यही दस्तूर है : गरिमा के हरे जख्म

कालिज से लौट कर गरिमा ने जैसे ही अपने फ्लैट का दरवाजा खोला सामने के फ्लैट से रोहित निकल कर आ गए.

‘‘आप का पत्र कोरियर से आया है,’’ एक लिफाफा उस की तरफ बढ़ाते हुए रोहित ने कहा.

‘‘ओह…आइए न,’’ पत्र थाम कर गरिमा अंदर आ गई. रोहित भी अंदर आ गए.

‘‘पत्र विदेशी है. बेटे का ही होगा?’’ रोहित की बात पर गरिमा ने पलट कर उन्हें देखा. मानो कोई चुभती हुई बात उन के मुंह से निकल गई हो.

फिर वह खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आप बैठिए, मैं कौफी बनाती हूं.’’

‘‘पर खत तो पढ़ लीजिए.’’

‘‘कोई जल्दी नहीं है, पहले कौफी बना लूं.’’

रोहित को आश्चर्य नहीं हुआ यह देख कर कि बेटे का पत्र पढ़ने की उसे कोई जल्दी नहीं है. इतने दिन से गरिमा को देख रहे हैं. इतना तो जानते हैं कि यह विदेशी पत्र उसे विचलित कर गया है. कुछ तो है मांबेटे के बीच पर वह कभी पूछने का साहस नहीं कर पाए हैं.

गरिमा के बारे में सिर्र्फ इतना जानते हैं कि 30 वर्ष पूर्व गरिमा के पति नहीं रहे थे. तब वह मात्र 20 वर्ष की थी. समीर गोद में आ गया था. अपना पूरा यौवन उस ने बेटे को बड़ा करने में लगा दिया था. मांबाप ने एकाध जगह बात पक्की की पर बेटे के साथ उसे अपनाने वाला कोई उचित वर न मिला. भैयाभाभी उस से विशेष मतलब नहीं रखते. मां को अस्थमा का अकसर दौरा पड़ता था, इस के बावजूद वह समीर को अपने पास रखने को तैयार थीं. पर गरिमा ने खुद को बच्चे से अलग नहीं किया. मांपिताजी के पास रह कर उस ने बी.एड. किया और एक स्कूल में पढ़ाने लगी. 5 वर्ष पूर्व इस फ्लैट में आई है. बेटे को कभी आते नहीं देखा. बस, इतना पता है कि वह विदेश में है.

‘‘कौफी…’’ गरिमा की आवाज पर रोहित की तंद्रा टूटी. प्याला हाथ में ले कर गरिमा भी वहीं बैठ गई.

‘‘गरिमा, मैं ने आप से एक प्रश्न किया था, आप ने जवाब नहीं दिया?’’

अचानक पूछे गए इस प्रश्न पर गरिमा चौंक पड़ी. हां, रोहित ने 2 दिन पूर्व उन के सामने एक बात रखी थी. अपनी बोझिल पलकों को उठा कर उस ने रोहित की तरफ देखा. यह आदमी उन्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता है.

बचे हुए जीवन के दिनों को हंसीखुशी से जी लेने का उस का भी दिल करता है. बेटे के कृत्य के लिए वह खुद को दोषी क्यों ठहराए. मगर इन 5-6 वर्षों में वह समीर के कुसूर को भूल नहीं पाई  है, उसे माफ नहीं कर पाई है.

रोहित के जाने के बाद उस ने समीर का पत्र खोला, लिखा था, ‘‘जानता हूं अभी तक नाराज हो. कुछ तो है जो अभिशाप बन कर हमारे बीच पसर गया है. शिखा 2 बार मां बनतेबनते रह गई. मां, जानता हूं तुम्हारा दिल दुखाया है, उसी की सजा मिल रही है. क्या मुझे क्षमा नहीं करोगी?’’

समीर के पत्र ने उस के जख्मों को फिर हरा कर दिया. शैल्फ पर रखी तसवीर पर उस की नजर अटक गई. लाख चाह कर भी वह इस तसवीर को हटा नहीं पाई है. आखिर है तो मां ही. तसवीर में समीर मां की गरदन में बांहें डाले था. उसे देखते हुए वह अतीत में खो गई.

पति के समय का ही एक माली था नंदू. माली कम सेवक ज्यादा. पति की बस दुर्घटना में मृत्यु हो गई  थी. नंदू ने काम छोड़ने से मना कर दिया था, ‘बचपन से खिलाया है रवि भैया को, उन के न रहने पर तो मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. मैं यहीं रहूंगा.’

रवि की मृत्यु के बाद आफिस का फ्लैट भी चला गया था. वह मां के पास रह कर बी.एड. करने लगी तो नंदू ने ही समीर को संभाला. फिर नौकरी लगने पर वह नंदू और समीर को ले कर दूसरे शहर आ गई.

समीर बड़ा हो गया और नंदू बूढ़ा. एक दिन वह गांव गया तो कई दिनों तक नहीं लौटा. उस की पत्नी की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. गांव से लौटा तो 17-18 वर्ष की एक सांवलीसलोनी सी पोती भी उस के साथ थी, ‘बहूजी, इस के 4 भाईबहन हैं. गांव में कुछ सीख नहीं पाती. पढ़ना चाहती है, सो अपने साथ ले आया हूं. आप की छत्रछाया में कुछ गुण ढंग सीख लेगी.’

ज्योति नाम था उस का. 8वीं तक पढ़ी थी. 9वीं में एक स्कूल में नाम लिखवा दिया उस का. फिर तो हिरनी सी कुलांचें भरती कटोरी जैसी आंखों वाली वह छरहरी काया पूरे घर पर शासन कर बैठी. घर का सारा काम उस ने अपने ऊपर ले लिया. समीर इंजीनियरिंग कर रहा था. उस के पास जाने में वह थोड़ी झेंपती थी. लेकिन यह संकोच भी टूट गया जब उसे पढ़ाई में विज्ञान एवं गणित कठिन लगने लगे तब गरिमा ने ही समीर से कहा कि वह ज्योति की मदद कर दिया करे.

समीर की महत्त्वाकांक्षा काफी ऊंची थी. उस की इच्छा विदेश जा कर पढ़ने की थी. जहां भी कुछ अवसर मिलता वह फौरन आवेदन कर देता. पासपोर्र्ट उस ने बनवा रखा था. मां अकेली कैसे रहेगी, पूछने पर कहता, ‘मैं तुम्हें भी जल्दी ही बुला लूंगा. यहां इंडिया में अपना है ही कौन.’

पर गरिमा ने निश्चय कर लिया था कि वह अपना देश नहीं छोड़ेगी. उसे लगता कि ऐसी पढ़ाई से क्या फायदा जब बच्चे पढ़ते इंडिया में हैं और बसने विदेश चले जाते हैं. पर बेटे की महत्त्वाकांक्षा के सामने वह मौन हो जाती.

ज्योति ने समीर से पढ़ना शुरू किया तो दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए. गरिमा इसे दोनों की नोकझोंक समझती रही. समीर ज्योति की बड़ीबड़ी आंखों में खो गया. प्रेम की यह पींग काफी ऊंची उड़ान ले बैठी. इतनी ऊंची कि झूला टूट कर गिर गया.

उस दिन वाशिंगटन से समीर के नाम एक पत्र आया था कि वह फैलोशिप के लिए चुन लिया गया है. इधर घर में एक जबरदस्त विस्फोट हुआ जब नंदू उस के सामने बिलख उठा, ‘बहूजी, मैं तो बरबाद हो गया. ज्योति ने तो मुझे मुंह दिखाने लायक नहीं रखा. मैं क्या करूं. कहां ले कर जाऊं इस कलंक को.’

