शत्रुघ्न सिन्हा की राजनीति…

शत्रुघ्न सिन्हा काफी समय से अपनी पार्टी के खिलाफ कुछ न कुछ कह रहे थे. वे लाल कृष्ण आडवाणी के खेमे के माने जाते थे, पर ऊंची जाति के हैसियत वाले थे, इसलिए उन्हें कहा तो खूब गया, लेकिन गालियां नहीं दी गईं. सोशल मीडिया में चौकीदार का खिताब लगाए गुंडई पर उतारू बड़बोले, गालियों की भाषा का जम कर इस्तेमाल करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा के मामले में मोदीभक्त होने का फर्ज अदा करते रहे. हां, उदित राज के मामले में वे एकदम मुखर हो गए. एक दलित और दलित हिमायती की इतनी हिम्मत कि पंडों की पार्टी की खिलाफत कर दे. जिस पार्टी का काम मंदिर बनवाना, पूजाएं कराना, ढोल बजाना, तीर्थ स्थानों को साफ करवाना, गंगा स्नान करना हो, उस की खिलाफत कोई दलित भला कैसे कर सकता है?

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वैसे, उदित राज ने 5 साल पहले ही भाजपा में जा कर गलती की थी. दलितों की सदियों से जो हालत है, वह इसीलिए है कि ऊंची जातियों के लोग हर निचले पिछड़े तेज जने को अपने साथ मिला लेते हैं, ताकि वह दलितों का नेता न बन सके. यह समझदारी न भारत के ईसाइयों में है, न मुसलमानों में और न ही सिखों या बौद्धों में. उन्हें अपना नेता चुनना नहीं आता, इसलिए हिंदू पंडों को नेताटाइप लोगों को थोड़ा सा चुग्गा डाल कर अपना काम निकालने की आदत रही है. 1947 से पहले आजादी की लड़ाई में यही किया गया. किसी सिख, ईसाई, बौद्ध, शूद्र, अछूत को अलग नेतागीरी करने का मौका ही नहीं दिया गया. जैसे ही कोई नया नाम उभरता, चारों ओर से पंडों की भीड़ उसे फुसलाने को पहुंच जाती. मायावती के साथ हाल के सालों में ऐसा हुआ, प्रकाश अंबेडकर के साथ हुआ, किसान नेता चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह के साथ हुआ. उदित राज मुखर दलित लेखक बन गए थे. उन्हें भाजपा का सांसद का पद दे कर चुप करा दिया गया. इस से पहले वाराणसी के सोनकर शास्त्री के साथ ऐसा किया गया था. उदित राज का इस्तेमाल कर के, उन की रीढ़ की हड्डी को तोड़ कर घी में पड़ी मरी मक्खी की तरह निकाल फेंका और किसी हंसराज हंस को टिकट दे दिया. अगर वे जीत गए तो वे भी तिलक लगाए दलितवाद का कचरा करते रहेंगे. दलितों की हालत वैसी ही रहेगी, यह बिलकुल पक्का?है. यह भी पक्का है कि जब तक देश के पिछड़ों और दलितों को सही काम नहीं मिलेगा, सही मौके नहीं मिलेंगे, देश का अमीर भी जलताभुनता रहेगा कि वह किस गंदे गरीब देश में रहता?है. अमीरों की अमीरी बनाए रखने के लिए गरीबों को भरपेट खाना, कपड़ा, मकान और सब से बड़ी बात इज्जत व बराबरी देना जरूरी है. यह बिके हुए दलित पिछड़े नेता नहीं दिला सकते हैं. जिस की लाठी उस की भैंस जमीनों के मामलों में आज भी गांवों में किसानों के बीच लाठीबंदूक की जरूरत पड़ती है, जबकि अब तो हर थोड़ी दूर पर थाना है, कुछ मील पर अदालत है. यह बात घरघर में बिठा दी गई है कि जिस के हाथ में लाठी उस की भैंस. असल में मारपीट की धमकियों से देशभर में जातिवाद चलाया जाता है. गांव के कुछ लठैतों के सहारे ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य गांवों के दलितों और पिछड़ों को बांधे रखते हैं. अब जब लाठी और बंदूक धर्म की रक्षा के लिए दी जाएगी और उस से बेहद एकतरफा जातिवाद लादा जाएगा, तो जमीनों के मामलों में उसे इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाएगा. अब झारखंड का ही मामला लें.

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1985 में एक दोपहर को 4 लोगों ने मिल कर खेत में काम कर रहे कुछ किसानों पर हमला कर दिया था. जाहिर है, मुकदमा चलना था. सैशन कोर्ट ने उन चारों को बंद कर दिया. लंबी तारीखों के बाद 2001 में जिला अदालत ने उन्हें आजन्म कारावास की सजा सुनाई. इतने साल जेल में रहने के बाद उन चारों को अब छूटने की लगी. हाथपैर मारे जाने लगे. हाईकोर्ट में गए कि कहीं गवाह की गवाही में कोई लोच ढूंढ़ा जा सके. हाईकोर्ट ने नहीं सुनी. 2009 में उस ने फैसला दिया. अब चारों सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. क्यों भई, जब लाठीबंदूक से ही हर बात तय होनी है तो अदालतों का क्या काम? जैसे भगवा भीड़ें या खाप पंचायतें अपनी धौंस चला कर हाथोंहाथ अपने मतलब का फैसला कर लेती हैं, वैसे ही लाठीबंदूक से किए गए फैसले को क्यों नहीं मान लिया गया और क्यों रिश्तेदारों को हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट दौड़ाया गया, वह भी 34 साल तक? लाठी और बंदूक से नरेंद्र मोदी चुनाव जीत लें, पर राज नहीं कर सकते. पुलवामा में बंदूकें चलाई गईं तो क्या बालाकोट पर बदले की उड़ानों के बाद कश्मीर में आतंकवाद अंतर्ध्यान हो गया? राम ने रावण को मारा तो क्या उस के बाद दस्यु खत्म हो गए? पुराणों के हिसाब से तो हिरण्यकश्यप और बलि भी दस्यु थे, अब वे विदेशी थे या देशी ही यह तो पंडों को पता होगा, पर एक को मारने से कोई हल तो नहीं निकलता. अमेरिका 30 साल से अफगानिस्तान में बंदूकों का इस्तेमाल कर रहा है, पर कोई जीत नहीं दिख रही. बंदूकों से राज किया जाता है पर यह राज हमेशा रेत के महल का होता है. असली राज तब होता है जब आप लोगों के लिए कुछ करो.

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मुगलों ने किले, सड़कें, नहरें, बाग बनवाए. ब्रिटिशों ने रेलों, बिजली, बसों, शहरों को बनाया तो राज कर पाए, बंदूकों की चलती तो 1947 में ब्रिटिशों को छोड़ कर नहीं जाना पड़ता. जहां भी आजादी मिली है, लाठीबंदूक से नहीं, जिद से मिली है. जमीन के मामलों में ‘देख लूंगा’, ‘काट दूंगा’ जैसी बातें करना बंद करना होगा. जाति के नाम पर लाठीबंदूक काम कर रही है, पर उस के साथ भजनपूजन का लालच भी दिया जा रहा है, भगवान से बिना काम करे बहुतकुछ दिलाने का सपना दिखाया जा रहा है. झारखंड के मदन मोहन महतो व उन के 3 साथियों को इस हत्या से क्या जमीन मिली होगी और अगर मिली भी होगी तो क्या जेलों में उन्होंने उस का मजा लूटा होगा?

मोदी की नैया

यह गनीमत ही कही जाएगी कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान से व्यर्थ का युद्ध नहीं लड़ा.

सेना को एक निरर्थक युद्ध में झोंक देना बड़ी बात न होती. पर जैसा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा था कि युद्ध शुरू करना आसान है, युद्ध जाता कहां है, कहना कठिन है. वर्ष 1857 में मेरठ में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई ब्रिटिशों की हिंदुओं की ऊंची जमात के सैनिकों ने छेड़ी लेकिन अंत हुआ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र ब्रिटिश राज में, जिस में विद्रोही राजा मारे गए और बाकी कठपुतली बन कर रह गए.

आक्रमणकारी पर विजय प्राप्त  करना एक श्रेय की बात है, पर चुनाव जीतने के लिए आक्रमण करना एक महंगा सौदा है, खासतौर पर एक गरीब, मुहताज देश के लिए जो राइफलों तक के  लिए विदेशों का मुंह  ताकता है, टैंक, हवाईजहाजों, तोपों, जलपोतों, पनडुब्बियों की तो बात छोड़ ही दें.

नरेंद्र मोदी के लिए चुनाव का मुद्दा उन के पिछले 5 वर्षों के काम होना चाहिए. जब उन्होंने पिछले हर प्रधानमंत्री से कई गुना अच्छा काम किया है, जैसा कि उन का दावा है, तो उन्हें चौकीदार बन कर आक्रमण करने की जरूरत ही क्या है? लोग अच्छी सरकार को तो वैसे ही वोटे देते हैं. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक बिना धार्मिक दंगे कराए चुनाव दर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दबदबा बिना सेना, बिना डंडे, बिना खूनखराबे के बना हुआ है.

नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत प्रधानमंत्री, मेहनती प्रधानमंत्री, हिम्मतवाला प्रधानमंत्री, चौकीदार प्रधानमंत्री, करप्शनफ्री प्रधानमंत्री कहने की जरूरत ही नहीं है, सैनिक कार्यवाही की तो बिलकुल नहीं.

