आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा- भाग 3

पत्र पूरा होते ही सब सिर झुका कर बैठ गए. ‘‘मैं अभी आया,’’ कह कर प्रशांत सर लंबेलंबे डग भरते हुए दूसरे कमरे की ओर चल दिए.

कुछ देर बाद वे एक व्हीलचेयर को पीछे से सहारा देते हुए चला कर ला रहे थे. व्हीलचेयर पर एक महिला गाउन पहने बैठी थी. शांत, सौम्य चेहरा, स्नेह से भरी बड़ीबड़ी आंखें, बालों से झांकती हलकी चांदी और कंधे पर आगे की ओर लटकती हुई लंबी सी चोटी.

प्रशांत सर नम आंखों से सब की ओर देख कर व्हीलचेयर पर बैठी महिला से परिचय करवाते हुए बोले, ‘‘मिलिए इन से, मेरे सुखदुख की साथी, मेरे जीवन की खुशी, मेरी अर्धांगिनी, जसप्रीत.’’

सब आश्चर्यचकित रह गए. कुछ देर तक उन दोनों को अपलक निहारने के बाद दीपेश उठ कर खड़ा हो गया और उस को देख सभी जसप्रीत के सम्मान में खड़े हो गए.

जसप्रीत ने अपना टेढ़ा हाथ उठा कर सब को बैठने का इशारा किया और अपने होंठों को धीरे से फैलाते हुए मुसकरा दी.

प्रशांत सर बोलने लगे, ‘‘अपनी पीएचडी के दौरान ही जब मुझे जसप्रीत के विषय में पता लगा तो मैं ने झट से विवाह का निर्णय ले लिया. दबी जबान में मम्मीपापा ने विरोध जरूर किया पर वे समझ गए थे कि अब मैं नहीं रुकने वाला. मैं नहीं छोड़ सकता था जसप्रीत को उस हाल में.’’

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‘‘इन्होंने बहुत इ…इ…इलाज करवाया मेरा. उस के बा…बाद ही थो…थोड़े हाथपैर चल…चलने लगे मेरे.’’ जसप्रीत अपनी बात रुकरुक कर कह पा रही थी.

‘‘आज जसप्रीत ने मुझ से कहा कि मैं अपनी डायरी आप सब को पढ़ने को दे दूं, इन का कहना था कि तभी बच्चे जान सकेंगे कि हम इमरान और स्वाति की भावनाएं क्यों बेहतर ढंग से समझ पा रहे हैं,’’ प्रशांत सर ने बताया.

‘‘ओह, आप से मिलना कितना अच्छा लग रहा है,’’ कह कर चहकती हुई साक्षी जसप्रीत से लिपट गई. सब लोग उठ कर जसप्रीत को घेर कर खड़े हो गए.

प्रशांत सर ने फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘आप लोग जानना चाहते थे कि मैं ने क्या कहा स्वाति और इमरान के पेरैंट्स से? सुनो, मैं ने पहले उन से पूछा कि धर्म के नाम पर बंटवारा आखिर है क्या? कहां से आईं ये बातें? क्या यह जन्मजात गुण है व्यक्ति का? जन्म लेते ही बच्चे के चेहरे पर क्या उस का धर्म अंकित होता है? हम ही बनाते हैं ये दीवारें और कैद हो जाते हैं उन में खुद ही. इतना ही नहीं, जब कोई प्रेम के वशीभूत हो इन दीवारों को तोड़ना चाहता है तो हम उसे नासमझ ठहरा कर या डराधमका कर चुप करा देते हैं. कब तक अपनी बनाई हुई दीवारों में खुद को कैद करते रहेंगे हम? कब तक अपनी बनाई हुई बेडि़यों में जकड़े रखेंगे खुद को हम? आखिर कब तक.’’

जसप्रीत ने अपनी दोनों हथेलियां मिलाईं और धीरे से ताली बजाने लगी. वहां खड़े छात्र भी मुसकराते हुए जसप्रीत का अनुसरण करने लगे. कमरा तालियों की आवाज से गूंज उठा.

‘‘सर, हम किन शब्दों में आप को धन्यवाद कहें,’’ दीपेश ने कहा.

प्रशांत सर मुसकराते हुए बोले, ‘‘एक बात मैं जरूर कहूंगा. स्वाति और इमरान के पेरैंट्स समझदार हैं. फिलहाल दोनों के मिलने पर रोकटोक न लगाने को तैयार हैं वे. कह रहे थे कि रिश्ता जोड़ने के विषय में कुछ दिन विचार करेंगे. चलो, आशा की किरण तो दिखाई दी न? पर दुख की बात है कि सब लोग ऐसे नहीं होते.’’

‘‘क्यों न हम सब मि…मिल…मिल कर एक ऐसा संग…संगठन बनाएं जो लोगों को जा…जा…जाग…जागरूक करे,’’ जसप्रीत ने सुझाव दिया.

‘‘हां, हां,’’ की सम्मिलित आवाज कमरे में सुनाई देने लगी.

‘‘मैं भी स…सह… सहयोग करूंगी उस…उस में.’’ कह कर जसप्रीत का चेहरा नई आभा से दैदीप्यमान हो झिलमिलाने लगा.

‘‘वाह जसप्रीत, खूब. हम जल्द ही ऐसा करेंगे,’’ प्रशांत सर बोले.

‘‘उस संगठन के माध्यम से हम सब को यह समझाने का प्रयास करेंगे कि जाति और धर्म का लबादा जो हम ने सिर तक पहन रखा है, बहुत जरूरी है अब उसे उतार फेंकना. दम घुट जाएगा वरना हमारा,’’ हर्षित अपनी बुलंद आवाज में बोला.

‘‘और यह भी कि बच्चों की बात सुना करें पेरैंट्स. उन पर भरोसा रखें, उन्हें दोस्त समझें,’’ साक्षी ने कहा.

‘‘औ…औ…और यह भी…यह भी… कि कोई औरत अपने को कम….कम…. कमजोर समझ कर आ…आ….आ… आत्महत्या की कोशिश न करे…क… कभी,’’ जसप्रीत अटकअटक कर बोली.

‘‘बिलकुल, नारी अबला नहीं वह तो संबल है सब का,’’ साक्षी ने कहा.

कुछ देर बाद प्रशांत ने सब का धन्यवाद किया और वे चारों लौट गए.

रात के 10 बज गए थे. प्रशांत सर ने कमला को खाना लगाने को कहा और जसप्रीत को सहारा दे कर डाइनिंग टेबल की कुरसी पर बैठा दिया.

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अगले दिन सुबह 6 बजे नींद खुली उन की. खिड़की का परदा हटा कर वे बाहर देखते हुए सोच रहे थे, ‘कितना सुंदर है यह आकाश में गुलाबी रंग बिखेरता हुआ सूरज और उस के उदय होते ही गगन में स्वच्छंदता से उड़ान भरते हुए ये पंछियों के झुंड…

‘जसप्रीत, तुम्हारा यह नया रूप शायद आने वाले समय को अपने गुलाबी रंग में रंग लेगा और फिर नई पीढ़ी भर सकेगी एक स्वच्छंद, ऊंची उड़ान…आज का दिन तो सचमुच तुम्हारे रंग में रंग कर निकला है प्रीत.’

प्रशांत सर गुनगुना उठे – ‘‘आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा.’’

छोटी छोटी खुशियां- भाग 4: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

उस ने जैसे ही चौराहा पार किया, सीटी बजाते हुए एक ट्रैफिक पुलिस वाला स्कूटर रोकने का इशारा करते हुए आगे आ गया. प्रताप को स्कूटर रोकना पड़ा. सिपाही ने कहा, ‘‘लाइसैंस?’’

प्रताप ने बिना कुछ कहे, जेब से लाइसैंस निकाल कर सिपाही की ओर बढ़ाया तो उस ने फुरती से लाइसैंस कब्जे में करते हुए कहा, ‘‘200 रुपए निकालो.’’

‘‘क्यों?’’ प्रताप ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘लाल बत्ती होने पर भी तुम ने स्कूटर नहीं रोका. इसलिए चालान तो कटवाना ही पड़ेगा,’’ सिपाही ने दांत निपोरते हुए कहा.

गुटखे से पीले हुए उस के दांत देख

कर प्रताप को चिढ़ हो गई. प्रताप की आंखों के सामने मैनेजर साहब का गुस्से से लालपीला होता चेहरा नाच रहा था. प्रताप ने आंखें फैला कर कहा, ‘‘भले आदमी, आधा चौराहा पार करने के बाद तो पीली लाइट जली. इस में मेरा क्या दोष, जो चालान कटवाऊं. फिर मेरे पीछे से जो बस गई, उसे तो तुम ने नहीं रोका?’’

‘‘तुम अपना चालान कटवाओ, दूसरे की चिंता मत करो,’’ सिपाही रसीद बुक निकाल कर बोला, ‘‘नाम?’’

प्रताप अपना समय बरबाद नहीं करना चाहता था. सुधा की किचकिच की वजह से गए 200 रुपए. प्रताप ने 200 रुपए दिए और रसीद ले कर जेब में रखी. किक मार कर स्कूटर स्टार्ट किया. पानी के रेले की तरह चल रहे वाहनों के बीच से रास्ता बनाते हुए उस ने स्कूटर की गति बढ़ा दी.

आगे ट्रैफिक ढीला था. प्रताप के दिमाग की नसें और तन गईं. इस सिपाही का भी कुछ करना होगा. कैसेकैसे लोग ट्रैफिक में भरती हो गए हैं. एकएक को सीधा करना पड़ेगा. मैं इन सब की शिकायत गृहमंत्री से करूंगा. जल्दी पहुंचने के चक्कर में उस ने स्कूटर की गति भयानक रूप से तेज कर दी. जब से उस ने स्कूटर चलाना शुरू किया था, इतनी तेज गति से पहली बार चलाया था. उसी वक्त एक घटना घट गई.

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अचानक एक लड़की उस के सामने आ गई. विचारों में खोया प्रताप एकदम से हकबका गया. उस लड़की को बचाने के लिए प्रताप स्कूटर की सीट पर लगभग आधा खड़ा हो गया. पूरी ताकत से उस ने ब्रेक दबाए. लेकिन तड़ाक से बे्रक वायर टूट गया. उस ने एकदम से स्कूटर को फर्स्ट गेयर में डाला. स्कूटर जोरदार झटके के साथ पलटा और आगे घिसट गया. दाहिने पैर का घुटना सड़क पर इस तरह रगड़ा कि पैंट तो फट ही गई, चमड़ी छिल कर अंदर का मांस भी दिखाई देने लगा. सिर डिवाइडर से टकरा गया, जिस की वजह से प्रताप की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

फिर कितनी देर तक प्रताप बेहोश रहा, उसे पता नहीं चला. होश में आया तो दिमाग की नसें अभी भी तनी हुई थीं. बड़ी मुश्किल से उस ने आंखें खोल कर अगलबगल देखा. बीच सड़क पर वह पड़ा हुआ था. उसे लोग घेरे हुए थे. जहां की त्वचा छिली थी, असहनीय जलन हो रही थी. भीड़ में से एक युवक ने आगे बढ़ कर पानी की बोतल प्रताप को पकड़ाई. ठंडा पानी पीने के बाद प्रताप को थोड़ी राहत महसूस हुई. उस युवक ने इशारे से एक युवक को बुलाया और प्रताप की बांह पकड़ कर बैठाया. प्रताप के घुटने में बहुत तेज जलन हो रही थी. फिर उन युवकों ने प्रताप को उठा कर खड़ा किया. पीड़ा होते हुए भी प्रताप को धीरेधीरे चलने में दिक्कत नहीं हो रही थी. भीड़ में से किसी ने आटो बुला दिया था. आभारी नजरों से सब की ओर ताकते हुए प्रताप आटो में बैठ गया. औफिस करीब ही था, फिर आटो वाला भी भला आदमी था, इसलिए उस ने प्रताप से पैसे नहीं लिए थे. चोट में जलन अभी भी वैसी ही थी. औफिस में फर्स्ट ऐड बौक्स है, प्रताप यह जानता था.