ज्योति के मुंह से समीर का नाम सुनते ही वह सुलग उठी. उसे यह बात सच लगी कि हर व्यक्ति के अंदर एक जानवर होता है जो मौका पड़ते ही जाग जाता है. समीर के अंदर का जानवर भी जाग उठा था. समीर ने मां के विश्वास के सीने में छुरा घोंपा था.

दोषी तो ज्योति भी थी. उस ने समीर को इतने पास आने ही क्यों दिया कि अपनी अस्मत ही गंवा बैठी. गरिमा का जी चाहा कि वह जोरजोर से चीखे, रोए. पर कैसी लाचार हो गई थी वह. कहीं कोई सुन न ले, इस डर से मुंह से सिसकी भी न निकाली.

2 दिन तक गरिमा घर में पड़ी रही. क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उधर समीर जो घर से गया तो 2 दिन तक लौटा ही नहीं. तीसरे दिन जरा सी आंख लगी ही थी कि आहट पर खुल गई. दरवाजा खुला छोड़ कर कोई बाहर गया था. ‘कौन है…’ वह बड़बड़ाते हुए उठी. देखा तो कमरे से समीर के कपड़े, अटैची सब गायब थे. एक पत्र जरूर मिला. लिखा था, ‘टिकट के पैसे नहीं हैं. कुछ रुपए और आप का हार लिए जा रहा हूं. हो सके तो क्षमा कर दीजिएगा.’

अरे, बेशर्म, क्षमा हार की मांग रहा है, पर जो कुकर्म किया है उस की क्षमा उसे कैसे मिलेगी. ज्योति की तरफ देख कर वह बिलख उठी थी. चाह कर भी वह उस के साथ न्याय नहीं कर पा रही थी. कौन अपनाएगा इसे. सबकुछ तितरबितर हो गया. क्या सोचा था, क्या हो गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी भी सूख चली. बुद्घि, विवेक सबकुछ मानो किसी ने छीन लिया हो.

और एक दिन नंदू भी लड़की को ले कर कहीं चला गया. तब से अकेली है. पुराना मकान छोड़ कर नई कालोनी में यह फ्लैट ले लिया था, ताकि समीर को उस का पता न लग सके. पर जाने कहां से उस ने पता कर ही लिया है. पत्र भेजता है. पत्रों में उसे बुलाने का ही आग्रह होता है. शादी कर ली है….पर वह तो उसे आज तक क्षमा नहीं कर पाई है.

डोर बेल बजने पर वह अतीत से बाहर आई. बाई थी. उसे तो समय का ध्यान ही नहीं रहा कि रात के 8 बज चुके हैं. बाई ने उसे अंधेरे में बैठा देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, बहूजी. तबीयत तो ठीक है न. यह अंधेरा क्यों?’’

‘‘यों ही आंख लग गई थी.’’

‘‘खाना क्या बनाऊं, बहूजी.’’

‘‘मेरे लिए कुछ नहीं बनाना. तेरा जो खाने का दिल करे बना ले.’’

‘‘पर आप….’’

‘‘मैं कुछ नहीं लूंगी.’’

‘‘तो फिर कौफी, दूध…कुछ तो ले लीजिए.’’

‘‘ठीक है दूध दे जाना कमरे में,’’ कहती हुई गरिमा अपने कमरे में चली गई.

समीर का पत्र एक बार फिर पढ़ा उस ने. बहू की फोटो भेजी थी समीर ने. एक बार देख कर उस ने तसवीर को अलमारी में रख दिया. सोचती रही, क्या करे. रोहित भी जवाब मांग रहे हैं. मां- पिताजी अब रहे नहीं. अपना कहने वाला कोई नहीं है. मां की अस्थमा की बीमारी उसे भी हो गई है. ऐसे में रोहित ही उस की देखभाल करते हैं. जब वह यहां आई थी तब रोहित से कटती रहती थी पर आमने- सामने रहने से कभीकभार की मुलाकात से परिचय गहरा हो गया. यही परिचय अब अच्छी मित्रता में बदल चुका है.

रोहित का व्यक्तित्व बहुत मोहक है. कम बोलना, पर जो बोलना सोचसमझ कर. 2 बच्चे हैं, बेटा पत्नी के साथ बंगलौर में है. बेटी कनाडा में है. 2 साल पहले पति के साथ आई थी. उसे बहुत पसंद करती है. जाने से पहले उस का हाथ अपने हाथ में ले कर अपने पिता से बोली थी, ‘‘जाने के बाद अब यह सोच कर तसल्ली होगी कि अब आप अकेले नहीं हैं.’’

वह चौंकी थी कि रोहित पर उस का क्या अधिकार है. कहीं रोहित ने ही तो बेटी से कुछ नहीं कहा. उन के बेटे से भी वह मिल चुकी है. जब भी आता है, उस के पैर छूता है. रोहित के प्रस्ताव में, लगता है दोनों बच्चों की सहमति भी छिपी है. रोहित के शब्द उस के कानों में गूंजने लगे, ‘गरिमाजी, मेरा और आप का रास्ता एक ही है तो क्यों न मंजिल तक साथ ही चलें. मुझ से शादी करेंगी?’

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आज समीर के पत्र ने उसे झकझोर दिया था. उस ने कभी भी बेटे को कोसा नहीं है. आखिर क्यों कोसे? अब वह किसी का पति है. आखिर उस की पत्नी का क्या दोष? वह मां बनना चाहती है तो इस में वह क्या सहयोग कर सकती है सिवा इस के कि उसे अपनी शुभकामना दे. आखिर उस ने बहू शिखा को पत्र लिखने का निश्चय कर लिया.

दूसरे दिन उस ने शिखा को पत्र लिखा, ‘‘बेटी, हम दोनों एकदूसरे से अब तक नहीं मिले हैं, पर हमारे बीच आत्मीय दूरी नहीं है. तुम मेरी बहू हो और मैं तुम्हारी सास. तुम मां बनो और मैं दादी यह हृदय से कामना करती हूं. तुम्हारी मां.’’

पत्र मोड़ कर लिफाफे में रखते हुए गरिमा सोच रही थी कि उसे रोहित का प्रस्ताव अब मान लेना चाहिए. जीवन के बाकी दिन खुद के लिए भी तो जी लें.

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दूसरा कोना: क्यों बदनाम हुई ऋचा?

‘‘अजीब तरह का व्यवहार कर रही थी अजय की पत्नी. पूरे समय बस अपनी खूबसूरती, हंसीमजाक, ब्यूटीपार्लर उफ, कोई कह सकता है भला कि उस के पति की अभीअभी कीमोथेरैपी हुई है. उस के हावभाव, अदाओं से कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उस के पति को इतनी गंभीर बीमारी है. मुझे तो दया आ रही है बेचारे अजय पर. ऐसे समय में उस का खयाल रखने के बजाय, उस की पत्नी ऋचा अपनी साजसज्जा में लगी रहती है,’’ घर का दरवाजा खोलने के साथ ही प्रिया ने अपने पति राकेश से कहा.

‘‘हां, थोड़ा अजीब तो मुझे भी लगा ऋचा का तरीका, पर चलो छोड़ो न, तुम क्यों अपना दिमाग खराब कर रही हो. हमें कौन सा रोजरोज उन के घर जाना है. औफिस का कलीग है, कैंसर की बीमारी का सुना तो एक बार तो देखने जाना बनता था,’’ राकेश ने प्रिया को बांहों में लेते हुए कहा.