रही बात पुलवामा का बदला लेने की, तो उस के बाद बालाकोट पर हमला करने के बावजूद कश्मीर में आएदिन आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं. आतंकवादी जिस मिट्टी के बने हैं, उन्हें डराना संभव नहीं है. अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया में प्रयोग किया हुआ है. पहले वह वियतनाम से मार खा चुका है. अमेरिका के पैर निश्चितरूप से भारत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं चाहे जौर्ज बुश और बराक ओबामा जैसे राष्ट्रपतियों की छातियां 56 इंच की न रही हों. बराक ओबामा जैसे सरल, सौम्य व्यक्ति ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद पर हमला कर ओसामा बिन लादेन को मार ही नहीं डाला था, उस की लाश तक ले गए थे जबकि उन्हें अगला चुनाव जीतना ही नहीं था.

नरेंद्र मोदी की पार्टी राम और कृष्ण के तर्ज पर युद्ध जीतने की मंशा रखती है पर युद्ध के  बाद राम को पहले सीता को, फिर लक्ष्मण को हटाना पड़ा था और बाद में अपने ही पुत्रों लवकुश से हारना पड़ा था. महाभारत के जीते पात्र हिमालय में जा कर मरे थे और कृष्ण अपने राज्य से निकाले जाने के बाद जंगल में एक बहेलिए के तीर से मरे थे. चुनाव को जीतने का युद्ध कोई उपाय नहीं है. जनता के लिए किया गया काम चुनाव जिताता है. भाजपा को डर क्यों है कि उसे युद्ध का बहाना भी चाहिए. नरेंद्र मोदी की सरकार तो आज तक की सरकारों में सर्वश्रेष्ठ रही ही है न!

गरीबी बनी एजेंडा

राहुल गांधी का नया चुनावी शिगूफा कि यदि वे जीते तो देश के सब से गरीब 20 फीसदी लोगों को 72,000 रुपए साल यानी 6,000 रुपए प्रति माह हर घर को दिए जाएंगे, कहने को तो नारा ही है पर कम से कम यह राम मंदिर से तो ज्यादा अच्छा है. भारतीय जनता पार्टी का राम मंदिर का नारा देश की जनता को, कट्टर हिंदू जनता को भी क्या देता? सिर्फ यही साबित करता न कि मुसलमानों की देश में कोई जगह नहीं है. इस से हिंदू को क्या मिलेगा?

लोगों को अपने घर चलाने के लिए धर्म का झुनझुना नहीं चाहिए चाहे यह सही हो कि पिछले 5,000 सालों में अरबों लोगों को सिर्फ और सिर्फ धर्म की खातिर मौत की नींद सुलाया गया हो. लोगों को तो अपने पेट भरने के लिए पैसे चाहिए.

यह कहना कि सरकार इस तरह का पैसा जमा नहीं कर सकती, अभी तक साबित नहीं हुआ है. 6,000 रुपए महीने की सहायता देना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है. अगर सरकार अपने सरकारी मुलाजिमों पर लाखों करोड़ रुपए खर्च कर सकती है, उस के मुकाबले यह रकम तो कुछ भी नहीं है. यह कहना कि इस तरह का वादा हवाहवाई है तो गलत है, पर सवाल दूसरा है.

सवाल है कि देश की 20 फीसदी जनता को इतनी कम आमदनी पर जीना ही क्यों पड़ रहा है? इस में जितने नेता जिम्मेदार उस से ज्यादा वह जाति प्रथा जिम्मेदार है जिस की वजह से देश की एक बड़ी आबादी को पैदा होते ही समझा दिया जाता है कि उस का तो जन्म ही नाली में कीड़े की तरह से रहने के लिए हुआ है. उन लोगों के पास न घर है, न खेती की जमीन, न हुनर, न पढ़ाई, न सामाजिक रुतबा. वे तो सिर्फ ऊंची जातियों के लिए इतने में काम करने को मजबूर हैं कि जिंदा रह सकें.

देश का ढांचा ही ऐसा है कि इन गरीबों की न आवाज है, न इन के नेता हैं जो इन की बात सुना सकें. उन को समझाने वाला कोई नहीं. गनीमत बस यही है कि 1947 के बाद बने संविधान में इन्हें जानवर नहीं माना गया.

1947 से पहले तो ये जानवर से भी बदतर थे. अमेरिका के गोरे मालिक अपने नीग्रो काले गुलामों की ज्यादा देखभाल करते थे, क्योंकि वे उन के लिए काम करते थे और बीमार हो जाएं या मर जाएं तो मालिक को नुकसान होता था. हमारे ये गरीब तो किसी के नहीं हैं, खेतों के बीच बनी पगडंडी हैं जिस की कोई सफाई नहीं करता. हर कोई इस्तेमाल कर के भूल जाता है.

इन को 72,000 रुपए सालाना दिया जा सकता है. कैसे दिया जाएगा, पैसा कहां से आएगा यह पूछा जाएगा, पर कम से कम इन की बात तो होगी. ऊंची जातियों के लिए यह झकझोरने वाली बात है कि 25 करोड़ लोग ऐसे हैं जो आज इस से भी कम में जी रहे हैं. क्यों, यह सवाल तो उठा है. असली राष्ट्रवाद यही है, मंदिर की रक्षा नहीं.

मीडियाकर्मियों का दिल जीत लिया राहुल ने

अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में राहुल गांधी ने एयरपोर्ट से लौटते वक्त हुमायूं रोड पर हुए एक एक्सीडेंट को देखकर तुरंत अपनी गाड़ी रुकवा ली. अपनी सुरक्षा की परवाह किये बगैर वह गाड़ी से उतर कर दुर्घटनाग्रस्त स्थल पर पहुंचे और घायल व्यक्ति को उठवा कर अपनी गाड़ी से उन्होंने उसे अस्पताल पहुंचाया. घायल व्यक्ति एक पत्रकार था. राहुल गांधी के इस रूप को देखकर जहां वह पत्रकार उनका मुरीद हो गया, वहीं इस वीडियो के वायरल होने पर राहुल गांधी की सहृदयता की खूब तारीफ सोशल मीडिया पर हुई. ऐसी ही दूसरी घटना 3 अप्रैल को केरल के वायनाड में घटी, जब राहुल गांधी वहां से अपना चुनावी पर्चा भर कर निकले. रोड शो के दौरान बैरिकेडिंग टूटने से तीन पत्रकारों को काफी चोटें आयीं. इनमें से एक महिला पत्रकार भी थी. यहां भी राहुल का मददगार रूप सामने आया और वे रोड शो छोड़कर उन पत्रकारों को लेकर एंबुलेंस तक गये.

दरअसल राहुल गांधी के रोड शो के लिए वहां बड़ी संख्या में कांग्रेस कार्यकर्ता, आम जनता, मीडिया का जमावड़ा लगा था. राहुल के साथ उनकी बहन और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी थीं. इसी दौरान एक बेरिकैड टूटने से कई पत्रकार ट्रक से गिर गये और घायल हो गये. अचानक हुए इस हादसे से वहां अफरा-तफरी मच गयी. राहुल फौरन उन घायलों के पास गये, उनका हालचाल लिया और पीछे चल रही एंबुलेंस तक उन्हें खुद ले जाकर छोड़ा, जिसमें फर्स्ट एड उन्हें तुरंत मिल गया.

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राहुल गांधी की इस सहृदयता से मीडियाकर्मी उनके मुरीद हो गये हैं. राहुल अपने रोड शो के दौरान जहां मीडियाकर्मियों से लगातार निकटता बनाये हुए हैं, वहीं वह उनसे बातचीत करने और उनके सवालों का जवाब देने में भी काफी उत्सुकता दिखा रहे हैं. पत्रकारों के बीच कानाफूसी चालू है कि एक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं, जिन्होंने पांच साल पत्रकारों से ऐसी दूरी बनाये रखी जैसे कि वे अछूत हों. पांच साल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस तक नहीं की. किसी पत्रकार के सवाल का सामना नहीं किया. लोकसभा चुनाव की रैलियों में भी पत्रकार उनके पास नहीं फटक सकता, और एक अपने राहुल बाबा हैं…. जवाब नहीं राहुल बाबा का…

