भाजपा के राज में सामाजिक विकास नहीं ब्राह्मणवाद का ढोंग बढ़ा?

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 15-15 साल, गुजरात में 20 साल और राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड जैसे राज्यों में राज कर चुकी भारतीय जनता पार्टी के समय में भले कुछ और न हुआ हो, वह दलित, पिछड़ी जातियों का हिंदूकरण कराने में जरूर कामयाब हुई है. निचली और पिछड़ी जातियों में हिंदुत्व का उभार हुआ है.

मिडिल क्लास में हिंदू धार्मिकता बढ़ रही है. इस के देशभर में प्रचारप्रसार में भाजपा के राज वाले राज्यों का बड़ा योगदान रहा है. निचली, पिछड़ी जातियों के हिंदूकरण की वजह से ऊंची जातियों में भाजपा के प्रति नाराजगी जाहिर होने लगी थी.

गुजरात दंगों ने गुजराती समाज का हिंदूकरण करा दिया था. भाजपा ने हिंदुत्व विचारधारा को घरघर पहुंचाया. दलित, पिछड़ों को मूर्तियां दी जा रही हैं.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह चौहान ने अपने 15 साल के राज में सब से ज्यादा धार्मिक यात्राएं कराईं. वे खुद पिछड़े तबके से होते हुए भी हवनयज्ञ, तीर्थयात्राएं, मंदिर परिक्रमा करते रहे और गौ व ब्राह्मण महिमा का गुणगान करते रहे.

शिवराज सिंह चौहान ने दलितों को कुंभ स्नान कराने के पीछे इस तबके का शुद्धीकरण कर उसे ब्राह्मण बनाया था. हिंदू रीतिरिवाजों से जोड़ कर हिंदू धर्म में संस्कारित कराया था ताकि दलित तबका ब्राह्मणों की सेवा कर सके और दानदक्षिणा दे.

मुख्यमंत्री द्वारा सांसारिक सुखों का त्याग का दावा करने करने वाले 5 साधुओं तक को मंत्री बना दिया गया.

दलित, पिछड़े नेताओं की मूर्तियां लगाई गईं और इन तबके के लोगों को मूर्ति पूजा की ओर धकेलने की कोशिशें की गईं. चुनावों में हनुमान को दलित, वंचित जाति का बता कर इस तबके को हनुमान की पूजा करने और मंदिर बनाने का संदेश दिया गया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आएदिन हिंदू धर्म की बात करते रहते हैं. राजस्थान में वसुंधरा राजे मंदिरों की परिक्रमा करती रहीं. दलितों और पिछड़ों का शुद्धीकरण कर उन्हें ब्राह्मण बनाने की कोशिश होती रही.

यह अलग बात है कि दलितों और मुसलिमों पर हमले जारी रहे. दलित और पिछड़े तबके वाले हिंदू धर्म के संस्कारों को अपनाने में हिचकिचाते थे या डरते थे, उन्हें भाजपा सरकार ने हौसला दिया.

भाजपा के पार्टी दफ्तरों में दलित, पिछड़े तबके के नेता, कार्यकर्ता माथे पर तिलक, भगवा जैकेट, कुरतापाजामा पहने नजर आने लगे. मौब लिंचिंग की घटनाओं में पिछड़े और दलित जातियों के नौजवान ज्यादा भागीदार पाए गए. पिछड़ी जातियों के नौजवान गौ रक्षक बना दिए गए.

उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक नामक शख्स के घर में घुस कर भीड़ ने लाठी और ईंटों से हमला किया गया और फिर उस की हत्या कर दी गई.

अखलाक का बेटा दानिश उन्हें बचाने आया तो उसे घायल कर दिया गया. आरोपी पिछड़ी जातियों के निकले. इन जातियों के कुछ नौजवानों ने अखलाक पर गौ मांस खाने और घर में रखने का आरोप लगाया और गांव के मंदिर में लाउडस्पीकर से ऐलान कर के भीड़ को इकट्ठा किया गया.

सहारनपुर में दलित बस्ती में तोड़फोड़ की गई और आगजनी का मामला भी दलितों पर हमले की बड़ी घटना थी. यहां महाराणा प्रताप जयंती पर जुलूस निकाला गया और उन्हें हिंदू धर्म का रक्षक बताया गया. यह जुलूस दलित बस्ती से निकला तो दोनों समुदायों का झगड़ा हो गया. बाद में दलितों के घर जला दिए गए और उन के घरों में तोड़फोड़ की गई.

इसी तरह राजस्थान के अलवर में गौ गुंडों द्वारा 55 साल के पहलू खान की हत्या कर दी गई. पहलू खान गायों को ले कर अपने घर जा रहा था.

इन्हीं दिनों शंभूलाल रैगर ने अफराजुल नामक युवक की लव जिहाद के नाम पर हत्या कर दी थी. शंभूलाल रैगर ने अफराजुल को न केवल मौत के घाट उतारा, बल्कि इस दिल दहला देने वाले अपराध का वीडियो बना कर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया.

सरकारों का ऐसी घटनाओं को समर्थन मिलता रहा और आरोपियों का बचाव किया गया. सहारनपुर घटना में दलित युवा नेता चंद्रशेखर को देशद्रोह का मामला बना कर जेल भेज दिया गया.

टैलीविजन चैनलों पर शनि की दशा पर प्रवचन देने और उपाय बताने वाले मदन दाती को महामंडलेश्वर बना दिया गया.

मदन दाती राजस्थान के पाली के मेघवाल जाति के दलित समुदाय से हैं. यह बात अलग है कि अब वे अपने आश्रम में रह रही एक युवती के साथ बलात्कार मामले में फंसे हुए हैं और अपने सहयोगियों के साथ पैसों के लेनदेन मामले में विवादों में भी हैं.

मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जो विधायक चुन कर आ रहे हैं, वे अब पिछड़े, दलित नहीं, ब्राह्मण बन चुके हैं. ज्यादातर की 2-3 पीढि़यां सामाजिक और माली तौर पर बदल गई हैं.

लेकिन अभी भी इन तबकों का माली, सामाजिक विकास नहीं हो पाया. भाजपा ने इसे सामाजिक समरसता का नाम जरूर दिया, पर दलित दूल्हों को घोड़ी से उतारे जाने की सब से ज्यादा वारदातें भाजपा के राज वाले राज्यों में ही हुईं.

भाजपा के राज वाले राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मामलों में पिछड़े हुए हैं. इन राज्यों में  निचली व पिछड़ी जातियों के लड़केलड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर सब से ज्यादा है.  इन तबकों के हाथों में ‘गीता’, ‘रामायण’ तो थमाईर् जा रही है, पर पढ़ाईलिखाई, रोजगार का इंतजाम कर के असली सामाजिक, माली विकास से अभी भी कोसों दूर हैं.

उज्ज्वला फेल, लकड़ी व उपले पास

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीसियों और घोषणाओं की तरह उज्ज्वला योजना के जरीए गांव में चूल्हे के कायाकल्प करने का दावा किया गया. 1 मई, 2016 से शुरू की गई इस योजना में गरीब परिवारों को एलपीजी गैस के मुफ्त कनैक्शन दिए गए.

सरकार दावा कर रही थी कि इस योजना के बाद गांवदेहात के घरों में लकड़ी के चूल्हों से छुटकारा मिल जाएगा, पर उज्ज्वला योजना में गैस के कनैक्शन जहां दिए गए वहां चूल्हे महज दिखाने के लिए ही हैं. ज्यादातर चूल्हों में जंग लग चुका है या फिर वे किसी ज्यादा पैसे वाले नातेरिश्तेदार के घर पहुंच चुके हैं.

गरीबी है अहम वजह

गांवों में ही नहीं, बल्कि शहरों की झुग्गियों में आज भी बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जो गरीबी में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं. उन को यह पता है कि धुएं से आंखें खराब होती हैं और सांस यानी दमे की बीमारी का खतरा होता है.

वाराणसी के रहने वाले इंदू शेखर सिंह कहते हैं, ‘‘गांव के रहने वाले ज्यादातर लोगों की हालत ऐसी नहीं है कि वे 500 से 1,000 रुपए का गैस सिलैंडर खरीद सकें. गांव में उन्हें लकड़ी या उपले मुफ्त में मिल जाते हैं. ऐसे में उन्हें लकड़ी और उपले ही सुलभ ईंधन लगते हैं. जिन लोगों के पास पैसा है भी, तो वे यह सोचते हैं कि अगर पैसा बचा लिया जाए तो क्या नुकसान है? यही पैसा किसी और काम में लग जाएगा. गैस के इस्तेमाल को गांव के लोग अभी भी जरूरत की नहीं, बल्कि विलासिता की चीज मानते हैं.’’