‘‘अरे, छोड़ो क्या, मेरे तो दिमाग से ही नहीं निकल रही यह बात. कोई इतना लापरवाह कैसे हो सकता है. ऋचा पढ़ीलिखी, अच्छे परिवार की लड़की है, फिर भी ऐसी हरकतें. मुझे तो शर्म आ रही है कि  ऐसी भी होती हैं औरतें.

‘‘ऋचा औफिस की पार्टीज में भी कितना बनसंवर कर आती थी. कितना मरता था अजय उस की खूबसूरती पर. एक से एक लेटैस्ट ड्रैसेज पहनती थी वह तब भी. पर अब हालत कैसी है, कम से कम यह तो सोचना चाहिए.’’ राकेश ने प्रिया की बातों में अब हां में सिर हिलाया और कहा कि बहुत नींद आ रही है, सुबह औफिस भी जाना है, चलो सो जाते हैं.

बिस्तर पर पहुंच कर भी प्रिया के मन में ऋचा की बातें, उस की हंसी फांस की तरह चुभ रही थी. आज की मुलाकात ने रिचा को प्रिया की आंखों के सामने लापरवाह औरत के रूप में खड़ा कर दिया था. यही सब सोचतेसोचते प्रिया की आंख कब लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

अगली सुबह औफिस जाते हुए राकेश को गुडबाय किस देने के बाद अंदर आई तो देखा राकेश अपना टिफिन भूल गए. प्रिया ने राकेश को कौल कर के रुकने को कहा. दौड़ते हुए वह राकेश का टिफिन नीचे पार्किंग में पकड़ा कर आई. ‘‘तुम एक चीज भी याद नहीं रख सकते. मैं न होती तो तुम्हारा क्या होता?’’ प्रिया ने मुसकराते हुए कहा.

राकेश ने भी उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘तुम न होती तो कोई और होती.’’

इस पर प्रिया ने उसे घूरने वाली नजरों से देखा. राकेश ने जल्दी से ‘आई लव यू’ कहा और बाय कहते हुए वहां से निकल गया.

सब काम निबटा कर प्रिया ने चाय बनाई और टीवी औन कर लिया. चैनल पलटतेपलटते ‘सतर्क रहो इंडिया’ पर आ कर उस का रिमोट रुका. प्रिया ने बिना पलकें झपकाए पूरा एपिसोड देख डाला. उसे फिर ऋचा का खयाल आ गया. अब वह तरहतरह की बातें सोचने लगी कि ऋचा का कहीं किसी से चक्कर तो नहीं चल रहा, कहीं वह अजय से छुटकारा तो नहीं पाना चाहती? दिनभर प्रिया के दिमागी घोड़े ऋचा के घर के चक्कर लगाते रहे.

शाम को राकेश के आने पर प्रिया ने फिर से ऋचा की बात छेड़ी तो राकेश ने थोड़ा झुंझला कर कहा, ‘‘अरे यार, क्या ऋचाऋचा लगा रखा है? उन की जिंदगी है, तुम क्यों इतना सोच रही हो?’’

प्रिया चुप हो गई. वह राकेश को नाराज नहीं करना चाहती थी. बहुत प्यार जो करती थी वह उस से.

मगर प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा उतरा नहीं था. उस ने अपनी किट्टी की सहेलियों को भी उस के व्यवहार के बारे में बताया.

सहेलियों में से एक बोली, ‘‘जिस के पति के जीवन की डोर कब कट जाए, पता नहीं, वह पति के बारे में न सोच कर सिर्फ अपने बारे में बातें कर रही है, कैसी औरत है वह.’’

‘‘जो बीमार पति से भी इधरउधर घूमने की फरमाइश करती है, कैसी अजीब है वह,’’ दूसरी सहेली ने कहा.

‘‘ऐसी औरतें ही तो औरतों के नाम पर धब्बा होती हैं,’’ तीसरी बोली.

सब सहेलियों ने मिल कर ऋचा के उस व्यवहार का पूरा पोस्टमौर्टम कर दिया. धीरेधीरे प्रिया के दिमाग से ऋचा का कीड़ा निकल गया. हां, कभीकभार वह राकेश से अजय के बारे में जरूर पूछ लेती. राकेश का एक ही जवाब होता, ‘अजय अब शायद ही औफिस आ सके.’ प्रिया को अफसोस होता और मन ही मन सोचती कि बेचारे अजय का तो समय ही खराब निकला.

4 महीने बाद एक दिन राकेश ने औफिस से फोन पर प्रिया को बताया कि अजय की मृत्यु हो गई. प्रिया को बहुत दुख हुआ. राकेश ने प्रिया से कहा कि तुम शाम को तैयार रहना, अजय के घर जाना है. औफिस के सभी लोग जा रहे हैं.

प्रिया और राकेश अजय के घर पहुंचे. घर में कुहराम मचा हुआ था. अभी उम्र ही क्या थी अजय की, अभी 42 साल का ही तो था. ऐसे माहौल में प्रिया का मन अंदर घुसते हुए घबरा रहा था. अंदर घुसते ही सब से पहले ऋचा पर उस की नजर पड़ी. ऋचा का रंग बिलकुल सफेद पड़ा हुआ था. जो ऋचा 4 महीने पहले उसे नवयुवती लग रही थी, आज वही मानो बुढ़ापे के मध्यम दौर में पहुंच गई हो. जिस तरह ऋचा रो रही थी, प्रिया का मन और आंखें दोनों भीग गए. वह ऋचा को संभालने उस के करीब पहुंच गई.

बाहर अजय की अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रही थीं. राकेश भी बाहर औफिस के लोगों के साथ खड़ा था. सभी अजय की जिंदादिली और हिम्मत की तारीफ कर रहे थे.

राकेश के पास ही डा. प्रकाश खड़े थे. डा. प्रकाश राकेश के बौस के खास मित्र थे. औफिस की पार्टीज में अकसर उन से मिलना हो जाया करता था. डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘अजय जितना हिम्मत वाला था, उस से भी बढ़ कर उस की पत्नी ऋचा है.’’

राकेश ने जब यह बात सुनी तो उस के मन में उत्सुकता जाग गई. उस ने डा. प्रकाश से मानो आंखों से ही पूछ लिया कि आप क्या कह रहे हैं.

‘‘अजय का पूरा इलाज मेरी देखरेख में ही हुआ है,’’ डा. प्रकाश ने कहा, ‘‘राकेश, अजय की रिपोर्ट्स के मुताबिक उस के पास मुश्किल से एक से डेढ़ महीने का समय था. यह ऋचा ही थी जिस ने उसे 4 महीने जिंदा रखा.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘जब इन लोगों को कैंसर की बीमारी का पता चला तो ऋचा डिप्रैशन में चली गई थी. अजय अपनी बीमारी से ज्यादा ऋचा को देख कर दुखी रहने लगा था. अजय की चिंता देख कर मैं ने पूछा तब उस ने सारी बात मुझे बताई. उस दिन अजय और मेरे बीच बहुत बातें हुईं. मैं ने उसे ऋचा से बात करने को कहा.

‘‘अगली बार जब वे दोनों मुझ से मिलने आए तो हालात बेहतर थे. तब ऋचा ने मुझे बताया कि उस के पति उसे मरते दम तक खूबसूरत रूप में ही देखना चाहते हैं. उस ने कहा था, ‘अजय चाहते हैं कि मैं हर वह काम करूं जो उन के ठीक रहने पर करती आई हूं. उन के साथ नौर्मल बातें करूं. हंसीमजाक, छेड़ना सब करूं. बस, उन की बीमारी का जिक्र न करूं. इन थोड़े बचे दिनों में वे एक पूरी जिंदगी जीना चाहते हैं मेरे साथ.

