रफू की हुई ओढ़नी : घूमर वाली मेघा – भाग 3

“तुम्हें भी शहर की हवा लग गई लगती है,” एक रोज मेघा ने सिगरेट के छल्ले उड़ाते विनोद से पूछा.

“जैसा देस, वैसा भेष,” विनोद ने एक हिंदी फिल्म का नाम लिया और हंस दिया.

“बिना भेष बदले क्या उस देस में रहने नहीं दिया जाता?” मेघा ने फिर पूछा जिस का जवाब विनोद को नहीं सूझा. वह चुपचाप नाक से धुआं खींचता मुंह से निकालता रहा.

मेघा चाह तो रही थी कि उस के हाथ से सिगरेट खींच ले लेकिन किस अधिकार से? बेशक विनोद के प्रति उस की कोमल भावनाएं हैं लेकिन इकतरफा भावनाओं की क्या अहमियत. मेघा पराजित सी खड़ी थी.

कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जो महानगरों में बड़े शोरशराबे के साथ मनाए जाते हैं, वही छोटे शहर के लोग इन्हें हसरत के साथ ताका करते हैं. वैलेंटाइन डे भी ऐसा ही खास दिन है जिस का युवा दिलों को सालभर से इंतजार रहता है. मेघा भी बहुत उत्साहित थी कि उसे भी यह सुनहरा मौका मिला है जब वह प्रत्यक्ष रूप से इस अवसर की साक्षी बनने वाली है. अन्य लड़कियों की तरह वह गुलाब इकट्ठे करने वाली भीड़ का हिस्सा तो नहीं बन रही थी लेकिन एक गुलाब की प्रतीक्षा तो उसे भी थी ही.

प्रेम दिवस पर पूरे कालेज में गहमागहमी थी. लड़कियां बड़े मनोयोग से सजीसंवरी थी तो लड़के भी कुछ कम नहीं थे. किसी के हाथ में गुलाब तो किसी के पास चौकलेट, कोई टैडीबीयर हाथ में थामे था तो कोई मंदमंद मुसकान के साथ कार्ड में लिखे जज्बात पढ़ रहा था.

कोई जोड़ा कहीं किसी कैंटीन में सटा बैठा था तो कोई किसी कार की पिछली सीट पर प्रेमालाप में मगन था. कुछ जोड़े मोटरसाइकिल पर ऐसे चिपक कर घूम रहे थे कि मेघा को झुरझुरी सी हो आई. मेघा की आंखें ये नजारे देखदेख कर चकाचौंध हुई जा रही थी.

सुबह से दोपहर होने को आई लेकिन विनोद का कहीं अतापता नहीं था.

‘मेरे लिए गुलाब या गिफ्ट लेने गया होगा,’ से ले कर ‘पता नहीं कहां चला गया’ तक के भाव आ कर चले गए. लेकिन नहीं आया तो केवल विनोद.

‘क्यों न चल कर मैं ही मिल लूं,” सोचते हुए मेघा ने कालेज के बाहर अस्थाई रूप से लगी फूलों की दुकान से पीला गुलाब खरीदा और विनोद की तलाश में डिपार्टमैंट की तरफ चल दी.

“अभीअभी विनय के साथ निकला है,” किसी ने बताया.

विनय उन दोनों का कौमन फ्रैंड है. असाइनमैंट बनाने के चक्कर में तीनों कई बार विनय के कमरे पर मिल चुके हैं. मेघा सोच में पड़ गई.

‘क्या किया जाए, इंतजार या फिर विनय के कमरे पर धावा…’ आखिर मेघा ने विनोद को सरप्राइज देना तय किया और विनय के रूम पर जाने के लिए औटो में बैठ गई.

दिल उछल कर बाहर आने की कोशिश में था. औटो की खड़खड़ भी धड़कनों के शोर को दबा नहीं पा रही थी. पीला गुलाब उस ने बहुत सावधानी के साथ पकड़ा हुआ था. कहीं हवा के झोंके से पंखुड़ियां क्षतिग्रस्त न हो जाएं. आज वह जो करने जा रही है वह उस ने कभी सोचा तक नहीं था.

‘पता नहीं मुझे यह करना चाहिए या नहीं. कहीं विनोद इसे गलत न समझ ले. मेरा यह अतिआधुनिक रूप कहीं विनोद को ना भाया तो?’ ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो मेघा को 2 कदम आगे और 4 कदम पीछे धकेल रहे थे.

ऊहापोह में घिरी मेघा के हाथ कमरे के बाहर लगी घंटी के बटन की तरफ बढ़ गए. तभी अचानक भीतर से आ रही आवाजों ने उसे ठिठकने को मजबूर कर दिया.

“अरे यार, आज तूने किसी को कोई लाल गुलाब नहीं दिया,” विनय के प्रश्न का जवाब सुनने के लिए मेघा अधीर हुई जा रही थी. अपने नाम का जिक्र सुनने की प्रतीक्षा उस की आंखों में लाली सी उतर आई. उस ने कान दरवाजे से सटा दिए.

“कोई जमी ही नहीं. सानिया पर दिल आया था लेकिन उसे तो कोई और ले उड़ा,” विनोद का जवाब सुन कर मेघा को यकीन नहीं हुआ.

“सानिया? वह तो तेरेमेरे जैसों को घास भी ना डाले,” विनोद ने ठहाका लगाया.

“मैं तो मेघा के बारे में बात कर रहा था. तुम दोनों की तो खूब घुटती थी ना, इसीलिए मैंने अंदाजा लगाया,” विनय ने आगे कहा.

उस के मुंह से अपना जिक्र सुन कर मेघा फिर से उत्सुक हुई.

“कौन? वह गांवड़ी? अरे नहीं यार, यहां आ कर भी अपने लिए कोई गांवड़ी ही ढूंढ़ी तो फिर क्या खाक तीर मारा,” विनोद ने लापरवाही से कहा तो मेघा के कान सुन्न से हो गए. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जो उस ने सुना वह सच है.

उस ने एक निगाह अपने हाथ में सहेजे पीले गुलाब पर डाली. फूल भी उसे अपने किरदार सा बेरौनक लगा. मेघा वापस मुड़ गई.

‘दिल टूटा क्या?’ कोई भीतर से कुनमुनाया.

‘ना रे, बिलकुल भी नहीं. मेरा दिल इतना कमजोर थोड़ी है. वैसे भी मैं यहां दिल तोड़ने या जोड़ने नहीं आई हूं,’ अपने भीतर को जवाब दे कर वह जोर से खिलखिलाई और फिर अपना दुपट्टा हवा में लहरा दिया.

मेघा हंसतेहंसते बुदबुदा रही थी, ‘गांवड़ी.’

औटो में बैठी मेघा ने 1-2 बार पीले गुलाब को खुद ही सूंघा और फिर उसे औटो में ही छोड़ कर नीचे उतर गई. फटी ओढ़नी बहुत नफासत के साथ रफू हो गई थी.

नन्हा सा मन: कैसे बदल गई पिंकी की हंसतीखेलती दुनिया – भाग 3

थोड़े दिनों तक सब ठीक रहा. फिर वही झगड़ा शुरू हो गया. पिंकी सोचती, ‘उफ, ये मम्मीपापा तो कभी नहीं सुधरेंगे, हमेशा झगड़ा करते रहेंगे. वह इस घर को छोड़ कर कहीं दूर चली जाएगी. तब पता चलेगा दोनों को कि पिंकी भी कुछ है. अभी तो उस की कोई कद्र ही नहीं है.’

वह सामने के घर में रहने वाला भोलू घर छोड़ कर चला गया था तब उस के मम्मीपापा जगहजगह ढूंढ़ते फिर रहे थे. वह भी ऐसा करेगी, पर वह जाएगी कहां? जब वह छोटी थी तो शारदा आंटी बताती थीं कि बच्चों को कभी एकदम अकेले घर से बाहर नहीं जाना चाहिए. बाहर बच्चों को पकड़ने वाले बाबा घूमते रहते हैं जो बच्चों को झोले में डाल कर ले जाते हैं, उन के हाथपांव काट कर भीख मंगवाते हैं. ना बाबा ना, वह घर छोड़ कर नहीं जाएगी. फिर वह क्या करे?

पिंकी अब गुमसुम रहने लगी थी. वह किसी से बात नहीं करती थी. अब वह मम्मी व पापा से किसी खिलौने की भी मांग नहीं करती. हां, कभीकभी उस का मन करता है तो वह अकेली बैठी खूब रोती है. वह अब सामान्य बच्चों की तरह व्यवहार नहीं करती. स्कूल में किसी की कौपी फाड़ देती, किसी का बस्ता पटक देती. उस की क्लासटीचर ने उस की मम्मी को फोन कर के उस की शिकायत की थी.

एक दिन उस ने अपने सारे खिलौने तोड़ दिए थे. तब मम्मी ने उसे खूब डांटा था, ‘न पढ़ने में मन लगता है तेरा और न ही खेलने में. शारदा बता रही थी कि तुम उस का कहना भी नहीं मानतीं. स्कूल में भी उत्पात मचा रखा है. मैं पूछती हूं, आखिर तुम्हें हो क्या गया है?’

