मानसून स्पेशल: दिखावे की काट – भाग 1

दीवार से सिर टिका कर अंकिता शून्य में ताक रही थी. रोतेरोते उस की पलकें सूज गई थीं. अब भी कभीकभी एकाध आंसू पलकों पर आता और उस के गालों पर बह जाता. पास के कमरे में उस की भाभी दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. भाभी की बहन और भाभी उन्हें समझा रही थीं. भाभी के दोनों बच्चे ऋषी और रिनी सहमे हुए से मां के पास बैठे थे.

भाभी का रुदन कभी उसे सुनाई पड़ जाता. बूआ अंकिता के पास बैठी थीं और भी बहुत से रिश्तेदार घर में जगहजगह बैठे हुए थे. अंकिता का भाई और घर के बाकी दूसरे पुरुष अरथी के साथ श्मशान घाट अंतिम संस्कार करने जा चुके थे.

अंकिता की आंखों से फिर आंसू बह निकले. मां तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कर चली गई थीं. पिता ने ही उन्हें मां और बाप दोनों का प्यार दे कर पाला. उन की उंगलियां पकड़ कर दोनों भाईबहन ने चलना सीखा, इस लायक बने कि जिंदगी की दौड़ में शामिल हो कर अपनी जगह बना सके और आज वही पिता अपने जीवन की दौड़ पूरी कर इस दुनिया से चले गए.

वह पिता की याद में फफक पड़ी. पास बैठी बूआ उसे दिलासा देते हुए खुद भी भाई की याद में बिलखने लगीं

घड़ी ने साढ़े 5 बजाए तो रिश्ते की एकदो महिलाएं घर की औरतों के नहाने की व्यवस्था करने में जुट गईं. दाहसंस्कार से पुरुषों के लौटने से पहले घर की महिलाओं का स्नान हो जाना चाहिए. भाभी और बूआ के स्नान करने के बाद बेमन से उठ कर अंकिता ने भी स्नान किया.

‘कैसी अजीब रस्में हैं,’ अंकिता सोच रही थी, ‘व्यक्ति के मरते ही इस तरह से घर के लोग स्नान करते हैं जैसे कि कोई छूत की बीमारी थी, जिस के दूर हटते ही स्नान कर के लोग शुद्ध हो जाते हैं. धर्म और उस की रूढि़यां संस्कार हैं कि कुरीतियां. इनसान की भावनाओं का ध्यान नहीं है, बस, लोग आडंबर में फंस जाते हैं.

औरतों का नहाना हुआ ही था कि श्मशान घाट से घर के पुरुष वापस आ गए और घर के बाहर बैठ गए. घर की महिलाएं अब पुरुषों के नहाने की व्यवस्था करने लगीं. उसी शहर में रहने वाले कई रिश्तेदार और आसपड़ोस के लोग बाहर से ही अपनेअपने घरों को लौट गए. उन्हें विदा कर भैया भी नहाने चले गए. नहा कर अंकिता का भाई आनंद आ कर बहन के पास बैठ गया तो अंकिता भाई के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी. भाई की आंखें भी भीग गईं. वह छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरने लगा.

‘‘रो मत, अंकिता. मैं तुम्हें कभी पिताजी की कमी महसूस नहीं होने दूंगा. तेरा यह घर हमेशा तेरे लिए वैसा ही रहेगा जैसा पिताजी के रहते था,’’ बड़े भाई ने कहा तो अंकिता के दुखी मन को काफी सहारा मिला.

‘‘जीजाजी, बाबूजी का बिस्तर और तकिया किसे देने हैं?’’ आनंद के छोटे साले ने आ कर पूछा.

‘‘अभी तो उन्हें यहीं रहने दे राज, यह सब बाद में करते रहना. इतनी जल्दी क्या है?’’ आनंद के बोलने से पहले ही बूआ बोल पड़ीं.

‘‘नहीं, बूआ, ये लोग हैं तो यह सब हो जाएगा, फिर मेहमानों के सोने के लिए जगह भी तो चाहिए न. राज, तुम पिताजी का बिस्तर और कपड़े वृद्धाश्रम में दे आओ, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ आनंद ने तुरंत उठते हुए कहा.

‘‘लेकिन भैया, पिताजी की निशानियों को अपने से दूर करने की इतनी जल्दबाजी क्यों?’’ अंकिता ने एक कमजोर सा प्रतिवादन करना चाहा लेकिन तब तक आनंद राज के साथ पिताजी के कमरे की तरफ जा चुके थे.

लगभग 15 मिनट बाद भैया की आवाज आई, ‘‘अंकिता, जरा यहां आना.’’

अपने को संभालते हुए अंकिता पिताजी के कमरे में गई.

‘‘देख अंकिता, तुझे पिताजी की याद के तहत उन की कोई वस्तु चाहिए तो ले ले,’’ आनंद ने कहा.

भाभी को शायद कुछ भनक लग गई और वे तुरंत आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गईं. अंकिता समझ गई कि भाभी यह देखना चाहती हैं कि वह क्या ले जा रही है. पिताजी की पढ़ने वाली मेज पर उन का और मां का शादी के बाद का फोटो रखा हुआ था. अंकिता ने जा कर वह फोटो उठा लिया. इस फोटो को संभाल कर रखेगी वह.

पिताजी की सोने की चेन और 2 अंगूठियां फोटो के पास ही एक छोटी ट्रे में रखी थीं जिन्हें मां ने घर खर्चे के लिए मिले पैसों में बचाबचा कर अलगअलग अवसरों पर पिताजी के लिए बनाया था. चूंकि ये चेन और अंगूठियां मां की निशानियां थीं. इसलिए पिताजी इन्हें कभी अपने से अलग नहीं करते थे.

