Short Story: खुशी – पायल खुद को छला हुआ क्यों महसूस करती थी?

Short Story: शशि ने जब पायल से विवाह की बात दोबारा छेड़ी तो पायल ने कहा, ‘‘इस उम्र में विवाह? क्यों मजाक करती हो. लोग क्या कहेंगे?’’

शशि ने पहले भी कई बार पायल से विवाह की चर्चा की थी. आज फिर कहा, ‘‘अपने बारे में सोचो. आधा जीवन अकेले काट लिया. तुम्हारी परेशानी, अकेलेपन में कोई आया तुम्हारा हाल पूछने? और लोगों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही हैं. शादी नहीं हुई तब भी और हो जाएगी तब भी. कहने दो जिस को जो कहना है.’’

शशि अपने घर चली गई. दोनों सहेलियां थीं. एक ही कालोनी में रहती थीं. शशि विवाहित और 2 बच्चों की मां थी, जबकि 45 की उम्र में भी पायल कुंआरी थी. शशि के जाने के बाद पायल ने खुद को आईने में देखा. ठीक उसी तरह जैसे वह 20 साल की उम्र में खुद को आईने में निहारा करती थी. बालों को कईकई बार संवारा करती थी.

इधर कुछ सालों से तो वह आईने को मात्र बालों में कंघी करने के लिए झटपट देख लिया करती थी. पिछले कई वर्षों से उस ने खुद को आईने में इस तरह नहीं देखा. शशि शादी की बात कर के गई तो पायल ने स्वयं को आईने में एक बार निहारना चाहा. आधे पके हुए बाल, चेहरे का खोया हुआ जादू, आंखों के नीचे काले गड्ढे. स्वयं को संवारना भूल गई थी पायल. आज फिर संवरने का खयाल आया और आईने में झांकते हुए वह अपने अतीत में खो गई.

जब वह 20 साल की थी तब पिता की असमय मृत्यु हो गई थी. जवान होती लड़कियों की तरह स्वयं को भी आईने में निहारती रहती थी. मां को पेंशन मिलने लगी. लेकिन किराए के मकान में 2 बेटियों और 1 बेटे के साथ मां को घर चलाने में समस्या होने लगी. 2 लड़कियों की शादी और बेटे को पढ़ालिखा कर रोजगार लायक बनाना मां के लिए कठिन प्रतीत हो रहा था. पायल कालेज में थी और 5 साल छोटा भाई अनुज अभी स्कूल में था.

पिता की मृत्यु के बाद पायल ने नौकरी के लिए तैयारी करना शुरू कर दी. वह घर के हालात समझती थी और मां का हाथ भी बंटाना चाहती थी. कुछ दिनों बाद पायल की नौकरी लग गई. वह शिक्षा विभाग में क्लर्क बन गई. पायल को समझ ही नहीं आया कि नौकरी उस के लिए वरदान था या श्राप. मां ने भाईबहन की जिम्मेदारी उसे सौंप दी. पायल ने सहर्ष स्वीकार भी कर ली. पायल के लिए रिश्ते आते तो मां मना कर देती. कहती, ‘‘पहले छोटी की शादी हो जाए और बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो जाए. उस के बाद पायल की शादी के बारे में सोचूंगी.’’

पायल की कमाई घर आने लगी तो भाईबहन के शौक बढ़ गए. मां भी दिल खोल कर खर्च करती. पायल ने भी भाईबहन और मां की इच्छाओं को हमेशा पूरा किया. 20 बरस की पायल की जवानी शुरू होते ही खत्म सी हो गई.

अब उसे एक ही सबक मां बारबार सिखाती, ‘‘अब तुम्हें अपने लिए नहीं, अपने भाईबहन के लिए जीना है.’’

जरूरतें व्यक्ति को स्वार्थी बना देती हैं. पायल को औफिस में देर हो जाती

या औफिस का कोई घर छोड़ने आता तो मां उस से पचासों सवाल करती. पायल क्या बात कर रही है, मां की नजरें और कान इसी पर लगे रहते.

मां कहती, ‘‘यह ठीक नहीं है. कोई प्यार की बीमारी मत पाल लेना. तुम कमाऊ लड़की हो. दसों लोग डोरे डालेंगे. लेकिन ध्यान रखना, तुम्हारे ऊपर परिवार की जिम्मेदारी है. फिर भी यदि करना ही चाहो तो कोई क्या कर सकता है? तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी. हम अपना देख लेंगे.’’

मां की आंखों में आंसू भर आते और पायल को कई प्रकार से समझाते हुए कसम खानी पड़ती कि जब तक भाईबहन को किनारे नहीं लगा देती तब तक ऐसाकुछ नहीं होगा.

पायल जब 30 वर्ष की हुई तब रुचि की शादी हुई. रिश्ते बहुत आए लेकिन रुचि को पसंद नहीं आए. रुचि के अपने सपने थे. उस के सपनों का राजकुमार ढूंढ़ने में एक दशक लग गया. पायल जब उसे समझाती कि हम बहुत बड़े लोग नहीं हैं. इतने बड़े सपने मत पालो. अपने बराबर वालों में से किसी को पसंद कर लो. पायल की बात पर मां उलाहना देते हुए कहतीं, ‘‘समय लग रहा है तो लगे. रुचि को लड़का पसंद तो आना चाहिए. मन मार कर शादी करने का क्या अर्थ है? तुम्हें रुचि की शादी की इतनी जल्दी क्यों है? तुम चाहो तो…’’

पायल को चुप होना पड़ा. खातेपीते घर के इंजीनियर से शादी तय हुई तो उस के मुताबिक खर्च भी करना पड़ा. पायल को अपने पीएफ के अलावा विभागीय लोन भी लेना पड़ा. विवाह में अच्छाखासा खर्च हुआ. इस वजह से उसे 5 साल अपने वेतन से लोन चुकाना पड़ा.

यदाकदा आने वाले रिश्तों को भी यह कह कर अस्वीकृत कर दिया जाता कि बस भाई अपने पैर पर खड़ा हो जाए. फिर मांबेटे मिल कर पायल के हाथ पीले करेंगे. पायल ने आईना देखना छोड़ दिया. बस झट से कंघी कर के पीछे चोटी कर लेती. स्वयं को जी भर कर देखना ही भूल गई पायल. छोटा भाई अनुज बीटैक कर रहा था. पढ़ाई में होने वाला खर्चा पायल को ही प्रतिमाह भेजना था. शुरू में तो अनुज फोन पर अकसर कहता पायल से कि दीदी, एक बार मुझे नौकरी मिल गई फिर आप की शादी धूमधाम से करूंगा. लेकिन नौकरी मिलते ही वह अपनी नौकरी में व्यस्त हो गया.

मां की इच्छा थी कि एक बार बहू का मुंह देख लूं तो समझो गंगा नहा लिया. फिर कोई परवाह नहीं. पायल के विषय में नहीं सोचा मां ने. पायल को दुख तो हुआ लेकिन मां के कई कड़वे घूंट की तरह वह इसे भी पी गई. अनुज के लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे थे. मां के अपने तौरतरीके थे लड़की पसंद करने के. दहेज, सुंदर लड़की… और इतने तामझाम से निबटने के बाद मां किसी लड़की को शादी के लिए पसंद करती तो अनुज के नखरे शुरू हो जाते. पायल 40 साल की हो गई. अपनी शादी के बारे में उस ने न जाने कब से सोचना बंद कर दिया. अनुज की शादी हुई तो अपनी पत्नी को ले कर वह मुंबई चला गया.

कुछ महीनों बाद मां चल बसी. मां की मृत्यु के बाद पायल अकेली रह गई. भाईबहन फोन करते या कभीकभार मिलने भी आते तो अकेली कमाऊ बहन के कुछ देने की बजाय उस से ही आर्थिक मदद मांगते.

पायल का तबादला हो गया नए शहर में. इस नए शहर में उसे शशि जैसी सहेली मिली. शशि को जब पायल के बारे में पता चला तो उस ने समझाया, ‘‘ठीक है तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई, लेकिन अब तो सोचो अपने बारे में.’’

पायल कहती, ‘‘मेरी उम्र 45 साल के आसपास है. इस उम्र में शादी? लोग क्या सोचेंगे? मेरे भाईबहन, उन के रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

शशि कहती, ‘‘अब निकलो इस जंजाल से. तुम्हारे बारे में किस ने सोचा? तुम ने अपनी जिम्मेदारी निभाई. अब क्या तुम्हारे भाईबहन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती या अब उन के बच्चों की जिम्मेदारी भी उठाने वाली हो? इस से पहले कि भाईबहन अपना बच्चा यह कह कर तुम्हारे पास छोड़ जाएं कि बहन तुम अकेली हो, मेरे बच्चे को रख लो. आप का मन लगा रहेगा और आप की देखभाल भी हो जाएगी, अच्छा होगा कि तुम अपना नया जीवन शुरू करो.’’

पायल ने स्वयं को काफी देर तक गौर से आईने में निहारा. उसे लगा जैसे

जिम्मेदारी के नाम पर छल किया गया हो उस के साथ. लेकिन शिकायत करे तो किस से करे? वह कमाती थी इसलिए जिम्मेदारी भी उसी की बनती थी. उस ने तय किया कि वह आज ही ब्यूटीपार्लर जाएगी.

शशि ने एक अधेड़ युवक से उस का परिचय करवाया था. युवक के चेहरे पर जिंदगी के पूरे निशान मौजूद थे. करीने से कटे और रंगे हुए बाल. उम्र को मात देने की भरपूर कोशिश करता हुआ उस का क्लीन शेव चेहरा और जींस टीशर्ट पहने हुए पूरी जिंदादिली के साथ जीता हुआ वह युवक रमेश था.

पहला विवाह असफल हो चुका था. चोट के निशान तो थे जीवन पर लेकिन भरपूर जीने के लिए मरहमपट्टी के साथ मुसकराता चेहरा था. अच्छी नौकरी में था. पायल से विवाह के लिए तैयार था. कई बार मिल भी चुका था. लेकिन पायल के मन में मोती बिखर चुके थे. वह हर बार कुछ न कुछ बहना बना कर टाल जाती. लेकिन आज जब उस ने स्वयं को आईने में निहारा तो अमृत की चंद बूंदें उस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थीं. जीवन हर अवस्था में खूबसूरत रहता है. पायल ने शशि को फोन किया,

‘‘मैं विवाह के लिए राजी हूं.’’ शशि की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. रुचि और अनुज को जब उस ने अपने विवाह की बात बताई तो दोनों ने मिलीजुली बात ही कही.

‘‘दीदी इस उम्र में शादी? लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? आप को सहारा ही चाहिए, तो मेरे बेटे को अपने पास रख लो.’’

‘‘मुझे सहारा नहीं जीवन चाहिए. मुझे जीना है. अपनी खुशी के लिए, अपने लिए.’’

रुचि और अनुज कुछ पल खामोश रहे. उन्हें अपने स्वार्थ का एहसास हुआ. दोनों ने कहा, ‘‘हम आप के विवाह में शामिल होने के लिए कब आएं. होने वाले जीजा से तो मिलाओ.’’

‘‘जल्दी खबर करती हूं,’’ पायल ने खुशी से चहकते हुए कहा. कोई आप के विषय में सोचे यह अच्छी बात है. न सोचे तो स्वयं सोचना चाहिए. अपनी खुशियां तलाशने का हक हर किसी को है.

Family Story: नजरिया बदल रहा – क्या अपर्णा का सपना पूरा हुआ?

Family Story: ‘‘देख अपर्णा, इधर आ जल्दी.’’ ‘‘क्या है मम्मा?’’ अपर्णा वीडियो पौज कर मोबाइल हाथ में लिए चली आई थी.

‘‘वह देख, पार्थ नीचे खड़ा अपने गमलों को कितने प्यार से पानी दे रहा है. सादे कपड़ों में भी कितना हैंडसम दिखता है.’’

अपर्णा ने मां रागिनी को घूर कर देखा.

‘‘यह देख, कितना हराभरा कर दिया है उस ने यह बगीचा. अभी आए कुल 2 महीने ही तो हुए हैं इन लोगों को यहां,’’ वह फुसफुसा कर बताए जा रही थी.

‘‘मम्मा, आप तो पीछे ही पड़ जाते हो. बस, कोई लड़का दिख जाना चाहिए आप को. उस की खूबियां गिनाने लग जाती हो. बोल दिया न, मु?ो नहीं करनी शादीवादी, वह भी एक सरकारी नौकरी वाले से कतई नहीं. शगुन दी की शादी की थी न सरकारी डाक्टर से. बेचारी आज तक वहीं बनारस में अटकी अस्पताल, मंदिर और घाटों के दर्शन कर रही हैं.’’

‘‘तेरी प्रौब्लम क्या है. स्मार्ट है, हैंडसम है पार्थ, दिल्ली विश्वविद्यालय में बौटनी का लैक्चरर है. उस का अपना घर है. उस पर से अकेला लड़का है, एक बहन है, बस.’’

‘‘हां, एक बहन है, जिस की शादी हो चुकी है. बड़े भले लोग हैं. पिता डिग्री कालेज में इंग्लिश के प्रोफैसर थे, रिटायर हो चुके हैं. मां स्कूल टीचर थीं, रिटायर हो चुकीं. अपनी ही जाति के हैं…और कुछ? मम्मा कितनी बार बताओगे मु?ो यही बातें,’’ वह खीझी सी एक सांस में सब बोल कर ही ठहरी थी और रागिनी को खींच कर अंदर ले आई थी.

‘‘अभीअभी नौकरी लगी है उस की, रिश्तों की भरमार है उस के लिए, कमला बहनजी बता रही थीं. कोई रुका थोड़े ही रहेगा तेरे लिए,’’ रागिनी ने कहा.

‘‘हां, तो किस ने कहा है रुकने के लिए. मैट्रिमोनियल में देखो, हजार मिलेंगे एक से एक, यूएस, इंग्लैंड में वैल सैटल्ड, हैंडसम लड़के. प्रिया, शिखा, रूबी, जया मेरी सारी खास सहेलियां कोई अमेरिका, आस्ट्रेलिया तो कोई कनाडा, लंदन की उड़ानें भर रही हैं या तैयारी में हैं. किसी की शादी हो चुकी है तो किसी की इंगेजमैंट. आप को तो मालूम है, प्रिया तो पिछले महीने ही शादी कर लंदन चली गई. मु?ो तो वर्ल्ड के बैस्ट प्लेस जाना है यूएसए, उस में भी न्यूयौर्क.’’

‘‘हम से इतनी दूर जाने की सोच रही है, अप्पू. तेरे और शगुन के अलावा कौन है हमारा. पास है तो शगुन कभीकभी आ जाती है. कभी हम भी मिल आते हैं. तू आसपास भारत में ही कोई ढूंढ़. तेरे लिए व हमारे लिए, यही सही रहेगा. शगुन तो सम?ादार है, सब संभालना जानती है. दुनियादारी का पता है उसे. तु?ो तो कुछ भी नहीं मालूम. बस, तेरे परीलोक जैसे सपने. मैट्रिमोनियल से अनजाने लोगों से रिश्ता कर तु?ो परदेस भेज दें, कुछ गड़बड़ हुई तो… न्यूज तो देखतीपढ़ती है न?’’