आटो से उतर कर लिफ्ट तक जाने में प्रताप को काफी तकलीफ हुई थी.

बैंक में पहुंच कर उस ने राहत की सांस ली. आज की एक छुट्टी तो बची. एक बार मैनेजर साहब को मुंह दिखा कर वह डाक्टर के पास जा कर पट्टी बंधवा लेगा. टिटनैस का इंजैक्शन भी लगवाना जरूरी है.

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प्रताप ने बैंक में प्रवेश किया. उपस्थिति रजिस्टर मैनेजर साहब की मेज पर रखा था. मैनेजर साहब कंप्यूटर पर काम कर रहे थे. उन के सामने पड़ी कुरसी पर प्रताप आराम से बैठ गया. इतना चलने के बाद उस के घुटने का दर्द और बढ़ गया था. उस ने हस्ताक्षर करने के लिए जैसे ही रजिस्टर उठाया, मैनेजर साहब का ध्यान उस की ओर गया. उन की भौंहें तन गईं. उन्होंने कहा, ‘‘मिस्टर प्रताप, यह भी कोई टाइम है आने का?’’

मैनेजर साहब यही कहेंगे, प्रताप पहले से ही जानता था. आज बाजी प्रताप के हाथ में थी, इसलिए वह आज मैनेजर साहब से पूरा का पूरा पुराना बदला ले लेना चाहता था. वह तल्ख लहजे में बोला, ‘‘इधर देखो, यह मेरा घुटना छिल गया है और आप मुझे समय बता रहे हैं. मैं किस तरह बैंक पहुंचा हूं, यह मैं ही जानता हूं.’’

प्रताप ने यह बात इतने जोर से कही थी कि बैंक का पूरा स्टाफ चौंक कर प्रताप और मैनेजर साहब को ताकने लगा था. मैनेजर साहब प्रताप के इस व्यवहार से हक्काबक्का रह गए थे. फिर तो प्रताप आक्रामक हो उठा, ‘‘आप आदमी हैं या शैतान? पूरा घुटना छिल गया है, खून भी बह रहा है. फिर भी मैं बैंक आया हूं,’’ सभी लोगों को दिखाई पड़े, इस तरह प्रताप ने अपना पैर उठाया. प्रताप की हालत देख कर मैनेजर साहब खिसिया गए. इस मुद्दे पर मैनेजर साहब को आज अच्छी तरह खींचा जा सकता है, यह सोच कर प्रताप थोड़ी तेज आवाज में बोला, ‘‘आप अफसर हैं तो खुद को महान मानने लगे हैं. अरे इंसान हैं, थोड़ी तो इंसानियत रखो. किसी को शौक नहीं है लेट आने का. कोई समस्या हो जाती है, तभी आदमी लेट होता है.’’

पूरा स्टाफ आश्चर्य से प्रताप को ताक रहा था. उस ने अपना पैर उठा कर सब को चोट दिखाई. फिर दांत भींच कर मैनेजर साहब को घूरा. अब मैनेजर साहब की हिम्मत उस से नजर मिलाने की नहीं हो रही थी. सिंह साहब को चुप देख कर प्रताप बोला, ‘‘इतनी तकलीफ सह कर भी मैं बैंक आया हूं. इस की कद्र करने के बजाय आप साहबगीरी दिखा रहे हैं. साहब, आप को शर्म आनी चाहिए.’’

मैनेजर साहब को काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई थी. उन्होंने धीमे से कहा, ‘‘सौरी.’’

‘‘यू हैव टू…’’ इतना कह कर प्रताप धीरेधीरे अपनी मेज की ओर बढ़ने लगा. एक नजर उस ने सहकर्मियों पर डाली. उसी एक नजर में उस ने भांप लिया था कि मैनेजर साहब के साथ आज उस ने जो बरताव किया है उस से सभी खुश हैं. वह अपनी सीट पर जा कर बैठा तो एकएक, दोदो कर के लोग उस के पास आ कर हालचाल पूछने लगे. मिश्राजी फर्स्ट ऐड बौक्स ले कर आए. रेखा ने घुटने पर डिटौल लगाई तो काफी तेज जलन हुई. होंठ भींच लिए प्रताप ने. फिर बीटाडीन लगा कर ऊपर से रुई रख कर पट्टी बांध दी. रेखा की ओर देखते हुए प्रताप ने कहा, ‘‘थैंक्यू, थैंक्यू वेरी मच, रेखाजी.’’

पट्टी बंधने के बाद प्रताप ने काफी राहत महसूस की.

मजाक: लोकसेवक सेवकराम की घरवाली और कामवाली

सेवकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.

सेवकराम ने नईनकोर कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, “तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?”

“मैं संतू हूं साहब.”

“तुम कब से काम करने आने लगी?” सेवकराम ने पूछा.

“बस, कल से.”

“पर मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.”

“साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही चली गई थी.

“मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मुझ से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,” संतू ने कहा.

“मतलब?”

“वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा न?”

सेवकराम ने कहा, “अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मुझे लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.”

“ऐसा क्यों साहब?”

“संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.

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“एक दिन मैं झूठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मुझे शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मुझे भूखे ही सोना पड़ा था,” सेवकराम ने कहा.

संतू ने हाथ में झाड़ू लिए हुए ही पूछा, “आप कोई नेता हैं क्या साहब?”

“यह बात बाद में करेंगे, पहले मुझे यह बताओ कि तुम कहां रहती हो?”

संतू ने कहा, “मैं कहां रहती हूं साहब, इस बात को छोड़ो, पहले यह बताओ कि मैं कैसी लगती हूं?”

“मस्त लगती हो.”

“थैंक्यू साहब.”

“तुम इंगलिश बोलना भी जानती हो?”

“हां साहब, मैं 12वीं जमात तक पढ़ी हूं.”

“तुम्हारी उम्र कितनी है संतू?”

“24 साल की हूं साहब.”

“पर अभी तो तुम 20 की ही लगती हो.”

“दूसरे एक घर में काम करती थी न, वहां के साहब तो मुझे 16 साल की ही कहते थे.”

“तुम्हारी बात सच है. तुम सचमुच बहुत सुंदर हो संतू.”

कचरा निकालते हुए संतू ने पूछा, “साहब, आप का नाम क्या है?”

“सेवकराम.”

“इस तरह का गंवारू नाम क्यों रखा है साहब आप ने?”

“बात यह है संतू कि मेरा असली नाम तो विकास है, पर ‘विकास तो पागल हो गया है’. बस, मुझे भी लोग पागल कहने लगे, इसलिए 4 साल पहले मैं ने अपना नाम बदल दिया था.

“पर संतू, तुम भी तो इतनी सुंदर हो, तुम ने अपना यह गंवारू नाम क्यों रखा है?”

संतू बोली, “साहब मेरा असली नाम संतू नहीं है. मेरा असली नाम तो प्रियतमा है. मैं जहां भी काम करने जाती थी, उस घर के साहब मुझे प्रियतमा कह कर बुलाते थे. यह मालकिन लोगों को अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मुझे बारबार काम की तलाश करनी पड़ती थी, बारबार घर बदलना पड़ता था, फिर मैं ने भी अपना नाम बदल कर संतू रख लिया.”

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“वाह संतू, तुम सुंदर ही नहीं, बल्कि होशियार भी हो.”

संतू ने पूछा, “साहब, आप का कामकाज क्या है?”

“देखो संतू, मैं नेता बनने की फिराक में हूं,” इसीलिए मैं ने अपना नाम सेवकराम रखा है. मैं पौलिटिक्स जौइन करने वाला हूं.”

“तो आप भाजपा से जुड़ जाइए.”

“संतू, तुम सचमुच मेरी घरवाली से बहुत ज्यादा होशियार लगती हो. तुम्हारी बात सच है. आजकल भाजपा का ही जमाना है, पर भाजपा की ट्रेन के डब्बे में जगह ही नहीं है. कितने लोग तो खिड़कियों में लटके हैं, कितने छत पर बैठे हैं, कितने ट्रेन के पीछे भाग रहे हैं.”

“तो फिर आप क्या करेंगे साहब?”

मैं कांग्रेस पार्टी में जौइन करूंगा. उस की ट्रेन के डब्बे में जगह ही जगह है.”

“पर वह ट्रेन न चली तो?”

“मैं आशावादी हूं. एक जमाने मेे भाजपा की लोकसभा में महज 2 सीटें थीं, पर आज 300 सौ भी ज्यादा सीटें हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के ‘चाणक्य’ माने जाने वाले अमित शाह जब तक हैं, तब तक कांग्रेस का चांस नहीं दिखाई दे रहा है, फिर भी मैं कांग्रेस में ही जाऊंगा.”

संतू ने पूछा, “ऐसा क्यों साहब?”

“सीधी सी बात है. चुनाव में कांग्रेस पार्टी से मैं टिकट मांगूंगा, भले ही हार जाऊं.”

“इस से आप को क्या फायदा होगा?”

सेवकराम ने कहा, “देखो संतू, मुझे टिकट मिलेगा तो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव फंड भी मिलेगा. उस में से मैं आधा पैसा ही खर्च करूंगा, बाकी का आधा पैसा बचा लूंगा. बोलो, है न फायदे का सौदा?”

“आप जैसे लोगों की वजह से ही कांग्रेस हार रही है.”

“अरे संतू, मुझे तो पैसे का फायदा हो रहा है न.”

“आप की यह बात तो सही है. आप का सचमुच में फायदा होगा. ऐसा कीजिए साहब, जब आप का इतना फायदा होने वाला है तो आप मुझे एडवांस में एक बढ़िया साड़ी दे दीजिए न.”

“अरे, तुम कहो तो तुम्हारे लिए आज ही बढ़िया साड़ी ला दूं.”

“थैंक्यू साहब, मुझे अब कांग्रेस पार्टी अच्छी लगने लगी है.”

“मैं नहीं अच्छा लग रहा हूं?”

“अच्छे लग रहे हैं न साहब आप भी, पर मुझे तो साड़ी आज ही चाहिए.”

सेवकराम ने कहा, “एक काम करो संतू, मेरी घरवाली की अलमारी खोल कर तुम्हें जो साड़ी अच्छी लगे, तुम अभी ले लो.”

“हफ्तेभर बाद मालकिन आएंगी और एक साड़ी गायब पाएंगी, तब?”

“मैं कह दूंगा कि लौंड्री वाले को धोने के लिए दी थी, उस ने गायब कर दी.”

“इस का मतलब आप अपनी घरवाली से झूठ बोलेंगे?”

“तुम्हारे जैसी सुंदर कामवाली के लिए तो मैं एक नहीं, सौ झूठ बोल सकता हूं. मैं तुम्हें एक शर्त पर अभी अपनी घरवाली की साड़ी दे सकता हूं.”

