आशियाना: क्यों अपने ही आशियाने की दुश्मन बन बैठी अवनी – भाग 3

केशवदास को यह बात ठीक लगी और तय हुआ कि एक बार कोशिश की जा सकती है. उसी दिन नंदिता ने संजय की मम्मी से फोन कर के मिलने का समय मांगा. इतने में अवनि लौट आई और अपने पापा को देख कर चौंक गई. केशवदास का झुका हुआ चेहरा देख कर अवनि की आंखों से आंसू बह निकले.

रात को नंदिता और मधु केशवदास के साथ संजय के घर गए. नंदिता को देख कर संजय की मम्मी चौंक पड़ीं. नंदिता उस का चौंकना समझ नहीं सकीं. नीता, संजय की मम्मी, हाथ जोड़ कर बोलीं, ‘‘मैडम, आप ने मुझे नहीं पहचाना?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘सौरी, वास्तव में मैं ने आप को नहीं पहचाना.’’

‘‘मैडम, मैं नीता भारद्वाज, मुझे आप ने ही पढ़ाया था, 12वीं में पूरा साल मेरी फीस आप ने ही भरी थी.’’

‘‘हां, याद आया. नीता इतने साल हो गए, तुम इसी शहर में हो, कभी मिलने नहीं आईं.’’

‘‘नहीं मैडम, अभी 1 साल पहले ही हम यहां आए हैं. कई बार सोचा लेकिन मिल नहीं पाई.’’

नीता के पिता की मृत्यु के बाद उस के घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी जिस का पता चलने पर नंदिता ही नीता की फीस भर दिया करती थीं. नीता और उस की मां उन की बहुत एहसानमंद थीं. लेकिन अब घर के रखरखाव से आर्थिक संपन्नता झलक रही थी. नीता ने कहा, ‘‘संजय मेरा इकलौता बेटा है और उस के पिता रवि इंजीनियर हैं जो अभी आफिस के काम से बाहर गए हुए हैं.’’

‘‘हां, मैं संजय के बारे में ही बात करने आई थी, क्या करता है आजकल?’’

‘‘अभी कुछ ही दिन पहले उसे नौकरी मिली है.’’

अब तक नीता का नौकर चाय ले कर आ चुका था. नंदिता ने सारी बात नीता को बता दी थी और कहा, ‘‘नीता, मैं आशा करती हूं जातिधर्म के विचारों को एक ओर रख कर तुम अवनि को अपना लोगी.’’

‘‘मैडम, अब आप चिंता न करें, आप का कहना क्या मैं कभी टाल सकती हूं?’’

सब के दिलों से बोझ हट गया. नीता ने कहा, ‘‘मैं रवि से बात कर लूंगी. मैं जानती हूं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. हां, मैं अवनि से कल आ कर जरूर मिलूंगी और जल्दी ही विवाह की तिथि निश्चित कर लूंगी. मैडम, अब आप बिलकुल चिंता न करना, आप जैसा चाहेंगी वैसा ही होगा.’’

सब चलने के लिए उठ खड़े हुए. केशवदास ने कहा, ‘‘आप लोगों का एहसान कभी नहीं भूलूंगा, आप विवाह की तिथि तय कर के बता दीजिए, विवाह की भी तैयारी करनी होगी.’’

नंदिताजी मुसकराईं और बोलीं, ‘‘आप को ही नहीं मुझे भी तैयारी करनी है, मैं ने उसे बेटी जो कहा है.’’

केशवदास लौट गए, नंदिता और मधु भी घर आ गए. नंदिता ने अवनि को यह समाचार दिया तो वह चहक उठी और उन के गले लग गई, ‘‘थैंक्यू, आंटी.’’

वे अब बहुत खुश थीं. उन्होंने जीवन की कठोर सचाई को अपनाकर पुरानी यादों को मन के एक कोने में दबा कर रख दिया था और नईनई प्यारी खिलखिलाती यादों के साथ जीना शुरू कर दिया था. वे अब यह जान चुकी थीं कि जिन्हें प्रेम का, ममता का मान रखना नहीं आता, उन पर स्नेह लुटा कर अपनी ममता का अपमान करवाना निरी बेवकूफी है. अब उन्हें अवनि के विवाह की भी तैयारियां करनी थीं. इस उत्साह में उन के जोड़ों के दर्द ने भी हार मान ली थी. आराम तो उन्हें अब मिला था उकताहट से, दर्द से, घर में पसरे सन्नाटे से.

अब उन का ‘आशियाना’ खिल- खिलाता रहेगा, हंसता रहेगा, बोलता रहेगा लड़कियों के साथ और उन के साथ. अब उन्हें किसी से कोई अपेक्षा नहीं, किसी के प्रति क्रोध नहीं. जीवन की छोटीछोटी खुशियों में ही बड़ी खुशी खोज लेना, यही तो जीवन है.

 

 

 

 

 

 

 

कोयले की लकीर : सुगंधा की आंखों में क्यों खुशी के आंसू थें?

विनी ने सोचा न था जिस पितातुल्य इंसान पर वह विश्वास कर रही है वह इंसान उस विश्वास और सम्मान को एक झटके में समाप्त कर देगा. तो क्या वह अपने छलनी तनमन के साथ हार मान बैठ गई? विनी की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी. एमए का रिजल्ट निकल आया था. 80 प्रतिशत मार्क्स आए थे. अपनी मम्मी सुगंधा के लिए उस ने उन की पसंद की मिठाई खरीदी और घर की तरफ उत्साह से कदम बढ़ा दिए. सुगंधा अपनी बेटी की सफलता से अभिभूत हो गईं.

खुशी से आंखें झिलमिला गईं. दोनों मांबेटी एकदूसरे के गले लग गईं. एकदूसरे का मुंह मीठा करवाया. घर में 2 ही तो लोग थे. विनी के पिता आलोक का देहांत हो गया था. सुगंधा सीधीसरल हाउसवाइफ थीं. पति की पैंशन और दुकानों के किराए से घर का खर्च चल जाता था. शाम को वे कुछ ट्यूशंस भी पढ़ाती थीं. विनी ने ड्राइंग ऐंड पेंटिंग में एमए किया था. आलोक को आर्ट्स में विशेष रुचि थी. विनी की ड्राइंग में रुचि देख कर उन्होंने उसे भी इसी क्षेत्र में आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया था.

विनी शाम को कुछ बच्चों को ड्राइंग सिखाया करती थी. पेंटिंग के सामान का खर्च वह इन्हीं ट्यूशंस से निकाल लेती थी. सुगंधा ने बेटी को गर्वभरी नजरों से देखते हुए उस से पूछा, ‘‘अब आगे क्या इरादा है?’’ फिर विनी के जवाब देने से पहले ही उसे छेड़ने लगी, ‘‘लड़का ढूंढ़ा जाए?’’ विनी ने आंखें तरेरीं, ‘‘नहीं, अभी नहीं, अभी मुझे बहुतकुछ करना है.’’ ‘‘क्या सोचा है?’’ ‘‘पीएचडी करनी है. सोच रही हूं आज ही शेखर सर से मिल आती हूं. उन्हें ही अपना गाइड बनाना चाहती हूं. मां, आप को पता है, उन में मुझे पापा की छवि दिखती है. बस, वे मुझे अपने अंडर में काम करने दें.’’ ‘‘मैं तुम्हारे भविष्य में कोई बाधा नहीं बनूंगी, खूब पढ़ाई करो, आगे बढ़ो.’’ विनी अपनी मां की बांहों में छोटी बच्ची की तरह समा गई. सुगंधा ने भी उसे खूब प्यार किया. सुगंधा को अपनी मेहनती, मेधावी बेटी पर नाज था.

रुड़की के आरपी कालेज में एमए करने के बाद वह अपने प्रोफैसर शेखर के अधीन ही पीएचडी करना चाहती थी. शेखर का बेटा रजत विनी का बहुत अच्छा दोस्त था. बचपन से दोनों साथ पढ़े थे. पर रजत को आर्ट्स में रुचि नहीं थी, वह इंजीनियरिंग कर अब जौब की तलाश में था. दोनों हर सुखदुख बांटते थे, एकदूसरे के घर भी आनाजाना लगा रहता था. इन दोनों की दोस्ती के कारण दोनों परिवारों में भी कभीकभी मुलाकात होती रहती थी. विनी ने रजत को फोन कर अपना रिजल्ट और आगे की इच्छा बताई. रजत बहुत खुश हुआ, ‘‘अरे, यह तो बहुत अच्छा रहेगा. पापा बिलकुल सही गाइड रहेंगे. किसी अंजान प्रोफैसर के साथ काम करने से अच्छा यही रहेगा कि तुम पापा के अंडर में ही काम करो. आज ही आ जाओ घर, पापा से बात कर लो.’’ शाम को ही विनी मिठाई ले कर रजत के घर गई. शेखर के पास कुछ स्टूडैंट्स बैठे थे. विनी का बचपन से ही घर में आनाजाना था. वह निसंकोच अंदर चली गई.

शेखर की पत्नी राधा विनी पर खूब स्नेह लुटाती थी. रजत और राधा के साथ बैठ कर विनी गप्पें मारने लगी. थोड़ी देर में शेखर भी उन के साथ शामिल हो गए. दोनों ने उस की सफलता पर शुभाशीष दिए. उस की पीएचडी की इच्छा जान कर शेखर ने कहा, ‘‘ठीक है, अभी कुछ दिन लाइब्रेरी में सभी बुक्स देखो. किसकिस टौपिक पर काम हो चुका है, किस टौपिक पर रिसर्च होनी चाहिए, पहले वह डिसाइड करेंगे. फिर उस पर काम करेंगे. अभी कालेज की लाइब्रेरी में काफी नई बुक्स आई हैं, उन पर एक नजर डाल लो. देखो, क्या आइडिया आता है तुम्हें.’’ विनी उत्साहपूर्वक बोली, ‘‘सर, कल से ही लाइब्रेरी जाऊंगी. शेखर कालेज में विनी का पीरियड लेते थे. विनी उन्हें सर कहने लगी थी. रजत ने हमेशा की तरह टोका, ‘‘अरे, घर में तो पापा को सर मत कहो, विनी, अंकल कहो.’’ विनी हंस पड़ी, ‘‘नहीं, सर ही ठीक है, कहीं अंकल कहने की आदत हो गई और क्लास में मुंह से अंकल निकल गया तो क्या होगा, यह सोचो.

’’ सब विनी की इस बात पर हंस पड़े. विनी ने जातेजाते शेखर के रूम में नजर डाली. शेखर की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगती रहती थी. वह शेखर का बहुत सम्मान करती थी. हर पेंटिंग में स्त्री के अलगअलग भाव मुखर हो उठे थे. कहीं शक्ति बनी स्त्री, कहीं मातृत्व में डूबी स्त्री आकृति, कहीं प्रेयसी का रूप धरे मनोहारी आकृति, कहीं आराध्य का रूप लिए ओजपूर्ण स्त्री आकृति. शेखर के काम की मन ही मन सराहना करती हुई विनी घर लौट आई और सुगंधा को शेखर की सलाह बताई. अगले दिन से ही विनी लाइब्रेरी में किताबें पढ़ने में बिजी रहने लगी. 15 दिनों की खोजबीन के बाद उसे एक विषय सूझा. वह उत्साहित सी शेखर के घर की तरफ बढ़ गई. उसे पता था, रजत अपने दोस्तों के साथ कहीं गया हुआ था.

राधा तो अकसर घर में ही रहती थी. पर शाम को जिस समय विनी शेखर के घर पहुंची, राधा किसी काम से कहीं गई हुई थीं. शेखर घर में अकेले थे. विनी ने उन्हें विश किया. उन के हालचाल पूछे. पूछा, ‘‘आंटी नहीं हैं?’’ उन्होंने कहा, ‘‘अभी आ जाएंगी.’’ ‘‘आज बाकी स्टूडैंट्स नहीं हैं?’’ ‘‘नहीं आजकल उन्हें कुछ काम दिया हुआ है, पूरा कर के आएंगे.’’ ‘‘सर, मैं ने लाइब्रेरी में काफीकुछ देखा, ‘भारतीय गुफाओं में भित्ति चित्रण’ इस पर कुछ काम कर सकते हैं?’’ ‘‘हां, शाबाश, कुछ विषय और देख लो, फिर फाइनल करेंगे,’’ शेखर आज उस के सामने बैठ कर जिस तरह उसे देख रहे थे, विनी कुछ असहज सी हुई. वह जाने के लिए उठती हुई बोली, ‘‘ठीक है, सर, मैं अभी और पढ़ कर आऊंगी.’’

सच है, गृहस्थ हो या संन्यासी, सभी पुरुषों के अंदर एक आदिम पाश्विक वृत्ति छिपी रहती है. किस रूप में, किस उम्र में वह पशु जाग कर अपना वीभत्स रूप दिखाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. ‘‘रुको जरा, विनी मेरे लिए एक कप चाय बना दो. कुछ सिरदर्द है,’’ विनी धर्मसंकट में फंस गई. उस का दिमाग कह रहा था, फौरन चली जा, पर पिता की सी छवि वाले गुरु की बात टालने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी. फिर अपने दिल को ही समझा लिया, नहीं, उस का वहम ही होगा. आजकल माहौल ही ऐसा है न, डर लगा ही रहता है. ‘जी, सर’ कहती हुई वह किचन की तरफ बढ़ गई.

