलें देते थे कि मैं तुम्हारे एक बार बुलाने पर दौड़ा चला आऊंगा… अब क्या हुआ? देख ली तुम्हारी फितरत… तुम मुझे होटल में बुला कर मेरा नाजायज फायदा उठाना चाहते थे,’’ उस की आवाज ऊंची हो गई थी.

‘‘चुप करो,’’ सिद्धार्थ बोला, ‘‘ठीक है मैं 20 तारीख को 12 बजे वाली फ्लाइट से

दिल्ली आऊंगा और वह शाम तुम्हारे और तुम्हारी फैमिली के नाम… पर प्लीज, ऋषि मुझे मारेगा तो नहीं?’’

‘‘ठीक है, मैं इंतजार करूंगी,’’ कह कर फोन काट दिया.

मृदुला ने उसे अपने घर बुला तो लिया पर फिर  उलझन में पड़ गई कि ऋषि और रोहन को क्या बताएगी कि सिद्धार्थ कौन है?

ऋषि तो फिर भी समझ जाएगा पर न जाने रोहन कैसे रिएक्ट करेगा… उस की क्या इज्जत रह जाएगी उस के सामने…

इंतजार के 7 दिन एक इम्तिहान की तरह गुजरे जिन में पलपल वह अपने  निर्णय पर अफसोस करती रही, पछताती रही.

मृदुला के अंदर चल रहे तूफान की बाहर किसी को भनक न थी. इन 7 दिनों में मिलने की दिली चाहत को दिमाग में चल रहे प्रश्न ‘अब क्या होगा’ ने दबा दिया था. अब मृदुला को मिलने की तीव्र इच्छा से ज्यादा इस बात की टैंशन थी कि 20 तारीख को वह ऐसा क्या करे ताकि सब अच्छी तरह से निबट जाए?

सुबह उठती तो इसी आस के साथ कि काश 20 तारीख को ऋषि और रोहन अपने दोस्तों से मिलने चले जाएं और वह सिद्धार्थ से बिना टैंशन के मिल सके. पर अकसर लोग जो सोचते हैं वह होता नहीं. उन दोनों का भी ऐसा कोई प्रोग्राम नहीं बना.

आखिरकार 20 तारीख आ ही गई. इस दौरान वह सिद्धार्थ से कोई बात न कर पाई. सारी रात करवटें बदलतेबदलते निकाल दी उस ने कि कल का दिन न जाने क्या तूफान ले कर आएगा उस की जिंदगी में.

कई मरतबा उस ने अपनेआप को कोसा भी कि क्यों ऐसा निर्णय लिया, पर तीर कमान से निकल चुका था. यह भी नहीं कह सकती थी कि वह न आए.

न जाने किस रौ और विश्वास में बह कर उस ने सिद्धार्थ को इतनी दूर से बुला लिया था. घर में शांति थी. सब अपनेअपने काम में लगे थे. तूफान से पहले ऐसा ही सन्नाटा होता है.

ठीक 3 बजे सिद्धार्थ का फोन आ गया, ‘‘मैं एअरपोर्ट पहुंच चुका हूं.’’

मृदुला का दिल जोरजोर से धड़कने लगा. आंखें खुशी से चमकने लगीं और चेहरा उत्तेजना से लाल हो गया.

‘‘एक बार फिर सोच लो, कहीं और मिल लेते हैं?’’ सिद्धार्थ ने घबराते हुए पूछा.

‘‘नहीं, अब जो होगा देखा जाएगा. मैं पीछे नहीं हटूंगी,’’ कह उस ने उसे मैट्रो से घर आने का रास्ता बताया और फिर फोन काट दिया.

अब मारे घबराहट के उस के हाथपैर फूलने लगे थे. ऋषि और रोहन अपनेअपने कमरे में थे. अचानक घंटी बजी. धड़कते दिल से उस ने दरवाजा खोला तो एक स्मार्ट, आकर्षक, लंबा, सांवला 38 वर्षीय युवक उस के सामने खड़ा था, जिसे देख उस का मुंह खुला का खुला रह गया.

वही चिरपरिचित हाय सुन कर वह चहक उठी और फिर अपने सूखे गले से धीरे से कहा, ‘‘हाय, आओ अंदर आओ.’’

