Hindi Story: पहली तारीख – रेखा अपने पति के सरप्राइज से क्यों हैरान हो गई?

Hindi Story: डोरबैल बजी तो रेखा ने दरवाजा खोला. न्यूजपेपर वाला हाथ में पेपर लिए किसी से फोन पर बात कर रहा था. रेखा ने उस के हाथ से अखबार ले दरवाजा बंद किया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. जैसे ही रेखा ने दरवाजा खोला तो अखबार वाला बोला, ‘‘मैडम, यह हिंदी का अखबार. आप के घर हिंदी और अंगरेजी 2 पेपर आते हैं.’’

‘‘अरे, फिर तभी क्यों नहीं दे दिया?’’

‘‘जब तक देता, आप ने दरवाजा ही बंद कर दिया,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘अच्छा, ठीक है,’’ कह रेखा ने अखबार ले कर दरवाजा बंद कर दिया. तभी विपुल यानी रेखा के पति का शोर सुनाई दिया.

‘‘अरे भई कहां हो?’’ रेखा के पति विपुल की आवाज आई.

तभी डोरबैल भी बजती है. रेखा परेशान सी दरवाजा खोलने चल दी. दरवाजा खोला तो सामने वही अखबार वाला खड़ा था. अब रेखा ने गुस्से से पूछा, ‘‘अब क्या है?’’

‘‘मैडम, वह अखबार का बिल,’’ अखबार वाला बोला.

‘‘पहले नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से से कह रेखा ने दरवाजा बंद कर दिया.

उधर विपुल आवाज पर आवाज लगाए जा रहा था, ‘‘रेखा, तौलिया तो दे दो, मैं नहा चुका हूं. कब से आवाजें लगा रहा हूं.’’

रेखा ने तौलिया पकड़ाया ही था कि फिर से डोरबैल बजी. दरवाजा खोलते ही रेखा गुस्से में चीखी, ‘‘क्यों बारबार बैल बजा रहे हो?’’

‘‘मैडम, यह गृहशोभा.’’

‘‘नहीं चाहिए,’’ कह रेखा दरवाजा बंद करने लगी.

तभी अखबार वाला बोला, ‘‘अरे, आप ने ही तो कल मैगजीन लाने को बोला था.’’

‘‘क्या ये सब काम एक बार में नहीं कर सकते?’’ कह रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया.

‘‘इतनी देर लगती है क्या तौलिया देने में?’’ विपुल बोला.

‘‘मैं क्या करती, घंटी पर घंटी बजाए जा रहा था, तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘लगता है तुम्हें पसंद करता है,’’ विपुल हंसते हुए बोला.

‘‘विपुल, मैं मजाक के मूड में नहीं हूं.’’

तभी फिर डोरबैल बजती है. रेखा गुस्से से दरवाजा खोल कर बोली, ‘‘अब क्या है?’’

सामने दूध वाला था. बोला, ‘‘मैडम दूध.’’

रेखा ने थोड़ा शांत हो दूध ले लिया.

‘‘अरे भई नाश्ता लगाओ. देर हो रही है. औफिस जाना है,’’ विपुल की आवाज आई.

रेखा आंखें तरेरते हुए विपुल को देख किचन में चली गई. विपुल किसी से फोन पर बात कर रहा था.

फिर डोरबैल बजी. रेखा ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला.

‘‘मैडम, दूध का बिल,’’ दूध वाला बोला.

‘‘क्या परेशानी है तुम सब को? क्या यह बिल दूध के साथ नहीं दे सकते थे?’’ गुस्से में बोल रेखा ने बिल ले लिया.

‘‘क्या खिला रही हो नाश्ते में?’’ विपुल बोला.

रेखा बोली, ‘‘अपना सिर… घंटी पर घंटी बज रही… ऐसे में क्या बन सकता है? ब्रैडबटर से काम चला लो.’’

‘‘अरे, तुम्हारे हाथों से तो हम जहर भी खा लेंगे,’’ विपुल ने कहा.

‘‘देखो, मैं इतनी भी बुरी नहीं हूं,’’ रेखा बोली.

तभी फिर से डोरबैल बज उठी. रेखा गुस्से से बोली, ‘‘विपुल, दरवाजा खोलो… फिर मत कहना मुझे औफिस को देर हो रही है.’’

विपुल ने फोन पर बात करते हुए ही दरवाजा खोला. दूध वाला ही खड़ा था.

दूध वाला बोला, ‘‘साहब, हम कल दूध देने नहीं आएंगे.’’

‘‘जब दूध दिया था तब नहीं बता सकते थे?’’ विपुल ने डांटा.

‘‘सर, भूल गया था.’’

विपुल औफिस चला गया. औफिस पहुंच कर उस ने रेखा को फोन किया. तभी फिर घंटी बज उठी. रेखा जब दरवाजा खोलने पर पेपर वाले को देखती है, तो उस का गुस्सा 7वें आसमान को छू जाता है. विपुल फोन लाइन पर ही था. अत: बोला, ‘‘अरे, रेखा अब कौन है?’’

‘‘वही तुम्हारा पेपर वाला.’’

‘‘यह क्या बना रखा है… क्या सारा दिन दरवाजे पर ही बैठे रहें एक चौकीदार की तरह?’’

‘‘अब क्या लेने आए हो?’’ रेखा तमतमाते हुए बोली.

‘‘सुबह के 50 दे दो… फिर से नहीं आऊंगा,’’ पेपर वाला बोला.

‘‘कोई 50 नहीं मिलेंगे. चले जाओ यहां से,’’ रेखा ने कहा.

इस बीच फोन कट गया था. वह नहाने जा ही रही थी कि फिर से डोरबैल की आवाज पर भिन्ना गई. दरवाजा खोला तो सामने केबल वाला खड़ा था.

‘‘मैडम, केबल का बिल,’’ वह बोला.

‘‘कुछ और देना है तो वह भी दे दो.’’

‘‘मैडम, समझा नहीं,’’ वह बोला.

‘‘कुछ नहीं,’’ रेखा ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया और फिर नहाने चली गई.

तभी उसे कुछ शोर सुनाई देता है. ध्यान से सुनने पर, ‘मैडमजी, मैडमजी,’ एक लड़की की आवाज सुनाई दी.

नहा कर दरवाजा खोला तो सामने नौकरानी की लड़की खड़ी थी.

रेखा ने पूछा, ‘‘क्या चाहिए?’’

‘‘मैडमजी, मम्मी आज काम पर नहीं आएंगी. शाम को जिस औफिस में सफाई करती हैं, वहां पगार लेने गई हैं… वहां लंबी लाइन लगी है.’’

रेखा गुस्से में बोली, ‘‘अच्छाअच्छा, ठीक है.’’

‘इसे भी आज ही…’ रेखा मन ही मन बड़बड़ाई और फिर सोचने लगी कि आज खाने में बनेगा क्या… इतनी देर हो गई है… घड़ी की तरफ देखा 1 बज चुका था. अभी सोच ही रही थी कि फिर घंटी बजी. वह चुपचाप यह सोच बैठी रही कि अब दरवाजा नहीं खोलेगी. 2… 3… 4… बार घंटी बजी पर वह नहीं उठी.

तभी फोन बजा. विपुल बोला, ‘‘अरे भई, क्या हम यहीं खड़े रहेंगे… दरवाजा तो खोलो.’’

रेखा मन ही मन सोचती कि इतनी जल्दी कैसे आ गए? क्या बात है? फिर जल्दी से दरवाजा खोला.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ विपुल बोला.

‘‘अरे, आप इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘कैसे आ गए. तुम सुबह से परेशान थीं. सोचा, चलो आज लंच बाहर ही करते हैं.’’

रेखा सवाल भरी निगाहों से विपुल की तरफ देखने लगी तो वह बोला, ‘‘अरे बावली, आज पहली तारीख है.’’

Hindi Story: जोरू का गुलाम – मां इतनी संगदिल कैसे हो गईं

Hindi Story : ‘‘अरे, ऋचा दीदी, यहां, इस समय?’’ सुदीप अचानक अपनी दीदी को देख हैरान रह गया. ‘‘सप्ताहभर की छुट्टी ले कर आई हूं. सोचा, घर बाद में जाऊंगी, पहले तुम से मिल लूं,’’ ऋचा ने गंभीर स्वर में कहा तो सुदीप को लगा, दीदी कुछ उखड़ीउखड़ी सी हैं.

‘‘कोई बात नहीं, दीदी, तुम कौन सा रोज यहां आती हो. जरा 5 मिनट बैठो, मैं आधे दिन की छुट्टी ले कर आता हूं. आज तुम्हें बढि़या चाइनीज भोजन कराऊंगा,’’ लाउंज में पड़े सोफों की तरफ संकेत कर सुदीप कार्यालय के अंदर चला गया. ऋचा अपने ही विचारों में डूबी हुई थी कि अचानक ही सुदीप ने उस की तंद्रा भंग की, ‘‘चलें?’’

ऋचा चुपचाप उठ कर चल दी. उस की यह चुप्पी सुदीप को बड़ी अजीब लग रही थी. यह तो उस के स्वभाव के विरुद्ध था. जिजीविषा से भरपूर ऋचा बातबात पर ठहाके लगाती, चुटकुले सुनाती और हर देखीसुनी घटना को नमकमिर्च लगा कर सुनाती. फिर ऐसा क्या हो गया था कि वह बिलकुल गुमसुम हो गई थी? ‘‘सुदीप, मैं यहां चाइनीज खाने नहीं आई,’’ ऋचा ने हौले से कहा.

‘‘वह तो मैं देख ही रहा हूं, पर बात क्या है, अक्षय से झगड़ा हुआ है क्या? या फिर और कोई गंभीर समस्या आ खड़ी हुई है?’’ सुदीप की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. ‘‘अक्षय और झगड़ा? क्या सभी को अपने जैसा समझ रखा है? पता है, अक्षय मेरा और अपनी मां का कितना खयाल रखता है, और मांजी, उन के व्यवहार से तो मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं उन की बेटी नहीं हूं,’’ ऋचा बोली.

‘‘सब जानता हूं. सच पूछो तो तुम्हारी खुशहाल गृहस्थी देख कर कभीकभी बड़ी ईर्ष्या होती है,’’ सुदीप उदास भाव से मुसकराया. ‘‘सुदीप, जीवन को खुशियोंभरा या दुखभरा बनाना अपने ही हाथ में है. सच पूछो तो मैं इसीलिए यहां आई हूं. कम से कम तुम से व प्रेरणा से मुझे ऐसी आशा न थी. आज सुबह मां ने फोन किया था. फोन पर ही वे कितना रोईं, कह रही थीं कि तुम अब विवाहपूर्व वाले सुदीप नहीं रह गए हो. प्रेरणा तुम्हें उंगलियों पर नचाती है. सनी, सोनाली और मां की तो तुम्हें कोई चिंता ही नहीं है,’’ ऋचा ने शिकायत की.

‘‘और क्या कह रही थीं?’’ सुदीप ने पूछा.

‘‘क्या कहेंगी बेचारी, इस आयु में पिताजी उन्हें छोड़ गए. 3 वर्षों में ही उन का क्या हाल हो गया है. सनी और सोनाली का भार उन के कंधों पर है और तुम उन से अलग रहने की बात सोच रहे हो,’’ ऋचा के स्वर में इतनी कड़वाहट थी कि सुदीप को लगा, इस आरोपप्रत्यारोप लगाने वाली युवती को वह जानता तक नहीं. उसे उम्मीद थी कि घर का और कोई सदस्य उसे समझे या न समझे, ऋचा अवश्य समझेगी, पर यहां तो पासा ही उलटा पड़ रहा था. ‘‘अब कहां खो गए, किसी बात का जवाब क्यों नहीं देते?’’ ऋचा झुंझला गई.

‘‘तुम ने मुझे जवाब देने योग्य रखा ही कहां है. मेरे मुंह खोलने से पहले ही तुम ने तो एकतरफा फैसला भी सुना डाला कि सारा दोष मेरा व प्रेरणा का ही है,’’ सुदीप तनिक नाराजगी से बोला. ‘‘ठीक है, फिर कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम्हारा पक्ष सुनने के लिए ही मैं यहां आई हूं, वरना तुम से घर पर भी मिल सकती थी.’’

‘‘मैं कोई सफाई नहीं देना चाहता, न ही तुम से बीचबचाव की आशा रखता हूं. मैं केवल तुम से तटस्थता की उम्मीद करता हूं. मैं चाहूंगा कि तुम एक सप्ताह का अवकाश ले कर हमारे साथ आ कर रहो.’’ ‘‘पता नहीं तुम मुझ से कैसी तटस्थता की आशा लगाए बैठे हो. मां, भाईबहन आंसू बहाएं तो मैं कैसे तटस्थ रहूंगी?’’ ऋचा झुंझला गई.

‘‘हमें अकेला छोड़ दो, ऋचा. हम अपनी समस्याएं खुद सुलझा सकते हैं,’’ सुदीप ने अनुनय की. ‘‘अब तुम्हारे लिए अपनी सगी बहन पराई हो गई? मां ठीक ही कर रही थीं कि तुम बहुत बदल गए हो. प्रेरणा सचमुच तुम्हें उंगलियों पर नचा रही है.’’

‘‘ऋचा दीदी, प्रेरणा तो तुम्हारी सहेली है, तुम्हीं ने उस से मेरे विवाह की वकालत की थी. पर आज तुम भी मां के सुर में सुर मिला रही हो.’’ ‘‘यही तो रोना है, मैं ने सोचा था, वह मां को खुश रखेगी, हमारा घर खुशियों से भर जाएगा, पर हुआ उस का उलटा…’’

‘‘मैं कोई सफाई नहीं दूंगा, केवल एक प्रार्थना करूंगा कि तुम कुछ दिन हमारे साथ रहो, तभी तुम्हें वस्तुस्थिति का पता चलेगा.’’ ‘‘ठीक है. यदि तुम जोर देते हो तो मैं अक्षय से बात करूंगी,’’ ऋचा उठ खड़ी हुई.

‘‘तो कब आ रही हो हमारे यहां रहने?’’ सुदीप ने बिल देते हुए प्रश्न किया. ‘‘तुम्हारे यहां?’’ ऋचा हंस दी, ‘‘तो अब वह घर मेरा नहीं रहा क्या?’’

‘‘मैं तुम्हें शब्दजाल में उलझा भी लूं तो क्या. सत्य तो यही है कि अब तुम्हारा घर, तुम्हारा नहीं है,’’ सुदीप भी हंस दिया.

लगभग सप्ताहभर बाद ऋचा को सूटकेस व बैग समेत आते देख छोटी बहन सोनाली दूर से ही चिल्लाई, ‘‘अरे दीदी, क्या जीजाजी से झगड़ा हो गया?’’ ‘‘क्यों, बिना झगड़ा किए मैं अपने घर रहने नहीं आ सकती क्या? ले, नीनू को पकड़,’’ उस ने गोद में उठाए हुए अपने पुत्र की ओर संकेत किया.

सोनाली ने ऋचा की गोद से नीनू को लिया और बाहर की ओर भागी. ‘‘रुको, सोनाली, कहां जा रही हो?’’

‘‘अभी आ जाएगी, अपनी सहेलियों से नीनू को मिलवाएगी. उसे छोटे बच्चों से कितना प्यार है, तू तो जानती ही है,’’ मां ने ऋचा को गले लगाते हुए कहा. ‘‘लेकिन मां, अब सोनाली इतनी छोटी भी नहीं है जो इस तरह का व्यवहार करे.’’

‘‘चल, अंदर चल. इन छोटीछोटी बातों के लिए अपना खून मत जलाया कर. माना अभी सोनाली में बचपना है, एक बार विवाह हो गया तो अपनेआप जिम्मेदारी समझने लगेगी,’’ मां हाथ पकड़ कर ऋचा को अंदर लिवा ले गईं. ‘‘हां, विवाह की बात से याद आया, सोनाली कब तक बच्ची बनी रहेगी. नौकरी क्यों नहीं ढूंढ़ती. इस तरह विवाह में भी सहायता मिलेगी,’’ ऋचा बोली.

‘‘बहन का विवाह करना भैयाभाभी का कर्तव्य होता है, उन्हें क्यों नहीं समझाती? मेरी फूल सी बच्ची नौकरी कर के अपने लिए दहेज जुटाएगी?’’ मां बिफर उठीं. ‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. पर आजकल अधिकतर लड़कियां नौकरी करने लगी हैं. ससुराल वाले भी कमाऊ वधू चाहते हैं. इन की दूर के रिश्ते की मौसी का लड़का आशीष बैंक में काम करता है, पर उसे कमाऊ बीवी चाहिए. वैसे भी, इस में इतना नाराज होने की क्या बात है? सोनाली काम करेगी तो उसे ?इधरउधर घूमने का समय नहीं मिलेगा. फिर अपना भी कुछ पैसा जमा कर लेगी. तुम्हें याद है न मां, पिताजी ने पढ़ाई समाप्त करते ही मुझे नौकरी करने की सलाह दी थी. वे हमेशा लड़कियों के स्वावलंबी होने पर जोर देते थे,’’ ऋचा बोली.

‘‘अरे दीदी, कैसी बातें कर रही हो, जरा सी बच्ची के कंधों पर नौकरी का बोझ डालना चाहती हो?’’ तभी सुदीप का स्वर सुन कर ऋचा चौंक कर मुड़ी. प्रेरणा व सुदीप न जाने कितनी देर से पीछे खड़े थे. सुदीप के स्वर का व्यंग्य उस से छिपा न रह सका. ‘‘बड़ी देर कर दी तुम दोनों ने?’’ ऋचा बोली.

‘‘ये दोनों तो रोज ऐसे ही आते हैं, अंधेरा होने के बाद.’’ ‘‘क्या करें, 6 साढ़े 6 तो बस से यहां तक पहुंचने में ही बज जाते हैं. फिर शिशुगृह से तन्मय को लेते हुए आते हैं, तो और 10-15 मिनट लग जाते हैं.’’

‘‘क्या? तन्मय को शिशुगृह में छोड़ कर जाती हो? घर में मां व सोनाली दोनों ही रहती हैं, क्या तुम्हें उन पर विश्वास नहीं है? जरा से बच्चे को परायों के भरोसे छोड़ जाती हो?’’ प्रेरणा बिना कुछ कहे तन्मय को गोद में ले कर रसोईघर में जा घुसी.

‘‘मां, तुम इन लोगों से कुछ कहती क्यों नहीं, जरा से बच्चे को शिशुगृह में डाल रखा है.’’ ‘‘मैं ने कहा है बेटी, मेरी दशा तो तुझ से छिपी नहीं है, हमेशा जोड़ों का दर्द, ऐसे में मुझ से तो तन्मय संभलता नहीं. सोनाली को तो तू जानती ही है, घर में टिकती ही कब है. कभी इस सहेली के यहां, तो कभी उस सहेली के यहां.’’