“कौन सी शर्त?”

सेवकराम ने कहा, “अलमारी से कोई भी एक साड़ी तुम ले लो, पर कल सुबह तुम मेरे घर काम करने आना तो वही साड़ी पहन कर आना. तुम्हारा चेहरा न दिखाई दे, इस तरह मुंह ढक कर रखना. पड़ोसियों को लगे कि मेरी घरवाली आ रही है.

“पूरे दिन तुम्हें मेरी घरवाली की साड़ी पहन कर काम करना होगा. कल सुबह की चाय भी तुम्हें वही साड़ी पहन कर बनानी होगी. चाय बना कर मुंह ढके हुए ही शरमाते हुए मुझे सोते से उठा कर मुझे चाय देनी होगी.

“मैं तुम्हें घर की चाबी दे दूंगा. तुम खुद ही दरवाजा खोल कर अंदर आ जाना. घर की एक चाबी मालकिन के पास है और एक मेरे पास. अपनी चाबी मैं तुम्हें दे दूंगा.”

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ठीक है साहब, आप की शर्त मंजूर है.”

“पर मुंह ढक कर आना. तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देना चाहिए. मुझे चेहरा ढके हुए घूंघट वाली औरतें बहुत अच्छी लगती हैं.”

“साहब, मैं तो गांव की हूं. हमारे गांव में तो साड़ी सिर से ओढ़ने का रिवाज है, इसलिए मुझे साड़ी सिर से ओढ़ना खूब अच्छी तरह आता है. सिर से साड़ी ओढ़ने के बाद तो मैं और सुंदर लगती हूं.”

“ठीक हे, तुम अंदर जाओ और अलमारी से जो साड़ी अच्छी लगे, ले लो.”

“ठीक है साहब,” कह कर संतू अंदर गई और काम खत्म कर के एक सुंदर और कीमती साड़ी ले कर चली गई.

संतू के इंतजार में सेवकराम को उस पूरी रात नींद नहीं आई. सुबह हुई. सेवकराम की आंखें लग ही रही थीं कि तभी उन्हें लगा रसोई में चाय बन रही है. जागते हुए भी उन्होंने आंखें बंद कर लीं.

थोड़ी देर बाद साड़ी बांधे शरमाते हुए एक नईनवेली की तरह हाथ में चाय की ट्रे लिए वह आई.

सेवकराम ने कहा, “आ गई डार्लिंग?”

“हां, लो यह चाय.”

सेवकराम को लगा यह आवाज तो संतू की नहीं है. वे उठ कर बैठ गए.

चाय ले कर आई औरत ने सिर से पल्लू हटाया, उस के बाद आंखें निकाल कर बोली, “मैं तुम्हारी कामवाली नहीं, घरवाली हूं. एक ही दिन में कामवाली को डार्लिंग बना लिया.”

घबराते हुए सेवकराम ने कहा, “अरे तुम, तुम तो एक हफ्ते के लिए गई थी, दूसरे ही दिन कैसे आ गई?”

“मुझे तुम्हारे लक्षण पता थे, इसलिए मैं संतू को अपना मोबाइल नंबर दे कर गई थी. मैं ने उस से कहा था कि मेरा घरवाला कोई उलटीसीधी हरकत करे तो मुझे फोन कर देना.

“कल रात को ही संतू ने फोन कर के मुझे सारी बात बता दी थी, इसलिए मैं सुबह ही आ गई और मैं ने तुम्हें रंगे हाथ पकड़ लिया. तुम्हारी जासूसी करने के लिए मैं ने संतू को एक बढ़िया साड़ी पहले ही दे दी थी. समझे?”

“सौरी, मैं तो मजाक कर रहा था.”

“घरवाली को छोड़ कर कामवाली से मजाक? तुम्हेें पता होना चाहिए कि संतू जिस वार्ड में रहती है, उस वार्ड की वह भाजपा की महिला मोरचा की अध्यक्ष है.”

“सच में…”

सेवकराम की घरवाली ने कहा, “मैं अभी फोन कर के कांग्रेस और भाजपा के जिला अध्यक्षों से कह देती हूं कि वे दोनों तुम्हें अपनी पार्टी में कतई न लें.”

“ऐसा क्यों?”

“जो आदमी अपनी घरवाली का नहीं हो सकता, वह जनता का क्या होगा.”

सेवकराम ने देखा कि संतू बाहर बरामदे में खड़ी हंस रही थी.

पापाज बौय- भाग 3: ऐसे व्यक्ति पर क्या कोई युवती अपना प्यार लुटाएगी?

Writer- सतीश सक्सेना 

अलसाते हुए शायनी पलंग पर उठ बैठी. उस ने पापा को पास बैठाते हुए कहा, ‘‘आज कालेज जाने का मन नहीं है,’’ फिर उन की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘‘पापा, मैं ने फैसला किया है कि मैं शादी नहीं करूंगी.’’ रविराय उस की बात पर जरा भी नहीं चौंके. वे बात की गंभीरता को समझते हुए बोले, ‘‘साफ क्यों नहीं कहती कि शतांश अब तेरी जिंदगी से दूर जा चुका है. मैं कई दिन से महसूस कर रहा था कि अब न तो तेरे लिए उस के फोन आते हैं और न ही तू मुझ से उस के साथ देर रात तक रुकने के लिए अनुमति मांगती है. चल, जो भी हुआ, ठीक हुआ. शायद तुम दोनों एकदूसरे के लिए बने ही नहीं थे.

‘‘बेटे, लाइफ एक बंपी राइड है. यह सपाट और सरल कभी नहीं होती इसलिए संभलो और आगे बढ़ो. नैवर रिग्रैट फौर एनीथिंग,’’ कहते हुए रविराय ने उसे बांहों में बांध कर उस के माथे को चूम लिया.

खनक की कार जब होटल ड्रीमलैंड की पार्किंग में रुकी तो शतांश अपनी कार लौक कर के उस के आने का इंतजार करने लगा. खनक ने कार से उतरते ही शतांश से कहा, ‘‘मैं समझती हूं, हमें अंदर रेस्तरां में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है. अपने विवाह के संबंध में हमें जो भी निर्णय लेना है, वह यहीं लिया जा सकता है. वैसे मैं तुम्हारे और शायनी के बारे में बहुतकुछ जानती हूं. मैं यह भी जानती हूं कि तुम ने मुझ से शादी करने के लिए उस से ब्रेकअप किया है.’’ थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहा, ‘‘शतांश, तुम में और मुझ में एक बड़ा अंतर यह है कि यू आर पापाज बौय. तुम वही करते हो जो वे तुम्हें करने के लिए कहते हैं. यहां तुम उन के कहने पर ही मुझे प्रपोज करने आए हो.

‘‘जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं अपने डैडी की इज्जत करती हूं. उन के कहने पर मैं यहां आई तो जरूर हूं, लेकिन अपनी जिंदगी के फैसले करने का अधिकार मैं किसी को नहीं देती, क्योंकि यह मेरी जिंदगी है, जो मुझे अपने ढंग से जीनी है, डैडी की इच्छा से नहीं.’’ अपनी बातों को समाप्त करते हुए वह बोली, ‘‘अब बेहतर यही है कि तुम लौट कर अपने पापा को यह बता दो कि खनक तुम्हें पसंद नहीं है, क्योंकि वह न तो हमारे घर में निभ पाएगी और न ही आप की सेवा कर पाएगी. मुझे अपने डैडी से क्या कहना है, यह मैं भलीभांति जानती हूं.’’

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शतांश मूक रह गया. वह चेहरे पर उभर आई फीकी सी मुसकान के पीछे छिपे दर्द को ढकने का प्रयास करने लगा. वह समझ नहीं पाया कि कैसे वह खनक को अपने मन के भाव दिखाए. ‘‘चलें,’’ अचानक खनक के शब्द ने उसे चौंका दिया.

खनक उसे उसी अवस्था में छोड़ कर अपनी कार में बैठी और कार स्टार्ट कर पार्किंग से बाहर निकल गई. शतांश किंकर्तव्यविमूढ़ सा उसे देखता रह गया. समय किसी के लिए नहीं रुकता. शतांश के लिए भी नहीं रुका और न ही शायनी के लिए. 4 साल बाद नैनीताल में एक दिन शायनी जैसे ही अपने क्लीनिक

से बाहर निकली, उसे शतांश कार में सड़क से गुजरता हुआ दिखाई दिया. शायनी उसे नैनीताल में देख कर विस्मित हुए बिना नहीं रही. उसी पल शतांश को भी वह सड़क के किनारे चलती हुई नजर आ गई. उसे नैनीताल में देख कर वह भी चकित रह गया. वह कार से उतरा और शायनी के पास आ पहुंचा.

उसे रोकने का प्रयास करते हुए उस से पूछा, ‘‘तुम यहां?’’ शतांश को अपने सामने देख कर शायनी के मन से नफरत का लावा भरभरा कर बह निकला. उस के प्रश्न का उत्तर दिए बिना शायनी ने अपनी गति तेज

कर दी. शतांश ने भी उस का पीछा नहीं छोड़ा. बढ़ कर फिर उस के समीप आ गया. बोला, ‘‘शायनी, सुनो तो. हम इतने भी अजनबी नहीं हैं कि तुम मुझ से कतरा कर भागने लगो. मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि तुम यहां कैसे?’’

अब शायनी रुक गई. वह अपने को संयमित करते हुए बोली, ‘‘मैं यहीं रहती हूं. यहां मेरा क्लीनिक है.’’ ‘‘सरप्राइजिंग, मेरी यहां एक फैक्टरी है. मैं भी यहीं रहता हूं,’’ फिर कुछ सोचते हुए उस ने शायनी से अनुरोध किया, ‘‘क्या

हम थोड़े समय के लिए एकसाथ कहीं बैठ सकते हैं?’’ ‘‘नहीं,’’ वह बोली.

‘‘शायनी तुम्हें मेरे और अपने उन पलों की कसम, जो कभी हम ने साथ जिए थे.’’

‘‘जो कहना है यहीं कहो,’’ बड़ी असहज स्थिति में उस का अनुरोध स्वीकार करते हुए शायनी ने कहा. शतांश वहीं एक लैंप पोस्ट के सहारे खड़ा हो गया. शायनी भी उस के पास खड़ी हो गई. अपने दिल के बोझ को हलका करने का प्रयास करते हुए शतांश बोला, ‘‘शायनी, मैं अब पापाज बौय नहीं रहा हूं. पापा से अलग हो कर मैं ने अपनी फैक्टरी यहां लगा ली है. फैक्टरी लगाने के बाद मैं ने तुम्हें हर जगह ढूंढ़ा.

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’’तुम्हारे साथियों से भी पूछा कि तुम आजकल कहां हो, लेकिन जब कोई कुछ नहीं बता पाया तो मैं ने तुम्हारे पापा से बात की. उन्होंने मुझे तुम्हारे बारे में कुछ भी बताने से साफ इनकार कर दिया. हां, यह जरूर बताया कि तुम ने भविष्य में शादी करने से इनकार कर दिया है.’’ शायनी शतांश की बातें सुनती चली गई. उस की बातों पर उस ने अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. बस, सड़क पर चलती हुई भीड़ और सामने से गुजरते वाहनों को देखती रही.