‘‘शीर्ष की तो याद होगी आप को, जो मेरे साथ बीएससी में था. जिस ने एक दिन हमें अपनी कार में लिफ्ट दी थी, आप का पैर मुड़ गया था मार्केट में, जोर की मोच आ गई थी आप को. इतने सालों बाद वह कुछ समय पहले अचानक मु?ो मौल में मिल गया था. उस की कंपनी उसे यूएस भेज रही है वह भी सीधा न्यूयौर्क. 3 साल का असाइनमैंट है. अपने पेरैंट्स को मना रहा था. वे नहीं चाहते कि जाए और यदि जाना ही है तो शादी कर के जाए. पर वह चला गया.

‘‘मु?ा से बोल रहा था. ‘वहीं कोई दूसरी कंपनी जौइन कर लूंगा. पागल हूं जो इतनी अच्छी जगह छोड़ इंडिया वापस रहने आऊंगा. हां, शादी जरूर भारत की लड़की से करूंगा ताकि घर का काम बढि़या हो सके और घर का खाना भी मिल सके. हाहा वह रुक कर हंसा था, फिर बोला. तब तक तुम अपनी पीएचडी पूरी कर लो. अगर वेट किया मेरा, तो शादी तुम्हीं से करूंगा. मेरी पहली पसंद तो तुम ही थीं. यह बात और है मैं ने कभी जाहिर नहीं किया.’ कह कर वह मुसकरा रहा था. मैं आप को बताने ही वाली थी.’’

‘‘अरे, तु?ो बना रहा है. वह भी कैसा लड़का है जैसे मांबाप से कोई मतलब नहीं, उन्हें भी ले जाने की बात कहता तो भी बात सम?ा आती. वह तेरी क्या कद्र करेगा.’’

‘‘नहीं मम्मा, फोन नंबर दिया है उस ने मु?ो, उस पर उस से मेरी कई बार बात भी हुई है. कई बार उस के फोन भी आ चुके हैं. उस ने प्रौमिस किया है, 6 महीनों में लौटने वाला है, तब आप सब से मिलेगा अपने मम्मीपापा के साथ, शादी की बात करने.’’

‘‘वाह, कब आएगा, कब बात करेगा. इतना ही था तो उन्हें हम से मिलवा कर क्यों नहीं गया? एक नंबर का फेंकू लगता है. पापा से बात करती हूं, ला, पता दे उस का. हम खुद ही जा कर उस के मांबाप से बात करते हैं.’’

‘‘मैं कभी घर नहीं गई उस के, न ही उस से कभी पता पूछा. शायद कालकाजी में घर है उस का.’’

‘‘कमाल है, घरपरिवार भी देखा नहीं. और इतना बड़ा फैसला ले लिया. सच में बच्चों वाला दिमाग है तेरा. कब आएगा, कब बात करेगा वह. 27 की हो चली है तू. धीरगंभीर स्थिर चित्त, पार्थ जैसा ही कोई संभाल सकता है तु?ो, जान रही हूं.’’ उन्हें कुछ इसी थीम पर गिरीश कर्नाड और शबाना आजमी की ‘स्वामी’ फिल्म याद हो आईर् थी. जिद्दी चंचल लड़की और गंभीर लड़का…

‘‘एक बार फिर अच्छी तरह सोच ले. फिर कहूंगी पार्थ तेरे लिए बिलकुल फिट है. वे लोग भी तु?ो पसंद करते हैं.’’

‘‘कहां हो भई दोनों मांबेटी. देखो कुमार के घर का बना गरम इडलीसांभर फिर दे गए और मेरी प्रिय मखाने की खीर भी. विश्व में बढ़ रहे करोना संकट के लिए टीवी पर प्रधानमंत्री क्या बोलते हैं. यहां भी लौकडाउन होना तो तय है.’’ पापा नंदन कुमार की आवाज पर दोनों टीवी रूम में चली आईं.

21 दिनों का लौकडाउन हुआ, फिर 19 दिनों का. सभी बताए नियमों का पालन कर रहे थे. पार्थ और अपर्णा की भी छुट्टी हो गईर् थी. तालीथाली, दीयाबत्ती अभियान में अपर्णा ने पूरी बिल्ंिडग में सब से अधिक जोरशोर से हिस्सा लिया. नीचे पार्थ के घर होहल्ला न सुन कर अपर्र्णा मुंह बिचकाती रही. जरा भी जज्बा नहीं देश के लिए. कैसा अजीब आदमी है, अकड़ू खां बना बैठा होगा कहीं, प्रवक्ता पार्थ. अंधेरे में अपनी उन किताबों में भी तो नहीं खो सकता इस समय. कुमार साहब ने दीप बाहर रख दिए थे, तो थाली वाले दिन मिसेज कुमार ने मंदिर की घंटी टुनटुना दी थी. बस, हो गया देशप्रेम. अपर्णा को खल रहा था. पार्थ तो वैसे भी कम ही बाहर निकलता. उसे यह सब बचकाना लगता. हां, सब्जीफल, दूध लाने के लिए जरूर जाता, मांपापा को जाने नहीं देता.

एक दिन कुमार फिर घर आए, बोले, ‘‘भाईसाहब, बहनजी, आप भी पार्थ से ही मंगा लिया कीजिए. आप क्यों जाएंगे, यह ही ले आया करेगा न. बुजुर्गों और छोटे बच्चों को ही ज्यादा खतरा है कोरोना से.’’

तो रागिनी ने घूमने को उतावली अपर्णा को सामान लाने के बहाने पार्थ के साथ भेज दिया. एक पंथ दो काज. शायद, पार्थ को पसंद ही करने लगे.

सामान ले कर अपर्णा पार्थ की कार में पहले ही आ बैठी. पार्थ अभी लाइन में था. तब तक उस ने शीर्ष को फोन लगा दिया. इतने दिनों से फोन लग नहीं रहा था. आज कौल कनैक्ट हो गई. तो उस ने शीर्ष की पूरी खबर ली. बहुत दिनों से फोन नहीं आया, न मिला तुम्हारा फोन. अधिक बिजी हो या मु?ो भूल गए. किसी और के चक्कर में तो नहीं पड़ गए. क्या हाल है वहां? न्यूज में तो तुम्हारा न्यूयौर्क सब से अधिक कोरोना की चपेट में है. दिल घबरा रहा था, और तुम हो कि फोन ही नहीं उठा रहे. तुम सेफ तो हो?’’

‘‘अरे, यहां सब मजे में हैं. छुट्टियां हो गई हैं. अपार्टमैंट से ही काम होता है औनलाइन. मु?ो क्या होना है. स्टैच्यू औफ लिबर्टी के साथ हूं. और तुम सब?’’

‘‘ठीक है सब. छुट्टियां यहां भी हो गई हैं. अच्छा, तुम्हारे पेरैंट्स तो ठीक हैं? कौन है उन के पास? कैसे कर रहे होंगे मैनेज. उन का घर का पता, फोन नंबर दो, तो कभी जरूरत पर मदद को परमिशन ले कर पहुंचा जा सकता है. मम्मा को सब बता दिया, वे मिलना भी चाहती हैं.’’

‘‘पापा की तो डेथ हो गई.’’

‘‘ओह, वैरी सैड ऐंड पेनफुल. कब? कैसे?’’

‘‘10 दिन तो हो ही गए, कोरोना से. मम्मी को भी आइसोलेशन में रखा गया है. रिश्तेदारों को भी जाने नहीं दे रहे. यहां से जाना ही पौसिबल नहीं था. सारी फ्लाइटें बंद. मामा लोग उन से फोन से कनैक्टेड हैं और मैं भी. क्या कर सकता हूं.’’

‘‘फिर क्या कह रहे थे, मैं मजे में हूं?’’

‘‘तो, मैं तो ठीक ही हूं. फादरमदर की वैसे भी उम्र थी ही, जाना तो वैसे भी था, फिर मैं इंडिया आ कर भी क्या कर लेता, न देख सकता न छू सकता. अच्छा है यहां सेफ हूं. कुछ हुआ तो बैस्ट इलाज हो जाएगा. चिल्ल… डोंट वरी फौर मी.’’

‘‘तुम अपने फादरमदर के लिए ही बोल रहे हो न?’’ अपर्णा को आश्चर्य हो रहा था. ऐसा निर्मोही, स्वार्थी बेटा कैसे हो सकता है? क्या फायदा ऐसे एडवांस शहर, ऊंचे स्तर और पैसों का जो ऐसे समय भी मांबाप के पास न रह सके, न आ सके और फिर उन के प्रति मन में ऐसी भावना रखे.

‘‘क्या सोचने लगी भई, कोई तुम्हें तो नहीं मिल गया? अरे दोचार महीनों की बात है. सबकुछ नौर्मल हो जाएगा. वैज्ञानिक लगे हुए हैं, दवावैक्सीन जल्द ही ढूंढ़ निकालेंगे ये लोग. शादी कर के तुम्हें भी यहां ले आऊंगा. फिर अपनी तो घरबाहर ऐश ही ऐश होगी. हाहा, ओके, औनलाइन काम का वक्त हो गया. रखता हूं, बहुत काम है. ट्वेंटी डेज से पहले कौल नहीं कर पाऊंगा. ओके, बाय, लव यू स्वीटहार्ट.’’ उस के फ्लाइंग किस के साथ ही फोन कट गया था.

अपर्णा इधरउधर देखने लगी, कहां रह गया पार्थ. वह भी जाने कितना सामान ले रहा है पागल सा. रोज ही तो आता है मार्केट, फिर भी. उस ने नजरें दूर घुमाईं तो पार्थ नजर आया. वह मास्क लगाए, गरीब बच्चों में दूध की थैली, केले, बिस्कुट और ब्रैड बांट रहा था. तभी किसी गरीब बूढ़ी महिला ने उस से हाथ जोड़े कुछ कहा तो वह फिर राशन की दुकान में घुस गया. लौट कर उस ने लाई आटेचावल की थैलियां महिला के सिर पर अपनी मदद से रखवा दीं. महिला ने हाथ जोड़ कर हाथ ऊपर उठाए तो अपर्णा सम?ा गई कि जरूर गरीब महिला उसे दुआएं दे रही है. अपना सामान ला कर पार्थ ने गाड़ी में रखा.

‘‘एक मिनट,’’ कह कर उस ने जा रहे ठेले से साग खरीदा और कूड़े में खाना ढूंढ़ती कमजोर गाय को खिला कर वापस चला आया, ‘‘सौरी, थोड़ा टाइम लग गया.’’

‘‘आप रोज ही ऐसे इतना सब…’’ वह हैरान थी. दिल भी भर आया था उस का.

‘‘इतनाउतना कुछ नहीं. बहुतथोड़ा ही कर पाता हूं. दुनिया की जरूरत के आगे यह तो नगण्य ही है.’’

अपर्णा ने पहली बार पार्थ के चेहरे को ध्यान से देखा था, ‘जज्बा भी, जज्बात भी और सुंदर, सही सोच भी, मतलब सोने जैसा दिल. शीर्ष के दिल, दुनिया से कितना अलग, निर्मल…शायद मम्मी सही ही कह रही थीं. मु?ो अब उन की ही बात मान लेनी चाहिए. नजरिया बदलने लगा था. उस ने एक बार ऊपर से नीचे किन्हीं खयालों में गुम ड्राइव करते पार्थ को देखा और मन ही मन मुसकरा उठी.

Family Story: संयुक्त खाता – आखिर वीरेन अंकल क्यों बदल गये?

Family Story: दोपहर का समय था. मैं औफिस में लंच टाइम में खाना खा कर के जल्दीजल्दी अपनी फाइलें इकट्ठी कर रही थी.

बस, 15 मिनट में एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी थी. इतने में फोन की  घंटी बजी.

‘उफ, अब यह किस का फोन आ गया?’ परेशान हो कर मैं ने फोन उठाया, तो उधर से कमला आंटी की आवाज सुनाई पड़ी.

कमला आंटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उन के पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.

आंटी की आवाज से मेरा माथा ठनका. आंटी कुछ उदास सी लग रही थीं और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज को भरसक मुलायम बना कर मैं ने कहा, ‘‘कहिए आंटी, बताइए कैसी हैं आप?’’

‘‘बेटा, मैं तो ठीक हूं पर तुम्हारे अंकल की तबीयत काफी खराब है. हम लोग 10 दिनों से अस्पताल में ही हैं,’’ बोलतेबोलते उन का गला भर्रा गया, तो मुझे भी चिंता हो गई.

‘‘क्या हुआ आंटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘सीरियस ही है बेटी. उन को एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब… अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डाक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं,’’ कहते हुए उन का गला रुंध गया.

‘‘आंटी, आप फिक्र मत कीजिए. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिए. मैं शाम को आती हूं आप से मिलने,’’ एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी, वहीं दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी.

मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बौस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते हैं. किसी तरह भागतेभागते मीटिंग में पहुंची, पर मेरा दिमाग कमला आंटी और वीरेन अंकल की तरफ ही लगा रहा.

मीटिंग समाप्त होतेहोते शाम हो गई. मैं ने सोचा, घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूं. वहां जा कर देखा, तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डाक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था. अस्पताल से निकलते हुए मैं ने कहा, ‘‘आंटी, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइए.’’ कमला आंटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं, पर फिर बोलीं, ‘‘बेटी, एक हफ्ते से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुम से क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज पर खर्च हो गया है. इन के अकाउंट में तो पैसा है, परंतु निकालें कैसे? ये तो चैक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन, बस, इन्हें ही पता है. इन का खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इन की पासबुक और चैकबुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?’’ कहते हुए आंटी ने पासबुक और चैकबुक दोनों मेरे हाथ में रख दीं. आंटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूं.

‘‘आंटी, आप का भी अंकल के साथ जौइंट अकाउंट तो होगा न? आप चैक साइन कर दीजिए, मैं कल बैंक खुलते ही आप के पास पैसे भिजवा दूंगी.’’

‘‘नहीं बेटी, नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हें तो पता ही है, मैं तो इन के कामों में कभी दखल नहीं देती. इन्होंने कभी कहा नहीं और न ही मुझे कभी जरूरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो ये खुद ही करते थे. पर पैसे तो इन के इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह पैसा बैंक से निकलवा दोगी न?’’ आंटी ने इतनी मासूमियतभरी उम्मीद से मेरी ओर देखा, तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या कहूं. बस चैक ले कर सोचती हुई घर आ गई.

घर आ कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, ‘‘कोई बात नहीं. मैं वीरेन साहब को अच्छी तरह जानता हूं. उन के सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद वीरेन साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उन के दस्तखत करवा कर पैसे उन के पास भिजवा दूंगा.

‘‘आप बिलकुल फिक्र मत कीजिए. बैंक के निर्देशों के अनुसार, यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उस का अंगूठा लगवा कर उस के खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है.’’

वह मैनेजर बैंक के निर्देशों से भलीभांति अवगत था, और वीरेन अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गई.