ऋचा कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध बैठी रही. उसे लगा, उस के सामने उस की मां नहीं, कोई और स्त्री बैठी है. उस की मां के हृदय में तो प्यार का अथाह समुद्र लहलहाता था. वह इतनी तंगदिल कैसे हो गई.

तभी प्रेरणा चाय बना लाई. तन्मय भी अपना दूध का गिलास ले कर वहीं आ गया. अचानक ही ऋचा को लगा कि उसे आए आधे घंटे से भी ऊपर हो गया है, पर किसी ने पानी को भी नहीं पूछा. शायद सब प्रेरणा की ही प्रतीक्षा कर रहे थे. सोनाली तो नीनू को ले कर ऐसी अदृश्य हुई कि अभी तक घर नहीं लौटी थी. झटपट चाय पी कर प्रेरणा फिर रसोईघर में जा जुटी थी. ऋचा अपना कप रखने गई तो देखा, सिंक बरतनों से भरी पड़ी है और प्रेरणा जल्दीजल्दी बरतन साफ करने में लगी है.

‘‘यह क्या, आज कामवाली नहीं आई?’’ अनायास ही ऋचा के मुंह से निकला. ‘‘आजकल बड़े शहरों में आसानी से कामवाली कहां मिलती हैं. ऊपर से मांजी को किसी का काम पसंद भी नहीं आता. सुबह तो समय रहता ही नहीं, इसलिए सबकुछ शाम को ही निबटाना पड़ता है.’’

‘‘अच्छा, यह बता कि आज क्या पकेगा? मैं भोजन का प्रबंध करती हूं,’’ ऋचा ने कहा. ‘‘फ्रिज में देख लो, सब्जियां रखी हैं, जो खाना है, बना लेंगे.’’

‘‘क्या कहूं प्रेरणा, लगता है, मेरे आने से तो तेरा काम और बढ़ गया है.’’ ‘‘कैसी बातें कर रही है? सुदीप की बहन होने के साथ ही तू मेरी सब से प्यारी सहेली भी है, यह कैसे भूल गई, पगली. इतने दिनों बाद तुझे मेरी याद आई है तो मुझे बुरा लगेगा?’’ अनजाने ही प्रेरणा की आंखें छलछला आईं.

फ्रिज से सब्जियां निकाल कर काटने के लिए ऋचा मां के पास जा बैठी. ‘‘अरे, यह क्या, 4 दिनों के लिए मेरी बेटी मायके क्या आ गई, तुरंत ही सब्जियां पकड़ा दीं,’’ मां का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.

‘‘ओह मां, किसी ने पकड़ाई नहीं हैं, मैं खुद सब्जियां ले कर आई हूं. खाली ही तो बैठी हूं, बातें करते हुए कट जाएंगी,’’ ऋचा ने बात पूरी नहीं की थी कि सुदीप ने आ कर उस के हाथ से थाली ले ली और कुरसी खींच कर वहीं बैठ कर सब्जियां काटने लगा. ‘‘यह बैठा है न जोरू का गुलाम, यह सब्जी काट देगा, खाना बना लेगा, तन्मय को नहलाधुला भी देगा. दिनरात पत्नी के चारों तरफ चक्कर लगाता रहेगा,’’ मां का व्यंग्य सुन कर सुदीप का चेहरा कस गया.

वह कोई कड़वा उत्तर देता, इस से पहले ही ऋचा बोल पड़ी, ‘‘तो क्या हुआ, अपने घर का काम ही तो कर रहा है,’’ उस ने हंस कर वातावरण को हलका बनाने का प्रयत्न किया. ‘‘जो जिस काम का है, उसी को शोभा देता है. सुदीप को तो मैं ने उस के पैर तक दबाते देखा है.’’

‘‘उस दिन बेचारी दर्द से तड़प रही थी, तेज बुखार था,’’ सुदीप ने धीरे से कहा. ‘‘फिर भी पति, पत्नी की सेवा करे, तोबातोबा,’’ मां ने कानों पर हाथ

रखते हुए आंखें मूंद कर अपने भाव प्रकट किए. ‘‘मां, अब वह जमाना नहीं रहा, पतिपत्नी एक ही गाड़ी के 2 पहियों की तरह मिल कर गृहस्थी चलाते हैं.’’

‘‘सब जानती हूं, हम ने भी खूब गृहस्थी चलाई है. तुम 4 भाईबहनों को पाला है और मेरी सास तिनका उठा कर इधर से उधर नहीं रखती थीं.’’ ‘‘इस में बुराई क्या है? अक्षय की मां तो घर व हमारा खूब खयाल रखती हैं.’’

‘‘ठीक है, रखती होंगी, पर मुझ से नहीं होता. पहले अपनी गृहस्थी में खटते रहे, अब बेटे की गृहस्थी में कोल्हू के बैल की तरह जुते रहें. हमें भी घूमनेफिरने, सैरसपाटे के लिए कुछ समय चाहिए कि नहीं? पर नहीं, बहूरानी का दिमाग सातवें आसमान पर रहता है, नौकरी जो करती हैं रानीजी,’’ मां ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा. ‘‘यदि नौकरी करने वाली लड़की पसंद नहीं थी तो विवाह से पहले आप ने पहली शर्त यही क्यों नहीं रखी थी?’’ ऋचा ने मां को समझाना चाहा.

‘‘इस में भी हमारा ही दोष है? अरे, एक क्या तेरी भाभी ही नौकरी करती है? आजकल तो सभी लड़कियां नौकरी करती हैं, साथ ही घर भी संभालती हैं,’’ मां भला कब हार मानने वाली थीं. ऋचा चुप रह गई. उसे लगा, मां को कुछ भी समझाना असंभव है.

दूसरे दिन सुबह ही ऋचा भी तैयार हो गई तो प्रेरणा के आश्चर्य की सीमा न रही, ‘‘यह क्या, आज ही जा रही हो?’’

‘‘सोचती हूं, तुम लोगों के साथ ही निकल जाऊंगी. फिर कल से औफिस चली जाऊंगी…क्यों व्यर्थ में छुट्टियां बरबाद करूं. सोनाली के विवाह में तो छुट्टियां लेनी ही पड़ेंगी,’’

वह बोली. ‘‘तुम कहो तो मैं भी 2 दिनों की छुट्टियां ले लूं? आई हो तो रुक जाओ.’’

‘‘नहीं, अगली बार जब 3-4 दिनों की छुट्टियां होंगी, तभी आऊंगी. इस तरह तुम्हें भी छुट्टियां नहीं

लेनी पड़ेंगी.’’ ‘‘बेचारी एक दिन के लिए आई, लेकिन मेरी बेटी काम में ही जुटी रही. रुक कर भी क्या करे, जब यहां भी स्वयं ही पका कर खाना है तो,’’ मां ऋचा को इतनी जल्दी जाते देख अपना ही रोना रो रही थीं.

‘अब जो होना है, सो हो. मैं आई थी सुदीप व प्रेरणा को समझाने, पर किस मुंह से समझाऊं. प्रेम व सद्भाव की ताली क्या भला एक हाथ से बजती है?’ ऋचा सोच रही थी. ‘‘अच्छा, दीदी,’’ सुदीप ने बस से उतर कर उस के पैर छुए. प्रेरणा पहले ही उतर गई थी.

‘‘सुदीप, मुझे नहीं लगता कि तुम्हें उपदेश देने का मुझे कोई हक है. फिर भी देखना, सनी की नौकरी व सोनाली के विवाह तक साथ निभा सको तो…’’ कहती हुई ऋचा मुड़ गई. पर उसे लगा, मन जैसे बहुत भारी हो आया है, कहीं थोड़ा एकांत मिल जाए तो फूटफूट कर रो ले.

Hindi Story: उतावली – क्या कमी थी सारंगी के जीवन में

Hindi Story : ‘‘मैं क्या करती, उन से मेरा दुख देखा नहीं गया तो उन्होंने मेरी मांग में सिंदूर भर दिया.’’

सारंगी का यह संवाद सुन कर हतप्रभ सौम्या उस का मुंह ताकती रह गई. महीनेभर पहले विधवा हुई सारंगी उस की सहपाठिन थी.

सारंगी के पति की असामयिक मृत्यु एक रेल दुर्घटना में हुई थी.

सौम्या तो बड़ी मुश्किल से सारंगी का सामना करने का साहस जुटाती दुखी मन से उस के प्रति संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करने आई थी. उलझन में थी कि कैसे उस का सामना करेगी और सांत्वना देगी. सारंगी की उम्र है ही कितनी और ऊपर से 3 अवयस्क बच्चों का दायित्व. लेकिन सारंगी को देख कर वह भौचक्की रह गई थी. सारंगी की मांग में चटख सिंदूर था, हथेलियों से कलाइयों तक रची मेहंदी, कलाइयों में ढेर सारी लाल चूडि़यां और गले में चमकता मंगलसूत्र. उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ.

विश्वास होता भी कैसे. तीजत्योहार पर व्रतउपवास रखने वाली, हर मंदिरमूर्ति के सामने सिर झुकाने वाली व अंधभक्ति में लीन रहने वाली सारंगी को इस रूप में देखने की कल्पना उस के मन में नहीं थी. वह तो सोचती आई थी कि सारंगी सूनी मांग लिए, निपट उदास मिलेगी.

सारंगी की आंखों में जरा भी तरलता नहीं थी और न ही कोई चिंता. वह सदा सुहागन की तरह थी और उस के चेहरे पर दिग्विजयी खुशी फूट सी रही थी. सब कुछ अप्रत्याशित.

एक ही बस्ती की होने से सारंगी और सौम्या साथसाथ पढ़ने जाती थीं. दोनों का मन कुछ ऐसा मिला कि आपस में सहेलियों सा जुड़ाव हो गया था. सौम्या की तुलना में सारंगी अधिक यौवनभरी और सुंदर थी. उम्र में उस से एक साल बड़ी सारंगी, पढ़ाई में कमजोर होने के कारण वह परीक्षाओं में पास होने के लिए मंदिरों और देवस्थानों पर प्रसाद चढ़ाने की मनौती मानती रहती थी. सौम्या उस की मान्यताओं पर कभीकभी मखौल उड़ा देती थी. सारंगी किसी तरह इंटर पास कर सकी और बीए करतेकरते उस की शादी हो गई. दूर के एक कसबे में उस के पति का कबाड़ खरीदनेबेचने का कारोबार था.

शुरूशुरू में सारंगी का मायके आनाजाना ज्यादा रहा. जब आती तो गहनों से लद के सजीसंवरी रहती थी. खुशखुश सी दिखती थी.

एक दिन सौम्या ने पूछा था, ‘बहुत खुश हो?’

‘लगती हूं, बस’ असंतोष सा जाहिर करती हुई सारंगी ने कहा.

‘कोई कमी है क्या?’ सौम्या ने एकाएक तरल हो आई उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘पूछो मत,’ कह कर सारंगी ने निगाहें झुका लीं.

‘तुम्हारे गहने, कपड़े और शृंगार देख कर तो कोई भी समझेगा कि तुम सुखी हो, तुम्हारा पति तुम्हें बहुत प्यार करता है.’

‘बस, गहनों और कपड़ों का सुख.’

‘क्या?’

‘सच कहती हूं, सौम्या. उन्हें अपने कारोबार से फुरसत नहीं. बस, पैसा कमाने की धुन. अपने कबाड़खाने से देररात थके हुए लौटते हैं, खाएपिए और नशे में. 2 तरह का नशा उन पर रहता है, एक शराब का और दूसरा दौलत का. अकसर रात का खाना घर में नहीं खाते. घर में उन्हें बिस्तर दिखाई देता है और बिस्तर पर मैं, बस.’ सौम्या आश्चर्य से उस का मुंह देखती रही.

‘रोज की कहानी है यह. बिस्तर पर प्यार नहीं, नोट दिखाते हैं, मुड़ेतुड़े, गंदेशंदे. मुट्ठियों में भरभर कर. वे समझते हैं, प्यार जताने का शायद यही सब से अच्छा तरीका है. अपनी कमजोरी छिपाते हैं, लुंजपुंज से बने रहते हैं. मेरी भावनाओं से उन्हें कोई मतलब नहीं. मैं क्या चाहती हूं, इस से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं.

‘मैं चाहती हूं, वे थोड़े जोशीले बनें और मुझे भरपूर प्यार करें. लेकिन यह उन के स्वभाव में नहीं या यह कह लो, उन में ऐसी कोईर् ताकत नहीं है. जल्दी खर्राटे ले कर सो जाना, सुबह देर से उठना और हड़बड़ी में अपने काम के ठिकाने पर चले जाना. घर जल्दी नहीं लौटना. यही उन की दिनचर्या है. उन का रोज नहानाधोना भी नहीं होता. कबाड़खाने की गंध उन के बदन में समाई रहती है.’

सारंगी ने एक और रहस्य खोला, ‘जानती हो, मेरे  मांबाप ने मेरी शादी उन्हें मुझे से 7-8 साल ही बड़ा समझ कर की थी लेकिन वे मुझ से 15 साल बड़े हैं. जल्दी ही बच्चे चाहते हैं, इसलिए कि बूढ़ा होने से पहले बच्चे सयाने हो जाएं और उन का कामधंधा संभाल लें. लेकिन अब क्या, जीवन तो उन्हीं के साथ काटना है. हंस कर काटो या रो कर.’

चेहरे पर अतृप्ति का भाव लिए सारंगी ने ठंडी सांस भरते हुए मजबूरी सी जाहिर की.

सौम्या उस समय वैवाहिक संबंधों की गूढ़ता से अनभिज्ञ थी. बस, सुनती रही. कोई सलाह या प्रतिक्रिया नहीं दे सकी थी.

समय बीता. सौम्या बीएड करने दूसरे शहर चली गई और बाहर ही नौकरी कर ली. उस का अपना शहर लगभग छूट सा गया. सारंगी से उस का कोई सीधा संबंध नहीं रहा. कुछ वर्षों बाद सारंगी से मुलाकात हुई तो वह 2 बच्चों की मां हो चुकी थी. बच्चों का नाम सौरभ और गौरव बताया, तीसरा होने को था परंतु उस के सजनेधजने में कोई कमी नहीं थी. बहुत खुश हो कर मिली थी. उस ने कहा था, ‘कभी हमारे यहां आओ. तुम जब यहां आती हो तो तुम्हारी बस हमारे घर के पास से गुजरती है. बसस्टैंड पर किसी से भी पूछ लो, कल्लू कबाड़ी को सब जानते हैं.’

‘कल्लू कबाड़ी?’

‘हां, कल्लू कबाड़ी, तेरे जीजा इसी नाम से जाने जाते हैं.’ ठट्ठा मार कर हंसते हुए उस ने बताया था.

सौम्या को लगा था कि वह अब सचमुच बहुत खुश है. कुछ समय बाद आतेजाते सौम्या को पता चला कि सारंगी के पति लकवा की बीमारी के शिकार हो गए हैं. लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी थीं कि वह चाहते हुए भी उस से मिल न सकी.

लेकिन इस बार सौम्या अपनेआप को रोक न पाई थी. सारंगी के पति की अचानक मृत्यु के समाचार ने उसे बेचैन कर दिया था. वह चली आई. सोचा, उस से मिलते हुए दूसरी बस से अपने शहर को रवाना हो जाएगी.

बसस्टैंड पर पता करने पर एक दुकानदार ने एक बालक को ही साथ भेज दिया, जो उसे सारंगी के घर तक पहुंचा गया था. और यहां पहुंच कर उसे अलग ही नजारा देखने को मिला.

‘कौन है वह, जिस से सारंगी का वैधव्य देखा नहीं गया. कोई सच्चा हितैषी है या स्वार्थी?’ सनसनाता सा सवाल, सौम्या के मन में कौंध रहा था.

‘‘सब जान रहे हैं कि कल्लू कबाड़ी की मौत रेल दुर्घटना में हुई है लेकिन मैं स्वीकार करती हूं कि उन्होंने आत्महत्या की है. सुइसाइड नोट न लिखने के पीछे उन की जो भी मंशा रही हो, मैं नहीं जानती,’’ सारंगी की सपाट बयानी से अचंभित सौम्या को लगा कि उस की जिंदगी में बहुत उथलपुथलभरी है और वह बहुतकुछ कहना चाहती है.

सौम्या अपने आश्चर्य और उत्सुकता को छिपा न सकी. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘ऐसा क्या?’’

‘‘हां सौम्या, ऐसा ही. तुम से मैं कुछ नहीं छिपाऊंगी. वे तो इस दुनिया में हैं नहीं और उन की बुराई भी मैं करना नहीं चाहती, लेकिन अगर सचाई तुम को न बताऊं तो तुम भी मुझे गलत समझोगी. विनय से मेरे विवाहेतर संबंध थे, यह मेरे पति जानते थे.’’

‘‘विनय कौन है?’’ सौम्या अपने को रोक न सकी.

‘‘विनय, उन के दोस्त थे और बिजनैसपार्टनर भी. जब उन्हें पैरालिसिस का अटैक हुआ तो विनय ने बहुत मदद की, डाक्टर के यहां ले जाना, दवादारू का इंतजाम करना, सब तरह से. विनय उन के बिजनैस को संभाले रहे. और मुझे भी. जब पति बीमार हुए थे, उस समय और उस के पहले से भी.’’

सौम्या टकटकी लगाए उस की बातें सुन रही थी.

‘‘जब सौरभ के पापा की शराबखोरी बढ़ने लगी तो वे धंधे पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे और स्वास्थ्य भी डगमगाने लगा. मैं ने उन्हें आगाह किया लेकिन कोई असर नहीं हुआ. एक दिन टोकने पर गालीगलौज करते हुए मारपीट पर उतारू हो गए तो मैं ने गुस्से में कह दिया कि अगर अपने को नहीं सुधार सकते तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊंगी.’’

‘‘फिर भी कोई असर नहीं?’’ सौम्या ने सवाल कर दिया.

‘‘असर हुआ. असर यह हुआ कि वे डर गए कि सचमुच मैं कहीं उन्हें छोड़ कर न चली जाऊं. वे अपनी शारीरिक कमजोरी भी जानते थे. उन्होंने विनय को घर बुलाना शुरू कर दिया और हम दोनों को एकांत देने लगे. फिसलन भरी राह हो तो फिसलने का पूरा मौका रहता है. मैं फिसल गई. कुछ अनजाने में, कुछ जानबूझ कर. और फिसलती चली गई.’’

‘‘विनय को एतराज नहीं था?’’

‘‘उन की निगाहों में शुरू से ही मेरे लिए चाहत थी.’’

‘‘कितनी उम्र है विनय की?’’

‘‘उन से 2 साल छोटे हैं, परंतु देखने में उम्र का पता नहीं चलता.’’

‘‘और उन के बालबच्चे?’’

‘‘विधुर हैं. उन का एक बेटा है, शादीशुदा है और बाहर नौकरी करता है.’’