थोड़ी चुप्पी के बाद शतांश ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘शायनी, सच मानो, अपने बे्रकअप के बाद से मैं पश्चात्ताप की आग में जल रहा हूं. वह बे्रकअप मेरे जीवन की एक बड़ी भूल थी. मैं तुम से क्षमा मांग कर उस भूल को सुधारना चाहता हूं. मेरी बाहें तुम्हें आज भी उसी गर्मजोशी से बांधने को तैयार हैं. प्लीज शायनी, फौरगैट एवरी थिंग.’’ शायनी ने शतांश को सिर से ले कर पैर तक देखा मानो किसी गिरगिट को रंग बदलते हुए देख रही हो. क्षितिज पर डूबा सूरज पल भर के लिए आग बरसाता हुआ सा लगा.

अपने मन के कष्ट को दबाते हुए वह फट पड़ी, ‘‘मिस्टर शतांश, जो उलझन, उथलपुथल, तनाव और दुख इस दौर में मैं ने झेले हैं, उन्हें सिर्फ वही युवती समझ सकती है जिस ने बे्रकअप झेला हो. मैं एक स्वाभिमानी युवती हूं. रिश्तों में इतनी कड़वाहट आने के बाद तुम से फिर रिश्ता कायम कर लूंगी, यह तुम्हारी समझ का एक बड़ा दोष है. ‘‘जरा सोचो, जिस इंसान के साथ बिताए पलों की याद आते ही मेरे मन में नफरत का एक तूफान उठने लगता है, उस के चेहरे को जिंदगी भर मैं अपने सामने कैसे देख पाऊंगी? कभी नहीं, सौरी.’’

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तभी एक औटोरिक्शा शायनी के पास से गुजरा. शायनी ने हाथ दे कर उसे रोका. उस में बैठी और चली गई. औटो से निकले काले धुएं ने शतांश के सपनों पर गहरी कालिख बिछा दी.

विषबेल- भाग 1: आखिर शर्मिला हर छोटी समस्या को क्यों विकराल बना देती थी

समीर न जाने कब से आराम कुरसी पर बैठा हुआ था. कहने को लैपटौप खुला हुआ था, पर शायद एक भी मेल उस ने पढ़ी नहीं थी. रविवार के दिन वह अकसर नंदिनी मौसी से बालकनी में कुरसी डलवा कर बैठ जाया करता था. पर आज तो सूरज की अंतिम किरण अपना आंचल समेट चुकी थी, शीत ऋतु की ठंडी हवाएं अजीब सी सिहरन उत्पन्न कर रही थीं, पर वह फिर भी यों ही बैठा रहा. एक बार नंदिनी मौसी फिर चाय के लिए पूछ गई थीं. बड़े ही प्यार से उन्होंने समीर के कंधे पर हाथ रखा तो उस की आंखें भीग आई थीं.

एक सांस छोड़ते हुए उस ने बस, इतना ही कहा, ‘‘नहीं मौसी, आज जी नहीं कर रहा कुछ भी खाने को.’’

‘‘मैं जानती हूं, क्यों नहीं जी कर रहा. पर कम से कम अंदर तो चलो, ठंडी हवाएं हड्डियों को छेद देती हैं.’’

कैसे कहे मौसी से कि जब मन लहूलुहान हो गया है तो शरीर की चिंता किसे होगी? नंदिनी मौसी जबरन लैपटौप, मोबाइल उठा कर चली गईं, तो हार कर उसे उठना पड़ा. कभीकभी वह खुद से प्रश्न करता, क्या इस घर को कोई घर कह सकता है?

मां के मुख से उस ने हमेशा एक ही बात सुनी थी, ‘‘घर बनता है अपनत्व, प्यार, ममता, समर्पण और सामंजस्य से. अगर ईंट, सीमेंट, गारे और रेत की दीवारों से घर बनता तो लोग सराय में न रह लेते.’’

अपनी पत्नी के रूप में उस ने ऐसी सहचरी की कामना की थी जो मन, वचन और कर्म से उस का साथ देती. विवाह तो प्रणयबंधन है, लेकिन शर्मिला व्यवहार, शिष्टाचार, मानअपमान से पूर्णतया विमुख थी. यदि दबे स्वर में कभी कोई कुछ कहता भी, तो इतना चिल्लाती कि वह स्तब्ध रह जाता. न जाने शर्मिला की अपेक्षाएं अधिक थीं या खुद उस की, पर इतना अवश्य था कि घुटने हमेशा उस ने या उस के परिवार के सदस्यों ने ही टेके थे.

पुरानी बातें चलचित्र की तरह आंखों के आगे चल पड़ीं…

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मां और बाबूजी कितने चाव से शर्मिला को अपने घर की बहू बना कर लाए थे. बड़े भाई की असामयिक मौत से कराहते घर में एक लंबे समय के बाद खुशियों की कोंपलें फूटी थीं. मां सब से कहतीं, ‘शर्मिला हमारे घर की बहू नहीं, बेटी है.’

लेकिन उस ने अगले ही दिन से अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए. समीर ने याद किया, मुंहदिखाई की रस्म पर ड्राइंगरूम में काफी महिलाएं जमा थीं. रस्म संपन्न होने के बाद मां ने शर्मिला से प्यार से कहा, ‘समीर अपने कमरे में नाश्ता कर रहा है, बहू तू जा कर उस के पास बैठ.’

‘मैं क्या उस के मुंह में ग्रास दूंगी,’ शर्मिला बोली थी. ऐसा लगा, जैसे महाभारत प्रारंभ होने से पहले अर्जुन का सलामी तीर हो.

यह सुनते ही उपस्थित सभी महिलाओं ने एकदूसरे को निहारा, फिर मां को उलाहना दिया, ‘खूबसूरती के चक्कर में दहेज छोड़ा और रकम को भी लात मारी, अब भुगतो बहू के तेवर.’

‘निसंदेह देवयानी, सौंदर्य, शिक्षा और स्वास्थ्य के चयन के आधार पर तो तुम्हारा चयन श्रेष्ठ है, किंतु तुम्हारी बहू में भावुकता और संवेदनशीलता नाम को भी नहीं है.’ एक अन्य महिला बोली, ‘अरे, देवयानी तो हीरा सम झ कर लाई थी. अब बहू कांच का टुकड़ा निकली, तो जख्म भी वह ही बरदाश्त करेगी.’

‘तुम लोग बहू का मजाक तो सम झती नहीं हो, बात का बतंगड़ बना रही हो,’ हंसते हुए यह कहने के साथ चायनाश्तामिष्ठान प्रस्तुत कर मां ने हंस कर बात का प्रसंग वहीं समाप्त कर दिया था. लेकिन समीर का मन बेचैन हो गया था. क्या सोचती होंगी ये महिलाएं? बाहर निकल कर कितनी बातें बनाएंगी शर्मिला और उस के परिवार के बारे में?

रात को जब सभी अपनेअपने कमरे में सोने के लिए चले गए तो समीर ने शर्मिला को उस की गलती का एहसास दिलाया, ‘मां से बात करने का तुम्हारा तरीका सही नहीं था शर्मिला.’

‘ऐसा क्या कह दिया मैं ने तुम्हारी मां से?’

‘रिश्ते का न सही, उम्र का लिहाज तो किया होता.’

‘देखो समीर, मेरा तो यही तरीका है बात करने का, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा.’

शर्मिला ने चादर ओढ़ी और मुंह दूसरी ओर फेर कर सो गई. लेकिन समीर पूरी रात करवट बदलता रहा. सुबह उठा तो आंखें लाल थीं. चेहरा बु झा हुआ. देवयानी बेटे का चेहरा देखते ही पहचान गईं कि अंदर से कोई बात उसे बुरी तरह कचोट रही है. चाय का कप थमा कर उन्होंने जैसे ही समीर के कंधे पर हाथ रखा, उस के मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘नम्रता, सहिष्णुता और बड़ों का आदर तो मानवीय भावनाएं हैं न मां, इन्हीं से तो सुख का संचार होता है.’

‘लेकिन स्वभाव और संस्कार तो विरासत में मिलते हैं,’ जवाब बड़ी बूआ ने दिया था. फिर वे देवयानी से मुखातिब हो कर बोलीं, ‘मैं ने तो भाभी तुम्हें पहले ही सचेत किया था कि इस घर से रिश्ता मत जोड़ो. शर्मिला की बड़ी बहन, शादी के एक साल के बाद ही तलाक ले कर मायके लौट आई थी.’

‘लेकिन दुनिया में सारी उंगलियां बराबर तो नहीं होतीं, जीजी,’’ देवयानी ने मुसकरा कर जवाब दिया.

‘तुम्हारी बहू के भी लच्छन सही नहीं दिख रहे,’ बूआ बोली थीं.

‘किसी पौधे को अपनी जड़ जमाने में थोड़ा समय तो लगता है,’ देवयानी ने ननद को चुप रहने का संकेत किया. फिर वे समीर से बोलीं, ‘समीर, जाने की तैयारी शुरू कर दो, कल रात की ट्रेन से तुम दोनों को मनाली के लिए निकलना है.’

धीरेधीरे सभी रिश्तेदार विदा हो गए. समीर का छोटा भाई अरविंद भी 2 दिनों बाद इंटर्नशिप के लिए लखनऊ विदा हो गया. अब घर में 4 सदस्य थे. सास, ससुर, समीर और शर्मिला. तीनों ही हंसमुख और शर्मिला से स्नेह करने वाले. सुधाकर, मेरठ में बैंक मैनेजर थे. समीर को भी प्रोजैक्ट मैनेजर होने के नाते अच्छा वेतन मिलता था. खानेपीने, पहननेओढ़ने का स्तर जरूर मध्यवर्गीय था लेकिन घर में आधुनिक सुखसुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध थे. देवयानी पूरी तरह आश्वस्त थीं कि बहू ससुराल में रम जाएगी.

लेकिन, शर्मिला ने अगले दिन से ही शांत सरोवर में पत्थर फेंकना शुरू कर दिया. दरअसल, समीर के ग्रुप लीडर ने उस की छुट्टी कैंसिल कर के उसे तुरंत औफिस पहुंचने की ताकीद की थी.

‘नहीं मां, मु झे कल से ही औफिस जौइन करना होगा. प्रोजैक्ट की डैडलाइन नजदीक है, कल रात ही मेल आया था.’

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टिकट कैंसिल कराए गए तो शर्मिला ने तूफान मचा दिया. वह किसी भी कीमत पर मनाली जाना चाहती थी. समीर ने आश्वस्त किया, ‘प्रोजैक्ट समाप्त हो जाने के बाद हम जरूर कहीं घूमने चलेंगे.’

लेकिन शर्मिला ने तो जिद पकड़ ली थी. एक मत से उस ने तय किया कि जब तक समीर दफ्तर के काम में व्यस्त है, शर्मिला पीहर जा कर घूम आए, मन बहल जाएगा.

अगले 15 दिन समीर के व्यस्तता में कटे. देररात तक वह दफ्तर में ही बैठा रहता. घर लौटने के बाद कौल पर व्यस्त रहता. काम की व्यस्तता के चलते उसे शर्मिला से बात करने का भी समय न मिलता था.

प्रोजैक्ट समाप्त होने के बाद समीर ने दोबारा मनाली के टिकट बुक करवाने के लिए शर्मिला को फोन किया, तो उस ने चिढ़ कर जवाब दिया, ‘‘3 टिकट बुक करना, नीरा भी हमारे साथ चलेगी.’’

‘नी… रा… हनीमून पर… हमारे साथ…?’