उसे अपने पीछे दरवाजा बंद करने की आहट मिली तो वह चौंक गई. शेखर उस की तरफ आ रहे थे. चेहरे पर न पिता की सी छवि दिखी, न गुरु के से भाव, विनी को उन के चेहरे पर कुटिल मुसकान दिखी. उसे महसूस हुआ जैसे वह किसी खतरे में है. शेखर एकदम उस के पास आ कर खड़े हो गए. उस के कंधों पर हाथ रखा तो विनी पीछे हटने लगी. नारी हर उम्र में पुरुष के अनुचित स्पर्श को भांप लेती है. शेखर बोले, ‘‘घबराओ मत, यह तो अब चलता ही रहेगा. थोड़े और करीब आ जाएं हम दोनों, तो रिसर्च करने में तुम्हें आसानी होगी. तुम्हारी हर मदद करूंगा मैं.’’ नागिन सी फुंफकार उठी विनी, ‘‘शर्म नहीं आती आप को? आप की बेटी जैसी हूं मैं. आप में हमेशा पिता की छवि दिखी है मुझे.’’ ‘‘मैं ने तो तुम्हें कभी बेटी नहीं समझा. तुम अपने मन में मेरे बारे में क्या सोचती हो, उस से मुझे जरा भी मतलब नहीं. आओ मेरे साथ.’’ विनी ने पीछे हटते हुए कहा, ‘‘मैं आंटी, रजत सब को बताऊंगी, आप की यह गिरी हुई हरकत छिपी नहीं रहेगी.’’ ‘‘बाद में बताती रहना, मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा,’’

कहते हुए उस का हाथ पकड़ कर बलिष्ठ शेखर उसे बैडरूम तक ले गए. विनी ने अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश में उन्हें काफी धक्के दिए. उन का हाथ दांतों से काट भी लिया. पर उन के सिर पर ऐसा शैतान सवार था कि विनी के रोके न रुका और दुर्घटना घट गई. सालों का आदर, विश्वास सब रेत की तरह ढहता चला गया. विनी ने रोरो कर चीखचीख कर शोर मचाया. तो शेखर ने कहा, ‘‘चुपचाप चली जाओ यहां से और जो हुआ उसे भूल जाओ. इसी में तुम्हारी भलाई है. किसी को बताओगी भी, तो जानती हो न, कितने सवालों के घेरे में फंस जाओगी. परिवार, समाज में मेरी इमेज का अंदाजा तो है ही तुम्हें.’’ ‘‘कहीं नहीं जाऊंगी मैं,’’ विनी चिल्लाई, ‘‘आने दो आंटी को, उन्हें और रजत को आप की करतूत बताए बिना मैं कहीं नहीं जाने वाली,’’ शेखर को अब हैरानी हुई, ‘‘बेवकूफी मत करो बदनाम हो जाओगी, कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी, समाज रोज तुम पर ही नएनए ढंग से कीचड़ उछालेगा, पुरुष का कुछ बिगड़ा है कभी?’’ विनी नफरतभरे स्वर में गुर्राई, ‘‘आप ने मेरा रेप किया है,

आप मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे.’’ शेखर ने तो सोचा था विनी रोधो कर चुपचाप चली जाएगी पर वह तो अभी वैसी की वैसी बैठी हुई उन्हें गालियां दिए जा रही थी. हिली भी नहीं थी. इस स्थिति की तो उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी. डोरबेल बजी तो उन के पसीने छूट गए, बोले, ‘‘भागो यहां से, जल्दी.’’ ‘‘मैं कहीं नहीं जा रही.’’ डोरबेल दोबारा बजी तो शेखर के हाथपैर फूल गए, दरवाजा खोला, राधा थीं. शेखर का उड़ा चेहरा देख चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’ शेखर इतना ही बोले, ‘‘सौरी, राधा.’’ ‘‘क्या हुआ, शेखर?’’ तभी बैडरूम से ‘आंटी’ कह कर विनी के तेजी से रोने की आवाज आई. राधा भागीं. बैड पर अर्धनग्न, बेहाल, रोने से फैले काजल की गालों पर सबकुछ स्पष्ट करती रेखा, बिखरे बाल, कराहतीरोती विनी राधा की बांहों में निढाल हो गईं. राधा जैसे पत्थर की बुत बन गई. विनी की हालत देख कर सबकुछ समझ गईं. फूटफूट कर रो पड़ीं. शेखर को धिक्कार उठीं, ‘‘यह क्या किया, हमारी बच्ची जैसी है यह. यह कुकर्म क्यों कर दिया? नफरत हो रही है तुम से.’’ राधा का रौद्र रूप देख कर शेखर सकपकाए. राधा ने उन की तरफ थूक दिया. तनमन में ऐसी आग लगी थी कि विनी को एक तरफ कर पास के कमरे में अगले हफ्ते होने वाली प्रदर्शनी के लिए रखी शेखर की तैयार 10-15 पेंटिंग्स पर वहीं रखे काले रंग से स्त्री के महान रूपों की तस्वीरों में कालिख भरती चली गईं. विनी को फिर अपने से चिपटा लिया. शेखर चुपचाप वहीं रखी एक चेयर पर बैठ गए थे. दोनों रोती रहीं, राधा और सुगंधा के अच्छे संबंध थे.

राधा ने सुगंधा को फोन किया और फौरन आने के लिए कहा. घर थोड़ी ही दूर था. सुगंधा और रजत लगभग साथसाथ ही घर में घुसे. सब स्थिति समझ कर सुगंधा तो विनी को, अपनी मृगछौने सी प्यारी बेटी को, गले से लगा कर बिलख उठी. रजत ने उन्हें संभाला. रजत ने रोते हुए विनी के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘बहुत शर्मिंदा हूं, विनी, अब इस आदमी से मेरा कोई संबंध नहीं है.’’ राधा भी दृढ़ स्वर में बोल उठीं, ‘‘और मेरा भी कोई संबंध नहीं. रजत, मैं इस आदमी के साथ अब नहीं रहूंगी,’’ रजत विनी की हालत देख कर फूटफूट कर रो रहा था. बचपन की प्यारी सी दोस्त का यह हाल. वह भी उस के पिता ने, घिन्न आ रही थी उसे. सुगंधा का विलाप भी थमने का नाम नहीं ले रहा था. राधा कभी सुगंधा से माफी मांगती, कभी विनी से. शेखर को छोड़ कर सब गहरे दुख में डूबे थे. वे सोच रहे थे, सब रोधो कर अभी शांत हो जाएंगे. राधा कह रही थी, ‘‘काश, मैं विधवा होती, ऐसे पशु पति का साथ तो न होता. अपरिचितों से तो ये परिचित अधिक खतरनाक होते हैं. ये कुछ भी करें, इन्हें पता है, कोई कुछ बोलेगा नहीं. पर ऐसा नहीं होगा.’’ विनी के मुंह से जैसे ही निकला, ‘‘मेरा जीवन तो बरबाद हो गया,’’ राधा ने तुरंत कहा, ‘‘तुम्हारा क्यों बरबाद होगा, बेटी, तुम ने क्या किया है. तुम्हारा तो कोई दोष नहीं है.

अपने दिल पर यह बोझ मत रखना. इस दुष्कर्म को याद ही नहीं रखना. दुखी नहीं रहना है तुम्हें. पाप कोई और करे, दुखी कोई और हो, यह कहां का न्याय है?’’ राधा के शब्दों से जैसे सुगंधा भी होश में आई. यह समय उस के रोने का कहां था. यह तो बेटी को मानसिक संबल देने की घड़ी थी. अपने आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘नहीं विनी, इस घृणित इंसान का दिया घाव जल्दी नहीं भरेगा, जानती हूं, पर भरेगा जरूर, यह भी भरोसा रखो. समझ लेना बेटा, सड़क पर चलते हुए किसी कुत्ते ने काट खाया है. इस दुष्कर्मी का कुकर्म मेरी बेटी के आत्मविश्वास की मजबूत चट्टान को भरभरा कर गिरा नहीं सकता.’’ विनी फिर रोने लगी, सिसकते हुए बोली, ‘‘मेरे सारे वजूद पर कालिख सी पोत दी गई है, कैसे जिऊंगी,’’ रजत उस के पास ही जमीन पर बैठते हुए बोला, ‘‘विनी, ताजमहल की सुंदरता ऐसे दुष्कर्मियों की खींची कोयले की लकीरों से खराब नहीं होती. इस लकीर पर पानी डालते हुए सिर ऊंचा रख कर आगे बढ़ना है तुम्हें. हम सब तुम्हारे साथ हैं. तुम्हारा जीवन यहां रुकेगा नहीं. बहुत आगे बढ़ेगा,’’

और फिर शेखर की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘और आप को तो मैं सजा दिलवा कर रहूंगा.’’ बात इस हद तक पहुंच जाएगी, इस की तो शेखर ने कल्पना भी नहीं की थी. अपने अधीन पीएचडी करने वाली अन्य छात्राओं का भी वे शारीरिक शोषण करते आए थे. किसी ने उन के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की थी. उन्हें किसी का डर नहीं था. इस तरह के किसी भी आदमी को समाज, परिवार या कानून का डर नहीं होता क्योंकि उन के पास इज्जत, पद का ऐसा लबादा होता है जिस से नीचे की गंदगी कोई चाह कर भी नहीं देख सकता. वे कमजोर सी, आम परिवार की छात्राओं को अपना शिकार बनाया करते थे. विनी के बारे में भी यही सोचा था कि मांबेटी रोधो कर इज्जत के डर से चुप ही रह जाएंगी. पर उन की पत्नी और पुत्र ने स्थिति बदल दी थी. अब जो हो रहा था, वे हैरान थे. अकल्पनीय था. पत्नी और पुत्र के सामने शर्मिंदा होना पड़ गया था. राधा उठ कर खड़ी हो गई थी, ‘‘रजत, मैं इस घर में नहीं रहूंगी.’’ ‘‘हां, मां, मैं भी नहीं रह सकता.’’ शेखर ने उपहासपूर्वक पूछा, ‘‘कहां जाओगे दोनों? बड़ीबड़ी बातें तो कर रहे हो, कोई और ठिकाना है?’’ अपमान की पीड़ा से राधा तड़प उठी, ‘‘तुम्हारे जैसे बलात्कारी पुरुष के साथ रह कर सुविधाओं वाला जीवन नहीं चाहिए मुझे, मांबेटा कहीं भी रह लेंगे.

तुम से संबंध नहीं रखेंगे. तुम्हें सजा मिल कर रहेगी. ‘‘आज अपने बेटे के साथ मिल कर एक निर्दोष लड़की को एक साहस, एक सुरक्षा का एहसास सौंपना है. धरोहर के रूप में अपनी आने वाली पीढि़यों को भी यही सौंपना होगा.’’ राधा आगे बोली, ‘‘चलो रजत, मैं यह टूटन, यह शोषण स्वीकार नहीं करूंगी. अपने घर के अंदर अगर इस घिनौनी करतूत का विरोध नहीं किया तो बाहर भी औरत कैसे लड़ पाएगी और हमेशा रिश्तों की आड़ में शोषित ही होती रहेगी. परिवार की इज्जत, रिश्तेदारी और समाज के खयाल से मैं चुप नहीं रहूंगी.’’ सुगंधा भी विनी को संभालते हुए उस का हाथ पकड़ कर जाने के लिए खड़ी हो गईं. अचानक कुछ सोच कर बोली, ‘‘राधा, चाहो तो आज से तुम दोनों हमारे घर में रह सकते हो.’’ रजत उन के पैरों में झुक गया, ‘‘हां, आंटी, मैं भी आ रहा हूं आप के घर. चलो मां, अभी बहुत लंबी लड़ाई लड़नी है. साथ रहेंगे तो अच्छा रहेगा. और विनी, तुम एक दिन भी इस कुकर्मी के कुकर्म को याद कर दुखी नहीं होगी. तुम्हें बहुत काम है. नया गाइड ढूढ़ंना है. पीएचडी करनी है.

इस आदमी की रिपोर्ट करनी है. इसे कोर्ट में घसीटना है. सजा दिलवानी है. बहुत काम है. विनी, चलो,’’ चारों उन के ऊपर नफरतभरी नजर डाल कर निकल गए. अब शेखर को साफसाफ दिख रहा था कि अब उन के किए की सजा उन्हें मिल कर रहेगी. अगर विनी और सुगंधा अकेले होते तो कमजोर पड़ सकते थे. पर अब चारों साथ थे, तो उन की हार तय थी. कितनी ही छात्राओं के साथ किया बलात्कार उन की आंखों के आगे घूम गया. वे सिर पकड़ कर बैठे रह गए थे. वे चारों गंभीर, चुपचाप चले जा रहे थे. ऐसे समाज से निबटना था जो बलात्कार की शिकार लड़की को ही सवालों के कठघरे में खड़ा कर देता है. उस के साथ ऐसा व्यवहार करता है जैसे उस ने कोई गुनाह किया हो. शारीरिक और मानसिक रूप से पहले से ही आहत लड़की को और सताया जाता है. लेकिन, इन चारों के इरादे, हौसले मजबूत थे. समाज की चिंता नहीं थी. लड़ाई मुश्किल, लंबी थी पर चारों के दिलों में इस लड़ाई में जीत का एहसास अपनी जगह बना चुका था. हार का संशय भी नहीं था. जीत निश्चित थी.