भाजपा के लिए चुनौती हैं प्रियंका

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने चुनावी प्रचार का शुभारम्भ ‘गंगा यात्रा’ से करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. इस बार का लोकसभा चुनाव सीधे-सीधे कांग्रेस और भाजपा के बीच होने वाला महायुद्ध नजर आ रहा है. प्रयागराज के मनैया घाट से अपनी तीन दिन की ‘गंगा-यात्रा’ का आगाज करके प्रियंका ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. वही गंगा, काशी में जिसके तट पर खड़े होकर 2014 में नरेन्द्र मोदी ने ललकार लगायी थी – ‘मुझे मां गंगा ने बुलाया है…’ वही गंगा, जिसके घाट पर 56 इंच की छाती ठोंक कर नरेन्द्र मोदी ने उसे प्रदूषण-मुक्त करने की शपथ उठायी थी और आजतक गंगा को प्रदूषण-मुक्त न कर सके, प्रयागराज में उसी गंगा की गोद में बैठ कर काशी तक 140 किलोमीटर का रास्ता बोट से तय करके प्रियंका गांधी वाड्रा ने भाजपा और मोदी की नींद उड़ा दी है. गंगा तट पर खड़े होकर उन्होंने गंगा मय्या में दूध अर्पित करते वक्त कहा – ‘मैं गंगा की बेटी हूं और मां का दर्द बेटी ही समझ सकती है.’ प्रियंका की यह भावनात्मक बात मोदी के दंभ और दावे पर भारी पड़ती है. वहीं गंगा तट पर घने बसे अत्यन्त पिछड़ी जाति के लोगों से सीधा सम्वाद स्थापित करके उन्होंने बसपा नेत्री मायावती का ब्लडप्रेशर भी बढ़ा दिया है. गंगा तट पर बसे केवट और मछुआरों को ही नहीं, बल्कि गैर यादव, गैर कुर्मी और गैर जाटव जातियों को अपने पाले में लाने की कोशिश में प्रियंका मोदी के ‘मन की बात’ सरीखी एकतरफा संवाद के विपरीत लोगों से जिस तरह आमने-सामने बातचीत कर रही हैं, उसके परिणाम कांग्रेस के हित में सिद्ध होंगे, इसमें दोराय नहीं है. गौरतलब है कि अत्यन्त पिछड़ी जातियों की संख्या उत्तर प्रदेश में करीब 34 फीसदी है, जिसमें निषाद, मछुआरा, बिंद, चौहान, धोबी, कुम्हार, केवट आदि शामिल हैं. यह जातियां गंगा के किनारे वाले इलाकों में बहुतायत से बसी हैं और  मिर्जापुर, जौनपुर, इलाहाबाद, लखीमपुर खीरी, फतेहपुर, मुजफ्फरनगर, अंबेडकर नगर, भदोही, बनारस जैसी सीटों पर इनका खासा प्रभाव है. इस तबके को जहां भाजपा की ’सवर्ण-मानसिकता’ अपने निकट भी फटकने नहीं देती, वहीं बसपा के सत्ता में रहने पर भी इस तबके को कभी कोई खास फायदा नहीं मिला है. प्रियंका की नजर उत्तर प्रदेश के मछुआरों और निषादों पर खासतौर पर है, जो पिछले चुनावों में भाजपा को वोट करते रहे हैं. पूरे सूबे में इन जातियों की आबादी करीब 12 फीसदी है. दरअसल, गोरखपुर उपचुनाव के परिणामों के बाद निषाद सूबे में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे थे. निषादों को अपने पाले में बनाये रखने के लिए भाजपा भी जीतोड़ मेहनत कर रही है. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार तो निषादराज की भव्य प्रतिमा बनवाने का ऐलान कर चुकी है. निषादों को साथ लाने के लिए प्रियंका ने संगम के पास छतनाग से ‘गंगा यात्रा’ शुरू करने के बजाय मनैया के घाट को चुना क्योंकि मनैया निषादों द्वारा बसाया गया गांव है. कहना गलत न होगा कि प्रियंका की ‘गंगा यात्रा’ के निहितार्थ गहरे हैं, होमवर्क पूरा है और शायद यही वजह है कि किसी भी गठबंधन से दूर कांग्रेस ने पूरे देश में अपने दम पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है.

घिर गये हैं चौकीदार

खुद को देश का चौकीदार घोषित करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जनता से संवाद के वक्त बॉडीलैंग्वेज जहां अहंकार, कठोरता, कटुता, व्यंग्य, अतिश्योक्तियों और लड़ने-मरने जैसे भाव प्रदर्शित करती है, वहीं उससे बिल्कुल उलट प्रियंका के भाषणों में जमीन से जुड़ी, किसानों-मजदूरों की परेशानियों से जुड़ी, युवाओं के रोजगार से जुड़ी इमोशनल बातें लोगों को ज्यादा प्रभावित कर रही हैं. प्रियंका के वाक्यों पर गौर करें – ‘देश संकट में है, इसलिए मुझे घर से निकलना पड़ा… मैं काफी वर्षों से घर में थी, लेकिन अब देश संकट में है… आज किसानों को फसलों का सही दाम नहीं मिल रहा है… पिछले पांच साल में देश में बेरोजगारी बढ़ी है…’ इन वाक्यों से आमजन खुद का ज्यादा जुड़ा हुआ पाता है. और सबसे बड़ा और तीखा हमला तो प्रियंका ने मोदी पर यह कह कर किया है कि – ‘चौकीदार तो अमीरों के होते हैं….’. ऐसा कह कर प्रियंका ने मोदी को उन्हीं के नारे ‘मैं भी चौकीदार’ में घेर दिया है. मोदी सिर्फ अपने खास और अमीर उद्योगपति अडानी-अम्बानी के चौकीदार हैं, प्रियंका के कथन में छिपी इस बात को समझना जनता के लिए मुश्किल नहीं है.

संभ्रांत और सेक्युलर छवि

भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी संगठन अक्सर प्रियंका को ईसाई बता कर उन पर निशाना साधते रहे हैं, लेकिन संगम तट पर लेटे हुए हनुमान जी के दर्शन और पूजा-अर्चना के बाद ‘गंगा-यात्रा’ की शुरुआत करके उन्होंने साफ कर दिया है कि उनकी रगों में हिन्दू का खून भी है. प्रियंका ने उसी जगह पर पूजा की, जहां कभी उनकी दादी इंदिरा गांधी ने पूजा की थी. ऐसा करके जहां उन्होंने इंदिरा की यादों को लोगों के दिलों में ताजा किया, वहीं उन्हें हिन्दू विरोधी कहने वालों के मुंह पर भी ताला जड़ दिया है. रोजी-रोटी के सवालों से जूझ रही और देश में शान्ति-अमन की चाह रखने वाली जनता प्रियंका की इस सेक्युलर छवि से काफी प्रभावित है और इसका फायदा चुनाव में कांग्रेस को मिलेगा, इसमें कोई शक नहीं है.

वहीं, अब तक जो मुसलमान बसपा, सपा और भाजपा के बीच बंट गया था, वह भी अब कांग्रेस के पक्ष में एकजुट होता नजर आ रहा है. बीते पांच सालों में मोदी-राज में गोरक्षा और लवजिहाद के नाम पर जो कत्लेआम मचा उससे अल्पसंख्यकों में डर का माहौल है, ऐसे में प्रियंका की सेक्युलर छवि उन्हें आकर्षित कर रही है. इसमें दोराय नहीं है कि इस बार मुसलमान कांग्रेस के पक्ष में एकजुट होगा. वहीं अति पिछड़ी जातियों से सीधा संवाद स्थापित करके प्रियंका ने सपा और बसपा के दिल में भी धुकधुकी पैदा कर दी है.

मेरठ में जिस तरह प्रियंका भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद को देखने अस्पताल पहुंचीं, उससे बसपा नेत्री मायावती की झुंझलाहट बढ़ गयी है. भीम आर्मी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे मजबूत है. यहां के लोग मायावती से बड़ा नेता युवा और जोश से लबालब चंद्रशेखर को मानते हैं, जो लम्बे समय से मजदूरों के हक में आवाज बुलंद कर रहे हैं. दलित समुदाय के युवा खुद को चंद्रशेखर से जुड़ा महसूस करते हैं. ऐसे में प्रियंका का उनसे मिलना एक सीधा सियासी गणित है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एससी वोटों पर अच्छी पकड़ रखने वाले चंद्रशेखर आजाद के साथ गठबंधन कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित होगा.

ठीक वक्त पर एंट्री

नजरें लक्ष्य पर, सौम्य-सधी आवाज और बातचीत में एकदम अपनों जैसा प्यार… इन विशेषताओं के साथ प्रियंका गांधी वाड्रा अन्तत: चुनाव मैदान में हैं. सालों से पर्दे के पीछे रह कर काम करने वाली प्रियंका को राजनीति में प्रत्यक्ष उतारने की मांग बहुत लम्बे समय से होती रही है, मगर निजी कारणों का हवाला देकर इतने सालों तक उन्हें इससे अलग रखा गया. एक तो उनके बच्चे छोटे थे और दूसरा उनके भाई राहुल गांधी का करियर डांवाडोल था. अब ऐसे वक्त में प्रियंका की एंट्री हुई है, जब बच्चे भी समझदार हो गये हैं और राहुल गांधी भी ‘पप्पू’ वाली छवि तोड़ कर बतौर पार्टी-अध्यक्ष कांग्रेस की झोली में तीन राज्यों की सरकारें डालने में कामयाब रहे हैं. अब सदन के भीतर-बाहर राहुल धाराप्रवाह भाषण करते हैं. उनके अचानक अटैक और प्यार की झप्पी से तो प्रधानमंत्री मोदी तक हतप्रभ हो चुके हैं. इसलिए अब ऐसा कहना कि प्रियंका के आने से राहुल का करियर चौपट हो जाएगा, गलत है. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो प्रत्यक्ष राजनीति में प्रियंका की एंट्री से कांग्रेस दोहरी मजबूती के साथ चुनाव मैदान में है. एक और एक ग्यारह की ताकत के साथ राहुल-प्रियंका 2019 की लोकसभा की वैतरणी पार करेंगे.