सस्ती और सुलभ हो

लखनऊ की नेहा सिंह अपना स्कूल चलाती हैं जिस में तमाम गांव के लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते हैं.

वे कहती हैं, ‘‘गांव के लोगों के पास पैसा पहले की तुलना में बढ़ा जरूर है, पर उसी अनुमात में महंगाई भी बढ़ गई है. घरेलू गैस के लिए खर्च करना उन को फुजूल का काम लगता है. जरूरत इस बात की है कि घरेलू गैस को सस्ता किया जाए और वह हर जगह मिल जाए. अभी तो लोगों को दूर जा कर सिलैंडर लेना होता है.’’

उज्ज्वला योजना के सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि सिलैंडर को दोबारा सही से भरने का काम नहीं हो रहा है. गैस कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि 60 फीसदी गैस सिलैंडर दोबारा ढंग से नहीं भर पाते हैं.

आमदनी के साधन बढ़ें

दलितों व गरीबों के गांवों में अभी भी 60 से 80 फीसदी आबादी लकड़ी और चूल्हे पर ही खाना बना रही है. जिन बड़े परिवारों में घरेलू गैस का इस्तेमाल होने लगा है, वहां भी पूरा खाना घरेलू गैस पर नहीं बनता है.

ऐसे तमाम घरों में चायनाश्ता या घर की लड़कियां और नई बहुएं घरेलू गैस पर भले ही खाना या नाश्ता बना लें, पर बड़े घरों में भी पारंपरिक खाना चूल्हे पर ही बन रहा है. ऐसे में पैसे की कमी के साथसाथ जानकारी की कमी भी इस के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती है. इस की वजह एक ओर पैसों की कमी तो दूसरी ओर मुफ्त की लकड़ी और उपले हैं. अगर गांव के लोगों को भी लकड़ी और उपले खरीदने पड़ें तो वे पारंपरिक चूल्हों को बंद कर घरेलू गैस का इस्तेमाल शुरू कर सकते हैं.

मोदी और विपक्ष

वर्ष 2018 में कांग्रेस द्वारा बेंगलुरु में गैरभाजपाई दलों को इकट्ठा करना और अब तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी द्वारा कोलकाता में दोगुने जोश में लगभग सभी गैरभाजपाई दलों के नेताओं को जमा कर लेने की सफलता ने भाजपा को हिला दिया है. बेंगलुरु में जब कांग्रेस और जनता दल (सैक्युलर) ने मिल कर सरकार बनाई थी तो लगा था कि 2014 के बाद यह महज दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की जीत जैसी फ्लूक घटना है पर 5 विधानसभा चुनावों के नतीजों, जिन में भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार करने के बावजूद हारी है, ने साफ कर दिया है कि नरेंद्र मोदी की सरकार से मतदाता संतुष्ट नहीं हैं. कोलकाता की रैली में विपक्षियों का मिलन होने से साफ हो गया है कि मोदी की तानाशाही के खिलाफ विपक्षी एकजुट हैं. विपक्षी दलों की मजबूत होती एकता से भाजपा चिंता में है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीमार मंत्री, अस्पतालों से चाहे जो भी कहते रहें और नरेंद्र मोदी चाहे जितना मखौल उड़ाने की शैली में, बचाव करते नजर आएं, उन की परेशानियां बढ़ रही हैं, यह पक्का है.

गलती भाजपा की साफसाफ है. सब से बड़ी बात यह है कि हिंदू धर्म के पाखंड को देश से ऊपर मानने की भाजपा की गलती विपक्षी पार्टियों को फिर से जान दे रही है जिन्हें जनता ने पिछले आम चुनावों में इतिहास के कचरे में डाल सा दिया था. नरेंद्र मोदी की सरकार अपने कार्यकाल के दौरान हिंदू धर्म को चलाने में ज्यादा उत्सुक रही बजाय देश को गरीबी, गंदगी और गहरे गड्ढे से निकालने के.

बहुत लंबे समय बाद 2014 में नरेंद्र मोदी को एक ऐसी सरकार का मुखिया होने का मौका मिला था जिस में उन के पास पूर्ण से ज्यादा बहुमत था. फिर राज्यों के चुनावों ने इस उपलब्धि को और ज्यादा बेहतर कर दिया. लेकिन बजाय देश व समाज के पुनर्निर्माण में लगने के, नरेंद्र मोदी ने पौराणिक हिंदू राजाओं की तरह धार्मिक कर्मकांडों में अपना समय देना शुरू कर दिया.

नोटबंदी और जीएसटी भी धार्मिक काम बन कर रह गए. नोटबंदी पर नरेंद्र मोदी के भाषण की तुलना महाभारत के पात्र युधिष्ठिर से की जा सकती है जिस ने प्रण ले रखा था कि जब भी कोई उन्हें जुए में चुनौती देगा, तो जुआ खेल लेंगे. कालाधन निकालने के लिए उन्होंने जुआ खेला और पूरे देश की संपत्ति को बाहर कर दिया. गनीमत यह रही कि अज्ञात वनवास कुछ महीनों का ही रहा. लेकिन आखिरकार इसी जुए के कारण पांडवों को महाभारत का युद्ध करना पड़ा. महाभारत में भी भाजपा के आराध्य विष्णु के अवतार कृष्ण ने उसी तरह दुष्ट कौरवों के खिलाफ इधरउधर से एक धर्मसेना जमा की थी जैसी बेंगलुरु और कोलकाता में हुई है.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने कट्टर हिंदुओं को फिर से पौराणिक राज स्थापित करने की छूट दे रखी है. ऊंचे ब्राह्मणों और सवर्णों के लिए उन्होंने 10 फीसदी आरक्षण का तोहफा दिया है जबकि गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों की हत्याओं, किसानों की फसलों को बरबाद, और चमड़े के काम को नष्ट करने के आतंक के चलते उन्हें दंड देना था. ब्राह्मणपुत्र की मृत्यु के लिए वेदपाठी शंबूक की हत्या करने दी गई है. दलितों को मारने के लिए किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. दलितों और गरीबों का साथ देने वालों को देशद्रोही, अरबन नक्सलाइट कह कर जेलों में बंद कर रखा है.

निश्चित है कि जनआक्रोश अब पैदा होगा ही क्योंकि आज का समाज और आज की सरकार पौराणिक कहानियों के आधार पर नहीं चल सकती. वर्तमान की चुनौतियां कुछ और हैं. ममता बनर्जी और राहुल गांधी में मतभेद हैं पर, फिलहाल, उन को किसी और से मुकाबला करना है, इसीलिए कोलकाता पुलिस अफसर पर सीबीआई हमले पर सारा विपक्ष एकजुट हो गया है.

सपा-बसपा गठबंधन के सियासी मायने

सपा बसपा के गठबंधन से जमीनी स्तर पर भले ही कोई बड़ा सामाजिक बदलाव न हो पर इसके सियासी मायने फलदायक हो सकते हैं. सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस भले ही शामिल ना हो पर इस गठबंधन से मिलने वाले सियासी लाभ में उसका हिस्सा भी होगा. 2019 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस होगी. ऐसे में सरकार बनाने ही हालत में कांग्रेस ही सबसे आगे होगी. सपा-बसपा ही नहीं दूसरे क्षेत्रिय दल भी भारतीय जनता पार्टी की नीतियों से परेशान हैं. ऐसे में वह केन्द्र से भाजपा को हटाने के लिये कांग्रेस के खेमे में खड़े हो सकते हैं.

भाजपा के लिये परेशानी का कारण यह है कि उसका एक बडा वोटबैंक पार्टी से बिदक चुका है. उत्तर प्रदेश में पार्टी 2 साल के अंदर ही सबसे खराब हालत में पहुंच चुकी है. सत्ता में रहते हुए भाजपा एक भी उपचुनाव नहीं जीती है. उत्तर प्रदेश के अलावा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भाजपा खराब दौर से गुजर रही है. राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार से विपक्षी दलों को ताकत दे दी है. ऐसे में सबसे पार्टी की जीत का सबसे अधिक दारोमदार उत्तर प्रदेश पर ही टिका है.

लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 सीटें काफी महत्वपूर्ण हो जाती हैं. 2014 के चुनाव में 73 सीटें भाजपा और उनके सहयोगी दलों को मिली थी. 7 सीटे सपा और कांग्रेस के खाते में थी. बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा-सपा के एक होने से सियासी परिणाम बदल सकते हैं. 2014 की जीत में मोदी लहर और कांग्रेस का विरोध भाजपा को सत्ता में लाने का सबसे बड़ा कारण था. नरेन्द्र मोदी ने जनता से जो वादे किये उसे वह पूरा नहीं कर पाए. अपनी कमियों को छिपाने के लिये अपने धर्म के एजेंडे को आगे बढ़ाते गये. पार्टी के नेताओं के स्वभाव में एक अक्खडपन आ गया.

राजस्थान, छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार ने बता दिया कि मोदी मैजिक अब पार्टी का जीत दिलाने में सफल नहीं होगा. ऐसे में पार्टी की नीतियों से ही जीत का मार्ग निकलता है. भाजपा जमीनी स्तर पर जातियों के साथ तालमेल कर चलने में तो असफल रही ही, अपने कोर वोटर को भी कोई सुविधा नहीं दे सकी. मध्यमवर्गीय कारोबारी सबसे अधिक परेशान हो रहा है.ऐसे में वह पार्टी से अलग थलग पड़ गया है. इस वजह से ही भाजपा अब सवर्ण आरक्षण के मुद्दे को लेकर आई.

वरिष्ठ पत्राकार शिवसरन सिंह कहते है ‘2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावो में प्रदेश ही जनता ने भाजपा के विकास की नीतियों से प्रभावित होकर भाजपा को वोट देकर बहुमत की सरकार बनाई थी. सरकार बनाने के बाद भाजपा राज में जिस तरह से मंहगाई, बेराजगारी, जीएसटी और नोटबंदी का दबाव आया लोग परेशान हो गये. यह भाजपा के लिये सबसे बड़ा नुकसान का कारण है. जातीय स्तर पर जिस समरसता की उम्मीद भाजपा से प्रदेश की जनता को थी वह पूरी नहीं हुई. ऐसे में जिस तरह से सभी जातियों ने भाजपा का साथ दिया था वह उससे दूर जाने लगी. दलित और पिछड़ी जातियां सपा-बसपा और सवर्ण कांग्रेस का दामन थामने को मजबूर हैं. भाजपा के लिए यह खराब संदेश है.’

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर : अक्षय खन्ना का शानदार अभिनय

रेटिंग : डेढ़ स्टार

हम बार बार इस बात को दोहराते आए हैं कि सरकारें बदलने के साथ ही भारतीय सिनेमा भी बदलता रहता है. (दो दिन पहले की फिल्म ‘उरी : सर्जिकल स्ट्राइक’ की समीक्षा पढ़ लें.) और इन दिनों पूरा बौलीवुड मोदीमय नजर आ रहा है. एक दिन पहले ही एक तस्वीर सामने आयी है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, फिल्मकार करण जोहर के पूरे कैंप के साथ बैठे नजर आ रहे हैं. फिल्मकार भी इंसान हैं, मगर उसका दायित्व अपने कर्तव्य का सही ढंग से निर्वाह करना होता है. इस कसौटी पर फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ के निर्देशक विजय रत्नाकर गुटे खरे नहीं उतरते. उन्होंने इस फिल्म को एक बालक की तरह बनाया है. इस फिल्म से उनकी अयोग्यता ही उभरकर आती है. ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ एक घटिया प्रचार फिल्म के अलावा कुछ नहीं है. इस फिल्म के लेखक व निर्देशक अपने कर्तव्य के निर्वाह में पूर्णरूपेण विफल रहे हैं.

2004 से 2014 तक देश के प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह के करीबी व कुछ वर्षों तक उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब ‘‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ पर आधारित फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ में भी तमाम कमियां हैं. फिल्म में डा. मनमोहन सिंह का किरदार निभाने वाले अभिनेता अनुपम खेर फिल्म के प्रदर्शन से पहले दावा कर रहे थे कि यह फिल्म पीएमओ के अंदर की कार्यशैली से लोगों को परिचित कराएगी. पर अफसोस ऐसा कुछ नहीं है. पूरी फिल्म देखकर इस बात का अहसास होता है कि पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह अपने पहले कार्यकाल में संजय बारू और दूसरे कार्यकाल में सोनिया गांधी के के हाथ की कठपुतली बने हुए थे. पूरी फिल्म में उन्हे बिना रीढ़ की हड्डी वाला इंसान ही चित्रित किया गया है.

‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को शुरुआत में ‘सिंह इज किंग’ कहा गया. पर धीरे धीरे उन्हे अति कमजोर, बिना रीढ़ की हड्डी वाला इंसान, एक परिवार को बचाने में जुटे महाभारत के भीष्म पितामह तक बना दिया गया, जिसने गांधी परिवार की भलाई के लिए देश के सवालों के जवाब देने की बजाय चुप्पी साधे रखी. फिल्म में डा. मनमोहन सिंह की इमेज को धूमिल करने वाली बातें ही ज्यादा हैं.

फिल्म की कहानी पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार व करीबी रहे संजय बारू (अक्षय खन्ना) के नजरिए से है. कहानी 2004 के लोकसभा चुनावों में यूपीए की जीत के साथ शुरू होती है. कुछ दलों द्वारा उनके इटली की होने का मुद्दा उठाए जाने के कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (सुजेन बर्नेट) स्वयं प्रधानमंत्री/पीएम बनने का लोभ त्यागकर डा. मनमोहन सिंह (अनुपम खेर) को पीएम पद के लिए चुनती हैं. उसके बाद कहानी में प्रियंका गांधी (अहाना कुमार), राहुल गांधी (अर्जुन माथुर), अजय सिंह (अब्दुल कादिर अमीन), अहमद पटेल (विपिन शर्मा), लालू प्रसाद यादव (विमल वर्मा), लाल कृष्ण अडवाणी (अवतार सैनी), शिवराज पाटिल (अनिल रस्तोगी), पी वी नरसिम्हा राव (अजित सतभाई), पी वी नरसिम्हा राव के बड़े बेटे पी वी रंगा राव (चित्रगुप्त सिन्हा), नटवर सिंह सहित कई किरदार आते हैं.

संजय बारू, जो पीएम के मीडिया सलाहकार हैं, लगातार पीएम की इमेज को मजबूत बनाते जाते हैं. वैसे भी संजय बारू ने मीडिया सलाहकार का पद स्वीकार करते समय ही शर्त रख दी थी कि वह हाई कमान सोनिया गांधी को नहीं, बल्कि सिर्फ पीएम को ही रिपोर्ट करेंगें. इसी के चलते पीएमओ में संजय बारू की ही चलती है, इससे अहमद पटेल सहित कुछ लोग उनके खिलाफ हैं. यानी कि उनके विरोधियों की कमी नहीं है. पर संजय बारू पीएम में काफी बदलाव लाते हैं. वह उनके भाषण लिखते हैं.

उसके बाद पीएम का मीडिया के सामने आत्म विश्वास से लबरेज होकर आना, अमेरिकी राष्ट्रति बुश के साथ न्यूक्लियर डील पर बातचीत, इस सौदे पर लेफ्ट का सरकार से अलग होना, समाजवादी पार्टी का समर्थन देना, पीएम को कटघरे में खड़े किए जाना, पीएम के फैसलों पर हाई कमान का लगातार प्रभाव, पीएम और हाई कमान का टकराव, विरोधियों का सामना जैसे कई दृश्यों के बाद कहानी उस मोड़ तक पहुंचती है, जहां न्यूक्लियर मुद्दे पर पीएम डा. मनमोहन सिंह स्वयं इस्तीफा देने पर आमादा हो जाते हैं. पर राजनीतिक परिस्थितियों के चलते सोनिया उनको इस्तीफा देने से रोक लेती हैं. उसके बाद हालात ऐसे बदलते हैं कि संजय बारू अपना त्यागपत्र देकर सिंगापुर चले जाते हैं, मगर डा. मनमोहन सिंह से उनके संपर्क में बने रहते हैं.

उसके बाद की कहानी बड़ी तेजी से घटित होती है, जिसमें डा. मन मोहन सिंह पूरी तरह से हाई कमान सोनिया व गांधी परिवार के सामने समर्पण भाव में ही नजर आते हैं. अहमद पटेल भी उन पर हावी रहते हैं. फिर आगे की कहानी में उनकी जीत के अन्य पांच साल दिखाए गए हैं, जो एक तरह से यूपीए सरकार के पतन की कहानी के साथ कोयला, 2 जी जैसे घोटाले दिखाए गए हैं. फिल्म में इस बात का चित्रण है कि प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह स्वयं इमानदार रहे, मगर उन्होंने हर तरह के घोटालों को परिवार विशेष के लिए अनदेखा किया. फिल्म उन्हे परिवार को बचाने वाले भीष्म की संज्ञा देती है. पर फिल्म की समाप्ति में 2014 के चुनाव के वक्त की राहुल गांधी व वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाएं दिखायी गयी हैं.