द्य ऐसा भी होता है मनोहरजी का बेटा अपनी मां को लेने गांव आया था. उन की बहू का बच्चा होने वाला था. इसलिए बेटा मां को मुंबई ले जा रहा था. वह मनोहरजी के लिए पैंटकमीज का कपड़ा मुंबई से लाया था. बेटे ने कपड़ा मनोहरजी को देते हुए कहा, ‘‘इसे सिलवा लीजिएगा, आप पर बहुत अच्छा लगेगा.’’ पिताजी ने कहा, ‘‘इस की क्या जरूरत थी, मुझे धोतीकुरते में ही आराम मिलता है.’’ मनोहरजी कपड़े पा कर बहुत प्रसन्न थे. उन्होंने दर्जी को दे कर अपनी नाप की पैंटशर्ट सिलवा ली. कपड़े उन्होंने पहन कर नापे, वे खुद को बहुत सुंदर महसूस कर रहे थे. एक महीने बाद खबर आई कि बहू ने एक बेटे को जन्म दिया है. बेटे के जन्मोत्सव के लिए बेटे ने उन्हें भी मुंबई बुलाया था. वे मुंबई जाने की तैयारी करने लगे. नियत समय पर वे मुंबई पहुंचे. बेटा उन्हें लेने के लिए आया हुआ था. जब वे बेटे के घर पहुंचे तो बहुत प्रसन्न थे कि उस का रहनसहन कितना ऊंचा है. उन का बेटा कितना बड़ा अफसर है, उस के कितने ठाटबाट हैं. बेटे के जन्मोत्सव की पार्टी रखी गई. घर में तैयारी चल रही थी.

शाम को सभी लोग पार्टी के लिए तैयार हो रहे थे. मनोहरजी अपनी वही पैंटशर्ट पहने तैयार हुए जो उन का बेटा उन्हें गांव में दे गया था. बेटे ने जब उन्हें उन कपड़ों में देखा, तो चीखते हुए बोला, ‘‘आप के पास यही कपड़े पहनने को हैं.’’ बहू भी दौड़ती हुई आई कि क्या हो गया. तब बहू पिताजी को ले कर कमरे में आई और पिताजी से बोली, ‘‘आप दूसरे कपड़े पहन लीजिए. ये कपड़े यहां के इंजीनियरों की यूनिफौर्म के हैं. इंजीनियर को साल में 2 जोड़ी कपड़े मिलते हैं. वे उन्हें स्वयं न सिलवा कर अपने रिश्तेदारों में बांट देते हैं या दान कर देते हैं. आप को इन कपड़ों में देख कर लोग क्या सोचेंगे.’’ मनोहरजी बहू की बात सुन कर सकते में आ गए. उन्हें बड़ा दुख हो रहा था कि बेटे ने उन्हें कपड़ा देने के पहले यह बात क्यों नहीं बता दी थी. उपमा मिश्रा

आशियाना: क्यों अपने ही आशियाने की दुश्मन बन बैठी अवनी – भाग 1

‘‘मालकिन, आप के पैरों में अधिक दर्द हो तो तेल लगा कर मालिश कर दूं?’’

‘‘हूं,’’ बस, इतना ही निकला नंदिता के मुंह से.

‘‘तेल गरम कर के लाती हूं,’’ कह कर राधा चली गई. राधा को जाते देख कर नंदिता सोचने लगी कि आज के इस मशीनी युग में प्यार खत्म हो गया है. भावनाओं, संवेदनाओं का मोल नहीं रहा. ऐसे में प्रेम की वर्षा से नहलाने वाला एक भी प्राणी मिल जाए तो अच्छा लगता है. नंदिता के अधर मौन थे पर मन में शब्दों की आंधी सी चल रही थी. मन अतीत की यादों में मुखर हो उठा था. कभी इस घर में बहुत रौनक रहती थी. बहुत ध्यान रखने वाले पति मोहन शास्त्री और दोनों बेटों, आशीष और अनुराग के साथ नंदिता को समय का पता ही नहीं चलता था.

मोहन शास्त्री संस्कृत के अध्यापक थे. वे खुद भी इतिहास की अध्यापिका रही थीं. दोनों स्कूल से अलगअलग समय पर घर आते, पर जो भी पहले आता, घर और बच्चों की जिम्मेदारियां संभाल लेता था.

अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ा और मोहन शास्त्री का निधन हो गया. यह एक ऐसा गहरा वज्रपात था जिस ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया था. एक पल को ऐसा लगा था जैसे शरीर बेजान हो गया और वे बस, एक लाश बन कर रह गई थीं. सालों से रातदिन का प्यारा साथ सहसा सामने से गायब हो अनंत में विलीन हो जाए, तो हृदयविदारक अनुभूति ही होती है.

समय की गति कितनी तीव्र होती है इस का एहसास इनसान को तब होता है जब वह किसी के न रहने से उत्पन्न हुए शून्य को अनुभूत कर ठगा सा खड़ा रह जाता है. बच्चों का मुंह देख कर किसी तरह हिम्मत रखी और फिर अकेले जीना शुरू किया.

दोनों बेटे बड़े हुए, पढ़लिख कर विदेश चले गए और पीछे छोड़ गए एक बेजान बुत. जब दोनों छोटे थे तब उन्हें मां की आवश्यकता थी तब वे उन पर निस्वार्थ स्नेह और ममता लुटाती रहीं और जब उम्र के छठे दशक में उन्हें बेटों की आवश्यकता थी तो वे इतने स्वार्थी हो गए कि उन के बुढ़ापे को बोझ समझ कर अकेले ही उसे ढोने के लिए छोड़ गए. अपनी मां को अकेले, बेसहारा छोड़ देने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई, सोचतेसोचते उन की आंखें नम हो जातीं.

संतान का मोह भी कैसा मोह है जिस के सामने संसार के सभी मोह बेबस हो कर हथियार डाल देते हैं पर यही संतान कैसे इतनी निर्मोही हो जाती है कि अपने मातापिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती है. भर्राई आवाज में जब उन्होंने पूछा था, ‘मैं अकेली कैसे रहूंगी?’ तो दोनों बेटे एक सुर में बोले थे, ‘अरे, राधा है न आप के पास. और कौन सा हम हमेशा के लिए जा रहे हैं. समय मिलते ही चक्कर लगा लेंगे, मां.’

नंदिता फिर कुछ नहीं बोली थीं. भागदौड़ भरे उन के जीवन में भावनाओें की शायद कोई जगह नहीं थी.

दोनों चले गए थे. वे एक तरफ बेजान बुत बन कर पड़ी रहतीं. उन्हें कुछ नहीं चाहिए था सिवा दो प्यार भरे शब्द और बच्चों के साथ कुछ पलों के. रात को सोने जातीं तो उन की आंखें झरझर बहने लगतीं. सोचतीं, कभी मोहनजी का साथ, बेटों की शरारतों से उन का आंगन महका करता था और अब यह सन्नाटा, कहां विलुप्त हो गए वे क्षण.

अकेलेपन की पीड़ा का जहर पीते हुए, बेटों की उपेक्षा का दंश झेलते हुए समय तेज गति से चलता हुआ उन्हें यथार्थ की पथरीली भूमि पर फेंक गया.

दोनों बेटे पैसे भेजते रहते थे. उन्हें अपनी पैंशन भी मिलती रहती थी. उन का गुजारा अच्छी तरह से हो जाता था. उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें रुपएपैसे से कोई मोह नहीं था. वे तो बस, अकेलेपन से व्यथित रहतीं. कभीकभी आसपड़ोस की महिलाओं से तो कभी अपनी साथी अध्यापिकाओं से मिल लेती थीं, लेकिन उस के बाद फिर खालीपन. पूरे घर में वे और उन की विधवा बाई राधा थी. न कोई बच्चा न कोई सहारा देने वाला रिश्तेदार. राधा को भी उन की एक सहेली ने कुछ साल पहले भेजा था. उन्हें भी घर के कामधंधे के लिए कोई चाहिए था, सो अब राधा घर के सदस्य की तरह नंदिता को प्रिय थी.

जीवन किसी सरल रेखा सा नहीं चल सकता, वह अपनी इच्छा के अनुसार मोड़ ले लेता है.

‘‘मालकिन, मैं तेल के साथ चाय भी ले आई हूं. मैं तेल लगाती हूं, आप चाय पीती रहना,’’ राधा की आवाज से उन की तंद्रा टूटी. इतने में ही पड़ोस की मधु आ गई. वह अकसर चक्कर काट लेती थी. अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कभीकभी उन के पास खड़ी हो दोचार बातें करती फिर चली जाती. नंदिताजी को उस पर बड़ा स्नेह हो चला था. उन्होंने यह भी महसूस किया कि मधु कुछ गंभीर है, बोलीं, ‘‘आओ मधु, क्या हुआ, चेहरा क्यों उतरा हुआ है.’’

‘‘आंटी, मेरी मम्मी की तबीयत खराब है और मुझे आज ही गांव जाना है. अनिल और बच्चे भी मेरे साथ जा रहे हैं लेकिन मेरी ननद पिंकी की परीक्षाएं हैं, उसे अकेले घर में नहीं छोड़ सकती. अगर आप को परेशानी न हो तो कुछ दिन पिंकी को आप के पास छोड़ जाऊं.’’

‘‘अरे, यह भी कोई पूछने वाली बात है. आराम से जाओ, पिंकी की बिलकुल भी चिंता मत करो.’’

मधु चली गई और पिंकी अपना सामान ले कर नंदिता के पास आ गई. पिंकी के आते ही घर का सन्नाटा दूर हो गया और नंदिता का मन चहक उठा. पिंकी की परीक्षाएं थीं, उस के खानेपीने का ध्यान रखते हुए नंदिता को अपने बेटों की पढ़ाई का जमाना याद आ जाता फिर वे सिर झटक कर अपनेआप को पिंकी के खानेपीने के प्रबंध में व्यस्त कर लेतीं. एक पिंकी के आने से उन की और राधा की दिनचर्या में बहुत बदलाव आ गया था. पिंकी फुर्सत मिलते ही नंदिता के पास बैठ कर अपने कालेज की, अपनी सहेलियों की बातें करती.

एक हफ्ते बाद मधु लौट आई तो पिंकी अपने घर चली गई. घर में अब फिर पहले सा सन्नाटा हो गया. इस सन्नाटे को राधा की आवाजें ही तोड़ती थीं. अन्यथा वे चुपचाप रोज के जरूरी काम निबटा कर अपने कमरे में पड़ी रहती थीं. टीवी देखने का उन्हें ज्यादा शौक नहीं था. वैसे भी जब मन दुखी हो तो टीवी भी कहां अच्छा लगता है.

मधु ने पिंकी का ध्यान रखने के लिए नंदिता आंटी को कई बार धन्यवाद दिया तो उन्होंने कहा, ‘‘मधु, धन्यवाद तो मुझे भी कहना चाहिए. एक हफ्ता पिंकी के कारण मन लगा रहा.’’

नंदिता से बात करने के बाद मधु थोड़ी देर सोचती रही, फिर बोली, ‘‘आंटी, आजकल कितनी ही लड़कियां पढ़ने और नौकरी करने को बाहर निकलती हैं. आप क्यों नहीं ऐसी लड़कियों को पेइंगगेस्ट रख लेतीं. आप का समय भी कट जाएगा और आर्थिक रूप से भी ठीक रहेगा.’’

मेरे ससुर का श्राद्ध : पत्नी के स्वभाव में अचानक परिवर्तन क्यों आया

जब थकहार कर मैं अपने घर पहुंचा तो पत्नीजी ने गरमागरम पकौड़ों के साथ कौफी का प्याला हाथ में रख दिया. मुझे उन गरम पकौड़ों में कोई साजिश और चाय की जगह दी जा रही कौफी में स्लो पौयजन का अनुभव हुआ. शादी के 10 बरसों में जिस ने कभी पति के घर लौटने पर हंस कर स्वागत नहीं किया हो वह यदि नाश्ते के साथ सवा सेर की मुसकान चेहरे पर ले आए तो यकीन मानिए कि कोई न कोई साजिश रची होनी चाहिए. मैं ने कांपते मन से पकौड़ा उठाया, कौफी के साथ मुंह में डाला और विचार कर ही रहा था कि पत्नीजी अब अणु बम के रूप में कोई मांग हमारे ऊपर फेंकने वाली हैं, लेकिन हमारा अंदाज गलत साबित हुआ. उन्होंने कुछ भी मांग नहीं रखी और पास बैठी किसी नवयौवना चिडि़या की तरह फुदकती रहीं. हमारा मन अभी भी शंकाकुशंका से दूर नहीं हो पाया था.

रात भोजन में 3 तरह का मीठा और 4 तरह की सब्जियां बनी थीं. चावलदाल अतिरिक्त थे. शायद अब कुछ कहे, लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं मांगा. हमारे जीवन में ऐसा पहली बार हुआ था. रात हमें नींद नहीं आ रही थी, न जाने पत्नीजी के व्यवहार में ऐसा परिवर्तन क्यों और कहां से आ गया? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि किसी के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आ जाने का मतलब है कि उस की मृत्यु निकट है. तो क्या हमारी एकमात्र पत्नी जाने वाली है? सोच कर हमारी आंखें भर आईं. हम ने सोचा, उन्हें गले लगा कर जी भर कर रो लें लेकिन उन का साइज ऐसा था कि हिम्मत नहीं पड़ी.

वे किचन का काम निबटा कर हमारे बगल में आ कर बैठ गईं और तोप छोड़ती हुई बोलीं, ‘‘मैं ने तुम्हारा सामान भी जमा दिया है.’’

‘‘मेरा सामान जमा दिया है? मैं कहां जा रहा हूं?’’ हम ने किसी उल्लू की तरह देखते हुए प्रश्न किया.

‘‘तुम्हें मालूम नहीं क्या? बरस भर से कह रही हूं…’’ उन्होंने तनिक नाराजगी से कहा.