अंकिता ने फोटो को कस कर सीने से लगाया और तेजी से पिताजी के कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने देख लिया कि भाभी की नजरें ट्रे में रखी चीजों पर जमी हैं और चेहरे पर एक राहत का भाव है कि अंकिता ने उन्हें नहीं उठाया. उस के मन में एक वितृष्णा का भाव पैदा हुआ कि थोड़ी देर पहले भैया के दिलासा भरे शब्दों में कितना खोखलापन था, यह समझ में आ गया.

भैया के दोनों सालों ने मिल कर पिताजी के कपड़ों और बाकी सामान की गठरियां बनाईं और वृद्धाश्रम में पहुंचा आए. पिताजी का लोहे वाला पुराना फोल्ंडिंग पलंग और स्टूल, कुरसी, मेज और बैंचें वहां से उठा कर सारा सामान छत पर डाल दिया कि बाद में बेच देंगे.

भाभी की बड़ी भाभी ने कमरे में फिनाइल का पोंछा लगा दिया. पिताजी उस कमरे में 50 वर्षों तक रहे लेकिन भैया ने 1 घंटे में ही उन 50 वर्षों की सारी निशानियों को धोपोंछ कर मिटा दिया. बस, उन की चेन और अंगूठियां भाभी ने झट से अपने सेफ में पहुंचा दीं.

रात को भाभी की भाभियों ने खाना बनाया. अंकिता का मन खाने को नहीं था लेकिन बूआ के समझाने पर उस ने नामचारे को खा लिया. सोते समय अंकिता और बूआ ने अपना बिस्तर पिताजी के कमरे में ही डलवाया. पलंग तो था नहीं, जमीन पर ही गद्दा डलवा कर दोनों लेट गईं. बूआ ने पूरे कमरे में नजर डाल कर एक गहरी आह भरी.

 

मानसून स्पेशल: आंचल की छांव – भाग 3

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी. द्य

मानसून स्पेशल: हम खो जाएंगे

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट – भाग 2

बूआ के लिए भी उन का मायका उन के भाई के कारण ही था. अब उन के लिए भी मायके के नाम पर कुछ नहीं रहा. रमेश बाबू ने अपने जीते जी न बहन को मायके की कमी खलने दी न बेटी को. कहते हैं मायका मां से होता है लेकिन यहां तो पिताजी ने ही हमेशा उन दोनों के लिए ही मां की भूमिका निभाई.

‘‘बेटा, अब तू भी असीम के पास सिंगापुर चली जाना. वैसे भी अब तेरे लिए यहां रखा ही क्या है. आनंद का रवैया तो तुझे पता ही है. जो अपने जन्मदाता की यादों को 1 घंटे भी संभाल कर नहीं रख पाया वह तुझे क्या पूछेगा,’’ बूआ ने उस की हथेली को थपथपा कर कहा. अनुभवी बूआ की नजरें उस के भाईभाभी के भाव पहले ही दिन ताड़ गईं.

‘‘हां बूआ, सच कहती हो. बस, पिताजी की तेरहवीं हो जाए तो चली जाऊंगी. उन्हीं के लिए तो इस देश में रुकी थी. अब जब वही नहीं रहे तो…’’ अंकिता के आगे के शब्द उस की रुलाई में दब गए.

बूआ देर तक उस का सिर सहलाती रहीं. पिताजी ने अंकिता के विवाह की एकएक रस्म इतनी अच्छी तरह पूरी की थी कि लोगों को तथा खुद उस को भी कभी मां की कमी महसूस नहीं हुई.

पिताजी ने 2 साल पहले उस की शादी असीम से की थी. साल भर पहले असीम को सिंगापुर में अच्छा जौब मिल गया. वह अंकिता को भी अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन पिताजी की नरमगरम तबीयत देख कर वह असीम के साथ सिंगापुर नहीं गई. असीम का घर इसी शहर में था और उस के मातापिता नहीं थे, अत: असीम के सिंगापुर जाने के बाद अंकिता अपनी नौकरानी को साथ ले कर रहती थी. असीम छुट्टियों में आ जाता था.

अंकिता ने बहुत चाहा कि पिताजी उस के पास रहें पर इस घर में बसी मां की यादों को छोड़ कर वे जाना नहीं चाहते थे इसलिए वही हर रोज दोपहर को पिताजी के पास चली आती थी. बूआ वडोदरा में रहती थीं. उन का भी बारबार आना संभव नहीं था और अब तो उन का भी इस शहर में क्या रह जाएगा.

पिताजी की तीसरे दिन की रस्म हो गई. शाम को अंकिता बूआ के साथ आंगन में बैठी थी. असीम के रोज फोन आते और उस से बात कर अंकिता के दिल को काफी तसल्ली मिलती थी. असीम और बूआ ही तो अब उस के अपने थे. बूआ के सिर में हलकाहलका दर्द हो रहा था.

‘‘मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, बूआ, आप को थोड़ा आराम मिलेगा,’’ कह कर अंकिता चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल दी.

रसोईघर का रास्ता भैया के कमरे के बगल से हो कर जाता था. अंदर भैयाभाभी, उन के बच्चे, भाभी के दोनों भाई बैठे बातें कर रहे थे. उन की बातचीत का कुछ अंश उस के कानों में पड़ा तो न चाहते हुए भी उस के कदम दरवाजे की ओट में रुक गए. वे लोग पिताजी के कमरे को बच्चों के कमरे में तबदील करने पर सलाहमशविरा कर रहे थे.

बच्चों के लिए फर्नीचर कैसा हो, कितना हो, दीवारों के परदे का रंग कैसा हो और एक अटैच बाथरूम भी बनवाने पर विचार हो रहा था. सब लोग उत्साह से अपनीअपनी राय दे रहे थे, बच्चे भी पुलक रहे थे.