फिल्म के लेखक व निर्देशक दोनों ने बहुत घटिया काम किया है. फिल्म सिनेमाई कला व शिल्प का घोर अभाव है. पटकथा अति कमजोर है. इसे फीचर फिल्म की बजाय ‘डाक्यू ड्रामा’ कहा जाना चाहिए. क्योंकि फिल्म में बीच बीच में कई दृश्य टीवी चैनलों के फुटेज हैं. एडीटिंग के स्तर भी तमाम कमियां है. फिल्म में पूरा जोर गांधी परिवार की सत्ता की लालसा, सोनिया गांधी की अपने बेटे राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की बेसब्री, डा मनमोहन सिंह के कमजोर व्यक्तित्व व संजय बारू के ही इर्द गिर्द है.

डा. मनमोहन सिंह को लेकर अब तक मीडिया में जिस तरह की खबरें आती रही हैं, वही सब कुछ फिल्म का हिस्सा है, जबकि संजय बारू उनके करीबी रहे हैं, तो उम्मीद थी कि डा मनमोहन सिंह की जिंदगी के बारे में कुछ रोचक बातें सामने आएंगी, पर अफसोस ऐसा कुछ नहीं है. फिल्म में इस बात को भी ठीक से नहीं चित्रित किया गया कि अहमद पटेल किस तरह से खुरपैच किया करते थे. कोयला घोटाला, 2 जी घोटाला आदि को बहुत सतही स्तर पर ही उठाया गया है. फिल्म में सभी घोटालों पर कपिल सिब्बल की सफाई देने वाली प्रेस कांफ्रेंस भी मजाक के अलावा कुछ नजर नहीं आती.

कमजोर पटकथा व कमजोर चरित्र चित्रण के चलते एक भी चरित्र उभर नहीं पाया. कई चरित्र तो महज कैरीकेचर बनकर रह गए हैं. फिल्म के अंत में बेवजह ठूंसे गए राहुल गांधी व नरेंद्र मोदी की चुनाव प्रचार की सभाओं के टीवी फुटेज की मौजूदगी लेखकों, निर्देशक व फिल्म निर्माताओं की नीयत पर सवाल उठाते हैं. पूरी फिल्म एक ही कमरे में फिल्मायी गयी नजर आती है.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो संजय बारू के किरदार में अक्षय खन्ना ने काफी शानदार अभिनय किया है. मगर पटकथा व चरित्र चित्रण की कमजोरी के चलते अनुपम खेर अपने अभिनय में खरे नहीं उतरते, बल्कि कई जगह उनका डा. मनमोहन सिंह का किरदार महज कैरीकेचर बनकर रह गया है. किसी भी किरदार में कोई भी कलाकार खरा नहीं उतरता. फिल्म का पार्श्वसंगीत भी सही नहीं है.

एक घंटे 50 मिनट की अवधि की फिल्म ‘‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’’ का निर्माण सुनील बोहरा व धवल गाड़ा ने किया है. संजय बारू के उपन्यास पर आधारित फिल्म के निर्देशक विजय रत्नाकर गुटे, लेखक विजय रत्नाकर गुटे, मयंक तिवारी, कर्ल दुने व आदित्य सिन्हा, संगीतकार सुदीप रौय व साधु तिवारी, कैमरामैन सचिन कृष्णन तथा कलाकार हैं – अनुपम खेर, अक्षय खन्ना, सुजेन बर्नेट, अहाना कुमार, अर्जुन माथुर, अब्दुल कादिर अमीन, अवतार सैनी, विमल वर्मा, अनिल रस्तोगी, दिव्या सेठ, विपिन शर्मा, अजीत सतभाई, चित्रगुप्त सिन्हा व अन्य.

2019 के फाइनल में कांग्रेस

सत्ता का सैमीफाइनल माने जाने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में सब से बड़े 230 सीटों वाले राज्य मध्य प्रदेश में 15 सालों से राज कर रही भारतीय जनता पार्टी के हाथ से सत्ता की डोर तो उसी वक्त फिसलती दिखने लगी थी जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘नमामि देवी नर्मदे’ नाम से नर्मदा यात्रा शुरू की थी. यह यात्रा दिसंबर, 2016 में शुरू हो कर मई, 2017 में खत्म हुई थी.

लंबी और धर्मकर्म वाली इस नर्मदा यात्रा का भाजपा ने ऐसे होहल्ला मचाया था मानो विधानसभा चुनाव में उसे जनता नहीं, बल्कि नर्मदा नदी जिताएगी.

इस यात्रा पर सरकार के कितने करोड़ या अरब रुपए स्वाहा हुए थे, इस का साफसाफ ब्योरा आज तक भाजपा पेश नहीं कर सकी है.

शिवराज सिंह चौहान इस यात्रा की आड़ में जब मंदिरों और घाटों पर पूजापाठ करते और पंडों को दानदक्षिणा देते नजर आए थे, तो लोग मायूस हो उठे थे कि ये कैसी उपलब्धियां हैं जिन में हजारों की तादाद में छोटेबड़े नामी और बेनामी संत दानदक्षिणा से अपनी जेबें भर रहे हैं.

बाद में शिवराज सिंह चौहान ने 4 बाबाओं को मंत्री का दर्जा भी दे दिया था. इस से लोगों में यह संदेशा गया था कि अब साधुसंत सरकार चलाएंगे और दोबारा वर्ण व्यवस्था व ब्राह्मण राज कायम हो जाएगा. दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में ही 15 सालों से सत्ता वापसी की कोशिश कर रही कांग्रेस आधी लड़ाई उस वक्त जीत गई थी जब कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह को हाशिए पर धकेलते हुए छिंदवाड़ा से सांसद और धाकड़ कांग्रेसी नेता कमलनाथ को प्रदेश का अध्यक्ष बनाया था और गुना के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनावी मुहिम की कमान सौंपी थी.

इन दोनों नेताओं को आगे लाने का राहुल गांधी का एक मकसद साल 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी अपनी पकड़ बनाने का था. कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाना एक समझदारी भरा फैसला था, जिस का फायदा भी कांग्रेस को मिला.

यों बिगड़ा भाजपा का खेल

अकेले मध्य प्रदेश में ही नहीं, बल्कि राजस्थान में भी राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री रह चुके अशोक गहलोत के साथ युवा सचिन पायलट को भी चुनावी मुहिम में लगा दिया, तो कांग्रेस वहां भी दौड़ में आ गई.

छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रह चुके अजीत जोगी को कांग्रेस पहले ही बाहर का रास्ता दिखा चुकी थी जिन की बिगड़ी इमेज नतीजों के आईने में भी दिखी. वहां कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल के साथ 2 धाकड़ नेताओं टीएस सिंह देव और चरणदास महंत को भी कांग्रेस ने चुनाव में उतारा.

इन तीनों राज्यों में कांगे्रस शुरू में कहीं गिनती में नहीं थी. एक साल पहले तक यह कहा जा रहा था कि भाजपा इन तीनों राज्यों में फिर से भगवा फहराने में कामयाब हो जाएगी लेकिन महज एक साल में ऐसा कौन सा चमत्कार हो गया कि मध्य प्रदेश में वह 114, राजस्थान में 99 और छत्तीसगढ़ में रिकौर्ड 65 सीटें ले गई? इस का भाजपा के धर्मकर्म और तीनों मुख्यमंत्रियों के कामकाज से गहरा ताल्लुक है.

धर्मकर्म के मामले में न तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पीछे रहे और न ही महारानी के खिताब से नवाजी जाने वाली राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, जो मतगणना वाले दिन सुबह से ही बांसवाड़ा के त्रिपुरा सुंदरी मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने जा कर बैठ गई थीं लेकिन भगवान ने उन की एक न सुनी और राजस्थान में भाजपा को महज 73 सीटों पर लटका कर रख दिया.

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तो उस वक्त हद ही कर दी थी, जब भगवा कपड़ों वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चुनाव प्रचार करने के लिए छत्तीसगढ़ पहुंचे थे. तब रायपुर में उन्होंने योगी आदित्यनाथ के पैरों में लोट लगाई थी.

वहां की एक सभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बेतुकी बात यह कही थी कि चूंकि छत्तीसगढ़ रामलला का ननिहाल है, इसलिए यहां भी उन का मंदिर बनना चाहिए.