‘‘अजय ने मुझ से कहा, ‘तुम्हें दुखी देख कर मैं पहले ही मर जाऊंगा. मुझे मरने से पहले जीना है.’ मैं ने भी दिल पर पत्थर रख कर उन की बात मान ली. डाक्टर साहब, अब अजय काफी अच्छा महसूस कर रहे हैं.’ उस दिन यह कहतेकहते ऋचा की आंखों में आंसू आ गए थे, मगर पी लिए उस ने अपने आंसू भी अजय की खातिर.

‘‘ऋचा बहुत हिम्मती है. आज देखो, दिल पर से पत्थर हटा तो कैसा सैलाब उमड़ आया है उस की आंखों में.’’

डा. प्रकाश की बातें सुन कर राकेश का मन ग्लानि से भर गया. जिस ऋचा के लिए उस ने और प्रिया ने मन में गलत धारणा पाल ली थी, आज उसी ऋचा के लिए उस के मन में बहुत आदरभाव उमड़ आया था.

राकेश को काफी शर्म भी महसूस हुई यह सोच कर कि कैसे हम लोग बिना विचार किए एक कोने में खड़े हो कर किसी के बारे में अच्छीबुरी राय बना लेते हैं. कभी दूसरे कोने में जा कर देखने या विचारने की कोशिश ही नहीं करते.

अजनबी : कौन था दरवाजे के बाहर

‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा.

‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा.

‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्डिंग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है?

‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा.

इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

?‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया.

नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी.

‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’

शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’

शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी.

आंटी ने बताया कि उन की बिल्ड़िंग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से   पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

खाली जगह : सड़क पर नारियल पानी बेचने का संघर्ष

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खामोश जिद: क्या पूरी हो पाई रुकमा की जिद

‘‘शहीद की शहादत को तो सभी याद रखते हैं, मगर उस की पत्नी, जो जिंदा भी है और भावनाओं से भरी भी. पति के जाने के बाद वह युद्ध करती है समाज से और घर वालों के तानों से. हर दिन वह अपने जज्बातों को शहीद करती है.

‘‘कौन याद रखता है ऐसी पत्नी और मां के त्याग को. वैसे भी इतिहास गवाह है कि शहीद का नाम सब की जबान पर होता है, पर शहीद की पत्नी और मां का शायद जेहन पर भी नहीं,’’ जैसे ही रुकमा ने ये चंद लाइनें बोलीं, तो सारा हाल तालियों से गूंज गया.

ब्रिगेडियर साहब खुद उठ कर आए और रुकमा के पास आ कर बोले, ‘‘हम हैड औफिस और रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे, जिस से वे तुम्हारे लिए और मदद कर सकें,’’ ऐसा कह कर रुकमा को चैक थमा दिया गया और शहीद की पत्नी के सम्मान समारोह की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई.

चैक ले कर रुकमा आंसू पोंछते हुए स्टेज से नीचे आ गई. पतले काले सफेद बौर्डर वाली साड़ी, माथे पर न बिंदी और काले उलझे बालों के बीच न सुहाग की वह लाल रेखा. पर बिना इन सब के भी उस का चेहरा पहले से ज्यादा दमक रहा था. थी तो वह शहीद की बेवा. आज उस के शहीद पति के लिए सेना द्वारा सम्मान समारोह रखा गया था. समारोह के बाद बुझे कदमों से वह स्टेशन की तरफ चल दी.

ट्रेन आने में अभी 7-8 घंटे बाकी थे. सोचा कि चलो चाय पी लेते हैं. नजरें दौड़ा कर देखा कि थोड़ी दूर पर रेलवे की कैंटीन है. सोचा, वहीं पर चलते हैं दाम भी औसत होंगे.

रुकमा पास खड़े अपने पापा से बोली, ‘‘पापा, चलो कुछ खा लेते हैं. अभी तो ट्रेन आने में बहुत देर है.’’

बापबेटी अपना पुराना सा फटा बैग समेट कर चल दिए.

चाय पीतेपीते पापा बोले, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि वे बात करेंगे या ऐसे ही बोल रहे हैं कि रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे.’’

‘‘पता नहीं पापा, कुछ भी कह पाना मुश्किल है.’’

‘‘रुकमा, तुम आराम करो. मैं जरा ट्रेन का पता लगा कर आता हूं,’’ कहते हुए पापा बाहर चले गए.

रुकमा ने अपने पैरों को समेट कर ऊपर सीट पर रख लिया और बैग की टेक लगा कर लेट गई और धीरे से सौरभ का फोटो निकाल कर देखने लगी.

देखतेदेखते रुकमा भीगी पलकों के रास्ते अपनी यादों के आंगन में उतरती चली गई. कितनी खुश थी वह जब पापा उस का रिश्ता ले कर सौरभ के घर गए थे. पूरे रीतिरिवाज से उस की शादी भी हुई थी. मां ने अपनी बेटी को सदा सुहागन बने रहने के लिए कोई भी रिवाज नहीं छोड़ा था. यहां तक कि गांव के पास वाले मन्नत पेड़ पर जा कर पूर्णमासी के दिन दीया भी जलाया था. शादी भी धूमधाम से हुई थी.

सौरभ को पा कर रुकमा धन्य हो गई थी. सजीला, बांका, जवान, सांवला रंग, लंबा गठा शरीर, चौड़ा सीना, जो देखे उसे ही भा जाए. रुकमा भी कम सुंदर न थी. हां, मगर लंबाई उतनी न थी.

सौरभ हर समय उसे उस की लंबाई को ले कर छेड़ता था. जब सारा परिवार एकसाथ बैठा हो तो तब जरूर ‘जिस की बीवी छोटी उस का भी बड़ा नाम है…’ गाना गा कर उसे छेड़ता था. वह मन ही मन खीजती रहती थी, मगर ज्यादा देर नाराज न हो पाती थी क्योंकि सौरभ झट से उसे मना लेना जानता था.

पर यह सुख कुछ ही समय रह पाया. उसी समय सीमा पर युद्ध शुरू हो गया था और सौरभ की सारी छुट्टियां कैंसिल हो गई थीं. उसे वापस जाना पड़ा था.

उस रात रुकमा कितना रोई थी. सुबह तक आंसू नहीं थमे थे, सौरभ उस को समझाता रहा था. उस की सुंदर आंखें सूज कर लाल हो गई थीं. सौरभ के जाने में अभी 2 दिन बाकी थे.

सौरभ कहता था, ‘ऐसे रोती रहोगी तो मैं कैसे जाऊंगा.’

घर में सभी लोग कहते हैं कि ये 2 दिन तुम दोनों खुश रहो, घूमोफिरो, पर जैसे ही कोई जाने की बात करता तो अगले ही पल रुकमा की आंखों से आंसू लुढ़कने लगते.

सौरभ उसे छेड़ता, ‘यार, तुम्हारी आंखों में नल लगा है क्या, जो हमेशा टपटप गिरता रहता है.’

सौरभ की इस बचकानी हरकत से रुकमा के चेहरे पर कुछ देर के लिए हंसी आ जाती, मगर अगले ही पल फिर चेहरे पर उदासी छा जाती.