सुबह दफ्तर जाने के बजाय मैं ने कार अस्पताल की ओर मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई, जब 9 बजते ही बैंक का मैनेजर भी वहां पहुंच गया. उस के हाथ में विड्राअल फौर्म था, जामुनी स्याही वाला इंकपैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उस ने वीरेन अंकल से खूब गर्मजोशी से नमस्ते की, तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे.

फिर मैनेजर ने कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के अकाउंट से 25,000 रुपए निकाल कर आप की पत्नी को दे दूं?’’ जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया, तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गए.

उस ने फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप के इलाज के लिए आप की पत्नी को पैसा चाहिए. आप के अकाउंट से पैसे निकाल कर दे दूं?’’ जवाब फिर नकारात्मक था. बेचारे मैनेजर ने 3-4 बार प्रयास किया, पर हर बार वीरेन अंकल ने सिर हिला कर साफ मना कर दिया. उस ने हार न मानी और फिर कहा, ‘‘वीरेन साहब, आप को पता है कि यह पैसा आप के इलाज के लिए ही चाहिए?’’

वीरेन अंकल ने अब सकारात्मक सिर हिलाया, परंतु पैसे देने

के नाम पर जवाब में फिर न

ही मिला. हालांकि, यह अकाउंट वीरेन अंकल के अपने अकेले के नाम पर ही था, उन्होंने उस पर कोई नौमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आखिरी कोशिश की, ‘‘वीरेन साहब, आप की पत्नी को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूं?’’ जवाब अब भी नकारात्मक था.

‘‘आप का अकाउंट कमलाजी के साथ जौइंट कर दूं?’’ जवाब में फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह थी कि वीरेन अंकल, जो कल तक न कुछ बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सिर हिला कर साफ जवाब दे रहे थे.

मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गए. खाते से पैसे निकालने में मैनेजर ने अपनी मजबूरी जाहिर कर दी, ‘‘मैडम, अच्छा हुआ, आप यहां आ गईं, नहीं तो शायद आप मेरा भी विश्वास नहीं करतीं. आप ने खुद अपनी आंखों से देखा है. वीरेन साहब तो साफ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उन के अकाउंट  से पैसे निकालने की अनुमति कैसे दे सकता है?’’

मैनेजर की बात तो सोलह आने सही थी. बैंक मैनेजर तो वापस बैंक चला गया और मैं अंदर जा कर कमला आंटी को उस की लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी.

अस्पताल से लौटते समय मैं उन्हें अपने पास से 10,000 रुपए दे आई. साथ ही, आश्वासन भी कि जितने रुपए चाहिए, आप मुझे बता दीजिएगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है.

शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आंटी के पास फिर गई. वे अभी भी दुखी थीं. मैं ने भी उन से पूछ ही लिया, ‘‘आंटी, आप ने कभी अंकल को अकाउंट जौइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?’’

‘‘कहा था बेटी. कई बार कहा था, पर वे मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूं? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पैंशन अकाउंट है, जौइंट नहीं हो सकता.’’

‘‘नहींनहीं आंटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अब तो पैंशन अकाउंट भी जौइंट हो सकता है. चलो, अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उन का और आप का अकाउंट जौइंट करवा देंगे और नौमिनेशन भी करवा देंगे,’’ कह कर मैं घर आ गई.

रास्तेभर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि वीरेन अंकल वैसे तो आंटी का इतना खयाल रखते हैं, पर इतनी महत्त्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?

कुछ दिन और निकल गए. वीरेन अंकल की तबीयत और बिगड़ती गई. आखिरकार, लगभग 10 दिनों बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आंटी को रोताबिलखता छोड़ हमेशाहमेशा के लिए चले गए.

पति के जाने के अकथनीय दुख के साथसाथ आंटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उन का अंतिम संस्कार होने तक आंटी के ऊपर कर्जा काफी बढ़ गया था.

घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज ही उन के पास जा रही थी और मैं ने जो पहला काम किया, वह यह कि वीरेन अंकल के सभी खाते बंद करवा कर उन्हें कमला आंटी के नाम करवाए. इन कामों में बहुत से फौर्म भरने पड़ते हैं, पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब की जानकारी थी. आंटी को सिर्फ इन्डेमिनिटी बौंड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे, जो मुझ में पूरा भरोसा होने के कारण वे करती चली गईं और रिकौर्ड टाइम में मैं ने वीरेन अंकल के सभी खाते आंटी के नाम पर करवा दिए. आंटी ने चैन की सांस ली और सारे कर्जों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नौमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूचुअल फंड्स आदि का भी यही हाल था.

सब को ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा, पर मुझे यह सब काम पूरा कर के बहुत ही संतोष मिला.

वीरेन अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आंटी की फैमिली पैंशन भी आनी शुरू हो गई थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चैक जमा करना और पासबुक में एंट्री कराना भी सीख लिया था. सार यह कि उन का जीवन एक ढर्रे पर चल पड़ा था.

इस बात को कई महीने बीत गए, पर एक बात मेरे दिल को बारबार कचोटती रही कि ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिए. फिर एक बार मौका निकाल कर मैं ने आंटी से पूछ ही लिया.

यह सुन कर आंटी सकपका कर चुपचाप जमीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था, पर कुछ क्षण पश्चात आंटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, ‘‘बेटी, क्या बताऊं? पैसा चीज ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था.’’

मैं चुपचाप आंटी की ओर देखती रही. मेरी उत्सुकता और अधिक जानने के लिए बढ़ गई थी.

आंटी आगे बोलीं, ‘‘जब तुम्हारे अंकल मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उन के पिता यानी मेरे ससुरजी बहुत बीमार थे. पैसों की जरूरत पड़ती रहती थी. इसलिए उन्होंने अपनी चैकबुक ब्लैंक साइन कर के रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वह चैकबुक पड़ गई और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. न ससुरजी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इन की पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसेपैसे के लिए मुहताज हो गईं. फिर अपने जेवर बेच कर उन्होंने इन की मैडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही, यह सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास न करना, अपनी बीवी पर भी नहीं.

‘‘तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी जिंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी मां की सीख को भी. इसीलिए वे पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उन के अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा.’’

अब सबकुछ शीशे की तरह साफ था, पर आंटी तनाव में लग रही थीं. मैं ने बात बदली, ‘‘चलिए छोडि़ए आंटी, मैं आप को चाय बना कर पिलाती हूं.’’ समय बीतता गया, कमला आंटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गई थी और अपने काम संभालने से उन में एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आंटी पढ़ीलिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी, परंतु पिछले 40 सालों में केवल घरबार में ही विलीन रहने से उन का जो आत्मविश्वास  खो सा गया था, धीरेधीरे वापस आने लगा था.

मैं जब भी उन से मिलने जाती, मुझे यही खयाल बारबार सताता था कि हरेक व्यक्ति भलीभांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोड़ो, जिंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रियजनों की आर्थिक सुरक्षा के बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटीछोटी चीजें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जौइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूचुअल फंड आदि में नौमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही, वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण काम है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं?

अब कमला आंटी को ही ले? लीजिए. उन बेचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फैमिली पैंशन की हकदार हैं, अंकल के पीपीओ वगैरह की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग जिंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना खयाल रखते हैं, परंतु कभी यह नहीं सोचते कि उन के मरने के बाद उन का क्या होगा?

धीरेधीरे समय निकलता गया और कमला आंटी के जीवन में सबकुछ सामान्य सा हो गया. उन के घर मेरा आनाजाना भी कम हो गया. पर अचानक एक दिन आंटी का फोन आया, ‘‘बेटी, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?’’

‘‘हां, हां, जरूर आंटी. कोई खास बात है क्या?’’

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं, पर शाम को आना जरूर,’’ आवाज से आंटी खुश लग रही थीं.

शाम को जब मैं उन के घर पहुंची, तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुसकान थी.

‘‘लड्डू… किस खुशी में आंटी?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुसकान उन के चेहरे पर फैल गई.

‘‘पहले लड्डू खाओ बेटी,’’ बहुत दिन बाद कमला आंटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा. लड्डू बहुत स्वादिष्ठ थे. एक के बाद मैं ने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आंटी अंदर के कमरे में गईं और लौट कर सरिता मैगजीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.

‘‘यह देखो, तुम्हारी आंटी अब लेखिका बन गई है. मेरी पहली कहानी इस में छपी है.’’

‘‘आप की कहानी…? वाह आंटी, वाह, बधाई हो.’’

‘‘हां, कहानी क्या, आपबीती ही समझ लो. मैं ने सोचा कि क्यों न सब लोगों को बताऊं कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है और संयुक्त खाता न खोलने से उस को कितनी परेशानी हो सकती है? वैसे ही कोरोना वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किस का नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती, तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, ऐसा किसी के साथ न हो,’’ कहतेकहते कमला आंटी की आंखें नम हो चली थीं और साथ में मेरी भी.

घर जा कर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहां का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैं ने उसे फोन किया और सारी स्थिति समझाई. उस ने तुरंत मौके की नजाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया.

Family Story: अंश – प्रताप के प्रतिबिंब के पीछे क्या कहानी थी?

Family Story: कालेज प्राचार्य डाक्टर वशिष्ठ आज राउंड पर थे. वैसे उन को समय ही नहीं मिल पाता था. कभी अध्यापकों की समस्या, कभी छात्रों की समस्या, और कुछ नहीं तो पब्लिक की कोई न कोई समस्या. आज समय मिला तब वे राउंड पर निकल पड़े.

उन के औफिस से निकलते ही सब से पहले थर्ड ईयर की कक्षा थी. बीए थर्ड ईयर की क्लास में डाक्टर प्रताप थे. हमेशा की तरह उन की क्लास शांतिपूर्वक चल रही थी. अगली क्लास मैडम सुनीता की थी. वे हंसीमजाक करती हुई अपनी क्लास में बच्चों को पढ़ाती थीं.

अब वे अगली कक्षा की ओर बढ़े. बीए प्रथम वर्ष की कक्षा थी, जिस में चिल्लपों ज्यादा रहती. इस बात को सब समझते थे कि यह स्कूल से कालेज में आए विद्यार्थियों की क्लास थी. ये विद्यार्थी अपनेआप को स्कूल के सख्त अनुशासन से आजाद मानते हैं. स्कूल में आने और जाने में कोई ढील नहीं मिलती थी लेकिन यहां कभी भी आने और जाने की आजादी थी. लेकिन आज क्लास शांत थी. केवल अध्यापक की आवाज गूंज रही थी. आवाज सुन कर प्राचार्यजी चौंके, क्योंकि आवाज डाक्टर प्रताप की थी. बस, अंतर यही था थर्ड ईयर की कक्षा में जहां राजनीति पर चर्चा चल रही थी तो प्रथम वर्ष की कक्षा में इतिहास पढ़ाया जा रहा था.

प्राचार्यजी ने सोचा- एक ही व्यक्ति 2 जगह कैसे हो सकता है? प्राचार्य वापस थर्ड ईयर की क्लास की ओर गए तो देखा कि प्रताप वहां पढ़ा रहे थे. वे वापस आए और देखा कि क्लास का ही एक विद्यार्थी अध्यापक बना हुआ था और पूरी क्लास शांतिपूर्वक पढ़ रही थी. अध्यापक बना हुआ विद्यार्थी राहुल था.

प्राचार्य थोड़ी देर तक चुपचाप देखते रहे और फिर डाक्टर प्रताप को बुला लाए. दोनों राहुल की कक्षा का निरीक्षण करते रहे और जब क्लास खत्म हुई तब ताली बजाते हुए क्लास में प्रवेश कर गए. उन को देख कर सभी खड़े हो गए और राहुल प्राचार्य के पास पहुंच कर बोला, ‘‘सौरी सर.’’

प्राचार्य और प्रताप सर ने उस के सिर पर हाथ फेरा. प्राचार्य ने कहा, ‘‘बेटा, इस में माफी मांगने वाली बात कहां से आ गई. तुम तो अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हो. हमारे लिए तो गर्व की बात है कि हमारे कालेज में इतना होनहार विद्यार्थी है. इस साल के ऐनुअल फंक्शन में तुम्हारा शो रखेंगे.’’ प्राचार्य की बात सुन कर ललिता उठी और बोली, ‘‘सर, यह सभी सरों की मिमिक्री करता है. प्रताप सर की मिमिक्री तो इतनी अच्छी करता है कि जैसे यह प्रताप सर का ही अंश हो.’’

बात छोटी सी थी लेकिन उन का इंपैक्ट इतना बड़ा होगा? यह बाद में पता चलेगा.

राहुल की ममेरी बहन है सुषमा. वह घर गई और स्कूल में घटी घटना को अपनी मम्मी कविता को बता दिया. ललिता ने जो कहा उसे भी अपनी मम्मी को बताया और बोली, ‘‘मम्मी,

अपने राहुल में प्रताप सर की छवि दिखती है.’’

सुषमा की बात सुन कर कविता बोली, ‘‘तू ने पहले तो यह नहीं बताया, जबकि तुम दोनों को 3 महीने हो गए कालेज गए हुए.’’

सुषमा ने कहा, ‘‘पहले मैं ने इस बात पर गौर नहीं किया था लेकिन क्लास में यह चर्चा होती रही है.’’

रात को कविता ने अपने पति अनिल को बताया और संभावना व्यक्त की कि कहीं डाक्टर प्रताप ही राहुल के जैविक पिता तो नहीं?’’

अनिल ने कहा, ‘‘हो सकता है. मैं प्रताप सर से बात करूंगा.’’ इस से पहले मैं इनफर्टिलिटी सैंटर से बात करूंगा, जहां राहुल का जन्म हुआ. अगर वे सच में राहुल के पापा हुए तो मेरे लिए यह सब से अच्छा दिन होगा. अपनी छोटी बहन को विधवा के रूप में देखा नहीं जाता.’’

राहुल की मम्मी सुनीता जब 11 वर्ष की रही होंगी, उस के भाई की शादी हुई थी. उस के एक साल बाद एक सड़क दुघर्टना में उन के मम्मीपापा का देहांत हो गया. अनिल और कविता ने उस का अपनी बेटी जैसा खयाल रखा. सुनीता को एहसास भी नहीं होने दिया कि उस के मम्मीपापा नहीं हैं. इस दौरान सुनीता के भाई के घर में बेटे का जन्म हुआ. बूआ व भतीजा दोनों में पटरी अच्छी बैठ गई.

सुनीता को पढ़ाया और उस की शादी की. 20-21 साल की उम्र में ही सुनीता की शादी कर दी गई. लड़का अच्छा मिल गया, इसलिए सुनीता की शादी जल्दी कर दी. राजेश एक अच्छा पति साबित हुआ. उस ने सुनीता को हर खुशी देने की कोशिश की लेकिन सब से बड़ी

खुशी वह नहीं दे पाए. सुनीता मां नहीं बन सकी.

दोनों ने लगभग 10 वर्ष बिना संतान के बिता दिए और अपनी नियति मान कर चुपचाप बैठ गए. जब शहर में इनफर्टिलिटी सैंटर खुला तो दोनों सैंटर गए. जांच में कमी राजेश में पाई गई.