सौम्या ने ‘‘हूं’’ करते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे पति ने आत्महत्या क्यों की?’’

‘‘यह तो वे ही जानें. जहां तक मैं समझती हूं, उन में सहनशक्ति खत्म सी हो गई थी. पैरालिसिस के अटैक के बाद वे कुछ ठीक हुए और धीमेधीमे चलनेफिरने लगे थे. अपने काम पर भी जाने लगे लेकिन परेशान से रहने लगे थे. मुझे कुछ बताते नहीं थे. उन्हें डर सताने लगा था कि विनय ने बीवी पर तो कब्जा कर लिया है, कहीं बिजनैस भी पूरी तरह से न हथिया ले. एक बार विनय से उन की इसी बात पर कहासुनी भी हुई.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या, मुझे विनय ने बताया तो मैं ने उन से पूछा. अब मैं तुम्हें क्या बताऊं, सौम्या. कूवत कम, गुस्सा ज्यादा वाली बात. वे हत्थे से उखड़ गए और लगे मुझ पर लांछन लगाने कि मैं दुश्चरित्र हूं, कुल्टा हूं. मुझे भी गुस्सा आ गया. मैं ने भी कह दिया कि तुम्हारे में ताकत नहीं है कि तुम औरत को रख सको. अपने पौरुष पर की गई

चोट शायद वे सह न सके. बस, लज्जित हो कर घर से निकल गए. दोपहर में पता चला कि रेललाइन पर कटे हुए पड़े हैं.’’

बात खत्म करतेकरते सारंगी रो पड़ी. सौम्या ने उसे रोने दिया.

थोड़ी देर बाद पूछा, ‘‘और तुम ने शादी कब की?’’

‘‘विनय से मेरा दुख देखा नहीं जाता था, इसलिए एक दिन मेरी मांग…’’ इतना कह कर सारंगी चुप हो गई और मेहंदी लगी अपनी हथेलियों को फैला कर देखने लगी.

‘‘तुम्हारी मरजी से?’’

‘‘हां, सौम्या, मुझे और मेरे बच्चों को सहारे की जरूरत थी. मैं ने मौका नहीं जाने दिया. अब कोई भला कहे या बुरा. असल में वे बच्चे तीनों विनय के ही हैं.’’

कुछ क्षण को सौम्या चुप रह गई और सोचविचार करती सी लगी. ‘‘तुम ने जल्दबाजी की, मैं तुम्हें उतावली ही कहूंगी. अगर थोड़े समय के लिए धैर्य रखतीं तो शायद, कोई कुछ न कह पाता. जो बात इतने साल छिपा कर रखी थी, साल 2 साल और छिपा लेतीं,’’ कहते हुए सौम्या ने अपनी बायीं कलाई घुमाते हुए घड़ी देखी और उठ जाने को तत्पर हो गई. सारंगी से और कुछ कहने का कोई फायदा न था.

Hindi Story: काश – कुसुम को अपनी जिंदगी से क्यों शिकायत थी

Hindi Story : ‘‘नहीं, पापाजी नहीं, आप ने गलत चाल चली है. यह तो चीटिंग है. गुलाम घोड़े की चाल नहीं चल सकता,’’ मैं जोरजोर से चिल्ला रही थी. जबकि, पापाजी अपनी चाल पर अड़े हुए थे.

वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘तो क्या हो गया बेटा, चाल तो चाल है, घोड़ा चले या गुलाम.’’

दूर खड़े प्रवीण अंकल पास आते हुए बोले, ‘‘सही बात है, अनुराग. अब लाड़ली को हराना है तो कुछ हथकंडे तो अपनाने ही होंगे, वरना वह कहां जीतने देगी आप को? आप दोनों झगड़ते खूब हो, पर जानता हूं मैं, आप प्यार भी उसे बहुत करते हो.’’

‘‘क्या करूं प्रवीण, एक यही तो है जो बिलकुल मेरे जैसी है. मुझे समझती भी है और मेरे साथ मस्ती भी कर लेती है. वरना, आज के बच्चों के पास बुजुर्गों के लिए समय ही कहां है.’’

‘‘यह लीजिए पापाजी, शह. बचाइए अपना राजा,’’ मैं खुशी से तालियां बजाती हुई बोली. फिर सहसा खयाल आया कि पापाजी और प्रवीण अंकल को चाय देने का समय हो गया है.

‘‘पापाजी, चाय बना लाती हूं,’’ मैं उठती हुई बोली तो पापाजी प्रवीण अंकल से फिर मेरी तारीफ करने लगे.

वाकई, मैं और पापाजी बिलकुल एक से हैं. हमारी पसंदनापसंद हमारी सोच या कहिए पूरा व्यक्तित्व ही एकसा है. पापाजी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं जहां उन के साथ मस्ती करती हूं, तरहतरह के गेम्स खेलती हूं तो वहीं गंभीर विषयों पर चर्र्चा भी करती हूं. वे मुझे हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, मेरी केयर करते हैं.

वैसे, बता दूं, हमारा कोई खून का रिश्ता नहीं और न ही उन्होंने मुझे गोद लिया है. अब आप सोच रहे होंगे कि वे मेरे पापा कैसे हुए? दरअसल, ‘पापाजी’ मैं अपने ससुर को कहती हूं. वे भी मुझे बेटी से कम नहीं समझते. बहू और ससुर का हमारा रिश्ता बापबेटी के रिश्ते सा मधुर और खूबसूरत है.

मैं जब इस घर में ब्याह कर आईर् थी तो असमंजस में थी कि इस नए घर में ऐडजस्ट कैसे कर पाऊंगी? तब जेठजेठानी ऊपर के फ्लोर पर रहते थे और देवर व सासससुर हमारे साथ थे. जेठजेठानी कुछ माह बाद ही दूसरे शहर में शिफ्ट हो गए थे.

सासुमां का स्वभाव थोड़ा अलग था. वे अपने रिश्तेदारों, महल्ले वालों, पूजापाठ वगैरह में ही लगी रहतीं. पति और बच्चों के लिए वक्त नहीं था उन के पास. देवर पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त रहते तो मेरे पति यानी कुणाल औफिस के कामों में ओवरबिजी थे. मेरे पति स्वभाव से अपनी मां की तरह ही रूखे थे. रह गए मैं और पापाजी. पापाजी रिटायर हो चुके थे. सासुमां के विपरीत पूजापाठ और पोंगापंथी में उन का जरा सा भी विश्वास नहीं था. वे अपना समय पढ़नेलिखने और हलकेफुलके मनोरंजन करने में बिताते.

मैं तब बीए पास थी. पापाजी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं प्राइवेट एमए की परीक्षा दूं. घर में इस बात को ले कर काफी हंगामा हुआ. सासुमां ने भुनभुनाते हुए कहा था, ‘क्या करेगी पढ़ाई कर के? आखिर, घर ही तो संभालना है.’

मेरे पति ने भी टोका था, ‘कुसुम, तू ग्रेजुएट है. यही काफी है मेरे लिए. बेकार झंझट क्यों पाल रही है?’

मगर पापाजी मुझे पढ़ा कर आगे बढ़ाने को कृतसंकल्प थे. वे मानते थे कि ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता. उन के प्रयत्नों से मैं ने एमए पास कर लिया. इस बीच, मैं ने बेबी कंसीव कर लिया था. घर में खुशियां उमड़ पड़ीं. सब खुश थे. उन दिनों सास भी मेरी खास देखभाल करने लगी थीं. मगर ऐनवक्त पर मेरा छोटा ऐक्सिडैंट हुआ और मिसकैरिज हो गया. इस घटना के बाद कुणाल मुझ से कटेकटे से रहने लगे. मेरी सास ने भी मुझे ही दोषी ठहराया. मगर पापाजी ने मुझे संभाला, ‘‘बेटा, इस तरह की घटनाएं कभी भी हो सकती हैं. इस की वजह से स्वयं को टूटने नहीं देना. रास्ते फिर निकलेंगे. वक्त जैसी परिस्थितियां सामने लाता है, उसी के हिसाब से सब मैनेज करना होता है. तुम केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान रखो. बाकी चीजें स्वयं सुधर जाएंगी.’’

मुझे पापाजी के शब्दों से ताकत मिलती. पापाजी को मेरे प्रति असीम स्नेह की एक वजह यह भी थी कि उन की कोई बहन नहीं थी. वे 4 भाई थे. उन की कोई बेटी भी नहीं हुई. 2 बेटे ही थे. शायद यही वजह थी कि वे मुझ में अपनी बेटी देखते थे. एक वजह यह भी थी कि कुछ समय पहले जब वे बीमार पड़े तो मैं ने जीजान से उन की देखभाल की थी. तब से वे मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार रहते. उन्होंने मुझे पीएचडी करने की सलाह दी तो मैं सोच में पड़ गई. उन्होंने आश्वासन दिया कि वे मेरी हर संभव सहायता करेंगे. वे स्वयं इंटर कालेज में लैक्चरर हो कर रिटायर हुए थे. निश्ंिचत हो कर मैं ने फौर्म भर दिया.

समय यों ही गुजरता जा रहा था. देवर को बेंगलुरु में नौकरी मिल गई. वह वहां चला गया. सासुमां अपनी कीर्तनमंडली में और भी ज्यादा व्यस्त रहने लगीं जबकि मेरा ज्यादा समय पापाजी के साथ बीतता. इधर, मेरा रूटीन चेंज होने लगा था. सुबहसुबह मैं पापाजी के साथ जौगिंग के लिए जाती. दिन में उन की मदद से प्रोजैक्ट का काम करती और शाम को हम कभी बैडमिंटन, कभी चैस तो कभी ताश खेलते.

हम दोनों का प्रिय खेल शतरंज, प्रिय पेय ग्रीन टी, प्रिय भोजन कढ़ीचावल, प्रिय टाइमपास किताबें, प्रिय म्यूजिक गायक मुकेश के गाने थे. कुछ वे मौडर्न सोच वाले थे और कुछ मैं ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में विश्वास रखने वाली. इसलिए हमारी खूब बन रही थी.

सासुमां भले ही हर मामले में पारंपरिक सोच रखती थीं पर परदा प्रथा पर ऐतबार नहीं था उन का. मुझे घर में किसी से परदा नहीं कराया जाता. कभीकभी जींस पहन लेने पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. पर मुझे कभीकभी लगता कि सासुमां और कुणाल के बीच कोई खिचड़ी पक रही है.

मैं दोबारा कंसीव नहीं कर पा रही थी. इस बात को ले कर वे दोनों उखड़ेउखड़े रहते. सासुमां अकसर मुझे इस के लिए बातें सुनातीं. उन की जिद पर मेरी मैडिकल जांच हुई. रिपोर्ट आई तो मेरी जिंदगी में हलचल मच गई. मैं कभी मां नहीं बन सकती थी.

इस खबर ने सब को गम के सागर में डुबो दिया. मैं स्वयं अंदर से टूट रही थी पर मुझे संभालने के बजाय उलटा कुणाल मेरा बातबेबात पर अपमान करने लगा. पापाजी इस बात पर कुणाल से नाराज रहने लगे. पर सासुमां कुणाल का ही पक्ष लेतीं.

इस बीच, कुणाल ने यह खबर दे कर सब को अचंभित कर दिया कि उसे कंपनी की तरफ से 2 सालों के लिए बेंगलुरु भेजा जा रहा है. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही वह फैसला सुनाता हुआ बोला, ‘‘कुसुम, तुम मेरे साथ नहीं चल रहीं. मैं अकेला ही जाऊंगा. तुम मम्मीपापा की देखभाल करो.’’

मैं चुप रह गई. वैसे भी कुणाल के दिल में अब मुझे अपने लिए खास जगह नहीं दिखती थी. कुणाल चला गया. मैं अपनी पीएचडी पूरी करने में व्यस्त हो गई. महीनों बीत गए. कुणाल का फोन गाहेबगाहे ही आता और बहुत संक्षेप में हालसमाचार पूछ कर रख देता. मैं फोन करती तो कहता कि अभी व्यस्त हूं या रास्ते में हूं वगैरह.

एक दिन मेरी बेंगलुरु की एक सहेली ने फोन किया और बताया कि कुणाल आजकल एक लड़की के साथ बहुत घूमफिर रहा है. पापाजी ने सुना तो तुरंत फोन उठा कर उसे डांट लगाई पर कुणाल और भी भड़क गया.

उधर, सासुमां भी बेटे का पक्ष ले कर भुनभुनाती रहीं. उस रात मैं ने पहली बार देखा कि पापाजी रातभर जागते रहे हैं. बारबार दरवाजा खोल कर आंगन में टहलने लगते या किचन में जा कर कभी कौफी बनाते तो कभी पानी ले कर आते. मैं खुद भी जागी हुई थी और मेरे कमरे तक ये सारी आवाजें आती रहीं.

सुबह उठ कर उन्होंने जो फैसला सुनाया वह हतप्रभ करने वाला था. पापाजी सासुमां से कह रहे थे, ‘‘आशा, मैं अपना यह घर बहू के नाम कर रहा हूं. मेरे और तुम्हारे बाद इस पर कुणाल का नहीं, बल्कि बहू का अधिकार होगा.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो? कुणाल हमारा बेटा है,’’ सासुमां ने प्रतिरोध किया पर पापाजी अपनी बात पर अड़े रहे.

मैं ने तुरंत आगे बढ़ कर उन से ऐसा करने को मना किया, मगर पापाजी नहीं माने. वकील बुला कर सारी कागजी कार्यवाही पूरी कर ली. मैं समझ रही थी कि पापाजी आने वाले तूफान से लड़ने के लिए मुझे मजबूत बना रहे हैं. सचमुच

2-3 माह बाद ही कुणाल ने मुझे तलाक के कागजात भेज दिए.

पहले तो मैं कुणाल के आगे रोईगिड़गिड़ाई, पर फिर पापाजी के कहने पर मैं ने सहमति से तलाक दे दिया.

जल्द ही खबर आ गई कि कुणाल ने दूसरी शादी कर ली है. पापाजी ने कुणाल से सारे संबंध काट लिए थे. जबकि, मैं बापबेटे को फिर से मिलाना चाहती थी. पापाजी इस बात के लिए कतई तैयार न थे. वे मुझे अपनी बेटी मानते थे. इस बात पर सासुमां ने कई दिनों तक बखेड़े किए. वे बीमार भी रहने लगी थीं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या करूं? मेरे घर में मां,

2 बहनें और एक छोटा भाई है. घरवालों ने मुझे पापाजी के हिसाब से चलने की सलाह दी थी. उन्हें पापाजी का नजरिया बहुत पसंद था. वैसे भी, तलाकशुदा बन कर वापस मायके में रहना मेरे लिए आसान नहीं था. ऐसे में पापाजी की बात मान कर मैं इसी घर में रहती रही. सासुमां अब ज्यादा ही बीमार रहने लगी थीं. एक दिन तेज बुखार में उन्होंने सदा के लिए आंखें बंद कर लीं. अब तक देवर की भी शादी हो चुकी थी. वह बेंगलुरु में ही सैटल हो चुका था.

मैं और पापाजी बिलकुल अकेले रह गए. मैं ने पीएचडी पूरी कर ली और पापाजी की प्रेरणा से एक कालेज में लैक्चरर भी बन गई. इधर, कुणाल से हमारा संपर्क न के बराबर था. कभी होलीदीवाली वह फोन करता तो पापाजी औपचारिक बातें कर के फोन रख देते.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. कुणाल पापाजी से इस बात पर नाराज था कि उन्होंने अपनी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी और मेरी वजह से उस से नाता तोड़ दिया. उधर, पापाजी कुणाल से इस वजह से नाराज थे कि उन की बात न मानते हुए कुणाल ने मुझे तलाक दे कर दूसरी शादी की.

एक दिन शाम के समय कुणाल का फोन आया. पापाजी ने फोन मुझे थमा दिया. कुणाल भड़क उठा और मुझे जलीकटी सुनाने लगा. पापाजी ने फोन स्पीकर पर कर दिया था. हद तो तब हुई जब उत्तेजित कुणाल मेरे और पापाजी के संबंधों पर कीचड़ उछालने लगा. कुणाल कह रहा था, ‘मैं समझ रहा हूं, पापाजी ने मुझे घर से बेदखल कर तुम्हें क्यों रखा हुआ है. तुम दोनों के बीच क्या चक्कर चल रहा है, इन सब की खबर है मुझे. ससुर के साथ ऐसा रिश्ता रखते हुए शर्म नहीं आई तुम्हें?’

वह अपना आपा खो चुका था. पापाजी के कानों में उस की ये बातें पहुंच रही थीं. उन्होंने मोबाइल बंद करते हुए उसे उठा कर फेंक दिया. मैं भी इस अप्रत्याशित इलजाम से सदमे में थी और मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. पापाजी ने मुझे सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, जमाना जो कहे, जितना भी कीचड़ उछाले, मैं ने तुझे अपनी बेटी माना है और अंतिम समय तक एक बाप का दायित्व निभाऊंगा.’’

अगले ही दिन से उन्होंने मुझे वास्तव में दत्तक पुत्री बनाने की कागजी कार्यवाही शुरू कर दी. रिश्ते को कानूनी मान्यता मिलने के बाद उन्होंने फाइनल डौक्यूमैंट्स की एक कौपी कुणाल को भी भेज दी.

अब मैं भी निश्ंिचत हो कर पूरे अधिकार के साथ अपने पिता के साथ रहने लगी. इधर, घर का ऊपरी हिस्सा पापाजी ने पेइंगगैस्ट के तौर पर

4 लड़कियों को दे दिया. उन लड़कियों के साथ मेरा मन लगा रहता और मेरे पीछे वे लड़कियां पापाजी की सहायता करतीं.

वक्त का चक्का अपनी गति से चलता रहा. मैं ने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया था. पर शायद कुणाल की जिंदगी के इम्तिहान अभी बाकी थे. कुणाल की बीवी की एक ऐक्सिडैंट में मौत हो गई. उस के 5 साल के बच्चे की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा. ऐसे में कुणाल को मेरी और पापाजी की याद आई. उस ने मुझे फोन किया, ‘‘प्लीज कुसुम, तुम्हीं इस बिन मां के बच्चे को संभाल सकती हो. मैं तो पूरे दिन बाहर रहता हूं. रात में लौटने का भी कोई टाइम नहीं है. श्रुति के घरवालों में भी कोई ऐसा नहीं जो इस की देखभाल करने को तैयार हो. अब मेरा बच्चा तुम्हारे आसरे ही है. इसे मां का प्यार दे दो. तुम्हें ही पापाजी से भी बात करनी होगी.’’

मैं ने उसे ऊपरी तौर पर तो हां कह दिया पर अंदर से जानती थी कि पापाजी कभी तैयार नहीं होंगे. मेरे अंदर की औरत उस बच्चे को स्वीकारने को व्यग्र थी. सो, मैं ने पापाजी से इस संदर्भ में बात की. वे भड़क उठे, ‘‘नहीं, यह मुमकिन नहीं. उसे अपने किए की सजा पाने दो.’’