डरतेडरते सिद्धार्थ ने अंदर कदम रखा, तो झट से रोहन अपने कमरे से बाहर ड्राइंगरूम में आ गया.

‘‘बेटा, ये सिद्धार्थ अंकल हैं.’’

मृदुला के मुंह से सिद्धार्थ नाम बड़ी मुश्किल से निकला, जिसे सुन कर रोहन थोड़ा सकपका गया और फिर अपना गुस्सा छिपाता जल्दी से नमस्ते कर के अपने कमरे में चला गया.

अपनी बेचैनी, घबराहट को छिपाते मृदुला ने हलकी मुसकान से सिद्धार्थ को देखा और सोफे पर बैठने को कहा.

ऋषि के कमरे में कोई हलचल नहीं थी. वहां रोज की तरह टीवी चल रहा था. ऋषि टीवी के सामने बैठे थे. वह कमरे में गई और बोली, ‘‘कोई आया है.’’

‘‘कौन?’’

‘‘सिद्धार्थ.’’

‘‘सिद्धार्थ कौन?’’ चौंकते हुए ऋषि ने पूछा.

‘‘मेरा दोस्त,’’ एक झटके में उस ने बोल दिया और अब वह तैयार थी किसी भी परिणाम के लिए. उस ने निर्णय कर लिया था कि अगर ऋषि नहीं चाहेगा तो वह वहां नहीं रहेगी और सिद्धार्थ के साथ तो कतई नहीं. वह जानती थी कि वह उस का अच्छा दोस्त तो हो सकता है पर अच्छा हमसफर नहीं.

10 मिनट तक ऋषि ने न तो कोई जवाब दिया और न ही अपनी जगह से हिला.

मृदुला रसोई में जा कर कौफी बनाने लगी. बीचबीच में अकेले बैठे सिद्धार्थ से भी बतियाती रही.

अचानक रोहन रसोई में आया और अपना आक्रोश निकालते हुए घर से बाहर चला गया.

कौफी बना कर लाई तो मृदुला ने देखा कि ऋषि कमरे से बाहर आया और फिर बड़े आराम से सिद्धार्थ से हाथ मिला कर उस के पास बैठ गया. उस का दिल जोरजोर से धड़कने लगा कि न जाने अब क्या हो. यह उन दोनों के रिश्ते की मजबूती थी कि कभी भी अपने आपसी झगड़े, गलतफहमी और शिकवेशिकायत को किसी के सामने नहीं आने दिया. यह सब कुछ बैडरूम के बाहर नहीं आता था. चाहे कितनी भी लड़ाई हो बैडरूम के बाहर वे नौर्मल पतिपत्नी ही होते थे. 10 मिनट बैठ कर बात करने से माहौल की बोझिलता थोड़ी कम हो गई थी. फिर वह मृदुला और सिद्धार्थ को अकेले छोड़ कर वापस अपने कमरे में चला गया.

पूरी तरह से संभालने में मृदुला को थोड़ा वक्त लगा. जैसेजैसे वक्त बीतता गया. उस का खोया विश्वास लौटने लगा आधे घंटे बाद रोहन वापस आया और सीधा रसोई में चला गया. वह उस के पीछेपीछे रसोई में गई तो देखा रोहन समोसे और जलेबियां ले कर आया था.

मृदुला ने आश्चर्य से उस की तरफ देखा तो वह बोला, ‘‘मां, आप के दोस्त के लिए. जब मेरे दोस्त आते हैं तब आप भी तो बाजार जा कर हमारे लिए पैप्सी और चिप्स लाती हो हमारी पसंद का, तो मैं भी आप की पसंद का आप के फ्रैंड के लिए लाया हूं… क्या आप को हक नहीं है दोस्त बनाने का?’’

मृदुला की आंखों में खुशी के आंसू भर आए और फिर वह खुशीखुशी प्लेट में समोसे और जलेबियां डालने लगी.

करीब 2 घंटे बाद सिद्धार्थ 7 बजे की फ्लाइट से मुंबई लौट गया.

सिद्धार्थ के जाने के बाद मृदुला को डर लग रहा था कि न जाने अब ऋषि क्या बखेड़ा करेगा. डर के मारे वह उस के सामने जाने से कतरा रही थी.