‘‘भूल गया हूं. दोबारा बता दो भाई,’’ हम ने विनम्रता से निवेदन किया.

‘‘बापू का श्राद्ध है. पूरा बरस बीत गया है,’’ कहतेकहते उन की आंखों से घडि़याली आंसू बहने लगे.

‘‘ओह, बापूजी का श्राद्ध है. हम तो भूल ही गए थे. कब निकलना है?’’

‘‘सुबह 6 बजे की बस है, फिर थोड़ा गांव तक पैदल भी जाना होगा,’’ उन्होंने बताया.

‘‘मैं औफिस में अभी फोन कर के छुट्टी को कह देता हूं,’’ पत्नीजी को खुश करने के उद्देश्य से मैं ने कहा.

वे खुश हो गईं. उन्होंने प्यार से हमारे सिर पर चुंबन लिया. उन्हें कोई दिक्कत भी नहीं हुई होगी क्योंकि वहां बाल बचे ही कहां थे. हवाई पट्टी की तरह चिकनी खोपड़ी जो हो चुकी थी.

सुबह वे जल्दी उठ गईं. हमें भी उठाया. हम आटोरिकशा ले आए. बस स्टैंड पर पहुंचे और बस में बैठ कर ससुराल के लिए निकल पड़े. पूरे रास्ते हम सोचते रहे कि क्यों इतने सुदूर गांव में हमारे ससुरजी ने इस कुकन्या को जन्म दिया? मरने के बाद भी हमें चैन से नहीं जीने दे रहे हैं. इतनी बेकार सड़क पर गाड़ी हिचकोले लेते चल रही थी, पता नहीं कब हम से साक्षात बातें करने के लिए ससुरजी ड्राइवर से साजिश कर के हमें बुला लें.

आखिर दोपहर तक हम ससुराल पहुंच गए. एकमात्र सास ने हमारी ओर कम अपनी कन्या की ओर अधिक ध्यान दिया. हमें एक कमरे में बैठा दिया गया था.

अगले दिन श्राद्ध का कार्यक्रम था. गांव से कुछ लोग अगले दिन आ गए थे. वहीं रिश्तेदार भी माल खाने के लिए आ धमके थे. भोजन की लिस्ट 7 दिन पूर्व बन चुकी थी. रात में ही बनाने वाले आ गए थे. पत्नीजी और दोनों साले खाना बनवाने के लिए निर्देश दे रहे थे. श्राद्ध कम, किसी की शादी का आयोजन अधिक लग रहा था. पकवानों की महक चारों ओर फैल रही थी. हम भी श्राद्ध के चलते बड़े गंभीर बने हुए थे.

उधर पत्नी और उन की भाभियां सोलहशृंगार कर के स्वर्ण आभूषणों से लदी थीं. ऐसा लग रहा था जैसे वहां श्राद्ध न हो कर फैशन शो हो रहा हो. सास ने भी रेशम की सफेद साड़ी और असली सफेद मोती की माला व उसी से मेल खाते अन्य जेवर धारण कर रखे थे. आईब्रो और फेशियल, हेयर कलर वे 2-3 दिन पूर्व ही करा चुकी थीं. सच कहूं, हमें अपनी पत्नीजी सास के सामने बूढ़ी लग रही थीं और सास को ससुरजी देख लेते तो पुन:विवाह का प्रस्ताव रख देते.

कार्यक्रम स्थल पर ससुरजी का फोटो रखा था. गांव, महल्ले वाले बेशर्म, गेंदे के फूलों को ला कर उन की तसवीर पर चढ़ा रहे थे. थोड़ी देर बाद पंडितजी आ गए. उन्होंने न जाने क्याक्या मंगाई गई सामग्रियों को रखा, होमहवन के बाद पूजा की. पूजा की थाली में सब ने चंदा डाला. इस सब क्रियाकर्म को करतेकरते 1 बज गया था. सब को भूख लग आई थी. पंडितजी ने सास को आदेश दिया कि कौए, गाय, कुत्ते के लिए भोजन की थालियां सजाओ, पितृपक्ष में सब आ कर प्रसाद ग्रहण करेंगे. पत्नीजी ने 3 थालियों को सजा दिया था. पंडितजी ने थालियों की पूजा की और आदेश दिया कि इसे बाहर रख दिया जाए, जब कौआ प्रसाद ग्रहण कर लेगा तब भोजन प्रारंभ होगा.

थाली सजा कर रखी गई थी. कौए को आने में समय भी नहीं लगा क्योंकि दूर एक मरा हुआ जानवर पड़ा था, जिस के मांसचमड़ी का भोजन करतेकरते वह थक गया था, शायद इसीलिए टैस्ट बदलने के लिए आ गया. हम ने वहां खड़े एक व्यक्ति से प्रश्न किया, ‘‘यह कौआ कौन है?’’

‘‘मृत आत्मा इस में रहती है.’’

‘‘यानी पहलवान सिंह ठामरूलाल की आत्मा इस में है?’’ हम ने ससुरजी का नाम ले कर प्रश्न किया.

‘‘बिलकुल, 100 प्रतिशत,’’ उस ने समर्थन किया.

‘‘तो क्या भैया, यह कुछ देर पहले मरा जानवर खाने वाला कौआ हमारे ससुरजी हैं?’’ उस ने क्रोध से हमें देखा और चुप रहने का इशारा किया.

दूसरी थाली कुत्ते के लिए थी. वहां कुत्ता तो नहीं आया, एक कुतिया जरूर आई. हम ने मन ही मन विचार किया, ‘ससुरजी का लिंग परिवर्तन हो गया जो कुतिया का रूप धारण कर लिया.’ सब रिश्तेदार खुश थे कि मृत आत्मा धड़ाधड़ प्रसाद ग्रहण कर रही है.

तीसरा चढ़ावा गाय का था. थाली रख दी गई, गाय को खोजा जाने लगा. गाय न थी, न आ रही थी. सब रिश्तेदार प्रतीक्षा कर रहे थे. बाहर थाली परोस कर रख दी गई थी. थोड़ी देर में छोटा साला दौड़ता हुआ अंदर आया, ‘‘मम्मीजीमम्मीजी.’’

‘‘क्या हुआ?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘बाहर, थाली के पास…’’

‘‘क्या हुआ? क्या गाय ने भी प्रसाद ग्रहण कर लिया?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं, जीजाजी,’’ उस ने ठहर कर कहा.

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘वहां गाय की जगह एक गधा आ कर थाली का प्रसाद ग्रहण कर रहा है.’’

‘‘ऐं,’’ बरबस हमारे मुंह से निकला. बाहर दौड़ लगाई, सच में थाली में रखे गुलाबजामुन, रसगुल्लों को गधा फटाफट निबटा रहा था. पंडितजी ने घड़ी देखी और कहा, ‘‘कोई बात नहीं यजमान,

चार पांव वाला कोई भी जीव ग्रहण कर सकता है.’’

सासूजी बड़ी लजाते, शर्माते हुए जवान गधे को देख रही थीं.

हम समझ गए थे, हमारे ससुरजी गधा बन कर आए हुए हैं. अगर वे गधे नहीं होते तो ऐसी बुद्धिहंता स्त्री से विवाह कर के कन्या को जनम नहीं देते जो हमारे गले पड़ी हुई है. हम ने कहा कुछ नहीं. शर्माती, अपनी सास को देख रहे थे जो गधे को थाली खाली करते हुए देख रही थीं.

गधे कभी एहसानफरामोश नहीं होते हैं. भरपेट खा कर उस ने तत्काल वहीं लीद भी कर दी. हमारी सास और पत्नीजी लीद देख कर धन्यधन्य हो गईं.

हिंदू संस्कृति के प्रति हमारे मन में जो थोड़ीबहुत श्रद्धा थी वह भी समाप्त हो गई थी. गधे के भोजनोपरांत सब को भोजन करने की परमिशन पंडितजी ने दे दी और सब खाने पर टूट पड़े. पंडितजी बहुत सा खाना, पैसे, कपड़े बांध कर चलते बने. इस तरह हमारी पत्नीजी प्रेम, श्रद्धा के साथ पिताश्री का श्राद्ध कर हमारे साथ लौटीं. हम आज तक सोच नहीं पाए कि हमारे ससुरजी क्या थे, कौआ, कुतिया या गधा?

इस का उत्तर तो उन की पत्नी यानी हमारी सास ही बता सकती हैं. हम तो कुछ बोल कर घर की शांति बरबाद करना नहीं चाहते हैं.

एक चुटकी मिट्टी की कीमत

पहले जब लोगों के दिल बड़े हुआ करते थे, तब घर भी बड़े व हवादार हुआ करते थे, भरेपूरे संयुक्त परिवार हुआ करते थे. जब से लोगों के दिल छोटे हुए, घर भी छोटे व बेकार होने लगे डब्बेनुमा. अब जब कोरोना जैसी महामारी आई तो लोगों को पूर्वजों की बड़ी व खुली सोच और बड़े व खुलेखुले घर की अहमियत समझ में आई.

बात पिछले साल की है. बिहार के अपने लंबेचौड़े, संयुक्त पुश्तैनी घर से दिल्ली के 2 कमरों के सिकुड़ेसिमटे फ्लैट में शिफ्ट हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि कोरोना महामारी ने समूचे विश्व पर अपने भयावह पंजे फैला दिए. लौकडाउन और कर्फ्यू के बीच घर में कैद हम बेबसी में नीरस व बेरंग दिन काट रहे थे, फोन पर प्रियजनों के साथ दूरियों को पाट रहे थे. मन ही मन प्रकृति से दिनरात मिन्नतें कर रहे थे कि, हे प्रकृति, इस विदेशी वायरस को जल्दी से जल्दी इस के मायके भेज दे.

एक दिन मुंह पर मास्कवास्क बांध कर मन ही मन कोरोना के उदगम स्थल को हम अपनी बालकनी में बैठे कोस रहे थे कि अथाह भीड़ वाली दिल्ली की कोरोनाकालीन सूनी सड़क से फूलों का एक ठेले वाला अपनी बेसुरी आवाज में चीखते हुए फूल खरीदने की गुहार मचाता गुजरा. देखते ही देखते महामारी को ठेंगा दिखाते लोगों की भीड़ ठेले के पास जमा हो गई.

हम भारतीयों की ख़ासीयत है कि हम लौकडाउन, कर्फ्यू या मास्कवास्क को अपनी सुविधानुसार ही अहमियत देते हैं. भावताव के साथ संपन्न हो रही थी सौदेबाजी, कोरोना ने कहीं महंगे कर दिए थे फूल तो कहीं सस्ते में भाजी मिल रही थी. थोड़ी ही देर बाद मैं ने देखा कि सामने वाले घर की बालकनी गुलाब के गमलों से सज गई है और गमले में लगे यौवन से उन्मत्त लालपीले सुकुमार गुलाब मेरी ओर बड़ी अदा से देख कर मुसकरा रहे हैं. अकेलेपन से व्यथित मेरे ह्रदय को अपनी ख़ूबसूरती से चुरा रहे हैं. अगलबगल के घरों की बालकनी का भी यही नज़ारा था.

गुलाबों का बेहिसाब हुस्न मेरे दिल को बरबस ही भा चुका था. पर करें क्या, फूल वाला तो अपने सारे गुलाब बेचकर जा चुका था. अब हर दिन मैं फूलवाले के इंतज़ार में बालकनी में बैठी रहती. किसी भी बेसुरी आवाज पर मेरी सारी चेतना कानों में समा जाती. पर सूनी सड़क पर यदाकदा भीख मांगने वाले या फिर शौकिया सड़कों की ख़ाक छानने वाले ही नज़र आते. न जाने फूलवाला कहां लुप्त हो गया था.

आखिरकार, एक हफ्ते बाद फूलवाला दोबारा से सड़क पर प्रकट हुआ. भीड़ का जत्था ठेले तक पहुंचे, इस के पहले ही मैं तेज गति से ठेले के पास जा पहुंची. अलगअलग रंगों के 10 गुलाब पसंद कर के मैं ने फूलवाले से उन्हें गमले में लगा देने को कहा.

“फूल लगाने के पैसे अलग से लगेंगे, मैडम जी,” भीड़ देख कर वह वाला भाव खा रहा था.

मैं बोली, “अरे, तो ले लेना अलग से पैसे, फूल तो लगा दो.”

वह बोला, “फूल कैसे लगा दूं, मैडम जी, मिट्टी किधर है?”

मैं सोच में पड़ गई, मिट्टी कहां है. मुझे पसोपेश में देख वह फूलवाला वाला बोला, “ मिट्टी लेनी है?”

मैं ने झट से हामी भरी तो उस ने एक छोटा सा पैकेट निकाला और बोला, “यह 5 किलो मिट्टी है, 375 रुपए लगेंगे. लेना है, तो बोलो.”

मिट्टी इतनी कम थी कि एक गमला भी ठीक से नहीं भर सकता था. पर फूल वाले ने बड़ी कुशलता से 4 गमलों में जराजरा सी मिट्टी डाल कर गुलाब के पौधे लगा दिए और बाकी मिट्टी कल लाने की बात कह कर चला गया.

6 गुलाब के पौधे बेचारे यों ही बालकनी के फर्श पर गिरे पड़े से थे. अपने अंजाम को सोच कर मानो डरेडरे से थे. मैं ने फोन पर अपनी मित्रमंडली में अपनी परेशानी बताई, तो सब ने औनलाइन मिट्टी खरीदने का सुझाव दिया. मैं झटपट औनलाइन मिट्टी सर्च करने लगी. यहां तो तरहतरह की मिट्टियों की भरमार थी. हम तो एक ही मिट्टी समझते थे. यहां मिट्टी की हजारों किस्में उपलब्ध थीं.