चूंकि राजेश इलाज से भी पिता बनने के काबिल नहीं थे, इसलिए शुक्राणुओं की व्यवस्था शुक्राणु बैंक से हो गई. राहुल का जन्म हुआ. इस के साथसाथ कविता ने एक बच्ची को जन्म दिया. यही सुषमा है. राजेश ने राहुल और सुनीता दोनों को भरपूर प्यार दिया. जीवन अच्छा चल रहा था.

परंतु राजेश की अचानक मौत ने सुनीता को तोड़ दिया. सुनीता से ज्यादा अनिल को तोड़ दिया. जिस बहन को उन्होंने अपनी बच्ची की तरह पाला, उस को विधवा के रूप में देख कर वे अपनेआप को संभाल नहीं पा रहे थे. बहरहाल, धीरेधीरे सब सामान्य होने लगा. राहुल और सुषमा दोनों कालेज पहुंच गए.

इधर प्रताप भी परेशान थे. आज जो हुआ, उस से भी परेशान थे. उस ने उन के मन में संदेह पैदा कर दिया था. अब तक वे लोगोें की चर्चाओं को भाव नहीं दे रहे थे. लोग इसलिए भी चुप रहते क्योंकि लोगों को प्रताप सर का व्यवहार से ऐसा नहीं लगता था कि वे किसी लड़की को प्रभावित कर सकें. उन के मन में भी यही था कि कहीं वे वही तो नहीं? प्राचार्य वशिष्ठ ने प्रताप सर को बुलाया क्योंकि उन्होंने भी प्रताप सर के व्यवहार को भांप लिया था.

प्रताप सर के आने पर बात प्राचार्यजी ने ही बात शुरू की. ‘‘आप तभी से परेशान हैं जब से राहुल ने आप की नकल की?’’

‘‘नहीं सर, ऐसी बात नहीं. मैं कालेज में चल रही चर्चाओं से परेशान हूं और आज की घटना ने और क्लास की एक छात्रा के कमैंट ने चर्चा को और सशक्त बनाया है. मेरे सामने यह बात भी आई है कि राहुल मेरी अवैध संतान है जबकि ऐसा नहीं है. हां, राहुल मेरा बेटा हो सकता है,’’ डाक्टर प्रताप बोले.

यह सुन कर प्राचार्य चौंके और बोले, ‘‘राहुल आप का बेटा कैसे हो सकता है?’’

‘‘मेरा कोई अफेयर नहीं है. पता नहीं कैसे तब मैं ने अपने शुक्राणु दान कर दिए? मैं ने शुक्राणु बैंक को अपने शुक्राणु दान किए थे. तब मुझे यह पता नहीं कि

यह सब इस रूप में मेरे सामने आएगा.’’

‘‘तब तो आप का और राहुल का डीएनए टैस्ट करा लेते है,’’ प्राचार्य बोले.

‘‘लेकिन राहुल को इस के लिए कैसे राजी करें?’’

वह मुझ पर छोड़ दो, प्राचार्य बोले. लेकिन उन को कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि राहुल के मामा ने आ कर सारी समस्या हल कर दी.

उस घटना को एक सप्ताह से अधिक हो गया था. राहुल कालेज से वापस लौटा तब उस की मम्मी ने उसे टोका, ‘‘क्यों रे, तू अपने टीचरों की नकल करता है?’’

‘‘नकल नहीं मम्मी, मिमिक्री करता हूं. आप को किस ने बताया? जरूर यह सुषमा ही होगी. वह तो यह भी कह रही होगी कि मुझ में प्रताप सर की छवि दिखाई देती है.’’

‘‘हां,’’ सुनीता बोली, ‘‘पर बेटा, तू अपने अध्यापकों की कमियों को नहीं बल्कि उन की विशेषताओं को उजागर कर. वे तेरे गुरुजी हैं और उन का सम्मान करो.’’

राहुल कुछ बोलता, तभी उस की भाभी आ गई और राहुल से बोली, ‘‘तू जा, अपनी पढ़ाई कर. मुझे तेरी मम्मी से कुछ बातें करनी हैं. कविता अब सुनीता से बोली, ‘‘डाक्टर प्रताप डीएनए जांच के लिए राजी हो गए हैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, मैं राजेश को नहीं भुला पाऊंगी,’’ सुनीता बोली, ‘‘और खुद उन का भी परिवार होगा?’’

‘‘नहीं. उन का कोई परिवार नहीं है,’’ कविता बोली, ‘‘प्रताप सैल्फमेड व्यक्ति हैं. वे अनाथाश्रम में पले हैं. वे कौन सी जाति के हैं, कौन से धर्म के हैं, कौन जानता है.

‘‘परिवार क्या होता है? वे नहीं जानते. उन का परिवार अनाथाश्रम के लोग ही हैं. पढ़ने के जनून ने उन को यहां तक पहुंचाया है. हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए. कुछ बनने के जनून में खुद की शादी और परिवार के बारे में नहीं सोचा. हां, इतना जरूर किया कि शुक्राणु बैंक में अपने शुक्राणु दान कर दिए. और उन्हीं का तू ने उपयोग किया और फिर राहुल का जन्म हुआ.’’

सुनीता सुन रही थी परंतु कुछ बोल नहीं रही थी. कविता आगे बोली, ‘‘तू कुछ बोल नहीं रही है. प्रताप और राहुल के डीएनए अगर मैच कर गए तो हम सब के लिए खुशी की बात होगी. वे तेरे बेटे के जैविक पिता तो हैं ही, कोई गैर नहीं. समय को भी शायद यही मंजूर होगा, तभी तो उस ने ये हालात पैदा किए हैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, कभीकभी मैं प्रताप की और राजेश की तुलना करने लगी और उन को बुरा लगा तो?’’

‘‘तू राहुल की सोच. अपनी और प्रताप की नहीं. उसे अपने जैविक पिता को पिता कहने का मौका तो दे. हम सब चाहते हैं कि तुम सब एक सुखद जीवन जियो. और हां, राजेश होता तो भी उसे गम क्यों होता, वह जानता तो था कि राहुल उन की संतान नहीं. राजेश की आदतें तो

तू जानती ही है. उस का आशीर्वाद

भी मिलेगा.’’

सुनीता बोली, ‘‘पर भाभी, इस उम्र में शादी क्या शोभा देगी?’’

‘‘पागल, तू अभी 50 की हुई और इस उम्र में शादी तन की नहीं, मन की जरूरत होती है. इस उम्र में ही पतिपत्नी दोनों को एकदूसरे की ज्यादा जरूरत होती है. बच्चे अपने परिवार के साथ व्यस्त रहेंगे. उन को उन के परिवार के साथ जीवन जीने दे. और जहां तक राहुल की बात है, तो तेरे भाई ने उस से बातचीत कर उस की सोच की थाह ले ली है. वह तो खुश है और डीएनए जांच के लिए भी राजी है. तू प्रताप के बारे में भी सोच, उस ने कभी कोई सुख नहीं देखा. जन्म के तुरंत बाद मांबाप मर गए. वह अनाथाश्रम में आ गया. अनाथाश्रम में पलने वाला बच्चा इस मुकाम तक पहुंचा है तो उस में काबिलीयत तो होगी. उसे तू ही खुशी दे सकती है. अगर तू ने मना कर दिया तो वह कहीं टूट न जाए.’’

सुनीता राजी हो गई. इधर प्रताप और राहुल के डीएनए मैच कर गए. और साथ ही, राहुल व सुनीता बंधन में बंध गए.

Family Story: तू रुक, तेरी तो – रुचि ने बच्चों के साथ क्या किया

Family Story: ‘‘च टाक…’’

समर्थ ने आव देखा न ताव, रुचि के गालों पर  झन्नाटेदार तमाचा आज फिर रसीद कर दिया. तमाचा इतनी जोर का था कि वह बिलबिला उठी. आंखों से गंगायमुना बह निकली. वह गाल पकड़े जमीन पर जा बैठी. समर्थ रुका नहीं, ‘‘तू रुक तेरी तो बैंड बजाता हूं अभी,’’ कहते हुए खाने की थाली जमीन पर दे मारी, फिर इधरउधर से लातें ही लातें जमा कर अपना पूरा सामर्थ्य दिखा गया. 5 साल का बेटा पुन्नू डर कर मां की गोद में जा छिपा.

‘‘चल छोड़ उसे, बाहर चल,’’ समर्थ उसे घसीटे जा रहा था, ‘‘चल, नहीं तो तू भी खाएगा…’’ वह गुस्से से बावला हो रहा था.

‘‘नई…नई… जाना आप के साथ, आप गंदे हो,’’ पुनीत चीखते हुए रो रहा था.

‘‘ठीक है तो मर इस के साथ,’’ समर्थ ने  झटके से उसे छोड़ा तो वह गिरतेगिरते बचा. अपने आंसू पोंछता हुआ भाग कर वह मां के आंसू पोंछने लगा. रुचि का होंठ कोने से फट गया था, खून रिस रहा था.

‘‘मम्मा, खून… आप को तो बहुत चोट आई है. गंदे हैं पापा. आप को आज फिर मारा. मैं उन से बात भी नहीं करूंगा. आप पापा से बात क्यों करते हो, आप कभी बात मत करना,’’ वह आंसुओं के साथ उस का खून भी बाजुओं से साफ करने लगा, ‘‘मैं डब्बे से दवाई ले आता हूं,’’ कह कर वह दवा लेने भाग गया.

रुचि मासूम बच्चे की बात पर सोच रही थी, ‘कैसे बात न करूं समर्थ से. घर है, तमाम बातें करनी जरूरी हो जाती हैं, वरना चाहती मैं भी कहां हूं ऐसे जंगली से बात करना. 2 घरों से हैं, 2 विचार तो हो ही सकते हैं, वाजिब तर्क दिया जा सकता है कोई है तो, पर इस में हिंसा कहां से आ जाती है बीच में. समर्थ को बता कर ही तो सब साफ कर के खाना तैयार कर दिया था समय पर. अम्माजी को आने में देर हो रही थी. फोन भी नहीं उठा रही थीं. खाना तैयार नहीं होता, तो भी सब चिल्लाते.’

‘‘अपने को गलत साबित होते देख नहीं पाते ये मर्द. बस, यही बात है,’’ अपनी सूजी आंखों के साथ जब अपने ये विचार अंजलि को बताए तो वह हंस पड़ी.

‘‘यार देख, मन तो अपना भी यही करता है. कोई अपनी बात नहीं मानता तो उसे अच्छे से पीटने का ही दिल करता है. पर हम औरतों के शरीर में मर्दों जैसी ताकत नहीं होती, वरना हम भी न चूकतीं, जब मरजी, धुन कर रख देतीं, अपनी बात हर कोई ऊपर रखना चाहता है.’’

‘‘तू तो हर बात को हंसी में उड़ा देना चाहती है. पर बता, कोई बात सहीगलत भी तो होती है.’’

‘‘हां, होती तो जरूर है पर अपनेअपने नजरिए से.’’

‘‘फिर वही बात. ऐसे तो गोडसे और लादेन भी अपने नजरिए से सही थे. पर क्या वे वाकई में सही कहे जा सकते हैं?’’

अंजली को सम झ नहीं आ रहा था, वह रुचि का ध्यान कैसे हटाए. आएदिन मासूम सी रुचि के साथ समर्थ की मारपीट की घटनाएं उसे कहीं अंदर तक  िझ्ां झोड़ रही थीं, बेचारे नन्हे पुन्नू के दिलोदिमाग पर क्या असर होता होगा. सारी बातें सुनी उस ने, किचन से सटे पूजाघर में सुबह से बह रहे दूध, बताशे, गुड़, खीर, मिष्ठान के चढ़ावे की सुगंध आकर्षित लग रही थी. मक्खियों, चीटियों की बरात से परेशान हो कर रुचि ने लाईजोल डालडाल कर किचन के साथसाथ पूजाघर को भी अच्छी तरह चमका डाला था.

किचन के चारों कोनों में पंडित मुखानंद के बताए 5-5 बताशे रख कर दूध चढ़ाने के टोटके का आज भी पालन कर के अपने भाई के घर गई. सास को लौटने में देर हो रही थी. चींटियों, मक्खियों के बीच रात का खाना बनाना मुश्किल हो रहा था. रुचि ने तंग आ कर सफाई का कदम उठाया था, क्या गलत किया उस ने. रुचि की कोई गलती आज भी उसे नहीं लगी. और फिर, गलती हो भी तो क्या कोई जानवरों की तरह सुलूक करता है भला? रोजरोज ऐसे बेसिरपैर के टोटके, पूजा, पाखंड उन का चलता ही रहता. हैरानी तो यह कि बहुत मौडर्न बनने वाला समर्थ भी ये सब मानता है. पहले ही मना किया था रुचि से कि समर्थ कुछ ज्यादा ही जता रहा है अपने को, अच्छे से एक बार और सोच ले, फिर शादी कर. पर मानी नहीं. पापा के सिर का बो झ जल्द से जल्द उतार कर उन्हें खुश देखना चाहती थी वह तो?

‘‘तू भी न, गौ बनी हुई है, गौ के भी 2 सींगें, 4 लातें और लंबी दुम होती है, वक्त आने पर इस्तेमाल भी करती है. पर तू तो बिलकुल सुशील, संस्कारी अबला नारी बनी हुई है, बड़ेबड़े मैडल मिलेंगे तु झे क्या? इतनी ज्यादती सहती क्यों है? डिपैंडैंट है इसलिए…’’ इतनी पढ़ीलिखी है, बोला था जौब कर ले. पर नहीं, पतिपरमेश्वर नहीं मानते. अरे, मानेंगे कैसे भला, फुलटाइम की दासी जो छिन जाएगी,’’ उस ने चिढ़ते हुए उस की ही बात कही.

अंजलि का घर रुचि से कुछ ही दूर था. बचपन से कालेज तक साथ पढ़ी अंजलि अपनी शादी के 2 महीने बाद ही पति के हादसे में हुई मौत के बाद वापस आ कर उसी स्कूल में पढ़ाने लगी थी. पड़ोस के ब्लौक में ही रुचि की शादी हुई थी तो अकसर अंजलि लौटते समय रुचि से मिलने आ जाया करती. खूबसूरत रुचि को स्मार्ट समर्थ ने अपने को खुलेदिमाग का जता, उस के पिता हरिभजन के आगे अपने को चरित्रवान बताया, महात्मा गांधी, विवेकानंद आदि पर अपना पुस्तक संग्रह दिखा कर अच्छे होने का प्रमाण देदे कर, उस से शादी तो कर ली पर शादी के बाद ही उस की 18वीं सदी की मानसिकता सामने आ गई.