जिस दिन सौरभ को जाना था, उस रात रुकमा सौरभ के सीने पर सिर रख कर रोती ही रही और अब तो सौरभ भी अपने आंसू न रोक पाया. आखिर सिपाही के अंदर से बेइंतिहा प्यार करने वाला पति जाग ही गया जो अपनी नईनवेली दुलहन के आगोश में से निकलना नहीं चाहता था, पर छुट्टी की मजबूरी थी, वापस तो जाना ही था.

‘‘रुकमा, उठ…’’ पापा ने हिलाते हुए रुकमा को जगाया और कहा, ‘‘ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 2 पर आ रही है.’’

पापा की आवाज से रुकमा अपनी यादों से बाहर आ गई. आंखों को हाथों से मलते हुए वह उठ खड़ी हुई, जैसे किसी ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

‘‘क्या बात है बेटी… तुम फिर से…’’

‘‘नहीं पापा… ऐसा कुछ भी नहीं…’’

थोड़ी देर में ट्रेन आ गई और रुकमा ट्रेन में बैठते ही फिर यादों में खो गई. कैसे भूल सकती है वह दिन, जब सौरभ को खुशखबरी देने को बेकरार थी लेकिन सौरभ से बात ही न हो पाई. शायद लाइन और किस्मत दोनों ही खराब थीं और तभी कुछ दिन में ही खबर आ गई कि सौरभ सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गए हैं. उस वक्त रुकमा ड्राइंगरूम में बैठी थी, तभी सौरभ के दोस्त उस का सामान ले कर आए थे.

आंखों और दिल ने विश्वास ही नहीं किया. रुकमा को लगा, वह भी आ रहा होगा. हमेशा की तरह मजाक कर रहा होगा. होश में ही नहीं थी. मगर होश तो तब आया जब ससुर ने पापा से कहा था, ‘रुकमा को अपने साथ वापस ले जाएं. मेरा बेटा ही चला गया तो इसे रख कर क्या करेंगे.’

उस ने अपने सासससुर को समझाया था कि वह सौरभ के बच्चे की मां बनने वाली है लेकिन उन्होंने तो उसे शाप समझ कर घर से निकाल दिया.

तभी सिर के ऊपर रखा बैग रुकमा के सिर से टकराया और वह चीख पड़ी. बाहर झांक कर देखा कि कोई स्टेशन आने वाला है. कुछ ही देर में वह झांसी पहुंच गए.

घर पहुंचते ही मां बोलीं, ‘‘बड़ी मुश्किल से यह सोया है. कुछ देर इसे गोद में ले कर बैठ जा.’’

रुकमा कुछ ही महीने पहले पैदा हुए अपने बेटे को गोद में ले कर प्यार करने लगी.

मां ने पूछा, ‘‘वहां सौरभ के घर वाले भी आए थे क्या?’’

‘‘नहीं मां,’’ रुकमा बोली.

शाम को खाने में साथ बैठते हुए पापा ने रुकमा से पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है? तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

रुकमा ने लंबी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हां पापा, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. मेरे बेटे ने अपने फौजी पिता को नहीं देखा, इसलिए मैं फौज में ही जाऊंगी.’’

रुकमा के मातापिता हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे. बेटे को मां के पास छोड़ कर रुकमा दिल्ली में एमबीए करने आ गई और नौकरी भी करने लगी.

रुकमा को यह भी चिंता थी कि कार्तिक बड़ा हो रहा था. उसे भी स्कूल में दाखिला दिलाना होगा.

रुकमा यह सब सोच ही रही थी कि मां की अचानक हुई मौत से वह फिर बिखर गई और अब तो कार्तिक की भी उस के सिर पर जिम्मेदारी आ गई. उसे अब नौकरी पर जाना मुश्किल हो गया.

बेटा अभी बहुत छोटा था और घर पर अकेले नहीं रह सकता था. पापा भी अभी रिटायर नहीं हुए थे.

जब कोई रास्ता नजर नहीं आया, तभी सहारा बन कर आए गुप्ता अंकल यानी उस के साथ में काम कर रही दोस्त अर्चना के पिताजी.

अर्चना ने कहा, ‘‘रुकमा, आज मेरे भतीजे का बर्थडे है. तू कार्तिक को ले कर जरूर आना, कोई बहाना नहीं चलेगा और तू भी थोड़ा अच्छा महसूस करेगी.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ रुकमा ने हंस कर हां कर दी और औफिस से बाहर आ गई.

घर आ कर कार्तिक से कहा, ‘‘आज मेरा बाबू घूमने चलेगा. वहां पर तेरे बहुत सारे फ्रैंड्स मिलेंगे.’’

‘‘हां मम्मी…’’ कार्तिक खुशी से मां के गले लग गया.

मां बेटे खूब तैयार हो कर पार्टी में पहुंचे. पार्टी क्या थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादी हो. शहर की सारी नामीगिरामी हस्तियां मौजूद थीं. तभी किसी ने पीछे से पुकारा. रुकमा ने पीछे पलट कर देखा कि उस के औफिस का सारा स्टाफ मौजूद था.

केक वगैरह काटने के बाद अर्चना ने उसे अपने पिताजी से मिलवाया. वे बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारे बारे में सुन कर बड़ा दुख हुआ कि आज भी ऐसी सोच वाले लोग हैं. बेटी, जो सज्जन सामने आ रहे हैं, वे उसी रैजीमैंट में पोस्टेड हैं जिस में तुम्हारे पति थे. मुझे अर्चना ने सबकुछ बताया था.

‘‘कर्नल साहब, ये रुकमा हैं. फौज में जाना चाहती हैं. अगर आप की मदद मिल जाती तो अच्छा होता,’’ और फिर उन्होंने रुकमा के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया.

‘‘बेटी, तुम मुझे 1-2 दिन में फोन कर लेना. मुझ से जो बन पड़ेगा, मैं जरूर मदद करूंगा.’’

कर्नल के सहयोग से रुकमा देहरादून जा कर एसएसबी की कोचिंग लेने लगी और वहीं आर्मी स्कूल में पार्टटाइम बच्चों को पढ़ाने भी लगी. बेटे कार्तिक का दाखिला भी एक अच्छे स्कूल में करा दिया.

मगर मंजिल आसान न थी. हर रोज सुबह 4 बजे उठ कर फौज जैसी फिटनैस लाने के लिए दौड़ने जाती, फिर 20 किलोमीटर स्कूटी से बेटे को स्कूल छोड़ती और लाती, फिर शाम को वह फिजिकल ट्रेनिंग लेने जाती, लौट कर बच्चे का होमवर्क और घर का पूरा काम करती.

रोज की तरह रुकमा एक दिन जब बच्चे को सुलाने जा ही रही थी तभी पापा का फोन आया और फिर से वही राग ले कर बैठ गए, ‘रुकमा, मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम क्यों इतना सब बेकार में कर रही हो. दीपक का फिर फोन आया था. वह तुम्हें और तुम्हारे बेटे को खूब खुश रखेगा. मेरी बात मान जा बेटी, तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है, मेरा क्या भरोसा. मैं भी तेरी मां की तरह कब चला जाऊं, तो तेरा क्या होगा.’

‘‘पापा, मैं अपने बेटे कार्तिक और सौरभ की यादों के साथ बहुत खुश हूं. मैं किसी और को प्यार कर ही न पाऊंगी, यह उस रिश्तों के साथ उस से बेईमानी होगी. मैं सौरभ की जगह किसी और को नहीं दे सकती.

‘‘मुझे सौरभ से बेइंतिहा मुहब्बत करने के लिए सौरभ की जरूरत नहीं है, उस की यादें ही मेरी मुहब्बत को पूरी कर देंगी. मैं जज्बात में उबलती हुई नसीहतों की दलीलें नहीं सुनना चाहती.’’