गुलाब के लिए अलग मिट्टी तो सिताब के लिए अलग, गुलबहार के लिए अलग तो गुलनार के लिए अलग, मनीप्लांट के लिए अलग जबकि हनी प्लांट के लिए अलग, आम के लिए अलग तो एरिका पाम के लिए अलग. साथ ही कोरोना की वजह से ‘भारी’ डिस्काउंट भी मिल रहा था. 300 रुपए किलो से 1100 रुपए किलो के बीच हजारों तरह की मिट्टियां औनलाइन बेची जा रही थीं. जैसे रेड सोयल, येलो सोयल, और्गेनिक सोयल, इनआर्गेनिक सोयल, पृथ्वी सोयल, आकाश सोयल, गोबर वाली सोयल, खाद वाली सोयल आदि. और तो और, जरा ज्यादा दाम पर यहां मिट्टी के बिस्कुट भी उपलब्ध थे.

सोने के बिस्कुट, खाने के बिस्कुट तो सुने थे पर ये मिट्टी के बिस्कुट पहली बार सुन रही थी. कई घंटे दिमाग खपाने के बाद मैं ने 15 किलो खाद वाली मिट्टी और 10 मिट्टी के बिस्कुट और्डर किए, जो कि सुबहसुबह एक छोटे से पैकेट में डिलीवरी बौय दे गया.

बड़े बुजुर्ग कह गए थे कि एक समय ऐसा आएगा जब पानी भी पैकेट में बिकेगा. पर मिट्टी भी पैकेट में बिकेगी, यह तो किसी ने सोचा ही न होगा. खैर, बिस्कुट समेत पूरी मिट्टी बमुश्किल 5 से 7 किलो होगी. अभी औनलाइन मिट्टी खरीदने का दुख कम भी नहीं हुआ था कि दोपहर को फूलवाला भी 5 किलो कह कर दोचार मुट्ठी मिट्टी दे गया. बदले में वह पेटीएम के पूरे पैसे ले गया. औनलाइन मिट्टी खरीदने के जख्म को फूलवाला हरा कर गया और जराजरा सी मिट्टी में किसी तरह से गुलाबों को खड़ा कर गया.

ऐसी अज़ीबोगरीब मिट्टी को देख कर बेचारे गुलाब बेहद डरे हुए थे. बड़ी मुश्किल से मुट्ठीभर मिट्टी में झुकेझुके से पड़े हुए थे वे. गुलाबों की दशा देख कर मेरा मन दिल्ली के प्रदूषित आसमान की तरह धुंधवारा सा होने लगा. हाय री मिट्टी, तू तो सोने से भी कीमती निकली. मन किया कि बिहार जा कर एक बोरी मिट्टी ही ले आऊं, पर कोरोना माई की वजह से यह मंसूबा भी पूरा नहीं हो सका. भरेमन से आखिरकार मैं ने गुलाबों को उन के हाल पर छोड़ देने का फैसला किया. एक लंबी सांस के साथ मेरे मुंह से निकला- एक चुटकी मिट्टी की कीमत तुम क्या जानो…

नौकर बीवी- भाग 1: शादी के बाद शीला के साथ क्या हुआ?

रमेश का परिवार गांव का खातापीता परिवार था. उस का पूरा नाम था रमेश सिंह चौहान, पर लोग उसे रमेश ही कहा करते थे. इस समय उस की हालत चाहे साधारण हो, पर वह खुद को बहुत बड़े जमींदार परिवार से संबंधित बताता था. उस ने पढ़लिख कर या तो बापदादाओं का कारोबार खेती करना ही उचित सम?ा या उसे कहीं नौकरी नहीं मिली. वजह कुछ भी हो, पर गांव में रह कर पिता के साथ खेती का काम देखता था. पढ़ालिखा भी वह खास नहीं था. केवल 12वीं जमात पास था.

चाहे उस के भाग्य से सम?ो या उस की योग्यता के चलते सम?ो, उस की शादी शहर की एक पढ़ीलिखी लड़की शीला से हो गई.

शीला के मांबाप के पास कोई और सजातीय लड़का नहीं था और इसलिए उन्होंने शीला की शादी गांव में कर दी.

शीला रमेश के बराबर ही पढ़ीलिखी थी. खूबसूरती में वह उस से कहीं ज्यादा थी. उस के पिता ने शादी में इतना दिया, जितना रमेश अपना घरजमीन बेच कर भी नहीं पा सकता था.

रमेश की मां अभी भी पुराने विचारों की थीं. उन्होंने सास के जोरजुल्म सहे थे. न जाने क्यों वे शीला से उस का बदला लेना चाहती थीं.

रमेश पुराने विचारों का तो नहीं था, पर औरत और खासकर पत्नी के बारे में उस के विचार दकियानूसी ही थे. वह औरत को पैर की जूती सम?ाता था. उस के विचार में पत्नी को अपनी सास के खिलाफ मुंह खोलने का हक नहीं था. वह भी टैलीविजन पर आने वाले सीरियल देखता था. उस की सोच थी कि शादी की ही इसलिए जाती है कि आदमी माता के ऋण से छूट सके. पिता के ऋण से तो वह खुद ही सेवा कर के छुटकारा पा सकता है. उस ने यह कभी नहीं सोचा था कि पत्नी की अपने मातापिता के प्रति भी कोई जवाबदेही होती है, खासतौर पर अब जब ज्यादा भाईबहन न हों.

बड़ी धूमधाम से शादी हुई. शीला की खूबसूरती की चर्चा सारे गांव में फैल गई. उस से भी ज्यादा चर्चा फैली शीला के संग आए दहेज की.

रमेश के पिता ने मन ही मन स्वीकार किया कि लड़की और दहेज दोनों ही उन की हैसियत से बढ़ कर हैं. रमेश भी शीला से संतुष्ट था, पर उस की मां का पारा सातवें आसमान से थोड़ा भी नीचे नहीं उतरा.

गांव की औरतों और सगेसंबंधियों ने शीला की जितनी ही तारीफ की, रमेश की मां का गुस्सा उतना ही बढ़ता गया. वे ?ाठीसच्ची बुराइयां निकाल कर शीला को बदनाम और परेशान करने लगीं.

शीला पढ़ीलिखी थी और शहरी माहौल में पली थी. उसे परदा करने की आदत नहीं थी. उसी बात को ले कर रमेश की मां ने जमीनआसमान एक कर दिया, ‘‘मुंह उघाड़े आधी उमर आवारा घूमती रही है. न जाने कितने यार बनाए होंगे. यह बस में आने की नहीं है.’’

शीला ने शांति से सब सुन लिया और एक देहातिन की तरह घूंघट काढ़ने लगी. इस बारे में रमेश ने कुछ भी नहीं कहा.

कुछ दिनों के बाद शीला को घर सौंप दिया गया. यह काम उसे हक देने के नजरिए से नहीं, बल्कि परेशान करने के विचार से किया गया था. अगर वह कभी कहती कि घी या शक्कर खत्म हो गई है, तो रमेश की मां बरस पड़तीं, ‘‘अभी कल ही तो डब्बा भर के घी तु?ो दिया

है. और शक्कर तो परसों ही रमेश के बाबूजी बाजार से लाए थे.

‘‘मैं पूछती हूं रानीजी कि घी तो बिल्ली खा गई होगी या धरती पर गिर गया होगा, पर शक्कर के लिए तुम क्या बहाना करोगी? इतनी शक्कर चींटियां तो खा नहीं सकतीं. तुम्हारे हाथ में घर का इंतजाम क्या आ गया, तुम तो घी और शक्कर खा कर ही रहने लगी. दिखाने के लिए ही बड़े बाप की बेटी हो, काम तो भुक्खड़ों जैसे कर रही हो.’’

Raksha Bandhan 2022: राखी का उपहार

इस समय रात के 12 बज रहे हैं. सारा घर सो रहा है पर मेरी आंखों से नींद गायब है. जब मुझे नींद नहीं आई, तब मैं उठ कर बाहर आ गया. अंदर की उमस से बाहर चलती बयार बेहतर लगी, तो मैं बरामदे में रखी आरामकुरसी पर बैठ गया. वहां जब मैं ने आंखें मूंद लीं तो मेरे मन के घोड़े बेलगाम दौड़ने लगे. सच ही तो कह रही थी नेहा, आखिर मुझे अपनी व्यस्त जिंदगी में इतनी फुरसत ही कहां है कि मैं अपनी पत्नी स्वाति की तरफ देख सकूं.

‘‘भैया, मशीन बन कर रह गए हैं आप. घर को भी आप ने एक कारखाने में तबदील कर दिया है,’’ आज सुबह चाय देते वक्त मेरी बहन नेहा मुझ से उलझ पड़ी थी. ‘‘तू इन बेकार की बातों में मत उलझ. अमेरिका से 5 साल बाद लौटी है तू. घूम, मौजमस्ती कर. और सुन, मेरी गाड़ी ले जा. और हां, रक्षाबंधन पर जो भी तुझे चाहिए, प्लीज वह भी खरीद लेना और मुझ से पैसे ले लेना.’’

‘‘आप को सभी की फिक्र है पर अपने घर को आप ने कभी देखा है?’’ अचानक ही नेहा मुखर हो उठी थी, ‘‘भैया, कभी फुरसत के 2 पल निकाल कर भाभी की तरफ तो देखो. क्या उन की सूनी आंखें आप से कुछ पूछती नहीं हैं?’’

‘‘ओह, तो यह बात है. उस ने जरूर तुम से मेरी चुगली की है. जो कुछ कहना था मुझ से कहती, तुम्हें क्यों मोहरा बनाया?’’

‘‘न भैया न, ऐसा न कहो,’’ नेहा का दर्द भरा स्वर उभरा, ‘‘बस, उन का निस्तेज चेहरा और सूनी आंखें देख कर ही मुझे उन के दर्द का एहसास हुआ. उन्होंने मुझ से कुछ नहीं कहा.’’ फिर वह मुझ से पूछने लगी, ‘‘बड़े मनोयोग से तिनकातिनका जोड़ कर अपनी गृहस्थी को सजाती और संवारती भाभी के प्रति क्या आप ने कभी कोई उत्साह दिखाया है? आप को याद होगा, जब भाभी शादी कर के इस परिवार में आई थीं, तो हंसना, खिलखिलाना, हाजिरजवाबी सभी कुछ उन के स्वभाव में कूटकूट कर भरा था. लेकिन आप के शुष्क स्वभाव से सब कुछ दबता चला गया.

‘‘भैया आप अपनी भावनाओं के प्रदर्शन में इतने अनुदार क्यों हो जबकि यह तो भाभी का हक है?’’

‘‘हक… उसे हक देने में मैं ने कभी कोई कोताही नहीं बरती,’’ मैं उस समय अपना आपा खो बैठा था, ‘‘क्या कमी है स्वाति को? नौकरचाकर, बड़ा घर, ऐशोआराम के सभी सामान क्या कुछ नहीं है उस के पास. फिर भी वह…’’

‘‘अपने मन की भावनाओं का प्रदर्शन शायद आप को सतही लगता हो, लेकिन भैया प्रेम की अभिव्यक्ति भी एक औरत के लिए जरूरी है.’’

‘‘पर नेहा, क्या तुम यह चाहती हो कि मैं अपना सारा काम छोड़ कर स्वाति के पल्लू से जा बंधूं? अब मैं कोई दिलफेंक आशिक नहीं हूं, बल्कि ऐसा प्रौढ हूं जिस से अब सिर्फ समझदारी की ही अपेक्षा की जा सकती है.’’

‘‘पर भैया मैं यह थोड़े ही न कह रही हूं कि आप अपना सारा कामधाम छोड़ कर बैठ जाओ. बल्कि मेरा तो सिर्फ यह कहना है कि आप अपने बिजी शैड्यूल में से थोड़ा सा वक्त भाभी के लिए भी निकाल लो. भाभी को आप का पूरा नहीं बल्कि थोड़ा सा समय चाहिए, जब आप उन की सुनें और कुछ अपनी कहें. ‘‘सराहना, प्रशंसा तो ऐसे टौनिक हैं जिन से शादीशुदा जीवन फलताफूलता है. आप सिर्फ उन छोटीछोटी खुशियों को समेट लो, जो अनायास ही आप की मुट्ठी से फिसलती जा रही हैं. कभी शांत मन से उन का दिल पढ़ कर तो देखो, आप को वहां झील सी गहराई तो मिलेगी, लेकिन चंचल नदी सा अल्हड़पन नदारद मिलेगा.’’

अचानक ही वह मेरे नजदीक आ गई और उस ने चुपके से कल की पिक्चर के 2 टिकट मुझे पकड़ा दिए. फिर भरे मन से बोली, ‘‘भैया, इस से पहले कि भाभी डिप्रेशन में चली जाएं संभाल लो उन को.’’

‘‘पर नेहा, मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगा कि वह इतनी खिन्न, इतनी परेशान है,’’ मैं अभी भी नेहा की बात मानने को तैयार नहीं था.