‘जी हां, समीर साहब, तुम मु झे तब नहीं ले गए थे न, हर्जाना तो भुगतना ही पड़ेगा.’

फिर थोड़ा विनम्र स्वर में बोली, ‘तलाक के बाद बेचारी नीरा घर में कैद हो कर रह गई है, हमारे साथ चलेगी तो उस का दिल बहल जाएगा.’

समीर संयत रहा. उस समय उसे कोई जवाब नहीं सू झ रहा था. ‘ठीक है,’ कह कर उस ने फोन काट दिया और 3 टिकट बुक करवा लिए.

हंसती, खिलखिलाती दोनों बहनें हिचकोले खाती बसयात्रा का भरपूर आनंद लूट रही थीं. पिछली सीट पर बैठा समीर सहयात्रियों से बातें कर के मन बहलाता, कभी ऊंघने लगता. शर्मिला ने नीरा को अपनी जिद के बारे में बताया, तो उस ने शर्मिला की पीठ थपथपा दी, बोल पड़ी, ‘वाह, तू ने तो मैदान मार लिया.’

8 दिन मनाली भ्रमण के दौरान दोनों बहनों ने ट्रैकिंग, ग्लाइडिंग, घुड़सवारी से ले कर हर महंगे रैस्टोरैंट में जम कर लंचडिनर के स्वाद चखे. पेमैंट समीर करता रहा. वापसी में शर्मिला ने पश्मीना शौल खरीदने की फरमाइश की, तो समीर ने एक शौल मां के लिए भी खरीद ली. इस पर शर्मिला अड़ गई, ‘अपनी मां के लिए, मु झे भी एक शौल खरीदनी है.’

समीर अनुमान से ज्यादा खर्चा कर चुका था. उस का बैंक बैलेंस बुरी तरह बिगड़ चुका था. फिर भी, शर्मिला की बात का मान रखने के लिए उस ने एक शौल अपनी सास के लिए और एक स्टौल छोटी बहन जया के लिए भी खरीद लिया.

अपने अपने रास्ते- भाग 3: क्या विवेक औऱ सविता की दोबारा शादी हुई?

तीनों ने हाथ मिलाए. फिर पहले से बुक की गई मेज के इर्दगिर्द बैठ गए. वेटर चांदी के गिलासों में ठंडा पानी सर्व कर गया.

थोड़ी देर बाद वही वेटर उन के पास आया और सिर नवा कर खड़ा हो गया तो सविता ने ड्रिंक लाने का आर्डर दिया.

थोड़ी देर बाद वेटर आर्डर सर्व कर गया. सभी अपनाअपना ड्रिंक पीने लगे. तभी हाल की बत्तियां बुझ गईं. डायस पर धीमाधीमा संगीत बजने लगा. हाल में एक तरफ डांसिंग फ्लोर था. कुछ जोड़े उठ कर डांसिंग फ्लोर पर चले गए.

वहां का माहौल बहुत रोमानी हो चला था. विवेक ने अपना गिलास खत्म किया और उठ खड़ा हुआ. सिर नवाता हुआ मिस रोज की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘लैट अस हैव ए राउंड.’’

मिस रोज मुसकराई. उस ने अपना गिलास खत्म किया और उठ कर अपना बायां हाथ विवेक के हाथ में  थमा दिया. उस की पीठ पर अपनी बांह फिसला विवेक उसे डांसिंग फ्लोर की तरफ ले गया. दोनों साथसाथ थिरकने लगे.

सविता ईर्ष्यालु नहीं थी. उस ने कभी ईर्ष्या नहीं की. मुकाबला नहीं किया था. मगर आज जाने क्यों ईर्ष्या से भर उठी थी. हालांकि वह जानती थी. आयात- निर्यात के धंधे में विदेशी ग्राहकों को ऐंटरटेन करना व्यवसाय सुलभ था, कोई अनोखी बात न थी.

मगर आज वह एक खास मकसद से विवेक के पास आई थी. इस खास अवसर पर उस का किसी अन्य के साथ जाना, चाहे वह ग्राहक ही क्यों न हो, उसे सहन नहीं हो रहा था.

पहला राउंड खत्म हुआ. विवेक बतरा चहकता हुआ मिस रोज को बांहों में पिरोए वापस आया. मिस रोज ने कुरसी पर बैठते हुए कहा, ‘‘सविताजी, आप के साथी बतरा बहुत मंझे हुए डांसर हैं, मेरी तो कमर टूट रही है.’’

‘‘मिस रोज, यह डांसर के साथसाथ और भी बहुत कुछ हैं,’’ सविता ने हंसते हुए कहा.

‘‘बहुत कुछ का क्या मतलब है?’’

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‘‘यह मिस्टर बतरा धीरेधीरे समझा देंगे.’’

डांस का दूसरा दौर शुरू हुआ. विवेक उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना हाथ मिस रोज की तरफ बढ़ाया, ‘‘कम अलांग मिस रोज लैट अस हैव अ न्यू राउंड.’’

‘‘आई एम सौरी, मिस्टर बतरा. मैं थक रही हूं. आप अपनी पार्टनर को ले जाएं,’’ मिस रोजी ने अर्थपूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखते हुए कहा.

इस पर विवेक बतरा ने अपना हाथ सविता की तरफ बढ़ा दिया. सविता निर्विकार ढंग से उठी. विवेक बतरा ने अपनी एक बांह उस की कमर में पिरोई और उसे अपने साथ सहारा दे कर डांसिंग फ्लोर पर ले गया.

सविता पहले भी विवेक के साथ डांसिंग फ्लोर पर आई थी. मगर आज उस को विवेक के बाहुपाश में वैसी शिद्दत, वैसा जोश, उमंग और शोखी नहीं महसूस हुई जिन्हें वह हर डांस में महसूस करती थी. दोनों को लग रहा था मानो वे प्रोफेशनल डांसर हों, जो औपचारिक तौर पर डांस कर रहे थे.

विवेक बतरा मुड़मुड़ कर मिस रोज की तरफ देख रहा था. स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. वह न सौत सह सकती है न मुकाबला या तुलना. विवेक बतरा अनजाने में यह सब कर उसे उत्पीडि़त कर रहा था.

आज से पहले सविता ने कभी विवेक बतरा के व्यवहार की समीक्षा न की थी. उस ने अपने दफ्तर और व्यापार में उस  की खामखा की दखलंदाजी और अनावश्यक रौब जमाने की प्रवृत्ति को यह सोच कर सह लिया था कि वह उस से शादी करने वाली था. मगर आज मात्र 1 घंटे में उस की सोच बदल गई थी.

उस के पूर्व पति ने अपनी हीन भावनावश उस को हमेशा सताया था. बेवजह शक किया था. विवेक बतरा उस के पूर्व पति की तुलना में प्रभावशाली व्यक्तित्व का था. वह भी कल को शादी के बाद उसे सता सकता है. एक बार पति का दर्जा पाने पर या पार्टनर बन जाने पर कंपनी का सारा नियंत्रण अपने हाथ में ले सकता है.

आज मात्र एक नई उम्र की हसीना के रूबरू होने पर उस का ऐसा व्यवहार था, कल न जाने क्या होगा?

विवेक बतरा को भी मिस रोज, जो आयु में सविता से काफी छोटी थी, ताजे और खिले गुलाब जैसी लगी थी. उस की तुलना में सविता एक पके फल जैसी थी, जिस में मिठास पूरी थी, मगर यह मिठास ज्यादा होने पर उबा देती थी. इस मिठास में जीभ को ताजगी भरने वाली खास मिठास न थी जो पेड़ से तोड़े गए ताजे फल में होती थी.

डांस का दूसरा दौर समाप्त हुआ. कई महीने से जो फैसला न हो पाया था, मात्र 45 मिनट के डांसिंग सेशन में हो गया था.

नई मोमबत्तियां लग गईं. खाना काफी लजीज था. मिस रोज ने खाने की तारीफ के साथ आगे फिर मिलने की बात कहते हुई विदा ली. विवेक बतरा उसे छोड़ने बाहर तक गया. सविता निर्विकार भाव से सब देख रही थी.

मिस रोज को छोड़ कर विवेक वापस आया तो बोला, ‘‘सविता डार्लिंग, आज आप को अपना फैसला सुनाना था?’’

‘‘क्या जरूरत है?’’ लापरवाही से सविता ने कहा.

‘‘आप ने आज ही तो कहा था,’’ विवेक बतरा जैसे याद दिला रहा था.

‘‘हम दोनों में जो है वह शादी के बिना भी चल सकता है.’’

‘‘मगर शादी फिर शादी होती है.’’

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‘‘देखिए, मिस्टर बतरा, जब तक फासला होता है तभी तक हर चीज आकर्षक नजर आती है. पहाड़ हम से दूर हैं, हमें सुंदर लगते हैं मगर जब हम उन पर जाते हैं तब हमें पत्थर नजर आते हैं. आज मैं थोड़ी जवान हूं, कल को प्रौढ़, वृद्धा हो जाऊंगी मगर आप तब भी जवान होंगे. तब आप को संतुष्टि के लिए नई कली का रस ही सुहाएगा, इसलिए अच्छा है आप अभी से नई कली ढूंढ़ लें. मैं आप की व्यापार में सहयोगी ही ठीक हूं.’’

विवेक बतरा भौचक्क था. उसे ऐसे रोमानी माहौल में ऐसे विपरीत फैसले की उम्मीद न थी. वेटर को 500 रुपए का नोट टिप के लिए थमा, सविता सधे कदमों से वापस चली गई. ‘रिंग सेरेमनी’ की अंगूठी बंद की बंद ही रह गई थी.

डांस फ्लोर पर डांस का नया दौर आरंभ हो रहा था.

पांच साल बाद- भाग 5: क्या निशांत को स्निग्धा भूल पाई?

स्निग्धा दिल की बुरी नहीं थी. अत्यधिक प्यारदुलार और अनुचित छूट से वह उद्दंड और उच्छृंखल हो गई थी. वह हर उस काम को करती थी जिसे करने के लिए उसे मना किया जाता था. इस से उसे मानसिक संतुष्टि मिलती. जब लोग उसे भलाबुरा कहते और उस की तरफ नफरतभरी नजर से देखते तो उसे लगता कि उस ने इस संसार को हरा दिया है, यहां के लोगों को पराजित कर दिया है. वह इन सब से अलग ही नहीं, इन सब से महान है. दूसरे लोगों के बारे में उस की सोच थी कि ये लोग परंपराओं और मर्यादाओं में बंधे हुए गुलामों की तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं.

शादी को वह एक बंधन समझती थी. इसे स्त्री की पुरुष के प्रति गुलामी समझती थी. उस की सोच थी कि शादी करने के बाद पुरुष केवल स्त्री पर अत्याचार करता है. इसलिए उस ने ठान लिया था कि वह शादी कभी नहीं करेगी.

परंतु बिना शादी किए किसी पुरुष के साथ रहना उसे अनुचित न लगा.

उसे इलाहाबाद के वे दिन याद आते हैं जब राघवेंद्र के साथ रहते हुए पीठ पीछे उसे लोग न जाने किनकिन विशेषणों से संबोधित करते थे, जैसे- ‘चालू लड़की’, ‘चंट’, ‘छिछोरी’, ‘रखैल’ आदिआदि. तब उसे इन संबोधनों से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह किसी की बात पर कान नहीं धरती थी. वह बेफिक्री का आलम था और राघवेंद्र जैसे राजनीतिक नेता से उस का संपर्क था. वह सातवें आसमान पर थी और जमीन पर चल रहे कीड़ेमकोड़ों से वह कोई वास्ता नहीं रखना चाहती थी. उन दिनों उसे अच्छी बात अच्छी नहीं लगती थी और बुरी बात को वह सुनने के लिए तैयार नहीं थी. लोग उस के बारे में क्या सोचते थे, इस से उस को कोई लेनादेना नहीं था.