अंकिता का मन खट्टा हो गया. इन बच्चों को पिताजी अपनी बांहों और पीठ पर लादलाद कर घूमे हैं. इन के बीमार हो जाने पर भैयाभाभी भले ही सो जाएं लेकिन पिताजी इन के सिरहाने बैठे रातरात भर जागते, अपनी तबीयत खराब होने पर भी बच्चों की इच्छा से चलते, उन्हें बाहर घुमाने ले जाते. और आज वे ही बच्चे 3 दिन में ही अपने दादाजी की मौत का गम भूल कर अपने कमरे के निर्माण को ले कर कितने उत्साहित हो रहे हैं.

खैर, ये तो फिर भी बच्चे हैं जब बड़ों को ही किसी बात का लेशमात्र ही रंज नहीं है तो इन्हें क्या कहना. सब के सब उस कमरे की सजावट को ले कर ऐसे बातें कर रहे हैं मानो पिताजी के जाने की राह देख रहे थे कि कब वे जाएं और कब ये लोग उन के कमरे को हथिया कर उसे अपने मन मुताबिक बच्चों के लिए बनवा लें. यह तो पिताजी की तगड़ी पैंशन का लालच था, नहीं तो ये लोग तो कब का उन्हें वृद्धाश्रम में भिजवा चुके होते.

अंकिता से और अधिक वहां पर खड़ा नहीं रहा गया. उस ने रसोईघर में जा कर चाय बनाई और बूआ के पास आ कर बैठ गई.

पिताजी की मौत के बाद दुख के 8 दिन 8 युगों के समान बीते. भैयाभाभी के कमरे से आती खिलखिलाहटों की दबीदबी आवाजों से घावों पर नमक छिड़कने का सा एहसास होता था पर बूआ के सहारे वे दिन भी निकल ही गए. 9वें दिन से आडंबर भरी रस्मों की शुरुआत हुई तो अंकिता और बूआ दोनों ही बिलख उठीं.

9वें दिन से रूढि़वादी रस्मों की शुरुआत के साथ श्राद्ध पूजा में पंडितों ने श्लोकों का उच्चारण शुरू किया तो बूआ और अंकिता दोनों की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं. हर श्लोक में पंडित अंकिता के पिता के नाम ‘रमेश’ के आगे प्रेत शब्द जोड़ कर विधि करवा रहे थे. हर श्लोक में ‘रमेश प्रेतस्य शांतिप्रीत्यर्थे श… प्रेतस्य…’ आदि.

व्यक्ति के नाम के आगे बारबार ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण इस प्रकार हो रहा था मानो वह कभी भी जीवित ही नहीं था, बल्कि प्रेत योनि में भटकता कोई भूत था. अपने प्रियजन के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द सुनना उस की यादों के साथ कितना घृणित कार्य लग रहा था. अंकिता से वहां और बैठा नहीं गया. वह भाग कर पिताजी के कमरे में आ गई और उन की शर्ट को सीने से लगा कर फूटफूट कर रो दी.

कैसे हैं धार्मिक शास्त्र और कैसे थे उन के रचयिता? क्या उन्हें इनसानों की भावनाओं से कोई लेनादेना नहीं था? जीतेजागते इनसानों के मन पर कुल्हाड़ी चलाने वाली भावहीन रूढि़यों से भरे शास्त्र और उन की रस्में, जिन में मानवीय भावनाओं की कोई कद्र नहीं. आडंबर से युक्त रस्मों के खोखले कर्मकांड से भरे शास्त्र.

धार्मिक कर्मकांड समाप्त होने के बाद जब पंडित चले गए तब अंकिता अपने आप को संभाल कर बाहर आई. भैया और उन के बेटे का सिर मुंडा हुआ था. रस्मों के मुताबिक 9वें दिन पुत्र और पौत्र के बाल निकलवा देते हैं. उन के घुटे सिर को देख कर अंकिता का दुख और गहरा हो गया. कैसी होती हैं ये रस्में, जो पलपल इनसान को हादसे की याद दिलाती रहती हैं और उस का दुख बढ़ाती हैं.

मानसून स्पेशल: उदासी की खाई- भाग 1

चेहरे की चमड़ी के रंग को चमका कर जैसे ही मैं वाश बेसिन के सामने से उठ कर हटा, पीछे किसी को खड़ा पा कर तेजी से पलटा. देखा तो सचमुच ऊषा ही मेरे सामने खड़ी थी. हक्काबक्का हो कर मैं कभी शानदार कपड़ों में सजीधजी उस की गुस्से भरी सुंदरता देख रहा था, तो कभी तेल, ग्रीस व धूल सने कपड़ों में लिपटे धुलेपुछे अपने हाथों को. मैं उस की ओर बदहवास नजरों से ताकता हुआ सहज होने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘चल कर औफिस में बैठो. मैं वहीं कपड़े बदल कर आता हूं. आज एक आदमी आया नहीं था, इसीलिए उस का काम करना पड़ गया. सो देख ही रही हो,

मेरा हुलिया कैसा बिगड़ गया है.’’ उसी ऊहापोह में ऊषा को अवाक छोड़ कर कपड़े बदलने के लिए मैं फिर से वर्कशौप में घुस गया. साथ ही, सोचता जा रहा था कि मैं ने तो कभी ऊषा को अपनी फैक्टरी का नाम तक नहीं बताया था. आज इसे क्या सूझी कि फैक्टरी के भीतर ही सीधे पहुंच गई. फैक्टरी के दरबान ने इसे रोका तक नहीं और न ही इसे कहीं औफिस में बिठा कर मुझे खबर ही किया. हो सकता है कि ऊषा ने ही उसे सारी बातें बतासमझा कर मुझे ‘चकित’ करने के लिए रोक दिया हो मुझे बुलाने से. बनठन कर जब मैं पहुंचा, तब ऊषा वहां थी ही नहीं. शायद,