‘‘मैं मानती हूं पापाजी कि कुणाल ने हमारे साथ गलत किया. उस ने आप का दिल दुखाया है. पर पापाजी उस नन्हे से बच्चे का क्या कुसूर? उसे किस बात की सजा मिले?’’

पापाजी के पास मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं था. मैं ने भीगी पलकों से आगे कहा, ‘‘पापाजी, मुझे जिंदगी ने बच्चा नहीं दिया है. पर क्या कुणाल के इस बच्चे को अस्वीकार कर मैं आने वाली खुशियों के दरवाजे पर ताला नहीं लगा रही?’’

‘‘ठीक है बेटी,’’ पापाजी का गंभीर स्वर उभरा, ‘‘तुम उस बच्चे को रखना चाहती हो तो रख लो. जिंदगी तेरी गोद में खुशियां डालना चाहती है तो मैं कतई नहीं रोकूंगा, वैसे भी, वह मेरा पोता है. उस का हक है इस घर पर. मगर याद रखना कुणाल ने मुझ पर और मेरे घर पर अपना हक खो दिया है.’’

मैं ने यह बात कुणाल से कही तो वह खामोश हो गया. मैं समझ रही थी कि किसी भी बाप के लिए अपना बच्चा किसी और को सौंप देना आसान नहीं होता. कुणाल ऐसे मोड़ पर था जहां वह अपना पिता तो खो ही चुका था, अब बच्चे को भी पूर्व पत्नी के हाथ सौंप कर क्या वह बिलकुल अकेला नहीं हो जाएगा?

मैं कुणाल की मनोदशा समझ रही थी. 2-3 दिन बीत गए. फोन कर कुणाल से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई. उस दिन इतवार था. मैं घर पर थी और पापाजी के लिए दलिया बना रही थी. पापाजी कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अचानक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो चौंक पड़ी. सामने कुणाल खड़ा था, 5 साल के प्यारे से बच्चे के साथ.

‘‘कुसुम, यह है मेरा बेटा नील. आज से मैं इस की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपता हूं. तुम ही इस की मां हो और तुम्हें ही इस का खयाल रखना होगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. पापाजी से कहना कि कुणाल माफी के लायक तो नहीं, फिर भी मांग रहा था,’’ यह कहते हुए उस ने नील का हाथ मेरे हाथों में थमाया और तेजी से बाहर निकल गया.

मैं नील को लिए अंदर पहुंची तो पापाजी को सामने खड़ा पाया. वे भीगी पलकों से एकटक नील की तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने बढ़ कर नील को गले लगा लिया.

मैं सोच रही थी, काश, पापाजी के इन आंसुओं के साथ कुणाल के प्रति उन की नाराजगी भी धुल जाए और काश, नील बापबेटे के बीच सेतु का काम करे. काश, हमारी बिखरी खुशियां फिर से हमें मिल जाएं.

Hindi Story: लक्ष्मणरेखा – क्या लीना उस आंधी को मात दे पाई

Hindi Story, राइटर- पल्लवी पुंडीर

लीना अपनी थकी हुई, झुकी हुई गरदन उठा कर आकाश की ओर देखने लगी. उस की आंखों में विचित्र सा भाव था, मानो भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रही हो, किसी बीती बात को याद करने की, अपने अंदर घुटी हुई सांसों को गतिमान करने की, किसी मृत स्वप्न को जीवित करने की, और इस कोशिश में सफल न हो रही हो.

दोपहर को उस सूनी सड़क पर जैसे कोई छाया मंडरा रही थी. मनुष्य ने इस धरती के अनेक टुकड़े किए. देश, महादेश बनाए. प्रत्येक देश और महादेश की एक परिसीमा तय की गई. प्राचीन काल से ले कर वर्तमान तक इन सीमाओं के लिए युद्ध होते रहे हैं. लेकिन, कोरोना बिना अनुमति सीमाओं को तोड़ता हुआ अपना साम्राज्य फैलाया गया. बिना किसी पासपोर्ट, बिना कोई वीजा, आज वह विश्व के लगभग हर शहर में मातम बांटता घूम रहा है. उस के भय से सभी अपनेअपने घरों में बंदी थे, जीवित रहने की यह महत्त्वपूर्ण शर्त जो थी.

भारत के अन्य शहरों की तरह पंजाब के फिरोजपुर शहर में भी लौकडाउन था. लीना विवाहिता थी, एक बच्चे की मां. उस का पति अमरीश सिंह रेलवे में काम करता है. वे उसी हैसियत से रेलवे के क्वार्टर में रहते हैं. पहले सुबह 9 बजे चला जाता था. उस के बाद दोपहर में खाना खाने घर आता, फिर घंटेभर बाद जा कर शाम 6 बजे तक लौट आता था. कभीकभी दोस्तों के साथ पीने बैठ जाता, तो देर भी हो जाया करती थी.

पर लौकडाउन ने दिनचर्या बदल कर रख दी थी. 10 बजे सो कर उठना, नाश्ता करना, स्नान करना, टीवी देखना, दोपहर का भोजन करना, उस के बाद फिर से पैर फैला कर सो जाना. शाम को चाय के साथ पकौड़े का आनंद उठाना, बालकनी से चिल्ला कर कुछ दोस्तों से बातें करना, उस के बाद टीवी देखने बैठ जाना, रात का खाना खाना और फिर बिस्तर पर गिर जाना. लेकिन, कुछ ही दिनों में वह इस अत्यधिक आराम से परेशान हो गया बेचारा. पिछले कई दिनों से उकताया हुआ घूम रहा था. पहले काम का रोना रोता था, अब आराम का.

घर के काम में लीना की सहायता के लिए आरती आती थी. लेकिन लौकडाउन में उसे भी छुट्टी मिल गई थी. अमरीश को लीना की यह मुसीबत दिखती नहीं थी. वह लीना को भी कहां ठीक से देख पाया था. देखना क्या मात्र आंखों से होता है. यदि हां, तो अमरीश लीना को नहीं, एक लोथ को रोज देखता था.

एक लोथ में जान न के बराबर थी. एक लोथ जिस के चारों तरफ लक्ष्मणरेखा खींच कर उस की रक्षा की जा रही थी. एक लोथ जिसे निर्णय करना आता ही कहां था. उस के लिए प्रश्न करना निषेध था. कभीकभी शारीरिक अत्याचारों से पीडि़त हो कर वह लोथ अपने स्वामी से एक क्षीण फरियाद करती. उस की व्यथा को कोई उत्तर नहीं मिलता. लोथ एक शरीर कहां थी. वह दान में दे दी गई एक वस्तु थी, जिसे अपने कष्टों के लिए मात्र आंसू गिराने का अधिकार था. अमरीश उस लोथ से अपनी भूख मिटाता था.

लीना पढ़ीलिखी थी. वह अपने अधिकारों को जानती थी. उस ने बीएड किया था. केंद्रीय विद्यालय में उस का चयन भी हो गया. 4-5 महीने पहले ही एक छोटे शहर में उस की पोस्ंिटग की खबर प्राप्त हुई थी.

लेकिन अमरीश के अनुसार लीना शहर से बाहर जा कर काम करने लायक नहीं थी. दूसरी बात यह भी थी कि वह चली जाती तो घर का काम कौन करता. सबकुछ सोचसमझ कर, लीना की नौकरी करने की इच्छा का सम्मान करते हुए, अमरीश ने उसे फिरोजपुर में ही किसी प्राइवेट स्कूल को जौइन करने की आज्ञा दे दी थी.

अपने अधिकारों को जानना और उन के लिए आवाज उठाना दो अलग विषय हैं. इस समाज के लिए लीना एक मां थी, बेटी थी, बहू थी, पत्नी थी, स्त्री थी, कुटुंब की इज्जत थी. वह मात्र मनुष्य नहीं थी. लीना एक ऐसे भ्रमजाल में कैद थी, जहां उस ने स्वयं को खो दिया था. डूबने से बचाने के लिए हाथ तो मारना ही पड़ता है, पर लीना के दोनों हाथ पीछे बंधे हुए थे. एक प्रयास बंधन को खोल सकता था, लेकिन प्रयास करना वह भूल गई थी.

पिछले एक घंटे से लीना खिड़की पर खड़ी थी. जब उन्होंने भोजन समाप्त किया तब 2 बजने वाले थे. अमरीश सोने की बात कह कर बैडरूम में चला गया था. बेटा तो पहले ही सो गया था. वह खड़ी रह गई थी.

तभी दूर कुछ खड़का. एकाएक वह चौंकी, फिर वहीं खड़ीखड़ी अपनेआप में ही एक लंबी सी थकी हुई सांस के साथ बोली, ‘‘3 बज गए…’’ मानो एक लंबी यात्रा का समापन हुआ हो. तभी रसोई में खुले हुए नल ने कहा टिपटिपटप…

‘‘पानी…’’ इतना कह कर वह ऐसे उछली जैसे बिजली के नंगे तार को छू दिया हो. रसोई में बरतनों की खनखनाहट के बीच वह बरतन धोने लगी.

जब लीना बरतन धो चुकी तो सोचा चल कर कुछ पढ़ लिया जाए. वह पिछले एक महीने से शिवानी का उपन्यास ‘कृष्णकली’ पढ़ रही थी. नहींनहीं, पढ़ना कहना गलत होगा, पढ़ने का प्रयास कर रही थी. हां, तो आज फिर पढ़ने को सोच ही रही थी कि ‘खट’ आवाज के साथ बेटे की एक तेज चीख कानों में आ कर टकराई. वह उस तरफ दौड़ी. आज फिर कृष्णकली प्रतीक्षा करती रह गई. यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया.

अमरीश बेटे के पास ही सो रहा था. गुस्से और खीझ के मिलेजुले स्वर में चिल्लाया, ‘‘क्या हुआ.’’ जैसे समझ ही नहीं पा रहा कि क्या हुआ.

शिशु चिल्लाचिल्ला कर रोने लगा था. लीना उसे हृदय से लगा कर चुप कराने का प्रयास करने लगी. करुणाभरे स्वर में बोली, ‘‘चोट बहुत लग गई बेचारे को. आप ने देख…’’ अपनी बात को स्वयं ही चबा गई थी.

चटाक…

एक छोटे क्षणभर के लिए लीना स्तब्ध रह गई, फिर एकाएक उस के मन ने, उस के समूचे अस्तित्व ने, स्वयं को दुत्कार दिया.

अमरीश बोलता जा रहा था, ‘‘इस को चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है. तुम से एक बच्चा नहीं संभाला जाता. दिनभर घर में बैठ कर बस मोटी होती जा रही हो. बाहर जा कर 2 आदमियों से बात करने लायक नहीं हो. मैं भी सोचता हूं, चलो मूर्ख है, घर देख लेगी. लेकिन नहीं. एक फूहड़ गृहिणी हो तुम. आराम का जीवन मिला है न, इसलिए मेहनतकरना जानती ही नहीं हो.’’

अमरीश का यह थप्पड़, पहला नहीं था. यह अमावस्या लीना के जीवन में आती रहती थी. किंतु जब से लौकडाउन हुआ, अमावस्या स्थायी हो गई थी.

कुछ ही देर में पूर्ववत शांति हो गई थी. अमरीश फिर लेट कर ऊंघ रहा था. मृतवत जड़ता के साथ लीना अपने शिशु को ले कर चली गई.

घर में काफी देर मौन रहा. थोड़ी देर तक तो वह मौन भावनाशून्य ही रहा. लीना को ऐसा लगा जैसे यह नीरसता और निर्जीवता उसे घेर लेगी. इस में एक प्रतीक्षा भी थी. उस का अपना मन स्वयं के उठने की प्रतीक्षा कर रहा था.

शिशु अब नीचे बैठ कर खेल रहा था. तभी अमरीश उठ कर आ गया. पहले उस ने लीना की ओर देखा और फिर बाहर बालकनी में जा कर खड़ा हो गया.

थोड़ी देर बाद जैसे उसे ध्यान आया कि वह चाह कर भी बाहर नहीं जा सकता. उस की एक बुरी आदत थी, सिगरेटशराब पीने की. घर में पड़ी बीयर की बोतलें भी समाप्त हो गई थीं. सामने की बालकनी में अनिल खड़ा सिगरेट पी रहा था. अमरीश पर नजर पड़ते ही, हाथ हिला कर उस ने इशारा किया. अमरीश ने भी हाथ हिला दिया. सिगरेट की एक तलब उस के भीतर भी जग गई थी. वह झुंझलाया सा लीना के सामने पड़ी हुई कुरसी पर आ कर बैठ गया था.

‘‘मन कड़वाहट से भर रहा है. आजकल दिन तो जैसे समाप्त ही नहीं होता. गलीगली, चौकमहल्ले सब जैसे मर गए हैं. अब और नहीं बैठा जाता घर में. मैं जेल में नहीं रह सकता. कोई सजायाफ्ता कैदी हूं क्या. कल अनिल का फोन आया था. जरूरी सामान लेने का बहाना कर के बाहर घूमने जाया जा सकता है. अरे, कुछ नहीं होता, मैं बाहर से आता हूं,’’ इतना कह कर वह उठ खड़ा हुआ.

अमरीश के जाते ही कमरे में सूर्यास्त आ गया और लीना उस अरुणिमा में भीग गई थी. वैसे भी ऐसे एकांत लीना को प्रिय थे. कुछ देर का यह काल्पनिक संसार उस के मन को प्रसन्नता से भर दिया करता था.

दूध पी कर और थोड़ी देर खेल कर शिशु भी फिर सो गया था. लीना ने उसे बिस्तर पर लिटा कर दोनों तरफ से तकिया लगा दिया और स्वयं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई.

लीना को उस निर्जन वातावरण में भी एक संगीत सुनाई दे रहा था. तभी एक जानीपहचानी कर्कश ध्वनि उस के कानों से टकराई.

‘हाय…हाय…मार डाला.’

लीना ने थोड़ा लटक कर नीचे झांका. 4-5 पुलिस वालों से घिरा अमरीश कराह रहा था. घमंडी अमरीश घर से बिना मास्क लगाए निकल गया था. कुछ दूर पर ही पुलिस वालों के हत्थे चढ़ गया था. डंडे से उस की पूजा हो चुकी थी. अब उठकबैठक की तैयारी हो रही थी.

‘‘भाई, माफ कर दो…’’ अमरीश गिड़गिड़ा रहा था.

एक पुलिस वाला बोला, ‘‘एक तो बिना मास्क लगाए निकल आया. जब मना किया तो गाली देता है. झूठा. सामान लेने निकला था, तो थैला कहां है?’’

‘‘सर, सर मैं सच कह रहा हूं, मेरा घर सामने ही है. मैं रेलवे का कर्मचारी ही हूं. पहचानपत्र घर में रह गया है. वो…वो… मेरे घर की बालकनी है. लीना…लीना… लीना…’’ अमरीश चिल्लाया था.

किसी शक्ति के वशीभूत लीना तुरंत नीचे बैठे गई थी. जब अमरीश और पुलिस वालों ने ऊपर देखा, वहां कोई नहीं था.

‘‘पागल औरत. वैसे तो पूरे टाइम बालकनी में टंगी रहती है, और आज पता नहीं कहां गायब है. सर…सर… मैं…’’ पैर पर डंडा पड़ते ही उस का गुस्सा कराह में बदल गया था.

उठकबैठक आरंभ हो गई थी. पुलिस वाले गिनती कर रहे थे. अपनेअपने घरों से पूरा महल्ला तमाशा देख रहा था. कुछ लोग शायद वीडियो भी बना रहे थे. चिल्लाने के स्थान पर अमरीश अब रो रहा था.

लीना कोई गीत गुनगुना रही थी. एक प्रतीक्षा समाप्त हो गई थी. एक मुर्दा शरीर में कोई प्राण फूंक गया था. देखते ही देखते पूरा आसमान बादलों से ढक गया. मौसम बदल रहा था. चुभती गरमी को मात देने के लिए किसी आंधी की आवश्यकता नहीं होती, वर्षा की मंजुल फुहारें ही बहुत होती हैं.

एक चुप अत्याचारी को ताकत और प्रताडि़त को भय देती है. एक साहसिक विरोध पहले विचारों में पनपता है, फिर क्रिया में उतरता है.

लीना वहां बैठी घंटों, मिनटों, परिस्थिति के अत्यधिक विश्लेषण में बिता सकती थी, उन टुकड़ों को फिर से जोड़ने की कोशिश में और सोचने में कि शायद ऐसा हो सकता था, या वैसा हो सकता था. लेकिन उस ने उन टुकड़ों को जमीन पर छोड़ कर आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

‘‘सर, ये मेरे पति श्री अमरीश सिंह हैं. इन से गलती हो गई.’’

लीना की शांत और दृढ़ आवाज सुनते ही पुलिस वालों ने अमरीश को रुकने का इशारा कर दिया. उन में से एक बोला, ‘‘मैडम, आप जैसे पढ़ेलिखे लोग नहीं समझोगे तो जो बेचारे अनपढ़ हैं उन से क्या उम्मीद करें. घर में रहो, सुरक्षित रहो.’’

लीना ने कहा, ‘‘जी, आप सही कह रहे हैं.’’

फिर दूसरा पुलिस वाला अमरीश की तरफ देख कर बोला, ‘‘शुक्र मनाओ कि घर है. उन का सोचो जिन के घर ही नहीं हैं. चलो जाओ. मैडम आ गईं, इसलिए छोड़ रहे हैं.’’

अमरीश ने धीमे से सिर हिलाया और लीना का सहारा ले कर घर की तरफ चल पड़ा था. अपमान और पीड़ा से कराहता हुआ वह आगे बढ़ रहा था. लेकिन उस का दंभ अभी भी समाप्त नहीं हुआ था.

फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचते ही लीना की कलाई को मरोड़ कर बोला, ‘‘कहां मर गई थी. जितना दर्द मुझे हुआ है, उस से कहीं ज्यादा तुझे न दिया तो मेरा नाम अमरीश नहीं.’’

बिना एक पल गंवाए, लीना ने अमरीश का हाथ छोड़ दिया. आकस्मिक हुए इस आघात के लिए अमरीश प्रस्तुत नहीं था. वह लड़खड़ा कर लीना के पैरों के पास गिर पड़ा था.

एक रहस्यमयी मुसकान लीना के होंठों पर खिल गई थी.

वह नीचे झुकी और अमरीश के कानों में बुदबुदाई, ‘‘चोट लगी. दर्द हुआ. मुझे भी दर्द होता है.’’ अमरीश की आंखें फटी की फटी रह गईं. लीना के चेहरे पर भय के स्थान पर आत्मविश्वास आ गया था, दबे हुए कंधे तन गए थे, सदा झुकी रहने वाली गरदन आज स्वाधीनता के साथ खड़ी थी. वह समझ ही नहीं पाया कि इतने कम समय में यह परिवर्तन कैसे आ गया. वह कहां जानता था कि परिवर्तन के लिए समय नहीं, आंतरिक शक्ति का जागना आवश्यक होता है.