रात का खाना खाने के बाद जब वह बिस्तर पर लेटी तो ऋषि ने पूछा, ‘‘सिद्धार्थ

चला गया?’’

‘‘हां, चला गया.’’

‘‘तुम्हारा सच्चा दोस्त लगता है, तभी इतनी दूर से तुम से मिलने चला आया.’’

‘‘आप को बुरा लगा कि मैं ने एक आदमी से दोस्ती की? मुझे अपना घर दोस्त से ज्यादा प्यारा है और आज की इस हरकत के लिए आप जो चाहो मुझे सजा दे सकते हो.’’

‘‘सजा? कैसी सजा? तुम ने कुछ गलत तो नहीं किया… मैं 1 हफ्ते पहले से ही जानता था कि तुम्हारा दोस्त आने वाला है.’’

मृदुला यह सुन कर चौंक गई. फिर बोली, ‘‘तो आप ने मुझे कुछ कहा क्यों नहीं?’’

‘‘देखो मृदुला, मैं ने 20 साल तुम्हारे साथ काटे हैं… तुम्हारी रगरग से वाकिफ हूं. तुम चाहतीं तो उस से बाहर भी मिल सकती थीं पर तुम ने ऐसा नहीं किया…

कहीं अंदर तुम्हें भी मुझ पर हमारे रिश्ते पर विश्वास था… मैं उन पतियों में से नहीं हूं जो पत्नी को इनसान नहीं समझते… दोस्ती तो किसी से और कभी भी हो सकती है… हफ्ता भर पहले जब तुम ने उसे फोन पर घर आने का न्यौता दिया था तभी मैं ने तुम्हारी सारी बातें सुन ली थीं और मैं तुम्हारे विश्वास को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता था. विश्वास की आन तो मुझे रखनी ही थी,’’ पति की बातें सुन कर मृदुला की आंखों से खुशी की आंसू बहने लगे.

‘‘और हां रही बात यह कि एक आदमी और एक औरत कभी दोस्त नहीं हो सकते, उस में मैं समझता हूं कि मैं ने आज तक तो तुम्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया… क्यों ठीक कह रहा हूं न मैं?’’

पति की आखिरी बात का मतलब समझते हुए मृदुला शर्म से लाल हो गई और फिर लजाती हुई पति की बांहों में समा गई.

Family Story: तीसरी कौन – दिशा को रोहित में बदलाव समझ नहीं आ रहा था

Family Story: पलंग के सामने वाली खिड़की से बारिश में भीगी ठंडी हवाओं ने दिशा को पैर चादर में करने को मजबूर कर दिया. वह पत्रिका में एक कहानी पढ़ रही थी. इस सुहावने मौसम में बिस्तर में दुबक कर कहानी का आनंद उठाना चाह रही थी, पर खिड़की से आती ठंडी हवा के कारण चादर से मुंह ढक कर लेट गई. मन ही मन कहानी के रस में डूबनेउतराने लगी…

तभी कमरे में किसी की आहट ने उस का ध्यान भंग कर दिया. चूडि़यों की खनक से वह समझ गई कि ये अपरा दीदी हैं. वह मन ही मन मुसकराई कि वे मुझे गोलू समझेंगी. उसी के बिस्तर पर जो लेटी हूं. मगर अपरा अपने कमरे की साफसफाई में व्यस्त हो गईं. यह एक बड़ा हौल था, जिस के एक हिस्से में अपरा ने अपना बैड व दूसरे सिरे पर गोलू का बैड लगा रखा है. बीच में सोफे डाल कर टीवी देखने की व्यवस्था कर रखी है.

‘‘लाओ, यह कपड़ा मुझे दो. मैं तुम से बेहतर ड्रैसिंग टेबल चमका दूंगा… तुम इस गुलाब को अपने बालों में सजा कर दिखाओ.’’

‘‘यह तो रोहित की आवाज है,’’ दिशा बुदबुदाई. एक क्षण तो उसे लगा कि दोनों मियांबीवी के वार्त्तालाप के बीच कूद पड़े. फिर दूसरे ही क्षण जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, सोच चुपचाप पड़ी रही. उन का वार्त्तालाप उस के कान गूंजने लगा…

‘‘अरे, आप रहने दो मैं कर लूंगी.’’