उस ने मेरे बारे में सबकुछ किसी से पता कर लिया था. दौड़ता सा मैं चौड़ी सड़क के मोेड़ तक पहुंचा था. इधरउधर चारों ओर नजरें दौड़ा कर देखा, पर वह कहीं न दिखी. एक बार फिर खूब गौर से सब ओर देखा. हां, उसी नीम के हरेभरे पेड़ के नीचे वह सड़क पार करने के इंतजार में खड़ी थी. मैं ने खंखारते हुए तब कहा था, ‘‘2 मिनट के लिए भी रुकी क्यों नहीं? नाराज हो क्या? देखो, मैं तो कैसा दौड़ताहांफता आ रहा हूं तुम तक, तुम से मिलने, तुम्हारे साथ तुम्हारे घर तक चलने को.’’ ‘‘नीच, कमीने, धोखेबाज, चुप ही रहो अब. मैं आज की शाम, बल्कि जिंदगीभर के लिए बेइज्जत तो हो ही गई. बताओ, मैं अब अपने पिताजी को जा कर क्या जवाब दूं? तुम ने मेरी जिंदगी का सुनहरा सपना क्यों चूरचूर कर दिया? मैं क्या समझती थी कि तुम मुझे धोखा दे रहो हो,’’ नफरत की तड़पभरी चिनगारी आंखों में भरे उस ने आगे कहा, ‘‘एक मामूली मजदूर ही नहीं, लुटेरे भी हो तुम..

. जाओ, अपनी जिंदगी का रास्ता बदलो और अब मेरे पीछे कभी मत आना… ‘‘तुम ने मेरी जान बचाई थी कभी तो उस की कीमत इस तरह लेना चाहते थे? मुझ से कहे होते तो पिताजी से कह कर मैं तुम्हें हजारों रुपए दिलवा देती…’’ इतना बोल कर ही ऊषा का गुस्सा शांत न हो सका था. घायल शेरनी सी बिफरती हुई बोली थी वह, ‘‘तुम ने झूठ क्यों कहा मुझ से कि तुम एक इंजीनियर हो, जबकि तुम हो एक साधारण मजदूर से भी गएबीते एक खरादिए भर हो, चीकट कपड़े पहन कर काम करने वाला… परफ्यूम लगा लेने या ब्रांडेड कपड़े पहन लेने से कोई न तो इंजीनियर बन जाता है और न रईस या बड़ा आदमी. जरूर तुम किसी निचली जाति के भी हो, मेरी तरह राजपूत पिता की संतान नहीं. जाओ, आज से आग लगा दो अपनी सारी टीशर्टों को,’’ कह कर वह सड़क पार कर गई थी. सच तो यह?है कि ‘ऊषा’ मेरे जीवन की ‘अंधेरी रात’ बन गई थी. उस समय ऐसा लग रह था, जैसे किसी ने मेरा दिल मुट्ठी में भींच रखा हो.

मानसून स्पेशल: आंचल की छांव – भाग 1

दोपहर के 2 बज रहे थे. रसोई का काम निबटा कर मैं लेटी हुई अपने बेटे राहुल के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजा दी. कौन हो सकता है? शायद डाकिया होगा यह सोचते हुए बाहर आई और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक 22-23 साल की युवती खड़ी थी.

‘‘आंटी, मुझे पहचाना आप ने, मैं कंचन. आप के बगल वाली,’’ वह बोली.

‘‘अरे, कंचन तुम? यहां कैसे और यह क्या हालत बना रखी है तुम ने?’’ एकसाथ ढेरों प्रश्न मेरे मुंह से निकल पड़े. मैं उसे पकड़ कर प्यार से अंदर ले आई.

कंचन बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए एक अबोध बालक की तरह मेरे पीछेपीछे अंदर आ गई.

‘‘बैठो, बेटा,’’ मेरा इशारा पा कर वह यंत्रवत बैठ गई. मैं ने गौर से देखा तो कंचन के नक्श काफी तीखे थे. रंग गोरा था. बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थीं. यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी कंचन का शरीर बस, ये समझिए कि हड्डियों का ढांचा भर था.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, कैसी हो तुम?’’

नजरें झुकाए बेहद धीमी आवाज में कंचन बोली, ‘‘आंटी, मैं ने कितने पत्र आप को लिखे पर आप ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.’’

मैं खामोश एकटक उसे देखते हुए सोचती रही, ‘बेटा, पत्र तो तुम्हारे बराबर आते रहे पर तुम्हारी मां और पापा के डर के कारण जवाब देना उचित नहीं समझा.’

मुझे चुप देख शायद वह मेरा उत्तर समझ गई थी. फिर संकोच भरे शब्दों में बोली, ‘‘आंटी, 2 दिन हो गए, मैं ने कुछ खाया नहीं है. प्लीज, मुझे खाना खिला दो. मैं तंग आ गई हूं अपनी इस जिंदगी से. अब बरदाश्त नहीं होता मां का व्यवहार. रोजरोज की मार और तानों से पीडि़त हो चुकी हूं,’’ यह कह कर कंचन मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे उठाया और गले से लगाया तो वह फफक पड़ी और मेरा स्पर्श पाते ही उस के धैर्य का बांध टूट गया.

‘‘आंटी, कई बार जी में आया कि आत्महत्या कर लूं. कई बार कहीं भाग जाने को कदम उठे किंतु इस दुनिया की सचाई को जानती हूं. जब मेरे मांबाप ही मुझे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं तो और कौन देगा मुझे अपने आंचल की छांव. बचपन से मां की ममता के लिए तरस रही हूं और आखिर मैं अब उस घर को सदा के लिए छोड़ कर आप के पास आई हूं वह स्पर्श ढूंढ़ने जो एक बच्चे को अपनी मां से मिलता है. प्लीज, आंटी, मना मत करना.’’