पापा ने कहा, ‘क्या कोई इस तरह जाने के बाद पागलों सी मुहब्बत करता है.’

‘‘सौरभ मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ है. एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ ऐसी होती है कि वह रिश्तों की तरह 2 लोगों में बंटता नहीं है. उस में फिर मेरा हक होता है,’’ यह कहते हुए रुकमा ने फोन काट दिया, फिर प्यार से सो रहे पास लेटे बेटे कार्तिक का सिर सहलाने लगी.

तभी रुकमा ने फौज में भरती का इश्तिहार अखबार में पढ़ा. रुकमा और भी खुश हो गई कि एक सीट शहीद की विधवाओं के लिए आरक्षित है. अब उसे सौरभ के अधूरे ख्वाब पूरे होते नजर आने लगे.

इन सब मुश्किल तैयारियों के बाद फौज का इम्तिहान देने का समय आ गया. मेहनत रंग लाई. लिखित इम्तिहान के बाद उस ने एसएसबी के भी सभी राउंड पास कर लिए. लेकिन यहां तक पहुंचने के बाद एक नई परेशानी खड़ी हो गई, वहां पर एक और शहीद की पत्नी थी पूजा और उस ने भी सारे टैस्ट पास कर लिए थे और सीट एक थी.

आखिरी फैसले के लिए सिलैक्शन अफसर ने अगले दिन की तारीख दे दी और कहा कि पास होने वाले को इत्तिला दे दी जाएगी.

उदास मन से रुकमा वापस आ गई, लेकिन इतने पर भी वह टूटी नहीं. उसे अपने ऊपर विश्वास था. उस का दुख बांटने अर्चना आ जाती थी और दिलासा भी देती थी. तय तारीख भी निकल चुकी थी.

रुकमा को यकीन हो गया कि उस का सिलैक्शन नहीं हुआ इसलिए फिर उस ने उसी दिनचर्या से एक नई जंग लड़नी शुरू कर दी.

तभी एक दिन औफिस से लौट कर उसे सिलैक्शन अफसर की चिट्ठी मिली जिस में उसे हैड औफिस बुलाया गया था. सिलैक्शन का कोई जिक्र न होने के चलते रुकमा उदास मन से बुलाए गए दिन पर हैड औफिस पहुंच गई. वहां जा कर देखा कि साहब के सामने पूजा भी बैठी थी.

साहब ने दोनों को बुला कर पूछा कि तुम दोनों की काबिलीयत और जज्बे को देखते हुए हम ने रक्षा मंत्रालय से 2 वेकैंसी की मांग की थी. रक्षा मंत्रालय ने एक की जगह 2 वेकैंसी कर दी हैं और तुम दोनों ही सिलैक्ट हो गई हो. बाहर औफिस से अपना सिलैक्शन लैटर ले लो.

रुकमा यह सुनते ही शून्य सी हो गई. सौरभ को याद कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. लैटर ले कर उस ने सब से पहले अर्चना को फोन कर शुक्रिया अदा किया.

पापा उस समय देहरादून में बेटे कार्तिक के पास थे. घर पहुंच कर रुकमा पापा से लिपट गई और खुशखबरी दी.

पापा बोले, ‘‘तू बचपन से ही जिद्दी थी, पर आज तू ने अपने प्यार को ही जिद में तबदील कर दिया. और अपने बेटे को उस के फौजी पिता कैसे थे, यह बताने के लिए तू खुद फौजी बन गई. हम सभी तेरे जज्बे को सलाम करते हैं.’’

रुकमा ने देखा कि अर्चना और उस के स्टाफ के लोग बाहर दरवाजे पर खड़े थे. रुकमा इस खुशी का इजहार करने के लिए अर्चना से लिपट गई.

ढाल : रमजानी से हो गई थी कैसी भूल

अभी पहला पीरियड ही शुरू हुआ था कि चपरासिन आ गई. उस ने एक परची दी, जिसे पढ़ने के बाद अध्यापिकाजी ने एक छात्रा से कहा, ‘‘सलमा, खड़ी हो जाओ, तुम्हें मुख्याध्यापिकाजी से उन के कार्यालय में अभी मिलना है. तुम जा सकती हो.’’

सलमा का दिल धड़क उठा, ‘मुख्याध्यापिका ने मुझे क्यों बुलाया है? बहुत सख्त औरत है वह. लड़कियों के प्रति कभी भी नरम नहीं रही. बड़ी नकचढ़ी और मुंहफट है. जरूर कोई गंभीर बात है. वह जिसे तलब करती है, उस की शामत आई ही समझो.’

‘तब? कल दोपहर बाद मैं क्लास में नहीं थी, क्या उसे पता लग गया? कक्षाध्यापिका ने शिकायत कर दी होगी. मगर वह भी तो कल आकस्मिक छुट्टी पर थीं. फिर?’

सामने खड़ी सलमा को मुख्या- ध्यापिका ने गरदन उठा कर देखा. फिर चश्मा उतार कर उसे साड़ी के पल्लू से पोंछा और मेज पर बिछे शीशे पर रख दिया.

‘‘हूं, तुम कल कहां थीं? मेरा मतलब है कल दोपहर के बाद?’’ इस सवाल के साथ ही मुख्याध्यापिका का चेहरा तमतमा गया. बिना चश्मे के हमेशा लाल रहने वाली आंखें और लाल हो गईं. वह चश्मा लगा कर फिर से गुर्राईं, ‘‘बोलो, कहां थीं?’’

‘‘जी,’’ सलमा की घिग्घी बंध गई. वह चाह कर भी बोल न सकी.

‘‘तुम एक लड़के के साथ सिनेमा देखने गई थीं. कितने दिन हो गए

तुम्हें हमारी आंखों में यों धूल झोंकते हुए?’’

मुख्याध्यापिका ने कुरसी पर पहलू बदल कर जो डांट पिलाई तो सलमा की आंखों में आंसू भर आए. उस का सिर झुक गया. उसे लगा कि उस की टांगें बुरी तरह कांप रही हैं.

बेशक वह सिनेमा देखने गई थी. हबीब उसे बहका कर ले गया था, वरना वह कभी इधरउधर नहीं जाती थी. अम्मी से बिना पूछे वह जो भी काम करती है, उलटा हो जाता है. उन से सलाह कर के चली जाती तो क्या बिगड़ जाता? महीने, 2 महीने में वह फिल्म देख आए तो अम्मी इनकार नहीं करतीं. पर उस ने तो हबीब को अपना हमदर्द माना. अब हो रही है न छीछालेदर, गधा कहीं का. खुद तो इस वक्त अपनी कक्षा में आराम से पढ़ रहा होगा, जबकि उस की खिंचाई हो रही है. तौबा, अब आगे यह जाने क्या करेगी.

चलो, दोचार चांटे मार ले. मगर मारेगी नहीं. यह हर काम लिखित में करती है. हर गलती पर अभिभावकों को शिकायत भेज देती है. और अगर अब्बा को कुछ भेज दिया तो उस की पढ़ाई ही छूटी समझो. अब्बा का गुस्सा इस मुख्याध्यापिका से उन्नीस नहीं इक्कीस ही है.

‘‘तुम्हारी कक्षाध्यापिका ने तुम्हें कल सिनेमाघर में एक लड़के के साथ देखा था. इस छोटी सी उम्र में भी क्या कारनामे हैं तुम्हारे. मैं कतई माफ नहीं करूंगी. यह लो, ‘गोपनीय पत्र’ है. खोलना नहीं. अपने वालिद साहब को दे देना. जाओ,’’ मुख्याध्यापिका ने उसे लिफाफा थमा दिया.