वह कुछ नहीं बोली. बस, एकटक नीचे जमीन की ओर देख रही थी. उसे अब सपने भी ऐसे आते कि मम्मीपापा आपस में लड़ रहे हैं. वह किसी गहरी खाई में गिर गई है और बचाओबचाओ चिल्ला रही है. पर मम्मीपापा में से कोईर् उसे बचाने नहीं आता और वह सपने में भी खुद को बेहद उदास, मजबूर पाती. वह किसी को समझ नहीं सकती, न मम्मी को, न पापा को.

वह अपनी मम्मी से यह नहीं कह सकती कि खुशबू आंटी को ले कर पापा से मत झगड़ा किया करो. क्या हुआ अगर पापा ने उन्हें कार में बिठा लिया या उन्हें शौपिंग करा दी. और न ही वह पापा से कह सकती है कि जब मम्मी को बुरा लगता है तो खुशबू आंटी को घुमाने क्यों ले जाते हो. वह जानती है कि वह कुछ भी कहेगी तो उस की बात कोई नहीं सुनेगा. उलटे, उस को दोचार थप्पड़ जरूर पड़ जाएंगे. मम्मी अकसर कहती हैं कि बड़ों की बातों में अपनी टांग मत अड़ाया करो.

पिंकी के मन में भय बैठता जा रहा था. वह भयावह यंत्रणा झेल रही थी. धीरेधीरे पिंकी का स्वास्थ्य गिरने लगा. वह अकसर बीमार रहने लगी. मम्मी और पापा दोनों उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने खूब सारे टैस्ट किए जिन की रिपोर्ट नौर्मल निकली. डाक्टर ने उस से कई सवाल पूछे, पर पिंकी एकदम चुप रही. उन्होंने कुछ दवाइयां लिख दीं, फिर पापा से बोले, ‘लगता है इसे किसी बात की टैंशन है या किसी बात से डरी हुई है. आप इसे किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाएं जिस से इस की परेशानी का पता चल सके.’

पिंकी को उस के मम्मीपापा दूसरे डाक्टर के पास ले गए. करीब एक सप्ताह तक वे पिंकी को मनोचिकित्सक के पास ले जाते रहे. वे डाक्टर आंटी बहुत अच्छी थीं, उस से खूब बातें करती थीं. शुरूशुरू में तो पिंकी ने गुस्से में उन का हाथ झटक दिया था, उन की मेज पर रखा गिलास भी तोड़ दिया था. पर वे कुछ नहीं बोलीं, जरा भी नाराज नहीं हुईं.

वे डाक्टर आंटी उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरतीं, उसे दुलार करतीं और उस के गालों पर किस्सी दे कर उसे चौकलेट देतीं. फिर कहतीं, ‘बेटा, अपने मन की बात बताओ. तुम बताओगी नहीं, तो मैं कैसे तुम्हारी परेशानी दूर कर पाऊंगी?’ उन्होंने पिंकी को आश्वासन दिया कि वे उस की परेशानी दूर कर देंगी. नन्हा सा मन आश्वस्त हो कर सबकुछ बोल उठा.

रोतेरोते पिंकी ने डाक्टर आंटी को बता दिया कि वह मम्मीपापा दोनों के बिना नहीं रह सकती. जब मम्मीपापा लड़ते हैं तो वह बहुत भयभीत हो उठती है, एक डर उस के दिल में घर कर लेता है जिस से वह उबर नहीं पाती. उस का दिल मम्मीपापा दोनों के लिए धड़कता है. दोनों के बिना वह जी नहीं सकती. उस दिन वह खूब रोई थी और डाक्टर आंटी ने उसे अपने सीने से चिपका कर खूब प्यार किया था.

बाहर आ कर उन्होंने पिंकी के मम्मीपापा को खूब फटकारा था. आप दोनों के झगड़ों ने बच्ची को असामान्य बना दिया है. अगर बच्ची को खुश देखना चाहते हैं तो आपस के झगड़े बंद करें, उसे अच्छा माहौल दें, वरना बच्ची मानसिक रूप से अस्वस्थ होती चली जाएगी और आप अपनी बच्ची की बीमारी के जिम्मेदार खुद होंगे.

उस दिन पिंकी ने सोचा था कि आज उस ने डाक्टर आंटी को जो कुछ बताया है, उस बात को ले कर घर जा कर उसे मम्मी और पापा दोनों खूब डांटेंगे, खूब चिल्लाएंगे. वह डरी हुई थी, सहमी हुई थी. पर उस के मम्मीपापा ने उसे एक शब्द नहीं कहा. डाक्टर आंटी के फटकारने का एक फायदा तो हुआ कि उस के मम्मी और पापा दोनों बिलकुल नहीं झगड़े, लेकिन आपस में बोलते भी नहीं थे.

उस ने जो सारे खिलौने तोड़ दिए थे, उन की जगह उस के पापा नए खिलौने ले आए थे. मम्मी उस का बहुत ध्यान रखने लगी थीं. रोज रात उसे अपने से चिपका कर थपकी दे कर सुलातीं. पापा भी उस पर जबतब अपना दुलार बरसाते. पर पिंकी भयभीत और सहमीसहमी रहती. वह कभीकभी खूब रोती. तब उस के मम्मीपापा दोनों उसे चुप कराने की हर कोशिश करते.

एक रात पिंकी को हलकी सी नींद आई थी कि पापा की आवाज सुनाई दी. वे मम्मी से भर्राए स्वर में कह रहे थे, ‘तुम मुझे माफ कर दो. मैं भटक गया था. भूल गया था कि मेरा घर, मेरी गृहस्थी है और एक प्यारी सी बच्ची भी है. पिंकी की यह हालत मुझ से देखी नहीं जाती. इस का जिम्मेदार मैं हूं, सिर्फ मैं.’ पापा यह कह कर रोने लगे थे. उस ने पहली बार अपने पापा को रोते हुए देखा था. उस की मम्मी एकदम पिघल गईं, ‘आप रोइए मत, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. पिंकी भी हम दोनों के प्यार से ठीक हो जाएगी. अपने झगड़े में हम ने इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया.’

थोड़ी देर वातावरण में गहरी चुप्पी छाई रही. फिर मम्मी बोलीं, ‘अपनी नौकरी के चक्कर में मैं ने आप पर भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया. औफिस का काम भी घर ले आती थी. आप एकदम अकेले पड़ गए थे, इसीलिए खुशबू…’ इस से आगे उन के शब्द गले में ही अटक कर रह गए थे.

‘नहींनहीं, मैं ही गलत था. अब मैं पिंकी की कसम खा कर कहता हूं कि मैं खुशबू से कोई संबंध नहीं रखूंगा. मेरी पिंकी एकदम अच्छी हो जाए और तुम खुश रहो, इस के अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए.’ पापा धीरेधीरे मम्मी के बालों में उंगलियां फेर रहे थे और मम्मी की सिसकियां वातावरण में गूंज रही थीं.

पिंकी मन ही मन कह रही थी, ‘मम्मी मत रो, देखो न, पापा अपनी गलती मान रहे हैं. पापा, आप दुनिया के सब से अच्छे पापा हो, आई लव यू पापा. और मम्मी आप भी बहुत अच्छी हैं. मैं आप को भी बहुत प्यार करती हूं, आई लव यू मौम.’

पिंकी की आंखें भर आई थीं पर ये खुशी के आंसू थे. अब उसे किसी अलादीन के चिराग की जरूरत नहीं थी. उस के नन्हे से मन में दुनिया की सारी खुशियां सिमट कर समाहित हो गई थीं. आज उस का मन खेलना चाहता है. दौड़ना चाहता है, और इन सब से बढ़ कर दूर बहुत दूर आकाश में उड़ना चाहता है.

शिकार: किसने उजाड़ी मीना की दुनिया – भाग 3

‘‘श्याम मेरे भाई, हमारा प्लान तो यही था कि उसे कार में इधरउधर घुमाते रहेंगे और अपना मतलब साध लेंगे. पर मांगी हुई कार ससुरी बीच रास्ते में टें बोल गई और लाचारी में हमें टैक्सी करनी पड़ी. अब टैक्सी में तो ये सब संभव नहीं था. लिहाजा हमें मीरा को अपने घर लाना पड़ा.’’

‘‘अब मैं मीरा को कैसे मनाऊं, कैसे समझाऊं. वह भरी बैठी है, पुलिस में जाने पर तुली है. अगर उसने थाने में रपट लिखाई तो पुलिस फौरन यहां आ धमकेगी और तुम सब को हथकड़ी लग जाएगी.’’

‘‘पुलिस?’’ वे घबरा कर बोले, ‘‘अरे यार इतना अंधेर तो न कर. अगर पुलिस ने हमें धर लिया तो हम सब बेमौत मर जाएंगे. हमारी जिंदगी तबाह हो जाएगी, नौकरी चली जाएगी, जेल में सड़ना पड़ेगा. और बदनामी होगी अलग से. हम तेरे पैर पकड़ते हैं. हमें इतनी बड़ी सजा न दिलवा. किसी भी तरह हमें पुलिस से बचा ले.’’

‘‘मैं भरसक कोशिश करूंगा कि वह पुलिस में न जाए पर पता नहीं वह मेरी बात मानेगी या नहीं. वह भोलीभाली गांव की गोरी तो है नहीं, जो रोधो कर, इस सब को अपनी किस्मत का खेल मान कर चुप हो जाएगी. खैर, मैं जरा जल्दी में हूं. तुम लोग जल्दी से मेरे पैसे निकालो.’’