लीना ने उसे सहारा दे कर फिर खड़ा किया और लगभग धकेलते हुए अंदर ले गई. अमरीश को अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा था.

अपने पति के चेहरे पर आते भावों का आनंद उठाते हुए लीना बोली, ‘‘आज से ले कर लौकडाउन के समाप्त होने तक घर की यह चौखट, तुम्हारी लक्ष्मणरेखा है. बाहर निकलने की सोचना भी मत.’’

‘‘तू भूल गईर् है, मैं कौन हूं. तेरी लक्ष्मणरेखा तो मैं बनाऊंगा,’’ अमरीश ने भय का जाल फिर फेंका.

इस बार लीना डरी नहीं, बल्कि मुसकराई.

वह बोली, ‘‘मैं तो जानती ही हूं कि तुम कौन हो. लेकिन मैं अब यह भी जान गई हूं कि मैं कौन हूं. तुम ने शायद ध्यान नहीं दिया, तुम्हारी बनाई डर की लक्ष्मणरेखा मैं ने कब की पार कर ली. अब मुझ पर भूल कर भी हाथ मत उठाना क्योंकि मेरे हाथ भी खुल गए हैं. और हां, लौकडाउन के कारण नीचे गली में पुलिस वालों का आनाजाना भी लगा रहेगा.’’

इतना कह कर लीना आगे बढ़ी ही थी कि सहसा उसे कुछ याद आ गया. अमरीश की आंखों में आंखें डाल कर बोली, ‘‘मैं ने अपनी नौकरी जौइन करने का निर्णय ले लिया है.’’

Hindi Story: रत्नमाया – क्यों ठुकराया रत्नमाया ने रत्नसेन का निवेदन

Hindi Story : स्वर्ण रेखा नदी के तट पर स्थित एक मंदिर के द्वार पर एक असहाय तरुणी ने आश्रय की भीख मांगी. उसे आश्रय मिल गया, किंतु वह यह नहीं जानती थी कि मंदिर का वह द्वार नारी देह का व्यापार करने वालों का एक विशाल गृह है.

कल क्या होने वाला है कौन जानता है. तरुणी अपने को समय के हाल पर छोड़ चुकी थी. वह जहां थी जिस हाल में थी अपने को महफूज समझ रही थी.

तभी एक दिन गोधूली की बेला में, मंदिर में होने वाली आरती के समय एक युवक ने वहां प्रवेश किया. एकत्रित भक्त मंडली की भीड़ को चीरता हुआ वह अग्रिम पंक्ति में जा खड़ा हुआ.

आरती खत्म होने पर जब अपने पायलों की रुनझुन बजाती हुई, थाल को हाथों में लिए हुए, देव मंदिर की वह नवयुवती सीढि़यों से उतरी और स्वर्ण रेखा नदी के तट पर आ दीपों को एकएक कर के जल में प्रवाहित करने लगी, तभी पीछे से उस युवक ने पुकारा, ‘‘रत्नमाया.’’

युवती चौंक गई. पीछे मुड़ कर उस ने बलिष्ट कंधों वाले उस गौरांग सुंदर युवक को देखा तो उस के कपोल लाज की गरिमा से आरक्त हो उठे. साड़ी का आंचल धीरे से सिर पर खींच उस ने कहा, ‘‘रत्नसेन, तुम यहां कैसे?’’

‘‘होनी ले आई,’’ युवक ने उत्तर दिया.

‘‘किंतु मैं ने तो समझा था कि हूणों से मेरी रक्षा करने में उस दिन तुम ने अपने जीवन की इति ही कर दी,’’ तरुणी बोली.

युवक हंसा और बोला, ‘‘नहीं,  जीवन अभी शेष था, इसलिए बच गया. तुम कौन हो नहीं जानता, किंतु ऐसा लगता है कि युगोंयुगों से मैं तुम्हें पहचानता हूं. एक लहर ने हमें परिचय के बंधन में पुन: उस दिन बंधने का आयोजन किया था. क्या तुम मुझ पर विश्वास करोगी और मेरे साथ चल सकोगी?’’

युवती कटाक्ष करती हुई बोली, ‘‘मुझ पर इतना अखंडित विश्वास हो गया तुम्हें.’’

युवक बोला, ‘‘मन जो कहता है.’’

‘‘उसे कभी बुद्धि की आधारतुला पर भी तौल कर तुम ने देखा है. एक असहाय नारी की जीवन रक्षा करने का प्रतिफल ही आज तुम मुझ से मांग रहे हो.’’

युवक यह सुन कर हतप्रभ रह गया. उसे लगा नारी के इस उत्तर ने उसे बहुत प्रताडि़त किया है. वह सहमा घूमा और सीढि़यों पर पग रखता हुआ, आगे चल दिया. तभी युवती ने फि र से पुकारा, किंतु उसे पीछे लौटते न देख वह स्वयं उस के निकट आ गई और बोली, ‘‘रत्नसेन, तुम तो बुरा मान गए. काश, तुम समझ सकते कि मैं एक दुर्बल नारी हूं, जो खुल कर अपनी बात नहीं कह सकती.

‘‘हृदय में क्या है और होंठों पर क्या शब्द आ जाते हैं, या मेरे चेहरे पर क्या भाव आते हैं? यह मैं स्वयं नहीं जानती,’’  यह कहतेकहते उस युवती की आंखों में आंसू आ गए, किंतु रत्नसेन पाषाण शिला सा खड़ा रहा. रत्नमाया ने अपने दोनों हाथ उस की भुजा पर रख दिए और बोली, ‘‘एक प्रार्थना है, मानोगे, कल गोधूलि की इसी बेला में आरती के समय तुम आ जाना और मैं नदी के तट पर तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी. तभी तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी दे दूंगी. अब मैं चलती हूं.’’

इतना कह कर रत्नमाया जाने लगी तो रत्नसेन ने कहा, ‘‘सुनो, रत्नमाया, मेरा कर्तव्य पथ कठिन है. मैं एक साधकमात्र हूं. आज जहां हूं, उस स्थान से मैं परिचित नहीं. अपने उद्देश्य पूर्ति के निमित्त मगध जाने के रास्ते में आज यहां रुका. मेरे भरोसे ने मुझ से कहा था कि तुम यहीं कहीं इसी नगरी में होगी और वही आस की प्रबल डोर मुझे बांधेबांधे यहां इसी नदी के तट तक तुम्हारे समीप ले आई.’’

उस ने आगे कहा, ‘‘किंतु तुम मुझे समझने में भूल कर गईं. तुम्हारी जीवन रक्षा कर के उस के प्रतिदान रूप में तुम्हें उपहारस्वरूप मांगने का मेरा कोई  विचार न था,’’ यह कहते हुए रत्नसेन तेजी से आगे बढ़ गया.

उस के जाने के बाद पीछे से रत्नमाया ने अपना सुंदर चेहरा उस पाषाण शिला पर वहीं रख दिया जहां अभीअभी रत्नसेन के चरण पडे़ थे. उसे अपने आंसुओं से धो कर रत्नमाया अपने कक्ष की ओर चल पड़ी.

वहां उन देवदासियों की भीड़ में देवबाला ही इकलौती उस की प्रिय थी. उस से ही रत्नमाया अपनी विरहव्यथा कहती थी. देवबाला उस के अतीत को जानती थी. इसीलिए जब उस दिन स्वर्णनदी में द्वीप प्रवाहित कर वह लौटी तो सहसा देवबाला बोली थी, ‘‘रत्नमाया, यह क्यों भूलती है कि तू एक देवदासी है? उस युवक की शब्द छलना में फंस कर अपनी सुंदर देह को मत गला. भला नारी की छविमाया के सामने पुरुष द्वारा दिए हुए विश्वासों का मूल्य ही क्या है? तू उसे भूल जा. तेरा यह जीवन चक्र तुझे जिस पथ पर ले आया है, उसे ही अब ग्रहण कर.’’

किंतु सब सुनते और समझते हुए भी रत्नमाया ने अपने चेहरे को न उठाया. वह पहले की तरह ही देवबाला के सामने सुबकती रही. बाहर मंदिर में घंटों के बजने का स्वर चारों ओर गूंजने लगा था.

तभी पुजारी ने आ कर पुकारा तो देवबाला ने उठ कर कक्ष के कपाट खोल दिए.

आगंतुक पुजारी ने कहा, ‘‘देवबाला, मंगल रात की इस बेला में रत्नमाया को लंकृत कर दो. रसिक जनों के आगमन का समय हो गया है. शीघ्र ही उसे भीतर विलास कक्ष में भेजा जाएगा.’’

‘‘नहीं,’’  देवबाला बोली. उस के स्वर में दृढ़ता साफ झलक रही थी और आंखों से प्रतिशोध की भावना. उस ने कहा, ‘‘रत्नमाया तो अस्वस्थ है इसलिए विलास नृत्य में वह भाग नहीं ले सकेगी.’’

‘‘अस्वस्थता का कारण मैं खूब जानता हूं,’’ पुजारी बोला, ‘‘एक दिन जब तुम भी इस द्वार पर देवदासी बन कर आई थीं तब भी तुम ने ऐसा ही कुछ कहा था. किंतु मेरे दंड के विधान की कठोरता तुम्हें याद है न.’’

यह कहतेकहते पुजारी की पैशाचिक भंगिमा कठोर हो गई. देवबाला उन्हें देख कर सिहर उठी. खिन्न मन बिना कुछ उत्तर दिए हुए, वापस लौट आई.

‘‘रत्नमाया,’’ देवबाला आ कर बोली, ‘‘औरत की बेबसी ही उस का सब से बड़ा अभिशाप है. तू तो जानती ही है अत: अपने मन को स्वस्थ कर और देख तेरा वह अनोखा भक्त मंदिर में पुन: आया है, जिस ने एक दिन आरती की बेला में तुझे अपने प्रेम विश्वासों की सुरभि से मतवाला किया था.’’

‘‘सच, कौन रत्नसेन?’’ चकित सी वह पूछ बैठी.

‘‘हां, तेरा ही रत्नसेन,’’ देवबाला ने उत्तर दिया.

‘‘आह, बहन एक बार फिर कहो,’’ रत्नमाया कह उठी और तत्काल ही देवबाला को उस ने अपनी बांहों में कस कर बांध लिया. भावनाओं के उद्वेग में हाथ ढीले हुए तो सरकती हुई वह देवबाला के सहारे धरती पर बैठ गई.

कुछ क्षणों के लिए आत्मविभोर देवबाला ठिठकी खड़ी रह गई. फिर उस ने कहा, ‘‘रत्नमाया, तू अब जा और अपनी देह को अलंकृत कर…शीघ्र ही मंदिर में आ जा, आज देवनृत्य का आयोजन है.’’

रत्नमाया तुरंत उठी. उस दिन फिर उस ने अपने अद्भुत रूप को आभूषणों का पुट दे सजाया. गोरे रंग की अपनी देह पर लहराते हुए केशों की एक वेणी गूंथी. केतकी के सुवासित फूलों को उस में पिरो कर गले में देवबाला के दिए हुए हीरक हार को पहना.

रात्रि की उस बेला में ऊपर नीले आकाश में अनेक तारे टिमटिमा रहे थे. उन की छाया के तले अपने हाथों में आरती के थाल को सजाए वह पायलों को रुनझुन बजाती हुई चल दी.

‘‘ठहरो,’’ सहसा देवबाला ने उसे रोक कर कहा, ‘‘रत्नमाया, सुन दुर्भाग्य मुझे एक दिन देवदासी बना कर यहां लाया था किंतु रूप के इतने विपुल भार को लिए हुए अभागिन तेरा समय तुझे यहां क्यों लाया है?’’

रत्नमाया विस्मित रह गई. धीमे से उस ने उत्तर दिया, ‘‘बहन, रूप की बात तो मैं जानती नहीं, किंतु समय के चक्र को मैं अवश्य पहचानती हूं. बर्बर हूणों के आक्रमण में राज्य लुटा, वैभव और सम्मान गया. परिवार का अब कुछ पता नहीं. सबकुछ खो कर जिस प्रकार तुम्हारे द्वार तक आई हूं, वह तुम से छिपा है कुछ क्या?’’

देवबाला ने उत्तर नहीं दिया. किन्हीं विचारों में वह कहीं गहरे तक खो गई. फिर बोली, ‘‘रत्नमाया, क्या रत्नसेन का पता तू जानती है?’’

‘‘नहीं, केवल इतना कि वह एक दिन हठात कहीं से आया और अपने जीवन को दांव पर लगा कर मेरी रक्षा की थी.’’

‘‘और तू ने अपना हृदय इतनी सी बात पर न्योछावर कर दिया,’’ देवबाला बोली.

किंतु उत्तर में रत्नमाया का गोरा चेहरा बस, लाज से आरक्त हो उठा.

देवबाला बोली, ‘‘सुन, रत्नसेन यहां नहीं है और वह मंदिर भी भगवान का उपासना गृह नहीं बल्कि नारी के रूप का विक्रय घर है. आज की इस रात को तू विलास कक्ष में मत जा. यदि तुझे जीवन का मोह नहीं है तो वहां जा, जो इस रूप का मोल कर ले. हां, नहीं तो जीवन की सारी मोहममता त्याग कर तू जहां भी आज जा सकती है…वहां इसी पल इस द्वार को छोड़ कर चली जा.’’

उस समय सामने मंदिर की सीढि़यों से टकराती हुई बरसाती स्वर्णरेखा नदी बही चली जा रही थी. एक असहाय तरुणी के क्लांत हृदय सी चीत्कार करती हुई उस की लहरें वातावरण को क्षुब्ध कर रही थीं.

रत्नमाया ने देवबाला की बात को पूरी तरह सुना अथवा नहीं, किंतु उसी क्षण उस ने अपनी सुंदर देह से स्वर्ण आभूषणों को निकाल कर फेंक दिया. केशों की वेणी में गुथे हुए केतकी के फूलों को नोच कर चारों ओर छितरा दिया और सत की ज्वाला सी धधकती हुई वह रूपवती अद्भुत नारी देवबाला को देखतेदेखते ही क्षणों में वहां से विलीन हो गई. दिन बीतते गए…समय का चक्र अपनी गति से चलता रहा.

…और फिर एक दिन रात्रि के आगमन पर एक छोटे से गांव के मंदिर में किसी सुंदरी ने दीप जलाया. बाहर आकाश में बादल घिरे थे और हवा के एक ही झोंके में सुंदरी के हाथों में टिमटिमाते हुए उस दीपक की लौ बुझ गई.

तभी मंदिर के बाहरी द्वार पर किसी अश्वारोही के रुकने का शब्द सुनाई पड़ा. एकएक कर बडे़ यत्न से वह अश्वारोही मंदिर की सीढि़यों से ऊपर चढ़ा. मानो शक्ति का उस की देह में सर्वथा अभाव हो. किसी प्रकार आगे बढ़ कर वह देवालय के उस द्वार पर आ कर खड़ा हो गया, जहां 2 क्षण पहले ही, उस ने एक छोटा दीपक जलते हुए देखा था.

लेकिन उस के पैरों की आहट सुन कर भी कक्ष की वह नारी मूर्ति हिली नहीं. मन और देह से ध्यान की तंद्रा में तल्लीन वह देव प्रतिमा के समक्ष पुन: दीप जला, पहले की तरह अचल बैठी रही.

युवक के धैर्य का बांध टूट गया. उस ने कहा, ‘‘हे विधाता, जीवन का अंत क्या आज यहीं होने को है?’’

इस बार युवती मुड़ी और पूछा, ‘‘बटोही, तुम कौन हो?’’

‘‘मैं एक सैनिक हूं,’’ उस ने उत्तर दिया और कहा, ‘‘हूणों द्वारा शिप्रा पार कर इस ओर आक्रमण करने के प्रयास को आज सर्वथा विफल किया है, किंतु लगता है कि देह में जीवन शक्ति अब शेष नहीं है. किंतु इस गहन रात्रि में मुझे आज यहां क्या अभय मिल सकेगा?’’

युवती उठ खड़ी हुई. वह द्वार तक आई तभी आकाश में बिजली चमकी और उस के क्षणिक प्रकाश में उस ने रक्त में भीगे युवक के काले केश, उस के गीले वस्त्र और खून में लिपटे चेहरे को देखा. वह चीख उठी अैर अचानक ही उस के मुख से निकला गया, ‘‘कौन? रत्नसेन?’’\ हर्ष और विस्मय से रत्नसेन का हृदय स्पंदित होने लगा. सम्मुख ही गौरांगिनी रत्नमाया खड़ी थी.

उस दिन रत्नमाया फिर रत्नसेन को अपने कक्ष में ले गई और अपने मृदुल हाथों से उस बटोही के घावों को धोया, स्नेह के अमृत रस को ढुलका कर उसे स्वस्थ और चेतनयुक्त बनाया.

बाहर गहन अंधकार अभी भी व्याप्त था. कक्ष में जलते दीपक की धीमी रोशनी में रत्नसेन ने कहा, ‘‘रत्नमाया, वक्त की मुसकान और उस के आंसू विचित्र हैं. कब ये हंसाएगी और कब ये रुला जाएंगी, कोई नहीं जानता? एक दिन बर्बर हूणों से तुम्हारी रक्षा कर सकने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ और फिर अचानक ही उस दिन स्वर्णरेखा नदी के तट पर तुम से पुन: भेंट हो गई.’’

रत्नमाया शांत बैठी सुनती रही. उस ने…अपने कोमल हाथों को उठा कर रत्नसेन के उन्नत माथे पर मृदुलता के साथ रख दिया.

रत्नसेन ने फिर कहा, ‘‘रत्नमाया, तुम्हारी इस रूपशिखा के सतरंगी प्रकाश को अपने से दूर न हटने दूं, मेरा यह दिवास्वप्न अब तुम्हारी कृपा से पूरा होगा.’’

‘‘मन की इच्छापूर्ण कर सकने का सामर्थ्य आप में भला कब नहीं रहा,’’ यह कह रत्नमाया वहां से उठी और अंदर के प्रकोष्ठ में चली गई.

दूसरे दिन जब ऊषा अपने स्वर्णिम रथ पर बैठी सुनहरी चादर को खुले नीलाकाश में फहराती चली आ रही थी, तभी रत्नसेन की खोज में अनेक सैनिकों ने उस गांव में प्रवेश किया. रत्नसेन बाहर मंदिर के प्रांगण में आ कर खड़ा हो गया और एक वृद्ध सैनिक को संकेत से पुकारा, ‘‘सिंहरण, इधर इस ओर मंदिर के समीप.’’