सलमा के चेहरे का रंग उड़ गया. उस ने उमड़ आए आंसुओं को पोंछा. फिर संभलते हुए उस गोपनीय पत्र को अपनी कापी में दबा जैसेतैसे बाहर निकल आई.

पूरे रास्ते सलमा के दिल में हलचल मची रही. यदि किसी लड़के के साथ सिनेमा जाना इतना बड़ा गुनाह है तो हबीब उसे ले कर ही क्यों गया? ये लड़के कैसे घुन्ने होते हैं, जो भावुक लड़कियों को मुसीबत में डाल देते हैं.

अब अब्बा जरूर तेजतेज बोलेंगे और कबीले वाली बड़ीबूढि़यां सुनेंगी तो तिल का ताड़ बनाएंगी. उन्हें किसी लड़की का ऊंची पढ़ाई पढ़ना कब गवारा है. बात फिर मसजिद तक भी जाएगी और फिर मौलवी खफा होगा.

जब उस ने हाईस्कूल में दाखिला लिया था तो उसी बूढ़े मौलवी ने अब्बा पर ताने कसे थे. वह तो भला हो अम्मी का, जो बात संभाल ली थी. लेकिन अब अम्मी भी क्या करेंगी?

सलमा पछताने लगी कि अम्मी हर बार उस की गलती को संभालती हैं, जबकि वह फिर कोई न कोई भूल कर बैठती है. वह मांबेटी का व्यवहार निभने वाली बात तो नहीं है. सहयोग तो दोनों ओर से समान होना चाहिए. उसे अपने साथ बीती घटनाएं याद आने लगी थीं.

2 साल पहले एक दिन अब्बा ने छूटते ही कहा था, ‘सुनो, सल्लो अब 13 की हो गई, इस पर परदा लाजिम है.’

‘हां, हां, मैं ने इस के लिए नकाब बनवा लिया है,’ अम्मी ने एक बुरका ला कर अब्बा की गोद में डाल दिया था, ‘और सुनो, अब तो हमारी सल्लो नमाज भी पढ़ने लगी है.’

‘वाह भई, एकसाथ 2-2 बंदिशें हमारी बेटी पर न लादो,’ अब्बा बहुत खुश हो रहे थे.

‘देख लीजिए. फिर एक बंदिश रखनी है तो क्या रखें, क्या छोड़ें?’

‘नमाज, यह जरूरी है. परदा तो आंख का होता है?’

और अम्मी की चाल कामयाब रही थी. नमाज तो ‘दीनदार’ होने और दकियानूसी समाज में निभाने के लिए वैसे भी पढ़नी ही थी. उस का काम बन गया.

फिर उस का हाईस्कूल में आराम से दाखिला हो गया था. बातें बनाने वालियां देखती ही रह गई थीं. अब्बा ने किसी की कोई परवा नहीं की थी.

सलमा को दूसरी घटना याद आई. वह बड़ी ही खराब बात थी. एक लड़के ने उस के नाम पत्र भेज दिया था. यह एक प्रेमपत्र था. अम्मी की हिदायत थी, ‘हर बात मुझ से सलाह ले कर करना. मैं तुम्हारी हमदर्द हूं. बेशक बेटी का किरदार मां की शख्सियत से जुड़ा होता है.’

मैं ने खत को देखा तो पसीने छूटने लगे. फिर हिम्मत कर के वह पत्र मैं ने अम्मी के सामने रख दिया. अम्मी ने दिल खोल कर बातें कीं. मेरा दिल टटोला और फिर खत लिखने वाले महमूद को घर बुला कर वह खबर ली कि उसे तौबा करते ही बनी.

मां ने उस घटना के बाद कहा, ‘सलमा, मुसलिम समाज बड़ा तंगदिल और दकियानूसी है. पढ़ने वाली लड़की को खूब खबरदार रहना होता है.’

सलमा ने पूछा, ‘इतना खबरदार किस वास्ते, अम्मी?’

वह हंस दी थीं, ‘केवल इस वास्ते कि कठमुल्लाओं को कोई मौका न मिले. कहीं जरा भी कोई ऐसीवैसी अफवाह उड़ गई तो वे अफवाह उदाहरण देदे कर दूसरी तरक्की पसंद, जहीन और जरूरतमंद लड़कियों की राहों में रोड़े अटका सकते हैं.’

‘आप ठीक कहती हैं, अम्मी,’ और सलमा ने पहली बार महसूस किया कि उस पर कितनी जिम्मेदारियां हैं.

पर 2-3 साल बाद ही उस से वह भूल हो गई. अब उस अम्मी को, जो उस की परम सहेली भी थीं, वह क्या मुंह दिखाएगी? फिर अब्बा को तो समझाना ही मुश्किल होगा. इस बार किसी तरह अम्मी बात संभाल भी लेंगी तो वह आइंदा पूरी तरह सतर्क रहेगी.

सलमा ने अपनी अम्मी रमजानी को पूरी बात बता दी थी. सुन कर वह बहुत बिगड़ीं, ‘‘सुना, इस गोपनीय पत्र में क्या लिखा है?’’

सलमा ने लिफाफा खोल कर पढ़ सुनाया.

रमजानी बहुत बिगड़ीं, ‘‘अब तेरी आगे की पढ़ाई गई भाड़ में. तू ने खता की है, इस की तुझे सजा मिलेगी. जा, कोने में बैठ जा.’’

शाम हुई. अब्बा आए, कपड़े बदल कर उन्होंने चाय मांगी, फिर चौंक उठे, ‘‘यह इस वक्त सल्लो, यहां कोने में कैसे बैठी है?’’

‘‘यह मेरा हुक्म है. उस के लिए सजा तजवीज की है मैं ने.’’

‘‘बेटी के लिए सजा?’’

‘‘हां, हां, यह देखो…खर्रा,’’ सलमा की अम्मी गोपनीय पत्र देतेदेते रुक गईं, ‘‘लेकिन नहीं. इसे गोपनीय रहने दो. मैं ही बता देती हूं.’’

और सलमा का कलेजा गले में आ अटका था.

‘‘…वह बात यह है कि अपनी सल्लो की मुख्याध्यापिका नीम पागल औरत है,’’ अम्मी ने कहा था.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मसजिद के मौलवी से भी अधिक दकियानूसी और वहमी औरत.’’

‘‘बात क्या हो गई?’’

‘‘…वह बात यह है कि मैं ने सल्लो से कहा था, अच्छी फिल्म लगी है, जा कर दिन को देख आना. अकेली नहीं, हबीब को साथ ले जाना. उसे बड़ी मुश्किल से भेजा. और बेचारी गई तो उस की कक्षाध्यापिका ने, जो खुद वहां फिल्म देख रही थी, इस की शिकायत मुख्याध्यापिका से कर दी कि एक लड़के के साथ सलमा स्कूल के वक्त फिल्म देख रही थी.’’

‘‘लड़का? कौन लड़का?’’ अब्बा का पारा चढ़ने लगा.

रमजानी बेहद होशियार थीं. झट बात संभाल ली, ‘‘लड़का कैसा, वह मेरी खाला है न, उस का बेटा हबीब. गाजीपुर वाली खाला को आप नहीं जानते. मुझ पर बड़ी मेहरबान हैं,’’ अम्मी सरासर झूठ बोल रही थीं.