‘‘ले भाई,’’ उन्होंने उस के हाथ में कुछ नोट थमा दिए.

‘‘ये क्या,’’ वह आग बबूला हुआ, ‘‘सिर्फ 4 हजार? मेरे तो 4 लाख रुपए बनते हैं. तुम सब ने 1-1 लाख देने का वादा किया था.’’

‘‘श्याम मेरे भाई, हम पर रहम कर. एक लाख बहुत बड़़ी रकम होती है. हमारे पास एक लाख न कभी हुए थे और न होंगे. हम सब छोटीमोटी नौकरी वाले हैं, रोज कुंआ खोदना और रोज पानी पीना.’’

‘‘तुम लोग पैदाइशी कमीने हो,’’ श्याम ने दांत पीस कर कहा, ‘‘जब देने की औकात नहीं थी तो वादा क्यों किया? बेकार में ये सब ड्रामा करना पड़ा. मेरी फजीहत करवाई. अगर मेरी पत्नी को असलियत मालूम हो गई तो वह मुझे कभी माफ नहीं करेगी. उम्र भर मुझे कोसती रहेगी. मुझे तो माया मिली न राम. और हां, तुम लोग अपनी खैरियत चाहते हो तो कुछ दिनों के लिए इधरउधर कहीं खिसक जाओ. मीरा गुस्से से उबल रही है. अगर उस ने पुलिस में जाने की जिद की तो मैं कुछ नहीं कर सकूंगा.’’

‘‘लेकिन यार सारा कुसूर हमारा थोड़े ही न है. हम ने तुझ से करार लिया था कि हम चारों एक बार तेरी पत्नी से सहवास करेंगे और इस के एवज में हर एक तुझे एकएक लाख रुपए देगा. ये सब तेरी मरजी से ही तो हुआ है. तुझ से इजाजत न मिलती तो क्या हम ऐसा कदम उठाने की जुर्रत करते? इस मामले में तू भी उतना ही दोषी है, जितना कि हम.’’

श्याम का चेहरा उतर गया. वह उस शाम की याद कर के मन ही मन तिलमिला उठा. श्याम अतीत में खो गया. नाम श्याम पर काम किया उस ने विनाश का शादी की शाम वह अपने दोस्तों के साथ बैठा शराब पी रहा था. सब के सब सुरूर में थे, नशे में झूम रहे थे.

‘‘मान गए यार श्याम,’’ उस के दोस्त बोले, ‘‘तेरी ससुराल वाले बड़े दरियादिल हैं. हम बारातियों की क्या खातिरदारी की है उन्होंने. तबीयत बागबाग हो गई.’’

‘‘ऊंह, कोरी खातिरदारी अपने किस काम की,’’ श्याम ने मुंह बना कर कहा, ‘‘मेरे पिताजी ने मुझसे कहा था कि वे मेरे ससुर से बात कर चुके हैं, उन्होंने मुझे शादी में कार देने का वादा किया है. लेकिन ससुर जी ने शादी में दिया ठेंगा, कहने लगे कि इतना पैसा खर्च करने की उन की सामर्थ्य नहीं है. वे मुझे एक स्कूटर दे कर टरकाना चाहते थे, पर मैं ने मना कर दिया. मुझे तो इतना गुस्सा आया कि उन से कह दूं, अपनी बेटी को भी अपने ही पास सहेज कर रखें.’’

‘‘पागल न बन यार. तेरी पत्नी तो रूप की खान है. वह एक बेशकीमती हीरा है, जिसे पा कर कोई भी अपना भाग सराहेगा. हम ने तो जब से उसे देखा है, तब से तेरी खुशकिस्मती पर रश्क कर रहे हैं. आहें भर रहे हैं कि हमें ऐसी परी क्यों नहीं मिली.’’

‘‘परी है सो ठीक है. लेकिन मुझे कार न मिलने का बहुत मलाल है.’’ श्याम कुढ़ कर बोला, ‘‘मैं ने तो मौडल और रंग भी पसंद कर रखा था. सोच रहा था कि शादी के बाद शान से कार चलाता हुआ घर पहुंचूंगा तो मोहल्ले वालों पर धाक जम जाएगी. अपने दिन तो तंगी और फाकामस्ती में गुजरते हैं. कार खरीदने की सामर्थ्य अपने में नहीं है.’’

‘‘मेरे दिमाग में एक बात आई है,’’ अनंत बोला, ‘‘अगर तू बुरा न माने तो कहूं.’’

‘‘बोल न. बेधड़क बोल.’’

‘‘एक तरीका है, जिस से तू कार के दाम हासिल कर सकता है. बाप ने न दिया न सही, उस की बेटी से वसूल ले.’’

‘‘क्या मतलब.’’

फिर नशे में धुत सब ने वह विनाशकारी प्लान बनाया था. अपने ही बुने जाल में फंस गया . श्याम उल्टे पांव घर लौटा. रास्ते भर वह अपने आप को धिक्कारता रहा. कैसी भयानक भूल कर दी थी उस ने. कैसा बचकाना काम किया था. अब वह अपने ही बुने जाल में कैसे निकलेगा? बिगड़ी बात कैसे बनाएगा? उसेबारबार अपनीपत्नी का आंसुओं से भीगा चेहरा याद आ रहा था.

उसे पश्चाताप हो रहा था कि क्या मीरा अपने इस कटु अनुभव से कभी उबर  सकेगी या उन दोनों के विवाहित जीवन को ग्रहण लग जाएगा?

उस ने खुद अपने सुखी संसार में आग लगा दी थी. अपने विवाहित जीवन में जहर घोल दिया था. उस का लालच उसे ले डूबा. अब वह कैसे इस भूल का सुधार करेगा. क्या मीरा उसे क्षमा कर देगी?

घर पहुंच कर उस ने मोटरसाइकिल पार्क की. उसे देख कर चौकीदार दौड़ा आया, ‘‘साहब, मेमसाहब बाहर गई हैं. बोलीं कि साहब आएं तो बता देना.’’

‘‘कहां गई हैं?’’

‘‘वे बोलीं कि साहब से कह देना, पुलिस स्टेशन गई हैं.’’

श्याम को काटो तो खून नहीं. वह वहीं जमीन पर धम से बैठ गया.

अधूरा प्यार : जुबेदा ने अशोक के सामने कैसी शर्त रखी- भाग 2

कमरे में जा कर उस ने 2 कप कौफी और्डर की. थोड़ी देर में कौफी भी आ गई. कौफी पीते हुए कहा ‘‘यू नो, मैं तो 4 सालों से आयरलैंड में पढ़ रही थी. कभी लंदन ठीक से घूम नहीं सकी थी. अब दुबई लौट रही हूं तो सोचा जाने से पहले लंदन देख लूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘आयरलैंड कैसे पहुंच गई तुम?’’

उस ने बताया कि उस के पिता मैक एक आयरिश हैं. जुबेदा के नाना का एक तेल का कुआं हैं, जिस में वे काम करते थे. उस कुएं से बहुत कम तेल निकल रहा था, नानाजी ने खास कर जुबेदा के पिताजी को इस का कारण जानने के लिए बुलवाया था. उन्होंने जांच की तो पता चला कि नानाजी के कुएं से जमीन के नीचे से एक दूसरा शेख तेल को अपने कुएं में पंप कर लेता है.

मैक ने इस तेल की चोरी को रोका. ऊपर से जुबेदा के नाना को मुआवजे में भारीभरकम रकम भी मिली थी. तब खुश हो कर उन्होंने मैक को दुबई से ही अच्छी सैलरी दे कर रख लिया. इतना ही नहीं, उन्हें लाभ का 10 प्रतिशत बोनस भी मिलता था.

जुबेदा के नानाजी और मैक में अच्छी दोस्ती हो गई थी. अकसर घर पर आनाजाना होता था. धीरेधीरे जुबेदा की मां से मैक को प्यार हो गया. पर शादी के लिए उन्हें इसलाम धर्म कबूल करना पड़ा था. इस के बाद से मैक दुबई में ही रह गया. पर मैक की मां आयरलैंड में ही थीं. अत: जुबेदा वहीं दादी के साथ रह कर पढ़ी थी.

अपने बारे में इतना बताने के बाद जुबेदा ने कहा, ‘‘मैं तो कल शाम ऐमिरेट्स की फ्लाइट से दुबई जा रही हूं…तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

मैं ने कहा ‘‘मैं भी ऐमिरेट्स की फ्लाइट से हैदराबाद जाऊंगा, पर कल नहीं, परसों. इस के पहले तक तो इत्तफाक से हम मिलते रहे थे, पर अब इत्तफाक से बिछड़ रहे हैं. फिर भी जितनी देर का साथ रहा बड़ा ही सुखद रहा.’’

जुबेदा बोली, ‘‘नैवर माइंड. इत्तफाक हुआ तो हम फिर मिलेंगे. वैसे तुम कभी दुबई आए हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां, एक बार औफिस के काम से 2 दिनों के लिए गया था. मेरी कंपनी के लोग दुबई आतेजाते रहते हैं. हो सकता है मुझे फिर वहां जाने का मौका मिले.’’