‘‘भैया, ऊपरी तौर पर तो भाभी सामान्य ही लगती हैं, लेकिन आप को उन का सूना मन पढ़ना होगा. आप जिस सुख और वैभव की बात कर रहे हो, उस का लेशमात्र भी लोभ नहीं है भाभी को. एक बार उन की अलमारी खोल कर देखो, तो आप को पता चलेगा कि आप के दिए हुए सारे महंगे उपहार ज्यों के त्यों पड़े हैं और कुछ उपहारों की तो पैकिंग भी नहीं खुली है. उन्होंने आप के लिए क्या नहीं किया. आप को और आप के बेटों अंशु व नमन को शिखर तक पहुंचाने में उन का योगदान कम नहीं रहा. मांबाबूजी और मेरे प्रति अपने कर्तव्यों को उन्होंने बिना शिकायत पूरा किया, तो आप अपने कर्तव्य से विमुख क्यों हो रहे हैं?’’

‘‘पर पगली, पहले तू यह तो बता कि इतने ज्ञान की बातें कहां से सीख गई? तू तो अब तक एक अल्हड़ और बेपरवाह सी लड़की थी,’’ मैं नेहा की बातों से अचंभे में था.

‘‘क्यों भैया, क्या मैं शादीशुदा नहीं हूं. मेरा भी एक सफल गृहस्थ जीवन है. समर का स्नेहिल साथ मुझे एक ऊर्जा से भर देता है. सच भैया, उन की एक प्यार भरी मुसकान ही मेरी सारी थकान दूर कर देती है,’’ इतना कहतेकहते नेहा के गाल शर्म से लाल हो गए थे. ‘‘अच्छा, ये सब छोड़ो भैया और जरा मेरी बातों पर गौर करो. अगर आप 1 कदम भी उन की तरफ बढ़ाओगे तो वे 10 कदम बढ़ा कर आप के पास आ जाएंगी.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, अब बस भी कर. मुझे औफिस जाने दे, लेट हो रहा हूं मैं,’’ इतना कह कर मैं तेजी से बाहर निकल गया था. वैसे तो मैं सारा दिन औफिस में काम करता रहा पर मेरा मन नेहा की बातों में ही उलझा रहा. फिर घर लौटा तो यही सब सोचतेसोचते कब मेरी आंख लगी, मुझे पता ही नहीं चला. मैं उसी आरामकुरसी पर सिर टिकाएटिकाए सो गया.

‘‘भैया ये लो चाय की ट्रे और अंदर जा कर भाभी के साथ चाय पीओ,’’ नेहा की इस आवाज से मेरी आंख खुलीं.

‘‘तू भी अपना कप ले आ, तीनों एकसाथ ही चाय पिएंगे,’’ मैं आंखें मलता हुआ बोला.

‘‘न बाबा न, मुझे कबाब में हड्डी बनने का कोई शौक नहीं है,’’ इतना कह कर वह मुझे चाय की ट्रे थमा कर अंदर चली गई.

जब मैं ट्रे ले कर स्वाति के पास पहुंचा तो मुझे अचानक देख कर वह हड़बड़ा गई, ‘‘आप चाय ले कर आए, मुझे जगा दिया होता. और नेहा को भी चाय देनी है, मैं दे कर आती हूं,’’ कह कर वह बैड से उठने लगी तो मैं उस से बोला,

‘‘मैडम, इतनी परेशान न हो, नेहा भी चाय पी रही है.’’ फिर मैं ने चाय का कप उस की तरफ बढ़ा दिया. चाय पीते वक्त जब मैं ने स्वाति की तरफ देखा तो पाया कि नेहा सही कह रही है. हर समय हंसती रहने वाली स्वाति के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी थी, जिसे मैं आज तक या तो देख नहीं पाया था या उस की अनदेखी करता आया था. जितनी देर में हम ने चाय खत्म की, उतनी देर तक स्वाति चुप ही रही.

‘‘अच्छा भाई. अब आप दोनों जल्दीजल्दी नहाधो कर तैयार हो जाओ, नहीं तो आप लोगों की मूवी मिस हो जाएगी,’’ नेहा आ कर हमारे खाली कप उठाते हुए बोली.

‘‘लेकिन नेहा, तुम तो बिलकुल अकेली रह जाओगी. तुम भी चलो न हमारे साथ,’’ मैं उस से बोला.

‘‘न बाबा न, मैं तो आप लोगों के साथ बिलकुल भी नहीं चल सकती क्योंकि मेरा तो अपने कालेज की सहेलियों के साथ सारा दिन मौजमस्ती करने का प्रोग्राम है. और हां, शायद डिनर भी बाहर ही हो जाए.’’ फिर नेहा और हम दोनों तैयार हो गए. नेहा को हम ने उस की सहेली के यहां ड्रौप कर दिया फिर हम लोग पिक्चर हौल की तरफ बढ़ गए.

‘‘कुछ तो बोलो. क्यों इतनी चुप हो?’’ मैं ने कार ड्राइव करते समय स्वाति से कहा पर वह फिर भी चुप ही रही. मैं ने सड़क के किनारे अपनी कार रोक दी और उस का सिर अपने कंधे पर टिका दिया. मेरे प्यार की ऊष्मा पाते ही स्वाति फूटफूट कर रो पड़ी और थोड़ी देर रो लेने के बाद जब उस के मन का आवेग शांत हुआ, तब मैं ने अपनी कार पिक्चर हौल की तरफ बढ़ा दी. मूवी वाकई बढि़या थी, उस के बाद हम ने डिनर भी बाहर ही किया. घर पहुंचने पर हम दोनों के बीच वह सब हुआ, जिसे हम लगभग भूल चुके थे. बैड के 2 सिरों पर सोने वाले हम पतिपत्नी के बीच पसरी हुई दूरी आज अचानक ही गायब हो गई थी और तब हम दोनों दो जिस्म और एक जान हो गए थे. मेरा साथ, मेरा प्यार पा कर स्वाति तो एक नवयौवना सी खिल उठी थी. फिर तो उस ने मुझे रात भर सोने नहीं दिया था. हम दोनों थोड़ी देर सो कर सुबह जब उठे, तब हम दोनों ने ही एक ऐसी ताजगी को महसूस किया जिसे शायद हम दोनों ही भूल चुके थे. बारिश के गहन उमस के बाद आई बारिश के मौसम की पहली बारिश से जैसे सारी प्रकृति नवजीवन पा जाती है, वैसे ही हमारे मृतप्राय संबंध मेरी इस पहल से मानो जीवंत हो उठे थे.

रक्षाबंधन वाले दिन जब मैं ने नेहा को उपहारस्वरूप हीरे की अंगूठी दी तो वह भावविभोर सी हो उठी और बोली, ‘‘खाली इस अंगूठी से काम नहीं चलेगा, मुझे तो कुछ और भी चाहिए.’’

‘‘तो बता न और क्या चाहिए तुझे?’’ मैं मिठाई खाते हुए बोला.

‘‘इस अंगूठी के साथसाथ एक वादा भी चाहिए और वह यह कि आज के बाद आप दोनों ऐसे ही खिलखिलाते रहेंगे. मैं जब भी इंडिया आऊंगी मुझे यह घर एक घर लगना चाहिए, कोई मकान नहीं.’’

‘‘अच्छा मेरी मां, आज के बाद ऐसा ही होगा,’’ इतना कह कर मैं ने उसे अपने गले से लगा लिया. मेरा मन अचानक ही भर आया और मैं भावुक होते हुए बोला, ‘‘वैसे तो रक्षाबंधन पर भाई ही बहन की रक्षा का जिम्मा लेते हैं पर यहां तो मेरी बहन मेरा उद्धार कर गई.’’

‘‘यह जरूरी नहीं है भैया कि कर्तव्यों का जिम्मा सिर्फ भाइयों के ही हिस्से में आए. क्या बहनों का कोई कर्तव्य नहीं बनता? और वैसे भी अगर बात मायके की हो तो मैं तो क्या हर लड़की इस बात की पुरजोर कोशिश करेगी कि उस के मायके की खुशियां ताउम्र बनी रहें.’’ इतना कह कर वह रो पड़ी. तब स्वाति ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया

सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी -भाग 1

मैं अपनी मां के साथ गरमागरम चाय पी रही थी. मां कुछ दिन पूर्व ही भारत से आई थीं. बातें शुरू होने पर कहां खत्म होंगी, यह हम दोनों को ही पता नहीं होता था. इतने दिनों बाद हम मांबेटी एकदूसरे से मिले थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी. रात का 9 बजा था. मां से मैं ने कहा, ‘‘अंकुर के पिताजी होंगे,’’ पर दरवाजा खोला तो पति के स्थान पर उन के मित्र सुहास को खड़े देखा. मैं ने पूछा, ‘‘सुहास भाई साहब, इतनी रात में कैसे कष्ट किया आप ने?’’

मेरे प्रश्न का उत्तर न दे कर उन्होंने ही प्रश्न किया, ‘‘भाभीजी, प्रशांत अब तक आए नहीं क्या?’’

इंगलैंड की नवंबर माह की कंपकंपा देने वाली सर्दी को अपने बदन पर अनुभव करते हुए मैं ने पूछा, ‘‘उन का पता तो आप को होना चाहिए, सुहास भाई, भला मुझ से क्या पूछते हैं?’’

स्ट्रीट लैंप की पीली अलसाई रोशनी में सुहास का चेहरा स्पष्ट नहीं दिख रहा था. पर फिर भी मैं ने उन्हें बुलाने की अपेक्षा जल्दी टाल देना ही उचित समझा.

‘‘उन्हें कल शाम मेरे पास भेज दीजिएगा, भाभीजी, अच्छा नमस्ते,’’ और लंबेलंबे डग भरते हुए वह चले गए.

अब तक मां भी मेरे पीछे आ खड़ी हुई थीं. अंदर आए तो चाय ठंडी हो चुकी थी.

मां ने पूछा, ‘‘और चाय बना दूं तेरे लिए?’’

मैं ने मना कर दिया.

मां बोलीं, ‘‘प्रेरणा, मुझे तो नींद आ रही है अब. तू अभी जागेगी क्या?’’

मैं ने मां से कहा, ‘‘आप सो जाइए, मां. मैं कुछ देर बैठूंगी अभी. आप तो जानती हैं बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आएगी मुझे.’’

‘‘जैसी तेरी इच्छा,’’ कह कर मां ऊपर सोने चली गईं.

मां के ऊपर जाने के थोड़ी देर पश्चात ही यह आ गए. बच्चों व मां के बारे में पूछने लगे. मैं ने कहा, ‘‘वे लोग तो सो गए. आप का खाना लगा दूं?’’

यह बोले, ‘‘हां, लगा दो और तुम चाहो तो अब सो जाओ, मैं अभी कपड़े बदल कर आता हूं.’’

जल्दी से इन का खाना गरम कर के मेज पर रखा, तभी यह कपड़े बदल कर आ गए.

खाना खा कर बोले, ‘‘भई, मुझे तो नींद आ रही है, आप को कब आएगी?’’

मैं ने कहा, ‘‘आप चलिए, मैं आ रही हूं.’’

जैसी कि मेरी शुरू से ही आदत है, सोने के लिए जाने से पूर्व बैठक को व्यवस्थित कर देती हूं ताकि सुबह कुछ आराम मिले. ऊपर गई तो कमरे में घुसते ही इन्होंने जानापहचाना प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया, ‘‘कोई आया तो नहीं था, प्रेरणा?’’

मैं ने कहा, ‘‘अब सोने भी दीजिए, कल से एक पैड खाने की मेज पर रख दूंगी और उस में रोज आनेजाने वालों के नाम व काम की सूची लिख दिया करूंगी. आखिर मुफ्त की सहायक जो हूं आप की.’’

तब यह हंस कर बोले, ‘‘बता भी दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप के मित्र सुहास आए थे. उन्होंने आप को कल अपने घर बुलाया है.’’

‘‘ठीक है. मिल लूंगा. मां को कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नींद बहुत आती है उन्हें, बाकी सब तो ठीक है.’’

थोड़ी देर बाद इन के खर्राटों की आवाज शांत वातावरण में तैरने लगी. पता नहीं, कुछ लोग बिस्तर पर लेटते ही कैसे सो जाते हैं. खर्राटे सुनते हुए मैं सोने की नाकाम चेष्टा करने लगी और सोचने लगी उस स्त्री के बारे में, जिस से उसी दिन अंकुर के स्कूल में मुलाकात हुई थी. गहरा सांवला रंग, बड़ीबड़ी पर खोईखोई आकर्षक आंखें, घने काले बाल, लंबा कद, अंगरेजी पहनावा और होंठों पर मधुर मुसकान. उसे सुंदर तो नहीं कहा जा सकता था, पर चेहरे पर कुछ ऐसे सात्विक भाव थे कि नजरें हटाने को मन नहीं करता था.

मेरी ही तरह वह भी अपनी बच्ची को ले कर उस कार्यक्रम के अंतर्गत स्कूल आई थी, जिस के तहत सप्ताह में 1 या 2 दिन मां को स्वयं बच्चे के साथ स्कूल में रह कर उस की देखभाल करनी पड़ती है ताकि बच्चा स्कूल आनेजाने में अभ्यस्त हो सके. मैं ने उसे अपनी ओर देखते पाया. मैं यह तो समझ गई कि वह दक्षिण भारतीय है, पर यह पता नहीं था कि वह हिंदी जानती है या नहीं. थोड़ी देर हम दोनों ही चुप रहे. जब स्कूल के सभी बच्चे बाहर बगीचे में पहुंचे तो वह अपनी बच्ची को झूला झूलते हुए देख रही थी और मैं अपने बेटे को लकड़ी की गाड़ी पर बैठा रही थी.