इस बात से वहां के लोग घबरा उठे थे कि अब हिंदूवादी संगठन जबरन आदिवासियों को पूजापाठ में धकेलने की अपनी कोशिशें तेज करेंगे.

न केवल तीनों मुख्यमंत्रियों, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का भी ब्लडप्रैशर उस वक्त बढ़ना शुरू हो गया था जब इन राज्यों में राहुल गांधी की रैलियों में भीड़ उमड़ने लगी थी और लोग संजीदगी से उन की बातें सुनने लगे थे.

राहुल गांधी ने चालाकी दिखाते हुए भाजपा के हथियार का उन्हीं पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तो भगवा खेमा और ज्यादा तिलमिला उठा. उज्जैन के महाकाल मंदिर में पूजा और शिव अभिषेक कर उन्होंने चुनाव प्रचार शुरू किया तो भाजपाइयों ने बारबार वही गलती दोहराई जो राहुल गांधी उन से चाहते थे. हालांकि इस के पहले भी उन के धर्म प्रेम को ले कर काफी हल्ला मच चुका था लेकिन चुनाव के वक्त यह बढ़ा तो भाजपा को लेने के देने पड़ने लग गए.

राहुल गांधी खुद को शिवभक्त और जनेऊधारी ब्राह्मण तो बताते रहे, पर उन्होंने मंदिरों की तारीफ नहीं की. दूसरी तरफ जनसभाओं में उन्होंने पुरजोर तरीके से आम लोगों के हितों से जुड़े मुद्दों पर जोर दिया. तीनों ही राज्यों

में उन्होंने बेरोजगारों, रसोई गैस, पैट्रोलडीजल की बढ़ती कीमतों और किसानों की बदहाली पर खासा फोकस किया, किसी देवीदेवता पर नहीं.

मजा तो तब आया जब भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने भोपाल में राहुल गांधी से उन का गोत्र पूछ डाला. भाजपाइयों से और उम्मीद भी नहीं की जा सकती. सदियों से जातियों का नाम ले कर ही वे अपना काम चलाते रहे हैं.

जवाब में राहुल गांधी ने राजस्थान के मशहूर पुष्कर मंदिर में जा कर पंडित से पूछ कर अपना गोत्र दत्तात्रेय और खुद को कौल ब्राह्मण साबित कर डाला.

इस मंदिर के नीचे झूठ का सदा प्रचार होता है. यहां बड़ेबड़े बोर्ड लगे हैं कि जूते मुफ्त रखें, पर बदले में 500 रुपए की चढ़ावे की डाली खरीदनी जरूरी है जो बोर्डों पर नहीं लिखा होता. हालांकि इस सब से साबित यही हुआ था कि किसी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या तहसीलदार के मुकाबले पंडेपुजारी द्वारा जारी जाति प्रमाणपत्र लोग ज्यादा सटीक मानते हैं.

फ्लौप हुए मोदी

जब माहौल बिगड़ने लगा और कांग्रेस की हवा तीनों राज्यों में बंधने लगी तो भाजपा को अपने हीरो नरेंद्र मोदी से उम्मीदें बंधीं कि अब वे ही नैया पार लगाएंगे.

अपनी चुनावी सभाओं में राहुल गांधी ने मुख्यमंत्रियों से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा. इंदौर की एक सभा में राफेल डील को ले कर उन्होंने ‘चौकीदार’ अपने मुंह से बोल कर और ‘चोर है’ जनता से कहलवाया तो राजनीति के जानकारों का यह अहसास यकीन में बदलने लगा कि राहुल गांधी की ‘पप्पू’ वाली इमेज गए कल की बात हो गई है और भाजपा उन का मजाक बना कर खुद का ही नुकसान कर रही है.

नरेंद्र मोदी के लिए इन राज्यों में चुनाव प्रचार एक चुनौती बन गया था. एक तो उन की सभाओं में पहले की तरह भीड़ नहीं उमड़ रही थी, दूसरे महंगाई, नोटबंदी और जीएसटी के फैसले पर वे राहुल गांधी के सवालों और हमलों का कोई तसल्ली वाला जवाब नहीं दे पा रहे थे.

जनता नरेंद्र मोदी से उम्मीद कर रही थी कि वे राफेल डील की कीमतों का खुलासा कर के राहुल गांधी के आरोपों का करारा और सटीक जवाब दें, लेकिन वजहें चाहे राष्ट्रहित की हों, 2 देशों के करार की हों या फिर कोई और, उन्होंने ऐसा नहीं किया तो धर्म, जाति और गोत्र के मसले की तरह राहुल गांधी उन पर भारी पड़ते नजर आए और यह सोचने का मौका भी लोगों को मिल ही गया कि आखिरकार नोटबंदी से किसे और क्या हासिल हुआ और जीएसटी से देश कौन सा मालामाल हो गया? इस के उलट व्यापारियों का ही नुकसान हुआ जिन को नरेंद्र मोदी ने यह अहसास करा दिया था कि वे टैक्स चोर हैं.

भारी पड़े ये मुद्दे

न केवल मध्य प्रदेश और राजस्थान के नतीजे हैरान कर देने वाले आए, बल्कि छत्तीसगढ़ के नतीजे तो इस लिहाज से चौंका देने वाले हैं कि वोटर ने यहां कांग्रेस की झोली लबालब भर दी है. लेकिन अगर राजस्थान और मध्य प्रदेश में 1-1 सीट के लिए तरसा कर रख दिया तो इस की वजह लोकल मुद्दों का भारी पड़ना है.

मध्य प्रदेश में तो 2 अप्रैल की दलित हिंसा के बाद ही भाजपा और शिवराज सिंह चौहान को समझ आ गया था कि बाजी हाथ से जा रही है. एट्रोसिटी ऐक्ट के बवाल से राजस्थान भी अछूता नहीं रहा जहां के ऊंची जाति वाले भाजपा से नाराज दिखे, लेकिन छत्तीसगढ़ में इस मुद्दे का खास असर नहीं देखा गया.

गौरतलब है कि इस मुद्दे पर भाजपा संसद में दलितों के आगे झुक गई थी और उस ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया था. इस से सवर्ण खासा नाराज थे. मध्य प्रदेश में तो दलितों के बाद सवर्णों ने भी जम कर बवाल मचाया था और अपनी अलग पार्टी सपाक्स भी बना ली थी.

उम्मीद के मुताबिक सपाक्स भाजपा को नुकसान नहीं पहुंचा पाई तो यह शिवराज सिंह चौहान की खूबी थी जिन्होंने धीरेधीरे पुचकार कर सवर्णों को मना लिया था, लेकिन इतना नहीं कि भाजपा चौथी बार भी बाजी मार ले जाती.

राजस्थान की हालत उलट थी जहां छोटे दल और निर्दलीय 25 सीटें ले गए. यहां नई बनी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को बराबरी से नुकसान पहुंचाया लेकिन उस से भी ज्यादा नुकसान पहुंचाया भाजपा के बगावती उम्मीदवारों ने जो टिकट न मिलने पर या तो दूसरी पार्टी से चुनाव लड़े या फिर निर्दलीय मैदान में उतरे.

तीनों विधानसभा चुनाव अपनी इस दिलचस्पी के चलते भी याद किए जाएंगे कि राजस्थान के उलट मध्य प्रदेश में भाजपा के बगावती कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाए.

भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में आए पूर्व मंत्री सरताज सिंह होशंगाबाद सीट से विधानसभा अध्यक्ष सीताराम शर्मा के हाथों हारे तो शिवराज सिंह चौहान के साले संजय सिंह तो कांग्रेस के टिकट पर वारासिवनी सीट से तीसरे नंबर पर रहे.

यह बात भी कम हैरत की नहीं कि मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों को लगभग बराबर 41-41 फीसदी वोट मिले लेकिन सीटों के मामले में भाजपा कांग्रेस से 5 सीटों के अंतर से पिछड़ कर सत्ता से बाहर हो गई.

दूरगामी फर्क पड़ेगा

अब यह भाजपा के सोचने की बात और बारी है कि कोई राम, कृष्ण या दूसरा भगवान उसे नहीं जिता सकता, क्योंकि लोकतंत्र में सत्ता की चाबी नीचे वाली जनता के हाथ में होती है, ऊपर वाले भगवान के हाथ में नहीं.

राम मंदिर निर्माण का जिन जिंदा कर रही और देश में बड़ीबड़ी मूर्तियां गढ़ रही भाजपा के लिए तीनों राज्यों के नतीजे सबक देने वाले हैं कि अगर उसे साल 2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदीभाषी राज्यों में साल 2014 के मुकाबले आधी सीटें भी चाहिए, तो रामनाम जपना छोड़ना होगा. राहुल गांधी के धर्म, जाति और गोत्र जैसे सवालों को भी छोड़ना होगा, नहीं तो जनता उसे छोड़ देगी.