‘‘यह तो अच्छा रहेगा. जब कभी आओ मुझ से जरूर मिलना,’’ जुबेदा ने कहा और फिर अपना एक कार्ड मेरे हाथ पर रखते हुए मेरे हाथ को चूमते हुए कहा, ‘‘तुम काफी अच्छे लड़के हो.’’

‘‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?’’

‘‘बिना संकोच पूछो. मुझे पूरी उम्मीद हैं कि तुम कोई ऐसीवैसी बात नहीं करोगे जिस से मुझे तकलीफ हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं करूंगा. बस मैं सोच रहा था कि तुम लोग तो काफी परदे में रहते हो, पर तुम्हें देख कर ऐसा कुछ नहीं लगता.’’

वह हंस पड़ी. बोली, ‘‘तुम ठीक सोचते हो दुबई पहुंच कर मुझे वहां के अनुसार परदे में ही रहना होगा. फिर भी मेरा परिवार थोड़ा मौडरेट सोच रखता है. ओके, गुड नाइट. कल सुबह ब्रेकफास्ट पर मिलते हैं.’’

अगली सुबह हम दोनों ने साथ ब्रेकफास्ट किया. उस के बाद जुबेदा मेरे ही रूम में आ गई. हम लोगों ने एकदूसरे की पसंदनापसंद, रुचि और परिवार के बारे में बाते कीं. फिर शाम को मैं उसे विदा करने हीथ्रो ऐयरपोर्ट तक गया. जातेजाते उस ने मुझ से हाथ मिलाया. मेरा हाथ चूमा और कहा, ‘‘दुबई जरूर आना और मुझ से मिलना.’’

मैं ने भी उसे अपना एक कार्ड दे दिया. फिर वह ‘बाय’ बोली और हाथ हिलाते हुए ऐयरपोर्ट के अंदर चली गई. मैं भी अगले दिन अपने देश लौट आया. जुबेदा से मेरा संपर्क फेसबुक या स्काइप पर कभीकभी हो जाता था.

एक बार तो उस ने अपने मातापिता से भी स्काइप पर वीडियो चैटिंग कराई. उन्होंने कहा कि जुबेदा ने मेरी काफी तारीफ की थी उन से. मुझे तो वह बहुत अच्छी लगती थी. देखने में अति सुंदर. मगर मेरे  एकतरफा चाहने से कोई फायदा नहीं था.

1 साल से कुछ ज्यादा समय बीत चुका था. तब जा कर मुझे दुबई जाने का मौका मिला. मेरी कंपनी को एक प्रोडक्ट अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लौंच करना था. इसी सिलसिले में मुझे 5 दिन रविवार से गुरुवार तक दुबई में रहना था.

अगले हफ्ते शनिवार शाम को मैं दुबई पहुंचा. वहां ऐेयरपोर्ट पर जुबेदा भी आई थी. पर शुरू में मैं उसे पहचान नहीं सका, क्योंकि वह बुरके में थी. उसी ने मुझे पहचाना. उस ने बताया कि उस के नाना का एक होटल भी है. उसी में मुझे उन का मेहमान बन कर रहना है. फिर उस ने एक टैक्सी बुला कर मुझे होटल छोड़ने को कहा. हालांकि वह स्वयं अपनी कार से आई थी.

जुबेदा पहले से ही होटल पहुंच कर मेरा इंतजार कर रही थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मैं तुम्हारी कार में भी तो आ सकता था?’’

वह बोली, ‘‘नहीं, अगर तुम्हारे साथ कोई औरत होती तब मैं तुम्हें अपने साथ ला सकती थी. औनली जैंट्स, नौट पौसिबल हियर. अच्छा जिस होटल में तुम्हारे औफिस का प्रोग्राम है. वह यहां से 5 मिनट की वाक पर है. तुम कहो तो मैं ड्राइवर को कार ले कर भेज दूंगी.’’

‘‘नो थैंक्स. पैदल चलना स्वास्थ्य के लिए अच्छा है,’’ मैं ने कहा.

जुबेदा अपने घर लौट गई थी और मैं अपने रूम में आ गया था. अगली सुबह रविवार से गुरुवार तक मुझे कंपनी का काम करना था. जुबेदा बीचबीच में फोन पर बात कर लेती थी. गुरुवार शाम तक मेरा काम पूरा हो गया था. जुबेदा ने शुक्रवार को खाने पर बुलाया था. मुझे इस की उम्मीद भी थी.

मैं इंडिया से उस के पूरे परिवार के लिए उपहार ले आया था- संगमरमर का बड़ा सा ताजमहल, अजमेर शरीफ के फोटो, कपड़े, इंडियन स्वीट्स और हैदराबाद की मशहूर कराची बेकरी के बिस्कुट व स्नैक्स आदि.

सब ने बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया और स्वादिष्ठ शाकाहारी भोजन कराया. लगभग शाम को जब चलने लगा तो उस की मां ने मुझे एक छोटा सा सुंदर पैकेट दिया. मैं उसे यों ही हाथ में लिए अपने होटल लौट आया. जुबेदा का ड्राइवर छोड़ गया था.

अभी मैं होटल पहुंचा ही था कि जुबेदा का फोन आया, ‘‘गिफ्ट कैसा लगा?’’

मैं ने कहा, ‘‘अभी तो खोल कर देखा

भी नहीं.’’

जुबेदा, ‘‘यह तो हमारे तोहफे की तौहीन होगी.’’

‘‘सौरी, अभी तुम लाइन पर रहो. 1 मिनट में पैकेट खोल कर बताता हूं,’’ कह मैं ने जब पैकेट खोला तो उस में बेहद खूबसूरत और बेशकीमती हीरे की अंगूठी थी. मैं तो कुछ पल आश्चर्य से आंखें फाड़े उसे देखता रहा.

तब तक फिर जुबेदा ने ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, कुछ बोलते क्यों नहीं?’’

‘‘यह क्या किया तुम ने? मुझ से कुछ कहते नहीं बन रहा है.’’

‘‘पसंद नहीं आया?’’ जुबेदा ने पूछा.

अदलाबदली : क्यों था झगड़ा चौकोर जमीन का?

जब से गांव की कच्ची सड़क को हाईवे से जोड़ने की बात छिड़ी है, कारू के घर में कुहराम मच गया. उस की पत्नी को लगा कि जेठजी की जमीन के ज्यादा दाम मिलेंगे, जबकि जमीन का बंटवारा कारू के मनमुताबिक हुआ था. कारू इस बवाल से परेशान हो गया था. क्या उस का बड़ा भाई ललन इस समस्या का हल निकाल पाया?

ललन और कारू 2 भाई अपने परिवार के साथ पुश्तैनी जमीन पर अपनेअपने हिस्से में रह रहे थे. दोनों भाइयों की आपस में कभीकभार 2-4 बातें हो जाया करती थीं, पर दोनों की पत्नियां एकदूसरे को फूटी आंख न सुहाती थीं.

अब तो एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया था, जिस से आएदिन हीलहुज्जत तय थी.

पहले जमीन के आगे कच्चा रास्ता हुआ करता था, पर जब से उसे नैशनल हाईवे से उसे पक्की सड़क बना कर जोड़े जाने की खबर उड़ी है, तब से छोटे भाई कारू के घर अकसर चिकचिक होती रहती थी.

सड़क बनने के सिलसिले में कुछ लोगों की जमीन उस हिस्से में पड़ रही थी. कारू की 4 हाथ और ललन की कुछ ज्यादा ही जमीन थी.

जाहिर था कि सरकार की तरफ से पैसा भी उसी हिसाब से मिलना था. कारू की पत्नी को लग रहा था कि उस के साथ गलत हुआ है. ललन को पहले से ही मालूम था कि भविष्य में इधर से बड़ी सड़क गुजरेगी, तभी उस ने आसानी से हर बात मान ली थी.

कारू तो हमेशा से शहर में रहता रहा था. उसे गांव का कुछ खास अतापता भी तो न था.

बारबार उस के दिमाग में एक ही विचार कौंध रहा था कि आखिर कोई सामने की जगह छोड़ कर तिरछा हिस्सा क्यों लेना चाहेगा, जैसा कि ललन ने किया था?

गांव वालों के सामने सब की रजामंदी से 2 हिस्से हुए थे. ललन ने तो छोटे भाई की मरजी पर ही छोड़ दिया. जिधर तुम्हें चाहिए वह ले लो. सब ने ललन की दरियादिली पर उस की तारीफ भी की थी.

‘‘आखिर ललन ने राम की मिसाल पेश कर दी, वरना कौन इस तरह किसी की मरजी पर छोड़ता है आज के कलयुगी जमाने में.’’

कारू की पत्नी झट से बोल पड़ी थी, ‘‘मुझे तो सामने का ही हिस्सा चाहिए…’’ चौकोर जमीन उस की आंखों में तैर रही थी.

ललन ने बस इतना ही कहा था, ‘‘भाई, जमीन 2 हिस्सों में बंटी है, हमारे दिल नहीं बंटने चाहिए.’’

कारू की पत्नी बहुत खुश थी, पर आज वह अपने ही फैसले पर सिर फोड़ रही थी. हर वक्त बुराभला कहती रहती.