अगले पल में वह देवालय सैनिकों की चहलपहल और कोलाहल से भर गया. वहां का आकाश भी वीर सामंत रत्नसेन की जयजयकार से निनादित हो उठा.

निकट के उद्यान से तभी संचित किए हुए पुष्पों को ले कर, रत्नमाया उस ओर आई. कनकछरी सी कमनीय काया युक्त शुभ्रवसना, उस सुंदरी को देखते ही सहसा सिंहरण विस्मित रह गया. उस ने पुकारा, ‘‘कौन राजकुमारी, रत्नमाया.’’

रत्नमाया ठिठकी. घूम कर उस ने सिंहरण की ओर देखा और बोली, ‘‘सेनापति सिंहरण, अरे, तुम यहां कैसे?’’ फिर जैसे उसे ध्यान हो आया. वह बोली, ‘‘तो बर्बर विदेशियों से आर्यावर्त को मुक्त करने का संकल्प लिए हुए तुम अभी जीवित हो?’’

‘‘हां, राजकुमारी,’’ सिंहरण ने कहा, ‘‘वृद्ध सिंहरण ही जीवित रह गया. तात तुल्य जिस राजा ने सदैव पाला और  मेरे कंधों पर राज्य की रक्षा का भार सौंपा था, यह अभागा तो न उन की ही रक्षा कर सका, न उस धरती की ही. आज भी यह जीवित है, इस दिन को देखने के लिए. आह, स्वर्ण पालने और फूलों की सेज पर जिस राजकुमारी को मैं ने कभी झुलाया था, उस की असहाय बनी इस दीन कुटिया में आज अपने दिन बिताते देखने को यह अभागा अभी जीवित ही है.’’

सिंहरण ने पुन: सामंत रत्नसेन को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘तात, शूरसेन प्रदेश के वीर राजा घुमत्सेन की पुत्री यही राजकुमारी रत्नमाया है.’’

मन की किसी रहस्यमयी अज्ञात प्रेरणावश उस ने रत्नमाया को प्रणाम किया. उत्तर में उस की प्रेमरस से अभिसिंचित शुक्रतारे सी उज्ज्वल मोहक मुसकान को पा, वह आत्मविभोर हो उठा.

किंतु उस दिन अति आग्रह पर भी रत्नमाया रत्नसेन के साथ नहीं गई. उस के अभावों और कष्टों के पीडि़त दिनों में ग्रामीणजनों ने निश्चल, निस्वार्थ भाव से एक दिन उसे आश्रय प्रदान किया था. वह उन्हीं की सेवा में पूर्ववत तनमन से ही संलग्न रही.

गुप्तकाल के यशस्वी मानध्वज के नीचे सामूहिक रूप से संगठित हो एक दिन आर्य वीरों ने जब भारत भूमि को हूणों की पैशाचिक सत्ता से मुक्त कर लिया, तभी प्रभात की एक बेला में एक स्वर्णमंडित रथ रत्नमाया के उस छोटे से गांव में आया. उस पर से पराक्रमी मालव सामंत वीर रत्नसेन उतरे. उन के साथ ही फूल सी कोमल कुंदकली सुंदर राजवधू रत्नमाया को ग्रामीण जनों ने स्नेह के आंसू दे विदा कर दिया.

उस दिन ग्रामवधुओं ने रथ को घेर लिया था और उस के पथ को अपने मोहक प्रेमफूलों से पूरी तरह सजा दिया. उस रास्ते पर से जाते समय अपने दुख के दिनों में भी जिस रत्नमाया के नयन आंसुओं से कभी इतने आर्द न हो सके थे, जितने आज हुए.

Hindi Story: प्राइवेट अस्पताल और डॉक्टर

Hindi Story, लेखक- रंगनाथ द्विवेदी

वह शहर का सब से मशहूर और काफी महंगा प्राइवेट अस्पताल था, जिस की सीढि़यों पर चमचमाते हुए संगमरमर के पत्थर लगे थे.

उसी अस्पताल के अंदर एक औरत मौजूद थी. वह पहनावे से काफी गरीब लग रही थी. वह अपने बीमार बच्चे को ले कर वहां के मुलाजिमों के सामने गिड़गिड़ा रही थी.

वह औरत चाहती थी कि उस अस्पताल का डाक्टर केवल एक बार उस के बच्चे को देख ले, लेकिन उन सभी के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही थी.

वह औरत उन लोगों के इस घटिया बरताव को नजरअंदाज कर के उन से मानो भीख मांग रही थी, ‘‘एक बार डाक्टर साहब को बुला लीजिए. आप सब की मुझ गरीब पर बड़ी मेहरबानी होगी.’’

उस औरत के कई बार ऐसा कहने पर उन में से एक मुलाजिम बोला, ‘‘अभी डाक्टर साहब के आने में समय है.’’

अस्पताल के मुलाजिम उस औरत को किसी तरह उस अस्पताल से टरकाना चाहते थे, क्योंकि वे जान गए थे कि इस औरत के पास अपने बच्चे को दिखाने के लिए एक फूटी कौड़ी तक नहीं है. लेकिन जिस मां का बच्चा बीमार हो, वह उसे बचाने की कोशिश करना कैसे छोड़ सकती?है.

उस औरत ने फिर भी कोशिश और उम्मीद नहीं छोड़ी. लेकिन शायद उस की इस बार की कोशिश से अस्पताल का सारा स्टाफ झुंझला गया और उस औरत को जबरदस्ती अस्पताल के बाहर कुछ इस तरह धकेला कि वह अपने बीमार बच्चे के साथ गिरतेगिरते बची.

इस के बाद वह औरत कुछ देर उस अस्पताल के चमचमाते पत्थर लगी सीढि़यों के एक किनारे अपने बीमार बच्चे को ले कर ऐसे बैठ गई, जैसे वह डाक्टर के आने का इंतजार कर  रही हो.

इसी उम्मीद में वह बीचबीच में अपने बीमार बच्चे को देखती और धीरेधीरे थपकती, जैसे वह उसे समझा रही हो कि बस बेटा थोड़ी देर और रुक जा, फिर तू एकदम भलाचंगा हो जाएगा.

तभी उस औरत के कानों में ‘डाक्टर साहब आ गए’ की आवाज सुनाई पड़ी. इतना सुनते ही उस की बुझी आंखों में जैसे अचानक कोई चमक आ गई.

वह झट से उठी और अपने बच्चे को उठाने की कोशिश करने लगी, पर उस के बच्चे के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई. वह औरत घबरा कर बहुत जोर से चीखी और अपने बच्चे को उठातेउठाते एक तरफ लुढ़क गई.

उस अस्पताल का स्टाफ उस औरत की तरफ दौड़ा. उन लोगों में अब डाक्टर भी शामिल था. पर उन सभी ने वहां पहुंचने में बहुत देर कर दी.

डाक्टर ने उस औरत और उस के बच्चे की नब्ज देखते हुए कहा, ‘‘ये दोनों तो मर चुके हैं. इन की डैड बौडी जल्दी से अस्पताल के सामने से हटवाओ,’’ इतना कह कर वह अपने केबिन की तरफ चला गया.

Short Story: सुख की गारंटी- महक की उस राज से अनु क्यों हैरान रह गई

Short Story : एकदिन काफी लंबे समय बाद अनु ने महक को फोन किया और बोली, ‘‘महक, जब तुम दिल्ली आना तो मुझ से मिलने जरूर आना.

‘‘हां, मिलते हैं, कितना लंबा समय गुजर गया है. मुलाकात ही नहीं हुई है हमारी.’’

कुछ ही दिनों बाद मैं अकेली ही दिल्ली जा रही थी. अनु से बात करने के बाद पुरानी यादें, पुराने दिन याद आने लगे. मैं ने तय किया कि कुछ समय पुराने मित्रों से मिल कर उन

पलों को फिर से जिया जाए. दोस्तों के साथ बिताए पल, यादें जीवन की नीरसता को कुछ कम करते हैं.

शादी के बाद जीवन बहुत बदल गया व बचपन के दिन, यादें व बहत कुछ पीछे छूट गया था. मन पर जमी हुई समय की धूल साफ होने लगी…

कितने सुहाने दिन थे. न किसी बात की चिंता न फिक्र. दोस्तों के साथ हंसीठिठोली और भविष्य के सतरंगी सपने लिए, बचपन की मासूम पलों को पीछे छोड़ कर हम भी समय की घुड़दौड़ में शामिल हो गए थे. अनु और मैं ने अपने जीवन के सुखदुख एकसाथ साझा किए थे. उस से मिलने के लिए दिल बेकरार था.

मैं दिल्ली पहुंचने का इंतजार कर रही थी. दिल्ली पहुंचते ही मैं ने सब से पहले अनु को फोन किया. वह स्कूल में पढ़ाती है. नौकरी में समय निकालना भी मुश्किल भरा काम है.

‘‘अनु मैं आ गई हूं… बताओ कब मिलोगी तुम? तुम घर ही आ जाओ, आराम से बैठेंगे. सब से मिलना भी हो जाएगा…’’

‘‘नहीं यार, घर पर नहीं मिलेंगे, न तुम्हारे घर न ही मेरे घर. शाम को 3 बजे मिलते हैं. मैं स्कूल समाप्त होने के बाद सीधे वहीं आती हूं, कौफी हाउस, अपने वही पुराने रैस्टोरैंट में…

‘‘ठीक है शाम को मिलते हैं.’’

आज दिल में न जाने क्यों अजीब सी

बैचेनी हो रही थी. इतने वर्षों में हम मशीनी जीवन जीते संवादहीन हो गए थे. अपने लिए जीना भूल गए थे. जीवन एक परिधि में सिमट गया था. एक भूलभुलैया जहां खुद को भूलने

की कवायत शुरू हो गई थी. जीवन सिर्फ ससुराल, पति व बच्चों में सिमट कर रह गया था. सब को खुश रखने की कवायत में मैं खुद को भूल बैठी थी. लेकिन यह परम सत्य है कि सब को खुश रखना नामुमकिन सा होता है.

दुनिया गोल है, कहते हैं न एक न एक दिन चक्र पूरा हो ही जाता है. इसी चक्र में आज बिछड़े साथी मिल रहे थे. घर से बाहर औपचारिकताओं से परे. अपने लिए हम अपनी आजादी को तलाशने का प्रयत्न करते हैं. अपने लिए पलों को एक सुख की अनुभूति होती है.

मैं समझ गई कि आज हमारे बीच कहनेसुनने के लिए बहुत कुछ होगा. सालों से मौन की यह दीवार अब ढलने वाली है.

नियत समय पर मैं वहां पहुंच गई. शीघ्र ही अनु भी आ गई. वही प्यारी सी मुसकान, चेहरे पर गंभीरता के भाव, पर हां शरीर थोड़ा सा भर गया था, लेकिन आवाज में वही खनक थी. आंखें पहले की तरह प्रश्नों को तलाशती हुई नजर आईं, जैसे पहले सपनों को तलाशती थीं.

समय ने अपने अनुभव की लकीरें चेहरे पर खींच दी थीं. वह देखते ही गले मिली तो मौन की जमी हुई बर्फ स्वत: ही पिघलने लगी…

‘‘कैसी हो अनु, कितने वर्षों बाद तुम्हें देखा है, यार तुम तो बिलकुल भी नहीं बदलीं…’’

‘‘कहां यार, मोटी हो गई हूं… तुम बताओ कैसी हो? तुम्हारी जिंदगी तो मजे में गुजर रही है, तुम जीवन में कितनी सफल हो गई हो… चलो आराम से बैठते हैं…’’

आज वर्षों बाद भी हमें संवादहीनता का एहसास नहीं हुआ… बात जैसे वहीं से शुरू हो गई, जहां खत्म हुई थी. अब हम रैस्टोरैंट में अपने लिए कोना तलाश रहे थे, जहां हमारे संवादों में किसी की दखलंदाजी न हो. इंसानी फितरत होती है कि वह भीड़ में भी अपना कोना तलाश लेता है. कोना जहां आप सब से दुबक कर बैठे हों, जैसे कि आसपास बैठी 4 निगाहें भी उस अदृश्य दीवार को भेद न सकें. वैसे यह सब मन का भ्रमजाल ही है.

आखिरकार हमें कोना मिल ही गया. रैस्टोरैंट के ऊपरी भाग में

कोने की खाली मेज जैसे हमारा ही इंतजार कर रही थी. यह कोना दिल को सुकून दे रहा था. चायनाश्ते का और्डर देने के बाद अनु सीधे मुद्दे पर आ गई. बोली, ‘‘और सुनाओ कैसी हो, जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है. आज इतना बड़ा मकाम, पति, बच्चे सब मनमाफिक मिल गए तुम्हें. मुझे बहुत खुशी है…’’

यह सुनते ही महक की आंखों में दर्द की लहर चुपके से आ कर गुजर गई व पलकों के कोर कुछ नम से हो गए. पर मुसकान का बनावटीपन कायम रखने की चेष्टा में चेहरे के मिश्रित हावभाव कुछ अनकही कहानी बयां कर रहे थे.

‘‘बस अनु सब ठीक है. अपने अकेलेपन से लड़ते हुए सफर को तय कर रही हूं, जीवन में बहुत उतारचढ़ाव देखें हैं. तुम तो खुश हो न? नौकरी करती हो, अच्छा काम कर रही हो, अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी रही हो… सबकुछ अपनी पसंद का मिला है और क्या

सुख चाहिए? मैं तो बस यों ही समय काटने के लिए लिखनेपढ़ने लगी, ‘‘मैं ने बात को घुमा कर उस का हाल जानने की कोशिश करनी चाही.

‘‘मैं भी बढि़या हूं. जीवन कट रहा है. मैं पहले भी अकेली थी, आज भी अकेली हूं. हम साथ जरूर हैं पर कितनी अलग राहें हैं जैसे नदी के 2 किनारे…

‘‘यथार्थ की पथरीली जमीन बहुत कठोर है. पर जीना पड़ता है… इसलिए मैं ने खुद को काम में डुबो दिया है…’’

‘‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बोल रही हो? तुम दोनों के बीच कुछ हुआ है क्या?’’

‘‘नहीं यार, पूरा जीवन बीत जाए तो भी हम एकदूसरे को समझ नहीं सकेंगे. कितने वैचारिक मतभेद हैं, शादी का चार्म, प्रेम पता नहीं कहां 1 साल में ही खत्म हो गया. अब पछतावा होता है. सच है, इंसान प्यार में अंधा हो जाता है.’’

‘‘हां, सही कहा, सब एक ही नाव पर सवार होते हैं पर परिवार के लिए जीना पड़ता है.’’

‘‘हां, तुम्हारी बात सही है, पर यह समझौते अंतहीन होते हैं, जिन्हें निभाने में जिंदगी का ही अंत हो जाता है. तुम्हें तो शायद कुदरत से यह सब मिला है पर मैं ने तो अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है. प्रेमविवाह जो किया है.

‘‘सब ने मना किया था कि यह शादी मत करो, पर आज समझ में आया कि मेरा फैसला गलत था. यार, विनय का व्यवहार समझ से परे है. रिश्ता टूटने की कगार पर है. उस के पास मेरे लिए समय ही नहीं है या फिर वह देना नहीं चाहता… याद नहीं कब दो पल सुकून से बैठे हों. हर बात में अलगाव वाली स्थिति होती है.’’

‘‘अनु, सब को मनचाहा जीवनसाथी नहीं मिलता. जिंदगी उतनी आसान नहीं होती, जितना हम सोचते हैं. सुख अपरिभाषित है. रिश्ते निभाना इतना भी आसान नहीं है. हर रिश्ता आप से समय व त्याग मांगता है. पति के लिए जैसे पत्नी उन की संपत्ति होती है जिस पर जितनी चाहे मरजी चला लो. हम पहले मातापिता की मरजी से जीते थे, अब पति की मरजी से जीते हैं. शादी समझौते का दूसरा नाम ही है, हां कभीकभी मुझे भी गुस्सा आता है तो मां से शिकायत करना सीख लिया है. अब दुख नहीं होता. तुम भी हौंसला रखो, सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘नहीं महक, अब उम्मीद बाकी नहीं है. शादी करो तो मुश्किल, न करो तो भी मुश्किल. सब को शादी ही अंतिम पड़ाव क्यों लगता है? मैं ने भी समझौता कर लिया है कि रोनेधोने से समस्या हल नहीं होती.

‘‘अनु, तुम्हारे पास तो पाक कला का हुनर है उसे और निखारो. अपने शौक पूरे करो. एक ही बिंदु पर खड़ी रहोगे तो घुटन होने लगेगी.

‘‘एक बात बताओ कि एक आदमी किसी के सुख का पैमाना कैसे हो सकता है? अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर असहमति होती है, यहां पर हर रिश्ता आग की दहलीज पर खड़ा होता है, हर कोई आप से संतुष्ट नहीं होता.’’

‘‘महक बात जो तुम्हारी सही है पर विवाह में कोई एक व्यक्ति, किसी दूसरे के जीने का मापदंड कैसे तय कर सकता है? समय बदल गया है, कानून में भी दंड का प्रावधान है. हमें अपने अधिकारों के लिए सजग रहना चाहिए. कब तक अपनी इच्छाओं का गला घोटें… यहां तो भावनाओं का भी रेप हो जाता है, जहां बिना अपनी मरजी के आप वेदना से गुजरते रहो और कोई इस की परवाह भी न करे.’’

‘‘अनु, जब विवाह किया है तो निभाना भी पड़ेगा. क्या हमें मातापिता, बच्चे,

पड़ोसी हमेशा मनचाहे ही मिलते हैं? क्या सब जगह आप तालमेल नहीं बैठाते? तो फिर पतिपत्नी के रिश्ते में वैचारिक मतभेद होना लाजिमी है. हाथ की सारी उंगलियां भी एकसमान नहीं होतीं, तो

2 लोग कैसे समान हो सकते हैं?

‘‘इन मैरिज रेप इज इनविजिबल, सो रिलैक्स ऐंड ऐंजौय. मुंह फुला कर रहने में कोई मजा नहीं है. दोनों पक्षों को थोड़ाथोड़ा झुकना पड़ता है. किसी ने कहा है न कि यह आग का दरिया है और डूब कर जाना है, तो विवाह में धूप व छांव के मोड़ मिलते रहते हैं.’’

‘‘हां, महक तुम शायद सही हो. कितना सहज सोचती हो. अब मुझे भी लगता है कि हमें फिर से एकदूसरे को मौका देना चाहिए. धूपछांव तो आतीजाती रहती है…’’

‘‘अनु देख यार, जब हम किसी को उस की कमी के साथ स्वीकार करते हैं तो पीड़ा का एहसास नहीं होता. सकारात्मक सोच कर अब आगे बढ़, परिवार को पूर्ण करो, यही जीवन है…’’

विषय किसी उत्कर्षनिष्कर्ष तक पहुंचता कि तभी वेटर आ गया और दोनों चुप हो गईं.