उस के मुंह पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘ऐसा दोबारा भूल कर भी मत कहना. अब कहीं नहीं जाएगी तू. जब तक मैं हूं, तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है.’’

उसे मैं ने अपनी छाती से लगा लिया तो एक सुखद एहसास से मेरी आंखें भर आईं. पूरा शरीर रोमांचित हो गया और वह एक बच्ची सी बनी मुझ से चिपकी रही और ऊष्णता पाती रही मेरे बदन से, मेरे स्पर्श से.

मैं रसोई में जब उस के लिए खाना लेने गई तो जी में आ रहा था कि जाने क्याक्या खिला दूं उसे. पूरी थाली को करीने से सजा कर मैं बाहर ले आई तो थाली देख कंचन रो पड़ी. मैं ने उसे चुप कराया और कसम दिलाई कि अब और नहीं रोएगी.

वह धीरेधीरे खाती रही और मैं अतीत में खो गई. बरसों से सहेजी संवेदनाएं प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बाहर निकलने लगीं.

कंचन 2 साल की थी कि काल के क्रूर हाथों ने उस से उस की मां छीन ली. कंचन की मां को लंग्स कैंसर था. बहुत इलाज कराया था कंचन के पापा ने पर वह नहीं बच पाई.

इस सदमे से उबरने में कंचन के पापा को महीनों लग गए. फिर सभी रिश्तेदारों एवं दोस्तों के प्रयासों के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली. इस शादी के पीछे उन के मन में शायद यह स्वार्थ भी कहीं छिपा था कि कंचन अभी बहुत छोटी है और उस की देखभाल के लिए घर में एक औरत का होना जरूरी है.

शुरुआत के कुछ महीने पलक झपकते बीत गए. इस दौरान सुधा का कंचन के प्रति व्यवहार सामान्य रहा. किंतु ज्यों ही सुधा की कोख में एक नए मेहमान ने दस्तक दी, सौतेली मां का कंचन के प्रति व्यवहार तेजी से असामान्य होने लगा.

सुधा ने जब बेटी को जन्म दिया तो कंचन के पिता को विशेष खुशी नहीं हुई, वह चाह रहे थे कि बेटा हो. पर एक बेटे की उम्मीद में सुधा को 4 बेटियां हो गईं और ज्योंज्यों कंचन की बहनों की संख्या बढ़ती गई त्योंत्यों उस की मुसीबतों का पहाड़ भी बड़ा होता गया.

आएदिन कंचन के शरीर पर उभरे स्याह निशान मां के सौतेलेपन को चीखचीख कर उजागर करते थे. कितनी बेरहम थी सुधा…जब बच्चों के कोमल, नाजुक गालों पर मांबाप के प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है तब कंचन के मासूम गालों पर उंगलियों के निशान झलकते थे.

सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.

मानसून स्पेशल: उदासी की खाई

मानसून स्पेशल: तुरुप का पता – भाग 3

‘‘पर उन इच्छाओं को पूरा करने के क्रम में परिवार को कष्ट होता है तो होता रहे? स्वाति ने तो कनक से साफ कह दिया कि वह विवाह के बाद संयुक्त परिवार में नहीं रहेगी.’’

‘‘तोे कनक ने क्या कहा?’’

‘‘वह तो हतप्रभ रह गया, कुछ सूझा ही नहीं उसे.’’

‘‘क्या कह रही हो, भाभी? उसे साफ शब्दोें में कहना चाहिए था कि वह परिवार का बड़ा बेटा है. परिवार से अलग होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. स्वाति ने तो अपने मन की बात कह दी, कोई दूसरी लड़की विवाह के बाद यह मांग करेगी तो क्या करेगा कनक और क्या करेंगी आप?’’

‘‘क्या कहूं, मुझे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा है,’’ विमलाजी की आंखें छलछला आईं, स्वर भर्रा गया.

‘‘इतना असहाय अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है. घरपरिवार आप का है. इसे सजाने व संवारने में अपना जीवन होम कर दिया आप ने. दृढ़ता से कहो कि इस तरह के निर्णय बच्चे नहीं लेते बल्कि आप स्वयं लेती हैं.’’

‘‘मेरे कहने से क्या होगा, दीदी. लड़की यदि झगड़ालू हुई तो हम सब का जीना दूभर कर देगी. कनक तो इसी कारण नौकरी वाली लड़की चाहता है. उसे तो झगड़ा करने का समय ही नहीं मिलेगा.’’

‘‘पर स्वाति तो नौकरी वाली युवतियों से भी अधिक व्यस्त रहती है. राव साहब के रेडीमेड कपड़ों के डिपार्टमैंट में महिला और बाल विभाग स्वाति संभालती है, उस के डिजाइनों को लाखों के आर्डर मिलते हैं.’’

‘‘पर कनक तो कह रहा था कि स्वाति केवल स्नातक है. उसे कहीं नौकरी तक नहीं मिलेगी.’’

‘‘हां, पर फैशन डिजाइनिंग में स्नातक है. इतना बड़ा व्यापार संभालती है तो नौकरी करने का प्रश्न ही कहां उठता है. मुझे लगता है कनक ने उस से कुछ पूछा ही नहीं, बस उस की सुनता रहा.’’

‘‘थोड़ा शर्मीला है कनक, पहली ही मुलाकात में किसी से घुलमिल नहीं पाता,’’ विमलाजी संकुचित स्वर में बोली थीं.

‘‘होता है, भाभी. पहली मुलाकात में ऐसा ही होता है. सहज होने में समय लगता है. मैं तो कहती हूं दोनों को मिलनेजुलने दो. एकदूसरे को समझने दो. आप भी ठोकबजा कर देख लो, सबकुछ समझ में आए तभी अपनी स्वीकृति देना.’’