भाजपा की एक दिक्कत यह भी है कि उस के पास उपलब्धियों के नाम पर गिनाने के लिए कुछ खास नहीं है. ऐसे में वोट अब वह किस मुद्दे पर मांगेगी, यह बात उस के रणनीतिकार भी शायद ही तय कर पाएं. अमित शाह तय करें, साधुसंत तय करें या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे हिंदूवादी संगठन तय करें, इन सभी को यह समझ आ रहा है कि धर्म का कार्ड 3 अहम भगवा गढ़ों से खारिज हो चुका है.

अब अगर राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को भाजपा हवा देती है या चुनावी मुद्दा बनाती है तो इन नतीजों के मद्देनजर उसे भारी नुकसान होना तय दिख रहा है.

दूसरी तरफ कांग्रेसियों के हौसले बुलंद हैं. कांग्रेसी खेमे में 3 राज्यों की जीत से नया जोश आया है जिस से लोकसभा चुनाव में भी उसे फायदा होगा. कांग्रेस के लिहाज से एक अच्छी बात जो उस की वापसी की वजह बनी, वह उस की एकता है, नहीं तो अब तक इन राज्यों में वह आपसी फूट के चलते ज्यादा हारती रही थी.

तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चुनाव में थोड़ी कलह दिखी, पर मध्य प्रदेश में कमलनाथ को, राजस्थान में अशोक गहलोत को और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बना दिया गया. यह कलह 4 दिन में शांत हो गई. 2019 के चुनाव परिणाम अभी आने हैं.

इन जीतों का सियासी असर दिखना भी शुरू हो गया है. भाजपा विरोधी दलों को एक आस बंधी है कि भाजपा कोई अपराजेय पार्टी नहीं है. अगर मिलजुल कर लड़ा जाए तो उसे हराया भी जा सकता है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बेहद आक्रामक अंदाज में हमलावर हो रहे हैं कि अब उन की उलटी गिनती शुरू हो गई है.

मजबूत होती कांग्रेस को अब इस बात का फायदा होना तय दिख रहा है कि अगर महागठबंधन बना तो दूसरी पार्टियों को उस की छत के नीचे आना पड़ेगा.

अब बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में सीटों की हिस्साबांटी में उस पर ज्यादा दबाव नहीं बना पाएंगे और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को भी उस के पीछे चलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा, जहां अमित शाह पहले ही नीतीश कुमार से फिफ्टीफिफ्टी का सौदा कर चुके हैं.

वैसे, कांग्रेस को भी वोटर ने पूरी आजादी नहीं दी है, बल्कि बाउंड्री पर बांध कर रखा है. जाहिर है कि उस के नए मुख्यमंत्रियों को बेहतर प्रदर्शन करना पड़ेगा, नहीं तो जनता का मूड बदलने में अब देर नहीं लगती.

अगर राहुल गांधी यह सोच रहे होंगे कि वे कथित जनेऊधारी ब्राह्मण होने के नाते या फिर देवीदेवताओं के आशीर्वाद से कांग्रेस की वापसी कराने में कामयाब हुए हैं, तो यह उन की गलतफहमी ही साबित होगी.

कांग्रेस की 3 राज्यों में जीत की वजहें पंडावाद और मूर्तिवाद के अलावा इन राज्यों में बढ़ती बेरोजगारी को ले कर नौजवानों की भड़ास और लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही खेतीकिसानी ज्यादा है जिस के चलते किसानों ने इस बार उस से तोबा कर ली.

महंगाई, बढ़ते भ्रष्टाचार और बिगड़ती कानून व्यवस्था से लोग आजिज आ गए थे, पर इन से भी ज्यादा अहम बात जो दिख नहीं रही, वह दलितों और आदिवासियों की बढ़ती बदहाली थी. भाजपा इन तबकों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई. अब अगर कांग्रेस भी इसी राह पर चलती है, तो एक बात इन्हीं नतीजों से साबित हुई है कि वोटर अब किसी एक पार्टी के खूंटे से बंधा नहीं रह गया है, इसलिए जो भी सत्ता संभालेगा उसे इन तबकों के लिए ठोस काम तो करने ही पड़ेंगे.

किसे महंगी पड़ी दलितों की गैरत

तीनों राज्यों के नतीजों से भाजपा से बड़ा सबक बसपा को मिला है और उस की विदाई भी हो चुकी है. मायावती ने यह कहते हुए तीनों राज्यों में कांग्रेस से गठबंधन ठुकरा दिया था कि कांग्रेस बसपा को खत्म करना चाहती है जिस की अपनी गैरत है. दलितों की गैरत की बात करने वाली मायावती को फायदा तो कुछ नहीं हुआ, पर नुकसान उम्मीद से ज्यादा हुआ है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बसपा 2-2 सीटों पर सिमट कर रह गई जबकि मायावती यह उम्मीद लगाए बैठी थीं कि वे मध्य प्रदेश में अपने दम पर 8-10 सीटें ला कर जीतने वाली पार्टी को बसपा की मुहताज कर देंगी और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के साथ भी यही समीकरण दोहराएंगी लेकिन इन दोनों ही राज्यों में बसपा का वोट 5 फीसदी का आंकड़ा भी नहीं छू पाया.

सौदेबाजी में माहिर मायावती छत्तीसगढ़ में गच्चा खा गईं, जहां बसपा के वोट तो जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ को मिले लेकिन उस के वोट बसपा को नहीं मिले क्योंकि उस का कोई वोट बैंक था ही नहीं. हैरत तो यह देख कर हुई कि अकलतरा से बसपा के टिकट पर लड़ीं अजीत जोगी की बहू रिचा जोगी भी चुनाव हार गईं.

राजस्थान में जरूर बसपा सम्मानजनक सीटें ले गई लेकिन वहां हालात ऐसे बने कि 4 फीसदी वोट और 6 सीटें ले जा कर भी मायावती कांग्रेस की राह का रोड़ा या जरूरत नहीं बन पाईं. इशारा साफ है कि दलित अब बसपा का वोट बैंक नहीं रह गया है.

दलितों की गैरत का दूसरा पहलू भी बड़ा दिलचस्प है कि मध्य प्रदेश में उस ने गरीब सवर्णों के साथ खड़ा होने से इनकार कर दिया. चुनाव के 3 महीने पहले शिवराज सिंह चौहान ने जिस संबल योजना को लागू किया था, दरअसल वह दलितों को लुभाने की कोशिश थी.

गरीबों के भले वाली इस योजना का दलितों ने फायदा तो उठाया लेकिन यह बात उन्हें रास नहीं आई कि योजना अलग से उन्हीं के लिए क्यों नहीं बनाई गई. पर इस का ढिंढोरा इस तरह पीटा गया मानो दलित तबका मालामाल हो गया हो.

हकीकत तो यह है कि दलित समाज आज भी अपनी झोली खोले खड़ा है. जब उसे समझ आ गया कि भाजपा इस से ज्यादा कुछ नहीं दे पाएगी तो उस ने कांग्रेस का पल्लू थाम लिया, जिस से और ज्यादा खैरात मिले. बात कम हैरत की नहीं जो आगे की राजनीति पर बड़ा फर्क डालेगी कि दलित समुदाय चाहता है कि गरीब सवर्ण और दलित में फर्क कर उस की थाली में दालरोटी डाली जाती रहे. कांग्रेस इस बार उसे मुफीद लगी तो उस ने पाला बदलने में देर नहीं की.

हालांकि एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर भी दलित समुदाय भाजपा से खफा था लेकिन यह मुद्दा वोटिंग के वक्त तक गायब हो चुका था और उस की जगह इस ख्वाहिश ने ली थी कि कौन उसे ज्यादा दे सकता है.

लोकसभा चुनाव 2019 में अब इन बातों के मद्देनजर मायावती पर दलित ज्यादा भरोसा करेगा, ऐसा लग नहीं रहा. उत्तर प्रदेश की राजनीति पर इन नतीजों ने गहरा असर डाला है. अब वहां भी कांग्रेस दलितों को अपने पाले में लाने की कोशिश करेगी. और हैरानी नहीं होनी चाहिए, अगर मायावती वहां भी देखती रह जाएं, क्योंकि अब वाकई उन के पास दलितों को देने के लिए कुछ बचा ही नहीं है.