‘‘आज जो तुम ने बात नहीं की, तो मेरा मरा मुंह देखना. आखिरी बार कहे देती हूं तुम्हें…’’

वह कारू को कहती, ‘‘जाओ, अपने बड़े भाई से कहो कि यह 4 हाथ जमीन भी ले ले. हमें तो जानबूझ कर ठगा गया है. आज हमारे पास भी ज्यादा जमीन होती, तो ज्यादा पैसे मिलते.’’

वह भी चिढ़ कर कह देता, ‘‘भैया ने कोई जोरजबरदस्ती नहीं की थी. तुम ने ही आगे बढ़ कर कहा था. जो चाहा वह मिला. यह उन का नसीब है कि उन की जमीन रास्ते में जाएगी. मैं नहीं जाता कहने, तुम्हें जो करना है करो.’’

कारू किस मुंह से बड़े भाई को कहता. ललन ने उसे ही तो फैसले का हक दिया था.

कारू को अपनी पत्नी पर बहुत गुस्सा आ रहा था. खुद ही तो आगे बढ़ कर बोली थी और आज घर में कुहराम मचा रखा है.

2 दिन से खानापीना सब पर आफत छाई थी. बच्चे बाहर से कुछकुछ ला कर खा रहे थे. कारू भी कल सुबह से जो गया देर शाम होने को आया, वह घर नहीं लौटा था.

न जाने क्यों ललन का मन बेचैन हो रहा था. खून के रिश्ते जब तक गाढ़े रहते हैं तो सुखदुख का भी भान होता है. आज उसे कारू की चिंता सता रही थी. कुछ तो बात है. इतना सन्नाटा कि कोई आवाज भी नहीं. धड़कते दिल से बच्चों को आवाज लगाई.

मालूम चला कि पिछले 2 दिन से घर में चूल्हा नहीं जल रहा है, खाना नहीं बन रहा है और कारू भी घर नहीं आया. अब तो पक्का यकीन हो गया था कि कुछ तो गड़बड़ है. पर क्या…?

ललन ने टौर्च उठाई और हर ठिकाने पर जाजा कर ढूंढ़ता रहा, लोगों से पूछता रहा, ‘‘किसी ने कारू को देखा है क्या?’’

कहीं कोई खाबर नहीं थी. मन में तरहतरह के खयाल हिलोरें मार रहे थे. आखिर गया तो कहां गया?

तभी किसी ने बताया कि कारू को गांव के बाहर बने देवस्थान के चबूतरे पर लेटे हुए देखा था, जहां कभी किसी खास मौके पर लोग जाते थे. ललन दौड़ कर उस ओर आवाज लगाता हुआ गया.

‘‘कारू, यह क्या भाई… तू यहां क्यों लेटा है? बच्चों से मालूम चला कि कल सुबह से ही घर से निकले हो तुम. ऐसा कोई करता है भला. 2-4 बातें पतिपत्नी में हो भी गईं तो क्या हुआ. सब ठीक हो जाएगा. चलो मेरे साथ… गांव वाले क्या कहेंगे…’’

‘‘घर… कौन सा घर भैया… जहां पत्नी मेरे सिर पर तांडव करती है. सब तो उस का ही कियाधरा है, फिर भी आएदिन के झगड़ों से परेशान हो गया हूं. घर में मैं सो नहीं पा रहा हूं. यहां काफी अच्छी नींद आई.’’

‘‘इस तरह की बहकीबहकी बातें मत करो. चलो मेरे साथ. क्या बात है, मुझे बताओ… बच्चों से पूछना अच्छा नहीं लगता. तुम ही बता दो अब. मुझे बड़ा भाई मानते हो तो…’’

‘‘भैया… मानूंगा क्यों नहीं. हमेशा मेरे लिए आप खड़े रहे. आप ने कितने त्याग किए हैं, मुझ से ज्यादा और कौन जान सकता है…’’ और वह बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा.

ललन कारू के सिर पर हाथ फिराते हुए बोला, ‘‘बोल न, बात क्या है, जिस ने तुझे इतना परेशान कर रखा है?’’

‘‘भैया, वह कहती है कि वह 4 हाथ जमीन भी आप ही ले लें, जो सड़क बनने में जा रही है. आप की ज्यादा

जमीन गई है, तो पैसे भी आप को ज्यादा मिलेंगे. आप ने जानबूझ कर पीछे की तरफ की जमीन ली थी. यही झगड़े की वजह है.’’

‘‘ठीक है… तो एक काम करते हैं कि अपनीअपनी जगह बदल लेते हैं, तब तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. तुम मेरे हिस्से की और मैं तुम्हारे हिस्से की जमीन ले लेता हूं. चलो, चल कर घर में बात कर लो.’’

‘‘पर भैया, क्या भाभी कुछ नहीं बोलेंगी?’’

‘‘वह बाद में देख लेंगे. पहले अपनी पत्नी से बात तो करो. सब हल निकल जाएगा.’’

कारू ने अपनी पत्नी के सामने यह प्रस्ताव रखा. इस बार ललन की पत्नी ने भी कुछ बोलना चाहा, पर सारी बात समझाने पर वह चुप ही रही.

इधर कारू ने अपनी पत्नी से सारी बात कही. पहले तो वह सुन कर बहुत खुश हुई, लेकिन जब दिमाग लगाया तो उस की गणना ही उसे ठेंगा दिखाती मिली.

ललन की जमीन हमेशा दबंगों की नजर में खटकती रहती, पर ललन की भलमनसाहत और अच्छा स्वभाव उन्हें हर बार रोक लेता था.

सरकार जमीन ले रही थी तो एवज में पैसे भी दे रही थी, जिस से वह कहीं दूसरी जमीन खरीद सकता था.

यह बात कारू की पत्नी को पता थी कि उस के स्वभाव के चलते उस की गांव में अच्छी इमेज नहीं थी. कोई साथ भी नहीं देगा. आखिर में उस ने चुप रहना ही बेहतर समझ.

कारू के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘जो जिसे मिला वही ठीक है. मेरे 4 हाथ तो 4 हाथ ही सही, मुझे अदलाबदली नहीं करनी.’’

अब दोनों भाइयों के चेहरे पर सुकून आ गया था.

एक और अध्याय: आखिर क्या थी दादी मां की कहानी – भाग 2

मुझे दुख हुआ, मुझे इस तरह चांदनी को नहीं डांटना चाहिए था? झिड़कने के बजाय समझना चाहिए था. लेकिन बहू घर की इज्जत थी, उसे इस तरह सड़क पर नहीं आने देना चाहती थी. एक मुट्ठीभर उपलब्धि के लिए अपने दायित्वों को भूलना क्या ठीक है? नारी को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए हमेशा ही जूझना पड़ा है. ‘‘हर्ष मेरे व्यवहार से कई दिनों तक उखड़ाउखड़ा सा रहा. लेकिन मैं ने बेटे की परवा नहीं की. हर्ष हर बात पर चांदनी का पक्ष लेता. मां थी मैं उस की, क्या कोई मां अपने बच्चों का बुरा चाहेगी? कई बार मुझे लगता कि बेटा मेरे हाथ से निकला जा रहा है. मैं हर्ष को खोना नहीं चाहती थी.

‘‘यह मेरी कमजोरी थी. मैं हर्ष को समझने की कोशिश करती तो वह अजीब से तर्क देने लग जाता. वह नहीं चाहता कि चांदनी घर में चौकाचूल्हा करे. घर के लिए बाई रखना चाहता था वह, जो मुझे नापसंद था. मैं साफसफाई पसंद थी जबकि सभी अस्तव्यस्त रहने के आदी थे. मूर्ख ही थी मैं कि बच्चों के आगे जो जी में आता, बक देती थी. कभी धैर्य से मैं ने नहीं सोचा कि सामंजस्य किसे कहते हैं.

‘‘चांदनी भी कई दिनों तक गुमसुम रही. बहूबेटा मेरे विरोध में खड़े दिखाई देने लगे थे. एक दिन चांदनी खाना रख कर मेरे सामने बैठ गई. खाना उठाते ही मेरे मुंह से न चाह कर भी अनायास छूट गया, ‘तुम्हारे मायके वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं. भूख ही मर जाती है खाना देख कर.’

‘‘चांदनी का मुंह उतर गया, लेकिन कुछ न बोली. आज सोचती हूं कि मैं ने क्यों बहू का दिल दुखाया हर बार. क्यों मेरे मुंह से ऐसे कड़वे बोल निकल जाते थे. अब उस का दंड भुगत रही हूं. आज पश्चात्ताप में जल रही हूं, बहुत पीड़ा होती है, बेटा.’’ दादीमां रोंआसी हो गईं.

‘‘जो हुआ, सो हुआ, दादी मां. इंसान हैं सभी. कुछ गलतियां हो जाती हैं जीवन में,’’ मैं ने अपना नजरिया पेश किया.

दादी आगे कहने लगीं, ‘‘हर्ष को भी न जाने क्या हुआ कि वह मुझ से दूरदूर होता रहा. न जाने मुझ से क्या चूक हो रही थी, वह मैं तब न समझ सकी थी. एक स्त्री होने की वेदना, उस पर वैधव्य. विकट परिस्थिति थी मेरे लिए. लगता था कि मैं दुनिया में अकेली हूं और सभी से बहुत दूर हो चुकी हूं.