उस की आंखों में मित्रवत भाव देख कर मैं ने ही मौन तोड़ा था और अंगरेजी में पूछा था, ‘क्या आप हिंदी बोल सकती हैं?’ इस पर वह बोली, ‘यस, थोड़ीथोड़ी, बहुत नहीं,’ और उस का प्रमाण भी उस ने फौरन ही यह पूछ कर दे दिया, ‘आप कहां रहते हैं?’

मैं उस के प्रश्न का उत्तर दे कर पूछ बैठी, ‘आप का नाम?’

‘तपस्या,’ वह बोली.

जैसा कि सर्वविदित है, 2 स्त्रियां एकदूसरे का नाम व पता जान कर ही संतुष्ट नहीं होतीं, कम से कम समय में एकदूसरे के बारे में भी कुछ जान लेने की उत्सुकता स्त्री का स्वभाव है. अत: उस ने टूटीफूटी हिंदी में बताया, ‘मैं फिजी की रहने वाली हूं. मेरे विवाह को 3 वर्ष हो चुके हैं, मेरे पति मुसलमान हैं और यहीं एक फैक्टरी में काम करते हैं. मेरी एक बेटी है और इस समय मैं गर्भवती हूं.’

सौगात: खर्राटों की आवाज से परेशान पत्नी की कहानी -भाग 2

जैसा कि यहां प्रचलन है, हर गर्भवती स्त्री से यह अवश्य पूछा जाता है कि वह लड़का चाहती है या लड़की, मैं ने भी पूछ लिया तो उस ने बताया, ‘मैं तो लड़की ही चाहती हूं. मेरे पति व बेटी भी यही चाहते हैं, क्योंकि लड़कियां लड़कों की अपेक्षा अधिक स्नेही व भावुक होती हैं. मैं तो इन्हें ही लड़कों की तरह पालूंगी. इस का भविष्य बनाना ही मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य है.’

उस दिन इतनी ही बात हुई और हम अपनेअपने घर चले आए. पर उस स्त्री की आंखों में पता नहीं क्या आकर्षण था कि उस की सूरत मेरे दिमाग पर छाई रही. यही सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला.

प्रात: 7 बजे नींद खुली. यहां तो डाक सुबह 7 और 9 बजे के बीच बंट जाती है. देखा, मेरे भैया का पत्र आया है. सब को नाश्ता कराया और सब काम निबटा कर फुरसत के क्षणों में सोचने लगी कि तपस्या से फिर मुलाकात होगी तो उसे अपनी सहेली बनाऊंगी. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं कि उन्हें देखते ही ऐसा एहसास होता है कि न जाने कब से इन्हें जानते हैं.

शुक्रवार का दिन आया और मैं अपने पुत्र के साथ उस के स्कूल पहुंची. देखा, वह भी वहां पर उपस्थित है. थोड़ी देर बाद ही स्कूल की अध्यापिका रोजी ने मुझ से कौफी के बारे में पूछा तो ठंड से कंपकंपाते हुए अनायास ही मुंह से हां निकल गया. कुछ देर बाद तपस्या भी अपनी कौफी ले कर मेरे ही पास आ गई.

‘‘प्रेरणाजी, कुछ देर आप के पास बैठ सकती हूं मैं?’’

मैं ने मुसकरा कर हामी भर दी. हम दोनों के बच्चे अपनेअपने खेलों में व्यस्त थे. बातों का सिलसिला फिर आरंभ हो गया. मैं ने पूछा, ‘‘तपस्याजी, आप ने दूसरे धर्म वाले व्यक्ति से विवाह किया. आप को क्या लगता है कि आप ने सही कदम उठाया? क्या आप के अभिभावक इस विवाह के लिए सहमत थे? मैं तो सोचती हूं कि विवाह एक जुआ है. खेलने से पहले पता नहीं होता कि जीत होगी या हार और खेलने के बाद अर्थात विवाह के पश्चात ही पता चलता है कि हम जीते हैं या हारे. और वह भी एक लंबे अंतराल के पश्चात ही पता चलता है, क्योंकि विवाह के 1-2 वर्ष तो एकदूसरे को पहचानने में ही व्यतीत हो जाते हैं.’’

इस पर उस ने कहा, ‘‘प्रेरणाजी, आप क्या करेंगी यह सब जान कर? बड़ी लंबी कहानी है, बहुत समय लगेगा.’’

‘‘मैं आप के इस साहसिक कदम की प्रशंसा करती हूं. फिर भी मैं समय अवश्य निकालूंगी.’’

निश्चय हुआ कि स्कूल से निकलने के बाद वह मेरे साथ मेरे घर चलेगी और एक कप चाय पी कर मेरे घर के पास स्थित एक स्टोर से कुछ खरीदारी भी कर लेगी. हम दोनों के पति अपनेअपने काम पर गए हुए थे. स्कूल की छुट्टी होने पर हम अपनेअपने बच्चों के साथ बाहर निकले. रास्ता लंबा था, अत: बातों का क्रम आरंभ हो गया.

तपस्या ने मुझ से पहला प्रश्न किया, ‘‘क्या आप की निगाह में दूसरे धर्म या जाति के व्यक्ति से विवाह करना अपराध है?’’

मैं ने कहा, ‘‘बिलकुल नहीं. मैं तो बहुत खुले विचारों की हूं. और हर इनसान को केवल इनसानियत की कसौटी पर कस कर देखती हूं. न कि उस की जाति व धर्म के आधार पर. अगर आप अपने पति के साथ दुखी हैं तो ऐसी भावना हृदय से निकाल फेंकिए, क्योंकि बहुत से युवकयुवतियां एक ही जाति व धर्म के होते हुए भी विवाह के पश्चात आपस में तालमेल बैठाने में असमर्थ होते हैं. तपस्याजी, इनसान यदि एक अच्छा इनसान ही हो तो इस एक विशेषता के कारण अन्य सभी बातें नगण्य हो जाती हैं.’’

बातें करतेकरते कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. हम दोनों के बच्चे एकदूसरे से हिलमिल गए थे. घर में घुसते ही उस ने घर की बड़ी प्रशंसा की. हम लोगों ने अपने कोट, दस्ताने, मफलर इत्यादि उतारे. मां ने पूछा, ‘‘चाय का पानी चढ़ा दूं?’’

मैं ने मां का परिचय तपस्या से कराया और कहा, ‘‘नहीं, मां, आप इन के साथ बैठिए. मैं चढ़ाती हूं चाय का पानी.’’

बच्चों को 1-1 कस्टर्ड केक दे दिया. चाय ले कर मैं बैठक में आ गई. मां भी बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त हो गईं और मैं अपनी मात्र एक दिन की जान- पहचान वाली इस नई सखी के समीप बैठ गई. उस ने मेरा हाथ पकड़ कर बड़े ही भावुक अंदाज में मुझे बताया, ‘‘नर्सरी स्कूल में आप को देखते ही मुझे अनुमान हो गया था कि आप अवश्य ही एक संभ्रांत घराने से संबंध रखती हैं. इस देश में भी आप के भारतीय पहनावे साड़ी, माथे पर बिंदी व चेहरे की सौम्यता ने मुझे अंदर तक प्रभावित किया है.’’

फिर तपस्या ने अपनी कहानी आरंभ की. वह मात्र 3 वर्ष पूर्व इस देश में आई है. इस से पूर्व वह फिजी में एक सरकारी कार्यालय में नौकरी करती थी. उस के मामा अपने परिवार के साथ लंदन में रहते हैं. मात्र घूमनेफिरने के विचार से वह 3 माह का टूरिस्ट वीजा ले कर उन के पास आ गई. वहीं पर घूमतेफिरते एक दिन उसे जमील (उस के पति) मिल गए. एशियाई होने के कारण उन दोनों ने एकदूसरे की ओर मित्रवत भाव से देखा. जमील ने पूछा, ‘‘आप यहां घूमने आई हैं?’’

तपस्या ने उत्तर दिया, ‘‘हां, मैं अपने मामाजी के पास आई हूं.’’ बातोंबातों में पता चला कि उस युवक के दादादादी भी कभी फिजी में ही रहते थे और मातापिता बाद में पाकिस्तान में बस गए. उसे बचपन में ही लंदन में बसे चाचाचाची के पास शिक्षा के लिए भेज दिया गया और शिक्षा समाप्त करने के पश्चात उसे यहीं नौकरी भी मिल गई. उस का एक भाई व एक बहन आस्ट्रेलिया में हैं. तपस्या ने बताया कि उस का भी एक भाई आस्ट्रेलिया में इंजीनियर है. इस प्रकार बातें करतेकरते दोनों एकसाथ घूमते रहे. घर जाते जमील ने तपस्या से पूछा, ‘‘आप से फिर मिल सकता हूं?’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यह संभव नहीं है. मेरी माताजी इसे पसंद नहीं करेंगी,’’ इस के बाद दोनों विपरीत दिशाओं में चले गए. पर उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवन भर एक ही दिशा में, एक ही मंजिल के लिए, साथसाथ चलना होगा. कुछ समय पश्चात मामाजी के क्लब में क्रिसमस पार्टी का आयोजन था. वहां तपस्या भी उन लोगों के साथ गई. वहां जमील भी था. जमील और तपस्या एकदूसरे को देख कर हतप्रभ रह गए. भीड़भाड़ व अनजाने वातावरण ने दोनों को पुन: बातचीत करने पर विवश कर दिया.

मामाजी अपने मित्रों व मामीजी अपनी सहेलियों में व्यस्त थीं, अत: इन दोनों ने अपनी बातचीत का क्रम, जोकि उस दिन अधूरा छूट गया था, आगे बढ़ाया. तपस्या की शिक्षा, नौकरी, अन्य बातों से जमील बड़ा प्रभावित हुआ. उस ने अपने लिए बीयर व तपस्या के लिए कोक का आर्डर दिया. दोनों ही परत दर परत खुलते जा रहे थे. जमील ने तपस्या के सामने नृत्य करने का प्रस्ताव रखा. तपस्या ने यह कह कर कि मुझे नहीं आता, इनकार कर दिया.

तब जमील ने कहा, ‘‘इस गहमा- गहमी में किसे फुरसत है, जो हमारी ओर देखेगा? जैसेजैसे मैं कदम रखूंगा वैसे ही आप भी रख दीजिएगा.’’

इस तरह उन दोनों ने एकसाथ नृत्य किया, खाना खाया. कहने की बात नहीं कि दोनों अच्छे मित्र बन चुके थे. तभी जमील ने न जाने क्या सोच कर तपस्या के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया, जिसे सुन कर वह हतप्रभ रह गई.

उस ने पूछा, ‘‘2 दिन की मुलाकात में ही ऐसा प्रस्ताव रख दिया आप ने?’’

जमील ने कहा, ‘‘आप के सांवले सौंदर्य व आंखों के मासूम भावों ने मुझे ऐसा प्रभावित किया है कि मैं स्वयं को रोक नहीं सका, वरना मेरे मातापिता तो पाकिस्तान से ठेठ देहाती लड़की को मेरे लिए भेजने की तैयारी कर रहे हैं. वैसी लड़की से विवाह करने से तो बेहतर है कि जिंदगी भर कुंआरा ही रह जाऊं.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘मैं जाति, धर्म में विश्वास तो नहीं करती, पर चूंकि यहां पर मेरे अभिभावक मामामामी हैं, अत: उन की राय लेनी होगी. मैं अभी कुछ नहीं कह सकती.’’

जमील ने अपना फोन नंबर दे दिया और कहा, ‘‘मैं आप की स्वीकृति की बेसब्री से प्रतीक्षा करूंगा.’’

घर जा कर अगली सुबह ही तपस्या ने अपने मामा और मामी को जमील से संबंधित सभी बातें बता कर उन की राय मांगी. उन लोगों ने भी धर्म की दीवार खड़ी करनी चाही और कहा, ‘‘तुम एक हिंदू लड़की हो और वह एक पाकिस्तानी. यह विवाह संभव नहीं है.’’

तपस्या ने कहा, ‘‘यदि आप की दृष्टि में उस में यही एक खोट है, तो मुझे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है. लड़के को आप लोगों ने क्लब में देखा ही है मेरे साथ. मैं उसे फोन करने जा रही हूं.’’

उन के रोकतेरोकते भी उस ने फोन पर जमील को स्वीकृति दे दी. जमील ने अपनी खुशी में डूबी आवाज में उसे उसी शाम ही पास के एक रेस्तरां में मिलने की दावत दे डाली और शाम को जब तपस्या अपनी सब से सुंदर साड़ी में वहां पहुंची तो देखा, जमील उस की प्रतीक्षा कर रहा है. दोनों ने एकदूसरे को आंखों ही आंखों में मौन बधाई दे डाली और अगले सप्ताह शादी का कार्यक्रम निश्चित कर लिया. निश्चित दिन कोर्ट में दोनों की शादी हो गई. मामामामी को बुझे मन से सम्मिलित होना पड़ा. शादी हो गई और तपस्या अब तपस्या मुदालियर न हो कर तपस्या अली हो गई.

 

ठंडक का एहसास : चाचा को वकील लड़के क्यों नहीं पसंद थे

हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी. जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य.

‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में…’’ चाचाजी ने कहा.

‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’

‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’

‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं…’’

‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा समझदार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न…हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही समझ में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मुझे अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’

चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सचझूठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं. सच है कहां? वह तो बेचारा कहीं दम तोड़ चुका नजर आता है. एक ‘नोबल प्रोफैशन’ माना जाने वाला पेशा भी आज के युग में ‘नोबल’ नहीं रह गया तो इस पेशे से तो उम्मीद भी क्या की जा सकती है.