भाजपा की नजर में तो दलितों की गैरत के कभी कोई माने ही नहीं रहे. इस बात का खुलासा उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ ने बीकानेर की एक सभा में यह कहते हुए किया था कि हनुमान दलित थे यानी भाजपा की नजर में दलितों की हैसियत बंदरों सरीखी है.

बरकरार रहा टीआरएस का करिश्मा

119 सीटों वाले तेलंगाना में इस बार भी मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव यानी केसीआर का जादू बरकरार है जिन की पार्टी टीआरएस यानी तेलंगाना राष्ट्र समिति 88 सीटें जीत गई. कांग्रेस और तेलुगुदेशम पार्टी का गठबंधन नाकाम साबित हुआ और 21 सीटों पर सिमट कर रह गया. इस से भी बड़ा झटका 2014 में 5 सीटें ले जाने वाली भाजपा को लगा जिसे सिर्फ एक सीट से ही तसल्ली करना पड़ी. ओवैसी की एआईएमएआई ने 7 सीटें जीत कर अपनी साख बरकरार रखी.

तेलंगाना में केसीआर ने विधानसभा भंग करते हुए वक्त से पहले चुनाव कराने पर तवज्जुह दी थी जिस का फायदा भी उन्हें मिला. उन की कल्याणकारी योजनाएं जनता ने पसंद कीं जिस में गरीबों की शादी और मकान के लिए पैसा देने वाली बातें लोगों को खूब पसंद आईं.

तेलंगाना में किसानों को 4,000 रुपए प्रतिमाह प्रति एकड़ देने की योजना टीआरएस की बड़ी जीत की अहम वजह बनी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी टीआरएस भारी पड़ेगी क्योंकि केसीआर की लोकप्रियता आज भी बरकरार है.

केसीआर वैसे उतने ही अंधविश्वासी हैं जितने 1947 के बाद कांग्रेसी राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल थे या आज मोदीयोगी हैं, पर फिर भी वे दलितमुसलिम विरोधी नहीं हैं.

पंजे से छूटा मिजोरम

हिंदीभाषी राज्यों में पहली सी पैठ बना चुकी कांग्रेस का उत्तरपूर्वी भारत में पूरी तरह सूपड़ा साफ हो गया है. 40 सीटों वाले छोटे से राज्य मिजोरम की सत्ता उस से एमएनएफ यानी मिजो नैशनल फ्रंट ने छीन ली है. यहां कांग्रेस हैरतअंगेज तरीके से 5 सीटों पर सिमट गई जबकि एमएनएफ ने 26 सीटें जीत कर सत्ता हासिल कर ली.

10 साल से राज कर रही कांग्रेस के मुख्यमंत्री लल थनहवला दोनों सीटों से हारे तो साफ हो गया कि मिजोरम में भी सत्ता विरोधी लहर थी. वहां देहाती और बाहरी दोनों इलाकों से कांग्रेस बुरी तरह हारी. भाजपा इस राज्य में भी कुछ हासिल नहीं कर पाई जिस ने बड़ी उम्मीदों से सभी 40 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन जीत उसे एक सीट पर ही मिली.

भाजपा इस पट्टी में लगातार कामयाब होती रही थी लेकिन मिजोरम के नतीजे उस का असर कम करने वाले साबित हुए.

कर्जमाफी: क्या फटेहाल किसानों को राहत मिलेगी?

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में 3 राज्यों में कांग्रेस ने अपनी पकड़ बना कर यह जता दिया है कि वह दमदार तरीके से वापसी करने को तैयार है. अपने वादों में दम भरने के लिए उसने किसान कर्जमाफी मुद्दे को सब से अहम रखा था.

किसानों का कर्ज तो माफ हुआ ही, साथ ही छत्तीसगढ़ में नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सरकार ने धान का समर्थन मूल्य बढ़ा कर वाहवाही भी बटोर ली. पर एक बात समझ से परे रही कि किसानों का जो कर्ज माफ हुआ है, वह किसके पैसों से हुआ है? जनता ने जो टैक्स सरकार को अदा किया उन पैसों से या फिर पार्टी फंड से?

सरकार बनने से पहले नेताओं ने किसानों के कर्ज को माफ करने का ऐलान किया था और आननफानन इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया. लेकिन हकीकत कुछ दिनों बाद सामने आएगी कि इस में कितने किसानों का कर्ज माफ हुआ, कितनों का नहीं. क्योंकि इस तरह के कामों में अनेक नए नए नियम सामने आ जाते हैं, जिस के कारण सभी कर्जदारों को इस का सौ फीसदी फायदा नहीं मिलता.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी रैलियों में सरकार बनने के 10 दिन के भीतर किसानों का कर्ज माफ करने की बात कही थी. सत्ता संभालते ही तीनों राज्यों की सरकारों ने सब से पहला काम किसानों की कर्जमाफी का किया. कहीं किसान आम चुनाव 2019 में बिदक न जाएं इसलिए उन्हें खुश करने के लिए ऐसा किया गया.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनी. राजस्थान के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने किसानों की कर्जमाफी का ऐलान कर दिया. राज्य सरकार किसानों का 2 लाख रुपए तक का कर्ज माफ करेगी. इससे सरकारी खजाने पर 18,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

इस पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा कि हम ने 10 दिन की बात कही थी, लेकिन यह तो 2 ही दिन में कर दिया.

कांग्रेसशासित तीनों राज्यों की कर्जमाफी के ऐलान के बाद असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने भी किसानों को कर्जमाफी का तोहफा दिया. इस कर्जमाफी का फायदा 8 लाख किसानों को मिल सकता है, जिससे सरकार पर 600 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा.

वहीं दूसरी ओर गुजरात सरकार ने भी ग्रामीण इलाकों के बिजली उपभोक्ताओं का बिल माफ करने का ऐलान किया. सरकार किसानों के लोन का 25 फीसदी (अधिकतम 25 हजार रुपए) माफ करेगी. इस योजना का लाभ उन किसानों को मिलेगा, जिन्होंने पीएसयू बैंकों और किसान क्रैडिट कार्ड के जरिए लोन लिया था.

रायपुर में मुख्यमंत्री का पद संभालते ही भूपेश बघेल ने नया छत्तीसगढ़ राज्य बनाने का संकल्प दोहराते हुए 3 बड़े फैसले लिए. कांग्रेस सरकार की पहली कैबिनेट मीटिंग में किसानों का 6,100 करोड़ रुपए का कर्ज माफ करने के अलावा धान का समर्थन मूल्य 2,500 रुपए प्रति क्विंटल करने का फैसला लिया गया जबकि तीसरा फैसला झीरम घाटी से संबंधित था.

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल धान के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1,700 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ा कर 2,500 रुपए कर दिया.

वहीं मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शपथ ग्रहण के थोड़ी देर बाद ही किसानों का कर्ज माफ करने के आदेश पर दस्तखत कर दिया था. इस आदेश के साथ ही किसानों को सरकारी और सहकारी बैकों द्वारा दिया गया 2 लाख रुपए तक का अल्पकालीन फसल कर्ज माफ होगा.

इस फैसले के अलावा सरकार ने कन्या विवाह और निकाह योजना में संशोधन कर अनुदान राशि 28,000  से बढ़ा कर 51,000 रुपए करने का फैसला लिया. इस के साथ ही सरकार ने अब सभी आदिवासी अंचलों में जनजातियों में प्रचलित विवाह प्रथा से होने वाले एकल और सामूहिक विवाह में भी मदद देने का फैसला किया है.

मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पहली फाइल साइन की है, वह है किसानों का 2 लाख रुपए तक का लोन माफ करने की. जैसा उन्होंने वादा किया था.

किसान कल्याण और कृषि विकास विभाग, मध्य प्रदेश के प्रमुख सचिव के दस्तखत के साथ जारी एक पत्र में लिखा गया है कि 31 मार्च, 2018 के पहले जिन किसानों का 2 लाख रुपए तक का कर्ज बकाया है, उसे माफ किया जाता है.

बताते चलें कि इस बार मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने कमलनाथ की अगुआई में ही लड़ा था. कमलनाथ को अरुण यादव की जगह मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया और उन की अगुआई में ही पार्टी चुनाव में सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी.

कांग्रेस को बहुमत के लिए जरूरी 116 सीटें अपने दम पर तो नहीं मिलीं लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और निर्दलीयों के सहयोग से वह राज्य में सरकार बनाने में कामयाब हो गई.

लोकसभा चुनाव भी नजदीक ही है. इसी को ध्यान में रखते हुए असम सरकार ने भी किसानों का कर्ज माफ करने का ऐलान कर दिया है. इस कर्जमाफी का फायदा 8 लाख किसानों को मिलेगा. इससे सरकार पर 600 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. इस के अलावा गुजरात सरकार ने भी ग्रामीण इलाकों के बिजली उपभोक्ताओं का बिल माफ करने का ऐलान किया.