‘‘आप की बात सच है. मैं कनक से कहूंगी कि स्वाति और वह फिर मिल लें. पर दीदी, सबकुछ कनक के हां कहने पर ही तो निर्भर करता है. तुम तो जानती ही हो, आज के समय में बच्चों पर अपनी राय थोपना असंभव है.’’

‘‘बिलकुल सही बात है पर तुम एक बार राव दंपती से मिल तो लो. उस दिन तुम और कनक अचानक उठ कर चले आए तब वे बहुत आहत हो गए थे.’’

‘‘उस के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं पर कनक अचानक ही उठ कर चल पड़ा तो मुझे उस का साथ देना ही पड़ा.’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं है. जो हो गया सो हो गया. जब आप को सुविधा हो बता देना. मैं उसी के अनुसार राव दंपती से आप की भेंट का समय निश्चित कर लूंगी,’’ रमोलाजी ने सुझाव दिया था.

‘‘एक बार कनक से बात कर लूं फिर आप को फोन कर दूंगी.’’

‘‘एक बात कहूं, भाभी? बुरा तो नहीं मानोगी.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, दीदी? आप की बात का बुरा मानूंगी? आप ने तो कदमकदम पर मेरा साथ दिया है. वैसे भी बच्चों के विवाह भी तो आप को ही करवाने हैं.’’

‘‘तो सुनो, समय बहुत खराब आ गया है. इसलिए सावधानी से सोचसमझ कर अपने निर्णय स्वयं लेना सीखो. आजकल के युवा अपने पैरों पर खड़े होते ही स्वयं को तीसमारखां समझने लगते हैं. मेरा तो अपने काम के सिलसिले में हर तरह के परिवारों में आनाजाना लगा रहता है. राजतिलकजी का नाम तो आप ने सुना ही होगा?’’

‘‘उन्हें कौन नहीं जानता,’’ विमला के नेत्र विस्फारित हो गए थे.

‘‘उन का इकलौता बेटा सुबोध, हर लड़की में कोई न कोई कमी निकाल देता था. फिर अपनी मरजी से स्वयं से 10 साल बड़ी अपनी अफसर से विवाह कर लिया. लड़की भी पहले की विवाहित थी. 2 बच्चे भी थे. दोनों परिवार बरबाद हो गए. राजतिलकजी का तो दिल ही टूट गया.’’

‘‘सच कह रही हो, दीदी, आजकल की औरतों ने तो हयाशरम बेच ही खाई है,’’ विमलाजी ने हां में हां मिलाई थी.

‘‘सो मत कहो भाभी. सैनी साहब का नाम तो सुना ही होगा आप ने?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘उन के बेटे निखिल ने तो अपने पुरुष मित्र से ही विवाह कर लिया. बेचारे सैनी साहब तो शरम के मारे अपना घर बेच कर चले गए,’’ रमोलाजी ने बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘लगता है अब घोर कलियुग आ गया है,’’ विमलाजी ने इतना बोल कर दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया.

‘‘इसीलिए तो कहती हूं, भाभी. सावधान हो जाओ और होशियारी से काम लो. बच्चे आखिर बच्चे हैं…दुनियादारी की बारीकियां वे भला क्या समझें,’’ रमोलाजी विदा लेते हुए बोली थीं.

रमोलाजी चली गई थीं पर विमला को सकते में छोड़ गईं, ‘‘ठीक कहती हैं रमोला. निर्णय तो स्वयं लेंगी. कनक क्या जाने जीवन की पेचीदगियों को.’’

रमोलाजी तुरुप का पत्ता चल गई थीं और जानती थीं कि उन का दांव कभी खाली नहीं जाता.

मानसून स्पेशल: दिखावे की काट – भाग 3

असीम को आखिर छुट्टी मिल ही गई और पिताजी की तेरहवीं पर वह आ गया. उस के कंधे पर सिर रख कर पिताजी की याद में और भैयाभाभी के स्वार्थी पक्ष पर वह देर तक आंसू बहाती रही. अंकिता का बिलकुल मन नहीं था उस घर में रुकने का लेकिन पिताजी की यादों की खातिर वह रुक गई.

तेरहवीं की रस्म पर भैया ने दिल खोल कर खर्च किया. लोग भैया की तारीफें करते नहीं थके कि बेटा हो तो ऐसा. देखो, पिताजी की याद में उन की आत्मा की शांति के लिए कितना कुछ कर रहा है, दानपुण्य, अन्नदान. 2 दिन तक सैकड़ों लोगों का भोजन चलता रहा. लोगों ने छक कर खाया और भैयाभाभी को ढेरों आशीर्वाद दिए. अंकिता, असीम और बूआ तटस्थ रह कर यह तमाशा देखते रहे. वे जानते थे कि यह सब दिखावा है, इस में तनिक भी भावना या श्रद्धा नहीं है.

यह कैसा धर्म है जो व्यक्ति को इनसानियत का पाठ पढ़ाने के बजाय आडंबर और दिखावे का पाठ पढ़ाता है, ढोंग करना सिखाता है.

जीतेजी पिता को दवाइयों और खानेपीने के लिए तरसा दिया और मरने पर कोरे दिखावे के लिए झूठी रस्मों के नाम पर ब्राह्मणों और समाज के लोगों को भोजन करा रहे हैं. सैकड़ों लोगों के भोजन पर हजारों रुपए फूंक कर झूठी वाहवाही लूट रहे हैं जबकि पिताजी कई बार 2 बजे तक एक कप चाय के भरोसे पर भूखे रहते थे. अंकिता जब दोपहर में आती तो उन के लिए फल, दवाइयां और खाना ले कर आती और उन्हें खिलाती.

रात को कई बार भैया व भाभी को अगर शादी या पार्टी में जाना होता था तो भाभी सुबह की 2 रोटियां, एक कटोरी ठंडी दाल के साथ थाली में रख कर चली जातीं. तब पिताजी या तो वही खा लेते या उसे फोन कर देते. तब वह घर से गरम खाना ला कर उन्हें खिलाती.