दो मोर्चों पर मजबूती से खड़ी हैं प्रियंका

प्रियंका गांधी वाड्रा आज देश और परिवार दोनों ही मोर्चों पर मजबूती से खड़ी हैं. गौरतलब है कि उनके राजनीति में उतरने की सुगबुगाहट के साथ ही भाजपा चौकन्नी हो गयी थी. जैसे ही यह ऐलान हुआ कि प्रियंका को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया जा रहा है, पांच साल तक राबर्ट वाड्रा के अवैध रूप से प्रॉपर्टी खरीद मामले में खामोशी ओढ़े पड़ी जांच एजेंसियों में अचानक हलचल देखी जाने लगी और फिर प्रवर्तन निदेशालय ने राबर्ट वाड्रा को कथित रूप से अवैध सम्पत्ति और मनी लांड्रिग मामले में पूछताछ के लिए ठीक उसी दिन तलब कर लिया, जिस दिन प्रियंका को बतौर कांग्रेस महासचिव अपना पद ग्रहण करना था. आशंका व्यक्त की जा रही थी कि इसके खिलाफ कांग्रेसी हो-हल्ला मचाएंगे, मगर राबर्ट और प्रियंका दोनों ने शालीनता और सहयोग का परिचय दिया और रॉबर्ट वाड्रा पूछताछ का सामना करने के लिए एजेंसी के सामने हाजिर हो गये. चुनावी तैयारियों और रैलियों के अतिव्यस्त कार्यक्रम के बीच प्रियंका अपने पति राबर्ट को पूरा सपोर्ट करती नजर आयीं. कांग्रेस महासचिव की कुर्सी पर बैठने से पहले वे पति को लेकर प्रवर्तन निदेशालय पहुंचीं और फिर वहां से कांग्रेस आॅफिस जाकर उन्होंने कार्यभार संभाला. यही नहीं, जब राबर्ट वाड्रा को पूछताछ के लिए जयपुर तलब किया गया, तब भी प्रियंका लखनऊ में रैली पूरी करने के बाद सीधी जयपुर पहुंचीं. इन बातों से प्रियंका ने साफ कर दिया है कि वह देश और परिवार दोनों ही मोर्चों पर लड़ने के लिए मजबूती से कमर कस के खड़ी हैं और उनके यही तेवर भाजपा खेमे को डरा रहे हैं.

गौरतलब है कि 2014 में जब मोदी सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब राबर्ट वाड्रा को जेल भेजने की बातें खूब करते थे, मगर सत्ता में आने के बाद पांच साल तक वह इस मामले में खामोशी ओढ़े रहे. जैसे ही यह खबर आयी कि प्रियंका गांधी राजनीति में पदार्पण करने वाली हैं, केन्द्र के अधीन जांच एजेंसियां अचानक नींद से जाग पड़ीं. ऐसा क्यों हुआ यह सवाल सबकी जुबां पर है. प्रियंका ने एक लाइन में इस सवाल का जवाब दिया है – ‘सबको पता है, क्या हो रहा है?’ वहीं प्रियंका की तारीफ करते हुए पति रॉबर्ट वाड्रा ने सोशल मीडिया पर लिखा – ‘प्रिय पी, तुम एक सच्ची दोस्त, परफेक्ट वाइफ और मेरे बच्चों के लिए बेस्ट मां साबित हुई हो. आज के दिन दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक माहौल है, मुझे पता है तुम अपनी जिम्मेदारी को सही से निभाओगी. हम प्रियंका को देश के हवाले करते हैं. भारत की जनता इनका ध्यान रखे.’ राबर्ट के इस इमोशनल मैसेज से प्रियंका तो प्रभावित हुर्इं ही, कांग्रेसी खेमे में इस मैसेज ने संजीवनी का काम किया.

खून में दौड़ती राजनीति

राजनीति प्रियंका के खून में है. लम्बे समय से वह अमेठी और रायबरेली में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की रैलियों के आयोजन का कार्यभार संभालती रही हैं. उनकी कार्यशैली अनूठी है. वे अजनबियों के साथ पलक झपकते ही स्नेहिल सम्बन्ध बना लेती हैं. उनकी खूबसूरती और मोहक मुस्कान सामने वाले को सम्मोहित कर लेती है. अपने राजनीतिक दौरों के दौरान कभी प्रियंका किसी बूढ़ी महिला का हाथ थाम कर बैठ जाती हैं, कभी उनके साथ परांठा-अचार का नाश्ता करती हैं, तो कभी रिक्शे पर अपने बच्चों को घुमाती हैं. उनका यह व्यवहार क्षेत्र के लोगों को उनसे गहरे जोड़ता है. हालांकि वे थोड़ी गुस्सैल स्वभाव की भी हैं. मगर कार्यकर्ताओं का मानना है कि उनका गुस्सा उन लोगों पर ही प्रकट होता है, जो पार्टी का काम ठीक से नहीं करते हैं. ऐसा ही आचरण उनकी दादी इंदिरा गांधी का भी था. दरअसल प्रियंका में लोगों को इंदिरा की ही छवि नजर आती है. खासतौर पर उनकी हेयर स्टाइल और लम्बी नाक. तमाम समानताओं के साथ एक समानता यह भी है कि प्रियंका गांधी का करियर भी इंदिरा गांधी की तरह ही शुरू हुआ है. प्रियंका की तरह इंदिरा भी शुरू से ही स्मार्ट थीं, लेकिन उन्हें राजनीति से दूर रखा गया था. जवाहर लाल नेहरू ने कभी उन्हें अपनी उत्तराधिकारी के रूप में नहीं देखा. ये अलग बात थी कि राजनीति उन्हें विरासत में मिली थी. शुरू में गूंगी गुड़िया के रूप में मशहूर इंदिरा के राजनीतिक तेवर पिता की मृत्यु के बाद राजनीति में पदार्पण के साथ देश-दुनिया ने देखे. वैसे ही तेवर प्रियंका के हैं. महज 16 साल की उम्र में, प्रियंका गांधी ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया था. तब से वह कई राजनीतिक जुलूसों, रैलियों और सम्मेलनों में हिस्सा लेती रही हैं.

अपनी बात मनवाने में माहिर हैं प्रियंका

रायबरेली के पुराने लोग प्रियंका में हमेशा इंदिरा को देखते हैं. इंदिरा की तरह वे भी सीधी और भावुक बातें करके लोगों को वह करने पर मजबूर कर देती हैं, जो वह चाहती हैं. यह बात तो रायबरेली की पहली ही जनसभा में ही साबित हो गयी थी. वह 1999 का लोकसभा चुनाव था. कांग्रेस ने रायबरेली सीट से कैप्टन सतीश शर्मा को खड़ा किया था. भाजपा ने जवाब में राजीव गांधी के ममेरे भाई अरुण नेहरू को टिकट दिया था. अरुण नेहरू और राजीव गांधी में रिश्ते बिगड़ गये थे. वे कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गये थे. अरुण नेहरू मजबूत नेता थे. वहीं कैप्टन सतीश शर्मा सोनिया परिवार के घरेलू मित्र थे. प्रियंका उन्हें अंकल कहती थीं. कैप्टन रायबरेली से लगभग हारे हुए कैंडिडेट नजर आ रहे थे. उन्होंने प्रियंका से आग्रह किया कि वह उनकी एक चुनावी सभा में आ जाएं. तब प्रियंका सिर्फ 27 साल की थीं. रायबरेली में उनकी पहली जनसभा थी. प्रियंका ने वहां सिर्फ एक लाइन बोली – ‘मेरे पापा के साथ जिसने गद्दारी की. पीठ में छुरा भोंका, ऐसे आदमी को आपने यहां घुसने कैसे दिया? उनकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’ भीड़ ने प्रियंका की डांट सुनी. एक सन्नाटा खिंच गया चारों ओर. प्रियंका को लगा कि कुछ ज्यादा हो गया. उन्होंने बात संभाली और बोलीं – ‘मेरी मां ने ये कह कर भेजा था कि कभी किसी की बुराई मत करना. लेकिन मैं आपसे भी अगर अपने दिल की बात नहीं कहूंगी, तो किससे कहूंगीं.’ और प्रियंका के इस इमोशनल सम्बोधन के बाद पूरा चुनाव ही पलट गया. कैप्टन सतीश शर्मा जीत गये और अरुण नेहरू का राजनीतिक करियर खत्म हो गया. कैप्टन खुद मानते थे कि ये चुनाव उन्हें अकेली प्रियंका की एक मीटिंग ने जिता दिया था.

27 साल की तब की प्रियंका और 47 साल की आज की प्रियंका में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है. वे आज भी उसी तरह इमोशनल बातें करके लोगों का दिल जीत जीतने में उस्ताद हैं, मगर कोई कार्यकर्ता काम से जी चुराये तो डांट-डपट भी करने से नहीं चूकतीं. राजनीति उनके खून में है और मेच्योरिटी लेवल भाई राहुल गांधी से कहीं ज्यादा. यही वजह रही कि इतने साल तक सोनिया ने उन्हें राजनीति से दूर रखा ताकि राहुल ठीक तरह से स्थापित हो सकें.

भय्याजी के नाम से मशहूर हैं प्रियंका

राहुल और सोनिया गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी और रायबरेली में प्रियंका बचपन से ही काफी सक्रिय रही हैं. क्षेत्र के लोग राहुल गांधी के साथ-साथ प्रियंका को भी ‘भय्याजी’ के सम्बोधन से पुकारते हैं. इन दोनों जगहों को प्रियंका अपने घर के रूप में देखती हैं. प्रियंका की खासियत है कि वो लोगों से जल्दी जुड़ जाती हैं. इस बात के गवाह कई लोग हैं कि रायबरेली में प्रियंका गांधी कभी भी अचानक ही बीच सड़क पर रुककर किसी भी कार्यकर्ता को नाम से पुकार लेती थीं और उसका हालचाल लेती थीं. वर्ष 2004 के आम चुनाव में उन्होंने रायबरेली में सोनिया गांधी के लिए अभियान प्रबंधक के रूप में जबरदस्त काम किया था. वहीं अमेठी में भाई राहुल गांधी के अभियान की निगरानी भी उन्होंने की. वर्ष 2004 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत का परचम लहराया तो पार्टी में प्रियंका का कद बढ़ गया. हालांकि वह एक उम्मीदवार के रूप में या प्रचारक के रूप में पार्टी की चुनावी जीत में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभाती थीं, लेकिन वह इसके पीछे थीं.