वहीं किसानों के लिए एक ब्याज राहत योजना भी होगी, जिस के तहत किसानों को 4 फीसदी ब्याज दर पर लोन दिया जाएगा. इस के अलावा असम सरकार स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाली पैंशन को 20,000 से बढ़ा कर 21,000 रुपए करने की तैयारी में है.

कांग्रेसशासित राज्यों में हुई किसानों की कर्जमाफी आम आदमी के लिए परेशानी का सबब तो बना ही, क्योंकि इस का बोझ आने वाले समय में आम आदमी पर पड़ेगा. भले ही कर्जमाफी के फैसले से किसानों की कुछ हद तक चिंता कम हुई हो, पर यह टिकाऊ योजना नहीं है. इस से अच्छा होता कि सरकार उन के भले के लिए कोई ऐसी ठोस योजना तैयार करती तो शायद किसान खुशहाल होता.

योगी के बोल : दलित हैं हनुमान

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रा योगी आदित्यनाथ चुनाव प्रचार में ‘स्टार प्रचारक’ माने जाते हैं. भाजपा के लिये प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद उनकी नम्बर दो की रेटिंग है. योगी को संत मान कर लोग उम्मीद करते है कि वह कुछ गंभीर मुद्दों पर बात करेगे. योगी अपने बडबोलेपन की वजह से हास्य परिहास का विषय होकर रह जा रहे है. राजस्थान के चुनावी प्रचार में योगी ने अलवर में कहा कि ‘हनुमान दलित थे’. योगी संत है. धर्म के बड़े जानकार हैं. ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह गलत बोल रहे होंगे. योगी के बयान को तर्क के आधर पर देखे तो यह बात सही भी लगती है. हनुमान जंगल और पहाड़ पर रहते थे. ऐसे में हनुमान दलित से अधिक आदिवासी माने जा सकते हैं. ऐसे में उनको दलित यानि एससी की जगह पर एसटी माना जा सकता था. योगी ने हनुमान को दलित, वनवासी, गिरवर और वंचित भी कहा है.

जिस तरह से हनुमान को राम का भक्त यानि दास बताया गया उससे भी साफ लगता है कि वह सवर्ण जाति के राजा राम की सेवा ही करते थे. हनुमान को हमेशा राम के पैरों के पास ही बैठा देखा गया है. अगर पूजा की नजर से देखें तो हनुमान ही सबसे उपेक्षित दिखते हैं. सभी भगवान की पूजा के लिये बड़े बड़े मंदिर बनते हैं, हनुमान अकेले ऐसे हैं जिनकी पूजा करने के लिये भव्य मंदिर की जरूरत नहीं है. कहीं भी किसी भी जगह पर ईट और पताका मतलब लाल कपड़े की झंडी लगाकर पूजा शुरू की जा सकती है. ऐसे में वह सवर्ण देवताओं के मुकाबले दलित ही लगते हैं.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयान पर विरोधी दलों से पहले सवर्णों का ही विरोध शुरू हो गया है. राजस्थान की ब्राह्मण सभा ने योगी को कानूनी नोटिस भेजा है. योगी सरकार के अंदर काम करने वाले डाक्टर राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोपफेसर मनोज दीक्षित ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा ‘देवी देवता आपके लिये राजनीति का विषय हो सकते है पर हमारे लिये वह आस्था का विषय है. ऐसे में देवीदेवताओं में जाति और धर्म न तलाशें.’

योगी के बयान पर भाजपा के ही सांसद उदित राज ने कहा ‘योगी के बयान से साफ हो गया कि रामराज में भी दलित थे. जाति व्यवस्था थी. संविधान कहता है कि जाति के नाम पर वोट नहीं मांगने चाहिये, जाति के आधार पर वोट ज्यादा पड़ते हैं. योगी का बयान उसी अपील के लिये देखा जा सकता है.’ राजस्थान के चुनाव में दलित वोट की नजर से इस बयान को देखा जा रहा है. अब केवल हनुमान को दलित नहीं माने जाते बल्कि राक्षसों को दलित माना जाता है. योगी के इस बयान से यह साफ हो गया है कि रामराज में भी जाति प्रथा थी.

अब सिंधिया ने बताया नरेंद्र मोदी को नाना

जैसे जैसे मध्यप्रदेश मे चुनाव प्रचार शबाब पर आता जा रहा है वैसे वैसे नेताओं के तेवर भी तीखे होते जा रहे हैं. बड़े नेता विपक्षी नेताओं का सीधे नाम लेने के बजाय उन्हें उनके प्रचिलित नामों से संबोधित कर तंज कस रहे हैं. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने राहुल गांधी को राहुल बाबा कहना शुरू कर दिया है जो लगभग पप्पू का पर्याय ही है. वैसे तो छोटे बच्चे को बाबा प्यार से कहा जाता है लेकिन शिव भक्तों को भी बाबा कहने का चलन है. अब अमित शाह राहुल को कौन सा वाला बाबा कह रहे हैं इसे समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर देने की जरूरत नही.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान घोषित तौर पर मामा हैं वे खुद को मामा कहलवाने में फख्र भी महसूस करते हैं लेकिन एक मीटिंग मे कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मामा के साथ साथ नाना संबोधन का भी जिक्र किया तो जनता बिना समझाए समझ गई कि इशारा नरेंद्र मोदी की तरफ है. अशोकनगर जिले की मुंगावली विधानसभा सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार बृजेन्द्र सिंह यादव का प्रचार करते उन्होंने कहा कि जनता इस बार मामा और नाना दोनो को बोरिया बिस्तर बांध कर भगा देगी .

नाना के खिताब पर भाजपा खेमे की प्रतिक्रिया जब आएगी तब आएगी पर राहुल गांधी अक्सर राफेल मुद्दे को हवा देते चोर चौकीदार कहते रहते हैं. यह संबोधन अगर ज्यादा चलन में आ गया तो तय है भाजपा को कड़ा कदम उठाना पड़ेगा सवाल आखिर उसके मुखिया की साख का जो है राजनीति मे ऐसे प्रिय अप्रिय संबोधन वाले नेताओं की भरमार है कुछ संबोधनों से इमेज चमकती है तो कुछ से बिगड़ती भी है. कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह दिग्गी राजा के संबोधन से भले ही नवाजे जाते हों पर साल 2003 के चुनाव प्रचार मे उमा भारती ने उन्हें मिस्टर बंटाढार कहते चुनाव प्रचार अभियान चलाया था तो कांग्रेस की लुटिया ही डूब गई थी. इस तरह के रखे हुए नाम क्या सच में वोटर की मानसिकता पर फर्क डालते हैं इस पर कोई मान्य शोध भले ही न हुआ हो लेकिन सामान्य अनुभव बताता है कि इससे फर्क तो पड़ता है मसलन राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को महारानी कहने से जनता में नकारात्मक संदेश जाता है पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की चाउर ( चावल ) वाले बाबा की छवि और संबोधन ने उन्हें 2013 के चुनाव मे काफी फायदा पहुंचाया था. धान के बोनस को लेकर किसान उनसे इस बार खफा हैं इसलिए भाजपा इस बार इस संबोधन से बच रही है.

मध्यप्रदेश मे ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी महाराज बनाने पर शिवराज सिंह ने एतराज जताया था जिसकी गंभीरता समझते सिंधिया ने खुद को आम आदमी कहा था और अपने संसदीय क्षेत्र मे दलितों आदिवासियों के घर जाना शुरू कर दिया था जिससे यह मुद्दा तूल नही पकड़ पाया था हालांकि अपने चुनावी विज्ञापनों में भाजपा कह यही रही है कि माफ करो महाराज हमारा नेता शिवराज. बड़े ही नही कई छोटे मोटे नेता भी इसी तरह के नामों और संबोधनों से जाने जाते हैं जो अक्सर किसी न किसी रिश्ते को प्रदर्शित करते हुए होते हैं मसलन मामा, चाचा, कक्का, दाउ, दीदी और भाभी वगेरह. आत्मीयता भी इन संबोधनों से जाहिर होती है अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नाना बनाने पर भाजपा खुश ही होगी क्योंकि बतौर मामा शिवराज सिंह ने खूब लोकप्रियता बटोरी है पर अब ज्योतिरादित्य उन्हें कंस और शकुनि के बाद तीसरा मामा भी कहने लगे हैं तो लोगों का खूब मनोरंजन भी हो रहा है.

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