अंकिता सोच रही थी कि श्राद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, श्रद्धा से किया गया कर्म. लेकिन भैया जैसे कुपुत्रों और लालची पंडितों ने उस के अर्थ का अनर्थ कर डाला है.

जीतेजी पिताजी को भैया ने कभी कपड़े, शौल, स्वेटर के लिए नहीं पूछा. इस के उलट अपने खर्चों और महंगाई का रोना रो कर हर महीने उन की पैंशन हड़प लेते थे, लेकिन उन की तेरहवीं पर भैया ने खुले हाथों से पंडितों को कपड़े, बरतन आदि दान किए. अंकिता को याद है उस की शादी से पहले पिताजी के पलंग की फटी चादर और बदरंग तकिए का कवर. विवाह के बाद जब उस के हाथ में पैसा आया तो सब से पहले उस ने पिताजी के लिए चादरें और तकिए के कवर खरीदे थे.

जीवित पिता पर खर्च करने के लिए भैया के पास पैसा नहीं था, लेकिन मृत पिता के नाम पर आज समाज के सामने दिखावे के लिए अचानक ढेर सारा पैसा कहां से आ गया.

असीम ने 2 दिन बाद के अपने और अंकिता के लिए हवाई जहाज के 2 टिकट बुक करा दिए.

दूसरे दिन भैया ने कुछ कागज अंकिता के आगे रख दिए. दरअसल, पिताजी ने वह घर भैया और उस के नाम पर कर दिया था.

‘‘अब तुम तो असीम के साथ सिंगापुर जा रही हो और वैसे भी असीम का अपना खुद का भी मकान है तो…’’ भैया ने बात आधी छोड़ दी. पर अंकिता उन की मंशा समझ गई. भैया चाहते थे कि वह अपना हिस्सा अपनी इच्छा से उन के नाम कर दे ताकि भविष्य में कोई झंझट न रहे.

‘‘हां भैया, इस घर में आप के साथसाथ आधा हिस्सा मेरा भी है. इन कागजों की एक कापी मैं भी अपने पास रखूंगी ताकि मेरे पिता की यादें मेरे जीवित रहने तक बरकरार रहें,’’ कठोर स्वर में बोल कर अंकिता ने कागज भैया के हाथ से ले कर असीम को दे दिए ताकि उन की कापी करवा सकें, ‘‘और हां भाभी, मां के कंगन पिताजी ने तुम्हें दिए थे अब पिताजी की अंगूठी और चेन आप मुझे दे देना निकाल कर.’’

भैयाभाभी के मुंह लटक गए. दोपहर को असीम और अंकिता ने पिताजी का पलंग, कुरसी, टेबल और कपड़े वापस उन के कमरे में रख लिए. नया गद्दा पलंग पर डलवा दिया. पिताजी के कमरे और उस के साथ लगे अध्ययन कक्ष पर नजर डाल कर अंकिता बूआ से बोली, ‘‘मेरा और आप का मायका हमेशा यही रहेगा बूआ, क्योंकि पिताजी की यादें इसी जगह पर हैं. इस की एक चाबी आप अपने पास रखना. मैं जब भी यहां आऊंगी आप भी आ जाया करना. हम यहीं रहा करेंगे.’’

बूआ ने अंकिता और असीम को सीने से लगा लिया और तीनों पिताजी को याद कर के रो दिए.

मानसून स्पेशल: तुरुप का पता – भाग 1

‘‘क्या हुआ? इस तरह उठ कर क्यों चला आया?’’ कनक को अचानक ही उठ कर बाहर की ओर जाते देख कर विमलाजी हैरानपरेशान सी उस के पीछे चली आई थीं.

‘‘मैं आप के हावभाव देख कर डर गया था. मुझे लगा कि आप कहीं रिश्ते के लिए हां न कर दें इसलिए उठ कर चला आया. मैं ने वहां से हटने में ही अपनी भलाई समझी,’’ कनक ने समझाया.

‘‘हां कहने में बुराई ही क्या है? विवाह योग्य आयु है तुम्हारी. कितना समृद्ध परिवार है. हमारी तो उन से कोई बराबरी ही नहीं है. उन की बेटी स्वाति, रूप की रानी न सही पर बुरी भी नहीं है. लंबी, स्वस्थ और आकर्षक है. और क्या चाहिए तुझे?’’ विमला देवी ने अपना मत प्रकट किया था.

‘‘मां, आप की और मेरी सोच में जमीनआसमान का अंतर है. लड़की सिर्फ स्नातक है. चाह कर भी उसे कहीं नौकरी नहीं मिलेगी.’’

‘‘लो, उसे भला नौकरी करने की क्या जरूरत है? रमोलाजी तो कह रही थीं कि स्वाति के मातापिता बेटी को इतना देंगे कि सात पीढि़यों तक किसी को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. ऐसे परिवार की लड़की नौकरी क्यों करेगी?’’

‘‘नौकरी करने के लिए योग्यता चाहिए, मां. मुझे तो इस में कोई बुराई भी नहीं लगती. आजकल सभी लड़कियां नौकरी करती हैं. मुझे अमीर बाप की अमीर बेटी नहीं, अपने जैसी शिक्षित, परिश्रमी और ढंग की नौकरी करने वाली पत्नी चाहिए.’’

‘‘अपना भलाबुरा समझो कनक बेटे. तुम क्या चाहते हो? तुम और तुम्हारी पत्नी नौकरी करेगी और मैं जैसे अभी सुबह 5 बजे उठ कर सारा काम करती हूं. तुम सब भाईबहनों के टिफिन पैक करती हूं, तुम्हारे विवाह के बाद भी मुझे यही सब करना पड़ा तो मेरा तो बेटा पैदा करने का सुख ही जाता रहेगा,’’ विमला ने नाराजगी जताई थी.