स्निग्धा के जीवन के साथ खिलवाड़ करने के लिए केवल राघवेंद्र ही जिम्मेदार नहीं था, इस के लिए स्निग्धा स्वयं जिम्मेदार और दोषी थी. अपनी गलती से उस ने सबक लिया था कि परंपराओं का उल्लंघन हमेशा उचित नहीं होता. राघवेंद्र ने भी स्निग्धा के शरीर से खेलने के बाद उसे छोड़ कर अच्छा नहीं किया था. इस प्रकार के चरित्र से उस का राजनीतिक जीवन तहसनहस हो गया था. इलाहाबाद बहुत आधुनिक शहर नहीं था कि बिना ब्याह के स्त्रीपुरुषों के संबंधों को आसानी से स्वीकार कर लेता. अगले आम चुनाव में उसे पार्टी की तरफ से टिकट नहीं दिया गया. उस ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा, परंतु बुरी तरह हार गया.

स्निग्धा को आज एहसास हो रहा था कि अपने अति आत्मविश्वास के कारण मांबाप द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का उस ने नाजायज फायदा उठाया था और अपने पांवों को गंदे दलदल में फंसा दिया था. वह अपने परिवार, संबंधियों और परिचितों से दूर हो गई. दोस्त उस का साथ छोड़ गए और आज वह इतनी बड़ी दुनिया में अकेली है. कोई उसे अपना कहने वाला नहीं है. थोड़ी देर के लिए अगर कोई सुखदुख बांटने वाला है तो वह है रश्मि, जो सच्चे मन से उस की बात सुनती है और सलाह देती है.

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दिल्ली आ कर वह अपने इलाहाबाद के दिनों की कड़वी यादों को भुलाने में काफी हद तक सफल हो गई थी. वहां रहती तो शहर के रास्तों, गलीकूचों और बागबगीचों से गुजरते हुए अपने कटु अनुभवों को भुला पाना उस के लिए आसान न था. अब निशांत से मिलने के बाद क्या वह अपना पिछला जीवन भूल सकेगी? उस के मन में कोई फांस तो नहीं रह जाएगी कि वह निशांत को धोखा दे रही है. परंतु वह ऐसा क्यों सोच रही है? क्या वह समझती है कि निशांत उसे अपना बना लेगा? उस के दिल में एक टीस सी उठी. अगर निशांत ने उसे ठुकरा दिया तो. इस तो के आगे उस के पास कोई जवाब नहीं था. हो भी नहीं सकता था, परंतु संसार में क्या अच्छे पुरुषों की कमी है? अगर वह चाहती है कि शादी कर के अपना घर बसा ले और एक आम गृहिणी की तरह जीवन व्यतीत करे तो उसे कौन रोक सकता था. निशांत न सही, कोई भी पुरुष उस का हाथ थामने के लिए तैयार हो जाएगा. उस में कमी क्या है?

सच तो यह है कि आज पहली बार उस का दिल सच्चे मन से किसी के लिए धड़का है और वह है निशांत.

स्निग्धा को बाराखंभा वाली जौब मिल गई, उस के जीवन में खुशियों के पलों में इजाफा हो गया, लेकिन जीवन में एक ठहराव सा था. पुरुष हो या स्त्री, एकाकी जीवन दोनों के लिए कष्टमय होता है. यह बात निशांत भी जानता था और स्निग्धा भी, परंतु अभी तक उन्होंने अपने मन की पर्तों को नहीं खोला था. ताश के खिलाडि़यों की तरह दोनों ही अपनेअपने पत्ते छिपा कर चालें चल रहे थे.

प्रतिदिन शाम को वे दोनों मिलते थे. मिलने की एक निश्चित अवधि थी और निश्चित स्थान. इंडिया गेट के लंबेचौड़े, खुले मैदान. कभी बैठ कर, कभी घास पर चलते हुए और कभी फूलों के पौधों के किनारे चलते हुए वे दुनियाजहान की बातें करते, वहां घूम रहे लोगों के बारे में बातें करते, चांदतारों की बातें करते और लैंपपोस्ट की हलकी रोशनी में एकदूसरे की आंखों में चांद ढूंढ़ने की कोशिश करते.

उन को मिलते हुए कई महीने बीत गए. चांद अभी भी उन की पकड़ से दूर था. स्निग्धा पहले जितनी वाचाल और चंचल थी, अब उतनी ही अंतर्मुखी हो गई थी या शायद निशांत के संसर्ग में आ कर उस के जैसी हो गई थी. यह उस के स्वभाव के विपरीत था, परंतु मानव मन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है. स्निग्धा उस के सामने अपने मन को बहुत ज्यादा नहीं खोल सकती थी, क्योंकि निशांत उस के बारे में सबकुछ जानता था. परंतु वह न तो उस के भूतकाल की कोई बात करता, न भविष्य के बारे में कोई बात. दोनों के बीच अनिश्चितता का एक लंबा ऊसर पसरा हुआ था. क्या इस ऊसर में प्यार का कोई अंकुर पनपेगा?

वोट क्लब के छोटेछोटे कृत्रिम तालाबों के किनारे चलते हुए निशांत ने पूछा, ‘जीवनभर अकेले ही रहने का इरादा है या कुछ सोचा है?’

‘क्या मतलब…?’ उस ने आंखों को चौड़ा कर के पूछा.

निशांत गंभीर था.

‘मांबाप के पास जाने का इरादा है?’ निशांत ने घुमा कर पूछा.

स्निग्धा के हृदय में कुछ चटक गया. फिर भी अपने को संभाल कर कहा, ‘उस तरफ के सारे रास्ते मेरे लिए बंद हो चुके हैं. न मुझ में इतना साहस है, न कोई इच्छा. उन के पास जा कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे ही इस संसार सागर को पार करना है, अकेले या किसी के साथ?’ उस का स्वर भीगा हुआ था.

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‘किस के साथ?’ निशांत ने उस का हाथ पकड़ लिया.

स्निग्धा के शरीर में एक मीठी सिहरन दौड़ गई. वह सिमटते हुए बोली, ‘जो भी मेरे मन को समझ लेगा.’

‘तो कोई ऐसा मिला है?’ वह जैसे उस के मन को परखने का प्रयास कर रहा था. स्निग्धा मन ही मन हंसी, ‘तो मुझ से बनने की कोशिश की जा रही है.’

वह आसमान की तरफ देखती हुई बोली, ‘देख तो रही हूं, सूरज के रथ पर सवार हो कर कोई औरों से बिलकुल अलग एक पुरुष मेरे जीवन में प्रवेश कर रहा है,’ आसमान में तारों का साम्राज्य था. चांद कहीं नहीं दिख रहा था, परंतु तारों की झिलमिलाहट आंखों को बहुत भली लग रही थी.’

‘परंतु आसमान में तो कहीं सूरज नहीं है, फिर उस का रथ कहां से आएगा?’ उस ने चुटकी ली.

‘अभी रात्रि है. रथ में जुते घोड़े थक गए हैं, वे विश्राम कर रहे हैं. कल फिर यात्रा मार्ग पर निकलेंगे,’ वह हंसी.

‘अच्छा, तो कल शाम तक यहां पहुंच जाएंगे?’

‘कह नहीं सकती. मार्ग लंबा है, समय लग सकता है,’ वह जमीन पर देखने लगी.

निशांत ने उस की कमर में हाथ डाल दिया. वह उस से सट गई.

‘जब सूरज का रथ तुम्हारे पास आ जाए तो उस पुरुष को ले कर मेरे पास आना, मेरे घर.’

‘अवश्य.’

एक दिन स्निग्धा ने मिलते ही एटम बम फोड़ा.

‘मैं तुम्हारे घर आना चाहती हूं.’

‘क्या सूरज का रथ और वह पुरुष आ चुका है?’ उस ने मुसकराती आंखों से स्निग्धा को देखते हुए पूछा.

‘हां,’ उस ने शरमाते हुए कहा.

‘कहां है?’

‘तुम्हारे घर पर ही उस से मिलवाऊंगी.’

‘तो फिर मुझे 2 दिन का समय दो. आने वाले इतवार को मैं घर पर तुम्हारा इंतजार करूंगा. ढूंढ़ लोगी न, भटक तो नहीं जाओगी?’

‘अब कभी नहीं,’ स्निग्धा ने आत्मविश्वास से कहा.

अगले इतवार को स्निग्धा उस के घर पर थी और कुछ ही महीनों बाद उस की बांहों में. कुछ साल में वह 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. यह तो बताने की जरूरत नहीं पर दोनों बच्चे मां से ज्यादा दादादादी से चिपटे रहते और दादादादी बहू के बिना न कहीं जाते न उस से पूछे बिना कुछ करते. निशांत कई बार कहता, ‘‘तुम भी अजीब हो, मैं ने तुम्हें पाया, बदले में मेरे मातापिता को छीन कर तुम ने अपनी तरफ कर लिया.’’

धुंधली सी इक याद- भाग 2: राज अपनी पत्नी से क्यों दूर रहना चाहता था?

Writer- Rochika Sharma

आज ईशा बहुत खुश थी. शादी के 2 साल बाद उस ने राज से अपने मन की बात कही और राज ने उसे स्वीकार भी किया. वह रात को गुलाबी रंग की नाइटी पहन और पूरे कमरे को खुशबू से तैयार कर स्वयं भी तैयार हो गई. राज भी उसे देख कर बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘तुम इस गुलाबी नाइटी में खिले कमल सी लग रही हो,’’ और फिर वह उस के गालों, माथे, होंठों को चूमने लगा. फिर न जाने उसे क्या हुआ वह ईशा से दूर होते हुए बोला, ‘‘ईशा, चलो सो जाते हैं, फिर कभी.’’  राज के इस व्यवहार से ईशा तो उस मोर समान हो गई जो बादल देख कर अपने  पंखों को पूरा गोल फैला कर खुश हो कर नाच रहा हो और तभी आंधी बादलों को उड़ा ले जाए. बादल बिन बरसे ही चले गए और मोर ने दुखी हो कर अपने पंख समेट लिए हों.  ईशा रोज किसी न किसी तरह कोशिश करती कि राज उस से शारीरिक संबंध स्थापित करे, लेकिन हर बार असफल हो जाती.

आज जब राज दफ्तर से आया तो ईशा ने जल्दी से रात का खाना निबटाया और सोने के पहले राज से बोली, ‘‘चलो न राज कहीं हिल स्टेशन घूम आते हैं… काफी समय हुआ हम कहीं नहीं गए हैं.’’  राज उस की कोई बात नहीं टालता था. अत: उस ने झट से हवाईजहाज के टिकट बुक किए और दोनों काठमांडु के लिए रवाना हो गए. ईशा काठमांडु में नेपाली ड्रैस पहन कर फोटो खिंचवा रही थी. उस की खूबसूरती देखने लायक थी. शादी के 4 साल बाद भी वह नवविवाहिता जैसी लगती थी. 7 दिन राज और ईशा नेपाल की सारी प्रसिद्ध जगहों पर घूमेफिरे.  राज ने उसे आसमान पर बैठा रखा था. जीजान से चाहता था वह ईशा को. ईशा भी उस के प्यार को दिल की गहराई से महसूस करती थी. राज उस की कोई ख्वाहिश अधूरी नहीं छोड़ता था. लेकिन रात के समय न जाने क्यों वह ईशा को वह नहीं दे पाता जिस का उसे पहली रात से इंतजार था और इस के लिए कई बार तो वह ईशा से माफी भी मांगता. कहता, ‘‘ईशा, तुम मुझ से तलाक ले लो और दूसरी शादी कर लो. न जाने क्यों मैं चाह कर भी…’’ इतना कह एक रात राज की आंखों में आंसू आ गए.