खुलेदिमाग की हर तरह की सफाईपसंद रुचि जाहिलों में फंस कर रह गई. पिता के संस्कार थे, ‘बड़ों  की आज्ञा का पालन करना है सदैव, अवज्ञा कभी नहीं,’ सो, किए जा रही थी. मां तो थी नहीं. पर नेकी, ईमानदरी, सत्य पर चलने वाले पिता ने अच्छे संस्कार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पर यहां उन बातों की न इज्जत है न जरूरत. अब रुचि को कौन सम झाए, उस ने तो पिता की बातें गांठ बांध अंतस में बिठा ली हैं. बात वही है, ‘सबकुछ सीखा हम ने, न सीखी होशियारी.’ क्या करूं इस लड़की का? रोज ही मार खाए जा रही है. पर पिता से बताती भी नहीं कि वे आघात सह नहीं पाएंगे. लेदे के वही तो हैं उस के परिवार में.

पुन्नू घर पर होता तो वे रोतेरोते अपनी मासूम जबां से मम्मा के साथ घटी पूरी हिंसा का ब्योरा अंजलि मौसी को देने की कोशिश करता. ‘कैसे दादी, बूआ, चाचू सभी पापा की साइड लेते हैं. कोई मम्मा को बचाने नहीं आता. कहते हैं, और मारो और मारो.’ अंजलि सोचती, वे बचाने क्या आएंगे, सभी एक थाली के चट्टेबट्टे हैं.

जंगली गंवई हूश. छोटे से बच्चे में दिनबदिन कितना आक्रोश भरता जा रहा है, अंजलि देख रही थी. इतनी नफरत, इतना गुस्सा उस अबोध के व्यक्तित्व को बरबाद किए जा रहा है. पर करती भी क्या? रुचि तो हठ किए बैठी थी कि उस की मूक सेवा कभी तो रंग लाएगी, एक दिन प्रकृति सब ठीक करेगी.

अब तो पुन्नू भी पापा, चाचू के जैसे चीजें तोड़नेफेंकने लगा है. गुस्सा होता तो घरवालों की तरह चीखता है. खाना उठा कर जमीन पर दे मारता, तो रुचि थप्पड़ रसीद करती. तो रुचि को ही डांट पड़ने लगती. उसे तुरंत साफ करने के लिए आदेश हो जाता. घर के लोग शह भी देते उसे. कितनी बार देखासुना है उन्हें कहते हुए, ‘लड़का है, लड़की थोड़ी ही है. मर्द है वह क्यों करेगा भला. बहू, चल साफ कर जल्दी से, मुखानंद महाराज आते ही होंगे, इस की कुंडली का वार्षिक फल विचार कर के. आजा मेरे लाल, तू तो हमारे घर का वारिस है. तेरा कोई कुछ भी नहीं बिगड़ेगा. तु झे तो, मिनिस्टर बनना है. आज वे तेरे और तेरे पापा समर्थ के लिए असरदार टोटका बताने वाले हैं. नई तावीज भी लाएंगे तेरे लिए.’

उस दिन अंजलि स्कूल से लौटी तो रुचि के घर के आगे ऐंबुलैंस खड़ी देख कर माथा ठनका, किस को क्या हो गया? उस ने पांव तेजी से बढ़ाए, पास पहुंची तो देखा लोग रुचि को स्ट्रैचर पर डाले ऐंबुलैंस से निकाल कर घर में ले जा रहे हैं. रुचि बेसुध थी. खून से लथपथ सिर फट गया था, खून बह कर माथेचेहरेगरदन, कपड़ों पर जम चुका था. कुछ अभी भी सिर से बहे जा रहा था. पड़ोसियों ने बताया, ‘घर मैं काफी देर तक आएदिन की तरह चीखपुकार होती रही थी. 2 घंटे से रुचि यों ही पड़ी रही. तब जा कर ऐंबुलैंस ले आने का इन्हें होश आया. तब तक देर हो चुकी थी. रुचि ने ऐंबुलैंस में जाते ही दम तोड़ दिया.’

रुचि के पिता हरिभजन को किसी भले मानस ने खबर दे दी थी. वह ही उन्हें थाम कर रुचि के अंतिम दर्शन करवाने ले आया था. वे रुचि के खून सने सिर पर हाथ रख कर बिलख उठे. पुन्नू को लिपटा कर फूटफूट कर रो पड़े थे.

हादसे से अवाक अंजलि के रुंधे गले से शब्द ही नहीं निकल रहे थे. अंकल को क्या और कैसे ढाढ़स बंधाए. उस को देखते ही रुचि के पिता विलाप करते हुए बोल पड़े, ‘‘बेटी, इतना सब हो रहा था उस के साथ, तू ने कुछ बताया क्यों नहीं कभी. न उस ने कभी कोई भनक लगने दी. लकवे के कारण एक पैर से लाचार मु झे यह कह कर कि ‘ससुराल में यहां पूजा, पंडित, शकुन, अपशकुन बहुत मानते विचार करते हैं, घर नहीं आने देती थी मु झे. खुद ही पुन्नू को ले कर हफ्ते में एकदो बार आ जाती थी. तू तो उस की पक्की सहेली थी. तु झ से पूछता तो तू कहती बिलकुल ठीक है, आप उस की चिंता मत कीजिए. अब बता, ठीक है? चली गई मेरी रुचि. ‘वे अंजलि को, तो कभी रुचि के शव को पकड़ कर लगातार हिचकियों से रोए जा रहे थे.

उन का कं्रदन सुन अंजलि का दिल टूकटूक हुआ जा रहा था. अपनी आंखों के सैलाब को किसी तरह रोकते हुए वह बोली, ‘‘अंकल, संभालिए अपने को, आप की तबीयत पहले ही ठीक नहीं. इसी से रुचि ने कसम दे रखी थी आप से कुछ न कहूं. मैं क्या करती अंकल. यहां आप की अच्छी सीख ने उसे बांधे रखा, जिन का इन जाहिलों के यहां कोई मोल नहीं था,’’ पुन्नू अंजलि को देखते ही उस से लिपट गया.

‘‘अंजलि मौसी, इन सब ने मिल कर मेरी मम्मा को मारा. पापा ने दीवार पर मम्मा का सिर दे मारा था. वे गिर पड़ीं. मम्मा तभी से मु झ से बोली नहीं बिलकुल भी. दादी ने पापा, चाचू को भगा दिया. अब  झूठ कह रही हैं कि मम्मा सीढ़ी से गिर पड़ी,’’ वह रुचि से लिपट कर जोरजोर से रोने लगा. ‘‘उठो न मम्मा, अपने पुन्नू से बोलो न. मैं छोड़ूंगा नहीं किसी को. बड़ा हो कर बैंड बजा दूंगा इन सब की,’’ वह समर्थ से सीखे हुए शब्दों को दोहराने लगा.

रोजरोज की चीखनेचिल्लाने व मारपीट की आवाजों से तंग आ कर आज किसी पड़ोसी ने 100 नंबर डायल कर दिया था. पुलिस आ गई. नन्हे पुन्नू के बयान पर तफ्तीश हुई. 2 दिन के अंदर पुलिस ने समर्थ और उस के भाई को धरदबोचा. उन्हें जेल हो गई. नन्हा पुनीत किस के पास रहता, समस्या थी. क्योंकि पुन्नू अपनी दादी, बूआ के पास रहने को बिलकुल तैयार न था.

अंजलि उसे यह कह कर अपने साथ ले गई. ‘‘अंकल, आज के दौर में सज्जनता, सिधाई, संस्कारों का मोल सम झने वाले बहुत कम हैं. दुनिया के हिसाब से अपने को तैयार करना चाहिए और सामने आई चुनौतियों को सिधाई से नहीं, चतुराई से निबटना चाहिए. सिधाई से अकसर आज की दुनिया मूर्ख बनाती है, दबाती है, अपना उल्लू सीधा करती है. जो, रुचि  झेलती रही. कितना सम झाया था उसे. अंकल, पुन्नू चाहे कहीं भी रहे मैं उस को दूसरा समर्थ कभी नहीं बनने दूंगी. आप निश्चित रहें अंकल. शादी के 2 महीने बाद ही दुर्घटना में पति प्रशांत की मौत के बाद निरुद्देश्य बंजर से मेरे जीवन को पुनीत के रूप में एक नया लक्ष्य मिल गया है. अब आप भी मु झे अपनी रुचि ही समझिए अंकल. मैं इसे ले कर आप से मिलने उसी के जैसे आती रहूंगी.’’

रुचि के पिता हरिभजन के कांपते बूढ़े हाथ अंजलि के सिर पर जा रुके थे. उन से कुछ बोलते न बना, केवल आंसू आंखों से बहे चले जा रहे थे. अंजलि भीगे मन से उन्हें पोंछने लगी. पुन्नू ने दोनों हाथों से नाना और अंजलि मौसी को कस कर पकड़ लिया और आंखें मीचे वह गालों पर ढुलकते आंसुओं में अपनी मम्मा का एहसास ढूंढ़ रहा था.

‘‘मम्मा…’’ उस की हिचकियों के साथ निकलता बारबार वह एक शब्द सभी के हृदय को बींध रहा था.

Family Story: और्डर – क्या अंकलजी ने गुड्डी को अपना फोन दिया?

Family Story, लेखिका-  दीपा डिंगोलिया

‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी.

Family Story: पश्चाताप – आज्ञाकारी पुत्र घाना को किस बात की मिली सजा?

Family Story: ट्रेन से उतर कर टैक्सी किया और घर पहुंच गया. महीनों बाद घर वापस आया था. मुझे व्यापार के सिलसिले में अकसर बाहर रहना पड़ता है. मैं लंबी यात्रा के कारण थका हुआ था, इसलिए आदतन सब से पहले नहाधो कर फ्रेश हुआ. तभी  पत्नी आंगन में चायनाश्ता ले आई. चाय पीते हुए मां से बातें कर रहा था. अगर मैं घर से बाहर रहूं और कुछ दिनों बाद वापस आता हूं तो  मां  घर की समस्याएं और गांवघर की दुनियाभर की बातें ले कर बैठ जाती है. यह उस की पुरानी आदत है. इसलिए कुछ उस की बातें सुनता हूं. कुछ बातों पर ध्यान नहीं देता हूं. परंतु इस प्रकार अपने गांवघर के बारे में बहुतकुछ जानकारी मिल जाती है.

मां ने बातोंबातों में बताया कि, “उस ने अपने बिसेसर चाचा की हत्या  डंडे से पीटपीट कर  कर दी है. उसे  जेल हो गई है.”

“कौन, मां, तुम किस के बारे में कह रही हो?” मैं ने हत्या और जेल के बारे में सुन कर जरा चौकन्ना होते हुए पूछा.

” घाना…ना…, घाना के बारे में बता रही हूं,” मां जोर देते हुए बोली.

” घाना ने किस की हत्या कर दिया, मां? ” मैं ने ज़रा आश्चर्य से पूछा था.

“अरे, वह अपने बिसेसर चाचा की, बउआ,” वह दृढ़ता से बोली थी.

यह सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ. एक पल को लगा, शायद यह झूठ है. किंतु सच तो सच होता है न, कई दिनों तक उस के बारे में मेरे मन में विचार उमड़तेघुमड़ते रहे.

मुझे आज भी याद है. हम दोनों एकसाथ बचपन में खेलते थे. साथसाथ बगीचे से आम चुराते थे. खेतों से मटर ककी फलियां तोड़ना, एकसाथ पगडंडियों पर दौड़ना… दोनों साथ साथ खेलते हुए बड़े हुए थे.

आज मैं व्यापार के सिलसिले में अपने गांव से दूर रहता हूं और कभीकभार ही आ पाता हूं. समयाभाव के कारण मिलनाजुलना हम दोनों का कम हो गया था. किंतु आज भी हमदोनों की पटती है. जब भी मैं गांव  आता हूं, हम दोनों की घंटों बातें होती हैं.

उस के परिवार के लोगों की विसेसर चाचा से पुरानी रंजिश थी क्योंकि वे उस के गोतिया थे. मैं एक बार किसी काम से उस के घर जा रहा था. उस की चाची से उस की मां की तूतूमैंमैं हो रही थी. उस की मां जोरजोर से गालियां दे रही थी.

उस की चाची व उस की चचेरी बहनें भी उस की मां को  गालियां देने लगीं.

उस की मां  जोरजोर से चिल्लाने लगी, “दौड़ रे घाना…” इतना सुनते ही घाना अंदर से दौड़ पड़ा था. ऐसा लग रहा था, अभी वह चाची पर टूट पड़ेगा. वह भी मां की तरह से अनापशनाप बोलने लगा. मैं ने उस को डांटा और शांत किया. वह मेरी बात मानता था. मैं ने उस को समझाया, “छोटीछोटी बातों पर गुस्सा क्यों करते हो, आखिर, वह तुम्हारी चाची ही तो है.”

कुछ देर बाद मामला रफादफा हो गया था.

कुछ दिनों बाद उस ने बताया कि, “चाचा के परिवार से परेशान हो गया हूं. वे लोग जमीनजायदाद के बंटवारे को उलझा कर रखे हैं. उन्होंने बंटवारे में ज्यादा जमीन रख ली है. इसलिए हम दोनों परिवारों में झगड़ा और तनाव रहता है. वे दोबारा बंटवारे के लिए  तैयार नहीं हो रहे हैं.”

यह कहते हुए वह गंभीर हो गया था.

मैं ने उस को समझाया, “क्यों नहीं तुम लोग सहूलियत से ही  मांग लेते हो.”

“वे कभी नहीं देंगे. वे बहुत अड़ियल हैं,” वह निराश होते हुए बोला था.

वह मेरा बचपन का दोस्त था. मैं उस को भलीभांति जानता हूं. वह कभीकभी उखड़ जाता है, गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाता है. परंतु वह इतना कठोर नहीं है कि हत्या जैसे अपराध में लिप्त हो जा.

गांव के लोगों से मालूम हुआ कि जब वह केस हार गया और उसे सजा मिल गई तो उस ने अपने मांबाबूजी से भी मिलने से इनकार कर दिया.

सभी लोग उसे अपराधी मान रहे थे. लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा था. इसलिए मैं ने समय निकाल कर उस से मिलने के लिए सोचा.

मैं जेल के सामने खड़ा था. वह कुछ देर बाद  सलाखों के पीछे आ चुका था. मुझे देखते ही उस की आंखों में आंसू आ गए. उस के आंसू रुक नहीं रहे थे. मैं बारबार उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था.

“घाना,  मैं तुम से जानने आया हूं  कि आखिर यह सब कैसे हो गया?” मैं ने उस से सीधा सवाल किया था.

वह बहुत देर तक अपने आंसुओं पर काबू पाने की कोशिश करता रहा. जब आंसू रुके तो उस ने बोलना शुरू किया, “भैया, आप जानते हैं…”

मैं उस की उम्र से थोड़ा बड़ा हूं और गांवघर के रिश्ते में भाई भी लगता हूं, इसलिए वह मुझे भैया ही कहता है. फिर भी, वह मेरा दोस्त है.

एक बार फिर रुक कर उस ने बोला शुरू किया, “मैं गुस्से के आवेग में ऐसा कर गया. वहां मांबाबूजी और मेरी बहन  भी थी. मां मारोमारो की आवाज लगा रही थी. बहन ने आग में घी डालने का काम कर दिया. मैं आगेपीछे नहीं सोच पाया. किसी ने एक बार भी मुझ से यह नहीं कहा कि मत मारो. अगर  किसी ने एक बार भी रोका होता,  तो शायद मैं उन की हत्या न करता और कारावास का दंड न मिलता.”