‘‘कुछ सालों बाद चांदनी की गोद भर गई. बड़ा संतोष हुआ कि शायद बचीखुची जिंदगी में खुशी आई है. कुछ माह और बीते, चांदनी का समय क्लीनिकों में व्यतीत होता या फिर अपने कमरे में. चांदनी की छोटी बहन नीना आ गई थी. नीना सारा दिन कमरे में ही गुजार देती. देर तक सोना, देर रात तक बतियाते रहना. घर का काफी काम बाई के जिम्मे सौंप दिया गया था.

‘‘एक दिन हर्ष औफिस से जल्दी आया और सीधे रसोई में जा कर डिनर बनाने लगा. इतने में नीना रसोई में आ गई, ‘अरे…अरे जीजू, यह क्या हो रहा है? मुझ से कह दिया होता.’

‘‘मुझ से रहा नहीं गया, सो, बोल पड़ी कि इंसान में समझ हो तो बोलना जरूरी नहीं होता. हर्ष का पारा चढ़ गया और देर तक मुझ पर चीखताचिल्लाता रहा.

‘‘खाना पकाना, कपड़े धोना और छोटेमोटे काम बाई के जिम्मे सौंप कर सभी निश्ंचित थे. मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता? बाई व्यवहार की अच्छी थी. मेरा भी खयाल रखने लगी. न जाने क्यों मैं सारी भड़ास बाई पर ही निकाल देती. तंग आ कर एक दिन बाई ने काम ही छोड़ दिया. मेरे पास संयम नाम की चीज ही नहीं थी और चांदनी व हर्ष के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. यह अब समझ रही हूं.

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

सजा के बाद सजा : भाग 2

कोई कहता कि तुम ने यह सोच कर किया होगा कि किसी को पता नहीं चलेगा. लड़की बदनामी के डर से चुप रहेगी. तुम नौकरी, परिवार, बालबच्चेदार आदमी थे, तुम पर कोई आरोप नहीं लगाएगा. तुम डराधमका कर, प्यार से, पैसों से सब का मुंह बंद कर दोगे. लेकिन जब किस्मत खराब होती है, तब कोई काम नहीं आता.

जेल का एक हवलदार विनय से सब से ज्यादा चिढ़ता था, जो खुद उसी लड़की की जाति का था. उसे लगता था कि उस की जाति के साथ आज भी वही नाइंसाफी हो रही है, जो सदियों से होती आई है. वह विनय को गालियां देता रहता था.

जेल के अंदर हर सिपाही और हवलदार की ड्यूटी 4-4 घंटे की होती है. जब वह हवलदार अपनी ड्यूटी कर के चला जाता, तब विनय को राहत मिलती थी.

वह हवलदार पहले सिपाही था, लेकिन आरक्षित कोटे में आने से उस का जल्दी प्रमोशन हो गया था. जनरल कोटे वाले सिपाही के सिपाही ही बने रहे. वे उस हवलदार से चिढ़ते थे. उन के अंदर गुस्सा था कि हम 12 साल से नौकरी कर रहे हैं और सिपाही के सिपाही हैं और यह 5 साल पहले भरती हुआ और आज हवलदार बन गया. अगले 5 सालों में फिर प्रमोशन. वाह रे सरकार… वाह रे संविधान.

उन सिपाहियों की नाराजगी के चलते विनय को एक तरह का सपोर्ट रहता.

4 घंटे में जो कुछ सहना पड़े, वही काफी होता. मांबहन की गालियां. काम का ज्यादा दबाव. कभीकभी लातजूतों से मारपीट भी.

एक दिन एक सिपाही ने विनय को सलाह दी, ‘‘डरते क्यों हो? पोस्टकार्ड मिलता है न. लिख दो मानवाधिकार आयोग को. सारी गरमी उतर जाएगी.’’

एक तरह से विनय असंतोष से भरे उन सिपाहियों का मोहरा भी था और खुद भी पीडि़त था. उस ने अपनी पीड़ा लिख कर एक सिपाही को चिट्ठी दे दी.

कुछ दिनों बाद वही हवलदार विनय के सामने दीन बना हुआ खड़ा था और अपनी गलतियों के लिए माफी मांग रहा था.

वह गुजारिश कर रहा था, ‘‘मानवाधिकार आयोग की टीम आई हुई है. मेरी नौकरी चली जाएगी. तुम कह देना कि जो लिखा, वह गलत है. तुम्हारे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. आगे से मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूंगा.’’

विनय ने वही कह दिया, जैसा हवलदार ने कहा था.

विनय नौकरी छूटने पर घर टूटने का दर्द समझते थे. सब के घर में छेद हैं. कोई किसी के घर में सांप छोड़ने की कोशिश न करे. कोई दूसरा भी कर सकता है. सब के घर में शीशे हैं. पत्थर कोई भी फेंक सकता है. घर किसी का भी टूट सकता है. बेहतर है कि एकदूसरे के घरों की रखवाली करें.

हवलदार एहसानमंद भी था और शर्मिंदा भी. उस ने विनय को परेशान करना बंद कर दिया, बल्कि उन से कभीकभी अच्छे से बात भी कर लेता. अब वह उन से उतना ही काम लेता, जितना दूसरों से. कभीकभी छूट भी दे देता. पूछ भी लेता, ‘‘कैसे हो भाई? सब ठीक है न? घर से कोई आया मिलने?’’

विनय ‘जी हां’, ‘जी नहीं’ में जवाब दे देते.

एक दिन दूसरे सिपाहियों से जेल में खबर फैली कि हवलदार की पत्नी किसी के साथ भाग गई. खबर सही थी. हवलदार की उदासी, पीड़ा, बेइज्जती उस के चेहरे पर साफ दिख रही थी.

जो शख्स कल तक ऊंची जाति का दुश्मन था, आज वह मुसलिमों को कोस रहा था.

कुछ लोगों की आदत होती है. गलती करे एक, भुगतें पूरी जाति के बेकुसूर लोग. फिर वही बेकुसूर सताए हुए लोग हथियार उठाते हैं, तो अपराधी कहलाते हैं. उन्हें अपराधी बनाता कौन है? उस हवलदार जैसी सोच के लोग.

अब वह हवलदार मुसलिमों से चिढ़ता था. उन्हें आतंकवादी कहता था. लेकिन पीठ पीछे. सामने कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी.

इस जेल का जेलर भी मुसलिम था. अगर कहीं शिकायत हो गई, तो आ गई मुसीबत.

खैर, एक बचा तो दूसरा फंसा. मुसलिम बचे, तो सिख विरोधी दंगे हो गए. फिर पंजाब शांत हुआ, तो गोधरा कांड हो गया. यह सिलसिला थमने वाला नहीं लगता था.

विनय से कोई मिलने नहीं आता था. न पत्नी, न बच्चे. न उन्हें यह पता था कि उन की बेटी की शादी हुई या नहीं. बेटे की नौकरी लगी या नहीं. वे कहां हैं और कैसे हैं.

विनय ने जेल से कई चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. आखिर में उन्होंने खुद को अकेला समझ कर इस जेल को ही अपना घर मान लिया.

आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा – भाग 2

‘‘ऐसा जीवन बारबार जीना चाहता हूं मैं. कोई भी ऐसी इच्छा नहीं है मेरी जो पूरी न हुई हो. संतुष्ट हूं मैं. बारबार थोड़े ही मरूंगा. एक बार ही तो मरना है…जब उस की इच्छा हो…मैं तैयार हूं.’’

मित्र का सीधासादा मध्यवर्गीय परिवार है. अपने छोटे से फ्लैट में वह पत्नी के साथ रहता है. बेटा नई पीढ़ी का है… परेशान रहता है. अच्छी कंपनी में नौकरी करता है. जितना पिता ने नौकरी के आखिरी दिनों में कमाया होगा उस से कहीं ज्यादा वह आज हर महीने कमाता है फिर भी सुखी नहीं है.

‘‘पता नहीं आज के बच्चों को चैन क्यों नहीं है. सबकुछ है फिर भी खुश नजर नहीं आते. हम ने जो सब धीरेधीरे बनाया था उस को यह शुरू के 4-5 साल में ही बना लेते हैं. कर्ज पर घर बना लिया, कर्ज पर गाड़ी, कर्ज पर घर का सारा सामान. कभी इस के घर जा कर देखो क्या नहीं है मगर सब कर्ज पर है. महीने के शुरू में ही कंगाल नजर आता है क्योंकि पूरी तनख्वाह तो किस्तों में बंट कर अपनीअपनी जगह पर चली जाती है. अभी अकेला है, खानापीना हमारे पास चल जाता है. कल को शादी होगी तो घर कैसे चलाएगा, मेरी तो समझ में नहीं आता.’’

‘‘बीवी भी तो कमाएगी न. रोजीरोटी वह चला लेगी घर इस ने बना ही लिया है. सब प्लान बना रखा है बच्चों ने, तुम क्यों परेशान…’’

‘‘अरे, नहीं बाबा, मैं परेशान नहीं हो रहा…मैं तो खुश हूं कि आज भी अपने कमाऊ बेटे को पाल रहा हूं. आज भी उस पर बोझ नहीं हूं. इस से बड़ा संतोष मेरे लिए और क्या होगा कि मेरे शरीर में स्थापित कैंसर भी मुझे तंग नहीं कर रहा. इतनी खतरनाक बीमारी पेट में लिए घूम रहा हूं पर क्या मजाल मुझे जरा सी भी तकलीफ हो.