2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जब राहुल गांधी अपने राज्यव्यापी अभियान में व्यस्त थे, प्रियंका ने अमेठी-रायबरेली क्षेत्र की दस सीटों पर अपनी ऊर्जा और प्रयास केन्द्रित किया. आम चुनाव 2009 और 2014 में, प्रियंका गांधी ने अमेठी और रायबरेली के निर्वाचन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर प्रचार किया और अपने भाई और मां के लिए जीत हासिल करने में मदद की.

प्रियंका गांधी की छवि और कार्यशैली में उनकी दादी इंदिरा की छाप और असर है. कांग्रेस पार्टी में प्रियंका से बड़ा स्टार प्रचारक कोई नहीं है. अबकी लोकसभा में कांग्रेस की नय्या पार लगाने की पूरी जिम्मेदारी प्रियंका पर है. गांधी परिवार की इस सदस्या के सक्रिय राजनीति में उतरने की राह लोग काफी समय से देख रहे थे. प्रियंका गांधी वाड्रा का लक्ष्य भी हालांकि सत्ता प्राप्त करना है, मगर यह सत्ता वह अपने भाई राहुल गांधी के लिए पाना चाहती हैं. वह लम्बे समय से पार्टी और राहुल के लिए काम कर रही हैं. मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के तमाम राजनीतिक कार्यक्रमों में संयोजक के तौर पर उनकी भूमिका हमेशा प्रभावशाली रही है. उनकी तेजी और स्मरण शक्ति गजब की है. अमेठी और रायबरेली में वह अपने कार्यकर्ताओं को बकायदा नाम से पुकारती हैं. उनकी यह खूबी उन्हें कार्यकर्ताओं से सीधे जोड़ती है. 2019 के चुनाव में उनका उतरना विपक्षी दलों के लिए चिन्ता का विषय है.

भाजपाइयों में उत्साह नदारद

भाजपा का सीधा मुकाबला इस बार कांग्रेस से है, यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनका गोदी-मीडिया भलीभांति समझ रहा है. प्रियंका के आने के बाद कांग्रेस पार्टी मजबूती से खड़ी हुई है, इस बात से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इत्तेफाक रखते हैं. कांग्रेस का सपा और बसपा से गठबंधन न करना यह साफ जाहिर करता है कि प्रियंका की लीडरशिप में अबकी बार पार्टी पूरे कॉन्फिडेंस में है. विरोधी खेमा प्रियंका-प्रलय का आंकलन करने में जुटा है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कुम्भ स्नान के बाद से ही हवा का रुख भांपने में लगे हैं. पुलवामा में सीआरपीएफ के चालीस जवानों की शहादत और पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक कर मोदी-शाह जनता पर ‘भाजपा की देशभक्ति’ का रौब गालिब करने में उस तरह सफल नहीं हो पाये, जैसा कि उनकी सोच थी. उलटे वह कई संगीन और संवेदनशील सवालों के घेरे में आ फंसे हैं. कई जवानों के परिजनों ने यह सवाल उठा दिये हैं कि पुलवामा में एक आतंकी इतना विस्फोटक लेकर पहुंचा कैसे? सुरक्षा में इतनी बड़ी खामी आखिर किसकी गलती से हुई? पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक कर सेना के कारनामे को अपना कारनामा बताने वाली केन्द्र की भाजपा सरकार ने आखिर अब तक पुलवामा हमले की जांच क्यों नहीं करवायी? यह तमाम सवाल चारों ओर से उठ रहे हैं और ऐसे में प्रियंका गांधी वाड्रा का अनेक शहीद जवानों के परिजनों से जाकर मिलना और उनसे संवाद स्थापित करना मोदी-शाह की मुश्किलें बढ़ा रहा है.

अबकी बार भाजपा कार्यकर्ताओं में भी जोश 2014 के मुकाबले जरा कम ही नजर आ रहा है. संघ के भीतर से भी कई बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर अलग-अलग मत सामने आ चुके हैं. 2014 में जहां भाजपा के दिग्गज नेताओं ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकारा था और संघ की पूरी ताकत उनके पीछे थी, वहीं अबकी बार यह ताकत कुछ कम दिख रही है. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ या ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसा कोई प्रभावी नारा भी अभी तक जनता के कानों में नहीं पड़ा है. ‘मैं भी चौकीदार’ मुहिम भी टांय-टांय फिस्स ही दिख रही है. प्रधानमंत्री मोदी की इस मुहिम में शामिल होकर जब पंकजा मुंडा ने ट्वीट किया – ‘मैं भी चौकीदार’ तो इस पर उनको मिला एक मजेदार जवाब – ‘चिक्की कौन खाया?’

पार्टी कार्यकर्ताओं में ही नहीं, बल्कि भाजपा के धुरंधर नेताओं में भी इस बार जोश नदारद है. राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, उमा भारती, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी, अरुण जेटली जैसे कई दिग्गज भाजपाई खामोशी ओढ़े बैठे हैं, तो वहीं पुराने भाजपाई कलराज मिश्र, सैयद शाहनवाज हुसैन अपने टिकट कटने से नाराज दिख रहे हैं. ऐसे में चुनाव प्रचार उस गर्मजोशी से परवान चढ़ेगा, जैसा कि 2014 में था, ऐसा लगता नहीं है.

कांग्रेस मतलब गांधी परिवार

देश में चुनावी शतरंज बिछ चुकी है। इस बार का लोकसभा चुनाव खुले तौर पर भाजपा और कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही दिखायी दे रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के बीते पांच साल के कामकाज की धज्जियां उड़ाते हुए जगह-जगह जम कर बरस रहे हैं, वहीं नरेन्द्र मोदी प्रियंका गांधी वाड्रा के सक्रिय राजनीति में उतरने से बौखलाये हुए हैं। इसमें दोराय नहीं है कि प्रियंका के सक्रिय राजनीति में उतर पड़ने से इस बार कांग्रेस पूरे दमखम के साथ चुनावी मैदान में ताल ठोंकती नजर आ रही है। कांग्रेसियों का उत्साह आसमान पर है और यही वजह है कि कांग्रेस किसी गठबंधन में बंधे बिना अपने दम पर चुनाव लड़ने और जीतने का दावा कर रही है। व्यंग्य बाण छोड़ने में माहिर नरेन्द्र मोदी ने हालांकि प्रियंका पर अभी तक सीधे तौर पर कोई टिप्पणी नहीं की है, मगर कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप उन्होंने जरूर जड़ दिया है। वही पुराना घिसा-पिटा आरोप। कांग्रेस मतलब गांधी परिवार। वंशवाद का आरोप कांग्रेस पर लम्बे समय से लगता आ रहा है मगर कांग्रेस पर इसका कोई असर नहीं होता। अब ये आलोचना की बात हो या प्रशंसा की, मगर सच्चाई यही है कि आज ‘कांग्रेस मतलब गांधी-परिवार’, बिल्कुल ‘ठंडा मतलब कोकाकोला’ की तर्ज पर। आज इस परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह परिवार कांग्रेस से जब-जब अलग हुआ, कांग्रेस कमजोर हुई और कार्यकर्ताओं में बिखराव पैदा हुआ है। विपक्ष यह सोच कर वंशवाद का हो-हल्ला मचाता है कि शायद कुछ असर हो जाए और पुराने कांग्रेसी नेताओं के खून में उबाल आ जाये और गांधी परिवार के खिलाफ पार्टी के भीतर विरोध के अंकुर फूट जाएं, मगर विपक्ष का दांव हमेशा खाली ही जाता है क्योंकि कांग्रेस और गांधी एक सिक्के के दो पहलू हो चुके हैं।

हालांकि एक वक्त था जब कांग्रेस और गांधी अलग-अलग थे। कांग्रेस और गांधी परिवार को एक करने का श्रेय जाता है इंदिरा गांधी को। वह वक्त था देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद का। जब तक नेहरू जिन्दा थे, तब तक सरकार पर उनका एकछत्र राज था। उनके आगे कांग्रेस का वही हाल था, जो आज मोदी के आगे भाजपा का है। लेकिन नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा को सक्रिय राजनीति से हमेशा दूर रखा था। यही कारण था कि उनकी मौत के बाद भारत की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया। तब शुरू हुई नेहरू के उत्तराधिकारी की खोज। उस वक्त इंदिरा गांधी कहीं किसी गिनती में नहीं थीं। तब के. कामराज कांग्रेस अध्यक्ष हुआ करते थे। वे तमिलनाडु से थे और दक्षिण भारत की निचली जाति के प्रभावशाली नेता माने जाते थे। मगर उनके दिमाग में भी इंदिरा का नाम दूर-दूर तक नहीं था। नेहरू के बाद प्रधानमंत्री पद के जो दो मजबूत दावेदार थे वह थे – मोरारजी देसाई और लाल बहादुर शास्त्री। मोरारजी देसाई को ज्यादातर कांग्रेसी पसन्द नहीं करते थे क्योंकि वे बड़े जिद्दी और अड़ियल किस्म के व्यक्ति थे, जबकि उनके विपरीत लाल बहादुर काफी शान्त और सौम्य थे। तब कांग्रेसी नेताओं ने एकमत से प्रधानमंत्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री को चुना, बिल्कुल वैसे ही जैसे सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को चुना था। मगर शास्त्री जी मनमोहन सिंह नहीं बन पाये। यह कहानी कभी आगे, पहले इंदिरा की बात करें कि कैसे उनकी एंट्री कांग्रेस में हुई और कैसे आने वाले सालों में कांग्रेस और गांधी परिवार एक दूसरे के पर्यायवाची हो गये।