मैं ने तसल्ली देने की कोशिश की, “अब जो हो गया,  हो गया. अब पछताने से कोई फायदा नहीं है.”

कुछ देर मुझ से नज़रें नहीं मिला पा रहा था वह. अपना चेहरा इधरउधर घुमा रहा था. वह स्वयं को अपराधी महसूस कर रहा था, ऐसा मुझे महसूस हो रहा था.

वह कुछ सोचते हुए अपना हाथ मलने लगा था. वह बारबार अपनी उन हथेलियों को देख रहा था जिन से उस ने हत्या की थी. भले ही वह हत्या के लिए पश्चात्ताप कर रहा था, यह बात तो स्पष्ट थी कि वह गुनाहगार और अपराधी तो बन ही गया. मैं कुछ देर तक गांवघर के बारे में इधरउधर की बातें कर उस का मन बहलाता रहा.

“मैं ने सुना है कि तुम अपने मांबाबूजी से अब नहीं मिलते हो. शायद, तुम ने  उन को मिलने से मना कर दिया है. लेकिन क्यों ?” मैं ने उस से सवाल किया.

उस का चेहरा कठोर हो गया था. उस ने बताया, “भैया, आप जानते हैं,  मांबाबूजी की आकांक्षाओं के कारण ही तो यह महाभारत हुआ है. अब मैं जिंदगीभर जेल में रहूंगा. इस के पीछे मेरे मांबाबूजी ही जिम्मेदार हैं. वे जमीन के कुछ टुकड़ों के लिए जिंदगीभर जहर भरते रहे. वे लोग एक बार भी रोके  होते तो शायद मैं  कारावास में जीवन नहीं भोगता.”

मैं सचाई सुन कर घाना के प्रति द्रवित हो रहा था. लेकिन इस परिस्थिति में मदद नहीं कर पा रहा था. मैं ने महसूस किया कि इन सहानुभूतियों का भी कोई फायदा नहीं है. मैं भारीमन से फिर मिलने का वादा कर के निकल गया.

उस ने कहा, “आते रहिएगा भैया, आप के सिवा अब मेरा कोई अपना नहीं है. अब मेरे मांबाबूजी अपने नहीं रहे जिन्होंने मुझे गुनाह के रास्ते पर धकेल दिया है.”

“ऐसा नहीं कहते मेरे भाई, वे तुम्हारे ही मांबाबूजी हैं. वे तुम्हारे ही रहेंगे,” मैं ने समझाने की कोशिश की.

उस की आंखों में घृणा और पश्चात्ताप के आंसू स्पष्ट दिख रहे थे.

Family Story: बिटिया का पावर हाऊस

Family Story: अमितजी की 2 संतान हैं, बेटा अंकित और बेटी गुनगुन. अंकित गुनगुन से 6-7 साल बड़ा है.

घर में सबकुछ हंसीखुशी चल रहा था मगर 5 साल पहले अमितजी की पत्नी सरलाजी की तबियत अचानक काफी खराब रहने लगी. जांच कराने पर पता चला कि उन्हें बड़ी आंत का कैंसर है जो काफी फैल चुका है. काफी इलाज कराने के बाद भी उन की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ.

जब उन्हें लगने लगा कि अब वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पाएंगी तो एक दिन अपने पति से बोलीं,”मैं अब ज्यादा दिन जीवित नहीं रहूंगी. गुनगुन अभी 15-16 वर्ष की है और घर संभालने के लिहाज से अभी बहुत छोटी है. मैं अपनी आंख बंद होने से पूर्व इस घर की जिम्मेदारी अपनी बहू को देना चाहती हूं. आप जल्दी से अंकित की शादी करा दीजिए.”

अमितजी ने उन्हें बहुत समझाया कि वे जल्द ठीक हो जाएंगी और जैसा वे अपने बारे में सोच रही हैं वैसा कुछ नहीं होगा. लेकिन शायद सरलाजी को यह आभास हो गया था कि अब उन की जिंदगी की घड़ियां गिनती की रह गई हैं, इसलिए वे पति से आग्रह करते हुए बोलीं, “ठीक है, यदि अच्छी हो जाऊंगी तो बहू के साथ मेरा बुढ़ापा अच्छे से कट जाएगा. लेकिन अंकित के लिए बहू ढूंढ़ने में कोई बुराई तो है नहीं, मुझे भी तसल्ली हो जाएगा कि मेरा घर अब सुरक्षित हाथों में है.”

अमितजी ने सुन रखा था कि व्यक्ति को अपने अंतिम समय का आभास हो ही जाता है. अत: बीमार पत्नी की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने अंकित के लिए बहू ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

एक दिन अंकित का मित्र आभीर अपनी बहन अनन्या के साथ उन के घर आया. अंकित ने उन दोनों को अपनी मां से मिलवाया. जब तक अंकित और आभीर आपस में बातचीत में मशगूल रहे, अनन्या सरलाजी के पास ही बैठी रही. उस का उन के साथ बातचीत करने का अंदाज, उन के लिए उस की आंखों में लगाव देख कर अमितजी ने फैसला कर लिया कि अब उन्हें अंकित के लिये लड़की ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है.

उन्होंने सरलाजी से अपने मन की बात बताई, जिसे सुन कर सरलाजी के निस्तेज चेहरे पर एक चमक सी आ गई.

वे बोलीं, “आप ने तो मेरे मन की बात कह दी.”

अंकित को भी इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दोनों परिवारों की रजामंदी से अंकित और अनन्या की शादी तय हो गई.

शादी के बाद जब मायके से विदा हो कर अनन्या ससुराल आई तो सरलाजी उस के हाथ में गुनगुन का हाथ देते हुए बोलीं,”अनन्या, मैं मुंहदिखाई के रूप में तुम्हें अपनी बेटी सौंप रही हूं. मेरे जाने के बाद इस का ध्यान रखना.”

अनन्या भावुक हो कर बोली, “मम्मीजी, आप ऐसा मत बोलिए. आप का स्थान कोई नहीं ले सकता.”

“बेटा, सब को एक न एक दिन जाना ही है, लेकिन यदि तुम मुझे यह वचन दे सको कि मेरे जाने के बाद तुम गुनगुन का ध्यान रखोगी, तो मैं चैन से अंतिम सांस ले पाऊंगी.”

“मांजी, आप विश्वास रखिए. आज से गुनगुन मेरी ननद नहीं, मेरी छोटी बहन है.”

बेटे के विवाह के 1-2 महीने के अंदर ही बीमारी से लड़तेलड़ते सरलाजी की मृत्यु हो गई. अनन्या हालांकि उम्र में बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन उस ने अपनी सास को दिया हुआ वादा पूरे मन से निभाया. उस ने गुनगुन को कभी अपनी ननद नहीं बल्कि अपनी सगी बहन से बढ़ कर ही समझा.

बड़ी होती गुनगुन का वह वैसे ही ध्यान रखती जैसे एक बड़ी बहन अपनी छोटी बहन का रखती है.

वह अकसर गुनगुन से कहती, “गुनगुन, बड़ी भाभी, बड़ी बहन और मां में कोई भेद नहीं होता.”

गुनगुन के विवाह योग्य होने पर अंकित और अनन्या ने उस की शादी खूब धूमधाम से कर दी. विवाह में कन्यादान की रस्म का जब समय आया, तो अमितजी ने मंडप में उपस्थित सभी लोगों के सामने कहा,”कन्यादान की रस्म मेरे बेटेबहू ही करेंगे.”

विवाह के बाद विदा होते समय गुनगुन अनन्या से चिपक कर ऐसे रो रही थी जैसे वह अपनी मां से गले लग कर रो रही हो. ननदभाभी का ऐसा मधुर संबंध देख कर विदाई की बेला में उपस्थित सभी लोगों की आंखें खुशी से नम हो आईं.

गुनगुन शादी के बाद ससुराल चली गई. दूसरे शहर में ससुराल होने के कारण उस का मायके आना अब कम ही हो पाता था. उस का कमरा अब खाली रहता था लेकिन उस की साजसज्जा, साफसफाई अभी भी बिलकुल वैसी ही थी जैसे लगता हो कि वह अभी यहीं रह रही हो. अंकित के औफिस से लौटने के बाद अनन्या अपने और अंकित के लिए शाम की चाय गुनगुन के कमरे में ही ले आती ताकि उस कमरे में वीरानगी न पसरी रहे और उस की छत और दीवारें भी इंसानी सांसों से महकती रहे.

एक दिन पड़ोस में रहने वाले प्रेम बाबू अमितजी के घर आए. बातोंबातों में वे उन से बोले, “आप की बिटिया गुनगुन अब अपने घर चली गई है, उस का कमरा तो अब खाली ही रहता होगा. आप उसे किराए पर क्यों नहीं दे देते? कुछ पैसा भी आता रहेगा.”

यह बातचीत अभी हो ही रही थी कि उसी समय अनन्या वहां चाय देने आई. ननद गुनगुन से मातृतुल्य प्रेम करने वाली अनन्या को प्रेम बाबू की बात सुन कर बहुत दुख हुआ. वह उन से सम्मानपूर्वक किंतु दृढ़ता से बोलीं,”अंकल, क्या शादी के बाद वही घर बेटी का अपना घर नहीं रह जाता जहां उस ने चलना सीखा हो, बोलना सीखा हो और जहां तिनकातिनका मिल कर उस के व्यक्तित्व ने साकार रूप लिया हो.

“अकंल, बेटी पराया धन नहीं बल्कि ससुराल में मायके का सृजनात्मक विस्तार है. शादी का अर्थ यह नहीं है कि उस के विदा होते ही उस के कमरे का इंटीरियर बदल दिया जाए और उसे गैस्टरूम बना दिया जाए या चंद पैसों के लिए उसे किराए पर दे दिया जाए.”

“बहू, तुम जो कह रही हो, वह ठीक है. लेकिन व्यवहारिकता से मुंह मोड़ लेना कहां की समझदारी है?”

“अंकल, रिश्तों में कैसी व्यवहारिकता? रिश्ते कंपनी की कोई डील नहीं है कि जब तक क्लाइंट से व्यापार होता रहे तब तक उस के साथ मधुर संबंध रखें और फिर संबंधों की इतिश्री कर ली जाए. व्यवहारिकता का तराजू तो अपनी सोच को सही साबित करने का उपक्रम मात्र है.”

तब प्रेम बाबू बोले,”लेकिन इस से बेटी को क्या मिलेगा?”

”अंकल, मायका हर लड़की का पावर हाउस होता है जहां से उसे अनवरत ऊर्जा मिलती है. वह केवल आश्वस्त होना चाहती है कि उस के मायके में उस का वजूद सुरक्षित है. वह मायके से किसी महंगे उपहार की आकांक्षा नहीं रखती और न ही मायके से विदा होने के बाद बेटियां वहां से चंद पैसे लेने आती हैं बल्कि वे हमें बेशकीमती शुभकामनाएं देने आती हैं, हमारी संकटों को टालने आती हैं, अपने भाईभाभी व परिवार को मुहब्बत भरी नजर से देखने आती हैं.

“ससुराल और गृहस्थी के आकाश में पतंग बन उड़ रही आप की बिटिया बस चाहती है कि विदा होने के बाद भी उस की डोर जमीन पर बने उस घरौंदे से जुड़ी रहें जिस में बचपन से ले कर युवावस्था तक के उस के अनेक सपने अभी भी तैर रहे हैं. इसलिए हम ने गुनगुन का कमरा जैसा था, वैसा ही बनाए रखा है. यह घर कल भी उन का था और हमेशा रहेगा.”

प्रेम बाबू बोले, “लेकिन कमरे से क्या फर्क पड़ता है? मायके आने पर उस की इज्जत तो होती ही है.”

अनन्या बोली, “अंकल, यही सोच का अंतर है. बात इज्जत की नहीं बल्कि प्यार और अपनेपन की है. लड़की के मायके से ससुराल के लिए विदा होते ही उस का अपने पहले घर पर से स्वाभाविक अधिकार खत्म सा हो जाता है. इसीलिए विवाह के पहले प्रतिदिन स्कूलकालेज से लौट कर अपना स्कूल बैग ले कर सीधे अपने कमरे में घुसने वाली वही लड़की जब विवाह के बाद ससुराल से मायके आती है, तो अपने उसी कमरे में अपना सूटकेस ले जाने में भी हिचकिचाती है, क्योंकि दीवारें और छत तो वही रहती हैं मगर वहां का मंजर अब बदल चुका होता है. लेकिन उसी घर का बेटा यदि दूसरे शहर में अपने बीबीबच्चों के साथ रह रहा हो, तो भी यह मानते हुए कि यह उस का अपना घर है उस का कमरा किसी और को नहीं दिया जाता. आखिर यह भेदभाव बेटी के साथ ही क्यों, जो कुछ दिन पहले तक घर की रौनक होती है?

“यदि संभव हो, तो बिटिया के लिए भी उस घर में वह कोना अवश्य सुरक्षित रखा जाना चाहिए, जहां नन्हीं परी के रूप में खिलखिलाने से ले कर एक नई दुनिया बसाने वाली एक नारी बनने तक उस ने अपनी कहानी अपने मापिता, भाईबहन के साथ मिल कर लिखा हो.”

हर लड़की की पीड़ा को स्वर देती हुई अनन्या की दर्द में डूबी बात को सुन कर राम बाबू को एकबारगी करंट सा लगा.

उन्हें पिछले दिनों अपने घर में घटित घटनाक्रम की याद आ गई, जब उन की बेटी अमोली अपने मायके आई थी.

वे बोले,”बहू, तुम ने मेरी आंखें खोल दीं. परसों मेरी बिटिया अमोली ससुराल से मायके आई थी. यहां आने के बाद उस का सामान उस के अपने ही घर के ड्राइंगरूम में काफी देर ऐसे पड़ा रहा, जैसे वह अमोली का नहीं बल्कि किसी अतिथि का सामान हो. ‘बेटा अपना, बेटी पराई’ जैसी बात को बचपन से अबतक सुनते आए हमारी मनोभूमि वैसी ही बन जाती है और इसी भाव ने अमोली को कब चुपके से घर की सदस्य से अपने ही घर में अतिथि बना दिया, उस मासूम को पता ही नहीं चला. पता नहीं क्यों, मैं ने उस का कमरा किसी और को क्यों दे दिया? यदि गुनगुन की तरह अमोली का कमरा भी उस के नाम सुरक्षित रहता तो वह भी पहले की भांति सीधे अपने कमरे में जाती जैसे कालेज ट्रिप से आने के बाद वह सीधे अपने कमरे में अपनी दुनिया में चली जाती थी,” यह बोलते हुए उन की आंखें भर आईं और गला अवरुद्ध हो गया. वे रुमाल से अपना चश्मा साफ करने लगे.