‘‘फिक्र न करो. मुझे अपने काम की कीमत वसूलनी भी आती है.’’

‘‘आप जाइए न यहां से… कहीं दिन में ही न शुरू हो जाइएगा.’’

‘‘अरे मान भी जाओ… यह रोमांटिक बारिश देख रही हो.’’

दिशा के कान बंद हो चुके थे और आंसू आंखों से निकल कर कनपटियों को जलाने लगे थे. ये रोहित कब से इतने रोमांटिक हो गए? चूडि़यों की खनखन और एक उन्मत्त प्रेमी की सांसें मानो उस के चारों ओर भंवर सी मंडराने लगी थीं. अब उस के अंदर हिलनेडुलने की भी शक्ति शेष न रही थी. कमरे में आया तूफान भले ही थम गया हो, मगर दिशा की गृहस्थी की जड़ों को बुरी तरह हिला गया. किसी तरह अपनेआप को संभाला और दरवाजे की ओर बढ़ गई. जातेजाते एक नजर उस बैड पर डालना न भूली जिस पर अपरा और रोहित कंबल के अंदर एकदूसरे को बांहों में भरे थे. अपने कमरे में आ कर दिशा ने एक नजर चारों तरफ दौड़ाई… क्या अंतर है इस बैडरूम और अपरा दीदी के बैडरूम में? जो रोहित इस कमरे में तो शांत और गंभीर बने रहते हैं वे उस कमरे में इतने रोमांटिक हो जाते हैं? आज भले ही उस के वैवाहिक जीवन के 15 वर्ष गुजर गए हों. मगर उस ने रोहित का यह रूप कभी नहीं देखा. आईने के सम्मुख दिशा एक बार फिर से अपने चेहरे को जांचने को विवश हो गई थी.

रोहित और दिशा के विवाह के 10 वर्ष बीत जाने पर भी जब उन को संतान की प्राप्ति नहीं हुई तो अपनी शारीरिक कमी को स्वीकारते हुए दिशा ने खुद ही रोहित को पुनर्विवाह के लिए राजी कर लिया और अपने ताऊजी की बेटी, जो 35 वर्ष की दहलीज पर भी कुंआरी थी के साथ करवा दिया. अपरा भले ही दिशा से 6-7 वर्ष बड़ी थी, मगर विवाह के विषय में पीछे रह गई थी. शुरूशुरू के रिश्तों में अपरा मीनमेख ही निकालती रही. 30 पार करतेकरते रिश्ते आने बंद हो गए. फिर दुहाजू रिश्ते आने लगे, जिन के लिए वह साफ मना कर देती. मगर दिशा का लाया प्रस्ताव उस ने काफी नानुकर के बाद स्वीकार कर लिया. तीनों जानते थे कि यह दूसरा विवाह गैरकानूनी है. ज्यादातर मामलों में हर जगह पत्नी का नाम दिशा ही लिखा जाता चाहे मौजूद अपरा हो. कुछ जुगाड़ कर के अपरा ने 2-2 आधार कार्ड और पैन कार्ड बनवा लिए थे. एक में उस का फोटो पर नाम दिशा था और दूसरे में फोटो व नाम भी उसी के. तीनों जानते थे कि कभी कुछ गड़बड़ हो सकती है पर उन्हें आज की पड़ी है.