दोपहर को हम धूप सेंक रहे थे तभी पुराने कपड़ों के बदले नए बरतन देने वाली चली आई. उम्रदराज औरत है. साल में 2-3 बार ही आती है. कह सकती हूं अपनी सी लगती है. बरतन देखतेदेखते मैं ने हालचाल पूछा. पिछली बार मैं ने 2 जरी की साडि़यां उसे दे दी थीं. उस की बेटी की शादी जो थी.

‘‘शादी अच्छे से हो गई न रमिया… लड़की खुश है न अपने घर में?’’

‘‘जी, बीबीजी, खुश है…कृपा है आप लोगों की.’’

‘‘साडि़यां उसे पसंद आई थीं कि नहीं?’’

फीकी सी हंसी हंस गरदन हिला दी उस ने.

‘‘साडि़यां तो थानेदार ने निकाल ली थीं बीबीजी. आदमी को अफीम का इलजाम लगा कर पकड़ लिया था. छुड़ाने गई तो टोकरा खुलवा कर बरतन भी निकाल लिए और सारे कपड़े भी. पुलिस वालों ने आपस में बांट लिए. तब हमारा बड़ा नुकसान हो गया था. चलो, हो गया किसी तरह लड़की का ब्याह, यह सब तो हम गरीबों के साथ होता ही रहता है.’’

उस की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गई थी. लोगों की उतरन क्या पुलिस वालों ने आपस में बांट ली. इतने गएगुजरे होते हैं क्या ये पुलिस वाले?

सहसा मेरे मन में कुछ कौंधा. कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र के घर कोई उत्सव था और उस के घर हूबहू मेरी वही जरी की साड़ी पहने एक महिला आई थी. मित्र ने मुझे उस से मिलाया भी था. उस ने बताया था कि उस के पति पुलिस में हैं. तो क्या वह मेरी साड़ी थी? कितनी ठसक थी उस औरत में. क्या वह जानती होगी कि उस ने जिस की उतरन पहन रखी है, उसी के सामने ही वह इतरा रही है.

‘‘कौन से थाने में गई थी तू अपने आदमी को छुड़ाने?’’

‘‘बीबीजी, यही जो रेलवे फाटक के पीछे पड़ता है. वहां तो आएदिन किसी न किसी को पकड़ कर ले जाते हैं. जहान के कुत्ते भरे पड़े हैं उस थाने में. कपड़ा, बरतन न निकले तो बोटियां चबाने को रोक लेते हैं. मां पसंद आ जाए तो मां, बेटी पसंद आ जाए तो बेटी…’’

‘‘कोई कुछ कहता नहीं क्या?’’

‘‘कौन कहेगा और किसे कहेगा. उस से ऊपर वाला उस से बड़ा चोर होगा. कहां जाएं हम…बस, उस मालिक का ही भरोसा है. वही न्याय करेगा. इनसान से तो कोई उम्मीद है नहीं.’’

 

आसमान की तरफ देखा रमिया ने तो मन अजीब सा होने लगा मेरा. क्या कोई इतना भी नीचे गिर सकता है. थाली की रोटी तोड़ने से पहले इनसान यह तो देखता ही है कि थाली साफसुथरी है कि नहीं. लाख भूखा हो कोई पर नाली की गंदगी तो उठा कर नहीं खाई जा सकती.

रमिया से ऐसा कहा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘पेट की भूख और तन की भूख मैलीउजली थाली नहीं देखती बीबीजी. हम लोगों की हाय उन्हें दिनरात लगती है. अब देखना है कि उन्हें अपने किए की सजा कब मिलती है.’’

उस थानेदारनी के प्रति एक जिज्ञासा भाव मेरे मन में जाग उठा. एक दिन मैं अपनी उसी मित्र से मिलने गई. बातोंबातों में किसी बहाने उस का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘उस की साड़ी बड़ी सुंदर थी. मेरी मां के पास भी ऐसी ही जरी की साड़ी थी. पीछे से उसे देख कर लग रहा था कि मेरी मां ही खड़ी हैं. कैसे लोग हैं…इस इलाके में नएनए आए हैं…वे कोई नई किट्टी शुरू कर रही थीं और कह रही थीं कि मैंबर बनना चाहें तो…तुम कैसे जानती हो उन्हें?’’

‘‘उन का बेटा मेरे राजू की क्लास में है. ज्यादा जानपहचान नहीं करना चाहती हूं मैं…इन पुलिस वालों के मुंह कौन लगे. अब राजू ने बुला लिया तो मैं क्या कहती. तुम किट्टी के चक्कर में उसे मत डालना. ऐसा न हो कि उस की किट्टी निकल आए और बाकी की सारी तुम्हें भरनी पड़े. उस की हवा अच्छी नहीं है. शरीफ आदमी नहीं हैं वे लोग. औरत आदमी से भी दो कदम आगे है. मुंह पर तो कोई कुछ नहीं कहता पर इज्जत कोई नहीं करता.’’

अपनी मित्र का बड़बड़ाना मैं देर तक सुनती रही. अपने राजू की उन के बेटे के साथ दोस्ती से वे परेशान थीं.

‘‘कापीकिताब लेने अकसर उस का लड़का आता रहता है. एक दिन राजू ने मना किया तो कहने लगा कि शराफत से दे दो, नहीं तो पापा से कह कर अंदर करवा दूंगा.’’

‘‘क्या सच में ऐसा…?’’

मेरी हैरानी का एक और कारण था.

‘‘इन पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मैं तो परेशान हूं उस के लड़के से. अपनी कुरसी का ऐसा नाजायज फायदा…समझ में नहीं आता कि राजू को कैसे समझाऊं. बच्चा है कहीं कह देगा कि मेरी मां ने मना किया है तो…’’

एक बेईमान इनसान अपने आसपास कितने लोगों को प्रभावित करता है, यह मुझे शीशे की तरह साफ नजर आ रहा था. एक चरित्रहीन इनसान अपनी वजह से क्याक्या बटोर रहा है. बदनामी और गंदगी भी. क्या डर नहीं लगता है आने वाले कल से? सब से ज्यादा विकार तो वह अपने ही लिए संजो रहा है. कहांकहां क्याक्या होगा, जब यही सब प्रश्नचिह्न बन कर सामने खड़ा होगा तब उत्तर कहां से लाएगा.

सच है, अपने दंभ में मनुष्य क्याक्या कर जाता है. पता तो तब चलता है जब कोई उत्तर ही नहीं सूझता. वक्त की लाठी में आवाज नहीं होती और जब पड़ती है तब सूद समेत सब वापस भी कर देती है.

कहने को तो हम सभ्य समाज में रहते हैं और सभ्यता का ही कहांकहां रक्त बह रहा है, हमें समझ में ही नहीं आता. अगर दिखाई दे भी जाए तो हम उस से आंखें फेर लेते हैं. बुराई को पचा जाने की कितनी अच्छी तरह सीख मिल चुकी है हमें.

गरीब बरतन वाली की पीड़ा और उस जैसी औरों पर गिरती थानेदार की गाज ने कई दिन सोने नहीं दिया मुझे. क्या हम पढ़ेलिखे लोग उन के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी मानसिकता इतनी नपुंसक है कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा हमें जरा सा भी नहीं रुलाती? अगर ऊंचनीच का भेद मिटा दें तो एक मानवीय भाव तो जागना ही चाहिए हमारे मन में. अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी.

समाज इतना गंदा हो चुका है कि अपनी चादर को ही बचा पाना आज आसान नहीं रहा. दिन निकलता है तो उम्मीद ही नहीं कर सकते कि रात सहीसलामत आएगी कि नहीं. फूंकफूंक कर पैर रखो तो भी कीचड़ की छींटों से बचाव नहीं हो पाता. क्या करें हम? अपना मानसम्मान ही बचाना भारी पड़ता है और किसी को कोई कैसे बचाए.

मेरे पति जिस विभाग में कार्यरत हैं वहां हर पल पैसों का ही लेनदेन होता है. पैसा लेना और पैसा देना ही उन का काम है. एक ऐसा इनसान जिसे दिनरात रुपयों में ही जीना है, वही रुपए कब गले में फांसी का फंदा बन कर सूली पर लटका दें पता ही नहीं चल सकता. कार्यालय में आने वाला चोर है या साधु…समझ ही नहीं पाते. कैसे कोई काम कर पाए और कैसे कोई अपनी चादर दागदार होने से बचाए?

आज ईमानदारी और बेईमानी का अर्थ बदल चुका है. आप लाख चोरी करें, जी भर कर अपना और सामने वाले का चरित्रहनन करें. बस, इतना खयाल रखिए कि कोई सुबूत न छोड़ें. पकड़े न जाएं. यहीं पर आप की महानता और समझदारी प्रमाणित होती है. कच्चे चोर मत बनिए. जो पकड़ा गया वही बेईमान, जो कभी पकड़ा ही न जाए वह तो है ही ईमानदार, उस पर कैसा दोष?

इसी कुलबुलाहट में कितने दिन बीत गए. ‘कबिरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास, करन गे सो भरन गे तू क्यों भेया उदास’ की तर्ज पर अपने मन को समझाने का मैं प्रयास करती रही. बुराई का अंत कब होगा…कौन करेगा…किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था मुझे.

एक शाम मुझे जम्मू से फोन आया :

‘‘आप के शहर में कर्फ्यू लग गया है. क्या हुआ…आप ठीक हैं न?’’ मेरी बहन का फोन था.

‘‘नहीं तो, मुझे तो नहीं पता.’’

‘‘टीवी पर तो खबर आ रही है,’’ बहन बोली, ‘‘आप देखिए न.’’

मैं ने झट से टीवी खोला. शहर का एक कोना वास्तव में जल रहा था. वाहन और सरकारी इमारतें धूधू कर जल रही थीं. रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी. रेलों की आवाजाही ठप थी.

एक विशेष वर्ग पर ही सारा आरोप आ रहा था. शहर के बाहर से आया मजदूर तबका ही मारकाट और आगजनी कर रहा था. एसएसपी सहित 12-15 पुलिसकर्मी भी घायल अवस्था में अस्पताल पहुंच चुके थे. मजदूरों के एक संगठन ने पुलिस पर हमला कर दिया था. मैं ने झट से पति को फोन किया. पता चला, उस तरफ भी बहुत तनाव है. अपना कार्यालय बंद कर के वे लोग बैठे हैं. कब हालात शांत होेंगे, कब वे घर आ पाएंगे, पता नहीं. बच्चों  के स्कूल फोन किया, पता चला वे भी डी.सी. के और्डर पर अभी छुट्टी नहीं कर पा रहे क्योंकि सड़कों पर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. दम घुटने लगा मेरा. क्या सभी दुबके रहेंगे अपनेअपने डेरों में. पुलिस खुद मार खा रही है, वह बचाएगी क्या?

अपनी सहेली को फोन किया. कुछ तो रास्ता निकले. उस का बेटा राजू भी अभी स्कूल में ही है क्या?

‘‘क्या तुम्हें कुछ भी पता नहीं है? कहां रहती हो तुम? मैं ने तो राजू को स्कूल जाने ही नहीं दिया था.’’

‘‘क्यों, तुम्हें कैसे पता था कि आज कर्फ्यू लगने वाला है?’’

‘‘उस थानेदार की खबर नहीं सुनी क्या तुम ने? सुबह उस की पत्नी और बेटे का अधकटा शव पटरी पर से मिला है. थानेदार के भी दोनों हाथ काट दिए गए हैं. भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया था.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. यह क्या सुना रही है मेरी मित्र? वह बहुत कुछ और भी कहतीसुनती रही. सब जैसे मेरे कानों से टकराटकरा कर लौट गया. जो सुना उसे तो आज नहीं कल होना ही था. सच कहा है किसी ने, अपनी लड़ाई सदा खुद ही लड़नी पड़ती है.

रमिया की सारी बातें याद आने लगीं मुझे. हम तो उस के लिए कुछ नहीं कर पाए. हम जैसा एक सफेदपोश आदमी जो अपनी ही पगड़ी बड़ी मुश्किल से बचा पाता है किसी की इज्जत कैसे बचा सकता है. यह पुलिस और मजदूर वर्ग की लड़ाई सामान्य लड़ाई कहां है, यह तो मानसम्मान की लड़ाई है. सब को फैलती आग दिखाई दे रही है पर किसी को वह आग क्यों नहीं दिखती जिस ने न जाने कितनों के घर का मानसम्मान जला दिया?

थानेदारनी और उस के बच्चे का अधकटा शव तो अखबार के पन्नों पर भी आ जाएगा, उन का क्या, जिन की पीड़ा अनसुनी रह गई. क्या करते गरीब लोग? तरीका गलत सही, सही तरीका है कहां? कानून हाथ में ले लिया, कानून है कहां? सुलगती आग एक न एक दिन तो ज्वाला बन कर जलाती ही.

‘‘शुभा, तू सुन रही है न, मैं क्या कह रही हूं. घर के दरवाजे बंद रखना, सुना है वे घरों में घुस कर सब को मारने वाले हैं. अपना बचाव खुद ही करना पड़ेगा.’’

फोन रख दिया मैं ने. अपना बचाव खुद करने के लिए सारे दरवाजेखिड़कियां तो बंद कर लीं मैं ने लेकिन मन की गहराई में कहीं विचित्र सी मुक्ति का भाव जागा. सच कहा है उस ने, अपना बचाव खुद ही करना पड़ता है. अपनी लड़ाई हमेशा खुद ही लड़नी पड़ती है. यह आग कब थमेगी, मुझे पता नहीं, मगर वास्तव में मेरी छाती में ठंडक का एहसास हो रहा था.

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