अनन्या तुरंत उन के लिए पानी का गिलास ले आई. पानी पी कर गला साफ करते हुए राम बाबू बोले, “बहू, उम्र में इतनी छोटी होने पर भी तुम ने मुझे जिंदगी का एक गहरा पाठ पढ़ा दिया. मैं तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूं…”

अनन्या बोली, “अंकल, यदि आप मुझे शुभकामनाएं स्वरूप कुछ देना चाहते हैं तो आप घर जा कर अमोली से कहिए कि तुम अपने कमरे को वैसे ही सजाओ, जैसे तुम पहले किया करती थी. मैं आज बचपन वाली अमोली से फिर से मिलना चाहता हूं. यही मेरे लिए आप का उपहार होगा.”

प्रेम बाबू बोले, “बेटा, जिस घर में तुम्हारे जैसी बहू हो, वहां बेटी या ननद को ही नहीं बल्कि हर किसी को रहना पसंद होगा और आज से अमोली का पावर हाऊस भी काम करने लगा है, वह उसे निरंतर ऊर्जा देता रहेगा.”

प्रेम बाबू की बात को सुन कर अमितजी और अनन्या मुसकरा पड़े. खुशियों के इन्द्रधनुष की रुपहली आभा अमितजी के घर से प्रेम बाबू के घर तक फैल चुकी थी.

Family Story: परीक्षा – क्यों सुषमा मायके जाना चाहती थी?

Family Story: पंकज दफ्तर से देर से निकला और सुस्त कदमों से बाजार से होते हुए घर की ओर चल पड़ा. वह राह में एक दुकान पर रुक कर चाय पीने लगा. चाय पीते हुए उस ने पीछे मुड़ कर ‘भारत रंगालय’ नामक नाट्यशाला की इमारत की ओर देखा. सामने मुख्यद्वार पर एक बैनर लटका था, ‘आज का नाटक-शेरे जंग, निर्देशक-सुधीर कुमार.’

सुधीर पंकज का बचपन का दोस्त था. कालेज के दिनों से ही उसे रंगमंच में बहुत दिलचस्पी थी. वैसे तो वह नौकरी करता था किंतु उस की रंगमंच के प्रति दिलचस्पी जरा भी कम नहीं हुई थी. हमेशा कोई न कोई नाटक करता ही रहता था.

चाय पी कर वह चलने को हुआ तो सोचा कि सुधीर से मिल ले, बहुत दिन हुए उस से मुलाकात हुए. उस का नाटक देख लेंगे तो थोड़ा मन बहल जाएगा. वह टिकट ले कर हौल के अंदर चला गया.

नाटक खत्म होने के बाद दोनों मित्र फिर चाय पीने बैठे. सुधीर ने पूछा, ‘‘यार, तुम इतनी दूर चाय पीने आते हो?’’

पंकज ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘‘दफ्तर से पैदल लौट रहा था. सोचा, चाय पी लूं और तुम्हारा नाटक भी देख लूं. बहुत दिन हो गए तुम्हारा नाटक देखे.’’

सुधीर ने उस का झूठ ताड़ लिया. पंकज के उदास चेहरे को गौर से देखते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दफ्तर इतनी देर तक खुला रहता है? क्या बात है? इतना बुझा हुआ चेहरा क्यों है?’’

पंकज ने ‘कुछ नहीं’ कह कर बात टालनी चाही तो सुधीर चाय के पैसे देते हुए बोला, ‘‘चलो, मैं भी चलता हूं तुम्हारे साथ. काफी दिन से भाभीजी से भी भेंट नहीं हुई है.’’

‘‘आज नहीं, किसी दूसरे दिन,’’ पंकज ने घबरा कर कहा.

सुधीर ने पंकज की बांह पकड़ ली, ‘‘क्या बात है? कुछ आपस में खटपट हो गई है क्या?’’

पंकज ने फिर ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर बात टालनी चाही, लेकिन सुधीर पीछे पड़ गया, ‘‘जरूर कोई बात है, आज तक तो तुझे इतना उदास कभी नहीं देखा. बताओ, क्या बात है? अगर कोई बहुत निजी बात हो तो…?’’

पंकज थोड़ा हिचकिचाया. फिर बोला, ‘‘निजी क्या? अब तो बात आम हो गई है. दरअसल बात यह है कि आमदनी कम है और सुषमा के शौक ज्यादा हैं. अमीर घर की बेटी है, फुजूलखर्च की आदत है. परेशान रहता हूं, रोज इसी बात पर किचकिच होती है. दिमाग काम ही नहीं करता.’’

‘‘वाह यार,’’ सुधीर उस की पीठ पर हाथ मार कर बोला, ‘‘तुम्हें जितनी तनख्वाह मिलती है, क्या उस में 2 आदमियों का गुजारा नहीं हो सकता है? बस, अभी 3-4 साल तक बच्चा पैदा नहीं करना. मैं तुम से कम तनख्वाह पाता हूं, लेकिन हम दोनों पतिपत्नी आराम से रहते हैं. हां, फालतू खर्च नहीं करते.’’

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन इंसान गुजारा करना चाहे तब तो? खर्च का कोई ठिकाना है? जितना बढ़ाओ, बढ़ेगा. सुषमा इस बात को समझने को तैयार नहीं है,’’ पंकज ने मायूसी से कहा.

‘‘यार, समझौता तो करना ही होगा. अभी तो नईनई शादी हुई है, अभी से यह उदासी और झिकझिक. तुम दोनों तो शादी के पहले ही एकदूसरे को जानते थे, फिर इन 5-6 महीनों में ही…’’

पंकज उठ गया और उदास स्वर में बोला, ‘‘शुरू में सबकुछ सामान्य व सहज था, किंतु इधर 1-2 महीनों से…अब सुषमा को कौन समझाए.’’

सुधीर ने झट से कहा, ‘‘मैं समझा दूंगा.’’

पंकज ने घबरा कर उस की ओर देखा, ‘‘अरे बाप रे, मार खानी है क्या?’’

सुधीर ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘लगता है, तू बीवी से रोज मार खाता है,’’ फिर वह पंकज की बांह पकड़ कर थिएटर की ओर ले गया, ‘‘तो चल, तुझे ही समझाता हूं. आखिर मैं एक अभिनेता हूं. तुझे कुछ संवाद रटा देता हूं. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

पंकज को घर लौटने में काफी देर हो गई. लेकिन वह बड़े अच्छे मूड में घर के अंदर घुसा. सुषमा के झुंझलाए चेहरे की ओर ध्यान न दे कर बोला, ‘‘स्वीटी, जरा एक प्याला चाय जल्दी से पिला दो, थक गया हूं, आज दफ्तर में काम कुछ ज्यादा था. अगर पकौड़े भी बना दो तो मजा आ जाए.’’

सुषमा ने उसे आश्चर्य और क्रोध से घूर कर देखा. फिर झट से रसोईघर से प्याला और प्लेट ला कर उस की ओर जोर से फेंकती हुई चिल्लाई, ‘‘लो, यह रहा पकौड़ा और यह रही चाय.’’

पंकज ने बचते हुए कहा, ‘‘क्या कर रही हो? चाय की जगह भूकंप कैसे? यह घर है कि क्रिकेट का मैदान? घर के बरतनों से ही गेंदबाजी, वह भी बंपर पर बंपर.’’

उस के मजाक से सुषमा का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘न तो यह घर है और न  ही क्रिकेट का मैदान. यह श्मशान है श्मशान.’’

‘‘यह भी कोई बात हुई. पति दिनभर दफ्तर में काम करे और जब थक कर घर लौटे तो पत्नी उस का स्वागत प्रेम की मीठी मुसकान से न कर के शब्दों की गोलियों और तेवरों के तीरों से करे?’’

‘‘यह घर नहीं, कैदखाना है और कैदखाने में बंद पत्नी अपने पति का स्वागत मीठी मुसकान से नहीं कर सकती, पति महाशय.’’

पंकज ने सुषमा की ओर डर कर देखा. फिर मुसकरा कर समझाने के स्वर में बोला, ‘‘यह भी कोई बात हुई सुषमा, घर को कैदखाना कहती हो? यह तो मुहब्बत का गुलशन है.’’

किंतु सुषमा ने चीख कर उत्तर दिया, ‘‘कैदखाना नहीं तो और क्या कहूं? मैं दिनरात नौकरानी की तरह काम करती हूं. अब मुझ से घर का काम नहीं होगा.’’

‘‘अभी तो हमारी शादी को चंद महीने हुए हैं. हमें तो पूरी जिंदगी साथसाथ गुजारनी है. फिर पत्नी का तो कर्तव्य है, घर का कामकाज करना.’’

सुषमा ने पंकज की ओर तीखी नजरों से देखा, ‘‘सुनो जी, घर चलाना है तो नौकर रख लो या होटल में खाने का इंतजाम कर लो, नहीं तो इस हालत में तुम्हें पूरी जिंदगी अकेले ही गुजारनी होगी. अब मैं एक दिन भी तुम्हारे साथ रहने को तैयार नहीं हूं. मैं चली.’’

सुषमा मुड़ कर जाने लगी तो पंकज उस के पीछे दौड़ा, ‘‘कहां चलीं? रुको. जरा समझने की कोशिश करो. देखो, अब इतने कम वेतन में नौकर रखना या होटल में खाना कैसे संभव है?’’

सुषमा रुक गई. उस ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी कम तनख्वाह थी तो शादी करने की क्या जरूरत थी. तुम ने मेरे मांबाप को धोखा दे कर शादी कर ली. अगर वे जानते कि वे अपनी बेटी का हाथ एक भिखमंगे के हाथ में दे रहे हैं तो कभी तैयार नहीं होते. अगर तुम अपनी आमदनी नहीं बढ़ा सकते तो मैं अपने मांबाप के घर जा रही हूं. वे अभी जिंदा हैं.’’

पंकज कहना चाहता था कि उस के बारे में पूरी तरह से उस के मांबाप जानते थे और वह भी जानती थी, कहीं धोखा नहीं था. शादी के वक्त तो वह सब को बहुत सुशील, ईमानदार और खूबसूरत लग रहा था. लेकिन वह इतनी बातें नहीं बोल सका. उस के मुंह से गलती से निकल गया, ‘‘यही तो अफसोस है.’’

सुषमा ने आगबबूला हो कर उस की ओर देखा, ‘‘क्या कहा? मेरे मातापिता के जीवित रहने का तुम्हें अफसोस है?’’

पंकज ने झट से बात मोड़ी, ‘‘नहीं, कुछ नहीं. मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर गृहस्थी की गाड़ी का पहिया पैसे के पैट्रोल से चलता है तो उस में प्यार का मोबिल भी तो जरूरी है. क्या रुपया ही सबकुछ है?’’

‘‘हां, मेरे लिए रुपया ही सबकुछ है. इसलिए मैं चली मायके. तुम अपनी गृहस्थी में प्यार का मोबिल डालते रहो. अब बनावटी बातों से काम नहीं चलने का. मैं चली अपना सामान बांधने.’’

सुषमा ने अंदर आ कर अपना सूटकेस निकाला और जल्दीजल्दी कपड़े वगैरह उस में डालने लगी. पंकज बगल में खड़ा समझाने की कोशिश कर रहा था, ‘‘जरा धैर्य से काम लो, सुषमा. हम अभी फालतू खर्च करने लगेंगे तो कल हमारी गृहस्थी बढ़ेगी. बालबच्चे होंगे लेकिन अभी नहीं, 4-5 साल बाद होंगे न. तो फिर कैसे काम चलेगा?’’

सुषमा ने उस की ओर चिढ़ कर देखा, ‘‘बीवी का खर्च तो चला नहीं सकते और बच्चों का सपना देख रहे हो, शर्म नहीं आती?’’

‘‘ठीक है, अभी नहीं, कुछ साल बाद ही सही, जब मेरी तनख्वाह बढ़ जाएगी, कुछ रुपए जमा हो जाएंगे, ठीक है न? अब शांत हो जाओ.’’

किंतु सुषमा अपना सामान निकालती रही. वह क्रोध से बोली, ‘‘अब तुम्हारी पोल खुल गई है. मैं इसी वक्त जा रही हूं.’’

‘‘आखिर अपने मायके में कब तक रहोगी? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘लोग क्या कहेंगे, इस की चिंता तुम करो. अब मैं लौट कर नहीं आने वाली.’’

पंकज चौंक पड़ा, ‘‘लौट कर नहीं आने वाली? तुम जीवनभर मायके में ही रहोगी?’’

सुषमा ने जोर दे कर कहा, ‘‘हांहां, और मैं वहां जा कर तुम्हें तलाक दे दूंगी, तुम जैसे मर्दों को अकेले ही रहना चाहिए.’’

पंकज हतप्रभ हो गया, ‘‘तलाक, क्या बकती हो? होश में तो हो?’’

‘‘हां, अब मैं होश में आ गई हूं. बेहोश तो अब तक थी. अब वह जमाना गया जब औरत गाय की तरह खूंटे से बंधी रहती थी,’’ सुषमा ने चाबियों का गुच्छा जोर से पंकज की ओर फेंका, ‘‘लो अपनी चाबियां, मैं चलती हूं.’’

सुषमा अपना सामान उठा कर बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी. पंकज ने कहा, ‘‘सुनो तो, रात को कहां जाओगी? सुबह चली जाना, मैं वादा करता हूं…’’

उसी वक्त दरवाजे पर जोरों की दस्तक हुई. पंकज ने उधर देखा, ‘‘अब यह बेवक्त कौन आ गया? लोग कुछ समझते ही नहीं. पतिपत्नी के प्रेमालाप में कबाब में हड्डी की तरह आ टपकते हैं. देखना तो सुषमा, कहीं वह बनिया उधार की रकम वसूलने तो नहीं आ गया. कह देना कि मैं नहीं हूं.’’

लेकिन सुषमा के तेवर पंकज की बातों से ढीले नहीं पड़े. उस ने हाथ झटक कर कहा, ‘‘तुम ही जानो अपना हिसाब- किताब और खुद ही देख लो, मुझे कोई मतलब नहीं.’’

दरवाजे पर लगातार दस्तक हो रही थी.

‘‘ठीक है भई, रुको, खोलता हूं,’’ कहते हुए पंकज ने दरवाजा खोला और ठिठक कर खड़ा हो गया. उस के मुंह से ‘बाप रे’ निकल गया.

सुषमा भी चौंक कर देखने लगी. एक लंबी दाढ़ी वाला आदमी चेहरे पर नकाब लगाए अंदर आ गया था. उस ने झट से दरवाजा बंद करते हुए कड़कती आवाज में कहा, ‘‘खबरदार, जो कोई अपनी जगह से हिला.’’

पंकज ने हकलाते हुए कहा, ‘‘आप कौन हैं भाई? और क्या चाहते हैं?’’

उस आदमी ने कहा, ‘‘मैं कौन हूं, उस से तुम्हें कोई मतलब नहीं. घर में जो भी गहनारुपया है, सामने रख दो.’’

पंकज को ऐसी परिस्थिति में भी हंसी आ गई, ‘‘क्या मजाक करते हैं दाढ़ी वाले महाशय, अगर इस घर में रुपया ही होता तो रोना किस बात का था. आप गलत जगह आ गए हैं. मैं आप को सही रास्ता दिखला सकता हूं. मेरे ससुर हैं गनपत राय, उन का पता बताए देता हूं. आप उन के यहां चले जाइए.’’