फिर साल भर में गोलू भी गोद में आ गया तो सभी कहने लगे कि देखा अपरा का गठजोड़ तो यहां का था तो पहले कैसे विवाह हो जाता. दिशा तो पहले ही इस स्थिति को कुदरत का लेखा मान कर स्वीकार कर चुकी थी. अब तो गोलू भी 4 वर्ष का हो गया है. तो फिर आज ही उसे क्यों लग रहा है कि वही गलत थी. उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली है. उस ने कभी अपने और अपरा दीदी के बीच रोहित के समय को ले कर न कोई विवाद किया, न ही शारीरिक संबंधों को कोई तवज्जो दी. लेकिन आज रोहित का उन्मुक्त व्यवहार उसे कचोट गया. आज लग रहा है वह ठगी गई है अपनों के ही हाथों. वह कभी रोहित से पूछती कि कैसी लग रही हूं तो सुनने को मिलता ठीक. खाना कैसा बना है? ठीक. यह सामान कैसा लगा? ठीक है. इन छोटेछोटे वाक्यों से रोहित की बात समाप्त हो जाती. न कभी कोई उपहार, न कोई सरप्राइज और न ही कोई हंसीमजाक. वह तो रोहित के इसी धीरगंभीर रूप से परिचित थी. फिर आज का उन्मुक्त प्रेमी. यह नया मुखौटा… ये सब क्या है? वह रातदिन अपरा दीदी, अपरा दीदी कहते नहीं थकती. पूरे घर की जिम्मेदारी अपरा को सौंप गोलू की मां बन कर ही खुश थी. अगर कोई नया घर में आता तो उसे ही दूसरे विवाह का समझता, एक तो कम उम्र दूसरा कार्यों को जिस निपुणता से अपरा संभालती उस का मुकाबला तो वह कर ही नहीं सकती थी. लोग कहते दोनों बहनें कितने प्रेम से रहती हैं. रहती भी कैसे नहीं, दिशा ने अपने सारे अधिकार जो खुशीखुशी अपरा को सौंप दिए थे. घर की चाबियों से ले कर रोहित तक. पर आज उसे इतना कष्ट क्यों हो रहा है?

बारबार एक ही खयाल आ रहा है कि वह एक बच्चा गोद भी ले सकती थी. मां ने कितना समझाया था कि एक दिन तू जरूर पछताएगी दिशा, पुनर्विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले अनाथाश्रम से… उसे घर मिल जाएगा और तुझे संतान… जब रोहित को कोई एतराज ही नहीं है तो फिर तू यह जिद क्यों कर रहीहै? सौत तो मिट्टी की भी बुरी लगती है. इस पर दिशा कहती कि नहीं मां रोहित मेरी हर बात मानते हैं, कमी मुझ में है, तो मैं रोहित को उस की संतान से वंचित क्यों रखूं? आजलगता है कि क्या फर्क पड़ जाता यदि गोलू की जगह गोद लिया बच्चा होता तो? घर में सिर्फ 3 प्राणी ही होते और रोहित उस के पहलू में सोया करते. आज उसे अपरा से ज्यादा रोहित अपराधी लग रहे थे. वे हमेशा उस की उपेक्षा करते रहे. लोग ठीक ही कहते हैं कि पहली सेवा करने के लिए और दूसरी मेवा खाने के लिए होती है. वह हमेशा 2 मीठे बोल सुनने को तरसती रही. फिर इसे रोहित की आदत मान कर चुप्पी साध ली, पर आज यह क्या था? ये उच्छृंखल व्यवहार, ये मीठेमीठे बोल, वह गुलाब का फूल.

अपरा दीदी मुझे जो इतना मान देती हैं वह सब नाटक है. मेरे सामने दोनों आपस में ज्यादा बात भी नहीं करते और अपने कमरे में बिछुड़े प्रेमीप्रेमिका या फिर कोई नयानवेला जोड़ा? दिशा की आंखें रोतेरोते सूजने लगी थीं. अपरा दीदी, अपरा दीदी कहतेकहते उस की जबान न थकती थी… वही अपरा आज उस की अपराधी बन सामने है. उस से उम्र में तजरबे में हर लिहाज से बड़ी थीं. उसे समझा सकती थीं कि यह दूसरे विवाह का चक्कर छोड़ एक बच्चा गोद ले ले. मेरा विवाह तो 19 वर्ष की कच्ची उम्र में ही हो गया था.

रोहित 10 साल बड़े थे. एक परिपक्व पुरुष… उन का मेरा क्या जोड़? न तो एकजैसे विचार न ही आचार… सास भी विवाह के साल भर में साथ छोड़ गईं. अपनी कच्ची गृहस्थी में जैसा उचित लगा वैसा करती गई. शायद ज्यादा भावुकता भी उचित नहीं होती. अपनी बेरंग जिंदगी के लिए किसे दोषी ठहराए? कौन है उस का अपराधी. रोहित, अपरा या वह खुद?

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