‘‘वही तो मैं समझा रहा हूं, मां. मेरे विवाह की ऐसी जल्दी क्या है? मुझे तो लड़की वालों का व्यवहार बड़ा ही संदेहास्पद लग रहा है. जरा सोचो, मां, इतना संपन्न परिवार अपनी बेटी का विवाह मुझ जैसे साधारण बैंक अधिकारी से करने को क्यों तैयार है?’’

‘‘तुम स्वयं को साधारण समझते हो पर बैंक मैनेजर की हस्ती क्या होती है इसे वे भलीभांति जानते हैं.’’

‘‘हमारे परिवार के बारे में भी वे अच्छी तरह से जानते होंगे न मां, मेरे 2 छोटे भाई अभी पढ़ रहे हैं. दोनों छोटी बहनें विवाह योग्य हैं.’’

‘‘कहना क्या चाहते हो तुम? इन सब का भार क्या तुम्हारे कंधों पर है? तुम्हारे पापा इस शहर के जानेमाने चिकित्सक थे. तुम्हारे दादाजी भी यहां के मशहूर दंत चिकित्सक थे. इतनी बड़ी कोठी बना कर गए हैं तुम्हारे पूर्वज. बाजार के बीच में बनी दुकानों से इतना किराया आता है कि तुम कुछ न भी करो तो भी हमारा काम चल जाए.’’

‘‘मां, पापा और दादाजी थे, अब नहीं हैं. हमारी असलियत यही है कि 6 लोगों के इस परिवार का मैं अकेला कमाऊ सदस्य हूं.’’

‘‘बड़ा घमंड है अपने कमाऊ होने पर? इसलिए स्वाति के परिवार के सामने तुम ने मेरा अपमान किया. मुझ से बिना कुछ कहे ही तुम्हारे वहां से चले आने से मुझ पर क्या बीती होगी यह कभी नहीं सोचा तुम ने,’’ विमलाजी फफक उठी थीं.

‘‘मां, मैं आप को दुख नहीं पहुंचाना चाहता था पर जरा सोचो, विवाह के बाद कोई मुझे आप से छीन कर अलग कर दे तो क्या आप को अच्छा लगेगा?’’ कनक ने विमलाजी के आंसू पोंछे थे.

‘‘कनक, यह क्या कह रहा है तू?’’ वे चौंक उठी थीं.

‘‘वही, जो मैं वहां से सुन कर आ रहा हूं. आप सब हम दोनों को अकेला छोड़ कर चले गए थे. हम ने अपने भविष्य पर विस्तार से चर्चा की. मेरी और स्वाति की सोच में इतना अंतर है कि आप सोच भी नहीं सकतीं. वह यदि सातवें आसमान पर है तो मैं रसातल में.’’

‘‘ऐसा क्या कहा उस ने?’’

‘‘पूछ रही थी कि सगाई की अंगूठी कहां से खरीदोगे. हाल ही में किसी फिल्मी हीरोइन का विवाह हुआ है. कह रही थी उस की अंगूठी 3 करोड़ की थी. मैं कितने की बनवाऊंगा.’’

‘‘फिर तुम ने क्या कहा?’’

‘‘मैं ने हंस कर बात टाल दी कि बैंक का अफसर हूं. बैंक का मालिक नहीं और बैंक में डकैती डालने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

कनक के छोटे भाई तनय व विनय और बहनें विभा और आभा खिलखिला कर हंस पड़े थे.

‘‘तुम लोगों को हंसी आ रही है और मेरा चिंता के कारण बुरा हाल है,’’ विमला ने सिर थाम लिया था.

‘‘छोटीछोटी बातों पर चिंता करना छोड़ दो, मां, सदा खुश रहना सीखो, दुख भरे दिन बीते रे भैया…’’ तनय ने अपने हलकेफुलके अंदाज में कहा.

‘‘चिंता तो मेरे जीवन के साथ जुड़ी है बेटे. आज तेरे पापा होते तो ऐसा महत्त्वपूर्ण निर्णय वे ही लेते पर अब तो मुझे ही सोचसमझ कर सब कार्य करना है.’’

‘‘और क्या कहा स्वाति ने, भैया?’’ विभा ने हंसते हुए बात आगे बढ़ाई थी.

‘‘मैं बताती हूं दीदी, विवाह परिधान किस डिजाइनर से बनवाया जाएगा. गहने कहां से और कितने मूल्य के खरीदे जाएंगे. हनीमून के लिए हम कहां जाएंगे. स्विट्जरलैंड या स्वीडन,’’ आभा ने हासपरिहास को आगे बढ़ाया.

‘‘कनक भैया, सावधान हो जाओ. दीवाला निकलने वाला है तुम्हारा. यहां तो उलटी गंगा बह रही है. पहले लड़की वाले दहेज को ले कर परेशान रहते थे. यहां तो शानशौकत वाले विवाह का सारा भार तुम्हारे कंधों पर आ पड़ा है,’’ विनय भी कब पीछे रहने वाला था.

‘‘चुप रहो तुम सब. यह उपहास का विषय नहीं है. हम यहां गंभीर विषय पर विचारविमर्श कर रहे हैं. विभा और आभा तुम्हारी कल से परीक्षाएं हैं, जाओ उस की तैयारी करो. यहां समय व्यर्थ मत गंवाओ. तनय, विनय, तुम लोग भी जाओ, अपना काम करो और हमें कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दो,’’ विमला ने चारों को डपटा.

चारों चुपचाप उठ कर चले गए थे.

‘‘हां, अब बताओ और क्या बातें हुईं तुम दोनों के बीच. पता तो चले कि वह लड़की हमारे साथ हिलमिल पाएगी या नहीं,’’ एकांत पाते ही विमला ने पूछा था.

 

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