सुषमा बिगड़ कर बोली, ‘‘क्या बकते हो, जाइए.’’

किंतु आगंतुक ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. उस ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में जेब से रिवाल्वर निकाला और उसे हिलाते हुए कहा, ‘‘जल्दी माल निकालो वरना काम तमाम कर दूंगा. देवी जी, जल्दी से सब गहने निकालिए.’’

सुषमा चुपचाप खड़ी उस की ओर देखती रही तो उस ने रिवाल्वर पंकज की ओर घुमा दिया, ‘‘मैं 3 तक गिनूंगा, उस के बाद आप के पति पर गोली चला दूंगा.’’

पंकज ने सोचा, ‘सुषमा कहेगी कि उसे क्या परवा. वह तो पति को छोड़ कर मायके जा रही है.’ किंतु जैसे ही आगंतुक ने 1…2…गिना, सुषमा हाथ उठा कर बेचैन स्वर में बोली, ‘‘नहीं, नहीं, रुको, मैं तुरंत आती हूं.’’

नकाबपोश गर्व से मुसकराया और सुषमा जल्दी से शयनकक्ष की ओर भागी. वह तुरंत अपने गहनों का बक्सा ले कर आई और आगंतुक के हाथों में देते हुए बोली, ‘‘लीजिए, हम लोगों के पास रुपए तो नहीं हैं, ये शादी के कुछ गहने हैं. इन्हें ले जाइए और इन की जान  छोड़ दीजिए.’’

नकाबपोश रिवाल्वर नीची कर के व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘कमाल है, एकाएक आप को अपने पति के प्राणों की चिंता सताने लगी. बाहर से आप लोगों की अंत्याक्षरी सुन रहा था. ऐसे नालायक पति के लिए तो आप को कोई हमदर्दी नहीं होनी चाहिए. जब आप को तलाक ही देना है, अकेले ही रहना है तो कैसी चिंता? यह जिंदा रहे या मुर्दा?’’

सुषमा क्रोध से बोली, ‘‘जनाब, आप को हमारी आपसी बातों से क्या मतलब? आप जाइए यहां से.’’

पंकज खुश हो गया, ‘‘यह हुई न बात, ऐ दाढ़ी वाले महाशय, पतिपत्नी की बातों में दखलंदाजी मत कीजिए. जाइए यहां से.’’

आगंतुक हंस कर सुषमा की ओर मुड़ा, ‘‘जा रहा हूं, लेकिन मेमसाहब, एक और मेहरबानी कीजिए. अपने कोमल शरीर से इन गहनों को भी उतार दीजिए. यह चेन, अंगूठी, झुमका. जल्दी कीजिए.’’

सुषमा पीछे हट गई, ‘‘नहीं, अब मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगी.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर फिर पंकज की ओर ताना, ‘‘तो चलाऊं गोली?’’

सुषमा ने चिल्ला कर कहा, ‘‘लो, ये भी ले लो और भागो यहां से.’’

वह शरीर के गहने उतार कर उस की ओर फेंकने लगी. नकाबपोश गहने उठा कर इतमीनान से जेब में रखता गया. पंकज भौचक्का देखता रहा.

आगंतुक ने जब गहने जेब में रखने के बाद सुषमा की कलाइयों की ओर इशारा किया, ‘‘अब ये कंगन भी उतार दीजिए.’’

सुषमा ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘नहीं, ये कंगन नहीं दूंगी.’’

वे शादी के कंगन थे, जो पंकज ने दिए थे.

आगंतुक ने सुषमा की ओर बढ़ते हुए कहा, ‘‘मुझे मजबूर मत कीजिए, मेमसाहब. आप ने जिद की तो मुझे खुद कंगन उतारने पड़ेंगे, लाइए, इधर दीजिए.’’

अब पंकज का पुरुषत्व जागा. वह कूद कर उन दोनों के नजदीक पहुंचा, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरी पत्नी का हाथ पकड़ो? खबरदार, छोड़ दो.’’

नकाबपोश ने रिवाल्वर हिलाया, ‘‘जान प्यारी है तो दूर ही रहो.’’

लेकिन पंकज रिवाल्वर की परवा न कर के उस से लिपट गया.

तभी ‘धांय’ की आवाज हुई और पंकज कराह कर सीना पकड़े गिर गया. आगंतुक के रिवाल्वर से धुआं निकल रहा था. सुषमा कई पलों तक हतप्रभ खड़ी रही. फिर वह चीत्कार कर उठी, ‘‘हत्यारे, जल्लाद, तुम ने मेरे पति को मार  डाला. मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’

नकाबपोश जल्दी से दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप नाहक अफसोस कर रही हैं. आप को इस नालायक पति से तो अलग होना ही था. मैं ने तो आप की मदद ही की है.’’

सुषमा का चेहरा आंसुओं से भीग गया. उस की आंखों में दर्द के साथ आक्रोश की चिंगारियां भी थीं. आगंतुक डर सा गया.

सुषमा उस की ओर शेरनी की तरह झपटी, ‘‘मैं तेरा खून पी जाऊंगी. तू जाता कहां है?’’ और वह उसे बेतहाशा पीटने लगी.

नकाबपोश नीचे गिर पड़ा और चिल्ला कर बोला, ‘‘अरे, मर गया, भाभीजी, क्या कर रही हैं, रुकिए.’’

सुषमा उसे मारती ही गई, ‘‘हत्यारे, मुझे भाभी कहता है?’’

आगंतुक ने जल्दी से अपनी दाढ़ी को नोच कर हटा दिया और चिल्लाया, ‘‘देखिए, मैं आप का प्यारा देवर सुधीर हूं.’’

सुषमा ने अवाक् हो कर देखा, वह सुधीर ही था.

सुधीर कराहते हुए उठा, ‘‘भाभीजी, केवल यह दाढ़ी ही नकली नहीं है यह रिवाल्वर भी नकली है.’’

सुषमा ने फर्श पर गिरे पंकज की ओर देखा. तब वह भी मुसकराता हुआ उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘हां, और यह मौत भी नकली थी. अब मैं यह कह सकता हूं कि हर पति को यह जानने के लिए कि उस की पत्नी वास्तव में उस से कितना प्यार करती है, एक बार जरूर मरना चाहिए.’’

सुधीर और पंकज ने ठहाका लगाया और सुषमा शरमा गई.

सुधीर हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए बोला, ‘‘भाभीजी, हमारी गलती को माफ कीजिए. आप दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. उस में जो थोड़ा व्यवधान हो गया था उसे ही दूर करने के लिए यह छोटा सा नाटक करना पड़ा.’’

सुषमा ने हंस कर कहा, ‘‘जाओ, माफ किया.’’

‘‘भाभीजी, आमदनी के अनुसार जरूरतों को समेट लिया जाए तो पतिपत्नी हमेशा  प्यार और आनंद से रह सकते हैं,’’ सुधीर ने समझाने के लहजे में कहा तो सुषमा ने हंस कर सहमति में सिर हिला दिया.

Family Story: बाजारीकरण – जब बेटी के लिए नीला ने किराए पर रखी कोख

Family Story: आजनीला का सिर बहुत तेज भन्ना रहा था, काम में भी मन नहीं लग रहा था, रात भर सो न सकी थी. इसी उधेड़बुन में लगी रही कि क्या करे और क्या न करे? एक तरफ बेटी की पढ़ाई तो दूसरी तरफ फीस की फिक्र. अपनी इकलौती बच्ची का दिल नहीं तोड़ना चाहती थी. पर एक बच्चे को पढ़ाना इतना महंगा हो जाएगा, उस ने सोचा न था. पति की साधारण सी नौकरी उस पर शिक्षा का इतना खर्च. आजकल एक आदमी की कमाई से तो घर खर्च ही चल पाता है. तभी बेचारी छोटी सी नौकरी कर रही थी. इतनी पढ़ीलिखी भी तो नहीं थी कि कोई बड़ा काम कर पाती. बड़ी दुविधा में थी.

‘यदि वह सैरोगेट मदर बने तो क्या उस के पति उस के इस निर्णय से सहमत होंगे? लोग क्या कहेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे रिश्तेनातेदार उसे कलंकिनी कहने लगें?’ नीला सोच रही थी.

तभी अचानक अनिता की आवाज से उस की तंद्रा टूटी, ‘‘माथे पर सिलवटें लिए क्या सोच रही हो नीला?’’

‘‘वही निशा की आगे की पढ़ाई के बारे में. अनिता फीस भरने का समय नजदीक आ रहा है और पैसों का इंतजाम है नहीं. इतना पैसा तो कोई सगा भी नहीं देगा और दे भी दे तो लौटाऊंगी कैसे? घर जाती हूं तो निशा की उदास सूरत देखी नहीं जाती और यहां काम में मन नहीं लग रहा,’’ नीला बोली.

‘‘मैं समझ सकती हूं तुम्हारी परेशानी. इसीलिए मैं ने तुम्हें सैरोगेट मदर के बारे में बताया था. फिर उस में कोई बुराई भी नहीं है नीला. जिन दंपतियों के किसी कारण बच्चा नहीं होता या फिर महिला में कोई बीमारी हो जिस से वह बच्चा पैदा करने में असक्षम हो तो ऐसे दंपती स्वस्थ महिला की कोख किराए पर लेते हैं. जब बच्चा पैदा हो जाता है, तो उसे उस दंपती को सुपुर्द करना होता है. कोख किराए पर देने वाली महिला की उस बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती और न ही उस बच्चे पर कोई हक. इस में उस दंपती महिला के अंडाणुओं को पुरुष के शुक्राणुओं से निषेचित कर कोख किराए पर देने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. यह कानूनन कोई गलत काम नहीं है. इस से तुम्हें पैसे मिल जाएंगे जो तुम्हारी बेटी की पढ़ाई के काम आएंगे.’’

‘‘अनिता तुम तो मेरे भले की बात कह रही हो, किंतु पता नहीं मेरे पति इस के लिए मानेंगे या नहीं?’’ नीला ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘और फिर पड़ोसी? रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

नीला को अनिता की बात जंच गई

अनिता ने कहा, ‘‘बस तुम्हारे पति मान जाएं. रिश्तेदारों की फिक्र न करो. वैसे भी तुम्हारी बेटी का दाखिला कोटा में आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने वाले इंस्टिट्यूट में हुआ है. वह तो वहां जाएगी ही और यदि तुम कोख किराए पर दोगी तो तुम्हें भी तो ‘लिटल ऐंजल्स’ सैंटर में रहना पड़ेगा जहां अन्य सैरोगेट मदर्स भी रहती हैं. तब तुम कह सकती हो कि अपनी बेटी के पास जा रही हो.’’

नीला को अनिता की बात जंच गई. रात को खाना खा सोने से पहले जब नीला ने अपने पति को यह सैरोगेट मदर्स वाली बात बताई तो एक बार तो उन्होंने साफ मना कर दिया, लेकिन नीला तो जैसे ठान चुकी थी. सो अपनी बेटी का वास्ता देते हुए बोली, ‘‘देखोजी, आजकल पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है. हमारा जमाना अलग था. जब सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे अच्छे अंक ले आते थे और आगे फिर सरकारी कालेज में दाखिला ले कर डाक्टर, इंजीनियर आदि बन जाते थे, पर आजकल बहुत प्रतिद्वंद्विता है. बच्चे अच्छे कोचिंग सैंटरों में दाखिला ले कर डाक्टरी या फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते हैं. हमारी तो एक ही बेटी है. वह कुछ बन जाए तो हमारी भी चिंता खत्म हो जाए. उसे कोटा में दाखिला मिल भी गया है. अब बस बात फीस पर ही तो अटकी है. यदि हम उस की फीस न भर पाए तो बेचारी आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी न कर पाएगी. दूसरे बच्चे उस से आगे निकल जाएंगे. आजकल बहुत प्रतियोगिता है. यदि उस ने वह परीक्षा पास कर भी ली, तो हम आगे की फीस न भर पाएंगे. फिर खाली इंस्टिट्यूट की ही नहीं वहां कमरा किराए पर ले कर रहने व खानेपीने का खर्चा भी तो बढ़ जाएगा. हम इतना पैसा कहां से लाएंगे?’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए

‘‘अनिता बता रही थी कि कोख किराए पर देने से क्व7-8 लाख तक मिल जाएंगे. फिर सिर्फ 9 माह की ही तो बात है. उस के बाद तो कोई चिंता नहीं. हमें अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. पढ़ जाएगी तो कोई अच्छा लड़का भी मिल जाएगा. जमाना बदल रहा है हमें भी अपनी सोच बदलनी चाहिए.’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए. अगले दिन नीला ने यह बात खुश हो कर अनिता को बताई. अब नीला बेटी को कोटा भेजने की व स्वयं के लिटल ऐंजल्स जाने की तैयारी में जुट गई. उसे कुछ पैसे कोख किराए पर देने के लिए ऐडवांस में मिल गए. उस ने निशा को फीस के पैसे दे कर कोटा रवाना किया और स्वयं भी लिट्ल ऐंजल्स रवाना हो गई.

वहां जा कर नीला 1-1 दिन गिन रही थी कि कब 9 माह पूरे हों और वह उस दंपती को बच्चा सौंप अपने घर लौटे. 5वां महीना पूरा हुआ. बच्चा उस के पेट में हलचल करने लगा था. वह मन ही मन सोचने लगी थी कि लड़का होगा या लड़की. क्या थोड़ी शक्ल उस से भी मिलती होगी? आखिर खून तो बच्चे की रगों में नीला का ही दौड़ रहा है. क्या उस की शक्ल उस की बेटी निशा से भी कुछ मिलतीजुलती होगी? वह बारबार अपने बढ़ते पेट पर हाथ फिरा कर बच्चे को महसूस करने की कोशिश करती और सोचती की काश उस के पति भी यहां होते. उस के शरीर में हारमोन भी बदलने लगे थे. नौ माह पूरे होते ही नीला ने एक स्वस्थ लड़की को जन्म दिया. वे दंपती अपने बच्चे को लेने के इंतजार में थे. नीला उसे जी भर कर देखना चाहती थी, उसे चूमना चाहती थी, उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, किंतु अस्पताल वालों ने झट से बच्चा उस दंपती को दे दिया. नीला कहती रह गई कि उसे कुछ समय तो बिताने दो बच्चे के साथ. आखिर उस ने 9 माह उसे पेट में पाला है. लेकिन अस्पताल वाले नहीं चाहते थे कि नीला का उस बच्चे से कोई भावनात्मक लगाव हो. इसलिए उन्होंने उसे कागजी कार्यवाही की शर्तें याद दिला दीं. उन के मुताबिक नीला का उस बच्चे पर कोई हक नहीं होगा.

नीला की ममता चीत्कार कर रही थी कि अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए उस ने अपनी कोख 9 माह किराए पर क्यों दी. ऐसा महसूस कर रही थी जैसे ममता बिक गई हो. वह मन ही मन सोच रही थी कि वाह रे शिक्षा के बाजारीकरण, तूने तो एक मां से उस की ममता भी खरीद ली.

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