‘‘मुझे जीवन से कोई शिकायत नहीं है. हम पतिपत्नी अपने फ्लैट में आराम से रह रहे हैं. सौरभ ने अपना घर ले रखा है. रात वहीं चला जाता है सोने. मेरी औलाद भी अपने पैरों पर खड़ी है. बेटी अपने घर में खुश है. मेरे बाद मेरी पत्नी भी किसी का मुंह नहीं देखेगी, इतना प्रबंध कर रखा है. सौरभ भी मां का खयाल रखेगा पूरा विश्वास है मुझे.

” देखो विजय, इंसान को अगर खुश रहना है तो उसे अपनी सोच को बदलना होगा. अंधी दौड़ में रहेगा तो कभी भी खुश नहीं रह पाएगा. स्वर्ग मरने के बाद नहीं मिलता और न मरने के बाद नरक ही होता है. सब यहीं है, इसी जन्म में. कुछ हमारे द्वारा बोए गए कर्म कुछ उन का फल, कुछ संयोग और कुछ हादसे यही सब मिला कर ही तो हमारा जीवन बनता है. हमें यह जीवन जीना है और इसे जिए बिना गुजारा नहीं है तो क्यों न इस तरह जिएं कि किसी को हमारी वजह से तकलीफ न हो.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. कहीं न कहीं, कभी न कभी तो ऐसा होता ही है. समाज में रह कर हम सब के साथ जीते हैं. हम सब को सुख ही दे पाएं ऐसा नहीं होता. यदि कोई हमें पसंद ही न करे तो हम कैसे उसे भी खुश रखें. संसार में रहते हुए सब को सुख देना आसान नहीं होता. लाख यत्न करो, कहीं न कहीं कुछ न कुछ छूट ही जाता है.’’

‘‘जो तुम्हें पसंद नहीं करता तुम उस से दूर रहो ऐसा भी तो हो सकता है न. गुजारे लायक ही उस के पास जाओ. एक जायज और सम्मानजनक दूरी रखो. जितना कम वास्ता पड़ेगा उतनी कम तकलीफ होगी.’’

‘‘यदि रिश्ता ही ऐसा हो कि दूरी रखना संभव न हो…’’

‘‘तो उसे स्वीकार कर लो. उस इंसान की वजह से दुखी होना ही छोड़ दो. उस के सामने चिकने घड़े बन जाओ.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है ढीठ बन जाओ, क्योंकि तुम्हें अपने मन की शांति के साथ जीना है…इस के लिए क्या बदतमीज ही बन जाना पड़ेगा.’’

‘‘बदतमीज और ढीठ बनने को कौन कह रहा है. उस इंसान को एक सीमा तक नकार दो. अपना दायित्व निभाते रहो. एक उचित दूरी रख कर शांति से रहा जा सकता है.’’

‘‘एक स्वार्थी इंसान के साथ शांति से कैसे रहना?’’

‘‘स्वार्थी इंसान तो हर पल अपनी आग में जलता ही रहता है. कम से कम हम उसे नकार कर अपनी जान तो बचा लें, उस की सोच का प्रभाव हम पर क्यों हो. हम उसे बदल नहीं सकते. उसे कुदरत ने ऐसा ही बनाया है तो क्यों उसे बदलने की कोशिश करें. हम भी इन्सान हैं यार…क्यों बिना वजह औरों की गलती की सजा भोगें.

‘‘मेरे बड़े भाई साहब को ही देख लो, सारी उम्र उन्होंने पिताजी की शराफत और कमजोरी का फायदा उठाया और उन की धनसंपदा पर ऐश किया. हम घर से बाहर हैं नौकरी पर. जितनी चादर थी उतने ही पैर पसारे. भाई साहब की तरह शानोशौकत में रहते तो गुजारा ही न चलता. मैं ने कभी पिता से कुछ नहीं मांगा.

‘‘इन दिनों भाई साहब नाराज चल रहे हैं. सारी जायदाद बेच कर खा चुके हैं. मुझ से मदद चाहते हैं. अब तुम्हीं बताओ, मैं उन की मदद कैसे करूं? अपनी मौत का इंतजार करता मैं उस भाई की सहायता कैसे करूं जिस ने सदा मुझे बेवकूफ बनाया और समझा भी. जिस के पैर सदा चादर से बाहर रहे, क्या मैं भी उस भाई के लिए नंगा हो जाऊं.

‘‘सारी उम्र मैं सादगी में जिआ, इसीलिए न कि कभी किसी के आगे हाथ न फैलाना पडे़े…तो क्या उन की मदद कर मैं भी सड़क पर आ जाऊं. सो नकार दिया है मैं ने उन की नाराजगी को. नहीं तो न सही. वह मुझे मिलने नहीं आते न आएं, मैं क्यों अपने मन को जलाऊं. मैं दुखी नहीं होता क्योंकि मैं जानता हूं मेरी सामर्थ्य से बाहर है उन की मदद करना. 3-3 बिगड़े बेटों के पिता हैं वह. परिवार में 4 जन हैं कमाने वाले और मैं अकेला और बीमार. क्या मुझ से मदद मांगना उन्हें शोभा देता है? स्वार्थ की पराकाष्ठा नहीं है यह तो और क्या है?

खुशी का गम : पति ने किया खिलवाड़ – भाग 2

दिन गुजरने के साथ जैसेजैसे उस के व्यक्तित्व का यह पहलू मेरे सामने आ रहा था वैसेवैसे उस के प्रति मेरा मोहभंग होता जा रहा था. जहां वह मानसिक रूप से दिन पर दिन मेरे करीब आती जा रही थी, वहीं मैं जानबूझ कर अपने को उस से दूर करता जा रहा था, क्योंकि मैं जानता था कि उस के और मेरे रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है. मुझे एहसास होता जा रहा था कि यदि हम ने शादी कर ली तो मैं उस के साथ कभी सुखी नहीं रह पाऊंगा. यह सोच कर मैं ने धीरेधीरे उस से मिलना कम कर दिया. लेकिन नेहा से मुझे पता चला कि मेरे इस रवैये से वह बहुत दुखी और परेशान रहने लगी थी, क्योंकि वह मुझ से भावनात्मक तौर पर जुड़ चुकी थी.

नेहा ने तो मुझे यह भी बताया कि अगर मैं खुशी से शादी नहीं करूंगा तो वह अपनी जान दे देगी, लेकिन किसी और लड़के से शादी नहीं करेगी. नेहा की इस बात से मैं परेशान हो गया था, और एक दिन खुशी को मैं ने अपने और उस के विरोधाभास के बारे में बताया कि हम दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर होने की वजह से वह कभी मेरे साथ सुखी नहीं रह पाएगी. इसलिए बेहतर यही होगा कि हम अपने रास्ते  अलग कर लें.

मेरी इस बात को सुन कर खुशी बहुत रोई थी और उस दिन घर जा कर उस ने अपने दोनों हाथों की नसें काट कर खुदकुशी करने का प्रयास किया था.

उस दिन खुशी के घर वालों को मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पता चल गया. अगले ही दिन उस के घर वाले उस की और मेरी शादी का प्रस्ताव ले कर मेरे मातापिता से मिले थे.

नेहा ने मेरी और खुशी की दोस्ती के बारे में पहले ही मेरे मातापिता को सबकुछ बता दिया था, सो मेरे मातापिता ने मेरी राय बिना पूछे उस से मेरा रिश्ता पक्का कर दिया था. बाद में मैं ने अपने मातापिता से इस रिश्ते को तोड़ने की लाख मिन्नतेंकीं लेकिन उन्होंने मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया और आखिरकार मेरी शादी खुशी से हो गई.

विवाह के बाद खुशी ने मुझे वे सारी खुशियां दी थीं जिन की एक पति को अपने पत्नी से अपेक्षा होती है. शादी के बाद के पहले 2-3 वर्ष बहुत अच्छे बीते. वक्त के साथ मैं एक प्यारे से बेटे का पिता बन गया था. उस को गोद में उठा कर मैं बेपनाह खुशियों से भर जाता. उसे लाड़दुलार कर मुझे बहुत सुकून मिलता लेकिन लगभग 3 सालों के विवाहित जीवन के बाद हमारे दांपत्य जीवन में कुछ ठहराव सा आने लगा था. हमारे संबंधों में एकरसता और ऊब की शुष्कता पसरती जा रही थी.

मैं शुरू से ही रसिक स्वभाव का था. नईनई लड़कियों से दोस्ती करना मेरा प्रिय शगल था.

गुवाहाटी में मेरा काफी पुराना अच्छा- खासा साडि़यों का शोरूम था. मुझे व्यापार के लिए अधिक समय नहीं देना पड़ता था, पुराने कर्मचारी मेरी दुकान बहुत अच्छी तरह से संभाल रहे थे. गुवाहाटी के अलावा शिलांग में भी मेरा साडि़यों का एक बड़ा शोरूम था, सो मैं सप्ताह में एक बार शिलांग जरूर जाया करता था. वहां कई लड़कियां मेरी मित्र थीं. शिलांग में एक दोस्त के यहां मेरा परिचय फ्लोरेंस नाम की एक खासी जाति की लड़की से हुआ था. पहली ही नजर में वह लड़की मेरी निगाहों में चढ़ गई थी. उस से पहले मैं जितनी खासी लड़कियों के संपर्क में आया वे सब महज कागजी गुडि़याएं थीं, जिन के जीवन का उद्देश्य सिर्फ मौजमस्ती तथा सैरसपाटा हुआ करता था, लेकिन फ्लोरेंस बेहद जिंदादिल और बिंदास होने के साथसाथ मानसिक रूप से बहुत परिपक्व थी. वह कभी अर्थहीन बातें नहीं करती थी. उस का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था.