दरअसल लालबहादुर शास्त्री ने ही पहली बार इंदिरा गांधी को अपने कैबिनेट में जगह दी थी। शास्त्रीजी इंदिरा की तेजी को समझते थे और जानते थे कि बाहर रह कर वह ज्यादा खतरनाक साबित होंगी, लिहाजा अपनी कैबिनेट में शामिल करके उन्होंने इंदिरा को कम महत्व वाले सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का मंत्री बना दिया। मगर इंदिरा को यह पद भाया नहीं। वे भीतर ही भीतर अपने समर्थकों को एकजुट करने में लगी रहीं।

उसी दौरान शास्त्री जी चाहते थे कि वह तीन मूर्ति भवन स्थित प्रधानमंत्री आवास में शिफ्ट हो जाएं, जहां जवाहरलाल नेहरू बतौर प्रधानमंत्री रहा करते थे, लेकिन इंदिरा ने इसमें अडंÞगा लगा दिया। वे चाहती थीं कि तीन मूर्ति भवन स्थायी तौर पर नेहरू के नाम का स्मारक घोषित हो जाए और आखिर में उन्हीं की जीत हुई। तीन मूर्ति भवन नेहरू और उनके वंशजों के नाम हो गया। उसके बाद इंदिरा की असल सियासत तीन मूर्ति से ही चलने लगी और ये परम्परा अब तक बरकरार है।

इंदिरा गांधी पार्टी के अन्दर अपनी ताकत बढ़ा रही थीं और लालबहादुर शास्त्री अकेले पड़ते जा रहे थे। तब शास्त्रीजी ने पहली बार प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ खोला, जिसमें ईमानदार, विश्वासपात्र और काबिल अफसरों की टीम को देश चलाने के लिए रख लिया। पीएमओ का काम नाजुक और नीतिगत मसलों पर प्रधानमंत्री को सलाह देना था। शास्त्रीजी के इस पीएमओ वाले नये तजुर्बे ने इंदिरा के इशारे पर चल रहे कांग्रेसी नेताओं की चालें फेल कर दीं।

शास्त्रीजी की मौत के बाद कांग्रेस में फिर उत्तराधिकार की तलाश शुरू हुई। इस बार मोरारजी देसाई किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। लेकिन तब तक इंदिरा गांधी काफी अनुभवी हो चुकी थीं। कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने जब प्रधानमंत्री पद के लिए इंदिरा का नाम आगे किया तो मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी के बीच चुनाव की नौबत आ गयी और अन्तत: कांग्रेस संसदीय दल के सांसदों ने इंदिरा को चुना और इंदिरा पहली बार देश की प्रधानमंत्री बनीं। तब तक इंदिरा की उम्र 49 साल पार कर चुकी थी। अपनी मन्जिल तक पहुंचने में इंदिरा को लम्बा वक्त लग गया, मगर उनकी पोती प्रियंका गांधी वाड्रा ने राजनीति की शुरुआत सत्ताइस साल की उम्र में कर दी थी, हालांकि यह राजनीति वे लगातार पर्दे के पीछे रह कर करती रहीं। सक्रिय राजनीति में वह अब उतरी हैं, 47 की उम्र में।

अगर कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के लिए नेहरू-गांधी परिवार की समय सीमा निकालें तो आजादी के 70 साल में 53 साल तक इस परिवार का किसी न किसी पद पर या फिर दोनों पदों पर एक साथ कब्जा रहा है। वर्ष 1960 के दशक में नेहरू और इंदिरा (पिता-पुत्री), फिर 1970 के दशक में इंदिरा-संजय (मां-छोटे बेटे) और 1980 के दशक में इंदिरा-राजीव (मां-बड़े बेटे)। हालांकि बीच का कुछ वक्त था जब बाहरी व्यक्ति इन पदों पर सुशोभित हुए मगर उनसे पार्टी और कार्यकर्ताओं को उतनी मजबूती नहीं मिल पायी, जितनी गांधी परिवार के सदस्यों से मिलती है।

गांधी परिवार के बाहर से पहली बार किसी ने कांग्रेस को चलाया तो वो थे पीवी नरसिम्हा राव। राव ने 1996 तक कांग्रेस पार्टी और इसकी सरकार चलायी। 1996 से 1998 तक कांग्रेस के प्रमुख रहे गांधी परिवार के वफादार सीताराम केसरी पार्टी को साथ नहीं बांध सके थे और 1998 में कांग्रेस के विभाजन के बाद पार्टी की खस्ता हालत को देखते हुए सोनिया गांधी को न चाहते हुए भी कांग्रेस की मदद के लिए आगे आना पड़ा। सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान इसलिए संभाली क्योंकि उनके परिवार के बिना पार्टी डूब रही थी और पार्टी के बिना उनके परिवार की श्रेष्ठता और प्रासंगिकता खतरे में पड़ गयी थी। दरअसल कांग्रेस कार्यकर्ता गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना ही नहीं करते हैं। यही वजह है कि जब जब गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति ने पार्टी चलानी चाही, फेल हुआ। मनमोहन सिंह स्पष्ट तौर पर सोनिया की कठपुतली थी, इसलिए ही दस साल तक प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहे। मनमोहन सिंह की कलम से सोनिया के फैसले ही लिखे जाते रहे, इसमें कोई दोराय नहीं है, यदि वे ऐसा नहीं करते तो नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी की भांति ही नकार दिये जाते। यह बात पार्टी के तमाम धुरंधर नेता भलीभांति समझते हैं कि पार्टी और कार्यकर्ताओं को सिर्फ और सिर्फ गांधी परिवार ही एकजुट रख सकता है। यही वजह है कि शीर्ष पद के लिए कोई दावेदारी पार्टी नहीं उभरती। तो अगर पूरी पार्टी एक परिवार के नेतृत्व में एकजुटता के साथ रहे, इसमें बुराई क्या है?

आम चुनाव की दस्तक

जैसेजैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इस बार बातें सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की कम हो रही हैं, विरोधी दलों की चर्चा ज्यादा होने लगी है. सुर्खियों में अब मायावती और अखिलेश का गठबंधन, कांग्रेस, ममता बनर्जी, डीएमके आदि छाने लगे हैं. भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री अब सिर्फ उद्घाटनों, शिलान्यासों और सम्मेलनों में भाषण करने की औपचारिकताएं निभाने में लगे हैं. सरकार के कई मंत्रियों और भाजपा अध्यक्ष की बीमारियां जरूर सुर्खियां बनी हैं.

भाजपा ने जो संगठित चेहरा 2014 से 2017 तक दिखाया था, अब बिखरने लगा है. यह अच्छा नहीं है. जनता की पसंद लोकतंत्र में बदलती रहती है पर मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों को हर स्थिति में अपना संतुलन और सामर्थ्य बनाए रखना होता है. यह देश के लिए जरूरी होता है. सत्तारूढ़ पार्टी को अंत तक अपनी हिम्मत नहीं खोनी चाहिए चाहे उस के काम सही हों या गलत.

यह ठीक है जब कई पराजयों का सामना एकसाथ करना पड़े तो लोग हताश होने लगते हैं. पर, फिर भी हजारोंलाखों लोग उस नेता से जुड़े होते हैं और वे मैदान छोड़ कर न भाग जाएं, यह देखना नेताओं का ही काम होता है.

नरेंद्र मोदी ने यह गलती की कि उन्होंने पूरी जिम्मेदारी और सत्ता अपनेआप में केंद्रित कर ली क्योंकि भाजपा 2014 का चुनाव केवल उन के बल पर जीती थी. बाकी सब मोहरे बन कर रह गए थे. यह पार्टी या सरकार चलाने का सब से गलत तरीका है, पर दुनियाभर में ऐसा ही होता है.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, ब्रिटेन में टेरेसा मे और जरमनी में एंजेला मर्केल की हालत नरेंद्र मोदी की तरह है. इन को कई फ्रंटों पर लड़ना पड़ रहा है और जीत कम ही मिल रही है. ट्रंप मैक्सिको और अमेरिका के बीच वाल बनाने के पीछे ऐसे पड़े हैं जैसे मोदी मंदिर, गाय और जीएसटी के. टेरेसा मे ब्रैक्सिट को ले कर जिद कर रही हैं, एंजेला मर्केल यूरोप में एकछत्र राज चाहती हैं.

बिना चुनौतियों के राज करने या अनायास सत्ता पाने के अवसर ने इन नेताओं से सब से मिल कर चलने का गुण छीन लिया है और इसी वजह से इन के अपने सहयोगी, संगीसाथी इन के साथ मन मार कर काम कर रहे हैं. जो समस्याएं पहले चुटकियों में हल हो जाती थीं, अब विकराल बनने लगी हैं.