‘‘मैडम, आप को कुछ चाहिए?’’ कहने के साथ ही मेज पर रखे खाली कपप्लेटें समेटने लगा. उस के हावभाव से लग रहा था कि खाली बैठे ग्राहक जल्दी से अपनी जगह छोड़ें.

‘‘हम ने बातोंबातों में पहले ही चाय के कप पी कर खाली कर दिए.’’

‘‘हां, 2 कप कौफी के साथ बिल ले कर आना,’’ अनु ने कहा.

‘‘अनु, समय का भान नहीं हुआ कि 2 घंटे कैसे बीत गए. सच में गरमगरम कौफी की जरूरत महसूस हो रही है.’’

मन में यही भाव था कि काश वक्त हमारे लिए ठहर जाए. पर ऐसा होता नहीं है.

वर्षों बाद मिलीं सहेलियों के लिए बातों का बाजार खत्म करना भी मुश्किल भरा काम है. गरमगरम कौफी हलक में उतरने के बाद मस्तिष्क को राहत महसूस हो रही थी. मन की भड़ास विषय की गरमी, कौफी की गरम चुसकियों के साथ विलिन होने लगी. बातों का रूख बदल गया.

आज दोनों शांत मन से अदृश्य उदासी व पीड़ा के बंधन को मुक्त कर के चुपचाप यहीं छोड़ रही थीं.

मन में कड़वाहट का बीज जैसे मरने लगा. महक घर जाते हुए सोच रही थी कि प्रेमविवाह में भी मतभेद हो सकते हैं तो अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर इम्तिहान है. एकदूसरे को समझने में जीवन गुजर जाता है. हर दिन नया होता है. जब आशा नहीं रखेंगे तो वेदना नामक शराब से स्वत: मुक्ति मिल जाएगी.

अनु से बात कर के मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि हर शादीशुदा कपल परेशानी से गुजरता है. शादी के कुछ दिनों बाद जब प्यार का खुमार उतर जाता है तो धरातल की उबड़खाबड़ जमीन उन्हें चैन की नींद सोने नहीं देती है. फिर वहीं से शुरू हो जाता है आरोपप्रत्यारोपों का दौर. क्यों हम अपने हर सुखदुख की गारंटी अपने साथी को समझते हैं? हर पल मजाक उड़ाना व उन में खोट निकालना प्यार की परिभाषा को बदल देता है. जरा सा नजरिया बदलने की देर है.

सामाजिक बधन को क्यों हंस कर जिया जाए. पलों को गुनगुनाया जाए? एक पुरुष या एक स्त्री किसी के सुख की गारंटी कैसे बन सकते हैं? हां, सुख तलाश सकते हैं और बंधन निभाने में ही समझदारी है.

आज मैं ने भी अपने मन में जीवनसाथी के प्रति पल रही कसक को वहीं छोड़

दिया, तो मन का मौसम सुहाना लगने लगा. घर वापसी सुखद थी. शादी का बंधन मजबूरी नहीं प्यार का बंधन बन सकता है, बस सोच बदलने की देर है.

कुछ दिनों बाद अनु का फोन आया, ‘‘शुक्रिया महक, तुम्हारे कारण मेरा जीवन अब महकने लगा है. हम दोनों ने नई शुरुआत कर दी है. अब मेरे आंगन में बेला के फूल महक रहे हैं. सुख की गारंटी एकदूसरे के पास है.’’ दोनों खिलखिला कर हंसने लगीं.

Short Story: मेरे हिस्से की कोशिश

Short Story : ट्रेन अभी लुधियाना पहुंची नहीं थी और मेरा मन पहले ही घबराने लगा था. वहां मेरा घर है, वही घर जहां जाने को मेरा मन सदा मचलता रहता था. मेरा वह घर जहां मेरा अधिकार आज भी सुरक्षित है, किसी ने मेरा बुरा नहीं किया. जो भी हुआ है मेरी ही इच्छा से हुआ है. जहां सब मुझे बांहें पसारे प्यार से स्वीकार करना चाहते हैं और अब उसी घर में मैं जाने से घबराता हूं. ऐसा लगता है हर तरफ से हंसी की आवाज आती है. शर्म आने लगती है मुझे. ऐसा लगता है मां की नजरें हर तरफ से मुझे घूर रही हैं. मन में उमड़घुमड़ रहे झंझावातों में उलझा मैं अतीत में विचरण करने लगता हूं.

‘वाह बेटा, वाह, तेरे पापा को तो नई पत्नी मिल ही गई, वे मुझे भूल गए, पर क्या तुझे भी मां याद नहीं रही. कितनी आसानी से किसी अजनबी को मां कहने लगा है तू.’

‘ऐसा नहीं है मुन्ना कि तू मेरे पास आता है तो मुझे किसी तरह की तकलीफ होती है. बच्चे, मैं तेरी बूआ हूं. मेरा खून है तू. मेरे भैयाभाभी की निशानी है तू. तू घर नहीं जाएगा तो अपने पिता से और दूर हो जाएगा. बेटा, अपने पापा के बारे में तो सोच. उन के दिल पर क्या बीतती होगी जब तू लुधियाना आ कर भी अपने घर नहीं जाता. दादी की सोच, जो हर पल द्वार ही निहारती रहती हैं कि कब उन का पोता आएगा और…’

‘ये दादी न होतीं तो कितना अच्छा होता न… इतनी लंबी उम्र भी किस काम की. न इंसान मर सकता है और न ही पूरी तरह जी पाता है… हमारे ही साथ ऐसा क्यों हो गया बूआ?’

बूआ की गोद में छिप कर मैं जारजार रो पड़ा था. बुरा लगा होगा न बूआ को, उन की मां को कोस रहा था मैं. पिछले 10 साल से दादी अधरंग से ग्रस्त बिस्तर पर पड़ी हैं और मेरी मां चलतीफिरती, हंसतीखेलती दादी की दिनरात सेवा करतीं. एक दिन सोईं तो फिर उठी ही नहीं. हैरान रह गए थे हम सब. ऐसा कैसे हो सकता है, अभी तो सोई थीं और अभी…

‘अरे, यमराज रास्ता भूल गया. मुझे ले जाना था इसे क्यों ले गया… मेरा कफन चुरा लिया तू ने बेटी. बड़ी ईमानदार थी, फिर मेरे ही साथ बेईमानी कर दी.’

विलाप करकर के दादी थक गई थीं. मांगने से मौत मिल जाती तो दादी कब की इस संसार से जा चुकी होतीं. बस, यही तो नहीं होता न. अपने चाहे से मरा नहीं न जाता. मरने वाला छूट जाता है और जो पीछे रह जाते हैं वे तिलतिल कर मरते हैं क्योंकि अपनी इच्छा से मर तो पाते नहीं और मरने वाले के बिना जीना उन्हें आता ही नहीं.

‘इस होली पर जब आओ तो अपने ही घर जाना अनुज. भैया, मुझ से नाराज हो रहे थे कि मैं ही तुम्हें समझाती नहीं हूं. बेटे, अपने पापा का तो सोच. भाभी गईं, अब तू भी घर न जाएगा तो उन का क्या होगा?’

‘पिताजी का क्या? नई पत्नी और एक पलीपलाई बेटी मिल गई है न उन्हें.’

‘चुप रह, अनुज,’ बूआ बोलीं, ‘ज्यादा बकबक की तो एक दूंगी तेरे मुंह पर. क्या तू ने भैया को इस शादी के लिए नहीं मनाया था? हम सब तो तेरी शादी कर के बहू लाने की सोच रहे थे. तब तू ने ही समझाया था न कि मेरी शादी कर के समस्या हल नहीं होगी. कम उम्र की लड़की कैसे इतनी समस्याओं से जूझ पाएगी, हर पल की मरीज दादी का खानापीना और…’

‘हां, मुझे याद है बूआ, मैं नहीं कहता कि जो हुआ मेरी मरजी से नहीं हुआ. मैं ने ही पापा को मनाया था कि वे मेरी जगह अपनी शादी कर लें. विभा आंटी से भी मैं ने ही बात की थी. लेकिन अब बदले हालात में मैं यह सब सहन नहीं कर पा रहा हूं. घर जाता हूं तो हर कोने में मां की मौजूदगी का एहसास होने से बहुत तकलीफ होती है. जिस घर में मैं इकलौती संतान था अब एक 18-20 साल की लड़की जो मेरी कानूनी बहन है, वही अधिकारसंपन्न दिखाई देती है. दादी को नई बहू मिल गई, पापा को नई पत्नी और उस लड़की को पिता.’

‘यह तो सोचने की बात है न मुन्ना. तुझे भी तो एक बहन मिली है न. विभा को तू मां न कह लेकिन कोई रिश्ता तो उस से बांध ले. जितनी मुश्किल तेरे लिए है इस रिश्ते को स्वीकारने की उतनी ही मुश्किल उन के लिए भी है. वे भी कोशिश कर रहे हैं, तू भी तो कर. उस बच्ची के सिर पर हाथ रखेगा तभी तुझे  बड़प्पन का एहसास होगा. तू क्या समझता है उन दोनों के लिए आसान है एक टूटे घर में आ कर उस की किरचें समेटना, जहां कणकण में सिर्फ तेरी मां बसी हैं. तेरा घर तो वहीं है. उन मांबेटी के बारे में जरा सोच.

‘तुम चैन से दिल्ली में रह कर अगर अपनी नौकरी कर रहे हो तो इसीलिए कि विभा घर संभाल रही है. तुम्हारे पिता का खानापीना देखती है, दादी को संभालती है. क्या वह तुम्हारे घर की नौकरानी है, जिस का मानसम्मान करना तुम्हें भारी लग रहा है.

‘6 महीने हो गए हैं भाभी को मरे और इन 6 महीनों में क्या विभा ने कोई प्रयास नहीं किया तुम्हारे समीप आने का? वह फोन पर बात करना चाहती है तो तुम चुप रहते हो. घर आने को कहती है तो तुम घर नहीं जाते. अब क्या करे वह? उस का दोष क्या है. बोलो?’ बहुत नाराज थीं बूआ. किसी का भी कोई दोष नहीं है. मैं दोष किसे दूं. दोष तो समय का है, जिस ने मेरी मां को छीन लिया.

मैं निश्ंिचत हूं कि मेरे पिता का घर उजड़ कर फिर बस गया है और उस के लिए समूल प्रयास भी मेरा ही था. सब व्यवस्थित हैं. मेरे दोस्त विनय की विधवा चाची हैं विभा आंटी. हम दोनों के ही प्रयास से यह संभव हो पाया है.

मां तो एक ही होती है न, उन्हें मैं मां नहीं मान पा रहा हूं. और वह लड़की अणिमा, जो कल तक मेरे मित्र की चचेरी बहन थी अब मेरी भी बहन है. उम्र भर बहन के लिए मां से झगड़ा करता रहा, बहन का जन्म मां की मौत के बाद होगा, कब सोचा था मैं ने.

लुधियाना आ गया. ऐसा लग रहा था मानो गाड़ी का समूल भार पटरी पर नहीं मेरे मन पर है. एक अपराधबोध का बोझ. क्या सचमुच मैं ने अपनी मां के साथ अन्याय किया है? घर आ गया मैं. कांपते हाथ से मैं ने दरवाजे की घंटी बजा दी. मां की जगह कोई और होगी, इसी भाव से समूल चेतना सुन्न होने लगी.

‘‘आ गया मुन्ना…बेटा, आ जा.’’

दादी का स्वर कानों में पड़ा. दरवाजा खुला था. पापा भी नहीं थे घर पर. दादी अकेली थीं. दादी ने पास बिठा कर प्यार किया और देर तक रोते रहे हम.

‘‘बड़ा निर्मोही है रे मुन्ना. घर की याद नहीं आती.’’

अब क्या उत्तर दूं मैं. चारों तरफ नजर घुमा कर देखा.

‘‘दादी, कहां गए हैं सब. पापा कहां हैं?’’

‘‘अणिमा कहीं चली गई है. विभा और तेरा बाप उसे ढूंढ़ने गए हैं.’’

‘‘कहीं चली गई. क्या मतलब?’’

‘‘इस घर में उस का मन नहीं लगता,’’ दादी बोलीं, ‘‘तू भी तो आता नहीं. यह घर उजड़ गया है मुन्ना. खुशी तो सारी की सारी तेरी मां अपने साथ ले गई. मुझे भी तो मौत नहीं न आती. सभी घुटेघुटे जी रहे हैं. कोई भी तो खुश नहीं है न. इस तरह नहीं जिया जाता मुन्ना.’’

चारों तरफ एक उदासी सी नजर आई मुझे. उठ कर सारा घर देख आया. मेरा कमरा वैसा का वैसा ही था जैसा पहले था. जाहिर था कि इस कमरे में कोई नहीं रहता. पापा को फोन किया.

‘‘पापा, कहां हैं आप? मैं घर आया और आप कहां चले गए?’’

‘‘अणिमा अपने घर चली आई है मुन्ना. वह वापस आना ही नहीं चाहती. विनय भी यहीं है.’’

‘‘पापा, आप घर आइए. मैं वहां पहुंचता हूं. मैं बात करता हूं उस से.’’

घटनाक्रम इतनी जल्दी बदल जाएगा किस ने सोचा था. मैं जो खुद अपने घर आना नहीं चाहता अब अपने से 8 साल छोटी लड़की से पूछने जा रहा हूं कि वह घर क्यों नहीं आती? कैसी विडंबना है न, जिस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है उसी सवाल का जवाब उस से पूछने जा रहा हूं.  जब मैं विनय और अणिमा के पास पहुंचा तब तक पापा घर के लिए निकल चुके थे. विभा आंटी भी पापा के साथ लौट चुकी थीं. अणिमा वहां विनय के साथ थी.

‘‘वह घर मेरा नहीं है विनय भैया. देखा न मेरी मां उस आदमी के साथ चली भी गईं. मेरी चिंता नहीं है उन्हें. अनुज की मां तो उसे मर कर छोड़ गईं, मेरी मां तो मुझे जिंदा ही छोड़ गईं. अब मां मुझे प्यार नहीं करतीं. अनुज घर नहीं आता तो क्या मेरा दोष है? उस के कमरे में मत जाओ, उस की चीजों को मत छेड़ो, मेरा घर कहां है, विनय भैया. घर तो मेरी मां को मिला है न, मुझे नहीं. मेरे अपने पिता का घर है न यह. मैं यहीं रहूंगी अपने घर में. नहीं जाऊंगी वहां.’’

दरवाजे की ओट में बस खड़ा का खड़ा रह गया मैं. इस की पीड़ा मेरी ही तो पीड़ा है न. काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. किस शब्दकोष का सहारा ले कर इस लड़की को समझाऊं. गलत तो कहीं नहीं है न यह लड़की. सब को अपनी ही पीड़ा बड़ी लगती है. मैं सोच रहा था मेरा घर कहीं नहीं रहा और यह लड़की अणिमा भी तो सही कह रही है न.

‘‘आसान नहीं है पराए घर में जा कर रहना. वह उन का घर है, मेरा नहीं. मैं यहां रहूं तो अनुज के पापा को क्या समस्या है?’’

‘‘तुम अकेली कैसे रह सकती हो यहां?’’

‘‘क्यों नहीं रह सकती. यह मेरा कमरा है. यह मेरा सामान है.’’

‘‘वह घर भी तुम्हारा ही है, अणिमा.’’

विनय अपनी चचेरी बहन अणिमा को समझा रहा था और वह समझना नहीं चाह रही थी. जैसे किसी और में मां को देखना मेरे लिए मुश्किल है उसी तरह मेरे पिता को अपना पिता बना लेना इस के लिए भी आसान नहीं हो सकता. भारी कदमों से सामने चला आया मैं. कुछ कहतीकहती रुक गई अणिमा. कितनी बदलीबदली सी लग रही है वह. चेहरे की मासूमियत अब कहीं है ही नहीं. हालात इंसान को समय से पहले ही बड़ा बना देते हैं न. उस की सूजीसूजी आंखें बता रही हैं कि वह बहुत देर से रो रही है. मैं घर नहीं आता हूं तो क्या उस का गुस्सा पापा और दादी इस बच्ची पर उतारते हैं? ठीक ही तो किया इस ने जो घर ही छोड़ कर आ गई. इस की जगह मैं होता तो मैं भी यही करता. ‘‘ओह, आ गए तुम भी.’’

दांत पीस कर कहा अणिमा ने. मेरे लिए उस के मन में उमड़ताघुमड़ता जहर जबान पर न आ जाए तो क्या करे.

इस रिश्ते में तो कुछ भी सामान्य नहीं है. इस रिश्ते को बचाने के लिए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. अणिमा मेरी बहन नहीं थी लेकिन इसे अपनी बहन मानना पड़ेगा मुझे. स्नेह दे कर अपना बनाना होगा मुझे. यही मेरी न हो पाई तो विभा आंटी भी मेरी मां कभी नहीं बन सकेंगी. कब तक वे भी इस घर और उस घर में सेतु का काम कर पाएंगी. पास आ कर अणिमा के सिर पर हाथ रखा मैं ने. झरझर बह चली उस की आंखें जैसे पूछ रही हों मुझ से, ‘अब और क्या करूं मैं?’

‘‘मैं राखी पर नहीं आया, वह मेरी भूल थी. अब आया हूं तो क्या तुम यहां छिपी रहोगी. तिलक नहीं लगाओगी मुझे?’’

विनय भीगी आंखों से मुझे देख रहा था, मानो कह रहा हो जहां तक उसे करना था उस ने किया, इस से आगे तो जो करना है मुझे ही करना है.  अणिमा को अपनी छाती से लगा लिया तो नन्ही सी बालिका की तरह जारजार रो पड़ी वह. उस की भावभंगिमा समझ पा रहा था मैं. अपने हिस्से की कोशिश तो वह कर चुकी है. अब बाकी तो मेरे हिस्से की कोशिश है.

‘‘अपने घर चलो, अणिमा. यह घर भी तुम्हारा है, पगली. लेकिन उस घर में हमें तुम्हारी ज्यादा जरूरत है. मैं तुम सब से दूर रहा वह मेरी गलती थी. अब आया हूं तो तुम तो दूर मत रहो.  ‘‘मां से सदा बहन मांगा करता था. कुछ खो कर कुछ पाना ही शायद मेरे हिस्से में लिखा था इस तरह. तो इसी तरह ही सही, अणिमा के आंसू पोंछ मैं ने उस का मस्तक चूम लिया. जिस ममत्व से वह मेरे गले लगी थी उस से यह आभास पूर्ण रूप से हो रहा था मुझे कि देर हुई है तो मेरी ही तरफ से हुई है. अणिमा तो शायद पहले ही दिन से मुझे अपना मान चुकी थी.