‘‘अच्छा, अच्छा, अब मर्द किस- किस को जानें,’’ अब्बा ने हथियार डाल दिए.

बात बनती दिखाई दी तो अम्मी, अब्बा पर हावी हो गईं, ‘‘अच्छा क्या खाक? उस फूहड़ ने हमारी सल्लो को गलत समझ कर यह ‘गोपनीय पत्र’ भेज दिया. बेचारी कितनी परेशान है. आप इसे पढ़ेंगे?’’

‘शाबाश, वाह मेरी अम्मी,’ सलमा सुखद आश्चर्य से झूम उठी. अम्मी बिगड़ी बात यों बना लेंगी, उसे सपने में भी उम्मीद न थी, ‘बहुत प्यारी हैं, अम्मी.’

सलमा ने मन ही मन अम्मी की प्रशंसा की, कमाल का भेजा पाया है अम्मी ने. खैर, अब आगे जो भी होगा, ठीक ही होगा. अम्मी ढाल बन कर जो खड़ी रहती हैं अपनी बेटी के लिए.

शायद अब्बा ने खत पढ़ना ही नहीं चाहा. बोले, ‘‘रमजानी, वह औरत सनकी नहीं है. दरअसल, मैं ने ही उन मास्टरनियों को कह रखा है कि सलमा का खयाल रखें. वैसे कल मैं उन से मिल लूंगा.’’

‘‘तौबा है. आप भी वहमी हैं, कैसे दकियानूसी. बेचारी सल्लो…’’

‘‘छोड़ो भी, उसे बुलाओ, चाय तो बने.’’

‘‘वह तो बहुत दुखी है. आई है जब से कोने में बैठी रो रही है. आप खुद ही जा कर मनाओ. कह रही थी, मुख्याध्यापिका ने शक ही क्यों किया?’’

‘‘मैं मनाता हूं.’’

और शेर मुहम्मद ने अपनी सयानी बेटी को उस दिन जिस स्नेह और दुलार से मनाया, उसे देख कर सलमा अम्मी की व्यवहारकुशलता की तारीफ करती हुई मन ही मन सोच रही थी, ‘आइंदा फिर कभी ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए.’

और सलमा यों अपने चारों ओर फैली दकियानूसी रिवायतों की धुंध से जूझती आगे बढ़ी तो अब वह कालिज की एक छात्रा है. उस के इर्दगिर्द उठी आंधियां, मांबेटी के व्यवहार के तालमेल के आगे कभी की शांत हो गईं.

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कोई शर्त नहीं: ट्रांसफर की मारी शशि बेचारी

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इंतजार तो किया होता : आरिफ की मासूम बेवफाई

कालेज का पहला दिन था, इसलिए शब्बी कुछ जल्दी ही आ गई थी. वह बहुत ही सुंदर और शर्मीली लड़की थी. उसे कम बोलना पसंद था.

धीरेधीरे कालेज में शब्बी की जानपहचान बढ़ती गई. लड़के तो उस की तारीफ करते न थकते, पर शब्बी किसी भी लड़के की तरफ अपनी नजर नहीं उठाती थी.

एक दिन आसमान पर बादल घिर आए थे. बिजली चमक रही थी. शब्बी तेज कदम बढ़ाते हुए अपने घर की तरफ जा रही थी. अचानक बूंदाबांदी शुरू हो गई, तो वह एक घर के बरामदे में जा कर खड़ी हो गई.

अचानक शब्बी की नजर एक खूबसूरत लड़के आरिफ पर पड़ी. वह उसे देख कर घबरा गई. तभी आरिफ ने मुसकान फेंकते हुए कहा, ‘‘शब्बीजी, आप अंदर आइए न… बाहर क्यों खड़ी हैं?’’

शब्बी यह बात सुन कर शरमा गई और बारिश में ही अपने घर की तरफ चलने लगी. आरिफ ने बांह पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया, ‘‘बुरा मान गई. मैं कोई पराया थोड़े ही हूं…’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ शब्बी ने झेंपते हुए कहा. बारिश धीरेधीरे कम होती जा रही थी. जल्दी ही शब्बी अपने घर की तरफ चल पड़ी.

शब्बी सारी रात करवटें बदलती रही. उस की आंखें आरिफ को खोज रही थीं. उस का बड़े ही प्यार से ‘शब्बीजी’ कहना उसे बहुत पसंद आया था. आरिफ भी उसी कालेज में पढ़ता था. धीरेधीरे दोनों की जानपहचान बढ़ी और फिर मुलाकातें होने लगीं.

एक दिन आरिफ ने कहा, ‘‘शब्बी, मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं, अब एक पल की भी जुदाई मुझ से सहन नहीं होती… मैं तुम्हारे घर वालों से तुम्हें मांग लूंगा और दुलहन बना कर अपने घर ले आऊंगा.’’

उस दिन शब्बी ज्यों ही घर पहुंची, उस की नजर कुछ अनजानी औरतों पर पड़ी. पर वह नजरअंदाज करते हुए अपने कमरे की तरफ चली गई.

तभी उस की मां मिठाई का एक डब्बा लिए उस के कमरे में आईं, तो शब्बी झट पूछ बैठी, ‘‘मां, आज मिठाई किस खुशी में लाई हो?’’

सायरा बेगम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘बेटी, बहुत बड़ी खुशखबरी है. पहले मिठाई खाओ, फिर मैं बताऊंगी.’’

‘‘अच्छा, अब बताइए,’’ शब्बी ने मिठाई खाते हुए पूछा.

‘‘बेटी, खुशी की बात यह है कि तुम्हारा रिश्ता पक्का हो गया है.’’

मां की यह बात सुन कर शब्बी का दिल जोर से धड़कने लगा. उस की नजरों में आरिफ का मासमू चेहरा घूमने लगा. वह बेकरार हो उठी और आरिफ के घर की ओर चल पड़ी.

आरिफ उस वक्त कोई गीत गुनगुना रहा था. शब्बी को इस कदर परेशान और दुखी देख कर वह चौंक उठा, ‘‘क्या हुआ शब्बी? तुम इस तरह परेशान क्यों हो?

‘‘आरिफ…’’ शब्बी कांपते हुए बोली, ‘‘मां ने मेरी शादी पक्की कर दी है. मैं अब तुम्हारे बिन एक पल भी…’’

‘‘छोड़ो भी यह फिल्मी अंदाज…’’ आरिफ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘ठीक है, शादी कर लो… आखिर कब तक कुंआरी बैठी रहोगी. तुम अपनी मां की बात नहीं मानोगी क्या?’’

आरिफ की यह बात सुन कर शब्बी की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह कांपती आवाज में बोली, ‘‘आरिफ, मैं नहीं जानती थी कि तुम इस कदर बेवफा हो,’’ इतना कह कर शब्बी ने खिड़की के रास्ते नीचे छलांग लगा दी.

यह देख कर आरिफ चीख पड़ा. वह दौड़ता हुआ लहूलुहान शब्बी के पास पहुंचा. ‘‘शब्बी, यह तू ने क्या कर लिया… देखो शब्बी, मैं हूं… हां, मैं… तुम्हारा आरिफ… तुम्हारा हमराज… आंखें खोलो… कुछ पल तो इंतजार किया होता.

‘‘वह तो मैं ने ही अपनी मां को तुम्हारे घर भेजा था तुम्हें अपनी दुलहन बनाने के लिए. उठो शब्बी, मेरी दुलहन.’’

आरिफ दीवानों की तरह चिल्लाए जा रहा था, लेकिन शब्बी तो अब इस दुनिया से बहुत दूर जा चुकी थी.

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