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ईशा कहने लगी, ‘‘ऐसा न कहो राज. हम दोनों ने 7 फेरे लिए हैं… एकदूसरे का हर हाल में साथ निभाने का वादा किया है. मैं हर हाल में तुम्हारा साथ निभाऊंगी. मैं तुम से प्यार करती हूं राज. फिर भी हमें 1 बच्चा तो चाहिए. उस के लिए हमें प्रयास तो करना होगा न?’’  शादी के 5 साल बीत चुके थे. अब तो ईशा से उस के मातापिता, सहेलियां, रिश्तेदार सभी पूछने लगे थे, ‘‘ईशा, तुम 1 बच्चा क्यों पैदा नहीं कर लेतीं? कब तक ऐसे ही रहोगी? परिवार में बच्चा आने से खुशियां दोगुनी हो जाती हैं.’’

हर बार ईशा मुसकरा कर जवाब देती, ‘‘आप ने कहा न… अब मैं इस बारे में सोचती हूं.’’  मगर यह सिर्फ सोचने मात्र से तो नहीं हो जाता न. बच्चे के लिए पतिपत्नी में  शारीरिक संबंध भी तो जरूरी हैं. शादी को 6 वर्ष बीत गए थे. कई बार ईशा सोचती कि एक बच्चा गोद ले ले ताकि कोई उसे बारबार टोके नहीं. लेकिन फिर सोच में पड़ जाती कि राज को ऐसा क्या हो जाता है कि वह संबंध बनाने से कतराता है? सब कुछ ठीक ही तो चल रहा है. वह उस के साथ खुश भी रहता है, उसे सहलाता है, चूमता है, लेकिन सिर्फ उस वक्त वह क्यों उस से दूर हो जाता है. वह इंटरनैट पर ढूंढ़ने लगी और डाक्टर से भी मिली.

डाक्टर ने कहा, ‘‘ईशा मैं तुम्हारे पति से मिलना चाहूंगी. पुरुषों के शारीरिक संबंध स्थापित करने में असफल होने के कई कारण होते हैं.’’

जब राज घर आया तो ईशा ने उसे बताया, ‘‘मैं डाक्टर से मिल कर आई हूं. डाक्टर आप से मिलना चाहती हैं. कल 11 बजे का समय लिया है. आप को मेरे साथ चलना है.’’

राज ने कहा, ‘‘ठीक है चलेंगे.’’  अगले दिन दोनों तैयार हो कर डाक्टर से मिलने पहुंच गए.  डाक्टर ने राज व ईशा से उन की शादी की पहली रात से ले कर अब तक की  सारी बातें पूछीं. एक बार को तो डाक्टर को भी कुछ समझ न आया. डाक्टर ने बताया, ‘‘पुरुषों में शारीरिक संबंध स्थापित न कर पाने के कई कारण होते हैं जैसे धूम्रपान, जिस के कारण पुरुषों के जननांग तक रक्तसंचार नहीं हो पाता है और उन में नपुंसकता आ जाती है. जिस से इरैक्टाइल डिस्फंक्शन की समस्या आ जाती है और शुक्राणुओं में कमी आ जाती है. इस से सैक्स करने की कामना में कमी आ जाती है.  ‘‘इस का दूसरा कारण होता है डिप्रैशन. जिस तरह यह आम जीवन को प्रभावित करता है उसी तरह यह सैक्स लाइफ को भी प्रभावित करता है. इनसान का दिमाग उस के सैक्स जीवन की इच्छाओं को संचित करने में मदद करता है. इसलिए सैक्स के समय किसी भी तरह का टैंशन या स्ट्रैस संबंध में बाधा पैदा करता है. डिप्रैशन एक ऐसी स्थिति है, जिस के कारण दिमाग का कैमिकल कंपोजिशन बिगड़ जाता है और उस का सीधा प्रभाव वैवाहिक जीवन पर पड़ता है. कामवासना में कमी आ जाती है.

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‘‘इस के कुछ उपाय होते हैं जैसे धूम्रपान कम करें, संतुलित आहार लें, व्यायाम करें. कई बार मोटापे के कारण भी शरीर में रक्तसंचार नहीं होता और काम उत्तेजना कम हो जाती है. कई बार मधुमेह रोग होने से भी समस्या होती है, क्योंकि मधुमेह इनसान के नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है, जिस के कारण इरैक्टाइल डिस्फंक्शन की शिकायत हो जाती है.  ‘‘कई बार पुरुषों में टेस्टोस्टेरौन हारमोन की कमी से भी सैक्स लाइफ प्रभावित होती है. इस के लिए सुबह के समय टेस्टोस्टेरौन लैवल का टैस्ट करवाना होता है, क्योंकि सुबह के समय इस का लैवल सब से ज्यादा होता है. शीघ्र पतन भी एक समस्या होती है, जिस में पुरुष महिला के सामने आते ही घबरा जाता है और स्खलित हो जाता है. इस कारण भी पुरुष महिला से दूर भागने लगता है.

ममता- भाग 1: क्या माधुरी को सासुमां का प्यार मिला

मा धुरी को आज बिस्तर पकड़े  8 दिन हो गए थे. पल्लव के मित्र अखिल के विवाह से लौट कर कार में बैठते समय अचानक पैर मुड़ जाने के कारण वह गिर गई थी. पैर में तो मामूली मोच आई थी किंतु अचानक पेट में दर्द शुरू होने के कारण उस की कोख में पल रहे बच्चे की सुरक्षा के लिए उस के पारिवारिक डाक्टर ने उसे 15 दिन बैड रैस्ट की सलाह दी थी. अपनी सास को इन 8 दिनों में हर पल अपनी सेवा करते देख उस के मन में उन के प्रति जो गलत धारणा बनी थी एकएक कर टूटती जा रही थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि मनोविज्ञान की छात्रा होने के बाद भी वह अपनी सास को समझने में चूक कैसे गई?

उसे 2 वर्ष पहले का वह दिन याद आया जब मम्मीजी अपने पति पंकज और पुत्र पल्लव के साथ उसे देखने आई थीं. सुगठित शरीर के साथ सलीके से बांधी गई कीमती साड़ी, बौबकट घुंघराले बाल, हीरों का नैकलेस, लिपस्टिक तथा तराशे नाखूनों में लगी मैचिंग नेलपौलिश में वे बेहद सुंदर लग रही थीं. सच कहें तो वे पल्लव की मां कम बड़ी बहन ज्यादा नजर आ रही थीं तथा मन में बैठी सास की छवि में वह कहीं फिट नहीं हो पा रही थीं. उस समय उस ने तो क्या उस के मातापिता ने भी सोचा था कि इस दबंग व्यक्तित्व में कहीं उन की मासूम बेटी का व्यक्तित्व खो न जाए. वह उन के घर में खुद को समाहित भी कर पाएगी या नहीं. मन में संशय छा गया था लेकिन पल्लव की नशीली आंखों में छाए प्यार एवं अपनत्व को देख कर उस का मन सबकुछ सहने को तैयार हो गया था.

यद्यपि उस के मातापिता उच्चाधिकारी थे, किंतु मां को सादगी पसंद थी, उस ने उन्हें कभी भी गहनों से लदाफदा नहीं देखा था. वे साड़ी पहनती तो क्या, सिर्फ लपेट लेती थीं. लिपस्टिक और नेलपौलिश तो उन्होंने कभी लगाई ही नहीं थी. उन के अनुसार उन में पड़े रसायन त्चचा को नुकसान पहुंचाते हैं. वैसे भी उन्हें अपने काम से फुरसत नहीं मिलती थी.

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पापा को अच्छी तरह से रहने, खानेपीने और घूमने का शौक था. उन की  पैंटशर्ट में तो दूर रूमाल में भी कोई दागधब्बा रहने पर वे आसमान सिर पर उठा लेते थे. खानेपीने तथा घूमने का शौक भी मां के नौकरी करने के कारण पूरा नहीं हो पाया था, क्योंकि जब मां को छुट्टी मिलती थी तब पापा को नहीं मिल पाती थी और जब पापा को छुट्टी मिलती तब मां का कोई अतिआवश्यक काम आ जाता था.

उन के घर रिश्तेदारों का आना भी बंद हो गया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि यहां आने पर मेजबान की परेशानियां बढ़ जाती हैं तथा उन्हें व्यर्थ की छुट्टी लेनी पड़ती है. अत: वे भी कह देते थे, जब आप लोगों का मिलने का मन हो तब आ कर मिल जाइए.

मां का अपने प्रति ढीलापन देख कर पापा टोकते तो वे बड़ी सरलता से उत्तर देतीं, ‘व्यक्ति कपड़ों से नहीं, अपने गुणों से पहचाना जाता है और यह भी एक सत्य है कि आज मैं जो कुछ हूं अपने गुणों के कारण हूं.’

वेएक प्राइवेट संस्थान में पर्सनल मैनेजर थीं. कभीकभी औफिस के काम से उन्हें टूर पर भी जाना पड़ता था. घर का काम नौकर के जिम्मे था, वह जो भी बना देता सब वही खा लेते थे. मातापिता का प्यार क्या होता है उसे पता ही नहीं था. जब वे छोटी थीं तब बीमार होने पर उस ने दोनों में इस बात पर झगड़ा होते भी देखा था कि उस की देखभाल के लिए कौन छुट्टी लेगा? तब वह खुद को अत्यंत ही उपेक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि उस की किसी को जरूरत ही नहीं है.

मां अत्यंत ही महत्त्वाकांक्षी थीं. यही कारण था कि दादी के बारबार यह कहने पर कि वंश चलाने के लिए बेटा होना ही चाहिए, उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन का कहना था कि आज के युग में लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया है. बस, परवरिश अच्छी तरह से होनी चाहिए लेकिन वे अच्छी तरह परवरिश भी कहां कर पाई थीं? जब तक दादी थीं तब तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन उन के बाद वह नितांत अकेली हो गई थी. स्कूल से लौटने के बाद घर उसे काटने को दौड़ता था, तब उसे एक नहीं अनेक बार खयाल आया था कि काश, उस के साथ खेलने के लिए कोई भाई या बहन होती.

माधुरी को आज भी याद है कि हायर सेकेंडरी की परीक्षा से पहले मैडम सभी विद्यार्थियों से पूछ रही थीं कि वे जीवन में क्या बनना चाहते हैं? कोई डाक्टर बनना चाहता था तो कोई इंजीनियर, किसी की रुचि वैज्ञानिक बनने में थी तो कोई टीचर बनना चाहता था. जब उस की बारी आई तो उस ने कहा कि वह हाउस वाइफ बनना चाहती है. सभी विद्यार्थी उस के उत्तर पर खूब हंसे थे. तब मैडम ने मुसकराते हुए कहा था, ‘हाउस वाइफ के अलावा तुम और क्या बनना चाहोगी?’ उस ने चारों ओर देखते हुए आत्मविश्वास से कहा था, ‘घर की देखभाल करना एक कला है और मैं वही अपनाना चाहूंगी.’