Hindi Story : विजया – आखिर जया ने विजया को क्यों धोखा दिया

Hindi Story, लेखक- रामाश्रय प्रसाद वर्णवाल

विजयकी समझ में नहीं आ रहा था कि  जया ने उस के साथ ऐसा क्यों किया? इतना बड़ा धोखा, इतनी गलत सोच, इतना बड़ा विश्वासघात, कोई कैसे कर सकता है? क्या दुनिया से इंसानियत और विश्वास जैसी चीजें बिलकुल उठ चुकी हैं? वह जितना सोचता उतना ही उलझ कर रह जाता. जया से विजय की मुलाकात लगभग 2 वर्ष पूर्व हुई थी. एक व्यावसायिक सेमिनार में, जोकि स्थानीय व्यापार संघ द्वारा बुलाया गया था. जया अपनी कंपनी का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जबकि विजय खुद की कंपनी का, जिस का वह मालिक था और जिसे वह 5 वर्षों से चला रहा था. विजय की कंपनी यद्यपि छोटी थी, लेकिन अपने परिश्रम से उस ने थोड़े समय में ही एक अच्छा मुकाम हासिल कर लिया था और स्थानीय व्यापारी समुदाय में उस की अच्छी प्रतिष्ठा थी, जबकि जया एक प्रतिष्ठित कंपनी में सहायक मैनेजिंग डाइरैक्टर के पद पर थी. जया का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि विजय उस के प्रति आकर्षित होता चला गया. उस के बाद दोनों अकसर एकदूसरे से मिलने लगे.

इसे संयोग ही कहा जाए कि अभी तक दोनों अविवाहित थे और उन के जीवन में किसी और का पदार्पण नहीं हुआ था. जया के पिता का देहांत उस के बचपन में ही हो गया था और उस के बाद उस की मां ने ही उसे पालपोस कर बड़ा किया था और ऐसे संस्कार दिए जिन से बचपन से ही अपनी पढ़ाई के अतिरिक्त किसी अन्य चीज की ओर उस का ध्यान नहीं गया. उस ने देश के एक बड़े संस्थान से मैनेजमैंट की डिगरी हासिल की और उस के बाद एक अच्छी कंपनी में उसे जौब मिल गई. जया अपने परिश्रम, लगन और योग्यता के द्वारा वह उसी कंपनी में सहायक मैनेजिंग डाइरैक्टर के रूप में कार्यरत थी.

बढ़ती उम्र के साथ जया की मां को उस की शादी की चिंता सताने लगी थी,

परंतु जया ने इस दिशा में ज्यादा नहीं सोचा था या यों कहें कि कार्य की व्यस्तता में ज्यादा सोचने का अवसर ही नहीं मिला. अपने कार्य में इतना मशगूल थी कि उस ने कभी इस बात की चिंता नहीं की और शायद यही उस की सफलता का राज भी था. ऐसा नहीं था कि किसी ने उस से मिलने या निकट आने की कोशिश नहीं की हो, लेकिन जया ने किसी भी को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया. वह एक आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी, उस से जो भी मिलता उस के निकट आने का प्रयास करता, परंतु जया हमेशा एक दूरी बना कर रखती.

दूसरी ओर विजय एक अच्छे और संपन्न परिवार से संबंध रखता था. उस के पिता एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे. एक ऐक्सीडैंट में उस ने अपने मातापिता दोनों को खो दिया था. एक छोटी बहन है जो अभी कालेज में पढ़ रही है. विजय एक हंसमुख स्वभाव का, लेकिन गंभीर युवक था. पिता के देहांत के बाद उस ने खुद की अपनी कंपनी बनाई जिस का वह खुद सर्वेसर्वा था. कई लड़कियों ने उस से निकटता स्थापित करने की कोशिश की, परंतु वह अपनी कंपनी के काम में इतना व्यस्त रहता था कि किसी को अवसर ही नहीं मिला. कोई दोस्त या रिश्तेदार उस से शादी की बात करना भी चाहता तो उस का छोटा सा उत्तर होता कि पहले बहन रमा की शादी, फिर अपने बारे में सोचूंगा.

विजय और जया पहली मुलाकात के बाद अकसर मिलने लगे थे और उन्हें अंदरहीअंदर यह एहसास होने लगा था कि वे एकदूसरे की दोस्ती को शादी के बंधन में बदल देंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था. दोनों प्राय: एक ही रैस्टोरैंट में नियत समय पर मिलते थे.

लगभग 1 वर्ष पूर्व की बात है. एक दिन जब जया मिलने आई तो वह कुछ परेशान सी लग रही थी. दोनों की निकटता कुछ ऐसी थी कि विजय को समझते देर नहीं लगी. उस ने जानने का प्रयास किया, लेकिन जया ने कुछ बताया नहीं. विजय से जया की उदासी देखी नहीं जा रही थी. बहुत दबाव देने पर जया ने बताया कि वह नई कंपनी खोलने की सोच रही थी. कुछ रुपए उस के पास थे और लगभग 20 लाख रुपए कम पड़ रहे थे.

जया ने बताया कि उस ने बैंक से लोन लेने का प्रयास किया, परंतु बिना सिक्यूरिटी के बैंक ने लोन देने से मना कर दिया था. विजय ने उस की परेशानी जान कर यह सलाह दी कि जो रुपए कम पड़ रहे हैं, उन्हें वह विजय से ले ले, परंतु जया तैयार नहीं हो रही थी. विजय के बहुत समझाने और जोर देने पर कि वह उधार समझ कर ले ले और बाद में ब्याज सहित लौटा दे. इस बात पर जया मान गई और विजय ने उसे 20 लाख रुपए दे दिए.

वास्तविक परेशानी तो रुपए लेने के बाद शुरू हुई. रुपए लेने के बाद जया अपनी कंपनी के काम में लग गई. दोनों का मिलनाजुलना भी थोड़ा कम हो गया. कई दिन बाद भी जब जया मिलने नहीं आई तो विजय ने उसे फोन लगाया, परंतु उस का मोबाइल बंद था. विजय ने सोचा शायद वह अपने काम में ज्यादा व्यस्त होगी, क्योंकि नईर् कंपनी खोलना और उसे चलाना आसान काम नहीं था, विजय को इस चीज का अनुभव था. उस ने 2-3 दिन बाद पुन: जया को फोन करने का प्रयास किया, परंतु उस का फोन बंद ही मिला. उस ने जया की कंपनी में संपर्क किया तो पता चला कि वह कंपनी से त्यागपत्र दे कर वहां से जा चुकी है. कहां गई, यह किसी को नहीं पता.

विजय जब जया के घर गया तो पड़ोसियों ने बतया कि वह किसी और शहर में चली गई है, लेकिन कहां किसी को नहीं मालूम था. किराए का मकान था, अत: किसी ने ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था.

विजय बहुत दुखी था. उसे रुपयों की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी जया की. उसे जया से इस व्यवहार की उम्मीद बिलकुल नहीं थी. जितना भी वह जया के विषय में सोचता, उतना ही बेचैन और दुखी हो जाता. दिन बीतते रहे और उस की बेचैनी बढ़ती गई. इसी बेचैनी में वह शराब भी पीने लगा था. व्यापार अलग से खराब हो रहा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह जया को कहां ढूंढ़े.

लेकिन विजय का व्यक्तित्व इतना कमजोर भी नहीं था कि वह टूट जाए. उस ने फिर से अपने व्यवसाय पर ध्यान देना शुरू किया और उसे पुन: वापस पटरी पर ले आया. परंतु शराब की लत उसे पड़ चुकी थी और वह रोज शाम को उसी रैस्टोरैंट में पहुंच जाता. जया को भूलना उस के लिए मुश्किल था. वह रोज शाम को शराब पीता और घर जाता. उस की छोटी बहन रमा उस से पूछती, परंतु वह कोई उचित जवाब नहीं दे पाता. रमा भी कई बार जया से मिल चुकी थी, बल्कि उस ने तो जया को मन ही मन अपनी होने वाली भाभी के रूप में स्वीकार भी कर लिया था.

रमा को जया स्वभाव से अच्छी लगी थी. उसे भी जया से ऐसे व्यवहार की कतई उम्मीद नहीं थी. उस ने कई बार भाई को समझाने की कोशिश भी की. उस ने कहा भी कि जया की जरूर कोई मजबूरी होगी, किंतु विजय पर कोई असर नहीं पड़ा.

इस बात को लगभग 1 वर्ष हो चुका था, परंतु विजय की दिनचर्या नहीं बदली. वह अभी भी रोज शाम को उस रैस्टोरैंट में जरूर जाता, जैसे उसे लगता कि आज जया कहीं से वहां आ जाएगी.

एक दिन वह जब अंदर बैठ कर रोज की भांति कुछ खापी रहा था, तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि जया उस रैस्टोरैट के द्वार पर खड़ी हो. वह तुरंत उठा और बाहर निकला. उस ने इधरउधर देखा, परंतु जया उसे कहीं नहीं दिखी. परेशान हो कर वापस लौटा और बाहर खड़े गार्ड से पूछा, ‘‘क्या कोई मैडम यहां आई थी?’’

गार्ड ने बताया, ‘‘एक मैडम टैक्सी रुकवा कर अंदर आई और फिर तुरंत बाहर निकल कर उसी टैक्सी से चली गई.’’

विजय सोच में पड़ गया कि अगर वह जया थी तो क्या करने आई थी और क्यों उस से बिना मिले, बिना कुछ कहे चली गई? गार्ड ने यह भी बताया था कि मैडम उस के बारे में पूछ रही थी कि क्या साहब रोज शाम को यहां आते हैं? गार्ड की बात सुन कर विजय ने अनुमान लगा लिया था कि वह निश्चित रूप से जया ही थी.

उस की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जया वहां क्या करने आई थी, शायद यह देखने आई थी कि मैं जिंदा भी हूं या नहीं. उस का मन कड़वाहट से भर गया, उस के मुंह से निकला कि विश्वासघाती, धोखाबाज. यह सामान्य मानव स्वभाव है कि जब वह किसी के बारे में जैसा सोचता है, उस के संबंध में वैसी ही धारणा भी बन जाती है.

यही सब सोचते हुए वह घर पहुंच गया. प्राय: वह बाहर से शराब पी कर ही घर लौटता था, रमा उसे खाना दे कर चुपचाप अपने रूम में चली जाती थी. मगर आज रमा ने विजय को कुछ अधिक ही परेशान देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है भैया, आप इतने परेशान क्यों हो?’’

न चाहते हुए भी विजय ने गुस्से में जया को बुराभला कहते हुए सारी बात रमा को बता दी.

उस की बात और गुस्से को देख कर रमा सिर्फ इतना ही बोली, ‘‘भैया, जया भाभी ऐसी नहीं है… जरूर कोई मजबूरी होगी.’’

‘‘मत कहो उसे भाभी, उस के लिए मेरे मन में कोई जगह नहीं है,’’ विजय गुस्से से बोला. फिर कुछ सोच कर उस ने जया को फोन लगाया. उस का मोबाइल आज बंद नहीं था, परंतु जया ने फोन उठाया नहीं. विजय ने कई बार किया, परंतु उस ने फोन उठाया नहीं. विजय गहरी सोच में डूब गया.

अगले दिन पुन: अपनी रोज की तरह वह फिर उसी रैस्टोरैंट में जाने को तैयार था. आज तो वह अपने औफिस भी नहीं गया था, जब वह घर से निकलने लगा तो रमा भी साथ चलने की जिद करने लगी, परंतु उस ने मना कर दिया, भला वह उस के सामने कैसे शराब पी सकता था. पता नहीं रोज शाम को उस के कदम स्वत: ही उस रैस्टोरैंट की ओर उठ जाते और वह यंत्रचालित सा वहां पहुंच जाता.

रैस्टोरैंट पहुंच कर वह अपनी निर्धारित टेबल पर पहुंचा ही कि सुखद आश्चर्य से भर उठा, क्योंकि वहां पहले से ही सामने वाली कुरसी पर जया विराजमान थी. खुशी, दुख, अवसाद, घृणा और आश्चर्य जैसी भावनाएं जब एकसाथ किसी मनुष्य के अंदर उत्पन्न होती हैं तो सहसा वह कुछ भी नहीं बोल पाता. बस वह जया को एकटक घूरे जा रहा था. उस ने महसूस किया कि जया पहले से थोड़ी कमजोर हो गई है, परंतु उस की सुंदरता, चेहरे के आकर्षण और व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं आई थी.

जया ने ही पहल की, ‘‘कैसे हो विजय?’’

विजय कुछ नहीं बोल पाया. इस बीच वेटर रोज की तरह विजय का खानेपीने का सामान ला कर रख गया था, जिसे देख कर जया बोली, ‘‘सुनो, इसे हटाओ और 2 कोल्ड ड्रिंक ले कर आओ और सुनो आज से ये सब बंद.’’

वेटर चुपचाप सब उठा कर ले गया. विजय अभी भी भरीभरी आंखों से जया को घूरे जा रहा था.

जया ही फिर बोली, ‘‘कुछ तो बोलो विजय, कैसे हो.’’

विजय अब भी चुप ही था.

‘‘अच्छा पहले यह अपनी अमानत वापस ले लो, पूरे 20 लाख ही हैं,’’ और एक बैग विजय की ओर बढ़ा दिया.

‘‘रुपए किस ने मांग थे?’’ विजय भर्राए गले से बोला, ‘‘तुम इतने दिन कहां थीं, कैसी थीं?’’ वह इतना ही बोल पाया.

‘‘विजय,’’ जया एक गहरी सांस भर कर बोली. उस के चेहरे पर दर्द की वेदना साफ दिखाई पड़ रही थी,’’ सुनो विजय मैं तुम्हारी अपराधी अवश्य हूं, परंतु मैं ने आज तक किसी को कुछ नहीं बताया कि मैं कहां थी, क्यों थी?’’

जया थोड़ी देर के लिए रुकी, फिर बोलना शुरू किया, ‘‘वास्तव में मुझे तुम्हें पहले ही बता देना चाहिए था, लेकिन तुम से रुपए लेने के बाद मैं इस स्थिति में नहीं थी कि तुम से कुछ कहूं. तुम से पैसे लेने के बाद मैं ने अपनी कंपनी का काम शुरू किया, काम अभी प्रारंभिक अवस्था में ही था कि अचानक मां की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई. मैं कंपनी का काम भी ठीक से नहीं कर पा रही थी. अंत में मुझे कंपनी का काम बीच में ही छोड़ना पड़ा. मां के इलाज में तुम से लिए रुपए और मेरे खुद के रुपए खर्च हो गए, काफी रुपए नई कंपनी के प्रयास में पहले ही खर्च हो चुके थे, परंतु खुशी सिर्फ इस बात की है कि मैं ने मां को बचा लिया.’’

विजय बोला, ‘‘तुम इतनी परेशान थीं, तो तुम ने मुझे क्यों याद नहीं किया? क्या तुम मुझे अपना नहीं समझती हो या तुम्हें मेरी याद ही नहीं आई? मांजी तो अब ठीक हैं न?’’

जया बोली, ‘‘हां अब ठीक हैं और रही तुम्हारी याद आने की बात, तो याद नहीं आती तो मैं आज यहां क्यों होती. रुपए खत्म हो रहे थे, परंतु जिंदगी तो चलानी ही थी. मैं ने यहां से दूर दूसरे बड़े शहर में नौकरी के लिए आवेदन किया. मेरे पुराने रिकौर्ड को देख कर मुझे नई कंपनी में सहायक डाइरैक्टर की जौब मिल गई. लगभग 1 वर्ष के कठिन परिश्रम के द्वारा ये रुपए एकत्र करने के बाद मैं तुम से मिलने का साहस जुटा पाई हूं. इन के बिना मेरा जमीर तुम से मिलने की इजाजत नहीं दे रहा था.’’

‘‘जया तुम ने इतना कुछ अकेले क्यों सहा? क्या तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं था या तुम मुझे अपना ही नहीं समझती हो?’’ विजय का गला भर्रा गया था और उस ने जया का हाथ थाम लिया था.

जया की आंखें भी भर आई थीं. बोली, ‘‘अपना न समझती तो यहां होती?’’

तभी विजय बोला, ‘‘अच्छा बताओ मांजी कहां हैं?’’

‘‘मैं यहीं एक होटल में मांजी के साथ रुकी हूं,’’ जया ने जवाब दिया, ‘‘थोड़ी कमजोर हैं, लेकिन अब स्वस्थ हैं.’’

‘‘बताओ घर होते हुए भी मांजी को होटल में रखा है. बताओ यह कहां का अपनापन है?’’ विजय उलाहना भरे स्वर में बोला.

‘‘कुछ सोच कर मैं ने तुम्हें नहीं बताया… मन में बहुत सारी उलझनें थीं,’’ जया मुसकरा कर बोली.

‘‘क्या उलझनें थीं? शायद तुम सोच रही थीं कि अगर मैं ने शादी कर ली होगी तो? अगर तुम नहीं मिलतीं तो मैं ने सोच लिया था कि मैं शादी ही नहीं करूंगा,’’ विजय बोला.

‘‘मुझे माफ कर दो विजय, मैं तुम्हारी गुनहगार हूं, मैं ने तुम्हें बहुत कष्ट पहुंचाया है,’’ कह कर जया ने विजय के कंधे पर अपना सिर रख दिया.

विजय ने धीरे से उस का सिर सहलाया, दोनों की आंखें भर आई थीं. कुछ

देर मूर्तिवत खड़े रहे. फिर अचानक विजय ने जया को अलग किया, ‘‘अरे, यह तो बताओ कि मेरी अमानत तो वापस ले आई हो, परंतु उस का ब्याज कौन देगा?’’

‘‘अरे भैया ब्याज में तो भाभी खुद आ गई हैं,’’ अचानक रमा की आवाज सुन कर दोनों चौंक पड़े. पता नहीं कब वह भी वहां आ गई थी. दोनों एकदूसरे से बातचीत में इस कदर खोए हुए थे कि उन का ध्यान उधर गया ही नहीं.

जया ने आगे बढ़ कर रमा को गले लगा लिया.

‘‘अच्छा जया बहुत हुआ, अब तुम अपने घर चलो, अब तुम्हें नौकरी के लिए कहीं नहीं जाना. पहले हम लोग होटल चलेंगे… मांजी को साथ लाएंगे, फिर घर तुम्हारा, कंपनी तुम्हारी और यह परिवार हमारा,’’ विजय बोला.

विजय की बात सुन कर तीनों हंस पड़े और फिर रमा की खुशियों से परिपूर्ण आवाज गूंज उठी, ‘‘आज से विजय भैया और जया भाभी अलग नहीं रहेंगे, अब दोनों साथसाथ विजया बन कर रहेंगे, क्यों भाभी है न?’’

रमा की बात पर तीनों हंस पड़े. ‘‘रैस्टोरैंट पहुंच कर वह अपनी निर्धारित टेबल पर पहुंचा ही कि सुखद आश्चर्य से भर उठा, क्योंकि वहां पहले से ही सामने वाली कुरसी पर जया बैठी थी…’’

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