एक दिन बातों ही बातों में फ्लोरेंस ने मुझे बताया कि वह एक अच्छी नौकरी की तलाश में है, क्योंकि वह कंपनी, जिस में वह काम कर रही थी, उस की शिलांग की शाखा बंद होने वाली थी.

फ्लोरेंस ने जैसे ही मुझे यह बताया मैं ने उसे अपने शिलांग वाले साड़ी के शोरूम में मैनेजर के पद पर रख लिया था. अब जैसेजैसे मैं उस के संपर्क में आ रहा था, मेरा उस के प्रति खिंचाव बढ़ता ही जा रहा था. दूसरी लड़कियां जहां मेरी अमीरी और आकर्षक व्यक्तित्व की वजह से मेरे आसपास तितलियों की तरह मंडराया करती थीं वहीं फ्लोरेंस मुझ से पर्याप्त दूरी बनाए रखती, जिस की वजह से मैं उस की ओर शिद्दत से खिंचता जा रहा था.

इधर उस की ओर मेरे खिंचाव का एक कारण और था. फ्लोरेंस के नाम कई एकड़ जमीन थी. अगर मैं फ्लोरेंस से रिश्ता कायम कर लेता तो मैं उस की जमीन का मालिक बन जाता. सो जमीन के लालच में मैं उस से रिश्ता कायम करना चाहता था और एक दिन मुझे वह मौका मिल गया जिस की मुझे चाहत थी.

उस दिन फ्लोरेंस मेरे पास बहुत खराब मूड में आई और मेरे कुरेदने पर रो पड़ी. मुझ से बोली, ‘मेरे भाई बहुत जल्लाद हैं. हम खासियों में मां परिवार की मुखिया होती है. बेटियां वंश आगे चलाती हैं. बेटियों को ही मां की जमीनजायदाद मिलती है. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी हूं. इसलिए मां की सारी जमीन मुझे मिली है. मेरे दोनों भाइयों की निगाहें मेरी जमीन पर उगने वाले फलों से होने वाली आमदनी पर गड़ी हुई हैं.

‘मैं तो नौकरी पर आ जाती हूं तो मेरे भाई ही खेतों में मजदूरों से काम करवाते हैं. खेती से होने वाली आमदनी पर अपना नियंत्रण रखने के लिए मेरे भाई मेरी शादी एक निकम्मे, नाकारा खासी आदमी से कराने पर जोर दे रहे हैं.’

उसे इस तरह रोते देख मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और उस से बोला, ‘अरे, मेरे होते हुए तुम क्यों चिंता करती हो? मैं तुम्हारे भाइयों से बातें करूंगा और उन्हें धमकाऊंगा. तुम बिलकुल भी मत डरो. मेरे होते हुए कोई तुम पर अपनी मरजी नहीं थोप सकेगा.’

यह कह कर मैं ने उसे चूमना शुरू कर दिया. तब फ्लोरेंस ने मेरे चंगुल से छूटने के लिए बहुत हाथपांव मारे लेकिन उस दिन मेरे ऊपर उस का नशा इस कदर हावी था कि मैं ने उस की एक न सुनी और आखिरकार कुछ प्यार और कुछ जोरजबरदस्ती करते हुए मैं ने उसे आत्मसमर्पण करने पर विवश कर दिया. उस दिन मैं ने महसूस किया कि मेरी इस जबरदस्ती से फ्लोरेंस बहुत अधिक नाराज नहीं थी. धीरेधीरे वह मुझे दिलोजान से चाहने लगी थी.

फ्लोरेंस के शोख बिंदास व्यक्तित्व के सामने खुशी का सीधासादा व्यक्तित्व मुझे नीरस लगने लगा था. फ्लोरेंस बातें करने में इतनी वाक्पटु थी कि मामूली बात को भी वजनदार और आकर्षक बना कर सामने रखती. मुझे उस से महज बातें करना बहुत अच्छा लगता था.

सफेद परदे के पीछे: भाग 2

एक बड़े से रसोईघर में कुछ महिलाएं आश्रम में मौजूद सभी लोगों के लिए खाना बनाने में जुटी थीं तो कुछ सेवादार जूठे बरतन मांज कर अपनेआप को धन्य महसूस कर रहे थे.

मिताली ने देखा कि वहां लोगों से किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं बरता जा रहा था. हर व्यक्ति को समान सुविधा उपलब्ध थी. शायद यही समभाव सब को जोड़े था और यही बाबा की लोकप्रियता का कारण था.

मिताली को दूर आश्रम के कोने में गुफा जैसा एक कमरा दिखाई दिया. सुमन ने बताया कि यह बाबा का विशेष कक्ष है. जब भी वे यहां आश्रम में आते हैं इसी कक्ष में ठहरते हैं… यहां किसी को भी जाने की अनुमति नहीं है.

सुमन के साथ होने के कारण उन दोनों को किसी ने नहीं टोका. मिताली और सुदीप ने पूरा आश्रम घूम कर देखा. घूमतेघूमते दोनों आश्रम के दूसरे कोने तक पहुंच गए. यहां घने पेड़ों के झुरमुट में घासफूस से बनी कलात्मक झोंपडि़यां बेहद आकर्षक लग रही थीं. जगह के एकांत का फायदा उठा कर सुदीप ने उसे चूम भी लिया था.

मिताली को आश्रम की व्यवस्था ने बहुत प्रभावित किया. उस ने आगे भी यहां आते रहने का मन बना लिया.

‘और कुछ न सही, सुदीप के साथ एकांत में कुछ लमहे साथ बिताने को मिल जाएंगे… शहर में तो लोगों के देखे जाने का भय हमेशा दिमाग पर हावी रहता है… आधा ध्यान तो इसी में बंट जाता है… प्यारमुहब्बत की बातें क्या खाक करते हैं…’ सोच मिताली का दिमाग आगे की योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की कवायद में जुट गया. उस ने सुदीप को अपनी योजना के बारे में बताया.

‘‘यह आश्रम है कोई पिकनिक स्पौट नहीं कि जब जी चाहा टहलते हुए आ गए… देखा नहीं सुरक्षा व्यवस्था कितनी कड़ी थी…’’ सुदीप ने उस के प्रस्ताव को नकार दिया.

‘‘तुम ऐसा करो… सुमन भाभी के साथ बाबा के शिष्य बन जाओ… रोज न सही, कभीकभार तो आया ही जा सकता है… मिलने का मौका मिला तो ठीक वरना ताजा फलसब्जियां तो मिल ही जाएंगी…’’ मिताली ने उसे उकसाया.

बात सुदीप को भी जम गई और फिर एक दिन सुदीप विधिवत बाबा कृष्ण करीम का शिष्य बन गया.

मिताली और सुदीप कभी सुमन के साथ तो कभी अकेले ही आश्रम में

आने लगे. अकसर दोनों सब की नजरें बचा कर उन झोंपडि़यों की तरफ निकल जाया करते थे. कुछ देर एकांत में बिताने के बाद प्रफुल्लित से लौटते हुए फलसब्जियां खरीद ले जाते.

आश्रम में आनेजाने से उन्हें पता चला कि इस आश्रम की शाखाएं देश के हर बड़े शहर में फैली हैं. इतना ही नहीं, विदेशों में भी बाबा के अनुयायी हैं, जो उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं. इन आश्रमों से कई अन्य तरह की सामाजिक गतिविधियां भी संचालित होती हैं. कई हौस्पिटल और स्कूल हैं जो आश्रम की कमाई से चलते हैं.

मिताली ने महसूस किया कि जितना वे बाबा के बारे में जान रहे थे उतना ही सुदीप का झुकाव उन की तरफ होने लगा था. अब उन की बातों का केंद्र भी अकसर बाबा ही हुआ करते थे.

मुख्य सेवादार ने उस की निष्ठा देखते हुए उसे आश्रम से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंप दी थीं. इन सब का प्रभाव यह हुआ कि अब मिताली बेरोकटोक आश्रम के हर हिस्से में आनेजाने लगी थी.

देखते ही देखते उन का कालेज पूरा होने को आया. फाइनल ऐग्जाम का टाइमटेबल आ चुका था.

‘‘अब पढ़ाई में जुटना होगा… ऐग्जाम से पहले एक आखिरी बार आश्रम चलें?’’ मिताली ने अपनी बाईं आंख दबाते हुए इशारा किया.

‘‘हां कल चलते हैं… बाबा का आशीर्वाद भी तो लेना है,’’ सुदीप ने कहा.

‘‘हाउ अनरोमांटिक,’’ वह भुनभुनाई.

‘‘कल का दिन तुम्हारी जिंदगी का एक यादगार दिन होने वाला है,’’ सुदीप ने शरारत से मुसकराते हुए उस का गाल खींच दिया.

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