उस की इस इच्छा के पीछे शायद मातापिता का अतिव्यस्त रहना रहा था और इसी अतिव्यस्तता के कारण वे उस की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाए थे और शायद यही कारण था कि वह अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए पल्लव की तरफ आकर्षित हुई थी, जो उस की तरह कालेज में बैडमिंटन टीम का चैंपियन था. वे दोनों एक ही क्लब में अभ्यास के लिए जाया करते थे.

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खेलतेखेलते उन में न जाने कब जानपहचान हो गई, पता ही न चला. उस से बात करना, उस के साथ घूमना उसे अच्छा लगने लगा था. दोनों साथसाथ पढ़ते, घूमते तथा खातेपीते थे, यहां तक कि कभीकभी फिल्म भी देख आते थे, पर विवाह का खयाल कभी उन के मन में नहीं आया था. शायद मातापिता के प्यार से वंचित उस का मन पल्लव के साथ बात करने से हलका हो जाता था.

‘यार, कब तक प्यार की पींगें बढ़ाता रहेगा? अब तो विवाह के बंधन में बंध जा,’ एक दिन बातोंबातों में पल्लव के दोस्त शांतनु ने कहा था.

‘क्या एक लड़की और लड़के में सिर्फ मित्रता नहीं हो सकती. यह शादीविवाह की बात बीच में कहां से आ गई?’ पल्लव ने तीखे स्वर में कहा था.

‘मैं मान ही नहीं सकता. नर और मादा में बिना आकर्षण के मित्रता संभव ही नहीं है. भला प्रकृति के नियमों को तुम दोनों कैसे झुठला सकते हो? वह भी इस उम्र में,’ शांतनु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा.

शांतनु तो कह कर चला गया, किंतु नदी की शांत लहरों में पत्थर फेंक गया था. पिछली बातों पर ध्यान गया तो लगा कि शांतनु की बातों में दम है, जिस बात को वे दोनों नहीं समझ सके या समझ कर भी अनजान बने रहे, उस आकर्षण को उस की पारखी निगाहों ने भांप लिया था.

गंभीरतापूर्वक सोचविचार कर आखिरकार माधुरी ने ही उचित अवसर पर एक दिन पल्लव से कहा, ‘यदि हम अपनी इस मित्रता को रिश्ते में नहीं बदल सकते तो इसे तोड़ देना ही उचित होगा, क्योंकि आज शांतनु ने संदेह किया है, कल दूसरा करेगा तथा परसों तीसरा. हम किसकिस का मुंह बंद कर पाएंगे. आज हम खुद को कितना ही आधुनिक क्यों न कह लें किंतु कहीं न कहीं हम अपनी परंपराओं से बंधे हैं और ये परंपराएं एक सीमा तक ही उन्मुक्त आचरण की इजाजत देती हैं.’

पल्लव को भी लगा कि जिस को वह अभी तक मात्र मित्रता समझता रहा वह वास्तव में प्यार का ही एक रूप है, अत: उस ने अपने मातापिता को इस विवाह के लिए तैयार कर लिया.

पल्लव के पिताजी बहुत बड़े व्यवसायी थे. वे खुले विचारों के थे इसलिए अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में करने को तैयार हो गए. मम्मीजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि जातिपांति पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यदि उन्हें लड़की पसंद आई तभी वे इस विवाह की इजाजत देंगी.

तांक झांक- भाग 3: क्यों शालू को रणवीर की सूरत से नफरत होने लगी?

Writer- Neerja Srivastava

शालू ने तरुण को इशारा किया. शालू ने तरुण को इशारे से ही तसल्ली दी और सैंडल उतार कर स्टेज पर आ गई.

फरमाइश का गाना बज उठा. फिर तो शालू ऐसी नाची कि सभी उस के साथ तालियां बजाते हुए मस्त हो थिरकने लगे. तरुण ने देखा वैस्टर्न डांस पर थिरकने वाले लोग भी ठुमकने लगे थे… वह नाहक ही घबरा रहा था… शालू तो छा गई…

गाना खत्म हुआ तो प्रिया के साथ रणवीर स्टेज पर आ गया. उस ने अपनी ठहरी हुई आवाज और धाराप्रवाह में चंद शेरों से सजे संक्षिप्त वक्तव्य के द्वारा सब को ऐसा मंत्रमुगध किया कि सभी वंसमोर वंसमोर कह उठे. प्रिया भी उसे गर्व से देखने लगी कि कितने शालीन ढंग से कितने खूबसूरती से शब्दों को पिरो कर बोलता है रणवीर. उस के इसी अंदाज पर तो वह मर मिटी थी. उस ने कुहनी के पास से रणवीर का बाजू प्यार से पकड़ लिया था. दोनों ने फिर किसी इंगलिश धुन पर डांस किया.

अब डांस फ्लोर पर सभी एकसाथ डांस का मजा लेने लगे. डांस का म्यूजिक चल पड़ा था. स्टेज पर वरवधू भी थिरकने लगे. सभी पेयर में नृत्य कर रहे थे. कभी पेयर बदल भी लिए जा रहे थे. शालू ने धीरेधीरे तरुण के साथ 1-2 स्टेप लिए पर पेयर बदलते ही वह घबरा उठी और किनारे लगी सीट में एक पर जा बैठी. तरुण थोड़ी देर नई रस्म में शामिल हो नाचता रहा.

एक बार प्रिया भी उस के पास आ गई पर दूसरे ही पल वह दूसरे की बांहों में थिरकती तीसरी के पास पहुंच गई. तरुण को झटका सा लगा. कुछ अजीब सा फील होने लगा, ‘कैसे हैं ये लोग… रणवीर अपने में मस्त किसी और की पत्नी के साथ और उस की पत्नी प्रिया किसी और के पति के साथ… अजब कल्चर है इन का. इस से अच्छी तो मेरी शालू है.’ उस ने दूर अकेली बैठी शालू की ओर देखा और फिर उस के पास चला गया.

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रणवीर ने देख लिया था, ‘उफ, शालू ने न तो खुद ऐंजौय किया और न पति को ही मजे लेने दिए. अपने पास बुला लिया… ऐसी पार्टियों के लायक ही नहीं वे… उधर प्रिया को देखो. कैसे एक हीरोइन सी सब की नजरों का केंद्र बनी हुई है. आई जस्ट लव हर…’ उसे नशा चढ़ने लगा था. कदमों के साथ उस की आवाज भी लड़खड़ाने लगी थी. रणवीर ने प्रिया को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो उस के कदम भी लड़खड़ाए और फिर फर्श पर जा गिरी. हड़कंप मच गया. क्या हुआ? क्या हुआ?

प्रिया दर्द से कराह उठी थी. पैर में फ्रैक्चर हो गया था. रणवीर तो खुद उसे उठाने की हालत में न था. तरुण और शालू ने जैसेतैसे अस्पताल पहुंचाया.

उमेशजी अपने ड्राइवर को गाड़ी ड्राइव करने के लिए बोल रहे थे पर रणवीर माना नहीं. रास्ते भर तरुण, उस की इधरउधर भागती गाड़ी के स्टेयरिंग को मुश्किल से संभालता रहा. पर इस सब से बेखबर शालू महंगी गाड़ी में बैठी एक बार फिर अपने रईस पति की कल्पना में खो गई थी.

प्रिया घर आ गई थी. उस के पैर में प्लास्टर चढ़ गया था. लाते समय भी शालू और तरुण अस्पताल पहुंचे थे. तभी एक गरीब महिला रोती हुई आई और सब से अपने बच्चे के लिए खून देने के लिए गुहार करने लगी.

‘‘तुम प्रिया मैडम के पास चलो शालू. मैं अभी आता हूं,’’ कह तरुण ने शालू से कहा तो वह उस का आशय समझ गई.‘‘अभी 10 दिन भी नहीं हुए तुम्हें खून दिए तरुण,’’ शालू बोली.

तरुण नहीं माना. उस गरीब को खून दे आया. फिर प्रिया को उस के फ्लोर पर सहीसलामत पहुंचाया. अगले दिन बौस से डांट भी खानी पड़ी. औफिस पहुंचने में लेट जो हो गया था.

‘तरुण भी न दूसरों की खातिर अपनी परवाह नहीं करता,’ शालू औटो में बैठी सोच रही थी.

अपने ब्लौक के गेट के पास आने पर उसे एक संतरे की रेहड़ी वाला दिखा. उस ने औटो रुकवाया और उतर कर औटो वाले को पैसे देने लगी.

तभी वहां से हवा में बातें करती एक लंबी सी गाड़ी गुजरी. वह रोमांचित हो उठी. उस ने सिर उठा कर देखा, ‘अरे ये तो हमारे पड़ोसी रणवीर हैं. काश, उस का पति भी कोई बीएमडब्ल्यू जैसी गाड़ी वाला होता.’ शालू अभी यह सोच ही रही थी कि वही गाड़ी उलटी साइड से आ कर रेहड़ी वाले से जा टकराई. रेहड़ी उलट गई और रेहड़ी वाला छिटक कर दूर जा गिरा. उस के संतरे सड़क पर चारों ओर बिखर गए. शालू ने साफ देखा था. गाड़ी गलत साइड से आ कर रेहड़ी वाले से टकराई थी. फिर भी रणवीर ने तमाचे उस गरीब को जड़ दिए. फिर चीख कर बोला, ‘‘देख कर नहीं चल सकता?’’

‘‘साहबजी…’’ आंसू बन रेहड़ी वाले का दर्द आंखों में उतर आया. वह हाथ जोड़े इतना ही बोल सका.

‘‘ये पकड़ अपने नुकसान के रुपए… ज्यादा नाटक मत कर… कुछ नहीं हुआ… अब जल्दी सड़क साफ कर,’’ कह रणीवर ने उसे 2 हजार का 1 नोट दिया. शालू रणवीर का क्रूर व्यवहार देखती रह गई कि इतना अमानवीय बरताव…

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उस की महंगी गाड़ी फिर तेजी से उस की आंखों से ओझल हो गई. शालू को इस समय कोई रोमांच न हुआ, बल्कि उसे अपनी आंखों में नमी सी महसूस होने लगी. उस ने पर्स से रुमाल निकाल कर रेहड़ी वाले के माथे से रिसता खून पोंछ कर बैंडएड चोट पर चिका दी. फिर संतरे उठवाने में उस की मदद करने लगी.

‘‘रहने दीजिए मैडमजी मैं उठा लूंगा,’’ रेहड़ी वाले के पैरों और हाथों में भी चोटें थीं.

शालू ने नजरों से ओझल हुई उस गाड़ी की ओर देखा. वहां सिर्फ धूल का गुबार था, जिस ने उस की सपनीली कल्पना को उड़ा कर रख दिया कि शुक्र है उस का तरुण महंगी बड़ी गाड़ी में घूमने वाले ऐसे छोटे दिल के घटिया इंसान की तरह नहीं है. न जाने उस ने कितनी बार तरुण को ऐसे जरूरतमंदों की मदद करते देखा है. रईस ही तो है वह. वास्तव में बड़े दिल वाला रईस. शालू को तरुण पर प्यार आने लगा और फिर वह तेज कदमों से घर की ओर बढ़ चली.

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