इस सब का नुकसान जनता को सहना पड़ता है क्योंकि सरकार ठप हो जाती है. आजकल भारत, अमेरिका, ब्रिटेन और जरमनी में कोई खास फैसले नहीं लिए जा रहे क्योंकि नेताओं को अपने बचाव से फुरसत नहीं है. इस का असर एकदम न पड़ेगा, पर 4-5 वर्षों बाद इस तरह हुए बीमार नेतृत्व का खमियाजा पूरा देश भुगतेगा, यह पक्का है.

कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक प्रियंका गांधी

राजनीति की चुनावी रणभेरी अब बज चुकी है. 2019 का आम चुनाव कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के लिए ही जीने मरने का सवाल बन गया है. 3 राज्यों में मिली जीत से कांग्रेस में जोश है. वह इस जोश को पार्टी और वोटर दोनों के लिए इस्तेमाल करना चाहती है. यही वजह है कि कांग्रेस ने भी प्रियंका गांधी को मैदान में उतार कर अपना सब से अहम किरदार सामने कर दिया है.

कांग्रेस के पक्ष में बन रही हवा को इस ‘मास्टर स्ट्रोक’ से केवल चुनावी फायदा ही नहीं मिलेगा, बल्कि चुनाव के बाद उपजे हालात में नए तालमेल बनाने में भी खासा मदद मिलेगी. ‘शाहमोदी’ खेमे में भी इस से बेचैनी बढ़ गई है. ऐसे में एक बार फिर से प्रियंका गांधी को ले कर नएनए मैसेज वायरल होने लगे हैं.

12 जनवरी, 1972 को जनमी प्रियंका गांधी 47 साल की हो चुकी हैं. जनता उन में प्रधानमंत्री रह चुकी इंदिरा गांधी की छवि देखती है. इसी वजह से वे हमेशा ही कांग्रेस की स्टार प्रचारक मानी जाती रही हैं. समयसमय पर कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता प्रियंका गांधी के राजनीति में आने को ले कर मांग भी करते रहे हैं. कई चुनावों में अपनी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के चुनाव प्रचार में उन्होंने हिस्सा भी लिया है.

अभी तक प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली सीटों पर ही प्रचार अभियान को संभालती रही हैं या फिर परदे के पीछे रह कर काम करती रही हैं, पर साल 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया है. पहली बार प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली से बाहर निकल कर चुनाव प्रचार करेंगी.

शानदार रुतबा

लोकसभा में सब से ज्यादा सीटें होने के चलते उत्तर प्रदेश बहुत अहम हो जाता है. उम्मीद की जा रही है कि प्रियंका गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की संसदीय सीट रायबरेली से चुनाव लड़ेंगी. प्रियंका का लंबा छरहरा कद, छोटे बाल और साड़ी पहनने का लुक उन्हें दादी इंदिरा गांधी के काफी करीब लाता है.

प्रियंका गांधी के अंदर संगठन की क्षमता, राजनीतिक चतुराई और बोलने की कला सब से अलग है. लोगों से बात करते समय खिलखिला कर हंसना और अपनी बात बच्चों की तरह जिद कर के मनवाने की कला प्रियंका गांधी को दूसरों से अलग करती है.

वैसे, प्रियंका गांधी जरूरत पड़ने पर अपने तेवर तल्ख करना भी जानती हैं. इस से कार्यकर्ता अनुशासन में रहते हैं. वे देश के सब से बड़े सियासी परिवार की होने के बाद भी सियासी बातें कम करती हैं. विरोधी दल के नेता उन के बारे में कुछ भी कहें, पर वे कभी इन नेताओं पर कमैंट नहीं करती हैं. कभी मीडिया कमैंट करने के लिए कहती भी है तो वे मुसकरा कर बात को टाल जाती हैं.

जोश में है कांग्रेस

प्रियंका गांधी को ले कर कई तरह के नारे कार्यकर्ताओं के बीच बहुत मशहूर हैं. इन में ‘अमेठी का डंका बेटी प्रियंका’ और ‘प्रियंका नहीं यह आंधी है नए युग की इंदिरा गांधी है’ सब से खास हैं.

साल 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रियंका गांधी जब साल 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए आई थीं तो सब से पहले इतने दिन बाद आने के लिए माफी मांगी थी. वे औरतों और बच्चों से बेहद करीब से बात करती हैं. उम्रदराज औरतें जब उन के पैर छूने के लिए आगे बढ़ती हैं तो उन्हें वे रोक लेती हैं. उन के हाथ अपने सिर पर रख लेती हैं.

प्रियंका गांधी के इस प्यार भरे बरताव से गांव की औरतें निहाल हो जाती हैं. कईकई दिन तक वे प्रियंका गांधी की बातें करती नहीं अघाती हैं.

खूब चला जादू

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी ने अमेठी व रायबरेली इलाके में चुनाव प्रचार किया था. उत्तर प्रदेश के इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने पूरे प्रदेश की 402 विधानसभा सीटों में से 22 सीटें जीती थीं.

अमेठी रायबरेली क्षेत्र में कुल

10 विधानसभा की सीटें थीं. इन में से 7 सीटें कांग्रेस ने जीत ली थीं. इन में बछरांवा से राजाराम, संताव से शिव गणेश लोधी, सरेनी से अशोक सिंह, डलमऊ से अजय पाल सिंह, सलोन से शिवबालक पासी, अमेठी से रानी अमिता सिंह और जगदीशपुर से रामसेवक कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए थे. 10 में से 7 सीटें जीतना कांग्रेस के लिए चमत्कार जैसा था. कांग्रेस के लिए यह चमत्कार प्रियंका गांधी वाड्रा ने किया था.

प्रियंका गांधी ने इस के पहले साल 2004 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली संसदीय सीट पर चुनाव लड़ रही अपनी मां सोनिया गांधी के चुनाव संचालन को संभाला था, वहीं 2009 के लोकसभा चुनाव में भी प्रियंका गांधी ने रायबरेली और अमेठी तक अपने को समेट कर रखा था.

प्रियंका गांधी के इस सहयोग से राहुल और सोनिया को पूरे प्रदेश में पार्टी के प्रचार का मौका मिला. इस से कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में 22 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

प्रियंका गांधी को कांग्रेस का प्रचार प्रचारक माना जाता है. इसी वजह से उन को राजनीति में सीधेतौर पर उतरने की मांग कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के द्वारा होती रहती है. चुनावी राजनीति से दूर रहते हुए प्रियंका गांधी कांग्रेस का प्रचार करती रही हैं.

कामयाबी की धुरी

प्रियंका गांधी की शादी रौबर्ट वाड्रा से हुई है. उन के एक बेटा रेयान और बेटी मिरिया हैं.

प्रियंका जब चुनाव प्रचार में जाती हैं तो आमतौर पर बच्चे उन के साथ होते हैं. वे पौलिटिक्स के साथ अपने परिवार का पूरा ध्यान रखती हैं. वे अपनी मां और भाई के सहयोगी की भूमिका में अपने को रखती रही हैं.

कई बार प्रियंका गांधी बिना कहे ही सारी बात कह जाती हैं. उन का यही अंदाज राहुल गांधी से जुदा लगता है.

राहुल गांधी अपनी बात कहने के लिए भाषण का सहारा लेते हैं. प्रियंका गांधी जब नाराज होती हैं या किसी बात से सहमत नहीं होती हैं तो उन के हावभाव से पता चल जाता है. गुस्से में प्रियंका का चेहरा तमतमा कर लाल हो जाता है.

जानकार लोग कहते हैं कि ऐसे मौके कम ही आते हैं. कार्यकर्ताओं का गुस्सा कम करने के लिए प्रियंका गांधी अपनी मुसकान का सहारा लेती हैं. वे अपने ऊपर भी गुस्सा हो जाती हैं. उन की यह अदा देख कर कार्यकर्ता सबकुछ भूल कर वापस प्रियंका गांधी की बात सुनने लगते हैं.

प्रियंका गांधी की यही सफलता विरोधी दलों के लिए सोचने का विषय बन जाता है. सभी दलों को लगता है कि अगर प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार की कमान संभाल ली तो उन के सामने मुश्किल खड़ी हो जाएगी.

भाजपा के राज में सामाजिक विकास नहीं ब्राह्मणवाद का ढोंग बढ़ा?

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 15-15 साल, गुजरात में 20 साल और राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड जैसे राज्यों में राज कर चुकी भारतीय जनता पार्टी के समय में भले कुछ और न हुआ हो, वह दलित, पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण कराने में जरूर कामयाब हुई है. निचली और पिछड़ी जातियों में हिंदुत्व का उभार हुआ है.

मिडिल क्लास में हिंदू धार्मिकता बढ़ रही है. इस के देशभर में प्रचारप्रसार में भाजपा के राज वाले राज्यों का बड़ा योगदान रहा है. निचली, पिछड़ी जातियों के हिंदूकरण की वजह से ऊंची जातियों में भाजपा के प्रति नाराजगी जाहिर होने लगी थी.

गुजरात दंगों ने गुजराती समाज का हिंदूकरण करा दिया था. भाजपा ने हिंदुत्व विचारधारा को घरघर पहुंचाया. दलित, पिछड़ों को मूर्तियां दी जा रही हैं.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह चौहान ने अपने 15 साल के राज में सब से ज्यादा धार्मिक यात्राएं कराईं. वे खुद पिछड़े तबके से होते हुए भी हवनयज्ञ, तीर्थयात्राएं, मंदिर परिक्रमा करते रहे और गौ व ब्राह्मण महिमा का गुणगान करते रहे.

शिवराज सिंह चौहान ने दलितों को कुंभ स्नान कराने के पीछे इस तबके का शुद्धीकरण कर उसे ब्राह्मण बनाया था. हिंदू रीतिरिवाजों से जोड़ कर हिंदू धर्म में संस्कारित कराया था ताकि दलित तबका ब्राह्मणों की सेवा कर सके और दानदक्षिणा दे.

मुख्यमंत्री द्वारा सांसारिक सुखों का त्याग का दावा करने करने वाले 5 साधुओं तक को मंत्री बना दिया गया.

दलित, पिछड़े नेताओं की मूर्तियां लगाई गईं और इन तबके के लोगों को मूर्ति पूजा की ओर धकेलने की कोशिशें की गईं. चुनावों में हनुमान को दलित, वंचित जाति का बता कर इस तबके को हनुमान की पूजा करने और मंदिर बनाने का संदेश दिया गया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आएदिन हिंदू धर्म की बात करते रहते हैं. राजस्थान में वसुंधरा राजे मंदिरों की परिक्रमा करती रहीं. दलितों और पिछड़ों का शुद्धीकरण कर उन्हें ब्राह्मण बनाने की कोशिश होती रही.

यह अलग बात है कि दलितों और मुसलिमों पर हमले जारी रहे. दलित और पिछड़े तबके वाले हिंदू धर्म के संस्कारों को अपनाने में हिचकिचाते थे या डरते थे, उन्हें भाजपा सरकार ने हौसला दिया.

भाजपा के पार्टी दफ्तरों में दलित, पिछड़े तबके के नेता, कार्यकर्ता माथे पर तिलक, भगवा जैकेट, कुरतापाजामा पहने नजर आने लगे. मौब लिंचिंग की घटनाओं में पिछड़े और दलित जातियों के नौजवान ज्यादा भागीदार पाए गए. पिछड़ी जातियों के नौजवान गौ रक्षक बना दिए गए.

उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक नामक शख्स के घर में घुस कर भीड़ ने लाठी और ईंटों से हमला किया गया और फिर उस की हत्या कर दी गई.

अखलाक का बेटा दानिश उन्हें बचाने आया तो उसे घायल कर दिया गया. आरोपी पिछड़ी जातियों के निकले. इन जातियों के कुछ नौजवानों ने अखलाक पर गौ मांस खाने और घर में रखने का आरोप लगाया और गांव के मंदिर में लाउडस्पीकर से ऐलान कर के भीड़ को इकट्ठा किया गया.

सहारनपुर में दलित बस्ती में तोड़फोड़ की गई और आगजनी का मामला भी दलितों पर हमले की बड़ी घटना थी. यहां महाराणा प्रताप जयंती पर जुलूस निकाला गया और उन्हें हिंदू धर्म का रक्षक बताया गया. यह जुलूस दलित बस्ती से निकला तो दोनों समुदायों का झगड़ा हो गया. बाद में दलितों के घर जला दिए गए और उन के घरों में तोड़फोड़ की गई.

इसी तरह राजस्थान के अलवर में गौ गुंडों द्वारा 55 साल के पहलू खान की हत्या कर दी गई. पहलू खान गायों को ले कर अपने घर जा रहा था.

इन्हीं दिनों शंभूलाल रैगर ने अफराजुल नामक युवक की लव जिहाद के नाम पर हत्या कर दी थी. शंभूलाल रैगर ने अफराजुल को न केवल मौत के घाट उतारा, बल्कि इस दिल दहला देने वाले अपराध का वीडियो बना कर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया.

सरकारों का ऐसी घटनाओं को समर्थन मिलता रहा और आरोपियों का बचाव किया गया. सहारनपुर घटना में दलित युवा नेता चंद्रशेखर को देशद्रोह का मामला बना कर जेल भेज दिया गया.

टैलीविजन चैनलों पर शनि की दशा पर प्रवचन देने और उपाय बताने वाले मदन दाती को महामंडलेश्वर बना दिया गया.

मदन दाती राजस्थान के पाली के मेघवाल जाति के दलित समुदाय से हैं. यह बात अलग है कि अब वे अपने आश्रम में रह रही एक युवती के साथ बलात्कार मामले में फंसे हुए हैं और अपने सहयोगियों के साथ पैसों के लेनदेन मामले में विवादों में भी हैं.

मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जो विधायक चुन कर आ रहे हैं, वे अब पिछड़े, दलित नहीं, ब्राह्मण बन चुके हैं. ज्यादातर की 2-3 पीढि़यां सामाजिक और माली तौर पर बदल गई हैं.

लेकिन अभी भी इन तबकों का माली, सामाजिक विकास नहीं हो पाया. भाजपा ने इसे सामाजिक समरसता का नाम जरूर दिया, पर दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारे जाने की सब से ज्यादा वारदातें भाजपा के राज वाले राज्यों में ही हुईं.

भाजपा के राज वाले राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मामलों में पिछड़े हुए हैं. इन राज्यों में  निचली व पिछड़ी जातियों के लड़केलड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर सब से ज्यादा है.  इन तबकों के हाथों में ‘गीता’, ‘रामायण’ तो थमाईर् जा रही है, पर पढ़ाईलिखाई, रोजगार का इंतजाम कर के असली सामाजिक, माली विकास से अभी भी कोसों दूर हैं.

उज्ज्वला फेल, लकड़ी व उपले पास

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीसियों और घोषणाओं की तरह उज्ज्वला योजना के जरीए गांव में चूल्हे के कायाकल्प करने का दावा किया गया. 1 मई, 2016 से शुरू की गई इस योजना में गरीब परिवारों को एलपीजी गैस के मुफ्त कनैक्शन दिए गए.

सरकार दावा कर रही थी कि इस योजना के बाद गांवदेहात के घरों में लकड़ी के चूल्हों से छुटकारा मिल जाएगा, पर उज्ज्वला योजना में गैस के कनैक्शन जहां दिए गए वहां चूल्हे महज दिखाने के लिए ही हैं. ज्यादातर चूल्हों में जंग लग चुका है या फिर वे किसी ज्यादा पैसे वाले नातेरिश्तेदार के घर पहुंच चुके हैं.

गरीबी है अहम वजह

गांवों में ही नहीं, बल्कि शहरों की झुग्गियों में आज भी बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो गरीबी में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं. उन को यह पता है कि धुएं से आंखें खराब होती हैं और सांस यानी दमे की बीमारी का खतरा होता है.

वाराणसी के रहने वाले इंदू शेखर सिंह कहते हैं, ‘‘गांव के रहने वाले ज्यादातर लोगों की हालत ऐसी नहीं है कि वे 500 से 1,000 रुपए का गैस सिलैंडर खरीद सकें. गांव में उन्हें लकड़ी या उपले मुफ्त में मिल जाते हैं. ऐसे में उन्हें लकड़ी और उपले ही सुलभ ईंधन लगते हैं. जिन लोगों के पास पैसा है भी, तो वे यह सोचते हैं कि अगर पैसा बचा लिया जाए तो क्या नुकसान है? यही पैसा किसी और काम में लग जाएगा. गैस के इस्तेमाल को गांव के लोग अभी भी जरूरत की नहीं, बल्कि विलासिता की चीज मानते हैं.’’

सस्ती और सुलभ हो

लखनऊ की नेहा सिंह अपना स्कूल चलाती हैं जिस में तमाम गांव के लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते हैं.

वे कहती हैं, ‘‘गांव के लोगों के पास पैसा पहले की तुलना में बढ़ा जरूर है, पर उसी अनुमात में महंगाई भी बढ़ गई है. घरेलू गैस के लिए खर्च करना उन को फुजूल का काम लगता है. जरूरत इस बात की है कि घरेलू गैस को सस्ता किया जाए और वह हर जगह मिल जाए. अभी तो लोगों को दूर जा कर सिलैंडर लेना होता है.’’

उज्ज्वला योजना के सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि सिलैंडर को दोबारा सही से भरने का काम नहीं हो रहा है. गैस कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि 60 फीसदी गैस सिलैंडर दोबारा ढंग से नहीं भर पाते हैं.

आमदनी के साधन बढ़ें

दलितों व गरीबों के गांवों में अभी भी 60 से 80 फीसदी आबादी लकड़ी और चूल्हे पर ही खाना बना रही है. जिन बड़े परिवारों में घरेलू गैस का इस्तेमाल होने लगा है, वहां भी पूरा खाना घरेलू गैस पर नहीं बनता है.

ऐसे तमाम घरों में चायनाश्ता या घर की लड़कियां और नई बहुएं घरेलू गैस पर भले ही खाना या नाश्ता बना लें, पर बड़े घरों में भी पारंपरिक खाना चूल्हे पर ही बन रहा है. ऐसे में पैसे की कमी के साथसाथ जानकारी की कमी भी इस के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती है. इस की वजह एक ओर पैसों की कमी तो दूसरी ओर मुफ्त की लकड़ी और उपले हैं. अगर गांव के लोगों को भी लकड़ी और उपले खरीदने पड़ें तो वे पारंपरिक चूल्हों को बंद कर घरेलू गैस का इस्तेमाल शुरू कर सकते हैं.

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